जिंदगी की उजली भोर- भाग 3

‘‘जब मुझे पता लगा, मैं गांव गया. बूआ भी आईं, काफी बहस हुई. पापा ने अपना पक्ष रखा, बीवी की बीमारी, उन के कहीं न आनेजाने की वजह से वे भी बहुत अकेले हो गए थे. जिंदगी बेरंग और वीरान लगती थी. एक तरह से अम्मी का साथ न के बराबर था. ऐसे में रोशनी से हुई उन की मुलाकात.

‘‘जरूरत और हालात ने दोनों को करीब कर दिया. उस का भी कोई न था, परेशान थी. वह प्रोग्राम में गाने गा कर जिंदगी बसर कर रही थी. दोनों की उम्र में फर्क होने के बाद भी आपस में अच्छा तालमेल हो गया तो शादी ही बेहतर थी.

‘‘पापा अपनी जगह सही थे. यह भी ठीक था कि बीमारी से अम्मी चिड़चिड़ी और रूखी हो गई थीं. वे किसी से मिलना नहीं चाहती थीं. पर अम्मी का गम भी ठीक था. जो हो गया उसे तो निभाना था. बूआ का बेटा बाहर पढ़ने गया था. बूआ अकसर अम्मी के पास रहतीं. पापा दोनों घरों का बराबरी से खयाल रखते. लेकिन अम्मी अंदर ही अंदर घुल रही थीं. जल्दी ही वे सारे दुखों से छुटकारा पा गईं. मैं एक हफ्ता रुक कर वापस आ गया.

‘‘पापा रोशनी को घर ले आए. बूआ और गांव के मिलने वाले पापा से नाराज से थे. मगर रोशनी ने पापा व घर को अच्छे से संभाल लिया. वह मेरा भी बहुत खयाल रखती. रोशनी बहुत कम बोलती. एक अनकही उदासी उस की आंखों में तैरती रहती. मुझ से उम्र में वह 5-6 साल ही बड़ी होगी पर उस में शोखी व चंचलता जरा भी न थी. इसी तरह 1 साल गुजर गया.

‘‘एमबीए के बाद मुझे अहमदाबाद में अच्छी नौकरी मिल गई. अकसर गांव चला जाता. एक बार मैं ने रोशनी में बड़ा फर्क देखा, वह खूब हंसती, मुसकराती, गुनगुनाती, जैसे घर में रौनक उतर आई. पापा भी खूब खुश दिखते. फिर मैं 3-4 माह गांव न जा सका. फिर तुम से शादी तय हो गई. मैं शादी के लिए गांव गया. पर बहुत सन्नाटा था. बस, पापा और बाबू ही घर पर थे. पापा बेहद मायूस टूटेबिखरे से थे. घर में रोशनी नहीं थी. दिनभर पापा चुपचुप रहे. रात जब मेरे पास बैठे तो उदासी से बोले, ‘रोशनी चली गई. मैं ने ही उसे जाने दिया. वह और उस का सहपाठी अजहर बहुत पहले से एकदूसरे को चाहते थे. पर अजहर के मांबाप उस से शादी करने के लिए नहीं माने. वह नाराज हो कर बाहर चला गया. आखिर मांबाप इकलौते बेटे की जुदाई सहतेसहते थक गए. उसे वापस बुलाया और रोशनी से शादी पर राजी हो गए. अजहर आ कर मुझ से मिला, सारी बात बताई. मैं रोशनी की खुशी चाहता था. सारी जिंदगी उसे बांध कर रखने का कोई फायदा न था.

‘‘‘मुझे पता था कि उस ने अकेलेपन और एक सहारा  पाने की मजबूरी में मुझ से शादी की थी. मुझ से शादी के बाद भी वह बुझीबुझी ही रहती थी. बस, जब अजहर ने उसे आने के बारे में बताया तब ही उस के चेहरे पर हंसी खिल उठी. फिर मेरी व उस की उम्र में फर्क भी मुझे ये फैसला करने पर मजबूर कर रहा था. मैं ने उसे अजहर के साथ जाने दिया. बस, एक दुख है, उस की कोख में मेरा अंश पल रहा था. मैं ने उस से वादा किया, बच्चा होने के बाद मैं तलाक दे दूंगा. फिर वह अजहर से शादी कर ले. उसे यह यकीन दिलाया कि बच्चे की पूरी जिम्मेदारी मैं उठाऊंगा. अब बेटा, यह जिम्मेदारी मैं तुम्हें सौंपता हूं कि रोशनी की शादी के पहले तुम उस से बच्चा ले लेना और उस की परवरिश तुम ही करना.  यह मेरी ख्वाहिश और इल्तजा है.’

‘‘रूना, मैं ने उन्हें वचन दिया था कि यह जिम्मेदारी मैं जरूर पूरी करूंगा. अभी तक अजहर ने रोशनी को अलग फ्लैट में बड़ौदा में रखा है. वहीं उस ने बच्ची को जन्म दिया. पापा ने तलाक दे दिया. बस, वह बच्ची के जरा बड़े होने का इंतजार कर रही है ताकि वह बच्ची को हमें सौंप कर अजहर से शादी कर के नई जिंदगी शुरू कर सके. मैं बच्ची के सिलसिले में ही रोशनी से मिलने जाता था. उस की जरूरत का सामान दिला देता था. अजहर ने अपने घर में रोशनी की शादी और बच्ची के बारे में नहीं बताया है. जब हम इस बच्ची को ले आएंगे तो वे दोनों नवसारी जा कर शादी के बंधन में बंध जाएंगे.’’

यह सब सुन कर वह खुशी से भर उठी और इतना समझदार और जिम्मेदार पति पा कर उसे बहुत गर्व हुआ. उसे याद आया, सीमा ने उसे बताया था कि बड़ौदा मौल में समीर एक खूबसूरत औरत के साथ था. तो वह औरत रोशनी थी. अच्छा हुआ, उस ने इस बात को ले कर कोई बवाल नहीं मचाया.

समीर ने रूना का हाथ थाम कर प्यार से कहा, ‘‘रूना, मेरी इच्छा है कि हम रोशनी की बच्ची को अपने पास ला कर अपनी बेटी बना कर रखेंगे, इस में तुम्हारी इजाजत की जरूरत है.’’ समीर ने बड़ी उम्मीदभरी नजरों से रूना को देखा, रूना ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मां खोने का दुख मैं उठा चुकी हूं. मैं बच्ची को ला कर बहुत प्यार दूंगी, अपनी बेटी बना कर रखूंगी. मैं बहुत खुशनसीब हूं कि मुझे आप जैसा शौहर मिला. आप एक बेमिसाल बेटे, एक चाहने वाले शौहर और एक जिम्मेदार भाई हैं. हम कल ही जा कर बच्ची को ले आएंगे. मैं उस का नाम ‘सवेरा’ रखूंगी क्योंकि वह हमारी जिंदगी में एक उजली भोर की तरह आई है.’’

समीर ने खुश हो कर रूना का माथा चूम लिया. उसे सुकून महसूस हुआ कि उस ने पापा से किया वादा पूरा किया. समीर और रूना के चेहरे आने वाली खुशी के खयाल से दमक रहे थे.

जिंदगी की उजली भोर- भाग 1

समीर को बाहर गए 4 दिन हो गए थे. वैसे यह कोई नई बात न थी. वह अकसर टूर पर बाहर जाता था. रूना तनहा रहने की आदी थी. फ्लैट्स के रिहायशी जीवन में सब से बड़ा फायदा यही है कि अकेले रहते हुए भी अकेलेपन का एहसास नहीं होता.

कल शाम रूना की प्यारी सहेली सीमा आई थी. वह एक कंपनी में जौब करती है. उस से देर तक बातें होती रहीं. समीर का जिक्र आने पर रूना ने कहा कि वह मुंबई गया है, कल आ जाएगा.

‘मुंबई’ शब्द सुनते ही सीमा कुछ उलझन में नजर आने लगी और एकदम चुप हो गई. रूना के बहुत पूछने पर वह बोली, ‘‘रूना, तुम मेरी छोटी बहन की तरह हो. मैं तुम से कुछ छिपाऊंगी नहीं. कल मैं बड़ौदा गई थी. मैं एक शौपिंग मौल में थी. ग्राउंडफ्लोर पर समीर के साथ एक खूबसूरत औरत को देख कर चौंक पड़ी. दोनों हंसतेमुसकराते शौपिंग कर रहे थे. क्योंकि तुम ने बताया कि वह मुंबई गया है, इसलिए हैरान रह गई.’’

यह सुन कर रूना एकदम परेशान हो गई क्योंकि समीर ने उस से मुंबई जाने की ही बात कही थी और रोज ही मोबाइल पर बात होती थी. अगर उस का प्रोग्राम बदला था तो वह उसे फोन पर बता सकता था.

सीमा ने उस का उदास चेहरा देख कर उसे तसल्ली दी, ‘‘रूना, परेशान न हो, शायद कोई वजह होगी. अभी समीर से कुछ न कहना. कहीं बात बिगड़ न जाए. रिश्ते शीशे की तरह नाजुक होते हैं, जरा सी चोट से दरक जाते हैं. कुछ इंतजार करो.’’

रूना का दिल जैसे डूब रहा था, समीर ने झूठ क्यों बोला? वह तो उस से बहुत प्यार करता था, उस का बहुत खयाल रखता था. आज सीमा की बात सुन के वह अतीत में खो गई…

मातापिता की मौत उस के बचपन में ही हो गई थी. चाचाचाची ने उसे पाला. उन के बच्चों के साथ वह बड़ी हुई. यों तो चाची का व्यवहार बुरा न था पर उन्हें एक अनचाहे बोझ का एहसास जरूर था. समीर ने उसे किसी शादी में देखा था. कुछ दिनों के बाद उस के चाचा के किसी दोस्त के जरिए उस के लिए रिश्ता आया. ज्यादा छानबीन करने की न किसी को फुरसत थी न जरूरत समझी. सब से बड़ी बात यह थी कि समीर सीधीसादी बिना किसी दहेज के शादी करना चाहता था.

चाची ने शादी 1 महीने के अंदर ही कर दी. चाचा ने अपनी बिसात के मुताबिक थोड़ा जेवर भी दिया. बरात में 10-15 लोग थे. समीर के पापा, एक रिश्ते की बूआ, उन का बेटाबहू और कुछ दोस्त.

वह ब्याह कर समीर के गांव गई. वहां एक छोटा सा कार्यक्रम हुआ. उस में रिश्तेदार व गांव के कुछ लोग शामिल हुए. बूआ वगैरह दूसरे दिन चली गईं. घर में पापा और एक पुराना नौकर बाबू था. घर में अजब सा सन्नाटा, जैसे सब लोग रुकेरुके हों, ऊपरी दिल से मिल रहे हों. वैसे, बूआ ने बहुत खयाल रखा, तोहफे में कंगन दिए पर अनकहा संकोच था. ऐसा लगता था जैसे कोई अनचाही घटना घट गई हो. पापा शानदार पर्सनैलिटी वाले, स्मार्ट मगर कम बोलने वाले थे. उस से वे बहुत स्नेह से मिले. उसे लगा शायद गांव और घर का माहौल ही कुछ ऐसा है कि सभी अपनेअपने दायरों में बंद हैं, कोई किसी से खुलता नहीं. एक हफ्ता वहां रह कर वे दोनों अहमदाबाद आ गए. यहां आते ही उस की सारी शिकायतें दूर हो गईं. समीर खूब हंसताबोलता, छुट्टी के दिन घुमाने ले जाता. अकसर शाम का खाना वे बाहर ही खा लेते. वह उस की छोटीछोटी बातों का खयाल रखता. एक ही दुख था कि उस का मायका नाममात्र था, ससुराल भी ऐसी ही मिली जहां सिवा पापा के कोई न था. शादी को 1 साल से ज्यादा हो गया था पर वह  3 बार ही गांव जा सकी. 2 बार पापा अहमदाबाद आ कर रह कर गए.

एक दिन पापा की तबीयत खराब होने का फोन आया. दोनों आननफानन गांव पहुंचे. पापा बहुत कमजोर हो गए थे. गांव का डाक्टर उन का इलाज कर रहा था. उन्हें दिल की बीमारी थी. समीर ने तय किया कि दूसरे दिन उन्हें अहमदाबाद ले जाएंगे. अहमदाबाद के डाक्टर से टाइम भी ले लिया. दिनभर दोनों पापा के साथ रहे, हलकीफुलकी बातें करते रहे. उन की तबीयत काफी अच्छी रही. रूना ने मजेदार परहेजी खाना बनाया. रात को समीर सोने चला गया. रूना पापा के पास बैठी उन से बातें कर रही थी कि एकाएक उन्हें घबराहट होने लगी. सीने में दर्द भी होने लगा. उस का हाथ थाम कर उन्होंने कातर स्वर में कहा, ‘बेटी, जो हमारे सामने होता है वही सच नहीं होता और जो छिपा है उस की भी वजह होती है. मैं तुम से…’ फिर उन की आवाज लड़खड़ाने लगी. उस ने जोर से समीर को आवाज दी, वह दौड़ा आया, दवा दी, उन का सीना सहलाने लगा. फिर उस ने डाक्टर को फोन कर दिया. पापा थोड़ा संभले, धीरेधीरे समीर से कहने लगे, ‘बेटा, सारी जिम्मेदारियां अच्छे से निभाना और तुम मुझे…मुझे…’

बस, उस के बाद वे हमेशा के लिए चुप हो गए. डाक्टर ने आ कर मौत की पुष्टि कर दी. समीर ने बड़े धैर्य से यह गम सहा और सुबह उन के आखिरी सफर की तैयारी शुरू कर दी. बूआ, बेटाबहू के साथ आ गईं. कुछ रिश्तेदार भी आ गए. गांव के लोग भी थे. शाम को पापा को दफना दिया गया. 2 दिन बाद बूआ और रिश्तेदार चले गए. गांव के लोग मौकेमौके से आ जाते. 10 दिन बाद वे दोनों लौट आए.

वक्त गुजरने लगा. अब समीर पहले से ज्यादा उस का खयाल रखता. कभी चाचाचाची का जिक्र होता तो वह उदास हो जाती. ज्यादा न पढ़ सकने का दुख उसे हमेशा सताता रहता. लेकिन समीर उसे हमेशा समझाता व दिलासा देता. जब कभी वह उस के मांपापा के बारे में जानना चाहती, वह बात बदल देता. बस यह पता चला कि समीर अपने मांबाप की इकलौती औलाद है. 3 साल पहले मां बीमारी से चल बसीं. पढ़ाई अहमदाबाद में और उसे यहीं नौकरी मिल गई. शादी के बाद फ्लैट ले कर यहीं सैट हो गया.

रूना को ज्यादा कुरेदने की आदत न थी. जिंदगी खुशीखुशी बीत रही थी. कभीकभी उसे बच्चे की किलकारी की कमी खलती. वह अकसर सोचती, काश उस के जल्द बच्चा हो जाए तो उस का अकेलापन दूर हो जाएगा. उस की प्यार की तरसी हुई जिंदगी में बच्चा एक खुशी ले कर आएगा. उम्मीद की डोर थामे अपनेआप में मगन, वह इस खुशी का इंतजार कर रही थी.

Valentine’s Day 2024- घरौंदा: कल्पना की ये कैसी उड़ान

विमी के यहां से लौटते ही अचला ने अपने 2 कमरों के फ्लैट का हर कोने से निरीक्षण कर डाला था.विमी का फ्लैट भी तो इतना ही बड़ा है पर कितना खूबसूरत और करीने का लगता है.

छोटी सी डाइनिंग टेबल, बेडरूम में सजा हुआ सनमाइका का डबलबेड, खिड़कियों पर झूलते भारी परदे कितने अच्छे लगते हैं. उसे भी अपने घर में कुछ तबदीली तो करनी ही होगी. फर्नीचर के नाम पर घर में पड़ी मामूली कुरसियां और खाने के लिए बरामदे में रखी तिपाई को देखते हुए उस ने निश्चय कर ही डाला था. चाहे अशोक कुछ भी कहे पर घर की आवश्यक वस्तुएं वह खुद खरीदेगी. लेकिन कैसे? यहीं पर उस के सारे मनसूबे टूट जाते थे.

तनख्वाह कटपिट कर मिली 1 हजार रुपए. उस में से 400 रुपए फ्लैट का किराया, दूध, राशन. सबकुछ इतना नपातुला कि 10-20 रुपए बचाना भी मुश्किल. क्या छोड़े, क्या जोड़े? अचला का सिर भारी हो चला था.

कालेज में गृह विज्ञान उस का प्रिय विषय था. गृहसज्जा में तो उस की विशेष रुचि थी. तब कितनी कल्पनाएं थीं उस के मन में. जब अपना एक घर होगा, तब वह उसे हर कोने से निखारेगी. पर अब…

उस दिन उस ने सजावट के लिए 2 मूर्तियां लेनी चाही थीं, पर कीमत सुनते ही हैरान रह गई, 500 रुपए.

अशोक धीमे से मुसकरा कर बोला था, ‘‘चलो, आगे बढ़ते हैं, यह तो महानगर है. यहां पानी के गिलास पर भी पैसे खर्च होते हैं, समझीं?’’

तब वह कुछ लजा गई थी. हंसी खुद पर भी आई थी.

उसे याद है, शादी से पहले यह सुन कर कि पति एक बड़ी फर्म में है, हजार रुपए तनख्वाह है, बढि़या फ्लैट है. सबकुछ मन को कितना गुदगुदा गया था. महानगर की वैभवशाली जिंदगी के स्वप्न आंखों में झिलमिला गए थे.

‘तू बड़ी भाग्यवान है, अची,’ सखियों ने छेड़ा था और वह मधुर कल्पनाओं में डूबती चली गई थी.

शादी में जो कुछ भारी सामान मिला था, उसे अशोक ने जिद कर के घर पर ही रखवा दिया था. उस ने बड़े शालीन भाव से कहा था, ‘‘इतना सब कहां ढोते रहेंगे, यहीं रहने दो. अंजु के विवाह में काम आ जाएगा. मां कहां तक खरीदेंगी. यही मदद सही.’’

सास की कृतज्ञ दृष्टि तब कुछ सजल हो आई थी. अचला को भी यही ठीक लगा था. वहां उसे कमी ही क्या है? सब नए सिरे से खरीद लेगी.

पर पति के घर आने के बाद उस के कोमल स्वप्न यथार्थ के कठोर धरातल से टकरा कर बिखरने लगे थे.

अशोक की व्यस्त दिनचर्या थी. सुबह 8 बजे निकलता तो शाम को 7 बजे ही घर लौटता. 2 कमरों में इधरउधर चहलकदमी करते हुए अचला को पूरा दिन बिताना पड़ता था. उस पूरे दिन में वह अनेक नईनई कल्पनाओं में डूबी रहती. इच्छाएं उमड़ पड़तीं. इस मामूली चारपाई के बदले यहां आधुनिक डिजाइन का डबलबेड हो, डनलप का गद्दा, ड्राइंगरूम में एक छोटा सा दीवान, जिस पर मखमली कुशन हो. रसोईघर के लिए गैस का चूल्हा तो अति आवश्यक है, स्टोव कितना असुविधा- जनक है. फिर वह बजट भी जोड़ने लगती थी, ‘कम से कम 5 हजार तो चाहिए ही इन सब के लिए, कहां से आएंगे?’

अपनी इन इच्छाओं की पूर्ति के लिए उस ने मन ही मन बहुत कुछ सोचा. फिर एक दिन अशोक से बोली, ‘‘सुनो, दिन भर घर पर बैठीबैठी बोर होती रहती हूं. कहीं नौकरी कर लूं तो कैसा रहे? दोचार महीने में ही हम अपना फ्लैट सारी सुखसुविधाओं से सज्जित कर लेंगे.’’

पर अशोक उसी प्रकार अविचलित भाव से अखबार पर नजर गड़ाए रहा. बोला कुछ नहीं.

‘‘तुम ने सुना नहीं क्या? मैं क्या दीवार से बोल रही हूं?’’ अचला का स्वर तिक्त हो गया था.

‘‘सब सुन लिया. पर क्या नौकरी मिलनी इतनी आसान है? 300-400 रुपए की मिल भी गई तो 100-50 तो आनेजाने में ही खर्च हो जाएंगे. फिर जब पस्त हो कर शाम को घर लौटोगी तो यह ताजे फूल सा खिला चेहरा चार दिन में ही कुम्हलाया नजर आने लगेगा.’’

अशोक ने अखबार हटा कर एक भाषण झाड़ डाला.

सुन कर अचला का चेहरा बुझ गया. वह चुपचाप सब्जी काटती रही. अशोक ने ही उसे मनाने के खयाल से फिर कहा, ‘‘फिर ऐसी जरूरत भी क्या है तुम्हें नौकरी की? छोटी सी हमारी गृहस्थी, उस के लिए जीतोड़ मेहनत करने को मैं तो हूं ही. फिर कम से कम कुछ दिन तो सुखचैन से रहो. अभी इतना तो सुकून है मुझे कि 8-10 घंटे की मशक्कत के बाद घर लौटता हूं तो तुम सजीसंवरी इंतजार करती मिलती हो. तुम्हें देख कर सारी थकान मिट जाती है. क्या इतनी खुशी भी तुम अब छीन लेना चाहती हो?’’

अशोक ने धीरे से अचला का हाथ थाम कर आगे फिर कहा, ‘‘बोलो, क्या झूठ कहा है मैं ने?’’

तब अचला को लगा कि उस के मन में कुछ पिघलने लगा है. वह अपना सिर अशोक के कंधों पर रख कर मधुर स्वर में बोली, ‘‘पर तुम यह क्यों नहीं सोचते कि मैं दिन भर कितनी बोर हो जाती हूं? 6 दिन तुम अपने काम में व्यस्त रहते हो, रविवार को कह देते हो कि आज तो आराम का दिन है. मेरा क्या जी नहीं होता कहीं घूमनेफिरने का?’’

‘‘अच्छा, तो वादा रहा, इस बार तुम्हें इतना घुमाऊंगा कि तुम घूमघूम कर थक जाओ. बस, अब तो खुश?’’

अचला हंस पड़ी. उस के कदम तेजी से रसोईघर की तरफ मुड़ गए. बातचीत में वह भूल गई थी कि स्टोव पर दूध रखा है.

‘ठीक है, न सही नौकरी. जब अशोक को बोनस के रुपए मिलेंगे तब वह एक ही झोंक में सब खरीद लेगी,’ यह सोच कर उस ने अपने मन को समझा लिया था.

तभी अशोक ने उसे आश्चर्य में डालते हुए कहा, ‘‘जानती हो, इस बार हम शादी की पहली वर्षगांठ कहां मनाएंगे?’’

‘‘कहां?’’ उस ने जिज्ञासा प्रकट की.

‘‘मसूरी में,’’ जवाब देते हुए अशोक ने कहा.

‘‘क्या सच कह रहे हो?’’ अचला ने कौतूहल भरे स्वर में पूछा.

‘‘और क्या झूठ कह रहा हूं? मुझे अब तक याद है कि हनीमून के लिए जब हम मसूरी नहीं जा पाए थे तो तुम्हारा मन उखड़ गया था. यद्यपि तुम ने मुंह से कुछ कहा नहीं था, तो भी मैं ने समझ लिया था. पर अब हम शादी के उन दिनों की याद फिर से ताजा करेंगे.’’

कह कर अशोक शरारत से मुसकरा दिया. अचला नईनवेली वधू की तरह लाज की लालिमा में डूब गई.

‘‘पर खर्चा?’’ वह कुछ क्षणों बाद बोली.

‘‘बस, शर्त यही है कि तुम खर्चे की बात नहीं करोगी. यह खर्चा, वह खर्चा… साल भर यही सब सुनतेसुनते मैं तंग आ गया हूं. अब कुछ क्षण तो ऐसे आएं जब हम रुपएपैसों की चिंता न कर बस एकदूसरे को देखें, जिंदगी के अन्य पहलुओं पर विचार करें.’’

‘‘ठीक है, पर तुम तनख्वाह के रुपए मत…’’

‘‘हां, बाबा, सारी तनख्वाह तुम्हें मिल जाएगी,’’ अशोक ने दोटूक निर्णय दिया.

अचला का मन एकदम हलका हो गया. अब इस बंधीबंधाई जिंदगी में बदलाव आएगा. बर्फ…पहाड़…एकदूसरे की बांहों में बांहें डाले वे जिंदगी की सारी परेशानियों से दूर कहीं अनोखी दुनिया में खो जाएंगे. स्वप्न फिर सजने लगे थे.

रेलगाड़ी का आरक्षण अशोक ने पहले से ही करा लिया था. सफर सुखद रहा. अचला को लगा, जैसे शादी अभी हुई है. पहली बार वे लोग हनीमून के लिए जा रहे हैं. रास्ते के मनोरम दृश्य, ऊंचे पहाड़, झरने…सबकुछ कितना रोमांचक था.

उन्होंने देहरादून से टैक्सी ले ली थी. होटल में कमरा पहले से ही बुक था. इसलिए उन्हें मालूम ही नहीं हुआ कि वे इतना लंबा सफर कर के आए हैं. कमरे में पहुंचते ही अचला ने खिड़की के शीशों से झांका. घाटी में सिमटा शहर, नीलीश्वेत पहाडि़यां, घने वृक्ष बड़े सुहावने दिख रहे थे. तब तक बैरा चाय की ट्रे रख गया.

‘‘खाना खा लो, फिर घूमने चलेंगे,’’ अशोक ने कहा और चाय खत्म कर के वह भी उस पहाड़ी सौंदर्य को मुग्ध दृष्टि से देखने लगा.

खाना भी कितना स्वादिष्ठ था. अचला हर व्यंजन की जी खोल कर तारीफ करती रही. फिर वे दोनों ऊंचीनीची पहाडि़यां चढ़ते, हंसी और ठिठोली के बीच एकदूसरे का हाथ थामे आगे बढ़ते, कलकल करते झरने और सुखद रमणीय दृश्य देखते हुए काफी दूर चले गए. फिर थोड़ी देर दम लेने के लिए एक ऊंची चट्टान पर कुछ क्षणों के लिए बैठ गए.

‘‘सच, मैं बहुत खुश हूं, बहुत…’’

‘‘हूं,’’ अशोक उस की बिखरी लटों को संवारता रहा.

‘‘पर, एक बात तो तुम ने बताई ही नहीं,’’ अचला को कुछ याद आया.

‘‘क्या?’’ अशोक ने पूछा.

‘‘खर्चने को इतना पैसा कहां से आया? होटल भी काफी महंगा लगता है. किराया, खानापीना और घूमना, यह सब…’’

‘‘तुम्हें पसंद तो आया. खर्च की चिंता क्यों है?’’

‘‘बताओ न. क्यों छिपा रहे हो?’’

‘‘तुम्हें मैं ने बताया नहीं था. असल में बोनस के रुपए मिले थे.’’

‘‘क्या? बोनस के रुपए?’’ अचला बुरी तरह चौंक गई, ‘‘पर तुम तो कह रहे थे…’’ कहतेकहते उस का स्वर लड़खड़ा गया.

‘‘हां, 2 महीने पहले ही मिल गए थे. पर तुम इतना क्यों सोच रही हो? आराम से घूमोफिरो. बोनस के रुपए तो होते ही इसलिए हैं.’’

अचला चुप थी. उस के कदम तो अशोक के साथ चल रहे थे, पर मन कहीं दूर, बहुत दूर उड़ गया था. उस की आंखों में घूम रहा था वही 2 कमरों का फ्लैट. उस में पड़ी साधारण सी कुरसियां, मामूली फर्नीचर. ओफ, कितना सोचा था उस ने…बोनस के रुपए आएंगे तो वह घर की साजसज्जा का सब सामान खरीदेगी. दोढाई हजार में तो आसानी से पूरा घर सज्जित हो सकता था. पर अशोक ने सब यों ही उड़ा डाला. उसे खीज आने लगी अशोक पर.

अशोक ने कई बार टोका, ‘‘क्या सोच रही हो? यह देखो, बर्फ से ढकी पहाडि़यां. यही तो यहां की खासीयत है. जानती हो, इसीलिए मसूरी को पहाड़ों की रानी कहा जाता है.’’

पर अचला कुछ भी नहीं सुन पा रही थी. वह विचारों में डूबी थी, ‘अशोक ने उस के साथ यह धोखा क्यों किया? यदि वहीं कह देता कि बोनस के रुपयों से घूमने जा रहे हैं तो वह वहीं मना कर देती.’ उस का मन उखड़ता जा रहा था.

रात को भी वही खाना था, दिन में जिस की उस ने जी खोल कर तारीफ की थी. पर अब सब एकदम बेस्वाद लग रहा था. वह सोचने लगी, ‘बेमतलब कितना खर्च कर दिया. 100 रुपए रोज का कमरा, 40 रुपए में एक समय का खाना. इस से अच्छा तो वह घर पर ही बना लेती है. इस में है क्या. ढंग के मसाले तक तो सब्जी में पड़े नहीं हैं.’ उसे अब हर चीज में नुक्स नजर आने लगा था.

‘‘देखो, अब खर्च तो हो ही गया, क्यों इतना सोचती हो? रुपए और कमा लेंगे. अब जब घूमने निकले हैं तो पूरा आनंद लो.’’

रात देर तक अशोक उसे मनाता रहा था. पर वह मुंह फेरे लेटी रही. मन उखड़ गया था. उस का बस चलता तो उसी क्षण उड़ कर वापस चली जाती.

गुदगुदे बिस्तर पर पासपास लेटे हुए भी वे एकदूसरे से कितनी दूर थे. क्षण भर में ही सारा माहौल बदल गया. सुबह भी अशोक ने उसे मनाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘चलो, घूम आएं. तुम्हारी तबीयत बहल जाएगी.’’

‘‘कह दिया न, मुझे अब यहां नहीं रहना है. तुम जो भी रुपए वापस मिल सकें ले लो और चलो.’’

‘‘क्या बेवकूफों की तरह बातें कर रही हो. कमरा पहले से ही बुक हो गया है. किराया अग्रिम दिया जा चुका है. अब बहुत किफायत होगी भी तो खानेपीने की होगी. क्यों सारा मूड चौपट करने पर तुली हो?’’ अशोक के सब्र का बांध टूटने लगा था.

पर अचला चाह कर भी अब सहज नहीं हो पा रही थी. वे पहाडि़यां, बर्फ, झरने, जिन्हें देखते ही वह उमंगों से भर उठी थी, अब सब निरर्थक लग रहे थे. क्यों हो गया ऐसा? शायद उस के सोचने- समझने की दृष्टि ही बदल गई थी.

‘‘ठीक है, तुम यही चाहती हो तो रात की बस से लौट चलेंगे. अब आइंदा कभी तुम्हें यह कहने की जरूरत नहीं है कि घूमने चलो. सारा मूड बिगाड़ कर रख दिया.’’

दिन भर में अशोक भी चिड़चिड़ा गया. अचला उसी तरह अनमनी सी सामान समेटती रही.

‘‘अरे, इतनी जल्दी चल दिए आप लोग?’’ पास वाले कमरे के दंपती विस्मित हो कर बोले.

पर बिना कोई जवाब दिए, अपना हैंडबैग कंधे पर लटकाए अचला आगे बढ़ती चली गई. अटैची थामे अशोक उस के पीछे था. बस तैयार खड़ी मिली. अटैची सीट पर रख अशोक धम से बैठ गया.

देहरादून पहुंच कर वे दूसरी बस में बैठ गए. अशोक को काफी देर से खयाल आया कि गुस्से में उस ने शाम का खाना भी नहीं खाया था. उस ने घड़ी देखी, 1 बज रहा था. नींद में आंखें जल रही थीं. पर सोने की इच्छा नहीं थी, वह खिड़की पर बांह रख सिर हथेलियों पर टिकाए या तो सो गया था या सोने का बहाना कर रहा था.

आते समय कितना चाव था. पर अब पूरी रात क्षण भर के लिए भी वे सो नहीं पाए थे. दोनों ही सबकुछ भूल कर अपनेअपने खयालों में गमगीन थे. इस तरह वे परस्पर कटेकटे से घर पहुंचे.

सुबह अशोक का उतरा हुआ पीला चेहरा देख कर अचला सहम गई थी. शायद वह बहुत गुस्से में था. उसे अब अपने किए पर कुछ ग्लानि अनुभव हुई. उस समय तो गुस्से में उस की सोचनेसमझने की शक्ति ही लुप्त हो गई थी. पर अब लग रहा था कि जो कुछ हुआ, ठीक नहीं हुआ. कम से कम अशोक का ही खयाल रख कर उसे सहज हो जाना चाहिए था. कितने उत्साह से उस ने घूमने का प्रोग्राम बनाया था.

कमरे में घुसते ही थकान ने शरीर को तोड़ डाला था, कुरसी पर धम से गिर कर वह कुछ भूल गई थी. कुछ देर बाद ही खयाल आया कि अशोक ने रात भर से बात नहीं की है. कहीं बिना कुछ खाए आफिस न चला गया हो, फिर उठी ही थी कि देखा अशोक चाय बना लाया है.

‘‘उठो, चाय पियोगी तो थकान दूर हो जाएगी,’’ कहते हुए अशोक ने धीरे से उस की ठुड्डी उठाई.

अपने प्रति अशोक के इस विनम्र प्यार को देख वह सबकुछ भूल कर उस के कंधे पर सिर रख कर सिसक पड़ी, ‘‘मुझे माफ कर दो. पता नहीं क्या हो जाता है.’’

‘‘अरे, यह क्या, गलती तो मेरी ही थी. यदि मुझे पता होता कि तुम्हें घर की चीजों का इतना अधिक शौक है तो घूमने का प्रोग्राम ही नहीं बनाते. अब ध्यान रखूंगा.’’

अशोक का स्नेह भरा स्वर उसे नहलाता चला गया. अपने 2 कमरों का घर आज उसे सारे सुखसाधनों से भरापूरा प्रतीत हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘सबकुछ तो है उस के पास. इतना अधिक प्यार करने वाला, उस के सारे गुनाहों को भुला कर इतने स्नेह से मनाने वाला विशाल हृदय का पति पा कर भी वह अब तक बेकार दुखी होती रही है.’

‘‘नहीं, अब कुछ नहीं चाहिए मुझे. कुछ भी नहीं…’’ उस के होंठ बुदबुदा उठे. फिर अशोक के कंधे पर सिर रखे वह सुखद अनुभीति में खो गई.

काली सोच : क्या शुभा खुद को माफ कर पाई

अंधविश्वास, पुरातनपंथी और कट्टरवादी सोच ने न जाने कितनों का घर उजाड़ा है. शुभा की आंखों पर भी न जाने क्यों इन्हीं सब का परदा पड़ा हुआ था, जिस का परिणाम इतना भयावह होगा, इस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

लेखन कला मुझे नहीं आती, न ही वाक्यों के उतारचढ़ाव में मैं पारंगत हूं. यदि होती तो शायद मुझे अपनी बात आप से कहने में थोड़ी आसानी रहती. खुद को शब्दों में पिरोना सचमुच क्या इतना मुश्किल होता है?

बाहर पूनम का चांद मुसकरा रहा है. नहीं जानती कि वह मुझ पर, अपनेआप पर या किसी और पर मुस्कुरा रहा है. मैं तो बस इतना जानती हूं कि वह भी पूनम की ऐसी ही एक रात थी जब मैं अस्पताल के आईसीयू के बाहर बैठी अपने गुनाहों के लिए बेटी से माफी मांग रही थी, ‘मुझे माफ कर दे बेटी. पाप किया है मैं ने, महापाप.’

मानसी, मेरी इकलौती बेटी, भीतर आईसीयू में जीवन और मौत के बीच झूल रही है. उस ने आत्महत्या करने की कोशिश की, यह तो सभी जानते हैं पर यह कोई नहीं जानता कि उसे इस हाल तक लाने वाली मैं ही हूं. मैं ने उस मासूम के सामने कोई और रास्ता छोड़ा ही कहां था?

कहते हैं आत्महत्या करना कायरों का काम है पर क्या मैं कायर नहीं जो भविष्य की दुखद घटनाओं की आशंका से वर्तमान को ही रौंदती चली आई?

हर मां का सपना होता है कि वह अपनी नाजों से पाली बेटी को सोलहशृंगार में पति के घर विदा करे. मैं भी इस का अपवाद नहीं थी. तिनकातिनका जोड़ कर जैसे चिड़िया अपना घोंसला बनाती है. वैसे ही मैं भी मानसी की शादी के सपने संजोती गई. वह भी मेरी अपेक्षाओं पर हमेशा खरी उतरी. वह जितनी सुंदर थी उतनी ही मेधावी भी. शांत, सुसभ्य, मृदुभाषिणी मानसी घरबाहर सब की चहेती थी. एक मां को इस से ज्यादा और क्या चाहिए?

‘देखना अपनी लाडो के लिए मैं चांद सा दूल्हा लाऊंगी,’ मैं सुशांत से कहती तो वे मुसकरा देते.

उस दिन मानसी की 12वीं कक्षा का परिणाम आया था. वह पूरे स्टेट में फर्स्ट आईर् थी. नातेरिश्तेदारों की तरफ से बधाइयों का तांता लगा हुआ था. हमारे पड़ोसी व खास दोस्त विनोद भी हमारे घर आए थे मिठाई ले कर.

‘मिठाई तो हमें खिलानी चाहिए भाईसाहब, आप ने क्यों तकलीफ की,’ सुशांत ने गले मिलते हुए कहा तो वे बोले, ‘हां हां, जरूर खाएंगे. सिर्फ मिठाई ही क्यों? हम तो डिनर भी यहीं करेंगे, लेकिन पहले आप मेरी तरफ से मुंह मीठा कीजिए. रोहित का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया है.’

‘फिर तो आज दोहरी खुशी का दिन है. मानसी ने 12वीं में टौप किया है. मैं ने मिठाई की प्लेट उन की ओर बढ़ाई.’

‘आप चाहें तो हम यह खुशी तिहरी कर लें,’ विनोद ने कहा.

‘हम समझे नहीं,’ मैं अचकचाई.

‘अपनी बेटी मानसी को हमारे आंचल में डाल दीजिए. मेरी बेटी की कमी पूरी हो जाएगी और आप की बेटे की,’ मिसेज विनोद बड़ी मोहब्बत से बोली.

‘देखिए भाभीजी, आप के विचारों की मैं इज्जत करती हूं, लेकिन मुंह रहते कोई नाक से पानी नहीं पीता. शादीविवाह अपनी बिरादरी में ही शोभा देते हैं,’ इस से पहले कि सुशांत कुछ कहते मैं ने सपाट सा उत्तर दे दिया.

‘जानती हूं मैं. सदियों पुरानी मान्यताएं तोड़ना आसान नहीं होता. हमें भी काफी वक्त लगा है इस फैसले तक पहुंचने में. आप भी विचार कर देखिएगा,’ कहते हुए वे लोग चले गए.

‘इस में हर्ज ही क्या है शुभा? दोनों बच्चे बचपन से एकदूसरे को जानते हैं, समझते हैं. सब से बढ़ कर बौद्धिक और वैचारिक समानता है दोनों में. मेरे खयाल से तो हमें इस रिश्ते के लिए हां कह देनी चाहिए.’ सुशांत ने कहा तो मेरी त्योरियां चढ़ गईं.

‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है. आलते का रंग चाहे जितना शोख हो, उस का टीका नहीं लगाते. कहां वो, कहां हम उच्चकुलीन ब्राह्मण. हमारी उन की भला क्या बराबरी? दोस्ती तक तो ठीक है, पर रिश्तेदारी अपनी बराबरी में होनी चाहिए. मुझे यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं है.’

‘एक बार खुलेमन से सोच कर तो देखो. आखिर इस में बुराई ही क्या है? दीपक ले कर ढूंढ़ेंगे तो भी ऐसा दामाद हमें नहीं मिलेगा’, सुशांत ने कहा.

‘मुझे जो कहना था मैं ने कह दिया. तुम्हें इतना ही पसंद है तो कहीं से मुझे जहर ला दो. अपने जीतेजी तो मैं यह अनर्थ नहीं होने दूंगी. अरे, रिश्तेदार हैं, समाज है उन्हें क्या मुंह दिखाएंगे. दस लोग दस तरह के सवाल पूछेंगे, क्या जवाब देंगे उन्हें हम?’

मैं ने कहा तो सुशांत चुप हो गए. उस दिन मैं ने मानसी को ध्यान से देखा. वाकई मेरी गुडि़या विवाहयोग्य हो गई थी. लिहाजा, मैं ने पुरोहित को बुलावा भेजा.

‘बिटिया की कुंडली में तो घोर मंगल योग है बहूरानी. पतिसुख से यह वंचित रहेगी. पुरोहित के मुख से यह सुन कर मेरा मन अनिष्ट की आशंका से कांप उठा. मैं मध्यवर्गीय धर्मभीरू परिवार से थी और लड़की के मंगला होने के परिणाम से पूरी तरह परिचित थी. मैं ने लगभग पुरोहित के पैर पकड़ लिए, ‘कोई उपाय बताइए पुरोहितजी. पूजापाठ, यज्ञहवन, मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. मुझे कैसे भी इस मंगल दोष से छुटकारा दिलाइए.’

‘शांत हो जाइए बहूरानी. मेरे होते हुए आप को परेशान होने की बिलकुल भी जरूरत नहीं है,’ उन्होंने रसगुल्ले को मुंह में दबाते हुए कहा, ‘ऐसा कीजिए, पहले तो बिटिया का नाम मानसी के बजाय प्रिया रख दीजिए.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है पंडितजी. इस उम्र में नाम बदलने के लिए न तो बिटिया तैयार होगी न उस के पापा. वे कुंडली मिलान के लिए भी तैयार नहीं थे.’

‘तैयार तो बहूरानी राजा दशरथ भी नहीं थे राम वनवास के लिए.’ पंडितजी ने घोर दार्शनिक अंदाज में मुझे त्रियाहट का महत्त्व समझाया व दक्षिणा ले कर चलते बने.

‘आज से तुम्हारा नाम मानसी के बजाय प्रिया रहेगा,’ रात के खाने पर मैं ने बेटी को अपना फैसला सुना दिया.

‘लेकिन क्यों मां, इस नाम में क्या बुराई है?’

‘वह सब मैं नहीं जानती बेटा, पर मैं जो कुछ भी कर रही हूं तुम्हारे भले के लिए ही कर रही हूं. प्लीज, मुझे समझने की कोशिश करो.’

उस ने मुझे कितना समझा, कितना नहीं, यह तो मैं नहीं जानती पर मेरी बात का विरोध नहीं किया.

हर नए रिश्ते के साथ मैं उसे हिदायतों का पुलिंदा पकड़ा देती.

‘सुनो बेटा, लड़के की लंबाई थोड़ा कम है, इसलिए फ्लैटस्लीपर ही पहनना.’

‘लेकिन मां फ्लैटस्लीपर तो मुझ पर जंचते नहीं हैं.’

‘देखो प्रिया, यह लड़का 6 फुट का है. इसलिए पैंसिलहील पहनना.’

‘लेकिन मम्मी मैं पैंसिलहील पहन कर तो चल ही नहीं सकती. इस से मेरे टखनों में दर्द होता है.’

‘प्रिया, मौसी के साथ पार्लर हो आना. शाम को कुछ लोग मिलने आ रहे हैं.’

‘मैं नहीं जाऊंगी. मुझे मेकअप पसंद नहीं है.’

‘बस, एक बार तुम्हारी शादी हो जाए, फिर करती रहना अपने मन की.’

मैं सुबकने लगती तो प्रिया हथियार डाल देती.

पर मेरी सारी तैयारियां धरी की धरी रह जातीं जब लड़के वाले ‘फोन से खबर करेंगे’, कहते हुए चले जाते या फिर दहेज में मोटी रकम की मांग करते, जिसे पूरा करना किसी मध्यवर्गीय परिवार के वश की बात नहीं थी.

‘ऐसा कीजिए बहूरानी, शनिवार की सुबह 3 बजे बिटिया से पीपल के फेरे लगवा कर ग्रहशांति का पाठ करवाइए,’ पंडितजी ने दूसरी युक्ति सुझाई.

‘तुम्हें यह क्या होता जा रहा है मां, मैं ये जाहिलों वाले काम बिलकुल नहीं करूंगी,’ प्रिया गुस्से से भुनभुनाई, ‘पीपल के फेरे लगाने से कहीं रिश्ते बनते हैं.’

‘सच ही तो है, शादियां यदि पीपल के फेरे लगाने से तय होतीं तो सारी विवाहयोग्य लड़कियां पीपल के इर्दगिर्द ही घूमती नजर आतीं,’ सुशांत ने भी हां में हां मिलाई.

‘चलो, माना कि नहीं होती पर हमें यह सब करने में हर्ज ही क्या है?’

‘हर्ज है शुभा, इस से लड़कियों का मनोबल गिरता है. उन का आत्मसम्मान आहत होता है. बारबार लड़के वालों द्वारा नकारे जाने पर उन में हीनभावना घर कर जाती है. तुम ये सब समझना क्यों नहीं चाहतीं. मानसी को पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने दो. उसे जो बनना है वह बन जाने दो. फिर शादी भी हो जाएगी,’ सुशांत ने मुझे समझाने की कोशिश की.

‘तब तक सारे अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाएंगे, फिर सुनते रहना रिश्तेदारों और पड़ोसियों के ताने.’

‘रिश्तेदारों का क्या है, वे तो कुछ न कुछ कहते ही रहेंगे. उन की बातों से डर कर क्या हम बेटी की खुशियों, उस के सपनों का गला घोंट दें.’

‘तुम कहना क्या चाहते हो, मैं क्या इस की दुश्मन हूं. अरे, लड़कियां चाहे कितनी भी पढ़लिख जाएं, उन्हें आखिर पराए घर ही जाना होता है. घरपरिवार और बच्चे संभालने ही होते हैं और इन सब कामों की एक उम्र होती है. उम्र निकलने के बाद यही काम बोझ लगने लगते हैं.’

‘तो हमतुम मिल कर संभाल लेंगे न इन की गृहस्थी.’

‘संभालेंगे तो तब न जब ब्याह होगा इस का. लड़के वाले तो मंगला सुनते ही भाग खड़े होते हैं.’

हमारी बहस अभी और चलती अगर सुशांत ने मानसी की डबडबाई आंखों को देख न लिया होता.

सुशांत ने ही बीच का रास्ता निकाला था. वे कहीं से पीपल का बोनसाई का पौधा ले आए थे, जिस से मेरी बात भी रह जाए और प्रिया को घर से बाहर भी न जाना पड़े.

साल गुजरते जा रहे थे. मानसी की कालेज की पढ़ाई भी पूरी हो गई थी.

घर में एक अदृश्य तनाव अब हर समय पसरा रहता. जिस घर में पहले प्रिया की शरारतों व खिलखिलाहटों की धूप भरी रहती, वहीं अब सर्द खामोशी थी.

सभी अपनाअपना काम करते, लेकिन यंत्रवत. रिश्तों की गर्माहट पता नहीं कहां खो गईर् थी.

हम मांबेटी की बातें जो कभी खत्म ही नहीं होती थीं, अब हां…हूं…तक ही सिमट गई थीं.

जीवन फिर पुराने ढर्रे पर लौटने लगा था कि तभी एक रिश्ता आया. कुलीन ब्राह्मण परिवार का आईएएस लड़का दहेजमुक्त विवाह करना चाहता था. अंधा क्या चाहे, दो आंखें.

हम ने झटपट बात आगे बढ़ाई. और एक दिन उन लोगों ने मानसी को देख कर पसंद भी कर लिया. सबकुछ इतना अचानक हुआ था कि मुझे लगने लगा कि यह सब पुरोहितजी के बताए उपायोें के फलस्वरूप हो रहा है.

हंसीखुशी के बीच हम शादी की तैयारियों में व्यस्त हो गए थे कि पुरोहित दोबारा आए, ‘जयकारा हो बहूरानी.’

‘सबकुछ आप के आशीर्वाद से ही तो हो रहा है पुरोहितजी,’ मैं ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा.

‘इसीलिए विवाह का मुहूर्त निकालते समय आप ने हमें याद भी नहीं किया,’ वे नाराजगी दिखाते हुए बोले.

‘दरअसल, लड़के वालों का इस में विश्वास ही नहीं है, वे नास्तिक हैं. उन लोगों ने तो विवाह की तिथि भी लड़के की छुट्टियों के अनुसार रखी है, न कि कुंडली और मुहूर्त के अनुसार,’ मैं ने अपनी सफाई दी.

‘न हो लड़के वालों को विश्वास, आप को तो है न?’ पंडित ने छूटते ही पूछा.

‘लड़के वालों की नास्तिकता का परिणाम तो आप की बेटी को ही भुगतना पड़ेगा. यह मंगल दोष किसी को नहीं छोड़ता.’

‘यह तो मैं ने सोचा ही नहीं,’ जैसेतैसे मेरे मुंह से निकला. पुरोहितजी की बात से शादी की खुशी जैसे काफूर गई थी.

‘कुछ कीजिए पुरोहितजी, कुछ कीजिए. अब तक तो आप ही मेरी नैया पार लगाते आ रहे हैं,’ मैं गिड़गिड़ाई.

‘वह तो है बहूरानी, लेकिन इस बार रास्ता थोड़ा कठिन है,’ पुरोहित ने पान की गिलौरी मुंह में डालते हुए कहा.

‘बताइए तो महाराज, बिटिया की खुशी के लिए तो मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हूं,’ मैं ने डबडबाई आंखों से कहा.

‘हर बेटी को आप जैसी मां मिले,’ कहते हुए उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे अपने पास बुलाया, फिर मेरे कान के पास मुंह ले जा कर जो कुछ कहा उसे सुन कर तो मैं सन्न रह गई.

‘यह क्या कह रहे हैं आप? कहीं बकरे या कुत्ते से भी कोई मां अपनी बेटी की शादी कर सकती है.’

‘सोच लीजिए बहूरानी, मंगल दोष निवारण के लिए बस यही एक उपाय है. वैसे भी यह शादी तो प्रतीकात्मक होगी और आप की बेटी के सुखी दांपत्य जीवन के लिए ही होगी.’

‘लेकिन पुरोहितजी, बिटिया के पापा भी तो कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं. उन की सलाह के बिना…’

‘अब लेकिनवेकिन छोडि़ए बहूरानी. ऐसे काम गोपनीय तरीके से ही किए जाते हैं. अच्छा ही है जो यजमान घर पर नहीं हैं.

‘आप कल सुबह 8 बजे फेरों की तैयारी कीजिए. जमाई बाबू (बकरा) को मेरे साथी पुरोहित लेते आएंगे और बिटिया को मेरे घर की महिलाएं संभाल लेंगी.

‘और हां, 50 हजार रुपयों की भी व्यवस्था रखिएगा. ये लोग दूसरों से तो 80 हजार रुपए लेते हैं, पर आप के लिए 50 हजार रुपए पर बात तय की है.’ मैं ने कहते हुए पुरोहितजी चले गए.

अगली सुबह 7 बजे तक पुरोहित अपनी मंडली के साथ पधार चुके थे.

पुरोहिताइन के समझाने पर प्रिया बिना विरोध किए तैयार होने चली गई तो मैं ने राहत की सांस ली और बाकी कार्य निबटाने लगी.

‘मुहूर्त बीता जा रहा है बहूरानी, कन्या को बुलाइए.’ पुरोहितजी की आवाज पर मुझे ध्यान आया कि प्रिया तो अब तक तैयार हो कर आई ही नहीं.

‘प्रिया, प्रिया,’ मैं ने आवाज दी, लेकिन कोई जवाब न पा कर मैं ने उस के कमरे का दरवाजा बजाया, फिर भी कोई जवाब नहीं मिला तो मेरा मन अनजानी आशंका से कांप उठा.

‘सुनिए, कोई है? पुरोहितजी, पंडितजी, अरे, कोई मेरी मदद करो. मानसी, मानसी, दरवाजा खोल बेटा.’ लेकिन मेरी आवाज सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मेरे हितैषी होने का दावा करने वाले पुरोहित बजाय मेरी मदद करने के, अपने दलबल के साथ नौदोग्यारह हो गए थे.

हां, आवाज सुन कर पड़ोसी जरूर आ गए थे. किसी तरह उन की मदद से मैं ने कमरे का दरवाजा तोड़ा.

अंदर का भयावह दृश्य किसी की भी कंपा देने के लिए काफी था. मानसी ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उस की रगों से बहता खून पूरे फर्श पर फैल चुका था और वह खुद एक कोने में अचेत पड़ी थी. मेरे ऊलजलूल फैसलों से बचने का वह यह रास्ता निकालेगी, यह मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था.

पड़ोसियों ने ही किसी तरह हमें अस्पताल तक पहुंचाया और सुशांत को खबर की.

ऐसी बातें छिपाने से भी नहीं छिपतीं. अगली ही सुबह मानसी के ससुराल वालों ने यह कह कर रिश्ता तोड़ दिया कि ऐसे रूढि़वादी परिवार से रिश्ता जोड़ना उन के आदर्शों के खिलाफ है.

‘‘यह सब मेरी वजह से हुआ है,’’ सुशांत से कहते हुए मैं फफक पड़ी.

‘‘नहीं शुभा, यह तुम्हारी वजह से नहीं, तुम्हारी धर्मभीरुता और अंधविश्वास की वजह से हुआ.’’

‘‘ये पंडेपुरोहित तो तुम जैसे लोगों की ताक में ही रहते हैं. जरा सा डराया, ग्रहनक्षत्रों का डर दिखाया और तुम फंस गईं जाल में. लेकिन यह समय इन बातों का नहीं. अभी तो बस यही कामना करो कि हमारी बेटी ठीक हो जाए,’’ कहते हुए सुशांत की आंखें भर आईं.

‘बधाई हो, मानसी अब खतरे से बाहर है,’ डा. रोहित ने आईसीयू से बाहर आते हुए कहा.

‘रोहित, विनोद का बेटा है, मानसी के लिए जिस का रिश्ता मैं ने महज विजातीय होने के कारण ठुकरा दिया था, इसी अस्पताल में डाक्टर है और पिछले 48  घंटों से मानसी को बचाने की खूब कोशिश कर रहा है. किसी अप्राप्य को प्राप्त कर लेने की खुशी मुझे उस के चेहरे पर स्पष्ट दिख रही है. ऐसे समय में उस ने मानसी को अपना खून भी दिया है.

‘क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि रोहित सिर्फ व सिर्फ मेरी बेटी मानसी के लिए ही बना है?

‘मैं भी बुद्धू हूं. मैं ने पहले बहुत गलतियां की हैं. अब और नहीं करूंगी,’ यह सब वह सोच रही थी.

रोहित थोड़ी दूरी पर नर्स को कुछ दवाएं लाने को कह रहा था. उस ने हिम्मत जुटा कर रोहित से आहिस्ता से कहा, ‘‘मानसी ने तो मुझे माफ कर दिया, पर क्या तुम व तुम्हारे परिवार वाले मुझे माफ कर पाएंगे.’’

‘कैसी बातें करती हैं आंटी आप, आप तो मेरी मां जैसी है.’ रोहित ने मेरे जुड़े हुए हाथों को थाम लिया था.

आज उन की भरीपूरी गृहस्थी है. रोहित के परिवार व मेरी बेटी मानसी ने भी मुझे माफ कर दिया है. लेकिन क्या मैं कभी खुद को माफ कर पाऊंगी. शायद कभी नहीं.

इन अंधविश्वासों के चंगुल में फंसने वाली मैं अकेली नहीं हूं. ऐसी घटनाएं हर वर्ग व हर समाज में होती रहती हैं. मैं आत्मग्लानि के दलदल में आकंठ डूब चुकी थी और अपने को बेटी का जीवन बिगाड़ने के लिए कोस रही थी.

जिंदगी की उजली भोर- भाग 2

सीमा ने जो कल बताया कि समीर किसी खूबसूरत औरत के साथ खुशीखुशी शौपिंग कर रहा था, मुंबई के बजाय बड़ौदा में था, उस का सारा सुखचैन एक डर में बदल गया कि कहीं समीर उस खूबसूरत औरत के चक्कर में तो नहीं पड़ गया है. उसे यकीन न था कि समीर जैसा चाहने वाला शौहर ऐसा कर सकता है. सीमा ने उसे समझाया था, अभी कुछ न कहे जब तक परदा रहता है, मर्द घबराता है. बात खुलते ही वह शेर बन जाता है.

समीर दूसरे दिन लौट आया. वही प्यार, वही अपनापन. रूना का उतरा हुआ चेहरा देख कर वह परेशान हो गया. रूना ने सिरदर्द का बहाना बना कर टाला. रूना बारीकी से समीर की हरकतें देखती पर कहीं कोई बदलाव नहीं. उसे लगता कि समीर की चाहत उजली चांदनी की तरह पाक है, पर ये अंदेशे? बहरहाल, यों ही 1 माह गुजर गया.

एक दिन रात में पता नहीं किस वजह से रूना की आंख खुल गई. समीर बिस्तर पर न था. बालकनी में आहट महसूस हुई. वह चुपचाप परदे के पीछे खड़ी हो गई. वह मोबाइल पर बातें कर रहा था, इधर रूना के कानों में जैसे पिघला सीसा उतर रहा था, ‘आप परेशान न हों, मैं हर हाल में आप के साथ हूं. आप कतई परेशान न हों, यह मेरी जिम्मेदारी है. आप बेहिचक आगे बढ़ें, एक खूबसूरत भविष्य आप की राह देख रहा है. मैं हर अड़चन दूर करूंगा.’

इस से आगे रूना से सुना नहीं गया. वह लौटी और बिस्तर पर औंधेमुंह जा पड़ी. तकिए में मुंह छिपा कर वह बेआवाज घंटों रोती रही. आखिरी वाक्य ने तो उस का विश्वास ही हिला दिया. समीर ने कहा था, ‘परसों मैं होटल पैरामाउंट में आप से मिलता हूं. वहीं हम आगे की सारी बातें तय कर लेंगे.’

यह जिंदगी का कैसा मोड़ था? हर तरफ अंधेरा और बरबादी. अब क्या होगा? वह लौट कर चाचा के पास भी नहीं जा सकती. न ही इतनी पढ़ीलिखी थी कि वह नौकरी कर लेती और न ही इतनी बहादुर कि अकेले जिंदगी गुजार लेती. उस का हर रास्ता एक अंधी गली की तरह बंद था.

सुबह वह तेज बुखार से तय रही थी. समीर ने परेशान हो कर छुट्टी के लिए औफिस फोन किया.  उसे डाक्टर के पास ले गया. दिनभर उस की खिदमत करता रहा. बुखार कम होने पर समीर ने खिचड़ी बना कर उसे खिलाई. उस की चाहत व फिक्र देख कर रूना खुश हो गई पर रात की बात याद आते ही उस का दिल डूबने लगता.

दूसरे दिन तबीयत ठीक थी. समीर औफिस चला गया. शाम होने से पहले उस ने एक फैसला कर लिया, घुटघुट कर मरने से बेहतर है सच सामने आ जाए, इस पार या उस पार. अगर दुख  को उस की आखिरी हद तक जा कर झेला जाए तो तकलीफ का एहसास कम हो जाता है. डर के साए में जीने से मौत बेहतर है.

उस दिन समीर औफिस से जल्दी आ गया. चाय वगैरह पी कर, फ्रैश हुआ. वह बाहर जाने को निकलने लगा तो रूना तन कर उस के सामने खड़ी हो गई. उस की आंखों में निश्चय की ऐसी चमक थी कि समीर की निगाहें झुक गईं, ‘‘समीर, मैं आप के साथ चलूंगी उन से मिलने,’’ उस के शब्द चट्टान की मजबूती लिए हुए थे, ‘‘मैं कोई बहाना नहीं सुनूंगी,’’ उस ने आगे कहा.

समीर को अंदाजा हो गया, आंधी अब नहीं रोकी जा सकती. शायद, उस के बाद सुकून हो जाए. समीर ने निर्णयात्मक लहजे में कहा, ‘‘चलो.’’

रास्ता खामोशी से कटा. दोनों अपनीअपनी सोचों में गुम थे. होटल पहुंच कर कैबिन में दाखिल हुए. सामने एक खूबसूरत औरत, एक बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. रूना के दिल की धड़कनें इतनी बढ़ गईं कि  उसे लगा, दिल सीना फाड़ कर बाहर आ जाएगा, गला बुरी तरह सूख रहा था. रूना को साथ देख कर उस के चेहरे पर घबराहट झलक उठी. समीर ने स्थिर स्वर में कहा, ‘‘रोशनी, इन से मिलो. ये हैं रूना, मेरी बीवी. और रूना, ये हैं रोशनी, मेरी मां.’’

रूना को सारी दुनिया घूमती हुई लगी. रोशनी ने आगे बढ़ कर उस के सिर पर हाथ रखा. रूना शर्म और पछतावे से गली जा रही थी. कौफी आतेआते उस ने अपनेआप को संभाल लिया. बच्ची बड़े मजे से समीर की गोद में बैठी थी. समीर ने अदब से पूछा, ‘‘आप कब जाना

चाहती हैं?’’

‘‘परसों सुबह.’’

‘‘कल शाम मैं और रूना आ कर बच्ची को अपने साथ ले जाएंगे,’’ समीर ने कहा.

वापसी का सफर दोनों ने खामोशी से तय किया. रूना संतुष्ट थी कि उस ने समीर पर कोई गलत इल्जाम नहीं लगाया था. अगर उस ने इस बात का बतंगड़ बनाया होता तो वह अपनी ही नजरों में गिर जाती.

घर पहुंच कर समीर ने उस का हाथ थामा और धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘रूना, मैं

बेहद खुश हूं कि तुम ने मुझे गलत नहीं समझा. मैं खुद बड़ी उलझन में था. अपने बड़ों के ऐब खोलना बड़ी हिम्मत का काम है. मैं चाह कर भी तुम्हें बता नहीं सका. करीब 4 साल पहले, पापा ने रोशनी को किसी प्रोग्राम में गाते सुना था. धीरेधीरे उन के रिश्ते गहराने लगे. उस वक्त मैं अहमदाबाद में एमबीए कर रहा था.

‘‘मेरी अम्मी हार्टपेशैंट थीं. अकसर ही बीमार रहतीं. पापा खुद को अकेला महसूस करते. घर का सारा काम हमारा पुराना नौकर बाबू ही करता. ऐसे में पापा की रोशनी से मुलाकात, फिर गहरे रिश्ते बने. रोशनी अकेली थी. रिश्तों और प्यार को तरसी हुई लड़की थी. बात शादी पर जा कर खत्म हुई. अम्मी एकदम से टूट गईं. वैसे पापा ने रोशनी को अलग घर में रखा था. लेकिन दुख को दूरी और दरवाजे कहां रोक पाते हैं.

हिकमत- क्या गरीब परिवार की माया ने दिया शादी के लिए दहेज?

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डायन : दूर हुआ गेंदा की जिंदगी का अंधेरा

केशव हाल ही में तबादला हो कर बस्तर से जगदलपुर के पास सुकुमा गांव में रेंजर पद पर आए थे. जगदलपुर के भीतरी इलाके नक्सलवादियों के गढ़ हैं, इसलिए केशव अपनी पत्नी करुणा और दोनों बच्चों को यहां नहीं लाना चाह रहे थे.

एक दिन केशव की नजर एक मजदूरिन पर पड़ी, जो जंगल में सूखी लकडि़यां बीन कर एक जगह रखती जा रही थी.

वह मजदूरिन लंबा सा घूंघट निकाले खामोशी से अपना काम कर रही थी. उस ने बड़ेबड़े फूलों वाली गुलाबी रंग की ऊंची सी साड़ी पहन रखी थी. वह गोरे रंग की थी. उस ने हाथों में मोटा सा कड़ा पहन रखा था व पैरों में बहुत ही पुरानी हो चुकी चप्पल पहन रखी थी.

उस मजदूरिन को देख कर केशव उस की उम्र का अंदाजा नहीं लगा पा रहे थे, फिर भी अपनी आवाज को नम्र बनाते हुए बोले, ‘‘सुनो बाई, क्या तुम मेरे घर का काम करोगी? मैं अभी यहां नयानया ही हूं.’’

केशव के मुंह से अचानक घर के काम की बात सुन कर पहले तो मजदूरिन घबराई, लेकिन फिर उस ने हामी भर दी.

इस बीच केशव ने देखा, उस मजदूरिन ने अपना घूंघट और नीचे खींच लिया. केशव ने वहां पास ही खड़े जंगल महकमे के एक मुलाजिम को आदेश दिया, ‘‘तोताराम, तुम इस बाई को मेरे घर ले जाओ.’’ तोताराम केशव की बात सुन कर एक अजीब सी हंसी हंसा और सिर झुका कर बोला, ‘‘जी साहब.’’

केशव उस की इस हंसी का मतलब समझ नहीं सके. तोताराम ने तुरंत मजदूरिन की तरफ मुड़ कर कहा, ‘‘चल गेंदा, तुझे साहब का घर दिखा दूं.’’

केशव ने उस मजदूरिन के लंबे घूंघट पर ध्यान दिए बिना ही उस से पूछा, ‘‘तुम हमारे घर के सभी काम कर लोगी न, जैसे कपड़े धोना, बरतन मांजना, घर की साफसफाई वगैरह? मैं यहां अकेला ही रहता हूं.’’

इस पर गेंदा ने धीरे से जवाब दिया, ‘‘जी साहब, आप जो भी काम कहेंगे, मैं कर दूंगी.’’

जब से गेंदा आई थी, केशव को बड़ा आराम हो गया था. लेकिन 8-10 दिन बाद ही केशव ने महसूस किया कि गेंदा के आने के बाद से जंगल महकमे के मुलाजिम और पास के क्वार्टर में रहने वाले लोग उन्हें देख कर हंसी उड़ाने वाले अंदाज में मुसकराते थे.

एक दिन दफ्तर से आ कर चाय पीते हुए केशव गेंदा से बोले, ‘‘तुम मेरे सामने क्यों घूंघट निकाले रहती हो? मेरे सामने तो मुंह खोल कर रहो.’’

यह सुन कर गेंदा कुछ समय तक तो हैरान सी खड़ी रही और अपने पैर के अंगूठे से जमीन खुरचती रही, फिर गेंदा ने घूंघट उलट दिया.

गेंदा का चेहरा देखते ही केशव की चीख निकल गई, क्योंकि गेंदा का चेहरा एक तरफ से बुरी तरह जला हुआ था, जिस के चलते वह बड़ी डरावनी लग रही थी.

गेंदा फफक कर रो पड़ी और रोतेरोते बोली, ‘‘साहब, मैं इसलिए अपना चेहरा छिपा कर रखती हूं, ताकि मुझे देख कर कोई डरे नहीं.’’

केशव ने गेंदा के चेहरे की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘यह तुझे क्या हो गया है? तू कैसे इतनी बुरी तरह जल गई? तेरा रूपरंग देख कर तो लगता है, तू कभी बड़ी खूबसूरत रही होगी?’’

प्रेम के दो शब्द सुन कर गेंदा फिर से रो पड़ी और वापस घूंघट खींच कर उस ने अपना चेहरा छिपा लिया और भरे गले से बोली, ‘‘साहब, मैं ने सोचा था कि घूंघट निकाल कर आप का काम कर दिया करूंगी. मुझ गरीब को भी भरपेट भोजन मिल जाएगा, पर कल से नहीं आऊंगी. आप दूसरी महरी रख लेना.’’

इतना कह कर वह जाने लगी, तो केशव ने उसे रोक कर कहा, ‘‘गेंदा, मैं जानना चाहता हूं कि तुम्हारे साथ क्या हुआ और तुम्हारे परिवार में कौनकौन हैं? मुझे पूरी बात सचसच बताओ.’’

‘‘साहब, मैं आप से कुछ नहीं छिपाऊंगी. मैं ने बचपन से ही बहुत दुख सहे हैं. जब मैं 8 साल की थी, तभी मेरे पिता की मौत हो गई थी. थोड़े दिन बाद मेरी मां ने दूसरी शादी कर ली.

‘‘मेरे सौतेले पिता बहुत ही गंदे थे. वे छोटीछोटी बात पर मुझे मारते थे. मेरी मां मुझे बचाने आती, तो पिता उसे भी पीट देते.

‘‘सौतेले पिता मेरी मां को तो रखना चाहते थे, पर मुझे नहीं. इसलिए मेरी मां ने मेरी शादी करने की सोची.

‘‘मैं बहुत ही खूबसूरत और गोरी थी, इसलिए जैसे ही मैं 10 साल की हुई, मां ने मेरी शादी कर दी और मुझे  ससुराल भेज दिया.

‘‘मेरा पति मुझ से उम्र में 10 साल बड़ा था, ऊपर से दुनिया के सारे ऐब उस में थे. मैं जब 13 साल की थी, तभी मुझे एक बेटी हुई.

‘‘बेटी होने से मेरा पति बहुत चिढ़ गया और मुझे दूसरे मर्दों के साथ सोने के लिए मजबूर करने लगा, ताकि उस की नशे की जरूरत को मैं पूरा कर सकूं. पर इस गलत काम के लिए मैं तैयार नहीं थी. इसलिए मारपीट कर के मुझे डराताधमकाता, लेकिन मैं इस के लिए तैयार नहीं हुई.

‘‘इस बीच 14 साल की उम्र में मुझे दूसरी बेटी हो गई. अब तो उस के जुल्म मुझ पर बहुत बढ़ गए, इस से घबरा कर मैं अपनी दोनों बेटियों के साथ मायके चली आई. वहां भी मुझे चैन नहीं मिला, क्योंकि सौतेले पिता मुझे देखते ही गुस्से में अपना आपा खो बैठे, जिस पर मां ने उन्हें समझाया.’’

गेंदा बात करतेकरते बीच में अपने आंसू भी पोंछती जाती थी. तभी केशव को उस की आपबीती सुनतेसुनते कुछ सुध आई, तो उस ने उठ कर गेंदा को एक गिलास पानी पीने को दिया और उस के सिर पर हाथ फेरा.

उस के बाद गेंदा ने आगे बताया, ‘‘मैं जब मायके पहुंची, तो 5-7 दिन में ही मेरा पति मुझे लेने आ गया और मां को भरोसा दिलाया कि अब मुझे अच्छे से रखेगा. मां भी क्या करतीं. मुझे मेरे पति के साथ वापस भेज दिया.

‘‘कुछ दिन तक तो वह ठीक रहा, फिर वही जिद करने लगा, पराए मर्दों के साथ सोने के लिए. मैं मार खाती रही, पर गलत काम नहीं किया.

‘‘मैं जब 16 साल की थी, तब तीसरी बार मां बनी. इस बार बेटा हुआ था. मेरे 3-3 छोटे बच्चे, ऊपर से मेरा कमजोर शरीर, लेकिन उसे मुझ पर जरा भी तरस नहीं आया, इसलिए मैं बहुत बीमार हो गई.

‘‘मेरी बीमारी से चिढ़ कर मेरा पति मुझे मेरे मायके छोड़ आया. जब मैं मायके आई, तो इस बार सौतेले पिता का बरताव बड़ा अच्छा था, पर मैं क्या जानती थी कि इस अच्छे बरताव के पीछे उन का कितना काला मन है.

‘‘मेरे सौतेले पिता ने 40 हजार रुपए में मुझे बेच दिया था और वह आदमी पैसे ले कर आने वाला था. यह बात मुझे गांव की एक चाची ने बताई. मेरे पास ज्यादा समय नहीं था.

‘‘फिर भी मैं गांव की पुलिस चौकी पर गई और वहां जा कर थानेदार साहब को अपनी बीमारी के बारे में बताया और उन से विनती की कि मेरी बेटियों को कहीं अनाथ आश्रम में रखवा दें.

‘‘वहां के थानेदार भले आदमी थे. उन्हें मेरी हालत दिख रही थी, इसलिए उन्होंने मुझे भरोसा दिया कि तुम इस फार्म पर दस्तखत कर दो, मैं तुम्हारी दोनों बेटियां वहां रखवा दूंगा. जब तुम्हें उन से मिलना हो, वहां जा सकती हो.

‘‘अपनी दोनों बेटियां उन्हें सौंप कर मैं भाग कर अपने पति के पास आ गई. मुझे देख कर मेरा पति बोला, ‘‘आ गई मायके से. वहां तेरे आगे किसी ने दो रोटी नहीं डाली.

‘‘बेटियों के बारे में न उस ने पूछा और न मैं ने बताया. मैं बहुत बीमार थी, इसलिए बेटे को संभाल नहीं पा रही थी. वह बेचारा भी ढंग से देखभाल नहीं होने के चलते इस दुनिया से चला गया.

‘‘मैं अकेली रह गई थी. मैं ने मन में सोचा कि ऐसे पति के साथ रहने से अच्छा है कि कहीं दूसरे गांव में चली जाऊं और मजदूरी कर के अपना पेट पालूं. मेरे पति को पता नहीं कैसे मेरे घर छोड़ने की बात पता चल गई और उस ने चूल्हे पर रखी गरम चाय गुस्से में मेरे चेहरे पर फेंक दी और मुझे एक ठोकर मारता हुआ बोला, ‘अब निकल जा मेरे घर से. तेरा चेहरा ऐसा बिगाड़ दिया है मैं ने कि कोई तेरी तरफ देखेगा भी नहीं.’

‘‘गरम चाय से मैं बुरी तरह जल गई थी. उस ने मुझे घसीटते हुए धक्का मार कर बाहर कर दिया. मैं दर्द से बेहाल  सरकारी अस्पताल में गई. वहां मेरी बुरी हालत देख डाक्टर ने भरती कर लिया.

‘‘जब मैं ठीक हुई, तो पति का गांव छोड़ कर इस गांव में रहने लगी, पर यहां भी मुझे चैन नहीं है. गांव के लफंगे  कहते हैं कि हमें तेरे चेहरे से क्या मतलब, तू अपना घूंघट तो निकाल कर रखती है.

‘‘जब मैं ने सख्ती से दुत्कार दिया, तो वे मुझे डायन कह कर बदनाम कर रहे हैं. गांव में किसी के भी यहां मौत होने पर मुझे ही इस का जिम्मेदार माना जाता है.’’

केशव ने बड़े ही अपनेपन से कहा, ‘‘गेंदा, तुम कहीं नहीं जाओगी. तुम यहीं मेरे पास रहोगी.’’

केशव के ये शब्द सुन कर गेंदा रोती हुई केशव के पैरों से लिपट कर बोली, ‘‘साहब, आप बहुत अच्छे हैं. मुझे बचा लो. इस गांव के लोग मुझे डायन कहते हैं. हो सकता है कि गांव के किसी ऊंची पहुंच वाले के यहां जवान मौत हो जाए, तो ये मुझे मार ही डालेंगे.’’

केशव ने कहा, ‘‘गेंदा, तुम डरो मत. तुम्हें कुछ नहीं होगा.’’

धीरेधीरे गेंदा को केशव के घर में काम करतेकरते एक साल बीत गया, और सबकुछ ठीकठाक सा चल रहा था. शायद तूफान से पहले की शांति जो केशव समझ नहीं पाए.

एक दिन गेंदा काम पर नहीं आई, तो केशव ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया. सोचा, बीमार होगी या बेटियों से मिलने चली गई होगी.

शाम के तकरीबन 4 बजे के करीब तोताराम दौड़ता हुआ आया. वह बहुत डरा हुआ था. उस ने केशव से कहा, ‘‘साहब, जल्दी चलो. गांव के लोग गेंदा को डायन कह कर धमका रहे हैं और उसे जिंदा जलाने जा रहे हैं. क्योंकि गांव के सरपंच का जवान बेटा मर गया है.

‘‘मरा तो वह शराब पी कर है साहब, पर लांछन गेंदा पर लगा रहे हैं कि यह डायन सरपंच के जवान बेटे को खा गई.’’

यह सुन कर केशव हैरान रह गए. उन्होंने सब से पहले पुलिस को फोन किया और तुरंत घटना वाली जगह पर पहुंचने की गुजारिश की और खुद भी वहां चल दिए. वहां का दिल दहला देने वाला सीन देख कर केशव गुस्से से कांपने लगे. तब तक पुलिस भी वहां आ गई थी.

गांव के आदमीऔरत चीखचीख कर गेंदा को डायन कह रहे थे और उसे जिंदा जलाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन पुलिस को देख कर सभी ठिठक गए. तब तक केशव ने दौड़ कर गेंदा को अपनी तरफ खींचा, जो अपनी जान बचाने के लिए डरीसहमी इधरउधर दौड़ रही थी.

केशव ने चिल्ला कर औरतों से कहा, ‘‘तुम औरतों को शर्म आनी चाहिए कि इस बेकुसूर औरत को जिंदा जलाया जा रहा है. अगर तुम्हारी बेटी को कोई डायन कहे और उसे जिंदा जलाए, तो तुम्हें कैसा लगेगा? सरपंच का बेटा छोटी उम्र ले कर आया था, तो यह क्या करे?

‘‘गेंदा ने गांव के आदमियों की गलत बात नहीं मानी, तो उसे डायन कह कर बदनाम कर दिया. यह औरत हिम्मत के साथ इस समाज से अकेले लड़ रही है और अपनी इज्जत बचाए हुए है.

‘‘खबरदार, जो किसी ने इसे हाथ भी लगाया. आज से यह मेरी बहन है और मेरे साथ ही रहेगी. मैं जहां जाऊंगा, यह मेरे साथ ही रहेगी,’’ कह कर केशव उसे अपने साथ ले आए.

वैसे, उस दिन सुकुमा में शाम होने को थी, पर गेंदा की जिंदगी में छाया अंधेरा केशव की हिम्मत से दूर हो गया था.

अपनी मंजिल: क्या था सुदीपा का फैसला

“मां, मैं आप से बारबार कह चुकी हूं कि अभी शादी नहीं करूंगी. मुझे अभी आगे पढ़ाई करनी है,” सुदीपा ने मां के समीप जा कर बड़े प्यार से कहा.

“सुदीपा बेटा, क्या खराबी है लड़के में? इंजीनियर है, ऊंचे खानदान और रसूख वाला है. तेरे पापा के मित्र का लड़का है और अच्छी आमदनी है उस की. शुक्र मनाओ कि जिस शानदार और आरामदायक जिंदगी जीने के लिए अधिकतर लड़कियां केवल सपने देखती आई हैं, वे सारी खुशियां तुम्हें बिना मांगे ही मिल रहा है. 2 हजार गज में बनी शानदार कोठी है उन की…

“दसियों नौकरचाकर वहां एक आवाज पर हाथ बांधे खडे रहते हैं. इतने योग्य और गुणवान लड़के का रिश्ता खुद चल कर तुम्हारे पास आया है. सारे सुख व ऐश्वर्य हैं उस घर में. और क्या चाहिए तुम्हें…” मां ने नाराजगी जाहिर करते हुए सुदीपा के गाल पर हलकी सी चपत लगाई .

मां के गले से लिपटती सुदीपा बोली,”मेरी प्यारी मां, मुझे आगे बढ़ने के लिए पढ़ाई करनी है अभी. मुझे अभी योग्य शिक्षिका बनना है, जिस से कि अपने भीतर समाए ज्ञान को अन्य को बांट सकूं,” सुदीपा मां को मनाने के लिए हरसंभव प्रयास कर रही थी, क्योंकि मां के इनकार करने पर ही यह रिश्ता टल सकता था.

“सुदीपा, तुम एक बार उस लड़के से मिल कर देख तो लो,” सुदीपा को विचार में डूबा देख कर मां ने उस पर आखिरी बात छोड़ते हुए कहा.

एमए की हुई सुदीपा गोरीचिट्टी, लंबी, छरहरी काया वाली आकर्षक युवती थी. संगीत विशारद में विशेष योगदान हेतु गोल्ड मैडलिस्ट थी. उस के पड़ोसी, परिचित, नातेरिश्तेदार आदि सभी सुदीपा के सुंदर व्यक्तित्व एवं हंसमुख व्यवहार की प्रशंसा किए
बिना नहीं रहते थे. जैसे अधिकतर लोग रूपसौंदर्य और सुगढ़ता को देख कर अनायास ही कह उठते हैं कि कुदरत ने इसे बहुत फुरसत में गढ़ा होगा, ऐसे ही रूपवती सुदीपा जब गजगामिनी चाल की मंथर गति से चलती थी तब अनेक चाहने वाले उसे पाने की तमन्ना रखते थे.

मन ही मन उसे चाहने वाले आहें भरते थे और सुदीपा से मिलने के बहाने ढूंढ़ा करते थे. वह तो अपनेआप में खुश रहने वाली मस्त लड़की थी. सुदीपा की कमर तक लहराते बाल बिजलियां गिराती थीं. पतलीपतली और लंबी उंगलियां जब सितार पर राग छेड़तीं तो उसे देखनेसुनने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते.

मां का कहना मान कर एक दिन सुदीपा समीर नाम के उस लड़के से मिली. वह लड़का उसे सुंदर लगा. रूपरंग, व्यक्तित्व के अनुसार वह सुदर्शन नवयुवक था. 2-4 मुलाकातों के बाद सुदीपा को समीर पसंद आ गया था. संयोग से तभी सुदीपा को कालेज में अध्यापिका की नौकरी भी मिल गई थी.

सुदीपा के मम्मीपापा सगाई कर के ही उसे नौकरी पर जाने देने की जिद कर रहे थे. इसलिए मम्मीपापा का दिल रखने के लिए उस ने सगाई की हामी भर दी. नौकरी पर जाने से पहले ही दोनों की धूमधाम से सगाई हो गई थी.

कोमल कुआंरे मन में सुंदर जीवन के अनेक रंगीन सपने सजाए सुदीपा कालेज में पहुंच गई. वह दिल्ली शहर की एक सोसायटी फ्लैट में किराए पर रहने लगी. सगाई हो जाने के कारण समीर काम के सिलसिले में जब दिल्ली आता तो सुदीपा से मिलने चला आता था. दोनों तरफ से रिश्ते की डोर मजबूत हो जाए, एकदूसरे को अच्छी तरह से जानसमझ लें,
इस के लिए वे किसी रेस्तरां में कौफी पीने या कभी डिनर करने चले जाते थे. कभीकभी कोई अच्छी और नई मूवी साथ देखने के लिए मौल भी चले जाते थे.

ऐसे ही उन के बीच प्यार भरी मेलमुलाकातों का सिलसिला जारी था. अब सुदीपा और समीर के बीच घनिष्ठता भरे संबंध पनपने लगे थे. मगर इधर कुछ दिनों से सुदीपा ने एहसास किया था कि समीर में शिष्टाचार और विनम्रता जैसे संस्कारी गुण बहुत कम थे. उस ने कई बार समीर को फोन पर अपनी बात मनवाने के लिए सामने वाले को दबंग टाइप से हड़काते हुए भी सुना था.सुदीपा के साथ होने पर भी लापरवाह सा समीर फोन पर अकसर गालीगलौच कर दिया करता था. सुदीपा आधुनिक और खुले विचारों को दिल में जगह देने वाली संस्कारी और मृदुभाषी लडकी थी.

एक दिन सुदीपा कुछ खरीदारी कर के सोसायटी में प्रवेश कर रही थी. उस के दोनों हाथों में सामान था कि तभी अचानक हाई हील सैंडिल के कारण उस का संतुलन बिगड़ गया और वह डगमगा कर नीचे गिर पड़ी.तभी अचानक एक हाथ ने सहारा दे कर उसे उठाया,”अरे, आप को तो काफी चोटें लगी हैं. मैं आप का सामान समेट देता हूं…” अपने सामने गोरेचिट्टे, लंबे कद के सुंदर नाकनक्श वाले लड़के की आवाज सुन कर वह अचकचा गई.

उस की कुहनियां छिल गई थीं. पैर में मोच आ गई थी. उस लड़के ने अपने कंधे पर उस का हाथ पकड़ कर सहारा दिया,”आइए, मैं आप को कमरे तक छोड़ देता हूं,” वह चुपचाप लगंडाते हुए उस के साथ चल पड़ी.

टेबल पर सामान रख कर लड़के ने कहा,”मैं फस्ट ऐड बौक्स ला कर पट्टी बांध देता हूं,” अब वह लड़का ड्रैसिंग कर रहा था.

वह अब तक स्वयं को काफी संभाल चुकी थी. अकेले कमरे में अनजान लड़के के हाथ में अपना हाथ देख कर सुदीपा के मन को भारतीय संस्कार और परंपराएं घेरने लगीं. लेकिन वह लड़का बड़ी सहजता से उस के हाथ पर दवा लगा कर पट्टी बांध रहा था. उस लड़के के स्पर्श से सुदीपा असहज और रोमांचित हो रही थी,”अब तुम आराम करो मैं चाय बना लाता हूं,” थोड़ी देर में वह ट्रै में चाय और बिस्कुट ले आया.

वे दोनों कुछ देर एकदूसरे के परिवार के बारे में बात करते रहे. चलते समय उस ने एक गहरी नजर डाली और अपना फ्लैट नंबर बता कर बोला,”कोई भी जरूरत हो तो मुझे बता देना. संकोच मत करना…”

जब तक उस के पैर की मोच ठीक नहीं हो गई तब तक वह रोज उस के लिए कभी चाय बना कर लाता, तो कभी सैंडविच ले आता. बाहर से एकसाथ खाना भी और्डर कर देता फिर दोनों साथ ही खाना खाते.

सुदीपा के के मन में प्रेम का पहला एहसास फूटा था. एक अनजान कोमल स्पर्श दिल में तरंगित हो कर रमने लगा था. वह अपने घरसमाज की वर्जनाएं जानती थी. संस्कारित परंपराओं के बंधन में बंधने के बाद भी रूमानियत से भीगा एहसास बंजर मरूस्थल में हरा होने लगा था. समीर का साथ पा कर उस ने कभी ऐसा स्पर्श, स्नेह व अपनेपन का एहसास नहीं जाना था.

सुदीपा के मन की भीतरी परतों में शेखर के प्रति रोमांस का बीज पनपने लगा. शेखर बहुत अपनेपन से उस की देखभाल कर रहा था. उस का साथ मिलने के कारण उसे किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं हुई थी .
अब वह ठीक हो कर कालेज जाने लगी थी.

रात के 8 बज रहे थे. गुलाबी रंग की कैप्री के साथ मैंचिग टौप में लंबी खुली केशराशि के बीच सुदीपा ऐसी लग रही थी जैसे श्यामल घटाओं के बीच दूधिया चांद खिला हो. उस ने मैंचिग ईयर टौप्स के साथ गले में छोटे मोतियों की माला पहनी थी. आज वह बहुत खुश थी. उस का गुलाब की तरह खिला खिला रूप सौंदर्य चित्ताकर्षक था. खुद को आईने में देख कर वह स्वयं ही लजा गई. वह रसोईघर में जा रही थी कि अचानक से बेल बजी. दरवाजा खोल कर देखा तो सामने समीर खडा था,”अरे, समीर तुम?” अकस्मात समीर को सामने देख कर वह अचकचा गई.

“हां मेरी जान, तुम्हारा समीर…” कहतेकहते समीर ने उसे बांहों में उठा कर 3-4 गोल चक्कर से घुमा दिया.

“आज तो तुम बेहद खूबसूरत और रूप की रानी लग रही हो. किस पर बिजली गिराओगी,” समीर ने रोमांटिक अंदाज में कहते हुए खींच कर उसे अपने सीने से लगाना चाहा.

तेज शराब के भभके से सुदीपा का तनमन जलने लगा. वह चिहुंक कर दूर जा खडी हुई. समीर ने आगे बढ़ कर उस की कलाई पकड़ ली. उस ने हाथ छुड़ा कर दूर जाने का प्रयत्न किया, लेकिन समीर की पकड़ से छूट नहीं सकी. समीर जोरजबरदस्ती करने लगा. यों अचानक ऐसे किसी हालात का सामना करना पड़ेगा, उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था.सुदीपा का दिलदिमाग सुन्न हो गया. समीर की बांहों में कसमसा कर दरवाजा खोलते हुए बोली,”समीर, अभी तुम होश में नहीं हो, जाओ.अभी होटल चले जाओ और कल आना.”

“क्यों, कल क्यों मेरी जान, जो होना है आज ही होने दो न. अब तो हम दोनों की शादी भी होने वाली है. इसलिए तुम तो मेरी हो.”

शादी होने वाली है, हुई तो नहीं है न.
फिलहाल, मैं तुम से कोई बात नहीं करना चाहती. प्लीज, तुम यहां से चले जाओ,” सुदीपा ने संयत स्वर में उसे समझाने की कोशिश की.

मगर अपनी मनमरजी पर उतारू समीर ने उस की एक नहीं सुनी. पुरुषत्व के दर्प में चूर, शराब के नशे में मदहोश, समीर के भीतर का जानवर जनूनी हो गया. अपने मंसूबे पूरे न होते देख अब समीर बदतमीजी पर उतर आया. उस के हाथ में सुदीपा का टौप आ गया. जबरदस्ती खींचते हुए टौप चर्रचर्र… कर फटता चला गया.

“यू ब्लडीफूल, तेरी इतनी हिम्मत. तू मुझे मना करती है… अरे, तेरे जैसी पचासों लड़कियां मेरे आगेपीछे घूमती हैं. तू समझती क्या है अपनेआप को…मैं जिस चीज पर हाथ रख देता हूं, वह मेरी हो जाती है…” नशे में समीर की लड़खड़ाती जबान से अंगार बरसने लगे.

जैसे ही वह सुदीपा को पकड़ने के लिए बढ़ा नशे की झोंक में लहराते हुए पीछे को गिर पड़ा. अपनी अस्मिता पर प्रहार होता देख सुदीपा रणचंडी बन गई. उस में न जाने कहां से इतनी शक्ति आ गई कि त्वरित ताकत से मेज पर रखा चाकू हाथ में ले कर डगमगाते समीर को पूरी शक्ति से बाहर धकेल दिया और बिजली की फुरती से दरवाजा बंद कर लिया. समीर बहुत देर तक दरवाजे पर आवाजें देता रहा, लेकिन उस के कान जैसे बहरे हो चुके थे. वह दरवाजे से लगी फूटफूट कर रोने लगी.

वह स्वयं को संयत कर उठी और कटे पेड़ की भांति पलंग पर गिर पड़ी. बिस्तर पर लेटी तो लगा जैसे समीर की ओछी सोच में लिपटे हाथ लंबे हो कर उस की ओर बढ़ रहे हैं. उस ने घबरा कर आंखे बंद कीं तो समीर की लाल घूरती आंखें देख सूखे पत्तों सी कांपने लगी.

सूरज चढ़ आया था. पूरी रात आंखों में कट गई. वह उस दिन को कोस रही थी जब समीर के साथ उस की सगाई हुई थी. लगाव रूमानियत से भीगे मीठे एहसास का प्रेममयी भाव सोच कर शेखर का चेहरा उस की आंखों के समक्ष तैर उठा. उसे इन दोनों की जेहनी सोचसमझ में जमीनआसमान का फर्क नजर आ रहा था.

मोबाइल की घंटी बजने पर न चाहते हुए भी देखा तो मां का फोन था,”मां खुशी से चहकते हुए बता रही थीं,”बेटा, सुबह तुम्हारे पापा के पास समीर के पापा का फोन आया था. वह इसी महीने शादी करने के लिए जोर डाल रहे हैं. कहते हैं कि अगले माह समीर विदेश जा रहा है. वह जल्दी ही तुम दोनों को विवाह बंधन में बांधना चाहते हैं.”

“नहींनहीं… मां, मैं समीर से शादी नहीं करूंगी. मैं उस की शक्ल भी देखना नहीं चाहती. आप मुझे समीर के साथ विवाह की सूली पर मत टांगना. मैं जी नहीं सकूंगी,” कहतेकहते उस की रुलाई फूट पड़ी.

“क्या बात है बेटा? तुम बहुत परेशान लग रही हो,” मां के स्वर में चिंता झलकने लगी.

“हां मां, यहां बहुत कुछ घटा है,” और
उस ने मां को रात की सारी घटना बता दी,”मां, पत्नी का दिल जीतने के लिए पति के मन में भावनात्मक लगाव होता है. पर समीर केवल वासना का लिजलिजा कीडा़ निकला.उसे बस मेरा जिस्म चाहिए था, जिसे वह जबरदस्ती हासिल कर के अपनी मर्दानगी की मुहर लगाना चाहता था. उसे मेरी खुशियों से कोई सरोकार नहीं है…

“मेरी अपनी मंजिल समीर कभी नहीं हो सकता,” कह कर वह बच्चों की तरह बिलखने लगी.

सारी सचाई जान कर मां की आंखों से समीर के गुणी और लायक वर होने का परदा हट चुका था,”अच्छा सुदीपा… बेटा… तू रोना बंद कर और बिलकुल चिंता मत कर. अच्छा ही हुआ कि हमें उस की औकात शादी से पहले पता चल गई,”मां ने बेटी को धीरज बंधाया,” मैं और पापा आज तुम्हारे पास आ रहे हैं. मैं हूं न… तुम्हारी मां अब सब संभाल लेगी…”

सुदीपा ने इत्मीनान की सांस ले कर फोन रख दिया.

अधूरा सा इश्क: क्या था अमन का फैसला

यादों के झरोखे पर आज फिर किसी ने दस्तक दी थी. न चाहते हुए भी अमन का मन उस और खींचता चला गया. अपनी बेटी का आंसुओं से भीगा हुआ चेहरा उसे बारबार कचोट रहा था.

“विनय, मुझे माफ कर दो, मैं तुम से शादी नहीं कर सकती. मैं अपने पापा को धोखा नहीं दे सकती. मैं उन का गुरूर हूं…उन के भरोसे को मैं तोड़ नहीं सकती. हो सके तो मुझे माफ कर देना.”

देर रात श्रेया के कमरे की जलती हुई लाइट को देख अमन के कदम उस ओर बढ़ गए थे. श्रेया की हिचिकियों की आवाजें बाहर तक आ रही थीं. अमन दरवाजे पर कान लगाए खड़ा था. फोन पर उधर किसी ने क्या कहा अमन यह तो नहीं सुन पाया पर श्रेया के शब्द सुन कर उस के पैर कमरे के बाहर ही जम गए. कितना गुस्सा आया था उसे…पिताजी के खिलाफ जा कर उस ने श्रेया का कालेज में दाखिला कराया था और वह…

“आग और भूसे को एकसाथ नहीं रखा जाता. वैसे भी इसे दूसरे घर जाना है. कल कोई ऊंचनीच हो गई तो मुझ से मत कहना.”

अपने बाबा की बात सुन श्रेया संकोच और शर्म से गड़ गई थी. तब अमन ने कितने विश्वास के साथ कहा था,”पिताजी, मुझे श्रेया पर पूरा भरोसा है. वह मेरा सिर कभी झुकने नहीं देगी.”

श्रेया रोतेरोते सो गई. अमन उसे सोता हुआ देख रहा था. उस की छोटी सी गुड़िया कब इतनी बड़ी हो गई… तकिया आंसुओं से गीला हो गया था. बिस्तर के बगल में रखे लैंप की रौशनी में उस का मासूम चेहरा देख अमन का कलेजा मुंह को आ गया. कितना थका सा लग रहा था उस का चेहरा मानों वह मीलों का सफर तय कर के आई हो. कितनी मासूम लग रही थी वह.

उस की श्रेया किसी लड़के के चक्कर में…अभी उस ने दुनिया ही कहां देखी है? आजकल के ये लड़के बाप के पैसों से घुमाएंगेफिराएंगे और फिर छोड़ देंगे. श्रेया के मासूम चेहरे को देख अमन को किसी की याद आ गई. सच मानों तो इतने सालों के बाद भी वह उस चेहरे को भूल नहीं पाया था.

उसे लगा आज किसी ने उसे 25 साल पीछे ला कर खड़ा कर दिया हो. न जाने कितनी ही रातें उस ने उस के खयालों में बिता दी थीं. उस के जाने से कुछ नहीं बदला था, रात भी आई थी…चांद भी आया था पर बस नींद नहीं आई थी.

कितनी बार…हां, न जाने कितनी ही बार वह नींद से जाग कर उठ जाता.तब एक बात दिमाग में आती, जब खयाल और मन में घुमड़ते अनगिनत सवाल और बवाल करने लगे तब तुम आ जाओ. तुम्हारा वह सवाल जनून बन जाएगा और बवाल जीवन का सुकून…आज सोचता हूं तो हंसी आती है. बावरा ही तो था वह…बावरे से मन की यह न जानें कितनी बावरी सी बातें थीं. कोई रात ऐसी नहीं थी जब वह साथ नहीं होती. हां, यह बात अलग थी कि वह साथ हो कर भी साथ नहीं होती. अमन को कभीकभी लगता था कि उस के बिना तो रात में भी रात न होती. शायद इसी को तो इश्क कहते हैं… इतने साल बीत जाने पर भी वह उस को माफ नहीं कर पाया था.

सच कहा है किसी ने मन से ज्यादा उपजाऊ जगह कोई नहीं होती क्योंकि वहां जो कुछ भी बोया जाए उगता जरूर है चाहे वह विचार हो, नफरत हो या प्यार. कुछ ख्वाहिशें बारिश की बूंदों की तरह होती हैं जिन्हें पाने की जीवनभर चाहत होती है. उस चाहत को पाने में हथेलियां तो भीग जाती हैं पर हाथ हमेशा खाली रहता है. उस का प्यार इतना कमजोर था कि वह हिम्मत नहीं कर पाई. बस, कुछ सालों की ही तो बात थी…

“कैसी लग रही हूं मैं..?” खुशी ने मुसकराते हुए अमन से पूछा था. अमन उस के चेहरे में खो सा गया था. लाल सुर्ख जोड़े और मेहंदी लगे हाथों में वस और भी खूबसूरत लग रही थी. वह उसे एकटक देखता रहा और सोचता रहा कि मेरा चांद किसी और की छत पर चमकने को तैयार था.

“तुम हमेशा की तरह खूबसूरत…बहुत खूबसूरत लग रही हो.”

“सच में…”

“क्या तुम्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं, कोई गवाह चाहिए तुम्हें…”

अमन की आंखों में न जाने कितने सवाल तैर रहे थे. ऐसे सवाल जिन का जवाब उस के पास नहीं था. खुशी ने अचकचा कर अपनी आंखें फेर लीं और भरसक हंसने का प्रयास करने लगी. अमन उस मासूम हंसी को कभी नहीं भूल सकता था. न जाने क्या सोच कर वह एकदम से चुप हो गया. उस समय वे दोनों कमरे में अकेले थे. बारात आने वाली थी.सब तैयारी में इधरउधर दौड़भाग रहे थे. कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था.

शायद बारात आ गई थी. भीड़ का शोर बढ़ता जा रहा और खुशी के चेहरे पर बेचैनी भी…वह तेजी से अपनी उंगलियों में दुपट्टे को लपेटती और फिर ढीला छोड़ देती. कुछ था जो उस के हाथों से छूटने जा रहा था पर….खुशी सोच रही थी कि माथे का सिंदूर रिश्ते की निशानी हो सकती है पर क्या प्यार की भी? तब खुशी ने ही बोलना शुरू किया, “अमन, शायद तुम्हें मुझ से, अपने जीवन से शिकायत हो. शायद तुम्हें लगे कुदरत ने हमारा साथ नहीं दिया पर एक बार खिड़की से बाहर उन चेहरों को देखो जो मेरी खुशी के लिए कितने दिनों से दौड़भाग रहे हैं. मेरे पापा से मिल कर देखो, खुशी उन की आंखों से बारबार छलक रही है और मेरी मां… वह भी कितनी खुश है.

“क्या अगर आज हम ने उन की मरजी के खिलाफ जा कर चुपचाप शादी कर ली होती, इतने लोगों को दुख पहुंचा कर हम नए जीवन की शुरुआत कर पाते? तुम्हें शायद मेरी बातें आज न समझ में आए पर एक न एक दिन तुम्हें लगेगा कि मैं गलत नहीं थी. हो सके तो मुझे भूल जाना…”

“भूल जाना…” आसानी से कह दिया था खुशी ने यह सब पर क्या यह इतना आसान था? अमन मुसकरा कर रह गया. उस की मुसकराहट में खुशी को न पा पाने का गम, अपने बेरोजगार होने की मजबूरी बारबार साल रही थी. आज खुशी जिन लोगों का दिल रखने की कोशिश कर रही थी, क्या किसी ने उस का दिल रखने की कोशिश की? खुशी की बहनें जयमाल के लिए खुशी को ले कर चली गईं. अमन काफी देर तक उस स्थान को देखता रहा जहां खुशी बैठी थी. उस के वजूद की खुशबू वह अभी तक महसूस कर रहा था.

खुशी सिर्फ उस के जीवन से नहीं जा रही थी, उस के साथ उस की खुशियां, उस के होने का मकसद को भी ले कर चली गई थी. वह तेजी से उठा और भीड़ में गुम हो गया.

“अरे अमन, वहां क्यों खड़े हो? यहां आओ न… फोटो तो खिंचवाओ,” खुशी की मां ने हुलस कर कहा और वह झट से दोस्तों के साथ मंच पर चढ़ गया. न जाने क्यों खुशी का चेहरा उतर गया था. एक अजीब सा तनाव और गुस्सा अमन के चेहरे पर था, जैसे किसी बच्चे से उस का पसंदीदा खिलौना छीन लिया गया हो. अमन खुशी के पति के पीछे जा कर खड़ा हो गया, जैसे वह खुद को बहला रहा था. जिस जगह पर आज खुशी का पति बैठा है इस जगह पर तो उसे होना चाहिए था.

आज उस का मन यादों के भंवर में घूम रहा था. याद है, आज भी उसे खुशी से वह पहली मुलाकात… फरवरी की गुलाबी ठंड शीतल हवा के झोंके चेहरे से टकरा कर एक अजीब सी मदहोशी में डुबो रहे थे. बादलों से झांकता सूरज बारबार आंखमिचौली कर रहा था.

तभी सामने से आती एक सुंदर सी लड़की जिस ने पीले सलवारकमीज पर चांदी की चूड़ियां डाल रखी थीं, उस पर नजरें टिक गईं. हाथ की कलाई में बंधी घड़ी को उस ने बेचैनी से देखा. शायद उसे क्लास के लिए आज देर हो गई थी. उस के चेहरे पर बिखरी हुई लटें किसी का भी मन मोह लेने में सक्षम थी, हर पल उस के कदम अमन की ओर बढ़ते जा रहे थे और उस के हर बढ़ते हुए कदम के साथ अमन का दिल जोरजोर से धङकने लगा था. सांसें थम सी गई थीं, चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. शायद यह उम्र का असर था या फिर कुछ और, उस की निगाहों की कशिश उसे अपनी ओर खींचने को मजबूर करती थीं. उसे रोज देखने की आदत न जाने कब मुहब्बत में बदल गई.

वे घंटों एकदूसरे के साथ सीढ़ियों पर बैठे रहते थे, उन के मौन के बीच भी कोई था जो बोलता था. एकदूसरे का साथ उन्हें अच्छा लगता था. आज भी उस रास्ते से जब वह गुजरता तो लगता वह उन सीढ़ियों पर बैठा उस का इंतजार कर रहा है और वह अपनी सहेलियों के बीच घिरी कनखियों से उस के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही है.

यहीं…हां, यहीं तो उस ने अपनी शादी का कार्ड पकड़ाया था. न जाने क्यों उस की बोलती और चमकती आंखों में लाल डोरे उभर आए थे. कुछ खोईखोई सी लग रही थी वह… उस दिन भी तो उस ने उस का पसंदीदा रंग पहन रखा था. यह इत्तिफाक था या फिर कुछ और वह आज तक समझ नहीं पाया…

हाथों में वही चांदी की चूड़ियां… लाल सुर्ख कार्ड को उस ने अपनी झुकी पलकों और कंपकंपाते हाथों के साथ अमन को पकड़ाया. पता नहीं वह भ्रम था या फिर कुछ और… उस के गुलाबी होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाए थे पर…हिरनी सी चंचल आंखों से में एक अजीब सा सूनापन था. खालीपन तो उस की आंखों में भी था…

“आओगे न…” इन 2 शब्दों ने उस के कानों तक आतेआते न जाने कितने मीलों का सफर तय किया था. सच ही तो है, हम सब एक सफर में ही तो हैं.

“तुम…तुम सचमुच चाहती हो मैं आऊं?”

आंसू की 2 बूंदें उस कार्ड पर टप से टपक पङे और वह मेरे बिना कोई जवाब दिए दूर बहुत दूर चली गई. कितना गुस्सा आया था उस दिन… एक बार… हां, एक बार भी नहीं सोचा उस ने मेरे बारे में…क्या वह मेरा इंतजार नहीं कर सकती थीं? कितनी शामें मैं ने उस की उस पसंदीदा जगह पर इंतजार किया था पर वह नहीं आई. शायद उसे आना भी नहीं था. खिड़की से झांकता पेड़ मुझ से बारबार पूछता कि क्या वह आएगी? पर नहीं, पार्क में पड़ी लकड़ी की वह बैंच…

आज भी उस बैंच पर गुलमोहर के फूल गिरते हैं, जिन्हें वह अपने नाजुक हाथों में घुमाघुमा अठखेलियां करती थी. बारिश की बूंदें जब उस के चेहरे को छू कर मिट्टी में लोट जाती तब वह उस की सोंधी खुशबू से पागल सी हो जाती. बरगद का वह विशाल पेङ जहां वह अमन के साथ घंटों बैठ कर भविष्य के सपने बुनती, आज भी उस का इंतजार कर रहा था. अपनी नाजुक कलाइयों से वह उस विशाल पेङ को बांधने का निर्रथक प्रयास करती, उस का वह बचपना आज भी अमन को गुदगुदा देता.

अमन सोच रहा था कि शब्द और सोच इंसान की दूरियां बढ़ा देते हैं और कभी हम समझ नहीं पाते और कभी समझा नहीं पाते. कल वह खुशी को समझ नहीं पाया था और आज वह श्रेया को नहीं समझ पा रहा. उस ने तो सिर्फ उतना ही देखा और समझा जितना वह देखना और समझना चाहता था. जिंदगीभर उसे खुशी से शिकायतें रहीं पर एक बार भी उस ने यह सोचा कि खुशी को भी तो उस से शिकायतें हो सकती हैं? वह भी तो उस के पिता से मिल कर उन्हें समझा सकता था? खुशी का दिया जख्म उसे आज तक टीस देता था पर आज श्रेया के प्यार के बारे में जान कर भी वह कुछ नहीं करेगा?

क्या उस नए जख्म को बरदाश्त कर पाएगा? खुशी और श्रेया न जाने क्यों उसे आज एक ही नाव पर सवार लग रहे थे, जो दूसरों का दिल रखने के चक्कर में अपना दिल रखना कब का भूल चुके थे.

सच कहा था उस दिन खुशी ने कि एक दिन मुझे उस की बातें समझ में आएंगी. अमन की आंखें बोझिल हो रही थीं, वह थक गया था अपने विचारों से लड़तेलड़ते…उस की पत्नी नींद के आगोश में थी. अमन खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया. बाहर तेज बारिश हो रही थी. हवा के झोंके ने अमन के तन को भिगो दिया. पानी की तेज धार में पत्ते धूल गए थे और कहीं न कहीं अमन की गलतफहमियां भी… वह निश्चय कर चुका था कि बेशक उस की जिंदगी में खुशी नहीं आ पाई थी मगर मेरी श्रेया किसी की नफरत का शिकार नहीं बनेगी…वह कल ही उस से बात करेगा.

दुनियादारी : सुधा क्यों थी दोगलेपन से परेशान

सुधा स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी कि टैलीफोन की घंटी बज उठी. बाल बनातेबनाते उस ने रिसीवर हाथ में लिया. उधर से आवाज आई, ‘‘सुधा, मैं माला बोल रही हूं.’’

‘‘नमस्ते जीजी.’’

‘‘खुश रहो. क्या कर रही हो? प्रोग्राम बनाया अजमेर आने का?’’

‘जी, अभी तो बस स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी.’’

‘‘स्कूल में ही उलझी रहोगी या अपने परिवार की भी कोई फिक्र करोगी. तुम्हारे ससुर अस्पताल में भरती हैं, उन की कोई परवा है कि नहीं तुम्हें?’’

‘‘पर जीजी, उन की देखभाल करने के लिए आप सब हैं न. जेठजी, जेठानीजी व मामाजी, सभी तो हैं.’’

‘‘हांहां, जानती हूं, सब हैं, पर तुम्हारा भी तो कोई फर्ज है. दुनिया क्या कहेगी, कभी सोचा है? वह तो यही कहेगी न, कि बूढ़ा ससुर बीमार है और बहू को अपने स्कूल से ही फुरसत नहीं है.’’

‘‘पर जीजी, आप तो जानती ही हैं कि अभी परीक्षा का वक्त है और ऐसे में छुट्टी मिलना बहुत मुश्किल है. फिर मेरी कोई जरूरत भी तो नहीं है वहां. समीर वहां पहुंच ही गए हैं. वैसे भी बाबूजी को कोई गंभीर बीमारी नहीं है. सही इलाज मिल गया तो वे जल्दी ही घर आ जाएंगे. 2-4 दिनों में स्कूल के बच्चों की परीक्षा हो जाएगी तो मैं भी आ जाऊंगी.’’

‘‘भई, समीर तो अपनी जगह मौजूद है, पर तुम भी तो बहू हो. लोगों की जबान नहीं पकड़ी जा सकती. मेरी मानो तो आज ही आ जाओ. समाज के रीतिरिवाज और लोकदिखावे के लिए ही सही.’’

‘‘ठीक है जीजी, मैं देखती हूं,’’ कह कर सुधा ने फोन रख दिया और तैयार हो कर स्कूल के लिए चल पड़ी.

रास्तेभर वह सोचती रही कि जीजी ठीक ही कह रही हैं, मुझे वहां जाना ही चाहिए. चाहे यहां बच्चों का भविष्य दांव पर लग जाए. पराए बच्चों के लिए मैं परिवार को तो नहीं छोड़ सकती.

तभी अंतर्मन से कई और आवाजें आईं, ‘छोड़ने के लिए कौन कह रहा है, 2-4 दिनों बाद चली जाना, वहां ज्यादा भीड़ लगाने से क्या होगा.

‘चाहे कुछ भी हो मुझे जाना ही चाहिए. वे मेरे पिता जैसे हैं, मेरा भी कुछ दायित्व है. स्कूल के प्रति कोईर् फर्ज नहीं? बच्चों के भविष्य के प्रति कोई दायित्व नहीं? बीमार व्यक्ति के प्रति दायित्व अधिक होता है और यदि वह ससुर हो तो और भी. वरना लोग कहेंगे कि पराया खून तो पराया ही होता है,’ सुधा का विवेक आखिरकार सुधा के सामाजिकदायित्व के आगे नतमस्तक हो गया.

अगले दिन सुधा सीधे अस्पताल पहुंची, ‘‘नमस्ते जीजी,’’ सुधा ने जीजी के पैर छूते हुए कहा.

‘‘खुश रहो, अच्छा किया आ गईं, बीमार आदमी का क्या भरोसा, कब हालत बिगड़ जाए. कुछ हो जाता तो मन में अफसोस ही रह जाता.’’

‘‘अच्छाअच्छा बोलो जीजी, ऐसे क्यों कह रही हो,’’ जीजी की बात सुन कर सुधा अंदर तक कांप उठी. उस का भावुक मन इस सचाई को स्वीकार नहीं कर पाता था कि इंसान का अंत निश्चित है और जीजी जितने सहज भाव से यह कह रही थीं, उस की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

‘‘थक गई होगी, थोड़ा आराम कर लो. फिर कुछ खापी लेना.’’

‘‘पहले एक नजर बाबूजी को देख लेती.’’

‘‘देख लेना. वे कुछ बोल तो सकते नहीं. वैंटिलेटर पर हैं. तुम पहले नहाधो लो,’’ फिर समीर को आवाज लगा कर बोली, ‘‘जा, कुछ नाश्ता ले आ हमारे लिए. आज कचौड़ी खाने का मन हो रहा है, पास में ही गरमागरम कचौड़ियां उतर रही हैं.

5-7 कचौड़ियां और मसाले वाली चाय मंगा ले, बड़ी जोरों की भूख लगी है,’’ कह कर जीजी वहीं पालथी मार कर बैठ गईं.

सुधा हतप्रभ हो कर जीजी को देखने लगी. उसे अस्पताल में ऐसे वातावरण की उम्मीद न थी. जिस तरह जीजी फोन पर उसे नसीहत दे रही थीं उस से तो यह प्रतीत हो रहा था कि मामला बड़ा गंभीर है और वातावरण बोझिल होगा. यहां तो उलटी गंगा बह रही थी. खैर, भूख तो उसे भी लग रही थी और कचौडि़यां उसे भी पसंद थीं.

‘‘सुधा अब जरा पल्लू सिर पर डाल कर रखना. सब मिलनेजुलने वाले आएंगे. यही समय होता है अपने घर की इज्जत रखने का.’’ नाश्ता करते ही जीजी ने सुधा को सचेत कर दिया जिस से सुधा को वातावरण की गंभीरता का एहसास फिर से होने लगा.

अस्पातल में मिलनेजुलने वालों का सिलसिला चल पड़ा. मौसीमौसाजी, छोटे दादाजी, मामाजी, उन के साले, बेटेबहू और न जाने कौनकौन मिलने आते रहे और जीजी सिसकसिसक कर उन से बतियाती रहीं. सुधा का काम था सब के पैर छूना और चायकौफी के लिए पूछना. वैसे भी, उस की कम बोलने की आदत ऐसे वातावरण में कारगर सिद्ध हो रही थी.

3-4 दिनों बाद बाबूजी की अचानक हालत बिगड़ने लगी. डाक्टर ने सलाह दी, ‘‘अब आप लोग इन्हें घर ले जाइए और सेवा कीजिए. इन की जितनी सांसें बची हैं, वे ये घर पर ही लें तो अच्छा है.’’

डाक्टर की बात सुनते ही सुधा बिलखबिलख कर रोने लगी पर जीजी सब बड़े शांतमन से सुनती रहीं और फिर शुरू हो गए निर्देशों के सिलसिले.

‘‘समीर, भाभी से कहना गंगाजल, तुलसीपत्र, आदि का इंतजाम कर लें. जाते समय रास्ते से धोती जोड़ा, गमछा, नारियल लेने हैं,’’ आदि जाने कितनी बातें जीजी को मुंहजबानी याद थीं. वे कहती जा रही थीं और सब सुनते जा रहे थे.

घर लाने के 3-4 घंटे बाद ही बाबूजी इस संसार से विदा हो गए. सुधा को समझ नहीं आ रहा था कि वह इस समय बाबूजी के मृत्युशोक में निशब्द हो जाए या जीजी की तरह आगे होने वाले आडंबरों के लिए कमर कस ले.

सब काम जीजी के निर्देशानुसार होने लगे. आनेजाने वालों का तांता सा बंध गया. सुबह होते ही घर के सभी पुरुष नहाधो कर सफेदझक कुरता पायजामा पहन कर बैठक में बैठ जाते. बहू होने के नाते सुधा व उस की जेठानी भी बारीबारी स्त्रियों की बैठक में उपस्थित रहती थीं.

‘‘सुधा देख तो इस साड़ी के साथ कौन सी शौल मैच करेगी,’’ रोज सुबह जीजी का यही प्रश्न होता था और इसी प्रश्न के साथ वे अपना सूटकेस खोल कर बैठ जाती थीं.

सूटकेस है या साड़ियों व शौलों का शोरूम और वह भी ऐसे समय. सुधा अभी यह विचार कर ही रही थी कि जीजी बोलीं, ‘‘ऐसे समय में अपनेपरायों सब का आनाजाना लगा रहता है, ढंग से ही रहना चाहिए. यही मौका होता है अपनी हैसियत दिखाने का.’’

जीजी ने सुधा को समझाते हुए कहा तो उस का भावुक मन असमंजस में पड़ गया. वह तो बाबूजी की बीमारी की बात सुन कर 2-4 घरेलू साड़ियां व 1-2 शौल ही ले कर आई थी. उस ने सोचा था, ऐसे समय में किसे सजधज दिखानी है, माहौल गमगीन रहेगा. पर यहां तो मामला अलग ही था. जीजी तो थीं ही सेठानी, घर की अन्य स्त्रियों के भी यही ठाट थे. नहाधो कर बढ़िया साड़ियां पहन कर बतियाने में ही सारा दिन बीतता था. घरेलू काम के लिए गंगाबाई और खाना बनाने के लिए सीताबाई जो थीं.

‘‘जीजी, आज खाने में क्या बनेगा?’ सीताबाई ने पूछा तो जीजी ने सोचने की मुद्रा बनाई और बोलीं, ‘‘बाबूजी को गुलाबजामुन बहुत पसंद थे, गट्टे की सब्जी और मिस्सी रोटी भी बना लो. दही, सब्जी, चावल तो रहेंगे ही. सलाद भी काट लेना. हां, जरा ढंग से ही बनाना. जाने वाला तो चला गया पर ये जीभ निगोड़ी न माने. ऐसीवैसी चीज न भाएगी किसी को.’’

‘‘हां जीजी, देखना ऐसा स्वादिष्ठ खाना बनाऊंगी कि ससुराल जा कर भी याद करेंगी.’’

सुधा मुंहबाए कभी जीजी की ओर देखती तो कभी सीताबाई की ओर. अभी तो बाबूजी को गुजरे 12 दिन भी नहीं हुए थे और यह मंजर.

खैर, बहती गंगा में हाथ धोने के अलावा चारा भी क्या था. सुधा भी वैसे ही करती जैसे अन्य सभी. अचानक से बाहर गाड़ी रुकने की आवाज आई तो सभी चौंक पड़े. ‘‘अरे गोरखपुर वाले चाचाचाचीजी आए हैं. जा सुधा, जा कर बैठक में बैठ जा. हां, पल्लू सिर पर रखना. अभी बाबूजी को गुजरे 12 दिन भी नहीं हुए हैं. ज्यादा कचरपचर मत करना. चाची थोड़ी चालाक हैं. घर के अंदर की बात उगलवाना चाहेंगी. ध्यान रखना कुछ उलटासीधा मत बक देना.’’

सुन कर सुधा हक्कीबक्की रह गई. वही जीजी जो अभी तक परिधानों व पकवानों का चुनाव कर रही थीं, अचानक यों गिरगिट की तरह रंग बदल लेंगी, सोचा भी न था उस ने.

सिर पर पल्लू ओढ़ कर सुधा चाचीजी के पास बैठ गई. कुछ औपचारिक बातों के बाद चाचीजी से रहा न गया. वे पूछ ही बैठीं, ‘‘क्यों सुधा, बंटवारा तो कर गए न भाईजी, जायदाद तो काफी थी उन के नाम.’’ सुधा अब तक इस बेमौसम की बरसात की आदी हो चुकी थी, बोली, ‘‘चाचीजी, वह सब तो भाई लोग जानें. मैं तो अपने काम में इतनी व्यस्त रहती हूं कि इन सब बातों के विषय में सोचने का भी समय नहीं मिलता.’’

अब तक चाचीजी की नजर सुधा के हाथों पर पड़ चुकी थी, ‘‘अरे, यह क्या, सोने की पुरानी चूडि़यां पहन रखी हैं. तेरे पास हीरे की चूड़ी है न. ऐसे मौके पर नहीं पहनेगी तो कब काम आएंगी?’’

जीजी तो जीजी, चाचीजी भी. सुधा हैरान थी. ये सब एक थैली के चट्टेबट्टे हैं या शायद दुनिया की यही रीत है.

उसे अब शर्मिंदगी महसूस होने लगी थी. अपनी नादानी पर भला उस के पास क्या कमी थी गहनों व साड़ियों की जो यों ही मुंह उठा कर चली आई. उस ने अपने हाथों के साथसाथ साड़ी को छिपाने की भी नाकामयाब कोशिश की. उसे लगा कि बिना किसी सजधज के आना उस की भावुकता नहीं, उस की मूर्खता की निशानी है.

उधर अंदर जीजी कीमती पशमीना शौल ओढ़े बतिया रही थीं. जब से बाबूजी की बीमारी की खबर सुनी, एक निवाला गले से न उतरा. दो साड़ी ले दौड़ी आई मैं तो. आखिर बाप था, कोई दूसरा थोड़े था. अरे कुछ जिम्मेदारी भी तो होती है बड़ों की. भाभियां तो मेरी भोली हैं, दुनियादारी नहीं जानतीं.

सुधा, जीजी की इस बात से सहमत थी.

वह तो अब इस  सोच में थी कि जिस धूमधाम से बारहवें दिन की तैयारी करवाई जा रही थी, उस से तो निश्चित ही था कि बड़ी संख्या में मेहमान रहेंगे. सुधा ने एक नजर फिर अपनी साड़ी व चूड़ियों पर डाली. बारहवें दिन भी पहनने के लिए उस के पास इस से बेहतर विकल्प नहीं था और उस दिन चाचीजी जैसी कई और महान हस्तियों का आगमन हो सकता था.

वह बड़ी उलझन में पड़ गई. एक मन तो यह कह रहा था कि ऐसे वक्त में ऐसी सजधज दिखावा ठीक नहीं, दूसरी ओर वही मन उसे समझा रहा था, ‘तुझे भी उस दिन के लिए अच्छी साड़ी व चूड़ियों की व्यवस्था कर लेनी चाहिए क्योंकि यही दुनिया की रीत है और तू भी इसी दुनिया में रहती है.’

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