झूठ का परदाफाश : क्या टीचर था असली कुसूरवार

अखबार में बड़ेबड़े अक्षरों में छपा था, ‘एक टीचर ने नंगा कर के एक लड़का और लड़की की पिटाई की. टीचर और प्रिंसिपल को हटाने की मांग.’

इस खबर से जिला शिक्षा के अफसर हरकत में आ गए और जीप भर कर स्कूल में जा पहुंचे.

सरकारी अफसर के पहुंचते ही गांव भी उमड़ आया. नए टीचर और पुराने हैडमास्टर को अब नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा.

अफसर ने वहां पहुंचते ही दोपहर का खाना चखा. इस में स्कूल को बेदाग पाया गया. इस के बाद असली सवाल आया कि वह कौन टीचर है, जिस ने बच्चों को नंगा कर के मारा? ऊपर से उंगली तक लगाने की मनाही है और उस ने नंगा कर के पीटा.

गांव के सरपंच के साथ पीडि़त बच्चों के मांबाप ने एक दुबलेपतले टीचर की ओर इशारा किया.

वह टीचर हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘नंगा करने की बात झूठ है. मैं ने जो देखा, उस के लिए फटकारा.’’

गांव वाले चिल्लाचिल्ला कर बोलने लगे, ‘इन्हें सस्पैंड करो. हमें नहीं चाहिए ऐसे टीचर, जो बच्चों को कुत्तेबिल्ली समझ कर मारते हैं. दोपहर का खाना कच्चापक्का देते हैं. हैडमास्टर बरसों से यहीं जमे हैं. इन्हें भी बदलो.’

शिक्षा अफसर बोले, ‘‘आप लोग चुप रहें. जो कुछ कहना है, लिखित में दे दें. हम लोग इसी मामले की जांच करने के लिए आए हैं.’’

इस के बाद वे हैडमास्टर से बोले, ‘‘आप तो पुराने हैं. तजरबेकार हैं. आप ने इस मामले में क्या किया?’’

हैडमास्टर बोले, ‘‘ये जितने लोग चिल्ला रहे हैं, मैं ने सब को पढ़ाया है. जहां तक इन टीचर महाशय की बात है, तो मैं थोड़े दिनों में इन्हें जान गया हूं. ये बहुत ही मेहनती हैं.

‘‘आप को सच का पता लगाना ही है, तो लड़के और लड़की को बुलाएं. उन के मातापिता को बुलाएं. वहां दफ्तर में बैठ कर मैं पूछताछ करता हूं. अभी दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.

‘‘सारे गांव के सामने तमाशा करने की जरूरत नहीं है. आप अपना फैसला फिर सारे गांव के सामने सुना देना.’’

शिक्षा अफसर इस बात पर सहमत हो गए. चौकीदार ने घंटेभर के लिए सब को वहां से हटा दिया.

हैडमास्टर ने लड़की से पूछा, ‘‘क्यों बेटी, किसी ने तुम्हारे कपड़े उतारे थे?’’

लड़की बोली, ‘‘नहीं, ड्रैस ढीली है. बांह से निकल जाती है.’’

हैडमास्टर ने लड़के से पूछा, ‘‘बेटा, सचसच बताना कि तुम वहां दूसरे कमरे में मरजी से गए थे या टीचर ले गए थे?’’

लड़का बोला, ‘‘मरजी से.’’

हैडमास्टर ने पूछा, ‘‘वहां लड़की और तुम थे. तुम दोनों ने क्या किया?’’

लड़का बोला, ‘‘मैं उसे लिटा कर उस के ऊपर लेट गया.’’

हैडमास्टर ने पूछा, ‘‘क्या वहां तुम्हारे टीचर भी थे?’’

लड़का बोला, ‘‘नहीं, बाद में देख कर उन्होंने जोर से डांटा. हम रोने लगे.’’

हैडमास्टर ने पूछा, ‘‘कोई बात नहीं बेटा. एक बात और बताओ. टीचर ने ऐसा करने को कहा था या तुम ने अपने मन से किया?’’

लड़का बोला, ‘‘मन से किया.’’

हैडमास्टर ने पूछा, ‘‘ऐसा कहां देखा, जो नकल करने लगे?’’

बच्चे ने झोंपते हुए कहा, ‘‘रात में पापा को मां के ऊपर ऐसा करते देखा था. हम ने भी वही खेल खेला.’’

हैडमास्टर ने शिक्षा अफसर और मांबाप की ओर देख कर कहा, ‘‘बच्चे की पहली पाठशाला परिवार है. जो देखेगा वही करेगा. परिवार में 2 बच्चे नहीं संभलते, हम 2 सौ बच्चों को संभालते हैं. उन्हें खिलातेसिखाते हैं. ऐसे लांछन लगाना क्या ठीक है?’’

यह सुन कर मांबाप उन के पैरों में गिर गए. वे बच्चे भी लिपट कर टीचर को जैसे बदली कराने से रोक रहे थे. शिक्षा अफसर ने गांव वालों से जाने को कहा.

हैडमास्टर ने सब से हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘भाइयो, आप को कष्ट दिया. आप घर जाएं. गांव के दूसरे भाइयों को समझाएं. अब अफसर जो करेंगे, वह स्वीकार होगा.’’

कुछ लोग जातेजाते बोले, ‘साहब, इन्हें माफी दे दें. ये टीचर यहां से कहीं नहीं जाएं. इन्हें सजा नहीं इनाम मिलना चाहिए. आप भले ही हमें सजा दे दें.’’

तब तक बाबू कागज पर मामला तैयार कर चुके थे. पढ़ कर सुनाया. लोगों से दस्तखत कराए. टीचरों से भी और खुद शिक्षा अफसर ने भी दस्तखत किए.

शिक्षा अफसर बोले, ‘‘आपस में मिल कर गलतफहमियां दूर हो जाती हैं. बच्चों के साथ टीचर और गांव का भविष्य भी दांव पर लगता है. अब मामला ठंडा हो गया है.’’

अगले दिन अखबार में खबर छपी, ‘मामले की जांच की, तो वह झूठा निकला. अफवाह फैलाने वालों को पुलिस ढूंढ़ेगी और उन से सख्ती से निबटेगी.’

पहल: क्या शीला अपने मान-सम्मान की रक्षा कर पाई?

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26 जनवरी स्पेशल: शहीद उधम सिंह

इतिहास केवल जलियांवाला बाग की खूनी होली का ही हाल बताता है, उस के हत्यारे का अंत नहीं लिखता. मगर जो ‘शहीद उधम सिंह’ नाम से परिचित हैं उन के खून में यह नाम सुनते ही एक गरमी का उबाल सा पैदा हो जाता है. लुधियाना शहर में शहीद उधम सिंह नगर कसबे में घूमते हुए पहली बार इसी तरह का रोमांच मुझे भी हो आया था. मेरे सामने वह चेहरा उभर आया, बिलकुल उसी तरह का, जो कभी मेरे दादाजी ने अपनी आपबीती के छोटे से हिस्से में चित्रित किया था. उन की यह आपबीती इस प्रकार थी…

1938 की बात है. उन दिनों मैं और मेरे 2 साथी लंदन में थे. गुरुद्वारा हमारा अस्थायी घर था. लंदन आने वाला करीब हर भारतीय वहां आ कर कुछ दिन ठहरता था. एक दिन सुबह हम ने वहां एक नए भारतीय को देखा. उस की नजरें भी हम पर पड़ीं, लेकिन हमें काम पर जाने की जल्दी थी इसलिए हम ने शाम को उस से मिलने का फैसला किया. शाम को वह खुद ही कमरे के बाहर हमारी प्रतीक्षा कर रहा था. हमें देख कर वह उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ कर बोला, ‘सत श्री अकाल.’

उस की आवाज में अजीब तरह का खिंचाव था. अभिवादन का जवाब दे कर हम ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा. कमीज और तहमत, सिर पर सफेद साफा और पीछे लटकता हुआ तुर्रा. यही उस का पहनावा था. उस के सिर पर केश नहीं थे पर आवाज उस की खास कड़क थी, जो उसे सिख जमींदार घराने का दर्शाती थी. यों पहली नजर में हमें गुंडा लगा था.

‘‘मेरा नाम उधमसिंह है,’’ उस ने बताया. शिष्टाचारवश हम ने बढ़ कर उस से हाथ मिलाया और अपना परिचय दिया.

‘‘कौन सा गांव है, भाई साहब, आप का?’’ मैं ने पूछा.

‘‘सनाम, बरनाले के पास. आप का?’’

‘‘गिल्लां गांव है, लुधियाने के पास.’’ उस के चेहरे पर उभरी रौनक और गहरी हो गई. वह बोला, ‘‘गिल्लां? नहर के पास वाला न? तब तो हम आसपास के ही हैं,’’ और उस ने बढ़ कर मुझे मजबूत आलिंगन में कस लिया. वतन से दूर एक बेगाने देश में कोई हमवतन और वह भी अपने ही गांव के पास का मिल जाए तो इस प्रकार की अलौकिक खुशी होती है.  यह हमारी उस से पहली मुलाकात थी. इस के बाद वह हमारे बहुत करीब आता गया पर हम सदा उस से दूर रहने की कोशिश करते. हम सुबह काम पर चले जाते और शाम को वापस आते. वह भी इसी तरह करता, पर हम ने उस से कभी उस के धंधे के बारे में पूछने की कोशिश नहीं की. न ही उस ने कभी बताने की इच्छा जाहिर की. हमारा खयाल था कि वह चार सौ बीसी का धंधा करता होगा. उस के अंदर कोई दिलेर दिल भी होगा, इस की कभी हम ने कल्पना भी नहीं की थी.

वह समय निकाल कर शाम को हमारे पास आ बैठता और घंटों इधरउधर की हांकता रहता. उस की बातें अधिकतर गोरों के प्रति रोष से भरी होती थीं. हर समय वह गोरों को भारत से निकालने के स्वप्न देखता रहता. खासतौर पर 2 गोरे उस की आंखों में बहुत खटकते थे. पहला जनरल डायर और दूसरा ओडवायर. उन्हें मारने की कसमें वह कई बार खा चुका था.एक दिन मैं ने उस से पूछा, ‘‘उधमसिंह, भई, अगर तुम्हें गोरे इतने नापसंद हैं, तो तुम यहां आखिर करने क्या आए हो?’’

‘‘अपना असली मकसद पूरा करने.’’

‘‘कौन सा?’’ हम सब ने एकसाथ पूछा.

‘‘शादी,’’ वह छूटते ही तपाक से बोला.

दिन बीतते गए और उस के साथ हमारे संबंध घनिष्ठ होते गए. इतने घनिष्ठ कि जब हम ने कमरे किराए पर लिए तो उसी मकान में एक कमरा उस ने भी जबरदस्ती किराए पर ले लिया. उस ने इस का कारण बताया, ‘‘तुम से जुदा हो कर मैं रह ही नहीं सकता.’’ अभी भी हम उस के कामधंधे के बारे में अनभिज्ञ थे. एक दिन आखिर मैं ने इस बारे में पूछ ही लिया. तो वह बोला, ‘‘मेरा काम, इनकलाब.’’

मैं हंस पड़ा और बोला, ‘‘वह तो तुम्हारी बातों और कारनामों से ही लगता है. अच्छा भई इनकलाबी, तेरा गुरु कौन है?’’

‘‘उस ने बताया भगत सिंह.’’ जैसेजैसे समय बीतता गया हम उस के प्रति अधिकाधिक शक्की होते गए. यह बात निराली होती जा रही थी. उस समय 1939 चल रहा था. एक दिन सिरदर्द के कारण मैं औफिस से जल्दी घर लौट आया. आ कर चाय बनाई और पीने ही लगा था कि तभी खटखट सीढि़यां चढ़ता हुआ वह अंदर आ गया.

‘‘आ, उधमा, चाय पी,’’ मैं ने कहा तो वह बोला ‘‘नहीं, नहीं, बस पी. मैं कुछ दिन पहले यहां रखी एक चीज लेने आया हूं. ले सकता हूं?’’

‘‘जरूर भई, अगर तेरी कोई चीज है तो जरूर ले  सकता है.’’ मेरे कमरे में एक आला था जो न जाने कब से कीलें ठोंक कर बंद किया हुआ था. मैं ने कभी उस पर ध्यान भी नहीं दिया था. उस ने जेब से एक पेचकश निकाला और फट्टियों के पेच खोल दिए. फिर बीच में से एक रिवाल्वर निकाल कर जेब में डाला और फट्टियों को उसी तरह ठोंक कर वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ. फिर उस ने चाय की मांग की. मैं ने उस के लिए चाय बनाई और खुद इस उधेड़बुन में लग गया कि कैसा खतरनाक आदमी है यह. अगर पुलिस यहां आ कर रिवाल्वर ढूंढ़ लेती तो मुझे बेकार में मुसीबत उठानी पड़ती.

मैं ने पूछा, ‘‘कब रख गया था भई, तू इसे यहां?’’

‘‘यार, सद्दा, अब तुम से क्या छिपाना. गोरी सरकार न जाने क्यों मुझ से डरती है? मेरा नाम पुलिस ने दस नंबरियों की लिस्ट में लिख रखा है. इसीलिए मुझे वापस अपने मुल्क जाने की भी इजाजत नहीं है. पिछले कुछ दिनों से तो पुलिस की मुझ पर खास नजर है. इसीलिए मैं इसे यहां रख गया था.’’ फिर उस की आवाज में वही कड़क पैदा हो गई, ‘‘क्या तुम बहादुर हिंदुस्तानी नहीं हो? क्या तुम उस देश की औलाद नहीं हो, जहां भगत सिंह पैदा हुआ?’’

‘‘जानते हो एक बार जब वह छोटा था तो उस से किसी ने पूछा था, ‘तुम ने अपने खेत में क्या बोया है, भागू?’ वह नन्हा सा बालक बड़े जोश में बोला था, ‘बंदूकें,’ तुम भी उसी धरती के बेटे हो. देश के लिए अपनी कुरबानी से डरते हो? और क्या तुम्हें मुझ पर अब जरा भी विश्वास नहीं? अगर यही बात है तो, जाओ, तुम्हें मैं कुछ नहीं कहूंगा. जाओ, तुम्हें इजाजत है. जा कर पुलिस को बता दो कि मेरे पास हथियार है. वह आ कर मुझे पकड़ लेगी. सद्दा, मैं तुम से मुहब्बत करता हूं. अगर तुम्हें इस से खुशी होगी तो मैं उमरकैद भी झेल लूंगा.’’ इतना कह कर वह चुप हो गया और मुझ पर होने वाली प्रतिक्रिया देखने लगा. मगर मैं आंखें झुकाए बुत बना बैठा रहा. थोड़ी देर बाद वह उठा और तेजी से बाहर चला गया. उस दिन पहली बार मैं ने जाना कि उस में देश के प्रति प्रेम कितना कूटकूट कर भरा हुआ था. अब मेरे दिल में उस के लिए प्यार और श्रद्धा थी. बातों ही बातों में मैं ने एक दिन उस से कहा, ‘‘उधमसिंह, तुम अगर देश को आजाद करवाना चाहते हो तो तुम्हें भारत में रह कर ही कुछ करना चाहिए. यहां तो कुछ भी फर्क नहीं पड़ सकता.’’

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे पर गम की तसवीर उभर आई, ‘‘हां,’’ वह लंबी सांस छोड़ता हुआ बोला, ‘‘मेरे देश के हजारों निहत्थे भाइयों को डायर और ओडवायर ने जलियांवाला बाग में गोलियों से भुनवा दिया था. उन में मेरा भाई और बापू भी…’’ उस की आंखें भर आईं और गला रुंध गया.

फिर धीरेधीरे उस ने अपने बचपन की वह घटना सुनाई जिस से उसे उन की मौत का पता चला था. 13 अप्रैल, 1919 यानी बैसाखी का दिन था. जलियांवाला बाग में अनजान, निहत्थे, परवाने इकट्ठे हो कर सभा कर रहे थे. गुलामी की दास्तां सुनने के लिए बूढ़े, बच्चे और स्त्रियां वहां इकट्ठी हुई थीं. ब्रिटिश सरकार इस अहिंसक सभा की ताकत देख चुकी थी. एक गांधी के साथ हजारों गांधी बनते देख वह बौखला उठी. उस की चालाक राजनीति भी कांप गई. इसलिए इस से निबटने का अधिकार सरकार ने फौजी जनरलों को दिया और उन जनरलों को ताकत के घमंड में इस बला से निबटने का एक ही तरीका सूझा, वह था गोलियां चलाने का. उन के हुक्म से ही मशीनगनों का घेरा बाग के चारों तरफ लगा दिया गया. इन घेरा डालने वालों में वे नमकहराम भी थे जो अपनी नौकरी के लिए देश को आजाद होता नहीं देखना चाहते थे. इस के बाद की खूनी होली की कहानी इतिहास के कई पन्नों पर काली स्याही से लिखी हुई है. यह कहानी कुछ ही दिनों में बड़ेबड़े शहरों से दूरदराज के गांवों में जा पहुंची. लाशों को पहचान कर अपने पतियों, भाइयों, बहनों और बेटों को जान लेने वाले तो थोड़े ही थे. अधिकांश लोगों ने तो जो घर नहीं पहुंचे उन्हें भी मारा गया समझ लिया.

संगरूर जिले का एक गांव है सनाम. एक घर में गांव के वृद्धवृद्धाओं का रोना सुनाईर् दे रहा था. उस का पति और बेटा भी जलियांवाला बाग में गए थे और आज उन्हें गए तीसरा दिन था. तभी एक छोटा सा बालक भागता हुआ आ कर अपनी मां की गोद में दुबक गया. मां और इतने लोगों को रोता देख बालक चाहे कुछ नहीं समझा था, पर इतना जरूर समझ गया कि लोग ऐसे किसी के मरने पर ही रोते हैं. अबोध बालक कुछ बड़ा हुआ और स्कूल जाने लगा. एक दिन सुबह बच्चों की एक टोली तख्तीबस्ता संभाले, बातें करती, उछलतीकूदती स्कूल जा रही थी. उस में यह बालक भी था. जलियांवाला बाग की खूनी होली को 3 वर्ष बीत चुके थे. मौत के गम धुंधले पड़ चुके थे. तभी एक बालक ने उस से पूछा, ‘‘उधमा, तेरा बापू और वीर कहां गए हैं?’’

बालक बिना सोचे ही बोला, ‘‘परदेश को.’’

‘‘तुझे किस ने कहा, ओए?’’

‘‘मां ने. क्यों?’’

‘‘मेरी मां तो रात बापू से कह रही थी, ‘बेचारे उधम के बापू और वीर को मरे 3 साल हो गए. गोरे बड़े बुरे हैं. जब उधम जवान होगा तो वह जरूर उन की मौत का बदला लेगा.’ तेरे बापू और वीर को, उधमा, गोरों ने ही मार दिया है. है न?’’

छोटे से उधम की आंखों के आगे बचपन का वह दिन नाच उठा जो उस ने मां की गोद में दुबक कर देखा था. उसे थोड़ाथोड़ा विश्वास हो गया कि राणा ठीक ही कह रहा होगा. अपने बाप और भाई की मौत की कहानी सुनते ही वह ताव खा गया. उसने सोचा कि वह मां से सचाई जानेगा और अगर यह सच है तो वह अंगरेजों से बदला लेगा. वह लगभग दौड़ता हुआ घर पहुंचा और एक ही सांस में मां से कई सवाल पूछ गया, ‘‘मां, बापू और वीर को गोरों ने मार दिया था क्या? तू तो कहती थी परदेश गए हैं. आज राणा ने मुझे सबकुछ बता दिया.’’

मां अपने बेटे को लौटता देख पहले ही हैरान थी. अब दबी हुई बात उस के मुंह से सुन सकते की हालत में आ गई. पति और जवान बेटे की याद कर पुराना घाव फूट निकला. उस की आंखों में आंसू चमक आए. काम छोड़ उस ने अपने बेटे को छाती से लगा लिया और फफकफफक कर रोने लगी. ‘‘मां, तू रो मत. मैं ला कर उन गोरों को अपने खेत की क्यारियों में गाड़ दूंगा. तू बता, वे कौन थे.’’ ‘कौन’ के बारे में बूढ़ी ने लोगों से यही सुना था कि वह ‘डैर’ था, कोईर् बड़ा अफसर और एक उस का साथी था. यही उस ने उधम को भी बता दिया. उधम ने भी सोच लिया कि वह बड़ा हो कर जरूर बदला लेगा.

जलियांवाला बाग की घटना से सारे देश में रोष की लहर फैल गई थी. ठाकुर बाबू ने ‘सर’ की उपाधि त्याग दी. बड़ेबड़े नेताओं के भाषण आग में घी का काम करने लगे. ये सब देख कर गोरी सरकार डर गई. लोगों को शांत करने के लिए उस ने जनरल डायर और ओडवायर को उन के पदों से हटा कर इंगलैंड भेज दिया. अपनी कहानी के अंत में उधम सिंह ने बताया कि वह गदर पार्टी का मैंबर बन गया था. उसी के सहारे वह अमेरिका गया और फिर यहां आ गया. एक दिन शाम को हम सब चाय पी रहे थे. वह भी साथ था. प्याला खाली कर के वह मेज पर रखता हुआ बोला, ‘‘अच्छा दोस्तो, आज शायद यह तुम लोगों के साथ मेरी आखिरी चाय है. यदि कोई गलती हुई हो तो माफ कर देना,’’ फिर उस ने जेब से बटुआ निकाला और मेरे एक साथी को कुछ पैसे दिए. शायद कभी उधार लिए होंगे, पर मेरा ध्यान उस के नाम कार्ड पर गया. उस पर लिखा था, ‘एमएसए.’ मैं बड़ा हैरान हुआ.

‘‘यह क्या, भाई, उधम?’’ मैं ने कार्ड की तरफ इशारा किया.

‘‘मोहम्मद सिंह ‘आजाद’,’’ वह बोला और जोर से हंस दिया. उसी दिन शाम को हमारा प्रोग्राम कैंस्टन हौल जाने का बन गया. उस दिन वहां भारत में उठ रहे आजादी के इनकलाब के बारे में मीटिंग होनी थी. हम अपनी सीटों पर बैठे थे. मीटिंग अभी शुरू भी नहीं हुईर् थी कि तभी मेरे साथी ने इशारा किया. सामने की 2 पंक्तियां छोड़ कर एक किनारे पर ‘वह’ बैठा था.

‘‘अरे, यह तो कहीं जा रहा था,’’ साथी बोला.

‘‘इसे कहां जाना है. इस की बातों और सच में बड़ा फर्क है,’’ दूसरे साथी ने कहा और दोनों हंस दिए. मीटिंग शुरू हो चुकी थी. सामने मंच पर कई लोगों के बीच जनरल डायर बैठा था. उसी के साथ उस के दाईं ओर ओडवायर बैठा था. ये दोनों ही उधम के असली शिकार थे. वह कहता था कि इन्होंने हजारों निहत्थों… जलियांवाला बाग… मेरा खून गरम हो कर तेजी से नाडि़यों में चक्कर काटने लगा. तभी वह उठा और बाहर चला गया. कुछ देर बाद फिर वह अंदर आ गया और धीमी चाल चलता हुआ मंच की ओर चढ़ चला. उस समय डायर बोल रहा था, ‘‘दंगे करने वाले हिंदुस्तानी बिलकुल पागल हैं…’’

सब एकटक भाषण सुन रहे थे. तभी फुरती से उधम ने अपनी जेब से हाथ निकाला. मैं इतना ही देख पाया कि उस के हाथ में वही रिवाल्वर था. इस के बाद ‘ठांय…ठांय…ठांय…’ 3 गोलियों की आवाज हुई. सारा हौल कांप उठा. मंच पर बैठे डायर का सिर छाती पर आ गिरा. ओडवायर भी एक ओर लुढ़क गया.

‘‘तो उस ने अपना काम पूरा कर दिया. अपने बाप और भाई की मौत का बदला, हजारों निहत्थों की मौत का बदला…’ कुछ ही क्षण में उस के साथ बिताए सारे क्षण मेरे सामने उभरते चले गए. गोली मार कर वह भागा नहीं, रिवाल्वर थामे उसी प्रकार खड़ा रहा. थोड़ी देर में ही पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया और हौल का घेरा डाल लिया. सुबह अखबारों में छपा था, ‘एक भारतीय युवक मोहम्मद सिंह ‘आजाद’ ने जनरल डायर और ओडवायर पर गोलियां चलाईं. उस समय वे कैंग्सटन हौल में भारत में उभरी स्थिति पर भाषण दे रही थे. जनरल डायर की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई. ओडवायर गोलियों से हताहत हो गए हैं.’ उस पर मुकदमा चला और उसे सजा ए मौत मिली.

मैं बिस्तर पर पड़ा हुआ था. काली रात और भी स्याह होती जा रही थी. तभी उस में एक रोशनी उभर आई और एक चेहरे में बदल गई. वह था उधम का चेहरा… देश का बेटा या गुंडा, इनकलाबी या चारसौबीस… उस की याद के कई पन्ने मेरे सामने पलटने लगे. मगर उस का चेहरा मुसकरा रहा था. अदालत के कटघरे में खड़ा वह अपनी वकालत कर रहा था.

‘‘तुम ने गोली क्यों चलाई?’’ जज ने पूछा.

वह कड़क कर बोला, ‘‘हजारों बेगुनाहों और निहत्थों से भी क्या किसी ने ऐसे पूछा था?’’

‘‘जानते हो तुम्हारे जुर्म की सजा फांसी होगी?’’

‘‘हां, बहुत अच्छी तरह जानता हूं,’’ तुम्हारी अदालत में एक अंगरेज को मारने की सजा मौत है और हजारों हिंदुस्तानियों को मारने का इनाम शाबाशी.’’

‘‘उन्होंने सरकार का हुक्म पूरा किया था, यह उन का कर्तव्य था. हमारी अदालत तुम्हें फांसी की सजा देगी.’’

‘‘मौत का डरावा मुझे मत दीजिए, जजसाहब. आप जो चाहें कर सकते हैं. मैं ने भी अपने देश का एक काम पूरा किया है जो मेरा कर्तव्य था. मेरी पार्टी की अदालत ने भी उन्हें गोलियों की सजा दी थी. सजा देने का यह काम मुझे सौंपा गया था. मगर मुझे दुख है कि ओडवायर छूट गया. फिर भी कोई बात नहीं. मेरा कोईर् और भाई उसे भी पार लगा देगा. उस से कहना कि तैयार रहे.’’ जज ने कलम उठा कर सजा का फौर्म भरा और मेज पर कलम मार कर निब तोड़ दी. तभी मैं ने उसे सींखचों में खड़ा देखा. मैं उस से बात कर रहा था.

‘‘यह तुम ने क्या किया, उधमा?’’

‘‘मैं ने अपने देशवासियों की निर्मम मौत का बदला लिया है.’’

‘‘मगर तुम तो यहां शादी करने आए थे?’’

वह जोर से हंसा, ‘‘तुम्हें बरात में नहीं बुलाया, सद्दा, इसलिए. तुम्हें पता नहीं मेरी शादी तो हो गई, अब तो कुछ दिन में मेरी सुहागरात आने वाली है. तुम्हें शादी में बुला नहीं सका.’’ मेरी आंखों में आंसू उभर आए. तभी समय पूरा होने की घंटी खनखना गई. अपने आंसू छिपाने के लिए मैं लौट पड़ा. वह बोला, ‘‘अच्छा, अलविदा, सद्दा. देखो, मेरे लिए रोना नहीं,’’ और वह लय के साथ कुछ गुनगुनाने लगा.

आज उस लय को याद करता हूं तो लगता है, बिलकुल इन शब्दों की तान थीं, ‘मेरा रंग दे बसंती चोला…’

हकीकत : जब सच आया सामने

‘अभी आया,’ कह कर रमेश गया था. लेकिन जब काफी देर तक न लौटा, तो रागिनी बेचैन हो उठी.

रागिनी की परेशानी उस के चेहरे पर उभर आई, जिसे किशोर भांप गया. वह हौले से बोला, ‘‘क्या बात है रागिनी?’’

‘‘भैया नहीं आया.’’

‘‘वह अब नहीं आएगा.’’

‘‘क्या मतलब?’’ रागिनी ने हैरानी से पूछा.

‘‘रमेश अब नहीं आएगा… तुम्हें अकेले ही जाना पड़ेगा…

‘‘रमेश का परसों इंटरव्यू है. उस का इंटरव्यू मैं ही लूंगा. रमेश उस में कामयाबी पाने के लिए तुम्हें मेरे पास छोड़ गया है,’’ किशोर ने कहा.

‘‘इंटरव्यू में कामयाबी पाने के लिए मुझे आप के पास छोड़ गया है… मैं कुछ समझ नहीं?’’ रागिनी ने पूछा.

‘‘रमेश का खयाल है कि मैं तुम्हारे जिस्म से खेल कर उसे पास कर दूंगा, इसीलिए वह तुम्हें मेरे पास छोड़ गया है.’’

‘‘नहीं… ऐसा नहीं हो सकता. आप झठ बोल रहे हैं.’’

‘‘मैं सच कह रहा हूं. वह तुम्हें इसीलिए छोड़ गया है.’’

‘‘ऐसा आप कैसे कह सकते हैं?’’

‘‘क्योंकि मैं ने भी एक दिन ऐसा ही किया था.’’

‘‘क्या…’’ किशोर की बात सुन कर रागिनी चौंकी.

‘‘जो गलती आज रमेश कर गया है, वैसी मैं ने भी एक दिन की थी,’’ कहते हुए किशोर बीते दिनों में खो गया…

किशोर के पिता ठेकेदार थे. बचपन के कुछ साल हंसीखुशी में गुजरे थे. मातापिता दोनों ही उसे बहुत प्यार करते थे, लेकिन साधना के घर में कदम रखते ही उस के दिन बदल गए थे.

साधना जवान और खूबसूरत थी. वह किशोर के पिता भूषण की स्टैनो थी. भूषण को साधना से प्यार हो गया, फिर उन दोनों ने शादी कर ली.

साधना के घर में आते ही किशोर की मां लता के बुरे दिन आ गए. साधना ने अपने रूप और जवानी के बल पर भूषण को अपनी मुट्ठी में कर लिया. वह उन के दिल की रानी बनने के साथसाथ घर की मालकिन भी बन गई.

भूषण को पहली पत्नी लता की अब जरा भी परवाह न थी. उस की हालत नौकरानी जैसी हो गई.

तकरीबन एक साल बाद साधना ने एक बेटी को जन्म दिया. वह रिश्ते में किशोर की बहन लगती थी, लेकिन उस ने दिल से कभी भी उसे अपनी बहन नहीं माना था. वह उस से नफरत करता था.

लता ने पति की दूसरी शादी का विरोध न किया, पर अंदर ही अंदर वह घुटती रही. इस से उस के शरीर को रोग लग गया, जो धीरेधीरे बढ़ता रहा. आखिरकार उस की मौत हो गई.

किशोर अपनी मां की मौत की जिम्मेदार साधना को ही समझता था. मां उसे बहुत प्यार करती थी. लेकिन जब वह ही न रही, तो उस घर में क्या रखा था? आखिर किशोर ने पिता का घर छोड़ दिया.

किशोर ने जल्दी ही प्राइवेट नौकरी कर ली. साथ ही, वह सरकारी नौकरी के लिए भी कोशिश करता रहा. कुछ समय बाद उसे रेलवे में नौकरी मिल गई.

तकरीबन 3 साल बाद नौकरी में तरक्की हासिल करने के लिए किशोर ने इम्तिहान दिया, जिस में वह पास हो गया. अब इंटरव्यू की बारी थी. उसे पता चला कि मदनलाल इंटरव्यू लेने वाला है. वह अधेड़ उम्र का कुंआरा और ऐयाश आदमी था.

किशोर ने जब मदनलाल के बारे में 3-4 लोगों से पूछताछ की, तो पता चला कि वह बहुत रसीला है. एक जानकार ने कहा, ‘जो मदनलाल के पास औरत भेजेगा, वही इंटरव्यू में पास होगा.’

किशोर की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? कामयाबी पाने के लिए किसी औरत को मदनलाल के पास भेजे या शराफत के रास्ते पर चल कर फेल हो जाए? इसी उधेड़बुन में वह एक दिन मुंबई सैंट्रल रेलवे स्टेशन पर खड़ा था कि तभी उसे अपनी सौतेली बहन रश्मि मिल गई.

किशोर घर छोड़ने के बाद कभी भी अपने पिता से मिलने नहीं गया था. कभीकभार वे कहीं दिख भी जाते, तो किशोर उन के सामने पड़ने से बच जाता.

लेकिन रश्मि को देखते ही उसे लगा कि उस की मुश्किल का हल मिल गया?है. वह एक तीर से दो शिकार कर सकता है. रश्मि को मदनलाल के पास पहुंचा कर इम्तिहान में कामयाबी भी हासिल कर सकता है और इस के साथ ही अपनी मां की मौत का बदला भी ले सकता है.

यह विचार मन में आते ही उस की आंखों में चमक आ गई. वह मुसकराते हुए बोला, ‘रश्मि, कहां जा रही हो?’

‘घर.’

‘समय हो तो चलो, तुम्हें एक जगह ले चलता हूं.’

किशोर की बात सुन कर रश्मि की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

रश्मि ने न कुछ सोचा, न ही उस के दिल में कोई शक हुआ और न ही यह विचार मन में आया कि वह आज क्यों उसे साथ ले जाना चाहता है. वह उस के साथ जाने को तुरंत तैयार हो गई.

किशोर रश्मि को बिना समय गंवाए मदनलाल की कोठी पर ले गया.

‘सर, यह मेरी बहन है,’ किशोर ने मुसकराते हुए कहा.

मदनलाल ने उन का स्वागत किया. काफी देर तक इधरउधर की बातें होती रहीं, फिर किशोर बोला, ‘सर, मैं अभी लौट कर आया.’

वह रश्मि को बहाने से मदनलाल की कोठी पर छोड़ कर चला गया. उस ने अपनी मां की सौतन की बेटी को वासना के पुजारी के पास पहुंचा कर अपनी मां की मौत का बदला ले लिया था.

उस दिन मदनलाल ने रश्मि की इज्जत लूट ली थी. इस बात को रश्मि सहन न कर सकी और कुछ दिनों बाद उस ने खुदकुशी कर ली.

मरने से पहले उस ने किशोर को चिट्ठी लिखी, ‘बहन व भाई का रिश्ता बहुत पवित्र होता है. भाई के ऊपर बहन की हिफाजत की भी जिम्मेदारी होती?है. मैं ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था, जो तुम ने मेरी इज्जत ही लुटवा दी?’

रश्मि की मौत से किशोर को गहरा सदमा लगा था. जीतेजी उस ने रश्मि को बहन नहीं माना था, लेकिन मरने के बाद उस की याद उसे हमेशा तड़पाती रहती.

‘‘तो क्या आप भी मेरे साथ…’’ अचानक रागिनी की आवाज सुन कर किशोर चौंक उठा. फिर हौले से वह बोला, ‘‘क्या रमेश तुम्हारा सगा भाई है?’’

‘‘नहीं…’’ रागिनी बोली, ‘‘रमेश की मां को तलाक दे कर पिताजी ने मेरी मां से शादी कर ली थी.’’

‘‘तो यह बात है… तुम्हारी भी मेरी जैसी ही कहानी है. मैं भी अपनी मां की मौत का बदला लेना चाहता था और रमेश भी तुम्हें इसीलिए छोड़ कर गया है.’’

‘‘तो क्या आप भी?’’

‘‘नहीं, मैं ने आज तक किसी औरत के जिस्म से खिलवाड़ नहीं किया है,’’ किशोर बोला, ‘‘मैं ने तब जो जुर्म किया था, अब मैं उस का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘तुम्हें अपनी बहन बना कर…’’

‘‘सच?’’

‘‘हां, एकदम सच. क्या तुम बनोगी मेरी बहन?’’

‘‘भैया,’’ रागिनी दौड़ कर किशोर के गले से लग गई, तो उस की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.

फौजी रामबहादुर : क्या थी कैमरे की कहानी

‘‘मेरी रानी, यह रहा तुम्हारा कैमरा. ऐसा ही चाहिए था न?’’ फौजी रामबहादुर ने बैग से कैमरा निकाल कर माया को देते हुए कहा.

‘‘अरे, वाह. मुझे ऐसा ही कैमरा चाहिए था. फौज की कैंटीन का कैमरा. लो, तुम अभी मेरी तसवीर खींच लो,’’ माया खुशी से चहकते हुए बोली.

रामबहादुर ने माया को अपनी मदमस्त नजरों से देखा. उस दिन वह बेहद खूबसूरत दिख रही थी. वह सजधज कर बाजार जाने वाली थी, तभी रामबहादुर आ गया था. उस ने माया को भींच कर अपनी बांहों में भर लिया और चुंबनों की बरसात कर दी.

‘‘रुक जाओ, कोई आ जाएगा.  दरवाजा खुला है,’’ माया ने मस्तीभरे लहजे में कहा.

‘‘दरवाजा खुला है, तो बंद हो जाएगा,’’ यह कह कर रामबहादुर ने माया से अलग हो कर फौरन दरवाजा बंद कर लिया.

‘‘अरे, तुम्हारा क्या इरादा है? अभी मेरा मूड नहीं है. मैं बाजार जा रही हूं. मेरा मेकअप खराब हो जाएगा,’’ माया ने रामबहादुर को रोकते हुए कहा.

‘‘मेकअप फिर से कर लेना. तुम जितनी बार सजोगी, उतनी बार तुम्हारी छवि निखरेगी. अभी तो मुझे मत रोको,’’ यह कह कर रामबहादुर ने माया को कस कर अपनी बांहों में भींच लिया.

माया ने कोई विरोध नहीं किया.

प्यार का खेल खत्म होेने के बाद वह बोली, ‘‘रामबहादुर, मुझे छोड़ कर तुम कहीं मत जाना. तुम ने मेरी उजड़ी जिंदगी में रंग भर दिए हैं. विधवा होने के बाद मैं पूरी तरह टूट चुकी थी, लेकिन तुम ने दोबारा बहार ला दी.’’

रामबहादुर ठंडा पड़ चुका था. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता, भले ही मेरी नौकरी छूट जाए.’’

माया अपने पसंदीदा कैमरे पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘मैं फिर से मेकअप कर लूं, तो तुम मेरी तसवीरें खींच देना.’’

‘‘ठीक है, तुम तैयार हो कर आओ,’’  कह कर रामबहादुर पलंग पर लेट गया.

रामबहादुर फौज में था. उस की ड्यूटी सेना की कैंटीन में थी. वह माया के घर में किराए पर रहता था. कुछ दिनों के लिए वह गांव से अपनी पत्नी को लाया था, लेकिन मां की तबीयत ठीक न रहने से वह पत्नी को गांव छोड़ आया था. इस के बाद वह माया की ओर खिंच गया था.

माया केवल फौजियों को ही मकान किराए पर देती थी. उस का कहना था कि फौजी कैंटीन से सस्ता सामान ला कर देते हैं और ज्यादा दिनों तक घर पर कब्जा भी नहीं जमाए रहते, क्योंकि उन का जल्दी ही तबादला हो जाता है. जाते समय वे काफी सामान आधे दाम पर बेच कर चले जाते हैं.

रामबहादुर ने कैंटीन का सामान दे कर माया से नजदीकी बढ़ाई. मुफ्त में सामान पा कर माया उस की तरफ खिंचती चली गई.

माया 30 साल की थी. 5 साल पहले अपने पति की एक सड़क हादसे में हुई मौत के बाद वह टूट चुकी थी. अपनी और अपने 7 साल के बेटे मुनमुन की चिंता उसे खाए जा रही थी.

माया का पति एक कंपनी में मैनेजर था. कंपनी के मालिक ने माया को क्लर्क की नौकरी दे दी थी, लेकिन उस का चालचलन ठीक न होने से बाद में उसे निकाल दिया गया.

नौकरी छूटने के बाद माया की रोजीरोटी का जरीया 10 कमरों का मकान ही था. 2 कमरों में वह खुद रहती थी और 8 कमरे किराए पर दिए हुए थे.

रामबहादुर के आने के बाद माया की सारी समस्याएं दूर हो गई थीं. वह उसे हर तरह का सुख दे रहा था.

माया अकसर उस से कैंटीन के किसी न किसी सामान की फरमाइश करती रहती थी.

बात तब की है, जब रामबहादुर माया के लिए कैमरा नहीं लाया था.

एक दिन माया ने पूछा था, ‘रामबहादुर, तुम्हारी कैंटीन में अटैची, कंबल, कैमरा भी तो मिलता होगा न?’

‘सबकुछ मिलता है. बोलो, क्या चाहिए तुम्हें?’ रामबहादुर ने कहा था.

‘फिलहाल तो कैमरा चाहिए,’ यह कह कर माया ने पूछा था, ‘ला दोगे न?’

‘हां, आज ही ला दूंगा कैमरा. ड्यूटी पर जा रहा हूं. लौटूंगा तो कैमरा साथ होगा,’ यह कह कर रामबहादुर ड्यूटी पर चला गया था.

फौजी रामबहादुर से कैमरा पा कर माया बेहद खुश थी. इस के बाद तो उस ने रामबहादुर से कंबल, अटैची और शराब भी मंगवाई.

रामबहादुर कुछ सामान खरीद कर लाता, तो कुछ चुरा कर. उस की चोरी इसलिए नहीं पकड़ी जा रही थी, क्योंकि उस ने अपनी मीठी जबान से अफसरों का दिल जीत रखा था.

उसी कैंटीन में रामबहादुर का दोस्त श्रवण भी काम करता था. उसे शक हो गया था कि रामबहादुर माया की दीवानगी में सैनिक का फर्ज भूल कर चोरी कर रहा है.

उस ने रामबहादुर को खूब समझाया कि वह माया का साथ छोड़ दे और ईमानदारी से ड्यूटी करते हुए अपने घरपरिवार की ओर ध्यान दे.

रामबहादुर उस की बातें सुन कर ‘हांहां’ करता और फिर शराब का नशा करते ही सबकुछ भूल जाता.

एक दिन श्रवण ने रामबहादुर को कैंटीन से सामान चुराते हुए पकड़ लिया.

‘‘देखो श्रवण, तुम मेरे काम में दखल न दो, वरना यह गुस्ताखी तुम्हें बहुत महंगी पड़ेगी,’’ रामबहादुर ने धमकाते हुए कहा.

‘‘नहीं रामबहादुर, नहीं. मैं एक सच्चा फौजी हूं. अपनी मौजूदगी में मैं तुम्हें गलत काम नहीं करने दूंगा. कैंटीन का सामान केवल फौजी भाइयों और उन के परिवार के लिए है. यहां का सामान चोरी करने के लिए नहीं है,’’ यह कह कर श्रवण ने रामबहादुर के हाथ से सामान से भरा बैग छीन लिया.

‘‘तू ने यह क्या किया बे? रुक, मैं अभी तेरी शिकायत अफसर से करता हूं,’’ रामबहादुर गरजा.

‘‘तू क्या शिकायत करेगा मेरी? मैं ने तुझे गलत काम करते हुए पकड़ा है. तेरी शिकायत तो मैं करूंगा,’’ श्रवण ने फटकार लगाई.

श्रवण ने रामबहादुर की शिकायत तमाम अफसरों से की, लेकिन उस की सुनवाई कहीं नहीं हुई. उलटे अफसरों ने श्रवण को ही डांट दिया.

अफसरों के रवैए से श्रवण बेहद दुखी हुआ. उस के मन में आया कि वह सेना की नौकरी छोड़ दे, लेकिन घर की माली हालत ठीक न होने के चलते वह मन मार कर रह गया.

इधर रामबहादुर के गलत काम पर रोक नहीं लगी. वह बदस्तूर कैंटीन का सामान चुरा कर ले जाता रहा. उस पर ईमानदारी का ठप्पा जो लगा हुआ था.

माया के प्रेमजाल में फंस कर वह सैनिक का फर्ज भूल गया था. क्या वह वही रामबहादुर था, जिस ने अपने स्टडीरूम में एक बड़े अफसर की तसवीर टांग रखी थी और उसे देख कर ही वह सेना में जाने का सपना देखा करता था?

जब उस का सपना पूरा हुआ था, तो उस के मातापिता, भाईबहन और गांव के लोग कितने खुश हुए थे. गांव में उस की कितनी जरूरत है. लेकिन अगर इस घिनौनी हरकत का पता चलेगा, तो लोग क्या कहेंगे?

अब रामबहादुर को इस बात की परवाह नहीं थी. वह तो माया का दीवाना था. लेकिन कुछ दिनों बाद माया उस से तनख्वाह के पैसे भी मांगने लगी. यह भी कहने लगी कि वह अपने घर पर पैसे न भेजा करे.

रामबहादुर ने उसे काफी समझाने की कोशिश की, पर उस पर कोई असर नहीं पड़ा. उस ने कहा, ‘‘पत्नी जैसा सुख मैं तुम्हें देती हूं और तुम हो कि सारा पैसा घर भेज देते हो. आखिर तुम्हारी कमाई पर मेरा भी तो हक है.’’

रामबहादुर को यह सब पसंद नहीं था. उसे माया में दिलचस्पी कम होने लगी. उन दोनों के बीच अकसर झगड़ा होने लगा.

रामबहादुर जिस माया पर मरमिटा था, अब उस से वह अपना पिंड छुड़ाना चाहता था.

एक रात को माया ने रामबहादुर को गुंडों से पिटवा दिया.

रामबहादुर को गहरी चोट लगी थी, लेकिन बदनामी के डर से उस ने किसी को कुछ नहीं बताया.

श्रवण को जब यह मालूम हुआ, तो उस से रहा न गया. वह उस के पास गया. उस ने रामबहादुर के घर वालों को बुलाया और बराबर उस की देखरेख करता रहा.

अब रामबहादुर को अपनी करनी पर पछतावा हो रहा था. उस ने श्रवण से माफी मांगते हुए कहा, ‘‘श्रवण, मुझे माफ कर दे भाई.

‘‘मैं अपना फर्ज भूल गया था. उस सैनिक का फर्ज, जो देश की आन, बान और शान के लिए खुशीखुशी अपनी जान न्योछावर कर देता है. मैं अपने साथियों का हिस्सा बेच रहा था. मेरी अक्ल मारी गई थी.

‘‘जिस माया के लिए मैं चोरी करता था, उसी ने मेरे साथ मारपीट कराई. लेकिन भाई, यह बात किसी से मत कहना. अब मैं कोई गलत काम नहीं करूंगा,’’ कहते हुए रामबहादुर की आंखों में आंसू थे.

श्रवण को असलीनकली आंसुओं की पहचान थी. उसे यकीन हो गया कि रामबहादुर को अपनी करनी पर पछतावा है. वह उसे गले लगा कर बोला, ‘‘मुझे खुशी है कि तुम देर से ही सही, पर संभल गए. चलो, मैं ने तुम्हें माफ किया.

‘‘बेहतर होगा कि तुम माया का घर छोड़ दो और पुरानी बातों को भूल कर एक सच्चे सैनिक का फर्ज निभाओ.

‘‘और हां, गांव तुम्हारे चलते ही बिगड़ा है. आइंदा कभी वहां शराब मत ले जाना.’’

‘‘ठीक है भाई. मैं माया का घर छोड़ दूंगा. मुझे नहीं मालूम था कि वह इतना नीचे गिर सकती है.

‘‘हां, मैं मानता हूं कि गांव के लड़के मेरे चलते ही शराब के आदी हुए हैं. अब मैं कभी वहां शराब नहीं ले जाऊंगा और उन्हें समझाऊंगा कि वे शराब कभी न पीएं,’’ रामबहादुर ने कहा.

ठीक होने के बाद रामबहादुर ने माया का घर छोड़ दिया. माया ने कोई विरोध नहीं किया, क्योंकि वह किसी और को अपने जाल में फंसा चुकी थी.

रामबहादुर का माया से पिंड छूटा. वह दूर किराए का मकान ले कर अपनी पत्नी के साथ सुख से रहने लगा. जब कभी उसे माया की याद आती, तो उस का मन नफरत से भर उठता.

वह सोचता, ‘कहां पत्नी का प्यार और कहां माया का मायाजाल.’

चालान : लहना सिंह पर क्यों गिरी गाज

‘‘आजकल काम मंदा चल रहा है. 2-4 दिन ठहर कर आना,’’ लहना सिंह ने सादा वरदी में महीना लेने आए ट्रैफिक पुलिस के एक सिपाही से कहा.

‘‘यह नहीं हो सकता. थानेदार साहब ने बोला है कि पैसे ले कर ही आना. आज बड़े साहब के यहां पार्टी है,’’ सिपाही ने कोल्डड्रिंक की बोतल खाली कर उसे थमाते हुए कहा.

‘‘अरे भाई, 4 दिन से गाड़ी खाली खड़ी है. जेब बिलकुल खाली है,’’ लहना सिंह ने मजबूरी जताई.

‘‘जब थानेदार साहब यहां आएं, तब उन से यह सब कहना. कैसे भी हो, मु झे तो 3 सौ रुपए थमाओ. मु झे औरों से महीना भी इकट्ठा करना है,’’ सिपाही पुलिसिया रोब के साथ बोला.

लहना सिंह ने जेब में हाथ डाला. महज 60-70 रुपए थे. अब वह बाकी रकम कहां से पूरी करे? वह उठा और अड्डे पर मौजूद दूसरे साथियों से खुसुरफुसुर की.

किसी ने 20 रुपए, किसी ने 50 रुपए, तो किसी ने सौ रुपए थमा दिए.

लहना सिंह सिपाही के पास पहुंचा और गिन कर उसे ‘महीने’ के 3 सौ रुपए थमा दिए.

सिपाही रुपए ले कर चलता बना.

लहना सिंह भाड़े का छोटा ट्रक चलाता था. पहले वह एक ट्रक मालिक के यहां ड्राइवर था, जिस के कई ट्रक थे. फिर उस ने अपने मालिक से ही यह छोटा ट्रक कबाड़ी के दाम पर खरीद लिया था.

लहना सिंह ने कुछ हजार रुपए ऊपर खर्च कर के ट्रक को काम करने लायक बना लिया था.

ट्रक काफी पुराना था. उस के सारे कागजात पुराने थे. कई साल से उस का रोड टैक्स नहीं भरा गया था.

ऐसे ट्रक को बेचने वाला मालिक काफी तेजतर्रार था. उस ने पुलिस से ‘महीना’ बांधा हुआ था. अब यही ‘महीना’ लहना सिंह को देना पड़ता था.

पिछले कई दिनों से लगातार बारिश हो रही थी. जहांतहां कीचड़ और पानी भरा था. धंधा काफी मंदा था. उसे कभी काम मिल जाता था, कभी कई तक दिन खाली बैठना पड़ता था. पहले लहना सिंह खुद दूसरों का ट्रक चलाता रहा था, लेकिन अब मालिक बन कर अड्डे के तख्त पर दूसरे ट्रक मालिकों के साथ वह ताश खेलता था.

आज घर राशन ले जाना था. बीमार मां और पत्नी को भी अस्पताल दवा लेने जाना था. खर्च बहुत थे, मगर कमाई नहीं हुई थी.

तभी लाला मिट्ठल लाल अड्डे पर आ गया.

‘‘आओ लालाजी,’’ लहना सिंह ने बडे़ प्यार से कहा.

‘‘अरे लहना सिंह, किस की गाड़ी का नंबर है?’’

‘‘अपना है जी. कहां जाना है?’’

‘‘जमालपुर.’’

‘‘चलेंगे जी. क्या माल है?’’

‘‘अनाज की बोरियां हैं. तकरीबन 20 क्विंटल माल है.’’

‘‘कोई बात नहीं जी. ले जाएंगे.’’

‘‘गाड़ी ठीक है न?’’

‘‘अरे लालाजी, आप ने कई बार बरत रखी है. क्या कभी आप का काम रुका है?’’

‘‘कितना भाड़ा लोगे?’’

‘‘2 हजार रुपए.’’

‘‘बहुत ज्यादा है.’’

‘‘नहीं लालाजी, आज के महंगाई के जमाने में ज्यादा नहीं है.’’

‘‘5 सौ रुपए दूंगा.’’

‘‘नहीं जी, आप 2 सौ रुपए कम

कर लो.’’

‘‘चलो, 17 सौ दे देंगे.’’

‘‘ठीक है जी. आप मालिक हो. कब गाड़ी लगाऊं?’’

‘‘अभी ले चलो. मेरा गोदाम तो देखा हुआ है तुम ने.’’

‘‘लालाजी 5 सौ रुपए पेशगी दे दो. डीजल डलवाना है.’’

लालाजी ने 5 सौ रुपए दे दिए.

लालाजी के साथसाथ लहना सिंह, ड्राइवर और क्लीनर चारों ट्रक में सवार हो गए.

पैट्रोल पंप रास्ते में ही था. 4 सौ रुपए का डीजल डलवा कर सौ रुपए ड्राइवर को रास्ते के खर्च के लिए थमा कर लहना सिंह अड्डे पर लौट आया.

लालाजी ने गोदाम से 50-50 किलो वाले 40 कट्टे ट्रक में रखवा दिए. ट्रक जमालपुर की तरफ चल पड़ा.

जमालपुर जाने के लिए 2 रास्ते थे. पहला रास्ता थोड़ा लंबा था, मगर कच्चा था. लेकिन इस रास्ते पर चैकिंग न के बराबर होती थी. नंबर दो का काम करने वालों के लिए और लहना सिंह जैसे गाड़ी वालों के लिए जिन के कागजात पूरे नहीं थे, महफूज रास्ता था.

दूसरा रास्ता पक्का था. साफसपाट, सीधा था. मगर इस रास्ते पर ट्रैफिक पुलिस, टैक्स वालों और दूसरे महकमों की चैकिंग बहुत होती रहती थी. ऊपर से यह रास्ता रेलवे लाइन के साथसाथ रेलवे स्टेशन को पार करता आगे बढ़ता था.

यहां पर रेलवे पुलिस का अधिकार क्षेत्र था. किसी भी लिहाज से यह नंबर दो वालों के लिए और बिना पूरे कागजात वाली गाड़ी वालों के लिए महफूज नहीं था.

लालाजी लंबे और महफूज रास्ते से जा रहे थे. ट्रक आगे बढ़ रहा था कि तभी ड्राइवर ने ब्रेक लगा दिया.

‘‘क्या हुआ?’’  झपकी ले रहे लालाजी ने आंखें खोल कर पूछा.

‘‘आगे सड़क टूटी हुई है जी.’’

लालाजी ने उचक कर देखा. सड़क का एक लंबा हिस्सा टूट कर बिखर गया था. घुटनों तक पानी था. अब क्या करें?

ड्राइवर ने लहना सिंह को मोबाइल से फोन किया और सारी बात बताई.

‘‘लालाजी से पूछ ले कि क्या करना है?’’ लहना सिंह ने कहा.

लालाजी सोच में डूबे थे. उन के पास नंबर दो का माल था. दूसरा रास्ता चैकिंग करने वालों से भरा रहता था. माल पकड़ा जा सकता था.

अभी तक लालाजी को यह पता नहीं था कि लहना सिंह के ट्रक के कागजात पूरे नहीं थे. क्या गाड़ी वापस ले चलें? मगर माल आज ही पहुंचाना था. पार्टी सारा पैसा पेशगी दे गई थी.

‘‘दूसरे रास्ते से ले चलो.’’

‘‘ठीक है जी,’’ कह कर ड्राइवर ने गाड़ी मोड़ ली.

रेलवे स्टेशन से थोड़ा पहले ट्रक रोक कर उस ने क्लीनर को ‘जरा नजर डाल आ’ का इशारा किया.

क्लीनर स्टेशन के पास पहुंचा. चौक सुनसान था. रेलवे स्टेशन खाली था. रेलवे लाइन के साथ लगती सड़क भी खाली थी.

क्लीनर के इशारा करते ही ड्राइवर ने ट्रक स्टार्ट कर आगे बढ़ा दिया.

रेलवे पुलिस की चौकी का इंचार्ज अचानक चौकी से बाहर चला आया.

उसी वक्त ड्राइवर ट्रक को चलाता हुआ चौक पर पहुंचा. ट्रक को देखते ही चौकी इंचार्ज ने रुकने का इशारा किया.

ट्रक रुक गया. पुलिस वाला पास आते हुए बोला, ‘‘ट्रक कहां जा रहा है?’’

‘‘जमालपुर.’’

‘‘इधर से क्यों जा रहे हो?’’

‘‘उधर का रास्ता खराब है जी.’’

‘‘गाड़ी में क्या है?’’

‘‘अनाज है जी.’’

‘‘माल का बिल है?’’

‘‘माल मेरा अपना है जी. अपने घर ही ले जा रहा हूं. किसी को बेचा नहीं है, इसलिए बिल किस बात का?’’ लालाजी ने दिलेरी दिखाते हुए कहा.

‘‘गाड़ी के कागजात दिखाओ.’’

इस पर ड्राइवर सकपका गया. उस ने एक कटीफटी कौपी थमा दी.

‘‘यह क्या है?’’

‘‘आरसी है जी.’’

‘‘अबे, यह आरसी है?’’ पुलिस वाले ने कौपी के पन्ने पलटते हुए कहा.

‘‘और कोई कागजात है?’’

‘‘नहीं जी.’’

‘‘रोड टैक्स की रसीद? बीमा की रसीद या प्रदूषण की रसीद? कुछ है?’’

‘‘नहीं जी.’’

‘‘नीचे उतर.’’

ड्राइवर के साथसाथ लालाजी भी नीचे उतर आए.

‘‘साहबजी, मु झे नहीं पता था कि इस गाड़ी के कागजात पूरे नहीं हैं, वरना मैं माल नहीं लाता,’’ लालाजी ने हाथ जोड़ते हुए कहा.

‘‘हमें माल से कोई मतलब नहीं है. आप अपना माल उतरवा लें. गाड़ी के कागजात नहीं हैं और यह रेलवे पुलिस के इलाके में आ गई है. इसलिए इसे बंद करना पड़ेगा.’’

ड्राइवर ने मोबाइल निकाल कर लहना सिंह को फोन कर दिया.

‘हौसला रख. मैं आ रहा हूं,’ लहना सिंह ने कहा.

तब तक गाड़ी थाने में बंद हो गई.

लहना सिंह की मिन्नतों का कोई असर न हुआ. चालान पर ड्राइवर के बाएं हाथ के अंगूठे की छाप लगवा कर चौकी इंचार्ज ने मुख्य कौपी उसे थमा दी.

‘‘इस चालान का फैसला कौन करेगा साहब?’’ लहना सिंह ने पूछा.

‘‘जिला अदालत में चले जाना. वहां पर मजिस्ट्रेट इस के लिए नियुक्त है, वह जुर्माना लगा कर गाड़ी छोड़ देगा.’’

लहना सिंह जिला अदालत पहुंचा. पता चला कि इन दिनों अदालतें बंद थीं. ड्यूटी मजिस्टे्रट को जुर्माना लगाने का अधिकार नहीं था. गाड़ी कानूनी तौर पर लहना सिंह के नाम नहीं थी, इसलिए सुपुर्दगी के आधार पर भी ट्रक नहीं छूट सकता था. लहना सिंह के पास 3 हफ्ते तक इंतजार करने के सिवा और कोई चारा न था.

3 हफ्ते बाद अदालतें खुलीं. भुक्तभोगियों ने लहना सिंह को बता दिया था कि उस को ज्यादा से ज्यादा 5 हजार रुपए तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है.

जेब में 6 हजार रुपए रख लहना सिंह ड्राइवर के साथ अदालत पहुंचा. चालान ड्राइवर के नाम काटा गया था. मजिस्ट्रेट अभी चैंबर में ही बैठे थे. लहना सिंह रीडर के पास पहुंचा. सौ रुपए का एक नोट उस की मुट्ठी में दबा कर फुसफुसाया, ‘‘ठीक है.’’

‘‘मैं 12 बजे आवाज दिलवाऊंगा और साहब को सिफारिश लगा दूंगा,’’ रीडर भी फुसफुसाया.

12 बजे आवाज पड़ी. ड्राइवर के साथ लहना सिंह अंदर पहुंचा. साहब ने उस की तरफ फिर ड्राइवर की तरफ गौर से देखा.

‘‘गाड़ी का मालिक कौन है?’’

‘‘मैं हूं जी,’’ लहना सिंह बोला.

‘‘गाड़ी के कागजात कहां हैं?’’

लहना सिंह ने कटीफटी कौपी सामने रख दी. साहब ने सारे पन्ने देखे, फिर चालान नियमों पर नजर डाली.

ऐसी गाड़ी को तो जब्त कर ‘डिस्सपोज औफ’ कर देना चाहिए, मगर ऐसा अधिकार प्रशासन को था, पर उन्हें नहीं.

चैंबर में बैठे साहब ने ढाई हजार रुपए का जुर्माना लगाने का आदेश दे कर फाइल रीडर को थमा दी. रसीद में जरूरी बातें दर्ज कर लहना सिंह को रसीद वापस थमा दी गई.

साहब ने ‘गाड़ी तुरंत छोड़ दो’ लिख कर रसीद लौटा दी. घूस के कुल 28 सौ रुपए और 3 हफ्ते तक बेरोजगारी  झेल कर लहना सिंह ने गाड़ी छुड़ा ली.

ड्राइवर के साथ उस ने कसम खाई कि रेलवे स्टेशन और किसी भी उस इलाके में जहां ‘महीना’ नहीं बंधा, गाड़ी नहीं ले जाना है.

दो नावों की सवारी : किसको पड़ी भारी

‘‘जब मैं उसे देखता हूं, तो अपने होश खो बैठता हूं. उस के बिना तो मेरा जीना मुश्किल हो गया है,’’ राकेश ने अपने दोस्त अजय से कहा.

अजय ने चेहरे पर हलकी सी मुसकान लाते हुए कहा, ‘‘यार राकेश, तू तो बड़ा छिपा रुस्तम निकला. तू ने आज तक कभी यह बात नहीं बताई.’’

राकेश बोला, ‘‘प्यार ऐसी चीज है, जिस के बारे में किसी को नहीं बताया जा सकता. तू मेरा बचपन का दोस्त है, इसलिए मैं ने तुझे यह बात बताने की हिम्मत की है.’’

राकेश और अजय एक झोंपड़ी में बैठे हुए ये बातें कर रहे थे, जो राकेश के खेत पर बनी हुई थी. यहीं पर खेतों में सिंचाई करने के लिए एक ट्यूबवैल लगा था.

राकेश ज्यादातर ट्यूबवैल पर ही रहता है. यहीं उस के कुछ दोस्त आ जाते थे, जिन से उस का मन लगा रहता था.

गांव की ज्यादातर औरतें इसी ट्यूबवैल पर पानी भरने आती थीं. क्या करें, उन की भी मजबूरी थी, क्योंकि गांव का पानी खारा था.

गीता भी यहां रोजाना पानी लेने आती थी. राकेश और गीता की प्रेम कहानी इसी ट्यूबवैल से शुरू हुई थी.

राकेश बीए में पढ़ता था. उस के 2 बड़े भाई थे. एक भाई नौकरी करता था और दूसरा भाई खेती संभालता था.

राकेश कालेज से पढ़ कर यहीं  झोंपड़ी में आ जाता था, क्योंकि यहां हरेभरे पेड़ थे और शांत माहौल था.

रोजाना की तरह गीता आज भी पानी भरने आई थी. वह अपना बरतन भरने वाली थी कि बिजली चली गई. वह सोच में पड़ गई कि अब क्या करे.

उधर राकेश पास में ही चारपाई पर बैठा किताबें पढ़ रहा था. अकेली लड़की, आसपास भी कोई नहीं, ऐसे में किसी का भी मन भटक सकता है. ऐसा ही राकेश के साथ भी हुआ. वह गीता को प्यारभरी नजरों से देखने लगा.

राकेश को देख कर गीता के मन में शक पैदा होने लगा और वह घबरा कर इधरउधर देखने लगी.

राकेश गीता से बातें करना चाह रहा था, पर उस की हिम्मत नहीं हो रही थी.

थोड़ी देर बाद राकेश हिम्मत बटोर कर चारपाई से उठा और गीता की तरफ बढ़ा, लेकिन उस के पास पहुंचते ही वह सबकुछ भूल गया.

गीता ने राकेश को देख कर अच्छी तरह पहचान लिया कि वह उस से बात करना चाहता है, पर घबराहट के चलते कुछ कह नहीं पा रहा है.

गीता का डर खत्म हुआ और उस के खूबसूरत चेहरे पर मुसकान आ गई.

गीता की इस मुसकान को देख कर राकेश के दिल में गुदगुदी होने लगी. इसी बीच बिजली आ गई. राकेश ने फौरन मोटर चला दी और गीता पानी भरने लगी.

पानी भर कर गीता गांव की तरफ जाने लगी, तो राकेश उसे तब तक देखता रहा, जब तक वह गांव में नहीं पहुंच गई.

एक दिन राकेश ने ठान लिया कि वह गीता से अपने प्यार का इजहार कर के ही रहेगा. उसी समय गीता रोजाना की तरह पानी भरने आई.

राकेश हिम्मत कर के गीता के पास गया और बोला, ‘‘गीता, मुझे तुम से कुछ कहना है.’’

गीता बोली, ‘‘क्या?’’

राकेश बोला, ‘‘तुम बुरा तो नहीं मानोगी?’’

गीता ने कहा, ‘‘बुरा क्यों मानूंगी?’’

राकेश हिम्मत कर के धीरे से बोला, ‘‘गीता, मैं तुम्हें चाहने लगा हूं. तुम मुझे अच्छी लगने लगी हो.’’

यह सुन कर गीता का चेहरा सुर्ख पड़ गया. यह देख राकेश डर गया.

गीता बिना कुछ बोले पानी का बरतन ले कर चली गई. रास्ते में वह राकेश के बारे में सोचती जा रही थी और बीचबीच में उस के चेहरे पर हलकी मुसकराहट भी आ जाती थी.

इस के बाद राकेश और गीता के बीच रोजाना बातें होती रहीं और दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा.

अजय को पता चला कि राकेश जिस लड़की से प्यार करता है, वह तो उसी की महबूबा है, तो वह उस से जलने लगा.

अजय का गीता से एक साल से इश्क का चक्कर चल रहा था. गीता भी अजय को प्यार करती थी, लेकिन राकेश को इस बारे में कुछ पता नहीं था.

गीता का खिंचाव अजय से हट कर राकेश की तरफ बढ़ने लगा, यह बात अजय को अच्छी नहीं लग रही थी.

एक दिन अजय ने गीता से पूछा, ‘‘तू राकेश से बात क्यों करती है?’’

गीता ने जवाब दिया, ‘‘तुझे क्या मतलब है? मैं किसी से भी बात करूं, मेरी मरजी.’’

यह सुन कर अजय के अंदर मानो ज्वालामुखी फट पड़ा था. वह मन ही मन राकेश से नफरत करने लगा. उस ने सोच लिया, ‘अगर गीता मेरी नहीं हुई, तो मैं किसी की भी नहीं होने दूंगा.’

अजय ने भोला से बात की. भोला एक नंबर का ऐयाश था. उस की कमजोरी लड़की औैर शराब थी.

‘‘भोला, अगर आज तेरी मदद मिले, तो तु  झे हुस्न और शराब दोनों मिल सकते हैं.’’

यह सुन कर भोला पागल भेडि़ए की तरह फड़फड़ाने लगा और बोला, ‘‘जल्दी बोल यार, क्या करना है?’’

अजय ने जैसे ही शराब की बोतल निकाली, भोला के मुंह में पानी आ गया.

अजय बोला, ‘‘आज जितनी पीना चाहे उतनी पी लेना, लेकिन अभी नहीं. काम हो जाने के बाद.’’

भोला अजय के साथ राकेश के ट्यूबवैल पर आ गया.

राकेश वहां चारपाई पर बैठ कर पढ़ाई कर रहा था. अजय और भोला उस के पास आ कर बैठ गए.

राकेश कुछ कहने वाला था कि अजय ने राकेश के गले में रस्सी डाली और उसे खींचने लगा. राकेश ने थोड़ी देर हाथपैर मारे, फिर शांत हो गया.

दोनों ने उसे झोंपड़ी में डाल दिया और झोंपड़ी के पीछे छिप गए. वहां दोनों ने खूब शराब पी.

थोड़ी देर बाद गीता पानी भरने आई. जब राकेश दिखाई नहीं दिया, तो वह   झोंपड़ी के अंदर चली गई. उस ने जैसे ही राकेश की लाश को देखा, तो वह डर के मारे कांपने लगी.

वह कुछ सोचती, उस से पहले ही अजय और भोला ने उसे दबोच लिया.

अजय गीता से बोला, ‘‘आज तेरी वजह से मेरे दोस्त की जान गई है. पहले तू ने मु  झ से प्यार किया और फिर राकेश से. तु  झे यह नहीं पता कि मेरे दिल पर क्या बीत रही थी.

‘‘तुम लड़कियों में यही कमी है. पहले प्यार का ढोंग करती हो, फिर किनारा कर जाती हो. आज तु  झे इस की सजा जरूर मिलेगी.’’

यह कह कर उन दोनों ने गीता को पकड़ लिया और बारीबारी से मुंह काला करने के बाद उसे जाने दिया.

बेचारी गीता अपने दुपट्टे को मुंह में दबाए रोती हुई गांव की तरफ चल दी. साथ ही, वह अपनेआप को कोसती जा रही थी कि आज अगर वह दोतरफा प्यार नहीं करती, तो शायद राकेश की जान और उस की इज्जत नहीं जाती.

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