मेरे ससुर का श्राद्ध : पत्नी के स्वभाव में अचानक परिवर्तन क्यों आया

जब थकहार कर मैं अपने घर पहुंचा तो पत्नीजी ने गरमागरम पकौड़ों के साथ कौफी का प्याला हाथ में रख दिया. मुझे उन गरम पकौड़ों में कोई साजिश और चाय की जगह दी जा रही कौफी में स्लो पौयजन का अनुभव हुआ. शादी के 10 बरसों में जिस ने कभी पति के घर लौटने पर हंस कर स्वागत नहीं किया हो वह यदि नाश्ते के साथ सवा सेर की मुसकान चेहरे पर ले आए तो यकीन मानिए कि कोई न कोई साजिश रची होनी चाहिए. मैं ने कांपते मन से पकौड़ा उठाया, कौफी के साथ मुंह में डाला और विचार कर ही रहा था कि पत्नीजी अब अणु बम के रूप में कोई मांग हमारे ऊपर फेंकने वाली हैं, लेकिन हमारा अंदाज गलत साबित हुआ. उन्होंने कुछ भी मांग नहीं रखी और पास बैठी किसी नवयौवना चिडि़या की तरह फुदकती रहीं. हमारा मन अभी भी शंकाकुशंका से दूर नहीं हो पाया था.

रात भोजन में 3 तरह का मीठा और 4 तरह की सब्जियां बनी थीं. चावलदाल अतिरिक्त थे. शायद अब कुछ कहे, लेकिन उन्होंने कुछ भी नहीं मांगा. हमारे जीवन में ऐसा पहली बार हुआ था. रात हमें नींद नहीं आ रही थी, न जाने पत्नीजी के व्यवहार में ऐसा परिवर्तन क्यों और कहां से आ गया? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि किसी के व्यवहार में अचानक परिवर्तन आ जाने का मतलब है कि उस की मृत्यु निकट है. तो क्या हमारी एकमात्र पत्नी जाने वाली है? सोच कर हमारी आंखें भर आईं. हम ने सोचा, उन्हें गले लगा कर जी भर कर रो लें लेकिन उन का साइज ऐसा था कि हिम्मत नहीं पड़ी.

वे किचन का काम निबटा कर हमारे बगल में आ कर बैठ गईं और तोप छोड़ती हुई बोलीं, ‘‘मैं ने तुम्हारा सामान भी जमा दिया है.’’

‘‘मेरा सामान जमा दिया है? मैं कहां जा रहा हूं?’’ हम ने किसी उल्लू की तरह देखते हुए प्रश्न किया.

‘‘तुम्हें मालूम नहीं क्या? बरस भर से कह रही हूं…’’ उन्होंने तनिक नाराजगी से कहा.

‘‘भूल गया हूं. दोबारा बता दो भाई,’’ हम ने विनम्रता से निवेदन किया.

‘‘बापू का श्राद्ध है. पूरा बरस बीत गया है,’’ कहतेकहते उन की आंखों से घडि़याली आंसू बहने लगे.

‘‘ओह, बापूजी का श्राद्ध है. हम तो भूल ही गए थे. कब निकलना है?’’

‘‘सुबह 6 बजे की बस है, फिर थोड़ा गांव तक पैदल भी जाना होगा,’’ उन्होंने बताया.

‘‘मैं औफिस में अभी फोन कर के छुट्टी को कह देता हूं,’’ पत्नीजी को खुश करने के उद्देश्य से मैं ने कहा.

वे खुश हो गईं. उन्होंने प्यार से हमारे सिर पर चुंबन लिया. उन्हें कोई दिक्कत भी नहीं हुई होगी क्योंकि वहां बाल बचे ही कहां थे. हवाई पट्टी की तरह चिकनी खोपड़ी जो हो चुकी थी.

सुबह वे जल्दी उठ गईं. हमें भी उठाया. हम आटोरिकशा ले आए. बस स्टैंड पर पहुंचे और बस में बैठ कर ससुराल के लिए निकल पड़े. पूरे रास्ते हम सोचते रहे कि क्यों इतने सुदूर गांव में हमारे ससुरजी ने इस कुकन्या को जन्म दिया? मरने के बाद भी हमें चैन से नहीं जीने दे रहे हैं. इतनी बेकार सड़क पर गाड़ी हिचकोले लेते चल रही थी, पता नहीं कब हम से साक्षात बातें करने के लिए ससुरजी ड्राइवर से साजिश कर के हमें बुला लें.

आखिर दोपहर तक हम ससुराल पहुंच गए. एकमात्र सास ने हमारी ओर कम अपनी कन्या की ओर अधिक ध्यान दिया. हमें एक कमरे में बैठा दिया गया था.

अगले दिन श्राद्ध का कार्यक्रम था. गांव से कुछ लोग अगले दिन आ गए थे. वहीं रिश्तेदार भी माल खाने के लिए आ धमके थे. भोजन की लिस्ट 7 दिन पूर्व बन चुकी थी. रात में ही बनाने वाले आ गए थे. पत्नीजी और दोनों साले खाना बनवाने के लिए निर्देश दे रहे थे. श्राद्ध कम, किसी की शादी का आयोजन अधिक लग रहा था. पकवानों की महक चारों ओर फैल रही थी. हम भी श्राद्ध के चलते बड़े गंभीर बने हुए थे.

उधर पत्नी और उन की भाभियां सोलहशृंगार कर के स्वर्ण आभूषणों से लदी थीं. ऐसा लग रहा था जैसे वहां श्राद्ध न हो कर फैशन शो हो रहा हो. सास ने भी रेशम की सफेद साड़ी और असली सफेद मोती की माला व उसी से मेल खाते अन्य जेवर धारण कर रखे थे. आईब्रो और फेशियल, हेयर कलर वे 2-3 दिन पूर्व ही करा चुकी थीं. सच कहूं, हमें अपनी पत्नीजी सास के सामने बूढ़ी लग रही थीं और सास को ससुरजी देख लेते तो पुन:विवाह का प्रस्ताव रख देते.

कार्यक्रम स्थल पर ससुरजी का फोटो रखा था. गांव, महल्ले वाले बेशर्म, गेंदे के फूलों को ला कर उन की तसवीर पर चढ़ा रहे थे. थोड़ी देर बाद पंडितजी आ गए. उन्होंने न जाने क्याक्या मंगाई गई सामग्रियों को रखा, होमहवन के बाद पूजा की. पूजा की थाली में सब ने चंदा डाला. इस सब क्रियाकर्म को करतेकरते 1 बज गया था. सब को भूख लग आई थी. पंडितजी ने सास को आदेश दिया कि कौए, गाय, कुत्ते के लिए भोजन की थालियां सजाओ, पितृपक्ष में सब आ कर प्रसाद ग्रहण करेंगे. पत्नीजी ने 3 थालियों को सजा दिया था. पंडितजी ने थालियों की पूजा की और आदेश दिया कि इसे बाहर रख दिया जाए, जब कौआ प्रसाद ग्रहण कर लेगा तब भोजन प्रारंभ होगा.

थाली सजा कर रखी गई थी. कौए को आने में समय भी नहीं लगा क्योंकि दूर एक मरा हुआ जानवर पड़ा था, जिस के मांसचमड़ी का भोजन करतेकरते वह थक गया था, शायद इसीलिए टैस्ट बदलने के लिए आ गया. हम ने वहां खड़े एक व्यक्ति से प्रश्न किया, ‘‘यह कौआ कौन है?’’

‘‘मृत आत्मा इस में रहती है.’’

‘‘यानी पहलवान सिंह ठामरूलाल की आत्मा इस में है?’’ हम ने ससुरजी का नाम ले कर प्रश्न किया.

‘‘बिलकुल, 100 प्रतिशत,’’ उस ने समर्थन किया.

‘‘तो क्या भैया, यह कुछ देर पहले मरा जानवर खाने वाला कौआ हमारे ससुरजी हैं?’’ उस ने क्रोध से हमें देखा और चुप रहने का इशारा किया.

दूसरी थाली कुत्ते के लिए थी. वहां कुत्ता तो नहीं आया, एक कुतिया जरूर आई. हम ने मन ही मन विचार किया, ‘ससुरजी का लिंग परिवर्तन हो गया जो कुतिया का रूप धारण कर लिया.’ सब रिश्तेदार खुश थे कि मृत आत्मा धड़ाधड़ प्रसाद ग्रहण कर रही है.

तीसरा चढ़ावा गाय का था. थाली रख दी गई, गाय को खोजा जाने लगा. गाय न थी, न आ रही थी. सब रिश्तेदार प्रतीक्षा कर रहे थे. बाहर थाली परोस कर रख दी गई थी. थोड़ी देर में छोटा साला दौड़ता हुआ अंदर आया, ‘‘मम्मीजीमम्मीजी.’’

‘‘क्या हुआ?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘बाहर, थाली के पास…’’

‘‘क्या हुआ? क्या गाय ने भी प्रसाद ग्रहण कर लिया?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं, जीजाजी,’’ उस ने ठहर कर कहा.

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘वहां गाय की जगह एक गधा आ कर थाली का प्रसाद ग्रहण कर रहा है.’’

‘‘ऐं,’’ बरबस हमारे मुंह से निकला. बाहर दौड़ लगाई, सच में थाली में रखे गुलाबजामुन, रसगुल्लों को गधा फटाफट निबटा रहा था. पंडितजी ने घड़ी देखी और कहा, ‘‘कोई बात नहीं यजमान,

चार पांव वाला कोई भी जीव ग्रहण कर सकता है.’’

सासूजी बड़ी लजाते, शर्माते हुए जवान गधे को देख रही थीं.

हम समझ गए थे, हमारे ससुरजी गधा बन कर आए हुए हैं. अगर वे गधे नहीं होते तो ऐसी बुद्धिहंता स्त्री से विवाह कर के कन्या को जनम नहीं देते जो हमारे गले पड़ी हुई है. हम ने कहा कुछ नहीं. शर्माती, अपनी सास को देख रहे थे जो गधे को थाली खाली करते हुए देख रही थीं.

गधे कभी एहसानफरामोश नहीं होते हैं. भरपेट खा कर उस ने तत्काल वहीं लीद भी कर दी. हमारी सास और पत्नीजी लीद देख कर धन्यधन्य हो गईं.

हिंदू संस्कृति के प्रति हमारे मन में जो थोड़ीबहुत श्रद्धा थी वह भी समाप्त हो गई थी. गधे के भोजनोपरांत सब को भोजन करने की परमिशन पंडितजी ने दे दी और सब खाने पर टूट पड़े. पंडितजी बहुत सा खाना, पैसे, कपड़े बांध कर चलते बने. इस तरह हमारी पत्नीजी प्रेम, श्रद्धा के साथ पिताश्री का श्राद्ध कर हमारे साथ लौटीं. हम आज तक सोच नहीं पाए कि हमारे ससुरजी क्या थे, कौआ, कुतिया या गधा?

इस का उत्तर तो उन की पत्नी यानी हमारी सास ही बता सकती हैं. हम तो कुछ बोल कर घर की शांति बरबाद करना नहीं चाहते हैं.

एक चुटकी मिट्टी की कीमत

पहले जब लोगों के दिल बड़े हुआ करते थे, तब घर भी बड़े व हवादार हुआ करते थे, भरेपूरे संयुक्त परिवार हुआ करते थे. जब से लोगों के दिल छोटे हुए, घर भी छोटे व बेकार होने लगे डब्बेनुमा. अब जब कोरोना जैसी महामारी आई तो लोगों को पूर्वजों की बड़ी व खुली सोच और बड़े व खुलेखुले घर की अहमियत समझ में आई.

बात पिछले साल की है. बिहार के अपने लंबेचौड़े, संयुक्त पुश्तैनी घर से दिल्ली के 2 कमरों के सिकुड़ेसिमटे फ्लैट में शिफ्ट हुए एक महीना भी नहीं हुआ था कि कोरोना महामारी ने समूचे विश्व पर अपने भयावह पंजे फैला दिए. लौकडाउन और कर्फ्यू के बीच घर में कैद हम बेबसी में नीरस व बेरंग दिन काट रहे थे, फोन पर प्रियजनों के साथ दूरियों को पाट रहे थे. मन ही मन प्रकृति से दिनरात मिन्नतें कर रहे थे कि, हे प्रकृति, इस विदेशी वायरस को जल्दी से जल्दी इस के मायके भेज दे.

एक दिन मुंह पर मास्कवास्क बांध कर मन ही मन कोरोना के उदगम स्थल को हम अपनी बालकनी में बैठे कोस रहे थे कि अथाह भीड़ वाली दिल्ली की कोरोनाकालीन सूनी सड़क से फूलों का एक ठेले वाला अपनी बेसुरी आवाज में चीखते हुए फूल खरीदने की गुहार मचाता गुजरा. देखते ही देखते महामारी को ठेंगा दिखाते लोगों की भीड़ ठेले के पास जमा हो गई.

हम भारतीयों की ख़ासीयत है कि हम लौकडाउन, कर्फ्यू या मास्कवास्क को अपनी सुविधानुसार ही अहमियत देते हैं. भावताव के साथ संपन्न हो रही थी सौदेबाजी, कोरोना ने कहीं महंगे कर दिए थे फूल तो कहीं सस्ते में भाजी मिल रही थी. थोड़ी ही देर बाद मैं ने देखा कि सामने वाले घर की बालकनी गुलाब के गमलों से सज गई है और गमले में लगे यौवन से उन्मत्त लालपीले सुकुमार गुलाब मेरी ओर बड़ी अदा से देख कर मुसकरा रहे हैं. अकेलेपन से व्यथित मेरे ह्रदय को अपनी ख़ूबसूरती से चुरा रहे हैं. अगलबगल के घरों की बालकनी का भी यही नज़ारा था.

गुलाबों का बेहिसाब हुस्न मेरे दिल को बरबस ही भा चुका था. पर करें क्या, फूल वाला तो अपने सारे गुलाब बेचकर जा चुका था. अब हर दिन मैं फूलवाले के इंतज़ार में बालकनी में बैठी रहती. किसी भी बेसुरी आवाज पर मेरी सारी चेतना कानों में समा जाती. पर सूनी सड़क पर यदाकदा भीख मांगने वाले या फिर शौकिया सड़कों की ख़ाक छानने वाले ही नज़र आते. न जाने फूलवाला कहां लुप्त हो गया था.

आखिरकार, एक हफ्ते बाद फूलवाला दोबारा से सड़क पर प्रकट हुआ. भीड़ का जत्था ठेले तक पहुंचे, इस के पहले ही मैं तेज गति से ठेले के पास जा पहुंची. अलगअलग रंगों के 10 गुलाब पसंद कर के मैं ने फूलवाले से उन्हें गमले में लगा देने को कहा.

“फूल लगाने के पैसे अलग से लगेंगे, मैडम जी,” भीड़ देख कर वह वाला भाव खा रहा था.

मैं बोली, “अरे, तो ले लेना अलग से पैसे, फूल तो लगा दो.”

वह बोला, “फूल कैसे लगा दूं, मैडम जी, मिट्टी किधर है?”

मैं सोच में पड़ गई, मिट्टी कहां है. मुझे पसोपेश में देख वह फूलवाला वाला बोला, “ मिट्टी लेनी है?”

मैं ने झट से हामी भरी तो उस ने एक छोटा सा पैकेट निकाला और बोला, “यह 5 किलो मिट्टी है, 375 रुपए लगेंगे. लेना है, तो बोलो.”

मिट्टी इतनी कम थी कि एक गमला भी ठीक से नहीं भर सकता था. पर फूल वाले ने बड़ी कुशलता से 4 गमलों में जराजरा सी मिट्टी डाल कर गुलाब के पौधे लगा दिए और बाकी मिट्टी कल लाने की बात कह कर चला गया.

6 गुलाब के पौधे बेचारे यों ही बालकनी के फर्श पर गिरे पड़े से थे. अपने अंजाम को सोच कर मानो डरेडरे से थे. मैं ने फोन पर अपनी मित्रमंडली में अपनी परेशानी बताई, तो सब ने औनलाइन मिट्टी खरीदने का सुझाव दिया. मैं झटपट औनलाइन मिट्टी सर्च करने लगी. यहां तो तरहतरह की मिट्टियों की भरमार थी. हम तो एक ही मिट्टी समझते थे. यहां मिट्टी की हजारों किस्में उपलब्ध थीं.

गुलाब के लिए अलग मिट्टी तो सिताब के लिए अलग, गुलबहार के लिए अलग तो गुलनार के लिए अलग, मनीप्लांट के लिए अलग जबकि हनी प्लांट के लिए अलग, आम के लिए अलग तो एरिका पाम के लिए अलग. साथ ही कोरोना की वजह से ‘भारी’ डिस्काउंट भी मिल रहा था. 300 रुपए किलो से 1100 रुपए किलो के बीच हजारों तरह की मिट्टियां औनलाइन बेची जा रही थीं. जैसे रेड सोयल, येलो सोयल, और्गेनिक सोयल, इनआर्गेनिक सोयल, पृथ्वी सोयल, आकाश सोयल, गोबर वाली सोयल, खाद वाली सोयल आदि. और तो और, जरा ज्यादा दाम पर यहां मिट्टी के बिस्कुट भी उपलब्ध थे.

सोने के बिस्कुट, खाने के बिस्कुट तो सुने थे पर ये मिट्टी के बिस्कुट पहली बार सुन रही थी. कई घंटे दिमाग खपाने के बाद मैं ने 15 किलो खाद वाली मिट्टी और 10 मिट्टी के बिस्कुट और्डर किए, जो कि सुबहसुबह एक छोटे से पैकेट में डिलीवरी बौय दे गया.

बड़े बुजुर्ग कह गए थे कि एक समय ऐसा आएगा जब पानी भी पैकेट में बिकेगा. पर मिट्टी भी पैकेट में बिकेगी, यह तो किसी ने सोचा ही न होगा. खैर, बिस्कुट समेत पूरी मिट्टी बमुश्किल 5 से 7 किलो होगी. अभी औनलाइन मिट्टी खरीदने का दुख कम भी नहीं हुआ था कि दोपहर को फूलवाला भी 5 किलो कह कर दोचार मुट्ठी मिट्टी दे गया. बदले में वह पेटीएम के पूरे पैसे ले गया. औनलाइन मिट्टी खरीदने के जख्म को फूलवाला हरा कर गया और जराजरा सी मिट्टी में किसी तरह से गुलाबों को खड़ा कर गया.

ऐसी अज़ीबोगरीब मिट्टी को देख कर बेचारे गुलाब बेहद डरे हुए थे. बड़ी मुश्किल से मुट्ठीभर मिट्टी में झुकेझुके से पड़े हुए थे वे. गुलाबों की दशा देख कर मेरा मन दिल्ली के प्रदूषित आसमान की तरह धुंधवारा सा होने लगा. हाय री मिट्टी, तू तो सोने से भी कीमती निकली. मन किया कि बिहार जा कर एक बोरी मिट्टी ही ले आऊं, पर कोरोना माई की वजह से यह मंसूबा भी पूरा नहीं हो सका. भरेमन से आखिरकार मैं ने गुलाबों को उन के हाल पर छोड़ देने का फैसला किया. एक लंबी सांस के साथ मेरे मुंह से निकला- एक चुटकी मिट्टी की कीमत तुम क्या जानो…

उसके हिस्से की जूठन: क्यों निखिल से नफरत करने लगी कुमुद

इस विषय पर अब उस ने सोचना बंद कर दिया है. सोचसोच कर बहुत दिमाग खराब कर लिया पर आज तक कोई हल नहीं निकाल पाई. उस ने लाख कोशिश की कि मुट्ठी से कुछ भी न फिसलने दे, पर कहां रोक पाई. जितना रोकने की कोशिश करती सबकुछ उतनी तेजी से फिसलता जाता. असहाय हो देखने के अलावा उस के पास कोई चारा नहीं है और इसीलिए उस ने सबकुछ नियति पर छोड़ दिया है.

दुख उसे अब उतना आहत नहीं करता, आंसू नहीं निकलते. आंखें सूख गई हैं. पिछले डेढ़ साल में जाने कितने वादे उस ने खुद से किए, निखिल से किए. खूब फड़फड़ाई. पैसा था हाथ में, खूब उड़ाती रही. एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर तक, एक शहर से दूसरे शहर तक भागती रही. इस उम्मीद में कि निखिल को बूटी मिल जाएगी और वह पहले की तरह ठीक हो कर अपना काम संभाल लेगा.

सबकुछ निखिल ने अपनी मेहनत से ही तो अर्जित किया है. यदि वही कुछ आज निखिल पर खर्च हो रहा है तो उसे चिंता नहीं करनी चाहिए. उस ने बच्चों की तरफ देखना बंद कर दिया है. पढ़ रहे हैं. पढ़ते रहें, बस. वह सब संभाल लेगी. रिश्तेदार निखिल को देख कर और सहानुभूति के चंद कतरे उस के हाथ में थमा कर जा चुके हैं.

देखतेदेखते कुमुद टूट रही है. जिस बीमारी की कोई बूटी ही न बनी हो उसी को खोज रही है. घंटों लैपटाप पर, वेबसाइटों पर इलाज और डाक्टर ढूंढ़ती रहती. जैसे ही कुछ मिलता ई-मेल कर देती या फोन पर संपर्क करती. कुछ आश्वासनों के झुनझुने थमा देते, कुछ गोलमोल उत्तर देते. आश्वासनों के झुनझुनों को सच समझ वह उन तक दौड़ जाती. निखिल को आश्वस्त करने के बहाने शायद खुद को आश्वस्त करती. दवाइयां, इंजेक्शन, टैस्ट नए सिरे से शुरू हो जाते.

डाक्टर हैपिटाइटिस ‘ए’ और ‘बी’ में दी जाने वाली दवाइयां और इंजेक्शन ही ‘सी’ के लिए रिपीट करते. जब तक दवाइयां चलतीं वायरस का बढ़ना रुक जाता और जहां दवाइयां हटीं, वायरस तेजी से बढ़ने लगता. दवाइयों के साइड इफैक्ट होते. कभी शरीर पानी भरने से फूल जाता, कभी उलटियां लग जातीं, कभी खूब तेज बुखार चढ़ता, शरीर में खुजली हो जाती, दिल की धड़कनें बढ़ जातीं, सांस उखड़ने लगती और कुमुद डाक्टर तक दौड़ जाती.

पिछले डेढ़ साल से कुमुद जीना भूल गई, स्वयं को भूल गई. उसे याद है केवल निखिल और उस की बीमारी. लाख रुपए महीना दवाइयों और टैस्टों पर खर्च कर जब साल भर बाद उस ने खुद को टटोला तो बैंक बैलेंस आधे से अधिक खाली हो चुका था. कुमुद ने तो लिवर ट्रांसप्लांट का भी मन बनाया. डाक्टर से सलाह ली. खर्चे की सुन कर पांव तले जमीन निकल गई. इस के बाद भी मरीज के बचने के 20 प्रतिशत चांसेज. यदि बच गया तो बाद की दवाइयों का खर्चा. पहले लिवर की व्यवस्था करनी है.

सिर थाम कर बैठ गई कुमुद. पापा से धड़कते दिल से जिक्र किया तो सुन कर वह भी सोच में पड़ गए. फिर समझाने लगे, ‘‘बेटा, इतना खर्च करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया तो तू और बच्चे किस ठौर बैठेंगे. आज की ही नहीं कल की भी सोच.’’

‘‘पर पापा, निखिल ऐसे भी मौत और जिंदगी के बीच झूल रहे हैं. कितनी यातना सह रहे हैं. मैं क्या करूं?’’ रो दी कुमुद.

‘‘धैर्य रख बेटी. जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर के भरोसे नहीं बैठ जाना चाहिए बल्कि तलाश जारी रखनी चाहिए. तू तानी के बारे में सोच. उस का एम.बी.ए. का प्रथम वर्ष है और मनु का इंटर. बेटी इन के जीवन के सपने मत तोड़. मैं ने यहां एक डाक्टर से बात की है. ऐसे मरीज 8-10 साल भी खींच जाते हैं. तब तक बच्चे किसी लायक हो जाएंगे.’’

सुनने और सोचने के अलावा कुमुद के पास कुछ भी नहीं बचा था. निखिल जहां जरा से संभलते कि शोरूम चले जाते हैं. नौकर और मैनेजर के सहारे कैसे काम चले? न तानी को फुर्सत है और न मनु को कि शोरूम की तरफ झांक आएं. स्वयं कुमुद एक पैर पर नाच रही है. आय कम होती जा रही है. इलाज शुरू करने से पहले ही डाक्टर ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि यदि आप 15-20 लाख खर्च करने की शक्ति रखते हैं तभी इलाज शुरू करें.

असहाय निखिल सब देख रहे हैं और कोशिश भी कर रहे हैं कि कुमुद की मुश्किलें आसान हो सकें. पर मुश्किलें आसान कहां हो पा रही हैं. वह स्वयं जानते हैं कि लिवर कैंसर एक दिन साथ ले कर ही जाएगा. बस, वह भी वक्त को धक्का दे रहे हैं. उन्हें भी चिंता है कि उन के बाद परिवार का क्या होगा? अकेले कुमुद क्याक्या संभालेगी?

इस बार निखिल ने मन बना लिया है कि मनु बोर्ड की परीक्षाएं दे ले, फिर शो- रूम संभाले. उन के इस निश्चय पर कुमुद अभी चुप है. वह निर्णय नहीं कर पा रही कि क्या करना चाहिए.

अभी पिछले दिनों निखिल को नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा. खून की उल्टियां रुक ही नहीं रही थीं. डाक्टर ने एंडोस्कोपी की और लिवर के सिस्ट बांधे, तब कहीं ब्लीडिंग रुक पाई. 50 हजार पहले जमा कराने पड़े. कुमुद ने देखा, अब तो पास- बुक में महज इतने ही रुपए बचे हैं कि महीने भर का घर खर्च चल सके. अभी तो दवाइयों के लिए पैसे चाहिए. निखिल को बिना बताए सर्राफा बाजार जा कर अपने कुछ जेवर बेच आई. निखिल पूछते रहे कि तुम खर्च कैसे चला रही हो, पैसे कहां से आए, पर कुमुद ने कुछ नहीं बताया.

‘‘जब तक चला सकती हूं चलाने दो. मेरी हिम्मत मत तोड़ो, निखिल.’’

‘‘देख रहा हूं तुम्हें. अब सारे निर्णय आप लेने लगी हो.’’

‘‘तुम्हें टेंस कर के और बीमार नहीं करना चाहती.’’

‘‘लेकिन मेरे अलावा भी तो कुछ सोचो.’’

‘‘नहीं, इस समय पहली सोच तुम हो, निखिल.’’

‘‘तुम आत्महत्या कर रही हो, कुमुद.’’

‘‘ऐसा ही सही, निखिल. यदि मेरी आत्महत्या से तुम्हें जीवन मिलता है तो मुझे स्वीकार है,’’ कह कर कुमुद ने आंखें पोंछ लीं.

निखिल ने चाहा कुमुद को खींच कर छाती से लगा ले, लेकिन आगे बढ़ते हाथ रुक गए. पिछले एक साल से वह कुमुद को छूने को भी तरस गया है. डाक्टर ने उसे मना किया है. उस के शरीर पर पिछले एक सप्ताह से दवाई के रिएक्शन के कारण फुंसियां निकल आई हैं. वह चाह कर भी कुमुद को नहीं छू सकता.

एक नादानी की इतनी बड़ी सजा बिना कुमुद को बताए निखिल भोग रहा है. क्या बताए कुमुद को कि उस ने किन्हीं कमजोर पलों में प्रवीन के साथ होटल में एक रात किसी अन्य युवती के साथ गुजारी थी और वहीं से…कुमुद के साथ विश्वासघात किया, उस के प्यार के भरोसे को तोड़ दिया. किस मुंह से बीते पलों की दास्तां कुमुद से कहे. कुमुद मर जाएगी. मर तो अब भी रही है, फिर शायद उस की शक्ल भी न देखे.

डाक्टर ने कुमुद को भी सख्त हिदायत दी है कि बिना दस्ताने पहने निखिल का कोई काम न करे. उस के बलगम, थूक, पसीना या खून की बूंदें उसे या बच्चों को न छुएं. बिस्तर, कपड़े सब अलग रखें.

निखिल का टायलेट भी अलग है. कुमुद निखिल के कपड़े सब से अलग धोती है. बिस्तर भी अलग है, यानी अपना सबकुछ और इतना करीब निखिल आज अछूतों की तरह दूर है. जैसे कुमुद का मन तड़पता है वैसे ही निखिल भी कुमुद की ओर देख कर आंखें भर लाता है.

नियति ने उन्हें नदी के दो किनारों की तरह अलग कर दिया है. दोनों एकदूसरे को देख सकते हैं पर छू नहीं सकते. दोनों के बिस्तर अलगअलग हुए भी एक साल हो गया.

कुमुद क्या किसी ने भी नहीं सोचा था कि हंसतेखेलते घर में मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा. कुछ समय से निखिल के पैरों पर सूजन आ रही थी, आंखों में पीलापन नजर आ रहा था. तबीयत भी गिरीगिरी रहती थी. कुमुद की जिद पर ही निखिल डाक्टर के यहां गया था. पीलिया का अंदेशा था. डाक्टर ने टैस्ट क्या कराए भूचाल आ गया. अब खोज हुई कि हैपिटाइटिस ‘सी’ का वायरस आया कहां से? डाक्टर का कहना था कि संक्रमित खून से या यूज्ड सीरिंज से वायरस ब्लड में आ जाता है.

पता चला कि विवाह से पहले निखिल का एक्सीडेंट हुआ था और खून चढ़ाना पड़ा था. शायद यह वायरस वहीं से आया, लेकिन यह सुन कर निखिल के बड़े भैया भड़क उठे थे, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? खून रेडक्रास सोसाइटी से मैं खुद लाया था.’’

लेकिन उन की बात को एक सिरे से खारिज कर दिया गया और सब ने मान लिया कि खून से ही वायरस शरीर में आया.

सब ने मान लिया पर कुमुद का मन नहीं माना कि 20 साल तक वायरस ने अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखाया.

‘‘वायरस आ तो गया पर निष्क्रिय पड़ा रहा,’’ डाक्टर का कहना था.

‘‘ठीक कहते हैं डाक्टर आप. तभी वायरस ने मुझे नहीं छुआ.’’

‘‘यह आप का सौभाग्य है कुमुदजी, वरना यह बीमारी पति से पत्नी और पत्नी से बच्चों में फैलती ही है.’’

कुमुद को लगा डाक्टर ठीक कह रहा है. सब इस जानलेवा बीमारी से बचे हैं, यही क्या कम है, लेकिन 10 साल पहले निखिल ने अपना खून बड़े भैया के बेटे हार्दिक को दिया था जो 3 साल पहले ही विदेश गया है और उस के विदेश जाने से पहले सारे टैस्ट हुए थे, वायरस वहां भी नहीं था.

न चाहते हुए भी कुमुद जब भी खाली होती, विचार आ कर घेर लेते हैं. नए सिरे से विश्लेषण करने लगती है. आज अचानक उस के चिंतन को नई दिशा मिली. यदि पति पत्नी को यौन संबंधों द्वारा वायरस दे सकता है तो वह भी किसी से यौन संबंध बना कर ला सकता है. क्या निखिल भी किसी अन्य से…

दिमाग घूम गया कुमुद का. एकएक बात उस के सामने नाच उठी. बड़े भैया का विश्वासपूर्वक यह कहना कि खून संक्रमित नहीं था, उन के बेटे व उन सब के टैस्ट नेगेटिव आने, यानी वायरस ब्लड से नहीं आया. यह अभी कुछ दिन पहले ही आया है. निखिल पर उसे अपने से भी ज्यादा विश्वास था और उस ने उसी से विश्वासघात किया.

कुमुद ने फौरन डाक्टर को फोन मिलाया, ‘‘डाक्टर, आप ने यह कह कर मेरा टैस्ट कराया था कि हैपिटाइटिस ‘सी’ मुझे भी हो सकता है और आप 80 प्रतिशत अपने विचार से सहमत थे. अब उसी 80 प्रतिशत का वास्ता दे कर आप से पूछती हूं कि यदि एक पति अपनी पत्नी को यह वायरस दे सकता है तो स्वयं भी अन्य महिला से यौन संबंध बना कर यह बीमारी ला सकता है.’’

‘‘हां, ऐसा संभव है कुमुदजी और इसीलिए 20 प्रतिशत मैं ने छोड़ दिए थे.’’

कुमुद ने फोन रख दिया. वह कटे पेड़ सी गिर पड़ी. निखिल, तुम ने इतना बड़ा छल क्यों किया? मैं किसी की जूठन को अपने भाल पर सजाए रही. एक पल में ही उस के विचार बदल गए. निखिल के प्रति सहानुभूति और प्यार घृणा और उपेक्षा में बदल गए.

मन हुआ निखिल को इसी हाल में छोड़ कर भाग जाए. अपने कर्मों की सजा आप पाए. जिए या मरे, वह क्यों तिलतिल कर जले? जीवन का सारा खेल भावनाओं का खेल है. भावनाएं ही खत्म हो जाएं तो जीवन मरुस्थल बन जाता है. अपना यह मरुस्थली जीवन किसे दिखाए कुमुद. एक चिंगारी सी जली और बुझ गई. निखिल उसे पुकार रहा था, पर कुमुद कहां सुन पा रही थी. वह तो दोनों हाथ खुल कर लुटी, निखिल ने भी और भावनाओं ने भी.

निखिल के इतने करीब हो कर भी कभी उस ने अपना मन नहीं खोला. एक बार भी अपनी करनी पर पश्चात्ताप नहीं हुआ. आखिर निखिल ने कैसे समझ लिया कि कुमुद हमेशा मूर्ख बनी रहेगी, केवल उसी के लिए लुटती रहेगी? आखिर कब तक? जवाब देना होगा निखिल को. क्यों किया उस ने ऐसा? क्या कमी देखी कुमुद में? क्या कुमुद अब निखिल का साथ छोड़ कर अपने लिए कोई और निखिल तलाश ले? निखिल तो अब उस के किसी काम का रहा नहीं.

घिन हो आई कुमुद को यह सोच कर कि एक झूठे आदमी को अपना समझ अपने हिस्से की जूठन समेटती आई. उस की तपस्या को ग्रहण लग गया. निखिल को आज उस के सवाल का जवाब देना ही होगा.

‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, निखिल? मैं सब जान चुकी हूं.’’

और निखिल असहाय सा कुमुद को देखने लगा. उस के पास कहने को कुछ भी नहीं बचा था.

मुझे जवाब दो : हर कुसूर की माफी नहीं होती

‘‘प्रिय अग्रज, ‘‘माफ करना, ‘भाई’ संबोधन का मन नहीं किया. खून का रिश्ता तो जरूर है हम दोनों में, जो समाज के नियमों के तहत निभाना भी पड़ेगा. लेकिन प्यार का रिश्ता तो उस दिन ही टूट गया था जिस दिन तुम ने और तुम्हारे परिवार ने बीमार, लाचार पिता और अपनी मां को मत्तैर यानी सौतेला कह, बांह पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया था. पैसे का इतना अहंकार कि सगे मातापिता को ठीकरा पकड़ा कर तुम भिखारी बना रहे थे.

‘‘लेकिन तुम सबकुछ नहीं. अगर तुम ने घर से बाहर निकाला तो उन की बांहें पकड़ सहारा देने वाली तुम्हारी बहन के हाथ मौजूद थे. जिन से नाता रखने वाले तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारी नजर में अक्षम्य अपराध किया था और यह उसी का दंड तुम ने न्यायाधीश बन दिया था.

‘‘तुम्हीं वह भाई थे जिस ने कभी अपनी इसी बहन को फोन कर मांपिता को भेजने के लिए मिन्नतें की थीं, फरियाद की थी. बस, एक साल भी नहीं रख पाए, तुम्हारे चौकीदार जो नहीं बने वो.

‘‘तुम से तो मैं ने जिंदगी के कितने सही विचार सीखे. कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि तुम बुरी संगत में पड़, ऐशोआराम की जिंदगी जीने के लिए अपने खून के रिश्तों की जड़ें काटने पर तुल जाओगे.

‘‘एक ही शहर में, दो कदम की दूरी पर रहने वाले तुम, आज पत्र लिख अपने मन की शांति के लिए मेरे घर आना चाहते हो. क्यों, क्या अब तुम्हारे परिवार को एतराज नहीं होगा?

‘‘अब समझ आया न. पैसा नहीं, रिश्ते, अपनापन व प्यार अहम होते हैं. क्या पैसा अब तुम्हें मन की शांति नहीं दे सकता? अब खरीद लो मांबाप क्योंकि अपनों को तो तुम ने सौतेला बना दिया था.

‘‘तुम्हीं ने छोटे भाईभावज को लालच दिया था अपने बिजनैस में साझेदारी कराने का लेकिन इस शर्त पर कि मातापिता को बहन के घर से बुला अपने पास रखो, घर अपने नाम करवाओ और इतना तंग किया करो कि वे घर छोड़ कर भाग जाएं. तुम ने उन से यह भी कहा था कि वे बहन से नाता तोड़ लें. इतनी शर्तों के साथ करोड़ों के बिजनैस में छोटे भाई को साझेदारी मिल जाएगी, लेकिन साझेदारी दी क्या?

‘‘हमें क्या फर्क पड़ा. अगर पड़ा तो तुम दोनों नकारे व सफेद खून रखने वाले पुत्रों को पड़ा. पुलिस व समाज में जितनी थूथू और जितना मुंह काला छोटे भाईभावज का हुआ उतना ही तुम्हारा भी क्योंकि तुम भी उतने ही गुनाहगार थे. मत भूलो कि झूठ के पैर नहीं होते और साजिश का कभी न कभी तो परदाफाश होता है.

‘‘ठीक है, तुम कहते हो कि इतना सब होने के बाद भी मांपिताजी ने तुम्हें व छोटे को माफ कर दिया था. सो, अब हम भी कर दें, यह चाहते हो? वो तो मांबाप थे ‘नौहां तो मांस अलग नईं कर सकदे सी’, (नाखूनों से मांस अलग नहीं कर सकते थे.) पर, हम तुम्हें माफ क्यों करें?

‘‘क्या तुम अपने बीवीबच्चों को घर से बाहर निकाल सकते हो? नहीं न. क्या मांबाप लौटा सकते हो?

‘‘अब तुम भी बुढ़ापे की सीढ़ी पर पैर जमा चुके हो. इतिहास खुद को दोहराता है, यह मत भूलना. अब चूंकि तुम्हारा बेटा बिजनैस संभालने लगा है तो तुम्हारी स्थिति भी कुछकुछ मांपिताजी जैसी होने लगी है. अगर बबूल बोओगे तो आम नहीं लगेंगे. सो, अपने बुरे कृत्यों का दंश व दंड तो तुम्हें सहना ही पड़ेगा. क्षमा करना, मेरे पास तुम्हारे लिए जगह व समय नहीं है.

‘‘बेरहम नहीं हूं मैं. तुम मुझे मेरे मातापिता लौटा दो, मैं तुम्हें बहन का रिश्ता दे दूंगी, तुम्हें भाई कहूंगी. मुझे पता है उन के आखिरी दिन कैसे कटे. आज भी याद करती हूं तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वो दशरथ की तरह पुत्रवियोग में बिलखतेविलापते, पर तुम राम न बन सके. निर्मोही, निष्ठुर यहां तक कि सौतेला पुत्र भी ऐसा व्यवहार नहीं करता होगा जैसा तुम ने किया.

‘‘तुम लिखते हो, ‘बेहद अकेले हो.’ फोन पर भी तो ये बातें कर सकते थे पर शायद इतिहास खुद को दोहराता… तुम उन के फोन की बैटरी निकाल देते थे. खैर, जले पर क्या नमक छिड़कना. जरा बताओ तो, तुम्हें अकेला किस ने बनाया? तुम्हें तो बड़ा शौक था रिश्ते तोड़ने का. अरे, ये तो मांपिताजी के चलते चल रहे थे. तुम तो रिश्ते हमेशा पैसों पर तोलते रहे. बहन, बूआ, बेटी, ननद इन सभी रिश्तों की छीछालेदर करने वाले तुम और तुम्हारी पत्नी व बेटी अब किस बात के लिए शिकायत करती फिर रही हैं. जो रिश्तेनाते अपनापन जैसे शब्द व इन की अहमियत तुम्हारी जिंदगी की किताब में कभी जगह नहीं रखते थे, उन के बारे में अब इतना क्यों तड़पना. अब इन रिश्तों को जोड़ तो नहीं सकते. उस के लिए अब नए समीकरण बनाने होंगे व नई किताब लिखनी होगी. क्या कर पाओगे ये सब?

‘‘ओह, तो तुम्हें अब शिकायत है अपने बेटेबहू से कि वे तुम्हें व तुम्हारी पत्नी को बूढ़ेबुढि़या कह कर बुलाते हैं. ये शब्द तुम ही लाए थे होस्टल से सौगात में. चलो, कम से कम पीढ़ीदरपीढ़ी यह सम्मानजनक संबोधन तुम्हारे परिवार में चलता रहेगा. बधाई हो, नई शुरुआत के लिए और रिश्तों को छीजने के लिए.

‘‘खैर, छोड़ो इन कड़वी बातों को. मीठा तो तुरंत मुंह में घुल जाता है पर कड़वा स्वाद काफी देर तक रहता है और फिर कुछ खाने का मन भी नहीं करता. सो, अब रोना काहे का. कहां गई तुम्हारी वह मित्रमंडली जिस के सामने तुम मांपिता को लताड़ते थे. क्यों, क्या वे तुम्हारे अकेलेपन के साथी नहीं या फिर आजकल महफिलें नहीं जमा पाते. बेटे को पसंद नहीं होगा यह सब?

‘‘छोड़ो वह राखीवाखी, टीकेवीके की दुहाई देना, वास्ता देना. सब लेनदेन बराबर था. शुक्र है, कुछ बकाया नहीं रहा वरना उसी का हिसाबकिताब मांग बैठते तुम.

‘‘अपने रिश्ते तो कच्चे धागे से जुड़े थे जो कच्चे ही रह गए. खुदगर्जी व लालच ही नहीं, बल्कि तुम्हारे अहंकार व दंभ ने सारे परिवार को तहसनहस कर डाला.

‘‘अब जुड़ाव मत ढूंढ़ो. दरार भरने से भी कच्चापन रह जाता है. वह मजबूती नहीं आ पाएगी अब. इस जुड़ाव में तिरस्कार की बू ताजा हो जाती है. वैसे, याद रखना, गुजरा वक्त कभी लौट कर नहीं आता.

‘‘वक्त और रिश्ते बहुत नाजुक व रेत की तरह होते हैं. जरा सी मुट्ठी खोली नहीं कि वे बिखर जाते हैं. इन्हें तो कस कर स्नेह व खुद्दारी की डोर में बांध कर रखना होता है.

‘‘कभी वक्त मिले तो इस पत्र को ध्यान से पढ़ना व सारे सवालों का जवाब ढूंढ़ना. अगर जवाब ढूंढ़ पाए तो जरूर सूचना देना. तब वक्त निकाल कर मिलने की कोशिश करूंगी. अभी तो बहुतकुछ बाकी है भा…न न…भाई नहीं कहूंगी.

‘‘मुझ बहन के घर में तो नहीं, पर हमारे द्वारा संचालित वृद्धाश्रम के दरवाजे तुम्हारे जैसे ठोकर खाए लोगों के लिए सदैव खुले हैं.

‘‘यह पनाहघर तुम्हारी जैसी संतानों द्वारा फेंके गए बूढ़े व लाचार मातापिता के लिए है. सो, अब तुम भी पनाह ले सकते हो. कभी भी आ कर रजिस्ट्रेशन करवा लेना.

‘‘तुम्हारी सिर्फ चिंतक

शोभा.’’

एक दोस्त है मेरा: रिया ने किन से मिलाया था हाथ

मैं बैडरूम की खिड़की में बस यों ही खड़ी बारिश देख रही थी. अमित बैड पर लेट कर अपने फोन में कुछ कह रहे थे. मैं ने जैसे ही खिड़की से बाहर देखते हुए अपना हाथ हिलाया, उन्होंने पूछा, ‘‘कौन है?’’

मैं ने कहा, ‘‘पता नहीं.’’

‘‘तो फिर हाथ किसे देख कर हिलाया?’’

‘‘मैं नाम नहीं जानती उस का.’’

‘‘रिया, यह क्या बात कर रही हो? जिस का नाम भी नहीं पता उसे देख कर हाथ हिला रही हो?’’ मैं चुप रही तो उन्होंने फिर कुछ शरारत भरे स्वर में पूछा, ‘‘कौन है? लड़का है या लड़की?’’

‘‘लड़का.’’

‘‘ओफ्फो, क्या बात है, भई, कौन है, बताओ तो.’’

‘‘दोस्त है मेरा.’’

इतने में तो अमित ने झट से बिस्तर छोड़ दिया. संडे को सुबह 7 बजे इतनी फुर्ती. तारीफ की ही बात थी, मैं ने भी कहा, ‘‘वाह, बड़ी तेजी से उठे, क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, देखना था उसे जिसे देख कर तुम ने हाथ हिलाया था. बताती क्यों नहीं कौन था?’’

अब की बार अमित बेचैन हुए. मैं ने उन के गले में अपनी बांहें डाल दीं, ‘‘सच बोल रही हूं, मुझे उस का नाम नहीं पता.’’

‘‘फिर क्यों हाथ हिलाया?’’

‘‘बस, इतनी ही दोस्ती है.’’ अमित कुछ समझते नहीं, गरदन पर झटका देते हुए बोले, ‘‘पता नहीं कैसी बात कर रही हो, जान न पहचान और हाथ हिला रही हो हायहैलो में.’’

‘‘अरे उस का नाम नहीं पता पर पहचानती हूं उसे.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘बस यों ही आतेजाते मिल जाता है. एक ही सोसायटी है, पता नहीं कितने लोगों से आतेजाते हायहैलो हो ही जाती है. जरूरी तो नहीं कि सब के नाम पता हों.’’

‘‘अच्छा ठीक है. मैं फ्रैश होता हूं, नाश्ता बना लो,’’ अमित ने शायद यह टौपिक यहीं खत्म करना ठीक समझा होगा.

संडे था, मैं अमित और बच्चों की पसंद का नाश्ता बनाने में व्यस्त हो गई. बच्चों को कुछ देर से ही उठना था.

नाश्ता बनाते हुए मेरी नजर बाहर सड़क पर गई. वह शायद कहीं से कुछ रैडीमेड नाश्ता पैक करवा कर ला रहा था. हां, आज उस की पत्नी आराम कर रही होगी. उस की नजर फिर मुझ पर पड़ी. वह मुसकराता हुआ चला गया.

10 साल पहले हम अंधेरी की इस सोसायटी के फ्लैट में आए थे. हमारी बिल्डिंग के सामने कुछ दूरी पर जो बिल्डिंग है उसी में उस का भी फ्लैट है. मैं तीसरी फ्लोर पर रहती हूं और वह

5वीं पर. जब हम शुरूशुरू में आए थे तभी वह मुझे आतेजाते दिख जाता था. पता नहीं कब उस से हायहैलो शुरू हुई थी, जो आज तक जारी है.

इन 10 सालों में भी न तो मुझे उस का नाम पता है, न शायद उसे मेरा नाम पता होगा. दरअसल, ऐसा कोई रिश्ता है ही नहीं न कि मुझे उस का नाम जानने की जरूरत पड़े. बस समय के साथ इतना जरूर हुआ कि मेरी नजर उस की तरफ उस की नजरें मेरी तरफ अब अनजाने में नहीं, इरादतन उठती हैं, अब तो उस का इकलौता बेटा भी 10-12 साल का हो रहा है. मैं अनजाने में ही उस का सारा रूटीन जान चुकी हूं. दरअसल मेरे बैडरूम की खिड़की से पता नहीं उस के कौन से मरे की खिड़की दिखती है. बस, साल भर पहले ही तो जब उसे खिड़की में खड़े अचानक देख लिया तभी तो पता चला कि वह उसी फ्लैट में रहता है. पर उस के बाद जब भी महसूस हुआ कि वह खिड़की में खड़ा है, तो मैं ने फिर नजरें उधर नहीं उठाईं. अच्छा नहीं लगता न कि मैं उस की खिड़की की तरफ दिखूं.

हां, इतना होता है कि वह जब भी रोड से गुजरता है, तो एक नजर मेरी खिड़की की तरफ जरूर उठाता है और अगर मैं खड़ी होती हूं तो हम एकदूसरे को हाथ हिला देते हैं और कभीकभी यह भी हो जाता है कि मैं सोसायटी के गार्डन में सैर कर रही हूं और वह अपनी पत्नी और बेटे के साथ आ जाए तब भी वह पत्नी की नजर बचा कर मुसकरा कर हैलो बोलता है, तो मैं मन ही मन हंसती हूं.

अब मुझे उस का सारा रूटीन पता है. सुबह 7 बजे वह अपने बेटे को स्कूल बस में बैठाने जाता है. फिर उस की नजर मेरी किचन की तरफ उठती है. नजरें मिलने पर वह मुसकरा देता है. साढ़े 9 बजे उस की पत्नी औफिस जाती है. 10 बजे वह निकलता है. 3 बजे तक वह वापस आता है. फिर अपने बेटे को सोसायटी के ही डे केयर सैंटर से लेने जाता है. उस की पत्नी लगभग 7 बजे तक आती है.

मेरे बैडरूम और किचन की खिड़की से हमारी सोसायटी की मेन रोड दिखती है. घर में सब हंसते हैं. अमित और बच्चे कहते हैं, ‘‘सब की खबर रहती है तुम्हें.’’ बच्चे तो हंसते हैं, ‘‘कितना बढि़या टाइमपास होता है आप का मौम. कहीं जाना भी नहीं पड़ता आप को और सब को जानती हैं आप.’’

इतने में अमित की आवाज आ गई,

‘‘रिया, नाश्ता.’’

‘‘हां, लाई.’’ हम दोनों ने साथ नाश्ता किया. हमारी 20 वर्षीय बेटी तनु और 17 वर्षीय राहुल 10 बजे उठे. वे भी फ्रैश हो कर नाश्ता कर के हमारे साथ बैठ गए.

इतने में तनु ने कहा, ‘‘आज उमा के घर मूवी देखने सब इकट्ठा होंगे, वहीं लंच है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘कौनकौन?’’

‘‘हमारा पूरा ग्रुप. मैं, पल्लवी, निशा, टीना, सिद्धि, नीरज, विनय और संजय.’’

अमित बोले, ‘‘नीरज, विनय को तो मैं जानता हूं पर अजय कौन है?’’

‘‘हमारा नया दोस्त.’’

अमित ने मुझे छेड़ते हुए कहा, ‘‘ठीक है बच्चों पर कभी मम्मी का दोस्त देखा है?’’

राहुल चौंका, ‘‘क्या?’’

‘‘हां भई, तुम्हारी मम्मी का भी तो एक दोस्त है.’’

तनु गुर्राई, ‘‘पापा, क्यों चिढ़ा रहे हो मम्मी को?’’

राहुल ने कहा, ‘‘उन का थोड़े ही कोई दोस्त होगा.’’

अमित ने बहुत ही भोलेपन से कहा, ‘‘पूछ लो मम्मी से, मैं झूठ थोड़े ही बोल रहा हूं.’’ दरअसल, हम चारों एकदसूरे से कुछ ज्यादा ही फ्रैंक हैं. युवा बच्चों के दोस्त बन कर ही रहते हैं हम दोनों इसलिए थोड़ाबहुत मजाक, थोड़ीबहुत खिंचाई हम एकदूसरे की करते ही रहते हैं.

तनु थोड़ा गंभीर हुई, ‘‘मौम, पापा झूठ बोल रहे हैं न?’’

मैं पता नहीं क्यों थोड़ा असहज सी हो गई, ‘‘नहीं, झूठ तो नहीं है.’’

‘‘मौम, क्या मजाक कर रहे हो आप लोग, कौन है, क्या नाम है?’’

मैं ने जब धीरे से कहा कि नाम तो नहीं पता, तो तीनों जोर से हंस पड़े. मैं भी मुसकरा दी.

राहुल ने कहा, ‘‘कहां रहता है आप का दोस्त मौम?’’

‘‘पता नहीं,’’ मैं ने पता नहीं क्यों झूठ बोल दिया. इस बार मेरे घर के तीनों शैतान हंसहंस कर एकदूसरे के ऊपर गिर गए. वह सामने वाले फ्लैट में रहता है, मैं ने जानबूझ कर नहीं बताया. मुझे पता है अमित की खोजी नजरें फिर सामने वाली खिड़की को ही घूरती रहेंगी. बिना बात के अपना खून जलाते रहेंगे.

तनु ने कहा, ‘‘पापा, आप बहुत शैतान हैं, मम्मी को तो कुछ भी नहीं पता फिर दोस्त कैसे हुआ मम्मी का.’’

‘‘अरे भई, तुम्हारी मम्मी उस की दोस्त हैं. तभी तो उस की हैलो का जवाब दे रही थीं, हाथ हिला कर.’’

मैं ने कहा, ‘‘तुम तीनों के दोस्त हो सकते हैं, मेरा क्यों नहीं हो सकता? आज तुम्हारे पापा ने किसी को हाथ हिलाते देख लिया, उन्हें चैन ही नहीं आ रहा है.’’

तीनों फिर हंसे, ‘‘लेकिन हमें हमारे दोस्तों के नाम तो पता हैं.’’ मैं खिसिया गई. फिर उन की मस्ती का मैं ने भी दिल खोल कर आनंद लिया. इतने में मेड आ गई, तो मैं उस के साथ किचन की सफाई में व्यस्त हो गई.

आज मेरे हाथ तो काम में व्यस्त थे पर मन में कई विचार आजा रहे थे. मुझे उस का नाम नहीं पता पर उसे आतेजाते देखना मेरे रूटीन का एक हिस्सा है अब. बिना कुछ कहेसुने इतना महसूस करने लगी हूं कि अगर उस की पत्नी उस के साथ होगी तो वह हाथ नहीं हिलाएगा. बस धीरे से मुसकराएगा. बेटे को बस में बैठा कर मेरी किचन की तरफ जरूर देखेगा. उस की कार तो मैं दूर से ही पहचानती हूं अब. नंबर जो याद हो गया है.

उस की पार्किंग की जगह पता है मुझे. यह सब मुझे कुछ अजीब तो लगता है पर यह जो ‘कुछ’ है न, यह मुझे अच्छा लगता है. मुझे दिन भर एक अजीब से एहसास से भरे रखता है. यह ‘कुछ’ किसी का नुकसान तो कर नहीं रहा है. मैं जो अपने पति को अपनी जान से ज्यादा प्यार करती हूं, उस में कोई रुकावट, कोई समस्या तो है नहीं इस ‘कुछ’ से. यह सच है कि जब अमित और बच्चों के साथ होती हूं तो यह ‘कुछ’ विघ्न नहीं डालता हमारे जीवन में. ऐसा नहीं है कि वह बहुत ही हैंडसम है. उस से कहीं ज्यादा हैंडसम अमित हैं और उस की पत्नी भी मुझ से ज्यादा सुंदर है पर फिर भी यह जो ‘कुछ’ है न इस बात की खुशी देता है कि हां, एक दोस्त है मेरा जिस का नाम मुझे नहीं पता और उसे मेरा. बस कुछ है जो अच्छा लगता है.

आधी अधूरी प्रेम कहानी : नर्मदा नदी के तट पर क्या हुआ था

लौक डाउन का दूसरा चरण देश में चल रहा था. नर्मदा नदी पुल पर बने जिस चैक पोस्ट पर मेरी ड्यूटी जिला प्रशासन ने लगाई थी,वह दो जिलों की सीमाओं को जोड़ती थी. मेरे साथ ड्यूटी पर पुलिस के हबलदार,एक पटवारी ,गाव का कोटवार और मैं निरीह मास्टर.आठ आठ घण्टे की तीन शिफ्ट में लगी ड्यूटी में हमारा समय सुबह 6 बजे से लेकर दोपहर के 2 बजे तक रहता.आठ घंटे की इस ड्यूटी में जिले से बाहर आने जाने वाले लोगों की एंट्री करनी पड़ती थी. यदि कोई कोरोना संक्रमण से प्रभावित क्षेत्रों से जिले की सीमा में प्रवेश करता,तो तहसीलदार को इसकी सूचना दी जाती और यैसे लोगों की जांच कर उन्हें कोरेन्टाईन में रखा जाता. म‌ई महिने की पहली तारीख को मैं ड्यूटी के लिए सुबह 6 बजे ककरा घाट पर बनी चैक पोस्ट पर पहुंच गया था.

नर्मदा नदी के किनारे एक खेत पर एक किसानअपनी मूंग की फसल में पानी दे रहा था . काम करते हुए उसकी नजर नदी की ओर ग‌ई ,तो उसे नदी में कोई भारी सी चीज बहती हुई किनारे की तरफ आती दिखाई दी. थोड़ा करीब जाने पर किसान ने एक दूसरे से लिपटे युवक युवतियों को देखा तो चैक पोस्ट की ओर जोर से आवाज लगाई
” मुंशी जी दौड़ कर आइए ,ये नदी में देखिए लड़का लड़की बहते हुये किनारे लग गये हैं”
मेरे साथ ड्यूटी कर रहे पुलिस थाना के हबलदार बैनीसिंह ने आवाज सुनकर पुल से नीचे की तरफ दौड़ लगा दी. सूचना मिलने पर पुलिस टीम भी मौक़े पर आ ग‌ई . आस पास के लोगों की भीड़ नदी किनारे इकट्ठी हो गई, मुझसे भी रह नहीं गया . तो मैं भी नदी के घाट परपहुंच गया . सबने मिलकर आपस में एक दूसरे से लिपटे दोनों लड़का-लड़की के शव को नदी से निकाल कर किनारे पर कर दिया . जैसे ही उनके चेहरे  पर मेरी नजर गई तो मैं दंग रह ग‌या.

दरअसल नर्मदा नदी में मिले ये दोनों शव दो साल पहले मेरे स्कूल में पढ़ने वाले सौरभ और नेहा के ही थे ,जो दिन पहले ही रात में घर से भागे थे. गाव में जवान लड़का, लड़की के भागने की खबर फैलते ही लोग तरह-तरह की बातें करने लगे थे. नेहा के मां वाप का तो‌‌ रो रोकर बुरा हाल था. गांव में जाति बिरादरी में उनकी इज्जत मुंह दिखाने लायक नहीं बची थी. हालांकि दो साल से चल रहे दोनों के प्रेम प्रसंग चर्चा का विषय बन गये थे.पुलिस लाशों के पंचनामा और अन्य कागजी कार्रवाई में जुटी थी और मेरे स्मृति पटल पर स्कूल के दिनों की यादें के एक एक पन्ने खुलते जा रहे थे.

सौरभ और नेहा स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही एक दूसरे को पसंद करने लगे थे. सौरभ बारहवीं जमात में और नेहा दसवीं जमात में पढते थे. स्कूल में शनिवार के दिन बालसभा में जीवन कौशल शिक्षा के अंतर्गत किशोर अवस्था पर डिस्कशन चल रहा था. जब सौरभ ने विंदास अंदाज़ में बोलना शुरू किया तो सब देखते ही रह गये.  सौरभ ने जब बताया कि किशोर अवस्था में लड़के लड़कियों में जो शारीरिक परिवर्तन होते हैं, उसमें गुप्तांगों के आकार बढ़ने के साथ बाल उग आते हैं.लड़को के लिंग में कड़ा पन आने लगता हैऔर लड़कियों के वक्ष में उभार आने लगते हैं .लड़का-लड़की एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगते हैं.  हमारे बुजुर्ग शिक्षक जो दसवीं जमात के विज्ञान का जनन वाला पाठ पढ़ाने में संकोच करते हैं ,वे बालसभा छोड़ कर चले गये. लड़को को सौरभ के द्वारा बताई जा रही बातों में मजा आ रहा था, तो क्लास की लड़कियों के शर्म के मारे सिर झुके जा रहे थे.  17साल की  नेहा को सौरभ की बातें सुनकर गुदगुदी हो रही थी, लेकिन जब उसका बोलने का नंबर आया तो उसने भी खडे होकर बता दिया-
“लड़कियों को भी किशोरावस्था में पीरियड आने लगते है”
सौरभ और नेहा के इन विंदास बोल ने उन्हें स्कूल का आयडियल बना दिया था.

सौरभ स्कूल की पढ़ाई के साथ ही सभी प्रकार के फंक्शन में भाग लेता और नेहा उसके अंदाज की दीवानी हो गई.स्कूल में पढ़ाई के दौरान नेहा और सौरभ एक दूसरे से मन ही मन प्यार कर बैठे. दोनों के बीच का यह प्यार इजहार के साथ जब परवान चढ़ा तो मेल मुलाकातें बढ़ने लगी और दोनों ने एक दूजे के साथ जीने मरने की कसमें खा ली . इसी साल सौरभ कालेज की पढ़ाई के लिए सागर चला गया तो नेहा का  स्कूल में मन ही नहीं लगता.मोबाइल फोन के जरिए सौरभ और नेहा  आपस में बात करने लगे. सौरभ जब भी गांव आता तो लुक छिपकर नेहा से मिलता और पढ़ाई पूरी होते ही शादी करने का बादा करता  .

कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिये लगे लौक डाउन के तीन दिन पहले कालेज की छुट्टियां होने पर सौरभ सागर से गांव आ गया था . गांव वालों की नजरों से बचकर नेहा और सौरभ जब आपस में मिलते तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता. नेहा सौरभ से कहती-” अब तुम्हारे बिना गांव में मेरा दिल नहीं लगता”
सौरभ नेहा को अपनी बाहों में भरकर दिलासा देता,” सब्र करो नेहा , मेरी पढ़ाई खत्म होते ही हम शादी कर लेंगे”. नेहा सौरभ के बालों में हाथ घुमाते हुए कहती-
” लेकिन सौरभ घर वालों को कैसे मनायेंगे” .
सौरभ नेहा के माथे पर चुंबन देते हुए कहता-
“नेहा घर वालों को भी मना लेंगे,आखिर हम एक ही जाति बिरादरी के हैं”
सौरभ के सीने से लिपटते हुए नेहा कहती

” सौरभ यदि हमारी शादी नहीं हुई तो मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगी”.
सौरभ ने उसके ओंठों को चूमते हुए आश्वस्त किया
“नेहा हमार प्यार सच्चा है हम साथ जियेंगे, साथ मरेंगे”
साथ जीने मरने की कसमें खाने वाले नेहा और सौरभ को एक दिन आपस में बात करते नेहा के पिता  ने देख लिया तो परिवार में बबाल मच गया .घर वालों ने समाज में अपनी इज्जत का वास्ता देकर नेहा को डरा धमकाकर समझाने की कोशिश की. नेहा ने घर वालों से साफ कह दिया कि वह तो सौरभ से ही शादी करेंगी.सौरभ के दादाजी को जब इसका पता चला तो दादाजी आग बबूला हो गये.कहने लगे” आज के लडंका लड़कियों में शर्म नाम की कोई चीज ही नहीं है.ये शादी हरगिज नहीं होगी.जिस लड़की में लाज शरम ही नहीं है, उसे हम घर की बहू नहीं बना सकते.”
सौरभ को जब दादाजी के इस निर्णय का पता चला तो वह भी ‌तिलमिला कर‌रह गया.

अब घर परिवार का पहरा  नेहा और सौरभ पर गहराने लगा था. एक दूजे के प्यार में पागल दोनों प्रेमी घर पर रहकर तड़पने लगे .और एक रात उन्होंने बिना सोचे समझे घर से भाग जाने का फैसला कर लिया.  योजना के मुताबिक वे अपने घरों से रात के दो बजे  मोटर साइकिल पर सवार होकर गांव से निकल तो गये, लेकिन लौक डाउन में जगह-जगह पुलिस की निगरानी से इलाके से दूर न जा सके.

दूसरे दिन सुबह  जब नेहा घर के कमरे में नहीं मिली तो घर वालों के होश उड़ गए .  सौरभ के वारे में जानकारी मिलने पर पता चला कि वह भी घर से गायब है,तो उन्हें यह समझ आ गया कि दोनों एक साथ घर से गायब हुए हैं. गांव में समाज के मुखिया और पंचो ने बैठक कर यह तय किया कि पहले आस पास के रिश्तेदारों के यहां उनकी खोज बीन कर ली जाए , फिर पुलिस को सूचना दी जाए. शाम तक जब दोनों का कोई पता नहीं चला ,तो घर वालों ने पुलिस थाना मे गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

अपने वेटे की तलाश में जुटे सौरभ के पिता ने तीसरे दिन की सुबह अपने मोबाइल  पर आये सौरभ के मेसेज को देखा तो उन्हें कुछ आशा की किरण दिखाई दी. मैसेज बाक्स को खोलकर वे मैसेज पढ़ने लगे . मैसेज में सौरभ ने लिखा था
” मेरे प्यारे मम्मी पापा,
हमारी वजह से आपको बहुत दुःख हुआ है, इसलिए हम हमेशा के लिए आपसे दूर जा रहे हैं.   नर्मदा नदी के ककरा घाट के किनारे मोटर साइकिल ,और मोबाइल रखे हैं.इन्हे ले जाना अलविदा”.

तुम्हारा अभागा वेटा
सौरभ

उधर नेहा के भाई के मोबाइल के वाट्स ऐप पर नेहा ने गुड बाय का मैसेज  सेंड किया था. जब दोनों के घर वाले मैसेज में बताई गई जगह पर पहुंचे तो वहां  मोटरसाइकिल खड़ी थी . उसके पास दो मोबाइल, गमछा, चुनरी और जूते चप्पल रखे थे. पुलिस की मौजूदगी में वह सामान जप्त कर नदी के किनारे और नदी में भी तलाशी की गई, लेकिन नेहा और सौरभ का दूर दूर तक कोई पता नहीं था.
घर वाले और पुलिस टीम दोनों की तलाशी में रात दिन जुटे हुए थे ,तभी म‌ई की एक तारीख को सुबह सुबह दोनों के शव नदी में उतराते मिले थे.

” मास्साब यै लोग इंदौर से आ रहे हैं ,इनकी एंट्री करो” पटवारी की आवाज सुनकर मैने देखा एक कार चैक पोस्ट पर जांच के लिए खड़ी थी . यादों के सफर से मैं वापस आ गया था . झटपट कार का नंबर नोट कर मुंह और नाक पर मास्क चढाकर उसमें सवार लोगों के नाम पता नोट कर लिए थे . कार के जाते ही हाथों पर सेनेटाइजर छिड़क कर हाथों को अच्छी तरह रगड़ कर अपने काम में लग गया.
उधर पोस्ट मार्टम के बाद सौरभ और‌ नेहा के शव को गांव में अपने अपने घर लाया गया और उनके अंतिम संस्कार में पूरा गांव उमड़ पड़ा था.  अस्सी साल की उमर पार कर चुके सौरभ के दादाजी पश्चाताप की आग में जल रहे थे.अपनी झूठी शान की खातिर युवाओं के सपनों को चूर चूर कर जबरदस्ती समाज के कायदे कानून थोपने के अपने निर्णय से दुःख भी हो रहा था.

मुझे भी सौरभ और नेहा की इस अधूरी प्रेम कहानी ने दुखी कर दिया था.  स्कूल की बालसभा में बच्चों को किशोरावस्था में समझ और धैर्य से काम ‌लेने और सोच समझकर निर्णय लेने की शिक्षा देने के बावजूद भी जवानी के‌ जोश में होश खो देकर अपनी जीवन लीला खत्म करने वाले इस प्रेमी जोड़े के निर्णय पर वार अफसोस भी हो रहा था. मुझे लग रहा था कि  काम धंधा जमाकर पहले सौरभ अपने पैरों पर खड़ा होता  और‌ लौक डाउन खत्म होते ही नेहा के साथ  कानूनी तौर पर शादी करता तो शायद ये प्रेम कहानी आधी अधूरी न रहती.

 

काठ की हांड़ी: मीना ने ऐसा क्या कारनामा किया

मीनाका चेहरा देख कर शोभाजी हैरान रह गईं. वे 1-2 मुलाकातों में ही समझ जाती थीं कि सामने खड़ा इंसान कितने पानी में है. मगर मीना को ले कर उन की आंखें धोखा खा गईं.

‘‘जो चीज आंखों के बहुत ज्यादा पास हो उसे भी ठीक से पहचाना नहीं जा सकता और जो ज्यादा दूर हो उस की भी पहचान नहीं हो सकती. हमारी आंखें इंसान की आंखें हैं. हमारे पास गिद्ध की आंखें नहीं हैं,’’ सोमेश ने मां को समझाया था, ‘‘आप इतनी परेशान क्यों हो रही हैं? आजकल का युग सीधे व सरल इंसान का नहीं है. भेष बदलना पड़ता है.’’

दिल्ली वाले चाचाजी के किसी मित्र की बेटी है मीना और यहां लुधियाना में एक कंपनी में काम करती है. कुछ दिन उन के पास रहेगी. उस के बाद अपने लिए कोई ठिकाना देख लेगी. यही कह कर चाचाजी ने उसे उन के पास भेजा था.

3 महीने होने को आए हैं इस लड़की ने पूरे घर पर अपना अधिकार जमा रखा है. कल तो हद हो गई जब एक मां और बेटा उस की जांचपरख के लिए घर तक चले आए. मीना का उन के सामने जो व्यवहार था वह ऐसा था मानो वह इसी घर की बेटी है.

‘‘घर बहुत सुंदर सजाया है तुम ने बेटा… तुम्हारी पसंद का जवाब नहीं है. सोफा, परदे सब लाजवाब… यह पेंटिंग भी तुम ने बनाई है क्या? इतना समय कैसे निकाल लेती हो?’’

‘‘बस आंटी शौक है… समय निकल ही आता है.’’

शोभाजी यह सुन कर हैरान रह गईं कि उन की बनाई कलाकृति पर अपनी मुहर लगाने में इस लड़की को 1 मिनट भी नहीं लगा. फिर 3 महीने की सेवा पर कहीं पानी न फिर जाए, यह सोच वे चुप रहीं. मगर उसी पल तय कर लिया कि अब और नहीं रखेंगी वे मीना को अपने घर में. सामनेसामने उन्हीं को बेवकूफ बना रही है यह लड़की.

‘‘आप मीना की आंटी हैं न… अभी कुछ दिन और रुकेंगी न… घर आइए न इस इतवार को,’’ जातेजाते उस महिला ने अपना कार्ड देते हुए.

शोभाजी अकेली रहती हैं. बेटा सोमेश बैंगलुरु में रहता है और पति का देहांत हुए 3 साल हो गए हैं. शोभाजी ने अपने फ्लैट को बड़े प्यार से सजाया है.

शोभाजी इस हरकत पर सकते में हैं कि कहीं यह लड़की कोई खतरनाक खेल तो नहीं खेल रही. फिर चाचा ससुर को फोन किया.

‘‘तो क्या अब तक वह तुम्हारे ही घर पर है… पिछली बार घर आई थी तब तो कह रही थी उस ने घर ढूंढ़ लिया है. बस जाने ही वाली है.’’

इस बात को भी 2 महीने हो गए हैं. अब तक तो उसे चले जाना चाहिए था.

हैरान थे चाचाजी. शोभाजी ने पूरी बात सुनाना उचित नहीं समझा. बस इतना ही पता लगाना था कि सच क्या है.

‘‘तुम्हें कुछ दिया है क्या उस ने? कह रही थी पैसे दे कर ही रहेगी. खानेपीने और रहने सब के.’’

‘‘नहींनहीं चाचाजी. अपना बच्चा खापी जाए तो क्या उस से पैसे लूंगी मैं?’’

हैरान रह गए थे चाचाजी. बोले, ‘‘यह लड़की इतनी होशियार है मैं ने तो सोचा भी नहीं था. जैसा उचित लगे वैसा करो. मेरी तरफ से पूरी छूट है. मैं ने तो सिर्फ 8-10 दिनों के लिए कहा था. 3 महीने तो बहुत लंबा समय हो गया है.’’

‘‘ठीक है चाचाजी,’’ कहने को तो शोभाजी ने कह दिया देख लेंगी, मगर देखेंगी कैसे यह सोचने लगीं.

पड़ोसी नमन परिवार से उन का अच्छा मेलजोल है. मीना की भी दोस्ती है

उन से. शोभाजी ने पहली बार उन से इस विषय पर बात की.

‘‘वह तो कह रही थी आप को क्10 हजार महीना देती है.’’

चौंक उठी शोभाजी. डर लगने लगा… फिर उन्होंने पूरी बात बताई तो नमनजी भी हैरान रह गए.

‘‘नहींनहीं शोभा भाभी, यह तो हद से

ज्यादा हो रहा है… क्या आप उन मांबेटे का पता जानती हैं?’’

‘‘उस महिला ने कार्ड दिया था अपना… रविवार को अपने घर बुलाया है.’’

‘‘इस लड़की को डर नहीं लगता क्या? वे मांबेटा किस भुलावे में हैं… यहां आए थे तो यह तो समझना पड़ेगा न कि क्या देखनेसुनने आए थे,’’ नमनजी ने कहा.

शोभाजी ने कार्ड ढूंढ़ कर फोन मिलाया, ‘‘जी मैं मीना की आंटी बोल रही हूं.’’

‘‘हांहां कहिए शोभाजी… आप आईं ही नहीं… मीना कह रही थी आप जल्दी वापस जाने वाली हैं, इसीलिए नहीं आ सकतीं… सुनाइए बच्चे कैसे हैं? दिल्ली में सब ठीक है न?’’

‘‘माफ कीजिएगा मैं कुछ समझी नहीं… दिल्ली   में मेरा क्या काम मैं तो यहीं रहती हूं लुधियाना में और जिस घर में आप आई थीं वही मेरा घर है. मीना तो मेरे चाचा ससुर के किसी मित्र की बेटी है जो 3 महीने पहले मेरे पास यह कह कर रहने आई थी कि 8-10 दिनों में चली जाएगी. मैं तो इस से ज्यादा उसे जानती तक नहीं हूं.’’

‘‘लेकिन उस ने तो बताया था कि वह फ्लैट उस के पापा का है,’’ हैरान रह गई थी वह महिला, ‘‘कह रही थी उस के पापा दिल्ली में हैं. मेरे बेटे को बहुत पसंद आई है मीना. उस ने कहा यहां लुधियाना में उस का अपना फ्लैट है. सवाल फ्लैट का भी नहीं है. मुझे तो सिर्फ अच्छी बहू चाहिए,’’ परेशान हो उठी थी वह महिला, ‘‘यह लड़की इतना बड़ा झूठ क्यों बोल गई? ऐसी क्या मजबूरी हो गई?’’

दोनों महिलाएं देर तक बातें करती रहीं. दोनों ही हैरान थीं.

शाम 6 बजे जब मीना घर आई तब तक उस का सारा सामान शोभाजी ने दरवाजे पर रख दिया था. यह देख वह हैरान रह गई.

‘‘बस बेटा अब तमाशा खत्म करो… बहुत समय हो गया… मुझे छुट्टी दो.’’

रंग उड़ गया मीना का. ‘‘सच बोल कर भी तुम्हारा काम चल सकता था. झूठ क्यों बोलती रही? पैसे बचाने थे उस के लिए चाचाजी से झूठ कहा. अपना रोब जमाना था उस के लिए नमनजी से कहा कि हर महीने मुझे क्व10 हजार देती हो. अच्छे घर का लड़का भा गया तो मेरा घर ही अपने पिता का घर बता दिया. तुम पर भरोसा कौन करेगा?’’

‘‘अच्छी कंपनी में काम करती हो… झूठ पर झूठ बोल कर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली तुम ने.’’

‘‘आंटी आप… आप क्या कह रही हैं… मैं कुछ समझी नहीं.’’

‘‘बस करो न अब… मुझे और तकलीफ मत दो. अफसोस हो रहा है मुझे कि मैं ने

3 महीने एक ऐसी लड़की के साथ गुजार दिए जिस के पैरों के नीचे जमीन ही नहीं है. बेवकूफ तो मैं हूं जिसे समझने में इतनी देर लग गई. मिट्टी का बरतन बबनो बच्ची जो आंच पर रखरख कर और पक्का होता है. तुम तो काठ की हांड़ी बन चुकी हो.’’

‘‘रिकशा आ गया है मीना दीदी,’’ नमनजी के बेटे ने आवाज दी. मीना हैरान थी कि इस वक्त 6 बजे शाम वह कहां जाएगी.

‘‘पास ही बीवी रोड पर एक गर्ल्स होस्टल है. वहां तुम्हें आराम से कमरा मिल जाएगा. तुम्हें इस समय सड़क पर भी तो नहीं छोड़ सकते न…’’

रो पड़ी थी मीना. आत्मग्लानि से या यह सोच कर कि अच्छाखासा होटल हाथ से निकल गया.

‘‘आंटी मैं आप के पैसे दे दूंगी,’’ कह मीना ने अपना सामान रिकशे में रखा.

‘‘नहीं चाहिए… समझ लूंगी बदले में तुम से अच्छाखासा सबक ले लिया.

भारी मन से बिदा दी शोभाजी ने मीना को. ऐसी ‘बिदा’ भी किसी को देनी पड़ेगी, कभी सोचा नहीं था.

तारीफ: अपनी पत्नी की तारीफ क्यों कर पाए रामचरण

रामचरणबाबू यों तो बड़े सज्जन व्यक्ति थे. शहर के बड़े पोस्ट औफिस में सरकारी मुलाजिम थे और सरकारी कालोनी में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुख से रहते थे. लेकिन उन्हें पकौड़े खाने का बड़ा शौक था. पकौड़े देख कर वे खुद पर कंट्रोल ही नहीं कर पाते थे. रविवार के दिन सुबह नाश्ते में पकौड़े खाना तो जैसे उन के लिए अनिवार्य था. वे शनिवार की रात में ही पत्नी से पूछ लेते थे कि कल किस चीज के पकौड़े बना रही हो? उन की पत्नी कभी प्याज के, कभी आलू के, कभी दाल के, कभी गोभी के, तो कभी पालक के पकौड़े बनाती थीं और अगले दिन उन्हें जो भी बनाना होता था उसे रात ही में बता देती थीं. रामचरण बाबू सपनों में भी पकौड़े खाने का आनंद लेते थे. लेकिन बरसों से हर रविवार एक ही तरह का नाश्ता खाखा कर बच्चे बोर हो गए थे, इसलिए उन्होंने पकौड़े खाने से साफ मना कर दिया था.

उन का कहना था कि मम्मी, आप पापा के लिए बनाओ पकौड़े. हमें तो दूसरा नाश्ता चाहिए. रविवार का दिन जहां पति और बच्चों के लिए आराम व छुट्टी का दिन होता, वहीं मिसेज रामचरण के लिए दोहरी मेहनत का. हालांकि वे अपनी परेशानी कभी जाहिर नहीं होने देती थीं, लेकिन दुख उन्हें इस बात का था कि रामचरण बाबू उन के बनाए पकौड़ों की कभी तारीफ नहीं करते थे. पकौड़े खा कर व डकार ले कर जब वे टेबल से उठने लगते तब पत्नी द्वारा बड़े प्यार से यह पूछने पर कि कैसे बने हैं? उन का जवाब यही होता कि हां ठीक हैं, पर इन से अच्छे तो मैं भी बना सकता हूं.

मिसेज रामचरण यह सुन कर जलभुन जातीं. वे प्लेटें उठाती जातीं और बड़बड़ाती जातीं. पर रामचरण बाबू पर पत्नी की बड़बड़ाहट का कोई असर नहीं होता था. वे टीवी का वौल्यूम और ज्यादा कर देते थे. रामेश्वर रामचरण बाबू के पड़ोसी एवं सहकर्मी थे. कभीकभी किसी रविवार को वे अपनी पत्नी के साथ रामचरण बाबू के यहां पकौड़े खाने पहुंच जाते थे. आज रविवार था. वे अपनी पत्नी के साथ उन के यहां उपस्थित थे. डाइनिंग टेबल पर पकौड़े रखे जा चुके थे.

‘‘भाभीजी, आप लाजवाब पकौड़े बनाती हैं,’’ यह कहते हुए रामेश्वर ने एक बड़ा पकौड़ा मुंह में रख लिया.

‘‘हां, भाभी आप के हाथ में बड़ा स्वाद है,’’ उन की पत्नी भी पकौड़ा खातेखाते बोलीं.

‘‘अरे इस में कौन सी बड़ी बात है, इन से अच्छे पकौड़े तो मैं बना सकता हूं,’’ रामचरण बाबू ने वही अपना रटारटाया वाक्य दोहराया.

‘‘तो ठीक है, अगले रविवार आप ही पकौड़े बना कर हम सब को खिलाएंगे,’’ उन की पत्नी तपाक से बोलीं.

‘‘हांहां ठीक है, इस में कौन सी बड़ी बात है,’’ रामचरण बड़ी शान से बोले. ‘‘अगर आप के बनाए पकौड़े मेरे बनाए पकौड़ों से ज्यादा अच्छे हुए तो मैं फिर कभी आप की बात का बुरा नहीं मानूंगी और यदि आप हार गए तो फिर हमेशा मेरे बनाए पकौड़ों की तारीफ करनी पड़ेगी,’’ मिसेज रामचरण सवालिया नजरों से रामचरण बाबू की ओर देख कर बोलीं.

‘‘अरे रामचरणजी, हां बोलो भई इज्जत का सवाल है,’’ रामेश्वर ने उन्हें उकसाया.

‘‘ठीक है ठीक है,’’ रामचरण थोड़ा अचकचा कर बोले. शेखी के चक्कर में वे यों फंस जाएंगे उन्हें इस की उम्मीद नहीं थी. खैर मरता क्या न करता. परिवार और दोस्त के सामने नाक नीची न हो जाए, इसलिए उन्होंने पत्नी की चुनौती स्वीकार कर ली.

‘‘ठीक है भाई साहब, अगले रविवार सुबह 10 बजे आ जाइएगा, इन के हाथ के पकौड़े खाने,’’ उन की पत्नी ने मिस्टर और मिसेज रामेश्वर को न्योता दे डाला. सोमवार से शनिवार तक के दिन औफिस के कामों में निकल गए शनिवार की रात में मिसेज रामचरण ने पति को याद दिलाया, ‘‘कल रविवार है, याद है न?’’

‘‘शनिवार के बाद रविवार ही आता है, इस में याद रखने वाली क्या बात है?’’ रामचरण थोड़ा चिढ़ कर बोले.

‘‘कल आप को पकौड़े बनाने हैं. याद है कि भूल गए?’’

‘‘क्या मुझे…?’’ रामचरण तो वाकई भूल गए थे.

‘‘हां आप को. सुबह थोड़ा जल्दी उठ जाना. पुदीने की चटनी तो मैं ने बना दी है, बाकी मैं आप की कोई मदद नहीं करूंगी.’’ रामचरण बाबू की तो जैसे नींद ही उड़ गई. वे यही सोचते रहे कि मैं ने क्या मुसीबत मोल ली. थोड़ी सी तारीफ अगर मैं भी कर देता तो यह नौबत तो न आती. रविवार की सुबह 8 बजे थे. रामचरण खर्राटे मार कर सो रहे थे.

‘‘अजी उठिए, 8 बज गए हैं. पकौड़े नहीं बनाने हैं क्या? 10 बजे तो आप के दोस्त आ जाएंगे,’’ उन की मिसेज ने उन से जोर से यह कह कर उन्हें जगाया. मन मसोसते हुए वे जाग गए. 9 बजे उन्होंने रसोई में प्रवेश किया.

‘‘सारा सामान टेबल पर रखा है,’’ कह कर उन की पत्नी रसोई से बाहर निकल गईं.

‘‘हांहां ठीक है, तुम्हारी कोई जरूरत नहीं मैं सब कर लूंगा,’’ कहते हुए रामचरण बाबू ने चोर नजरों से पत्नी की ओर देखा कि शायद वे यह कह दें, रहने दो, मैं बना दूंगी. पर अफसोस वे बाहर जा चुकी थीं. ‘जब साथ देने की बारी आई तो चली गईं. वैसे तो कहती हैं 7 जन्मों तक साथ निभाऊंगी,’ रामचरण भुनभुनाते हुए बोले. फिर ‘चल बेटा हो जा शुरू’ मन में कहा और गैस जला कर उस पर कड़ाही चढ़ा दी. उन्होंने कई बार पत्नी को पकौड़े बनाते देखा था. उसे याद करते हुए कड़ाही में थोड़ा तेल डाला और आंच तेज कर दी. पकौड़ी बनाने का सारा सामान टेबल पर मौजूद था. उन्होंने अंदाज से बेसन एक कटोरे में निकाला. उस में ध्यान से नमक, मिर्च, प्याज, आलू, अजवाइन सब डाला फिर पानी मिलाने लगे. पानी जरा ज्यादा पड़ गया तो बेसन का घोल पतला हो गया. उन्होनें फिर थोड़ा बेसन डाला. फिर घोल ले कर वे गैस के पास पहुंचे. आंच तेज होने से तेल बहुत गरमगरम हो गया था. जैसे ही उन्होंने कड़ाही में पकौड़े के लिए बेसन डाला, छन्न से तेल उछल कर उन के हाथ पर आ गिरा.

‘‘आह,’’ वे जोर से चिल्लाए.

‘‘क्या हुआ?’’ उन की पत्नी बाहर से ही चिल्लाईं और बोलीं, ‘‘गैस जरा कम कर देना वरना हाथ जल जाएंगे.’’

‘‘हाथ तो जल गया, ये बात पहले नहीं बता सकती थीं?’’ वे धीरे से बोले. फिर आंच धीमी की और 1-1 कर पकौड़े का घोल कड़ाही में डालने लगे. गरम तेल गिरने से उन की उंगलियां बुरी तरह जल रही थीं. वे सिंक के पास जा कर पानी के नीचे हाथ रख कर खड़े हो गए तो थोड़ा आराम मिला. इतने में ही उन का मोबाइल बजने लगा. देखा तो रामेश्वर का फोन था. उन्होंने फोन उठाया तो रामेश्वर अपने आने की बात कह कर इधरउधर की बातें करने लगे.

‘‘अजी क्या कर रहे हो, बाहर तक पकौड़े जलने की बास आ रही है,’’ उन की मिसेज रसोई में घुसते हुए बोलीं. रामचरण बाबू ने तुरंत फोन बंद कर दिया. वे तो रामेश्वर से बातचीत में इतने मशगूल हो गए थे कि भूल ही गए थे कि वे तो रसोई में पकौड़े बना रहे थे. दौड़ कर उन की मिसेज ने गैस बंद की. रामचरण भी उन की ओर लपके, पर तब तक तो सारे पकौड़े जल कर काले हो चुके थे. पत्नी ने त्योरियां चढ़ा कर उन की ओर देखा तो वे हकलाते हुए बोले, ‘‘अरे वह रामेश्वर का फोन आ गया था.’’

तभी ‘‘मम्मी, रामेश्वर अंकल और आंटी आ गए हैं,’’ बेटी ने रसोई में आ कर बताया.

‘‘अरे रामचरणजी, पकौड़े तैयार हैं न?’’ कहते हुए रामेश्वर सीधे रसोई में आ धमके. वहां जले हुए पकौड़े देख कर सारा माजरा उन की समझ में आ गया. वे जोरजोर से हंसने लगे और बोले, ‘‘अरे भई, भाभीजी की तारीफ कर देते तो यह दिन तो न देखना पड़ता?’’

‘‘जाइए बाहर जा कर बैठिए. मैं अभी दूसरे पकौड़े बना कर लाती हूं. बेटा, पापा की उंगलियों पर क्रीम लगा देना,’’ मिसेज रामचरण ने कहा. उस के आधे घंटे बाद सब लोग उन के हाथ के बने पकौड़े खा रहे थे. साथ में चाय का आनंद भी ले रहे थे.

‘‘क्यों जी, कैसे बने हैं पकौड़े?’’ उन्होंने जब रामचरण बाबू से पूछा तो, ‘‘अरे, तुम्हारे हाथ में तो जादू है. लाजवाब पकौड़े बनाती हो तुम तो,’’ कहते हुए उन्होंने एक बड़ा पकौड़ा मुंह में रख लिया. सभी ठहाका मार कर हंस दिए.

चाहत: क्या शोभा अपना सपना पूरा कर पाई?

“थक गई हूं मैं घर के काम से, बस वही एकजैसी दिनचर्या, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह. घर का सारा टैंशन लेतेलेते मैं परेशान हो चुकी हूं, अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ,”शोभा अकसर ही यह सब किसी न किसी से कहती रहतीं.

एक बार अपनी बोरियत भरी दिनचर्या से अलग, शोभा ने अपनी दोनों बेटियों के साथ रविवार को फिल्म देखने और घूमने का प्लान किया. शोभा ने तय किया इस आउटिंग में वे बिना कोई चिंता किए सिर्फ और सिर्फ आनंद उठाएंगी.

मध्यवर्गीय गृहिणियों को ऐसे रविवार कम ही मिलते हैं, जिस में वे घर वालों पर नहीं बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों खर्च करें, इसलिए इस रविवार को ले कर शोभा का उत्साहित होना लाजिमी था.

यह उत्साह का ही कमाल था कि इस रविवार की सुबह, हर रविवार की तुलना में ज्यादा जल्दी हो गई थी.

उन को जल्दी करतेकरते भी सिर्फ नाश्ता कर के तैयार होने में ही 12 बज गए. शो 1 बजे का था, वहां पहुंचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय वहां पहुंचने के लिए बस की जगह औटो ही एक विकल्प दिख रहा था और यहीं से शोभा के मन में ‘चाहत और जरूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो ‘चाहत’ की विजय हुई.

औटो का मीटर बिलकुल पढ़ीलिखी गृहिणियों की डिगरी की तरह, जिस से कोई काम नहीं लेना चाहता पर हां, जिन का होना भी जरूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसलिए किराए का भावताव तय कर के सब औटो में बैठ गए.

शोभा वहां पहुंच कर जल्दी से टिकट काउंटर में जा कर लाइन में लग गईं.

जैसे ही उन का नंबर आया तो उन्होंने अंदर बैठे व्यक्ति को झट से 3 उंगलियां दिखाते हुए कहा,”3 टिकट…”

अंदर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गरदन ऊपर किए, नीचे पड़े कांच में उन उंगलियों की छाया देख कर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया,”₹1200…”

शायद शोभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वे साथ में, उस व्यक्ति के होंठों को ₹1200 बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए नहीं देखतीं.

फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया, “कितने?”

इस बार अंदर बैठे व्यक्ति ने सच में उन की आवाज नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया.

उस ने जोर से कहा,”₹1200…”

शोभा की अन्य भावनाओं की तरह उन की आउटिंग की इच्छा भी मोर की तरह निकली जो दिखने में तो सुंदर थी पर ज्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी और धम्म… से जमीन पर आ गई.

पर फिर एक बार दिल कड़ा कर के उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब ₹1200 उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिए और टिकट ले कर थिएटर की ओर बढ़ गईं.

10 मिनट पहले दरवाजा खुला तो हौल में अंदर जाने वालों में शोभा बेटियों के साथ सब से आगे थीं.

अपनीअपनी सीट ढूंढ़ कर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों को झेलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के किस्से सुन कर, साथ ही उन के बीभत्स चेहरे देख कर तो शोभा का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि गलती से भी उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो 2-4 थप्पड़ उन्हें वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि मजे तुम करो और हम अपने पैसे लगा कर यहां तुम्हारा कटाफटा लटका थोबड़ा देखें… पर शुक्र है वहां धूम्रपान की अनुमति नहीं थी.

लगभग आधे मिनट की शांति के बाद सभी खड़े हो गए. राष्ट्रगान चल रहा था. साल में 2-3 बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिलें तो वे हमेशा आंखों से ही फूटता है.

वैसे, देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा वीररस में इतनी डूबी हुई थीं कि उन को एहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वे ही अकेली खड़ी हैं, तो बेटी ने उन को हाथ पकड़ कर बैठने को कहा.

अब फिल्म शुरू हो गई. शोभा कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्नभिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इंटरवल तक पहुंचीं.

चूंकि, सभी घर से सिर्फ नाश्ता कर के निकले थे तो इंटरवल तक सब को भूख लग चुकी थी. क्याक्या खाना है, उस की लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार कर के शोभा को थमा दीं.

शोभा एक बार फिर लाइन में खड़ी थीं. उन के पास बेटियों द्वारा दी गई खाने की लंबी लिस्ट थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी कम लंबी न थी.

जब शोभा के आगे लगभग 3-4 लोग बचे होंगे तब उन की नजर ऊपर लिखे मेन्यू पर पड़ी, जिस में खाने की चीजों के साथसाथ उन के दाम भी थे. उन के दिमाग में जोरदार बिजली कौंध गई और अगले ही पल बिना कुछ समय गंवाए वे लाइन से बाहर थीं.

₹400 के सिर्फ पौपकौर्न, समोसे ₹80 का एक, सैंडविच ₹120 की एक और कोल्डड्रिंक ₹150 की एक.

एक गृहिणी जिस ने अपनी शादीशुदा जिंदगी ज्यादातर रसोई में ही गुजारी हो उन्हें 1 टब पौपकौर्न की कीमत दुकानदार ₹400 बता रहे थे.

शोभा के लिए वही बात थी कि कोई सुई की कीमत ₹100 बताए और उसे खरीदने को कहे.

उन्हें कीमत देख कर चक्कर आने लगे. मन ही मन उन्होंने मोटामोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का ख़र्च, आउटिंग के खर्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पौकेट में रखे बचत के पैसों, जोकि मुसीबत के लिए रखे थे वहां तक पहुंच गया था. उन्हें एक तरफ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ पैसे. इस बार शोभा अपने मन के मोर को ज्यादा उड़ा न पाईं और आनंद के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. जाहिर था, कम हुआ हिस्सा मां अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा.

सामान ले कर जब वे अंदर पहुंचीं तो फिल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं कि यदि फिल्म अच्छी होती है तो वह आप को अपने साथ समेट लेती है, लगता है मानों आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूल कर शोभा फिल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब फिल्म समाप्त हो गई. वे जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी.

थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाटभंडार की दुकान दिखाई दी और सामने ही अपना गोलगोल मुंह फुलाए गोलगप्पे नजर आए. गोलगप्पे की खासियत होती है कि उन से कम पैसों में ज्यादा स्वाद मिल जाता है और उस के पानी से पेट भर जाता है.

सिर्फ ₹60 में तीनों ने पेटभर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी तो शोभा ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूम कर जाने वाली बस पकड़ी.

बस में बैठीबैठी शोभा के दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही थीं. कभी वे औटो के ज्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फिल्म के किसी सीन के बारे में सोच कर हंस पड़तीं, कभी महंगे पौपकौर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोच कर रोमांचित हो उठतीं.

उन का मन बहुत भ्रमित था कि क्या यही वह ‘चेंज’ है जो वे चाहतीं थीं? वे सोच रही थीं कि क्या सच में वे ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिस में दिन खत्म होने पर उनशके दिल में खुशी के साथ कसक भी रह जाए?

तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी मां से पूछा,”मम्मी, अगले संडे हम कहां चलेंगे?”

अब शोभा को ‘चाहत और जरूरत’ में से किसी 1 को चुनने का था. उन्होंने सब की जरूरतों का खयाल रखते हुए साथ ही अपनी चाहत का भी तिरस्कार न करते हुए कहा,”आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए बीच चलेंगे और सनसेट देखेंगे.”

शोभा सोचने लगीं कि अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौंदर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती और प्रकृति से बेहतर चेंज कहीं और से मिल सकता है भला?

शोभा को प्रकृति के साथसाथ अपना घर भी बेहद सुंदर नजर आने लगा था. उस का अपना घर, जहां उस के सपने हैं, अपने हैं और सब का साथ भी तो.

धमकियां: गांव की रहने वाली सुधा को क्या अपना पाया शेखर?

*शेखर* और सुधा की मैरिज ऐनिवर्सरी के दिन सब बेहद खुश थे. शनिवार का दिन था तो आराम से सब सैलिब्रेशन के मूड में थे. पार्टी देर तक भी चले तो कोई परेशानी नहीं.

अनंत और प्रिया ने पार्टी का सब इंतजाम कर लिया था. अंजू और सुधीर से भी बात हो गई थी. वे भी सुबह ही आ रहे थे. प्रोग्राम यह था कि पहले पूरा परिवार लंच एकसाथ घर पर करेगा, फिर डिनर करने सब बाहर जाएंगे. इस तरह पूरा दिन सब एकसाथ बिताने वाले थे.

शेखर और सुधा अपने बच्चों के साथ समय बिताने के लिए अति उत्साहित थे. अनंत तो अपनी पत्नी प्रिया और बेटी पारूल के साथ उन के साथ ही रहता था, बेटी अंजू अंधेरी में अपने पति सुधीर और बेटे अनुज के साथ रहती थी. मुंबई में होने पर भी मिलनाजुलना जल्दी नहीं हो पाता था, क्योंकि बहूबेटा, बेटीदामाद सब कामकाजी थे.

इसलिए जब भी सब एकसाथ मिलते, शेखर और सुधा बहुत खुश होते थे.सब की आपस में खूब बनती थी. सब जब भी मिलते, महफिल खूब जमती, जम कर एकदूसरे की टांग खींची जाती, कोई किसी की बात का बुरा न मानता. बच्चों के साथ शेखर और सुधा भी खूब हसंतेहंसाते.

12 बजे अंजू सुधीर और अनुज के साथ आ गई. सब ने एकदूसरे को प्यार से गले लगाया. शेखर और सुधा के साथसाथ अंजू सब के लिए कुछ न कुछ लाई थी. पारूल और अनुज तो अपनेआप में व्यस्त हो गए. हंसीमजाक के साथसाथ खाना भी लगता रहा. लंच भी बाहर से और्डर कर लिया गया था, पर प्रिया ने स्नेही सासससुर के लिए खीर और दहीबड़े उन की पसंद को ध्यान में रख कर खुद बनाए थे, जिसे सब ने खूब तारीफ करते हुए खाया.

खाना खाते हुए सुधीर ने बहुत सम्मानपूर्वक कहा, ”पापा, आप लोगों की मैरिडलाइफ एक उदाहरण है हमारे लिए. कभी भी आप लोगों को किसी बात पर बहस करते नहीं देखा. इतनी अच्छी बौंडिंग है आप दोनों की. मेरे मम्मीपापा तो खूब लड़ते थे. आप लोगों से बहुत कुछ सीखना चाहिए.”

फिर जानबूझ कर अंजू को छेड़ते हुए कहा,” इसे भी कुछ सिखा दिया होता, कितना लड़ती है मुझ से. कई बार तो शुरूशुरू में लगता था कि इस से निभेगी भी या नहीं.”

अंजू ने प्यार से घूरा,”बकवास बंद करो, तुम से कभी नहीं लड़ी मैं, झूठे…”

प्रिया ने भी कहा,”जीजू , आप ठीक कह रहे हैं, मम्मीपापा की कमाल की बौंडिंग है. दोनों एकदूसरे का बहुत ध्यान रखते हैं. बिना कहे ही एकदूसरे के मन की बात जान लेते हैं. यहां तो अनंत को मेरी कोई बात ही याद नहीं रहती. काश, अनंत भी पापा की तरह केयरिंग होता.”

अनंत से भी रहा नहीं गया, झूठमूठ गले में कुछ फंसने की ऐक्टिंग करता हुआ बोला,” मेरी प्यारी बहन अंजू, यह हम दोनों भाईबहन क्या सुन रहे हैं? क्यों न आज मम्मीपापा की बहू और दामाद को इस बौंडिंग की सचाई बता दें? हम कब तक ताने सुनते रहेंगे,” कहता हुआ अनंत अंजू को देख कर शरारत से हंस दिया.

शेखर ने चौंकते हुए कहा,”अरे, कैसी सचाई? क्या तुम बच्चों से अपने पेरैंट्स की तारीफ सहन नहीं हो रही?”

अनंत हंसते हुए बोला,”मम्मीपापा, तैयार हो जाइए, आप की बहू और आप के दामाद से हम भाईबहन आप की इस बौंडिंग का राज शेयर करने जा रहे हैं…”

फिर नाटकीय स्वर में अंजू से कहा,”चल, बहन, शुरू हो जा…”

*अंजू* ने जोर से हंसते हुए बताना शुरू किया,”जब हम छोटे थे, हम रोज देखते कि पापा मम्मी को हर बात में कहते हैं कि मैं तुम्हारे साथ एक दिन नहीं रह सकता. अम्मांपिताजी ने मेरे साथ बहुत बुरा किया है कि तुम से मेरी शादी करवा दी. मेरे जैसे स्मार्ट लड़के के लिए पता नहीं कहां से गंवार लड़की ले कर मेरे साथ बांध दिया,” इतना सुनते ही प्रिया और सुधीर ने चौंकते हुए शेखर और सुधा को देखा.

शेखर बहुत शर्मिंदा दिखे और सुधा की आंखों में एक नमी सी आ गई थी, जिसे देख कर शेखर और शर्मिंदा हो गए.

अनंत ने कहा,”और एक मजेदार बात यह थी कि रोज हमें लगता कि बस शायद कल मम्मी और पापा अलग हो जाएंगे पर हम अगले दिन देखते कि दोनों अपनेअपने काम में रोज की तरह व्यस्त हैं.

“सारे रिश्तेदारों को पता था कि दादादादी ने अपनी पसंद की लड़की से पापा की शादी कराई है और पापा को मम्मी पसंद नहीं हैं. हम किसी से भी मिलते, तो हम से पूछा जाता कि अब भी तुम्हारे पापा को तुम्हारी मम्मी पसंद नहीं हैं क्या?

“हमें कुछ समझ नहीं आता कि क्या कहें पर सब मम्मी की खूब तारीफ करते. सब का कहना था कि मम्मी जैसी लड़की संयोग से मिलती है पर पापा घर में हर बात पर यही कहते कि उन की लाइफ खराब हो गई है, यह शादी उन की मरजी से नहीं हुई है. उन्हें किसी शहर की मौडर्न लड़की से शादी करनी थी और उन के पेरैंट्स ने अपने गांव की लड़की से उन की शादी करा दी.

“हालांकि मम्मी बहुत पढ़ीलिखी हैं पर प्रोफैसर पापा अलग ही दुनिया में जीते और मैं और अंजू मम्मीपापा के तलाक के डर के साए में जीते रहे.

“कभी अनंत मुझे समझाता, तसल्ली देता कि कुछ नहीं होगा, कभी मैं उसे समझाती कि अगले दिन तो सब ठीक हो ही जाता है. हमारी जवानी तो पापा की धमकियों में ही बीत गई.”

फिर अचानक अनंत जोर से हंसा और कहने लगा,”धीरेधीरे हम बड़े हो गए और समझ आ गया कि पापा सिर्फ मम्मी को धमकियां देते हैं, हमारी प्यारी मां को छोड़ना इन के बस की बात नहीं.”

प्रिया और सुधीर ने शेखर को बनावटी गुस्से से कहा,”पापा, वैरी बैड, हम आप को क्या समझते थे और आप क्या निकले… बेचारे बच्चे आप की धमकियों में जीते रहे और हम आप दोनों की बौंडिंग के फैन होते रहे. क्यों, पापा, ये धमकियां क्यों देते रहे?”

शेखर ने सुधा की तरफ देखते हुए कहा,”वैसे अच्छा ही हुआ कि आज तुम लोगों ने बात छेड़ दी, दिन भी अच्छा है आज.”

*उन* के इतना कहते ही अंजू ने कहा,”अच्छा, दिन अच्छा हो गया अब मैरिज ऐनिवर्सरी का, बच्चों को परेशान कर के?”

”हां, बेटा, दिन बहुत अच्छा है आज का जो मुझे इस दिन सुधा मिली.”

अब सब ने उन्हें चिढ़ाना शुरू कर दिया,”रहने दो पापा, हम आप की धमकियां नहीं भूलेंगे.”

”सच कहता हूं, मैं गलत था. मैं ने सुधा को सच में तलाक की धमकी देदे कर बहुत परेशान किया. मैं चाहता था कि मैं बहुत मौडर्न लड़की से शादी करूं, गांव की लड़की मुझे पसंद नहीं थी. हमेशा शहर में रहने के कारण मुझे शहरी लड़कियां ही भातीं. जब अम्मांपिताजी ने सुधा की बात की तो मैं ने साफसाफ मना कर दिया पर सुधा के पेरैंट्स की मृत्यु हो चुकी थी और भाई ने ही हमेशा सुधा की जिम्मेदारी संभाली थी.

“अम्मां को सुधा से बहुत लगाव था. मैं ने तो यहां तक कह दिया था कि मंडप से ही भाग जाऊंगा पर पिताजी के आगे एक न चली और सारा गुस्सा सुधा पर ही उतरता रहा.

“मेरे 7 भाईबहनों के परिवार को सुधा ने ऐसे अपनाया कि सब मुझे भूलने लगे. हर मुंह पर सुधा का नाम, सुधा के गुण देख कर सब इस की तारीफ करते न थकते पर मेरा गुस्सा कम होने का नाम ही ना लेता पर धीरेधीरे मेरे दिल में इस ने ऐसी जगह बना ली कि क्या कहूं, मैं ही इस का सब से बड़ा दीवाना बन गया.

“जब आनंद पैदा हुआ तो सब को लगा कि अब सब ठीक हो जाएगा पर मैं नहीं सुधरा, सुधा से कहता कि बस यह थोड़ा बड़ा हो जाए तो मैं तुम्हे तलाक दे दूंगा.

“फिर 2 साल बाद अंजू हुई तो भी मैं यही कहता रहा कि बस बच्चे बड़े हो जाएं तो मैं तुम्हे तलाक दे दूंगा और तुम चाहो तो गांव में अम्मां के साथ रह सकती हो.

“फिर बच्चे बड़े हो रहे थे तो मेरी बहनों की शादी का नंबर आता रहा. सुधा अपनी हर जिम्मेदारी दिल से निभाती रही और मेरे दिल में जगह बनाती रही पर मैं इतना बुरा था कि तलाक की धमकियों से बाज नहीं आता…

“सुधा घर के इतने कामों के साथ अपना पूरा ध्यान पढाईलिखाई में लगाती और इस ने धीरेधीरे अपनी पीएचडी भी पूरी कर ली और एक दिन एक कालेज में जब इसे नौकरी मिल गई तो मैं पूरी तरह से अपनी गलतियों के लिए इतना शर्मिंदा था कि इस से माफी भी मांगने की मेरी हिम्मत नहीं हुई.

“मन ही मन इतना शर्मिंदा था कि आज इसलिए इस दिन को अच्छा बता रहा था कि मैं तुम सब के सामने सुधा से माफी मांगने की हिम्मत कर पा रहा हूं.

“बच्चो, तुम से भी शर्मिंदा हूं कि मेरी तलाक की धमकियों से तुम्हारा बालमन आहत होता रहा और मुझे खबर भी नहीं हुई.

“सुधा, अनंत और अंजू, तुम सब मुझे आज माफ कर दो…”

प्रिया ने सुधा की तरफ देखते हुए कहा,”मम्मी, आप भी कुछ कहिए न?”

सुधा ने एक ठंडी सांस ली और बोलने लगी,”शुरू में तो एक झटका सा लगा जब पता चला कि मैं इन्हें पसंद नहीं, मातापिता थे नहीं, भाई ने बहुत मन से मेरा विवाह इन के साथ किया था. लगा भाई को बहुत दुख होगा अगर उस से अपना दुख बताउंगी तो…

“इसलिए कभी भी किसी से शेयर ही नहीं किया कि पति तलाक की धमकियां दे रहा है. सोचा समय के साथ शायद सब ठीक हो जाए और ठीक हुआ भी. तुम दोनों के पैदा होने के बाद इन का अलग रूप देखा. तुम दोनों को यह खूब स्नेह देते, कालेज से आते ही तुम दोनों के साथ खूब खेलते.

“मैं ने यह भी देखा कि मुझे अपने पेरैंट्स के सामने या उन के आसपास होने पर ये तलाक की धमकियां ज्यादा देते हैं, अकेले में इन का व्यवहार कभी खराब भी नहीं रहा. मेरी सारी जरूरतों का हमेशा ध्यान रखते. मैं समझने लगी थी कि यह हम सब को प्यार करते हैं, हमारे बिना रह ही नहीं सकते.

“ये धमकियां पूरी तरह से झूठी हैं, सिर्फ अपने पेरैंट्स को गुस्सा दिखाने के लिए करते हैं.

“यह अपने पेरैंट्स से इस बात पर नाराज थे कि उन्होंने इन के विवाह के लिए इन की मरजी नहीं पूछी, सीधे अपना फैसला थोप दिया.

“जब मैं ने यह समझ लिया तो जीना मुश्किल ही नहीं रहा. मुझे पढ़ने का शौक था, किताबें तो यह ही ला कर दिया करते. पूरा सहयोग किया तभी तो पीएचडी कर पाई.

“रातभर बैठ कर पढ़ती तो यह कभी चाय बना कर देते, कभी गरम दूध का गिलास जबरदस्ती पकड़ा देते और अगर अगले दिन अम्मांपिताजी आ जाएं तो तलाकपुराण शुरू हो जाता, पर मैं इन के मौन प्रेम का स्वाद चख चुकी थी, फिर मुझे कोई धमकी असर न करती,” कहतेकहते सुधा बहुत प्यार से हंस दी.

*शेखर* हैरानी से सुधा का मुंह देख रहे थे, बोले,”मतलब तुम्हें जरा भी चिंता नहीं हुई कभी?”

”नहीं, जनाब, कभी भी नहीं,” सुधा मुसकराई.

अनंत और अंजू ने एकदूसरे की तरफ देखा, फिर अनंत बोला,” लो बहन, और सुनो इन की कहानी, मतलब हम ही बेवकूफ थे जो डरते रहे कि हाय, मम्मीपापा का तलाक न हो जाए, फिर हमारा क्या होगा?

“हम बच्चे तो कई बार यह बात भी करने बैठ जाते कि पापा के पास कौन रहेगा और मम्मी के पास कौन?

“हमें तो फिल्मी कोर्टसीन याद आते और हम अलग ही प्लानिंग करते. पापामम्मी, बड़ा जुल्म किया आप ने बच्चों पर. ये धमकियां हमारे बचपन पर बहुत भारी पड़ी हैं.”

शेखर ने अब गंभीरतापूर्वक कहा,”हां, बच्चो, यह मैं मानता हूं कि तुम दोनों के साथ मैं ने अच्छा नहीं किया, मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ कि मेरे बच्चों के दिलों पर ये धमकियां क्या असर कर रही होंगी, सौरी, बच्चो.”

अंजू ने चहकते हुए शरारत से कहा,”वह तो अच्छा है कि मम्मी ने यह बात एक दिन महसूस कर ली थी कि आप की तलाक की धमकियां हमें परेशान करती हैं तो उन्होंने हमें बैठा कर एक दिन समझा दिया था कि आप का यह गुस्सा दादादादी को दिखाने का एक नाटक है. कुछ तलाकवलाक कभी नहीं होगा, तब जा कर हम थोड़ा ठीक हुए थे.”

शेखर अब मुसकराए और नाटकीय स्वर में कहा,”मतलब मेरी खोखली धमकी का किसी पर भी असर नहीं पड़ रहा था और मैं खुद को तीसमारखां समझता रहा…”

सुधीर ने प्रिया की ओर देखते हुए कहा,”प्रिया, अनंत और अंजू कोई धमकी कभी दें तो दिल पर मत लेना, यार, हमें तो बड़े धमकीबाज ससुर मिले हैं, पर यह भी सच है कि आप दोनों की बौंडिंग है तो कमाल…

“एक सारी उम्र धमकी देता रहा, दूसरा एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकालता रहा, बस 2 बेचारे बच्चे डरते रहे.”

हंसी के ठहाड़ों से घर के दीवार चहक उठे थे और शेखर सुधा को मुग्ध नजरों से निहारते जा रहे थे.

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