पुलिस ऐग्जाम: रीवां जिले की एक प्रेम कहानी

‘उत्तर प्रदेश में पुलिस भरती परीक्षा के अभ्यर्थियों के लिए रेलवे का प्रयागराज डिवीजन 20 स्पैशल ट्रेन चला रहा है. प्रयागराज जंक्शन पर माघ मेला हेतु बने ‘यात्री आश्रयों’ को भी खोल दिया गया है…’

मध्य प्रदेश में रीवां जिले में रहने वाले 27 साल के मनोज जाटव को जब यह खबर मिली, तब उस ने राहत की सांस ली. वह भी तो कांस्टेबल की पोस्ट के लिए पिछले 2 साल से कड़ी मेहनत कर रहा था. सतना से प्रयागराज के लिए भी स्पैशल ट्रेन चलाई गई थी.

लंबेचौड़े कद का मनोज गोरे रंग का नौजवान था और अपने मांबाप का एकलौता बेटा भी. वह पढ़ने में काफी होशियार था और गणित के सवाल हल करना तो उस के बाएं हाथ का खेल था.

मनोज के पिता मऊगंज तहसील के एक गांव में खेतीबारी करते थे. ज्यादा जमीन तो नहीं थी, पर जैसेतैसे गुजारा हो जाता था. मनोज रीवां शहर में सरकारी नौकरी की कोचिंग ले रहा था. खाली समय में वह एक गैराज में मोटरसाइकिल की मरम्मत का काम भी देखता था. उसे इस काम में महारत हासिल थी, पर सरकारी नौकरी के तो अपने ही ठाठ होते हैं, फिर पुलिस में तो ‘ऊपरी कमाई’ का जलवा है ही.

मनोज समय पर रेलवे स्टेशन पहुंच गया. सतना से आई ट्रेन ठसाठस भरी हुई थी. इतना बड़ा हुजूम देख कर मनोज ठगा सा रह गया. यह था कांस्टेबल की नौकरी के लिए सरकारी इंतजाम? पर जाना तो था ही, तो उस ने कमर कस ली और जिस भी डब्बे में जगह मिली, वह घुस ही गया.

इतनी भीड़ की वजह यह थी कि उत्तर प्रदेश कांस्टेबल भरती के कुल पद 60,244 थे और तकरीबन 50 लाख नौजवानों ने इन पदों को पाने का आवदेन दे रखा था. इन में से 35 लाख पुरुष और 15 लाख महिला उम्मीदवार थीं यानी एक पद के लिए पुरुष वर्ग में 66, जबकि महिला वर्ग में 125 दावेदार.

इधर, मनोज ट्रेन में घुस तो गया, पर शौचालय से आगे बढ़ ही नहीं पाया. उस ने जैसेतैसे शौचालय के बंद दरवाजे से कमर टिकाई और अपना बैग संभालते हुए खड़ा हो गया.

थोड़ी ही देर में मनोज की नजर एक लड़की पर पड़ी. अच्छे नैननक्श की लंबी, शरीर किसी खिलाड़ी जैसा खिला हुआ और रंगरूप भी बढि़या. पर वह तो जैसे ‘रजिया फंस गई गुंडों में’ वाली हालत में थी.

उस लड़की को कई लड़कों ने जैसे घेर रखा था और इस भयंकर भीड़ का फायदा उठा कर वे उसे मसल रहे थे. एक लड़के ने अपने दोस्त को दबी जबान से कहा भी था, ‘‘रगड़ दे इस की जांघ पर अपना घुटना.’’

मनोज समझ गया था कि यह लड़की काफी देर से इन छिछोरों से जूझ रही है. उस ने अपना दिमाग लगाया और अपना बैग उस लड़की को देते हुए बोला, ‘‘आप अपना बैग यहां नीचे भूल गई हैं. संभाल लें, वरना कोई ले उड़ेगा.’’

वह लड़की पहले तो कुछ समझ नहीं, पर मनोज के दोबारा जोर दे कर कहने पर उस ने वह बैग लिया और अपनी छाती से सटा लिया. इस से उन मनचलों और उस के बीच दूरी बन गई.

तकरीबन सवा 3 घंटे के बाद ट्रेन प्रयागराज स्टेशन पहुंची. मनोज और वह लड़की बड़ी मशक्कत के साथ ट्रेन से बाहर आए.

प्लेटफार्म पर उस लड़की ने मनोज को उस का बैग दिया और बोली, ‘‘थैंक्स. आज आप ने मुझे उन घटिया लड़कों की बेहूदा हरकतों से बचा लिया.

‘‘वैसे, मेरा नाम संतोष यादव है और मैं सतना के पास एक गांव में रहती हूं. आप का क्या नाम है?’’

‘‘जी, मेरा नाम मनोज जाटव है और मैं कांस्टेबल के इम्तिहान के लिए प्रयागराज आया हूं,’’ मनोज ने अपना बैग लेते हुए कहा.

‘‘अच्छा, एससी कोटे से हो. तुम्हारा ऐग्जाम तो क्लियर हो ही जाएगा,’’ संतोष ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘ओह, तो संतोषजी यह सोचती हैं मेरे बारे में. पर शायद आप को पता नहीं है कि मैं हमेशा से होनहार बच्चा रहा हूं. देखना, मैरिट से पास हो जाऊंगा.’’

‘‘खुद पर इतना ज्यादा यकीन… देखते हैं.’’

‘‘अच्छा, तुम्हारी कौन सी शिफ्ट है?’’ मनोज ने बात बदलते हुए कहा, ‘‘मेरी तो सुबह 10 से 12 बजे वाली शिफ्ट है.’’

‘‘मेरी तो दोपहर की. 3 से 5 बजे वाली.’’

‘‘फिर तो हमारी राहें अलग हो जाएंगी,’’ मनोज बोला.

‘‘अभी एकसाथ सफर ही कहां शुरू किया है,’’ संतोष ने स्टेशन से बाहर निकलते हुए कहा.

उस दिन संतोष अपनी सहेली के घर रुकी थी और मनोज एक धर्मशाला में. अगले दिन 17 फरवरी को दोनों का कांस्टेबल का ऐग्जाम था.

अगली सुबह मनोज समय पर सैंटर पहुंच गया था. वहां कड़े इंतजाम थे. जैमर लगा हुआ था. हर तरह की जांचपड़ताल की जा रही थी. सीसीटीवी कैमरे लगे थे और पूरा स्टाफ एकदम चाकचौबंद दिख रहा था.

मनोज का ऐग्जाम बढि़या हुआ था. गणित के सवाल उस के लिए बहुत आसान थे. 150 सवाल पूछे गए थे. इस इम्तिहान में सामान्य हिंदी, सामान्य ज्ञान, संख्यात्मक और मानसिक योग्यता परीक्षण और मानसिक योग्यता, जिस में बुद्धिमत्ता और तर्क शामिल थे. हर गलत जवाब के लिए 0.5 की नैगेटिव मार्किंग होनी थी.

उधर, संतोष अपनी शिफ्ट पर समय से पहुंच गई थी. उस का ऐग्जाम भी ठीकठाक हुआ था. बस, थोड़ा गणित कमजोर रह गया था. शाम को 5 बजे जब वह बाहर निकली, तो मनोज को वहां देख कर हैरान रह गई.

‘‘अरे, पढ़ाकू बच्चा यहां क्या कर रहा है?’’ संतोष ने अपनी खुशी छिपाते हुए कहा.

‘‘शाम 7 बजे की ट्रेन है. सोचा, तुम्हारा हालचाल ले लूं,’’ मनोज बोला.

‘‘ऐग्जाम तो सही रहा. पास हो गई तो फिजिकल में तो बाजी मार ही लूंगी. मेरी जबरदस्त प्रैक्टिस है,’’ संतोष बोली.

‘‘चलो, स्टेशन चलते हैं. समय पर पहुंच कर सीट घेर लेंगे. मुझे अब शौचालय के आगे खड़े हो कर नहीं जाना,’’ मनोज ने कहा.

‘‘भीड़ तो होगी ही. इस अखबार की कटिंग देखो. इस में लिखा है कि राज्य के सभी 75 जिलों के 2,385 केंद्रों पर परीक्षा आयोजित की जा रही है, जहां 48,17,441 अभ्यर्थी परीक्षा देंगे.

‘‘समाचार एजेंसी एएनआई की रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों से 6 लाख से ज्यादा उम्मीदवारों ने आवेदन किया है, जिस में बिहार से 2,67,305, हरियाणा से 74,769, झारखंड से 17,112, मध्य प्रदेश से 98,400, दिल्ली से 42,259, उम्मीदवार शामिल हैं. 97,277 राजस्थान से, 14,627 उत्तराखंड से, 5,512 पश्चिम बंगाल से, 3,151 महाराष्ट्र से और 3,404 पंजाब से.’’

‘‘तुम्हें बड़ी अच्छी जानकारी है,’’ मनोज ने ताली बजाते हुए कहा.

‘‘यह मजाक की बात नहीं है. देश में बेरोजगारी की हद है. इस ऐग्जाम में आधे पद तो जनरल और इकोनौमिकली वीकर सैक्शन के हैं. ओबीसी के तकरीबन 16,000, एससी और एसटी के 12,000 पद हैं.

‘‘तुम ही बताओ, जनरल वालों को कांस्टेबल बनने की जरूरत ही क्या है? उन के पास तो बड़ी नौकरी पाने के खूब मौके होते हैं.’’

‘‘बोल तो तुम सही रही हो. अच्छा, बाकी सब छोड़ो… तुम्हारा गणित का ऐग्जाम तो ठीकठाक ही हुआ है, पर तुम्हें अपना मोबाइल नंबर तो अच्छे से याद होगा न?’’

‘‘ओह, तो जनाब को मेरा मोबाइल नंबर चाहिए. बात को इतना घुमा क्यों रहे हो मनोज बाबू,’’ कहते हुए संतोष ने अपना मोबाइल नंबर दे दिया.

मनोज ने उस नंबर पर मिसकाल दे दी और सेव कर लिया. बातें करतेकरते वे दोनों प्रयागराज स्टेशन जा पहुंचे.

इस बार उन दोनों को डब्बे में चढ़ने के बाद जगह तो मिल गई थी, पर भीड़ का आलम तकरीबन वही था. रेलवे के बड़े अफसरों ने कोशिश की थी कि भगदड़ के हालात न बनें.

संतोष और मनोज दोनों सटे हुए खड़े थे, तभी मनोज ने संतोष को देखते हुए कहा, ‘‘क्या यह हमारी पहली और आखिरी मुलाकात है?’’

‘‘ऐसा क्यों कहा?’’ संतोष ने पूछा.

‘‘संतोष, एक बात कहूं?’’ मनोज ने उस के चेहरे के एकदम करीब हो कर कहा.

संतोष का दिल एकदम से धड़क गया. उस का हाथ मनोज के हाथ से छू गया. मनोज ने हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘मुझे तुम्हारे साथ हमेशा रहना है. मैं चाहता हूं कि हमारी जिंदगी का सफर भी ऐसे ही एकदूसरे के करीब रह कर गुजरे.’’

इतना सुनते ही संतोष ने अपना सिर मनोज की छाती पर टिका दिया. मनोज का दिल भी ट्रेन की रफ्तार सा दौड़ने लगा था.

‘‘कांस्टेबल के ऐग्जाम के रिजल्ट का इंतजार करते हैं. मनोज, हम 3 बहनें हैं. मैं सब से बड़ी हूं. पिता की आमदनी इतनी ज्यादा नहीं है कि उन से भी अपनी शादी का जिक्र कर सकूं. पहले हमें अपने पैरों पर खड़ा होना होगा,’’ संतोष बोली.

उन दोनों का वापसी का सफर बातों और वादों में गुजर गया. 17 और 18 फरवरी को कांस्टेबल का ऐग्जाम हुआ था. इस के तुरंत बाद सोशल मीडिया पर वायरल हो गया कि पेपर लीक हुआ था.

हालांकि, सरकार की ओर से कहा गया कि ऐसी अफवाहों पर ध्यान न दें, पर धुआं उठ रहा था, तो कहीं आग जरूर लगी होगी.

दरअसल, इस ऐग्जाम के दौरान तकरीबन 244 ‘सौल्वर’ और ऐग्जाम में सेंध लगाने की कोशिश में जुटे गिरोह के कई लोग पकड़े गए थे. इस मामले में कई जगह एफआईआर भी दर्ज कराई गई थी.

एक दिन संतोष ने मनोज को फोन किया, ‘‘सुना तुम ने. हमारी सारी मेहनत बेकार गई. पेपर लीक हो गया है. मुझे तो पहले से ही आइडिया था, जब मेरी एक सहेली मीना ने बताया था कि उस ने पैसे दे कर पेपर खरीदा था. काफी पैसे भी दिए थे. तब मुझे लगा था कि वह ऐसे ही बोल रही है, पर अब दाल में काला लग रहा है.’’

दूसरी ओर से मनोज ने कहा, ‘पेपर तो लीक हुआ ही है. पुलिस कई जगह छापेमारी कर रही है. इस मामले में एसओजी सर्विलांस सैल, एसटीएफ यूनिट गोरखपुर और इटावा पुलिस ने 4 आरोपियों को गिरफ्तार किया है. उन के पास से अभ्यर्थियों की मार्कशीट, एडमिट कार्ड, ब्लैंक चैक, मोबाइल फोन और लैपटौप जैसा दूसरा सामान बरामद हुआ है.

‘इस से पहले इस मामले में पेपर लीक के आरोपी नीरज यादव को भी गिरफ्तार किया जा चुका है. वह बलिया का रहने वाला है और पहले मर्चैंट नेवी में नौकरी करता था. हालांकि, बाद में उस ने नौकरी छोड़ दी थी. उसे ही मथुरा के एक शख्स ने ‘आंसर की’ भेजी थी. एसटीएफ इस मामले में भी जांच कर रही है.’

‘‘अरे यार, सुना है कि पेपर के दौरान ही गड़बड़ी करने वाले 244 लोग गिरफ्तार किए गए थे. कहीं कोई दूसरे की जगह बैठ कर ऐग्जाम दे रहा था, तो कहीं कोई ‘सौल्वर गैंग’ पकड़ा गया था. सोशल मीडिया पर पेपर लीक की खबरें भी तैरती रही थीं,’’ संतोष ने अपनी भी जानकारी जोड़ी.

‘मेरी तो पूरी मेहनत मिट्टी में मिल गई. सुना है कि 6 महीने बाद ऐग्जाम दोबारा होगा, पर न जाने क्यों मेरा मन अब सरकारी नौकरी से हट गया है. ये सब गड़बडि़यां भी तो बेरोजगारी को बढ़ाने वाली होती हैं. बहुत से नौजवान हिम्मत हार जाते हैं. कोचिंग में दिए गए उन के पैसे बरबाद हो जाते हैं. मांबाप के सपने पूरे होने से पहले ही टूट जाते हैं,’ मनोज बोला.

‘‘तुम सही कह रहे हो, पर अगर नौकरी नहीं करोगे तो क्या करोगे? हमारा भविष्य दांव पर लग जाएगा,’’ संतोष ने दिल की बात कही.

‘कल मैं सतना आ रहा हूं, तुम स्टेशन पर मिलने आ जाना. फिर बताऊंगा कि हमें क्या करना है,’ मनोज बोला.

‘‘ठीक है,’’ संतोष ने इतना ही कहा और फोन काट दिया.

अगले दिन ट्रेन आने से पहले ही संतोष स्टेशन पर आ चुकी थी. थोड़ी देर में वे दोनों एक चाय स्टाल पर खड़े चाय पी रहे थे.

‘‘संतोष, मैं ने सोच लिया है कि अब मैं बाइक मरम्मत का अपना काम शुरू करूंगा. मेरे एक दोस्त के पास खाली जगह है. उस ने हां बोल दिया है. शुरू में थोड़ी ज्यादा मेहनत करनी होगी, पर मुझे अपनी बाजुओं पर यकीन है. क्या तुम मेरा साथ दोगी?’’ मनोज ने अपना इरादा जाहिर कर दिया.

संतोष ने मनोज को बड़े गौर से देखा, फिर उस का हाथ कस कर पकड़ते हुए कहा, ‘‘मंजूर है, पर तुम्हारा सारा अकाउंट मैं ही संभालूंगी.’’

‘‘पर, तुम्हारा गणित तो कमजोर है,’’ मनोज ने चुटकी ली.

‘‘प्रेमिका का गणित कमजोर हो सकता है, पर जीवनसाथी का नहीं. समझे मेरे मनोज बाबू,’’ संतोष के इतना कहते ही वे दोनों खिलखिला कर हंस दिए.

‘‘कहां तो हम दोनों कांस्टेबल बन कर अपना और देश का भला करना चाहते थे, पर ऐसा हो नहीं पाया. हमारी तो ‘ऊपरी कमाई’ भी गई,’’ मनोज ने संतोष को कनखियों से देखते हुए कहा.

‘‘सच है, पहले हम दूसरों से रिश्वत लेते और अब जब कोई कांस्टेबल हमारे गैराज पर आएगा, तो उस के हाथ गरम करने पड़ेंगे,’’ संतोष बोली, तो मनोज धीरे से मुसकराया और उस के होंठों को चूम लिया.

देह : क्यों खौफ में जी रही थी बुधिया

चारपाई पर लेटी हुई बुधिया साफसाफ देख रही थी कि सूरज अब ऊंघने लगा था और दिन की लालिमा मानो रात की कालिमा में तेजी से समाती जा रही थी.

देखते ही देखते अंधेरा घिरने लगा था… बुधिया के आसपास और उस के अंदर भी. लगा जैसे वह कालिमा उस की जिंदगी का एक हिस्सा बन गई है…

एक ऐसा हिस्सा, जिस से चाह कर भी वह अलग नहीं हो सकती. मन किसी व्याकुल पक्षी की तरह तड़प रहा था. अंदर की घुटन और चुभन ने बुधिया को हिला कर रख दिया. समय के क्रूर पंजों में फंसी उलझी बुधिया का मन हाहाकार कर उठा है.

तभी ‘ठक’ की आवाज ने बुधिया को चौंका दिया. उस के तनमन में एक सिहरन सी दौड़ गई. पीछे मुड़ कर देखा तो दीवार का पलस्तर टूट कर नीचे बिखरा पड़ा था. मां की तसवीर भी खूंटी के साथ ही गिरी पड़ी थी जो मलबे के ढेर में दबे किसी निरीह इनसान की तरह ही लग रही थी.

बुधिया को पुराने दिन याद हो आए, जब वह मां की आंखों में वही निरीहता देखा करती थी. शाम को बापू जब दारू के नशे में धुत्त घर पहुंचता था तो मां की छोटी सी गलती पर भी बरस पड़ता था और पीटतेपीटते बेदम कर देता था.

एक बार जवान होती बुधिया के सामने उस के जालिम बाप ने उस की मां को ऐसा पीटा था कि वह घंटों बेहोश पड़ी रही थी.

बुधिया डरीसहमी सी एक कोने में खड़ी रही थी. उस का मन भीतर ही भीतर कराह उठा था.

बुधिया को याद है, उस दिन उस की मां खेत पर गई हुई थी… धान की कटाई में. तभी ‘धड़ाक’ की आवाज के साथ दरवाजा खुला था और उस का दारूखोर बाप अंदर दाखिल हुआ था. आते ही उस ने अपनी सिंदूरी आंखें बुधिया के ऊपर ऐसे गड़ा दी थीं मानो वह उस की बेटी नहीं महज एक देह हो.

‘बापू…’ बस इतना ही निकल पाया था बुधिया की जबान से.

‘आ… हां… सुन… बुधिया…’ बापू जैसे आपे से बाहर हो कर बोले थे, ‘यह दारू की बोतल रख दे…’

‘जी अच्छा…’ किसी मशीन की तरह बुधिया ने सिर हिलाया था और दारू की बोतल अपने बापू के हाथ से ले कर कोने में रख आई थी. उस की आंखों में डर की रेखाएं खिंच आई थीं.

तभी बापू की आवाज किसी हथौड़े की तरह सीधे उसे आ कर लगी थी, ‘बुधिया… वहां खड़ीखड़ी क्या देख रही है… यहां आ कर बैठ… मेरे पास… आ… आ…’

बुधिया को तो जैसे काटो तो खून नहीं. उस की सांसें तेजतेज चलने लगी थीं, धौंकनी की तरह. उस का मन तो किया था कि दरवाजे से बाहर भाग जाए, लेकिन हिम्मत नहीं हुई थी. उसी पल बापू की गरजदार आवाज गूंजी थी, ‘बुधिया…’

न चाहते हुए भी बुधिया उस तरफ बढ़ चली थी, जहां उस का बाप खटिया पर पसरा हुआ था. उस ने   झट से बुधिया का हाथ पकड़ा और अपनी ओर ऐसे खींच लिया था जैसे वह उस की जोरू हो.

‘बापू…’ बुधिया के गले से एक घुटीघुटी सी चीख निकली थी, ‘यह क्या कर रहे हो बापू…’

‘चुप…’ बुधिया का बापू जोर से गरजा और एक झन्नाटेदार थप्पड़ उस के दाएं गाल पर दे मारा था.

बुधिया छटपटा कर रह गई थी. उस में अब विरोध करने की जरा भी ताकत नहीं बची थी. फिर भी वह बहेलिए के जाल में फंसे परिंदे की तरह छूटने की नाकाम कोशिश करती रही थी. थकहार कर उस ने हथियार डाल दिए थे.

उस भूखे भेड़िए के आगे वह चीखती रही, चिल्लाती रही, मगर यह सिलसिला थमा नहीं, चलता रहा था लगातार…

बुधिया ने मां को इस बाबत कई बार बताना चाहा था, मगर बापू की सुलगती सिंदूरी आंखें उस के तनमन में झुरझुरी सी भर देती थीं और उस पर खौफ पसरता चला जाता था, वह भीतर ही भीतर घुटघुट कर जी रही थी.

फिर एक दिन बापू की मार से बेदम हो कर बुधिया की मां ने बिस्तर पकड़ लिया था. महीनों बिस्तर पर पड़ी तड़़पती रही थी वह. और उस दिन जबरदस्त उस के पेट में तेज दर्द उठा. तब बुधिया दौड़ पड़ी थी मंगरू चाचा के घर.

मंगरू चाचा को  झाड़फूंक में महारत हासिल थी.

बुधिया से आने की वजह जान कर मंगरू ने पूछा था, ‘तेरे बापू कहां हैं?’

‘पता नहीं चाचा,’ इतना ही कह पाई थी बुधिया.

‘ठीक है, तुम चलो. मैं आ रहा हूं,’ मंगरू ने कहा तो बुधिया उलटे पैर अपने झोंपड़े में वापस चली आई थी.

थोड़ी ही देर में मंगरू भी आ गया था. उस ने आते ही झाड़फूंक का काम शुरू कर दिया था, लेकिन बुधिया की मां की तबीयत में कोई सुधार आने के बजाय दर्द बढ़ता गया था.

मंगरू अपना काम कर के चला गया और जातेजाते कह गया, ‘बुधिया, मंत्र का असर जैसे ही शुरू होगा, तुम्हारी मां का दर्द भी कम हो जाएगा… तू चिंता मत कर…’

बुधिया को लगा जैसे मंगरू चाचा ठीक ही कह रहा है. वह घंटों इंतजार करती रही लेकिन न तो मंत्र का असर शुरू हुआ और न ही उस की मां के दर्द में कमी आई. देखते ही देखते बुधिया की मां का सारा शरीर बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया.

आंखें पथराई सी बुधिया को ही देख रही थीं, मानो कुछ कहना चाह रही हों. तब बुधिया फूटफूट कर रोने लगी थी.

उस के बापू देर रात घर तो आए, लेकिन नशे में चूर. अगली सुबह किसी तरह कफनदफन का इंतजाम हुआ था.

बुधिया की यादों का तार टूट कर दोबारा आज से जुड़ गया.

बापू की ज्यादतियों की वजह से बुधिया की जिंदगी तबाह हो गई. पता नहीं, वह कितनी बार मरती है, फिर जीती है… सैकड़ों बार मर चुकी है वह. फिर भी जिंदा है… महज एक लाश बन कर.

बापू के प्रति बुधिया का मन विद्रोह कर उठता है, लेकिन वह खुद को दबाती आ रही है.

मगर आज बुधिया ने मन ही मन एक फैसला कर लिया. यहां से दूर भाग जाएगी वह… बहुत दूर… जहां बापू की नजर उस तक कभी नहीं पहुंच पाएगी.

अगले दिन बुधिया मास्टरनी के यहां गई कि वह अपने ऊपर हुई ज्यादतियों की सारी कहानी उन्हें बता देगी. मास्टरनी का नाम कलावती था, मगर सारा गांव उन्हें मास्टरनी के नाम से ही जानता है.

कलावती गांव के ही प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. बुधिया को भी उन्होंने ही पढ़ाया था. यह बात और है कि बुधिया 2 जमात से ज्यादा पढ़ नहीं पाई थी.

‘‘क्या बात है बुधिया? कुछ बोलो तो सही… जब से तुम आई हो, तब से रोए जा रही हो. आखिर बात क्या हो गई?’’

मास्टरनी ने पूछा तो बुधिया का गला भर आया. उस के मुंह से निकला, ‘मास्टरनीजी.’’

‘‘हां… हां… बताओ बुधिया… मैं वादा करती हूं, तुम्हारी मदद करूंगी,’’ मास्टरनी ने कहा तो बुधिया ने बताया, ‘‘मास्टरनीजी… उस ने हम को खराब किया… हमारे साथ गंदा… काम…’’ सुन कर मास्टरनी की भौंहें तन गईं. वे बुधिया की बात बीच में ही काट कर बोलीं, ‘‘किस ने किया तुम्हारे साथ गलत काम?’’

‘‘बापू ने…’’ और बुधिया सबकुछ सिलसिलेवार बताती चली गई.

मास्टरनी कलावती की आंखें फटी की फटी रह गईं और चेहरे पर हैरानी की लकीरें गहराती गईं. फिर वे बोलीं, ‘‘तुम्हारा बाप इनसान है या जानवर… उसे तो चुल्लूभर पानी में डूब मरना चाहिए. उस ने अपनी बेटी को खराब किया.

‘‘खैर, तू चिंता मत कर बुधिया. तू आज शाम की गाड़ी से मेरे साथ शहर चल. वहां मेरी बेटी और दामाद रहते हैं. तू वहीं रह कर उन के काम करना, बच्चे संभालना. तुम्हें भरपेट खाना और कपड़ा मिलता रहेगा. वहां तू पूरी तरह महफूज रहेगी.’’

बुधिया का सिर मास्टरनी के प्रति इज्जत से झुक गया.

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरते ही बुधिया को लगा जैसे वह किसी नई दुनिया में आ गई हो. सबकुछ अलग और शानदार था.

बुधिया बस में बैठ कर गगनचुंबी इमारतों को ऐसे देख रही थी मानो कोई अजूबा हो.

तभी मास्टरनीजी ने एक बड़ी इमारत की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘देख बुधिया… यहां औरतमर्द सब एकसाथ कंधे से कंधा मिला कर काम करते हैं.’’

‘‘सच…’’ बुधिया को जैसे हैरानी हुई. उस का अल्हड़ व गंवई मन पता नहीं क्याक्या कयास लगाता रहा.

बस एक झटके से रुकी तो मास्टरनी के साथ वह वहीं उतर पड़ी.

चंद कदमों का फासला तय करने के बाद वे दोनों एक बड़ी व खूबसूरत कोठी के सामने पहुंचीं. फिर एक बड़े से फाटक के अंदर बुधिया मास्टरनीजी के साथ ही दाखिल हो गई.

बुधिया की आंखें अंदर की सजावट देख कर फटी की फटी रह गईं.

मास्टरनीजी ने एक मौडर्न औरत से बुधिया का परिचय कराया और कुछ जरूरी हिदायतें दे कर शाम की गाड़ी से ही वे गांव वापस लौट गईं.

शहर की आबोहवा में बुधिया खुद को महफूज सम  झने लगी. कोठी के चारों तरफ खड़ी कंक्रीट की मजबूत दीवारें और लोहे की सलाखें उसे अपनी हिफाजत के प्रति आश्वस्त करती थीं.

बेफिक्री के आलम से गुजरता बुधिया का भरम रेत के घरौंदे की तरह भरभरा कर तब टूटा जब उसे उस दिन कोठी के मालिक हरिशंकर बाबू ने मौका देख कर अपने कमरे में बुलाया और देखते ही देखते भेडि़या बन गया. बुधिया को अपना दारूबाज बाप याद हो आया.

नशे में चूर… सिंदूरी आंखें और उन में कुलबुलाते वासना के कीड़े. कहां बचा पाई बुधिया उस दिन भी खुद को हरिशंकर बाबू के आगोश से.

कंक्रीट की दीवारें और लोहे की मजबूत सलाखों को अपना सुरक्षा घेरा मान बैठी बुधिया को अब वह छलावे की तरह लगने लगा और फिर एक रात उस ने देखा कि नितिन और श्वेता अपने कमरे में अमरबेल की तरह एकदूसरे

से लिपटे बेजा हरकतें कर रहे थे. टैलीविजन पर किसी गंदी फिल्म के बेहूदा सीन चल रहे थे.

‘‘ये दोनों सगे भाईबहन हैं या…’’ बुदबुदाते हुए बुधिया अपने कमरे में चली आई.

सुबह हरिशंकर बाबू की पत्नी अपनी बड़ी बेटी को समझा रही थीं, ‘‘देख… कालेज जाते वक्त सावधान रहा कर. दिल्ली में हर दिन लड़कियों के साथ छेड़छाड़ व बलात्कार की वारदातें बढ़ रही हैं. तू जबजब बाहर निकलती है तो मेरा मन घबराता रहता है. पता नहीं, क्या हो गया है इस शहर को.’’

बुधिया छोटी मालकिन की बातों पर मन ही मन हंस पड़ी. उसे सारे रिश्तेनाते बेमानी लगने लगे. वह जिस घर को, जिस शहर को अपने लिए महफूज समझ रही थी, वही उसे महफूज नहीं लग रहा था.

बुधिया के सामने एक अबूझ सवाल तलवार की तरह लटकता सा लगता था कि क्या औरत का मतलब देह है, सिर्फ देह?

Holi 2024- पतंग : लड़की के भाई ने क्यों की हत्या?

जेठ महीने का शुक्ल पक्ष. गंगा दशहरा महज 2 दिन दूर. एक महीना पहले से ही आसमान में अलगअलग रंगों की पतंगें दिखाई देने लगी थीं. मनोज इन पतंगों को आज जा कर देख पाया. अपने गांव के घर के बाहर तकरीबन साढ़े 4 बजे बैठा वह चाय पी रहा था, तभी देखा कि पीतल की विशालकाय थाली सा आसमान अपने पश्चिमी छोर पर बूंदी का एक लड्डू सजाए बैठा है.

1-1 कर के पतंगें आसमान में लड़तेलहरते अपनी हाजिरी दर्ज कराने लगीं. कितना शानदार सीन. सैकड़ों बालमन, मांझ, सद्धा, चरखी पकड़े गांव के किसी न किसी मैदान में, किसी न किसी छत से पतंग उड़ा रहे होंगे और जो कट रही होंगी, उन्हें लूटने के लिए सड़कों पर बेसुध दौड़ रहे होंगे.

सवा घंटे पहले आंधी आई थी. तब से सबकुछ उलटपलट जान पड़ता है. बाएं तरफ तने से टूटा अशोक का पेड़ अपने घुटनों में मुंह दे कर बैठा है… शायद टूट गया है या सालों से खड़ा थक गया है.

उस पेड़ के नीचे उग रही कंटीली झाड़ियों की कतार में दूध, गुटखे और कुछ दूसरे पौलीथिनों का कचरा मिट्टी से सना मानो उलझ गया है. सीधे हाथ पर भारद्वाज के घर की नेमप्लेट एक कील से लटक रही है. उन के घर के मुहाने पर अनगिनत पत्तियों का अंबार लगा हुआ है, ज्यादातर नीम की.

पत्तों से अटे दरवाजे पर एक भूरे रंग का भीगा कुत्ता बैठा है, जो मनोज के अंदाजे में आंधी के वेग से नाले में गिर गया है और अब सोच रहा है कि ऐसा हुआ कैसे? खुद को फड़फड़ा कर सुखाने के बाद भी वह कांप रहा है, किकिया रहा है और थोड़ा मायूस सा हो रहा है.

सड़कों पर गिरी नीम की बौर कुचले जाने से हवा में एक कड़वी सी गंध घुल गई है. मिट्टी के कण हर जगह फैले हैं, घरों की देहरी से लोगों के नथुनों की गहराई तक. ये जर्रे ढलते सूरज को जमीनी हकीकत बता आए हैं.

आसमान की आंखों में खून उतर आया है. लहू सा रंगा आसमान, जिसे कोई अनदेखा नहीं कर पा रहा है, पर नजरअंदाज करने की कोशिश जारी है.

मनोज 3 दिन पहले एमए फर्स्ट ईयर का इम्तिहान दे कर गांव चला आया था. उस के पिताजी मथुरा में सबइंस्पैक्टर हैं. वह उन्हीं के साथ गोविंद नगर में एक किराए के मकान में रहता है. अपनी स्कूली पढ़ाई गांव से करने के बाद पिताजी उसे अपने साथ गोविंद नगर ले आए और तब से वह यहीं है.

मनोज को बीए तक कालेज जाने में कोई परेशानी नहीं हुई थी. साइकिल से 15 मिनट का रास्ता. समस्या शुरू हुई एमए के दौरान. कालेज घर से तकरीबन 34 किलोमीटर दूर दिल्ली हाईवे पर था. अब साइकिल से तो जा नहीं सकते, तो पिताजी ने उपाय निकाला कि जहां से कालेज की तरफ जाने वाली बसें चलती थीं, उसी रास्ते पर बनी एक पुलिस चौकी में मनोज का परिचय करा दिया और हर सुबह 8 बजे साइकिल चौकी पर खड़ी कर के वह बस पकड़ कर कालेज जाने लगा.

यह डीग गेट चौराहा है. चौराहे का एक रास्ता कृष्ण जन्मभूमि जाता है, एक मसानी और एक दरेसी. चौथा रास्ता सीधा डीग गेट पुलिस चौकी जाता है. बस गिन कर 10 कदम और आ गई चौकी. जन्मभूमि की ओर जाने वाले रास्ते पर मिठाई, दवा और पूजा सामग्री की कई दुकानें हैं.

यहां सड़कछाप पंडे गाड़ी का नंबर देख कर हाथ देते हैं और मथुरा दर्शन के लिए आसामी ढूंढ़ते हैं. मसानी के रास्ते पर पाजेबों के कारखाने हैं, कपड़े, मोबाइल, गहनों की दुकानें हैं और कुछेक होटल भी हैं.

दरेसी की तरफ नाला थोड़ा गाढ़ा बहता है और बारिश में सड़क पर सड़े चमड़े सा गंधाता दलदल उगल देता है. यहां चौकी के तकरीबन ठीक सामने दरेसी रोड के बीचोंबीच अंबेडकर की विशालकाय प्रतिमा एक हाल की दूसरी मंजिल पर खड़ी है, जिस के मुहाने पर लोहे की छड़ों से सजा एक बड़ा सा गेट लगा है.

प्रतिमा के बाएं तरफ की संकरी गली में कसाइयों, मेकैनिकों, वैल्डिंग और पंक्चर वालों की दुकानें हैं और दाईं तरफ एक सीधा रास्ता, जिस पर सुपारी के दानों सी टेढ़ीमेढ़ी दुकानें जहांतहां बिखरी हुई हैं, जिन को पार करते ही कुछ दूरी पर एक गिरासु स्कूल पड़ता है, जहां कोई जाता नहीं, और एक मरासु अस्पताल, जहां कोई जाना नहीं चाहता.

अंबेडकर प्रतिमा के बाएं तरफ वाली संकरी गली के मुहाने पर एक लकड़ी का खोखा रखा था, जिस से मनोज हर शाम कालेज से आने के बाद अपनी साइकिल उठाने से पहले एक सिगरेट खरीद कर पिया करता था. खोखे के मालिक का नाम सज्जन था. 28-30 साल का शख्स, जिसे मनोज ने हमेशा बनियान और तहमद में देखा.

सूरज में तपा हुआ छोटा काला सिर, उस पर उस से काले बाल, जो माथे के किनारों से तकरीबन जा चुके थे. हंसने का बेहद शौकीन. नंगे बच्चों को देख कर हंसता, सड़क पर लड़ते रिकशे वालों को देख कर हंसता, गाली देने पर और खाने पर भी समान भाव से हंसता.

सिगरेट पीतेपीते दिन की 2-4 बातें वे दोनों आपस में बांट लेते थे. मनोज के कालेज से जुड़ी हुई गतिविधियों को, संगोष्ठियों को और पढ़ाईलिखाई से जुड़ी हुई दूसरी बातों को सज्जन बड़े ध्यान से सुनता था.

सज्जन से मिल कर मनोज को चौराहे का हाल पता चलता था कि किसे पुलिस उठा ले गई, किस दुकान में चोरी हो गई, उस का धंधा कैसा चल रहा है, महल्ले की पौलिटिक्स की क्या हवा है, जिस में हर बात के आखिर में वह अपना तकिया कलाम ‘है कि नहीं’ जोड़ देता था.

सज्जन की 2 बेटियां थीं, प्रिया और मोनिका, 5 और 7 साल की, जो एकाध दिन के बाद या तो सज्जन की गोद में बैठ सिगरेट के खाली डब्बी से घर बनाती दिख जाया करतीं या बगल के मंसूर कसाई के लड़कों के साथ सड़क किनारे खेलती हुईं, जिन के साथ वे स्कूल भी जाती थीं.

सज्जन ने कुछेक बार मंसूर का जिक्र किया था और तब से ही उस की शख्सीयत को ले कर एक उत्सुकता हमेशा बनी रही. सज्जन कभीकभी खोखे में बैठा मंसूर को देख कर दूर से हाथ हिला देता था, जिस के जवाब में मंसूर दुकान से सैल्यूट और आदाब से मिलीजुली अदा में अपना हाथ उठा देता.

कुछ दिन बाद मनोज भी मंसूर को दूर से हाथ हिला कर सलाम करने लगा, जिस के जवाब में वही सैल्यूटनुमा आदाब मिलता. 100-150 फुट के फासले से दिखती उस की हलकी छवि… एक धुंधला सा चेहरा, जिस के अलावा उस का कोई दैहिक वजूद नहीं था. वजूद उस के किस्सों का था, जो मनोज को नहीं पता कि कितने सही थे या गलत.

पता चला कि मंसूर की मां हिंदू थीं, जिन का देहांत मंसूर की 14 साल की उम्र में हो गया. पिता को लकवा है और उस का घर कृष्ण जन्मभूमि के नजदीक रेलवे लाइन के पास है.

अपनी मां के पूजापाठ के चलते मंसूर की दुकान में कृष्ण और दुर्गा की तसवीर दिखती है, जिन की वह सुबहशाम लोबान, अगरबत्ती और दीया जला कर पूजा करता है. लोबान काउंटर पर रख दिया जाता है और आरती के समय अगर कोई ग्राहक आ जाए, तो उन्हें प्रेमपूर्वक आरती लेने का आग्रह भी करता है.

‘बस जनेऊ की कमी है, बाकी पूरा पंडित है. है कि नहीं?’ ऐसा भी सुनने को मिल जाता था.

डीग गेट की जो भी खबर अखबार में पढ़ने को मिलती, उन का सज्जन के पास पूरा ब्योरा होता. कभीकभी वह इतना बड़ा होता कि 4-5 सिगरेट खप जाती थीं.

एक दिन अखबार में पढ़ा कि डीग गेट पुलिस ने 8 लोगों के गिरोह को धर दबोचा, जो दरेसी रोड पर बने अस्पताल के मृतकों के कपड़ों को बेचने का धंधा करते थे. इस गिरोह में 2 कपड़ा व्यापारी शामिल थे, जो प्रति कपड़ा दाम तय करते थे और बाद में नए स्टीकर लगा कर उन्हें बेच देते थे.

पूछताछ के बाद गिरोह से तकरीबन 520 बैडशीट, 127 कुरते, 140 शर्ट, 34 धोती, 88 जींसपैंट और 112 ट्रेडमार्क स्टीकर बरामद हुए.

सज्जन ने अगले दिन बताया कि 6 में से 4 लड़के यहीं दरेसी के थे और 2 छटींकरा से आते थे. उन्हें हर कपड़े के 30 और हर बैडशीट के 50 रुपए मिलते थे. दरेसी वाले लड़के तकरीबन 3 साल से बेरोजगार थे और छोटीमोटी चोरीधांधलेबाजी में थाने हो कर आ चुके हैं.

कुछ दिन बाद जब मनोज साइकिल लेने चौकी पहुंचा, तो बहुत से पुलिस वाले हरकत में दिखे. सामान्य से ज्यादा पुलिस बल और पुलिस का इधरउधर दौड़ना कुछ अजीब लगा.

मनोज साइकिल उठा कर सज्जन की दुकान पर पहुंचा, तो सज्जन गायब. उस की पत्नी ने बताया कि किसी काम से गांव गया है, एकाध दिन में आएगा.

मनोज सिगरेट जला कर दुकान के किनारे खड़ा हो गया और सज्जन की गैरहाजिरी में दरेसी रोड को अपने नजरिए से देखने लगा.

मंसूर के दोनों लड़के (सज्जन ने शायद फहीम और जुनैद नाम बताए थे, ठीकठीक याद नहीं) फटेउधड़े कच्छे और मटमैली बनियान पहने सड़क किनारे टायर दौड़ा रहे थे. पसीने से चमकते धूप की कालिख ओढ़े बांस से शरीर, इधर से उधर दौड़ते, हंसते हुए.

टायर दौड़ाते हुए उकता गए तो कहीं से प्लास्टिक की रस्सी ले आए और पास के पेड़ से टांग कर झाला बनाने लगे. झाला टांगने की जद्दोजेहद में भी उतना ही जोश और खुशी जितनी झला झलने में.

सज्जन की पत्नी खोखे में बैठ कर आम खा रही है और उन की महक मनोज को याद दिलाती है कि 3 दिन पुराने आम अब सड़ गए होंगे. उन के मकान में फ्रिज नहीं था, सिर्फ मटका था.

बहरहाल, झाला टंगने के बाद 2-3 बच्चे और आ गए, कोई झांटा दे रहा है, तो कोई अपनी बारी के लिए लड़ रहा है, कोई गागा कर नाच रहा है.

प्रिया और मोनिका भी आ जाती हैं. फहीम झाले से उतर कर लड़कियों को बैठा देता है और सब दोबारा खुशीखुशी झलनेझलाने में उसी जोश से बिजी हो जाते हैं.

इतने में फहीम जुनैद का हाथ पकड़ कर सड़क पार करा कर पानी की टंकी के पास ले जाता है. जुनैद कद में कुछ छोटा है, टोंटी तक नहीं पहुंच पाता. फहीम जुनैद को घुटनों से उचका कर टोंटी तक पहुंचाता है. जुनैद कुछ पानी पीता है, कुछ कपड़ों पर गिराता है, कुछ उस की कुहनियों से रिसते हुए फहीम के कपड़ों पर गिरता है.

पानी पीने के बाद वे दोनों वापस झेले की ओर दौड़ लगाते हैं. मनोज की सिगरेट खत्म होते ही वह घर की राह लेता है.

जब मनोज की सज्जन से भेंट हुई, तो पता चला कि पुलिस एक लड़की की हत्या के केस की तफतीश कर रही है.

सज्जन ने बताया कि लड़की का एक दलित लड़के से प्रेम था. उस ने अखबार की रद्दी से हफ्तेभर पुराना अखबार निकाल कर दिखाया, जिस में एक प्रेमी जोड़े की तसवीर, जो गल्तेश्वर महादेव की पिछली सीढि़यों पर एकदूसरे के कंधे पर सिर रख कर बैठे हुए थे, इस कैप्शन के साथ छपी थी:

‘मंदिर आए हैं तो कुछ पाप भी कर लें-कृष्ण की नगरी में आशिकी परवान चढ़ रही है. गौरतलब है, अगर धार्मिक स्थल भी प्रेम प्रसंग के अड्डे बन जाएंगे, तो पूजापाठ के लिए लोग कहां जाएंगे?’

सज्जन ने आगे बताया कि इस खबर के चलते उस लड़की के घर क्लेश हो गया. लड़की ने उस दिन उसी रंग की सलवारकमीज पहनी थी, जो उस फोटो में नजर आ रहे थे.

लड़की के भाई ने उसे भैंस बांधने वाली जंजीरों से मारमार कर उस की हत्या कर दी. उस की लाश को आंगन के गुसलखाने में छिपा दिया गया.

कुछ दोस्तों से पूछताछ करने पर उस लड़के के बारे में पता चला, जिसे घर वालों ने एफआईआर दर्ज कर जेल में डलवा दिया. पोस्टमार्टम रिपोर्ट बताती है कि लड़की के साथ अप्राकृतिक सैक्स किया गया, उस के नाजुक अंग जलाए गए और जबान काट ली गई. गांव वाले लड़की के घर वालों का समर्थन कर रहे हैं और दलित समुदाय लड़के का.

‘‘मामला राजनीतिक होता जा रहा है. लड़का यहीं अंबेडकर महल्ले का है, तभी तो जनता भी कुछ ज्यादा ही आ रही है. बढ़िया है, हमारी खूब बिक्री हो रही है…’’ एक दुकानदार ने खींसे निपोरते हुए कहा था.

कुछ दिन बाद मनोज के एमए के इम्तिहान शुरू हुए. खोखे पर दूसरेचौथे रोज ही जाना हो पाता था. उस ने लगातार 3-4 दिन मंसूर की दुकान बंद देखी. वह अमूमन अपनी दुकान सिर्फ इतवार को ही बंद रखता था. इस बारे में सज्जन से हर बार बात करने की सोचता, पर भूल जाता.

एक दिन पूछना याद रहा, ‘‘ये मंसूर भाई दुकान क्यों नहीं खोल रहे हैं?’’

‘‘तुम्हें नहीं पता?’’

मनोज ने न में सिर हिलाया. सज्जन ने बताया कि मंसूर के दोनों बेटे महल्ले के तकरीबन 35-40 बच्चों समेत दरेसी के अस्पताल में भरती हैं. कुछ बड़े और बुजुर्ग भी हैं, जिन्हें भरती कराया गया है. शायद दूषित पानी पीने से यह संक्रमण हुआ है.

मंसूर पिछले कुछ दिनों से ज्यादातर अस्पताल में ही रहता है. अपने और महल्ले के बच्चों के लिए जो भी बन पड़ता है, वह करने को तैयार रहता है, लेकिन हालात काफी गंभीर हैं.

सज्जन इतना बता कर ब्लेड से पैर के नाखून काटने लगा. मनोज को महसूस हुआ कि अस्पताल जा कर मंसूर और उस के बच्चों से मिल कर आना चाहिए. उस ने साइकिल उठाई और अस्पताल का रुख किया.

अस्पताल में अफरातफरी का माहौल था. रुदन और चीत्कार की आवाजों ने माहौल और ज्यादा भीषण बना दिया था. जैसेतैसे मंसूर जनरल वार्ड के बाहर की बैंच पर बैठा मिला. उस की काया सुन्न जान पड़ती थी, जैसे कई दिनों से बिना सोए, खाएपिए, बस जिए जा रहा हो.

बैंच पर और भी लोग बैठे थे, सो मनोज ने मंसूर के सामने जा कर उस का नाम पुकारा, ‘‘मंसूर.’’

मंसूर उसे देख कर पहचानने की कोशिश करने लगा. जब उसे याद आया, तो उस ने खड़े हो कर मनोज को आदाब किया. मनोज ने उस का जवाब दिया और उस ने मनोज को अपनी जगह बैठ जाने को कहा. मनोज ने मना कर दिया और कुछ देर वे दोनों एकदूसरे को बैठ जाने की कहते रहे.

इतने में एक आदमी आ कर उस बैंच पर बैठ गया. मनोज और मंसूर कौरिडोर से निकल कर बाहर कंपाउंड में आ गए.

‘‘अब बच्चों की तबीयत कैसी है?’’ मनोज ने पूछा.

‘‘ठीक ही है भैया. फहीम तो पहले से ठीक है. छोटे वाले को 3 दिन से लगातार बुखार है. यहां रोज 1-2 एडमिट हो रहे हैं, 1-2 मर रहे हैं. एक ही बिस्तर पर 3-4 बच्चे रख रखे हैं. ओढ़नेबिछाने का जुगाड़ भी खुद करना पड़ रहा है. कल गिन कर वार्ड में 41 बच्चे थे, जिन पर एक डाक्टर है और 3 नर्स. सम?ा नहीं आ रहा कि क्या करें.’’

मंसूर से पसीने की बहुत तीखी गंध आ रही थी, जिस से उस की बातों पर से कभीकभी ध्यान बंट जाता था. सबकुछ साफसाफ सुनने का कोई खास फायदा नहीं जान पड़ा. समझ नहीं आ रहा था कि मंसूर से ऐसे मौके पर क्या कहे. ऐसे मौके पर क्या कहा जाता है?

फिर अपनी समझ के मुताबिक मनोज ने मंसूर के सामने सिस्टम को कुछ गालियां दीं, इधरउधर की कुछ बातें कीं और जब बातें खत्म होने को आईं, तो मनोज जो करने आया था, उस काम की ओर आगे बढ़ा. उस ने अपने कुरते की जेब से बटुआ निकाल कर मंसूर की तरफ 250 रुपए बढ़ा दिए. मंसूर ने मना कर दिया और मनोज को एक कहानी सुनाई :

एक पंडितजी रोज सुबह जब जमुना स्नान के लिए जाते थे, तो एक कुत्ता उन पर लगातार भूंका करता और कभीकभी पंडितजी को वापस कुटिया की तरफ दौड़ा देता.

पंडितजी बड़े परेशान. उन्हें समझ न आए कि वे क्या करें. कुत्ते को रोटी डालें तो कुत्ता रोटी खा लेता और वापस भूंकने लगता. कुत्ते को डंडे से खदेड़ा तो वापस आ कर पंडितजी की कुटिया के दरवाजे पर पेशाब कर जाता.

पंडितजी कुत्ते से बड़े दुखी. मित्र मंडली को बताया तो वे पंडितजी के हाल पर हंसते. पंडितजी मन ही मन सोचते कि जिस पर बीतती है वही जानता है.

खैर, एक दिन पंडितजी जब जमुना स्नान को डरतेडरते कुटिया से बाहर निकले तो उन्हें वह कुत्ता नहीं दिखा. वे झटपट स्नान कर के वापस आ गए. अगले दिन भी कुत्ता नहीं दिखा. पंडितजी ने यह बात अपनी मित्र मंडली को बताई.

मंडली में मौजूद एक मित्र ने बताया कि अब पंडितजी को डरने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि उस कुत्ते को पास ही के जंगल के तेंदुए ने खा लिया है.

मनोज और मंसूर कुछ देर चुप रहे. वह चुप्पी काफी लंबी जान पड़ी. फिर मंसूर ने कहा, ‘‘बच्चों से नहीं मिलेंगे?’’

‘‘अभी थोड़ा जल्दी में हूं, कल आता हूं. या उस से बेहतर है कि अब बच्चों से दुकान पर आ कर ही मिलूंगा. 1-2 दिन में तो आने ही वाले हैं,’’ मनोज ने साइकिल का स्टैंड गिराते हुए कहा.

‘‘ठीक है भैया.’’

कुछ दिन बाद अखबार देखा तो पता चला कि अस्पताल में औक्सीजन की कमी के चलते 38 लोगों की मौत हो गई. मनोज तुरंत साइकिल निकाल कर सज्जन की दुकान पर जा पहुंचा.

सज्जन ने बताया कि मंसूर के दोनों लड़के खत्म हो गए. साथ ही, यह भी बताया कि अस्पताल के बकाया औक्सीजन बिल न भरने के चलते सप्लाई काट दी गई और उस के तुरंत बाद जो औक्सीजन टैंक दिल्ली से मंगाया गया, उसे एक बहुचर्चित राष्ट्रीय पार्टी के कार्यकर्ताओं ने रोक कर उस का पूजन किया.

पहले मीडिया, फिर पार्टी के जिलाध्यक्ष का इंतजार किया गया, एकदूसरे को माला पहना कर फोटो खिंचवाए गए, मिठाई बंटवाई गई और आखिर में ट्रक को गुब्बारे, फूल, झलर से सजा कर अस्पताल के लिए रवाना किया गया.

आज सुबह अखबार में पढ़ा, अस्पताल में भरती 4 और लोगों की मौत हो गई. राष्ट्रीय मीडिया और राजनीतिक पार्टियों का मथुरा में आनाजाना बढ़ गया है. एकदूसरे पर आरोप लगाने का खेल शुरू हो चुका है. कुछेक डाक्टर और दूसरे मुलाजिम सस्पैंड कर दिए गए हैं. अखबारों से इतना ही पता चल सका.

मंसूर की कोई खबर नहीं है. न खोखे के पास टंगे झाले की. कप की निचली सतह से बनी चाय की आकृति को चींटियों ने सभी ओर से घेर लिया है. शाम धकियाए हुए बैल की तरह अलसाए कदमों से मंजिल तलाश रही है. अब आसमान में पतंगें कम हैं, जो हैं वे थोड़ी और हवा के लिए जद्दोजेहद कर रही हैं.

Holi 2024: दाग का सच – क्या था सुनील और ललिया के बीच

पूरे एक हफ्ते बाद आज शाम को सुनील घर लौटा. डरतेडरते डोरबैल बजाई.

बीवी ललिया ने दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘हो गई फुरसत तुम्हें?’’

‘‘हां… मुझे दूसरे राज्य में जाना पड़ा था न, सो…’’

‘‘चलिए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

ललिया के रसोईघर में जाते ही सुनील ने चैन की सांस ली.

पहले तो जब सुनील को लौटने में कुछ दिन लग जाते थे तो ललिया का गुस्सा  देखने लायक होता था मानो कोई समझ ही नहीं कि आखिर ट्रांसपोर्टर का काम ही ऐसा. वह किसी ड्राइवर को रख तो ले, पर क्या भरोसा कि वह कैसे चलाएगा? क्या करेगा?

और कौन सा सुनील बाकी ट्रक वालों की तरह बाहर जा कर धंधे वालियों के अड्डे पर मुंह मारता है.

चाहे जितने दिन हो जाएं, घर से ललिया के होंठों का रस पी कर जो निकलता तो दोबारा फिर घर में ही आ कर रसपान करता, लेकिन कौन समझाए ललिया को. वह तो इधर 2-4 बार से इस की आदत कुछकुछ सुधरी हुई है. तुनकती तो है, लेकिन प्यार दिखाते हुए.

चाय पीते समय भी सुनील को घबराहट हो रही थी. क्या पता, कब माथा सनक उठे.

माहौल को हलका बनाने के लिए सुनील ने पूछा, ‘‘आज खाने में क्या बना रही हो?’’

‘‘लिट्टीचोखा.’’

‘‘अरे वाह, लिट्टीचोखा… बहुत बढि़या तब तो…’’

‘‘हां, तुम्हारा मनपसंद जो है…’’

‘‘अरे हां, लेकिन इस से भी ज्यादा मनपसंद तो…’’ सुनील ने शरारत से ललिया को आंख मारी.

‘‘हांहां, वह तो मेरा भी,’’ ललिया ने भी इठलाते हुए कहा और रसोईघर में चली गई.

खाना खाते समय भी बारबार सुनील की नजर ललिया की छाती पर चली जाती. रहरह कर ललिया के हिस्से से जूठी लिट्टी के टुकड़े उठा लेता जबकि दोनों एक ही थाली में खा रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारी तरफ इतना सारा रखा हुआ है तो मेरा वाला क्यों ले रहे हो?’’

‘‘तुम ने दांतों से काट कर इस को और चटपटा जो बना दिया है.’’

‘‘हटो, खाना खाओ पहले अपना ठीक से. बहुत मेहनत करनी है आगे,’’ ललिया भी पूरे जोश में थी. दोनों ने भरपेट खाना खाया.

ललिया बरतन रखने चली गई और सुनील पिछवाड़े जा कर टहलने लगा. तभी उस ने देखा कि किसी की चप्पलें पड़ी हुई थीं.

‘‘ये कुत्ते भी क्याक्या उठा कर ले आते हैं,’’ सुनील ने झल्ला कर उन्हें लात मार कर दूर किया और घर में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया.

सुनील बैडरूम में पहुंचा तो ललिया टैलीविजन देखती मिली. वह मच्छरदानी लगाने लगा.

‘‘दूध पीएंगे?’’ ललिया ने पूछा.

‘‘तो और क्या बिना पीए ही रह जाएंगे,’’ सुनील भी तपाक से बोला.

ललिया ने सुनील का भाव समझ कर उसे एक चपत लगाई और बोली, ‘‘मैं भैंस के दूध की बात कर रही हूं.’’

‘‘न… न, वह नहीं. मेरा पेट लिट्टीचोखा से ही भर गया है,’’ सुनील ने कहा.

‘‘चलो तो फिर सोया जाए.’’

ललिया टैलीविजन बंद कर मच्छरदानी में आ गई. बत्ती तक बुझाने का किसी को होश नहीं रहा. कमरे का दरवाजा भी खुला रह गया जैसे उन को देखदेख कर शरमा रहा था.

वैसे भी घर में उन दोनों के अलावा कोई रहता नहीं था.

सुबह 5 बजे सुनील की आंखें खुलीं तो देखा कि ललिया बिस्तर के पास खड़ी कपड़े पहन रही थी.

‘‘एक बार गले तो लग जाओ,’’ सुनील ने नींद भरी आवाज में कहा.

‘‘बाद में लग लेना, जरा जल्दी है मुझे बाथरूम जाने की…’’ कहते हुए ललिया जैसेतैसे अपने बालों का जूड़ा बांधते हुए वहां से भाग गई.

सुनील ने करवट बदली तो ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर हाथ पड़ गया.

ललिया के अंदरूनी कपड़ों की महक सुनील को मदमस्त कर रही थी.

सुनील ललिया के लौटने का इंतजार करने लगा, तभी उस की नजर ललिया की पैंटी पर बने किसी दाग पर गई. उस का माथा अचानक से ठनक उठा.

‘‘यह दाग तो…’’

सुनील की सारी नींद झटके में गायब हो चुकी थी. वह हड़बड़ा कर उठा और ध्यान से देखने लगा. पूरी पैंटी पर कई जगह वैसे निशान थे. ब्रा का मुआयना किया तो उस का भी वही हाल था.

‘‘कल रात तो मैं ने इन का कोई इस्तेमाल नहीं किया. जो भी करना था सब तौलिए से… फिर ये…’’

सुनील का मन खट्टा होने लगा. क्या उस के पीछे ललिया के पास कोई…? क्या यही वजह है कि अब ललिया उस के कई दिनों बाद घर आने पर झगड़ा नहीं करती? नहींनहीं, ऐसे ही अपनी प्यारी बीवी पर शक करना सही नहीं है. पहले जांच करा ली जाए कि ये दाग हैं किस चीज के.

सुनील ने पैंटी को अपने बैग में छिपा दिया, तभी ललिया आ गई, ‘‘आप उठ गए… मुझे देर लग गई थोड़ी.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर सुनील बाथरूम में चला गया.

जब वह लौटा तो देखा कि ललिया कुछ ढूंढ़ रही थी.

‘‘क्या देख रही हो?’’

‘‘मेरी पैंटी न जाने कहां गायब हो गईं. ब्रा तो पहन ली है मैं ने.’’

‘‘चूहा ले गया होगा. चलो, नाश्ता बनाओ. मुझे आज जल्दी जाना है,’’ सुनील ने उस को टालने के अंदाज में कहा.

ललिया भी मुसकरा उठी. नाश्ता कर सुनील सीधा अपने दोस्त मुकेश के पास पहुंचा. उस की पैथोलौजी की लैब थी.

सुनील ने मुकेश को सारी बात बताई. उस की सांसें घबराहट के मारे तेज होती जा रही थीं.

‘‘अरे, अपना हार्टफेल करा के अब तू मर मत… मैं चैक करता हूं.’’ सुनील ने मुकेश को पैंटी दे दी.

‘‘शाम को आना. बता दूंगा कि दाग किस चीज का है,’’ मुकेश ने कहा.

सुनील ने रजामंदी में सिर हिलाया और वहां से निकल गया.

दिनभर पागलों की तरह घूमतेघूमते शाम हो गई. न खाने का होश, न पीने का. वह धड़कते दिल से मुकेश के पास पहुंचा.

‘‘क्या रिपोर्ट आई?’’

मुकेश ने भरे मन से जवाब दिया, ‘‘यार, दाग तो वही है जो तू सोच रहा है, लेकिन… अब इस से किसी फैसले पर तो…’’

सुनील जस का तस खड़ा रह गया. मुकेश उसे समझाने के लिए कुछकुछ बोले जा रहा था, लेकिन उस का माथा तो जैसे सुन्न हो चुका था.

सुनील घर पहुंचा तो ललिया दरवाजे पर ही खड़ी मिली.

‘‘कहां गायब थे दिनभर?’’ ललिया परेशान होते हुए बोली.

‘‘किसी से कुछ काम था,’’ कहता हुआ सुनील सिर पकड़ कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘तबीयत तो ठीक है न आप की?’’ ललिया ने सुनील के पास बैठ कर उस के कंधे पर हाथ रखा.

‘‘सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कहते हुए ललिया रसोईघर में चली गई.

सुनील ने ललिया की पैंटी को गद्दे के नीचे दबा दिया.

चाय पी कर वह बिस्तर पर लेट गया.

रात को ललिया खाना ले कर आई और बोली, ‘‘अजी, अब आप मुझे भी मार देंगे. बताओ तो सही, क्या हुआ? ज्यादा दिक्कत है, तो चलो डाक्टर के पास ले चलती हूं.’’

‘‘कुछ बात नहीं, बस एक बहुत बड़े नुकसान का डर सता रहा है,’’ कह कर सुनील खाना खाने लगा.

‘‘अपना खयाल रखो,’’ कहते हुए ललिया सुनील के पास आ कर बैठ गई.

सुनील सोच रहा था कि ललिया का जो रूप अभी उस के सामने है, वह उस की सचाई या जो आज पता चली वह है. खाना खत्म कर वह छत पर चला गया.

ललिया नीचे खाना खाते हुए आंगन में बैठी उस को ही देख रही थी.

सुनील का ध्यान अब कल रात पिछवाड़े में पड़ी चप्पलों पर जा रहा था. वह सोचने लगा, ‘लगता है वे चप्पलें भी इसी के यार की… नहीं, बिलकुल नहीं. ललिया ऐसी नहीं है…’

रात को सुनील ने नींद की एक गोली खा ली, पर नींद की गोली भी कम ताकत वाली निकली.

सुनील को खीज सी होने लगी. पास में देखा तो ललिया सोई हुई थी. यह देख कर सुनील को गुस्सा आने लगा, ‘मैं जान देदे कर इस के सुख के लिए पागलों की तरह मेहनत करता हूं और यह अपना जिस्म किसी और को…’ कह कर वह उस पर चढ़ गया.

ललिया की नींद तब खुली जब उस को अपने बदन के निचले हिस्से पर जोर महसूस होने लगा.

‘‘अरे, जगा देते मुझे,’’ ललिया ने उठते ही उस को सहयोग करना शुरू किया, लेकिन सुनील तो अपनी ही धुन में था. कुछ ही देर में दोनों एकदूसरे के बगल में बेसुध लेटे हुए थे.

ललिया ने अपनी समीज उठा कर ओढ़ ली. सुनील ने जैसे ही उस को ऐसा करते देखा मानो उस पर भूत सा सवार हो गया. वह झटके से उठा और समीज को खींच कर बिस्तर के नीचे फेंक दिया और फिर से उस के ऊपर आ गया.

‘‘ओहहो, सारी टैंशन मुझ पर ही उतारेंगे क्या?’’ ललिया आहें भरते हुए बोली.

सुनील के मन में पल रही नाइंसाफी की भावना ने गुस्से का रूप ले लिया था.

ललिया को छुटकारा तब मिला जब सुनील थक कर चूर हो गया.

गला तो ललिया का भी सूखने लगा था, लेकिन वह जानती थी कि उस का पति किसी बात से परेशान है.

ललिया ने अपनेआप को संभाला और उठ कर थोड़ा पानी पीने के बाद उसी की चिंता करतेकरते कब उस को दोबारा नींद आ गई, कुछ पता न चला.

ऐसे ही कुछ दिन गुजर गए. हंसनेहंसाने वाला सुनील अब बहुत गुमसुम रहने लगा था और रात को तो ललिया की एक न सुनना मानो उस की आदत बनती जा रही थी.

ललिया का दिल किसी अनहोनी बात से कांपने लगा था. वह सोचने लगी थी कि इन के मांपिताजी को बुला लेती हूं. वे ही समझ सकते हैं कुछ.

एक दिन ललिया बाजार गई हुई थी. सुनील छत पर टहल रहा था. शाम होने को थी. बादल घिर आए थे. मन में आया कि फोन लगा कर ललिया से कहे कि जल्दी घर लौट आए, लेकिन फिर मन उचट गया.

थोड़ी देर बाद ही सुनील ने सोचा, ‘कपड़े ही ले आता हूं छत से. सूख गए होंगे.’

सुनील छत पर गया ही था कि देखा पड़ोसी बीरबल बाबू के किराएदार का लड़का रंगवा जो कि 18-19 साल का होगा, दबे पैर उस की छत से ललिया के अंदरूनी कपड़े ले कर अपनी छत पर कूद गया. शायद उसे पता नहीं था कि घर में कोई है, क्योंकि ललिया उस के सामने बाहर गई थी.

यह देख कर सुनील चौंक गया. उस ने पूरी बात का पता लगाने का निश्चय किया. वह भी धीरे से उस की छत पर उतरा और सीढि़यों से नीचे आया. नीचे आते ही उस को एक कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दीं.

सुनील ने झांक कर देखा तो रंगवा अपने हमउम्र ही किसी गुंडे से दिखने वाले लड़के से कुछ बातें कर रहा था.

‘‘अबे रंगवा, तेरी पड़ोसन तो बहुत अच्छा माल है रे…’’

‘‘हां, तभी तो उस की ब्रापैंटी के लिए भटकता हूं,’’ कह कर वह हंसने लगा.

इस के बाद सुनील ने जो कुछ  देखा, उसे देख कर उस की आंखें फटी रह गईं. दोनों ने ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर अपना जोश निकाला और रंगवा बोला, ‘‘अब मैं वापस उस की छत पर रख आता हूं… वह लौटने वाली होगी.’’

‘‘अबे, कब तक ऐसे ही करते रहेंगे? कभी असली में उस को…’’

‘‘मिलेगीमिलेगी, लेकिन उस पर तो पतिव्रता होने का फुतूर है. वह किसी से बात तक नहीं करती. पति के बाहर जाते ही घर में झाड़ू भी लगाने का होश नहीं रहता उसे, न ही बाल संवारती है वह. कभी दबोचेंगे रात में उसे,’’ रंगवा कहते हुए कमरे के बाहर आने लगा.

सुनील जल्दी से वापस भागा और अपनी छत पर कूद के छिप गया.

रंगवा भी पीछे से आया और उन गंदे किए कपड़ों को वापस तार पर डाल कर भाग गया.

सुनील को अब सारा मामला समझ आ गया था. रंगवा इलाके में आएदिन अपनी घटिया हरकतों के चलते थाने में अंदरबाहर होता रहता था. उस के बुरे संग से उस के मांबाप भी परेशान थे.

सुनील को ऐसा लग रहा था जैसे कोई अंदर से उस के सिर पर बर्फ रगड़ रहा है. उस का मन तेजी से पिछली चिंता से तो हटने लगा, लेकिन ललिया की हिफाजत की नई चुनौती ने फिर से उस के माथे पर बल ला दिया. उस ने तत्काल यह जगह छोड़ने का निश्चय कर लिया.

ललिया भी तब तक लौट आई. आते ही वह बोली, ‘‘सुनिए, आप की मां को फोन कर देती हूं. वे समझाएंगी अब आप को.’’

सुनील ने उस को सीने से कस कर चिपका लिया, ‘‘तुम साथ हो न, सब ठीक है और रहेगा…’’

‘‘अरे, लेकिन आप की यह उदासी मुझ से देखी नहीं जाती है अब…’’

‘‘आज के बाद यह उदासी नहीं दिखेगी… खुश?’’

‘‘मेरी जान ले कर ही मानेंगे आप,’’ बोलतेबोलते ललिया को रोना आ गया.

यह देख कर सुनील की आंखों से भी आंसू छलकने लगे थे. वह सिसकते हुए बोला, ‘‘अब मैं ड्राइवर रख लूंगा और खुद तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा समय…’’

प्यार उन के चारों ओर मानो नाच करता फिर से मुसकराने लगा था.

धूप के रेशे मुलायम हैं : गुलाब सिंह का गांव

‘‘ब बा, मैं भी ऐसे ही मजबूत कट्टे बनाऊंगा, जैसे तुम बनाते हो. जैसे तुम्हारे बनाए कट्टे फायर करते समय नहीं फटते, ठीक वैसे ही कट्टे मैं भी बनाऊंगा,’’ करमजीत कार के स्टेयरिंग वाले पाइप को काट कर तराशते हुए अपने बाप गुलाब सिंह की तरफ देखते हुए बोला.

हालांकि, गुलाब सिंह करमजीत के सामने ही कट्टे बनाने का काम करता है, लेकिन उस का लड़का बड़ा हो कर कट्टे बनाएगा, यह बात सुन कर गुलाब सिंह के कान खड़े हो गए. उस के सीने में जैसे किसी ने बरछा मार दिया हो.

महज 13 साल के लड़के के मुंह से ऐसी बात सुन कर गुलाब सिंह को बेहद अचरज हुआ था, लेकिन वह सोच रहा था कि जब करमजीत भी कट्टा बनाएगा, तो उसे भी पुलिस दबिश दे कर खोजेगी, उसे भी जंगलों में महीनों तक रह कर दिन बिताने पड़ेंगे.

पाइप मोड़तेमोड़ते गुलाब सिंह के हाथ वहीं रुक गए. वह यादों के धुंधलके में कहीं गहरे उतरता गया.

गुलाब सिंह का गांव पैतनपुर में जन्म हुआ था. वह बचपन से ही इसी माहौल में पलाबढ़ा था. उस के पिताजी भी कट्टे ही बनाते थे. कोई 300-400 लोग रहते थे इस गांव में. सब का यही धंधा था, कट्टा बनाने का. कानूनी तरीके से यहां कुछ नहीं होता था, सबकुछ परदे के पीछे से होता था.

बहुत कम मेहनत और बहुत कम लागत में बन जाता था कट्टा, फिर उसे बाहर ले जा कर बेचने की भी टैंशन नहीं थी. दूरदराज के अपराधी किस्म के लोग अपनी सुविधा के मुताबिक गुलाब सिंह से कट्टे खरीद कर ले जाते थे खासकर छोटेमोटे दूरदराज के इलाकों में कट्टे की बहुत डिमांड रहती थी.

चुनाव के समय तो इन देशी कट्टों की मांग बहुत बढ़ जाती थी. लोकल नेता भी अपने गुरगों की मदद से इस गांव से माल ले जाते थे, चुनावों में दबिश देने के लिए, बूथ कैप्चरिंग के लिए. लेकिन, गांव पैतनपुर से इन नेताओें का केवल चुनाव तक ही नाता रहता था. चुनाव के बाद वे इधर झांकते भी नहीं थे.

इस कट्टे वाले धंधे में नौजवानों के बीच खासा पैशन दिखता था. इतना पैशन कि पूछो ही मत. एक ऐसा पैशन, जिसे गुलाब सिंह ने करमजीत की आंखों में अभीअभी देखा था.

एक ऐसा पैशन, जिस का इस्तेमाल वहां के नेता इन नौजवानों और किशोरों का कार के स्टेयरिंग वाले पाइप की तरह कट्टा बनाने में करते थे. हाथ नौजवानों का जलता था और ये नेता नौजवानों को एक सपना दिखा कर उस में अपना हाथ सेंकते थे. एक क्रूर हिंसक सपना, ऐसा सपना जो कभी पूरा नहीं हो सकता.

नशाखोरी और हिंसा ने गांव पैतनपुर को अपनी गिरफ्त में ऐसे कसा था, जैसे कोई अजगर किसी आदमी को अपने जबड़े में कसता है.

गुलाब सिंह को लगा कि उस के बेटे करमजीत को भी कोई बहका रहा है, कोई ऐसा सब्जबाग दिखा रहा है, जिस में करमजीत कल को उस क्षेत्र का कोई रसूखदार आदमी बन जाएगा या कोई भाईवाई टाइप का आदमी.

लेकिन, करमजीत एक कट्टे बनाने वाले का बेटा है. उस को कोई कैसे सब्जबाग दिखा सकता है? लेकिन ऐसा हो भी तो सकता है. आखिर छोटेछोटे बच्चे ही तो अपराधियों के सौफ्ट टारगेट होते हैं, बिलकुल कार के पाइप की तरह, जिन से कट्टा बनता है. लचीले और नाजुक. उन्हें केवल तपाना भर होता है, फिर अपने हथौड़े से ठोंकपीट कर मनचाहा आकार दे दो.

आखिर जिन राज्यों में शराब बैन है, वहां के अपराधी भी तो बच्चों का सहारा ले कर ही शराब की एक जगह से दूसरी जगह तस्करी करते हैं. पुराना तरीका बदल गया है. आजकल पुलिस भी तो इन तस्करों और अपराधियों की सारी टैक्निक समझ गई है.

थोड़े से पैसों के लालच में नौजवान भटक जाते हैं. यह वही समय होता है, जब ये बच्चे हाथ से निकल जाते हैं. आजकल जो स्मगलिंग होती है, उस में इन नौजवानों को ही तो टारगेट किया जाता है. नशा करने वाला भी नौजवान, नशा बेचने और खरीदने वाले भी नौजवान.

फिर आजकल तो वैब सीरीज का जमाना है. गुलाब सिंह ने कुछ वैब सीरीज देखी हैं. गालियों से नहाते संवाद, फूहड़ पटकथा और घटिया सीन. बातबात में गालीगलौज, छोटीछोटी बात पर ‘ठांय’ से पिस्तौल चलती है और आदमी ढेर हो जाता है. बंदूक का राज हर तरफ दिखाई देता है.

इस देश में ऐसी फिल्में क्यों बन रही हैं और अगर बन भी रही हैं, तो फिर सैंसर बोर्ड का अब क्या काम बचा है, पता नहीं चलता. फिल्मों में अब हीरो केवल बंदूक से बात करता है और उस की बात सुनी भी जा रही है. ठेका नहीं मिलता है, तो बंदूक चल जाती है.

सामाजिक दायरा कितना खराब हो कर सामने आ रहा है इन फिल्मों में. एक ही औरत के 3-3 लोगों से संबंध हैं. ससुर से भी, पति से भी और बेटे से भी. सामाजिक संबंधों की बखिया उधेड़ती आज की ऐसी वैब सीरीजें नौजवानों के अंदर एक जहर भर रही हैं.

बातबात में गालीगलौज, छोटेबड़े को तरजीह न देना. समाज का पूरा तानाबाना बिखर गया है इन वैब सीरीजों से. इन को देख कर ही तो नौजवान ड्रग्स ले रहे हैं, जैसे किसी फिल्म में टुन्ना भैया को ड्रग्स लेते दिखाया गया है और सब से ज्यादा खराब बात यह कि इन वैब सीरीजों में हीरो का विलेन हो जाना है.

किसी भी राह चलती लड़की का दुपट्टा खींच लिया जाना, उसे सरेआम छेड़ा जाना, उस का सामूहिक बलात्कार कर देना और हीरो के रूप में आज का नौजवान अपनेआप को टुन्ना भैया की जगह पाता है. बहुत खुश है आज का नौजवान अपनेआप को उस विलेन के रूप में देख कर. उसे टुन्ना भैया की तरह का बौस बनना है.

पूरा जिला टुन्ना भैया का है. उस के पास पावर है, तो वह सबकुछ हासिल कर सकता है. यहां हीरो किसी अपने पर भी विश्वास नहीं करता, बस उसे गद्दी चाहिए, चाहे जैसे मिले, बाप को मार कर भी.

गिलास के गिरने की आवाज से गुलाब सिंह की तंद्रा टूट गई. उस ने ‘होहो’ की आवाज दी, लेकिन बिल्ली नहीं भागी. ढीठ की तरह खड़ी थी, अब भी खिड़की पर.

गुलाब सिंह उठ कर खिड़की तक गया. इस बार बिल्ली भाग गई. सामने गुरविंदर को देख कर वह चौंक गया. वह किसी लड़के से खड़ा हो कर हंसहंस कर बातें कर रहा था. उस के हाथ में एक पैकेट था, काले रंग की पौलीथिन में.

गुलाब सिंह का दिल फिर से बैठने लगा. गुरविंदर उस के सगे भाई लखविंदर का बेटा था. वह पिछले साल जेल से हो कर आया था, ड्रग्स बेचने के आरोप में. उस पर खालिस्तानी होने का आरोप भी लगा था. पाकिस्तानियों और आतंकवादियों से उस के संबंध हैं, ऐसी चर्चा महल्ले में हो रही थी.

पुलिस कह रही थी कि बाहर देश से ये जो अफीम, कोकीन और हेरोइन आती है, वह हमारे दुश्मन मुल्क पाकिस्तान से आती है. ठीक है, यह बात भी समझ आती है.

गुरविंदर के साथ एक और लड़का पकड़ा गया था. वह माजिद था. एक पाकिस्तनी लड़का. पेशावर से था शायद वह, जैसा कि गुरविंदर बता रहा था. उम्र कोई 20 साल थी. उस का बाप कसाई था रहमत शेख. 2 शादियां कर रखी थीं उस ने. वह माजिद की सगी मां को बहुत मारतापीटता था. माजिद के 8 भाईबहन थे. किसी तरह उस ने 7वीं जमात पास की थी.

एक दिन माजिद का बाप पाकिस्तान में इमरान खान की तहरीर सुनने गया था, फिर उसी रैली में गोली लगने के चलते वह मर गया था. एक तो छोटी उम्र, फिर इतने लोगों की जिम्मेदारियां सिर पर. एक अकेला माजिद भला अकेले क्याक्या करता? लोग महंगाई से उस देश में पहले ही बदहाल थे. सागसब्जी खरीदने के पैसे तो पास में होते नहीं थे, गोश्त कौन खरीदता?

ऐसा नहीं था कि माजिद बेवकूफ था. वह अखबार पढ़ता था. चीजों को समझता था. उस ने अखबारों में ही पढ़ा था कि कुछ साल पहले देश के पूर्व प्रधानमंत्री, जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर मामले थे, देश छोड़ कर अभी लंदन में रह रहे हैं और अब अपने मुल्क में इमरान खान के हटते ही वापसी की तैयारी में हैं.

चुनाव नजदीक आ रहे हैं वहां. ऐसा तो गुलाब सिंह के खुद के देश में भी हो रहा है. यहां के नामचीन भगोड़े बैंकों का पैसा ले कर ब्रिटेन, अमेरिका, यूरोप में अपने कारोबार को जमा रहे हैं.

पड़ोसी देश का भगोड़ा या देशनिकाला प्रधानमंत्री सोने की थाली में मेवों का मजा ले रहा है. वह जो एक भ्रष्टाचारी है.

माजिद जैसे लाखों लोग जो मेहनत करते हैं, सरकार को टैक्स भरते हैं, उन के टैक्स के पैसों से ही ये सरकारें भ्रष्टाचार करती हैं. बड़ीबड़ी गाडि़यों में घूमती हैं. विदेशों में हवाई सफर करती हैं. बावजूद इस के कि वे सब सफेदपोश हैं और माजिद जैसे लोग जरायमपेशा?

जो लोग हथियार या ड्रग्स बेचते हैं, वे इक्केदुक्के होते हैं. सारे काम इन सफेदपोशों और बड़े लोगों की सरपरस्ती के बिना आखिर कैसे हो सकते हैं?

इस को ऐसे समझना चाहिए कि हमारे देश के उन हिस्सों में जहां शराब बैन है, वहां भी शराब बिकती है. लोकल पुलिस को सैट कर लिया जाता है. आबकारी महकमे को उस का हिस्सा जाता है.

इस का एक बड़ा नैटवर्क है. सियासतदां से ले कर अफसरशाह तक सब के सब बिके होते हैं, तभी इतनी तादाद में शराब बनती और बिकती है. कभी जनता की आंखों में धूल झांकने के लिए दीवाली और दशहरे पर दुकानों पर दबिश दी जाती है. छोटेछोटे पौलीथिन और ताड़ी बेचने वालों को पकड़ कर जेल में बंद कर दिया जाता है, अखबार का कौलम भरने के लिए.

कमीशन खाने वाला बड़ा अफसर ही अपने जिले के छोटे अफसरों को डांटताफटकारता है. साल में 10 लोग भी नहीं पकड़े जाते. आखिर जेल मैनुअल और उस की डायरी को मेंटेन भी तो करना होता है. यहां हर बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है.

गुलाब सिंह भी थोड़ीबहुत राजनीति समझता है. वह देख रहा है कि इधर कुछ सालों में हमारे देश से कई बड़े कारोबारी गायब हो गए हैं, बैंकों से बड़ाबड़ा कर्जा ले कर. कोई उन का कुछ नहीं बिगाड़ सका.

क्या यह सब बिना मिलीभगत के होता है? क्या बड़ेबड़े सांसद, विधायक, मंत्री से उन की कोई सांठगांठ नहीं है? बिना सांठगांठ के बैंक इन को इतना बड़ा कर्जा दे देता है? ऐसा कैसे हो सकता है?

नहीं, एक बहुत बड़ी लौबी होती है इन की. मंत्रियों से बड़ा करार होता है इन का. बाहर के देशों में ये बड़े कारोबारी इन मंत्रियों के लिए बैंकों में इन के नाम से पैसे जमा करवा देते हैं. उन के बच्चों के लिए शौपिंग माल, जिम, कांप्लैक्स बनवा देते हैं.

इन पैसों से इन मंत्रियों के लिए विदेशों में जनसमर्थन का जुगाड किया और करवाया जाता है, ताकि उन की राजनीति वहां भी चमकाई जा सके. बड़े कारोबारी वहां भी अपनी जमीन ले सकें, कारखाने लगा सकें, अपना कारोबार विदेशों तक फैला सकें. उन के बनाए गए सामान विदेशों में भी जोरशोर से बिकें. उन की आमदनी लगातार बढ़ती जाए, फिर वहां की सरकार में वे एक मुकाम हासिल करें, अपने लोगों के लिए लौबिंग करें.

चुनाव में सरकार को फंड दिए जाते हैं, जो करोड़ों रुपए के रूप में होते हैं. ये पैसे बड़े कारोबारी सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को बारीबारी से देते हैं. सरकारें आतीजाती रहती हैं, जनता वही रहती है, जो उन के बनाए गए सामान खरीदती है.

गुलाब सिंह का छोटा भाई संतन विकलांग है. उस का एक हाथ नहीं है. घर में बैठेबैठे उस का मन नहीं लगता था. सोचा था कि कोई छोटामोटा कुटीर उद्योग ही लगा ले. इस के लिए कुछ कर्ज बैंक से लेले.

संतन कई बैंकों के चक्कर लगाता रहा, लेकिन हाल वही था. जब तक हाथ पर कुछ रखोगे नहीं, फाइल आगे नहीं बढ़ती. आजकल गुलाब सिंह के बनाए कट्टों पर संतन पौलिश करने का काम करता है.

सरकार इन भगोड़े कारोबारियों के देश में वापस लाने की बात करती है, लेकिन लंदन और दूसरे देशों के कानूनों का मसौदा और उस की पेचीदगियां भी अलगअलग हैं. जो चीज हमारे देश में अपराध है, जरूरी नहीं कि दूसरा देश भी उसे अपराध मान ले.

बैंकों से पैसे ले कर भागे लोग उस देश में जा कर अपने शौपिंग माल खोलते हैं, कारखाने लगाते हैं. वहां लंदन, यूरोप के लोगों के अलावा अमेरिकियों को भी काम मिलता है. अब कोई आदमी बाहर से आ कर उन के देश के लोगों को काम देगा. उस के देश को कमाई देगा. तो ऐसा कौन सा देश है, जो हमारे देश की बात मानेगा और उन भगोड़ों को हमारे सुपुर्द कर देगा? सभी अपनेअपने फायदे से जुड़े हैं.

क्या हमारे देश के लोग नहीं चाहते हैं कि हमारे देश में बड़ीबड़ी कंपनियां लगें, लोगों को रोजगार मिले, बेकारी खत्म हो. दरअसल, दुनिया के सभी मुल्कों में बेरोजगारी एक प्रमुख समस्या के रूप में उभर कर सामने आई है. एक ही देश के 2 राज्यों में बाहरीभीतरी की लड़ाई छिड़ी हुई है.

कुछ साल पहले आस्ट्रेलिया में आईटी के एक छात्र की हत्या हो गई थी. उस देश के लोगों को लगता है कि भारतीय छात्र उन की नौकरियां खाते जा रहे हैं. विदेशों में भारतीय छात्रों पर हाल के सालों में हमले बढ़े हैं. इस की वजह केवल और केवल रोजगार का छिन जाना है.

अपने देश में भी महाराष्ट्र में बिहारियों और उत्तर प्रदेश के लोगों को मारा और भगाया जा रहा है. सब प्राथमिकता सूची में आगे रहना चाहते हैं. अपने लोगों को सब जगह काम मिलना चाहिए, दूसरे लोग हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं.

माजिद या गुरविंदर जैसे लोग थोड़ाबहुत हेरफेर कर लेते हैं, तो इन सरकारों का क्या जाता है? ये तो जीने और खाने के लिए हेरफेर करते हैं, लेकिन ये सत्ता में फेरबदल या हेरफेर नहीं करते.

चुनाव के बाद विधायकों और सांसदों को खरीद कर सियासी पार्टी अपनी सरकार बनवाती है. यह लोकतंत्र की हत्या नहीं तो और क्या है? वकील पैसे ले कर अपराधी को बचाता है. बनिया अनाज में कंकड़पत्थर मिलाता है. ग्वाला दूध में पानी मिलाता है.

सब अपनेअपने लैवल पर हेरफेर करते हैं, अपनीअपनी सुविधा के मुताबिक, फिर देश के इस पार और उस पार सियासतदां एक तरफ हमारी कौम को खतरा है, तो दूसरी तरफ हमारी कौम को खतरा है का राग अलापते हैं और पढ़ाईलिखाई, महंगाई, बेरोजगारी के मुद्दे पर चुप्पी साध लेते हैं.

दोनों देशों की सेनाएं और जनता आपस में लड़ती और मरती रहती है. कभी देखा है कि इस पार के या उस पार के किसी नेता के बच्चे या नेता को मरते हुए? उन के लिए तो वीवीआईपी सिक्योरिटी का इंतजाम होता है. किसी हंगामे में सिक्योरिटी फोर्स नेताजी को सुरक्षित बाहर ले कर निकल जाती है. अखबार के पन्ने पर किसानों और मजदूरों के बच्चे जो या तो पुलिस फोर्स में या सेना में होते हैं, मारे जाते हैं. सरहद पर या वीवीआईपी की सिक्योरिटी में जो गोली खाता है, वह मजदूर या किसान का बेटा ही होता है.

‘‘अजी, सुनते हैं. आज शाम का खाना नहीं बनेगा क्या? जाओ, जा कर जंगल से लकडि़यां बीन लाओ,’’ लाड़ो ने हांक लगाई, तो गुलाब सिंह की तंद्रा फिर से एक बार टूटी.

गुलाब सिंह ने पाइप को आग पर गरम करने वाले पंखे को बंद किया और चल पड़ा जंगल की ओर लकडि़यां चुनने. थोड़ी देर बाद वह एक बोरे में थोड़े से पत्ते चुन कर ले आया.

पैतनपुर छोटा सा गांव है, लेकिन वहां के घरों में उज्ज्वला का अब तक कोई कनैक्शन नहीं आया है. राशनकार्ड भी नहीं बना है गुलाब सिंह का.

सिगड़ी में आग सुलग रही थी. गुलाब सिंह ने पतीली चढ़ाई चाय बनाने के लिए. उस आग में उस को अपना भविष्य भी धूधू कर जलता दिखने लगा था. उस में अब उस आग से आंख मिलाने का ताव नहीं बचा था. वह क्या करेगा, जब उस का बच्चा भी अपराधी बन जाएगा?

गुलाब सिंह के दादापरदादा आजादी के आंदोलन में स्वतंत्रता सेनानियों के लिए तलवार, फरसा, गंड़ासा और भाला बनाते थे, अंगरेजों से लड़ाई के लिए, लेकिन उन दिनों दूसरे लोग या विदेशी हमारे दुश्मन थे. अब अपने लोग हैं, जो सत्ता में बराबर की भागीदारी रखते हैं, लेकिन जनता के हक की बात कभी नहीं करते.

फिर कौन अपने और कौन बेगाने लोग? जो अपने हैं, घोटाले कर रहे हैं. हमारे हिस्से का सबकुछ सफेदपोश बन कर हमारे ही सामने खा जा रहे हैं. भेड़ों का शिकार कुछ भेडि़ए कर रहे हैं. भेड़ों का एक भरापूरा झांड है. भेड़िए शेर की तरह भेड़ को नोंच खाना चाहते हैं और भेड़ों का झांड लाचार हो कर एकदूसरे को ताक रहा है.

इस से भले तो अंगरेज थे, कम से कम आजादी के इतने दिनों के बाद भी बने पुलपुलिया साबुत बचे हैं. यहां तो उद्घाटन के चंद दिन बाद ही पुलपुलिया गिर जा रहे हैं. क्या हुआ आजादी के इतने सालों के बाद भी?

विकास गुलाब सिंह के गांव का रास्ता जैसे भटक सा गया है. उस के गांव में आज भी पक्की सड़क नहीं बनी है. चांपाकल तो हैं, लेकिन उन में पानी नहीं आता. सिस्टम की तरह विकास भी अंधा हो गया है.

‘‘बाबा, काम हो गया क्या? कार वाला पाइप समेट कर रख दूं?’’ करमजीत सिगड़ी पर चढ़ी चाय को देखते हुए बोला.

‘‘नहीं बेटा, कार का पाइप बाद में रखना, पहले इधर आ और मेरे पास आ कर बैठ,’’ गुलाब सिंह

ने कहा, तो करमजीत वहीं पास में आ कर जमीन पर बैठ गया.

‘‘बेटा, कोई भी बाप यह नहीं चाहेगा कि उस का बेटा बड़ा हो कर कट्टा बनाए. कल से मैं कट्टा बनाने का काम छोड़ दूंगा. क्या करूंगा तुम्हें अपराधी बना कर. कल बाहर चला जाऊंगा. तुझे और तेरी मां को भी साथ ले चलूंगा, चेन्नई तेरे मामा के पास.

‘‘तेरा मामा वहां पोर्ट पर काम करता है. वहीं कोई काम खोज लेंगे. न तो अब कट्टा बनाऊंगा और न ही बेचूंगा. अब कभी इस गांव में नहीं लौटेंगे हम. तुझे अपने सामने खत्म होते हुए नहीं देख सकता बेटा,’’ कह कर गुलाब सिंह ने बेटे करमजीत को सीने से

लगा लिया. वह लगातार रोए जा रहा था. करमजीत को अब भी यह समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या है?

लेकिन क्या इतने भर से यह समस्या खत्म हो जानी थी, जबकि उस गांव में सैकड़ों की तादाद में गुलाब सिंह जैसे लोग थे, सैकड़ों की तादाद में करमजीत सिंह और सरहद के उस पार माजिद जैसे लड़के थे?

अपाहिज: पढ़ीलिखी लड़की शहनाज

शहनाज पलंग पर लेटी दिखावे के लिए किताब पढ़ रही थी, पर उस के कान बैठक से उठने वाली आवाजों पर लगे हुए थे.

बैठक में अम्मी, अब्बा, अकबर भैया, सायरा बाजी और अकरम भाईजान बैठे शहनाज की जिंदगी के बारे में फैसला कर रहे थे.

‘‘मेरा तो यही मशवरा है…’’ सायरा बाजी कह रही थीं, ‘‘अगर शहनाज की जिंदगी बरबाद होने से बचानी है, तो यह रिश्ता तोड़ दिया जाए. अनवर किसी भी तरह से शहनाज के काबिल नहीं है.’’

‘‘मेरा भी यही खयाल है…’’ अकरम भाईजान कह रहे थे, ‘‘2 साल में उस ने मांबाप की सारी कमाई लुटा दी है. पता नहीं, किस तरह उस का घर चलता होगा. अगर ऐसे में शहनाज की शादी उस के साथ हो गई, तो वह उस को ठीक तरह से दो वक्त की रोटी भी खाने के लिए नहीं दे पाएगा.’’

‘‘अब्बा, आप आखिर कब तक अपने उस दोस्त की दोस्ती निभाएंगे, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं? क्या उस दोस्ती को निभाने की खातिर अपनी बेटी की जिंदगी बरबाद करना चाहते हैं?’’ अकबर भैया पूछ रहे थे.

‘‘अकबर के अब्बा, मैं तो कहती हूं, बस हो गई आप की यह दोस्ती… इसे अब यहीं खत्म कीजिए. अपनी दोस्ती की सलीब पर मेरी बेटी की जिंदगी मत टांगिए. सवेरे जा कर अनवर की मां से साफसाफ कह दीजिए कि हम रिश्ता तोड़ रहे हैं. वे अनवर के लिए कोई दूसरी लड़की ढूंढ़ लें,’’ अम्मी कह रही थीं.

‘‘ठीक है…’’ अब्बा ठंडी सांस ले कर बोले, ‘‘अगर सब लोगों का यही फैसला है, तो भला मैं किस तरह से खिलाफत कर सकता हूं. पर मेरी एक गुजारिश है, इस मामले को इतनी जल्दी उतावलेपन में खत्म न किया जाए. इतने दिनों तक हम ने राह देखी… कुछ दिन और सही. अगर फिर भी वैसी ही हालत रही, तो मैं खुद यह रिश्ता तोड़ दूंगा.’’

‘‘अब्बा, हम 3 साल तो बेकार कर चुके हैं…’’ अकबर भैया बोले, ‘‘और 3-4 महीने और बेकार कर के क्या फायदा?’’

‘‘बेटे, भला 3-4 महीने और राह देखने में क्या बुराई है? हो सकता है, अनवर के दिन बदल जाएं.’’

‘‘अनवर के दिन तो बदलने से रहे, पर शहनाज की जिंदगी जरूर बिगड़ जाएगी…’’ सायरा बाजी बड़बड़ाईं, ‘‘इस बीच पता नहीं कितने ही अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाएंगे.’’

‘‘कोई रिश्ताविश्ता हाथ से नहीं निकलेगा…’’ अब्बा बोले, ‘‘सारी दुनिया जानती है, शहनाज की मंगनी हो चुकी है. फिर भला कौन उस के लिए रिश्ता ले कर आएगा? मैं कह रहा हूं कि अगर 2-3 महीनों में अनवर नहीं बदला, तो मैं खुद यह रिश्ता तोड़ दूंगा.’’

‘‘ठीक है…’’ अकरम भाईजान बोले, ‘‘अगर यह बात है तो 2-3 महीने और इंतजार करने में कोई बुराई नहीं है.’’ फिर शायद बैठक खत्म हो गई, क्योंकि आवाजें आनी बंद हो गई थीं.

उस बातचीत को सुन कर शहनाज परेशान हो गई. वह सोचने लगी, ‘तो क्या घर वाले मेरा और अनवर का रिश्ता तोड़ देंगे? इन की बातों से तो ऐसा ही लग रहा है. आखिर मांबाप अपनी बेटी की भलाई ही तो चाहते हैं.

‘अनवर की जो हालत है, उसे देखते हुए तो यह रिश्ता बहुत पहले ही टूट जाना चाहिए था. इस तरह का फैसला करना कोई गलत भी नहीं है.’

पर शहनाज खुद बड़ी उलझन में थी. वह न तो खुल कर घर वालों की मुखालफत कर सकती थी, न ही इस फैसले को मान सकती थी. पिछले 3 सालों से उस ने अनवर को अपने होने वाले शौहर के रूप में देखते हुए सपनों के हजारों महल तराशे थे. इस बीच अनवर से बहुत लगाव और प्यार हो गया था. वह इतनी जल्दी और आसानी से उस से दूर नहीं हो सकती थी.

शहनाज की नींद उड़ गई थी. लाख कोशिश कर के भी वह घर वालों के फैसले को कबूल नहीं कर पा रही थी. उस ने पक्का फैसला कर लिया कि वह शादी करेगी तो सिर्फ अनवर से ही, वरना किसी से भी नहीं.

पर जैसेजैसे शहनाज अनवर की हालत के बारे में सोचती, उसे महसूस होता कि वह ऐसे हालात में उस के साथ सुखी नहीं रह सकती.

आखिर में एक ही बात दिल से उठी कि उसे सिर्फ अनवर से ही शादी करनी है, चाहे इस के लिए उसे अपने घर वालों से ही रिश्ता क्यों न तोड़ना पड़े. इस बारे में उस का अनवर से मिलना बहुत जरूरी था. उस ने तय कर लिया कि वह 2-3 दिन में अनवर से मिल कर उसे सारी बातें बता देगी.

अनवर के साथ शहनाज की मंगनी हुए 3 साल बीत चुके थे. वह उस के अब्बा के एक दोस्त का बेटा था. दोनों ही परिवारों के बीच बड़े ही गहरे ताल्लुकात थे. वह अकसर उन के घर आताजाता था और अम्मी के साथ वह भी कभीकभी अनवर के घर चली जाती थी. अनवर तब एमए का इम्तिहान दे रहा था, जब शहनाज की उस के साथ मंगनी हुई थी.

अब्बा को अनवर बहुत पसंद था. घर के सभी लोगों ने भी उन की पसंद को सराहा था. शहनाज के लिए तो इस से बढ़ कर खुशी की बात और क्या हो सकती थी कि उसे अनवर जैसा लड़का जीवनसाथी के रूप में मिले.

शहनाज के घर वालों का खयाल था कि पढ़ाई खत्म करते ही अनवर को कोई अच्छी सी नौकरी मिल जाएगी. नौकरी मिलते ही वे उस का निकाह कर देंगे और उन दोनों की आराम से गुजरेगी.

पढ़ाई पूरी करने के बाद अनवर ने नौकरी की खोज शुरू कर दी, पर 6-7 महीने बाद भी उसे कोई नौकरी नहीं मिल सकी. बेकारी का अजगर उस के गले से लिपटा रहा.

इन 6-7 महीनों में अनवर इतने धक्के खा चुका था कि एकदम नाउम्मीद सा हो गया था. उसे लगने लगा था कि अब उसे नौकरी नहीं मिल सकेगी. किसी ने मशवरा दिया कि जब तक नौकरी नहीं मिल जाती, कोई कारोबार शुरू कर दे. कामधंधा करता रहेगा तो नौकरी न मिलने के चलते जो नाउम्मीदी उसे घेरे रहती है, उस से छुटकारा पा जाएगा.

चौक में अनवर की एक पुरानी दुकान थी, जो किराए पर चढ़ी हुई थी. कुछ पैसे दे कर अनवर ने दुकान खाली करवाई और उस में कपड़े का कारोबार शुरू कर दिया. दुकान खोलने के लिए उस के अब्बा की मौत के बाद बीमा कंपनी से जो पैसा मिला था, वह उस में लगाना पड़ा. साथ ही, एक पुराना मकान भी बेचना पड़ा.

पर वह दुकान नहीं चल सकी. एक तो उस इलाके में कपड़े की पहले से ही कई दुकानें थीं, जो काफी बड़ी थीं. उन से मुकाबला करना मुश्किल था. लोगों की पसंद के बारे में ज्यादा जानकारी न होने की वजह से अनवर सही माल नहीं खरीद सका. उस की दुकान घाटे में चलने लगी.

देखते ही देखते आधी दुकान खाली हो गई, पर एक पैसा भी हाथ में नहीं था और दुकान तो चलती ही नहीं थी. आखिर में उस ने दुकान बंद करने का फैसला ले लिया. सारा माल कम दामों में बेचना पड़ा और हजारों का नुकसान उठाना पड़ा.

कपड़े की दुकान बंद करने के बाद अनवर ने वहां पर साइकिल के पुरजों की दुकान खोली. यह भी उस का एक गलत फैसला था. आसपास साइकिल के पुरजों की कई दुकानें थीं. इस तरह वह भी ठीक तरह से नहीं चल सकी और बंद करनी पड़ी.

फिर अनवर ने स्टेशनरी की दुकान खोली, पर तजरबा न होने की वजह से उस में भी घाटा उठाना पड़ा.

अब दुकान बंद करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं था. इन कोशिशों में अनवर अपने पास की सारी पूंजी भी गंवा चुका था.

दुकान दोबारा किराए पर दे कर फिर से अनवर बेकारी के जंगल में भटकने के लिए निकल पड़ा. कई दिनों तक वह भटकता रहा, उस के बाद उसे एक मामूली सी नौकरी मिली. तनख्वाह सिर्फ 8,000 रुपए महीना मिलती थी.

शहनाज घर वालों से एक सहेली से मिलने का बहाना कर के अनवर से मिलने वहीं पहुंच गई, जहां वह काम करता था.

‘‘शहनाज, तुम और यहां,’’ उसे देख कर अनवर चौंक पड़ा.

‘‘हां, आप से बहुत जरूरी बात करनी है,’’ शहनाज बोली.

वे दोनों पास के एक होटल के केबिन में जा बैठे. शहनाज ने सारी बातें अनवर को बता दीं, जिन्हें सुन कर उस का चेहरा उतर आया.

अनवर दुखभरी आवाज में बोला, ‘‘तुम्हारे घर वालों ने जो फैसला लिया है, बिलकुल सही है शहनाज. सचमुच, मैं किसी काबिल नहीं हूं. मैं तुम्हें कोई सुख नहीं दे सकता. अगर हमारी शादी हुई तो तुम्हारी जिंदगी बरबाद हो जाएगी, क्योंकि मैं एक के पीछे एक मिलने वाली नाकामियों से बुरी तरह टूट चुका हूं.

‘‘मैं जिंदगी में कभी भी कामयाब नहीं हो सकता. लगता है, अब यह नौकरी भी छोड़नी पड़ेगी, क्योंकि मालिक से मेरी नहीं बन रही है. अगर तुम्हारे घर वाले यह रिश्ता तोड़ते हैं, तो मुझे कोई एतराज नहीं होगा…’’

‘‘आप इतने दुखी मत होइए. कोई और काम करने की सोचिए,’’ शहनाज ने उसे धीरज बंधाया.

‘‘नहीं, अब मुझ से कुछ नहीं हो सकता,’’ अनवर भरे गले से बोला, ‘‘मुझ में अब हिम्मत नहीं रही… नाकामियों ने मुझे अपाहिज बना दिया है. अब सारी उम्र मुझे एक अपाहिज की तरह ही रहना है. जो अपना बोझ नहीं उठा सकता, वह दूसरों को सहारा क्या देगा?’’

‘‘आप नाउम्मीद क्यों होते हैं? इस तरह हिम्मत हारने से कोई भी काम नहीं होगा. जीने के लिए तो इस से ज्यादा तकलीफें झेलनी पड़ती हैं. कोई और नया काम शुरू कर दीजिए.’’

‘‘अब तुम ही बताओ, मैं कौन सा काम करूं?’’

‘‘आप ठेकेदार के साथ काम कर रहे हैं, इसलिए आप को इस काम की पूरी जानकारी तो हो गई होगी. आप भी छोटेमोटे ठेके लेने शुरू कर दीजिए. इस नौकरी का तजरबा आप के बहुत काम आएगा?’’

‘‘हां, यह हो सकता है,’’ शहनाज की बात सुन कर अनवर की आंखें चमकने लगीं.

‘‘ठीक है, आप मुझे मिलते रहिए और बताते रहिए कि क्या कर रहे हैं. अब मैं जाती हूं,’’ कहते हुए शहनाज घर चली आई.

3-4 दिन बाद जब शहनाज अनवर से मिली, तो उस ने बताया कि वह नौकरी छोड़ चुका है और अब ठेकेदारी का काम शुरू करने के लिए कोशिश कर रहा है.

फिर जल्दी ही अनवर को नालियां बनाने का छोटा सा ठेका मिल गया. वह बड़े जोश से काम कर रहा था. उस के मजदूर और मिस्तरी भी उस का पूरा साथ दे रहे थे. यह सब देख कर शहनाज बहुत खुश हुई.

शहनाज के घर वालों को भी पता चल गया कि अनवर ने एक नया काम शुरू किया है, पर वे उस का मजाक उड़ाने लगे कि वह इस काम में भी मुंह की खाएगा.

काम खत्म होने के बाद अनवर जब शहनाज से मिला, तो बहुत दुखी और बुझा हुआ था. वह बोला, ‘‘इतनी मेहनत कर के भी कोई फायदा नहीं हुआ. इस ठेके में 15,000 रुपए का घाटा हुआ है. मैं तुम से पहले ही कह चुका था कि मैं जिंदगी में कभी कामयाब नहीं हो सकता.’’

‘‘पर, घाटा किस तरह हुआ?’’

‘‘अंदाजे से ज्यादा माल लगने की वजह से ही घाटा हुआ?’’

‘‘पर अब तो आप को अंदाजा हो गया है कि फलां काम में कितना माल लगता है. अब आप से अंदाजा लगाने में गलती नहीं हो सकती… इसलिए घाटे का कोई सवाल ही नहीं उठता. आप कोई दूसरा ठेका लेने की कोशिश कीजिए.’’

शहनाज के बहुत समझाने पर अनवर इस के लिए राजी हुआ.

एक हफ्ते बाद वह मिला तो बताने लगा कि उसे नगरपालिका की तरफ से कुछ गटर बनाने का ठेका मिला है.

यह काम जब पूरा हुआ तो वह बहुत खुश था. बताने लगा, ‘‘शहनाज, तुम्हें यकीन नहीं होगा… मुझे इस काम में पूरे 25,000 रुपए का मुनाफा हुआ है.’’

कुछ दिनों बाद अनवर को एक और नया ठेका मिल गया. जब वह काम खत्म हुआ तो अनवर बताने लगा कि उसे इस काम में 50,000 रुपए का मुनाफा मिला है और उसे नगरपालिका की ओर से ही एक स्कूल की इमारत बनाने का ठेका भी मिल गया है.

स्कूल की इमारत का काम शुरू हो गया था. उस काम के बाद कई छोटेछोटे दूसरे काम भी अनवर को मिल गए.

पहली बार मिली नाकामी की वजह से अनवर का दिल टूट गया था और वह अपाहिज बन गया था, पर अब उस का हौसला मजबूत था. उसे अपनी कामयाबी पर यकीन होने लगा था.

एक दिन अनवर बोला, ‘‘शहनाज, मैं तो टूट चुका था. अपाहिजों जैसी जिंदगी जी रहा था, पर तुम्हारे दिए गए हौसले ने मुझ अपाहिज के लिए बैसाखी का काम किया.’’

शहनाज के घर में अनवर की कामयाबी की बातें होने लगी थीं:

‘अनवर तो बहुत बड़ा ठेकेदार बन गया है.’

‘उसे कई ठेके मिल रहे हैं.’

‘वह इन ठेकों में खूब पैसा कमा रहा है.’

‘अब देर किस बात की है? वह अच्छाखासा कमा रहा है… जल्द से जल्द कोई तारीख पक्की कर के शहनाज का निकाह कर देना चाहिए.’ ये सब बातें सुन कर शहनाज बहुत खुश थी.

चौपाल : गौमाता के अंतिम संस्कार पर क्यों हुआ बवाल ?

चौधरी नत्था सिंह के घर एक बैठक चल रही थी. एक मैनेजर और कई दूसरे लोग चौधरी नत्था सिंह के ड्राइंगरूम में बैठे सलाह मशवरा कर रहे थे. चौधरी नत्था सिंह जिले के गांवों के चमड़े के ठेकेदार थे. मरे हुए जानवरों का चमड़ा निकलवा कर और उन के अंगों का कारोबारी इस्तेमाल कर के चौधरी साहब करोड़ों रुपए सालाना कमाते थे.

हैरत की बात यह थी कि वे खुद कुछ नहीं करते थे. सभी गांवों में उन के द्वारा बहाल 10-20 दलित तबके के लोग अपने गांवों के मरे हुए जानवरों की लाश उठाते थे और उन का चमड़ा, सींग, चरबी वाला मांस वगैरह चौधरी साहब के गोदाम में भेज देते थे. महीने में 2 बार उन को उन के काम का नकद भुगतान कर दिया जाता था.

चौधरी साहब के पास 2 ट्रैक्टरट्रौली समेत एक जीप और एक दूसरी शानदार कार थी. उन के 6-6 फुट के 2 नौजवान भतीजे लाइसैंसी रायफल ले कर हमेशा उन के साथ रहते थे.

चौधरी साहब की गांवों के दलितों पर इतनी मजबूत पकड़ थी कि पूरे जिले के सांसद, विधायक, डीएम, एसपी उन के साथ अदब और इज्जत के साथ पेश आते थे. वे शहर में एक बड़ी सी कोठी में शान से रहते थे. गांव में उन का 5 बीघे का गोदाम है और तकरीबन 50 बीघा खेती की जमीन वे अपने ही तबके के दूसरे किसानों से खरीद चुके थे.

चौधरी साहब के ज्यादातर दलितों पर सैकड़ों एहसान थे. दवादारू से ले कर पुलिस केसों में उन की मदद करना और शादी में हजारों रुपए की मदद करना उन का शौक ही नहीं, रोजमर्रा का काम था.

किसी से न डरने वाले चौधरी साहब के पास खबर आई कि उन के 2 कामगार जब गाय का चमड़ा निकाल रहे थे, तब कुछ ऊंची जाति वालों ने, जो अपने को गौरक्षक कहते थे, उन्हें बुरी तरह से मारा था. उन में से एक की अस्पताल में मौत हो गई थी.

इलाके के सभी दलित गुस्से में थे. डीएम और एसपी चौधरी साहब से तुरंत मिलना चाहते थे.

चौधरी साहब को याद आई वह पंचायत, जो आजादी के 2 साल बाद ही उन के गांव में दलितों की चौपाल पर हुई थी. तब वे तकरीबन 6 साल के थे. जाट जमींदारों के जोरजुल्मों से तंग आ कर दलितों ने लाठीभाले उठा लिए थे, उन के खेतों में काम करना बंद कर दिया था. आखिर में जाटों द्वारा माफी मांगने पर ही दलितों ने काम करना शुरू किया था.

आज शाम 5 बजे दलितों की चौपाल पर ही इस बात का फैसला होगा… चौधरी साहब ने मजबूती से अपनी बात कही और डीएम व एसपी को संदेश भिजवा दिया. शाम को उन के गांव में माहौल बहुत गरम था.

51 गांवों के दलित लाठीभाले ले कर दलितों की चौपाल पर डटे थे. सैकड़ों की तादाद में हथियारबंद दलित चौपाल के आसपास पूरे महल्ले और घरों की छतों पर मौजूद थे. हवा में इतना जहर घुला था कि कोई भी छोटी सी चिनगारी बड़ा दंगा करा सकती थी. गांव के समझदार लोग चौधरी नत्था सिंह का इंतजार कर रहे थे.

‘जय भीम’ के नारे साथ ही चौधरी नत्था सिंह चौपाल पर पहुंचे थे. डीएम, एमपी, स्कूल के हैडमास्टर निर्मल सिंह, गांव के प्रधान पंडित जयप्रकाश सभी मौजूद थे.

सभी दलित खतरनाक नारे लगाने लगे ‘खून का बदला खून…’ पंचायत में मौजूद लोगों को पसीना आ रहा था. पुलिस के 50-60 जवान अपनी जगह मुस्तैद थे.

अचानक चौधरी नत्था सिंह खड़े हुए. उन की बुलंद आवाज बिना माइक के गूंज उठी, ‘‘गाय का दूध पी कर, घी खा कर, ताकत हासिल करने वाले गौरक्षको सुनो, आज से अपनी मरी हुई गौमाता का अंतिम संस्कार हम नहीं करेंगे. जिस मां का दूध पी कर तुम हम पर जोरजुल्म करते हो, उस के मरने के बाद उस की खाल भी तुम्हीं निकालोगे. कोई भी दलित आज से गौमाता की खाल नहीं निकालेगा, न ही उस की लाश उठाएगा.’’

यह सुन कर ऊंची जाति वालों को जैसे सांप सूघ गया. 2 दिन बाद ही सब ने देखा कि पंडित जयप्रकाश अपने बेटे के साथ मिल कर अपने घेर में एक कब्र खोद रहे थे… अपनी मरी हुई गौमाता का अंतिम संस्कार करने के लिए.

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