बेटे को मन ही मन शर्मिंदगी का एहसास हुआ. मां को उस ने अपने आने की बात इस डर से नहीं बताई थी कि शायद सुनंदा तैयार न हो और सुनंदा की मम्मी ने अपनी मजबूरी जता दी.
‘‘अच्छा मां, मैं सुनंदा से पूछता हूं.’’
विनय ने सुनंदा से बात की. सुनंदा को बुखार में पड़े हुए 5 दिन हो गए थे. बहुत अधिक कमजोरी आ गई थी. विनय चाहते हुए भी उस की वैसी देखभाल नहीं कर पा रहा था जैसी होनी चाहिए थी.
सुनंदा ने भी सोचा कि कौन सा वह हमेशा के लिए रहने जा रही है. जब ठीक हो जाएगी तब वापस आ जाएगी. यह सोच कर उस ने हामी भर दी. अपने फ्लैट में ताला लगा कर विनय, सुनंदा को ले कर मां के पास रहने चला गया.
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सुनंदा का बुखार अगले कुछ दिनों में और बिगड़ गया. ब्लड टैस्ट हुए. उसे टायफायड हो गया था. मांबेटी ने सुनंदा की देखभाल में रातदिन एक कर दिया. परीक्षा होते हुए भी वानिया, सुनंदा की देखभाल में मां का पूरा साथ देती. मां बहू के सिरहाने बैठ कर उस का सिर सहलाती रहतीं, ठंडे पानी की पट्टियां करतीं. सुनंदा इस समय इतनी दयनीय स्थिति में थी कि मांबेटी अपना सारा वैमनस्य भूल कर उस की देखभाल कर रही थीं.
सुनंदा अर्धबेहोशी में सबकुछ महसूस करती. मां उसे अपने हाथ से खिलातीं, वानिया सूप, जूस व दलिया बना कर लाती. भाई भी निश्ंिचत हो कर नौकरी पर जा पा रहे थे. धीरेधीरे सुनंदा की तबीयत ठीक होने लगी. अभी कमजोरी बहुत ज्यादा थी. वानिया भाभी को सहारा दे कर कुरसी पर बिठा देती, उस का बिस्तर ठीक कर देती, स्पंज कर कपड़े बदल देती. सुनंदा की कमजोरी भी ठीक होने लगी. उसे पता था कि उस की मम्मी ने अपनी मजबूरी जता दी थी और जिस सास के साथ उस ने कभी सीधे मुंह बात नहीं की, हर समय उस का व्यवहार उस के साथ तना हुआ ही रहा, उसी सास ने अपना सारा बैरभाव भूल कर, कितने प्यार व अपनेपन से उस की देखभाल की.
सुनंदा सोचने लगी कि अगर उस की भाभी की तबीयत खराब होती तो क्या मम्मी मजबूरी जता देतीं…शायद नहीं, भाभी उन की जिम्मेदारी हैं और भाभी भी तो कितनी अच्छी हैं. उस के मातापिता का कितना खयाल करती हैं. दूसरे शहर में रहते हुए भी उस के मम्मीपापा के प्रति पूरी जिम्मेदारी समझती हैं. सुनंदा के प्रति भी उन का व्यवहार कितना प्यार भरा है पर उस ने क्या जिम्मेदारी समझी अपनी सासननद के प्रति, जोकि एक तरह से उस के ऊपर ही निर्भर थे. क्या पढ़ने वाली कुंआरी ननद के प्रति उस का कोई फर्ज नहीं था? उस की देखभाल व उस का भविष्य निर्धारित करने का जिम्मा पिता के न होने पर क्या बड़े भाईभाभी का नहीं था. वृद्ध मां आखिर किस की जिम्मेदारी हैं. उन के रवैए से परेशान हो कर ही मां ने उन्हें जाने के लिए कहा था. बीमारी के बाद बिस्तर पर लेटी सुनंदा खुद से ही सवालजवाब करती रही. जब इनसान पर परेशानियां पड़ती हैं तभी अपनों का महत्त्व समझ में आता है और आदमी की विचारधारा भी बदलती है.
सुनंदा ठीक हो गई. एक दिन सुबह नहाधो कर मां के पास बैठ गई और बोली, ‘‘मांजी, मैं अब ठीक हूं…सोचती हूं परसों से आफिस जाना शुरू कर दूं.’’
‘‘ठीक है,’’ मां संक्षिप्त सा जवाब दे कर चुप हो गईं क्योंकि उन के दिल के घाव पर पपड़ी तो जम गई थी पर घाव सूख नहीं पाया था. बीमार सास के प्रति बहू ने भले ही अपना फर्ज नहीं निभाया था पर उन्होंने अपने फर्ज का पालन किया था. उन्होंने मन ही मन सोचा कि सुनंदा अब अपने घर जाने की सोच रही है इसीलिए वह भूमिका बांध रही है. तो जाए…उन्हें एतराज भी क्या हो सकता है.
सुनंदा कोमल स्वर में बोली, ‘‘सोचती हूं…मैं आफिस चली जाती हूं…मुझे भी इतना समय नहीं मिल पाता कि सुबहशाम खाना बना सकूं इसलिए खाना बनाने वाली का प्रबंध कर देते हैं और साफसफाई करने वाली कपड़े धोने का काम भी कर लिया करेगी, उस की तनख्वाह बढ़ा देंगे.’’
‘‘नहीं, इस की जरूरत नहीं है,’’ मां सपाट स्वर में बोलीं, ‘‘मुझे इस की आदत नहीं है और मेरे पास इतने पैसे भी नहीं हैं…फिर हम मांबेटी का काम ही कितना होता है. तुम ऐसा प्रबंध अपने घर पर कर लो,’’ मां अपनी बात स्पष्ट करती हुई बोलीं.
सुनंदा ठगी सी चुप हो गई. थोड़ी देर बाद बोली, ‘‘क्या यह मेरा घर नहीं है, मांजी?’’
‘‘यह घर तुम्हारा था…तुम ने इसे अपना घर नहीं समझा…इसलिए यह सिर्फ मेरा और वानिया का है.’’
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सुनंदा मां के शब्दों से आहत तो हुई पर उसे आत्मसात करती हुई बोली, ‘‘आप का गुस्सा जायज है, मांजी. मैं आप से माफी मांगती हूं.’’
‘‘मेरे मन में तुम्हारे लिए गुस्सा, माफी, प्यार कुछ भी नहीं है…तुम अपने घर में खुश रहो, मैं अपने घर में खुश हूं.’’
‘‘मां, आप झूठ बोल रही हैं…आप हमें बहुत प्यार करती हैं पर हमारी गलतियों पर आए गुस्से ने आप के प्यार को ढक दिया है.’’
इस बात का मां से कोई जवाब नहीं दिया गया. उन की आंखों में आंसू झिलमिला गए. सुनंदा ने हिम्मत कर के मां के दोनों हाथ पकड़ लिए.
‘‘मां, मुझे अपनी गलतियों का एहसास है…सिर्फ हमारे गलत विचार ही हमारी सोच को गलत तरफ मोड़ देते हैं. मुझे माफ कर दीजिए, मैं अपने घर वापस लौटने की इजाजत चाहती हूं लेकिन इस बार आप की बेटी बन कर.’’
सुनंदा के शब्दों की कोमलता, पश्चात्ताप व ग्लानि से मां के मन का गुबार बहने लगा. उन्होंने बहू को गले लगा लिया और बोलीं, ‘‘अपने बच्चों से किस को प्यार नहीं होता सुनंदा…दिलदिमाग जुडे़ हों, अपनों पर विश्वास हो तो हर रिश्ते की बुनियाद मजबूत होती है. आपस में सहज बातचीत है तो कुछ भी खराब नहीं लगता. गलतफहमियां नहीं पनपतीं…यह तुम्हारा घर है, आज ही जा कर सामान ले आओ.’’
सुनंदा मांजी के गले लगे हुए सोच रही थी, ‘आखिर ऐसा क्या था जो उन दोनों सासबहू के बीच में से बह गया और सबकुछ पारदर्शी हो गया. शायद उस की गलत सोच, गुमान, पराएपन का भाव, अपना न समझने का भाव, उस का अहम, यही सबकुछ बह गया था.