Funny Story : पंडित जी – बुरा समय आया तो हो गए कंगाल

Funny Story : वे तो कहीं से भी पंडितजी जैसे नहीं लगते थे. उन का नाम भी कूडे़मल था. वे महीनों इसलिए नहीं नहाते थे कि साबुन खर्च होगा और जब नहाते थे, तभी जांघियाबनियान बदलते थे. एक दिन रास्ते में मिलने पर मैं ने उन से पूछ ही लिया, ‘‘क्यों पंडितजी, कूड़े से काम नहीं चला क्या, जो मल भी साथ में जोड़ दिया?’’

पंडितजी सांप की तरह फुंफकार कर रह गए, पर डस नहीं पाए, क्योंकि भरे बाजार में वे तमाशा नहीं बनना चाहते थे. बाजार में दुकानदारों से दान वसूल करने के लिए वे सुबहसुबह पहुंच जाते थे. दुकानदार भी पंडितजी के मुंह नहीं लगना चाहते थे, इसलिए कुछ रुपए दे कर उन से पीछा छुड़ाते थे.

पंडितजी के दर्जनभर बच्चे थे. 6 लड़के और 6 लड़कियां. उन में से एक भी ऐसा नहीं था, जो 5वीं क्लास से ज्यादा पढ़ा हो.

पंडितजी खुद भी नहीं पढ़े थे. कुछ मंत्र उन्होंने रट जरूर लिए थे, जिन का मतलब वे खुद भी नहीं जानते थे. शब्दों से ज्यादा वे आवाज पर जोर देते थे, इसलिए शब्द किसी की समझ में नहीं आते थे और उन का काम चल जाता था.

चूंकि उस इलाके में दूरदूर तक कोई दूसरा पंडित नहीं था, इसलिए कूड़ेमल के मजे थे. पर बुरा समय कह कर नहीं आता. एक दिन 2 अनजान लड़के पंडितजी के घर आए और पंडितानी से बोले, ‘‘पंडितजी ने परोसे के लिए चांदी के बरतन मंगाए हैं.’’

पंडितानी बेचारी सीधीसादी थी. उसे नहीं मालूम था कि जमाना कहां जा रहा है. फिर शक की कोई गुंजाइश भी तो नहीं थी. पंडितजी अकसर बरतन मंगवा लेते थे, इसलिए पंडितानी ने चांदी के बरतन उन लड़कों को दे दिए.

शाम को पंडितजी जब अपने बच्चों के साथ घर लौटे, तो पंडितानी ने बरतनों का जिक्र किया. तब पंडितजी ने बताया कि उन्होंने तो बरतन लाने के लिए किसी को भी नहीं भेजा था. पर अब क्या हो सकता था.

पंडितजी खून का घूंट पी कर रह गए. पर वह उन चांदी के बरतनों को भुला नहीं पा रहे थे, जो सेठ बीरूमल के पिता की तेरहवीं में मिले थे. आखिर सेठों के बाप रोजरोज तो मरते नहीं.

पंडितजी अभी यह दुखड़ा भूले भी नहीं थे कि एक रोज उन के पीछे एक तिलकधारी 20 किलो दूध से भरी बालटी लिए उन के घर पहुंच गया और पंडितानी से बोला, ‘‘पंडितजी ने गाय खरीदी है. उसी का दूध भेजा है और 10 हजार रुपए लाने को कहा है.’’

घर में दूध आए तो कौन मना करता है, फिर पंडितानी की आंखों के सामने तो एक बढि़या गाय की तसवीर उभर रही थी. ऐसे में उन्होंने ज्यादा पूछताछ करने की जरूरत नहीं समझी. दूध की बालटी हिफाजत से रख कर पंडितानी ने संदूकची में रखे बंडलों में से 10 हजार रुपयों का एक बंडल दूध लाने वाले को दे दिया.

पंडितानी ने दूध को खूब औटाया और मावे की महक से मस्त हो गई. वह गाय को कहां बांधेगी, यही सोच रही थी कि पंडितजी और बच्चे वहां आ पहुंचे.

पंडितानी ने खुश हो कर पूछा, ‘‘गाय कहां बांध आए जी? मैं तो उस की आरती उतारने के लिए उतावली हो रही थी.’’

पंडितजी को लगा कि आज फिर घर में सेंध लग गई. उन्होंने सवालिया नजरों से अपनी प्यारी पंडितानी की ओर देखा. वह खुशी से चहकते हुए बोली, ‘‘जिन के दरवाजे पर गौ माता बंधी रहती है, वे लोग खुशनसीब होते हैं जी.’’

मगर यह पहेली पंडितजी को कतई समझ नहीं आ रही थी.

‘‘तुम किस गाय की बात कर रही हो?’’ पंडितजी ने ठहरी आवाज में पूछा.

‘‘वही, जिस का दूध आज शाम को आप ने भेजा था. वह भला आदमी तो स्टील की बालटी भी वापस नहीं ले गया. उसी ने तो बताया था कि आप ने गाय खरीदी है और 10 हजार रुपए मंगवाए हैं.’’

पंडितजी की आंखों का फ्यूज अचानक उड़ गया. उन्होंने दोनों हाथ अपनी छाती पर मारे और धड़ाम से जमीन पर गिर गए. लगता था कि अब वे कभी नहीं उठेंगे, मगर उन की बीवी को 7 पूतों का कोटा पूरा करना था और अभी तो कुल जमा 6 ही थे, इसलिए पंडितजी को उठना ही पड़ा.

‘‘10 हजार रुपए,’’ पंडितजी के मुंह से निकला. उन्होंने मिमियाती आवाज में कहा, ‘‘मैं ने पाईपाई जमा कर के यह रकम जोड़ी थी. मेरे साथ यह क्या हो गया?’’

अब तो थाने जाए बिना गुजारा नहीं था. पता नहीं, वह ठग क्यों उन के पीछे लगा था. रपट लिखतेलिखवाते आधी रात बीत गई. दारोगाजी बारबार ठग का हुलिया पूछते, पर पंडितजी क्या बताते. उन्हें उस के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था. पंडितानी ने भी चोर का चेहरा ठीक से नहीं देखा था.

जिस ने भी यह किस्सा सुना, उस ने पंडितजी के साथ हमदर्दी जताई, पर इस से उन का घाटा पूरा होने वाला नहीं था. पर चारा भी क्या था. वह थकहार कर बैठ गए.

एक शाम को फिर 2 लड़के पंडितजी के घर पहुंचे और पंडितानी से बोले, ‘‘पंडितजी थाने में बैठे हैं. दारोगाजी ने ठग को पकड़ लिया है. आप को चल कर पहचान करनी है.’’

भोलीभाली पंडितानी फिर झांसे में आ गई और तुरंत थाने चल दी. फिर वह कहां गई, किसी को कुछ मालूम नहीं.

Family Story : वापसी

Family Story : पूरे देश में अब अनलौक की शुरुआत हो चुकी थी. औफिस, बाजार वगैरह खुल गए थे. लौकडाउन के दौरान बड़े पैमाने पर काम से लोगों की हुई छंटनी का असर हर तरफ दिख रहा था.

लौकडाउन के समय भारी तादाद में मजदूर अपनेअपने गांव लौट गए थे. गांवों के हालात कोई अच्छे नहीं थे. वहां का समाज अपने लोगों को काम और भोजन मुहैया करा पाने में नाकाम साबित हुआ था. लिहाजा, मजदूर फिर से वापस शहरों की तरफ रुख कर रहे थे. उसी शहर की तरफ जिस ने मुसीबत में सब से पहले उन का साथ छोड़ा था.

दूसरे मजदूरों की तरह अब्दुल भी लौकडाउन में परिवार समेत अपने गांव लौट आया था. उस ने तय कर लिया था कि अब वह नोएडा कभी वापस नहीं जाएगा. पीढि़यों से जिस गांव में उस का परिवार रहता आया हो, वहां उसे दो जून की रोटी कमाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.

नोएडा में अब्दुल एक बहुमंजिला औफिस के बाहर सड़क के किनारे चाय का छोटा सा स्टाल लगाता था, जिस से वह इतना कमा लेता था कि परिवार का गुजारा चल जाता था. यह बात उस को मालूम थी कि गांव में केवल खेती के मौसम में ही काम आसानी से मिल पाता?है. खेती के मौसम के बाद बाकी के महीनों में वह गांव से सटे ब्लौक में चाय का स्टाल लगाया करेगा. गांव में खर्च भी कम होता है, तो उस का काम कम आमदनी में भी चल जाएगा.

धान रोपनी के मौसम में अब्दुल और उस की बीवी को धान बोने का काम मिल गया. 2 महीने आराम से कट गए. धान रोपनी के बाद अब्दुल फिर से बेरोजगार हो गया था. उस ने अपनी छोटी सी जमापूंजी से एक ठेला खरीदा और ब्लौक के एक नुक्कड़ के पीछे चाय का स्टाल लगाना शुरू कर दिया.

कुछ ही दिनों में अब्दुल का धंधा चल निकला. आमदनी ठीकठाक होने लगी. यह सोच कर अब्दुल बहुत खुश था कि परिवार का पेट पालने के लिए अब उसे अपना गांव छोड़ कर कहीं नहीं जाना पड़ेगा.

हालांकि अब्दुल को उसे इलाके के लोग पहचानते थे, फिर भी उस की कमाई कुछ लोगों को खटकने लगी थी. पहले किसी ने कल्पना ही नहीं की थी कि नुक्कड़ के पीछे के एक कोने में भी कोई कामधंधा चल सकता है.

एक दिन कुछ लोफर लड़के बाइक से उस के स्टाल पर आए और उन में से एक लड़के ने, जो खुद को नेता समझता था, अब्दुल से कड़क आवाज में पूछा, ‘‘यहां तुम्हें किस ने ठेला लगाने की इजाजत दी है?’’

‘‘मालिक, यह जगह खाली थी तो रोजीरोटी कमाने के लिए मैं यहां ठेला लगाने लगा,’’ अब्दुल सहमते हुए बोला.

‘‘पता है न कि आगे नुक्कड़ पर देवी स्थान है?’’

‘‘जी…’’

‘‘फिर यह जगह हिंदुओं की हुई न. यहां किसी गैरहिंदू का होना इस जगह को अपवित्र कर रहा है. तुम इस जगह को खाली कर कहीं और अपना कामधंधा करो. समझ गए न…’’ दूसरे लड़के ने धमकाते हुए कहा.

फिर वे लड़के वहां से तेजी से मोटरसाइकिल घुमाते हुए निकल गए. अब्दुल उन लड़कों में से एक को पहचान गया था. वह लड़का उस के बेटे शकील का दोस्त था. जब शकील जिंदा था, तो वह उस के घर आयाजाया करता था.

शकील नोएडा में राजमिस्त्री का काम करता था. 2 साल पहले नोएडा में एक बहुमंजिला इमारत के बनने के दौरान हुए एक हादसे में उस की मौत हो गई थी. उन शोहदों की धमकी से अब्दुल डर गया था. फिर उस ने खुद को समझाया कि ये बच्चे जानबूझ कर मजे के लिए ऐसी हरकत कर रहे होंगे. शायद अब वह दोबारा आएंगे भी नहीं.

‘‘यह गांवसमाज सब का है. 50 साल की उम्र में मैं ने अपने गांव या आसपास के गांवों में कभी हिंदूमुसलमान होते नहीं देखा है. बिरजू काका, छोटा काकी, मूलचंद दादा जैसे बड़ेबुजुर्गों की छांव में राम नारायण, बेचू, महेंद्र जैसे कितनों दोस्तों के साथ मैं ने हंसीखुशी अपनी जिंदगी गुजारी है.

‘‘नदी में नहाना हो या बाग में घुस कर आम चुराना, ताजिया देखने जाना हो या दुर्गा पूजा का मेला देखने, मजहब की पहचान कभी आड़े नहीं आई. होली और ईद सब ने मिल कर साथ मनाई,’’ शाम में घर जाते हुए अब्दुल सोच रहा था.

अब्दुल उन गुंडों की बात को उन की दिल्लगी समझ कर भूल गया और उसी जगह पर ठेला लगाता रहा.

2-4 दिन बाद वही गुंडे फिर से आए और उन में से एक फट पड़ा, ‘‘ऐ बूढ़े, अपनी जान प्यारी नहीं है क्या? समझाया था न कि यह जगह हिंदुओं की है, सो अब यहां से हट कर कहीं और अपना ठेला लगाओ.’’

‘‘यह जमीन सरकारी है. यह सिर्फ हिंदुओं की नहीं, सब की है,’’ अब्दुल ने हिम्मत दिखाते हुए जवाब दिया.

अब्दुल के जवाब को सुन कर वे लोग तिलमिला उठे. वे अब्दुल से गालीगलौज करने लगे. उन में से एक ने अब्दुल को 2 थप्पड़ जड़ दिए.

यह मजमा देखने के लिए लोगों की भीड़ लग गई. भीड़ से एक दबी सी आवाज आई कि किसी निहत्थे आदमी को इस तरह मारना गलत है.

यह सुन कर नेताटाइप लड़का चिल्लाया, ‘‘हमारे हिंदू धर्म की बेइज्जती करता है. हम लोगों से ही इस की रोजीरोटी चलती है और ये हमारे ही देवीदेवता के बारे में अनापशनाप बकता?है.’’

उस लड़के की बात सुन कर अब्दुल अवाक रह गया. उस ने तो धर्म के नाम पर एक शब्द भी नहीं बोला था. वह अपने बचाव में कुछ कहना चाह रहा था. लेकिन कोई सुनने को तैयार ही नहीं था. लड़कों के लातमुक्कों से वह बेहोश हो रहा था.

अब्दुल ने हिंदू देवीदेवताओं की बेइज्जती की है, यह सुन कर भीड़ गुस्सा हो गई थी. हालांकि कुछ लोग अब्दुल को बचाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उन्हें भी विरोध का सामना करना पड़ रहा था.

अब्दुल बुरी तरह लहूलुहान हो कर सड़क के किनारे तड़प रहा था. भीड़ में से किसी ने अब्दुल को अस्पताल तक पहुंचा दिया. मरहमपट्टी करा कर अब्दुल एक बिस्तर पर लेट गया.

‘अगर राम नारायण या महेंद्र में से कोई वहां होता, तो उन लोगों की मजाल नहीं होती कि मुझे पीट सके. अपनी जवानी के दिनों में अपने दोस्तों साथ मिल कर न जाने कितनी शरारतें की थीं. बिरजू काका की तंबाकू चुरा कर दोस्तों के साथ हुक्का पीने का मजा ही कुछ और था,’ बिस्तर पर लेटेलेटे अब्दुल पुराने दिन याद कर रहा था.

इस वारदात की खबर मिलते ही अब्दुल के समुदाय के कुछ लोग उस से मिलने अस्पताल आए. अब्दुल के साथ हुई हैवानियत का बदला लेने के लिए उन में से कुछ लोग उतावले थे.

अब्दुल उन लोगों की मंशा समझ गया कि ये लोग सिर्फ अपने निजी फायदे को पूरा करने के लिए इस मौके का भुनाना चाह रहे हैं.

‘‘चाचाजान, आप हम लोगों के साथ सिर्फ खड़े रहो, फिर देखो कि हम खून का बदला खून से कैसे लेते हैं,’’ एक नौजवान गुस्से में बोल रहा था.

‘तो ये गुंडेटाइप के नेता हर जगह पैदा हो गए हैं. जब मैं लौकडाउन में गांव लौटा, तो इन में से किसी ने मेरी कोई खोजखबर नहीं ली. अब अपनी नेतागीरी चमकाने के लिए आज अचानक से ये मेरे हिमायती बन कर आ गए हैं,’ अब्दुल ने यह सोचते हुए आंखें बंद कर लीं और कोई जवाब नहीं दिया.

उन तथाकथित नेताओं को अब्दुल से कोई मदद नहीं मिली. वे बैरंग लौट गए.

2 हफ्ते के बाद अब्दुल को अस्पताल से छुट्टी मिली. अस्पताल से लौटते हुए उस ने देखा कि जिस जगह पर वह स्टाल लगाया करता था, वहां किसी और का स्टाल लगा हुआ था. वह समझ गया कि यह सारा तमाशा उस जगह को हथियाने के लिए किया गया था.

धर्म को तो बस हथियार बनाया गया. उस को इस बात का मलाल था कि उस की पिटाई उस अपराध के लिए हुई, जो उस ने कभी की ही नहीं थी. सिर्फ धर्म का नाम ले लेने पर कोई और उसे बचाने के लिए आगे नहीं आया.

वह यह भी समझ रहा था कि वहां मौजूद सभी लोग वैसे नहीं रहे होंगे, पर उन गुंडों के डर से किसी ने कुछ बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई होगी.

नोएडा में काम करते हुए जब अब्दुल ने अखलाक और तबरेज की हत्या की वारदात के बारे में सुना था, तो उसे अपने गांवसमाज की याद आई थी. उसे गर्व होता था कि उस के गांव में सांप्रदायिकता की विषबेल नहीं फैली थी और ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं थी.

अब्दुल हमेशा सपना देखा करता था कि कुछ पैसे कमा कर वह वापस अपने गांव चला जाएगा. लौकडाउन में अब्दुल उसी समाज के भरोसे परिवार समेत वापस आ गया था. पर वह समाज उसे अब कहीं दिखाई नहीं दे रहा था.

अब्दुल का दिल टूट गया था. गांव के नौजवान भी इस घटना का कुसूरवार उसे ही ठहरा रहे थे. भरे मन से अब्दुल ने परिवार समेत नोएडा वापस लौटने का फैसला किया.

ट्रेन में बैठने से पहले अब्दुल ने पीछे मुड़ कर भरे मन से अपने गांव की ओर देखा और फिर आंख पोंछते हुए अपनी सीट पर आ कर बैठ गया.

ट्रेन ने जैसे ही रफ्तार पकड़ी, अब्दुल के सब्र का बांध टूट गया. वह दहाड़ें मार कर रोने लगा.

लेखक – सुजीत सिन्हा

Social Story : साथी – वे 9 गूंगे-बहरे

Social Story : वे 9 थे. 9 के 9 गूंगे-बहरे. वे न तो सुन सकते थे, न ही बोल सकते थे. पर वे अपनी इस हालत से न तो दुखी थे, न ही परेशान. सभी खुशी और उमंग से भरे हुए थे और खुशहाल जिंदगी गुजार रहे थे. वजह, सब के सब पढ़ेलिखे और रोजगार से लगे हुए थे. अनंत व अनिल रेलवे की नौकरी में थे, तो विकास और विजय बैंक की नौकरी में. प्रभात और प्रभाकर पोस्ट औफिस में थे, तो मुकेश और मुरारी प्राइवेट फर्मों में काम करते थे. 9वां अवधेश था. वह फलों का बड़े पैमाने पर कारोबार करता था.

अवधेश ही सब से उम्रदराज था और अमीर भी. जब उन में से किसी को रुपएपैसों की जरूरत होती थी, तो वे अवधेश के पास ही आते थे. अवधेश भी दिल खोल कर उन की मदद करता था. जरूरत पूरी होने के बाद जैसे ही उन के पास पैसा आता था, वे अवधेश को वापस कर देते थे. वे 9 लोग आपस में गहरे दोस्त थे और चाहे कहीं भी रहते थे, हफ्ते के आखिर में पटना की एक चाय की दुकान पर जरूर मिलते थे. पिछले 5 सालों से यह सिलसिला बदस्तूर चल रहा था.

वे सारे दोस्त शादीशुदा और बालबच्चेदार थे. कमाल की बात यह थी कि उन की पत्नियां भी मूक और बधिर थीं. पर उन के बच्चे ऐसे न थे. वे सामान्य थे और सभी अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे थे.

सभी दोस्त शादीसमारोह, पर्वत्योहार में एकदूसरे के घर जाते थे और हर सुखदुख में शामिल होते थे. वक्त की रफ्तार के साथ उन की जिंदगी खुशी से गुजर रही थी कि अचानक उन सब की जिंदगी में एक तूफान उठ खड़ा हुआ.

इस बार जब वे लोग उस चाय की दुकान पर इकट्ठा हुए, तो उन में अवधेश नहीं था. उस का न होना उन सभी के लिए चिंता की बात थी. शायद यह पहला मौका था, जब उन का कोई दोस्त शामिल नहीं हुआ था.

वे कई पल तक हैरानी से एकदूसरे को देखते रहे, फिर अनंत ने इशारोंइशारों में अपने दूसरे दोस्तों से इस की वजह पूछी. पर उन में से किसी को इस की वजह मालूम न थी.

वे कुछ देर तक तो खामोश एकदूसरे को देखते रहे, फिर अनिल ने अपनी जेब से पैड और पैंसिल निकाली और उस पर लिखा, ‘यह तो बड़े हैरत की बात है कि आज अवधेश हम लोगों के बीच नहीं है. जरूर उस के साथ कोई अनहोनी हुई है.’

लिखने के बाद उस ने पैड अपने दोस्तों की ओर बढ़ाया. उसे पढ़ने के बाद प्रभात ने अपने पैड पर लिखा,

‘पर क्या?’

‘इस का तो पता लगाना होगा.’

‘पर कैसे?’

‘अवधेश को मैसेज भेजते हैं.’

सब ने रजामंदी में सिर हिलाया. अवधेश को मैसेज भेजा गया. सभी दोस्त मैसेज द्वारा ही एकदूसरे से बातकरते थे, जब वे एकदूसरे से दूर होते थे. पर मैसेज भेजने के बाद जब घंटों बीत गए और अवधेश का कोई जवाब न आया, तो सभी घबरा से गए.

सभी ने तय किया कि अवधेश के घर चला जाए. अवधेश का घर वहां से तकरीबन 5 किलोमीटर दूर था.

अवधेश के आठों दोस्त उस के घर पहुंचे. उन्होंने जब उस के घर का दरवाजा खटखटाया, तो अवधेश की पत्नी आभा ने दरवाजा खोला. दरवाजे पर अपने पति के सारे दोस्तों को देखते ही आभा की आंखें आंसुओंसे भरती चली गईं.

आभा को यों रोते देख उन के मन  में डर के बादल घुमड़ने लगे. उन्होंने इशारोंइशारों में पूछा, ‘अवधेश है घर पर?’

आभा ने सहमति में सिर हिलाया, फिर उन्हें ले कर अपने बैडरूम में आई. बैडरूम में अवधेश चादर ओढ़े आंखें बंद किए लेटा था.

आभा ने उसे झकझोरा. उस ने सभी दोस्तों को अपने कमरे में देखा, तो उस की आंखों में हैरानी के भाव उभरे. वह उठ कर बिछावन पर बैठ गया. पर उस की आंखों में उभरे हैरानी के भाव कुछ देर ही रहे, फिर उन में वीरानी झांकने लगी. वह खालीखाली नजरों से अपने दोस्तों को देखने लगा. ऐसा करते हुए उस के चेहरे पर उदासी और निराशा के गहरे भाव छाए हुए थे.

उस के दोस्त कई पल तक बेहाल अवधेश को देखते रहे, फिर विजय ने उस से इशारोंइशारों में पूछा, ‘यह तुम ने अपना क्या हाल बना रखा है? हुआ क्या है? आज तुम हम से मिलने भी नहीं आए?’

अवधेश ने कोई जवाब नहीं दिया. वह बस खालीखाली नजरों से उन्हें देखता रहा. उस के बाकी दोस्तों ने भी उस की इस बेहाली की वजह पूछी, पर वह खामोश रहा.

अपनी हर कोशिश में नाकाम रहने पर उन्होंने आभा से पूछा, तो उस ने पैड पर लिखा, ‘मुझे भी इन की खामोशी और उदासी की पूरी वजह मालूम नहीं, जो बात मालूम है, उस के मुताबिक इन्हें अपने कारोबार में घाटा हुआ है.’

‘क्या यह पहली बार हुआ है?’ विकास ने अपने पैड पर लिखा.

‘नहीं, ऐसा कई बार हुआ है, पर इस से पहले ये कभी इतना उदास और निराश नहीं हुए.’

‘फिर, इस बार क्या हुआ है?’

‘लगता है, इस बार घाटा बहुत ज्यादा हुआ है.’

‘यही बात है?’ लिख कर विकास ने पैड अवधेश के सामने किया.

पर अवधेश चुप रहा. सच तो यह था कि कारोबार में लगने वाले जबरदस्त घाटे ने उस की कमर तोड़ दी थी और वह गहरे डिप्रैशन का शिकार हो गया था.

जब सारे दोस्तों ने उस पर मिल कर दबाव डाला, तो अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘घाटा पूरे 20 लाख का है.’

जब अवधेश ने पैड अपने दोस्तों के सामने रखा, तो उन की भी आंखें फटने को हुईं.

‘पर यह हुआ कैसे…?’ अनंत ने अपने पैड पर लिखा.

एक बार जब अवधेश ने खामोशी तोड़ी, तो फिर सबकुछ बताता चला गया. उस ने एक त्योहार पर बाहर से 20 लाख रुपए के फलों की बड़ी खेप मंगवाई थी. पर कश्मीर से आने वाले फलों के ट्रक बर्फ खिसकने के चलते 15 दिनों तक जाम में फंस गए और फल बरबाद हो गए.

‘तो क्या तुम ने इतने बड़े सौदे का इंश्योरैंस नहीं कराया था?’

‘नहीं. चूंकि यह कच्चा सौदा है, सो इंश्योरैंस कंपनियां अकसर ऐसे सौदे का इंश्योरैंस नहीं करतीं.’

‘पर ट्रांसपोर्ट वालों पर तो इस की जिम्मेदारी आती है. क्या वे इस घाटे की भरपाई नहीं करेंगे?’

‘गलती अगर उन की होती, तो उन पर यह जिम्मेदारी जाती, पर कुदरती मार के मामले में ऐसा नहीं होता.’

‘और जिन्होंने यह माल भेजा था?’

‘उन की जिम्मेदारी तो तभी खत्म हो जाती है, जब वे माल ट्रकों में भरवा कर रवाना कर देते है.’

‘और माल की पेमेंट?’

‘पेमेंट तो तभी करनी पड़ती है, जब इस का और्डर दिया जाता है. थोड़ीबहुत पेमेंट बच भी जाती है, तो माल रवाना होते ही उस का चैक भेज दिया जाता है.’

‘पेमेंट कैसे होती है?’

‘ड्राफ्ट से.’

‘क्या तू ने इस माल का पेमेंट कर दिया था?’

‘हां.’

‘ओह…’

‘तू यहां घर पर है. दुकान और गोदाम का क्या हुआ?’

‘बंद हैं.’

‘बंद हैं, पर क्यों?’

‘तो और क्या करता. वहां महाजन पहुंचने लगे थे?’

‘क्या मतलब?’

‘इस सौदे का तकरीबन आधा पैसा महाजनों का ही था.’

‘यानी 10 लाख?’

‘हां.’

इस खबर से सब को सांप सूंघ गया. कमरे में एक तनावभरी खामोशी छा गई. काफी देर बाद अनंत ने यह खामोशी तोड़ी. उस ने पैड पर लिखा, ‘पर इस तरह से दुकान और गोदाम बंद कर देने से क्या तेरी समस्या का समाधान हो जाएगा?’

‘पर दुकान खोलने पर महाजनों का तकाजा मेरा जीना मुश्किल कर देगा.’

‘ऐसे में वे तकाजा करना छोड़ देंगे क्या?’

‘नहीं, और मेरी चिंता की सब से बड़ी वजह यही है. उन में से कुछ तो घर पर भी पहुंचने लगे हैं. अगर कुछ दिन तक उन का पैसा नहीं दिया गया, तो वे कड़े कदम भी उठा सकते हैं.’

‘जैसे?’

‘वे अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं. मुझे जेल भिजवा सकते हैं.’

मामला सचमुच गंभीर था. बात अगर थोड़े पैसों की होती, तो शायद वे कुछ कर सकते थे, पर मामला 20 लाख रुपयों का था. सो उन का दिमाग काम नहीं कर रहा था. पर इस बड़ी समस्या का कुछ न कुछ हल निकालना ही था, सो अनंत ने लिखा, ‘अवधेश, इस तरह निराश होने से कुछ न होगा. तू ऐसा कर कि महाजनों को अगले रविवार अपने घर बुला ले. हम मिलबैठ कर इस समस्या का कोई न कोई हल निकालने की कोशिश करेंगे.’

अगले रविवार को अवधेश के सारे दोस्त उस के ड्राइंगरूम में थे. 4 महाजन भी थे. अवधेश एक तरफ पड़ी कुरसी पर चुपचाप सिर झुकाए बैठा था. उस के पास ही उस की पत्नी आभा व 10 साला बेटा दीपक खड़ा था. थोड़ी देर पहले आभा ने सब को चाय पिलाई थी. आभा के बहुत कहने पर महाजनों ने चाय को यों पीया था, जैसे जहर पी रहे हों.

थोड़ी देर तक सब खामोश बैठे थे. वे एकदूसरे को देखते रहे, फिर एक महाजन, जिस का नाम महेशीलाल था, बोला, ‘‘अवधेश, तुम ने हमें यहां क्यों बुलाया है और ये लोग कौन हैं?’’

दीपक ने उसकी बात इशारों में अपने पिता को समझाई, तो अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘ये मेरे दोस्त हैं और मैं इन के जरीए आप के पैसों के बारे में बात करना चाहता हूं.’

महाजनों ने बारीबारी से उस की लिखी इबारत पढ़ी, फिर वे चारों उस के दोस्तों की ओर देखने लगे. बदले में अनंत ने लिख कर अपना और दूसरे लोगों का परिचय उन्हें दिया. उन का परिचय पा कर महाजन हैरान रह गए. एक तो यही बात उन के लिए हैरानी वाली थी कि अवधेश की तरह उस के दोस्त भी मूक और बधिर थे. दूसरे, वे इस बात से हैरान थे कि सब के सब अच्छी नौकरियों में लगे हुए थे.

चारों महाजन कई पल तक हैरानी से उन्हें देखते रहे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हमें यह जान कर खुशी भी हुई और हैरानी भी कि आप अपने दोस्त की मदद करना चाहते हैं. पर हम करोबारी हैं. पैसों के लेनदेन का कारोबार करते हैं. सो, आप के दोस्तों ने कारोबार के लिए हम से जो पैसे लिए थे, वे हमें वापस चाहिए.’

‘आप अवधेश के साथ कितने दिनों से यह कारोबार कर रहे हैं?’ अनंत ने लिखा.

‘3 साल से.’

‘क्या अवधेश ने इस से पहले कभी पैसे लौटाने में आनाकानी की? कभी इतनी देर लगाई?’

‘नहीं.’

‘तो फिर इस बार क्यों? इस का जवाब आप भी जानते हैं और हम भी. अवधेश का माल जाम में फंस कर बरबाद हो गया और इसे 20 लाख रुपए का घाटा हुआ. आप लोगों के साथ यह कई साल से साफसुथरा कारोबार करता रहा है. अगर इस ने आप लोगों की मदद से लाखों रुपए कमाए हैं, तो आप ने भी इस के जरीए अच्छा पैसा बनाया है. अब जबकि इस पर मुसीबत आई है, तब क्या आप का यह फर्ज नहीं बनता कि आप लोग इस मुसीबत से उबरने में इस की मदद करें? इसे थोड़ी मुहलत और माली मदद दें, ताकि यह इस मुसीबत से बाहर आ सके?’

यह लिखा देख चारों महाजन एकदूसरे का मुंह देखने लगे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हम कारोबारी हैं और कारोबार भावनाओं पर नहीं, बल्कि लेनदेन पर चलता है. अवधेश को घाटा हुआ है तो यह उस का सिरदर्द है, हमें तो अपना पैसा चाहिए.’

‘कारोबार भावनाओं पर ही चलता है, यह गलत है. हम भी अपने बैंक से लोगों को कर्ज देते हैं. अगर किसानों की फसल किसी वजह से बरबाद हो जाती है, तो हम कर्ज वसूली के लिए उन्हें कुछ समय देते हैं या फिर हालात काफी बुरे होने पर कर्जमाफी जैसा कदम भी उठाते हैं.

‘आप अगर चाहें, तो अवधेश के खिलाफ केस कर सकते हैं, उसे जेल भिजवा सकते हैं. पर इस से आप को आप का पैसा तो नहीं मिलेगा. दूसरी हालत में हम आप से वादा करते हैं कि आप का पैसा डूबेगा नहीं. हां, उस को चुकाने में कुछ वक्त लग सकता है.’

कमरे का माहौल अचानक तनाव से भर उठा. चारों महाजन कई पल तक एकदूसरे से रायमशवरा करते रहे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हम अवधेश को माली मदद तो नहीं, पर थोड़ा समय जरूर दे सकते हैं.’

‘थैंक्यू.’

थोड़ी देर बाद जब महाजन चले गए, तो दोस्तों ने अवधेश की ओर देखा और पैड पर लिखा, ‘अब तू क्याकहता है?’

अवधेश ने जो कहा, उस के अंदर की निराशा को ही झलकाता था. उस का कहना था कि समय मिल जाने से क्या होगा? उन महाजनों का पैसा कैसे लौटाया जाएगा? उस का कारोबार तो चौपट हो गया है. उसे जमाने के लिए पैसे चाहिए और पैसे उस के पास हैं नहीं.

‘हम तुम्हारी मदद करेंगे.’

‘पर कितनी, 5 हजार… 10 हजार. ज्यादा से ज्यादा 50 हजार, पर इस से बात नहीं बनती.’

इस के बाद भी अवधेश के दोस्तों ने उसे काफी समझाया. उसे उस की पत्नी और बच्चों के भविष्य का वास्ता दिया, पर निराशा उस के अंदर यों घर कर गई थी कि वह कुछ करने को तैयार न था.

आखिर में दोस्तों ने अवधेश की पत्नी आभा से बात की. उसे इस बात के लिए तैयार किया कि वह कारोबार संभाले. उन्होंने ऐसे में उसे हर तरह की मदद करने का वादा किया. कोई और रास्ता न देख कर आभा ने हां कर दी.

बैठ चुके कारोबार को खड़ा करना कितना मुश्किल है, यह बात आभा को तब मालूम हुई, जब वह ऐसा करने को तैयार हुई. वह कई बार हताश हुई, कई बार निराश हुई, पर हर बार उस के पति के दोस्तों ने उसे हिम्मत बंधाई.

उन से हिम्मत पा कर आभा दिनरात अपने कारोबार को संभालने में लग गई. फिर पर्वत्योहार के दिन आए. आभा ने फलों की एक बड़ी डील की. उस की मेहनत रंग लाई और उसे 50 हजार रुपए का मुनाफा हुआ.

इस मुनाफे ने अवधेश के निराश मन में भी उम्मीद की किरण जगा दी और वह भी पूरे जोश से कारोबार में लग गया. किस्तों में महाजनों का कर्ज उतारा जाने लगा और फिर वह दिन भी आ गया, जब उन की आखिरी किस्त उतारी जानी थी.

इस मौके पर अवधेश के सारे दोस्त इकट्ठा थे. जगह वही थी, लोग वही थे, पर माहौल बदला हुआ था. पहले अवधेश और आभा के मन में निराशा का अंधेरा छाया हुआ था, पर आज उन के मन में आशा और उमंग की ज्योति थी.

महाजन अपनी आखिरी किस्त ले कर ड्राइंगरूम से निकल गए, तो आभा अवधेश के दोस्तों के सामने आई और उन के आगे हाथ जोड़ दिए. ऐसा करते हुए उस की आंखों में खुशी के आंसू थे.

अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘दोस्तो, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आप लोगों का यह एहसान कैसे उतारूंगा.’

उस के दोस्त कई पल तक उसे देखते रहे, फिर अनंत ने लिखा, ‘कैसी बातें करता है तू? दोस्त दोस्त पर एहसान नहीं करते, सिर्फ  दोस्ती निभाते हैं और हम ने भी यही किया है.’

थोड़ी देर वहां रह कर वे सारे दोस्त कमरे से निकल गए. आभा कई पल तक दरवाजे की ओर देखती रही, फिर अपने पति के सीने से लग गई.

Family Story : सूनापन – ऋतु को क्या था अफसोस

Family Story : सुबह से ही ऋतु उदास थीं. वे बारबार घड़ी की तरफ देखतीं. उन्हें ऐसा महसूस होता कि घड़ी की सूइयां आगे खिसकने का नाम ही नहीं ले रहीं. मानो घर की दीवारें भी घूरघूर कर देख रही हों और फर्श नाक चढ़ा कर चिढ़ाता हुआ कह रहा हो, ‘देखो, हूं न बिलकुल साफसुथरा, चमक रहा हूं न आईने की तरह और तुम देख लो अपना चेहरा मुझ में, शायद तुम्हारे चेहरे के तनाव से बनी झुर्रियां इस में साफ नजर आएं.’ और वे ज्यादा देर घर की काटने को दौड़ती हुई दीवारों के बीच न बैठ पाईं.

वे एक किताब ले कर बाहर लौन में आ कर बैठ गईं. बाहर चलती हवाएं बालों को जैसे सहला रही थीं किंतु मन था कि पुस्तक से बारबार विचलित हो जाता. वे लगीं शून्य में ताकने और पहुंच गईं 20 वर्ष पीछे. सबकुछ उन की नजरों के सामने घूम रहा था.

बेटा 10 वर्ष और बिटिया मात्र 7 वर्ष की थी उस वक्त. छुट्टी का दिन था और वे चीख रही थीं अपने छोटेछोटे 2 बच्चों पर, सारा घर फैला पड़ा था, इधर खिलौने, उधर किताबें, गीला तौलिया बिस्तर पर और जूते शू रैक से बाहर फर्श पर. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे घर में अलमारियों से बाहर निकल कर सामान की सूनामी आ गई हो. वे थीं बहुत सफाईपसंद. सो, वह दृश्य देख उन से रहा न गया और चीख पड़ीं अपने बच्चों पर, ‘घर है या कूड़ेदान? कहां कदम रख कर चलूं, कुछ समझ नहीं आ रहा. न जाने बच्चे हैं कि शैतान…’

दोनों बच्चे बेचारे उन की चीख सुन कर सहम गए और ‘सौरी मम्मा, सौरी मम्मा’ कह रहे थे. फिर भी वे उन्हें डांट रही थीं, कह रही थीं, ‘क्या मैं तुम्हारी नौकरानी हूं? तुम लोग अपना सामान जगह पर क्यों नहीं रखते?’ बेटी मिन्ना डर कर झटझट सामान जगह पर रखने लगी थी और बेटा अपनी कहानियों की किताबें जमा रहा था.

हां, उन के पति अनूप जरूर नाराज हो गए थे उन के चीखने से. वे कहने लगे थे, ‘ऋतु, यह घर है, होटल नहीं. घर में 4 लोग रहेंगे तो थोड़ा तो बिखरेगा ही. यह सुन कर ऋतु और भी ज्यादा नाराज हो गईं और अपने पति को टोकते हुए कह रही थीं, ‘तुम्हारी स्वयं की ही आदत है घर को फैलाने की. वरना, क्या तुम बच्चों को न टोकते’

अनूप ने धड़ से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया था और ऋतु ने छुट्टी का पूरा दिन अलमारियां और बच्चों के खिलौने व किताबें जमाने में बिता दिया था. वे लाख सोचतीं कि छुट्टी के दिन बच्चों को कुछ न कहूंगी, घर बिखरा पड़ा रहे मेरी बला से, किंतु सफाई की आदत से मजबूर हो उन से रहा ही न जाता और अब यह हर छुट्टी के दिन का रूटीन बन गया था. बच्चे भी सुनसुन कर शायद ढीठ हो गए थे और बड़े होते जा रहे थे.

अनूप कभी कहते कि तुम अपना ध्यान कहीं दूसरी जगह भी लगाओ, बच्चों को करने दो वे जो करना चाहें. किंतु ऋतु को तो घर में हर चीज अपनी जगह पर चाहिए थी और पूरी तरह से व्यवस्थित भी. सो, लगी रहतीं अकेली वे उसी में और अंदर ही अंदर कुढ़ती भी रहतीं. एक तरफ से उन का कहना भी सही था कि हम महंगेमहंगे सामान घर में लाते हैं इसीलिए न कि घर अच्छा लगे, न कि कूड़ेदान सा. किंतु हर बात की एक अपनी सीमा होती है. सो, अनूप चुप रहने में ही अपनी भलाई समझते.

ऋतु अपना दिल मानो घर में ही लगा बैठी थीं. विवाह के बाद एक ही साल में बेटे का जन्म हो गया और ऋतु ने अपना पूरा ध्यान बेटे की परवरिश व गृहस्थी को संभालने में लगा दिया था. उम्र बढ़ती जा रही थी, साथ ही साथ, बच्चे भी. घर पहले की अपेक्षा व्यवस्थित रहने लगा था.

वक्त मानो पंख लगा उड़ता जा रहा था और ऋतु के चेहरे की झुर्रियों की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही थी और साथ ही मन में बढ़ती कड़वाहट भी. उन्होंने अपना पूरा ध्यान सिर्फ घर को सजाने, बच्चों को पढ़ाने, उन्हें अच्छे संस्कार देने व अनुशासित करने में ही लगा दिया. इन सब के चलते शायद वे यह भी भूल गईं कि खुशी भी एक शब्द होता है और कई बार हमें दूसरों की खुशियों के लिए अपनी आदतों को छोड़ आपस में सामंजस्य बैठाना पड़ता है.

खैर, जिंदगी ठीक ही चल रही थी. बिलकुल साफसुथरा एवं व्यवस्थित घर, अनुशासित बच्चे और रोज रूटीन से काम करते घर के सभी सदस्य. जब घर में मेहमान आते तो तारीफ किए बिना न रहते उन के घर की व बच्चों की. बस, ऋतु को तो वह तारीफ एक अवार्ड के समान लगती. उन के जाने के बाद वे फूली न समातीं और कहती न थकतीं, ‘देखो, सारा दिन टोकती हूं और लगी रहती हूं घर में, तभी तो सभी तारीफ करते हैं.’

वक्त बीतता गया. बच्चे और बड़े हो गए. बेटा मैडिकल की पढ़ाई पूरी कर अमेरिका चला गया और बेटी विवाह कर विदा हो गई. अब ऋतु रह गईं बिलकुल अकेली. कामवाली एक बार सुबह आ कर घर साफ कर देती तो पूरा दिन वह साफ ही रहता. कोई न बिखेरने वाला, न ही घर की व्यवस्था बिगाड़ने वाला.

सूना घर ऋतु को काटने को दौड़ता. अनूप रिटायर हो गए. वे अपनी किताबों में ही मस्त रहते. ऋतु रह गईं नितांत अकेली. मन भी न लगता, किताबों में अपना ध्यान लगाने की कोशिश करतीं किंतु शांत होते ही एक ही सवाल आता मन में. ‘अब कोई नहीं, घर बिखेरने वाला, क्यों न मैं खेली अपने बच्चों के साथ जब उन्हें मेरी जरूरत थी, क्यों न पढ़ीं कहानियां उन के लिए, घर बिखरा था तो क्यों न रहने दिया, कौन से रोज ही मेहमान आते थे जिन की चिंता में अपने बच्चों के साथ खुशनुमा माहौल न रहने दिया घर का?’

अब घर में तो चिडि़या भी पर नहीं मारती, क्या करूं इस घर का? कभीकभी परेशान हो अपनी बेटी मिन्ना को फोन करतीं, किंतु वह भी हांहूं में ही बात करती. वह तो खुद अपने बच्चों में व्यस्त होती. बेटा अपनी रिसर्च में व्यस्त होता. ऋतु अपने जिस घर को देख कर फूली न समाती थीं, उसी की सूनी दीवारें उन्हें कोसती थीं और कहतीं, ‘लो, बिता लो हमारे साथ वक्त.’

ये सारी बातें याद कर ऋतु उदास थीं. अब, उन्हें अपनी भूल का एहसास हो रहा था. अब वे छोटे बच्चों की माओं से मिलतीं तो कहतीं, ‘‘वक्त बिताओ अपने बच्चों के साथ, उन्हें कहानियां सुनाओ, बच्चे बन जाओ उन के साथ, आप इस के लिए तैयार रहो कि बच्चों का घर है तो बिखरा ही रहेगा. घर को गंदा भी न रखो, किंतु उसी घर में ही न लगे रहो. घर तो हम बच्चों के बड़े होने पर भी मेंटेन कर सकते हैं किंतु बच्चे एक बार बड़े हो गए तो उन के बचपन का वक्त वापस न आएगा, और रह जाओगी मेरे ही तरह उन कड़वी यादों के साथ, जिन से शायद तुम खुद ही डरोगी.’’ ऋतु अब कहती हैं कि बच्चों को तो बड़े हो कर चिडि़या के बच्चों की तरह उड़ ही जाना है, किंतु उन के साथ बिताए पलों की यादों को तो हम संजो कर खुश हो सकते हैं जो नहीं हैं मेरे पास अब, मुझे काटने को आता है यह सूनापन.

Hindi Story : कुछ पहलू और भी हैं

Hindi Story : ‘‘ये कारखाने, आधुनिक मंदिर हैं.’’ जब से नेहरूजी द्वारा यह घोषणा हुई, देश कृषि प्रधान होते हुए भी तीव्र गति से औद्योगीकरण की ओर अग्रसर होता चला गया है. इस औद्योगीकरण का प्रमुख सिद्धांत था, देश के पिछड़े भागों व वर्गों को उन्नति और विकास में बराबर का साझीदार बनाना और वहां रहने वाले आदिवासियों व अनुसूचित जातियों को मुख्य धारा में आने का प्रोत्साहन व अवसर देना.

इन कारखानों की स्थापना से एक साधारण आदिवासी के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा, इस की खोज करने के लिए एक युवा पत्रकार औद्योगिक क्षेत्रों के भ्रमण पर निकल पड़ा. वह देश के कोनेकोने में बिखरे इन आधुनिक मंदिरों में गया और अनेक आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक तथ्य एकत्रित किए. जो परिणाम निकला, उस से वह चकरा गया. ये ही प्रश्न बारबार उस के मस्तिष्क में उठ रहे थे, क्या हम लोग अपने उद्देश्य में सफल हुए हैं? इनसान सचमुच जागृत हो गया है या मानसिक कोढ़ के चंगुल में फंस गया है?

रहरह कर उसे उस निर्मल हृदय व विनम्र वृद्ध आदिवासी से लिया साक्षात्कार याद आ रहा था, जिस का नाम था मुंडा. उस का पुत्र उस समय कारखाने में प्रोन्नति पा कर उपप्रबंधक के पद पर पहुंच गया था. लगातार संघर्ष करने से उस के व्यवहार में एक कड़वाहट थी. उस के दोनों बच्चे गैरआदिवासियों के प्रति आक्रोश, घृणा व उद्दंडता की भावना में जी रहे थे, क्योंकि उन्होंने केवल समृद्धि देखी थी.

पत्रकार ने पूछा, ‘‘मुंडाजी, आप को उस समय की याद होगी, जब यहां कारखाना नहीं था. क्या कुछ वर्णन कर सकते हैं?’’

‘‘हां, याद है. बहुत कुछ याद है,’’ कह कर वह खो सा गया.

पत्रकार ने कुरेदा, ‘‘क्या याद है?’’

‘‘तब यहां कुछ नहीं था,’’ मुंडा ने चारों ओर हाथ फैला कर कहा, ‘‘चारों ओर दूरदूर तक जंगल ही जंगल था.’’

पत्रकार ने मन में सोचा, ‘इस विशाल कारखाने के लिए लाखों एकड़ धरती पर फैले जंगल का विनाश हो गया तो पर्यावरण में असंतुलन तो होगा ही. भट्ठियों से निकलते जहरीले धुएं से वातावरण तो दूषित होगा ही. कारखाने से निष्कासित दूषित जल जब नदी में गिरेगा तो नदी में जीते प्राणी तो मरेंगे ही, साथ में इस जल पर निर्भर रहने वाले मनुष्य अनेक बीमारियों का भी शिकार तो होंगे ही. यह कैसा विकास है?’

‘‘आप लोगों की तब जीविका क्या थी?’’ पत्रकार ने प्रश्न किया.

‘‘कुछ भी नहीं,’’ मुंडा हंसा, ‘‘थोड़ी बहुत खेती करते थे, बाकी समय नाच- गाना, खानापीना और मस्त रहना. कोई चिंता नहीं थी. जंगल हमारा मातापिता और अन्नदाता सबकुछ था. झोंपडि़यों में रहते थे, पर बहुत अच्छा लगता था, बिलकुल स्वतंत्रता से रहते थे.’’

मुंडा को फिर से सपनों के संसार में खोते देख कर पत्रकार ने टोका, ‘‘और अब?’’

‘‘अब यह पक्का मकान है, एकदम जेलखाना लगता है, इस घर से निकल कर बाहर जाएं कहां? फिर से जंगल में खो जाने को जी करता है.’’

‘‘कारखाना और कालोनी बनाने के लिए आप से आप की जमीन तो सरकार ने ली होगी?’’

‘‘हां, सब जमीन ले ली. पर उस का पूरा पैसा भी दिया.’’

‘‘उस पैसे का आप ने क्या किया?’’

मुंडा फिर हंसा, ‘‘हम आदिवासी पैसे का क्या करेंगे? हमारी मुट्ठी में पैसा तो पानी समान है. और मुट्ठी में कई सूराख होते हैं, सब खापी के बराबर कर दिया.’’

पत्रकार ने आगे प्रश्न किया, ‘‘फिर आप की जीविका कैसे चलती थी?’’

‘‘बड़ी मेहरबानी सरकार की,’’ मुंडा ने नम्रता व कृतज्ञता से कहा, ‘‘हम सब को कारखाने में नौकरी दी. नौकरी के लिए योग्यतानुसार प्रशिक्षण दिया. रहने को मकान और बच्चों की शिक्षा के लिए स्कूल, शिक्षा भी मुफ्त. एक पैसा नहीं देना पड़ता.’’

‘‘आप इस से खुश हैं?’’

‘‘हां, अगर यह कारखाना नहीं होता तो इतना विकास कहां देखने को मिलता? मैं और मेरे बच्चे आज भी जंगल के निवासी बने रहते.’’

‘‘जब कालोनी बनी तो क्या आप इसी मकान में रहते थे?’’

मुंडा जोर से हंसा, ‘‘आप भी क्या मजाक करते हैं? अरे, यह तो बंगला है मेरे बेटे का. बड़ा अफसर है न. मैं तो मजदूर कालोनी में रहता था. 2 छोटे से कमरे, पर बिजली भी थी और पानी भी.’’

‘‘क्या आप के अड़ोसीपड़ोसी सब आदिवासी थे?’’

‘‘अधिकतर तो आदिवासी थे,’’ मुंडा सोच कर बोला, ‘‘परंतु बहुत सारे बाहर के लोग भी थे. मैं ने तो पहली बार सुना था कि यहां बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, केरल और राजस्थान जैसी और जगहें भी हैं. पहले हमारी दुनिया तो बस, जंगल तक ही सीमित थी.’’

‘‘आप लोगों का बाहर के लोगों से झगड़ा भी होता होगा? आखिर उन का रहनसहन, बोलचाल, तीजत्योहार सब ही तो अलगअलग होंगे?’’

मुंडा फिर हंसा और काफी देर तक हंसता रहा. फिर बोला, ‘‘हां, झगड़ा तो होता था पर इस बात पर नहीं कि उन के आचारविचार अलग थे. वैसे हम सब मिलजुल कर रहते थे. तीजत्योहार मिल कर मनाते थे. गमीखुशी में भी साथ देते थे,’’ मुंडा चुप हो गया.

‘‘फिर झगड़ा क्यों होता था?’’

‘‘इसीलिए कि बाहरी लोग हम आदिवासियों को नीचा समझते थे. हमें बराबर का इनसान नहीं समझते थे. इस बात को ले कर अकसर झगड़ा होता था.’’

‘‘फिर आप विरोध तो करते होंगे?’’

‘‘कैसा विरोध? हम आदिवासी से कुछ और तो बनने से रहे. बस, परि- स्थितियों से समझौता कर लेते थे.’’

‘‘उस समय चोरी, डाका या हिंसा की वारदातें होती थीं?’’

‘‘नहीं, एक भी नहीं. रात भर दरवाजा खोल कर सोते थे. एक भी चीज कोई उठा कर नहीं ले जाता था.’’

‘‘अब क्या होता है?’’

मुंडा सोच में पड़ गया. कुछ देर बाद बोला, ‘‘अब हम लोग आधुनिक बन गए हैं न. सिनेमा खूब देखते हैं. यहां 2 तो सिनेमाघर खुल गए हैं. ऊपर से कंपनी प्रति सप्ताह एक सिनेमा खुले मैदान में मुफ्त में दिखाती है. सिनेमा का असर पड़ता है न.’’

‘‘आप ने पहले कभी सिनेमा देखा था?’’

‘‘नहीं, पहले यहां का मुफ्त सिनेमा देखा था. हमें तो देख कर बड़ी शर्म आई. पर आश्चर्य भी हुआ और अच्छा भी लगा,’’ मुंडा ने गहरी सांस ली.

‘‘आप ने शिक्षा ली?’’

मुंडा झेंप गया, ‘‘अरे, हम क्या शिक्षा लेंगे. बच्चों ने पढ़ लिया, वही बहुत है.’’

‘‘कितने बच्चे हैं?’’

‘‘2, लड़का अमित मुंडा और लड़की रेखा मुंडा. सिनेमा देखने और कुछ साथ पढ़ने वाले बच्चों के हंसी उड़ाने से उन्होंने अपने आदिवासी नाम बदल लिए हैं.’’

पत्रकार को हंसी आ गई. मुंडा और भी झेंप गया, जैसे उस से कोई अपराध हो गया हो. पत्रकार ने आगे प्रश्न किया, ‘‘बच्चों के बारे में कुछ बताएंगे?’’

‘‘मेरा बड़ा लड़का यानी अमित मुंडा…’’ मुंडा ने गर्व से कहा, ‘‘कंपनी में आजकल उपप्रबंधक बन गया है. पढ़ने में अच्छा निकला. वैसे पढ़ना शायद कठिन होता, पर एक तो फीस माफ थी और दूसरे, नंबर कम आने पर भी आदिवासी होने के कारण कक्षा में उत्तीर्ण कर दिया जाता था. सरकारी नीति है न.’’

‘‘फिर क्या इंजीनियर बन गया?’’

‘‘हां, यहां तो सारे के सारे इंजीनियर ही हैं, सो उसे भी धुन चढ़ गई कि मैं भी इंजीनियर बनूंगा. परीक्षा में बैठा तो नंबर बहुत कम थे, परंतु आदिवासियों के लिए सुरक्षित स्थान होने से उसे प्रवेश मिल गया.’’

‘‘क्या वह हर साल इसी तरह पास होता गया?’’

‘‘हां, इस से यह अवश्य हुआ कि जिन्हें प्रवेश नहीं मिला या परीक्षा में पास नहीं हुए, उन्हें ईर्ष्या बहुत हुई. एक बार तो कालिज में इस को ले कर हंगामा भी हुआ. हड़ताल हुई, कुछ विद्यार्थियों ने अदालत में मुकदमा भी कर दिया, पर अदालत ने कहा कि इसे सरकारी नीति के अनुसार सुरक्षित स्थान के लिए प्रवेश मिला है.’’

‘‘पर आप यह नहीं सोचते कि इस तरह कम नंबर पा कर भी आगे बढ़ने से आप के पुत्र में योग्यता नहीं होगी?’’

‘‘अजी, आजकल योग्यता को कौन पूछता है? हम आदिवासियों को अगर सरकार ही ऊपर नहीं उठाएगी तो आम आदमी तो सदा ही हमारा शोषण करता रहेगा?’’

पत्रकार मुंडा की बात से चकित हो गया. वह इतना तो जागृत हो गया था कि अपनी बातों में जो विरोधाभास था, उसे बिलकुल महसूस नहीं कर रहा था.

पत्रकार ने पूछा, ‘‘क्या आप यह नहीं सोचते कि इस देश की बागडोर योग्य पुरुषों के हाथों में होनी चाहिए? कारखाने चलाने के लिए कुशल इंजीनियर होने चाहिए?’’

मुंडा ने उलझन महसूस की. रुक कर बोला, ‘‘आप की बात ठीक है पर योग्यता व कुशलता की कसौटी पर आदिवासी सदा खरा नहीं उतरेगा. उसे अपनेआप ऊपर उठने में 100 साल भी लग सकते हैं. पर यह जो हम ने अपनी धरती कारखाने, विकास और उन्नति के लिए न्योछावर कर दी है, क्या इसलिए कि हमारे बच्चे 100 साल तक प्रतीक्षा करें.’’

पत्रकार निरुत्तर हो गया. एक पेचीदा प्रश्न का पेचीदा उत्तर था. मुंडा के चेहरे पर क्षणिक आवेश झलका, परंतु वह जंगलपुत्र होने के कारण अत्यधिक सहनशील भी था.

पत्रकार ने प्रश्नों का रुख मोड़ते हुए पूछा, ‘‘अच्छा, यह बताइए कि पहले के और अब के वातावरण में क्या अंतर है?’’

मुंडा कुछ देर तक सोचता रहा. फिर बोला, ‘‘हरियाली देखने को बहुत मन करता है. अब तो चारों ओर सीमेंट, पत्थर, लोहा और धुआं ही धुआं दिखाई देता है, बस, पहले वर्षा भी खूब होती थी और बिजली के पंखों का तो नाम भी नहीं सुना था. अब तो बिना पंखे के कोई सो ही नहीं सकता. वातावरण में पहले जो एक खुशबू थी, वह अब नहीं है.’’

उसी समय एक प्रौढ़ पुरुष ने प्रवेश किया. प्रश्नसूचक दृष्टि से पत्रकार ने देखा.

‘‘यह मेरा बेटा है,’’ मुंडा ने परिचय दिया, ‘‘अमित मुंडा.’’

अमित ने परिचय प्राप्त कर के पत्रकार से हाथ मिलाया. पत्रकार के हाथ अभिवादन के लिए उठे थे, पर बीच में ही रुक गए.

अमित ने इधरउधर की बातें कर के कहा, ‘‘आज मैं बहुत खुश हूं. मैं व्यवस्था से एक लड़ाई जीत गया हूं.’’

पत्रकार ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘कैसी लड़ाई?’’

‘‘कुछ महीने पहले प्रोन्नति की एक सूची निकली थी. मुझे अयोग्य बता कर प्रोन्नति नहीं दी. महानिदेशक तक गया, परंतु एक ही जवाब मिला कि अफसरों की प्रोन्नति उन की योग्यता के आधार पर होती है. मैं ने केंद्रीय गृहमंत्री को लिखा. वहां से आदेश आ गए हैं कि आदि- वासियों के लिए स्थान सुरक्षित हैं. चूंकि और कोई आदिवासी उम्मीदवार नहीं था, इस कारण मुझे प्रोन्नति मिलनी चाहिए.’’

पत्रकार ने पूछा, ‘‘क्या इस तरह का संघर्ष आप को हर बार करना पड़ता है?’’

‘‘यही मेरी विडंबना है. आदिवासी होना मानो एक बड़ा अभिशाप है. सब को ईर्ष्या और जलन होती है. जहां तक हो सकता है, मेरे रास्ते में रुकावटें डालते हैं.’’

‘‘आप का कोई और भी कटु अनुभव है?’’

‘‘एक नहीं, कई. समाज में हमें कोई बराबरी का दरजा नहीं देता. हमें इतना हीन समझते हैं कि साथ में उठनेबैठने और खानेपीने से कतराते हैं. बड़ा अपमान महसूस होता है.’’

‘‘अगर यह कारखाना नहीं होता तो आप शायद अभी भी जंगल का जीवन बिता रहे होते. आप कौन सा जीवन पसंद करेंगे, आज का या पहले वाला?’’

अमित सोच में पड़ गया. वह बोला, ‘‘इस का उत्तर कठिन है परंतु इतनी शिक्षा और सुविधाएं होने से यही कह सकता हूं कि विकास और प्रगति के लिए इनसान को कुछ त्यागना ही पड़ता है. आदिवासियों ने अपनी स्वतंत्रता खो कर यदि इस सामाजिक असंतुलन का जीवन स्वीकार किया है तो शायद यह सोच कर कि कभी न कभी उसे समाज में अपना उचित स्थान मिल जाएगा. बस, सब्र की आवश्यकता है.’’

पत्रकार ने अगला प्रश्न किया, ‘‘आप ने थोड़ाबहुत पुराना जीवन और अब दूसरा जीवन भी देखा है. यह संघर्ष आप को कटु और मीठे अनुभव दे रहा है. पर आप के बच्चों को तो लगभग समृद्धि का वातावरण मिल रहा है. अपेक्षाकृत सुविधाएं भी अधिक हैं और समाज में आदिवासियों को स्थान भी मिल रहा है. वे क्या सोचते हैं?’’

अमित ने आवेश में आ कर कहा, ‘‘वे तो हम से भी अधिक क्रुद्ध हैं. छोटीमोटी अवहेलना से भी उन का खून खौलने लगता है. सामाजिक स्वीकृति जो कुछ भी है, उन्हें एक दिखावा और छलावा लगती है.’’

‘‘आप का कहना है कि वे अधिक जागृत हो गए हैं?’’

‘‘ऐसा कहिए कि उन में चेतना आ गई है. दुख यह है कि उन में हिंसा की भावना आ रही है. यह रोकना कठिन है. साथ के बच्चे जब काले रंग को ले कर या हमारे नाकनक्श को ले कर हंसी उड़ाते हैं तो कभीकभी मारपीट हो जाती है.’’

‘‘आप का मतलब है कि बच्चों में सहनशीलता की कमी है. बहुत जल्दी क्रोध में आ जाते हैं.’’

‘‘ताली दोनों हाथों से बजती है. पहले हम लोग अपमान या तो महसूस नहीं करते थे या पी जाते थे. आजकल के बच्चे ऐसा करने लगें तो यह उन की कमजोरी समझी जाएगी. वे दबते चले जाएंगे और फिर शुरू होगा शोषण का दौर. नहीं, उन्हें यह सब सहने की आवश्यकता नहीं है,’’ अमित के स्वर में दबादबा आक्रोश था.

पत्रकार ने पूछा, ‘‘आप की बहन…’’

‘‘मेरी बहन, रेखा? वह तो डाक्टर बन गई है. लीजिए, वह भी आ गई. उसी से पूछ लीजिए जो कुछ पूछना हो.’’

अभिवादन के बाद पत्रकार ने रेखा से पूछा, ‘‘आप को डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त करने में कोई कठिनाई हुई?’’

रेखा ने हंस कर कहा, ‘‘कठिनाई तो बहुत हुई. एक तो पढ़ाई कठिन थी ही, साथ ही सहपाठियों से कुछ सहायता नहीं मिली. उन्हें सदा यह लगता था कि मेरा डाक्टरी पढ़ने का कोई अधिकार नहीं. मुझे हमेशा एक घुसपैठिए का दरजा मिलता था. अपमान भी काफी झेलना पड़ा. पर यह सब पुरानी बात है. मुझे कोई शिकायत नहीं.’’

‘‘आप को नौकरी मिलने में कोई कठिनाई हुई?’’

‘‘कोई नहीं, इस कारखाने में जगह थी. बहुत से उम्मीदवार थे, पर यहीं का होने से व पिताजी के कारण आदिवासी होने से प्राथमिकता दी गई. मैं सुरक्षित स्थान के लिए चुन ली गई.’’

‘‘लोगों में काफी रोष उत्पन्न हुआ होगा?’’

‘‘अवश्य हुआ, परंतु हम आदि- वासियों को खुलेआम कोई नौकरी देता कहां है?’’

पत्रकार ने विनोदभाव से पूछा, ‘‘विवाह?’’

रेखा ने बेझिझक कहा, ‘‘वह तो मैं कर चुकी. यहीं एक इंजीनियर हैं.’’

अमित ने बीच में कहा, ‘‘इस ने प्रेम विवाह किया है. एक गैरआदिवासी से. हम ने बहुत समझाया, पर यह नहीं मानी. अब परिणाम भोग रही है.’’

पत्रकार ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘कैसा परिणाम? ऐसी शादी से तो सरकार की ओर से इनाम मिला होगा?’’

‘‘हां,’’ रेखा ने कहा, ‘‘मुझे नहीं, हम दोनों को 1 हजार रुपया इनाम मिला.’’

‘‘यह तो बहुत प्रसन्नता की बात है कि आप ने ऐसा क्रांतिकारी कदम उठाया.’’

‘‘हां, मैं ऐसा ही समझती थी. पर इस की हानियां अब समझ में आ रही हैं.’’

‘‘कैसी हानियां?’’

‘‘एक प्रोन्नति विवाह के पहले मिली थी. अब नहीं मिल रही. कई साल से वहीं पड़ी हूं.’’

‘‘वह क्यों?’’

‘‘गैरआदिवासी से विवाह करने के कारण मेरा स्तर बदल गया. अब मैं उन्नत जातियों में आ गई हूं. इसलिए सरकारी सुरक्षा बंद हो गई. बच्चों को भी विशेष सुविधाएं नहीं मिलेंगी. भला बताइए, यह तो सरासर अन्याय है. केवल विवाह करने से एक आदिवासी गैरआदिवासी कैसे हो गया?’’

वह उत्तेजित हो कर बोली, ‘‘मेरी रगों में तो अभी भी आदिवासी रक्त बहता है. मैं ने कई बार यह प्रश्न उठाया था, असफल रही.’’

‘‘अब क्या करेंगी?’’

‘‘सोचती हूं, अदालत में जाना चाहिए.’’

पत्रकार चकित रह गया. वह खड़ा हो गया. आज के लिए काफी मसाला मिल गया था.

कुछ दूर गया था कि देखा कि एक घर के आगे एक गृहिणी को 13 से 15 साल तक के कुछ आदिवासी बच्चे घेर कर उस से लड़ रहे थे. वह रुक गया.

गृहिणी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘तुम सब चोर हो. रोज मेरे बगीचे में से फल चुरा कर ले जाते हो. एक केला नहीं बचा. कच्चे अमरूद तोड़तोड़ कर खा लिए या फेंक दिए. मैं तुम्हारी रिपोर्ट करूंगी.’’

एक बड़े लड़के ने उद्दंडता से कहा, ‘‘हां, हां, कर देना रिपोर्ट. क्या कर लेगी पुलिस हमारा? यह हमारी जमीन है. यह कारखाना हमारा है. ये पेड़ और फल तू अपने साथ ले कर नहीं आई थी. इन पर हमारा हक है.

‘‘तू तो विदेशी है. आज है, कल चली जाएगी. पर हम लोग तो हमेशा यहीं रहेंगे. ज्यादा तेवर दिखाए तो घर का सामान भी उठा कर ले जाएंगे.’’

गृहिणी क्रोध और भय से कांप रही थी. पत्रकार ने गहरी सांस ली और आगे चल दिया. उस के जेहन में बारबार एक ही प्रश्न फुंकार रहा था, ‘अभी इन्हें कितनी और उन्नति कर के अपने अधिकार दूसरों से झपट लेने हैं?’

Family Story : अंत्येष्टि – शैला और परेश के कैसे थे संबंध

Family Story : पहियों की घड़घड़ाहट में अचानक ठहराव आ जाने से शैला की ध्यान समाधि टूट गई. अपने घर, अपने पुराने शहर, अपने मातापिता के पास 4 बरस बाद लौट कर आ रही थी. घर तक की 300 किलोमीटर की दूरी, अपने अतीत के बनतेबिगड़ते पहलुओं को गिनते हुए कुछ ऐसे काट दी कि समय का पता ही न चला.

पूरे दिन गाड़ी की घड़घड़ और डब्बे में कुछ बंधेबंधे से परिवेश में बैठे विभिन्न मंजिलों की दूरी तय करते उन सहयात्रियों में शैला को कहीं कुछ ऐसा न लगा था कि उन की उपस्थिति से वह जी को उबा देने वाली नीरस यात्रा के कुछ ही क्षणों को सुखद बना सकती. हर स्टेशन पर चाय, पान और मौसमी फलों को बेचने वालों के चेहरों पर उसे जीवन में किसी तरह झेलते रहने वाली मासूम मजबूरी ही दिखाई देती थी.

शैला घर जा रही थी. यह भी शायद उस की एक आवश्यक मजबूरी ही थी. 4 साल से हर लंबी छुट   ्टी में वह किसी न किसी पहाड़ी स्थान पर चली जाती थी. इसलिए नहीं कि वह उस की आदी हो गई थी, पर शायद इसलिए कि उसी बहाने वह अपने घर न जाने का एक बहाना ढूंढ़ लेती थी, क्योंकि घर पर सब के साथ रह कर भी तो वह अपने मन के रीतेपन से मुक्ति नहीं पा सकती थी. घर के लोगों के लिए भी शायद वह अपने में ही मगन, किसी तरह जिंदगी का भार ढोने वाली एक सदस्य बन कर रह गई थी.

25 वर्ष पहले एम.एससी. की पढ़ाई पूरी कर के शैला 1 वर्ष के लिए विदेश में रह कर प्रशिक्षण भी ले आई थी. भारत लौटते ही उस की मेधा में डा. रजत जैसे होनहार सर्जन की मेधा का मेल विवाह के पावन बंधन ने कर दिया था. सबकुछ मिला शैला को…प्यार, अपनत्व, विश्वास, सम्मान और रजत पर अपना संपूर्ण एकाधिकार.

27 वर्ष की आयु में ही डाक्टरी की कई उपाधियां ले कर रजत विदेश से लौटा था. शैला साल भर भी अपने जीवन के उन सुखद क्षणों को अपनी खाली झोली में भर कर संजो न पाई थी कि    डा. हरीश के यहां से डिनर से लौटते हुए रास्ते में कार दुर्घटना और फिर अंतिम क्षणों में रजत का शैला के हाथ को मुट्ठी में जकड़ कर चिरनिद्रा में सो जाना शैला कभी नहीं भूल सकती थी.

हर सफल आपरेशन के बाद रजत के चेहरे की चमक और स्नेहसिक्त आंखों से शैला को देख कर कहना, ‘शैला, तुम मेरी प्रेरणा हो,’ शैला के मन को कहां भिगो जाता, उस कोने को शैला शायद स्वयं अपनी खुशी के छिपे ढेर में ढूंढ़ न पाती.

तब से ले कर अब तक अपने सेवारत समय के 25 वर्ष शैला ने अपने हिसाब से तो बड़ी अच्छी तरह बिता दिए थे. इतना अवश्य था कि अपनी कठोर अनुशासनप्रियता या कुछ व्यक्तिगत आदर्शों की आलोचना, कभी अपने ऊपर लगाए कुछ झूठे सामाजिक आरोप, जो कभी उस के चरित्र से जोड़ कर लगाए जाते थे, वह सुनती थी. फिर समय ही सब स्पष्ट कर के कहने वालों के मुंह पर पछतावे की छाप छोड़ देता था.

शैला का सब सुनना और सब झेल जाना, अब उस का स्वभाव बन गया था. घर पर कभीकभी आना आवश्यक भी हो जाता था.

4 बरस पहले छोटी बहन सोनी की शादी में आई थी. वह भी बरात आने के 2 दिन पहले. सोनी की शादी के मौके पर ही छोटी भाभी ने पूछा था, ‘खूब पैसा जोड़ लिया होगा तुम ने तो शैला. क्या करोगी इतने धन का?’

शैला मुसकराई थी, ‘जोड़ा तो नहीं, हां, जुड़ गया है सब अपनेआप.’

किसी चीज की कमी नहीं थी उसे. उस के पास सभी भौतिक सुख के साधन थे और उस से बढ़ कर उस की सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान था. पर जो कभी उस के रीते मन पर निरंतर हथौड़े की चोट करती थी.

उसे वह कभी कह भी तो नहीं सकती थी. उस ने बचपन का वह मस्त और आनंदपूर्ण रूप नहीं देखा था, जो अन्य भाईबहनों में था. कुछ ऐसे हालात रहे कि वह शुरू से ही हंसना चाह कर भी खुल कर हंस न सकी. नियमित, सीमित, अपनेआप से बंधा हुआ एक जीवन. कालिज में पढ़ती थी तो कभी अगर छोटा भाई उस की पेंसिल ले लेता था या ‘डिसेक्शन बाक्स’ से छुरी निकाल लेता था तो कभी दीदी का और कभी मां का यही स्वर सुनाई देता था, ‘देबू देख, अभी शैला आएगी, कैसी हायहाय मचा देगी.’

शायद शैला की गंभीरता ने ही उस घर में आतंक फैला दिया था. देबू के मन में शैला के प्रति पहले भय उपजा और फिर वही भय पलायन और कालांतर में आंशिक घृणा में बदल गया था. ऐसा शैला कभीकभी अब महसूस करती थी.

देबू अब डा. देवेंद्र था पर कभी उस ने शैला से खुल कर बातें नहीं की थीं. शैला चाहती थी कि देबू उस का पल्ला पकड़ कर उस से अपना अधिकार जताए और कहे, ‘दीदी, इस बार कश्मीर घुमा दो, ऐसा सूट बनवा दो, कुछ खिलातीपिलाती नहीं,’ आदि.

फिर अब तो देबू भी बीवी वाला हो गया था. सुंदरसलोनी बड़े ही सरल मन की सुनंदा उस की पत्नी थी. शादी के कुछ दिनों बाद ही देबू ने सुनंदा से कहा था, ‘नंदा, दीदी की खातिर यही है कि इन का कमरा बिलकुल ठीक रहे, इन की कोई चीज इधरउधर न हो.’

शैला के मन में कहीं चोट लगी थी. ठीक रहने को तो उस का खूबसूरत बंगला सवेरे से रात तक कई बार झाड़ापोंछा जाता था. उस के बगीचे के बराबर और कोई बगीचा पास में नहीं था. पर हर साल ‘पुष्पप्रदर्शनी’ में प्रथम पुरस्कार पाने वाले बगीचे के फूल क्या कभी उस के सूनेपन को महका सके थे?

ससुराल से उजड़ी मांग और सूने माथे पर सादी धोती का पल्ला डाल कर रोते वृद्ध ससुर के साथ जब शैला मांपिताजी के सामने अचानक आ कर तांगे से उतरी थी तो उस के सारे आंसू सूख चुके थे. चेहरा गंभीर था. निस्तेज ठहरी हुई आंखें थीं और वह अपने कमरे में आ गई थी. वह 1 वर्ष पहले छोड़े चिरपरिचित स्थान पर आ कर शांत हो कर बैठ गई थी, बस, ऐसे ही, जैसे एक यात्रा पर गई हो. उसी यात्रा में अपनी चिरसंचित निधि गंवा कर लौट आई हो.

फिर दूसरे वर्ष नैनीताल में साइंस कालिज की पिं्रसिपल हो कर चली गई थी. कुछ जीवन का खोखलापन और जीवन के प्रति विरक्तिपूर्ण उदासीनता में अगर कहीं आनंद की आशा और अपनत्व का कोई अंश था तो परेश.

परेश उस के बड़े भैया का बड़ा बेटा था. जबजब घर आई, परेश का आकर्षण उसे खींच लाया. जीवन के इतने मधुर कटु अनुभव ले कर भी अगर कहीं शैला ने अपने पूर्ण अधिकार का प्रयोग किया था तो वह परेश पर. घर वह आए या न आए, पर दूसरे क्लास की प्रगति रिपोर्ट से ले कर मेडिकल कालिज के तीसरे वर्ष तक का परिणाम उसे परेश के हाथों का लिखा निरंतर मिलता रहा था. उसी के साथ लगी हर पत्र में एक सूची होती थी जिस में कभी सूट, कभी घड़ी और कभी पिताजी से छिपा कर दोस्तों को पिकनिक पर ले जाने के लिए रुपयों की मांग.

परेश का इस प्रकार मांगना और अंत में ‘बूआजी, अब्दुल के हाथ जल्दी भिजवा देना’ वाक्य शैला को अपनत्व की कौन सी सुखानुभूति दे जाता था, वह स्वयं नहीं जानती थी. मातापिता को अगर कहीं शैला के प्रति संतोष था तो वह परेश और शैला के इस ममतापूर्ण संबंध को देख कर.

घर जाती थी तो इधरउधर के हाल ले कर फिर भैयाभाभी और उस की परेश को ले कर विविध समस्या समाधान की वार्त्ता. वह क्या खाता था, क्यों उस के साथ घर के अन्य बच्चों सा व्यवहार होता था, जब वह शैला का एकमात्र वारिस था आदि.

कभीकभी मजाक में भाभी कहती थीं, ‘परेश तो बूआ का हकदार है, बूआ का बेटा है.’

सुन कर शैला कितनी खुश होती थी. खून का रिश्ता कभी झूठा नहीं होता, न ही हो सकता है. उस के गंभीर चेहरे पर खुशी की एक रेखा सी खिंच जाती थी. जिस साल परेश का जन्म हुआ था, उस के 3 साल के अंदर शैला ने घर के 4-5 चक्कर लगाए थे, कुछ अनुभवी प्रौढ़ महिलाएं दबी जबान से शैला से हंसहंस कर कहती थीं, ‘दीदी, भतीजा ऐसी जंजीर ले कर पैदा हुआ है जिस का फंदा बूआ के गले में है. जरा सी जंजीर कसी और बूआजी चल पड़ती हैं घर की ओर.’

और शैला के चेहरे पर आ जाता था गर्वीला ममत्वपूर्ण भाव. वह हलके से मुसकरा कर कहती, ‘बहुत प्यारा है मेरा भतीजा. घर जाती हूं तो पल्ला पकड़ कर पीछेपीछे घूमता रहता है.’ इस वाक्य के साथ ही शैला एक आनंदमिश्रित तृप्ति का अनुभव करती थी. 3 बरस के बच्चे को उस से कितना प्यार था.

जब से परेश बड़ा हो कर सफर करने लायक हुआ था, शैला उसे छुट्टियों में लगभग हर वर्ष अपने पास बुला लेती थी और भूल जाती थी कि वह अकेली है.

कभी परेश कहता, ‘बूआजी, आज तो पिक्चर चलना ही है, चाहे जो हो.’  तब शैला परेश को टाल न पाती.

अब तो परेश पूरे 24 साल का हो गया था. डाक्टरी के अंतिम वर्ष में था. शैला शुरू से जानती थी कि अगर वह मुंह खोल कर कह देती तो बड़े भैया व भाभी परेश को स्वयं आ कर उस के पास छोड़ जाते. पर कहने से पहले जाने क्यों मन के कोने में कहीं एक बात उठती, ‘अपनी गोद तो सूनी थी ही. भाभी से परेश जैसा प्यारा और होनहार बेटा ले कर उस के मन में सूनापन कैसे भर दूं.’

इधर कई बार वह तैयार हो कर आती, भैया से कुछ कहने को. पर जहां बात का आरंभ होता, वह सब के बीच से हट कर स्नानघर में जा कर खूब रो आती. एक बार फिर रजत का वाक्य कानों में गूंज उठता, ‘शैला, कभी बेटा होगा तो उसे ऐसा अव्वल दरजे का सर्जन बनाऊंगा कि बाल चीर कर 2 टुकड़े कर देगा.’

कल्पना में ही दोनों जाने कितने नाम दे चुके थे अपने अजन्मे बेटे को. उन्हीं नामों में से एक नाम ‘परेश’ भी था. यह शैला के सिवा कोई नहीं जानता था. पर शैला के ये सब सपने तो रजत की मृत्यु के साथ ही टूट गए थे. भाभी को जब बेटा हुआ था तब अस्पताल में ही भरे गले, भारी मन से अतीत के घावों को भुला कर, शैला मुसकराते चेहरे से भतीजे का नाम रख आई थी, ‘परेश.’

आज 4 वर्ष बाद शैला घर आई तो परेश में बड़े परिवर्तन पा रही थी. कुछ आधुनिकता का प्रभाव, कुछ बदलते समय को जानते हुए भी शैला ने परेश पर अपना वही अधिकार और अपनी पसंद के अनुसार परेश को ढालने के प्रयासों में कोई कमी न की. लंबाचौड़ा, खूबसूरत युवक के रूप में परेश, शैला को स्टेशन लेने आया तो बस ‘हाय बूआ’ कह कर उस के हाथ से सूटकेस ले लिया. भविष्य की कल्पना में खोई शैला को परेश का वह व्यवहार कहीं भीतर तक साल गया. कार पर बैठते ही बोली, ‘‘क्यों रे परेश, अब ऐसा आधुनिक हो गया कि बूआ के पैर तक छूना भूल गया. देख तो घर पहुंच कर तेरी क्या खबर लेती हूं.’’

और शैला अधिकारपूर्ण अपनत्व की गरिमा से खिलखिला कर हंस पड़ी थी. पर शायद वह परेश के चेहरे पर आतेजाते भावों को देख न पाई थी.

15 दिन की छुट्टी पर आई थी शैला इस बार. भैयाभाभी हर खुशी उसे देने को उतावले नजर आते थे. मातापिता थके हुए, पर संतुष्ट मालूम होते थे. शैला दिन भर मातापिता के साथ बगीचे में बैठ कर, कभी पीछे नौकरों के क्वार्टरों में जा कर बूढ़े माली, चौकीदार, महाराज सब का हाल पूछती, तो कभी परेश से घंटों बातें करती.

परेश पास बैठता था, पर शाम होते ही अजीब सी बेचैनी महसूस करता और किसी न किसी बहाने वहां से उठ जाता था.

जाने से 5 दिन पहले यों ही घूमते- घूमते शैला, परेश के कमरे में पहुंच गई. पढ़ने की मेज पर तमाम किताबों, कागजों के बीच सिगरेट के अधजले टुकड़ों से भरी ऐश ट्रे थी. उस के नीचे एक मुड़ा रंगीन कागज रखा था. शैला ने उसे यों ही उत्सुकतावश उठा लिया. पत्र था किसी के नाम. लिखा था :

‘सोनाली, तुम्हें मैं कितना चाहता हूं, शायद मुझे अब यह लिखने की कोई जरूरत नहीं. मैं जानता हूं, मेरे उत्तर न देने पर तुम कितना नाराज होगी. कारण बस, यही है कि आजकल मेरी बूआजी आई हुई हैं, जो आज भी शायद 18वीं शताब्दी के कायदेकानूनों की कायल हैं. उन के सामने अभी तुम्हारा जिक्र नहीं करना चाहता. बेकार में आफत उठ जाएगी. मातापिता की कोई चिंता नहीं. वह तो आखिरकार मान ही जाएंगे. अंत में अपनी ही जीत होगी. पर बूआजी के सामने कुछ कहने की अभी हिम्मत नहीं है मेरी.

‘अब तुम ही समझ लो, ऐसे में कैसे तुम्हें घर ले जाऊं. पर वादा करता हूं कि उन के जाते ही मांपिताजी के पास तुम्हें ला कर उन्हें सब बता दूंगा और तुम्हें मांग लूंगा. बूआजी के रहते हुए ऐसा संभव नहीं है. समझ रही हो न? फिर यों भी मुझे कुछ तो आदर दिखाना ही चाहिए. आखिर वह मेरी बूआजी हैं. मैं क्षत्रिय और तुम ब्राह्मण, वह जमीनआसमान एक कर देंगी.’

और शैला वहीं पसीने में भीग गई थी. वह आंखों के सामने घिरते अंधेरे को ले कर कुरसी पकड़ कर किसी तरह बैठ गई थी. उस की आंखों के सामने, साड़ी का पल्लू पकड़ कर पीछेपीछे घूमने वाला परेश, फिर भविष्य की कल्पना में घोड़े पर चढ़ा दूल्हा परेश और जीवन की अंतिम घडि़यों में शैला की मृत्यु शैया के पास बैठा परेश अपने विभिन्न रूपों में घूम गया.

शैला वर्षों बाद स्नानघर में खड़ी हो कर रो रही थी. ऐसे ही जैसे बड़े अरमानों और त्यागों से जीवन की सारी संचित निधि से बनाया अपना घर कोई ईंटईंट के रूप में गिरता देख रहा हो. दिमाग पर बारबार लोहे की गरम सलाखें चोटें कर रही थीं.

‘आखिर वह मेरी बूआजी हैं… बूआजी…बस, और कुछ नहीं.’

तभी शैला के मन का एक कोना प्रश्नवाचक चिह्न बन कर सामने आ गया. क्या वह स्वयं जिम्मेदार नहीं थी परेश की उन भावनाओं के लिए? ठीक था, वह स्वयं अपने लिए अब तक समाज की परंपराओं और कहींकहीं खोखले आदर्शवाद को भी स्वीकारती आई थी. पर इस का अर्थ यह तो नहीं था कि वह उन्हें इस पीढ़ी पर भी थोपती रहेगी. क्यों वह इतनी उम्मीदें रखती थी परेश से? क्या हुआ जो वह आधुनिक ढंग से पहनता- घूमता था.

शैला अब सोचती थी कि शायद उस का उन छोटीछोटी बातों को गंभीर रूप देना ही उसे परेश से इतना दूर ले आया था. वह क्यों नहीं सोचती थी कि समाज बहुत आगे आ चुका है. ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसे जातीय भेदभाव को सोचना क्या शैला जैसी पढ़ीलिखी, अच्छे संस्कारों में पलीबढ़ी स्त्री को शोभा देता था? शैला समझौता करेगी उस स्थिति से. वह उस नई पीढ़ी पर हावी होने का प्रयास नहीं करेगी. पुरानी लकीरों पर चलती आई जिंदगी को नया मोड़ दे कर, वह परंपरागत रूढि़यों व मान्यताओं की अंत्येष्टि स्वयं करेगी.

रात को खाने के बाद उस ने परेश को बगीचे में बुलाया. ओस से भीगी घास पर टहलती शैला का मन प्रफुल्लित था. परेश आया और चुपचाप खड़ा हो गया. शैला का हाथ उठ कर सहज ढंग से परेश के कंधे पर टिक गया. आंखों में सारा लाड़ उमड़ आया. बोली, ‘‘क्यों रे, परेश, मैं क्या इतनी बुरी हूं जो तू ने मेरी बहू को मुझ से छिपा कर रखा? यह बता, क्या मुझ से अलग हो पाएगा? मैं जानती हूं, अपनी बूआजी के लिए तेरा सीना फिर धड़केगा. बता, कहां रहती है सोनाली? यों ही ले आएगा उसे? बेटे, मेरे मन की आग तभी ठंडी होगी जब तू मुझे सोनाली के पास ले चलेगा. पहला आशीर्वाद तो मैं ही दूंगी उसे. तू शायद नहीं जानता कि मैं ने कितने अरमान संजोए हैं इन दिनों के लिए. मैं तेरी खुशी के बीच में कहीं भी ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसी घटिया बात नहीं लाऊंगी.’’

और दूसरे दिन मेजर विक्रम के ड्राइंगरूम में भैयाभाभी और परेश के साथ बैठी शैला के सामने सौम्य, शालीन और सुंदर सी सोनाली ने प्रवेश किया. उस की मां ने उसे भाभी के सामने करते हुए उन के पैर छूने को कहा ही था कि भाभी ने सोनाली को बड़े प्यार से पकड़ कर शैला की तरफ करते हुए कहा, ‘‘इन का आशीर्वाद पहले लो. भले ही मैं ने परेश को जन्म दिया है, पर बेटा तो यह बूआ का ही है.’’

और शैला की आंखों से खुशी की ज्यादती से बहती आंसुओं की धारा उस के बरसों से जलते दिल को शीतलता देती चली गई.

परेश ने अपने पुराने दुलार भरे भाव से शैला को पकड़ते हुए इतना ही कहा, ‘‘बूआजी, आशीर्वाद दो कि तुम्हारे और अपने सब स्वप्न साकार कर सकूं.’’

शैला की सारी उदासी छिटक कर कहीं दूर जाने लगी और दूर होतेहोते उस की छाया तक विलीन हो गई. वह देख रही थी. उस की कल्पना में मृतक पति  डा. रजत की धुंधली छाया उभर आई. वह मुसकरा रहे थे. शायद कह भी रहे थे, ‘पुत्रवधू मुबारक हो शैली.’

Social Story : हिंदुस्तान जिंदा है – दंगाइयों की कैसी थी मानसिकता

Social Story : यह एक इत्तफाक ही था कि मौलवी रशीद की पत्नी जिस दिन मरी थी उसी दिन मीना का पति भी मरा था. मौलवी रशीद की पत्नी को दंगाइयों ने पहले नंगा किया फिर अपना मुंह काला किया और अंत में उसे गोली मार दी. अब वह कहां जिंदा थी कि किसी का नाम बताती. बस, सड़क के किनारे एक नंगी लाश के रूप में पड़ी मिली थी.

मीना के पति को बाजार में छुरा मारा गया था, मर्द को दंगाई नंगा नहीं करते क्योंकि दंगाई भी मर्द होते हैं.

मीना और मौलवी रशीद दोनों ने अपनीअपनी लाशें उठा कर उन का अंतिम संस्कार किया था. ये दोनों जिस शहर के थे वहां की फितरत में ही दंगा था और वह भी धर्म के नाम पर.

इस शहर के लोग पढ़ेलिखे जरूर थे पर नेताओं की भड़काऊ बातों को सुन कर सड़कों पर उतर आना, छतों से पत्थरों की वर्षा करना और फिर गोली चलाना इन की आदत हो गई थी. कोई तो था जो निरंतर इस दंगा कल्चर को बढ़ावा दे रहा था ताकि जनता बंटी रहे और उन का मकसद पूरा होता रहे.

मौलवी रशीद और मीना दोनों एकसाथ पढ़े थे. दोनों का बचपन भी साथसाथ ही गुजरा था. दोनों आपस में प्रेम भी करते थे, लेकिन इन की आपस में शादी इसलिए नहीं हुई कि दोनों का धर्म अलगअलग था और ऐसे कट्टर धार्मिक, सोच वाले शहर में एक हिंदू लड़की किसी मुसलमान लड़के से शादी कर ले तो शहर में हंगामा बरपा हो जाए.

मीना ने तो चाहा था कि वह रशीद से शादी कर ले लेकिन खुद रशीद ने यह कह कर मना कर दिया था कि यदि तुम चाहती हो कि 4-5 मुसलमान मरें तो मैं यह शादी करने के लिए तैयार हूं. और फिर मीना अपने दिल पर पत्थर रख कर बैठ गई थी.

इसी के बाद दोनों के जीवन की धारा बदल गई. रशीद ने अपने संप्रदाय में एक नेक लड़की से शादी कर अपनी गृहस्थी बसा ली तो मीना ने अपनी ही जाति के एक लड़के के साथ शादी कर ली. फिर तो दोनों एक ही शहर में रहते हुए एकदूसरे के लिए अजनबी बन गए.

इधर धर्म का बाजार सजता रहा, धर्म का व्यापार होता रहा और इस धर्म ने देश को 2 टुकड़ों में बांट दिया. इनसान के लिए धर्म एक ऐसा रास्ता है जिसे केवल मन में रखा जाए और खामोशी के साथ उस पर विश्वास करता चला जाए न कि उस के लिए बेबस औरतों को नंगा किया जाए, संपत्तियों को जलाया जाए और बेगुनाह लोगों की जानें ली जाएं.

मौलवी रशीद की कोई संतान नहीं थी पर मीना के 2 बच्चे थे. एक 3 साल का और दूसरा 3 मास का. पति के मरने के बाद मीना बिलकुल बेसहारा हो गई थी. अब उस शहर में उस का दर्द, उस की जरूरतों को समझने वाला मौलवी रशीद के अलावा दूसरा कोई भी नहीं था.

सांप्रदायिक दंगों का सिलसिला शहर से खत्म नहीं हो रहा था. कभी दिन का कर्फ्यू तो कभी रात का कर्फ्यू. इनसान तो क्या जानवर भी इस से तंग हो गए थे. मौलवी रशीद ने टेलीविजन खोला तो एक खबर आई कि प्रशासन ने शाम को कर्फ्यू में 2 घंटे की ढील दी है ताकि लोग घरों से बाहर निकल कर अपनी दैनिक जरूरतों की वस्तुओं को खरीद सकें. मौलवी रशीद को मीना के 3 माह के बच्चे की चिंता थी क्योंकि पति की मौत के बाद मीना की छाती का दूध सूख गया था. उस बच्चे के लिए उसे दूध लेना था और ले जा कर हिंदू इलाके में मीना के घर देना था.

रशीद जब घर से स्कूटर पर चला तो उसे थोड़ा डर सा लगा था. वह सआदत हसन मंटो (उर्दू का प्रसिद्ध कथाकार) तो था नहीं कि अपनी जेब में 2 टोपियां रखे और हिंदू महल्ले से गुजरते समय सिर पर गांधी टोपी तथा मुसलमान महल्ले से गुजरते समय गोल टोपी लगा ले.

खैर, रशीद किसी तरह हिम्मत कर के मीना के बच्चे के लिए दूध का पैकेट ले कर चला तो रास्ते भर लोगों की तरहतरह की बातें सुनता रहा.

किसी एक ने कहा, ‘‘इस का मीना के साथ चक्कर है. मीना को कोई हिंदू नहीं मिलता क्या?’’

दूसरे के मुंह से निकला, ‘‘लगता है इस का संपर्क अलकायदा से है. हिंदू इलाके में बम रखने जा रहा है. इस मौलवी का हिंदू महल्ले में आने का क्या मतलब?’’

दूसरे की कही बातें सुन कर तीसरे ने कहा, ‘‘यदि अलकायदा का नहीं तो इस का संबंध आई.एस.आई. से जरूर है. तभी तो इस की औरत को नंगा कर के गोली मारी गई.

रशीद ने मीना के घर पहुंच कर उसे आवाज लगाई और दूध का पैकेट दे कर वापस आ गया. एक सेना का अधिकारी, जो मीना के घर के सामने अपने जवानों के साथ ड्यूटी दे रहा था, उस ने रशीद को दूध देते देखा. मौलवी रशीद उसे देख कर डर के मारे थरथर कांपने लगा. वह आर्मी अफसर आगे बढ़ा और रशीद की पीठ को थपथपाते हुए बोला, ‘‘शाबाश.’’

रशीद जब अपने महल्ले में पहुंचा तो देखा कि लोग उस के घर को घेर कर खड़े थे. वह स्कूटर से उतरा तो महल्ले के मुसलमान लड़के उस की पिटाई करते हुए कहने लगे, ‘‘तू कौम का गद्दार है. एक हिंदू लड़की के घर गया था. तू देख नहीं रहा है कि वे हमें जिंदा जला रहे हैं? हमारी बहनबेटियों की इज्जत के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. क्या उस महल्ले के हिंदू मर गए थे जो तू उस के बच्चे को दूध पिलाने गया था.’’

एक बूढ़े मौलाना ने कहा, ‘‘रशीद, तू महल्ला खाली कर फौरन यहां से चला जा नहीं तो तेरी वजह से इस महल्ले पर हिंदू कभी भी हमला कर सकते हैं. तेरा मीना के साथ यह अनैतिक संबंध हम को बरबाद कर देगा.’’

इस बीच पुलिस की एक जीप वहां आई और पुलिस वाले यह कह कर चले गए कि यहां तो मुसलमानों ने ही मुसलमान को मारा है, खतरे की कोई बात नहीं है. लगता है कोई पुरानी रंजिश होगी.

मार खाने के बाद रशीद अपने घर चला गया और बिस्तर पर लेट कर कराहने लगा. कुछ देर के बाद फोन की घंटी बजी. फोन मीना का था. वह कह रही थी, ‘‘रशीद, तुम्हारे जाने के बाद महल्ले के कुछ हिंदू लड़के मेरे घर में घुस आए थे और उन्होेंने दूध के साथ घर का सारा सामान सड़क पर फेंक दिया. अब मैं क्या करूं. तुम जब तक माहौल सामान्य नहीं हो जाता मेरे घर मत आना. बच्चे तो जैसेतैसे जी ही लेंगे.’’

रशीद फोन पर हूं हां कर के चुप हो गया क्योंकि उसे चोट बहुत लगी थी. वह लेटेलेटे सोच रहा था कि हिंदूमुसलिम फसाद में एक तरफ से कुछ भी नहीं होता है. दोनों तरफ से लड़ाई होती है और कौम के नेता इस जलती हुई आग पर घी डालते हैं. यदि हिंदू मुसलमान को मारता है तो वही उस को सड़क से उठाता भी है. अस्पताल भी वही ले जाता है, वही पुलिस की वर्दी पहन कर उस का रक्षक भी बनता है और वही जज की कुरसी पर बैठ कर इंसाफ भी करता है, कहीं तो कुछ है जो टूटता नहीं.

4 दिन बाद कुछ हालात संभले थे. इस दौरान समाचारपत्रों ने बहुत सी घटनाओं को अपनी सुर्खियां बनाया था. इन्हीं में एक खबर रशीद और मीना को ले कर छपी थी कि ‘हिंदू इलाके में एक मुसलमान अपनी प्रेमिका से मिलने आता है.’

ऐसे माहौल में समाचारपत्रों का काम है खबर बेचना. अगर सच्ची खबर न हो तो झूठी खबर ही सही, उन के अखबार की बिक्री बढ़नी चाहिए. अब तो राजनीतिक पार्टियां भी अपना अखबार निकाल रही हैं ताकि पार्टी की पालिसी के अनुसार समाचार को प्रकाशित किया जाए. आजादी के बाद हम कितने बदल गए हैं. अब नेताओं को देश की जगह अपनी पार्टी से प्रेम अधिक है.

शहर में कर्फ्यू समाप्त हो गया था. रशीद भी अब पूरी तरह से ठीक हो गया था. उस ने फैसला किया कि अब यह शहर उस के रहने के लायक नहीं रहा पर शहर छोड़ने से पहले वह मीना से मिलना चाहता था.

वह घर से निकला और सीधा मीना के घर पहुंचा. उसे घर के दरवाजे पर बुलाया और हमेशाहमेशा के लिए उसे एक नजर देख कर मुड़ना ही चाहता था कि कुछ लोग उस को चारों ओर से घेर कर खड़े हो गए.

रशीद ने मीना से सब्जी काटने वाला चाकू मांगा और सब को संबोधित कर के बोला, ‘‘आप लोगों को मुझे मारने की आवश्यकता नहीं है. मैं अपने पेट में चाकू मार कर आत्महत्या करने जा रहा हूं. अब यह शहर जीने लायक नहीं रह गया.’’

उस भीड़ ने रशीद को पकड़ लिया और एक सम्मिलित स्वर में आवाज आई, ‘‘भाई साहब, हम आप को मारने नहीं बल्कि देखने आए हैं. आप की पत्नी को हिंदुओं ने नंगा कर के गोली मारी थी और आप एक हिंदू विधवा के बच्चों के लिए दूध लाते रहे. अब आप जैसे इनसान को देखने के बाद यकीन हो गया है कि हिंदुस्तान जिंदा है और हमेशा जिंदा रहेगा.

Social Story : चालान – एक ड्राइवर की जिंदगी की कहानी

Social Story : ‘‘आजकल काम मंदा है. 2-4 दिन ठहर कर आना,’’ लहना सिंह ने सादा वरदी में महीना लेने आए ट्रैफिक पुलिस के एक सिपाही से कहा.

‘‘यह नहीं हो सकता. इंचार्ज साहब ने बोला है कि पैसे ले कर ही आना. आज बड़े साहब के यहां पार्टी है. वहां शराब की एक पूरी पेटी पहुंचानी है,’’ सिपाही ने कोल्डड्रिंक की बोतल खाली कर उसे थमाते हुए कहा.

‘‘अरे भाई, 4 दिन से गाड़ी खाली खड़ी है. एक पैसा नहीं कमाया. जेब बिलकुल खाली है,’’ लहना सिंह ने मजबूरी जताई. हकीकत में उस की जेब खाली थी.

‘‘जब इंचाज साहब यहां आएं, तब उन से यह सब कहना. कैसे भी हो, मुझे तो 3 सौ रुपए थमाओ. मुझे औरों से महीना भी इकट्ठा करना है,’’ सिपाही पुलिसिया रोब के साथ बोला.

लहना सिंह ने जेब में हाथ डाला. महज 60-70 रुपए थे. अब वह बाकी रकम कहां से पूरी करे? वह उठा और अड्डे पर मौजूद दूसरे भाड़े की गाडि़यां चलाने वाले साथियों से खुसुरफुसुर की.

किसी ने 20 रुपए किसी ने 50 रुपए, तो किसी ने सौ रुपए थमा दिए. लहना सिंह सिपाही के पास पहुंचा और गिन कर उसे ‘महीने’ के 3 सौ रुपए थमा दिए.

सिपाही रुपए ले कर चलता बना.

लहना सिंह भाड़े का छोटा ट्रक चलाता था. पहले वह एक ट्रक मालिक के यहां ड्राइवर था, जिस के कई ट्रक थे. फिर उस ने अपने मालिक से ही यह छोटा ट्रक कबाड़ी के दाम पर खरीद लिया था.

लहना सिंह ने कुछ हजार रुपए ऊपर खर्च कर ट्रक को काम देने लायक बना लिया था.

ट्रक काफी पुराना था. उस के सारे कागजात पुराने थे. कई साल से उस का रोड टैक्स नहीं भरा गया था. उस का अब कोई बीमा नहीं हो सकता था.

ऐसे ट्रक को लहना सिंह को बेचने वाला मालिक काफी तेजतर्रार था. उस ने पुलिस से ‘महीना’ बांधा हुआ था. अब यही ‘महीना’ लहना सिंह को देना पड़ता था.

पिछले कई दिनों से लगातार बारिश हो रही थी. जहांतहां कीचड़ और पानी भरा था. धंधा काफी मंदा था. उसे कभी काम मिल जाता था, कभी कई तक दिन खाली बैठना पड़ता था. पहले लहना सिंह खुद अपना ट्रक चलाता रहा था, लेकिन अब मालिक बन कर अड्डे के तख्त पर दूसरे ट्रक मालिकों के साथ वह ताश खेलता था.

आज घर राशन ले जाना था. बीमार मां और पत्नी को भी अस्पताल दवा लेने जाना था. खर्च बहुत थे, मगर कमाई नहीं हुई थी.

तभी लाला मिट्ठल लाल अड्डे पर आ गया.

‘‘आओ लालाजी,’’ लहना सिंह ने कहा.

‘‘अरे लहना सिंह, किस की गाड़ी का नंबर है?’’

‘‘अपना है जी. कहां जाना है?’’

‘‘जमालपुर.’’

‘‘चलेंगे जी. क्या माल है?’’

‘‘अनाज की बोरियां हैं. 20 क्विंटल माल है.’’

‘‘कोई बात नहीं जी. ले जाएंगे.’’

‘‘गाड़ी ठीक है न?’’

‘‘अरे लालाजी, आप ने कई बार बरत रखी है. क्या कभी आप का काम रुका है?’’

‘‘वह तो ठीक है. तुम्हारी गाड़ी पुरानी है. क्या पता चलता है?’’

‘‘लालाजी, पुराना सौ दिन, नया नौ दिन.’’

‘‘कितना भाड़ा लोगे?’’

‘‘जो जायज हो दे देना जी. आप मालिक हो.’’

‘‘फिर भी? पहले बता दोगे, तो अच्छा रहेगा.’’

‘‘2 हजार रुपए.’’

‘‘बहुत ज्यादा है.’’

‘‘नहीं लालाजी, आज के महंगाई के जमाने में ज्यादा नहीं है.’’

‘‘5 सौ रुपए.’’

‘‘नहीं जी, आप 2 सौ रुपए कम कर लो.’’

‘‘चलो, 17 सौ दे देंगे.’’

‘‘ठीक है जी. आप मालिक हो. कब गाड़ी लगाऊं?’’

‘‘अभी ले चलो. मेरा गोदाम तो देखा हुआ है तुम ने.’’

‘‘लालाजी 5 सौ रुपए पेशगी दे दो. डीजल डलवाना है.’’

लालाजी ने 5 सौ रुपए पेशगी दे दिए.

लालाजी, लहना सिंह, ड्राइवर और क्लीनर चारों ट्रक में सवार हो गए.

पैट्रोल पंप रास्ते में ही था. 4 सौ रुपए का डीजल डलवा कर सौ रुपए ड्राइवर को रास्ते के खर्च के लिए थमा कर लहना सिंह अड्डे पर लौट आया.

लालाजी ने गोदाम में ट्रक पहुंचते ही 50-50 किलो वाले 40 कट्टे ट्रक में रखा दिए. ट्रक जमालपुर की तरफ चल पड़ा.

जमालपुर जाने के लिए 2 रास्ते थे. पहला रास्ता थोड़ा लंबा था, मगर कच्चा था. लेकिन इस रास्ते पर चैकिंग न के बराबर होती थी. नंबर दो का काम करने वालों के लिए और लहना सिंह जैसे गाड़ी वालों के लिए, जिन के कागजात पूरे नहीं थे, यह महफूज रास्ता था.

दूसरा रास्ता पक्का था. साफसपाट, सीधा था. मगर इस रास्ते पर ट्रैफिक पुलिस, टैक्स वालों और दूसरे महकमों की चैकिंग बहुत होती रहती थी. ऊपर से यह रास्ता रेलवे लाइन के साथसाथ चलता रेलवे स्टेशन को पार करता आगे बढ़ता था. यहां पर रेलवे पुलिस का अधिकार क्षेत्र था. किसी भी लिहाज से यह नंबर दो वालों के लिए और बिना पूरे कागजात वाली गाड़ी वालों के लिए महफूज नहीं था.

लालाजी लंबे और महफूज रास्ते से जा रहे थे. ट्रक बढ़ रहा था कि तभी ड्राइवर ने ब्रेक लगा दिया.

‘‘क्या हुआ?’’ झपकी ले रहे लालाजी ने आंखें खोल कर पूछा.

‘‘आगे सड़क टूटी हुई है जी.’’

लालाजी ने उचक कर देखा. सड़क का एक लंबा हिस्सा टूट कर बिखर गया था. घुटनों तक पानी था. अब क्या करें?

ड्राइवर ने लहना सिंह को मोबाइल से फोन किया और सारी बात बताई.

‘‘लालाजी से पूछ ले कि क्या करना है?’’ लहना सिंह ने कहा.

लालाजी सोच में डूबे थे. उन के पास नंबर दो का माल था. दूसरा रास्ता चैकिंग करने वालों से भरा रहता था. माल पकड़ा जा सकता था.

अभी तक लालाजी को यह पता नहीं था कि लहना सिंह के ट्रक के कागजात पूरे नहीं थे. क्या गाड़ी वापस ले चलें? मगर माल आज ही पहुंचाना था. पार्टी सारा पैसा पेशगी दे गई थी.

‘‘दूसरे रास्ते से चलो.’’

‘‘ठीक है जी,’’ ड्राइवर ने गाड़ी मोड़ ली.

रेलवे स्टेशन से थोड़ा पहले ट्रक रोक कर उस ने क्लीनर को ‘जरा नजर डाल आ’ का इशारा किया. क्लीनर स्टेशन के पास पहुंचा. चौक सुनसान था. रेलवे स्टेशन खाली था. रेलवे लाइन के साथ लगती सड़क भी खाली थी.

क्लीनर के इशारा करते ही ड्राइवर ने ट्रक स्टार्ट कर आगे बढ़ा दिया.

रेलवे पुलिस की चौकी का इंचार्ज कमीज उतारे पंखे की हवा के नीचे सो रहा था. एकाएक बिजली चली गई. बारिश का मौसम था. हवा बंद थी.

गरमी महसूस होते ही चौकी इंचार्ज की नींद खुल गई. वह उठ कर बाहर चला आया. उसी वक्त ड्राइवर ट्रक को चलाता चौक पर पहुंचा. ट्रक को देखते ही चौकी इंचार्ज ने उसे रुकने का इशारा किया. लालाजी और ड्राइवर दोनों के चेहरे का रंग उड़ गया.

ट्रक रुक गया. पुलिस वाला पास आया.

‘‘ट्रक कहां जा रहा है?’’

‘‘जमालपुर.’’

‘‘इधर से क्यों जा रहे हो?’’

‘‘उधर का रास्ता खराब है जी.’’

‘‘गाड़ी में क्या है?’’

‘‘अनाज है जी.’’

‘‘माल का बिल है?’’

‘‘माल मेरा अपना है जी. अपने घर ही ले जा रहा हूं. किसी को बेचा नहीं है, इसलिए बिल किस बात का?’’ लालाजी ने दिलेरी दिखाते हुए कहा.

‘‘गाड़ी के कागजात दिखाओ.’’

इस पर ड्राइवर सकपका गया. धीरे से उस ने डैशबोर्ड का एक खाना खोल एक कटीफटी कौपी निकाल कर थमा दी.

‘‘यह क्या है?’’

‘‘आरसी है जी.’’

‘‘यह आरसी है? अबे, यह तो बाबा आदम के जमाने की कौपी है,’’ पुलिस वाले ने कौपी के पन्ने पलटते हुए कहा.

‘‘और कोई कागजात है?’’

‘‘नहीं जी.’’

‘‘रोड टैक्स की रसीद, बीमा की रसीद या प्रदूषण की रसीद… कुछ है?’’

‘‘नहीं जी.’’

‘‘नीचे उतर.’’

ड्राइवर के साथसाथ लालाजी भी उतर आए.

‘‘साहबजी, मुझे नहीं पता था कि इस गाड़ी के कागजात पूरे नहीं हैं, वरना मैं माल लोड नहीं करता,’’ लालाजी ने हाथ जोड़ते हुए कहा.

‘‘हमें माल से कोई मतलब नहीं है. आप अपना माल उतरवा लें. गाड़ी के कागजात नहीं हैं और ये रेलवे पुलिस के इलाके में आ गई है. इसे बंद करना पड़ेगा.’’

ड्राइवर का चेहरा फीका पड़ गया. क्या गाड़ी के साथ वह भी थाने में बंद होगा?

‘‘साहब, गाड़ी तो मेरे मालिक की है. मेरा क्या कुसूर है?’’ ड्राइवर ने हाथ जोड़ते हुए कहा.

‘‘अबे, तुझ से कुछ नहीं कह रहा. मैं तेरा नहीं, गाड़ी का चालान कर रहा हूं. थाने में गाड़ी बंद होगी, तू नहीं.’’

इस पर ड्राइवर की जान में जान आई. उस ने मोबाइल निकाल कर लहना सिंह को फोन कर दिया.

‘‘हौसला रख. मैं आ रहा हूं,’’ लहना सिंह ने कहा.

लालाजी इधरउधर किसी दूसरे ट्रक को तलाशने लगे. 4-5 आटोरिकशा एक तरफ खड़े थे.

‘‘ले चलेंगे जी. 20 रुपए कट्टा लगेगा,’’ एक आटोरिकशे वाले ने कहा.

मरता क्या न करता. 40 कट्टों के 8 सौ रुपए किराए के आटोरिकशे वालों को और 5 सौ रुपए एडवांस में लहना सिंह को दिए थे. कुल जमा 13 सौ रुपए की चोट खा ली. मगर उन का चालान नहीं हुआ था.

गाड़ी थाने में बंद हो गई. लहना सिंह की मिन्नतों का कोई असर न हुआ. चालान पर ड्राइवर के बाएं हाथ के अंगूठे की छाप लगवा कर चौकी इंचार्ज ने मुख्य कौपी उसे थमा दी.

‘‘इस चालान का फैसला कौन करेगा साहब?’’ लहना सिंह ने पूछा.

‘‘जिला अदालत में चले जाना. वहां पर मैजिस्ट्रेट इस के लिए नियुक्त है, वह जुर्माना लगा कर गाड़ी छोड़ देगा.’’

लहना सिंह जिला अदालत पहुंचा. पता चला कि इन दिनों अदालतें बंद थीं. ड्यूटी मजिस्टे्रट को जुर्माना लगाने का अधिकार नहीं था. गाड़ी कानूनी तौर पर लहना सिंह के नाम नहीं थी, इसलिए सुपुर्दगी के आधार पर भी ट्रक नहीं छूट सकता था.

अब लहना सिंह के पास 3 हफ्ते तक इंतजार करने के सिवा और कोई चारा न था. ड्राइवर और क्लीनर अपनेअपने गांव चले गए.

3 हफ्ते बाद अदालतें खुलीं. भुक्तभोगियों ने लहना सिंह को बता दिया था कि उस को ज्यादा से ज्यादा 5 हजार रुपए तक जुर्माना भरना पड़ सकता है.

जेब में 6 हजार रुपए रख लहना सिंह ड्राइवर के साथ अदालत पहुंचा. चालान ड्राइवर के नाम काटा गया था. मजिस्ट्रेट अभी चैंबर में ही बैठे थे. लहना सिंह धीमे कदमों से रीडर के पास पहुंचा.

सौ रुपए का एक नोट उस की मुट्ठी में दबा कर फुसफुसाया, ‘‘ठीक है.’’

‘‘मैं 12 बजे आवाज दिलवाऊंगा और साहब को सिफारिश लगा दूंगा,’’ रीडर भी फुसफुसाया.

12 बजे आवाज पड़ी. ड्राइवर के साथ लहना सिंह अंदर पहुंचा. साहब ने उस की तरफ फिर ड्राइवर की तरफ गौर से देखा.

‘‘गाड़ी का मालिक कौन है?’’

‘‘मैं हूं जी,’’ लहना सिंह आगे आया.

‘‘गाड़ी के कागजात कहां हैं?’’

लहना सिंह ने कटीफटी कौपी सामने रख दी. साहब ने काफी उलटीपलटी. सारे पन्ने देखे, फिर चालान नियमों पर नजर डाली.

‘ऐसी गाड़ी को जब्त कर ‘डिसपोज औफ’ करनी चाहिए, मगर ऐसा अधिकार प्रशासन को था, उन्हें नहीं.

साहब ने मोटर व्हीकल ऐक्ट की किताब उलटीपलटी. फिर बगल में बैठे मुलाजिम को बुला कर कहा, ‘‘इस में देखो कि इस मामले में क्या हो सकता है?’’

किताब ले कर वह मुलाजिम अपनी सीट पर बैठ कर किताब के पन्ने पलटने लगा.

लहना सिंह और ड्राइवर फिर बाहर बैठ गए. 3 घंटे बीत गए. उस मुलाजिम ने सूचित किया, ‘इस में अदालत सिर्फ जुर्माना ही लगा सकती है, वह भी 5 हजार रुपए तक.’

चेंबर में बैठे साहब ने ढाई हजार का जुर्माना लगाने का आदेश दे कर फाइल रीडर को थमा दी. रसीद कटवा में जरूरी बातें दर्ज कर लहना सिंह को रसीद वापस थमा दी.

साहब ने ‘गाड़ी तुरंत छोड़ दो’ लिख कर रसीद लौटा दी.

सौ रुपए अहलभद को, सौ रुपए रीडर को, सौ रुपए चौकी के हवलदार को ‘पूज’ कर कुल 28 सौ रुपए और 3 हफ्ते तक बेरोजगारी झेल कर लहना सिंह ने गाड़ी छुड़ा ली.

ड्राइवर के साथ उस ने कसम खाई कि रेलवे स्टेशन और किसी भी उस इलाके में जहां ‘महीना’ नहीं बंधा, गाड़ी नहीं ले जाना है.

Family Story : आठवां फेरा – मैरिज सर्टिफिकेट की क्यों पड़ी जरूरत

Family Story : हमारी शादी को 35 वर्ष का लंबा  अंतराल हो चुका था. दोनों बेटियों की शादी हो चुकी थी और हम 4 वर्ष पुराने नानानानी भी बन चुके थे. सिर के तीनचौथाई बाल सफेद हो गए थे या गायब हो चुके थे. पति 60 वर्ष के ऊपर और मैं भी वहां तक पहुंच रही थी, पर आज कचहरी में अपने एक वकील की 8 बाई 8 फुट की कोठरी में बैठना हमें बड़ा असुविधाजनक लग रहा था.

कोर्टकचहरी तो हम वैसे भी कभी नहीं गए. न कभी चोरी की न कभी डाका डाला. और तो और, ईमानदारी बनाम हमारे पति ने कभी रिश्वत भी नहीं ली लेकिन हमारी प्रवासी बिटिया ने हमें एक फार्म भेजा था. वह चाहती थी कि हम लोग ‘इमीग्रेशन’ के लिए उसे भर दें. जब फार्म भरने बैठे तो ‘विवाहित’ के सामने (ङ्क) मार्क करने के बाद उस फार्म ने फरमाइश की कि यदि आप विवाहित हैं तो ‘मैरिज’ सर्टिफिकेट चाहिए. मैं अपने पति का और पति मेरा मुंह देखने लगे.

यह मैरिज सर्टि- फिकेट क्या होता है? हाईस्कूल सर्टिफिकेट, 12वीं का सर्टिफिकेट, बी.ए. व एम.ए. की डिगरी, पतिदेव की कालिज की तमाम डिगरियों तथा अपने कालिज के स्पोर्ट्स में सदैव तीसरा स्थान पाने वाले 15-20 सर्टिफिकेट्स, सभी की एक फाइल तैयार थी. पर कभी किसी नौकरी के साक्षात्कार से ले कर तत्काल के रेलवे रिजर्वेशन में ऐसा सर्टिफिकेट किसी ने नहीं मांगा था.

‘‘अरे भाई, अब इस उम्र में क्या हमें अपनी शादी का सर्टिफिकेट तैयार करना पड़ेगा?’’

हमारे से आधी उम्र के वकील साहब, जो मेरे छोटे भाई के दोस्त रह चुके थे, बोले, ‘‘जीजी, आप चिंता क्यों करती हैं, मैं हूं न. मैं बनवा दूंगा. आखिर कचहरी में बैठा किसलिए हूं,’’ वह एकदम फिल्मी वकील साहब वाली हंसी हंसते हुए बोले.

हम दोनों चुपचाप बैठे रहे, जहां वह हमें कहते रहे वहां हम दस्तखत करते रहे. कचहरी के जिन गलियारों से वह हमें ले जाते रहे हम वहां से गुजरते रहे. जिन अधिकारियों के सामने पेश किया, पेश हो गए. जहां कहा वहां अंगूठे का निशान तक लगा दिया और 2-3 दिन की दौड़भाग के बाद एक अधमरा सा कागज हमें इस एतराम (रौब) से सौंपा गया जैसे लखनऊ के नवाब की शाही जागीर वह हमें सौंप रहे हों. उस कागज पर तरहतरह की मुहरें हमें दिखाते हुए वकील साहब गहरी सांस ले कर पूरी बत्तीसी दिखाते हुए बोले, ‘‘लीजिए, अब आप और जीजाजी कानूनी तौर पर शादीशुदा हो गए.’’

‘तो क्या हम अब तक गैरकानूनी तौर पर…’ जबान पर भी जो लफ्ज न आ पाए, जरा सोचिए वह खयाल मेरे जेहन पर, मस्तिष्क पर, हृदय पर कितने सारे आड़ेतिरछे प्रश्नचिह्न भाले की तरह चुभो गए होंगे? यह सोच कर कि हम क्या यों ही…तो क्या हम वैसे ही…अब तक पिछले 35 साल से रह रहे थे? कैसा मजाक है कि हमारे बच्चों के जन्म प्रमाणपत्र हैं जिन पर हम उन के कानूनी मांबाप हैं, वह तो स्वीकार है पर हमारी शादी सर्टिफिकेट के बिना…नहीं. यह कैसा विरोधाभास है?

मुझे हंसी भी आ रही थी और एक गहन विचार भी दिमाग में जन्म ले रहा था.

हमारे समाज में हिंदू मैरिज सिस्टम में जहां सैकड़ों छोटीबड़ी रस्मों की भरमार है, जहां शादीविवाह के मामले में हम इतना सोचविचार करते हैं…इतने शुभअशुभ, मंगलअमंगल, रीतिरिवाजों की भरमार है, जहां बिटिया के लिए वर और बेटे के लिए वधू ढूंढ़ने के लिए अनेक आधुनिकतम वैवाहिक विज्ञापन हैं, जहां कई हजार देवीदेवताओं की मंगल कामनाएं मांगने के इतने ढेर सारे रिवाज हैं, जहां विवाह जैसे अति महत्त्वपूर्ण मामले में हम अपनी पूरी मेहनत व पूंजी लगा देते हैं, जहां ब्याहशादी की सैकड़ों रस्मों पर तरहतरह के कपड़ेगहने, खानेपीने, सजनेसजाने की सभी व्यवस्था हम खूब बारीकी से करते हैं, जहां अग्नि को साक्षी मान स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ सैकड़ों रिश्तेदार, मामा, नाना, दादा, दादी व मित्र आशीर्वाद देते हैं, जहां भावविभोर पिता अपनी बेटी का हाथ वर के हाथ में दे कर कन्यादान करता है, जहां सिल्क के धोतीकुरते में सजेसजाए पंडितजी सात फेरे डलवाते हैं वहां ‘एक कागज के टुकड़े बनाम मैरिज सर्टिफिकेट’ का प्रावधान क्या इतना महत्त्वपूर्ण है? यदि हां, तो यह विवाह के समय ही क्यों नहीं दे देना चाहिए?

‘सप्तपदी’ के एकएक श्लोक की विवेचना पर पोथियां लीपी गईं तो कानूनी तौर पर मैरिज सर्टिफिकेट के महत्त्व को ताक पर उठा कर क्यों रखा गया? ‘मैट्रीमोनियल’, ‘रिश्ते ही रिश्ते’ और ‘दुल्हन वही जो पिया मन भाए’ जैसी हजारों संस्थाओं को चाहिए कि वे जिस तरह वाहन सीखने वाले ड्राइविंग स्कूल अपना विज्ञापन करते हैं और अपनी फीस में सिखाने के साथ ड्राइविंग लाइसेंस की फीस निश्चित कर के बताते हैं, उसी प्रकार वरवधू के साथ मैरिज सर्टिफिकेट्स की फीस भी लगा दें या जिस प्रकार बड़े टीवी के साथ छोटा टीवी मुफ्त मिलता है, उसी प्रकार मालदार आसामी के साथ मैरिज सर्टिफिकेट मुफ्त दिला कर अपने व्यापार को ऊपर बढ़ा सकते हैं. कृपया सुझाव नोट करें.

सदियों से चली आ रही हिंदू विवाह पद्धति में कुछ फेरबदल करना आवश्यक है. समय के साथ हिंदू विवाह की रीतियां भी अपने में विकसित करें. अत: हनीमून पर जाने से पहले या बिटिया को ‘मायके’ का फेरा डलवाने से पहले प्रत्येक नवविवाहित जोड़े को एक और रीति का पालन करना होगा.

आज का तकाजा है प्रत्येक विवाह में वरवधू के जोड़े से सातवें फेरे के बाद, जहां सामान्य तौर पर उस के साथ ही यह पंडितजी बड़ों का आशीर्वाद लेने को कहते हैं, उसी समय कहें कि अब विवाह तभी संपूर्ण माना जाएगा जब आप ‘मैरिज रजिस्ट्रार’ के दफ्तर में जा कर आठवां फेरा लगा लें.

Short Story : राज को राज रहने दो – लालच बुरी बला है

Short Story : आज का युग घोटाले, फिक्सिंग, ठगी, बाबागीरी और भ्रष्टाचार की ओर तेजी से बढ़ता नजर आ रहा है. ऊपर से जब से मेरे दिलोदिमाग में क्रिकेट में होने वाले स्पौट फिक्सिंग का मामला घुसा है, मुझे तो बारबार गांधीजी का यह कथन याद आए बिना चैन ही नहीं मिल रहा, ‘‘हमारी धरती प्रत्येक मनुष्य की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन प्रत्येक मनुष्य के लालच को कभी पूरा नहीं कर सकती.’’

इशारों से खेलों में होने वाला भ्रष्टाचार अब सभी के सामने खुल कर आ चुका है. खेलों में तरहतरह के डोपिंग, स्कैंडल और मैच फिक्सिंग की खबरें आएदिन आती रहती हैं. यहां पर यह कहना भी उचित होगा कि जब लोगों के पास ज्यादा रुपया आता है तो उन के अंदर इस को और अधिक पाने की ललक अनायास ही पैदा हो जाती है. कुछ ही लोग होते हैं जो खुद को संयमित रख पाते हैं. तेज बुखार को पैरासिटामौल यानी बुखार नियंत्रक दवा खा कर नियंत्रित किया जा सकता है मगर किसी व्यक्ति के दिमाग में यदि रुपया कमाने का फुतूर चढ़ जाए तो वह अकसर कारागार की सलाखों के पीछे जा कर ही नियंत्रित होता हुआ देखा गया है.

कहते हैं कि अति तो किसी भी चीज की हो, बुरी ही होती है. फिर भी लोग मानते नहीं. नएनए तरीके निकाल ही लेते हैं घोटाले, फिक्सिंग और भ्रष्टाचार करने के. चलना भी नियति का नियम है, सो, हमारे क्रिकेट खिलाड़ी भी चल दिए फिक्सिंग जैसी राह पर और खेल के मध्य ही इशारेबाजी कर बैठे. वैसे देखा जाए तो क्रिकेट के इतिहास में इशारों का संबंध बहुत पुराना रहा है, क्योंकि क्रिकेट के अंपायर इस कला में माहिर होते थे. उन के एक इशारे पर पूरी की पूरी टीम आउट घोषित कर दी जाती थी यानी पूरी टीम की हारजीत व नोबौल का निर्णय हो जाता था.

लेकिन आजकल अंपायर का काम इलैक्ट्रौनिक कैमरों ने भलीभांति संभाल लिया है, इसलिए इस से बच कर अब कुछ नया करने और पाने की चाह में हमारे क्रिकेट खिलाड़ी खुद ही इशारों की कला में पारंगत होना चाहते हैं और लोगों की आंखों में धूल झोंक कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं. वैसे, इशारा कर के सामने वाले को प्रभावित करना व उचित मार्गदर्शन देना किसी ऐरेगैरे नत्थूखैरे के वश की बात भी नहीं है. जरूरत से ज्यादा समझदार लोग ही इस कला में पारंगत हो पाते हैं.

आजकल ‘आसमान से गिरे खजूर पर अटके’ वाला दौर नहीं है. अब तो है परछाईं देख आसमान में पहुंच जाने का युग. यदि इस धरती पर कहीं रुपयों के वृक्ष का बीज होता तो उसे भी बड़ी मेहनत से ही लगाया जाता. उसे लगाने, अंकुरित हो कर वृक्ष बनने तथा उस में रुपया लद कर आने में समय लगता. परिणामस्वरूप उस की भी जबरदस्त सुरक्षा करनी पड़ती. वहां भी कोई चमत्कार नहीं हो जाता कि इशारा किया और रुपयों का वृक्ष लद गया ढेर सारे रुपयों से. मगर जब आजकल खेलखेल में खेलों के अंदर इशारों से ही धनवर्षा हो रही हो तो इस से बेहतर और आसान बात कोई हो ही नहीं सकती. भला ऐसे में कौन ‘इशारा’ करने से वंचित रहना चाहेगा. जो पीछे रह जाएगा वह आखिर में पश्चात्ताप ही करेगा और सोचेगा कि यदि किसी ने मेरे इशारे भी समझ लिए होते या मुझे भी एक इशारा करने का मौका दिया जाता तो मैं भी मालामाल हो जाता, लेकिन छप्परफाड़ कर धनवर्षा सभी के यहां नहीं होती है, इसलिए मन मार कर संतुष्ट होना ही पड़ता है.

आजकल क्रिकेट में भी लोगों ने जाना कि खिलाडि़यों के एक इशारे पर अब रनवर्षा की जगह धनवर्षा भी होती है. इसलिए अब मेरी रायनुसार ‘इंडियन प्रीमियर लीग’ का नाम बदल कर ‘स्पौट फिक्सिंग मनी गारंटी क्रिकेट मैच’ यानी एसएफएमजीसीएम रख दिया जाना चाहिए. इस प्रकार के मनी गारंटी क्रिकेट खेल के लिए दिशाओं में बैटबौल घुमाने से ज्यादा, खिलाडि़यों को इशारा करने और इशारे पहचानने की ट्रेनिंग दिए जाने की जरूरत पड़ेगी यानी जम कर धन पाने की तैयारी के लिए उन्हें नएनए इशारों द्वारा हार कर भी शानदार से शानदार कहे जाने वाले नतीजे सामने लाने में योग्य होना पड़ेगा.

माना कि लालच बुरी बला होती है मगर धनवर्षा के समय तो सभी भूल जाते हैं कि ज्यादा धनवर्षा की लूटखसोट में सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने का डर भी बना रहता है. फिर भी इस एसएफएमजीसीएम खेल में यही कहा जाएगा, ‘इशारों को अगर समझो तो राज को राज रहने दो…’ और इस से अधिक कुछ नहीं.

कभीकभी इशारे भी खतरनाक सिद्ध होते हैं. इस बात को हम अपने जीवन में भुगत चुके हैं. यहां आपबीती के तौर पर आप को बता रहे हैं. दरअसल, अपनी जवानी में अपने घर के सामने वाली बिल्डिंग में रहने वाली रंजना को अपना दिल दे बैठे थे और हम ने उसे समझा रखा था कि जब भी घर में तुम्हारे मम्मीपापा न हों तो अपनी बालकनी में लाल रंग का रूमाल टांग दिया करना तो उसे देख कर मैं समझ जाया करूंगा कि तुम्हारे मम्मीपापा घर पर नहीं हैं. बस, तुम ही घर पर अकेली हो. और मैं तुम से मिलने तुम्हारे घर बेधड़क आ जाया करूंगा.

कई बार ऐसा हुआ. लेकिन एक बार मुझे उस की बालकनी में एक लाल रंग के रूमाल की जगह तौलिया टंगा दिखा तो भी रंजना के प्यार में अंधे हो चुके मेरे दीवाने दिल को वह लाल रूमाल ही लगा और प्यार में दीवाना हो कर मैं ने जैसे ही उस के घर की घंटी बजाई, दरवाजा खुलते ही मुझे सामने उस के पिताजी दिखाई दिए और मुझे देख कर वे तेज आवाज में बोले, ‘‘कमबख्त, कई दिनों से देख रहा हूं कि तुम अपने घर से मेरे घर की बालकनी में ही टकटकी लगाए हुए देखते रहते हो और अब तुम्हारी यह हिम्मत कि मेरे घर पर ही आ धमके. अभी लो, पुलिस को बुला कर तुम्हारा हुलिया ठीक करवा देता हूं.’’

उन का तेजतर्रार चेहरा व बातें सुन कर मैं एकदम उन के पैरों में गिर पड़ा और बोला, ‘‘अंकलजी, गलती हो गई. अब कभी ऐसा नहीं करूंगा. मुझे माफ कर दें.’’ मेरे माफी मांगने और गिड़गिड़ाने के संपूर्ण कार्यक्रम को रंजना भी अपने पिताजी के पीछे खड़ी हो कर देख रही थी. परिणामस्वरूप उस ने मेरे डरपोक किस्म के मूल स्वभाव को अच्छी तरह से पहचान लिया. इसलिए फिर उस ने कभी भी लाल रूमाल अपनी बालकनी में नहीं टांगा और मैं ने भी कभी अपनी बदनामी व पिटाई के डर से उस के घर के अंदर दौड़ कर जाने व अपने प्यार की पेंगें बढ़ाने की हिम्मत फिर कभी नहीं जुटा पाई.

कुल मिला कर प्रेम हो, खेल हो या कोई और क्षेत्र, इशारे तो सभी क्षेत्र की जान होते हैं. कोई इन इशारों से सफल होता है, तो कोई असफल. किसी को यश मिलता है, तो किसी को अपयश. फिर भी इशारों का अस्तित्व होता है और सदा रहेगा.

जिन लोगों को लगता है कि इशारों का गणित समझना जरूरी है और वे भविष्य में इशारों की कला में पारंगत होना चाहते हैं, उन्हें इशारों का गणित समझाने वाले गुरु की तलाश करनी चाहिए ताकि अगली बार कलाईबैंड घुमाने, बालकनी में लाल रूमाल टांगने या तौलिया लटकाने या फिर खेल के मैदान में अपनी कमीज उतार कर बारबार लहराने जैसे इशारों पर किसी थानेदार की सख्त व बुरी नजर न पड़ सके.

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