Family Story : काला धन – क्या वाकई में आ पाया काला धन

Family Story : और मौतों सरीखी वह भी एक मौत थी. एकदम साधारण. किसी 45 से 48 साल के आदमी की जो किसी प्राइवेट फैक्टरी में नाइट शिफ्ट में सुपरवाइजर था.

उस दिन जब उस ने मंत्रीजी को यह कहते सुना था कि काले धन को बाहर लाने के लिए हमें यह कड़ा कदम उठाना पड़ रहा है और यह फैसला लेना पड़ रहा है कि 500 व 1,000 के नोट बंद किए जाते हैं, तब दीपक कुमार, हां यही नाम था उस का, बहुत खुश हुआ था. वह फैक्टरी

में अपने साथियों से कहने लगा था, ‘‘देखना, अब अच्छे दिन जरूर आएंगे और धन्ना सेठों को अपना काला पैसा निकालना ही पड़ेगा.

‘‘अपनी फैक्टरी का मालिक भी कम थोड़े ही है. इन के पास भी बहुत काला धन है. अब तो सब सामने लाना ही पड़ेगा. देखना दोस्तो, अब तनख्वाह भी समय पर मिल जाया करेगी. अब तो कभी 10 तो कभी 15 तारीख को मिलती है.’’

उस महीने दीपक की बात सौ फीसदी सच हो गई थी. सभी मुलाजिमों को 25 तारीख को ही तनख्वाह मिल

गई थी, वह भी 500 व 1,000 के कड़कड़ाते नोट. सभी खुश थे.

दीपक तो सभी से कह रहा था, ‘‘देखो, मेरी बात सच हो गई न? अब आगेआगे देखो, होता है क्या.’’

वैसे, दीपक पिछले 17 सालों से इस फैक्टरी में काम कर रहा था. उस की समय पर सही फैसले लेने की कूवत को देखते हुए उसे परमानैंट नाइट शिफ्ट ही दे दी गई थी.

तनख्वाह के अलावा 2,000 रुपए हर महीने नाइट शिफ्ट भत्ता भी मिल जाता था. दीपक इसी में खुश था. नाइट शिफ्ट में तेज रफ्तार से हुए प्रोडक्शन

के चलते कई बार मैनेजमैंट ने ‘मजदूर दिवस’ पर उस का सम्मान भी किया था.

मैनेजमैंट तो मैनजमैंट ही होता है. निजी संस्थानों का मैनेजमैंट तो और भी सख्त होता है. यहां पर भी मैनेजमैंट द्वारा रखे गए आंखों और कानों ने दीपक की बातों का ब्योरा सभी मसालों के साथ मैनेजमैंट के सामने रख दिया.

हिंदी की एक कहावत है न कि दूध देती गाय की लात भी सहन की जाती है, शायद उसी तर्ज पर दीपक पर कोई कड़ी कार्यवाही नहीं की गई थी.

अगले महीने की पहली तारीख आतेआते तक हालात साफ होने लगे. कारखाने में कच्चे माल की कमी होने लगी. इसी वजह से 5 तारीख से रात की पाली बंद करने का फैसला लेना पड़ा.

दीपक ने जब यह सूचना सुनी तो वह कारखाने के मैनेजर से मिलने पहुंचा.

‘‘दीपक, तुम… नाइट शिफ्ट के बेताज बादशाह. आज दिन में कैसे?’’ मैनेजर ने बनावटी स्वांग के साथ पूछा.

‘‘सर, नाइट शिफ्ट का प्रोडक्शन का सामान न होने के चलते कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया है. मैं चाहता हूं कि इस दौरान मुझे दिन में ड्यूटी दी जाए,’’ दीपक गुजारिश करता हुआ बोला.

‘‘देखो दीपक, दिन में पूरा स्टाफ है और उसे डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा. और फिर तुम ने भी तो सुना है कि मंत्रीजी ने कहा है कि महीने 2 महीने

की दिक्कत है, फिर सब पहले जैसा हो जाएगा. बस, थोड़ा इंतजार करो.

‘‘वैसे भी तुम कई दिनों से अपने गांव नहीं गए हो, जरा गांव तक ही घूम आओ. जैसे ही नाइट शिफ्ट चालू होगी, तुम्हें सूचित कर दिया जाएगा,’’ मैनेजर ने उसे समझाने वाले लहजे में कहा.

दीपक ने सोचा कि यह भी ठीक है. मातापिता से भी वह कई दिनों से नहीं मिला. उन से मिलने चला जाता हूं. मातापिता से आराम से कुछ बातें भी हो जाएंगी.

गांव में दीपक के पिता के पास 10 बीघा जमीन है जिस में मातापिता का गुजारा आराम से हो जाता है.

जिस समय दीपक गांव में पहुंचा उस समय पिताजी घर के आंगन में ही खटिया डाल कर बैठे हुए थे. उन्होंने दूर से ही आते हुए दीपक को पहचान लिया और आवाज दे कर दीपक की मां को भी बाहर बुलवा लिया.

वे दोनों दीपक को इस तरह से बिना सूचना आए देख कर खुश भी थे और हैरान भी. जब दीपक ने अपने आने की वजह बताई और यह बताया कि वह इस बार लंबे समय तक रहेगा तो सभी खुश हो गए और मंत्री को दुआएं देने लगे.

वे दिन दीपक की जिंदगी के सब से अच्छे दिन गुजरे. गांव की ताजा व खुली हवा, पुराने यारदोस्त, मां के हाथ की ज्वार की रोटी. हालांकि पिताजी को फसलों के दाम पिछले साल की तुलना में कम मिले थे, फिर भी वे खुश थे.

धीरेधीरे एक महीना गुजर गया, पर दीपक के कारखाने से कोई फोन नहीं आया. वैसे, दीपक ने खुद कई बार फोन लगाया, पर जल्दी सूचना देने के सिर्फ आश्वासन ही मिले.

दीपक ने वापस शहर जाने का फैसला ले लिया, क्योंकि मातापिता की माली हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी.

शहर में घर का किराया वगैरह चुकाने के बाद उस के पास नाममात्र के पैसे बचे थे, क्योंकि शहर से जाते समय वह मातापिता के लिए कपड़े व कुछ जरूरी सामान भी ले गया था. उसे यकीन था कि फैक्टरी में रात की पाली जल्दी ही चालू हो जाएगी.

दोपहर के तकरीबन 12 बजे दीपक फैक्टरी पहुंच गया. उसे फैक्टरी मैनेजर साहब औफिस के बाहर ही मिल गए. वह उन से अपनी ड्यूटी के सिलसिले में बातें करने लगा और वह हमेशा की तरह उसे उम्मीद बंधाने वाले जवाब दे रहे थे.

‘‘बस, अगले 15-20 दिनों में माली हालत में सुधार होते ही फैक्टरी की नाइट शिफ्ट चालू कर दी जाएगी. अभी तो जो लोग काम कर रहे हैं उन की तनख्वाह ही समय पर होना मुश्किल है.

‘‘मैं इसी उधेड़बुन में बाहर निकला हूं कि कारखाने का कौन सा स्क्रैप बेच कर मुलाजिमों की तनख्वाह निकाल सकूं. तुम्हारी जानकारी में ऐसा कोई स्क्रैप हो तो बताओ,’’ आश्वासन देते हुए मैनेजर ने दीपक से पूछा.

दीपक मैनेजर को अपनी जानकारी के मुताबिक स्क्रैप के बारे में बताने लगा. तभी एक लंबी चमचमाती सफेद कार कारखाने में दाखिल हुई.

‘‘अरे, सेठजी आ गए,’’ कहते हुए मैनेजर कार की तरफ लपका.

चूंकि दीपक उस कारखाने का पुराना मुलाजिम था, इसी वजह से मालिक भी उसे पहचानते थे.

‘‘नमस्ते सर,’’ दीपक ने मालिक को देखते ही हाथ जोड़ कर कहा.

‘‘कैसे हो दीपक?’’ कार से उतर कर मालिक ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं सर,’’ दीपक ने जवाब दिया.

‘‘कैसे आना हुआ?’’ मालिक ने पूछा.

‘‘सर, पिछले डेढ़ महीने से नाइट शिफ्ट बंद है. यही जानकारी लेने आया था कि कब तक फिर से चालू हो जाएंगी,’’ दीपक ने जवाब दिया.

मालिक ने इशारे से उसे अपने औफिस में आने को कहा. दीपक को लगा कि अब तो उस की ड्यूटी फिर से चालू हो ही जाएगी. आखिर इतने दिनों तक उस ने अकेले रातरात भर जाग कर अच्छा प्रोडक्शन जो दिया था. कई बार मुश्किल हालात में भी कारखाने को अच्छे से चलाए रखने का इनाम शायद आज उसे मिल जाए.

औफिस के अंदर सिर्फ 2 ही लोग थे कारखाने के मालिक और दीपक.

मालिक ने ही बात शुरू की और बोले, ‘‘हां, तो दीपक उस दिन वर्करों

से क्या कह रहे थे तुम? सेठ का काला धन अब बाहर निकल आएगा… और देखो, निकल आया.

‘‘जिसे तुम काला धन कह रहे थे, उसी धन से तुम्हारे जैसे कितने लोगों के घर के चूल्हे जल रहे थे. तुम्हारे घर वालों को दवादारू मिल रही थी. तुम्हें मिलने वाला पैसा तुम्हारे जीने का आधार था.

‘‘अब बताओ कि इस से क्या साबित हुआ? काला धन किस के पास था? मेरे पास या तुम्हारे पास? मैं तो जितना खाना तब खाता था उतना ही अब भी खा रहा हूं. भूखा कौन मर रहा है? तुम्हारे जैसे मेहनती लोग न? तो फिर काला धन किस के पास हुआ और किस का निकला? तुम्हारा ही न?

‘‘देखो, मैं जो देख रहा हूं उस के मुताबिक कम से कम 6 महीने तक तो यह फैक्टरी पूरे तौर पर नहीं चल पाएगी. तुम चाहो तो दूसरी नौकरी ढूंढ़ लो, पर मैं जहां तक जानता हूं तकरीबन हर इंडस्ट्री की हालत ऐसी ही है. अब तुम जा सकते हो.’’

दीपक भारी कदमों से औफिस के बाहर निकल गया. घर जाते समय सोच रहा था कि इस से तो काला धन ही बेहतर था. कम से कम करोड़ों मजदूरों को रोजगार तो मिला हुआ था. घर चल रहा था, बच्चे पढ़ रहे थे.

सोचतेसोचते दीपक एक बगीचे में पहुंच गया. यहां लोग सुबहशाम घूमने के लिए आते हैं. पर इस दोपहरी में भी वहां पर कई लोग बैठे थे जो उस के जैसे ही थे. वे भी आसपास की फैक्टरियों में रोजगार तलाश रहे थे.

अब दीपक को मालिक के शब्द सही लगने लगे थे. पहले जो लोग मलाई खा रहे थे, वे तो अब भी गाढ़ा दूध पी रहे हैं, पर जो लोग सूखी रोटी खा रहे थे, वे बेचारे तो भूखे ही मर रहे हैं. गलती कौन कर रहा है और सजा कौन पा रहा है. ठीक है कि अगले 10-15 सालों का भारत अलग होगा, पर आज जो मर रहे हैं, उन का क्या? इस माहौल में जो बच्चे बड़े हो रहे हैं, क्या वे इन कमियों की वजह से अपराधी नहीं बनेंगे?

बेहतर होता कि इस के दूरगामी नतीजों की जांचपड़ताल कर इस फैसले को धीरेधीरे असरदार ढंग से लागू किया जाता. एक अपराध को रोकने की वजह दूसरे अपराधों की जन्मदाता तो नहीं होती.

पता नहीं, दीपक को कब गहरी नींद लग गई. इतनी गहरी कि फिर कभी उठ ही नहीं पाया. लोग कह रहे थे, दिल के दौरे से मौत हुई थी, पर असलियत…

Family Story : वापसी – वीरा के दिमाग में था कौन सा बवंडर

Family Story : दिल्ली पहुंचने की घोषणा के साथ विमान परिचारिका ने बाहर का तापमान बता कर अपनी ड्यूटी खत्म की, लेकिन वीरा की ड्यूटी तो अब शुरू होने वाली थी. अंडमान निकोबार से आया जहाज जैसे ही एअरपोर्ट पर रुका, वीरा के दिल की धड़कनें यह सोच कर तेज होने लगीं कि उसे लेने क्या विजेंद्र आया होगा?

अपने ही सवालों में उलझी वीरा जैसे ही बाहर आई कि सामने से दौड़ कर आती विपाशा ‘मांमां’ कहती उस से आ कर लिपट गई.

वीरा ने भी बेटी को प्यार से गले लगा लिया.

‘5 साल में तू कितनी बड़ी हो गई,’ यह कहते समय वीरा की आंखें चारों ओर विजेंद्र को ढूंढ़ रही थीं. शायद आज भी विजेंद्र को कुछ जरूरी काम होगा. विपाशा मां को सामान के साथ एक जगह खड़ा कर गाड़ी लेने चली गई. वह सामान के पास खड़ी- खड़ी सोचने लगी.

5 साल पहले उस ने अचानक अंडमान निकोबार जाने का फैसला किया, तो  महज इसलिए कि वह विजेंद्र के बेरुखी भरे व्यवहार से तिलतिल कर मर रही थी.

विजेंद्र ने भरपूर कोशिश की कि अपनी पत्नी वीरा से हमेशा के लिए पीछा छुड़ा ले. उस ने तो कलंक के इतने लेप उस पर चढ़ाए कि कितना ही पानी से धो लो पर लेप फिर भी दिखाई दे.

यही नहीं विजेंद्र ने वीरा के सामने परेशानियों के इतने पहाड़ खड़े कर दिए थे कि उन से घबरा कर वह स्वयं विजेंद्र के जीवन से चली जाए. लेकिन वीरा हर पहाड़ को धीरेधीरे चढ़ कर पार करने की कोशिश में लगी रही.

अचानक ही अंडमान में नौकरी का प्रस्ताव आने पर वह एक बदलाव और नए जीवन की तैयारी करते हुए वहां जाने को तैयार हो गई.

अंडमान पहुंच कर वीरा ने अपनी नई नौकरी की शुरुआत की. उसे वहां चारों ओर बांहों के हार स्वागत करते हुए मिले. कुछ दिन तो जानपहचान में निकल गए लेकिन धीरेधीरे अकेलेपन ने पांव पसारने शुरू कर दिए. इधर साथ काम करने वाले मनचलों में ज्यादातर के परिवार तो साथ थे नहीं, सो दिन भर नौकरी करते, रात आते ही बोतल पी कर सोने का सहारा ढूंढ़ लेते.

छुट्टी होने पर घर और घरवाली की याद आती तो फोन घुमा कर झूठासच्चा प्यार दिखा कर कुछ धर्मपत्नी को बेवकूफ बनाते और कुछ अपने को भी. ऐसी नाजुक स्थिति में वे हर जगह हर किसी महिला की ओर बढ़ने की कोशिश करते, पट गई तो ठीक वरना भाभीजी जिंदाबाद. अंडमान में वीरा अपने कमरे की खिड़की पर बैठ कर अकसर यह नजारे देखती. कई बार बाहर आने के लिए उसे भी न्योते मिलते पर उस का पहला जख्म ही इतना गहरा था कि दर्द से वह छटपटाती रहती.

कंपनी से वीरा को रहने के लिए जो फ्लैट मिला था, उस फ्लैट के ठीक सामने पुरुष कर्मचारियों के फ्लैट थे. बूढ़ा शिवराम शर्मा भी अकसर शराब पी कर नीचे की सीढि़यों पर पड़ा दिख जाता. कैंपस के होटलों में शिवराम खाना कम खाता रिश्ते ज्यादा बनाने की कोशिश करता. उस के दोस्ती करने के तरीके भी अलगअलग होते थे. कभी धर्म के नाते तो कभी एक ही गांव या शहर का कह कर वह महिलाओं की तलाश में रहता था. शिवराम टेलीफोन डायरेक्टरी से अपनी जाति के लोगों के नाम से घरों में भी फोन लगाता. हर रोज दफ्तर में उस के नएनए किस्से सुनने को मिलते. कभीकभी उस की इन हरकतों पर वीरा को गुस्सा भी आता कि आखिर औरत को वह क्या समझता है?

कभीकभी उस का साथी बासु दा मजाक में कह देता, ‘बाबू शिवराम, घर जाने की तैयारी करो वरना कहीं भाभीजी भी किसी और के साथ चल दीं तो घर में ताला लग जाएगा,’ और यह सुनते ही शिवराम उसे मारने को दौड़ता.

3 महीने पहले आए राधू के कारनामे देख कर तो लगता था कि वह सब का बाप है. आते ही उस ने एक पुरानी सी गाड़ी खरीदी, उसे ठीकठाक कर के 3-4 महिलाओं को सुबहशाम दफ्तर लाने और वापस ले जाने लगा था. शाम को भी वह बेमतलब गाड़ी मैं बैठ कर यहांवहां घूमता फिरता.

एक दिन अचानक एक जगह पर लोगों की भीड़ देख कर यह तो लगा कि कोई घटना घटी है लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था. भीड़ छंटने पर पता चला कि राधू ने किसी लड़की को पटा कर अपनी कार में लिफ्ट दी और फिर उस के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी तो लड़की ने शोर मचा दिया. जब भीड़ जमा हो गई तो उस ने राधू को ढेरों जूते मारे.

वीरा अकसर सोचती कि आखिर यह मर्दों की दुनिया क्या है? क्यों औरत को  बेवकूफ समझा जाता है. दफ्तर में भी वीरा अकसर सब के चेहरे पढ़ने की कोशिश करती. सिर्फ एकदो को छोड़ कर बाकी के सभी एक पल का सुख पाने के लिए भटकते नजर आते.

वीरा की रातें अकसर आकाश को देखतेदेखते कट जातीं. जीने की तलाश में अंडमान आई वीरा को अब धरती का यह हिस्सा भी बेगाना सा लग रहा था. बहुत उदास होने पर वह अपनी बेटी विपाशा से बात कर लेती. फोन पर अकसर विपाशा मां को समझाती रहती, उस को सांत्वना देती.

5 साल बाद विजेंद्र ने बेटी विपाशा के माध्यम से वीरा को वापस आने का न्योता भेजा, तो वह अकसर यही सोचती, ‘आखिर क्या करे? जाए या न जाए. पुरुषों की दुनिया तो हर जगह एक सी ही है.’ आखिरकार बेटी की ममता के आगे वीरा, विजेंद्र की उस भूल को भी भूल गई, जिस के लिए उस ने अलग रहने का फैसला किया था.

वीरा को याद आया कि घर छोड़ने से पहले उस ने विजेंद्र से कहा था कि मैं ने सिर्फ तुम्हें चाहा है, कभी अगर मेरे कदम डगमगाने लगें या मुझे जीवन में कभी किसी मर्द की जरूरत पड़ी तो वापस तुम्हारे पास लौट आऊंगी. आखिर हर जगह के आदमी तो एक जैसे ही हैं. इस राह पर सब एक पल के लिए भटकते हैं और वह भटका हुआ एक पल क्या से क्या कर देता है.

कभी वीरा सोचती कि बेटी के कहने का मान ही रख लूं. आज वह ममता की भूखी, मानसम्मान से बुला रही है, कहीं ऐसा न हो, कल को उसे भी मेरी जरूरत न रहे.

अचानक वीरा के कानों में विपाशा के स्वर उभरे, ‘‘मां, तुम कहां खोई हो जो तुम्हें गाड़ी का हार्न भी नहीं सुनाई पड़ रहा है.’’

वीरा हड़बड़ाती हुई गाड़ी की ओर बढ़ी. घर पहुंच कर विपाशा परी की तरह उछलने लगी. कमला से चाय बनवा कर ढेर सारी चीजों से मेज सजा दी.

सामने से आते हुए विजेंद्र ने एक पल को उसे देखा, उस की आंखों में उसे बेगानापन नजर आया. घर का भी एक अजीब सा माहौल लगा. हालांकि गीतांजलि अब  विजेंद्र के जीवन से जा चुकी थी, फिर भी वीरा को जाने क्यों अपने लिए शून्यता नजर आ रही थी. हां, विपाशा की हंसी जरूर उस के दिल को कुछ तसल्ली दे देती.

वह कई बार अपनेआप से ही बातें करती कि ऊपरी तौर पर वह लोगों के लिए प्रतिभासंपन्न है लेकिन हकीकत में वह तिनकातिनका टूट चुकी थी. जीने के लिए विपाशा ही उस की एकमात्र आशा थी.

विजेंद्र की कुछ मीठी यादों के सहारे वीरा अपना दुख भूलने की कोशिश करती, वह तो बेटी के प्रति मां की ममता थी जिस की खुशी के लिए उस ने अपनी वापसी स्वीकार कर ली थी. वह सोेचती, जब जीना ही है तो क्यों न अपने इस घर के आंगन में ही जियूं, जहां दुलहन बन के आई थी.

वीरा की वापसी से विपाशा की खुशी में जो इजाफा हुआ उसे देख कर काम वाली दादी अकसर कहती, ‘‘बेटा, निराश मत हो. विजेंद्र एक बार फिर से वही विजेंद्र बन जाएगा, जो शादी के कुछ सालों तक था. मैं जानती हूं कि तुम्हें विजेंद्र की जरूरत है और विपाशा को तुम्हारी. क्या तुम विपाशा की खुशी के लिए विजेंद्र की वापसी का इंतजार नहीं कर सकतीं?

‘‘आखिर तुम विपाशा की मां हो और समाज ने जो अधिकार मां को दिए हैं वह बाप को नहीं दिए. तुम्हारी वापसी इस घर के बिखरे तिनकों को फिर से जोड़ कर घोंसले का आकार देगी. खुद पर भरोसा रखो, बेटी.’’

Short Story : गायब – क्या था भाईजी का राज

Short Story : ‘‘भाईजी, क्या बात है, आप को जब भी देखता हूं आप अपना पेट दाईं तरफ पकड़े रहते हैं. मैं समझता हूं कि खाना खाने के समय या वैसा ही कोई जरूरी काम के समय आप अपना हाथ पेट से हटाते होंगे, वरना उठतेबैठते, चलते, बतियाते, हमेशा देखता हूं कि आप का हाथ अपने पेट पर ही रहता है.’’

‘‘हां, रहता तो है…रखना पड़ता है. आजकल तो बच्चे हों या जवान, सभी  हम को देख कर हंसते भी हैं. चिढ़ाते हैं, ‘पकड़े रहो, पकड़े रहो.’ बाकी हम पर इस सब का कुछ भी असर नहीं पड़ने वाला है.’’

‘‘वह तो मैं देखता हूं कि कोई कुछ भी कहे, आप बिना किसी प्रतिक्रिया के हरदम इसी मुद्रा में रहते हैं. आखिर बात क्या है? बुरा नहीं मानिएगा, मैं मजाक नहीं कर रहा हूं…मैं आप की बड़ी इज्जत करता हूं. क्या आप को पेट में कोई तकलीफ है, जो हरदम पेट पर हाथ रखे रहते हैं?’’

‘‘पकड़ कर इसलिए रखता हूं, ताकि कोई चुरा न ले.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां, रात को भी पेट पकड़ कर सोता हूं. कभी नींद में हट गया और नींद टूटी तो फिर झट से पेट पकड़ लेता हूं. वैसे तो अब आदत हो गई है. नींद में भी हाथ पेट पर ही रहता है.’’

‘‘लेकिन बात क्या है?’’

‘‘अरे भाई, अंदर कीमती सामान है. कब क्या गायब हो जाए, कौन जानता है.’’

‘‘कैसी बात कर रहे हैं? कैसा कीमती सामान? भला पेट से किस चीज के गायब होने का डर है?’’

‘‘लंबा किस्सा है.’’

‘‘सुनाइए तो, बात क्या है?’’

और उन्होंने अपनी कहानी कुछ इस तरह सुनाई थी :

‘‘मेरे पेट में यहां बीच में ऊपर की ओर हमेशा दर्द रहता था. अकसर गैस से भी मैं परेशान रहता था. लोगों ने कहा कि गैस्ट्रिक है. कभी ठीक से इलाज नहीं करवाया. इधरउधर से कुछ गोली ले कर खा लेता था. दोचार दिन आराम रहता था फिर दर्द उभर आता था. भाईजी, आप तो जानते ही हैं, हम निम्नमध्य वर्ग के लोग हैं, बड़े डाक्टर की फीस और महंगे इलाज का खर्चा कहां से लाते?

‘‘हमारे 2 बेटे हैं. एक दिन बड़े बेटे ने कहा, ‘चलिए पिताजी, मैं आप का इलाज ठीक से करवाता हूं. इतने दिनों से आप तकलीफ झेल रहे हैं. कभी ठीक से इलाज नहीं करवाते. यह बात ठीक नहीं है. बीमारी को कभी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. बढ़ जाएगी तो लेने के देने पड़ जाएंगे. बिस्तर पकड़ लीजिएगा. मेरे एक दोस्त ने बताया है कि अमृतसर में एक बहुत अच्छा अस्पताल है. वहां बड़ेबड़े डाक्टर हैं. वहां पेट का इलाज पूरे देश में सब से बढि़या होता है.’

‘‘मैं ने बेटे से कहा, ‘इतना रुपया कहां से आएगा?’

‘‘इस पर वह बोला, ‘आप चिंता न करें. मैं सब इंतजाम कर दूंगा. आप का एक भी पैसा खर्च नहीं होगा. जरूरत पड़ी तो उधार ले लूंगा. फिर कमा के वापस कर देंगे. मांबाप की सेवा करना बेटे का फर्ज बनता है.’

‘‘बेटा बहुत जिद करने लगा तो मैं तैयार हो गया. तकलीफ तो थी ही. हम लोग अमृतसर पहुंचे. वहां मुझ को एक बहुत बड़े अस्पताल में बेटे ने भरती करवा दिया. अस्पताल क्या, समझिए कि महल था. बड़ेबड़े अमीर लोग वहां इलाज के लिए आते हैं. विदेश के रोगी तक आते हैं. बस, समझिए कि एक अकेला मैं ही वहां दरिद्र था. वहां का इंतजाम देख कर तो मैं दंग रह गया. जिंदगी में नहीं सोचा था कि ऐसा अस्पताल होता है.

‘‘जाते ही उन्होंने मुझे अस्पताल में भरती कर लिया और एक कमरा भी मिल गया. वह कमरा खास तरह का था इसलिए किराया 1 हजार रुपए रोज का था. वहां 3 हजार रोज तक के खास कमरे भी हैं.

‘‘फिर सब डाक्टरों ने मुझे अच्छी तरह से देखा, जांच की. फिर खून, पेशाब आदि की जांच करवाई. एक्स-रे, स्कैन… न जाने क्याक्या हुआ. कई दिन तक तो जांच ही होती रही.’’

‘‘गैस्ट्रिक के लिए इतनी जांच?’’ मैं भाईजी की बातें सुन कर बीच में बोला.

‘‘वही तो, मैं ने भी बेटे को कई बार बोला कि इतनी जांच, इतना खर्चा काहे हो रहा है? गैस्ट्रिक की बीमारी है, पेट की जांच करवा के कुछ दवाई लिखवा दो, ठीक हो जाएगी.

‘‘इस पर बेटा बिगड़ गया. बोला कि आप डाक्टर हैं? गैस्ट्रिक है कि कैंसर है, आप को क्या मालूम? बाद में बीमारी बढ़ जाएगी तो दोगुना खर्च करना पड़ेगा. आप चुपचाप इलाज करवाइए. आप खर्च की चिंता मत कीजिए, सब इंतजाम कर के आया हूं.

‘‘सब जांचपड़ताल के बाद डाक्टरों ने फैसला किया कि आपरेशन करना पड़ेगा. मैं तो बुरी तरह डर गया, लेकिन बड़े डाक्टर साहब बोले कि डरने की कोई बात नहीं है, बहुत मामूली आपरेशन है.

‘‘खैर, आपरेशन हो गया. कोई दिक्कत नहीं हुई. दूसरे ही दिन हाथ पकड़ कर घुमाफिरा कर दिखा दिया गया. हां, कमजोरी 10-15 दिन जरूर रही. बाकी कमजोरी भी महीना होतेहोते दूर हो गई. ताकत की बहुत सी दवा खाई. देखिए निशान,’’ कह कर भाईजी ने आपरेशन का निशान दिखाया.

‘‘आप ने तो कहा कि छोटा आपरेशन था, लेकिन आप के आपरेशन का निशान तो काफी लंबा है. बाईं तरफ पेट से पीठ तक.’’

‘‘अब जो वहां के डाक्टर लोगों ने कहा था वही तो मैं ने आप को बताया है. मुझे क्या पता कि कौन आपरेशन छोटा होता है और कौन बड़ा. खैर, आपरेशन के बाद दवा चली. घाव सूख गया. 10 दिन बाद बेटे के साथ मैं घर लौट आया. डाक्टर साहब ने कुछ गोलियां खाने को दी थीं, सो महीनों तक खाते रहे. पेट में दर्द भी नहीं हुआ. मैं पूरी तरह से चंगा हो गया. बेटे का काम भी शायद बढि़या चलने लगा था. खर्च के बारे में उस से पूछा तो वह बोला कि इलाज के लिए जितने रुपए उधार लिए थे सब वापस कर दिए.’’

‘‘आप का बेटा काम क्या करता है भाईजी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मुझे पक्का पता नहीं है. कुछ प्राइवेट बिजनेस है… बताता नहीं है. अलग मकान बनाया है. उसी में अपने परिवार के साथ रहता है. जवान बेटा है, शादीशुदा, बालबच्चे वाला है. ज्यादा पूछताछ ठीक नहीं है, लेकिन देखता हूं कि आराम से रहता है. कार भी खरीदी है.’’

‘‘फिर दुख की क्या बात है?’’

‘‘बताते हैं. आपरेशन के 1 साल बाद मेरे पेट में फिर दर्द उठा. ठीक वहीं पर जहां पहले होता था. मैं तो घबरा गया कि आपरेशन के बाद फिर दर्द क्यों शुरू हो गया. दोबारा बेटा को बोलने में हिचक महसूस हुई कि पहले ही इतना खर्च कर चुका है.

‘‘संयोग ऐसा हुआ कि एक बरात के साथ मुझे पटना जाना पड़ा. वहां भी जानपहचान के एक डाक्टर हैं. उन्हीं के यहां अपना पेट दिखाने चला गया. डाक्टर साहब ने देख कर सब कागज और रिपोर्ट के साथ मुझे दोबारा बुलाया. फीस भी नहीं ली.

‘‘अमृतसर से कोई खास कागज तो मिला नहीं था. जो था सब ले कर मैं दोबारा गया. डाक्टर ने सब कागज देख कर अपने साथी डाक्टरों को बुलाया और उन के साथ बहुत देर तक मेरे बारे में डिसकस किया. उन की बातें तो मेरी समझ से बाहर थीं, लेकिन इतना याद है, उन्होंने कहा था कि सब सिम्प्टम्स तो पेपटिक अलसर के लगते हैं, लेकिन एन्डोस्कोपी की रिपोर्ट नहीं है और आपरेशन यहां… रीनल एंगिल में क्यों है?

‘‘वे लोग गंभीर मुद्रा में यही बतियाते रहे. कई बार मुझ से आपरेशन के बारे में पूछा. मैं तो उन की बातों से काफी नर्वस हो गया. फिर डाक्टर बोले, ‘जांच करेंगे, अल्ट्रासाउंड करेंगे.’ मैं ने कहा कि डाक्टर साहब, आप जिन जांचों की बात कर रहे हैं उन के लिए पैसा मेरे पास नहीं है. अब तो मैं बेटे से भी नहीं मांग सकता. पहले ही उस ने इतना खर्च किया. तब डाक्टर साहब बोले कि चिंता मत कीजिए, हम आप की सब जांच मुफ्त करवा देंगे. बड़े दयालु हैं.

‘‘उन की मेहरबानी से जांच हो गई. मुझ को कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ा. अल्ट्रासाउंड के बाद उन्होंने दोबारा सब रिपोर्ट देखी. कई बार पूछा कि कभी पेशाब में कोई तकलीफ तो नहीं हुई? कभी यहां, कमर के पास दर्द तो नहीं हुआ. मैं ने बता दिया कि मुझ को वैसी कोई तकलीफ कभी नहीं हुई, तब उन्होंने पूछा कि अमृतसर में कभी डाक्टर ने किडनी आपरेशन के बारे में कुछ कहा था. मैं ने कहा, ‘नहीं, किडनी की कोई बात नहीं हुई.’ तब वे बोले कि आप की एक किडनी आपरेशन कर के निकाल ली गई है.

‘‘मैं तो यह सुन कर सन्न रह गया. कुछ देर तक मुंह से बोल नहीं निकला. डाक्टर साहब मुझ को नर्वस देख कर बोले कि घबराने की कोई बात नहीं है. आदमी को जीने के लिए एक किडनी काफी है. आप को कोई दिक्कत नहीं होगी. लेकिन आप की किडनी क्यों निकाली गई, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है. खैर, अब क्या कर सकते हैं… लेकिन आगे सावधान रहिएगा. एक किडनी बची है, इस को संभाल कर रखिएगा.’’

‘‘आप ने अपने बेटे को यह सब बताया नहीं? उस से पूछा नहीं कि किडनी क्यों निकाली गई?’’

‘‘पूछा था, गुस्सा हो गया. बोला कि यहां के ये बेवकूफ डाक्टर क्या जानते हैं. आप का इलाज देश के सब से बड़े डाक्टर से करवाया था. लाखों खर्च किया. आप ने देखा नहीं, कहांकहां के रोगी वहां आते हैं. आप अंटशंट बकना बंद कीजिए और यह सब फालतू बात किसी से कहिएगा भी मत. लोग हंसेंगे, आप को पागल समझेंगे.’’

‘‘बड़ी अजीब बात है?’’

‘‘जी हां, अजीब तो है ही.’’

‘‘लेकिन इस घटना के और आप के पेट पकड़े रहने से क्या संबंध है?’’

‘‘अजीब बात करते हैं? संबंध तो साफ है. आप को मैं ने बताया न कि मेरे 2 बेटे हैं,’’ कह कर भाईजी मेरी ओर देखने लगे.

Family Story : नारीवाद – एक अनोखा व्यक्तित्व था जननी का

Family Story : मैं पत्रकार हूं. मशहूर लोगों से भेंटवार्त्ता कर उन के बारे में लिखना मेरा पेशा है. जब भी हम मशहूर लोगों के इंटरव्यू लेने के लिए जाते हैं उस वक्त यदि उन के बीवीबच्चे साथ में हैं तो उन से भी बात कर के उन के बारे में लिखने से हमारी स्टोरी और भी दिलचस्प बन जाती है.

मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. मैं मशहूर गायक मधुसूधन से भेंटवार्त्ता के लिए जिस समय उन के पास गया उस समय उन की पत्नी जननी भी वहां बैठ कर हम से घुलमिल कर बातें कर रही थीं. जननी से मैं ने कोई खास सवाल नहीं पूछा, बस, यही जो हर पत्रकार पूछता है, जैसे ‘मधुसूधन की पसंद का खाना और उन का पसंदीदा रंग क्या है? कौनकौन सी चीजें मधुसूधन को गुस्सा दिलाती हैं. गुस्से के दौरान आप क्या करती हैं?’ जननी ने हंस कर इन सवालों के जवाब दिए. जननी से बात करते वक्त न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि बाहर से सीधीसादी दिखने वाली वह औरत कुछ ज्यादा ही चतुरचालाक है.

लिविंगरूम में मधुसूधन का गाते हुए पैंसिल से बना चित्र दीवार पर सजा था.

उस से आकर्षित हो कर मैं ने पूछा, ‘‘यह चित्र किसी फैन ने आप को तोहफे में दिया है क्या,’’ इस सवाल के जवाब में जननी ने मुसकराते हुए कहा, ‘हां.’

‘‘क्या मैं जान सकता हूं वह फैन कौन था,’’ मैं ने भी हंसते हुए पूछा. मधुसूधन एक अच्छे गायक होने के साथसाथ एक हैंडसम नौजवान भी हैं, इसलिए मैं ने जानबूझ कर यह सवाल किया.

‘‘वह फैन एक महिला थी. वह महिला कोई और नहीं, बल्कि मैं ही हूं,’’ यह कहते हुए जननी मुसकराईं.

‘‘अच्छा है,’’ मैं ने कहा और इस के जवाब में जननी बोलीं, ‘‘चित्र बनाना मेरी हौबी है?’’

‘‘अच्छा, मैं भी एक चित्रकार हूं,’’ मैं ने अपने बारे में बताया.

‘‘रियली, एक पत्रकार चित्रकार भी हो सकता है, यह मैं पहली बार सुन रही हूं,’’ जननी ने बड़ी उत्सुकता से कहा.

उस के बाद हम ने बहुत देर तक बातें कीं? जननी ने बातोंबातों में खुद के बारे में भी बताया और मेरे बारे में जानने की इच्छा भी प्रकट की? इसी कारण जननी मेरी खास दोस्त बन गईं.

जननी कई कलाओं में माहिर थीं. चित्रकार होने के साथ ही वे एक अच्छी गायिका भी थीं, लेकिन पति मधुसूधन की तरह संगीत में निपुण नहीं थीं. वे कई संगीत कार्यक्रमों में गा चुकी थीं. इस के अलावा अंगरेजी फर्राटे से बोलती थीं और हिंदी साहित्य का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था. अंगरेजी साहित्य में एम. फिल कर के दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी करते समय मधुसूधन से उन की शादी तय हो गई. शादी के बाद भी जननी ने अपनी किसी पसंद को नहीं छोड़ा. अब वे अंगरेजी में कविताएं और कहानियां लिखती हैं.

उन के इतने सारे हुनर देख कर मुझ से रहा नहीं गया. ‘आप के पास इतनी सारी खूबियां हैं, आप उन्हें क्यों बाहर नहीं दिखाती हैं?’ अनजाने में ही सही, बातोंबातों में मैं ने उन से एक बार पूछा. जननी ने तुरंत जवाब नहीं दिया. दो पल के लिए वे चुप रहीं.

अपनेआप को संभालते हुए उन्होंने मुसकराहट के साथ कहा, ‘आप मुझ से यह  सवाल एक दोस्त की हैसियत से पूछ रहे हैं या पत्रकार की हैसियत से?’’

जननी के इस सवाल को सुन कर मैं अवाक रह गया क्योंकि उन का यह सवाल बिलकुल जायज था. अपनी भावनाओं को छिपा कर मैं ने उन से पूछा, ‘‘इन दोनों में कोई फर्क है क्या?’’

‘‘हां जी, बिलकुल,’’ जननी ने कहा.

‘‘आप ने इन दोनों के बीच ऐसा क्या फर्क देखा,’’ मैं ने सवाल पर सवाल किया.

‘‘आमतौर पर हमारे देश में अखबार और कहानियों से ऐसा प्रतीत होता है कि एक मर्द ही औरत को आगे नहीं बढ़ने देता. आप ने भी यह सोच कर कि मधु ही मेरे हुनर को दबा देते हैं, यह सवाल पूछ लिया होगा?’’

कुछ पलों के लिए मैं चुप था, क्योंकि मुझे भी लगा कि जननी सच ही कह रही हैं. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘आप सच कहती हैं, जननी. मैं ने सुना था कि आप की पीएचडी आप की शादी की वजह से ही रुक गई, इसलिए मैं ने यह सवाल पूछा.’’

‘‘आप की बातों में कहीं न कहीं तो सचाई है. मेरी पढ़ाई आधे में रुक जाने का कारण मेरी शादी भी है, मगर वह एक मात्र कारण नहीं,’’ जननी का यह जवाब मुझे एक पहेली सा लगा.

‘‘मैं समझा नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जब मैं रिसर्च स्कौलर बनी थी, ठीक उसी वक्त मेरे पिताजी की तबीयत अचानक खराब हो गई. उन की इकलौती संतान होने के नाते उन के कारोबार को संभालने की जिम्मेदारी मेरी बन गई थी. सच कहें तो अपने पिताजी के व्यवसाय को चलातेचलाते न जाने कब मुझे उस में दिलचस्पी हो गई. और मैं अपनी पीएचडी को बिलकुल भूल गई. और अपने बिजनैस में तल्लीन हो गई. 2 वर्षों बाद जब मेरे पिताजी स्वस्थ हुए तो उन्होंने मेरी शादी तय कर दी,’’ जननी ने अपनी पढ़ाई छोड़ने का कारण बताया.

‘‘अच्छा, सच में?’’

जननी आगे कहने लगी, ‘‘और एक बात, मेरी शादी के समय मेरे पिताजी पूरी तरह स्वस्थ नहीं थे. मधु के घर वालों से यह साफ कह दिया कि जब तक मेरे पिताजी अपना कारोबार संभालने के लायक नहीं हो जाते तब तक मैं काम पर जाऊंगी और उन्होंने मुझे उस के लिए छूट दी.’’

मैं चुपचाप जननी की बातें सुनता रहा.

‘‘मेरी शादी के एक साल बाद मेरे पिता बिलकुल ठीक हो गए और उसी समय मैं मां बनने वाली थी. उस वक्त मेरा पूरा ध्यान गर्भ में पल रहे बच्चे और उस की परवरिश पर था. काम और बच्चा दोनों के बीच में किसी एक को चुनना मेरे लिए एक बड़ी चुनौती थी, लेकिन मैं ने अपने बच्चे को चुना.’’

‘‘मगर जननी, बच्चे के पालनपोषण की जिम्मेदारी आप अपनी सासूमां पर छोड़ सकती थीं न? अकसर कामकाजी औरतें ऐसा ही करती हैं. आप ही अकेली ऐसी स्त्री हैं, जिन्होंने अपने बच्चे की परवरिश के लिए अपने काम को छोड़ दिया.’’

जननी ने मुसकराते हुए अपना सिर हिलाया.

‘‘नहीं शंकर, यह सही नहीं है. जैसे आप कहते हैं उस तरह अगर मैं ने अपनी सासूमां से पूछ लिया होता तो वे भी मेरी बात मान कर मदद करतीं, हो सकता है मना भी कर देतीं. लेकिन खास बात यह थी कि हर औरत के लिए अपने बच्चे की परवरिश करना एक गरिमामयी बात है. आप मेरी इस बात से सहमत हैं न?’’ जननी ने मुझ से पूछा.

मैं ने सिर हिला कर सहमति दी.

‘‘एक मां के लिए अपनी बच्ची का कदमकदम पर साथ देना जरूरी है. मैं अपनी बेटी की हर एक हरकत को देखना चाहती थी. मेरी बेटी की पहली हंसी, उस की पहली बोली, इस तरह बच्चे से जुड़े हर एक विषय को मैं देखना चाहती थी. इस के अलावा मैं खुद अपनी बेटी को खाना खिलाना चाहती थी और उस की उंगली पकड़ कर उसे चलना सिखाना चाहती थी.

‘‘मेरे खयाल से हर मां की जिंदगी में ये बहुत ही अहम बातें हैं. मैं इन पलों को जीना चाहती थी. अपनी बच्ची की जिंदगी के हर एक लमहे में मैं उस के साथ रहना चाहती थी. यदि मैं काम पर चली जाती तो इन खूबसूरत पलों को खो देती.

‘‘काम कभी भी मिल सकता है, मगर मेरी बेटी पूजा की जिंदगी के वे पल कभी वापस नहीं आएंगे? मैं ने सोचा कि मेरे लिए क्या महत्त्वपूर्ण है-कारोबार, पीएचडी या बच्ची के साथ वक्त बिताना. मेरी अंदर की मां की ही जीत हुई और मैं ने सबकुछ छोड़ कर अपनी बच्ची के साथ रहने का निर्णय लिया और उस के लिए मैं बहुत खुश हूं,’’ जननी ने सफाई दी.

मगर मैं भी हार मानने वाला नहीं था. मैं ने उन से पूछा, ‘‘तो आप के मुताबिक अपने बच्चे को अपनी मां या सासूमां के पास छोड़ कर काम पर जाने वाली औरतें अपना फर्ज नहीं निभाती हैं?’’

मेरे इस सवाल के बदले में जननी मुसकराईं, ‘‘मैं बाकी औरतों के बारे में अपनी राय नहीं बताना चाहती हूं. यह तो हरेक औरत का निजी मामला है और हरेक का अपना अलग नजरिया होता है. यह मेरा फैसला था और मैं अपने फैसले से बहुत खुश हूं.’’

जननी की बातें सुन कर मैं सच में दंग रह गया, क्योंकि आजकल औरतों को अपने काम और बच्चे दोनों को संभालते हुए मैं ने देखा था और किसी ने भी जननी जैसा सोचा नहीं.

‘‘आप क्या सोच रहे हैं, वह मैं समझ सकती हूं, शंकर. अगले महीने से मैं एक जानेमाने अखबार में स्तंभ लिखने वाली हूं. लिखना भी मेरा पसंदीदा काम है. अब तो आप खुश हैं न, शंकर?’’ जननी ने हंसते हुए पूछा.

मैं ने भी हंस कर कहा, ‘‘जी, बिलकुल. आप जैसी हुनरमंद औरतों का घर में बैठना गलत है. आप की विनम्रता, आप की गहरी सोच, आप की राय, आप का फैसला लेने में दृढ़ संकल्प होना देख कर मैं हैरान भी होता हूं और सच कहूं तो मुझे थोड़ी सी ईर्ष्या भी हो रही है.’’

मेरी ये बातें सुन कर जननी ने हंस कर कहा, ‘‘तारीफ के लिए शुक्रिया.’’

मैं भी जननी के साथ उस वक्त हंस दिया मगर उस की खुद्दारी को देख कर हैरान रह गया था. जननी के बारे में जो बातें मैं ने सुनी थीं वे कुछ और थीं. जननी अपनी जिंदगी में बहुत सारी कुरबानियां दे चुकी थीं. पिता के गलत फैसले से नुकसान में चल रहे कारोबार को अपनी मेहनत से फिर से आगे बढ़ाया जननी ने. मां की बीमारी से एक लंबी लड़ाई लड़ कर अपने पिता की खातिर अपने प्यार की बलि चढ़ा कर मधुसूधन से शादी की और अपने पति के अभिमान के आगे झुक कर, अपनी ससुराल वालों के ताने सह कर भी अपने ससुराल का साथ देने वाली जननी सच में एक अजीब भारतीय नारी है. मेरे खयाल से यह भी एक तरह का नारीवाद ही है.

‘‘और हां, मधुसूधनजी, आप सोच रहे होंगे कि जननी के बारे में यह सब जानते हुए भी मैं ने क्यों उन से ऐसे सवाल पूछे. दरअसल, मैं भी एक पत्रकार हूं और आप जैसे मशहूर लोगों की सचाई सामने लाना मेरा पेशा है न?’’

अंत में एक बात कहना चाहता हूं, उस के बाद जननी को मैं ने नहीं देखा. इस संवाद के ठीक 2 वर्षों बाद मधुसूदन और जननी ने आपसी समझौते पर तलाक लेने का फैसला ले लिया.

Family Story : असली नकली – अलका ने कैसा रंगा दिखाया

Family Story : दिनेश जब थकामांदा औफिस से घर पहुंचा तो घर में बिलकुल अंधेरा था. उस ने दरवाजे पर दस्तक दी. नौकर ने आ कर दरवाजा खोला. दिनेश ने पूछा, ‘‘मैडम बाहर गई हैं क्या?’’

‘‘नहीं, अंदर हैं.’’

सोने के कमरे में प्रवेश करते ही उस ने बिजली का स्विच दबा कर जला दिया. पूरे कमरे में रोशनी फैल गई. दिनेश ने देखा, अलका बिस्तर पर औंधी लेटी हुई है. टाई की गांठ को ढीला करते हुए वह बोला, ‘‘अरे, पूरे घर में अंधेरा कर के किस का मातम मना रही हो?’’

अलका कुछ न बोली.

‘‘सोई हुई हो क्या?’’ दिनेश ने पास जा कर पुकारा. फिर भी कोई उत्तर न पा कर उस ने अलका के माथे पर हलके से हाथ रखा.

‘‘अलका.’’

‘‘मत छुओ मुझे, आप प्यार का ढोंग करते हैं, आप को मुझ से जरा भी

प्यार नहीं.’’

‘‘ओह,’’ दिनेश मुसकराया, ‘‘अरे, यह बात है. मैं ने तो सोचा कि…’’

‘‘कि अलका मर गई. अगर ऐसा होता तो आप के लिए अच्छा होता,’’ अलका रो रही थी.

‘‘अरे, तुम तो रो रही हो. मैं पूछता हूं तुम्हें यह प्रमाणपत्र किस ने दे दिया कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करता?’’

अलका तेवर चढ़ा कर बोली, ‘‘प्रमाणपत्र की क्या आवश्यकता है? मैं इतनी नासमझ तो नहीं. मुझे सब पता है.’’

‘‘ओहो, आज अचानक तुम्हें क्या हो गया है जो इस तरह बरस पड़ीं?’’

अलका आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘आज मैं लेडीज क्लब गई थी, तो…’’ अलका फिर रोने लगी.

दिनेश ने पूछा, ‘‘तो?’’

‘‘क्लब में सब महिलाएं बता रही थीं कि उन के पति को उन से कितना प्रेम है और मैं…’’ अलका फिर सिसकने लगी थी.

दिनेश बड़ा परेशान था. आखिर लेडीज क्लब के साथ पति के प्यार का क्या संबंध है? दिनेश को कुछ समझ नहीं आ रहा था.

अलका रोतेरोते बोली, ‘‘शकुंतला बता रही थी कि उस के पति को उस से इतना प्रेम है कि वह हर महीने कुछ न कुछ उपहार ला कर जरूर देता है. पिछले महीने उस को सोने का एक सैट उपहार में मिला और कल एक बहुत महंगी कांजीवरम की साड़ी मिली है. सरला बता रही थी कि उसे उस के पति ने जड़ाऊ सैट दिया और एक दूसरे सैट के लिए और्डर दिया है. उमा बता रही थी कि उसे हीरे का…’’

‘‘अरे बस भी करो, मुझे जरा सांस तो लेने दो.’’

‘‘हां, हां, ये सब बातें आप को क्यों भाएंगी? आप को क्या मालूम मैं अपने दिल पर पत्थर रखे कैसे मुंह छिपाए बैठी थी. मुझे तो आप ने कभी कुछ नहीं दिया,’’ अलका जोरजोर से रोने लगी.

‘‘अरे अलका, तुम तो सचमुच बच्चों जैसी बातें करती हो. भला प्यार की नापतौल सोने और हीरे से की जाती है? प्यार तो दिल में होता है, पगली.’’

अलका झुंझला कर बोली, ‘‘उमा का पति आप से कितना जूनियर है, सरला का आदमी भी तो आप से जूनियर है. जब आप के जूनियर अफसर अपनी पत्नियों को हीरेजवाहरात का सैट दे सकते हैं, तो आप क्यों नहीं दे सकते? इस का मतलब तो यही है कि आप को मुझ से जरा भी…’’ अलका फिर से आंसू बहाने लगी.

‘‘अलका, मैं जानता हूं ये लोग अपनी पत्नियों को कैसे भेंट देते हैं, मगर मैं उस रास्ते पर नहीं जाना चाहता. अलका, तुम यह सोचो, हमें जो तनख्वाह मिलती है, उस में से घर का किराया दे कर, नौकरचाकर रख कर, अच्छी तरह खापी कर इस महंगाई के दिनों में कितने रुपए बचते हैं? जो थोड़ाबहुत बचता है, उस से हर महीने महंगीमहंगी चीजें खरीद कर लाना असंभव है,’’ दिनेश समझाने की कोशिश कर रहा था.

‘‘मुझे किसी भी तरह वह हीरे का सैट चाहिए,’’ अलका चिल्लाती हुई बोली.

‘‘असंभव,’’ दिनेश रुकरुक कर बोला, ‘‘मैं सचाई के रास्ते पर चलता हूं. मुझे गलत रास्ते पसंद नहीं. रिश्वत लेना मैं गलत समझता हूं. अगर वे गलत तरीके से रुपए कमाते हैं, तो कमाने दो. मगर मैं अपने रास्ते से नहीं हटूंगा. तुम यह अच्छी तरह समझ लो.’’ दिनेश उत्तेजना से हांफ रहा था.

‘‘यही आप का अंतिम निर्णय है?’’ अलका गरजती हुई बोली.

‘‘हां.’’

‘‘तो आप भी जान लीजिए, मुझे जब तक जड़ाऊ सैट नहीं मिलेगा, मैं पानी भी नहीं पिऊंगी.’’

‘‘अरे भई, यह क्या बचपना है. सुनो तो…’’

मगर कौन सुनने वाला था. अलका पैर पटकती हुई दूसरे कमरे में चली गई और उस ने दरवाजा बंद कर लिया.

उस रात न तो अलका ने और न दिनेश ही ने खाना खाया. दिनेश बहुत परेशान था. वह सोच रहा था, ‘जो जिद अलका कर रही है, उसे निभाना उस के लिए असंभव है. तो क्या करे वह? वह अलका की जिद से भलीभांति परिचित था. तो क्या सचमुच अलका भूखहड़ताल कर के अपनी जान दे देगी?’ सोचतेसोचते न जाने कब उस की आंख लग गई. सुबह वह अलका से बोला, ‘‘अलका, हमारी शादी की वर्षगांठ 15 दिनों बाद है न?’’

अलका ने झट मुंह फेर लिया.

‘‘ओह, तुम बोलोगी भी नहीं. अरे, मैं मान गया तुम्हारी शर्त. 15 दिनों बाद देखना मैं तुम्हें क्या उपहार देता हूं,’’ दिनेश खुश नजर आ रहा था.

‘‘क्या?’’ अलका ने अस्फुट स्वर में पूछा.

‘‘मैं तुम्हें एक शानदार सैट उपहार में दूंगा,’’ दिनेश बोला.

‘‘सच?’’

‘‘हां सच,’’ दिनेश बोला, ‘‘और सुनो, हमारी शादी की सालगिरह पर जिनजिन को बुलाना है, उन की एक लिस्ट बना लो.’’

‘‘ओह, आप कितने अच्छे हैं,’’ खुशी से अलका की आंखें चमक उठीं.

आखिर शादी की सालगिरह का दिन आ गया. अलका उस दिन खूब सजधज कर तैयार हुई. वह मन ही मन बोली, ‘अब मैं सब को दिखा दूंगी, मेरा पति मुझे कितना प्यार करता है. सरला, उमा हर कोई मन ही मन जलेंगी.’

एकएक कर के मेहमानों से घर भरने लगा. चारों ओर से बधाइयां आ रही थीं. अलका ‘बहुतबहुत शुक्रिया’ कह कर सब का स्वागत कर रही थी. उधर, दिनेश भी मेहमानों की खातिरदारी में जुटा हुआ था. अचानक दिनेश ने अलका को बुलाया, ‘‘अरे, सुनो, तुम्हारा इन से परिचय करा दूं,’’ और एक बड़ी उम्र के व्यक्ति की ओर इशारा कर के बोला, ‘‘ये हैं मिस्टर हंसराज. मेरे बौस.’’

‘‘नमस्ते,’’ अलका ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘नमस्ते,’’ मिस्टर हंसराज बोले, ‘‘अरे, मिसेज दिनेश, आप ने तो इतनी भारी पार्टी दे डाली. बहुत अच्छा बंदोबस्त किया है आप ने.’’

‘‘जी,’’ अलका कुछ शरमाती हुई बोली.

मिस्टर हंसराज खाना खा रहे थे और खातेखाते अलका से गपशप कर रहे थे. ‘‘सच, दिनेश इतना होनहार और ईमानदार है कि बस पूछिए मत. उस ने तो हमारी कंपनी की आय चौगुनी कर दी. पिछले 20 वर्षों के रिकौर्ड में शायद इतना नफा कभी नहीं हुआ. मेरा बस चले तो ईमानदारी के लिए दिनेश को पद्मश्री का खिताब दिलवा दूं.’’ कह कर मिस्टर हंसराज हंसने लगे.

‘‘’अलका, वह सदा इसी तरह ईमानदारी से काम करता रहा तो मैं बताए देता हूं एक दिन वह…’

वे बात को पूरी न कर पाए. अलका के गले में कुछ अटक गया था. वह खांस रही थी. खांसतेखांसते उस का चेहरा बिलकुल लाल हो गया था. तभी दिनेश भी वहां पहुंच गया और अलका की पीठ को जोरजोर से मलने लगा. अलका ने एक लंबी सांस ली और पूरा गिलास पानी पी गई. गले में अटका भोजन का टुकड़ा नीचे उतर गया था. आंख और मुंह को पोंछती हुई वह फिर खाने का कांटा और छूरी इस प्रकार चलाने लगी जैसे किसी के दिल की चीड़फाड़ कर रही हो.

मिस्टर हंसराज तो पहले ही अपनी बातूनी आदत के लिए विख्यात थे. वे कब चुप रहने वाले थे. वे बहुतकुछ बोलते जा रहे थे, मगर अलका के दिमाग में कुछ भी नहीं घुस रहा था. वे कह रहे थे, ‘‘बात यह है कि दिनेश के प्रति मेरी एक दुर्बलता है…आज अगर मेरा इकलौता पुत्र राजीव जिंदा रहता तो ठीक इसी उम्र का होता. खैर, अरे देखिए, हम भी खाते ही रह गए. सब ने तो खा भी लिया. अगर और ज्यादा देर इधर बैठे रहे तो लोग सोचेंगे, पार्टी का सारा खाना बूढ़ा खा गया.’’ और वे ठहाका मार कर हंसने लगे.

मगर अलका को न जाने क्या होता जा रहा था. उस का दम घुटने लगा. अलका, जो कुछ देर पहले खुशी से फूली नहीं समा रही थी, अब बिलकुल उदास लग रही थी.

सब मेहमानों को विदा कर के रात को जब अलका अपने कमरे में आई तो देखा दिनेश सामने खड़ा मुसकरा रहा है. हंसते हुए उस ने पूछा, ‘‘कहो, कैसी रही? मैं ने कहा था न बहुत शानदार पार्टी दूंगा. अब बोलो, तुम्हारे दिल में अब तो कोई शक नहीं कि…अरे, अलका, तुम रो क्यों रही हो? तुम्हें क्या हुआ? कुछ बोलो तो.’’

अलका दोनों हाथों से अपने गले को पकड़े थी, जैसे उस का दम घुट रहा हो. दिनेश ने प्यार से कहा, ‘‘अलका, क्या तुम्हें…’’ अलका से अब खड़ा नहीं हुआ जा रहा था. वह दिनेश से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगी. और बोली, ‘‘मुझे यह हार काट रहा है. मेरा दम घुट रहा है. मेरी खुशी के लिए तुम ने घूस ली. तुम्हारे बौस को तुम पर कितना विश्वास है, उन की कितनी उच्च धारणाएं हैं तुम्हारे लिए, पर जब उन्हें मालूम होगा कि तुम बेईमान हो, घूसखोर हो तो…’’ अलका का रोना रुक नहीं रहा था.

‘‘मैं ने ही तुम्हें घूस लेने के लिए विवश किया, मैं ने ही तुम्हें गलत रास्ते की ओर पैर बढ़ाने को मजबूर किया. मैं ने बहुत बड़ा गलत काम किया है.’’

‘‘मगर यह बात अब तुम्हारे दिमाग में किस तरह आई?’’

‘‘जब तुम्हारे बौस यह कह रहे थे कि तुम कितने ईमानदार हो तो मेरे दिल में एक तीर सा चुभ रहा था.’’

‘‘मगर अलका, तुम्हें किस ने कहा है कि मैं ने यह पार्टी घूस के पैसों से दी?’’

‘‘वाह, आप ही ने तो कहा था कि जो तनख्वाह आप को मिलती है उस में इतनी खरीदारी नहीं कर सकते. उमा बता रही थी कि उस ने भी बिलकुल ऐसा ही सैट 2 लाख रुपए में लिया था और ऊपर से इतनी शानदार पार्टी. यह सब घूस के पैसे के बिना असंभव है. मुझे ये गहने काटे जा रहे हैं. मुझे नहीं चाहिए, नहीं चाहिए…’’

दिनेश अलका की बात सुन कर ठहाका मार कर हंसने लगा, ‘‘पागल, मैं यों दूसरी औरतों की बातों में नहीं आने वाला. अपनी आंखों से आंसू पोंछ डालो.’’

‘‘क्या?’’ अलका आश्चर्य से दिनेश का मुंह देखने लगी.

‘‘अरे, इस जड़ाऊ सैट का दाम केवल 3 हजार रुपए है.’’

‘‘क्या?’’ अलका ने अविश्वास से दिनेश की ओर देखा.

‘‘हां, यह कोई असली थोड़े ही है, यह तो नकली है. मैं ने सोचा, साल में

2 या 3 बार पहनने के लिए ये नकली गहने ही ठीक हैं. क्या फायदा सोने के उन जेवरों का जो चोरों के भय से बैंक के लौकर में पड़े रहते हैं.’’

‘‘सच, मगर पार्टी में तो बहुत पैसे निकल गए, उस का पैसा कहां से मिला.’’

दिनेश झट से बोला, ‘‘तुम्हारी सोने की करधनी गिरवी रख कर.’’

Short Story : हिसाब – कैसे गड़बड़ा गया उस का हिसाब

Short Story : ‘आज फिर 10 बज गए,’ मेज साफ करतेकरते मेरी नजर घड़ी पर पड़ी. इतने में दरवाजे की घंटी बजी. ‘कौन आया होगा, इस समय. अब तो फ्रिज में सब्जी भी नहीं है. बची हुई सब्जी मैं ने जबरदस्ती खा कर खत्म की थी,’ कई बातें एकसाथ दिमाग में घूम गईं.

थकान से शरीर पहले ही टूट रहा था. जल्दी सोने की कोशिश करतेकरते भी 10 बज गए थे. धड़कते दिल से दरवाजा खोला, सामने दोनों हाथों में बड़ेबड़े बैग लिए चेतना खड़ी थी. आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया, सारी थकान जैसे गायब हो गई और पता नहीं कहां से इतना जोश आ गया कि पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. ‘‘अकेली आई है क्या?’’ सामान अंदर रखते हुए उस से पूछा.

‘‘नहीं, मां भी हैं, औटो वाले को पैसे दे रही हैं.’’ मैं ने झांक कर देखा, वीना नीचे औटो वाले के पास खड़ी थी. वह मेरी बचपन की सहेली थी. चेतना उस की प्यारी सी बेटी है, जो उन दिनों अपनी मेहनत व लगन से मैडिकल की तृतीय वर्ष की छात्रा थी. मुझे वह बहुत प्यारी लगती है, एक तो वह थी ही बहुत अच्छी – रूप, गुण, स्वभाव सभी में अव्वल, दूसरे, मुझे लड़कियां कुछ ज्यादा ही अच्छी लगती हैं क्योंकि मेरी अपनी कोई बेटी नहीं. अपने और मां के संबंध जब याद करती हूं तो मन में कुछ कसक सी होती है. काश, मेरी भी कोई बेटी होती तो हम दोनों अपनी बातें एकदूसरे से कह सकतीं. इतना नजदीकी और प्यारभरा रिश्ता कोई हो ही नहीं सकता.

‘‘मां ने देर लगा दी, मैं देखती हूं,’’ कहती हुई चेतना दरवाजे की ओर बढ़ी. ‘‘रुक जा, मैं भी आई,’’ कहती हुई मैं चेतना के साथ सीढि़यां उतरने लगी.

नीचे उतरते ही औटो वाले की तेज आवाज सुनाई देने लगी. मैं ने कदम जल्दीजल्दी बढ़ाए और औटो के पास जा कर कहा, ‘‘क्या बात है वीना, मैं खुले रुपए दूं?’’ ‘‘अरे यार, देख, चलते समय इस ने कहा, दोगुने रुपए लूंगा, रात का समय है. मैं मान गई. अब 60 रुपए मीटर में आए हैं. मैं इसे 120 रुपए दे रही हूं. 10 रुपए अलग से ज्यादा दे दिए हैं, फिर भी मानता ही नहीं.’’

‘‘क्यों भई, क्या बात है?’’ मैं ने जरा गुस्से में कहा. ‘‘मेमसाहब, दोगुने पैसे दो, तभी लूंगा. 60 रुपए में 50 प्रतिशत मिलाइए, 90 रुपए हुए, अब इस का दोगुना, यानी कुल 180 रुपए हुए, लेकिन ये 120 रुपए दे रही हैं.’’

‘‘भैया, दोगुने की बात हुई थी, इतने क्यों दूं?’’ ‘‘दोगुना ही तो मांग रहा हूं.’’

‘‘यह कैसा दोगुना है?’’ ‘‘इतना ही बनता है,’’ औटो वाले की आवाज तेज होती जा रही थी. सो, कुछ लोग एकत्र हो गए. कुछ औटो वाले की बात ठीक बताते तो कुछ वीना की.

‘‘इतना लेना है तो लो, नहीं तो रहने दो,’’ मैं ने गुस्से से कहा. ‘‘इतना कैसे ले लूं, यह भी कोई हिसाब हुआ?’’

मैं ने मन ही मन हिसाब लगाया कि कहीं मैं गलत तो नहीं क्योंकि मेरा गणित जरा ऐसा ही है. फिर हिम्मत कर के कहा, ‘‘और क्या हिसाब हुआ?’’ ‘‘कितनी बार समझा दिया, मैं 180 रुपए से एक पैसा भी कम नहीं लूंगा.’’

‘‘लेना है तो 130 रुपए लो, वरना पुलिस के हवाले कर दूंगी,’’ मैं ने तनिक ऊंचे स्वर में कहा. ‘‘हांहां, बुला लो पुलिस को, कौन डरता है? कुछ ज्यादा नहीं मांग रहा, जो हिसाब बनता है वही मांग रहा हूं,’’ औटो वाला जोरजोर से बोला.

इतने में पुलिस की मोटरसाइकिल वहां आ कर रुकी. ‘‘क्या हो रहा है?’’ सिपाही कड़क आवाज में बोला.

‘‘कुछ नहीं साहब, ये पैसे नहीं दे रहीं,’’ औटो वाला पहली बार धीमे स्वर में बोला. ‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘दोगुने.’’ ‘‘आप ने कितने रुपए दिए हैं?’’ इस बार हवलदार ने पूछा.

‘‘130 रुपए,’’ वीना ने कहा. ‘‘कहां हैं रुपए?’’ हवलदार कड़का तो औटो वाले ने मुट्ठी खोल दी.

सिपाही ने एक 50 रुपए का नोट उठाया और उसे एक भद्दी सी गाली दी, ‘‘साला, शरीफों को तंग करता है, भाग यहां से, नहीं तो अभी चालान करता हूं,’’ फिर हमारी तरफ देख कर बोला, ‘‘आप लोग जाइए, इसे मैं हिसाब समझाता हूं.’’ हम चंद कदम भी नहीं चल पाई थीं कि औटो के स्टार्ट होने की आवाज आई.

मैं हतप्रभ सोच रही थी कि किस का हिसाब सही था, वीना का, औटो वाले का या पुलिस वाले का?

Love Story : पार्टनर – पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है

Love Story : आवाज में वही मधुरता, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. काम है, करना तो पड़ेगा, कोई लिहाज नहीं है. दुखी हो तो हो जाओ, किसे पड़ी है. बिजनैस देना है तो प्यार से बोलना पड़ेगा. छवि अब भी फोन पर बात करती तो उसी मिठास के साथ कि मानो कुछ हुआ ही नहीं. वैसे कुछ हुआ भी नहीं. बस, एक धुंधली तसवीर को डैस्क से ड्रौअर के नीचे वाले हिस्से में रखा ही तो है. अब उस की औफिस डैस्क पर केवल एक कंप्यूटर, एक पैनहोल्डर और उस के पसंदीदा गुलाबी कप में अलगअलग रंग के हाइलाइटर्स रखे थे. 2 हफ्ते पहले तक उस की डैस्क की शान थी ब्रांच मैनेजर मिस्टर दीपक से बैस्ट एंप्लौयी की ट्रौफी लेते हुए फोटो. कैसे बड़े भाई की तरह उस के सिर पर हाथ रख वे उसे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रहे थे.

आज उस ने फोटो को नीचे ड्रौअर में रख दिया. अब वह ड्रौअर के निचले हिस्से को बंद ही रखती. वह फोटो उस के लिए बहुत माने रखती थी. इस कंपनी में पिछले 6 महीने से छवि सभी एंप्लौयीज के लिए रोलमौडल थी और दीपक सर के लिए एक मिसाल. छवि ने घड़ी देखी, 5 बजने में अब भी 25 मिनट बाकी थे. अगर उस के पास कोई अदृश्य ताकत होती तो समय की इस बाधा को हाथ से पकड़ कर पूरा कर देती. समय चूंकि अपनी गति से धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था, छवि ने अपने चेहरे पर हाथ रख, आंखों को ढक अपनी विवशता को कुछ कम किया.

अभी तो उसे लौगआउट करने से पहले रीजनल मैनेजर विनोद को दिनभर की रिपोर्टिंग करनी थी, यही सोच कर उस का मन रोने को कर रहा था. अगर उस ने फोन नहीं किया तो कभी भी उन का फोन आ सकता है. औफिस का काम औफिस में ही खत्म हो जाए तो अच्छा है. घर तक ले जाने की न तो उस की ताकत थी और न ही मंशा. यह आखिरी काम खत्म कर छवि एक पंख के कबूतर की तरह अपनी कंपनी के वन बैडरूम फ्लैट में आ गई. फ्लैट की औफव्हाइट दीवारों ने उस का स्वागत उसी तरह किया जैसे उस ने किसी अनजान पड़ोसी को गुडमौर्निंग कहा हो. फ्लैट में कंपनी ने उसे बेसिक मगर ब्रैंडेड फर्नीचर मुहैया करवा रखे थे. कभी उसे लगता घर भी औफिस का ही एक हिस्सा है और वह कभी घर आती ही नहीं. सच भी तो है, पिछले 6 महीने में वह एक बार भी घर नहीं गई थी.

मात्र 100 किलोमीटर की दूरी पर उस का कसबा था, सराय अजीतमल. पर वहां दिलों की बहुत दूरी थी. पिता के देहांत के बाद मां ने पिता के एक दोस्त प्रोफैसर महेश से लिवइन रिलेशन बना लिए. अब छवि का घर, जहां वह 22 साल रही, 2 प्रेमियों का अड्डा बन गया जहां उस के पहुंचने से पहले ही उस के जाने के बारे में जानकारी ले ली जाती.

कभीकभी तो उसे अपनी मां पर आश्चर्य होता कि वह क्या उस के पिता के मरने का ही इंतजार कर रही थी. पिता पिछले 5 सालों से कैंसर से जूझ रहे थे. इसी कारण छवि को बीच में पढ़ाई छोड़ जौब करनी पड़ी और महेश अंकल ने तो मदद की ही थी. यह बात और है कि उसे न चाहते हुए भी अब उन्हें पापा कहना पड़ता.

छवि ने अपनेआप को आईने में देखा और थोड़ा मुसकराई, वह सुंदर लग रही थी. औफिस में नौजवान एंप्लौयी चोरीछिपे उसे देखने का बहाना ढूंढ़ते और कुछेक अधेड़ बेशर्मी के साथ उस से कौफी पीने का अनुरोध करते. दीपक सर की चहेती होने से कोई सीधा हमला नहीं कर पाता. क्या फोन पर रिपोर्टिंग करते समय विनोद सर जान पाते होंगे कि यह एक पंख की कबूतर कौन्ट्रैक्ट की वजह से अब तक इस नौकरी को निभा रही है, हां…दीपक सर का अपनापन भी एक प्रमुख कारण था कि वह दूसरा जौब नहीं ढूंढ़ पाई. क्या पता उन्हें मालूम हो कि औफिस जाना उसे कितना गंदा लगता है.

वह नीचे झुकी, ड्रैसिंग टेबल पर फाइवस्टार रिजोर्ट में 2 दिन और 3 रातों का पैकेज टिकट पड़ा था. मन किया उस के टुकड़ेटुकड़े कर फाड़ कर फेंक दे, पर उस ने केवल एक आह भरी और कमरे की दीवारों को देखने लगी. दीवारों की सफेदी ने उसे पिछले महीने गोवा में समंदर किनारे हुई क्लाइंट मीटिंग की याद दिला दी. मन कसैला हो गया. कैसे समुद्र का चिपचिपा नमकीन पानी बारबार कमर तक टकरा रहा था और 2 क्लाइंट उस से अगलबगल चिपके खड़े थे. उन दोनों की बांहों के किले में वह जकड़ी थी और विनोद सर से ‘चीज’ कह कर एक ग्रुप फोटो लेने में व्यस्त थे.

छवि एक बिन ताज की महारानी की तरह कंपनी और क्लाइंट के बीच होने वाली डील में पिस रही थी. एक लहर ने आ कर उसे गिरा दिया, वह सोचने लगी कि क्या वह सचमुच गिर गई थी. बस, विनोद सर बीचबीच में हौसला बढ़ाते रहते, ‘बिजनैस है, हंसना तो पड़ेगा.’ उन के शब्द याद आते ही उस का मन रोने का किया. उसे लगा इस कमरे की दीवारें सफेद लहरें हैं जो उस के मुंह पर उछलउछल कर गिर रही हैं. वह जमीन पर बैठ गईर् और घुटनों को सीने से लगा सुबकने लगी. अपनी कंपनी से एक कौन्ट्रैक्ट साइन कर उस ने 3 साल की सैलरी का 60 प्रतिशत हिस्सा पहले ही ले लिया था. सारा पैसा पिता की बीमारी में लग गया. छवि का मन रोने से हलका हो गया. थोड़ी राहत मिली तो उठ कर बैड पर बैठ गई. डिनर करने का मन नहीं था, इसलिए सो गई.

सुबह 7 बजे सूरज की किरणें जब परदे को पार कर आंखों में चुभने लगीं तो वह हड़बड़ा कर उठी. वह ठीक 9 बजे औफिस पहुंच गई, उस के पास एक छोटा बैग था. दीपक सर उसे देख कर हलका सा मुसकराए. वह उन से भी छिपती हुई जल्दी से अपने कैबिन में आ कर बैठ गई. 1 घंटा प्रैजैंटेशन बनाने के बाद उसे बड़ी थकान लगने लगी, लगता था कल के रोने ने उस की बहुत ताकत खींच ली थी. तभी फोन बजा और उस का आलस टूटा. दूसरी लाइन पर दीपक सर थे, बोले, ‘‘तुम ने क्या सोचा?’’

ड्रौअर के नीचे के आखिरी खाने में कौन्ट्रैक्ट की कौपी और दीपक सर के साथ उस की फोटो थी. उस ने कौन्ट्रैक्ट को बिना देखे, फोटो को उठा अपने बैग में डाल लिया और बोली, ‘‘आप के साथ पार्टनरशिप,’’ और छवि ने फोन काट दिया. यह कोई पागलपन नहीं था, बल्कि एक सोचासमझा फैसला था. छवि ने ड्रौअर को ताला लगाया और चाबियों को झिझकते हुए, पर दृढ़ता से, पर्स में डाल दिया. 15 दिन लगे पर उसे अपने फैसले पर विश्वास था. फोटो को बैग से निकाल कर एक बार फिर देखा, थोड़ा धुंधला लग रहा था पर उस में अब भी चमक थी.

छवि की आंखों में हलका गीलापन था, कौन्ट्रैक्ट का पैसा दीपक सर की हैल्प से भर पा रही थी. अब वह कंपनी में कभी नहीं आएगी. वह अब आजाद थी. पर 2 दिन और 3 रातें दीपक सर के साथ रिजोर्ट में बिता कर वह उन्हीं के नए फ्लैट में रहेगी, एक पार्टनर बन कर.

Short Story : ठंडा आदमी – कैसी थी मोहन की जिंदगी

Short Story : मोहन 22-23 साल का नौजवान था जो चौधरी सुरजीत सिंह के फार्महाउस पर खेती के काम में मजदूरी करता था. मोहन का चेहरामोहरा अच्छा था. 6 फुट की लंबाई, भरापूरा ताकतवर बदन, चेहरे पर हलकी मूंछ व दाढ़ी.

मोहन दिनभर फार्महाउस पर कभी फसल को पानी लगाता तो कभी फसल की निराईगुड़ाई करता रहता. कभी पशुओं के लिए बरसीम तो कभी चरी खेत से काट कर बिजली से चलने वाले गंड़ासे से काट कर पशुओं के लिए तैयार कर घर भिजवाता यानी दिनभर मोहन अपने काम में लगा रहता था.

सुरजीत सिंह ने फार्महाउस पर ही मोहन के रहने का इंतजाम कर दिया था. बढि़या कमरा, टैलीविजन, कूलर, पंखा सभी चीजों का इंतजाम. खाना भी सुरजीत सिंह के घर से वहां पहुंचा दिया जाता था.

मोहन गरीब घर से था. उस की अभी तक शादी नहीं हुई थी. वह अपने गांव, जो यहां से 28 किलोमीटर दूर था, कभीकभार ही जाता था, वरना सारा समय उस का फार्महाउस पर ही गुजरता था.

मोहन खेती के काम में सुबह जल्दी उठ कर लग जाता था और दोपहर में कुछ देर आराम कर लेता था. उस की मौजूदगी के चलते फार्महाउस को कोई नुकसान पहुंचाने की सोच भी नहीं सकता था पर गांव की 5-6 लड़कियों का एक ग्रुप था जो अकसर इस फिराक में रहता था कि मोहन कब दोपहर में आराम करने जाए और वे मौके का फायदा उठा कर फार्महाउस में घुस कर जल्दीजल्दी घास काट कर गट्ठर बना कर घर लौटे. लेकिन मोहन ने कभी भी इस ग्रुप की चाल को कामयाब नहीं होने दिया.

इस ग्रुप की काम करने की रणनीति भी अलग ही थी. यह ग्रुप दोपहर के समय घर से खेतों के लिए निकलता था जबकि लोग सुबह जल्दी काम पर जा कर दोपहर तक वापस घरों को लौटने लगते थे. सुनसान पड़े खेतों में घुस कर ये लड़कियां मनमाने तरीके से घास काट कर गट्ठर बना कर ले आती थीं.

माया, मेनका, सरिता, मंजू और गीता ये सभी इस ग्रुप की सदस्य थीं. इन की उम्र भी 18-20 साल की थी.

सरिता इन में सब से खूबसूरत थी. सुराहीदार गरदन, पतलेपतले होंठ, गोरा रंग और भरापूरा बदन बरबस किसी का भी ध्यान अपनी तरफ खींच लेता था.

मोहन का रोजाना इन लड़कियां से सामना होता था लेकिन वह इन्हें घास नहीं डालता था. उस को पता था कि एक बार वह उन की मीठीमीठी बातों में आया तो वे पूरी फसल का सत्यानाश कर देंगी.

यही सोच कर मोहन उन से बात नहीं करता और न ही उन को फार्महाउस में घुसने देता था.

लेकिन मोहन कनखियों से सरिता को हसरत भरी निगाहों से देखता रहता था. इस का अंदाजा न केवल सरिता को था बल्कि उस की दूसरी सहेलियों को भी था. घर लौटते वक्त वे सरिता से मजाक करती रहतीं.

एक दिन मंजू ने कहा, ‘‘सरिता, मोहन तुझ पर दिलोजान से मरता है. आज मैं ने देखा था कि वह तेरी छाती पर नजरें गड़ाए हुए था.’’

‘‘चल हट…’’ सरिता ने कहा, ‘‘ऐसावैसा कुछ नहीं है. मोहन बहुत ही सीधासादा लड़का है.’’

लेकिन इश्क और मुश्क छिपाए थोड़े ही छिपते हैं. सरिता भी मोहन को पसंद करती थी. उस को भी वह प्यारा लगता था. वह उस का लंबातगड़ा शरीर देख कर रोमांचित हो उठती थी.

अब मोहन को इस ग्रुप के आने का इंतजार रहने लगा था. सरिता घास काटने के बहाने पीछे रह जाती और उस की बाकी सहेलियां आगे निकल जातीं.

मोहन भी सरिता के करीब पहुंच कर घास कटवाने में उस की मदद कराने के बहाने उस से बातचीत करने लग जाता. दोनों के बीच प्यार पनपने लगा था.

सरिता अब फार्महाउस के अंदर आ कर मोहन के साथ बतियाती रहती. दोनों ने एकदूसरे के घरपरिवार के बारे में जान लिया था. सरिता चाहती थी कि मोहन से उस की जल्दी ही शादी हो जाए, वहीं मोहन का मानना था कि पहले उस के बड़े भाई की शादी होगी, फिर बहन की, उस के बाद उस का नंबर आएगा. उधर सरिता की शादी करने के लिए लड़के की तलाश चल रही थी.

उन दोनों की मुलाकातों का समय बढ़ने लगा था लेकिन ये केवल मुलाकातें थीं, इस से आगे कुछ नहीं.

उस दिन मोहन फार्महाउस पर ट्यूबवैल चला कर खेतों में पानी लगा रहा था. सरिता और उस की सहेलियों का घास काटते बुरा हाल हो गया था.

माया ने मेनका की तरफ आंख दबा कर कहा, ‘‘सरिता, चलो वहां मोहन खेत में पानी लगा रहा?है. ट्यूबवैल चल रहा है. वहां नहाते हैं, कुछ तो राहत मिलेगी.’’

यही सोच कर वे सारी लड़कियां फार्महाउस में ट्यूबबैल के पास बने हौज में नहाने के लिए कूद गईं. पानी में काफी देर तक वे मस्ती करती रहीं. हौज में एकदूसरी को छेड़ती रहीं.

इसी छेड़खानी में सरिता की अंगिया की पट्टी टूट गई. वह हौज से बाहर आ गई. उधर से मोहन भी वहां आ गया था.

मोहन ने उस की अंगयि टूटी देखी तो सरिता ने कहा, ‘‘कल नई ले कर आऊंगी तब देखना.’’

इस के बाद सभी सहेलियां वहां से अपनेअपने गट्ठर उठा कर घर के लिए चल पड़ीं.

अगले दिन सरिता ने नई अंगिया पहनी और अपनी सहेलियों के साथ घास लेने खेतों की तरफ चल पड़ी. दोपहर में वे फार्महाउस पहुंचीं. उस वक्त मोहन अपने कमरे में आराम कर रहा था.

सरिता को देख कर मोहन ने पूछा, ‘‘नई अंगिया पहन कर आई है?’’

सरिता ने हां में सिर हिलाया. फिर कमीज ऊपर कर के मोहन को अपनी नई अंगिया दिखाई.

मोहन ने दूर से देखते हुए कहा, ‘‘अच्छी है.’’

सरिता ने उस का हाथ पकड़ कर अंगिया में घुसाते हुए कहा. ‘‘हाथ लगा कर देख न कितनी मुलायम है.’’

सरिता ने महसूस किया कि मोहन के हाथ में कोई हरकत नहीं है. उसे वह हाथ बेहद ठंडा लगा. काफी देर तक जब कोई हरकत नहीं हुई तो सरिता ने मोहन का हाथ झटक दिया और अपनी कमीज नीचे कर ली. वह वहां से तेजी से निकल कर अपनी सहेलियों के पास पहुंच गई. उसे मोहन बड़ा ही ठंडा आदमी लगा.

इस के बाद सरिता कभी भी मोहन से नहीं मिली.

Short Story : दलित की बेटी – काजल बन गई कलक्टर

Short Story : आज हरीपुर गांव में बड़ी चहलपहल थी. ब्लौक के अफसर, थाने के दारोगा व सिपाही, जो कभी यहां भूल कर भी नहीं आते थे, बड़ी मुस्तैदी दिखा रहे थे. आते भी क्यों नहीं, जिले की कलक्टर काजल जो यहां आने वाली थीं.

तकरीबन 8 महीने पहले काजल ट्रांसफर हो कर इस जिले में आई थीं. दूसरे लोगों के लिए भले ही वे जिले की कलक्टर थीं, लेकिन इस गांव के लिए किसी देवदूत से कम नहीं थीं. तकरीबन 7 महीने पहले उन्होंने इस गांव को गोद लिया था. वैसे तो यह गांव बड़ी सड़क से 3 किलोमीटर की दूरी पर था, लेकिन गांव से बड़ी सड़क तक जाने के लिए लोग कच्चे रास्ते का इस्तेमाल करते थे.

इस गांव की आबादी तकरीबन 2 हजार थी, लेकिन यहां न तो कोई प्राइमरी स्कूल था, न ही कोई डाक्टरी इलाज का इंतजाम था. यहां ज्यादातर मकान मिट्टी की दीवार और गन्ने के पत्तों के छप्पर से बने थे, लेकिन जब से कलक्टर काजल ने इस गांव को गोद लिया है, तब से इस गांव की तसवीर ही बदल गई है.

सरकारी योजनाओं के जरीए अब इस गांव में रहने वाले गरीब व पिछड़े लोगों के मकान पक्के बन गए हैं. हर घर में शौचालय व बड़ी सड़क से गांव तक पक्की सड़क भी बन गई है और आज गांव में बनी पानी की टंकी का उद्घाटन था, जिस से पूरे गांव को पीने का साफ पानी मिल सके. और तो और इस गांव का सरपंच ठाकुर महेंद्र सिंह, जो दलितों को छूता तक नहीं था, भी आज लोगों को बुलाबुला कर मंच के सामने लगी कुरसियों पर बिठा रहा था.

सुबह के तकरीबन 10 बजे कलक्टर काजल का गांव में आना हुआ. सारे अफसरों के साथसाथ ठाकुर महेंद्र सिंह भी माला ले कर उन के स्वागत के लिए खड़ा था, लेकिन कलक्टर काजल ने माला पहनने से इनकार कर दिया.

पानी की टंकी के उद्घाटन से पहले कलक्टर काजल ने ठाकुर महेंद्र सिंह से पूछा, ‘‘ठाकुर साहब, क्या आप मेरे द्वारा छुई गई इस टंकी का पानी पी सकेंगे?’’

ठाकुर महेंद्र सिंह खिसियानी हंसी हंसते हुए बोला, ‘‘अरे मैडम, यह कैसी बात कर रही हैं आप…’’

तब कलक्टर काजल बोलीं, ‘‘ठाकुर साहब, मैं उसी अछूत बुधवा की बेटी कजली हूं, जिसे आप ने अपना हैंडपंप छूने के जुर्म में गांव से बाहर निकाल दिया था…’’ और यह कह कर कलक्टर काजल ने टंकी का वाल्व खोल कर पानी चालू कर दिया. पीछे से लोगों के नारे लगाने की आवाज आने लगी.

ठाकुर महेंद्र सिंह की आंखों के सामने आज से 15 साल पुराना नजारा घूमने लगा.

बुधवा अपनी 12 साल की बेटी कजली के साथ खेतों से गेहूं काट कर घर आ रहा था. चैत का महीना था. कजली को प्यास लगी थी.

वे दोनों ठाकुर महेंद्र सिंह के बगीचे में लगे हैंडपंप के पास से गुजर रहे थे.

कजली बोली थी, ‘बाबा, थोड़ा पानी पी लूं, बड़ी प्यास लगी है.’

बुधवा बोला था, ‘नहीं बेटी, घर चल कर पानी पीना. यह ठाकुर का नल है. अगर किसी ने देख लिया, तो हमारी शामत आ जाएगी.’

कजली बोली थी, ‘बाबा, यहां कोई नहीं है. मैं जल्दी से पानी पी लूंगी. कोई भी नहीं जानेगा,’ इतना कह कर कजली ने हैंडपंप को पकड़ा ही था कि ठाकुर का बेटा रमेश वहां आ गया और कजली को नल पकड़े देख कर आपे से बाहर हो गया. उस ने कजली और बुधवा को खूब भलाबुरा कहा.

इस बात को ले कर गांव में पंचायत बैठी और गांव के सरपंच ठाकुर महेंद्र सिंह ने फरमान सुनाया कि चूंकि कजली ने ठाकुरों के नल को छुआ है, इसलिए उसे और उस के परिवार को गांव से बाहर निकाल दिया जाए.

फिर क्या था. बुधवा का घर तोड़ दिया गया और उन्हें जबरदस्ती गांव से बाहर निकाल दिया गया.

अब ठाकुर महेंद्र सिंह को अपनी उस गलती पर पछतावा हो रहा था. जिस को उस ने गांव से बेइज्जत कर के निकाल दिया था, वही कजली आज इस के जिले की कलक्टर है.

ठाकुर महेंद्र सिंह पुराने खयालों से बाहर निकला, तो देखा कि कलक्टर काजल जाने वाली हैं.

वह दौड़ कर उन के सामने पहुंचा और बोला, ‘‘मुझे माफ कर दो मैडम. मैं पहले जैसा नहीं रहा. अब मैं बदल गया हूं.’’

कलक्टर काजल बोलीं, ‘‘अच्छी बात है ठाकुर साहब. बदल जाने में ही भलाई है,’’ इतना कह कर वे अपनी जीप में बैठ कर चल दीं.

Family Story : परंपरा – दीनदयाल ने कैसे पापड़ बेले

Family Story : नगरनिगम के विभिन्न विभागों में काम कर के रिटायर होने के बाद दीनदयाल आज 6 माह बाद आफिस में आए थे. उन के सिखाए सभी कर्मचारी अपनीअपनी जगहों पर थे. इसलिए सभी ने दीनदयाल का स्वागत किया. उन्होंने हर एक सीट पर 10-10 मिनट बैठ कर चायनाश्ता किया. सीट और काम का जायजा लिया और फिर घर आ कर निश्चिंत हो गए कि कभी उन का कोई काम नगरनिगम का होगा तो उस में कोई दिक्कत नहीं आएगी.

एक दिन दीनदयाल बैठे अखबार पढ़ रहे थे, तभी उन की पत्नी सावित्री ने कहा, ‘‘सुनते हो, अब जल्द बेटे रामदीन की शादी होने वाली है. नीचे तो बड़े बेटे का परिवार रह रहा है. ऐसा करो, छोटे के लिए ऊपर मकान बनवा दो.’’

दीनदयाल ने एक लंबी सांस ले कर सावित्री से कहा, ‘‘अरे, चिंता काहे को करती हो, अपने सिखाएपढ़ाए गुरगे नगर निगम में हैं…हमारे लिए परेशानी क्या आएगी. बस, हाथोंहाथ काम हो जाएगा. वे सब ठेकेदार, लेबर जिन के काम मैं ने किए हैं, जल्दी ही हमारा पूरा काम कर देंगे.’’

‘‘देखा, सोचने और काम होने में बहुत अंतर है,’’ सावित्री बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि आज ही आप नगर निवेशक शर्माजी से बात कर के नक्शा बनवा लीजिए और पास करवा लीजिए. इस बीच सामान भी खरीदते जाइए. देखिए, दिनोंदिन कीमतें बढ़ती ही जा रही हैं.’’

‘‘सावित्री, तुम्हारी जल्दबाजी करने की आदत अभी भी गई नहीं है,’’ दीनदयाल बोले, ‘‘अब देखो न, कल ही तो मैं आफिस गया था. सब ने कितना स्वागत किया, अब इस के बाद भी तुम शंका कर रही हो. अरे, सब हो जाएगा, मैं ने भी कोई कसर थोड़ी न छोड़ी थी. आयुक्त से ले कर चपरासी तक सब मुझ से खुश थे. अरे, उन सभी का हिस्सा जो मैं बंटवाता था. इस तरह सब को कस कर रखा था कि बिना लेनदेन के किसी का काम होता ही नहीं था और जब पैसा आता था तो बंटता भी था. उस में अपना हिस्सा रख कर मैं सब को बंटवाता था.’’

दीनदयाल की बातों से सावित्री खुश हो गई. उसे  लगा कि उस के पति सही कह रहे हैं. तभी तो दीनदयाल की रिटायरमेंट पार्टी में आयुक्त, इंजीनियर से ले कर चपरासी तक शामिल हुए थे और एक जुलूस के साथ फूलमालाओं से लाद कर उन्हें घर छोड़ कर गए थे.

दीनदयाल ने सोचा, एकदम ऊपर स्तर पर जाने के बजाय नीचे स्तर से काम करवा लेना चाहिए. इसलिए उन्होंने नक्शा बनवाने का काम बाहर से करवाया और उसे पास करवाने के लिए सीधे नक्शा विभाग में काम करने वाले हरीशंकर के पास गए.

हरीशंकर ने पहले तो दीनदयालजी के पैर छू कर उन का स्वागत किया, लेकिन जब उसे मालूम हुआ कि उन के गुरु अपना नक्शा पास करवाने आए हैं तब उस के व्यवहार में अंतर आ गया. एक निगाह हरीशंकर ने नक्शे पर डाली फिर उसे लापरवाही से दराज में डालते हुए बोला, ‘‘ठीक है सर, मैं समय मिलते ही देख लूंगा,. ऐसा है कि कल मैं छुट्टी पर रहूंगा. इस के बाद दशहरा और दीवाली त्योहार पर दूसरे लोग छुट्टी पर चले जाते हैं. आप ऐसा कीजिए, 2 माह बाद आइए.’’

दीनदयाल उस की मेज के पास खडे़ रहे और वह दूसरे लोगों से नक्शा पास करवाने पर पैसे के लेनदेन की बात करने लगा. 5 मिनट वहां खड़ा रहने के बाद दीनदयाल वापस लौट आए. उन्होंने सोचा नक्शा तो पास हो ही जाएगा. चलो, अब बाकी लोगों को टटोला जाए. इसलिए वह टेंडर विभाग में गए और उन ठेकेदारों के नाम लेने चाहे जो काम कर रहे थे या जिन्हें टेंडर मिलने वाले थे.

वहां काम करने वाले रमेश ने कहा, ‘‘सर, आजकल यहां बहुत सख्ती हो गई है और गोपनीयता बरती जा रही है, इसलिए उन के नाम तो नहीं मिल पाएंगे लेकिन यह जो ठेकेदार करीम मियां खडे़ हैं, इन से आप बात कर लीजिए.’’

रमेश ने करीम को आंख मार कर इशारा कर दिया और करीम मियां ने दीनदयाल के काम को सुन कर दोगुना एस्टीमेट बता दिया.

आखिर थकहार कर दीनदयालजी घर लौट आए और टेलीविजन देखने लगे. उन की पत्नी सावित्री ने जब काम के बारे में पूछा तो गिरे मन से बोले, ‘‘अरे, ऐसी जल्दी भी क्या है, सब हो जाएगा.’’

अब दीनदयाल का मुख्य उद्देश्य नक्शा पास कराना था. वह यह भी जानते थे कि यदि एक बार नीचे से बात बिगड़ जाए तो ऊपर वाले उसे और भी उलझा देते हैं. यही सब करतेकराते उन की पूरी नौकरी बीती थी. इसलिए 2 महीने इंतजार करने के बाद वह फिर हरीशंकर के पास गए. अब की बार थोडे़ रूखेपन से हरीशंकर बोला, ‘‘सर, काम बहुत ज्यादा था, इसलिए आप का नक्शा तो मैं देख ही नहीं पाया हूं. एकदो बार सहायक इंजीनियर शर्माजी के पास ले गया था, लेकिन उन्हें भी समय नहीं मिल पाया. अब आप ऐसा करना, 15 दिन बाद आना, तब तक मैं कुछ न कुछ तो कर ही लूंगा, वैसे सर आप तो जानते ही हैं, आप ले आना, काम कर दूंगा.’’

दीनदयाल ने सोचा कि बच्चे हैं. पहले भी अकसर वह इन्हें चायसमोसे खिलापिला दिया करते थे. इसलिए अगली बार जब आए तो एक पैकेट में गरमागरम समोसे ले कर आए और हरीशंकर के सामने रख दिए.

हरीशंकर ने बाकी लोगों को भी बुलाया और सब ने समोसे खाए. इस के बाद हरीशंकर बोला, ‘‘सर, मैं ने फाइल तो बना ली है लेकिन शर्माजी के पास अभी समय नहीं है. वह पहले आप के पुराने मकान का निरीक्षण भी करेंगे और जब रिपोर्ट देंगे तब मैं फाइल आगे बढ़ा दूंगा. ऐसा करिए, आप 1 माह बाद आना.’’

हारेथके दीनदयाल फिर घर आ कर लेट गए. सावित्री के पूछने पर वह उखड़ कर बोले, ‘‘देखो, इन की हिम्मत, मेरे से ही सीखा और मुझे ही सिखा रहे हैं, वह नक्शा विभाग का हरीशंकर, जिसे मैं ने उंगली पकड़ कर चलाया था, 4 महीने से मुझे झुला रहा है. अरे, जब विभाग में आया था तब उस के मुंह से मक्खी नहीं उड़ती थी और आज मेरी बदौलत वह लखपति हो गया है और मुझे ही…’’

सावित्री ने कहा, ‘‘देखोजी, आजकल ‘बाप बड़ा न भइया, सब से बड़ा रुपइया,’ और जो परंपराएं आप ने विभाग मेें डाली हैं, वही तो वे भी आगे बढ़ा रहे हैं.’’

परंपरा की याद आते ही दीनदयाल चिंता मुक्त हो गए. अगले दिन 5000 रुपए की एक गड्डी ले कर वह हरीशंकर के पास गए और उस की दराज में चुपचाप रख दी.

हरीशंकर ने खुश हो कर दीनदयाल की फाइल निकाली और चपरासी से कहा, ‘‘अरे, सर के लिए चायसमोसे ले आओ.’’

फिर दीनदयाल से वह बोला, ‘‘सर, कल आप को पास किया हुआ नक्शा मिल जाएगा.’’

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