Story In Hindi: बदली परिपाटी – जतिन बीवी को क्यों मारता था

Story In Hindi: लगता है रात में जतिन ने फिर बहू पर हाथ उठाया. मुझ से यह बात बरदाश्त नहीं होती. बहू की सूजी आंखें और शरीर पर पड़े नीले निशान देख कर मेरा दिल कराह उठता है. मैं कसमसा उठता हूं, पर कुछ कर नहीं पाता. काश, पूजा होती और अपने बेटे को समझाती पर पूजा को तो मैं ने अपनी ही गलतियों से खो दिया है.

यह सोचतेसोचते मेरे दिमाग की नसें फटने लगी हैं. मैं अपनेआप से भाग जाना चाहता हूं. लेकिन नहीं भाग सकता, क्योंकि नियति द्वारा मेरे लिए सजा तय की गई है कि मैं पछतावे की आग में धीरेधीरे जलूं.

‘‘अंतरा, मैं बाजार की तरफ जा रहा हूं, कुछ मंगाना तो नहीं.’’

‘‘नहीं पापाजी, आप हो आइए.’’ मैं चल पड़ा यह सोच कर कि कुछ देर बाहर निकलने से शायद मेरा मन थोड़ा बहल जाए. लेकिन बाहर निकलते ही मेरा मन अतीत के गलियारों में भटकने लगा…

‘मुझ से जबान लड़ाती है,’ एक भद्दी सी गाली दे कर मैं ने उस पर अपना क्रोध बरसा दिया.

‘आह…प्लीज मत मारो मुझे, मेरे बच्चे को लग जाएगी, दया करो. मैं ने आखिर किया क्या है?’ उस ने झुक कर अपनी पीठ पर मेरा वार सहन करते हुए कहा.

कोख में पल रहे बच्चे पर वह आंच नहीं आने देना चाहती थी. लेकिन मैं कम क्रूर नहीं था. बालों से पकड़ते हुए उसे घसीट कर हौल में ले आया और अपनी बैल्ट निकाल ली. बैल्ट का पहला वार होते ही जोरों की चीख खामोशी में तबदील होती चली गई. वह बेहोश हो चुकी थी.

‘पागल हो गया क्या, अरे, उस के पेट में तेरी औलाद है. अगर उसे कुछ हो गया तो?’ मां किसी बहाने से उसे मेरे गुस्से से बचाना चाहती थीं.

‘कह देना इस से, भाड़े पर लड़कियां लाऊं या बियर बार जाऊं, यह मेरी अम्मा बनने की कोशिश न करे वरना अगली बार जान से मार दूंगा,’ कहते हुए मैं ने 2 साल के नन्हे जतिन को धक्का दिया, जो अपनी मां को मार खाते देख सहमा हुआ सा एक तरफ खड़ा था. फिर गाड़ी उठाई और निकल पड़ा अपनी आवारगी की राह.

उस पूरी रात मैं नशे में चूर रहा. सुबह के 6 बज रहे होंगे कि पापा के एक कौल ने मेरी शराब का सारा नशा उतार दिया. ‘कहां है तू, कब से फोन लगा रहा हूं. पूजा ने फांसी लगा ली है. तुरंत आ.’ जैसेतैसे घर पहुंचा तो हताश पापा सिर पर हाथ धरे अंदर सीढि़यों पर बैठे थे और मां नन्हे जतिन को चुप कराने की बेहिसाब कोशिशें कर रही थीं.

अपने बैडरूम का नजारा देख मेरी सांसें रुक सी गईं. बेजान पूजा पंखे से लटकी हुई थी. मुझे काटो तो खून नहीं. मांपापा को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. पूजा ने अपने साथ अपनी कोख में पल रहे मेरे अंश को भी खत्म कर लिया था. पर इतने खौफनाक माहौल में भी मेरा शातिर दिमाग काम कर रहा था. इधरउधर खूब ढूंढ़ने के बाद भी पूजा की लिखी कोई आखिरी चिट्ठी मुझे नहीं मिली.

पुलिस को देने के लिए हम ने एक ही बयान को बारबार दोहराया कि मां की बीमारी के चलते उसे मायके जाने से मना किया तो जिद व गुस्से में आ कर उस ने आत्महत्या कर ली. वैसे भी मेरी मां का सीधापन पूरी कालोनी में मशहूर था, जिस का फायदा मुझे इस केस में बहुत मिला. कुछ दिन मुझे जरूर लौकअप में रहना पड़ा, लेकिन बाद में सब को देदिला कर इस मामले को खत्म करने में हम ने सफलता पाई, क्योंकि पूजा के मायके में उस की खैरखबर लेने वाला एक शराबी भाई ही था जिसे अपनी बहन को इंसाफ दिलाने में कोई खास रुचि न थी.

थोड़ी परेशानी से ही सही, लेकिन 8-10 महीने में केस रफादफा हो गया पर मेरे जैसा आशिकमिजाज व्यक्ति ऐसे समय में भी कहां चुप बैठने वाला था. इस बीच मेरी रासलीला मेरे एक दोस्त की बहन लिली से शुरू हो गई. लिली का साथ मुझे खूब भाने लगा, क्योंकि वह भी मेरी तरह बिंदास थी. पूजा की मौत के डेढ़ साल के भीतर ही हम ने शादी कर ली. वह तो शादी के बाद पता चला कि मैं सेर, तो वह सवा सेर है. शादी होते ही उस ने मुझे सीधे अपनी अंटी में ले लिया.

बदतमीजी, आवारगी, बदचलनी आदि गुणों में वह मुझ से कहीं बढ़ कर निकली. मेरी परेशानियों की शुरुआत उसी दिन हो गई जिस दिन मैं ने पूजा समझ कर उस पर पहली बार हाथ उठाया. मेरे उठे हाथ को हवा में ही थाम उस ने ऐसा मरोड़ा कि मेरे मुंह से आह निकल गई. उस के बाद मैं कभी उस पर हाथ उठाने की हिम्मत न कर पाया.

घर के बाहर बनी पुलिया पर आसपास के आवारा लड़कों के साथ बैठी वह सिगरेट के कश लगाती जबतब कालोनी के लोगों को नजर आती. अपने दोस्तों के साथ कार में बाहर घूमने जाना उस का प्रिय शगल था. रात को वह शराब के नशे में धुत हो घर आती और सो जाती. मैं ने उसे अपने झांसे में लेने की कई नाकाम कोशिशें कीं, लेकिन हर बार उस ने मेरे वार का ऐसा प्रतिवार किया कि मैं बौखला गया. उस ने साफ शब्दों में मुझे चेतावनी दी कि अगर मैं ने उस से उलझने की कोशिश की तो वह मुझे मरवा देगी या ऐसा फंसाएगी कि मेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी. मैं उस के गदर से तभी तक बचा रहता जब तक कि उस के कामों में हस्तक्षेप न करता.

तो इस तरह प्रकृति के न्याय के तहत मैं ने जल्द ही वह काटा, जो बोया था. घर की पूरी सत्ता पर मेरी जगह वह काबिज हो चुकी थी. शादी के सालभर बाद ही मुझ पर दबाव बना कर उस ने पापा से हमारे घर को भी अपने नाम करवा लिया. और फिर हमारा मकान बेच कर उस ने पौश कालोनी में एक फ्लैट खरीदा और मुझे व जतिन को अपने साथ ले गई. मेरे मम्मीपापा मेरी बहन यानी अपनी बेटी के घर में रहने को मजबूर थे. यह सब मेरी ही कारगुजारियों की अति थी जो आज सबकुछ मेरे हाथ से मुट्ठी से निकली रेत की भांति फिसल चुका था.

अपना मकान बिकने से हैरानपरेशान पापा इस सदमे को न सह पाने के कारण हार्टअटैक के शिकार हो महीनेभर में ही चल बसे. उन के जाने के बाद मेरी मां बिलकुल अकेली हो गईं. प्रकृति मेरे कर्मों की इतनी जल्दी और ऐसी सजा देगी, मुझे मालूम न था.

नए घर में शिफ्ट होने के बाद भी उस के क्रियाकलाप में कोई खास अंतर नहीं आया. इस बीच 5 साल के हो चुके जतिन को उस ने पूरी तरह अपने अधिकार में ले लिया. उस के सान्निध्य में पलताबढ़ता जतिन भी उस के नक्शेकदम पर चल पड़ा. पढ़ाईलिखाई से उस का खास वास्ता था नहीं. जैसेतैसे 12वीं कर उस ने छोटामोटा बिजनैस कर लिया और अपनी जिंदगी पूरी तरह से उसी के हवाले कर दी. उन दोनों के सामने मेरी हैसियत वैसे भी कुछ नहीं थी. किसी समय अपनी मनमरजी का मालिक मैं आजकल उन के हाथ की कठपुतली बन, बस, उन के रहमोकरम पर जिंदा था.

इसी रफ्तार से जिंदगी के कुछ और वर्ष बीत गए. इस बीच लिली एक भयानक बीमारी एड्स की चपेट में आ गई और अपनेआप में गुमसुम पड़ी रहने लगी. अब घर की सत्ता मेरे बेटे जतिन के हाथों में आ गई. हालांकि इस बदलाव का मेरे लिए कोई खास मतलब नहीं था. हां, जतिन की शादी होने पर उस की पत्नी अंतरा के आने से अलबत्ता मुझे कुछ राहत जरूर हो गई, क्योंकि मेरी बहू भी पूजा जैसी ही एक नेकदिल इंसान थी.

वह लिली की सेवा जीजान से करती और जतिन को खुश करने की पूरी कोशिश भी. पर जिस की रगों में मेरे जैसे गिरे इंसान का लहू बह रहा हो, उसे भला किसी की अच्छाई की कीमत का क्या पता चलता. सालभर पहले लिली ने अपनी आखिरी सांस ली. उस वक्त सच में मन से जैसे एक बोझ उतर गया और मेरा जीवन थोड़ा आसान हो गया.

इस बीच, जतिन के अत्याचार अंतरा के प्रति बढ़ते जा रहे थे. लगभग रोज रात में जतिन उसे पीटता और हर सुबह अपने चेहरे व शरीर की सूजन छिपाने की भरसक कोशिश करते हुए वह फिर से अपने काम पर लग जाती. कल रात भी जतिन ने उस पर अपना गुस्सा निकाला था.

मुझे समझ नहीं आता था कि आखिर वह ये सब क्यों सहती है, क्यों नहीं वह जतिन को मुंहतोड़ जवाब देती, आखिर उस की क्या मजबूरी है? तमाम बातें मेरे दिमाग में लगातार चलतीं. मेरा मन उस के लिए इसलिए भी परेशान रहता क्योंकि इतना सबकुछ सह कर भी वह मेरा बहुत ध्यान रखती थी. कभीकभी मैं सोच में पड़ जाता कि आखिर औरत एक ही समय में इतनी मजबूत और मजबूर कैसे हो सकती है?

ऐसे वक्त पर मुझे पूजा की बहुत याद आती. अपने 4 वर्षों के वैवाहिक जीवन में मैं ने एक पल भी उसे सुकून का नहीं दिया. शादी की पहली रात जब सजी हुई वह छुईमुई सी मेरे कमरे में दाखिल हुई थी, तो मैं ने पलभर में उसे बिस्तर पर घसीट कर उस के शरीर से खेलते हुए अपनी कामवासना शांत की थी.

काश, उस वक्त उस के रूपसौंदर्य को प्यारभरी नजरों से कुछ देर निहारा होता, तारीफ के दो बोल बोले होते तो वह खुशी से अपना सर्वस्व मुझे सौंप देती. उस घर में आखिर वह मेरे लिए ही तो आई थी. पर मेरे लिए तो प्यार की परिभाषा शारीरिक भूख से ही हो कर गुजरती थी. उस दौरान निकली उस की दर्दभरी चीखों को मैं ने अपनी जीत समझ कर उस का मुंह अपने हाथों से दबा कर अपनी मनमानी की थी. वह रातों में मेरे दिल बहलाने का साधनमात्र थी. और फिर जब वह गर्भवती हुई तो मैं दूसरों के साथ इश्क लड़ाने लगा, क्योंकि वह मुझे वह सुख नहीं दे पा रही थी. वह मेरे लिए बेकार हो चुकी थी. इसलिए मुझे ऐसा करने का हक था, आखिर मैं मर्द जो था. मेरी इस सोच ने मुझे कभी इंसान नहीं बनने दिया.

हे प्रकृति, मुझे थोड़ी सी तो सद्बुद्धि देती. मैं ने उसे चैन से एक सांस न लेने दी. अपनी गंदी हरकतों से सदा उस का दिल दुखाया. उस की जिंदगी को मैं ने वक्त से पहले खत्म कर दिया.

उस दिन उस ने आत्महत्या भी तो मेरे कारण ही की थी, क्योंकि उसे मेरे नाजायज संबंधों के बारे में पता चल गया था और उस की गलती सिर्फ इतनी थी कि इस बारे में मुझ से पूछ बैठी थी. बदले में मैं ने जीभर कर उस की धुनाई की थी. ये सब पुरानी यादें दिमाग में घूमती रहीं और कब मैं घर लौट आया पता ही नहीं चला.

‘‘पापा, जब आप मार्केट गए थे. उस वक्त बूआजी आई थीं. थोड़ी देर बैठीं, फिर आप के लिए यह लिफाफा दे कर चली गईं.’’ बाजार से आते ही अंतरा ने मुझे एक लिफाफा पकड़ाया.

‘‘ठीक है बेटा,’’ मैं ने लिफाफा खोला. उस में एक छोटी सी चिट और करीने से तह किया हुआ एक पन्ना रखा था. चिट पर लिखा था, ‘‘मां के जाने के सालों बाद आज उन की पुरानी संदूकची खोली तो यह खत उस में मिला. तुम्हारे नाम का है, सो तुम्हें देने आई थी.’’ बहन की लिखावट थी. सालों पहले मुझे यह खत किस ने लिखा होगा, यह सोचते हुए कांपते हाथों से मैं ने खत पढ़ना शुरू किया.

‘‘प्रिय मयंक,

‘‘वैसे तो तुम ने मुझे कई बार मारा है, पर मैं हमेशा यह सोच कर सब सहती चली गई कि जैसे भी हो, तुम मेरे तो हो. पर कल जब तुम्हारे इतने सारे नाजायज संबंधों का पता चला तो मेरे धैर्य का बांध टूट गया. हर रात तुम मेरे शरीर से खेलते रहे, हर दिन मुझ पर हाथ उठाते रहे. लेकिन मन में एक संतोष था कि इस दुखभरी जिंदगी में भी एक रिश्ता तो कम से कम मेरे पास है. लेकिन जब पता चला कि यह रिश्ता, रिश्ता न हो कर एक कलंक है, तो इस कलंक के साथ मैं नहीं जी सकती. सोचती थी, कभी तो तुम्हारे दिल में अपने लिए प्यार जगा लूंगी. लेकिन अब सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं. मायके में भी तो कोई नहीं है, जिसे मेरे जीनेमरने से कोई सरोकार हो. मैं अपनी व्यथा न ही किसी से बांट सकती हूं और न ही उसे सह पा रही हूं. तुम्हीं बताओ फिर कैसे जिऊं. मेरे बाद मेरे बच्चों की दुर्दशा न हो, इसलिए अपनी कोख का अंश अपने साथ लिए जा रही हूं. मासूम जतिन को मारने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. खुश रहो तुम, कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना. जाने से पहले एक बात तुम से जरूर कहना चाहूंगी. ‘मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं.’

‘‘तुम्हारी चाहत के इंतजार में पलपल मरती…तुम्हारी पूजा.’’

पूरा पत्र आंसुओं से गीला हो चुका था, जी चाह रहा था कि मैं चिल्लाचिल्ला कर रो पड़ूं. ओह, पूजा माफ कर दे मुझे. मैं इंसान कहलाने के काबिल नहीं, तेरे प्यार के काबिल भला क्या बनूंगा. हे प्रकृति, मेरी पूजा को लौटा दे मुझे, मैं उस के पैर पकड़ कर अपने गुनाहों की माफी तो मांग लूं उस से. लेकिन अब पछताए होत क्या, जब चिडि़या चुग गई खेत.

भावनाओं का ज्वार थमा तो कुछ हलका महसूस हुआ. शायद मां को पूजा का यह सुसाइड लैटर मिला हो और मुझे बचाने की खातिर यह पत्र उन्होंने अपने पास छिपा कर रख लिया हो. यह उन्हीं के प्यार का साया तो था कि इतना घिनौना जुर्म करने के बाद भी मैं बच गया. उन्होंने मुझे कालकोठरी की सजा से तो बचा लिया, परंतु मेरे कर्मों की सजा तो नियति से मुझे मिलनी ही थी और वह किसी भी बहाने से मुझे मिल कर रही.

पर अब सबकुछ भुला कर पूजा की वही पंक्ति मेरे मन में बारबार आ रही थी, ‘‘कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना.’’ अंतरा के मायके में भी तो उस की बुजुर्ग मां के अलावा कोई नहीं है. हो सकता है इसलिए वह भी पूजा की तरह मजबूर हो. पर अब मैं मजबूर नहीं बनूंगा…कुछ सोच कर मैं उठ खड़ा हुआ. अंतरा को आवाज दी.

‘‘जी पापा,’’ कहते हुए अंतरा मेरे सामने मौजूद थी. बहुत देर तक मैं उसे सबकुछ समझाता रहा और वह आंखें फाड़फाड़ कर मुझे हैरत से देखती रही. शायद उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जतिन का पिता होने के बावजूद मैं उस का दर्द कैसे महसूस कर रहा हूं या उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि अचानक मैं यह क्या और क्यों कर रहा हूं, क्योंकि वह मासूम तो मेरी हकीकत से हमेशा अनजान थी.

पास के पुलिसस्टेशन पहुंच कर मैं ने अपनी बहू पर हो रहे अत्याचार की धारा के अंतर्गत बेटे जतिन के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. मेरे कहने पर अंतरा ने अपने शरीर पर जख्मों के निशान उन्हें दिखाए, जिस से केस पुख्ता हो गया. थोड़ा वक्त लगा, लेकिन हम ने अपना काम कर दिया था. आगे का काम पुलिस करेगी. जतिन को सही राह पर लाने का एक यही तरीका मुझे कारगर लगा, क्योंकि सिर्फ मेरे समझानेभर से बात उस के पल्ले नहीं पड़ेगी. पुलिस, कानून और सजा का खौफ ही अब उसे सही रास्ते पर ला सकता है.

पूजा के चिट्ठी में कहे शब्दों के अनुसार, मैं उसे रिश्तों की इज्जत करना सिखाऊंगा और एक अच्छा इंसान बनाऊंगा, ताकि फिर कोई पूजा किसी मयंक के अत्याचारों से त्रस्त हो कर आत्महत्या करने को मजबूर न हो. औटो में वापसी के समय अंतरा के सिर पर मैं ने स्नेह से हाथ फेरा. उस की आंखों में खौफ की जगह अब सुकून नजर आ रहा था. यह देख मैं ने राहत की सांस ली. Story In Hindi

Hindi Story: अंतर्दाह – अलका ने की अपने से दोगुनी उम्र के आदमी से शादी

Hindi Story, लेखिका: कृतिका गुप्ता

अलका यानी श्रीमती रंजीत चौधरी से मेरा परिचय सिर्फ एक साल पुराना है, पर उन के प्रति मैं जो अपनापन महसूस करता हूं, वह इस परिचय को पुराना कर देता है. आज अलकाजी जा रही हैं. उन के पति रंजीत चौधरी नौकरी से रिटायर हो गए हैं इसलिए अब वह सपरिवार अपने शहर इलाहाबाद वापस जा रहे हैं.

मैं उदास हूं, उन से आखिरी बार मिलना चाहता हूं पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं. उन्हें जाते हुए देखना मेरे लिए कठिन होगा फिर भी मिलना तो है ही. यही सोच कर मेरे कदम उन के घर की ओर उठ गए.

मैं जितने कदम आगे को बढ़ाता था मेरा अतीत मुझे उतना ही पीछे ले जाता था. आखिर मेरे सामने वह दिन आ ही गया जब मैं पहली बार चौधरी साहब के  घर गया था. वैसे मेरा श्रीमती चौधरी से सीधे कोई परिचय नहीं था, मेरा परिचय तो उन के घर रह कर पढ़ने वाले उन के भतीजे प्रभात से था.

मैं स्कूल में अध्यापक था, अत: प्रभात ने मुझे अपनी चाची के बच्चों को पढ़ाने के काम में लगा दिया था. इसी सिलसिले में मैं उन के घर पहली बार गया था. दरवाजा प्रभात के चाचा यानी चौधरी साहब ने खोला था.

सामान्य कद, गोरा रंग, उम्र कोई 55 साल, सिर पर बचे आधे बाल जोकि सफेद थे और आंखें ऐसी मानो मन के भीतर जा कर आप का एक्सरे उतार रही हों. प्रभात से अकसर उस की चाची की जो तारीफ मैं ने सुनी थी उस से अंदाजा लगाया था कि उस की चाची बहुत प्यारी और ममतामयी महिला होंगी.

चौधरी साहब ने प्रभात के साथसाथ अपने बच्चों गौरवसौरभ को भी बुलाया, साथ में आई एक बहुत ही खूबसूरत महिला.

प्रभात ने बताया कि यह उस की चाची हैं. मैं चौंक पड़ा. मैं ने उन्हें ध्यान से देखा. लंबा कद, गोरा रंग, छरहरा बदन, आकर्षक चेहरे पर स्मित मुसकान और उम्र रही होगी कोई 30-32 साल. अगर प्रभात मुझे पहले न बताता तो मैं उन्हें चौधरी साहब की बेटी ही समझता.

पहली बार उन्हें देख कर उन के प्रति एक अजीब सी दया और सहानुभूति का भाव मेरे मन में उमड़ आया था. और उमड़ भी क्यों न आता, 30 साल की खूबसूरत महिला को 55 साल के आदमी की पत्नी के रूप में देखना, इस के अलावा और क्या भाव ला सकता था.

मुझे उन के बच्चों को पढ़ाने का काम मिल गया. मैं हर दोपहर, स्कूल के बाद उन्हें पढ़ाने के लिए जाने लगा था. उस समय चौधरी साहब आफिस गए होते थे और प्रभात कालिज.

बच्चों को पढ़ाते समय वह अकसर मेरे लिए चायनाश्ता दे जाया करती थीं. पहली बार मैं ने मना किया तो वह बोली थीं, ‘कालिज से सीधे यहां पढ़ाने आ जाते हो, भूख तो लग ही आती होगी. थोड़ा खा लोगे तो तुम्हारा भी मन पढ़ाने में ठीक से लगने लगेगा.’

मैं ने फिर कभी उन का चायनाश्ते के लिए प्रतिवाद नहीं किया था.

श्रीमती चौधरी बहुत ही स्नेही और लोकप्रिय महिला थीं. मुझे उन के घर अकसर उन की कोई न कोई पड़ोसिन बैठी मिलती थी, कभी किसी व्यंजन की रेसिपी लिखती तो कभी कोई नया व्यंजन चखती.

एक बार उन्होंने मुझ से कहा था, ‘तुम मुझे बारबार श्रीमती चौधरी कह कर यह न याद दिलाया करो कि मैं रंजीत चौधरी की पत्नी हूं. तुम मुझे अलका कह कर बुला सकते हो.’ तब से मैं उन्हें अलकाजी ही कहने लगा था.

एक रोज मैं ने उन से पूछा, ‘अलकाजी, आप की शादी आप से दोगुने उम्र के इनसान से क्यों हुई?’ मेरे इस सवाल के जवाब में उन्होंने जो कुछ कहा उसे सुन कर मैं झेंप सा गया था. वह बोली थीं, ‘यह शर्मिंदा होने की बात नहीं है, जो सच है वह सच है. मैं एक छोटे से गांव की रहने वाली हूं. मैं तब बहुत छोटी थी, जब मेरे मांबाप गुजर गए थे. मेरे चाचाचाची ने मुझे पालापोसा था. उन्होंने ही मेरी शादी चौधरी साहब से तय की थी. उन्होंने यह तो देखा कि लड़का अच्छी नौकरी में है, अच्छा घर है पर यह नहीं देखा कि वह मुझ से उम्र में कितना बड़ा है और तब मैं इतनी समझ भी नहीं रखती थी कि इस का विरोध कर सकूं.

‘तुम यह भी कह सकते हो कि मुझ में विरोध कर सकने की हिम्मत ही नहीं थी. अपनी किस्मत समझ कर मैं ने इसे स्वीकार कर लिया था. फिर जब मेरे जीवन में गौरव सौरभ आ गए तो लगा कि मुझे फिर से जीने का मकसद मिल गया है और अब तो इतना समय बीत गया है कि मुझे लोगों की घूरती निगाहों, पीठपीछे की कानाफूसी, इस सब की आदत हो गई है.

‘हां, बुरा तब लगता है जब लोग मेरे और प्रभात के रिश्ते पर उंगलियां उठाते हैं. तुम्हीं कहो, अनुपम, क्या मैं इतनी गिरी हुई लगती हूं कि अपने रिश्ते के बेटे के साथ…छी, मुझे तो सोच कर भी शरम आती है. फिर लोग कहते हुए क्यों नहीं झिझकते? तो क्या उन का चरित्र मुझ से भी गयाबीता नहीं है? प्रभात को मैं ने सदा अपना बड़ा बेटा, गौरवसौरभ का बड़ा भाई समझ कर ही स्नेह दिया है.’

इतना कहते हुए उन की आंखों में छलक आई दो बूंदों को मैं ने देख लिया था, जिसे वह जल्दी से छिपा गई थीं. मैं जानता था कि उन के महल्ले में श्रीमती चौधरी और प्रभात को ले कर तरहतरह की बातें कही जाती थीं. कोई कहता कि उन का रिश्ता चाचीभतीजे से बढ़ कर है, कोई कहता, प्रभात उन का पे्रमी है. जितने मुंह उतनी बातें होती थीं.

लोग मुझ से भी पूछते थे, ‘तुम से श्रीमती चौधरी कैसा व्यवहार करती हैं?’ मैं झुंझला जाता था. कभी तो इतना गुस्सा आता था कि जी करता एकएक को पीट डालूं. पर कभीकभी मैं खुद इन्हीं बातों को सोचने के लिए मजबूर हो जाता था.

श्रीमती चौधरी, प्रभात को बहुत महत्त्व देती थीं. हर एक बात पर उस की राय लेती थीं, कभीकभी तो चौधरी साहब की बात को भी काट कर वह प्रभात की ही बात मानती थीं.

कभीकभी मैं सोचने लगता कि यह कैसा रिश्ता है उन दोनों का? पर फिर मुझे लगता कि अगर अलका चौधरी 30 साल की न हो कर 50 साल की होतीं और प्रभात से ऐसा ही बरताव करतीं तो शायद सब उन्हें ममतामयी मां कहते. पर आज वह किसी और ही संबोधन से जानी जाती थीं.

आज मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गए थे. मैं ने अलकाजी से कहा, ‘मैं आज तक आप को सिर्फ पसंद करता था, पर अब मैं आप का आदर भी करने लगा हूं. जो आप ने किया वह करना सच में सब के बस की बात नहीं है.’

उस दिन मैं ने एक नई अलका को जाना था, जो अकारण ही मुझे बहुत अच्छी लगने लगी थीं. मैं उन के आकर्षण में खोने लगा था, जिसे मैं चाह कर भी रोक नहीं पा रहा था. मैं जानता था कि वह शादीशुदा हैं और 2 बच्चों की मां हैं, पर इस से मेरी भावनाओं के आवेगों में कोई कमी नहीं आ रही थी. वह मुझ से उम्र में 4-5 साल बड़ी थीं फिर भी मैं अपनेआप को उन के बहुत करीब पाता था.

वह भी मेरा बहुत खयाल रखती थीं. कभीकभी तो मुझे लगता था कि वह भी मुझे पसंद करती हैं. फिर अपनी ही सोच पर मुझे हंसी आ जाती और मैं इस विचार को अपने मन से परे धकेल देता.

वक्त अपनी गति से बीत रहा था. शरद ऋतु के बाद अचानक ही कड़ाके की ठंड पड़ने लगी थी. मैं बैठा बच्चों को पढ़ा रहा था. उस दिन चौधरीजी भी घर पर ही थे. अलकाजी मुझे नाश्ता देने आईं तो मैं ने पाया कि उन के बालों से पानी टपक रहा था, वह शायद नहा कर आई थीं. भरी ठंड में शाम ढले उन का नहाना मुझे विचलित कर गया. मैं कुछ सोचता उस से पहले ही मेरे कानों में चौधरीजी की आवाज पड़ी, ‘इतनी ठंड में नहाई क्यों?

अलकाजी ने जवाब दिया, ‘जो आग बुझा नहीं सकते उसे भड़काते ही क्यों हैं? इस जलन को पानी से न बुझाऊं तो क्या करूं?’

चौधरीजी ने क्या जवाब दिया मैं सुन नहीं पाया, शायद उन्होंने टेलीविजन चला दिया था. अगले दिन जब मैं उन के घर पहुंचा तो गौरवसौरभ पड़ोस के घर खेलने गए हुए थे. वह मुझ से बोलीं, ‘तुम बैठो, मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’

वह जाने को मुड़ीं तो मैं ने उन का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘आप बैठो जरा.’

फिर मैं ने उन्हें बिठा कर पानी का गिलास थमाया, जिसे वह एक ही सांस में पी गईं. मैं ने उन से पूछा, ‘आप ठीक तो हैं, अलकाजी? आप की आंखें इतनी लाल क्यों हैं? और यह आप के चेहरे पर चोट का निशान कैसा है?’

मेरी बात सुनते ही वह फफक कर रो पड़ीं. मैं इस के लिए तैयार नहीं था. समझ नहीं पाया कि क्या करूं, उन्हें रोने दूं या चुप कराऊं? फिर कुछ पल रो लेने के बाद उन की आंखों से बरसाती बादल खुद ही तितरबितर हो गए. वह कुछ संयत हो कर बोलीं, ‘परेशान कर दिया न तुम्हें?’

‘कैसी बातें कर रही हैं?’ मैं ने कहा, ‘आप बताएं, आप परेशान क्यों हैं?’ वह बुझे स्वर में बोलीं, ‘तुम नहीं समझ पाओगे, अनुपम?’ मैं ने थोड़ा रुक कर कहा, ‘अलकाजी मैं ने कल आप की और चौधरीजी की सारी बातें सुन ली थीं.’

अलकाजी ने मुझे चौंक कर ऐसे देखा मानो मैं ने उन्हें चोरी करते रंगेहाथों पकड़ लिया हो. वह एक बार फिर सिसक उठीं.

मैं ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘अलकाजी, परेशान या दुखी होने की जरूरत नहीं. आप मुझ पर भरोसा कर सकती हैं. अगर चाहें तो मुझ से बात कर सकती हैं, इस से आप का मन हलका हो जाएगा. पर आप ने बताया नहीं, यह चोट…क्या आप को किसी ने मारा है?’

अलकाजी ने व्यंग्य से होंठ टेढ़े करते हुए कहा, ‘चौधरी साहब को लगता है कि पड़ोस में रहने वाले श्रीवास्तवजी से मेरा कुछ…’

उन की बात सुन मैं ने सिहर कर पूछा, ‘वह ऐसा कैसे सोच सकते हैं?’

‘वह कुछ भी सोच सकते हैं अनुपम. किसी 56 साल के पुरुष की पत्नी अगर जवान हो तो वह उस के बारे में कुछ भी सोच सकता है.’ श्रीवास्तवजी तो फिर भी ठीक हैं, वह तो दूध वाले तक के लिए मुझ पर शक करते हैं.’

अलकाजी की बातें सुन कर मैं चौधरीजी के प्रति घृणा से भर उठा, ‘आप उन्हें समझाती क्यों नहीं?’ वह झुंझला कर बोलीं, ‘क्या समझाऊं और कब तक समझाऊं? हमारी शादी को 9 साल हो गए हैं. 2 बच्चे हैं हमारे, फिर भी वह मुझ पर शक करते हैं. मैं ही क्यों बारबार अपनी पवित्रता का सुबूत दूं, क्यों मैं ही अग्निपरीक्षा से गुजरूं? क्या मेरा कोई आत्मसम्मान नहीं है?’

उन की बातों ने मुझे झकझोर डाला था. मैं अब तक यही समझता था कि वह एक सुखी गृहस्थी की मालकिन हैं पर आज जब मैं ने उन की हंसती हुई दुनिया का रोता हुआ सच देखा तो जाना कि वह कितनी अकेली और परेशान हैं.

देखतेदेखते एक साल बीत गया. गौरवसौरभ की परीक्षाएं हो चुकी थीं और अब उन्हें मेरी जरूरत न थी. फिर भी मैं किसी न किसी बहाने अलकाजी से मिलने चला ही जाता था. जब कभी प्रभात से मुलाकात होती तो वह कहता, ‘आप को चाचीजी पूछ रही थीं.’

बस, इतनी सी बात का सूत्र पकड़ कर मैं उन के घर पहुंच जाता. पर मन में कहीं एक डर भी था कि कहीं मेरा अधिक आनाजाना अलकाजी के लिए किसी परेशानी का कारण न बन जाए.

फिर एक दिन मुझे प्रभात मिला. उस ने मुझे बताया कि हम सब यह शहर छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इलाहाबाद जा रहे हैं. मैं चौंक पड़ा, यह खबर मेरे लिए बहुत ही अप्रत्याशित और तकलीफदेह थी.

अतीत की पगडंडियों पर चलतेचलते मैं अलकाजी के दरवाजे तक पहुंच चुका था. हिम्मत कर मैं ने दरवाजा खट- खटाया, दरवाजा अलकाजी ने ही खोला. मुझे देख कर उन की आंखों में एक अनोखी सी खुशी तैर गई थी जिसे छिपाती हुई वह बोलीं, ‘‘अनुपम, आओआओ? मिल गई फुरसत आने की?’’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यह शिकायत किसलिए? शिकायत तो मुझे करनी चाहिए थी कि आप जा रही हैं मुझे छोड़ कर…मेरा मतलब हमारा शहर छोड़ कर?’’ अंदर घुसते ही मैं ने देखा, बैठक का सारा सामान खाली हो चुका था, सिर्फ दीवान पड़ा था. मैं ने बैठते हुए कहा, ‘सामान से खाली घर कैसा लगता है न?’

ठीक वैसा ही जैसा भावनाओं और संवेदनाओं से खाली मन लगता है,’’ अलकाजी ने अर्थ भरे नयनों से देखते हुए कहा. बात की गंभीरता को कम करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘सब लोग कहां हैं?’’

‘‘प्रभात, बच्चों को ले कर आज ही गया है. थोड़ी पैकिंग बाकी है, जिसे पूरा कर के मैं और चौधरीजी भी कल निकल जाएंगे,’’ अलकाजी ने बताया. फिर कुछ रुक कर अपने पैर के अंगूठे से फर्श कुरेदती हुई बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ अनुपम, जो तुम आज आ गए. बहुत इच्छा थी आखिरी बार तुम से मिलने की.’’

मैं ने उत्सुक हो कर पूछा, ‘‘क्यों, कोई खास काम था क्या मुझ से?’’

‘‘काम…काम तो कुछ नहीं था, पर कुछ है जो तुम्हें बताना शेष रह गया था. न बताऊंगी तो जीवन भर मन ही मन उन्हीं बातों से घुटती रहूंगी.

‘‘तुम जानना चाहते हो कि मैं यहां से क्यों जा रही हूं? डरती हूं कि जिस आग को अब तक अपने मन में दबा कर रखा था वह मुझे ही न जला डाले. अनुपम, मैं यह तो जानती हूं कि तुम मुझ से प्यार करते हो पर शायद तुम नहीं जानते कि मैं भी तुम से प्यार करने लगी हूं.’’

उन की यह बात सुन कर मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा था. अपने प्यार की स्वीकृति मिलते ही मेरा मन अचानक उन्हें अपनी बांहों में लेने को मचल उठा. मैं ने तरल निगाहों से उन की ओर देखा, अलका के होंठ खामोश थे पर उन में उठता कंपन बता रहा था कि वे प्रतीक्षित हैं.

मैं अपनी जगह से उठ कर उन की ओर बढ़ा ही था कि उन्होंने कहा, ‘‘अब तक तो चौधरीजी को शक ही था पर डरती हूं कि मेरे मन में फूट आई तुम्हारे प्यार की कोंपल, उन का शक यकीन में न बदल दे, इसीलिए यहां से पलायन कर रही हूं क्योंकि यहां रहते हुए मैं खुद को तुम से मिलने से रोक नहीं पाऊंगी. और अगर ऐसा हुआ तो मेरी अब तक की सारी तपस्या और आत्मसम्मान मिट्टी में मिल जाएगा. तुम्हें यह सब बताना जरूरी भी था क्योंकि इस अनकहे प्यार का अंतर्दाह अब मुझ से और सहन नहीं हो रहा था.’’

इतना कह कर वह चुप हो मेरी ओर देखने लगीं. उन की बातें सुन कर मैं उन के पास गया और उन का चेहरा अपने हाथों में ले कर माथा चूम कर बोला, ‘‘आप का आत्मसम्मान और प्यार दोनों ही मेरे लिए सहेजने और पूजा करने के योग्य हैं. आप से दूर होना मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है, पर शायद यही सही है. यह अंतर्दाह हमारी नियति है.’’

Hindi Story – अदला बदली

Hindi Story : राजीव और अलका के स्वभाव में जमीन- आसमान का फर्क था. जहां अलका महत्त्वाकांक्षी और सफाईपसंद थी वहीं राजीव का जीवन के प्रति नजरिया बड़ा ही अव्यावहारिक था. लेकिन राजीव व अलका के साथ घटित एक घटना ने दोनों की भूमिकाएं ही बदल दीं.

मेरे पति राजीव के अच्छे स्वभाव की परिचित और रिश्तेदार सभी खूब तारीफ करते हैं. उन सब का कहना है कि राजीव बड़ी से बड़ी समस्या के सामने भी उलझन, चिढ़, गुस्से और परेशानी का शिकार नहीं बनते. उन की समझदारी और सहनशीलता के सब कायल हैं.

शादी के 3 दिन बाद का एक किस्सा  है. हनीमून मनाने के लिए हम टैक्सी से स्टेशन पहुंचे. हमारे 2 सूटकेस कुली ने उठाए और 5 मिनट में प्लेटफार्म तक पहुंचा कर जब मजदूरी के पूरे 100 रुपए मांगे तो नईनवेली दुलहन होने के बावजूद मैं उस कुली से भिड़ गई.

मेरे शहंशाह पति ने कुछ मिनट तो हमें झगड़ने दिया फिर बड़ी दरियादिली से 100 का नोट उसे पकड़ाते हुए मुझे समझाया, ‘‘यार, अलका, केवल 100 रुपए के लिए अपना मूड खराब न करो. पैसों को हाथ के मैल जितना महत्त्व दोगी तो सुखी रहोगी. ’’

‘‘किसी चालाक आदमी के हाथों लुटने में क्या समझदारी है?’’ मैं ने चिढ़ कर पूछा था.

‘‘उसे चालाक न समझ कर गरीबी से मजबूर एक इनसान समझोगी तो तुम्हारे मन का गुस्सा फौरन उड़नछू हो जाएगा.’’

गाड़ी आ जाने के कारण मैं उस चर्चा को आगे नहीं बढ़ा पाई थी, पर गाड़ी में बैठने के बाद मैं ने उन्हें उस भिखारी का किस्सा जरूर सुना दिया जो कभी बहुत अमीर होता था.

एक स्मार्ट, स्वस्थ भिखारी से प्रभावित हो कर किसी सेठानी ने उसे अच्छा भोजन कराया, नए कपडे़ दिए और अंत में 100 का नोट पकड़ाते हुए बोली, ‘‘तुम शक्लसूरत और व्यवहार से तो अच्छे खानदान के लगते हो, फिर यह भीख मांगने की नौबत कैसे आ गई?’’

‘‘मेमसाहब, जैसे आप ने मुझ पर बिना बात इतना खर्चा किया है, वैसी ही मूर्खता वर्षों तक कर के मैं अमीर से भिखारी बन गया हूं.’’

भिखारी ने उस सेठानी का मजाक सा उड़ाया और 100 का नोट ले कर चलता बना था.

इस किस्से को सुना कर मैं ने उन पर व्यंग्य किया था, पर उन्हें समझाने का मेरा प्रयास पूरी तरह से बेकार गया.

‘‘मेरे पास उड़ाने के लिए दौलत है ही कहां?’’ राजीव बोले, ‘‘मैं तो कहता हूं कि तुम भी पैसों का मोह छोड़ो और जिंदगी का रस पीने की कला सीखो.’’

उसी दिन मुझे एहसास हो गया था कि इस इनसान के साथ जिंदगी गुजारना कभीकभी जी का जंजाल जरूर बना करेगा.

मेरा वह डर सही निकला. कितनी भी बड़ी बात हो जाए, कैसा भी नुकसान हो जाए, उन्हें चिंता और परेशानी छूते तक नहीं. आज की तेजतर्रार दुनिया में लोग उन्हें भोला और सरल इनसान बताते हैं पर मैं उन्हें अव्यावहारिक और असफल इनसान मानती हूं.

‘‘अरे, दुनिया की चालाकियों को समझो. अपने और बच्चों के भविष्य की फिक्र करना शुरू करो. आप की अक्ल काम नहीं करती तो मेरी सलाह पर चलने लगो. अगर यों ही ढीलेढाले इनसान बन कर जीते रहे तो इज्जत, दौलत, शोहरत जैसी बातें हमारे लिए सपना बन कर रह जाएंगी,’’ ऐसी सलाह दे कर मैं हजारों बार अपना गला बैठा चुकी हूं पर राजीव के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.

बेटा मोहित अब 7 साल का हो गया है और बेटी नेहा 4 साल की होने वाली है अपने ढीलेढाले पिता की छत्रछाया में ये दोनों भी बिगड़ने लगे हैं. मैं रातदिन चिल्लाती हूं पर मेरी बात न बच्चों के पापा सुनते हैं, न ही बच्चे.

राजीव की शह के कारण घर के खाने को देख कर दोनों बच्चे नाकभौं चढ़ाते हैं क्योंकि उन की चिप्स, चाकलेट और चाऊमीन जैसी बेकार चीजों को खाने की इच्छा पूरी करने के लिए उन के पापा सदा तैयार जो रहते हैं.

‘‘यार, कुछ नहीं होगा उन की सेहत को. दुनिया भर के बच्चे ऐसी ही चीजें खा कर खुश होते हैं. बच्चे मनमसोस कर जिएं, यह ठीक नहीं होगा उन के विकास के लिए,’’ उन की ऐसी दलीलें मेरे तनबदन में आग लगा देती हैं.

‘‘इन चीजों में विटामिन, मिनरल नहीं होते. बच्चे इन्हें खा कर बीमार पड़ जाएंगे. जिंदगी भर कमजोर रहेंगे.’’

‘‘देखो, जीवन देना और उसे चलाना प्रकृति की जिम्मेदारी है. तुम नाहक चिंता मत करो,’’ उन की इस तरह की दलीलें सुन कर मैं खुद पर झुंझला पड़ती.

राजीव को जिंदगी में ऊंचा उठ कर कुछ बनने, कुछ कर दिखाने की चाह बिलकुल नहीं है. अपनी प्राइवेट कंपनी में प्रमोशन के लिए वह जरा भी हाथपैर नहीं मारते.

‘‘बौस को खाने पर बुलाओ, उसे दीवाली पर महंगा उपहार दो, उस की चमचागीरी करो,’’ मेरे यों समझाने का इन पर कोई असर नहीं होता.

समझाने के एक्सपर्ट मेरे पतिदेव उलटा मुझे समझाने लगते हैं, ‘‘मन का संतोष और घर में हंसीखुशी का प्यार भरा माहौल सब से बड़ी पूंजी है. जो मेरे हिस्से में है, वह मुझ से कोई छीन नहीं सकता और लालच मैं करता नहीं.’’

‘‘लेकिन इनसान को तरक्की करने के लिए हाथपैर तो मारते रहना चाहिए.’’

‘‘अरे, इनसान के हाथपैर मारने से कहीं कुछ हासिल होता है. मेरा मानना है कि वक्त से पहले और पुरुषार्थ से ज्यादा कभी किसी को कुछ नहीं मिलता.’’

उन की इस तरह की दलीलों के आगे मेरी एक नहीं चलती. उन की ऐसी सोच के कारण मुझे नहीं लगता कि अपने घर में सुखसुविधा की सारी चीजें देखने का मेरा सपना कभी पूरा होगा जबकि घरगृहस्थी की जिम्मेदारियों को मैं बड़ी गंभीरता से लेती हूं. हर चीज अपनी जगह रखी हो, साफसफाई पूरी हो, कपडे़ सब साफ और प्रेस किए हों, सब लोग साफसुथरे व स्मार्ट नजर आएं जैसी बातों का मुझे बहुत खयाल रहता है. मैं घर आए मेहमान को नुक्स निकालने या हंसने का कोई मौका नहीं देना चाहती हूं.

अपनी लापरवाही व गलत आदतों के कारण बच्चे व राजीव मुझ से काफी डांट खाते हैं. राजीव की गलत प्रतिक्रिया के कारण मेरा बच्चों को कस कर रखना कमजोर पड़ता जा रहा है.

‘‘यार, क्यों रातदिन साफसफाई का रोना रोती हमारे पीछे पड़ी रहती हो? अरे, घर ‘रिलैक्स’ करने की जगह है. दूसरों की आंखों में सम्मान पाने के चक्कर में हमारा बैंड मत बजाओ, प्लीज.’’

बड़ीबड़ी लच्छेदार बातें कर के राजीव दुनिया वालों से कितनी भी वाहवाही लूट लें, पर मैं उन की डायलागबाजी से बेहद तंग आ चुकी हूं.

‘‘अलका, तुम तेरामेरा बहुत करती हो, जरा सोचो कि हम इस दुनिया में क्या लाए थे और क्या ले जाएंगे? मैं तो कहता हूं कि लोगों से प्यार का संबंध नुकसान उठा कर भी बनाओ. अपने अहं को छोड़ कर जीवनधारा में हंसीखुशी बहना सीखो,’’ राजीव के मुंह से ऐसे संवाद सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं, पर व्यावहारिक जिंदगी में इन के सहारे चलना नामुमकिन है.

बहुत तंग और दुखी हो कर कभीकभी मैं सोचती हूं कि भाड़ में जाएं ये तीनों और इन की गलत आदतें. मैं भी अपना खून जलाना बंद कर लापरवाही से जिऊंगी, लेकिन मैं अपनी आदत से मजबूर हूं. देख कर मरी मक्खी निगलना मुझ से कभी नहीं हो सकता. मैं शोर मचातेमचाते एक दिन मर जाऊंगी पर मेरे साहब आखिरी दिन तक मुझे समझाते रहेंगे, पर बदलेंगे रत्ती भर नहीं.

जीवन के अपने सिखाने के ढंग हैं. घटनाएं घटती हैं, परिस्थितियां बदलती हैं और इनसान की आंखों पर पडे़ परदे उठ जाते हैं. हमारी समझ से विकास का शायद यही मुख्य तरीका है.

कुछ दिन पहले मोहित को बुखार हुआ तो उसे दवा दिलाई, पर फायदा नहीं हुआ. अगले दिन उसे उलटियां होने लगीं तो हम उसे चाइल्ड स्पेशलिस्ट के पास ले गए.

‘‘इसे मैनिन्जाइटिस यानी दिमागी बुखार हुआ है. फौरन अच्छे अस्पताल में भरती कराना बेहद जरूरी है,’’ डाक्टर की चेतावनी सुन कर हम दोनों एकदम से घबरा उठे थे.

एक बडे़ अस्पताल के आई.सी.यू. में मोहित को भरती करा दिया. फौरन इलाज शुरू हो जाने के बावजूद उस की हालत बिगड़ती गई. उस पर गहरी बेहोशी छा गई और बुखार भी तेज हो गया.

‘‘आप के बेटे की जान को खतरा है. अभी हम कुछ नहीं कह सकते कि क्या होगा,’’ डाक्टर के इन शब्दों को सुन कर राजीव एकदम से टूट गए.

मैं ने अपने पति को पहली बार सुबकियां ले कर रोते देखा. चेहरा बुरी तरह मुरझा गया और आत्मविश्वास पूरी तरह खो गया.

‘‘मोहित को कुछ नहीं होना चाहिए अलका. उसे किसी भी तरह से बचा लो,’’ यही बात दोहराते हुए वह बारबार आंसू बहाने लगते.

मेरे लिए उन का हौसला बनाए रखना बहुत कठिन हो गया. मोहित की हालत में जब 48 घंटे बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ तो राजीव बातबेबात पर अस्पताल के कर्मचारियों, नर्सों व डाक्टरों से झगड़ने लगे.

‘‘हमारे बेटे की ठीक से देखभाल नहीं कर रहे हैं ये सब,’’ राजीव का पारा थोड़ीथोड़ी देर बाद चढ़ जाता, ‘‘सब बेफिक्री से चाय पीते, गप्पें मारते यों बैठे हैं मानो मेले में आएं हों. एकाध पिटेगा मेरे हाथ से, तो ही इन्हें अक्ल आएगी.’’

राजीव के गुस्से को नियंत्रण में रखने के लिए मुझे उन्हें बारबार समझाना पड़ता.

जब वह उदासी, निराशा और दुख के कुएं में डूबने लगते तो भी उन का मनोबल ऊंचा रखने के लिए मैं उन्हें लेक्चर देती. मैं भी बहुत परेशान व चिंतित थी पर उन के सामने मुझे हिम्मत दिखानी पड़ती.

एक रात अस्पताल की बेंच पर बैठे हुए मुझे अचानक एहसास हुआ कि मोहित की बीमारी में हम दोनों ने भूमिकाएं अदलबदल दी थीं. वह शोर मचाने वाले परेशान इनसान हो गए थे और मैं उन्हें समझाने व लेक्चर देने वाली टीचर बन गई थी.

मैं ये समझ कर बहुत हैरान हुई कि उन दिनों मैं बिलकुल राजीव के सुर में सुर मिला रही थी. मेरा सारा जोर इस बात पर होता कि किसी भी तरह से राजीव का गुस्सा, तनाव, चिढ़, निराशा या उदासी छंट जाए. ’’

4 दिन बाद जा कर मोहित की हालत में कुछ सुधार लगा और वह धीरेधीरे हमें व चीजों को पहचानने लगा था. बुखार भी धीरेधीरे कम हो रहा था.

मोहित के ठीक होने के साथ ही राजीव में उन के पुराने व्यक्तित्व की झलक उभरने लगी.

एक शाम जानबूझ कर मैं ने गुस्सा भरी आवाज में उन से कहा, ‘‘मोहित, ठीक तो हो रहा है पर मैं इस अस्पताल के डाक्टरों व दूसरे स्टाफ से खुश नहीं हूं. ये लोग लापरवाह हैं, बस, लंबाचौड़ा बिल बनाने में माहिर हैं.’’

‘‘यार, अलका, बेकार में गुस्सा मत हो. यह तो देखो कि इन पर काम का कितना जोर है. रही बात खर्चे की तो तुम फिक्र क्यों करती हो? पैसे को हाथ का मैल…’’

उन्हें पुराने सुर में बोलता देख मैं मुसकराए बिना नहीं रह सकी. मेरी प्रतिक्रिया गुस्से और चिढ़ से भरी नहीं है, यह नोट कर के मेरे मन का एक हिस्सा बड़ी सुखद हैरानी महसूस कर रहा था.

मोहित 15 दिन अस्पताल में रह कर घर लौटा तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं रहा. जल्दी ही सबकुछ पहले जैसा हो जाने वाला था पर मैं एक माने में बिलकुल बदल चुकी थी. कुछ महत्त्वपूर्ण बातें, जिन्हें मैं बिलकुल नहीं समझती थी, अब मेरी समझ का हिस्सा बन चुकी थीं.

मोहित की बीमारी के शुरुआती दिनों में राजीव ने मेरी और मैं ने राजीव की भूमिका बखूबी निभाई थी. मेरी समझ में आया कि जब जीवनसाथी आदतन शिकायत, नाराजगी, गुस्से जैसे नकारात्मक भावों का शिकार बना रहता हो तो दूसरा प्रतिक्रिया स्वरूप समझाने व लेक्चर देने लगता है.

घरगृहस्थी में संतुलन बनाए रखने के लिए ऐसा होना जरूरी भी है. दोनों एक सुर में बोलें तो यह संतुलन बिगड़ता है.

मोहित की बीमारी के कारण मैं भी बहुत परेशान थी. राजीव को संभालने के चक्कर में मैं उन्हें समझाती थी. और वैसा करते हुए मेरा आंतरिक तनाव, बेचैनी व दुख घटता था. इस तथ्य की खोज व समझ मेरे लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण साबित हुई.

आजकल मैं सचमुच बदल गई हूं और बहुत रिलेक्स व खुश हो कर घर की जिम्मेदारियां निभा रही हूं. राजीव व अपनी भूमिकाओं की अदलाबदली करने में मुझे महारत हासिल होती जा रही है और यह काम मैं बड़े हल्केफुल्के अंदाज में मन ही मन मुसकराते हुए करती हूं.

हर कोई अपने स्वभाव के अनुसार अपनेअपने ढंग से जीना चाहता है. अपने को बदलना ही बहुत कठिन है पर असंभव नहीं लेकिन दूसरे को बदलने की इच्छा से घर का माहौल बिगड़ता है और बदलाव आता भी नहीं अपने इस अनुभव के आधार पर इन बातों को मैं ने मन में बिठा लिया है और अब शोर मचा कर राजीव का लेक्चर सुनने के बजाय मैं प्यार भरे मीठे व्यवहार के बल पर नेहा, मोहित और उन से काम लेने की कला सीख गई हूं.

Hindi Story : सूना गला

Hindi Story : उस की मां थी ही निर्मल, निश्छल, जैसी बाहर वैसी अंदर. छल, प्रपंच, घृणा और लालच से कोसों दूर, सब के सुख से सुखी, सब के दुख से दुखी. कभीकभी सौरभ अपनी मां के स्वभाव की सादगी देख अचंभित रह जाता कि आज के प्रपंची युग में भी उस की मां जैसे लोग हैं, विश्वास नहीं होता था उसे.

बचपन से ही सौरभ देखता आ रहा था कि मां हर हाल में संतुष्ट रहतीं. पापा जो भी कमा कर उन के हाथ में थमा देते बिना किसी शिकवाशिकायत के उसी में जोड़तोड़ बिठा कर वह अपना घर चलातीं, कभी अपने अभावों का पोटला किसी के सामने नहीं खोलतीं.

तभी मां की नजर उस पर पड़ गई थी, ‘‘अरे, तू कब जग गया. और ऐसे क्या टुकुरटुकुर देखे जा रहा है.’’

मां की स्निग्ध हंसी ने उसे ममता से सराबोर कर दिया.

‘‘बस, यों ही…आप को अलमारी ठीक करते देख रहा था.’’

वह कैसे कह देता कि कमरे में बैठा उन के निश्छल स्वभाव और संघर्षपूर्ण, त्यागमय जीवन का लेखाजोखा कर रहा था. उन के अपने परिवार के लिए किए गए समर्पण और संघर्ष का, उस सूने गले का जो कभी भारीभरकम सोने की जंजीर और मीनाकारी वाले कर्णफूल से सजासंवरा उन की संपन्नता का प्रतीक था. पिछले 6 वर्षों से उस के नौकरी करने के बाद भी मां का गला सूना ही पड़ा था.

मां को खुद महसूस हो या न हो लेकिन जब भी उस की नजर मां के सूने गले पर पड़ती, मन में एक हूक सी उठती. उसे लगता जैसे उन के जीवन का सारा सूनापन उन के खाली गले और कानों पर सिमट आया हो. इतनी श्रीहीन तो वह तब भी नहीं लगती थीं जब पापा की मृत्यु के बाद उन की दुनिया ही उजड़ गई थी.

सौरभ ने होश संभालने के बाद से ही मां के गले में एक मोटी सी जंजीर और कानों में मीनाकारी वाले कर्णफूल ही देखे थे. तब मां कितनी खुश रहती थीं. हरदम हंसती, गुनगुनाती उस की मां का चेहरा बिना किसी सौंदर्य प्रसाधन के ही दमकता रहता था.

फिर मां की खुशियों और बेफिक्र जिंदगी पर तब पहाड़ टूट कर आ गिरा जब अचानक एक सड़क दुर्घटना में उस के पापा की मौत हो गई. इस असमय आई मुसीबत ने मां को तो पूरी तरह तोड़ ही दिया. वह सूनीसूनी निगाहों से दीवार को देखती बेजान सी महीनों पड़ी रहीं. लेकिन जल्दी ही मां अपने बच्चों के बदहवासी और सदमे से रोते, सहमे चेहरे देख अपनी व्यथा दिल में ही दबा उन्हें संभालने में जुट गई थीं. एक नई जिम्मेदारी के एहसास ने उन्हें फिर से जीवन की मुख्य धारा से जोड़ दिया था.

पति के न रहने से एकाएक ढेरों कठिनाइयां उन के सामने आ खड़ी हुई थीं. पैसों की कमी, जानकारीयों का अभाव, कदमकदम पर जिंदगी उन की परीक्षा ले रही थी. उन का खुद का बनाया संसार उन की ही आंखों के सामने नष्ट होने लगा था लेकिन मां ने धैर्य का पल्लू कस कर थामे रखा.

बचपन में पिता और बाद में पति के संरक्षण में रहने के कारण मां का कभी दुनियादारी और उस के छलप्रपंच से आमनासामना हुआ ही नहीं. अब हर कदम पर उन का सामना वैसे ही लोगों से हो रहा था. लेकिन कहते हैं न कि समय और अभाव आदमी को सबकुछ सिखा देता है, मां भी दुनियादारी सीखने लगी थीं.

मां अपने टूटते आत्मबल और अपनी सारी अंतर्वेदनाओं को अपने अंतस में छिपाए सामान्य बने रहने की कोशिश करतीं लेकिन उन की तमाम कोशिशों के बावजूद सौरभ से कुछ भी छिपा नहीं था. वही एकमात्र गवाह था मां के कतराकतरा टूटने और जुड़ने का. कितनी बार ही उस ने देखा था मां को रात में अपने बच्चों से छिप कर रोते, पापा को याद कर तड़पते. तब उस के दिल में तड़प सी उठती कि कैसे क्या करे जो मां के सारे दुख हर ले.

वह चाह कर भी मां के लिए कुछ नहीं कर पाया, जबकि मां ने उन दोनों भाईबहनों का जीवन संवारने के लिए जो कर दिखाया, सभी के लिए आशातीत था. क्या नहीं किया मां ने, पोस्टआफिस की एजेंसी, स्कूल की नौकरी, ट्यूशन, कपड़ों की सिलाई यानी एकएक पैसे के लिए संघर्ष करतीं.

जब भी वह मां के संघर्ष से विचलित हो कर अपने लिए काम ढूंढ़ता, मां उसे काम करने की इजाजत ही नहीं देतीं. बस, उन्हें एक ही धुन थी कि किसी तरह उन का बेटा पढ़लिख कर सरकारी नौकरी में ऊंचा पद प्राप्त कर ले.

पापा के साथ जब वह भयंकर दुर्घटना हुई थी तब सौरभ 10वीं में पढ़ता था. मांबेटा दोनों ही व्यापार में पूरी तरह कोरे थे जिस का फायदा व्यापार में उस के पिता के साथ काम कर रहे दूसरे लोगों ने उठाया और व्यापार में लगा उस के पापा का करीबकरीब सारा पैसा डूब गया. थोड़ाबहुत जो भी पैसा बचा था, नेहा दीदी की शादी का खयाल कर मां ने बैंक में जमा करवा दिया.

नेहा दीदी की शादी में सारी जमापूंजी के साथसाथ मां के करीबकरीब सारे गहने निकल गए थे, फिर भी मां बेहद खुश थीं. नेहा को सुंदर, संस्कारी और विवेकशील पति के साथसाथ ससुराल में संपन्नता भरा परिवार जो मिला था.

नेहा दीदी की शादी के बाद 4 वर्ष बड़े ही संघर्षपूर्ण रहे. स्नातक करने के बाद सौरभ नौकरी प्राप्त करने के अभियान में जुट गया. जल्दी ही उसे सफलता भी मिली. एक बैंक अधिकारी के पद पर उस की नियुक्ति हो गई. इस दौरान जगहजगह इतने फार्म भरने पडे़ कि गहनों के नाम पर मां के गले में बची एकमात्र जंजीर भी उतर गई.

मां की साड़ी पर भी जगहजगह पैबंद नजर आने लगे थे. इतनी विकट परिस्थिति में भी मां ने हिम्मत नहीं हारी, न ही किसी रिश्तेदार के घर आर्थिक तंगी का रोना रोने या सहायता मांगने गईं. परिस्थिति ने उन्हें धरती सा सहिष्णु बना दिया था.

नौकरी मिलने के बाद जब उस ने पहली पगार मां को सौंपी थी तब खुशी के आंसू पोंछती मां ने उसे गले से लगा लिया था, ‘अरे, पगले…मां भला इन रुपयों का क्या करेगी? अब तो सारी जिम्मेदारियां तू ही संभाल, मैं तो बस, बैठेबैठे आराम करूंगी.’

इस के बाद भी सौरभ हर महीने तनख्वाह का सारा पैसा ला कर मां के हाथों में देता रहा और मां पूर्ववत घर चलाती रहीं.

शादी के लिए आए कई प्रस्तावों में से मां को निधि की सुंदरता ने इस कदर प्रभावित किया कि बिना ज्यादा खोजबीन किए वे निधि से उस की शादी करने के लिए तैयार हो गईं. जब दहेज की बात आई तो उन्होंने शादी में किसी तरह का दहेज लेने से साफ मना कर दिया. ऐसा कर शायद वह अपने पति के उन आदर्शों को कायम रखना चाहती थीं जो उन्होंने खुद की शादी में दहेज न ले कर लोगों और समाज के सामने कायम किया था. जितना भी उन के पास पैसा था उसी से उन्होंने शादी की सारी व्यवस्था की.

मां के आदर्शों और भावनाओं को समझने के बदले अमीर घर की निधि की नजरों में दहेज न लेना बेवकूफी भरी आदर्शवादिता थी. हमेशा अपनी आधुनिका मां की तुलना में वह अपनी सास के साधारण से रहनसहन को उन का देहातीपन समझ मजाक उड़ाती रहती और जबतब अपनी जबान की कैंची से उसे कतरती रहती. ऐसे मौके पर उस का दिल चाहता कि निधि से पूछे कि सभ्यता का यह कौन सा सड़ागला रूप है जिस में ससुराल के बुजुर्गों की नहीं, सिर्फ मायके के बुजुर्गों की इज्जत करना सिखाई जाती है, लेकिन वह चुप ही रहता.

ऐसा नहीं था कि वह निधि से डरता था, कहीं मां पर निधि की असलियत जाहिर न हो जाए, इसी भय से भयभीत रहता था. जिंदगी के इस सुखद मोड़ पर वह नहीं चाहता था कि निधि की किसी बात से मां आहत हों और वर्षों से उन के दिल में जो बहू की तसवीर पल रही थी वह धुंधली हो जाए.

निधि समझे या न समझे वह जानता था, मां निधि को बेहद प्यार करती थीं.

निधि ने घर में आते ही मां के सीधेसादे स्वभाव को परख कर बड़ी होशियारी से उन के बेटे, पैसे और घर पर अपना अधिकार कर, उन के अधिकारों को इस तरह सीमित कर दिया कि वह अपने ही घर में पराई बन कर रह गई थीं.

वह हर बार सोचता, इस महीने जरूर मां के लिए सोने की जंजीर ले आएगा, लेकिन कोई न कोई खर्च हर महीने निकल आता और वह चाह कर भी जंजीर नहीं खरीद पाता. वैसे भी शादी के बाद से घर के खर्च काफी बढ़ गए थे. अब तक साधारण ढंग से चलने वाले घर का रहनसहन काफी ऊंचे स्तर का हो गया था. एक नौकर भी आ गया था जो निधि के हुक्म का गुलाम था.

तभी सौरभ की तंद्रा मां की आवाज से टूट गई थी.

‘‘कब से पुकारे जा रही हूं, कहां खोया बैठा है. चाय बना दूं?’’

मां को यों सामने पा कर जाने क्यों सौरभ की आंखें भर आई थीं. इनकार में सिर हिला, अपने आंसू छिपाता वह बाथरूम में जा घुसा था.

उसी दिन आफिस जाने के बाद सौरभ अपनी एक फिक्स्ड डिपोजिट तोड़ कर मां के लिए एक जंजीर और मीनाकारी वाला कर्णफूल खरीद लाया था. यह सोच कर कि एक हफ्ते बाद मां के आने वाले जन्मदिन पर उन्हें देगा, उस ने गहनों का डब्बा अपनी अलमारी में संभाल कर रख दिया.

रात को उस ने अपने इस ‘सरप्राइज गिफ्ट’ की बात जैसे ही निधि को बताई, उस के तो तनबदन में आग लग गई. अब तक शब्दों पर चढ़ा मुलम्मा उतार, मां के सारे बलिदानों पर पानी फेरते हुए वह बिफर पड़ी थी, ‘‘यह तुम्हें क्या सूझी है, बुढ़ापे में अब वह इतने भारी गहनों को ले कर क्या करेंगी? अब तो उन के नातीपोते खिलाने के दिन हैं फिर भी उन की तो जैसे गहनों में ही जान अटकी पड़ी है.’’

पूरा हफ्ता उस चेन को ले कर निधि के साथ उस का शीतयुद्ध चलता रहा, फिर भी वह डटा रहा. अभी वह इतना गयागुजरा नहीं था कि उस की बातों में आ कर मां के प्रति अपने प्यार और फर्ज को भूल जाता.

एक सप्ताह बाद जब मां का जन्मदिन आया, सुबहसुबह मां को जन्मदिन की मुबारकबाद दे कर उस ने जतन से पैक किया गया गहनों का डब्बा उन के हाथों में थमा दिया था.

‘‘अरे, बेटा, यह क्या ले आया तू? अब क्या मेरी उम्र है उपहार लेने की. अच्छा, देखूं तो मेरे लिए तू क्या ले आया है.’’

डब्बा खोलते ही मां जड़ सी हो गई थीं. जाने कब तक किंकर्तव्यविमूढ़ हो यों ही खड़ी रहतीं, अगर सौरभ उन्हें गहनों को पहनने की याद नहीं दिलाता. सौरभ की आवाज में जाने कैसी कशिश थी कि जंजीर पहनतेपहनते उन की आंखें छलछला आई थीं. फिर कुछ सोच सौरभ का गाल थपथपा कर निधि को बुलाने लगीं.

कमरे में कदम रखते ही निधि की नजर मां के गले में पड़ी जंजीर पर गई, जिसे देखते ही चोट खाई नागिन सी उस की आंखों से लपट सी उठी थी, जो सौरभ से छिपी नहीं रही, पर उस की सीधीसादी मां को उस का आभास तक नहीं हुआ. तभी अपने गले से जंजीर निकाल कर निधि के गले में डालते हुए मां बोलीं, ‘‘बहू, इसे तुम मेरी तरफ से रख लो. जाने कितने अरमान थे मेरे दिल में अपनी बहू के लिए. जब सौरभ छोटा था तभी से अपने कितने ही गहने तुम्हारे नाम रख छोडे़ थे. सोचती थी एक ही तो बहू होगी मेरी, सजा दूंगी गहनों से, लेकिन परिस्थितियां ऐसी पलटीं कि सारे अरमान दिल में ही दफन हो गए.’’

सौरभ अभी कुछ बोलना चाह ही रहा था कि मां जाने कैसे समझ गईं.

‘‘न…तू कुछ नहीं बोलेगा. यह मेरे और बहू के बीच की बातें हैं. वैसे भी इस उम्र में मैं गहनों का क्या करूंगी.’’

मां के इस अप्रत्याशित फैसले ने निधि को भौचक कर दिया था. अपने छोटेपन का आभास होते ही वह सौरभ से नजरें नहीं मिला पा रही थी. उस की सारी कुटिलताएं मां के सीधेपन के सामने धराशायी हो चुकी थीं. जिस जंजीर के लिए उस ने अपने पति का जीना हराम कर रखा था, इतनी आसानी से मां उसे सौंप चुकी थीं.

निधि की नजरों में आज पहली बार सास के लिए सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हुई थी. साथ ही यह बात शिद्दत से उसे शूल की तरह चुभ रही थी कि जिस सास को मां की तुलना में वह हमेशा गंवार और बेवकूफ समझती थी और अपनी ससुराल वालों की तुलना में अपने मायके वालों को श्रेष्ठ और आधुनिक दिखाने की कोशिश करती थी, उस की उसी सास के सरल, सादे और ऊंचे संस्कारों के सामने अब उसे अपनी गर्वोक्ति व्यर्थ का प्रलाप लगने लगी थी.

दूसरे दिन सौरभ को यह देख कर सुखद आश्चर्य हो रहा था कि निधि एक सोने की जंजीर मां को जबरदस्ती पहना रही थी. मां के बारबार मना करने पर भी वह जिद पर उतर आई थी.

‘‘मांजी, मैं ने बडे़ प्यार से इसे आप के लिए खरीदा है और अगर आप ने लेने से इनकार कर दिया तो मुझे लगेगा कि आप ने कभी मुझे बेटी माना ही नहीं.’’

इस के बाद मां इनकार नहीं कर सकी थीं. सदा से ही कम बोलने वाली मां की आंखों में अपनी बहू के लिए ढेर सारा प्यार और अपनापन उमड़ पड़ा था. मां की खुशी देख सौरभ ने नजरों से ही निधि के प्रति अपनी कृतज्ञता जता दी थी, जिसे संभालना निधि के लिए मुश्किल हो रहा था. वह नजरें चुराती, यहांवहां काम में व्यस्त होने का नाटक करने लगी.

आज पहली बार अपनी गलतियों का एहसास निधि को बुरी तरह कचोट रहा था. सास के सच्चे प्रेम और अपनेपन ने उस की आत्मा को झकझोर दिया था. बारीबारी वे बातें याद आ रही थीं जिस का समय रहते उस ने कभी कोई मूल्य नहीं समझा था. वह बीमार पड़ती तो सास उस की देखभाल बडे़ प्यार और लगन से अपने बच्चों की तरह करतीं. इतने प्यार और लगन से तो कभी उस की अपनी मां ने भी उस की सेवा नहीं की थी.

जिस सास ने अपना बेटा, घर, संपत्ति सबकुछ उसे सौंप, अपना विश्वास, प्यार और सम्मान दिया, उसी सास को महज अपना वर्चस्व साबित करने के लिए उस ने घरपरिवार से भी बेगाना कर रखा था. शादी के बाद से आज यह पहला अवसर था जब सौरभ उस के किसी काम से इतना खुश और संतुष्ट नजर आ रहा था. अपने लिए उस की नजरों से छलकता प्यार और कृतज्ञता देख निधि को बारबार नानी की नसीहतें याद आ रही थीं.

उस की नानी के पास जब भी उस की मां अपनी सास की शिकायतों की पोटली खोलतीं, नानी उन्हें समझातीं, ‘देख…नंदनी, एक बात तू गांठ बांध ले कि पति के बचपन का पहला प्यार उस की मां ही होती है, जिस का तिरस्कार वह कभी बरदाश्त नहीं कर पाता है. अगर पति का सच्चा प्यार और घर का सुख प्राप्त करना है तो उस से ज्यादा उस की मां को अहमियत देना सीख. उन की सेवा कर, उन का खयाल रख तो कुछ ही दिनों बाद उसी सास में तुम्हें अपनी मां भी दिखेगी, साथ ही तुम्हें पति को भी अपनी अहमियत जताने की जरूरत नहीं पडे़गी. वह खुद ही प्यार के अटूट बंधन में बंधा ताउम्र तुम्हारे ही चक्कर लगाएगा.’

मां हमेशा नानी की नसीहत को मजाक में उड़ा, अपनी मनमानी करतीं, नतीजतन, अपने सारे रिश्तों से मां अलग तो हुईं ही, पापा के साथ रहते हुए भी जीवन की इस संध्या बेला में काफी अकेली हो गई थीं.

एकांत पाते ही निधि अपने सारे मानअपमान और स्वाभिमान को भूल कर सौरभ के पास आ गई थी. शर्मिंदगी के भाव से भरी उस की आंखों से अविरल आंसू बह निकले.

बिना कुछ कहे पति की शांत और मुग्ध दृष्टि से आश्वस्त हो कर निधि उस की बांहों में समा गई थी. निधि को अपनी बांहों में समेटते हुए सौरभ को लगा जैसे कई दिनों की बारिश के बाद काले बादल छंट गए हैं और आकाश में खिल आई धूप ने मौसम को काफी सुहावना बना दिया है.

लेखिका- रीता कुमारी

Hindi Story : रेखाएं – क्या कच्ची रेखाएं विद्या को कमजोर बना रही थी

Hindi Story : ‘‘छि, मैं सोचती थी कि बड़ी कक्षा में जा कर तुम्हारी समझ भी बड़ी हो जाएगी, पर तुम ने तो मेरी तमाम आशाओं पर पानी फेर दिया. छठी कक्षा में क्या पहुंची, पढ़ाई चौपट कर के धर दी.’’

बरसतेबरसते थक गई तो रिपोर्ट उस की तरफ फेंकते हुए गरजी, ‘‘अब गूंगों की तरह गुमसुम क्यों खड़ी हो? बोलती क्यों नहीं? इतनी खराब रिपोर्ट क्यों आई तुम्हारी? पढ़ाई के समय क्या करती हो?’’

रिपोर्ट उठा कर झाड़ते हुए उस ने धीरे से आंखें ऊपर उठाईं, ‘‘अध्यापिका क्या पढ़ाती है, कुछ भी सुनाई नहीं देता, मैं सब से पीछे की लाइन में जो बैठती हूं.’’

‘‘क्यों, किस ने कहा पीछे बैठने को तुम से?’’

‘‘अध्यापिका ने. लंबी लड़कियों को  कहती हैं, पीछे बैठा करो, छोटी लड़कियों को ब्लैक बोर्ड दिखाई नहीं देता.’’

‘‘तो क्या पीछे बैठने वाली सारी लड़कियां फेल होती हैं? ऐसा कभी नहीं हो सकता. चलो, किताबें ले कर बैठो और मन लगा कर पढ़ो, समझी? कल मैं तुम्हारे स्कूल जा कर अध्यापिका से बात करूंगी?’’

झल्लाते हुए मैं कमरे से निकल गई. दिमाग की नसें झनझना कर टूटने को आतुर थीं. इतने वर्षों से अच्छीखासी पढ़ाई चल रही थी इस की. कक्षा की प्रथम 10-12 लड़कियों में आती थी. फिर अचानक नई कक्षा में आते ही इतना परिवर्तन क्यों? क्या सचमुच इस के भाग्य की रेखाएं…

नहींनहीं. ऐसा कभी नहीं हो सकेगा. रात को थकाटूटा तनमन ले कर बिस्तर पर पसरी, तो नींद जैसे आंखों से दूर जा चुकी थी. 11 वर्ष पूर्व से ले कर आज तक की एकएक घटना आंखों के सामने तैर रही थी.

‘‘बिटिया बहुत भाग्यशाली है, बहनजी.’’

‘‘जी पंडितजी. और?’’ अम्मां उत्सुकता से पंडितजी को निहार रही थीं.

‘‘और बहनजी, जहांजहां इस का पांव पड़ेगा, लक्ष्मी आगेपीछे घूमेगी. ननिहाल हो, ददिहाल हो और चाहे ससुराल.’’

2 महीने की अपनी फूल सी बिटिया को मेरी स्नेहसिक्त आंखों ने सहलाया, तो लगा, इस समय संसार की सब से बड़ी संपदा मेरे लिए वही है. मेरी पहलीपहली संतान, मेरे मातृत्व का गौरव, लक्ष्मी, धन, संपदा, सब उस के आगे महत्त्वहीन थे. पर अम्मां? वह तो पंडितजी की बातों से निहाल हुई जा रही थीं.

‘‘लेकिन…’’ पंडितजी थोड़ा सा अचकचाए.

‘‘लेकिन क्या पंडितजी?’’ अम्मां का कुतूहल सीमारेखा के समस्त संबंधों को तोड़ कर आंखों में सिमट आया था.

‘‘लेकिन विद्या की रेखा जरा कच्ची है, अर्थात पढ़ाईलिखाई में कमजोर रहेगी. पर क्या हुआ बहनजी, लड़की जात है. पढ़े न पढ़े, क्या फर्क पड़ता है. हां, भाग्य अच्छा होना चाहिए.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं, पंडितजी, लड़की जात को तो चूल्हाचौका संभालना आना चाहिए और क्या.’’

किंतु मेरा समूचा अंतर जैसे हिल गया हो. मेरी बेटी अनपढ़ रहेगी? नहींनहीं. मैं ने इंटर पास किया है, तो मेरी बेटी को मुझ से ज्यादा पढ़ना चाहिए, बी.ए., एम.ए. तक, जमाना आगे बढ़ता है न कि पीछे.

‘‘बी.ए. पास तो कर लेगी न पंडितजी,’’ कांपते स्वर में मैं ने पंडितजी के आगे मन की शंका उड़ेल दी.

‘‘बी.ए., अरे. तोबा करो बिटिया, 10वीं पास कर ले तुम्हारी गुडि़या, तो अपना भाग्य सराहना. विद्या की रेखा तो है ही नहीं और तुम तो जानती ही हो, जहां लक्ष्मी का निवास होता है, वहां विद्या नहीं ठहरती. दोनों में बैर जो ठहरा,’’ वे दांत निपोर रहे थे और मैं सन्न सी बैठी थी.

यह कैसा भविष्य आंका है मेरी बिटिया का? क्या यह पत्थर की लकीर है, जो मिट नहीं सकती? क्या इसीलिए मैं इस नन्हीमुन्नी सी जान को संसार में लाई हूं कि यह बिना पढ़ेलिखे पशुपक्षियों की तरह जीवन काट दे.

दादी मां के 51 रुपए कुरते की जेब में ठूंस पंडितजी मेरी बिटिया का भविष्यफल एक कागज में समेट कर अम्मां के हाथ में पकड़ा गए.

पर उन के शब्दों को मैं ने ब्रह्मवाक्य मानने से इनकार कर दिया. मेरी बिटिया पढ़ेगी और मुझ से ज्यादा पढ़ेगी. बिना विद्या के कहीं सम्मान मिलता है भला? और बिना सम्मान के क्या जीवन जीने योग्य होता है कहीं? नहीं, नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगी. किसी मूल्य पर भी नहीं.

3 वर्ष की होतेहोते मैं ने नन्ही निशा का विद्यारंभ कर दिया था. सरस्वती पूजा के दिन देवी के सामने उसे बैठा कर, अक्षत फूल देवी को अर्पित कर झोली पसार कर उस के वरदहस्त का वरदान मांगा था मैं ने, धीरेधीरे लगा कि देवी का आशीष फलने लगा है. अपनी मीठीमीठी तोतली बोली में जब वह वर्णमाला के अक्षर दोहराती, तो मैं निहाल हो जाती.

5 वर्ष की होतेहोते जब उस ने स्कूल जाना आरंभ किया था, तो वह अपनी आयु के सभी बच्चों से कहीं ज्यादा पढ़ चुकी थी. साथसाथ एक नन्हीमुन्नी सी बहन की दीदी भी बन चुकी थी, लेकिन नन्ही ऋचा की देखभाल के कारण निशा की पढ़ाई में मैं ने कोई विघ्न नहीं आने दिया था. उस के प्रति मैं पूरी तरह सजग थी.

स्कूल का पाठ याद कराना, लिखाना, गणित का सवाल, सब पूरी निष्ठा के साथ करवाती थी और इस परिश्रम का परिणाम भी मेरे सामने सुखद रूप ले कर आता था, जब कक्षा की प्रथम 10-12 बच्चियों में एक उस का नाम भी होता था.

5वीं कक्षा में जाने के साथसाथ नन्ही ऋचा भी निशा के साथ स्कूल जाने लगी थी. एकाएक मुझे घर बेहद सूनासूना लगने लगा था. सुबह से शाम तक ऋचा इतना समय ले लेती थी कि अब दिन काटे नहीं कटता था.

एक दिन महल्ले की समाज सेविका विभा के आमंत्रण पर मैं ने उन के साथ समाज सेवा के कामों में हाथ बंटाना स्वीकार कर लिया. सप्ताह में 3 दिन उन्हें लेने महिला संघ की गाड़ी आती थी जिस में अन्य महिलाओं के साथसाथ मैं भी बस्तियों में जा कर निर्धन और अशिक्षित महिलाओं के बच्चों के पालनपोषण, सफाई तथा अन्य दैनिक घरेलू विषयों के बारे में शिक्षित करने जाने लगी.

घर के सीमित दायरों से निकल कर मैं ने पहली बार महसूस किया था कि हमारा देश शिक्षा के क्षेत्र में कितना पिछड़ा हुआ है, महिलाओं में कितनी अज्ञानता है, कितनी अंधेरी है उन की दुनिया. काश, हमारे देश के तमाम शिक्षित लोग इस अंधेरे को दूर करने में जुट जाते, तो देश कहां से कहां पहुंच जाता. मन में एक अनोखाअनूठा उत्साह उमड़ आया था देश सेवा का, मानव प्रेम का, ज्ञान की ज्योति जलाने का.

पर आज एका- एक इस देश और मानव प्रेम की उफनतीउमड़ती नदी के तेज बहाव को एक झटका लगा. स्कूल से आ कर निशा किताबें पटक महल्ले के बच्चों के साथ खेलने भाग गई थी. उस की किताबें समेटते हुए उस की रिपोर्ट पर नजर पड़ी. 3 विषयों में फेल. एकएक कापी उठा कर खोली. सब में लाल पेंसिल के निशान, ‘बेहद लापरवाह,’ ‘ध्यान से लिखा करो,’  ‘…विषय में बहुत कमजोर’ की टिप्पणियां और कहीं कापी में पूरेपूरे पन्ने लाल स्याही से कटे हुए.

देखतेदेखते मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. यह क्या हो रहा है? बाहर ज्ञान का प्रकाश बिखेरने जा रही हूं और घर में दबे पांव अंधेरा घुस रहा है. यह कैसी समाज सेवा कर रही हूं मैं. यही हाल रहा तो लड़की फेल हो जाएगी. कहीं पंडितजी की भविष्यवाणी…

और निशा को अंदर खींचते हुए ला कर मैं उस पर बुरी तरह बरस पड़ी थी.

दूसरे दिन विभा बुलाने आईं, तो मैं निशा के स्कूल जाने की तैयारी में व्यस्त थी.

‘‘क्षमा कीजिए बहन, आज मैं आप के साथ नहीं जा सकूंगी. मुझे निशा के स्कूल जा कर उस की अध्यापिका से मिलना है. उस की रिपोर्ट काफी खराब आई है. अगर यही हाल रहा तो डर है, उस का साल न बरबाद हो जाए. बस, इस हफ्ते से आप के साथ नहीं जा सकूंगी. बच्चों की पढ़ाई का बड़ा नुकसान हो रहा है.’’

‘‘आप का मतलब है, आप नहीं पढ़ाएंगी, तो आप की बेटी पास ही नहीं होगी? क्या मातापिता न पढ़ाएं, तो बच्चे नहीं पढ़ते?’’

‘‘नहीं, नहीं बहन, यह बात नहीं है. मेरी छोटी बेटी ऋचा बिना पढ़ाए कक्षा में प्रथम आती है, पर निशा पढ़ाई में जरा कमजोर है. उस के साथ मुझे बैठना पड़ता है. हां, खेलकूद में कक्षा में सब से आगे है. इधर 3 वर्षों में ढेरों इनाम जीत लाई है. इसीलिए…’’

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी, पर समाज सेवा बड़े पुण्य का काम होता है. अपना घर, अपने बच्चों की सेवा तो सभी करते हैं…’’

वह पलट कर तेजतेज कदमों से गाड़ी की ओर बढ़ गई थी.

घर का काम निबटा कर मैं स्कूल पहुंची. निशा की अध्यापिका से मिलने पर पता चला कि वह पीछे बैठने के कारण नहीं, वरन 2 बेहद उद्दंड किस्म की लड़कियों की सोहबत में फंस कर पढ़ाई बरबाद कर रही थी.

‘‘ये लड़कियां किन्हीं बड़े धनी परिवारों से आई हैं, जिन्हें पढ़ाई में तनिक भी रुचि नहीं है. पिछले वर्ष फेल होने के बावजूद उन्हें 5वीं कक्षा में रोका नहीं जा सका. इसीलिए वे सब अध्यापिकाओं के साथ बेहद उद््दंडता का बरताव करती हैं, जिस की वजह से उन्हें पीछे बैठाया जाता है ताकि अन्य लड़कियों की पढ़ाई सुचारु रूप से चल सके,’’ निशा की अध्यापिका ने कहा.

सुन कर मैं सन्न रह गई.

‘‘यदि आप अपनी बेटी की तरफ ध्यान नहीं देंगी तो पढ़ाई के साथसाथ उस का जीवन भी बरबाद होने में देर नहीं लगेगी. यह बड़ी भावुक आयु होती है, जो बच्चे के भविष्य के साथसाथ उस का जीवन भी बनाती है. आप ही उसे इस भटकन से लौटा सकती हैं, क्योंकि आप उस की मां हैं. प्यार से थपथपा कर उसे धीरेधीरे सही राह पर लौटा लाइए. मैं आप की हर तरहसे मदद करूंगी.’’

‘‘आप से एक अनुरोध है, मिस कांता. कल से निशा को उन लड़कियों के साथ न बिठा कर कृपया आगे की सीट पर बिठाएं. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

घर लौट कर मैं बड़ी देर तक पंखे के नीचे आंखें बंद कर के पड़ी रही. समाज सेवा का भूत सिर पर से उतर गया था. समाज सेवा पीछे है, पहले मेरा कर्तव्य अपने बच्चों को संभालना है. ये भी तो इस समाज के अंग हैं. इन 4-5 महीने में जब से मैं ने इस की ओर ध्यान देना छोड़ा है, यह पढ़ाई में कितनी पिछड़ गई है.

अब मैं ने फिर पहले की तरह निशा के साथ नियमपूर्वक बैठना शुरू कर दिया. धीरेधीरे उस की पढ़ाई सुधरने लगी. बीचबीच में मैं कमरे में जा कर झांकती, तो वह हंस देती, ‘‘आइए मम्मी, देख लीजिए, मैं अध्यापिका के कार्टून नहीं बना रही, नोट्स लिख रही हूं.’’

उस के शब्द मुझे अंदर तक पिघला देते, ‘‘नहीं बेटा, मैं चाहती हूं, तुम इतना मन लगा कर पढ़ो कि तुम्हारी अध्यापिका की बात झूठी हो जाए. वह तुम से बहुत नाराज हैं. कह रही थीं कि निशा इस वर्ष छठी कक्षा हरगिज पास नहीं कर पाएगी. तुम पास ही नहीं, खूब अच्छे अंकों में पास हो कर दिखाओ, ताकि हमारा सिर पहले की तरह ऊंचा रहे,’’ उस का मनोबल बढ़ा कर मैं मनोवैज्ञानिक ढंग से उस का ध्यान उन लड़कियों की ओर से हटाना चाहती थी.

धीरेधीरे मैं ने निशा में परिवर्तन देखा. 8वीं कक्षा में आ कर वह बिना कहे पढ़ाई में जुट जाती. उस की मेहनत, लगन व परिश्रम उस दिन रंग लाया, जब दौड़ते हुए आ कर वह मेरे गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘मां, मैं पास हो गई. प्रथम श्रेणी में. आप के पंडितजी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर दी मैं ने? अब तो आप खुश हैं न कि आप की बेटी ने 10वीं पास कर ली.’’

‘‘हां, निशा, आज मैं बेहद खुश हूं. जीवन की सब से बड़ी मनोकामना पूर्ण कर के आज तुम ने मेरा माथा गर्व से ऊंचा कर दिया है. आज विश्वास हो गया है कि संसार में कोई ऐसा काम नहीं है, जो मेहनत और लगन से पूरा न किया जा सके. अब आगे…’’

‘‘मां, मैं डाक्टर बनूंगी. माधवी और नीला भी मेडिकल में जा रही हैं.’’

‘‘बाप रे, मेडिकल. उस में तो बहुत मेहनत करनी पड़ती है. हो सकेगी तुम से रातदिन पढ़ाई?’’

‘‘हां, मां, कृपया मुझे जाने दीजिए. मैं खूब मेहनत करूंगी.’’

‘‘और तुम्हारे खेलकूद? बैडमिंटन, नैटबाल, दौड़ वगैरह?’’

‘‘वह सब भी चलेगा साथसाथ,’’ वह हंस दी. भोलेभाले चेहरे पर निश्छल प्यारी हंसी.

मन कैसाकैसा हो आया, ‘‘ठीक है, पापा से भी पूछ लेना.’’

‘‘पापा कुछ नहीं कहेंगे. मुझे मालूम है, उन का तो यही अरमान है कि मैं डाक्टर नहीं बन सका, तो मेरी बेटी ही बन जाए. उन से पूछ कर ही तो आप से अनुमति मांग रही हूं. अच्छा मां, आप नानीजी को लिख दीजिएगा कि उन की धेवती ने उन के बड़े भारी ज्योतिषी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर के 10वीं पास कर ली है और डाक्टरी पढ़ कर अपने हाथ की रेखाओं को बदलने जा रही है.’’

‘‘मैं क्यों लिखूं? तुम खुद चिट्ठी लिख कर उन का आशीर्वाद लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ही लिख दूंगी. जरा अंक तालिका आ जाने दीजिए और जब इलाहाबाद जाऊंगी तो आप के पंडितजी के दर्शन जरूर करूंगी, जिन्हें मेरे भाग्य में विद्या की रेखा ही नहीं दिखाई दी थी.’’

आज 6 वर्ष बाद मेरी निशा डाक्टर बन कर सामने खड़ी है. हर्ष से मेरी आंखें छलछलाई हुई हैं.

दुख है तो केवल इतना कि आज अम्मां नहीं हैं. होतीं तो उन्हें लिखती, ‘‘अम्मां, लड़कियां भी लड़कों की तरह इनसान होती हैं. उन्हें भी उतनी ही सुरक्षा, प्यार तथा मानसम्मान की आवश्यकता होती है, जितनी लड़कों को. लड़कियां कह कर उन्हें ढोरडंगरों की तरह उपेक्षित नहीं छोड़ देना चाहिए.

‘‘और ये पंडेपुजारी? आप के उन पंडितजी के कहने पर विश्वास कर के मैं अपनी बिटिया को उस के भाग्य के सहारे छोड़ देती, तो आज यह शुभ दिन कहां से आता? नहीं अम्मां, लड़कियों को भी ईश्वर ने शरीर के साथसाथ मन, मस्तिष्क और आत्मा सभी कुछ प्रदान किया है. उन्हें उपेक्षित छोड़ देना पाप है.’’

‘‘तुम भी तो एक लड़की हो, अम्मां, अपनी धेवती की सफलता पर गर्व से फूलीफूली नहीं समा रही हो? सचसच बताना.’’

पर कहां हैं पुरानी मान्यताओं पर विश्वास करने वाली मेरी वह अम्मां?

Hindi Story : बुड्ढा कहीं का

Hindi Story : फब्तियां कसते लड़के इस प्रतीक्षा में थे कि उन का भी नंबर लग जाए. सास की उम्र वाली औरतें अपने को बिना कारण व्यस्त दिखाने में लगी थीं. बिना पूछे हर अवसर पर अपनी राय देते रहना भी तो एक अच्छा काम माना जाता है. ‘‘चलोचलो, गानाबजाना करो. ढोलक कहां है? और हारमोनियम कल वापस भी तो करना है,’’ सास का ताज पहने चंद्रमुखी ने शोर से ऊपर अपनी आवाज को उठा कर सब को निमंत्रण दिया. स्वर में उत्साह था.

‘‘हांहां, चलो. भाभी से गाना गवाएंगे और उन का नाच भी देखेंगे,’’ चेतना ने शरारत से भाभी का कंधा पकड़ा.

शिप्रा लजा कर अपने अंदर सिमट गई.

तुरंत ही लड़कियों व कुछ दूसरी औरतों ने शिप्रा के चारों ओर घेरा डाल दिया. बड़ी उम्र की महिलाओं ने पीछे सोफे या कुरसियों पर बैठना पसंद किया. युवकों को इस मजलिस से बाहर हो जाने का आदेश मिला पर वे किसी न किसी तरह घुसपैठ कर रहे थे.

शादी के इस शरारती माहौल में यह सब जायज था. अब रह गए घर के कुछ बुड्ढे जिन्हें बाहर पंडाल में बैठने को कहा गया. दरअसल, हर घर में वृद्धों को व्यर्थ सामान का सम्मान मिलता है. वे मनोरंजन का साधन तो होते हैं लेकिन मनोरंजन में शामिल नहीं किए जाते.

गानाबजाना शुरू हो गया. कुछ लड़कियों को नाचने के लिए ललकारा गया. हंसीमजाक के फव्वारे छूटने लगे. छोटीछोटी बातों पर हंसी छूट रही थी. सब को बहुत मजा आ रहा था.

पंडाल में केवल 4 वृद्ध बैठे थे. आपस में अपनीअपनी जवानी के दिनों का बखान कर रहे थे. जब अपनी पत्नियों का जिक्र करते तो खुसरपुसर कर के बोलते थे. हां, बातें करते समय भी उन का एक कान, अंदर क्या चल रहा है, कौन गा रहा है या कौन नाच रहा होगा, सुनने को चौकस रहता.

‘‘क्या जीजाजी,’’ रंजन प्रसाद ने मुंह के दांत ठीक बिठाते हुए कहा, ‘‘आप का घर है. रौनक आप के कारण है लेकिन आप को सड़े आम की तरह बाहर

फेंक दिया गया है. चलिए, अंदर हमला करते हैं.’’

‘‘साले साहब, यह सब तुम्हारी बहन की वजह से है. तुम तो उसे मेरी शादी से भी पहले से जानते हो. वैसे तुम क्यों नहीं पहल करते? दरवाजा खुला है,’’ शीतला सहाय ने साले को चुनौती दी.

‘‘2-4 बातें सुनवानी हैं क्या? अपनी बहन से तो निबट लूंगा लेकिन अपनी पत्नी से कैसे पार पाऊंगा? मुंह नोच लेती है,’’ रंजन प्रसाद ने मुंह लटका कर कहा.

‘‘यार, हम दोनों एक ही किश्ती पर सवार हैं,’’ शीतला सहाय ने मुसकरा कर कहा, ‘‘याद है तुम्हारी शादी में तो मुजरा भी हुआ था. बंदोबस्त क्यों नहीं करते?’’

‘‘क्यों जले पर नमक छिड़कते हो, जीजाजी,’’ रंजन प्रसाद ने आह भर कर फिर से दांत ठीक किए और कहा, ‘‘मैं जा रहा हूं सोने. पता नहीं आप ने कचौडि़यों में क्या भरवाया था. अभी तक पेट नहीं संभला है.’’

‘‘अपनी बहन चंद्रमुखी से क्यों नहीं पूछते?’’ शीतला सहाय ने प्रहार किया, ‘‘हलवाई तो उस की पसंद का मायके से आया है.’’

रंजन प्रसाद खीसें निपोर कर चल दिए. शीतला सहाय ने देखा, बाकी के दोनों वृद्ध मुंह खोल कर खर्राटे भर रहे थे. उन्हें सोता देख कर एक गहरी सांस ली और सोचने लगे अब क्या करूं? मन नहीं माना तो खुले दरवाजे से अंदर झांकने लगे.

पड़ोस की लड़की महिमा फिल्मी गानों पर नाचने के लिए मशहूर थी. जहां भी जाती थी महफिल में जान आ जाती थी. महिमा के साथ एक और लड़की करिश्मा भी नाच रही थी. बहुत अच्छा लग रहा था. पास ही एक खाली कुरसी पर शीतला सहाय बैठ गए.

‘‘यहां क्या कर रहे हो?’’ चंद्रमुखी ने झाड़ लगाई, ‘‘कुछ मानमर्यादा का भी ध्यान है? बहू क्या सोचेगी?’’

शीतला सहाय ने झिड़क कर पूछा, ‘‘तो जाऊं कहां? क्या अपने घर में भी आराम से नहीं बैठ सकता? क्या बेकार की बात करती हो.’’ रंजन प्रसाद की पत्नी कलावती ने चुटकी ले कर कहा, ‘‘जीजाजी, बाहर घूम आइए. यहां तो हम औरतों का राज है.’’

कुछ औरतों को हंसी आ गई.

मुंह लटका कर शीतला सहाय ने कहा, ‘‘क्या करूं, साले साहब की तरह प्रशिक्षित नहीं हूं न. ठीक है, जाता हूं.’’

लगता है कहीं घूम कर आना ही होगा? शीतला सहाय अभी सोच ही रहे थे कि उन को अचानक अपने पुराने मित्र काशीराम का ध्यान आया. शादी का निमंत्रण उसे भेजा था लेकिन किसी कारणवश नहीं आया था. कोरियर से 50 रुपए का चेक भेज दिया था. शिकायत तो करनी थी सो यह समय ठीक ही था.

शीतला सहाय ने आटोरिकशा में बैठना छोड़ दिया था क्योंकि दिल्ली की सड़कों पर आटो बहुत उछलता है. हर झटके पर लगता है कि शरीर के किसी अंग की एक हड्डी और टूट गई. मजबूरन बस की सवारी करनी पड़ती थी. बस स्टाप पर खड़े हो कर 561 नंबर की बस की प्रतीक्षा करने लगे जो काशीराम के घर के पास ही रुकती थी.

बस आई तो पूरी भरी हुई थी. बड़ी मुश्किल से अंदर घुसे. आगेपीछे से धक्के लग रहे थे. अपने को संभालने के लिए उन्होंने एक सीट को पकड़ लिया. दुर्भाग्य से उस सीट पर एक अधेड़ महिला बैठी हुई थी. उस के सिर पर कटोरीनुमा एक ऊंचा जूड़ा था. बस के हिलने पर शीतला सहाय का हाथ उस के जूड़े से लग जाता था. बहुत कोशिश कर रहे थे कि ऐसा न हो, लेकिन ऐसा न चाहते हुए भी हो रहा था.

अंत में झल्ला कर उस महिला ने कहा, ‘‘भाई साहब, जरा ठीक से खड़े रहिए न.’’

‘‘ठीक तो खड़ा हूं,’’ शीतला सहाय बड़बड़ाए.

‘‘क्या ठीक खड़े हैं. बारबार हाथ मार रहे हैं. उम्र का लिहाज कीजिए. शरम नहीं आती आप को,’’ महिला ने एक सांस में कह डाला.

‘‘क्या हो गया?’’ आगेपीछे बैठे   लोगों की उत्सुकता जागी.

‘‘कुछ नहीं. इन से ठीक से खड़े होने को कह रही हूं,’’ महिला ने रौब से कहा.

मर्दों को हंसी आ गई.

महिला के पास बैठी युवती ने कहा, ‘‘जाने दीजिए आंटी, क्यों मुंह लगती हैं. सारे मर्द एक से होते हैं.’’

महिला मुंह बना कर चुप हो गई.

अगले स्टाप पर बहुत से लोग उतर गए. खाली सीटों पर खड़े हुए यात्री झपट्टा मार कर बैठ गए. शीतला सहाय को कोई अवसर नहीं मिला. मन ही मन सोच रहे थे, उन के बुढ़ापे पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. कहां गई भारतीय शिष्टता, संस्कृति और संस्कार? लाचार और विवश खड़े रहे. टांगें जवाब दे रही थीं.

यह स्टाप शायद किसी कालिज के पास का था. धड़धड़ा कर 10-15 लड़कियां अंदर घुस आईं. उन के हंसने और किलकारी मारने से लग रहा था कि 100-200 चिडि़यां एकसाथ चहचहा रही हों. शीतला सहाय लड़कियों के बीच घिर गए.

बस एक झटके के साथ चल पड़ी. खड़े लोगों में कोई आगे गिरा तो कोई पीछे लेकिन अधिकतर संभल गए. रोज की आदत थी. शीतला सहाय ने गिरने से बचने के लिए आगे कुछ भी पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो एक लड़की का कंधा हाथ में आ गया.

‘‘अंकल, ये क्या कर रहे हैं?’’ लड़की ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘माफ करना, बेटी, मैं गिर गया था,’’ शीतला सहाय ने खेद प्रकट किया.

‘‘आप जैसे बूढ़े लोगों को मैं अच्छी तरह पहचानती हूं,’’ लड़की ने क्रोध से कहा, ‘‘मुंह से बेटीबेटी कहते हैं पर मन में कुछ और होता है. रोज आप जैसे लोगों से पाला पड़ता है. मेहरबानी कर के दूर खड़े रहिए.’’

‘‘क्या हुआ, जुगनी? क्यों झगड़ रही है?’’ दूसरी लड़की ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, अंकलजी धक्का दे रहे थे. मैं जरा इन्हें सबक सिखा रही थी,’’ जुगनी ने ढिठाई से कहा.

‘‘लगता है अंकलजी के घर में बेटियां नहीं हैं,’’ तीसरी लड़की ने अपना योगदान दिया.

पीछे से एक और लड़की ने फुसफुसा कर कहा, ‘‘बुड्ढा बड़ा रंगीन मिजाज का लगता है.’’ इस पर सारी लड़कियां फुल- झडि़यों की तरह खिलखिला कर हंस दीं.

शीतला सहाय शरम से पानीपानी हो गए. उन्होंने मन ही मन प्रण किया कि अब कभी बस में नहीं बैठेंगे.

शीतला सहाय की असहाय स्थिति को देखते हुए एक वृद्ध महिला ने कहा, ‘‘भाई साहब, आप यहां बैठ जाइए. मैं अगले स्टाप पर उतर जाऊंगी.’’

‘‘अंकलजी को आंटीजी मिल गईं,’’ किसी लड़की ने धीरे से हंसते हुए कहा.

एक और हंसी का फव्वारा.

‘‘नहींनहीं, आप बैठी रहिए. मैं भी उतरने ही वाला हूं,’’ शीतला सहाय ने झूठ कहा.

लड़कियों ने शरारत से खखारा.

वृद्घा ने क्रोध से लड़कियों को देखा और कहा, ‘‘क्या तुम्हारे मांबाप ने यही शिक्षा दी है कि बड़ों का अनादर करो? शरम करो.’’

अचानक बस में शांति छा गई.

अगले स्टाप पर वृद्धा उतर गईं और शीतला सहाय ने बैठ कर गहरी सांस ली. बस अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच रही थी. बस धीरेधीरे खाली होती जा रही थी.

जैसे ही बस रुकी किसी ने शीतला सहाय के कंधे को छुआ और कहा, ‘‘सौरी, अंकल.’’

शीतला सहाय ने नजर उठा कर देखा तो वही लड़की थी जो उन से झगड़ रही थी.

क्षीण मुसकान से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, बेटी.’’

लड़की जल्दी से उतर कर चली गई. उस ने पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा. धीरेधीरे चलते हुए शीतला सहाय जब काशीराम के घर तक पहुंचे तो अपने दोस्त को बाहर टहलते हुए पाया.

अपने पुराने अंदाज से हंसी का ठहाका लगाते हुए दोनों गले मिले.

‘‘क्या बात है, उर्मिला ने घर से बाहर निकाल दिया?’’ शीतला सहाय ने छेड़ते हुए पूछा.

‘‘यही समझो, यार. प्रमिला ससुराल से आई है, सो उर्मिला ने कीर्तन मंडली बुला ली. अंदर औरतों का कीर्तन चल रहा है और मुझे अंदर बैठने की आज्ञा नहीं,’’ काशीराम ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘अपने ही घर में अब्दुल्ला बेगाना.’’

‘‘हाहाहा,’’ शीतला सहाय ने ठठा कर हंसते हुए कहा, ‘‘तो यह बात है.’’

‘‘यह तो नहीं पूछूंगा कि क्यों आए हो लेकिन फिर भी शंका समाधान तो करना ही पड़ेगा,’’ काशीराम ने शीतला सहाय के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा.

‘‘यार, मेरी हालत भी कुछ तुम्हारे जैसी ही है. सब लोग नाचगा रहे हैं. मस्ती कर रहे हैं. मेरा भी मन किया कि जवानों के साथ बैठ कर तबीयत बहला लूं, लेकिन उन की दुनिया में बुड्ढों के लिए कोई जगह नहीं है,’’ शीतला सहाय ने ठंडी सास छोड़ी, ‘‘बस, घर से बाहर कर दिया.’’

शीतला सहाय ने अपने मित्र को बस में उन के साथ जो कुछ हुआ नहीं बताया क्योंकि उन्हें बुढ़ापे पर तरस आ रहा था. थोड़ी देर गप्पें मार कर उन्होंने घर का रास्ता नापा. मन हलका हो गया. बस यहीं से चलती थी सो बैठने की जगह मिल गई और वह अब की बार बिना हादसे के घर पहुंच गए.

उन्हें देखते ही बहुत लोगों ने घेर लिया मानो एक बिछुड़ा हुआ आदमी बहुत दिनों बाद मिला था.

‘‘बाबा को देखो. कितने खुश हैं. जरूर काशी अंकल से मिल कर आए होंगे,’’ निक्की ने छेड़ा.

‘‘यहां से जाते समय कितने बुड्ढे लग रहे थे. अब देखो एकदम जवान लग रहे हैं.’’

रोशन ने पूछा, ‘‘ये काशी अंकल आप को कौन सी घुट्टी पिलाते हैं?’’

शीतला सहाय हंस दिए, ‘‘कम से कम एक आदमी तो है जो बुड्ढे का बुढ़ापा भुला देता है. तुम लोग तो हमेशा मुझ से दूर रहने की कोशिश करते हो और हमेशा मेरी उम्र मुझे याद दिलाते रहते हो.’’

‘‘ठीक तो है, आदमी की उम्र उतनी ही होती है जितनी कि वह महसूस करता है. चलो, गरमगरम कचौडि़यां और ठंडी रसमलाई आप का इंतजार कर रही है,’’ रंजन प्रसाद ने कहा और शीतला सहाय का हाथ पकड़ लिया.

Hindi Story : आह्वान – क्या स्मिता दूसरी शादी से खुश थी

Hindi Story : एक भारतीय पुरुष को पत्नी यों अपनी मरजी से छोड़ कर चली जाए, बेहद अपमान व तौहीन की बात थी. मेरे अंदर बैठा भारतीय पति मन ही मन सोच रहा था, ‘पत्नी पति के बिना कितने दिन अकेली रहेगी? आएगी तो यहीं लौट कर.’ कुछ दिन के पश्चात वह लौटी तो सही, परंतु मुझे एक और आघात पहुंचाने के लिए. आते ही उस ने चहक कर बताया, ‘‘मुझे अपना मनचाहा दूसरा व्यक्ति मिल गया है और यहां से अच्छी नौकरी भी. मैं जल्दी ही तलाक की काररवाई पूरी करना चाहती हूं.’’

मैं पुरुष का सारा अहं समेटे उसे आश्चर्य से देखता भर रह गया. मेरा सारा दर्प चूरचूर हो बिखर गया. वह अपनी रहीसही बिखरी चीजें समेट कर चलती बनी और मेरी जिंदगी एक बीहड़ सन्नाटा बन कर रह गई. लगा, भरेपूरे संसार में मैं केवल अकेला हूं. इसी ऐलिस के कारण अपनों से भी पराया हो गया और वह भी यों छोड़ कर चल दी.

अकेले में परिवार के लोगों की याद, उन की कही बातें मन को झकझोरने लगीं. भारत से अमेरिका आने के लिए जिन दिनों मैं अपनी तैयारी में व्यस्त था तो पिताजी, अम्मां व बड़े भैया की जबान पर एक ही बात रहती, ‘देखो, वीरू, वहां जा कर किसी प्रेम के चक्कर में मत फंसना. हम लोगों के घर में अपनी भारतीय लड़की ही निभ पाएगी.’ मैं सुन कर यों मुसकरा देता जैसे उन के कहे की मेरे लिए कोई अहमियत ही न हो.

मां मेरी स्वच्छंद प्रकृति से भलीभांति परिचित थीं. एक दिन उन्होंने पिताजी को एकांत में कुछ सुझाया और उन्हें मां का सुझाव पसंद आ गया. स्मिता व उस के परिवार के कुछ सदस्यों को अपने यहां बुलवा कर चटपट मंगनी की रस्म अदा कर दी गई.

‘कम से कम लड़के पर कुछ तो बंधन रहेगा स्वदेश लौटने का. साल भर बाद ही शादी के लिए बुलवा लेंगे. फिर स्मिता भी साथ चली जाएगी तो वहीं का हो कर भी नहीं रहेगा,’ पिताजी अपने किए पर बहुत प्रसन्न थे. स्मिता के परिवार वाले भी संतुष्ट थे कि उन्हें अमेरिका से लौटा वर अपनी बेटी के लिए मिल जाएगा.

यों स्मिता कम आकर्षक नहीं थी. वह मेरे सामने आई तो मैं उसे एकटक देखता ही रह गया था. बड़ीबड़ी मदभरी आंखें व माथे पर लटकती घुंघराले बालों की घनी सी लट. चेहरे पर इतना भोलापन कि मन को बरबस अपनी ओर खींच ले. मन के किसी कोने में बरबस ही आ कर अपना अधिकार जमा लिया था उस ने.

भारत से जब विदा होने लगा था तो सभी स्वजनों की आंसुओं से भरी आंखों के बीच वह भी सिर झुकाए एक ओर अलग खड़ी थी. बड़े भैया, मिथुन चाचा, रमा दीदी व शीला भाभी सभी मुझे बारबार गले लगा कर अपने हृदय की व्याकुलता प्रकट कर रहे थे. शरम के मारे वह उसी एक कोने में खड़ी रही. मैं ही उस के पास पहुंचा था और धीरे से उस के कान में कहा था, ‘अच्छा, स्मिता, फिर मिलेंगे. जहाज का वक्त हो गया है.’

उस ने एक बार अपनी नजर उठाई और मेरे चरणों में झुक गई थी. पिताजी मुझे बांहों में लपेट कर बुदबुदाए थे, ‘नालायक, देख, तेरे लिए कितनी अच्छी लक्ष्मी जैसी बहू ढूंढ़ी है हम ने. याद रखना, जल्दी ही लौटना है तुझे इस के लिए.’

मैं उन की भुजाओं के बंधन से मुक्ति पा कर जाने लगा तो आंखें पोंछते हुए वह बीचबीच में अटकती जबान से कहे जा रहे थे, ‘तेरे शौक के कारण भेज रहा हूं, वरना तो क्या इतनी दूर भेजता.’

कुछ देर तक जहाज में बैठने के पश्चात अपनी धरती व अपने आकाश को छोड़ते हुए मन कसैला सा रहा. जिन्हें पीछे छोड़ आया था उन की याद से मन दुखी था. स्मिता की याद मन में बारबार यों कौंध जाती जैसे बरसाती बादलों के बीच सहसा बिजली चमक उठती है.

न्यूयार्क हवाई अड्डे पर आज से 3 वर्ष पूर्व उतरा था तो मन सबकुछ भुला कर कितनी नई सुनहरी कल्पनाओं में उड़ानें भरने लगा था. जिस कल्पना-लोक में पहुंचने की तड़प मेरे मन में होश संभालते ही समा गई थी उसी धरती पर उतर कर लगा था यही है मेरी कल्पनाओं की धरती. यथार्थ में कल्पना से भी अधिक सुंदर.

उपस्थित मित्रगणों ने गले में बांहें डाल कर हवाई अड््डे पर मेरा स्वागत किया. प्रमोद से सामना होते ही मुझे लगा कि उस के चरणों में गिर पड़ूं. उसी ने मुझे अमेरिका बुलाने में अपना पूर्ण सहयोग दिया था. अपने दफ्तर में मेरे लिए काम की तलाश भी मेरे पहुंचने से पहले ही कर दी थी.

चिकनी, गुदगुदी कार शीशे जैसी सड़कों पर ऊंचेऊंचे भवनों के बीच से हो कर गुजरती जा रही थी और मैं हैरत से आंखें फाड़फाड़ कर इधरउधर देखता रहा. प्रमोद ने मेरे लिए एक छोटे से निवास का प्रबंध भी पहले से ही कर दिया था. खाना भी उस रात उस ने कहीं से मंगवा रखा था. मुझे अपने कमरे पर छोड़ने के पश्चात वह भी बहुत कम मिल पाया. कभी आमनासामना हो भी जाता तो दूर से ही ‘हैलो’ कह देता. अपनी व्यस्तता भरी जिंदगी में से कुछ क्षण भी वह मेरे लिए चुरा लेने को विवश था शायद.

एकदम भारतीय परिवेश से निकल कर यों लगने लगा जैसे अनेक मित्रों के रहते हुए भी मैं एकदम अकेला व उपेक्षित हूं. काम कर के लौटता तो लगता, मैं उस छोटे से कमरे में कैद हो गया हूं. न घर में कोई बोलने वाला था, न यह पूछने वाला कि मैं भूखा हूं या प्यासा. 6 महीने बीततेबीतते मुझे यह अकेलापन बेहद खलने लगा.

अकेलेपन की उस ऊब को मिटाने के लिए मैं अनजाने ही कब ऐलिस की ललचाई आंखों में उलझता गया और कब मैं साल भर के अंदर ही उस से विवाह करने पर उतारू हो गया, मैं स्वयं भी नहीं जान पाया.

घर वालों को पता चला तो सब के रोषपूर्ण पत्र आने लगे. मां ने लिखवाया था, ‘समझ ले तेरी मां मर गई.’ उसी  पत्र में बड़े भैया ने भी लिख भेजा था, ‘अपना काला मुंह हम सब को दिखाने की जरूरत नहीं. खानदान की इज्जत मिट्टी में मिला दी. क्या जवाब देंगे हम लड़की वालों को?’

मैं भी अंदर ही अंदर सुलग उठा था. उत्तर में लिख भेजा था, ‘शादीब्याह हर व्यक्ति की अपनी मरजी से होना चाहिए न कि खानदान की नाक रखने के लिए. आप लोग भी समझ लें कि वीरू इस दुनिया में नहीं रहा.’

तब से घर वालों ने मेरे द्वारा भेजी जाने वाली आर्थिक सहायता भी स्वीकार करनी बंद कर दी. मन को भारी आघात तो पहुंचा था, क्योंकि भारत से आने का मेरा प्रमुख उद्देश्य घर की दशा सुधारने का ही था, ‘मैं बाहर चला जाऊंगा तो ढेर सारे पैसे भेजा करूंगा, सब की हालत सुधर जाएगी,’ पिताजी को यही कह कर मैं आश्वस्त किया करता था.

ऐलिस से विवाह करने के पश्चात तो घर वालों को कुछ भेजने की संभावना ही नहीं थी. मैं ने भी सब को भुला दिया. बस, ऐलिस के रंग में डूब गया.

लेकिन वह सबकुछ बहुत दिनों तक नहीं चल पाया. बहुत जल्दी ही मैं यह महसूस करने लगा था कि ऐलिस की दुनिया बहुत रंगीन है. उस का रहने का स्तर बहुत ऊंचा है जिस तक पहुंचने की कोशिश में मैं अपनेआप को अयोग्य समझने लगा था.

उस की महत्त्वाकांक्षाएं मेरे भीतर की शांति को नष्ट करती जा रही थीं. शीघ्र ही हमारे संबंधों में ठंडापन आने लगा. फिर भी अपने भारतीय संस्कारों के वशीभूत हो मैं उस के साथ हर समझौते के लिए तैयार रहता.

उधर ऐलिस के लिए जिंदगी की परिभाषा मुझ से सर्वथा भिन्न थी. वह केवल जिंदगी जीना जानती थी, संबंध निभाना नहीं. विवाह यों भी विदेशी धरातल पर जीवन भर का संबंध न हो कर एक समझौता मात्र समझा जाता है. जब चाहा जोड़ लिया और जब मन में आया तोड़ डाला.

ऐलिस भी मुझे बारबार सुनाने लगी थी, ‘जब संबंधों में ही गरमाहट न हो तो हमें अलग हो जाना चाहिए. अब साथसाथ रहना एक पाखंड है.’

तब भी मुझे विश्वास नहीं होता था कि वह अपने कहे को इतनी सहजता से कार्यान्वित कर दिखाएगी. उस के प्रति एक आक्रोश अंदर ही सुलगता और राख हो जाता.

दिन गुजरते गए. अब 6 महीने होने को हैं. उन दिनों के बारे में सोचता हूं तो स्वयं पर ही आश्चर्य होता है. ऐलिस के साथ कैसे मैं इतनी असहाय, दयनीय जिंदगी गुजारने लगा था. हर समय उस की इच्छाओं को पूरा करने व उसी के कार्यक्रमों को निबटाने में लगा रहा. कितना विवश हो कर उस के इशारों पर नाचने लगा था.

मेरी पूरी दिनचर्या उसी के द्वारा नियोजित होती. कभी कुछ नकारना चाहता तो ऐलिस बड़ी शान से कहती, ‘भूल जाओ कि तुम एक भारतीय हो. अब तुम अमेरिका में रह रहे हो. यहां सभी को इतना काम करना पड़ता है, नहीं तो हम इस खटारा गाड़ी की जगह शेवरलेट कैसे खरीदेंगे? अपना खुद का घर कैसे लेंगे?’

उस के द्वारा थोपी गई दिनचर्या पर मुझे कई बार बेहद गुस्सा आ जाता परंतु उस आग में मुझे खुद ही जलना पड़ता. उस के आगे तो केवल मुसकरा कर ‘हां’ कह देनी पड़ती.

सचमुच उस के साथ मैं उन्मुक्त भाव से खिलखिलाया तो कभी नहीं, हां हंसता जरूर था. वह भी जब उस के सामने हंसने की जरूरत पड़ती थी. खुद की हंसी तो कभी नहीं हंसा.

उस से पीछा छूटा तो बेचैन हो कर अपने देश लौटने के लिए छटपटाने लगा हूं. क्या मेरी अपनी भी कोई धरती है? कोई आकाश है जिसे अपना कह कर ही स्वच्छंद विचरण कर सकूं? लगता है, मेरा जीवन अधर में लटका हुआ दिशाहीन विमान है जिस के विचरण के लिए कोई आकाश नहीं है. नीचे उतरने को कोई धरती भी नहीं. स्वदेश में सब पराए हो चुके हैं.

जब मैं भारत से विदा होने लगा था तब अम्मां ने मुझे कलेजे से लगा कर ऐसे लिपटा लिया था जैसे मैं कोई दुधमुंहा बच्चा होऊं. धोती का पल्लू मुंह में ठूंस, जमीन पर बैठ कर सिसकने लगी थीं. यदि अब उन के सामने गया तो क्या वह मुझे उसी तरह अपनी छाती से चिपटा लेंगी? शायद नहीं.

‘समझ ले, तेरी मां मर गई.’ पत्र में उन के लिखवाए गए ये शब्द आंखों के आगे तैरने लगते हैं.

पिताजी, बड़े भैया, चाचा व भाभी सभी तो रुष्ट हैं. और स्मिता? उस की तो शादी भी हो गई होगी. जब उस के घर वालों को पता चला होगा कि मैं ने यहां ऐलिस से विवाह कर लिया है तो उन का दिल मेरे प्रति कितनी नफरत से भर उठा होगा. चट से स्मिता के हाथ पीले कर दिए होंगे. मुझे यहीं इस विदेश में यों निरुद्देश्य ही जीना होगा, जीते जी मरने के समान.

एक दिन डाकिया दीदी की चिट्ठी दे गया. उस ने लिखा था, ‘ऐलिस के चले जाने से पूरे परिवार के लोग प्रसन्न हैं. अब तुम जल्दी लौट आओ. तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारे बिना घर की दशा कैसी हो रही है.

‘इन 3 वर्षों में ही अम्मां की आंखों की रोशनी जाती रही है. रोरो कर मोतियाबिंद उतर आया है. चाचाजी को हर समय पेट की शिकायत रहती है. पिताजी चलनेफिरने के अयोग्य होते जा रहे हैं. धीरेंद्र भैया असमय ही बूढ़े हो गए हैं. उन के दोनों लड़के पैसे के अभाव के कारण पढ़नालिखना छोड़ बैठे हैं. यों समझ लो कि तुम्हारे बिना सब की कमर टूट चुकी है.

‘और तो और, मरम्मत के अभाव में हमारा अच्छाखासा घर भी पुराना लगने लगा है. अब सोच लो कि तुम्हारा कर्तव्य क्या बनता है.’

दीदी के हाथ की लिखी पंक्तियों को देखते ही कितनी ही मधुर स्मृतियों में मन हिलोरें खाने लगा. कोई भी शरारत भरा काम होता तो मैं और दीदी इकट्ठे रहते. होली के अवसर पर राह चलते लोगों पर घर की मुंडेर से रंग भरे गुब्बारे फेंकना व रंग खेलती टोलियों पर ऊपर से रंग भरी बालटियां उड़ेल देना हम दोनों को बहुत प्रिय था. दीवाली आती तो पटाखे छोड़ कर राह चलतों को तंग करते.

दीदी के प्यार भरे पत्र व उन से जुड़ी मधुर स्मृतियां मुझे भारत लौटने के लिए विवश करने लगीं. मेरा मन लौटने की तैयारियां करने के लिए लालायित हो उठा.

तभी असमंजस ने मुझे फिर से घेर लिया. वहां यदि स्मिता से सामना हो गया तो मेरी क्या दशा होगी? शहर ही में तो रहती है.

मैं ने मन ही मन छटपटा कर फिर अपना इरादा ठप कर दिया.

कुछ ही दिनों के पश्चात लेटरबाक्स में नीले रंग का सुंदर सा लिफाफा पड़ा दिखाई दिया. एक कोने पर सुंदर अक्षरों में लिखा था, स्मिता…

धड़कते दिल से पत्र खोला तो आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. एकएक शब्द प्यार में पगा कर उस ने लिखा था, ‘जाते समय आप ने मुझे वचन दिया था फिर से मिलने का. मिलन के उन्हीं क्षणों की प्रतीक्षा में दिन काट रही हूं. वर्षों से उन्हीं क्षणों के लिए जी रही हूं. देखती हूं और कितनी प्रतीक्षा करवाओगे. आजीवन भी करवाओगे तो करती रहूंगी क्योंकि हमारातुम्हारा संबंध तो जन्म भर का है.’

नीचे लिखा था, ‘केवल तुम्हारी, स्मिता.’

कितना निश्चल प्रेम है. न कोई शिकायत, न शिकवा. एक आह््वान है  पत्र में, परंतु कितने निस्वार्थ भाव से.

मुझे एकदम लगा, मेरी भी कोई धरती है. कोई खुला आकाश है मेरे लिए भी. वहां सब अपने हैं. मैं उन्हीं अपनों के प्रति अपने कर्तव्य निभाऊंगा. मां की आंखों का आपरेशन, पिताजी की कमजोरी का इलाज, उपचार, भैया व उन के बच्चों के खर्चों का वहन, यह सब मेरा फर्ज है. वर्षों बाद अपना फर्ज निभाऊंगा, अपनी धरती पर विचरूंगा, अपनों के बीच.

और स्मिता, उसी के पत्र के आह्वान ने ही तो मुझे भारत लौटने की प्रेरणा दी है. वही मेरी सच्ची जीवनसंगिनी बन कर रहेगी.

Hindi Story : विषकन्या बनने का सपना

Hindi Story : इस महीने की 12 तारीख को अदालत से फिर आगे की तारीख मिली. हर तारीख पर दी जाने वाली अगली तारीख किस तरह से किसी की रोशन जिंदगी में अपनी कालिख पोत देती है, यह कोई मुझ से पूछे.

शादीब्याह के मसले निबटाने वाली अदालत यानी ‘मैट्रीमोनियल कोर्ट’ में फिरकी की तरह घूमते हुए आज मुझे 3 साल हो चले हैं. अभी मेरा मामला गवाहियों पर ही अटका है. कब गवाहियां पूरी होंगी, कब बहस होगी, कब मेरा फैसला होगा और कब मुझे न्याय मिलेगा. यह ‘कब’ मेरे सामने नाग की तरह फन फैलाए खड़ा है और मैं बेबस, सिर्फ लाचार हो कर उसे देख भर सकती हूं, इस ‘कब’ के जाल से निकल नहीं सकती.

वैसे मन में रहरह कर कई बार यह खयाल आता है कि शादीब्याह जब मसला बन जाए तो फिर औरतमर्द के रिश्ते की अहमियत ही क्या है? रिश्तों की आंच न रहे तो सांसों की गरमी सिर्फ एकदूसरे को जला सकती है, उन्हें गरमा नहीं सकती.

आपसी बेलागपन के बावजूद मेरा नारी स्वभाव हमेशा इच्छा करता रहा सिर पर तारों सजी छत की. मेरी छत मेरा वजूद था, मेरा अस्तित्व. बेशक, इस का विश्वास और स्नेह का सीमेंट जगहजगह से उखड़ रहा था फिर भी सिर पर कुछ तो था पर मेरे न चाहने पर भी मेरी छत मुझ से छीन ली गई, मेरा सिर नंगा हो गया, सब उजड़ गया. नीड़ का तिनकातिनका बिखर गया. प्रेम का पंछी दूर कहीं क्षितिज के पार गुम हो गया. जिस ने कभी मुझ से प्रेम किया था, 2 नन्हेनन्हे चूजे मेरे पंखों तले सेने के लिए दिए थे, उसे ही अब मेरे जिस्म से बदबू आती थी और मुझे उसे देख कर घिन आती थी.

अब से कुछ साल पहले तक मैं मिसेज वर्मा थी. 10 साल की परिस्थितियों की मार ने मेरे शरीर को बज्र जैसा कठोर बना दिया. अब तो गरमी व सर्दी का एहसास ही मिटने लगा है और भावनाएं शून्यता के निशान पर अटक गई हैं. लेकिन मेरे माथे की लाल, चमकदार बिंदी जब दुनिया की नजरों में धूल झोंक रही होती, मैं अकसर अपनी आंखों में किरकिरी महसूस किया करती.

उस दिन भी खूब जोरों की बारिश हुई थी. भीतर तक भीग जाने की इच्छा थी पर उस दिन बारिश की बूंदें, कांटों की चुभन सी पूरे जिस्म को टीस गईं और दर्द से आत्मा कराह उठी थी. मैं ने अपने बिस्तर पर, अपने अरमानों की तरह किसी और के कपड़े बिखरे देखे थे, मेरा आदमी, अपनी मर्दानगी का झंडा गाड़ने वाला पुरुष, हमेशा के लिए मेरे सामने नंगा हो चुका था.

‘‘हरामखोर तेरी हिम्मत कैसे हुई कमरे में इस तरह घुसने की?’’ शराब के भभके के साथ उस के शब्द हवा में लड़खड़ाए थे. मैं ने उन शब्दों को सुना. उस की जबान और मेरी टांगें लड़खड़ा रही थीं. मुझे लगा, जिस्म को अपने पैरों पर खड़ा करने की सारी शक्ति मुझ से किसी ने खींच ली थी. बड़ी मुश्किल से 2 शब्द मैं ने भी उत्तर में कहे थे, ‘‘यह मेरा घर है…मेरा…तुम ऐसा नहीं कर सकते.’’

इस से पहले कि मैं कुछ और कहती, देखते ही देखते मेरे जिस्म पर बैल्ट से प्रहार होने लगे थे. दोनों बच्चे मुझ से चिपके सिसक रहे थे, उन का कोमल शरीर ही नहीं आत्मा भी छटपटा रही थी.

इस के बाद बच्चों को सीने से लगाए मैं जिंदगी की अनजान डगर पर उतर आई थी. मेरी बेटी जो तब छठी में पढ़ती थी, आज 12वीं जमात में है, बेटा भी 8वीं की परीक्षा की तैयारी में है. उन दिनों मेरे बालों में सफेदी नहीं थी लेकिन आज सिर पर बर्फ सी गिरी लगती है. आंखों के ऊपर मोटे शीशे का चश्मा है. पीठ तब कड़े प्रहारों और ठोकरों से झुकती न थी लेकिन आज दर्द के एहसास ने ही बेंत की तरह उसे झुका दिया है. सच, यादें कितना निरीह और बेबस कर देती हैं इनसान को.

कुछ महीनों के बाद बातचीत, रिश्तेदारियां, सुलहसफाई और समझौते जैसी कई कोशिशें हुईं, पर विश्वास का कागजी लिफाफा फट चुका था, प्रेम की मिसरी का दानादाना बिखर गया था. बाबूजी का मानना कि आदमी का गुस्सा पानी का बुलबुला भर है, मिनटों में बनता, मिनटों में फूटता है, झूठ हो गया था. अकसर पुरुष स्वभाव को समझाते हुए कहते, ‘देख बेटी, मर्द कामकाज से थकाहारा घर लौटता है, न पूछा कर पहेलियां, उसे चिढ़ होती है…उसे समझने की कोशिश कर.’

मैं अपने बाबूजी को कैसे समझाती कि मैं ने इतने साल किस तरह अनसुलझी पहेलियां सुलझाने में होम कर दिए. सीने में बैठा अविश्वास का दर्द, बीचबीच में जब भी टीस बन कर उठता है तो लगता है किसी ने गाल पर तड़ाक से थप्पड़ मारा है.

मेरे, मेरे बच्चों और मेरे अम्मांबाबूजी के लंबे इंतजार के बाद भी कोई मुझे पीहर में बुलाने नहीं आया. मैं अमावस्या की रात के बाद पूर्णिमा की ओर बढ़ते चांद के दोनों छोरों में अकसर अपनी पतंग का माझा फंसा, उसे नीचे उतारने की कोशिश करती, लेकिन चांद कभी मेरी पकड़ में नहीं आया. मेरा माझा कच्चा था.

मेरी बेटी नींद से उठ कर अकसर अपनी बार्वी डौल कभी राह, कभी अलमारी के पीछे तो कभी अपने खिलौनों की टोकरी में तलाशती और पूछती, ‘‘मां, हम अपने पुराने घर कब जाएंगे?’’

उस के इस सवाल पर मैं सिहर उठती, ‘‘हाय, मेरी बेटी…भाग्य ने अब तुझ से तेरी बार्बी डौल छीन कर ऐसे अंधे कुएं में फेंक दी है, जहां से मैं उसे ढूंढ़ कर कभी नहीं ला सकती.’’

बेटी चुप हो जाती और मैं गूंगी. इसी तरह मेरी मां भी गूंगी हो जातीं जब मैं पूछती, ‘‘अम्मां, आप ने मेरे बारे में क्या सोचा? मैं क्या करूं, कहां जाऊं? मेरे 2 छोटेछोटे बच्चे हैं, इन को मैं क्या दूं? प्राइवेट स्कूल की टीचर की नौकरी के सहारे किस तरह काटूंगी पहाड़ सी पूरी जिंदगी?’’

मां की जगह कंपकंपाते हाथों से छड़ी पकड़े, आंखों के चश्मे को थोड़ा और आंखों से सटाते हुए बाबूजी, टूटी बेंत की कुरसी पर बैठते हुए उत्तर देते, ‘‘बेटी, अब जो सोचना है वह तुझे ही सोचना है, जो करना है तुझे ही करना है…हमारी हालत तो तू देख ही रही है.’’

ठंडी आह के साथ उन के मन का गुबार आंखों से फूट पड़ता, ‘समय ने कैसी बेवक्त मार दी है तोषी की अम्मां…मेरी बेटी की जिंदगी हराम कर दी, इस बादमाश ने.’

बस, इसी तरह जिंदगी सरकती जा रही थी. एक दिन सर्द हवा के झोंकों की तरह यह खबर मेरे पूरे वजूद में सिहरन भर गईं कि फलां ने दूसरी शादी कर ली है.

‘शादी, यह कैसे हो सकता है? हमारा तलाक तो हुआ ही नहीं,’ मैं ने फटी आंखों से एकसाथ कई सवाल फेंक दिए थे. लग रहा था कि पांव के नीचे की धरती अचानक ही 5-7 गज नीचे सरक गई हो और मैं उस में धंसती चली जा रही हूं.

अम्मां और बाबूजी ने फिर हिम्मत बंधाई, ‘उस के पास पैसा है, खरीदे हुए रिश्ते हैं, तो क्या हुआ, सच तो सच ही है, हिम्मत मत हारो, कुछ करो. सब ठीक हो जाएगा.’

मैं ने जाने कैसी अंधी उम्मीद के सहारे अदालत के दरवाजे खटखटा दिए, ‘दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो, मुझे न्याय दो, मेरा हक दो…झूठ और फरेब से मेरी झोली में डाला गया तलाक मेरी शादी के जोड़े से भारी कैसे हो सकता है?’ मैं ने पूछा था, ‘मेरे बच्चों के छोटेछोटे कपड़े, टोप, जूते और गाडि़यां, तलाक के कागजी बोझ के नीचे कैसे दब सकते हैं?’

मैं ने चीखचीख कर, छाती पीटपीट कर, उन झूठी गवाहियों से पूछा था जिन्होंने चंद सिक्कों के लालच में मेरी जिंदगी के खाते पर स्याही पोत दी थी. लेकिन किसी ने न तो कोई जवाब देना था, न ही दिया. आज अपने मुकदमे की फाइल उठाए, कचहरी के चक्कर काटती, मैं खुद एक मुकदमा बन गई हूं. हांक लगाने वाला अर्दली, नाजिर, मुंशी, जज, वकील, प्यादा, गवाह सभी मेरी जिंदगी के शब्दकोष में छपे नए काले अक्षर हैं.

आजकल रात के अंधेरे में मैं ने जज की तसवीर को अपनी आंखों की पलकों से चिपका हुआ पाया है. न्यायाधीश बिक गया, बोली लगा दी चौराहे पर उस की, चंद ऊंची पहुंच के अमीर लोगों ने. लानत है, थू… यह सोचने भर से मुंह का स्वाद कड़वा हो जाता है.

भावनाओं के भंवर में डूबतीउतराती कभी सोचती हूं, मेरा दोष ही क्या था जिस की उम्रकैद मुझे मिली और फांसी पर लटके मेरे मासूम बच्चे. न चाहते हुए भी फाड़ कर फेंक देने का जी होता है उन बड़ीबड़ी, लालकाली किताबों को, जिन में जिंदगी और मौत के अंधे नियम छपे हैं, जो निर्दोषों को जीने की सजा और कसूरवारों को खुलेआम मौज करने की आजादी देते हैं. जीने के लिए संघर्ष करती औरत का अस्तित्व क्यों सदियों से गुम होता रहा है, समाज की अनचाही चिनी गई बड़ीबड़ी दीवारों के बीच?

ये प्रश्न हर रोज मुझे नाग बन कर डंसते हैं और मैं हर रोज कटुसत्य का विषपान करती, विषकन्या बनने का सपना देखती हूं.

आसमान में बादल का धुंधलका मुझे बोझिल कर जाता है लेकिन बादलों की ही ओट से कड़कती बिजली फिर से मेरे अंदर उम्मीद जगाती है जीने की, अपनी अस्मिता को बरकरार रखने की और मैं बारिश में भीतर तक भीगने के लिए आंगन में उतर आती हूं.

लेखक – निर्मलविक्रम

Hindi Story : नाज पर नाज

Hindi Story : अशरफ काफी समय से बीमार रहता था. वह तकरीबन सभी तरह के इलाज करा चुका था, पर कोई फायदा नहीं हुआ. अगर थोड़ाबहुत फायदा होता भी सिर्फ वक्ती तौर पर ही होता और बीमारी बदस्तूर जारी रहती.

अम्मीअब्बा के बहुत जिद करने पर अशरफ ने इस बार शहर जा कर एक नामी डाक्टर को दिखाया. उस डाक्टर ने तमाम जांचें करवाईं, ऐक्सरे भी करवाए और बाद में जो रिपोर्ट आई, उस ने सब के होश उड़ा दिए.

रिपोर्ट में पता चला कि अशरफ की दोनों किडनी पूरी तरह खराब हो चुकी थीं.

डाक्टर साहब ने भी सिर हिलाते हुए कह दिया, ‘‘अब ले जाइए इन्हें. जितनी भी सेवा करनी है कीजिए, बाकी दवाएं चलने दीजिए. आप लोग इन को ज्यादा से ज्यादा खुश रखने की कोशिश कीजिए.’’

अशरफ को ले कर उस के अब्बा ऐसे घर लौट आए, जैसे कोई जुए में अपना सबकुछ हार कर लौट जाता है.

कुछ दिन बीते. अब घर के लोगों ने एकदूसरे से थोड़ाबहुत बोलना शुरू किया. शायद घर के माहौल को खुशनुमा बनाने की एक नाकाम कोशिश.

अशरफ के अब्बू घर के बाहर ही लकड़ी की टाल पर बैठते थे. अब अशरफ भी उन का हाथ बंटाने लगा मानो उस पर अपनी तबीयत का कोई असर ही नहीं हुआ हो.

किसी ने सच ही कहा है कि जब दर्द हद से गुजर जाता है तो दवा बन जाता है. अब यही दर्द अशरफ के लिए दवा बनने वाला था.

एक दिन अब्बू ने घर के सभी लोगों को अपने कमरे में ठीक 8 बजे इकट्ठा होने को कहा. परिवार में अम्मी के अलावा अशरफ और उस का छोटा भाई आदिल थे. एक बहन सबा थी, जिस का निकाह पहले ही हो चुका था.

शाम को ठीक 8 बजे अशरफ, अम्मी और आदिल अब्बू के कमरे में पहुंचे चुके थे.

थोड़ी देर बाद अब्बू भी कमरे में आ गए, पर आज उन की चाल में एक अलग तरह की खामोशी थी.

‘‘देखो अशरफ और आदिल, तुम दोनों मु झे अपनी जिंदगी में सब से प्यारे हो.  तुम दोनों काबिल हो. सबा जैसी प्यारी बेटी है, जो अब अपने ससुराल को रोशन कर रही है. खैर…’’ अब्बू ने एक गहरी सांस छोड़ी और फिर बोलना शुरू किया. इस बार उन के लहजे में थोड़ी सख्ती भी थी, ‘‘जैसा कि तुम लोगों को पता है कि अशरफ बीमार है और डाक्टरों ने बताया है कि हमें उस को हर हाल में खुश रखना है…’’

अशरफ की पीठ पर हाथ फेरते हुए अब्बू ने कहा, ‘‘कभीकभी जिंदगी हम से कुछ ऐसे फैसले कराती है, जो वक्ती तौर पर तो ठीक नहीं लगते, पर धीरेधीरे सही साबित होने लगते हैं. आज हम ऐसा ही फैसला लेने जा रहे हैं.

‘‘दरअसल, डाक्टर ने हम से कहा है कि हो सके तो अशरफ की शादी जल्द से जल्द करा दी जाए, तो इस की तबीयत में सुधार हो सकता है,’’ अब्बू ने एक सांस में कह कर मानो अपना बो झ हलका कर दिया था.

अब्बू का फैसला सुन कर अम्मी तो बुत बनी बैठी रहीं, पर छोटे बेटे आदिल को यह बात कुछ नागवार सी लगी, क्योंकि अशरफ की बीमारी की बात आदिल भी जानता था और वह यह भी जानता था कि अशरफ भाईजान एक या 2 साल के ही मेहमान हैं, क्योंकि जिस आदमी की दोनों किडनी खराब हो चुकी हों, उस की सांसें कभी भी थम सकती हैं और ऐसे में उस का निकाह करा देना, मतलब एक और बेगुनाह की जिंदगी तबाह कर देना था.

इस फैसले का विरोध तो सब से ज्यादा अशरफ की ओर से आना था, पर वह तो खामोश सा बैठा हुआ सब सुन रहा था. तो क्या यह माना जाए कि अशरफ भी मरने से पहले अपनी जिंदगी पूरी तरह से जी लेना चाहता था या फिर यों कह लें कि मरने से पहले वह किसी औरत के जिस्म को पूरी तरह सम झ लेना चाहता था?

बहरहाल, इस समय अशरफ के चेहरे पर बेबसी के साथ एक चमक भी थी, जिसे वह बखूबी सब से छुपा ले रहा था.

‘‘आप लोग जैसा सही सम झें वैसा करें,’’ कह कर आदिल अपने कमरे में आ गया.

आखिरकार आननफानन अशरफ का निकाह तय हो गया. लड़की गरीब घर की थी, पर बेहद खूबसूरत थी.

पूरे घर में निकाह की खुशियां थीं, पर आदिल का मन भारी था. उस का जी चाह रहा था कि वह जाए और लड़की वालों को रिपोर्ट के सारे कागज दिखा कर सबकुछ सच बता दे या फिर अशरफ के पास जा कर खूब खरीखोटी सुनाए, पर यह मुद्दा इतना संजीदा था कि आदिल ने अपनी जबान सिल ली और आंखों पर पट्टी बांध ली.

निकाह हो चुका था. अब्बू और अम्मी के चेहरे पर खुशियां चमक रही थीं, पर इस के पीछे जो काली बदली थी, उस से सब अनजान थे या अनजान होने का दिखावा कर रहे थे.

अशरफ और नाज की शादी को एक साल पूरा हो गया और नाज उम्मीद से थी यानी वह मां बनने वाली थी.

घर में सब खुश थे, पर हमेशा अंदर ही अंदर डरे हुए और फिर वह स्याह दिन भी आ गया, जिस को कोई बुलाना नहीं चाहता था.

अशरफ की तबीयत अचानक बिगड़ गई. पीरफकीर,  झाड़फूंक कोई कसर नहीं छोड़ी गई, पर सब बेमानी साबित हुआ.

नाज अब बेवा हो चुकी थी. उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. सभी का सम झानाबु झाना बेकार साबित हुआ. वह तो रोरो कर हलकान हुए जाती थी. आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

कहते हैं कि वक्त बहुत बड़ा मरहम होता है और इस मरहम ने इस परिवार पर भी अपना असर दिखाया. अब रोनापीटना तो नहीं था, पर नाज की उदासी और उस के कमरे से आती सिसकियों का जवाब किसी के पास नहीं था और होता भी कैसे. अगर नाज के बेवा होने में कोई जिम्मेदार था, तो यही सब लोग थे.

अशरफ को गुजरे 6 महीने हो गए. तब अब्बू ने अपने घर में महल्ले के एक बड़े बुजुर्ग, शहर के काजी और नाज के अब्बा को बुलाया.

तय समय पर सभी लोग इकट्ठा हुए, आंगन में कुरसियां डाल दी गईं.

शरबतपानी के बाद अब्बू ने बोलना शुरू किया, ‘‘आप मेरे बुलावे पर मेरे घर तशरीफ लाए हैं, इस का मैं शुक्रिया अदा करता हूं और जैसा कि आप लोगों को मालूम है कि मेरा बड़ा बेटा अशरफ अब नहीं रहा. घर में उस की बेवा है और वह बच्चे की मां भी बनने वाली है. उस की आगे की जिंदगी बेहतरी से गुजरे और हमारे घर की इज्जत घर में ही रहे, इस के लिए हम चाहते हैं कि हमारी बहू को हमारा छोटा बेटा आदिल सहारा दे और नाज से निकाह कर ले, जिस से नाज को सहारा भी मिल जाएगा और उस के आने वाले बच्चे को अपने अब्बा का नाम भी मिल जाएगा.

‘‘अगर मेरी बात से किसी को भी एतराज हो तो बे िझ झक अपनी बात कह सकता है,’’ कह कर अब्बू चुप हो गए.

अब्बू की बात का हर शब्द आदिल के कानों में चुभता चला गया.

‘आज अब्बू क्या करना चाहते हैं. पहले तो बीमार अशरफ का निकाह करा दिया और अब उस की बेवा से मेरी शादी कराना चाहते हैं. ठीक है नाज भाभी को सहारे की जरूरत है, पर मेरे भी ख्वाब हैं, मेरे भी अरमान हैं,’ आदिल सोचता चला गया.

महल्ले के बुजुर्ग, काजी किसी को कोई दिक्कत नहीं थी.

इतने लोगों के सामने आदिल की भी कुछ बोलने की हिम्मत न हुई और सभी के राजीनामे के बाद आदिल और नाज के निकाह का ऐलान किया जाने वाला था कि तभी परदे के पीछे से नाज की धीमी मगर सख्त लहजे वाली आवाज आई, ‘‘आप सब बड़े काबिल लोगों के सामने मु झे यों बोलना नहीं चाहिए और मैं इस गलती के लिए आप सब से माफी मांगती हूं, पर यहां बात 3 जिंदगियों की है, इसलिए मु झे बोलना ही पड़ रहा है.

‘‘सब से पहले अब्बू मैं आप से कहना चाहती हूं कि आप तो मु झे अपनी बेटी बना कर लाए थे. सबा के ससुराल जाने के बाद इस घर की बेटी की कमी मैं ने ही पूरी की थी न, फिर आज अचानक मैं आप को गैर लगने लगी. क्या मेरा और आप का रिश्ता सिर्फ इन तक ही था और इन के जाते ही मैं आप को बो झ लगने लगी?

‘‘और आप सब हजरात ऐसा क्यों सम झ रहे हैं कि एक बेवा को हमेशा ही किसी मर्द के सहारे की जरूरत होती है? क्या इतना काफी नहीं है कि वह अपने पति की यादों के सहारे जिंदगी काट दे? क्या दोबारा निकाह कराना मेरी रूह पर चोट पहुंचाने जैसा नहीं होगा? जिस जिस्म और रूह पर मैं उन का नाम लिख चुकी हूं, उस पर किसी और को हक कैसे दे सकती हूं?

‘‘और जहां तक आदिल की बात है, वह तो अभी पढ़ रहा है और उस की अभी शादी की उम्र भी नहीं है. उस की अपनी एक अलहदा जिंदगी है, जिसे वह अपने अंदाज से जीना चाहेगा. जहां तक मेरी बात है तो मेरे लिए किसी को परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं अपना गुजारा खुद कर सकती हूं. मैं ने बीए तक पढ़ाई की है. मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा सकती हूं. मु झे सिलाई का काम भी आता है. मैं घर बैठे सिलाई कर सकती हूं. मु झे बाकी कुछ नहीं चाहिए.

‘‘अब्बू और अम्मी, आप लोगों को भी मेरे हाल पर अफसोस करने की जरूरत नहीं है. शादी की पहली ही रात में उन्होंने मु झे अपनी बीमारी के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया था और अपनी सारी रिपोर्टें मु झे दिखा दी थीं. उन्होंने यह बता दिया था कि वे कभी भी मेरा साथ छोड़ कर जा सकते हैं.

‘‘उन्होंने यह बात मु झे इसलिए बताई, क्योंकि वे चाहते थे कि उन के जाने के बाद मैं उन्हें धोखेबाज न कहूं और न ही उन के सीने पर कोई भी बो झ रहे. उन्होंने यह सब बताने के बाद मु झ से कहा था कि अब मैं चाहूं तो उन को तलाक दे सकती हूं, पर मैं ने उन को तलाक देने से ज्यादा उन की बेवा बनना ठीक सम झा, क्योंकि मान लीजिए कि उन्हें कोई बीमारी न होती और फिर भी वे किसी हादसे का शिकार हो जाते तो ऐसे में कोई क्या कर लेता.

‘‘उन की निशानी मेरे अंदर पल रही है. मैं उन की यादों के सहारे ही बाकी जिंदगी काट सकती हूं. अब उन की निशानी बेटे के रूप में आए या बेटी के रूप में, रगों में उन का ही खून दौड़ेगा न,’’ इतना कह कर नाज पल्लू से अपनी गीली आंखें पोंछने लगी.

अब्बू परदा हटा कर अंदर आए और नाज को गले से लगा लिया. वे बोले, ‘‘नाज बेटी, तुम्हारा नाम तुम्हारे मायके वालों ने सही रखा है. आज उन की नाज पर हम सब को भी नाज है.’’

सभी लोगों की आंखें ससुरबहू के इस प्यार पर बारबार भर आती थीं.

Hindi Story : ऐसा ही होता है

Hindi Story : जब से यह पता चला कि गंगूबाई धंधा करते हुए पकड़ी गई है,  तब से लक्ष्मी की बस्ती में हड़कंप मच गया. क्यों?  ‘‘सुनती हो लक्ष्मी…’’ मांगीलाल ने आ कर जब यह बात कही, तब लक्ष्मी बोली, ‘‘क्या है… क्यों इतना गला फाड़ कर चिल्ला रहे हो?’’

‘‘गंगूबाई के बारे में कुछ सुना है तुम ने?’’

‘‘हां, उसे पुलिस पकड़ कर ले गई…’’ लक्ष्मी ने सीधा सपाट जवाब दिया, ‘‘अब क्यों ले गई, यह मत पूछना.’’

‘‘मु झे सब मालूम है…’’ मांगीलाल ने जवाब दिया, ‘‘कैसा घिनौना काम किया. अपने मरद के साथ ही धोखा किया.’’

‘‘धोखा तो दिया, मगर बेशर्म भी थी. उस का मरद कमा रहा था, तब धंधा करने की क्या जरूरत थी?’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘उस की कोई मजबूरी रही होगी,’’ मांगीलाल ने कहा.

‘‘अरे, कोई मजबूरी नहीं थी. उसे तो पैसा चाहिए था, इसलिए यह धंधा अपनाया. उस का मरद इतना कमाता नहीं था, फिर भी वह बनसंवर के क्यों रहती थी? अरे, धंधे वाली बन कर ही पैसा कमाना था, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ जाती. महल्ले की सारी औरतों को बदनाम कर दिया,’’ लक्ष्मी ने अपनी सारी भड़ास निकाल दी.

‘‘उस का पति ट्रक ड्राइवर है. बहुत लंबा सफर करता है. 8-8 दिन तक घर नहीं आता है. ऐसे में…’’

‘‘अरे, आग लगे ऐसी जवानी को…’’ बीच में ही बात काट कर लक्ष्मी  झल्ला पड़ी, ‘‘मैं उस को अच्छी तरह जानती हूं. वह पैसों के लिए धंधा करती थी. अच्छा हुआ जो पकड़ी गई, नहीं तो बस्ती की दूसरी औरतों को भी बिगाड़ती. न जाने कितनी लड़कियों को अपने साथ इस धंधे में डालने की कोशिश करती वह बदचलन औरत.’’

‘‘उस के साथ तो और भी औरतें होंगी?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘हांहां, होंगी क्यों नहीं, बेचारा मरद तो ट्रक ड्राइवर है. देश के न जाने किसकिस कोने में जाता रहता है. कभीकभार तो 15-15 दिन तक घर नहीं आता है. तब गंगूबाई की जवानी में आग लगती होगी… बु झाने के बहाने यह धंधा अपना लिया.’’

‘‘क्या करें लक्ष्मी, जवानी होती ऐसी है…’’ मांगीलाल ने जब यह बात कही, तब लक्ष्मी गुस्से से बोली, ‘‘तू क्यों इतनी दिलचस्पी ले रहा है?’’

‘‘पूरी बस्ती में गंगूबाई की थूथू जो हो रही है,’’ मांगीलाल ने बात पलटते हुए कहा.

लक्ष्मी बोली, ‘‘दिन में कैसी सती सावित्री बन कर रहती थी.’’

‘‘मगर, तू उसे बारबार कोस क्यों रही है?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘कोसूं नहीं तो क्या पूजा करूं उस बदचलन की,’’ उसी गुस्से से फिर लक्ष्मी बोली, ‘‘करतूतें तो पहले से दिख रही थीं. उसे मेहनत कर के कमाने में जोर आता था, इसलिए नासपीटी ने यह धंधा अपनाया.’’

‘‘अब तू लाख गाली दे उसे, उस ने तो कमाई का साधन बना रखा था. अरे, कई औरतें कमाई के लिए यह धंधा करती हैं…’’ मांगीलाल ने जब यह कहा, तब लक्ष्मी आगबबूला हो कर बोली,

‘‘तू क्यों बारबार दिलचस्पी ले रहा है? तेरा क्या मतलब? तु झे काम पर नहीं जाना है क्या?’’

‘‘जा रहा हूं बाबा, क्यों नाराज हो रही हो?’’ कह कर मांगीलाल तो चला गया, मगर लक्ष्मी न जाने कितनी देर तक गंगूबाई की करतूतों को ले कर बड़बड़ाती रही, फिर वह भी बरतन मांजने के लिए कालोनी की ओर बढ़ गई.

इस कालोनी में लक्ष्मी 4-5 घरों में बरतन मांजने का काम करती है. मांगीलाल किराने की दुकान पर मुनीमगीरी करता है. उस के एक बेटा और एक बेटी है. छोटा परिवार होने के बावजूद घर का खर्च मांगीलाल की तनख्वाह से जब पूरा नहीं पड़ा, तब लक्ष्मी भी घरघर जा कर बरतनबुहारी करने लगी. वह कालोनी वालों के लिए एक अच्छी मेहरी साबित हुई. वह रोजाना जाती थी. कभी जरूरी काम से छुट्टी भी लेनी होती थी, तब वह पहले से सूचना दे देती थी.

गंगूबाई लक्ष्मी की बस्ती में ही उस के घर से 5वें घर दूर रहती है. उस का मरद ट्रक ड्राइवर है, इसलिए आएदिन बाहर रहता है. उस के 2 बेटे अभी छोटे हैं, इसलिए उन्हें घर छोड़ कर गंगूबाई रात में कमाई करने जाती है.

पूरी बस्ती में यही चर्चा चल रही थी. गंगूबाई पर सभी थूथू कर रहे थे.

छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. उसे कई बार आधीआधी रात को घर आते हुए देखा था. वह कई बार किसी अनजाने मरद को भी अपने घर में बुला लेती थी, फिर बस्ती वालों को भनक लग गई. उन्होंने एतराज किया कि अनजान मर्दों को घर में बुला कर दरवाजा बंद करना अच्छी बात नहीं है.

तब गंगूबाई ने गैरमर्दों को घर बुलाना बंद कर दिया. तब से उस ने कमाने के लिए किसी होटल को अड्डा बना लिया था. पुलिस ने जब उस होटल पर छापा मारा, तब उस के साथ 3 औरतें और पकड़ी गई थीं. मतलब, होटल वाला पूरा गिरोह चला रहा था.

बस्ती वालों को शक तो बहुत पहले से था, मगर जब तक रंगे हाथ न पकड़ें तब तक किसी पर कैसे इलजाम लगा सकें. छोटे बच्चे जब पूछते थे, तब गंगूबाई कहती थी, ‘‘मैं ने नौकरी कर ली है. तुम्हारा बाप तो 10-15 दिन तक ट्रक पर रहता है, तब पैसे भी तो चाहिए.’’

ऐसी ही बात गंगूबाई बस्ती वालों से कहती थी कि वह नौकरी करती है.

बस्ती वाले सवाल उठाते थे कि नौकरी तो दिन में होती है, भला रात में ऐसी कौन सी नौकरी है, जो वह करती है?

मगर, गंगूबाई ऐसी बातों को हंसी में टाल देती थी. मगर जब भी उस का मरद घर पर होता था, तब वह शहर नहीं जाती थी. तब बस्ती वाले सवाल उठाते, ‘जब तेरा मरद घर पर रहता है, तब तू क्यों नहीं नौकरी पर जाती है?’

तब वह हंस कर कहती, ‘‘मरद 10-15 दिन बाद सफर कर के थकाहारा आता है. तब उस की सेवा में लगना पड़ता है.’’

तब बस्ती वाले कहते, ‘तू जोकुछ कह रही है, उस में जरा भी सचाई नहीं है. कभीकभी आधी रात को आना शक पैदा करता है. लगता है कि नौकरी के बहाने…’

‘‘बसबस, आगे मत बोलो. बिना देखे किसी पर इलजाम लगाना अपराध है. आप मेरी निजी जिंदगी में  झांक रहे हैं. क्या पेट भरने के लिए नौकरी करना भी गुनाह है?’’

तब बस्ती वालों ने गंगूबाई को अपने हाल पर छोड़ दिया. मगर वे सम झ गए थे कि गंगूबाई धंधा करती है.

‘‘लक्ष्मी, कहां जा रही है?’’ लक्ष्मी की सारी यादें टूट गईं. यह उस की सहेली कंचन थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बरतन मांजने जा रही हूं साहब लोगों के बंगले पर.’’

‘‘धत तेरे की, कुछ गंगूबाई से सबक सीख,’’ कंचन मुसकराते हुए बोली.

‘‘किस नासपीटी का नाम ले लिया तू ने,’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘बिस्तर पर सो कर कमा रही थी और तू उसे नासपीटी कह रही है?’’

‘‘उस ने औरत जात को बदनाम कर दिया है. मरद तो बेचारा परदेश में पड़ा रहता है और वह छोटे बच्चों को घर छोड़ कर गुलछर्रे उड़ा रही थी. उस के बच्चों का क्या हुआ?’’

‘‘अरे, पुलिस उस के बच्चों को भी अपने साथ ले गई है…’’ कंचन ने जवाब दिया, ‘‘गंगूबाई पर शक तो बहुत पहले से था.’’

‘‘मगर, किसी ने उसे आज तक रंगे हाथ नहीं पकड़ा है,’’ लक्ष्मी ने जरा तेज आवाज में कहा.

‘‘हां, पकड़ा तो नहीं…’’ कंचन ने कहा, फिर वह आगे बोली, ‘‘अरे, तु झे काम पर जाना है न, जा बरतन मांज कर अपनी हड्डियां गला.’’

लक्ष्मी साहब के बंगले की तरफ बढ़ चली. आज उसे देर हो गई, इसलिए वह जल्दीजल्दी जाने लगी. सब से पहले उसे त्रिवेदीजी के बंगले पर जाना था.

जब लक्ष्मी त्रिवेदीजी के बंगले पर पहुंची, तब मेमसाहब उसी का इंतजार कर रही थीं. वे नाराजगी से बोलीं, ‘‘आज देर कैसे हो गई लक्ष्मी?’’

‘‘क्या करूं मेमसाहब, आज बस्ती में एक लफड़ा हो गया.’’

‘‘अरे, बस्ती में लफड़ा कब नहीं होता. वहां तो आएदिन लफड़ा होता रहता है.’’

‘‘बात यह नहीं है मेमसाहब. गंगूबाई नाम की औरत धंधा करती हुई पकड़ी गई है.’’

‘‘इस में भी कौन सी नई बात है. बस्ती की गरीब औरतें यह धंधा करती हैं. गंगूबाई ने ऐसा कर लिया, तब तो उस की कोई मजबूरी रही होगी.’’

‘‘अरे मेमसाहब, यह बात नहीं है. वह शादीशुदा है और 2 बच्चों की मां भी है.’’

‘‘तो क्या हुआ, मां होना गुनाह है क्या? पैसा कमाने के लिए ज्यादातर औरतें यह धंधा करती हैं…’’ मेम साहब बोलीं, ‘‘औरतें इस धंधे में क्यों आती हैं? इस की जड़ पैसा है. इन गरीब घरों में ऐसा ही होता है.’’

‘‘मेमसाहब, आप पढ़ीलिखी हैं, इसलिए ऐसा सोचती हैं. मगर, मैं इतना जरूर जानती हूं कि छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. अब आप से कौन बहस करे… यहां से मुझे गुप्ताजी के घर जाना है. अगर देर हो गई तो वहां भी डांट पड़ेगी,’’ कह कर लक्ष्मी रसोईघर में चली गई.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें