Film Review- ‘‘बबलू बैचलर”: शर्मन जोशी का बेहतरीन अभिनय भी फिल्म को स्तरीय नहीं बनाती!

निर्माता: राफत फिल्मस

निर्देशक और कैमरामैन: अग्निदेव चटर्जी

कलाकार: शर्मन जोशी, पूजा चोपड़ा, तेज श्री प्रधान, राजेश शर्मा, लीना प्रभू, मनोज जोशी, लीना भट्ट,राजू खेर , स्वीटी वालिया, सुमित गुलाटी व अन्य

अवधि: दो घंटे दस मिनट

प्यार व शादी को लेकर कई फिल्में बन चुकी हैं. अब फिल्मकार परफैक्ट जीवन साथी की तलाष को लेकर एक फिल्म ‘‘बबलू बैचलर’’ लेकर आए हैं, जो कि 22 अक्टूबर को सिनेमाघरों में पहुंची है. वैसे यह फिल्म 22 मार्च 2020 को सिनेमाघरों मंे आने को तैयार थी, मगर 17 मार्च 2020 से ही पूरे देश के सिनेमाघर बंद हो जाने से यह फिल्म प्रदर्शित नहीं हो पायी थी. अब यह फिल्म प्रदर्शित हुई है.

कहानीः

फिल्म की कहानी के केंद्र में लखनउ शहर में रह रहे जमींदार ठाकुर साहब(राजेश शर्मा) के बेटे बबलू (शर्मन जोशी ) के इर्द गिर्द घूमती है. बबलू पिछले सात साल से परफैक्ट जीवन साथी की तलाश में लगे हुए हैं. शादी कराने वाले मशहूर एजेंट तिवारी(असरानी) भी उनकी मदद नही कर पाते. तिवारी, बबलू व उनके परिवार को अवंतिका(पूजा चोपड़ा )से मिलवाते हैं.

लेकिन अवंतिका का अपना बॉयफ्रेंड है, पर वह अपने माता पिता से इस बारे में नहीं बताती, जिसके चलते अवंतिका और बबलू की शादी तय हो जाती है. मगर दूसरे दिन अवंतिका, बबलू को मिलने के लिए बुलाती है और उसे सच बताते हुए शादी तोड़ने के लिए कहती है. बबलू अपने घर पर ऐेलान कर देता है कि वह अवंतिका से शादी नहीं करेगा. फिर अपने फूफा की बेटी की शादी में बबलू की मुलाकात महत्वाकांक्षी व फिल्म हीरोईन बनने का सपना देख रही स्वाती (तेजश्री प्रधान) से होती है.जिससे बबलू को प्यार हो जाता है.

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और बबलू अपने घर पर स्वाती को अपनी बचपन की प्रेमिका बताकर षादी कर लेता है. एक रियालिटी शो के लिए ऑडिशन दे चुकी स्वाती को उसके परिणाम की प्रतीक्षा है, इसलिए वह पहली रात हनीमून मनाने से इंकार कर देती है.फिर दोनों हनीमून मनाने के लिए दूसरी जगह जाते हैं, पर रियालिटी शो में चयन हो जाने के कारण वह बबलू को नींद की गोली मिश्रित दूध पिलाती है,कुछ देर में बबलू सो जाते हैं और बबलू के नाम पत्र लिखकर स्वाती मंुबई चली जाती है.अपनी पत्नी को वापस लाने के लिए बबलू मंुबई जाता है,जहां उसकी मुलाकात फिर से अवंतिका से होती है,जो कि अब पत्रकार और एक टीवी चैनल की हेड बन चुकी है.

अवंतिका,बबलू को स्वाती तक पहुंचाती है. मगर स्वाती, बबलू संग वापस आने से इंकार कर देती है.बबलू को अवंतिका से और अवंतिका को बबलू से प्यार भी हो जाता है. मगर स्वाती की वजह से बबलू अवंतिका के प्यार को स्वीकार किए बगैर लखनउ वापस आ जाता है. इधर अवंतिका का सहायक चैनल पर स्वाती के षादीषुदा होने की खबर चला देता है.

अचानक एक दिन पता चलता है कि ठाकुर साहब ने बबलू की पुनः स्वाती से शादी करने की तैयारी कर ली है, तभी वहां पर अवंतिका भी पहुंचती है. फिर काफी कुछ घटता है.

लेखन व निर्देशनः

अग्निदेव चटर्जी अच्छे कैमरामैन हैं, मगर निर्देशन में वह मात खा गए. उनका निर्देशन किसी भी दृश्य में प्रभावी नहीं लगता. फिल्म की पटकथा भी काफी बिखरी हुई और कमजोर है. फिल्म की शुरूआत रेडियो पर प्रसारित हो रहे शादी कराने वाले एक एप के विज्ञापन से होती है, पर उसका फिल्म की कहानी में कोई योगदान नही होता.इसका उपयोग ही गलत -सजयंग से किया गया है.

कहानीकार सौरभ पांडे ने उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि में परफैक्ट जीवन साथी की तलाश की एकदम सही उठायी, मगर बाद में कई तरह के उपदेश ठूंसते हुए पटकथा बहुत गड़बड़ कर दी. सारे दृश्य घिसे पिटे हैं. मसलन,बबलू और उनके पिता का सिगरेट पीने वाला दृष्य जिसमें स्वाती के घर से भाग जाने पर बात करते हुए पिता, बबलू से उसे वापस लेकर आने के लिए कहते हैं. मुंबई में जब बबलू , अवंतिका के साथ स्वाति के घर पर मिलता है,तो स्वाती जिस तरह का व्यवहार करती है, वह बहुत ही हास्यास्पद है.

इंटरवल से पहले कुछ हद तक फिल्म ठीक है,मगर इंटरवल के बाद जिस तरह से फिल्म आगे ब- सजय़ती है, उसे देखते हुए दर्शक सोचने लगता है कि यह कब खत्म होगी. क्लायमेक्स तक पहुंचते पहुंचते फिल्म दम तोड़ चुकी होती है.फिल्म के ज्यादातर संवाद बेकार है. अवंतिका के सहायक द्वारा स्वाती के षादीषुदा होने की खबर को जिस -सजयंग से दिखाया गया है, उसका भी कहानी में कोई योगदान नजर नही आता.पटकथा लेखक व फिल्मकार ने रायता काफी फैलाया, मगर उसे समेटने में बुरी तरह से विफल रहे हैं.

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अभिनयः

कुंवारे बबलू के किरदार में शर्मन जोशी ने बेहतरीन अभिनय किया है. वह विभिन्न भावनाओं को व्यक्त करने में सफल रहे हैं. लेकिन पब के अंदर के गाने में वह जमते नही है. मगर शर्मन जोशी का उत्कृ-ुनवजयट अभिनय फिल्म को डूबने से बचाने में समर्थ नहीं है.

अवंतिका के किरदार में पूजा चोपड़ा अपने अभिनय की छाप छोड़ जाती हैं. स्वाती के किरदार में तेजश्री प्रधान कुछ खास जलवा नही दिखा पायीं.

Film Review- शुभो बिजया: गुरमीत चौधरी व देबिना बनर्जी का बेहतरीन अभिनय

रेटिंग: तीन स्टार

निर्माता:एसोर्टेड मोशन पिक्चर्स, जीडी

प्रोडक्शन और वहाइट एप्पल

निर्देशक: राम कमल मुखर्जी

कलाकार: गुरमीत चैधरी, देबिना बनर्जी, खुशबू कारवा व अन्य

अवधि: 52 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: बिग बैंग

पत्रकार से निर्देशक बने राम कमल मुखर्जी ने पहले रितुपर्णो घो-ुनवजय  को श्रृद्धांजली देेते हुए फिल्म ‘‘सिटिजंस ग्रीटिंग्स’’ बनायी थी और अब ओ हेनरी की सबसे चर्चित लघु कहानी ‘गिफ्ट ऑफ मैगी’ को एक काव्यात्मक श्रद्धांजलि देनेके लिए फिल्म ‘‘षुभो बिजया’’ लेकर आए हैं. जो कि ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘बिग बैंग’’ पर स्ट्रीम हो रही है.

कहानी:

यह कहानी मशहूर फैशन फोटोग्राफर शुभो(गुरमीत चैधरी) और मशहूर फैशन मॉडल विजया (देबिना बनर्जी ) के इर्द गिर्द घूमती है. कहानी शुरू होती है कलकत्ता में अंधे शुभो के आरती(खुश्बू कारवा )के कैफे हाउस में पहुंचने से. जहां कैफे हाउस में आरती, शुभो को काफी पिलाते हुए उससे बिजया को लेकर सवाल करती है, तब शुभो को अपना अतीत याद आता है.

फैशन फोटोग्राफर के रूप में शुभो की तूती बोलती है.तमाम मॉडल, लड़कियां उसकी दीवानी हैं.मगर शुभो तो मशहूर फैशन मॉडल बिजया का दीवाना है. धीरे धीरे दोनों एक दूसरे के प्यार में पड़ जाते हैं और फिर शादी कर लेते हैं. जीवन खुशहाल जा रहा था कि अचानक पता चलता है कि बिजया को चौथे स्टेज का त्वचा कैंसर/स्क्रीन कैंसर है. विजय डॉ. रश्मी गुप्ता से कहती है कि यह सच शुभो को नहीं पता चलना चाहिए. पर एक दिन जब शुभो कार चला रहा था, तब डा. रश्मी गुप्ता फोन करके शुभो को सच बताती है, इस सच को सुनकर शुभो की कार का एक्सीडेंट हो जाता है.

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और शुभो की आंखो की रोशनी चली जाती है. उसके बाद वह अंधा बनकर चलने वगैरह की ट्रेनिंग लेता है. पर एक दिन बिजय, शुभो को छोड़कर चली जाती है. कुछ समय बाद शुभो वह घर और उस शहर को छोड़ने का फैसला कर लेता, जिस घर व शहर से बिजया की यादें जुड़ी हुई हैं. इस बीच शुभो की काफी खत्म हो चुकी है. आरती उससे कहती है कि कुछ लोग उसे मिस करेंगं.

शुभों काफी हाउस से निकलकर अपने घर पहुंचता है, जहां उसका सारा सामान पैक हो चुका है. फिर एक ऐसा सच सामने आता है,जो प्यार के नए चरमोत्क-नवजर्या को दिखाता है.

लेखन व निर्देशनः

ई-रु39या देओल के साथ ‘केकवॉक’,सेलिना जेटली के साथ ‘सीजन्स ग्रीटिंग्स’ और अविना-रु39या द्विवेदी के साथ ‘‘रिक्-रु39याावाला’की अपार सफलता व कई पुरस्कारों से नवाजे जा चुके राम कमल मुखर्जी ने फिल्म ‘‘शुभो बिजया’’ भी अपनी निर्देशकीय प्रतिभा को उजागर किया है.

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वह बहुत स्प-नवजयटता के साथ युगल के बीच के रि-रु39यते में कड़वे मधुर क्षणों को उजागर करते हैं. मगर बीच में पटकथा शिथिल पड़ जाती है. निर्देशक राम कमल मुखर्जी मूलतः बंगाली हैं, तो उम्मीद थी कि वह इस फिल्म में बंगाली विवाह को विस्तार से दिखाएंगे,मगर उन्होंने बहुत ही लघु रास्ता अपनाया.

अभिनयः

मशहूर युवा फै-रु39यान फोटोग्राफर की भूमिका में गुरमीत चैधरी ने उत्कृनवजयट अभिनय किया है. अंधे इंसान की भूमिका में वह अपनी अभिनय प्रतिभा से द-रु39र्याकों को आ-रु39यचर्य चकित करते हैं. वहीं मशहूर फैशन मॉडल बिजया के जटिल किरदार को देबिना बनर्जी ने जीवंतता प्रदान की है. खुश्बू कारवा के हिस्से करने को कुछ खास आया ही नही.

Film Review-‘‘निर्मल आनंद की पप्पी”: कमजोर लेखन व निर्देशन

रेटिंग: डेढ़ स्टार

निर्माताः गिजू जाॅन व संदीप मोहन

लेखक व निर्देशकः संदीप मोहन

कलाकार: करनवीर खुल्लर,गिलियन पिंटो,खुशबू,सलमिन शेरिफ,विपिन हीरो,सफून फारुकी,अविनाश कुरी, ज्योति सिंह, अमन शुक्ला,अश्वनी कुमार, नैना सरीन व अन्य

अवधि: एक घंटा चालिस मिनट

मुंबई जैसे शहरों में एकरसता का जीवन जीने वाले परिवारों और आधुनिक  रिश्तों पर फिल्म ‘‘निर्मल आनंद की पप्पी’ लेकर आए हैं. फिल्मकार संदीप मोहन, जो कि सत्रह सितंबर को सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी.

कहानीः

एक मधुमेह विरोधी दवा कंपनी में कार्यरत एम आर निर्मल आनंद (करनवीर खुल्लर) और उसकी ईसाई पत्नी सारा (गिलियन पिंटो) के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है.दंपति अपनी बेटी ईषा व पालतू कुत्ते परी के साथ मुंबई में एक आरामदायक जिंदगी जीते हुए जल्द ही अपने दूसरे बच्चे की उम्मीद कर रहे हैं.माता-पिता के समर्थन के अभाव में उनका पारिवारिक नेटवर्क उनके प्यारे कुत्ते परी तक ही सीमित है.निर्मल को यह पसंद नहीं कि उनकी बेटी ईषा हमेशा इमारत में अन्य लड़कियों की बजाय एक लड़के दीपू के साथ ही खेले.

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बेटी की देखभाल करने के लिए वह पत्नी को पूर्णकालिक नौकरी करने नही देता. लेकिन एक के बाद एक होने वाली दो घटनाओं से निर्मल को पता चलता है कि उसे मधुमेह/ डायबिटीज है.वह कुछ दिन मधुमेह से छुटकारा पाने के लिए उपाय करने लगता है और काम करने में उसका मन नहीं लगता.यह एक बड़ी विडंबना को चिह्नित करता है,जो उसके अहंकार के लिए एक बड़ा झटका बन जाता है.

इसी बीच परी का भी निधन हो जाता है. दोनों घटनाओं का योग इस घनिष्ठ रूप से बंधे परिवार पर काफी असर डालता है.तभी निर्मल आनंद को अचानक एक फिल्म में अभिनय करने का अवसर मिलता है. जिसमें वह टैक्सी ड्रायवर का किरदार निभाता है.यहीं से उसकी पत्नी के साथ उसके संबंधों में तनाव आता है. जैसे ही निर्मल अपनी पहली फिल्म की शूटिंग शुरू करते हैं, दंपति की जिंदगी में दूरियां बढ़ने लगती है.फिल्म में निर्मल का चुंबन दृश्य करना सारा को रास नही आता.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म की पटकथा बहुत धीमी गति से चलती है.फिल्म में कई दृश्यों को दोहराव है.खासकर जब निर्मल एक अभिनेता बनने की इच्छा रखते हैं और एक टैक्सी चालक के जीवन के बारे में अपनी समझ को सुधारने के लिए विधि अभिनय तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं. अपने पालतू कुत्ते (परी) के प्रति दंपति के लगाव को विकसित करने में बेवजह फिल्म खींची गयी.फिर भी उसे केवल एक सहारा के रूप में उपयोग किया गया है.

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जबकि कुत्ते परी के माध्यम से कहानी में बहुत कुछ रोचक तत्व पिरोए जा सकते थे,पर लेखक व निर्देषक मात खा गए.संवाद प्रभावशाली नही बन पाए हैं.फिर भी यह फिल्म एक सामान्य व्यक्ति के जीवन को काफी सरल तरीके से चित्रित करने में सफल है.फिल्म का क्लायमेक्स बहुत साधारण है.फिल्म की कहानी में जितने भी मोड़ हैं,उनका अहसास पहले से ही हो जाता है.यह लेखक व निर्देशक दोनों की विफ लता हैं. फिल्म के कैमरामैन ने बहुत निराश किया है.

अभिनयः

निर्मल के किरदार में अभिनेता करनवीर खुल्लर ने अच्छा अभिनय किया है. कुछ दृश्यों में उनके चेहरे के भाव उन्हे बेहतरीन कलाकार के रूप में उभारते हैं.उनके हाव-भाव से पता चलता है कि वह किस दौर से गुजर रहे हैं. गिलियन पिंटो को ऑन-स्क्रीन देखना एक खुशी की बात है.वह सहजता से एक मां,एक जिम्मेदार पत्नी और एक कामकाजी महिला की भावनाओं को व्यक्त करती है.पर एक उत्कृष्ट अदाकारा बनने के लिए उन्हें अभी मेहनत करने की जरुरत है. अन्य कलाकारों का अभिनय ठीक ठाक है.

Film Review- हेलमेटः कमजोर लेखन व निर्देशन

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताःसोनी पिक्चर्स और डीनो मोरिया

निर्देशकः सतराम रमानी

कलाकार: अपारशक्ति खुराना, प्रनूतन बहल, अभिषेक बनर्जी, आशीष विद्यार्थी, शारिब हाशमी, रोहित तिवारी, सानंद वर्मा, हिमांशु कोहली, दीपक वर्मा,जयशंकर त्रिपाठी,अनुरीता झा, श्रीकांत वर्मा और अन्य.

अवधिः एक घंटा 44 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5

भारत में बहुत से विषयों पर बात करने से लोग हिचकते हैं. कुछ चीजों पर बात करना ‘टैबू’बना हुआ है. उन्हीं में से जनसंख्या नियंत्रण के उपाय के तौर पर कंडोम का उपयोग करना भी षामिल है. हमारे देश में कंडोम खरीदते हुए लोग झिझकते हैं.कंडोम के बारें में बात करना भी गंवारा नही है.इसी मुद्दे पर फिल्मकार सतराम रमानी फिल्म ‘‘हेलमेट’’ लेकर आए हैं,जो कि तीन सितंबर से ‘जी 5’’पर स्टीम हो रही है.

कहानीः

जोगी(अशीष विद्यार्थी) के साले गुप्ता(श्रीकांत वर्मा ) की शादी व्याह में बैंड बाजा बजाने वाली बैंड कंपनी है, जिसमें गीत गाने वाले अनाथ युवक लक्की(अपारषक्ति खुराना ) संग जोगी की बेटी रूपाली(प्रनूतन बहल) को प्यार है. लक्की और रूपाली के बीच प्यार की खिचड़ी पकते हुए चार वर्ष हो गए हैं. एक शादी के मौके पर जहां फूलों से सजावत करने का काम रूपाली करते हैं.वहीं रूपाली व लक्की को एक कमरे में एकांत मिलता है,पर हमबिस्तर होने केे लिए रूपाली,लक्की से कंडोम लेकर आने के लिए कहती है.

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लक्की, शंभू मेडिकल स्टोर पर जाने के बावजूद कंडोम नहीं खरीद पाता. रूपाली कहती है कि लक्की उसके पिता जोगी से उसका हाथ मांगकर शादी कर ले. लक्की जोगी के पास जाता है, मगर रूपाली के सामने ही जोगी,लक्की से कहते हैं कि वह रूपाली की शादी अमरीका में रह रहे विक्रम से करेंगे,जिसकी कमायी तीन लाख है. इतना ही नहीं गुप्ता जी लक्की को अपने बैंड से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं.अब लक्की के पास नौकरी नही है.अपना खुद का बैंड शुरू करने के लिए पैसे नही है.

उसका दोस्त माइनस(अषीष वर्मा ) भी बेरोजगार है.माइनस के दोस्त सुल्तान(अभिषेक बनर्जी ) को बंटी (शारिब हाशमी) का कर्ज चुकाना है. अब लक्की,माइनस व सुल्तान तीनों योजना बनाकर एक ट्क से मोबाइल से भरे डिब्बे समझ कर चुुराते हैं.पर उन डिब्बों में मोबाइल की बजाय कंडोम के छोटे छोटे डिब्बे निकलते हैं.अब क्या करेे?तब तीनो हेलमेट पहनकर अपनी शक्ल व पहचान छिपाकर कंडोम के छेटे डिब्बे बेचना शुरू करते हैं. रूपाली भी उनका साथ देती है.पैसे आते ही लक्की अपना ‘‘लक्की ब्रास बैंड’’ शुरू करता है. पर जोगी, गुप्ता से कहते हैं कि लक्की का बैंड शुरू न होने पाए.उसके बाद कई घटनाकम्र तेजी से बदलते हैं.

लेखन व निर्देशन:

आयुष्मान खुराना जिस तरह की फिल्में करते हैं,उसी तरह की फिल्म सतराम रमानी ‘हेलमेट’लेकर आए हैं,मगर पटकथा बहुत कमजोर हैं. कहानी में नयापनद नही है.इस तरह की प्रेम कहानी साठ व सत्तर के दशक में काफी नजर आती थीं.इतना ही नही फिल्म में लक्की व रूपाली के रोमांस को भी ठीक से चित्रित नहीं किया जा सका.सब कुछ एकदम मोनोटोनस है. फिल्म में ह्यूमर का घोर अभाव है. जबकि इस तरह के विषय वाली फिल्म में ह्यूमर तो अनिवार्य रूप से होना चाहिए.कुछ दृश्य बड़े अजीबोगरीब हैं.दो दशक पूर्व एड्स की बीमारी का हौव्वा पैदा हुआ था.

उस वक्त एड्स जागरूकता मिशन के तहत कई एनजीओ कार्यरत हुए थे, उसी की पृष्ठभूमि में 2021 में लोगों को जन्म नियंत्रण के बारे में शिक्षित करने के साथ-साथ ‘कंडोम’खरीदने की शर्म और शर्मिंदगी को पेश करने का यह असफल प्रयास है. इस तरह के विषयों में ह्यूमर व व्यंग्य अनिवार्य होता है.पर सतराम रामनी बुरी तरह से मात खा गए.हास्य के दृश्य मेलोडमौटिक हो गए हैं. हकीकत में लेखन व निर्देशन इस कदर कमजोर है कि एक बेहतरीन विषय का सट्टानाश हो गया है.

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अभिनय:

अफसोस अपारशक्ति अपने अभिनय को निखार नही सके.लक्की के किरदार में अपारशक्ति खुराना को देखकर इस बात का अहसास हुआ कि उनके अंदर की अभिनय क्षमता को निकालने का काम अच्छा निर्देषक ही कर सकता है.क्योकि पिछली फिल्मों में अपारशक्ति बेहतरीन अभिनय कर चुके हैं. अपारशक्ति खुराना और आशीष वर्मा के पास तो स्वाभावकि मजाकिया गुण है,मगर वह भी इस फिल्म में नजर नहीं आया.अभिषेक बनर्जी का काम अच्छा है.आशीष वर्मा भी जमे नही. प्रनूतन बहल खूबसूरत लगने के अलावा कुछ नही कर पायी.उन्हे अपनी अभिनय प्रतिभा को निखारने के लिए काफी मेहनत करने की जरुरत है.अशीष विद्यार्थी की प्रतिभा को जाया किया गया है.षारिब हाषमी ने फिल्म क्यों की,यह समझ से पर है.

Web Series Review-DIAL 100: निराश करती है मनोज बाजपेयी की ये फिल्म

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः सोनी पिक्चर्स

निर्देशकः रेंसिल डिसिल्वा

कलाकारः मनोज बाजपेयी, साक्षी तंवर, नीना गुप्ता व अन्य

अवधि: 1 घंटा 44 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5

पुलिस अफसर हर दिन आम इंसान की तकलीफो की चाहे जितनी शिकायतें दर्ज कर लें, पर उनकी भयावता का अहसास उसे तब तक नहीं होता, जब तक वह स्वयं उसके चंगुल में न फंस जाएं. इसी के इर्द गिर्द बुनी गयी रेंसिल डिसिल्वा की रहस्य व रोमांच प्रणान फिल्म ‘‘डायल 100’’ जी 5’ पर स्ट्रीम हो रही है.

कहानी:

फिल्म की कहानी शुरू होती है पुलिस के आपातकाल विभाग डायल 100 में कार्यरत पुलिस अधिकारी निखिल सूद (मनोज बाजपेयी) के आफिस पहुंचने से. डायल 100 में एक महिला फोन करके निखिल सूद से बात करना चाहती है. निखिल सूद से वह बात करती है कि वह आत्महत्या करने जा रही है. क्योंकि उसका बेटा अमर मारा गया और अमर को अपनी गाड़ी से मौत के घाट उतारने वाले यश को पुलिस सजा नहीं दिला पायी. क्योंकि यश करोड़पति बाप का बेटा है.

निखिल सूद को वह औरत बताती है कि उसने दो गन खरीद ली है और अब वह कुछ भी कर सकती है. फोन कट जाता है.इधर पुलिस विभाग का कंट्रोल रूम का कनेक्शन भी कट जाता है. उधर निखिल की पत्नी प्रेरणा सूद (साक्षी तंवर) परेशान है कि अठारह वर्षीय बेटा फिर दोस्तो के साथ पार्टी में चला गया. निखिल अपने बेटे ध्रुव (स्वर कांबले) को फोन करके तुरंत घर पहुंचने के लिए कहता है. इधर एक औरत (नीना गुप्ता) निखिल सूद के घर पहुंचती है और पता चलता है कि वह मर चुके अमर की मां है. वह प्रेरणा सूद को बंदू की नोक पर अपने साथ कार में ले जाती है.

इधर निखिल सूद को पता चलता है कि वह औरत अमर की मां सीमा पालव (नीना गुप्ता) है. तभी सीमा पालव फोन कर निखिल से कहती है कि ध्रुव, तांडव बार में यश मेहरा (अमन गंडोत्रा) को ड्रग्स देने जा रहा है.

ध्रुव ड्रग्स व्यापारी मुश्ताक के लिए काम करना है. सीमा चाहती है कि निखिल, ध्रुव से कहकर कि वह यश को पार्किंग स्थल पर बुलाए. चालाकी करने पर ध्रुव के साथ साथ प्रेरणा भी मारी जाएगी. इधर पुलिस अधिकारी मूर्ति के माध्यम से निखिल को पत चलता है कि सीमा पालव उसके अलावा जिस नंबर पर बार बार फोन कर रही है, उस नंबर वाला फोन निखिल के आफिस में ही है.पता चलता है कि वह सीमा पालव का पति चंद्रकांत है,जो कि चाय वाले मंगेष का चाचा बनकर चाय पिला रहा है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंततः चंद्रकांत पालव, सीमा पालव व ध्रुव मारे जाते हैं. यश घायल होता है, पर जीवित बच जाता है. अब पुलिस कमिश्नर चाहते है कि निखिल, सीमा के साथ हुई बातचीत सहित सारे सबूत मिटा दे. यश के पिता निखिल की हर तरह से मदद करने को तैयार हैं. पर निखिल सोचने के बाद सारे सबूतों को एक पेन ड्राइव मे लेने के बाद एक टीवी न्यूज चैनल के क्राइम रिपोर्टर को फोन करता है.

लेखन व निर्देशनः

पुलिस विभाग के आपात विभाग ‘डायल 100’’में बैठे पुलिस अफसरों की कार्यशैली, डर और बदले ही इस रहस्य व रोमांच प्रधान फिल्म का रहस्य दस मिनट के अंदर ही खत्म हो जाता है और रोमांच तो कहीं है ही नहीं. वास्तव में पौने दो घंटे की कहानी में रेंसिल डिसिल्वा के पास कहने को कुछ है ही नहीं. सब कुछ अति सतही अंदाज में धीरे धीरे घटित होता रहता है. कहानी में उतार चढ़ाव का भी अभाव है.

अभिनयः

एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अफसर और एकलौटे बेटे को बचाने के अंर्तद्वंद व दोहरे व्यक्तित्व को मनोज बाजपेयी ने अपने अभिनय से बाखूबी उकेरा है. बेटे के लिए चिंतित मां व असहाय पत्नी के किरदार में सांझी तंवर ठीक हैं. नीना गुप्ता का अभिनय सहज है.

Film Review: पीटर

रेटिंग: ढाई स्टार

निर्माताः ‘‘आनंदी इंटरप्राइजेज ‘‘,‘‘जंपिंग टोमेटो मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड ‘‘और ‘‘7 कलर्स सिने विजन ‘’

निर्देशकः अमोल अरविंद भावे

कलाकार: प्रेम बोरहडे, मनीषा भोर, अमोल

पंसारे, विनिता संचेती, सिद्धेश्वर सिद्धेश व अन्य.

अवधिःएक घंटा 43 मिनट

प्रेम, मासूमियत, अज्ञानता, विश्वास, भाग्य और अंधविश्वास के साथ ग्रामण समाज का वास्तविक चित्रण करने वाली मराठी भाषा की फिल्म‘पीटर’ फिल्मकार अमोल अरविंद भावे लेकर आए हैं,जो कि 22 जनवरी को सिनेमाघरों में प्रदर्षित हुई है.इस फिल्म में धर्म और साधु-संतों पर भी कटाक्ष के साथ इस बात का भी चित्रण है कि जब आस्था,अंधश्रृद्धा में परिवर्तिर्त हो जाती है,तो उसके किस तरह के दुष्परिणाम होते हैं.

कहानीः

फिल्म ‘पिटर‘ 10 वर्षीय बालक धन्या (प्रेम बोरहाडे) और बकरी के बच्चे की बीच की दोस्ती को बयां करने के साथ दिल को छू लेने वाली कहानी है. एक दिन धन्या के दादाजी, धन्या के चाचा को एक संत के पास ले जाते हैं. क्योंकि धन्या के चाचा की शादी के 5 वर्ष बीत जाने के बावजूद भी कोई संतान नहीं है. संत कहते हैं कि उन्हें भगवान सोनोबा को बकरे की बलि देनी पड़ेगी.फिर बकरे के मांस से बनी दावत पूरे गांव को दी जानी चाहिए.अब धन्या के पिता सोपन व चाचा दोनों बकरे की तलाश शुरू कर देते हैं.

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मगर गांव में फेस्टिवल के चलते बकरे खत्म हो गई है. आसपास के 4 गांव में तलाश करने के बाद उन्हें एक घर के सामने बकरी का एक बच्चा मिलता है, जिसकी मां सांप के काटने के कारण मर चुकी है. बकरी के बच्चे को भगवान सोनोबा को बलि नहीं दी जा सकती. ऐसे में निर्णय लिया जाता है कि बकरी के बच्चे को घर ले जाकर पांच छह माह तक पाल पोस कर बड़ा करेंगे,उसके बाद उसे सोनोबा भगवान को समर्पित कर देंगे. लेकिन घर आने के बाद धन्या, बकरी के बच्चे यानी कि बकरे के साथ खेलना शुरू कर देता है.

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धन्या को उसके दोस्त स्पाइडर मैन बुलाते हैं और स्कूल के दोस्त उस बाल बकरे को ‘पीटर‘बुलाने लगते हैं. क्योंकि धन्या, बकरे को अपना भाई मानता है. धीरे-धीरे धन्या और पीटर के बीच संबंध प्रगाढ़ होते जाते हैं . यह देख कर धन्या की मां को चिंता सताने लगती है कि जब पीटर की बलि देने का दिन आएगा,तो क्याहोगा?

धन्या की मां पारु की इच्छा के विपरीत एक दिन धन्या की आंखो केसामने ही भगवान सोनोबा को पीटर की बलि दे दी जाती हैं.इस घटना से धन्या को सदमा लगता है और वह एकदम गुमसुम रहने लगता है. फिर धन्या के पूरे परिवार को पता चलता है कि धन्या की चाची गर्भनिरोधक गोली का सेवन करती हैं, इसी कारण बच्चा नहीं हो रहा है. क्योंकि धन्या की चाची लीला खुद भी मां नहीं बनना चाहती.

तब पूरे परिवार को एहसास होता है संत ने भी मूर्ख बनाया.अब धान्या की मां उसे स्वस्थ करने के लिए प्रयासरत है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्मकार अमोल अरविंद भावे की मराठी भाषा की फिल्म‘‘पिटर’’बाल मन को पढ़ने के साथ ही समाज का एक कच्चा और वास्तविक दर्पण है,जिसमें धर्म के नाम पर प्रचलित प्रथाओं व अंधविष्वास पर कठोर प्रहार किया गया है.इसमें फिल्मकार ने इस बात का सटीक चित्रण किया है कि किस तरह ढोंगी साधु व संत निजी स्वार्थ पशुओं  की बलि चढ़वाकर हकीकत में मानवता का बलिदान करते हैं.इस यथार्थपरक फिल्म से वह समाज के हर तबके को यह संदेश भेजने में सफल रहे हैं कि ‘ईश्वर पर विश्वास होना चाहिए,मगर अंध श्रृद्धा नही.इसके साथ ही मनोरंजक तरीके से एक बच्चे के माध्यम से फिल्मसर्जक ने इस बात का सफल आव्हान किया है कि बकरे की बलि प्रथा बंद की जानी चाहिए.मगर फिल्म कीगति काफी धीमी है.इसे एडीटिंग टेबल पर कसे जाने की जरुरत थी.फिल्म में ग्रामीण परिवेश का चित्रण काफी सटीक है.

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अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो बाल कलाकार प्रेम बोरहाडे ने कमाल का अभिनय किया है.अन्य कलाकार भी अपने अपने किरदार में ठीक जमे हैं.

बेहतरीन फिल्मों की एंथोलाजी है UN PAUSED

रेटिंगः चार स्टार

निर्देशकः निखिल आडवाणी, तनिष्ठा चटर्जी, राज एंड डीके,  नित्या मेहरा और अविनाश अरुण

कलाकारः गुलशन देवैया, सैयामी खेर, रिचा चड्डा, सुमीत व्यास और ईश्वक सिंह, लिलेट दुबे, रिंकू राजगुरू, अभिषेक बनर्जी और गीतिका विद्या ओहलियान, रत्ना पाठक शाह और शार्दूल भारद्वाज.

अवधिः एक घंटा 53 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः अमेजान प्राइम वीडियो

कोरोना महामारी व लाकडाउन के चलते लोगों के जीवन मे काफी अवसाद आ गया है. रिश्तों में खटास आ गयी है, लोग बेरोजगार व आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं, ऐसे वक्त में लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाने व जीवन की नई शुरूआत का संदेश देने वाली बेहतरीन कहानियों को लाने का यह अमेजान प्राइम वीडियो का सार्थक व सकारात्मक प्रयास है. पांच नई लघु फिल्मों की एंथेलाजी ‘अनपाॅज्ड’ अप्रत्याशित समीकरणों को बोध कराती है. इसके सभी लेखक व निर्देशक बधाई के पात्र हैं.

‘अनपाज्ड’’ की पांच कहानियों में से पहली कहानी राज – डीके निर्देशित ‘ग्लिच’ है, जिसकी कहानी कोरोना महामारी के मौजूदा समय की है, जब लोगों के मन में एक दूसरे के संपर्क में आने का डर व्याप्त है. ऐसे ही दौर में अहान (गुलशन देवैया) हाइपो है, उसे हरदम यह भ्रम रहता है कि उसे कोई गंभीर बीमारी है. पर 193 वें ब्लाइंड डेट पर उसकी मुलाकात हरदम खुश रहने वाली एक अजीब सी लड़की आएशा हुसेन (सैयामी खेर) से होती है. पर जब उसे पता चलता है कि आएशा कोरोना वारियर है, तो वह डेट बीच में ही छेाड़कर भग खडा होता है, मगर फिर कई घटनाक्रम बदलते हैं.

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‘‘अनपाज्ड’’की दूसरी कहानी निखिल आडवाणी निर्देशित ‘‘अपार्टमेंट’’ है. इसकी कहानी एक सफल आनलाइन मैगजीन की मालकिन देविका (रिचा चड्डा) के इर्द गिद घूमती है. एक दिन उसे अपने पति साहिल खन्ना(सुमित व्यास) की पांच लड़कियों संग गलत यौन संबंधों के बारे में पता चलता है, तो उसे गहरा सदमा लगता है. वह खुद को इस हालात से तालमेल बैठा पाने में असमर्थ पाती है. और आत्महत्या करना चाहती है, पर एक युवक (ईष्वक सिंह) उसे बहाने से बचा लेता. उधर उसका पति उसे दोषी ठहराता है कि उसने उसे रोका क्यो नहीं. देविका उलझनों के अंधेरे भंवर में डूबकर अपने को दोष देने लगती है और अपने जीवन को खत्म करने की कोशिश करती है. तभी उसके जीवन में एक परेशान करने वाले अजनबी की भेष में आशा की किरण जागती है. और फिर वह अपने पति के खिलाफ उन सभी औरतों को खुलकर आरोप लगाने की इजाजत दे देती है.

अनपाज्ड की तीसरी कहानी तनिष्ठा चटर्जी निर्देशित ‘रैट ए रैट’ है. इस कहानी के केंद्र में अर्चना (लिलेट दुबे) और कदम (रिंकू राजगुरू) दो ऐसी महिलाएं हैं, जिनकी उम्र में 40 चालिस साल का अंतराल है. अर्चना उत्तरप्रदेश से है, मगर एक महाराष्ट्रीयन से शादी की थी. अर्चना को संगीत का शौक है, पर पति विनय की मौत के बाद से वह एकाकी जीवन पसंद करती हैं. जबकि कदम एक महाराष्ट्रीयन लड़की है, बौलीवुड में संघर्ष कर रही है. अर्चना की पड़ोसी है कदम. लाकडाउन के दौरान एक दिन कदम के घर में चूहा आ जाता है, जिससे वह डरती है. और अर्चना का दरवाजा खुलवाती है, पहले तो अर्चना उसे अपने घर के अंदर आने की इजाजत नही देती. मगर धीरे धीरे उनमें असाधारण और अप्रत्याशित तरीके से मित्रता पनपती है, जो उनके जीवन में नई आशा का संचार करती है और इससे इन दोनों महिलाओं की जिंदगी की नई शुरुआत होती है.

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अनपाज्ड की चौथी कहानी अविनाश अरुण निर्देशित ‘‘विषाणु’’ है, जिसकी कहानी लाकडाउन के दौरान मुंबई मे फंसे राजस्थानी प्रवासी मजदूर परिवार की है. परिवार का मुखिया विष्णु (अभिषेक बनर्जी) अपनी पत्नी (गीतिका विद्या ओहलियान) और छोटे बच्चे के साथ एक निर्माणाधीन इमारत में काम करता है. मकान का किराया न देने सकने की वजह से उसे मकान मालिक मकान से निकाल देता है. यह परिवार निर्माणाधीन इमारत के सेंपल फ्लैट में अवैध ढंग से रहने लगता है. और एक सपना देखता है, जो कि उनके लिए एक अभिशाप बनकर सामने आता है, जिसमें उन्हें जिंदगी की कड़वी हकीकत का सामना करना पड़ता है.

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‘अनपाज्ड’ की पांचवी कहानी नित्या मेहरा निर्देशित ‘‘चांद मुबारक’’ है, जिसकी कहानी मुंबई में लाकडाउन के दौरान एक समृद्ध मध्यम उम्र की अकेली औरत उमा (रत्ना पाठक शाह) की है, जो रिक्शा चलाने वाले एक नौजवान रफीक (शार्दुल भारद्वाज) की मदद लेने के लिए मजबूर होती है. उमा काफी जिद्दी है और अपनी क्लास को लेकर काफी सतर्क रहती हैं. वह रिक्शा वाले के महिलाओं के प्रति दकियानूसी विचारों पर काफी क्रोधित होती है. जब यह अलग-अलग वर्ग से संबंध रखने वाले विपरीत विचारधारा के लोग तीन दिन एक साथ गुजारते हैं तो वह धीरे-धीरे अपने विचारों को छोड़ना शुरू करते हैं. उनमें एक-दूसरे के प्रति सम्मान का नया भाव जागता है और आपसी समझदारी की भावना पनपती है. दोनों महसूस करते हैं कि वह एक-दूसरे से इतने अलग नहीं है. बल्कि दोनों ही सपनों के इस शहर में बहुत अकेले हैं.

लेखन व निर्देशनः

‘कोरोना महामारी’से जुड़ी पांच लघु फिल्मों को जिस तरह से एक साथ जोड़कर ‘अमेजान’ लेकर आया है, वह वास्तव में एक सुखद अहसास दिलाता है. पांचों फिल्में कोरोना का रूदन नही है. बल्कि इन कहानियों में बीमारी की गंभीरता, मौत, मजबूर मजदूर,  आमदनी का बंद होना, तालांदी, मास्क लगाने से लेकर हर तरह की वास्तविकता के चित्रण के साथ जिंदगी को नए जोश के साथ जीने की बातें हैं. फिल्में रिश्तों की मधुरता और जिंदगी की नई शुरूआत की बात करती हैं. हर फिल्म का अंत सुखद है. इनमें सिर्फ ‘कोविड 19’ की भयावता की बात नही की गयी है, बल्कि रिश्तों को नए आयाम देने, कोरोना के चलते बदलती सकारात्मक सोच व मानवीय प्रवृत्तियों का चित्रण है.

पहली कहानी ग्लिच’में राज एंड डी के बीमारी की चिंता का मजाक उड़ाते हुए सुझाव दिया गया है कि बेवजह की भविष्यवाणियों पर ध्यान नहीं देना चाहिए.

दूसरी कहानी अपार्टमेंट औरतों को उनके अंदर की ताकत का अहसास कराती है.एक बेहारीन कहानी व घटनाक्रमों से नायिका देविका को अप्रिय स्थिति का सामना करने के लिए अपनी अंदरूनी ताकत का पता चलता है और इस तरह वह हालात के भंवर से बाहर निकलती है.

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मराठी फिल्म ‘‘किला’’ से लोकप्रियताप्राप्त फिल्म्कार अविनाश अरुण निर्देशित ‘‘विषाणु’’जरुर निराश करती हैं. लाक डाउन मे आमदनी बंद होने के हालातों को फिल्मकार ने डार्क कामेडी के साथ व्यंग कसने का असफल प्रयास किया है.

मगर अंतिम फिल्म, नित्या मेहरा निर्देशित ‘चांद मुबारक’ हर दर्शक के चेहरे पर मुस्कान लेकर आ जाती है. यह फिल्म जहां एक बुजुर्ग महिला के सिर से कोरोना के डर को भगाती है, वहीं अलग धर्म, अलग वर्ग व अलग विचारधारा वाले पुरूष के साथ भाई बहन का रिश्ता स्थापित कर एक बहुत बड़ा भाईचारे का संदेश दे जाती है. यह फिल्म लेखक व निर्देशक दोनों की बहुत बड़ी कमायी है.

अभिनयः

हर कहानी में लगभग हर कलाकार ने शानदार अभिनय किया है. ‘अपार्टमेंट’ की कहानी में सुमित व्यास को देखकर निराशा होती है. सुमित व्यास को अपने कैरियर को गंभीरता से लेना चाहिए. रिचा चड्डा का अभिनय शानदार है. ‘सैराट’फेम अभिनेत्री रिंकू राजगुरू ने एक बार फिर ‘रैट ए रैट’ कहानी में अपने अभिनय का लोहा मनवा लिया. जबकि उनके सामने लिलेट दुबे जैसी दिग्गज अभिनेत्री हैं. रिंकू राजगुरू ने अपने अभिनय में कामिक टाइमिंग और संवेदनशीलता का जबरदस्त समन्वय बैठाया है. रिंकू राजगुरू की आंखें नृत्य करते हुए नजर आती हैं. कहानी अपार्टमेंट में अभिषेक बनर्जी और गीतिका विद्या ओहलियान की केमिस्ट्री सही नही बैठी है. कहानी ‘चांद मुबारक’ में भावनात्मक रूप से लाकडाउन में फंसी अकेली बीमारी महिला के किरदार केा रत्ना पाठक शाह ने अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. तो वहीं इसी कहानी में आटोरिक्शा चालक के किरदार में शार्दुल भार्गव का शानदार अभिनय चार चांद लगा देता है.

आई एम नाॅट ब्लाइंड : प्रेरणा दायक कथा

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माता: मदारी आर्ट्स

लेखक व निर्देशक: गोविंद मिश्रा

कलाकार: आनंद गुप्ता, शिखा इतकान, अमित घोष, विनय अम्बष्ठ,कृष्णा नंद तिवारी, गोपा सान्याल, उपासना वैष्णव व अन्य.

अवधिः एक घंटा 41 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः एम एक्स प्लेअर

शारीरिक अपंगता के शिकार लोगों के साथ समाज दया का भाव रखता है. वह उनकी क्षमता को देखने का प्रयास ही नही करता. पर अब फिल्मकार गोविंद मिश्रा एक फिल्म ‘‘आई एम नाॅट ब्लाइंड’’ लेकर आए हैं, जो कि‘‘हमारी दिव्यांगता को नही हमारी क्षमता को देखिए’’का संदेश देने वाली प्रेरणा दायक फिल्म है.आंखों से दिव्यांग एक इंसान के सफल आई ए एस अफसर बनने की कहानी वाली यह फिल्म छह सितंबर से ओटीटी प्लेटफार्म‘‘एम एक्स प्लेअर’’पर देखी जा सकती है.

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यह फिल्म अमरीका के फिल्म फेस्टिवल ‘ग्रेट सिनेमा नाउ‘ में दूसरे नंबर पर थी. विश्व के कई फिल्म फेस्टिवल में इसे सराहा जा चुका है. अमरीका के एक फेस्टिवल निदेशक निक मिल्स ने इस फिल्म को अमेरिका में प्रदर्शन करने की बात की थी, पर इस फिल्म के निर्माता पहले इसे भारत में प्रदर्शन करना चाहते थे,जो कि अब ओटीटी प्लेटफार्म ‘एम एक्स प्लेअर’पर आयी है.

किसी इंसान का अंधापन उसकी क्षमता को नष्ट नहीं करता.बल्कि आंख से न देख पाने के बावजूद वह इंसान काफी प्रगति करता है. यह कटु सत्य है. हमारे देश में राजेश कुमार सिंह,अजय अरोड़ा,रवि प्रकाश गुप्ता और प्रांजली पाटिल सहित तकरीबन डेढ़ दर्जन दिव्यांग आई ए एस अफसर हैं,जो कि आॅंखांे से देख नहीं सकते, मगर आई ए एस अफसर के रूप में बेहतरीन काम कर रहे हैं.

कहानीः

यह एक सत्य कथा पर आधारित फिल्म है.इसकी कहानी शुरू होती है छत्तीसगढ़ के एक गाॅंव से,जहां एक विधवा अपने दो बेटों विमल कुमार(आनंद गुप्ता )  और पंकज के साथ रहती है.उसने अपने बेटों को अपनी तरफ से अच्छी शिक्षा दिलाने की कोशिश की. विमल कुमार जन्म से ही अंधे हैं, जिसकी वजह सेे 12वीं कक्षा के बाद उनकी शिक्षा बंद हो गयी, जबकि वह पढ़ लिखकर आई ए एस अफसर बनने का सपना देख रहे हैं. उधर पंकज अय्याश है और उसे अपना बड़ा भाई विमल फूटी आंख नहीं सुहाता.

एक दिन जब पंकज के बीमार मौसा को देखने दूसरे गांव के अस्पताल पंकज की मां जाती है,जबकि उस वक्त विमल कुमार एक मंदिर में भजन में शामिल होने गया होता है,तो पंकज उसे मंदिर से वापस लेने जाने की बजाय घर में ताला डालकर पूरी रात अपने दोस्त के साथ अय्याशी करने चला जाता है.विमल कुमार परेशान होकर सड़क किनारे रात गुजारते हैं. सुबह वहां से गुजर रही ‘शीतल फाउंडेशन’ की शीतल (शिखा इतकान) की नजर पडती है, तो वह पूरी कहानी जानकर विमल को लेकर अपने फांउडेशन में जाती है.

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जहां वह उसकी पढ़ाई आगे शुरू करवाती है. इस बीच शीतल को विमल कुमार से प्यार हो जाता है.मगर शीतल के पिता को यह बात पसंद नहीं आती. वह एक डाॅन को दो लाख रूपए देकर विमल कुमार को रास्ते से हटाने के लिए कहते हैं.डाॅन के कहने पर विमल कुमार आई ए एस का इंटरव्यू नहीं देना चाहता, मगर एक दूसरा इंसान उसे समझाता है और वह इंटरव्यू देता है.

जब शीतल को सच पता चलता है,तो वह अपने पिता से सवाल करती है- ‘‘अगर आपकी मर्जी के युवक से मैं शादी कर लूं, और शादी के बाद उसकी आंखें चली जाएं,तो क्या आप उसे छोड़ने के लिए कहेंगे?’ तब शीतल के पिता उसकी शादी विमल कुमार से करा देते हैं.विमल कुमार आई ए एस अफसर के रूप में अपने काम को अंजाम देना शुरू करते हैं,जनता उनके काम से खुश होती है.

लेखन व निर्देशनः

एक बेहतरीन प्रेरणा दायक सत्यकथा पर लेखक व निर्देशक गोविंद मिश्रा ने यथार्थ परक फिल्म बनाने का बीड़ा तो उठा लिया,मगर वह पटकथा पर मेहनत नही कर पाए.परिणामतः फिल्म धीमी गति से आगे बढ़ती है.इसके अलावा फिल्मकार ने एक आंखों से अंधे दिव्यांग के जीवन में आने वाली छोटी छोटी कठिनाइयों, उसने आई एस एस की पढ़ाई के दौरान किस तरह की मुसीबतें झेली, आदि पर ज्यादा रोशनी डालने की बजाय प्रेम कहानी को महत्व दिया,मगर वह रोमांस को भी ठीक से चित्रित नही कर पाए. शायद वह फिल्म को यथार्थ परक बनाने के चक्कर में सिनेमा की जरुरत के बीच तालमेल नही बैठा पाए.

फिल्म के कुछ संवाद अवष्य बेहतर बन पाए हैं..मसलन-‘‘‘हमारी दिव्यांगता को नही हमारी क्षमता को देखिए.’’ अथवा ‘‘मेहनत करके हार जाना अच्छी बात है,लेकिन विना मेहनत के हार नही माननी चाहिए.’’

फिल्म को बेहतरीन लोकेशन पर फिल्माया गया है.

कुछ कमियों के बावजूद यह फिल्म न सिर्फ प्रेरणा दायक है,बल्कि हर दिव्यांग के हौसले को भी बढ़ाती है.

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अभिनयः

आंखों से दिव्यांग विमल कुमार के किरदार में आनंद गुप्ता ने शानदार अभिनय किया है.आनंद गुप्ता ने निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के आर्थिक संकट और अंध व्यक्तियों के लिए स्कूलों द्वारा अपनाए जाने वाले उपेक्षापूर्ण रवैए के चलते अपनी शिक्षा को जारी न रख पाने की बेबसी को अपने चेहरे के आव भाव से बेहतर तरीके से उकेरने में सफल रहे हैं.शीतल के किरदार में शिखा इतकान भी प्रभावित करती हैं. अन्य कलाकारों ने ठीक ठाक अभिनय किया है.

लूटकेस: रबर की तरह खींची गयी कहानी

रेटिंग: 2 स्टार

निर्माता: फॉक्स स्टार स्टूडियो

निर्देशक: राजेश कृष्णन

कलाकार: कुणाल केमू , रसिका दुग्गल, गजराज राव, विजय राज, रणवीर शोरी,आकाश दभाड़े, मनुज शर्मा, नीलेश दिवाकर, प्रीतम जायसवाल व अन्य

अवधि: 2 घंटे 12 मिनट

ओटीटी प्लेटफॉर्म: डिजनी हॉटस्टार

नेताओं और अपराधियों के गठजोड़ के बीच एक आम इंसान के फंस जाने पर क्या स्थिति होती है, उसके साथ साथ यदि हर दिन आर्थिक हालात के संकट से जूझ रहे आम इंसान के हाथ 10 करोड़ रुपए लग जाए तो वह क्या करेगा? इसी के इर्द गिर्द घूमने वाली हास्य व अपराध कथा वाली फिल्म ‘लूटकेस’ फिल्मकार राजेश कृष्णन लेकर आए हैं. अफसोस इस कहानी को रबर की तरह इतना खींचा गया है कि दर्शक को हंसी नहीं आती .बल्कि वह बोर होकर अपने सिर के बाल नोचने लगता है.

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कहानी :

कहानी शुरू होती है एक अपराधी जमील की हत्या से. इससे उमर और बाला राठौर (विजय राज) आमने सामने आ जाते हैं .उमर को राज्य के मंत्री पाटिल (गजराज राज) का वरद हस्त हासिल है.एक दिन पाटिल, उमर को बुला कर उसे 10 करोड़ रुपए और एक फाइल से भरे लाल रंग के सूटकेस को संशाधन मंत्री त्रिपाठी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी देते हैं. बाला राठौर अपने गुर्गे राजन को आदेश देता है कि वह उमर से यह सूटकेस हासिल कर ले. घाटकोपर में पाइप लाइन के पास दोनों गुट के बीच गोलीबारी शुरू होती है, तभी पुलिस आ जाती है. उमर के आदमी उस सूटकेस को वहीं छिपाकर कर भाग खड़े होते हैं .

एक प्रिंटिंग प्रेस में कार्य करने वाला आम इंसान नंदन (कुणाल केमू) अपनी पत्नी लता (रसिका दुग्गल) और बेटे आयुष के साथ रहता है. आर्थिक संकट है. मकान का किराया भी नहीं दे पा रहा है. रात में दो बजे नौकरी से लौटते समय नंदन के हाथ यह सूटकेस लग जाता है. वह सूटकेस को अपने घर ले आता है . पत्नी से सच छिपाता है. सूटकेस के पैसे कई जगह छिपाकर रख देता है.अब  जिंदगी सही गुजरने लगती है.

उधर मंत्री पाटिल परेशान होकर पुलिस इंस्पेक्टर कोलटे (रणवीर शोरी) को सूटकेस की तलाश करने की जिम्मेदारी सौंपते हैं . बाला राठौड़ अब कोलटे के पीछे अपने आदमी लगा देते हैं . कोलटे,  नंदन तक पहुंच जाता है मगर घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. कोलटे ,उमर व बाला सभी मारे जाते हैं. नंदन को फिर से सूटकेस व पूरी रकम मिल जाती है.

लेखन निर्देशन:

यदि इंसान के अंदर लेखन और निर्देशन की क्षमता का अभाव हो, तो वह किस तरह बेहतरीन कथानक का भी सत्यानाश कर देता है, इसी का उदाहरण है राजेश कृष्णन की यह फिल्म ‘लूटकेस’ .एक आम इंसान के हाथ 10 करोड़ रुपए लगने के बाद उसकी कार्यशैली से हास्य के बेहतरीन पल गढ़े जा सकते थे, पर निर्देशक बुरी तरह से मात खा गए. फिल्म में राजनीति और अपराधियों के गठजोड़ को भी ठीक से चित्रित नहीं किया गया.एक काबिल  पुलिस इंस्पेक्टर किस तरह मंत्री के हाथ खिलौना बन कर रह जाता है,इसे भी सही ढंग से उभारने में वह असफल रहे. बल्कि बेवजह के घटनाक्रमों से फिल्म को इतना खींचा गया कि दर्शक बोर हो जाता है .इसे एडिटिंग टेबल पर  कसने की भी जरूरत थी. क्लाइमेक्स भी प्रभावित नहीं करता.

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अभिनय :

लेखक और निर्देशक के बाद कुणाल केमू इसकी सबसे कमजोर कड़ी हैं. कुणाल केमू ने एक बार फिर साबित कर दिखाया कि वह मल्टीस्टारर फिल्म में ही ठीक है.आम इंसान के आर्थिक संकट से जूझने और फिर करोड़ों रुपए हाथ आ जाने पर जिस तरह के हाव-भाव होने चाहिए थे, उसे वह अपने अभिनय से नहीं ला पाते. रसिका दुग्गल एक सशक्त अदाकारा हैं, मगर इस फिल्म में उनकी प्रतिभा को जाया किया गया है.  कुटिल व कपटी मंत्री पाटिल के किरदार में गजराज राव ने शानदार अभिनय किया है. विजय राज एक नए अवतार में हैं, मगर उनके चरित्र को ठीक से लिखा नहीं गया, इसलिए वह प्रभाव नहीं डाल पाते. रणवीर शोरी भी निराश करते हैं.

मलंगः “निराश करती फिल्म”

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः लव रंजन,अंकुर गर्ग,भूषण कुमार,किशन कुमार

निर्देशकः मोहित सूरी

कलाकारः अनिल कपूर,आदित्य रौय कपूर,दिशा पटानी,कुणाल केमू,एवलीन शर्मा व अन्य

अवधिः दो घंटे 14 मिनट

बदला लेने के लिए इंसान किस तरह हिंसात्मक हो सकता है, इसी पर मोहित सूरी रोमांटिक अपराध फिल्म ‘‘मलंग’ ’लेकर आए हैं, जो कि पूरी तरह से निराश करती है.

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कहानीः

अपने माता पिता के संबंधों से परेशान अद्वैत (आदित्य रौय कपूर) मौज मस्ती और सकून के लिए गोवा पहुंचता है, जहां उसकी मुलाकात एक खूबसूरत लड़की सारा (दिशा पाटनी) से होती है.अद्वैत चुप रहने वाला लड़का है, जबकि सारा लंदन से आई एक मस्तमौला लड़की है. सारा पहली बार भारत आयी है और वह तुरंत ही अद्वैत की तरफ आकर्षित हो जाती है. सारा की दोस्ती ड्रग्स के शिकंजे में कैद चैसी (इवलीन) से भी जाती है.

सब कुछ ठीक था लेकिन अचानक ही इनकी जिंदगी में बहुत सारी घटनाएं घटती हैं. उधर 5 साल बाद दो पुलिस औफिसर अंजनी अगाशे (अनिल कपूर) और माइकल रौड्रिक्स (कुणाल खेमू) अद्वैत की तलाश में हैं. पुलिस अफसर अंजनी अगाशे कानून को न मानते हुए अपराधी को अपने तरीके से सजा देने में यकीन करते हैं. जबकि माइकल सब कुछ कानून के दायरे में रहकर करना पसंद करता है. तो वहीं सारा के साथ मिलकर बदला लेने के लिए माइकल सहित चार पुलिस वालों की हत्या करता है.

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लेखन व निर्देशनः

पटकथा के स्तर पर यह अति कमजोर फिल्म है. लार्जर देन लाइफ किरदार परोसने और फिल्म को रहस्यमयी जामा पहनाने के चक्कर में लेखक ने कथा कथन की जिस शैली को अपनाया है, उससे दर्शक कन्फ्यूज होता रहता है. कहानी बार बार वर्तमान से अतीत में जाती है, मगर ऐसा जिस अंदाज में होता है, उससे दर्शक समझ नहीं पाता कि यह हो क्या रहा है? इसके अलावा पति पत्नी के रिश्ते, मर्दांनगी और बदले की भावना के साथ हत्याएं सहित कई चीजों को पेशकर चूंचूं का मुरब्बा बना दिया गया है.

निर्देशक के तौर पर मोहित सूरी की फिल्म पर कोई पकड़ नजर नहीं आती. परिणामतः गोवा और मौरीशस की खूबसूरत लोकेशन भी दर्शकों को बांधकर नहीं रख पाती. फिल्म के संवाद भी घटिया हैं. फिल्म की एडीटिंग भी गड़बड़ है. इंटरवल से पहले दर्शक सोचता रहता है कि कहां फंस गया. इंटरवल के बाद कहानी कुछ ठीक होती है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो कानून के दायरे से बाहर निकलकर काम करने वाले पुलिस अफसर के किरदार में अनिल कपूर जरुर अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं. मगर उनकी हंसी उन्हे अति छिछोरा बना देता है. आदित्य रौय कपूर काफी निराश करते हैं. दिशा पटानी केवल खूबसूरत लगी हैं. एवलीन जरुर अपने अभिनय से दर्शकों का ध्यान आकर्षित करती हैं. कुणाल खेमू व अमृता खानविलकर ने ठीक ठाक अभिनय किया है. छोटे किरदार में एवलीन शर्मा अपनी छाप छोड़ जाती हैं.

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