हैवान- भाग 5: प्यार जब जुनून में बदल जाए

इंस्पैक्टर रमेश सोचने लगा कि हो न हो, राधा का अपहरण और अरुण का कत्ल विक्रम ने ही किया है. सोचतेसोचते इंस्पैक्टर के चेहरे पर एक जीत भरी मुसकान फैल गई.

इधर बेहोश राधा को विक्रम अपनी गोद में लिटाए उस के बालों पर हाथ फेर रहा था.

‘‘राधा, अब हम एक हो गए हैं. अब हमें कोई और जुदा नहीं कर सकता. हमारी शादी होगी. हम दोनों साथ रहेंगे. मैं नौकरी करूंगा. महीने के आखिर में तनख्वाह तुम्हारे हाथों में सौंपूंगा. तुम दरवाजे पर खड़ी हो कर मेरा रास्ता देखोगी. मुझे लेट आने पर डांटोगी. मैं तुम्हें सारे सुख दूंगा. अब हम लोग खुशीखुशी साथ रहेंगे.’’

राधा की बेहोशी टूटने लगी. जैसे ही उसे होशा आया, वह विक्रम को धक्का दे कर दूर जा खड़ी हुई.

‘‘तुम ने मुझे बरबाद कर के ही दम लिया. अब तो तुम्हें चैन मिल गया न. और अब क्या चाहते हो तुम?’’

‘‘ऐसा मत कहो राधा,’’ विक्रम रोने वाले अंदाज में बोला, ‘‘आज हमारी शादी है राधा.’’

‘‘शादी…’’ राधा नफरत से बोली, ‘‘मैं तुम से शादी करूंगी, तुम ने यह सोचा भी कैसे.’’

‘‘क्यों, अब तो हमारे बीच कोई दीवार भी नहीं है.’’

‘‘तुम ने मुझ से मेरा पति छीन लिया. मेरे सामने मेरे मासूम बेटे का कत्ल कर दिया. मुझे हवस के भूखे कुत्तों के सामने डाल कर मेरी इज्जत लुटवा दी. मैं… मैं… तुम से शादी तो क्या तुम पर थूकना भी पसंद नहीं करूंगी.’’

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विक्रम चीख पड़ा, ‘‘हां, मैं ने ये सब किया, सिर्फ तुम्हें पाने के लिए. तुम्हें पाने के लिए जेल से भागा. जेलर का खून किया. अरुण और तुम्हारे बच्चे की हत्या की. तुम्हारा बलात्कार करवाया. ये सब मैं ने इसलिए किया, ताकि तुम्हें पा सकूं. तुम्हीं ने तो कहा था कि तुम्हें मेरे सहारे की जरूरत नहीं है, क्योंकि तुम अपने पति, बेटे और इज्जत के सहारे जी लोगी. मुझे ये सब दीवारें तुम्हारे लिए गिरानी पड़ीं. अब तुम्हारे पास कुछ नहीं है. अब तुम्हें मुझ से शादी करनी ही पड़ेगी. अब इस हाल में तुम्हें कौन अपनाएगा सिवाय मेरे?’’

अब राधा चीखचीख कर कहने लगी, ‘‘मैं तुम से नफरत करती हूं और हमेशा करती रहूंगी. तवायफ बन कर कोठों में नाच लूंगी, भीख मांग लूंगी, मगर तुम से शादी नहीं करूंगी. अपने दिल से यह खयाल निकाल दो. तुम्हारा यह सपना एक सपना ही बन कर रह जाएगा.’’

विक्रम रोने लगा, ‘‘आखिर तुम कैसे मानोगी? क्या चाहती हो तुम?’’

‘‘मैं ने तुम्हें पाने के लिए क्याक्या नहीं किया और तुम हो कि…’’

‘‘मैं तुम्हें जान से मार डालना चाहती हूं.’’

‘‘क्या, तुम मुझे मारना चाहती हो. मैं तुम से प्यार करता हूं और तुम…’’

‘‘हां… हां… मैं तुम से नफरत करती हूं,’’ राधा झल्ला गई.

विक्रम राधा से प्यार की भीख मांगता रहा, पर राधा हर बार यही जवाब देती कि मैं तुम से नफरत करती हूं.

‘‘राधा, तुम्हारी यह नफरत कैसे दूर होगी?’’ विक्रम बोला.

‘‘तुम्हारा खून कर के,’’ राधा भयानक आवाज में बोली.

‘‘तुम्हारी नफरत ले कर जीना मेरे बस का नहीं है. ये लो रिवाल्वर और खत्म कर दो मुझे. अगर मुझे मार कर तुम्हारी नफरत मिटती है, तो उतार दो मेरे सीने में इस रिवाल्वर की सारी गोलियां,’’ कहते हुए विक्रम ने गोलियों से भरा रिवाल्वर राधा के हाथों में थमा दिया. राधा ने भी विक्रम की ओर रिवाल्वर तान लिया.

‘धांय’ गोली चली, मगर राधा के हाथ की रिवाल्वर से नहीं, बल्कि चंदू की पिस्तौल से.

चंदू मुसकरा रहा था.

‘‘यह क्या हरकत है चंदू?’’ विक्रम चीखा.

‘‘उस्ताद, अगर तुम इस लड़की के हाथों मर गए, तो तुम्हारे ऊपर रखे गए उस इनाम का क्या होगा, जो पुलिस को बताने से मुझे मिलने वाला है. अगर मरना है, तो मेरी गोली से मरो, पुलिस की गोली से मरो.’’

‘‘चंदू… दगाबाज कहीं का…’’ विक्रम चीखा.

‘‘इतनी ऊंची आवाज में चिल्लाने का कोई फायदा नहीं उस्ताद. थोड़ी देर में तो पुलिस आने वाली है. उस के बाद तुम होगे पुलिस की गिरफ्त में और मैं इनाम के एक लाख रुपए ले कर इस लड़की को अपनी रखैल बना कर ऐश करूंगा.’’

‘‘चंदू…’’ विक्रम चंदू की ओर झपटा.

‘‘धांय,’’ एक गोली विक्रम के घुटने को पार करती हुई निकल गई. विक्रम वहीं गिर गया.

‘‘हा…हा…हा…’’ चंदू जोर से हंसा, ‘‘आज से मैं उस्ताद और यह लड़की भी मेरी हो गई. चल आजा रानी,’’ चंदू राधा को घसीटने लगा.

फिर एक बार विक्रम की ओर देख कर बोला, ‘‘चलते हैं उस्ताद.’’

चंदू राधा को ले कर दूसरे कमरे की तरफ चला गया. राधा की चीख सुन कर जख्मी विक्रम का चेहरा वीभत्स हो गया. वह पूरा जोर लगा कर उठा. चंदू ने राधा के जिस्म से साड़ी अलग कर दी. साड़ी विक्रम के चेहरे पर जा गिरी. विक्रम को देख चंदू ने रिवाल्वर तान दी.

इस से पहले कि चंदू ट्रिगर दबाता, विक्रम ने चंदू के ऊपर छलांग लगा दी. दोनों में जबरदस्त लड़ाई होने लगी. जख्मी होने की वजह से शुरू में चंदू भारी पड़ा, लेकिन उस्ताद तो उस्ताद ही होता है. विक्रम ने जख्मी होते हुए भी चंदू को अपने शिकंजे में ले लिया.

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इस बीच राधा ने जल्दी से साड़ी पहनी और पास में ही पड़े रिवाल्वर को उठा लिया. विक्रम ने चंदू को मारमार कर बुरी तरह से जख्मी कर दिया.

विक्रम बोला, ‘‘चंदू, उस्ताद उस्ताद ही होता है और चेला चेला.’’

हैवान- भाग 6: प्यार जब जुनून में बदल जाए

पल भर के लिए राधा सोच में पड़ गई, ‘‘यह आदमी जो मेरा गुनाहगार है… इस ने यह सब आखिर किया किसलिए? मुझे पाने के लिए न. क्या यही इस का जुर्म है कि इस ने मुझ से बेइंतहा प्यार किया. भले ही इस का तरीका गलत था, लेकिन चाहा तो मुझे बेपनाह ही था. लेकिन यह भी सच है कि इस चाहत में इस ने मेरा सबकुछ छीन लिया. मुझे बरबाद कर दिया. उस की सजा तो मैं इसे जरूर दूंगी. इतनी भयानक सजा दूंगी, जो यह सोच भी नहीं सकता.’’

विक्रम फिर बोला, ‘‘सोच क्या रही हो राधा, चलाओ गोली. आज तुम्हारे सामने तुम्हारा गुनाहगार खड़ा है. मार दो मुझे.’’

‘‘विक्रम…’’ तभी बाहर लाउडस्पीकर से तेज आवाज आई.

विक्रम ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा. बाहर चारों तरफ पुलिस फैली हुई थी. इंस्पैक्टर रमेश के हाथ में माइक था. पुलिस की बंदूकें विक्रम की कोठी की ओर तनी हुई थीं.

‘‘विक्रम, अपनेआप को पुलिस के हवाले कर दो,’’ इंस्पैक्टर रमेश ने फिर से लाउडस्पीकर से बोला.

‘‘हा…हा…हा…’’ चंदू ठहाके मार कर हंसा, ‘‘अब तुम मरोगे उस्ताद, पुलिस आ चुकी है. अब मेरे हाथों में होगा इनाम और तुम्हारी किस्मत में कालकोठरी या पुलिस की गोली. हा… हा… हा…’’ चंदू की हंसी गूंजने लगी.

विक्रम राधा से बोला, ‘‘राधा, जल्दी से खत्म कर दो मुझे. मैं पुलिस के हाथों गिरफ्तार होने के बजाय तुम्हारे हाथों से मरना पसंद करूंगा. तुम्हारी नफरत को अपने खून के कतरों से मिटा कर मुझ मर कर भी सुकून मिलेगा. राधा, जल्दी करो.’’

‘‘मैं तुम्हें इतनी आसानी से मरने नहीं दूंगी विक्रम. तुम ने मुझे बहुत तड़पाया है. तुम्हें तो मौत से भी बदतर जिंदगी दूंगी मैं. मुझे पाने के लिए जो जुल्म तुम ने किए हैं, उन जुल्मों की यही सजा है कि मैं तुम्हें कभी न मिलूं. तुम जिंदा रहोगे, लेकिन मुझे कभी हासिल नहीं कर सकोगे. मैं तुम्हें कभी नहीं मिलूंगी… कभी नहीं…’’ और राधा ने रिवाल्वर अपनी कनपटी पर लगा कर ट्रिगर दबा दिया.

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राधा ने दम तोड़ दिया. विक्रम चीख पड़ा.

‘‘नहीं राधा… नहीं… ये तुम ने क्या किया?’’ विक्रम राधा की लाश से लिपट कर रोने लगा.

आज विक्रम की सारी उम्मीदों और सपनों को कभी न खत्म होने वाला ग्रहण लग चुका था. दूर खड़ा चंदू मुसकरा रहा था. गोली की आवाज सुन कर इंस्पैक्टर रमेश चौंक गया.

‘‘विक्रम, अब मैं सिर्फ 3 तक गिनूंगा… अगर तब तक तुम ने खुद को पुलिस के हवाले नहीं किया तो मजबूरन मुझे गोली चलानी पड़ेगी.’’

उधर विक्रम राधा को अपनी बांहों में लिए रोए जा रहा था.

चंदू बोला, ‘‘अब ये मर चुकी है उस्ताद, अब तुम्हारी बारी है.’’

‘‘राधा, अगर तुम नहीं तो मैं जी कर क्या करूंगा? मैं खुद को गोली मार कर तुम्हारीनफरत दूर करूंगा.’’

‘‘एक…’’ इंस्पैक्टर की आवाज गूंजी.

चंदू, ‘‘उस्ताद, एक हो गया. तुम तो गए.’’

‘‘दो…’’ इंस्पैक्टर की आवाज फिर गूंजी.

विक्रम का चेहरा अचानक से भयानक हो गया. उस के चेहरे पर हैवानियत के भाव आ गए. उस ने सभी खिड़की और दरवाजे खोल दिए.

‘‘उस्ताद तुम गए और मैं मालामाल,’’ चंदू ठहाका लगा कर हंसा.

‘‘हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे. चंदू मैं चाहूं तो अब भी भाग सकता हूं लेकिन भागूंगा नहीं. अब मैं अपनी राधा के बिना जिंदा नहीं रहना चाहता.’’

विक्रम ने जेब से रिवाल्वर निकाली. चंदू कांप उठा.

‘‘उस्ताद, पुलिस से टक्कर लोगे?’’

‘‘नहीं चंदू नहीं… राधा ने खुदकुशी कर ली. मैं जिंदा नहीं रहना चाहता. फिर ये पुलिस खाली हाथ तो वापस जाएगी नहीं. तुम्हारी गद्दारी पर ही पुलिस इतनी दूर से आई है… ऐसे ही लौट जाए अच्छा नहीं लगा.’’

‘‘तीन…’’ इंस्पैक्टर रमेश अक्रामक स्वर में बोला.

विक्रम पर तो दयाल का कोई असर नहीं था. अलबत्ता चंदू जरूर घबरा गया था. उसे विक्रम के इरादे बेहद भयावह नजर आने लगे थे.

विक्रम ने राधा का माथा चूमा और कहा, ‘‘मैं भी तुम्हो पास आ रहा हूं राधा. मैं आ रहा हूं…’’

‘‘फायर,’’ इंस्पैक्टर रमेश ने आर्डर दिया. सैकड़ों गोलियां खिड़की दरवाजों से अंदर आने लगीं. चंदू ने दीवार की आड़ ली. चंदू जोर से रमेश को आवाज लगा रहा था. यह बताने के लिए कि वे गोली न चलाए. अंदर वह भी है जिस ने विक्रम की फोन पर सूचना उस तक पहुंचाई थी. मगर गोलियों के शोर में चंदू की आवाज कहीं गुम हो गई.

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चंदू को बेबस देख कर विक्रम हंसा, ‘‘लगता है चंदू तुम ने पुलिस नहीं मौत बुलाई है.’’

विक्रम लेट कर घसीटता हुआ चंदू के पास पहुंच गया. उस ने चंदू का हाथ पकड़ लिया. चंदू घबरा गया.

विक्रम बोला, ‘‘ऐ चंदू, तुम ने बचपन में गिल्लीडंडा और कंचों का खेल तो बहुत खेला होगा. चल, आज हम दोनों मिल कर मौत का खेल खेलते हैं.’’

पुलिस की गोलियों से पूरा माहौल गूंज उठा.

विक्रम के इरादे भांपते ही चंदू दहशत से भर गया, ‘‘नहीं उस्ताद… नहीं.’’

विक्रम ने भरा रिवाल्वर उछाला और राधा की तरफ देख कर बोला, ‘‘राधा, मैं आ रहा हूं.’’

विक्रम ने चंदू और खुद को दीवार की आड़ से हटा कर खिड़की के सामने कर दिया. पलक झपकते ही गोलियां दोनों के जिस्म में समाती चली गईं.

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दोनों ने वहीं दम तोड़ दिया. पुलिस कोठी में घुसी. चंदू अपने लालच का शिकार हुआ.

विक्रम राधा को पाने की चाहत और जुनून में इस कदर हैवान हो गया था कि उस ने पहले राधा को बरबाद किया, फिर खुद को मौत के गले लगाया.

कमरे में 3 लाशें पड़ी थीं. फर्श पर खून बिखरा पड़ा था. इंस्पैक्टर रमेश ने अपनी टोपी निकाल कर हाथों में ले ली. विक्रम की राधा के लिए दीवानगी की बढ़ती हद ने उसे हैवान बना कर रख दिया था.

Mother’s Day Special- बहू-बेटी: भाग 3

रात को गैस के तंदूर पर रश्मि ने बढि़या स्वादिष्ठ मुर्गा और नान बनाए. इस बार बहू अपने मायके से तंदूर ले कर आई थी, पर वह वैसा का वैसा ही बंद पड़ा था. उस पर खाना बनाने का अवकाश किसे था. सास को आदत न थी और बहू को समय न था. तंदूर का खाना इतना अच्छा लगा कि विजय ने रश्मि से कहा, ‘‘कल हम भी एक तंदूर खरीद लेंगे.’’

दयावती के मुंह से निकल गया, ‘‘क्यों पैसे खराब करोगे? यही ले जाना. यहां किस काम आ रहा है.’’

कमलनाथ ने कहा, ‘‘ठीक तो है, बेटा. तुम यही ले जाओ. हमें जरूरत पड़ेगी तो और ले लेंगे.’’

बहू चुप. उस के दिल पर तो जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया हो. उस ने अपने पति की ओर देखा. बेटे ने मुंह फेर लिया. एक ही इलाज था. कल ही बहन के लिए एक नया तंदूर खरीद कर ले आए. लेकिन इस के लिए पैसे और समय दोनों की आवश्यकता थी.

बेटी को अपना माहौल याद आया. एक बार तंदूर ले गई तो उस के ससुर व पति दोनों जीवन भर उसे तंदूर पर ही बैठा देंगे. दोनों को खाने का बहुत शौक था. इस के अलावा उसे याद था कि जब मां का दिया हुआ शाल सास ने उस की ननद को बिना पूछे पकड़ा दिया था तो उसे कितना मानसिक कष्ट हुआ था. आंखों में आंसू आ गए थे. भाभी की हालत भी वही होगी.

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बात बिगड़ने से पहले ही उस ने कहा, ‘‘नहीं मां, यह तंदूर भाभी का है, मैं नहीं ले जाऊंगी. मेरे पड़ोस में एक मेजर रहते हैं. उन्होंने मुझे सस्ते दामों

पर फौजी कैंटीन से तंदूर लाने के

लिए कहा है. 2-2 तंदूर ले कर मैं

क्या करूंगी?’’

बेटी ने तंदूर के लिए मांग नहीं की थी, परंतु उस ने ससुराल लौटते ही मेजर साहब से तंदूर के लिए कहने का इरादा कर लिया था.

अगले दिन बेटी और दामाद चले गए. घर सूनासूना लगने लगा. चहलपहल मानो समाप्त हो गई थी. इस सूनेपन को तोड़ने वाली केवल एक आवाज थी और वह थी बच्ची के रोने की आवाज. वातावरण सामान्य होने में कुछ समय लगा. मां के मुंह से हर समय बेटी का नाम निकलता था. वह क्याक्या करती थी…क्या कर रही होगी…बच्चा ठीक से हो जाए…तुरंत बुला लूंगी. 3 महीने से पहले वापस नहीं भेजूंगी. बहू सोच रही थी, उसे तो पीछे पड़ कर 1 महीने बाद ही बुला लिया था.

दयावती की बहन की लड़की किसी रिश्तेदार के यहां विवाह में आई थी, समय निकाल कर वह मौसी से मिलने भी आ गई.

‘‘क्या हो रहा है, मौसी?’’

‘‘अरे, तू कब आई?’’ दयावती ने चकित हो कर कहा, ‘‘कुछ खबर भी नहीं?’’

‘‘लो, जब खुद ही चली आई तो खबर क्या भेजनी? आई तो कल ही हूं. शादी है एक. कल वापस भी जाना है, पर अपनी प्यारी मौसी से मिले बिना कैसे जा सकती हूं? भाभी कहां हैं? सुना है, छुटकी बड़ी प्यारी है. बस, उसे देखने भर आई हूं.’’

‘‘अरे, बैठ तो सही. सब देखसुन लेना. देख कढ़ी बना रही हूं. खा कर जाना.’’

‘‘ओहो…बस, मौसी, तुम और तुम्हारी कढ़ी. हमेशा चूल्हाचौका. अब भाभी भी तो है, कुछ तो आराम से बैठा करो.’’

दयावती ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘क्या आराम करना. काम तो जिंदगी की अंतिम सांस तक करना ही करना है.’’

‘‘हाय, दीदी, तुम्हारा कितना काम करती थी. सच, तुम्हें रश्मि दीदी की बहुत याद आती होगी, मौसी?’’

‘‘अब फर्क तो होता ही है बहू और बेटी में,’’ दयावती ने फिर गहरी सांस ली.

जया सुन रही थी. उस के दिल पर चोट लगी. क्यों फर्क होता है बहू और बेटी में? एक को तीर तो दूसरे को तमगा. जब सास की बहन की लड़की चली गई तो जया सोचने लगी कि इस स्थिति में बदलाव आना जरूरी है. सास और बहू के बीच औपचारिकता क्यों? वह सास से साफसाफ कह सकती है कि बारबार बेटी की रट न लगाएं. पर ऐसा कहने से सास को अच्छा न लगेगा. अब उसे ही बेटी की भूमिका अदा करनी पड़ेगी. न सास रहेगी, न बहू. हर घर में बस, मांबेटी ही होनी चाहिए.

वह मुसकराई. उसे एक तरकीब सूझी. परिणाम बुरा भी हो सकता था, परंतु उस ने खतरा उठाने का निर्णय ले ही लिया. अगले सप्ताह होली का त्योहार था. अगर कुछ बुरा भी लगा तो होली के माहौल में ढक जाएगा. उस ने छुटकी को उठा कर चूम लिया.

प्रात: जब वह कमरे से निकली तो जींस पहने हुए थी और ऊपर से चैक का कुरता डाल रखा था. हाथ में गुलाल था.

‘‘होली मुबारक हो, मांजी,’’ कहते हुए जया ने ननद की नकल करते हुए सास के गालों पर चुंबन जड़ दिए और मुंह पर गुलाल मल दिया. दयावती की तो जैसे बोलती ही बंद हो गई. इस से पहले कि सास संभलती, जया ने खिलखिला कर ‘होली है…होली है’ कहते हुए सास को पकड़ कर नाचना शुरू कर दिया. होहल्ला सुन कर कमलनाथ भी बाहर आ गए और यह दृश्य देख कर हंसे बिना न रह सके.

‘‘यह क्या हो रहा है, बहू?’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा.

‘‘होली है, पिताजी, और सुनिए, आज से मैं बहू नहीं हूं, बेटी हूं…सौ फीसदी बेटी,’’ यह कहते हुए उस ने ससुर के मुंह पर भी गुलाल पोत दिया.

इस से पहले कि कुछ और हंगामा खड़ा होता, पासपड़ोस के लोग मिलने आने लगे. स्त्रियां तो घर में ही घुस आईं. इसी बीच छुटकी रोने लगी. जया ने दौड़ कर छुटकी को उठा लिया और उस के कपड़े बदल कर सास की गोदी में बैठा दिया.

‘‘मांजी, आप मिलने वालों से निबटिए, मैं चायनाश्ता लगा रही हूं.’’

‘‘पर, बहू…’’

‘‘बहू नहीं, बेटी, मांजी. अब मैं बेटी हूं. देखिए मैं कितनी फुरती से काम निबटाती हूं.’’

लोग आ रहे थे और जा रहे थे. जया फुरती से नाश्ता लगालगा कर दे रही थी. रसोई का काम भी संभाल रही थी. गरमागरम पकौडि़यां बना रही थी, जूठे बरतन इकट्ठा नहीं होने दे रही थी. साथ ही साथ धो कर रखती जाती थी. सास को 2 बार रसोई से बाहर किया. उस का काम केवल छुटकी को रखना और मिलने वालों से बात करना था. सास को मजबूरन 2 बार छुटकी के कपड़े बदलने पड़े. सब से बड़ी बात तो यह थी कि दादी की गोद में छुटकी आज चुप थी, रोने का नाम नहीं. लगता था कि वह भी षडयंत्र में शामिल थी.

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जब मेहमानों से छुट्टी मिली तो दयावती ने महसूस किया कि छुटकी कुछ बदल गई है. रोई क्यों नहीं आज? बल्कि शैतान हंस ही रही थी.

कमलनाथ ने आवाज दी, ‘‘बहू, जरा एक दहीबड़ा और दे जाना, बहुत अच्छे बने हैं.’’

रसोई से आवाज आई, ‘‘यहां कोई बहूवहू नहीं है, पिताजी.’’

‘‘बड़ी भूल हो गई बेटी,’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब तो मिलेगा न?’’

‘‘और हां बेटी,’’ सास ने शरमाते हुए कहा, ‘‘अपनी मां का भी ध्यान रखना.’’

सास के गले में बांहें डालते हुए जया ने कहा, ‘‘क्योें नहीं, मां, आप लोगों को पा कर मैं कितनी धन्य हूं.’’

रमेश ने जो यह नाटक देख रहा था, गंभीरता से कहा, ‘‘इन हालात में मेरी क्या स्थिति है?’’ और सब हंस पड़े.

Serial Story: जड़ों से जुड़ा जीवन- भाग 5

लेखक-  वीना टहिल्यानी

‘‘कौन? फरीदा बेग? अरे, वह 4-5 साल पहले तक यहीं थी. उस की नजर कमजोर हो गई थी. मोतियाबिंद का आपरेशन भी हुआ पर अधिक उम्र होने के कारण वह काम नहीं कर पाती थी, लेकिन रहती यहीं थी. फिर एक दिन उस का बेटा सेना से स्वैच्छिक अवकाश ले कर आ गया और वह अपने साथ फरीदा को भी ले गया,’’ मुखर्जी ने पूरी जानकारी एकसाथ दे दी.

अम्मां चली गई हैं, यह जानते ही मिली का चेहरा सफेद पड़ गया. उस के निरीह चेहरे को देख कर जौन ने एक और प्रयत्न किया, ‘‘आप के पास उन का कोई पता तो होगा ही मिस्टर मुखर्जी?’’

‘‘हां…हां, क्यों नहीं. आप उन से मिलने जाएंगे? खूब खुश होंगी वह अपनी पुरानी बच्ची से मिल कर.’’ मुखर्जी बाबू आनंदित हो उठे. मिली की जाती जान जैसे वापस लौट आई.

पुराने खातों की खोज हुई. कोलकाता के उपनगर दमदम से भी आगे, नागेर बाजार के किसी पुराने इलाके का पता लिखा था.

अगले दिन, संचालक ने उन के जाने के लिए टूरिस्ट कार की व्यवस्था कर दी.

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अम्मां के लिए फलफूल लिए गए. चौडे़ पाड़ वाली बंगाली धोती खरीदी गई. मिली बहुत खुश थी. आखिर दूरियां नापतेनापते जब वे दिए गए पते पर पहुंचे तो पता चला कि वहां तो कोई और परिवार रहता है. पड़ोसियों से पूछताछ की लेकिन पक्के तौर पर कोई कुछ कह न सका. शायद वे अपने गांव उड़ीसा चले गए थे, जहां उन की जमीन थी. पर वहां का पता किसी को मालूम न था.

मिली की तो जैसे सुननेसमझने की शक्ति ही जाती रही. फिर रुलाई का ऐसा आवेग उमड़ा कि उस की हिचकियां बंध गईं. जौन ने उसे संभाल लिया. बांहों में उसे बांध कर उस का सिर सहलाया. स्नेह से समझाया पर मिली तो जैसे कुछ सुननेसमझने के लिए तैयार ही न थी.

उस का कातर कं्रदन जारी रहा तो जौन घबरा उठा. कंधे झकझोर कर उस ने मिली को जोर से डांटा, ‘‘मिली, बहुत हुआ…अंब बंद करो यह नादानी.’’

‘‘यहां आना तो बेकार ही हो गया न जौन,’’ मिली रोंआसे स्वर से बोली.

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‘‘यह तो बेवकूफों वाली बात हुई,’’ जौन फिर नाराज हुआ, ‘‘अरे, अपने भाई के साथ तुम वापस अपने देश आई हो. मैं तो पहली बार ही इंडिया देख रहा हूं और इसे तुम बेकार कहती हो. असल में मिली, तुम्हारी अपेक्षाएं ही गलत हैं. तुम ने सोचा, तुम जो जैसा जहां छोड़ गई हो वह वैसा का वैसा वहीं पाओगी. बीच के समय का तुम्हें जरा भी विचार नहीं…तुम्हें तुम्हारा पुराना भवन न दिखा तो तुम निराश हो गईं. फरीदा अम्मां न मिलीं तो तुम हताश हो उठीं. तनिक यह भी सोचो कि बिल्ंिडग कितनी सुविधामयी है. फरीदा अम्मां अपने परिवार के साथ सुख से हैं. यह    दुख की बात है कि तुम उन से नहीं मिल पाईं पर इस बात को दिल से तो न लगाओ. जिन को चाहती हो, प्यार करती हो उन को अपना आदर्श बनाओ. जुझारू, बहादुर और सेवामयी बनो, फरीदा अम्मां जैसे.’’

भाई की बातों को ध्यान से सुनती मिली एकाएक ही बोल पड़ी, ‘‘जौन, मैं तो अभी कितनी छोटी हूं…मैं भला क्या कर सकती हूं.’’

‘‘तुम क्याक्या कर सकती हो, समय आने पर सब समझ जाओगी. फिलहाल तो तुम इस संस्था को कुछ दान दो जिस ने तुम्हें पाला, पोसा, बड़ा किया, प्यार दिया. मौम तुम्हें कितना सारा पैसा दे कर गई हैं…आओ, मैं तुम्हें चेक भरना बताऊं.’’

दोनों भाईबहनों ने ‘भारती बाल आश्रम’ के नाम एक चेक बनाया जिसे चुपचाप गलियारे में रखे दानपात्र में डाल दिया.

‘‘कोलकाता घूम कर शांतिनिकेतन चलेंगे फिर नालंदा और बोधगया देखेंगे. उस के बाद आगरा का ताज देख कर दिल्ली पहुंचेंगे और दिल्ली दर्शन के बाद वापस लंदन लौट चलेंगे. इस ट्रिप में तो बस, इतना ही घूमा जा सकता है.’’

आंख खुली तो मिली ने देखा एक सितारा अभी भी अपनी पूरी निष्ठा से दमक रहा था. मिली इस सितारे को पहचानती है यह भोर का तारा है.

फरीदा अम्मां कहती थीं, भोर का यह तारा भूलेभटकों को राह दिखाता है, दिशाहारों की उम्मीद जगाता है. बड़ा ही हठीला है पूरब दिशा का यह सितारा. किरणें उसे लाख समझाएं पर जबतक सूरज खुद नहीं आ जाता यह जिद्दी तारा जाने का नाम ही नहीं लेता. इसी हठी सितारे के आकर्षण में बंधी मिली बिस्तर से उठ खड़ी हुई.

पिछवाड़े की बालकनी खोल मिली ने बाहर कदम रखा ही था कि सहसा ठिठक गई. सामने जटाजूटधारी बरगद खड़ा था. वही वैभवशाली वटवृक्ष. पहले से कहीं ऊंचा, उन्नत, विराट और विशाल.

मिली ने हाथ आगे बढ़ा कर हौले से पेड़ के पत्तों को सहलाया, धीरे से उस की डालों को छुआ, मानो पूछ रही हो कि  पहचाना मुझे? मैं मिली हूं जो कभी तुम्हारी छांव में खेलती थी, तुम्हारी जटाओं पर झूलती थी. और इस तरह एक बार फिर मिली बचपन में भटकने लगी थी.

अचानक मसजिद से अजान की आवाज उभरी तो किसी मंदिर के घंटे घनघना उठे. और यह सब सुनते ही मिली को अभिमान हो आया कि कैसी विशाल, विराट, भव्य और उदार है उस की मातृभूमि.

मौम सच कहती थीं, हर जीवन अपनी जड़ों से जुड़ा होता है. मनुष्य अपनी माटी से अनायास ही आकर्षित होता है. अपनी जमीन और अपनी मिट्टी ही देती है व्यक्ति को असीम ऊर्जा और अलौकिक आनंद.

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दिन चढ़ने लगा था. कोलकाता शहर के विहंगम विस्तार पर सूरज दमक रहा था. सड़कों पर गलियों में धूप पसर रही थी. सूरज की किरणों के साथ ही जैसे संपूर्ण शहर जाग उठा था.

मिली को अचानक ही लंदन की याद हो आई. शांत, सौम्य लंदन. लंदन उस का अपना नगर, अपना शहर, जहां बर्फ भी गिरती है तो चुपचाप बेआवाज. सर्द मौसम में, पेड़ों की फुनगियों पर, घरों की छतों पर, सड़कों और गलियों में. यहां से वहां तक बस चांदी ही चांदी, बर्फ की चांदी. मिली के मन में जैसे बर्फ की चांदी बिखर गई. मिली अकुला उठी. उसे अपना घर याद हो आया. भोर का सितारा तो न जाने कब, कहां निकल गया था. अब तो उसे भी जाना था, वापस अपने घर.

वजूद- भाग 3: क्या था शहला की खुशी का राज

‘‘हरसिंगार, तू जानना चाहता है कि अब्बू ने अम्मी से क्या कहा?’’ अब्बू बोले, ‘नुसरत, बेटियां बोझ नहीं हुआ करतीं. वे तो घर की रौनक होती हैं. बोझ होतीं तो कोई हमारे घर के बोझ को यों मांग कर के अपने घर ले जाता. बेटियां तो एक छोड़ 2-2 घर आबाद करती हैं. अब मत कोसना इन्हें.

‘‘‘कल मैं शहर के अस्पताल में नफीसा की आंखों के आपरेशन के लिए बात करने गया था. वहां आधे से ज्यादा तो लेडी डाक्टर थीं और वे भी 25-26 साल की लड़कियां. उन में से 2 तो मुसलिम हैं, डाक्टर जेबा और डाक्टर शबाना. क्या वे किसी की लड़कियां नहीं हैं?

‘‘‘हां, डाक्टर ने उम्मीद दिलाई है कि हमारी नफीसा फिर से देख सकेगी. और हां, तू इन के निकाह की चिंता मत कर. सब ठीक हो जाएगा.

‘‘‘अरे हां नुसरत, तब तक क्यों न शहला को आगे पढ़ने दें? कोई हुनर हाथ में होगा, तो समाजबिरादरी में सिर उठा कर जी सकेगी हमारी शहला.

‘‘‘अब जमाना बदल चुका है. तू भी लड़कियों के लिए अपनी तंगखयाली छोड़ उन के बारे में कुछ बढि़या सोच…’

‘‘और हरसिंगार, अब्बू ने जमाने की ऊंचनीच समझा कर, मेरी भलाई का वास्ता दे कर अम्मी को मना तो लिया, पर मुझे बड़े शहर भेज कर पढ़ाने को वे बिलकुल राजी नहीं हुईं, इसलिए अब्बू ने उन की रजामंदी से यहां कसबे के इस आईटीआई में कटिंगटेलरिंग और ड्रैस डिजाइनिंग कोर्स में मेरा दाखिला भी करा दिया.

‘‘अब मैं हर रोज साइकिल से यहां पढ़ने आने लगी. यहां नए लोग, नया माहौल, नया इल्म तो मिला ही, उस के साथसाथ हरदम व हर मौसम में खिलखिलाने वाले एक प्यारे दोस्त के रूप में तुम भी मिल गए और मेरी जिंदगी के माने ही बदल गए.

‘‘पर अम्मी अभी भी अंदर से घबराई हुईं और परेशान रहती हैं. जबतब मुझे कोसती रहती हैं, ताने मारती हैं और छोटेबड़े काम के लिए मुझे छुट्टी करने पर मजबूर करती हैं.

‘‘इसी बीच पिछले हफ्ते शहर के एक बड़े अस्पताल में अब्बू ने नफीसा की आंखों का आपरेशन करा दिया. उस दिन अम्मी भी हमारे साथ अस्पताल गई थीं और आपरेशन थिएटर के बाहर खड़ी थीं.

‘‘तभी आपरेशन थिएटर का दरवाजा खुला और डाक्टर शबाना ने मुसकराते हुए कहा, ‘आंटीजी, मुबारक हो. आपरेशन बहुत मुश्किल था, इसलिए ज्यादा समय लग गया, पर पूरी तरह से कामयाब रहा.’

‘‘जानता है हरसिंगार, अम्मी हैरत में पड़ी उन्हें बहुत देर तक देखती रहीं, फिर उन से पूछने लगीं, ‘बेटी, यह आपरेशन तुम ने किया है क्या?’

‘‘वे बोलीं, ‘जी हां.’

‘‘अम्मी ने कहा, ‘कुछ नहीं बेटी, मैं तो बस…’

‘‘उस के बाद अम्मी जितना वक्त अस्पताल में रहीं, वहां की लेडी डाक्टरों और नर्सों को एकटक काम करते देखती रहती थीं.

‘‘उस दिन से अम्मी काफी चुपचाप सी रहने लगी थीं. कल नफीसा के घर लौटने के बाद अब्बू से कहने लगीं, ‘शहला के अब्बू, सुनो…’

‘‘अब्बू ने अम्मी से पूछ ही लिया, ‘नुसरत, आज कुछ खास हो गया क्या, जो तुम मुझे जावेद के अब्बू की जगह शहला के अब्बू कह कर बुलाने लगी?’

‘‘अम्मी ने कहा, ‘अरे, तुम ही तो कहते हो कि लड़का और लड़की में कोई फर्क नहीं होता और फिर तुम शहला के बाप न हो क्या?’

‘‘वे आगे कहने लगीं, ‘मैं तो यह कह रही थी कि नफीसा की आंख ठीक हो जाए, तो उसे भी दोबारा स्कूल पढ़ने भेज देंगे. पढ़लिख कर वह भी डाक्टर बन जाए, तो कैसा रहेगा?’

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‘‘यह सुन कर अब्बू ने कहा, ‘अब तुम कह रही हो, तो ठीक ही रहेगा.’

‘‘इतना कह कर अब्बू मेरी तरफ देख कर मुसकराने लगे थे और आज सुबह अम्मी ने मेरे कालेज जाने पर मुहर लगा दी.’’

खुशी में सराबोर शहला खड़ी हो कर फिर से लिपट गई अपने दोस्त से और आसमान की तरफ देख कर कहने लगी, ‘‘देखो न हरसिंगार, आज की सुबह कितनी खुशनुमा है… बेदाग… एकदम सफेद… है न?

‘‘आज तुझ से सब कह कर मैं हलकी हो गई हूं. निकाह के वाकिए को तो मैं एक बुरा सपना समझ कर भूल चुकी हूं. याद है तो मुझे अपनी पहचान, जिस से रूबरू होने के बाद अब जिंदगी मुझे बोझ नहीं, बल्कि एक सुरीला गीत लगती है,’’ कहतेकहते शहला की आंखों में जुगनू झिलमिलाने लगे.

वजूद- भाग 2: क्या था शहला की खुशी का राज

‘‘सबकुछ शांत ढंग से हो रहा था कि अम्मी की मुरादनगर वाली बहन यानी मेरी नसीम खाला रास्ते में जाम लगा होने की वजह से निकाह पढ़े जाने के थोड़ी देर बाद घर पहुंचीं.

‘‘बड़ी दबंग औरत हैं वे. जल्दबाजी में तय किए गए निकाह की वजह से वे अम्मी से नाराज थीं…’’ कहते हुए शहला ने हरसिंगार के तने पर अपनी पीठ को फिर से टिका लिया और आगे बोली, ‘‘इसलिए बिना ज्यादा किसी से बात किए वे दूल्हे को देखनेमिलने की मंसा से जनवासे में चली गईं. उस वक्त बराती खानेपीने में मसरूफ थे. उन्हें खाला की मौजूदगी का एहसास न हो पाया.

‘‘वे जनवासे से लौटीं और अचानक अम्मी पर बरस पड़ीं, ‘आपा, शहला का दूल्हा तो लंगड़ा है. तुम्हें ऐसी भी क्या जल्दी पड़ रही थी कि अपनी शहला के लिए तुम ने टूटाफूटा लड़का ढूंढ़ा?’

‘‘यह जान कर अम्मी, अब्बू और बाकी रिश्तेदार सब सकते में आ गए. मामले की तुरंत जांचपड़ताल से पता चला कि दूल्हा बदल दिया गया था.

‘‘लड़के वालों ने अब्बू के भोलेपन का फायदा उठा कर चालाकी से असली दूल्हे की जगह उस के बड़े भाई से मेरा निकाहनामा पढ़वा दिया था.

‘‘बात खुलते ही बिचौलिया और कुछ बराती दूल्हे को ले कर मौके से फरार हो गए.

‘‘हमारे खानदान व गांव के लोग इस धोखाधड़ी के चलते बहुत गुस्से में थे. सो, गांव की पंचायत व दूसरे लोगों के साथ मिल कर उन्होंने बाकी बरातियों को जनवासे के कमरे में बंद कर दिया.

‘‘अब मरता क्या न करता वाली बात होने पर दूल्हे के गांव की पंचायत और कुछ लोग बंधक बरातियों को छुड़ाने पहुंच गए. दोनों गांवों की पंचायतों और बुजुर्गों ने आपस में बात की. लड़के वाले किसी भी तरह से निकाह को परवान चढ़ाए रखना चाहते थे.

‘‘वे कहने लगे, ‘विकलांग का निकाह कराना कोई जुर्म तो नहीं, जो तुम इतना होहल्ला कर रहे हो. वैसे भी अब तो निकाह हो चुका है. बेहतर यही है कि तुम लड़की की रुखसती कर दो.

‘‘‘तुम लड़की वाले हो और लड़कियां तो सीने का पत्थर हुआ करती हैं. अब तुम ने तो लड़की का निकाह पढ़वा दिया है न. छोटे भाई से नहीं, तो बड़े से सही. क्या फर्क पड़ता है. तुम समझो कि तुम्हारे सिर से तो लड़की का बोझ उतर ही गया.’

‘‘सच कहूं, उस समय मुझे एहसास हुआ कि हम लड़कियां कितनी कमजोर होती हैं. हमारा कोई वजूद ही नहीं है. तभी अब्बू की भर्राई सी आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘मेरी बेटी कोई अल्लाह मियां की गाय नहीं, जो किसी भी खूंटे से बांध दी जाए और न ही वह मेरे ऊपर बोझ है. वह मेरी औलाद है, मेरा खून है. उस का सुख मेरी जिम्मेदारी है, न कि बोझ… अगर वह लड़की है, तो उसे ऐसे ही कैसे मैं किसी के भी हवाले कर दूं.’

‘‘और कुछ देर बाद हौसला कर के उन्होंने पंचायत से तलाकनामा के लिए दरख्वास्त करते हुए कहा, ‘जनाब, यह ठीक है कि विकलांग होना या उस का निकाह कराना कोई जुर्म नहीं, पर दूसरों को अंधेरे में रख कर या दूल्हा बदल कर ऐसा करना तो दगाबाजी हुई न?

‘‘‘मैं दगाबाजी का शिकार हो कर अपनी पढ़ीलिखी, सलीकेदार, जहीन लड़की को इस जाहिल, बेरोजगार और विकलांग के हाथ सौंप दूं, क्या यही पंचायत का इंसाफ है?’

‘‘यकीन मानो, मुझे उस दिन पता चला कि मैं कोई बोझ नहीं, बल्कि जीतीजागती इनसान हूं. उस दिन मेरी नजर में अब्बू की इज्जत कई गुना बढ़ गई थी, क्योंकि उन्होंने मेरी खातिर पूरे समाज, पंचायत से खिलाफत करने की ठान ली थी.

‘‘लेकिन, पुरानी रस्मों को एक झटके से तोड़ कर मनचाहा बदलाव ले आना, चाहे वह समाज के भले के लिए ही क्यों न हो, इतना आसान तो नहीं. चारों तरफ खुसुरफुसुर शुरू हो गई थी… दोनों गांवों के लोग और पंचायत अभी भी सुलह कर के निकाह बरकरार रखने की सिफारिश कर रहे थे.

‘‘अब्बू उस समय बेहद अकेले पड़ गए थे. उस बेबसी के आलम में हथियार डालते हुए उन्होंने गुजारिश की, ‘ठीक है जनाब, पंच परमेश्वर होते हैं. मैं ने अपनी बात आप के आगे रखी, फिर भी अगर मेरी बच्ची की खुशियां लूट कर और उसे हलाल करने का गुनाह मुझ से करा कर शरीअत की आन और आप लोगों की आबरू बचती है, तो मैं निकाह को बरकरार रखते हुए अपनी बच्ची की रुखसती कर दूंगा, लेकिन मेरी भी एक शर्त है.

‘‘‘बात यह है कि शहला की छोटी बहन नफीसा बहुत ही खूबसूरत है और जहीन भी, लेकिन एक हादसे में उस की नजर जाती रही. बस, यही एक कमी है उस में.

‘‘‘आप के कहे मुताबिक जब बेटियों को हम बोझ ही समझते हैं और आप सब मेरे खैरख्वाह एक बोझ को उतारने में मेरी इतनी मदद कर रहे हैं. मुझे तो अपने दूसरे बोझ से भी नजात पानी है और फिर किसी शारीरिक कमी वाले शख्स का निकाह कराना कोई गुनाह भी नहीं, तो क्यों न आप नफीसा का निकाह इस लड़के के छोटे भाई यानी जिसे हम ने अपनी शहला के लिए पसंद किया था, उस से करा दें? हिसाबकिताब बराबर हो जाएगा और दोनों बहनें एकसाथ एकदूसरे के सहारे अपनी जिंदगी भी गुजार लेंगी.’

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‘‘बस, फिर क्या था, हमारे गांव की पंचायत व बाकी लोग एक आवाज में अब्बू की बात की हामी भरने लगे, पर दूल्हे वालों को जैसे सांप सूंघ गया.

‘‘हां, उस के बाद जो कुछ भी हुआ, मेरे लिए बेमानी था. मैं उस दिन जान पाई कि मेरा भी कोई वजूद है और मैं भेड़बकरी की तरह कट कर समाज की थाली में परोसे जाने वाली चीज नहीं हूं.

‘‘मेरे अब्बू अपनी बेटी के हक के लिए इस कदर लड़ाई लड़ सकते हैं, मैं सोच भी नहीं सकती थी. फिर तो… दूल्हे वालों ने मुझे तलाक देने में ही अपनी भलाई समझी. मैं तो वैसे भी इस निकाह के हक में नहीं थी, बल्कि आगे पढ़ना चाहती थी.

‘‘हां, उस के बाद कुछ दिन तक घर में चुप्पी का माहौल रहा, फिर परेशानी के आलम में अम्मी अब्बू से कहने लगीं, ‘जावेद के अब्बू, तुम्हीं कहो कि अब इस लड़की का क्या होगा. क्या यह बोझ सारी उम्र यों ही हमारे गले में बंधा रहेगा?’

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Serial Story: निकम्मा बाप- भाग 3

लेखक- हेमंत कुमार

जसदेव ने शहर पहुंच कर कुछ मिठाइयां साथ ले लीं. सोचा कि बच्चों और शांता से काफी दिन बाद मिल रहा है, खाली हाथ कैसे जाए और अब तो

वे नन्हा मेहमान भी राह देख रहा होगा उस की.

जसदेव ने अपने दोनों हाथों में मिठाइयों का थैला पकड़े शांता का दरवाजा खटखटाया. कमरे के बाहर नया पेंट और सजावट देख कर उसे लगा कि शांता अब अच्छे पैसे कमाने लगी है शायद.

हलका सा दरवाजा खुला और एक अनजान औरत दरवाजे से मुंह बाहर निकाल कर जसदेव से सवाल करने लगी, ‘‘आप कौन…?’’

‘‘जी, मुझे शांता से मिलना था. वह यहां रहती है न?’’ जसदेव ने पूछा.

‘‘शांता, नहीं तो भाई साहब, यहां तो कोई शांता नहीं रहती. हम तो काफी दिनों से यहां रह रहे हैं,’’ उस औरत ने हैरानी से कहा.

‘‘बहनजी, आप यहां कब आई हैं?’’ जसदेव ने उस औरत से पूछताछ करते हुए पूछा.

‘‘तकरीबन 2 साल पहले.’’

जसदेव वहां से उलटे पैर निकल गया. उस के मन में कई बुरे विचार भी आए, पर अपनेआप को तसल्ली देते हुए खुद से ही कहता रहा कि शायद शांता गांव वापस चली गई होगी. जसदेव शांता की खबर लेने शहर में रह रहे अपने दोस्तों के पास पहुंचा.

पहली नजर में तो जसदेव के बचपन का दोस्त फगुआ भी उसे पहचान नहीं पाया था, पर आवाज और कदकाठी से उसे पहचानने में ज्यादा देर नहीं लगी.

जसदेव ने समय बरबाद करना नहीं चाहा और सीधा मुद्दे पर आ कर फगुआ से शांता के बारे में पूछा, ‘‘मेरी शांता कहां है? मुझे सचसच बता.’’

फगुआ ने उस से नजरें चुराते हुए चुप रहना ही ठीक समझा. पर जसदेव के दवाब डालने पर फगुआ ने उसे अपने साथ आने को कहा. फगुआ अंदर से चप्पल पहन कर आया और जसदेव उस के पीछेपीछे चलने लगा.

कुछ दूरी तक चलने के बाद फगुआ ने जसदेव को देख कर एक घर की  तरफ इशारा किया, फिर फगुआ वापस चलता बना.

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फगुआ ने जिस घर की ओर इशारा किया था, वह वही कोठा था, जहां जसदेव पहले रोज जाया करता था. पर जसदेव को समझ में नहीं आया कि फगुआ उसे यहां ले कर क्यों आया है.

अगले ही पल उस ने जो देखा, उसे देख कर जसदेव के पैरों तले जमीन खिसक गई. कोठे की सीढि़यों से उतरता एक अधेड़ उम्र का आदमी रवीना की बांहों में हाथ डाले उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बैठ कर कहीं ले जाने की तैयारी में था. जसदेव भाग कर गया और रवीना को रोका. वह नौजवान मोटरसाइकिल चालू कर उस का इंतजार करने लगा.

रवीना ने पहले तो अपने बापू को इस भेष में पहचाना ही नहीं, पर फिर समझाने पर वह पहचान ही गई.

उस ने अपने बापू से बात करना भी ठीक नहीं समझा. रवीना के दिल में  बापू के प्रति जो गुस्सा और भड़ास थी, उस का ज्वालामुखी रवीना के मुंह से फूट ही गया.

रवीना ने कहा, ‘‘यह सबकुछ आप की ही वजह से हुआ है. उस दिन आप तो भाग गए थे, पर उन लोगों ने मां को नोच खाया, किसी ने छाती पर झपट्टा मारा, किसी ने कपड़े फाड़े और एकएक कर मेरे सामने ही मां के साथ…’’ रवीना की आंखों से आंसू आ गए.

‘‘मां कहां है बेटी?’’ जसदेव ने चिंता भरी आवाज में पूछा.

‘‘मां तो उस दिन ही मर गईं और उन के पेट में पल रहा आप का बच्चा भी…’’ रवीना ने कहा, ‘‘मां ने मुझे भागने को कहा, पर उस से पहले ही आप के महेश बाबू ने मुझे इस कोठे पर बेच दिया.’’

रवीना इतना ही कह पाई थी कि मोटरसाइकिल वाला ग्राहक रवीना को आवाज देने लगा और जल्दी आने को कहने लगा.

रवीना उस की मोटरसाइकिल पर उस से लिपट कर निकल गई और एक बार भी जसदेव को मुड़ कर नहीं देखा.

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जसदेव का पूरा परिवार ही खत्म हो चुका था और यह सब महेश बाबू की योजना के मुताबिक हुआ था, इसे समझने में भी जसदेव को ज्यादा समय नहीं लगा. बीच रोड से अपनी कीमती कार में महेश बाबू को जब उस लड़की के साथ जाते हुए देखा, जिस ने उसे फंसाया था, तब जा कर जसदेव को सारा माजरा समझ में आया कि यह महेश बाबू और इस लड़की की मिलीभगत थी, पर अब बहुत देर हो चुकी थी और कुछ  भी वापस पहले जैसा नहीं किया जा सकता था.

Serial Story: निकम्मा बाप- भाग 2

लेखक- हेमंत कुमार

शांता को इस से पहले कि कुछ समझ में आता, इस बार कई सारे आदमी शांता के दरवाजे को उखाड़ने की कोशिश में लग गए. उन की बातों से यह तो साफ था कि वह जसदेव को अपने साथ उठा ले जाने आए थे या फिर मारने.

दरवाजे की सांकल टूट गई, पर उस के आगे रखे ढेर सारे भारीभरकम सामान ने अभी तक दरवाजे को थामा हुआ था और शायद जसदेव की सांसों को भी.

जसदेव को कुछ समझ में नहीं आया कि शांता से क्या बताए, ऊपर से इतना शोर सुन कर उसे अपना हर एक पल अपना आखिरी पल दिखाई पड़ने लगा.

‘‘अरे, बता न क्या कर के आया है आज? इतने लोग तेरे पीछे क्यों पड़े हैं?’’ अब शांता की आवाज में गुस्सा और चिंता दोनों दिखाई पड़ रही थी, जिस के चलते जसदेव ने अपना मुंह खोला, ‘‘मैं ने कुछ नहीं… मैं ने कुछ नहीं किया शांता, मुझे क्या पता था कि वह…’’ जसदेव फिर चुप हो गया.

अब शांता जसदेव का गरीबान पकड़ कर झकझोरने लगी, ‘‘कौन है वह?’’

शांता पति से बात करने का अब अदब भी भूल चुकी थी.

‘‘आज जब मैं महेश बाबू के यहां जुआ खेलने बैठा था कि एक लड़की मुझे जबरदस्ती शराब पिलाने लगी. मैं नशे में धुत्त था कि इतने में उस लड़की ने मुझे इशारे से अपने पास बुलाया.

‘‘मैं कुछ समझ न पाया और बहाना बना कर जुए के अड्डे से उठ गया और सीधा उस लड़की के पास चला गया.

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‘‘वह मेरा हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गई और नंगधड़ंग हो कर मुझ से सारे पाप करवा डाले, जिस का अंदाजा तुम लगा सकती हो.’’

‘‘फिर…?’’ शांता ने काफी गुस्से  में पूछा.

‘‘उसी वक्त न जाने कहां से महेश बाबू उस कमरे में आ गए और गेट खटखटाना शुरू कर दिया.

‘‘जल्दी दरवाजा न खुलने की वजह से उन्होंने लातें मारमार कर दरवाजा तोड़ दिया.

‘‘दरवाजा खुलते ही वह लड़की उन से जा लिपटी और मेरे खिलाफ इलजाम लगाने लगी. मैं किसी तरह से अपनी जान बचा कर यहां आ पाया, पर शायद अब नहीं बचूंगा.’’

शांता को अब जसदेव की जान की फिक्र थी. उस ने जसदेव को दिलासा देते हुए कहा, ‘‘तुम पीछे के रास्ते से भाग जाओ और अब यहां दिखना भी मत.’’

‘‘तेरा, रवीना और तेरे पेट में पल रहे इस मासूम बच्चे का क्या…? मैं नहीं मिला, तो वे तुम लोगों को मार डालेंगे,’’ जसदेव को अब अपने बीवीबच्चों की भी फिक्र थी.

शांता ने फिर जसदेव पर गरजते हुए कहा, ‘‘तुम पागल मत बनो. वे मुझ औरत को कितना मारेंगे और मारेंगे भी तो जान से थोड़े ही न मार देंगे. अगर तुम यहां रहोगे, तो हम सब को ले डूबोगे.’’

जसदेव पीछे के दरवाजे से चोरीछिपे भाग निकला. जसदेव भाग कर कहां गया, इस का ठिकाना तो किसी को नहीं पता.

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तकरीबन 2 साल बीत चुके थे. जसदेव को अब अपने बीवीबच्चों की फिक्र सताने लगी थी. उस ने सोचा कि काफी समय हो गया है और अब तक तो मामला शांत भी हो गया होगा और जो रहीसही गलतफहमी होगी, वह महेश बाबू के साथ बैठ कर सुलझा लेगा.

जसदेव ने 2 साल से अपनी दाढ़ी नहीं कटवाई थी और बाल भी काफी लंबे हो चुके थे. जसदेव ने इसे अपना नया भेष सोच कर ऐसे ही अपनी

शांता और रवीना के पास जाने की योजना बनाई.

Serial Story: निकम्मा बाप- भाग 1

लेखक- हेमंत कुमार

जसदेव जब भी अपने गांव के बाकी दोस्तों को दूसरे शहर में जा कर नौकरी कर के ज्यादा पैसे कमाते हुए देखता तो उस के मन में भी ऐसा करने की इच्छा होती.

एक दिन जसदेव और शांता ने फैसला कर ही लिया कि वे दोनों शहर जा कर खूब मेहनत करेंगे और वापस अपने गांव आ कर अपने लिए एक पक्का घर बनवाएंगे.

शांता और जसदेव अभी कुछ ही महीने पहले शादी के बंधन में बंधे थे. जसदेव लंबीचौड़ी कदकाठी वाला, गोरे रंग का मेहनती लड़का था. खानदानी जायदाद तो थी नहीं, पर जसदेव की पैसा कमाने के लिए मेहनत और लगन देख कर शांता के घर वालों ने उस का हाथ जसदेव को दे दिया था.

शांता भी थोड़े दबे रंग की भरे जिस्म वाली आकर्षक लड़की थी.

अपने गांव से कुछ दूर छोटे से शहर में पहुंच कर सब से पहले तो जसदेव के दोस्तों ने उसे किराए पर एक कमरा दिलवा दिया और अपने ही मालिक ठेकेदार लखपत चौधरी से बात कर मजदूरी पर भी रखवा लिया. अब जसदेव और शांता अपनी नई जिंदगी की शुरुआत कर चुके थे.

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थोड़े ही दिनों में शांता ने अपनी पहली बेटी को जन्म दिया. दोनों ने बड़े प्यार से उस का नाम रवीना रखा.

मेहनतमजदूरी कर के अपना भविष्य बनाने की चाह में छोटे गांवकसबों से आए हुए जसदेव जैसे मजदूरों को लूटने वालों की कोई कमी नहीं थी.

ठेकेदार लखपत चौधरी का एक बिगड़ैल बेटा भी था महेश. पिता की गैरहाजिरी में बेकार बैठा महेश साइट पर आ कर मजदूरों के सिर पर बैठ जाता था.

सारे मजदूर महेश से दब कर रहते थे और ‘महेश बाबू’ के नाम से बुलाया करते थे, शायद इसलिए क्योंकि महेश एक निकम्मा इनसान था, जिस की नजर हमेशा दूसरे मजदूरों के पैसे और औरतों पर रहती थी.

जसदेव की अपने काम के प्रति मेहनत और लगन को देख कर महेश ने अब उसे अपना अगला शिकार बनाने की ठानी. महेश ने उसे अपने साथ बैठा कर शराब और जुए की ऐसी लत लगवाई कि पूछो ही मत. जसदेव भी अब शहर की चमकधमक में रंग चुका था.

महेश ने धोखे से 1-2 बार जसदेव को जुए में जितवा दिया, ताकि लालच  में आ कर वह और ज्यादा पैसे दांव पर लगाए.

महेश अब जसदेव को साइट पर मजदूरी नहीं करने देता था, बल्कि अपने साथ कार में घुमाने लगा था.

शराब और जुए के अलावा अब एक और चीज थी, जिस की लत महेश जसदेव को लगवाना चाहता था ‘धंधे वालियों के साथ जिस्मफरोशी की लत’, जिस के लिए वह फिर शुरुआत में अपने रुपए खर्च करने को तैयार था.

महेश जसदेव को अपने साथ एक ऐसी जगह पर ले कर गया, जहां कई सारी धंधे वालियां जसदेव को अपनेअपने कमरों में खींचने को तैयार थीं, पर जसदेव के अंदर का आदर्श पति अभी बाकी था और शायद इसी वजह से उस ने इस तोहफे को ठुकरा दिया.

महेश को चिंता थी कि कहीं नया शिकार उस के हाथ से निकल न जाए, यही सोच कर उस ने भी जसदेव पर ज्यादा दबाव नहीं डाला.

उस रात घर जा कर जसदेव अपने साथ सोई शांता को दबोचने की कोशिश करने लगा कि तभी शांता ने उसे खुद से अलग करते हुए कहा, ‘‘आप भूल गए हैं क्या? मैं ने बताया था न कि मैं फिर पेट से हूं और डाक्टर ने अभी ऐसा कुछ भी करने को मना ही किया है.’’

जसदेव गुस्से में कंबल ताने सो गया.

अगले दिन जसदेव फिर महेश बाबू के पास पहुंचा और कल वाली जगह पर चलने को कहा.

महेश मन ही मन खुश था. एक बार धंधे वाली का स्वाद चखने के बाद जसदेव को अब इस की लत लग चुकी थी. इस बीच महेश बिचौलिया बन कर मुनाफा कमा रहा था.

जसदेव की तकरीबन ज्यादातर कमाई अपनी इस काम वासना में खर्च हो जाती थी और बाकी रहीसही जुए और शराब में.

जसदेव के दोस्तों को महेश बाबू की आदतों के बारे में अच्छी तरह से मालूम था. उन्होंने जसदेव को कई बार सचेत भी किया, पर महेश बाबू की मीठीमीठी बातों ने जसदेव का विश्वास बहुत अच्छी तरह से जीत रखा था.

पैसों की कमी में जसदेव और शांता के बीच रोजाना झगड़े होने लगे थे. शांता को अब अपना घर चलाना था, अपने बच्चों का पालनपोषण भी करना था.

10वीं जमात में पढ़ने वाली रवीना के स्कूल की फीस भी कई महीनों से नहीं भरी गई थी, जिस के लिए उसे अब जसदेव पर निर्भर रहने के बजाय खुद के पैरों पर खड़ा होना ही पड़ा.

शांता ने अपनी चांदी की पायल बेच कर एक छोटी सी सिलाई मशीन खरीद ली और अपने कमरे में ही एक छोटा सा सिलाई सैंटर खोल दिया. आसपड़ोस की औरतें अकसर उस से कुछ न कुछ सिलवा लिया करती थीं, जिस के चलते शांता और उस के परिवार की दालरोटी फिर से चल पड़ी.

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जसदेव की आंखों में शांता का काम करना खटकने लगा. वह शांता के बटुए से पैसे निकाल कर ऐयाशी करने लगा और कभी शांता के पैसे न देने पर उसे पीटपीट कर अधमरा भी कर दिया करता था.

शांता इतना कुछ सिर्फ अपनी बेटी रवीना की पढ़ाई पूरी करवाने के लिए सह रही थी, क्योंकि शांता नहीं चाहती थी कि उस की बेटी को भी कोई ऐसा पति मिल जाए जैसा उसे मिला है.

बेटी रवीना के स्कूल की फीस पिछले 10 महीनों से जमा नहीं की गई थी, जिस के चलते उस का नाम स्कूल से काट दिया गया.

स्कूल छूटने के गम और जसदेव और शांता के बीच रोजरोज के झगड़े से उकताई रवीना ने सोच लिया कि अब वह अपनी मां को अपने बापू के साथ रहने नहीं देगी.

अभी जसदेव घर पर नहीं आया था. रवीना ने अपनी मां शांता से अपने बापू को तलाक देने की बात कही, पर गांव की पलीबढ़ी शांता को छोटी बच्ची रवीना के मुंह से ऐसी बातें अच्छी  नहीं लगीं.

शांता ने रवीना को समझाया, ‘‘तू अभी पाप की इन बातों पर ध्यान मत दे. वह सब मैं देख लूंगी. भला मुझे कौन सा इस शहर में जिंदगीभर रहना है. एक बार तू पढ़लिख कर नौकरी ले ले, फिर तो तू ही पालेगी न अपनी बूढ़ी मां को…’’

‘‘मैं अब कैसे पढ़ूंगी मां? स्कूल वालों ने तो मेरा नाम भी काट दिया है. भला काटे भी क्यों न, उन्हें भी तो फीस चाहिए,’’ रवीना की इस बात ने शांता का दिल झकझोर दिया.

रात के 11 बजे के आसपास अभी शांता की आंख लगी ही थी कि किसी ने कमरे के दरवाजे को पकड़ कर जोरजोर से हिलाना शुरू कर, ‘‘शांता, खोल दरवाजा. जल्दी खोल शांता… आज नहीं छोड़ेंगे मुझे ये लोग शांता…’’

दरवाजे पर जसदेव था. शांता घबरा गई कि भला इस वक्त क्या हो गया और कौन मार देगा.

शांता ने दरवाजे की सांकल हटाई और जसदेव ने फौरन घर में घुस कर अंदर से दरवाजे पर सांकल चढ़ा दी और घर की कई सारी भारीभरकम चीजें दरवाजे के सामने रखने लगा.

जसदेव के चेहरे की हवाइयां उड़ी हुई थीं. वह ऊपर से नीचे तक पसीने में तरबतर था. जबान लड़खड़ा रही थी, मुंह सूख गया था.

‘‘क्या हुआ? क्या कर दिया? किस की जेब काटी? किस के गले में झपट्टा मारा?’’ शांता ने एक के बाद एक कई सवाल दागने शुरू कर दिए.

जसदेव पर शांता के सवालों का कोई असर ही नहीं हो रहा था, वह तो सिर्फ अपनी गरदन किसी कबूतर की तरह इधर से उधर घुमाए जा रहा था, मानो चारदीवारी में से बाहर निकलने के लिए कोई सुरंग ढूंढ़ रहा हो.

‘‘क्या हुआ? बताओ तो सही? और कौन मार देगा?’’ शांता ने चिंता भरी आवाज में पूछा.

जसदेव ने शांता के मुंह पर अपना हाथ रख कर उसे चुप रहने को कहा.

Serial Story: लव ऐट ट्रैफिक सिगनल- भाग 3

वह चाय और स्नैक्स ले कर आई तो तीनों साथ बैठे थे. मां ने मेरा पूरा नाम और परिवार के बारे में पूछा तो मैं ने कहा कि मेरा नाम अमित रजक है और मेरे मातापिता नहीं हैं. उन्होंने अपना नाम मनोरमा पांडे बताया और कहा कि शोभना के पिता तो बचपन में ही गुजर गए थे. उन्होंने अकेले ही बेटी का पालनपोषण किया है. फिर अचानक पूछ बैठीं, ‘‘तुम्हारे पूर्वज क्या धोबी का काम करते थे?’’

उन का यह प्रश्न तो मुझे बेतुका लगा ही था, मैं ने शोभना की ओर देखा तो वह भी नाराज दिखी थी. खैर, मैं ने कहा, ‘‘आंटी, जहां तक मुझे याद है मेरे दादा तक ने तो ऐसा काम नहीं किया है. दादाजी और पिताजी दोनों ही सरकारी दफ्तर में चपरासी थे और मेरे लिए इस में शर्म की कोई बात नहीं है. और आंटी…’’

शोभना ने मेरी बात बीच में काटते हुए मां से कहा, ‘‘हम ब्राह्मण हैं तो हमारे भी दादापरदादा जजमानों के यहां सत्यानारायण पूजा बांचते होंगे न, मां?  और मैं तो ब्राह्मण हो कर भी मांसाहारी हूं?’’

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मैं मां को नमस्कार कर वहां से चल पड़ा. शोभना नीचे तक छोड़ने आई थी. उस ने मुझ से मां के व्यवहार के लिए माफी मांगी. मैं अपने फ्लैट में वापस आ गया था. दूसरे दिन शोभना ने फोन कर शाम को हुसैन सागर लेक पर मिलने को कहा. हुसैन सागर हैदराबाद की आनबानशान है. वहां शाम को अच्छी रौनक और चहलपहल रहती है. एक तरफ एक लाइन से खेलकूद, बोटिंग का इंतजाम है तो दूसरी ओर खानेपीने के स्टौल्स. और इस बड़ी लेक के बीच में गौतम बुद्घ की विशाल मूर्ति खड़ी है.

शोभना इस बार भी पहले पहुंच गई थी. हम दोनों भीड़ से थोड़ा अलग लेक के किनारे जा बैठे थे. शोभना ने कहा कि उसे मां से ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी.

मैं ने जब पूछा कि मां को जातपात की बात क्यों सूझी, तो उस ने कहा, ‘‘अमित, सच कहूं तो मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं. मैं ने मां को बता दिया है कि मैं तुम से शादी करना चाहती हूं. पर दुख की बात यह है कि सिर्फ जातपात के अंधविश्वास के चलते उन्हें यह स्वीकार नहीं है. मैं तो तुम्हारा पूरा नाम तुम्हारे गले में लटके आईडी पर बारबार पढ़ चुकी हूं.’’

इतना कह उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोते हुए कहा, ‘‘मैं दोराहे पर खड़ी हूं, तुम्हें चुनूं या मां को. मां ने साफ कहा है कि किसी एक को चुनो. बचपन में ही पिताजी की मौत के बाद मां ने अकेले दम पर मुझे पालपोस कर बड़ा किया, पढ़ायालिखाया. अब बुढ़ापे में उन्हें अकेले भी नहीं छोड़ सकती. तुम ही कुछ सुझाव दो.’’

मैं ने कहा, ‘‘शोभना, प्यार तो मैं भी तुम से करता हूं, यह अलग बात है कि मैं पहल नहीं कर सका. तुम्हें मां का साथ देना चाहिए. हर प्यार की मंजिल शादी पर आ कर खत्म हो, यह जरूरी नहीं. जिंदगी में प्यार से भी जरूरी कई काम हैं. तुम निसंकोच मां के साथ रहो. तुम भरोसा करो मुझ पर, मुझे इस बात का कोई दुख न होगा.’’

‘‘जितना प्यार और सुकून थोड़ी देर के लिए ही सही, दुबई में मुझे तुम से मिला है उस की बराबरी आजीवन कोई न कर सकेगा.’’

इतना कह वह मेरे सीने से लग कर रोने लगी और बोली, ‘‘बस, आखिरी बार सीने से लगा रही हूं अपने पहले प्यार को.’’ मैं ने उसे समझाया और अलग करते हुए कहा, ‘‘बस, इतना समझ लेना हमारा प्यार उसी रैड सिगनल पर रुका रहा. उसे ग्रीन सिगनल नहीं मिला.’’ और दोनों जुदा हो गए.

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