वजूद से परिचय: भैरवी के बदले रूप से क्यों हैरान था ऋषभ?

‘‘मम्मी… मम्मी, भूमि ने मेरी गुडि़या तोड़ दी,’’ मुझे नींद आ गई थी. भैरवी की आवाज से मेरी नींद टूटी तो मैं दौड़ती हुई बच्चों के कमरे में पहुंची. भैरवी जोरजोर से रो रही थी. टूटी हुई गुडि़या एक तरफ पड़ी थी.

मैं भैरवी को गोद में उठा कर चुप कराने लगी तो मुझे देखते ही भूमि चीखने लगी, ‘‘हां, यह बहुत अच्छी है, खूब प्यार कीजिए इस से. मैं ही खराब हूं… मैं ही लड़ाई करती हूं… मैं अब इस के सारे खिलौने तोड़ दूंगी.’’

भूमि और भैरवी मेरी जुड़वां बेटियां हैं. यह इन की रोज की कहानी है. वैसे दोनों में प्यार भी बहुत है. दोनों एकदूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकतीं.

मेरे पति ऋषभ आदर्श बेटे हैं. उन की मां ही उन की सब कुछ हैं. पति और पिता तो वे बाद में हैं. वैसे ऋषभ मुझे और बेटियों को बहुत प्यार करते हैं, परंतु तभी तक जब तक उन की मां प्रसन्न रहें. यदि उन के चेहरे पर एक पल को भी उदासी छा जाए तो ऋषभ क्रोधित हो उठते, तब मेरी और मेरी बेटियों की आफत हो जाती.

शादी के कुछ दिन बाद की बात है. मांजी कहीं गई हुई थीं. ऋषभ औफिस गए थे. घर में मैं अकेली थी. मांजी और ऋषभ को सरप्राइज देने के लिए मैं ने कई तरह का खाना बनाया.

परंतु यह क्या. मांजी ऋषभ के साथ घर पहुंच कर सीधे रसोई में जा घुसीं और फिर

जोर से चिल्लाईं, ‘‘ये सब बनाने को किस ने कहा था?’’

मैं खुशीखुशी बोली, ‘‘मैं ने अपने मन से बनाया है.’’

वे बड़बड़ाती हुई अपने कमरे में चली गईं और दरवाजा बंद कर लिया. ऋषभ भी चुपचाप ड्राइंगरूम में सोफे पर लेट गए. मेरी खुशी काफूर हो चुकी थी.

ऋषभ क्रोधित स्वर में बोले, ‘‘तुम ने अपने मन से खाना क्यों बनाया?’’

मैं गुस्से में बोली, ‘‘क्यों, क्या यह मेरा घर नहीं है? क्या मैं अपनी इच्छा से खाना भी नहीं बना सकती?’’

मेरी बात सुन कर ऋषभ जोर से चिल्लाए, ‘‘नहीं, यदि तुम्हें इस घर में रहना है तो मां की इच्छानुसार चलना होगा. यहां तुम्हारी मरजी नहीं चलेगी. तुम्हें मां से माफी मांगनी होगी.’’

मैं रो पड़ी. मैं गुस्से से उबल रही थी कि सब छोड़छाड़ अपनी मां के पास चली जाऊं. लेकिन मम्मीपापा का उदास चेहरा आंखों के सामने आते ही मैं मां के पास जा कर बोली, ‘‘मांजी, माफ कर दीजिए. आगे से कुछ भी अपने मन से नहीं करूंगी.’’

मैं ने मांजी के साथ समझौता कर लिया था. सभी कार्यों में उन का ही निर्णय सर्वोपरि रहता. मुझे कभीकभी बहुत गुस्सा आता मगर घर में शांति बनी रहे, इसलिए खून का घूंट पी जाती.

सब सुचारु रूप से चल रहा था कि अचानक हम सब के जीवन में एक तूफान आ गया. एक दिन मैं औफिस में चक्कर खा कर गिर गई और फिर बेहोश हो गई. डाक्टर को बुलाया गया, तो उन्होंने चैकअप कर बताया कि मैं मां बनने वाली हूं.

सभी मुझे बधाई देने लगे, मगर ऋषभ और मैं दोनों परेशान हो गए कि अब क्या किया जाए.

तभी मांजी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे बेटा नहीं था उसी कमी को पूरा करने के लिए यह अवसर आया है.’’

मां खुशी से नहीं समा रही थीं. वे अपने पोते के स्वागत की तैयारी में जुट गई थीं.

अब मां मुझे नियमित चैकअप के लिए डाक्टर के पास ले जातीं.

चौथे महीने मुझे कुछ परेशानी हुई तो डाक्टर के मुंह से अल्ट्रासाउंड करते समय अचानक निकल गया कि बेटी तो पूरी तरह ठीक है औैर मां को भी कुछ नहीं है.

मांजी ने यह बात सुन ली. फिर क्या था. घर आते ही फरमान जारी कर दिया कि दफ्तर से छुट्टी ले लो और डाक्टर के पास जा कर गर्भपात कर लो. मांजी का पोता पाने का सपना जो टूट गया था.

मैं ने ऋषभ को समझाने का प्रयास किया, परंतु वे गर्भपात के लिए डाक्टर के पास जाने की जिद पकड़ ली. आखिर वे मुझे डाक्टर के पास ले ही गए.

डाक्टर बोलीं, ‘‘आप लोगों ने आने में बहुत देर कर दी है. अब मैं गर्भपात की सलाह नहीं दे सकती.’’

अब मांजी का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया. व्यंग्यबाणों से मेरा स्वागत होता. एक दिन बोलीं, ‘‘बेटियों की मां तो एक तरह से बांझ ही होती हैं, क्योंकि बेटे से वंश आगे चलता है.’’

अब घर में हर समय तनाव रहता. मैं भी बेवजह बेटियों को डांट देतीं. ऋषभ मांजी की हां में हां मिलाते. मुझ से ऐसा व्यवहार करते जैसे इस सब के लिए मैं दोषी हूं. वे बातबात पर चीखतेचिल्लाते, जिस से मैं परेशान रहती.

एक दिन मांजी किसी अशिक्षित दाई को ले कर आईं और फिर मुझ से बोलीं, ‘‘तुम औफिस से 2-3 की छुट्टी ले लो… यह बहुत ऐक्सपर्ट है. इस का रोज का यही काम है.

यह बहुत जल्दी तुम्हें इस बेटी से छुटकारा दिला देगी.’’

सुन कर मैं सन्न रह गई. अब मुझे अपने जीवन पर खतरा साफ दिख रहा था. मैं ऋषभ के आने का इंतजार करने लगीं. वे औफिस से आए तो मैं ने उन्हें सारी बात बताई.

ऋषभ एक बार को थोड़े गंभीर तो हुए, लेकिन फिर धीरे से बोले, ‘‘मांजी नाराज हो जाएंगी, इसलिए उन का कहना तो मानना ही पड़ेगा.’’

मुझे कायर ऋषभ से घृणा होने लगी. अपने दब्बूपन पर भी गुस्सा आने लगा कि क्यों मैं मुखर हो कर अपने पक्ष को नहीं रखती. मैं क्रोध से थरथर कांप रही थी. बिस्तर पर लेटी तो नींद आंखों से कोसों दूर थी.

ऋषभ बोले, ‘‘क्या बात है? बहुत परेशान दिख रही हो? सो जाओ… डरने की जरूरत नहीं है. सबेरे सब ठीक हो जाएगा.’’

मैं मन ही मन सोचने लगी कि ऋषभ इतने डरपोक क्यों हैं? मांजी का फैसला क्या मेरे जीवन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? मेरा मन मुझे प्रताडि़त कर रहा था. मुझे अपने चारों ओर उस मासूम का करुण क्रंदन सुनाई पड़ रहा था. मेरा दिमाग फटा जा रहा था… मुझे हत्यारी होने का बोध हो रहा था. ‘बहुत हुआ, बस अब नहीं,’ सोच मैं विरोध करने के लिए मचल उठी. मैं चीत्कार कर उठी कि नहीं मेरी बच्ची, अब तुम्हें मुझ से कोई नहीं दूर कर सकता. तुम इस दुनिया में अवश्य आओगी…

मैं ने निडर हो कर निर्णय ले लिया था. यह मेरे वजूद की जीत थी. अपनी जीत पर मैं स्वत: इतरा उठी. मैं निश्चिंत हो गई और प्रसन्न हो कर गहरी नींद में सो गई.

सुबह ऋषभ ने आवाज दी, ‘‘उठो, मांजी आवाज दे रही हैं. कोई दाई आई है… तुम्हें बुला रही हैं.’’

मेरे रात के निर्णय ने मुझे निडर बना दिया था. अत: मैं ने उत्तर दिया, ‘‘मुझे सोने दीजिए… आज बहुत दिनों के बाद चैन की नींद आई है. मांजी से कह दीजिए कि मुझे किसी दाईवाई से नहीं मिलना.’’

मांजी तब तक खुद मेरे कमरे में आ चुकी थीं. वे और ऋषभ दोनों ही मेरे धृष्टता पर हैरान थे. मेरे स्वर की दृढ़ता देख कर दोनों की बोलती बंद हो गई थी. मैं आंखें बंद कर उन के अगले हमले का इंतजार कर रही थी. लेकिन यह क्या? दोनों खुसुरफुसुर करते हुए कमरे से बाहर जा चुके थे.

भैरवी और भूमि मुझे सोया देख कर मेरे पास आ गई थीं. मैं ने दोनों को अपने से लिपटा कर खूब प्यार किया. दोनों की मासूम हंसी मेरे दिल को छू रही थी. मैं खुश थी. मेरे मन से डर हवा हो चुका था. हम तीनों खुल कर हंस रहे थे.ऋषभ को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि रात भर में इसे क्या हो गया. अब मेरे मन में न तो मांजी का खौफ था न ऋषभ का और न ही घर टूटने की परवाह थी. मैं हर परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार थी.

यह मेरे स्वत्व की विजय थी, जिस ने मुझे मेरे वजूद से मेरा परिचय कराया था.

‘मां’ तो ‘मां’ है: क्या सास को मां मान सकी पारुल

बेटा पारुल 3 बजने को है खाना खाया कि नहीं ओह! माँ नही खाया आप चिंता ना करो अभी खा लेती हूँ, ठीक है 15 मिनट में फिर फोन करती हूँ सब काम छोड़ पहले खाना खा. कहने को तो निर्मला जी पारुल की सास हैं पर शादी के बाद उसकी हर इच्छा का ध्यान रखते हुए भरपूर प्यार दिया हर जरूरत का ख्याल रखा फटाफट टिफिन खोल खाना खाने बैठी ताकि माँ को तसल्ली हो जाए, खा-पी 10-15 मिनट आराम करने की सोच किसी को कमरे में ना आने के लिए चपरासी को बोल दिया.

आँख बंद कर बैठी ही थी कि एक साल पुरानी यादों ने आ घेरा, उसकी और साहिल की जोड़ी को जो कोई देखता यही कहता एक-दूसरे के लिए ही बने हैं परस्पर इतना आपसी प्रेम कि शादी के 24 साल बाद भी एक साथ घूमते-फिरते यही कोशिश रहती हर क्षण साथ ही रहें पल भर को भी अलग ना होना पड़े, बेहद प्यार करने वाले दो बेटे अंकुर व नवांकुर कहने का मतलब हंसता-मुस्कुराता सुखी परिवार. किंतु विधाता के मन की कोई नहीं जानता, पिछले साल नए साल की पार्टी का जश्न मना खुशी-खुशी सोए रात को अचानक साहिल की छाती में तेज़ दर्द उठा जब तक पारुल या घरवाले कुछ समझ हॉस्पिटल पहुंचाते तब तक साहिल का साथ छूट चुका था पारुल की दुनिया वीरान हो चुकी थी.

‌सुबह से ही लोगों का आना-जाना शुरू हो गया, साहिल थे ही इतने मिलनसार-ज़िंदादिल कि कोई विश्वास नहीं कर पा रहा था वो अब नहीं है अनंत यात्रा के लिए निकल चुके हैं. पारुल को समझ नहीं आ रहा था या यूं कहलें समझना नहीं चाह रही थी ये क्या हो रहा है? एकाएक जिंदगी में कैसा तूफान आ गया? जिससे सारा घर बिखर गया तहस-नहस हो गया, बच्चों का सास-ससुर का मुँह देख अपने को हिम्मत देने लगती फिर अगले ही पल साहिल की याद संभलने ना देती.

खैर! जाने वाला चला गया, अब तो रीति-रिवाज़ निभाने ही थे तीसरे दिन उठावनी की रस्म हुई
विधि-विधान से सब  होने के बाद निर्मला जी पारुल की तरफ देख बोलीं, जल्दी से अच्छी सी साड़ी पहन तैयार हो जा आज ऑफिस खोलने जाना है. पारुल क्या किसी को भी समझ नहीं आया निर्मला जी कह क्या रही हैं? कुछ देर से फिर बोलीं, जा पारुल तैयार होकर आ तुझे आज से ही साहिल का सपना पूरा करना है जो उसका मोटरपार्ट्स का काम है जिन ऊंचाइयों तक वो ले जाना चाहता था अब तुझे ही पूर्ण करना है, उठ! मेरी बिटिया देर ना कर अपने साहिल की इच्छा पूरी करने का प्रण कर.

‌पारुल जानती-समझती थी माँ जो कुछ भी कहेंगी या करेंगी उसमे कहीं ना कहीं भलाई होगी हित ही छुपा होगा, इसलिये सवाल-जवाब किए बिना तैयार हो शॉप के लिए चल दी साथ में ससुर और दोनों बेटे अंकुर-नवांकुर थे. शॉप खोल काम शुरू करने की रस्म निभाई किंतु घर आकर उसके सब्र का बांध फिर टूट गया, निर्मला जी ने तो अपना दिल पत्थर का बना लिया था क्योंकि उनकी आंखों को पारुल व बच्चों का भविष्य जो दिख रहा था.

निर्मला जी ने अपने पति की ओर देखा फिर दोनों जन पारुल के पास आए, सिर पर हाथ रख ढाढस बांधने लगे. निर्मला जी उसका सिर अपनी गोदी में रख पुचकारते हुए बोलीं, हमारा प्यारा साहिल हमसे बहुत दूर चला गया जीवन का कटु सत्य है अब कभी ना लौटकर आएगा, परंतु यह भी उतना ही कटु सत्य है कि जाने वाले के करीबी या जो पारिवारिक सदस्य होते हैं उनकी बाकी जिंदगी सिर्फ रो-रोकर शोक करते रहने से तो नहीं बीत सकती.

जिंदा रहने के लिए खाना-पीना और घरेलू-बाहरी सभी काम करना अत्यंत जरूरी रहता है, यह तो जीवन है बेटा जिसके नियम-कायदे हम इंसानों को मानने ही पड़ते हैं हमारी इच्छा या अनिच्छा मायने नहीं रखती. बेटा अब साहिल तो नहीं है लेकिन तुझसे जुड़े दोनों बच्चे तथा हमारा परिवार है, हम सभी को एक-दूसरे का सहारा बन रहना होगा एक-दूजे के लिए ख़ुशीपूर्वक ज़िंदगानी बितानी होगी.

सबसे अहम बात जीने के लिए आत्मनिर्भर होना पड़ेगा बेटा पारुल जो भी तुझे समझा अथवा कह रही हूँ वो हमेशा अपनी माँ की सीख मान याद रखना, अब से मैं तेरी सासू माँ नहीं माँ हूँ और माँ तो माँ होती है.

साहिल को गए अभी तीन दिन हुए हैं ऐसे ही 30 दिन फिर 3 महीने और साल दर साल होते जाएंगे, ये नाते-रिश्तों का तू सोच रही हो कि तेरा व तेरे बच्चों का संग-साथ देते रहेंगे तो अभी से इस भ्रम में ना रह, भूल जा कोई साथ देता रहेगा.

वो तो जब तक हम माँ-पिता हैं तब तक तुझे किसी तरह की परेशानी ना होने देंगे लेकिन बाद में मेरी बिटिया को किसी पर भी निर्भर ना होना पड़े अभी से इस बारे में सोचना होगा, हम अपने अनुभवों व तज़ुर्बे से बता रहे हैं कोई जीवन में ज्यादा दिन साथ नहीं दे सकता एकाध दिन की बात अलग है. उठ! बेटा पारुल आगे की सोच, जो होना था हो गया हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते अब अपने और बच्चों के भविष्य की सोच बाकी का जीवन कैसे बिताना है ध्यान दे.

माँमाँ यह क्या कह रही हो आप, क्या करूं कैसे करूं? मुझे तो कुछ नहीं आता सब तो साहिल ही संभालते थे, आप सब मेरी चिंता ना करो मेरी जिंदगी कैसे ना कैसे बीत ही जाएगी.

कैसी बात कर रही है? सिर्फ भावनाओं के सहारे नहीं रहा जा सकता, समय के साथ-साथ प्रैक्टिकल होना पड़ता है जिंदगी बसर करने के लिए बहुत कुछ सहना और फिर करना भी पड़ता है. साहिल तो यादों में हम सबके साथ हमेशा रहेगा, अब तेरहवीं की रस्म के बाद ऑफिस जा व साहिल ने जो बिजनेस शुरू किया है उसको किसी के भी भरोसे ना छोड़ते हुए स्वयं के बलबूते आगे बुलंदियों तक ले जा, यह काम तुझे ही पूरा करना है बेटा.

अब कुछ और ना सोच, कुछ दिनों बाद तू ऑफिस की जिम्मेदारी संभाल घर और बच्चों को मैं देख लिया करूंगी फिर कह रही हूँ, साहिल की यादों के संग आगे बढ़ अपनी जिंदगी हंसते-मुस्कुराते बच्चों व अपनों के साथ बिता.

किन्तु…पर कैसे माँ मुझे तो बिजनेस का कुछ भी अता-पता नहीं, अकेले नहीं संभाल सकती मैं.

कितनी बार हंसकर ही सही पर साहिल से कहती थी अपने साथ कभी तो मुझे भी ऑफिस ले चला करो जानना-समझना चाहती हूँ तो पता है माँ, साहिल बोला करते थे तू तो घर की रानी बनकर रह किसी बात की चिंता ना कर मैं हूँ ना सब संभालने के लिए, अब तुम्हीं बताओ ऐसा कहकर फिर क्यूँ छोड़कर चले गए मुझे अब कैसे संभालूं?

कोई बात नहीं मेरी बच्ची, होनी का किसी को नहीं पता कब क्या हो जाए? कोई नही जानता यहां तक कि अगले पल की खैर-खबर नहीं रहती. तू समझदार हैं पढ़ी-लिखी है इसलिए काम के बारे में जल्दी सीख जाएगी, तेरे पापा को भी थोड़ी बहुत बिज़नेस की जानकारी व समझ है. वैसे तो साहिल अपने पापा को भी ऑफिस ना आने देता था यही कहता रहता था, घर पर रह आराम करो बहुत काम कर लिया किंतु फिर भी कुछेक जानकारी तो है जिससे काफी हद तक तुझे स्वनिर्भर होने में अपना योगदान दे सकेंगे.

हाँ बेटा! तू बिलकुल चिंता मत कर, अभी तेरा पापा जिंदा है नई राह पर हर कदम तेरे साथ है बस! मानसिक तौर पर खुद को मजबूत कर ले ज़रा हिम्मत ना हार, हम सबकी खुशियों का एकमात्र सहारा तू ही है. अंकुर तथा नवांकुर के जीवन की अभी शुरुआत हुई है उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए उन्हें खुशियों की सौगात देने का स्वयं से वादा करते हुए घर-बाहर की जिम्मेदारी निष्ठा से पूर्ण करने का निश्चय कर, तेरे मम्मी-पापा सिर्फ और सिर्फ तेरे संग हैं.

पारुल अब हम दोनों की बात का मान रखते हुए स्वाभिमान के साथ अपने उद्देश्य को हर हाल में पूरा करना, हिम्मत कर एक और बात मन की कहना चाहूँगी, बिटिया यदि जीवन के किसी मोड़ या रास्ते में दूसरा साहिल मिलने लगे तो इधर-उधर की परवाह किए बिना निःसंकोच उसका हाथ थाम लेना, इससे सफर जीवन का आसानी से कट जाएगा समय का ज्यादा मालुम ना पड़ेगा.

माँमाँ…..आगे के शब्द नही मुँह से निकल सके निःशब्द हो चुकी थी पारुल, सिर्फ अपने माँ-पिताजी तुल्य सास-ससुर को निहार रही थी.

तभी मैडम-मैडम की आवाज से पारुल का ध्यान भंग हुआ चेतना में वापिस लौटी, हाँ-हाँ बोलो क्या कहना चाहते हो? वो मीटिंग के लिए आपका सभी इंतज़ार कर रहे हैं बता दें कब शुरू करनी है? ओह! तुम सभी मेंबर्स को जाकर कह दो 10 मिनट से बातचीत करते हैं.

पारुल उठी, एक गिलास पानी पिया और अपनी सासू माँ यानी अपनी माँ को मन ही मन हाथ जोड़ तहे दिल से धन्यवाद दिया, क्योंकि उन्हीं के स्नेहपूर्ण मार्गदर्शन से प्रेरित हो कुछ ही समय में आत्मनिर्भर बन अपना आत्मसम्मान अपनी खुद की पहचान बनाने में कामयाब हो सकी थी.

छद्म वेश : मधुकर और रंजना की कहानी

शाम धुंध में डूब चुकी थी. होटल की ड्यूटी खत्म कर तेजी से केमिस्ट की दुकान पर पहुंची. उसे देखते ही केमिस्ट सैनेटरी पैड को पेक करने लगा. रंजना ने उस से कहा कि इस की जगह मेंस्ट्रुअल कप दे दो. केमिस्ट ने एक पैकेट उस की तरफ बढ़ाया.

मधुकर सोच में पड़ गया कि यह युवक मेंस्ट्रुअल कप क्यों ले रहा है. ऐसा लगता तो नहीं कि शादी हो चुकी हो. शादी के बाद आदमियों की भी चालढाल बदल जाती है.

इस बात से बेखबर रंजना ने पैकेट अपने बैग में डाला और घर की तरफ कदम बढ़ा दिए. बीचबीच में रंजना अपने आजूबाजू देख लेती. सर्दियों की रात सड़क अकसर सुनसान हो जाती है. तभी रंजना को पीछे से पदचाप लगातार सुनाई दे रही थी, पर उस ने पीछे मुड़ कर देखना उचित नहीं समझा. उस ने अपनी चलने की रफ्तार बढ़ा दी. अब उस के पीछे ऐसा लग रहा था कि कई लोग चल रहे थे. दिल की धड़कन बढ़ गई थी. भय से चेहरा पीला पड़ गया था. घर का मोड़ आते ही वह मुड़ गई.

अब रंजना को पदचाप सुनाई नहीं दे रही थी. यह सिलसिला कई दिनों से चल रहा था. यह पदचाप गली के मोड़ पर आते ही गायब हो जाती थी. घर में भी वह किसी से इस बात का जिक्र नहीं कर सकती. नौकरी का बहुत शौक था. घर की माली हालत अच्छी थी. वह तो बस शौकिया नौकरी कर रही थी. स्त्री स्वतंत्रता की पक्षधर थी, पर खुद को छद्म वेश में छुपा कर ही रखती थी. स्त्रीयोचित सजनेसंवरने की जगह वह पुरुष वेशभूषा में रहती. रात में लौटती तो होंठों पर लिपस्टिक और आईब्रो पेंसिल से रेखाएं बना लेती. अंतरंग वस्त्र टाइट कर के पहनती, ताकि स्त्रियोचित उभार दिखाई न दे. इस से रात में जब वह लौटती तो भय नहीं लगता था.

लेकिन कुछ दिनों से पीछा करती पदचापों ने उस के अंदर की स्त्री को सोचने पर मजबूर कर दिया. रंजना ने घर के गेट पर पहुंच कर अपने होंठ पर बनी नकली मूंछें टिशू पेपर से साफ कीं और नौर्मल हो कर घर में मां के साथ भोजन किया और सो गई.

होटल जाते हुए उस ने सोचा कि आज वह जरूर देखेगी कि कौन उस का पीछा करता है. रात में जब रंजना की ड्यूटी खत्म हुई तो बैग उठा कर घर की ओर चल दी. अभी वह कुछ ही दूर चली थी कि पीछे फिर से पदचाप सुनाई दी.

रंजना ने हिम्मत कर के पीछे देखा. घने कोहरे की वजह से उसे कुछ दिखाई नहीं दिया. एक धुंधला सा साया दिखाई दिया. जैसे ही वह पलटी, काले ओवर कोट में एक अनजान पुरुष उस के सामने खड़ा था.

यह देख रंजना को इतनी सर्दी में पसीना आ गया. शरीर कांपने लगा. आज लगा, स्त्री कितना भी पुरुष का छद्म वेश धारण कर ले, शारीरिक तौर पर तो वह स्त्री ही है. फिर भी रंजना ने हिम्मत बटोर कर कहा, ‘‘मेरा रास्ता छोड़ो, मुझे जाने दो.’’

‘‘मैं मधुकर. तुम्हारे होटल के करीब एक आईटी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर हूं.’’

‘‘तुम इस होटल में काम करते हो. यह तो मैं जानता हूं.’’

‘‘तुम शादीशुदा हो क्या?’’

रंजना ने नहीं में गरदन हिलाई. वह जरूरत से ज्यादा डर गई. उस का बैग हाथ से छूट गया और सारा सामान बिखर गया.

रंजना अपना सामान जल्दीजल्दी समेटने लगी, लेकिन मधुकर के पैरों के पास पड़ा केमिस्ट के यहां से खरीदा मेंस्ट्रुअल कप उस की पोल खोल चुका था. मधुकर ने पैकेट चुपचाप उठा कर उस के हाथ में रख दिया.

‘‘तुम इस छद्म में क्यों रहती हो? मेरी इस बात का जवाब दे दो, मैं रास्ता छोड़ दूंगा.’’

‘‘रात की ड्यूटी होने की वजह से ये सब करना पड़ा. स्त्री होने के नाते हमेशा भय ही बना रहता. इस छद्म वेश में किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं गया, लेकिन आप ने कैसे जाना?’’

‘‘रंजना, मैं ने तुम्हें केमिस्ट की दुकान पर पैकेट लेते देख लिया था.’’

‘‘ओह… तो ये बात है.’’

‘‘रंजना चलो, मैं तुम्हें गली तक छोड़ देता हूं.’’

दोनों खामोश साथसाथ चलते हुए गली तक आ गए. मधुकर एक बात का जवाब दो कि तुम ही कुछ दिनों से मेरा पीछा कर रहे हो.

रहस्यमयी लड़के का राज आज पता चल ही गया. हाहाहा… क्या बात है?

चलतेचलते बातोंबातों में मोड़ आ गया. मधुकर रंजना से विदा ले कर चला गया.

रंजना कुछ देर वहीं खड़ी रास्ते को निहारती रही. दिल की तेज होती धड़कनों ने रंजना को आज सुखद एहसास का अनुभव हुआ.

घर पहुंच कर मां को आज हुई घटना के बारे में बताया. मां कुछ चिंतित सी हो गईं.

सुबह एक नया ख्वाब ले कर रंजना की जिंदगी में आई. तैयार हो कर होटल जाते हुए रंजना बहुत खुश थी. मधुकर की याद में सारा दिन खोई रही. मन भ्रमर की तरह उड़उड़ कर उस के पास चला जाता था.

ड्यूटी खत्म कर रंजना उठने को हुई, तभी एक कस्टमर के आ जाने से बिजी हो गई. घड़ी पर निगाह गई तो 8 बज चुके थे. रंजना बैग उठा कर निकली, तो मधुकर बाहर ही खड़ा था.

‘‘रंजना आज देर कैसे हो गई?’’

‘‘वो क्या है मधुकर, जैसे ही निकलने को हुई, तभी एक कस्टमर आ गया. फौर्मेलिटी पूरी कर के उसे रूम की चाबी सौंप कर ही निकल पाई हूं.’’

रंजना और मधुकर साथसाथ चलते हुए गली के मोड़ पर पहुंच मधुकर ने विदा ली और चला गया.

यह सिलसिला चलते हुए समय तो जैसे पंखों पर सवार हो उड़ता चला जा रहा था. दोनों को मिले कब 3 महीने बीत गए, पता ही नहीं चला. आज मधुकर ने शाम को डेट पर एक रेस्तरां में बुलाया था.

ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी रंजना खुद को पहचान नहीं पा रही थी. मां की साड़ी में लिपटी रंजना मेकअप किए किसी अप्सरा सी लग रही थी. मां ने देखा, तो कान के पीछे काला टीका लगा दिया और मुसकरा दीं.

‘‘मां, मैं अपने दोस्त मधुकर से मिलने जा रही हूं,’’ रंजना ने मां से कहा, तो मां पूछ बैठी, ‘‘क्या यह वही दोस्त है, जो हर रोज तुम्हें गली के मोड़ तक छोड़ कर जाता है?’’

‘‘हां मां ,ये वही हैं.’’

‘‘कभी उसे घर पर भी बुला लो. हम भी मिल लेंगे तुम्हारे दोस्त से.’’‘‘हां मां, मैं जल्दी ही मिलवाती हूं आप से,’’ कंधे पर बैग झुलाती हुई रंजना निकल पड़ी.

गली के नुक्कड़ पर मधुकर बाइक पर बैठा उस का इंतजार कर रहा था.

बाइक पर सवार हो रैस्टोरैंट पहुंच गए. मधुकर ने रैस्टोरैंट में टेबल पहले ही से बुक करा रखी थी.

रैस्टोरैंट में अंदर जा कर देखा तो कौर्नर टेबल पर सुंदर सा हार्ट शेप बैलून रैड रोज का गुलदस्ता मौजूद था.

‘‘मधुकर, तुम ने तो मुझे बड़ा वाला सरप्राइज दे दिया आज. मुझे तो बिलकुल भी याद नहीं था कि आज वैलेंटाइन डे है. नाइस अरैंजमैंट मधुकर…

‘‘आज की शाम तुम ने यादगार बना दी…’’

‘‘रंजना बैठो तो सही, खड़ीखड़ी मेरे बारे में कसीदे पढ़े जा रही हो, मुझे भी तो इजहारेहाल कहने दो…’’ मुसकराते हुए मधुकर ने कहा.

‘‘नोटी बौय… कहो, क्या कहना है?’’ हंसते हुए रंजना बोली.

मधुकर ने घुटनों के बल बैठ रंजना का हाथ थाम कर चूम लिया और दिल के आकार की हीरे की रिंग रंजना की उंगली में पहना दी.

‘‘अरे वाह… रिंग तो  बहुत सुंदर है,’’ अंगूठी देख रंजना ने कहा.

डिनर के बाद रंजना और मधुकर बाइक पर सवार हो घर की ओर चले जा रहे थे, सामने से एक बाइक पर 2 लड़के मुंह पर कपड़ा बांधे उन की बाइक के सामने आ गए. मधुकर को ब्रेक लगा कर अपनी बाइक रोकनी पड़ी.

लड़कों ने फब्तियां कसनी शुरू कर दीं और मोटरसाइकिल को उन की बाइक के चारों तरफ घुमाने लगे. उस समय सड़क भी सुनसान थी. वहां कोई मदद के लिए नहीं था. रंजना को अचानक अपनी लिपिस्टिक गन का खयाल आया. उस ने धीरे से बैग में हाथ डाला और गन चला दी.

गन के चलते ही नजदीक के थाने  में ब्लूटूथ के जरीए खबर मिल गई. थानेदार 5 सिपाहियों को ले कर निकल पड़े. कुछ ही देर में पुलिस के सायरन की आवाज सुनाई देने लगी.

लड़कों ने तुरतफुरत बैग छीनने की कोशिश की. मधुकर ने एक लड़के के गाल पर जोरदार चांटा जड़ दिया. इस छीनाझपटी में रंजना का हाथ छिल गया, खून रिसने लगा.

बैग कस कर पकड़े होने की वजह से बच गया.

सामने से पुलिस की गाड़ी  आती देख लड़के दूसरी दिशा में अपनी बाइक घुमा कर भाग निकलने की कोशिश करें, उस से पहले थानेदार ने उन्हें धरदबोचा और पकड़ कर गाड़ी में बैठा लिया.

थानेदार ने एक सिपाही को आदेश दिया कि इस लड़के की बाइक आप चला कर इस के घर पहुंचा दें. इस लड़के और लड़की को हम जीप से इन के घर छोड़ देते हैं.

रंजना और मधुकर जीप में सवार हो गए.

‘‘आप का क्या नाम है?’’ थानेदार ने अपना सवाल रंजना से किया.

‘‘मेरा नाम रंजना है. मैं एक होटल में रिसेप्शनिस्ट हूं. ये मेरे दोस्त मधुकर हैं. ये आईटी कंपनी में इंजीनियर के पद पर हैं.’’

‘‘रंजना, आप बहुत ही बहादुर हैं. आप ने सही समय पर अपनी लिपिस्टिक गन का इस्तेमाल किया है.’’

‘‘सर, रंजना वाकई बहुत हिम्मत वाली है.’’

थानेदार ने मधुकर से पूछा, ‘‘तुम भी अपने घर का पता बताओ.’’

‘‘सर, त्रिवेणी आवास विकास में डी 22 नंबर मकान है. उस से पहले ही मोड़ पर रंजना का घर है.’’

‘‘ओके मधुकर, वह तो पास ही में है.’’

पुलिस की जीप रंजना के घर के सामने रुकी.

पुलिस की गाड़ी देख रंजना की मां घबरा गईं और रंजना के पापा को आवाज लगाई, ‘‘जल्दी आइए, रंजना पुलिस की गाड़ी से आई है.’’

रंजना के पापा तेजी से बाहर की ओर लपके. बेटी को सकुशल देख उन की जान में जान आई.

थानेदार जोगिंदर सिंह ने सारी बात रंजना के पापा को बताई और मधुकर को भी सकुशल घर पहुंचाने के लिए कहा.

थानेदार जोगिंदर सिंह मधुकर को अपने साथ ले कर जीप में आ बैठे, ‘‘चल भई जवान तुझे भी घर पहुंचा दूं, तभी चैन की सांस लूंगा.’’

मधुकर को घर के सामने छोड़ थानेदार जोगिंदर सिंह वापस थाने चले गए.

मधुकर ने घर के अंदर आ कर इस बात की चर्चा मम्मीपापा के साथ खाना खाते हुए डाइनिंग टेबल पर विस्तार से बताई.

मधुकर के पापा का कहना था कि बेटा, तुम ने जो भी किया उचित था. रंजना की समझदारी से तुम दोनों सकुशल घर आ गए. मधुकर रंजना जैसी लड़की तो वाकई बहू बनानेलायक है. मम्मी ने भी हां में हां मिलाई.

‘‘मधुकर, खाना खा कर रंजना को फोन कर लेना.’’ मां ने कहा.

‘‘जी मम्मी.’’

मधुकर ने खाना खाने के बाद वाशबेसिन पर हाथ धोए और वहां लटके तौलिए से हाथ पोंछ कर सीधा अपने कमरे की बालकनी में आ कर रंजना को फोन मिलाया. रिंग जा रही थी, पर फोन रिसीव नहीं किया.

मधुकर ने दोबारा फोन मिलाया ट्रिन… ट्रिन. उधर से आवाज आई, ‘‘हैलो, मैं रंजना की मम्मी बोल रही हूं…’’

‘‘जी, मैं… मैं मधुकर बोल रहा हूं. रंजना कैसी है?’’

‘‘बेटा, रंजना पहली बार साड़ी पहन कर एक स्त्री के रूप में तैयार हो कर गई थी और ये घटना घट गई. यह घटना उसे अंदर तक झकझोर गई है. मैं रंजना को फोन देती हूं. तुम ही बात कर लो.’’

‘‘रंजना, मैं मधुकर.‘‘

‘‘क्या हुआ रंजना? तुम ठीक तो हो ? तुम बोल क्यों नहीं रही हो?’’

‘‘मधुकर, मेरी ही गलती है कि मुझे इतना सजधज कर साड़ी पहन कर जाना ही नहीं चाहिए था.’’

‘‘देखो रंजना, एक न एक दिन तुम्हें इस रूप में आना ही था. घटनाएं तो जीवन में घटित होती रहती हैं. उन्हें कपड़ों से नहीं जोड़ा जा सकता है. संसार में सभी स्त्रियां स्त्रीयोचित परिधान में ही रहती हैं. पुरुष के छद्म वेश में कोई नहीं रहतीं. तुम तो जमाने से टक्कर लेने के लिए सक्षम हो… इसलिए संशय त्याग कर खुश रहो.’’

‘‘मधुकर, तुम ठीक कह रहे हो. मैं ही गलत सोच रही थी.’’

‘‘रंजना, मैं तुम्हें हमेशा के लिए अपना बनाना चाहता हूं.’’

‘‘लव यू… मधुकर.’’

‘‘लव यू टू रंजना… रात ज्यादा हो गई है. तुम आराम करो. कल मिलते हैं… गुड नाइट.’’

सुबह मधुकर घर से औफिस जाने के लिए निकल ही रहा था कि मम्मी की आवाज आई, ‘‘मधुकर सुनो, रंजना के घर चले  जाना. और हो सके तो शाम को मिलाने के लिए उसे घर ले आना.’’

‘‘ठीक है मम्मी, मैं चलता हूं,’’ मधुकर ने बाइक स्टार्ट की और निकल गया रंजना से मिलने.

रंजना के घर के आगे मधुकर बाइक पार्क कर ही रहा था कि सामने से रंजना आती दिखाई दी. साथ में उस की मां भी थी. रंजना के हाथ में पट्टी बंधी थी.

‘‘अरे रंजना, तुम्हें तो आराम करना चाहिए था.’’

‘‘मधुकर, मां के बढ़ावा देने पर लगा कि बुजदिल बन कर घर में पड़े रहने से तो अपना काम करना बेहतर है.’’

‘‘बहुत बढ़िया… गुड गर्ल.’’

‘‘आओ चलें. बैठो, तुम्हें होटल छोड़ देता हूं.’’

‘‘रंजना, मेरी मां तुम्हें याद कर रही थीं. वे कह रही थीं कि रंजना को शाम को घर लेते लाना… क्या तुम चलोगी मां से मिलने?’’

‘‘जरूर चलूंगी आंटी से मिलने. शाम 6 बजे तुम मुझे होटल से पिक कर लेना.’’

‘‘ओके रंजना, चलो तुम्हारी मंजिल आ गई.’’

बाइक से उतर कर रंजना ने मधुकर को बायबाय किया और होटल की सीढ़ियां चढ़ कर अंदर चली गई.

मधुकर बेचैनी से शाम का इंतजार कर रहा था. आज रंजना को मां से मिलवाना था.

मधुकर बारबार घड़ी की सूइयों को देख रहा था, जैसे ही घड़ी में 6 बजे वह उठ कर चल दिया, रंजना को पिक करने के लिए.

औफिस से निकल कर मधुकर होटल पहुंच कर बाइक पर बैठ कर इंतजार करने लगा. उसे एकएक पल भारी लग रहा था.

रंजना के आते ही सारी झुंझलाहट गायब हो गई और होंठों पर मुसकराहट तैर गई.

बाइक पर सवार हो कर दोनों मधुकर के घर पहुंच गए.

मधुकर ने रंजना को ड्राइंगरूम में बिठा कर कर मां को देखने अंदर गया. मां रसोई में आलू की कचौड़ी बना रही थीं.

‘‘मां, देखो कौन आया है आप से मिलने…’’ मां कावेरी जल्दीजल्दी हाथ पोछती हुई ड्राइंगरूम में पहुंचीं.

‘‘मां, ये रंजना है.’’

‘‘नमस्ते आंटीजी.’’

‘‘नमस्ते, कैसी हो  रंजना.’’

‘‘जी, मैं ठीक हूं.’’

मां कावेरी रंजना को ही निहारे जा रही थीं. सुंदर तीखे नाकनक्श की रंजना ने उन्हें इस कदर प्रभावित कर लिया था कि मन ही मन वे भावी पुत्रवधू के रूप में रंजना को देख रही थीं.

‘‘मां, तुम अपने हाथ की बनी गरमागरम कचौड़ियां नहीं खिलाओगी. मुझे तो बहुत भूख लगी है.’’

मां कावेरी वर्तमान में लौर्ट आई और बेटे की बात पर मुसकरा पड़ीं और उठ कर रसोई से प्लेट में कचौड़ी और चटनी रंजना के सामने रख कर खाने का आग्रह किया.

रंजना प्लेट उठा कर कचौड़ी खाने लगी. कचौड़ी वाकई बहुत स्वादिष्ठ बनी थी.

‘‘आंटी, कचौड़ी बहुत स्वादिष्ठ बनी हैं,’’ रंजना ने मां की तारीफ करते हुए कहा.

मधुकर खातेखाते बीच में बोल पड़ा, ‘‘रंजना, मां के हाथ में जादू है. वे खाना बहुत ही स्वादिष्ठ बनाती हैं.’’

‘‘धत… अब इतनी भी तारीफ मत कर मधुकर.’’

नाश्ता खत्म कर रंजना ने घड़ी की तरफ देखा तो 7 बजने वाले थे. रंजना उठ कर जाने के लिए खड़ी हुई.

‘‘मधुकर बेटा, रंजना को उस के घर तक पहुंचा आओ.’’

‘‘ठीक है मां, मैं अभी आया.’’

मां कावेरी ने सहज, सरल सी लड़की को अपने घर की शोभा बनाने की ठान ली. उन्होंने मन ही मन तय किया कि कल रंजना के घर जा कर उस के मांबाप से उस का हाथ मांग लेंगी. इस के बारे में मधुकर के पापा की भी सहमति मिल गई.

सुबह ही कावेरी ने अपने आने की सूचना रंजना की मम्मी को दे दी थी.

शाम के समय कावेरी और उन के पति के आने पर रंजना की मां ने उन्हें आदरपूर्वक ड्राइंगरूम में बिठाया.

‘‘रंजना के पापा आइए, यहां आइए, देखिए मधुकर के मम्मीपापा आ गए  हैं.’’

रंजना और मधुकर के पापा के बीच राजनीतिक उठापटक के बारे में बातें करने के साथ ही कौफी की चुसकी लेते हुए इधरउधर की बातें भी हुईं.

रंजना की मम्मी मधुकर की मां कावेरी के साथ बाहर लौन में झूले पर बैठ प्रकृति का आनंद लेते हुए कौफी पी रही थीं.

मधुकर की मां कावेरी बोलीं, ‘‘शारदाजी, मैं रंजना का हाथ अपने बेटे के लिए मांग रही हूं. आप ना मत कीजिएगा.’’

‘‘कावेरीजी, आप ने तो मेरे मन की बात कह दी. मैं भी यही सोच रही थी,’’ कहते हुए रंजना की मां शारदाजी मधुकर की मां कावेरी के गले लग गईं.

‘‘कावेरीजी चलिए, इस खुशखबरी को अंदर चल कर सब के साथ सैलिब्रेट करते हैं.’’

शारदा और कावेरी ने हंसते हुए ड्राइंगरूम में प्रवेश किया तो दोनों ने चौंक कर देखा.

‘‘क्या बात है, आप लोग किस बात पर इतना हंस रही हैं?’’ रंजना के पिता महेश बोले.

‘‘महेशजी, बात ही कुछ ऐसी है. कावेरीजी ने आप को  समधी के रूप में पसंद कर लिया है.’’

‘‘क्या… कहा… समधी… एक बार फिर से कहना?’’

‘‘हां… हां… समधी. कुछ समझे.’’

‘‘ओह… अब समझ आया आप लोगों के खिलखिलाने का राज.’’

‘‘अरे, पहले बच्चों से तो पूछ कर रजामंदी ले लो,’’ मधुकर के पाप हरीश ने मुसकरा कर कहा.

रंजना के पापा महेश सामने से बच्चों को आता देख बोले, ‘‘लो, इन का नाम लिया और ये लोग हाजिर. बहुत लंबी उम्र है इन दोनों की.’’

मधुकर ने आते ही मां से चलने के लिए कहा.

‘‘बेटा, हमें तुम से कुछ बात करनी है.”

“कहिए मां, क्या कहना चाहती हैं?’’

‘‘मधुकर, रंजना को हम ने तुम्हारे लिए मांग लिया है. तुम बताओ, तुम्हारी क्या मरजी है.’’

‘‘मां, मुझे कोई ओब्जैक्शन नहीं है. रंजना से भी पूछ लो कि वे क्या चाहती हैं?’’

मां कावेरी ने रंजना से पूछा, ‘‘क्या तुम मेरी बेटी बन कर मेरे घर आओगी.’’

रंजना ने शरमा कर गरदन झुकाए हुए हां कह दी.

यह देख रंजना के पापा महेशजी चहक उठे. अब तो कावेरीजी आप मेरी समधिन हुईं.

ऐसा सुन सभी एकसाथ हंस पड़े. तभी रंजना की मां शारदा मिठाई के साथ हाजिर हो गईं.

‘‘लीजिए कावेरीजी, पहले मिठाई खाइए,’’ और झट से एक पीस मिठाई का कावेरी के मुंह में खिला दिया.

कावेरी ने भी शारदा को मिठाई खिलाई. प्लेट हरीशजी की ओर बढ़ा दी. मधुकर ने रंजना को देखा, तो उस का चेहरा सुर्ख गुलाब सा लाल हो गया था. रंजना एक नजर मधुकर पर डाल झट से अंदर भाग गई.

‘‘शारदाजी, एक अच्छा सा सुविधाजनक दिन देख शादी की तैयारी कीजिए. चलने से पहले जरा आप रंजना को बुलाइए,’’ मधुकर की मां कावेरी ने कहा.

रंजना की मां शारदा उठीं और अंदर जा कर रंजना को बुला लाईं. कावेरी ने अपने हाथ से कंगन उतार कर रंजना को पहना दिए.

रंजना ने झुक कर उन के पैर छुए.

हरीश और कावेरी मधुकर के साथ शारदाजी और महेशजी से विदा ले कर घर आ गए.

2 महीने बाद शारदाजी के घर से आज शहनाई के स्वर गूंज रहे थे. रंजना दुलहन के रूप में सजी आईने के सामने बैठी खुद को पहचान नहीं पा रही थी. छद्म वेश हमेशा के लिए उतर चुका था.

‘‘सुनो रंजना दी…’’ रंजना की कजिन ने आवाज लगाई, ‘‘बरात आ गई…’’

रंजना मानो सपने से हकीकत में आ गई. रंजना के पैर शादी के मंडप की ओर बढ़ गए.

नई चादर: विधवा शरबती की मुसीबत

बस, इतनी सी थी उस की खूबसूरती की जमापूंजी, मगर करमू जैसे मरियल से अधेड़ के सामने तो वह सचमुच अप्सरा ही दिखती थी. आगे चल कर सब ने शरबती की सीरत भी देखी और उस की सीरत सूरत से भी चार कदम आगे निकली. अपनी मेहनतमजदूरी से उस ने गृहस्थी ऐसी चमकाई कि इलाके के लोग अपनीअपनी बीवियों के सामने उस की मिसाल पेश करने लगे.

करमू की बिरादरी के कई नौजवान इस कोशिश में थे कि करमू जैसे लंगूर के पहलू से निकल कर शरबती उन के पहलू में आ जाए. दूसरी बिरादरियों में भी ऐसे दीवानों की कमी न थी. वे शरबती से शादी तो नहीं कर सकते थे, अलबत्ता उसे रखैल बनाने के लिए हजारों रुपए लुटाने को तैयार थे.

धीरेधीरे समय गुजरता रहा और शरबती एक बच्चे की मां बन गई. लेकिन उस की देह की बनावट और कसावट पर बच्चा जनने का रत्तीभर भी फर्क नहीं दिखा. गांव के मनचलों में अभी भी उसे हासिल करने की पहले जैसे ही चाहत थी. तभी जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूट पड़ा. करमू एक दिन काम की तलाश में शहर गया और सड़क पार करते हुए एक बस की चपेट में आ गया. बस के भारीभरकम पहियों ने उस की कमजोर काया को चपाती की तरह बेल कर रख दिया था.

करमू के क्रियाकर्म के दौरान गांव के सारे मनचलों में शरबती की हमदर्दी हासिल करने की होड़ लगी रही. वह चाहती तो पति की तेरहवीं को यादगार बना सकती थी. गांव के सभी साहूकारों ने शरबती की जवानी की जमानत पर थैलियों के मुंह खोल रखे थे, मगर उस ने वफादारी कायम रखना ही पति के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि समझते हुए सबकुछ बहुत किफायत से निबटा दिया.

शरबती की पहाड़ सी विधवा जिंदगी को देखते हुए गांव के बुजुर्गों ने किसी का हाथ थाम लेने की सलाह दी, मगर उस ने किसी की भी बात पर कान न देते हुए कहा, ‘‘मेरा मर्द चला गया तो क्या, वह बेटे का सहारा तो दे ही गया है. बेटे को पालनेपोसने के बहाने ही जिंदगी कट जाएगी.’’

वक्त का परिंदा फिर अपनी रफ्तार से उड़ चला. शरबती का बेटा गबरू अब गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाने लगा था और शरबती मनचलों से खुद को बचाते हुए उस के बेहतर भविष्य के लिए मेहनतमजदूरी करने में जुटी थी. उन्हीं दिनों उस इलाके में परिवार नियोजन के लिए नसबंदी कैंप लगा. टारगेट पूरा न हो सकने के चलते जिला प्रशासन ने आपरेशन कराने वाले को एक एकड़ खेतीबारी लायक जमीन देने की पेशकश की.

एक एकड़ जमीन मिलने की बात शरबती के कानों में भी पड़ी. उसे गबरू का भविष्य संवारने का यह अच्छा मौका दिखा. ज्यादा पूछताछ करती तो किस से करती. जिस से भी जरा सा बोल देती वही गले पड़ने लगता. जो बोलते देखता वह बदनाम करने की धमकी देता, इसलिए निश्चित दिन वह कैंप में ही जा पहुंची. शरबती का भोलापन देख कर कैंप के अफसर हंसे.

कैंप इंचार्ज ने कहा, ‘‘एक विधवा से देश की आबादी बढ़ने का खतरा कैसे हो सकता है…’’

कैंप इंचार्ज का टका सा जवाब सुन कर गबरू के भविष्य को ले कर देखे गए शरबती के सारे सपने बिखर गए. बाहर जाने के लिए उस के पैर नहीं उठे तो वह सिर पकड़ कर वहीं बैठ गई.

तभी एक अधेड़ कैंप इंचार्ज के पास आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लोग मेरा आपरेशन नहीं कर रहे हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कहते हैं कि मैं अपात्र हूं.’’

‘‘क्या नाम है तुम्हारा? किस गांव में रहते हो?’’

‘‘सर, मेरा नाम केदार है. मैं टमका खेड़ा गांव में रहता हूं.’’

‘‘कैंप इंचार्ज ने टैलीफोन पर एक नंबर मिलाया और उस अधेड़ के बारे में पूछताछ करने लगा, फिर उस ने केदार से पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि तुम्हारी बीवी पिछले महीने मर चुकी है?’’

‘‘हां, सर.’’

‘‘फिर तुम्हें आपरेशन की क्या जरूरत है. बेवकूफ समझते हो हम को. चलो भागो.’’

केदार सिर झुका कर वहां से चल पड़ा. शरबती भी उस के पीछेपीछे बाहर निकल आई. उस के करीब जा कर शरबती ने धीरे से पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’

‘‘एक लड़का है. सोचा था, एक एकड़ खेत मिल गया तो उस की जिंदगी ठीकठाक गुजर जाएगी.’’

‘‘मेरा भी एक लड़का है. मुझे भी मना कर दिया गया… ऐसा करो, तुम एक नई चादर ले आओ.’’

केदार ने एक नजर उसे देखा, फिर वहीं ठहरने को कह कर वह कसबे के बाजार चला गया और वहां से एक नई चादर, थोड़ा सा सिंदूर, हरी चूडि़यां व बिछिया वगैरह ले आया.

थोड़ी देर बाद वे दोनों कैंप इंचार्ज के पास खड़े थे. केदार ने कहा, ‘‘हम लोग भी आपरेशन कराना चाहते हैं साहब.’’

अफसर ने दोनों पर एक गहरी नजर डालते हुए कहा, ‘‘मेरा खयाल है कि अभी कुछ घंटे पहले मैं ने तुम्हें कुछ समझाया था.’’

‘‘साहब, अब केदार ने मुझ पर नई चादर डाल दी है,’’ शरबती ने शरमाते हुए कहा.

‘‘नई चादर…?’’ कैंप इंचार्ज ने न समझने वाले अंदाज में पास में ही बैठी एक जनप्रतिनिधि दीपा की ओर देखा.

‘‘इस इलाके में किसी विधवा या छोड़ी गई औरत के साथ शादी करने के लिए उस पर नई चादर डाली जाती है. कहींकहीं इसे धरौना करना या घर बिठाना भी कहा जाता है,’’ उस जनप्रतिनिधि दीपा ने बताया.

‘‘ओह…’’ कैंप इंचार्ज ने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया और कहा, ‘‘इस आदमी को ले जाओ. अब यह अपात्र नहीं है. इस की नसबंदी करवा दें… हां, तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘शरबती.’’

‘‘तुम कल फिर यहां आना. कल दूरबीन विधि से तुम्हारा आपरेशन हो जाएगा.’’

‘‘लेकिन साहब, मुझे भी एक एकड़ जमीन मिलेगी न?’’

‘‘हां… हां, जरूर मिलेगी. हम तुम्हारे लिए तीसरी चादर ओढ़ने की गुंजाइश कतई नहीं छोड़ेंगे.’’

शरबती नमस्ते कह कर खुश होते हुए कैंप से बाहर निकल गई तो उस जनप्रतिनिधि ने कहा, ‘‘साहब, आप ने एक मामूली औरत के लिए कायदा ही बदल दिया.’’

‘‘दीपाजी, यह सवाल तो कायदेकानून का नहीं, आबादी रोकने का है. ऐसी औरतें नई चादरें ओढ़ओढ़ कर हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर देंगी. मैं आज ही ऐसी औरतों को तलाशने का काम शुरू कराता हूं,’’ उन्होंने फौरन मातहतों को फोन पर निर्देश देने शुरू कर दिए. दूसरे दिन शरबती कैंप में पहुंची तो वहां मौजूद कई दूसरी औरतों के साथ उस का भी दूरबीन विधि से नसबंदी आपरेशन हो गया.

कैंप की एंबुलैंस पर सवार होते समय उसे केदार मिला और बोला, ‘‘शरबती, मेरे घर चलो. तुम्हें कुछ दिन देखभाल की जरूरत होगी.’’

‘‘मेरी देखभाल के लिए गबरू है न.’’

‘‘मेरा भी तो फर्ज बनता है. अब तो हम लिखित में मियांबीवी हैं.’’

‘‘लिखी हुई बातें तो दफ्तरों में पड़ी रहती हैं.’’

‘‘तुम्हारा अगर यही रवैया रहा तो तुम एक बीघा जमीन भी नहीं पाओगी.’’

‘‘नुकसान तुम्हारा भी बराबर होगा.’’

‘‘मैं तुम्हें ऐसे ही छोड़ने वाला नहीं.’’

‘‘छोड़ने की बात तो पकड़ लेने के बाद की जाती है.’’

शरबती का जवाब सुन कर केदार दांत पीस कर रह गया. कुछ साल बाद गबरू प्राइमरी जमात पास कर के कसबे में पढ़ने जाने लगा. एक दिन उस के साथ उस का सहपाठी परमू उस के घर आया.

परमू के मैलेकुचैले कपड़े और उलझे रूखे बाल देख कर शरबती ने पूछा, ‘‘तुम्हारी मां क्या करती रहती है परमू?’’

‘‘मेरी मां नहीं है,’’ परमू ने मायूसी से बताया.

‘‘तभी तो मैं कहूं… खैर, अब तो तुम खुद बड़े हो चुके हो… नहाना, कपड़े धोना कर सकते हो.’’

परमू टुकुरटुकुर शरबती की ओर देखता रहा. जवाब गबरू ने दिया, ‘‘मां, घर का सारा काम परमू को ही करना होता है. इस के बापू शराब भी पीते हैं.’’

‘‘अच्छा शराब भी पीते हैं. क्या नाम है तुम्हारे बापू का?’’

‘‘केदार.’’

‘‘कहां रहते हो तुम?’’

‘‘टमका खेड़ा.’’

शरबती के कलेजे पर घूंसा सा लगा. उस ने गबरू के साथ परमू को भी नहलाया, कपड़े धोए, प्यार से खाना खिलाया और घर जाते समय 2 लोगों का खाना बांधते हुए कहा, ‘‘परमू बेटा, आतेजाते रहा करो गबरू के साथ.’’

‘‘हां मां, मैं भी यही कहता हूं. मेरे पास बापू नहीं हैं, तो मैं जाता हूं कि नहीं इस के घर.’’

‘‘अच्छा, इस के बापू तुम्हें अच्छे लगते हैं?’’

‘‘जब शराब नहीं पीते तब… मुझे प्यार भी खूब करते हैं.’’

‘‘अगली बार उन से मेरा नाम ले कर शराब छोड़ने को कहना.’’ इसी के साथ ही परमू और गबरू के हाथों दोनों घरों के बीच पुल तैयार होने लगा. पहले खानेपीने की चीजें आईंगईं, फिर कपड़े और रोजमर्रा की दूसरी चीजें भी आनेजाने लगीं. फिर एक दिन केदार खुद शरबती के घर जा पहुंचा.

‘‘तुम… तुम यहां कैसे?’’ शरबती उसे अपने घर आया देख हक्कीबक्की रह गई.

‘‘मैं तुम्हें यह बताने आया हूं कि मैं ने तुम्हारा संदेश मिलने से अब तक शराब छुई भी नहीं है.’’

‘‘तो इस से तो परमू का भविष्य संवरेगा.’’

‘‘मैं अपना भविष्य संवारने आया हूं… मैं ने तुम्हें भुलाने के लिए ही शराब पीनी शुरू की थी. तुम्हें पाने के लिए ही शराब छोड़ी है शरबती,’’ कह कर केदार ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘अरे… अरे, क्या करते हो. बेटा गबरू आ जाएगा.’’

‘‘वह शाम से पहले नहीं आएगा. आज मैं तुम्हारा जवाब ले कर ही जाऊंगा शरबती.’’

‘‘बच्चे बड़े हो चुके हैं… समझाना मुश्किल हो जाएगा उन्हें.’’

‘‘बच्चे समझदार भी हैं. मैं उन्हें पूरी बात बता चुका हूं.’’

‘‘तुम बहुत चालाक हो. कमजोर रग पकड़ते हो.’’

‘‘मैं ने पहले ही कह दिया था कि मैं तुम्हें छोड़ूंगा नहीं,’’ केदार ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा. शरबती की आंखें खुद ब खुद बंद हो गईं. उस दिन के बाद केदार अकसर परमू को लेने के बहाने शरबती के घर आ जाता. गबरू की जिद पर वह परमू के घर भी आनेजाने लगी. जब दोनों रात में भी एकदूसरे के घर में रुकने लगे तो दोनों गांवों के लोग जान गए कि केदार ने शरबती पर नई चादर डाल दी है.

परमू, गबरू और केदार बहुत खुश थे. खुश तो शरबती भी कम नहीं थी, मगर उसे कभीकभी बहुत अचंभा होता था कि वह अपने पहले पति को भूल कर केदार की पकड़ में आ कैसे गई?

एक दिन अपने लिए : आभा किसे पहचान नहीं पाई

‘कल संडे है. सोनू की भी छुट्टी है. अलार्म बंद कर के सोती हूं,’ सोचते हुए आभा मोबाइल की तरफ बढ़ी, मगर फिर एक बार व्हाट्सऐप चैक कर लें सोच उस ने हरे से सम्मोहक आइकोन पर क्लिक कर दिया. स्क्रोल करतेकरते एक अनजान नंबर से आए मैसेज पर अंगूठा रुक गया.

‘‘कैसी हो आभा?’’ पढ़ कर एकबार को तो आभा समझ नहीं पाई कि किस का मैसेज है, फिर डीपी पर टैब किया. तसवीर कुछ जानीपहचानी सी लगी.

‘‘अरे, यह तो अनुराग है,’’ आभा के दिमाग को पहचानने में ज्यादा मशकक्त नहीं करनी पड़ी.

‘‘फाइन,’’ लिख कर आभा ने 2 अंगूठे वाली इमोजी के साथ रिप्लाई सैंड कर दी.

‘‘क्या हुआ? किस का मैसेज था?’’ मां ने अचानक आ कर पूछा तो आभा को लगा मानो चोरी पकड़ी गई हो.

‘‘यों ही…कोई अननोन नंबर था,’’ कह कर आभा ने बात टाल दी.

‘‘अच्छा सुनो सोनू को सुबह 4 बजे जगा देना. उसे अपने फाइनल ऐग्जाम के प्रोजैक्ट पर काम करना है. और हां 1 कप चाय भी बना देना ताकि उस की नींद खुल जाए…’’ मां ने उसे आदेश सा दिया और फिर सोने चली गईं.

अलार्म बंद करने को बढ़ता आभा का हाथ रुक गया. उस ने मोबाइल को चार्जिंग में लगा दिया ताकि कहीं बैटरी लो होने के कारण वह स्विच औफ न हो जाए वरना नींद खुलेगी और फिर 4 बजे नहीं जगाया तो सोनू नाराज हो कर पूरा दिन मुंह फुलाए घूमता रहेगा. मां नाराज होंगी सो अलग. यह और बात है कि इस चक्कर में उसे रातभर नींद नहीं आई. वैसे नींद न आने का एक कारण अनुराग का मैसेज भी था.

आभा रातभर अनुराग के बारे में ही सोचती रही. अनुराग उस के कालेज का दोस्त था. एकदम पक्के वाला… शायद कुछ और समय दोनों ने साथ बिताया होता तो यह दोस्ती प्यार में बदल सकती थी, मगर कालेज के बाद अनुराग सरकारी नौकरी की तैयारी करने के लिए कोचिंग लेने दिल्ली चला गया. न इकरार का मौका मिला और न ही इजहार का… एक कसक थी जो मन में दबी की दबी ही रह गई.

इसी बीच आभा के पिता की एक ऐक्सीडैंट में मृत्यु हो गई और अपनी मां के साथसाथ छोटे भाई सोनू की जिम्मेदारी भी उस पर आ गई. पिता के जाने के बाद मां अकसर बीमार रहने लगी थीं. सोनू उन दिनों छठी कक्षा की परीक्षा देने वाला था.

आभा का अपने पिता की जगह उन के विभाग में नौकरी मिल गई. वह जिंदगी की गुत्थी सुलझाने के फेर में उलझती चली गई. 10 साल बाद आज अचानक अनुराग के मैसेज ने उस के दिल में खलबली सी मचा दी थी.

‘कल दिन में बात करूंगी,’ सोचते हुए आखिर उसे नींद आ ही गई.

घरबाहर संभालती आभा हर सुबह 5 बजे बिस्तर छोड़ देती और फिर यह उसे रात 11 बजे ही नसीब होता. औफिस जाने से पहले नाश्ते से ले कर लंच तक का काम उसे निबटाना होता.

9 बजे तक वह भी औफिस के लिए निकल लेती, क्योंकि 10 बजे बायोमैट्रिक प्रणाली से अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी होती है. उस के बाद कब शाम के 6 बज जाते हैं, पता ही नहीं चलता. घर लौटने पर 1 कप गरम चाय का प्याला जरूर उसे मां के हाथ का मिलता जिसे पी कर वह फिर से रिचार्ज हो कर अपने मोर्चे पर तैनात होने यानी रसोई में जाने के लिए कमर कस लेती.

जैसेतैसे रात के 11 बजे तक कंप्यूटर की तरह खुद को शटडाउन दे कर चार्जिंग में लगा देती है ताकि अगले दिन के लिए बैटरी पूरी तरह चार्ज रहे. यही है उस की दिनचर्या… कभीकभार मेहमानों के आ जाने या मां की बीमारी बढ़ जाने आदि पर यह और भी ज्यादा हैक्टिक हो जाती है. फिर तो बस शरीर मानो रोबोट ही बन जाता है. अंतिम बार खुद के लिए कब कुछ लमहे निकाले थे, याद ही नहीं पड़ता…

बस, इसी तरह मशीन सी चलती जिंदगी में अचानक अनुराग के मैसेज ने जैसे लूब्रिकैंट का काम किया.

सुबह के लगभग 11 बजे जब आभा औफिस के रूटीन काम से थोड़ा फ्री हुई तो उसे अनुराग का खयाल आया. मोबाइल में उस के रात वाले मैसेज को ढूंढ़ कर फोन नंबर एक कागज पर लिखा और डायल कर दिया. जैसे ही फोन के दूसरी तरफ घंटी बजी, उस के दिल की धड़कनें भी तेज हो गईं.

‘‘कैसी हो आभा?’’ स्नेह से भरी आवाज सुन कर आभा खिल उठी.

‘‘थोड़ी व्यस्त… थोड़ी मस्त…’’ अपना कालेज के जमाने वाला डायलौग मार कर वह खिलखिला पड़ी. अनुराग ने भी उस की हंसी में भरपूर साथ दिया. दोनों काफी देर तक इधरउधर की बातें करते रहे. आभा के पिता की मृत्यु की खबर सुन कर अनुराग उस के प्रति सहानुभूति से भर उठा. आभा ने भी उस के परिवार के बारे में जानकारी ली और फिर आगे भी संपर्क में रहने का वादा करने के साथ फोन रख दिया.

अनुराग से बात करने के बाद आभा को लगा कि जिस तरह मशीनों में तकनीकी खामियां आती हैं और उन्हें मरम्मत की जरूरत पड़ती है ठीक उसी तरह उस के मन को भी मैकेनिक की जरूरत थी. तभी तो आज पुराने दोस्त से बात कर के उस का मन भी कितना हलका हो गया. ठीक वैसे ही जैसे ओवरहालिंग के बाद मशीनें स्मूद हो जाती हैं

लगभग रोज आभा और अनुराग की फोन पर बात होने लगी. वक्त और संपर्क की खाद और पानी मिलने से यह रिश्ता भी पुष्पितपल्लवित होने लगा. कभीकभी आभा के मन में अनुराग को पाने की ख्वाहिश बलवती होने लगती, मगर उस की पत्नी का खयाल कर के वह अपने मन को समझा लेती थी.

‘‘सुनो, औफिशियल काम से तुम्हारे शहर में आया हूं… होटल राजहंस… शाम को मिल सकती हो?’’ अनुराग के अचानक आए इस प्रस्ताव से आभा चौंक गई.

‘‘हां, मगर… किसी ने देख लिया तो… बिना मतलब बवाल हो जाएगा… किसकिस को सफाई दूंगी… तुम तो जानते हो, यह शहर बहुत बड़ा नहीं है…’’ आभा ने कह तो दिया मगर उस के दिल और दिमाग में जंग जारी थी. मन ही मन वह भी अनुराग का साथ चाहती थी.

‘‘क्या तुम रह पाओगी बिना मिले जबकि तुम्हें पता है कि मैं तुम से कुछ ही मिनट्स की दूरी पर हूं,’’ अनुराग ने प्यार से कहा.

‘‘अच्छा ठीक है… मैं शाम को 5 बजे आती हूं?’’ आखिर आभा का दिल उस के दिमाग से जंग जीत ही गया.

इतने बरसों बाद प्रिय को सामने देख कर आभा भावुक हो गई और अनुराग की बांहों में समा गई. अनुराग ने भी उसे अपने घेरे में कस लिया और फिर उस के माथे पर एक चुंबन अंकित कर दिया.

दोनों लगभग घंटेभर तक साथ रहे. कौफी पी और बहुत सी बातें कीं. अनुराग की ट्रेन शाम 7 बजे की थी, इसलिए आभा ने उस से फिर मिलने का वादा करते हुए विदा ली.

इसी तरह 6 महीने बीत गए. फोन पर बात और वीडियो चैट करतेकरते दोनों काफी नजदीक आ गए थे. कभीकभी दोनों बहुत ही अंतरंग बातें भी कर लेते थे, जिन्हें सुन कर आभा के शरीर में झनझनाहट सी होने लगती थी.

एक रोज जब अनुराग की पत्नी अपने मायके गई हुई थी तब वह आभा के साथ देर रात वीडियो पर चैट कर रहा था.

‘‘अनुराग, अपनी शर्ट उतार दो,’’ अचानक आभा ने कहा.

अनुराग ने एक पल सोचा और फिर शर्ट उतार दी. उस के बाद पाजामा भी.

‘‘अब तुम्हारी बारी है…’’ अनुराग ने कहा तो आभा का चेहरा शर्म से लाल हो गया. उस ने तुरंत चैट बंद कर दी मगर अब आभा का युवा मन अनुराग की कामना और भी तीव्रता से करने लगा. सोनू और मां की जिम्मेदारियों के कारण वह अपनी शादी के बारे में सोच नहीं पा रही थी. मगर उस की अपनी भी कुछ कामनाएं थीं जो रहरह कर सिर उठाती थीं.

‘काश, उसे सिर्फ एक दिन भी अनुराग के साथ बिताने को मिल जाए. इस एक दिन में वह अपनी पूरी जिंदगी जी लेगी. अनुराग का प्रेम अपने मनमस्तिष्क में समेट लेगी,’ आभा कल्पना करने लगी. वह ऐसी संभावनाएं तलाशने लगी कि उसे यह मौका हासिल हो सके. वह नहीं जानती थी कि कल क्या होगा, मगर एक रात वह अपनी मरजी से जीना चाहती थी.

उस ने एक दिन डरतेडरते अपनी यह कल्पना अनुराग के साथ साझा की तो वह भी राजी हो गया. तय हुआ कि दोनों दूर के किसी तीसरे शहर में मिलेंगे.

अनुराग के लिए तो यह ज्यादा मुश्किल नहीं था, लेकिन आभा का बिना कारण बाहर जाना संभव नहीं था. मगर तकदीर भी शायद आभा पर मेहरबान होना चाह रही थी. अत: उसे एक दिन उस के लिए देना चाह रही थी ताकि वह अपनी कल्पनाओं में रंग भर सके.

आभा के औफिस में वार्षिक खेलकूद प्रतियोगिताओं का आयोजन हुआ. आभा ने शतरंज में भाग लिया. अधिक महिला प्रतिभागी न होने के कारण उस का चयन राज्य स्तर पर विभागीय प्रतिभागी के रूप में हो गया. इस प्रतियोगिता का फाइनल राउंड जयपुर में होना था, जिस में भाग लेने के लिए आभा को 2 दिनों के लिए जयपुर जाना था.

आभा ने टूरनामैंट की डेट फिक्स होते ही अनुराग को बता दिया. हालांकि आभा सहित सभी प्रतिभागियों के ठहरने की व्यवस्था विभाग के गैस्ट हाउस में की गई थी, मगर आभा ने अपनी सहेली के घर रुकने की खास परमिशन अपने लीडर से ले ली.

आभा अपने साथियों के साथ बस से सुबह 6 बजे जयपुर पहुंच गई. अनुराग की ट्रेन 10 बजे आने वाली थी. आभा ठीक 10 बजे रेलवे स्टेशन पहुंच गई. फिर अनुराग के साथ एक होटल में पतिपत्नी के रूप में चैकइन किया. थोड़ी देर बातें करने के बाद आभा ने उस से विदा ली, क्योंकि दोपहर बाद उस का मैच था. हालांकि दोनों ही अब दूरी बरदाश्त नहीं कर पा रहे थे, मगर जिस बहाने ने उन्हें मिलाया था उसे निभाना भी तो जरूरी था वरना पूरी टीम को उस पर शक हो जाता.

आभा ने बेमन से अपना मैच खेला और पहले ही राउंड में बाहर हो गई. उस ने टीम लीडर से तबीयत खराब होने का बहाना बनाया और 2 ही घंटों में वापस होटल आ गई. अनुराग ने उसे देखते ही बांहों में भर लिया और उस के चेहरे पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. आभा ने उसे कंट्रोल किया. वह इन लमहों को चाय की चुसकियों की तरह घूंटघूंट पी कर जीना चाहती थी. आभा की जिद पर दोनों मौल में घूमने चले गए. रात 9 बजे डिनर करने के बाद जब वे रूम में आए तो अनुराग ने उस की एक न सुनी और सीधे बिस्तर पर खींच लिया और उस पर बरस पड़ा. आभा प्यार की इस पहली बरसात में पूरी तरह भीग गई.

उस के बाद रातभर दोनों जागते रहे और रिमझिम फुहारों का आनंद लेते रहे. सुबह दोनों ने एकसाथ शावर लिया और नहातेनहाते एक बार फिर प्यार के दरिया में तैरने लगे. आभा पूरी तरह तृप्त हो चुकी थी. आज उसे लगा मानो उस की हर इच्छा पूरी हो गई. अब उसे अधिक की चाह नहीं थी.

इसी बीच आभा के टीम लीडर का फोन आ गया. उन्हें 10 बजे रवाना होना था. आभा ने अनुराग के होंठों को एक बार भरपूर चूसा और दोनों होटल से बाहर आ गए. अनुराग ने उस के लिए कैब बुला ली थी.

‘‘कैसा रहा तुम्हारा यह अनुभव?’’ अनुराग ने शरारत से पूछा.

‘‘मैं ने आज जाना है कि कभीकभी फूलों को तोड़ कर खुशबू हवा में बिखेर देनी चाहिए… कभीकभी किनारों को तोड़ कर बहने में कोई बुराई… खुद के लिए चाहने में कुछ भी अपराध नहीं…बेशक समाज इसे नैतिकता के तराजू में तोलता है, मगर मैं ने अपने मन की सुनी और मुझे उसी का पलड़ा भारी लगा,’’ आभा ने अनुराग का हाथ थाम कर दार्शनिक की तरह कहा.

अनुराग उस की बात को कितना समझा, कितना नहीं यह मालूम नहीं, मगर आभा आज एक दिन अपने लिए जी कर बेहद खुश थी. अब वह एकबार फिर से तैयार थी. बाकी सब के लिए जीने की खातिर.

अपना कौन: मधुलिका आंटी का अपनापन

मम्मीपापा अचानक ही देहरादून छोड़ कर दिल्ली आ बसे. यहां का स्कूल और सहेलियां कशिश को बहुत पसंद आईं. देहरादून पिछली कक्षा की किताबों की तरह पीछे छूट गया. बस, मधुलिका आंटी की याद गाहेबगाहे आ जाती थी.

‘‘देहरादून से सभी लोग आप से मिलने आते हैं. बस, मधुलिका आंटी नहीं आतीं,’’ कशिश ने एक रोज हसरत से कहा.

‘‘मधुलिका आंटी डाक्टर हैं और देवेन अंकल वकील. दोनों ही अपनी प्रैक्टिस छोड़़ कर कैसे आ सकते हैं?’’ मां ने बताया.

मां और भी कुछ कहना चाह रही थीं लेकिन उस से पहले ही पापा ने कशिश को पानी पिलाने को कहा. वह पानी ले कर आई तो सुना कि पापा कह रहे थे, ‘कशिश की यह बात तुम मधु को कभी मत बताना.’

कशिश को समझ में नहीं आया कि इस में न बताने वाली क्या बात थी.

जल्दी ही उम्र का वह दौर शुरू हो गया जिस में किसी को खुद की ही खबर नहीं रहती तो मधु आंटी को कौन याद करता.

मम्मीपापा न जाने कैसे उस के मन की बात समझ लेते थे और उस के कुछ कहने से पहले ही उस की मनपसंद चीज उसे मिल जाती थी. उस की सहेलियां उस की तकदीर से रश्क किया करतीं. कशिश का मेडिकल कालिज में अंतिम वर्ष था. मम्मीपापा दोनों चाहते थे कि वह अच्छे नंबरों से पास हो. वह भी जीजान से पढ़ाई में जुटी हुई थी कि दादी के मरने की खबर मिली. दादादादी अपने सब से छोटे बेटे सुहास और बहू दीपा के साथ चंडीगढ़ में रहते थे. पापा के अन्य भाईबहन भी वहां पहुंच चुके थे. घर में काफी भीड़ थी. दादी के अंतिम संस्कार के बाद दादाजी ने कहा, ‘‘शांति बेटी, तुम्हारी मां के जो जेवर हैं, मैं चाहता हूं कि वह तुम सब आपस में बांट लो. तू सब से बड़ी है इसलिए सब के जाने से पहले तू बराबर का बंटवारा कर दे.’’

रात को जब कशिश दादाजी के लिए दूध ले कर गई तो दरवाजे के बाहर ही अपना नाम सुन कर ठिठक गई. दादाजी शांति बूआ से पूछ रहे थे, ‘‘तुझे कशिश से चिढ़ क्यों है. वह तो बहुत सलीके वाली और प्यारी बच्ची है.’’

‘‘मैं कशिश में कोई कमी नहीं निकाल रही पिताजी. मैं तो बस, यही कह रही हूं कि मां के गहने हमारी पुश्तैनी धरोहर हैं जो सिर्फ  मां के अपने बच्चों को मिलने चाहिए, किसी दूसरे की औलाद को नहीं. मां के जो भी जेवर अभी विभा भाभी को मिलेंगे वह देरसवेर देंगी तो कशिश को ही, यह नहीं होना चाहिए.’’ शांति बूआ समझाने के स्वर में बोलीं.

कशिश इस के आगे कुछ नहीं सुन सकी. ‘दूसरे की औलाद’ शब्द हथौड़े की तरह उस के दिलोदिमाग पर प्रहार कर रहा था. उस ने चुपचाप लौट कर दूध का गिलास नौकर के हाथ दादाजी को भिजवा दिया और सोचने लगी कि वह किसी दूसरे यानी किस की औलाद है.

दूसरी जगह और इतने लोगों के बीच मम्मीपापा से कुछ पूछना तो मुनासिब नहीं था. तभी दीपा चाची उसे ढूंढ़ती हुई आईं और बरामदे में पड़ी कुरसी पर निढाल सी लेटी कशिश को देख कर बोलीं, ‘‘थक गई न. जा, सो जा अब.’’

तभी कशिश के दिमाग में बिजली सी कौंधी. क्यों न दीपा चाची से पूछा जाए. दोनों की उम्र में ज्यादा फर्क न होने के कारण उस की दीपा चाची से बहुत बनती थी और पिछले 3-4 रोज से एकसाथ काम करते हुए दोनों में दोस्ती सी हो गई थी.

‘‘आप से कुछ पूछना है चाची, बताएंगी ?’’ उस ने निवेदन करने के अंदाज में कहा.

‘‘जरूर,’’ दीपा ने प्यार से उस का सिर सहलाया.

‘‘मैं कौन हूं?’’

कशिश के इस प्रश्न से दीपा चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘मेरी प्यारी भतीजी, कशिश.’’

‘‘मगर मैं आप की असली भतीजी तो नहीं हूं न, क्योंकि मैं डा. विकास और डा. विभा की नहीं किसी दूसरे की औलाद…’’

‘‘यह तू क्या कह रही है?’’ दीपा ने बात काटी.

‘‘जो भी कह रही हूं  चाची, सही कह रही हूं’’ और कशिश ने शांति बूआ और दादाजी के बीच हुई बातचीत दोहरा दी.

दीपा झल्ला कर बोली, ‘‘तुम्हारी शांति बूआ को भी बगैर बवाल मचाए खाना नहीं पचता…’’

‘‘उन्होंने कोई बवाल नहीं मचाया, चाची, सिर्फ सचाई बताई है पर अगर आप मुझे यह नहीं बताएंगी कि मैं किस की औलाद हूं तो बवाल मच सकता है.’’

‘‘मैं जो बताऊंगी उस पर तू यकीन करेगी?’’

अगर यकीन नहीं करना होता तो आप से पूछती ही क्यों? असलियत जानने के बाद मैं मम्मीपापा से कुछ नहीं पूछूंगी और कम से कम यहां तो कतई नहीं.

‘‘कभी भी और कहीं भी नहीं पूछना बेटे, वरना वे बहुत दुखी होंगे कि शायद उन की परवरिश में ही कोई कमी रह गई. तुम डा. मधुलिका और देंवेंद्र नाथ वर्मा की बेटी हो. विभा भाभी और मधुलिका बचपन की सहेलियां हैं. यह स्पष्ट होने पर कि बचपन में हुई किसी दुर्घटना के चलते विभा भाभी कभी मां नहीं बन सकतीं, मधुलिका ने उन की गोद में तुम्हें डाल दिया था. विभा भाभी और विकास भाई साहब ने तुम्हें शायद ही कभी शिकायत का मौका दिया हो.’’

कशिश ने सहमति में सिर हिलाया.

‘‘मम्मीपापा से मुझे कोई शिकायत नहीं है लेकिन मधु आंटी ने मुझे क्यों और कैसे दे दिया?’’

‘‘दोस्ती की खातिर.’’

‘‘दोस्ती ममता से ज्यादा…’’

तभी अंदर से बहुत उत्तेजित स्वर सुनाई देने लगे. सब से ऊंचा स्वर विकास का था.

‘‘मेरे लिए मेरे जीवन की सब से अमूल्य निधि मेरी बेटी है, जिस के लिए मैं देहरादून से सरकारी नौकरी छोड़ कर चला आया. उस के लिए क्या चंद गहने नहीं छोड़ सकता? मैं कल सवेरे यानी आप के बंटवारे से पहले ही यहां से चला जाऊंगा’’

‘‘लेकिन मां की उठावनी?’’ शांति बूआ ने पूछा.

‘‘उस के लिए आप सब हैं न. मां की अंत समय में सेवा कर ली, मेरे लिए यही बहुत है,’’ विकास ने कड़वे स्वर में कहा, ‘‘जो लोग मेरी बेटी को पराया समझते हों उन के साथ रहना मुझे गवारा नहीं है.’’

दीपा ने कशिश की ओर देखा और उस ने चुपचाप सिर झुका लिया.

‘‘यह अब नहीं रुकेगा. रोक कर शांति तुम बात मत बढ़ाओ,’’ दादाजी का स्वर उभरा. उसी समय विकास कशिश को पुकारता हुआ वहां आया और उसे इस तरह बांहों में भर कर अपने कमरे में ले गया जैसे कोई कशिश को उस से छीन न ले, ‘‘कल हम दिल्ली लौट रहे हैं कशिश, सो अब तुम सो जाओ. सुबह जल्दी उठना होगा,’’ विकास ने कहा.

‘‘जी, पापा,’’ कशिश ने कहा और चुपचाप बिस्तर पर लेट गई. विकास ने बत्ती बुझा दी.

‘‘विकास,’’ कुछ देर के बाद विभा का स्वर उभरा, ‘‘मुझे लगता है इस तरह लौट कर तुम सब की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हो.’’

‘‘शांति बहनजी ने जिस बेदर्दी से मेरी भावनाओं को कुचला है न उस के मुकाबले में मेरी ठेस तो बहुत मामूली है,’’ विकास ने तल्खी से कहा, ‘‘जो भी मेरी बेटी को नकारेगा उसे मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगा… चाहे वह कोई भी हो… यहां तक कि तुम भी.’’

अगली सुबह उन्हें विदा करने को केवल दादाजी, सुहास और दीपा ही थे और सब शायद अप्रिय स्थिति से बचने के लिए नींद का बहाना कर के उठे ही नहीं.

घर आ कर विभा और विकास अपने काम में व्यस्त हो गए और कशिश पढ़ाईर् में. हालांकि कशिश को लग रहा था कि चंडीगढ़ से लौटने के बाद पापा उसे ले कर कुछ ज्यादा ही पजेसिव हो गए हैं लेकिन वह अपने असली मातापिता से मिलने और यह जानने को बेचैन थी कि उन्होंने उसे अपनी गोद से उठा कर दूसरे की गोद में क्यों डाल दिया? उस ने मम्मी की डायरी में से मधुलिका मौसी का फोन नंबर और पता तो नोट कर लिया था मगर वह खत या फोन के जरिए नहीं, स्वयं मिल कर यह बात पूछना चाहती थी.

परीक्षा सिर पर थी और पढ़ाई में दिल नहीं लग रहा था. कशिश यही सोचती रहती थी कि क्या बहाना बना कर देहरादून जाए. समीरा उस की खास सहेली थी. उस से कशिश की बेचैनी छिप नहीं सकी. उस के पूछने पर कशिश को बताना ही पड़ा.

‘‘समझ में नहीं आ रहा कि देहरादून किस बहाने से जाऊं.’’

‘‘तू भी अजब भुलक्कड़ है. कई बार तो बता चुकी हूं कि सालाना परीक्षा खत्म होते ही मेरे बड़े भाई की शादी है और बरात देहरादून जाएगी. मैं तुझे बरात में ले चलती हूं. वहां जा कर तू जहां कहेगी तुझे पहुंचवाने का इंतजाम करवा दूंगी. सो अब सारी चिंता छोड़ कर पढ़ाई कर.’’

समीरा की बात से कशिश को कुछ राहत मिली. और फिर शाम को समीरा उस के मम्मीपापा से मिल कर बरात में चलने की स्वीकृति लेने उस के घर आ गई.

‘‘बरात में जाने के बारे में सोचने के बजाय फिलहाल तो तुम दोनों पढ़ाई में ध्यान लगाओ,’’ पापा ने समीरा की बात सुन कर बड़े प्यार से दोनों का सिर सहलाया.

‘‘अंतिम साल की परीक्षा है. इस के नतीजे पर तुम्हारा पूरा भविष्य निर्भर करता है. कशिश को तो मैं कार्डियोलोजी में महारत हासिल करने के लिए अमेरिका भेज रहा हूं. तुम्हारा क्या इरादा है, समीरा?’’

‘‘अगर मैं भी कार्डियोलोजिस्ट बन गई अंकल, तो मुझ में और कशिश में दोस्ती के  बजाय स्पर्धा हो जाएगी और हमारी दोस्ती खत्म हो ऐसा रिस्क मुझे नहीं लेना है. सो कुछ और सोचना पडे़गा मगर सोचने को फिलहाल आप ने मना कर दिया है,’’ समीरा हंसी.

समीरा को विदा कर के कशिश जब अंदर आई तो उस ने अपने पापा को यह कहते सुना, ‘‘मैं नहीं चाहता विभा कि कशिश देहरादून जाए और मधुदेवेन से मिले. इसलिए समीरा के भाई की शादी से पहले ही कशिश को ले कर कहीं और घूमने चलते हैं.’’

‘‘कैसे जाओगे विकास? इस बार आई.एम.ए. का वार्षिक अधिवेशन तुम्हारी अध्यक्षता में होगा और वह उन्हीं दिनों में है.’’

कशिश लपक कर कमरे में आई और कहने लगी, ‘‘मेरी एक बात मानेंगी, मम्मा? आप प्लीज, मधु मौसी को मेरे देहरादून आने के बारे में कुछ मत बताना क्योंकि मैं शादी की रौनक छोड़ कर उन से मिलने नहीं जाने वाली.’’

पापा के चेहरे पर यह सुन कर राहत के भाव उभरे थे.

‘‘ठीक कहती हो. अपनी सहेलियों को छोड़ कर मां की सहेली के साथ बोर होने की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक यू, पापा,’’ कह कर कशिश बाहर आ कर दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

पापा, मम्मी से कह रहे थे कि अच्छा है, कशिश उन दिनों शादी में जा रही है क्योंकि हम दोनों तो अधिवेशन की तैयारी में व्यस्त हो जाएंगे और यह घर पर बोर होती रहने से बच जाएगी. इस तरह समस्या हल होते ही कशिश जीजान से पढ़ाई में जुट गई.

देहरादून स्टेशन पर बरात का स्वागत करने वालों में कई महिलाएं भी थीं. लड़की के पिता सब का एकदूसरे से परिचय करवा रहे थे. एक अत्यंत चुस्तदुरुस्त, सौम्य महिला का परिचय करवाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘यह डा. मधुलिका हैं. कहने को तो हमारी फैमिली डाक्टर और पड़ोसिन हैं लेकिन हमारे परिवार की ही एक सदस्य हैं. हमारे से ज्यादा शादी की धूमधाम इन की कोठी में है क्योंकि सभी मेहमान वहीं ठहरे हुए हैं.’’

कशिश को यकीन नहीं हो रहा था कि उस का काम इतनी आसानी से हो जाएगा. उस ने आगे बढ़ कर मधुलिका को अपना परिचय दिया. मधुलिका ने उसे खुशी से गले से लगाया और पूछा कि विभा क्यों नहीं आई?

‘‘आंटी, मम्मीपापा आजकल एक अधिवेशन में भाग ले रहे हैं. मैं भी इस बरात में महज आप से मिलने आई हूं,’’ कशिश ने बिना किसी हिचक के कहा, ‘‘मुझे आप से अकेले में बात करनी है.’’

मधुलिका चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘अभी तो एकांत मिलना मुश्किल है. रात को बरात की खातिरदारी से समय निकाल कर तुम्हें अपने घर ले चलूंगी.’’

‘‘उस में तो बहुत देर है, उस से पहले ही घर ले चलिए न,’’ कशिश ने मनुहार की.

‘‘अच्छा, दोपहर को क्लिनिक से लौटते हुए ले जाऊंगी.’’

दोपहर को मधुलिका ने खुद आने के बजाय उसे लाने के लिए अपनी गाड़ी भेज दी. वह अपने क्लिनिक में उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘तुम अकेले में मुझ से बात करना चाहती हो, जो फिलहाल घर पर मुमकिन नहीं  है. बताओ क्या बात है?’’ मधुलिका मुसकराई.

‘‘मैं यह जानना चाहती हूं कि आप ने मुझे क्यों नकारा, क्यों मुझे दूसरों को पालने के लिए दे दिया? मां, मुझे मालूम हो चुका है कि मैं आप की बेटी हूं,’’ और कशिश ने चंडीगढ़ वाला किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘विभा और विकास ने तुम्हें क्या वजह बताई?’’ मधुलिका ने पूछा.

‘‘उन्हें मैं ने बताया ही नहीं कि मुझे सचाई पता चल गई है. वह दोनों मुझे इतना ज्यादा प्यार करते हैं कि  मैं कभी सपने में भी उन से कोई अप्रिय बात पूछ कर उन्हें दुखी नहीं कंरूगी.’’

‘‘यानी कि तुम्हें विभा और विकास से कोई शिकायत नहीं है?’’

‘‘कतई नहीं. लेकिन आप से है. आप ने क्यों मुझे अपने से अलग किया?’’

‘‘कमाल है, बजाय मेरा शुक्रिया अदा करने के कि तुम्हें इतने अच्छे मम्मीपापा दिए, तुम शिकायत कर रही हो?’’

‘‘सवाल अच्छेबुरे का नहीं बल्कि उन्हें दिया क्यों, यह है?’’

‘‘मान गए भई, पली चाहे कहीं भी हो, रहीं वकील की बेटी,’’ मधुलिका ने बात हंसी में टालनी चाही.

‘‘मगर वकील की बेटी को डाक्टर की बेटी कहलवाने की क्या मजबूरी थी?’’

‘‘मजबूरी कुछ नहीं थी बस, दोस्ती थी. विभा मां नहीं बन सकती थी और अनाथालय से किसी अनजान बच्चे को अपनाने में दोनों हिचक रहे थे. बेटे और बेटी के जन्म के बाद मेरा परिवार तो पूरा हो चुका था. सो जब तुम होने वाली थीं तो हम लोगों ने फैसला किया कि चाहे लड़का हो या लड़की यह बच्चा हम विभा और विकास को दे देंगे. ऐसा कर के मैं नहीं सोचती कि मैं ने तुम्हारे साथ कोई अन्याय किया है.’’

‘‘अन्याय तो खैर किया ही है. पहले तो सब ठीक था मगर असलियत जानने के बाद मुझे अपने असली मातापिता का प्यार चाहिए…’’

तभी कुछ खटका हुआ और एक प्रौढ़ पुरुष ने कमरे में प्रवेश किया. मधुलिका चौंक ०पड़ी.

‘‘आप इस समय यहां?’’

‘‘कोर्ट से लौट रहा था तो बाहर तुम्हारी गाड़ी देख कर देखने चला आया कि खैरियत तो है.’’

‘‘ऋचा की बरात में कशिश भी आई है. मुझ से अकेले में बात करना चाह रही थी, सो यहां बुलवा लिया,’’ मधुलिका ने कहा और कशिश की ओर मुड़ी,‘‘यह तुम्हारे देवेन अंकल हैं.’’

‘‘अंकल क्यों, पापा कहिए न?’’ कशिश नमस्ते कर के देवेन की ओर बढ़ी लेकिन देवेन उस की अवहेलना कर के मधुलिका के जांच कक्ष में

जाते हुए कड़े स्वर में बोले, ‘‘इधर आओ, मधु.’’

मधुलिका सहमे स्वर में कशिश को रुकने को कह कर परदे के पीछे चली गई.

‘‘यह सब क्या है, मधु? मैं ने तुम्हें कितना समझाया था कि अपने बेटेबेटी का प्यार और हक बांटने के लिए मुझे तीसरी औलाद नहीं चाहिए, तुम गर्भपात करवाओ. मगर तुम नहीं मानीं और इसे अपनी सहेली के लिए पैदा किया. खैर, उन के दिल्ली जाने के बाद मैं ने चैन की सांस ली थी मगर यह फिर टपक पड़ी मुझे पापा कहने, हमारे सुखी परिवार में सेंध लगाने के लिए. साफ कहे दे रहा हूं मधु, मेरे लिए यह अनचाही औलाद है. न मैं स्वयं इस का अस्तित्व स्वीकार करूंगा न अपने बच्चों…’’

कशिश आगे और नहीं सुन सकी. उस ने फौरन बाहर आ कर एक रिकशा रोका. अब उसे दिल्ली जाने का इंतजार था, जहां उस के मम्मीपापा व्यस्तता के बावजूद उस के बगैर बेहाल होंगे. प्यार जन्म से नहीं होता है. प्यार तो प्यार करने वालों से होता है और जो प्यार उसे अपने दिल्ली वाले मातापिता से मिला, उस का तो कोई मुकाबला ही नहीं.

 

पेड़ : कैसी लड़की थी सुलभा

चीनू की नन्हीनन्ही हथेलियां दूर होती चली गईं और धीरेधीरे एकदम से ओझल हो गईं.

पूरे 30 दिन से उन का घर गुलजार था. बच्चों के होहल्ले से भरा था. साल भर में उन के घर में 2 ही तो खुशी के मौके आते थे. एक गरमी की लंबी छुट्टियों में और दूसरा, दशहरे की छुट्टियों के समय.

उन दिनों नीरेंद्र की उजाड़ जिंदगी में हुलस कर बहार आ जाती थी. उस का जी करता था कि इस आए वक्त को रोक कर अपने घर में कैद कर ले. खूब नाचेगाए और जश्न मनाए, पर ऐसा हो कहां सकता था.

छोटी बहन के साथ 2 बच्चे, छोटे भाई के 2 बच्चे और बड़ी दीदी के दोनों बच्चे, पूरे 6 नटखट ऊधमी सदस्यों के आने से ऐसा लगता जैसे घर छोटा पड़ गया हो. बच्चे उस कमरे से इस कमरे में और इस कमरे से उस कमरे में भागे फिरते, चिल्लाते और चीजें बिखेरते रहते.

बच्चों के मुंह से ‘चाचीजी’, ‘मामीजी’ सुनसुन कर वे अघाते न थे. दिनरात उन की फरमाइशें पूरी करने में लगे रहते. किसी को कंचा चाहिए तो किसी को गुल्लीडंडा. किसी को गुडि़या तो किसी को लट्टू.

4 माह में जितना पैसा वे बैंक से निकाल कर अपने ऊपर खर्च करते थे, उस से भी ज्यादा बच्चों की फरमाइशें पूरी करने में उन दिनों खर्च कर देते. फिर भी लगता कि कुछ खर्च ही नहीं किया है. वे तो नईनई चीजें खरीदने के लिए बच्चों को खुद ही उकसाते रहते.

कभीकभी भाईबहनों को गुस्सा आने लगता तो वे उन्हें झिड़कते, ‘‘क्या करते हो भैया. सुबह से इन मामूली चीजों के पीछे लगभग 100 रुपए फूंक चुके हो. बच्चों की मांग का भी कहीं अंत है?’’

नीरेंद्र हंस देते, ‘‘अरे, रहने दो, यह इन्हीं का तो हिस्सा है. बस, साल में 10 दिन ही तो इन के चाव के होते हैं. देता हूं तो बदले में इन से प्यार भी तो पाता हूं.’’

सिर्फ 30 दिन का ही तो यह मेला होता है. बाद में बच्चों की बातें, उन की गालियां याद आतीं. उन की छोड़ी हुई कुछ चीजें, कुछ खिलौने संभाल कर वे उन निर्जीव वस्तुओं से बातें करते रहते और मन को बहलाते. उन की एक बड़ी अलमारी तो बच्चों के खिलौनों से भरी पड़ी थी.

इस तरह नीरेंद्र अपने अकेलेपन को काटते. हर बार उन का जी करता कि बच्चों को रोक लें, पर रोक नहीं पाते. न बच्चे रुकना चाहते हैं न माताएं उन्हें यहां रहने देना पसंद करती हैं. पहले तो उन के छोटे होने का बहाना था. बड़े हुए तो छात्रावास में डाल दिए गए. इसी से नीरेंद्र उन्हीं बच्चों में से एक को गोद लेना चाहते थे. मगर हर घर में 2 बच्चे देख खुद ही तालू से जबान लग जाती थी.

किसीकिसी साल तो ऐसा भी होता है कि 30 दिनों में भी कटौती हो जाती. कभीकभी बच्चे यहां आने के बजाय कश्मीर, मसूरी घूमने की ठान लेते. फिर तो ऐसा लगने लगता जैसे जीने का बहाना ही खत्म हो जाएगा. पिछले साल यही तो हुआ था. बच्चे रानीखेत घूमने की जिद कर बैठे थे और यहां आना टल गया था. किसी तरह छुट्टियों के 7-8 दिन बचा कर वे यहां आए थे तो उन का मन रो कर रह गया था.

कभीकभी नीरेंद्र को अपनेआप पर ही कोफ्त होने लगती कि क्यों वे अकेले रह गए? आखिर क्या कारण था इस का? पिता की असमय मृत्यु ने उन के घर को अनाथ कर दिया था. घर में वे सब से बड़े थे, इसलिए जिम्मेदारी निभाना उन्हीं का कर्तव्य था. घर में सभी को पढ़ाया- लिखाया. पूरी तरह से हिम्मत बांध कर उन के शादीब्याह किए तब कहीं जा कर अपने लिए विचार किया था.

नीरेंद्र सीधीसादी लड़की चाहते थे. मां ने उन के लिए सुलभा को पसंद किया था. सुलभा में कोई दोष न था. नीरेंद्र खुश थे कि उम्र उन के विवाह में बाधक नहीं बनी. इस से पहले जब वे भाईबहनों का घर बसा रहे थे तब सदा उन्हें एक ही ताना मिला था, ‘‘क्यों नीरेंद्र, ब्याह करोगे भी या नहीं? बूढ़े हो जाओगे, तब कोई लड़की भी न देगा. बाल पक रहे हैं, आंखों पर चश्मा चढ़ गया है और क्या कसर बाकी है?’’

सुन कर नीरेंद्र हंस देते थे, ‘‘चश्मा और पके बाल तो परिपक्वता और बुद्धिमत्ता की निशानी हैं. मेरी जिम्मेदारी को जो लड़की समझेगी वही मेरी पत्नी बनेगी.’’

सुलभा उन्हें ऐसी ही लड़की लगी थी. सगाई के बाद तो वे दिनरात सुलभा के सपने भी देखने लगे थे. उन्हें ऐसा लगता जैसे सुलभा उन की जिंदगी में एक बहार बन कर आएगी.

विवाह की तिथि को अभी काफी दिन थे. एक दिन इसी बीच वे सुलभा के साथ रात को फिल्म देख कर लौट रहे थे. अचानक कुछ बदमाशों ने सुलभा के साथ छेड़छाड़ की थी. नीरेंद्र को बुढ़ऊ कह कर ताना मार दिया था.

सुन कर नीरेंद्र को सहन न हुआ था और वे बदमाशों से उलझ पड़े थे, पर उन से वे कितना निबट सकते थे. अपनेआप से वे पहली बार हारे थे. गुस्सा आया था उन्हें अपनी कमजोरी पर. वे स्वयं को अत्यंत अपमानित महसूस कर रहे थे. हतप्रभ रह गए थे अपने लिए बुढ़ऊ शब्द सुन कर. उस शाम किसी तरह वे और सुलभा बच कर लौट तो आए थे मगर सुलभा ने दूसरे ही दिन सगाई की अंगूठी वापस भेज दी थी. शायद उसे भी यकीन हो गया था कि वे बूढ़े हो गए हैं.

‘अच्छा ही किया सुलभा ने.’ एक बार नीरेंद्र ने सोचा था. परंतु मन में अपनी हीनता और कमजोरी का एक दाग सा रह गया. विवाह से मन उचट गया, कोई इस विषय पर बात चलाए भी तो उस से उलझ बैठते. मां जब तक रहीं नीरेंद्र को शादी के लिए मनाती रहीं, समझाती रहीं.

मां की मृत्यु के बाद वह जिद और मनुहार भी खत्म हो गई. कुछ यह भी जिद थी कि अब इसी तरह जीना है. पहले भाईबहनों पर भरोसा था, पर वे अपनी- अपनी जिंदगी में लग गए तो उन्होंने उन्हें छेड़ना भी उचित न समझा.

हां, भाईबहनों के बच्चों ने अवश्य ही नीरेंद्र के अंदर एक बार गृहस्थी का लालच जगा दिया था. अंदर ही अंदर वे आकांक्षा से भर उठे कि उन्हें भी कोई पिता कहता. वे भी किसी के भविष्य को ले कर चिंता करते. वे भी कोई सपना पालते कि उन का बेटा बड़ा हो कर डाक्टर बनेगा या कोई उन का भी दुखसुख सुनता. सोतेजागते वे यही सोचा करते.

तब कभीकभी मन में मनाते कि कोई उन्हें क्यों नहीं कहता कि ब्याह कर लो. अकेले ही वे रसोईचूल्हे से उलझे हुए हैं कोई पसीजता क्यों नहीं, कोई अजूबा तो नहीं इस उम्र में ब्याह करना. बहुत से लोग कर रहे हैं.

नीरेंद्र अपनी जिंदगी की तुलना भाई की जिंदगी से करते. सोचते कि उन की और धीरेंद्र की सुबह में कितना अंतर है. वे 4 बजे का अलार्म लगा कर सोते. सोचते हुए देर रात गए उन्हें नींद आती. परंतु सुबह तड़के घड़ी की तेज घनघनाहट के साथ ही उन की नींद टूट जाती जबकि वे जागना नहीं चाहते. लेकिन जानते हैं कि सुबह के नाश्ते की तैयारी, कमरों की सफाई, कपड़ों की धुलाई आदि सब उन्हीं को ही करनी है.

मगर धीरेंद्र की सुबह भले ही झल्लाहट से शुरू हो लेकिन उत्सुकता से भरी जरूर होती है. 4 बजे का अलार्म बज जाए तो भी उसे कोई परवाह नहीं. नींद ही नहीं टूटती है. न जाने उसे कैसी गहरी नींद आती है.

घड़ी का कांटा जब 4 से 5 तक पहुंचता है तब उस की पत्नी चिल्लाती है, ‘‘उठो, दफ्तर जाने में देर हो जाएगी.’’

‘‘हूं,’’ धीरेंद्र उसी खर्राटे के साथ कहेगा, ‘‘क्या 5 बज गए?’’

‘‘तैयार होतेहोते 10 बज जाएंगे. फिर मुझे न कहना कि देर हो गई.’’

शायद फिर बच्चों को इशारा किया जाता होगा. पप्पू धीरेंद्र के बिछौने पर टूट पड़ता, ‘‘उठिए पिताजी, वरना पानी डाल दूंगा.’’

फिर वह बच्चों के अगलबगल बैठ कर कहता, ‘‘अरे, नहीं बाबा, मां से कहो कि चाय ले आए.’’

स्नानघर में जा कर भी धीरेंद्र बीवी से उलझता रहता, ‘‘मेरे कुरते में 2 बटन नहीं हैं और जूते के फीते बदले या नहीं? जाने मोजों की धुलाई हुई है या नहीं?’’

पत्नी तमक कर कहती, ‘‘केवल तुम्हें ही तो नौकरी पर नहीं जाना है, मुझे भी दफ्तर के लिए निकलना है.’’

‘‘ओह, तो क्या तुम्हारे ब्लाउज के बटन मुझे टांकने होंगे,’’ धीरेंद्र चुहल करता तो पत्नी उसे धप से उलटा हाथ लगाती.

इसे कोई कुछ भी कहे, पर नीरेंद्र का लोभी मन गृहस्थी के ऐसे छोटेमोटे सुखों की कान लगा कर आहट लेता रहता.

नीरेंद्र बेसन के खुशबूदार हलवे के बहुत शौकीन हैं. जी करता है नाश्ते में कोई सुबहसुबह हलवा परोस दे और वे जी भर कर खाएं. अम्मां थीं तो उन का यह पसंदीदा व्यंजन हफ्ते में 3-4 बार अवश्य मिला करता था. पर उन की मृत्यु के बाद सारे स्वाद समाप्त हो गए.

धीरेंद्र की पत्नी बेसन का हलवा देखते ही मुंह बनाती थी. खुद नीरेंद्र अम्मां की भांति कभी हलवा बना नहीं सके. अब तो बस हलवे की खुशबू मन में ही दबी रहती है.

धीरेंद्र को बेसन के पकौड़ों के एवज में कई बार बीवी के हाथ बिक जाना पड़ता है. बीवी का मन न हो तो कोई न कोई बात पक्की करवा कर ही वह पकौड़े बनाती है. नीरेंद्र भी अपने पसंद के हलवे पर नीलाम हो जाना चाहते हैं, पर वह नीलामी का चाव मन में ही दबा रह गया. अब तो रोज सुबह थोड़ा सा चिवड़ा फांक कर दफ्तर की ओर चल देते हैं.

दफ्तर में नए और पुराने सहयोगियों का रेला नीरेंद्र को देखदेख कर दबी मुसकराहट से अभिवादन करता. कम से कम इतनी तसल्ली तो जरूर रहती कि हर कोई उन से काम निकलवाने के कारण मीठीमीठी बातें तो जरूर करता है. उस के साहब, अपनीअपनी फाइल तैयार करवाने के चक्कर में उसे मसका लगाते रहते. किसी को पार्टी में जाना हो, पत्नी को ले कर बाजार जाना हो, बच्चे को अस्पताल पहुंचाना हो, तुरंत उन्हें पकड़ते. ‘‘नीरेंद्र, थोड़ा सा यह काम कर दो.’’

इतना ही नहीं दफ्तर के क्लर्क, चपरासी, माली, जमादार आदि अपने तरीके से इस अकेले व्यक्ति से नजराना वसूलते रहते. अगर देने में थोड़ी सी आनाकानी की तो वे लोग कह देते, ‘‘किस के लिए बचा रहे हो, बाबू साहब. आप की बीवी होती तो कहते, साड़ी की फरमाइश पूरी करनी है. बेटा होता तो कहते कि उस की पढ़ाई का खर्च है. अगर बेटी होती तो हम कभी धेला भी न मांगते…मगर कुंआरे व्यक्ति को भला कैसी चिंता?’’

पर धीरेंद्र को न तो दफ्तर में रुकने की जरूरत पड़ती और न ही अपने मातहतों के हाथ में चार पैसे धरने की नौबत आती. घर जल्दी लौटने के बहाने भी उसे नहीं बनाने पड़ते. खुद ही लोग समझ जाते हैं कि घर में देरी की तो जनाब की खैर नहीं.

पर नीरेंद्र किस के लिए जल्दी घर लौटें. बालकनी में टहलते ठीक नहीं लगता. अपनीअपनी छतों पर टहलते जोड़ों का आपस में हंसीमजाक सुनना अब उन से सहन नहीं होता. बारबार  लगता है जैसे हर बात उन्हें ही सुनाई जा रही है. खनकती, ठुनकती हंसी वे पचा नहीं पाते. घर के अंदर भाग कर आएं तो मच्छरों की भूखी फौज उन की दुबली देह पर टूट पड़ती है. तब एक ही उपाय नजर आता है कि मच्छरदानी गिरा कर अंदर घुस जाएं और घड़ी के भागते कांटों को देखते हुए समय निकालते रहें.

इसीलिए नीरेंद्र कभीकभी वैवाहिक विज्ञापनों में स्वयं ही अपने लिए उपयुक्त पात्र तलाशने लगते हैं. पर ऐसा कभी न हो सका. कई बार समझौतों के सहारे लगा कि बात बनेगी परंतु विवाह के लिए समझौता करना उन्हें उचित नहीं लगा. अकेलेपन के कारण झिझकते हुए उन्होंने छोटे भाई की लड़की नीलू को अपने पास रख लेने का प्रस्ताव किया तो वह बचने लगा था, ‘‘पता नहीं, बच्ची की मां राजी होगी या नहीं?’’

पर नीरेंद्र बजाय बच्ची की मां से पूछने के छोटी बहन के सामने ही गिड़गिड़ा उठे थे, ‘‘कामिनी, मैं चाहता हूं, क्यों न आशू यहीं मेरे साथ रहे. उस का जिम्मा मैं उठाऊंगा.’’

‘‘आशू?’’ बहन की आंखें झुक गईं, ‘‘बाप रे, इस की दादी तो मुझे काट कर रख देंगी.’’

जवाब सुन कर नीरेंद्र चकित रह गए थे, ‘अरे यह क्या? अपनी लगभग सारी कमाई इन के बच्चों पर उड़ाता हूं. कितने दुलार से यहां उन्हें रखता हूं. हर वर्ष राखी पर मुंहमांगी चीज बहन के हाथ में रखता हूं. इतना ही नहीं, किसी भी बच्चे को कुछ भी चाहिए तो साधिकार माएं चालाकी से उन की फरमाइश लिख भेजती हैं, लेकिन क्या कोई भी अपने एक बच्चे को मेरे पास नहीं छोड़ सकती. कल को वह बच्चा मेरी पूरी संपत्ति का वारिस होगा, लेकिन सब ने मेरी मांग ठुकरा दी.’

‘‘अच्छा, आशू से ही पूछती हूं,’’ बहन ने आशू को आवाज दी थी.

नीरेंद्र उस की बातों से बेजार छत ताकने लगे थे, लेकिन आशू को सिर्फ उन की चीजें ही अच्छी लगती थीं.

कुंआरे रह कर नीरेंद्र लोगों के लिए सिर्फ एक पेड़ बन कर रह गए थे, जिसे जिस का जी चाहे, नोचे, फलफूल, लकड़ी आदि प्रत्येक रूप में उस का उपयोग करे. अपने लिए भी वे एक पेड़ की भांति थे. जैसे बसंत के मौसम में पेड़ों के नए फूलपत्ते आते हैं उसी प्रकार वे भी किसी पेड़ की तरह हरेभरे हो जाते. क्या उन्हें वर्ष भर मुसकराने का हक नहीं है? स्वयं के नोचे जाने के विरोध का भी कोई अधिकार नहीं है?

कर्ण : खराब परवरिश के अंधेरे रास्ते

न्यू साउथ वेल्स, सिडनी के उस फोस्टर होम के विजिटिंग रूम में बैठी रम्या बेताबी से इंतजार कर रही थी उस पते का जहां उस की अपनी जिंदगी से मुलाकात होने वाली थी. खिड़की से वह बाहर का नजारा देख रही थी. कुछ छोटे बच्चे लौन में खेल रहे थे. थोड़े बड़े 2-3 बच्चे झूला झूल रहे थे. वह खिड़की के कांच पर हाथ फिराती हुई उन्हें छूने की असफल कोशिश करने लगी. मृगमरीचिका से बच्चे उस की पहुंच से दूर अपनेआप में मगन थे. कमरे के अंदर एक बड़ा सा पोस्टर लगा था, हंसतेखिलखिलाते, छोटेबड़े हर उम्र और रंग के बच्चों का. रम्या अब उस पोस्टर को ध्यान से देखने लगी, कहीं कोई इन में अपना मिल जाए.

‘ज्यों सागर तीर कोई प्यासा, भरी दुनिया में अकेला, खाने को छप्पन भोग पर रुचिकर कोई नहीं.’ रम्या की गति कुछ ऐसी ही हो रखी थी. तड़पतीतरसती जैसे जल बिन मछली. उस ने सोफे पर सिर टिका अपने भटकते मन को कुछ आराम देना चाहा, लेकिन मन थमने की जगह और तेजी से भागने लगा, भविष्य की ओर नहीं, अतीत की ओर. स्याह अतीत के काले पन्ने फड़फड़ाने लगे, बिना अंधड़, बिना पलटे जाने कितने पृष्ठ पलट गए. जिस अतीत से वह भागती रही, आज वही अपने दानवी पंजे उस के मानस पर गड़ा और आंखें तरेर कर गुर्राने लगा.

बात तब की है जब रम्या 14-15 वर्ष की रही होगी. उस के डैडी को 2-3 वर्षों में ही इतने बड़ेबड़े ठेके मिल गए कि वे लोग रातोंरात करोड़पति बन गए. पैसा आ जाने से सभ्यता और संस्कार नहीं आ जाते. ऐसा ही हाल उन लोगों का भी था. पैसों की गरमी से उन में ऐंठन खूब थी. आएदिन घर में बड़ीबड़ी पार्टियां होती थीं. बड़ेबड़े अफसर और नेताओं को खुश करने के लिए घर में शराब की नदियां बहती थीं.

एक स्वामीजी हर पार्टी में मौजूद रहते थे. रम्या के डैडी और मौम उन के आने से बिछबिछ जाते. वे बड़ेबड़े औद्योगिक घरानों में बड़ी पैठ रखते थे. उन घरानों से काम या ठेके पाने के लिए स्वामीजी की अहम भूमिका होती थी.

पार्टी वाले दिन रम्या और उस की दीदी को नीचे आने की इजाजत नहीं होती थी. अपनी केयरटेकर सुफला के साथ दोनों बहनें छत वाले अपने कमरे में ही रहतीं और छिपछिप कर पार्टी का नजारा लेतीं. कुछ महीने से दीदी भी गायब रहने लगीं. वे रातरातभर घर नहीं आती थीं. जब सुबह लौटतीं तो उन की आंखें लाल और उनींदी रहतीं. फिर वे दिनभर सोती ही रहतीं. यों तो मौम और डैड भी रात की पार्टी के बाद देर से उठते, सो, उन्हें दीदी के बारे में पता ही नहीं था कि वे रातभर घर में नहीं होती हैं.

उस दिन सुबह से ही घर में चहलपहल थी. मौम किसी को फोन पर बता रही थीं कि एक बहुत बड़े ठेके के लिए उस के पापा प्रयासरत हैं. आज वे स्वामीजी भी आने वाले हैं, यदि स्वामीजी चाहें तो उक्त उद्योगपति यह ठेका उस के पापा को ही देंगे.

रम्या उस दिन बहुत परेशान थी, उस के स्कूल टैस्ट में नंबर बहुत कम आए थे और उस का मन कर रहा था कि वह मौम को बताए कि उसे एक ट्यूटर की जरूरत है. वह चुपके से सुफला की नजर बचा कर मौम के कमरे की तरफ चली गई.

अधखुले दरवाजे की ओट से उस ने जो देखा, उस के पांवतले जमीन खिसक गई. मौम और स्वामीजी की अंतरंगता को अपनी खुली आंखों से देख उसे वितृष्णा सी हो गई. वह भागती हुई छत वाले कमरे की तरफ जाने लगी. अब वह इतनी छोटी भी नहीं थी, जो उस ने देखा था वह बारबार उस की आंखों के सामने नाच रहा था. इसी सोच में वह दीदी से टकरा गई.

‘दीदी, मैं ने अभी जो देखा…मौम को छिछि…मैं बोल नहीं सकती,’ रम्या घबरातीअटकती हुई दीदी से बोलने लगी. दीदी ने मुसकराते हुए उसे देखा और कहा, ‘चल, आज तुझे भी एक पार्टी में ले चलती हूं.’

‘कैसी पार्टी, कौन सी पार्टी?’ रम्या ने पूछा.

‘रेव पार्टी,’ दीदी ने आंखें बड़ीबड़ी कर उस से कहा.

‘यह शहर से दूर बंद अंधेरे कमरों में तेज म्यूजिक के बीच होने वाली मस्ती है, चल कोई बढि़या सा हौट ड्रैस पहन ले,’ दीदी ने कहा तो रम्या सब भूल झट तैयार होने लगी.

‘बेबी आप लोग किधर जा रही हैं, साहब, मेमसाहब को पता चला तो मुझे ही डांटेंगे?’ सुफला ने बीच में कहा.

‘चल सुफला, आज की रात तू भी ऐश कर ले,’ दीदी ने उसे 100 रुपए का एक नोट पकड़ा दिया.

उस दिन रम्या पहली बार किसी ऐसी पार्टी में गई. दीदी व दूसरे लड़केलड़कियों को बेतकल्लुफ हो तेज संगीत और लेजर लाइट में नाचते, झूमते, पीते, खाते, सूंघते, सुई लगाते देखा. थोड़ी देर वह आंख फाड़े देखती रही. फिर धीरेधीरे शोर मध्यम लगने लगा, अंधेरा भाने लगा, तेजी से झूमना और जिसतिस की बांहों में गुम होते जाना सुकूनदायक हो गया.

दूसरे दिन जब आंख खुली तो देखा कि वह अपने बिस्तर पर है. घड़ी दोपहर का वक्त बता रही थी यानी आज सारा दिन गुजर गया. वह स्कूल नहीं जा पाई. रात की घटनाएं हलकीहलकी अभी भी जेहन में मौजूद थीं. उसे अब घिन्न सी आने लगी. रम्या को पढ़नेलिखने और कुछ अच्छा बनने का शौक था. बाथरूम में जा कर वह देर तक शौवर में खुद को धोती रही. उसे अपनी भूल का एहसास होने लगा था.

‘क्यों रामी डिअर, कल फुल एंजौयमैंट हुआ न, चल आज भी ले चलती हूं एक नए अड्डे पर,’ दीदी ने मुसकराते हुए पूछा तो रम्या ने साफ इनकार कर दिया. आने वाले दिनों में वह मौमडैड और बहन व आसपास के माहौल सब से कन्नी काट अपनी पढ़ाई व परीक्षा की तैयारी में लगी रही. एक सुफला ही थी जो उसे इस घर से जोड़े हुए थी. बाकी सब से बेहद सामान्य व्यवहार रहा उस का.

कुछ दिनों से उसे बेहद थकान महसूस हो रही थी. उसे लगातार हो रही उलटियां और जी मिचलाते रहना कुछ और ही इशारा कर रहा था.

सुफला की अनुभवी नजरों से वे छिप नहीं पाईं, ‘बेबीजी, यह आप ने क्या कर लिया?’

‘सुफला, क्या मैं तुम पर विश्वास कर सकती हूं, उस एक रात की भूल ने मुझे इस कगार पर ला दिया है. मुझे कोई ऐसी दवाई ला दो जिस से यह मुसीबत खत्म हो जाए और किसी को पता भी न चले. अगले कुछ महीनों में मेरी परीक्षाएं शुरू होंगी. मुझे आस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालय से अपनी आगे की पढ़ाई करनी है. मुझे घर के गंदे माहौल से दूर जाना है,’ कहतेकहते रम्या सुफला की गोद में सिर रख कर रोने लगी.

अब सुफला आएदिन कोई दवा, कोई जड़ीबूटी ला कर रम्या को खिलाने लगी. रम्या अपनी पढ़ाई में व्यस्त होती गई और एक जीव उस के अंदर पनपता रहा. इस बीच घर में तेजी से घटनाक्रम घटे. उस की दीदी को एक रेव पार्टी से पुलिस पकड़ कर ले गई और फिर उसे नशामुक्ति केंद्र में पहुंचा दिया गया.

उस दिन मौम अपनी झीनी सी नाइटी पहन सुबह से बेचैन सी घर में घूम रही थीं कि उन की नजर रम्या के उभार पर पड़ी. तेजी से वे उस का हाथ खींचते हुए अपने कमरे में ले गईं. ‘रम्या, यह क्या है? आर यू प्रैग्नैंट? बेबी तुम ने प्रिकौशन नहीं लिया था? तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’ मौम ने प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी थी.

रम्या खामोश ही रही तो मौम ने आगे कहा, ‘मेरी एक दोस्त है जो तुम्हें इस मुसीबत से छुटकारा दिला देगी. हम आज ही चलते हैं. उफ, सारी मुसीबतें एकसाथ ही आती हैं,’ मौम बड़बड़ा रही थीं.

रम्या ने पास पड़े अखबार में उन स्वामीजी की तसवीर को देखा जिन्हें हथकड़ी लगा ले जाया जा रहा था. अगले कुछ दिन मौम रम्या को ले अपनी दोस्त के क्लिनिक में ही व्यस्त रहीं, लेकिन अबौर्शन का वक्त निकल चुका था और गलत दवाइयों के सेवन से अंदरूनी हिस्से को काफी नुकसान हो चुका था.

इस बीच न्यूज चैनल और अखबारों में स्वामीजी और उस की मौम के रिश्ते भी सुर्खियों में आने लगे. रम्या की तो पहले से ही आस्ट्रेलिया जाने की तैयारियां चल रही थीं. मौम उसे ले अचानक सिडनी चली गईं ताकि कुछ दिन वे मीडिया से बच सकें और रम्या की मुसीबत का हल विदेश में ही हो जाए बिना किसी को बताए.

लाख कोशिशों के बावजूद एक नन्हामुन्ना धरती पर आ ही गया. मौम ने उसे सिडनी के एक फोस्टर होम में रख दिया. रम्या फिर भारत नहीं लौटी. अनचाहे मातृत्व से छुटकारा मिलने के बाद वह वहीं अपनी आगे की पढ़ाई करने लगी. 5 वर्षों बाद उस ने वहीं की नागरिकता हासिल कर अपने साथ ही काम करने वाले यूरोपियन मूल के डेरिक से विवाह कर लिया. रम्या अब 28 वर्ष की हो चुकी थी. शादी के 5 वर्ष बीत गए थे. लेकिन उस के मां बनने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे.

सिडनी के बड़े अस्पताल के चिकित्सकों ने उसे बताया कि पहले गर्भाधान के दौरान ही उस कीबच्चेदानी में अपूर्णीय क्षति हो गई थी और अब वह गर्भधारण करने लायक नहीं है. यह सुन कर रम्या के पैरोंतले जमीन खिसक गई. डेरिक तो सब जानता ही था, उस ने बिलखती रम्या को संभाला. ‘रम्या, किसी दूसरे के बच्चे को अडौप्ट करने से बेहतर है हम तुम्हारे बच्चे को ही अपना लें,’ डेरिक ने कहा. यह सुन कर रम्या एकबारगी सिहर उठी, अतीत फिर फन काढ़ खड़ा हो गया.

‘लेकिन, वह मेरी भूल है, अनचाहा और नफरत का फूल,’ रम्या ने कहा.

जब कोई वस्तु या व्यक्ति दुर्लभ हो जाता है तो उस को हासिल करने की चाह और ज्यादा हो जाती है. अब तक जिस से उदासीन रही और नफरत करती रही, धीरेधीरे अब उस के लिए छाती में दूध उतरने लगा. फिर एक दिन डेरिक के साथ उस फोस्टर होम की तरफ उस के कदम उठ ही गए.

…तभी संचालिका ने रम्या की तंद्रा को भंग किया, ‘‘यह रहा उस बच्चे को अडौप्ट करने वाली लेडी का पता. वे एक सिंगल मदर हैं और मार्टिन प्लेस में रहती हैं. मैं ने उन्हें सूचना दे दी है कि आप उन के बच्चे को जन्म देनेवाली मां हैं और मिलना चाहती हैं.’’ फोस्टर होम की संचालिका ने कार्ड थमाते हुए कहा.

जो भाव आज से 13-14 वर्र्ष पहले अनुभव नहीं हुआ था वह रम्या में उस कार्ड को पकड़ते ही जागृत हो उठा. उसे ऐसा लगा कि उस के बच्चे का पता नहीं, बल्कि वह पता ही खुद बच्चा हो. मातृत्व हिलोरे लेने लगा. डेरिक ने उसे संभाला और अगले कुछ घंटों में वे लोग, नियत समय पर मार्टिन प्लेस, मिस पोर्टर के घर पहुंच चुके थे. 50-55 वर्षीया, थोड़ा घसीटती हुई चलती मिस पोर्टर एक स्नेहिल और मिलनसार महिला लगीं. रम्या के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए उन्होंने लौन में लगी कुरसी पर बैठने का इशारा किया.

‘‘क्या मैं अपने बेटे से मिल सकती हूं्? क्या मैं उसे अपने साथ ले जा सकती हूं?’’ रम्या ने छूटते ही पूछा पर आखिरी वाक्य बोलते हुए खुद ही उस की जबान लड़खड़ाने लगी. डेरिक और रम्या ने देखा, मिस पोर्टर की आंखें अचानक छलछला गईं.

‘‘आप उस की जन्म देनेवाली मां हैं, पहला हक आप का ही है. वह अभी स्कूल से आता ही होगा. वह देखिए, आप का बेटा,’’ गेट की तरफ इशारा करते हुए मिस पोर्टर ने कहा.

रम्या अचानक चौंक गई, उसे ऐसा लगा कि उस ने आईना देख लिया. हूबहू उस की ही तरह चेहरा, वही छोटी सी नुकीली नाक, हिरन सी चंचल बड़ी सी आंखें, पतले होंठ, घुंघराले काले बाल और बिलकुल उस की ही रंगत.

‘‘आओ बैठो, मैं ने तुम्हे बताया था न कि तुम्हारी मां आने वाली हैं. ये तुम्हारी मां रम्या हैं,’’ मिस पोर्टर ने प्यार से कहा. 14 वर्षीय उस बच्चे ने गरदन टेढ़ी कर रम्या को ऊपर से नीचे तक देखा और मिस पोर्टर की बगल में बैठ गया, ‘‘मौम, तुम्हारे पैरों का दर्द अब कैसा है, क्या तुम ने दवा खाई?’’

रम्या लालसाभरी नजरों से देख रही थी, जिस के लिए जीवनभर हिकारत और नफरत भाव संजोए रही, आज उसे सामने देख ममता का सागर हिलोरे मारने लगा.

‘‘बेटा, मेरे पास आओ. मैं ने तुम्हें जन्म दिया है. तुम्हें छूना चाहती हूं,’’ दोनों हाथ पसार रम्या ने तड़प के साथ कहा.

बच्चे ने मिस पोर्टर की तरफ सवालिया नजरों से देखा. उन्होंने इशारों से उसे जाने को कहा. पर वह उन के पास ही बैठा रहा.

‘‘यदि आप मेरी जन्मदात्री हैं तो इतने वर्षों तक कहां रहीं? आप के होते हुए मैं अनाथ आश्रम में क्यों रहा?’’ बेटे के सवालों के तीर अब रम्या को आगोश में लेने लगे. बेबसी के आंसू उस की पलकों पर टिकने से विद्रोह करने लगे. उस मासूम के जायज सवालों का वह क्या जवाब दे कि तुम नाजायज थे, पर अब उसी को जायज बनाने, बेशर्म हो, आंचल पसारे खड़ी हूं.

बेटा आगे बोला, ‘‘आप को मालूम है, मैं 5 वर्ष की उम्र तक फोस्टर होम में रहा. मेरी उम्र के सभी बच्चों को किसी न किसी ने गोद लिया था. पर आप के द्वारा बख्शी इस नस्ल और रंग ने मुझे वहीं सड़ने को मजबूर कर दिया था.’’

‘‘मैं वहां हफ्ते में एक बार समाजसेवा करने जाती थी. इस के अकेलेपन और नकारे जाने की हालत मुझे साफ नजर आ रही थी. फोस्टर होम की मदद से मैं ने इंडिया के कुछ एनजीओज से संपर्क साधा, जिन्होंने आश्वासन दिया कि शायद वहां इसे कोई गोद ले लेगा. मैं ले कर गई भी. कुछ लोगों से संपर्क भी हुआ. पर फिर मेरा ही दिल इसे वहां छोड़ने को नहीं हुआ, बच्चे ने मेरा दिल जीत लिया. और मैं इसे कलेजे से लगा कर वापस सिडनी आ गई,’’ मिस पोर्टर ने भर्राए हुए गले से बताया.

‘‘इस के जन्म के वक्त आप की मां ने आप के बारे में जो सूचना दी थी, उस आधार पर मुझे पता चला कि आप यहीं आस्ट्रेलिया में ही कहीं हैं. यह भी एक कारण था कि मैं इसे वापस ले आई और मैं ने अपने कोखजाए की तरह इसे पाला. मन के एक कोने में यह उम्मीद हमेशा पलती रही थी कि आप एक दिन जरूर आएंगी,’’ मिस पोर्टर ने जब यह कहा तो रम्या को लगा कि काश, धरती फट जाती और वह उस में समा जाती. डबडबाई आंखों से उस ने शर्मिंदगी के भार से झुकी पलकों को उठाया.

बच्चा अब मिस पोर्टर से लिपट कर बैठा था. मिस पोर्टर स्नेह से उस के घुंघराले बालों को सहला रही थीं.

‘‘आप ले जाइए अपने बेटे को. मैं इसे भेज, ओल्डएज होम चली जाऊंगी,’’ उन्होंने सरलता से मुसकराते हुए कहा.

रम्या की आंखों में चमक आ गई, उस ने अपनी बांहें पसार दीं.

‘‘आज इतने सालों बाद मुझ से मिलने और मुझे अपनाने का क्या राज है? आप यहीं थीं, जानती थीं कि मैं किस अनाथ आश्रम में हूं, फिर भी आप का दिल नहीं पसीजा? आज क्यों अपना मतलबी प्यार दिखाने मुझ से मिलने चली आईर्ं? लाख तकलीफें सह कर, मुसीबतों के पहाड़ टूटने के बावजूद इन्होंने मुझे नहीं छोड़ा और अब मैं इन्हें नहीं छोडूंगा.’’ बेटे के मुंह से यह सुन रम्या को अपनी खुदगर्जी पर शर्म आने लगी.

‘‘बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?’’ डेरिक ने रम्या का हाथ थाम उठते हुए पूछा.

‘‘कीन, कीन पोर्टर है मेरा नाम.’’

‘‘क्या कहा कर्ण. ‘कर्ण,’ हां यही होगा तुम्हारा नाम, वाकई तुम क्यों छोड़ोगे अपने आश्रयदाता को. पर मैं कुंती नहीं, मैं कुंती होती तो मेरे पांडव भी होते. मेरी भूल माफ करने लायक नहीं…’’

खाली गोद लौटती रम्या बुदबुदा रही थी और डेरिक हैरानी से उस की बातों का मतलब समझने की कोशिश कर रहा था.

प्यारा सा रिश्ता: परिवार के लिए क्या था सुदीपा का फैसला

12 साल की स्वरा शाम को खेलकूद कर वापस आई. दरवाजे की घंटी बजाई तो सामने किसी अजनबी युवक को देख कर चकित रह गई.

तब तक अंदर से उस की मां सुदीपा बाहर निकली और मुसकराते हुए बेटी से कहा, ‘‘बेटे यह तुम्हारी मम्मा के फ्रैंड अविनाश अंकल हैं. नमस्ते करो अंकल को.’’

‘‘नमस्ते मम्मा के फ्रैंड अंकल,’’ कह कर हौले से मुसकरा कर वह अपने कमरे में चली आई और बैठ कर कुछ सोचने लगी.

कुछ ही देर में उस का भाई विराज भी घर लौट आया. विराज स्वरा से 2-3 साल बड़ा था.

विराज को देखते ही स्वरा ने सवाल किया, ‘‘भैया आप मम्मा के फ्रैंड से मिले?’’

‘‘हां मिला, काफी यंग और चार्मिंग हैं. वैसे 2 दिन पहले भी आए थे. उस दिन तू कहीं गई

हुई थी?’’

‘‘वे सब छोड़ो भैया. आप तो मुझे यह बताओ कि वह मम्मा के बौयफ्रैंड हुए न?’’

‘‘यह क्या कह रही है पगली, वे तो बस फ्रैंड हैं. यह बात अलग है कि आज तक मम्मा की सहेलियां ही घर आती थीं. पहली बार किसी लड़के से दोस्ती की है मम्मा ने.’’

‘‘वही तो मैं कह रही हूं कि वह बौय भी है और मम्मा का फ्रैंड भी यानी वे बौयफ्रैंड ही तो हुए न,’’ स्वरा ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘ज्यादा दिमाग मत दौड़ा. अपनी पढ़ाई कर ले,’’ विराज ने उसे धौल जमाते हुए कहा.

थोड़ी देर में अविनाश चला गया तो सुदीपा की सास अपने कमरे से बाहर आती हुई थोड़ी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं, ‘‘बहू क्या बात है, तेरा यह फ्रैंड अब अकसर घर आने लगा है?’’

‘‘अरे नहीं मम्मीजी वह दूसरी बार ही तो आया था और वह भी औफिस के किसी काम के सिलसिले में.’’

‘‘मगर बहू तू तो कहती थी कि तेरे औफिस में ज्यादातर महिलाएं हैं. अगर पुरुष हैं भी तो वे अधिक उम्र के हैं, जबकि यह लड़का तो तुझ से भी छोटा लग रहा था.’’

‘‘मम्मीजी हम समान उम्र के ही हैं. अविनाश मुझ से केवल 4 महीने छोटा है. ऐक्चुअली हमारे औफिस में अविनाश का ट्रांसफर हाल ही में हुआ है. पहले उस की पोस्टिंग हैड औफिस मुंबई में थी. सो इसे प्रैक्टिकल नौलेज काफी ज्यादा है. कभी भी कुछ मदद की जरूरत होती है तो तुरंत आगे आ जाता है. तभी यह औफिस में बहुत जल्दी सब का दोस्त बन गया है. अच्छा मम्मीजी आप बताइए आज खाने में क्या बनाऊं?’’

‘‘जो दिल करे बना ले बहू, पर देख लड़कों से जरूरत से ज्यादा मेलजोल बढ़ाना सही नहीं होता… तेरे भले के लिए ही कह रही हूं बहू.’’

‘‘अरे मम्मीजी आप निश्चिंत रहिए. अविनाश बहुत अच्छा लड़का है,’’ कह कर हंसती हुई सुदीपा अंदर चली गई, मगर सास का चेहरा बना रहा.

रात में जब सुदीपा का पति अनुराग घर लौटा तो खाने के बाद सास ने अनुराग को कमरे में बुलाया और धीमी आवाज में उसे अविनाश के बारे में सबकुछ बता दिया.

अनुराग ने मां को समझाने की कोशिश की, ‘‘मां आज के समय में महिलाओं और पुरुषों की दोस्ती आम बात है. वैसे भी आप जानती ही हो सुदीपा कितनी समझदार है. आप टैंशन क्यों लेती हो मां?’’

‘‘बेटा मेरी बूढ़ी हड्डियों ने इतनी दुनिया देखी है जितनी तू सोच भी नहीं सकता. स्त्रीपुरुष की दोस्ती यानी घी और आग की दोस्ती. आग पकड़ते समय नहीं लगता बेटे. मेरा फर्ज था तुझे समझाना सो समझा दिया.’’

‘‘डौंट वरी मां ऐसा कुछ नहीं होगा. अच्छा मैं चलता हूं सोने,’’ अविनाश मां के पास से तो उठ कर चला आया, मगर कहीं न कहीं उन की बातें देर तक उस के जेहन में घूमती रहीं. वह सुदीपा से बहुत प्यार करता था और उस पर पूरा यकीन भी था. मगर आज जिस तरह मां शक जाहिर कर रही थीं उस बात को वह पूरी तरह इग्नोर भी नहीं कर पा रहा था.

रात में जब घर के सारे काम निबटा कर सुदीपा कमरे में आई तो अविनाश ने उसे छेड़ने के अंदाज में कहा, ‘‘मां कह रही थीं आजकल आप की किसी लड़के से दोस्ती हो गई है और वह आप के घर भी आता है.’’

पति के भाव समझते हुए सुदीपा ने भी उसी लहजे में जवाब दिया, ‘‘जी हां आप ने सही सुना है. वैसे मां तो यह भी कह रही होंगी कि कहीं मुझे उस से प्यार न हो जाए और मैं आप को चीट न करने लगूं.’’

‘‘हां मां की सोच तो कुछ ऐसी ही है, मगर मेरी नहीं. औफिस में मुझे भी महिला सहकर्मियों से बातें करनी होती हैं पर इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं कुछ और सोचने लगूं. मैं तो मजाक कर रहा था.’’

‘‘आई नो ऐंड आई लव यू,’’ प्यार से सुदीपा ने कहा.

‘‘ओहो चलो इसी बहाने ये लफ्ज इतने दिनों बाद सुनने को तो मिल गए,’’ अविनाश ने उसे बांहों में भरते हुए कहा.

सुदीपा खिलखिला कर हंस पड़ी. दोनों देर तक प्यारभरी बातें करते रहे.

वक्त इसी तरह गुजरने लगा. अविनाश अकसर सुदीपा के घर आ जाता. कभीकभी दोनों बाहर भी निकल जाते. अनुराग को कोई एतराज नहीं था, इसलिए सुदीपा भी इस दोस्ती को ऐंजौय कर रही थी. साथ ही औफिस के काम भी आसानी से निबट जाते.

सुदीपा औफिस के साथ घर भी बहुत अच्छी तरह से संभालती थी. अनुराग को इस मामले में भी पत्नी से कोई शिकायत नहीं थी.

मां अकसर बेटे को टोकतीं, ‘‘यह सही नहीं है अनुराग. तुझे फिर कह रही हूं, पत्नी को किसी और के साथ इतना घुलनमलने देना उचित नहीं.’’

‘‘मां ऐक्चुअली सुदीपा औफिस के कामों में ही अविनाश की हैल्प लेती है. दोनों एक ही फील्ड में काम कर रहे हैं और एकदूसरे को अच्छे से समझते हैं. इसलिए स्वाभाविक है कि काम के साथसाथ थोड़ा समय संग बिता लेते हैं. इस में कुछ कहना मुझे ठीक नहीं लगता मां और फिर तुम्हारी बहू इतना कमा भी तो रही है. याद करो मां जब सुदीपा घर पर रहती थी तो कई दफा घर चलाने के लिए हमारे हाथ तंग हो जाते थे. आखिर बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जा सके इस के लिए सुदीपा का काम करना भी तो जरूरी है न फिर जब वह घर संभालने के बाद काम करने बाहर जा रही है तो हर बात पर टोकाटाकी भी तो अच्छी नहीं लगती न.’’

‘‘बेटे मैं तेरी बात समझ रही हूं पर तू मेरी बात नहीं समझता. देख थोड़ा नियंत्रण भी जरूरी है बेटे वरना कहीं तुझे बाद में पछताना न पड़े,’’ मां ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘ठीक है मां मैं बात करूंगा,’’ कह कर अनुराग चुप हो गया.

एक ही बात बारबार कही जाए तो वह कहीं न कहीं दिमाग पर असर डालती है. ऐसा ही कुछ अनुराग के साथ भी होने लगा था. जब काम के बहाने सुदीपा और अविनाश शहर से बाहर जाते तो अनुराग का दिल बेचैन हो उठता. उसे कई दफा लगता कि सुदीपा को अविनाश के साथ बाहर जाने से रोक ले या डांट लगा दे. मगर वह ऐसा कर नहीं पाता. आखिर उस की गृहस्थी की गाड़ी यदि सरपट दौड़ रही है तो उस के पीछे कहीं न कहीं सुदीपा की मेहनत ही तो थी.

इधर बेटे पर अपनी बातों का असर पड़ता न देख अनुराग के मांबाप ने अपने पोते और पोती यानी बच्चों को उकसाना शुरू का दिया. एक दिन दोनों बच्चों को बैठा कर वे समझाने लगे, ‘‘देखो बेटे आप की मम्मा की अविनाश अंकल से दोस्ती ज्यादा ही बढ़ रही है. क्या आप दोनों को नहीं लगता कि मम्मा आप को या पापा को अपना पूरा समय देने के बजाय अविनाश अंकल के साथ घूमने चली जाती है?’’

‘‘दादीजी मम्मा घूमने नहीं बल्कि औफिस के काम से ही अविनाश अंकल के साथ जाती हैं,’’ विराज ने विरोध किया.

‘‘ भैया को छोड़ो दादीजी पर मुझे भी ऐसा लगता है जैसे मम्मा हमें सच में इग्नोर करने लगी हैं. जब देखो ये अंकल हमारे घर आ जाते हैं या मम्मा को ले जाते हैं. यह सही नहीं.’’

‘‘हां बेटे मैं इसीलिए कह रही हूं कि थोड़ा ध्यान दो. मम्मा को कहो कि अपने दोस्त के साथ नहीं बल्कि तुम लोगों के साथ समय बिताया करे.’’

उस दिन संडे था. बच्चों के कहने पर सुदीपा और अनुराग उन्हें ले कर वाटर पार्क जाने वाले थे.

दोपहर की नींद ले कर जैसे ही दोनों बच्चे तैयार होने लगे तो मां को न देख कर दादी के पास पहुंचे, ‘‘दादीजी मम्मा कहां हैं… दिख नहीं रहीं?’’

‘‘तुम्हारी मम्मा गई अपने फ्रैंड के साथ.’’

‘‘मतलब अविनाश अंकल के साथ?’’

‘‘हां.’’

‘‘लेकिन उन्हें तो हमारे साथ जाना था. क्या हम से ज्यादा बौयफ्रैंड इंपौर्टैं हो गया?’’ कह कर स्वरा ने मुंह फुला लिया. विराज भी उदास हो गया.

लोहा गरम देख दादी मां ने हथौड़ा मारने की गरज से कहा, ‘‘यही तो मैं कहती आ रही हूं इतने समय से कि सुदीपा के लिए अपने बच्चों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण वह पराया आदमी हो गया है. तुम्हारे बाप को तो कुछ समझ ही नहीं आता.’’

‘‘मां प्लीज ऐसा कुछ नहीं है. कोई जरूरी काम आ गया होगा,’’ अनुराग ने सुदीपा के बचाव में कहा.

‘‘पर पापा हमारा दिल रखने से जरूरी और कौन सा काम हो गया भला?’’ कह कर विराज गुस्से में उठा और अपने कमरे में चला गया. उस ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया.

स्वरा भी चिढ़ कर बोली, ‘‘लगता है मम्मा को हम से ज्यादा प्यार उस अविनाश अंकल से हो गया है,’’ और फिर वह भी पैर पटकती अपने कमरे में चली गई.

शाम को जब सुदीपा लौटी तो घर में सब का मूड औफ था. सुदीपा ने बच्चों को समझाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे अविनाश अंकल के पैर में गहरी चोट लग गई थी. तभी मैं उन्हें ले कर अस्पताल गई.’’

‘‘मम्मा आज हम कोई बहाना नहीं सुनने वाले. आप ने अपना वादा तोड़ा है और वह भी अविनाश अंकल की खातिर. हमें कोई बात नहीं करनी,’’ कह कर दोनों वहां से उठ कर चले गए.

स्वरा और विराज मां की अविनाश से इन नजदीकियों को पसंद नहीं कर रहे थे. वे अपनी ही मां से कटेकटे से रहने लगे. गरमी की छुट्टियों के बाद बच्चों के स्कूल खुल गए और विराज अपने होस्टल चला गया.

इधर सुदीपा के सासससुर ने इस दोस्ती का जिक्र उस के मांबाप से भी कर दिया. सुदीपा के मांबाप भी इस दोस्ती के खिलाफ थे. मां ने सुदीपा को समझाया तो पिता ने भी अनुराग को सलाह दी कि उसे इस मामले में सुदीपा पर थोड़ी सख्ती करनी चाहिए और अविनाश के साथ बाहर जाने की इजाजत कतई नहीं देनी चाहिए.

इस बीच स्वरा की दोस्ती सोसाइटी के एक लड़के सुजय से हो गई. वह स्वरा से 2-4 साल बड़ा था यानी विराज की उम्र का था. वह जूडोकराटे में चैंपियन और फिटनैस फ्रीक लड़का था. स्वरा उस की बाइक रेसिंग से भी बहुत प्रभावित थी. वे दोनों एक ही स्कूल में थे. दोनों साथ स्कूल आनेजाने लगे. सुजय दूसरे लड़कों की तरह नहीं था. वह स्वरा को अच्छी बातें बताता. उसे सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग देता और स्कूटी चलाना भी सिखाता. सुजय का साथ स्वरा को बहुत पसंद आता.

एक दिन स्वरा सुजय को अपने साथ घर ले आई. सुदीपा ने उस की अच्छे से आवभगत की. सब को सुजय अच्छा लड़का लगा इसलिए किसी ने स्वरा से कोई पूछताछ नहीं की. अब तो सुजय अकसर ही घर आने लगा. वह स्वरा की मैथ्स की प्रौब्लम भी सौल्व कर देता और जूडोकराटे भी सिखाता रहता.

एक दिन स्वरा ने सुदीपा से कहा, ‘‘मम्मा आप को पता है सुजय डांस भी जानता है. वह कह रहा था कि मुझे डांस सिखा देगा.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा है. तुम दोनों बाहर लौन में या फिर अपने कमरे में डांस की प्रैक्टिस कर सकते हो.’’

‘‘मम्मा आप को या घर में किसी को एतराज तो नहीं होगा?’’ स्वरा ने पूछा.

‘‘अरे नहीं बेटा. सुजय अच्छा लड़का है. वह तुम्हें अच्छी बातें सिखाता है. तुम दोनों क्वालिटी टाइम स्पैंड करते हो. फिर हमें ऐतराज क्यों होगा? बस बेटा यह ध्यान रखना सुजय और तुम फालतू बातों में समय मत लगाना. काम की बातें सीखो, खेलोकूदो, उस में क्या बुराई है?’’

‘‘ओके थैंक यू मम्मा,’’ कह कर स्वरा खुशीखुशी चली गई.

अब सुजय हर संडे स्वरा के घर आ जाता और दोनों डांस प्रैक्टिस करते. समय इसी तरह बीतता रहा. एक दिन सुदीपा और अनुराग किसी काम से बाहर गए हुए थे.

घर में स्वरा दादीदादी के साथ अकेली थी. किसी काम से सुजय घर आया तो स्वरा उस से मैथ्स की प्रौब्लम सौल्व कराने लगी. इसी बीच अचानक स्वरा को दादी के कराहने और बाथरूम में गिरने की आवाज सुनाई दी.

स्वरा और सुजय दौड़ कर बाथरूम पहुंचे तो देखा दादी फर्श पर बेहोश पड़ी हैं. स्वरा के दादा ऊंचा सुनते थे. उन के पैरों में भी तकलीफ रहती थी. वे अपने कमरे में सोए थे. स्वरा घबरा कर रोने लगी तब सुजय ने उसे चुप कराया और जल्दी से ऐंबुलैंस वाले को फोन किया. स्वरा ने अपने मम्मीडैडी को भी हर बात बता दी. इस बीच सुजय जल्दी से दादी को ले कर पास के अस्पताल भागा. उस ने पहले ही अपने घर से रुपए मंगा लिए थे. अस्पताल पहुंच कर उस ने बहुत समझदारी के साथ दादी को एडमिट करा दिया और प्राथमिक इलाज शुरू कराया. उन को हार्ट अटैक आया था. अब तक स्वरा के मांबाप भी हौस्पिटल पहुंच गए थे.

डाक्टर ने सुदीपा और अनुराग से सुजय की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘इस लड़के ने जिस फुरती और समझदारी से आप की मां को हौस्पिटल पहुंचाया वह काबिलेतारीफ है. अगर ज्यादा देर हो जाती तो समस्या बढ़ सकती थी यहां तक कि जान को भी खतरा हो सकता था.’’

सुदीपा ने बढ़ कर सुजय को गले से लगा लिया. अनुराग और उस के पिता ने भी नम आंखों से सुजय का धन्यवाद कहा. सब समझ रहे थे कि बाहर का एक लड़का आज उन के परिवार के लिए कितना बड़ा काम कर गया. हालात सुधरने पर स्वरा की दादी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई

घर लौटने पर दादी ने सुजय का हाथ पकड़ कर गदगद स्वर में कहा, ‘‘आज मुझे पता चला कि दोस्ती का रिश्ता इतना खूबसूरत होता है. तुम ने मेरी जान बचा कर इस बात का एहसास दिला दिया बेटे कि दोस्ती का मतलब क्या है.’’

‘‘यह तो मेरा फर्ज था दादीजी,’’ सुजय ने हंस कर कहा.

तब दादी ने सुदीपा की तरफ देख कर ग्लानि भरे स्वर में कहा, ‘‘मुझे माफ कर दे बहू. दोस्ती तो दोस्ती होती है, बच्चों की हो या बड़ों की. तेरी और अविनाश की दोस्ती पर शक कर के हम ने बहुत बड़ी भूल कर दी. आज मैं समझ सकती हूं कि तुम दोनों की दोस्ती कितनी प्यारी होगी. आज तक मैं समझ ही नहीं पाई थी.’’

सुदीपा बढ़ कर सास के गले लगती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी आप बड़ी हैं. आप को मुझ से माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं. आप अविनाश को जानती नहीं थीं, इसलिए आप के मन में सवाल उठ रहे थे. यह बहुत स्वाभाविक था. पर मैं उसे पहचानती हूं, इसलिए बिना कुछ छिपाए उस रिश्ते को आप के सामने ले कर आई थी.’’

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सुदीपा ने दरवाजा खोला तो सामने हाथों में फल और गुलदस्ता लिए अविनाश खड़ा था. घबराए हुए स्वर में उस ने पूछा, ‘‘मैं ने सुना है कि अम्मांजी की तबीयत खराब हो गई है. अब कैसी हैं वे?’’

‘‘बस तुम्हें ही याद कर रही थीं,’’ हंसते

हुए सुदीपा ने कहा और हाथ पकड़ कर उसे अंदर ले आई.

सुदामा: आखिर क्यों हुआ अनुराधा को अपने फैसले पर पछतावा?

अनुराधा पूरे सप्ताह काफी व्यस्त रही और अब उसे कुछ राहत मिली थी. लेकिन अब उस के दिमाग में अजीबोगरीब खयालों की हलचल मची हुई थी. वह इस दिमागी हलचल से छुटकारा पाना चाहती थी. उस की इसी कोशिश के दौरान उस का बेटा सुदेश आ धमका और बोला, ‘‘मम्मी, कल मुझे स्कूल की ट्रिप में जाना है. जाऊं न?’’

‘‘उहूं ऽऽ,’’ उस ने जरा नाराजगी से जवाब दिया, लेकिन सुदेश चुप नहीं हुआ. वह मम्मी से बोला, ‘‘मम्मी, बोलो न, मैं जाऊं ट्रिप में? मेरी कक्षा के सारे सहपाठी जाने वाले हैं और मैं अब कोई दूध पीता बच्चा नहीं हूं. अब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ रहा हूं.’’

उस की बड़ीबड़ी आंखें उस के जवाब की प्रतीक्षा करने लगीं. वह बोली, ‘‘हां, अब मेरा बेटा बहुत बड़ा हो गया है और सातवीं कक्षा में पढ़ रहा है,’’ कह कर अनु ने उस के गाल पर हलकी सी चुटकी काटी.

सुदेश को अब अपेक्षित उत्तर मिल गया था और उसी खुशी मे वह बाहर की ओर भागा. ठीक उसी समय उस के दाएं गाल पर गड्ढा दे कर वह अपनी यादों में खोने लगी.

अनु को याद आई सुदेश के पिता संकेत से पहली मुलाकात. जब दोनों की जानपहचान हुई थी, तब संकेत के गाल पर गड्ढा देख कर वह रोमांचित हुई थी. एक बार संकेत ने उस से पूछा था, ‘‘तुम इतनी खूबसूरत हो, गुलाब की कली की तरह खिली हुई और गोरे रंग की हो, फिर मुझ जैसे सांवले को तुम ने कैसे पसंद किया?’’

इस पर अनु नटखट स्वर में हंसतेहंसते उस के दाएं गाल के गड्ढे को छूती हुई बोली थी, ‘‘इस गड्ढे ने मुझे पागल बना दिया है.’’

यह सुनते ही संकेत ने उसे बांहों में भर लिया था. यही थी उन के प्रेम की शुरूआत. दोनों के मातापिता इस शादी के लिए राजी हो गए थे. दोनों ग्रेजुएट थे. वह एक बड़ी फर्म में अकाउंटैंट के पद पर काम कर रहा था. उस फर्म की एक ब्रांच पुणे में भी थी.

दोपहर को अनु घर में अकेली थी. सुदेश 3 दिन के ट्रिप पर बाहर गया हुआ था और इधर क्रिसमस की छुट्टियां थीं. हमेशा घर के ज्यादा काम करने वाली अनु ने अब थोड़ा विश्राम करना चाहा था. अब वह 35 पार कर चुकी थी और पहले जैसी सुडौल नहीं रही थी. थोड़ी सी मोटी लगने लगी थी. लेकिन संकेत के लिए दिल बिलकुल जवान था. वह उस के प्यार में अब भी पागल थी. लेकिन अब उस के प्यार में वह सुगंध महसूस नहीं होती थी.

जब भी वह अकेली होती. उस के मन में तरहतरह के विचार आने लगते. उसे अकसर ऐसा महसूस होता था कि संकेत अब उस से कुछ छिपाने लगा है और वह नजरें मिला कर नहीं बल्कि नजरें चुरा कर बात करता है. पहले हम कितने खुले दिल से बातचीत करते थे, एकदूसरे के प्यार में खो जाते थे. मैं ने उस के पहले प्यार को अब भी अपने दिल के कोने में संभाल कर रखा है. क्या मैं उसे इतनी आसानी से भुला सकती हूं? मेरा दिल संकेत की याद में हमेशा पुणे तक दौड़ कर जाता है लेकिन वह…

उस का दिल बेचैन हो गया और उसे लगा कि अब संकेत को चीख कर बताना चाहिए कि मेरा मन तुम्हारी याद में बेचैन है. अब तुम जरा भी देर न करो और दौड़ कर मेरे पास आओ. मेरा बदन तुम्हारी बांहों में सिमट जाने के लिए तड़प रहा है. कम से कम हमारे लाड़ले के लिए तो आओ, जरा भी देर न करो.

बच्चा छोटा था तब सासूमां साथ में रहती थीं. अनजाने में ही सासूमां की याद में उस की आंखें डबडबा आईं. उसे याद आया जब सुरेश सिर्फ 2 साल का था. घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए उसे नौकरी तो करनी ही थी. ऐसे में संकेत का पुणे तबादला हो गया था.

वे मुंबई जैसे शहर में नए फ्लैट की किस्तें चुकातेचुकाते परेशान थे, लेकिन क्या किया जा सकता था. बच्चे को घर में छोड़ कर औफि जाना उसे बहुत अखरता था, लेकिन सासूमां उसे समझाती थीं, ‘बेटी, परेशान मत हो. ये दिन भी निकल जाएंगे. और बच्चे की तुम जरा भी चिंता मत करो, मैं हूं न उस की देखभाल के लिए. और पुणे भी इतना दूर थोड़े ही है. कभी तुम बच्चे को ले कर वहां चली जाना, कभी वह आ जाएगा.’

सासूमां की यह योजना अनु को बहुत भा गई थी और यह बात उस ने तुरंत संकेत को बता दी थी. फिर कभी वह पुणे जाती तो कभी संकेत मुंबई चला आता. इस तरह यह आवाजाही का सिलसिला चलता रहा. इस दौड़धूप में भी उन्हें मजा आ रहा था.

कुछ दिनों बाद बच्चे का स्कूल जाना शुरू हो गया, तो उस की पढ़ाई में हरज न हो यह सोच कर दोनों की सहमति से उसे पुणे जाना बंद करना पड़ा. संकेत अपनी सुविधा से आता था. इसी बीच उस की सासूमां चल बसीं. उन की तेरही तक संकेत मुंबई  में रहा. तब उस ने अनु को समणया था, ‘अनु, मुझे लगता है तुम बच्चे को ले कर पुणे आ जाओ. वह वहां की स्कूल में पढ़ेगा और तुम भी वहां दूसरी नौकरी के लिए कोशिश कर सकोगी.’

इस प्रस्ताव पर अनु ने गंभीरता से नहीं सोचा था क्योंकि फ्लैट की कई किस्तें अभी चुकानी थीं. उस ने सिर्फ यह किया कि वह अपने बेटे सुरेश को ले कर अपनी सुविधानुसार पुणे चली जाती थी. संकेत दिल खोल कर उस का स्वागत करता था. बच्चे को तो हर पल दुलारता रहता था.

बच्चे की याद में तो उस ने कई रातें जाग कर काटी थीं. वह बेचैनी से करवट बदलबदल कर बच्चे से मिलने के लिए तड़पता था1 उस ने ये सब बातें साफसाफ बता दी थीं, लेकिन अनु ने उसे समणया था, ‘एक बार हमारी किस्तें अदा हो जाएं तो हम इस झंझट से छूट जाएंगे. तुम्हारे अकेलेपन को देख कर मेरा दिल भी रोता है. मेरे साथ तो सुरेश है, रिश्तेदार भी हैं. यहां तुम्हारा तो कोई नहीं. तुम्हें औफिस का काम भी घर ला कर करना पड़ता है, यह जान कर मुझे बहुत दुख होता है. मन तो यही करता है कि तुम जाग कर काम करते हो, तो तुम्हें गरमागरम चाय का कप ला कर दूं, तुम्हारे आसपास मंडराऊं, जिस से तुम्हारी थकावट दूर हो जाए.’

यह सुन कर संकेत का सीना गर्व से फूल जाता था और वह कहता था, ‘तुम मेरे पास नहीं हो फिर भी यादों में तो तुम हमेशा मेरे साथ ही रहती हो.’

अब फ्लैट की सारी किस्तों की अदायगी हो चुकी थी और फ्लैट का मालिकाना हक भी उन्हें मिल चुका था. सुदेश अब सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था. उस ने फैसला कर लिया कि अब वह कुछ दिनों के लिए ही सही पुणे में जा कर रहेगी. सरकारी नौकरी के कारण उसे छुट्टी की समस्या तो थी नहीं.

उस ने संकेत को फोन किया दफ्तर के फोन पर, ‘‘हां, मैं बोल रही हूं.’’

‘‘हां, कौन?’’ उधर से पूछा गया.

‘‘ऐसे अनजान बन कर क्यों पूछ रहे हो, क्या तुम ने मेरी आवाज नहीं पहचानी?’’ वह थोड़ा चिड़चिड़ा कर बोली.

‘‘हां तो तुम बोल रही हो, अच्दी हो न? और सुदेश की पढ़ाई कैसे चल रही है?’’ उस के स्वर में जरा शर्मिंदगी महसूस हो रही थी.

‘‘मैं ने फोन इसलिए किया कि सुदेश 3 दिनों के लिए बाहर गया हुआ है और मैं भी छुट्टी ले रही हूं. अकेलपन से अब बहुत ऊब गई हूं, इसलिए कल सुबह 10 बजे तक तुम्हारे पास पहुंच रही हूं. क्या तुम मुझे लेने आओगे स्टेशन पर?’’

‘‘तुम्हें इतनी जल्दी क्यों है? शाम तक आओगी तो ठीक रहेगा, क्योंकि फिर मुझे छुट्टी लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

संकेत का रूखापन अनु को समझने में देर नहीं लगी. एक समय उस से मिलने के लिए तड़पने वाला संकेत आज उसे टालने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उस के प्यार को दिल में संजोने का पूरा प्रयास भी कर रहा था. दरअसल, अब वह दोहरी मानसिकता से गुजर रहा था.

काफी साल अकेले रहने के कारण इस बीच एक 17-18 साल की लड़की से उसे प्यार हो गया था. वह एक बाल विधवा रिश्तेदार थी. वह उस के यहां काम करती थी. वह काफी समझदार, खूबसूरत और सातवीं कक्षा तक पढ़ीलिखी थी. संकेत के सारे काम वह दिल लगा कर किया करती थी और घर की देखभाल भलीभांति करती थी.

कुछ दिनों बाद संकेत के अनुरोध पर चपरासी चाचा की सहमति से वह उसी घर में रहने लगी थी. फिर जबजब अनु वहां जाती तो उसे अपना पूरा सामान समेट कर चाचा के यहां जा कर रहना पड़ता था. यह सिलसिला कई सालों तक चलता रहा.

अभी अनु के आने की खबर मिलते ही वह परेशान हो गया था और अनु से बात करते वक्त उस की जुबान सूखने लगी थी. अब उसे तुरंत घर जा कर पारू को वहां से हटाना जरूरी था. उसे पारू पर दया आती, क्योंकि जबजब ऐसा होता वह काफी समझदारी से काम लेती. उसे अपने मालिक और मालकिन की परवाह थी, क्योंकि उसे उन का ही आसरा था1 कम उम्र में ही उस ने पूरी गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया था.

शाम को अनु संकेत के साथ घर पहुंची तो रसोईघर से जायकेदार भोजन की खुशबू आ रही थी. इस खुशबू से उस की भूख बढ़ गई और उस ने हंसतेहंसते पूछा, ‘‘वाह, इतना अच्छा खाना बनाना तुम ने कब सीखा?’’

वह भी हंसतेहंसते बोला, ‘‘अपनी नौकरानी अभीअभी खाना बना कर गई है.’’

दूसरे दिन सुबहसुबह पारू आई और दोनों के सामने गरमागरम चाय के 2 कप रखे. चाय की खुशबू से वह तृप्त हो गई. थोड़ी देर बाद वह घर के चारों ओर फैले छोटे से बाग में टहलने लगी. घास का स्पर्श पा कर वह विभोर हो उठी. पेड़पौधों की सोंधी महक ने उस का मन मोह लिया.

अचानक उस का ध्यान एक 6-7 साल के बच्चे की ओर गया. वह वहां अकेला ही लट्टू घुमाने के खेल में खोया हुआ था. धीरेधीरे वह उस की ओर बढ़ी तो वह भागने की कोशिश करने लगा. अनु ने उस की छोटी सी कलाई पकड़ ली और बोली, ‘‘मैं कुछ नहीं करूंगी. ये बताओ तुम्हारा नाम क्या है?’’

वह घबरा गया तो कुछ नहीं बोला और सिर्फ देखता ही रह गया. उस के फूले हुए गाल और बड़ीबड़ी आंखें देख कर अनु को बहुत अच्छा लगा. वह हंस दी तो नादान बालक भी हंसा. उस की हंसी के साथ उस के दाएं गाल का गड्ढा भी मानो उस की ओर देख कर हंसने लगा.

यह देख कर उस का दिल दहल गया क्योंकि वह बच्चा बिलकुल संकेत की तरह दिख रहा था. ऐसा लगा कि संकेत का मिनी संस्करण उस के समाने खड़ा हो गया हो. वह दहलीज पर बैठ गई. उसे लगा कि अब आसमान टूट कर उसी पर गिरेगा और वह खत्म हो जाएगी. एक अनजाने डर से उस का दिल धड़कने लगा. उस का गला सूख गया और सुबह की ठंडीठंडी बयार में भी वह पसीने से तर हो गई. उस की इस स्थिति को वह नन्हा बच्चा समझ नहीं पाया.

‘‘क्या, अब मैं जाऊं?’’ उस ने पूछा.

इस पर अनु ने ठंडे दिल से पूछा, ‘‘तुम कहां रहते हो?’’

वह बोला, ‘‘मैं तो यहीं रहता हूं, लेकिन कल शाम को मैं और मेरी मां चाचा के घर चले गए. सुबह मैं मां के साथ आया तो मां बोलीं, बाहर बगीचे में ही खेलना, घर में मत आना.’’

बोझिल मन से उस ने उस मासूम बच्चे को पास ले कर उस के दाएं गाल के गड्ढे को हलके से चूमा. अब उसे मालूम हुआ कि पारू उस की खातिरदारी इतनी मगन हो कर क्यों करती है, उस की पसंद के व्यंजन क्यों बनाती है.

उसे संकेत के अनुरोध और विनती याद आने लगी, ‘‘हम सब एकसाथ रहेंगे. तुम्हारी और सुरेश की मुझे बहुत याद आती है.’’

लगता है मुझे उस समय उस की बात मान लेनी चाहिए थी. लेकिन मैं ने ऐसा क्या किया? मेरी गलती क्या है? मैं ने भी खुद के लिए नहीं बल्कि अपने परिवार के लिए नौकरी की. वह पुरुष है, इसलिए उस ने ऐसा बरताव किया. उस की जगह अगर मैं होती और ऐसा करती तो? क्या समाज व मेरा पति मुझे माफ कर देता? यहां कुदरत का कानून तो सब के लिए एक जैसा ही है. स्त्रीपुरुष दोनों में सैक्स की भावना एक जैसी होती है, तो उस पर काबू पाने की जिम्मेदारी सिर्फ स्त्री पर ही क्यों?

कहा जाता है कि आज की स्त्री बंधनों से मुक्त है, तो फिर वह बंधनों का पालन क्यों करती है? हम स्त्रियों को बचपन से ही माताएं सिखाती हैं इज्जत सब से बड़ी दौलत होती है, लेकिन उस दौलत को संभालने की जिम्मेदारी क्या सिर्फ स्त्रियों की है?

यह सब सोचते हुए उस के आंसू वह निकले तो उस ने अपने आंचल से पोंछ डाले. उसे रोता देख कर वह बच्चा फिर डर कर भागने की कोशिश करने लगा, तो अनु जरा संभल गई. उस ने उस मासूम बच्चे को अपने पास बिठा लिया और कांपते स्वर में बोली, ‘‘बेटा, तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो, लेकिन तुम ने अब तक अपना नाम नहीं बताया? अब बताओ क्या नाम है तुम्हारा?’’

अब वह बच्चा निडर बन गया था, क्योंकि उसे अब थोड़ा धीरज जो मिल गया था. वह मीठीमीठी मुसकान बिखेरते हुए बोला, ‘‘सुदाम.’’ और फिर बगीचे में लट्टू से खेलने लगा.

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