हमारे बौस ने सभी को सख्त हिदायत दे दी थी कि चाहे आसमान टूट पड़े या धरती उलट जाए, हर किसी को समय से कुछ पहले दफ्तर पहुंचना है.
मैं ने सुबह जल्दी दफ्तर जाने की तैयारी कर ली और श्रीमतीजी को पुकार लगाते हुए कहा, ‘‘सुनती हो, नाश्ता तो अभी बना नहीं होगा, कल रात का कुछ बचाखुचा है, तो वही गरम कर दो. मु झे दफ्तर के लिए थोड़ा जल्दी निकलना है.’’
श्रीमतीजी पास आ कर चौंकने की ऐक्टिंग करते हुए बोलीं, ‘‘अरे, इतनी जल्दी. ऐसा था तो रात वहीं दफ्तर
में क्यों नहीं रह गए…’’मैं ने भी उन्हीं के अंदाज में जवाब दिया, ‘‘रह तो जाता, अगर आज नया वाला सूट पहन कर न जाना होता. आज दफ्तर में एक बड़े अफसर ‘आकस्मिक छापा’ मारने वाले हैं.’’
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‘‘अब मु झे इतना भी मूर्ख मत सम झो. आकस्मिक का मतलब अचानक होता है, मैं क्या जानती नहीं. ‘आकस्मिक छापा’ उसे कहते हैं, जैसे शादी से पहले मेरे पिताजी ने तुम्हारे घर पर मारा था और रिश्ता टूटने की नौबत आ गई थी. ऐसे छापे का पहले से पता थोड़े ही होता है,’’ श्रीमतीजी ने घूरते हुए कहा.
मु झे सफाई देते हुए राज खोलना पड़ा, ‘‘आजकल की दफ्तरचालीसी तुम कभी नहीं सम झोगी. हैड औफिस में हर किसी के मुखबिर होते हैं, जो वहां की गुप्त सूचनाएं पहले ही बाहर कर देते हैं. हमारे बौस के तो हैड औफिस में 2 मुखबिर हैं.’’
श्रीमतीजी को कुछ यकीन हुआ और वे थोड़ा मायूसी के साथ बोलीं, ‘‘रात का बचा हुआ खाना तो मैं ने कुत्ते को डाल दिया था. तुम ने पहले नहीं बताया, वरना तुम्हारे लिए रख देती… मगर चिंता मत करो, मैं थोड़ी पूजा कर लूं, उस के बाद परांठे सेंक देती हूं… और फिर पूजा तो आज तुम ने भी नहीं की. ऐसे ही चले जाओगे क्या? चलो, पहले पूजा कर लो.’’
अपने कानों को हाथ लगा कर मैं ने कहा, ‘‘मैं कल कर लूंगा. कहीं ऐसा न हो कि पूजा के चक्कर में वहां दफ्तर में मेरी ही पूजा हो जाए… और यह परांठेवरांठे का चक्कर भी रहने ही दो. मैं दफ्तर की कैंटीन में ही कुछ खा लूंगा.’’
मैं उठ कर बाहर की ओर चल दिया. श्रीमतीजी भी मायूसी के साथ मु झे बाहर तक छोड़ने आ गईं.
मैं ने अभी स्कूटर स्टार्ट किया ही था कि अचानक लुंगीबनियान पहने हमारा पड़ोसी इतनी जोर से छींका कि मु झे लगा, जैसे उस के मकान के साथसाथ मेरा मकान भी हिल कर रह गया है.
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‘‘अरे ठहरो,’’ श्रीमतीजी ने पीछे से मेरा स्कूटर खींच लिया और मैं लहरा कर गिरतेगिरते बचा.
‘‘अरे… रे… रे… यह क्या करती हो,’’ मैं घबरा कर स्कूटर को संभालते हुए बोला.
श्रीमतीजी मेरे कान में फुसफुसाईं, ‘‘सुना नहीं, कितनी जबरदस्त छींक है. बड़ा अपशकुन होता है, अगर चलते समय कोई इस तरह से छींक दे. तुम थोड़ी देर रुक जाओ.’’
‘‘अरे, मुझे देर हो जाएगी,’’ मैं ने कहा, मगर श्रीमतीजी ने आगे बढ़ कर स्कूटर की चाबी अपने कब्जे में ले ली और थोड़ा डर कर बोलीं, ‘‘मौके की नजाकत सम झो. दफ्तर में बड़ा अफसर आ रहा है और इधर इस ने छींक दिया.’’
मु झे रुकता देख पड़ोसी सारी बात सम झ गया और झेंपते हुए बोला, ‘‘चिंता मत कीजिए भाई साहब, मेरी छींक इतनी बुरी नहीं है, जितनी आप सम झ रहे हैं,’’ फिर वह हंसते हुए घर के अंदर चला गया.‘‘बेहया कहीं का…’’ श्रीमतीजी ने उस के लिए एक गाली निकाली और मु झ से बोलीं, ‘‘छींक तो छींक होती है. मेरी मानो तो तुम 10 मिनट रुक ही जाओ.’’‘‘अगर देर हो गई तो जरूर पछताना पड़ सकता है,’’ मैं ने कहा, मगर हमारी श्रीमतीजी नहीं मानीं.‘‘देखो, तुम्हारा कोई नुकसान हो गया तो वह मेरा ही नुकसान है. मैं तो बाबा रे, कोई खतरा मोल नहीं लूंगी. तुम थोड़ी देर ठहरो. मेरे पास टोनेटोटके वाली एक किताब है. उस में छींक की भी काट होगी. मैं अभी उस के मुताबिक उपाय कर देती हूं, फिर दिनभर मु झे चिंता नहीं रहेगी,’’ यह कह कर वे घर के अंदर चली गईं.
वह किताब पूरे आधे घंटे की तलाश के बाद ही मिल पाई, इस चक्कर में कुछ ऐसी चीजें भी मिल गई थीं, जो काफी समय से गुम थीं.
किताब मिलते ही श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘रोज काम में आने वाली चीज नहीं है न, इसलिए थोड़ी दब गई थी, लेकिन अब केवल 2 मिनट लगेंगे.’’
यह ‘2 मिनट’ कहना महंगा साबित हुआ और किताब में दिए गए टोटके का उपाय करने में श्रीमतीजी को 15-20 मिनट और लग ही गए. उस के बाद ही मु झे जाने की इजाजत मिल पाई.
समय तकरीबन रोज वाला ही हो चला था. मैं स्कूटर ले कर घर से ऐसे निकल भागा, जैसे दीवाली का रौकेट दियासलाई दिखाते ही बोतल से भाग छूटता है.
समय कम था, फिर भी मु झे यकीन था कि मैं 10 बजे से पहले दफ्तर पहुंच जाऊंगा.
चिडि़या की आंख की तरह मु झे केवल दफ्तर की बिल्डिंग दिखाई दे रही थी और इस चक्कर में एक चौराहे पर लालबत्ती भी मु झे दिखाई नहीं दी.
इस का पता मु झे तब चला, जब अचानक तेज रफ्तार से चल रही एक मोटरसाइकिल पर 2 पुलिस वाले मेरे स्कूटर के बगल में दिखाई दिए और सीटी बजा कर मु झे रुकने का इशारा करने लगे.
मु झे रुकना पड़ा. पुलिस वाले भी रुके और पास आते ही उन में से एक ने सवाल दागा, ‘‘क्यों बे, लालबत्ती भी तुझे दिखाई नहीं दी?’’
शरीफ आदमी तो पुलिस वालों को देख कर वैसे ही कुछ बोल नहीं पाता, फिर मु झ से तो जुर्म हो गया था. मैं हकलाने लगा. कुछ बोल कर और कुछ इशारों से उन्हें अपनी मजबूरी सम झाने की कोशिश करने लगा.
हमारे यहां पुलिस वालों के अंदर एक अच्छी बात यह पाई जाती है कि वे लोगों की मजबूरी सम झ जाते हैं. बस, उन के दिमाग के दयालु हिस्से को जगाने के लिए अपने पर्स की थोड़ी सी भाप उन तक पहुंचानी पड़ती है.
वे शरीफ पुलिस वाले थे. मेरा पर्स सूंघ कर उन्हें 100 रुपए के 2 नोटों की महक भा गई और वे मेरी उन मजबूरियों को भी सम झ गए, जो मैं ने उन को बताई ही नहीं थीं.
मु झ से ज्यादा चिंता जाहिर करते हुए उन्होंने मु झे फौरन जाने के लिए कहा और मेरे जो 10-15 मिनट बरबाद हो गए थे, उन की भरपाई के लिए आगे पड़ने वाले एक ‘शौर्टकट’ के बारे में भी मु झे जानकारी दे दी.
मैं ने उन का शुक्रिया अदा किया और वहां से छूट भागा. आगे चल कर मैं ने अपना स्कूटर उन के बताए छोटे रास्ते पर मोड़ दिया.
भले ही वह रास्ता ऊबड़खाबड़ था, लेकिन उस समय स्कूटर के टायरों से कहीं ज्यादा चिंता मु झे दफ्तर पहुंचने की सता रही थी.
मैं ताबड़तोड़ चला जा रहा था कि अचानक एक साइकिल वाला मेरे सामने आ गया. उसे बचाने के लिए मैं ने स्कूटर 90 डिगरी के कोण पर बाईं ओर मोड़ दिया और फिर तो अचानक वहां पर जलजला सा आ गया.
बाईं ओर एक बहुत बड़ा गड्ढा था. उस में घुसते हुए मेरा स्कूटर फुटबाल की तरह उछल कर सीधा किनारे चल रहे एक अधेड़ सज्जन से जा टकराया.