Hindi Story : अनोखी तरकीब

Hindi Story : कहते हैं कि जिस घर में बेटी-दामाद शादी के बाद भी बैठे हों उस घर में अपनी लड़की कभी नहीं ब्याहनी चाहिए, क्योंकि वहां बेटी के आगे बहू की कोई इज्जत नहीं होती. पर सबीहा के घर वालों ने तो कभी यह सोचा ही नहीं था. उन्होंने तो बस, लड़का देखा, उस के चालचलन को परखा, कामधंधा का पता किया और बेटी को ब्याह दिया.

उन्हें तो यह तब पता चला जब सबीहा पहली विदाई के बाद घर आई. मां के हालचाल पूछने पर सबीहा ने बडे़ ही उदासीन अंदाज में बताया, ‘‘बाकी तो वहां सब ठीकठाक है पर एक गड़बड़ है कि जरीना आपा शादी के बाद भी वहीं मायके में पड़ी हुई हैं. उन के मियां के आगेपीछे कोई भी नहीं था और वह दूर के भाई लगते थे इसलिए उन लोगों ने उन्हें घरदामाद बना रखा है.

‘‘जरीना आपा तो वहां ऐसे रहा करती हैं मानो वही उस घर की सबकुछ हों. उन के आगे किसी की भी नहीं चलती है और उन की जबान भी खूब चला करती है. आप लोगों को वहां रिश्ता करने से पहले यह सब पता कर लेना चाहिए था.’’

बेटी की बात सुन कर उस की मां सन्न रह गईं पर अब वह कर भी क्या सकती थीं इसलिए बेटी को समझाने लगीं, ‘‘यह तो वाकई हम से बहुत बड़ी भूल हो गई. जब हम तुम्हारा रिश्ता ले कर वहां गए थे तो जरीना को वहां देखा भी था लेकिन हम ने यही समझा कि शादीशुदा लड़की है, ससुराल आई होगी, इसलिए पूछना जरूरी नहीं समझा और हम धोखा खा गए.

‘‘खैर, तुम्हें इस की ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है. बस, तुम्हें अपने काम से काम रखना है, और मैं समझती हूं कि यह कोई बहुत बड़ी बात भी नहीं है. हो सकता है कल को वे अपना हंडि़याबर्तन अलग कर लें.’’

सबीहा का पति अनवर जमाल भारतीय स्टेट बैंक में कैशियर था. वह अच्छीखासी कदकाठी का खूबसूरत नवयुवक था लेकिन उस के साथ एक गड़बड़ थी, वह उन मर्दों में से था जो अपनी बीवियों को दोस्त बना कर नहीं सिर्फ बीवी बना कर रखना जानते हैं.

जरीना के 2 बेटे और 2 बेटियां थीं. चारों बच्चे बेहद शरारती और जिद्दी थे. वे घर में हर वक्त हुड़दंग मचाते रहते और सबीहा से तरहतरह की फरमाइशें करते रहते. अकसर वह उन की फरमाइशें पूरी कर देती लेकिन कभी तंग आ कर कुछ बोल देती तो बस, जरीना का भाषण शुरू हो जाता, ‘‘बच्चों से ऐसे पेश आया जाता है. जरा सा घर का काम क्या करती हो इन मासूमों पर गुस्सा उतारने लगती हो.’’

बेटी की चिल्लाहट सुन कर सबीहा की सास भी बिना कुछ जानेबूझे उसे कोसने लगतीं, ‘‘इतनी सी जिम्मेदारी भी तुम से निभाई नहीं जाती. इसीलिए कहती हूं कि लड़कियों को ज्यादा पढ़ानालिखाना नहीं चाहिए. ज्यादा पढ़लिख लेने के बाद उन का मन घरेलू कामों में नहीं लगता है.’’

अगर कभी सबीहा की कोई शिकायत अनवर तक पहुंच जाती तो उस को अलग डांटफटकार सुनने को मिलती लेकिन वह किसी को कुछ बोल नहीं सकती थी. अपनी सफाई नहीं दे सकती थी, केवल उन की सुन सकती थी. वह इस सच को जान चुकी थी कि उस के कुछ भी बोलने का मतलब है सब मिल कर उसे चीलकौवे की तरह नोच खाएंगे.

सबीहा मायके में अपने ससुराल वालों की कोई शिकायत करती तो वे उलटे उसे ही नसीहत देने लगते और सब्र से काम लेने को कहते. इसलिए शुरुआत में वह जो भी वहां की बात मायके वालों को बताती थी, बाद में उस ने वह भी बताना बंद कर दिया.

एक दिन सबीहा अपने हालात से भरी बैठी थी कि ननद ने कुछ कहा तो वह उस से जबान लड़ा बैठी और जवाब में उसे ऐसी बातें सुनने को मिलीं जिस की उस ने कल्पना भी नहीं की थी.

सास और ननद की झूठी और बेसिरपैर की बातों को सुन वह स्तब्ध रह गई और सोचने लगी कि कहां से वह जरीना के मुंह लग गई.

लेकिन उन का अभी इतने से पेट नहीं भरा था और जब अनवर बैंक से आया तो मौका मिलते ही उन्होंने उन बातों में कुछ और मिर्चमसाला लगा कर उस के कान भर दिए और वह भी सबीहा की खबर लेने लगा, ‘‘क्या यही सिखा के भेजा है तुम्हारे मांबाप ने कि सासननद का एहतेराम मत करना? उन के बच्चों को नीची नजर से देखना. घर में अपनी मनमानी करती रहना और मौका मिलते ही शौहर को लेके अलग हो जाना.’’

‘‘अरे, यह आप क्या कह रहे हैं? मैं ने तो ऐसा कभी सोचा भी नहीं और कभी किसी को कुछ कहा भी नहीं  है. पता नहीं वह क्याक्या अपने मन से लगाती रहती हैं.’’

अनवर के सामने सबीहा जैसे डरतेडरते पहली बार इतना बोली तो वह और भी भड़क उठा, ‘‘खामोश, यहां यह जबानदराजी नहीं चलेगी. यहां रहना है तो सभी का आदरसम्मान करना सीखना होगा और सब से मिलजुल कर  रहना पड़ेगा. समझीं.’’

पति की डांट के बाद सबीहा अंदर ही अंदर फूट पड़ी और मन में बड़बड़ाने लगी कि मैं इन्हें क्या तकलीफ पहुंचाती हूं जो ये मेरे पीछे पड़ी रहती हैं. मुझ से ऐसा कौन सा कर्म हो गया था जो मैं ऐसे घर में चली आई. जब मुझे शादी के बाद यही सब देखना था तो इस से बेहतर था कि मैं घर में ही कुंआरी पड़ी रहती.

उसे पति की बात उतनी बुरी नहीं लगी थी, उसे तो पति के कान भरने वाली सासननद पर गुस्सा आ रहा था. उस ने मन में सोच लिया था कि अब खामोश बैठने से काम नहीं चलेगा. इन्हें कुछ न कुछ सबक सिखाना ही पड़ेगा, तभी उस की जान छूटेगी. लेकिन उसे करना क्या होगा? लड़ाईझगडे़ से तो उस का यह काम बनने वाला नहीं था. फिर कौन सी तरकीब लगाई जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

सबीहा काफी देर तक अपनी इस समस्या के समाधान के लिए बिस्तर पर पड़ी दिमागी कसरत करती रही. अचानक उसे एक अनोखी तरकीब सूझ गई और वह मन में बड़बड़ाई, ‘हां, यह ठीक रहेगा. ऐसे लोग उलटे दिमाग के होते हैं. इन्हें उलटी बात कहो तो सीधा समझते हैं और सीधा बोलो तो उलटा समझते हैं. इन्हें उलटे हाथ से ही हांकना पड़ेगा. निहायत नरमी से इन्हें उलटी कहानी सुनानी पड़ेगी, तब ये मेरी बात को सीधा समझेंगे और तब ही यह झंझट खत्म होगा.’

सबीहा कई दिनों तक अपनी योजना में उलझी उस के हर पहलू पर विचार करती रही और जब योजना की पूरी रूपरेखा उस के दिमाग में बस गई तब एक दिन मौका पा कर वह सास की तेलमालिश करने बैठ गई. कुछ देर उन से इधरउधर की बातें करने के बाद वह बोली, ‘‘जानती हैं अम्मी, इस बार मैं अपने घर गई थी तो एक दिन मेरे पड़ोस में एक अजब ही तमाशा हो गया.’’

‘‘अच्छा, क्या हुआ था? जरा मैं भी तो सुनूं,’’ उस की कहानी में दिलचस्पी लेते हुए सास बोलीं.

सबीहा उन्हें अपनी पूरी कहानी सुनाने लगी:

‘‘मेरे मायके में एक खातून मेरे मकान से कुछ मकान छोड़ के रहती हैं. उन के पास दोमंजिला मकान था और 2 शादीशुदा लड़के थे. आधे मकान में वे एकसाथ रहते थे और आधे को उन्होंने किराए पर दे रखा था. वे रहते तो मिलजुल कर थे पर उन की मां अपने बडे़ बेटे को बहुत मानती थीं. मां का यही नजरिया दोनों बहुओं और उन के बच्चों के साथ भी था.

‘‘फिर बेटाबहू ने मां की एकतरफा मोहब्बत का गलत फायदा उठाते हुए मकान का वह एक हिस्सा जो देखने में अच्छा था, अपने नाम लिखवा लिया और जो खंडहर जैसा था उस हिस्से को छोटे भाई के लिए छोड़ दिया. यही नहीं बडे़ बेटे ने धोखे से मां के कीमती जेवर आदि भी हड़प लिए.

‘‘छोटे भाई को जब इस बात का पता चला तो वह बडे़ भाई से भिड़ गया और दोनों भाइयों के बीच जम कर झगड़ा हुआ, जिस में बीचबचाव करते समय मां भी घायल हो गईं. इस घटना के बाद मां तो बड़े बेटे के साथ रहने लगीं लेकिन छोटे बेटे से उन का नाता लगभग टूट सा गया.’’

सबीहा ने एक पल रुक कर अपनी सास की ओर देखा तो उसे यों लगा जैसे वह अंदर से कांप रही हैं. उस ने फिर अपनी कहानी को आगे बढ़ा दिया :

‘‘अम्मीजी, सच कह रही हूं, जब उस लड़ाई के बारे में मुझे पता चला तो इतना गुस्सा आया कि जी चाहा जा कर उन दोनों कमबख्तों के तलवार से टुकड़े- टुकडे़ कर दूं. भाई भाई से लडे़ तो बात अलग है लेकिन बूढ़ी मां के साथ ऐसा सुलूक. उन पर हाथ उठाना कितना बड़ा गुनाह है.

‘‘उस लड़ाईझगडे़ का मां के दिल पर ऐसा असर हुआ कि वह बुरी तरह बीमार पड़ गईं. अब बडे़ लड़के ने उन से साफ कह दिया कि मेरे पास तुम्हारे इलाज के लिए पैसे नहीं हैं, जिस बेटे के नाम की बैठेबैठे माला जपती हो उसी के पास जा कर इलाज कराओ.

‘‘छुटके ने यह सुना तो जैसे उसे ताव आ गया और तुरंत एक अच्छे डाक्टर के पास ले जा कर मां का इलाज कराया. उन्हें अपने पास रख कर खूब देखभाल की. और अब वह एकदम ठीक हो कर बडे़ मजे में छोटे बेटे के पास रह रही हैं.

‘‘अब मुझे उन के बडे़ बेटाबहू पर गुस्सा आ रहा था कि उन्होंने उस बेचारी बुढि़या का सबकुछ लूट लिया था और फिर बेरहमी से खदेड़ भी दिया. यह तो जमाना आ गया है. जिस पर हद से ज्यादा प्यार लुटाइए वही बरबाद करने पर तुल जाता है. इस से तो अच्छा है कि हम सभी को एक नजर से देखते चलें. चाहे वह बेटा हो या बेटी. क्यों अम्मीजी?’’

‘‘हां, बिलकुल,’’ इतना कह कर वह किसी गहरी सोच में डूब गईं. उन्हें खोया हुआ देख कर सबीहा धीरे से मुसकराई और कुछ देर उन की सेवा करने के बाद धीरे से उठ कर चली गई.

दरअसल, सबीहा की सास उस की कहानी सुन कर जो खो गई थीं तो उस दौरान वह अपने प्रति एक फिल्म सी देखने लगी थीं कि बेटीदामाद पर अंधाधुंध प्यारमोहब्बत, धनदौलत सब- कुछ लुटा रही हैं जिस का फायदा उठाते हुए वह उन्हें कंगाल कर के निकल गए. उस के बाद उन की नफरत के मारे हुए बेटाबहू ने भी उन से नाता तोड़ लिया और वह भरी दुनिया में एकदम से अकेली और बेसहारा हो कर रह गई हैं.

शायद इस भयानक खयाल ने ही उन्हें इतनी जल्दी बदल कर रख दिया था. सबीहा की उलटी कहानी सचमुच में काम कर गई थी.

सबीहा अपनी इस पहली सफलता से खुश थी लेकिन अभी उसे ननद से भी निबटना था. उस के भी दिमाग को घुमाना था. इसलिए वह अपनी सफलता पर बहुत ज्यादा खुश न हो कर मन ही मन एक और कहानी बनाने में जुट गई.

जब उस की दूसरी कहानी भी तैयार हो गई तो एक दिन वह ननद के पास भी धीरे से जा बैठी और उन से इधरउधर की बातें करते हुए सोचने लगी कि उन्हें किस तरह कहानी सुनाई जाए. अभी वह यह सोच ही रही थी कि जरीना बोलीं, ‘‘जानती हो सबीहा, आगे पत्थर वाली गली में एक करीम साहब रहते हैं. उन के लड़के की शादी को अभी कुछ ही माह हुए थे कि वह अपनी बीवी को ले कर अलग हो गया. कितनी बुरी बात है. मांबाप कितने अरमानों से बच्चों को पालते हैं और बच्चे उन्हें कितनी आसानी से छोड़ कर चले जाते हैं.’’

यह सुनते ही सबीहा की आंखें चमक उठीं. वह गहरी सांस लेते हुए बोली, ‘‘क्या कीजिएगा बाजी, यही जमाना आ गया है. जिधर देखिए, लोग परिवार से अलग होते जा रहे हैं. यह करीम साहब का बेटा तो कुछ माह बाद अलग हुआ है लेकिन मेरी एक सहेली तो शादी के कुछ ही हफ्ते बाद मियां को ले कर अलग हो गई थी.

‘‘जब मैं ने उस का यह कारनामा सुना तो मुझे उस पर बेहद गुस्सा आया था. मेरी जब उस से मुलाकात हुई और मैं उस पर बिगड़ी तो जानती हैं वह बड़ी ही अदा से मेरे गले में बांहें डाल कर बोली थी, ‘तुम क्या जानो मेरी जान कि अलग रहने के क्या फायदे हैं. जो जी चाहे खाओपिओ, जब दिल चाहे काम करो जहां मन चाहे घूमोफिरो और घर में कहीं पर भी, किसी भी वक्त शौहर के गले में बेधड़क झूल जाओ. कोई रोकनेटोकने वाला नहीं. ये सब आजादियां भला संयुक्त परिवार में कहां मिल पाती हैं?

‘‘‘और सब से बड़ी बात, सभी को कभी न कभी तो अलग होना ही पड़ता है. महंगाई बढ़ती जा रही है. जमीन के दाम भी आसमान छूते जा रहे हैं. अब हिस्से के बाद किसी को मिलता भी क्या है? बस, एक छोटा सा मुरगी का दरबा. इसलिए आज के दौर में जो जितनी जल्दी अलग हो जाएगा वह उतनी ही अच्छी रिहाइश बना सकता है. समझ में आया मेरी जान?’

‘‘उस की फालतू बकबक सुन कर मेरी खोपड़ी और भी गरम हो गई और मैं उसे झिड़कते हुए बोली, ‘यह सब तुम्हारे दिमाग का फितूर है वरना तो संयुक्त परिवार में रहने में जो मजा है वह अकेले रहने में नहीं है, क्योंकि जीवन की असली खुशी इसी में प्राप्त होती है.’

‘‘बाजी, आप ही बताओ, क्या मैं ने उस से कुछ गलत कहा था?’’

‘‘नहीं भई, तुम ने वही कहा था जिसे दुनिया सच मानती आई है.’’

इतना बोल कर जरीना चुपचाप सोचने लगीं कि इस की सहेली ने जो कुछ कहा है वह तो मैं ने कभी देखा ही नहीं. जो भी यहां मिलता रहा हम खातेपीते रहे. जहां ये घुमानेफिराने ले गए हम बस, वहीं गए और शौहर से प्यार, इस छोटे से घर में हम खुल के कभी प्यार भी नहीं कर सके. भला ये भी कोई जिंदगी है?

जरीना को गुमसुम देख सबीहा को अपनी यह योजना भी सफल होती नजर आने लगी, लेकिन उसे पता नहीं था कि वह अपनी इस दूसरी योजना में कहां तक कामयाब होगी.

रात को जरीना के पति जब दुकान से आए तो वह उन के पैर दबाते हुए बोली, ‘‘अजी जानते हैं, कल रात मैं ने एक अजीब सपना देखा था और सोचा था कि उस के बारे में सुबह आप को बताऊंगी लेकिन बताना याद ही नहीं रहा.

‘‘मैं ने सपने में देखा कि एक बेहद बुजुर्ग फकीर मेरे सिरहाने खडे़ हैं और वह बड़ी भारी आवाज में मुझ से कह रहे हैं कि तू जितनी जल्दी इस घर से निकल जाएगी जिंदगी भर उतनी ही ज्यादा खुशहाल रहेगी. समझ ले ये चंद दिन तेरे लिए बड़ी ही रहमतोबरकत के बन कर आए हैं. इसलिए तू अपने इस नेक काम को बिना देर किए कर डाल. और फिर वह साए की तरह लहराते हुए गायब हो गए.’’

‘‘अच्छा, वह तुम से कहां जाने के लिए कह रहे थे?’’ जरीना के पति ने बडे़ ही भोलेपन से पूछा तो उस ने अपना माथा ठोंक लिया.

‘‘अरे, बुद्धू, आप इतना भी नहीं समझे. वह हमें किराए के मकान में जाने के लिए कह रहे थे और कहां?’’

‘‘ठीक है, मैं कोशिश करता हूं.’’

‘‘कोशिश नहीं, एकदम से लग जाइए और 1-2 दिन के अंदर ही इस काम को कर डालिए.’’

अगले दिन जरीना के मियां अपना कामधाम छोड़ कर मकान की तलाश में निकल गए और शाम होतेहोते उन्हें

2 कमरे का एक अच्छा मकान मिल गया. फिर सुबह होते ही उन का सामान भी जाने लगा.

यह देख जरीना के भाई अनवर व अम्मी की आंखें हैरत से फैल गईं. लेकिन यह देख कर सबीहा की तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उस की दूसरी कहानी भी सफल हो गई थी और उस की ये अनोखी तरकीब बेहद कारगर साबित हुई थी, जिस में उस का न तो किसी से कोई लड़ाईझगड़ा हुआ था और न ही उस ने किसी को सीधे मुंह कुछ कहा था.

Love Story : संयोग

Love Story : संयोग

लेखक- सनंत प्रसाद

मंजुला और मुकेश के बीच प्यार की कोंपलें फूटने लगी थीं. लेकिन महत्त्वाकांक्षी मंजुला ने मुकेश के प्यार को अपने सपनों से ज्यादा तरजीह दी. बरसों बाद मुकेश से मिलने पर एक बार फिर मंजुला की यादें ताजा हो उठीं.

रात के 10 बज चुके थे. मरीजों को निबटा कर डा. मंजुला प्रियदर्शिनी अपने क्लिनिक में अकेली बैठी थीं. अचानक उन्होंने रिलेक्स के मूड में अपने जूड़े को खोल कर लंबे घने बालों को एक झटका सा दिया और इसी के साथ लंबी जुल्फें लहरा कर इजीचेयर पर फैल गईं.

डा. मंजुला इजीचेयर से उठीं और क्लिनिक के बगल में बने शानदार बाथरूम के आदमकद शीशे में अपने पूरे व्यक्तित्व को निहारने लगीं.

दिनभर की भीड़भाड़ भरी व्यस्त जिंदगी में डा. मंजुला अपने को भूल सी जाती हैं. जिस को समय का ही ध्यान नहीं रहता वह अपना ध्यान कैसे रख सकता है. किंतु समय तो अपनी गति से चलता ही जाता है न. शहर के पौश इलाके में बना उन का नर्सिंग होम  और क्लिनिक उन्हें इतना समय ही नहीं देते कि वह मरीजों को छोड़ कर अपने बारे में सोच सकें.

डा. मंजुला ने अपनी संपन्नता  अथक मेहनत से अर्जित की थी. वह अपनी व्यस्ततम जिंदगी से जब भी कुछ पल अपने लिए निकालतीं तो उन का अकेलापन उन्हें काटने को दौड़ता था. आखिर थीं तो वह भी एक औरत ही न. अपने को आईने में देखा तो 45-50 की ‘प्रियदर्शिनी’ का एक अछूता सा मादक सौंदर्य और यौवन उन्हें थिरकता नजर आया. बालों में थोड़ी सफेदी तो आ गई थी पर उसे स्वाभाविक रंग में रंग कर उन्होंने कलात्मकता से छिपा रखा था.

डा. मंजुला के मन के एक कोने से आवाज आई, काश, कोई उन के आज भी छिपे हुए मादक यौवन और गदराई देह को अपनी सबल बांहों में थाम लेता और उन्हें मसल कर रख देता. एक अनछुई सिहरन उन के मनप्राणों में समा गई. औरत के मन की यह अद्भुत विशेषता और विरोधाभास भी है कि वह जो अंतर्मन से चाहती है, उसे शायद शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाती. इसीलिए नारी अपनी कामनाओं को तब तक छिपा कर रखती है जब तक भावनाओं की आंधी में बहा कर ले जाने वाला और उस की अस्मिता की रक्षा करने का आश्वासन देने वाला कोई सबल पुरुष उस के रास्ते में न आ जाए.

बाथरूम से निकल कर डा. मंजुला अपने केबिन में आईं और इजीचेयर पर बैठते ही सिर पीछे की ओर टिका दिया. घर जाने का अभी मन नहीं कर रहा था अत: आंखें बंद कर वह अतीत में खो सी गईं.

20 वर्ष पहले वह मेडिकल कालिज में फाइनल की छात्रा थी. बिलकुल रिजर्व और अंतर्मुखी. लड़के भंवरा बन कर उस पर मंडराते थे क्योंकि मंजुला ‘प्रियदर्शिनी’ एक कलाकार के सांचे में ढली हुई चलतीफिरती प्रतिमा सी लगती थी. अद्भुत देहयष्टि और खिलाखिला सा रूपरंग, उस पर कालेकाले घुंघराले बाल और कजरारे नैननक्श की मलिका मंजुला जिधर से निकलती मनचलों पर बिजलियां सी टूट पड़तीं पर वह किसी को घास न डालती. कोई लड़का उस पर डोरे डालने का साहस भी नहीं जुटा पाता, क्योंकि उस के पिता मनोरम पुलिस के आला अफसर थे और मां माधुरी कलेक्टर जो थीं.

मुकेश कब और कैसे मंजुला के जीवन में आ गया, इसे शायद स्वयं मंजुला भी न समझ सकी. वह लजीला सा नवयुवक उस का सहपाठी तो था पर कभी उस ने मंजुला की ओर आंख उठा कर भर नजर देखा तक नहीं था, जबकि दूसरे लड़के मंजुला को देख कर दबी जबान कुछ न कुछ फब्तियां कस ही देते थे.

मंजुला कभी मुकेश को लाइब्रेरी के एक कोने में चुपचाप किताबों में डूबा हुआ देखती या फिर कक्षा से निकल कर घर जाते हुए. इस अंतर्मुखी लड़के के प्रति उस की उत्सुकता बढ़ती जाती. किंतु उस का अहं कोई पहल करने से उसे रोक देता.

मंजुला को उस दिन बड़ा आश्चर्य हुआ जब मुकेश ने उस के समीप आ कर पूछा, ‘आप इतनी चुपचुप क्यों रहती हैं? क्या आप को ऐसा नहीं लगता कि इस तरह रहने से आप को डिप्रेशन या हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी हो सकती है?’

मंजुला उस के भोलेपन पर मन ही मन मुसकरा उठी, साथ ही उस के शरारती मन को टटोलने का प्रयास भी करने लगी. ऊपर से सीधासादा दिखने वाला यह लड़का अंदर से थोड़ा शरारती भी है. तभी तो इतना खूबसूरत बहाना ढूंढ़ा है उस से बात करने का या उस के करीब आने का. फिर भी बनावटी मुसकराहट के साथ उस ने जवाब दिया, ‘नहीं तो, मुझे तो कुछ ऐसा नहीं लगता.’

मुकेश बड़ी विनम्रता से बोला, ‘यदि मैं कैंटीन में चल कर आप को एक कप कौफी पीने का निमंत्रण दूं तो आप बुरा तो न मानेंगी.’

इस बार मंजुला उस के भोलेपन पर सचमुच खिलखिला उठी, ‘चलिए, आई डोंट माइंड.’

कौफी पीतेपीते ही मंजुला से मुकेश का परिचय हुआ. मुकेश एक मध्यवर्ग के संभ्रांत परिवार का लड़का था. घर में उस की मां थीं, 2 बड़ी बहनें थीं,  जिन की शादियां हो चुकी थीं और वे अपनीअपनी गृहस्थी में खुश थीं. मुकेश के पिता एक सरकारी मुलाजिम थे जो लगभग 2 वर्ष पहले बीमारी के चलते दिवंगत हो चुके थे. मां को पिता की सरकारी नौकरी की पेंशन मिलती थी, किंतु गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए और अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के लिए मुकेश कालिज के बाद ट्यूशन पढ़ाया करता था.

मंजुला ने जैसे ही अपने बारे में मुकेश को बताना शुरू किया उस ने बीच में ही उसे टोक दिया, ‘मैडम, क्यों कौफी ठंडी कर रही हैं. आप के बारे में मैं तो क्या यह पूरा मेडिकल कालिज जानता है कि आप के मातापिता क्या हैं.’

मंजुला सीधेसादे मुकेश के प्रति एक अनजाना सा ख्ंिचाव महसूस करने लगी थी. उस ने अपने मन से कई बार पूछा कि कहीं वह मुकेश से प्यार तो नहीं करने लगी है?

नारी का मनोविज्ञान सदियों से वही रहा है जो आज है और आगे भी वही रहेगा. हर स्त्री के मन में प्यार और प्रशंसा पाने की ललक होती है, चाहे वह अवचेतन की किसी अतल गहराइयों में ही छिपी हो, जिसे वह समझ नहीं पाती या जाहिर नहीं कर पाती.

खैर, इस प्रकार मंजुला के जीवन में प्यार बन कर मुकेश कब आ गया इसे न मंजुला समझ पाई न मुकेश. दोनों का प्यार परवान चढ़ता रहा. दोनों ने अच्छे नंबरों से मेडिकल की परीक्षाएं पास कीं. मंजुला के पिता के पास पैसा था, सो उन्होंने एक खूबसूरत सा नर्सिंगहोम शहर के बीचोेंबीच एक पौश इलाके में खोल दिया और इसी के साथ डा. मंजुला के अपने कैरियर की शुरुआत करने के दरवाजे खुल गए.

मंजुला कुछ दिनों के लिए विदेश चली गई. लौटी तो ढेर सारी डिगरियां उस ने बटोर ली थीं. एम.डी., एम.एस. और भी कई डिगरियां. मंजुला अपने ही नाम वाले नर्सिंगहोम की मालिक बन कर जीवन में लगभग सेटल हो चुकी थी.

मुकेश अपने ही शहर के एक मेडिकल कालिज में लेक्चरर हो गया था. दोनों का जीवन नदी के दो किनारों की तरह मंथर गति से आगे बढ़ने लगा था. मंजुला के मातापिता ने उसे शादी के लिए प्रेरित करना शुरू किया, किंतु वह शादी से ज्यादा कुछ करने की, कुछ ऊंचाई छू लेने की हसरत रखती थी. इसलिए शादी के बहुतेरे प्रस्तावों को वह किसी न किसी बहाने टालती रही और अपने व्यावसायिक जीवन को संवारने में तनमन से जुट गई.

मुकेश ने मां के बेबस प्यार और आग्रह के सामने सिर झुका लिया. उस की शादी जिस युवती से हुई वह झगड़ालू प्रवृत्ति के साथसाथ हद दरजे की शक्की, बदमिजाज, स्वार्थी एवं ईर्ष्यालु भी थी. सामाजिक दबाव, आर्थिक समस्याओं आदि ने कोई विकल्प मुकेश के सामने छोड़ा ही नहीं और उस ने भी हथियार डाल दिए. आखिर किसी शायर ने ठीक ही तो फरमाया है, ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, किसी को जमीं तो किसी को आसमां नहीं मिलता.’

मुकेश अब कालिज की ड्यूटी के बाद घर लौट कर एक थीसिस की तैयारी में जुट जाता और देर रात तक उसी में व्यस्त रहता. पत्नी झींकती रहती, तकदीर को कोसती कि कैसे निखट्टू से पाला पड़ गया. मुकेश बेबस हो कर सुनता और चुप रह जाता.

मुकेश के जीवन की एक त्रासदी उस दिन उभर कर सामने आई जब उस की पत्नी चंचला और सास सविता ने उसे निसंतान होने का ताना देना शुरू किया. तमाम मेडिकल जांच के बाद यह तसवीर उभर कर सामने आई कि चंचला मां नहीं बन सकती. नतीजतन, चंचला और भी उग्र और आक्रामक बनती चली गई और मुकेश दीवार पर जड़ दिए गए फ्रेम में सहनशीलता की तसवीर भर बन कर रह गया.

उस दिन शाम के समय गाड़ी से मंजुला कुछ खरीदारी करने निकली थी. मौर्या कांपलेक्स के शौपिंग आरकेड में घुसते ही अचानक मुकेश पर उस की निगाहें टिक गईं. दोनों के बीच औपचारिक बातों के बाद मंजुला ने उसे अगले दिन अपने नर्सिंग होम में आ कर बातचीत करने का निमंत्रण दिया.

दूसरे दिन शाम को मुकेश आया तो दोनों बड़ी देर तक बातों में खोए रहे. रात घिर आई. बातों का सिलसिला टूटा तो घड़ी पर नजर गई. 12 बज चुके थे. मुकेश बाहर निकला तो हलकी बूंदाबांदी शुरू हो गई. मुकेश ने अपनी ईर्ष्यालु पत्नी चंचला का जिक्र छेड़ा तो मंजुला उसे घर छोड़ने का साहस नहीं कर पाई. मंजुला ने उस के खाने का आर्डर दे दिया. फिर उसे अपने नर्सिंग होम के आरामदायक गेस्ट हाउस में ही ठहर जाने का आग्रह किया.

मुकेश ने अपने घर टेलीफोन कर दिया कि एक आवश्यक काम के सिलसिले में उसे रात में रुकना पड़ा है. मुकेश मंजुला के आग्रह को नहीं ठुकरा पाने के कारण नर्सिंग होम के गेस्ट रूम में आराम करने के इरादे से रुक गया. खाना खाने के बाद मुकेश को ‘गुडनाइट’ कह कर मंजुला अपने निकटवर्ती आवास में आराम करने चली गई. मुकेश ने बत्ती बुझा कर थोड़ी झपकियां ही ली थीं कि उस के दरवाजे पर हलकी दस्तक हुई. उस ने अंदर से ही पूछा, ‘कौन?’

‘मैं हूं, मंजुला.’

इस आवाज ने उसे चौंका दिया. मुकेश ने दरवाजा खोला और बत्ती जला दी. मुकेश विस्मित सा मंजुला को सिर से पांव तक निहारता ही रह गया. कांधे तक लहराते गेसुओं और मंजुला की आकर्षक देहयष्टि को एक पारदर्शी नाइटी में देख कर कोई भी होता तो घबरा जाता. मंजुला कमरे की धीमी रोशनी में साक्षात सौंदर्य की प्रतिमा लग रही थी और उस के अंगअंग से रूप की मदिरा छलक रही थी. फिर भी अपने ऊपर संयम का आवरण ओढ़े मुकेश ने धीमे स्वर में पूछा, ‘इतनी रात गए? क्या बात है?’

मंजुला ने उबासियां लेते हुए अंगड़ाई ली तो उस के मादक यौवन में एक तरह का खुला आमंत्रण था जो कह रहा था कि मुकेश, अपनी बांहों में मुझे थाम लो. वह पुरुष था, एक औरत के खुले आमंत्रण को कैसे ठुकरा सकता था, वह भी उसे जिसे वह दिल से चाहता है.

मुकेश अपने को रोक न सका और मंजुला को अपनी बांहों में लेते हुए उस के लरजते होंठों पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. मंजुला तो मानो किसी दूसरी दुनिया में तिर रही थी. एक औरत के लिए पुरुष का यह पहला एहसास था. बंद आंखों से उस ने भी अपनी बांहों के घेरे में मुकेश को कस लिया और यौवन का ऐसा ज्वार आया कि दोनों एकदूसरे में खो गए.

इस सुखद एहसास की पुनरावृत्ति मंजुला के जीवन में दोबारा नहीं हो सकी क्योंकि घटनाओं का सिलसिला ऐसा चला कि मुकेश का तबादला दूसरे शहर के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कालिज में हो गया. मंजुला के जीवन में वह मादक क्षण और वह मधुर रात अतीत का एक स्वप्न बन कर रह गई. तभी फोन की घंटी बजी तो वह सपनों की दुनिया से निकल कर वर्तमान में आ गई. फोन उठाया तो दूसरी ओर से उस की नौकरानी थी जो अभी तक घर न पहुंचने पर चिंता जता रही थी.

डा. मंजुला अपनी इजीचेयर से उठीं. घड़ी पर नजर डाली तो आधी रात हो चुकी थी. वह सधे कदमों से निवास की ओर चल दीं. थके हुए तनमन के साथ थोड़ा सा खाना खा कर वह कब नींद के आगोश में समा गईं, होश ही नहीं रहा. दूसरे दिन जब दिन चढ़ आया तब मंजुला की नींद खुली. बाथरूम में से निकल कर हलका सा बे्रकफास्ट लिया और अपने नर्सिंग होम के कामों को पूरा करने में जुट गईं.

मंजुला को अपने काम के सिलसिले में नैनीताल जाना पड़ा. 2 दिनों तक तो वह काम को पूरा करने में लगी रहीं. काम खत्म हुआ तो मंजुला प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर इस पहाड़ी शहर का आनंद लेने निकली थीं. वह अपनी वातानुकूलित गाड़ी में बैठी शहर के दर्शनीय स्थलों को देखने में खोई थीं कि एक जगह जा कर उन की नजर ठहर गई. उन्होंने गाड़ी रोक कर पास जा कर देखा तो वह मुकेश ही था. दाढ़ी बढ़ी हुई और नंगे पांव पैदल ही वह भीमताल की सड़कों पर जा रहा था. मंजुला ने गाड़ी एकदम उस के बगल में जा कर रोकी और गाड़ी से सिर निकाल कर बोलीं, ‘‘अरे, मुकेश, तुम यहां कैसे? कब आए? ह्वाट ए प्लिजेंट सरप्राइज?’’ कई प्रश्न एकसाथ मंजुला ने कर डाले.

मुकेश मूक ही बना रहा तो मंजुला ने ही चहक कर कहा, ‘‘आओ, गाड़ी में बैठो. अरे, मेरी बगल ही में बैठो भाई. मैं अच्छी ड्राइविंग करती हूं, घबराओ नहीं.’’

मुकेश को ले कर मंजुला अपने होटल वापस आ गईं और वहां के खुशनुमा माहौल में उसे बिठा कर बोलीं, ‘‘अच्छा बताओ, क्या लोगे? चाय, कौफी या डिनर. खैर, अभी तो मैं गरमागरम कौफी और पकौडे़ मंगवाती हूं.’’

मुकेश ने कौफी में उस का साथ देते हुए अपनी चुप्पी तोड़ी, ‘‘मंजुला, मेरी यह दशा देख कर तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा पर यह वक्त की मार है जो मैं अकेले यहां झेल रहा हूं. यहां आने के कुछ महीनों बाद मां की मृत्यु हो गई. पत्नी चंचला पिछले साल ब्रेनफीवर की बीमारी से चल बसी. जीवन की इस त्रासदी को अकेले झेल रहा हूं,’’ अपनी कहानी बतातेबताते मुकेश की आंखें भर आई थीं. उस की दुखद कहानी सुन कर मंजुला भी दुखित हो उठी थी.

मुकेश चलने के लिए उठा तो मंजुला ने उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे बिठा लिया फिर याचना भरे स्वर में बोलीं, ‘‘इतने दिनों बाद मिले हो तो कम से कम आज तो साथ में बैठ कर खाना खा लो, फिर जहां जाना है चले जाना.’’

थोड़ी देर बाद ही होटल के कमरे में खाना आ गया. दोनों आमनेसामने बैठ कर खाना खा रहे थे. मंजुला ने मुकेश की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘‘मुकेश, मुझ से शादी करोगे?’’

मुकेश की आंखों से दो बूंद आंसू मोती बन कर टपक पड़े.

‘‘मंजुला, तुम ने इतनी प्रतीक्षा क्यों कराई? काश, तुम मेरे जीवन में पहली किरण बन कर आ जातीं तो जीवन में इतना भटकाव तो न आता.’’ इन शब्दों को सुनने के बाद मंजुला ने मुकेश के दोनों हाथों को जोर से जकड़ लिया और उस के कांधे पर सिर रख कर मंदमंद मुसकराने लगीं.

हम दिल दे चुके सनम : देवर को लेकर शिखा की बेचानी

शिखा को नीचे से ऊपर तक प्रशंसा भरी नजरों से देखने के बाद रवि ऊंचे स्वर में सविता से बोला, ‘‘भाभी, आप की बहन सुंदर तो है, पर आप से ज्यादा नहीं.’’

‘‘गलत बोल रहा है मेरा भाई,’’ राकेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, यह तो सविता से कहीं ज्यादा खूबसूरत है.’’

‘‘लगता है शिखा को देख कर देवरजी की आंखें चौंधिया गई हैं,’’ सविता ने रवि को छेड़ा.

‘‘भाभी, उलटे मेरी स्मार्टनैस ने शिखा को जबरदस्त ‘शाक’ लगाया है. देखो, कैसे आंखें फाड़फाड़ कर मुझे देखे जा रही है,’’ रवि ने बड़ी अकड़ के साथ अपनी कमीज का कालर ऊपर किया.

जवाब में शिखा पहले मुसकराई और फिर बोली, ‘‘जनाब, आप अपने बारे में काफी गलतफहमियां पाले हुए हैं. चिडि़याघर में लोग आंखें फाड़फाड़ कर अजीबोगरीब जानवरों को उन की स्मार्टनैस के कारण थोड़े ही देखते हैं.’’

‘‘वैरीगुड, साली साहिबा. बिलकुल सही जवाब दिया तुम ने,’’ राकेश तालियां बजाने लगा.

‘‘शिखा, गलत बात मुंह से न निकाल,’’ अपनी मुसकराहट को काबू में रखने की कोशिश करते हुए सावित्री ने अपनी छोटी बेटी को हलका सा डांटा.

‘‘आंटी, डांटिए मत अपनी भोली बेटी को. मैं ने जरा कम तारीफ की, इसलिए नाराज हो गई है.’’

‘‘गलतफहमियां पालने में माहिर लगते हैं आप तो,’’ शिखा ने रवि का मजाक उड़ाया.

‘‘आई लाइक इट, भाभी,’’ रवि सविता की तरफ मुड़ कर बोला, ‘‘हंसीमजाक करना जानती है आप की मिर्च सी तीखी यह बहन.’’

‘‘तुम्हें पसंद आई है शिखा?’’ सविता ने हलकेफुलके अंदाज में सब से महत्त्वपूर्ण सवाल पूछा.

‘‘चलेगी,’’ रवि लापरवाही से बोला, ‘‘आप लोग चाहें तो घोड़ी और बैंडबाजे वालों को ऐडवांस दे सकते हैं.’’

‘‘एक और गलतफहमी पैदा कर ली आप ने. कमाल के इंसान हैं आप भी,’’ शिखा ने मुंह बिगाड़ कर जवाब दिया और फिर हंस पड़ी.

‘‘भाभी, आप की बहन शरमा कर ऐसी बातें कर रही है. वैसे तो अपने सपनों के राजकुमार को सामने देख कर मन में लड्डू फूट रहे होंगे,’’ रवि ने फिर कालर खड़ा किया.

‘‘इन का रोग लाइलाज लगता है, जीजू. इन्हें शीशे के सामने ज्यादा खड़ा नहीं होना चाहिए. मेरी सलाह तो किसी दिमाग के डाक्टर को इन्हें दिखाने की भी है. आप सब मेरी सलाह पर विचार करें, तब तक मैं सब के लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ ड्राइंगरूम से हटने के इरादे से शिखा रसोई की तरफ चल पड़ी.

‘‘शर्मोहया के चलते ‘हां’ कहने से चूक गईं तो मैं हाथ से निकल जाऊंगा, शिखा,’’  रवि ने उसे फिर छेड़ा.

जवाब में शिखा ने जीभ दिखाई, तो ठहाकों से कमरा गूंज उठा.

रवि अपनी सविता भाभी का लाड़ला देवर था. उस की अपनी बहन शिखा के सामने प्रशंसा करते सविता की जबान न थकती थी.

अपनी बड़ी बहन सविता की शादी की तीसरी सालगिरह के समारोह में शामिल होने के लिए शिखा अपनी मां सावित्री के साथ दिल्ली आई थी.

सविता का इकलौता इंजीनियर देवर रवि मुंबई में नौकरी कर रहा था. वह भी सप्ताह भर की छुट्टी ले कर दिल्ली पहुंचा था.

सविता और उस के पति राकेश के विशेष आग्रह पर रवि और शिखा दोनों इस समारोह में शामिल हो रहे थे. जब वे पहली बार एकदूसरे के सामने आए, तब सविता, राकेश और सावित्री की नजरें उन्हीं पर जम गईं.

राकेश अपनी साली का बहुत बड़ा प्रशंसक था. वह चाहता था कि शिखा भी उन के घर की बहू बन जाए.

अपने दामाद की इस इच्छा से सावित्री पूरी तरह सहमत थीं. देखेभाले इज्जतदार घर में दूसरी बेटी के पहुंच जाने पर वह पूरी तरह से चिंतामुक्त हो जातीं.

सावित्रीजी, राकेश और सविता को उम्मीद थी कि लड़कालड़की यानी रवि और शिखा इस बार की मुलाकात में उन की पसंद पर अपनी रजामंदी की मुहर जरूर लगा देंगे.

क्या शिखा उसे पसंद आ गई है

रवि ने अपनी बातों व हावभाव से साफ कर दिया कि शिखा उसे पसंद आ गई है. उस का दीवानापन उस की आंखों से साफ झलक रहा था. उस के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था कि शिखा की ‘हां’ के प्रति उस के मन में कोई शक नहीं है.

अपने भैयाभाभी का लाड़ला रवि शिखा को छेड़ने का कोई मौका नहीं चूक रहा था.

उस दिन शाम को शिखा अपनी बहन का खाना तैयार कराने में हाथ बंटा रही थी, तो रवि भी वहां आ पहुंचा.

‘‘शिखा, मेरी रुचियां भाभी को अच्छी तरह मालूम हैं. वे जो बताएं, उसे ध्यान से सुनना,’’ रवि ने आते ही शिखा को छेड़ना शुरू कर दिया.

‘‘आप को मेरी एक तमन्ना का शायद पता नहीं है,’’ शिखा का स्वर भी फौरन शरारती हो उठा.

‘‘तुम इसी वक्त अपनी तमन्ना बयान करो, शिखा. बंदा उसे जरूरपूरी करेगा.’’

‘‘मैं दुनिया की सब से घटिया कुक बनना चाहती हूं और इसीलिए अपनी मां या दीदी से पाक कला के बारे में कुछ भी सीखने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’

‘‘लेकिन यह तो टैंशन वाली बात है. मैं तो अच्छा खानेपीने का बहुत शौकीन हूं.’’

‘‘मैं कब कह रही हूं कि आप इस तरह का शौक न पालिए.’’

‘‘पर तुम अच्छा खाना बनाना सीखोगी नहीं, तो हमारी शादी के बाद मेरा यह शौक पूरा कैसे होगा?’’

‘‘रवि साहब, बातबात पर गलतफहमियां पाल लेने में समझदारी नहीं.’’

‘‘अब शरमाना छोड़ भी दो, शिखा. तुम्हारी मम्मी, भैया, भाभी और मैं इस रिश्ते के लिए तैयार हैं, तो तुम क्यों जबरदस्ती की ‘न’ पर अड़ी हो?’’

‘‘जब लड़की नहीं राजी, तो क्या करेगा लड़का और क्या करेंगे काजी?’’ अपनी इस अदाकारी पर शिखा जोर से हंस पड़ी.

रवि उस से हार मानने को तैयार नहीं था. उस ने और ज्यादा जोरशोर से शिखा को छेड़ना जारी रखा.

अगले दिन सुबह सब ने सविता और राकेश को उन के सुखी वैवाहिक जीवन के लिए शुभकामनाएं दीं. इस दौरान भी रवि और शिखा में मीठी नोकझोंक चलती रही.

अपने असली मनोभावों को शिखा ने उस दिन दोपहर को अपनी मां और दीदी के सामने साफसाफ प्रकट कर दिया.

‘‘देखो, रवि वैसा लड़का नहीं है, जैसा मैं अपने जीवनसाथी के रूप में देखती आई हूं. उस से शादी करने का मेरा कोई इरादा नहीं है,’’ शिखा ने दृढ़ लहजे में उन्हें अपना फैसला सुना दिया.

‘‘क्या कमी नजर आई है तुझे रवि में?’’ सावित्री ने चिढ़ कर पूछा.

‘‘मां, रवि जैसे दिलफेंक आशिक मैं ने हजारों देखे हैं. सुंदर लड़कियों पर लाइन मारने में कुशल युवकों को मैं अच्छा जीवनसाथी नहीं मानती.’’

‘‘शिखा, रवि के अच्छे चरित्र की गारंटी मैं लेती हूं,’’ सविता ने अपनी बहन को समझाने का प्रयास किया.

‘‘दीदी, आप के सामने वह रहता ही कितने दिन है? पहले बेंगलुरु में पढ़ रहा था और अब मुंबई में नौकरी कर रहा है. उस की असलियत तुम कैसे जान सकती हो?’’

‘‘तुम से तो ज्यादा ही मैं उसे जानती हूं. बिना किसी सुबूत उसे कमजोर चरित्र का मान कर तुम भारी भूल कर रही हो, शिखा.’’

‘‘दीदी मैं उसे कमजोर चरित्र का नहीं मान रही हूं. मैं सिर्फ इतना कह रही हूं कि उस जैसे दिलफेंक व्यक्तित्व वाले लड़के आमतौर पर भरोसेमंद और निभाने वाले नहीं निकलते. फिर जब मैं उसे ज्यादा अच्छी तरह जानतीसमझती नहीं हूं, तो उस से शादी करने को ‘हां’ कैसे कह दूं? आप लोगों ने अगर मुझ पर और दबाव डाला, तो मैं कल ही घर लौट जाऊंगी,’’ शिखा की इस धमकी के बाद उन दोनों ने नाराजगी भरी चुप्पी साध ली.

सविता ने शिखा का फैसला राकेश को बताया, तो राकेश ने कहा, ‘‘उसे इनकार करने का हक है, सविता. इस विषय पर हम बाद में सोचविचार करेंगे. मैं रवि से बात करता हूं. तुम शिखा पर किसी तरह का दबाव डाल कर उस का मूड खराब मत करना.’’

पति के समझाने पर फिर सविता ने इस रिश्ते के बारे में शिखा से एक शब्द भी नहीं बोला.

राकेश ने अकेले में रवि से कहा, ‘‘भाई, शिखा को तुम्हारी छेड़छाड़ अच्छी नहीं लग रही है. उस से अपनी शादी को ले कर हंसीमजाक करना बंद कर दो.’’

‘‘लेकिन भैया, उस से तो मेरी शादी होने ही जा रही है,’’ रवि की आंखों में उलझन और उदासी के मिलेजुले भाव उभरे.

‘‘सोच तो हम भी यही रहे थे, लेकिन अंतिम फैसला तो शिखा का ही माना जाएगा न?’’

‘‘तो क्या उस ने इनकार कर दिया है?’’

‘‘हां, पर तुम दिल छोटा न करना. ऐसे मामलों में जबरदस्ती दबाव बनाना उचित नहीं होता है.’’

‘‘मैं समझता हूं, भैया. शिखा को शिकायत का मौका मैं अब नहीं दूंगा,’’ रवि उदास आवाज में बोला.

शाम को शादी की सालगिरह के समारोह में राकेश के कुछ बहुत करीबी दोस्त सपरिवार आमंत्रित थे. घर के सदस्यों ने उन की आवभगत में कोई कमी नहीं रखी, पर कोई भी खुल कर हंसबोल नहीं पा रहा था.

रवि ने एकांत में शिखा से सिर्फ इतना कहा, ‘‘मैं सचमुच बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार था. मेरी जिन बातों से आप के दिल में दुख और नाराजगी के भाव पैदा हुए, उन सब के लिए मैं माफी मांगता हूं.’’

‘‘मैं आप की किसी बात से दुखी या नाराज नहीं हूं. आप के व मेरे अपनों के अति उत्साह के कारण जो गलतफहमी पैदा हुई, उस का मुझे अफसोस है,’’ शिखा ने मुसकरा कर रवि को सहज करने का प्रयास किया, पर असफल रही, क्योंकि रवि और कुछ बोले बिना उस के पास से हट कर घर आए मेहमानों की देखभाल करने में व्यस्त हो गया. उस के हावभाव देख कर कोई भी समझ सकता था कि वह जबरदस्ती मुसकरा रहा है.

‘इन जनाब की लटकी सूरत सारा दिन देखना मुझ से बरदाश्त नहीं होगा. मां को समझा कर मैं कल की ट्रेन से घर लौटने का इंतजाम करती हूं,’ मन ही मन यह फैसला करने में शिखा को ज्यादा वक्त नहीं लगा, मगर उसे अपनी मां से इस विषय पर बातें करने का मौका ही नहीं मिला और इसी दौरान एक दुर्घटना घटी और सारा माहौल तनावग्रस्त हो गया.

आखिरी मेहमानों को विदा कर के जब सविता लौट रही थी, तो रास्ते में पड़ी ईंट से ठोकर खा कर धड़ाम से गिर गई.

सविता के गर्भ में 6 महीने का शिशु था. काफी इलाज के बाद वह गर्भवती हो पाई थी. गिरने से उस के पेट में तेज चोट लगी थी. चोट से पेट के निचले हिस्से में दर्द शुरू हो गया. कुछ ही देर बाद हलका सा रक्तस्राव हुआ, तो गर्भपात हो जाने का भय सब के होश उड़ा गया.

राकेश और रवि सविता को फौरन नर्सिंगहोम ले गए. सावित्रीजी और शिखा घर पर ही रहीं और कामना कर रही थीं कि कोई और अनहोनी न घटे.

सविता की हालत ठीक नहीं है, गर्भपात हो जाने की संभावना है, यह खबर राकेश ने टेलीफोन द्वारा सावित्रीजी और शिखा को दे दी.

मांबेटी दोनों की आंखों से नींद छूमंतर हो गई. दोनों की आंखें रहरह कर आंसुओं से भीग जातीं.

सुबह 7 बजे के करीब रवि अकेला लौटा. उस की सूजी आंखें साफ दर्शा रही थीं कि वह रात भर जागा भी है और रोया भी.

‘‘सविता की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है,’’ यह खबर इन दोनों को सुनाते हुए उस का गला भर आया था.

फिर रवि जल्दी से नहाया और सिर्फ चाय पी कर नर्सिंगहोम लौट गया.

उस के जाने के आधे घंटे बाद राकेश आया तो उस का उदास, थका चेहरा देख कर सावित्रीजी रो पड़ीं.

राकेश बहुत थका हुआ था. वह कुछ देर आराम करने के इरादे से लेटा था, पर गहरी नींद में चला गया. 3-4 घंटों के बाद सावित्रीजी ने उसे उठाया.

नाश्ता करने के बाद सावित्री और राकेश नर्सिंगहोम चले गए. शिखा ने सब के लिए खाना तैयार किया, पर शाम के 5 बजे तक रवि, राकेश या सावित्रीजी में से कोई नहीं लौटा. चिंता के मारे अकेली शिखा का बुरा हाल हो रहा था.

करीब 7 बजे राकेश और सावित्रीजी लौटे. उन्होंने बताया कि रवि 1 मिनट को भी वहां से हटने को तैयार नहीं था.

सुबह से भूखे रवि के लिए राकेश खाना ले गया. फोन पर जब शिखा को अपने जीजा से यह खबर मिली कि रवि ने अभी तक खाना नहीं खाया है और न ही वह आराम करने के लिए रात को घर आएगा, तो उस का मन दुखी भी हुआ और उसे रवि पर तेज गुस्सा भी आया.

खबर इस नजरिए से अच्छी थी कि सविता की हालत और नहीं बिगड़ी थी. उस रात भी रवि और राकेश दोनों नर्सिंगहोम में रुके. शिखा और सावित्रीजी ने सारी रात करवटें बदलते हुए काटी. सुबह सावित्रीजी पहले उठीं. शिखा करीब घंटे भर बाद. उस ने खिड़की से बाहर झांका, तो बरामदे के फर्श पर रवि को अपनी तरफ पीठ किए बैठा पाया.

अचानक रवि के दोनों कंधे अजीब से अंदाज में हिलने लगे. उस ने अपने हाथों से चेहरा ढांप लिया. हलकी सी जो आवाजें शिखा के कानों तक पहुंची, उन्हें सुन कर उसे यह फौरन पता लग गया कि रवि रो रहा है.

बेहद घबराई शिखा दरवाजा खोल कर रवि के पास पहुंची. उस के आने की आहट सुन कर रवि ने पहले आंसू पोंछे और फिर गरदन घुमा कर उस की तरफ देखा.

रवि का थका, मुरझाया चेहरा देख कर शिखा का दिल डर के मारे जोरजोर से धड़कने लगा.

‘‘दीदी की तबीयत…’’ शिखा रोंआसी हो अपना सवाल पूरा न कर पाई.

‘‘भाभी अब ठीक हैं. खतरा टल गया है,’’ रवि ने मुसकराते हुए उसे अच्छी खबर सुनाई.

‘‘तो तुम रो क्यों रहे हो?’’ आंसू बहा रही शिखा का गुस्सा करने का प्रयास रवि को हंसा गया.

‘‘मेरी आंखों में खुशी के आंसू हैं, शिखाजी,’’ रवि ने अचानक फिर आंखों में छलक आए आंसुओं को पोंछा.

‘‘मैं शिखा हूं, ‘शिखाजी’ नहीं,’’  मन में गहरी राहत महसूस करती शिखा उस के बगल में बैठ गई.

‘‘मेरे लिए ‘शिखाजी’ कहना ही उचित है,’’ रवि ने धीमे स्वर में जवाब दिया.

‘‘जी नहीं. आप मुझे शिखा ही बुलाएं,’’ शिखा का स्वर अचानक शरारत से भर उठा, ‘‘और मुझ से नजरें चुराते हुए न बोलें और न ही मैं आप को ठंडी सांसें भरते हुए देखना चाहती हूं.’’

‘‘वह सब मैं जानबूझ कर नहीं कर रहा हूं. तुम्हें दिल से दूर करने में कष्ट तो होगा ही,’’ रवि ने एक और ठंडी सांस भरी.

‘‘वह कोशिश भी छोडि़ए जनाब, क्योंकि मैं अब जान गई हूं कि इस दिलफेंक आशिक का स्वभाव रखने वाले इनसान का दिल बड़ा संवेदनशील है,’’ कह शिखा ने अचानक रवि का हाथ उठा कर चूम लिया.

रवि मारे खुशी के फूला नहीं समाया. फिर अचानक गंभीर दिखने का नाटक करते हुए बोला, ‘‘मेरे मन में अजीब सी बेचैनी पैदा हो गई है, शिखा. सोच रहा हूं कि जो लड़की जरा सी भावुकता के प्रभाव में आ कर लड़के का हाथ फट से चूम ले, उसे जीवनसंगिनी बनाना क्या ठीक होगा?’’

‘‘मुझ पर इन व्यंग्यों का अब कोई असर नहीं होगा, जनाब,’’ शिखा ने एक बार फिर उस का हाथ चूम लिया, ‘‘क्योंकि आप की इस सोच में कोई सचाई नहीं है और…’’

‘‘और क्या?’’ रवि ने उस की आंखों में प्यार से झांकते हुए पूछा.

‘‘अब तो तुम्हें हम दिल दे ही चुके सनम,’’ शिखा ने अपने दिल की बात कही और फिर शरमा कर रवि के सीने से लग गई.

भटका हुआ आदमी : अजंता देवी की मनकही

आटा सने हाथों से ही अजंता देवी ने दरवाजा खोला. तब तक डाकिया एक नीला लिफाफा दरवाजे की दरार से गिरा चुका था. लिफाफे पर किए गए टेढ़ेमेढ़े हस्ताक्षर को एक क्षण वह अपनी उदास निगाहों से घूरती रही. पहचान की एक क्षीण रेखा उभरी, पर कोई आधार न मिलने के कारण उस लिखावट में ही उलझ कर रह गई. लिफाफे को वहीं पास रखी मेज पर छोड़ कर वह चपातियां बनाने रसोईघर में चली गई.

अब 1-2 घंटे में राहुल और रत्ना दोनों आते ही होंगे. कालिज से आते ही दोनों को भूख लगी होगी और ‘मांमां’ कर के वे उस का आंचल पकड़ कर घूमते ही रह जाएंगे. मातृत्व की एक सुखद तृप्ति से उस का मन सराबोर हो गया. चपाती डब्बे में बंद कर, वह जल्दीजल्दी हाथ धो कर चिट्ठी पढ़ने के लिए आ खड़ी हुई.

पत्र उस के ही नाम का था, जिस के कारण वह और भी परेशान हो उठी. उसे पत्र कौन लिखता? भूलेभटके रिश्तेदार कभी हालचाल पूछ लेते. नहीं तो राहुल के बड़े हो जाने के बाद रोजाना की समस्याओं से संबंधित पत्र उसी के नाम से आते हैं, लेदे कर पुरुष के नाम पर वही तो एक है.

मर्द का साया तो वर्षों पहले उस के सिर पर से हट गया था. खैर, ये सब बातें सोच कर भी क्या होगा? फिर से उस ने लिफाफे को उठा लिया और डरतेडरते उस का किनारा फाड़ा. पत्र के खुलते ही काले अक्षरों में लिखे गए शब्द रेतीली मिट्टी की तरह उस की आंखों के आगे बिखर गए. इतने वर्षों के बाद यह आमंत्रण. ‘‘मेरे पास कोई भी नहीं है, तुम आ जाओ.’’ और भी कितनी सारी बातें. अचानक रुलाई को रोकने के लिए उस ने मुंह में कपड़ा ठूंस लिया, पर आंसू थे कि बरसों रुके बांध को तोड़ कर उन्मुक्त प्रवाहित होते जा रहे थे. उस खारे जल की कुछ बूंदें उस के मुख पर पड़ रही थीं, जिस के मध्य वह बिखरी हुई यादों के मनके पिरो रही थी. उसे लग रहा था कि वह नदी में सूख कर उभर आए किसी रेतीले टीले पर खड़ी है. किसी भी क्षण नदी का बहाव आएगा और वह बेसहारा तिनके की तरह बह जाएगी.

चिट्ठी कब उस के हाथ से छूट गई, उसे पता ही नहीं चला और वह जाल में फंसी घायल हिरनी की तरह हांफती रही. अभी राहुल, रत्ना भी तो नहीं आएंगे. डेढ़ घंटे की देर है. घड़ी की सूइयां भी उस की जिंदगी सी ठहर गई हैं. चलतेचलते घिस गई हैं. एक दमघोंटू चुप्पी पूरे कमरे में सिसक रही थी. मात्र उसे यदाकदा अपनी धड़कनों की आवाज सुनाई दे जाती थी, जिन में विलीन कितनी ही यादें उस के दिल के टुकड़े कर जाती थीं.

जब वह इस घर में दुलहन बन कर आई थी, सास ने बलैया ली थीं. ननदों और देवरों की हंसीठिठोली से घरआंगन महक उठा था. वह निहाल थी अपने गृहस्थ जीवन पर. शादी के बाद 3 ही वर्षों में राहुल और रत्ना से उस का घर खिलखिला उठा था. उसे मायके गए 2 वर्ष हो गए थे. मां की आंखें इंतजार में पथरा गईं. कभी राहुल का जन्मदिन है तो कभी रत्ना की पढ़ाई. कभी सास की बीमारी है, तो कभी देवर की पढ़ाई. सच पूछो तो उसे अपने पति को छोड़ कर जाने की इच्छा ही नहीं होती. उन की बलवान बांहों में आ कर उसे अनिर्वचनीय आनंद मिलता. उस का तनमन मोगरे के फूलों की तरह महक उठता.

भाभी ही कभी ठिठोली भरा पत्र लिखतीं, ‘क्यों दीदी, अब क्या ननदोई के बिना एक रात भी नहीं सो सकतीं.’ वह होंठों के कोनों में हंस कर रह जाती.

सास कभीकभी मीठी झिड़की देतीं, ‘एक बार मायके हो आओ बहू, नहीं तो तुम्हारी मां कहेगी कि बूढ़ी अपनी सेवा कराने के लिए हमारी बेटी को भेज नहीं रही है.’

वह हंस कर कहती, ‘अम्मां, चली तो जाऊं पर तुम्हें कौन देखेगा? देवरजी का ब्याह कर दो तब साल भर मायके रह कर एक ही बार में मां का हौसला पूरा कर दूंगी.’

रात को राहुल के पिताजी ने भावभीने कंठ से कहा, ‘अंजु, साल भर मायके रहोगी तो मेरा क्या होगा? मैं तो नौकरी छोड़ कर तुम्हारे ही साथ चला चलूंगा.’

उन के मधुर हास्य में पति प्रेम का अभिमान भी मिला होता. पर उसे क्या पता था कि एक दिन यह सबकुछ रेतीली मिट्टी की तरह बिखर जाएगा. राहुल के पिताजी के तबादले की सूचना दूसरे ही दिन मिल गई थी. उन्होंने बहुत कोशिश की कि उन का तबादला रुक जाए पर कुछ भी नहीं हो सका. आखिर उन्हें कोलकाता जाना ही पड़ा.

जाने के बाद कुछ दिनों तक लगातार उन के पत्र आते रहे. सप्ताह में 2-2, 3-3. मां ने कई बार लिखा, अब तो जंवाई भी नहीं हैं, इधर ही आजा, अकेली का कैसे दिल लगेगा? वह लिखती, ‘अम्मां अकेली कहां हूं, सास हैं, देवर हैं. अब तो मेरी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है. मेरे सिवा कौन देखेगा इन्हें,’ फिर भरोसा था कि राहुल के पिताजी शीघ्र ही बुला लेंगे.

धीरेधीरे सबकुछ खंडित हो गया, उन के विश्वास की तरह. लिफाफे से अंतर्देशीय, फिर पोस्टकार्ड और तब एक लंबा अंतराल. पत्र भी बाजार भाव की तरह महंगे हो गए थे. बच गए थे मात्र उस के सुलगते हुए अरमान. सास, देवर का रवैया भी अब सहानुभूतिपूर्ण नहीं रह गया था.

बीच में यह खबर भी लावे की तरह भभकी थी कि राहुल के पिताजी ने किसी बंगालिन को रख लिया है. पहले उसे यकीन नहीं आया था, पर देवर के साथ जा कर उस ने जब अपनी आंखों से देख लिया तो बरसों से ठंडी पड़ी भावनाएं राख में छिपी चिनगारी की तरह सुलग कर धुआं देने लगीं. भावावेश में उस का कंठ अवरुद्ध हो गया. हाथपैर कांप उठे. उस ने राहुल के पिता के आगे हाथ जोड़ दिए.

‘मेरी छोड़ो, इन बच्चों की तो सोचो, जिन्हें तुम ने जन्म दिया है. कहां ले कर जाऊंगी मैं इन्हें,’ आगे की बात उस की रुलाई में ही डूब गई.

जवाब उस के पति ने नहीं, उस सौत ने ही दिया था, ‘एई हियां पर काय को रोनाधोना कोरता है. जब मरद को सुखमौज नहीं दे सोकता तो काहे को बीवी. खली बच्चा पोइदा कोरने से कुछ नहीं होता, समझी. अब जाओ हियां से, जियादे नखरे नहीं देखाओ.’

वह एक क्षण उसे नजर भर कर देखती रही. सांवले से चेहरे पर बड़ा गोल टीका, पूरी मांग में सिंदूर, पैरों में आलता और उंगलियों में बिछुआ…उस में कौन सी कमी है. वह भी तो पूरी सुहागिन है. मगर वह भूल गई कि उस के पास एक चीज नहीं है, पति का प्यार. पर कहां कमी रह गई उस के प्यार में, पूरे घर को संभाल कर रखा उस ने. उसी का यह प्रतिफल है.

हताश सी उस की आत्मा ने फिर से संघर्ष चालू किया, ‘मैं तुम से नहीं अपने पति से पूछ रही हूं.’

‘ओय होय, कौन सा पति, वो हमारा होय. पाहीले तो बांध के रखा नहीं, अभी उस को ढूंढ़ने को आया. खाली बिहाय करने से नाहीं होता, मालूम होना चाहिए कि मरद क्या मांगता है. अब जाओ भी,’ कहतेकहते उस ने धक्का दे दिया.

रत्ना भी गिर कर चिल्लाने लगी. उसे अपनेआप पर क्षोभ हुआ. काश, वह इतनी बड़ी होती कि पति को छोड़ कर चल देती या वह इतने निम्न स्तर की होती कि इस औरत को गालियां दे कर उस का मुंह बंद कर देती और उस की चुटिया पकड़ कर घर से बाहर कर देती, पर अब तो बाजी किसी और के हाथ थी.

लेकिन उस के देवर से नहीं रहा गया. बच्चों को पकड़ कर उस ने कहा, ‘बोलो भैया, क्या कहते हो? अगर भाभी से नाता तोड़ा तो समझ लो हम से भी नाता टूट जाएगा. तुम्हें हम से संबंध रखना है कि नहीं? भैया, चलो हमारे साथ.’

‘मेरा किसी से कोई संबंध नहीं.’

दिसंबर की ठिठुरती सांझ सा वह संवेदनशील वाक्य उस की पूरी छाती बींध गया था. अचेत हो गई थी वह. होश आया तो देवर उस के सिरहाने बैठा था और दोनों बच्चे निरीह गौरैया से सहमे हुए उसे देख रहे थे.

‘अब चलो, भाभी, यहां रह कर क्या करोगी? तुम जरा भी चिंता मत करो, हम लोग हैं न तुम्हारे साथ. और फिर देखना, कुछ ही दिनों में भैया वापस आएंगे.’

बिना किसी प्रतिक्रिया के वह लौट आई. पर इसी एक घटना से उस की पूरी जिंदगी में बदलाव आ गया. कुछ दिनों तक तो घर वालों का रवैया अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण रहा. सास कुछ ज्यादा ही लाड़ दिखाने लगी थीं, पर एक कमाऊ पूत का बिछोह उन को साले जा रहा था.

देवर की नौकरी लगते ही देवर की भी आंखें बदलने लगी थीं. न तो सास के हाथों में दुलार ही रह गया था और न देवर की बोली में प्यार. बच्चे उपेक्षित होने लगे थे. देवर की शादी के बाद वह भी घर की नौकरानी बन कर रह गई थी. अपनी उपेक्षा तो वह सह भी लेती पर दिन पर दिन बिगड़ते हुए बच्चों को देख कर उस का मन ग्लानि से भर उठता. आखिर कब तक वह इन बातों को सह सकती थी. मां के ढेर सारे पत्रों के उत्तर में वह एक दिन बच्चों के साथ स्वयं ही वहां पहुंच गई.

वर्षों से बंधा धीरज का बांध टूट कर रह गया और दोनों उस अविरल बहती अजस्र धारा में बहुत देर तक डूबतीउतराती रही थीं. मां ने कुम्हलाए हुए चेहरे पर एक नजर डाल कर कहा था, ‘जो हो गया उसे भूल जा, अब इन बच्चों का मुंह देख.’

पर मां के यहां भी वह बात नहीं रह गई थी. पिताजी की पेंशन से तो गुजारा होने से रहा. भैयाभाभी मुंह से तो कुछ नहीं बोलते पर उसे लगता कि उस सीमित आय में उस का भार उन्हें पसंद नहीं. तब उस ने ही मां के सामने प्रस्ताव रखा था कि वह कहीं नौकरी कर लेगी.

मां पहले तो नहीं मानी थीं, ‘लोग क्या कहेंगे, बेटी क्या मायके में भारी पड़ गई?’

पर उस ने ही उन्हें समझाया था, ‘मां, छोटीछोटी आवश्यकताओं के लिए भैया पर निर्भर रहना अच्छा नहीं लगता. कल बच्चे बड़े होंगे तो क्या उन्हें भैया के दरवाजे का भिखारी बना कर रखूंगी.’

मां ने बेमन से ही उसे अनुमति दी थी. कहांकहां उस ने पापड़ नहीं बेले. कभी नगरपालिका में क्लर्क बनी, तो कभी किसी की छुट्टी की जगह काम किया. अंत में जा कर मिडिल स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिली. छोेटे बच्चों को पढ़ातेपढ़ाते बच्चे कब बडे़ हो गए, उसे पता ही नहीं चला. और आज तो इस स्थिति में आ गई है कि अब राहुल चार पैसे का आदमी हो जाएगा तो वह नौकरी छोड़ कर निश्चिंत हो जाएगी. हालांकि आज भी वह आर्थिक दृष्टि से समृद्ध नहीं हो सकी है, लेकिन किसी का सहारा भी तो नहीं लेना पड़ा.

पर आज यह पत्र, वह क्या जा पाएगी वहां? इतने वर्षों का अंतराल?

राहुल के आने के बाद ही उस की तंद्रा टूटी. वह पत्थर की मूर्ति की तरह थी. उसे झकझोरते हुए राहुल ने चिट्ठी लपक ली.

‘‘मां, तुम्हें क्या हो गया है?’’

‘‘बेटे,’’ और वह राहुल का कंधा पकड़ कर रोने लगी, ‘‘मैं क्या करूं?’’

‘‘मां, तुम वहां नहीं जाओगी.’’

‘‘राहुल.’’

‘‘हां मां, उस आदमी के पास जिस ने आज तक यह जानने की जुर्रत नहीं की कि हम लोग कैसे जीते हैं. तुम ने कितनी मेहनत से हमें पाला है. तुम्हें न सही पर हमें क्यों छोड़ दिया? मां, तुम अगर समझती हो कि हम लोग बुढ़ापे में तुम्हारा साथ छोड़ देंगे तो विश्वास रखो, ऐसा कभी नहीं होगा. मैं शादी ही नहीं करूंगा. मां, तुम उन्हें बर्दाश्त कर सकती हो, क्योंकि वे तुम्हारे पति हैं पर हम कैसे बर्दाश्त कर लेंगे उसे, जो सिर्फ नाम का हमारा पिता है? कभी उस ने दायित्व निभाने का सोचा भी नहीं. तुम अगर जाना ही चाहती हो तो जाओ, पर याद रखो, मैं साथ नहीं रह पाऊंगा.’’

उस की आंखों से अनवरत बहते आंसुओं ने पत्र के अक्षरों को धो दिया और वह राहुल का सहारा ले कर उठ खड़ी हुई.

अकेलापन: क्यों दर्द झेल रही थी सरोज

राजेश पिछले शनिवार को अपने घर गए थे लेकिन तेज बुखार के कारण वह सोमवार को वापस नहीं लौटे. आज का पूरा दिन उन्होंने मेरे साथ गुजारने का वादा किया था. अपने जन्मदिन पर उन से न मिल कर मेरा मन सचमुच बहुत दुखी होता.

राजेश को अपने प्रेमी के रूप में स्वीकार किए मुझे करीब 2 साल बीत चुके हैं. उन के दोनों बेटों सोनू और मोनू व पत्नी सरोज से आज मैं पहली बार मिलूंगी.

राजेश के घर जाने से एक दिन पहले हमारे बीच जो वार्तालाप हुआ था वह रास्ते भर मेरे जेहन में गूंजता रहा.

‘मैं शादी कर के घर बसाना चाहती हूं…मां बनना चाहती हूं,’ उन की बांहों के घेरे में कैद होने के बाद मैं ने भावुक स्वर में अपने दिल की इच्छा उन से जाहिर की थी.

‘कोई उपयुक्त साथी ढूंढ़ लिया है?’ उन्होंने मुझे शरारती अंदाज में मुसकराते हुए छेड़ा.

उन की छाती पर बनावटी गुस्से में कुछ घूंसे मारने के बाद मैं ने जवाब दिया, ‘मैं तुम्हारे साथ घर बसाने की बात कर रही हूं.’

‘धर्मेंद्र और हेमामालिनी वाली कहानी दोहराना चाहती हो?’

‘मेरी बात को मजाक में मत उड़ाओ, प्लीज.’

‘निशा, ऐसी इच्छा को मन में क्यों स्थान देती हो जो पूरी नहीं हो सकती,’ अब वह भी गंभीर हो गए.

‘देखिए, मैं सरोज को कोई तकलीफ नहीं होने दूंगी. अपनी पूरी तनख्वाह उसे दे दिया करूंगी. मैं अपना सारा बैंकबैलेंस बच्चों के नाम कर दूंगी… उन्हें पूर्ण आर्थिक सुरक्षा देने…’

उन्होंने मेरे मुंह पर हाथ रखा और उदास लहजे में बोले, ‘तुम समझती क्यों नहीं कि सरोज को तलाक नहीं दिया जा सकता. मैं चाहूं भी तो ऐसा करना मेरे लिए संभव नहीं.’

‘पर क्यों?’ मैं ने तड़प कर पूछा.

‘तुम सरोज को जानती होतीं तो यह सवाल न पूछतीं.’

‘मैं अपने अकेलेपन को जानने लगी हूं. पहले मैं ने सारी जिंदगी अकेले रहने का मन बना लिया था पर अब सब डांवांडोल हो गया है. तुम मुझे सरोज से ज्यादा चाहते हो?’

‘हां,’ उन्होंने बेझिझक जवाब दिया था.

‘तब उसे छोड़ कर तुम मेरे हो जाओ,’ उन की छाती से लिपट कर मैं ने अपनी इच्छा दोहरा दी.

‘निशा, तुम मेरे बच्चे की मां बनना चाहती हो तो बनो. अगर अकेली मां बन कर समाज में रहने का साहस तुम में है तो मैं हर कदम पर तुम्हारा साथ दूंगा. बस, तुम सरोज से तलाक लेने की जिद मत करो, प्लीज. मेरे लिए यह संभव नहीं होगा,’ उन की आंखों में आंसू झिलमिलाते देख मैं खामोश हो गई.

सरोज के बारे में राजेश ने मुझे थोड़ी सी जानकारी दे रखी थी. बचपन में मातापिता के गुजर जाने के कारण उसे उस के मामा ने पाला था. 8वीं तक शिक्षा पाई थी. रंग सांवला और चेहरामोहरा साधारण सा था. वह एक कुशल गृहिणी थी. अपने दोनों बेटों में उस की जान बसती थी. घरगृहस्थी के संचालन को ले कर राजेश ने उस के प्रति कभी कोई शिकायत मुंह से नहीं निकाली थी.

सरोज से मुलाकात करने का यह अवसर चूकना मुझे उचित नहीं लगा. इसलिए उन के घर जाने का निर्णय लेने में मुझे ज्यादा कठिनाई नहीं हुई.

राजेश इनकार न कर दें, इसलिए मैं ने उन्हें अपने आने की कोई खबर फोन से नहीं दी थी. उस कसबे में उन का घर ढूंढ़ने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई. उस एक- मंजिला साधारण से घर के बरामदे में बैठ कर मैं ने उन्हें अखबार पढ़ते पाया.

मुझे अचानक सामने देख कर वह पहले चौंके, फिर जो खुशी उन के होंठों पर उभरी, उस ने सफर की सारी थकावट दूर कर के मुझे एकदम से तरोताजा कर दिया.

‘‘बहुत कमजोर नजर आ रहे हो, अब तबीयत कैसी है?’’ मैं भावुक हो उठी.

‘‘पहले से बहुत बेहतर हूं. जन्मदिन की शुभकामनाएं. तुम्हें सामने देख कर दिल बहुत खुश हो रहा है,’’ राजेश ने मिलाने के लिए अपना दायां हाथ आगे बढ़ाया.

राजेश से जिस पल मैं ने हाथ मिलाया उसी पल सरोज ने घर के भीतरी भाग से दरवाजे पर कदम रखा.

आंखों से आंखें मिलते ही मेरे मन में तेज झटका लगा.

सरोज की आंखों में अजीब सा भोलापन था. छोटी सी मुसकान होंठों पर सजा कर वह दोस्ताना अंदाज में मेरी तरफ देख रही थी.

जाने क्यों मैं ने अचानक अपने को अपराधी सा महसूस किया. मुझे एहसास हुआ कि राजेश को उस से छीनने के मेरे इरादे को उस की आंखों ने मेरे मन की गहराइयों में झांक कर बड़ी आसानी से पढ़ लिया था.

‘‘सरोज, यह निशा हैं. मेरे साथ दिल्ली में काम करती हैं. आज इन का जन्मदिन भी है. इसलिए कुछ बढि़या सा खाना बना कर इन्हें जरूर खिलाना,’’ हमारा परिचय कराते समय राजेश जरा भी असहज नजर नहीं आ रहे थे.

‘‘सोनू और मोनू के लिए हलवा बनाया था. वह बिलकुल तैयार है और मैं अभी आप को खिलाती हूं,’’ सरोज की आवाज में भी किसी तरह का खिंचाव मैं ने महसूस नहीं किया.

‘‘थैंक यू,’’ अपने मन की बेचैनी के कारण मैं कुछ और ज्यादा नहीं कह पाई.

‘‘मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ ऐसा कह कर सरोज तेजी से मुड़ी और घर के अंदर चली गई.

राजेश के सामने बैठ कर मैं उन से उन की बीमारी का ब्योरा पूछने लगी. फिर उन्होंने आफिस के समाचार मुझ से पूछे. यों हलकेफुलके अंदाज में वार्तालाप करते हुए मैं सरोज की आंखों को भुला पाने में असमर्थ हो रही थी.

अचानक राजेश ने पूछा, ‘‘निशा, क्या तुम सरोज से अपने और मेरे प्रेम संबंध को ले कर बातें करने का निश्चय कर के यहां आई हो?’’

एकदम से जवाब न दे कर मैं ने सवाल किया, ‘‘क्या तुम ने कभी उसे मेरे बारे में बताया है?’’

‘‘कभी नहीं.’’

‘‘मुझे लगता है कि वह हमारे प्रेम के बारे में जानती है.’’

कुछ देर खामोश रहने के बाद मैं ने अपना फैसला राजेश को बता दिया, ‘‘तुम्हें एतराज नहीं हो तो मैं सरोज से खुल कर बातें करना चाहूंगी. आगे की जिंदगी तुम से दूर रह कर गुजारने को अब मेरा दिल तैयार नहीं है.’’

‘‘मैं इस मामले में कुछ नहीं कहूंगा. अब तुम हाथमुंह धो कर फ्रैश हो जाओ. सरोज चाय लाती ही होगी.’’

राजेश के पुकारने पर सोनू और मोनू दोनों भागते हुए बाहर आए. दोनों बच्चे मुझे स्मार्ट और शरारती लगे. मैं उन से उन की पढ़ाई व शौकों के बारे में बातें करते हुए घर के भीतर चली गई.

घर बहुत करीने से सजा हुआ था. सरोज के सुघड़ गृहिणी होने की छाप हर तरफ नजर आ रही थी.

मेरे मन में उथलपुथल न चल रही होती तो सरोज के प्रति मैं ज्यादा सहज व मैत्रीपूर्ण व्यवहार करती. वह मेरे साथ बड़े अपनेपन से पेश आ रही थी. उस ने मेरी देखभाल और खातिर में जरा भी कमी नहीं की.

उस की बातचीत का बड़ा भाग सोनू और मोनू से जुड़ा था. उन की शरारतों, खूबियों और कमियों की चर्चा करते हुए उस की जबान जरा नहीं थकी. वे दोनों बातचीत का विषय होते तो उस का चेहरा खुशी और उत्साह से दमकने लगता.

हलवा बहुत स्वादिष्ठ बना था. साथसाथ चाय पीने के बाद सरोज दोपहर के खाने की तैयारी करने रसोई में चली गई.

‘‘सरोज के व्यवहार से तो अब ऐसा नहीं लगता है कि उसे तुम्हारे और मेरे प्रेम संबंध की जानकारी नहीं है,’’ मैं ने अपनी राय राजेश को बता दी.

‘‘सरोज सभी से अपनत्व भरा व्यवहार करती है, निशा. उस के मन में क्या है, इस का अंदाजा उस के व्यवहार से लगाना आसान नहीं,’’ राजेश ने गंभीर लहजे में जवाब दिया.

‘‘अपनी 12 सालों की विवाहित जिंदगी में सरोज ने क्या कभी तुम्हें अपने दिल में झांकने दिया है?’’

‘‘कभी नहीं…और यह भी सच है कि मैं ने भी उसे समझने की कोशिश कभी नहीं की.’’

‘‘राजेश, मैं तुम्हें एक संवेदनशील इनसान के रूप में पहचानती हूं. सरोज के साथ तुम्हारे इस रूखे व्यवहार का क्या कारण है?’’

‘‘निशा, तुम मेरी पसंद, मेरा प्यार हो, जबकि सरोज के साथ मेरी शादी मेरे मातापिता की जिद के कारण हुई. उस के पिता मेरे पापा के पक्के दोस्त थे. आपस में दिए वचन के कारण सरोज, एक बेहद साधारण सी लड़की, मेरी इच्छा के खिलाफ मेरे साथ आ जुड़ी थी. वह मेरे बच्चों की मां है, मेरे घर को चला रही है, पर मेरे दिल में उस ने कभी जगह नहीं पाई,’’ राजेश के स्वर की उदासी मेरे दिल को छू गई.

‘‘उसे तलाक देते हुए तुम कहीं गहरे अपराधबोध का शिकार तो नहीं हो जाओगे?’’ मेरी आंखों में चिंता के भाव उभरे.

‘‘निशा, तुम्हारी खुशी की खातिर मैं वह कदम उठा सकता हूं पर तलाक की मांग सरोज के सामने रखना मेरे लिए संभव नहीं होगा.’’

‘‘मौका मिलते ही इस विषय पर मैं उस से चर्चा करूंगी.’’

‘‘तुम जैसा उचित समझो, करो. मैं कुछ देर आराम कर लेता हूं,’’ राजेश बैठक से उठ कर अपने कमरे में चले गए और मैं रसोई में सरोज के पास चली आई.

हमारे बीच बातचीत का विषय सोनू और मोनू ही बने रहे. एक बार को मुझे ऐसा भी लगा कि सरोज शायद जानबूझ कर उन के बारे में इसीलिए खूब बोल रही है कि मैं किसी दूसरे विषय पर कुछ कह ही न पाऊं.

घर और बाहर दोनों तरह की टेंशन से निबटना मुझे अच्छी तरह से आता है. अगर मुझे देख कर सरोज तनाव, नाराजगी, गुस्से या डर का शिकार बनी होती तो मुझे उस से मनचाहा वार्तालाप करने में कोई असुविधा न महसूस होती.

उस का साधारण सा व्यक्तित्व, उस की बड़ीबड़ी आंखों का भोलापन, अपने बच्चों की देखभाल व घरगृहस्थी की जिम्मेदारियों के प्रति उस का समर्पण मेरे रास्ते की रुकावट बन जाते.

मेरी मौजूदगी के कारण उस के दिलोदिमाग पर किसी तरह का दबाव मुझे नजर नहीं आया. हमारे बीच हो रहे वार्तालाप की बागडोर अधिकतर उसी के हाथों में रही. जो शब्द उस की जिंदगी में भारी उथलपुथल मचा सकते थे वे मेरी जबान तक आ कर लौट जाते.

दोपहर का खाना सरोज ने बहुत अच्छा बनाया था, पर मैं ने बड़े अनमने भाव से थोड़ा सा खाया. राजेश मेरे हावभाव को नोट कर रहे थे पर मुंह से कुछ नहीं बोले. अपने बेटों को प्यार से खाना खिलाने में व्यस्त सरोज हम दोनों के दिल में मची हलचल से शायद पूरी तरह अनजान थी.

कुछ देर आराम करने के बाद हम सब पास के पार्क में घूमने पहुंच गए. सोनू और मोनू झूलों में झूलने लगे. राजेश एक बैंच पर लेटे और धूप का आनंद आंखें मूंद कर लेने लगे.

‘‘आइए, हम दोनों पार्क में घूमें. आपस में खुल कर बातें करने का इस से बढि़या मौका शायद आगे न मिले,’’ सरोज के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर मैं मन ही मन चौंक पड़ी.

उस की भोली सी आंखों में झांक कर अपने को उलझन का शिकार बनने से मैं ने खुद को इस बार बचाया और गंभीर लहजे में बोली, ‘‘सरोज, मैं सचमुच तुम से कुछ जरूरी बातें खुल कर करने के लिए ही यहां आई हूं.’’

‘‘आप की ऐसी इच्छा का अंदाजा मुझे हो चुका है,’’ एक उदास सी मुसकान उस के होंठों पर उभर कर लुप्त हो गई.

‘‘क्या तुम जानती हो कि मैं राजेश से बहुत पे्रम करती हूं?’’

‘‘प्रेम को आंखों में पढ़ लेना ज्यादा कठिन काम नहीं है, निशाजी.’’

‘‘तुम मुझ से नाराज मत होना क्योंकि मैं अपने दिल के हाथों मजबूर हूं.’’

‘‘मैं आप से नाराज नहीं हूं. सच तो यह है कि मैं ने इस बारे में सोचविचार किया ही नहीं है. मैं तो एक ही बात पूछना चाहूंगी,’’ सरोज ने इतना कह कर अपनी भोली आंखें मेरे चेहरे पर जमा दीं तो मैं मन में बेचैनी महसूस करने लगी.

‘‘पूछो,’’ मैं ने दबी सी आवाज में उस से कहा.

‘‘वह 14 में से 12 दिन आप के साथ रहते हैं, फिर भी आप खुश और संतुष्ट क्यों नहीं हैं? मेरे हिस्से के 2 दिन छीन कर आप को कौन सा खजाना मिल जाएगा?’’

‘‘तुम्हारे उन 2 दिनों के कारण मैं राजेश के साथ अपना घर  नहीं बसा सकती हूं, अपनी मांग में सिंदूर नहीं भर सकती हूं,’’ मैं ने चिढ़े से लहजे में जवाब दिया.

‘‘मांग के सिंदूर का महत्त्व और उस की ताकत मुझ से ज्यादा कौन समझेगा?’’ उस के होंठों पर उभरी व्यंग्य भरी मुसकान ने मेरे अपराधबोध को और भी बढ़ा दिया.

‘‘राजेश सिर्फ मुझे प्यार करते हैं, सरोज. हम तुम्हें कभी आर्थिक परेशानियों का सामना नहीं करने देंगे, पर तुम्हें, उन्हें तलाक देना ही होगा,’’ मैं ने कोशिश कर के अपनी आवाज मजबूत कर ली.

‘‘वह क्या कहते हैं तलाक लेने के बारे में?’’ कुछ देर खामोश रह कर सरोज ने पूछा.

‘‘तुम राजी हो तो उन्हें कोई एतराज नहीं है.’’

‘‘मुझे तलाक लेनेदेने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती है, निशाजी. इस बारे में फैसला भी उन्हीं को करना होगा.’’

‘‘वह तलाक चाहेंगे तो तुम शोर तो नहीं मचाओगी?’’

मेरे इस सवाल का जवाब देने के लिए सरोज चलतेचलते रुक गई. उस ने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए. इस पल उस से नजर मिलाना मुझे बड़ा कठिन महसूस हुआ.

‘‘निशाजी, अपने बारे में मैं सिर्फ एक बात आप को इसलिए बताना चाहती हूं ताकि आप कभी मुझे ले कर भविष्य में परेशान न हों. मेरे कारण कोई दुख या अपराधबोध का शिकार बने, यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘सरोज, मैं तुम्हारी दुश्मन नहीं हूं, पर परिस्थितियां ही कुछ…’’

उस ने मुझे टोक कर अपनी बात कहना जारी रखा, ‘‘अकेलेपन से मेरा रिश्ता अब बहुत पुराना हो गया है. मातापिता का साया जल्दी मेरे सिर से उठ गया था. मामामामी ने नौकरानी की तरह पाला. जिंदगी में कभी ढंग के संगीसाथी नहीं मिले. खराब शक्लसूरत के कारण पति ने दिल में जगह नहीं दी और अब आप मेरे बच्चों के पिता को उन से छीन कर ले जाना चाहती हैं.

‘‘यह तो कुदरत की मेहरबानी है कि मैं ने अकेलेपन में भी सदा खुशियों को ढूंढ़ निकाला. मामा के यहां घर के कामों को खूब दिल लगा कर करती. दोस्त नहीं मिले तो मिट्टी के खिलौनों, गुडि़या और भेड़बकरियों को अपना साथी मान लिया. ससुराल में सासससुर की खूब सेवा कर उन के आशीर्वाद पाती रही. अब सोनूमोनू के साथ मैं बहुत सुखी और संतुष्ट हूं.

‘‘मेरे अपनों ने और समाज ने कभी मेरी खुशियों की फिक्र नहीं की. अपने अकेलेपन को स्वीकार कर के मैं ने खुद अपनी खुशियां पाई हैं और मैं उन्हें विश्वसनीय मानती हूं. उदासी, निराशा, दुख, तनाव और चिंताएं मेरे अकेलेपन से न कभी जुड़ी हैं और न जुड़ पाएंगी. मेरी जिंदगी में जो भी घटेगा उस का सामना करने को मैं तैयार हूं.’’

मैं चाह कर भी कुछ नहीं बोल पाई. राजेश ठीक ही कहते थे कि सरोज से तलाक के बारे में चर्चा करना असंभव था. बिलकुल ऐसा ही अब मैं महसूस कर रही थी.

सरोज के लिए मेरे मन में इस समय सहानुभूति से कहीं ज्यादा गहरे भाव मौजूद थे. मेरा मन उसे गले लगा कर उस की पीठ थपथपाने का किया और ऐसा ही मैं ने किया भी.

उस का हाथ पकड़ कर मैं राजेश की तरफ चल पड़ी. मेरे मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला, पर मन में बहुत कुछ चल रहा था.

सरोज से कुछ छीनना किसी भोले बच्चे को धोखा देने जैसा होगा. अपने अकेलेपन से जुड़ी ऊब, तनाव व उदासी को दूर करने के लिए मुझे सरोज से सीख लेनी चाहिए. उस की घरगृहस्थी का संतुलन नष्ट कर के अपनी घरगृहस्थी की नींव मैं नहीं डालूंगी. अपनी जिंदगी और राजेश से अपने प्रेम संबंध के बारे में मुझे नई दृष्टि से सोचना होगा, यही सबकुछ सोचते हुए मैं ने साफ महसूस किया कि मैं पूरी तरह से तनावमुक्त हो भविष्य के प्रति जोश, उत्साह और आशा प्रदान करने वाली नई तरह की ऊर्जा से भर गई हूं.

बेटियां : क्या श्वेता बन पाई उस बूढ़ी औरत का सहारा

‘‘ओफ्फो, आज तो हद हो गई…चाय तक पीने का समय नहीं मिला,’’ यह कहतेकहते डाक्टर कुमार ने अपने चेहरे से मास्क और गले से स्टेथोस्कोप उतार कर मेज पर रख दिया.

सुबह से लगी मरीजों की भीड़ को खत्म कर वह बहुत थक गए थे. कुरसी पर बैठेबैठे ही अपनी आंखें मूंद कर वह थकान मिटाने की कोशिश करने लगे.

अभी कुछ मिनट ही बीते होंगे कि टेलीफोन की घंटी बज उठी. घंटी की आवाज सुन कर डाक्टर कुमार को लगा यह फोन उन्हें अधिक देर तक आराम करने नहीं देगा.

‘‘नंदू, देखो तो जरा, किस का फोन है?’’

वार्डब्वाय नंदू ने जा कर फोन सुना और फौरन वापस आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लिए लेबर रूम से काल है.’’

आराम का खयाल छोड़ कर डाक्टर कुमार कुरसी से उठे और फोन पर बात करने लगे.

‘‘आक्सीजन लगाओ… मैं अभी पहुंचता हूं्…’’ और इसी के साथ फोन रखते हुए कुमार लंबेलंबे कदम भरते लेबर रूम की तरफ  चल पड़े.

लेबर रूम पहुंच कर डाक्टर कुमार ने देखा कि नवजात शिशु की हालत बेहद नाजुक है. उस ने नर्स से पूछा कि बच्चे को मां का दूध दिया गया था या नहीं.

‘‘सर,’’ नर्स ने बताया, ‘‘इस के मांबाप तो इसे इसी हालत में छोड़ कर चले गए हैं.’’

‘‘व्हाट’’ आश्चर्य से डाक्टर कुमार के मुंह से निकला, ‘‘एक नवजात बच्चे को छोड़ कर वह कैसे चले गए?’’

‘‘लड़की है न सर, पता चला है कि उन्हें लड़का ही चाहिए था.’’

‘‘अपने ही बच्चे के साथ यह कैसी घृणा,’’ कुमार ने समझ लिया कि गुस्सा करने और डांटडपट का अब कोई फायदा नहीं, इसलिए वह बच्ची की जान बचाने की कोशिश में जुट गए.

कृत्रिम श्वांस पर छोड़ कर और कुछ इंजेक्शन दे कर डाक्टर कुमार ने नर्स को कुछ जरूरी हिदायतें दीं और अपने कमरे में वापस लौट आए.

डाक्टर को देखते ही नंदू ने एक मरीज का कार्ड उन के हाथ में थमाया और बोला, ‘‘एक एक्सीडेंट का केस है सर.’’

डाक्टर कुमार ने देखा कि बूढ़ी औरत को काफी चोट आई थी. उन की जांच करने के बाद डाक्टर कुमार ने नर्स को मरहमपट्टी करने को कहा तथा कुछ दवाइयां लिख दीं.

होश आने पर वृद्ध महिला ने बताया कि कोई कार वाला उन्हें टक्कर मार गया था.

‘‘माताजी, आप के घर वाले?’’ डाक्टर कुमार ने पूछा.

‘‘सिर्फ एक बेटी है डाक्टर साहब, वही लाई है यहां तक मुझे,’’ बुढ़िया ने बताया.

डाक्टर कुमार ने देखा कि एक दुबलीपतली, शर्मीली सी लड़की है, मगर उस की आंखों से गजब का आत्म- विश्वास झलक रहा है. उस ने बूढ़ी औरत के सिर पर हाथ फेरते हुए तसल्ली दी और कहा, ‘‘मां, फिक्र मत करो…मैं हूं न…और अब तो आप ठीक हैं.’’

वृद्ध महिला ने कुछ हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘श्वेता, मुझे जरा बिठा दो, उलटी सी आ रही है.’’

इस से डाक्टर कुमार को पता चला कि उस दुबलीपतली लड़की का नाम श्वेता है. उन्होंने श्वेता के साथ मिल कर उस की मां को बिठाया. अभी वह पूरी तरह बैठ भी नहीं पाई थी कि एक जोर की उबकाई के साथ उन्होंने उलटी कर दी और श्वेता की गुलाबी पोशाक उस से सन गई.

मां शर्मसार सी होती हुई बोलीं, ‘‘माफ करना बेटी…मैं ने तो तुम्हें भी….’’

उन की बात बीच में काटती हुई श्वेता बोली, ‘‘यह तो मेरा सौभाग्य है मां कि आप की सेवा का मुझे मौका मिल रहा है.’’

श्वेता के कहे शब्द डाक्टर कुमार को सोच के किसी गहरे समुद्र में डुबोए चले जा रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, कोई गहरी चोट तो नहीं है न,’’ श्वेता ने रूमाल से अपने कपड़े साफ करते हुए पूछा.

‘‘वैसे तो कोई सीरियस बात नहीं है फिर भी इन्हें 5-6 दिन देखरेख के लिए अस्पताल में रखना पड़ेगा. खून काफी बह गया है. खर्चा तकरीबन….’’

‘‘डाक्टर साहब, आप उस की चिंता न करें…’’ श्वेता ने उन की बात बीच में काटी.

‘‘कहां से करेंगी आप इंतजाम?’’ दिलचस्प अंदाज में डाक्टर ने पूछा.

‘‘नौकरी करती हूं…कुछ जमा कर रखा है, कुछ जुटा लूंगी. आखिर, मेरे सिवा मां का इस दुनिया में है ही कौन?’’ यह सुन कर डाक्टर कुमार निश्चिंत हो गए. श्वेता की मां को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

इधर डाक्टर ने लेबररूम में फोन किया तो पता चला कि नवजात बच्ची की हालत में कोई सुधार नहीं है. वह फिर बेचैन से हो उठे. वह इस सच को भी जानते थे कि बनावटी फीड में वह कमाल कहां जो मां के दूध में होता है.

डाक्टर कुमार दोपहर को खाने के लिए आए तो अपने दोनों मरीजों के बारे में ही सोचते रहे. बेचैनी में वह अपनी थकान भी भूल गए थे.

शाम को डाक्टर कुमार वार्ड का राउंड लेने पहुंचे तो देखा कि श्वेता अपनी मां को व्हील चेयर में बिठा कर सैर करा रही थी.

‘‘दोपहर को समय पर खाना खाया था मांजी ने?’’ डाक्टर कुमार ने श्वेता से मां के बारे में पूछा.

‘‘यस सर, जी भर कर खाया था. महीना दो महीना मां को यहां रहना पड़ जाए तो खूब मोटी हो कर जाएंगी,’’ श्वेता पहली बार कुछ खुल कर बोली. डाक्टर कुमार भी आज दिन में पहली बार हंसे थे.

वार्ड का राउंड ले कर डाक्टर कुमार अपने कमरे में आ गए. नंदू गायब था. डाक्टर कुमार का अंदाजा सही निकला. नंदू फोन सुन रहा था.

‘‘जल्दी आइए सर,’’ सुन कर डाक्टर ने झट से जा कर रिसीवर पकड़ा, तो लेबर रूम से नर्स की आवाज को वह साफ पहचान गए.

‘‘ओ… नो’’, धप्प से फोन रख दिया डाक्टर कुमार ने.

नवजात बच्ची बच न पाई थी. डाक्टर कुमार को लगा कि यदि उस बच्ची के मांबाप मिल जाते तो वह उन्हें घसीटता हुआ श्वेता के पास ले जाता और ‘बेटी’ की परिभाषा समझाता. वह छटपटा से उठे. कमरे में आए तो बैठा न गया. खिड़की से परदा उठा कर वह बाहर देखने लगे.

सहसा डाक्टर कुमार ने देखा कि लेबर रूम से 2 वार्डब्वाय उस बच्ची को कपड़े में लपेट कर बाहर ले जा रहे थे… मूर्ति बने कुमार उस करुणामय दृश्य को देखते रह गए. यों तो कितने ही मरीजों को उन्होंने अपनी आंखों के सामने दुनिया छोड़ते हुए देखा था लेकिन आज उस बच्ची को यों जाता देख उन की आंखों से पीड़ा और बेबसी के आंसू छलक आए.

डाक्टर कुमार को लग रहा था कि जैसे किसी मासूम और बेकुसूर श्वेता को गला घोंट कर मार डाला गया हो.

Mother’s Day 2024- कन्याऋण : कन्याऋण : क्या नेहा की शादी का फैसला सही साबित हुआ? – भाग 1

नेहा के ससुराल से लौट कर आने के बाद से ही मांजी बहुत दुखी और परेशान लग रही हैं. बारबार वह एक ही बात कहती हैं, ‘‘अनुभा बेटी, काश, मैं ने तुम्हारी बात मान ली होती तो आज मुझे यह दिन नहीं देखना पड़ता. तुम ने मुझे कितना समझाया था पर मैं अपने कन्याऋण से उऋण होने की लालसा में नेहा की जिंदगी से ही खिलवाड़ कर बैठी. अब तो अपनी गलती सुधारने की गुंजाइश भी नहीं रही.’’

अनुभा समझ नहीं पा रही थी कि मांजी को कैसे धीरज बंधाए. जब से उस ने नेहा को सुबहसुबह बाथरूम में उलटियां करते देखा उस का माथा ठनक गया था और आज जब डा. ममता ने उस के शक की पुष्टि कर दी तो लगता है अनर्थ ही हो गया.

डाक्टर के यहां से लौटने के बाद मांजी ने जब उस से पूछा तो उन की मानसिक अवस्था को देखते हुए वह उन से सच नहीं बोल पाई और यह कह दिया कि एसिडिटी के कारण नेहा को उलटियां हो रही थीं. लेकिन अनुभा को लगा था कि उस की सफाई से मांजी के चेहरे से शक और संदेह के बादल छंट नहीं पाए थे. उन्हें सच क्या है, इस का आभास हो गया था.

सहसा अनुभा की नजरें नेहा की ओर उठीं. वह सारी चिंताओं से अनजान अपनी गुडि़या से खेल रही थी. उस के साथ क्या हो रहा था और आगे क्या होगा? उस का जरा सा भी एहसास उसे नहीं था. अबोध नेहा को देख कर तो उस का मन यह सोच कर और भी खराब हो गया कि कैसे वह भविष्य में आने वाली मुश्किलों का सामना कर पाएगी.

यद्यपि नेहा उस की ननद है पर अनुभा ने सदैव उसे अपनी बेटी की तरह ही समझा है. जब शादी होने के बाद अनुभा ससुराल आई थी, उस समय नेहा 4 साल की रही होगी.

ससुराल आने पर अनुभा ने जब पहली बार नेहा को देखा, तभी उस के प्रति उस के मन में सहानुभूति और प्रेम जाग उठा था, क्योंकि मायके में उस के घर के पास ही मंदबुद्धि और मानसिक रूप से विकलांग बच्चों का एक स्कूल था. इस कारण ऐसे बच्चों के मनोभावों से उस का पूर्व परिचय रहा था. वह जानती थी कि नेहा का बौद्धिक और शैक्षणिक विकास आम बच्चों की तरह नहीं हो सकता इसलिए नेहा की सारी जिम्मेदारियां उस ने शुरू से ही अपने ऊपर ले ली थीं.

अनुभा ने नेहा को मानसिक रूप से अविकसित बच्चों के विशेष मनो- चिकित्सा केंद्र में प्रवेश भी दिलवाया था ताकि अपने समान बच्चों के बीच रह कर उस में किसी प्रकार की हीनभावना नहीं आ पाए. वह नेहा को घर पर भी उस की समझ के अनुसार कभी माला पिरोने, कभी पेंटिंग करने तो कभी घर के छोटेमोटे कामों में व्यस्त रखती थी.

नेहा को भी शुरू से ही अनुभा से गहरा लगाव हो गया था. वह हर समय भाभीभाभी कह कर उस के इर्दगिर्द घूमती रहती. जबकि नेहा की नासमझी की हरकतों से तंग आ कर कई बार मांजी अपना आपा खो कर उस पर हाथ उठा देतीं. उस के भाई तथा दूसरी भाभियां भी नेहा को बातबात में टोकते या डांटते रहते थे.

नेहा उम्र में जरूर बड़ी हो रही थी पर उस की बुद्धि और समझ तो 5-6 साल के बच्चे जितनी हो कर ठहर गई थी. घर में नेहा को किसी की भी डांट पड़ती तो वह भाग कर अनुभा के पास चली आती. वह कभी उसे प्यार से समझाती तो कभी गंभीर हो कर उस की गलती का एहसास करवाने का प्रयास करती.

नेहा 18 वर्ष की हो गई. उस की हमउम्र लड़कियों के जब शादीविवाह होने लगे तो वह भी कभीकभी बहुत भोलेपन से उस से पूछती, ‘भाभी, मेरा विवाह कब होगा? मेरा दूल्हा घोड़ी पर बैठ कर कब आएगा?’

वह नेहा को समझाती, ‘अभी तो तुम्हें पढ़लिख कर बहुत होशियार बनना है, फिर कहीं जा कर तुम्हारा विवाह होगा.’ नेहा उस के इस तरह समझाने पर संतुष्ट हो कर सबकुछ भूल कर खेलने में व्यस्त हो जाती पर नेहा के ऐसे सवाल उसे अकसर भविष्य की चिंता में डाल जाते.

एक दिन सास ने उस के पति नवीन के सामने नेहा के विवाह का प्रसंग छेड़ते हुए बताया कि उन की पड़ोसिन गोमती देवी ने अपने रिश्ते के चाचा के बेटे के लिए नेहा के रिश्ते की बात चलाई है. मांजी के मुंह से अचानक नेहा के विवाह की चर्चा सुन कर नवीन और अनुभा दोनों ही अवाक् रह गए.

नवीन ने कहा भी, ‘मां, नेहा जिस स्थिति में है, उस का विवाह करना क्या उचित होगा? दूसरे, क्या वे लोग नेहा के बारे में सबकुछ जानते हैं. यदि उन लोगों को अंधेरे में रख कर हम ने विवाह किया तो यह रिश्ता कितने दिन निभ पाएगा?’

नवीन की बातों को सुन कर मांजी एक बार तो गंभीर हो गईं, फिर कुछ सोच कर बोलीं, ‘बेटा, मैं ने गोमती देवी से सारी बात स्पष्ट करने के बाद ही तुम्हारे सामने इस रिश्ते की बात छेड़ी है. लड़के के एक पांव में पोलियो होने की वजह से वह बैसाखी से चलता है. उन लोगों ने इस संबंध को स्वीकार करने के बदले में 3 लाख रुपए नकद मांगे हैं, बाकी जो कुछ दहेज में हम नेहा को दें, वह हमारी इच्छा है. अब जब अपनी बेटी में ही कमी है तो हमें थोड़ा झुकना तो पडे़गा ही.’

मांबेटे की बातचीत सुन रही अनुभा अब स्वयं को रोक नहीं सकी और बोली, ‘मांजी, बीच में बोलने के लिए मैं क्षमा चाहूंगी पर मैं एक बात जरूर कहना चाहूंगी कि नेहा के विवाह का फैसला करने से पहले हमें एक बार सारी स्थितियों पर गंभीरता से विचार कर लेना चाहिए.’

‘सारी स्थितियों को स्पष्ट करने से तुम्हारा तात्पर्य क्या है बहू?’ मांजी ने उसे टोकते हुए पूछा.

‘मांजी, मेरे कहने का मतलब है कि दूसरों के बहलावे में आ कर हमें नेहा की शादी का फैसला नहीं करना चाहिए. मैं ने तो अपनी मौसी की लड़की को देखा है. उस की स्थिति भी कमोबेश नेहा जैसी ही थी. मेरी मौसी ने रुपयों का लालच दे कर एक गरीब घर के लड़के से अपनी बेटी का विवाह कर दिया पर शादी के 2 माह बाद ही उस के ससुराल वालों ने उसे यह कहते हुए वापस लौटा दिया कि उस कम दिमाग लड़की के साथ उन के बेटे का निभाव नहीं हो सकता. उन्होंने मेरी मौसी के रुपए भी हड़प लिए और उन की बेटी को भी वापस भेज दिया. मांजी, मुझे डर है कि हमारी नेहा के साथ भी ऐसा ही कुछ न घट जाए.’

valentine Special- तू आए न आए : शफीका का प्यार और इंतजार

मैं इंगलैंड से एमबीए करने के लिए श्रीनगर से फ्लाइट पकड़ने को घर से बाहर निकल रहा था तो मुझे विदा करने वालों के साथसाथ फूफीदादी की आंखों में आंसुओं का समंदर उतर आया. अम्मी की मौत के बाद फूफीदादी ने ही मुझे पालपोस कर बड़ा किया था. 2 चाचा और 1 फूफी की जिम्मेदारी के साथसाथ दादाजान की पूरी गृहस्थी का बोझ भी फूफीदादी के नाजुक कंधों पर था. ममता का समंदर छलकाती उन की बड़ीबड़ी कंटीली आंखों में हमारे उज्ज्वल भविष्य की अनगिनत चिंताएं भी तैरती साफ दिखाई देती थीं. उन से जुदाई का खयाल ही मुझे भीतर तक द्रवित कर रहा था.

कार का दरवाजा बंद होते ही फूफीदादी ने मेरा माथा चूम लिया और मुट्ठी में एक परचा थमा दिया, ‘‘तुम्हारे फूफादादा का पता है. वहां जा कर उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश करना और अगर मिल जाएं तो बस, इतना कह देना, ‘‘जीतेजी एक बार अपनी अम्मी की कब्र पर फातेहा पढ़ने आ जाएं.’’

फूफीदादी की भीगी आवाज ने मुझे भीतर तक हिला कर रख दिया. पूरे 63 साल हो गए फूफीदादी और फूफादादा के बीच पैसिफिक अटलांटिक और हिंद महासागर को फैले हुए, लेकिन आज भी दादी को अपने शौहर के कश्मीर लौट आने का यकीन की हद तक इंतजार है.

इंगलैंड पहुंच कर ऐडमिशन की प्रक्रिया पूरी करतेकरते मैं फूफीदादी के हुक्म को पूरा करने का वक्त नहीं निकाल पाया, लेकिन उस दिन मैं बेहद खुश हो गया जब मेरे कश्मीरी क्लासफैलो ने इंगलैंड में बसे कश्मीरियों की पूरी लिस्ट इंटरनैट से निकाल कर मेरे सामने रख दी. मेरी आंखों के सामने घूम गया 80 वर्षीय फूफीदादी शफीका का चेहरा.

मेरे दादा की इकलौती बहन, शफीका की शादी हिंदुस्तान की आजादी से ठीक एक महीने पहले हुई थी. उन के पति की सगी बहन मेरी सगी दादी थीं. शादी के बाद 2 महीने साथ रह कर उन के शौहर डाक्टरी पढ़ने के लिए लाहौर चले गए. शफीका अपने 2 देवरों और सास के साथ श्रीनगर में रहने लगीं.

लाहौर पहुंचने के बाद दोनों के बीच खतों का सिलसिला लंबे वक्त तक चलता रहा. खत क्या थे, प्यार और वफा की स्याही में डूबे प्रेमकाव्य. 17 साल की शफीका की मुहब्बत शीर्ष पर थी. हर वक्त निगाहें दरवाजे पर लगी रहतीं. हर बार खुलते हुए दरवाजे पर उसे शौहर की परछाईं होने का एहसास होता.

मुहब्बत ने अभी अंगड़ाई लेनी शुरू ही की थी कि पूरे बदन पर जैसे फालिज का कहर टूट पड़ा. विभाजन के बाद हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच खतों के साथसाथ लोगों के आनेजाने का सिलसिला भी बंद हो गया.

शफीका तो जैसे पत्थर हो गईं. पूरे 6 साल की एकएक रात कत्ल की रात की तरह गुजारी और दिन जुदाई की सुलगती भट्टी की तरह. कानों में डाक्टर की आवाजें गूंजती रहतीं, सोतीजागती आंखों में उन का ही चेहरा दिखाई देता था. रात को बिस्तर की सिलवटें और बेदारी उन के साथ बीते वक्त के हर लमहे को फिर से ताजा कर देतीं.

अचानक एक दिन रेडियो में खबर आई कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होगा. इस मैच को देखने जाने वालों के लिए वीजा देने की खबर इक उम्मीद का पैगाम ले कर आई.

शफीका के दोनों भाइयों ने रेलवे मिनिस्टर से खास सिफारिश कर के अपने साथसाथ बहन का भी पाकिस्तान का 10 दिनों का वीजा हासिल कर लिया. जवान बहन के सुलगते अरमानों को पूरा करने और दहकते जख्मों पर मरहम लगाने का इस से बेहतरीन मौका शायद ही फिर मिल पाता.

पाकिस्तान में डाक्टर ने तीनों मेहमानों से मिल कर अपने कश्मीर न आ सकने की माफी मांगते हुए हालात के प्रतिकूल होने की सारी तोहमत दोनों देशों की सरकारों के मत्थे मढ़ दी. उन के मुहब्बत से भरे व्यवहार ने तीनों के दिलों में पैदा कड़वाहट को काई की तरह छांट दिया. शफीका के लिए वो 9 रातें सुहागरात से कहीं ज्यादा खूबसूरत और अहम थीं. वे डाक्टर की मुहब्बत में गले तक डूबती चली जा रही थीं.

उधर, उन के दोनों भाइयों को मिनिस्टरी और दोस्तों के जरिए पक्की तौर पर यह पता चल गया था कि अगर डाक्टर चाहें तो पाकिस्तान सरकार उन की बीवी शफीका को पाकिस्तान में रहने की अनुमति दे सकती है. लेकिन जब डाक्टर से पूछा गया तो उन्होंने अपने वालिद, जो उस वक्त मलयेशिया में बड़े कारोबारी की हैसियत से अपने पैर जमा चुके थे, से मशविरा करने के लिए मलयेशिया जाने की बात कही.

साथ ही, यह दिलासा भी दिया कि मलयेशिया से लौटते हुए वे कश्मीर में अपनी वालिदा और भाईबहनों से मिल कर वापसी के वक्त शफीका को पाकिस्तान ले आएंगे. दोनों भाइयों को डाक्टर की बातों पर यकीन न हुआ तो उन्होंने शफीका से कहा, ‘बहन, जिंदगी बड़ी लंबी है, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें डाक्टर के इंतजार के फैसले पर पछताना पड़े.’

‘भाईजान, तलाक लेने की वजह दूसरी शादी ही होगी न. यकीन कीजिए, मैं दूसरी शादी तो दूर, इस खयाल को अपने आसपास फटकने भी नहीं दूंगी.’ 27 साल की शफीका का इतना बड़ा फैसला भाइयों के गले नहीं उतरा, फिर भी बहन को ले कर वे कश्मीर वापस लौट आए.

वापस आ कर शफीका फिर अपनी सास और देवरों के साथ रहने लगीं. डाक्टर की मां अपने बेटे से बेइंतहा मुहब्बत करती थीं. बहू से बेटे की हर बात खोदखोद कर पूछती हुई अनजाने ही बहू के भरते जख्मों की परतें उधेड़ती रहतीं.

शफीका अपने यकीन और मुहब्बत के रेशमी धागों को मजबूती से थामे रहीं. उड़तीउड़ती खबरें मिलीं कि डाक्टर मलयेशिया तो पहुंचे, लेकिन अपनी मां और बीवी से मिलने कश्मीर नहीं आए. मलयेशिया में ही उन्होंने इंगलैंड मूल की अपनी चचेरी बहन से निकाह कर लिया था. शफीका ने सुना तो जो दीवार से टिक कर धम्म से बैठीं तो कई रातें उन की निस्तेज आंखें, अपनी पलकें झपकाना ही भूल गईं. सुहागिन बेवा हो गईं, लेकिन नहीं, उन के कान और दिमाग मानने को तैयार ही नहीं थे.

‘लोग झूठ बोल रहे हैं. डाक्टर, मेरा शौहर, मेरा महबूब, मेरी जिंदगी, ऐसा नहीं कर सकता. वफा की स्याही से लिखे गए उन की मुहब्बत की शीरीं में डूबे हुए खत, उस जैसे वफादार शख्स की जबान से निकले शब्द झूठे हो ही नहीं सकते. मुहब्बत के आसमान से वफा के मोती लुटाने वाला शख्स क्या कभी बेवफाई कर सकता है? नहीं, झूठ है. कैसे यकीन कर लें, क्या मुहब्बत की दीवार इतनी कमजोर ईंटों पर रखी गई थी कि मुश्किल हालात की आंधी से वह जमीन में दफन हो जाए? वो आएंगे, जरूर आएंगे,’ पूरा भरोसा था उन्हें अपने शौहर पर.

शफीका के दिन कपड़े सिलते, स्वेटर बुनते हुए कट जाते लेकिन रातें नागफनी के कांटों की तरह सवाल बन कर चुभतीं. ‘जिन की बांहों में मेरी दुनिया सिमट गई थी, जिन के चौड़े सीने पर मेरे प्यार के गुंचे महकने लगे थे, उन की जिंदगी में दूसरी औरत के लिए जगह ही कहां थी भला?’ खयालों की उथली दुनिया के पैर सचाई की दलदल में कईकई फुट धंस गए. लेकिन सच? सच कुछ और ही था. कितना बदरंग और बदसूरत? सच, डाक्टर शादी के बाद दूसरी बीवी को ले कर इंगलैंड चला गया. मलयेशिया से उड़ान भरते हुए हवाईजहाज हिमालय की ऊंचीऊंची प्रहरी सी खड़ी पहाडि़यों पर से हो कर जरूर गुजरा होगा? शफीका की मुहब्बत की बुलंदियों ने तब दोनों बाहें फैला कर उस से कश्मीर में ठहर जाने की अपील भी की होगी. मगर गुदाज बीवी की आगोश में सुधबुध खोए डाक्टर के कान में इस छातीफटी, दर्दभरी पुकार को सुनने का होश कहां रहा होगा?

शफीका को इतने बड़े जहान में एकदम तनहा छोड़ कर, उन के यकीन के कुतुबमीनार को ढहा कर, अपनी बेवफाई के खंजर से शफीका के यकीन को जख्मी कर, उन के साथ किए वादों की लाश को चिनाब में बहा दिया था डाक्टर ने, जिस के लहू से सुर्ख हुआ पानी आज भी शफीका की बरबादी की दास्तान सुनाता है.

शफीका जारजार रोती हुई नियति से कहती थी, ‘अगर तू चाहती, तो कोई जबरदस्ती डाक्टर का दूसरा निकाह नहीं करवा सकता था. मगर तूने दर्द की काली स्यायी से मेरा भविष्य लिखा था, उसे वक़्त का ब्लौटिंगपेपर कभी सोख नहीं पाया.’

शफीका के चेहरे और जिस्म की बनावट में कश्मीरी खूबसूरती की हर शान मौजूद थी. इल्म के नाम पर वह कश्मीरी भाषा ही जानती थी. डाक्टर की दूसरी बीवी, जिंदगी की तमाम रंगीनियों से लबरेज, खुशियों से भरपूर, तनमन पर आधुनिकता का पैरहन पहने, डाक्टर के कद के बराबर थी.

इंगलैंड की चमकदमक, बेबाकपन और खुद की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए हाथ आई चाचा की बेशुमार दौलत ने एक बेगर्ज मासूम मुहब्बत का गला घोंट दिया. शफीका ने 19 साल, जिंदगी के सब से खूबसूरत दिन, सास के साथ रह कर गुजार दिए. दौलत के नशे में गले तक डूबे डाक्टर को न ही मां की ममता बांध सकी, न बावफा पत्नी की बेलौस मुहब्बत ही अपने पास बुला सकी.

डाक्टर की वादाखिलाफी और जवान बहन की जिंदगी में फैलती वीरानी और तनहाई के घनघोर अंधेरे के खौफ से गमगीन हो कर शफीका के बड़े भाई ने अपनी बीवी को तलाक देने का मन बना लिया जो डाक्टर की सगी बहन थी. लेकिन शफीका चीन की दीवार की तरह डट कर सामने खड़ी हो गई, ‘शादी के दायित्व तो इन के भाई ने नहीं निभाए हैं न, दगा और फरेब तो उन्होंने मेरे साथ किया है, कुसूर उन का है तो सजा भी उन्हें ही मिलनी चाहिए. उन की बहन ने आप की गृहस्थी सजाई है, आप के बच्चों की मां हैं वे, उस बेकुसूर को आप किस जुर्म की सजा दे रहे हैं, भाई जान? मेरे जीतेजी यह नहीं होगा,’ कह कर भाई को रोका था शफीका ने.

खौफजदा भाभी ने शफीका के बक्से का ताला तोड़ कर उस का निकाहनामा और डाक्टर के साथ खींची गई तसवीरों व मुहब्बतभरे खतों को तह कर के पुरानी किताबों की अलमारी में छिपा दिया था. जो 15 साल बाद रद्दी में बेची जाने वाली किताबों में मिले. भाभी डर गई थीं कि कहीं उन के भाई की वजह से उन की तलाक की नौबत आ गई तो कागजात के चलते उन के भाई पर मुकदमा दायर कर दिया जाएगा. लेकिन शफीका जानबूझ कर चुपचाप रहीं.

लंबी खामोशी के धागे से सिले होंठ, दिल में उमड़ते तूफान को कब तक रोक पाते. शफीका के गरमगरम आंसुओं का सैलाब बड़ीबड़ी खूबसूरत आंखों के रास्ते उन के गुलाबी गालों और लरजाते कंवल जैसे होंठों तक बह कर डल झील के पानी की सतह को और बढ़ा जाता. कलैंडर बदले, मौसम बदले, श्रीनगर की पहाडि़यों पर बर्फ जमती रही, पिघलती रही, बिलकुल शफीका के दर्दभरे इंतजार की तरह.

फूलों की घाटी हर वर्ष अपने यौवन की दमक के साथ अपनी महक लुटा कर वातावरण को दिलकश बनाती रही, लेकिन शफीका की जिंदगी में एक बार आ कर ठहरा सूखा मौसम फिर कभी मौसमेबहार की शक्ल न पा सका. शफीका की सहेलियां दादी और नानी बन गईं. आखिरकार शफीका भी धीरेधीरे उम्र के आखिरी पड़ाव की दहलीज पर खड़ी हो गईं.

बड़े भाईसाहब ने मरने से पहले अपनी बहन के भविष्य को सुरक्षित कर दिया. अपनी पैंशन शफीका के नाम कर दी. पूरे 20 साल बिना शौहर के, सास के साथ रहने वाली बहन को छोटे भाईभाभी ले आए हमेशा के लिए अपने घर. बेकस परिंदे का आशियाना एक डाल से टूटा तो दूसरी डाल पर तिनके जोड़तेजोड़ते

44 साल लग गए. चेहरे की चिकनाई और चमकीलेपन में धीरेधीरे झुर्रियों की लकीरें खिंचने लगीं.

प्यार, फिक्र और इज्जत, देने में भाइयों और उन के बच्चों ने कोई कमी नहीं छोड़ी. भतीजों की शादियां हुईं तो बहुओं ने सास की जगह फूफीसास को पूरा सम्मान दिया. शफीका के लिए कभी भी किसी चीज की कमी नहीं रही, मगर अपने गर्भ में समाए नुकीले कंकड़पत्थर को तो सिर्फ ठहरी हुई झील ही जानती है. जिंदगी में कुछ था तो सिर्फ दर्द ही दर्द.

अपनी कोख में पलते बच्चे की कुलबुलाहट के मीठे दर्द को महसूस करने से महरूम शफीका अपने भतीजों के बच्चों की मासूम किलकारियों, निश्छल हंसी व शरारतों में खुद को गुम कर के मां की पहचान खो कर कब फूफी से फूफीदादी कहलाने लगीं, पता ही नहीं चला.

शरीर से एकदम स्वस्थ 80 वर्षीया शफीका के चमकते मोती जैसे दांत आज भी बादाम और अखरोट फोड़ लेते हैं. यकीनन, हाथपैरों और चेहरे पर झुर्रियों ने जाल बिछाना शुरू कर दिया है लेकिन चमड़ी की चमक अभी तक दपदप करती हुई उन्हें बूढ़ी कहलाने से महफूज रखे हुए है.

पैरों में जराजरा दर्द रहता है तो लकड़ी का सहारा ले कर चलती हैं, लेकिन शादीब्याह या किसी खुशी के मौके पर आयोजित की गई महफिल में कालीन पर तकिया लगा कर जब भी बैठतीं, कम उम्र औरतों को शहद की तरह अपने आसपास ही बांधे रखतीं.

उन के गाए विरह गीत, उन की आवाज के सहारेसहारे चलते चोटखाए दिलों में सीधे उतर जाते. शफीका की गहरी भूरी बड़ीबड़ी आंखों में अपना दुलहन वाला लिबास लहरा जाता, जब कोई दुलहन विदा होती या ससुराल आती. उन की आंखों में अंधेरी रात के जुगनुओं की तरह ढेर सारे सपने झिलमिलाने लगते. सपने उम्र के मुहताज नहीं होते, उन का सुरीला संगीत तो उम्र के किसी भी पड़ाव पर बिना साज ही बजने लगता है.

एक घर, सजीधजी शफीका, डाक्टर का चंद दिनों का तिलिस्म सा लगने वाला मीठा मिलन, बच्चों की मोहक मुसकान, सुखदुख के पड़ाव पर ठहरताबढ़ता कारवां, मां, दादी के संबोधन से अंतस को सराबोर करने वाला सपना…हमेशा कमी बन कर चुभता रहता. वाकई, क्या 80 साल की जिंदगी जी या सिर्फ जिंदगी की बदशक्ल लाश ढोती रहीं? यह सवाल खुद से पूछने से डरती रहीं शफीका.

शफीका ने एक मर्द के नाम पूरी जिंदगी लिख दी. जवानी उस के नाम कर दी, अपनी हसरतों, अपनी ख्वाहिशों के ताश के महल बना कर खुद ही उसे टूटतेबिखरते देखती रहीं. जिस्म की कसक, तड़प को खुद ही दिलासा दे कर सहलाती रहीं सालों तक.

रिश्तेदार, शफीका से मिलते लेकिन कोई भी उन के दिल में उतर कर नहीं देख पाता कि हर खुशी के मौके पर गाए जाने वाले लोकगीतों के बोलों के साथ बजते हुए कश्मीरी साजों, डफली की हर थाप पर एक विरह गीत अकसर शफीका के कंपकंपाते होंठों पर आज भी क्यों थिरकता जाता है-

‘तू आए न आए

लगी हैं निगाहें

सितारों ने देखी हैं

झुकझुक के राहें

ये दिल बदगुमां है

नजर को यकीं है

तू जो नहीं है

तो कुछ भी नहीं है

ये माना कि महफिल

जवां है हसीं है.’

अब आज पूरे 3 महीनों बाद मुझे अचानक डायरी में फूफीदादी का दिया हुआ परचा दिखाई दिया तो इंटरनैट पर कश्मीरी मुसलमानों के नाम फिर से सर्च कर डाले. पता वही था, नाम डा. खालिद अनवर, उम्र 90 साल. फोन मिलाया तो एक गहरी लेकिन थकी आवाज ने जवाब दिया, ‘‘डाक्टर खालिद अनवर स्पीकिंग.’’

‘‘आय एम फ्रौम श्रीनगर, इंडिया, आई वांट टू मीट विद यू.’’

‘‘ओ, श्योर, संडे विल बी बैटर,’’ ब्रिटिश लहजे में जवाब मिला.

जी चाहा फूफीदादी को फोन लगाऊं, दादी मिल गया पता…वैसे मैं उन से मिल कर क्या कहूंगा, अपना परिचय कैसे दूंगा, कहीं हमारे खानदान का नाम सुन कर ही मुझे अपने घर के गेट से बाहर न कर दें, एक आशंका, एक डर पूरी रात मुझे दीमक की तरह चाटता रहा.

निश्चित दिन, निश्चित समय, उन के घर की डौरबैल बजाने से पहले, क्षणभर के लिए हाथ कांपा था, ‘तुम शफीका के भतीजे के बेटे हो. गेटआउट फ्रौम हियर. वह पृष्ठ मैं कब का फाड़ चुका हूं. तुम क्या टुकड़े बटोरने आए हो?’ कुछ इस तरह की ऊहापोह में मैं ने डौरबैल पर उंगली रख दी.

‘‘प्लीज कम इन, आई एम वेटिंग फौर यू.’’ एक अनौपचारिक स्वागत के बाद उन के द्वारा मेरा परिचय और मेरा मिलने का मकसद पूछते ही मैं कुछ देर तो चुप रहा, फिर अपने ननिहाल का पता बतलाने के बाद देर तक खुद से लड़ता रहा.

अनौपचारिक 2-3 मुलाकातों के बाद वे मुझ से थोड़ा सा बेबाक हो गए. उन की दूसरी पत्नी की मृत्यु 15 साल पहले हो चुकी थी. बेटों ने पाश्चात्य सभ्यता के मुताबिक अपनी गृहस्थियां अलग बसा ली थीं. वीकैंड पर कभी किसी का फोन आ जाता, कुशलता मिल जाती. महीनों में कभी बेटों को डैड के पास आने की फुरसत मिलती भी तो ज्यादा वक्त फोन पर बिजनैस डीलिंग में खत्म हो जाता. तब सन जैसी सफेद पलकें, भौंहें और सिर के बाल चीखचीख कर पूछने लगते, ‘क्या इसी अकेलेपन के लिए तुम श्रीनगर में पूरा कुनबा छोड़ कर यहां आए थे?’

हालांकि डाक्टर खालिद अनवर की उम्र चेहरे पर हादसों का हिसाब लिखने लगी थी मगर बचपन से जवानी तक खाया कश्मीर का सूखा मेवा और फेफड़े में भरी शुद्ध, शीतल हवा उन की कदकाठी को अभी भी बांस की तरह सीधा खड़ा रखे हुए है. डाक्टर ने बुढ़ापे को पास तक नहीं फटकने दिया. अकसर बेटे उन के कंधे पर हाथ रख कर कहते हैं, ‘‘डैड, यू आर स्टिल यंग दैन अस. सो, यू डौंट नीड अवर केयर.’’ यह कहते हुए वे शाम से पहले ही अपने घर की सड़क की तरफ मुड़ जाते हैं.

शरीर तो स्वस्थ है लेकिन दिल… छलनीछलनी, दूसरी पत्नी से छिपा कर रखी गई शफीका की चिट्ठियां और तसवीरों को छिपछिप कर पढ़ने और देखने के लिए मजबूर थे. प्यार में डूबे खतों के शब्द, साथ गुजारे गिनती के दिनों के दिलकश शाब्दिक बयान, 63 साल पीछे ले जाता, यादों के आईने में एक मासूम सा चेहरा दिखलाई देने लगता. डाक्टर हाथ बढ़ा कर उसे छू लेना चाहते हैं जिस की याद में वे पलपल मरमर कर जीते रहे. बीवी एक ही छत के नीचे रह कर भी उन की नहीं थी. दौलत का बेशुमार अंबार था. शानोशौकत, शोहरत, सबकुछ पास में था अगर नहीं था तो बस वह परी चेहरा, जिस की गरम हथेलियों का स्पर्श उन की जिंदगी में ऊर्जा भर देता.

मेरे अपनेपन में उन्हें अपने वतन की मिट्टी की खुशबू आने लगी थी. अब वे परतदरपरत खुलने लगे थे. एक दिन, ‘‘लैपटौप पर क्या सर्च कर रहे हैं?’’

‘‘बेटी के लिए प्रौपर मैच ढूंढ़ रहा हूं,’’ कहते हुए उन का गला रुंधने लगा. उन की यादों की तल्ख खोहों में उस वक्त वह कंपा देने वाली घड़ी शामिल थी, जब उन की बेटी का पति अचानक बिना बताए कहीं चला गया. बहुत ढूंढ़ा, इंटरनैशनल चैनलों व अखबारों में उस की गुमशुदगी की खबर छपवाई, लेकिन सब फुजूल, सब बेकार. तब बेटी के उदास चेहरे पर एक चेहरा चिपकने लगा. एक भूलाबिसरा चेहरा, खोयाखोया, उदास, गमगीन, छलछला कर याचना करती 2 बड़ीबड़ी कातर आंखें.

किस का है यह चेहरा? दूसरी बीवी का? नहीं, तो? मां का? बिलकुल नहीं. फिर किस का है, जेहन को खुरचने लगे, 63 साल बाद यह किस का चेहरा? चेहरा बारबार जेहन के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. किस की हैं ये सुलगती सवालिया आंखें? किस का है यह कंपकंपाता, याचना करता बदन, मगर डाक्टर पर उस का लैशमात्र भी असर नहीं हुआ था. लेकिन आज जब अपनी ही बेटी की सिसकियां कानों के परदे फाड़ने लगीं तब वह चेहरा याद आ गया.

दुनियाभर के धोखों से पाकसाफ, शबनम से ज्यादा साफ चेहरा, वे कश्मीर की वादियां, महकते फूलों की लटकती लडि़यों के नीचे बिछी खूबसूरत गुलाबी चादर, नर्म बिस्तर पर बैठी…खनकती चूडि़यां, लाल रेशमी जोड़े से सजा आरी के काम वाला लहंगाचोली, मेहंदी से सजे 2 गोरे हाथ, कलाई पर खनकती सोने की चूडि़यां, उंगलियों में फंसी अंगूठियां. हां, हां, कोई था जिस की मद्धम आवाज कानों में बम के धमाकों की तरह गूंज रही थी, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी खालिद, हमेशा.

लाहौर एयरपोर्ट पर अलविदा के लिए लहराता हाथ, दिल में फांस सी चुभी कसक इतनी ज्यादा कि मुंह से बेसाख्ता चीख निकल गई, ‘‘हां, गुनहगार हूं मैं तुम्हारा. तुम्हारे दिल से निकली आह… शायद इसीलिए मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद हो गई. मेरे चाचा के बहुत जोर डालने पर, न चाहते हुए भी मुझे उन की अंगरेज बेटी से शादी करनी पड़ी. दौलत का जलवा ही इतना दिलफरेब होता है कि अच्छेअच्छे समझदार भी धोखा खा जाते हैं.

‘‘शफीका, तुम से वादा किया था मैं ने. तुम्हें लाहौर ला कर अपने साथ रखने का. वादा था नए सिरे से खुशहाल जिंदगी में सिमट जाने का, तुम्हारी रातों को हीरेमोती से सजाने का, और दिन को खुशियों की चांदनी से नहलाने का. पर मैं निभा कहां पाया? आंखें डौलर की चमक में चौंधिया गईं. कटे बालों वाली मोम की गुडि़या अपने शोख और चंचल अंदाज से जिंदगी को रंगीन और मदहोश कर देने वाली महक से सराबोर करती चली गई मुझे.’’

अचानक एक साल बाद उन का दामाद इंगलैंड लौट आया, ‘‘अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा. आप की बेटी के साथ ही रहूंगा. वादा करता हूं.’’

दीवानगी की हद तक मुहब्बत करने वाली पत्नी को छोड़ कर दूसरी अंगरेज औरत के टैंपरेरी प्यार के आकर्षण में बंध कर जब वह पूरी तरह से कंगाल हो गया तो लौटने के लिए उसे चर्चों के सामने खड़े हो कर वायलिन बजा कर लोगों से पैसे मांगने पड़े थे.

पति की अपनी गलती की स्वीकृति की बात सुन कर बेटी बिलबिला कर चीखी थी, ‘‘वादा, वादा तोड़ कर उस फिनलैंड वाली लड़की के साथ मुझ पत्नी को छोड़ कर गए ही क्यों थे? क्या कमी थी मुझ में? जिस्म, दौलत, ऐशोआराम, खुशियां, सबकुछ तो लुटाया था तुम पर मैं ने. और तुम? सिर्फ एक नए बदन की हवस में शादी के पाकीजा बंधन को तोड़ कर चोरों की तरह चुपचाप भाग गए. मेरे यकीन को तोड़ कर मुझे किरचियों में बिखेर दिया.

‘‘तुम को पहचानने में मुझ से और मेरे बिजनैसमैन कैलकुलेटिव पापा से भूल हो गई. मैं इंगलैंड में पलीपढ़ी हूं, लेकिन आज तक दिल से यहां के खुलेपन को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकी. मुझ से विश्वासघात कर के पछतावे का ढोंग करने वाले शख्स को अब मैं अपना नहीं सकती. आई कांट लिव विद यू, आई कांट.’’ यह कहती हुई तड़प कर रोई थी डाक्टर की बेटी.

आज उस की रुलाई ने डाक्टर को हिला कर रख दिया. आज से 50 साल पहले शफीका के खामोश गरम आंसू इसी पत्थरदिल डाक्टर को पिघला नहीं सके थे लेकिन आज बेटी के दर्द ने तोड़ कर रख दिया. उसी दम दोटूक फैसला, दामाद से तलाक लेने के लिए करोड़ों रुपयों का सौदा मंजूर था क्योंकि बेटी के आंसुओं को सहना बरदाश्त की हद से बाहर था.

डाक्टर, शफीका के कानूनी और मजहबी रूप से सहारा हो कर भी सहारा न बन सके, उस मजलूम और बेबस औरत के वजूद को नकार कर अपनी बेशुमार दौलत का एक प्रतिशत हिस्सा भी उस की झोली में न डाल सके. शफीका की रात और दिन की आह अर्श से टकराई और बरसों बाद कहर बन कर डाक्टर की बेटी पर टूटी. वह मासूम चेहरा डाक्टर को सिर्फ एक बार देख लेने, एक बार छू लेने की चाहत में जिंदगी की हर कड़वाहट को चुपचाप पीता रहा. उस पर रहम नहीं आया कभी डाक्टर को. लेकिन आज बेटी की बिखरतीटूटती जिंदगी ने डाक्टर को भीतर तक आहत कर दिया. अब समझ में आया, प्यार क्या है. जुदाई का दर्द कितना घातक होता है, पहाड़ तक दरक जाते हैं, समंदर सूख जाते हैं.

मैं यह खबर फूफीदादी तक जल्द से जल्द पहुंचाना चाहता था, शायद उन्हें तसल्ली मिलेगी. लेकिन नहीं, मैं उन के दिल से अच्छी तरह वाकिफ था. ‘मेरे दिल में डाक्टर के लिए नफरत नहीं है. मैं ने हर लमहा उन की भलाई और लंबी जिंदगी की कामना की है. उन की गलतियों के बावजूद मैं ने उन्हें माफ कर दिया है, बजी,’ अकसर वे मुझ से ऐसा कहती थीं.

मैं फूफीदादी को फोन करने की हिम्मत जुटा ही नहीं सका था कि आधीरात को फोन घनघना उठा था, ‘‘बजी, फूफीदादी नहीं रहीं.’’ क्या सोच रहा था, क्या हो गया. पूरी जिंदगी गीली लकड़ी की तरह सुलगती रहीं फूफीदादी.

सुबह का इंतजार मेरे लिए सात समंदर पार करने की तरह था. धुंध छंटते ही मैं डाक्टर के घर की तरफ कार से भागा. कम से कम उन्हें सचाई तो बतला दूं. कुछ राहत दे कर उन की स्नेहता हासिल कर लूं मगर सामने का नजारा देख कर आंखें फटी की फटी रह गईं. उन के दरवाजे पर एंबुलैंस खड़ी थी. और घबराई, परेशान बेटी ड्राइवर से जल्दी अस्पताल ले जाने का आग्रह कर रही थी. हार्टअटैक हुआ था उन्हें. हृदयविदारक दृश्य.

मैं स्तब्ध रह गया. स्टेयरिंग पर जमी मेरी हथेलियों के बीच फूफीदादी का लिखा खत बर्फबारी में भी पसीने से भीग गया, जिस पर लिखा था, ‘बजी, डाक्टर अगर कहीं मिल जाएं तो यह आखिरी अपील करना कि वे मुझ से मिलने कश्मीर कभी नहीं आए तो मुझे कोई शिकवा नहीं है लेकिन जिंदगी के रहते एक बार, बस एक बार, अपनी मां की कब्र पर फातेहा पढ़ जाएं और अपनी सरजमीं, कश्मीर की खूबसूरत वादियों में एक बार सांस तो ले लें. मेरी 63 साल की तपस्या और कुरबानियों को सिला मिल जाएगा. मुझे यकीन है तुम अपने वतन से आज भी उतनी ही मुहब्बत करते हो जितनी वतन छोड़ते वक्त करते थे.’

गुनाहों की सजा तो कानून देता है, लेकिन किसी का दिल तोड़ने की सजा देता है खुद का अपना दिल.

‘तू आए न आए,

लगी हैं निगाहें

सितारों ने देखी हैं

झुकझुक के राहें…’

इस गजल का एकएक शब्द खंजर बन कर मेरे सीने में उतरने लगा और मैं स्टेयरिंग पर सिर पटकपटक कर रो पड़ा.

चोट : नेकलेस के चक्कर में रीना की मौत

योगेन नपेतुले कदमों से आगे बढ़ते हुए साफ महसूस कर रहा था कि आगे चल रही महिला उस से डर रही है. उस अंधेरे कौरीडोर में वह बारबार पीछे मुड़ कर देख रही थी. उस की आंखों में एक अंजाना सा डर था और वह बेहद घबराई हुई लग रही थी. शायद उसे लग रहा था कि वह उस का पीछा कर रहा है. बिजनैस सेंटर में ज्यादातर औफिस थे, जिन में अब तक काफी बंद हो चुके थे. इस बिजनैस सेंटर में खास बात यह थी कि इस के औफिस में किसी भी समय आयाजाया जा सकता था. इसीलिए सेंटर के गेट पर एक रजिस्टर रख दिया गया था, जिस में आनेजाने वालों को अपना नामपता और समय लिखना होता था.

महिला रजिस्टर में अपना नामपता और समय लिख कर तेजी से आगे बढ़ गई. उस के बाद योगेन भी नामपता और समय लिख कर महिला के साथ लिफ्ट में सवार हो गया था. लिफ्ट में महिला ने एक बार भी नजर उठा कर उस की ओर नहीं देखा.

शायद वह अपने खौफ पर काबू पाने की कोशिश कर रही थी. योगेन ने लिफ्ट औपरेटर से कहा, ‘‘सातवीं मंजिल पर जाना है.’’

इस पर महिला ने चौंक कर उस की ओर देखा, क्योंकि उसे भी उसी मंजिल पर जाना था. यह सोच कर उस की सांस रुकने लगी कि यह आदमी क्यों उस के पीछे लगा है?

चंद पलों में ही सातवीं मंजिल आ गई. लिफ्ट का दरवाजा खुलते ही महिला तेजी से निकली और उसी रफ्तार से आगे बढ़ गई. उस की ऊंची ऐड़ी के सैंडल फर्श पर ठकठक बज रहे थे. तेजी से चलते हुए उस ने पलट कर देखा तो गिरतेगिरते बची.

योगेन की समझ में नहीं आ रहा था कि वह उस महिला को कैसे समझाए कि वह उस का पीछा नहीं कर रहा, इसलिए उसे उस से डरने की कोई जरूरत नहीं है.

आगे बढ़ते हुए योगेन दोनों ओर बने धुंधले शीशे वाले औफिसों पर नजर डालता जा रहा था. अंधेरा होने की वजह से दरवाजों पर लिखे नंबर ठीक से दिखाई नहीं दे रहे थे. कौरीडोर खत्म होते ही महिला बाईं ओर मुड़ गई. वह भी उसी ओर मुड़ा तो महिला और ज्यादा सहम गई.

वह और तेजी से आगे बढ़ कर एक औफिस के आगे रुक गई. उस की लाइट जल रही थी. दरवाजे के हैंडल पर हाथ रख कर उस ने योगेन की ओर देखा. लेकिन वह उस के करीब से आगे बढ़ गया.

आगे बढ़ते हुए योगेन ने दरवाजे पर नजर डाली थी. उस पर डा. साहिल परीचा के नाम का बोर्ड लगा था. उस के आगे बढ़ जाने से महिला हैरान तो हुई ही, उसे यकीन भी हो गया कि वह उस का पीछा नहीं कर रहा था.

योगेन अंधेरे में डूबे दरवाजों को पार करते हुए आगे बढ़ता रहा. उस कौरीडोर में आखिरी दरवाजे से रोशनी आ रही थी. आगे बढ़ते हुए उस ने अपनी दोनों जेबें थपथपाई. एक जेब में पिस्तौल था, जिसे इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं पड़ी थी. दूसरी जेब में 50 लाख रुपए की कीमत का बहुमूल्य हीरे का नेकलैस मखमल की एक डिब्बी में रखा था. जिसे लेने से पहले योगेन ने अच्छी तरह चैक किया था. वह वही नेकलैस पहुंचाने यहां आया था.

दरवाजा खोलने से पहले योगेन ने पलट कर देखा तो वह महिला अभी तक दरवाजे पर खड़ी उसी को देख रही थी. योगेन ने उसे घूरा तो वह हड़बड़ा कर जल्दी से अंदर चली गई.

योगेन ने एक बार फिर खाली कौरीडोर को देखा और दरवाजा खोल कर अंदर चला गया. सामने रिसैप्शन में बैठी लड़की उसे देख कर मुसकराते हुए उठी और उस के गले लग गई. योगेन कुछ कहता, उस के पहले ही वह बोली, ‘‘तुम एकदम सही समय साढ़े 8 बजे आए हो डियर. उसे साथ ले आए हो न?’’

‘‘हां, ले आया हूं.’’ योगेन ने जेब पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘कैसा है, क्या बहुत खूबसूरत है?’’ लड़की ने बेचैनी से पूछा.

योगेन ने लड़की का हाथ पकड़ कर उस के बाएं हाथ की हीरे की अंगूठी देखते हुए कहा, ‘‘रीना, नेकलैस के सारे हीरे इस से बड़े और काफी कीमती हैं.’’

‘‘योगेन फिर कभी ऐसा मत कहना. मेरे लिए यह अंगूठी दुनिया की सब से कीमती चीज है. जानते हो क्यों? क्योंकि इसे तुम ने दिया है. यह तुम्हारे प्यार की निशानी है.’’ रीना योगेन की आंखों में झांकते हुए प्यार से कहा.

रीना की इस बात पर योगेन मुसकराया.

रीना ने अपने बैग से टिशू पेपर निकालते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे गाल पर मेरी लिपस्टिक का निशान लग गया है…’’ रीना इतना ही कह पाई थी कि उस की आंखें हैरानी से फैल गईं और आगे की बात मुंह में ही रह गई.

रीना की हालत से ही योगेन अलर्ट हो गया. वह समझ गया कि उस के पीछे जरूर कोई मौजूद है. उस ने मुड़ने की कोशिश की कि तभी उस के सिर के पिछले हिस्से पर कोई भारी चीज लगी और वह रीना की बांहों में गिर कर बेहोश हो गया.

जब उसे होश आया तो उसे लगा कि वह किसी मुलायम चीज पर लेटा है. सिर के पिछले हिस्से में तेज दर्द हो रहा था. उस के होंठों से कराह निकली. आंखें खोलने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहा.

उसे लगा जैसे उस की आंखों पर भारी बोझ रखा है. फिर भी उस ने हिम्मत कर के आंखें खोल दीं. लेकिन तेज रोशनी से उस की आंखें बंद हो गईं. उस के कानों में कुछ आवाजें पड़ रही थीं. कोई कह रहा था, ‘‘ओह गाड, यह क्या हुआ?’’

‘‘पता नहीं, मैं ने इसे इसी तरह पड़ा पाया था.’’ किसी ने जवाब दिया.

‘‘अरे इसे होश आ रहा है.’’ किसी ने कहा.

इस के बाद 2-3 लोगों ने मिल कर योगेन को उठाया तो उस के हलक से कराह निकल गई.

‘‘आराम से, शायद यह जख्मी है. शायद इसे दिमागी चोट आई है. रुको डा. परीचा के औफिस में लाइट जल रही है. मैं उन्हें बुला कर लाता हूं.’’ किसी ने भारी आवाज में कहा.

‘‘ठीक है, डाक्टर को जल्दी ले कर आओ.’’ किसी अन्य ने कहा.

अब तक योगेन को पूरी तरह से होश आ गया था. कोई धीरेधीरे उस के शरीर को टटोल रहा था. शायद चोट तलाश रहा था. जैसे ही उस का हाथ योगेन के सिर के पीछे पहुंचा, उसके मुंह से कराह निकल गई. उस का शरीर कांप उठा.

‘‘इस का मतलब सिर के पिछले हिस्से में काफी गहरी चोट लगी है. इसे उठा कर सोफे पर लिटाओ, उस के बाद देखता हूं.’’

योगेन को उठा कर मुलायम और आरामदेह सोफे पर लिटा दिया गया. इस के बाद कोई उस के जख्म की जांच करने लगा तो उसे तकलीफ हुई और वह दोबारा बेहोश हो गया.

योगेन को दोबारा होश आया तो उस का दर्द काफी कम हो चुका था. उसे ऐसा लग रहा था, जैसे वह नींद से जागा हो. किसी की कोमल अंगुलियों ने उस के सिर को छुआ तो उस ने आंखें खोल दीं. उस की आंखों के सामने उसी औरत का चेहरा था, जो कौरीडोर में उस से डर रही थी. लेकिन अब डर की जगह उस के चेहरे पर मुसकराहट थी.

उस ने हमदर्दी से पूछा, ‘‘अब तुम कैसा फील कर रहे हो?’’

‘‘ठीक हूं.’’ योगेन ने मुश्किल से जवाब दिया.

‘‘मुझे पहचाना मैं लिलि… लिलि पराशर. मैं वही हूं, जो तुम्हारे आगेआगे बिजनैस सेंटर में आई थी. तुम मेरे पीछे थे.’’ लिलि ने बेहद नरमी से कहा.

‘‘लेकिन मैं तुम्हारा पीछा नहीं कर रहा था.’’

‘‘तुम्हें याद है, मैं डा. परीचा के औफिस में गई थी?’’ लिलि ने पूछा.

योगेन ने ‘हां’ में सिर हिला दिया.

‘‘तुम से मेरी एक रिक्वैस्ट है. अगर तुम ने मेरी बात मान ली तो मुझ पर एक बड़ा एहसान करोगे.’’ लिलि ने कहा.

‘‘इस की वजह?’’ योगेन ने पूछा.

‘‘दरअसल, मेरे पति अतुल पराशर बहुत ही शक्की स्वभाव के हैं. मैं और डा. परीचा बहुत अच्छे दोस्त हैं. शादी के पहले से हम एकदूसरे को जानते हैं. अतुल उन से जलता है, इसलिए मैं चाहती हूं कि तुम यह बात भूल जाओ कि मैं डाक्टर के औफिस में गई थी. इस समय तुम मेरे पति के ही औफिस में हो.’’

योगेन चुपचाप उसे देखता रहा. लिलि ने आगे कहा, ‘‘मेरी बात मानोगे न? बाहर पुलिस आ चुकी है. कहीं ऐसा न हो कि तुम कह दो कि मैं डाक्टर के पास गई थी.’’

‘‘पुलिस… पुलिस क्यों आई है?’’ यह कह योगेन उठा और दरवाजे की ओर बढ़ा. लिलि ने उसे रोकना चाहा, लेकिन वह रुका नहीं. उसे चक्कर आ गया तो उस ने दीवार का सहारा ले कर दरवाजा खोला. दूसरे कमरे में काफी लोग जमा थे. फर्श पर रीना चित लेटी थी. उस की आंखें खुली थीं, चेहरा सफेद पड़ गया था. उस के सीने में चमकदार चीज घुसी थी. वह जोर से चीखा, ‘‘रीना…’’

इसी के साथ वह लड़खड़ा कर गिरने लगा तो 2 लोगों ने उसे संभाल कर सोफे पर लिटा दिया. थोड़ी देर बाद एक स्मार्ट सा आदमी उस के पास आ कर बोला, ‘‘मैं इंसपेक्टर पटेल…क्या तुम इस लड़की को जानते हो?’’

‘‘जी, रीना मेरी मंगेतर थी.’’ उस ने उदासी से कहा.

‘‘जी, मुझे अफसोस है. इस लड़की का कातिल यहीं मौजूद है. वह कौन है? हम पता करने की कोशिश कर रहे हैं.’’ पटेल ने हमदर्दी से कहा, ‘‘मैं उसे जल्दी ही पकड़ लूंगा.’’

योगेन चुपचाप भरी आंखों से पटेल को देखता रहा. इंसपेक्टर पटेल ने पूछा, ‘‘तुम मि. अतुल पराशर को हीरो का नेकलैस डिलीवर करने आए थे न?’’

यह सुन कर योगेन का हाथ जेब पर गया. जेब में न नेकलैस था, न पिस्तौल. उस ने कहा, ‘‘सर, नेकलैस की डिबिया गायब है.’’

‘‘मुझे पता है. मैं तुम्हारी तलाशी ले चुका हूं. तुम्हारी पिस्तौल मेरे पास है. तुम पूरी बात मुझे बताओ.’’ पटेल ने कहा.

योगेन ने शुरू से अंत तक पूरी बात बता दी. उस के बाद पटेल ने कहा, ‘‘तुम्हारे और मृतका लड़की के अलावा बाहर के कमरे में 4 लोग मौजूद हैं. वे चारों इसी फ्लोर पर थे. इन में से किसी ने तुम्हारे ऊपर हमला कर के तुम्हारी मंगेतर का कत्ल किया और तुम्हारी जेब से वह नेकलैस लिया.’’

‘‘क्या, सचमुच कातिल और चोर बाहर मौजूद हैं?’’ योगेन ने पूछा.

‘‘हां, क्योंकि इन लोगों के अलावा यहां कोई और नहीं था. लिफ्ट से कोई आया नहीं, सीढि़यों वाले दरवाजे में ताला बंद था.’’ पटेल ने बताया.

‘‘वे 4 लोग कौन हैं?’’ योगेन ने पूछा.

‘‘मि. अतुल, उन की बीवी लिलि, डा. परीचा और एक इंश्योरैंस एजेंट प्रेमप्रकाश.’’

‘‘आप ने उन लोगों से कुछ पता किया?’’

‘‘हम ने सभी की अच्छी तरह तलाशी ले ली है. डा. परीचा और अतुल के औफिसों की भी अच्छी तरह तलाशी ले ली गई है. लेकिन नेकलैस नहीं मिला. कोई सुराग भी नहीं मिल रहा है.’’ पटेल ने कहा.

‘‘हो सकता है, किसी तरह नेकलैस बाहर पहुंचा दिया गया हो?’’ योगेन ने कहा.

‘‘सवाल ही नहीं उठता. हम ने लगभग सभी दरवाजे लौक करवा दिए हैं. सारे रास्ते बंद करा दिए हैं. सब से जरूरी है कातिल को पकड़ना. नेकलैस को बाद में भी ढूंढ़ लेंगे.’’

‘‘रीना को किस ने और कैसे मारा?’’ योगेन ने रुंधे गले से पूछा.

‘‘किसी ने लिफाफे खोलने वाली छुरी, जो उस की मेज पर रखी रहती थी, उसी को उस के सीने में घोंप कर मार दिया है. तुम्हारे सिर पर पीछे से एक पाइप से वार किया गया था, जिस पर कपड़ा लपेटा हुआ था.’’

‘‘अब आप क्या करेंगे?’’ उस ने पूछा.

‘‘मैं तुम्हारे सामने उन चारों को बुला कर पूछताछ करूंगा. तुम सारी बातें सुनते रहना, शायद उस में काम की कोई बात निकल आए.’’ इंसपेक्टर पटेल ने कहा.

इस के बाद उन्होंने लिलि और अतुल को बुलवाया. लिलि ने सवालिया नजरों से योगेन की ओर देखा तो योगेन ने उसे नजरंदाज कर के उस के पति की ओर देखा. वह एक छोटे कद का भारीभरकम आम सा आदमी था, जबकि लिलि काफी खूबसूरत थी. अतुल ने आते ही ऐतराज करते हुए कहा, ‘‘मैं पुलिस का हर तरह से सहयोग कर रहा हूं, फिर भी मुजरिमों की तरह मेरी तलाशी ली जा रही है. मेरी बीवी को भी पूछताछ में शामिल किया गया है.’’

पटेल ने उस के ऐतराज पर ध्यान दिए बगैर योगेन का उस से परिचय कराया. अतुल ने हमदर्दी से कहा, ‘‘तो तुम्हीं से रीना की शादी होने वाली थी?’’

योगेन ने ‘हां’ में सिर हिलाया.

‘‘उस की मौत का मुझे बहुत अफसोस है. रीना अकसर तुम्हारा जिक्र किया करती थी. उसी के कहने पर मैं ने तुम्हारी फर्म की नेकलैस का और्डर दिया था. काश, मैं ऐसा न करता.’’ अफसोस जाहिर करते हुए अतुल ने कहा.

‘‘इस का मतलब तुम ने रीना की सिफारिश पर नेकलैस का और्डर दिया था?’’ पटेल ने कहा.

‘‘जी, मेरे और्डर पर इस लड़के को फायदा होता. हालांकि यह उस फर्म का सेल्समैन नहीं है, फिर भी रीना के कहने पर मैं ने उस फर्म से संपर्क कर और्डर देते हुए कहा था कि वह नेकलैस योगेन के जरिए मुझे भिजवा दिया जाए, ताकि उसे फायदा हो जाए.’’

‘‘मि. अतुल, सब से पहले तुम ने रीना और योगेन को देखा था?’’ पटेल ने पूछा.

‘‘मैं अपने औफिस में बैठा था. रिसेप्शन पर मुझे शोर सुनाई दिया तो मैं ने घंटी बजाई कि रीना को बुला कर इस शोर के बारे में पता करूं. लेकिन रीना की तरफ से कोई जवाब नहीं आया तो मैं बाहर निकला. तब ये दोनों मुझे फर्श पर पड़े मिले. रीना के सीने में लिफाफे खोलने वाली छूरी घुसी हुई थी और यह योगेन बेहोश पड़ा था.’’

‘‘फिर…?’’

‘‘मैं मामला समझ ही रहा था कि प्रेमप्रकाश अंदर आए. मैं ने उन से डा. परीचा को बुलाने को कहा. इस के बाद पुलिस को फोन किया.’’

‘‘मिसेज अतुल पराशर मैं यह जानना चाहता हूं कि तुम अपने पति के औफिस में आने से पहले डा. परीचा के औफिस में क्यों गई थीं? और तुम ने योगेन से यह क्यों कहा कि वह इस बात का किसी से जिक्र न करे?’’

लिलि ने गुस्से से योगेन की ओर देखा. उस के बाद बोली, ‘‘इंसपेक्टर योगेन या तो ख्वाबों की दुनिया में रहता है या बहुत बड़ा झूठा है.’’

‘‘ठीक है, हम डा. परीचा से पता कर लेते हैं, लेकिन उस से पहले प्रेमप्रकाश से बात करूंगा. वहीं डा. परीचा को बुलाने गया था. अगर तुम वहां थीं तो उस ने तुम्हें जरूर देखा होगा?’’ पटेल ने रूखेपन से कहा.

‘‘जरूरजरूर, अगर सच में मैं डा. परीचा के पास थी तो प्रेमप्रकाश जरूर बता देगा.’’ लिलि ने कहा.

इस के बाद उस ने अतुल की ओर देखा, जो कभी पटेल को देख रहा था और कभी लिलि को. उस के चेहरे पर उलझन थी. लिलि समझ गई थी कि योगेन ने ही इंसपेक्टर पटेल को यह बताया होगा.

‘‘इंसपेक्टर, आप मुझ से सवाल पर सवाल किए जा रहे हैं और इस आदमी से कुछ नहीं पूछ रहे हैं, जिस के गाल पर अभी तक लिपस्टिक का निशान है.’’ लिलि ने कहा.

‘‘तुम चुपचाप आराम से बैठो. यह पुलिस की जांच है, कोई मजाक नहीं. बेकार की बातें करने के बजाय यह बताओ कि तुम डाक्टर के औफिस में क्यों गई थी?’’ इंसपेक्टर पटेल ने पूछा.

‘‘तुम्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होना चाहिए.’’ लिलि ने गुस्से में कहा.

इस बात पर उस का पति अतुल गुस्से में बोला, ‘‘पर मुझे मतलब है लिलि. मुझे बताओ कि तुम डा. परीचा के औफिस में क्यों गई थीं?’’

‘‘अतुल, तुम क्यों पागल हो रहे हो?’’

‘‘मैं तुम्हारा पति हूं. मेरा पूरा हक है यह जानने का कि तुम डाक्टर के पास क्यों गई थीं? क्या मैं बेवकूफ हूं कि इतनी बड़ी रकम खर्च कर के तुम्हारे लिए हीरों का नेकलैस खरीद रहा था? मेरी यही मंशा थी कि तुम डाक्टर का खयाल तक न करो, पूरी तरह मेरी वफादार बन जाओ. रीना ने ही मुझ से कहा था कि मैं वह हीरों का नेकलैस इस के मंगेतर योगेन के जरिए खरीदूं, ताकि उस का कुछ भला हो जाए. उसे कमीशन मिल सके. यह इतना कीमती नेकलैस मैं ने तुम्हारे लिए ही खरीदा था और इस के बदले मैं तुम्हारी वफा चाहता था, लेकिन मुझे खुशी है कि वह नेकलैस चोरी हो गया. अच्छा हुआ जो तुम जैसी बेवफा औरत को नहीं मिला. वैसे भी मैं ने कौन सी अभी उस की कीमत अदा की है. अच्छा हुआ कि तुम्हारे चेहरे से नकाब उतर गया. तुम्हारी असली सूरत सामने आ गई. शक तो मुझे पहले भी था, अब तो इस का सबूत भी मिल गया.’’

‘‘जहन्नुम में जाओ तुम और तुम्हारा नेकलैस. मामूली सी बात का बतंगड़ बना दिया सब ने.’’ लिलि गुस्से से बोली.

‘‘तुम दोनों लड़नाझगड़ना बंद करो. यह तुम्हारा आपस का मामला है. घर जा कर सुलझाना. यहां जांच हो रही है, उस में अड़ंगे मत डालो.’’ इंसपेक्टर पटेल ने कहा.

इंसपेक्टर पटेल ने डा. परीचा और प्रेम प्रकाश को अंदर बुलाया. डा. परीचा सेहतमंद और काफी स्मार्ट था. प्रेमप्रकाश लंबा और स्लिम था. वह इंश्योरैंस एजेंट था.

‘‘प्रेमप्रकाश जब तुम डाक्टर को बुलाने उस के औफिस में गए थे तो वह अकेला था या उस के साथ कोई और था?’’ इंसपेक्टर ने पहला सवाल किया.

‘‘मैं सिर्फ बाहरी कमरे तक ही गया था. वह वहां अकेला ही था. अंदर के कमरे में कोई रहा हो तो मुझे मालूम नहीं.’’ प्रेमप्रकाश ने कहा.

‘‘तुम क्या कहते हो डा. परीचा?’’ पटेल ने डा. परीचा से पूछा.

‘‘मैं अकेला था.’’ डाक्टर धीरे से बोला.

‘‘लिलि पराशर तुम्हारे साथ नहीं थीं?’’

उस ने इनकार में सिर हिला दिया.

‘‘पर लिलि ने तो मान लिया है कि वह तुम्हारे साथ थी.’’ इंसपेक्टर पटेल ने कहा.

पर डाक्टर इनकार करता रहा.

‘‘डाक्टर पुलिस के काम में उलझन मत पैदा करो. तुम्हें अंदाजा नहीं है कि तुम्हारा यह झूठ तुम्हें मुश्किल में डाल सकता है. लिलि और उस के पति ने मान लिया है कि वह तुम्हारे कमरे में थी. पर तुम लगातार इनकार कर रहे हो. आखिर कारण क्या है?’’

‘‘मि. अतुल एक शक्की आदमी है. मैं नहीं चाहता कि मेरे सच बोलने की वजह से लिलि के लिए कोई मुसीबत खड़ी हो. वह पागल आदमी उस का जीना मुश्किल कर देगा.’’ डा. परीचा ने कहा.

‘‘तुम और लिलि शादी के पहले से दोस्त हो?’’

पटेल ने अचानक प्रेमप्रकाश से सवाल किया, ‘‘तुम ने मि. अतुल को इस लड़की और योगेन को करीब खड़े देखा था, ये दोनों फर्श पर पड़े थे, तुम अपने औफिस से इस औफिस में क्यों आए थे?’’

‘‘मैं यहां शोर सुन कर वजह जानने आया था.’’

‘‘तुम्हें नेकलैस के बारे में मालूम था?’’ पटेल ने घूरते हुए पूछा.

‘‘जी, अतुल ने मुझ से ही उस कीमती नेकलैस का इंश्योरैंस करवाया था. मुझे यह भी पता था कि वह नेकलैस आज ही उन्हें मिलने वाला है.’’ प्रेमप्रकाश ने कहा.

‘‘उस नेकलैस के चोरी होने से तुम्हें तो नुकसान होगा?’’ पटेल ने पूछा.

‘‘मुझे तो नहीं, हां मेरी कंपनी को जरूर नुकसान होगा. इस के लिए पुलिस जांच की रिपोर्ट की जरूरत पड़ेगी.’’ प्रेमप्रकाश ने बताया.

‘‘क्या तुम रेस खेलते हो, घोड़ों पर रकम लगाते हो, यह बहुत महंगा शौक है?’’ पटेल ने पूछा.

‘‘तुम्हारा मतलब है नेकलैस मैं ने चुराया है?’’ प्रेमप्रकाश ने खीझ कर पूछा.

पटेल ने उसे जवाब देने के बजाय डाक्टर से पूछा, ‘‘तुम इतनी रात तक अपने औफिस में क्या कर रहे थे? लिलि की राह देख रहे थे क्या?’’

‘‘मुझे लिलि के आने के बारे में कुछ भी पता नहीं था. वह जिस वक्त मेरे पास आई, घबराई हुई थी. उस ने बताया कि कोई उस का पीछा कर रहा है. उस ने यह भी कहा कि वह आदमी उस के पति के औफिस में गया है. इस के बाद हम बातें करने लगे. तभी प्रेमप्रकाश आ गया. मैं ने लिलि को अंदर वाले कमरे में भेज दिया और अपना बैग ले कर उस के साथ यहां आ गया. लिलि को मुझे छिपाना नहीं चाहिए था.’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘उस के बाद क्या हुआ?’’ पटेल ने पूछा.

‘‘जब मैं अतुल के औफिस में पहुंचा तो रीना मर चुकी थी. मगर यह लड़का जिंदा था. इस के सिर पर चोट आई थी. अगर चोट जरा भी गहरी होती तो यह मर भी सकता था.’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘अच्छा, तुम दोनों जा सकते हो.’’ पटेल ने कहा.

‘‘क्या मैं भी जा सकता हूं?’’ योगेन ने पूछा.

इंसपेक्टर पटेल ने उसे भी इजाजत दे दी.

योगेन की चोट तकलीफ दे रही थी. सिर के पिछले हिस्से में दर्द था. उस की नजरों के सामने बारबार रीना की लाश आ रही थी. कैसी हंसतीमुसकराती लड़की मिनटों में मौत की गोद में समा गई. नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. रीना से मुलाकात का दृश्य उस की आंखों में घूम रहा था, कानों में उस की आवाज गूंज रही थी.

वह उन आवाजों के बारे में सोचने लगा, जो जरा होश में आने पर उस के कानों में पड़ी थी. अचानक एक आवाज उसे याद आई तो वह उछल पड़ा. उस ने उसी वक्त इंसपेक्टर पटेल को फोन किया. पटेल ने झुंझला कर कहा, ‘‘अभी तुम सो जाओ, सुबह बात करेंगे.’’

‘‘इंसपेक्टर साहब, सुबह तक बहुत देर हो जाएगी. सारा खेल खतम हो जाएगा. हमें अभी और इसी वक्त बिजनैस सेंटर चलना होगा. मुझे उम्मीद है कि नेकलैस भी बरामद कर लेंगे और कातिल को भी पकड़ लेंगे.’’

आधे घंटे बाद दोनों अतुल के औफिस में बैठे थे. इंसपेक्टर पटेल थोड़ा नाराज थे. योगेन जबरदस्ती उन्हें औफिस ले आया था. गार्ड से चाबी ले कर अतुल का औफिस खोल कर दोनों उस में बैठे थे.

‘‘मुझे रीना के कातिल का पता चला गया है.’’ योगेन ने कहा.

‘‘कौन है वह?’’ इंसपेक्टर पटेल ने पूछा.

‘‘यह बड़ी होशियारी से तैयार किया गया प्लान था. कातिल किसी का कत्ल नहीं करना चाहता था. उस ने पाइप में भी कपड़ा लपेट रखा था, ताकि अपने शिकार को बेहोश कर के नेकलैस उड़ा सके. न जाने क्यों उस ने लिफाफे खोलने वाली छुरी से रीना पर हमला कर दिया? शायद उसे अंदाजा नहीं था कि यह छुरी किसी को मार भी सकती है.’’

‘‘यह सब छोड़ो, तुम यह बताओ कि हम यहां क्यों आए हैं? रीना का कातिल कौन है?’’ इंसपेक्टर पटेल ने पूछा.

‘‘जिस वक्त रीना मेरी बांहों में थी, उसी वक्त उस ने चौंक कर मेरे पीछे देखा था. मतलब उस ने मुझ पर हमला करने वाले को देख लिया था. हमला करने वाला मुझे बेहोश कर के नेकलैस हासिल करना चाहता था. मगर रीना ने उसे देख लिया था, इसलिए हमला करने वाले को मजबूरन उस का कत्ल करना पड़ा.’’ योगेन ने कहा.

‘‘आखिर वह है कौन?’’ पटेल ने झुंझला कर पूछा.

‘‘इस के लिए आप को थोड़ा इंतजार करना होगा. सुबह होते ही कातिल आप की गिरफ्त में होगा.’’ योगेन ने जवाब में कहा.

दोनों बैठे इंतजार करते रहे. जैसे ही सुबह का उजाला फैला, योगेन ने उठ कर अतुल के औफिस के दरवाजे में हलकी सी झिरी कर दी और बाहर झांकने लगा. पटेल भी उसी के साथ खड़ा था. धीरेधीरे लोग आने लगे. सभी अपनेअपने औफिसों में जा रहे थे. कुछ देर बाद डा. परीचा नजर आया, वह भी अपने औफिस का दरवाजा खोल कर अंदर चला गया.

अतुल और प्रेमप्रकाश भी नजर आए. दोनों साथसाथ बातें करते आ रहे थे. प्रेमप्रकाश अपने औफिस में चला गया. जैसे ही अतुल ने अपने औफिस के दरवाजे के हैंडल पर हाथ रखा, योगेन ने दरवाजा खोल दिया.

योगेन को अंदर देख कर अतुल हैरान रह गया. कभी वह इंसपेक्टर पटेल को देखता तो कभी योगेन को. योगेन ने कहा, ‘‘अतुलजी अंदर आ जाइए. थोड़ी देर में आप को सब मालूम हो जाएगा.’’

उन दोनों को हैरानी से देखते हुए अतुल अंदर आ गया. फिर वह अंदर के कमरे में चला गया. योगेन झिरी से बाहर की तरफ देखता रहा. अचानक उस ने एकदम से दरवाजा खोल  कर कहा, ‘‘आइए पटेल साहब.’’

दोनों तेजी से दरवाजा खोल कर बाहर आ गए. सामने ही मरदाना टौयलेट था. योगेन ने पटेल से चाबियों का गुच्छा मांगा, जो उस ने गार्ड से ले रखा था. उस में से एक चाबी ढूंढ़ कर टौयलेट में लगाई, दरवाजा खुल गया, सामने का सीन साफ नजर आने लगा. प्रेमप्रकाश फर्श पर झुका बेसिन के नीचे कुछ तलाश रहा था.

उन दोनों को देख कर वह सीधा खड़ा हो गया. योगेन ने उसे एक तरफ धकेल कर बेसिन के नीचे हाथ डाला तो अगले पल उस के हाथ में वह मखमली डिबिया थी, जिस में हीरों का नेकलैस था. यह वही डिबिया थी, जो रात योगेन अतुल पराशर को देने लाया था.

‘‘मिल गया न इंसपेक्टर साहब नेकलैस.’’ योगेन ने कहा.

इंसपेक्टर पटेल प्रेमप्रकाश को घूर रहे थे. उस का चेहरा पीला पड़ गया था. वह हकलाते हुए बोला, ‘‘मैं तो… बस अंदाजे से तलाश रहा था. इस से पहले कि मैं सफल होता, आप लोग आ गए. मैं तो…’’

‘‘प्रेमप्रकाश झूठ मत बोलो.’’ योगेन ने कहा.

‘‘मैं सच कह रहा हूं,’’ उस ने कहा.

‘‘बेकार की बकवास मत करो.’’ पटेल ने घुड़का.

‘‘तुम झूठे हो, पहले तुम ने मेरी मंगेतर रीना का खून किया, उस के बाद नकेलैस ले कर इस बेसिन के नीचे छिपा दिया.’’ योगेन ने कहा.

प्रेमप्रकाश घबरा गया. वह दोनों को देखता रहा. उस की जुबान बंद हो चुकी थी.

‘‘जब मैं नेकलैस ले कर अतुल के औफिस की तरफ जा रहा था, तब तक तुम अपने औफिस में अंधेरा किए खड़े थे और मेरी निगरानी कर रहे थे. जब मैं औफिस में रीना की बांहों में था तो तुम अंदर आए. रीना ने तुम्हें देख लिया. पहले तुम ने मुझ पर हमला किया, उस के बाद रीना को छुरी घोप कर मार दिया, क्योंकि वह तुम्हें देख चुकी थी.

मेरी बेहोशी का फायदा उठा कर तुम नेकलैस ले उड़े. नेकलैस तुम ने मरदाना टौयलेट में छिपा दिया. इस के बाद यहां आ कर ड्रामा करने लगे. तुम्हारी जुबान से निकले एक वाक्य ने तुम्हें फंसवा दिया. बाद में तुम्हारी भारी आवाज पहचान ली थी. जब मुझे थोड़ाथोड़ा होश आ रहा था, तब तुम ने कहा था, ‘पीछे देखो, शायद इस के दिमाग पर चोट आई है.’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि मेरे सिर के पीछे चोट लगी थी. हमलावर जा चुका था, हम दोनों फर्श पर पड़े थे. इस से यह साबित होता है कि चोट तुम ने ही मारी थी. इसलिए तुम इस के बारे में जानते थे.’’

योगेन ने सारी बात का खुलासा कर दिया. रीना की मौत का दुख उस की आंखों में छलक आया.

‘‘प्रेमप्रकाश, तुम्हारा खेल खत्म हो चुका हूं. मैं तुम्हें रीना के कत्ल और हीरों के नेकलैस की चोरी के इल्जाम में गिरफ्तार करता हूं.’’ इंसपेक्टर पटेल ने सख्ती से कहा.

प्रेमप्रकाश ने सिर झुका लिया. योगेन ने दरवाजा खोला और आंसू पोंछते हुए चला गया.

भाभी : वेदना के आगे छोटे सांत्वना के शब्द

अपनी सहेली के बेटे के विवाह में शामिल हो कर पटना से पुणे लौट रही थी कि रास्ते में बनारस में रहने वाली भाभी, चाची की बहू से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. बचपन की कुछ यादों से वे इतनी जुड़ी थीं जो कि भुलाए नहीं भूल सकती. सो, बिना किसी पूर्वयोजना के, पूर्वसूचना के रास्ते में ही उतर गई. पटना में ट्रेन में बैठने के बाद ही भाभी से मिलने का मन बनाया था. घर का पता तो मुझे मालूम ही था, आखिर जन्म के बाद 19 साल मैं ने वहीं गुजारे थे. हमारा संयुक्त परिवार था. पिताजी की नौकरी के कारण बाद में हम दिल्ली आ गए थे. उस के बाद, इधरउधर से उन के बारे में सूचना मिलती रही, लेकिन मेरा कभी उन से मिलना नहीं हुआ था. आज 25 साल बाद उसी घर में जाते हुए अजीब सा लग रहा था, इतने सालों में भाभी में बहुत परिवर्तन आ गया होगा, पता नहीं हम एकदूसरे को पहचानेंगे भी या नहीं, यही सोच कर उन से मिलने की उत्सुकता बढ़ती जा  रही थी. अचानक पहुंच कर मैं उन को हैरान कर देना चाह रही थी.

स्टेशन से जब आटो ले कर घर की ओर चली तो बनारस का पूरा नक्शा ही बदला हुआ था. जो सड़कें उस जमाने में सूनी रहती थीं, उन में पैदल चलना तो संभव ही नहीं दिख रहा था. बड़ीबड़ी अट्टालिकाओं से शहर पटा पड़ा था. पहले जहां कारों की संख्या सीमित दिखाई पड़ती थी, अब उन की संख्या अनगिनत हो गई थी. घर को पहचानने में भी दिक्कत हुई. आसपास की खाली जमीन पर अस्पताल और मौल ने कब्जा कर रखा था. आखिर घूमतेघुमाते घर पहुंच ही गई.

घर के बाहर के नक्शे में कोई परिवर्तन नहीं था, इसलिए तुरंत पहचान गई. आगे क्या होगा, उस की अनुभूति से ही धड़कनें तेज होने लगीं. डोरबैल बजाई. दरवाजा खुला, सामने भाभी खड़ी थीं. बालों में बहुत सफेदी आ गई थी. लेकिन मुझे पहचानने में दिक्कत नहीं हुई. उन को देख कर मेरे चेहरे पर मुसकान तैर गई. लेकिन उन की प्रतिक्रिया से लग रहा था कि वे मुझे पहचानने की असफल कोशिश कर रही थीं. उन्हें अधिक समय दुविधा की स्थिति में न रख कर मैं ने कहा, ‘‘भाभी, मैं गीता.’’ थोड़ी देर वे सोच में पड़ गईं, फिर खुशी से बोलीं, ‘‘अरे, दीदी आप, अचानक कैसे? खबर क्यों नहीं की, मैं स्टेशन लेने आ जाती. कितने सालों बाद मिले हैं.’’

उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और हाथ पकड़ कर घर के अंदर ले गईं. अंदर का नक्शा पूरी तरह से बदला हुआ था. चाचाचाची तो कब के कालकवलित हो गए थे. 2 ननदें थीं, उन का विवाह हो चुका था. भाभी की बेटी की भी शादी हो गई थी. एक बेटा था, जो औफिस गया हुआ था. मेरे बैठते ही वे चाय बना कर ले आईं. चाय पीतेपीते मैं ने उन को भरपूर नजरों से देखा, मक्खन की तरह गोरा चेहरा अपनी चिकनाई खो कर पाषाण जैसा कठोर और भावहीन हो गया था. पथराई हुई आंखें, जैसे उन की चमक को ग्रहण लगे वर्षों बीत चुके हों. सलवटें पड़ी हुई सूती सफेद साड़ी, जैसे कभी उस ने कलफ के दर्शन ही न किए हों. कुल मिला कर उन की स्थिति उस समय से बिलकुल विपरीत थी जब वे ब्याह कर इस घर में आई थीं.

मैं उन्हें देखने में इतनी खो गई थी कि उन की क्या प्रतिक्रिया होगी, इस का ध्यान ही नहीं रहा. उन की आवाज से चौंकी, ‘‘दीदी, किस सोच में पड़ गई हैं, पहले मुझे देखा नहीं है क्या? नहा कर थोड़ा आराम कर लीजिए, ताकि रास्ते की थकान उतर जाए. फिर जी भर के बातें करेंगे.’’ चाय खत्म हो गई थी, मैं झेंप कर उठी और कपड़े निकाल कर बाथरूम में घुस गई.

शादी और सफर की थकान से सच में बदन बिलकुल निढाल हो रहा था. लेट तो गई लेकिन आंखों में नींद के स्थान पर 25 साल पुराने अतीत के पन्ने एकएक कर के आंखों के सामने तैरने लगे…

मेरे चचेरे भाई का विवाह इन्हीं भाभी से हुआ था. चाचा की पहली पत्नी से मेरा इकलौता भाई हुआ था. वह अन्य दोनों सौतेली बहनों से भिन्न था. देखने और स्वभाव दोनों में उस का अपनी बहनों से अधिक मुझ से स्नेह था क्योंकि उस की सौतेली बहनें उस से सौतेला व्यवहार करती थीं. उस की मां के गुण उन में कूटकूट कर भरे थे. मेरी मां की भी उस की सगी मां से बहुत आत्मीयता थी, इसलिए वे उस को अपने बड़े बेटे का दरजा देती थीं. उस जमाने में अधिकतर जैसे ही लड़का व्यवसाय में लगा कि उस के विवाह के लिए रिश्ते आने लगते थे. भाई एक तो बहुत मनमोहक व्यक्तित्व का मालिक था, दूसरा उस ने चाचा के व्यवसाय को भी संभाल लिया था. इसलिए जब भाभी के परिवार की ओर से विवाह का प्रस्ताव आया तो चाचा मना नहीं कर पाए. उन दिनों घर के पुरुष ही लड़की देखने जाते थे, इसलिए भाई के साथ चाचा और मेरे पापा लड़की देखने गए. उन को सब ठीक लगा और भाई ने भी अपने चेहरे के हावभाव से हां की मुहर लगा दी तो वे नेग कर के, शगुन के फल, मिठाई और उपहारों से लदे घर लौटे तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. भाई जब हम से मिलने आया तो बहुत शरमा रहा था. हमारे पूछने पर कि कैसी हैं भाभी, तो उस के मुंह से निकल गया, ‘बहुत सुंदर है.’ उस के चेहरे की लजीली खुशी देखते ही बन रही थी.

देखते ही देखते विवाह का दिन भी आ गया. उन दिनों औरतें बरात में नहीं जाया करती थीं. हम बेसब्री से भाभी के आने की प्रतीक्षा करने लगे. आखिर इंतजार की घडि़यां समाप्त हुईं और लंबा घूंघट काढ़े भाभी भाई के पीछेपीछे आ गईं. चाची ने  उन्हें औरतों के झुंड के बीचोंबीच बैठा दिया.

मुंहदिखाई की रस्मअदायगी शुरू हो गई. पहली बार ही जब उन का घूंघट उठाया गया तो मैं उन का चेहरा देखने का मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी और जब मैं ने उन्हें देखा तो मैं देखती ही रह गई उस अद्भुत सौंदर्य की स्वामिनी को. मक्खन सा झक सफेद रंग, बेदाग और लावण्यपूर्ण चेहरा, आंखों में हजार सपने लिए सपनीली आंखें, चौड़ा माथा, कालेघने बालों का बड़ा सा जूड़ा तथा खुशी से उन का चेहरा और भी दपदपा रहा था.

वे कुल मिला कर किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थीं. सभी औरतें आपस में उन की सुंदरता की चर्चा करने लगीं. भाई विजयी मुसकान के साथ इधरउधर घूम रहा था. इस से पहले उसे कभी इतना खुश नहीं देखा था. उस को देख कर हम ने सोचा, मां तो जन्म देते ही दुनिया से विदा हो गई थीं, चलो कम से कम अपनी पत्नी का तो वह सुख देखेगा.

विवाह के समय भाभी मात्र 16 साल की थीं. मेरी हमउम्र. चाची को उन का रूप फूटी आंखों नहीं सुहाया क्योंकि अपनी बदसूरती को ले कर वे हमेशा कुंठित रहती थीं. अपना आक्रोश जबतब भाभी के क्रियाकलापों में मीनमेख निकाल कर शांत करती थीं. कभी कोई उन के रूप की प्रशंसा करता तो छूटते ही बोले बिना नहीं रहती थीं, ‘रूप के साथ थोड़े गुण भी तो होने चाहिए थे, किसी काम के योग्य नहीं है.’

दोनों ननदें भी कटाक्ष करने में नहीं चूकती थीं. बेचारी चुपचाप सब सुन लेती थीं. लेकिन उस की भरपाई भाई से हो जाती थी. हम भी मूकदर्शक बने सब देखते रहते थे.

कभीकभी भाभी मेरे व मां के पास आ कर अपना मन हलका कर लेती थीं. लेकिन मां भी असहाय थीं क्योंकि चाची के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी.

मैं मन ही मन सोचती, मेरी हमउम्र भाभी और मेरे जीवन में कितना अंतर है. शादी के बाद ऐसा जीवन जीने से तो कुंआरा रहना ही अच्छा है. मेरे पिता पढ़ेलिखे होने के कारण आधुनिक विचारधारा के थे. इतनी कम उम्र में मैं अपने विवाह की कल्पना नहीं कर सकती थी. भाभी के पिता के लिए लगता है, उन के रूप की सुरक्षा करना कठिन हो गया था, जो बेटी का विवाह कर के अपने कर्तव्यों से उन्होंने छुटकारा पा लिया. भाभी ने 8वीं की परीक्षा दी ही थी अभी. उन की सपनीली आंखों में आंसू भरे रहते थे अब, चेहरे की चमक भी फीकी पड़ गई थी.

विवाह को अभी 3 महीने भी नहीं बीते होंगे कि भाभी गर्भवती हो गईं. मेरी भोली भाभी, जो स्वयं एक बच्ची थीं, अचानक अपने मां बनने की खबर सुन कर हक्कीबक्की रह गईं और आंखों में आंसू उमड़ आए. अभी तो वे विवाह का अर्थ भी अच्छी तरह समझ नहीं पाई थीं. वे रिश्तों को ही पहचानने में लगी हुई थीं, मातृत्व का बोझ कैसे वहन करेंगी. लेकिन परिस्थितियां सबकुछ सिखा देती हैं. उन्होंने भी स्थिति से समझौता कर लिया. भाई पितृत्व के लिए मानसिक रूप से तैयार तो हो गया, लेकिन उस के चेहरे पर अपराधभावना साफ झलकती थी कि जागरूकता की कमी होने के कारण भाभी को इस स्थिति में लाने का दोषी वही है. मेरी मां कभीकभी भाभी से पूछ कर कि उन्हें क्या पसंद है, बना कर चुपचाप उन के कमरे में पहुंचा देती थीं. बाकी किसी को तो उन से कोई हमदर्दी न थी.

प्रसव का समय आ पहुंचा. भाभी ने चांद सी बेटी को जन्म दिया. नन्हीं परी को देख कर, वे अपना सारा दुखदर्द भूल गईं और मैं तो खुशी से नाचने लगी. लेकिन यह क्या, बाकी लोगों के चेहरों पर लड़की पैदा होने की खबर सुन कर मातम छा गया था. भाभी की ननदें और चाची सभी तो स्त्री हैं और उन की अपनी भी तो 2 बेटियां ही हैं, फिर ऐसा क्यों? मेरी समझ से परे की बात थी. लेकिन एक बात तो तय थी कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है. मेरे जन्म पर तो मेरे पिताजी ने शहरभर में लड्डू बांटे थे. कितना अंतर था मेरे चाचा और पिताजी में. वे केवल एक साल ही तो छोटे थे उन से. एक ही मां से पैदा हुए दोनों. लेकिन पढ़ेलिखे होने के कारण दोनों की सोच में जमीनआसमान का अंतर था.

मातृत्व से गौरवान्वित हो कर भाभी और भी सुडौल व सुंदर दिखने लगी थीं. बेटी तो जैसे उन को मन बहलाने का खिलौना मिल गई थी. कई बार तो वे उसे खिलातेखिलाते गुनगुनाने लगती थीं. अब उन के ऊपर किसी के तानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. मां बनते ही औरत कितनी आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से पूर्ण हो जाती है, उस का उदाहरण भाभी के रूप में मेरे सामने था. अब वे अपने प्रति गलत व्यवहार की प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध भी करने लगी थीं. इस में मेरे भाई का भी सहयोग था, जिस से हमें बहुत सुखद अनुभूति होती थी.

इसी तरह समय बीतने लगा और भाभी की बेटी 3 साल की हो गई तो फिर से उन के गर्भवती होने का पता चला और इस बार भाभी की प्रतिक्रिया पिछली बार से एकदम विपरीत थी. परिस्थितियों ने और समय ने उन को काफी परिपक्व बना दिया था.

गर्भ को 7 महीने बीत गए और अचानक हृदयविदारक सूचना मिली कि भाई की घर लौटते हुए सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. यह अनहोनी सुन कर सभी लोग स्तंभित रह गए. कोई भाभी को मनहूस बता रहा था तो कोई अजन्मे बच्चे को कोस रहा था कि पैदा होने से पहले ही बाप को खा गया. यह किसी ने नहीं सोचा कि पतिविहीन भाभी और बाप के बिना बच्चे की जिंदगी में कितना अंधेरा हो गया है. उन से किसी को सहानुभूति नहीं थी.

समाज का यह रूप देख कर मैं कांप उठी और सोच में पड़ गई कि यदि भाई कमउम्र लिखवा कर लाए हैं या किसी की गलती से दुर्घटना में वे मारे गए हैं तो इस में भाभी का क्या दोष? इस दोष से पुरुष जाति क्यों वंचित रहती है?

एकएक कर के उन के सारे सुहाग चिह्न धोपोंछ दिए गए. उन के सुंदर कोमल हाथ, जो हर समय मीनाकारी वाली चूडि़यों से सजे रहते थे, वे खाली कर दिए गए. उन्हें सफेद साड़ी पहनने को दी गई. भाभी के विवाह की कुछ साडि़यों की तो अभी तह भी नहीं खुल पाई थी. वे तो जैसे पत्थर सी बेजान हो गई थीं. और जड़वत सभी क्रियाकलापों को निशब्द देखती रहीं. वे स्वीकार ही नहीं कर पा रही थीं कि उन की दुनिया उजड़ चुकी थी.

एक भाई ही तो थे जिन के कारण वे सबकुछ सह कर भी खुश रहती थीं. उन के बिना वे कैसे जीवित रहेंगी? मेरा हृदय तो चीत्कार करने लगा कि भाभी की ऐसी दशा क्यों की जा रही थी. उन का कुसूर क्या था? पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष पर न तो लांछन लगाए जाते हैं, न ही उन के स्वरूप में कोई बदलाव आता है. भाभी के मायके वाले भाई की तेरहवीं पर आए और उन्हें साथ ले गए कि वे यहां के वातावरण में भाई को याद कर के तनाव में और दुखी रहेंगी, जिस से आने वाले बच्चे और भाभी के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा. सब ने सहर्ष उन को भेज दिया यह सोच कर कि जिम्मेदारी से मुक्ति मिली. कुछ दिनों बाद उन के पिताजी का पत्र आया कि वे भाभी का प्रसव वहीं करवाना चाहते हैं. किसी ने कोई एतराज नहीं किया. और फिर यह खबर आई कि भाभी के बेटा हुआ है.

हमारे यहां से उन को बुलाने का कोई संकेत दिखाई नहीं पड़ रहा था. लेकिन उन्होंने बुलावे का इंतजार नहीं किया और बेटे के 2 महीने का होते ही अपने भाई के साथ वापस आ गईं. कितना बदल गई थीं भाभी, सफेद साड़ी में लिपटी हुई, सूना माथा, हाथ में सोने की एकएक चूड़ी, बस. उन्होंने हमें बताया कि उन के मातापिता उन को आने नहीं दे रहे थे कि जब उस का पति ही नहीं रहा तो वहां जा कर क्या करेगी लेकिन वे नहीं मानीं. उन्होंने सोचा कि वे अपने मांबाप पर बोझ नहीं बनेंगी और जिस घर में ब्याह कर गई हैं, वहीं से उन की अर्थी उठेगी.

मैं ने मन में सोचा, जाने किस मिट्टी की बनी हैं वे. परिस्थितियों ने उन्हें कितना दृढ़निश्चयी और सहनशील बना दिया है. समय बीतते हुए मैं ने पाया कि उन का पहले वाला आत्मसम्मान समाप्त हो चुका है. अंदर से जैसे वे टूट गई थीं. जिस डाली का सहारा था, जब वह ही नहीं रही तो वे किस के सहारे हिम्मत रखतीं. उन को परिस्थितियों से समझौता करने के अतिरिक्त कोई चारा दिखाई नहीं पड़ रहा था. फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया था. सारा दिन सब की सेवा में लगी रहती थीं.

उन की ननद का विवाह तय हो गया और तारीख भी निश्चित हो गई थी. लेकिन किसी भी शुभकार्य के संपन्न होते समय वे कमरे में बंद हो जाती थीं. लोगों का कहना था कि वे विधवा हैं, इसलिए उन की परछाईं भी नहीं पड़नी चाहिए. यह औरतों के लिए विडंबना ही तो है कि बिना कुसूर के हमारा समाज विधवा के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखता है. उन के दूसरे विवाह के बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात थी. उन की हर गतिविधि पर तीखी आलोचना होती थी. जबकि चाचा का दूसरा विवाह, चाची के जाने के बाद एक साल के अंदर ही कर दिया गया. लड़का, लड़की दोनों मां के कोख से पैदा होते हैं, फिर समाज की यह दोहरी मानसिकता देख कर मेरा मन आक्रोश से भर जाता था, लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी.

मेरे पिताजी पुश्तैनी व्यवसाय छोड़ कर दिल्ली में नौकरी करने का मन बना रहे थे. भाभी को जब पता चला तो वे फूटफूट कर रोईं. मेरा तो बिलकुल मन नहीं था उन से इतनी दूर जाने का, लेकिन मेरे न चाहने से क्या होना था और हम दिल्ली चले गए. वहां मैं ने 2 साल में एमए पास किया और मेरा विवाह हो गया. उस के बाद भाभी से कभी संपर्क ही नहीं हुआ. ससुराल वालों का कहना था कि विवाह के बाद जब तक मायके के रिश्तेदारों का निमंत्रण नहीं आता तब तक वे नहीं जातीं. मेरा अपनी चाची  से ऐसी उम्मीद करना बेमानी था. ये सब सोचतेसोचते कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

‘‘उठो दीदी, सांझ पड़े नहीं सोते. चाय तैयार है,’’ भाभी की आवाज से मेरी नींद खुली और मैं उठ कर बैठ गई. पुरानी बातें याद करतेकरते सोने के बाद सिर भारी हो रहा था, चाय पीने से थोड़ा आराम मिला. भाभी का बेटा, प्रतीक भी औफिस से आ गया था. मेरी दृष्टि उस पर टिक गई, बिलकुल भाई पर गया था. उसी की तरह मनमोहक व्यक्तित्व का स्वामी, उसी तरह बोलती आंखें और गोरा रंग.

इतने वर्षों बाद मिली थी भाभी से, समझ ही नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूं. समय कितना बीत गया था, उन का बेटा सालभर का भी नहीं था जब हम बिछुड़े थे. आज इतना बड़ा हो गया है. पूछना चाह रही थी उन से कि इतने अंतराल तक उन का वक्त कैसे बीता, बहुतकुछ तो उन के बाहरी आवरण ने बता दिया था कि वे उसी में जी रही हैं, जिस में मैं उन को छोड़ कर गई थी. इस से पहले कि मैं बातों का सिलसिला शुरू करूं, भाभी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दामादजी क्यों नहीं आए? क्या नाम है बेटी का? क्या कर रही है आजकल? उसे क्यों नहीं लाईं?’’ इतने सारे प्रश्न उन्होंने एकसाथ पूछ डाले.

मैं ने सिलसिलेवार उत्तर दिया, ‘‘इन को तो अपने काम से फुरसत नहीं है. मीनू के इम्तिहान चल रहे थे, इसलिए भी इन का आना नहीं हुआ. वैसे भी, मेरी सहेली के बेटे की शादी थी, इन का आना जरूरी भी नहीं था. और भाभी, आप कैसी हो? इतने साल मिले नहीं, लेकिन आप की याद बराबर आती रही. आप की बेटी के विवाह में भी चाची ने नहीं बुलाया. मेरा बहुत मन था आने का, कैसी है वह?’’ मैं ने सोचने में और समय बरबाद न करते हुए पूछा.

‘‘क्या करती मैं, अपनी बेटी की शादी में भी औरों पर आश्रित थी. मैं चाहती तो बहुत थी…’’ कह कर वे शून्य में खो गईं.’’

‘‘चलो, अब चाचाचाची तो रहे नहीं, प्रतीक के विवाह में आप नहीं बुलाएंगी तो भी आऊंगी. अब तो विवाह के लायक वह भी हो गया है.’’

‘‘मैं भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाह रही हूं,’’ उन्होंने संक्षिप्त उत्तर देते हुए लंबी सांस ली.

‘‘एक बात पूछूं, भाभी, आप को भाई की याद तो बहुत आती होगी?’’ मैं ने सकुचाते हुए उन्हें टटोला.

‘‘हां दीदी, लेकिन यादों के सहारे कब तक जी सकते हैं. जीवन की कड़वी सचाइयां यादों के सहारे तो नहीं झेली जातीं. अकेली औरत का जीवन कितना दूभर होता है. बिना किसी के सहारे के जीना भी तो बहुत कठिन है. वे तो चले गए लेकिन मुझे तो सारी जिम्मेदारी अकेले संभालनी पड़ी. अंदर से रोती थी और बच्चों के सामने हंसती थी कि उन का मन दुखी न हो. वे अपने को अनाथ न समझें,’’ एक सांस में वे बोलीं, जैसे उन्हें कोई अपना मिला, दिल हलका करने के लिए.

‘‘हां भाभी, आप सही हैं, जब भी ये औफिस टूर पर चले जाते हैं तब अपने को असहाय महसूस करती हूं मैं भी. एक बात पूछूं, बुरा तो नहीं मानेंगी? कभी आप को किसी पुरुषसाथी की आवश्यकता नहीं पड़ी?’’ मेरी हिम्मत उन की बातों से बढ़ गई थी.

‘‘क्या बताऊं दीदी, जब मन बहुत उदास होता था तो लगता था किसी के कंधे पर सिर रख कर खूब रोऊं और वह कंधा पुरुष का हो तभी हम सुरक्षित महसूस कर सकते हैं. उस के बिना औरत बहुत अकेली है,’’ उन्होंने बिना संकोच के कहा.

‘‘आप ने कभी दूसरे विवाह के बारे में नहीं सोचा?’’ मेरी हिम्मत बढ़ती जा रही थी.

‘‘कुछ सोचते हुए वे बोलीं,  ‘‘क्यों नहीं दीदी, पुरुषों की तरह औरतों की भी तो तन की भूख होती है बल्कि उन को तो मानसिक, आर्थिक सहारे के साथसाथ सामाजिक सुरक्षा की भी बहुत जरूरत होती है. मेरी उम्र ही क्या थी उस समय. लेकिन जब मैं पढ़ीलिखी न होने के कारण आर्थिक रूप से दूसरों पर आश्रित थी तो कर भी क्या सकती थी. इसीलिए मैं ने सब के विरुद्ध हो कर, अपने गहने बेच कर आस्था को पढ़ाया, जिस से वह आत्मनिर्भर हो कर अपने निर्णय स्वयं ले सके. समय का कुछ भी भरोसा नहीं, कब करवट बदले.’’

उन का बेबाक उत्तर सुन कर मैं अचंभित रह गई और मेरा मन करुणा से भर आया, सच में जिस उम्र में वे विधवा हुई थीं उस उम्र में तो आजकल कोई विवाह के बारे में सोचता भी नहीं है. उन्होंने इतना समय अपनी इच्छाओं का दमन कर के कैसे काटा होगा, सोच कर ही मैं सिहर उठी थी.

‘‘हां भाभी, आजकल तो पति की मृत्यु के बाद भी उन के बाहरी आवरण में और क्रियाकलापों में विशेष परिवर्तन नहीं आता और पुनर्विवाह में भी कोई अड़चन नहीं डालता, पढ़ीलिखी होने के कारण आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ जीती हैं, होना भी यही चाहिए, आखिर उन को किस गलती की सजा दी जाए.’’

‘‘बस, अब तो मैं थक गई हूं. मुझे अकेली देख कर लोग वासनाभरी नजरों से देखते हैं. कुछ अपने खास रिश्तेदारों के भी मैं ने असली चेहरे देख लिए तुम्हारे भाई के जाने के बाद. अब तो प्रतीक के विवाह के बाद मैं संसार से मुक्ति पाना चाहती हूं,’’ कहतेकहते भाभी की आंखों से आंसू बहने लगे. समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा न करने के लिए कह कर उन का दुख बढ़ाऊंगी या सांत्वना दूंगी, मैं शब्दहीन उन से लिपट गई और वे अपना दुख आंसुओं के सहारे हलका करती रहीं. ऐसा लग रहा था कि बरसों से रुके हुए आंसू मेरे कंधे का सहारा पा कर निर्बाध गति से बह रहे थे और मैं ने भी उन के आंसू बहने दिए.

अगले दिन ही मुझे लौटना था, भाभी से जल्दी ही मिलने का तथा अधिक दिन उन के साथ रहने का वादा कर के मैं भारी मन से ट्रेन में बैठ गई. वे प्रतीक के साथ मुझे छोड़ने के लिए स्टेशन आई थीं. ट्रेन के दरवाजे पर खड़े हो कर हाथ हिलाते हुए, उन के चेहरे की चमक देख कर मुझे सुकून मिला कि चलो, मैं ने उन से मिल कर उन के मन का बोझ तो हलका किया.

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