Hindi Romantic Story: सच्ची परख – शैफाली की कशमकश

Hindi Romantic Story: बिस्तर पर लेटी वह खिड़की से बाहर निहार रही थी. शांत, स्वच्छ, निर्मल आकाश देखना भी कितना सुखद लगता है. घर के बगीचे के विस्तार में फैली हरियाली और हवा के झोंकों से मचलते फूल वगैरा तो पहले भी यहां थे लेकिन तब उस की नजरों को ये नजारे चुभते थे. परंतु आज…?

शेफाली ने एक ठंडी सांस ली, परिस्थितियां इंसान में किस हद तक बदलाव ला देती हैं. अगर ऐसा न होता तो आज तक वह यों घुटती न रहती. बेकार ही उस ने अपने जीवन के 2 वर्ष मृगमरीचिका में भटकते हुए गंवा दिए, निरर्थक बातों के पीछे अपने को छलती रही. काश, उसे पहले एहसास हो जाता तो…

‘‘लीजिए मैडम, आप का जूस,’’ सुदेश की आवाज ने उसे सोच के दायरे से बाहर ला पटका.

‘‘क्यों बेकार आप इतनी मेहनत करते हैं, जूस की क्या जरूरत थी?’’ शेफाली ने संकोच से कहा.

‘‘देखिए जनाब, आप की सेहत के लिए यह बहुत जरूरी है. आप तो बस आराम से आदेश देती रहिए, यह बंदा आप को तरहतरह के पकवान बना कर खिलाता रहेगा. फिर कौन सी बहुत मेहनत करनी पड़ती है, यहां तो सबकुछ डब्बाबंद तैयार मिलता है, विदेश का कम से कम यह लाभ तो है ही,’’ सुदेश ने गिलास थमाते हुए कहा.

‘‘लेकिन आप काम करें, यह मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘शेफाली, थोड़े दिनों की बात है. जहां पेट के टांके कटे, वहीं तुम थोड़ाबहुत चलने लगोगी. अभी तो डाक्टर ने तुम्हें पूरी तरह आराम करने को कहा है. अच्छा, देखो, मैं बाजार से सामान ले कर आता हूं, तब तक तुम थोड़ा सो लो. फिर सोचने मत लग जाना. मैं देख रहा हूं, जब से तुम्हारा औपरेशन हुआ है, तुम हमेशा सोच में डूबी रहने लगी हो. सब ठीक से तो हो गया है, फिर काहे की चिंता. खैर, अब आराम करो.’’

सुदेश ने ठीक ही कहा था. जब से उस के पेट के ट्यूमर का औपरेशन हुआ था तब से वह सोचने लगी थी. असल में तो वह इन 2 वर्षों में सुदेश के प्रति किए गए व्यवहार की ग्लानि थी जो उसे निरंतर मथती रहती थी.

सुदेश के साधारण रूपरंग और प्रभावहीन व्यक्तित्व के कारण शेफाली हमेशा उसे अपमानित करने की कोशिश करती. अपने अथाह रूप और आकर्षण के सामने वह सुदेश को हीन समझती. अपने मातापिता को भी माफ नहीं कर पाई थी. अकसर वह मां को चिट्ठी में लिखती कि उस ने उन्हें वर चुनने का अधिकार दे कर बहुत भारी भूल की थी. ऐसे कुरूप पति को पाने से तो अच्छा था वह स्वयं किसी को ढूंढ़ कर विवाह कर लेती. ऐसा लिखते वक्त उस ने यह कभी नहीं सोचा था कि भारत में बैठे उस के मातापिता पर क्या बीत रही होगी.

शेफाली अपनी मां से तब कितना लड़ी थी, जब उसे पता चला था कि सुदेश ने कनाडा में ही बसने का निश्चय कर लिया है. सुदेश ने वहीं अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी और अच्छी नौकरी मिलने के कारण वह अब भारत नहीं आना चाहता था. शेफाली ने स्वयं एमबीबीएस पास कर लिया था और ‘इंटर्नशिप’ कर रही थी. वह चाहती थी कि भारत में ही रह कर अपना क्लीनिक खोले. नए देश में, नए परिवेश में जाने के नाम से ही वह परेशान हो गई थी. बेटी को नाखुश देख मातापिता को लगा कि इस से तो अच्छा है कि सगाई को तोड़ दिया जाए, पर उस ने उन्हें यह कह कर रोक दिया था कि इस से सामाजिक मानमर्यादा का हनन होगा और उस के भाईबहनों के विवाह में अड़चन आ सकती है. सुदेश से पत्रव्यवहार व फोन द्वारा उस की बातचीत होती रहती थी, इसलिए वह नहीं चाहती थी कि ऐसी हालत में रिश्ता तोड़ कर उस का दिल दुखाया जाए. इसी कशमकश में वह विवाह कर के कनाडा आ गई थी.

अचानक टिं्रन…ट्रिंन…की आवाज से शेफाली का ध्यान भंग हुआ, फोन भारत से आया था. मां की आवाज सुन कर वह पुलकित हो उठी

‘‘कैसी हो बेटी, आराम कर रही हो न? देखो, ज्यादा चलनाफिरना नहीं.’’

उन की हिदायतें सुन वह मुसकरा उठी, ‘‘मैं ठीक हूं मां, सारा दिन आराम करती हूं. घर का सारा काम सुदेश ने संभाला हुआ है.’’

‘‘सुदेश ठीक है न बेटी, उस की इज्जत करना, वह अच्छा लड़का है, बूढ़ी आंखें धोखा नहीं खातीं, रूपरंग से क्या होता है,’’ मां ने थोड़ा झिझकते हुए कहा.

‘‘मां, तुम फिक्र मत करो. देर से ही सही, लेकिन मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है,’’ तभी फोन कट गया.

दूर बैठी मां भी शायद जान गई थीं कि वह सुदेश को अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ती. फिर से एक बार शेफाली के मानसपटल पर बीते दिन घूमने लगे.

मौंट्रीयल के इस खूबसूरत फ्लैट में जब उस ने कदम रखा था तो ढेर सारे फूलों और तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उस का स्वागत किया गया था. उन के आने की खुशी में सुदेश के मित्रों ने पूरे फ्लैट को सजा रखा था. ऐसी आवभगत की उसे आशा नहीं थी, इसलिए खुशी हुई थी, लेकिन वह उसे दबा गई थी. आखिर किस काम की थी वह खुशी.

सुदेश एकएक कर अपने साथियों से उसे मिलवाता रहा. उस की खूबसूरती की प्रशंसा में लोगों ने पुल बांध दिए.

‘यार, तुम तो इतनी सुंदर परी को भारत से उड़ा लाए,’ सुदेश के मित्र की बात सुन उसे वह मुहावरा याद आ गया था, ‘हूर के साथ लंगूर’. सुदेश जब भी उस का हाथ पकड़ता, वह झटके से उसे खींच लेती. ऐसा नहीं था कि सुदेश उस के व्यवहार से अनभिज्ञ था, लेकिन उस ने सोचा था कि अपने प्यार से वह शेफाली का मन जीत लेगा.

विवाह के कुछ दिन बाद उस ने कहा था, ‘अभी छुट्टियां बाकी हैं. चलो, तुम्हें पूरे कनाडा की सैर करा दें.’

तब शेफाली ने यह कह कर इनकार कर दिया था कि उस की तबीयत ठीक नहीं है. उस की हरसंभव यही कोशिश रहती कि वह सुदेश से दूरदूर रहे. अपने सौंदर्य के अभिमान में वह यह भूल गई थी कि वह उस का पति है. उस का प्यार, उस का अपनापन और छोटीछोटी बातों का खयाल रखना शेफाली को तब दिखता ही कहां था.

सुदेश के सहयोगियों ने क्लब में पार्टी रखी थी, पर उस ने साथ जाने से इनकार कर दिया था.

‘देखो शेफाली, यह पार्टी उन्होंने हमारे लिए रखी है.’

पति की इस बात पर वह आगबबूला हो उठी थी, ‘मुझ से पूछ कर रखी है क्या? मैं पूछती हूं, तुम्हें मेरे साथ चलते झिझक नहीं होती. कहां तुम कहां मैं?’

तब सुदेश अवाक् रह गया था.

दरवाजा खुलने से एक बार फिर उस की तंद्रा भंग हो गई, ‘‘अरे, इतना सामान लाने की क्या जरूरत थी?’’ शेफाली ने सुदेश को पैकटों से लदे देख पूछा.

‘‘अरे जनाब, ज्यादा कहां है, बस, कुछ फल हैं और डब्बाबंद खाना. जब तक तुम ठीक नहीं हो जातीं, इन्हीं से काम चलाना है,’’ सुदेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘अच्छा, खाना यहीं लगाऊं या बालकनी में बैठना चाहोगी?’’

‘‘नहींनहीं, यहीं ठीक है और देखो, ज्यादा पचड़े में मत पड़ना, वैसे भी ज्यादा भूख नहीं है.’’

‘‘क्यों, भूख क्यों नहीं है? तुम्हें ताकत  चाहिए और इस के लिए खाना बहुत जरूरी है,’’ सुदेश ने अपने हाथों से उसे खाना खिलाते हुए कहा.

शेफाली की आंखें नम हो आईं. ऐसे व्यक्ति से, जिस के अंदर प्यार का सागर लबालब भरा हुआ है, वह आज तक घृणा करती आई, सिर्फ इसलिए कि वह कुरूप है. लेकिन बाहरी सौंदर्य के झूठे सच में वह उस के गुणों को नजरअंदाज करती रही. अंदर से उस का मन कितना निर्मल, कितना स्वच्छ है. वह कितनी मूर्ख थी, तभी तो वैवाहिक जीवन के 2 सुनहरे वर्ष यों ही गंवा दिए. उस का हर पल यही प्रयत्न रहता कि किसी तरह सुदेश को अपमानित करे इसलिए उस की हर बात काटती.

लेकिन अपनी बीमारी के बाद उस ने जाना कि सच्चा प्रेम क्या होता है. शेफाली की इतनी बेरुखी के बाद भी सुदेश कितनी लगन से उस की सेवा कर रहा था.

‘‘अरे भई, खाना ठंडा हो जाएगा. जब देखो तब सोचती ही रहती हो. आखिर बात क्या है, मुझ से कोई गलती हो गई क्या?’’

‘‘यह क्या कह रहे हो?’’ शेफाली ने सफाई से आंखें पोंछते हुए कहा, ‘‘मुझे शर्मिंदा मत करो. अरे हां, मां का फोन आया था,’’ उस ने बात पलटते हुए कहा.

रसोई व्यवस्थित कर सुदेश बोला, ‘‘मैं थोड़ी देर दफ्तर हो कर आता हूं, तब तक तुम सो भी लेना. चाय के समय तक आ जाऊंगा. अरे हां, दफ्तर के साथी तुम्हारा हालचाल पूछने आना चाहते हैं, अगर तुम कहो तो?’’ सुदेश ने झिझकते हुए पूछा तो शेफाली ने मुसकरा कर हामी भर दी.

शेफाली जानती थी सुदेश ने क्यों पूछा था. वह उस के साथ न तो कहीं जाती थी, न ही उस के मित्रों का आना उसे पसंद था, क्योंकि तब उसे सुदेश के साथ बैठना पड़ता था, हंसना पड़ता था और वह यह चाहती नहीं थी. कितनी बार वह सुदेश को जता चुकी थी कि उस की पसंदनापसंद की उसे परवा नहीं है, खासकर उन दोस्तों की, जो हमेशा उस के सामने सुदेश की तारीफों के पुल बांधते रहते हैं, ‘भाभीजी, यह तो बहुत ही हंसमुख और जिंदादिल इंसान है. अपने काम और व्यवहार के कारण सब काप्यारा है, अपना यार.’

शेफाली उस की बदसूरती के सामने जब इन बातों को तोलती तो हमेशा उसे सुदेश का पलड़ा हलका लगता. सुदेश जब भी उसे छूता, उसे लगता, कोई कीड़ा उस के शरीर पर रेंग रहा है और वह दूसरे कमरे में जा कर सो जाती.दरवाजे की घंटी बजी तो वह चौंक उठी. सच ही था, वह ज्यादा ही सोचने लगी थी. सोचा, शायद पोस्टमैन होगा. वह आहिस्ता से उठी और पत्र निकाल लाई. मां ने खत में वही सब बातें लिखी थीं और सुदेश का सम्मान करने की हिदायत दी थी. उस का मन हुआ कि वह अभी मां को जवाब दे दे, पर पेन और कागज दूसरे कमरे में रखे थे और वह थोड़ा चल कर थक गई थी. लेटने ही लगी थी कि सुदेश आ गया.

‘‘सुनो, जरा पेन और पैड दोगे, मां को चिट्ठी लिखनी है,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘बाद में, अभी लेटो, तुम्हें उठने की जरूरत ही क्या थी,’’ सुदेश ने बनावटी गुस्से से कहा, ‘‘दवा भी नहीं ली. ठहरो, मैं पानी ले कर आता हूं.’’

‘‘सुनो,’’ शेफाली ने उस की बांह पकड़ ली. सुदेश ने कुछ हैरानी से देखा. शेफाली को समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे अपने किए की माफी मांगे.

व्यक्ति की पहचान उस के गुणों से होती है, उस के व्यवहार से होती है, वही उस के व्यक्तित्व की छाप बनती है. सुदेश की सच्ची परख तो उसे अब हुई थी. आज तक तो वह अपनी खूबसूरती के दंभ में एक ऐसे राजकुमार की तलाश में कल्पनालोक में विचर रही थी जो किस्सेकहानियों में ही होते हैं, पर यथार्थ तो इस से बहुत परे होता है. जहां मनुष्य के गुणों को समाज की नजरें आंकती हैं, उस की आंतरिक सुंदरता ज्यादा माने रखती है. अगर खूबसूरती ही मापदंड होता तो समाज के मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लग जाता.

‘‘शेफाली, तुम कुछ कहना चाहती थीं?’’ सुदेश ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘हां…बस, कुछ खास नहीं,’’ वह चौंकते हुए बोली.

‘‘मैं जानता हूं, मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं. अगर तुम चाहो तो मुझे छोड़ कर जा सकती हो,’’ सुदेश के स्वर में दर्द था.

‘‘बसबस, और कुछ न कहो, मैं पहले ही बहुत शर्मिंदा हूं. हो सके तो मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हारा बहुत अपमान किया है. फिर भी तुम ने कभी मुझ से कटुता से बात नहीं की. मेरी हर कड़वाहट को सहते रहे और अब भी मेरी इतनी सेवा कर रहे हो, शर्म आती है मुझे अपनेआप पर,’’ शेफाली उस से लिपट कर रो पड़ी.

‘‘कैसी बातें कर रही हो, कौन नहीं जानता कि तुम्हारी खूबसूरती के सामने मैं कितना कुरूप लगता हूं.’’

‘‘खबरदार, जो तुम ने अपनेआप को कुरूप कहा. तुम्हारे जैसा सुंदर मैं ने जिंदगी में नहीं देखा. मेरी आंखों को तुम्हारी सच्ची परख हो गई है.’’

दोनों अपनी दुनिया में खोए थे कि तभी दरवाजे पर थपथपाहट हुई और घंटी भी बजी.

‘‘सुदेश, दरवाजा खोलो,’’ बाहर से शोर सुनाई दिया.

‘‘लगता है, मित्रमंडली आ गई है,’’ सुदेश बोला.

दरवाजा खुलते ही फूलों की महक से सारा कमरा भर गया. सुदेश के मित्र शेफाली को फूलों का एकएक गुच्छा थमाने लगे.

‘‘भाभीजी, आप के ठीक होने के बाद हम एक शानदार पार्टी लेंगे. क्यों, देंगी न?’’ एक मित्र ने पूछा.

‘‘जरूर,’’ शेफाली ने हंसते हुए कहा. उसे लग रहा था कि इन फूलों की तरह उस का जीवन भी महक से भर गया है. हर तरफ खुशबू बिखर गई है. गुच्छों के बीच से उस ने देखा, सुदेश के चेहरे पर एक अनोखी मुसकराहट छाई हुई है. शेफाली ने जब सारी शर्महया छोड़ आगे बढ़ कर उस का चेहरा चूमा तो ‘हे…हे’ का शोर मच गया और सुदेश ने उसे आलिंगनबद्ध कर लिया. Hindi Romantic Story

Hindi Romantic Story: प्रेम का दूसरा नाम – तलाश मंजिल की

Hindi Romantic Story: दियाबाती कर अभी उठी ही थी कि सांझ के धुंधलके में दरवाजे पर एक छाया दिखी. इस वक्त कौन आया है यह सोच कर मैं ने जोर से आवाज दी, ‘‘कौन है?’’

‘‘मैं, रोहित, आंटी,’’ कुछ गहरे स्वर में जवाब आया.

रोहित और इस वक्त? अच्छा है जो पूर्वा के पापा घर पर नहीं हैं, यदि होते तो भारी मुश्किल हो जाती, क्योंकि रोहित को देख कर तो उन की त्यौरियां ही चढ़ जाती हैं.

‘‘हां, भीतर आ जाओ बेटा. कहो, कैसे आना हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, आंटी, सिर्फ यह शादी का कार्ड देने आया था.’’

‘‘किस की शादी है?’’

‘‘मेरी ही है,’’ कुछ शरमाते हुए वह बोला, ‘‘अगले रविवार को शादी और सोमवार को रिसेप्शन है, आप और अंकल जरूर आना.’’

आज तक हमेशा उसे शादी के लिए उत्साहित करने वाली मैं शादी का कार्ड हाथ में थामे मुंहबाए खड़ी थी.

‘‘चलूं, आंटी, देर हो रही है,’’ रोहित बोला, ‘‘कई जगह कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘हां बेटा, बधाई हो. तुम शादी कर रहे हो, आएंगे हम, जरूर आएंगे…’’ मैं जैसे सपने से जागती हुई बोली.

बहुत खुश हो कर कहा था यह सब पर ऐसा लगा कि रोहित मेरा अपना दामाद, मेरा अपना बेटा किसी और का हो रहा है. उस पर अब मेरा कोई हक नहीं रह जाएगा.

रोहित हमारी ही गली का लड़का है और मेरी बेटी पूर्वा के साथ बचपन से स्कूल में पढ़ता था. पूर्वा की छोटीछोटी जरूरतों का खयाल करता था. पेंसिल की नोंक टूटने से ले कर उसे रास्ता पार कराने और उस का होमवर्क पूरा कराने तक. बचपन से ही रोहित का हमारे घर आनाजाना था. बच्चों के बचपन की दोस्ती ?पर पूर्वा के पापा ने कभी कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जैसे ही दोनों बच्चे जवानी की ओर कदम बढ़ाने लगे वह रोहित को देखते ही नाकभौं चढ़ा लेते थे. रोहित और पूर्वा दोनों ही पापा की इस अचानक उपजी नाराजगी का कारण समझ नहीं पाते थे.

पापा का व्यवहार पहले जैसा क्यों नहीं रहा, यह बात 12वीं तक जातेजाते वे अच्छी तरह से समझ गए थे क्योंकि उन के दिल में फूटा हुआ प्रेम का नन्हा सा अंकुर अब विशाल वृक्ष बन चुका था. पापा को उन का साथ रहना क्यों नहीं अच्छा लगता है, इस का कारण वे समझ गए थे. छिप कर पूर्वा रोहित के घर जा कर नोट्स लाती थी और रोहित का तो घर के दरवाजे पर आना भी मना था.

रोहित और पूर्वा ने एकदूसरे को इतना चाहा था कि सपने में भी किसी और की कल्पना करना उन के लिए मुमकिन न था. मेरे सामने ही दोनों का प्रेम फलाफूला था. अब इस पर यों बिजली गिरते देख कर वह मन मसोस कर रह जाती थी.

एक और कारण से पूर्वा के पापा को रोहित पसंद नहीं था. वह कारण उस की गरीबी थी. पिता साधारण सी प्राइवेट कंपनी में क्लर्क थे. घर में उस के एक छोटा भाई और एक बहन थी. 3 बच्चों का भरणपोषण, शिक्षा आदि कम आय में बड़ी मुश्किल से हो पाता था. इस कारण रोहित की मां भी साड़ी में पीकोफाल जैसे छोटेछोटे काम कर के घर खर्चे में पति का हाथ बंटाती थीं. हमारी कपड़ों की 2 बड़ीबड़ी दुकानें थीं. शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार की इकलौती बेटी पूर्वा राजकुमारी की तरह रहती थी.

रुई की तरह हलके बादलों के नरम प्यार पर जब हकीकत की बिजली कड़कड़ाती है तो क्या होता है? आसमान का दिल फट जाता है और आंसुओं की बरसात शुरू हो जाती है. मैं कभी यह समझ नहीं पाई कि दुनिया बनाने वाले ने दुनिया बनाई और इस में रहने वालों ने समाज बना दिया, जिस के नियमानुसार पूर्वा रोहित के लिए नहीं बनी थी.

तभी फोन की घंटी बजी. लंदन से पूर्वा का फोन था. फोन पर पूछ रही थी, मम्मी, कैसी हो? यहां विवेक का काम ठीक चल रहा है, सोहम अब स्कूल जाने लगा है. तुम कब आओगी? पापा की तबीयत कैसी है? और भी जाने क्याक्या.

मैं कहना चाह रही थी कि रोहित के बारे में नहीं पूछोगी, उस की शादी है, बचपन की दोस्ती क्या कांच के खिलौने से भी कच्ची थी जो पल में झनझना कर टूट गई…पर कुछ न कह सकी और न ही रोहित की शादी होने वाली है यह खुशखबरी उसे सुना सकी.

दामाद विवेक के साथ बेटी पूर्वा खुश है, मुझे खुश होना चाहिए पर रोहित की आंखों में जब भी गीलापन देखती थी, खुश नहीं हो पाती थी. विवेक लंदन की एक बड़ी फर्म में इंजीनियर है. अच्छी कदकाठी, गोरा रंग, उच्च कुल के साथसाथ उच्च शिक्षित, क्या नहीं है उस के पास. पहले पूर्वा जिद पर अड़ी थी कि शादी करेगी तो रोहित से वरना कुंआरी ही रह जाएगी. पर दुनिया की ऊंचनीच के जानकार पूर्वा के पापा ने खुद की बहन के घर बेटी को ले जा कर उस को कुछ ऐसी पट्टी पढ़ाई कि वह सोचने को मजबूर हो गई कि रोहित के छोटे से घर में रहने से बेहतर है विवेक के साथ लंदन में ऐशोआराम से रहना.

बूआ के घर से वापस आ कर जब पूर्वा ने शरमाते हुए मुझ से कहा कि मुझे विवेक पसंद है, तब मेरा दिल धक् कर रह गया था. मैं अपना दिल पत्थर का करना चाहूं तो भी नहीं कर पाती और यह लड़की…मेरी अपनी लड़की सबकु छ भूल गई. लेकिन यह मेरी भूल थी.

लंदन में सबकुछ होते हुए भी वह रोहित के बेतहाशा प्यार को अभी भी भूल नहीं पाई थी.

पूर्वा के पापा आ गए थे. बोले, ‘‘क्या हुआ, आज बड़ी अनमनी सी लग रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ उन के हाथ से बैग लेते हुए मैं बोली, ‘‘पूर्वा की याद आ रही है.’’

‘‘तो फोन कर लो.’’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले ही तो उस का फोन आया था, आप को याद कर रही थी.’’

‘‘हां, सोचता हूं, अगले माह तक हम लंदन जा कर पूर्वा से मिल आते हैं. और यह किस की शादी का कार्ड रखा है?’’

‘‘रोहित की.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ जो वह शादी कर रहा है. हां, लड़की कौन है?’’

‘‘फैजाबाद की किसी मिडिल क्लास परिवार की लगती है.’’

‘‘अच्छा है, जितनी चादर हो उतने ही पांव पसारने चाहिए.’’

मैं रसोई में जा कर उन के लिए थाली लगाने लगी. वह जाने क्याक्या बोल रहे थे. मेरा ध्यान रोहित की ओर गया, जिसे मैं बेटे से बढ़ कर मानती हूं. उस के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकती.

पूर्वा के विवाह वाले दिन वह कैसे सुन्न खड़ा था. मैं ने देखा था और देख कर आंखें भर आई थीं. कुछ और तो न कर सकी, बस, पीठ पर हाथ फेर कर मैं ने मूक दिलासा दिया था उसे.

उस का यह उदास रूप देख कर हाथ में रखी द्वाराचार के लिए सजी थाली मनों भारी हो गई थी, पैर दरवाजे की ओर उठ नहीं रहे थे. मैं पूर्वा की मां हूं, बेटी की शादी पर मुझे बहुत खुश होना चाहिए था पर भीतर से ऐसा लग रहा था कि जो कुछ हो रहा है, गलत हो रहा है. शादी के लिए जिस पूर्वा को जोरजबरदस्ती से तैयार किया था, वह जयमाला से पहले फूटफूट कर रो पड़ी थी. तब मैं ने उसे कलेजे से लगा लिया था.

बिदाई के समय पीछे मुड़मुड़ कर पूर्वा की आंखें किसे ढूंढ़ रही थीं वह भी मुझे मालूम था. उस समय दिल से आवाजें आ रही थीं :  पूर्वा, रूपरंग और दौलत ही सबकुछ नहीं होते, इस प्यार के सागर को ठुकराएगी तो उम्रभर प्यासी रह जाएगी.

पता नहीं ये आवाजें उस तक पहुंचीं कि नहीं, पर उस के जाने के बाद मानो सारा घरआंगन चीखचीख कर कह रहा था, मन के रिश्ते कोई और होते हैं, जो किसी को दिखाए नहीं जाते और निभाने के रिश्ते कोई और होते हैं जो सिर्फ निभाए जाते हैं. तब से जब भी रोहित को देखती हूं दिल फट जाता है.

पूर्वा की शादी को अब पूरे 7 बरस हो गए हैं और रोहित इन 7 वर्षों तक उस की याद में तिलतिल जलने के बाद अब ब्याह कर रहा है. कितने दिनों से उसे समझा रही थी कि अब नौकरी लग गई है. बेटा, तू भी शादी कर ले तो वह हंस कर टाल जाता था. पिता के रिटायर होने पर उन की जगह ही उसे काम मिला था और घर में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता है. उस से अच्छीखासी कमाई हो जाती है. 2 साल हुए उस ने छोटी बहन की अच्छे घर में शादी कर दी है और भाई को इंजीनियरिंग करवा रहा है. मां का काम उस ने छुड़वा दिया है और मुझे लगता है कि मां को आराम मिले इस के लिए ही उस ने शादी की सोची है.

रोहित जैसा गुणी और आज्ञाकारी पुत्र इस जमाने में मिलना कठिन है. मेरे तो बेटा ही नहीं है, उसे ही बेटे के समान मानती थी. उस की शादी फैजाबाद में थी. वहां जाना नहीं हो सकता था इसलिए बहू की मुंहदिखाई और स्वागत समारोह में जाना मैं ने उचित समझा.

रोहित के लिए सुंदर रिस्टवाच और बहू के लिए साड़ी और झुमके खरीदे थे. बहुत खुशी थी अब मन में. इन 7 वर्षों के अंतराल में रिश्ते उलटपुलट गए थे. रोहित, जिसे मैं दामाद मानती थी, बेटा बन चुका था. अब मेरी बहू आ रही थी. पता नहीं कैसी होगी बहू…पगले ने फोटो तक नहीं दिखाई.

स्वागत समारोह के उस भीड़- भड़क्के में रोहित ने पांव छू कर मुझे नमस्कार किया. उस की देखादेखी अर्चना भी नीचे झुकने लगी तो मैं ने उसे बांहों में भर झुकने से मना किया.

अर्चना सांवली थी पर तीखे नैननक्श के कारण भली लग रही थी. उपहार देते हुए मैं चंद पलों को उन्हें निहारती रह गई. परिचय कराते वक्त रोहित ने अर्चना से धीरे से कहा, ‘‘ये पूर्वा के मम्मीपापा हैं.

उस लड़की ने नमस्कार के लिए एक बार और हाथ जोड़ दिए. जेहन में फौरन सवाल उभरा, ‘क्या पूर्वा के बारे में सबकुछ रोहित ने इसे बता दिया है.’ मैं असमंजस में पड़ी खड़ी थी. तभी रोहित की मां हाथ पकड़ कर खाना खिलाने के लिए लिवा ले गईं.

अर्चना ने रोहित का घर खूब अच्छे से संभाल लिया था. अपनी सास को तो वह किसी काम को हाथ नहीं लगाने देती थी. कभीकभी मेरे पास आती तो पूर्वा के बारे में ही बातें करती रहती थी. न जाने कितने प्रकार के व्यंजन बनाने की विधियां मुझ से सीख कर गई और बड़े प्रयत्नपूर्वक कोई नया व्यंजन बना कर कटोरा भर मेरे लिए ले आती थी.

पूर्वा के पापा का ब्लडप्रेशर पिछले दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था, अत: हमारा लंदन जाने का कार्यक्रम स्थगित हो चुका था. अब की सितंबर में पूर्वा आ रही थी. विवेक को छुट्टी नहीं थी. पूर्वा और सोहम दोनों ही आ रहे थे. जिस रोहित से पूर्वा लड़तीझगड़ती रहती थी, जिस पर अपना पूरा हक समझती थी, अब उसे किसी दूसरी लड़की के साथ देख कर उस पर क्या बीतेगी, मैं यही सोच रही थी.

रोहित की शादी के बारे में मैं ने उसे फोन पर बताया था. सुन कर उस ने सिर्फ इतना कहा था कि चलो, अच्छा हुआ शादी कर ली और कितने दिन अकेले रहता.

अभी पूर्वा को आए एक दिन ही बीता था. रोहित और अर्चना तैयार हो कर कहीं जा रहे थे. मैं ने पूर्वा को खिड़की पर बुलाया तो रोहित के बाजू में अर्चना को चलते देख मानो उस के दिल पर सांप लोट रहा था. मैं ने कहा, ‘‘वह देख, रोहित की पत्नी अर्चना.’’

अर्चना को देख कर पूर्वा ने मुंह बना कर कहा, ‘‘ऊंह, इस कालीकलूटी से ब्याह रचाया है.’’

‘‘ऐसा नहीं बोलते, अर्चना बहुत गुणी लड़की है,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘हूं, जब रूप नहीं मिलता तभी गुण के चर्चे किए जाते हैं,’’ उपेक्षित स्वर में पूर्वा बोली.

‘‘छोड़ यह सब, चल, सोहम को नहला कर खाना खिलाना है,’’ मैं ने उस का ध्यान इन सब बातों से हटाने के लिए कहा.

पर अर्चना को देखने के बाद पूर्वा अनमनी सी हो गई थी. दोपहर को बोली, ‘‘मम्मी, मुझे रोहित से मिलना है.’’

‘‘शाम 6 बजे के बाद जाना, तब तक वह आफिस से आ जाता है. हां, पर भूल कर भी अर्चना के सामने कुछ उलटासीधा न कहना.’’

‘‘नहीं, मम्मी,’’ पूर्वा मेरे गले में हाथ डाल कर बोली, ‘‘पागल समझा है मुझे.’’

मैं, सोहम और पूर्वा शाम को रोहित के घर गए. गले में फंसी हुई आवाज के साथ पूर्वा उसे विवाह की बधाई दे पाई. रोहित ने कुछ देर को उस के और विवेक के बारे में पूछा फिर सोहम के साथ खेलने लगा. इतने में अर्चना चायनाश्ता बना लाई. मैं, अर्चना और रोहित की मां बातें करने लगे.

खेलखेल में सोहम ने रोहित की जेब से पर्स निकाल कर जब हवा में उछाल दिया तो नोटों के साथ कुछ गिरा था. वह रोहित और पूर्वा के बचपन की तसवीर थी जिस में दोनों साथसाथ खडे़ थे.

तसवीर देख कर हम मांबेटी भौचक्के रह गए पर अर्चना ने पैसों के साथ वह तसवीर भी वापस पर्स में रख दी और हंस कर कहा, ‘‘पूर्वा दीदी, बचपन में कटे बालों में आप बहुत सुंदर दिखती थीं. रोहित को देख कर तो मैं बहुत हंसती हूं…इस ढीलेढाले हाफ पैंट में जोकर नजर आते हैं.’’

बात आईगई हो गई पर हम समझ चुके थे कि अर्चना पूर्वा के बारे में सब जानती है. पूर्वा जिस दिन लंदन वापस जा रही थी, अर्चना उपहार ले कर आई थी.

‘‘लो, दीदी, मेरी ओर से यह रखो. आप रोहित का पहला प्यार हैं, मैं जानती हूं, वह अभी तक आप को नहीं भूले हैं. वह आप को बहुत चाहते हैं और मैं उन्हें बहुत चाहती हूं. इसलिए वह जिसे चाहते हैं मैं भी उसे बहुत चाहती हूं.’’

उस की यह सोच पूर्वा की समझ से बाहर की थी. पूर्वा ने धीरे से ‘थैंक्यू’ कहा. आज तक रोहित पर अपना एकाधिकार जताने वाली पूर्वा समझ चुकी थी कि प्रेम का दूसरा नाम त्याग है. आज अर्चना के प्रेम के समक्ष उसे अपना प्रेम बौना लग रहा था. Hindi Romantic Story

Hindi Story: तुम ही चाहिए ममू – राजेश ने किसके लिए कविता लिखी थी

Hindi Story: कुछ अपने मिजाज और कुछ हालात की वजह से राजेश बचपन से ही गंभीर और शर्मीला था. कालेज के दिनों में जब उस के दोस्त कैंटीन में बैठ कर लड़कियों को पटाने के लिए तरहतरह के पापड़ बेलते थे, तब वह लाइब्रेरी में बैठ कर किताबें खंगालता रहता था.

ऐसा नहीं था कि राजेश के अंदर जवानी की लहरें हिलोरें नहीं लेती थीं. ख्वाब वह भी देखा करता था. छिपछिप कर लड़कियों को देखने और उन से रसीली बातें करने की ख्वाहिश उसे भी होती थी, मगर वह कभी खुल कर सामने नहीं आया.

कई लड़कियों की खूबसूरती का कायल हो कर राजेश ने प्यारभरी कविताएं लिख डालीं, मगर जब उन्हीं में से कोई सामने आती तो वह सिर झुका कर आगे बढ़ जाता था. शर्मीले मिजाज की वजह से कालेज की दबंग लड़कियों ने उसे ‘ब्रह्मचारी’ नाम दे दिया था.

कालेज से निकलने के बाद जब राजेश नौकरी करने लगा तो वहां भी लड़कियों के बीच काम करने का मौका मिला. उन के लिए भी उस के मन में प्यार पनपता था, लेकिन अपनी चाहत को जाहिर करने के बजाय वह उसे डायरी में दर्ज कर देता था. औफिस में भी राजेश की इमेज कालेज के दिनों वाली ही बनी रही.

शायद औरत से राजेश का सीधा सामना कभी न हो पाता, अगर ममता उस की जिंदगी में न आती. उसे वह प्यार से ममू बुलाता था.

जब से राजेश को नौकरी मिली थी, तब से मां उस की शादी के लिए लगातार कोशिशें कर रही थीं. मां की कोशिश आखिरकार ममू के मिलने के साथ खत्म हो गई. राजेश की शादी हो गई. उस की ममू घर में आ गई.

पहली रात को जब आसपड़ोस की भाभियां चुहल करते हुए ममू को राजेश के कमरे तक लाईं तो वह बेहद शरमाई हुई थी. पलंग के एक कोने पर बैठ कर उस ने राजेश को तिरछी नजरों से देखा, लेकिन उस की तीखी नजर का सामना किए बगैर ही राजेश ने अपनी पलकें झुका लीं.

ममू समझ गई कि उस का पति उस से भी ज्यादा नर्वस है. पलंग के कोने से उचक कर वह राजेश के करीब आ गई और उस के सिर को अपनी कोमल हथेली से सहलाते हुए बोली, ‘‘लगता है, हमारी जोड़ी जमेगी नहीं…’’

‘‘क्यों…?’’ राजेश ने भी घबराते हुए पूछा.

‘‘हिसाब उलटा हो गया…’’ उस ने कहा तो राजेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने बेचैन हो कर पूछा, ‘‘ऐसा क्यों कह रही हो ममू… क्या गड़बड़ हो गई?’’

‘‘यह गड़बड़ नहीं तो और क्या है? कुदरत ने तुम्हारे अंदर लड़कियों वाली शर्म भर दी और मेरे अंदर लड़कों वाली बेशर्मी…’’ कहते हुए ममू ने राजेश का माथा चूम लिया.

ममू के इस मजाक पर राजेश ने उसे अपनी बांहों में भर कर सीने से लगा लिया.

ख्वाबों में राजेश ने औरत को जिस रूप में देखा था, ममू उस से कई गुना बेहतर निकली. अब वह एक पल के लिए भी ममू को अपनी नजरों से ओझल होते नहीं देख सकता था.

हनीमून मना कर जब वे दोनों नैनीताल से घर लौटे तो ममू ने सुझाव दे डाला, ‘‘प्यारमनुहार बहुत हो चुका… अब औफिस जाना शुरू कर दो.’’

उस समय राजेश को ममू की बात हजम नहीं हुई. उस ने ममू की पीठ सहलाते हुए कहा, ‘‘नौकरी तो हमेशा करनी है ममू… ये दिन फिर लौट कर नहीं आएंगे. मैं छुट्टियां बढ़वा रहा हूं.’’

‘‘छुट्टियां बढ़ा कर क्या करोगे? हफ्तेभर बाद तो प्रमोशन के लिए तुम्हारा इंटरव्यू होना है,’’ ममू ने त्योरियां चढ़ा कर कहा.

ममू को सचाई बताते हुए राजेश ने कहा, ‘‘इंटरव्यू तो नाम का है डार्लिंग. मुझ से सीनियर कई लोग अभी प्रमोशन की लाइन में खड़े हैं… ऐसे में मेरा नंबर कहां आ पाएगा?’’

‘‘तुम सुधरोगे नहीं…’’ कह कर ममू राजेश का हाथ झिड़क कर चली गई.

अगली सुबह मां ने राजेश को एक अजीब सा फैसला सुना डाला, ‘‘ममता को यहां 20 दिन हो चुके हैं. नई बहू को पहली बार ससुराल में इतने दिन नहीं रखा करते. तू कल ही इसे मायके छोड़ कर आ.’’

मां से तो राजेश कुछ नहीं कह सका, लेकिन ममू को उस ने अपनी हालत बता दी, ‘‘मैं अब एक पल भी तुम से दूर नहीं रह सकता ममू. मेरे लिए कुछ दिन रुक जाओ, प्लीज…’’

‘‘जिस घर में मैं 23 साल बिता चुकी हूं, उस घर को इतनी जल्दी कैसे भूल जाऊं?’’ कहते हुए ममू की आंखें भर आईं.

राजेश को इस बात का काफी दुख हुआ कि ममू ने उस के दिल में उमड़ते प्यार को दरकिनार कर अपने मायके को ज्यादा तरजीह दी, लेकिन मजबूरी में उसे ममू की बात माननी पड़ी और वह उसे उस के मायके छोड़ आया.

ममू के जाते ही राजेश के दिन उदास और रातें सूनी हो गईं. घर में फालतू बैठ कर राजेश क्या करता, इसलिए वह औफिस जाने लगा.

कुछ ही दिन बाद प्रमोशन के लिए राजेश का इंटरव्यू हुआ. वह जानता था कि यह सब नाम का है, फिर भी अपनी तरफ से उस ने इंटरव्यू बोर्ड को खुश करने की पूरी कोशिश की.

2 हफ्ते बाद ममू मायके से लौट आई और तभी नतीजा भी आ गया.

लिस्ट में अपना नाम देख कर राजेश खुशी से उछल पड़ा. दफ्तर में उस के सीनियर भी परेशान हो उठे कि उन को छोड़ कर राजेश का प्रमोशन कैसे हो गया.

उन्होंने तहकीकात कराई तो पता चला कि इंटरव्यू में राजेश के नंबर उस के सीनियर सहकर्मियों के बराबर थे. इस हिसाब से राजेश के बजाय उन्हीं में से किसी एक का प्रमोशन होना था, मगर जब छुट्टियों के पैमाने पर परख की गई तो उन्होंने राजेश से ज्यादा छुट्टियां ली थीं. इंटरव्यू में राजेश को इसी बात का फायदा मिला था.

अगर ममू 2 हफ्ते पहले मायके न गई होती तो राजेश छुट्टी पर ही चल रहा होता और इंटरव्यू के लिए तैयारी भी न कर पाता. अचानक मिला यह प्रमोशन राजेश के कैरियर की एक अहम कामयाबी थी. इस बात को ले कर वह बहुत खुश था.

उस शाम घर पहुंच कर राजेश को ममू की गहरी समझ का ठोस सुबूत मिला.

मां ने बताया कि मायके की याद तो ममू का बहाना था. उस ने जानबूझ कर मां से मशवरा कर के मायके जाने का मन बनाया था ताकि वह इंटरव्यू के लिए तैयारी कर सके.

सचाई जान कर राजेश ममू से मिलने को बेताब हो उठा. अपने कमरे में दाखिल होते ही वह हैरान रह गया. ममू दुलहन की तरह सजधज कर बिस्तर पर बैठी थी. राजेश ने लपक कर उसे अपने सीने से लगा लिया. उस की हथेलियां ममू की कोमल पीठ को सहला रही थीं.

ममू कह रही थी, ‘‘माफ करना… मैं ने तुम्हें बहुत तड़पाया. मगर यह जरूरी था, तुम्हारी और मेरी तरक्की के लिए. क्या तुम से दूर रह कर मैं खुश रही? मायके में चौबीसों घंटे मैं तुम्हारी यादों में खोई रही. मैं भी तड़पती रही, लेकिन इस तड़प में भी एक मजा था. मुझे पता था कि अगर मैं तुम्हारे साथ रहती तो तुम जरूर छुट्टी लेते और कभी भी मन लगा कर इंटरव्यू की तैयारी नहीं करते.’’

राजेश कुछ नहीं बोला बस एकटक अपनी ममू को देखता रहा.

ममू ने राजेश को अपनी बांहों में लेते हुए चुहल की, ‘‘अब बोलो, मुझ जैसी कठोर बीवी पा कर तुम कैसा महसूस कर रहे हो?’’

‘‘तुम को पा कर तो मैं निहाल हो गया हूं ममू…’’ राजेश अभी बोल ही रहा था कि ममू ने ट्यूबलाइट का स्विच औफ करते हुए कहा, ‘‘बहुत हो चुकी तारीफ… अब कुछ और…’’

ममू शरारत पर उतर आई. कमरा नाइट लैंप की हलकी रोशनी से भर उठा और ममू राजेश की बांहों में खो गई, एक नई सुबह आने तक. Hindi Story

Hindi Story: उसके हिस्से की जूठन – क्यों निखिल से नफरत करने लगी कुमुद

Hindi Story: इस विषय पर अब उस ने सोचना बंद कर दिया है. सोचसोच कर बहुत दिमाग खराब कर लिया पर आज तक कोई हल नहीं निकाल पाई. उस ने लाख कोशिश की कि मुट्ठी से कुछ भी न फिसलने दे, पर कहां रोक पाई. जितना रोकने की कोशिश करती सबकुछ उतनी तेजी से फिसलता जाता. असहाय हो देखने के अलावा उस के पास कोई चारा नहीं है और इसीलिए उस ने सबकुछ नियति पर छोड़ दिया है.

दुख उसे अब उतना आहत नहीं करता, आंसू नहीं निकलते. आंखें सूख गई हैं. पिछले डेढ़ साल में जाने कितने वादे उस ने खुद से किए, निखिल से किए. खूब फड़फड़ाई. पैसा था हाथ में, खूब उड़ाती रही. एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर तक, एक शहर से दूसरे शहर तक भागती रही. इस उम्मीद में कि निखिल को बूटी मिल जाएगी और वह पहले की तरह ठीक हो कर अपना काम संभाल लेगा.

सबकुछ निखिल ने अपनी मेहनत से ही तो अर्जित किया है. यदि वही कुछ आज निखिल पर खर्च हो रहा है तो उसे चिंता नहीं करनी चाहिए. उस ने बच्चों की तरफ देखना बंद कर दिया है. पढ़ रहे हैं. पढ़ते रहें, बस. वह सब संभाल लेगी. रिश्तेदार निखिल को देख कर और सहानुभूति के चंद कतरे उस के हाथ में थमा कर जा चुके हैं.

देखतेदेखते कुमुद टूट रही है. जिस बीमारी की कोई बूटी ही न बनी हो उसी को खोज रही है. घंटों लैपटाप पर, वेबसाइटों पर इलाज और डाक्टर ढूंढ़ती रहती. जैसे ही कुछ मिलता ई-मेल कर देती या फोन पर संपर्क करती. कुछ आश्वासनों के झुनझुने थमा देते, कुछ गोलमोल उत्तर देते. आश्वासनों के झुनझुनों को सच समझ वह उन तक दौड़ जाती. निखिल को आश्वस्त करने के बहाने शायद खुद को आश्वस्त करती. दवाइयां, इंजेक्शन, टैस्ट नए सिरे से शुरू हो जाते.

डाक्टर हैपिटाइटिस ‘ए’ और ‘बी’ में दी जाने वाली दवाइयां और इंजेक्शन ही ‘सी’ के लिए रिपीट करते. जब तक दवाइयां चलतीं वायरस का बढ़ना रुक जाता और जहां दवाइयां हटीं, वायरस तेजी से बढ़ने लगता. दवाइयों के साइड इफैक्ट होते. कभी शरीर पानी भरने से फूल जाता, कभी उलटियां लग जातीं, कभी खूब तेज बुखार चढ़ता, शरीर में खुजली हो जाती, दिल की धड़कनें बढ़ जातीं, सांस उखड़ने लगती और कुमुद डाक्टर तक दौड़ जाती.

पिछले डेढ़ साल से कुमुद जीना भूल गई, स्वयं को भूल गई. उसे याद है केवल निखिल और उस की बीमारी. लाख रुपए महीना दवाइयों और टैस्टों पर खर्च कर जब साल भर बाद उस ने खुद को टटोला तो बैंक बैलेंस आधे से अधिक खाली हो चुका था. कुमुद ने तो लिवर ट्रांसप्लांट का भी मन बनाया. डाक्टर से सलाह ली. खर्चे की सुन कर पांव तले जमीन निकल गई. इस के बाद भी मरीज के बचने के 20 प्रतिशत चांसेज. यदि बच गया तो बाद की दवाइयों का खर्चा. पहले लिवर की व्यवस्था करनी है.

सिर थाम कर बैठ गई कुमुद. पापा से धड़कते दिल से जिक्र किया तो सुन कर वह भी सोच में पड़ गए. फिर समझाने लगे, ‘‘बेटा, इतना खर्च करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया तो तू और बच्चे किस ठौर बैठेंगे. आज की ही नहीं कल की भी सोच.’’

‘‘पर पापा, निखिल ऐसे भी मौत और जिंदगी के बीच झूल रहे हैं. कितनी यातना सह रहे हैं. मैं क्या करूं?’’ रो दी कुमुद.

‘‘धैर्य रख बेटी. जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर के भरोसे नहीं बैठ जाना चाहिए बल्कि तलाश जारी रखनी चाहिए. तू तानी के बारे में सोच. उस का एम.बी.ए. का प्रथम वर्ष है और मनु का इंटर. बेटी इन के जीवन के सपने मत तोड़. मैं ने यहां एक डाक्टर से बात की है. ऐसे मरीज 8-10 साल भी खींच जाते हैं. तब तक बच्चे किसी लायक हो जाएंगे.’’

सुनने और सोचने के अलावा कुमुद के पास कुछ भी नहीं बचा था. निखिल जहां जरा से संभलते कि शोरूम चले जाते हैं. नौकर और मैनेजर के सहारे कैसे काम चले? न तानी को फुर्सत है और न मनु को कि शोरूम की तरफ झांक आएं. स्वयं कुमुद एक पैर पर नाच रही है. आय कम होती जा रही है. इलाज शुरू करने से पहले ही डाक्टर ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि यदि आप 15-20 लाख खर्च करने की शक्ति रखते हैं तभी इलाज शुरू करें.

असहाय निखिल सब देख रहे हैं और कोशिश भी कर रहे हैं कि कुमुद की मुश्किलें आसान हो सकें. पर मुश्किलें आसान कहां हो पा रही हैं. वह स्वयं जानते हैं कि लिवर कैंसर एक दिन साथ ले कर ही जाएगा. बस, वह भी वक्त को धक्का दे रहे हैं. उन्हें भी चिंता है कि उन के बाद परिवार का क्या होगा? अकेले कुमुद क्याक्या संभालेगी?

इस बार निखिल ने मन बना लिया है कि मनु बोर्ड की परीक्षाएं दे ले, फिर शो- रूम संभाले. उन के इस निश्चय पर कुमुद अभी चुप है. वह निर्णय नहीं कर पा रही कि क्या करना चाहिए.

अभी पिछले दिनों निखिल को नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा. खून की उल्टियां रुक ही नहीं रही थीं. डाक्टर ने एंडोस्कोपी की और लिवर के सिस्ट बांधे, तब कहीं ब्लीडिंग रुक पाई. 50 हजार पहले जमा कराने पड़े. कुमुद ने देखा, अब तो पास- बुक में महज इतने ही रुपए बचे हैं कि महीने भर का घर खर्च चल सके. अभी तो दवाइयों के लिए पैसे चाहिए. निखिल को बिना बताए सर्राफा बाजार जा कर अपने कुछ जेवर बेच आई. निखिल पूछते रहे कि तुम खर्च कैसे चला रही हो, पैसे कहां से आए, पर कुमुद ने कुछ नहीं बताया.

‘‘जब तक चला सकती हूं चलाने दो. मेरी हिम्मत मत तोड़ो, निखिल.’’

‘‘देख रहा हूं तुम्हें. अब सारे निर्णय आप लेने लगी हो.’’

‘‘तुम्हें टेंस कर के और बीमार नहीं करना चाहती.’’

‘‘लेकिन मेरे अलावा भी तो कुछ सोचो.’’

‘‘नहीं, इस समय पहली सोच तुम हो, निखिल.’’

‘‘तुम आत्महत्या कर रही हो, कुमुद.’’

‘‘ऐसा ही सही, निखिल. यदि मेरी आत्महत्या से तुम्हें जीवन मिलता है तो मुझे स्वीकार है,’’ कह कर कुमुद ने आंखें पोंछ लीं.

निखिल ने चाहा कुमुद को खींच कर छाती से लगा ले, लेकिन आगे बढ़ते हाथ रुक गए. पिछले एक साल से वह कुमुद को छूने को भी तरस गया है. डाक्टर ने उसे मना किया है. उस के शरीर पर पिछले एक सप्ताह से दवाई के रिएक्शन के कारण फुंसियां निकल आई हैं. वह चाह कर भी कुमुद को नहीं छू सकता.

एक नादानी की इतनी बड़ी सजा बिना कुमुद को बताए निखिल भोग रहा है. क्या बताए कुमुद को कि उस ने किन्हीं कमजोर पलों में प्रवीन के साथ होटल में एक रात किसी अन्य युवती के साथ गुजारी थी और वहीं से…कुमुद के साथ विश्वासघात किया, उस के प्यार के भरोसे को तोड़ दिया. किस मुंह से बीते पलों की दास्तां कुमुद से कहे. कुमुद मर जाएगी. मर तो अब भी रही है, फिर शायद उस की शक्ल भी न देखे.

डाक्टर ने कुमुद को भी सख्त हिदायत दी है कि बिना दस्ताने पहने निखिल का कोई काम न करे. उस के बलगम, थूक, पसीना या खून की बूंदें उसे या बच्चों को न छुएं. बिस्तर, कपड़े सब अलग रखें.

निखिल का टायलेट भी अलग है. कुमुद निखिल के कपड़े सब से अलग धोती है. बिस्तर भी अलग है, यानी अपना सबकुछ और इतना करीब निखिल आज अछूतों की तरह दूर है. जैसे कुमुद का मन तड़पता है वैसे ही निखिल भी कुमुद की ओर देख कर आंखें भर लाता है.

नियति ने उन्हें नदी के दो किनारों की तरह अलग कर दिया है. दोनों एकदूसरे को देख सकते हैं पर छू नहीं सकते. दोनों के बिस्तर अलगअलग हुए भी एक साल हो गया.

कुमुद क्या किसी ने भी नहीं सोचा था कि हंसतेखेलते घर में मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा. कुछ समय से निखिल के पैरों पर सूजन आ रही थी, आंखों में पीलापन नजर आ रहा था. तबीयत भी गिरीगिरी रहती थी. कुमुद की जिद पर ही निखिल डाक्टर के यहां गया था. पीलिया का अंदेशा था. डाक्टर ने टैस्ट क्या कराए भूचाल आ गया. अब खोज हुई कि हैपिटाइटिस ‘सी’ का वायरस आया कहां से? डाक्टर का कहना था कि संक्रमित खून से या यूज्ड सीरिंज से वायरस ब्लड में आ जाता है.

पता चला कि विवाह से पहले निखिल का एक्सीडेंट हुआ था और खून चढ़ाना पड़ा था. शायद यह वायरस वहीं से आया, लेकिन यह सुन कर निखिल के बड़े भैया भड़क उठे थे, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? खून रेडक्रास सोसाइटी से मैं खुद लाया था.’’

लेकिन उन की बात को एक सिरे से खारिज कर दिया गया और सब ने मान लिया कि खून से ही वायरस शरीर में आया.

सब ने मान लिया पर कुमुद का मन नहीं माना कि 20 साल तक वायरस ने अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखाया.

‘‘वायरस आ तो गया पर निष्क्रिय पड़ा रहा,’’ डाक्टर का कहना था.

‘‘ठीक कहते हैं डाक्टर आप. तभी वायरस ने मुझे नहीं छुआ.’’

‘‘यह आप का सौभाग्य है कुमुदजी, वरना यह बीमारी पति से पत्नी और पत्नी से बच्चों में फैलती ही है.’’

कुमुद को लगा डाक्टर ठीक कह रहा है. सब इस जानलेवा बीमारी से बचे हैं, यही क्या कम है, लेकिन 10 साल पहले निखिल ने अपना खून बड़े भैया के बेटे हार्दिक को दिया था जो 3 साल पहले ही विदेश गया है और उस के विदेश जाने से पहले सारे टैस्ट हुए थे, वायरस वहां भी नहीं था.

न चाहते हुए भी कुमुद जब भी खाली होती, विचार आ कर घेर लेते हैं. नए सिरे से विश्लेषण करने लगती है. आज अचानक उस के चिंतन को नई दिशा मिली. यदि पति पत्नी को यौन संबंधों द्वारा वायरस दे सकता है तो वह भी किसी से यौन संबंध बना कर ला सकता है. क्या निखिल भी किसी अन्य से…

दिमाग घूम गया कुमुद का. एकएक बात उस के सामने नाच उठी. बड़े भैया का विश्वासपूर्वक यह कहना कि खून संक्रमित नहीं था, उन के बेटे व उन सब के टैस्ट नेगेटिव आने, यानी वायरस ब्लड से नहीं आया. यह अभी कुछ दिन पहले ही आया है. निखिल पर उसे अपने से भी ज्यादा विश्वास था और उस ने उसी से विश्वासघात किया.

कुमुद ने फौरन डाक्टर को फोन मिलाया, ‘‘डाक्टर, आप ने यह कह कर मेरा टैस्ट कराया था कि हैपिटाइटिस ‘सी’ मुझे भी हो सकता है और आप 80 प्रतिशत अपने विचार से सहमत थे. अब उसी 80 प्रतिशत का वास्ता दे कर आप से पूछती हूं कि यदि एक पति अपनी पत्नी को यह वायरस दे सकता है तो स्वयं भी अन्य महिला से यौन संबंध बना कर यह बीमारी ला सकता है.’’

‘‘हां, ऐसा संभव है कुमुदजी और इसीलिए 20 प्रतिशत मैं ने छोड़ दिए थे.’’

कुमुद ने फोन रख दिया. वह कटे पेड़ सी गिर पड़ी. निखिल, तुम ने इतना बड़ा छल क्यों किया? मैं किसी की जूठन को अपने भाल पर सजाए रही. एक पल में ही उस के विचार बदल गए. निखिल के प्रति सहानुभूति और प्यार घृणा और उपेक्षा में बदल गए.

मन हुआ निखिल को इसी हाल में छोड़ कर भाग जाए. अपने कर्मों की सजा आप पाए. जिए या मरे, वह क्यों तिलतिल कर जले? जीवन का सारा खेल भावनाओं का खेल है. भावनाएं ही खत्म हो जाएं तो जीवन मरुस्थल बन जाता है. अपना यह मरुस्थली जीवन किसे दिखाए कुमुद. एक चिंगारी सी जली और बुझ गई. निखिल उसे पुकार रहा था, पर कुमुद कहां सुन पा रही थी. वह तो दोनों हाथ खुल कर लुटी, निखिल ने भी और भावनाओं ने भी.

निखिल के इतने करीब हो कर भी कभी उस ने अपना मन नहीं खोला. एक बार भी अपनी करनी पर पश्चात्ताप नहीं हुआ. आखिर निखिल ने कैसे समझ लिया कि कुमुद हमेशा मूर्ख बनी रहेगी, केवल उसी के लिए लुटती रहेगी? आखिर कब तक? जवाब देना होगा निखिल को. क्यों किया उस ने ऐसा? क्या कमी देखी कुमुद में? क्या कुमुद अब निखिल का साथ छोड़ कर अपने लिए कोई और निखिल तलाश ले? निखिल तो अब उस के किसी काम का रहा नहीं.

घिन हो आई कुमुद को यह सोच कर कि एक झूठे आदमी को अपना समझ अपने हिस्से की जूठन समेटती आई. उस की तपस्या को ग्रहण लग गया. निखिल को आज उस के सवाल का जवाब देना ही होगा.

‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, निखिल? मैं सब जान चुकी हूं.’’

और निखिल असहाय सा कुमुद को देखने लगा. उस के पास कहने को कुछ भी नहीं बचा था. Hindi Story

Hindi Romantic Story: धोखा – अनुभव के साथ क्या करना चाहती थी अनुभा

Hindi Romantic Story: ‘‘हैलो मिस्टर अनुभव, क्या मैं आप के 2 मिनट ले सकती हूं?’’ मेरे केबिन में अभीअभी दाखिल हुई मोहतरमा के मधुर स्वर ने मुझे एक सुखद अहसास से भर दिया था. फाइलों से आंखें हटा कर चश्मा संभालते हुए मैं ने सामने देखा तो देखता ही रह गया.

लग रहा था जैसे हर तरफ कचनार के फूल बिखर गए हों और सारा आलम मदहोश हो रहा हो. फ्लौवर प्रिंट वाली स्टाइलिश पिंक मिडी और घुंघराले लहराते बालों को स्टाइल से पीछे करती बाला के गुलाबी होंठों पर गजब  की आमंत्रणपूर्ण मुसकान थी.

हाल ही में वायरल हुए प्रिया के वीडियो की तरह उस ने नजाकत से अपनी भौंहों को नचाते हुए कुछ कहा, जिसे मैं समझ नहीं पाया, फिर भी बल्लियों उछलते अपने दिल को काबू में करते हुए मैं ने विनम्रता से उसे बैठने का इशारा किया.

‘‘मिस्टर अनुभव, मैं अनुभा. आप का ज्यादा वक्त न लेते हुए अपनी बात कहती हूं. पहले यह बताइए कि आप की उम्र क्या है?’’

ऊपर से नीचे तक मुझ पर निगाहें घुमाते हुए उस ने बड़ी अदा से कहा, ‘‘वैसे आप की कसी हुई बौडी देख कर तो लगता है कि आप 40 से ऊपर नहीं हैं. मगर किसी ने मुझे आप के पास यह कह कर भेजा है कि आप 50 प्लस हैं और आप हमारी पौलिसी का फायदा उठा सकते हैं.’’

वैसे तो मैं इसी साल 55 का हो चुका हूं, मगर अनुभा के शब्दों ने मुझे यह अहसास कराया था कि मैं अब भी कितना युवा और तंदुरुस्त दिखता हूं. भले ही थोड़ी सी तोंद निकल आई हो, चश्मा लग गया हो और सिर के सामने के बाल गायब हो रहे हों, मगर फिर भी मेरी पर्सनैलिटी देख कर अच्छेखासे जवान लड़के जलने लगते हैं.

मैं उस की तरफ देख कर मुसकराता हुआ बोला, ‘‘अजी बस शरीर फिट रखने का शौक है. उम्र 50 की हो गई है. फिर भी रोज जिम जाता हूं. तभी यह बौडीशौडी बनी है.’’

वह भरपूर अंदाज से मुसकराई, ‘‘मानना पड़ेगा मिस्टर अनुभव, गजब की प्लीजैंट पर्सनैलिटी है आप की. मेरे जैसी लड़कियां भी तुरंत फ्लैट हो जाएं आप पर.’’

कहते हुए एक राज के साथ उस ने मेरी तरफ देखा और फिर कहने लगी, ‘‘एक्चुअली हमारी कंपनी 50 प्लस लोगों के लिए एक खास पौलिसी ले कर आई है. जरा गौर फरमाएं यह है कंपनी और पौलिसी की डिटेल्स.’’

उस ने कुछ कागजात मेरी तरफ आगे बढ़ाए और खुद मुझ पर निगाहों के तीर फेंकती हुई मुसकराती रही. मैं ने कागजों पर एक नजर डाली और सहजता से बोला, ‘‘जरूर मैं लेना चाहूंगा.’’

‘‘ओके देन. फिर मैं कल आती हूं आप के पास. तब तक आप ये कागज तैयार रखिएगा.’’

कुरसी से उठते हुए उस ने फिर मेरी तरफ एक भरपूर नजर डाली और पूछा, ‘‘वैसे किस जिम में जाते हैं आप?’’

मैं सकपका गया क्योंकि जिम की बात तो उस पर इंप्रैशन जमाने के लिए कही थी. फिर कुछ याद करते हुए बोला, ‘‘ड्रीम पैलेस जिम, कैलाशपुरी में है ना, वही.’’

‘‘ओह, वाट ए कोइंसीडैंस! मैं भी तो वहीं जाती हूं. किस समय जाते हैं आप?’’

‘‘मैं 8 बजे,’’ मैं ने कहा.

‘‘अच्छा कभी हम मिले नहीं. एक्चुअली मैं 6 बजे जाती हूं ना!’’ इठलाती हुई वह दरवाजे से निकलते हुए उसी मधुर स्वर में बोली, ‘‘ओके देन बाय. सी यू.’’

वह बाहर चली गई और मैं अपने खयालों के गुलशन को आबाद करने लगा. सामने लगे शीशे में गौर से अपने आप को हर एंगल से निहारने लगा. सचमुच मेरी पर्सनैलिटी प्लीजैंट है, इस बात का अहसास गहरा हो गया था. यानी इस उम्र में भी मुझे देख कर बहुतों के दिल में कुछकुछ होता है.

मैं सोचने लगा कि सामने वाले आकाशचंद्र की साली को मैं अकसर उसी वक्त बालकनी में खड़ी देखता हूं जब मैं गाड़ी निकाल कर औफिस के लिए निकल रहा होता हूं. यानी वह इत्तफाक नहीं प्रयास है.

हो न हो मुझे देखने का बहाना तलाशती होगी और फिर पिंकी की दीदी भी तो मुझे देख कितनी खुश हो जाती है. आज जो हुआ वह तो बस दिल को ठंडक ही दे गया था. सीधेसीधे लाइन मार रही थी. बला की अदाएं थीं उस की.

मैं अपनी बढ़ी धड़कनों के साथ कुरसी पर बैठ गया. कुछ देर तक उसी के खयालों में खोया रहा. कल फिर आएगी. ठीक से तैयार हो कर आऊंगा. मैं सोच ही रहा था कि पत्नी का फोन आ गया. मैं ने जानबूझ कर फोन नहीं उठाया. कहीं मेरी आवाज के कंपन से वह अंदाजा न लगा ले और फिर औरतों को तो वैसे भी पति की हरकतों का तुरंत अंदाजा हो जाता है.

अचानक मेरी सोच की दिशा बदली कि मैं यह क्या कर रहा हूं. 55 साल का जिम्मेदार अफसर हूं. घर में बीवी, बच्चे सब हैं और मैं औफिस में किसी फुलझड़ी के खयालों में डूबा हुआ हूं. न…न…अचानक मेरे अंदर की नैतिकता जागी, पराई स्त्री के बारे में सोचना भी गलत है. मैं सचमुच काम में लग गया. बीवी के फोन ने मेरे दिमाग के शरारती तंतुओं को फिर से सुस्त कर दिया. शाम को जब घर पहुंचा तो बीवी कुछ नाराज दिखी.

‘‘मेरा फोन क्यों नहीं उठाया? कुछ सामान मंगाना था तुम से.’’

‘‘बस मंगाने के लिए फोन करती हो मुझे? कभी दिल लगाने को भी फोन कर लिया करो.’’ मेरी बात पर वह ऐसे शरमा कर मुसकराई जैसे वह कोई नई दुलहन हो. फिर वह तुरंत चाय बनाने चली गई और मैं कपड़े बदल कर रोज की तरह न्यूज देखने बैठ गया. पर आज समाचारों में मन ही नहीं लग रहा था? बारबार उस हसीना का चेहरा निगाहों के आगे आ जाता.

अगले दिन वह मोहतरमा नियत समय पर उसी अंदाज में अंदर आई. मेरे दिल पर छुरियां चलाती हुई वह सामने बैठ गई. कागजी काररवाई के दौरान लगातार उस की निगाहें मुझ पर टिकी रहीं. मैं सब महसूस कर रहा था पर पहल कैसे करता? 2 दिन बाद फिर से आने की बात कह कर वह जाने लगी. जातेजाते फिर से मेरे दिल के तार छेड़ती हुए बोली, ‘‘कल मैं 8 बजे पहुंची थी जिम, पर आप नजर नहीं आए.’’

मैं किसी चोर की तरह सकपका गया.

‘‘ओह, कल एक्चुअली बीवी के मायके जाना पड़ गया, सो जिम नहीं जा सका.’’

‘‘…मिस्टर अनुभव, आई डोंट नो, पर ऐसा क्या है आप में जो मुझे आप की तरफ खींच रहा है. अजीब सा आकर्षण है. जैसा मैं महसूस कर रही हूं क्या आप भी…?’’

उस के इस सवाल पर मुझे लगा जैसे कि मेरी सांसें ही थम गई हों. अजीब सी हालत हो गई थी मेरी. कुछ भी बोल नहीं सका.

‘ओके सी यू मैं इंतजार करूंगी.’’ कह कर वह मुसकराती हुई चली गई.

मैं आश्चर्य भरी खुशी में डूबा रहा. वह जिम में मेरा इंतजार करेगी. तो क्या सचमुच वह मुझ से प्यार करने लगी है. यह सवाल दिल में बारबार उठ रहा था.

फिर तो औफिस के कामों में मेरा मन ही नहीं लगा. हाफ डे लीव ले कर सीधा पहुंच गया ड्रीम प्लेस जिम. थोड़ी प्रैक्टिस की और अगले दिन से रोजाना 8 बजे आने की बात तय कर घर आ गया.

बीवी मुझे जल्दी आया देख चौंक गई. मैं बीमारी का बहाना कर के कमरे में जा कर चुपचाप लेट गया. एक्चुअली किसी से बात करने की कोई इच्छा ही नहीं हो रही थी. मैं तो बस डूब जाना चाहता था अनुभा के खयालों में.

अगले दिन से रोजाना 8 बजे अनुभा मुझे जिम में मिलने आने लगी. कभीकभी हम चाय कौफी पीने या टहलने भी निकल जाते. मेरी बीवी अकसर मेरे बरताव और रूटीन में आए बदलाव को ले कर सवाल करती पर मैं बड़ी चालाकी से बहाने बना देता.

जिंदगी इन दिनों बड़ी खुशगवार गुजर रही थी. अजीब सा नशा होता था उस के संग बिताए लम्हों में. पूरा दिन उसी के खयालों की खुशबू में विचरते हुए गुजर जाता.

मैं तरहतरह के महंगे गिफ्ट्स ले कर उस के पास पहुंचता, वह खुश हो जाती. कभीकभी वह करीब आती, अनजाने ही मुझे छू कर चली जाती. उस स्पर्श में गजब का आकर्षण होता. मुझे लगता जैसे मैं किसी और ही दुनिया में पहुंच गया हूं.

धीरेधीरे मेरी इस मदहोशी ने औफिस में मेरे परफौर्मेंस पर असर डालना शुरू कर दिया. मेरा बौस मुझ से नाखुश रहने लगा. पारिवारिक जीवन पर भी असर पड़ रहा था. एक दिन मेरे किसी परिचित ने मुझे अनुभा के साथ देख लिया और जा कर बीवी को बता दिया.

बीवी चौकन्नी हो गई और मुझ से कटीकटी सी रहने लगी. वह मेरे फोन और आनेजाने के समय पर नजर रखने लगी थी. मुझे इस बात का अहसास था पर मैं क्या करता? अब अनुभा के बगैर रहने की सोच भी नहीं सकता था.

एक दिन अनुभा मेरे बिलकुल करीब आ कर बोली, ‘‘अब आगे?’’

‘‘आगे क्या?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आगे बताइए मिस्टर, मैं आप की बीवी तो बन नहीं सकती. आप के उस घर में रह नहीं सकती. इस तरह कब तक चलेगा?’’

‘तुम कहो तो तुम्हारे लिए एक दूसरा घर खरीद दूं.’’

वह मुसकुराती हुई बोली, ‘‘अच्छे काम में देर कैसी? मैं भी यही कहना चाहती थी कि हम दोनों का एक खूबसूरत घर होना चाहिए. जहां तुम बेरोकटोक मुझ से मिलने आ सको. किसी को पता भी नहीं चलेगा. फिर तो तुम वह सब भी पा सकोगे जो तुम्हारी नजरें कहती हैं. मेरे नाम पर एक घर खरीद दोगे तो मुझे भी ऐतबार हो जाएगा कि तुम मुझे वाकई चाहते हो. फिर हमारे बीच कोई दूरी नहीं रह जाएगी.’’

मेरा दिल एक अजीब से अहसास से खिल उठा. अनुभा पूरी तरह से मेरी हो जाएगी. इस में और देर नहीं होनी चाहिए. मैं ने मन में सोचा. तभी वह मेरे गले में बांहें डालती हुई बोली, ‘‘अच्छा सुनो, तुम मुझे कैश रुपए दे देना. मेरे अंकल प्रौपर्टी डीलर हैं. उन की मदद से मैं ने एक घर देखा है. 40 लाख का घर है. ऐसा करो आधे रुपए मैं लगाती हूं आधे तुम लगा दो.’’

‘‘ठीक है मैं रुपयों का इंतजाम कर दूंगा.’’ मैं ने कहा तो वह मेरे सीने से लग गई.

अगले 2-3 दिनों में मैं ने रुपयों का इंतजाम कर लिया. चैक तैयार कर उसे सरप्राइज देने के खयाल से मैं उस के घर के एडै्रस पर जा पहुंचा. बहुत पहले उस ने यह एडै्रस दिया था पर कभी भी मुझे वहां बुलाया नहीं था.

आज मौका था. बडे़ अरमानों के साथ बिना बताए उस के घर पहुंच गया. दरवाजा थोड़ा सा खुला हुआ था. अंदर से 2 लड़कों की बातचीत के स्वर सुनाई पड़े तो मैं ठिठक गया. दोनों किसी बात पर ठहाके लगा रहे थे.

एक हंसता हुआ कह रहा था, ‘‘यार अनुज, अनुभा बन कर तूने उस अनुभव को अच्छे झांसे में लिया. लाखों के गिफ्ट्स लुटा चुका है तुझ पर. अब 20-25 लाख का चेक ले कर आ रहा होगा. यार कई सालों से तू लड़की बन कर लोगों को लूटता आ रहा है पर यह दांव आज तक का सब से तगड़ा दांव रहा…’’

‘‘बस यह चेक मिल जाए मुझे फिर बेचारा ढूंढता रहेगा कहां गई अनुभा?’’ लड़कियों वाली आवाज निकालता हुआ बगल में खड़ा लड़का हंसने लगा. बाल ठीक करता हुआ वह पलटा तो मैं देखता रह गया. यह अनुभा था यानी लड़का जो लड़की बन कर मेरे जज्बातों से खेल रहा था. सामने बिस्तर पर लड़की के गेटअप के कपड़े, ज्वैलरी और लंबे बालों वाला विग पड़ा था. वह जल्दी जल्दी होंठों पर लिपस्टिक लगाता हुआ कहने लगा, ‘‘यार उस तोंदू, बुड्ढे को हैंडसम कहतेकहते थक चुका हूं.’’

उस का दोस्त ठहाके लगाता हुआ बोला, ‘‘लेले मजे यार, लड़कियों की आवाज निकालने का तेरा हुनर अब हमें मालामाल कर देगा.’’

मुझे लगा जैसे मेरा कलेजा मुंह को आ जाएगा. उलटे पैर तेजी से वापस लौट पड़ा. लग रहा था जैसे वह लपक कर मुझे पकड़ लेगा. हाईस्पीड में गाड़ी चला कर घर पहुंचा.

मेरा पूरा चेहरा पसीने से भीग रहा था. सामने उदास हैरान सी बीवी खड़ी थी. आज वह मुझे बेहद निरीह और मासूम लग रही थी. मैं ने बढ़ कर उसे सीने से लगा लिया. वह चिंतातुर नजरों से मेरी तरफ देख रही थी. मैं नजरें चुरा कर अपने कमरे में चला आया.

शुक्र था मेरी इस बेवफाई और मूर्खतापूर्ण कार्य का खुलासा बीवी के आगे नहीं हुआ था. वरना मैं धोबी का वह कुत्ता बन जाता जो न घर का होता है और न घाट का. Hindi Romantic Story

Story In Hindi: एक चुटकी मिट्टी की कीमत

Story In Hindi: पहले जब लोगों के दिल बड़े हुआ करते थे, तब घर भी बड़े व हवादार हुआ करते थे, भरेपूरे संयुक्त परिवार हुआ करते थे. जब से लोगों के दिल छोटे हुए, घर भी छोटे व बेकार होने लगे डब्बेनुमा. अब जब कोरोना जैसी महामारी आई तो लोगों को पूर्वजों की बड़ी व खुली सोच और बड़े व खुलेखुले घर की अहमियत समझ में आई.

बात पिछले साल की है. बिहार के अपने लंबेचौड़े, संयुक्त पुश्तैनी घर से दिल्ली के 2 कमरों के सिकुड़ेसिमटे फ्लैट में शिफ्ट हुए एक महीना भी नहीं हुआ था कि कोरोना महामारी ने समूचे विश्व पर अपने भयावह पंजे फैला दिए. लौकडाउन और कर्फ्यू के बीच घर में कैद हम बेबसी में नीरस व बेरंग दिन काट रहे थे, फोन पर प्रियजनों के साथ दूरियों को पाट रहे थे. मन ही मन प्रकृति से दिनरात मिन्नतें कर रहे थे कि, हे प्रकृति, इस विदेशी वायरस को जल्दी से जल्दी इस के मायके भेज दे.

एक दिन मुंह पर मास्कवास्क बांध कर मन ही मन कोरोना के उदगम स्थल को हम अपनी बालकनी में बैठे कोस रहे थे कि अथाह भीड़ वाली दिल्ली की कोरोनाकालीन सूनी सड़क से फूलों का एक ठेले वाला अपनी बेसुरी आवाज में चीखते हुए फूल खरीदने की गुहार मचाता गुजरा. देखते ही देखते महामारी को ठेंगा दिखाते लोगों की भीड़ ठेले के पास जमा हो गई.

हम भारतीयों की ख़ासीयत है कि हम लौकडाउन, कर्फ्यू या मास्कवास्क को अपनी सुविधानुसार ही अहमियत देते हैं. भावताव के साथ संपन्न हो रही थी सौदेबाजी, कोरोना ने कहीं महंगे कर दिए थे फूल तो कहीं सस्ते में भाजी मिल रही थी. थोड़ी ही देर बाद मैं ने देखा कि सामने वाले घर की बालकनी गुलाब के गमलों से सज गई है और गमले में लगे यौवन से उन्मत्त लालपीले सुकुमार गुलाब मेरी ओर बड़ी अदा से देख कर मुसकरा रहे हैं. अकेलेपन से व्यथित मेरे ह्रदय को अपनी ख़ूबसूरती से चुरा रहे हैं. अगलबगल के घरों की बालकनी का भी यही नज़ारा था.

गुलाबों का बेहिसाब हुस्न मेरे दिल को बरबस ही भा चुका था. पर करें क्या, फूल वाला तो अपने सारे गुलाब बेचकर जा चुका था. अब हर दिन मैं फूलवाले के इंतज़ार में बालकनी में बैठी रहती. किसी भी बेसुरी आवाज पर मेरी सारी चेतना कानों में समा जाती. पर सूनी सड़क पर यदाकदा भीख मांगने वाले या फिर शौकिया सड़कों की ख़ाक छानने वाले ही नज़र आते. न जाने फूलवाला कहां लुप्त हो गया था.

आखिरकार, एक हफ्ते बाद फूलवाला दोबारा से सड़क पर प्रकट हुआ. भीड़ का जत्था ठेले तक पहुंचे, इस के पहले ही मैं तेज गति से ठेले के पास जा पहुंची. अलगअलग रंगों के 10 गुलाब पसंद कर के मैं ने फूलवाले से उन्हें गमले में लगा देने को कहा.

“फूल लगाने के पैसे अलग से लगेंगे, मैडम जी,” भीड़ देख कर वह वाला भाव खा रहा था.

मैं बोली, “अरे, तो ले लेना अलग से पैसे, फूल तो लगा दो.”

वह बोला, “फूल कैसे लगा दूं, मैडम जी, मिट्टी किधर है?”

मैं सोच में पड़ गई, मिट्टी कहां है. मुझे पसोपेश में देख वह फूलवाला वाला बोला, “ मिट्टी लेनी है?”

मैं ने झट से हामी भरी तो उस ने एक छोटा सा पैकेट निकाला और बोला, “यह 5 किलो मिट्टी है, 375 रुपए लगेंगे. लेना है, तो बोलो.”

मिट्टी इतनी कम थी कि एक गमला भी ठीक से नहीं भर सकता था. पर फूल वाले ने बड़ी कुशलता से 4 गमलों में जराजरा सी मिट्टी डाल कर गुलाब के पौधे लगा दिए और बाकी मिट्टी कल लाने की बात कह कर चला गया.

6 गुलाब के पौधे बेचारे यों ही बालकनी के फर्श पर गिरे पड़े से थे. अपने अंजाम को सोच कर मानो डरेडरे से थे. मैं ने फोन पर अपनी मित्रमंडली में अपनी परेशानी बताई, तो सब ने औनलाइन मिट्टी खरीदने का सुझाव दिया. मैं झटपट औनलाइन मिट्टी सर्च करने लगी. यहां तो तरहतरह की मिट्टियों की भरमार थी. हम तो एक ही मिट्टी समझते थे. यहां मिट्टी की हजारों किस्में उपलब्ध थीं.

गुलाब के लिए अलग मिट्टी तो सिताब के लिए अलग, गुलबहार के लिए अलग तो गुलनार के लिए अलग, मनीप्लांट के लिए अलग जबकि हनी प्लांट के लिए अलग, आम के लिए अलग तो एरिका पाम के लिए अलग. साथ ही कोरोना की वजह से ‘भारी’ डिस्काउंट भी मिल रहा था. 300 रुपए किलो से 1100 रुपए किलो के बीच हजारों तरह की मिट्टियां औनलाइन बेची जा रही थीं. जैसे रेड सोयल, येलो सोयल, और्गेनिक सोयल, इनआर्गेनिक सोयल, पृथ्वी सोयल, आकाश सोयल, गोबर वाली सोयल, खाद वाली सोयल आदि. और तो और, जरा ज्यादा दाम पर यहां मिट्टी के बिस्कुट भी उपलब्ध थे.

सोने के बिस्कुट, खाने के बिस्कुट तो सुने थे पर ये मिट्टी के बिस्कुट पहली बार सुन रही थी. कई घंटे दिमाग खपाने के बाद मैं ने 15 किलो खाद वाली मिट्टी और 10 मिट्टी के बिस्कुट और्डर किए, जो कि सुबहसुबह एक छोटे से पैकेट में डिलीवरी बौय दे गया.

बड़े बुजुर्ग कह गए थे कि एक समय ऐसा आएगा जब पानी भी पैकेट में बिकेगा. पर मिट्टी भी पैकेट में बिकेगी, यह तो किसी ने सोचा ही न होगा. खैर, बिस्कुट समेत पूरी मिट्टी बमुश्किल 5 से 7 किलो होगी. अभी औनलाइन मिट्टी खरीदने का दुख कम भी नहीं हुआ था कि दोपहर को फूलवाला भी 5 किलो कह कर दोचार मुट्ठी मिट्टी दे गया. बदले में वह पेटीएम के पूरे पैसे ले गया. औनलाइन मिट्टी खरीदने के जख्म को फूलवाला हरा कर गया और जराजरा सी मिट्टी में किसी तरह से गुलाबों को खड़ा कर गया.

ऐसी अज़ीबोगरीब मिट्टी को देख कर बेचारे गुलाब बेहद डरे हुए थे. बड़ी मुश्किल से मुट्ठीभर मिट्टी में झुकेझुके से पड़े हुए थे वे. गुलाबों की दशा देख कर मेरा मन दिल्ली के प्रदूषित आसमान की तरह धुंधवारा सा होने लगा. हाय री मिट्टी, तू तो सोने से भी कीमती निकली. मन किया कि बिहार जा कर एक बोरी मिट्टी ही ले आऊं, पर कोरोना माई की वजह से यह मंसूबा भी पूरा नहीं हो सका. भरेमन से आखिरकार मैं ने गुलाबों को उन के हाल पर छोड़ देने का फैसला किया. एक लंबी सांस के साथ मेरे मुंह से निकला- एक चुटकी मिट्टी की कीमत तुम क्या जानो… Story In Hindi

Hindi Story: मेरे ससुर का श्राद्ध – पत्नी के स्वभाव में अचानक परिवर्तन क्यों आया

Hindi Story: जब थकहार कर मैं अपने घर पहुंचा तो पत्नीजी ने गरमागरम पकौड़ों के साथ कौफी का प्याला हाथ में रख दिया. मुझे उन गरम पकौड़ों में कोई साजिश और चाय की जगह दी जा रही कौफी में स्लो पौयजन का अनुभव हुआ. शादी के 10 बरसों में जिस ने कभी पति के घर लौटने पर हंस कर स्वागत नहीं किया हो वह यदि नाश्ते के साथ सवा सेर की मुसकान चेहरे पर ले आए तो यकीन मानिए कि कोई न कोई साजिश रची होनी चाहिए. मैं ने कांपते मन से पकौड़ा उठाया, कौफी के साथ मुंह में डाला और विचार कर ही रहा था कि पत्नीजी अब अणु बम के रूप में कोई मांग हमारे ऊपर फेंकने वाली हैं, लेकिन हमारा अंदाज गलत साबित हुआ. उन्होंने कुछ भी मांग नहीं रखी और पास बैठी किसी नवयौवना चिडि़या की तरह फुदकती रहीं. हमारा मन अभी भी शंकाकुशंका से दूर नहीं हो पाया था.

रात भोजन में 3 तरह का मीठा और 4 तरह की सब्जियां बनी थीं. चावलदाल अतिरिक्त थे. शायद अब कुछ कहे, लेकिन उन्होंने कुछ भी नहीं मांगा. हमारे जीवन में ऐसा पहली बार हुआ था. रात हमें नींद नहीं आ रही थी, न जाने पत्नीजी के व्यवहार में ऐसा परिवर्तन क्यों और कहां से आ गया? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि किसी के व्यवहार में अचानक परिवर्तन आ जाने का मतलब है कि उस की मृत्यु निकट है. तो क्या हमारी एकमात्र पत्नी जाने वाली है? सोच कर हमारी आंखें भर आईं. हम ने सोचा, उन्हें गले लगा कर जी भर कर रो लें लेकिन उन का साइज ऐसा था कि हिम्मत नहीं पड़ी.

वे किचन का काम निबटा कर हमारे बगल में आ कर बैठ गईं और तोप छोड़ती हुई बोलीं, ‘‘मैं ने तुम्हारा सामान भी जमा दिया है.’’

‘‘मेरा सामान जमा दिया है? मैं कहां जा रहा हूं?’’ हम ने किसी उल्लू की तरह देखते हुए प्रश्न किया.

‘‘तुम्हें मालूम नहीं क्या? बरस भर से कह रही हूं…’’ उन्होंने तनिक नाराजगी से कहा.

‘‘भूल गया हूं. दोबारा बता दो भाई,’’ हम ने विनम्रता से निवेदन किया.

‘‘बापू का श्राद्ध है. पूरा बरस बीत गया है,’’ कहतेकहते उन की आंखों से घडि़याली आंसू बहने लगे.

‘‘ओह, बापूजी का श्राद्ध है. हम तो भूल ही गए थे. कब निकलना है?’’

‘‘सुबह 6 बजे की बस है, फिर थोड़ा गांव तक पैदल भी जाना होगा,’’ उन्होंने बताया.

‘‘मैं औफिस में अभी फोन कर के छुट्टी को कह देता हूं,’’ पत्नीजी को खुश करने के उद्देश्य से मैं ने कहा.

वे खुश हो गईं. उन्होंने प्यार से हमारे सिर पर चुंबन लिया. उन्हें कोई दिक्कत भी नहीं हुई होगी क्योंकि वहां बाल बचे ही कहां थे. हवाई पट्टी की तरह चिकनी खोपड़ी जो हो चुकी थी.

सुबह वे जल्दी उठ गईं. हमें भी उठाया. हम आटोरिकशा ले आए. बस स्टैंड पर पहुंचे और बस में बैठ कर ससुराल के लिए निकल पड़े. पूरे रास्ते हम सोचते रहे कि क्यों इतने सुदूर गांव में हमारे ससुरजी ने इस कुकन्या को जन्म दिया? मरने के बाद भी हमें चैन से नहीं जीने दे रहे हैं. इतनी बेकार सड़क पर गाड़ी हिचकोले लेते चल रही थी, पता नहीं कब हम से साक्षात बातें करने के लिए ससुरजी ड्राइवर से साजिश कर के हमें बुला लें.

आखिर दोपहर तक हम ससुराल पहुंच गए. एकमात्र सास ने हमारी ओर कम अपनी कन्या की ओर अधिक ध्यान दिया. हमें एक कमरे में बैठा दिया गया था.

अगले दिन श्राद्ध का कार्यक्रम था. गांव से कुछ लोग अगले दिन आ गए थे. वहीं रिश्तेदार भी माल खाने के लिए आ धमके थे. भोजन की लिस्ट 7 दिन पूर्व बन चुकी थी. रात में ही बनाने वाले आ गए थे. पत्नीजी और दोनों साले खाना बनवाने के लिए निर्देश दे रहे थे. श्राद्ध कम, किसी की शादी का आयोजन अधिक लग रहा था. पकवानों की महक चारों ओर फैल रही थी. हम भी श्राद्ध के चलते बड़े गंभीर बने हुए थे.

उधर पत्नी और उन की भाभियां सोलहशृंगार कर के स्वर्ण आभूषणों से लदी थीं. ऐसा लग रहा था जैसे वहां श्राद्ध न हो कर फैशन शो हो रहा हो. सास ने भी रेशम की सफेद साड़ी और असली सफेद मोती की माला व उसी से मेल खाते अन्य जेवर धारण कर रखे थे. आईब्रो और फेशियल, हेयर कलर वे 2-3 दिन पूर्व ही करा चुकी थीं. सच कहूं, हमें अपनी पत्नीजी सास के सामने बूढ़ी लग रही थीं और सास को ससुरजी देख लेते तो पुन:विवाह का प्रस्ताव रख देते.

कार्यक्रम स्थल पर ससुरजी का फोटो रखा था. गांव, महल्ले वाले बेशर्म, गेंदे के फूलों को ला कर उन की तसवीर पर चढ़ा रहे थे. थोड़ी देर बाद पंडितजी आ गए. उन्होंने न जाने क्याक्या मंगाई गई सामग्रियों को रखा, होमहवन के बाद पूजा की. पूजा की थाली में सब ने चंदा डाला. इस सब क्रियाकर्म को करतेकरते 1 बज गया था. सब को भूख लग आई थी. पंडितजी ने सास को आदेश दिया कि कौए, गाय, कुत्ते के लिए भोजन की थालियां सजाओ, पितृपक्ष में सब आ कर प्रसाद ग्रहण करेंगे. पत्नीजी ने 3 थालियों को सजा दिया था. पंडितजी ने थालियों की पूजा की और आदेश दिया कि इसे बाहर रख दिया जाए, जब कौआ प्रसाद ग्रहण कर लेगा तब भोजन प्रारंभ होगा.

थाली सजा कर रखी गई थी. कौए को आने में समय भी नहीं लगा क्योंकि दूर एक मरा हुआ जानवर पड़ा था, जिस के मांसचमड़ी का भोजन करतेकरते वह थक गया था, शायद इसीलिए टैस्ट बदलने के लिए आ गया. हम ने वहां खड़े एक व्यक्ति से प्रश्न किया, ‘‘यह कौआ कौन है?’’

‘‘मृत आत्मा इस में रहती है.’’

‘‘यानी पहलवान सिंह ठामरूलाल की आत्मा इस में है?’’ हम ने ससुरजी का नाम ले कर प्रश्न किया.

‘‘बिलकुल, 100 प्रतिशत,’’ उस ने समर्थन किया.

‘‘तो क्या भैया, यह कुछ देर पहले मरा जानवर खाने वाला कौआ हमारे ससुरजी हैं?’’ उस ने क्रोध से हमें देखा और चुप रहने का इशारा किया.

दूसरी थाली कुत्ते के लिए थी. वहां कुत्ता तो नहीं आया, एक कुतिया जरूर आई. हम ने मन ही मन विचार किया, ‘ससुरजी का लिंग परिवर्तन हो गया जो कुतिया का रूप धारण कर लिया.’ सब रिश्तेदार खुश थे कि मृत आत्मा धड़ाधड़ प्रसाद ग्रहण कर रही है.

तीसरा चढ़ावा गाय का था. थाली रख दी गई, गाय को खोजा जाने लगा. गाय न थी, न आ रही थी. सब रिश्तेदार प्रतीक्षा कर रहे थे. बाहर थाली परोस कर रख दी गई थी. थोड़ी देर में छोटा साला दौड़ता हुआ अंदर आया, ‘‘मम्मीजीमम्मीजी.’’

‘‘क्या हुआ?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘बाहर, थाली के पास…’’

‘‘क्या हुआ? क्या गाय ने भी प्रसाद ग्रहण कर लिया?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं, जीजाजी,’’ उस ने ठहर कर कहा.

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘वहां गाय की जगह एक गधा आ कर थाली का प्रसाद ग्रहण कर रहा है.’’

‘‘ऐं,’’ बरबस हमारे मुंह से निकला. बाहर दौड़ लगाई, सच में थाली में रखे गुलाबजामुन, रसगुल्लों को गधा फटाफट निबटा रहा था. पंडितजी ने घड़ी देखी और कहा, ‘‘कोई बात नहीं यजमान,

चार पांव वाला कोई भी जीव ग्रहण कर सकता है.’’

सासूजी बड़ी लजाते, शर्माते हुए जवान गधे को देख रही थीं.

हम समझ गए थे, हमारे ससुरजी गधा बन कर आए हुए हैं. अगर वे गधे नहीं होते तो ऐसी बुद्धिहंता स्त्री से विवाह कर के कन्या को जनम नहीं देते जो हमारे गले पड़ी हुई है. हम ने कहा कुछ नहीं. शर्माती, अपनी सास को देख रहे थे जो गधे को थाली खाली करते हुए देख रही थीं.

गधे कभी एहसानफरामोश नहीं होते हैं. भरपेट खा कर उस ने तत्काल वहीं लीद भी कर दी. हमारी सास और पत्नीजी लीद देख कर धन्यधन्य हो गईं.

हिंदू संस्कृति के प्रति हमारे मन में जो थोड़ीबहुत श्रद्धा थी वह भी समाप्त हो गई थी. गधे के भोजनोपरांत सब को भोजन करने की परमिशन पंडितजी ने दे दी और सब खाने पर टूट पड़े. पंडितजी बहुत सा खाना, पैसे, कपड़े बांध कर चलते बने. इस तरह हमारी पत्नीजी प्रेम, श्रद्धा के साथ पिताश्री का श्राद्ध कर हमारे साथ लौटीं. हम आज तक सोच नहीं पाए कि हमारे ससुरजी क्या थे, कौआ, कुतिया या गधा?

इस का उत्तर तो उन की पत्नी यानी हमारी सास ही बता सकती हैं. हम तो कुछ बोल कर घर की शांति बरबाद करना नहीं चाहते हैं. Hindi Story

Story In Hindi: धमकियां – गांव की रहने वाली सुधा को क्या अपना पाया शेखर?

Story In Hindi: *शेखर* और सुधा की मैरिज ऐनिवर्सरी के दिन सब बेहद खुश थे. शनिवार का दिन था तो आराम से सब सैलिब्रेशन के मूड में थे. पार्टी देर तक भी चले तो कोई परेशानी नहीं.

अनंत और प्रिया ने पार्टी का सब इंतजाम कर लिया था. अंजू और सुधीर से भी बात हो गई थी. वे भी सुबह ही आ रहे थे. प्रोग्राम यह था कि पहले पूरा परिवार लंच एकसाथ घर पर करेगा, फिर डिनर करने सब बाहर जाएंगे. इस तरह पूरा दिन सब एकसाथ बिताने वाले थे.

शेखर और सुधा अपने बच्चों के साथ समय बिताने के लिए अति उत्साहित थे. अनंत तो अपनी पत्नी प्रिया और बेटी पारूल के साथ उन के साथ ही रहता था, बेटी अंजू अंधेरी में अपने पति सुधीर और बेटे अनुज के साथ रहती थी. मुंबई में होने पर भी मिलनाजुलना जल्दी नहीं हो पाता था, क्योंकि बहूबेटा, बेटीदामाद सब कामकाजी थे.

इसलिए जब भी सब एकसाथ मिलते, शेखर और सुधा बहुत खुश होते थे.सब की आपस में खूब बनती थी. सब जब भी मिलते, महफिल खूब जमती, जम कर एकदूसरे की टांग खींची जाती, कोई किसी की बात का बुरा न मानता. बच्चों के साथ शेखर और सुधा भी खूब हसंतेहंसाते.

12 बजे अंजू सुधीर और अनुज के साथ आ गई. सब ने एकदूसरे को प्यार से गले लगाया. शेखर और सुधा के साथसाथ अंजू सब के लिए कुछ न कुछ लाई थी. पारूल और अनुज तो अपनेआप में व्यस्त हो गए. हंसीमजाक के साथसाथ खाना भी लगता रहा. लंच भी बाहर से और्डर कर लिया गया था, पर प्रिया ने स्नेही सासससुर के लिए खीर और दहीबड़े उन की पसंद को ध्यान में रख कर खुद बनाए थे, जिसे सब ने खूब तारीफ करते हुए खाया.

खाना खाते हुए सुधीर ने बहुत सम्मानपूर्वक कहा, ”पापा, आप लोगों की मैरिडलाइफ एक उदाहरण है हमारे लिए. कभी भी आप लोगों को किसी बात पर बहस करते नहीं देखा. इतनी अच्छी बौंडिंग है आप दोनों की. मेरे मम्मीपापा तो खूब लड़ते थे. आप लोगों से बहुत कुछ सीखना चाहिए.”

फिर जानबूझ कर अंजू को छेड़ते हुए कहा,” इसे भी कुछ सिखा दिया होता, कितना लड़ती है मुझ से. कई बार तो शुरूशुरू में लगता था कि इस से निभेगी भी या नहीं.”

अंजू ने प्यार से घूरा,”बकवास बंद करो, तुम से कभी नहीं लड़ी मैं, झूठे…”

प्रिया ने भी कहा,”जीजू , आप ठीक कह रहे हैं, मम्मीपापा की कमाल की बौंडिंग है. दोनों एकदूसरे का बहुत ध्यान रखते हैं. बिना कहे ही एकदूसरे के मन की बात जान लेते हैं. यहां तो अनंत को मेरी कोई बात ही याद नहीं रहती. काश, अनंत भी पापा की तरह केयरिंग होता.”

अनंत से भी रहा नहीं गया, झूठमूठ गले में कुछ फंसने की ऐक्टिंग करता हुआ बोला,” मेरी प्यारी बहन अंजू, यह हम दोनों भाईबहन क्या सुन रहे हैं? क्यों न आज मम्मीपापा की बहू और दामाद को इस बौंडिंग की सचाई बता दें? हम कब तक ताने सुनते रहेंगे,” कहता हुआ अनंत अंजू को देख कर शरारत से हंस दिया.

शेखर ने चौंकते हुए कहा,”अरे, कैसी सचाई? क्या तुम बच्चों से अपने पेरैंट्स की तारीफ सहन नहीं हो रही?”

अनंत हंसते हुए बोला,”मम्मीपापा, तैयार हो जाइए, आप की बहू और आप के दामाद से हम भाईबहन आप की इस बौंडिंग का राज शेयर करने जा रहे हैं…”

फिर नाटकीय स्वर में अंजू से कहा,”चल, बहन, शुरू हो जा…”

*अंजू* ने जोर से हंसते हुए बताना शुरू किया,”जब हम छोटे थे, हम रोज देखते कि पापा मम्मी को हर बात में कहते हैं कि मैं तुम्हारे साथ एक दिन नहीं रह सकता. अम्मांपिताजी ने मेरे साथ बहुत बुरा किया है कि तुम से मेरी शादी करवा दी. मेरे जैसे स्मार्ट लड़के के लिए पता नहीं कहां से गंवार लड़की ले कर मेरे साथ बांध दिया,” इतना सुनते ही प्रिया और सुधीर ने चौंकते हुए शेखर और सुधा को देखा.

शेखर बहुत शर्मिंदा दिखे और सुधा की आंखों में एक नमी सी आ गई थी, जिसे देख कर शेखर और शर्मिंदा हो गए.

अनंत ने कहा,”और एक मजेदार बात यह थी कि रोज हमें लगता कि बस शायद कल मम्मी और पापा अलग हो जाएंगे पर हम अगले दिन देखते कि दोनों अपनेअपने काम में रोज की तरह व्यस्त हैं.

“सारे रिश्तेदारों को पता था कि दादादादी ने अपनी पसंद की लड़की से पापा की शादी कराई है और पापा को मम्मी पसंद नहीं हैं. हम किसी से भी मिलते, तो हम से पूछा जाता कि अब भी तुम्हारे पापा को तुम्हारी मम्मी पसंद नहीं हैं क्या?

“हमें कुछ समझ नहीं आता कि क्या कहें पर सब मम्मी की खूब तारीफ करते. सब का कहना था कि मम्मी जैसी लड़की संयोग से मिलती है पर पापा घर में हर बात पर यही कहते कि उन की लाइफ खराब हो गई है, यह शादी उन की मरजी से नहीं हुई है. उन्हें किसी शहर की मौडर्न लड़की से शादी करनी थी और उन के पेरैंट्स ने अपने गांव की लड़की से उन की शादी करा दी.

“हालांकि मम्मी बहुत पढ़ीलिखी हैं पर प्रोफैसर पापा अलग ही दुनिया में जीते और मैं और अंजू मम्मीपापा के तलाक के डर के साए में जीते रहे.

“कभी अनंत मुझे समझाता, तसल्ली देता कि कुछ नहीं होगा, कभी मैं उसे समझाती कि अगले दिन तो सब ठीक हो ही जाता है. हमारी जवानी तो पापा की धमकियों में ही बीत गई.”

फिर अचानक अनंत जोर से हंसा और कहने लगा,”धीरेधीरे हम बड़े हो गए और समझ आ गया कि पापा सिर्फ मम्मी को धमकियां देते हैं, हमारी प्यारी मां को छोड़ना इन के बस की बात नहीं.”

प्रिया और सुधीर ने शेखर को बनावटी गुस्से से कहा,”पापा, वैरी बैड, हम आप को क्या समझते थे और आप क्या निकले… बेचारे बच्चे आप की धमकियों में जीते रहे और हम आप दोनों की बौंडिंग के फैन होते रहे. क्यों, पापा, ये धमकियां क्यों देते रहे?”

शेखर ने सुधा की तरफ देखते हुए कहा,”वैसे अच्छा ही हुआ कि आज तुम लोगों ने बात छेड़ दी, दिन भी अच्छा है आज.”

*उन* के इतना कहते ही अंजू ने कहा,”अच्छा, दिन अच्छा हो गया अब मैरिज ऐनिवर्सरी का, बच्चों को परेशान कर के?”

”हां, बेटा, दिन बहुत अच्छा है आज का जो मुझे इस दिन सुधा मिली.”

अब सब ने उन्हें चिढ़ाना शुरू कर दिया,”रहने दो पापा, हम आप की धमकियां नहीं भूलेंगे.”

”सच कहता हूं, मैं गलत था. मैं ने सुधा को सच में तलाक की धमकी देदे कर बहुत परेशान किया. मैं चाहता था कि मैं बहुत मौडर्न लड़की से शादी करूं, गांव की लड़की मुझे पसंद नहीं थी. हमेशा शहर में रहने के कारण मुझे शहरी लड़कियां ही भातीं. जब अम्मांपिताजी ने सुधा की बात की तो मैं ने साफसाफ मना कर दिया पर सुधा के पेरैंट्स की मृत्यु हो चुकी थी और भाई ने ही हमेशा सुधा की जिम्मेदारी संभाली थी.

“अम्मां को सुधा से बहुत लगाव था. मैं ने तो यहां तक कह दिया था कि मंडप से ही भाग जाऊंगा पर पिताजी के आगे एक न चली और सारा गुस्सा सुधा पर ही उतरता रहा.

“मेरे 7 भाईबहनों के परिवार को सुधा ने ऐसे अपनाया कि सब मुझे भूलने लगे. हर मुंह पर सुधा का नाम, सुधा के गुण देख कर सब इस की तारीफ करते न थकते पर मेरा गुस्सा कम होने का नाम ही ना लेता पर धीरेधीरे मेरे दिल में इस ने ऐसी जगह बना ली कि क्या कहूं, मैं ही इस का सब से बड़ा दीवाना बन गया.

“जब आनंद पैदा हुआ तो सब को लगा कि अब सब ठीक हो जाएगा पर मैं नहीं सुधरा, सुधा से कहता कि बस यह थोड़ा बड़ा हो जाए तो मैं तुम्हे तलाक दे दूंगा.

“फिर 2 साल बाद अंजू हुई तो भी मैं यही कहता रहा कि बस बच्चे बड़े हो जाएं तो मैं तुम्हे तलाक दे दूंगा और तुम चाहो तो गांव में अम्मां के साथ रह सकती हो.

“फिर बच्चे बड़े हो रहे थे तो मेरी बहनों की शादी का नंबर आता रहा. सुधा अपनी हर जिम्मेदारी दिल से निभाती रही और मेरे दिल में जगह बनाती रही पर मैं इतना बुरा था कि तलाक की धमकियों से बाज नहीं आता…

“सुधा घर के इतने कामों के साथ अपना पूरा ध्यान पढाईलिखाई में लगाती और इस ने धीरेधीरे अपनी पीएचडी भी पूरी कर ली और एक दिन एक कालेज में जब इसे नौकरी मिल गई तो मैं पूरी तरह से अपनी गलतियों के लिए इतना शर्मिंदा था कि इस से माफी भी मांगने की मेरी हिम्मत नहीं हुई.

“मन ही मन इतना शर्मिंदा था कि आज इसलिए इस दिन को अच्छा बता रहा था कि मैं तुम सब के सामने सुधा से माफी मांगने की हिम्मत कर पा रहा हूं.

“बच्चो, तुम से भी शर्मिंदा हूं कि मेरी तलाक की धमकियों से तुम्हारा बालमन आहत होता रहा और मुझे खबर भी नहीं हुई.

“सुधा, अनंत और अंजू, तुम सब मुझे आज माफ कर दो…”

प्रिया ने सुधा की तरफ देखते हुए कहा,”मम्मी, आप भी कुछ कहिए न?”

सुधा ने एक ठंडी सांस ली और बोलने लगी,”शुरू में तो एक झटका सा लगा जब पता चला कि मैं इन्हें पसंद नहीं, मातापिता थे नहीं, भाई ने बहुत मन से मेरा विवाह इन के साथ किया था. लगा भाई को बहुत दुख होगा अगर उस से अपना दुख बताउंगी तो…

“इसलिए कभी भी किसी से शेयर ही नहीं किया कि पति तलाक की धमकियां दे रहा है. सोचा समय के साथ शायद सब ठीक हो जाए और ठीक हुआ भी. तुम दोनों के पैदा होने के बाद इन का अलग रूप देखा. तुम दोनों को यह खूब स्नेह देते, कालेज से आते ही तुम दोनों के साथ खूब खेलते.

“मैं ने यह भी देखा कि मुझे अपने पेरैंट्स के सामने या उन के आसपास होने पर ये तलाक की धमकियां ज्यादा देते हैं, अकेले में इन का व्यवहार कभी खराब भी नहीं रहा. मेरी सारी जरूरतों का हमेशा ध्यान रखते. मैं समझने लगी थी कि यह हम सब को प्यार करते हैं, हमारे बिना रह ही नहीं सकते.

“ये धमकियां पूरी तरह से झूठी हैं, सिर्फ अपने पेरैंट्स को गुस्सा दिखाने के लिए करते हैं.

“यह अपने पेरैंट्स से इस बात पर नाराज थे कि उन्होंने इन के विवाह के लिए इन की मरजी नहीं पूछी, सीधे अपना फैसला थोप दिया.

“जब मैं ने यह समझ लिया तो जीना मुश्किल ही नहीं रहा. मुझे पढ़ने का शौक था, किताबें तो यह ही ला कर दिया करते. पूरा सहयोग किया तभी तो पीएचडी कर पाई.

“रातभर बैठ कर पढ़ती तो यह कभी चाय बना कर देते, कभी गरम दूध का गिलास जबरदस्ती पकड़ा देते और अगर अगले दिन अम्मांपिताजी आ जाएं तो तलाकपुराण शुरू हो जाता, पर मैं इन के मौन प्रेम का स्वाद चख चुकी थी, फिर मुझे कोई धमकी असर न करती,” कहतेकहते सुधा बहुत प्यार से हंस दी.

*शेखर* हैरानी से सुधा का मुंह देख रहे थे, बोले,”मतलब तुम्हें जरा भी चिंता नहीं हुई कभी?”

”नहीं, जनाब, कभी भी नहीं,” सुधा मुसकराई.

अनंत और अंजू ने एकदूसरे की तरफ देखा, फिर अनंत बोला,” लो बहन, और सुनो इन की कहानी, मतलब हम ही बेवकूफ थे जो डरते रहे कि हाय, मम्मीपापा का तलाक न हो जाए, फिर हमारा क्या होगा?

“हम बच्चे तो कई बार यह बात भी करने बैठ जाते कि पापा के पास कौन रहेगा और मम्मी के पास कौन?

“हमें तो फिल्मी कोर्टसीन याद आते और हम अलग ही प्लानिंग करते. पापामम्मी, बड़ा जुल्म किया आप ने बच्चों पर. ये धमकियां हमारे बचपन पर बहुत भारी पड़ी हैं.”

शेखर ने अब गंभीरतापूर्वक कहा,”हां, बच्चो, यह मैं मानता हूं कि तुम दोनों के साथ मैं ने अच्छा नहीं किया, मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ कि मेरे बच्चों के दिलों पर ये धमकियां क्या असर कर रही होंगी, सौरी, बच्चो.”

अंजू ने चहकते हुए शरारत से कहा,”वह तो अच्छा है कि मम्मी ने यह बात एक दिन महसूस कर ली थी कि आप की तलाक की धमकियां हमें परेशान करती हैं तो उन्होंने हमें बैठा कर एक दिन समझा दिया था कि आप का यह गुस्सा दादादादी को दिखाने का एक नाटक है. कुछ तलाकवलाक कभी नहीं होगा, तब जा कर हम थोड़ा ठीक हुए थे.”

शेखर अब मुसकराए और नाटकीय स्वर में कहा,”मतलब मेरी खोखली धमकी का किसी पर भी असर नहीं पड़ रहा था और मैं खुद को तीसमारखां समझता रहा…”

सुधीर ने प्रिया की ओर देखते हुए कहा,”प्रिया, अनंत और अंजू कोई धमकी कभी दें तो दिल पर मत लेना, यार, हमें तो बड़े धमकीबाज ससुर मिले हैं, पर यह भी सच है कि आप दोनों की बौंडिंग है तो कमाल…

“एक सारी उम्र धमकी देता रहा, दूसरा एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकालता रहा, बस 2 बेचारे बच्चे डरते रहे.”

हंसी के ठहाड़ों से घर के दीवार चहक उठे थे और शेखर सुधा को मुग्ध नजरों से निहारते जा रहे थे. Story In Hindi

Hindi Story: चाहत – क्या शोभा अपना सपना पूरा कर पाई?

Hindi Story: “थक गई हूं मैं घर के काम से, बस वही एकजैसी दिनचर्या, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह. घर का सारा टैंशन लेतेलेते मैं परेशान हो चुकी हूं, अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ,”शोभा अकसर ही यह सब किसी न किसी से कहती रहतीं.

एक बार अपनी बोरियत भरी दिनचर्या से अलग, शोभा ने अपनी दोनों बेटियों के साथ रविवार को फिल्म देखने और घूमने का प्लान किया. शोभा ने तय किया इस आउटिंग में वे बिना कोई चिंता किए सिर्फ और सिर्फ आनंद उठाएंगी.

मध्यवर्गीय गृहिणियों को ऐसे रविवार कम ही मिलते हैं, जिस में वे घर वालों पर नहीं बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों खर्च करें, इसलिए इस रविवार को ले कर शोभा का उत्साहित होना लाजिमी था.

यह उत्साह का ही कमाल था कि इस रविवार की सुबह, हर रविवार की तुलना में ज्यादा जल्दी हो गई थी.

उन को जल्दी करतेकरते भी सिर्फ नाश्ता कर के तैयार होने में ही 12 बज गए. शो 1 बजे का था, वहां पहुंचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय वहां पहुंचने के लिए बस की जगह औटो ही एक विकल्प दिख रहा था और यहीं से शोभा के मन में ‘चाहत और जरूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो ‘चाहत’ की विजय हुई.

औटो का मीटर बिलकुल पढ़ीलिखी गृहिणियों की डिगरी की तरह, जिस से कोई काम नहीं लेना चाहता पर हां, जिन का होना भी जरूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसलिए किराए का भावताव तय कर के सब औटो में बैठ गए.

शोभा वहां पहुंच कर जल्दी से टिकट काउंटर में जा कर लाइन में लग गईं.

जैसे ही उन का नंबर आया तो उन्होंने अंदर बैठे व्यक्ति को झट से 3 उंगलियां दिखाते हुए कहा,”3 टिकट…”

अंदर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गरदन ऊपर किए, नीचे पड़े कांच में उन उंगलियों की छाया देख कर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया,”₹1200…”

शायद शोभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वे साथ में, उस व्यक्ति के होंठों को ₹1200 बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए नहीं देखतीं.

फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया, “कितने?”

इस बार अंदर बैठे व्यक्ति ने सच में उन की आवाज नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया.

उस ने जोर से कहा,”₹1200…”

शोभा की अन्य भावनाओं की तरह उन की आउटिंग की इच्छा भी मोर की तरह निकली जो दिखने में तो सुंदर थी पर ज्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी और धम्म… से जमीन पर आ गई.

पर फिर एक बार दिल कड़ा कर के उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब ₹1200 उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिए और टिकट ले कर थिएटर की ओर बढ़ गईं.

10 मिनट पहले दरवाजा खुला तो हौल में अंदर जाने वालों में शोभा बेटियों के साथ सब से आगे थीं.

अपनीअपनी सीट ढूंढ़ कर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों को झेलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के किस्से सुन कर, साथ ही उन के बीभत्स चेहरे देख कर तो शोभा का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि गलती से भी उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो 2-4 थप्पड़ उन्हें वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि मजे तुम करो और हम अपने पैसे लगा कर यहां तुम्हारा कटाफटा लटका थोबड़ा देखें… पर शुक्र है वहां धूम्रपान की अनुमति नहीं थी.

लगभग आधे मिनट की शांति के बाद सभी खड़े हो गए. राष्ट्रगान चल रहा था. साल में 2-3 बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिलें तो वे हमेशा आंखों से ही फूटता है.

वैसे, देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा वीररस में इतनी डूबी हुई थीं कि उन को एहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वे ही अकेली खड़ी हैं, तो बेटी ने उन को हाथ पकड़ कर बैठने को कहा.

अब फिल्म शुरू हो गई. शोभा कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्नभिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इंटरवल तक पहुंचीं.

चूंकि, सभी घर से सिर्फ नाश्ता कर के निकले थे तो इंटरवल तक सब को भूख लग चुकी थी. क्याक्या खाना है, उस की लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार कर के शोभा को थमा दीं.

शोभा एक बार फिर लाइन में खड़ी थीं. उन के पास बेटियों द्वारा दी गई खाने की लंबी लिस्ट थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी कम लंबी न थी.

जब शोभा के आगे लगभग 3-4 लोग बचे होंगे तब उन की नजर ऊपर लिखे मेन्यू पर पड़ी, जिस में खाने की चीजों के साथसाथ उन के दाम भी थे. उन के दिमाग में जोरदार बिजली कौंध गई और अगले ही पल बिना कुछ समय गंवाए वे लाइन से बाहर थीं.

₹400 के सिर्फ पौपकौर्न, समोसे ₹80 का एक, सैंडविच ₹120 की एक और कोल्डड्रिंक ₹150 की एक.

एक गृहिणी जिस ने अपनी शादीशुदा जिंदगी ज्यादातर रसोई में ही गुजारी हो उन्हें 1 टब पौपकौर्न की कीमत दुकानदार ₹400 बता रहे थे.

शोभा के लिए वही बात थी कि कोई सुई की कीमत ₹100 बताए और उसे खरीदने को कहे.

उन्हें कीमत देख कर चक्कर आने लगे. मन ही मन उन्होंने मोटामोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का ख़र्च, आउटिंग के खर्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पौकेट में रखे बचत के पैसों, जोकि मुसीबत के लिए रखे थे वहां तक पहुंच गया था. उन्हें एक तरफ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ पैसे. इस बार शोभा अपने मन के मोर को ज्यादा उड़ा न पाईं और आनंद के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. जाहिर था, कम हुआ हिस्सा मां अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा.

सामान ले कर जब वे अंदर पहुंचीं तो फिल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं कि यदि फिल्म अच्छी होती है तो वह आप को अपने साथ समेट लेती है, लगता है मानों आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूल कर शोभा फिल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब फिल्म समाप्त हो गई. वे जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी.

थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाटभंडार की दुकान दिखाई दी और सामने ही अपना गोलगोल मुंह फुलाए गोलगप्पे नजर आए. गोलगप्पे की खासियत होती है कि उन से कम पैसों में ज्यादा स्वाद मिल जाता है और उस के पानी से पेट भर जाता है.

सिर्फ ₹60 में तीनों ने पेटभर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी तो शोभा ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूम कर जाने वाली बस पकड़ी.

बस में बैठीबैठी शोभा के दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही थीं. कभी वे औटो के ज्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फिल्म के किसी सीन के बारे में सोच कर हंस पड़तीं, कभी महंगे पौपकौर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोच कर रोमांचित हो उठतीं.

उन का मन बहुत भ्रमित था कि क्या यही वह ‘चेंज’ है जो वे चाहतीं थीं? वे सोच रही थीं कि क्या सच में वे ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिस में दिन खत्म होने पर उनशके दिल में खुशी के साथ कसक भी रह जाए?

तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी मां से पूछा,”मम्मी, अगले संडे हम कहां चलेंगे?”

अब शोभा को ‘चाहत और जरूरत’ में से किसी 1 को चुनने का था. उन्होंने सब की जरूरतों का खयाल रखते हुए साथ ही अपनी चाहत का भी तिरस्कार न करते हुए कहा,”आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए बीच चलेंगे और सनसेट देखेंगे.”

शोभा सोचने लगीं कि अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौंदर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती और प्रकृति से बेहतर चेंज कहीं और से मिल सकता है भला?

शोभा को प्रकृति के साथसाथ अपना घर भी बेहद सुंदर नजर आने लगा था. उस का अपना घर, जहां उस के सपने हैं, अपने हैं और सब का साथ भी तो. Hindi Story

Hindi Story: तारीफ – अपनी पत्नी की तारीफ क्यों कर पाए रामचरण

Hindi Story: रामचरणबाबू यों तो बड़े सज्जन व्यक्ति थे. शहर के बड़े पोस्ट औफिस में सरकारी मुलाजिम थे और सरकारी कालोनी में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुख से रहते थे. लेकिन उन्हें पकौड़े खाने का बड़ा शौक था. पकौड़े देख कर वे खुद पर कंट्रोल ही नहीं कर पाते थे. रविवार के दिन सुबह नाश्ते में पकौड़े खाना तो जैसे उन के लिए अनिवार्य था. वे शनिवार की रात में ही पत्नी से पूछ लेते थे कि कल किस चीज के पकौड़े बना रही हो? उन की पत्नी कभी प्याज के, कभी आलू के, कभी दाल के, कभी गोभी के, तो कभी पालक के पकौड़े बनाती थीं और अगले दिन उन्हें जो भी बनाना होता था उसे रात ही में बता देती थीं. रामचरण बाबू सपनों में भी पकौड़े खाने का आनंद लेते थे. लेकिन बरसों से हर रविवार एक ही तरह का नाश्ता खाखा कर बच्चे बोर हो गए थे, इसलिए उन्होंने पकौड़े खाने से साफ मना कर दिया था.

उन का कहना था कि मम्मी, आप पापा के लिए बनाओ पकौड़े. हमें तो दूसरा नाश्ता चाहिए. रविवार का दिन जहां पति और बच्चों के लिए आराम व छुट्टी का दिन होता, वहीं मिसेज रामचरण के लिए दोहरी मेहनत का. हालांकि वे अपनी परेशानी कभी जाहिर नहीं होने देती थीं, लेकिन दुख उन्हें इस बात का था कि रामचरण बाबू उन के बनाए पकौड़ों की कभी तारीफ नहीं करते थे. पकौड़े खा कर व डकार ले कर जब वे टेबल से उठने लगते तब पत्नी द्वारा बड़े प्यार से यह पूछने पर कि कैसे बने हैं? उन का जवाब यही होता कि हां ठीक हैं, पर इन से अच्छे तो मैं भी बना सकता हूं.

मिसेज रामचरण यह सुन कर जलभुन जातीं. वे प्लेटें उठाती जातीं और बड़बड़ाती जातीं. पर रामचरण बाबू पर पत्नी की बड़बड़ाहट का कोई असर नहीं होता था. वे टीवी का वौल्यूम और ज्यादा कर देते थे. रामेश्वर रामचरण बाबू के पड़ोसी एवं सहकर्मी थे. कभीकभी किसी रविवार को वे अपनी पत्नी के साथ रामचरण बाबू के यहां पकौड़े खाने पहुंच जाते थे. आज रविवार था. वे अपनी पत्नी के साथ उन के यहां उपस्थित थे. डाइनिंग टेबल पर पकौड़े रखे जा चुके थे.

‘‘भाभीजी, आप लाजवाब पकौड़े बनाती हैं,’’ यह कहते हुए रामेश्वर ने एक बड़ा पकौड़ा मुंह में रख लिया.

‘‘हां, भाभी आप के हाथ में बड़ा स्वाद है,’’ उन की पत्नी भी पकौड़ा खातेखाते बोलीं.

‘‘अरे इस में कौन सी बड़ी बात है, इन से अच्छे पकौड़े तो मैं बना सकता हूं,’’ रामचरण बाबू ने वही अपना रटारटाया वाक्य दोहराया.

‘‘तो ठीक है, अगले रविवार आप ही पकौड़े बना कर हम सब को खिलाएंगे,’’ उन की पत्नी तपाक से बोलीं.

‘‘हांहां ठीक है, इस में कौन सी बड़ी बात है,’’ रामचरण बड़ी शान से बोले. ‘‘अगर आप के बनाए पकौड़े मेरे बनाए पकौड़ों से ज्यादा अच्छे हुए तो मैं फिर कभी आप की बात का बुरा नहीं मानूंगी और यदि आप हार गए तो फिर हमेशा मेरे बनाए पकौड़ों की तारीफ करनी पड़ेगी,’’ मिसेज रामचरण सवालिया नजरों से रामचरण बाबू की ओर देख कर बोलीं.

‘‘अरे रामचरणजी, हां बोलो भई इज्जत का सवाल है,’’ रामेश्वर ने उन्हें उकसाया.

‘‘ठीक है ठीक है,’’ रामचरण थोड़ा अचकचा कर बोले. शेखी के चक्कर में वे यों फंस जाएंगे उन्हें इस की उम्मीद नहीं थी. खैर मरता क्या न करता. परिवार और दोस्त के सामने नाक नीची न हो जाए, इसलिए उन्होंने पत्नी की चुनौती स्वीकार कर ली.

‘‘ठीक है भाई साहब, अगले रविवार सुबह 10 बजे आ जाइएगा, इन के हाथ के पकौड़े खाने,’’ उन की पत्नी ने मिस्टर और मिसेज रामेश्वर को न्योता दे डाला. सोमवार से शनिवार तक के दिन औफिस के कामों में निकल गए शनिवार की रात में मिसेज रामचरण ने पति को याद दिलाया, ‘‘कल रविवार है, याद है न?’’

‘‘शनिवार के बाद रविवार ही आता है, इस में याद रखने वाली क्या बात है?’’ रामचरण थोड़ा चिढ़ कर बोले.

‘‘कल आप को पकौड़े बनाने हैं. याद है कि भूल गए?’’

‘‘क्या मुझे…?’’ रामचरण तो वाकई भूल गए थे.

‘‘हां आप को. सुबह थोड़ा जल्दी उठ जाना. पुदीने की चटनी तो मैं ने बना दी है, बाकी मैं आप की कोई मदद नहीं करूंगी.’’ रामचरण बाबू की तो जैसे नींद ही उड़ गई. वे यही सोचते रहे कि मैं ने क्या मुसीबत मोल ली. थोड़ी सी तारीफ अगर मैं भी कर देता तो यह नौबत तो न आती. रविवार की सुबह 8 बजे थे. रामचरण खर्राटे मार कर सो रहे थे.

‘‘अजी उठिए, 8 बज गए हैं. पकौड़े नहीं बनाने हैं क्या? 10 बजे तो आप के दोस्त आ जाएंगे,’’ उन की मिसेज ने उन से जोर से यह कह कर उन्हें जगाया. मन मसोसते हुए वे जाग गए. 9 बजे उन्होंने रसोई में प्रवेश किया.

‘‘सारा सामान टेबल पर रखा है,’’ कह कर उन की पत्नी रसोई से बाहर निकल गईं.

‘‘हांहां ठीक है, तुम्हारी कोई जरूरत नहीं मैं सब कर लूंगा,’’ कहते हुए रामचरण बाबू ने चोर नजरों से पत्नी की ओर देखा कि शायद वे यह कह दें, रहने दो, मैं बना दूंगी. पर अफसोस वे बाहर जा चुकी थीं. ‘जब साथ देने की बारी आई तो चली गईं. वैसे तो कहती हैं 7 जन्मों तक साथ निभाऊंगी,’ रामचरण भुनभुनाते हुए बोले. फिर ‘चल बेटा हो जा शुरू’ मन में कहा और गैस जला कर उस पर कड़ाही चढ़ा दी. उन्होंने कई बार पत्नी को पकौड़े बनाते देखा था. उसे याद करते हुए कड़ाही में थोड़ा तेल डाला और आंच तेज कर दी. पकौड़ी बनाने का सारा सामान टेबल पर मौजूद था. उन्होंने अंदाज से बेसन एक कटोरे में निकाला. उस में ध्यान से नमक, मिर्च, प्याज, आलू, अजवाइन सब डाला फिर पानी मिलाने लगे. पानी जरा ज्यादा पड़ गया तो बेसन का घोल पतला हो गया. उन्होनें फिर थोड़ा बेसन डाला. फिर घोल ले कर वे गैस के पास पहुंचे. आंच तेज होने से तेल बहुत गरमगरम हो गया था. जैसे ही उन्होंने कड़ाही में पकौड़े के लिए बेसन डाला, छन्न से तेल उछल कर उन के हाथ पर आ गिरा.

‘‘आह,’’ वे जोर से चिल्लाए.

‘‘क्या हुआ?’’ उन की पत्नी बाहर से ही चिल्लाईं और बोलीं, ‘‘गैस जरा कम कर देना वरना हाथ जल जाएंगे.’’

‘‘हाथ तो जल गया, ये बात पहले नहीं बता सकती थीं?’’ वे धीरे से बोले. फिर आंच धीमी की और 1-1 कर पकौड़े का घोल कड़ाही में डालने लगे. गरम तेल गिरने से उन की उंगलियां बुरी तरह जल रही थीं. वे सिंक के पास जा कर पानी के नीचे हाथ रख कर खड़े हो गए तो थोड़ा आराम मिला. इतने में ही उन का मोबाइल बजने लगा. देखा तो रामेश्वर का फोन था. उन्होंने फोन उठाया तो रामेश्वर अपने आने की बात कह कर इधरउधर की बातें करने लगे.

‘‘अजी क्या कर रहे हो, बाहर तक पकौड़े जलने की बास आ रही है,’’ उन की मिसेज रसोई में घुसते हुए बोलीं. रामचरण बाबू ने तुरंत फोन बंद कर दिया. वे तो रामेश्वर से बातचीत में इतने मशगूल हो गए थे कि भूल ही गए थे कि वे तो रसोई में पकौड़े बना रहे थे. दौड़ कर उन की मिसेज ने गैस बंद की. रामचरण भी उन की ओर लपके, पर तब तक तो सारे पकौड़े जल कर काले हो चुके थे. पत्नी ने त्योरियां चढ़ा कर उन की ओर देखा तो वे हकलाते हुए बोले, ‘‘अरे वह रामेश्वर का फोन आ गया था.’’

तभी ‘‘मम्मी, रामेश्वर अंकल और आंटी आ गए हैं,’’ बेटी ने रसोई में आ कर बताया.

‘‘अरे रामचरणजी, पकौड़े तैयार हैं न?’’ कहते हुए रामेश्वर सीधे रसोई में आ धमके. वहां जले हुए पकौड़े देख कर सारा माजरा उन की समझ में आ गया. वे जोरजोर से हंसने लगे और बोले, ‘‘अरे भई, भाभीजी की तारीफ कर देते तो यह दिन तो न देखना पड़ता?’’

‘‘जाइए बाहर जा कर बैठिए. मैं अभी दूसरे पकौड़े बना कर लाती हूं. बेटा, पापा की उंगलियों पर क्रीम लगा देना,’’ मिसेज रामचरण ने कहा. उस के आधे घंटे बाद सब लोग उन के हाथ के बने पकौड़े खा रहे थे. साथ में चाय का आनंद भी ले रहे थे.

‘‘क्यों जी, कैसे बने हैं पकौड़े?’’ उन्होंने जब रामचरण बाबू से पूछा तो, ‘‘अरे, तुम्हारे हाथ में तो जादू है. लाजवाब पकौड़े बनाती हो तुम तो,’’ कहते हुए उन्होंने एक बड़ा पकौड़ा मुंह में रख लिया. सभी ठहाका मार कर हंस दिए. Hindi Story

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें