Best Hindi Story: तब और अब – रमेश की नियुक्ति क्यों गलत समय पर हुई थी?

Best Hindi Story: पिछले कई दिनों से मैं सुन रहा था कि हमारे नए निदेशक शीघ्र ही आने वाले हैं. उन की नियुक्ति के आदेश जारी हो गए थे. जब उन आदेशों की एक प्रतिलिपि मेरे पास आई और मैं ने नए निदेशक महोदय का नाम पढ़ा तो अनायास मेरे पांव के नीचे की जमीन मुझे धंसती सी लगी थी.

‘श्री रमेश कुमार.’

इस नाम के साथ बड़ी अप्रिय स्मृतियां जुड़ी हुई थीं. पर क्या ये वही सज्जन हैं? मैं सोचता रहा था और यह कामना करता रहा था कि ये वह न हों. पर यदि वही हुए तो…मैं सोचता और सिहर जाता. पर आज सुबह रमेश साहब ने अपने नए पद का भार ग्रहण कर लिया था. वे पूरे कार्यालय का चक्कर लगा कर अंत में मेरे कमरे में आए. मुझे देखा, पलभर को ठिठके और फिर उन की आंखों में परिचय के दीप जगमगा उठे.

‘‘कहिए सुधीर बाबू, कैसे हैं?’’ उन्होंने मुसकरा कर कहा.

‘‘नमस्कार साहब, आइए,’’ मैं ने चकित हो कर कहा. 10 वर्षों के अंतराल में कितना परिवर्तन आ गया था उन में. व्यक्तित्व कैसा निखर गया था. सांवले रंग में सलोनापन आ गया था. बाल रूखे और गरदन तक कलमें. कत्थई चारखाने का नया कोट. आंखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा लग गया था. सकपकाहट के कारण मैं बैठा ही रह गया.

‘‘तुम अभी तक सैक्शन औफिसर ही हो?’’ कुछ क्षण मौन रहने के बाद उन्होंने प्रश्न किया. क्या सचमुच उन के इस प्रश्न में सहानुभूति थी अथवा बदला लेने की अव्यक्त, अपरोक्ष चेतावनी, ‘तो तुम अभी तक सैक्शन औफिसर हो, बच्चू, अब मैं आ गया हूं और देखता हूं, तुम कैसे तरक्की करते हो?’

‘‘सुधीर बाबू, तुम अधिकारी के सामने बैठे हो,’’ निदेशक महोदय के साथ आए प्रशासन अधिकारी के चेतावनीभरे स्वर को सुन कर मैं हड़बड़ा कर खड़ा हो गया. मन भी कैसा विचित्र होता है. चाहे परिस्थितियां बदल जाएं पर अवचेतन मन की सारी व्यवस्था यों ही बनी रहती है. एक समय था जब मैं कुरसी पर बैठा रहता था और रमेश साहब याचक की तरह मेरे सामने खड़े रहते थे.

‘‘कोई बात नहीं, सुधीर बाबू, बैठ जाइए,’’ कह कर वे चले गए. जातेजाते वे एक ऐसी दृष्टि मुझ पर डाल गए थे जिस के सौसौ अर्थ निकल सकते थे.

मैं चिंतित, उद्विग्न और उदास सा बैठा रहा. मेरे सामने मेज पर फाइलों का ढेर लगा था. फोन बजता और बंद हो जाता. पर मैं तो जैसे चेतनाशून्य सा बैठा सोच रहा था. मेरी अस्तित्वरक्षा अब असंभव है. रमेश यों छोड़ने वाला नहीं. इंसान सबकुछ भूल सकता है, पर अपमान के घाव पुर कर भी सदैव टीसते रहते हैं.

पर रमेश मेरे साथ क्या करेगा? शायद मेरा तबादला कर दे. मैं इस के लिए तैयार हूं. यहां तक तो ठीक ही है. इस के अलावा वह प्रत्यक्षरूप से मुझे और कोई हानि नहीं पहुंचा सकता था.

रमेश की नियुक्ति बड़े ही गलत समय पर हुई थी, इस वर्ष मेरी तरक्की होने वाली थी. निदेशक महोदय की विशेष गोपनीय रिपोर्ट पर ही मेरी पदोन्नति निर्भर करती थी. क्या उन अप्रिय घटनाओं के बाद भी रमेश मेरे बारे में अच्छी रिपोर्ट देगा? नहीं, यह असंभव है. मेरा मन बुझ गया. दफ्तर का काम करना मेरे लिए असंभव था. सो, मैं ने तबीयत खराब होने का कारण लिख कर, 2 दिनों की छुट्टी के लिए प्रार्थनापत्र निदेशक महोदय के पास पहुंचवा दिया. 2 दिन घर पर आराम कर के मैं अपनी अगली योजना को अंतिम रूप देना चाहता था. यह तो लगभग निश्चित ही था कि रमेश के अधीन इस कार्यालय में काम करना अपने भविष्य और अपनी सेवा को चौपट करना था. उस जैसा सिद्घांतहीन, झूठा और बेईमान व्यक्ति किसी की खुशहाली और पदोन्नति का माध्यम नहीं बन सकता. और फिर मैं? मुझ से तो उसे बदले चुकाने थे.

मुझे अच्छी तरह याद है. जब आईएएस का रिजल्ट आया था और रमेश का नाम उस में देखा तो मुझे खुशी हुई थी, पर साथ ही, मैं थोड़ा भयभीत हो गया था. रमेश ने पार्टी दी थी पर उस ने मुझे निमंत्रित नहीं किया था. मसूरी अकादमी में प्रशिक्षण के लिए जाते वक्त रमेश मेरे पास आया था. और वितृष्णाभरे स्वर में बोला था, ‘सुधीर, मेरी बस एक ही इच्छा है. किसी तरह मैं तुम्हारा अधिकारी बन कर आ जाऊं. फिर देखना, तुम्हारी कैसी रगड़ाई करता हूं. तुम जिंदगीभर याद रखोगे.’

कैसा था वह क्षण. 10 वर्षों बाद आखिर उस की कामना पूरी हो गई. यों, इस में कोई असंभव बात भी नहीं थी. रमेश मेरा अधिकारी बन कर आ गया था. जीवन में परिश्रम, लगन तथा एकजुट हो कर कुछ करना चाहो तो असंभव भी संभव हो सकता है, रमेश इस की जीतीजागती मिसाल था. वर्ष 1960 में रमेश इस संस्थान में क्लर्क बन कर आया था. मैं उस का अधिकारी था तथा वह मेरा अधीनस्थ कर्मचारी. रोजगार कार्यालय के माध्यम से उस की भरती हुई थी. मैं ने एक ही निगाह में भांप लिया कि यह नवयुवक योग्य है, किंतु कामचोर है. वह महत्त्वाकांओं की पूर्ति के लिए कुछ भी कर सकता है. वह स्नातक था और टाइपिंग में दक्ष. फिर भी वह दफ्तर के काम करने से कतराता था. मैं समझ गया कि यह व्यक्ति केवल क्लर्क नहीं बना रहेगा. सो, शुरू से ही मेरे और उस के बीच एक खाई उत्पन्न हो गई.

मैं अनुशासनपसंद कर्मचारी था, जिस ने क्लर्क से सेवा प्रारंभ कर के विभागीय पदोन्नतियों की विभिन्न सीढि़यां पार की थीं. कोई प्रतियोगी परीक्षा नहीं दी थी.पर रमेश अपने भविष्य की सफलताओं के प्रति इतना आश्वस्त था कि उस ने एक दिन भी मेरी अफसरियत को नहीं स्वीकारा था. वह अकसर दफ्तर देर से आता. मैं उसे टोकता तो वह स्पष्टरूप से तो कुछ नहीं कहता, किंतु अपना क्रोध अपरोक्षरूप  से व्यक्त कर देता. काम नहीं करता या फिर गलत टाइप करता, सीट पर बैठा मोटीमोटी किताबें पढ़ता रहता. खाने की छुट्टी आधे घंटे की होती तो वह 2 घंटे के लिए गायब हो जाता. मैं उस से बहुत नाराज था. पर शायद उसे मेरी चिंता नहीं थी. सो, वह मनमानी किए जाता. उस ने मुझे कभी भी गंभीरता से नहीं लिया.

एक दिन मैं ने दफ्तर के बाद रमेश को रोक लिया. सब लोग चले गए. केवल हम दोनों रह गए. मैं ने सोचा था कि मैं उसे एकांत में समझाऊंगा. शायद उस की समझ में आ जाए कि काम कितना अहम होता है. ‘रमेश, आखिर तुम यह सब क्यों करते हो?’ मैं ने स्नेहसिक्त, संयत स्वर में कहा था. ‘क्या करता हूं?’ उस ने उखड़ कर कहा था.

‘तुम दफ्तर देर से आते हो.’

‘आप को पता है, दिल्ली की बस व्यवस्था कितनी गंदी है.’

‘और लोग भी तो हैं जो वक्त से पहुंच जाते हैं.’

‘उस से क्या होता है. अगर मैं देर से आता हूं तो

2 घंटे का काम आधे घंटे में निबटा भी तो देता हूं.’

‘रमेश दफ्तर का अनुशासन भी कुछ होता है. यह कोई तर्क नहीं है. फिर, मैं तुम से सहमत नहीं कि तुम 2 घंटे का काम…’

‘मुझे बहस करने की आदत नहीं,’ कह कर वह अचानक उठा और कमरे से बाहर चला गया. मैं अपमानित सा, तिलमिला कर रह गया. रमेश के व्यवहार में कोई विशेष अंतर नहीं आया. अब वह खुलेआम दफ्तर में मोटीमोटी किताबें पढ़ता रहता था. काम की उसे कोई चिंता नहीं थी.एक दिन मैं ने उसे फिर समझाया, ‘रमेश, तुम दफ्तर के समय में किताबें मत पढ़ा करो.’

‘क्यों?’

‘इसलिए, कि यह गलत है. तुम्हारा काम अधूरा रहता है और अन्य कर्मचारियों पर बुरा असर पड़ता है.’

‘सुधीर बाबू, मैं आप को एक सूचना देना चाहता हूं.’

‘वह क्या?’

‘मैं इस वर्ष आईएएस की परीक्षा दे रहा हूं.’

‘तो क्या तुम्हारी उम्र 24 वर्ष से कम है?’

‘हां, और विभागीय नियमों के अनुसार मैं इस परीक्षा में बैठ सकता हूं.’

‘फिर तुम ने यह नौकरी क्यों की? घर बैठ कर…’

‘आप की दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में टांग अड़ाने की बुरी आदत है,’ उस ने कह तो दिया फिर पलभर सोचने के बाद वह बोला, ‘सुधीर बाबू, यों आप ठीक कह रहे हैं. मजा तो तभी है जब एकाग्रचित्त हो यह परीक्षा दी जाए. पर क्या करूं, घर की आर्थिक परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया.’

‘पर रमेश, यह बौद्धिक तथा नैतिक बेईमानी है. तुम इस कार्यालय में नौकरी करते हो. तुम्हें वेतन मिलता है. किंतु उस के प्रतिरूप उतना काम नहीं करते. तुम अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगे हुए हो.’

‘जितने भी डिपार्टमैंटल खूसट मिलते हैं, सब को भाषण देने की बीमारी होती है.’

मैं ने तिलमिला कर कहा था, ‘रमेश, तुम में बिलकुल तमीज नहीं है.’

‘आप सिखा दीजिए न,’ उस ने मुसकरा कर कहा था.

मेरी क्रोधाग्नि में जैसे घी पड़ गया. ‘मैं तुम्हें निकाल दूंगा.’

‘यही तो आप नहीं कर सकते.’

‘तुम मुझे उकसा रहे हो.’

‘सुधीर बाबू, सरकारी सेवा में यही तो सुरक्षा है. एक बार बस घुस जाओ…’

मैं ने आगे बहस करना उचित नहीं समझा. मैं अपने को संयत और शांत करने का प्रयास कर रहा था कि रमेश ने एक और अप्रत्याशित स्थिति में मुझे डाल दिया.

‘सुधीर बाबू, मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूं.’

‘पूछो.’

‘आखिर तुम अपने काम को इतनी ईमानदारी से क्यों करते हो?’

‘क्या मतलब?’

‘सरकार एक अमूर्त्त चीज है. उस के लिए क्यों जानमारी करते हो, जिस का कोई अस्तित्व नहीं, उस की खातिर मुझ जैसे हाड़मांस के व्यक्ति से टक्कर लेते रहते हो. आखिर क्यों?’

‘रमेश, तुम नमकहराम और नमकहलाल का अंतर समझते हो?’

‘बड़े अडि़यल किस्म के आदमी हैं, आप,’ रमेश ने मुसकरा कर कहा था.

‘तुम जरूरत से ज्यादा मुंहफट हो गए हो, मैं…’ मैं ने अपने वाक्य को अधूरा छोड़ कर उसे पर्याप्त धमकीभरा बना दिया था.

‘मैं…मैं…क्या करते हो? मैं जानता हूं, आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते.’

बस, गाड़ी यों ही चलती रही. रमेश के कार्यकलापों में कोई अंतर नहीं आया. पर मैं ने एक बात नोट की थी कि धीरेधीरे उस का मेरे प्रति व्यवहार पहले की अपेक्षा कहीं अधिक शालीन, संयत और अनुशासित हो चुका था. क्यों? इस का पता मुझे बाद में लगा.

रमेश की परक्षाएं समीप आ गईं. एक दिन वह सुबह ढाई महीने की छुट्टी लेने की अरजी ले कर आया. अरजी को मेरे सामने रख कर, वह मेरी मेज से सट कर खड़ा रहा.

अरजी पर उचटी नजर डाल कर मैं ने कहा, ‘तुम्हें नौकरी करते हुए केवल 8 महीने हुए हैं, 8-10 दिन की छुट्टी बाकी होगी तुम्हारी. यह ढाई महीने की छुट्टी कैसे मिलेगी?’

‘लीव नौट ड्यू दे दीजिए.’

‘यह कैसे मिल सकती है? मैं कैसे प्रमाणपत्र दे सकता हूं कि तुम इसी दफ्तर में काम करते रहोगे और इतनी छुट्टी अर्जित कर लोगे.’

‘सुधीर बाबू, मेरे ऊपर आप की बड़ी कृपा होगी.’

‘आप बिना वेतन के छुट्टी ले सकते हैं.’

‘उस के लिए मुझे आप की अनुमति की जरूरत नहीं. क्या आप अनौपचारिक रूप से यह छुट्टी नहीं दे सकते?’

‘क्या मतलब?’

‘मेरा मतलब साफ है.’

‘रमेश, तुम इस सीमा तक जा कर बेईमानी और सिद्धांतहीनता की बात करोगे, इस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. यह तो सरासर चोरी है. बिना काम किए, बिना दफ्तर आए तुम वेतन चाहते हो.’

‘सब चलता है, सुधीर बाबू.’

‘तुम आईएएस बन गए तो क्या विनाशलीला करोगे, इस की कल्पना मैं अभी से कर सकता हूं.’

‘मैं आप को देख लूंगा.’

‘‘सुधीर बाबू, आप को साहब याद कर रहे हैं,’’ निदेशक महोदय के चपरासी की आवाज सुन कर मेरी चेतना लौट आई भयावह स्मृतियों का क्रम भंग हो गया.

मैं उठा. मरी हुई चाल से, करीब घिसटता हुआ सा, मैं निदेशक के कमरे की ओर चल पड़ा. आगेआगे चपरासी, पीछेपीछे मैं, एकदम बलि को ले जाने वाले निरीह पशु जैसा. परिस्थितियों का कैसा विचित्र और असंगत षड्यंत्र था.

रमेश की मनोकामना पूरी हो गई थी. वर्ष पूर्व उस ने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित हो कर जो कुछ कहा था, उसे पूरा करने का अवसर उसे मिल चुका था. उस जैसा स्वार्थी, महत्त्वाकांक्षी, सिद्धांतहीन और निर्लज्ज व्यक्ति कुछ भी कर सकता है.

चपरासी ने कमरे का दरवाजा खोला. मैं अंदर चला गया. गरदन झुकाए और निर्जीव चाल से मैं उस की चमचमाती, बड़ी मेज के समीप पहुंच गया.

‘‘आइए, सुधीर बाबू.’’

मैं ने गरदन उठाई, देखा, रमेश अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ है और उस ने अपना दायां हाथ आगे बढ़ा दिया है, मुझ से हाथ मिलाने के लिए.

मैं ने हाथ मिलाया तो मुझे लगा कि यह सब नाटक है. बलि से पूर्व पशु का शृंगार किया जा रहा है.

‘‘सुधीर बाबू, बैठिए न.’’

मैं बैठ गया. सिकुड़ा और सिहरा हुआ सा.

‘‘क्या बात है? आप की तबीयत खराब है?’’

‘‘हां…नहीं…यों,’’ मैं सकपका गया.

‘‘इस अरजी में तो…’’

‘‘यों ही, कुछ अस्वस्थता सी महसूस हो रही थी.’’

‘‘आप कुछ परेशान और घबराए हुए से लग रहे हैं.’’

‘‘हां, नहीं तो…’’

अचानक, कमरे में एक जोर का अट्टहास गूंज गया.

मैं ने अचकचा कर दृष्टि उठाई. रमेश अपनी गुदगुदी घूमने वाली कुरसी में धंसा हुआ हंस रहा था.

‘‘क्या लेंगे, सुधीर बाबू, कौफी या चाय?’’

‘‘कुछ नहीं, धन्यवाद.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ कह कर रमेश ने सहायिका को 2 कौफी अंदर भेजने का आदेश दे दिया.

कुछ देर तक कमरे में आशंकाभरा मौन छाया रहा. फिर अनायास, बिना किसी संदर्भ के, रमेश ने हा, ‘‘10 वर्ष काफी होते हैं.’’

‘‘किसलिए?’

‘‘किसी को भी परिपक्व होने के लिए.’’

‘‘मैं समझा नहीं, आप क्या कहना चाहते हैं.’’

‘‘10-12 वर्षों के बाद इस दफ्तर में आया हू. देखता हूं, आप के अलावा सब नए लोग हैं.’’

‘‘जी.’

‘‘आखिर इतने लंबे अरसे से आप उसी पद पर बने हुए हैं. तरक्की का कोई मौका नहीं मिला.’’

‘‘इस साल तरक्की होने वाली है. आप की रिपोर्ट पर ही सबकुछ निर्भर करेगा, सर,’’ न जाने किस शक्ति से प्रेरित हो, मैं यंत्रवत कह गया.

रमेश सीधा मेरी आंखों में झांक रहा था, मानो कुछ तोल रहा हो. मैं पछता रहा था. मुझे यह सब नहीं कहना चाहिए था. अब तो इस व्यक्ति को यह अवसर मिल गया है कि वह…

तभी चपरासी कौफी के 2 प्याले ले आया.

‘‘लीजिए, कौफी पीजिए.’

मैं ने कौफी का प्याला उठा कर होंठों से लगाया तो महसूस हुआ जैसे मैं मीरा हूं, रमेश राणा और प्याले में काफी नहीं, विष है.

‘‘सुधीर बाबू, आप की तरक्की होगी. दुनिया की कोईर् ताकत एक ईमानदार, परिश्रमी, नमकहलाल, अनुशासनप्रिय कर्मचारी की पदोन्नति को नहीं रोक सकती.’’ मैं अविश्वासपूर्वक रमेश की ओर देख रहा था. विष का प्याला मीठी कौफी में बदलने लगा था.

‘‘मैं आप की ऐसी असाधारण और विलक्षण रिपोर्ट दूंगा कि…’’

‘‘आप सच कह रहे हैं?’’

‘‘सुधीर बाबू, शायद आप बीते दिनों को याद कर के परेशान हो रहे हैं. छोडि़ए, उन बातों को. 10-12 वर्षों में इंसान काफी परिपक्व हो जाता है. तब मैं एक विवेकहीन, त्तरदायित्वहीन, उच्छृंखल नवयुवक, अधीनस्थ कर्मचारी था और अब मैं विवेकशील, उत्तरदायित्वपूर्ण अधिकारी हूं और समझ सकता हूं कि… तब और अब का अंतर?’’ हां, एक सुपरवाइजर के रूप में आप कितने ठीक थे, इस सत्य का उद्घाटन तो उसी दिन हो गया था, जब मैं पहली बार सुपरवाइजर बना था.’’ रमेश ने मेरी छुट्टी की अरजी मेरी ओर सरका दी और बोला, ‘‘अब इस की जरूरत तो नहीं है.’’

मैं ने अरजी फाड़ दी. फिर खड़े हो कर मैं विनम्र स्वर में बोला, ‘‘धन्यवाद, सर, मैं आप का बहुत आभारी हूं. आप महान हैं.’’

और रमेश के होंठों पर विजयी व गर्वभरी मुसकान बिछ गई. Best Hindi Story

Short Story In Hindi: पीठ पीछे – ईमानदारी की कोई कीमत नहीं होती

Short Story In Hindi: दिनेश हर सुबह पैदल टहलने जाता था. कालोनी में इस समय एक पुलिस अफसर नएनए तबादले पर आए हुए थे. वे भी सुबह टहलते थे. एक ही कालोनी का होने के नाते वे एकदूसरे के चेहरे पहचानने लगे थे.

आज कालोनी के पार्क में उन से भेंट हो गई. उन्होंने अपना परिचय दिया और दिनेश ने अपना. उन का नाम हरपाल सिंह था. वे पुलिस में डीएसपी थे और दिनेश कालेज में प्रोफैसर.

वे दोनों इधरउधर की बात करते हुए आगे बढ़ रहे थे कि तभी सामने से आते एक शख्स को देख कर हरपाल सिंह रुक गए. दिनेश को भी रुकना पड़ा.

हरपाल सिंह ने उस आदमी के पैर छुए. उस आदमी ने उन्हें गले से लगा लिया.

हरपाल सिंह ने दिनेश से कहा,

‘‘मैं आप का परिचय करवाता हूं. ये हैं रामप्रसाद मिश्रा. बहुत ही नेक, ईमानदार और सज्जन इनसान हैं. ऐसे आदमी आज के जमाने में मिलना मुश्किल हैं.

‘‘ये मेरे गुरु हैं. ये मेरे साथ काम कर चुके हैं. इन्होंने अपनी जिंदगी ईमानदारी से जी है. रिश्वत का एक पैसा भी नहीं लिया. चाहते तो लाखोंकरोड़ों रुपए कमा सकते थे.’’

अपनी तारीफ सुन कर रामप्रसाद मिश्रा ने हाथ जोड़ लिए. वे गर्व से चौड़े नहीं हो रहे थे, बल्कि लज्जा से सिकुड़ रहे थे.

दिनेश ने देखा कि उन के पैरों में साधारण सी चप्पल और पैंटशर्ट भी सस्ते किस्म की थीं. हरपाल सिंह काफी देर तक उन की तारीफ करते रहे और दिनेश सुनता रहा. उसे खुशी हुई कि आज के जमाने में भी ऐसे लोग हैं.

कुछ समय बाद रामप्रसाद मिश्रा ने कहा, ‘‘अच्छा, अब मैं चलता हूं.’’

उन के जाने के बाद दिनेश ने पूछा, ‘‘क्या काम करते हैं ये सज्जन?’’

‘‘एक समय इंस्पैक्टर थे. उस समय मैं सबइंस्पैक्टर था. इन के मातहत काम किया था मैं ने. लेकिन ऐसा बेवकूफ आदमी मैं ने आज तक नहीं देखा. चाहता तो आज बहुत बड़ा पुलिस अफसर होता लेकिन अपनी ईमानदारी के चलते इस ने एक पैसा न खाया और न किसी को खाने दिया.’’

‘‘लेकिन अभी तो आप उन के सामने उन की तारीफ कर रहे थे. आप ने उन के पैर भी छुए थे,’’ दिनेश ने हैरान हो कर कहा.

‘‘मेरे सीनियर थे. मुझे काम सिखाया था, सो गुरु हुए. इस वजह से पैर छूना तो बनता है. फिर सच बात सामने तो नहीं कही जा सकती. पीठ पीछे ही कहना पड़ता है.

‘‘मुझे क्या पता था कि इसी शहर में रहते हैं. अचानक मिल गए तो बात करनी पड़ी,’’ हरपाल सिंह ने बताया.

‘‘क्या अब ये पुलिस में नहीं हैं?’’ दिनेश ने पूछा.

‘‘ऐसे लोगों को महकमा कहां बरदाश्त कर पाता है. मैं ने बताया न कि न किसी को घूस खाने देते थे, न खुद खाते थे. पुलिस में आरक्षकों की भरती निकली थी. इन्होंने एक रुपया नहीं लिया और किसी को लेने भी नहीं दिया. ऊपर के सारे अफसर नाराज हो गए.

‘‘इस के बाद एक वाकिआ हुआ. इन्होंने एक मंत्रीजी की गाड़ी रोक कर तलाशी ली. मंत्रीजी ने पुलिस के सारे बड़े अफसरों को फोन कर दिया. सब के फोन आए कि मंत्रीजी की गाड़ी है, बिना तलाशी लिए जाने दिया जाए, पर इन पर तो फर्ज निभाने का भूत सवार था. ये नहीं माने. तलाशी ले ली.

‘‘गाड़ी में से कोकीन निकली, जो मंत्रीजी खुद इस्तेमाल करते थे. ये मंत्रीजी को थाने ले गए, केस बना दिया. मंत्रीजी की तो जमानत हो गई, लेकिन उस के बाद मंत्रीजी और पूरा पुलिस महकमा इन से चिढ़ गया.

‘‘मंत्री से टकराना कोई मामूली बात नहीं थी. महकमे के सारे अफसर भी बदला लेने की फिराक में थे कि इस आदमी को कैसे सबक सिखाया जाए? कैसे इस से छुटकारा पाया जाए?

‘‘कुछ समय बाद हवालात में एक आदमी की पूछताछ के दौरान मौत हो गई. सारा आरोप रामप्रसाद मिश्रा यानी इन पर लगा दिया गया. महकमे ने इन्हें सस्पैंड कर दिया.

‘‘केस तो खैर ये जीत गए. फिर अपनी शानदार नौकरी पर आ सकते थे, लेकिन इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी ये आदमी नहीं सुधरा. दूसरे दिन अपने बड़े अफसर से मिल कर कहा कि मैं आप की भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन सकता. न ही मैं यह चाहता हूं कि मुझे फंसाने के लिए महकमे को किसी की हत्या का पाप ढोना पड़े. सो मैं अपना इस्तीफा आप को सौंपता हूं.’’

हरपाल सिंह की बात सुन कर रामप्रसाद के प्रति दिनेश के मन में इज्जत बढ़ गई. उस ने पूछा, ‘‘आजकल क्या कर रहे हैं रामप्रसादजी?’’

हरपाल सिंह ने हंसते हुए कहा,

‘‘4 हजार रुपए महीने में एक प्राइवेट स्कूल में समाजशास्त्र के टीचर हैं. इतना नालायक, बेवकूफ आदमी मैं ने आज तक नहीं देखा. इस की इन बेवकूफाना हरकतों से एक बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में छोड़ कर आना पड़ा. अब बेचारा आईटीआई में फिटर का कोर्स कर रहा है.

‘‘दहेज न दे पाने के चलते बेटी की शादी टूट गई. बीवी आएदिन झगड़ती रहती है. इन की ईमानदारी पर अकसर लानत बरसाती है. इस आदमी की वजह से पहले महकमा परेशान रहा और अब परिवार.’’

‘‘आप ने इन्हें समझाया नहीं. और हवालात में जिस आदमी की हत्या कर इन्हें फंसाया गया था, आप ने कोशिश नहीं की जानने की कि वह आदमी कौन था?’’

हरपाल सिंह ने कहा, ‘‘जिस आदमी की हत्या हुई थी, उस में मंत्रीजी समेत पूरा महकमा शामिल था. मैं भी था. रही बात समझाने की तो ऐसे आदमी में समझ होती कहां है दुनियादारी की? इन्हें तो बस अपने फर्ज और अपनी ईमानदारी का घमंड होता है.’’

‘‘आप क्या सोचते हैं इन के बारे में?’’

‘‘लानत बरसाता हूं. अक्ल का अंधा, बेवकूफ, नालायक, जिद्दी आदमी.’’

‘‘आप ने उन के सामने क्यों नहीं कहा यह सब? अब तो कह सकते थे जबकि इस समय वे एक प्राइवेट स्कूल में टीचर हैं और आप डीएसपी.’’

‘‘बुराई करो या सच कहो, एक ही बात है. और दोनों बातें पीठ पीछे ही कही जाती हैं. सब के सामने कहने वाला जाहिल कहलाता है, जो मैं नहीं हूं.

‘‘जैसे मुझे आप की बुराई करनी होगी तो आप के सामने कहूंगा तो आप नाराज हो सकते हैं. झगड़ा भी कर सकते हैं. मैं ऐसी बेवकूफी क्यों करूंगा? मैं रामप्रसाद की तरह पागल तो हूं नहीं.’’

दिनेश ने उसी दिन तय किया कि आज के बाद वह हरपाल सिंह जैसे आदमी से दूरी बना कर रखेगा. हां, कभी हरपाल सिंह दिख जाता तो वह अपना रास्ता इस तरह बदल लेता जैसे उसे देखा ही न हो. Short Story In Hindi

Hindi Story: विरासत – प्रीती क्या देखना चाह रही थी

Hindi Story: प्रीति ने चश्मा साफ कर के दोबारा बालकनी से नीचे झांका और सोचने लगी, ‘नहीं, यह सपना नहीं है. रेणु सयानी हो गई है. अब वह दुनियादारी समझने लगी है. रोनित भी तो अच्छा लड़का है. इस में गलत भी क्या है, दोनों एक ही दफ्तर में हैं, साथसाथ तरक्की करते जाएंगे, बिना किसी कोशिश के ही मेरी इतनी बड़ी चिंता खत्म हो गई.’

रात को खाने के बाद प्रीति दूध देने के बहाने रेणु के कमरे में जा कर बैठ गई और बात शुरू की, ‘‘बेटी, रोनित के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?’’

रेणु ने चौंक कर मां की तरफ देखा तो प्रीति शरारतभरी मुसकान बिखेर कर बोली, ‘‘भई, हमें तो रोनित बहुत पसंद है. हां, तुम्हारी राय जानना चाहते हैं.’’

‘‘राय, लेकिन किस बारे में, मां?’’ रेणु ने हैरानी से पूछा.

‘‘वह तुम्हारा दोस्त है. अच्छा, योग्य लड़का है. तुम ने उस के बारे में कुछ सोचा नहीं?’’

‘‘मां, ऐसी भी कोई खास बात नहीं है उस में,’’ रेणु अपने नाखूनों पर उंगलियां फेरती हुई बोली, फिर वह चुपचाप दूध के घूंट भरने लगी.

लेकिन रेणु के इन शब्दों ने जैसे प्रीति को आसमान से जमीन पर ला पटका था, वह सोचने लगी, ‘क्या वक्त अपनेआप को सदा दोहराता रहता है? यही शब्द तो मैं ने भी अपनी मां से कहे थे. विजय मुझे कितना चाहता था, लेकिन तब हम दोनों क्लर्क थे…’

प्रीति तेज रफ्तार जिंदगी के साथ दौड़ना चाहती थी. विजय से ज्यादा उसे अपने बौस चंदन के पास बैठना अच्छा लगता था. वह सोचती थी कि अगर चंदन साहब खुश हो गए तो उस की पदोन्नति हो जाएगी.

फिर चंदन साहब खुश भी हो गए और प्रीति को पदोन्नति मिल गई. लेकिन चंदन के तबादले के बाद जो नए राघव साहब आए, वे अजीब आदमी थे. लड़कियों में उन की जरा भी दिलचस्पी नहीं थी.

ऐसे में प्रीति बहुत परेशान रहने लगी थी, क्योंकि उस की तरक्की के तो जैसे सारे रास्ते ही बंद हो गए थे. लेकिन नहीं, ढूंढ़ने वालों को रास्ते मिल ही जाते हैं. राघव साहब के पास कई बड़ेबड़े अफसर आते थे. उन्हीं में से एक थे, जैकब साहब. प्रीति की तरफ से प्रोत्साहन पा कर वे उस की तरफ खिंचते चले गए. जैकब साहब के जरिए प्रीति को एक अच्छा क्वार्टर मिल गया.

धीरेधीरे प्रीति तरक्की की कई सीढि़यां चढ़ती चली गई और जीवन की सब जरूरतें आसानी से पूरी होने लगीं. कर्ज मिल गया तो उस ने कार भी ले ली. जमीन मिल गई तो उस का अपना मकान भी बन गया. उस के कई पुरुषमित्र थे, जिन में बड़ेबड़े अफसर व व्यापारी वगैरा सम्मिलित थे. जितने दोस्त, उतने तोहफे. हर शाम मस्त थी और हर मित्र मेहरबान.

उन दिनों वह सोचती थी कि जिंदगी कितनी हसीन है. परेशानियों से जूझती लड़कियों को देख कर वह यह भी सोचती कि ये सब अक्ल से काम क्यों नहीं लेतीं?

एक दिन प्रीति को पता चला कि उस के पहले प्रेमी विजय ने अपने दफ्तर में काम करने वाली एक क्लर्क युवती से शादी कर ली है. क्षणभर के लिए उसे उदासी ने आ घेरा, लेकिन उस ने खुद को समझा लिया और फिर अपनी दुनिया में खो गई.

समय अपनी रफ्तार से दौड़ रहा था. अच्छे समय को तो जैसे पंखही लग जाते हैं. वक्त के साथसाथ हरेभरे वृक्ष को भी पतझड़ का सामना करना ही पड़ता है. लेकिन ऐसे पेड़ तो सिर्फ माली को ही अच्छे लगते हैं, जो उन्हें हर मौसम में संभालता, सजाता रहता है. आतेजाते राहगीर तो सिर्फ घने, फलों से लदे पेड़ ही देखना चाहते हैं.

बात पेड़ों की हो तो पतझड़ के बाद फिर बहार आ जाती है, लेकिन मानव जीवन में बहार एक ही बार आती है और बहार के बाद पतझड़ स्वाभाविक है.

प्रीति तेज रफ्तार से दौड़ती रही. यौवन का चढ़ता सूरज कब ढलने लगा, वह शायद इसे महसूस ही नहीं करना चाहती थी. लेकिन एक दिन पतझड़ की आहट उसे सुनाई दे ही गई…

वह एक सुहावनी शाम थी. प्रीति मदन का इंतजार कर रही थी. उस शाम उस ने पीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी, जिस का बौर्डर हरा था. सजसंवर कर वह बहुत देर तक पत्रिकाओं के पन्ने पलटती रही. मदन से उस की दोस्ती काफी पुरानी थी. हर सप्ताह उस की 2-3 शामें प्रीति के संग ही व्यतीत होती थीं. लेकिन उस शाम वह इंतजार ही करती रही, मदन न आया.

प्रीति उलझीउलझी सी सोने चली गई. उलझन से ज्यादा गुस्सा था या गुस्से से ज्यादा उलझन, वह समझ नहीं पा रही थी. कई बार फोन की तरफ हाथ बढ़ाया, लेकिन फिर सोचा कि घर पर क्या फोन करना? क्या पूछेगी और किस से पूछेगी?

दूसरे दिन उस ने मदन के दफ्तर फोन किया तो वह बोला, ‘माफ करना, कहीं फंस गया था, लेकिन आज शाम जरूर आऊंगा.’

उस शाम प्रीति ने फिर वही साड़ी पहनी, जो कि मदन को बहुत पसंद थी. शाम ढलने लगी, देखते ही देखते साढ़े

8 बज गए. गुस्से में उस ने बगैर कुछ सोचे रिसीवर उठा ही लिया और मदन के घर का नंबर घुमाया, ‘हैलो, मदनजी हैं?’

‘साहबजी तो नहीं हैं,’ उस के नौकर ने जवाब दिया.

‘कुछ मालूम है, कहां गए हैं?’

‘हां जी, कल छोटी बेबी का जन्मदिन है न, इसलिए मेम साहब के साथ कुछ खरीदारी करने बाजार गए हैं.’

रिसीवर पटक कर प्रीति बुदबुदा उठी, ‘ओह, तो यह बात है. मगर उस ने यह सब बताया क्यों नहीं? शायद याद न रहा हो, मगर ऐसा तो कभी नहीं हुआ. शायद उस ने बताना जरूरी ही न समझा हो.’

वह सोचने लगी कि उस के पास आने वाले हर मर्द का अपना घरबार है, अपनी जिंदगी है, लेकिन उस की जिंदगी?

उसे लगता था कि वह अपने तमाम दोस्तों की पत्नियों से ज्यादा सुंदर है, ज्यादा आकर्षक है, तभी तो वे अपनी बीवियों को छोड़ कर उस के घर के चक्कर काटते रहते हैं. पर उस क्षण उसे एहसास हो रहा था कि कहीं न कहीं वह उन की बीवियों से कमतर है, जिन की जरूरतों के आगे, किसी दोस्त को उस की याद तक नहीं रहती.

प्रीति ने सोफे की पीठ से सिर टिका दिया. उस की सांसें तेज चल रही थीं. यह गुस्सा था, पछतावा था, क्या था, कुछ पता ही नहीं चल रहा था. पर एक घुटन थी, जो उस के दिलोदिमाग को जकड़ती जा रही थी. उस ने आंखें बंद कर लीं लेकिन चंद आंसू छलक ही आए.

उस के बाद उस ने मदन लाल को फोन नहीं किया और न ही फिर वह उस से मिलने आया.

दूसरी बार पतझड़ का एहसास उस को तब हुआ था जब उस का एक और परम मित्र, विनोद एक रात 9 बजे अचानक आ गया.

‘आओ, विनोद,’ उस की आंखों में अजीब सी रोशनी थी. विनोद के साथ बिताई बहुत सी रातें उसे याद आने लगीं.

‘अरे प्रीति, मैं एक जरूरी काम से आया हूं.’

‘तुम्हारा काम मैं जानती हूं,’ प्रीति अदा से मुसकराई.

‘नहीं, वह बात नहीं है. असल में मुझे एक गैस कनैक्शन चाहिए.’

‘अपने लिए नहीं, और किसी के लिए,’ विनोद ने हौले से कहा, ‘तुम्हारी तो बहुत जानपहचान है. तुम यह काम आसानी से करवा सकती हो.’

‘किस के लिए चाहिए?’ प्रीति के माथे पर बल पड़ गए.

‘एक साथी है दफ्तर में, अचला, क्या मैं उसे कल तुम्हारे पास भेज दूं?’

प्रीति का सिर चकरा गया कि उस ने खुद भी तो कभी गैस कनैक्शन लिया था…और अब अचला? लेकिन उस ने खुद को संभाला, ‘नहीं, भेजने की जरूरत नहीं. उस से कहना मुझे फोन कर ले.’

‘धन्यवाद,’ कह कर विनोद तेजी से बाहर निकल गया.

उस दिन कमरे का माहौल कितना बोझिल सा हो गया था. विनोद ने उस के हुस्न और जवानी का मजाक ही तो उड़ाया था, क्योंकि उस की जगह अब अचला ने ले ली थी.

फिर उसे राज की याद आई. एक दिन उस ने देखा, राज किसी सुंदरी से बातें कर रहा है. वह तेजी से उस के पास पहुंची, ‘हैलो राज, आजकल बहुत व्यस्त रहने लगे हो. अब तो इधर देखने की फुरसत भी नहीं.’

‘अब इधर देखूं या आप की तरफ?’ राज ने उस सुंदरी की ओर देखते हुए मुसकरा कर कहा.

खिलती उम्र की गुलाबी सुबह पर इतनी जल्दी शाम का धुंधलका छाने लगेगा, प्रीति ने सोचा भी न था. दोस्तों के लिए उस का साथ ऐसा ही रहा, जैसे कोट पर सजी गुलाब की कली, जो जरा सी मुरझाई नहीं कि बदल दी जाती है. अब उस की शामें सूनी हो चली थीं. न कोठी की घंटी बजती और न फोन ही आते.

प्रीति का नशा उतरने लगा तो ज्ञात हुआ कि उस के सभी सहयोगी पदोन्नति पा चुके हैं. विजय के पास भी अपना घर था और उस ने एक कार भी खरीद ली थी.

आखिर एक दिन प्रीति ने हालात से समझौता कर लिया और श्रीमती देवराज बन गई. विधुर देवराज को भी अकेलेपन में सहारा चाहिए था. लेकिन रेणु के जन्म के कुछ वर्षों बाद ही देवराज चल बसा. अपना रुपयापैसा वह अपनी पहली, दिवंगत पत्नी के बच्चों के नाम कर चुका था. सो, प्रीति को उस से मिली सिर्फ रेणु. लेकिन यह सहारा भी कम न था.

रेणु को पालतेपोसते प्रीति ने जीवन के काफी वर्ष काट दिए. रेणु भी उसी की तरह सुंदर थी. वह सुंदरता उसे विरासत में मिली थी. लेकिन अभी जो शब्द उस ने कहे थे, वे भी तो विरासत में मिले थे. प्रीति तड़प उठी. रेणु ने दूध का खाली गिलास मेज पर रखा तो प्रीति चौंकी, एक लंबी सांस ली और बोली, ‘‘बेटी, अगर रोनित तुम्हें पसंद है तो और कुछ न सोचो. तुम दोनों धीरेधीरे तरक्की कर लोगे. अभी उम्र ही क्या है.’’

रेणु उदास सी मां को देखती रही. प्रीति ने और कुछ न कहा, गिलास उठाया और कमरे से बाहर निकल गई.

रात के 11 बज चुके थे, लेकिन प्रीति की आंखों से नींद बहुत दूर थी. एक खयाल उस के इर्दगिर्द मंडरा रहा था कि काश, विजय उस के पास होता. यह कोठी, यह दौलत और यह कार न होती. साफसुथरी जिंदगी होती, विजय होता और रेणु होती.

दूसरे दिन रेणु ने धीरे से कमरे का परदा हटाया तो प्रीति बोली, ‘‘आओ, बेटी.’’

‘‘मां…,’’ रेणु पलंग पर बैठ गई, ‘‘मां…,’’ वह कहते हुए हिचकिचा सी रही थी.

‘‘बोलो बेटी,’’ प्रीति ने प्यार से कहा.

‘‘आप के आने से पहले ही रोनित का फोन आया था.’’

‘‘क्या, शादी के बारे में?’’

‘‘जी.’’

‘‘फिर तू ने क्या कहा?’’

‘‘मैं सोचती थी, रोनित एक मामूली क्लर्क है. आप अपनी शान के आगे कभी भी क्लर्क दामाद को बरदाश्त नहीं करेंगी. इसीलिए…’’

‘‘इसीलिए क्या?’’

‘‘इसीलिए मैं ने उसे मना कर दिया.’’

‘‘यह तू ने क्या किया, बेटी. रोनित जो कुछ तुम्हारे लिए कर सकेगा, वह और कोई नहीं कर सकेगा…’’

प्रीति शून्य में घूर रही थी, लेकिन हर ओर उसे विजय का भोलाभाला चेहरा दिखाई दे रहा था. जब वह बड़ेबड़े अफसरों के साथ घूमती थी, तब विजय की उदास आंखें उसे हसरत से देखा करती थीं. उन आंखों का दुख, उदासी उस दिल की तड़प उसे रहरह कर याद आ रही थी.

उस ने रेणु की तरफ देखा, वह भी खामोश बैठी थी. थोड़ी देर बाद उस ने कहा, ‘‘बेटी, एक बात पूछूं, अपनी सहेली समझ कर सचसच बताना.’’

रेणु ने सवालिया नजरों से मां को देखा.

‘‘तू रोनित को पसंद तो करती है न?’’

‘‘हां, मां,’’ रेणु ने धीरे से कहा और नजरें झुका लीं.

‘‘अब क्या होगा? मेरी बच्ची, तू ने मुझ से पूछा तो होता. क्या वह फिर आएगा?’’

‘‘पता नहीं,’’ रेणु ने भर्राई आवाज में कहा और उठ कर चली गई.

सुबह प्रीति उठी तो सिर बहुत भारी था. शायद 10 बज रहे थे. रविवार को वैसे भी वह देर से उठती थी. उस ने परदे सरकाए और बालकनी में जा कर खड़ी हो गई. अचानक नजर नीचे पड़ी, रोनित और रेणु नीम के पेड़ की आड़ में खड़े थे. वह धीरेधीरे पीछे हो गई और अपने कमरे में लौट आई. आरामकुरसी पर बैठ कर उस ने अपना सिर पीछे टिका दिया.

देर तक प्रीति इसी मुद्रा में बैठी रही. फिर किसी के आने की आहट हुई तो उस ने भीगी पलकें उठाईं, सामने रेणु खड़ी थी.

‘‘मां, वह आया था, फिर वही कहने.’’ प्रीति टकटकी बांधे उस के अगले शब्दों का इंतजार करने लगी.

‘‘मां, मैं ने…मैं ने…’’

‘‘तू ने क्या कहा?’’ वह लगभग चीख पड़ी.

‘‘मैं ने ‘हां’ कह दी.’’

‘‘मेरी बच्ची,’’ प्रीति ने खींच कर रेणु को सीने से लिपटा लिया और बुदबुदाई, ‘शुक्र है, तू ने मां की हर चीज विरासत में नहीं पाई.’

‘‘क्या मां, कुछ कहा?’’ रेणु ने अलग हो कर उस के शब्दों को समझना चाहा.

‘‘कुछ नहीं बेटी, हमेशा सुखी रहो,’’ और उस ने रेणु का माथा चूम कर उसे अपने सीने से लगा लिया. Hindi Story

Story In Hindi: मिर्जा साहब का घायल दिल

Story In Hindi: दरवाजे पर लगी नाम की तख्ती पर उस ने एक नजर डाली, जो अरहर की टाटी में गुजराती ताले की तरह लगी हुई थी. तख्ती पर लिखा ‘मिर्जा अख्तर’ का नाम पढ़ कर वह रुक गई. मन ही मन उन का नाम उस ने कई बार दुहराया और इमारत को गौर से देखने लगी. अंगरेजों के जमाने की बेढंगी जंग लगी पुरानी इमारत थी वह, जिस की दाईं तरफ का कुछ हिस्सा फिर से बसाया गया था और उस पर 3-4 मंजिलें चढ़ाई गई थीं. उन सब में लोग दड़बों में चूजों की तरह भरे होंगे,

यह बाहर से दिख जाता था. सैकड़ों कपड़े बाहर बरामदे में सूख रहे थे और ज्यादातर लड़कियों के ही थे. पुराने हिस्से में बहुत दिनों से शायद सफेदी नहीं हुई थी. जगहजगह कबूतरों की बीट से सफेद निशान पड़े हुए थे. कुलमिला कर ‘नूर’ को वह मकान कबूतरों का दड़बा लग रहा था. नूर कुछ देर तक तो अवाक रह गई. सोचा, सचमुच बड़े शहरों में आबादी की बढ़ती समस्या मकान ढूंढ़ने वालों के लिए महंगाई से भी भयानक बीज बन गई है. और वह भी दिल्ली में, जहां अकेला आया हुआ इनसान 4 बच्चों का बाप तो बन सकता है, मगर एक अदद मकान का मालिक नहीं. आजकल वैसे भी मुसलमानों को रहने की जगह कम ही मिल पाती है. नूर भी दिल्ली में नई ही थी. सचिवालय में नौकरी पाने के बाद मकान की समस्या उस के लिए सिरदर्द बन गई थी. कुछ दिन तो उस ने होटल में गुजारे थे, फिर साथ काम करने वाली एक लड़की के साथ एक कमरे में रहने लगी थी.

मगर तब भी रहने की समस्या उसे परेशान किए रहती थी. गांव में बूढ़े मांबाप थे. वह उन की एकलौती संतान थी. उन को किस के सहारे छोड़ें और जब तक मकान नहीं मिलता, वह उन्हें कैसे ले आए? मकान के लिए नूर ने कई लोगों से कह रखा था. उसे खबर मिली थी कि पुराने सराय महल्ले में मिर्जा अख्तर के मकान में 2 कमरों का फ्लैट खाली है. नूर मन ही मन सोचने लगी, ‘इस दड़बे में फ्लैट नाम की चीज कहां हो सकती है?’ फिर उस ने सारे खयालों को एक तरफ किया और आगे बढ़ कर दरवाजा खटखटा दिया. भारीभरकम दरवाजे के बगल में जंगले के समान कोई चीज थी. उसी में से कोई झांका था और एक खनकती आवाज उभरी थी, ‘‘कौन है?’’ ‘‘जी, जरा सुन लीजिए… कुछ काम है,’’ नूर ने अपनी आवाज में और मिठास घोलते हुए कहा, ‘‘वह मकान देखना था किराए के लिए. नूर नाम है मेरा.’’ उधर अंदर कमरे में जैसे हंगामा मच गया था.

पहले फुसफुसाहटें और फिर तेजतेज आवाजें. खबर देने वाले ने बताया था कि मेन मकान में 2 ही जने हैं, मिर्जा अख्तर और उन की बेगम. दोनों ही कब्र में पैर लटकाए बैठे हैं. एक ही बेटा है, जो मुंबई में फिल्म इंडस्ट्री में शायरों के लातजूते खा रहा है. फिर यह ठंडी आह…? तो क्या अख्तर साहब अब भी आहें भरते हैं? नूर कुछ ज्यादा सोच न सकी थी कि माथा भट्ठी की तरह सुलग उठा. उधर अंदर से आवाजें अब भी बराबर उभर रही थीं. ‘‘अरे, मैं कहती हूं कि दरवाजा खोलते क्यों नहीं?’’ फिर किसी के पैर पटकने की आवाज उभरी थी. धीरेधीरे फुसफुसाहटें शांत हो गई थीं और फिर आहिस्ता से दरवाजा खुला था. ‘‘हाय, मैं यह क्या देख रहा हूं? यह सपना है या सचाई, समझ में नहीं आता,’’ मिर्जाजी गुनगुनाए थे, ‘‘हम बियाबान में हैं और घर में बहार आई?है. अजी, मैं ने कहा, आदाब अर्ज है.

आइए, तशरीफ लाइए.’’ मिर्जा अख्तर को देख कर नूर बहुत मुश्किल से अपनी हंसी रोक सकी थी. सूखा छुहारा सा पिचका हुआ चेहरा, गहरी घाटियों की तरह धंसी आंखों में काले अंधेरों की तरह रची सुरमे की लंबी लकीर. जल्दबाजी में शायद पाजामा भी उन्होंने उलटा पहन लिया था. बाहर लटकते नाड़े पर उस की नजर ठिठक गई थी. मिर्जा ने कुछ पल नूर की नजरों को अपने चेहरे पर पढ़ते देखा था और नजरों के साथ ही उन की भी नजर अपने लटकते नाड़े पर पड़ी थी, ‘‘ओह… मोहतरमा, आप ठहरिए एक मिनट. हम अभी आ रहे हैं,’’ कह कर मिर्जा साहब पलट कर फिर अंदर चले गए थे. नूर ठगी सी उन की तरफ देखती रह गई थी. बाप रे, यह उम्र और ये जलवे. तभी फिर दरवाजे में एक काया नजर आई थी. भारीभरकम फूली रोटी की तरह शरीर.

कुछ बाहर की तरफ निकल कर चुगली खाते हुए दांत और पान की लाली से रचे कालेकाले होंठ. सबकुछ कुदरत की कलाकारी की याद ताजा कर रहा था. ‘‘आइए, अंदर बैठिए, मिर्जा साहब अभी आते हैं,’’ वही खनकती हुई आवाज सुन कर नूर के मन की सारी घबराहट गायब हो गई. उस ने अंदर कदम रखा. ‘बैठिए,’ अपनी काया को रोता पुराना सोफा मानो उसे पुकार रहा था. नूर आहिस्ता से सोफे पर बैठ गई, मानो उसे डर था कि कहीं तेजी से बैठने पर सोफा उसे ले कर जमीन में न धंस जाए. उसे सोफे पर बिठा कर बेगम फिर अंदर कमरे में चली गई थीं. उस ने कमरे को गौर से देखना शुरू किया. पुराने नवाबों के दीवानखाने की तरह एक तरफ रखा हुआ तख्त, जिस में पायों के बदले ईंटें रखी हुई थीं.

तख्त के ऊपर बाबा आदम के जमाने की बिछी चादर. सामने ही खुली हुई अलमारी थी, जिस में कबाड़ की तरह तमाम चीजें ठुंसी हुई थीं. कुछ भारीभरकम किताबें, कुछ अखबार के टुकड़े… आदि. तभी मिर्जा साहब फिर अंदर दाखिल हुए, ‘‘हेहेहे… जी, मुझ नाचीज को मिर्जा गुलफाम कहते हैं और मोहतरमा आप की तारीफ?’’ ‘‘जी, मुझे नूर कहते हैं. मैं यहीं सचिवालय में नौकरी करती हूं.’’ मगर मिर्जा साहब ने तो आखिरी बात मानो सुनी ही नहीं थी, ‘‘नूर, वाह क्या प्यारा नाम है. जैसा रूप वैसा नाम,’’ और उन्होंने डायरी उठा कर नूर का नाम लिख लिया. ‘‘जी देखिए, मैं… मैं ने सुना है कि आप के यहां कोई फ्लैट खाली है.’’ ‘‘अजी, फ्लैट को मारिए बम, यहां तो पूरा दिल ही खाली है… पूरा घर ही खाली है,’’ मिर्जा गुलफाम ने सीने पर हाथ मारा, ‘‘कहिए, कहां रहना पसंद करेंगी?’’

‘‘उफ,’’ नूर के माथे पर पसीना छलछला आया था, ‘‘जी, रहना तो फ्लैट में ही है. अगर आप मेहरबानी कर दें, तो मैं एहसानमंद रहूंगी.’’ ‘‘छोडि़ए भी मोहतरमा, एहसान की क्या बात है. अरे, वे जमाने गए, जब हम एहसान करते थे. अब तो हम खुद ही एहसान की ख्वाहिश करते हैं. सच कहता हूं… अगर आप की नजरे नूर मिल जाए, तो हम कयामत तक सबकुछ खाली रखेंगे. बस, आप को पसंद आ जाए तो…’’ नूर को पसीना आने लगा था. उस ने माथे को टटोला. माथा जैसे चक्कर खा रहा था, ‘‘जी, अगर आप वह फ्लैट दिखा सकें, तो बड़ी मेहरबानी होगी.’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं, क्यों नहीं. आइए, चलिए अभी दिखाता हूं,’’ कहते हुए मिर्जा साहब उठ खड़े हुए थे. फ्लैट को देख कर नूर को बहुत निराशा हुई थी. ढहने की कगार पर पहुंचे 2 कमरे बस… नूर की इच्छा हुई थी कि लौट जाए, फिर अपनी परेशानी का खयाल आया था और उस ने हां में सिर हिला दिया था. ‘‘तो क्या मैं समझूं कि मोहतरमा ने हमारे सूने घर को आबाद करने का फैसला कर लिया है?’’ ‘‘जी देखिए, ऐसा है कि आप किराया बता दीजिए.

फिर मैं कुछ कह सकूंगी.’’ ‘‘हाय,’’ मिर्जा इस तरह तड़पे थे मानो नूर ने सीने में खंजर उतार दिया हो, ‘‘देखिए मोहतरमा, ये सब बातें यों सीधे मत कहा कीजिए. उफ, देखिए तो कितना बड़ा घाव हो गया,’’ उन्होंने फिर सीने पर हाथ मारा. ‘‘मगर, मैं ने तो किराए की बात की थी,’’ नूर बौखला उठी. ‘‘बस यही बात तो हमारे दिल को भाले की तरह छेद गई… अजी साहब, आप की इनायत चाहिए, किराए की बात अपनेआप तय हो जाएगी.’’ नूर लाख सिर पटकने पर भी मिर्जा साहब को समझ नहीं पाई थी. किसी तरह सबकुछ तय कर के वह बाहर निकल आई. बाहर निकल कर उस ने लंबीलंबी सांसें खींचीं, फिर अपनी मजबूरी को कोसा कि वक्त ने उसे कहां ला पटका.

धीरेधीरे मन का बोझ उतरता जा रहा था. उसे मकान मिल गया था. मिर्जा अख्तर उन गुमनाम शायरों में थे, जो खुद को ही जानते हैं और खुद में ही खो कर रह जाते हैं. क्या पता, वे किस खानदान के थे, मगर अपना संबंध वह नवाब वाजिद अली शाह के घराने से ही जोड़ते थे. रंगीनमिजाजी मानो उन की नसनस में घुली थी. मगर जिंदगी के हर मोरचे पर उन्होंने थपेड़े ही खाए थे. वे इश्क की चोटी पर चढ़ने वाले उन बहादुरों की तरह थे, जो अपने हाथपैर तुड़वा कर शान से कहते हैं, ‘अजी, गिर गए तो क्या हुआ. गिरे भी तो इश्क की खातिर.’ उन का बेटा भी उन से परेशान हो कर मुंबई चला गया था और हवेलीनुमा मकान के एक हिस्से में उन्होंने अनऔथराइज्ड तीन मंजिलों में कमरे डलवा दिए थे, जिस के किराए से उन का खानापीना हो जाता था. मिर्जा साहब के पास पुराना वाला हिस्सा रह गया था. जब से नूर घर में रहने आई थी,

मिर्जा साहब का मानो काया ही पलट हो गया था. अब तो वे जागती आंखों से भी नूर का सपना देखने लगे थे. उधर नूर उस फ्लैटनुमा दड़बे में रहने तो आ गई थी, मगर उस का जीना मुश्किल हो गया था. आतेजाते हर समय उसे मिर्जा साहब की जबान से निकले तीर का सामना करना पड़ता था. ‘‘अहा, यह हुस्न की बिजली आज कहां गिरेगी हुजूर?’’ मिर्जा साहब अकसर ऐसी बातें कहते हुए अपनी नकली बत्तीसी दिखाने लगते थे. नूर जलभुन कर राख हो जाती, ‘‘संभल के रहिएगा मिर्जा साहब, कहीं आप के ऊपर ही न गिर जाए.’’ मिर्जा साहब की मुसकराहट नूर को जला कर राख कर देती थी. पूरे दिन उस का मन उखड़ाउखड़ा सा रहता था. मगर वह करती भी क्या? कोई दूसरा चारा भी तो नहीं था उस के सामने. उस दिन भी उसी जानेपहचाने अंदाज में गले तक की अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने हुए मिर्जा साहब नूर के सामने आ गए. नूर ने गुलाबी कुरती और चूड़ीदार पाजामा पहन रखा था.

मिर्जा साहब ने उसे ऊपर से नीचे तक घूरती नजरों से देखा. उन के चेहरे पर जमानेभर की मासूमियत उभर आई थी. ‘‘मिर्जा साहब, आदाब,’’ कह कर नूर आगे बढ़ने को हुई थी कि मिर्जा साहब सामने आ गए. ‘‘किया है कत्ल जो मेरा तो थोड़ी देर तो ठहरो, तड़पना देख लो दिल का लहू बहता है बहने दो,’’ चहकते हुए मिर्जा साहब ने यह शेर सुनाया. ‘‘उफ मिर्जा साहब, दफ्तर जाने में देर हो जाएगी. फिलहाल तो मुझे जाने दें और फिर दिनभर शायरी की टांग तोड़ते रहिएगा,’’ नूर झल्ला कर बोली. ‘‘उफ… फूलों से बदन इन के कांटे हैं जबानों में. अरे मोहतरमा, अगर प्यार से दो बोल हमारी तरफ भी उछाल दोगी तो क्या कयामत आ जाएगी?’’ ‘‘आप तो मजाक करते हैं मिर्जा साहब.

कहां मैं और कहां आप…?’’ नूर ने कहा. ‘‘बसबस, यही मैं और आप की दीवार ही तो मैं गिराना चाहता हूं… काश, तुम्हें दिखा सकता कि मेरा दिल तुम्हें देख कर कबूतर की मानिंद फड़फड़ाता है और तुम हो कि बिल्ली की नजरों से हमें देखती हो,’’ मिर्जा साहब की आवाज में जमाने भर का दर्द उभर आया था. नूर का दिमाग चक्कर खा रहा था. क्या करे वह? किस तरह से मिर्जा गुलफाम के इश्क का बुखार उतारे. लाख सिर पटका, मगर कोई रास्ता नजर न आया. मिर्जा साहब की हरकतें रोज ही बढ़ती जा रही थीं. नूर के अम्मीअब्बा ने फैसला किया था कि ईद के बाद ही आएंगे और ईद में पूरा महीना है. महीनेभर में तो वह पागल हो जाएगी. घंटों बैठ कर वह सिर खपाती रही.

आखिर में एक उपाय उस के दिमाग में कौंध गया. ‘‘अजी, मैं ने कहा, कि मिर्जा साहब आदाब अर्ज,’’ सुबहसुबह ही रोज की तरह मिर्जा साहब को अपने सामने पा कर नूर ने कहा. ‘‘हाय, क्या अदा है… हुजूर… आप ने तो जान ही निकाल ली. अरे, मैं ने कहा, सुबहसुबह यह सूरज पूरब में कैसे निकल गया?’’ ‘‘सूरज तो रोज ही पूरब में निकलता है गुलफाम साहब, बस देखने वाली नजरें होनी चाहिए,’’ नूर ने अपनी आवाज में और मिठास घोलते हुए कहा. ‘‘गुलफाम? हाय मोहतरमा, तुम ने मुझे गुलफाम कहा. हाय मेरी नूरे नजर, मेरे दिल की जलती हुई मोमबत्ती, मेरी नजरों की लालटेन, मेरा दिल तो जैसे तपता हुआ तवा हो गया…’’ मिर्जा साहब पिघल कर रसमलाई हो गए थे.

‘‘कभी हमारे गरीबखाने में भी आया कीजिए न. देखिए न दफ्तर से आने के बाद कमरे में अकेले ऊब जाती हूं. जरा सा यह भी नहीं सोचते कि इस भरी दुनिया में कोई इस कदर मेरी तरह तनहा भी है.’’ ‘‘क्या बात है? हाय, हम तो मर गए हुजूर की सादगी पर, कत्ल करते हैं और हाथ में झाड़ू भी नहीं, अरे मोहतरमा, तुम कहती हो, तो हम आज से वहीं अपना टूटा तख्त बिछाएंगे.’’ ‘‘नहींनहीं, उस की जरूरत नहीं. बस कुछ पलों के लिए बांदी को भी तनहाई दूर करने का मौका दे दिया कीजिए,’’ नूर जल्दी से बोली. ‘‘आज शाम को. मगर देखिए, बेगम साहिबा को पता न चले. जरा संभल कर.’’ ‘‘छोडि़ए भी हुजूर, बेगम साहिबा को दूध में नींद की गोली दे दूंगा. आप कहिए तो गला ही दबा दूं.’’ ‘‘तोबातोबा, आप भी कैसी बातें करते हैं गुलफाम साहब, फिर फांसी पर चढ़ना होगा.

न बाबा, न. बस, आप रात में बेगम साहिबा के सोने पर जरा तशरीफ लाइए. कुछ गुफ्तगू करनी है. अच्छा, मैं चलूं,’’ कह कर नूर तो चली गई और बेचारे मिर्जा साहब सारे दिन खयालीपुलाव पकाते रहे. शाम होते ही मिर्जा साहब के शरीर में मानो नई फुरती उतर आई थी. आईना ले कर वह घंटों अपने मुखड़े को हर तरफ से निहारते रहे थे. ‘‘अरे बेगम, मैं ने कहा, अरी ओ मेरी इलायची,’’ मिर्जा साहब तेज आवाज में चिल्लाए. ‘‘आती हूं, तुम तो हरदम बेसुरे तबले की तरह बजा करते हो. क्या बात है?’’ बेगम पास आ कर झल्लाईं. ‘‘भई, तुम्हारी तो गुस्से में ही नाक रहती है. सुनो, जरा मेरा शेविंग बौक्स तो दे दो.’’ ‘‘हाय, तो क्या अब आप दाढ़ी भी बनाएंगे,’’ बेगम ने नजाकत से पूछा. ‘‘उफ बेगम, तुम भी मजाक करती हो. हम दाढ़ी नहीं बनाएंगे? भला क्यों? अरे, अभी तो हम ने अपनी जवानी का दीदार भी नहीं किया. देखो बेगम, मजाक मत करो. जाओ, जल्दी से शेविंग बौक्स ला दो.’’

बेगम पैर पटकते हुए गईं और शेविंग बौक्स ला कर मिर्जा साहब को थमा दिया. आईने को सामने रख कर बहुत जतन से मिर्जा साहब ने ब्लेड निकाला. पुराना जंग खाया ब्लेड. बहुत दिनों से दाढ़ी बनाने की जरूरत नहीं पड़ी थी, ब्लेड में भी जंग लग गया था. उन्होंने दाढ़ी बनानी शुरू की. कई जगह गाल कट भी गया, मगर उन के जोश में कोई कमी न आई. खून भी बहे तो क्या हुआ? दाढ़ी बनाने के बाद गुनगुनाते हुए वे उठे ही थे कि बेगम फिर सिर पर सवार हो गईं, ‘‘तुम तो सोतेजागते नूर का ही सपना देखते रहते हो. कुछ तो शर्म करो. वह तुम्हारी बेटी की तरह है.’’ ‘‘क्या बात कही है? अरी बेगम साहिबा, तुम कहती हो बेटी की तरह है और मैं कहता हूं… छोड़ो… सुनो, हम जरा कनाट प्लेस तक जा रहे हैं.’’

‘‘कनाट प्लेस?’’ बेगम चौंकीं. ‘‘हां, और देर रात गए आएंगे. हमारा इंतजार मत करना. खाना खा कर सो जाना,’’ उन्होंने शेरवानी और चूड़ीदार पाजामा पहना था और छड़ी घुमाते हुए बाहर निकल गए थे. उन के मन में तब भी नूर का चेहरा घूम रहा था. ‘‘मिर्जा साहब दिनभर यों ही इधरउधर घूमते रहे. रात में जब 9 बज गए, तब वे अपनी हवेली के अंदर दाखिल हुए. पता चला कि बेगम अभी भी जाग रही हैं. मिर्जा साहब ने माथा ठोंक लिया, ‘‘उफ बेगम, तुम भी हद करती हो. अरे, इंतजार की क्या जरूरत थी, खा कर सो गई होतीं.’’ बेगम नई दुलहन की तरह शरमाईं, ‘‘हाय, कैसी बात करते हो जी. बिना तुम्हारे खाए हम ने कभी खाया भी?है.’’ मिर्जा साहब ने मन ही मन बेगम को हजारों गालियां दीं. वे बोल थे, ‘‘सुनो, मुझे भूख नहीं है. एक गिलास दूध ला दो तो वही पी लेंगे.’’ ‘‘ठीक है, वही मैं भी पी लूंगी. खाने का मेरा बिलकुल भी मन नहीं है,’’ बेगम ने कहा और दूध लेने चली गईं.

मिर्जा साहब मन ही मन बड़े खुश हुए, सारा काम अपनेआप बनता जा रहा था. उन्होंने जेब से नींद की गोली की शीशी निकाली, जो कनाट प्लेस से उन्होंने खरीदी थी. तभी बेगम दूध का गिलास ले कर आ गईं. ‘‘अरे बेगम, दूध में शक्कर तो है ही नहीं. क्या डालना भूल गई?’’ उन्होंने दूध का गिलास होंठों से लगाते हुए कहा. ‘‘अभी लाती हूं,’’ कह कर बेगम बाहर चली गईं. उन्होंने इधरउधर देखा और जल्दी से सारी गोलियां बेगम के गिलास में उड़ेल कर उन्हें मिला दिया. बेगम ने लौट कर उन के गिलास में शक्कर डाली ही थी, तभी बिजली चली गई. ‘‘उफ, यह क्या हुआ,’’ बेगम झल्लाईं, मगर मिर्जा साहब की तो बांछें खिल गईं. अंधेरे की ही तो उन्हें जरूरत थी. अंधेरे में ही दूध का गिलास दोनों ने खाली किया था और फिर बेगम लेट गईं. मिर्जा साहब कुछ पल चोर नजरों से देखते रहे और फिर पुकारा,

‘‘बेगम, अरी ओ बेगम.’’ मगर, बेगम तो नींद की दुनिया में खो गई थीं. मिर्जा साहब आहिस्ता से उठे और बाहर निकल गए. वे कुछ पल तक बाहर वाली बैठक में बैठ कर इंतजार करते रहे थे कि कहीं बेगम बाहर न आ जाएं. मगर, बेगम तो नींद की दुनिया में खो गई थीं. इसी तरह जब आधा घंटा गुजर गया, तब वे आहिस्ता से उठे और नूर के कमरे का दरवाजा खटखटाया. होंठों ही होंठों में वह गुनगनाए, ‘जरा मन की किवडि़या खोल कि सइयां तेरे द्वारे खड़े.’ मगर दरवाजा न खुला. ‘‘नूर, अरे ओ प्यारी नूर,’’ मिर्जा साहब ने धीमी आवाज में पुकारा, मगर तब भी कोई आवाज न आई. मिर्जा साहब का दिल धड़क उठा, ‘‘उफ प्यारी नूर… जरा दिल का रोशनदान खोल कर देखो, बाहर तुम्हारी नजरों का दावेदार, तुम्हारे दिल का तलबगार खड़ा तुम्हें आवाज दे रहा है…’’ दरवाजा तब भी नहीं खुला था. मिर्जा साहब का मन मानो कांप उठा था, ‘‘हाय, क्या हो गया तुम्हें मेरी छप्पन छुरी? मेरे दिल की कटोरी, अरे, बाहर तो आओ. तुम्हारा गुलफाम तुम्हें पुकार रहा है,’’ मिर्जा साहब की आंखें बेबसी पर छलक आई थीं. ‘‘हाय, कमबख्त दिल तड़प रहा है.

जरा इस पर तो नजर डाल लो. देखो तो तुम्हारे लिए खास कनाट प्लेस से हम बर्गर लाए हैं. दोनों मिल कर खाएंगे और नजरों से बतियाएंगे. दरवाजा खोलो न,’’ मिर्जा साहब तड़प कर पुकार रहे थे. तभी धीरे से दरवाजा खुला और नूर की मीठी आवाज उभरी, ‘‘हाय, आप आ गए? उफ, कमबख्त आंखें लग गई थीं. आइए, अंदर आ जाइए.’’ अंदर गहरा अंधेरा था. मगर मिर्जा साहब के दिल में तो मानो हजारों वाट की लालटेन जल उठी थी, ‘‘हाय नूर, कहां हो तुम? अरे जालिम, अब तो सामने आओ. देखो तो नामुराद दिल तुम्हारे दीदार के लिए केकड़े के माफिक बारबार गरदन निकाल रहा है. कहां हो तुम?’’ मिर्जा साहब ने हाथ बढ़ा कर टटोला था. ‘‘मगर, बेगम साहिबा…?’’

नूर की आवाज फिर उभरी. ‘‘अरे, उस कमबख्त की बात मत करो. उसे तो नींद की गोली खिला कर आए हैं. अब तो बस, हम और तुम… हाय, क्या प्यारा मौसम है. प्यारी नूर, कहां हो तुम?’’ और तभी मौसम से अचानक ही बिजलियां टूट पड़ीं. उन के सिर पर किसी चीज का जोरदार धमाका हुआ था. और फिर धमाके होते चले गए थे. सिर, हाथ, पैर, सीना और कमर कोई भी तो जगह बाकी नहीं थी, जहां धमाका न हुआ हो. ऐन वक्त पर कमबख्त बिजली भी आ गई थी. मिर्जा साहब का सारा जोश ठंडा पड़ गया था. सामने भारीभरकम काया वाली बेगम साहिबा हाथ में झाड़ू लिए खड़ी थीं. ‘‘बेगम साहिबा तुम…?’’ मुंह से भरभराती आवाज निकली थी मिर्जा के… ‘‘हां, मैं…,’’

और बेगम साहिबा के मुंह से गालियों का तूफान टूट पड़ा था. हाथ में जैसे बिजली भर गई थी और झाड़ू फिर मिर्जा साहब के सूखे जिस्म पर टूट पड़ी थी. मिर्जा साहब की नजरों के आगे जैसे अंधेरा सा छा गया था और वे धड़ाम से गिर कर बेहोश हो गए. फिर उन्हें पता नहीं चला कि क्या हुआ? जाने कब वह अपने कमरे में पहुंचे थे, उन्हें कुछ भी याद नहीं था. बस, उन्हें इतना ही याद था कि होश आने के बाद गुलफाम बनने का नशा सिर से उतर गया था. पहलीपहली बार इश्क का पहाड़ा पढ़ने चले थे और जो ठोकर मिली थी, उस ने उन्हें गुलफाम से फिर अख्तर बना दिया था. उधर नूर बराबर वाले हिस्से में मिर्जा साहब के बेटे से चोंचें लड़ा रही थी. उस ने कई दिन पहले उन के बेटे को मुंबई से बुला लिया था और सारी बात बताई थी. बेटे को नूर की हिम्मत पर बहुत नाज हो गया और उस ने शादी की इच्छा जाहिर कर दी थी. अब नूर और मिर्जा साहब का बेटा बगल वाले हिस्से में एक खाली रह गए फ्लैट में रहेंगे. और नूर के मातापिता…? वे मिर्जा और मिर्जाइन के हिस्से में परमानैंट मेहमान बने रहेंगे. यह सब जान कर मिर्जा साहब का दिल कितना घायल हुआ, न पूछें. Story In Hindi

Hindi Story: बहू हो या बेटी – हिना और शारदा के रिश्ते से लोगों को क्या दिक्कत थी

Hindi Story: रूबी ताई ने जैसे ही बताया कि हिना छत पर रेलिंग पकड़े खड़ी है तो घर में हलचल सी मच गई.

‘‘अरे, वह छत पर कैसे चली गई, उसे तीसरे माले पर किस ने जाने दिया,’’ शारदा घबरा उठी थीं, ‘‘उसे बच्चा होने वाला है, ऐसी हालत में उसे छत पर नहीं जाना चाहिए.’’

आदित्य चाय का कप छोड़ कर तुरंत सीढि़यों की तरफ दौड़ा और हिना को सहारा दे कर नीचे ले आया. फिर कमरे में ले जा कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया.

हिना अब भी न जाने कहां खोई थी, न जाने किस सोच में डूबी हुई थी.

हिना का जीवन एक सपना जैसा ही बना हुआ था. खाना बनाती तो परांठा तवे पर जलता रहता, सब्जी छौंकती तो उसे ढकना भूल जाती, कपड़े प्रेस करती तो उन्हें जला देती.

हिना जब बहू के रूप में घर में आई थी तो परिवार व बाहर के लोग उस की खूबसूरती देख कर मुग्ध हो उठे थे. उस के गोरे चेहरे पर जो लावण्य था, किसी की नजरों को हटने ही नहीं देता था. कोई उस की नासिका को देखता तो कोई उस की बड़ीबड़ी आंखों को, किसी को उस की दांतों की पंक्ति आकर्षित करती तो किसी को उस का लंबा कद और सुडौल काया.

सांवला, साधारण शक्लसूरत का आदित्य हिना के सामने बौना नजर आता.

शारदा गर्व से कहतीं, ‘‘वर्षों खोजने पर यह हूर की परी मिल पाई है. दहेज न मिला तो न सही पर बहू तो ऐसी मिली, जिस के आगे इंद्र की अप्सरा भी पानी भरने लगे.’’

धीरेधीरे घर के लोगों के सामने हिना के जीवन का दूसरा पहलू भी उजागर होने लगा था. उस का न किसी से बोलना न हंसना, न कहीं जाने का उत्साह दिखाना और न ही किसी प्रकार की कोई इच्छा या अनिच्छा.

‘‘बहू, तुम ने आज स्नान क्यों नहीं किया, उलटे कपडे़ पहन लिए, बिस्तर की चादर की सलवटें भी ठीक नहीं कीं, जूठे गिलास मेज पर पडे़ हैं,’’ शारदा को टोकना पड़ता.

फिर हिना की उलटीसीधी विचित्र हरकतें देख कर घर के सभी लोग टोकने लगे, पर हिना न जाने कहां खोई रहती, न सुनती न समझती, न किसी के टोकने का बुरा मानती.

एक दिन हिना ने प्रेस करते समय आदित्य की नई शर्ट जला डाली तो वह क्रोध से भड़क उठा, ‘‘मां, यह पगली तुम ने मेरे गले से बांध दी है. इसे न कुछ समझ है न कुछ करना आता है.’’

उस दिन सभी ने हिना को खूब डांटा पर वह पत्थर बनी रही.

शारदा दुखी हो कर बोलीं, ‘‘हिना, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं, घर का काम करना नहीं आता तो सीखने का प्रयास करो, रूबी से पूछो, मुझ से पूछो, पर जब तुम बोलोगी नहीं तो हम तुम्हें कैसे समझा पाएंगे.’’

एक दिन हिना ने अपनी साड़ी के आंचल में आग लगा ली तो घर के लोग उस के रसोई में जाने से भी डरने लगे.

‘‘हिना, आग कैसे लगी थी?’’

‘‘मांजी, मैं आंचल से पकड़ कर कड़ाही उतार रही थी.’’

‘‘कड़ाही उतारने के लिए संडासी थी, तौलिया था, उन का इस्तेमाल क्यों नहीं किया था?’’ शारदा क्रोध से भर उठी थीं, ‘‘जानती हो, तुम कितनी बड़ी गलती कर रही थीं…इस का दुष्परिणाम सोचा है क्या? तुम्हारी साड़ी आग पकड़ लेती तब तुम जल जातीं और तुम्हारी इस गलती की सजा हम सब को भोगनी पड़ती.’’

आदित्य हिना को मनोचिकित्सक को दिखाने ले गया तो पता लगा कि हिना डिप्रेशन की शिकार थी. उसे यह बीमारी कई साल पुरानी थी.

‘‘डिपे्रशन, यह क्या बला है,’’ शारदा के गले से यह बात नहीं उतर पा रही थी कि अगर हिना मानसिक रोगी है तो उस ने एम.ए. तक की पढ़ाई कैसे कर ली, ब्यूटीशियन का कोर्स कैसे कर लिया.

‘‘हो सकता है हिना पढ़ाई पूरी करने के बाद डिप्रेशन की शिकार बनी हो.’’

आदित्य ने फोन कर के अपने सासससुर से जानकारी हासिल करनी चाही तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर कर दी.

शारदा परेशान हो उठीं. लड़की वाले साफसाफ तो कुछ बताते नहीं कि उन की बेटी को कौन सी बीमारी है, और कुछ हो जाए तो सारा दोष लड़के वालों के सिर मढ़ कर अपनेआप को साफ बचा लेते हैं.

‘‘मां, इस पागल के साथ जीवन गुजारने से तो अच्छा है कि मैं इसे तलाक दे दूं,’’ आदित्य ने अपने मन की बात जाहिर कर दी.

घर के दूसरे लोगोें ने आदित्य का समर्थन किया.

घर में हिना को हमेशा के लिए मायके भेजने की बातें अभी चल ही रही थीं कि एक दिन उसे जोरों से उलटियां शुरू हो गईं.

डाक्टर के यहां ले जाने पर पता चला कि वह मां बनने वाली है.

‘‘यह पागल हमेशा को गले से बंध जाए इस से तो अच्छा है कि इस का एबौर्शन करा दिया जाए,’’ आदित्य आक्रोश से उबल रहा था.

शारदा का विरोध घर के लोगों की तेज आवाज में दब कर रह गया.

आदित्य, हिना को डाक्टर के यहां ले गया,  पर एबौर्शन नहीं हो पाया क्योंकि समय अधिक गुजर चुका था.

घर में सिर्फ शारदा ही खुश थीं, सब से कह रही थीं, ‘‘बच्चा हो जाने के बाद हिना का डिप्रेशन अपनेआप दूर हो जाएगा. मैं अपनी बहू को बेटी के समान प्यार दूंगी. हिना ने मेरी बेटी की कमी दूर कर दी, बहू के रूप में मुझे बेटी मिली है.’’

अब शारदा सभी प्रकार से हिना का ध्यान रख रही थीं, हिना की सभी प्रकार की चिकित्सा भी चल रही थी.

लेकिन हिना वैसी की वैसी ही थी. नींद की गोलियों के प्रभाव से वह घंटों तक सोई रहती, परंतु उस के क्रियाकलाप पहले जैसे ही थे.

‘‘अगर बच्चे पर भी मां का असर पड़ गया तो क्या होगा,’’ आदित्य का मन संशय से भर उठता.

‘‘तू क्यों उलटीसीधी बातें बोलता रहता है,’’ शारदा बेटे को समझातीं, ‘‘क्या तुझे अपने खून पर विश्वास नहीं है? क्या तेरा बेटा पागल हो सकता है?’’

‘‘मां, मैं कैसे भूल जाऊं कि हिना मानसिक रोगी है.’’

‘‘बेटा, जरूर इस के दिल को कोई सदमा लगा होगा, वक्त का मरहम इस के जख्म भर देगा. देख लेना, यह बिलकुल ठीक हो जाएगी.’’

‘‘तो करो न ठीक,’’  आदित्य व्यंग्य कसता, ‘‘आखिर कब तक ठीक होगी यह, कुछ मियाद भी तो होगी.’’

‘‘तू देखता रह, एक दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा…पहले घर में बच्चे के रूप में खुशियां तो आने दे,’’ शारदा का विश्वास कम नहीं होता था.

पूरे घर में एक शारदा ही ऐसी थीं जो हिना के पक्ष में थीं, बाकी लोग तो हिना के नाम से ही बिदकने लगे थे.

शारदा अपने हाथों से फल काट कर हिना को खिलातीं, जूस पिलातीं, दवाएं पिलातीं, उस के पास बैठ कर स्नेह दिखातीं.

प्यार से तो पत्थर भी पिघल जाता है, फिर हिना ठहरी छुईमुई सी लड़की.

‘‘मांजी, आप मेरे लिए इतना सब क्यों कर रही हैं,’’ एक दिन पत्थर के ढेर से पानी का स्रोत फूट पड़ा.

हिना को सामान्य ढंग से बातें करते देख शारदा खुश हो उठीं, ‘‘बहू, तुम मुझ से खुल कर बातें करो, मैं यही तो चाहती हूं.’’

हिना उठ कर बैठ गई, ‘‘मैं अपनी जिम्मेदारियां ठीक से नहीं निभा पा रही हूं.’’

‘‘तुम मां बनने वाली हो, ऐसी हालत में कोई भी औरत काम नहीं कर सकती. सभी को आराम चाहिए, फिर मैं हूं न. मैं तुम्हारे बच्चे को नहलाऊंगी, मालिश करूंगी, उस के लिए छोटेछोटे कपडे़ सिलूंगी.’’

हिना अपने पेट में पलते नवजात शिशु की हलचल को महसूस कर के सपनों में खो जाती, और कभी शारदा से बच्चे के बारे में तरहतरह के प्रश्न पूछती रहती.

‘‘हिना ठीक हो रही है. देखो, मैं कहती थी न…’’ शारदा उत्साह से भरी हुई सब से कहती रहतीं.

आदित्य भी अब कुछ राहत महसूस कर रहा था और हिना के पास बैठ कर प्यार जताता रहता.

एक शाम आदित्य हिना के लिए जामुन खरीद कर लाया तो शारदा का ध्यान जामुन वाले कागज के लिफाफे की तरफ आकर्षित हुआ.

‘‘देखो, इस कागज पर बनी तसवीर हिना से कितनी मिलतीजुलती है.’’

आदित्य के अलावा घर के अन्य लोग भी उस तसवीर की तरफ आकर्षित हुए.

‘‘हां, सचमुच, यह तो दूसरी हिना लग रही है, जैसे हिना की ही जुड़वां बहन हो, क्यों हिना, तुम भी तो कुछ बोलो.’’

हिना का चेहरा उदास हो उठा, उस की आंखें डबडबा आईं, ‘‘हां, यह मेरी ही तसवीर है.’’

‘‘तुम्हारी?’’ घर के लोग आश्चर्य से भर उठे.

‘‘मैं ने कुछ समय मौडलिंग की थी. पैसा और शौक पूरा करने के लिए यह काम मुझे बुरा नहीं लगा था, पर आप लोग मेरी इस गलती को माफ कर देना.’’

‘‘तुम ने मौडलिंग की, पर मौडल बनना आसान तो नहीं है?’’

‘‘मैं अपने कालिज के ब्यूटी कांटेस्ट में प्रथम चुनी गई थी. फिर…’’

‘‘फिर क्या?’’ शारदा ने उस का उत्साह बढ़ाया, ‘‘बहू, तुम ब्यूटी क्वीन चुनी गईं, यह बात तो हम सब के लिए गर्व की है, न कि छिपाने की.’’

‘‘फिर इस कंपनी वालों ने खुद ही मुझ से कांटेक्ट कर के मुझे अपनी वस्तुओं के विज्ञापनों में लिया था,’’ इतना बताने के बाद हिना हिचकियां भर कर रोने लगी.

काफी देर बाद वह शांत हुई तो बोली, ‘‘मुझे एक फिल्म में सह अभिनेत्री की भूमिका भी मिली थी, पर मेरे पिताजी व ताऊजी को यह सब पसंद नहीं आया.’’

अब हिना की बिगड़ी मानसिकता का रहस्य शारदा के सामने आने लगा था.

हिना ने बताया कि उस के रूढि़वादी घर वालों ने न सिर्फ उसे घर में बंद रखा बल्कि कई बार उसे मारापीटा भी गया और उस के फोन सुनने पर भी पाबंदी लगा दी गई थी.

शारदा के मन में हिना के प्रति वात्सल्य उमड़ पड़ा था.

हिना के मौडलिंग की बात खुल जाने से उस के मन का बोझ हलका हो गया था. वह बोली, ‘‘मांजी, मुझे डर था कि आप लोग यह सबकुछ जान कर मुझे गलत समझने लगेंगे.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचा तुम ने?’’

‘‘लोग मौडलिंग के पेशे को अच्छी नजर से नहीं देखते और ऐसी लड़की को चरित्रहीन समझने लगते हैं. फिर उस लड़की का नाम कई पुरुषों के साथ जोड़ दिया जाता है, मेरे साथ भी यही हुआ था.’’

‘‘बेटी, सभी लोग एक जैसे नहीं हुआ करते. आजकल तुम खुश रहा करो. खुश रहोगी तो तुम्हारा बच्चा भी खूबसूरत व निरोग पैदा होगा.’’

शारदा का स्नेह पा कर हिना अपने को धन्य समझ रही थी कि आज के समय में मां की तरह ध्यान रखने वाली सास भी है, वरना उस ने तो सास के बारे में कुछ और ही सुन रखा था.

नियत समय पर हिना ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया तो घर में खुशियों की शहनाई गूंज उठी.

हिना बेटे की किलकारियों में खो गई. पूरे दिन बच्चे के इतने काम थे कि उस के अलावा और कुछ सोचने की उसे फुरसत ही नहीं थी.

एक दिन शारदा की इस बात ने घर में विस्फोट जैसा वातावरण बना दिया कि हिना धारावाहिक में काम करेगी. पारस, मेरी सहेली के पति हैं और वह एक पारिवारिक धारावाहिक बना रहे हैं. उन्होंने हिना को कई बार देखा है और मेरे सामने प्रस्ताव रखा है कि आदर्श बहू की भूमिका वह हिना को देना चाहते हैं.

‘‘मां, तुम यह क्या कह रही हो. हिना को धारावाहिक में काम दिलवाओगी, वह कहावत भूल गईं कि औरत को खूंटे से बांध कर रखना चाहिए. एक बार औरत के कदम घर से बाहर निकल जाएं तो घर में लौटना कठिन रहता है,’’ आदित्य आक्रोश से उबल रहा था.

शारदा भी क्रोध से भर उठीं, ‘‘क्या मैं औरत नहीं हूं? पति के मरने के बाद मैं ने घर से बाहर जा कर सैकड़ों जिम्मेदारियां पूरी की हैं. मां बन कर तुम्हें जन्म दिया और बाप बन कर पाला है. सैकड़ों कष्ट झेले, पैसा कमाने को छोटीछोटी नौकरियां कीं, कठिन परिश्रम किया, तो क्या मैं ने अपना घर उजाड़ लिया? पुरुष तो सभी जगहों पर होते हैं, रूबी ताई भी तो दफ्तर में नौकरी कर रही है, क्या उस ने अपना घर उजाड़ लिया है. फिर हिना के बारे में ही ऐसा क्यों सोचा जा रहा है?

‘‘अगर तुम हिना को खूंटे से ही बांधना चाहते हो तो पहले मुझे बांधो, रूबी को बांधो. हिना का यही दोष है न कि वह सामान्य से कुछ अधिक ही खूबसूरत है, पर यह उस का दोष नहीं है. अरे, कोई खूबसूरत चीज है तो लोगों की नजरें उस तरफ उठेंगी ही.’’

शारदा के तर्कों के आगे सभी की जुबान पर ताले लग गए थे.

हिना शारदा की गोद में मुंह छिपा कर रो रही थी. फिर अपने आंसुओं को पोंछ कर बोली, ‘‘मां, तुम सचमुच मेरे लिए मेरा आदर्श ही नहीं बल्कि मां भी हो.’’

एक दिन जब हिना का धारावाहिक टेलीविजन पर प्रसारित हुआ तो उस के अभिनय की सभी ने तारीफ की और बधाइयां मिलने लगीं.

हिना उत्तर देती, ‘‘बधाई की पात्र तो मेरी सास हैं, उन्हीं ने मुझे डिप्रेशन से मुक्ति दिलाई और एक नया सम्मान से भरा जीवन दिया.’’

शारदा सिर्फ मुसकरा कर रह जातीं, ‘‘बहू हो या बेटी, दोनों ही एक हैं. दोनों के प्रति एक ही प्रकार से फर्ज निभाना चाहिए.’’ Hindi Story

Family Story In Hindi: शी ऐंड ही – शिल्पा के तलाक के पीछे क्या थी असलियत

Family Story In Hindi: पहले ‘शी’ और ‘ही’ से आप का परिचय करा दूं. ‘शी’ उर्फ शिल्पा- तीखे नैननक्श वाली भद्र महिला हैं. वे सक्सैसफुल होममेकर एवं फैशन डिजाइनर हैं. काफी बिजी रहती हैं. उन का अपने होम से और प्रोफैशन से पूरा जुड़ाव और समर्पण है. उन की अपनी दिनचर्या है. हर वक्त के लिए उन के पास काम है और हर काम के लिए वक्त. उन की अपनी ही दुनिया है.

‘ही’ उर्फ हिमांशु एमएनसी में ऊंचे ओहदे पर हैं. मुंबई कोलकाता फ्लाइट लेने से पहले एअरपोर्ट पर शिल्पा हिमांशु की मुलाकात हुई. हिमांशु को स्मार्ट शिल्पा अच्छी लगी. शिल्पा ने भी इस लंबे छरहरे युवक को पसंद किया. लंबी डेटिंग के बाद परिवार वालों की अनुमति ले कर दोनों जीवनसाथी बन गए.

कोलकाता के एक बड़े रैजिडैंशियल कौंप्लैक्स में इन की मजे की गृहस्थी चल रही है. उम्र ने हिमांशु को कुछ ज्यादा ही प्रभावित किया. वजन पर कंट्रोल नहीं रख पाए, हेयर लौस नहीं रोक पाए. कुछ आनुवंशिक प्रभाव भी रहा.

‘‘शीलू हिमांशु के बीच सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है…’’ मोना ने दिव्या को ब्रेकिंग न्यूज दी.

मोना को फिल्मी सितारों की पर्सनल लाइफ में काफी दिलचस्पी थी. सैलिब्रिटीज  और सिनेस्टार कपल्स के आपसी रिश्तों की खटास की पूरी जानकारी थी. ताकझांक मोना का पसंदीदा शौक था.

‘‘कैसे पता चला? पक्की न्यूज है?’’ दिव्या ने पूरी जानकारी चाही.

‘‘मेरी मेड गौरी ने बताया. शिल्पा की मेड अपने गांव गई है. गौरी आजकल वहां भी काम कर रही है. बता रही थी कि मियांबीवी अलगअलग सोते हैं… उस ने इंगलिश में डिवोर्स की चर्चा भी सुनी है,’’ मोना ने बताया.

‘‘मैडम फैशन सैलिब्रिटी बन गई हैं… बेचारा हिमांशु… शिल्पा की उस ने कितनी सपोर्ट की थी,’’ दिव्या ने हिमांशु का पक्ष लिया.

‘‘शिल्पा ने खुद को काफी मैंटेन किया है… टिपटौप रहती है… अब जोड़ी जमती

भी नहीं है,’’ मोना ने शिल्पा की फिगर की तारीफ की.

‘‘हसबैंड का स्टेटस और पैकेज तो अच्छा है?’’ दिव्या ने तर्क दिया.

‘‘कोई और भा गया होगा… फैशन की दुनिया ही निराली है… तिकोने दिल पर किस का जोर चलता है… ‘चरणदास को पीने की आदत न होती तो आज मियां अंदर बीवी बाहर न सोती…’ मोना पुराना फिल्मी गीत गुनगुनाते हुए मुसकराई.

मोना, दिव्या, मंजरी, शालिनी, रागिनी, अल्पना, नेहा और प्रतिभा किट्टी से जुड़ी थीं. शिल्पा भी कभी उन के साथ थी. मगर व्यस्तता के कारण उस ने किनारा कर लिया था. लेकिन मोना ऐंड कंपनी की शिल्पा में रुचि यथावत बनी रही.

देर रात अल्पना के रैजिडैंस पर पार्टी थी. अल्पना के हसबैंड दौरे पर थे. बच्चे छोटे थे.

वे सो चुके थे. ताश के पत्ते और पनीर पकौड़ों के साथ ठहाकों का दौर चल रहा था. शिल्पाहिमांशु के बे्रकअप की हौट न्यूज पर चर्चा चल रही थी.

‘‘गौरी ने और क्या न्यूज दी?’’ मंजरी की कुछ और जानने की जिज्ञासा हुई.

‘‘डिवोर्स इतना आसान नहीं होता… बिटिया राजस्थान के नामी स्कूल में पढ़ रही है,’’ मोना के पास कोई खास अपडेट नहीं था.

‘‘पेरैंट्स में तनाव होता है… फैमिली बिखर जाती है. बच्चों पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता है?’’ शालिनी ने चिंता जताई.

‘‘हसबैंड वाइफ की तरक्की पचा नहीं पाते,’’ प्रतिभा ने पत्ते बांटते हुए अपना मंतव्य दिया.

‘‘शिल्पा ने सोचसमझ कर ही स्टैप लिया होगा,’’ नेहा ने अपना विचार व्यक्त किया.

‘‘शिल्पा से मिलूंगी… हमारी दोस्त रही है… मौरल सपोर्ट जिम्मेदारी बनती है,’’ रागिनी ने अपना निश्चय बताया.

‘‘मैं भी साथ चलूंगी,’’ मोना को भी अपनी जिम्मेदारी का एहसास हुआ.

संडे को शिल्पा घर पर ही थी. हिमांशु जयपुर निकल चुके थे. बिटिया को अगली क्लास में दाखिला दिलाना था. शिल्पा को भी हिमांशु के साथ जाना था. लेकिन हिमांशु को जयपुर से मुंबई निकलना था. शिल्पा ने बिटिया को हिमांशु के प्रोग्राम की जानकारी दी और उस के बर्थडे पर पापा के साथ आने की बात कही.

शिल्पा की रागिनी और मोना से लंबे अंतराल पर मुलाकात हुई थी. शिल्पा को अच्छा लगा. एक सुखद एहसास हुआ.

‘‘मेरी व्यस्तता काफी बढ़ गई है… मिलने की इच्छा तो होती है पर संभव नहीं हो पाता,’’ शिल्पा ने अपनी मजबूरी बताई.

‘‘गौरी का काम पसंद आया,’’ मोना ने पूछा.

‘‘ठीकठाक है… वैसे मीरा संभवतया अगले हफ्ते लौट आएगी,’’ शिल्पा को गौरी के काम से कोई शिकायत नहीं थी. मीरा शिल्पा की मेड थी.

‘‘और बताओ, गृहस्थी की गाड़ी कैसी चल रही है? बिटिया को कच्ची उम्र में इतनी दूर भेज दिया?’’ रागिनी को शिल्पा से सब कुछ उगलवाने की जल्दी थी.

‘‘हमें भी संस्कृति को होस्टल भेज कर अच्छा नहीं लगा. याद आती है तो हम दोनों साझा रो लेते हैं. यहां प्रोग्रैस कुछ ठीक नहीं थी. उस के भविष्य के लिए यही सही था. हम ने सोचसमझ कर बिटिया को दूर भेजने का फैसला किया,’’ शिल्पा की आंखें भर आईं.

‘‘बिटिया पर ही फुलस्टौप करना है? संस्कृति राखी किस की कलाई पर बांधेगी?’’ रागिनी ने सीधा सवाल किया.

‘‘पहले मिठाई, नमकीन और कौफी हो जाए, फिर तुम्हारे सवाल पर आऊंगी,’’ शिल्पा ने इजाजत ली और नाश्ते की तैयारी के लिए किचन का रुख किया.

नाश्ते के बाद शिल्पा ने रागिनी के सवाल का जवाब दिया, ‘‘हम दोनों अपना पूरा प्यार संस्कृति पर लुटाना चाहते हैं. उस की अच्छी शिक्षा, सुयोग्य वर ही हमारा लक्ष्य है. दूसरी संतान के लिए काफी देर हो चुकी है. हम ने दूसरी संतान के बजाय अपने कैरियर को प्राथमिकता दी और अब तो हम ने स्लीप डिवोर्स ले रखा है,’’ शिल्पा ने बताया.

‘‘डिवोर्स ले रखा है? क्या हिमांशु से नहीं बनती? शारीरिक मानसिक यंत्रणा देते हैं? तुम ने कभी बताया नहीं,’’ रागिनी ने एकसाथ कई प्रश्न कर डाले.

‘‘हमारे आपसी संबंध काफी अच्छे हैं. हिमांशु मेरी केयर करते हैं, मुझे प्यार करते हैं, मेरी जरूरतों को पूरा करते हैं, सपोर्ट करते हैं. कभी शिकायत का मौका नहीं देते,’’ शिल्पा ने हिमांशु की तारीफ की.

‘‘आप दोनों साथसाथ रहते हैं… यह कैसा आधाअधूरा डिवोर्स है?’’ शिल्पा का किस्सा मोना के पल्ले नहीं पड़ा.

‘‘हमारा केवल स्लीप डिवोर्स है… हम एक ही बैड शेयर नहीं करते. यह मात्र नाइट डिवोर्स है… हम दोनों काफी व्यस्त रहते हैं. हिमांशु को देर रात तक लैपटौप पर काम करना पड़ता है. मैं थक कर लौटती हूं. अच्छी नींद स्वस्थ एवं फिट रहने के लिए बेहद जरूरी है. हिमांशु गहरी नींद में खर्राटे भी लेते हैं. कभी मुझे सुबह देर तक सोने की इच्छा होती है. हिमांशु को मेरी फिक्र रहती है. स्लीप डिवोर्स हिमांशु ने प्रपोज किया और इस के लिए मुझे तैयार किया,’’ शिल्पा ने मोना और रागिनी को पूरी बात बताई.

‘‘तुम्हारे बीच कोई इशू नहीं है?’’ मोना अचंभे में थी.

‘‘बिलकुल नहीं. आपसी सहमति से दंपती के अलग कमरे में सोने में, स्लीप डिवोर्स में कोई बुराई नहीं है. दंपती का एक ही बैड शेयर करना पुराना विचार, पुरानी परंपरा है. स्लीप डिवोर्स से आपसी संबंध में मजबूती आती है. कार्यरत और बिजी दंपतियों को विशेषरूप से इस की जरूरत महसूस होती है. मनोचिकित्सक इस की सलाह देते हैं. हम ने भी इस की जरूरत समझी और अपनाया. इस में कोर्ट और वकील की कोई जरूरत नहीं पड़ती,’’ शिल्पा ने पूरी जानकारी दी.

रागिनी और मोना निराश हो कर लौट गईं. उन्हें फ्लैश करने के लिए कोई ब्रेकिंग न्यूज जो नहीं मिली थी. Family Story In Hindi

Story In Hindi: बाढ़ – क्या मीरा और रघु के संबंध लगे सुधरने

Story In Hindi: बौस ने जरूरी काम बता कर मीरा को दफ्तर में ही रोक लिया और खुद चले गए.

मीरा को घर लौटने की जल्दी थी. उसे शानू की चिंता सता रही थी. ट्यूशन पढ़ कर लौट आया होगा, खुद ब्रेड सेंक कर भी नहीं खा सकता, उस के इंतजार में बैठा होगा.

बाहर तेज बारिश हो रही थी…अचानक बिजली चली गई तो मीरा इनवर्टर की रोशनी में काम पूरा करने लगी. तभी फोन की घंटी बज उठी.

‘‘मां, तुम कितनी देर में आओगी?’’ फोन कर शानू ने जानना चाहा, ‘‘घर में कुछ खाने को नहीं है.’’

‘‘पड़ोस की निर्मला आंटी से ब्रेड ले लेना,’’ मीना ने बेटे को समझाया.

‘‘बिजली के बगैर घर में कितना अंधेरा हो गया है, मां. डर लग रहा है.’’

‘‘निर्मला आंटी के घर बैठे रहना.’’

‘‘कितनी देर में आओगी?’’

‘‘बस, आधा घंटा और लगेगा. देखो, मैं लौटते वक्त तुम्हारे लिए बर्गर, केले व आम ले कर आऊंगी, होटल से पनीर की सब्जी भी लेती आऊंगी.’’

बेटे को सांत्वना दे कर मीरा तेजी से काम पूरा करने लगी. वह सोच रही थी कि महानगर में इतनी देर तक बिजली नहीं जाती, शायद बरसात की वजह से खराबी हुई होगी.

काम पूरा कर के मीरा ने सिर उठाया तो 9 बज चुके थे. चौकीदार बैंच पर बैठा ऊंघ रहा था.

मीरा को इस वक्त एक प्याला चाय पीने की इच्छा हो रही थी, पर घर भी लौटने की जल्दी थी. चौकीदार से ताला बंद करने को कह कर मीरा ने पर्स उठाया और जीना उतरने लगी.

चारों तरफ घुप अंधेरा फैला हुआ था. क्या हुआ बिजली को, सोचती हुई मीरा अंदाज से टटोल कर सीढि़यां उतरने लगी. घोर अंधेरे में तीसरे माले से उतरना आसान नहीं होता.

सड़क पर खड़े हो कर उस ने रिकशा तलाश किया, जब नहीं मिला तो वह छाता लगा कर पैदल ही आगे बढ़ने लगी.

अब न तो कहीं रुक कर चाय पीने का समय रह गया था न कुछ खरीदारी करने का.

थोड़ा रुक कर मीरा ने बेटे को मोबाइल से फोन मिलाया तो टींटीं हो कर रह गई.

अंधेरे में अचानक मीरा को ऐसा लगा जैसे वह नदी में चली आई हो. सड़क पर इतना पानी कहां से आ गया…सुबह निकली थी तब तो थोड़ा सा ही पानी भरा हुआ था, फिर अचानक यह सब…

अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि पानी गले तक पहुंचने लगा. वह घबरा कर कोई आश्रय स्थल खोजने लगी.

घने अंधेरे में उसे दूर कुछ बहुमंजिली इमारतें दिखाई पड़ीं. मीरा उसी तरफ बढ़ने लगी पर वहां पहुंचना उस के लिए आसान नहीं था.

जैसेतैसे मीरा एक बिल्ंिडग के नीचे बनी पार्किंग तक पहुंच पाई. पर उस वक्त वह थकान की अधिकता व भीगने की वजह से अपनेआप को कमजोर महसूस कर रही थी.

मीरा को यह स्थान कुछ जानापहचाना सा लगा. दिमाग पर जोर दिया तो याद आया, इसी इमारत की दूसरी मंजिल पर वह रघु के साथ रहती थी.

फिर रघु के गैरजिम्मेदाराना रवैये से परेशान हो कर उस ने उस के साथ संबंध विच्छेद कर लिया था. उस वक्त शानू सिर्फ ढाई वर्ष का था. अब तो कई वर्ष गुजर चुके हैं…शानू 10 वर्ष का हो चुका है.

क्या पता रघु अब भी यहां रहता है या चला गया, हो सकता है उस ने दूसरा विवाह कर लिया हो.

मीरा को लग रहा था कि वह अभी गिर पडे़गी. ठंड लगने से कंपकंपी शुरू हो गई थी.

एक बार ऊपर जाने में हर्ज ही क्या है. रघु न सही कोई दूसरा सही, उसे किसी का सहारा तो मिल ही जाएगा. उस ने सोचा और जीने की सीढि़यां चढ़ने लगी…फिर उस ने फ्लैट का दरवाजा जोर से खटखटा दिया.

किसी ने दरवाजा खोला और मोमबत्ती की रोशनी में उसे देखा, बोला, ‘‘मीरा, तुम?’’

रघु की आवाज पहचान कर मीरा को भारी राहत मिली…फिर वह रघु की बांहों में गिर कर बेसुध होती चली गई.

कंपकपाते हुए मीरा ने भीगे कपडे़ बदल कर, रघु के दिए कपडे़ पहने फिर चादर ओढ़ कर बिस्तर पर लेट गई.

कानूनी संबंध विच्छेद के वर्षों बाद फिर से उस घर में आना मीरा को बड़ा विचित्र लग रहा है, उस के  व रघु के बीच जैसे लाखों संकोच की दीवारें खड़ी हो गई हैं.

रघु चाय बना कर ले आया, ‘‘लो, चाय के साथ दवा खा लो, बुखार कम हो जाएगा.’’

दवा ने अच्छा काम किया…मीरा उठ कर बैठ गई.

रघु खाना बना रहा था.

‘‘तुम ने शादी नहीं की?’’ मीरा ने धीरे से प्रश्न किया.

‘‘मुझ से कौन औरत शादी करना पसंद करेगी, न सूरत है न अक्ल और न पैसा…तुम ने ही मुझे कब पसंद किया था, छोड़ कर चली गई थीं.’’

मीरा देख रही थी. पहले के रघु व इस रघु में बहुत बड़ा अंतर आ चुका है.

‘‘तुम ने खाना बनाना कब सीख लिया? सब्जी तो बहुत स्वादिष्ठ बनाई है.’’

‘‘तुम चली गईं तो मुझे खाना बना कर कौन खिलाता, सारा काम मुझे ही करना पड़ा, धीरेधीरे सारा कुछ सीख लिया, बरतन साफ करता हूं, कपड़े धोता हूं, इस्तिरी करता हूं.’’

‘‘आज बिजली को क्या हुआ, आ जाती तो मैं फोन चार्ज कर लेती.’’

‘‘तुम्हें शायद पता नहीं, पूरे शहर में बाढ़ का पानी फैल चुका है. बिजली, टेलीफोन सभी की लाइनें खराब हो चुकी हैं, ठीक करने में पता नहीं कितने दिन लग जाएं.’’

मीरा घबरा गई, ‘‘बाढ़ की वजह से मैं घर कैसे जा पाऊंगी…शानू घर में अकेला है.’’

‘‘शानू यानी हमारा बेटा,’’ रघु चिंतित हो उठा, ‘‘मैं वहां जाने का प्रयास करता हूं.’’

मीरा ने पता बताया तो रघु के चेहरे पर चिंता की लकीरें और अधिक बढ़ गईं. वह बोला, ‘‘मीरा, उस इलाके में 10 फुट तक पानी चढ़ चुका है. मैं उसी तरफ से आया था, मुझे तैरना आता है इसलिए निकल सका नहीं तो डूब जाता.’’

‘‘शानू, मेरा बेटा…किसी मुसीबत में न फंस गया हो,’’ कह कर मीरा रोने लगी.

‘‘चिंता करने से क्या हासिल होगा, अब तो सबकुछ समय पर छोड़ दो,’’ रघु उसे सांत्वना देने लगा. पर चिंता तो उसे भी हो रही थी.

दोनों ने जाग कर रात बिताई.

हलका सा उजाला हुआ तो रघु ने पाउडर वाले दूध से 2 कप चाय बनाई.

मीरा को चाय, बिस्कुट व दवा की गोली खिला कर बोला, ‘‘मैं जा कर देखता हूं, शानू को ले कर आऊंगा.’’

‘‘उसे पहचानोगे कैसे, वर्षों से तो तुम ने उसे देखा नहीं.’’

‘‘बाप के लिए अपना बेटा पहचानना कठिन नहीं होता, तुम ने कभी अपना पता नहीं बताया, कभी मुझ से मिलने नहीं आईं, जबकि मैं ने तुम्हें काफी तलाश किया था. एक ही शहर में रह कर हम दोनों अनजान बने रहे,’’ रघु के स्वर में शिकायत थी.

‘‘मैं ही गलती पर थी, तुम्हें पहचान नहीं पाई. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतना बदल सकते हो. शराब पीना और जुआ खेलना बंद कर के पूरी तरह से तुम जिम्मेदार इनसान बन चुके हो.’’

रघु ने बरसाती पहनी और छोटी सी टार्च जेब में रख ली.

मीरा, शानू का हुलिया बताती रही.

रघु चला गया, मीरा सीढि़यों पर खड़ी हो उसे जाते देखती रही.

आज दफ्तर जाने का तो सवाल ही नहीं था, बगैर बिजली के तो कुछ भी काम नहीं हो सकेगा.

मीरा ने पहले कमरे की फिर रसोई और बरतनों की सफाई का काम निबटा डाला. उस ने खाना बनाने के लिए दालचावल बीनने शुरू किए पर टंकी में पानी समाप्त हो चला था.

उसे याद आया कि नीचे एक हैंडपंप लगा था. वह बालटी भर कर ले आई और खाना बना कर रख दिया.

पर रघु अभी तक नहीं आया था. मीरा को चिंता सताने लगी…पता नहीं वह उस के कमरे तक पहुंचा भी है या नहीं. किस हाल में होगा शानू.

मीरा कुछ वक्त पड़ोसिन के साथ गुजारने के खयाल से जीना उतरी तो यह देख कर दंग रह गई कि सभी फ्लैट खाली थे. वहां रहने वाले बाढ़ के डर से कहीं चले गए थे.

बाहर सड़क पर अब भी पानी भरा हुआ था, बरसात भी हो रही थी. अकेलेपन के एहसास से डरी हुई मीरा फ्लैट का दरवाजा बंद कर के बैठ गई.

रघु काफी देरी से आया, उस के जिस्म पर चोटों के निशान थे.

मीरा घबरा गई, ‘‘चोटें कैसे लग गईं आप को, शानू कहां है?’’

उस ने रघु की चोटों पर दवा लगाई.

रघु ने बताया कि उस के घर में शानू नहीं था, पुलिस ने बाढ़ में फंसे लोगों को राहत शिविरों में पहुंचा दिया है, शानू भी वहीं गया होगा.

मीरा की आंखों में आंसू भर आए, ‘‘मैं ने कभी बेटे को अपने से अलग नहीं किया था. खैर, तुम ने यह तो बताया नहीं, चोटें कैसे लगी हैं.’’

‘‘फिसल कर गिर गया था…पैर की मोच के कारण कठिनाई से आ पाया हूं.’’

मीरा ने खाना लगाया, दोनों साथसाथ खाने लगे.

खाना खाने के तुरंत बाद रघु को नींद आने लगी और वह सो गया. जब उठा तो रात गहरा उठी थी.

मीरा खामोशी से कुरसी पर बैठी थी.

‘‘तुम ने मोमबत्ती नहीं जलाई,’’ रघु बोला और फिर ढूंढ़ कर मोमबत्ती ले आया और बोला, ‘‘मैं राहत शिविरों में जा कर शानू की खोज करता हूं.’’

‘‘इतनी रात को मत जाओ,’’ मीरा घबरा उठी.

‘‘तुम्हें अब भी मेरी चिंता है.’’

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ वर्षों बिताए हैं.’’

रघु यह सुन कर बिस्तर पर बैठ गया, ‘‘जब सबकुछ सही है तो फिर गलत क्या है? क्या हम लोग फिर से एकसाथ नहीं रह सकते?’’

मीरा सोचने लगी.

‘‘हम दोनों दिन भर दफ्तरों में रहते हैं,’’ रघु बोला, ‘‘रात को कुछ घंटे एकसाथ बिता लें तो कितना अच्छा रहेगा, शानू की जिम्मेदारी हम दोनों मिल कर उठाएंगे.’’

मीरा मौन ही रही.

‘‘तुम बोलती क्यों नहीं, मीरा. मैं ने जिम्मेदारियां निभाना सीख लिया है. मैं घर के सभी काम कर लिया करूंगा,’’ रघु के स्वर मेें याचक जैसा भाव था.

मीरा का उत्तर हां में निकला.

रघु की मुसकान गहरी हो उठी.

सुबह एक प्याला चाय पी कर रघु घर से निकल पड़ा, फिर कुछ घंटे बाद ही उस का खुशी भरा स्वर फूटा, ‘‘मीरा, देखो तो कौन आया है.’’

मीरा ने दरवाजा खोल कर देखा तो सामने शानू खड़ा था.

‘‘मेरा बेटा,’’ मीरा ने शानू को सीने से चिपका लिया. फिर वह रघु की तरफ मुड़ी, ‘‘तुम ने आसानी से शानू को पहचान लिया या परेशानी हुई थी?’’

‘‘कैंप के रजिस्टर मेें तुम्हारा पता व नाम लिखा हुआ था.’’

रघु राहत शिविर से खाने का सामान ले कर आया था, सब्जियां, दूध का पैकेट, डबलरोटी, नमकीन आदि.

उस ने शानू के सामने प्लेटें लगा दीं.

‘‘बेटा, इन्हें जानते हो.’’

शानू ने मां की तरफ देखा और बोला, ‘‘यह मेरे डैडी हैं.’’

‘‘कैसे पहचाना?’’

‘‘इन्होंने बताया था.’’

‘‘शानू, तुम्हें पकौड़े, ब्रेड- मक्खन पसंद हैं न,’’ रघु बोला.

‘‘हां.’’

‘‘यह सब मुझे भी पसंद हैं. हम दोनों में अच्छी दोस्ती रहेगी.’’

‘‘हां, डैडी.’’

मुसकराती हुई मीरा बाप- बेटे की बातें सुनती रही, कितनी सरलता से रघु ने शानू के साथ पटरी बैठा ली.

‘‘शुक्र है इस बरसात के मौसम का कि हम दोनों मिल गए,’’ मीरा बोली और रसोई में जा कर पकौडे़ तलने लगी.

उसे लग रहा था कि उस का बोझ बहुत कुछ हलका हो गया है. सबकुछ रघु के साथ बंट जो चुका है.

बीच का लंबा फासला न जाने कहां गुम हो चुका था. जैसे कल की ही बात हो.

घर तो इनसानों से बनता है न कि दीवारों से. पशु भी तो मिल कर रहते हैं. मीरा न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी. बापबेटे की संयुक्त हंसी उस के मन में खुशियां भर रही थी. Story In Hindi

Story In Hindi: गलीचा – रमेश की तीखी आलोचना करने वाली नगीना को क्या मिला जवाब

Story In Hindi: संगीता और नगीना का परिचय एक यात्रा के दौरान हुआ था. उस से पहले वे कभी नहीं मिली थीं. एक ही दफ्तर में काम करने के कारण उन दोनों के पति ही एकदूसरे के घर आतेजाते थे. इसीलिए वे दोनों एकदूसरे की पत्नियों से भी परिचित हो गए थे, लेकिन दोनों की पत्नियों का मिलन पहली बार इस यात्रा में ही हुआ था.

हुआ यों कि संगीता के पति दीपक ने दफ्तर से 15 दिन की छुट्टी ली. दीपक के साथ काम करने वालों ने सहज ही पूछलिया, ‘‘क्या बात है, दीपक, इतनी लंबी छुट्टी ले कर कहीं बाहर जाने का विचार है क्या?’’

दीपक ने सचाई बता दी, ‘‘हां, हमारा विचार राजस्थान के कुछ ऐतिहासिक स्थानों की यात्रा करने का है. पत्नी कई दिनों से घूमनेके लिए चलने का आग्रह कर रही थी, इसीलिए मैं ने इस बार 15 दिन की यात्रा का कार्यक्रम बना डाला.’’

सभी ने दीपक के इस निश्चय की सराहना करते हुए कहा, ‘‘हो आओ. घूमनेफिरने से ताजगी आती है. आदमी को साल दो साल में घर से निकलना ही चाहिए. इस से मन की उदासी दूर हो जाती है.’’

तभी नगीना के पति रमेश ने दीपक से पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे साथ और कोई भी जा रहा है?’’

‘‘नहीं, बस, श्रीमतीजी और मैं ही जा रहे हैं. बच्चे भी साथ नहीं जा रहे हैं, क्योंकि इस से उन की पढ़ाई में हर्ज होगा. वे अपने दादादादी के पास रहेंगे.’’

‘‘यह तो तुम ने बड़ी समझदारी का काम किया.’’

‘‘हां, मगर उन के बिना हमें कुछ अच्छा नहीं लगेगा. बच्चों के साथ रहने से मन लगा रहता है.’’

‘‘भई, मेरी पत्नी भी कहीं चलने के लिए जोर डाल रही है, पर सोचता हूं…’’

‘‘इस में सोचने की क्या बात है? अगर राजस्थान में घूमने की इच्छा हो तो हमारे साथ चलो.’’

‘‘तुम्हें कोई असुविधा तो नहीं होगी?’’

‘‘हमें क्या असुविधा होगी, भई, हनीमून मनाने थोड़े ही जा रहे हैं.’’

दफ्तर के सभी लोग ठठा कर हंस पड़े. सभी ने रमेश से आग्रह किया, ‘‘जाओ,भई, ऐसा मौका मत छोड़ो. सफर में एक से दो भले. पर्यटन में अपनों का साथ होना बहुत अच्छा रहता है.’’

रमेश को यह सलाह जंच गई. उस ने उसी समय छुट्टी की अरजी दे डाली. बड़े बाबू ने अपनी शुभकामनाएं व्यक्त करते हुए उस की छुट्टी की भी स्वीकृति दे दी. इसीलिए दोनों दंपतियों का साथ हो गया.

रेलवे स्टेशन पर दोनों जोड़ों का जब मिलन हुआ तो संगीता ने नगीना से कहा, ‘‘देखिए, एक ही शहर में रहते हुए भी हम अभी तक नहीं मिल पाईं?’’

नगीना ने मोहक मुसकान के साथ जवाब दिया, ‘‘अब हम लोग खूब मिला करेंगी, पिछली सारी कसर पूरी कर लेंगी.’’

इस यात्रा में संगीता औैर नगीना का बराबर साथ रहा. रेल और मोटर में तो उन का साथ रहता ही था. वे लोग जहां ठहरते थे, वहां भी कमरे पासपास ही होते थे. एक बार तो एक ही कमरे में दोनों जोड़ों को रात बितानी पड़ी. लिहाजा, इस सफर में नगीना और संगीता को एकदूसरे को देखनेसमझने के खूब मौके मिले.

इस अवधि में संगीता ने यह जाना कि रमेश पत्नी का खूब खयाल रखता है. वह दिनरात उस की सुखसुविधा के लिए चिंतित रहता है. वह नगीना की पसंद की चीजें नजर आते ही ले आता है. आग्रह करकर के खिलातापिलाता. पत्नी को जरा सा उदास देखते ही वह प्रश्नों की झड़ी लगा देता, ‘‘क्या हो गया? तबीयत ठीक नहीं है क्या? सिरदर्द तो नहीं हो रहा है? क्या हाथपैर ही दर्द कर रहे हैं?’’

नगीना के मुंह से अगर कभी यह निकल जाता कि तबीयत कुछ ठीक नहीं है तो रमेश भागदौड़ मचा देता. पत्नी के सिर पर कभी बाम मलता तो कभी हाथपैर ही दबाने लगता. जरूरत होती तो डाक्टर को भी बुला लाता.

नगीना मना करती रह जाती, ‘‘घबराने की कोईर् बात नहीं. साधारण बुखार है.’’

मगर रमेश घबरा जाता. नगीना जब तक पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाती थी, तब तक वह बेहद परेशान रहता. जब नगीना हंसहंस कर बातें करने लगती तब कहीं उस की जान में जान आती.

पत्नी को यों खिलीखिली सी रखने के लिए वह सतत प्रयत्नशील रहता.सब से बड़ी बात तो यह थी कि उस अवधि में वह अपनी पत्नी पर न तो कभी झल्लाता, न ही नाराज होता. कई बार नगीना ने उस की इच्छा के खिलाफ भी काम किया. फिर भी उस ने कुछ नहीं कहा.

रमेश के इस व्यवहार से संगीता बड़ी प्रभावित हुई. उसे नगीना से ईर्ष्या होने लगी. वह मन ही मन अपने पति दीपक और रमेश में तुलना करने लगती.

जिन बातों की ओर संगीता का पहले कभी ध्यान नहीं जाता था उस ओर भी उस का ध्यान जाने लगा था. एक टीस सी उस के मन में उठने लगी थी, ‘एक मेरा पति है और एक नगीना का. दोनों में कितना अंतरहै. दीपक तो मेरा कभी खयाल ही नहीं रखता. 15 वर्ष से अधिक अवधि बीत गई हमारे विवाह को, फिर भी कोई जानकारी ही नहीं है.

‘दीपक तो बस अपनेआप में ही डूबा रहता है. हां, कुछ कह दूं तो भले ही ध्यान दे दे. मगर मेरे मन की बात जानने की उसे स्वयं कभी इच्छा ही नहीं होती. मन की बात छिपाना ही उसे नहीं आता. जो मन में आता है, वह फौरन जीभ पर ले आता है. उस का चेहरा ही बहुत कुछ कह देता है. कठोर से कठोर बात भी उस के मुंह से निकल जाती है. ऐसे क्षणों में उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहताकि किसी को बुरा लगेगा या भला? वह तो बस अपने मन की बात कह के हलके हो जाते हैं. कोई मरे या जिए उस की बला से.

‘दीपक की सेवा करकर के भले ही कोई मर जाए, फिर भी प्रशंसा के दो बोल उस के मुंह से शायद ही निकलते हैं. बीमारी तक में उसे खयाल नहीं रहता कि मेरी कुछ मदद कर दे. जाने किस दुनिया में रहता है वह. उस के जीवन से कोई और भी जुड़ा हुआ है, इस का उसे ध्यान ही नहीं रहता. पत्नी का उसके लिए जैसे कोई महत्त्व ही नहीं है. न जाने किस मिट्टी का बना है वह. अच्छा बनेगा तो इतना अच्छा कि उस से अच्छा कोई और हो ही न शायद. बुरा बनेगा तो इतना बुरा कि वैरी से भी बढ़ कर. सचमुच बहुत ही विचित्र प्राणी है दीपक.’

संगीता के मन के ये उद्गार एक दिन नगीना के सामने प्रकट हो गए. उस दिन दोनों के पति यात्रा से वापस लौटने के लिए आरक्षण कराने गए थे. वे दोनों बैठी इधर- उधर की बातें कर रही थीं. तभी नगीना ने अपने पति की आलोचना शुरू कर दी. बच्चों के लिए खरीदे गए कपड़ों को ले कर पतिपत्नी में शायद खटक चुकी थी.

संगीता कुछ देर तक तो सुनती रही, किंतु जब नगीना रमेश के व्यवहार की तीखी आलोचना करने लगी तो वह अपनेआप को रोक नहीं पाई. उस के मुंह से निकल गया, ‘‘नहीं, तुम्हारे पति तो ऐसे नहीं लगते. इन 12-13 दिनों में मैं ने जो कुछ देखा है, उस के आधार पर तो मैं यही कह सकती हूं कि तुम्हें अच्छा पति मिला है. वह तुम्हारा बड़ा खयाल रखते हैं. तुम्हारी सुखसुविधा के लिए वह हमेशा चिंतित रहते हैं. आश्चर्य है कि तुम ऐसे आदर्श पति की बुराई कर रही हो.’’

नगीना ने बड़ी तल्खी से जवाब दिया, ‘‘काश, वह आदर्श पति होते?’’

संगीता ने साश्चर्य पूछा, ‘‘फिर आदर्श पति कैसा होता है?’’

नगीना ने बड़े दर्द भरे स्वर में कहा, ‘‘संगीता, तुम मेरे पति को सतही तौर पर ही जान पाई हो, इसीलिए ऐसी बातें कर रही हो. हकीकत में वह ऐसे नहीं हैं.’’

‘‘तो फिर कैसे हैं?’’

‘‘जैसे दिखते हैं वैसे नहीं हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

नगीना ने फर्श पर बिछे गलीचे की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘वह इस गलीचे की तरह हैं.’’

संगीता का आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था. उस ने हैरानी से पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी बात समझ नहीं पाई?’’

फर्श पर बिछे हुए गलीचे के एक कोने को थोड़ा सा उठाती हुई नगीना बोली, ‘‘संगीता, गलीचे के नीचे छिपी हुई यह धूल, यह गंदगी, किसी को नजर नहीं आती. लोगों को तो बस यह खूबसूरत गलीचा ही नजर आता है. इसे ही अगर सचाई मानना हो तो मान लो. मगर मैं तो उस नंगे फर्श को अच्छा समझती हूं जहां ऐसा कोई धोखा नहीं है. संगीता, मुझे तुम से ईर्ष्या होती है. तुम्हें कितने अच्छे पति मिले हैं. अंदरबाहर से एक से.’’

संगीता मुंहबाए नगीना को देखती रह गई. उस से कुछ कहते ही नहीं बना. ंिकंतु दीपक के प्रति उसे जैसे नई दृष्टि प्राप्त हुई थी. अपने सारे दोषों के बावजूद वह उसे बहुत अच्छा लगने लगा. संगीता के मन में उस के प्रति जैसे प्यार का ज्वार उमड़ पड़ा. Story In Hindi

Best Hindi Story: अपराधबोध – परिवार को क्या नहीं बताना चाहते थे मधुकर

Best Hindi Story: बड़ी मुश्किल से जज्ब किया था उन्होंने अपने मन के भावों को. अस्पताल में उन की पत्नी वर्षा जिंदगी और मौत से जूझ रही थी और घर में वह पश्चात्ताप की अग्नि में झुलस रहे थे.

और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बेटे को फोन मिलाया, ‘‘रवि, मैं अभी अस्पताल आ रहा हूं. मुझे एक बात बतानी है बेटे, सुन, मैं ने ही…’’

‘‘पापा, आप को मेरी कसम. आप अस्पताल नहीं आएंगे. घर में आराम करेंगे. मैं यहां सब संभाल लूंगा. आप को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं पापा… ’’

फोन कट गया. सुबह से तीसरी बार बेटे ने कसम दे कर उन्हें अस्पताल आने से रोक दिया था. मानसिक तनाव था या फिर बुखार की हरारत, सहसा खड़ेखड़े चक्कर आ गया. वह आह भर कर बिस्तर पर लुढ़क पड़े. पुराने लमहे, दर्द की छाया बन कर, आंखों के आगे छाने लगे.

वर्षा, उन की पत्नी…22 सालों का साथ…जाने कैसे उसी के प्राणों के दुश्मन बन बैठे  जिसे जिंदगी से बढ़ कर चाहा था. लंबी, गोरी, आकर्षक , आत्मनिर्भर वर्षा से कालिज में हुई पहली मुलाकात उम्र भर का साथ बन गई थी. दीवानगी की हद तक चाहा उसे. शादी की, जिंदगी के एक नए और खूबसूरत पहलू को शिद्दत से जीया. उस के दामन में खुशियां लुटाईं. वर्ष दर वर्ष आगे खिसकते रहे. समय के साथ दोनों अपनेअपने कामों में मशगूल हो गए.

वर्षा जहां नौकरी करती थी उसी कंपनी में नायक मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव था. इधर कुछ समय से नायक, वर्षा में खासी दिलचस्पी लेने लगा था. दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई और यही बात मधुकर को खटकने लगी. वह जितना भी चाहते कि उन के रिश्ते के प्रति उदार बनें, इस दोस्ती को स्वीकार कर लें पर हर बार उन की इस चाहत के बीच अहम और शक की दीवार खड़ी हो जाती.

कभीकभी मधुकरजी सोचते थे, काश, वर्षा इतनी खूबसूरत न होती. 42 साल की होने के बावजूद वह एक कमसिन, नाजुक काया की स्वामिनी थी. एक्टिव इतनी कि कालिज की कमसिन लड़कियां भी उस के सामने पानी भरें जबकि वह अब प्रौढ़ नजर आने लगे थे.

जाने कब और कैसे मन में उठे गतिरोध और ईर्ष्या के इन्हीं भावों ने उन के दिल में असुरक्षा और शक का बीज बो दिया. नतीजा सामने था. अपनी बीवी को खत्म करने की साजिश रची उन्होंने. एक बार फिर अपराधबोध ने उन्हें अपने शिकंजे में जकड़ लिया.

डा. कर्ण की आवाज उन के कानों में गूंज रही थी, ‘आप को शुगर की शिकायत तो नहीं, मधुकर?’

‘नहीं, मुझे ऐसी कोई तकलीफ नहीं. मगर डाक्टर साहब, आप ने ऐसा क्यों पूछा? कोई खास वजह?’ मधुकर ने जिज्ञासावश प्रश्न किया था.

‘दरअसल, इस दवा को देने से पहले मुझे मरीज से यह सवाल करना ही पड़ता है. शुगर के रोगी के लिए ये गोलियां जहर का काम करेंगी. इस की एक खुराक भी उस की मौत का सबब बन सकती है. हमें इस मामले में खास चौकसी बरतनी पड़ती है. वैसे आप निश्ंिचत हो कर इसे खाइए. आप को तुरंत राहत मिलेगी.’

2 दिन पहले बुखार व दूसरी तकलीफों के दौरान दी गई डा. कर्ण की इसी दवा को उन्होंने वर्षा की हत्या का शगल बनाया. वह जानते हैं कि वर्षा को बहुत अधिक शुगर रहता है और वह इस के लिए नियमित रूप से दवा भी लेती है. बस, इसी आधार पर उन के दिमाग ने एक खौफनाक योजना बना डाली.

कल रात भी नायक के मसले को ले कर उन के बीच तीखी बहस हुई थी. देर तक दोनों झगड़ते रहे, अंत हमेशा की तरह, वर्षा के आंसुओं और मधुकर के मौन धारण से हुआ. वर्षा दूसरे कमरे में सोने चली गई. जाते समय उस ने रामू को आवाज दी और चाय बनाने को कहा. फिर खुद नहाने के लिए बाथरूम में घुस गई. रामू चाय रख कर गया तो मधुकरजी चुपके से उस के कमरे में घुसे और चाय में दवा की 3-4 गोलियां मिला दीं.

अब नहीं बचेगी. आजाद हो जाऊंगा मैं. यह सोचते हुए वह अपने कमरे में आ गए और बिस्तर पर लेट गए. इनसान जिसे हद से ज्यादा चाहता है, कभीकभी उसी से बेपनाह नफरत भी करने लगता है. यही हुआ था शायद मधुकरजी के साथ भी. वह सोच रहे थे…

…कितना कड़वा स्वभाव हो गया है, वर्षा का. जब देखो, झगड़ने को तैयार.

मैं कुछ नहीं, अब नायक ही सबकुछ हो गया है, उस के लिए. कहती है कि किस मनहूस घड़ी में मुझ से शादी कर ली. मेरा मुंह नहीं देखना चाहती. मुझे शक्की और झक्की कह कर पुकारती है. अब देखूंगा, कितनी जीभ चलती है इस की.

वह करवट बदल कर लेट गए थे. लेटेलेटे ही सोचा कि अब तक वह चाय पी चुकी होगी. खत्म हो जाएगी सारी चिकचिक. जीना हराम कर रखा था इस ने, जब भी नायक के साथ देखता हूं, मेरे सारे बदन में आग लग जाती है. यह बात वह अच्छी तरह समझती है, मगर अपनी हठ नहीं छोड़ेगी. काफी देर तक मन ही मन वर्षा को कोसते रहे वह, फिर मन के पंछी ने करवट ली. दिल में हूक सी उठी.

एकाएक कुछ खो जाने के एहसास से मन भीग गया.

क्या मैं ने ठीक किया? उसे इतनी बड़ी सजा दे डाली. क्या वह इस की हकदार थी? क्या अब मैं बिलकुल तनहा नहीं रह जाऊंगा? अब मेरा क्या होगा?

दिल में हलचल मच गई. अब पछतावे का तम उन के दिमाग को कुंद करने लगा. उस पर तेज बुखार की वजह से भी बेहोशी सी छा गई.

अचानक आधी रात के समय शोरशराबा सुन कर वह जग पड़े. बाहर निकले तो देखा, बेटा रवि, वर्षा को लाद कर कार में बिठा रहा है.

रामू ने बताया, ‘‘साहब, मालकिन की तबीयत बहुत बिगड़ गई है.’’

उन का दिल धक् से रह गया. वह चौकस हो उठे, ‘‘मैं भी चलूंगा.’’

उन्होंने बेटे को रोकना चाहा पर बेटे ने यह कहते हुए कार स्टार्ट कर दी, ‘‘नहीं, पापा. आप का शरीर तप रहा है. आप आराम करें. मैं हूं ना.’’

मधुकर पत्थर के बेजान बुत से खड़े रह गए. जैसे किसी ने उन के शरीर से प्राण निकाल लिए हों. क्या अब यही अकेलापन, यही तनहाई जीवन भर टीस बन कर उन के दिल को बेधती रहेगी?

‘‘बाबूजी, चाय ले आऊं क्या?’’ रामू ने आवाज दी तो मधुकर जैसे तंद्रा से जागे.

‘‘नहीं रे, दिल नहीं है. एक काम कर रामू, बिस्तर पर सहारा ले कर बैठते हुए वह बोले, जरा मेरे लिए एक आटोरिकशा ले आ. मुझे अस्पताल जाना ही होगा.’’

‘‘यह पाप मैं नहीं करूंगा मालिक. छोटे मालिक भी बोल कर गए हैं. 4 दिन से आप की तबीयत कितनी खराब चल रही है. वह सब संभाल लेंगे. आप नाहक ही परेशान हो रहे हैं.’’

मधुकरजी को गुस्सा आया रामू पर. सोचा, खुद ही चला जाऊं. मगर डगमगाते कदमों से ज्यादा आगे नहीं जा सके. आंखों के आगे अंधेरा छा गया. फिर क्या हुआ, उन्हें याद नहीं. होश आया तो खुद को बिस्तर पर पाया. सामने डाक्टर खड़ा था और रामू उन से कह रहा था :

‘‘मालिक पिछले 2 घंटे से बेहोशी में जाने क्याक्या बड़बड़ा रहे थे. कभी कहते थे, मैं हत्यारा हूं, तो कभी मालकिन का नाम ले कर कहते थे, वापस लौट आ, तुझे मेरी कसम…’’

मधुकरजी को महसूस हुआ जैसे उन का सिर दर्द से फटा जा रहा है. उन्होंने चुपचाप आंखें बंद कर लीं. बंद आंखों के आगे वर्षा का चेहरा घूम गया. जैसे वह कह रही हो कि क्या सोचते हो, मुझे मार कर तुम चैन से जी सकोगे? नहीं मधुकर, यह तुम्हारा भ्रम है. मैं भटकूंगी तो तुम्हें भी चैन नहीं लेने दूंगी. पलपल तड़पाऊंगी…यह कहतेकहते वर्षा का चेहरा विकराल हो गया. वह चीख उठे, ‘‘नहीं…’’

सामने रामू खड़ा था, बोला, ‘‘क्या हुआ, मालिक?’’

‘‘कुछ नहीं, वर्षा नहीं बचेगी, रामू. मैं ने उसे मार दिया…’’ वह होंठों से बुदबुदाए.

‘‘मालिक, मैं अभी ठंडे पानी की पट्टी लाता हूं. आप की तबीयत ठीक नहीं.’’

रामू दौड़ कर ठंडा पानी ले आया और माथे पर ठंडी पट्टी रखने लगा.

मधुकरजी सोचने लगे कि ये मैं ने क्या किया? वर्षा ही तो मेरी दोस्त, बीवी, हमसफर, सलाहकार…सबकुछ थी. मेरा दर्द समझती थी. पिछले साल मैं बीमार पड़ा था तो कैसे रातदिन जाग कर सेवा की थी. परसों भी, जरा सी तबीयत बिगड़ी तो एकदम से घबरा गई थी वह, जबरदस्ती मुझे डाक्टर के पास ले गई.

मैं ने बेवजह उस पर शक किया. दफ्तर में चार लोग मिल कर काम करेंगे तो उन में दोस्ती तो होगी ही. इस में गलत क्या है? इस के लिए रोजरोज मैं उसे टीज करता था. तभी तो वह झल्ला उठती थी. हमारे बीच झगड़े की वजह मेरा गलत नजरिया ही था. काश, गया वक्त वापस लौट आता तो मैं उसे खुद से जुदा न करता. अब शायद कभी जीवन में सुकून न पा सकूं. यह सब सोच कर मधुकरजी और भी परेशान हो उठे.

‘‘रामू, फोन दे इधर…’’ और रामू के हाथ से झट फोन ले कर उन्होंने सीधे अस्पताल का नंबर मिलाया. वह इंगेज था. फिर डाक्टर के मोबाइल पर बात करनी चाही मगर नेटवर्क काम नहीं कर रहा था.

क्या करूं? मैं जब तक किसी को हकीकत न बता दूं, मुझे शांति नहीं मिलेगी. डाक्टर को जानकारी मिल जाए कि उसे वह दवा दी गई है तो शायद वह बेहतर इलाज कर सकेंगे. यह सोच कर उन्होंने फिर से बेटे को फोन लगाया.

‘‘पापा, ममा को ले कर टेंशन न करें. यहां मैं हूं. आप अपनी तबीयत का खयाल रखें…’’

‘‘होश आया उसे?’’

‘‘हां, बस आधेएक घंटे में…हैलो डाक्टर, एक मिनट प्लीज…’’

‘‘हैलो….हैलो बेटे, मैं एक बात बताना चाहता हूं…जरा डाक्टर साहब को फोन दो…’’

‘‘…डाक्टर साहब, जरा देखिए, यह तीसरे नंबर की दवा…’’

रवि उन से बात करतेकरते अचानक डाक्टर से बातें करने में मशगूल हो गया और फोन कट गया.

वह सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘दवा खा लीजिए, मालिक,’’ रामू दवा ले कर आया.

‘‘जहन्नुम में जाए ये दवा…’’ गोली फेंकते हुए मधुकरजी उठे और वर्षा के कमरे की तरफ बढ़ गए.

अंदर खड़े हो कर देखने लगे. वर्षा का बिस्तर…मेज पर रखी तसवीर… अलमारी…कपड़े…सबकुछ छू कर वह वर्षा को महसूस करना चाहते थे. अचानक ईयररिंग हाथ से छूट कर नीचे जा गिरा. वह उठाने के लिए झुके तो चक्कर सा आ गया. वह वहीं आंख बंद कर बैठ गए.

थोड़ी देर बाद मुश्किल से आंखें खोलीं. यह क्या? चाय का वही नया वाला ग्लास नीचे रखा था जिस में वह चुपके से आ कर गोली डाल गए थे. ग्लास में चाय अब भी ज्यों की त्यों भरी पड़ी थी.

तब तक रामू आ गया, ‘‘…ये चाय…’’ वह असमंजस से रामू की तरफ देख रहे थे.

‘‘ये चाय, हां…वह दूध में मक्खी पड़ गई थी. इसीलिए मालकिन ने पी नहीं. जब तक मैं दूसरा ग्लास चाय बना कर लाया, वह सो चुकी थीं.’’

मधुकरजी चुपचाप रामू को देखते रहे. अचानक ही दिमाग में चल रही सारी उथलपुथल को विराम लग गया. एक मक्खी ने उन के सीने का सारा बोझ उतार दिया था…यानी, मैं दोषी नहीं. यह सोच कर वह खुश हो उठे.

तभी मोबाइल बज उठा, ‘‘पापा, मैं ममा को ले कर आधे घंटे में घर पहुंच रहा हूं.’’

‘‘वर्षा ठीक हो गई?’’

‘‘हां, पापा, अब बेहतर हैं. हार्ट अटैक का झटका था, पर हलका सा. डाक्टर ने काबू कर लिया है. बस, दवा नियम से खानी होगी.’’

ओह, मेरी वर्षा…कितना खुश हूं मैं…तुम्हारा लौट कर आना, आज कितना भला लग रहा है.

मधुकर मुसकराते हुए शांति से सोफे पर बैठ कर पत्नी और बेटे का इंतजार करने लगे. अब उन्हें किसी को कुछ बताने की चिंता नहीं थी. Best Hindi Story

Story In Hindi: नहले पे दहला – साक्षी ने कैसे लिया बदला

Story In Hindi: साक्षी ने जैसे ही दरवाजा खोला, वह चौंक कर दो कदम पीछे हट गई. सामने खड़ा टोनी बगैर कुछ कहे मुसकराता हुआ अंदर दाखिल हो गया.

‘‘तुम यहां पर…’’ साक्षी चौंकते हुए बोली.

‘‘क्या भूल गई अपने आशिक को?’’ टोनी ने बेशर्मी से कहा.

‘‘भूल जाओ उन बातों को. मेरी जिंदगी में जहर मत घोलो,’’ साक्षी रोंआसी हो कर बोली.

‘‘चिंता मत करो, मैं तुम्हें ज्यादा तंग नहीं करूंगा. लो यह देखो,’’ टोनी ने एक लिफाफा साक्षी को देते हुए कहा.

साक्षी ने लिफाफे से तसवीरें निकाल कर देखीं, तो उसे लगा मानो आसमान टूट पड़ा हो. उन तसवीरों में साक्षी और टोनी के सैक्सी पोज थे. यह अलग बात थी कि साक्षी ने टोनी के साथ कभी भी ऐसावैसा कुछ नहीं किया था.

‘‘यह सब क्या है?’’ साक्षी घबरा गई और डर कर बोली.

‘‘बस छोटा सा नजराना.’’

‘‘क्या चाहते हो तुम?’’ साक्षी ने कांपते हुए पूछा.

‘‘ज्यादा नहीं, बस एक लाख रुपए दे दो, फिर तुम्हारी छुट्टी,’’ टोनी बेशर्मी से बोला.

‘‘लेकिन ये फोटो तो झूठे हैं. ऐसा तो मैं ने कभी नहीं किया था.’’

‘‘जानेमन, ये फोटो देख कर कोई भी इन्हें झूठा नहीं बता सकता.’’

‘‘तुम इतने नीच होगे, यह मैं ने कभी नहीं सोचा था.’’

‘‘आजकल सिर्फ पैसे का जमाना है, जिस के लिए लोग अपना ईमान भी बेच देते हैं,’’ टोनी ने बेशर्मी से कहा.

साक्षी बुरी तरह घबरा गई. उसे यह भी डर था कि कहीं कोई आ न जाए. लेकिन वे दोनों यह नहीं जानते थे कि दो आंखें बराबर उन पर टिकी थीं.

साक्षी ने टोनी को भलाबुरा कह कर एक महीने का समय ले लिया. टोनी दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया. एकाएक साक्षी की रुलाई फूट पड़ी. वह लिफाफा अब भी उस के हाथ में था.

सहसा उन दो आंखों का मालिक दीपक कमरे में दाखिल हुआ और चुपचाप साक्षी के सामने जा खड़ा हुआ. उस ने हाथ बढ़ा कर वह लिफाफा ले लिया.

‘‘देवरजी, तुम…’’ साक्षी एकाएक उछल पड़ी.

‘‘जी…’’

‘‘यह लिफाफा मुझे दे दो प्लीज,’’ साक्षी कांप कर बोली.

‘‘चिंता मत करो भाभी, मैं सबकुछ जान चुका हूं.’’

‘‘लेकिन, ये तसवीरें झूठी हैं.’’

दीपक ने वे फोटो बिना देखे ही टुकड़ेटुकड़े कर दिए.

‘‘मैं सच कह रही हूं, यह सब झूठ है,’’ साक्षी बोली.

‘‘कौन था वह कमीना, जिस ने हमारी भाभी पर कीचड़ उछालने की कोशिश की है?’’ दीपक ने पूछा.

‘‘लेकिन…’’

‘‘चिंता मत कीजिए भाभी. अगर उस कुत्ते से लड़ना होता तो उसे यहीं पकड़ लेता. लेकिन मैं नहीं चाहता कि आप की जरा भी बदनामी हो.’’

दीपक का सहारा पा कर साक्षी ने उसे हिचकते हुए बताया, ‘‘उस का नाम टोनी है. वह मेरी क्लास में पढ़ता था. उस से थोड़ीबहुत बोलचाल थी, लेकिन प्यार कतई नहीं था.’’

‘‘उस का पता भी बता दीजिए.’’

‘‘लेकिन तुम करना क्या चाहते हो?’’

‘‘मैं अपनी भाभी को बदनामी से बचाना चाहता हूं.’’

‘‘तुम उस का क्या करोगे?’’

‘‘उस का मुरब्बा तो बना नहीं सकता, लेकिन उस नीच का अचार जरूर बना डालूंगा.’’

‘‘तुम उस बदमाश के चक्कर में मत पड़ो. मुझे मेरे हाल पर ही छोड़ दो.’’

लेकिन दीपक के दबाव डालने पर साक्षी को टोनी का पता बताना ही पड़ा. पता जानने के बाद दीपक तेज कदमों से बाहर निकल गया. दीपक को टोनी का घर ढूंढ़ने में ज्यादा समय नहीं लगा. घर में ही टोनी की छोटी सी फोटोग्राफी की दुकान थी. दीपक ने पता किया कि टोनी की 3 बहनें हैं और मां विधवा हैं.

दीपक ने फोटो खिंचवाने के बहाने टोनी से दोस्ती कर ली और दिल खोल कर खर्च करने लगा. उस ने टोनी की एक बहन ज्योति को अपने प्यार के जाल में फंसा लिया.

एक दिन मौका पा कर दीपक और ज्योति पार्क में मिले और शाम तक मस्ती करते रहे. उस दिन टोनी अपनी दुकान में अकेला बैठा था. तभी दीपक की मोटरसाइकिल वहां आ कर रुकी.

दीपक को देखते ही टोनी का चेहरा खिल उठा. उस ने खुश होते हुए कहा. ‘‘आओ दीपक, मैं तुम्हीं को याद कर रहा था.’’

‘‘तुम ने याद किया और हम हाजिर हैं. हुक्म करो,’’ दीपक ने स्टाइल से कहा.

‘‘बैठो यार, क्या कहूं शर्म आती है.’’

‘‘बेहिचक बोलो, क्या बात है?’’

‘‘क्या तुम मेरी कुछ मदद कर सकते हो?’’

‘‘बोलो तो सही, बात क्या?है?’’

‘‘मुझे 5 हजार रुपए की जरूरत है. कुछ खास काम है,’’ टोनी हिचकते हुए बोला.

‘‘बस इतनी सी बात, अभी ले कर आता हूं,’’ दीपक बोला और एक घंटे में ही उस ने 5 हजार की गड्डी ला कर टोनी को थमा दिया. टोनी दीपक के एहसान तले दब गया. कुछ दिनों बाद ज्योति की हालत खराब होने लगी. उसे उलटियां होने लगीं. जांच करने के बाद डाक्टर ने बताया कि वह मां बनने वाली है.

यह सुन कर सब हैरान रह गए. ज्योति की मां ने रोना शुरू कर दिया. लेकिन टोनी गुस्से में ज्योति को मारने दौड़ पड़ा. ज्योति लपक कर बड़ी बहन के पीछे छिप गई.

‘‘बता कौन है वह कमीना, जिस के साथ तू ने मुंह काला किया?’’ टोनी ने सख्त लहजे में पूछा.

ज्योति सुबक रही थी. उस की मां और बहनें रोए जा रही थीं और टोनी गुस्से में न जाने क्याक्या बके जा रहा था. काफी दबाव डालने पर ज्योति ने दीपक का नाम बता दिया.

यह सुन कर सब हैरान रह गए. टोनी भी एकाएक ढीला पड़ गया. दीपक को घर बुला कर बात की गई, लेकिन वह साफ मुकर गया और उस ने शादी करने से इनकार कर दिया.

एक पल के लिए टोनी को गुस्सा आ गया और वह गुर्रा कर बोला, ‘‘अगर मेरी बहन को बरबाद किया तो मैं तुम्हारा खून पी जाऊंगा.’’

‘‘तुम्हारा क्या खयाल है कि मैं ने चूडि़यां पहन रखी हैं?’’ दीपक सख्त लहजे में बोला.

‘‘तुम ने हम से किस जन्म का बदला लिया है,’’ टोनी की मां रोते हुए बोलीं.

‘‘आप जरा चुप रहिए मांजी, पहले इस खलीफा से निबट लूं,’’ दीपक ने कहा और टोनी को घूरने लगा.

टोनी ने पैतरा बदला और हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं दीपक, मेरी बहन को बरबाद मत करो.’’

‘‘तुम किस गलतफहमी के शिकार हो रहे हो,’’ दीपक बोला.

‘‘देखो दीपक, मेरी बहन से शादी कर लो. तुम जो कहोगे, मैं करने के लिए तैयार हूं,’’ टोनी हार कर बोला.

‘‘तुम क्या कर सकते हो भला?’’

‘‘तुम जो कहोगे मैं वही करूंगा,’’ टोनी गिड़गिड़ा कर बोला.

‘‘अपनी इज्जत पर आंच आई तो कितना तड़प रहे हो. क्या दूसरों की इज्जत, इज्जत नहीं होती?’’ दीपक शांत हो कर बोला.

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ टोनी बुरी तरह चौंका.

‘‘अपने गरीबान में झांक कर देखो टोनी, सब मालूम हो जाएगा,’’ एकाएक दीपक का लहजा बदल गया.

टोनी सबकुछ समझ गया. उस ने मां और बहनों को बाहर भेजना चाहा, लेकिन दीपक उन्हें रोक कर बोला, ‘‘अब डर क्यों रहे हो, घर के सभी लोगों को बताओ कि तुम कितनी मासूमों का बसाबसाया घर तबाह करने पर तुले हो.’’

‘‘तुम कौन हो?’’ टोनी हैरत से बोला.

‘‘तुम मेरी बात का फटाफट जवाब दो, वरना मैं चला,’’ दीपक जाने के लिए लपका.

‘‘लेकिन मैं ने किसी की जिंदगी बरबाद तो नहीं की,’’ टोनी अटकते हुए बोला.

‘‘मगर करने पर तो तुले हो.’’

‘‘यह सच है, लेकिन तुम ने आज मेरी आंखें खोल दीं दोस्त. आज मुझे एहसास हुआ कि पैसे से कहीं ज्यादा इज्जत की अहमियत है,’’ टोनी बुझी आवाज में बोला.

दीपक के होंठों पर मुसकराहट नाच उठी. ज्योति भी मुसकराने लगी.

‘‘अब क्या इरादा है प्यारे?’’ दीपक ने पूछा.

‘‘वह सब झूठ था. मैं कसम खाता हूं कि सारे फोटो और निगेटिव जला दूंगा,’’ टोनी ने कहा.

‘‘यह अच्छा काम अभी और सब के सामने करो,’’ दीपक ने कहा.

टोनी ने पैट्रोल डाल कर सारे गंदे फोटो और निगेटिव जला डाले और दीपक से बोला, ‘‘माफ करना दोस्त, मैं ने लालच में पड़ कर लखपति बनने का यह तरीका अपना लिया था.’’

‘‘माफी मुझ से नहीं पहले अपनी मां से मांगो, फिर मेरी मां से मांगना.’’

‘‘तुम्हारी मां…’’

‘‘हां, साक्षी यानी मेरी भाभी मां. वह माफ कर देंगी तो मैं भी तुम्हें माफ कर दूंगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मंजूर है, लेकिन मेरी बहन?’’

‘‘इस का फैसला भी भाभी ही करेंगी.’’

साक्षी के पैर पकड़ कर माफी मांगते हुए टोनी बोला, ‘‘आज से आप मेरी बड़ी दीदी हैं. चला तो था चाल चलने, लेकिन आप के इस होशियार देवर ने ऐसी चाल चली कि नहले पे दहला मार कर मुझे चित कर दिया. क्या इस नालायक को माफ कर सकेंगी?’’

साक्षी ने गर्व से देवर की ओर देखा और टोनी से कहा, ‘‘फिर कभी ऐसी जलील हरकत मत करना.’’

माफी मिलने के बाद टोनी ने साक्षी को अपनी बहन व दीपक का मामला बताया तो साक्षी ने दीपक को घूरते हुए पूछा, ‘‘दीपक, यह सब क्या?है?’’

‘‘यह भी एक नाटक है भाभी. आप ज्योति से ही पूछिए,’’ दीपक हंस कर बोला.

‘‘ज्योति, आखिर किस्सा क्या है?’’ टोनी ने पूछा.

‘‘भैया, मैं भी सबकुछ जान गई थी. आप को सही रास्ते पर लाने के लिए ही मैं ने व दीपक ने नाटक किया था और उस में डाक्टर को भी शामिल कर लिया था,’’ ज्योति ने हंसते हुए बताया.

‘‘चल, तू ने छोटी हो कर भी मुझे राह दिखा कर अच्छा किया. मैं तेरी शादी दीपक जैसे भले लड़के से करने के लिए तैयार हूं.’’

दीपक ने इजाजत मांगने के अंदाज में भाभी की ओर देखा. साक्षी ने ज्योति को खींच कर अपने गले से लगा लिया. ज्योति की मां भी इस रिश्ते से बहुत खुश थीं. Story In Hindi

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