विदाई- भाग 3: क्या कविता को नीरज का प्यार मिला?

‘‘दुनिया छोड़ कर जल्दी जाने वाली कविता के साथ इतना मोह रखना ठीक नहीं है नीरज,’’ उस की मां, अकसर अकेले में उसे समझातीं, ‘‘तुम्हारी जिंदगी अभी आगे भी चलेगी, बेटे. कोई ऐसा तेज सदमा दिमाग में मत बैठा लेना कि अपने भविष्य के प्रति तुम्हारी कोई दिलचस्पी ही न रहे.’’

नीरज हमेशा हलकेफुलके अंदाज में उन्हें जवाब देता, ‘‘मां, कविता इतने कम समय के लिए हमारे साथ है कि हम उसे अपना मेहमान ही कहेंगे और मेहमान की विदाई तक उस की देखभाल, सेवा व आवभगत में कोई कमी न रहे, मेरी यही इच्छा है.’’

वक्त का पहिया अपनी धुरी पर निरंतर घूमता रहा. कविता की शारीरिक शक्ति घटती जा रही थी. नीरज ने अगर उस के होंठों पर मुसकान बनाए रखने को जी जान से ताकत न लगा रखी होती तो अपनी तेजी से करीब आ रही मौत का भय उस के वजूद को कब का तोड़ कर बिखेर देता.

एक दिन चाह कर भी वह घर से बाहर जाने की शक्ति अपने अंदर नहीं जुटा पाई. उस दिन उस की खामोशी में उदासी और निराशा का अंश बहुत ज्यादा बढ़ गया.

उस रात सोने से पहले कविता नीरज की छाती से लग कर सुबक उठी. नीरज उसे किसी भी प्रकार की तसल्ली देने में नाकाम रहा.

‘‘मुझे इस एक बात का सब से ज्यादा मलाल है कि हमारे प्रेम की निशानी के तौर पर मैं तुम्हें एक बेटा या बेटी नहीं दे पाई… मैं एक बहू की तरह से…एक पत्नी के रूप में असफल हो कर इस दुनिया से जा रही हूं…मेरी मौत क्या 2-3 साल बाद नहीं आ सकती थी?’’ कविता ने रोंआसी हो कर नीरज से सवाल पूछा.

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‘‘कविता, फालतू की बातें सोच कर अपने मन को परेशान मत करो,’’ नीरज ने प्यार से उस की नाक पकड़ कर इधरउधर हिलाई, ‘‘मौत का सामना आगेपीछे हम सब को करना ही है. इस शरीर का खो जाना मौत का एक पहलू है. देखो, मौत की प्रक्रिया पूरी तब होती है जब दुनिया को छोड़ कर चले गए इनसान को याद करने वाला कोई न बचे. मैं इसी नजरिए से मौत को देखता हूं. और इसीलिए कहता हूं कि मेरी अंतिम सांस तक तुम्हारा अस्तित्व मेरे लिए कायम रहेगा…मेरे लिए तुम मेरी सांसों में रहोगी… मेरे साथ जिंदा रहोगी.’’

कविता ने उस की बातों को बड़े ध्यान से सुना था. अचानक वह सहज ढंग से मुसकराई और उस की आंखों में छाए उदासी के बादल छंट गए.

‘‘आप ने जो कहा है उसे मैं याद रखूंगी. मेरी कोशिश रहेगी कि बचे हुए हर पल को जी लूं… बची हुई जिंदगी का कोई पल मौत के बारे में सोचते हुए नष्ट न करूं. थैंक यू, सर,’’ नीरज के होंठों का चुंबन ले कर कविता ने बेहद संतुष्ट भाव से आंखें मूंद ली थीं.

आगामी दिनों में कविता का स्वास्थ्य तेजी से गिरा. उसे सांस लेने में कठिनाई होने लगी. शरीर सूख कर कांटा हो गया. खानापीना मुश्किल से पेट में जाता. शरीर में जगहजगह फैल चुके कैंसर की पीड़ा से कोई दवा जरा सी देर को भी मुक्ति नहीं दिला पाती.

अपनी जिंदगी के आखिरी 3 दिन उस ने अस्पताल के कैंसर वार्ड में गुजारे. नीरज की कोशिश रही कि वह वहां हर पल उस के साथ बना रहे.

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‘‘मेरे जाने के बाद आप जल्दी ही शादी जरूर कर लेना,’’ अस्पताल पहुंचने के पहले दिन नीरज का हाथ अपने हाथों में ले कर कविता ने धीमी आवाज में उस से अपने दिल की बात कही.

‘‘मुझे मुसीबत में फंसाने वाली मांग मुझ से क्यों कर रही हो?’’ नीरज ने जानबूझ कर उसे छेड़ा.

‘‘तो क्या आप मुझे अपने लिए मुसीबत समझते रहे हो?’’ कविता ने नाराज होने का अभिनय किया.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ नीरज ने प्यार से उस की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘तुम तो सोने का दिल रखने वाली एक साहसी स्त्री हो. बहुत कुछ सीखा है मैं ने तुम से.’’

‘‘झूठी तारीफ करना तो कोई आप से सीखे,’’ इन शब्दों को मुंह से निकालते समय कविता की खुशी देखते ही बनती थी.

कविता का सिर सहलाते हुए नीरज मन ही मन सोचता रहा, ‘मैं झूठ नहीं कह रहा हूं, कविता. तुम्हारी मौत को सामने खड़ी देख हमारी साथसाथ जीने की गुणवत्ता पूरी तरह बदल गई. हमारी जीवन ज्योति पूरी ताकत से जलने लगी… तुम्हारी ज्योति सदा के लिए बुझने से पहले अपनी पूरी गरिमा व शक्ति से जलना चाहती होगी…मेरी ज्योति तुम्हें खो देने से पहले तुम्हारे साथ बीतने वाले एकएक पल को पूरी तरह से रोशन करना चाहती है. जीने की सही कला…सही अंदाज सीखा है मैं ने तुम्हारे साथ पिछले कुछ हफ्तों में. तुम्हारे साथ की यादें मुझे आगे भी सही ढंग से जीने को सदा उत्साहित करती रहेंगी, यह मेरा वादा रहा तुम से…भविष्य में किसी अपने को विदाई देने के लिए नहीं, बल्कि हमसफर बन कर जिंदगी का भरपूर आनंद लेने के लिए मैं जिऊंगा क्योंकि जिंदगी के सफर का कोई भरोसा नहीं.’

जब 3 दिन बाद कविता ने आखिरी सांस ली तब नीरज का हाथ उस के हाथ में था. उस ने कठिनाई से आंखें खोल कर नीरज को प्रेम से निहारा. नीरज ने अपने हाथ पर उस का प्यार भरा दबाव साफ महसूस किया. नीरज ने झुक कर उस का माथा प्यार से चूम लिया.

कविता के होंठों पर छोटी सी प्यार भरी मुसकान उभरी. एक बार नीरज के हाथ को फिर प्यार से दबाने के बाद कविता ने बड़े संतोष व शांति भरे अंदाज में सदा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं.

नीरज ने देखा कि इस क्षण उस के दिलोदिमाग पर किसी तरह का बोझ नहीं था. इस मेहमान को विदा कहने से पहले उस की सुखसुविधा व मन की शांति के लिए जो भी कर सकता था, उस ने खुशीखुशी व प्रेम से किया. तभी तो उस के मन में कोई टीस या कसक नहीं उठी.

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विदाई के इन क्षणों में उस की आंखों से जो आंसुओं की धारा लगातार बह रही थी उस का उसे कतई एहसास नहीं था.

जरा सी आजादी- भाग 5: नेहा आत्महत्या क्यों करना चाहती थी?

‘‘मेरी मरजी, मेरी इच्छा, मेरी सोच, अजीब तो है ही. मेरा घर कहीं नहीं है, दीदी. शादी से पहले अपना घर सजाने का प्रयास करती थी तो मां कहती थीं, अभी पढ़ोलिखो. सजा लेना अपना घर जब अपने घर जाओगी. शादी कर के आई तो ब्रजेश ने ढेर सारी जिम्मेदारियां दिखा दीं. एक बेटी की इच्छा थी, वह भी पूरी नहीं होने दी ब्रजेश ने. पिता की बेटियों को निभातेनिभाते अपनी बेटी के लिए कुछ बचा ही नहीं. अब इस उम्र में कुछ बचा ही नहीं है जिसे कहूं, यह मेरा शौक है. मेरा घर तो सब का घर ही सजाने में कहीं खो गया. बच गया है कबाड़खाना, जिसे हर 3 साल के बाद ब्रजेश ढो कर एक शहर से दूसरे शहर ले जाते हैं.’’

मन भर आया शुभा का.

‘‘मन भर गया है, दीदी. अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘चलो, पहले इस कागज पर लिखो तो सही, क्या बदलना चाहती हो. ब्रजेश ने मुझे कहा है न कि मैं तुम्हारी सहायता करूं. वे कुछ कहेंगे तो मुझे बताना. इल्जाम मुझ पर लगा देना, कहना कि मैं ने कहा था बदलने को.’’

सोमवार को ब्रजेश 3 दिन के लिए बाहर गए और सचमुच नेहा को साथ नहीं ले गए. शुभा ने वास्तव में नेहा का घर बदल दिया.

पुराने सारे बरतन निकाल दिए और थोड़े से पैसे और डाल कर रसोई चमचमा गई. 10 हजार रुपए का लोहाकबाड़ बिक गया जिस में नया गैस चूल्हा, माइक्रोवेव आ गया. रद्दी सामान और पुराना फर्नीचर निकाला जिस में छोटा सा कालीन नए परदे और 2 नई चादरें आ गईं.

3 दिन से दोनों रोज बाजार आजा रही थीं और इस बीच शुभा बड़ी गहराई से नेहा में धीरेधीरे जागता उत्साह देख रही थी. उस ने चुनचुन कर अपने घर का सामान खरीदा, कटोरियां, प्लेटें, गिलास, चम्मच, दालों के डब्बे, मसालों की डब्बियां, रंगीन परदे, लुभावना कालीन, सुंदर चादरें, चार चूल्हों वाली गैस, सुंदर फूलों की झालरें, छोटा सा माइक्रोवेव, सुंदर तोरण और बंदनवार.

हर रात या तो शुभा उस के घर सोती थी या उसे अपने घर पर सुलाती थी. घर सज गया नेहा का. बुझीबुझी सी रहने वाली नेहा अब कहीं नहीं थी. मुसकराती, अपना घर सजा कर बारबार खुश होती नेहा थी जिस की दबी हुई छोटीछोटी खुशियां पता नहीं कहांकहां से सिर उठा रही थीं. बहुत छोटीछोटी सी थीं नेहा की खुशियां. बाहर बालकनी में चिडि़यों का घर और उन के खानेपीने के लिए मिट्टी के बरतन, बालकनी में बैठ कर चाय पीने के लिए 4 प्लास्टिक की कुरसियां और मेज.

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‘‘दीदी, वे नाराज तो नहीं होंगे न?’’

‘‘उन के लिए भी कुछ ले लो न. कोई शर्ट या टीशर्ट या पाजामाकुरता. कुछ बहू के लिए भी तो लो. बेटी की इच्छा पूरी तो हो चुकी है तुम्हारी. वह तुम्हारी बच्ची है न. उसे भी अच्छा लगेगा जब तुम उस के लिए कुछ लोगी. तुम्हें शौक पूरे करने को कुछ नहीं मिला क्योंकि जिम्मेदारियां थीं. तुम बहू का शौक तो पूरा कर दो. अब क्या जिम्मेदारी है? जो तुम्हें नहीं मिला कम से कम वह अपनी बहू को तो दे दो.’’

‘‘उसे पसंद आएगा, जो मैं लाऊंगी?’’

‘‘क्यों नहीं आएगा. मेरे पास कुछ रुपए हैं. मुझ से ले लो.’’

‘‘अपने हाथ से इतने रुपए मैं ने कभी खर्च ही नहीं किए. अजीब सा लग रहा है. पता नहीं, क्याक्या सुनना पड़ेगा जब ब्रजेश आएंगे. दीदी, आप पास ही रहना जब वे आएंगे.’’

‘‘कितने पैसे खर्च किए हैं तुम ने? कबाड़खाने से ही तो सारे पैसे निकल आए हैं. जो रुपए ब्रजेश दे कर गए थे उस से ब्रजेश के लिए और बच्चों के लिए कुछ ले लो. टीशर्ट और शर्ट खरीद लो, बहू के लिए कुरती ले लो, आजकल लड़कियां जींस के साथ वही तो पहनती हैं.’’

बुधवार की शाम ब्रजेश आने वाले थे. बड़े उत्साह से घर सजाया नेहा ने. चाय के साथ पकौड़ों का सामान तैयार रखा. रात के लिए मटरपनीर और दालमखनी भी रसोई में ढकी रखी थी. शुभा के लिए भी एक प्रयोग था जिस का न जाने क्या नतीजा हो. पराई आग में जलना उस का स्वभाव है. आज पराया सुख उसे सुख देगा या नहीं, इस पर भी वह कहीं न कहीं आश्वस्त नहीं थी. पुरानी आदतें इतनी जल्दी साथ नहीं छोड़तीं, पत्नी को दी गई आजादी कौन जाने ब्रजेश सह पाते हैं या नहीं?

द्वारघंटी बजी और शुभा ने ही दरवाजा खोला. ब्रजेश के साथ शायद बेटा और बहू भी थे. बड़े प्यारे बच्चे थे दोनों. उसे देख दोनों मुसकराए और झट से पैर छूने लगे.

‘‘आप शुभा आंटी हैं न. पापा ने बताया सब. मम्मी खुश हैं न?’’ बहुत धीरे से बुदबुदाया वह लड़का.

एक ही प्रश्न में ढेर सारे प्रश्न और आंखों में भी बेबसी और डर. कुछ खो देने का डर. मंदमंद मुसकरा पड़ी शुभा. ब्रजेश आंखें फाड़फाड़ कर अपना सुंदर सजा घर देख रहे थे. आभार था जुड़े हाथों में, भीग उठी पलकों में, शायद आत्मग्लानि की पीड़ा थी. ऐसा क्या ताजमहल या कारूं का खजाना मांगा था नेहा ने. छोटीछोटी सी खुशियां ही तो और कुछ अपनी इच्छा से कर पाने की आजादी.

‘‘नेहा, देखो तुम्हारी बेटी आई है,’’ शुभा ने आवाज दी.

पलभर में सारा परिवार एकसाथ हो गया. नेहा भागभाग कर उन के लिए संजोए उपहार ला रही थी. बेटे का सामान, बहू का सामान, ब्रजेश का सामान.

‘‘मम्मी, आप ने घर कितना सुंदर सजाया है. परदे और कालीन दोनों के रंग बहुत प्यारे हैं. अरे, बाहर चिडि़या का घर देखो, पापा. पापा, चाय बाहर बालकनी में पिएंगे. बड़ी अच्छी हवा चल रही है बाहर. पूरा घर कितना खुलाखुला लग रहा है.’’

नेहा की बहू जल्दी से कुरती पहन भी आई, ‘‘मम्मी, देखो कैसी है?’’

‘‘बहुत सुंदर है बच्चे. तुम्हें पसंद आई न?’’

धन्यवाद देने हेतु बहू ने कस कर नेहा के गाल चूम लिए. ब्रजेश मंत्रमुग्ध से खड़े थे. अति स्नेह से उस के सिर पर हाथ रख पूछा, ‘‘अपने लिए क्या लिया तुम ने, नेहा?’’

‘‘अपने लिए?’’ कुछ याद करना चाहा. क्या याद आता, उस ने तो बस घर सजाया था, अपने लिए अलग कुछ लेती तो याद आता न. बस, गरदन हिला कर बता दिया कि अपने लिए कुछ नहीं लिया.

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‘‘देखो, मैं लाया हूं.’’

बैग से एक सूती साड़ी निकाली ब्रजेश ने. तांत की क्रीम साड़ी और उस का खूब चौड़ा लाल सुनहरा बौर्डर.

शुभा को याद आया ब्रजेश को सूती साड़ी पहनना पसंद नहीं जबकि नेहा की पहली पसंद है कलफ लगी सूती साड़ी. खुशी से रोने लगी नेहा. ब्रजेश जानबूझ कर 3 दिन के लिए आगरा बेटे के पास चले गए थे. पलपल की खबर विजय और शुभा से ले रहे थे. शुभा की तरफ देख आभार व्यक्त करने को फिर हाथ जोड़ दिए. अफसोस हो रहा था उन्हें. क्यों नहीं समझ पाए वे, खुशी भारी साड़ी या भारी गहने में नहीं, खुशी तो है खुल कर सांस लेने में. छोटीछोटी खुशियां जो वे नेहा को नहीं दे पाए.

उलटी गंगा- भाग 3: आखिर योगेश किस बात से डर रहा था

मन ही मन योगेश ने उस चपरासी को हजारों गालियां दी और बेचारे को ‘कामचोर’ का नाम दे कर औफिस से निकलवा दिया. मगर मुक्ता अब अलर्ट रहने लगी थी. वक्त के साथ काम करती और सब के साथ ही निकल जाती. लेकिन योगेश मौका तलाश रहा था किसी तरह उसे अपने चंगुल में फंसाने का.

उस रोज योगेश ने उसे फोन कर के बोला कि कल औफिस के काम से उसे उस के

साथ दूसरे शहर जाना होगा. वह तैयार रहे मगर वह बहाने बनाने लगी.

‘‘मैं तुम से पूछ नहीं रहा हूं, बता रहा हूं और खुशी मनाओ कि तुम्हारा बौस तुम्हें अपने साथ बाहर ले जा रहा है. वरना तुम जैसी लड़कियों को पूछता कौन है,’’ अजीब तरह से हंसते हुए योगेश ने कहा.

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योगेश उस से देहसुख चाहता था, यह बात मुक्ता समझ गई थी, इसलिए जितना भी हो सकता, वह उस से दूर रहने की कोशिश करती. यह भी जानती थी कि योगेश बहुत ही पावरफुल आदमी है. चाहे तो उस की नौकरी भी छीन सकता है. इसलिए वह उस से पंगा भी नहीं लेना चाहती थी. कभीकभी तो उस का मन होता अपनी मां को सब बता दे, पर इसलिए अपने होंठ सी लेती कि जानने के बाद उस की मां जीतेजी मर जाएगी. जब घर में सब सो जाते तब वह अपनी बेबसी पर रोती. कभी उस का मन करता नौकरी छोड़ दे. कभी करता आत्महत्या कर ले, पर जब मां और भाईबहन का खयाल आता तो अपना इरादा बदल लेती.

अब मुक्ता इसी कोशिश में थी कि कहीं और नौकरी मिल जाए, तो योगेश जैसे राक्षस का सामना न करना पड़े और अब तो उस की शादी भी होने वाली थी, तो इस बात का भी उसे डर सताने लगा था कि अगर लड़के वालों को कुछ भनक मिल गई तो क्या होगा.

आखिरकार उसे दूसरी जगह नौकरी मिल ही गई. कुछ महीने बाद उस की शादी भी हो गई. जानबूझ कर उस ने अपना फोन नंबर बदल लिया ताकि भविष्य में कभी योगेश उसे परेशान न करे. कहते हैं, बीते दुखों और आने वाले सुखों के बीच देहरीभर का फासला होता है और वह यह देहरी ढहने नहीं देना चाहती थी. कटी पतंग का आसमान में उड़ कर गुम हो जाना उस की हार नहीं, बल्कि जीत है और मुक्ता जीतना चाहती थी.

मगर यह बात मुक्ता को नहीं पता थी कि आज योगेश खुद ही उस से भय खाए हुए है. मुक्ता के नाम से भी अब उसे डर लगने लगा है. रातरात भर वह सो नहीं पाता. सोचता है पता नहीं कब मुक्ता नाम का यमराज उस के ऊपर बंदूक तान कर खड़ा हो जाए. कोई अनजान व्यक्ति घर में आ जाए या कूरियर वाला कुछ दे कर चला जाए तो उसे लगता मुक्ता ने ही कुछ भेजा होगा. दरवाजे की एक छोटी सी घंटी भी उस का दिल दहला देती. जोरजोर से सांसें भरने लगता. लगता मुक्ता ही आई होगी.

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परसों की ही बात है. एक आदमी नीलिमा के हाथ में एक लिफाफा दे गया. योगेश को लगा जरूर मुक्ता ने ही कुछ भेजा होगा. नीलिमा के हाथ लग गया तो वह तो गया काम से. ‘‘क… कौन है? क्या… क्या है इस में?’’ घबराते हुए उस ने पूछा.

‘‘पता नहीं, लगता है कोई फोटोवोटो है,’’ लिफाफा खोलते हुए नीलिमा बोली.

मगर जब तक नीलिमा लिफाफा खोल पाती, योगेश ने उस के हाथ से पैकेट छीन लिया और कहने लगा कि ऐसे कैसे बिना जाने वह यह लिफाफा खोल सकती है?

‘‘अरे, पागल हो गए हो क्या? क्या हो गया है तुम्हें? क्यों नहीं खोल सकती मैं यह लिफाफा? डर तो ऐसे रहे हो जैसे इस में तुम्हारा कोई पुराना राज छिपा हो?’’

नीलिमा की बातें उस के दिल में तीर की तरह चुभ गईं. कहते हैं न चोर की दाढ़ी में तिनका वही यागेश के साथ हो रहा था. हर बात पर उसे डर लगता कि कहीं वह पकड़ा न जाए. पुराने राज न खुल जाएं. लेकिन उस ने तब राहत की सांस ली जब लिफाफे में कुछ और निकला.

जैसेजैसे मीटू का प्रचार गरमाता जा रहा था, योगेश की दिल की धड़कनें बढ़ती ही जा रही थीं. उस की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ा हुआ था. पलपल वह डर के साए में जी रहा था. कभी सोतेसोते जाग जाता, तो कभी बैठेबैठे अचानक उठ कर यहांवहां घूमने लगता.

अचंभित थी नीलिमा उस के व्यवहार से. सोचती, कहीं पगला तो नहीं गया यह? मगर योगेश के दिल की हालत वह क्या जाने भला. सालों पहले उस के किए पाप अब उस के गले की हड्डी बन चुके थे. सोचता, काश, मुक्ता मिल जाए और वह अपने किए की उस से माफी मांग ले, तो सब ठीक हो जाएगा. कभी सोचता काश, बीते पल वापस लौट आएं और वह सब सुधार दे. मगर क्या बीते पल कभी वापस आए हैं.

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फिर सोचा, क्यों न खुद जा कर मुक्ता से उस बात की माफी मांग ले. जरूर वह उसे माफ कर देगी. आखिर औरतों का दिल बहुत बड़ा होता. बहुत ढूंढ़ने पर मुक्ता का पता उसे मिल ही गया. मगर तब उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. जब उस ने मुक्ता को उस वकील के साथ थाने में प्रवेश करते देखा. उसे लगा जरूर वह उस के खिलाफ ही शोषण का केस करने गई होगी. खड़ेखड़े योगेश को लगा वह गश खा कर वहीं गिर पड़ेगा. अगर उस राहगीर ने न संभाला होता, तो सच में गिर ही पड़ता.

‘‘धन्यवाद भाई,’’ उस बचाने वाले आदमी को धन्यवाद कह योगेश थाने के आसपास ही चक्कर काटने लगा ताकि मुक्ता निकले तो उस से बात कर सके, अपने किए की माफी मांग सके. मगर वह कब किस रास्ते से निकल गई पता ही नहीं चला.

इस तरह उसे हफ्तों बीत गए, पर मुक्ता से बात न हो पाई और न ही पता लग पाया कि क्यों वह थाने आई थी. लेकिन एक दिन उसे पता चल ही गया कि वह यहां अपने भाई की पत्नी की शिकायत पर पैरवी कर रही है. किसी तरह अपने भाई को सजा से बचाना चाह रही है और इसलिए वह वकील के साथ थाने आई थी. दरअसल, उस की भाभी ने उस के भाई पर उसे मारनेपीटने को ले कर पुलिस में शिकायत कर दी थी. इसलिए वह थाने के चक्कर काट रही थी. सारी बातें जानने के बाद योगेश ने राहत की सांस ली. लगा वह बच गया. तभी उस का फोन घनघना उठा. देखा, तो नीलिमा का फोन था. चिल्लाए जा रही थी कि वह कहां है और अब तक घर क्यों नहीं आया.

जैसी ही योगेश घर पहुंचा, दैत्य की तरह नीलिमा उस के सामने खड़ी हो गई और पूछने लगी कि अब तक वह कहां था? फिर बताने लगी कि अमन अंकल फिलहाल तो जमानत पर छूट गए, मगर बच नहीं पाएंगे. उन का किया पाप एक न एक दिन ले ही डूबेगा उन्हें.

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अब फिर योगेश को डर सताने लगा. सोचने लगा कि पता नहीं कहीं मुक्ता का दिमाग फिर गया तो…

भले ही योगेश आज खुद को बचा हुआ समझ रहा है, पर तलवार तो उस की भी गरदन पर टंगी है, जो जाने कब गिर जाए. जैसी उलटी गंगा बही है न, शायद ही योगेश बच पाए. जाने कब मुक्ता का दिमाग फिर जाए और वह योगेश के खिलाफ मीटू का केस कर दे. यह बात योगेश भी अच्छी तरह समझता था और जान रहा था कि अब बाकी की जिंदगी ऐसे ही डरडर कर कटेगी उस की. भविष्य में उस के साथ क्या होगा, नहीं पता.

अस्तित्व- भाग 1: क्या तनु ने प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

लेखिका- नीलमणि शर्मा

तनु ने हमेशा झूठे अहम में डूबे प्रणव की भावनाओं का सम्मान किया. लेकिन बदले में प्रणव ने उसे दिया कदमकदम पर अपमान का कटु दंश. और एक दिन तो हद ही हो गई, जब प्रणव ने जीवन भर के इस रिश्ते को ताक पर रख दिया. उम्र भर पति के ताने सहन करती आई तनु क्या प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

कालिज पहुंचते ही तनु ने आज सब से पहले स्टाफ क्वार्टर के लिए आवेदन किया. इतने साल हो गए उसे कालिज में पढ़ाते हुए, चाहती तो कभी का क्वार्टर ले सकती थी पर इतना बड़ा बंगला छोड़ कर यों स्टाफ क्वार्टर में रहने की उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. फिर प्रणव को भी तनु के घर आ कर रहना पसंद नहीं था. उन का अभिमान आहत होता था. उन्हें लगता कि वहां वह  ‘मिस्टर तनुश्री राय’ बन कर ही रह जाएंगे. और यह बात उन्हें कतई मंजूर न थी.

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आज सुबह ही प्रणव ने उसे अपने घर से निकल जाने को कह दिया जबकि तनु को इस घर में 30 साल गुजर चुके हैं. कहने को तो प्रणव ने उसे सबकुछ दिया है, बढि़या सा घर, 2 बच्चे, जमाने की हर सुखसुविधा…लेकिन नहीं दिया तो बस, आत्मसम्मान से जीने का हक. हर अच्छी बात का श्रेय खुद लेना, तनु के हर काम में मीनमेख निकालना और बातबात पर उस को  ‘मिडिल क्लास मानसिकता’ का ताना देना, यही तो किया है प्रणव ने शुरू से अब तक. पलंग पर लेटेलेटे तनु अपने ही जीवन से जुड़ी घटनाओं का तानाबाना बुनने लगी.

इतने वर्षों से तनु को लगने लगा था कि उसे यह सब सहने की आदत सी हो गई है पर आज सुबह उस का धैर्य जवाब दे गया. जैसेजैसे उम्र बढ़ रही थी प्रणव का कहनासुनना बढ़ता जा रहा था और तनु की सहनशीलता खत्म होती जा रही थी.

तनु जानती है कि अमेरिका में रह रहे बेटे के विवाह कर लेने की खबर प्रणव बरदाश्त नहीं कर पा रहे हैं, बल्कि उन के अहम को चोट पहुंची है. अब तक हर बात का फैसला लेने का एकाधिकार उस से छिन जो गया था. प्रणव की नजरों में इस के  लिए तनु ही दोषी है. बच्चों को अच्छे संस्कार जो नहीं दे पाई है…यही तो कहते हैं प्रणव बच्चों की हर गलती या जिद पर.

जबकि वह अच्छी तरह जानते हैं कि बच्चों के बारे में किसी भी तरह का निर्णय लेने का कोई अधिकार उन्होंने तनु को नहीं दिया. यहां तक कि उस के गर्भ के दौरान किस डाक्टर से चैकअप कराना है, क्या खाना है, कितना खाना है आदि बातों में भी अपनी ही मर्जी चलाता. शुरू में तो तनु को यह बात अच्छी लगी थी कि कितना केयरिंग हसबैंड मिला है लेकिन धीरेधीरे पता चला यह केयर नहीं, अपितु स्टेटस का सवाल था.

कितना चाहा था तनु ने कि बेटी कला के क्षेत्र में नाम कमाए पर उसे डाक्टर बनाना पड़ा, क्योंकि प्रणव यही चाहते थे. बेटे को आई.ए.एस. बनाने की चाह भी तनु के मन में धरी की धरी रह गई और वह प्रणव के आदेशानुसार वैज्ञानिक ही बना, जो आजकल नासा में कार्यरत है.

ऐसा नहीं कि बच्चों की सफलता से तनु खुश नहीं है या बच्चे अपने प्राप्यों से संतुष्ट नहीं हैं लेकिन यह भी सत्य है कि प्रणव इस सब से इसलिए संतुष्ट हैं कि बच्चों को इन क्षेत्रों में भेजने से वह और तनु आज सोसाइटी में सब से अलग नजर आ रहे हैं.

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पूरी जिंदगी सबकुछ अपनी इच्छा और पसंद को ही सर्वश्रेष्ठ मानने की आदत होने के कारण बेटे की शादी प्रणव को अपनी हार प्रतीत हो रही है. यही हार गुस्से के रूप में पिछले एक सप्ताह से किसी न किसी कारण तनु पर निकल रही है. प्रणव को वैसे भी गुस्सा करने का कोई न कोई कारण सदा से मिलता ही रहा है.

प्रणव यह क्यों नहीं समझते कि बेटे के इस तरह विवाह कर लेने से तनु को भी तो दुख हुआ होगा. पर उन्हें उस की खुशी या दुख से कब सरोकार रहा है. जब बेटे का फोन आया था तो तनु ने कहा भी था,  ‘खुशी है कि तुम्हारी शादी होगी, लेकिन तुम अगर हमें अपनी पसंद बताते तो हम यहीं बुला कर तुम्हारी शादी करवा देते. सभी लोगों को दावत देते…वहां बहू को कैसा लगेगा, जब घर पर नई बहू का स्वागत करने वाला कोई भी नहीं होगा.’

‘क्या मौम आप भी, कोई कैसे नहीं होगा, दीदी और जीजाजी आ रहे हैं न. आप को तो पता है कि अपनी पसंद बताने पर पापा कभी नहीं होने देते यह शादी. दीदी की बार का याद नहीं है आप को. डा. सोमेश को तो दीदी ने उस तरह पसंद भी नहीं किया था. बस, पापा ने उन्हें रेस्तरां में साथ बैठे ही तो देखा था. घर में कितने दिनों तक हंगामा रहा था. दीदी ने कितना कहा था कि डा. सोमेश केवल उन के कुलीग हैं पर कभी पापा ने सुनी? उन्होंने आननफानन में कैसे अपने दोस्त के डा. बेटे के साथ शादी करवा दी. यह ठीक है कि  जीजाजी भी एकदम परफेक्ट हैं.

‘सौरी मौम, मेरी शादी के कारण आप को पापा के गुस्से का सामना करना पडे़गा. रीयली मौम, आज मैं महसूस करता हूं कि आप कैसे उन के साथ इतने वर्षों से निभा रही हैं. यू आर ग्रेट मौम…आई सेल्यूट यू…ओ.के., फोन रखता हूं. शादी की फोटो ईमेल कर दूंगा.’

तनु बेटे की इन बातों से सोच में पड़ गई. सच ही तो कहा था उस ने. लेकिन वह गुस्सा एक बार में खत्म नहीं हुआ था. पिछले एक सप्ताह से रोज ही उसे इस स्थिति से दोचार होना पड़ रहा है. सुबह यही तो हुआ था जब प्रणव ने पूछा था, ‘सुना, कल तुम निमिषा के यहां गई थीं.’

‘हां.’

‘मुझे बताया क्यों नहीं.’

‘कल रात आप बहुत लेट आए तो ध्यान नहीं रहा.’

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‘‘ध्यान नहीं रहा’ का क्या मतलब है, फोन कर के बता सकती थीं. कोई काम था वहां?’

‘निमिषा बहुत दिनों से बुला रही थी. कालिज में कल शाम की क्लास थी नहीं, सोचा उस से मिलती चलूं.’

‘तुम्हें मौका मिल गया न मुझे नीचा दिखाने का. तुम्हें शर्म नहीं आई कि बेटे ने ऐसी करतूत की और तुम रिश्तेदारी निभाती फिर रही हो.’

‘निमिषा आप की बहन होने के साथसाथ कालिज के जमाने की मेरी सहेली भी है…और रही बात बेटे की, तो उस ने शादी ही तो की है, गुनाह तो नहीं.’

‘पता है मुझे, तुम्हारी ही शह से बिगड़ा है वह. जब मां बिना पूछे काम करती है तो बेटे को कैसे रोक सकती है. भूल जाती हो तुम कि अभी मैं जिंदा हूं, इस- घर का मालिक हूं.’

‘मैं ने क्या काम किया है आप से बिना पूछे. इस घर में कोई सांस तो ले नहीं सकता बिना आप की अनुमति के…हवा भी आप से इजाजत ले कर यहां प्रवेश करती है…जिंदगी की छोटीछोटी खुशियों को भी जीने नहीं दिया…यह तो मैं ही हूं कि जो यह सब सहन करती रही….’

‘क्या सहन कर रही हो तुम, जरा मैं भी तो सुनूं. ऐसा स्टेटस, ऐसी शान, सोसाइटी में एक पहचान है तुम्हारी…और कौन सी खुशियां चाहिए?’

अस्तित्व: क्या तनु ने प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

क्षमादान: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

क्षमादान- भाग 1: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

टैक्सी से उतरते हुए प्राची के दिल की धड़कन तेज हो गई थी. पहली बार अपने ही घर के दरवाजे पर उस के पैर ठिठक गए थे. वह जड़वत खड़ी रह गई थी.

‘‘क्या हुआ?’’ क्षितिज ने उस के चेहरे पर अपनी गहरी दृष्टि डाली थी.

‘‘डर लग रहा है. चलो, लौट चलते हैं. मां को फोन पर खबर कर देंगे. जब उन का गुस्सा शांत हो जाएगा तब आ कर मिल लेंगे,’’ प्राची ने मुड़ने का उपक्रम किया था.

‘‘यह क्या कर रही हो. ऐसा करने से तो मां और भी नाराज होंगी…और अपने पापा की सोचो, उन पर क्या बीतेगी,’’ क्षितिज ने प्राची को आगे बढ़ने के लिए कहा था.

प्राची ने खुद को इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया था. उस ने क्षितिज की बात मानी ही क्यों. आधा जीवन तो कट ही गया था, शेष भी इसी तरह बीत जाता. अनवरत विचार शृंखला के बीच अनजाने में ही उस का हाथ कालबेल की ओर बढ़ गया था. घर के अंदर से दरवाजे तक आने वाली मां की पदचाप को वह बखूबी पहचानती थी. दरवाजा खुलते ही वह और क्षितिज मां के कदमों में झुक गए. पर मीरा देवी चौंक कर पीछे हट गईं.

‘‘यह क्या है, प्राची?’’ उन्होंने एक के बाद एक कर प्राची के जरीदार सूट, गले में पड़ी फूलमाला और मांग में लगे सिंदूर पर निगाह डाली थी.

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‘‘मां, मैं ने क्षितिज से विवाह कर लिया है,’’ प्राची ने क्षितिज की ओर संकेत किया था.

‘‘मैं ने मना किया था न, पर जब तुम ने मेरी इच्छा के विरुद्ध विवाह कर ही लिया है तो यहां क्या लेने आई हो?’’ मीरा देवी फुफकार उठी थीं.

‘‘क्या कह रही हो, मां. वीणा, निधि और राजा ने भी तो अपनी इच्छा से विवाह किया था.’’

‘‘हां, पर तुम्हारी तरह विवाह कर के आशीर्वाद लेने द्वार पर नहीं आ खड़े हुए थे.’’

‘‘मां, प्रयत्न तो मैं ने भी किया था, पर आप ने मेरी एक नहीं सुनी.’’

‘‘इसीलिए तुम ने अपनी मनमानी कर ली? विवाह ही करना था तो मुझ से कहतीं, अपनी जाति में क्या लड़कों की कमी थी. अरे, इस ने तो तुम से तुम्हारे मोटे वेतन के लिए विवाह किया है. मैं तुम्हें श्राप देती हूं कि तुम ने मां का दिल दुखाया है, तुम कभी चैन से नहीं रहोगी,’’ और इस के बाद वह ऐसे बिलखने लगीं जैसे घर में किसी की मृत्यु हो गई हो.

‘‘मां,’’ बस, इतना बोल कर प्राची अविश्वास से उन की ओर ताकती रह गई. मां के प्रति उस के मन में बड़ा आदर था. अपना वैवाहिक जीवन वह उन के श्राप के साथ शुरू करेगी, ऐसा तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. अनजाने ही आंखों से अश्रुधारा बह चली थी.

‘‘ठीक है मां, एक बार पापा से मिल लें, फिर चले जाएंगे,’’ प्राची ने कदम आगे बढ़ाया ही था कि मीरा देवी फिर भड़क उठीं.

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‘‘कोई जरूरत नहीं है यह दिखावा करने की. विवाह करते समय नहीं सोचा अपने अपाहिज पिता के बारे में, तो अब यह सब रहने ही दो. मैं उन की देखभाल करने में पूर्णतया सक्षम हूं. मुझे किसी की दया नहीं चाहिए,’’ मीरा देवी ने प्राची का रास्ता रोक दिया.

‘‘कौन है. मीरा?’’ अंदर से नीरज बाबू का स्वर उभरा था.

‘‘मैं उन्हें समझा दूंगी कि उन की प्यारी बेटी प्राची अपनी इच्छा से विवाह कर के घर छोड़ कर चली गई,’’ वह क्षितिज को लक्ष्य कर के कुछ बोलना ही नहीं चाहती थीं मानो वह वहां हो ही नहीं.

‘‘चलो, चलें,’’ आखिर मौन क्षितिज ने ही तोड़ा. वह सहारा दे कर प्राची को टैक्सी तक ले गया और प्राची टैक्सी में बैठी देर तक सुबकती रही. क्षितिज लगातार उसे चुप कराने की कोशिश करता रहा.

‘‘देखा तुम ने, क्षितिज, पापा को पक्षाघात होने पर मैं ने पढ़ाई छोड़ कर नौकरी की. आगे की पढ़ाई सांध्य विद्यालय में पढ़ कर पूरी की. निधि, राजा, प्रवीण, वीणा की पढ़ाई का भार, पापा के इलाज के साथसाथ घर के अन्य खर्चों को पूरा करने में मैं तो जैसे मशीन बन गई थी. मैं ने अपने बारे में कभी सोचा ही नहीं. निधि, राजा और वीणा ने नौकरी करते ही अपनी इच्छा से विवाह कर लिया. तब तो मां ने दोस्तों, संबंधियों को बुला कर विधिविधान से विवाह कराया, दावत दीं. पर आज मुझे देख कर उन की आंखों में खून उतर आया. आशीर्वाद देने की जगह श्राप दे डाला,’’ आक्रोश से प्राची का गला रुंध गया और वह फिर से फूटफूट कर रोने लगी.

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‘‘शांत हो जाओ, प्राची. हमारे जीवन का सुखचैन किसी के श्राप या वरदान पर नहीं, हमारे अपने नजरिए पर निर्भर करता है,’’ क्षितिज ने समझाना चाहा था, पर सच तो यह था कि मां के व्यवहार से वह भी बुरी तरह आहत हुआ था. अपने फ्लैट के सामने पहुंचते ही क्षितिज ने फ्लैट की चाबी प्राची को थमा दी और बोला, ‘‘यही है अपना गरीबखाना.’’

प्राची ने चारों ओर निगाह डाली, घूम कर देखा और मुसकरा दी. डबल बेडरूम वाला छोटा सा फ्लैट बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया गया था.

Father’s Day Special- कीमत संस्कारों की: भाग 2

दीनप्रभु अभावों के जीवन के भुक्तभोगी थे इसलिए वह हाथ लगे इस अवसर को खोना नहीं चाहते थे और सबकुछ जानते और देखते हुए भी वह अपने परिवार के साथ तालमेल बनाए रहे. अमेरिका में आ कर उन्होेंने आगे और पढ़ाई की. फिर बाकायदा विदेश में पढ़ाने का लाइसेंस लिया और फिर वह बच्चों के स्कूल में अध्यापक नियुक्त हो गए.

परिश्रम से दीनप्रभु ने कभी मुंह नहीं मोड़ा. अपनी नौकरी से उन्होंने थोड़ा बहुत पैसा जमा किया और फिर एक दिन उस पैसे से एक छोटा सा ‘फ्रैंचाइज’ रेस्टोरेंट खोल लिया. फिर उन की मेहनत और लगन रंग लाई. रेस्टोरेंट चल निकला और वह थोड़े समय में ही सुखसंपदा से भर गए. पैसा आया तो दीनप्रभु ने दूसरे धंधे भी खोल लिए और फिर एक दिन उन्होंने प्रयास कर के अमेरिकी नागरिकता भी ले ली. फिर तो उन्होंने एकएक कर अपने भाईबहनों के परिवार को भी अमेरिका बुला लिया. अपने परिवार के लोगों को अमेरिका बुलाने से पहले दीनप्रभु ने सोचा था कि जब कभी विदेश में रहते हुए उन्हें अकेलापन महसूस होगा तो वे 2-1 दिन के लिए अपने भाइयों के घर चले जाया करेंगे.

अब तक दीनप्रभु 3 रेस्टोरेंट और 2 गैस स्टेशन के मालिक बन चुके थे. रेस्टोरेंट को वह और उन की पत्नी संभालते थे और दोनों गैस स्टेशनों का भार उन्होंने अपने दोनों बच्चों पर डाल रखा था. खानपान में उन के यहां पहले ही कोई रीतिरिवाज नहीं था और न ही अब है लेकिन फिर भी दीनप्रभु किसी न किसी तरह अपने भारतीय संस्कारों को बचाए रखने की कोशिश कर रहे थे. जबकि उन की पत्नी बड़े मजे से हर तरह का अमेरिकी शाकाहारी व मांसाहारी भोजन खाती थी. पार्टियों में वह धड़ल्ले से शराब पीती और दूसरे युवकों के साथ डांस भी कर लेती थी.

दीनप्रभु जब भी ऐसा देखते तो यही सोच कर तसल्ली कर लेते कि इनसान को दोनोें हाथों में लड्डू कभी भी नहीं मिला करते हैं. यदि उन को विदेशी जीवन की अभ्यस्त पत्नी मिली है तो उस के साथ उन्हें वह सुख और सम्पन्नता भी प्राप्त हुई है कि जिस के बारे में वह प्राय: ही सोचा करते थे.

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विवाह के 25 साल  पलक झपकते गुजर गए. इस बीच संतान के नाम पर उन के यहां एक लड़का और एक लड़की भी आ चुके थे. उन्हें याद है कि जब लौली ने पहली संतान को जन्म दिया था तो उन्होंने कितने उल्लास के साथ उस का नाम हरिशंकर रखा था मगर लौली ने बाद में उस का नाम हरिशंकर से हैरीसन करवा दिया. ऐसा ही दूसरी संतान लड़की के साथ भी हुआ. उन्होंने लड़की का भारतीय नाम पल्लवी रखा था मगर लौली ने पल्लवी को पौलीन बना दिया. लौली का कहना था कि अमेरिकन को हिंदी नाम लेने में कठिनाई आती है. उस समय लौली ने यह भी बताया था कि उस ने भी अपना लीला नाम बदल कर लौली किया था.

लौली की सोच है कि जब जीवन विदेशी संस्कृति में रह कर ही गुजारना है तो वह कहां तक अपने देश की सामाजिक मान्यताओं को बचा कर रख सकती है और दीनप्रभु अपनी पत्नी की इस सोच से सहमत नहीं थे. उन का मानना था कि ठीक है विदेश में रहते हुए खानपान और रहनसहन के हिसाब से हर प्रवासी को समझौता करना पड़ता है लेकिन इन दोनों बातों में अपने देश की उस संस्कृति और संस्कारों की बलि नहीं चढ़ती है कि जिस में एक छोटा भाई अपनी बड़ी बहन को ‘दीदी’, बड़े भाई को ‘भैया’ और अपने से बड़ों को ‘आप’ कह कर बुलाता है. यहां विदेश में ऐसा कोई भी रिवाज या सम्मान नाम की वस्तु नहीं है. यहां चाहे कोई दूसरों से छोटा हो या बड़ा, हर कोई एकदूसरे का नाम ले कर ही बात करता है और जब ऐसा है तो फिर एकदूसरे के सम्मान की तो बात ही नहीं रह सकती है.

एक दिन पौलीन अपने किसी अमेरिकन मित्र को ले कर घर आई और अपने कमरे को बंद कर के उस के साथ घंटों बैठी बातें करती रही तो भारतीय संस्कारों में भीगे दीनप्रभु का मन भीग गया. वह यह सब अपनी आंखों से नहीं देख सके. बेचैनी बढ़ी तो उन्होंने पौलीन से आखिर पूछ ही लिया.

‘कौन है यह लड़का?’

‘डैड, यह मेरा बौय फ्रेंड है,’ पौलीन ने बिना किसी झिझक के उत्तर दिया.

दीनप्रभु जैसे सकते में आ गए. वह कुछ पलों तक गंभीर बने रहे फिर बोले, ‘तुम इस से शादी करोगी?’

उन की इस बात पर पौलीन अपने माथे पर ढेर सारे बल डालती हुई बोली, ‘आई एम नाट श्योर.’ (मैं ठीक से नहीं कह सकती.)

पल्लवी ने कहा तो दीनप्रभु और भी अधिक आश्चर्य में पड़ गए. उन्हें यह सोचते देर नहीं लगी कि उन की लड़की का इस लड़के से यह कैसा रिश्ता है जिसे मित्रता भी नहीं कह सकते हैं और विवाह से पहले होने वाले 2 प्रेमियों के प्रेम की संज्ञा भी उसे नहीं दी जा सकती है. पौलीन अकसर इस लड़के के साथ घूमतीफिरती है. जहां चाहती है, बेधड़क उस के साथ चली जाती है. कई बार रात में भी घर नहीं आती है, उस के बावजूद वह यह नहीं जानती कि इस लड़के से विवाह भी करेगी या नहीं.

काफी देर तक गंभीर बने रहने के बाद दीनप्रभु ने पौलीन से कहा, ‘क्या तुम बता सकती हो कि बौय फ्रेंड और पति में क्या अंतर होता है?’

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‘कोई विशेष नहीं डैड. दोनों ही एकजैसे होते हैं. अंतर है तो केवल इतना कि बौय फ्रेंड की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है जबकि पति की बाकायदा अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति एक ऐसा उत्तरदायित्व होता है जिसे उसे पूरा करना ही होता है.’

अतीत की यादें दिमाग में तभी साकार रूप लेती हैं जब कुछ मिलतीजुलती घटनाएं सामने घटित हों. विवाह के बारे में बेटी का नजरिया जान कर उन्हें अपनी बहनों की शादी की याद आ गई. दीनप्रभु ने अपनी मर्जी से कभी अपनी दोनों छोटी बहनों के लिए वर चुने थे और दोनों में से किसी ने भी चूं तक न की थी. मगर आज घर में उन की स्थिति यह है कि अपनी ही बेटी के जीवनसाथी के चुनाव के बारे में जबान तक नहीं खोल सकते हैं.

दीनप्रभु को शिद्दत के साथ एहसास हुआ कि नए समाज का जो यह नया धरातल है उस पर उस के जैसा सदाचारी, सरल स्वभाव का इनसान एक पल को भी खड़ा नहीं हो सकता है. जिंदगी के सुव्यवस्थित आयाम यदि बाहरी दबाव के कारण बदलने लगें तो इनसान एक बार को सहन कर लेता है लेकिन जब अपने ही लोग खुद के बनाए हुए रहनसहन के दायरों को तोड़ने लगें तो जीवन में एक झटका तो लगता ही है साथ ही इनसान अपनी विवशता के लिए हाथ भी मलने को मजबूर हो जाता है.

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दीनप्रभु जानते थे कि अपने द्वारा बनाए उस माहौल में रहने को वह मजबूर हैं जिस की एक भी बात उन को रास नहीं आती. वह यह भी समझते थे कि यदि उन्होंने कोई भी कड़ा कदम उठाने की चेष्टा की तो जो घर बनाया है उसे बरबादियों का ढांचा बनते देर भी नहीं लगेगी. जिस देश और समाज में वह रह रहे हैं उस की मान्यताओं को स्वीकार तो उन्हें करना ही पड़ेगा. जिस देश का चलन यह कहे कि ‘ये मेरा अपना जीवन है, आप कुछ भी नहीं कह सकते हैं’ और ‘अब मैं 21 वर्ष का बालिग हो चुका हूं,’ वहां पर बच्चों को जन्म देने वाले मातापिता का नाम केवल इस कारण चलता है क्योंकि बच्चे को जन्म देने वाले कोई न कोई मातापिता ही तो होते हैं.

आसरा- भाग 1: नासमझ जया को करन से प्यार करने का क्या सिला मिला

लेखक- मीनू सिंह

धूप का एक उदास सा टुकड़ा खिड़की पर आ कर ठिठक गया था, मानो अपने दम तोड़ते अस्तित्व को बचाने के लिए आसरा तलाश रहा हो. खिड़की के पीछे घुटनों पर सिर टिकाए बैठी जया की निगाह धूप के उस टुकड़े पर पड़ी, तो उस के होंठों पर एक सर्द आह उभरी. बस, यही एक टुकड़ा भर धूप और सीलन भरे अंधेरे कमरे का एक कोना ही अब उस की नियति बन कर रह गया है.

अपनी इस दशा को जया ने खुद चुना था. इस के लिए वह किसे दोष दे? कसूर उस का अपना ही था, जो उस ने बिना सोचेसमझे एक झटके में जिंदगी का फैसला कर डाला. उस वक्त उस के दिलोदिमाग पर प्यार का नशा इस कदर हावी था कि वह भूल गई कि जिंदगी पानी की लहरों पर लिखी इबारत नहीं, जो हवा के एक झोंके से मिट भी सकती है और फिर मनचाही आकृति में ढाली भी जा सकती है.

जिंदगी तो पत्थर पर उकेरे उन अक्षरों की तरह होती है कि एक बार नक्श हो गए तो हो गए. उसे न तो बदला जा सकता है और न मिटाया जा सकता है. अपनी भूल का शिद्दत से एहसास हुआ तो जया की आंखें डबडबा आईं. घुटनों पर सिर टिकाए वह न जाने कब तक रोती रही और उस की आंखों से बहने वाले आंसुओं में उस का अतीत भी टुकड़ेटुकड़े हो कर टूटताबिखरता रहा.

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जया अपने छोटे से परिवार में  तब कितनी खुश थी. छोटी बहन अनुपमा और नटखट सोमू दीदीदीदी कहते उस के चारों ओर घूमा करते थे. बड़ी होने की वजह से जया उन दोनों का आदर्श भी थी, तो उन की छोटी से छोटी समस्या का समाधान भी. मां आशा और पिता किशन के लाड़दुलार और भाईबहन के संगसाथ में जया के दिन उन्मुक्त आकाश में उड़ते पंछी से चहकते गुजर रहे थे.

इंटर तक जया के आतेआते उस के भविष्य को ले कर मातापिता के मन में न जाने कितने अरमान जाग उठे थे. अपनी मेधावी बेटी को वह खूब पढ़ाना चाहते थे. आशा का सपना था कि चाहे जैसे भी हो वह जया को डाक्टर बनाएगी जबकि किशन की तमन्ना उसे अफसर बनाने की थी.

जया उन दोनों की चाहतों से वाकिफ थी और उन के प्रयासों से भी. वह अच्छी तरह जानती थी कि पिता की सीमित आय के बावजूद वह  दोनों उसे हर सुविधा उपलब्ध कराने से पीछे नहीं हटेंगे. जया चाहती थी कि अच्छी पढ़ाई कर वह अपने मांबाप के सपनों में हकीकत का रंग भरेगी. इस के लिए वह भरपूर प्रयास भी कर रही थी.

उस के सारे प्रयास और आशा तथा किशन के सारे अरमान तब धरे के धरे रह गए जब जया की आंखों  में करन के प्यार का नूर आ समाया. करन एक बहार के झोंके की तरह उस की जिंदगी में आया और देखतेदेखते उस के अस्तित्व पर छा गया.

वह दिन जया कैसे भूल सकती है जिस दिन उस की करन से पहली मुलाकात हुई थी, क्योंकि उसी दिन तो उस की जिंदगी एक ऐसी राह पर मुड़ चली थी जिस की मंजिल नारी निकेतन के सीलन भरे अंधेरे कमरे का वह कोना थी, जहां बैठी जया अपनी भूलों पर जारजार आंसू बहा रही थी. लेकिन उन आंसुओं को समेटने के लिए न तो वहां मां का ममतामयी आंचल था और न सिर पर प्यार भरा स्पर्श दे कर सांत्वना देने वाले पिता के हाथ. वहां थी तो केवल केयरटेकर की कर्कश आवाज या फिर पछतावे की आंच में सुलगती उस की अपनी तन्हाइयां, जो उस के वजूद को जला कर राख कर देने पर आमादा थीं. इन्हीं की तपन से घबरा कर जया ने अपनी आंखें बंद कर लीं. आंखों पर पलकों का आवरण पड़ते ही अतीत की लडि़यां फिर टूट-टूट कर बिखरने लगीं.

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जया के घर से उस का स्कूल ज्यादा दूर नहीं था. मुश्किल से 10-12 मिनट का रास्ता रहा होगा. कभी कोई लड़की मिल जाती तो स्कूल तक का साथ हो जाता, वरना जया अकेले ही चली जाया करती थी. उस ने स्कूल जाते समय करन को कई बार अपना पीछा करते देखा था. शुरूशुरू में उसे डर भी लगा और उस ने अपने पापा को इस बारे में बताना भी चाहा, लेकिन जब करन ने उस से कभी कुछ नहीं कहा तो उस का डर दूर हो गया.

करन एक निश्चित मोड़ तक उस के पीछेपीछे आता था और फिर अपना रास्ता बदल लेता था. जब कई बार लगातार ऐसा हुआ तो जया ने इसे अपने मन का वहम समझ कर दिमाग से निकाल दिया और इस के ठीक दूसरे ही दिन करन ने जया के साथसाथ चलते हुए उस से कहा, ‘प्लीज, मैं आप से कुछ कहना चाहता हूं.’

जया ने चौंक कर उस की ओर देखा और रूखे स्वर में बोली, ‘कहिए.’

‘आप नाराज तो नहीं हो जाएंगी?’ करन ने पूछा, तो जया ने उपेक्षा से कहा, ‘मेरे पास इन फालतू बातों के लिए समय नहीं है. जो कहना है, सीधे कहो.’

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‘मैं करन हूं. आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.’ करन ने कुछ झिझकते और डरते हुए कहा.

अपनी बात कहने के बाद करन जया की प्रतिक्रिया जानने के लिए पल भर भी नहीं रुका और वापस मुड़ कर तेजी से विपरीत दिशा की ओर चला गया. करन के कहे शब्द देर तक जया के कानों में गूंजते और मधुर रस घोलते रहे. उस की निगाह अब भी उधर ही जमी थी, जिधर करन गया था. अचानक सामने से आती बाइक का हार्न सुन कर उसे स्थिति का एहसास हुआ तो वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ गई.

देसी मेम- भाग 2: क्या राकेश ने अपने मम्मी-पापा की मर्जी से शादी की?

लेखक- शांता शास्त्री

मैं चुपचाप बाथरूम में घुस गया. आराम से नहायाधोया और तैयार हो कर बाहर निकला तो चारों ओर सन्नाटा था. शायद वे लोग जा चुके थे. बाद में मां ने बताया कि आज रात का खाना मिश्रा अंकल के यहां है. मैं निढाल हो कर सोफे में धंस गया. कहां तो मैं अपने परिवार के साथ हंसीखुशी समय बिताना चाहता था, ढेर सारी बातें करना चाहता था और छोटी बहन मधु को घुमाने ले जाना चाहता था, कहां मैं एक पल भी उन के साथ चैन से नहीं बिता पा रहा हूं.

मिश्राजी के घर आ कर मुझे लगा जैसे बहुत कीमती फिल्मी शूटिंग के सेट पर आ गया हूं. दीवारों पर कीमती पेंटिंग्स तो कहीं शेर की खाल टंगी थी. कमरे में हलकाहलका पाश्चात्य संगीत और वातावरण में फैला रूम फ्रेशनर पूरे माहौल को मदहोश बना रहा था. ऐसे रोमानी वातावरण में जाने क्यों मेरा दम घुट रहा था. इतने में एक लड़की हाथ में ट्रे ले कर आई और सब को कोल्ड ड्रिंक देने लगी.

‘‘शी इज माइ डाटर, पमी. शी इज वर्किंग एज ए कंप्यूटर इंजीनियर,’’ मिश्राजी ने परिचय कराया.

‘‘बेटा, अंकल और आंटी को तो तुम जानती ही हो. यह इन के बेटे मि. राकेश कुमार हैं. अमेरिका में पढ़ाई पूरी कर के वहीं जाब कर रहे हैं. छुट्टियों में भारत आए हैं.’’

लड़की बस, बार्बी डौल थी. तराशे हुए नैननक्श, बोलती आंखें, छोटे से चुस्त काले लिबास में कुदरत ने उस के शरीर के किस उतारचढ़ाव को कैसे तराशा था यह साफ झलक रहा था. होंठों और गालों का गुलाबी रंग उसे और भी गोरा बना रहा था. उस ने ट्रे को तिपाई पर रख कर तपाक से मेरी ओर हाथ बढ़ाया. पता नहीं क्यों मुझे सूसन की याद आ गई.

बातों का सिलसिला जो शुरू हुआ तो पता ही नहीं चला कि हम पहली बार मिल रहे हैं. गपशप में ज्यादातर अमेरिका की ही बातें चलीं. उस के कौनकौन से दोस्त अमेरिका में हैं, कौन कितना कमाता है, कौनकौन क्याक्या तोहफे लाता है. यानी हम सब थोड़ी देर के लिए अमेरिका चले गए थे.

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मैं ने गौर किया कि मिश्राजी और उन के बच्चे आपस में अंगरेजी में ही बातचीत कर रहे थे. उन के बोलने का अंदाज, भाषा और बातचीत से ऐसा लग रहा था जैसे वे अभीअभी विदेश से लौटे हैं और बडे़ दुर्भाग्य से यहां फंस गए हैं. मैं ने मन ही मन सोचा, मैं यह कहां आ गया हूं? क्या यही मेरा भारत महान है? मुझे ढंग का भारतीय खाना तो मिलेगा न कि यहां भी मंदाकिनी नहीं किनी के घर की तरह फ्रैंकी टोस्ट, पैटीज आदि ही मिलेंगे. भारत में आए 2 दिन हो गए हैं पर अब तक भारतीय खाना नसीब नहीं हुआ है.

‘‘पमी बेटे, राकेश को अपना घर तो दिखाओ.’’

पमी और उस का भाई बंटी सारा घर दिखाने के बाद मुझे अपने पर्सनल बार में ले गए जो तरहतरह की रंगीन बोतलों और पैमानों से भरा हुआ था. पमी ने उन में से चुन कर एक बोतल और 3 खूबसूरत पैमाने निकाले और उन्हें उस हलके गुलाबी रंग के द्रव से भरा. फिर दोनों ने अपने पैमानों को चियर्स कहते हुए मुंह से लगा लिया.

कौन कहता है कि भारत एक पिछड़ा हुआ देश है? आंख के अंधो, देख लो, क्या बोलचाल, क्या खानपान, क्या रहनसहन, क्या पहननाओढ़ना… किसी भी मामले में भारतीय किसी से कम नहीं हैं, बल्कि दो कदम आगे ही हैं.

‘‘अरे, यार, तुम तो ले ही नहीं रहे हो. अगर यह वैरायटी पसंद नहीं है तो दूसरा कुछ खोल लें?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. वास्तव में आज सुबह भी दोस्तों के साथ एक बड़ी भारी पार्टी हुई थी. हम सब ने छक कर खायापिया, इसलिए अब खानेपीने की बिलकुल इच्छा नहीं हो रही है,’’ मैं ने बहाना बनाया.

‘‘अरे, यह तो ठीक नहीं हुआ. हम किसी और दिन फिर से मिलेंगे,’’ पमी ने कहा.

मैं ने खाने की रस्म निभाई. तब तक रात के साढे़ 11 बज गए थे. वहां से निकले तो रास्ते में मैं ने पिताजी से पूछ लिया, ‘‘पापा, क्या कल सचमुच कहीं जाना है?’’

‘‘हां, बेटे. कल इंदौर जाना है. तेरे बडे़ मामा की बेटी को देखने लड़के वाले आ रहे हैं. उन लोगों के साथ हमारे ऐसे संबंध हैं कि हम हर सुखदुख में एकदूसरे के साथ होते हैं और फिर चांदनी के बडे़ भाई होने के नाते तुम्हारा फर्ज बनता है कि तुम इस अवसर पर उस के साथ रहो,’’ पापा ने कहा.

मुझे अच्छा लगा. बचपन से ही मेरा मामाजी के परिवार के साथ बड़ा लगाव था. मधु और चांदनी में मुझे कोई अंतर नजर नहीं आता. चांदनी इतनी बड़ी हो गई है कि उस के लिए रिश्ते भी आ गए. इस का अर्थ है कि अब मधु के लिए भी एक अच्छा सा लड़का ढूंढ़ना पडे़गा. यह सोचने के बाद मुझे ऐसा लगा जैसे अचानक मेरी उम्र बढ़ गई है और मैं एक जिम्मेदार बड़ा भाई हूं.

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चांदनी के लिए जो रिश्ता आया था वे बडे़ अच्छे लोग थे. सब लोग थोडे़ ही समय में ऐसे घुलमिल गए थे मानो लंबे समय से जानपहचान हो. हंसीमजाक और बातों में समय कैसे बीता पता ही नहीं चला. खानेपीने के बाद जब गपशप हो रही थी तब लड़के ने मेरे और मेरी नौकरी के बारे में रुचि दिखाई, तो मैं ने उसे विस्तार से अपने काम के बारे में बताया. अंत में मैं ने कहा, ‘‘हम सोचते हैं कि सारी दुनिया में अमेरिका से बढ़ कर कोई नहीं है. वही सर्वश्रेष्ठ या कामयाब देश है. मगर क्या आप जानते हैं कि वास्तव में उस की तरक्की या कामयाबी का कारण क्या है या कौन लोग हैं?’’

लड़के ने कहा, ‘‘हम प्रवासी लोग.’’

मैं ने सिर हिलाया, ‘‘बिलकुल सही. आप जानते हैं कि वास्तव में अमेरिका का अस्तित्व ही हम जैसे अनेक विदेशियों से है. सारी दुनिया के कुशाग्र लोगों को उस ने पैसों के दम पर अपने वश में कर रखा है और उन्हीं के सहारे आज वह आसमान की बुलंदियों को छू रहा है.’’

अजय ने मेरी बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं. क्या नहीं है हमारे पास एक दृढ़ संकल्प के अलावा?’’ उस की बातों में कड़वा सच था.

मेहमानों के जाने के बाद मैं ने एक समोसा उठा कर खट्टीमीठी चटनी में डुबो कर खाते हुए कहा, ‘‘मामीजी, इसी प्रकार के स्वादिष्ठ व्यंजन खाने के लिए तो मैं भाग कर भारत आया पर जहां जाता हूं पश्चिमी पकवान ही खाने को मिलते हैं.’’

‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया? तुम्हें आए तो आज 5 दिन हो गए हैं.’’

‘‘जाने भी दीजिए मामीजी…क्या सुनाऊं मैं अपने दुखों की दासतां,’’ मैं ने नाटकीय अंदाज में कहा.

मधु ने जब सारा हाल अभिनय के साथ लोगों को सुनाया तो सब का हंसतेहंसते बुरा हाल हो गया.

‘‘चिंता न करो, रात को मैं ऐसी बढि़याबढि़या चीजें बनाऊंगी कि तुम भी क्या याद करोगे अपनी मामी को.’’

‘‘ये हुई न बात. मामीजी, आप मुझ से कितना प्यार करती हैं,’’ मैं ने उन के हाथों को चूम लिया.

‘‘अब आप लोग थोड़ा आराम कर लीजिए,’’ मामी बोलीं, ‘‘शाम को कुछ मेहमान आने वाले हैं और मैं रसोई में शाम के नाश्ते व खाने की तैयारी करने जा रही हूं.’’

‘‘मामी, शाम को भी कोई दूसरे लड़के वाले चांदनी को देखने के लिए आने वाले हैं क्या…चांदनी, मेरी मान तो यह लड़का जो अभीअभी यहां से गया है, उस के लिए हां कर दे. बड़ा सुशील, शांत और सुलझे हुए विचारों का लड़का है. तुझे धन के ढेर पर बिठाए या न बिठाए पर सारी जिंदगी पलकों पर बिठा कर रखेगा.’’

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मैं ने कहा तो चांदनी शर्म से लाल हो गई. सब लोग मेरी इस बात से पूरी तरह सहमत थे. तभी मामाजी बोले, ‘‘राकेश बेटा, हमारे बडे़ अच्छे दोस्त हैं गौतम उपाध्याय. वह आज शाम सपरिवार खाने पर आ रहे हैं.’’

‘‘यह क्या, मामाजी, आज का ही दिन मिला था उन्हें बुलाने को? कल हम वापस जा ही रहे हैं. कल शाम हमारे जाने के बाद उन्हें बुला लेते.’’

‘‘लो, सुन लो, कल बुला लेते. पहली बात तो यह है कि कल तुम लोग जा नहीं रहे हो, क्योंकि कल किसी के यहां तुम्हारे साथ हमें खाने पर जाना है.’’

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