Funny Story : छु‍ट्टियों का चक्‍कर

सरकारी दफ्तर में बड़े बाबू के चेहरे से लग रहा था कि वे बहुत ज्यादा टैंशन में हैं. दफ्तर के लोगों ने उन्हें हमेशा ‘टन्न’ या ‘टुन्न’ ही देखा था, ‘टैंस’ कभी नहीं. दफ्तर के बाकी लोगों में खुसुरफुसुर होने लगी.

एक दूसरे ‘टुन्न’ बाबू ने बड़े बाबू के टैंशन की वजह जानने की कोशिश की तो बड़े बाबू उन पर ऐसे फट पड़े जैसे कोई सरकारी पाइप फटता है. अपनी मेज पर पड़ी पैंडिंग फाइल और कागजों के बीच से नए साल का कलैंडर निकाल कर दिखाते हुए वे बोले, ‘‘क्या तुम में से किसी ने नए साल का कलैंडर देखा है? कितनी कम छुट्टियां हैं इस साल…’’

एक छोटे बाबू ने उन के हाथ से कलैंडर लिया और पन्ने पलटा कर शनिवार और रविवार की छुट्टियां गिनने लगे. पूरी गिनती होने के वे बाद बोले, ‘‘ठीक तो है बड़े बाबू. शनिवार और रविवार मिला कर पूरे 104 दिन की छुट्टियां हैं.’’

बड़े बाबू का गुस्सा अब पूरे दफ्तर में वैसे ही बहने लगा जैसे सरकारी पाइप फटने के बाद उस का पानी सरकारी सड़कों पर बहने लगता है. उन्होंने कलैंडर के पहले पन्ने की 26 तारीख पर जोर से बारबार उंगली रखते हुए कहा, ‘‘पहले ही महीने में एक छुट्टी मारी गई है. 26 जनवरी शनिवार को है.’’

अब तक दफ्तर के सारे छोटेबड़े मुलाजिम बड़े बाबू के कलैंडर के इर्दगिर्द जमा हो चुके थे. साल की छुट्टियों का हिसाबकिताब अब दफ्तर का सब से जरूरी काम था.

कलैंडर के अगले पन्ने पलटते हुए बड़े बाबू ने बोलना जारी रखा, ‘‘मार्च में रंग खेलने वाली होली गुरुवार को है. अगर 4 छुट्टियां एकसाथ लेनी होंगी तो एक सीएल बरबाद होगी न.’’

‘‘वैसे भी होली के दूसरे दिन भांग कहां उतरती है. मैं तो अभी से मैडिकल लीव डाल दूंगा,’’ एक और बाबू ने कहा.

बड़े बाबू ने फिर मोरचा संभाला, ‘‘15 अगस्त पर फिर अपनी एक सीएल शहीद होगी. 15 अगस्त गुरुवार को है और 4 छुट्टियां एकसाथ चाहिए तो शुक्रवार की एक छुट्टी लेनी पड़ेगी.’’

बड़े बाबू कलैंडर के पन्ने पलटते रहे और कहते रहे, ‘‘अक्तूबर में दीवाली रविवार को ही है. फिर एक छुट्टी मारी गई. दिसंबर में 25 तारीख तो ऐसी फंसी है कि न इधर के रहे और न उधर के. सिर्फ एक दिन की छुट्टी मिल पाएगी, वह भी बुधवार को.

‘‘मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा कि इतनी कम छुट्टियों में कैसे काम चलेगा. ऐसे हालात में आज मैं अब और काम नहीं कर पाऊंगा,’’ इतना कह कर बड़े बाबू दफ्तर से बाहर निकल गए.

पर उन के इस ज्ञान गणित से दफ्तर के बाकी मुलाजिम भी अब छुट्टियों के जोड़तोड़ में लग गए थे.

 

Satire : शादीलाल की सालियां

शादीलाल जैसा सामान धरती पर कम ही मिलता है. साढ़े 4 फुट की उस चीज का पेट आगे निकला हुआ था और गंजे सिर पर गिनने लायक बाल थे. मुझे यकीन था कि उस की शादी नामुमकिन है, पर शायद वह अपने माथे पर कुछ और ही लिखा कर लाया था.

पिछले साल ही तो शादीलाल की शादी हुई थी. कुदरत ने उस के साथ मजाक नहीं किया, क्योंकि कोई भी यह नहीं कह सकता था कि ‘राम मिलाए जोड़ी, एक अंधा एक कोढ़ी’.

जी हां, जैसा हमारा प्यारा दोस्त शादीलाल था, ठीक वैसी ही उस की बीवी यानी मेरी भाभी आई थीं. वे भी करीब 37 साल की होंगी. शादीलाल की कदकाठी से ले कर मोटापा, लंबाई, ऊंचाई, निचाई, चौड़ाई सभी में जबरदस्त टक्कर देने वाली थीं.

मेरी भाभी का नाम पहले कुमारी सुंदरी था, पर अब श्रीमती सुंदरी देवी हो गया था.

पर भाभी का सुंदरी होना तो दूर, वे सुंदरी का ‘सु’ भी नहीं थीं, मगर ससुराल के नाम से बिदकने वाला मेरा यार गजब की तकदीर पाए हुए था. उस के 7 सगी सालियां थीं और सातों एक से बढ़ कर एक.

ये भी पढ़ें- अंतहीन

मैं भी शादी में गया था. सच कहता हूं कि मेरा ईमान भूचाल में जैसे धरती डोलती है, वैसे डोल गया था. अगर मेरी नकेल पहले से न कसी होती, तो मैं शादीलाल की सालियों के साथ इश्क कर डालता.

शादी में शादीलाल की सालियों ने उस की इतनी खिंचाई की थी कि वह ससुराल का नाम लेना ही भूल गया. शादी में उस से जूतों की पूजा कराई गई. धोखे में डाल कर सुंदरी देवी के पैर छुआए गए. सुंदरी देवी के नाम से झूठी चिट्ठी भेज कर उसे जनवासे से 7 फर्लांग दूर बुलवाया गया.

खैर, होनी को कौन टाल सकता था. आज शादीलाल की शादी को एक साल हो गया. सुंदरी देवी अपने मायके में थीं. वे न जाने कितनी बार वहां हो आईं, पर मेरे यार ने कभी वहां की यात्रा का नाम नहीं लिया.

वहां से ससुर साहब की चिट्ठी आई कि आप शादी के बाद से ससुराल नहीं आए. अब सुंदरी की विदाई तभी होगी जब आप खुद आएंगे, वरना नहीं.

यह वाकिआ मुझे तब पता चला, जब औफिस की बड़े बाबू वाली कुरसी पर शादीलाल को गमगीन बैठे देखा.

‘‘मेरे यार, क्या कहीं से कोई

तार वगैरह आया है या गमी हो गई?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

शादीलाल ने अपना मुंह नहीं खोला. अलबत्ता, नाक पर मक्खी बैठ जाने पर भैंस जैसे सिर हिलाती है, वैसे न में सिर हिला दिया.

तब मैं ने पूछा, ‘‘क्या आप को सुंदरी देवी की तरफ से तलाक का नोटिस आया है? क्या वे बीमार हैं या सासससुर गुजर गए?’’

अब शादीलाल ने जो सिर उठाया, तो मेरा दिल बैठ गया. लाललाल आंखें आंसुओं से भरी थीं. चेहरा गधे सा मुरझाया था.

मैं ने उस के हाथ पर हाथ रखा, तो शादीलाल रो उठा और बोला, ‘‘देखो एकलौता राम, तुम मेरे खास दोस्त हो, तुम से क्या छिपाना. चिट्ठी आई है.’’

‘‘क्या कोई बुरी खबर है या कोई अनहोनी घटना घट गई?’’

‘‘नहीं, ससुरजी ने मुझे बुलाया है. इस बार वे साले के साथ सुंदरी को नहीं भेज रहे हैं. अब तो मुझे जाना ही होगा.’’

‘‘अरे, तो इस में घबराने की क्या बात है. ससुराल से बुलावा तो अच्छे लोगों को ही मिलता है. तुम तो

7 सालियों के आधे घरवाले हो, तुम जरूर जाओ.’’

‘‘नहीं यार, यही तो मुसीबत है. मैं उन सातों के मुंह में तिनके की तरह समा जाता हूं.’’

‘‘शादीलाल, तुम्हें क्या हो गया है? घबराओ मत, मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ मैं ने उसे हौसला बंधाया.

‘‘एकलौता राम, मुझे तुम्हीं पर भरोसा है. इस संसार में मेरा साथ देने वाले यार तुम्हीं हो. क्या तुम मेरे ऊपर एक एहसान करोगे?’’

‘‘कहो यार, मैं तो यारों का एकलौता राम हूं.’’

ये भी पढ़ें- अरे, यह क्या कर दिया?

‘‘तुम को मेरे साथ मेरी ससुराल चलना होगा, वरना मेरी शैतान सालियां मुझे सतासता कर काढ़ा बना कर पी जाएंगी.’’

मैं ने शादीलाल को समझाना चाहा, पर वह मुझे अपनी ससुराल ले ही गया. इस तरह अब शादीलाल की ससुराल यात्रा और साथ में एकलौता राम की यादगार यात्रा शुरू हो गई.

87 किलोमीटर दूर ससुराल में पहुंचे, तो हमारी खूब खातिरदारी हुई. फिर सातों शैतान सालियों के कारनामे शुरू हो गए, जिन का हमें डर था.

थका होने की वजह से शादीलाल शाम 7 बजे से ही खर्राटे लेने में मस्त हो गया. तभी वे सातों आईं. उन्होंने मुंह पर उंगली रख चुप रहने का इशारा किया तो मैं समझ गया कि शादीलाल अब तो गया काम से.

मैं शादीलाल को जगाने के चक्कर में था कि 27 साला एक साली ने कहा, ‘‘आप खामोश रहिए, वरना आप की हजामत जीजा से भी बढ़ कर होगी.’’

मैं ने रजाई तानी और उस में झरोखा बना कर नजारा देखने लगा. शादीलाल के हाथों में एक साली ने नीली स्याही का पोता फेरा. दूसरी साली ने उस की नाक में कागज की सींक बना कर घुसा दी. नतीजतन, शादीलाल का हाथ नाक पर पहुंच गया और स्याही चेहरे पर ‘मौडर्न आर्ट’ बनाती गई.

मैं लिहाफ के अंदर हंसी नहीं रोक पा रहा था. आखिर में 6 सालियां बाहर चली गईं, केवल 7 साल की सुनीता बची, तो उस ने अपने जीजा के हाथों में उसी की हवाई चप्पलें उलटी कर के फंसी दीं और फिर उस के कानों में सींक घुमा कर भाग गई.

सींक से बेचैन हो कर शादीलाल ने अपने कानों पर हाथ मारे, तो चप्पलें गालों पर चटाक से बोलीं.

मैं ने किसी तरह झरोखा बंद किया. हंसहंस कर मेरा पेट हिल रहा था, पर कान आहट ले रहे थे.

मेरा यार उठा. चप्पलें फेंकने की आवाज आई, फिर उस ने मेरी रजाई उठा दी. मैं तब भी हंस रहा था.

शादीलाल बरस पड़ा, ‘‘एकलौता राम, तू कर गया न गद्दारी. मेरी यह हालत किस ने की?’’

मैं ने आंख मलने का नाटक किया और पूछा, ‘‘क्या बात है यार?’’

‘‘बनो मत, मेरी हालत पर तुम हंस रहे थे.’’

‘‘क्या बात करते हो यार… मैं तो सपने में हंस रहा था. अरे, तुम्हारे चेहरे पर रामलीला का मेकअप किस ने किया?’’

‘‘उठ यार, मैं यहां पलभर भी नहीं ठहर सकता. वही कमबख्त सालियां होंगी,’’ उस ने आईने में अपना चेहरा देखते हुए कहा.

ये भी पढ़ें- छुट्टी राग

‘‘चलो ससुरजी के पास, मैं उन सब की शिकायत करता हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर यार, ससुरजी ऐसा टैक्नीकलर दामाद देखेंगे तो क्या कहेंगे? आखिर मैं क्या करूं? मैं इसीलिए यहां नहीं आता हूं. तुझे बचाव के लिए लाया था, पर तू भी बेकार रहा.’’

‘‘शादीलाल, क्या मैं रातभर जाग कर तुम्हारी खाट के चक्कर लगाऊंगा? तुम भी तो घोड़े बेच कर सो गए. वहां जग में पानी रखा है, मुंह धो डालो.’’

बेचारा शादीलाल मुंह धो कर लेट गया. मैं सोने की कोशिश में था कि तभी पायल की आवाज सुन कर चौंका.

जीरो पावर का बल्ब जल रहा था.

मैं ने देखा, वह भारीभरकम औरत शायद श्रीमती शादीलाल थीं. मैं ज्यादा रात तक जागने पर मन

ही मन झल्लाया और करवट बदल कर लेटा रहा. मुझे आवाजें सुनाई पड़ रही थीं.

‘‘अरे तुम, देखो हल्ला नहीं करना. मेरा यार एकलौता राम सोया हुआ है. तुम खुद नहीं आ सकती थीं. तुम्हारी बहनों ने मेरा मजाक बना दिया.’’

ठीक तभी बिजली जलने की आवाज सुनाई दी और सामूहिक ठहाके भी. मैं ने फौरन हड़बड़ा कर रजाई फेंकी. देखा तो दंग रह गया. शादीलाल की 6 सालियां खड़ी थीं. बेचारा शादीलाल उन्हें टुकुरटुकुर देख रहा था.

साली नंबर 5 गद्दा, तकिया व साड़ी फेंक कर फ्राक में खड़ी हो गई और बोली, ‘‘हम सातों को जीजाजी शैतान कह रहे थे.’’

‘‘अरे, मैं तो पहले ही समझ गया था. मैं तो नाटक कर रहा था,’’ शादीलाल ने झेंपते हुए साली नंबर 5 को देखा.

इस मजाक के बाद अगला मजाक सुबह ही हुआ. मैं और मेरा यार जब कमरे से बाहर आए, तो आंगन में सालियों से दुआसलाम हुई.

तभी एक साली ने कहा, ‘‘जीजाजी, क्या आप रात को बड़ी दीदी के कमरे में गए थे?’’

‘‘नहीं सालीजी, तुम्हारे होते हुए मैं वहां क्यों जाता?’’ कह कर शादीलाल ने उसे गोद में उठा लिया.

‘‘पर जीजाजी, आप बड़ी दीदी की चप्पलें पहने हैं और आप की चप्पलें तो दीदी के कमरे में पड़ी हैं.’’

शादीलाल ने घबरा कर पैरों की ओर देखा. पैरों में लेडीज चप्पलें ही थीं.

शादीलाल के हाथ से साली छूट गई, पर मैं ने उसे संभाल लिया. फिर ठहाका लगा, तो शादीलाल की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई.

सब से ज्यादा मजा उस समय आया, जब शादीलाल पेट हलका करने शौचालय में घुसा. तब मैं आंगन में खड़ाखड़ा ब्रश कर रहा था. सालियों ने जो टूथपेस्ट दिया था, उस का स्वाद कड़वा सा था और उस से बेहद झाग भी निकल रहा था.

ये भी पढ़ें- शादी: भाग 2

तभी शौचालय के अंदर के नल का कनैक्शन, जिस से पानी जाता था, एक साली ने बाहर से बंद कर दिया.

मैं ने सोचा कि शादीलाल तो गया काम से. इधर मैं थूकतेथूकते परेशान था कि शादीलाल की सास ने कहा, ‘‘बेटा, तुम कुल्ला कर लो. इन शैतानों ने टूथपेस्ट की जगह तुम्हें ‘शेविंग क्रीम’ दे दी थी.’’

मेरे तो मानो होश ही उड़ गए. जल्दीजल्दी थूक कर भागा और सालियों के जबरदस्त ठहाके सुनता रहा.

शादीलाल एक घंटे बाद जब बिना पानी के ‘शौचालय’ से बाहर आया तो छोटी साली नाक दबा कर आई और बोली, ‘‘जीजाजी, फिर से अंदर जाइए. अब नल चालू कर दिया है.’’

शादीलाल दोबारा अंदर घुसा, फिर निकल कर नहाने घुस गया. उस का लगातार मजाक बनाया जा रहा था, पर वह ऐसा चिकना घड़ा था कि उस पर कोई बात रुकती नहीं थी.

2 दिन ऐसे ही सालियों की मुहब्बत भरी छेड़खानी में गुजरे. जब जाने का नंबर आया तो मेरे सीधेसादे यार शादीलाल ने सालियों से ऐसा मजाक किया कि सातों सालियां ही शर्म से पानीपानी हो गईं.

हुआ यों कि जब हमारे जाने का समय आया और रोनेधोने के बाद तांगे में सामान रख दिया गया, तब सालियां, उन की सहेलियां और महल्ले वालों की भीड़ जमा थी.

तभी शादीलाल ने कहा, ‘‘देखो सातों सालियो, मुझे यह बताओ कि कुंआरी लड़की को क्या पसंद है?’’

सातों सालियों ने न में सिर हिलाया. सब लोगों को यह जानने की बेताबी थी कि शादीलाल अब क्या कहेंगे. तभी शादीलाल ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘अरे, तुम लोगों को नहीं पता कि कुंआरी लड़कियों को क्या पसंद है?’’

ये भी पढ़ें- यह कैसी मां: भाग 2

‘नहीं,’ सातों सालियों ने एकसाथ फिर से वही जवाब दिया.

‘‘मुझे पहले ही तुम लोगों पर शक था,’’ शादीलाल ने नाटकीय लहजे में कहा.

उस समय सातों सालियों पर घड़ों पानी पड़ गया, जब उन की एक सहेली ने कहा, ‘‘तुम लोगों को जीजाजी ने बेवकूफ बना दिया. उन्हें तुम्हारे कुंआरे होने पर शक है. उन्होंने तुम सभी को शादीशुदा बना दिया है, क्योंकि तुम लोगों को कुंआरी लड़कियों की पसंद नहीं मालूम है.’’

और फिर तो सातों सालियों पर इतने जबरदस्त ठहाके लगे कि सभी दुपट्टे में मुंह छिपा कर अंदर भाग गईं.

 

Star Kids : रणबीर कपूर और आलिया भट्ट की बहन क्‍यों नहीं आई मूवीज में

Star Kids Career : बॅालीवुड इंडस्ट्री में आने की चाह हर किसी की होती है. हर कोई चाहता है कि हम फिल्मों में आए, एक्टिंग करें, लाखों लोग हमारे फैन हो, हर समय हमारे घर के बाहर फैंस का जमावड़ा लगा रहे. लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में कुछ ऐसे स्टार किड्स भी हैं जिनहोंने अभी तक फिल्मों से दूरी बना रखी है और अपने-अपने करियर में उम्दा काम कर रहे हैं. तो आइए जानतें हैं उन्हीं कुछ स्टार किड्स (Star Kids Career) के बारे में.

  1. शाहीन भट्ट

हिन्दी फिल्म निर्माता और निर्देशक महेश भट्ट व एक्ट्रेस सोनी राजदान की छोटी बेटी आलिया भट्ट, जिन्होंने अपने शानदार अभिनय से फिल्म इंडस्ट्री में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. तो वहीं उनकी बड़ी बेटी शाहीन भट्ट (Shaheen Bhatt) ने बड़े पर्दे से दूरी बना रखी है. वह लंबे समय से स्क्रीन राइटर और ऑथर के रूप में काम कर रही हैं.

2. रिद्धिमा कपूर साहनी

70 के दशक के मशहूर अभिनेता ऋषि कपूर और अभिनेत्री नीतू सिंह की बेटी रिद्धिमा कपूर साहनी (riddhima kapoor sahni) ने भी ग्लैमर वर्लड से दूरी बना रखी हैं. वह इस समय ज्वेलरी डिजाइनर के तौर पर काम कर रही हैं.

3. अलविरा अग्निहोत्री और अर्पिता खान

लेखक और एक्टर सलीम खान को आज किसी पहचान की जरूरत नहीं है. उन्होंने अपने करियर में एक से बढ़कर एक सुपरहिट फिल्में दी है. उनके तीनों बेटों नें भी एक्टिंग में अपना करियर बनाया है, लेकिन उनकी दोनों बेटियां अलविरा अग्निहोत्री (alvira agnihotri) और अर्पिता खान (arpita khan sharma) फिल्म इंडस्ट्री से कोसों दूर है. अलविरा, जहां पेशे से एक फैशन डिजाइनर हैं तो वहीं अर्पिता हाउसवाइफ हैं.

4. सबा अली खान

अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री शर्मिला टैगोर की एक्टिंग के लोग आज भी दीवाने हैं. एक्ट्रेस शर्मिला की तरह उनके बेटे सैफ अली खान और छोटी बेटी सोहा अली खान ने फिल्मी दुनिया में खूब नाम कमाया. लेकिन उनकी बड़ी बेटी सबा अली खान (saba pataudi) ने कभी फिल्मों में अपनी किस्मत नहीं आजमाई. वो इन सब से दूर बतौर ज्वेलरी डिजाइनर काम कर रही हैं.

5. त्रिशाला दत्त

आपको बता दें कि बॉलीवुड एक्टर संजय दत्त और उनकी पहली पत्नी ऋचा शर्मा की बेटी त्रिशाला दत्त (trishala dutt) भी बॉलीवुड से कोसों दूर हैं. यहां तक की वह इंडिया से दूर न्यूयॉर्क में अपनी नानी मां के साथ रहती हैं. इसके अलावा कई बार उन्होंने ये भी कहा है कि उनकी फिल्म इंडस्ट्री में करियर बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं है.

Hindi Kahani : परदेस में बंद गले का कोट

मास्को में गरमी का मौसम था. इस का मतलब यह नहीं कि वहां सूरज अंगारे उगलने लगा था, बल्कि यह कहें कि सूरज अब उगने लगा था, वरना सर्दी में तो वह भी रजाई में दुबका बैठा रहता था. सूरज की गरमी से अब 6 महीने से जमी हुई बर्फ पिघलने लगी थी. कहींकहीं बर्फ के अवशेष अंतिम सांसें गिनते दिखाई देते थे. पेड़ भी अब हरेभरे हो कर झूमने लगे थे, वरना सर्दी में तो वे भी ज्यादातर बर्फ में डूबे रहते थे. कुल मिला कर एक भारतीय की नजर से मौसम सुहावना हो गया था. यानी ओवरकोट, मफलर, टोपी, दस्ताने वगैरा त्याग कर अब सर्दी के सामान्य कपड़ों में घूमाफिरा जा सकता था. रूसी लोग जरूर गरमी के कारण हायहाय करते नजर आते थे. उन के लिए तो 24 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पारा हुआ नहीं कि उन की हालत खराब होने लगती थी और वे पंखे के नीचे जगह ढूंढ़ने लगते थे. बड़े शोरूमों में एयर कंडीशनर भी चलने लगे थे.

सुनील दूतावास में तृतीय सचिव के पद पर आया था. तृतीय सचिव का अर्थ था कि चयन और प्रशिक्षण के बाद यह उस की पहली पोस्टिंग थी, जिस में उसे साल भर देश की भाषा और संस्कृति का औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त करना था और साथ ही दूतावास के कामकाज से भी परिचित होना था. वह आतेजाते मुझे मिल जाता और कहता, ‘‘कहिए, प्रोफेसर साहब, क्या चल रहा है?’’

‘‘सब ठीक है, आप सुनाइए, राजदूत महोदय,’’ मैं जवाब देता.

हम दोनों मुसकानों का आदानप्रदान करते और अपनीअपनी राह लेते. रूस में रहते हुए अपनी भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेमप्रदर्शन के लिए और भारतीयों की अलग पहचान दिखाने के लिए मैं बंद गले का सूट पहनता था. रूसी लोग मेरी पोशाक से बहुत आकर्षित होते थे. वे मुझे देख कर कुछ इशारे वगैरा करने लगते. कुछ लोग मुसकराते और ‘इंदीइंदी’ (भारतीयभारतीय) कहते. कुछ मुझे रोक कर मुझ से हाथ मिलाते. कुछ मेरे साथ खडे़ हो कर फोटो खिंचवाते. कुछ ‘हिंदीरूसी भाईभाई’ गाने लगते. सुनील को भी मेरा सूट पसंद था और वह अकसर उस की तारीफ करता था.

यों पोशाक के मामले में सुनील खुद स्वच्छंद किस्म का जीव था. वह अकसर जींस, स्वेटर वगैरा पहन कर चला आता था. कदकाठी भी उस की छोटी और इकहरी थी. बस, उस के व्यवहार में भारतीय विदेश सेवा का कर्मचारी होने का थोड़ा सा गरूर था.

मैं ने कभी उस की पोशाक वगैरा पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन एक दिन अचानक वह मुझे बंद गले का सूट पहने नजर आया. मुझे लगा कि मेरी पोशाक से प्रभावित हो कर उस ने भी सूट बनवाया है. मुझे खुशी हुई कि मैं ने उसे पोशाक के मामले में प्रेरित किया.

‘‘अरे, आज तो आप पूरे राजदूत नजर आ रहे हैं,’’ मैं ने कहा, ‘‘सूट आप पर बहुत फब रहा है.’’

उस ने पहले तो मुझे संदेह की नजरों से देखा, फिर हलके से ‘धन्यवाद’ कहा और ‘फिर मिलते हैं’ का जुमला हवा में उछाल कर चला गया. मुझे उस का यह व्यवहार बहुत अटपटा लगा. मैं सोचने लगा कि मैं ने ऐसा क्या कह दिया कि वह उखड़ गया. मुझे कुछ समझ नहीं आया. इस पर ज्यादा सोचविचार करना मैं ने व्यर्थ समझा और यह सोच कर संतोष कर लिया कि उसे कोई काम वगैरा होगा, इसलिए जल्दी चला गया.

तभी सामने से हीरा आता दिखाई दिया. वह कौंसुलेट में निजी सहायक के पद पर था.

‘‘क्या बात हो रही थी सुनील से?’’ उस ने शरारतपूर्ण ढंग से पूछा.

‘‘कुछ नहीं,’’ मैं ने बताया, ‘‘पहली बार सूट में दिखा, तो मैं ने तारीफ कर दी और वह मुझे देखता चला गया, मानो मैं ने गाली दे दी हो.’’

‘‘तुम्हें पता नहीं?’’ हीरा ने शंकापूर्वक कहा.

‘‘क्या?’’ मुझे जिज्ञासा होना स्वाभाविक था.

‘‘इस सूट का राज?’’ उस ने कहा.

‘‘सूट का राज? सूट का क्या राज, भई?’’ मैं ने भंवें सिकोड़ते हुए पूछा.

‘‘असल में इसे पिछले हफ्ते मिलित्सिया वाले (पुलिस वाले) ने पकड़ लिया था,’’ उस ने बताया, ‘‘वह बैंक गया था पैसा निकलवाने. बैंक जा रहा था तो उस के 2 साथियों ने भी उसे अपने चेक दे दिए. वह बैंक से निकला तो उस की जेब में 3 हजार डालर थे.

‘‘वह बाहर आ कर टैक्सी पकड़ने ही वाला था कि मिलित्सिया का सिपाही आया और इसे सलाम कर के कहा कि ‘दाक्यूमेत पजालस्ता (कृपया दस्तावेज दिखाइए).’ इस ने फट से अपना राजनयिक पहचानपत्र निकाल कर उसे दिखा दिया. वह बड़ी देर तक पहचानपत्र की जांच करता रहा फिर फोटो से उस का चेहरा मिलाता रहा. इस के बाद इस की जींस और स्वेटर पर गौर करता रहा, और अंत में उस ने अपना निष्कर्ष उसे बताया कि यह पहचानपत्र नकली है.’’

‘‘सुनील को जितनी भी रूसी आती थी, उस का प्रयोग कर के उस ने सिपाही को समझाने की कोशिश की कि पहचानपत्र असली है और वह सचमुच भारतीय दूतावास में तृतीय सचिव है. लेकिन सिपाही मानने के लिए तैयार नहीं था. फिर उस ने कहा कि ‘दिखाओ, जेब में क्या है?’ और जेबें खाली करवा कर 3 हजार डालर अपने कब्जे में ले लिए. अब सुनील घबराया, क्योंकि उसे मालूम था कि मिलित्सिया वाले इस तरह से एशियाई लोगों को लूट कर चल देते हैं और फिर उस की कोई सुनवाई नहीं होती. अगर कोई काररवाई होती भी है तो वह न के बराबर होती है. मिलित्सिया वाले तो 100-50 रूबल तक के लिए यह काम करते हैं, जबकि यहां तो मसला 3 हजार डालर यानी 75 हजार रूबल का था.’’

‘‘उस ने फिर से रूसी में कुछ कहने की कोशिश की लेकिन मिलित्सिया वाला भला अब क्यों सुनता. वह तो इस फिराक में था कि पैसा और पहचानपत्र दोनों ले कर चंपत हो जाए, लेकिन सुनील के भाग्य से तभी वहां मिलित्सिया की गाड़ी आ गई. उस में से 4 सिपाही निकले, जिन में से 2 के हाथों में स्वचालित गन थीं. उन्हें देख कर सुनील को लगा कि शायद अब वह और उस के पैसे बच जाएं.

‘‘वे सिपाही वरिष्ठ थे, इसलिए पहले सिपाही ने उन्हें सैल्यूट कर के उन्हें सारा माजरा बताया और फिर मन मार कर पहचानपत्र और राशि उन के हवाले कर दी और कहा कि उसे शक है कि यह कोई चोरउचक्का है. उन सिपाहियों ने सुनील को ऊपर से नीचे तक 2 बार देखा. मौका देख कर सुनील ने फिर से अपने रूसी ज्ञान का प्रयोग करना चाहा, लेकिन उन्होंने कुछ सुनने में रुचि नहीं ली और आपस में कुछ जोड़तोड़ जैसा करने लगे. इस पर सुनील की अक्ल ने काम किया और उस ने उन्हें अंगरेजी में जोरों से डांटा और कहा कि वह विदेश मंत्रालय में इस बात की सख्त शिकायत करेगा.

‘‘उन्हें अंगरेजी कितनी समझ में आई, यह तो पता नहीं, लेकिन वे कुछ प्रभावित से हुए और उन्होंने सुनील को कार में धकेला और कार चला दी. पहला सिपाही हाथ मलता और वरिष्ठों को गालियां देता वहीं रह गया. अब तो सुनील और भी घबरा गया, क्योंकि अब तक तो सिर्फ पैसा लुटने का डर था, लेकिन अब तो ये सिपाही न जाने कहां ले जाएं और गोली मार कर मास्कवा नदी में फेंक दें. उस का मुंह रोने जैसा हो गया और उस ने कहा कि वह दूतावास में फोन करना चाहता है. इस पर एक सिपाही ने उसे डांट दिया कि चुप बैठे रहो.

‘‘सिपाही उसे ले कर पुलिस स्टेशन आ गए और वहां उन्होंने थाना प्रभारी से कुछ बात की. उस ने भी सुनील का मुआयना किया और शंका से पूछा, ‘आप राजनयिक हैं?’

‘‘सुनील ने अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि कैसे उसे परेशान किया गया है, उस के पैसे छीने गए हैं. बेमतलब उसे यहां लाया गया है और वह दूतावास में फोन करना चाहता है.

‘‘प्रभारी ने सामने पड़े फोन की ओर इशारा किया. सुनील ने झट से कौंसुलर को फोन मिलाया. कौंसुलर ने मुझे बुलाया और फिर मैं और कौंसुलर दोनों कार ले कर थाने पहुंचे. हमें देख कर सुनील लगभग रो ही दिया. कौंसुलर ने सिपाहियों को डांटा और कहा कि एक राजनयिक के साथ इस तरह का व्यवहार आप लोगों को शोभा नहीं देता.’’

‘‘इस पर वह अधिकारी काफी देर तक रूसी में बोलता रहा, जिस का मतलब यह था कि अगर यह राजनयिक है तो इसे राजनयिक के ढंग से रहना भी चाहिए और यह कि इस बार तो संयोग से हमारी पैट्रोल वहां पहुंच गई, लेकिन आगे से हम इस तरह के मामले में कोई जिम्मेदारी नहीं ले सकते?

‘‘अब कौंसुलर की नजर सुनील की पोशाक पर गई. उस ने वहीं सब के सामने उसे लताड़ लगाई कि खबरदार जो आगे से जींस में दिखाई दिए. क्या अब मेरे पास यही काम रह गया है कि थाने में आ कर इन लोगों की उलटीसीधी बातें सुनूं और तुम्हें छुड़वाऊं.’’

‘‘हम लोग सुनील को ले कर आ गए. अगले 2 दिन सुनील ने छुट्टी ली और बंद गले का सूट सिलवाया और उसे पहन कर ही दूतावास में आया. मैं ने तो खैर उस का स्टेटमेंट टाइप किया था, इसलिए इतने विस्तार से सब पता है, लेकिन यह बात तो दूतावास के सब लोग जानते हैं,’’ हीरा ने अपनी बात खत्म की.

‘‘तभी…’’ मेरे मुंह से निकला, ‘‘उसे लगा होगा कि मैं भी यह किस्सा जानता हूं और उस का मजाक उड़ा रहा हूं.’’

‘‘अब तो जान गए न,’’ हीरा हंसा और अपने विभाग की ओर बढ़ गया.

मुझे अफसोस हुआ कि सुनील को सूट सिलवाने की प्रेरणा मैं ने नहीं, बल्कि पुलिस वालों ने दी थी.

Hindi Story : डिंपल और कांता की लात

Hindi Story : सुनसान लंबा डग नदी में खूब तैरने के बाद डिंपल और कांता कपडे़ पहन कर जैसे ही  शौर्टकट रास्ते से घर जाने लगीं, तो उन की नजर लोहारों के रास्ते चलते गुर, चेला और मौहता पर पड़ी. वे समझ गईं कि ये तीनों लोहारों की औरतों से आंख सेंकने के लिए ही इस रास्ते से आए थे. ‘‘कांता, ये गुर, चेला और मौहता जैसे लोग आज भी इनसान को इनसान से बांटे हुए हैं, ताकि इन का दबदबा बना रहे और इन की रोजीरोटी मुफ्त में चलती रहे. ये पाखंडी लोग औरतों को हमेशा इस्तेमाल की चीज बनाए रखना चाहते हैं.’’

‘‘सब से खास बात तो यह है कि ये लोग गरीबों और औरतों का शोषण करने के लिए देवीदेवता के गुस्से और कसमों के इतनी चालाकी से बहाने गढ़ते हैं कि लोगों में समाया देवीदेवता का डर उन के मरने तक भी कभी दूर नहीं होता,’’ डिंपल ने कहा.

‘‘हां डिंपल, तुम्हारा कहना एकदम सही है. ये राजनीति के मंजे खिलाड़ी आदमी को आदमी से बांटे ही रखना चाहते हैं. इन्होंने तो बड़ी होशियारी से रास्ते तक बांट दिए हैं, ताकि इन की चालाक सोच इन्हें मालामाल करती रहे,’’ कांता बोली. ‘‘बिलकुल सही कहा तुम ने कांता. इस पहाड़ी समाज को अंधेरे में रखने वाले इन भेडि़यों को सबक सिखाने के लिए हमें अपनी भूमिका अच्छे से निभानी होगी.

‘‘देवीदेवता के नाम पर ठगने वाले इन पाखंडियों की असलियत लोगों के सामने लाने के लिए हमें कुछ न कुछ करना ही होगा,’’ डिंपल ने गंभीर आवाज में कांता से कहा. ‘‘हां, यह बहुत जरूरी है डिंपल. मैं जीजान से तुम्हारे साथ हूं. जान दे कर भी दोस्ती निभाऊंगी,’’ कांता बोली.

इस के बाद उन दोनों ने एकदूसरे को प्यार से देखा और गले मिल गईं. ‘‘तुम मेरी सच्ची दोस्त हो कांता. देखो, आजादी के इतने साल बाद भी इस गांव के लोग अंधविश्वास में फंसे हुए हैं. इन्हें जगाने के लिए हम दोनों मिल कर काम करेंगी,’’ डिंपल ने अपनी बात रखी.

‘‘जरूर डिंपल, यही एकमात्र रास्ता है,’’ कांता ने कहा. डिंपल और कांता ने योजना बनाई और लटूरी देवता के मेले में मिलने की बात पक्की कर के तेजी से अपने घरों की ओर चल दीं.

डिंपल लोहारों की, तो कांता खशों की बेटी थी. कांता ने 23-24 साल की उम्र में ही घाटघाट का पानी पी रखा था. यह तो डिंपल की दोस्ती का असर था कि वह राह भटकने से बच गई थी. हमउम्र वे दोनों चानणा गांव की रहने वाली थीं. नैशनल हाईवे से मीलों दूर पहाड़जंगल, नदीनालों के उस पार कच्ची सड़क से पहुंचते थे. वह कच्ची सड़क लंबा डग नदी तक जाती थी. नदी तट से 2 मील ऊपर नकटे पहाड़ पर सीधी चढ़ाई के बाद चानणा गांव तक पहुंचते थे.

वहां ऊंचाई की ओर खशों और निचली ओर लोहारों की बस्ती थी. खशों को ऊंची जाति और लोहारों को निचली जाति का दर्जा मिला हुआ था. वहां चलने के लिए ऊंची और छोटी जाति के अलगअलग रास्ते थे. लोहारों को खशों के रास्ते चलने की इजाजत न थी. वे उन के घरआंगन तक को छू नहीं सकते थे, जबकि खशों को लोहारों के रास्ते चलने का पूरा हक था. वे उन के घरआंगन में बिना डरे कभी

भी आजा सकते थे. यहां तक कि उन के चूल्हों में बीड़ीसिगरेट तक भी सुलगा आते थे. पर गलती से भी कोई लोहार खशों के रास्ते या घरआंगन से छू गया, तो उस की शामत आ जाती थी. इस से गांव का देवता नाराज हो जाता था और उन्हें दंड में देवता को बकरे की बलि देनी पड़ती थी. मजाल है कि कोई इस प्रथा के खिलाफ एक शब्द भी कह सके.

लोहारों और खशों की बस्तियों के बीच तकरीबन 4-5 एकड़ का मैदान था, जहां बीच में लटूरी देवता का लकड़ी का मंदिर और गढ़ की तरह भंडारगृह था. देवता के गुर का नाम खालटू था. गुर में प्रवेश कर देवता अपनी इच्छा बताता था. लटूरी देवता गुर के जरीए ही शुभ और अशुभ, बारिश, सूखा, तूफान की बात कहता था. गांव और आसपास शादीब्याह, मेलाउत्सव, पर्वत्योहार सब देवता की इच्छा पर तय होते थे.

यहां तक कि फसल बोना, घास काटना भी देवता की इच्छा पर तय था. गुर खालटू को सभी पूजते थे. उसे खूब इज्जत मिलती थी. एक खास बात और थी कि देवता का बजंतरी दल भी था, जो देव रथ के आगेआगे चलता था. इन में ढोलनगाड़े, शहनाई तो लोहार बजाते थे, पर तुरही, करनाल वगैरह खश बजाते थे. देवता का रथ भी खश उठाते थे, लोहारों को तो छूने की इजाजत तक न थी.

लोहारों के रास्ते चलते गुर खालटू, चेला छांगू और मौहता भागू जैसे ही माधो लोहार के घर के पास पहुंचे, उस का मोटातगड़ा बकरा और जवान बेटी देख कर वे एकदम रुक गए. गुर खालटू के मुंह में आई लार को छांगू और भागू ने देख लिया था. चेला छांगू तो 3 साल से माधो की बेटी डिंपल पर नजर गड़ाए था, पर वह उस के हाथ न लगी थी.

तीनों की नजरें बारबार बकरे से फिसलती थीं और माधो की बेटी पर अटक जाती थीं. ‘‘ऐ माधो की लड़की, कहां है तेरा बापू?’’ गुर खालटू ने पूछा.

‘‘वे मेले में ढोल बजाने गए हैं,’’ तीनों को नमस्ते कर के डिंपल ने कहा. ‘‘आजकल कहां रहती हो? दिखाई नहीं देती हो?’’

डिंपल ने चेले छांगू की बात का कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि बकरे से बतियाते हुए उसे घासपत्ते खिलाती रही, जैसे उस ने कुछ सुना ही न हो.

‘‘बकरा बेचना तो होगा न माधो को?’’ ‘‘नहीं मौहताजी, छोटे से बच्चे को दूध पिलापिला कर बच्चे की तरह पालपोस कर बड़ा किया है. इसे हम नहीं बेचेंगे,’’ नजरें झुकाए डिंपल ने कहा और बकरे को पत्ते दिखाती दूसरी ओर ले गई. उस ने तीनों को बैठने तक को न बोला. तीनों बेशर्मी से दांत निकालते हुए मेले की ओर चल दिए.

माधो लोहार को सभी लोग पसंद करते थे. एक तो उस के घराट का आटा सभी को भाता था, दूसरे नगाड़ा बजाने में माहिर उस जैसा पूरे इलाके में कोई दूसरा न था. डिंपल माधो की एकलौती औलाद थी. गांव में पढ़ने के बाद वह शहर में बीएससी फाइनल के इम्तिहान दे कर आई थी. वह खेलों में भी कई मैडल जीत चुकी थी.

गुर, चेला, कारदार चानणा गांव के साथ आसपास के अनेक गांव में अपना डंका जैसेतैसे बजाए हुए थे. देवता के खासमखास कहे जाने वाले वे देव यात्रा के नाम पर शराबमांस की धामें करवाते और औरतों का रातरात भर नाच करवाते थे. गांव में खश व लोहार पूरे लकीर के फकीर थे और देवता पर उन्हें अंधश्रद्धा थी. यह श्रद्धा बढ़ाने का क्रेडिट गुर व चेला जैसे लोगों को ही जाता था. लटूरी देवता का मेला भरने लगा

था. गुर खालटू के पहुंचते ही प्रधान रातकू और गांव वालों ने उन की खूब आवभगत की. गुर ने मंदिर से लटूरी देवता की पिंडी निकाली. पिंडी को स्नान करा कर धूपदीप व चावल से पूजाअर्चना कर के भेड़ू और मुरगे की बलि दिलाई गई. फिर देवता का रथ निकाल कर पूरे मेले में घुमाया गया.

इस के बाद गुर खालटू ने लोगों को मेले में गाने का आदेश दिया. ढोलनगाड़े, शहनाईरणसींगे बजने लगे और मर्दऔरत लाइनों में गोलगोल नाचने लगे. गुर के आदेश पर प्रधान रातकू खशों द्वारा धाम भी इस मैदान पर दी जानी थी. केवल लोहारों को मैदान से हट कर निचले खेत में खिलानेपिलाने का इंतजाम था. शाम ढलने तक नाच और बाजे बंद हो गए थे. शराब का दौर शुरू हो गया था, जिस में मर्दऔरत बराबर शामिल थे. जिसे जितनी पीनी थी पीए, कोई रोक नहीं थी.

नशे में झूमते लोगों में मांसभात की धाम कोईकोई ही खा पाया था. वहां से लोग झूमतेगाते आधी रात तक अपनेअपने घर पहुंचते थे.

नाचगानों और प्रधान रातकू की धाम के साथ हलके अंधेरे में लोगों से दूर एकांत में घटी एक घटना बड़ी ही दिलचस्प थी, जिस का 3 के सिवाय चौथे को पता न चला था. हुआ यों था कि डिंपल अपनी सहेली कांता के साथ मेले में घूमने आई थी. मेले की जगड़ से कुछ दूर एक पेड़ के नीचे खड़ी हो कर वे आपस में बातें करने लगी थीं.

चेला छांगू भी कहीं से टपक कर चोरीछिपे उन की बातें सुनने लगा था. डिंपल पर उस की बुरी नजर से कांता पूरी तरह परिचित थी और वह उसे देख भी चुकी थी. उस ने चेले को बड़ी मीठी आवाज में पुकारा, ‘‘चेलाजी, चुपकेचुपके क्या सुनते हो… पास आ कर सुनो न.’’

छांगू था पूरा चिकना घड़ा. वह ‘हेंहेंहें’ करता हुआ उन के पास आ कर खड़ा हो गया. ‘‘दोनों क्या बातें कर रही हो, जरा मैं भी सुनूं?’’ उस ने कहा.

‘‘चेलाजी, हमारी बातों से आप को क्या लेनादेना. आप मेले में जाइए और मौज मनाइए,’’ डिंपल ने सपाट लहजे में कहा. उसे चेले का वहां खड़े होना अच्छा नहीं लगा था. ‘‘हाय डिंपल, तुम्हारी इसी अदा पर तो मैं मरता हूं,’’ छांगू चेले की ‘हाय’ कहने के साथ ही शराब पीए होने की गंध से एक पल के लिए तो उन दोनों के नथुने फट से गए थे, फिर भी कांता ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘चेला भाई, आप की उम्र कितनी हो गई होगी?’’

‘‘अजी कांता रानी, अभी तो मैं 40-45 साल का ही हूं. तू अपनी सहेली डिंपल को समझा दे कि एक बार वह मुझ से दोस्ती कर ले, तो फायदे में रहेगी. देवता का चेला हूं, मालामाल कर दूंगा.’’

‘‘क्या आप की बीवी और खसम करेगी?’’ ‘‘चुप कर कांता, ये लोहारियां हम खशकैनेतों के लिए ही हैं. जब चाहे इन्हें उठा लें… पर प्यार से मान जाए तो बात कुछ और है. तू इसे समझा दे, मैं देवता का चेला हूं. पूरे तंत्रमंत्र जानता हूं.’’

डिंपल के पूरे बदन में बिजली सी रेंग गई. उस के दिल में एक बार तो आया कि अभी जूते से मार दे, पर बखेड़ा होने से वह मुफ्त में परेशानी मोल नहीं लेना चाहती थी, तो उस ने सब्र का घूंट पी लिया. ‘‘पर तुम्हारी मोटी भैंस का क्या होगा? वह और खसम करेगी या किसी लोहार के साथ भाग जाएगी,’’ कांता ने ताना कसते हुए कहा, तो छांगू चेला भड़क गया.

‘‘चुप कर कांता, लोहारों की इतनी हिम्मत कि वे हमारी औरतों को छू भी सकें. पर तू इसे मना ले. इसे देखते ही मेरा पूरा तन पिघल जाता है. इस लोहारी में बात ही कुछ और है. पर याद रख कांता, मैं देवता का चेला हूं, जरा संभल कर बात करना… हां.’’ तभी डिंपल ने उस के चेहरे पर एक जोर का तमाचा जड़ दिया. दूसरा थप्पड़ कांता ने मारा. छांगू चेले का सारा नशा हिरन हो गया. उस की सारी गरमी पल में उतर गई. हैरानपरेशान सा गाल मलते हुए वह कभी डिंपल, तो कभी कांता को देखने लगा.

‘‘खबरदार, अगर डिंपल की तरफ नजर उठाई, तो काट के रख दूंगी. लोहारों की क्या इज्जत नहीं होती? लोहारों की औरतें औरतें नहीं होतीं? देवता के नाम पर तुम्हारे तमाशों को हम अच्छी तरह जानती हैं. चुपचाप रास्ता नाप ले, नहीं तो गरदन उड़ा दूंगी,’’ कमर से दरांती निकाल कर कांता ने कहा, तो छांगू चेला थरथर कांपने लगा. वह गाल मलता हुआ दुम दबा कर खिसक लिया. डिंपल और कांता खूब हंसी थीं. फिर काफी देर तक वे गांव के रिवाजों और प्रथाओं पर चर्चा करते रहने के बाद अपनेअपने घरों को लौटी थीं.

सुबह ही एक खबर जंगल की आग की तरह पूरे चानणा गांव में फैल गई कि माधो लोहार शराब के नशे में खशों के रास्ते चल कर उसे अपवित्र कर गया. उस की बेटी डिंपल ने लटूरी देवता के मंदिर को छू कर अनर्थ कर दिया. खश तो आग उगलने लग गए. वहीं माधो से खार खाए लोहार भी बापबेटी को बुराभला कहने लगे.

गुर खालटू ने कारदारों के जरीए पूरे गांव को मंदिर के मैदान में पहुंचने का आदेश भिजवा दिया. वह खुद छांगू, भागू और 3-4 कारदारों के साथ माधो के घर जा पहुंचा. आंगन में खड़े हो कर गुर खालटू ने रोब से पुकारा, ‘‘माधो, ओ माधो… बाहर निकल.’’

माधो की डरीसहमी पत्नी ने आंगन में चटाई बिछाई, लेकिन उस पर कोई न बैठा. इतने में माधो बाहर निकल आया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया. डिंपल भी अपनी मां के पास खड़ी हो गई. उस ने किसी को भी नमस्ते नहीं किया. उसे देख कर छांगू चेले ने गरदन हिलाई कि अब देखता हूं तुझे.

‘‘माधो, तू ने रात खशों के रास्ते पर चल कर बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है. तू जानता है कि तुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था. तेरी बेटी ने भी मंदिर को छू कर अपवित्र कर दिया है. अब देवता नाराज हो उठेंगे,’’ गंभीर चेहरा किए गुर खालटू ने जहर उगला. ‘‘गुरजी, यह सब सही नहीं है. न मैं खशों के रास्ते चला हूं और न ही मेरी बेटी ने मंदिर को छुआ है.’’

‘‘हां, मैं तो मंदिर की तरफ गई भी नहीं,’’ डिंपल ने निडरता से कहा, तो गुर थोड़ा चौंका. दूसरे लोग भी हैरान हुए, क्योंकि गुर और कारदारों के सामने बिना इजाजत कोई औरत या लड़की एक शब्द भी नहीं बोल सकती थी. डिंपल देवता के नाम पर होने वाले पाखंड और कानून के खिलाफ हो रहे भेदभाव पर बहुतकुछ कहना चाहती थी, पर अपनी योजना के तहत वह चुप रही.

‘‘तू चुप कर डिंपल, मैं ने तुझे मंदिर को हाथ लगाते देखा है,’’ छांगू चेले ने जोर से कहा. ‘‘हांहां, बिना हवा के पेड़ नहीं हिलता. तुम बापबेटी ने बहुत बड़ा गुनाह किया है, अब तो पूरे गांव को तुम्हारी करनी भुगतनी पड़ेगी. बीमारी, आग, तूफान, बारिश वगैरह गांव को तबाह कर सकती है. तुम लोगों को पूरे गांव की जिम्मेदारी लेनी होगी,’’ मौहता भागू गुस्से से बोला.

‘‘तुम दोनों चुपचाप अपना गुनाह कबूल करो. हां, देवता महाराज को बलि दे कर और माफी मांग कर खुश कर लो,’’ एक मोटातगड़ा कारदार बोला. ‘‘जब हम ने गुनाह किया ही नहीं, तो बलि और माफी किस बात की?’’ डिंपल ने गुस्से में कहा, पर माधो की बोलती बंद थी.

‘‘माधो, इस से पहले कि देवता गुस्सा हो जाएं, तू अपने बकरे की बलि और धाम दे कर लटूरी देवता को खुश कर ले. इस से पूरा गांव प्रकोप से बच जाएगा. तुम्हारा परिवार भी देवता की नाराजगी से बच जाएगा. देख, तुझे देव गुर कह रहा है.’’ ‘‘हांहां, बकरे की बलि दे कर ही रास्ते और मंदिर की शुद्धि होगी. लटूरी देवता खुश हो जाएंगे और गांव पर कोई मुसीबत नहीं आएगी,’’ छांगू चेले ने आंगन में बंधे बकरे और डिंपल को देख कर मुंह में आई लार को गटकते हुए कहा. उसे डिंपल और कांता के थप्पड़ भूले नहीं थे.

‘‘हां, धाम न लेने के लिए मैं देवता को राजी कर दूंगा, पर बकरे की बलि तो तय है माधो,’’ गुर ने फिर कड़कती आवाज में कहा. डिंपल और उस की मां ने बकरा देने की बहुत मनाही की, पर गुर खालटू और देव कारकुनों के डराने पर माधो को मानना पड़ा. उस ने एक बार फिर सभी को बताया कि वह अपने रास्ते चल कर ही घर आया था और उस की बेटी ने मंदिर छुआ ही नहीं, पर उस की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया.

मौहता भागू ने झट बकरा खोला और मंदिर की ओर ले चला. फिर सभी मंदिर की ओर शान से चल दिए. चलतेचलते गुर खालटू ने माधो को बेटी समेत लटूरी देवता के मैदान में पहुंचने का आदेश दिया. लटूरी देवता के मैदान में पूरे गांव वाले इकट्ठा हो गए. देवता के गुर खालटू ने धूपदान में रखी गूगल धूप को जला कर एक हाथ में चंबर लिए मंदिर की 3 बार बड़बड़ाते हुए परिक्रमा की. देवता की पिंडी बाहर निकाल कर पालकी में रख दी गई.

सब से पहले गुर ने पिंडी की पूजा की, फिर दूसरे खास लोगों को पूजा करने को कहा गया. चेला और मौहता व दूसरे कारदार जोरजोर से जयकारा लगाते थे. ढोलनगाड़ातुरही बजने लगे थे. गुर खालटू कनखियों से चारों ओर भी देख लेता था और गंभीर चेहरा बनाए खास दिखने की पूरी कोशिश करता था.

माधो डिंपल के साथ मंदिर से थोड़ी दूर अपराधी की तरह खड़ा था. कांता भी अपनी दादी के साथ एक पेड़ के नीचे खड़ी थी. माधो के बकरे को पिंडी के पास लाया गया था. उस की पीठ पर गुर ने पानी डाला, तो बकरे ने जोर से पीठ हिलाई. चारों ओर से लटूरी देवता की जयजयकार गूंज गई.

छांगू चेले ने सींगों से बकरे को पकड़ा था. एक मोटे गांव वाले ने दराट तेज कर पालकी के पास रखा था. उसे बकरा काटने के लिए गुर के आदेश का इंतजार था.

अचानक कांता जोरजोर से चीखने. गरदन हिलाते हुए उछलने भी लगी. उस के बाल बिखर गए. दुपट्टा गिर गया था. सभी लोग उस की ओर हैरानी से देखने लगे थे. कांता की दादी बड़े जोर से बोली, ‘‘लड़की में कोई देवी या फिर कोई देवता आ गया है. अरे, कोई पूछो तो सही कि कौन लड़की में प्रवेश कर गया है?’’

गुर, चेला और दूसरे कारदार बड़ी हैरानी और कुछ डरे से कांता की ओर देखने लग गए. गुर पूजापाठ भूल गया था. एक बूढ़े ने डरतेडरते पूछा, ‘‘आप कौन हैं जो इस लड़की में आ गए हैं? कहिए महाराज…’’

‘‘मैं काली हूं. कलकत्ते वाली. लटूरी देवता से बड़ी. सारे मेरी बात ध्यान से सुनो. आदमी के चलने से रास्ते कभी अपवित्र नहीं होते, न कोई देवता नाराज होता है. मैं काली हूं काली. आज में झूठों को दंड दूंगी. माधो और उस की बेटी पर झूठा इलजाम लगाया गया है. सुनो, लटूरी देवता कोई बलि नहीं ले सकता. अभी मेरी बहन महाकाली भी आने वाली है. आज सब के सामने सच और झूठ का फैसला होगा,’’ कांता उछलतीकूदती चीखतीचिल्लाती पिंडी के पास पहुंच गई. अचानक तभी डिंपल भी जोर से चीखने और हंसने लगी. उस के बाल खुल कर बिखर गए. अब तो गांव वाले और हैरानपरेशान हो गए. इस गांव के ही नहीं, बल्कि आसपास के बीसियों गांवों में कभी ऐसा नहीं हुआ था कि किसी औरत में देवी आई हो.

डिंपल की आवाज में फर्क आ गया था. एक बुढि़या ने डरतेडरते पूछा, ‘‘आप कौन हैं, जो इस सीधीसादी लड़की में प्रवेश कर गए हो? हे महाराज, आप देव हैं या देवी?’’

डिंपल भी चीखतीउछलती लटूरी देवता की पिंडी के पास पहुंच गई थी. वह जोर से बोली, ‘‘मैं महाकाली हूं. आज मैं पाखंडियों को सजा दूंगी. अब काली और महाकाली आ गई हैं, अब दुष्टों को दंड जरूर मिलेगा,’’ कह कर उस ने पिंडी के पास से दराट उठाया और बकरे का सींग पकड़े छांगू के हाथ पर दे मारा. छांगू चेले की उंगलियों की 2 पोरें कट कर नीचे गिर गईं. वह दर्द के मारे चिल्लाने और तड़पने लगा.

‘‘बकरे, जा अपने घर, तुझे कोई नहीं काट सकता. जा, घर जा,’’ डिंपल ने उछलतेकूदते कहा. बकरा भी माधो के घर की तरफ दौड़ गया. यह सब देख कर लोग जयकार करने लगे. अब तक तो सभी ने हाथ भी जोड़ लिए थे. बच्चे तो अपने मांओं से चिपक गए थे.

डिंपल ने दराट लहराया फिर चीखते और उछलते बोली, ‘‘बहन काली, गुर और उस के झूठे साथियों से पूछ सच क्या है, वरना इन्हें काट कर मैं इन का खून पीऊंगी.’’ ‘‘जो आज्ञा. खालटू गुर, जो पूछूंगी सच कहना. अगर झूठ कहा, तो खाल खींच लूंगी. आज सारे गांव के सामने सच बोल.’’

डिंपल ने एक जोर की लात खालटू को दे मारी. दूसरी लात कांता ने मारी, तो वह गिरतेगिरते बचा. गलत आदमी भीतर से डराडरा ही रहता है. डर के चलते ही खालटू ने सीधीसादी लड़कियों में काली और महाकाली का प्रवेश मान लिया था. छांगू की कटी उंगलियों से बहते खून ने उसे और ज्यादा डरा दिया था, जबकि वह खुद में तो झूठमूठ का देवता ला देता था. लातें खा कर मारे डर के वह उन के पैर पड़ गया और गिड़गिड़ाया ‘‘मुझे माफ कर दीजिए माता कालीमहाकाली, मुझे माफ कर दीजिए.’’

दर्द से तड़पते छांगू चेले ने अपनी उंगलियों पर रुमाल कस कर बांध लिया था. गुर को लंबा पड़ देख कर डर और दर्द के मारे वह भी रोते हुए उन के पैर पड़ गया, ‘‘मुझे भी माफी दे दो माता.’’ डिंपल ने गुर की पीठ पर कस कर लात मारी, ‘‘मैं महाकाली खप्पर वाली हूं. सच बता रे खालटू या तेरी गरदन काट कर तेरा सारा खून पी जाऊं,’’ डिंपल ने हाथ में पकड़ा दराट लहराया, तो वह डर के मारे कांप गया.

‘‘बताता हूं माता, सच बताता हूं. गांव वालो, माधो का बकरा खाने के लिए हम ने झूठमूठ की अफवाहें फैला कर माधो और डिंपल पर झूठा आरोप लगाया था. मुझ में कोई देवता नहीं आता है. मैं, चेला छांगू, मौहता भागू, कारदार सब से ठग कर माल ऐंठते थे. हम सारे दूसरों की औरतों पर बुरी नजर रखते थे. मुझे माफ कर दीजिए. आज के बाद मैं कभी बुरे काम नहीं करूंगा. मुझे माफ कर दीजिए.’’ डिंपल और कांता की 2-4 लातें और खाने से वह रो पड़ा.

अब तो कारदार भी उन दोनों के पैरों में लौटने लगे थे. ‘‘तू सच बता ओ छांगू चेले, नहीं तो तेरा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा,’’ कांता ने जोर की ठोकर मारी तो वह नीचे गिर पड़ा, फिर उठ कर उस के पैर पकड़ लिए.

‘‘गांव के भाईबहनो, मैं तो चेला बन कर तुम सब को ठगता था. कई लड़कियों और औरतों को अंधविश्वास में डाल कर मैं ने उन से कुकर्म किया, उन से रुपएपैसे ऐंठे. मुझे माफ कर दीजिए माता महाकाली. आज के बाद मैं कभी बुरे काम नहीं करूंगा.’’ गुर, चेले, मौहता और कारदारों ने सब के सामने सच उगल दिया. डिंपल और कांता ने उछलतेचीखते उन्हें लातें मारमार कर वहां से भागने पर मजबूर कर दिया.

एक नौजवान ने पेड़ से एक टहनी तोड़ कर कारदार और मौहता भागू को पीट दिया. डिंपल और जोर से चीखी, ‘‘जाओ दुष्टो, भाग जाओ, अब कभी गांव मत आना.’’

वे सिर पर पैर रख कर भाग गए और 2 मील नीचे लंबा डग नदी के तट पर जीभ निकाले लंबे पड़ गए. उन की पूरे गांव के सामने पोल खुल गई थी. वे एकदूसरे से भी नजरें नहीं मिला पा रहे थे. कांता ने उछलतेचीखते जोर की किलकारी मारते हुए गुस्से से कहा, ‘‘गांव वालो, ध्यान से सुनो. खशलोहार के नाम पर रास्ते मत बांटो, वरना मैं अभी तुम सब को शाप दे दूंगी.’’

‘माफी काली माता, शांत हो जाइए. आप की जय हो. हम रास्ते नहीं बांटेंगे. माफीमाफी,’ सैकड़ों मर्दऔरत एक आवाज में बोल उठे. बच्चे तो पहले ही डर के मारे रोने लगे थे. काली और महाकाली के डर से अब खशखश न थे और लोहार लोहार न थे, लेकिन वे सारे गुर खालटू, चेले, मौहता व कारदारों से ठगे जाने पर दुखी थे.

‘माफी दे दो महाकाली माता. आप दोनों देवियां शांत हो जाइए. हमारे मन का मैल खत्म हो गया है. शांत हो जाइए माता,’ कई औरतें हाथ जोड़े एकसाथ बोलीं. ‘‘क्या माफ कर दें बहन काली?’’

‘‘हां बहन, इन्हें माफ कर दो. पर ये सारे भविष्य में झूठे और पाखंडी लोगों से सावधान रहें.’’ ‘हम सावधान रहेंगे.’ कई आवाजें एकसाथ गूंजी. कुछ देर उछलनीचीखने और दराट लहराने के बाद डिंपल ने कहा, ‘‘काली बहन, अब लौट चलें अपने धाम. हमारा काम खत्म.’’

‘‘हां दीदी, अब लौट चलें.’’ डिंपल और कांता कुछ देर उछलींचीखीं, फिर ‘धड़ाम’ से धरती पर गिर पड़ीं. काफी देर तक चारों ओर सन्नाटा छाया रहा. सब की जैसे बोलती बंद हो गई थी.

जब काफी देर डिंपल और कांता बिना हिलेडुले पड़ी रहीं, तो कांता की दादी ने मंदिर के पास से पानी भरा लोटा उठाया और उन के चेहरे पर पानी के छींटे मारे. वे दोनों धीरेधीरे आंखें मलती उठ बैठीं. वे हैरानी से चारों ओर देखने लगी थीं. फिर कांता ने बड़ी मासूमियत से अपनी दादी से पूछा, ‘‘दादी, मुझे क्या हुआ था?’’ ‘‘और मुझे दादी?’’ भोलेपन से डिंपल ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं. आज सच और झूठ का पता चल गया है. लूट और पाखंड का पता लग गया है. जाओ भाइयो, सब अपनेअपने घर जाओ.’’ धीरेधीरे लोग अपने घरों को लौटने लगे. दादी कांता का हाथ पकड़ कर बच्ची की तरह उसे घर ले गईं. डिंपल को उस की मां और बापू घर ले आए.

शाम गहराने लगी थी और हवा खुशबू लिए सरसर बहने लगी थी. एक बार फिर डिंपल और कांता सुनसान मंदिर के पास बैठ कर ठहाके लगने लगी थीं. ‘‘बहन महाकाली.’’

‘‘बोलो बहन काली.’’ ‘‘आज कैसा रहा सब?’’

‘‘बहुत अच्छा. बस, अब कदम रुकेंगे नहीं. पहली कामयाबी की तुम्हें बधाई हो कांता.’’ ‘‘तुम्हें भी.’’

दोनों ने ताली मारी, फिर वे अपने गांव और आसपास के इलाकों को खुशहाल बनाने के लिए योजनाएं बनाने लगीं. आकाश में चांद आज कुछ ज्यादा ही चांदनी बिखेरने लगा था.

love story : प्रेम में लुकाछिपी

love story : न जाने शंभुजी को क्या हो गया था, इतनी बड़ी कोठी, कार, नौकरचाकर, पैसा देखते ही चौंधिया गए थे. शायद उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उन के दामन में इतनी दौलत आएगी कि जिसे समेटने के लिए उन्हें स्वार्थ के दरवाजे खोल कर बुद्धि के दरवाजे बंद कर देने पड़ेंगे.

‘‘मुझे जीवनसाथी की जरूरत है, पापा, दौलत पर पहरा देने वाले पहरेदार की नहीं,’’ सीमा ने साफ शब्दों में अपनी बात कह दी.

शंभुजी कोलकाता से लौट कर आए तो उन्हें बड़ी हैरानी हुई. हमेशा दरवाजे पर स्वागत करने वाली सीमा आज कहीं भी नजर नहीं आ रही थी. मैसेज तो उन्होंने कोलकाता से चलने से पहले ही उस के मोबाइल पर भेज दिया था. क्या उस ने पढ़ा नहीं? लेकिन वे तो हमेशा ही ऐसा करते हैं. चलने से पहले मैसेज कर देते हैं और उन की लाड़ली बेटी सीमा दरवाजे पर मिलती है. उस का हंसता चेहरा देखते ही वे अपनी सारी थकान, सारा अकेलापन पलभर में भूल जाते हैं. शंभुजी का मन उदास हो गया. कहां गई होगी सीमा? मोबाइल भी घर पर छोड़ गई. किस से पूछें वे? और उन्होंने एकएक कर के सारे नौकरों को बुला लिया. पर किसी को पता नहीं था कि सीमा कहां है. सब का एक ही जवाब था, ‘‘सुबह घर पर थी, फिर पता नहीं बिटिया कहां गई.’’

शंभुजी ने सीमा का मोबाइल चैक किया. उन का मैसेज उस ने पढ़ लिया था. फिर भी सीमा घर में नहीं रही. क्या होता जा रहा है उसे? पिछले कई महीनों से वे देख रहे हैं, सीमा में कुछ परिवर्तन होते जा रहे हैं. न वह उन के साथ उतना लाड़ करती है, न उन्हें अपने मन की कोई बात ही बताती है और न ही अब उन से कुछ पूछती है. पिछली बार जब वे कोलकाता जा रहे थे, तो उन्होंने कितना पूछा था, ‘क्यों, बेटे, तुम्हें कुछ मंगवाना है वहां से?’ तो बस, केवल सिर हिला कर उस ने न कर दी थी और वहां से चली गई थी.

पहले जब वे कहीं जाते थे, तो कैसे उन के गले में बांहें डाल कर लटक जाती थी, और मचल कर कहती थी, ‘पापा, जल्दी आ जाइएगा, इतने बड़े सूने घर में हमारा मन नहीं लगता.’

उन का भी कहां इस घर में मन लगता है. यह तो सीमा ही है, जिस के पीछे उन्होंने इतने बरस हंसतेहंसते काट दिए हैं और अपनी पत्नी मीरा को भी भुला बैठे हैं. जबजब वे सीमा को देखते हैं, उन्हें हमेशा यही संदेह होता है, मीरा लौट आई है. और वे अपने अकेलेपन की खाई को सीमा की प्यारीप्यारी बातों से पाट देते हैं.

एक दिन सीमा भी तो पूछ बैठी थी, ‘पापा, मेरी मां बहुत सुंदर थीं?’

‘हां बेटा, बहुत सुंदर थी?’

‘बिलकुल मेरी तरह?’

‘हां, बिलकुल तेरी तरह.’

‘वे आप से रूठती भी थीं?’

‘हां बेटा.’

‘मेरी तरह?’

‘आज तुम्हें क्या हो गया है, सीमा? यह सब तुम्हें किस ने बताया है?’ वे नाराज हो गए थे.

‘15 नंबर कोठी वाली रेखा चाची हैं न, उन्होंने कहा था, मां बहुत अच्छी थीं. आप उन की बात नहीं मानते थे तो वे रूठ जाती थीं,’ सीमा बड़े भोलेपन से बोली थी.

‘तू वहां मत जाया कर, बेटी. अपने घर में क्यों नहीं खेलती? कितने खिलौने हैं तेरे पास?’ उन्होंने प्यार से समझाया था.

‘वहां शरद है न, वह मेरे साथ कैरम खेलता है, बैडमिंटन खेलता है, यहां मेरे साथ कौन खेलेगा? आप तो सारा दिन घर से बाहर रहते हैं,’ वह रोआंसी हो आई थी.

वे उस छोटी सी बेटी को कैसे बताते कि उस की मां उन से क्यों रूठ जाती थी. वे तो आज तक अपने को कोसते हैं कि मीरा की वे कोई भी इच्छा पूरी न कर सके. कितनी स्वाभिमानी थी वह? इतनी बड़ी जायदाद की भी उस की नजर में कोई कीमत न थी. हमेशा यही कहती थी कि वह सुख भी किस काम का जिस से हमेशा यह एहसास होता रहे, यह हमारा अपना नहीं, किसी का दिया हुआ है.

यह जो आज इतना बड़ा राजपाट है, यह सब उन्हें मीरा की बदौलत ही तो मिला था. लेकिन मीरा ने कभी इस राजपाट को प्यार नहीं किया. न जाने शंभुजी को क्या हो गया था, इतनी बड़ी कोठी, कार, नौकरचाकर, पैसा देखते ही चौंधिया गए थे. शायद उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उन के दामन में इतनी दौलत आ आएगी कि जिसे समेटने के लिए उन्हें स्वार्थ के दरवाजे खोल कर बुद्धि के दरवाजे बंद कर देने पड़ेंगे.

बहुत बड़ा कारोबार था मीरा के पिताजी का. कितने ही लोग उन के दफ्तर में काम करते थे. शंभुजी भी वहीं काम करते थे. वे बहुत ही स्मार्ट, होनहार और ईमानदार व्यक्ति थे. अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने मीरा के पिता का मन जीत लिया था. शंभुजी से उन की कोई बात छिपी नहीं थी, और शंभुजी भी उन की बात को अपनी बात समझ कर न जाने पेट के किस कोने में रख लेते थे, जिस से कोई जान तक नहीं पाता था. मीरा की मां ने ही एक दिन पति को सुझाव दिया था, ‘क्योंजी, तुम तो दिनरात शंभुजी की प्रशंसा करते हो. अगर हम अपनी मीरा की शादी उन से कर दें, तो कैसा रहेगा? गरीब घर का लड़का है, अपने घर रह जाएगा.’

‘मैं भी कितने दिनों से यही सोच रहा था. मुझे भी ऐसा लड़का चाहिए जो मेरा कारोबार भी संभाल ले, और हमारी बेटी भी हमारे पास रह जाए,’ मीरा के पिता ने बात का समर्थन किया था.

‘मेरी चिंता दूर हुई. लेदे कर एक ही तो औलाद है, वही आंखों से दूर हो जाए तो यह तामझाम किस काम का?’

‘लड़का हीरा है, हीरा. चरित्रवान, स्मार्ट, मेहनती, ईमानदार, यह समझ लो, चिराग ले कर ढूंढ़ने से भी ऐसा लड़का हमें नहीं मिलेगा.’

‘तो बात पक्की कर लो. यह जरूर जतला देना, घरजमाई बन कर रहना पड़ेगा. उसे मंजूर हो तो बस चट मंगनी पट ब्याह वाली बात कर ही डालो,’ मीरा की मां ने पुलकित हो कर कहा था.

बात पक्की हो गई थी. बड़ी धूमधाम से मीरा और शंभुजी की शादी हुई थी. शंभुजी के पांव धरती पर नहीं पड़ते थे. पहले तो दफ्तर में काम करने वाले सभी साथियों ने ईर्ष्या की थी, लेकिन धीरेधीरे वे सब के लिए छोटे मालिक हो गए थे. मीरा के पिता तो जैसे उन्हें पा कर पूरी तरह निश्ंिचत हो गए थे. धीरेधीरे सारा कारोबार ही उन्होंने शंभुजी को सौंप दिया था.

 

मीरा भी उन जैसा पति पा कर गर्व से फूल उठी थी और मन ही मन उस ने अपने मातापिता की बुद्धि को सराहा भी था. कुछ समय तक तो सबकुछ ठीकठाक चलता रहा था, लेकिन बाद में मीरा महसूस करने लगी थी जैसे पिताजी ने, दामाद नहीं, गुलाम खरीदा हो. शंभुजी सोए हों, या उस से प्रेमालाप कर रहे हों, बस पिताजी का एक बुलावा आया नहीं कि वे उठ कर चल देते. ऐसे में मीरा प्यार से उन्हें समझाती और कहती, ‘पिताजी से कह क्यों नहीं देते कि वक्तबेवक्त न बुलाया करें.’

‘अरे भई, काम होता है, तभी तो बुलाते हैं, और काम कोई वक्त देख कर तो नहीं आता,’ शंभूजी भी प्यार से जवाब देते.

‘पहले भी तो वे स्वयं काम संभालते थे, अब क्यों नहीं संभालते?’ मीरा उखड़ जाती.

‘इसी लिए तो उन्होंने तुम जैसी पत्नी का मुझे पति बना दिया है, ताकि मैं उन का बोझ हलका करूं,’ शंभुजी हंस कर टाल देते.

‘फिर उन्हें बेटी देने की क्या जरूरत थी. बोझ हलका करने के लिए तुम्हें रुपयों से खरीदा भी जा सकता था. तुम नहीं बोल सकते तो मैं पिताजी से कहूंगी कि आप साथसाथ काम करने के लिए कोई दूसरा नौकर रख लीजिए,’ मीरा नाराज हो जाती.

‘तुम तो बहुत भावुक हो, मीरा. जितनी मेहनत और ईमानदारी से अपने घर का आदमी काम कर सकता है, कोई दूसरा करेगा क्या?’ वे तर्क देते.

‘यह क्यों नहीं कहते कि तुम बिक गए हो. तुम्हें पत्नी की नहीं, सिर्फ दौलत की जरूरत थी,’ और मीरा फफक कर रो पड़ी थी.

शंभुजी कितने ही प्यार से क्यों न समझाते लेकिन मीरा को यह कतई पसंद नहीं था कि वे घरदामाद बन कर रहें. वह हमेशा यही कहती थी, ‘घरदामाद तो पालतू कुत्ते की तरह होता है, जो टुकड़े खा कर दिनरात वफादारी करता है. तुम क्यों नहीं अलग मकान ले लेते. तुम जैसे भी रखोगे, मैं उसी तरह रहूंगी. तुम से कभी गिला नहीं करूंगी. मुझे यह तो एहसास रहेगा, मेरा अपना घर है, तुम मेरे हो. यहां तो हमेशा मुझे ऐसा लगता है जैसे हम पिताजी की दया पर पल रहे हैं और तुम भी सोचते होगे कि यदि मैं ने कहीं विद्रोह किया, तो पिताजी रोजी ही न छीन लें.’

‘न जाने तुम क्यों गलत ढंग से सोचने लगी हो? मैं ने तो कभी इस तरह सोचा भी नहीं. मीरा, तुम पहले भी तो इस घर में रहती थीं, तब तुम ऐसा क्यों नहीं सोचती थीं?’

‘तब मैं कुआंरी थी. कुआंरी लड़की हमेशा अपनी नई दुनिया बसाने के सपने देखती है. एक ऐसे पति का सपना, जो उसे घर देगा, उस के सुखदुख का भागीदार होगा, और वह उस के हर सुखदुख की चादर अपने ऊपर ओढ़ लेगी. बताओ, क्या दिया तुम ने मुझे अपनी ओर से? बाकी सब छोड़ भी दें तो प्यार और विश्वास भी तुम नहीं दे सके, जिस समय भी मेरे पास होते हो, तुम्हें यही खयाल रहता है कि पिताजी के कहे काम सब पूरे हो गए कि नहीं, कहीं वे यह न सोचें, शादी होते ही लापरवाह हो गया है.’

इसी तरह तकरार और प्यार में वर्ष छलांगें लगाते निकल रहे थे. मीरा की गोद में सीमा भी आ गई थी. सीमा को पा कर मीरा काफी हद तक सहज हो गई थी. उन्होंने सोचा था, ‘मीरा सीमा को पा कर तनाव से शायद मुक्त हो गई है.’ लेकिन यह उन की भूल थी.

सीमा जैसेजैसे बड़ी होती गई, मीरा की खामोशी बढ़ती गई. वह हमेशा देखती, सीमा की हर जरूरत पिताजी पूरी करते हैं, उस का भविष्य कैसे संवारना है, यह भी पिताजी सोचते हैं. बिलकुल उसी तरह, जिस तरह उन्होंने उस के लिए सोचा था.

शंभुजी ने तो एक दिन भी यह महसूस नहीं किया कि बाप का अपनी संतान के लिए क्या कर्तव्य होता है. मीरा की जरूरत पिताजी आ कर पूछते. शंभुजी को इस से कोई अंतर नहीं पड़ता था. बस, उन्हें यही संतोष था कि पिताजी के होते उन्हें चिंता करने की क्या आवश्यकता है, या पिताजी उन पर कितने प्रसन्न हैं, क्योंकि उन्होंने उन का व्यापार और बढ़ा दिया था. मीरा की हर बात चिकने घड़े पर पड़े पानी की तरह उन के ऊपर से फिसल जाती थी.

एक दिन बेहद गुस्से में मीरा ने कहा था, ‘इन सुखों की खातिर तुम ने अपनेआप को बेच दिया है. अपनी आजादी, अपने आदर्शों तक को दांव पर लगा दिया है.’

‘तुम सुखी रहो, इसी लिए तो यह सब किया है मैं ने, वरना मैं अकेला तो दो रोटी और दो कपड़ों में ही प्रसन्न था. यदि तुम्हारी खुशी के लिए स्वयं मुझे भी बिकना पड़ा तो भी मैं पीछे नहीं हटूंगा, मीरा,’ शंभुजी ने हंस कर बात टालनी चाही थी.

‘मेरा नाम ले कर झूठ मत बोलो. तुम जानते हो इस पैसे की दुनिया से मुझे कभी प्यार नहीं रहा जहां आदमी आजादी से अपनी कोई इच्छा ही पूरी न कर सके, जहां आगेपीछे नौकरों की फौज खड़ी हो. मैं खुली हवा में सांस लेना चाहती हूं. प्लीज, मुझे अलग ले जाओ, ताकि मैं अपना छोटा सा संसार बना सकूं, और सोच सकूं, यह घर मेरा है, जहां सुकून हो, जहां तुम हो, हमारी बच्ची हो, और मैं होऊं,’ और मीरा रो पड़ी थी.

‘ठीक है, मीरा. मैं वचन देता हूं, हम उसी तरह रहेंगे जैसे तुम चाहती हो. मैं पिताजी से जरूर बात करूंगा,’ उन्होंने मीरा को प्यार से थपथपा दिया था.

जब मीरा ने देखा कि यह तकरार भी चिकने घड़े की बूंद बन गई है तो वह हमेशा के लिए चुप हो गई थी. शायद उस ने ‘जो है, सो ठीक है,’ समझ कर ही संतोष कर लिया था.

दूसरे बच्चे के समय मीरा की तबीयत बहुत बिगड़ गई थी. डाक्टरों की भीड़ भी उसे नहीं बचा सकी थी. तब यही शंभुजी सीमा को छाती से लगा कर फूटफूट कर रो पड़े थे. उन्होंने मन ही मन मीरा से कितनी बार माफी मांगी थी और वादा किया था, ‘तुम्हारी सीमा की मैं हर इच्छा पूरी करूंगा. मैं स्वयं उस का खयाल रखूंगा, उसे मां बन कर पालूंगा.’

कितना स्नेह और ममत्व उन्होंने बेटी को दिया था. उस के उठने से ले कर सोने तक, हर बात का ध्यान वे खुद रखते थे. बाहर जाना भी कितना कम कर दिया था. लेकिन कभीकभी जब सीमा उन्हें टकटकी लगाए देखने लगती थी तो न जाने वे क्यों सिहर उठते थे. उन्हें महसूस होता था, ये निगाहें सीमा की नहीं, मीरा की हैं, जो उन से कुछ कहना चाह रही हैं, तो वे घबरा कर यह पूछ बैठते, ‘कुछ कहना है, बेटी?’

‘कुछ नहीं, पापा,’ जब सीमा कहती तो उन की सांस की गति ठीक होती.

समय के साथ सीमा बड़ी हुई. मीरा के मातापिता का साथ छूटा. सारा कारोबार फिर एक बार शंभुजी पर आ पड़ा. यह वही जिम्मेदारी थी जो किसी को दी नहीं जा सकती थी और फिर धीरेधीरे वे पहले की तरह व्यस्तता के बीच खोने लगे थे.

एक दिन जब वे काफी रात गए घर लौटे थे, तो यह देख कर हैरान हो गए थे कि जल्दी सो जाने वाली सीमा, आज बालकनी में खड़ी उन का इंतजार कर रही है. वे हैरानी से बोले थे, ‘सोई क्यों नहीं?’

‘आप जल्दी क्यों नहीं आते? अकेले मेरा मन नहीं लगता,’ सीमा गुस्से में थी.

‘मेरा बहुत काम होता है, इसी लिए देर हो जाती है. आज कोई पहली बार तो मैं देर से नहीं आया?’ उन्होंने प्यार से समझाया था.

‘इतनी रात तक किसी का काम नहीं होता. आप झूठ बोलते हैं. आप पार्टियों में जाते हैं, शराब पीते हैं, इसी लिए आप को देर हो जाती है.’

‘सीमा,’ वे नाराज हो गए थे.

‘डांटिए मत, मैं कालेज से देर से आऊंगी, तब आप को अच्छा लगेगा?’ वह भी सख्ती से बोली थी, ‘मैं कहे देती हूं, अब आप देर से आएंगे तो मैं खाना नहीं खाऊंगी.’ और वह पैर पटकती हुई चली गई थी.

वे हैरान से खड़े देखते रह गए थे. मीरा और सीमा में कितना साम्य है. वह अगर हवा का तेज झोंका थी तो यह सबकुछ हिला देने वाली तेज आंधी.

कुछ दिन तक तो वे समय पर घर पहुंचते रहे थे. लेकिन क्रम टूटते ही घर में तूफान आ जाता था. एक बार तो सीमा ने हद कर दी थी. महाराज के बारबार खाने के लिए बुलाने पर उस ने खाने की मेज ही उलट कर रख दी थी, और चिल्ला कर कहा था,

‘मैं शीला चाची के यहां जा रही हूं. डाक्टर साहब के साथ शतरंज खेलूंगी. पिताजी से कह देना, जिस समय मेरा मन होगा, मैं वापस आऊंगी. मुझे वहां लेने आने की कोई जरूरत नहीं.’ और वह दनदनाती हुई चली गई थी.

जब शंभुजी को पता चला तो वे चाह कर भी उसे लेने नहीं जा सके थे. उन्हें डर था, ‘जिद्दी लड़की है, वहीं कोई नाटक न शुरू कर दे.’

12 बजे के करीब डाक्टर साहब का बेटा दीपक उसे छोड़ने आया था तो वह बिना उन्हें देखे अपने कमरे में चली गई थी. पीछेपीछे भारी कदमों से उन्हें उस के कमरे में जाना पड़ा था, ‘खाना नहीं खाओगी, बेटी?’

‘मैं ने खा लिया है,’ वह लापरवाही से बोली थी.

‘तुम डाक्टर साहब के यहां रात को क्यों गई थी?’ उन्होंने सख्ती से पूछा था.

‘आप भी तो वहां जाते हैं. वे भी हमारे घर आते हैं,’ वह भी सख्त हो गई थी.

‘वे मेरे मित्र हैं, बेटी. तुम समझती क्यों नहीं? तुम अब बड़ी हो गई हो. रात को अकेले तुम्हें…’ आगे वे बात पूरी नहीं कर सके थे.

‘मैं वहां जरूर जाऊंगी. दीपक मुझे घुमाने ले जाता है. मेरा खयाल रखता है. वह भी मेरा दोस्त है. जब आप को फुरसत नहीं मिलती तो मैं अकेली क्या करूं?’इतना सुनते ही उन का सिर चकराने लग गया था. इन बातों का तो उन्हें पता ही नहीं था. वे तो अपने काम में ही इतने व्यस्त रहते थे कि बाहर क्या हो रहा है, कुछ जानते ही न थे. डाक्टर साहब जरूर उन्हें कभीकभी खींच कर पार्टियों में या क्लब में ले जाते थे.

फिर उन्हें यह भी जानकारी मिली कि, सीमा दीपक के साथ फिल्म देखने भी जाती है तो वे बड़े परेशान हो गए थे. पहले तो उन्हें सीमा पर गुस्सा आया था कि कभी मुझ से पूछती तक नहीं, लेकिन फिर वे स्वयं पर भी नाराज हो उठे थे, उन्होंने ही बेटी से कब, कुछ जानना चाहा था.

सीमा कुछ और सयानी हो गई थी. उन्होंने भी सोचा था, ‘दीपक अच्छा लड़का है. अगर सीमा उसे पसंद करती है तो वे उस की इस खुशी को जरूर पूरा करेंगे. सीमा के सिवा उन का है ही कौन? यह घर, यह कारोबार किसी को तो संभालना ही है. फिर दीपक तो बड़ा ही प्यारा लड़का है.’ और वे निश्ंिचत हो गए थे.

अब वे सीमा से हमेशा दीपक के बारे में पूछा करते थे. वे यह भी देख रहे थे, सीमा धीरेधीरे गंभीर होती जा रही है.

एक दिन बातोंबातों में सीमा ने कहा था, ‘पिताजी, आप क्यों नहीं किसी को अपने विश्वास में ले लेते? उसे सारा काम समझा दीजिए, तो आप का कुछ बोझ तो हलका हो ही जाएगा. आप को कितना काम करना पड़ता है.’

‘हां, बेटा, मैं भी कई दिनों से यही सोच रहा था. पहले तुम्हारे हाथ पीले कर दूं, फिर कारोबार का बोझ भी अपने ऊपर से उतार फेंकूं. अब मैं भी बहुत थक गया हूं, बेटी.’

‘आप एक चैरिटेबल ट्रस्ट क्यों नहीं बना देते? उस से जितना भी लाभ हो, गरीबों की सहायता में लगा दिया जाए. गरीबों के लिए एक अस्पताल बनवा दीजिए. एक स्कूल खुलवा दीजिए. इतने पैसों का आप क्या करेंगे?’

‘बेटी, अपना हक यों बांट देना चाहती हो,’ वे हैरानी से बोले थे.

‘मैं भी इतना पैसा क्या करूंगी. आदमी की जरूरतें तो सीमित होती हैं, और उसी में उसे खुशी होती है. इतना पैसा किस काम का जो किसी दूसरे के काम न आ सके, बैकों में पड़ापड़ा सड़ता रहे. सब बांट दीजिए, पापा.’

‘कैसी बातें करती हो, मैं ने सारी जिंदगी क्या इसी लिए खूनपसीना एक किया है कि मैं कमा कर लोगों में बांटता फिरूं. तुम नहीं जानतीं. मैं ने इसी व्यापार को बढ़ाने की खातिर क्या कुछ खोया है?’

‘मुझे सब पता है, पापा. इसी लिए तो कहती हूं, आप समेटतेसमेटते फिर कुछ न खो बैठें. एक बार बांट कर तो देखिए, आप को कितना सुख मिलता है. जो खुशी दूसरों के लिए कुछ कर के हासिल होती है, वह खुद के लिए समेट कर नहीं होती.’

‘यह तुम क्या कह रही हो?’

‘डाक्टर चाचा भी तो यही कहते हैं, पापा, देखिए न, वे गरीबों का मुफ्त इलाज करते हैं. वे हमेशा यही कहते हैं, बस, जितने की मुझे जरूरत होती है, मैं रख लेता हूं, बाकी दूसरों को दे देता हूं, ताकि मेरे साथसाथ दूसरों का भी काम चलता रहे.’

वे बेटी का मुंह देखते रह गए थे. अच्छा हुआ सीमा ने बात खोल दी, नहीं तो वे कितनी बड़ी गलती कर बैठते. नहीं, नहीं, उन्हें तो ऐसा लड़का चाहिए जो व्यापार को संभाल सके. वे इस तरह अपनी दौलत को कभी नहीं लुटाएंगे. और उन्होंने निश्चय किया था, वे अपनी तरफ से तलाश शुरू कर देंगे. यह काम जल्दी ही करना होगा.

जल्दी काम करने का नतीजा भी सीमा की नजरों से छिपा नहीं रहा. शंभुजी के औफिस की टेबल पर उस ने जब कई लड़कों के फोटो देखे तो वह सबकुछ समझ गई थी. उसी दिन वे कोलकाता जाने वाले थे. सीमा ने सबकुछ देखने के बाद केवल इतना ही कहा था, ‘पापा, आप इतनी जल्दी न करें, तो अच्छा है.’

‘तुम्हें मेरे फैसले पर कोई आपत्ति है.’

‘मेरा अपना भी तो कोई फैसला हो सकता है,’ उस ने दृढ़ता से कहा था.

‘मुझे तुम्हारे फैसले पर आपत्ति नहीं, बेटी. दीपक मुझे भी पसंद है. लेकिन मेरी भी तो कुछ खुशियां हैं, कुछ इच्छाएं हैं. तुम जानती हो, दीपक को शादी के बाद…’

‘आप पहले कोलकाता हो आइए. इस बारे में हम फिर बात करेंगे,’ उस ने उन की बात काट दी थी.

वे निश्ंिचत हो कर चले गए थे, और आज वापस आए थे. लेकिन दरवाजे पर इंतजार करती सीमा कहीं नजर नहीं आ रही थी.

वे तेजी से उस के कमरे में गए, शायद उस ने कोई मैसेज छोड़ा हो लेकिन कहीं कुछ भी नहीं था. सबकुछ व्यवस्थित था. तभी नौकर ने आ कर धीरे से कहा, ‘‘सीमा बिटिया आ गई है.’’

सीमा जब उन के सामने आ कर खड़ी हुई थी तो वे उसे अपलक देखते रह गए थे. इन 6 दिनों में सीमा को क्या हो गया है. लगता है, जैसे इतने दिनों तक सोई ही न हो, ‘‘कहां गई थी, बेटी?’’

‘‘रमेशजी के यहां, मां की तबीयत ठीक नहीं थी. उन्होंने बुलवा भेजा था.’’

‘‘मां…कौन मां?’’ वे हैरान थे.

‘‘रेखा चाची, यानी शरदजी की मां. शरदजी की भी तबीयत ठीक नहीं है. मैं यही बताने आई थी, कहीं आप चिंता न करने लगें. मुझे अभी फिर वापस जाना है. उन की देखभाल करने वाला कोई नहीं. दोनों बीमार हैं. शायद मुझे रात को भी वहीं रहना पड़े.’’

‘‘उन का नौकर उन की…’’ वे बात पूरी नहीं कर सके थे.

‘‘जितनी सेवा कोई अपना कर सकता है, उतनी सेवा क्या नौकर करेगा? मेरा मतलब तो आप समझ गए न, मैं ने कहा था न, पिताजी मेरा भी कोई फैसला हो सकता है.’’

‘‘और डाक्टर का बेटा दीपक?’’ वे हैरान थे.

‘‘वह तो बचपन की पगडंडियों पर लुकाछिपी खेलने वाला दोस्त था, जो जवानी के मोड़ पर आ कर आप की दौलत से भी आंखमिचौली खेलना चाहता था. मुझे जीवनसाथी की जरूरत है, पापा, दौलत पर पहरा देने वाले पहरेदार की नहीं. मैं जानती हूं, आप को मेरी बातों से दुख हो रहा है. लेकिन यह भी तो सोचिए, लड़की के जीवन में एक वह भी समय आता है जब वह बाबुल का घर छोड़ कर पति के घर जाने के लिए आतुर हो जाती है. इसी में उसे जिंदगी का सुख मिलता है. मांबाप की भी तो यही खुशी होती है कि लड़की अपने घर में सुखी रहे. आप शरद को भी बचपन से जानते हैं, आप भी अपना फैसला बदल डालिए, इसी में मेरी खुशी है और आप का सुख,’’ और वह जाने को तैयार हो गई.

‘‘रुक जाओ, बेटी, मुझे तुम्हारा फैसला मंजूर है. तुम ने तो एकसाथ मेरे दोदो बोझ हलके कर दिए हैं. बेटी का बोझ और धन का बोझ. इसे भी अपनी मरजी से ठिकाने लगा देना, बेटी, जिस से कइयों को खुशियां मिलती रहें,’’ कहतेकहते उन की आंखें नम हो गई थीं.

‘‘पापा,’’ वह भाग कर मुद्दत से प्यासे पापा के हृदय से लग कर रो पड़ी थी.

Love Story :खूबसूरत लम्हे

शेखर इस नए शहर में जिंदगी की नई शुरुआत करने आ पहुंचा था. आईएएस पूरी करने के बाद उस की पत्नी की पोस्टिंग इसी शहर में हुई. वैसे भी अमृतसर आ कर वह काफी खुश था. इस शहर में वह पहली बार आया था, पर उसे ऐसा लगता कि वह अरसे से इस शहर को जानता है. आज वह बाजार की तरफ निकला ताकि अपनी जरूरत का सामान खरीद सके. अचानक एक डिपार्टमैंटल स्टोर में शेखर को एक जानापहचाना चेहरा नजर आया. हां, वह संगीता थी और साथ में था शायद उस का पति. शेखर गौर से उसे देखता रहा. संगीता शायद उसे देख नहीं पाई या फिर जानबूझ कर उस ने देख कर भी अनदेखी कर दी. वह जब तक संगीता के करीब पहुंचा, संगीता स्टोर से निकल कर अपनी कार में जा बैठी और चली गई. शेखर उसे देख कर अतीत में खो गया.

नयानया शहर, नया कालेज, शेखर के लिए सबकुछ अपरिचित और अजनबी था. वह क्लास में पीछे वाली बैंच पर बैठ गया. कालेज की चहलपहल उसे काफी अच्छी लगी. यहां तो पुस्तकें ही उस की साथी थीं. वह बस, मन में उठे भावों को कागज पर उतारता और स्वयं ही उन्हें पढ़ कर काफी खुश होता. कालेज के वार्षिक सम्मेलन में जब उस की कविता को प्रथम पुरस्कार मिला तो वह सब का चहेता बन गया. प्रोग्राम खत्म होते ही एक लड़की उस से आ कर बोली, ‘‘बधाई हो, तुम तो छिपे रुस्तम निकले… इतना अच्छा लिख लेते हो. तुम्हारी रचना काफी अच्छी लगी… इस की एक कौपी दोगे.’’

शेखर तब उस के आग्रह को टाल न सका. उस ने पहली बार गौर से उस की खूबसूरती को निहारा. गोरा रंग, गुलाबी गाल, मदभरे तथा मुसकराते अधर और सब से खूबसूरत लगीं उस की आंखें. उस की आंखें बिना काजल के ही कजरारी लगीं. आंखें शोख और शरारत भरी थीं. शेखर ने तो उस की खूबसूरती को शब्दों में कैद कर गीत का रूप दे डाला और संगीता की खिलखिलाहट ने उस के गीत को संगीत का रूप दे डाला, पर ये सब तो कालेज के सांस्कृतिक कार्यक्रम का हिस्सा था. संगीता के स्वर में एक अजीब सी कशिश, एक अजीब सा जादू दिखा.

शेखर जीवन में हमेशा बहुत बड़े और सुनहरे सपने देखता रहता. पढ़ाई और लेखन बस 2 ही तो उस के साथी हैं. मध्यवर्गीय परिवार में पलाबढ़ा शेखर हमेशा यही सोचता कि खूब पढ़लिख कर एक काबिल इंसान बनूं और सब की झोली खुशियों से भर दूं. शेखर कालेज की लाइब्रेरी में बैठा अध्ययन कर रहा था. तभी संगीता उस के सामने आ कर बैठ गई. शेखर को यह ठीक नहीं लगा. उसे पढ़ाई के दौरान किसी का डिस्टर्ब करना अच्छा नहीं लगता था. संगीता का धीरेधीरे गुनगुनाना उसे अच्छा नहीं लगा. वह गुस्से से उठा और जोर से पुस्तक बंद कर चल पड़ा. तभी एक मधुर खिलखिलाहट उसे सुनाई पड़ी. पीछे मुड़ कर देखा तो संगीता शरारत भरी मुसकान हंस रही थी. गुस्सा तो कम हो गया पर अपने अहंकार में डूबा शेखर चला गया.

दूसरे दिन भी वह लाइब्रेरी में बैठा अपनी पढ़ाई कर रहा था, पर आज उस के मन में अजीब हलचल मची थी. उसे बारबार ऐसा आभास होता कि संगीता आ कर बैठेगी, बारबार उस की निगाहें दरवाजे की तरफ उठ जातीं. थोड़ी देर बाद संगीता आती दिखाई पड़ी पर आज वह किसी और टेबल पर बैठी. तब शेखर चाह कर भी कुछ न कर पाया, पर आज उस का मन पढ़ने में नहीं लगा. फिर उस ने उठ कर गुस्से में पुस्तक बंद कर दी.

वह लाइबे्ररी से उठ कर जाने लगा, लेकिन तभी संगीता उठ कर सामने आ गई और उसे घूरघूर कर ऊपर से नीचे तक निहारती रही और मुसकराती रही. यह देख कर शेखर का पारा चढ़ने लगा. संगीता तब बहुत ही सहज भाव से बोली, ‘‘सरस्वती का अपमान करना ठीक नहीं. जब पुस्तक की कद्र करोगे तभी तो मंजिल मिलेगी. मैं ईर्ष्या से नहीं मुसकराई बल्कि तुम्हारी नादानी पर मुझे हंसी आ जाती है. वैसे सदा मुसकराते रहना ही मेरी फितरत है.’’

फिर थोड़ा सीरियस हो कर उस ने आंखों में आंखें डाल कर इस कदर देखा कि शेखर चुपचाप पीछे खिसकता चला गया और संगीता आगे बढ़ती रही.

अंतत: शेखर दोबारा उसी बैंच पर बैठ गया और संगीता भी सामने बैठ गई. दोनों बस खामोश रहे. शेखर संगीता के इशारे पर पुस्तक खोल कर पढ़ने लगा और संगीता पुस्तक खोल कर मुसकराने लगी.

शेखर संगीता की समीपता भी चाहता और उसे उस से बात करने में घबराहट भी होती. कालेज के कुछ लोग संगीता की सुंदरता के इस कदर दीवाने थे कि शेखर उन्हें खटकने लगा. शेखर को उन की नफरत भरी नजरों से डर लगने लगा. वह कभीकभी सोचता कि क्या वह संगीता को कभी पा सकेगा या नहीं.

शेखर कालेज के गार्डन में अकेला बैठा विचारों में खोया था, तभी वहां संगीता आ पहुंची. वह एकदम करीब बैठ गई और उलाहने भरे स्वर में बोली, ‘‘मैं लाइबे्ररी का चक्कर लगा कर आ रही हूं, लगता है आज पढ़ने का नहीं लिखने का मूड है तभी गार्डन में आ कर बैठे हो.’’

शेखर जिस की याद में खोया था. उस का करीब आना उसे अच्छा लगा. संगीता ने तब बैग खोल कर टिफिन बौक्स निकाला और शरारती अंदाज में बोली, ‘‘आ मुंडे, आलू दे परांठे खाएं, तेरी तबीयत चंगी हो जाएगी.’’

जब मूड होता तो संगीता अपनी मातृभाषा पंजाबी बोलती. तब शेखर वाकई में खुल कर हंस पड़ा. उस के सामने जब संगीता ने टिफिन बौक्स खोला तो परांठों की महक सूंघ कर ही शेखर खुश हो गया.

दोनों ने जी भर कर परांठे खाए. परांठे खाने के बाद संगीता बोली, ‘‘चलो, अब लस्सी पिलाओ.’’

शेखर सकुचाते हुए बोला, ‘‘अभी क्लास शुरू होने वाली है, लस्सी कल पी लेंगे.’’

संगीता बेधड़क बोली, ‘‘बड़े कंजूस बाप के बेटे हो यार, लस्सी पीने का मन आज है और तुम अगले जन्म में पिलाने की बात करते हो. मेरी कुछ कद्र है कि नहीं. अभी यदि एक आवाज दूं तो लस्सी की दुकान से ले कर यहां तक लस्सी लिए लड़कों की लाइन लग जाए.’’

शेखर फिर मुसकरा कर रह गया. संगीता टिफिन बौक्स समेटती हुई बोली, ‘‘ठीक है, चलो मैं ही पिलाती हूं. मेरा बाप बड़े दिल वाला है. मिलिट्री औफिसर है. एक बार पर्स में हाथ डालते हैं और जितने नोट निकल आते हैं, वे मुझे दे देते हैं. किसी की इच्छा पूरी करना सीखो शेखर, बस किताबी कीड़ा बने रहते हो. लाइफ औलवेज नीड्स सम चेंज.’’

‘‘ठीक है, चलो पिलाता हूं लस्सी, अब भाषण देना बंद करो,’’ शेखर आग्रह भरे स्वर में बोला.

‘‘मुझे नहीं पीनी है अब लस्सी,’’ संगीता मुसकराते हुए बोली, ‘‘जिस ने पी तेरी लस्सी वह समझो फंसी, मैं तो नहीं ऐसी.’’

फिर कालेज कंपाउंड से निकल कर दोनों बाजार की ओर चल पड़े. चौक पर ही लस्सी की दुकान थी. कुरसी पर बैठते ही संगीता ने एक लस्सी का और्डर दिया. शेखर तब कुतुहल भरी दृष्टि से संगीता को निहारने लगा. संगीता ने टेबल पर सर्व किए गए लस्सी के गिलास को देख कर शेखर की तरफ देखा और जोर से हंस पड़ी.

शेखर धीरेधीरे उस की शोखी और शरारत से वाकिफ हो गया था. अत: वह लस्सी के गिलास को न देख कर दुकान की छत की ओर निहारने लगा. संगीता ने उस से चुटकी बजाते हुए कहा, ‘‘शेखर, लस्सी इधर टेबल पर है आसमान में नहीं है, ऊपर क्या देख रहे हो.’’

उस ने आवाज दे कर मैनेजर को बुलाया. उस के करीब आते ही वह उस पर बरस पड़ी, ‘‘इस टेबल पर कितने लोग बैठे हैं?’’

‘‘2,’’ मैनेजर ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

‘‘फिर लस्सी एक ही क्यों भेजी, तुम्हारे आदमी को समझ में नहीं आता है,’’ संगीता के तेवर गरम हो गए.

मैनेजर गरजते हुए बोला, ‘‘अरे, ओ मंजीते, तेरा ध्यान किधर है, कुड़ी द खयाल कर और एक लस्सी ला.’’

मंजीत कहना चाहता था कि मैडम ने एक ही और्डर दिया था, पर कह न सका और उसे काफी डांट पड़ी.

जब मूड होता तो संगीता अपनी मातृभाषा पंजाबी बोलती. तब शेखर वाकई में खुल कर हंस पड़ा. उस के सामने जब संगीता ने टिफिन बौक्स खोला तो परांठों की महक सूंघ कर ही शेखर खुश हो गया.

दोनों ने जी भर कर परांठे खाए. परांठे खाने के बाद संगीता बोली, ‘‘चलो, अब लस्सी पिलाओ.’’

शेखर सकुचाते हुए बोला, ‘‘अभी क्लास शुरू होने वाली है, लस्सी कल पी लेंगे.’’

संगीता बेधड़क बोली, ‘‘बड़े कंजूस बाप के बेटे हो यार, लस्सी पीने का मन आज है और तुम अगले जन्म में पिलाने की बात करते हो. मेरी कुछ कद्र है कि नहीं. अभी यदि एक आवाज दूं तो लस्सी की दुकान से ले कर यहां तक लस्सी लिए लड़कों की लाइन लग जाए.’’

शेखर फिर मुसकरा कर रह गया. संगीता टिफिन बौक्स समेटती हुई बोली, ‘‘ठीक है, चलो मैं ही पिलाती हूं. मेरा बाप बड़े दिल वाला है. मिलिट्री औफिसर है. एक बार पर्स में हाथ डालते हैं और जितने नोट निकल आते हैं, वे मुझे दे देते हैं. किसी की इच्छा पूरी करना सीखो शेखर, बस किताबी कीड़ा बने रहते हो. लाइफ औलवेज नीड्स सम चेंज.’’

‘‘ठीक है, चलो पिलाता हूं लस्सी, अब भाषण देना बंद करो,’’ शेखर आग्रह भरे स्वर में बोला.

‘‘मुझे नहीं पीनी है अब लस्सी,’’ संगीता मुसकराते हुए बोली, ‘‘जिस ने पी तेरी लस्सी वह समझो फंसी, मैं तो नहीं ऐसी.’’

फिर कालेज कंपाउंड से निकल कर दोनों बाजार की ओर चल पड़े. चौक पर ही लस्सी की दुकान थी. कुरसी पर बैठते ही संगीता ने एक लस्सी का और्डर दिया. शेखर तब कुतुहल भरी दृष्टि से संगीता को निहारने लगा. संगीता ने टेबल पर सर्व किए गए लस्सी के गिलास को देख कर शेखर की तरफ देखा और जोर से हंस पड़ी.

शेखर धीरेधीरे उस की शोखी और शरारत से वाकिफ हो गया था. अत: वह लस्सी के गिलास को न देख कर दुकान की छत की ओर निहारने लगा. संगीता ने उस से चुटकी बजाते हुए कहा, ‘‘शेखर, लस्सी इधर टेबल पर है आसमान में नहीं है, ऊपर क्या देख रहे हो.’’

उस ने आवाज दे कर मैनेजर को बुलाया. उस के करीब आते ही वह उस पर बरस पड़ी, ‘‘इस टेबल पर कितने लोग बैठे हैं?’’

‘‘2,’’ मैनेजर ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

‘‘फिर लस्सी एक ही क्यों भेजी, तुम्हारे आदमी को समझ में नहीं आता है,’’ संगीता के तेवर गरम हो गए.

मैनेजर गरजते हुए बोला, ‘‘अरे, ओ मंजीते, तेरा ध्यान किधर है, कुड़ी द खयाल कर और एक लस्सी ला.’’

मंजीत कहना चाहता था कि मैडम ने एक ही और्डर दिया था, पर कह न सका और उसे काफी डांट पड़ी.

शेखर को यह सब पसंद नहीं आया. वह संगीता से नाराजगी भरे लहजे में बोला, ‘‘तुम ने और्डर तो एक ही लस्सी का दिया था फिर उसे डांट क्यों खिलवाई?’’

संगीता शरारती लहजे में बोली, ‘‘तुम्हें इतना बुरा क्यों लगा. वह तुम्हारा सगा है क्या? तुम को मालूम है, मैं जब भी अकेले लस्सी पीने आती हूं तो वह मुझे घूरघूर कर देखता है, लस्सी देर से देता है या फिर स्पर्श के लिए लस्सी हाथ में पकड़वाने की कोशिश करता है. आज उसे सबक मिला. अब लस्सी पीओ और दिमाग बिलकुल कूल करो.’’

शेखर ने लस्सी पीते हुए कहा, ‘‘तुम हो ही इतनी खूबसूरत कि लोग तुम्हें निहारे बिना रह नहीं सकते.’’

‘‘फिर चौराहे पर खड़ा कर के नोच डालो न मुझे, यह समाज तो मर्दों का है न, खूबसूरत होना क्या गुनाह है,’’ संगीता गुस्से में बोली. शेखर तब उसे बहलाने के खयाल से बोला, ‘‘अरे, लस्सी पी कर लोग कूल होते हैं, पर तुम तो गरम हो रही हो.’’

फिर शांत मन से संगीता लस्सी पीते हुए बोली, ‘‘अगर मेरा वश चले तो तुम्हें सिर्फ एक दिन के लिए लड़की बना दूं. तब तुम सब की नजरों को अपने पर देखो, उन के चेहरे के भाव समझो, उन की नीयत पहचानो, क्योंकि अभी तो तुम्हें सिर्फ कजरारे नयन और मधुर मुसकान नजर आती है.’’

शेखर एक कड़वी सचाई को सुन कर एकदम चुप हो गया.

कई दिन से संगीता कालेज में नजर नहीं आई. शेखर काफी परेशान हो गया. न कालेज में, न घर में, न अकेले में, कहीं भी उस का दिल न लगता. किसी तरह उस की एक सहेली से पता चला कि वह बीमार है और नर्सिंगहोम में भरती है. वह दौड़ पड़ा नर्सिंगहोम की ओर, काफी रात हो चुकी थी. संगीता बैड पर लेटी थी. नर्स से पता चला कि वह अभी दवा खा कर सोई है. कई रात से वह सो न सकी, नर्स शेखर की बदहवासी देख पूछ बैठी, ‘‘जगा दूं क्या?’’

पर शेखर का अंतर्मन बोला, ‘सोने दो मेरी जान को, कितनी हसीन लग रही है,’ नींद में भी चेहरे पर मुसकान थी. उस ने नर्स को एक गुलदस्ता और एक छोटी डायरी दे कर कहा, ‘‘जब संगीता नींद से जागे तो उसे दे देना.’’

‘‘आप का नाम?’’ नर्स ने पूछा.

‘‘कहना तुम्हारा मीत आया था,’’ कल फिर आऊंगा.

वह दूसरे दिन भी गया. पता चला कि संगीता को एक्सरे रूम में ले जाया गया है. वहां उस के मम्मीपापा और काफी रिश्तेदार आ गए. अब शेखर को रुकना उचित नहीं लगा. उस ने दोबारा फल, रजनीगंधा के फूल और मैगजीन सब नर्स को सौंपते हुए कहा, ‘‘मेरा कालेज का वक्त हो गया है, ये सब उसे दे दीजिएगा और…’’

‘‘और कह दूंगी तुम्हारे मीत ने दिया है,’’ नर्स ने मुसकराते हुए वाक्य पूरा किया और शेखर भी मुसकराते हुए लौट गया.

2 दिन बाद शेखर दोबारा हौस्पिटल आया. संगीता अपने बैड पर बैठी थी. शेखर को देखते ही उस के चेहरे पर मुसकान खिल उठी. शेखर बैड के करीब आ कर बोला, ‘‘सौरी, मैं 2-3 बार आया पर…’’

संगीता बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘मुझे सब मालूम है, यह डायरी, यह फल, रजनीगंधा के फूल सब मेरे मीत के ही हैं. वैसे भी मैं तुम से सदा अकेले में ही मिलना चाहती हूं, भीड़ में गर तुम न ही मिलो तो अच्छा है.’’

वैसे भी मम्मीडैडी तुम्हें लाइक नहीं करते, वे धर्म के पक्के अनुयायी हैं.

शेखर उस की खैरियत जानना चाहता था. संगीता मुसकराते हुए बोली, ‘‘अरे, मुझे कुछ नहीं हुआ, मैं बिलकुल ठीक हूं, थोड़ा फीवर हुआ था. तुम्हें बहुत परेशान करती रहती हूं न, इसीलिए भुगतना पड़ा.’’

‘‘पर तुम्हारी बीमारी की खबर सुन कर तो मेरी नींद ही उड़ गई,’’ शेखर चिंता भरे लहजे में बोला.

संगीता तब इठलाती हुई बोली, ‘‘नींद के मामले में मैं बहुत लक्की हूं, जहां भी रहूं, सोने से पहले जिस आखिरी इंसान से मेरी मुलाकात होती है वह हो तुम, बस, आंखें बंद कर लेती हूं और सो जाती हूं,’’ इतना कह कर उस ने अपनी मस्त नजरों से मुझे निहारा.

शेखर ने भी तब भावुकता में बहते हुए कहा, ‘‘मैं सुबह उठ कर सब से पहले बंद आंखों से जिस का चेहरा देखता हूं, वह हो सिर्फ तुम.’’

बातों ही बातों में संगीता ने बताया, ‘‘आज सुबह ही मम्मीपापा आए थे, डाक्टर ने डिस्चार्ज करने को कहा. दरअसल, वे लोग किसी रिश्तेदार के यहां फंक्शन में गए हैं सुबह मुझे लेने आएंगे.’’

‘‘मतलब एक रात और तुम्हें मरीज बन कर यहां रहना पड़ेगा,’’ शेखर ने कहा.

‘‘नहीं, अब तुम आ गए हो न. अब डाक्टर से इजाजत ले लेती हूं, पेपर वगैरा सब तैयार हैं.’’

‘‘पर डाक्टर पूछेगा कि कौन लेने आया है तो क्या बोलोगी?’’ शेखर ने जिज्ञासा प्रकट की.

‘‘हां, बोलूंगी कि मेरी सगी बहन के सगे भाई के जीजाजी आए हैं?’’

‘‘मतलब?’’ शेखर ने आश्चर्यचकित हो कर पूछा.

‘‘मतलब तुम समझो, मैं चली डाक्टर से मिलने.’’

संगीता फौरन डाक्टर से इजाजत ले कर आ गई और अपना सब सामान समेटने लगी. फिर शेखर ने बैग उठाया और दोनों हौस्पिटल से बाहर निकल पड़े.

रिकशा बुलाने से पहले ही संगीता ने पूछा, ‘‘कहां चल रहे हैं?’’

‘‘तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूंगा और मैं उसी रिकशे से वापस आ जाऊंगा,’’ शेखर ने सहज भाव से कहा.

‘‘नहीं, कहीं घूमने चलो न,’’ संगीता का आग्रह भरा स्वर था.

‘‘अभी तुम्हारी तबीयत नाजुक है. चुपचाप घर चलो,’’ शेखर ने समझाते हुए कहा.

‘‘अच्छा, चलो लस्सी पिला दो,’’ संगीता बच्चे की तरह जिद करती हुई बोली.

शेखर तब भड़क गया, ‘‘तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न, अभी फीवर से उठी हो और ठंडा?’’

संगीता तपाक से बोली, ‘‘जब तक तुम नहीं मिलते दिमाग ठीक रहता है.’’

‘‘अगर मैं कभी न मिलूं तब तो तुम बिलकुल ठीक रहोगी?’’ शेखर ने जानबूझ कर ऐसा सवाल किया.

तब संगीता घबराते हुए बोली, ‘‘अरे, ऐसा सोचना भी मत वरना तुम आगरा में मुमताज का ताजमहल निहारते रहोगे और मैं आगरा के पागलखाने में रहूंगी. वैसे भी आजीवन साथ रहना मुश्किल है, मेरे डैडी बहुत ही सख्त हैं, कुछ लमहे तो जी लूं.’’

शेखर उस की बकबक से तंग आ कर बोला, ‘‘प्लीज, अब रिकशे में बैठो. रास्ते में थोड़ी देर जूली पार्क में बैठेंगे फिर तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’

थोड़ी देर बाद दोनों जूली पार्क में थे. शाम गहरा गई थी. सूरज की लालिमा अंतिम चरण में थी, अत: अंधकार गहराता जा रहा था. शेखर पेड़ से टिक कर बैठा और संगीता उस की गोद में सिर रख लेट गई.

शेखर की उंगलियां संगीता की कालीघनी जुल्फों से अठखेलियां करने लगीं. शेखर बिना बोले अपनी नई रचना सुनाता रहा और संगीता उस की गोद में सुकून से सोती रही. वह वाकई में सो जाती लेकिन शेखर ने उसे जगाते हुए चलने को कहा.

दोनों दोबारा रिकशे में बैठ गए. आज संगीता काफी खुश थी. उस का सारा रोग ही काफूर हो गया था. शेखर भी संगीता से मिलने के बाद खुद को काफी तरोताजा महसूस करने लगा था.

शेखर ने संगीता को उस के घर के सामने ड्रौप करने के लिए रिकशा रुकवाया. उसे सामने संगीता के मम्मीपापा दिखे. उन की आंखों में उसे भरपूर आक्रोश और नफरत दिखी. कुछ कहने से पहले ही संगीता के पापा आगे बढ़ने लगे, पर उस की मां ने उन्हें रोक लिया. संगीता भी माहौल को देखते हुए बिलकुल खामोश रही और रिकशे से उतर कर चुपचाप घर के अंदर चली गई.

शेखर का रिकशा आगे बढ़ गया. रास्ते में मजाक में कही संगीता की बात शेखर को बारबार कचोटती रही कि कहीं दोनों का प्यार धर्म की भेंट न चढ़ जाए?

दूसरे दिन शेखर डरतेडरते संगीता के घर के सामने गया. संगीता के पड़ोसियों से पता चला कि सभी लोग पंजाब चले गए हैं. शेखर बस ठगा सा रह गया.

शेखर उन्हीं खूबसूरत लमहों के सहारे जी रहा था, पर आज अचानक संगीता से मुलाकात, उस के पति का सामीप्य, उस की उपेक्षा. थोड़ी देर के लिए वह उदास हो गया, लेकिन गुजरे हुए खूबसूरत लमहों के संग जीने की उस की चाह कम न हुई. उस के पास अब रह गई थीं बस, संगीता की यादें और कुछ खूबसूरत लमहे.

पराकाष्ठा: एक विज्ञापन ने कैसे बदली साक्षी की जिंदगी

आज भी मुखपृष्ठ की सुर्खियों पर नजर दौड़ाने के पश्चात वह भीतरी पृष्ठों को देखने लगी. लघु विज्ञापन तथा वर/वधू चाहिए, पढ़ने में साक्षी को सदा से ही आनंद आता है.

कालिज के जमाने में वह ऐसे विज्ञापन पढ़ने के बाद अखबार में से उन्हें काट कर अपनी सहेलियों को दिखाती थी और हंसीठट्ठा करती थी.

शहर के समाचार देखने के बाद साक्षी की नजर वैवाहिक विज्ञापन पर पड़ी जिसे बाक्स में मोटे अक्षरों के साथ प्रकाशित किया गया था, ‘30 वर्षीय नौकरीपेशा, तलाकशुदा, 1 वर्षीय बेटे के पिता के लिए आवश्यकता है सुघड़, सुशील, पढ़ीलिखी कन्या की. गृहकार्य में दक्ष, पति की भावनाओं, संवेदनाओं के प्रति आदर रखने वाली, समझौतावादी व उदार दृष्टिकोण वाली को प्राथमिकता. शीघ्र संपर्र्ककरें…’

साक्षी के पूरे शरीर में झुरझुरी सी होने लगी, ‘कहीं यह विज्ञापन सुदीप ने ही तो नहीं दिया? मजमून पढ़ कर तो यही लगता है. लेकिन वह तलाकशुदा कहां है? अभी तो उन के बीच तलाक हुआ ही नहीं है. हां, तलाक की बात 2-4 बार उठी जरूर है.

शादी के पश्चात हनीमून के दौरान सुदीप ने महसूस किया कि अंतरंग क्षणोें में भी वह उस की भावनाओं का मखौल उड़ा देती है और अपनी ही बात को सही ठहराती है. सुदीप को बुरा तो लगा लेकिन तब उस ने चुप रहना ही उचित समझा.

शादी के 2 महीने ही बीते होंगे, छुट्टी का दिन था. शाम के समय अचानक साक्षी बोली, ‘सुदीप अब हमें अपना अलग घर बसा लेना चाहिए, यहां मेरा दम घुटता है.’

सुदीप जैसे आसमान से नीचे गिरा, ‘यह क्या कह रही हो, साक्षी? अभी तो हमारी शादी को 2 महीने ही हुए हैं और फिर मैं इकलौता लड़का हूं. पिताजी नहीं हैं इसलिए मां की और कविता की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही है. तुम ने कैसे सोच लिया कि हम अलग घर बसा लेंगे.’

साक्षी तुनक कर बोली, ‘क्या तुम्हारी जिम्मेदारी सिर्फ तुम्हारी मां और बहन हैं? मेरे प्रति तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं?’

‘तुम्हारे प्रति कौन सी जिम्मेदारी मैं नहीं निभा रहा? घर में कोई रोकटोक, प्रतिबंध नहीं. और क्या चाहिए तुम्हें?’ सुदीप भी कुछ आवेश में आ गया.

‘मुझे आजादी चाहिए, अपने ढंग से जीने की आजादी, मैं जो चाहूं पहनूं, खाऊं, करूं. मुझे किसी की भी, किसी तरह की टोकाटाकी पसंद नहीं.’

‘अभी भी तो तुम अपने ढंग से जी रही हो. सवेरे 9 बजे से पहले बिस्तर नहीं छोड़तीं फिर भी मां चुप रहती हैं, भले ही उन्हें बुरा लगता हो. मां को तुम से प्यार है. वह तुम्हें सुंदर कपड़े, आभूषण पहने देख कर अपनी चाह, लालसा पूरी करना चाहती हैं. रसोई के काम तुम्हें नहीं आते तो तुम्हें सिखा कर सुघड़ बनाना चाहती हैं. इस में नाराजगी की क्या बात है?’

‘बस, अपनी मां की तारीफों के कसीदे मत काढ़ो. मैं ने कह दिया सो कह दिया. मैं उस घर में असहज महसूस करती हूं, मुझे वहां नहीं रहना?’

‘चलो, आज खाना बाहर ही खा लेते हैं. इस विषय पर बाद में बात करेंगे,’ सुदीप ने बात खत्म करने के उद्देश्य से कहा.

‘बाद में क्यों? अभी क्यों नहीं? मुझे अभी जवाब चाहिए कि तुम्हें मेरे साथ रहना है या अपनी मां और बहन के  साथ?’

सुदीप सन्न रह गया. साक्षी के इस रूप की तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. फिर किसी तरह स्वयं को संयत कर के उस ने कहा, ‘ठीक है, घर चल कर बात करते हैं.’

‘मुझे नहीं जाना उस घर में,’ साक्षी ने अकड़ कर कहा. सुदीप ने उस का हाथ खींच कर गाड़़ी में बैठाया और गाड़ी स्टार्ट की.

‘तुम ने मुझ पर हाथ उठाया. यह देखो मेरी बांह पर नीले निशान छप गए हैं. मैं अभी अपने मम्मीपापा को फोन कर के बताती हूं.’

साक्षी के चीखने पर सुदीप हक्काबक्का रह गया. किसी तरह स्वयं पर नियंत्रण रख कर गाड़ी चलाता रहा.

घर पहुंचते ही साक्षी दनदनाती हुई अपने कमरे की ओर चल पड़ी. मां तथा कविता संशय से भर उठीं.

‘सुदीप बेटा, क्या बात है. साक्षी कुछ नाराज लग रही है?’ मां ने पूछा.

‘कुछ नहीं मां, छोटीमोटी बहसें तो चलती ही रहती हैं. आप लोग सो जाइए. हम बाहर से खाना खा कर आए हैं.’

साक्षी को समझाने की गरज से सुदीप ने कहा, ‘साक्षी, शादी के बाद लड़की को अपनी ससुराल में तालमेल बैठाना पड़ता है, तभी तो शादी को समझौता भी कहा जाता है. शादी के पहले की जिंदगी की तरह बेफिक्र, स्वच्छंद नहीं रहा जा सकता. पति, परिवार के सदस्यों के साथ मिल कर रहना ही अच्छा होता है. आपस में आदर, प्रेम, विश्वास हो तो संबंधों की डोर मजबूत बनती है. अब तुम बच्ची नहीं हो, परिपक्व हो, छोटीछोटी बातों पर बहस करना, रूठना ठीक नहीं…’

‘तुम्हारे उपदेश हो गए खत्म या अभी बाकी हैं? मैं सिर्फ एक बात जानती हूं, मुझे यहां इस घर में नहीं रहना. अगर तुम्हें मंजूर नहीं तो मैं मायके चली जाऊंगी. जब अलग घर लोगे तभी आऊंगी,’ साक्षी ने सपाट शब्दों में धमकी दे डाली.

अमावस की काली रात उस रोज और अधिक गहरी और लंबी हो गई थी. सुदीप को अपने जीवन में अंधेरे के आने की आहट सुनाई पड़ने लगी. किस से अपनी परेशानियां कहे? जब लोगों को पता लगेगा कि शादी के 2-3 महीनों में ही साक्षी सासननद को लाचार, अकेले छोड़ कर पति के साथ अलग रहना चाहती है तो कितनी छीछालेदर होगी.

सुदीप रात भर इन्हीं तनावों के सागर में गोते लगाता रहा. इस के बाद भी अनेक रातें इन्हीं तनावों के बीच गुजरती रहीं.

मां की अनुभवी आंखों से कब तक सुदीप आंखें चुराता. उस दिन साक्षी पड़ोस की किसी सहेली के यहां गई थी. मां ने पूछ ही लिया, ‘सुदीप बेटा, तुम दोनों के बीच कुछ गलत चल रहा है? मुझ से छिपाओगे तो समस्या कम नहीं होगी, हो सकता है मैं तुम्हारी मदद कर सकूं?’

सुदीप की आंखें नम हो आईं. मां के प्रेम, आश्वासन, ढाढ़स ने हिम्मत बंधाई तो उस ने सारी बातें कह डालीं. मां के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह तो साक्षी को बेटी से भी अधिक प्रेम, स्नेह दे रही थीं और उस के दिल में उन के प्रति अनादर, नफरत की भावना. कहां चूक हो गई?

एक दिन मां ने दिल कड़ा कर के फैसला सुना दिया, ‘सुदीप, मैं ने इसी कालोनी में तुम्हारे लिए किराए का मकान देख लिया है. अगले हफ्ते तुम लोग वहां शिफ्ट हो जाओ.’ सुदीप अवाक् सा मां के उदास चेहरे को देखता रह गया. हां, साक्षी के चेहरे पर राहत के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे.

‘लेकिन मां, यहां आप और कविता अकेली कैसे रहेंगी?’ सुदीप का स्वर भर्रा गया.

‘हमारी फिक्र मत करो. हो सकता है कि अलग रह कर साक्षी खुश रहे तथा हमारे प्रति उस के दिल में प्यार, आदर, इज्जत की भावना बढ़े.’

विदाई के समय मां, कविता के साथसाथ सुदीप की भी रुलाई फूट पड़ी थी. साक्षी मूकदर्शक सी चुपचाप खड़ी थी. कदाचित परिवार के प्रगाढ़ संबंधों में दरार डालने की कोशिश की पहली सफलता पर वह मन ही मन पुलकित हो रही थी.

अलग घर बसाने के कुछ ही दिनों बाद साक्षी ने 2-3 महिला क्लबों की सदस्यता प्राप्त कर ली. आएदिन महिलाओं का जमघट उस के घर लगने लगा. गप्पबाजी, निंदा पुराण, खानेपीने में समय बीतने लगा. साक्षी यही तो चाहती थी.

उस दिन सुदीप मां और बहन से मिलने गया तो प्यार से मां ने खाने का आग्रह किया. वह टाल न सका. घर लौटा तो साक्षी ने तूफान खड़ा कर दिया, ‘मैं यहां तुम्हारा इंतजार करती भूखी बैठी हूं और तुम मां के घर मजे से पेट भर कर आ रहे हो. मुझे भी अब खाना नहीं खाना.’

सुदीप ने खुशामद कर के उसे खाना खिलाया और उस के जोर देने पर थोड़ा सा स्वयं भी खाया.

पति को बस में करने के नएनए तरीके आजमाने की जब उस ने कोशिश की तो सुदीप का माथा ठनका. इस तरह शर्तों पर तो जिंदगी नहीं जी जा सकती. आपस में विश्वास, समझ, प्रेम व सामंजस्य की भावना ही न हो तो संबंधों में प्रगाढ़ता कहां से आएगी? रिश्तों की मधुरता के लिए दोनों को प्रयास करने पड़ते हैं और साक्षी केवल उस पर हावी होने, अपनी जिद मनवाने तथा स्वयं को सही ठहराने के ही प्रयास कर रही है. यह सब कब तक चल पाएगा. इन्हीं विचारों के झंझावात में वह कुछ दिन उलझा रहा.

एक दिन अचानक खुशी की लहर उस के शरीर को रोमांचित कर गई जब साक्षी ने उसे बताया कि वह मां बनने वाली है. पल भर के लिए उस के प्रति सभी गिलेशिकवे वह भूल गया. साक्षी के प्रति अथाह प्रेम उस के मन में उमड़ पड़ा. उस के माथे पर प्रेम की मोहर अंकित करते हुए वह बोला, ‘थैंक्यू, साक्षी, मैं तुम्हारा आभारी हूं, तुम ने मुझे पिता बनने का गौरव दिलाया है. मैं आज बहुत खुश हूं. चलो, बाहर चलते हैं. लेट अस सेलीब्रेट.’

मां को जब यह खुशखबरी सुदीप ने सुनाई तो वह दौड़ी चली आईं. अपने अनुभवों की पोटली भी वह खोलती जा रही थीं, ‘साक्षी, वजन मत उठाना, भागदौड़ मत करना, ज्यादा मिर्चमसाले, गरम चीजें मत लेना…’ कह कर मां चली गईं.

एकांत के क्षणों में सुदीप सोचता, बच्चा होने के बाद साक्षी में सुधार आ जाएगा. बच्चे की सारसंभाल में वह व्यस्त हो जाएगी, सहेलियों के जमघट से भी छुटकारा मिल जाएगा.

प्रसवकाल नजदीक आने पर मां ने आग्रह किया कि साक्षी उन के पास रहे मगर साक्षी ने दोटूक जवाब दिया, ‘मुझे यहां नहीं रहना, मां के पास जाना है. मेरी मम्मी, मेरी व बच्चे की ज्यादा अच्छी देखभाल कर सकती हैं.’

हार कर उसे मां के घर भेजना ही पड़ा था सुदीप को.

3 माह के बेटे को ले कर साक्षी जब घर लौटी तो सब से पहले उस ने आया का इंतजाम किया. चूंकि उस का वजन भी काफी बढ़ गया था इसलिए हेल्थ सेंटर जाना भी शुरू कर दिया. उसे बच्चे को संभालने में खासी मशक्कत करनी पड़ती. दिन भर तो आया ही उस की जिम्मेदारी उठाती थी. कई दफा मुन्ना रोता रहता और वह बेफिक्र सोई रहती. एक दिन बातों ही बातों में सुदीप ने जब इस बारे में शिकायत कर दी तो साक्षी भड़क उठी, ‘हां, मुझ से नहीं संभलता बच्चा. शादी से पहले मैं कितनी आजाद थी, अपनी मर्जी से जीती थी. अब तो अपना होश ही नहीं है. कभी घर, कभी बच्चा, बंध गई  हूं मैं…’

सुदीप के पैरों तले जमीन खिसक गई, ‘साक्षी, यह क्या कह रही हो तुम? अरे, बच्चे के बिना तो नारी जीवन ही अधूरा है. यह तो तुम्हारे लिए बड़ी खुशी की बात है कि तुम्हें मां का गौरवशाली, ममता से भरा रूप प्राप्त हुआ है. हम खुशकिस्मत हैं वरना कई लोग तो औलाद के लिए सारी उम्र तरसते रह जाते हैं,’ सुदीप ने समझाने की गरज से कहा.

‘तुम आज भी उन्हीं दकियानूसी विचारों से भरे हो. दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है. अभी भी तुम कुएं के मेढक बने हुए हो. घर, परिवार, बच्चे, बस इस के आगे कुछ नहीं.’

साक्षी के कटाक्ष से सुदीप भीतर तक आहत हो उठा, ‘साक्षी, जबान को लगाम दो. तुम हद से बढ़ती जा रही हो.’

‘मुझे भी तुम्हारी रोजरोज की झिकझिक में कोई दिलचस्पी नहीं. मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहना, तलाक चाहिए मुझे…’

साक्षी के इतना कहते ही सुदीप की आंखों के आगे अंधेरा छा गया, ‘क्या कहा तुम ने, तलाक चाहिए? तुम्हारा दिमाग तो ठीक है?’

‘बिलकुल ठीक है. मैं अपने मम्मीपापा के पास रहूंगी. वे मुझे किसी काम के लिए नहीं टोकते. मुझे अपने ढंग से जीने देते हैं. मेरी खुशी में ही वे खुश रहते हैं…’

उन के संबंधों में दरार आ चुकी थी. मुन्ने के माध्यम से यह दरार कभी कम अवश्य हो जाती लेकिन पहले की तरह प्रेम, ऊष्मा, आकर्षण नहीं रहा.

तनावों के बीच साल भर का समय बीत गया. इस बीच साक्षी 2-3 बार तलाक की धमकी दे चुकी थी. सुदीप तनमन से थकने लगा था. आफिस में काम करते वक्त भी वह तनावग्रस्त रहने लगा.

मुन्ना रोए जा रहा था और साक्षी फोन पर गपशप में लगी थी. सुदीप से रहा नहीं गया. उस का आक्रोश फट पड़ा, ‘तुम से एक बच्चा भी नहीं संभलता? सारा दिन घर रहती हो, काम के लिए नौकर लगे हैं. आखिर तुम चाहती क्या हो?’

‘तुम से छुटकारा…’ साक्षी चीखी तो सुदीप भी आवेश में हो कर बोला, ‘ठीक है, जाओ, शौक से रह लो अपने मांबाप के घर.’

साक्षी ने फौरन अटैची में अपने और मुन्ने के कपड़े डाले.

‘इसे कहां लिए जा रही हो. यह यहीं रहेगा, मेरी मां के पास. तुम से नहीं संभलता न…’

सुदीप मुन्ने को लेने आगे बढ़ा.

‘यह मेरे पास रहेगा. मेरे मम्मीपापा इस की बेहतर परवरिश करेंगे…’ कह कर साक्षी मुन्ने को ले कर मायके चली गई.

मां से सारी घटना कहते हुए सुदीप की रुलाई फूट पड़ी थी. पत्नी के कारण मां व बहन के प्रति अपने फर्ज ठीक से न निभाने के कारण वह पहले ही अपराधबोध से ग्रस्त था. अब तो साक्षी के व्यवहार ने उन की इज्जत, मानमर्यादा पर भी बट्टा लगा दिया था.

सदा की तरह साक्षी के मातापिता ने उस की हरकत को हलके ढंग से लिया था. साक्षी के अनुसार सुदीप उस के तथा मुन्ना के बगैर नहीं रह सकता था अत: वह स्वयं आ कर उसे मना कर ले जाएगा. लेकिन जब एकएक दिन कर के 4-5 महीने बीत गए, सुदीप नहीं आया तो साक्षी के साथसाथ उस के मातापिता का भी माथा ठनका. कहीं सुदीप हकीकत में तलाक को गंभीरता से तो नहीं लेने लगा? हालांकि साक्षी तलाक नहीं चाहती थी. जैसेजैसे समय बीतता जा रहा था साक्षी का तनाव भी बढ़ता जा रहा था. अब उसे सुदीप का प्यार, मनुहार, उस की जिद के आगे झुकना, उस के कारण मांबहन से अलग हो कर रहना, रातों को उठ कर मुन्ने को संभालना, उस की ज्यादतियां बरदाश्त करना, समयसमय पर उस के लिए उपहार लाना, उसे खुश रखने का हरसंभव प्रयास करना बेइंतहा याद आने लगा था. सोच कर उसे कंपकंपी सी छूटने लगी. नहीं, वह सुदीप के बिना नहीं रह सकती. पर यह सब किस से कहे, कैसे कहे? उस का अहं भी तो आडे़ आ रहा था.

आज विज्ञापन पढ़ कर तो उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. तभी याद आया, सुलभा के मामा उसी अखबार में काम करते हैं. पता लगवाया तो उस का शक सही था, विज्ञापन सुदीप ने ही दिया था. अब क्या किया जाए? रात भर साक्षी विचारों के घेरे में उलझी रही. सुबह तक उस ने निर्णय ले लिया था. पति को फोन मिलाया, ‘‘सुदीप, मैं वापस आ रही हूं तुम्हारे पास…’’

मांबाप ने सुना तो उन्होंने भी राहत की सांस ली. कुछ समय से वे भी अपराधबोध महसूस कर रहे थे.

सुदीप के आगोश में साक्षी सुबक रही थी, ‘‘सुदीप, मुझे माफ कर दो…अपनी हरकतों के लिए मैं शर्मिंदा हूं… क्या सचमुच तुम दूसरी शादी करने वाले थे…’’

‘‘पगली, बस, इतना ही मुझे समझ सकीं? काफी सोचविचार के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि एक करारा झटका ही तुम्हारा विवेक जगा सकता है, तुम्हारी लापरवाही, अपरिपक्वता को गंभीरता में बदल सकता है, अपनी गलती का एहसास करा सकता है. मैं जानता था तुम्हें वैवाहिक विज्ञापन पढ़ने का बहुत शौक है. बस, इसी का फायदा उठा कर मैं ने यह चाल चली. अगर इस में सफल न होता तो शायद सचमुच ही…’’

‘‘बस, आगे कुछ मत कहना,’’ साक्षी ने सुदीप के मुंह पर हाथ रख दिया, ‘‘सुबह का भूला शाम से पहले घर लौट आयाहै.’’

सुदीप ने उसे आलिंगनबद्ध कर आंखें बंद कर लीं. मानो पिछले 3 वर्ष के समय को दुस्वप्न की तरह भूल जाने का प्रयास कर रहा हो.

बंद किताब : अभिषेक की चाहत

‘‘तुम…’’

‘‘मुझे अभिषेक कहते हैं.’’

‘‘कैसे आए?’’

‘‘मुझे एक बीमारी है.’’

‘‘कैसी बीमारी?’’

‘‘पहले भीतर आने को तो कहो.’’

‘‘आओ, अब बताओ कैसी बीमारी?’’

‘‘किसी को मुसीबत में देख कर मैं अपनेआप को रोक नहीं पाता.’’

‘‘मैं तो किसी मुसीबत में नहीं हूं.’’

‘‘क्या तुम्हारे पति बीमार नहीं हैं?’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’

‘‘मैं अस्पताल में बतौर कंपाउंडर काम करता हूं.’’

‘‘मैं ने तो उन्हें प्राइवेट नर्सिंग होम में दिखाया था.’’

‘‘वह बात भी मैं जानता हूं.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘तुम ने सर्जन राजेश से अपने पति को दिखाया था न?’’

‘‘हां.’’

‘‘उन्होंने तुम्हारी मदद करने के लिए मुझे फोन किया था.’’

‘‘तुम्हें क्यों?’’

‘‘उन्हें मेरी काबिलीयत और ईमानदारी पर भरोसा है. वे हर केस में मुझे ही बुलाते हैं.’’

‘‘खैर, तुम असली बात पर आओ.’’

‘‘मैं यह कहने आया था कि यही मौका है, जब तुम अपने पति से छुटकारा पा सकती हो.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘बनो मत. मैं ने जोकुछ कहा है, वह तुम्हारे ही मन की बात है. तुम्हारी उम्र इस समय 30 साल से ज्यादा नहीं है, जबकि तुम्हारे पति 60 से ऊपर के हैं. औरत को सिर्फ दौलत ही नहीं चाहिए, उस की कुछ जिस्मानी जरूरतें भी होती हैं, जो तुम्हारे बूढ़े प्रोफैसर कभी पूरी नहीं कर सके.

‘‘10 साल पहले किन हालात में तुम्हारी शादी हुई थी, वह भी मैं जानता हूं. उस समय तुम 20 साल की थीं और प्रोफैसर साहब 50 के थे. शादी से ले कर आज तक मैं ने तुम्हारी आंखों में खुशी नहीं देखी है. तुम्हारी हर मुसकराहट में मजबूरी होती है.’’

‘‘वह तो अपनाअपना नसीब है.’’

‘‘देखो, नसीब, किस्मत, भाग्य का कोई मतलब नहीं होता. 2 विश्व युद्ध हुए, जिन में करोड़ों आदमी मार दिए गए. इस देश ने 4 युद्ध झेले हैं. उन में भी लाखों लोग मारे गए. बंगलादेश की आजादी की लड़ाई में 20 लाख बेगुनाह लोगों की हत्याएं हुईं. क्या यह मान लिया जाए कि सब की किस्मत

खराब थी?

‘‘उन में से हजारों तो भगवान पर भरोसा करने वाले भी होंगे, लेकिन कोई भगवान या खुदा उन्हें बचाने नहीं आया. इसलिए इन बातों को भूल जाओ. ये बातें सिर्फ कहने और सुनने में अच्छी लगती हैं. मैं सिर्फ 25 हजार रुपए लूंगा और बड़ी सफाई से तुम्हारे बूढ़े पति को रास्ते से हटा दूंगा.’’

अभिषेक की बातें सुन कर रत्ना चीख पड़ी, ‘‘चले जाओ यहां से. दोबारा अपना मुंह मत दिखाना. तुम ने यह कैसे सोच लिया कि मैं इतनी नीचता पर उतर आऊंगी?’’

‘‘अभी जाता हूं, लेकिन 2 दिन के बाद फिर आऊंगा. शायद तब तक मेरी बात तुम्हारी समझ में आ जाए,’’ इतना कह कर अभिषेक लौट गया.

रत्ना अपने बैडरूम में जा कर फफकफफक कर रोने लगी. अभिषेक ने जोकुछ कहा था, वह बिलकुल सही था.

रत्ना को ताज्जुब हो रहा था कि वह उस के बारे में इतनी सारी बातें कैसे जानता था. हो सकता है कि उस का कोई दोस्त रत्ना के कालेज में पढ़ता रहा हो, क्योंकि वह तो रत्ना के साथ कालेज में था नहीं. वह उस की कालोनी में भी नहीं रहता था.

रत्ना के पति बीमारी के पहले रोज सुबह टहलने जाया करते थे. हो सकता है कि अभिषेक भी उन के साथ टहलने जाता रहा हो. वहीं उस का उस के पति से परिचय हुआ हो और उन्होंने ही ये सारी बातें उसे बता दी हों. उस के लिए अभिषेक इतना बड़ा जोखिम क्यों उठाना चाहता है. आखिर यह तो एक तरह की हत्या ही हुई. बात खुल भी सकती है. कहीं अभिषेक का यह पेशा तो नहीं है? बेमेल शादी केवल उसी की तो नहीं हुई है. इस तरह के बहुत सारे मामले हैं. अभिषेक के चेहरे से तो ऐसा नहीं लगता कि वह अपराधी किस्म का आदमी है. कहीं उस के दिल में उस के लिए प्यार तो नहीं पैदा हो गया है.

रत्ना को किसी भी तरह के सुख की कमी नहीं थी. प्रोफैसर साहब अच्छीखासी तनख्वाह पाते थे. उस के लिए काफीकुछ कर रखा था. 5 कमरों का मकान, 3 लाख के जेवर, 5 लाख बैंक बैलेंस, सबकुछ उस के हाथ में था. 50 हजार रुपए सालाना तो प्रोफैसर साहब की किताबों की रौयल्टी आती थी. इन सब बातों के बावजूद रत्ना को जिस्मानी सुख कभी नहीं मिल सका. प्रोफैसर साहब की पहली बीवी बिना किसी बालबच्चे के मरी थी. रत्ना को भी कोई बच्चा नहीं था. कसबाई माहौल में पलीबढ़ी रत्ना पति को मारने का कलंक अपने सिर लेने की हिम्मत नहीं कर सकती थी.

रत्ना ने अभिषेक से चले जाने के लिए कह तो दिया था, लेकिन बाद में उसे लगने लगा था कि उस की बात को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता था. रत्ना अपनेआप को तोलने लगी थी कि 2 दिन के बाद अभिषेक आएगा, तो वह उस को क्या जवाब देगी. इस योजना में शामिल होने की उस की हिम्मत नहीं हो पा रही थी.

अभिषेक अपने वादे के मुताबिक 2 दिन बाद आया. इस बार रत्ना उसे चले जाने को नहीं कह सकी. उस की आवाज में पहले वाली कठोरता भी नहीं थी. रत्ना को देखते ही अभिषेक मुसकराया, ‘‘हां बताओ, तुम ने क्या सोचा?’’

‘‘कहीं बात खुल गई तो…’’

‘‘वह सब मेरे ऊपर छोड़ दो. मैं सारी बातें इतनी खूबसूरती के साथ करूंगा कि किसी को भी पता नहीं चलेगा. हां, इस काम के लिए 10 हजार रुपए बतौर पेशगी देनी होगी. यह मत समझो कि यह मेरा पेशा है. मैं यह सब तुम्हारे लिए करूंगा.’’

‘‘मेरे लिए क्यों?’’

‘‘सही बात यह है कि मैं तुम्हें  पिछले 15 साल से जानता हूं. तुम्हारे पिता ने मुझे प्राइमरी स्कूल में पढ़ाया था. मैं जानता हूं कि किन मजबूरियों में गुरुजी ने तुम्हारी शादी इस बूढ़े प्रोफैसर से की थी.’’

‘‘मेरी इज्जत तो इन्हीं की वजह से है. इन के न रहने पर तो मैं बिलकुल अकेली हो जाऊंगी.’’

‘‘जब से तुम्हारी शादी हुई है, तभी से तुम अकेली हो गई रत्ना, और आज तक अकेली हो.’’

‘‘मुझे भीतर से बहुत डर लग रहा है.’’

‘‘तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है. अगर भेद खुल भी जाता है, तो मैं सबकुछ अपने ऊपर ले लूंगा, तुम्हारा नाम कहीं भी नहीं आने पाएगा. मैं तुम्हें सुखी देखना चाहता हूं रत्ना. मेरा और कोई दूसरा मकसद नहीं है.’’

‘‘तो ठीक है, तुम्हें पेशगी के रुपए मिल जाएंगे,’’ कह कर रत्ना भीतर गई और 10 हजार रुपए की एक गड्डी ला कर अभिषेक के हाथों पर रख दी. रुपए ले कर अभिषेक वापस लौट गया.

तय समय पर रत्ना के पति को नर्सिंग होम में भरती करवा दिया गया. सभी तरह की जांच होने के बाद प्रोफैसर साहब का आपरेशन किया गया, जो पूरी तरह से कामयाब रहा. बाद में उन्हें खून चढ़ाया जाना था. अभिषेक सर्जन राजेश की पूरी मदद करता रहा. डाक्टर साहब आपरेशन के बाद अपने बंगले पर चले गए थे. खून चढ़ाने वगैरह की सारी जिम्मेदारी अभिषेक पर थी. सारा इंतजाम कर के अभिषेक अपनी जगह पर आ कर बैठ गया था. रत्ना भी पास ही कुरसी पर बैठी हुई थी. अभिषेक ने उसे आराम करने को कह दिया था.

रत्ना ने आंखें मूंद ली थीं, पर उस के भीतर उथलपुथल मची हुई थी. उस का दिमाग तेजी से काम कर रहा था. दिमाग में अनेकअनेक तरह के विचार पैदा हो रहे थे. अभिषेक ड्रिप में बूंदबूंद गिर कर प्रोफैसर के शरीर में जाते हुए खून को देख रहा था. अचानक वह उठा. अब तक रात काफी गहरी हो गई थी. वह मरीज के पास आया और ड्रिप से शरीर में जाते हुए खून को तेज करना चाहा, ताकि प्रोफैसर का कमजोर दिल उसे बरदाश्त न कर सके. तभी अचानक रत्ना झटके से अपनी सीट से उठी और उस ने अभिषेक को वैसा करने से रोक दिया.

वह उसे ले कर एकांत में गई और फुसफुसा कर कहा, ‘‘तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे, रुपए भले ही अपने पास रख लो. मैं अपने पति को मौत के पहले मरते नहीं देख सकती. जैसे इतने साल उन के साथ गुजारे हैं, बाकी समय भी गुजर जाएगा.’’ अभिषेक ने उस की आंखों में झांका. थोड़ी देर तक वह चुप रहा, फिर बोला, ‘‘तुम बड़ी कमजोर हो रत्ना. तुम जैसी औरतों की यही कमजोरी है. जिंदगीभर घुटघुट कर मरती रहेंगी, पर उस से उबरने का कोई उपाय नहीं करेंगी. खैर, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ इतना कह कर अभिषेक ने पेशगी के रुपए उसे वापस कर दिए. इस के बाद वह आगे कहने लगा, ‘‘जिस बात को मैं ने इतने सालों से छिपा रखा था, आज उसे साफसाफ कहना पड़ रहा है.

‘‘रत्ना, जिस दिन मैं ने तुम्हें देखा था, उसी दिन से तुम्हें ले कर मेरे दिल में प्यार फूट पड़ा था, जो आज बढ़तेबढ़ते यहां तक पहुंच गया है. ‘‘इस बात को मैं कभी तुम से कह नहीं पाया. प्यार शादी में ही बदल जाए, ऐसा मैं ने कभी नहीं माना.

‘‘मैं उम्मीद में था कि तुम अपनी बेमेल शादी के खिलाफ एक न एक दिन बगावत करोगी. मेरी भावनाओं को खुदबखुद समझ जाओगी या मैं ही हिम्मत कर के तुम से अपनी बात कह दूंगा.

‘‘इसी जद्दोजेहद में मैं ने 15 साल गुजार दिए. आज तक मैं तुम्हारा ही इंतजार करता रहा. जब बरदाश्त की हद हो गई, तब मौका पा कर तुम्हारे पति को खत्म करने की योजना बना डाली. रुपए की बात मैं ने बीच में इसलिए रखी थी कि तुम मेरी भावनाओं को समझ न सको.

‘‘तुम ने इस घिनौने काम में मेरी मदद न कर मुझे एक अपराध से बचा लिया. वैसे, मैं तुम्हारे लिए जेल भी जाने को तैयार था, फांसी का फंदा भी चूमने को तैयार था.

‘‘मैं तुम्हें तिलतिल मरते हुए नहीं देख सकता था रत्ना, इसलिए मैं ने इतना बड़ा कदम उठाने का फैसला लिया था.’’

अपनी बात कह कर अभिषेक ने चुप्पी साध ली. रत्ना उसे एकटक देखती रह गई.

इंसाफ हम करेंगे :क्यो टूटा माही का दिल

माही बेहाल पड़ी थी. रहरह कर शरीर में दर्द उभर रहा था. पूरे शरीर पर मारपीट के निशान पड़ चुके थे. माही का पति निहाल सिंह शराब पीने के बाद बिलकुल जानवर बन जाता था, फिर तो उसे यह भी ध्यान नहीं रहता था कि उस के बच्चे अब बड़े हो चुके हैं. जब कभी उस की बेटी रूबी मां को बचाने आती तो वह भी पिट जाती.

2 दिन पहले जब निहाल सिंह शराब पी कर घर में गालियां देने लगा, तो माही ने उसे सम?ाया, ‘बस करो, अब खाना खा लो. सुबह काम पर भी जाना है.’

निहाल सिंह चीखते हुए बोला, ‘अब तुम रोकोगी मुझे. अभी बताता हूं तुझे,’ फिर तो उस का हाथ न थमा. आखिर रूबी दोनों के बीच में आ गई और उस का हाथ पकड़ कर झटकते हुए बोली, ‘पापा, अब बस कीजिए. गलती तो आप की है, मम्मी को क्यों मार रहे हो?’

इस के बाद रूबी ने मां को उठाया और दूसरे कमरे में ले गई. उस के जख्मों पर दवा लगाई और बोली, ‘मम्मी, बहुत हो गया अब. पापा नहीं सुधरेंगे.’

दर्द सहती माही बोली, ‘हां रूबी, मैं भी अब थक चुकी हूं. मुझे समझ में आ चुका है. अब मैं इन्हें कभी माफ नहीं करूंगी. तुम बुलाओ पुलिस को, अब मैं दूंगी इन के खिलाफ बयान.’

रूबी ने झूट से पुलिस का नंबर डायल किया और सारी घटना बता दी.

माही और निहाल सिंह की लव मैरिज हुई थी. घर वालों के खिलाफ जा कर माही ने निहाल सिंह का हाथ थामा था. दोनों भारत से यूरोप आ कर बस गए थे.

माही ने जब काम करना चाहा तो निहाल सिंह ने उस से कहा, ‘तुम घर संभालो, मैं बाहर संभालता हूं.’

कुछ समय तो बहुत अच्छा बीता, मगर धीरेधीरे माही को महसूस होने लगा कि निहाल सिंह का स्वभाव बदलता जा रहा है. काम से आते ही वह शराब पीने लग जाता. तब तक बच्चे भी हो चुके थे.

निहाल सिंह अब छोटीछोटी बातों में भी माही पर शक करने लगा था. जब कभी काम का लोड बढ़ जाता, वह झल्ला कर कहता, ‘मुझ से नहीं होता इतना काम, मैं नहीं उठा सकता इतना बोझ.’

अगर माही नौकरी करने को कहती, तो वह उसे पीटने लगता. बच्चे डरते हुए मां के पीछे छिप जाते थे. वह अब थोड़े बड़े भी हो गए थे. उन का स्कूल में दाखिला कराना जरूरी हो गया था. खर्चा बढ़ गया था, तो माही ने निहाल सिंह को किसी तरह नौकरी के लिए मना लिया. वह घर का सारा काम निबटा कर ही नौकरी पर जाती और वापस आते ही बच्चों और घर को देखती.

निहाल सिंह का मन करता तो माही को प्यार करता नहीं, तो आधी रात को उसे मारपीट कर कमरे से बाहर निकाल देता. इतना सबकुछ होने के बावजूद माही निहाल सिंह का पूरा ध्यान रखती. हर काम समय से करती. सुबह उठते ही सब से पहले उस का टिफिन तैयार करती. किसी तरह उस ने निहाल सिंह को मना कर बच्चों को साथ वाले बड़े शहरों में पढ़ने के लिए भेज दिया था, ताकि वे दोनों पढ़लिख कर अच्छी नौकरियों पर लग सकें.

1-2 बार ऐसे ही किसी बात पर गुस्सा हो कर निहाल सिंह ने माही को आधी रात में घर से बाहर निकाल दिया था. माही की मौसी का बेटा इसी शहर में रहता था. वह उसे फोन करती और वह उसे ले कर अपने घर चला जाता.

फिर उस ने माही को सम?ाया कि ऐसे तो यह कभी नहीं सुधरेगा, तुम कब तक इस की मारपीट बरदाश्त करोगी. उस ने खुद ही पुलिस में उस की रिपोर्ट लिखवा दी.

जब पुलिस निहाल सिंह को घर से उठा कर ले गई, तब माही डर गई और उस ने भाई को रिपोर्ट वापस लेने के लिए मना लिया. जब ऐसा 2-3 बार हुआ, तो वह भी पीछे हट गया.

माही को पता था कि निहाल सिंह गुस्सैल है, पर उस के बच्चों का पिता है. वह भले ही अब उसे पहले जैसा प्यार नहीं करता, मगर वह उस के लिए तो आज भी वही उस का प्यार है.

तभी एक दिन निहाल सिंह काम से आते वक्त अपने साथ एक जवान औरत को घर ले आया. माही ने उसे देखते ही निहाल सिंह से उस के बारे में पूछा कि यह कौन है तो उस ने बताया, ‘यह प्रीति है. इस का पति मेरे साथ काम करता था. ज्यादा शराब पीने से वह मर गया. मैं इस की मदद कर रहा हूं, क्योंकि उस के बीमा और पैंशन के बारे में इसे कुछ नहीं पता.’

माही भोली थी. वह बोली, ‘अच्छा है. आप इन की मदद कर रहे हो, वरना कौन बेगाने देश में किसी की मदद करता है.’

अब तो जब भी प्रीति का फोन आता, निहाल सिंह भागाभागा उस के पास पहुंच जाता.

एक दिन माही काम से जल्दी लौट आई, तो घर का दरवाजा खोलते ही बैडरूम से किसी के हंसने की आवाज आई. अंदर अंधेरा था. बिजली का स्विच औन करते ही माही की आंखें खुली रह गईं, जब उस ने उन दोनों को बैड पर देखा. शर्मिंदा होने के बजाय वे दोनों हंसने लगे. इस के बाद तो उस के सामने ही सबकुछ चलने लगा.

माही का दिल टूट चुका था. उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वह उसे इस तरह धोखा देगा.

एक दिन माही को पास बिठा कर निहाल सिंह बोला, ‘तू हां करे, तो मैं इसे भी साथ रख लूं.’ माही चुप रही. उस ने पक्का मन बना लिया कि अब वह उस के साथ नहीं रहेगी.

बच्चे पढ़लिख कर अब अच्छी नौकरियों पर लग चुके थे. सिर्फ छुट्टियों में ही घर आते थे. वह मां को अपने साथ चलने को कहते, मगर वह जानती थी कि निहाल सिंह बीमारी का शिकार है. उस के खानेपीने का ध्यान उस ने ही रखना है, इसलिए वह सबकुछ बरदाश्त कर के भी उसी के साथ रह रही थी.

आजकल छुट्टियों में रूबी घर आई हुई थी. कल की हुई मारपीट के बाद माही ने रूबी को निहाल सिंह और प्रीति के संबंधों के बारे में भी बता दिया.

रूबी को अपने पिता पर बहुत गुस्सा आ रहा था. उस ने अपने पिता के खिलाफ रिपोर्ट लिखवा दी थी.

थोड़ी ही देर में पुलिस आ गई. रूबी और माही ने बयान दे दिया. माही की चोटें उस के साथ हुए जुल्म की साफ गवाही दे रही थी. माही ने यह भी बताया कि जब वह पेट से थी तो निहाल सिंह ने उसे बहुत बार पीटा था. रिपोर्ट को मजबूत बनाने के लिए पुलिस ने माही की चोटों के फोटो भी खींच कर साथ लगा दिए.

पुलिस निहाल सिंह को साथ ले गई. वहां 2 दिन उसे हिरासत में रखा. फिर उस को चेतावनी दे कर छोड़ दिया गया कि वह माही के आसपास भी नहीं फटकेगा. अगर उस ने माही को तंग किया, तो उस पर कार्यवाही की जाएगी और 2 साल की जेल भी हो सकती है. उसे एक अलग घर में रहने के लिए कहा गया.

निहाल सिंह फोन कर के बारबार माही से माफी मांगने लगा. उसे पता था, माही का दिल पिघल जाता है. वह उसे अब भी प्यार करती है. मगर रूबी ने मां को साफसाफ कह दिया, ‘मम्मी इस बार अगर तुम ने पापा को माफ किया, तो मैं कभी आप से बात नहीं करूंगी.’

माही ने निहाल सिंह का फोन उठाना भी बंद कर दिया. रूबी पिता को फोन पर धमकी देते हुए बोली, ‘आज के बाद अगर आप ने मम्मी को फोन किया, तो पुलिस आप को 2 साल के लिए जेल में डाल देगी.

‘मम्मी अब अकेली नहीं हैं. आज तक जो आप ने उन के साथ किया, उस के लिए हम तीनों आप से कोई रिश्ता नहीं रखेंगे. आज तक जो बेइज्जती मम्मी की हुई है, उस की सजा तो आप को भुगतनी पड़ेगी. मम्मी को उन के बच्चे इंसाफ दिलवाएंगे.’

पहले निहाल सिंह गिड़गिड़ाया, फिर बेशर्मी से बोला, ‘मैं भी तुम लोगों से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता. आज तक मैं ने तुम दोनों की पढ़ाई पर जो खर्चा किया वह मुझे वापस चाहिए.’

यह सुनते ही रूबी की आंखों में आंसू आ गए, उस का पिता इतना गिर सकता है उस ने कभी नहीं सोचा था, मगर फिर भी वह हिम्मत कर अपने आंसुओं को साफ करते हुए बोली, ‘पापा, कोई बात नहीं. हमारी नौकरी लग चुकी है. हम दोनों हर महीने आप को खर्चा भेज दिया करेंगे, पर अब मम्मी की और बेइज्जती बरदाश्त नहीं करेंगे,’ कहते हुए रूबी ने फोन रख दिया और माही को अपने गले से लगा लिया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें