Mother’s Day 2024- रोटी बेटी : क्या खुलेगी जात पांत की गांठ

बेटी सरोजिनी छात्रावास के अपने कमरे में रचना बहुत उधेड़बुन में बैठी हुई थी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह मनीष के सामने कैसे अपने मन में पड़ी गांठ की गिरह को खोले. कितना बड़ा जोखिम था इस गांठ की गिरह को खोलने में, यह सोच कर ही वह कांप गई.

इस तनाव को झेलने के लिए रचना सुबह से चाय के 3 प्याले हर घंटे के भीतर गटक गई थी. वह जानती थी कि वह मनीष से कितना प्यार करती?है और मनीष… वह तो उस के प्यार में दीवाना है, पागल है. इन हालात में कैसे वह उस बात को कह दे, जिस के बाद कुछ भी हो सकता था. लेकिन फिर उस ने सोचा कि अब समय आ गया है कि कुछ बातें तय हो ही जानी चाहिए. कुछ अनकही बातें अब बताई ही जानी चाहिए.

लेकिन तभी रचना के मन में खयाल आया कि अगर उस ने मनीष से अपनी जाति की चर्चा कर दी, तो कहीं वह उसे खो न बैठे. लेकिन दूसरे ही पल उसे ध्यान में आया कि अगर इस समय मनीष से उस ने अपनी जाति नहीं बताई, तो यह मनीष के साथ धोखा होगा और फिर हमेशा के लिए वह उसे खो सकती है. अगर वह उसे न भी खोए, तो उस का यकीन तो खो ही सकती है.

आखिरकार रचना इस नतीजे पर पहुंची कि जो भी हो, वह मनीष को अपनी जाति बता कर रहेगी, क्योंकि यकीन प्यार का सब से बड़ा सूत्र होता है. अगर एक बार यकीन की डोर टूट गई, तो फिर प्यार की डोर टूटने में पलभर की देरी भी न लगेगी.

अपना पक्का मन बना कर रचना मैडिकल कालेज जाने की तैयारी करने लगी. आज मनीष के साथ उसे रैजिडैंसी  घूमने भी जाना था. रैजिडैंसी घूमने के नाम पर उस का मन गुलाबी हो जाया करता था. यही वह जगह थी, जहां घूमघूम कर उन का प्यार परवान चढ़ा था.

रैजिडैंसी का नाम आते ही रचना के मन में एक कसक सी उठती थी. इसलिए आज उस ने मनीष की पसंद की अमीनाबाद से लाई हुई और उस की भेंट की हुई गुलाबी ड्रैस पहन ली.

मैडिकल कालेज की अपनी क्लास अटैंड करने के बाद दोनों आटोरिकशा के बजाय रिकशा में बैठ कर हाथी पार्क से होते हुए गोमती के किनारे से रैजिडैंसी पहुंच गए.

1857 की क्रांति के समय क्रांतिकारियों ने लखनऊ के नवाब आसफउद्दौला और सआदत अली खां द्वारा बनवाए गए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने इस भवन को बुरी तरह से तहसनहस कर दिया था. लेकिन इस के खंडहर अभी भी इस की भव्यता के गवाह हैं. इस के टूटेफूटे बुर्ज से अभी भी दूर तक लखनऊ के दर्शन किए जा सकते हैं.

‘अंगरेजी साम्राज्य का बेटा’ हैनरी लौरैंस आज भी 2,00 अंगरेजों के साथ यहां की कब्रगाह में हमेशा के लिए

सोया पड़ा है. ?लेकिन यहां की मनोरम घास, फूलों की महक, चिडि़यों की चहचहाहट, छायादार पेड़ों की शीतल छांव और एकांत वातावरण एक रूमानी माहौल पैदा करते हैं, जिस के चलते यहां अनेक प्रेमी जोड़े खिंचे चले आते हैं.

रचना और मनीष ने भी हमेशा की तरह उस पेड़ की छाया में शरण ली, जहां कितनी ही बार वे रूमानी दुनिया में खो चुके थे. लेकिन आज तो रचना के मन में एक ही सवाल सावनभादों के बादलों की तरह उमड़घुमड़ रहा था.

वहां बैठते ही मनीष ने हमेशा की तरह अपना सिर रचना की गोद में रख दिया.

मनीष के बालों को सहलाते हुए रचना ने कहा, ‘‘मनीष, तुम मुझे बहुत चाहते हो न?’’

‘‘रचना, यह भी कोई कहने की बात है.’’

‘‘क्या मैं तुम्हें बहुत अच्छी लगती हूं?’’

‘‘बहुत अच्छी बाबा, बहुत अच्छी,’’ मनीष ने बेपरवाही से कहा.

‘‘क्या तुम्हें पता है कि मैं कौन हूं?’’ रचना ने मनीष की आंखों में आंखें डालते हुए कहा.

मनीष जो अभी तक रचना की उंगलियों को सहला रहा था, इस सवाल को सुन कर अचानक उस के हाथ रुक गए और कुछ अचकचाते हुए उस ने कहा, ‘‘रचना, आज तुम ये कैसी बातें कर रही हो? तुम कौन हो, एक इनसान और कौन? लेकिन, ऐसे रूमानी मौके पर तुम्हें ये सब फालतू की बातें क्यों सूझ रही हैं?’’

‘‘मनीष, ये सब फालतू की बातें नहीं हैं. बहुत दिनों से मैं एक उलझन में हूं. तुम्हें सचाई बता कर मैं इस उलझन को दूर कर लेना चाहती हूं.

‘‘सब से बड़ी बात यह है कि तुम्हें वह सचाई जरूर पता होनी चाहिए, जिस से हमारा प्यार और जिंदगी पर असर पड़ सकता है,’’ रचना अब कुछ ज्यादा ही भावुक हो गई थी.

‘‘ओह रचना, बंद भी करो ये सब बातें. अच्छा, यह बताओ कि वह सचाई क्या?है, जो तुम्हें उलझन में डाले हुए है. पहले तुम्हारी उलझन ही दूर करता हूं.’’

‘‘क्या तुम्हें पता है कि मेरी जाति क्या है?’’

‘‘रचना, ये क्या बेहूदी बातें ले कर बैठ गई हो. हम मैडिकल साइंस के छात्र, जो मनुष्य के शरीर के एकएक अंग को पहचानते हैं और जानते हैं कि सारी दुनिया के इनसानों की बनावट एकजैसी है, चाहे वह किसी भी जाति, नस्ल और धर्म का हो. वह साइंस का छात्र ही क्या, जो जातियों में उलझने के लिए इतनी पढ़ाई करता है?

‘‘और वैसे भी तुम सिसौदिया हो और सिसौदिया राजपूत जाति का गोत्र है. मेरे लिए जैसे मेरी जाति के बनिए वैसे ही राजपूत. इस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

‘‘और वाल्मीकि… क्या उन से फर्क पड़ता है मनीष?’’ रचना की बारिश में अब बादलों की गड़गड़ाहट भी शुरू हो गई थी. बारिश का मिजाज बिगड़ने सा लगा था.

‘‘क्या सारा मूड खराब किए दे रही हो रचना? क्या हम इस रूमानी जगह पर अपना मूड खराब करने के लिए आए थे? मैं ने तुम्हें बता दिया कि मैं मैडिकल का छात्र हूं. मुझे किसी की जाति से कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

‘‘लेकिन मनीष, अगर मैं कहूं कि मैं वाल्मीकि परिवार से हूं और मेरे कितने ही रिश्तेदार सुबह हाथ में झाड़ू ले कर सड़कों और नालियों की गंदगी साफ करने निकल पड़ते हैं, तब…?’’ रचना की बारिश में तेज गड़गड़ाहट सी बिजली चमकी.

रचना की बात को सुन कर मैडिकल स्टूडैंट मनीष अग्रवाल को बिजली का सा जोरदार झटका लगा. वह सवालिया निगाहों से रचना को देखने लगा 2 फुट दूर खड़ा हो कर.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हो मनीष? मैं तो आज अपना मन बना कर आई थी कि तुम्हें अपनी जाति की सचाई बता कर रहूंगी. अभी भी फैसला तुम्हारे हाथ में है कि तुम मुझे अपनाओ या नहीं. मैं तुम्हें धोखे में नहीं रखना चाहती थी,’’ रचना सिसौदिया की बारिश में न बिजली की चमक बची थी, न गड़गड़ाहट. अब तो उस बारिश की सिसकियां बची थीं.

‘‘लेकिन रचना, तुम अपने नाम के साथ राजपूतों का सिसौदिया गोत्र क्यों लगाती हो?’’

‘‘क्योंकि मेरा गोत्र ही सिसौदिया है?’’

‘‘लेकिन, वह कैसे रचना?

‘‘मनीष, ये सब इतिहास की बातें हैं. जैसे आज भी अनेक मुसलमानों में हिंदू गोत्र मलिक, बाजवा, चौधरी मिल जाते हैं, ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ.

‘‘हम वाल्मीकियों में भी क्षत्रियों के अनेक गोत्र मिलते हैं. जब सुलतानों और मुगलों से लड़ते हुए हिंदू फौजें हार जाती थीं, तो बंदी फौजियों के सामने इसलाम स्वीकार करने या उन के हरम की गंदगी साफ करने के रास्ते रखे जाते थे. हमारे पुरखों ने शायद दूसरा रास्ता स्वीकार किया हो.

‘‘जब से हम वाल्मीकि समाज का हिस्सा बन गए और तब से हमारे समाज के लोग गंदगी साफ करने का काम करते आ रहे हैं. यह अलग बात है कि कुछ हम जैसे पढ़लिख कर ऊंचे ओहदों पर पहुंच गए. लेकिन यह बात कह कर मैं तुम्हें किसी बात के लिए मजबूर नहीं कर रही हूं. अगर मेरे मातापिता सफाई करने वाले भी होते तो भी मुझे उन पर गर्व ही होता.’’

‘‘रचना, बैठो तो सही. मुझे तुम्हारी जाति से कोई लेनादेना नहीं है. मैं अपनी बात पर अभी भी कायम हूं,’’ कह कर मनीष ने अपना सिर फिर से रचना की गोद में रख लिया और उस की भीगी पलकों को अपनी उंगलियों से पोंछ डाला. रचना ने भी अपनी जुल्फों की ओट ले कर मनीष के होंठों पर अपने होंठ रख कर अपनी सच्ची मुहब्बत की मोहर लगा दी.

मनीष ने जब अपने घर मुरादाबाद आ कर अपनी मुहब्बत का जिक्र मम्मीपापा से किया, तो उन्होंने उस की मुहब्बत पर कोई एतराज नहीं जताया, बल्कि उन्हें खुशी हुई कि मनीष ने मैडिकल लाइन की लड़की को अपनी भावी जीवनसंगिनी के रूप में चुना. लेकिन जब मनीष ने उन्हें बताया कि रचना पास के ही जिले रामपुर के वाल्मीकि परिवार से है, तो उन के पैरों तले की जमीन खिसक गई.

इस पर उस के पापा ने कहा, ‘‘मनीष बेटा, हमें तुम्हारी मुहब्बत पर कोई एतराज नहीं, लेकिन जरा यह तो सोचो कि जमाना क्या कहेगा और हमारे बनिए समाज के लोग ही हम पर कितनी उंगली उठाएंगे?’’

‘‘पापा, समाज के केवल दकियानूसी लोग ही ऐसे मामलों में फालतू की बकवास करते हैं. उन्हें तो किसी भी सामाजिक काम में मीनमेख निकालने के लिए कोई और काम ही नहीं होता. लेकिन अगर हम पढ़ेलिखे लोग भी जातबिरादरी पर जाने लगे, तो हमारे पढ़नेलिखने और प्रगतिशील होने का क्या फायदा?’’

‘‘बेटा, तू सच कह रहा है. हमें रचना और उस की जाति पर कोई एतराज नहीं. आखिर जातियों के बंधनों को हमजैसे लोग नहीं तोड़ेंगे तो फिर कौन तोड़ेगा? रचना काबिल?है, पढ़ीलिखी है, तुम्हारी पसंद है. हमें इस से ज्यादा और क्या चाहिए? लेकिन यह समाज तुम्हारी शादी के वक्त कितनी उंगली उठाएगा, यह तुम नहीं जानते बेटा.’’

‘‘पापा, आप इस की चिंता न करें. मैं रचना से कोर्ट मैरिज कर लूंगा. वैवाहिक कार्यक्रमों, गाजेबाजे, बरात का काम ही खत्म. समाज के उलाहने देने के रास्ते ही बंद.’’

‘‘बेटा, तेरी बात सही है. ऐसा करना ही ठीक होगा. वैवाहिक कार्यक्रम करेंगे तो लोग न जाने क्याक्या बात बनाएंगे,’’ मनीष की मम्मी ने सहमति जताते हुए कहा.

उधर रामपुर में जब रचना ने अपने परिवार वालों से मनीष का जिक्र किया, तो उस के पापा उसे समझाने लगे, ‘‘रचना, ऊंची जाति में शादी करने का मतलब समझती हो. मान लो, मनीष तुम्हें अपना भी ले तो क्या उस के परिवार के लोग और उस के रिश्तेदार तुम्हें अपना लेंगे? बेटी, जातियों की दीवार अभी बहुत ऊंची है. इसे गिरने में अभी न जाने कितनी सदियां लगेंगी.’’

‘‘पापा, मुझे मनीष और उस के परिवार से मतलब है, उस के रिश्तेदारों से नहीं. मनीष ने बताया है कि उस के मम्मीपापा मुझे अपनाने को तैयार हैं.’’

रचना की बात सुन कर उस के पापा कुछ देर चुप रहे. फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘रचना, एक बार मैं मनीष के मम्मीपापा से मिल लूं, उस के बाद ही कोई फैसला लूंगा.’’

मम्मी ने भी रचना का हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुम चिंता न करो. तुम्हारे पापा मनीष से तुम्हारी शादी करने को मना नहीं कर रहे हैं, लेकिन उन्हें भी तो अपना फर्ज निभाना है. हर बाप यही चाहता है कि उस की बेटी सुख से रहे.’’

कुछ ही दिनों के बाद रचना के मम्मीपापा मनीष के मम्मीपापा से मिलने के लिए मुरादाबाद गए. मनीष और उस के मम्मीपापा ने रचना के मम्मीपापा के स्वागत में कोई कोरकसर बाकी न छोड़ी.

दोनों परिवार इस बात पर सहमत हो गए कि रचना और मनीष कोर्टमैरिज कर लें और बाद में केवल खास रिश्तेदारों को बुला कर रिसैप्शन पार्टी दे दें.

धीरेधीरे रचना के महल्ले में यह बात फैल गई कि विनोद सिसौदिया अपनी बेटी रचना सिसौदिया की शादी बनियों में कर रहा है. इस के साथ यह अफवाह भी फैल गई कि बनियों ने वाल्मीकियों की बेइज्जती करने के लिए बरात लाने से साफ मना कर दिया है. इस से पूरा वाल्मीकि समाज बौखला गया.

वाल्मीकि समाज के लोग इकट्ठे हो कर अपने अध्यक्ष दौलतराम के पास गए. एक आदमी ने बड़े गुस्से में कहा, ‘‘अध्यक्षजी, हम अपने समाज की बेटी को बनियों में तब तक नहीं ब्याहने देंगे, जब तक बनिए बैंडबाजे के साथ बरात ले कर नहीं आते हैं और बेटी के साथसाथ रोटी का रिश्ता नहीं बनाते हैं. सामूहिक भोज से कम कुछ स्वीकार नहीं.’’

दौलतराम बड़े सुलझे हुए और सामाजिक इनसान थे. उन्होंने उन की बात सुन कर ठंडे दिमाग से कहा, ‘‘भाइयो, मैं ने आप की बात सुन ली. बात मेरी समझ में आ गई है, लेकिन एक बार मैं विनोद सिसौदिया से बात कर लूं, तभी हम कोई फैसला लेंगे.’’

इस तरह समझाबुझा कर दौलतराम ने अपने समाज के गुस्साए लोगों को संतुष्ट कर के वापस भेजा.

शाम को दौलतराम विनोद सिसौदिया के घर पहुंचे. उन से बात की. दौलतराम पके बालों के अनुभवी इनसान थे. उन्होंने रचना के पापा से कहा, ‘‘विनोद, मैं कोर्टमैरिज को गलत नहीं मानता हूं. लेकिन कोर्टमैरिज करने में जितनी आसानी है, उस के टूटने में भी उतनी ही आसानी है. अरैंज मैरिज में दोनों तरफ के कितने ही रिश्तेदार और समाज के लोग शामिल होते हैं. अनेक लोग गवाह होते हैं. ऐसे में ऐसी शादियों का टूटना भी उतना ही मुश्किल होता?है.

‘‘तुम ऐसा करो कि अगर लड़के वालों को एतराज न हो, तो बरात बुलवा लो. इस से हमारे समाज के लोग भी संतुष्ट हो जाएंगे और लड़के वालों को भी कुछ फर्क नहीं पड़ेगा.’’

विनोद सिसौदिया को दौलतराम की बात समझ में आ गई. लेकिन उन के मन में डर था कि कहीं ऐसा न हो कि मनीष के मम्मीपापा इस के लिए तैयार न हों.

लेकिन मनीष के पापा बड़े खुले दिमाग के आदमी थे. उन्होंने फोन पर बात करते हुए कहा, ‘‘विनोदजी, मेरे लिए उस से बड़ी खुशी की कोई बात नहीं हो सकती. हम तो आप की चिंता कर रहे थे. अब आप की ओर से सहमति है, तो हम पूरे गाजेबाजे के साथ बरात ले कर आएंगे.

मनीष की बरात रामपुर पहुंच गई. शादी वाल्मीकि महल्ले के ही एक मैरिज हाल में होनी थी.

जैसे ही बरात वहां पहुंची, उस का भव्य स्वागत किया गया. इस के बाद विनोद सिसौदिया, दौलतराम बरात को खाने के लिए आमंत्रित करने लगे. बराती खाने के लिए रखी प्लेटों की ओर बढ़ने लगे. तभी मनीष के पापा अरविंद अग्रवाल ने देखा कि लड़की वाले खाने के लिए आगे नहीं बढ़ रहे हैं. वे बरातियों को सचेत करते हुए बोले, ‘‘ठहरो. कोई भी खाने को हाथ नहीं लगाएगा.’’

उन की आवाज सुनते ही मैरिज हाल में सन्नाटा छा गया. वाल्मीकि समाज के लोगों में खुसुरफुसुर शुरू हो गई. एक ने कहा, ‘‘हम पहले ही कहते थे कि ऊंची जाति में बेटी मत दो. ये हमारे खाने को छूते तक नहीं हैं, इस से बड़ी बेइज्जती और क्या?’’

दूसरे ने कहा, ‘‘अगर ऐसा हुआ, तो चाहे कितना भी खूनखराबा हो जाए, हम रचना की डोली नहीं उठने देंगे.’’

वाल्मीकियों के कुछ उत्पाती लड़के तो डंडे, छुरे और कटार चलाने की बात करने लगे. तभी विनोद सिसौदिया और दौलतराम बात को संभालने के लिए आगे बढ़े, उन के दिलों की धड़कन बहुत बढ़ी हुई थी. दौलतराम ने कहा, ‘‘अग्रवालजी, अब हम से क्या गलती हो गई?’’

‘‘गलती कहते हो दौलतरामजी, इस से बड़ी गलती और क्या होगी? हम बनिए खाना खाएं और आप का समाज खड़ाखड़ा मुंह ताके.’’

‘‘नहीं, नहीं, आप हमारे अतिथि हैं. पहले आप भोजन लें,’’ दौलतराम ने अतिथि सत्कार दिखाते हुए कहा.

‘‘बड़ी जल्दी भूल गए दौलतरामजी. बात हुई थी सामूहिक भोज की और अब आप के समाज के लोग ही पीछे हट रहे हैं. ऐसा नहीं हो सकता. हम तब तक भोजन को हाथ नहीं लगाएंगे, जब तक आप लोग भी हमारे साथ भोजन नहीं करेंगे,’’ यह कहते हुए मनीष के पापा ने डोंगे में से रसगुल्ला उठा कर वाल्मीकि समाज के अध्यक्ष दौलतराम के मुंह की ओर बढ़ा दिया.

दौलतराम की आंखों में खुशी के आंसू आ आए, उन्होंने मनीष के पापा को गले लगा लिया.

बहुत दिनों तक इस शादी की चर्चा होती रही, जहां जातिवाद की दीवार टूटी थी. लोग कहते रहे, ‘कौन कहता है कि जातिवाद की दीवारें दरक नहीं सकतीं, बस मन में चाह होनी चाहिए.’

Mother’s Day 2024: मां का बटुआ – फलसफा जिंदगी का

मैं अकेली बैठी धूप सेंक रही हूं. मां की कही बातें याद आ रही हैं. मां को अपने पास रहने के लिए ले कर आई थी. मां अकेली घर में रहती थीं. हमें उन की चिंता लगी रहती थी. पर मां अपना घर छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं चाहती थीं. एक बार जब वे ज्यादा बीमार पड़ीं तो मैं इलाज का बहाना बना कर उन्हें अपने घर ले आई. पर पूरे रास्ते मां हम से बोलती आईं, ‘हमें क्यों ले जा रही हो? क्या मैं अपनी जड़ से अलग हो कर तुम्हारे यहां चैन व सुकून से रह पाऊंगी? किसी पेड़ को अपनी जड़ से अलग होने पर पनपते देखा है. मैं अपने घर से अलग हो कर चैन से मर भी नहीं पाऊंगी.’

मैं उन्हें समझाती, ‘मां, तुम किस जमाने की बात कर रही हो. अब वो जमाना नहीं रहा. अब लड़की की शादी कहां से होती है, और वह अपने हसबैंड के साथ रहती कहां है. देश की तो बात ही छोड़ो, लोग अपनी जीविका के लिए विदेश जा कर रह रहे हैं. मां, कोई नहीं जानता कि कब, कहां, किस की मौत होगी.

‘घर में कोई नहीं है. तुम अकेले वहां रहती हो. हम लोग तुम्हारे लिए परेशान रहते हैं. यहां मेरे बच्चों के साथ आराम से रहोगी. बच्चों के साथ तुम्हारा मन लगेगा.’

कुछ दिनों तक तो मां ठीक से रहीं पर जैसे ही तबीयत ठीक हुई, घर जाने के लिए परेशान हो गईं. जब भी मैं उन के पास बैठती तो वे अपनी पुरानी सोच की बातें ले कर शुरू हो जातीं. हालांकि मैं अपनी तरफ से वे सारी सुखसुविधाएं देने की कोशिश करती जो मैं दे सकती थी पर उन का मन अपने घर में ही अटका रहता.

आज फिर जैसे ही मैं उन के पास गई तो कहने लगीं, ‘सुनो सुनयना, मुझे घर ले चलो. मेरा मन यहां नहीं लगता. मेरा मन वहीं के लिए बेचैन रहता है. मेरी सारी यादें उसी घर से जुड़ी हैं. और देखो, मेरा संदूक भी वहीं है, जिस में मेरी काफी सारी चीजें रखी हैं. उन सब से मेरी यादें जुड़ी हैं. मेरी मां का (मेरी नानी के बारे में) मोतियों वाला बटुआ उसी में है. उस में तुम लोगों की छोटीछोटी बालियां और पायल, जो तुम्हारी नानी ने दी थीं, रखी हैं. तुम्हारे बाबूजी की दी हुई साड़ी, जो उन्होंने पहली तनख्वाह मिलने पर सब से छिपा कर दी थी, उसी संदूक में रखी है. उसे कभीकभी ही पहनती हूं. सोचा था कि मरने के पहले तुझे दूंगी.’

मैं थोड़ा झल्लाती हुई कहती, ‘मां, अब उन चीजों को रख कर क्या करना.’

आज जब उन्हीं की उम्र के करीब पहुंची हूं तो मां की कही वे सारी बातें सार्थक लग रही हैं. आज जब मायके से मिला पलंग किसी को देने या हटाने की बात होती है तो मैं अंदर से दुखी हो जाती हूं क्योंकि वास्तव में मैं उन चीजों से अलग नहीं होना चाहती. उस पलंग के साथ मेरी कितनी सुखद स्मृतियां जुड़ी हुई हैं.

मैं शादी कर के जब ससुराल आई तो कमरे का फर्श हाल में ही बना था, इसलिए फर्श गीला था. जल्दीजल्दी पलंग बिछा कर उस पर गद्दा डाल कर उसी पर सोई थी. आज भी जब उस पलंग को देखती हूं या छूती हूं तो वे सारी पुरानी बातें याद आने लगती हैं. मैं फिर से वही 17-18 साल की लड़की बन जाती हूं. लगता है, अभीअभी डोली से उतरी हूं व लाल साड़ी में लिपटी, सिकुड़ी, सकुचाई हुई पलंग पर बैठी हूं. खिड़की में परदा भी नहीं लग पाया था. चांदनी रात थी. चांद पूरे शबाब पर था और मैं कमरे में पलंग पर बैठी चांदनी रात का मजा ले रही हूं.

कहा जाता है कि कभीकभी अतीत में खो जाना भी अच्छा लगता है. सुखद स्मृतियां जोश से भर देती हैं, उम्र के तीसरे पड़ाव में भी युवा होने का एहसास करा जाती हैं. पुरानी यादें हमें नए जोश, उमंग से भर देती हैं, नब्ज तेज चलने लगती है और हम उस में इतना खो जाते हैं कि हमें पता ही नहीं चलता कि इस बीच का समय कब गुजर गया. मैं बीचबीच में गांव जाती रहती हूं. अब तो वह घर बंटवारे में देवरजी को मिल गया है पर मैं जाती हूं तो उसी घर में रहती हूं. सोने के लिए वह कमरा नहीं मिलता क्योंकि उस में बहूबेटियां सोती हैं.

मैं बरामदे में सोती हुई यही सोचती रहती हूं कि काश, उसी कमरे में सोने को मिलता जहां मैं पहले सोती थी. कितनी सुखद स्मृतियां जुड़ी हैं उस कमरे से, मैं बयान नहीं कर सकती. ससुराल की पहली रात, देवरों के साथ खेल खेलने, ननदों के साथ मस्ती करने तक सारी यादें ताजा हो जाती हैं.

अब हमें भी एहसास हो रहा है कि एक उम्र होने पर पुरानी चीजों से मोह हो जाता है. जब मैं घर से पटना रहने आई तो मायके से मिला पलंग भी साथ ले कर आई थी. बाद में नएनए डिजाइन के फर्नीचर बनवाए पर उन्हें हटा नहीं सकी. और इस तरह सामान बढ़ता चला गया. पुरानी चीजों से स्टोररूम भरता गया. बच्चे बड़े हो गए और पढ़लिख कर सब ने अपनेअपने घर बसा लिए. पर मैं ने उन के खिलौने, छोटेछोटे कपड़े, अपने हाथों से बुने हुए स्वेटर, मोजे और टोपियां सहेज कर रखे हुए हैं. जब भी अलमारी खोलती हूं और उन चीजों को छूती हूं तो पुराने खयालों में डूब जाती हूं. लगता है कि कल ही की तो बातें हैं. आज भी राम, श्याम और राधा उतनी ही छोटी हैं और उन्हें सीने से लगा लेती हूं. वो पुरानी चीजें दोस्तों की तरह, बच्चों की तरह बातें करने लगती हैं और मैं उन में खो जाती हूं.

वो सारी चीजें जो मुझे बेहद पसंद हैं, जैसे मांबाबूजी, सासूमांससुरजी व दोस्तों द्वारा मिले तोहफे भी. सोनेचांदी और आभूषणों की तो बात ही छोडि़ए, मां की दी हुई कांच की प्लेट भी मैं ने ड्राइंगरूम में सजा कर रखी हुई है. मां का मोती वाला कान का फूल और माला भी हालांकि वह असली मोती नहीं है शीशे वाला मोती है पर उस की चमक अभी तक बरकरार है. मां बताती थीं कि उन को मेरी नानी ने दी थी. मैं ने उन्हें भी संभाल कर रखा हुआ है कि नानी की एकमात्र निशानी है. और इसलिए भी कि पुरानी चीजों की क्वालिटी कितनी बढि़या होती थी. आज भी माला पहनती हूं तो किसी को पता नहीं चलता कि इतनी पुरानी है. वो सारी स्मृतियां एक अलमारी में संगृहीत हैं, जिन्हें मैं हर दीवाली में झाड़पोंछ कर फिर से रख देती हूं.

राधा के पापा कहते हैं, ‘अब तो इन चीजों को बांट दो.’ पर मुझ से नहीं हो पाता. मैं भी मां जैसे ही सबकुछ सहेज कर रखती हूं. उस समय मैं मां की कही बातें व उन की भावनाएं नहीं समझ पाती थी. अब मेरे बच्चे जब अपने साथ रहने को बुलाते हैं तो हमें अपना घर, जिसे मैं ने अपनी आंखों के सामने एकएक ईंट जोड़ कर बनवाया है, को छोड़ कर जाने का मन नहीं करता. अगर जाती भी हूं तो मन घर से ही जुड़ा रहता है. पौधे, जिन्हें मैं ने वर्षों से लगा रखा है, उन में बच्चों जैसा ध्यान लगा रहता है. इसी तरह और भी कितनी ही बेहतरीन यादें सुखदुख के क्षणों की साक्षी हैं जिन्हें अपने से अलग करना बहुत कठिन है.

अब समझ में आता है कि कितनी गलत थी मैं. मेरी शादी गांव में हुई. पति के ट्रांसफरेबुल जौब के चलते इधरउधर बहुत जगह इन के साथ रही. सो, अब जब से पटना में घर बनाया और रहने लगी तो अब कहीं रहने का मन नहीं होता. जब मुझे इतना मोह व लगाव है तो मां बेचारी तो शादी कर जिस घर में आईं उस घर के एक कमरे की हो कर रह गईं. वे तो कभी बाबूजी के साथ भी रहने नहीं गई थीं. इधर आ कर सिर्फ घूमने के लिए ही घर से बाहर गई थीं. पहले लोग बेटी के यहां भी नहीं जाते थे. सो, वे कभी मेरे यहां भी नहीं आई थीं. घर से बाहर पहली बार रह रही थीं. ऐसे में उन का मन कैसे लगता. आज उन सारी बातों को सोच कर दुख हो रहा है कि मैं मां की भावनाओं की कद्र नहीं कर पाई. क्षमा करना मां, कुछ बातें एक उम्र के बाद ही समझ में आती हैं.

Mother’s Day 2024 : सासुमां के सात रंग – ससुराल में नई बहू का आना

जब मैं नईनई बहू बन कर ससुराल आई तो दूसरी बहुओं की तरह मेरे मन में भी सास नाम के व्यक्तित्व के प्रति भय व शंका सी थी. सहेलियों व रिश्तेदारों की चर्चा में हर कहीं सास की हिटलरी तानाशाही का उल्लेख रहता. जब पति के घर गई तो मालूम हुआ कि मेरे पति कुछ ही दिनों बाद विदेश चले जाएंगे. नया घर, नए लोग, नया वातावरण और एकदम नया रिश्ता. मुझे तो सोच कर ही घबराहट हो रही थी.

कुछ दिनों का साथ निभा कर मेरे पति नरेन को दूर देश रवाना होना था. इसी क्षण मुझे सासुमां का पहला रंग स्पष्ट रूप से ज्ञात हुआ. आवश्यक रीतिरिवाज व पार्टी वगैरह के बाद सासुमां ने ऐलान किया कि आज से 2 माह के लिए बहू ऊषा और नरेन दोनों उस संस्था के मकान में रहने चले जाएंगे, जहां नरेन काम करते हैं. नरेन द्वारा आनाकानी करने पर वे दृढ़ शब्दों में बोलीं, ‘‘ऊषा को समय देना तुम्हारा पहला कर्तव्य है. आखिर तुम्हारी अनुपस्थिति में वह तुम्हारी यादें ले कर ही तो यहां शांति से रह पाएगी.’’

विदेश यात्रा के 2 दिन पूर्व हम लोग सासुमां के पास आए. 26 साल तक जो बेटा उन के तनमन का अंश बन कर रहा, उस जिगर के टुकड़े को एक अनजान लड़की को किस सहजता से उन्होंने सौंप दिया, यह सोच कर मैं अभिभूत हो उठी. नरेन को विदा कर हम लोग जब लौटे तो मेरी आंखों के आंसू अंदर ही अंदर उफन रहे थे. सोच रही थी फूटफूट कर रो लूं, पर इतने नए लोगों के बीच यह अत्यंत मुश्किल था. रास्ते के पेड़पौधों को यों ही मैं देख रही थी. अचानक मैं ने सासुमां का हाथ अपने कंधे पर महसूस किया.

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सासुमां के स्पर्श ने मेरी भावनाओं के सारे बंधन तोड़ दिए. मैं ने अपना सिर उन की गोद में रख दिया और आंसुओं को बह जाने दिया. अब मुझे कोई भय, कोई संकोच, कोई दुविधा न थी. सासुमां की ममता के रंग ने मुझे आश्वस्त कर दिया था, ‘मैं अकेली नहीं हूं. मेरे साथ मेरी मां है.’ सासुमां का दूसरा रंग मैं ने छोटे देवर की शादी में देखा. बरात विदा होने से पहले लक्ष्मीपूजन का कार्यक्रम था. वधू पक्ष द्वारा लिया गया सजासजाया हौल, साजोसामान सब उन्होंने नकार दिया और अपनी ओर से पूरा खर्च कर लक्ष्मीपूजन संपन्न किया.’’

उन के अंदर के हठ का रंग मुझे करीब 10 वर्ष बाद देखने को मिला. ससुरजी ने मकान बनाने के लिए जो योजना बनाई थी, वह सिवा सासूमां के, सब को पसंद थी. ससुरजी 4 शयनकक्षों और एक हौल वाला दोमंजिला बंगला बनवाना चाहते थे. नीचे 2-2 शयनकक्ष और रसोईघर वाले 2 फ्लैट और ऊपर 2 शयनकक्ष के साथ एक बड़ा हौल, रसोई समेत बनवाया जाए. नीचे बगीचे और गैरेज के लिए जगह रखी जाए. एक दिन ससुरजी कागजों का एक पुलिंदा लाए और बोले, ‘‘लो वसंती, तुम्हारी इच्छानुसार मकान का नक्शा बनवा कर लाया हूं. अब उठ कर मेरे साथ कुछ खापी लो.’’

सासुमां के चेहरे पर विजय की एक स्निग्ध रेखा अभर आई. इस घटना के वर्षों बाद मुझे अपनी सासुमां के सत्याग्रह का असली अर्थ समझ में आया. 4 हिस्से वाले इस घर में रहते हुए पूरे परिवार में जो सुख, शांति और अपनत्व है, उस का श्रेय सासुमां के उस सत्याग्रह व दूरदृष्टि को जाता है.

सासुमां के अंदर की ईर्ष्या का रंग तब अचानक ही उभर आता जब नानीसास हम से मिलने आतीं, हमारे लिए तरहतरह के कीमती उपहार लातीं. महंगी साड़ी सासुमां को भेंट देतीं और पूरे समय अपने डाक्टर बेटे की दौलत, व्यवसाय और प्रतिष्ठा का गुणगान करतीं. नानीमां जितने दिन रहतीं, सासुमां विचलित और अशांत रहतीं. किसी का भी दिल न दुखाने वाली सासुमां का अपनी ही मां से किया जाने वाला रूखा व्यवहार मेरी समझ से बाहर था.

एक दिन हमेशा की तरह ‘मामापुराण’ शुरू हुआ था. ‘‘अब बस भी करो अम्मा,’’ सासुमां ने रुखाई से कहा.

‘‘कमाल है,’’ नानीमां अचकचा कर बोलीं, ‘‘सगे भाई की दौलत, खुशी की तारीफ तुझ से सही नहीं जाती. देख रही हूं तुझे तो कांटा ही चुभ रहा है.’’ सासुमां ने सीधे अपनी मां की ओर तीव्र दृष्टि डाली और कड़े शब्दों में बोलीं, ‘‘सो क्यों है, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो.’’

इस घटना के बाद नानीमां जब भी हमारे घर आतीं, मामाजी की दौलत और प्रतिष्ठा के बारे में अपना मुंह बंद ही रखतीं. काफी समय बाद सासुमां के इस व्यवहार का असली कारण मुझे तब पता चला जब मेरी बेटी सुरभि का मैडिकल में दाखिला होना था. उसी समय सुधीर, मेरे बेटे, को रीजनल कालेज में प्रवेश लेना था. सुरभि और सुधीर, दोनों को बाहर छात्रावास में रख कर पढ़ाई का खर्र्च उठाना संभव नहीं था. लिहाजा, हम ने सुरभि को घर में रह कर एमएससी करने को कहा. लेकिन सासुमां ने जब सुना तो बहुत नाराज हुईं, ‘‘सुधीर के लिए सुरभि के भविष्य की बलि क्यों चढ़ा रही हो. सुधीर को स्थानीय कालेज में इंजीनियरिंग पढ़ने दो, सुरभि का खर्च मैं उठाऊंगी. आखिर मेरे जेवर किस काम आएंगे. मैं नहीं चाहती कि एक और वसंती को अपने स्वप्नों के टूटने का दुख भोगना पड़े.’’

तब मैं ने जाना कि डाक्टर मामा की खातिर ही सासुमां का डाक्टर बनने का सपना अधूरा रह गया था. मेरे बेटे सुधीर की शादी के लिए 6 दिन बचे थे. घर में नाचगाने की योजना थी. सहभोज और वीडियो शूटिंग का कार्यक्रम था. अचानक ससुरजी का पैर फिसला और पैर की हड्डी टूट गई. उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. जाहिर है, ऐसे में सासुमां को ससुरजी की देखभाल के लिए अस्पताल में ही रहना था. ससुरजी की तबीयत संभलने के तीसरे दिन सासुमां घर वापस आईं और सन्नाटा व उदास माहौल देख कर बोलीं, ‘‘अरी ऊषा, यह शादी का घर है क्या? न कहीं रौनक, न कहीं उत्साह…’’

‘‘वह क्या है…’’ मैं दुविधा में बोली. ‘‘अब रहने भी दे, 2 दिन के लिए मैं घर छोड़ कर क्या गई, सब के सब एकदम सुस्त हो गए,’’ वे नाराज हो कर बोलीं. फिर नरेन से बोलीं, ‘‘तेरे पिताजी की तबीयत अब ठीक है, आज तुम दोनों भाई उन के साथ रहना. मैं कल सुबह अस्पताल आऊंगी. घर में 2-2 बहुएं हैं, 2-2 लड़कियां हैं, पर शादी का घर तो एकदम भूतघर जैसा लग रहा है. मेरे पोते की शादी में ऐसी खामोशी क्यों भला, ऐसा खुशी का मौका क्या बारबार आता है?’’

फिर क्या पूछना, उस रात ऐसी महफिल जमी कि आज तक भुलाए नहीं भूलती. देररात तक संगीतसमारोह की रौनक रही. सासुमां खुद खूब नाचीं और हर एक को उठाउठा कर हाथ पकड़ कर खूब नचाया.

सुबह हुई तो स्नान कर के वे अस्पताल के लिए चल दीं. मैं उन की ममता और स्नेह से अभिभूत थी. अपने दुख, अपनी चिंता, परेशानी को छिपा कर उन्होंने किस तरह मेरी खुशी को महत्त्व दिया था, उसे मैं कभी नहीं भूल पाती. उत्साह का वह रंग कभीकभार आज भी उन में उभर आता है. सासुमां के व्यक्तित्व के 7 रंगों में एक रंग और था और वह था, अंधविश्वास का. घर में कोई भी समस्या हो, निवारण हेतु वे सब से पहले गुरुजी के पास दौड़ी जातीं. फिर मनौती, चढ़ावा, पूजा, हवन वगैरह का दौर शुरू हो जाता.

एक बार छोटे देवर ट्रैकिंग पर गए हुए थे. प्रतिदिन वहां के समाचारों में बादल, वर्षा, तूफान का जिक्र रहता. जब वे निश्चित समय तक नहीं लौटे तो हम सभी चिंता से व्याकुल हो गए. सासुमां ने तुरंत गुरुजी की सलाह ली और दूसरे दिन से अंधेरे में स्नानध्यान कर गीले कपड़ों में मंदिर जाने लगीं.

‘‘अम्मा, इस तरह परेशानी पर परेशानी बढ़ाओगी क्या. अब तुम भी बीमार पड़ कर रहीसही कसर पूरी कर दो,’’ एक दिन नरेन बरस पड़े. अम्माजी ने शांतसहज उत्तर दिया, ‘‘भोलेनाथ की कृपा से हरेंद्र जल्दी घर वापस आएगा और रही मेरी बात, तो मुझे कुछ नहीं होगा. देखना, तेरा पोता गोद में खिलाने के बाद ही मरूंगी.’’

वक्तबेवक्त नहाने, खाने और सोने से एक दिन जब सासुमां मंदिर में ही मूर्च्छित हो गईं तो उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. 15 दिन बाद देवरजी सकुशल लौटे. आते ही सासुमां ने उन्हें गले लगा लिया और भावविह्वल स्वर में बोलीं, ‘‘मेरे भोलेनाथ की कृपा से तुम मौत के मुंह से लौटे हो.’’

देवरजी अवाक उन की तरफ देखते रहे और बोले, ‘‘क्या कह रही हो अम्मा, मैं और मौत के मुंह में, कुछ समझ नहीं आ रहा है…’’ पूरी बात बताने पर वे उन पर बरस पड़े, ‘‘अम्मा, जाने कैसेकैसे लोग तुम्हारे इस अंधविश्वास का फायदा उठा कर तुम से पैसे ऐंठ लेते हैं. इस व्रतउपवास के चक्कर में तुम ने अपना क्या हाल बना लिया है. मैं तो नहीं पर तुम खुद ही अपने इन अंधविश्वासों के कारण मौत के मुंह में जा रही थीं.’’

देवरजी ने बताया कि उन का ट्रैकिंग कार्यक्रम अचानक स्थगित हो गया और उन्हें वहीं से औफिस के काम से मुंबई जाना पड़ा. इस की जानकारी उन्होंने पत्र द्वारा घर भेज दी थी. पर संभवतया किसी कारण से पत्र मिला नहीं. वह दिन और आज का दिन, सासुमां ने नजर उतारना, मनौती, चढ़ावा सब छोड़ दिया है. अपनी इतनी पुरानी मान्यता तो छोड़ पाना उन की दृढ़ता का ही परिचायक था.

सासुमां में सही समय पर विरक्ति का रंग भी छलक उठा. मेरे बेटे के संपन्न ससुराल वाले अपनी बेटी को वे सब सुविधाएं देना चाहते थे, जिन की वह आदी थी. लेकिन सासुमां की इच्छानुसार हम ने कुछ भी लेने से इनकार कर दिया. जैसेजैसे समय बीतता गया, हम ने महसूस किया कि उन सुविधाओं के अभाव में बहू को यहां समझौता करना मुश्किल हो रहा है.

हम दुविधा में थे, इधर बहू भी अशांत थी. लेकिन अम्माजी समधियाने का सामान लेने में खुद को अपमानित महसूस करती थीं. हमारी उलझन को समझ कर एक दिन वे बोलीं, ‘‘बहू, अब सीढ़ी चढ़नाउतरना मुझ से होता नहीं. मेरे रहने के लिए नीचे ही इंतजाम कर दो. तुम लोग ऊपर के दोनों हिस्सों में चले जाओ. बुढ़ापे में मोहमाया जरा कम कर लेने दो. अब मुझे घर की जवाबदारी से मुक्त करो, न सलाह मांगो, न देखभाल का जिम्मा दो.’’ तब से अब तक सासुमां अपनेआप में मगन हैं. उन्होंने अपने चारों तरफ विरक्ति की दीवार खड़ी कर ली है, पर उस विरक्ति में रूखापन नहीं है. वे आज भी उतनी ही ममतामयी और जागरूक हैं, जितनी पहले थीं.

आश्चर्य की बात तो यह है कि बहू का ज्यादा से ज्यादा समय अपनी दादीसास के साथ ही गुजरता है. वह अपनी दादीसास की सब से ज्यादा लाड़ली है. उस ने भी महसूस कर लिया है कि अपने परिवार की सुखशांति के लिए ही दादीमां खुद ही तटस्थ हो गई हैं. अपने अधिकारों को छोड़ कर वे सब के कल्याण में लगी हुई हैं.

Mother’s Day 2024-छोटा सा घर: क्या सुषमा अपनी गृहस्थी बसा पाई?

ट्रेन तेज गति से दौड़ी चली जा रही थी. सहसा गोमती बूआ ने वृद्ध सोमनाथ को कंधे से झकझोरा, ‘‘बाबूजी, सुषमा पता नहीं कहां चली गई. कहीं नजर नहीं आ रही.’’

सोमनाथ ने हाथ ऊंचा कर के स्विच दबाया तो चारों ओर प्रकाश फैल गया. फिर वे आंखें मिचमिचाते हुए बोले, ‘‘आधी रात को नींद क्यों खराब कर दी… क्या मुसीबत आन पड़ी है?’’

‘‘अरे, सुषमा न जाने कहां चली गई.’’

‘‘टायलेट की ओर जा कर देखो, यहीं कहीं होगी…चलती ट्रेन से कूद थोड़े ही जाएगी.’’

‘‘अरे, बाबा, डब्बे के दोनों तरफ के शौचालयों में जा कर देख आई हूं. वह कहीं भी नहीं है.’’

बूआ की ऊंची आवाज सुन कर अन्य महिलाएं भी उठ बैठीं. पुष्पा आंचल संभालते हुए खांसने लगी. देवकी ने आंखें मलते हुए बूआ की ओर देखा और बोली, ‘‘लाइट क्यों जला दी? अरे, तुम्हें नींद नहीं आती लेकिन दूसरों को तो चैन से सोने दिया करो.’’

‘‘मूर्ख औरत, सुषमा का कोई अतापता नहीं है…’’

‘‘क्या सचमुच सुषमा गायब हो गई है?’’ चप्पल ढूंढ़ते हुए कैलाशो बोली, ‘‘कहीं उस ने ट्रेन से कूद कर आत्महत्या तो नहीं कर ली?’’

बूआ ने उसे जोर से डांटा, ‘‘खामोश रह, जो मुंह में आता है, बके चली जा रही है,’’ फिर वे सोमनाथ की ओर मुड़ीं, ‘‘बाबूजी, अब क्या किया जाए. छोटे महाराज को क्या जवाब देंगे?’’

‘‘जवाब क्या देना है. वे इसी ट्रेन के  फर्स्ट क्लास में सफर कर रहे हैं. अभी मोबाइल से बात करता हूं.’’

सोमनाथ ने छोटे महाराज का नंबर मिलाया तो उन की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे, बाबा, काहे नींद में खलल डालते हो?’’

‘‘महाराज, बहुत बुरी खबर है. सुषमा कहीं दिखाई नहीं दे रही. बूआ हर तरफ उसे देख आई हैं.’’

‘‘रात को आखिरी बार तुम ने उसे कब देखा था?’’

‘‘जी, रात 9 बजे के लगभग ग्वालियर स्टेशन आने पर सभी ने खाना खाया और फिर अपनीअपनी बर्थ पर लेट गए. आप को मालूम ही है, नींद की गोली लिए बिना मुझे नीद नहीं आती. सो गोली गटकते ही आंखें मुंदने लगीं. अभी बूआ ने जगाया तो आंख खुली.’’

छोटे महाराज बरस पड़े, ‘‘लापरवाही की भी हद होती है. बूआ के साथसाथ तुम्हें भी कई बार समझाया था कि सुषमा पर कड़ी नजर रखा करो. लेकिन तुम सब…कहीं हरिद्वार में किसी के संग उस का इश्क का कोई लफड़ा तो नहीं चल रहा था? मुझे तो शक हो रहा है.’’

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‘‘मुझे तो कुछ मालूम नहीं. लीजिए, बूआ से बात कीजिए.’’

बूआ फोन पकड़ते ही खुशामदी लहजे में बोलीं, ‘‘पाय लागूं महाराज.’’

‘‘मंथरा की नानी, यह तो कमाल हो गया. आखिर वह चिडि़या उड़ ही गई. मुझे पहले ही शक था. उस की खामोशी हमें कभीकभी दुविधा में डाल देती थी. खैर, अब उज्जैन पहुंच कर ही कुछ सोचेंगे.’’

बूआ ने मोबाइल सोमनाथ की ओर बढ़ाया तो वे पूछे बिना न रह सके, ‘‘क्या बोले?’’

‘‘अरे, कुछ नहीं, अपने मन की भड़ास निकाल रहे थे. हम हमेशा सुषमा की जासूसी करते रहे. कभी उसे अकेला नहीं छोड़ा. अब क्या चलती ट्रेन से हम भी उस के साथ बाहर कूद जाते. न जाने उस बेचारी के मन में क्या समाया होगा?’’

थोड़ी देर में सोमनाथ ने बत्ती बुझा दी पर नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. बीते दिनों की कई स्याहसफेद घटनाएं रहरह कर उन्हें उद्वेलित कर रही थीं :

लगभग 5-6 साल पहले पारिवारिक कलह से तंग आ कर सोमनाथ हरिद्वार के एक आश्रम में आए थे. उस के 3-4 माह बाद ही दिल्ली के किसी अनाथाश्रम से 11-12 साल के 4 लड़के और 1 लड़की को ले कर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति आश्रम में आया था. तब सोमनाथ के सुनने में आया था कि बदले में उस व्यक्ति को अच्छीखासी रकम दी गई थी. आश्रम की व्यवस्था के लिए जो भी कर्मचारी रखे जाते थे वे कम वेतन और घटिया भोजन के कारण शीघ्र ही भाग खड़े होते थे, इसीलिए दिल्ली से इन 5 मासूम बच्चों को बुलाया गया था.

शुरूशुरू में इस आश्रम में बच्चों का मन लग गया, पर शीघ्र ही हाड़तोड़ मेहनत करने के कारण वे कमजोर और बीमार से होते गए. आश्रम के पुराने खुशामदी लोग जहां मक्खनमलाई खाते थे, वहीं इन बच्चों को रूखासूखा, बासी भोजन ही खाने को मिलता. कुछ माह बाद ही चारों लड़के तो आसपास के आश्रमों में चले गए पर बेचारी सुषमा उन के साथ जाने की हिम्मत न संजो सकी. बड़े महाराज ने तब बूआ को सख्त हिदायत दी थी कि इस बच्ची का खास खयाल रखा जाए.

बूआ, सुषमा का खास ध्यान तो रखती थीं, पर वे बेहद चतुर, स्वार्थी और छोटे महाराज, जोकि बड़े महाराज के भतीजे थे और भविष्य में आश्रम की गद्दी संभालने वाले थे, की खासमखास थीं. बूआ पूरे आश्रम की जासूसी करती थीं, इसीलिए सभी उन्हें ‘मंथरा’ कह कर पुकारते थे.

18 वर्षीय सुषमा का यौवन अब पूरे निखार पर था. हर कोई उसे ललचाई नजरों से घूरता रहता. पर कुछ कहने की हिम्मत किसी में न थी क्योंकि सभी जानते थे कि छोटे महाराज सुषमा पर फिदा हैं और किसी भी तरह उसे अपना बनाना चाहते हैं. बूआ, सुषमा को किसी न किसी बहाने से छोटे महाराज के कक्ष में भेजती रहती थीं.

पिछले साल दिल्ली से बड़े महाराज के किसी शिष्य का पत्र ले कर नवीन नामक नौजवान हरिद्वार घूमने आया था. प्रात: जब दोनों महाराज 3-4 शिष्यों के साथ सैर करने निकल जाते तो सोमनाथ और सुषमा बगीचे में जा कर फूल तोड़ने लगते. 2-3 दिनों में ही नवीन ने सोमनाथ से घनिष्ठता कायम कर ली थी. वह भी अब फूल तोड़ने में उन दोनों की सहायता करने लगा.

28-30 साल का सौम्य, शिष्ट व सुदर्शन नौजवान नवीन पहले दिन से ही सुषमा के प्रति आकर्षण महसूस करने लगा था. सुषमा भी उसे चाहने लगी थी. उन दोनों को करीब लाने में सोमनाथ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे. उन की हार्दिक इच्छा थी कि वे दोनों विवाह बंधन में बंध जाएं.

सोमनाथ ने सुषमा को नवीन की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में सबकुछ बता दिया था कि कानपुर में उस का अपना मकान है. उस की शादी हुई थी, लेकिन डेढ़ वर्ष बाद बेटे को जन्म देने के बाद उस की पत्नी की मृत्यु हो गई थी. घर में मां और छोटा भाई हैं. एक बड़ी बहन शादीशुदा है. नवीन कानपुर की एक फैक्टरी के मार्केटिंग विभाग में ऊंचे पद पर कार्यरत है. उसे 15 हजार रुपए मासिक वेतन मिलता है. इन दिनों वह फैक्टरी के काम से ज्यादातर दिल्ली में ही अपने शाखा कार्यालय की ऊपरी मंजिल पर रहता है.

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1 सप्ताह गुजरने के बाद जब नवीन ने वापस दिल्ली जाने का कार्यक्रम बनाया तो ऐसा संयोग बना कि छोटे महाराज को कुछ दिनों के लिए वृंदावन के आश्रम में जाना पड़ा. उन के जाने के बाद सोमनाथ ने नवीन को 3-4 दिन और रुकने के लिए कहा तो वह सहर्ष उन की बात मान गया.

एक दिन बाग में फूल तोड़ते समय सोमनाथ ने विस्तार से सारी बातें सुषमा को कह डालीं, ‘बेटी, तुम हमेशा से कहती हो न कि घर का जीवन कैसा होता है, यह मैं ने कभी नहीं जाना है. क्या इस जन्म में किसी जानेअनजाने शहर में कोई एक घर मेरे लिए भी बना होगा? क्या मैं सारा जीवन आश्रम, मंदिर या मठ में व्यतीत करने को विवश होती रहूंगी?

‘बेटी, मैं तुम्हें बहुत स्नेह करता हूं लेकिन हालात के हाथों विवश हूं कि तुम्हारे लिए मैं कुछ कर नहीं सकता. अब कुदरत ने शायद नवीन के रूप में तुम्हारे लिए एक उमंग भरा पैगाम भेजा है. तुम्हें वह मनप्राण से चाहने लगा है. वह विधुर है. एक छोटा सा बेटा है उस का…छोटा परिवार है…वेतन भी ठीक है…अगर साहस से काम लो तो तुम उस घर, उस परिवार की मालकिन बन सकती हो. बचपन से अपने मन में पल रहे स्वप्न को साकार कर सकती हो.

‘लेकिन मैं नवीन की कही बातों की सचाई जब तक खुद अपनी आंखों से नहीं देख लूंगा तब तक इस बारे में आगे बात नहीं करूंगा. वह कल दिल्ली लौट जाएगा. फिर वहां से अगले सप्ताह कानपुर जाएगा. इस बारे में मेरी उस से बातचीत हो चुकी है. 3-4 दिन बाद मैं भी दिल्ली चला जाऊंगा और फिर उस के साथ कानपुर जा कर उस का घर देख कर ही कुछ निर्णय लूंगा.

‘यहां आश्रम में तो तुम्हें छोटे महाराज की रखैल बन कर ही जीवन व्यतीत करना पड़ेगा. हालांकि यहां सुखसुविधाओं की कोई कमी न होगी, परंतु अपने घर, रिश्तों की गरिमा और मातृत्व सुख से तुम हमेशा वंचित ही रहोगी.’

‘नहीं बाबा, मैं इन आश्रमों के उदास, सूने और पाखंडी जीवन से अब तंग आ चुकी हूं.’

अगले दिन नवीन दिल्ली लौट गया. उस के 3-4 दिन बाद सोमनाथ भी चले गए क्योंकि कानपुर जाने का कार्यक्रम पहले ही नवीन से तय हो चुका था.

एक सप्ताह बाद सोमनाथ लौट आए. अगले दिन बगीचे में फूल तोड़ते समय उन्होंने मुसकराते हुए सुषमा से कहा, ‘बिटिया, बधाई हो. जैसे मैं ने अनुमान लगाया था, उस से कहीं बढ़ कर देखासुना. सचमुच प्रकृति ने धरती के किसी कोने में एक सुखद, सुंदर, छोटा सा घर तुम्हारे लिए सुरक्षित रख छोड़ा है.’

‘बाबा, अब जैसा आप उचित समझें… मुझे सब स्वीकार है. आप ही मेरे हितैषी, संरक्षक और मातापिता हैं.’

‘तब तो ठीक है. लगभग 2 माह बाद ही छोटे महाराज, बूआ और इस आश्रम की 5-6 महिलाओं के साथ हम दोनों को भी हर वर्ष की भांति उज्जैन के अपने आश्रम में वार्षिक भंडारे पर जाना है. इस बारे में नवीन से मेरी बात हो चुकी है. इस बारे में नवीन ने खुद ही सारी योजना तैयार की है.

‘यहां से उज्जैन जाते समय रात्रि 10 बजे के लगभग ट्रेन झांसी पहुंचेगी. छोटे महाराज अपने 3 शिष्यों के साथ प्रथम श्रेणी के ए.सी. डब्बे में यात्रा कर रहे होंगे, शेष हम लोग दूसरे दर्जे के शयनयान में सफर करेंगे. तुम्हें झांसी स्टेशन पर उतरना होगा…वहां नवीन अपने 3-4 मित्रों के संग तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा. वैसे घबराने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि नवीन की बूआ का बेटा वहीं झांसी में पुलिस सबइंस्पैक्टर के पद पर तैनात है. अगर कोई अड़चन आ गई तो वह सब संभाल लेगा.’

‘क्या आप मेरे साथ झांसी स्टेशन पर नहीं उतरेंगे?’ सुषमा ने शंकित नजरों से उन की ओर देखा.

‘नहीं, ऐसा करने पर छोटे महाराज को पूरा शक हो जाएगा कि मैं भी तुम्हारे साथ मिला हुआ हूं. वे दुष्ट ही नहीं चालाक भी हैं. वैसे तुम जातनी ही हो कि बूआ, छोटे महाराज की जासूस है. अगर कहीं उस ने हम दोनों को ट्रेन से उतरते देख लिया तो हंगामा खड़ा हो जाएगा. तुम घबराओ मत. चंदन आश्रम में रह रहा राजू तुम्हारा मुंहबोला भाई है…उस पर तो तुम्हें पूरा विश्वास है न?’

‘हांहां, क्यों नहीं. वह तो मुझ से बहुत स्नेह करता है.’

‘कल शाम मैं राजू से मिला था. मैं ने उसे पूरी योजना के बारे में विस्तार से समझा दिया है. तुम्हारी शादी की बात सुन कर वह बहुत प्रसन्न था. वह हर प्रकार से सहयोग करने को तैयार है. वह भी हमारे साथ उसी ट्रेन के किसी अन्य डब्बे में यात्रा करेगा.

‘झांसी स्टेशन पर तुम अकेली नहीं, राजू भी तुम्हारे साथ ट्रेन से उतर जाएगा. मैं तुम दोनों को कुछ धनराशि भी दे दूंगा. यात्रा के दौरान मोबाइल पर नवीन से मेरा लगातार संपर्क बना रहेगा. राजू 3-4 दिन तक तुम्हारे ससुराल में ही रहेगा, तब तक मैं भी किसी बहाने से उज्जैन से कानपुर पहुंच जाऊंगा. बस, अब सिर्फ 2 माह और इंतजार करना होगा. चलो, अब काफी फूल तोड़ लिए हैं. बस, एक होशियारी करना कि इस दौरान भूल कर भी बूआ अथवा छोटे महाराज को नाराज मत करना.’

फिर तो 2 माह मानो पंख लगा कर उड़ते नजर आने लगे. सुषमा अब हर समय बूआ और छोटे महाराज की सेवा में जुटी रहती, हमेशा उन दोनों की जीहुजूरी करती रहती. छोटे महाराज अब दिलोजान से सुषमा पर न्योछावर होते चले जा रहे थे. उस की छोटी से छोटी इच्छा भी फौरन पूरी की जाती.

निश्चित तिथि को जब 8-10 लोग उज्जैन जाने के लिए स्टेशन पर पहुंचे तो छोटे महाराज को तनिक भी भनक न लगी कि सुषमा और सोमनाथ के दिलोदिमाग में कौन सी खिचड़ी पक रही है.

आधी रात को लगभग साढ़े 12 बजे बीना जंक्शन पर सोमनाथ ने जब छोटे महाराज को सुषमा के गायब होने की सूचना दी तो उन्होंने उसे और बूआ को फटकारने के बाद अपने शिष्य दीपक से खिन्न स्वर में कहा, ‘‘यार, सुषमा तो बहुत चतुर निकली…हम तो समझ रहे थे कि चिडि़या खुदबखुद हमारे बिछाए जाल में फंसती चली जा रही है, लेकिन वह तो जाल काट कर ऊंची उड़ान भरती हुई किसी अदृश्य आकाश में खो गई.’’

‘‘लेकिन इस योजना में उस का कोई न कोई साथी तो अवश्य ही रहा होगा?’’ दीपक ने कुरेदा तो महाराज खिड़की से बाहर अंधेरे में देखते हुए बोले, ‘‘मुझे तो सोमनाथ और बूआ, दोनों पर ही शक हो रहा है. पर एक बार आश्रम की गद्दी मिलने दो, हसीनाओं की तो कतार लग जाएगी.’’

उज्जैन पहुंचने पर शाम के समय बाजार के चक्कर लगाते हुए सोमनाथ ने जब नवीन के मोबाइल का नंबर मिलाया तो उस ने बताया कि रात को वे लोग झांसी में अपनी बूआ के घर पर ही रुक गए थे और सुबह 5 बजे टैक्सी से कानपुर के लिए चल दिए. नवीन ने राजू और सुषमा से भी सोमनाथ की बात करवाई. सोमनाथ को अब धीरज बंधा.

निर्धारित योजना के अनुसार तीसरे दिन छोटे महाराज के पास सोमनाथ के बड़े बेटे का फोन आया कि कोर्ट में जमीन संबंधी केस में गवाही देने के लिए सोमनाथ का उपस्थित होना बहुत जरूरी है. अत: अगले दिन प्रात: ही सोमनाथ आश्रम से निकल पड़े, परंतु वे दिल्ली नहीं, बल्कि कानपुर की यात्रा के लिए स्टेशन से रवाना हुए.

कानपुर में नवीन के घर पहुंचने पर जब सोमनाथ ने चहकती हुई सुषमा को दुलहन के रूप में देखा तो बस देखते ही रह गए. फिर सुषमा की पीठ थपथपाते हुए हौले से मुसकराए और बोले, ‘‘मेरी बिटिया दुलहन के रूप में इतनी सुंदर दिखाई देगी, ऐसा तो कभी मैं ने सोचा भी न था. सदा सुखी रहो. बेटा नवीन, मेरी बेटी की झोली खुशियों से भर देना.’’

‘‘बाबा, आप निश्ंिचत रहें. यह मेरी बहू ही नहीं, बेटी भी है,’’ सुषमा की सास यानी नवीन की मां ने कहा.

‘‘बाबा, अब 5-6 माह तक मैं दिल्ली कार्यालय में ही ड्यूटी बजाऊंगा.’’

नवीन की बात सुनते ही सोमनाथ बहुत प्रसन्न हुए, ‘‘वाह, फिर तो हमारी बिटिया हमारी ही मेहमान बन कर रहेगी.’’

फिर वे राजू की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘बेटे, अपनी बहन को मंजिल तक पहुंचाने में तुम ने जो सहयोग दिया, उसे मैं और सुषमा सदैव याद रखेंगे. चलो, अब कल ही अपनी आगे की यात्रा आरंभ करते हैं.’’

मायके ने बरबाद की जिंदगी : कैसी रही शमा की शादी

शमा देखने में किसी हूर से कम न थी. उसे अपनी खूबसूरती पर नाज था. गुलाबी होंठ, गोरे गाल, गदराए बदन की मालकिन होने के साथसाथ काले घने और लंबे बालों ने उस की खूबसूरती में चारचांद लगा रखे थे.

शमा की पहली शादी आज से तकरीबन 10 साल पहले हुई थी, तब उस की उम्र 22 साल थी. शादी के कुछ महीने तो सब ठीक चला, पर उस के आएदिन अपने मायके में ही पड़े रहने और अपने शौहर को कम समय देने से उन के बीच खटास आ गई थी.

शमा के शौहर ने कई बार उसे समझाने की कोशिश भी की, पर वह लड़ने पर उतारू हो जाती थी, जिस से धीरेधीरे उन में दूरिया बनती गईं और फिर शमा अपने घर आ कर बैठ गई. उस के बाद शुरू हुई पंचायत, जिस ने उन्हें हमेशाहमेशा के लिए अलग कर दिया.

दरअसल, शमा ने अपने शौहर पर कई झूठे इलजाम लगाए थे कि वह उसे खर्चा नहीं देता है. उस का घर छोटा है और वह उस के साथ वहां रह कर घुटन महसूस करती है.

नतीजतन, शौहर ने पंचायत में ही कह दिया था, ‘‘आप जो खर्चा बोलेंगे, मैं देने के लिए तैयार हूं, बस मैं शमा के अब्बू से यह पूछना चाहता हूं कि जब ये शमा का रिश्ता ले कर मेरे घर आए थे, तब मैं ने इन्हें अपने घर में ही बिठाया था या किसी और के घर में?

‘‘इन लोगों ने शादी से पहले मेरा घर देखा था. इन्हें मालूम था कि इन की लड़की शादी के बाद इसी घर में आ कर रहेगी, पर अब इन को यह घर छोटा लग रहा है…’’

पंचायत के एक सदस्य ने शमा के अम्मीअब्बू से मुखातिब हो कर पूछा था, ‘‘क्या यह सही बोल रहा है?’’

इतना सुनते ही शमा की अम्मी बोलीं, ‘‘शमा इस के साथ नहीं रहना चाहती है. हमारा फैसला करा दो.’’

इस के बाद शमा के शौहर से 5 लाख रुपए ले कर शमा और उस के शौहर का फैसला हो गया था.

कुछ समय के बाद शमा की फिर से शादी हो गई. शादी के कुछ महीनों तक सब ठीक चला. शमा की अम्मी अकसर वहां आतीजाती रहती थीं, पर एक दिन शमा और उस के शौहर में पैसे को ले कर ?ागड़ा हो गया.

हुआ यों था कि शमा अकसर अपने शौहर को बिना बताए अपनी अम्मी को पैसे देती थी, पर एक दिन तंग आकर उस के शौहर ने पैसे देने से मना कर दिया.

फिर क्या था, घर में महाभारत शुरू हो गई. शमा ने अपनी अम्मी को बुला लिया. उस की अम्मी ने शमा के शौहर से बोला, ‘‘जब बीवी रखने की हिम्मत नहीं थी, तो शादी क्यों की?’’ और शमा को अपने साथ ले गईं.

कुछ दिन के बाद शमा का शौहर उस के घर चला गया और शमा के अम्मीअब्बू से उसे घर ले जाने के लिए कहा, पर शमा की अम्मी ने दोटूक जवाब दे दिया, ‘‘अब यह तुम्हारे साथ नहीं जाएगी. हमें फैसला चाहिए.’’

शमा के शौहर ने बहुत मनाया, पर शमा के घर वाले न माने. फिर घर के बड़ों ने बैठ कर फैसला किया और 4 लाख रुपए में फैसला हो गया. शमा का दूसरे शौहर से भी तलाक हो गया.

कुछ महीनों के बाद शमा की तीसरी शादी हो गई. शमा जैसी हसीन बीवी पा कर उस का तीसरा शौहर बहुत खुश था. दोनों प्यारमुहब्बत से रह रहे थे. जल्द ही शमा को एक बेटी हो गई. घर में अच्छी खुशहाली थी.

शमा के शौक और खयाल बहुत बड़े थे. वह हर चीज ब्रांडेड इस्तेमाल करती थी. हजारों रुपए ब्यूटीपार्लर में खर्च कर देती थी.

शुरूशुरू में तो शमा का शौहर कुछ न बोला, लेकिन जल्द ही उस ने शमा को सम?ाने की कोशिश की, तो शमा रूठ गई.

थकहार कर शमा का शौहर चुप हो गया, लेकिन शमा ने अपनी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं किया. उस के शौक भी बड़े हो गए और खर्चे भी बढ़ गए.

शमा के शौहर ने उसे काफी सम?ाने की कोशिश की, पर वह नहीं मानी. फिर पंचायत बैठी, फैसला हुआ और इस बार बच्चे का हवाला दे कर शमा के शौहर से 10 लाख रुपए ऐंठ लिए गए.

वक्त गुजरता गया. शमा अपने अम्मीअब्बू के ही साथ रहने लगी. अब उस के लिए कोई रिश्ता भी नहीं आ रहा था. एक तो वह 3 शौहर छोड़ चुकी थी, दूसरे अब उस के पास एक बेटी भी थी.

वक्त की मार और उम्र के बढ़ने के साथसाथ अब शमा अकेली रहने के लिए मजबूर हो गई थी, लेकिन महंगे शौक और दिखावे ने उसे ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया, जो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था.

शमा को जो पैसा मिला था, वह धीरेधीरे खत्म हो गया. घर का खर्चा उठाना मुश्किल हो गया. मांबाप ने भी अपना हाथ खींच लिया. बेटी की पढ़ाई के खर्च के भी लाले पड़ गए और शमा ने जो रास्ता चुना, उस ने उसे एक गलत धंधे पर ला खड़ा कर दिया.

अब शमा अपना खर्चा चलाने के लिए अपने जिस्म का सौदा करने पर मजबूर हो गई और एक धंधेवाली बन कर रह गई. लेकिन फिर उस की जिंदगी में सैफ आया. उसे शमा की पुरानी जिंदगी से कुछ लेनादेना नहीं था.

शमा की चौथी शादी को 5 महीने ही हुए थे. इन 5 महीने में दोनों बड़े प्यार से रह रहे थे. दोनों एकदूसरे को पा कर बहुत खुश थे

सैफ तो इतनी हसीन बीवी पा कर खुश था ही, उस के घर में उस की मां और बहन भी शमा की तारीफ करते नहीं थकते थे. चारों तरफ शमा के ही चर्चे हो रहे थे.

फिर एक दिन किसी बात को ले कर सैफ और शमा में कुछ कहासुनी हो गई और शमा अपनी मां के घर चली गई.

उन दोनों में ऐसा कुछ खास भी ?ागड़ा नहीं हुआ था. बस, इतनी सी बात थी कि शमा अपने किसी दूर के भाई की शादी में जाना चाहती थी, पर सैफ को कुछ जरूरी काम था, तो वह उसे शादी में नहीं ले जा सकता था.

शमा ने अकेले जाने की जिद की, तो सैफ ने उसे साफ मना कर दिया. बस, इसी बात को ले कर दोनों में कहासुनी हो गई. शमा गुस्से में आ कर अपने मायके आ गई.

अगले दिन जब सैफ शमा को लेने उस के घर गया, तो उस ने आने से साफ मना कर दिया और बेइज्जत कर के अपने घर से भगा दिया. चाची और बड़ी अम्मी ने शमा को भड़का दिया कि एकदम से सैफ के कहने में न आ जाना. आदमी को अपनी मुट्ठी में दबा कर रखना चाहिए. अपनी मनमानी के लिए पुलिस की धौंस और दहेज के मुकदमे जैसे हथियारों से डराया जाता है.

सैफ कई बार शमा को लेने अपनी सुसराल गया, पर हर बार उसे निराशा ही हाथ लगी. इतना ही नहीं, एक दिन शमा के रिश्तेदारों ने उस के मांबाप को भड़का कर सैफ के खिलाफ पहले तो मारपीट की रिपोर्ट लिखा दी, उस के बाद उस पर दहेज का मुकदमा दर्ज करा दिया. पुलिस सैफ को पकड़ कर ले गई, पर सुबूत न मिलने के चलते जल्द ही उसे छोड़ दिया.

अब सैफ अंदर से पूरी तरह टूट चुका था. वह बारबार सुसराल जा कर बेइज्जत हो कर वापस आ चुका था. अब उस के नाम पर कोर्ट का नोटिस भी आ चुका था. कई साल मुकदमा चलता रहा. उधर शमा को भड़काने में उस के रिश्तेदारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी. फिर यह रिश्ता खत्म हो गया.

सैफ ने दूसरी शादी कर ली और खुशीखुशी अपनी जिंदगी गुजारने लगा. एक साल के अंदर ही वह एक बेटे का बाप बन गया. उधर शमा घर पर पड़ी रही. उस की उम्र बीतती जा रही थी. उस के अम्मीअब्बू की भी मौत हो चुकी थी. भाइयों की शादी हो गई. भाईभाभियों को अब शमा बो?ा लगने लगी थी.

सैफ बेकुसूर था. उस पर जो मुकादमा किया गया था, वे सब ?ाठे थे, इसलिए वह बाइज्जत बरी हो गया और अपनी बीवीबच्चों के साथ खुशहाल जिंदगी गुजार रहा था. ?ाठे इलजाम लगाने की वजह से उस ने शमा से तलाक ले लिया था.

शमा की उम्र उस के चेहरे पर ?ालकने लगी थी. वक्त की मार ने उसे समय से पहले ही बूढ़ा बना दिया था. अब उस के लिए कोई रिश्ता न था. वह तनहा जीने के लिए मजबूर थी. उस की खूबसूरती, उस की चमक सब खत्म हो चुकी थी.

लोगों के बहकावे में आ कर शमा ने अपना घर खुद ही बरबाद कर लिया था. सच तो यह है कि हमारे समाज में आज भी न जाने कितने घर दूसरों के बहकावे में आ कर बरबाद हो रहे हैं. शमा भी उन में से एक थी.

मेरी स्वीट मिट्ठी : नाना की रिटायरमेंट बाद क्या हुआ

मेरे नाना रिटायरमैंट के बाद सपरिवार कोलकाता में बस गए थे. उन का कोलकाता के बाहर बसी एक नामचीन डैवलपर की टाउनशिप में बड़ा सा फ्लैट था.

मेरी नानी पश्चिम बंगाल के मिदनापुर की थीं. वे अच्छीखासी पढ़ीलिखी थीं. वे महिला कालेज में प्रिंसिपल के पद पर थीं. नाना ने उन की इच्छा के मुताबिक कोलकाता में बसने का फैसला लिया था.

मैं अपनी मम्मी के साथ दुर्गा पूजा में कोलकाता गया था. मैं ने रांची से एमबीए की पढ़ाई की थी. कैंपस से ही मेरा एक मल्टीनैशनल कंपनी में सैलेक्शन हो चुका था. औफर लैटर मिलने में अभी थोड़ी देरी थी.

मिट्ठी से मेरी मुलाकात कोलकाता में दुर्गा पूजा के दौरान हुई. कौंप्लैक्स के मेन गेट पर वह सिक्योरिटी गार्डों से उलझ गई थी.

शाम के समय पास की झुग्गी बस्ती से कुछ बच्चियां दुर्गा पूजा देखने आई थीं. चिथड़ों में लिपटी बच्चियों को सिक्योरिटी गार्ड ने रोक दिया था.

टाउनशिप के बनने के दौरान मजदूरों ने वहां सालों अपना पसीना बहाया था. ये उन्हीं की बच्चियां थीं.

मिट्ठी वहां अकसर जाती थी. वह उन की चहेती दीदी थी. वह बच्चों के टीकाकरण में मदद करती थी. स्कूलों में उन को दाखिला दिलाती थी. बच्चियों को पूजा पंडाल तक ले जाने और प्रसाद दिलाने में मिट्ठी को तमाम विरोध का सामना करना पड़ा था.

मिट्ठी विजयादशमी के दिन भी दिखाई दी थी. लाल बौर्डर की साड़ी में वह बेहद खूबसूरत दिख रही थी. मिट्ठी मुझे भा गई थी.

मम्मी जल्दी मेरे फेरे कराना चाहती थीं. उन्होंने रांची शहर के कई रिश्ते भी देखे थे. नानी से सलाहमशवरा करने के लिए मम्मी मुझे कोलकाता ले कर आई थीं.

‘‘अमोल खुद अपना ‘जीवनसाथी’ चुनेगा… मेरा पोता अपने लिए बैस्ट साथी चुनेगा… एकदम हीरा…’’ नानी मेरी अपनी पसंद की बहू के हक में थीं.

‘‘गोरीचिट्टी, देशी मेम बहू बनेगी…’’ मम्मी की यही सोच थी. सुंदर, सुशील, घर के कामों में माहिर बहू उन की पसंद थी.

‘‘भाभी, हमारी बहू तो फर्राटेदार अंगरेजी में बतियाने वाली सांवलीसलोनी और स्मार्ट होगी…’’ छोटी मामी ने भी अपनी पसंद जताई थी.

‘‘मुझे मिट्ठी पसंद है…’’ मैं ने छोटी मामी को अपनी पसंद बताई.

मिट्ठी कौंप्लैक्स में ही रहती थी. मेरी मम्मी समेत परिवार के सभी लोग मिट्ठी की हरकतों से अनजान नहीं थे.

‘‘कौंप्लैक्स में मिट्ठी की इमेज ज्यादा अच्छी नहीं है. वह तेजतर्रार है… अमीरजादों के साथ आवारागर्दी करती है… मोटरसाइकिल से स्टंट करती है… बेहद बिंदास है… शौर्ट्स पहन कर घूमती है…’’ छोटी मामी ने मुझे जानकारी दी.

‘‘मुझे बोल्ड लड़कियां पसंद हैं…’’

‘‘उम्र में भी बड़ी है…’’

मैं ने उम्र की बात को भी नकार दिया.

‘‘मिट्ठी कैंपस के लड़कों के साथ टैनिस… क्रिकेट… बास्केटबाल खेलती है… मौडलिंग करती है… कंडोम की मौडलिंग… उस के मम्मीपापा ने कितनी आजादी दे रखी है…’’ मेरी बात से छोटी मामी शायद नाराज हो गई थीं.

‘‘मैं क्या सुन रही हूं…? मेरी रजामंदी बिलकुल नहीं है… नहीं… मैं मिट्ठी को बहू नहीं बना सकती…’’ मम्मी बेहद नाराज थीं. उन्होंने मुझ से दूरी बना ली थी.

मैं मिट्ठी को अपना मान चुका था. शीतयुद्ध का अंत हुआ. नानी को भनक लगी. उन्होंने सब को अपने कमरे में बुलाया. सब की बातों को बड़े ही ध्यान से सुना.

‘‘अमोल ने जिद पकड़ ली है… बदनाम लड़की से रिश्ता करने पर तुले हैं…’’ छोटी मामी ने नानी को बताया.

‘‘यह बदनाम लड़की कौन है…? कहां की है…?’’ नानी ने सवाल किया.

‘‘अपने कौंप्लैक्स की ही है… अपनी मिट्ठी… आवारागर्दी, गुंडागर्दी करती है… पूजा के पंडाल में हंगामा भी किया था… आप ने सुना होगा…’’ छोटी मामी ने मिट्ठी की खूबियों का बखान किया.

‘‘मिट्ठी तो अच्छी बच्ची है… कई बार मंदिर में मिली है… मेरे पैर छुए हैं… मैं ने आशीर्वाद दिया है… वह बदनाम कैसे हो सकती है,’’ नानी छोटी मामी से सहमत नहीं थीं.

‘‘क्या अच्छे परिवार की बच्चियां पराए जवान लड़कों के साथ क्रिकेट… बास्केटबाल और टैनिस खेलती हैं? कंडोम की मौडलिंग करती हैं? छोटे कपड़े पहनती हैं? मुंहफट और बेशर्म होती हैं?’’ मम्मी ने एकसाथ कई बातें बताईं और सवाल उठाए.

‘‘मैं ने अपने लैवल पर इन बातों की पड़ताल की है… जानकारियां इकट्ठी की हैं… मैं मिट्ठी से मिला हूं. वह मर्दऔरत के समान हक की बात करती है… वह एक समाजसेविका है… उसे कई मर्द दोस्तों का भी साथ मिला है… सब मिल कर काम करते हैं… ऐक्टिव रहने के लिए फिटनैस जरूरी है…

‘‘सामाजिक कामों के लिए रुपएपैसों की जरूरत पड़ती है. कंडोम की मौडलिंग में कोई बुराई नहीं है… बढ़ती आबादी को कंडोम से ही रोका जा सकता है… इन पैसों से बस्ती के गरीब बच्चों के स्कूल की फीस दी जा सकती है…

‘‘मिट्ठी बोल्ड है… गलतसही की पहचान और परख उसे है… वह अपने काम में जुटी है… जानती है कि वह गलत

रास्ते पर नहीं है… फुजूल की कानाफूसी और बदनामी की उसे कोई परवाह नहीं है. सब बकवास है…’’ मैं ने नानी की अदालत में मिट्ठी का पक्ष रखा.

‘‘मेरे पोते ने बैस्ट लड़की को चुना है. मिट्ठी ही मेरी बहू बनेगी…’’ नानी ने सहज भाव से अपना फैसला सुनाया. मुझे गले से लगाया… रिश्ते के लिए खुद पहल करने की बात कही.

आत्माराम की पीड़ा : रिटायर्ड फौजी का दर्द

फौज की नौकरी ने आत्माराम को अनुशासन और सेहतमंद रहने की उपयोगिता के बारे में अच्छी तरह से बता दिया था.

50 साल की उम्र में 20 साल की फौज की नौकरी से उन्होंने छुट्टी तो पा ली थी, पर हर समय कुछ करने को मचलने वाला मन और तन अभी काम करने को तैयार रहता था.

आत्माराम की बड़ी बेटी शादी कर अपनी ससुराल जा चुकी थी और बेटा मस्तमलंग भविष्य के लिए कुछ भी ढंग से सोचने लायक नहीं हुआ था. मौजमस्ती ही उस की जिंदगी का टारगेट बना हुआ था.

बेटे की हालत और अपना खालीपन भरने को देखते हुए आत्माराम ने अपने घर पर ही एक परचून की दुकान खोल ली थी. अब फौजी रह चुका आत्माराम दुकानदार बनने और महल्ले में अपना दबदबा बढ़ाने की कोशिश में था. आटेनमक के भाव के साथसाथ वह चेहरे के भाव को भी पढ़ना सीख रहा था.

कोई सिगरेट पीने दुकान में आता तो पीने वाले को उसे फौज की नौकरी का एक किस्सा फ्री में सुनाया जाता. अच्छा बरताव और आमदनी में बढ़ोतरी दुकान पर मन लगाने के लिए काफी थी. अब बेटे को भी 3-4 घंटे दुकान में गुजारने के लिए मना लिया गया.

लड़का भी दुकानदारी में तेज निकला और सालभर में उस ने दुकान से उठने वाले गल्ले को दोगुना कर दिया. पिता की पुत्र की भविष्य को ले कर चिंता काफी कम हो गई थी और वे अब लोगों के निजी और सार्वजनिक काम कराने में मदद करने लगे.

नगरपालिका के चुनाव में कुछ लोगों ने आत्माराम को वार्ड पार्षद का चुनाव लड़ने के लिए राजी कर लिया. आत्माराम की बस एक ही शर्त थी कि वे अपनी जमापूंजी से चुनाव के लिए पैसा खर्च नहीं करेंगे, जो लोगों ने मान ली. मैदान में 5 मुख्य उम्मीदवार थे, लेकिन आत्माराम 563 वोट से जीत गए.

आत्माराम अब ‘फौजीराम’ के नाम से ज्यादा पहचाने जाने लगे और पूरे तनमन से लोगों के काम करवाने में जुटे रहने लगे. सेवा के काम में वे इतना रम गए कि नियमित दिनचर्या कहीं पीछे छूटती चली गई.

कभी बीमार न पड़ने वाला शरीर अब सिरदर्द और थकान अनुभव करने लगा. 5 साल तक लोगों से जुड़ाव और जनसेवा का नतीजा यह हुआ कि ‘फौजीराम’ अब पूरे नगरपालिका क्षेत्र में अच्छी छाप छोड़ चुके थे.

अगला वार्ड चुनाव आत्माराम आसानी से भारी मतों से जीत गए और बिना किसी दल का होने के बावजूद उन्हें निर्विरोध अध्यक्ष चुन लिया गया.

जिम्मेदारी बढ़ी, तो चिंताओं में भी इजाफा होने लगा. न भोजन सही समय पर करना, न वर्जिश के लिए समय निकाल पाना. डायबिटीज और ब्लड प्रैशर नियमित दवा सेवन के स्तर तक पहुंच गए. लोगों को राहत पहुंचाने के मकसद को पूरा में सिर्फ 7 साल में उन का बदन काफी ?ाड़ गया.

बेटे की शादी के अगले दिन बहू घर आई और थकेहारे आत्माराम बिस्तर से उठ कर खड़े नहीं हो पा रहे थे. पत्नी को चिंता हुई और अपने घरेलू उपचार से राहत देने की कोशिश भी की, पर उन की तकलीफ को सम?ा न पाईं, तो बाकी घर वालों से सलाह कर उन्हें अस्पताल ले जाने का फैसला लिया गया.

जिस की कभी बीमार के रूप में कल्पना न की गई हो, उसे यों बिस्तर पर कराहते देख ज्यादा चिंता ने मरीज को शहर के सब से महंगे अस्पताल के दरवाजे पर ले जा कर खड़ा कर दिया.

मरीज को इमर्जैंसी मे भरती कर इलाज तो शुरू कर दिया गया, पर एक  शख्स को मरीज का परचा बनवाने और दूसरी लिखापढ़ी करने के लिए खड़ा कर दिया गया.

कुछ देर में ही हलचल बढ़ गई. डाक्टर ने आत्माराम के 10 टैस्ट कराने के बाद माइनर हार्ट अटैक की घोषणा कर दी.

हार्ट अटैक का नाम सुनते ही परिवार व परिचितों के हाथपैर फूल गए. एंजियोग्राफी करनी पड़ेगी, ब्लौकेज ज्यादा हुआ तो स्टंट डालना पड़ेगा. जल्दी से फार्म साइन हो गया और फौजी आत्माराम आईसीयू के बिस्तर पर सीमित कर दिए गए.

मिलनाजुलना अब डाक्टर के रहमोकरम पर था. चिंता के मारे परिवार वालों का काम अब प्रार्थना करना और डाक्टर द्वारा लिखी दवा दौड़ कर लाना था. पार्षद होने के चलते थोड़ी ज्यादा देखरेख का फायदा आत्माराम को

मिल रहा था, पर लंबीचौड़ी फीस के लिए कोई राहत नहीं दी जा रही थी.

शादी के मोटे खर्च के बाद यह बड़ा खर्च बिना उधार के पूरा नहीं हो सकता था, जिस के लिए अभी शादी किए बेटे को मदद की गुहार लगानी पड़ रही थी. डाक्टर जो कह रहे थे, उस के अलावा कुछ भी सोचने और करने की हालत में कोई नहीं था.

आपरेशन कर दिया गया. 3 दिन बाद प्राइवेट वार्ड में मरीज को शिफ्ट कर दिया गया. एक आदमी के वहां और रुकने का इंतजाम था.

5 दिन तक मरीज के साथ परिवार के भी सब्र का इम्तिहान होता रहा. आखिरकार 8वें दिन बड़ी मिन्नत के बाद डिस्चार्ज करने के लिए अस्पताल राजी हुआ.

उम्मीद से कहीं ज्यादा बिल को कुछ कम कराने की कोशिश ने इस देरी को और ज्यादा कर दिया. आखिरकार कुछ दिन पहले अपने बेटे की बरात ले कर लौटे मरीज आत्माराम की अस्पताल से चली बरात रात के 10 बजे घर लौटी.

घर पर अपने बिस्तर पर लेटते ही सुकून से भरी सांस लेते हुए आत्माराम गहरी नींद में ऐसे सो गए, जैसे सालों से वे इस नींद के लिए तरस रहे हों.

अगली सुबह जब आत्माराम जागे, तो सब ठीक था. बस, स्फूर्ति से दिनचर्या शुरू करने वाले शरीर पर जैसे ब्रेक लगा दिए गए हों. हाथपैर के साथ दिमाग ने भी खुद को बीमार मान लिया था.

10 दिन की बीमारी ने उन्हें 10 साल से ज्यादा बूढ़ा कर दिया था.

आखिरकार 60 साल की उम्र में पहुंचने से पहले ही आत्माराम की मौत हो गई. लोग उन की अर्थी के पीछे चलते हुए बात कर रहे थे कि ये अस्पताल इलाज लेने गए थे या मौत? अच्छेभले सेहतमंद इनासन का ज्यादा पैसा कमाने की नीयत से किए गए इलाज ने तन और मन से बुरी तरह तोड़ दिया था.

मजबूरी : रिहान का तबस्सुम के लिए कैसा प्यार

आज भी बहुत तेज बारिश हो रही थी. बारिश में भीगने से बचने के लिए रिहान एक घर के नीचे खड़ा हो गया था.

बारिश रुकने के बाद रिहान अपने घर की ओर चल दिया. घर पहुंच कर उस ने अपने हाथपैर धो कर कपड़े बदले और खाना खाने लगा. खाना खाने के बाद वह छत पर चला गया और अपनी महबूबा को एक मैसेज किया और उस के जवाब का इंतजार करने लगा.

छत पर चल रही ठंडी हवा ने रिहान को अपने आगोश में ले लिया और वह किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंच गया. वह अपने प्यार के भविष्य के बारे में सोचने लगा.

रिहान तबस्सुम से बहुत प्यार करता था और उसी से शादी करना चाहता था. तबस्सुम के अलावा वह किसी और के बारे में सोचता भी नहीं था. जब कभी घर में उस के रिश्ते की बात होती थी तो वह शादी करने से साफ मना कर देता था.

रिहान के घर वाले तबस्सुम के बारे में नहीं जानते थे. वे सोचते थे कि अभी यह पढ़ाई कर रहा है इसलिए शादी से मना कर रहा है. पढ़ाई पूरी होने के बाद वह मान जाएगा.

तभी अचानक रिहान के मोबाइल फोन पर तबस्सुम का मैसेज आया. उस का दिल खुशी से  झूम उठा. उस ने मैसेज पढ़ा और उस का जवाब दिया. बातें करतेकरते दोनों एकदूसरे में खो गए.

तबस्सुम भी रिहान को बहुत प्यार करती थी और शादी करना चाहती थी. अभी तक उस ने भी अपने घर पर अपने प्यार के बारे में नहीं बताया था. वह रिहान की पढ़ाई खत्म होने का इंतजार कर रही थी.

ऐसा नहीं था कि दोनों में सिर्फ प्यार भरी बातें ही होती थीं, बल्कि दोनों में लड़ाइयां भी होती थीं. कभीकभी तो कईकई दिनों तक बातें बंद हो जाती थीं. लड़ाई के बाद भी वे दोनों एकदूसरे को बहुत याद करते थे और कभी किसी बात पर चिढ़ाने के लिए मैसेज कर देते थे. मसलन, तुम्हारी फेसबुक की प्रोफाइल पिक्चर बहुत बेकार लग रही है. बंदर लग रहे हो तुम. तुम तो बहुत खूबसूरत हो न बंदरिया. और लड़तेलड़ते फिर से बातें शुरू हो जाती थीं.

पिछले 3 सालों से वे दोनों एकदूसरे को प्यार करते थे और अब जा कर शादी करना चाहते थे. रिहान ने सोच लिया था कि इस साल पढ़ाई पूरी होने के बाद कोई अच्छी सी नौकरी कर वह अपने घर वालों को तबस्सुम के बारे में बता देगा. अगर घर वाले मानते हैं तो ठीक, नहीं तो उन की मरजी के खिलाफ शादी कर लेगा. वह किसी भी हाल में तबस्सुम को खोना नहीं चाहता था.

एक दिन रिहान की अम्मी बोलीं, ‘‘तेरे मौसा का फोन आया था. उन्होंने तु झे बुलाया है.’’

‘‘मु झे क्यों बुलाया है? मुझ से क्या काम पड़ गया उन्हें?’’ रिहान ने पूछा.

‘‘अरे, मु झे क्या पता कि क्यों बुलाया है. वह तो हमें वहीं जा कर पता चलेगा,’’ उस की अम्मी ने कहा.

कुछ देर बाद वे दोनों मोटरसाइकिल से मौसा के घर की तरफ चल दिए. रिहान के मौसा पास के शहर में ही रहते थे. एक घंटे में वे दोनों वहां पहुंच गए. वहां पहुंच कर रिहान ने देखा कि घर में बहुत लोग जमा थे. उन में उस के पापा, उस की शादीशुदा बहन और बहनोई भी थे.

यह सब देख कर रिहान ने अपनी अम्मी से पूछा, ‘‘इतने सारे रिश्तेदार क्यों जमा हैं यहां? और पापा यहां क्या कर रहे हैं? वे तो सुबह दुकान पर गए थे?’’

अम्मी बोलीं, ‘‘तू अंदर तो चल. सब पता चल जाएगा.’’

रिहान और उस की अम्मी अंदर गए. वहां सब को सलाम किया और बैठ कर बातें करने लगे.

तभी रिहान के मौसा चिंतित होते हुए बोले, ‘‘आसिफ की हालत बहुत खराब है. वह मरने से पहले अपनी बेटी की शादी करना चाहता है.’’

आसिफ रिहान के मामा का नाम था. कुछ दिन पहले हुईर् तेज बारिश में उन का घर गिर गया था. घर के नीचे दब कर मामा के 2 बच्चों और मामी की मौत हो गई थी. मामा भी घर के नीचे दब गए थे, लेकिन किसी तरह उन्हें निकाल कर अस्पताल में भरती करा दिया गया था. वहां डाक्टर ने कहा था कि वे सिर्फ कुछ ही दिनों के मेहमान हैं. उन का बचना नामुमकिन है.

‘‘फिर क्या किया जाए?’’ रिहान की अम्मी बोलीं.

‘‘आसिफ मरने से पहले अपनी बेटी की शादी रिहान के साथ करा देना चाहता है. यह आसिफ की आखिरी ख्वाहिश है और हमें इसे पूरा करना चाहिए,’’ मौसा की यह बात सुन कर रिहान एकदम चौंक गया. उस के दिल में इतना तेज दर्द हुआ मानो किसी ने उस के दिल पर हजारों तीर एकसाथ छोड़ दिए हों. उस का दिमाग सुन्न हो गया.

‘‘ठीक है, हम आसिफ के सामने इन दोनों की शादी करवा देते हैं,’’ रिहान की अम्मी ने कहा.

रिहान मना करना चाहता था, लेकिन वह मजबूर था.

उसी दिन शादी की तैयारी होने लगी और आसिफ को भी अस्पताल से मौसा के घर ले आया गया. शाम को दोनों का निकाह करवा दिया गया.

शादी के बाद रिहान अपनी बीवी और मांबाप के साथ घर आ गया. पूरे रास्ते वह चुप रहा. उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था. वह सम झ नहीं पा रहा था कि उस के साथ हुआ क्या है.

घर पहुंच कर रिहान कपड़े बदल कर छत पर चला गया. उस ने तबस्सुम को एक मैसेज किया. थोड़ी देर बाद तबस्सुम का फोन आया.

रिहान के फोन उठाते ही तबस्सुम गुस्से में बोली, ‘‘कहां थे आज पूरा दिन? एक मैसेज भी नहीं किया तुम ने.’’

तबस्सुम नाराज थी और वह रिहान को डांटने लगी. रिहान चुपचाप सुनता रहा. जब काफी देर तक वह कुछ नहीं बोला तो तबस्सुम बोली, ‘‘अब कुछ बोलोगे भी या चुप ही बैठे रहोगे?’’

‘‘मेरी शादी हो गई है आज,’’ रिहान धीमी आवाज में बोला.

तबस्सुम बोली, ‘‘मैं सुबह से नाराज हू्र्रं और तुम मु झे चिढ़ा रहे हो.’’

‘‘नहीं यार, सच में आज मेरी शादी हो गई है. उसी में बिजी था इसलिए मैं बात नहीं कर पाया तुम से.’’

‘‘क्या सच में तुम्हारी शादी हो गई है?’’ तबस्सुम ने रोंआसी आवाज में पूछा.

‘‘हां, सच में मेरी शादी हो गई है,’’ रिहान ने दबी जबान में कहा. उस की आवाज में उस के टूटे हुए दिल और उस की बेबसी साफ  झलक रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे वह जीना ही नहीं चाहता था.

‘‘तुम ने मु झे धोखा दिया है रिहान,’’ तबस्सुम ने रोते हुए कहा.

‘‘मैं कुछ नहीं कर सकता था, मेरी मजबूरी थी,’’ यह कह कर रिहान भी रोने लगा.

‘‘तुम धोखेबाज हो. तुम  झूठे हो. आज के बाद मु झे कभी फोन मत करना,’’ कह कर तबस्सुम ने फोन काट दिया.

फोन रख कर रिहान रोने लगा. वहां तबस्सुम भी रो रही थी.

सुकून: क्यों सोहा की शादी नहीं करवाना चाहते थे उसके माता-पिता

सुधाकरऔर सविता की शादी के 7 साल बाद सोहा का जन्म हुआ था. पतिपत्नी के साथ पूरे परिवार की खुशी की सीमा न रही थी. शानदार दावत का आयोजन कर दूरदूर के रिश्तेदारों को आमंत्रित किया गया था.

सोहा के 3 साल की होने पर उसे स्कूल में दाखिल करवा दिया. एक दिन सविता को बेटी के पैर पर व्हाइट स्पौट्स से दिखे. रात में सविता ने पति को बताया तो अगले दिन सोहा को डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने ल्यूकोडर्मा कनफर्म किया. जान कर पतिपत्नी को गहरा आघात लगा. इकलौती बेटी और यह मर्ज, जो ठीक होने का नाम नहीं लेता.

डाक्टर ने बताया, ‘‘ब्लड में कुछ खराबी होने के कारण व्हाइट स्पौट्स हो जाते हैं. कभीकभी कोई दवा भी रीएक्शन कर जाती है. आप अधिक परेशान न हों. अब ऐसी दवा उपलब्ध है जिस के सेवन से ये बढ़ नहीं पाते और कभीकभी तो ठीक भी हो जाते हैं.’’

डाक्टर की बात सुन कर सुधाकर और सविता ने थोड़ी राहत की सांस ली. फिर स्किन स्पैशलिस्ट की देखरेख में सोहा का इलाज शुरू हो गया.

यौवन की दहलीज पर पांव रखते ही सोहा गुलाब के फूल सी खिल उठी. उस के सरल व्यक्तित्व और सौंदर्य में बेहिसाब आकर्षण था. मगर उस के पैरों के व्हाइट स्पौट्स ज्यों के त्यों थे. हां, दवा लेने के कारण वे बढ़े नहीं थे. सोहा को अपने इस मर्ज की कोई चिंता नहीं थी.

सविता और सुधाकर ने कभी इस बीमारी का जिक्र अथवा चिंता उस के समक्ष प्रकट नहीं की. अत: सोहा ने भी कभी इसे मर्ज नहीं समझा.

पढ़ाई पूरी करने के बाद फैशन डिजाइनर की ट्रेनिंग के लिए उस का चयन हो गया. वह कुशाग्रबुद्धि थी. अत: फैशन डिजाइनर का कोर्स पूर्ण होते ही उसे कैंपस से जौब मिल गई. बेटी की योग्यता पर मातापिता को गर्व की अनुभूति हुई.

सोहा को जौब करतेकरते 2 साल बीत गए. अब सविता को उस की शादी की चिंता होने लगी. सर्वगुणसंपन्न होने पर भी बेटी में एक भारी कमी के कारण पतिपत्नी की कहीं बात चलाने की हिम्मत नहीं पड़ती. दोनों जानते थे कि उस की योग्यता और खूबसूरती के आधार पर बात तुरंत बन जाएगी, लेकिन फिर उस की कमी आड़े आ जाएगी, सोच कर उन का मर्म आहत होता.

यद्यपि सुधाकर और सविता को पता था कि शरीर की सीमित जगहों पर हुए ल्यूकोडर्मा के दागों को छिपाने के लिए प्लास्टिक सर्जरी कराई जा सकती है, लेकिन पतिपत्नी 2 कारणों से इस के लिए सहमत नहीं थे. पहला यह कि वे अपनी प्यारी बेटी सोहा को इस तरह की कोई शारीरिक तकलीफ नहीं देना चाहते थे और दूसरा यह कि इस रोग को सोहा की नजरों में कुछ विशेष अड़चन अथवा शारीरिक विकृति नहीं समझने देना चाहते थे. इसी कारण सोहा अपने को हर तरह से नौर्मल ही समझती.

दोनों पतिपत्नी को पूरा विश्वास था कि उन की बेटी को अच्छा वर और घर मिल जाएगा. इसी विश्वास पर सुधाकर ने औनलाइन सोहा की शादी का विज्ञापन डाला.

कुछ दिनों के बाद यूएसए से डाक्टर अर्पित का ईमेल आया, साथ में उन का फोटो भी. उन्होंने अपना पूरा परिचय देते हुए लिखा था, ‘‘मैं डा. अर्पित स्किन स्पैशलिस्ट हूं. बैचलर हूं और स्वयं के लिए आप का प्रस्ताव पसंद है. आप ने अपनी बेटी में जिस कमी का वर्णन किया है, वह मेरे लिए कोई माने नहीं रखती है. मैं आप को पूर्ण विश्वास दिलाना चाहता हूं कि हमारी तरफ से आप को या आप की बेटी को कभी किसी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.

‘‘यदि आप को भी हमारा रिश्ता मंजूर हो तो आप लोग बैंगलुरु जा कर मेरे मातापिता से बात कर सकते हैं. बात पक्की होने पर मैं विवाह के लिए इंडिया आ जाऊंगा.’’

अर्पित का मैसेज सुधाकर और सविता को सुखद प्रतीत हुआ. सोहा से भी बात की. उसे भी अर्पित की जौब और फोटो पसंद आया. मातापिता के कहने पर उस ने अर्पित से बात भी की. सब कुछ ठीक लगा.

बैंगलुरु जा कर सुधाकर ने अर्पित के परिवार वालों से बातचीत की. बिना किसी नानुकुर के शादी पक्की हो गई. 1 माह का अवकाश ले कर अर्पित इंडिया आ गया. धूमधाम के साथ सोहा और अर्पित परिणयसूत्र में बंध गए. विवाहोपरांत कुछ दिन मायके और ससुराल में रह कर वह अर्पित के साथ यूएसए चली गई.

सबकुछ अच्छा होने पर भी सुधाकर और सविता को बेटी के शुभ भविष्य के प्रति मन में कुछ खटक रहा था.

यूएसए पहुंच कर सोहा रोज ही मां से फोन पर बातें करती. अपना,

अर्पित का और दिनभर कैसे व्यतीत हुआ, पूरा हाल बताती. अर्पित के अच्छे स्वभाव की प्रशंसा भी करती.

सविता को अच्छा लगता. वे पूछना चाहतीं कि उस के पैरों के बारे में कुछ बात तो नहीं होती, लेकिन पूछ नहीं पाती, क्योंकि अभी तक कभी उस से व्यक्तिगत रूप से इस पर बात कर के उस का ध्यान इस तरफ नहीं खींचा था ताकि बेटी को कष्ट की अनुभूति न हो.

सोहा ने भी कभी इस बाबत मां से कोई बात नहीं की, इस विषय में मां से कुछ कहना उसे कोई जरूरी बात नहीं लगती थी. बस इसी तरह समय सरकता रहा.

स्वयं स्किन स्पैशलिस्ट डाक्टर होने के कारण अर्पित को ल्यूकोडर्मा के बारे में पूरी जानकारी थी. वे इस से परिचित थे कि यह बीमारी आनुवंशिक होती है और न ही छूत से. अपितु शरीर में ब्लड में कुछ खराबी होने के कारण हो जाती है. एक लिमिट में रहने तक प्लास्टिक सर्जरी से छिपाया जा सकता है. उन्होंने सोहा के साथ भी वही किया. कुछ अन्य डाक्टरों से सलाहमशवरा कर के उन्होंने बारीबारी से सोहा के दोनों पैर प्लास्टिक सर्जरी द्वारा ठीक कर दिए.

कुछ समय और बीता तो सोहा को पता चला कि उस के पांव भारी हैं. उस ने अर्पित को इस शुभ समाचार से अवगत कराया.

अर्पित ने अपनी खुशी व्यक्त करते हुए उसे बांहों में भर लिया, ‘‘मां को भी इस शुभ समाचार से अवगत कराओ,’’ अर्पित ने कहा.

‘‘हां, जरूर,’’ सोहा ने मुसकराते हुए कहा.

दूसरे दिन सोहा ने फोन पर मां को बताया. सविता और सुधाकर को अपार हर्ष की

अनुभूति हुई. उन्हें विश्वास हो गया कि उन की बेटी का दांपत्य जीवन सुखद है.

दोनों पतिपत्नी ने शीघ्र यूएसए जाने की तैयारी भी कर ली. सोहा और अर्पित के पास मैसेज भी भेज दिया. यथासमय बेटीदामाद उन्हें रिसीव करने पहुंच गए. काफी दिनों बाद सोहा को देख कर सविता ने उसे गले से लगा लिया. घर आ कर विस्तृत रूप से बातचीत हुई.

सोहा के पैरों को सही रूप में देख कर सुधाकर और सविता को असीम खुशी हुई.

शिकायत करती हुई सविता ने सोहा से कहा, ‘‘अपने पैरों के बारे में तुम ने मुझे नहीं बताया?’’

‘‘हां मां, यह कोई ऐसी विशेष बात तो थी नहीं, जो तुम्हें बताती,’’ सोहा ने लापरवाही से कहा.

सविता के मन ने स्वीकार लिया कि बेटी की जिस बीमारी को ले कर वे लोग 24-25 सालों तक तनाव में रहे वह अर्पित के लिए कोई विशेष बात नहीं रही. ‘योग्य दामाद के साथ बेटी का दांपत्य जीवन और भविष्य उज्ज्वल रहेगा,’ सोच सविता को भारी सुकून मिला.

दोस्ती: अनिकेत के समझौते के खिलाफ क्या था आकांक्षा का फैसला

आकांक्षाखुद में सिमटी हुई दुलहन बनी सेज पर पिया के इंतजार में घडि़यां गिन रही थी. अचानक दरवाजा खुला, तो उस की धड़कनें और बढ़ गईं.

मगर यह क्या? अनिकेत अंदर आया.

दूल्हे के भारीभरकम कपड़े बदल नाइटसूट पहन कर बोला, ‘‘आप भी थक गई होंगी. प्लीज, कपड़े बदल कर सो जाएं. मुझे भी सुबह औफिस जाना है.’’

आकांक्षा का सिर फूलों और जूड़े से पहले ही भारी हो रहा था, यह सुन कर और झटका लगा, पर कहीं राहत की सांस भी ली. अपने सूटकेस से खूबसूरत नाइटी निकाल कर पहनी और फिर वह भी बिस्तर पर एक तरफ लुढ़क गई.

अजीब थी सुहागसेज. 2 अनजान जिस्म जिन्हें एक करने में दोनों के परिवार वालों ने इतनी जहमत उठाई थी, बिना एक हुए ही रात गुजार रहे थे. फूलों को भी अपमान महसूस हुआ. वरना उन की खुशबू अच्छेअच्छों को मदहोश कर दे.

अगले दिन नींद खुली तो देखा अनिकेत औफिस के लिए जा चुका था. आकांक्षा ने एक भरपूर अंगड़ाई ले कर घर का जायजा लिया.

2 कमरों का फ्लैट, बालकनी समेत अनिकेत को औफिस की तरफ से मिला था. अनिकेत एअरलाइंस कंपनी में काम करता है. कमर्शियल विभाग में. आकांक्षा भी एक छोटी सी एअरलाइंस कंपनी में परिचालन विभाग में काम करती है. दोनों के पिता आपस में दोस्त थे और उन का यह फैसला था कि अनिकेत और आकांक्षा एकदूसरे के लिए परफैक्ट मैच रहेंगे.

आकांक्षा को पिता के फैसले पर कोईर् आपत्ति नहीं थी, पर अनिकेत ने पिता के दबाव में आ कर विवाह का बंधन स्वीकार किया था. आकांक्षा ने औफिस से 1 हफ्ते की छुट्टी ली थी. सब से पहले किचन में जा कर चाय बनाई, फिर चाय की चुसकियों के साथ घर को संवारने का प्लान बनाया.

शाम को अनिकेत के लौटने पर घर का कोनाकोना दमक रहा था. जैसे ही अनिकेत ने घर में कदम रखा, करीने से सजे घर को देख कर उसे लगा क्या यह वही घर है जो रोज अस्तव्यस्त होता था? खाने की खुशबू भी उस की भूख को बढ़ा रही थी.

आकांक्षा चहकते हुए बोली, ‘‘आप का दिन कैसा रहा?’’

‘‘ठीक,’’ एक संक्षिप्त सा उत्तर दे कर अनिकेत डाइनिंग टेबल पर पहुंचा. जल्दी से खाना खाया और सीधा बिस्तर पर.

औरत ज्यादा नहीं पर दो बोल तो तारीफ के चाहती ही है, पर आकांक्षा को वे भी नहीं मिले. 5 दिन तक यही दिनचर्या चलती रही.

छठे दिन आकांक्षा ने सोने से पहले अनिकेत का रास्ता रोक लिया, ‘‘आप प्लीज 5 मिनट

बात करेंगे?’’

‘‘मुझे सोना है,’’ अनिकेत ने चिरपरिचित अंदाज में कहा.

‘‘प्लीज, कल से मुझे भी औफिस जाना है. आज तो 5 मिनट निकाल लीजिए.’’

‘‘बोलो, क्या कहना चाहती हो,’’ अनिकेत अनमना सा बोला.

‘‘आप मुझ से नाराज हैं या शादी से?’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘आप जानते हैं मैं क्या जानना चाहती हूं?’’

‘‘प्लीज डैडी से बात करो, जिन का

फैसला था.’’

‘‘पर शादी तो आप ने की है? आकांक्षा को भी गुस्सा आ गया.’’

‘‘जानता हूं. और कुछ?’’ अनिकेत चिढ़ कर बोला.

आकांक्षा समझ गई कि अब सुलझने की जगह बात बिगड़ने वाली है. बोली, ‘‘क्या यह शादी आप की मरजी से नहीं हुई है?’’

‘‘नहीं. और कुछ?’’

‘‘अच्छा, ठीक है पर एक विनती है आप से.’’

‘‘क्या?’’

‘‘क्या हम कुछ दिन दोस्तों की तरह रह सकते हैं?’’

‘‘मतलब?’’ अनिकेत को आश्चर्य हुआ.

‘‘यही कि 1 महीने बाद मेरा इंटरव्यू है. मुझे लाइसैंस मिल जाएगा और फिर मैं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चली जाऊंगी 3 सालों के लिए. उस दौैरान आप को जो उचित लगे, वह फैसला ले लीजिएगा… यकीन मानिए आप को परेशानी नहीं होगी.’’

अनिकेत को इस में कोई आपत्ति नहीं लगी. फिर दोनों साथसाथ

नाश्ता करने लगे. शाम को घूमने भी जाने लगे. होटल, रेस्तरां यहां तक कि सिनेमा भी. आकांक्षा कालेजगर्ल की तरह ही कपड़े पहनती थी न कि नईनवेली दुलहन की तरह. उन्हें साथ देख कर कोई प्रेमी युगल समझ सकता था, पर पतिपत्नी तो बिलकुल नहीं.

कैफे कौफीडे हो या काके दा होटल, दोस्तों के लिए हर जगह बातों का अड्डा होती है और आकांक्षा के पास तो बातों का खजाना था. धीरेधीरे अनिकेत को भी उस की बातों में रस आने लगा. उस ने भी अपने दिल की बातें खोलनी शुरू कर दी.

एक दिन रात को औफिस से अनिकेत लेट आया. उसे जोर की भूख लगी थी. घर में देखा तो आकांक्षा पढ़ाई कर रही थी. खाने का कोई अतापता नहीं था.

‘‘आज खाने का क्या हुआ?’’ उस ने पूछा.

‘‘सौरी, आज पढ़तेपढ़ते सब भूल गई.’’

‘‘वह तो ठीक है… पर अब क्या?’’

‘‘एक काम कर सकते हैं, आकांक्षा को आइडिया सूझा,’’ मैं ने सुना है मूलचंद फ्लाईओवर के नीचे आधी रात तक परांठे और चाय मिलती है. क्यों न वहीं ट्राई करें?

‘‘क्या?’’ अनिकेत का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया.

‘‘हांहां, मेरे औफिस के काफी लोग जाते रहते हैं… आज हम भी चलते हैं.’’

‘‘ठीक है, कपड़े बदलो. चलते हैं.’’

‘‘अरे, कपड़े क्या बदलने हैं? ट्रैक सूट में ही चलती हूं. बाइक पर बढि़या रहेगा… हमें वहां कौन जानता है?’’

मूलचंद पर परांठेचाय का अनिकेत के लिए भी बिलकुल अलग अनुभव था.

आखिर वह दिन भी आ ही गया जब आकांक्षा का इंटरव्यू था. सुबहसुबह घर का काम निबटा कर वह फटाफट डीजीसीए के लिए रवाना हो गई. वहां उस के और भी साथी पहले से मौजूद थे. नियत समय पर इंटरव्यू हुआ.

आकांक्षा के जवाबों ने एफआईडी को भी खुश कर दिया. उन्होंने कहा, ‘‘जाइए, अपने दोस्तों को भी बताइए कि आप सब पास हो गए हैं.’’

आकांक्षा दौड़ते हुए बाहर आई और फिल्मी अंदाज में टाई उतार कर बोली, ‘‘हे गाइज, वी औल क्लीयर्ड.’’ फिर क्या था बस, जश्न का माहौल बन गया. खुशीखुशी सब बाहर आए. आकांक्षा सोच रही थी कि बस ले या औटो तभी उस का ध्यान गया कि पेड़ के नीचे अनिकेत उस का इंतजार कर रहा है. आकांक्षा को अपने दायरे का एहसास हुआ तो पीछे हट कर बोली, ‘‘आप आज औफिस नहीं गए?’’

‘‘बधाई हो, आकांक्षा. तुम्हारी मेहनत सफल हो गई. चलो, घर चलते हैं. मैं तुम्हें लेने आया हूं,’’ अनिकेत ने मुसकराते हुए बाइक स्टार्ट की.

आकांक्षा चुपचाप पीछे बैठ गई. घर पहुंच कर खाना खा कर थोड़ी

देर के लिए दोनों सो गए. शाम को आकांक्षा हड़बड़ा कर उठी और फिर किचन में जाने लगी तो अनिकेत ने रोक लिया, ‘‘परेशान होने की जरूरत नहीं है. हम आज खाना बाहर खाएंगे या मंगा लेंगे.’’

‘‘ओके,’’ आकांक्षा अपने कमरे में आ कर अपना बैग पैक करने लगी.

‘‘यह क्या? तुम कहीं जा रही हो?’’ अनिकेत ने पूछा.

‘‘जी, आप के साथ 1 महीना कैसे कट गया, पता ही नहीं चला. अब बाकी काम डैडी के पास जा कर ही कर लूंगी. और वहीं से 1 हफ्ते बाद अमेरिका चली जाऊंगी.’’

‘‘तो तुम मुझे छोड़ कर जा रही हो?’’

‘‘जी नहीं. आप से जो इजाजत मांगी थी, उस की आखिरी रात है आज, आकांक्षा मुसकराते हुए बोली.’’

‘‘जानता हूं, आकांक्षा मैं तुम्हारा दोषी हूं. पर क्या आज एक अनुरोध मैं तुम से कर सकता हूं? अनिकेत ने थोड़े भरे गले से कहा.’’

‘‘जी, बोलिए.’’

‘‘हम 1 महीना दोस्तों की तरह रहे. क्या अब यह दोस्ती प्यार में बदल सकती है? इस

1 महीने में तुम्हारे करीब रह कर मैं ने जाना कि अतीत की यादों के सहारे वर्तमान नहीं जीया जाता… अतीत ही नहीं वर्तमान भी खूबसूरत हो सकता है. क्या तुम मुझे माफ कर सकती हो?’’

उस रात आकांक्षा ने कुछ ही पलों में दोस्त से प्रेमिका और प्रेमिका से पत्नी का सफर तय कर लिया, धीरधीरे अनिकेत के आगोश में समा कर.

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