सुबह की किरण: भाग 4

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उसे अचानक आया देख प्रीति और नीलम दोनों उठ खड़ी हुईं.

नीलम को देख कर उस ने सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘‘अरे तुम कब आईं. तुम भी आगरा में ही रहती हो क्या?’’

‘‘नहीं, तुम्हारे बारे में प्रीति ने बताया तो मिलने आ गई,’’ नीलम मुसकराते हुए बोली.

‘‘अच्छा हुआ तुम आ गईं. मैं इस शहर में पिछले 4 महीने से हूं लेकिन प्रीति को मेरी कभी याद न आई.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है समीर, तुम से मिलने का मैं ने कई बार सोचा लेकिन मिलने की हिम्मत न हुई.’’ प्रीति ने कहा.

‘‘क्यों, मैं तुम्हारे लिए गैर कब से हो गया. यह क्यों नहीं कहतीं कि तुम मुझ से मिलना ही नहीं चाहती थीं.’’ अब प्रीति उस से क्या कहती और कहती भी तो क्या उस की सफाई से समीर की उलाहना दूर हो जाती?

‘‘अच्छा, अब बता मां जी कहां हैं?’’

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‘‘समीर, अब प्रीति की मां इस दुनिया में नहीं हैं,’’ नीलम ने बताया.

कुछ देर तक समीर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘सौरी प्रीति, मैं ने तुम्हारे दिल के दर्द को कुरेदा. अब घर में कौन रहता है?’’

‘‘इस के साथ अब कोई रहने वाला नहीं है समीर. यह नितांत अकेलापन का जीवन जीती है. अपनी दुनिया में खोई हुई. जिस तरह कालेज में किताबों में खोई रहती थी, अब भी किताबें ही इस की साथी हैं,’’ नीलम बोली.

समीर थोड़ी देर तक घर में इधरउधर देखते रहा. उस की मां और बाबूजी का फोटो सामने की दीवार पर टंगा हुआ था. उस ने सोचा उस का ध्यान अब तक उन फोटो पर क्यों नहीं गया जो वह प्रीति को बारबार मां की याद दिलाता रहा. उस ने हाथ जोड़ कर उस के मातापिता के फोटो के सामने जा कर उन्हें प्रणाम किया और प्रीति से बोला, ‘‘जिंदगी इसी का नाम है. यह कोई नहीं जानता कि किस की जिंदगी उस को किस तरह जीने के लिए मजबूर करेगी. तुम से बिछुड़ने के बाद मैं एक बौयज होस्टल में शिफ्ट कर गया जहां सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वाले लड़के रहते थे. घर में पढ़ने का माहौल नहीं था.

‘‘वहां एक दिन किसी ने मेरा स्मार्टफोन चुरा लिया. उस फोन में बहुत सारी इन्फौर्मेशन थीं, उसी में तुम्हारा फोन नंबर भी था. मैं ने तुम्हें खोजने का प्रयास किया किंतु तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाया. फिर मेरी कोचिंग की क्लासेज चलने लगीं और परीक्षा की तैयारी में इतनी बुरी तरह उलझा कि फिर तुम्हारी ओर ध्यान ही नहीं गया और इसी बीच मेरे बाबूजी का तबादला कंपनी वालों ने दूसरे शहर में कर दिया जहां वे मां के साथ शिफ्ट कर गए.

‘‘मैं इकलौती संतान था. घर में कोई रहने वाला नहीं था, इसलिए पिताजी ने 3 कमरों के इस अपार्टमैंट में एक कमरा निजी उपयोग के लिए रख कर 2 कमरे किराए पर दे दिए. लेकिन प्रीति तुम चाहतीं तो मेरे घर जा कर मेरे किराएदार से मेरा फोन नंबर मांग सकती थीं क्योंकि कभीकभी मैं वहां जाया करता था और किराएदार को मेरा फोन नंबर मालूम था. तुम तो मेरे घर आई थीं. मेरे मातापिता तुम्हें बहुत ही लाइक करते थे. मां तो हमेशा ही तुम्हारे सरल स्वभाव की प्रशंसा करती थीं और पिताजी अकसर कहा करते थे कि किसी भी व्यक्ति का गुण प्रधान होता है न कि उस का शरीर.

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‘‘मेरे मांबाबूजी इसी हफ्ते यहां घूमने आने वाले हैं. मैं तुम्हें उन से मिलवाऊंगा.’’

‘‘हां समीर, मुझे भी उन से मिलने की बहुत इच्छा है. उन से मिले हुए काफी दिन हो गए हैं. उन के आने के बाद तुम मुझे फोन करना, मैं उन से मिलने जरूर आऊंगी. लेकिन तुम अपनी पत्नी को ले कर क्यों नहीं आए?’’

समीर ने हंसते हुए कहा, ‘‘अभी तुम्हारी जैसी कोई मिली नहीं.’’

‘‘क्यों मजाक करते हो समीर. मेरे जैसी कोई मिले भी नहीं. हैंडीकैप होना एक अभिशाप से कम नहीं है.’’

‘‘ऐसा न कहो प्रीति, आज भी मनोविज्ञान के क्षेत्र में तुम्हारा मुकाबला करने वाला इस शहर में कोई नहीं है.’’

यह तो प्रीति नहीं जानती थी कि समीर के साथ उस का क्या रिश्ता है किंतु अंदर ही अंदर यह जान कर कि वह अब तक कुंआरा है उस के मन के तार झंकृत हो उठे.

इस बीच समीर के मांबाबूजी के आने का वह बेसब्री से इंतजार करती रही और फिर कुछ ही दिनों बाद समीर ने उसे फोन कर बताया कि उस के मांबाबूजी आए हुए हैं और उस से मिलना चाहते हैं. आज रात का डिनर उन के साथ करोगी तो उसे खुशी होगी.

प्रीति तो इसी अवसर का इंतजार कर रही थी, इसलिए उस ने उस के निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया. उसे अंदर आने से कोई न रोके, इसलिए समीर ने उस को लाने के लिए अपनी प्राइवेट कार भेज दी थी.

प्रीति को लेने समीर अपने आवास के गेट तक स्वयं आया. जब वह उस के साथ ड्राइंगरूम में पहुंची तो उस के मांबाबूजी उस का इंतजार कर रहे थे. उस ने उन के पैर छुए. उन्होंने उसे अपनी बगल में बैठा लिया.

‘‘समीर तुम्हारी हमेशा चर्चा करता है. सुना मां भी नहीं रहीं. घर में अकेली हो. बेटी मैं समझ सकती हूं तुम्हारी तकलीफ को. लड़की वह भी अकेली,’’ समीर की मां बोलीं.

‘‘बेटी, अब आगे क्या करना है?’’ समीर के बाबूजी ने पूछा.

‘‘क्या करूंगी बाबूजी. दिन में कालेज में पढ़ाती हूं, रात में अध्ययन, कुछ लेखन.’’ उस ने नम्रता से कहा.

‘‘अभी क्या लिख रही हो?’’

‘‘अभी तो कुछ नहीं. इस पुस्तक का रिस्पौंस देख लेती हूं कैसा है, फिर आगे का प्लान बनाऊंगी.’’

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‘‘यह पुस्तक ‘आनेवाली पीढि़यां और मनोविज्ञान’ मैं ने पढ़ी. समीर ने दी थी. यह सच है कि मनोविज्ञान के स्थापित सिद्धांत आने वाली पीढि़यों के संदर्भ में वैसे ही न रहेंगे.’’

‘‘बाबूजी, आप भी क्या न… आते ही पुस्तक की चर्चा में लग गए. घर और बाहर रातदिन यही तो यह करती है. आज तो हम एंजौय करें. वैसे प्रीति, मैं तुम से पूछना भूल गया था, सारे आइटम वेज ही रखे हैं. मांबाबूजी वैजिटेरियन हैं.’’

‘‘मैं भी वैजिटेरियन ही हूं.’’

खाना खाने के बाद जब प्रीति जाने को हुई तो मां ने उसे रोका.

‘‘बेटी, तुम्हारी शादी की कहीं बात चल रही है क्या?’’

प्रीति कुछ न बोल पाई. जवाब देती भी क्या. उस की शादी के लिए कौन बात करने वाला था.

‘‘समझ गई बेटी. अब तो तुम्हारे घर में तुम्हारे सिवा कोई है नहीं जिस से तुम्हारी शादी के बारे में बात की जाए. समीर तुम्हारी बहुत प्रशंसा करता है. आईएएस में उस के सिलैक्शन के बाद कई अमीर घराने के लोग अपनी बेटियों की शादी के लिए आए. वे सभी अपनी दौलत के बल पर समीर को खरीदना चाहते थे.

‘‘समीर का इस संबंध में स्पष्ट मत था कि शादी मन का मिलन होता है, सिर्फ शरीर का नहीं और जो लड़की अपने बाप की हैसियत के बल पर इस घर में आएगी वह कभी भी अपना दिल उसे न दे पाएगी. बेटी, अगर तुम्हें कोई आपत्ति न हो और समीर से तुम्हारा मन मिलता हो तो इस घर में तुम्हारी जैसी बहू पा कर हम प्रसन्न होंगे. समीर के पिताजी की भी यही इच्छा है. समीर भी यही चाहता है. अब सबकुछ तुम पर निर्भर करता है. तुम इत्मीनान से फैसला ले कर बताना. कोई जल्दी नहीं है, हम तुम्हारे जवाब का इंतजार करेंगे.’’

‘‘लेकिन मांजी, कहां समीर की पोस्ट और कहां मैं एक साधारण कालेज की लेक्चरार.’’

‘‘अब लज्जित न करो प्रीति,’’ समीर बोला, ‘‘मेरे और तुम्हारे संबंधों के बीच हमारी पोस्ट और हैसियत बीच में कहां से आ गई, इसी से बचने के लिए तो मैं ने

अब तक किसी शादी का प्र्रस्ताव स्वीकार नहीं किया.’’

प्रीति ने लज्जा से सिर झुका लिया.

उस ने समीर के मांबाबूजी के पैर छूते हुए कहा, ‘‘आप लोगों का आदेश मेरे लिए आज्ञा से कम नहीं.’’

फिर उस की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे.

समीर उसे छोड़ने उस के घर तक गया. जब वह लौटने लगा तो उस ने प्रीति को अपने गले से लगा लिया. और बोला, ‘‘प्रीति पतिपत्नी का रिश्ता बराबर का होता है, आज भी मैं वही समीर हूं जो कालेज के दिनों में हुआ करता था और आगे भी ऐसे ही रहूंगा.’’

समीर के गले लगी प्रीति को ऐसा लग रहा था मानो सारे जहां की खुशियां उसे मिल गई हैं. रात का सियाह अंधेरा अब समाप्त हो चुका था. सुबह की नई किरणें फूटने लगी थीं.

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सुबह की किरण: भाग 1

‘‘आओ, तुम यहां बैठ जाओ,’’ समीर ने प्रीति को अपने बगल में खड़ा देखा तो अपनी सीट से उठते हुए कहा.

‘‘नहीं, तुम बैठो, मुझे अगले स्टैंड पर उतरना है.’’

‘‘तुम बैठो, तुम्हें खड़ा होने में तकलीफ हो रही है,’’ उस ने फिर आग्रह किया तो प्रीति उस की सीट पर बैठ गई.

बस में खचाखच भीड़ थी. तिल भर भी पैर रखने की जगह नहीं थी. प्रीति का एक पैर जन्मजात खराब था. इसलिए थोड़ा लंगड़ा कर चलती थी. नीलम ठीक उस के पीछे खड़ी थी. मुसकराती हुई बोली, ‘‘चलो तुम्हारी तकलीफ समझने वाला कोई तो मिला.’’

अगले स्टैंड पर दोनों सहेलियां उतर गईं. समीर भी उन के पीछेपीछे उतरा.

‘‘तुम्हारी सहेली के साथ मैं ने अन्याय किया,’’ वह प्रीति को देखते हुए मुसकरा कर बोला, ‘‘लेकिन क्या करूं, सीट एक थी और तुम दो.’’

‘‘कोई बात नहीं, अगली बार तुम मुझे लिफ्ट दे देना,’’ नीलम भी मुसकराते हुए बोली तो समीर ने पूछा, ‘‘वैसे, तुम दोनों यहां कहां रहती हो?’’

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‘‘बगल में ही, गौरव गर्ल्स होस्टल में,’’ नीलम ने बताया.

‘‘अच्छा है, अब तो हमारा इसी स्टैंड से कालेज आनाजाना होता रहेगा. मैं भी थोड़ी दूर पर ही रहता हूं. मेरे बाबूजी एक कंपनी में जौब करते हैं और यहीं उन्होंने एक अपार्टमैंट खरीदा हुआ है.’’

समीर, प्रीति और नीलम एक ही कालेज में थे. आज कालेज में उन का पहला दिन था.

प्रीति आगरा की रहने वाली थी और नीलम लखनऊ की. दोनों गौरव गर्ल्स होस्टल में एक रूम में रहती थीं. प्रीति के पिताजी एक अच्छे ओहदे वाली सर्विस में थे, किंतु असमय उन का देहांत हो गया था जिस के कारण उस की मां को अनुकंपा के आधार पर उसी औफिस में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी.

प्रीति के बाबूजी बहुत पहले अपना गांव छोड़ कर आगरा में आ गए थे और यहीं उन्होंने एक छोटा सा मकान बना लिया था. गांव की जमीन और मकान उन्होंने बेच दिया था. प्रीति की मां चाहती थीं कि वह आईएएस की तैयारी करे ताकि एक ऊंची पोस्ट पर जा कर अपनी विकलांगता के दर्द को भुला सके, इसलिए उन्होंने उसे दिल्ली में एमए करने के लिए भेजा था. प्रीति को शुरू से ही साइकोलौजी में गहरी रुचि थी और बीए में भी उस का यह फेवरेट सब्जैक्ट था इसलिए उस ने इसी सब्जैक्ट से एमए करने का विचार किया. प्रीति को शुरू से ही कुछ सीखने और अधिकाधिक ज्ञानार्जन करने की इच्छा थी. वह साइकोलौजी में शोध कार्य करना चाहती थी और भविष्य में किसी कालेज में लैक्चरर बनने की ख्वाहिश पाले हुए थी.

नीलम एक बड़े बिजनैसमैन की बेटी थी. उस के पिताजी चाहते थे कि उन की बेटी दिल्ली के किसी कालेज से एमए कर ले और उस की सोसायटी मौडर्न हो जाए क्योंकि आजकल बिजनैसमैन के लड़के भी एक पढ़ीलिखी और मौडर्न लड़की को शादी के लिए प्रेफर करते थे. इसलिए उस ने दिल्ली के इसी कालेज में ऐडमिशन ले लिया था और ईजी सब्जैक्ट होने के कारण साइकोलौजी से एमए करना चाहती थी. समीर के पिताजी उसे आईएएस बनाना चाहते थे और समीर भी इस के लिए इच्छुक था, इसलिए वह भी साइकोलौजी से एमए करने के लिए कालेज में ऐडमिशन लिए हुए था.

प्रीति एक साधारण परिवार की थी और स्वभाव से भी बहुत ही सरल, इसलिए उस की वेशभूषा और पोशाकें भी साधारण थीं. पर वह सुंदर व स्मार्ट थी. उसे बनावशृंगार और मेकअप पसंद नहीं था किंतु दूसरी ओर नीलम सुंदर और छरहरे बदन की गोरी लड़की थी और अपने शरीर की सुंदरता पर उस का सब से ज्यादा ध्यान था. वह मेकअप करती और प्रतिदिन नईनई ड्रैस पहनती. कालेज में जहां प्रीति अपनी किताबों में उलझी रहती वहीं नीलम अपनी सहेलियों के साथ गपें मारती और मस्ती करती.

एक दिन प्रीति लंच के समय कालेज की लाइब्रेरी में कुछ किताबों से कुछ नोट्स तैयार कर रही थी. तभी नीलम उस के पास आई और बोली, ‘‘अरे पढ़ाकू, यह लंच का समय है और तुम किताबों से माथापच्ची कर रही हो जैसे रिसर्च कर रही हो. चलो चल कर कैफेटेरिया में चाय पीते हैं.’’

‘‘तुम जाओ, मैं थोड़ी देर बाद आऊंगी,’’ प्रीति ने कहा तो नीलम चली गई.

तभी उस ने महसूस किया कि उस के पीछे कोई खड़ा है. उस ने पलट कर पीछे की ओर देखा तो समीर था.

बस में मिलने के बाद समीर आज पहली बार उस के पास आ कर खड़ा हुआ था. क्लास में कभीकभी उस की ओर देख लिया करता था, किंतु बात नहीं करता था.

‘‘प्रीति सभी लोग कैफेटेरिया में चाय पी रहे हैं और तुम यहां बैठ कर नोट्स बना रही हो? अभी तो परीक्षा होने में काफी देर है. चलो, चाय पीते हैं.’’

‘‘बाद में आऊंगी समीर, थोड़े से नोट्स बनाने बाकी हैं, पूरा कर लेती हूं.’’

‘‘अब बंद भी करो,’’ समीर ने उस की नोटबुक को समेटते हुए कहा.

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‘‘अच्छा चलो,’’ प्रीति भी किताबों को नोटबुक के साथ हाथ में उठाते हुए उठ खड़ी हुई.

जब समीर और प्रीति कैफेटेरिया में पहुंचे तो वहां पहले से ही नीलम अपनी कुछ क्लासमेट्स के साथ बैठ कर चाय पी रही थी. अगलबगल और भी कई लड़केलड़कियां थीं.

‘‘आ गई पढ़ाकू,’’ सविता ने उस को देखते हुए चुटकी ली.

‘‘मैं ने कहा, तो मेरे साथ नहीं आई. अब समीर के एक बार कहने पर आ गई. हां भई, उस दिन बस में उठ कर अपनी सीट जो तुम्हें औफर की थी. अब उस का कुछ खयाल तो रखना ही पड़ेगा न.’’ नीलम की बात सुन कर उस की सहेलियां हंसने लगीं.

समीर कुछ झेंप सा गया. बात आईगई हो गई किंतु इस के बाद प्रीति और समीर अकसर आपस में मिलते. प्रीति को साइकोलौजी के कई टौपिक्स पर बहुत ही अच्छी पकड़ थी. उस ने साइकोलौजी में कई जानेमाने लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन किया था. जब कभी क्लास में कोई लैक्चरर आता तो उस विषय के ऐसे गंभीर प्रश्नों को उठाती कि सभी उस की ओर ताकने लगते.

समीर को उस के पढ़ने में काफी मदद मिलती. समय के साथसाथ उन के बीच आपसी लगाव बढ़ रहा था. उन के बीच का गहराता संबंध कालेज में चर्चा का विषय था. कुछ साथी उस पर चुटकियां लेने से नहीं चूकते.

‘लंगड़ी ने समीर को अपने रूपजाल में फंसा लिया है,’ कोई कहता तो कोई उन दोनों की ओर इशारा करते हुए अपने मित्र के कान में कुछ फुसफुसाता, जिस का एक ही मतलब होता था कि उन दोनों के बीच कुछ पक रहा है. अब वह किसकिस को जवाब देता. इसलिए चुप रहता.

वैसे भी समीर अपने कैरियर के प्रति सीरियस था. उसे आईएएस की तैयारी करनी थी जिस में साइकोलौजी को मुख्य विषय रखना था. वह इस विषय के बारे में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त कर लेना चाहता था. उधर प्रीति को इसी विषय के किसी टौपिक पर रिसर्च करना था. इसलिए दोनों के अपनेअपने इंटरैस्ट थे. किंतु लगातार एकदूसरे के साथ संपर्क में रहने के कारण उन के अंदर प्रेम का भी अंकुरण होने लगा था जिस को दोनों महसूस तो करते किंतु इस की आपस में कभी चर्चा नहीं करते.

ऐसे ही कब 2 वर्ष गुजर गए उन्हें पता ही नहीं चला. दोनों ने एमए फर्स्ट डिवीजन से पास कर लिया. फिर समीर ने आईएएस की तैयारी के लिए दिल्ली में ही एक कोचिंग जौइन कर ली और प्रीति एक प्रोफैसर के अंडर पीएचडी करने लगी.

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नीलम ने किसी तरह एमए किया और घर चली गई. उस के पिता ने उस की शादी एक बिजनैसमैन से कर दी. उस के निमंत्रण पर प्रीति उस की शादी में गई. उस ने समीर को भी निमंत्रण दिया था लेकिन किसी कारणवश समीर नहीं पहुंच पाया. नीलम ने प्रीति से वादा किया था कि भले ही वह उस से दूर है लेकिन जब कभी वह याद करेगी वह जरूर उस से मिलेगी. बिछुड़ते वक्त दोनों सहेलियां खूब रोईं.

इधर समीर और प्रीति के बीच दूरी बढ़ी तो लगाव भी कम होने लगा. उन के बीच कुछ महीनों तक तो फोन पर संपर्क होता रहा, फिर धीरेधीरे वह समाप्त हो गया. यही दुनियादारी है. कभी समीर जब तक उस से एक बार नहीं मिल लेता उसे चैन न मिलता, अब उसे उस की याद ही नहीं रही. प्रीति ने भी उस से बात करनी बंद कर दी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

बुद्धि का इस्तेमाल: भाग 2

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लेखिका- रेखा विनायक नावर

‘‘कैसी हो सुरभि, अब अच्छा लग रहा है न?’’

सिर हिलाते हुए उस ने हाथ से चौकलेट ली और हलके से मुसकराई.

‘‘मोरू, यह हंस रही है क्या? अब देख, उस डाक्टर ने सुरभि को 15 दिन के लिए गोवा बुलाया है, वहीं इस का इलाज होगा.’’

‘‘अरे बाप रे… यानी 15 दिन तक उसे अस्पताल में रहना होगा. मैं इतना खर्च नहीं उठा पाऊंगा,’’ मोरू ने कहा.

‘‘चुप बैठ. मेरा घर अस्पताल के नजदीक ही है. तेरी भाभी भी आई है. 2 दिन के लिए मैं सुरभि को ले कर जा रहा हूं. वह हर रोज इसे अस्पताल ले जाएगी. इलाज 15 दिन तक चलेगा. नतीजा देखने के बाद ट्रीटमैंट शुरू रखने के बारे में सोचेंगे.’’

‘‘ट्रीटमैंट क्या होगा?’’ भाभी ने घबराते हुए पूछा.

‘‘वह डाक्टर तय करेंगे. लेकिन आपरेशन बिलकुल नहीं.’’

सुरभि का ट्रीटमैंट तकरीबन 20 दिन चला. इस बीच मोरू और भाभी 2 बार गोवा आ कर गए. 20 दिन बाद आनंद और उस की पत्नी सुरभि को ले कर सावंतबाड़ी गए.

‘‘सुरभि बेटी, मां को बुलाओ,’’ आनंद ने कहा.

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सुरभि ने आवाज लगाई ‘‘आ… आ…’’ उस की आवाज सुन कर भाभी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

‘‘सुरभि, अपने पापा को नहीं बुलाओगी?’’

फिर उस ने ‘पा… पा…’ कहा. यह सुन कर दोनों की आंखों में खुशी के आंसू आ गए.

‘‘भैयाजी, सुरभि बोलने लगी है, पर अभी ठीक से नहीं बोल पा रही है,’’ सुरभि की चाची ने कहा.

‘‘भाभी, इतने दिनों तक उस के गले से आवाज नहीं निकली. अभीअभी आई है तो प्रैक्टिस करने पर सुधर जाएगी.’’

‘‘लेकिन, यहां कैसे मुमकिन हो पाएगा यह सब?’’

‘‘यहां के सरकारी अस्पताल में शितोले नाम की एक औरत आती है. वह यही प्रैक्टिस कराती है. इसे स्पीच और आडियो थेरैपी कहते हैं. वह प्रैक्टिस कराएगी तो धीरेधीरे सुरभि बोलने लगेगी.’’

चाचीजी ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘‘अन्ना महाराज ने सालभर उपचार किया. बहू ने उपवास किए. यह सब उसी का फल है. आनंद, तेरा डाक्टर एक महीने में क्या करेगा.’’

‘‘चाचीजी, जो एक साल में नहीं हुआ, वह 15 दिन में हुआ है, और वह भी मैडिकल साइंस की वजह से. फिर भी सुरभि अभी भी पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है.’’

‘‘लेकिन, उसे हुआ क्या था?’’

‘‘हम सब को अन्ना महाराज के पास जा कर यह जानकारी देनी चाहिए.’’

हम सभी लोग मठ में दाखिल हुए.

‘‘नमस्कार अन्ना महाराज. सुरभि, अन्ना महाराज को आवाज दो.’’

‘‘न… न…’’ ये शब्द सुन कर क्षणभर के लिए अन्ना चौंक गए.

‘‘अरे साहब, सालभर से हम ने कड़े प्रयास किए हैं. मां की तपस्या, भाभी की उपासना कामयाब हुई हैं.’’

‘‘अरे, वाह, पर इसे हुआ क्या था?’’

‘‘अरे, क्या बोलूं. पीपल से लटक कर एक लड़की ने खुदकुशी की थी, उसी के भूत ने इसे पकड़ लिया था, पर अब उस ने सुरभि को छोड़ दिया है.’’

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‘‘मैं खुद उस पीपल से लटक गया था. उस समय मेरे साथ उस की सहेलियां भी थीं. लेकिन, उस ने हमें तो नहीं पकड़ा.’’

‘‘सब लोगों को नहीं पकड़ते हैं. इस लड़की के नसीब में ही ऐसा लिखा था.’’

‘‘और, आप के नसीब में इस के मातापिता का पैसा था.’’

‘‘यह क्या बोल रहे हो तुम? मु झ पर शक कर रहे हो?’’ अन्ना ने तमतमाते हुए पूछा.

‘‘चिल्लाने से  झूठ सच नहीं हो जाता. तुम अपनी ओछी सोच से लोगों को गलत रास्ते पर धकेल रहे हो. सच बात तो कुछ और है.’’

‘‘क्या है सच बात…?’’ अन्ना की आवाज नरम हो गई.

‘‘सुरभि जन्म से ही गूंगी नहीं है, वह बोलती थी, लेकिन तुतला कर, क्लास में लड़कियां उसे ‘तोतली’ कह कर चिढ़ाती थीं, इसलिए वह बोलने से बचने लगी और मन ही मन कुढ़ने लगी.’’

‘‘फिर, तुम ने उस पर क्या उपाय किया. सिर्फ ये दवाएं?’’

‘‘ये दवाएं उस के लिए एक टौनिक थीं, सही माने में उसे ऐसे टौनिक की जरूरत थी, जो उस के मन को ठीक कर सके, जिसे मेरे डाक्टर दोस्त ने पहचाना.

‘‘ये सारी बातें मु झे सुरभि की सहेलियों ने बताईं. गोवा ले जा कर मैं ने उस की काउंसलिंग कराई. उसे निराशा के अंधेरे से बाहर निकाला. इस के बाद बोलने की कोशिश करना सिखाया. अब वह धीरेधीरे 2 महीने में अच्छी तरह से बोलना सीख जाएगी.’’

‘‘यह सब अपनेआप होगा क्या?’’ भाभी की चिंता वाजिब थी.

‘‘अपनेआप कैसे होगा? उस के लिए यहां के सरकारी अस्पताल में उसे ले जाना पड़ेगा. यह सब आप को करना होगा.’’

‘‘मैं करूंगी भाईजी, आप हमारे लिए एक फरिश्ते से कम नहीं हो.’’

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‘‘तो आप इस फरिश्ते को क्या खिलाओगी?’’ आनंद ने मजाक करते हुए पूछा.

‘‘कोंबडी बडे.’’

‘‘बहुत अच्छा. 2 दिन रहूंगा मैं यहां. पहले इस अन्ना महाराज को कौन सा नुसखा दें, क्यों महाराज?’’

‘‘मु झे कुछ नहीं चाहिए, अब मैं यहां से जा रहा हूं दूसरी जगह.’’

‘‘जाने से पहले सुरभि के हाथ से धागा निकालो. तुम्हें दूसरी जगह जाने की बिलकुल जरूरत नहीं है. वहां के लोगों के हाथ में भी धागा बांध कर उन्हें लूटोगे. इसलिए इसी मठ में रहना है. काम कर के खाना, मुफ्त का नहीं. यह गांव तुम छोड़ नहीं सकते. वह तुम्हें कहीं से भी खोज निकालेगा. सम झ

गया न.’’

‘‘डाक्टर साहब, आप जैसा बोलोगे, वैसा ही होगा.’’

घर आ कर मोरू को डांट लगाई,  ‘‘चाचीजी की बात अलग है, लेकिन, तू तो कम से कम सोच सकता था न. तंत्रमंत्र, धागा, धूपदान से किसी का भी भला नहीं होता है. श्रद्धा और अंधश्रद्धा दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. अंधश्रद्धा बुद्धि खराब कर के एक ही जगह पर जकड़ कर रखती है, इसलिए पहले सोचें कि अपनी बुद्धि का कैसे इस्तेमाल करें.’’

मोरू के दिमाग में आनंद की बात घर कर चुकी थी.

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बुद्धि का इस्तेमाल: भाग 1

लेखिका- रेखा विनायक नावर

2 साल स्कूल की पढ़ाई उस ने यहीं से की थी. एक दिन आनंद को उस समय के अपने सब से करीबी दोस्त रमाकांत मोरचकर यानी मोरू ने अपने घर बुलाया. वक्त मिलते ही आनंद भी अपना सामान बांध कर बिना बताए उस के पास पहुंच गया.

‘‘आओआओ… यह अपना ही घर है,’’ मोरू ने बहुत खुले दिल से आनंद का स्वागत किया, लेकिन उस के घर में एक अजीब तरह का सन्नाटा था.

‘‘क्या मोरू, सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, ऐसा ही सम झ लो.’’

‘‘बिना बताए आने से नाराज हो क्या?’’

तब तक भाभी पानी ले कर बाहर आईं. उन के चेहरे पर चिंता की रेखाएं साफ नजर आ रही थीं.

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‘‘सविता भाभी कैसी हैं आप?’’

‘‘ठीक हूं,’’ कहते समय उन के चेहरे पर कोई भाव नहीं था.

‘‘आनंद के लिए जरा चाय रखो.’’

देवघर में चाची (मोरू की मां) पूजा कर रही थीं. उन्हें नमस्कार किया.

‘‘बैठो बेटा,’’?चेहरे से चाची भी खुश नहीं लग रही थीं.

बैठक में आनंद की नजर गई तो 14-15 साल की एक लड़की चुपचाप बैठी थी, जो उस की उम्र को शोभा नहीं दे रही थी. दुबलेपतले हाथपैर और चेहरा मुर झाया हुआ था. आनंद ने बड़े ध्यान से देखा.

‘‘यह सुरभि है न…? चौकलेट अंकल को पहचाना नहीं क्या? हां, सम झ में आया. चौकलेट नहीं दी, इसलिए तू गुस्सा है. यह ले चौकलेट, यहां आओ,’’ पर सुरभि ने चौकलेट नहीं ली और अचानक से रोने लगी.

‘‘आनंद, वह बोल नहीं सकती है,’’ चाचीजी ने चौंकने वाली बात कही.

‘‘क्या…? बचपन में टपाटप बोलने वाली लड़की आज बोल नहीं सकती, लेकिन क्यों?’’

चाय ले कर आई भाभी ने तो और चौंका दिया, ‘‘सालभर पहले एक दिन जब से यह स्कूल से आई है, तब से कुछ नहीं बोल रही है.’’

‘‘क्या हुआ था…? अब क्यों स्कूल नहीं जाती है?’’

‘‘स्कूल जा कर क्या करेगी? घर में बैठी है,’’ भाभी ने उदास लहजे में कहा.

आनंद इस सदमे से संभला और सुरभि का नाक, गला, कान वगैरह सब चैक किया.

स्पीच आडियो आनंद का सब्जैक्ट नहीं था, फिर भी एक डाक्टर होने के नाते जानकारी तो है.

‘‘मोरू मु झे बता, आखिर यह सब कब हुआ? मु झे तुम लोगों ने बताया क्यों नहीं?’’

‘‘बीते साल अगस्त महीने में अपनी सहेली के साथ यह स्कूल से आई. हम ने देखा, इस की आवाज जैसे बैठ गई थी, लेकिन कुछ दिन बाद तो हमेशा के लिए ही बंद हो गई.’’

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‘‘अरे, यह उस पेड़ के नीचे गई थी, वह बता न…’’ चाचीजी ने कहा.

‘‘कौन से पेड़ के नीचे…? उस की टहनियां टूट कर इस के ऊपर गिर गई थीं क्या?’’

‘‘पीपल के नीचे… टहनी टूट कर कैसे लगेगी. उस पेड़ के नीचे अमावस्या के दिन ऐसे ही होता है. वह भी दोपहर 12 बजे.’’

‘‘यह अकेली थी क्या?’’

‘‘नहीं, 3-4 सहेलियां थीं. लेकिन इसी को पकड़ा न. अन्ना महाराज ने मु झे सबकुछ बताया,’’ काकी की बातें सुन कर अजीब सा लगा.

‘‘अब ये अन्ना महाराज कौन हैं?’’

‘‘पिछले एक साल से अन्ना बाबा गांव के बाहर मठ में अपने शिष्य के साथ रहते हैं और पूजापाठ करते हैं. भक्तों की कुछ भी समस्या हो, वे उन का निवारण करते हैं.’’

‘‘फिर, तुम उन के पास गए थे कि नहीं?’’

‘‘मां सुरभि को ले कर गई थीं. देखते ही उन्होंने कहा कि पीपल के नीचे की बाधा है… मंत्र पढ़ कर कोई धागा दिया और उपवास करने के लिए कहा, जो वे करती हैं.’’

‘‘वह तो दिख रहा है भाभी की तबीयत से. क्यों इन तंत्रमंत्र पर विश्वास करता है? यह सब अंधश्रद्धा नासम झी से आई है. विज्ञान के युग में हमारी सोच बदलनी चाहिए. इन बाबाओं की दवाओं से अगर हम अच्छे होने लगते तो मैडिकल साइंस किस काम की है. डाक्टर को दिखाया क्या?’’

‘‘दिखाया न. गोवा के एक डाक्टर को दिखाया. उन्होंने कहा कि आवाज आ सकती है, लेकिन आपरेशन करना पड़ेगा. एक तो काफी खर्चा, दूसरे कामयाब होने की गारंटी भी नहीं है.

‘‘ठीक है. इस की सहेलियां, जो उस समय इस के साथ थीं, मैं उन से मिलना चाहता हूं.’’

सुरभि की सहेलियों से बातचीत की. आनंद पीपल के नीचे गया और जांचा. यह देख कर मोरू, उस की मां और पत्नी सभी उल झन में थे.

‘‘मोरू, कल सुबह हम गोवा जाएंगे. मेरा दोस्त नाक, कान और गले का डाक्टर है. उस की सलाह ले कर आते हैं,’’ आनंद ने कहा.

‘‘गोवा का डाक्टर ही तो आपरेशन करने के लिए बोला है. फिर क्या यह कुछ अलग बोलेगा? जानेआने में तकलीफ और उस की फीस अलग से.’’

‘‘तुम उस की चिंता मत करो. वहां जाने के लिए मेरी गाड़ी है. आते वक्त तुम्हें बस में बैठा दूंगा. रात तक तुम लोग वापस आ जाओगे.’’

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‘‘लेकिन, अन्ना महाराज ने कहा है कि डाक्टर कुछ नहीं कर सकता है?’’ चाचीजी ने टोका.

‘‘चाचीजी, उस के दिए हुए धागे इस के हाथ में हैं. अब देखते हैं कि डाक्टर क्या बोलता है.’’

न चाहते हुए भी मोरू जाने के लिए तैयार हुआ. घर के बाहर निकलने की वजह से सुरभि की उदासी कुछ कम हुई.

डाक्टर ने चैक करने के बाद दवाएं दीं. कैसे लेनी हैं, यह भी बताया. इस के बाद हम ने आगे की कार्यवाही शुरू की.

सुरभि की तबीयत को ले कर आनंद फोन पर कुछ पूछ रहा था और भाई को भी उस पर ध्यान देने के लिए कहा था. आनंद ने मोरू की बेटी सुरभि के साथ कुछ समय बिताने को कहा था. उपवास,  झाड़फूंक, धागा, अन्ना महाराज के पास आनाजाना सबकुछ शुरू था.

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एक तीर दो शिकार: भाग 1

अटैची हाथ में पकड़े आरती ड्राइंगरूम में आईं तो राकेश और सारिका चौंक कर खडे़ हो गए.

‘‘मां, अटैची में क्या है?’’ राकेश ने माथे पर बल डाल कर पूछा.

‘‘फ्रिक मत कर. इस में तेरी बहू के जेवर नहीं. बस, मेरा कुछ जरूरी सामान है,’’ आरती ने उखड़े लहजे में जवाब दिया.

‘‘किस बात पर गुस्सा हो?’’

अपने बेटे के इस प्रश्न का आरती ने कोई जवाब नहीं दिया तो राकेश ने अपनी पत्नी की तरफ प्रश्नसूचक निगाहों से देखा.

‘‘नहीं, मैं ने मम्मी से कोई झगड़ा नहीं किया है,’’ सारिका ने फौरन सफाई दी, लेकिन तभी कुछ याद कर के वह बेचैन नजर आने लगी.

राकेश खामोश रह कर सारिका के आगे बोलने का इंतजार करने लगा.

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‘‘बात कुछ खास नहीं थी…मम्मी फ्रिज से कल रात दूध निकाल रही थीं…मैं ने बस, यह कहा था कि सुबह कहीं मोहित के लिए दूध कम न पड़ जाए…कल चाय कई बार बनी…मुझे कतई एहसास नहीं हुआ कि उस छोटी सी बात का मम्मी इतना बुरा मान जाएंगी,’’ अपनी बात खत्म करने तक सारिका चिढ़ का शिकार बन गई.

‘‘मां, क्या सारिका से नाराज हो?’’ राकेश ने आरती को मनाने के लिए अपना लहजा कोमल कर लिया.

‘‘मैं इस वक्त कुछ भी कहनेसुनने के मूड में नहीं हूं. तू मुझे राजनगर तक का रिकशा ला दे, बस,’’ आरती की नाराजगी उन की आवाज में अब साफ झलक उठी.

‘‘क्या आप अंजलि दीदी के घर जा रही हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘बेटी के घर अटैची ले कर रहने जा रही होे?’’ राकेश ने बड़ी हैरानी जाहिर की.

‘‘जब इकलौते बेटे के घर में विधवा मां को मानसम्मान से जीना नसीब न हो तो वह बेटी के घर रह सकती है,’’ आरती ने जिद्दी लहजे में दलील दी.

‘‘तुम गुस्सा थूक दो, मां. मैं सारिका को डांटूंगा.’’

‘‘नहीं, मेरे सब्र का घड़ा अब भर चुका है. मैं किसी हाल में नहीं रुकूंगी.’’

‘‘कुछ और बातें भी क्या तुम्हें परेशान और दुखी कर रही हैं?’’

‘‘अरे, 1-2 नहीं बल्कि दसियों बातें हैं,’’ आरती अचानक फट पड़ीं, ‘‘मैं तेरे घर की इज्जतदार बुजुर्ग सदस्य नहीं बल्कि आया और महरी बन कर रह गई हूं…मेरा स्वास्थ्य अच्छा है, तो इस का मतलब यह नहीं कि तुम महरी भी हटा दो…मुझे मोहित की आया बना कर आएदिन पार्टियों में चले जाओ…तुम दोनों के पास ढंग से दो बातें मुझ से करने का वक्त नहीं है…उस शाम मेरी छाती में दर्द था तो तू डाक्टर के पास भी मुझे नहीं ले गया…’’

‘‘मां, तुम्हें बस, एसिडिटी थी जो डाइजीन खा कर ठीक भी हो गई थी.’’

‘‘अरे, अगर दिल का दौरा पड़ने का दर्द होता तो तेरी डाइजीन क्या करती? तुम दोनों के लिए अपना आराम, अपनी मौजमस्ती मेरे सुखदुख का ध्यान रखने से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. मेरी तो मेरी तुम दोनों को बेचारे मोहित की फिक्र भी नहीं. अरे, बच्चे की सारी जिम्मेदारियां दादी पर डालने वाले तुम जैसे लापरवाह मातापिता शायद ही दूसरे होंगे,’’ आरती ने बेझिझक उन्हें खरीखरी सुना दीं.

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‘‘मम्मी, हम इतने बुरे नहीं हैं जितने आप बता रही हो. मुझे लगता है कि आज आप तिल का ताड़ बनाने पर आमादा हो,’’ सारिका ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

‘‘अच्छे हो या बुरे, अब अपनी घरगृहस्थी तुम दोनों ही संभालो.’’

‘‘मैं आया का इंतजाम कर लूं, फिर आप चली जाना.’’

‘‘जब तक आया न मिले तुम आफिस से छुट्टी ले लेना. मोहित खेल कर लौट आया तो मुझे जाते देख कर रोएगा. चल, रिकशा करा दे मुझे,’’ आरती ने सूटकेस राकेश को पकड़ाया और अजीब सी अकड़ के साथ बाहर की तरफ चल पड़ीं.

‘पता नहीं मां को अचानक क्या हो गया? यह जिद्दी इतनी हैं कि अब किसी की कोई बात नहीं सुनेंगी,’ बड़बड़ाता हुआ राकेश अटैची उठा कर अपनी मां के पीछे चल पड़ा.

परेशान सारिका को नई आया का इंतजाम करने के लिए अपनी पड़ोसिनों की मदद चाहिए थी. वह उन के घरों के फोन नंबर याद करते हुए फोन की तरफ बढ़ चली.

करीब आधे घंटे के बाद आरती अपने दामाद संजीव के घर में बैठी हुई थीं. अपनी बेटी अंजलि और संजीव के पूछने पर उन्होंने वही सब दुखड़े उन को सुना दिए जो कुछ देर पहले अपने बेटेबहू को सुनाए थे.

‘‘आप वहां खुश नहीं हैं, इस का कभी एहसास नहीं हुआ मुझे,’’ सारी बातें सुन कर संजीव ने आश्चर्य व्यक्त किया.

‘‘अपने दिल के जख्म जल्दी से किसी को दिखाना मेरी आदत नहीं है, संजीव. जब पानी सिर के ऊपर हो गया, तभी अटैची ले कर निकली हूं,’’ आरती का गला रुंध गया.

‘‘मम्मी, यह भी आप का ही घर है. आप जब तक दिल करे, यहां रहें. सोनू और प्रिया नानी का साथ पा कर बहुत खुश होंगे,’’ संजीव ने मुसकराते हुए उन्हें अपने घर में रुकने का निमंत्रण दे दिया.

‘‘यहां बेटी के घर में रुकना मुझे अच्छा…’’

‘‘मां, बेकार की बातें मत करो,’’ अंजलि ने प्यार से आरती को डपट दिया, ‘‘बेटाबेटी में यों अंतर करने का समय अब नहीं रहा है. जब तक मैं उस नालायक राकेश की अक्ल ठिकाने न लगा दूं, तब तक तुम आराम से यहां रहो.’’

‘‘बेटी, आराम करने के चक्कर में फंस कर ही तो मैं ने अपनी यह दुर्गति कराई है. अब आराम नहीं, मैं काम करूंगी,’’ आरती ने दृढ़ स्वर में मन की इच्छा जाहिर की.

‘‘मम्मी, इस उम्र में क्या काम करोगी आप? और काम करने के झंझट में क्यों फंसना चाहती हो?’’ संजीव परेशान नजर आने लगा.

‘‘काम मैं वही करूंगी जो मुझे आता है,’’ आरती बेहद गंभीर हो उठीं, ‘‘जब अंजलि के पापा इस दुनिया से अकस्मात चले गए तब यह 8 और राकेश 6 साल के थे. मैं ससुराल में नहीं रही क्योेंकि मुझ विधवा की उस संयुक्त परिवार में नौकरानी की सी हैसियत थी.

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‘‘अपने आत्मसम्मान को बचाए रखने के लिए मैं ने ससुराल को छोड़ा. दिन में बडि़यांपापड़ बनाती और रात को कपड़े सिलती. आज फिर मैं सम्मान से जीना चाहती हूं. अपने बेटेबहू के सामने हाथ नहीं फैलाऊंगी. कल सुबह अंजलि मुझे ले कर शीला के पास चलेगी.’’

‘‘यह शीला कौन है?’’ संजीव ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘मेरी बहुत पुरानी सहेली है. उस नेबडि़यांपापड़ बनाने का लघुउद्योग कायम कर रखा है. वह मुझे भी काम देगी. अगर रहने का इंतजाम भी उस ने कर दिया तो मैं यहां नहीं…’’

‘‘नहीं, मां, तुम यहीं रहोगी,’’ अंजलि ने उन्हें अपनी बात पूरी नहीं करने दी और आवेश भरे लहजे में बोली,  ‘‘जिस घर में तुम्हारे बेटाबहू ठाट से रह रहे हैं, वह घर आज भी तुम्हारे नाम है. अगर बेघर हो कर किसी को धक्के खाने ही हैं तो वह तुम नहीं वे होंगे.’’

‘‘तू इतना गुस्सा मत कर, बेटी.’’

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एक तीर दो शिकार: भाग 3

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‘‘मम्मी अभी गुस्से में हैं. कुछ दिनों के बाद उन्हें समझाबुझा कर हम भेज देंगे,’’ संजीव ने उन्हें आश्वासन दिया.

‘‘उन्हें पापड़बडि़यां बनाने के काम पर जाने से भी रोको, जीजाजी,’’ राकेश ने प्रार्थना की, ‘‘जो भी इस बात को सुनेगा, हम पर हंसेगा.’’

‘‘राकेश, मेहनत व ईमानदारी से किए जाने वाले काम पर मूर्ख लोग ही हंसते हैं. मां ने यही काम कर के हमें पाला था. कभी जा कर देखना कि शीला आंटी के यहां काम करने वाली औरतों के चेहरों पर स्वाभिमान और खुशी की कैसी चमक मौजूद रहती है. थोड़े से समय के लिए मैं भी वहां रोज जाया करूंगी मां के साथ,’’ अपना फैसला बताते हुए अंजलि बिलकुल भी नहीं झिझकी थी.

बाद में संजीव ने उसे काम पर न जाने के लिए कुछ देर तक समझाया भी, पर अंजलि ने अपना फैसला नहीं बदला.

‘‘मेरी बेटी कुछ मामलों में मेरी तरह से ही जिद्दी और धुन की पक्की है, संजीव. यह किसी पर अन्याय होते भी नहीं देख सकती. तुम नाराज मत हो और कुछ दिनों के लिए इसे अपनी इच्छा पूरी कर लेने दो. घर के काम का हर्जा, इस का हाथ बटा कर मैं नहीं होने दूंगी. तुम बताओ, तुम्हारे दोस्त की तबीयत कैसी है?’’ आरती ने अचानक विषय परिवर्तन कर दिया.

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‘‘मेरे दोस्त की तबीयत को क्या हुआ है?’’ संजीव चौंका.

‘‘अरे, कल तुम अपने एक बीमार दोस्त का हालचाल पूछने गए थे न.’’

‘‘हां, हां…वह…अब ठीक है…बेहतर है…’’ अचानक बेचैन नजर आ रहे संजीव ने अखबार उठा कर उसे आंखों के सामने यों किया मानो आरती की नजरों से अपने चेहरे के भावों को छिपा रहा हो.

आरती ने अंजलि की तरफ देखा पर उस का ध्यान उन दोनों की तरफ न हो कर प्रिया की चोटी खोलने की तरफ लगा हुआ था.

आरती के साथ अंजलि भी रोज पापड़बडि़यां बनाने के काम पर जाती. मां शाम को लौटती पर बेटी 12 बजे तक लौट आती. दोनों इस दिनचर्या से बेहद खुश थीं. मोहित को याद कर के आरती कभीकभी उदास हो जातीं, नहीं तो बेटी के घर उन का समय बहुत अच्छा बीत रहा था.

आरती को वापस ले जाने में राकेश और सारिका पूरे 2 हफ्ते के बाद सफल हुए.

‘‘आया की देखभाल मोहित के लिए अच्छी नहीं है, मम्मी. वह चिड़चिड़ा और कमजोर होता जा रहा है. सारा घर आप की गैरमौजूदगी में बिखर सा गया है. मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करती हूं…अपनी सारी गलतियां सुधारने का वादा करती हूं…बस, अब आप घर चलिए, प्लीज,’’ हाथ जोड़ कर यों विनती कर रही बहू को आरती ने अपनी छाती से लगाया और घर लौटने को राजी हो गईं.

अंजलि ने पहले ही यह सुनिश्चित करवा लिया कि घर में झाड़ूपोछा करने व बरतन मांजने वाली बाई आती रहेगी. वह तो आया को भी आगे के लिए रखवाना चाहती थी पर इस के लिए आरती ही तैयार नहीं हुईं.

‘‘मैं जानती थी कि आज मुझे लौटना पडे़गा. इसीलिए मैं शीला से 15 दिन की अपनी पगार ले आई थी. अब हम सब पहले बाजार चलेंगे. तुम सब को अपने पैसों से मैं दावत दूंगी…और उपहार भी,’’ आरती की इस घोषणा को सुन कर बच्चों ने तालियां बजाईं और खुशी से मुसकरा उठे.

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आरती ने हर एक को उस की मनपसंद चीज बाजार में खिलवाई. संजीव और राकेश को कमीज मिली. अंजलि और सारिका ने अपनी पसंद की साडि़यां पाईं. प्रिया ने ड्रेस खरीदी. सोनू को बैट मिला और मोहित को बैटरी से चलने वाली कार.

वापस लौटने से पहले आरती ने अकेले संजीव को साथ लिया और उस आलीशान दुकान में घुस गइ्रं जहां औरतों की हर प्रसाधन सामग्री बिकती थी.

‘‘क्या आप यहां अपने लिए कुछ खरीदने आई हैं, मम्मी?’’ संजीव ने उत्सुकता जताई.

‘‘नहीं, यहां से मैं कुछ बरखा के लिए खरीदना चाहती हूं,’’ आरती ने गंभीर लहजे में जवाब दिया.

‘‘बरखा कौन?’’ एकाएक ही संजीव के चेहरे का रंग उड़ गया.

‘‘तुम्हारी दोस्त जो मेरी सहेली उर्मिला के फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में रहती है…वही बरखा जिस से मिलने तुम अकसर उस के फ्लैट पर जाते हो..जिस के साथ तुम ने गलत तरह का रिश्ता जोड़ रखा है.’’

‘‘मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं…’’

‘‘संजीव, प्लीज. झूठ बोलने की कोशिश मत करो और मेरी यह चेतावनी ध्यान से सुनो,’’ आरती ने उस की आंखों में आंखें डाल कर सख्त स्वर में बोलना शुरू किया, ‘‘अंजलि तुम्हारे प्रति…घर व बच्चों के प्रति पूरी तरह से समर्पित है. पिछले दिनों में तुम्हें इस बात का अंदाजा हो गया होगा कि वह अन्याय के सामने चुप नहीं रह सकती…मेरी बेटी मानसम्मान से जीने को सब से महत्त्वपूर्ण मानती है.

‘‘उसे बरखा  की भनक भी लग गई तो तुम्हें छोड़ देगी. मेरी बेटी सूखी रोटी खा लेगी, पर जिएगी इज्जत से. जैसे मैं ने बनाया, वैसे ही वह भी पापड़बडि़यां बना कर अपने बच्चों को काबिल बना लेगी.

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‘‘आज के बाद तुम कभी बरखा के फ्लैट पर गए तो मैं खुद तुम्हारा कच्चा चिट्ठा अंजलि के सामने खोलूंगी. तुम्हें मुझे अभी वचन देना होगा कि तुम उस से संबंध हमेशा के लिए समाप्त कर लोगे. अगर तुम ऐसा नहीं करते हो, तो अपनी पत्नी व बच्चों से दूर होने को तैयार हो जाओ. अपनी गृहस्थी उजाड़ कर फिर खूब मजे से बरखा के साथ मौजमस्ती करना.’’

संजीव ने कांपती आवाज में अपना फैसला सुनाने में ज्यादा वक्त नहीं लिया, ‘‘मम्मी, आप अंजलि से कुछ मत कहना. वह खुद्दार औरत मुझे कभी माफ नहीं करेगी.’’

‘‘गुड, मुझे तुम से ऐसे ही जवाब की उम्मीद थी. आओ, बाहर चलें.’’

आरती एक तीर से दो शिकार कर के बहुत संतुष्ट थीं. उन्होंने घर छोड़ कर राकेश व सारिका को अपना महत्त्व व उन की जिम्मेदारियों का एहसास कराया था. साथ ही अंजलि के व्यक्तित्व की कुछ विशेषताओं से संजीव को परिचित करा कर उसे सही राह पर लाई थीं. उन का मिशन पूरी तरह सफल रहा था.

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एक तीर दो शिकार: भाग 2

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‘‘अब मैं काम करना शुरू कर के आत्मनिर्भर हो जाऊंगी तो सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘मुझे तुम पर गर्व है, मां,’’ आरती के गले लग कर अंजलि ने अपने पति को बताया, ‘‘मुझे वह समय याद है जब मां अपना सुखचैन भुला कर दिनरात मेहनत करती थीं. हमें ढंग से पालपोस कर काबिल बनाने की धुन हमेशा इन के सिर पर सवार रहती थी.

‘‘आज राकेश बैंक आफिसर और मैं पोस्टग्रेजुएट हूं तो यह मां की मेहनत का ही फल है. लानत है राकेश पर जो आज वह मां की उचित देखभाल नहीं कर रहा है.’’

‘‘मेरी यह बेटी भी कम हिम्मती नहीं है, संजीव,’’ आरती ने स्नेह से अंजलि का सिर सहलाया, ‘‘पापड़बडि़यां बनाने में यह मेरा पूरा हाथ बटाती थी. पढ़ने में हमेशा अच्छी रही. मेरा बुरा वक्त न होता तो जरूर डाक्टर बनती मेरी गुडि़या.’’

‘‘आप दोनों बैठ कर बातें करो. मैं जरा एक बीमार दोस्त का हालचाल पूछने जा रहा हूं. मम्मी, आप यहां रुकने में जरा सी भी हिचक महसूस न करें. राकेश और सारिका को मैं समझाऊंगा तो सब ठीक हो जाएगा,’’ संजीव उन के बीच से उठ कर अपने कमरे में चला गया.

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कुछ देर बाद वह तैयार हो कर बाहर चला गया. उस के बदन से आ रही इत्र की खुशबू को अंजलि ने तो नहीं, पर आरती ने जरूर नोट किया.

‘‘कौन सा दोस्त बीमार है संजीव का?’’ आरती ने अपने स्वर को सामान्य रखते हुए अंजलि से पूछा.

‘‘मुझे पता नहीं,’’ अंजलि ने लापरवाह स्वर में जवाब दिया.

‘‘बेटी, पति के दोस्तों की…उस के आफिस की गतिविधियों की जानकारी हर समझदार पत्नी को रखनी चाहिए.’’

‘‘मां, 2 बच्चों को संभालने में मैं इतनी व्यस्त रहती हूं कि इन बातों के लिए फुर्सत ही नहीं बचती.’’

‘‘अपने लिए वक्त निकाला कर, बनसंवर कर रहा कर…कुछ समय वहां से बचा कर संजीव को खुश करने के लिए लगाएगी तो उसे अच्छा लगेगा.’’

‘‘मैं जैसी हूं, उन्हें बेहद पसंद हूं, मां. तुम मेरी फिक्र न करो और यह बताओ कि क्या कल सुबह तुम सचमुच शीला आंटी के पास काम मांगने जाओगी?’’ अपनी आंखों में चिंता के भाव ला कर अंजलि ने विषय परिवर्तन कर दिया था.

आरती काम पर जाने के लिए अपने फैसले पर जमी रहीं. उन के इस फैसले का अंजलि ने स्वागत किया.

रात को राकेश और सारिका ने आरती से फोन पर बात करनी चाही, पर वह तैयार नहीं हुईं.

अंजलि ने दोनों को खूब डांटा. सारिका ने उस की डांट खामोश रह कर सुनी, पर राकेश ने इतना जरूर कहा, ‘‘मां ने कभी पहले शिकायत का एक शब्द भी मुंह से निकाला होता तो मैं जरूर काररवाई करता. मुझे सपना तो नहीं आने वाला था कि वह घर में दुख और परेशानी के साथ रह रही हैं. उन्हें घर छोड़ने से पहले हम से बात करनी चाहिए थी.’’

अंजलि ने जब इस बारे में मां से सवाल किया तो वह नींद आने की बात कह सोने चली गईं. उन के सोने का इंतजाम सोनू और प्रिया के कमरे में किया गया था.

उन दोनों बच्चों ने नानी से पहले एक कहानी सुनी और फिर लिपट कर सो गए. आरती को मोहित बहुत याद आ रहा था. इस कारण वह काफी देर से सो सकी थीं.

अगले दिन बच्चों को स्कूल और संजीव को आफिस भेजने के बाद अंजलि मां के साथ शीला से मिलने जाने के लिए घर से निकली थी.

शीला का कुटीर उद्योग बड़ा बढि़या चल रहा था. घर की पहली मंजिल पर बने बडे़ हाल में 15-20 औरतें बडि़यांपापड़ बनाने के काम में व्यस्त थीं.

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वह आरती के साथ बड़े प्यार से मिलीं. पहले उन्होंने पुराने वक्त की यादें ताजा कीं. चायनाश्ते के बाद आरती ने उन्हें अपने आने का मकसद बताया तो वह पहले तो चौंकीं और फिर गहरी सांस छोड़ कर मुसकराने लगीं.

‘‘अगर दिल करे तो अपनी परेशानियों की चर्चा कर के अपना मन जरूर हलका कर लेना, आरती. कभी तुम मेरा सहारा बनी थीं और आज फिर तुम्हारा साथ पा कर मैं खुश हूं. मेरा दायां हाथ बन कर तुम चाहो तो आज से ही काम की देखभाल में हाथ बटाओ.’’

अपनी सहेली की यह बात सुन कर आरती की पलकें नम हो उठी थीं.

आरती और अंजलि ने वर्षों बाद पापड़बडि़यां बनाने का काम किया. उन दोनों की कुशलता जल्दी ही लौट आई. बहुत मजा आ रहा था दोनों को काम करने में.

कब लंच का समय हो गया उन्हें पता ही नहीं चला. अंजलि घर लौट गई क्योंकि बच्चों के स्कूल से लौटने का समय हो रहा था. आरती को शीला ने अपने साथ खाना खिलाया.

आरती शाम को घर लौटीं तो बहुत प्रसन्न थीं. संजीव को उन्होंने अपने उस दिन के अनुभव बडे़ जोश के साथ सुनाए.

रात को 8 बजे के करीब राकेश और सारिका मोहित को साथ ले कर वहां आ पहुंचे. उन को देख कर अंजलि का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया.

बड़ी कठिनाई से संजीव और आरती उस के गुस्से को शांत कर पाए. चुप होतेहोते भी अंजलि ने अपने भाई व भाभी को खूब खरीखोटी सुना दी थीं.

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‘‘मां, अब घर चलो. इस उम्र में और हमारे होते हुए तुम्हें काम पर जाने की कोई जरूरत नहीं है. दुनिया की नजरों में हमें शर्मिंदा करा कर तुम्हें क्या मिलेगा?’’ राकेश ने आहत स्वर में प्रश्न किया.

‘‘मैं इस बारे में कुछ नहीं कहनासुनना चाहती हूं. तुम लोग चाय पिओ, तब तक मैं मोहित से बातें कर लूं,’’ आरती ने अपने 5 वर्षीय पोते को गोद में उठाया और ड्राइंगरूम से उठ कर बच्चों के कमरे में चली आईं.

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19 दिन 19 कहानियां : दोस्ती पर ग्रहण

मंगलवार, 4 जून, 2019 को सूर्योदय हुए अभी कुछ ही समय हुआ था. राजस्थान के बाड़मेर जिले के हाथमा गांव के पास सोढो की ढाणी के पास कुछ लोगों ने सड़क किनारे एक युवक की लाश पड़ी देखी. लाश देखते ही उधर से गुजरने वाले लोग इकट्ठे हो गए. वहां रुके लोग उस युवक को पहचानने की कोशिश करने लगे. यह बात जब आसपास के गांव में फैली तो ग्रामीण भी वहां जुटने लगे.

गांव के किसी शख्स ने मरने वाले व्यक्ति की लाश पहचान ली. मृतक का नाम वीर सिंह था, जो पास के ही सोढो की ढाणी निवासी जोगराज सिंह का बेटा था. किसी ने यह खबर वीर सिंह के घर जा कर दी तो उस के घर में रोनापीटना शुरू हो गया. वीर सिंह की पत्नी दक्षा कंवर छाती पीटपीट कर रोने लगी. रोतेबिलखते हुए वह भी उसी जगह पहुंच गई, जहां उस के पति की लाश पड़ी थी.

मौके पर मौजूद लोगों ने आक्रोश में आ कर सड़क जाम कर दी. उसी समय कुछ लोग थाना रामसर पहुंच गए. उन्होंने थानाप्रभारी विक्रम सिंह सांदू को बताया कि साढो की ढाणी (हाथमा) निवासी 40 वर्षीय वीर सिंह कल दोपहर 2 बजे घर से कहीं जाने के लिए निकला था. आज उस का शव सड़क किनारे पड़ा मिला. किसी ने हत्या कर के लाश वहां फेंक दी है. इस घटना को ले कर लोगों में बहुत आक्रोश है इसलिए उन्होंने सड़क पर जाम लगा दिया है.

हत्या और सड़क जाम की खबर सुन कर थानाप्रभारी अपनी टीम के साथ तुरंत साढो की ढाणी के पास वाली उस जगह पहुंच गए, जहां वीर सिंह की लाश पड़ी थी. पुलिस को देखते ही सड़क जाम कर रहे लोग पुलिस के खिलाफ नारेबाजी करने लगे. थानाप्रभारी ने उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन लोग एसपी को ही मौके पर बुलाने की मांग पर अडे़ रहे.

थानाप्रभारी विक्रम सिंह सांदू ने घटनास्थल का निरीक्षण कर बाड़मेर के एसपी राशि डोगरा डूडी एवं एएसपी खींव सिंह भाटी को हालात से अवगत कराया. साथ ही निवेदन भी किया कि लोग एसपी साहब को ही मौके पर बुलाने की मांग कर रहे हैं.

स्थिति की गंभीरता को समझते हुए एएसपी खींव सिंह भाटी तत्काल घटनास्थल पर पहुंच गए. एएसपी खींव सिंह भाटी और थानाप्रभारी विक्रम सिंह सांदू ने लोगों को समझाया. एएसपी ने लोगों को आश्वस्त किया कि पुलिस अधिकारियों ने घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण कर लिया है.

मृतक वीर सिंह के सिर पर कई गहरे घाव थे, जो किसी धारदार हथियार के लग रहे थे. उस का सिर फटा हुआ था. वहां पैरों के या संघर्ष के निशान नहीं थे. शव पर लगा खून सूख चुका था. जिस स्थान पर शव पड़ा था वहां आसपास खून के धब्बे नहीं थे. इस से यही लग रहा था कि उस की हत्या कहीं और करने के बाद उस का शव यहां ला कर डाला गया था.

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पुलिस ने मृतक की पत्नी और अन्य लोगों ने प्रारंभिक पूछताछ कर शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया. एएसपी भाटी ने लाश का पोस्टमार्टम 3 डाक्टरों के मैडिकल बोर्ड से कराने की मांग की. 3 डाक्टरों के पैनल ने वीर सिंह के शव का पोस्टमार्टम किया. पोस्टमार्टम के बाद शव उस के घर वालों को सौंप दिया गया.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पुलिस को पता चला कि वीर सिंह के सिर पर लाठी व धारदार हथियार से 4 वार किए गए थे. उस के हाथपैरों पर भी चोट के निशान पाए गए. यानी उस की काफी पिटाई की गई थी. हत्या के इस केस को सुलझाने के लिए एसपी राशि डोगरा डूडी ने एक स्पैशल पुलिस टीम बनाई.

पुलिस ने जोरशोर से शुरू की जांच

स्पैशल टीम में विक्रम सिंह सांदू, एएसआई रतनलाल, जेठाराम, कुंभाराम, मुकेश, मोती सिंह, राजेश, पर्वत सिंह के साथ साइबर सेल के एक्सपर्ट को भी शामिल किया गया. इस स्पैशल टीम ने अपने मुखबिरों को भी इस मामले से संबंधित जानकारी जुटाने को कहा.

टीम ने मृतक की पत्नी दक्षा कंवर से पूछताछ की तो उस ने बताया कि 3 जून को दोपहर के समय कहीं गए थे, अगली सुबह सड़क किनारे उन की लाश पड़ी होने की सूचना मिली. दक्षा ने किसी से रंजिश होने की बात नकार दी.

इस पर पुलिस ने वीर सिंह और उस की पत्नी के मोबाइल फोन की काल डिटेल्स निकलवाई. दक्षा की काल डिटेल्स  से पुलिस टीम को पता चला कि उस की एक फोन नंबर पर अकसर बातें होती रहती थीं. जांच में वह फोन नंबर जिला बाड़मेर के गांव आंशू निवासी महेंद्र सिंह का निकला.

उधर मुखबिर से पुलिस को यह भी जानकारी मिली कि महेंद्र सिंह 3 जून को वीर सिंह के घर के आसपास दिखाई दिया था, लेकिन वारदात के बाद वह न तो वीर सिंह के घर आया और न ही वारदात की जगह दिखाई दिया, जहां वीर सिंह की लाश बरामद हुई थी. जबकि वहां आसपास के गांवों के सैकड़ों लोग मौजूद थे.

इन बातों से पुलिस को महेंद्र पर शक होने लगा. पुलिस ने महेंद्र के फोन की भी काल डिटेल्स निकलवाई. महेंद्र की काल डिटेल्स से इस बात पुष्टि हो गई कि दक्षा और महेंद्र के बीच नजदीकी संबंध थे, पुलिस महेंद्र की तलाश में उस के घर पहुंची तो जानकारी मिली कि 4 जून को वह अपनी नौकरी पर गुजरात चला गया है. उस के घर से गुजरात का पता लेने के बाद थानाप्रभारी ने एक पुलिस टीम महेंद्र सिंह को तलाशने के लिए गुजरात भेज दी. वहां वह पुलिस के हत्थे चढ़ गया. राजस्थान पुलिस महेंद्र को हिरासत में ले कर थाना रामसर ले आई.

उस से वीर सिंह की हत्या के बारे में सख्ती से पूछताछ की गई तो उस ने स्वीकार कर लिया कि वीर सिंह की हत्या में उस की पत्नी दक्षा कंवर भी शामिल थी. केस का खुलासा होने पर पुलिस ने चैन की सांस ली.

पूछताछ के लिए पुलिस वीर सिंह की पत्नी दक्षा कंवर को भी थाने ले आई. थाने में महेंद्र सिंह को देख कर दक्षा के चेहरे का रंग उड़ गया. उस से भी उस के पति की हत्या के बारे में पूछा गया. उस के सामने सच्चाई बताने के अलावा अब कोई दूसरा रास्ता नहीं था. लिहाजा उस ने अपने पति वीर सिंह की हत्या करने की बात स्वीकार कर ली. पुलिस ने 48 घंटे के अंदर 6 जून, 2019 को केस का खुलासा कर दिया था.

पुलिस ने अगले दिन 7 जून को आरोपी महेंद्र और दक्षा कंवर को बाड़मेर कोर्ट में पेश कर के 3 दिन की पुलिस रिमांड पर लिया. रिमांड अवधि में दोनों से वीर सिंह की हत्या के बारे में पूछताछ की गई तो हत्या की जो कहानी प्रकाश में आई, वह इस प्रकार थी— वीर सिंह अपनी बीवी दक्षा कंवर को वह हर खुशी देना चाहता था, जो एक पत्नी चाहती है. वह खेतीकिसानी के अलावा मेहनत का हर काम कर के चार पैसे कमा कर बीवी को खुश रखना चाहता था. इसी वजह से वह अकसर गांव से बाहर रहता था. दिन में वह काम पर जाता और रात तक घर लौट आता था. घर पर पत्नी का प्यार पा कर उस की सारी थकान पल भर में काफूर हो जाती थी.

इस दंपति के दिन ऐसे ही हंसीखुशी से व्यतीत हो रहे थे. इसी दौरान महेंद्र सिंह के प्रवेश से उन दोनों के प्यार में बदलाव आ गया. घर का माहौल भी बदलने लगा. आंशू गांव निवासी महेंद्र सिंह वीर सिंह का हमउम्र दोस्त था. दोनों की अच्छीखासी दोस्ती थी. वीर सिंह महेंद्र को अपने भाई की तरह ही मानता था.

महेंद्र सिंह गुजरात में काम करता था. बाड़मेर ही नहीं, राजस्थान के हजारों लोग गुजरात के बड़ौदा, सूरत, अहमदाबाद, माणावदर, धौलका और अन्य शहरों में जिनिंग फैक्ट्रियों से ले कर कपड़े का कारोबार एवं हीरे की फर्मों में काम करते थे. महेंद्र भी हीरे की एक फर्म में काम करता था. जहां उसे अच्छे पैसे मिलते थे. बन संवर कर रहना महेंद्र का शौक था.

वीर सिंह ने फोन पर पत्नी और दोस्त को मिलाया

करीब डेढ़ साल पहले एक रोज महेंद्र सिंह के पास वीर सिंह की पत्नी दक्षा कंवर का फोन आया. दक्षा ने उस से अपना फोन रिचार्ज कराने को कहा.

दरअसल दक्षा को अपना फोन रिचार्ज कराना था. उस ने अपने पति वीर सिंह को फोन किया. वीर सिंह ने उस से कहा कि वह महेद्र को फोन कर के अपना फोन रिचार्ज कराने को कह दे. वह करा देगा. इसी के बाद दक्षा कंवर ने महेंद्र को फोन कर के अपना फोन रिचार्ज कराने को कहा.

महेंद्र ने कुछ ही देर में दक्षा कंवर का मोबाइल फोन रिचार्ज करवा दिया. फोन रिचार्ज कराने के बाद महेंद्र ने फोन कर के दक्षा कंवर से कहा, ‘‘भाभीजी, जब भी आप को फोन रिचार्ज करवाना हो बेझिझक बता देना क्योंकि आप लोग ढाणी में रहते हो और वहां रिचार्ज की दुकान नहीं है. इसलिए आप परेशान हो जाती होंगी. मैं सब समझता हूं. इस के अलावा आप को किसी भी चीज की जरूरत हो तो बताना.’’

‘‘जरूर बताएंगे. आप को हम अपना ही मानते हैं. वैसे मेरी वजह से आप को कष्ट हुआ हो तो क्षमा चाहती हूं.’’ दक्षा कंवर ने कहा.

‘‘कैसी बात कर रही हैं आप भाभीजी. अपने लोगों का काम करने से कष्ट नहीं होता. बल्कि खुशी होती है.’’

इस पहली बातचीत के बाद दक्षा कंवर और महेंद्र सिंह के बीच मोबाइल पर अकसर बातचीत होने लगी. थोड़े दिनों बाद यह हाल हो गया कि दिन में जब तक दक्षा और महेंद्र की बात नहीं हो जाती, उन्हें अच्छा नहीं लगता था. उन के बीच बातों का सिलसिला बढ़ता गया.

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फिर एक दिन ऐसा भी आया, जब दोनों के बीच प्यार हो गया. प्यार हुआ तो इजहार होना भी स्वाभाविक ही था. जल्दी ही दोनों ने अपनेअपने प्यार का इजहार कर लिया. उस दिन के बाद महेंद्र धोखेबाज यार बन गया, तो दक्षा विश्वासघाती पत्नी. दोनों के बीच अवैध संबंध बन चुके थे. महेंद्र और दक्षा छिपछप कर तनमन से मिलने लगे.

काफी दिनों तक दोनों ने मिलने में सावधानी बरती. लाख कोशिशों के बावजूद उन के प्यार की भनक आखिर दक्षा के पड़ोस में रहने वाली महिलाओं को पता लग ही गई.

उन औरतों ने वीर सिंह को बता दिया था कि आजकल उस की गैरमौजूदगी में महेंद्र उस की ढाणी आता है और दक्षा कंवर उस के आगेपीछे घूमती है. वीर सिंह समझ गया कि धुआं वहीं से उठता है, जहां आग लगती है, कहीं कुछ तो गड़बड़ है.

एक बार वीर सिंह के मन में शक उभरा तो फिर गहराता चला गया. इस के बाद वीर सिंह ने दोनों पर निगाह रखनी शुरू की. आखिर एक रोज वीर सिंह ने महेंद्र और दक्षा को रंगरलियां मनाते हुए पकड़ ही लिया. तब वीर सिंह ने महेंद्र को खूब खरीखोरी सुनाईं और भविष्य में उस के घर आने पर पाबंदी लगा दी.  महेंद्र के जाने के बाद उस ने पत्नी की पिटाई की.

वीर सिंह को बीवी की बेवफाई से गहरा आघात लगा. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस का दोस्त आस्तीन का सांप निकलेगा. वीर सिंह ने पत्नी को चेतावनी दी कि अगर महेंद्र के साथ फिर कभी बात करते देख भी लिया तो वह दोनों को जिंदा नहीं छोडे़गा.

पति की चेतावनी से दक्षा डर गई. उस ने पति से वादा किया कि भविष्य में वह कभी भी महेंद्र से नहीं मिलेगी. दक्षा ने पति से वादा जरूर कर लिया था, लेकिन वह अपने वादे पर कायम नहीं रही. वैसे भी वीर सिंह और दक्षा कंवर के रिश्ते में दरार पड़ चुकी थी, जो वक्त के साथ बढ़ती गई.

दक्षा ने कुछ दिन बाद महेंद्र से फोन पर बातचीत करनी शुरू कर दी. इस बात की जानकारी उस के पति वीर सिंह को मिल गई थी. इस बात को ले कर वीर सिंह अकसर दक्षा की पिटाई कर के उसे सुधारने की कोशिश करता था. पर पति की मारपीट से वह सुधरने के बजाए ढीठ होती गई.

पति की आए दिन की पिटाई से दक्षा परेशान हो गई थी. एक दिन दक्षा ने महेंद्र को सारी बातें बता कर कहा कि वीर सिंह उसे किसी रोज मार डालेगा.

अब वह उसे फूटी आंख नहीं देखना चाहती. इसलिए तय कर लिया है कि घर में पति रहेगा या फिर मैं. उस ने महेंद्र से कहा कि अब वह उसे कहीं दूर ऐसी जगह ले जाए, जहां उन दोनों के अलावा कोई न हो.

‘‘ठीक कह रही हो तुम, जब तक वीर सिंह जिंदा है, तब तक हम चैन से मिल भी नहीं सकते. इस बारे में कोई उपाय तो करना ही पड़ेगा.’’ महेंद्र बोला.

वीर सिंह के चौकस रहने की वजह से दक्षा कंवर और महेंद्र सिंह को मिलने का मौका नहीं मिल पाता था. आखिर 3 जून को उन्हें यह मौका मिल गया. वीर सिंह उस दिन कहीं गया था. दक्षा ने फोन कर के यह जानकारी महेंद्र को दे दी.

महेंद्र सिंह अपनी प्रेमिका दक्षा कंवर से मिलने उस के घर साढो की ढाणी जा पहुंचा. दोनों कई हफ्ते बाद मिले थे, लिहाजा दोनों बैठ कर बतियाने लगे. वे बातों में इतने मशगूल हो गए कि उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि वीर सिंह ढाणी में कब आ गया. जैसे ही दक्षा को आभास हुआ कि कोई ढाणी में है तो वह बदहवास सी आंगन में आ खड़ी हुई.

वीर सिंह कमरे की तरफ बढ़ गया. जहां से दक्षा बाहर आई थी. वीर सिंह को देख कर कमरे में मौजूद महेंद्र ने छिपने की कोशिश की, मगर वीर सिंह की नजरों से वह बच न सका.

महेंद्र पर नजर पड़ते ही वीर सिंह गुस्से से लाल हो कर बोला, ‘‘तुझे मैं ने घर आने से मना किया था, मगर तू नहीं माना. मैं आज तुझे जिंदा नहीं छोड़ूंगा.’’ कह कर वीर सिंह उस से भिड़ गया.

दोनों गुत्थमगुत्था हो गए तभी दक्षा कंवर  भी वहां आ गई. वह भी प्रेमी का पक्ष लेते हुए पति को पीटने लगी. महेंद्र ने वहां रखा पाइप और दक्षा कंवर ने कुल्हाड़ी उठा ली. दोनों वीर सिंह पर टूट पड़े. वीर सिंह सिर पर कुल्हाड़ी का वार झेल नहीं सका और बेहोश हो कर गिर पड़ा.

इस के बाद भी उन दोनों के हाथ नहीं रुके. कुल्हाड़ी के कई वार होने से वीर सिंह लहूलुहान हो गया और कुछ ही देर में उस की मौत हो गई.

वीर सिंह के मरने के बाद दोनों डर गए. उन्होंने शव को घसीट कर अंदर छिपा दिया. फिर खून साफ किया. उस के बाद दोनों शव को छिपाने का उपाय खोजते रहे. आधी रात के बाद उन्होंने वीर सिंह का शव बैलगाड़ी में डाला और ढाणी से करीब एक किलोमीटर दूर सड़क किनारे यह सोच कर फेंक आए कि देखने वालों को लगेगा कि वीर सिंह की एक्सीडेंट में मौत हुई है.

शव फेंक कर महेंद्र और दक्षा वापस ढाणी आए और बैलगाड़ी पर रात में ही वार्निश कर दी ताकि खून के धब्बे दिखाई न दें.

घर में लगे खून को साफ करने के बाद दक्षा ने आंगन गोबर से लीप दिया. दिन निकलने से पहले ही महेंद्र अपने गांव आंशू लौट गया. फिर उसी दिन गांव से गुजरात चला गया.

सुबह होने पर 4 जून को जब लोगों ने सड़क किनारे वीर सिंह की लाश देखी तो लोगों की भीड़ जमा हो गई. इस के बाद पुलिस को खबर दी गई. पुलिस ने महेंद्र और दक्षा कंवर की निशानदेही पर हत्या में प्रयुक्त कुल्हाड़ी व पाइप भी बरामद कर लिया. साथ ही दोनों के खून सने कपड़े भी बरामद हो गए.

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उन दोनों की सोच थी कि वीर सिंह की मौत के बाद उन्हें कोई जुदा नहीं कर पाएगा. दोनों ऐशोआराम से जीवन गुजारेंगे. मगर उन की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी. रिमांड अवधि समाप्त होने पर पुलिस ने दक्षा कंवर और महेंद्र सिंह को पुन: बाड़मेर कोर्ट में पेश किया जहां से दोनों को जेल भेज दिया गया.    द्य

— कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

(कहानी सौजन्य मनोहर कहानी)

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