वार पर वार : भाग 3

पिछले अंकों में आप ने पढ़ा था :

सरकारी नौकरी कर रही नमिता का बौस भूषण राज उसे पाना चाहता था. नमिता ने यह बात अपनी एक साथी प्रीति को बताई तो वह नमिता से बोली कि तुम्हें भी रुपएपैसे के साथसाथ जवानी का मजा उठाना चाहिए. यह सुन कर नमिता हैरान रह गई, लेकिन फिर नमिता ने सोचा कि क्यों न वह अपना ट्रांसफर कहीं और करा ले, पर इस बारे में भी भूषण राज को पता चल गया और मामला बिगड़ गया.

अब पढि़ए आगे…

प्रीति आगे बोली, ‘‘अगर तुम्हारी नौकरी बनी रहेगी तो सारी सुखसुविधाएं तुम्हारे कदमों में बिछी रहेंगी. तुम्हारी सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. अच्छे घर में शादी हो जाएगी. और क्या चाहिए तुम्हें?’’

नमिता की समझ में नहीं आया कि वह अपनी नौकरी कैसे बचा सकती थी? लेकिन पूछा नहीं… प्रीति खुद ही बताने लगी, ‘‘तुम नौकरी छोड़ दोगी तो दूसरी नौकरी जल्दी कहां मिलेगी? वह भी सरकारी नौकरी… प्राइवेट नौकरी भले ही मिल जाए.

‘‘पर, हर जगह एक ही से हालात हैं नमिता. इनसानरूपी मगरमच्छ हर जगह मुंह खोले जवान लड़कियों को निगलने के लिए तैयार रहते हैं. समझौता कर लो. किसी को पता भी नहीं चलेगा. सुख तुम्हारी झोली में भर जाएंगे और नौकरी भी बची रहेगी.’’

नमिता का शक सच में बदल गया. कई बार उसे लगता था कि प्रीति उसे किसी न किसी जाल में फंसाएगी… वह बौस भूषण राज की दलाल थी.

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उस ने प्रीति को गौर से देखा, तो वह हलके से मुसकराई. प्रीति बोली, ‘‘तुम अपने मन में कोई शक मत पालो. उस से तुम्हारी समस्या का समाधान नहीं होगा.

तुम मुझे भले ही बुरा समझो, पर इस में तुम्हारी ही भलाई है. सोचो, खूबसूरती और जवानी का क्या इस्तेमाल…?’’

नमिता अच्छी तरह समझ गई थी कि इस दुनिया में मर्द ही नहीं, बल्कि औरतें भी एकदूसरे की दुश्मन होती हैं. औरतें कब नागिन बन कर किसी को डस लें, पता ही नहीं चलता. उस ने एक कठोर फैसला किया.

प्रीति अभी तक नमिता के दिमाग की सफाई करने में जुटी हुई थी, ‘‘औरत और मर्द के संबंध में किसी का कुछ नहीं बिगड़ता, पर सुख दोनों को मिलता है… तुम ठीक से समझ रही हो न? जा कर एक बार बौस से माफी मांग लो. वे जैसा कहें, कर दो.’’

अब नमिता को किसी और प्रवचन की जरूरत नहीं थी. वह झटके से उठी और धीरेधीरे कदमों से बौस भूषण राज के चैंबर में चली गई. आज न तो उस के मन में डर था, न वह कांप रही थी. उस की आंखें भी झुकी हुई नहीं थीं. वह भूषण राज की आंखों में आंखें डाल कर देख रही थी.

पहले तो भूषण राज चौंका, फिर कुरसी से उठ कर बोला, ‘‘आओआओ, निम्मी. कैसी हो?’’ उस के मुंह से लार टपकने लगी थी.

‘‘मैं ठीक हूं सर…’’ नमिता ने सपाट लहजे में कहा, ‘‘मैं आप से माफी मांगने आई हूं, उस सब के लिए, जो अभी

तक हुआ है और उस सब के लिए, जो अभी तक नहीं हुआ, पर कभी भी हो सकता है.’’

नमिता का अंदाज ऐसा था, जैसे वह कह रही हो, ‘भूषण साहब, मैं आप को देखने आई हूं कि कितने खूंख्वार भेडि़ए हैं आप. किसी तरह आप औरत के शरीर को खाते हैं, नोंच कर या पूरा… चलिए दिखाइए अपनी ताकत.’

भेडि़ए की खुशी का ठिकाना न रहा. शिकार अपनेआप उस के जाल में फंस गया था. वह अपनी जगह से उठा और इस तरह अंगड़ाई ली, जैसे वह अच्छी तरह जानता था कि अब शिकार उस के पंजे से बच कर कहीं नहीं जा सकता. उसे अपनी चालों पर पूरा भरोसा था. वह धीरेधीरे मुसकराते हुए आगे बढ़ रहा था.

भेड़ को डर नहीं लग रहा था. वह सीधे तन कर खड़ी थी. भेडि़या नजदीक आ गया था, वह फिर भी नहीं डरी.

भेडि़या थोड़ा सहमा… इस भेड़ को आज क्या हो गया. वह उस के भयानक मुंह के तीखे दांतों और नुकीले पंजों से भी नहीं डर रही थी.

भेडि़या भेड़ को जिंदा निगलने की जल्दबाजी में था. भेड़ अगर तन कर खड़ी रही, उस से डर कर भागी नहीं, तो फिर शिकार करने का फायदा क्या?

भेडि़ए ने अपने नुकीले पंजे भेड़ के कंधे पर रखे और दर्दनाक हालत तक उस के नरम गोश्त में चुभाया, पर भेडि़ए को भेड़ के कंधे पत्थर के लगे. उस ने अपना चेहरा भेड़ के खूबसूरत लपलपाते चेहरे की तरफ बढ़ाया तो उसे लगा जैसे वह एक आग का गोला निगल रहा हो.

नमिता ने बालों को मादक झटका दे कर और छातियों को हलका उभार देते हुए कहा, ‘‘शाम को 7 बजे घर पर आइएगा. घर पर और कोई नहीं है. बस, मैं, आप और पूरी रात.’’

भूषण राज भौचक्का रह गया, पर उस का विवेक तो मर चुका था. वह समझ नहीं सकता था कि ऐसी लड़की जो इतने दिन से उस के हर प्रस्ताव को ठुकरा रही थी, अचानक कैसे बदल गई.

भूषण राज ने दिन कैसे बिताया, यह बताना आसान नहीं, पर नमिता आधे दिन की छुट्टी ले कर यह कह कर चली गई थी कि घर को ठीक करना है.

शाम 6 बजे से ही भूषण राज को बेचैनी होने लगी थी. फिर भी उस ने 7 बजाए. औफिस में नहाया, कपड़ों की 1-2 जोड़ी वह हमेशा अपनी दराज में रखता था. पत्नी को कहा कि देर रात तक मीटिंग चलेगी, वह सो जाए.

शबाब मिल रहा था तो शराब भी होनी चाहिए. 2 बोतलें खरीदीं. शायद नमिता भी पी ले तो रात पूरी मस्त हो जाए.

भूषण राज नमिता के बताए पते पर पहुंचा तो थोड़ा मन खट्टा हुआ. बेहद मिडिल क्लास इलाका था. छोटे मैले मकानों में एक संकरे जीने पर चढ़ कर पुराने से दरवाजे को खटखटाया.

दरवाजा नमिता ने ही खोला था. वह पूरी तरह सजीधजी थी. बढि़या मेकअप. पोशाक जो उस के बदन को ढक कम रही थी, दिखा ज्यादा रही थी. घर में खुशबू फैली थी. रोशनी केवल मोमबत्तियों की थी या 2 टेबल लैंपों की.

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नमिता ने उसे बांहों में जकड़ लिया. इसी का तो इंतजार वह महीनों से कर रहा था.

‘‘आज तो बड़े स्मार्ट लग रहे हो सर,’’ कहते हुए वह उसे सोफे पर ले गई. सामने मेज पर खाने का सामान और कई गिलास थे. शायद नमिता जान गई थी, भूषण राज क्या चीज है. उस ने उस के हाथ से बोतलें लीं और कहा कि लाइए, इन्हें मैं फ्रिज में रख दूं.

‘यह कबूतरी तो खुद ही शिकारी के तीर तेज कर रही है…’ भूषण राज ने सोचा. उसे अपने पर गर्व हुआ. है ही वह ताकतवर. कौन चिडि़या है जो उस के जाल से निकल सकती है.

नमिता ने सोफे पर बैठा कर कहा, ‘‘सर, आप कपड़े तो उतारिए, मैं अभी आई.’’

भूषण राज तो सब सावधानियां छोड़ कर कपड़े उतारने लगा और सोफे पर आराम से पसर गया. फिर तसल्ली से खाना ठूंसा? नमिता शायद नहा रही थी.

‘आज तो मजा आ जाएगा… ऐसा सुख तो उसे कभी न मिला था.’

तभी दरवाजे पर खटखट हुई. भूषण राज ने सोचा, ‘कौन हो सकता है इस समय? नमिता ने तो कहा था कि वह अकेली है?’

बिना कपड़ों के किसी के घर में आ जाने पर क्या हो सकता है, वह जान सकता था. पर इस से पहले कि वह कुछ कहता, नमिता दूसरे कमरे से तकरीबन भागती हुई आई और दरवाजा खोल डाला.

बाहर पूरा स्टाफ खड़ा था. कुछ लोग कैमरे भी लिए थे.

‘हैप्पी बर्थडे नमिता’ की आवाज गूंजी और 10-15 लोग कमरे में घुस गए.

भूषण राज फटीफटी आंखों से देख रहा था. उस ने अपने कपड़े उठाने चाहे थे कि नमिता ने झपट कर छीन लिए.

उस के बाद बहुतकुछ हुआ. बहुत सारे फोटो ले लिए गए. भूषण राज की पत्नी को बुला लिया गया. नमिता को ट्रांसफर करने का आदेश पास हो गया. छोटे से घर में हंगामा हो गया. नमिता के घर वाले भी उसी समय पहुंच गए थे.

अब नमिता शान से काम कर रही थी उसी दफ्तर में. भूषण राज ने इस्तीफा दे दिया था और वह शहर बदल कर जा चुका था.

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नमिता की हिम्मत और आंखों की अनोखी चमक ने भूषण राज के सारे हौसलों को मात कर दिया. उस को अपने जाल में फंसाने के लिए भूषण राज ने न जाने कितने जतन किए थे, पर अब वह उस के फंदे में आ कर फंस गया था.

वार पर वार : भाग 2

पिछले अंक में आप ने पढ़ा था :

सरकारी नौकरी कर रही नमिता का बौस भूषण राज उसे पाना चाहता था. नमिता ने यह बात अपनी एक साथी प्रीति को बताई कि भूषण राज केबिन में बुला कर उसे यहांवहां छूता है. प्रीति ने पहले तो गुस्सा दिखाया पर कुछ दिनों बाद वह नमिता से बोली कि तुम्हें भी रुपएपैसे के साथसाथ जवानी का मजा उठाना चाहिए. यह सुन कर नमिता हैरान रह गई.

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प्रीति ने तुरंत एतराज किया, ‘‘नहींनहीं, मेरा यह मतलब नहीं… मैं एक आम बात कह रही थी. तुम्हारे जैसी लड़कियां आजकल कहां मिलती हैं. आज बाहर की दुनिया में इतनी चमक है और पैसों की इतनी खनक है कि इस सब के लिए कोई भी लड़की अपनी इज्जत बेचने के लिए आमादा रहती है.

‘‘तुम बुरा मत मानो, मैं सच कहती हूं, आजकल की पढ़ीलिखी लड़कियों के लिए कुंआरापन बेकार का शब्द है. मौजमस्ती करना, ढेर सारा रुपया कमाना, चाहे जिस रास्ते से और समाज में एक हैसियत बनाना उन का मकसद होता है.’’

‘‘मैं क्या करूं?’’ नमिता ने अपने हाथ मलते हुए पूछा.

प्रीति मुसकराते हुए बोली, ‘‘हताश होने की जरूरत नहीं है, कुदरत किसी को भी इतना कमजोर नहीं बनाती कि उस के जिंदा रहने के सारे रास्ते बंद कर दे. जो उम्मीद का दामन उलट हालात में भी थामे रहते हैं, वे अपना लक्ष्य जरूर हासिल करते हैं.’’

प्रीति की बातों से नमिता को भले ही कोई राहत न मिली हो, पर बाद में उस ने जो सलाह दी, उस से नमिता को धुंधले अंधेरे में रोशनी की किरण दिखाई देने लगी. फिर भी एक डर बना रहा.

नमिता ने पूछा, ‘‘अगर मैं तबादले की अर्जी देती हूं तो उसे औफिस में ही देना पड़ेगा न? तब यह बौस का बच्चा क्यों उसे आगे भेजेगा?’’

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‘‘बात तो तुम्हारी सही है, पर एक रास्ता फिर भी है. अर्जी की एक प्रति हम रजिस्टर्ड डाक से सीधे डायरैक्टर को भेज सकते हैं. दूसरी प्रति प्रौपर चैनल के जरीए भेजने के लिए औफिस में देंगे. झक मार कर उसे हैडर्क्वाटर भेजना पड़ेगा,’’ प्रीति ने बताया.

उन दोनों ने बहुत सोचसमझ कर एकएक शब्द चुन कर तबादले की अर्जी बनाई. एक प्रति डाक से हैडक्वार्टर भेज दी. हालांकि वह दिल्ली में ही था. दूसरी प्रति उसी दिन उस ने औफिस में जमा कर दी… धड़कते दिल से कि जब उस की अर्जी भूषण राज के सामने होगी तो वह क्या सोचेगा? क्या वह भड़क उठेगा और उसे बुला कर अनापशनाप कुछ सुनाएगा या फिर शांत रह कर कोई ऐसी चाल चलेगा कि नमिता धराशायी हो जाएगी और उस की उम्मीदों पर पानी फिर जाएगा?

उस दिन नमिता बहुत बेचैन रही. औफिस के साथियों से बातें करती थी, पर मन कहीं और अटका हुआ था. न उस के दिल की धड़कन की रफ्तार कम हो रही थी, न उस की बेचैनी. रहरह कर मन भूषण राज के इर्दगिर्द ही घूमने लगता था.

दुष्ट आदमी चाहे ऊपर से कितना ही मीठा दिखाई देता हो, प्यारीप्यारी बातें करता हो, पर अपनी दुष्टता से कभी बाज नहीं आता.

नमिता की अर्जी को देखते ही भूषण राज की नसों में खून की जगह आग बहने लगी. थोड़ी देर बाद ही उस ने नमिता को अपने चैंबर में बुलाया. वह डरतीकांपती उस के सामने पहुंची…

अपनी नजरों से नमिता के सारे बदन को नंगा करता हुआ वह बोला, ‘‘तो उड़ने का ख्वाब देख रही हो…’’

डर के मारे नमिता अपनी आंखें नहीं उठा पा रही थी.

‘‘तुम यह अवार्ड देने से पहले यह क्यों भूल गई कि तुम्हारी हालत पिंजरे में कैद पंछी की तरह है. बाज तुम्हारी रखवाली कर रहा है. पिंजरे का दरवाजा खुल भी जाएगा तो बाज की तेज निगाहों और उस की तेज रफ्तार से खुद को कैसे बचा पाओगी?’’

नमिता की रूह कांप कर रह गई. उस की आंखों के सामने अंधेरा सा छाता जा रहा था. उस की समझ में कुछ नहीं आया तो लरजती आवाज में उस ने दया की भीख मांगी, ‘‘मैं आप की बेटी जैसी हूं, मुझ पर दया कीजिए.’’

‘‘दया… क्या तुम मुझ पर दया कर सकती हो? बोलो, तुम भी एक लड़की हो, तुम्हारे पास भी भावनाएं हैं. क्या तुम मेरे दिल का हाल नहीं समझ सकती? तुम अपनी थोड़ी सी दया और प्यार की एक छोटी बूंद मेरे ऊपर टपका दो, फिर देखो, मैं तुम्हारे ऊपर दया की इतनी बारिश करूंगा कि तुम्हारी जिंदगी बदल जाएगी. बोलो, मंजूर है?’’ कह कर वह हंसा.

नमिता के पास उस की बात का कोई जवाब नहीं था. वह चुपचाप उस के चैंबर से बाहर निकल आई.

नमिता को हैडक्वार्टर में बैठे अफसरों पर पूरा भरोसा था. वहां के सारे अफसर पत्थरदिल नहीं हो सकते थे. संबंधित अफसर उस की अर्जी पर जरूर विचार करेंगे.

कई दिन बीत गए. नमिता की चिंता बढ़ती जा रही थी. वह औफिस का काम भी ढंग से नहीं कर पाती थी. भूषण राज उस की हालत को समझ रहा था. नमिता अभी मर्यादा की बाढ़ में बह रही थी. वह जानता था कि बाढ़ का पानी एक न एक दिन कम जरूर होगा.

नमिता की परेशानी के मद्देनजर भूषण राज ने उसे एक दिन समझाते हुए कहा, ‘‘क्यों अपनी जान सुखा रही हो तुम? कंचन काया को पत्थर मत बनाओ. मेरा कहना मान लो, तुम्हारा कुछ बिगड़ेगा नहीं…’’

नमिता फिर भी नहीं समझी. वह समझ कर भी नहीं समझना चाहती थी.

एक महीने बाद नमिता को पता चला कि बौस ने उस की अर्जी को हैडक्वार्टर भेज तो दिया है, लेकिन नोट में जोकुछ लिखा है, उसे सुन कर नमिता के पैरों तले जमीन ही खिसक गई. वह इनसान जो उस से प्यार करने का दावा करता था, उस के शरीर को भोगना चाहता था, बौस के मन में उस के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने और उसे पूरी तरह से बरबाद कर देने के लिए ये विचार किस तरह आए होंगे, यह नमिता की समझ से परे था.

प्रीति ने फाइल देखने के बाद नमिता को बताया था कि बौस ने उस की अर्जी पर क्या नोट दिया था. नमिता के कानों में कुछ शब्द पड़े, कुछ नहीं… वह बेहोश सी हो गई थी…

बस इतना समझ में आया कि वह कामचोर थी, अपना काम ढंग से नहीं कर पाती थी. अंगरेजी अच्छी नहीं थी. स्टेनोग्राफर होने के बावजूद डिक्टेशन नहीं ले पाती थी. टाइपिंग में भी ढेर सारी गलतियां करती थी. उसे सुधारने और ढंग से काम करने के तमाम मौके मुहैया कराए गए, पर वह अपने काम में सुधार लाने के बजाय और ज्यादा लापरवाही बरतने लगी थी.

शायद वह किसी अनजान लड़के के प्यार में गिरफ्तार थी, जिस से हमेशा मोबाइल फोन पर बातें करती रहती थी.

बौस ने आगे अपने नोट में लिखा था कि समझाने के साथसाथ उसे काम में सुधार लाने के तरीके भी सुझाए गए थे, पर सारी कोशिशें नाकाम हो गईं और नमिता में जरूरी सुधार नहीं आने के बाद उसे चेतावनी दी जाने लगी, जिस से घबरा कर उस ने दूसरे दफ्तर में अपने तबादले के लिए अर्जी दे दी थी.

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नमिता की उम्मीद के सारे चिराग बुझ गए. दफ्तर के सारे साथियों की हमदर्दी उस के साथ थी, पर वे भी नमिता की तरह लाचार थे.

बौस के दुष्ट स्वभाव, गंदी हरकतों और भेडि़ए जैसी चालाकी से परिचित थे. उस ने बड़े अफसरों को अपनी मुट्ठी में कर रखा था. बेईमान था, पर अकेला सब माल हजम नहीं करता था. नियमित रूप से हैड औफिस जा कर अफसरों की सेवा करता रहता था. पैसे के बल पर सभी को उस ने अपने वश में कर रखा था. सालों से वह एक ही दफ्तर में जमा हुआ था. जिस के बारे में जो कुछ लिखता था, हैड औफिस के अफसर तुरंत उसे मान लेते थे.

नमिता के मामले में भी यही हुआ. एक हफ्ता भी नहीं बीता था कि हैड औफिस से नमिता की अर्जी का जवाब आ गया. उस के तबादले की अर्जी को खारिज करते हुए उस के खिलाफ विभागीय जांच शुरू कर दी गई थी और मजे की बात यह कि जांच अफसर भूषण राज को ही बनाया गया था.

नमिता इतनी थक चुकी थी कि वह बीमार रहने लगी थी. 2-3 दिनों तक वह औफिस नहीं आई. पर उस से क्या फायदा होगा? बीमारी के बहाने वह कितनी छुट्टी ले सकती थी. छुट्टी भी तो भूषण राज को ही मंजूर करनी थी. वह कोई और अड़ंगा लगा देता तो… नमिता के हाथ में क्या था? वह क्या कर सकती थी?

3 दिन तक छुट्टी पर रहने पर नमिता ने बहुतकुछ सोचा और बहुतकुछ समझने की कोशिश की. घर में किसी से बात नहीं की. पर क्या ज्यादतियों की कोई सीमा नहीं है… उस की भी कोई सीमा होगी. कोई किसी पर कितना जुल्म कर सकता है. हम जुल्म सहते चले जाते हैं, इसीलिए हमें और ज्यादा जुल्मों का सामना करना पड़ता है. अगर हम उस का मुकाबला डट कर करें तो शायद इस से छुटकारा मिल जाए. तुरंत नहीं तो थोड़े समय बाद…

जब नमिता 3 दिन बाद वापस दफ्तर आई तो खुश लग रही थी. मन को काफी हद तक उस ने काबू में कर लिया था. खुद को उस ने समझा लिया था कि चिंता करने से किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता था.

प्रीति ने नमिता को समझाया, ‘‘देखो नमिता, हालात अब गंभीर हो चुके हैं. भेडि़ए को ही अगर भेड़ की रखवाली के लिए नियुक्त किया जाए तो तुम समझ सकती हो कि भेड़ का क्या हश्र होगा. यहां तो भेडि़ए को भेड़ के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए कहा गया है.’’

‘‘तब…?’’ नमिता ने प्रीति से पूछा, शायद वह कोई राह बता सके. प्रीति पर वह बहुत ज्यादा यकीन करने लगी थी.

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‘‘समझदारी से काम लो नमिता… अगर तुम नौकरी छोड़ती हो या जांच के बाद तुम्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है तो दोनों में फर्क क्या है? दोनों हालात में तुम बेरोजगार हो जाओगी. तब तुम्हारे घर का सुखचैन, दो जून की रोटी, भाईबहनों की पढ़ाईलिखाई, तुम्हारी शादी, एक सुखभरी जिंदगी… सब खटाई में पड़ सकता है,’’ प्रीति बहुत धीरेधीरे उसे समझाने के अंदाज में बता रही थी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

परिवर्तन : शिव आखिर क्यों था शर्मिंदा

शेव बनाते हुए शिव सहाय ने एक उड़ती नजर पत्नी पर डाली. उसे उस का बेडौल शरीर और फैलता हुआ सा लगा. वह नौकरानी को धुले कपड़े अच्छी तरह निचोड़ कर सुखाने का आदेश दे रही थी. उस ने खुद अपनी साड़ी झाड़ कर बताई तो उस का थुलथुल शरीर बुरी तरह हिल गया, सांस फूलने से स्थिति और भी बदतर हो गई, और वह पास पड़ी कुरसी पर ढह सी गई.

क्या ढोल गले बांध दिया है उस के मांबाप ने. उस ने उस के जन्मदाताओं को मन ही मन धिक्कारा-क्या मेरी शादी ऐसी ही औरत से होनी थी, मूर्ख, बेडौल, भद्दी सी औरत. गोरी चमड़ी ही तो सबकुछ नहीं.
‘तुम क्या हो?’ वह दिन में कई बार पत्नी को ताने देता, बातबात में लताड़ता, ‘जरा भी शऊर नहीं, घरद्वार कैसे सजातेसंवारते हैं? साथ ले जाने के काबिल तो हो ही नहीं. जबतब दोस्तयार घर आते हैं तो कैसी शर्मिंदगी उठानी पड़ती है.’

जब देखो सिरदर्द, माथे पर जकड़ कर बांधा कपड़ा, सूखे गाल और भूरी आंखें. उस के प्रति शिव सहाय की घृणा कुछ और बढ़ गई. उस ने सामने लगी कलाकृतियों को देखा.

वार्निश के डब्बों और ब्रशों पर सरसरी निगाह डाली. बिजली की फिटिंग के सामान को निहारा. कुछ देर में मिस्त्री, मैकेनिक सभी आ कर अपना काम शुरू कर देंगे. उस ने बेरहमी से घर की सभी पुरानी वस्तुओं को बदल कर एकांत के उपेक्षित स्थान में डलवा दिया था.

क्या इस औरत से भी छुटकारा पाया जा सकता है? मन में इस विचार के आते ही वह स्वयं सिहर उठा.

42 वर्ष की उम्र के करीब पहुंची उस की पत्नी कमला कई रोगों से घिर गई थी. दवादारू जान के साथ लगी थी. फिर भी वह उसे सब तरह से खुश रखने का प्रयत्न करती लेकिन उन्नति की ऊंचाइयों को छूता उस का पति उसे प्रताडि़त करने में कसर नहीं छोड़ता. अपनी कम्मो (कमला) के हर काम में उसे फूहड़पन नजर आता. सोचता, ‘क्या मिला इस से, 2 बेटियां थीं जो अब अपना घरबार बसा चुकी हैं. बाढ़ के पानी की तरह बढ़ती दौलत किस काम आएगी? 58 वर्ष की उम्र में वह आज भी कितना दिलकश और चुस्तदुरुस्त है.

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कुरसी पर निढाल सी हांफती पड़ी पत्नी के रंगे बाल धूप में एकदम लाल दिखाई दे रहे थे. वह झल्लाता हुआ बाथरूम में घुस गया और देर तक लंबे टब में पड़ा रहा. पानी में गुलाब की पंखडि़यां तैर रही थीं. हलके गरम, खुशबूदार पानी में निश्चल पड़े रहना उस का शौक था.

कमला उस के हावभाव से समझ गई कि वह खफा है. उस ने खुद को संभाला और कमरे में आ कर दवा की पुडि़या मुंह में डाल ली.

बड़ी बेटी का बच्चा वैभव, उस ने अपने पास ही रख लिया था. बस, उस ने अपने इस लाड़ले के बचपन में अपने को जैसे डुबो लिया था. नहीं तो नौकरों से सहेजी इस आलीशान कोठी में उस की राहत के लिए क्या था? ढाई दशकों से अधिक समय से पत्नी के लिए, धनदौलत का गुलाम पति निरंतर अजनबी होता गया था. क्या यह यों ही आ गई? 18 वर्ष की मोहिनी सी गोलमटोल कमला जब ससुराल में आई थी तो क्या था यहां?

तीनमंजिले पर किराए का एक कमरा, एक बालकनी और थोड़ी सी खुली जगह थी. ससुर शादी के 2 वर्षों पहले ही दिवंगत हो चुके थे. घर में थीं जोड़ों के दर्द से पीडि़त वृद्धा सास और 2 छोटी ननदें.
पिता की घड़ीसाजी की छोटी सी दुकान थी, जो पिता के बाद शिव सहाय को संभालनी पड़ी, जिस में मामूली सी आय थी और खर्च लंबेचौड़े थे. उस लंबे से कमरे में एक ओर टीन की छत वाली छोटी सी रसोई थी.

दूसरी ओर, एक किनारे परदा डाल कर नवदंपती के लिए जगह बनाई गई थी. पीछे की ओर एक अलमारी और एक दीवारघड़ी थी. यही था उस का सामान रखने का स्थान. दिन में परदा हटा दिया जाता. शैय्या पर ननदें उछलतीकूदती अपनी भाभी का तेलफुलेल इस्तेमाल करने की फिराक में रहतीं.
कमला मुंहअंधेरे रसोई में जुट जाती. बच्चों को स्कूल जाना होता था, और पति को दुकान. जल्दी ही वह भी एक प्यारी सी बच्ची की मां बन गई

शुरू में शिव सहाय अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था. उसे लगता, उस की उजलीगुलाबी आभा लिए पत्नी कम्मो गृहस्थी की चक्की में पिसती हुई बेहद कमजोर और धूमिल होती जा रही है. रात को वह उस के लिए कभी रबड़ी ले आता तो कभी खोए की मिठाई.
कमला का आगमन इस परिवार के लिए समृद्धि लाने वाला सिद्ध हुआ. दुकान की सीमित आय धीरेधीरे बढ़ने लगी.

कमला ने पति को सलाह दी कि वह दुकान में बेचने के लिए नई घडि़यां भी रखे, केवल पुरानी घडि़यों की मरम्मत करना ही काफी नहीं है. चुपके से उस ने पति को अपने कड़े और गले की जंजीर बेचने के लिए दे दीं ताकि वह नई घडि़यां ला सके. इस से उस की आय बढ़ने लगी. काम चल निकला.

किसी कारण से पास का दुकानदार अपनी दुकान और जमीन का एक टुकड़ा उस के हाथों सस्ते दामों में बेच कर चला गया. दुकान के बीच का पार्टीशन निकल जाने से दुकान बड़ी हो गई. उस की विश्वसनीयता और ख्याति तेजी से बढ़ी. घड़ी के ग्राहक दूरपास से उस की दुकान पर आने लगे. मौडर्न वाच शौप का नाम शहर में नामीगिरामी हो गया.

मौडर्न वाच शौप से अब उसे मौडर्न वौच कंपनी बनाने की धुन सवार हुई. उस के धन और प्रयत्न से घड़ी बनाने का कारखाना खुला, बढि़या कारीगर आए. फिर बढ़ती आमदनी से घर का कायापलट हो गया. बढि़या कोठी, एंबेसेडर कारें और सभी आधुनिक साजोसामान.

बस पुरानी थी, तो पत्नी कमला. दौलत को वह अपने प्रयत्नों का प्रतिफल समझने लगा. लेकिन दिल के किसी कोने में उसे कमला के त्याग व सहयोग की याद भी उजागर हो जाती. अभावों की दुनिया में जीते उस के परिवार और उसे, आखिर इसी औरत ने तो संभाल लिया था. उस ने खुद भी क्याकुछ नहीं किया, घर सोनेचांदी से भर दिया है. इस बदहाल औरत के लिए रातदिन डाक्टर को फोन खटखटाते, मोटे बिल भरते खूबसूरत जिंदगी गंवा रहा है.

यदाकदा उस के मन में तूफान सा उठने लगता, वह अर्द्ध बीमार सी पत्नी पर गालियों की बौछार कर देता. कितनी सीधी और शांत औरत है. किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं. बस, एक मुसकान चिपकाए खाली सा चेहरा और उस की सुखसुविधाओं का ध्यान.

गृहस्थी की गाड़ी यों ही हिचकोले खाती चल रही थी. कभीकभी एक दुष्ट विचार उस के मन में गहरा जाता. काश, कोई अच्छी सी पत्नी आ सकती इस घर में. पर नई गृहस्थी बसाने की बात क्या सोची भी जा सकती है? वह नाना बन चुका है. नवासा 21 वर्ष का होने को आया. इंजीनियर बनने में कुल 2 साल ही तो शेष हैं. वही तो संभालेगा उस का फलताफूलता धंधा. रिश्ते के लिए अभी से लोग चक्कर लगाने लगे हैं. ऊपर की मंजिल उस के लिए तैयार कराई गई है, उस का एअरकंडीशंड बैडरूम और अनोखी साजसज्जा का ड्राइंगरूम. उस के लिए पत्नी के चुनाव के बारे में वह बहुत सजग है.

नाश्ते की मेज पर बैठा वह पत्नी से वैभव के संबंध के बारे में सलाहमशवरा करना चाहता था लेकिन आज वह और भी पुरानी व बीमार दिखाई दे रही थी. उस की मेज की दराज में अनेक फोटो और पत्र वैभव के संबंध में आए पड़े हैं. लेकिन क्या इस फूहड़ स्त्री से ऐसे नाजुक प्रसंग को छेड़ा जा सकता है?

वह कुछ देर तक चुप बैठा ब्रैड के स्लाइस का टुकड़ा कुतरता रहा. मन ही मन अपनेआप पर झुंझलाता रहा. न जाने क्यों व्यर्थ का आवेश उस की आदत बन चुकी है. उस की दरिद्रता के दिनों की साथी, उस की सहायिका ही नहीं, अर्द्धांगिनी भी, न जाने क्यों आज उस के लिए बेमानी हो चुकी है? कभीकभी अपनी सोच पर वह बेहद शर्मिंदा भी होता.

कमला को पति की भारी डाक देखने तक में कोई रुचि नहीं थी. नौकर गेट पर लगे लैटरबौक्स से डाक निकाल कर अपने साहब की मेज पर रख आता था. लेकिन आज नाश्ते के बाद बाहर टंगे झूले पर बैठी कमला ने पोस्टमैन से डाक ले कर झूले के हत्थे पर रख लिया.

2-3 मोटे लिफाफे झट से नीचे गिर पड़े. उस ने उन्हें उठाया तो उसे लगा लिफाफों में चिट्ठी के साथ फोटो भी हैं. सोचने लगी, किस के फोटो होंगे? उस ने उन्हें उलटापलटा, तो कम चिपका एक लिफाफा यों ही खुल गया. एक कमसिन सी लड़की की फोटो उस में से झांक रही थी. उस ने पत्र पढ़ा. वैभव के रिश्ते की बात लिखी थी. तो यह बात है, चुपचाप बहू लाने की योजना चल रही है. और उसे कानोंकान खबर तक नहीं.

क्या हूं मैं, केवल एक धाय मात्र? उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे. सदा से सब की झिड़कियां खाती आई हूं. पहले सास की सुनती रही. उन से डरडर कर जीती रही. यहां तक कि छोटी ननदें भी जो चाहतीं, कह लेती थीं. उसे सब की सहने की आदत पड़ गई है. उस की अपनी बेटियां भी उस की परवा नहीं करतीं और अब यह व्यक्ति, जो कहने को पति है, उसे निरंतर तिरस्कृत करता रहता है.

आखिर क्या दोष है उस का? कल घर में धेवते की बहू आएगी तो क्या समझेगी उसे? घर की मालकिन या कोने में पड़ी एक दासी? उस की दशा क्या होगी? उस की आज जो हालत है उस का जिम्मेदार कौन है? क्यों डरती है वह हर किसी से?

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उस के पति ने भी कभी उस के रूप की सराहना की थी. उसे प्यार से दुलराया था. छाती से चिपटा कर रातें बिताई थीं. अब वह एक खाली ढोल हो कर रह गई है.

साजसज्जा की सामग्री से अलमारियां भरी हैं. साडि़यों और सूटों से वार्डरोब भरे पड़े हैं. लेकिन इस बीमार थुलथुल देह पर कुछ सोहता ही नहीं.

कम्मो झूले से उठ खड़ी हुई और ड्रैसिंग मेज पर जा कर खुद को निहारने लगी. क्या इस देह में अब भी कुछ शेष है? उसे लगा, उस के अंदर से एक धीमी सी आवाज आ रही है, ‘कम्मो, अपनी स्थिति के लिए केवल तू ही जिम्मेदार है. तू अपने पति की उन्नति में सहायक बनी लेकिन उस की साथी नहीं बनी. वह ऊंचाइयां छूता गया और तू जमीन का जर्रा बनती गई. वह आधी रात को घर में घुसा, तू ने कभी पूछा तक नहीं. बस, उस के स्वागत में आंखें बिछाए रही.’

उस की इच्छा हुई वह भी आज गुलाब की पंखडि़यों में नहाए. उस ने बाथरूम के लंबे टब में गुलाब की पंखडि़यां भर दीं, गीजर औन कर दिया. गरम फुहारों से टब लबालब भर गया तो उस में जा कर लेटी रही. उस में से कुछ समय बाद निकली तो काफी हलका महसूस कर रही थी. आज उस ने अपनी मनपसंद साड़ी पहनी और हलका मेकअप किया.

अब वह जिएगी तो अपने लिए, कोई परवा करे या न करे. एक आत्मविश्वास से वह खिलने लगी थी. स्नान के बाद ऊपर जा कर धूप में जाने की इच्छा उस में प्रबल हो उठी, लेकिन एक अरसे से वह सीढि़यां नहीं चढ़ी थी. घर की ड्योढ़ी लांघती तो उस की सांस बेकाबू हो जाती है, फिर इतनी अधिक सीढि़यां कैसी चढ़ेगी? फिर भी, आज उसे स्वयं को रोक पाना असंभव था. उस ने धीरेधीरे 3-4 सीढि़यां चढ़ीं, तो सांस ऊपरनीचे होने लगी.

वह बैठ गई. सामान्य होने पर फिर चढ़ने लगी. कुछ समय बाद वह छत पर थी. नीले आसमान में सूर्य चमक रहा था. उसे अच्छा लगा. वह आराम से झुक कर सीधी हो सकती है. बिना कष्ट के उस ने आगेपीछे, फिर दाएंबाएं होने का यत्न किया तो एक लचक सी शरीर में दौड़ गई. तत्पश्चात थोड़ी देर बाद वह बिना किसी परेशानी के नीचे उतर आई.

रसोई में रसोइया खाना बनाने की तैयारी कर रहा था. कमला काफी समय से वहां नहीं झांकी थी. नंदू पूछता, ‘क्या बनेगा’ तो बेमन से कह देती, ‘साहब की पसंद तू जानता ही है.’ पुराना नौकर मालिकों की आदतें जान गया था. इसलिए बिना अधिक कुछ कहे वह उन के लिए विभिन्न व्यंजन बना लेता. समय पर नाश्ता और खाना डायनिंग टेबल पर पहुंच जाता. घी, मसालों में सराबोर सब्जियां, चावल, रायता, दाल, सलाद सभी कुछ. कमला तो बस 2-4 कौर ही मुंह में डालती थी, पर फिर भी काया फूलती ही गई. उस का यही बेडौल शरीर ही तो उसे पति से दूर कर गया है.

कमला नीचे आई तो रसोईघर में घुस गई. उसे आज स्वयं भोजन बनाने की इच्छा थी. कमला ने हरी सब्जियां छांट कर निकालीं, फिर स्वयं ही छीलकाट कर चूल्हे पर रख दीं. आज से वह उबली सब्जियां खाएगी.

शिव सहाय कुछ दिनों के लिए बाहर गया था. कमला एक तृप्ति और आजादी महसूस कर रही थी. आज की सी जीवनचर्या को वह लगातार अपनाने लगी. शारीरिक श्रम की गति और अधिक कर दी. उसे खुद ही समझ में नहीं आया कि अब तक उस ने न जाने क्यों शरीर के प्रति इतनी लापरवाही बरती और मन में क्यों एक उदासी ओढ़ ली.

शिव सहाय दौरे से वापस आया और बिना कमला की ओर ध्यान दिए अपने कामों में व्यस्त हो गया. पतिपत्नी में कईकई दिनों तक बातचीत तक नहीं होती थी.

शिव सहाय कामकाज के बाद ड्राइंगरूम की सामने वाली कुरसी पर आंख मूंद कर बैठा था. एकाएक निगाह उठी तो पाया, एक सुडौल नारी लौन में टहल रही है. उस का गौर पृष्ठभाग आकर्षक था. कौन है यह? चालढाल परिचित सी लगी. वह मुड़ी तो शिव सहाय आश्चर्य से निहारता रह गया. कमला में यह परिवर्तन, एक स्फूर्तिमय प्रौढ़ा नारी की गरिमा. वह उठ कर बाहर आया, बोला, ‘‘कम्मो, तुम हो, मैं तो समझा था…’’

कम्मो ने मुसकान बिखेरते हुए कहा, ‘‘क्या समझा आप ने कि कोई सुंदरी आप से मिलने के इंतजार में टहल रही है?’’

शिव सहाय ने बोलने का और मौका न दे कम्मो को अपनी ओर खींच कर सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी बहुत उपेक्षा की है मैं ने. पर यकीन करो, अब भूल कर भी ऐसा नहीं होगा. आखिर मेरी जीवनसहचरी हो तुम.’’ कम्मो का मन खुशी से बांसों उछल रहा था वर्षों बाद पति का वही पुराना रूप देख कर. वही प्यार पा कर उस ने निर्णय ले लिया कि अब इस शरीर को कभी बेडौल नहीं होने देगी, सजसंवर कर रहेगी और पति के दिल पर राज करेगी.

वैभव की शादी के लिए वधू का चयन दोनों की सहमति से हुआ. निमंत्रणपत्र रिश्तेदारों और परिचितों में बांटे गए. शादी की धूम निराली थी.

सज्जित कोठी से लंबेचौड़े शामियाने तक का मार्ग लहराती सुनहरी, रुपहली महराबों और रंगीन रोशनियों से चमचमा रहा था. स्टेज पर नाचरंग की महफिल जमी थी तो दूसरी ओर स्वादिष्ठ व्यंजनों की बहार थी. अतिथि मनपसंद पेय पदार्थों का आनंद ले कर आते और महफिल में शामिल हो जाते.

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आज कमला ने भी जम कर शृंगार किया था. वह अपने अनूठे सौंदर्य में अलग ही दमक रही थी. कीमती साड़ी और कंधे पर सुंदर पर्र्स लटकाए वह इष्टमित्रों की बधाई व सौगात ग्रहण कर रही थी. वह थिरकते कदमों से महफिल की ताल में ताल मिला रही थी.

लोगों ने शिव सहाय को भी साथ खींच लिया. फिर क्या था, दोनों की जोड़ी ने वैभव और नगीने सी दमकती नववधू को भी साथ ले लिया. अजब समां बंधा था. कल की उदास और मुरझाई कमला आज समृद्धि और स्वास्थ्य की लालिमा से भरपूर दिखाई दे रही थी. ऐसा लग रहा था मानो आज वह शिव सहाय के घर और हृदय पर राज करने वाली पत्नी ही नहीं, उस की स्वामिनी बन गई थी.

और सीता जीत गई

बीच में एक छोटी सी रात है और कल सुबह 10-11 बजे तक राकेश जमानत पर छूट कर आ जाएगा. झोंपड़ी में उस की पत्नी कविता लेटी हुई थी. पास में दोनों छोटी बेटियां बेसुध सो रही थीं. पूरे 22 महीने बाद राकेश जेल से छूट कर जमानत पर आने वाला है.

जितनी बार भी कविता राकेश से जेल में मिलने गई, पुलिस वालों ने हमेशा उस से पचाससौ रुपए की रिश्वत ली. वह राकेश के लिए बीड़ी, माचिस और कभीकभार नमकीन का पैकेट ले कर जाती, तो उसे देने के लिए पुलिस उस से अलग से रुपए वसूल करती.

ये 22 महीने कविता ने बड़ी परेशानियों के साथ गुजारे. अपराधियों की जिंदगी से यह सब जुड़ा होता है. वे अपराध करें चाहे न करें, पुलिस अपने नाम की खातिर कभी भी किसी को चोर, कभी डकैत बना देती है.

यह कोई आज की बात थोड़े ही है. कविता तो बचपन से देखती आ रही है. आंखें रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर खुली थीं, जहां उस के बापू कहीं से खानेपीने का इंतजाम कर के ला देते थे. अम्मां 3 पत्थर रख कर चूल्हा बना कर रोटियां बना देती थीं. कई बार तो रात के 2 बजे बापू अपनी पोटली को बांध कर अम्मां के साथ वह स्टेशन छोड़ कर कहीं दूसरी जगह चले जाते थे.

कविता जब थोड़ी बड़ी हुई, तो उसे मालूम पड़ा कि बापू चोरी कर के उस जगह से भाग लेते थे और क्यों न करते चोरी? एक तो कोई नौकरी नहीं, ऊपर से कोई मजदूरी पर नहीं रखता, कोई भरोसा नहीं करता. जमीन नहीं, फिर कैसे पेट पालें? जेब काटेंगे और चोरी करेंगे और क्या…

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लेकिन आखिर कब तक ऐसे ही सबकुछ करते रहने से जिंदगी चलेगी? अम्मां नाराज होती थीं, लेकिन कहीं कोई उपाय दिखलाई नहीं देता, तो वे भी बेबस हो जाती थीं.

शादीब्याह में वे महाराष्ट्र में जाते थे. वहां के पारधियों की जिंदगी देखते तो उन्हें लगता कि वे कितने बड़े नरक में जी रहे हैं.

कविता ने बापू से कहा भी था, ‘बापू, हम यहां औरंगाबाद में क्यों नहीं रह सकते?’

‘इसलिए नहीं रह सकते कि हमारे रिश्तेदार यहां कम वहां ज्यादा हैं और यहां की आबोहवा हमें रास नहीं आती,’ बापू ने कहा था.

लेकिन, शादी के 4-5 दिनों में खूब गोश्त खाने को मिलता था. बड़ी खुशबू वाली साबुन की टिकिया मिलती थी. कविता उसे 4-5 बार लगा कर खूब नहाती थी, फिर खुशबू का तेल भी मुफ्त में मिलता था. जिंदगी के ये 4-5 दिन बहुत अच्छे से कटते थे, फिर रेलवे स्टेशन पर भटकने को आ जाते थे.

इधर जंगल महकमे वालों ने पारधी जाति के फायदे के लिए काम शुरू किया था, वही बापू से जानकारी ले रहे थे, जिस के चलते शहर के पास एक छोटे से गांव टूराखापा में उस जाति के 3-4 परिवारों को बसा दिया गया था.

इसी के साथ एक स्कूल भी खोल दिया गया था. उन से कहा जाता था कि उन्हें शिकार नहीं करना है. वैसे भी शिकार कहां करते थे? कभी शादीब्याह में या मेहमानों के आने पर हिरन फंसा कर काट लेते थे, लेकिन वह भी कानून से अपराध हो गया था.

यहां कविता ने 5वीं जमात तक की पढ़ाई की थी. आगे की पढ़ाई के लिए उसे शहर जाना था.

बापू ने मना कर दिया था, ‘कौन तुझे लेने जाएगा?’

अम्मां ने कहा था, ‘औरत की इज्जत कच्ची मिट्टी के घड़े जैसी होती है. एक बार अगर टूट जाए, तो जुड़ती नहीं है.’

कविता को नहीं मालूम था कि यह मिट्टी का घड़ा उस के शरीर में कहां है, इसलिए 5 साल तक पढ़ कर घर पर ही बैठ गई थी. बापू दिल्ली या इंदौर से प्लास्टिक के फूल ले आते, अम्मां गुलदस्ता बनातीं और हम बेचने जाते थे. 10-20 रुपए की बिक्री हो जाती थी, लेकिन मौका देख कर बापू कुछ न कुछ उठा ही लाते थे. अम्मां निगरानी करती रहती थीं.

कविता भी कभीकभी मदद कर देती थी. एक बार वे शहर में थे, तब कहीं कोई बाबाजी का कार्यक्रम चल रहा था. उस जगह रामायण की कहानी पर चर्चा हो रही थी. कविता को यह कहानी सुनना बहुत पसंद था, लेकिन जब सीताजी की कोई बात चल रही थी कि उन्हें उन के घर वाले रामजी ने घर से निकाल दिया, तो वहां बाबाजी यह बतातेबताते रोने लगे थे. उस के भी आंसू आ गए थे, लेकिन अम्मां ने चुटकी काटी कि उठ जा, जो इशारा था कि यहां भी काम हो गया है.

बापू ने बैठेबैठे 2 पर्स निकाल लिए थे. वहां अब ज्यादा समय तक ठहर नहीं सकते थे, लेकिन कविता के कानों में अभी भी वही बाबाजी की कथा गूंज रही थी. उस की इच्छा हुई कि वह कल भी जाएगी. धंधा भी हो जाएगा और आगे की कहानी भी मालूम हो जाएगी.

बस, इसी तरह से जिंदगी चल रही थी. वह धीरेधीरे बड़ी हो रही थी. कानों में शादी की बातें सुनाई देने लगी थीं. शादी होती है, फिर बच्चे होते हैं. सबकुछ बहुत ही रोमांचक था, सुनना और सोचना.

उन का छोटा सा झोंपड़ा ही था, जिस पर बापू ने मोमजामा की पन्नी डाल रखी थी. एक ही कमरे में ही वे तीनों सोते थे.

एक रात कविता जोरों से चीख कर उठ बैठी. बापू ने दीपक जलाया, देखा कि एक भूरे रंग का बिच्छू था, जो डंक मार कर गया था. पूरे जिस्म में जलन हो रही थी. बापू ने जल्दी से कहीं के पत्ते ला कर उस जगह लगाए, लेकिन जलन खूब हो रही थी.

कविता लगातार चिल्ला रही थी. पूरे 2-3 घंटे बाद ठंडक मिली थी. जिंदगी में ऐसे कई हादसे होते हैं, जो केवल उसी इनसान को सहने होते हैं, कोई और मदद नहीं करता. सिर्फ हमदर्दी से दर्द, परेशानी कम नहीं होती है.

आखिर पास के ही एक टोले में कविता की शादी कर दी गई थी. लड़का काला, मोटा सा था, जो उस से ज्यादा अच्छा तो नहीं लगा, लेकिन था तो वह उस का घरवाला ही. फिर वह बापू के पास के टोले का था, इसलिए 5-6 दिनों में अम्मां के साथ मुलाकात हो जाती थी.

यहां कविता के पति की आधा एकड़ जमीन में खेती थी. 8-10 मुरगियां थीं. लग रहा था कि जिंदगी कुछ अच्छी है, लेकिन कभीकभी राकेश भी 4-5 दिनों के लिए गायब हो जाता था. बाद में पता चला कि राकेश भी डकैती या बड़ी चोरी करने जाता है. हिसाब होने पर हजारों रुपए उसे मिलते थे.

कविता भी कुछ रुपए चुरा कर अम्मां से मिलने जाती, तो उन्हें दे देती थी.

लेकिन कविता की जिंदगी वैसे ही फटेहाल थी. कोई शौक, घूमनाफिरना कुछ नहीं. बस, देवी मां की पूजा के समय रिश्तेदार आ जाते थे, उन से भेंटमुलाकात हो जाती थी. शादी के  4 सालों में ही वह 2 लड़कियों की मां बन गई थी.

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इस बीच कभी भी रात को पुलिस वाले टोले में आ जाते और चारों ओर से घेर कर उन के डेरों की तलाशी लेते थे. कभीकभी उन के कंबल या कोई जेवर ही ले कर वे चले जाते थे. अकसर पुलिस के आने की खबर उन्हें पहले ही मिल जाती थी, जिस के चलते रात में सब डेरे से बाहर ही सोते थे. 2-4 दिनों के लिए रिश्तेदारियों में चले जाते थे. मामला ठंडा होने पर चले आते थे.

इन्हें भी यह सबकुछ करना ठीक नहीं लगता था, लेकिन करें तो क्या करें? आधा एकड़ जमीन, वह भी सरकारी थी और जोकुछ लगाते, उस पर कभी सूखे की मार और कभी ओलों की बौछार हो जाती थी. सरकारी मदद भी नहीं मिलती थी, क्योंकि जमीन का कोई पट्टा भी उन के पास नहीं था. जोकुछ भी थोड़ाबहुत कमाते, वह जमीन खा जाती थी, लेकिन वे सब को यही बताते थे कि जमीन से जो उग रहा है, उसी से जिंदगी चल रही है. किसी को यह थोड़े ही कहते कि चोरी करते हैं.

पिछले 7-8 महीनों से बापू ने महुए की कच्ची दारू भी उतारना चालू कर दी थी. अम्मां उसे शहर में 1-2 जगह पहुंचा कर आ जाती थीं, जिस के चलते खर्चापानी निकल जाता था.

कभीकभी राकेश रात को सोते समय कहता भी था कि यह सब उसे पसंद नहीं है, लेकिन करें तो क्या करें? सरकार कर्जा भी नहीं देती, जिस से भैंस खरीद कर दूध बेच सकें.

एक रात वे सब सोए हुए थे कि किसी ने दरवाजे पर जोर से लात मारी. नींद खुल गई, तो देखा कि 2-3 पुलिस वाले थे. एक ने राकेश की छाती पर बंदूक रख दी, ‘अबे उठ, चल थाने.’

‘लेकिन, मैं ने किया क्या है साहब?’ राकेश बोला.

‘रायसेन में बड़े जज साहब के यहां डकैती डाली है और यहां घरवाली के साथ मौज कर रहा है,’ एक पुलिस वाले ने डांटते हुए कहा.

‘सच साहब, मुझे नहीं मालूम,’ घबराई आवाज में राकेश ने कहा. कविता भी कपड़े ठीक कर के रोने लगी थी.

‘ज्यादा होशियारी मत दिखा, उठ जल्दी से,’ और कह कर बंदूक की नाल उस की छाती में घुसा दी थी.

कविता रो रही थी, ‘छोड़ दो साहब, छोड़ दो.’

पुलिस के एक जवान ने कविता के बाल खींच कर राकेश से अलग किया और एक लात जमा दी. चोट बहुत अंदर तक लगी. 3-4 टोले के और लोगों को भी पुलिस पकड़ कर ले आई और सब को हथकड़ी लगा कर लातघूंसे मारते हुए ले गई.

कविता की दोनों बेटियां उठ गई थीं. वे जोरों से रो रही थीं. वह उन्हें छोड़ कर नहीं जा सकती थी. पूरी रात जाग कर काटी और सुबह होने पर उन्हें ले कर वह सोहागपुर थाने में पहुंची.

टोले से जो लोग पकड़ कर लाए गए थे, उन सब की बहुत पिटाई की गई थी. सौ रुपए देने पर मिलने दिया. राकेश ने रोरो कर कहा, ‘सच में उस डकैती की मुझे कोई जानकारी नहीं है.’

लेकिन भरोसा कौन करता? पुलिस को तो बड़े साहब को खुश करना था और यहां के थाने से रायसेन जिले में भेज दिया गया. अब कविता अकेली थी और 2-3 साल की बेटियां. वह क्या करती? कुछ रुपए रखे थे, उन्हें ले कर वह टोले की दूसरी औरतों के साथ रायसेन गई. वहां वकील किया और थाने में गई. वहां बताया गया कि यहां किसी को पकड़ कर नहीं लाए हैं.

वकील ने कहा, ‘मारपीट कर लेने के बाद वे जब कोर्ट में पेश करेंगे, तब गिरफ्तारी दिखाएंगे. जब तक वे थाने के बाहर कहीं रखेंगे. रात को ला कर मारपीट करने के बाद जांच पूरी करेंगे.’

हजार रुपए बरबाद कर के कविता लौट आई थी. बापू के पास गई, तो वे केवल हौसला ही देते रहे और क्या कर सकते थे. आते समय बापू ने सौ रुपए दे दिए थे.

कविता जब लौट रही थी, तब फिर एक बाबाजी का प्रवचन चल रहा था. प्रसंग वही सीताजी का था. जब सीताजी को लेने राम वनवास गए थे और अपमानित हुई सीता जमीन में समा गई थीं. सबकुछ इतने मार्मिक तरीके से बता रहे थे कि उस की आंखों से भी आंसू निकल आए, तो क्या सीताजी ने आत्महत्या कर ली थी? शायद उस के दिमाग ने ऐसा ही सोचा था.

जब कविता अपने टोले पर आई, तो सीताजी की बात ही दिमाग में घूम रही थी. कैसे वनवास काटा, जंगल में रहीं, रावण के यहां रहीं और धोबी के कहने से रामजी ने अपने से अलग कर के जंगल भेज दिया गर्भवती सीता को. कैसे रहे होंगे रामजी? जैसे कि वह बिना घरवाले के अकेले रह रही है. न जाने वह कब जेल से छूटेगा और उन की जिंदगी ठीक से चल पाएगी.

इस बीच टोले में जो कागज के फूल और दिल्ली से लाए खिलौने थोक में लाते, उन्हें कविता घरघर सिर पर रख कर बेचने जाती थी. जो कुछ बचता, उस से घर का खर्च चला रही थी. अम्मांबापू कभीकभी 2-3 सौ रुपए दे देते थे. जैसे ही कुछ रुपए इकट्ठा होते, वह रायसेन चली जाती.

पुलिस ने राकेश को कोर्ट में पेश कर दिया था और कोर्ट ने जेल भेज दिया था. जमानत करवाने के लिए वकील 5 हजार रुपए मांग रहा था. कविता घर का खर्च चलाती या 5 हजार रुपए देती? राकेश का बड़ा भाई, मेरी सास भी थीं. वे घर पर आतीं और कविता को सलाह देती रहती थीं. उस ने नाराजगी भरे शब्दों में कह दिया, ‘क्यों फोकट की सलाह देती हो? कभी रुपए भी दे दिया करो. देख नहीं रही हो कि मैं कैसे बेटियों को पाल रही हूं,’ कहतेकहते वह रो पड़ी थी.

जेठ ने एक हजार रुपए दिए थे. उन्हें ले कर कविता रायसेन गई, जो वकील ने रख लिए और कहा कि वह जमानत की अर्जी लगा देगा.

उस वकील का न जाने कितना बड़ा पेट था. कविता जो भी देती, वह रख लेता था, लेकिन जमानत किसी की नहीं हो पाई थी. बस, जेल जा कर वह राकेश से मिल कर आ जाती थी. वैसे, राकेश की हालत पहले से अच्छी हो गई थी. बेफिक्री थी और समय से रोटियां मिल जाती थीं, लेकिन पंछी पिंजरे में कहां खुश रहता है. वह भी तो आजाद घूमने वाली कौम थी.

कविता रुपए जोड़ती और वकील को भेज देती थी. आखिर पूरे 22 महीने बाद वकील ने कहा, ‘जमानतदार ले आओ, साहब ने जमानत के और्डर कर दिए हैं.’

फिर एक परेशानी. जमानतदार को खोजा, उसे रुपए दिए और जमानत करवाई, तो शाम हो गई. जेलर ने छोड़ने से मना कर दिया.

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कविता सास के भरोसे बेटियां घर पर छोड़ आई थी, इसलिए लौट गई और राकेश से कहा कि वह आ जाए. सौ रुपए भी दे दिए थे.

रात कितनी लंबी है, सुबह नहीं हुई. सीताजी ने क्यों आत्महत्या की? वे क्यों जमीन में समा गईं? सीताजी की याद आई और फिर कविता न जाने क्याक्या सोचने लगी.

सुबह देर से नींद खुली. उठ कर जल्दी से तैयार हुई. बच्चियों को भी बता दिया था कि उन का बाप आने वाला है. राकेश की पसंद का खाना पकाने के लिए मैं जब बाजार गई, तो बाबाजी का भाषण चल रहा था. कानों में वही पुरानी कहानी सुनाई दे रही थी. उस ने कुछ पकवान लिए और टोले पर लौट आई.

दोपहर तक खाना तैयार कर लिया और कानों में आवाज आई, ‘राकेश आ गया.’

कविता दौड़ते हुए राकेश से मिलने पहुंची. दोनों बेटियों को उस ने गोद में उठा लिया और अपने घर आने के बजाय वह उस के भाई और अम्मां के घर की ओर मुड़ गया.

कविता तो हैरान सी खड़ी रह गई, आखिर इसे हो क्या गया है? पूरे

22 महीने बाद आया और घर छोड़ कर अपनी अम्मां के पास चला गया.

कविता भी वहां चली गई, तो उस की सास ने कुछ नाराजगी से कहा, ‘‘तू कैसे आई? तेरा मरद तेरी परीक्षा लेगा. ऐसा वह कह रहा है, सास ने कहा, तो कविता को लगा कि पूरी धरती, आसमान घूम रहा है. उस ने अपने पति राकेश पर नजर डाली, तो उस ने कहा, ‘‘तू पवित्तर है न, तो क्या सोच रही है?’’

‘‘तू ऐसा क्यों बोल रहा है…’’ कविता ने कहा. उस ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा, ‘‘पूरे 22 महीने बाद मैं आया हूं, तू बराबर रुपए ले कर वकील को, पुलिस को देती रही, इतना रुपया लाई कहां से?’’

कविता के दिल ने चाहा कि एक पत्थर उठा कर उस के मुंह पर मार दे. कैसे भूखेप्यासे रह कर बच्चियों को जिंदा रखा, खर्चा दिया और यह उस से परीक्षा लेने की बात कह रहा है.

उस समाज में परीक्षा के लिए नहाधो कर आधा किलो की लोहे की कुल्हाड़ी को लाल गरम कर के पीपल के सात पत्तों पर रख कर 11 कदम चलना होता है.

अगर हाथ में छाले आ गए, तो समझो कि औरत ने गलत काम किया था, उस का दंड भुगतना होगा और अगर कुछ नहीं हुआ, तो वह पवित्तर है. उस का घरवाला उसे भोग सकता है और बच्चे पैदा कर सकता है.

राकेश के सवाल पर कि वह इतना रुपया कहां से

लाई, उसे सबकुछ बताया. अम्मांबापू ने दिया, उधार लिया, खिलौने बेचे, लेकिन वह तो सुन कर भी टस से मस नहीं हुआ.

‘‘तू जब गलत नहीं है, तो तुझे क्या परेशानी है? इस के बाप ने मेरी 5 बार परीक्षा ली थी. जब यह पेट में था, तब भी,’’ सास ने कहा.

कविता उदास मन लिए अपने झोंपड़े में आ गई. खाना पड़ा रह गया. भूख बिलकुल मर गई.

दोपहर उतरतेउतरते कविता ने खबर भिजवा दी कि वह परीक्षा देने को तैयार है. शाम को नहाधो कर पिप्पली देवी की पूजा हुई. टोले वाले इकट्ठा हो गए. कुल्हाड़ी को उपलों में गरम किया जाने लगा.

शाम हो रही थी. आसमान नारंगी हो रहा था. राकेश अपनी अम्मां के साथ बैठा था. मुखियाजी आ गए और औरतें भी जमा हो गईं.

हाथ पर पीपल के पत्ते को कच्चे सूत के साथ बांधा और संड़ासी से पकड़ कर कुल्हाड़ी को उठा कर कविता के हाथों पर रख दिया. पीपल के नरम पत्ते चर्रचर्र कर उठे. औरतों ने देवी गीत गाने शुरू कर दिए और वह गिन कर 11 कदम चली और एक सूखे घास के ढेर पर उस कुल्हाड़ी को फेंक दिया. एकदम आग लग गई.

मुखियाजी ने कच्चे सूत को पत्तों से हटाया और दोनों हथेलियों को देखा. वे एकदम सामान्य थीं. हलकी सी जलन भर पड़ रही थी.

मुखियाजी ने घोषणा कर दी कि यह पवित्र है. औरतों ने मंगलगीत गाए और राकेश कविता के साथ झोंपड़े में चला आया.

रात हो चुकी थी. कविता ने बिछौना बिछाया और तकिया लगाया, तो उसे न जाने क्यों ऐसा लगा कि बरसों से जो मन में सवाल उमड़ रहा था कि सीताजी जमीन में क्यों समा गईं, उस का जवाब मिल गया हो. सीताजी ने जमीन में समाने को केवल इसलिए चुना था कि वे अपने घरवाले राम का आत्मग्लानि से भरा चेहरा नहीं देखना चाहती होंगी.

राकेश जमीन पर बिछाए बिछौने पर लेट गया. पास में दीया जल रहा था. कविता जानती थी कि 22 महीनों के बाद आया मर्द घरवाली से क्या चाहता होगा?

राकेश पास आया और फूंक मार कर दीपक बुझाने लगा. अचानक ही कविता ने कहा, ‘‘दीया मत बुझाओ.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मैं तेरा चेहरा देखना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों? क्या मैं बहुत अच्छा लग रहा हूं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो फिर?’’

‘‘तुझे जो बिरादरी में नीचा देखना पड़ा, तू जो हार गया, वह चेहरा देखना चाहती हूं. मैं सीताजी नहीं हूं, लेकिन तेरा घमंड से टूटा चेहरा देखने की बड़ी इच्छा है.’’

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उस की बात सुन कर राकेश भौंचक्का रह गया. कविता ने खुद को संभाला और दोबारा कहा, ‘‘शुक्र मना कि मैं ने बिरादरी में तेरी परीक्षा लेने की बात नहीं कही, लेकिन सुन ले कि अब तू कल परीक्षा देगा, तब मैं तेरे साथ सोऊंगी, समझा,’’ उस ने बहुत ही गुस्से में कहा.

‘‘क्या बक रही है?’’

‘‘सच कह रही हूं. नए जमाने में सब बदल गया है. पूरे 22 महीनों तक मैं ईमानदारी से परेशान हुई थी, इंतजार किया था.’’

राकेश फटी आंखों से उसे देख रहा था, क्योंकि उन की बिरादरी में मर्द की भी परीक्षा लेने का नियम था और वह अपने पति का मलिन, घबराया, पीड़ा से भरा चेहरा देख कर खुश थी, बहुत खुश. आज शायद सीता जीत गई थी.

लौकडाउन : भाग 2

राय साहब ने जल्दी से मालिनी को फोन किया, ‘‘तुम अभी घर आ जाओ, हमें दाह संस्कार करना होगा. लाश को ज्यादा समय तक घर में नहीं रखा जा सकता.’’

लेकिन मालिनी ने असमर्थता जाहिर करते हुए आने से इनकार कर दिया. उस ने राय साहब को समझाने की कोशिश की कि शहर भर में पुलिस तैनात है. मैं नहीं आ सकती. कल आती हूं. बस एक ही दिन की तो बात है.

राय साहब क्या करते, उन्हें दिन भर पत्नी की लाश के साथ अकेले रहना था. वह बंगले में घूमघूम कर वक्त बिताने लगे. न खाना, न पीना.

राय साहब पर बिजली तब गिरी, जब प्रधानमंत्री ने अगले 21 दिन के लिए लौकडाउन की घोषणा कर दी. मालिनी नहीं आ सकी तो राय साहब को आत्मग्लानि होने लगी. उन के दिलोदिमाग में भय के बादल मंडराने लगे थे. कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने जल्दी से बंगले की सारी खिड़की, दरवाजे बंद कर लिए. बाहर गेट पर ताला लगा दिया, जिस से कोई अंदर न आ सके.

कुछ पल शांत बैठ कर उन्होंने खुद को संभाला. एक कार मालिनी ले गई थी. गनीमत थी कि दूसरी खड़ी थी. उन्होंने सोचा रात में लाश को गाड़ी में ले जा कर ठिकाने लगा देंगे. बंगले से बाहर के लोग अंदर कुछ नहीं देख सकेंगे.

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लेकिन बंगले के चारों तरफ सीसीटीवी कैमरे लगे थे, जिन से राय साहब को बंगले के बाहर सड़क पर आनेजाने वालों की जानकारी मिल जाती थी.

राय साहब ने अपने मोबाइल पर सीसीटीवी फुटेज देखे, चारों तरफ मुस्तैदी से तैनात पुलिसकर्मी नजर आए. लौकडाउन का सख्ती से पालन कराया जा रहा था. आनेजाने वालों की चैकिंग हो रही थी. ऐसे में बाहर जाना खतरे से खाली नहीं था.

इतने दिन लाश के साथ गुजारना भयावह था. वक्त का पहिया ऐसा घूमा कि जिंदगी ठहर सी गई. राय साहब की हालत खराब होने लगी. लाश के साथ रहना उन की मजबूरी थी. बारबार बैडरूम में जा कर वह चैक करते कि दामिनी का शरीर सुरक्षित है या नहीं.

पूरे बंगले में सिर्फ वह थे और दामिनी का मृत शरीर. लाश को घर में रखे रहना चिंता की बात थी. शरीर के सड़ने से बदबू फैल सकती थी. उन्होंने बैडरूम में एसी चला कर दामिनी के शरीर को पलंग पर लिटा दिया और कमरे का दरवाजा बंद कर दिया. कभी वह कमरे के बाहर जाते तो कभी खिड़कियों से झांकते. उन्हें बाहर जाने से भी डर लगने लगा था.

घबराहट धीरेधीरे कुंठा में परिवर्तित होने लगी थी. चेहरे पर भय और ग्लानि के भाव नजर आने लगे थे. वह जितना खुद को संयत करते, दामिनी की मौत को ले कर उन्हें उतना ही अपराधबोध होता. ऐसी स्थिति में उन्हें एकएक दिन गुजारना मुश्किल हो रहा था.

एक दिन वह कमरे में दामिनी को देखने गए तो न जाने किस भावावेश में पत्नी के मृत शरीर से लिपट गए और पागलों की तरह रोने लगे. उन के मुंह से खुदबखुद अपराधबोध के शब्द निकल रहे थे.

‘‘दामिनी, मुझे माफ कर दो. तुम्हें मेरी गलती की इतनी सजा मिली. इस घर के कोनेकोने में तुम्हारी यादें बसी हैं. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता, प्लीज वापस आ जाओ. मैं ने मालिनी पर विश्वास कर के गलती की. मुझे माफ कर दो,’’ रोतेरोते उन की आंखें लाल हो गईं.

थोड़ी देर बाद राय साहब ने महसूस किया जैसे कोई उन के हाथ को सहला रहा हो. किसी की गर्म सांसें उन के चेहरे पर महसूस हुईं. उन के आगोश में कोई खास लिपटा था. वह मदमस्त से उस निश्चल धारा में बहने लगे. तभी अचानक न जाने कहां से उन के पालतू कुत्ते आ गए और उन के साथ खेलने लगे.

खेलतेखेलते कुत्तों ने अचानक उन के हाथों की अंगुलियों को मुंह में दबा लिया. राय साहब अंगुलियों को छुड़ाना चाहते थे, लेकिन उन की पकड़ मजबूत थी. कुत्तों के पैने दांतों के बीच दबी अंगुलियां कट सकती थीं. इस डर से वह जोर से चिल्लाने लगे. भयभीत हो कर उन्होंने आंखें खोलीं तो खुद को बिस्तर पर पाया. यह स्वप्न था. याद आया, उन के कुत्ते तो एक महीना पहले ही मर गए थे. शायद उन्हें जहर दिया गया था.

राय साहब की हालत पागलों वाली हो गई थी. खाने की चिंता तक नहीं रहती थी. सुबह को डिलिवरी बौय गेट के बाहर दूध और ब्रेड रख जाता था, उसी से काम चलाना होता था. उन्होंने देखा कि दामिनी के हाथ में उन का हाथ फंसा हुआ है. वह उन के शरीर से लिपटी हुई थी.

डर से राय साहब की चीख निकल गई. वह पसीने से तरबतर थे. भय से कांपते हुए वह जमीन पर बैठ गए. सांस उखड़ने लगी, गला सूख रहा था. किसी तरह उठ कर लड़खड़ाते कदमों से वह किचन की तरफ भागे. वहां खड़े हो कर उन्होंने 2-3 गिलास पानी पी कर खुद को संयत किया.

एक दिन राय साहब मानसिक उद्विग्नता की स्थिति में दामिनी की लाश के पास बैठे थे. तभी उन्होंने महसूस किया कि कोई मजबूती से उन का हाथ पकड़े है, लेकिन दिखा कोई नहीं. वह सोचने लगे, दामिनी ही होगी. इस तरह हाथ वही पकड़ती थी.

राय साहब को पत्नी की लाश के साथ घर में रहते हुए 15-20 दिन हो गए थे. हर एक दिन एकएक साल की तरह लग रहा था. बढ़ी हुई दाढ़ी, बिखरे बाल, भयग्रस्त चेहरा उन के सुंदर चेहरे को डरावना बना रहे थे.

घर में जो मिला, खा लिया. अब वह खाने से ज्यादा पीने लगे थे. गनीमत थी कि उस रोज की पार्टी की काफी शराब बच गई थी, वरना वह भी नहीं मिलती.

धीरेधीरे राय साहब को इन बातों की आदत सी पड़ने लगी. पहले वह लाश को देख कर डरते थे. लेकिन अब उस से बातें भी करने लगे थे. उन की मानसिक स्थिति अजीब सी हो गई थी.

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दामिनी उन की कल्पना में फिर से जी उठी. उस की अच्छाई, उस का निस्वार्थ प्रेम अकल्पनीय था. उन की दुनिया, भले ही वह खयालों में हो, फिर से दामिनी के इर्दगिर्द सिमटने लगी. काल्पनिक दुनिया में उन्होंने दामिनी से अपने सारे गिलेशिकवे दूर कर लिए.

अब उन की काल्पनिक दामिनी हर समय उन के साथ रहने लगी. नशे में धुत राय साहब घंटों तक दामिनी से बातें करने लगे. रोजाना दामिनी का शृंगार करना और उस के पास ही सो जाना, उन की दिनचर्या में शामिल हो गया.

आत्मग्लानि, अकेलापन और दुख राय साहब को मानसिक रूप से विक्षिप्त बना रहा था. बिछोह की अग्नि प्रबल होती जा रही थी. एक दिन वह पागलों जैसी हरकतें करने लगे. दामिनी के सड़ते हुए शरीर को गंदा समझ कर वह गीले कपड़े से साफ करने लगे तो शरीर से चमड़ी निकलने लगी.

तेज बदबू आ रही थी. फिर भी राय साहब किसी पागल दीवाने की तरह उस का शृंगार करने लगे. फिर उन्होंने अलमारी से शादी वाली साड़ी निकाली और दामिनी के शरीर पर डाल कर उसे दुलहन जैसा सजाने की कोशिश की. फिर मांग में सिंदूर भर कर निहारने लगे.

उन की नजर में वह वही सुंदर दामिनी थी. वह दामिनी से बातें करने लगे, ‘‘देखो दामिनी, कितनी सुंदर लग रही हो तुम.’’

राय साहब ने उस के माथे पर अपने प्यार की मुहर लगाई, फिर गले लग कर बोले, ‘‘अब तुम आराम करो, तुम तैयार हो गई हो. मैं भी नहा कर आता हूं. हमें बाहर जाना है.’’

राय साहब किसी पागल की तरह मुसकराए. वह कई दिनों से सोए नहीं थे. अब सुकून से सोना चाहते थे. आंखों में नींद भरी थी. पर आंखें थीं कि बंद नहीं हो रही थीं. गला सूख रहा था, उन्होंने उठ कर पानी पीया.

फिर न जाने किस नशे के अभिभूत हो कर नींद की ढेर सारी गोलियां खा लीं. उस के बाद वह बाथरूम में गए और टब में लेट गए. उन के मुंह से अस्फुट से शब्द निकल रहे थे कि आज उन का और दामिनी का पुनर्मिलन होगा.

एक महीने बाद जब लौकडाउन खत्म हुआ तो घर का गार्ड काम पर लौट आया. उस ने घर का दरवाजा देखा, वह अंदर से बंद था. फिर फोन लगाया, लेकिन किसी ने फोन नहीं उठाया. काफी देर तक घंटी बजाने के बाद भी किसी ने दरवाजा नहीं खोला.

कोई रास्ता न देख गार्ड ने पुलिस को बुलाया. बंगले के अंदर जाने पर तेज बदबू आ रही थी. सभी को किसी अनहोनी की आशंका होने लगी. अंदर जा कर देखा तो राय साहब और दामिनी की लाशें पड़ी थीं. लाशें सड़ चुकी थीं. एक लाश पलंग पर सुंदर कपड़ों में थी तो दूसरी वहीं जमीन पर तकिए के साथ पड़ी थी.

वहां की हालत देख कर सब का कलेजा मुंह को आ गया. दोनों का पोस्टमार्टम कराया गया. रिपोर्ट आने पर पता चला कि दोनों की दम घुटने के कारण मौत हुई थी. यानी दोनों का कत्ल किया गया था, लेकिन किस ने? यह बात हर किसी को परेशान कर रही थी कि जब सारे दरवाजे बंद थे तो घर के अंदर 2 कत्ल कैसे हुए.

पुलिस ने जांच में आत्महत्या वाले एंगल पर भी गौर किया. इस दिशा में जांच की गई तो एक बुक रैक के पास एक मेज पर दामिनी की तसवीर रखी मिली, जिस के पास अगरबत्तियों की राख पड़ी थी. वहीं फोल्ड किया एक पेपर रखा था.

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पुलिस ने खोल कर देखा. उस में राय साहब ने अपने मन के उद्गार लिखे थे. लिखा था, ‘मेरी दामिनी की हत्यारी मालिनी है. मुझे मालूम है, मालिनी मुझे भी मार डालेगी. मैं खुद भी यही चाहता हूं, क्योंकि मैं दामिनी का गुनहगार बन कर पुलिस और जेल की जलालत नहीं सह पाऊंगा. उस के पास मेरे बंगले की डुप्लीकेट चाबियां हैं. दामिनी के बिना मैं भी जीना नहीं चाहता.

‘बस एक चाहत है कि मालिनी मेरे बंगले को बेच न पाए. यह मेरे बेटे श्रेयस का है. अगर ऐसा नहीं हो पाया तो उस के इस कमीने बाप की आत्मा को कभी शांति नहीं मिल पाएगी.’

लौकडाउन : भाग 1

मालवा अपने इतिहास के लिए प्रसिद्ध है. जो लोग मालवा के इतिहास को जानते हैं, उन्हें आज भी यहां की मिट्टी में सौंधीसौंधी गंध आती है. इसी मालवा का सुप्रसिद्ध शहर है इंदौर.

पिछले 50-55 सालों में नगरोंमहानगरों ने बहुत तरक्की की है. स्थिति यह है कि एक नगर में 2-2 नगर बन गए हैं. एक नया, दूसरा पुराना. इंदौर की स्थिति भी यही है. शहरों या महानगरों में अंदर पुराने शहरों की स्थितियां भी अलग होती हैं. छोटेछोटे घर, पतली गलियां और इन गलियों के अपने अलग मोहल्ले.

खास बात यह कि इन गलियोंमोहल्लों में लोग एकदूसरे को जानते भी हैं और मानते भी हैं. जरूरत हो तो मोहल्ले के लोगों से हर किसी का खानदानी ब्यौरा मिल जाएगा. राय साहब का बंगला पुराने इंदौर के बीचोबीच जरूर था, लेकिन छोटा नहीं, बहुत बड़ा. बाद में बसे मोहल्ले ने बंगले को घेर जरूर लिया था. लेकिन उस की शानोशौकत में कोई कमी नहीं आई थी. वैसे एक सच यह भी था कि जो लोग बंगले के आसपास आ कर बसे थे, उन्हें जमीन राय साहब ने ही बेची थी.

राय साहब के बंगले की अपनी अलग ही खूबसूरती थी, ऐसा लगता था जैसे अथाह समुद्र में कोई टापू उग आया हो. तरहतरह के फूलों के अलावा कई किस्म के फलों के पेड़ भी थे. इस लंबेचौड़े खूबसूरत बंगलों में कुल मिला कर 3 लोग रहते थे, राय साहब, उन की पत्नी दामिनी और एक गार्ड. राय दंपति का एकलौता बेटा श्रेयस राय लंदन में पढ़ रहा था.

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गार्ड का कोई खास काम नहीं था, इसलिए रात को वह घर चला जाता था. हां, राय साहब के पास 2 लग्जरी कारें थीं, जब उन्हें कहीं जाना होता था तो गार्ड ही ड्राइवर बन जाता था. वह नहीं होता तो दामिनी कार ड्राइव करती थीं.

सामाजिक और आर्थिक रूप से उच्चस्तरीय लोगों के यहां पार्टियां वगैरह होना मामूली बात है. कभीकभी ऐसी पार्टियां केवल दोस्तों तक ही सीमित होती हैं. राय साहब भी पार्टियों के शौकीन थे. वह पार्टियों में जाते भी थे और समयसमय पर बंगले पर पार्टियां करते भी थे.

एक बार दामिनी के साथ वह एक पार्टी में गए तो वहां मालिनी मिल गई. वह लंदन में उन के साथ पढ़ती थी. दोनों में अच्छीभली दोस्ती थी. हां, पारिवारिक स्तर पर दोनों में से कोई भी एकदूसरे को नहीं जानता था.

राय साहब मन ही मन मालिनी को पसंद करते थे. उन्होंने उस से प्रेम निवेदन भी किया था, लेकिन रूपगर्विता मालिनी ने उन का प्रेम निवेदन ठुकरा दिया था. इस से राय साहब को दिली चोट पहुंची थी.

बाद में राय साहब जब भारत लौट आए तो शाही अंदाज में उन की शादी दामिनी से हो गई थी. दामिनी मालिनी से कहीं ज्यादा खूबसूरत थीं, उस में शाही नफासत भी थी. इस के बावजूद वह मालिनी को नहीं भूल सके. कभीकभी उन के दिल में मालिनी नाम का कांटा चुभ ही जाता था. यही वजह थी कि 25-30 साल बाद अचानक मालिनी को देख राय साहब को पुरानी बातें याद आ गईं.

पार्टी में राय साहब ने मालिनी को देखा जरूर, लेकिन अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. मालिनी हाथ में शराब का जाम थामे खुद ही उन के पास आ गई. राय साहब उस की ओर से अनभिज्ञ बने रहे. उसी ने नजदीक आ कर उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कैसे हैं शांतनु साहब?’’

मालिनी को नशा तो नहीं हुआ था, लेकिन उस की नशीली आंखों में ऐसा कुछ जरूर था, जो पल भर के लिए राय साहब को अंदर तक विचलित कर गया.

‘‘अच्छा हूं मालिनी, तुम बताओ इतने बरसों बाद यहां?’’

‘‘काम के सिलसिले में आई थी. लंबे समय बाद मुलाकात हो रही है, कभी अपने घर बुलाना.’’ मालिनी ने निस्संकोच कहा.

इस से पहले कि वह या राय साहब कुछ कहते, दामिनी ने आ कर राय साहब के हाथों में हाथ डाल दिए. फिर बोली, ‘‘अब घर चलो, कितनी देर हो गई है, आज आप ने पी ज्यादा ली है.’’

दामिनी के आने पर राय साहब ने मालिनी से दामिनी का परिचय कराया. औपचारिक बातों के बाद पतिपत्नी वहां से चले गए. राय साहब वहां से चले तो गए लेकिन मालिनी की यादों को साथ ले गए. मालिनी को भी लगा जैसे बरसों बाद कोई अपना मिला हो.

लेकिन यह जुदाई नहीं बल्कि मुलाकातों की शुरुआत थी. दोनों आए दिन पार्टियों वगैरह में मिलने लगे. एक बार मालिनी ने ताना मारा तो राय साहब ने उसे घर आने का निमंत्रण दे दिया. इस के बाद मालिनी यदाकदा बंगले पर आने लगी. अविवाहित मालिनी को राय साहब के ठाठबाठ, शानोशौकत, इतना बड़ा बंगला देख कर दामिनी की किस्मत से रश्क होने लगा. उस के मन में एक टीस सी उठी कि काश उस ने राय साहब के प्रस्ताव को ठुकराया न होता, तो आज दामिनी की जगह वह होती.

मालिनी के आनेजाने से राय साहब के दिल में दबी चिंगारी सुलगने लगी, जिसे मालिनी ने भी महसूस किया. यही भावना दोनों को एकदूसरे की तरफ खींचने लगी. नतीजतन दोनों के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं.

उम्र के इस पड़ाव पर भी दोनों पारस्परिक आकर्षण, ताजगी, रोमांस और रूमानियत से जीवन में रंग भरने लगे. धीरेधीरे मालिनी का बंगले पर आना बढ़ गया. उस ने दामिनी से भी अपनत्व भरी मित्रता कर ली थी.

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बढ़ते हुए कदमों ने मालिनी व राय साहब को एकदूसरे के बिलकुल नजदीक ला दिया था. दोनों प्रेम में घायल पंछियों की तरह खुले आसमान में उड़ान भरना चाहते थे. यह जानते हुए भी कि यह संभव नहीं है. एक दिन मौका मिला तो मालिनी ने राय साहब से कहा, ‘‘शांतनु, ऐसा कब तक चलेगा, अब दूरियां बरदाश्त नहीं होतीं.’’

राय साहब ने तो कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन किस्मत ने जल्दी दोनों को मौका दे दिया.

उस दिन राय साहब ने बंगले पर छोटी सी पार्टी रखी थी, दोस्तों के लिए. मालिनी को भी बुलाया था. देर रात तक चली पार्टी का नशा पूरे शबाब पर था.

मालिनी ने चुपके से दामिनी के ड्रिंक में नींद की गोलियां मिला दीं. अधूरी तमन्नाओं और रात रंगीन करने की चाहत ने उसे अंधा बना दिया था.

जब नशे का असर शुरू होने लगा तो वह दामिनी को उस के कमरे में ले गई. राय साहब ने देखा तो पीछेपीछे आ कर पूछा, ‘‘दामिनी को क्या हुआ?’’

मालिनी ने उन्हें चुप कराते हुए कहा, ‘‘पार्टी खत्म करो, फिर बात करेंगे. सब ठीक है.’’

पलभर रुक कर उस ने राय को सब कुछ बता कर कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो. उसे कुछ नहीं होगा. बस नशा थोड़ा ज्यादा हो गया है. अब वह सुबह तक नहीं उठेगी. बस रात की ही बात है.’’ कहते हुए मालिनी राय साहब के गले लग गई.

लेकिन तभी अचानक दामिनी उठ गई, वह नशे में थी. यह देख मालिनी डर गई. जल्दी में कुछ नहीं सूझा तो उस ने दामिनी को धक्का दे दिया, जिस से वह पलंग से टकरा कर वहीं लुढ़क गई.

नशे में चूर राय साहब के लिए उस वक्त आंख और कान मालिनी बनी हुई थी, इसलिए वह इस मामले की गहराई में नहीं गए. उन्होंने वही माना जो मालिनी ने कहा.

पार्टी खत्म हो गई. विदा ले कर सब चले गए. राय साहब ने वेटरों को भी मेहनताना दे कर भेज दिया.

सुबह जब नशे की खुमारी उतरी तो राय साहब को अपनी गलती का अहसास हुआ. वह लंबे डग भरते हुए अपने कमरे की तरफ भागे. लेकिन दामिनी कमरे में नहीं थी.

उन्होंने बाथरूम का दरवाजा खोला तो मुंह से चीख निकल गई. दामिनी बाथटब के अंदर पानी में पड़ी थी. राय साहब ने उसे बाथटब से बाहर निकाल कर पेट से पानी निकालने का प्रयास किया. मुंह से सांस देने की कोशिश की, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. दामिनी का शरीर ठंडा पड़ चुका था.

राय साहब की चीख सुन कर मालिनी दौड़ी आई. दामिनी को निस्तेज देख कर उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, ये सब कैसे हो गया?’’ बात उस के गले में अटक रही थी. आंखें डबडबाने को थीं.

दामिनी के शव को देख उस ने रुआंसी हो कर कहा, ‘‘मैं ने ड्रिंक में सिर्फ नींद की गोलियां मिलाई थीं. मैं इस की जान नहीं लेना चाहती थी.’’

राय साहब ने उसे गुस्से में परे धकेल दिया. फिर चीख कर बोले, ‘‘जाओ, जल्दी से किसी डाक्टर को बुलाओ. यह नहीं होना चाहिए था.’’

मालिनी के चेहरे पर भय उतर आया था. फिर भी उस ने राय साहब को शांत करने की कोशिश की.

राय साहब गुस्से में बड़बड़ा रहे थे. मालिनी ने उन के कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘तुम शांत हो जाओ, इस की सांस बंद हो चुकी है. डाक्टर से क्या कहोगे? पुलिस केस बनेगा. तहकीकात होगी. बात का बतंगड़ बन जाएगा. शाम को चुपचाप दाह संस्कार कर देंगे, इसी में हमारी भलाई है.

‘‘इन परेशानियों से बचने के लिए हमारा चुप रहना ही ठीक रहेगा. मैं तुम्हारे साथ हूं, चिंता मत करो. मैं रात को आऊंगी. गार्ड छुट्टी पर है, कलपरसों तक आएगा. किसी को पता नहीं चलेगा.’’ मालिनी ने राय साहब को शांत कराने की कोशिश की.

मालिनी की बात से सहमत होने के अलावा राय साहब के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था. उन्हें समझाने के बाद मालिनी बोली, ‘‘अब मैं जा रही हूं. शाम को आऊंगी. तुम्हारी गाड़ी ले जा रही हूं. चाबी दे दो.’’

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राय साहब से कार की चाबी ले कर मालिनी बाहर निकल गई. राय साहब उसे छोड़ने बाहर आए. वह कार ले कर निकल गई तो मुख्य गेट उन्होंने ही बंद किया.

राय साहब ने किसी तरह दिन काटा और शाम को मालिनी के आने का इंतजार करने लगे. मन को बहलाने के लिए वह टीवी पर समाचार सुन रहे थे, तभी एक खबर ने उन्हें चौंका दिया. देश में कोरोना महामारी फैलने की वजह से जनता कर्फ्यू लगा दिया गया था.  किसी को भी घर से बाहर निकलने की मनाही थी. बात साफ थी आज रात वे दामिनी के शव के साथ बाहर नहीं जा सकते थे.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

 

पत्रकारजी

…और नेताओं की कुर्सी हिलने लगी. आखिर पत्रकार जी ने बाण ही ऐसा चलाया था, जो अचूक था. हमारे शहर में हालांकि पत्रकार तो बहुतेरे हैं. मगर नेताओं की कुर्सी हिला सके, वह तो बस पत्रकार जी के बस या कहें बूते की बात हुआ करती है.

तो नेताओं की कुर्सी हिलने लगी थी.

पत्रकार जी ने ऐसी खोज खबर भरी रिपोर्टिंग की कि मुख्यमंत्री तलक कान खड़े हो गए .आप कहेंगे- भई! आखिर रिपोर्टिंग क्या थी ?…रुकिये!   हमारे पास इतना वक्त नहीं कि आपको एक एक बात तफसील से बताते फिरें.

हम तो सिर्फ यह बता रहे हैं… और जरा कान खोल कर सुन लीजिए… नेताओं की कुर्सी डग-मग, डग-मग हिलने लगी. साधु समान मुख्यमंत्री से  जब कस्बे के नेतागण राजधानी में मिलने पहुंचे तो देखते ही उन्होंने कहा- “अमां! आप लोग क्या खा कर राजनीति कर रहे हो…! ”

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सभी एक दूसरे की ओर देखने लगे. सांसद, विधायक की ओर, और विधायक पार्टी के सदर की और प्रश्न वाचक भाव लेकर देखने लगा. सभी की आंखों में असहजता का भाव था.

मुख्यमंत्री सांसद की और दृष्टिपात करते हुए बोले- “कस्बे के एक पत्रकार को तुम लोग काबू में नहीं रख पाये…वह यहां तक आ धमका.”

“जी .” सांसद बांसुरीनंद हकलाये.

“हां…अब कस्बे और आसपास के पत्रकारों को तो कम से कम आप लोग सुलटा लिया करो. यह बड़ी कमजोरी की बात है… एक कस्बे का पत्रकार राजधानी और हमारे गिरेबां तक आ पहुंचा.

छी…!” मुख्यमंत्री  डॉ. चमनानंद  का मुंह मानो कड़ुवा हो गया था.

“- माई बाप… जरूर यह यह गलती, इस लखनानंद  की होगी…इसने संसदीय सचिव बनने के बाद न तो पत्रकारों को पार्टी दी, न ही विज्ञापन बांटे…बस यही गलती हो गई इससे. ” सांसद बांसुरीनंद  ने आंखों पर चश्मे को ठीक से बैठाते हुए विनम्रता भरे शब्दों में कहा. यह सुन लखनानंद  उचक कर आगे आया-

“हुजूरे आला ! यह बात बेबुनियाद है, मैं तो कस्बे के हर एक पत्रकार से मधुर संबंध रखता हूं. बीच-बीच में खुश भी रखता हूं . एक-दो को तो ऐसे रखा है कि सुबह उठकर मुझसे बाते किये बिना और रात को सोने से पहले…कस्बे की एक एक बात का हालो हवास दिए बिना नींद भी नहीं आती है.”

मुख्यमंत्री ने अपने प्रिय विधायक और  संसदीय सचिव की और स्निग्ध मुस्कुराहट डालते  हुए देखा.

सांसद और विधायक को साफ-साफ बचता देख पीछे दुबके खड़े जिले के सदर अशोकानंद  हाथ जोड़कर आगे आए, -“मालिक ! मैं भी गुनाहगार नहीं हूं.मेरी बखत ही क्या है, मगर मैं कस्बे  के पत्रकारों को भरसक साध कर रखे हुए  हूं.. मेरे पास कोई बड़ा स्रोत भी नहीं है… मगर…” सदर अपनी सफाई दे रहा था कि मुख्यमंत्री ने सभी की और तीक्ष्ण दृष्टिपात करते हुए थोड़ा सा कठोर होते हुए कहा-” मैं एक खास पत्रकार की और तुम सभी का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं.”

” जी हुजूर ! ” सांसद, विधायक और सदर के साथ मौजूद वरिष्ठ पार्टी कार्यकर्ता समवेत स्वर में बोल पड़े.

” एक पत्रकार है, जिसने बडे मार्के की शिकायत की हुई है…

सूचना अधिकार के तहत . अब हम क्या करें .” मुख्यमंत्री डॉ. चमनानंद यह कह कर चुप हो गए और सभी की ओर नजरें फिराने लगे.

… “हुजूर आदेश !”… सभी शहद से लिपटे हुए शब्द नि:सृत करने लगे.

मुख्यमंत्री बोले-” सूचना  अधिकार का ब्रह्मास्त्र चलाकर तुम्हारे कस्बे के पत्रकार ने मानो हमको घायल कर दिया है…. अब हमारा कार्यालय जवाब देता है तो मुश्किल… नहीं देता है तो मुश्किल…. ”

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” हुजूरे आलिया !  सांसद उछल पड़े- “आप…. मैं समझ गया आप तनिक भी चिंता न करें. अरे पत्रकार जी तो हैं… इसका काम ही उंगली करना है आप…. निश्चित रहिए, हम उसे देख लेंगे.” सदर अशोकानंद ने  कंधे उचका कर कर कहा -” हां हां… ठीक हो जायेगा .”

विधायक लखनानंद  ने धीमे स्वर में कहा- “माई बाप! गलती हो गई होगी… मुआफ करें….हम उसे देख लेंगे.”

दोनों सांसद की और उत्सुक भाव से देखने लगे. सांसद डॉ. बांसुरीनंद हंसकर बोले,- “अरे हमारे पत्रकार जी तो हैं ही ऐसे….थोड़ा टेढ़े है मगर उसे बुलाकर सीधा कर लेंगे. हमसे बाहर नहीं जाएगा ।”

” हूं !” मुख्यमंत्री ने हुंकार भरी और हौले से मुस्कुरा कर आगे बढ़ गए । सभी नेताऔ ने लौटते ही पत्रकार जी  को तलब किया. सांसद डॉक्टर बांसुरीनंद ने उसे वक्र दृष्टि से  देखा और कहा- “कइसे रे ! ऐसने पत्रकारिता करथे .”

पत्रकार जी सामने सोफे पर बैठे है.सोच रहे हैं… इनसे बैर ठीक नहीं. पुलिस कप्तान, कलेक्टर सभी इनके इशारे पर नृत्य कर रहे हैं.आत्मसमर्पण में ही बुद्धिमत्ता है .

सांसद चुप हुए तो विधायक बोल पड़े- “अरे भाई यह कैसी पत्रकारिता है.कुछ लिखो पढ़ो… सुचना अधिकार से क्या होगा ? सरकार से टकराकर खैर से रहा है कोई…”

” मुख्यमंत्री महोदय! को हम लोगों ने आश्वस्त किया है. पत्रकार जी हमारे हैं, चुक हो गई होगी .हम समझा लेंगे . यह सदर की सुमधुर वाणी थी.

पत्रकार जी की आंखें झुकी हुई थी.

पलकें उठाई  बारी-बारी सबको देख कर धीरे से उसने मन की पीड़ा उड़ेली – ” में क्या करता ! स॔सदीय सचिव बने तो  कोई विज्ञापन नहीं,… सांसद  बने तो कुछ नहीं …. जन्मदिन आया कुछ नहीं, कस्बे में मुख्यमंत्री आये, खाली डब्बा, मै क्या करता बताओ.”

“- चलो शांत हो जाओ.,” सांसद बांसुरीनंद  ने जेब से  एक हजार  का नोट निकाला …. “लो रख लो ..और विधायक चल  तहूं  एक हजार दे.”

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” -ऐ पांच सौ मेरी ओर से .”

सदर अशोकानंद  के चेहरे पर हास्य है . पत्रकार जी ने रुपये थामे. चाय पी और दफ्तर की ओर कदम बढ़ा दिए.

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उम्मीद : संतू को क्या थी सांवरी से उम्मीद

संतू किसी ढाबे पर ट्रक रोकने का मन बना रहा था, तभी सड़क के किनारे खड़ी सांवरी ने हाथ दे कर ट्रक रुकवाया और इठलाते हुए कहा, ‘‘और कितना ट्रक चलाएगा… चल, आराम कर ले.’’ संतू ने सांवरी पर निगाह डाली. ट्रक की खिड़की से सांवरी के कसे हुए उभारों को देख कर संतू एक बार तो पागल सा हो गया.

संतू को अच्छी तरह मालूम था कि इस रास्ते पर ढाबे वाले ग्राहकों को लुभाने के लिए लड़कियों का सहारा लिया करते हैं. उस ने ट्रक सड़क किनारे लगाया और सांवरी के बताए रास्ते पर चल कर उस की झोंपड़ी में पहुंच गया. सांवरी कह रही थी, ‘‘अरे, ढाबे वाले अच्छा खाना कहां देते हैं, इसलिए तुझे यहां अपना समझ कर ले आई. अब तू आराम से खापी, मौज कर. सुबह निकल लेना.’’

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संतू के ऊपर सांवरी की खुमारी चढ़ती जा रही थी. चूल्हा अभी गरम था. रोटी और मटन की खुशबू ने संतू की भूख और बढ़ा दी थी. चूल्हे की लौ में सांवरी की देह तपे हुए सोने सी लग रही थी. उस ने देशी दारू का पौवा निकाला और संतू को पिला कर दोनों ने खाना खाया.

खाना खाने के थोड़ी देर बाद ही वह सांवरी के आगोश में समा गया. सुबह 5 बजे जब संतू जागा, तब उस ने देखा कि न वहां सांवरी थी और न ही सड़क किनारे ट्रक. ट्रक में कम से कम एक लाख रुपए का सामान भरा हुआ था. अब अगर वह बिना सामान के लौटेगा, तब कंपनी को क्या जवाब देगा और जेल की हवा खानी पड़ेगी सो अलग.

तभी कुछ दूरी पर संतू को अपना ट्रक खड़ा दिखा. जब वह वहां पहुंचा, तब उस ने देखा कि उस का सामान गायब था, लेकिन कुछ दूर खड़ी सांवरी हंस रही थी. संतू कुछ बोले, इस के पहले ही सांवरी ने संतू से कहा, ‘‘ऐ ड्राइवर, अब चुपचाप निकल ले. इसी में तेरी भलाई है, वरना…’’

संतू ने कहा, ‘‘तू ने अपनी कातिल निगाहों से तो मुझे घायल कर ही दिया है, अब एक एहसान और कर कि इस चाकू से मुझे भी घायल कर दे, ताकि…’’ खून से लथपथ संतू किसी तरह ट्रक चला कर कंपनी के दफ्तर पहुंचा. कंपनी ने संतू को इलाज के लिए 10 हजार रुपए दिए और एक महीने की छुट्टी दी.

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कंपनी वाले इसलिए खुश हो रहे थे कि सामान भले ही गया, पर उस का बीमा तो मिल जाएगा, लेकिन संतू ट्रक सहीसलामत ले आया था.

अब घर पर रमिया संतू की दवादारू कर रही थी. संतू ठीक हो गया था और रात को ट्रक ले कर इस उम्मीद से उसी रास्ते से गुजर रहा था कि सांवरी उसे फिर मिलेगी.

टूटे घरौंदे : भाग 3

वह किसी को कुछ समझा नहीं सकता था न कोई सफाई दे सकता था. ललिता ने सबकुछ क्यों किया यह तो उसे आजतक नहीं पता चला न उस ने जानना चाहा लेकिन उस के दिमाग में कई बार यह बात जरूर कौंधी थी कि सुमन ललिता की एकलौती बेटी थी. क्या इस का मतलब यह कि किशोर में कुछ कम… नहीं नहीं वह इस तरह की कोई बात सोचना भी नहीं चाहता था.

वह अब क्या करेगा नहीं जानता. लेकिन कविता को सब सच बता देगा यह तो तय है. लेकिन, कविता से माफी मांग लेने से या माफी मिल भी जाए तब भी गांववालों और किशोर से कैसे सामना करेगा यह वह नहीं जानता. उस की एक गलती इतने सालों बाद उस का घरौंदा तोड़ देगी मुरली ने इस की कल्पना भी नहीं की थी.

दिन लंबा था और उसे काटना बेहद मुश्किल. कोमल बाहर आंगन में अपने खिलौनों में गुम थी और कविता कभी धम से एक परात पटकती तो कभी भगौना.

सुबह के वाकेया को 3 घंटे बीत चुके थे. धूप गहराई हुई थी. मुरली और कोमल अंदर कमरे में थे और कविता ने रसोई को अपना कमरा बना रखा था. घर में लाइट नहीं थी और यह दिल्ली तो थी नहीं कि इनवर्टर चला पंखें की हवा खा सकें. गरमी से मुरली का सिर भन्ना रहा था, पंखा ढुलकाते हुए उस के हाथ दुखने लगे थे. कोमल सो रही थी और मुरली उसे भी हवा कर रहा था. लेकिन, छोटी सी रसोई में कविता गरमी से कम और आक्रोश से ज्यादा तप रही थी.   मुरली को चिंता होने लगी कि कविता कहीं बीमार न पड़ जाए.

“कविता,” मुरली ने रसोई के दरवाजे पर खड़े हो कर कहा

कविता पसीने से लथपथ थी. उस आंखें गुस्से में रोने से लाल थीं यह मुरली देख पा रहा था. कविता की जिंदगी में दुखों के बादल कभी नहीं छाए थे. वह अच्छे घर की लड़की थी, 10वीं पास थी जो उस के लिए कालेज से कम न था. घर में 3 और बहनें थीं जो आसपास के गांवों में बिहा दी गईं थी और दो भाई थे जिन के पास पिता के छोड़े हुए खेतखलिहान थे, मकान था और मां के कुछ गहने भी. कविता के हिस्से नाममात्र की चीजें आईं थी लेकिन घर में सब से छोटी होने के नाते उसे इस की भी कोई उम्मीद नहीं थी, सो वह खुश थी.

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अपने घर और आसपास की सहेलियों में वह पहली थी जो शादी कर दिल्ली आई थी. मुरली सुंदर लड़का था और शादी के बाद जो कुछ एक पत्नी को अपने पति से चाहिए होता है वह सब उस से उसे मिला था. मुरली की बातें, रवैया, बोलचाल सभी से कविता प्रभावित थी और उस पर मर मिटती थी. कोमल के जन्म के बाद से तो उसे जैसे सब कुछ मिल गया था. उस का मानना था कि एक बच्ची को वह जितना सुख दे सकते हैं उतना दो बच्चों को नहीं दे पाएंगे और इसलिए वह दूसरा बच्चा नहीं चाहती थी. मुरली उस की इस बात से बेहद प्रभावित हुआ था और हामी भर दी थी.

जीवन का यह पहला और सब से बड़ा आघात कविता को इस तरह लगेगा यह उस की कल्पना से परे था. वह मुरली को किसी और से बांटने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी, और किसी गैर औरत के साथ संबंध रखने की बात उस के दिल में उतर नहीं रही थी. उसे लगने लगा जैसे मुरली इतने साल उस से प्यार करने का केवल ढोंग रचता आया है और उस की खुशियों का संसार केवल झूठ की इमारतों से बना हुआ था.

“कविता, एक बार बात सुन लो,” मुरली ने एक बार फिर कहा लेकिन कविता ने उसे देख कर मुंह फेर लिया था.

“जैसा तुम सोच रही हो वैसा कुछ नहीं है, मेरा उस औरत…” मुरली कह ही रहा था कि कविता ने उस की बात बीच में ही काट दी और बोली, “इसीलिए आते थे तुम यहां. और कितनी औरतों के साथ घर बसाएं हैं तुम ने और कितने बच्चे पाले हुए हैं यहां,” उस का गला रूंध गया था.

“ऐसा कुछ नहीं है, मैं ऐसा आदमी नहीं हूं तुम जानती हो. यह बस सालों पहले की गलती थी और बस एक ही बार हुआ था जो हुआ था. मैं इस औरत से उस के बाद कभी मिला भी नहीं, न मुझे कुछ सालों पहले तक सुमन के बारे में पता था. मेरे लिए तुम और कोमल ही मेरा सब कुछ हो और कोई भी नहीं….”

“हां, इसलिए तो धोखा दिया है इतना बड़ा. मैं कल ही अपने भैया के घर चली जाऊंगी मनीना. रख लेना अपनी दोनों बेटियों को और उस औरत को अपने पास. मुझे न यहां रहना है न किसी से कोई रिश्ता रखना है. यह दिन देखने से अच्छा तो मैं शहर में कोरोना से ही मर जाती,” कविता कहती ही जा रही थी.

“तुम कहीं नहीं जाओगी और न मरने की बातें करोगी,” मुरली की आंखों में आंसू थे. वह कविता के आगे घुटनों के बल झुक गया और उस के दोनों हाथ अपने हाथों में ले कहने लगा, “मैं ने कभी उस से प्यार नहीं किया, किसी से नहीं किया तुम्हारे अलावा, सच कह रहा हूं. हम जल्द ही दिल्ली चलेंगे और इस गांव की तरफ मुड़ कर नहीं देखेंगे. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई, मुझे माफ कर दो,” मुरली सुबकने लगा था. कविता और मुरली दोनों ही रोये जा रहे थे और अब शब्द भी उन के कंठ में अटक कर रह गए थे.

कुछ देर ही बीती थी कि दरवाजे पर एकबार फिर दस्तक हुई. मुरली उठा और मुंह पोंछ कर दरवाजा खोलने गया. कविता ने सिर पर दुपट्टे से पल्ला डाला और रसोई से बाहर खड़ी हो देखने लगी.

दरवाजे पर खुद को मुखिया समझने वाले कुछ बुजुर्ग, चौधरी बन घूमने वाले कुछ नौजवान जिन में से कईयों को मुरली जानता था, लाठी लिए एक बूढ़ी औरत जिसे उम्र के चलते चौधराइन बनने की पूरी इजाजत थी, कुछ औरतें जो मुंह पर पल्ला डाले चुगली के इस सुनहरे अवसर को छोड़ना नहीं चाहती थीं, और कुछ बिना किसी मतलब के आए बच्चे थे. किशोर भी वहीं था लेकिन उस के चहरे पर कोई गुस्सा नहीं था बल्कि असमंजस के भाव मालूम पड़ते थे.

मुरली ने हाथ जोड़े तो बाहर खड़े लोगों में से मुरली के दूर के ताऊ लगने वाला वृद्ध पूरे अधिकार से आंगन में आने लगा जिन के पीछे पूरी फौज भी आ धमकी. मुरली जानता था अब यहां पंचायती होगी और उस पर खूब कीचड़ उछलेगा पर वह यह नहीं जानता था कि असल कीचड़ में किशोर लथपथ होने वाला है.

लोगों ने आंगन का कोनाकोना घेर लिया और कोई चारपाई तो कोई जमीन पर ही चौकड़ी जमा बैठ गया.

“गांव में सुबह से तुम लोगों के बारे में बाते हो रही हैं, हम ने सोची कि पूछें गाम में का माजरो है,” बुजुर्ग मुखिया ने कहा.

“तेरे और किशोर की लुगाई के बीच का चलरो है तू खुद ही बता दे,” दूसरे बुजुर्ग ने कहा.

“मुखिया जी, मैं तुम से कह रहा हूं के ऐसी कोई बात ना है, दोनों छोरियों की शकल मिल रही है तो बस इत्तेफाक है,” किशोर ने कहा.

किशोर के मुंह से यह सुन कर मुरली को हैरानी हुई. मतलब या तो किशोर सब जानता है या जानना नहीं चाहता है.

“जा दुनिया में एक शक्ल के 7 आदमी होते हैं, तुम लोग गांव के गवार ही रहोगे, बेमतलब बहस कर रहे हैं. मैं तुम से कह रहा हूं ना घर कू चलो, यह पंचायती करने का कोई फायदा नहीं है. बात का बतंगड़ मत बनाओ,” किशोर ने फिर कहा.

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मुरली सब के बीच चुप बैठा था और कविता कोने में खड़ी सब सुन रही थी.

“ऐसे कैसे मान लें के कोई बात ना है. हम कोई आंधरे थोड़ी हैं. तेरी बीवी का चक्कर है इस मुरली के साथ, हम जा बात की सचाई जानीवो चाहत हैं,” एक ने कहा.

“मुखिया जी, तुम मेरे घर के मामले में मत कूदो, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं,” किशोर बोला.

“ऐसे कैसे न बोलें, यह तेरे घर का मामला नहीं है अब गाम को मामला है, गाम की इज्जत को मामलो है,” बूढ़ी औरत ने कहा.

“अरे, चम्पा जा तू जाके इस की लुगाई को बुलाके ला,” दूसरे बुजुर्ग ने कहा.

ललिता भी मुरली के आंगन में आ गई. उस ने मुंह घूंघट से ढका हुआ था और हाथ बांधे खड़ी थी. सुमन उस के साथ ही थी.

“हां, ये छोरी तेरी और मुरली की है बता अब सब को,” पीछे से आवाज आई.

“गाम से निकाल दो ऐसी औरत को तो, पति के पीठपीछे रंगरलियां मनाने वाली औरत है ये,” किसी औरत ने कहा.

“मैं न कहता था ललिता भाभी के चालचलन अच्छे न हैं, अब देख लो,” यह गली का ही कोई लड़का था जिस की किशोर से अच्छी दोस्ती थी और ललिता से भी बेधड़ंग मजाक किया करता था.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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