Short Story : एक कश्मीरी

Short Story : जिन हिंदू और मुसलमानों ने कभी एकदूसरे के त्योहारों व सुखदुख को एकसाथ जिया था, आज उन्हें ही जेहादी व शरणार्थी जैसे नामों से पुकारा जाने लगा है.

ड्राइवर को गाड़ी पार्क करने का आदेश दे कर मैं तेजी से कानफ्रेंस हाल की तरफ बढ़ गया. सभी अधिकारी आ चुके थे और मीटिंग कुछ ही देर में शुरू होने वाली थी. मैं भी अपनी नेम प्लेट लगी जगह को देख कर कुरसी में धंस गया.

चीफ के हाल में प्रवेश करते ही हम सभी सावधानी से खड़े हो गए. तभी किसी के मोबाइल की घंटी घनघना उठी. चीफ की तेज आवाज ‘प्लीज, स्विच आफ योर मोबाइल्स’ सुनाई दी. मीटिंग शुरू हो चुकी थी. चपरासी सभी को गरम चाय सर्व कर रहा था.

चीफ के दाहिनी ओर एक लंबे व गोरेचिट्टे अधिकारी बैठे हुए थे. यह हमारे रीजन के मुखिया थे. ऊपर से जितने कड़क अंदर से उतने ही मुलायम. एक योग्य अधिकारी के साथसाथ लेखक भी. विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में उन की कहानियां व कविताएं छपती थीं. ज्यादातर वह उर्दू में ही लिखा करते थे इसलिए उर्दू पढ़ने वालों में उन का नाम काफी जानापहचाना था. मीटिंग में जब कभी चीफ किसी बात पर नाराज हो जाया करते तो वह अपनी विनोदप्रियता से स्थिति को संभाल लेते.

मीटिंग का प्रथम दौर खत्म होते ही मैं उन के साथ हो लिया. चूंकि मेरी नियुक्ति अभी नईनई थी, अत: उन के अनुभवों से मुझे काफी कुछ सीखने को मिलता. चूंकि वह काफी वरिष्ठ थे, अत: हर चीज उन से पूछने का साहस भी नहीं था. फिर भी उन के बारे में काफी कुछ सुनता रहता था. मसलन, वह बहुत अकेला रहना पसंद करते थे, इसी कारण उन की पत्नी उन से दूर कहीं विदेश में रहती हैं और वहीं एक स्कूल में बतौर टीचर पढ़ाती हैं. एक लंबा समय उन्होंने सेना में प्रतिनियुक्ति पर बिताया व अधिकतर दुर्गम जगहों पर उन की तैनाती रही थी. आज तक उन्होंने किसी भी जगह अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया था. यहां से भी उन के ट्रांसफर आर्डर आ चुके थे.

बात शुरू करने के उद्देश्य से मैं ने पूछा, ‘‘सर, आप नई जगह ज्वाइन कर रहे हैं?’’

वह मुसकराते हुए बोले, ‘‘देखो, लगता है जाना ही पड़ेगा. वैसे भी किसी जगह मैं लंबे समय तक नहीं टिक पाया हूं.’’

इस बीच चपरासी मेज पर खाना लगा चुका था. धीरेधीरे हम ने खाना शुरू किया. खाने के दौरान मैं कभीकभी उन्हें ध्यान से देखता और सोचता, इस व्यक्ति का वास्तविक स्वरूप क्या है? सामने जितना खुशमिजाज, फोन पर उतनी ही कड़क आवाज. वह मूलत: कश्मीरी ब्राह्मण थे. अचानक बातों के सिलसिले में वह मुझे अपने बीते दिनों के बारे में बताने लगे तो लगा जैसे समय का पहिया अचानक मुड़ कर पीछे चला गया हो.

‘‘देखो, आज भी मुझे अपने कश्मीरी होने पर गर्व है. अगर कश्मीर की धरती को स्वर्ग कहा गया तो उस में सचाई भी है. अतीत में झांक कर देखो तो न हिंदूमुसलमान का भेद, न आतंकवाद की छाया. सभी एकदूसरे के त्योहार व सुखदुख में शरीक होते थे और जातिधर्म से परे एक परिवार की तरह रहते थे.’’

उन्होेंने अपने बचपन का एक वाकया सुनाया कि एक बार मेरी छोटी बहन दुपट्टे को गरदन में लपेटे घूम रही थी कि तभी एक बुजुर्ग मुसलमान की निगाह उस पर पड़ी. उन्होंने प्यार से उसे अपने पास बुलाया और पूछा कि बेटी, तुम किस के घर की हो? परिचय मिलने पर उस बुजुर्ग ने समझाया कि तुम शरीफ ब्राह्मण खानदान की लड़की हो और इस तरह दुपट्टे को गले में लपेट कर चलना अच्छा नहीं लगता. फिर उसे दुपट्टा ओढ़ने का तरीका बताते हुए उन्होंने घर जाने को कहा व बोले, ‘तुम भी मेरी ही बेटी हो, तुम्हारी इज्जत भी हमारी इज्जत से जुड़ी है. हम भले ही दूसरे धर्म को मानते हैं पर नारी की इज्जत सभी की इज्जत से जुड़ी है.’

इतना बताने के बाद अचानक वह खामोश हो गए. एक पल रुक कर वह कहने लगे कि पता नहीं किन लोगों की नजर हमारे कश्मीर को लग गई कि देखते ही देखते उसे आतंकवाद का गढ़ बना दिया और हम अपने ही कश्मीर में बेगाने हो गए. हम ने तो कभी हिंदूमुसलमान के प्रति दोतरफरा व्यवहार नहीं पाला, फिर कहां से आया यह सब.

मैं उन की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था और उन की आवाज के दर्द को समझने की कोशिश भी कर रहा था. वह बता रहे थे कि सिविल सर्विस में आने से पहले वह एक दैनिक पत्र के लिए काम करते थे. 1980 के दौर में जब भारत पर सोवियत संघ की सरपरस्ती का आरोप लगता था तो अखबारों में बड़ेबड़े लेख छपते थे. मैं उन को ध्यान से पढ़ता था, और तब मेरे अंदर भी सोवियत संघ के प्रति एक विशेष अनुराग पैदा होता था. पर वह दिन भी आया जब सोवियत संघ का बिखराव हुआ और उसी दौर में कश्मीर भी आतंक की बलि चढ़ गया. वह मुझे तब की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को समझाने की कोशिश करते और मैं अबोध शिशु की तरह उन का चेहरा देखता.

चपरासी आ कर जूठी प्लेटें उठा ले गया. फिर उस ने आइसक्रीम की बाबत हम से पूछा पर उसे उन्होंने 2 कड़क चाय लाने का आदेश दिया. तभी उन के मोबाइल पर मैसेज टोन बजी. उन्होंने वह मैसेज पढ़ा और मेरी तरफ नजर उठा कर बोले कि बेटे का मैसेज है.

अब वह अपने बेटे के बारे में मुझे बताने लगे, ‘‘पिछले दिनों उस ने एक नौकरी के लिए आवेदन किया था और उस के लिए जम कर मेहनत भी की थी, पर नतीजा निगेटिव रहा था. मैं उस पर काफी नाराज हुआ और हाथ भी छोड़ दिया. इस के बाद से ही वह नाराज हो कर अपनी मम्मी के पास विदेश चला गया,’’ फिर हंसते हुए बोले, ‘‘अच्छा ही किया उस ने, यहां पर तो कैट, एम्स जैसी परीक्षाओं के पेपर लीक हो कर बिक रहे हैं, फिर अच्छी नौकरी की क्या गारंटी? वहां विदेश में अब अच्छा पैसा कमाता है,’’ एक लंबी सांस छोड़ते हुए आगे बोले, ‘‘यू नो, यह भी एक तरह का मानसिक आतंकवाद ही है.’’

हमारी बातों का सिलसिला धीरेधीरे फिर कश्मीर की तरफ मुड़ गया. वह बताने लगे, ‘‘जब मेरी नियुक्ति कश्मीर में थी तो मैं जब भी अपने गांव पहुंचता, महल्ले की सारी औरतें, हिंदू हों या मुसलमान, मेरी कार को घेर कर चूमने की कोशिश करतीं. उन के लिए मेरी कार ही मेरे बड़े अधिकारी होने  की पहचान थी.

‘‘मैं अपने गांव का पहला व्यक्ति था जो इतने बड़े ओहदे तक पहुंचा था. जब भी मैं गांव जाता तो सभी बुजुर्ग, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, मेरा हालचाल पूछने आते और मेरे द्वारा पांव छूते ही वह मुझे अपनी बांहों में भर लेते थे और कहते, ‘बेटा, तू तो बड़ा अधिकारी बन गया है, अब तो दिल्ली में ही कोठी बनवाएगा.’ तब मैं उन से कहता, ‘नहीं, चाचा, मैं तो यहीं अपने पुश्तैनी मकान में रहूंगा.’’

अचानक उन की आंखों की कोर से 2 बूंद आंसू टपके और भर्राए गले से वह बोले, ‘‘मेरा तो सपना सपना ही रह गया. अब तो जाने कितने दिन हो गए मुझे कश्मीर गए. पिछले दिनों अखबार में पढ़ा था कि मेरे गांव में सेना व आतंक- वादियों के बीच गोलीबारी हुई है. आतंकवादी जिस घर में छिपे हुए थे वह मेरा ही पुश्तैनी मकान था.

‘‘पुरखों की बनाई हुई अमानत व मेरे सपनों का इतना बुरा अंजाम होगा, कभी सोचा भी नहीं था. अब तो किसी को बताने में भी डर लगता है कि मैं कश्मीरी हूं.’’

आंसुओं को रूमाल से पोंछते हुए वह कह रहे थे, ‘‘पता नहीं, हमारे कश्मीर को किस की नजर लग गई? जबकि कश्मीर में आम हिंदू या मुसलमान कभी किसी को शक की निगाह से नहीं देखता पर कुछ सिपाही लोगों के चलते आम कश्मीरी अपने ही घर में बेगाना बन गया. जिन हिंदू और मुसलमान भाइयों ने कभी एकदूसरे के त्योहारों व सुखदुख को एकसाथ जिया था, आज उन्हें ही जेहादी व शरणार्थी जैसे नामों से पुकारा जाने लगा है.’’

कुछ देर तक वह खमोश रहे फिर बोले, ‘‘अपने जीतेजी चाहूंगा कि कश्मीर एक दिन फिर पहले जैसा बने और मैं वहां पर एक छोटा सा घर बनवा कर रह सकूंगा पर पता नहीं, ऐसा हो कि नहीं?’’

दरवाजे पर खड़ा चपरासी बता रहा था कि चीफ मैडम मीटिंग के लिए बुला रही हैं. वह ‘अभी आया’ कह कर बाथरूम की ओर बढ़ गए. शायद अपने चेहरे की मासूम कश्मीरियत साफ कर एक अधिकारी का रौब चेहरे पर लाने के लिए गए थे.

लेखक-  कृष्ण कुमार यादव

Best Hindi Story : असली पहचान : राजेश की क्या थी असलीयत

Best Hindi Story : वह मेरी पड़ोसिन की बूआ का बेटा था. मेरे परिवार के लोग राजेश को टपोरी समझते थे पर उसी टपोरी ने वह कर दिखाया था जिस के बारे में न तो मैं ने कभी सोचा था न मेरे परिवार में किसी को उम्मीद थी.

आज जब राजेश का फोन आया कि नीलू मां बनने वाली है तो मेरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई. मां और बाबूजी के साथ मेरे देवर भी तरहतरह के मनसूबे बनाने लगे और मैं सोचने लगी कि इस दुनिया में कितने ऐसे लोग हैं जो जैसे दिखते हैं वैसे अंदर से होते नहीं और जो बाहर से भोलेभाले दिखते हैं स्वभाव से भी वैसे हों यह जरूरी नहीं.

नीलू मेरी सब से छोटी ननद है. मेरी आंखों के सामने उस की बचपन की तसवीर घूमने लगी और मेरा मन 15 साल पीछे की बातों को याद करने लगा.

मैं इस घर में बहू बन कर जब आई थी तब मेरे दोनों देवर व ननद छोटेछोटे थे. मेरे पति सब से बड़े थे. उन में व बाकी बहनभाइयों में उम्र का काफी फासला था. हमारी शादी के दूसरे दिन ही बूआ सास ने मजाक में कहा था, ‘बहू, तुम्हें पता है कि तुम्हारे पति व अन्य बहनभाइयों में उम्र का इतना अंतर क्यों है? तुम्हारे पति के जन्म के बाद मेरी भाभी ने सोचा थोड़ा आराम कर लिया जाए…’ और इतना कह कर वह जोर का ठहाका मार का हंस पड़ी थीं.

नईनई भाभी पा कर मेरे छोटेछोटे देवर तो मेरे आगेपीछे चक्कर काटते और मेरा आंचल पकड़ कर घूमते रहते थे. पर मैं ने गौर किया कि मेरी सब से छोटी ननद नीलू जो लगभग 6-7 साल की थी, मेरे सामने आने से कतराती थी. यदि वह कभी हिम्मत कर के पास आती भी थी तो उस के भाई उसे झिड़क देते थे. यहां तक कि मांजी भी हमेशा उसे अपने कमरे में जाने को बोलतीं. नीलू मुझे सहमी सी नजर आती.

शादी के कुछ दिन बाद घर मेहमानों से खाली हो गया था. कोई काम नहीं था तो सोचा कमरे में पेंटिंग ही लगा दूं. मैं अपने कमरे में पेंटिंग लगा रही थी कि देखा, नीलू चुपचाप मेरे पीछे आ कर खड़ी हो गई है. मुझे इस तरह उस का चुपचाप आना अच्छा लगा.

‘आओ नीलू, तुम अपनी भाभी के पास नहीं बैठोगी? तुम मुझ से बातें क्यों नहीं करतीं.’

मैं उस से प्यार से अभी पूछ ही रही थी कि मेरा बड़ा देवर संजय आ गया और नीलू की ओर देख कर बोला, ‘अरे, भाभी, यह क्या बातें करेगी…इतनी बड़ी हो गई पर इसे तो ठीक से बोलना तक नहीं आता.’

संजय ने बड़ी आसानी से यह बात कह दी. मैं ने देखा कि नीलू का खिला चेहरा बुझ सा गया. मैं ने सोचा कि इस बारे में संजय को कुछ नसीहत दूं. पर तभी मांजी मेरे कमरे में आ गईं और आते ही उन्होंने भी नीलू को डांटते हुए कहा, ‘तू यहां खड़ीखड़ी क्या कर रही है. जा, जा कर पढ़ाई कर.’

नीलू अपने मन के सारे अरमान लिए चुपचाप वापस अपने कमरे में चली गई.

उस के जाने के बाद मांजी बोलीं, ‘देखो बहू, मैं ने तुम्हारे लिए यह सूट खरीदा है,’ और वह मुझे सूट दिखाने लगीं, पर मेरा मन नीलू पर ही लगा रहा.

शाम को जब यह घर आए तो चायनाश्ते के समय मैं ने इन से पूछा, ‘आप एक बात बताइए कि यह नीलू इतनी डरीसहमी सी क्यों रहती है?’

यह गौर से मुझे देखते हुए बताने लगे कि वह साफसाफ बोल नहीं पाती. दरअसल, नीलू ने बोलना ही देर से शुरू किया और 6 साल की होने के बावजूद हकलाहकला कर बोलती है.

‘आजकल तो कितनी मेडिकल सुविधाएं हैं. आप नीलू को किसी स्पीच थेरेपिस्ट को क्यों नहीं दिखाते?’

उस समय उन्होंने मेरी बात हवा में उड़ा दी पर मैं ने मन ही मन सोचा कि मैं खुद नीलू को दिखाने के लिए किसी स्पीच थेरेपिस्ट के पास जाऊंगी. इस बारे में जब मैं ने बाबूजी से बात की तो उन्होंने भी कोई उत्सुकता नहीं दिखाई लेकिन उन्होंने सीधे मना भी नहीं किया.

अगले हफ्ते मैं नीलू को शहर की एक लोकप्रिय महिला स्पीच थेरेपिस्ट के पास ले गई.

थोड़ी देर बाद जब थेरेपिस्ट नीलू का विश्लेषण कर के बाहर आईं तो बोलीं, ‘इस का हकला कर बोलना उतनी परेशानी की बात नहीं है जितना इस के व्यक्तित्व का दबा होना. इसे लोगों के सामने आने में घबराहट होती है क्योंकि लोग इस के हकलाने का मजाक उड़ाते हैं. इसी से यह खुल कर नहीं रहती और न ही बोल पाती है.’

मैं नीलू को ले कर घर चली आई. मैं ने निश्चय किया कि नीलू को ले कर मैं बाहर निकला करूंगी, उसे अपने साथ घुमाने ले जाया करूंगी और उस दिन से मैं नीलू पर और ज्यादा ध्यान देने लगी.

मैं ने नीलू के व्यक्तित्व को निखारने की जैसे कसम खा ली थी. इस के नतीजे जल्दी ही हम सब के सामने आने लगे. उस दिन तो घर में खुशी की लहर ही दौड़ गई जब नीलू अपने स्कूल में कविता प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार ले कर घर आई थी.

समय पंख लगा कर कितनी तेजी से उड़ गया, पता ही नहीं चला. मेरे सभी देवरों की शादी हो गई. अब घर में बस, नीलू ही थी. उस ने भी एम.ए. कर लिया था. हम लोग उस की शादी के लिए लड़का देख रहे थे. जल्द ही लड़का भी मिल गया जो डाक्टर था. परिवार के लोगों ने बड़ी धूमधाम से नीलू की शादी की.

शादी के बाद के कुछ महीनों तक तो सब कुछ ठीकठाक चलता रहा. धीरेधीरे मैं ने महसूस किया कि नीलू की आवाज में खुशी नहीं झलकती. मैं ने पूछा भी पर उस ने कुछ बताया नहीं और शादी के केवल 2 साल बाद ही नीलू अकेले मायके वापस आ गई.

उस के बुझे चेहरे को देख कर हम सभी परेशान रहते थे. मैं ने सोचा भी कि कुछ दिन बीत जाएं तो उस के ससुराल फोन करूं. क्या पता पतिपत्नी में खटपट हुई हो.

15 दिन बाद जब मैं ने नीलू के ससुराल फोन किया तो उस की सास व पति के जवाब सुन कर सन्न रह गई.

‘मेरा तो एक ही बेटा है, आप ने हम से झूठ बोल कर शादी की और अपनी तोतली बेटी हमें दे दी. उस पर वह बांझ भी है. मैं तो सीधे तलाक के पेपर भिजवाऊंगी,’ इतना कह कर नीलू की सास ने फोन काट दिया.

घर में सन्नाटा छा गया. मांजी ने मुझे भी कोसना शुरू कर दिया, ‘मैं कहती थी कि यह कभी ठीक नहीं होगी. तुम्हारे उस ‘स्पीच थेरेपी’ जैसे चोंचलों से कुछ होने वाला नहीं है. लो, देखो, अब रखो अपनी छाती पर इसे जिंदगी भर.’

मुझे नीलू की सास की बात सुन कर उतना दुख नहीं हुआ जितना कि अपनी सास की बातों से हुआ. दरअसल, नीलू एकदम ठीक हो गई थी पर नए माहौल में एकाध शब्द पर थोड़ा अटकती थी जोकि पता नहीं चलता था. पर उस के ससुराल वालों ने उसे कैसे बांझ करार दे दिया यह बात मेरी समझ में नहीं आई. क्या 2 साल ही पर्याप्त होते हैं किसी स्त्री की मातृत्व क्षमता को नापने के लिए?

खैर, बात काफी आगे बढ़ चुकी थी. आखिर तलाक हो ही गया. इस के बाद नीलू एकदम चुप सी रहने लगी. जैसे कि मेरी शादी के समय थी. बंद कमरे में रहना, किसी से बातें न करना.

एक दिन मैं ने जिद कर के नीलू को अपने साथ बाहर चलने के लिए यह सोच कर कहा कि घर से बाहर निकलेगी तो थोड़ा बदलाव महसूस करेगी. रास्ते में ही पड़ोस की बूआ का बेटा राजेश मिल गया. उस ने मुझे रोक कर नमस्कार किया और बोला, ‘भाभी, मुझे मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई है और कंपनी वालों ने रहने के लिए फ्लैट दिया है. किसी दिन मम्मी से मिलने के लिए आप मेरे घर आइए न.’

‘ठीक है भैया, किसी दिन मौका मिला तो आप के घर जरूर आऊंगी,’ इतना कह कर मैं नीलू के साथ बाजार चली गई.

एक दिन मैं बूआ के घर गई. उन का घरपरिवार अच्छा था. अपना खुद का कारोबार था. मैं ने बातों ही बातों में बूआ से नीलू का जिक्र किया तो वह बोल पड़ीं, ‘अरे, उस बच्ची की अभी उम्र ही क्या है? कहीं दूसरी शादी करा दें तो ठीक हो जाएगी.’

‘लेकिन बूआ, कौन थामेगा उस का हाथ? अब तो उस पर बांझ होने का ठप्पा भी लग गया है. यद्यपि मैं ने उस के तमाम मेडिकल चेकअप कराए हैं पर उस में कहीं कोई कमी नहीं है,’ इतना कहते- कहते मेरा गला जैसे भर्रा गया.

‘मैं कैसा हूं आप के घर का दामाद बनने के लिए?’ राजेश बोला तो मैं ने उसे डांट दिया कि यह मजाक का वक्त नहीं है.

‘भाभी, मैं मजाक नहीं सच कह रहा हूं. मैं नीलू का हाथ थामने को तैयार हूं बशर्ते आप लोगों को यह रिश्ता मंजूर हो.’

मेरा मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया. आश्चर्य से मैं बूआ की ओर पलटी तो मुझे लगा कि उन्हें भी राजेश से यह उम्मीद नहीं थी.

थोड़ी देर रुक कर वह बोलीं, ‘मैं घूमघूम कर समाजसेवा करती हूं और जब अपने घर की बारी आई तो पीछे क्यों हटूं? फिर जब राजेश को कोई एतराज नहीं है तो मुझे क्यों होगा?’

राजेश मेरी ओर मुड़ कर बोला, ‘भाभी, जहां तक बच्चे की बात है तो इस दुनिया में सैकड़ों बच्चे अनाथ पड़े हैं. उन्हीं में से किसी को अपने घर ले आएंगे और उसे अपना बच्चा बना कर पालेंगे.’

राजेश के मुंह से ऐसी बातें सुन कर मुझे सहसा विश्वास ही नहीं हुआ. जिस की पहचान हम उस के पहनावे से करते रहे वह तो बिलकुल अलग ही निकला और जो सूटटाई के साथ ‘जेंटलमैन’ बने घूमते थे वह कितने खोखले निकले.

मेरे मन से राजेश के लिए सैकड़ों दुआएं निकल पड़ीं. मेरा रोमरोम पुलकित हो उठा था. मुझे टपोरी ड्रेस में भी राजेश किसी राजकुमार की तरह लग रहा था.

घर आ कर मैं ने यह बात परिवार के दूसरे लोगों को बताई तो सब इस के लिए तैयार हो गए और फिर जल्दी ही नीलू की शादी राजेश के साथ कर दी गई. शादी के साल भर बाद ही वे दोनों अनाथ आश्रम जा कर एक बच्चा ले आए और आज जब नीलू खुद मां बनने वाली है तो मेरा मन खुशी से झूम उठा है.

मैं ने राजेश से फोन पर बात की और उसे बधाई दी तो वह कहने लगा कि भाभी, हम मांबाप तो पहले ही बन चुके थे पर बच्चों से परिवार पूरा होता है न. बेटी तो हमारे पास पहले से ही है अब जो भी होगा उसे ले कर कोई गिलाशिकवा नहीं रहेगा, क्योंकि वह हमारा ही अंश होगा.

राजेश के मुंह से यह सुन कर सचमुच मन भीग सा गया. राजेश ने मानवता की जो मिसाल कायम की है, यदि ऐसे ही सब हो जाएं तो समाज में कोई परेशानी आए ही न. यह सोच कर मेरी आंखों में राजेश व उसके परिवार के प्रति कृतज्ञता के आंसू आ गए.

लेखक- बबिता श्रीवास्तव

Family Story : बेकरी की यादें

Family Story : मिहिरऔर दीप्ति की शादी को 2 साल हो गए थे, दोनों बेहद खुश थे. अभी वे नई शादी की खुमारी से उभर ही रहे थे कि मिहिर को कैलिफोर्निया की एक कंपनी में 5 सालों के लिए नियुक्ति मिल गई. दोनों ने खुशीखुशी इस बदलाव को स्वीकार कर लिया और फिर कैलिफोर्निया पहुंच गए.

दीप्ति को शुरूशुरू में बहुत अच्छा लगा. सब काम अपने आप करना, किसी तीसरे का आसपास न होना… सुबह उठ कर चाय के साथ ही वह नाश्ता और लंच बना लेती. फिर जैसे ही मिहिर दफ्तर जाता वह बरतन साफ कर लेती. बिस्तर ठीक कर के नहाधो लेती, इस के बाद सारा दिन अपना. अकेले बाजार जाना और पार्क के चक्कर लगाना, यही उस का नियम था. अब वह पैंट, स्कर्ट और स्लीवलैस कमीज पहनती तो अपनी तसवीरें फेसबुक पर जरूर डालती और पूरा दिन फेसबुक पर चैक करती रहती कि किस ने उसे लाइक या कमैंट किया है. 100-200 लाइक्स देख कर अपने जीवन के  इस आधुनिक बदलाव से निहाल हो उठती.

मगर यह जिंदगी भी चंद दिनों तक ही मजेदार लगती है. कुछ ही दिनों में यही रूटीन वाली जिंदगी उबाऊ हो जाती है, क्योंकि इस में हासिल करने को कुछ नहीं होता. दीप्ति के साथ भी ऐसा ही हुआ, फिर उस ने कुछ देशी लोगों से भी दोस्ती कर ली.

अब भारतीय तो हर जगह होते हैं और फिर इस अपरिचित ातावरण में परिचय की गांठ लगाना कौन सी बड़ी बात थी. घर के आसपास टहलते हुए ही काफी लोग मिल जाते हैं. दीप्ति ने उन्हीं लोगों के साथ मौल जाना, घूमनाफिरना शुरू कर दिया.

यूट्यूब देख कर कुछ नए व्यंजन बना कर वह अपने दिन काटने लगी, लेकिन जैसेजैसे मिहिर अपने काम में व्यस्त होता गया, वैसेवैसे दीप्ति का सूनापन भी बढ़ता गया. उसे अब भारत की बहुत याद आने लगी. वह परिवार के साथ रहने का सुख याद कर के और भी अकेला महसूस करने लगी.

एक दिन उस ने बैठेबैठे सोचा कि अब उसे कुछ काम करना चाहिए. काम करने का उसे परमिट मिला हुआ था. अत: कई जगह आवेदन कर दिया. राजनीति शास्त्र में एमए की डिग्री लिए हुए दीप्ति कई जगह भटकी. औनलाइन भी आवेदन किया, लेकिन कहीं से भी कोई जवाब नहीं आया. उस की बेचैनी बहुत बढ़ने लगी. वह किसी दफ्तर में डाटा ऐंट्री का काम करने को भी तैयार थी, लेकिन काम का कोई अनुभव न होने के कारण कहीं काम नहीं बना.

एक दिन पास की ग्रोसरी में शौपिंग करते हुए उस ने देखा कि बेकरी में एक जगह खाली है. उस ने वहीं खड़ेखड़े आवेदन कर दिया. 2 दिन बाद उस का इंटरव्यू हुआ. इंग्लिश उस की बहुत अच्छी नहीं थी. बस कामचलाऊ थी. लेकिन उस का इंटरव्यू ठीकठाक हुआ, क्योंकि उस में बोलना कम और सुनना अधिक था.

बेकरी के मैनेजर ने कहा, ‘‘तुम यहां काम कर सकती हो, लेकिन बेकरी में काम करने के लिए नाक की लौंग और मंगलसूत्र उतारना पड़ेगा, क्योंकि साफसफाई के नजरिए से यह बहुत जरूरी है.’’

दीप्ति को यह बहुत नागवार लगा. उस ने सोचा कि अगर ये लोग दूसरों की संस्कृति और भावनाओं का खयाल करते तो वह ऐसा न कहता. क्या मेरे मंगलसूत्र और लौंग में गंद भरा है, जो उड़ कर इन के खाने में चला जाएगा? फिर खुद को नियंत्रित करते हुए उस ने कहा कि वह सोच कर बताएगी.

मिहिर से पूछा तो उस ने कहा, ‘‘जो तुम ठीक समझो, करो. मुझे कोई आपत्ति नहीं है. बस शाम को मेरे आने से पहले घर वापस आ जाया करना.’’

दीप्ति ने वहां नौकरी शुरू कर दी. नाक की लौंग तो उस ने बहुत पीड़ा के साथ उतार दी. अभी शादी के कुछ दिन पहले ही उस ने नाक छिदवाई थी और बड़ी मुश्किल से वह लौंग नाक में फिट हुईर् थी, लेकिन मंगलसूत्र नहीं उतार पाई, इसलिए कमीज के बटन गले तक बंद कर के रखती ताकि वह दिखे न. पहले दिन वह बहुत खुशीखुशी बेकरी पर गई. वहां जा कर उस ने बेकरी का ऐप्रन पहन लिया.

मैनेजर ने पूछा, ‘‘क्या पहले कभी काम किया है?’’

‘‘नहीं, लेकिन मैं कोई भी काम कर

सकती हूं.’’

मैनेजर ने हंसते हुए कहा, ‘‘ठीक है अभी सिर्फ देखो और काम समझो… कुछ दिन सिर्फ बरतन ही धोओ.’’

दीप्ति ने देखा बड़ीबड़ी ट्रे धोने के लिए रखी थीं. उस ने सब धो दीं. जब मैनेजर ने देखा कि वह खाली खड़ी है तो कहा, ‘‘जाओ और बिस्कुट के डब्बे बाहर डिसप्ले में लगाओ, लेकिन पहले सभी मेजों को साफ कर देना,’’ और उस ने आंखों के इशारे से मेज साफ करने का सामान उसे दिखा दिया.

4 घंटों तक यही काम करतेकरते दीप्ति को ऊब होने लगी. लेकिन मन में कुछ संतुष्टि थी.

दीप्ति को वहां काम करना ठीकठाक ही लगा. काम करने से एक तो यहां की दुकानों के बारे में और जानकारी मिली वहीं बेकिंग के कुछ राज भी उस के हाथ लग गए. लेकिन उस के मन में बेकरी पर नौकरी करना एक निचते दर्जे का काम था. उस की जाति और खानदान के संस्कार उसे यह करने से रोक रहे थे.

वह इस काम के बारे में अपने घर या ससुराल में शर्म के मारे कुछ नहीं बता पाई. उस के लिए यह कोई इज्जत की नौकरी तो थी नहीं.

खैर, वह कुछ भी सोचे लेकिन काम तो वह बेकरी पर ही कर रही थी और उस में मुख्य काम था हर ग्राहक का अभिवादन करना और सैंपल चखने के लिए प्रेरित करना. दूसरा काम था ब्रैड और बिस्कुट को गिन कर डब्बों में भरना और बेकरी के बरतनों को धोना.

धीरेधीरे उस ने महसूस किया कि वहां भी प्रतिद्वंद्विता की होड़ थी, एकदूसरे की चुगली की जाती थी. परनिंदा में परम आनंद का अनुभव किया जाता था. लगभग 50 फीसदी बेकरी पर काम करने वाले लोग मैक्सिकन थे जो सिर्फ स्पैनिश में पटरपटर करते थे. दीप्ति उन की बातों का हिस्सा नहीं बन पाती.

बरहाल दीप्ति को बिस्कुट भरने में मजा आता, लेकिन बरतन धोने में

बहुत शर्म आती. उसे अपना घर याद आता. उस ने भारत में कभी बरतन नहीं धोए थे. कामवाली या मां सब काम करती थीं. अब यहां बरतन धोते हुए उसे लगता उस का दर्जा कम हो गया है.

एक दिन वहां काम करने वाली एक महिला ने उसे झाड़ू लगाने का आदेश दिया. पहले तो दीप्ति ने कुछ ऐसा भाव दिखाया कि बात उस की समझ में नहीं आई, लेकिन वह महिला तो उस के पीछे ही पड़ गई.

दीप्ति ने मन कड़ा कर के कहा, ‘‘दिस इज नौट माई जौब.’’

यह सुनते ही वह मैनेजर के पास गई और उस की शिकायत करनी लगी. दीप्ति ने भी सोचा कि जो करना है कर ले.

शाम को जब दीप्ति बरतन धो रही थी तो एक देशी आंटी पीछे आ कर खड़ी हो गईं और उसे पुकारने लगीं. उस ने अपनी कनखियों से पहले ही उसे आते देख लिया था. अब जानबूझ कर पीछे नहीं मुड़ रही थी. आंटी भी तोते की तरह ऐक्सक्यूज मी की रट लगाए खड़ी थीं, वहां कोई नहीं था सिवाए रौबर्ट के, जो बिस्कुट बना रहा था.

आखिर रौबर्ट ने भी दीप्ति को पुकार कर कहा, ‘‘जा कर देखो कस्टमर को क्या चाहिए.’’

हार कर दीप्ति को अपना न सुनने का अभिनय बंद कर के काउंटर पर आना पड़ा. बातचीत शुरू हुई. बिस्कुट के दाम से और ले

गई फिर वही कि तुम कहां से हो? तुम्हारे घर

में कौनकौन है? यहां कब आई? पति क्या

करते हैं? हिचकिचाते हुए उसे प्रश्नों के उत्तर

देने पड़े जैसे यह भी उस के काम का हिस्सा हो.

खैर, आंटी ने कुछ बिस्कुट के सैंपल खाए और बिना कुछ खरीदे खिसक गई.

अभी दीप्ति आंटी के सवालों और जवाबों से उभरी ही थी कि बेकरी का फोन घनघना उठा. रिसीवर उसी को उठाना पड़ा. फोन पर लग रहा था कि कोई बूढ़ी महिला केक का और्डर देना चाह रही है. जैसे ही दीप्ति ने थोड़ी देर बात की, बूढ़ी महिला ने कहा, ‘‘कैन यू गिव द फोन टू समबौडी हू स्पीक्स इंग्लिश?’’

दीप्ति को काटो तो खून नहीं. इस का मतलब क्या? क्या वह अब तक उस से इंग्लिश में बात नहीं कर रही थी? उस ने पहले कभी इंग्लिश को ले कर इतना अपमानित महसूस नहीं किया था. इतनी तहजीब और सब्र से वह ‘मैडममैडम’ कह कर बात कर रही थी.

लेकिन उस का उच्चारण बता देता है कि इंग्लिश उस की भाषा नहीं है. उसे बहुत कोफ्त हुई,

उस ने रौबर्ट को बुलाया और रिसीवर उस के हवाले कर दिया और कहा, ‘‘आई विल नौट वर्क हियर एनीमोर.’’

इस के बाद दनदनाती हुई वह अपना बेकरी का ऐप्रन उतार कर समय से पहले ही बेकरी से बाहर निकल आई. अगर वह न जाती तो उस की आंखों के आंसू वहीं छलछला पड़ते.

घर जा कर दीप्ति खूब रोई. पति के सामने अपना गुबार निकाला. पति ने प्यार से उस के

सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बस इतने में ही डर गई. अरे, अपनी भाषा का हम ही आदर नहीं करते, लेकिन अन्य लोग तो अपनी भाषा ही पसंद करते हैं और वह भी सही उच्चारण के साथ.

‘‘जिस इंग्लिश की हम भारत में पूजा करते हैं वह हमें देती क्या है और इस बात को भी समझो कि सभी लोग एकजैसे नहीं होते. शायद उस औरत को विदेशी लोग पसंद न हों.

‘‘भाषा तो सिर्फ अपनी बात दूसरे तक पहुंचाने का माध्यम है. तुम ने कोशिश की. तुम इतना निराश मत हो. ये सब तो विदेश में होता ही रहता है.’’

मिहिर की बातों का दीप्ति पर असर यह हुआ कि अगले दिन वह समय पर अपना ऐप्रन पहन कर बेकरी के काम में लग गई जैसे कुछ हुआ ही न हो. किसी ने भी उस से सवालजवाब नहीं किया. अब उसे लगा कि वह किसी से नहीं डरती. अपने अहं को दरकिनार कर उस ने नए सिरे से काम शुरू कर दिया. उस ने अपने काम को पूरे दिल से अपना लिया. अपनी मेहनत पर उसे गर्व महसूस होने लगा.

कहानी- डा. कुसुम नैपसिक

Short Story : तलाक महोत्सव का निमंत्रण : आप भी आमंत्रित हैं

Short Story : जय श्री तलाकेश्वराय नम:.

दो नयन खुले, दो दिल टूटे, दो टूटे सपनों ने बिगाड़ किया.

दो निकट दिलों के पथिकों ने,

दूरदूर रहना स्वीकार किया.

सर्वसाधारण व बहुत खास को विज्ञापित करते हुए अपार हर्ष हो रहा है कि हमारे यहां श्री तलाकेश्वर महाराज की असीम कृपा व महंगाई देवी की अनुकंपा से हमारी गृहस्थी की गाड़ी हिचकोले खाती हुई अंतत: हकीकत की चट्टान से टकरा कर चूरचूर हो चुकी है. इसीलिए हम आप को अपने मंगल तलाकोत्सव की सुमधुर बेला पर सपरिवार आमंत्रित करते हैं.

लोकतंत्र के महान देशसेवक नेताओं के भाषणों से हमारा पेट खाली होने लगा था. फलत: घर में चिकचिक शुरू हो गई थी. यही चिकचिक हमारे तलाक का मुख्य आधार बनी थी और हम आज तलाक महोत्सव मनाने के कगार पर खड़े हैं. कृपया तलाक महोत्सव पर उपस्थित हो कर इस पूर्व दंपती को आशीर्वाद प्रदान कर  अनुगृहीत करें. यह तो आप को पता ही है कि हम पिछले 3 साल से तथाकथित दांपत्य सूत्र में जकड़े हुए थे. एकदूसरे से हम काफी समय से आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे. कई बार हम ने छापामार युद्ध किया तो कई बार वाक्युद्ध को आदर्श ऊंचाइयों पर स्थापित किया. कितनी ही बार जूतों व चप्पलों से अस्त्रशस्त्र का काम ले कर आरपार की लड़ाई भी लड़ी. एकदूसरे पर गालीगलौज और लांछन लगाने का कार्यक्रम रच कर इतिहास का निर्माण भी किया. आखिर श्री तलाकेश्वर महाराज की कृपा से दांपत्य सूत्र से आजादी मिल ही गई.

इस मंगल पर्व पर आप पूर्व, अभूतपूर्व वरवधू को अपना मूल्यवान गिफ्ट भेंट कर अपने अमूल्य अश्रु भी अर्पित करें.

तलाक सेरेमनी के कार्यक्रम का विवरण इस प्रकार है :

रस्म नफरत एवं छोटा तलाक बस-अंत पंचमी की रात 12 बजे. तलाक स्थापना की गतिविधि रात 1 बजे होगी. चाक भात एवं जेंट्स सौंग रात 2 बजे. तलाक के सम्मान में भोज कार्यक्रम प्रात: 4 बजे. तलाकदर्शी प्रस्थान प्रात: 5 बजे होगा. गंठजोड़ा टूटन संस्कार 6 बजे ब्रह्ममुहूर्त. मातमी धुन सुबह 7 बजे 100 सदस्यीय अजंता ब्रास बैंड द्वारा आयोजित की जाएगी.

आदरणीय श्री, श्रीमती और सुश्री, आप को तो मालूम ही है कि जहां 5 वर्ष की सरकार भी 5 माह चलने मात्र से हांफने लग जाती है. जहां नेताओं के वादे फेविकोल के जोड़ लगाने पर भी टूटटूट कर छिन्नभिन्न हो जाते हैं, वहीं हम ने पवित्र स्टोव की आंच के सामने फेरे खाने के बाद भी गृहस्थी की गाड़ी को 3 सालों तक खींचा. इसी दौरान हम ने 2 पुत्री ज्वैलर और 1 पुत्र रत्न को भी उत्पन्न किया. इस बीच आदर्श गृहस्थी संहिता के अनुसार हम ने नियमित रूप से झगड़ाफसाद व्रत का पूर्ण आचरण किया. सुबहशाम आपस में झगड़ने के महत्त्व को बरकरार रखा. रूठने के कार्यक्रम को दैनिक जीवन का रेगुलर फीचर बनाया. इसी वजह से हम ने सात जन्मों तक साथसाथ रहने की जो नेताई कसम खाई थी, उसे सिर्फ 3 सालों में ही पूरा कर लिया. यह हमारी आधुनिक जीवन दर्शन के प्रति गहरी आस्था का प्रमाण सिद्ध हुआ.

एकदूसरे के लिए समर्पित होने का जो आरोप विवाह की दुखद घड़ी पर हम पर लगा था आखिर वह झूठा ही साबित हुआ. एकदूसरे के प्रति बलिदान कर मर- मिटने का आचरण भी मिथ्या ही साबित हुआ. तब आखिर में यह मंगलकारी दिवस तलाक महोत्सव के रूप में हमारे जीवन में उभर कर आया. अत: आप को इस तलाक सेरेमनी पर एक संवेदनशील तलाकदर्शी की भूमिका अदा करनी है. आप कार्यक्रम की और अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे प्रतिष्ठान, फोन, फैक्स व इंटरनेट से संपर्क साध सकते हैं. हमारे प्रतिष्ठान इस प्रकार हैं : ‘टिक्की आटा चक्की सेंटर, बिन्नी चप्पल भंडार, सिंटू साड़ी कार्नर व अन्य 7 फर्में.’

दलबदलू नेताओं की महान परंपरा को अपने सामाजिक जीवन में उतारते हुए हम ने जीवनसाथी बदलने की ठानी है. अत: हमें अपना तलाक महोत्सव मनाते हुए अत्यंत खुशी हो रही है. कार्यक्रम में समय पर आ कर आप अपना स्थान पहले से ही सुरक्षित कर लें. भीड़ से बचने के लिए हमारा तलाक स्मार्ट कार्ड हमारे प्रतिष्ठानों से प्राप्त कर लें.

होटल स्वर्ण पंख के विशाल आडि- टोरियम में इस मौके पर एक भव्य आर्केस्ट्रा का कार्यक्रम भी रखा गया है. इस में देश के जानेमाने अभिनेता एवं नेता भावपूर्ण प्रस्तुति देंगे. इसी दौरान एक पारिवारिक मातमी धुन बजा कर तलाक की परंपरा को आदर दिया जाएगा. मातमी सेरेमनी में अपनी उपस्थिति दे कर तलाकोत्सव को आनंदमयी बनाने की कृपा करावें.

कृपया यह ठीक प्रकार से जान लें कि तलाक की शोभायात्रा (तलाकदर्शी) पूर्व समधी श्रीमानजी के घर से वर्मा टै्रवल्स की सुपर डीलक्स कोचों द्वारा सीधे ही होटल स्वर्ण पंख में आएगी. आप अपना कार्यक्रम विवरण तलाक महोत्सव प्रबंध समूह के कंप्यूटर को दे कर महोत्सव की व्यवस्था बनाने में अपूर्व योगदान दे सकते हैं. कृपया तलाक स्मृति चिह्न ग्रहण करने के लिए स्वयं का साधन ले कर आएं. इस मामले में हम तलाक स्मृति चिह्न देने के बाद कुछ भी उलटीसीधी मदद करने में असमर्थ रहेंगे.

उत्तराकांक्षी, पूर्व श्री व श्रीमती के पूर्व दांपत्य बंधन की कष्टमयी निशानी 2 बेटियों एवं 1 बेटे की बालसुलभ मनुहार भी आप को आमंत्रित कर रही है. बाल मनुहार, ‘मेले पापा व पापी के तलाक में आप जलूलजलूल पधालना जी-टिक्की, बिन्नी व सिंटू.’

आशा है आप इस पावन महोत्सव पर पधार कर इसे एक ‘वेल टनाटन डे’ बनाएंगे. आप के दर्शनों के प्यासे निवर्तमान श्री व श्रीमती. पूर्व दंपती एवं एकदूसरे के खून के प्यासे.

भेजा है तलाक निमंत्रण प्रियतम तुम्हें बुलाने को.

हे गृहस्थी के खींचनहार आप भूल न जाना आने को.

Short Story : प्रतिक्रिया – मंत्री महोदय ने आखिर क्या किया

Short Story : ‘‘गाड़ी जरा इस गांव की तरफ मोड़ देना, सुमिरन सिंह,’’ कार में बैठेबैठे ही मंत्रीजी की आंख लग गई थी, पर सड़क पर गड्ढा आ जाने से उन की नींद खुली. दूर एक गांव के कुछ घर दिखे, अत: तुरंत मन में विचार आया कि क्यों न जा कर गांव वालों से मिल लिया जाए, आखिर वोट तो यही लोग देते हैं.

सुमिरन सिंह ने तुरंत कार गांव की ओर मोड़ दी. मंत्रीजी की कार घूमते ही उन के पीछे चल रहा कारों का पूरा काफिला भी घूम गया. गांव में इतनी बड़ी संख्या में कारें, जीपें आदि कभी नहीं आई थीं, अत: यह काफिला देखते ही गांव में हलचल सी मच गई. जिसे देखो मुखिया के बगीचे की ओर भागा चला जा रहा था, जहां मंत्रीजी का काफिला उतरा था. मुखिया व गांव के अन्य प्रभावशाली लोग मंत्रीजी की खुशामद में लगे थे.

‘‘कहिए, खेती- बाड़ी की दशा इस बार कैसी है. कोई समस्या हो तो मंत्रीजी से कह डालिए,’’ सुमिरन सिंह, जो मंत्री महोदय के सचिव व संबंधी दोनों थे, बोले.

थोड़ी देर उस भीड़ में हलचल सी हुई. फिर तो शिकायतों का ऐसा तांता लगा कि मंत्री स्तब्ध रह गए. गांववासी पीने का पानी, स्कूल, अस्पताल आदि सभी समस्याओं का समाधान चाहते थे. मंत्रीजी ने अपने सचिव से सब लिखने को कहा तथा अपने साथ आए अधिकारियों को कुछ निर्देश भी दे डाले.

‘‘गुजरबसर कैसी होती है? केवल खेती से काम चल जाता है?’’ चलते समय मंत्रीजी ने एक और प्रश्न पूछ डाला.

‘‘कभीकभी मजदूरी मिल जाती है या गायभैंस आदि पालते हैं. दूध व घी बेच कर काम चलाते हैं. अब आप से क्या छिपाना, आप तो माईबाप हैं,’’ मुखिया बोला.

‘‘मजदूरी के लिए तो शहर जाते होंगे, गांव में क्या मजदूरी मिलती होगी?’’ सुमिरन सिंह बोले.

‘‘सरकार की दया से कुछ न कुछ निर्माण कार्य चलता ही रहता है. आजकल 2-3 किलोमीटर दूर सड़क निर्माण कार्य चल रहा है. वहां आधे से अधिक लोग हमारे गांव के ही हैं. सूखा पीडि़तों के लिए ही यह कार्य आरंभ किया गया है,’’ मुखियाजी ने सूचित किया.

‘‘चलिए, क्यों न एक बार सड़क निर्माण कार्य का भी निरीक्षण कर लिया जाए. गांव वालों को भी लगेगा कि आप को उन की कितनी चिंता है,’’ जरा सा आगे बढ़ते ही सुमिरन सिंह ने मंत्री को सलाह दी.

‘‘आप कहते हैं तो वहां का भी चक्कर लगा लेते हैं. वैसे भी आज रूपगढ़ पहुंचना कठिन है. किसी विश्रामगृह में पड़ाव करना होगा,’’ मंत्रीजी ने सचिव की बात का समर्थन किया.

सड़क निर्माण स्थल पर मंत्रीजी को देखते ही भीड़ लग गई. सब एकदूसरे से आगे बढ़बढ़ कर अपनी बात कहना चाहते थे.

‘‘आप को मजदूरी कितनी मिलती है?’’ मंत्रीजी ने पास खड़े एक मजदूर से पूछा.

‘‘10 रुपए मिलते हैं, सरकार,’’ श्रमिक ने उत्तर दिया.

‘‘क्या कह रहे हो भाई? क्या तुम नहीं जानते कि सरकार ने न्यूनतम मजदूरी 16 रुपए निश्चित की हुई है? आप अपने मालिक पर दबाव डाल सकते हैं कि वह आप को न्यूनतम मजदूरी दे,’’ मंत्रीजी श्रमिक को समझाते हुए बोले.

‘‘सरकार, हम ठहरे अनपढ़ और गंवार, यह कायदाकानून क्या जानें. आप खुद ठेकेदार को बुला कर  उसे आज्ञा दें तो वह आप की बात कभी नहीं टालेगा,’’ एक श्रमिक ने हाथ जोड़ कर कहा.

‘‘और महिलाओं को कितनी मजूदरी मिलती है?’’ सुमिरन सिंह ने महिलाओं से पूछा.

‘‘हमें तो पुरुषों से भी कम मिलती है. वह भी ठेकेदार की इच्छा पर है, कभी कम दे दिया कभी ज्यादा,’’ महिला श्रमिकों ने उत्तर दिया.

‘‘यह तो सरासर अन्याय है. सुमिरन सिंह, आप इस संबंध में पूरी जांच कीजिए…इन सब को न्याय मिलना चाहिए.’’ मंत्रीजी ने अपना निर्णय सुनाया.

‘‘कहां है ठेकेदार? उसे बुला कर लाओ. मंत्रीजी अभी फैसला कर देते हैं.’’

सुमिरन सिंह का आदेश पा कर श्रमिक इधरउधर भागे, पर कुछ क्षण पहले वहीं खड़ा ठेकेदार मौका मिलते ही न जाने कहां खिसक गया था. मंत्री महोदय के साथ आए लोगों ने भी उसे ढूंढ़ने का काफी प्रयत्न किया और उस के न मिलने पर सड़क निर्माण कार्य से संबंधित अधिकारी मधुसूदन को मंत्रीजी के सामने ला खड़ा किया.

‘‘आप के रहते यह कैसे संभव है कि इन बेचारों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती,’’ मधुसूदन को देखते ही मंत्रीजी गरजे.

‘‘मजदूरी आदि किसे, कब और कितनी दी जाएगी इस सब का निर्णय ठेकेदार ही करता है, हम इन सब बातों में दखल नहीं देते,’’ मधुसूदन ने निवेदन किया.

‘‘यों बहाने बना कर आप कर्तव्यमुक्त नहीं हो सकते. एक सरकारी कर्मचारी के समक्ष इतना बड़ा अन्याय होता रहे और वह कुछ न करे? बड़े शर्म की बात है. मैं तो ठेकेदार से अधिक अपराधी आप को समझता हूं,’’ मंत्रीजी ने उसे लताड़ा.

मधुसूदन चुप रह गया. वह जानता था कि मंत्री के सम्मुख कोई भी तर्क देना व्यर्थ होगा. उसे स्वयं पर ही क्रोध आ रहा था कि वह इस समय मंत्रीजी के सामने पड़ा ही क्यों.

‘‘यह देखना कि इन सब को न्यूनतम मजदूरी मिले, आज से आप का कार्य है. मुझ तक इन की कोई शिकायत नहीं पहुंचनी चाहिए,’’ मंत्रीजी ने मानो अंतिम निर्णय सुनाया.

‘‘नहीं पहुंचेगी, साहब. मैं इन की शिकायतों का पूरापूरा खयाल रखूंगा,’’ मधुसूदन का आश्वासन सुन कर मंत्रीजी कुछ शांत हुए.

यथोचित आदरसत्कार के पश्चात मंत्रीजी विदा हुए तो मधुसूदन ने चैन की सांस ली. फिर उस ने तुरंत अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को आज्ञा दी कि ठेकेदार को उन के समक्ष उपस्थित किया जाए.ठेकेदार को देखते ही वह आगबबूला हो उठे. उसे खूब खरीखोटी सुनाई.

ठेकेदार चुपचाप सब सुनता रहा. मधुसूदन से झाड़ खा कर वह सीधे मजदूरों के बीच पहुंचा. मजदूरी बढ़ने की उम्मीद से उत्पन्न प्रसन्नता से उन के चेहरे दमक रहे थे.

‘‘मैं जो कुछ कहने जा रहा हूं ध्यान से सुनिए. मुझे सड़क निर्माण कार्य के लिए श्रमिकों की आवश्यकता नहीं है. निर्माण कार्य कुछ समय के लिए रोक दिया गया है,’’ कहते हुए ठेकेदार ने अपनी बात समाप्त की.

कुछ क्षण तक तो वहां ऐसी निस्तब्धता छाई रही मानो सब को सांप सूंघ गया हो. सब के मन में एक ही बात थी कि यह क्या हो गया? मंत्री महोदय तो मजदूरी बढ़ाने की बात कह गए थे पर यहां तो रोजीरोटी से भी गए.

कुछ बुजुर्ग मिल कर ठेकेदार से मिलने भी गए पर उस ने साफ कह दिया कि जब कार्य ही रोकना पड़ रहा है तो वह इतने श्रमिकों का क्या करेगा.

श्रमिकों की इन समस्याओं से बेखबर मंत्री महोदय ने विश्रामगृह में रात बिताई. मंत्रीजी व उन के दल के अन्य लोग अत्यधिक संतुष्ट थे कि किस प्रकार वे तीव्र गति से समस्याओं का समाधान कर रहे थे.

‘‘आगे का क्या कार्यक्रम है, साहब?’’ जलपान आदि कर लेने के बाद सुमिरन सिंह ने पूछा.

‘‘आज हमें रूपगढ़ पहुंचना है. वहां 2-3 उद्घाटन हैं और एक विवाह में सम्मिलित होना है.’’

‘‘रूपगढ़ तो हम जाएंगे ही, पर मार्ग में कुछ अन्य निर्माण कार्य भी चल रहे हैं. अगर वहां होते हुए चलें तो आप को कोई आपत्ति तो नहीं,’’ सुमिरन सिंह बोले, ‘‘देखिए, कल सड़क निर्माण वाले मजदूरों की समस्या आप ने चुटकियों में हल कर दी. बेचारे आप को दुआ दे रहे होंगे.’’

‘‘जो व्यक्ति तुरंत निर्णय न ले सके, जनता की समस्याओं का समाधान न कर सके उसे नेता कहलाने का कोई अधिकार नहीं.’’ मंत्री महोदय गद्गद होते हुए बोले.

‘‘ठीक है, फिर हमारा अगला पड़ाव उस निर्माण स्थल पर होगा जहां एक पुल का निर्माण कार्य चल रहा है,’’ सुमिरन सिंह बोले.

‘‘ठीक है, आखिर उन लोगों के प्रति भी हमारा कुछ कर्तव्य है,’’ मंत्रीजी ने स्वीकृति देते हुए कहा.

मंत्रीजी दलबल सहित पुल निर्माण स्थल पर पहुंचे तो हलचल सी मच गई. सब उसी स्थान की ओर दौड़ पड़े, जिस छोटी सी पहाड़ीनुमा जगह पर मंत्री महोदय खड़े थे.

इतने सारे उत्सुक श्रोताओं को देख कर मंत्रीजी ने एक भाषण दे डाला. उस भाषण में उन्होंने भविष्य का इतना सुंदर चित्रण किया कि श्रमिक अपनी वर्तमान समस्याओं को भूल ही गए.

इसी खुशी भरे माहौल में मंत्रीजी श्रमिकों से अनौपचारिक बातचीत करने लगे और तभी उन्होंने प्रश्न किया कि प्रतिदिन प्रति श्रमिक को कितनी मजदूरी मिलती है?

श्रमिकगण मानो इसी प्रश्न की प्रतीक्षा कर रहे थे. अब उन लोगों में मंत्रीजी को यह सूचना देने की होड़ लग गई कि उन्हें न्यूनतम मजदूरी से कहीं अधिक दर की मजदूरी मिलती है. यही नहीं, उन्हें अन्य भी बहुत सी सुविधाएं प्राप्त हैं. स्त्री व पुरुषों में मजदूरी के संबंध में भेदभाव नहीं होता. सभी को समान मजदूरी मिलती है आदि.

एक क्षण को मंत्रीजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. वह तो मन ही मन ठेकेदार को लताड़ने की तैयारी कर चुके थे. सुमिरन सिंह को पहले से हिदायत दे दी गई थी कि ठेकेदार व संबंधित अधिकारी उस समय वहीं उपस्थित रहने चाहिए. पर यहां पूरी बात ही उलटी हो गई थी.

अंतत: उन्होंने श्रमिकों को बधाई दी कि उन्हें इतना अच्छा मालिक मिला है. ठेकेदार को भी श्रमिकों के प्रति उस के सज्जन व्यवहार के लिए बधाई दी तथा दलबल सहित रवाना हो गए.

ठेकेदार आज बहुत प्रसन्न था. उस ने सभी श्रमिकों के लिए मिठाई की व्यवस्था की थी. श्रमिक भी अत्यंत प्रसन्न थे कि उन्होंने मंत्रीजी के सम्मुख सबकुछ ठीकठाक कहा था. केवल एक कोने में सड़क निर्माण कार्य के वे मजदूर खड़े थे, जिन्हें काम से निकाल दिया गया था और उन्होंने ही आ कर यहां सारी सूचना दी थी. उधर मंत्रीजी इन सब से बेखबर रूपगढ़ की ओर बढ़े जा रहे थे.

Social Story : इंसाफ के लिए रशना का इंतकाम

Social Story : एडवोकेट फुरकान काला तो था ही, उस का जिस्म भी भद्दा था. उस की छोटीछोटी आंखों में मक्कारी और बेरहमी साफ झलकती थी. वह गले में सोने की मोटी सी चेन और हाथ में कीमती घड़ी पहने रहता था.

शहर के पौश इलाके में उस का शानदार बंगला था. एक आदमी की जिंदगी में जो कुछ चाहिए, वह सब उस के पास था. ये सब उस ने मक्कारी और साजिशों से कमाया था. उस के साथी वकील उसे जोड़तोड़ और चालाकी का बादशाह कहते थे. कैसा भी पेचीदा केस हो, कितना ही घिनौना मुजरिम हो, उस के पास आ कर मजफूज हो जाता था. वह अपनी चालों और तिकड़म की भारीभरकम फीस वसूलता था.

फुरकान के पास बेपनाह दौलत थी. साजिश और तिकड़म से आई दौलत के साथ कई तरह की बुराइयां भी आ जाती हैं. शराब और शबाब के शौक ने उस के अंदर के इंसान को बिलकुल खत्म कर दिया था. उस की जिंदगी में सिर्फ एक अच्छाई यह थी कि वह अपनी बेटी नाहीद से बेपनाह मोहब्बत करता था. एक दिन फुरकान अपने औफिस में बैठा था, तभी उस के इंटरकौम की घंटी बजी. दूसरी ओर उस का मुंशी था. उस ने क्लाइंट की खबर दी तो उस ने पहला सवाल यही पूछा, ‘‘आसामी पैसे वाली है न?’’

‘‘जी साहब, तगड़ी पार्टी है.’’ मुंशी ने जल्दी से कहा.

फुरकान ने क्लाइंट को केबिन में भेजने को कहा. उस की केबिन में जो आदमी दाखिल हुआ, वह महंगा सूट पहने था. उस की अंगुलियों में हीरे की अंगूठियां चमक रही थीं. कुरसी पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा नाम राहत खान है. मैं राहत इंडस्ट्रीज का मालिक हूं.’’

राहत इंडस्ट्रीज एक बड़ी कंपनी थी, जिस से कई कारोबार जुड़े थे. साफ था, वह काफी दौलतमंद पार्टी थी.
‘‘फरमाइए सर, मैं आप की क्या खिदमत कर सकता हूं?’’ फुरकान ने कहा.

‘‘भई, मेरे बेटे नुसरत का मामला है. उस बेवकूफ ने एक नादानी कर डाली है.’’ राहत खान ने कहा.

‘‘सर, जरा खुल कर बताइए, मामला क्या है?’’

‘‘भई, मेरा बेटा है नुसरत. उस ने रशना नाम की एक लड़की का रेप कर दिया है और अब जेल में बंद है. हालांकि उस लड़की को उठाने में उस के कुछ दोस्त भी शामिल थे, लेकिन पकड़ा वही अकेला गया है.’’ राहत खान ने कहा.

‘‘ओह! मामला तो संगीन है.’’ फुरकान ने कहा, ‘‘राहत साहब, आप चाहते हैं कि मैं आप के बेटे की पैरवी कर के उसे जेल से छुड़वा दूं.’’

‘‘जाहिर है, मैं आप के पास इसीलिए आया हूं, क्योंकि मैं ने आप का बहुत नाम सुना है.’’ राहत ने कहा.

फुरकान की आंखों की चमक बढ़ गई. उस ने गंभीर हो कर कहा, ‘‘राहत साहब, केस बहुत बिगड़ चुका है. उस के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हो चुकी है और डीएनए रिपोर्ट से सारी सच्चाई पता चल जाएगी.’’

‘‘हां, मैं सब समझता हूं. आप एक बार उसे छुड़वा दीजिए. उस के बाद मैं उस का कुछ इंतजाम कर दूंगा. आप पैसे की कतई फिक्र न करें.’’ राहत खान ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं जीजान लगा दूंगा. पर मेरी फीस 50 लाख होगी. उस में से आधे पहले, आधे केस जीतने के बाद. अगर आप को मंजूर हो तो मैं काम शुरू करूं?’’

‘‘हां, मंजूर है.’’ राहत खान ने कहा.

‘‘आप मुझे उन दोस्तों के नाम व पते लिखा दीजिए, जो उस दिन उस के साथ थे. हां, एक बात यह भी बता दीजिए कि अगर उसे बचाने के लिए उस के किसी दोस्त की कुरबानी देनी पड़े तो आप को कोई ऐतराज तो नहीं होगा?’’

‘‘नहीं, मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा. बस किसी तरह मेरा बेटा बच जाए.’’

रशना अपने मांबाप की एकलौती बेटी थी. मांबाप की आर्थिक स्थिति कमजोर थी, इस के बावजूद भी वह उसे पढ़ा रहे थे. वह शहर के मशहूर कालेज में पढ़ रही थी और बसस्टैंड से घर तक पैदल ही जाती थी. वह बेहद शरीफ और समझदार लड़की थी. बेपनाह खूबसूरत होने के बावजूद वह बड़ी सादगी से रहती थी.

पिता ने उस की शादी शरजील से तय कर दी थी, पर निकाह की तारीख मुकर्रर नहीं हुई थी. मंगेतर से उस की फोन पर बातचीत होती रहती थी. उस दिन भी रशना बस से उतर कर अपने घर जा रही थी, तभी एक कार उस के करीब आ रुकी. उस में से 2 लोग उतरे. जब तक वह कुछ समझ पाती, उन दोनों ने उसे दबोच कर कार में डाल लिया था.

उस गाड़ी में एक युवक और भी था. वह मशहूर उद्योगपति राहत खान का बेटा नुसरत था. रशना पूरी ताकत लगा कर चीखी, ‘‘मुझे कहां ले जा रहे हो? खुदा के वास्ते मुझे छोड़ दो.’’

एक आदमी ने तुरंत उस का मुंह दबा दिया था. सामने बैठे नौजवान नुसरत ने घुड़क कर कहा था, ‘‘चुपचाप बैठी रह. बड़ी मुश्किल से हाथ आई है, ऐसे कैसे छोड़ दूं?’’

इस के बाद उस ने अपने दोस्तों से कहा, ‘‘तुम लोगों ने आज मेरे मन का काम किया है, इसलिए तुम्हें इस का अच्छा इनाम मिलेगा.’’

2 लोगों के बीच रशना डरीसहमी बैठी थी. उसे न रास्ते समझ में आ रहे थे, न बचने की कोई तरकीब. वह चिल्ला भी नहीं सकती थी. कुछ देर में गाड़ी एक नई बन रही कालोनी में रुकी. उस कालोनी में अभी लोगों ने रहना शुरू नहीं किया था. जिन लोगों ने रशना को गाड़ी में डाला था, वही दोनों उसे एक नए मकान में ले गए. कार में बैठा नुसरत भी पीछेपीछे आ गया था. उसे एक कमरे में छोड़ कर वे दोनों चले गए तो नुसरत ने कमरे का दरवाजा बंद कर के उस की अस्मत लूट ली. वह रोरो कर बख्श देने के लिए गिड़गिड़ाती रही, पर उसे उस पर तनिक भी दया नहीं आई.

इस के बाद वह रोती रही. जब वे तीनों उसे गाड़ी में डाल कर वापस ला रहे थे तो रास्ते में रोड पर एक जगह पुलिस का नाका लगा दिखा. कार चला रहा युवक बोला, ‘‘उस्ताद, पुलिस गाड़ी रोकने को कह रही है.’’

‘‘हां, रोक दे गाड़ी.’’ नुसरत ने कहा.

‘‘उस्ताद, यह चिडि़या?’’ एक साथी ने पूछा.

‘‘इस चिडि़या के पर कटे हुए हैं और मैं ने इसे संभाला हुआ है. तू फिक्र मत कर.’’ नुसरत ने कहा.

उस समय रशना के मन में बेपनाह गुस्सा और नफरत की आग जल रही थी. जैसे ही गाड़ी रुकी, वह पूरी ताकत से चिल्लाई, ‘‘बचाओ…बचाओ…’’

लड़की की आवाज सुन कर पुलिस वालों ने गाड़ी को घेर लिया. सभी को गाड़ी से उतारा गया. रशना ने रोरो कर अपने साथ घटी घटना पुलिस को बता दी. पुलिस ने उन युवकों को हिरासत में ले लिया और खबर रशना के पिता को दे दी.

कुछ ही देर में मीडिया वालों को भी पता चल गया. फिर तो हंगामा खड़ा हो गया. रशना के मंगेतर शरजील को पता चला तो वह भी थाने पहुंच गया. रशना उस के कंधे पर सिर रख कर खूब रोई.

एडवोकेट फुरकान किसी भी तरह नुसरत को बचाने में लग गया. इस के लिए उस ने पैसा और पहुंच का इस्तेमाल किया. यह केस अदालत पहुंचा तो एकदम उलटा हो गया. अदालत में जो मैडिकल रिपोर्ट पेश की गई, उस के मुताबिक राहत इंडस्ट्रीज के मालिक का बेटा नुसरत बेगुनाह पाया गया.

एडवोकेट फुरकान ने कोर्ट में जो कहानी पेश की, उस में बताया गया कि अब से करीब 2 महीने पहले किसी जगह पर रशना और नुसरत की मुलाकात हुई थी. दोनों एकदूसरे के करीब आए. मोहब्बत का खेल शुरू हो गया. इन की मुलाकातें महंगे रेस्टोरेंट में होने लगी. उन की मुलाकातों के कई गवाह पेश हुए.

2 वेटर जो उन्हें सर्व करते थे, उन के साथसाथ रेस्टोरेंट के मैनेजर नदीम ने भी गवाही दी. जिन स्टोर और दुकानों से नुसरत ने रशना को तोहफे दिलाए थे, उन लोगों ने भी कोर्ट में बयान दिए.

एक दिन रशना ने नुसरत पर शादी का दबाव डाला तो उस ने शादी से इनकार कर दिया. इस की वजह यह थी कि वह शादी करने लायक नहीं था. इस बात को रशना नहीं जानती थी. नुसरत के शादी से मना करने पर रशना ने उसे धमकी दी कि वह उस के खिलाफ कुछ भी कर सकती है. आखिर वही हुआ और उस ने नुसरत पर रेप का इलजाम लगा दिया.

उस दिन वह खुद अपनी मरजी से नुसरत व उस के दोस्तों के साथ आउटिंग पर गई थी. वापसी पर जब पुलिस ने गाड़ी रोकी तो उस ने चीखनाचिल्लाना शुरू कर दिया. उस के बाद पुलिस ने नुसरत और उस के साथियों को गिरफ्तार कर लिया.

मैडिकल रिपोर्ट में रशना के साथ रेप की पुष्टि तो हुई थी, पर यह रेप नुसरत ने नहीं, बल्कि किसी और ने किया था. बदला लेने की खातिर इलजाम लगा दिया था नुसरत पर. जबकि हकीकत यह थी कि नुसरत नामर्द था.

इस सिलसिले में कई डाक्टरों की मैडिकल रिपोर्ट सबूत के तौर पर अदालत में पेश की गई. वह एक मायूस इंसान है, जो दिल बहलाने के लिए लड़कियों से दोस्ती करता है. डाक्टरों और एक्सपर्ट्स की मैडिकल रिपोर्ट, डीएनए रिपोर्ट, रेस्टोरेंट वालों, स्टोर वालों आदि की गवाही ने केस का रुख ही बदल दिया.

रशना भरी अदालत में रोरो कर चीखचीख कर फरियाद करती रही, लेकिन वकील फुरकान का बिछाया जाल और सबूत इतने पक्के थे कि कुछ नहीं हो सका. नुसरत को बाइज्जत बरी कर दिया गया और रशना पर जुरमाना लगा कर उसे माफ कर दिया गया.

अदालत के बाहर राहत खान ने एडवोकेट फुरकान को गले लगा कर शुक्रिया अदा करते हुए उस की बहुत तारीफ की. शरजील के सामने रशना की हिचकियां बंध गईं. उस ने रोते हुए कहा, ‘‘शरजील, अदालत में जो कुछ कहा गया, वह सब झूठ है. मैं ने नुसरत को इस से पहले कभी नहीं देखा था.’’

‘‘मैं जानता हूं रशना, तुम बेकसूर हो. यह सब उस मक्कार वकील की साजिश है. दौलत के लिए लोग अपना ईमान और जमीर तक बेच देते हैं. तुम परेशान न हो, ऊपर वाला जरूर इंसाफ करेगा. एक बात और रशना, पहले मैं ने सोचा था कि अपना घर बना कर तुम से निकाह करूंगा, लेकिन अब मैं तुम से अगले महीने ही शादी कर रहा हूं, वरना तुम घुटती रहोगी. मैं ने इस बारे में तुम्हारे अब्बू से बात कर ली है.’’ शरजीत ने कहा.

एक दिन नुसरत का दोस्त उस के पास एक आदमी को ले कर आया. उस के सिर पर कैप थी, आंखों पर काला चश्मा, पान जैसे लाल होंठ, गले में नीला स्कार्फ बंधा था. उस ने कपड़े भी काफी कीमती पहन रखे थे. उस व्यक्ति का नाम दिलबर था. दोस्त ने बताया था कि दिलबर के पास ऐसी हुस्न की परियां हैं कि देखो तो आंखें खुली की खुली रह जाएं.

नुसरत उद्योगपति का बेटा था. वह अपनी अय्याशी पर खूब पैसे उड़ाता था, इसलिए उस ने कहा, ‘‘मुझे दिखाओ तो वे कैसी हैं?’’

दिलबर ने अपने मोबाइल फोन में नुसरत को एक फोटो दिखाई. लड़की बेहद हसीन और पुरशबाब थी. देखते ही नुसरत उस का दीवाना हो गया. उस ने कहा, ‘‘क्या तुम इसे ला सकते हो?’’

‘‘हां, तभी तो फोटो दिखा रहा हूं. पर पैसा काफी लगेगा और मेरी कुछ शर्तें भी हैं.’’

‘‘पैसे की तुम फिक्र मत करो, अपनी शर्तें बताओ.’’ नुसरत ने कहा.

‘‘शर्त यह है कि इस लड़की के पास बस वही आदमी जाएगा, जिस ने सौदा किया है यानी बस तुम. और सुबह होने से पहले तुम लड़की को वापस भेज दोगे. एक लाख रुपए कीमत होगी.’’ दिलबर ने कहा.

‘‘मुझे मंजूर है.’’ नुसरत ने बेचैनी से 50 हजार रुपए उस के हाथ पर रख कर कहा, ‘‘बाकी काम के बाद. तुम लड़की अकेले उठाओगे?’’

‘‘उस से आप को कोई मतलब नहीं, आप बस जगह बता दो, लड़की पहुंचा दी जाएगी.’’ दिलबर ने कहा.

दूसरी ओर वकील फुरकान बड़ा खुश था. एक बड़े दौलतमंद व इज्जतदार खानदान से उस की एकलौती बेटी नाहीद के लिए रिश्ता आया था. लड़का भी बाप के बिजनैस से जुड़ा था. पढ़ालिखा शरीफ लड़का था. मंगनी का दिन भी तय हो गया था.

नाहीद रोज की तरह उस दिन भी योगा क्लास से घर लौट रही थी. वह अपनी छोटी गाड़ी खुद चलाती थी. रास्ते में एक तेज रफ्तार वैन ने उस की कार को ओवरटेक कर के रोक लिया. वैन के शीशे काले थे.

वैन रुकते ही उस में से 2-3 लोग जल्दी से उतरे और उन्होंने नाहीद की कार का गेट खोल कर फुरती से उसे बेबस कर के अपनी वैन में बिठा दिया. उस की गाड़ी वहीं खड़ी रह गई.

नाहीद की समझ में नहीं आ रहा था कि वे लोग कौन हैं और उसे किडनैप क्यों कर रहे हैं? वह रुंधी आवाज में बोली, ‘‘तुम लोग कौन हो, मुझे कहां ले जा रहे हो?’’

‘‘हम इस का जवाब नहीं दे सकते, क्योंकि हम से जितना कहा गया है, हम वही कर रहे हैं.’’ उन में से एक ने जवाब दिया.

‘‘इस काम के जितने पैसे तुम्हें मिले हैं, उस का दस गुना मैं तुम्हें अपने अब्बू से दिलवा दूंगी. तुम मुझे छोड़ दो. मैं कसम खाती हूं, तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा.’’

वह आदमी हंस कर बोला, ‘‘तुम्हारे बाप से तो कुछ और वसूल करना है. अब खामोश बैठी रहो. हम तुम पर सख्ती नहीं कर रहे हैं तो इस का मतलब यह नहीं कि तुम बकबक करती रहो. चुप नहीं हुई तो मुंह में कपड़ा ठूंस देंगे.’’

नाहीद सहम कर चुप हो गई. उसे अंदाजा नहीं था कि उसे कहां ले जाया जा रहा है. कुछ देर बाद वह वैन एक सुनसान मकान के सामने जा कर रुकी. नाहीद को वैन से जबरन उतार कर एक कमरे में बंद कर दिया गया. वह कमरा साउंडप्रूफ था. उस का चीखनाचिल्लाना बाहर नहीं सुना जा सकता था. उस कमरे में नुसरत पहुंच गया, जिस के हुक्म पर उसे किडनैप किया गया था. उसे यह पता नहीं था कि यह खूबसूरत लड़की उसी नामीगिरामी वकील की बेटी है, जिस ने उसे रेप के आरोप से बरी कराया था.

नाहीद के लिए वह रात कयामत की थी. अगले दिन नाहीद को वहीं छोड़ दिया गया, जहां से उसे उठाया था. फुरकान दोनों हाथों से सिर थामे बैठा था. उस के सामने उस की लुटीपिटी बेटी नाहीद सिसकियां भर रही थी. एक घंटे पहले ही उसे गेट पर छोड़ा गया था. उस ने अपने बाप को वह सब कुछ बता दिया, जो उस पर गुजरी थी.

तमाम रेपिस्टों को बरी कराने वाले एडवोकेट फुरकान ने कभी सोचा भी नहीं था कि उसी की लाडली बेटी के साथ भी कभी ऐसा घिनौना काम हो सकता है. फुरकान एक समर्थ और ऊंची पहुंच वाला आदमी था.

दौलत की भी उस के पास कमी नहीं थी. पर आज न दौलत काम आ रही थी न रसूख. उस ने नाहीद से पूछा, ‘‘बेटा, बस एक बार मुझे पता चल जाए कि यह किस ने किया, फिर देख मैं उस का क्या हश्र करता हूं. मुझे बताओ, वे कौन थे, कैसे थे, कहां ले गए थे?’’

‘‘डैडी, जो लोग ले गए वे सब नकाब में थे. जिस ने मुझे बरबाद किया, उस के बारे में बताती हूं. जगह शहर से बाहर थी. बंगले बने थे, बाकी मुझे कुछ याद नहीं.’’ इतना कह कर नाहीद फिर रोने लगी.

फुरकान के बदन में आग लगी थी. वह अपने दिमाग पर जोर देने लगा कि कौन हो सकते हैं वे लोग? यही सोचतेसोचते उस के लैंडलाइन फोन की घंटी बजी. फुरकान ने भर्राई आवाज में कहा, ‘‘हैलो..’’

‘‘फुरकान साहब से बात करनी है.’’

‘‘बोल रहा हूं.’’ उस ने कहा.

‘‘फुरकान साहब, मैं आप को उस आदमी का पता बता सकता हूं, जिस ने आप की बेटी की इज्जत लूटी है.

आप चाहें तो अपनी बेटी से उस की पहचान भी करवा सकते हैं.’’

‘‘हां…हां, बताओ कौन है वह? जल्द बताओ. पर तुम कौन हो?’’

‘‘वह सब रहने दीजिए, यह जान कर क्या करेंगे. पर जिस ने आप की बेटी को बरबाद किया है, उस बदमाश का नाम नुसरत है. राहत इंडस्ट्रीज के मालिक का बेटा.’’

‘‘क्याऽऽ वह…वही नुसरत…’’

‘‘हां, वही नुसरत, जिसे आप ने रेप के केस से बरी बराया था. पर अफसोस की बात यह है कि फुरकान साहब कानूनी तौर पर आप उस का कुछ नहीं बिगाड़ सकते, क्योंकि अदालत में आप पक्के सबूतों के साथ यह साबित कर चुके हैं कि वह नामर्द है. अब आप किस मुंह से अदालत के सामने कहेंगे कि उस ने आप की बेटी के साथ रेप किया है. कौन यकीन करेगा आप का?’’

फुरकान के हाथ से रिसीवर छूट गया. नाहीद सिसक रही थी. वह एक बेगुनाह और मासूम लड़की थी. उस दिन फुरकान को महसूस हुआ कि बेटी के साथ इस तरह की वारदात हो जाने के बाद उस के मांबाप पर क्या गुजरती है.

Short Story : बदलाव

Short Story : आज इंटर लैवल एसएससी  का रिजल्ट आया और इस इम्तिहान को किशन के महल्ले के 2 लड़कों ने पास किया, तो यह सुन कर उसे काफी खुशी हुई.

आज से 4 साल पहले की बात है. निचले तबके से ताल्लुक रखने वाले किशन को बड़ी मेहनत के बाद सरकारी स्कूल में टीचर की नौकरी मिली थी. उस के मांबाप ने बड़ी मेहनत से पढ़ाईलिखाई के खर्चे का इंतजाम किया था. उन्होंने दूसरों के खेतों में मेहनतमजदूरी कर के किशन को पढ़ाया था.

कई सालों की कड़ी मेहनत का नतीजा था कि वह बीएड करने के बाद टीचर एलिजिबिलिटी टैस्ट पास कर के सरकारी स्कूल में टीचर बन गया था. उस के लिए अपनी बिरादरी में ऐसी नौकरी पाना बहुत बड़ी कामयाबी थी, क्योंकि वह अपने मातापिता के साथ दूसरों के खेतों में मेहनतमजदूरी करता था.

किशन के गांव में ऊंची जाति के लोगों की काफी तादाद थी. उन का दबदबा गांव में ज्ड्डयादा था, इसलिए गांव के मंदिरों में निचले तबके के लोगों को पूजापाठ करने की आजादी उतनी नहीं थी, जितनी होनी चाहिए थी.

जब किशन की नौकरी लगी, तो निचले तबके के लड़कों का एक ग्रुप उस के पास मिलने आया और उन में से एक ने कहा, ‘क्यों न अब हम लोग अपने महल्ले में एक मंदिर बना लें, ताकि अपनी जाति के लोगों को पूजापाठ करने में कोई परेशानी न हो?’

‘मंदिर बनाने से क्या होगा मेरे भाई?’ किशन ने पूछा.

‘शायद तुम अभी भूले नहीं होगे, जब हमारे बापदादा अपने गांव के मंदिर की दहलीज पर पैर तक नहीं रख पाते थे. इस के लिए ऊंची जाति के लोग कैसे हमारे लोगों की बेइज्जती करते थे. आज हमारी हैसियत ठीकठाक हो चुकी है. क्यों न हम लोग अपनी जाति के लोगों के पूजापाठ के लिए अपना मंदिर बना कर उन्हें ऊंचों की गुलामी से आजादी दिलवा दें,’ दूसरे लड़के ने उसे समझाने की कोशिश की थी.

‘तुम ठीक कहते हो…’ सब ने उस की बात में हां में हां मिलाई थी.

किशन अपनेआप को कमजोर पा रहा था, फिर भी वह बोला, ‘देखो भाई, यह 21वीं सदी है. पढ़ेलिखे, समझदार लोग पूजापाठ से दूर रहते हैं. पूजापाठ से कोई फायदा होने वाला नहीं है. इस से समय की बरबादी होगी.’

‘अब तुम नौकरी करने लगे हो, तो अपनेआप को पढ़ालिखा और समझदार समझने लगे हो, इसीलिए तुम ऐसा बोल रहे हो…’ सामने खड़ा एक लड़का उस पर तंज कसते हुए बोला था.

किशन बीच में ही उस की बात को काट कर बोला था, ‘नहीं भाई, मुझे पूरी बात बोलने तो दो.’

‘फिर बोलो न, तुम्हें रोकता कौन है?’ दूसरे लड़के ने बोला था.

‘मेरा मानना है कि निचले तबके के लोगों को पूजापाठ से दूर रहना चाहिए, बल्कि इस से हमारे लोगों को दिक्कत ही होगी. समय पर वे काम पर नहीं पहुंच पाएंगे.

‘अगर मेरी सलाह मानो, तो क्यों न हम लोग मंदिर के बजाय अपने लिए एक सामुदायिक भवन बनवाएं? इस में हमारे तबके के लोगों को शादीब्याह करने में कोई परेशानी नहीं होगी. उन का टैंट का खर्चा भी बचेगा.

‘बाकी दिनों में अपने तबके के लड़केलड़कियां वहां पढ़ाई करेंगे. प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करेंगे. वे पढ़लिख कर आगे बढ़ने लगेंगे. यही जरूरी भी है. हम भी ऊंची जाति वालों के समान गांव में पिछड़े नहीं रहेंगे.’

रवि किशन का चचेरा भाई था. वह पढ़ालिखा नहीं था. वह दूसरों के खेतों में काम करता था. काफी मेहनत करने के बाद भी उस की जिंदगी में कोई सुधार नहीं हो पाया था, लेकिन वह समझदार था.

रवि किशन के पक्ष में बोला, ‘तुम्हारी बातों में दम है. आज भी हमारे बच्चे पढ़ाई की कमी में इधरउधर समय बरबाद करते रहते हैं. गांव में इधरउधर घूम कर चूहा मारते हैं. मछलियां पकड़ते हैं. चिडि़या मारते रहते हैं. हम चाह कर भी उन्हें अच्छी पढ़ाईलिखाई नहीं करा पा रहे हैं.

‘हम सब की तो जिंदगी कट गई, लेकिन क्या हमारे बच्चे भी ऐसे ही जिंदगी गुजारेंगे? उन के लिए तो सचमुच कुछ अलग करना होगा, तभी हमारी जातबिरादरी में सुधार होगा. हम लोगों को मंदिरवंदिर के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए. इस से हम लोगों का भला नहीं होने वाला है.

‘मुझे भी लग रहा है कि इस मंदिर से कोई फायदा होने नहीं वाला है. हम लोग आज थोड़ाबहुत कमाने लगे हैं, तो बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. लेकिन हम लोगों को कोई सहयोग करने वाला नहीं है. किशन हमारी बिरादरी में सब से ज्यादा पढ़ालिखा और समझदार है. अगर वह ऐसा कह रहा है, तो इस से हमारे लोगों में जरूर बदलाव होगा.’

थोड़ीबहुत बहस के बाद यह तय किया गया कि अगले दिन अपने महल्ले में मीटिंग रखी जाएगी. इस में अपनी जातबिरादरी के बड़ेबुजुर्गों की भी राय ली जाएगी.

अगले दिन मीटिंग रखी गई. मीटिंग में काफी बहस हुई. यह सब देख कर किशन निराश होने लगा था, लेकिन बहस के बाद यह तय किया गया कि मंदिर नहीं, बल्कि सामुदायिक भवन ही बनाया जाएगा.

उसी मीटिंग में सामुदायिक भवन बनाने की रूपरेखा तैयार कर ली गई. लोग कितनाकितना चंदा देंगे, इस का भी विचार कर लिया गया था. लोग बढ़चढ़ कर चंदा देने के लिए तैयार थे.

चंदे के पैसे से सामुदायिक भवन बनाने के लिए सामान का इंतजाम किया गया. सभी लोगों ने अपना भरपूर योगदान दिया. लोगों में ऐसा जोश दिखा कि सामुदायिक भवन नहीं, बल्कि मंदिर ही बन रहा है.

कुछ दिन में ही लोगों की सामूहिक कोशिश से सामुदायिक भवन तैयार हो चुका था. उस भवन में नियमित अखबार, विभिन्न तरह की पत्रिकाएं और दूसरी किताबें मंगाई जाने लगीं.

किशन ने प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले लड़केलड़कियों को आपस में क्विज और डिबेट करने की सलाह दी.

जिन के घरों में पढ़ने का इंतजाम नहीं था, वे रात में सामुदायिक भवन के इनवर्टर की रोशनी के नीचे पढ़ने लगे थे.

किशन की तरह रोजगार में लगे हुए 1-2 नौजवान वहां पैसे से सहयोग करने लगे. इस से लड़केलड़कियों में आगे पढ़ने की ललक पैदा होने लगी थी.

किशन के महल्ले में जब भी शादी होती, लोग सामुदायिक भवन में बरातियों को ठहराने का इंतजाम करने लगे. इस तरह लोगों के फालतू के पैसे खर्च होने से बचने लगे.

लोगों को भी यकीन होने लगा कि इस सामुदायिक भवन के बनने से  कई फायदे हो रहे हैं, इसीलिए किशन की सोच की लोग खूब तारीफ कर रहे थे.

इस तरह तकरीबन 4 साल बीत गए. आज पहली बार उस समूह से 2 लड़कों का चयन एसएससी परीक्षा में हुआ, तो किशन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. इस के साथ ही उस के महल्ले के लोगों में विश्वास पैदा होने लगा था कि अब उन के समाज में जरूर बदलाव होगा, इसीलिए आज सभी लोग एकमत से किशन की तारीफ कर रहे थे.

किशन अपनी तारीफ को अनसुना कर उस परीक्षा में शामिल होने वाले नाकाम रहे लड़केलड़कियों को बुला कर उन्हें समझा रहा था कि नाकामी से हार नहीं माननी है. अगली बार के लिए दोगुनी मेहनत करो, आप को कामयाबी जरूर मिलेगी.

किशन ने जिस बदलाव का सपना  देखा था, आज उस सपने ने अपनी राह पकड़ ली थी.

Funny Story : पंडित जी – बुरा समय आया तो हो गए कंगाल

Funny Story : वे तो कहीं से भी पंडितजी जैसे नहीं लगते थे. उन का नाम भी कूडे़मल था. वे महीनों इसलिए नहीं नहाते थे कि साबुन खर्च होगा और जब नहाते थे, तभी जांघियाबनियान बदलते थे. एक दिन रास्ते में मिलने पर मैं ने उन से पूछ ही लिया, ‘‘क्यों पंडितजी, कूड़े से काम नहीं चला क्या, जो मल भी साथ में जोड़ दिया?’’

पंडितजी सांप की तरह फुंफकार कर रह गए, पर डस नहीं पाए, क्योंकि भरे बाजार में वे तमाशा नहीं बनना चाहते थे. बाजार में दुकानदारों से दान वसूल करने के लिए वे सुबहसुबह पहुंच जाते थे. दुकानदार भी पंडितजी के मुंह नहीं लगना चाहते थे, इसलिए कुछ रुपए दे कर उन से पीछा छुड़ाते थे.

पंडितजी के दर्जनभर बच्चे थे. 6 लड़के और 6 लड़कियां. उन में से एक भी ऐसा नहीं था, जो 5वीं क्लास से ज्यादा पढ़ा हो.

पंडितजी खुद भी नहीं पढ़े थे. कुछ मंत्र उन्होंने रट जरूर लिए थे, जिन का मतलब वे खुद भी नहीं जानते थे. शब्दों से ज्यादा वे आवाज पर जोर देते थे, इसलिए शब्द किसी की समझ में नहीं आते थे और उन का काम चल जाता था.

चूंकि उस इलाके में दूरदूर तक कोई दूसरा पंडित नहीं था, इसलिए कूड़ेमल के मजे थे. पर बुरा समय कह कर नहीं आता. एक दिन 2 अनजान लड़के पंडितजी के घर आए और पंडितानी से बोले, ‘‘पंडितजी ने परोसे के लिए चांदी के बरतन मंगाए हैं.’’

पंडितानी बेचारी सीधीसादी थी. उसे नहीं मालूम था कि जमाना कहां जा रहा है. फिर शक की कोई गुंजाइश भी तो नहीं थी. पंडितजी अकसर बरतन मंगवा लेते थे, इसलिए पंडितानी ने चांदी के बरतन उन लड़कों को दे दिए.

शाम को पंडितजी जब अपने बच्चों के साथ घर लौटे, तो पंडितानी ने बरतनों का जिक्र किया. तब पंडितजी ने बताया कि उन्होंने तो बरतन लाने के लिए किसी को भी नहीं भेजा था. पर अब क्या हो सकता था.

पंडितजी खून का घूंट पी कर रह गए. पर वह उन चांदी के बरतनों को भुला नहीं पा रहे थे, जो सेठ बीरूमल के पिता की तेरहवीं में मिले थे. आखिर सेठों के बाप रोजरोज तो मरते नहीं.

पंडितजी अभी यह दुखड़ा भूले भी नहीं थे कि एक रोज उन के पीछे एक तिलकधारी 20 किलो दूध से भरी बालटी लिए उन के घर पहुंच गया और पंडितानी से बोला, ‘‘पंडितजी ने गाय खरीदी है. उसी का दूध भेजा है और 10 हजार रुपए लाने को कहा है.’’

घर में दूध आए तो कौन मना करता है, फिर पंडितानी की आंखों के सामने तो एक बढि़या गाय की तसवीर उभर रही थी. ऐसे में उन्होंने ज्यादा पूछताछ करने की जरूरत नहीं समझी. दूध की बालटी हिफाजत से रख कर पंडितानी ने संदूकची में रखे बंडलों में से 10 हजार रुपयों का एक बंडल दूध लाने वाले को दे दिया.

पंडितानी ने दूध को खूब औटाया और मावे की महक से मस्त हो गई. वह गाय को कहां बांधेगी, यही सोच रही थी कि पंडितजी और बच्चे वहां आ पहुंचे.

पंडितानी ने खुश हो कर पूछा, ‘‘गाय कहां बांध आए जी? मैं तो उस की आरती उतारने के लिए उतावली हो रही थी.’’

पंडितजी को लगा कि आज फिर घर में सेंध लग गई. उन्होंने सवालिया नजरों से अपनी प्यारी पंडितानी की ओर देखा. वह खुशी से चहकते हुए बोली, ‘‘जिन के दरवाजे पर गौ माता बंधी रहती है, वे लोग खुशनसीब होते हैं जी.’’

मगर यह पहेली पंडितजी को कतई समझ नहीं आ रही थी.

‘‘तुम किस गाय की बात कर रही हो?’’ पंडितजी ने ठहरी आवाज में पूछा.

‘‘वही, जिस का दूध आज शाम को आप ने भेजा था. वह भला आदमी तो स्टील की बालटी भी वापस नहीं ले गया. उसी ने तो बताया था कि आप ने गाय खरीदी है और 10 हजार रुपए मंगवाए हैं.’’

पंडितजी की आंखों का फ्यूज अचानक उड़ गया. उन्होंने दोनों हाथ अपनी छाती पर मारे और धड़ाम से जमीन पर गिर गए. लगता था कि अब वे कभी नहीं उठेंगे, मगर उन की बीवी को 7 पूतों का कोटा पूरा करना था और अभी तो कुल जमा 6 ही थे, इसलिए पंडितजी को उठना ही पड़ा.

‘‘10 हजार रुपए,’’ पंडितजी के मुंह से निकला. उन्होंने मिमियाती आवाज में कहा, ‘‘मैं ने पाईपाई जमा कर के यह रकम जोड़ी थी. मेरे साथ यह क्या हो गया?’’

अब तो थाने जाए बिना गुजारा नहीं था. पता नहीं, वह ठग क्यों उन के पीछे लगा था. रपट लिखतेलिखवाते आधी रात बीत गई. दारोगाजी बारबार ठग का हुलिया पूछते, पर पंडितजी क्या बताते. उन्हें उस के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था. पंडितानी ने भी चोर का चेहरा ठीक से नहीं देखा था.

जिस ने भी यह किस्सा सुना, उस ने पंडितजी के साथ हमदर्दी जताई, पर इस से उन का घाटा पूरा होने वाला नहीं था. पर चारा भी क्या था. वह थकहार कर बैठ गए.

एक शाम को फिर 2 लड़के पंडितजी के घर पहुंचे और पंडितानी से बोले, ‘‘पंडितजी थाने में बैठे हैं. दारोगाजी ने ठग को पकड़ लिया है. आप को चल कर पहचान करनी है.’’

भोलीभाली पंडितानी फिर झांसे में आ गई और तुरंत थाने चल दी. फिर वह कहां गई, किसी को कुछ मालूम नहीं.

Social Story : साथी – वे 9 गूंगे-बहरे

Social Story : वे 9 थे. 9 के 9 गूंगे-बहरे. वे न तो सुन सकते थे, न ही बोल सकते थे. पर वे अपनी इस हालत से न तो दुखी थे, न ही परेशान. सभी खुशी और उमंग से भरे हुए थे और खुशहाल जिंदगी गुजार रहे थे. वजह, सब के सब पढ़ेलिखे और रोजगार से लगे हुए थे. अनंत व अनिल रेलवे की नौकरी में थे, तो विकास और विजय बैंक की नौकरी में. प्रभात और प्रभाकर पोस्ट औफिस में थे, तो मुकेश और मुरारी प्राइवेट फर्मों में काम करते थे. 9वां अवधेश था. वह फलों का बड़े पैमाने पर कारोबार करता था.

अवधेश ही सब से उम्रदराज था और अमीर भी. जब उन में से किसी को रुपएपैसों की जरूरत होती थी, तो वे अवधेश के पास ही आते थे. अवधेश भी दिल खोल कर उन की मदद करता था. जरूरत पूरी होने के बाद जैसे ही उन के पास पैसा आता था, वे अवधेश को वापस कर देते थे. वे 9 लोग आपस में गहरे दोस्त थे और चाहे कहीं भी रहते थे, हफ्ते के आखिर में पटना की एक चाय की दुकान पर जरूर मिलते थे. पिछले 5 सालों से यह सिलसिला बदस्तूर चल रहा था.

वे सारे दोस्त शादीशुदा और बालबच्चेदार थे. कमाल की बात यह थी कि उन की पत्नियां भी मूक और बधिर थीं. पर उन के बच्चे ऐसे न थे. वे सामान्य थे और सभी अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे थे.

सभी दोस्त शादीसमारोह, पर्वत्योहार में एकदूसरे के घर जाते थे और हर सुखदुख में शामिल होते थे. वक्त की रफ्तार के साथ उन की जिंदगी खुशी से गुजर रही थी कि अचानक उन सब की जिंदगी में एक तूफान उठ खड़ा हुआ.

इस बार जब वे लोग उस चाय की दुकान पर इकट्ठा हुए, तो उन में अवधेश नहीं था. उस का न होना उन सभी के लिए चिंता की बात थी. शायद यह पहला मौका था, जब उन का कोई दोस्त शामिल नहीं हुआ था.

वे कई पल तक हैरानी से एकदूसरे को देखते रहे, फिर अनंत ने इशारोंइशारों में अपने दूसरे दोस्तों से इस की वजह पूछी. पर उन में से किसी को इस की वजह मालूम न थी.

वे कुछ देर तक तो खामोश एकदूसरे को देखते रहे, फिर अनिल ने अपनी जेब से पैड और पैंसिल निकाली और उस पर लिखा, ‘यह तो बड़े हैरत की बात है कि आज अवधेश हम लोगों के बीच नहीं है. जरूर उस के साथ कोई अनहोनी हुई है.’

लिखने के बाद उस ने पैड अपने दोस्तों की ओर बढ़ाया. उसे पढ़ने के बाद प्रभात ने अपने पैड पर लिखा,

‘पर क्या?’

‘इस का तो पता लगाना होगा.’

‘पर कैसे?’

‘अवधेश को मैसेज भेजते हैं.’

सब ने रजामंदी में सिर हिलाया. अवधेश को मैसेज भेजा गया. सभी दोस्त मैसेज द्वारा ही एकदूसरे से बातकरते थे, जब वे एकदूसरे से दूर होते थे. पर मैसेज भेजने के बाद जब घंटों बीत गए और अवधेश का कोई जवाब न आया, तो सभी घबरा से गए.

सभी ने तय किया कि अवधेश के घर चला जाए. अवधेश का घर वहां से तकरीबन 5 किलोमीटर दूर था.

अवधेश के आठों दोस्त उस के घर पहुंचे. उन्होंने जब उस के घर का दरवाजा खटखटाया, तो अवधेश की पत्नी आभा ने दरवाजा खोला. दरवाजे पर अपने पति के सारे दोस्तों को देखते ही आभा की आंखें आंसुओंसे भरती चली गईं.

आभा को यों रोते देख उन के मन  में डर के बादल घुमड़ने लगे. उन्होंने इशारोंइशारों में पूछा, ‘अवधेश है घर पर?’

आभा ने सहमति में सिर हिलाया, फिर उन्हें ले कर अपने बैडरूम में आई. बैडरूम में अवधेश चादर ओढ़े आंखें बंद किए लेटा था.

आभा ने उसे झकझोरा. उस ने सभी दोस्तों को अपने कमरे में देखा, तो उस की आंखों में हैरानी के भाव उभरे. वह उठ कर बिछावन पर बैठ गया. पर उस की आंखों में उभरे हैरानी के भाव कुछ देर ही रहे, फिर उन में वीरानी झांकने लगी. वह खालीखाली नजरों से अपने दोस्तों को देखने लगा. ऐसा करते हुए उस के चेहरे पर उदासी और निराशा के गहरे भाव छाए हुए थे.

उस के दोस्त कई पल तक बेहाल अवधेश को देखते रहे, फिर विजय ने उस से इशारोंइशारों में पूछा, ‘यह तुम ने अपना क्या हाल बना रखा है? हुआ क्या है? आज तुम हम से मिलने भी नहीं आए?’

अवधेश ने कोई जवाब नहीं दिया. वह बस खालीखाली नजरों से उन्हें देखता रहा. उस के बाकी दोस्तों ने भी उस की इस बेहाली की वजह पूछी, पर वह खामोश रहा.

अपनी हर कोशिश में नाकाम रहने पर उन्होंने आभा से पूछा, तो उस ने पैड पर लिखा, ‘मुझे भी इन की खामोशी और उदासी की पूरी वजह मालूम नहीं, जो बात मालूम है, उस के मुताबिक इन्हें अपने कारोबार में घाटा हुआ है.’

‘क्या यह पहली बार हुआ है?’ विकास ने अपने पैड पर लिखा.

‘नहीं, ऐसा कई बार हुआ है, पर इस से पहले ये कभी इतना उदास और निराश नहीं हुए.’

‘फिर, इस बार क्या हुआ है?’

‘लगता है, इस बार घाटा बहुत ज्यादा हुआ है.’

‘यही बात है?’ लिख कर विकास ने पैड अवधेश के सामने किया.

पर अवधेश चुप रहा. सच तो यह था कि कारोबार में लगने वाले जबरदस्त घाटे ने उस की कमर तोड़ दी थी और वह गहरे डिप्रैशन का शिकार हो गया था.

जब सारे दोस्तों ने उस पर मिल कर दबाव डाला, तो अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘घाटा पूरे 20 लाख का है.’

जब अवधेश ने पैड अपने दोस्तों के सामने रखा, तो उन की भी आंखें फटने को हुईं.

‘पर यह हुआ कैसे…?’ अनंत ने अपने पैड पर लिखा.

एक बार जब अवधेश ने खामोशी तोड़ी, तो फिर सबकुछ बताता चला गया. उस ने एक त्योहार पर बाहर से 20 लाख रुपए के फलों की बड़ी खेप मंगवाई थी. पर कश्मीर से आने वाले फलों के ट्रक बर्फ खिसकने के चलते 15 दिनों तक जाम में फंस गए और फल बरबाद हो गए.

‘तो क्या तुम ने इतने बड़े सौदे का इंश्योरैंस नहीं कराया था?’

‘नहीं. चूंकि यह कच्चा सौदा है, सो इंश्योरैंस कंपनियां अकसर ऐसे सौदे का इंश्योरैंस नहीं करतीं.’

‘पर ट्रांसपोर्ट वालों पर तो इस की जिम्मेदारी आती है. क्या वे इस घाटे की भरपाई नहीं करेंगे?’

‘गलती अगर उन की होती, तो उन पर यह जिम्मेदारी जाती, पर कुदरती मार के मामले में ऐसा नहीं होता.’

‘और जिन्होंने यह माल भेजा था?’

‘उन की जिम्मेदारी तो तभी खत्म हो जाती है, जब वे माल ट्रकों में भरवा कर रवाना कर देते है.’

‘और माल की पेमेंट?’

‘पेमेंट तो तभी करनी पड़ती है, जब इस का और्डर दिया जाता है. थोड़ीबहुत पेमेंट बच भी जाती है, तो माल रवाना होते ही उस का चैक भेज दिया जाता है.’

‘पेमेंट कैसे होती है?’

‘ड्राफ्ट से.’

‘क्या तू ने इस माल का पेमेंट कर दिया था?’

‘हां.’

‘ओह…’

‘तू यहां घर पर है. दुकान और गोदाम का क्या हुआ?’

‘बंद हैं.’

‘बंद हैं, पर क्यों?’

‘तो और क्या करता. वहां महाजन पहुंचने लगे थे?’

‘क्या मतलब?’

‘इस सौदे का तकरीबन आधा पैसा महाजनों का ही था.’

‘यानी 10 लाख?’

‘हां.’

इस खबर से सब को सांप सूंघ गया. कमरे में एक तनावभरी खामोशी छा गई. काफी देर बाद अनंत ने यह खामोशी तोड़ी. उस ने पैड पर लिखा, ‘पर इस तरह से दुकान और गोदाम बंद कर देने से क्या तेरी समस्या का समाधान हो जाएगा?’

‘पर दुकान खोलने पर महाजनों का तकाजा मेरा जीना मुश्किल कर देगा.’

‘ऐसे में वे तकाजा करना छोड़ देंगे क्या?’

‘नहीं, और मेरी चिंता की सब से बड़ी वजह यही है. उन में से कुछ तो घर पर भी पहुंचने लगे हैं. अगर कुछ दिन तक उन का पैसा नहीं दिया गया, तो वे कड़े कदम भी उठा सकते हैं.’

‘जैसे?’

‘वे अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं. मुझे जेल भिजवा सकते हैं.’

मामला सचमुच गंभीर था. बात अगर थोड़े पैसों की होती, तो शायद वे कुछ कर सकते थे, पर मामला 20 लाख रुपयों का था. सो उन का दिमाग काम नहीं कर रहा था. पर इस बड़ी समस्या का कुछ न कुछ हल निकालना ही था, सो अनंत ने लिखा, ‘अवधेश, इस तरह निराश होने से कुछ न होगा. तू ऐसा कर कि महाजनों को अगले रविवार अपने घर बुला ले. हम मिलबैठ कर इस समस्या का कोई न कोई हल निकालने की कोशिश करेंगे.’

अगले रविवार को अवधेश के सारे दोस्त उस के ड्राइंगरूम में थे. 4 महाजन भी थे. अवधेश एक तरफ पड़ी कुरसी पर चुपचाप सिर झुकाए बैठा था. उस के पास ही उस की पत्नी आभा व 10 साला बेटा दीपक खड़ा था. थोड़ी देर पहले आभा ने सब को चाय पिलाई थी. आभा के बहुत कहने पर महाजनों ने चाय को यों पीया था, जैसे जहर पी रहे हों.

थोड़ी देर तक सब खामोश बैठे थे. वे एकदूसरे को देखते रहे, फिर एक महाजन, जिस का नाम महेशीलाल था, बोला, ‘‘अवधेश, तुम ने हमें यहां क्यों बुलाया है और ये लोग कौन हैं?’’

दीपक ने उसकी बात इशारों में अपने पिता को समझाई, तो अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘ये मेरे दोस्त हैं और मैं इन के जरीए आप के पैसों के बारे में बात करना चाहता हूं.’

महाजनों ने बारीबारी से उस की लिखी इबारत पढ़ी, फिर वे चारों उस के दोस्तों की ओर देखने लगे. बदले में अनंत ने लिख कर अपना और दूसरे लोगों का परिचय उन्हें दिया. उन का परिचय पा कर महाजन हैरान रह गए. एक तो यही बात उन के लिए हैरानी वाली थी कि अवधेश की तरह उस के दोस्त भी मूक और बधिर थे. दूसरे, वे इस बात से हैरान थे कि सब के सब अच्छी नौकरियों में लगे हुए थे.

चारों महाजन कई पल तक हैरानी से उन्हें देखते रहे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हमें यह जान कर खुशी भी हुई और हैरानी भी कि आप अपने दोस्त की मदद करना चाहते हैं. पर हम करोबारी हैं. पैसों के लेनदेन का कारोबार करते हैं. सो, आप के दोस्तों ने कारोबार के लिए हम से जो पैसे लिए थे, वे हमें वापस चाहिए.’

‘आप अवधेश के साथ कितने दिनों से यह कारोबार कर रहे हैं?’ अनंत ने लिखा.

‘3 साल से.’

‘क्या अवधेश ने इस से पहले कभी पैसे लौटाने में आनाकानी की? कभी इतनी देर लगाई?’

‘नहीं.’

‘तो फिर इस बार क्यों? इस का जवाब आप भी जानते हैं और हम भी. अवधेश का माल जाम में फंस कर बरबाद हो गया और इसे 20 लाख रुपए का घाटा हुआ. आप लोगों के साथ यह कई साल से साफसुथरा कारोबार करता रहा है. अगर इस ने आप लोगों की मदद से लाखों रुपए कमाए हैं, तो आप ने भी इस के जरीए अच्छा पैसा बनाया है. अब जबकि इस पर मुसीबत आई है, तब क्या आप का यह फर्ज नहीं बनता कि आप लोग इस मुसीबत से उबरने में इस की मदद करें? इसे थोड़ी मुहलत और माली मदद दें, ताकि यह इस मुसीबत से बाहर आ सके?’

यह लिखा देख चारों महाजन एकदूसरे का मुंह देखने लगे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हम कारोबारी हैं और कारोबार भावनाओं पर नहीं, बल्कि लेनदेन पर चलता है. अवधेश को घाटा हुआ है तो यह उस का सिरदर्द है, हमें तो अपना पैसा चाहिए.’

‘कारोबार भावनाओं पर ही चलता है, यह गलत है. हम भी अपने बैंक से लोगों को कर्ज देते हैं. अगर किसानों की फसल किसी वजह से बरबाद हो जाती है, तो हम कर्ज वसूली के लिए उन्हें कुछ समय देते हैं या फिर हालात काफी बुरे होने पर कर्जमाफी जैसा कदम भी उठाते हैं.

‘आप अगर चाहें, तो अवधेश के खिलाफ केस कर सकते हैं, उसे जेल भिजवा सकते हैं. पर इस से आप को आप का पैसा तो नहीं मिलेगा. दूसरी हालत में हम आप से वादा करते हैं कि आप का पैसा डूबेगा नहीं. हां, उस को चुकाने में कुछ वक्त लग सकता है.’

कमरे का माहौल अचानक तनाव से भर उठा. चारों महाजन कई पल तक एकदूसरे से रायमशवरा करते रहे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हम अवधेश को माली मदद तो नहीं, पर थोड़ा समय जरूर दे सकते हैं.’

‘थैंक्यू.’

थोड़ी देर बाद जब महाजन चले गए, तो दोस्तों ने अवधेश की ओर देखा और पैड पर लिखा, ‘अब तू क्याकहता है?’

अवधेश ने जो कहा, उस के अंदर की निराशा को ही झलकाता था. उस का कहना था कि समय मिल जाने से क्या होगा? उन महाजनों का पैसा कैसे लौटाया जाएगा? उस का कारोबार तो चौपट हो गया है. उसे जमाने के लिए पैसे चाहिए और पैसे उस के पास हैं नहीं.

‘हम तुम्हारी मदद करेंगे.’

‘पर कितनी, 5 हजार… 10 हजार. ज्यादा से ज्यादा 50 हजार, पर इस से बात नहीं बनती.’

इस के बाद भी अवधेश के दोस्तों ने उसे काफी समझाया. उसे उस की पत्नी और बच्चों के भविष्य का वास्ता दिया, पर निराशा उस के अंदर यों घर कर गई थी कि वह कुछ करने को तैयार न था.

आखिर में दोस्तों ने अवधेश की पत्नी आभा से बात की. उसे इस बात के लिए तैयार किया कि वह कारोबार संभाले. उन्होंने ऐसे में उसे हर तरह की मदद करने का वादा किया. कोई और रास्ता न देख कर आभा ने हां कर दी.

बैठ चुके कारोबार को खड़ा करना कितना मुश्किल है, यह बात आभा को तब मालूम हुई, जब वह ऐसा करने को तैयार हुई. वह कई बार हताश हुई, कई बार निराश हुई, पर हर बार उस के पति के दोस्तों ने उसे हिम्मत बंधाई.

उन से हिम्मत पा कर आभा दिनरात अपने कारोबार को संभालने में लग गई. फिर पर्वत्योहार के दिन आए. आभा ने फलों की एक बड़ी डील की. उस की मेहनत रंग लाई और उसे 50 हजार रुपए का मुनाफा हुआ.

इस मुनाफे ने अवधेश के निराश मन में भी उम्मीद की किरण जगा दी और वह भी पूरे जोश से कारोबार में लग गया. किस्तों में महाजनों का कर्ज उतारा जाने लगा और फिर वह दिन भी आ गया, जब उन की आखिरी किस्त उतारी जानी थी.

इस मौके पर अवधेश के सारे दोस्त इकट्ठा थे. जगह वही थी, लोग वही थे, पर माहौल बदला हुआ था. पहले अवधेश और आभा के मन में निराशा का अंधेरा छाया हुआ था, पर आज उन के मन में आशा और उमंग की ज्योति थी.

महाजन अपनी आखिरी किस्त ले कर ड्राइंगरूम से निकल गए, तो आभा अवधेश के दोस्तों के सामने आई और उन के आगे हाथ जोड़ दिए. ऐसा करते हुए उस की आंखों में खुशी के आंसू थे.

अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘दोस्तो, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आप लोगों का यह एहसान कैसे उतारूंगा.’

उस के दोस्त कई पल तक उसे देखते रहे, फिर अनंत ने लिखा, ‘कैसी बातें करता है तू? दोस्त दोस्त पर एहसान नहीं करते, सिर्फ  दोस्ती निभाते हैं और हम ने भी यही किया है.’

थोड़ी देर वहां रह कर वे सारे दोस्त कमरे से निकल गए. आभा कई पल तक दरवाजे की ओर देखती रही, फिर अपने पति के सीने से लग गई.

Family Story : सूनापन – ऋतु को क्या था अफसोस

Family Story : सुबह से ही ऋतु उदास थीं. वे बारबार घड़ी की तरफ देखतीं. उन्हें ऐसा महसूस होता कि घड़ी की सूइयां आगे खिसकने का नाम ही नहीं ले रहीं. मानो घर की दीवारें भी घूरघूर कर देख रही हों और फर्श नाक चढ़ा कर चिढ़ाता हुआ कह रहा हो, ‘देखो, हूं न बिलकुल साफसुथरा, चमक रहा हूं न आईने की तरह और तुम देख लो अपना चेहरा मुझ में, शायद तुम्हारे चेहरे के तनाव से बनी झुर्रियां इस में साफ नजर आएं.’ और वे ज्यादा देर घर की काटने को दौड़ती हुई दीवारों के बीच न बैठ पाईं.

वे एक किताब ले कर बाहर लौन में आ कर बैठ गईं. बाहर चलती हवाएं बालों को जैसे सहला रही थीं किंतु मन था कि पुस्तक से बारबार विचलित हो जाता. वे लगीं शून्य में ताकने और पहुंच गईं 20 वर्ष पीछे. सबकुछ उन की नजरों के सामने घूम रहा था.

बेटा 10 वर्ष और बिटिया मात्र 7 वर्ष की थी उस वक्त. छुट्टी का दिन था और वे चीख रही थीं अपने छोटेछोटे 2 बच्चों पर, सारा घर फैला पड़ा था, इधर खिलौने, उधर किताबें, गीला तौलिया बिस्तर पर और जूते शू रैक से बाहर फर्श पर. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे घर में अलमारियों से बाहर निकल कर सामान की सूनामी आ गई हो. वे थीं बहुत सफाईपसंद. सो, वह दृश्य देख उन से रहा न गया और चीख पड़ीं अपने बच्चों पर, ‘घर है या कूड़ेदान? कहां कदम रख कर चलूं, कुछ समझ नहीं आ रहा. न जाने बच्चे हैं कि शैतान…’

दोनों बच्चे बेचारे उन की चीख सुन कर सहम गए और ‘सौरी मम्मा, सौरी मम्मा’ कह रहे थे. फिर भी वे उन्हें डांट रही थीं, कह रही थीं, ‘क्या मैं तुम्हारी नौकरानी हूं? तुम लोग अपना सामान जगह पर क्यों नहीं रखते?’ बेटी मिन्ना डर कर झटझट सामान जगह पर रखने लगी थी और बेटा अपनी कहानियों की किताबें जमा रहा था.

हां, उन के पति अनूप जरूर नाराज हो गए थे उन के चीखने से. वे कहने लगे थे, ‘ऋतु, यह घर है, होटल नहीं. घर में 4 लोग रहेंगे तो थोड़ा तो बिखरेगा ही. यह सुन कर ऋतु और भी ज्यादा नाराज हो गईं और अपने पति को टोकते हुए कह रही थीं, ‘तुम्हारी स्वयं की ही आदत है घर को फैलाने की. वरना, क्या तुम बच्चों को न टोकते’

अनूप ने धड़ से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया था और ऋतु ने छुट्टी का पूरा दिन अलमारियां और बच्चों के खिलौने व किताबें जमाने में बिता दिया था. वे लाख सोचतीं कि छुट्टी के दिन बच्चों को कुछ न कहूंगी, घर बिखरा पड़ा रहे मेरी बला से, किंतु सफाई की आदत से मजबूर हो उन से रहा ही न जाता और अब यह हर छुट्टी के दिन का रूटीन बन गया था. बच्चे भी सुनसुन कर शायद ढीठ हो गए थे और बड़े होते जा रहे थे.

अनूप कभी कहते कि तुम अपना ध्यान कहीं दूसरी जगह भी लगाओ, बच्चों को करने दो वे जो करना चाहें. किंतु ऋतु को तो घर में हर चीज अपनी जगह पर चाहिए थी और पूरी तरह से व्यवस्थित भी. सो, लगी रहतीं अकेली वे उसी में और अंदर ही अंदर कुढ़ती भी रहतीं. एक तरफ से उन का कहना भी सही था कि हम महंगेमहंगे सामान घर में लाते हैं इसीलिए न कि घर अच्छा लगे, न कि कूड़ेदान सा. किंतु हर बात की एक अपनी सीमा होती है. सो, अनूप चुप रहने में ही अपनी भलाई समझते.

ऋतु अपना दिल मानो घर में ही लगा बैठी थीं. विवाह के बाद एक ही साल में बेटे का जन्म हो गया और ऋतु ने अपना पूरा ध्यान बेटे की परवरिश व गृहस्थी को संभालने में लगा दिया था. उम्र बढ़ती जा रही थी, साथ ही साथ, बच्चे भी. घर पहले की अपेक्षा व्यवस्थित रहने लगा था.

वक्त मानो पंख लगा उड़ता जा रहा था और ऋतु के चेहरे की झुर्रियों की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही थी और साथ ही मन में बढ़ती कड़वाहट भी. उन्होंने अपना पूरा ध्यान सिर्फ घर को सजाने, बच्चों को पढ़ाने, उन्हें अच्छे संस्कार देने व अनुशासित करने में ही लगा दिया. इन सब के चलते शायद वे यह भी भूल गईं कि खुशी भी एक शब्द होता है और कई बार हमें दूसरों की खुशियों के लिए अपनी आदतों को छोड़ आपस में सामंजस्य बैठाना पड़ता है.

खैर, जिंदगी ठीक ही चल रही थी. बिलकुल साफसुथरा एवं व्यवस्थित घर, अनुशासित बच्चे और रोज रूटीन से काम करते घर के सभी सदस्य. जब घर में मेहमान आते तो तारीफ किए बिना न रहते उन के घर की व बच्चों की. बस, ऋतु को तो वह तारीफ एक अवार्ड के समान लगती. उन के जाने के बाद वे फूली न समातीं और कहती न थकतीं, ‘देखो, सारा दिन टोकती हूं और लगी रहती हूं घर में, तभी तो सभी तारीफ करते हैं.’

वक्त बीतता गया. बच्चे और बड़े हो गए. बेटा मैडिकल की पढ़ाई पूरी कर अमेरिका चला गया और बेटी विवाह कर विदा हो गई. अब ऋतु रह गईं बिलकुल अकेली. कामवाली एक बार सुबह आ कर घर साफ कर देती तो पूरा दिन वह साफ ही रहता. कोई न बिखेरने वाला, न ही घर की व्यवस्था बिगाड़ने वाला.

सूना घर ऋतु को काटने को दौड़ता. अनूप रिटायर हो गए. वे अपनी किताबों में ही मस्त रहते. ऋतु रह गईं नितांत अकेली. मन भी न लगता, किताबों में अपना ध्यान लगाने की कोशिश करतीं किंतु शांत होते ही एक ही सवाल आता मन में. ‘अब कोई नहीं, घर बिखेरने वाला, क्यों न मैं खेली अपने बच्चों के साथ जब उन्हें मेरी जरूरत थी, क्यों न पढ़ीं कहानियां उन के लिए, घर बिखरा था तो क्यों न रहने दिया, कौन से रोज ही मेहमान आते थे जिन की चिंता में अपने बच्चों के साथ खुशनुमा माहौल न रहने दिया घर का?’

अब घर में तो चिडि़या भी पर नहीं मारती, क्या करूं इस घर का? कभीकभी परेशान हो अपनी बेटी मिन्ना को फोन करतीं, किंतु वह भी हांहूं में ही बात करती. वह तो खुद अपने बच्चों में व्यस्त होती. बेटा अपनी रिसर्च में व्यस्त होता. ऋतु अपने जिस घर को देख कर फूली न समाती थीं, उसी की सूनी दीवारें उन्हें कोसती थीं और कहतीं, ‘लो, बिता लो हमारे साथ वक्त.’

ये सारी बातें याद कर ऋतु उदास थीं. अब, उन्हें अपनी भूल का एहसास हो रहा था. अब वे छोटे बच्चों की माओं से मिलतीं तो कहतीं, ‘‘वक्त बिताओ अपने बच्चों के साथ, उन्हें कहानियां सुनाओ, बच्चे बन जाओ उन के साथ, आप इस के लिए तैयार रहो कि बच्चों का घर है तो बिखरा ही रहेगा. घर को गंदा भी न रखो, किंतु उसी घर में ही न लगे रहो. घर तो हम बच्चों के बड़े होने पर भी मेंटेन कर सकते हैं किंतु बच्चे एक बार बड़े हो गए तो उन के बचपन का वक्त वापस न आएगा, और रह जाओगी मेरे ही तरह उन कड़वी यादों के साथ, जिन से शायद तुम खुद ही डरोगी.’’ ऋतु अब कहती हैं कि बच्चों को तो बड़े हो कर चिडि़या के बच्चों की तरह उड़ ही जाना है, किंतु उन के साथ बिताए पलों की यादों को तो हम संजो कर खुश हो सकते हैं जो नहीं हैं मेरे पास अब, मुझे काटने को आता है यह सूनापन.

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