‘‘हां, तभी रातरात भर सो नहीं पाते हैं. हर समय टांगें दबाने को कहते हैं. बारबार पानी पीते हैं… और कमजोर भी हो रहे हैं. दीदी, कभी खयाल ही नहीं आया मुझे. हमारे तो खानदान में कहीं किसी को शुगर नहीं है.’’
उसी पल मेरे पति उन को साथ ले कर डाक्टर के पास गए. रक्त और पेशाब की जांच की. डाक्टर मुंहबाए उसे देखने लगा.
‘‘इतनी ज्यादा शुगर…आप जिंदा हैं मैं तो इसी पर हैरान हूं.’’
वही हो गया न जिस का मुझे डर था. उसी क्षण से उन का इलाज शुरू हो गया. मेरे पति उस दिन के बाद से मुझ से नजरें चुराने से लगे.
‘‘आप न बतातीं तो शायद मैं सोयासोया ही सो जाता…आप ने मुझे बचा लिया, दीदी,’’ लगभग मेरे पैर ही छूने लगे वह.
‘‘बस…बस…अब दीदी कहा है तो तुम्हारा नाम ही लूंगी…देखो, अपना पूरापूरा खयाल रखना. सदा सुखी रहो,’’ मैं उसे आशीर्वाद के रूप में बोली और अपने पति का चेहरा देखा तो हंसने लगे.
‘‘जय हो देवी, अब प्रसन्न हो न भई, तुम्हारा इलाज हफ्ता भर पहले भी शुरू हो सकता था अगर मैं देवीजी की बात मान लेता. आज भी यह जिद कर के लाई थीं. मेरा ही दोष रहा जो इन का कहा नहीं माना.’’
उस रात मैं चैन की नींद सोई थी. एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि उन पर मैं कोई कृपा, कोई एहसान कर के लौटी हूं. बस, इतना ही लग रहा था कि अपने भीतर बैठे अपने चेतन को चिंतामुक्त कर आई हूं. कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारी निभा आई हूं.
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अगले दिन सुबहसुबह दरवाजे पर एक व्यक्ति को खड़ा देखा तो समझ नहीं पाई कि इन्हें कहां देखा है. शायद पति के जानकार होंगे. उन्हें भीतर बिठाया. पता चला, पति से नहीं मुझ से मिलने आए हैं.
‘‘कौन हैं यह? मैं तो इन्हें नहीं जानती,’’ पति से पूछा.
‘‘कह रहे हैं कि वह तुम्हें अच्छी तरह पहचानते हैं और तुम्हारा धन्यवाद करने आए हैं.’’
‘‘मेरा धन्यवाद कैसा?’’ मैं कुछ याद करते हुए पति से बोली, ‘‘हां, कहीं देखा तो लग रहा है लेकिन याद नहीं आ रहा,’’ रसोई का काम छोड़ मैं हाथ पोंछती हुई ड्राइंगरूम में चली आई. प्रश्नसूचक भाव से उन्हें देखा.
‘‘बहनजी, आप ने पहचाना नहीं. चौक पर मेरी दुकान है. कुछ समय पहले आप और आप की एक सखी मेरी दुकान के बाहर…’’
‘‘अरे हां, याद आया. मैं और मीना मिले थे न,’’ पति को बताया मैं ने.
‘‘कहिए, मेरा कैसा धन्यवाद?’’
‘‘उस दिन आप ने मेरे बेटे से कहा था न कि वह ऊंचे स्टूल पर न बैठे. दरअसल, उसी सुबह वह पीठ दर्द की वजह से 7 दिन अस्पताल रह कर ही लौटा था. डाक्टरों ने भी मुझे समझाया था कि उस स्टूल की वजह से ही सारी समस्या है.’’
‘‘हां तो समस्या क्या है? आप कुरसी नहीं खरीद सकते क्या?’’
‘‘कुरसी तो लड़का 6 महीने पहले ही ले आया था, जो गोदाम में पड़ी सड़ रही है. मैं ही जिद पर अड़ा था कि वह स्टूल वहां से न हटाया जाए. वह मेरे पिताजी का स्टूल है और मुझे वहम ही नहीं विश्वास भी है कि जब तक वह स्टूल वहां है तब तक ही मेरी दुकान सुरक्षित है. जिस दिन स्टूल हट गया लक्ष्मी भी हम से रूठ जाएगी.’’
हम दोनों अवाक् से उस आदमी का मुंह देखते रहे.
‘‘मेरा बच्चा रोतापीटता रहा, मेरी बहू मेरे आगे हाथपैर जोड़ती रही लेकिन मैं नहीं माना. साफसाफ कह दिया कि चाहो तो घर छोड़ कर चले आओ, दुकान छोड़ दो पर वह स्टूल तो वहीं रहेगा.
‘‘मैं तो सोचता रहा कि लड़का बहाना कर रहा होगा. अकसर बच्चे पुरानी चीज पसंद नहीं न करते. सोचा डाक्टर भी जानपहचान के हैं, उन से कहलवाना चाहता होगा लेकिन आप तो जानपहचान की न थीं. और उस दिन जब आप ने कहा तो लगा मेरा बच्चा सच ही रोता होगा.
‘‘एक दिन मेरा बच्चा ही किसी काम का न रहा तो मैं लक्ष्मी का भी क्या करूंगा? पिताजी की निशानी को छाती से लगाए बैठा हूं और उसी का सर्वनाश कर रहा हूं जिस का मैं भी पिता हूं. मेरा बच्चा अपने बुढ़ापे में मेरी जिद याद कर के मुझे याद करना भी पसंद नहीं करेगा. क्या मैं अपने बेटे को पीठदर्द विरासत में दे कर मरूंगा.
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‘‘उसी शाम मैं ने वह स्टूल उठवा कर कुरसी वहां पर रखवा दी. मेरे बेटे का पीठदर्द लगभग ठीक है और घर में भी शांति है वरना बहू भी हर पल चिढ़ीचिढ़ी सी रहती थी. आप की वजह से मेरा घर बच गया वरना उस स्टूल की जिद से तो मैं अपना घर ही तोड़ बैठता.’’
मिठाई का एक डब्बा सामने मेज पर रखा था. उस पर एक कार्ड था. धन्यवाद का संदेश उन महाशय के बेटे ने मुझे भेजा था. क्या कहती मैं? भला मैं ने क्या किया था जो उन का धन्यवाद लेती?
‘‘आप की वह सहेली एक दिन बाजार से गुजरी तो मैं ने रोक कर आप का पता ले लिया. फोन कर के भी आप का धन्यवाद कर सकता था. फिर सोचा मैं स्वयं ही जाऊंगा. अपने बेटे के सामने तो मैं ने अपनी गलती नहीं मानी लेकिन आप के सामने स्वीकार करना चाहता हूं, अन्याय किया है मैं ने अपनी संतान के साथ… पता नहीं हम बड़े सदा बच्चों को ही दोष क्यों देते रहते हैं? कहीं हम भी गलत हैं, मानते ही नहीं. हमारे चरित्र में पता नहीं क्यों इतनी सख्ती आ जाती है कि टूट जाना तो पसंद करते हैं पर झुकना नहीं चाहते. मैं स्वीकार करना चाहता हूं, विशेषकर जब बुढ़ापा आ जाए, मनुष्य को अपने व्यवहार में लचीलापन लाना चाहिए. क्यों, है न बहनजी?’’
‘‘जी, आप ठीक कह रहे हैं. मैं भी 2 बेटों की मां हूं. शायद बुढ़ापा गहरातेगहराते आप जैसी हो जाऊं. इसलिए आज से ही प्रयास करना शुरू कर दूंगी,’’ और हंस पड़ी थी मैं. पुन: धन्यवाद कर के वह महाशय चले गए.
पति मेरा चेहरा देखते हुए कहने लगे, ‘‘ठीक कहती हो तुम, जहां कुछ कहने की जरूरत हो वहां अवश्य कह देना चाहिए. सामने वाला मान ले उस की इच्छा न माने तो भी उस की इच्छा… कम से कम हम तो एक नैतिक जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त कर सकते हैं न, जो हमारी अपनी चेतना के प्रति होती है. लेकिन सोचने का प्रश्न एक यह भी है कि आज कौन है जो किसी की सुनना पसंद करता है. और आज कौन इतना संवेदनशील है जो दूसरे की तकलीफ पर रात भर जागता है और अपने पति से झगड़ा भी करता है.’’
पति का इशारा मेरी ओर है, मैं समझ रही थी. सच ही तो कह रहे हैं वह, आज कौन है जो किसी की सुनना या किसी को कुछ समझाना पसंद करता है?