Family Story : असली नकली – अलका ने कैसा रंगा दिखाया

Family Story : दिनेश जब थकामांदा औफिस से घर पहुंचा तो घर में बिलकुल अंधेरा था. उस ने दरवाजे पर दस्तक दी. नौकर ने आ कर दरवाजा खोला. दिनेश ने पूछा, ‘‘मैडम बाहर गई हैं क्या?’’

‘‘नहीं, अंदर हैं.’’

सोने के कमरे में प्रवेश करते ही उस ने बिजली का स्विच दबा कर जला दिया. पूरे कमरे में रोशनी फैल गई. दिनेश ने देखा, अलका बिस्तर पर औंधी लेटी हुई है. टाई की गांठ को ढीला करते हुए वह बोला, ‘‘अरे, पूरे घर में अंधेरा कर के किस का मातम मना रही हो?’’

अलका कुछ न बोली.

‘‘सोई हुई हो क्या?’’ दिनेश ने पास जा कर पुकारा. फिर भी कोई उत्तर न पा कर उस ने अलका के माथे पर हलके से हाथ रखा.

‘‘अलका.’’

‘‘मत छुओ मुझे, आप प्यार का ढोंग करते हैं, आप को मुझ से जरा भी

प्यार नहीं.’’

‘‘ओह,’’ दिनेश मुसकराया, ‘‘अरे, यह बात है. मैं ने तो सोचा कि…’’

‘‘कि अलका मर गई. अगर ऐसा होता तो आप के लिए अच्छा होता,’’ अलका रो रही थी.

‘‘अरे, तुम तो रो रही हो. मैं पूछता हूं तुम्हें यह प्रमाणपत्र किस ने दे दिया कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करता?’’

अलका तेवर चढ़ा कर बोली, ‘‘प्रमाणपत्र की क्या आवश्यकता है? मैं इतनी नासमझ तो नहीं. मुझे सब पता है.’’

‘‘ओहो, आज अचानक तुम्हें क्या हो गया है जो इस तरह बरस पड़ीं?’’

अलका आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘आज मैं लेडीज क्लब गई थी, तो…’’ अलका फिर रोने लगी.

दिनेश ने पूछा, ‘‘तो?’’

‘‘क्लब में सब महिलाएं बता रही थीं कि उन के पति को उन से कितना प्रेम है और मैं…’’ अलका फिर सिसकने लगी थी.

दिनेश बड़ा परेशान था. आखिर लेडीज क्लब के साथ पति के प्यार का क्या संबंध है? दिनेश को कुछ समझ नहीं आ रहा था.

अलका रोतेरोते बोली, ‘‘शकुंतला बता रही थी कि उस के पति को उस से इतना प्रेम है कि वह हर महीने कुछ न कुछ उपहार ला कर जरूर देता है. पिछले महीने उस को सोने का एक सैट उपहार में मिला और कल एक बहुत महंगी कांजीवरम की साड़ी मिली है. सरला बता रही थी कि उसे उस के पति ने जड़ाऊ सैट दिया और एक दूसरे सैट के लिए और्डर दिया है. उमा बता रही थी कि उसे हीरे का…’’

‘‘अरे बस भी करो, मुझे जरा सांस तो लेने दो.’’

‘‘हां, हां, ये सब बातें आप को क्यों भाएंगी? आप को क्या मालूम मैं अपने दिल पर पत्थर रखे कैसे मुंह छिपाए बैठी थी. मुझे तो आप ने कभी कुछ नहीं दिया,’’ अलका जोरजोर से रोने लगी.

‘‘अरे अलका, तुम तो सचमुच बच्चों जैसी बातें करती हो. भला प्यार की नापतौल सोने और हीरे से की जाती है? प्यार तो दिल में होता है, पगली.’’

अलका झुंझला कर बोली, ‘‘उमा का पति आप से कितना जूनियर है, सरला का आदमी भी तो आप से जूनियर है. जब आप के जूनियर अफसर अपनी पत्नियों को हीरेजवाहरात का सैट दे सकते हैं, तो आप क्यों नहीं दे सकते? इस का मतलब तो यही है कि आप को मुझ से जरा भी…’’ अलका फिर से आंसू बहाने लगी.

‘‘अलका, मैं जानता हूं ये लोग अपनी पत्नियों को कैसे भेंट देते हैं, मगर मैं उस रास्ते पर नहीं जाना चाहता. अलका, तुम यह सोचो, हमें जो तनख्वाह मिलती है, उस में से घर का किराया दे कर, नौकरचाकर रख कर, अच्छी तरह खापी कर इस महंगाई के दिनों में कितने रुपए बचते हैं? जो थोड़ाबहुत बचता है, उस से हर महीने महंगीमहंगी चीजें खरीद कर लाना असंभव है,’’ दिनेश समझाने की कोशिश कर रहा था.

‘‘मुझे किसी भी तरह वह हीरे का सैट चाहिए,’’ अलका चिल्लाती हुई बोली.

‘‘असंभव,’’ दिनेश रुकरुक कर बोला, ‘‘मैं सचाई के रास्ते पर चलता हूं. मुझे गलत रास्ते पसंद नहीं. रिश्वत लेना मैं गलत समझता हूं. अगर वे गलत तरीके से रुपए कमाते हैं, तो कमाने दो. मगर मैं अपने रास्ते से नहीं हटूंगा. तुम यह अच्छी तरह समझ लो.’’ दिनेश उत्तेजना से हांफ रहा था.

‘‘यही आप का अंतिम निर्णय है?’’ अलका गरजती हुई बोली.

‘‘हां.’’

‘‘तो आप भी जान लीजिए, मुझे जब तक जड़ाऊ सैट नहीं मिलेगा, मैं पानी भी नहीं पिऊंगी.’’

‘‘अरे भई, यह क्या बचपना है. सुनो तो…’’

मगर कौन सुनने वाला था. अलका पैर पटकती हुई दूसरे कमरे में चली गई और उस ने दरवाजा बंद कर लिया.

उस रात न तो अलका ने और न दिनेश ही ने खाना खाया. दिनेश बहुत परेशान था. वह सोच रहा था, ‘जो जिद अलका कर रही है, उसे निभाना उस के लिए असंभव है. तो क्या करे वह? वह अलका की जिद से भलीभांति परिचित था. तो क्या सचमुच अलका भूखहड़ताल कर के अपनी जान दे देगी?’ सोचतेसोचते न जाने कब उस की आंख लग गई. सुबह वह अलका से बोला, ‘‘अलका, हमारी शादी की वर्षगांठ 15 दिनों बाद है न?’’

अलका ने झट मुंह फेर लिया.

‘‘ओह, तुम बोलोगी भी नहीं. अरे, मैं मान गया तुम्हारी शर्त. 15 दिनों बाद देखना मैं तुम्हें क्या उपहार देता हूं,’’ दिनेश खुश नजर आ रहा था.

‘‘क्या?’’ अलका ने अस्फुट स्वर में पूछा.

‘‘मैं तुम्हें एक शानदार सैट उपहार में दूंगा,’’ दिनेश बोला.

‘‘सच?’’

‘‘हां सच,’’ दिनेश बोला, ‘‘और सुनो, हमारी शादी की सालगिरह पर जिनजिन को बुलाना है, उन की एक लिस्ट बना लो.’’

‘‘ओह, आप कितने अच्छे हैं,’’ खुशी से अलका की आंखें चमक उठीं.

आखिर शादी की सालगिरह का दिन आ गया. अलका उस दिन खूब सजधज कर तैयार हुई. वह मन ही मन बोली, ‘अब मैं सब को दिखा दूंगी, मेरा पति मुझे कितना प्यार करता है. सरला, उमा हर कोई मन ही मन जलेंगी.’

एकएक कर के मेहमानों से घर भरने लगा. चारों ओर से बधाइयां आ रही थीं. अलका ‘बहुतबहुत शुक्रिया’ कह कर सब का स्वागत कर रही थी. उधर, दिनेश भी मेहमानों की खातिरदारी में जुटा हुआ था. अचानक दिनेश ने अलका को बुलाया, ‘‘अरे, सुनो, तुम्हारा इन से परिचय करा दूं,’’ और एक बड़ी उम्र के व्यक्ति की ओर इशारा कर के बोला, ‘‘ये हैं मिस्टर हंसराज. मेरे बौस.’’

‘‘नमस्ते,’’ अलका ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘नमस्ते,’’ मिस्टर हंसराज बोले, ‘‘अरे, मिसेज दिनेश, आप ने तो इतनी भारी पार्टी दे डाली. बहुत अच्छा बंदोबस्त किया है आप ने.’’

‘‘जी,’’ अलका कुछ शरमाती हुई बोली.

मिस्टर हंसराज खाना खा रहे थे और खातेखाते अलका से गपशप कर रहे थे. ‘‘सच, दिनेश इतना होनहार और ईमानदार है कि बस पूछिए मत. उस ने तो हमारी कंपनी की आय चौगुनी कर दी. पिछले 20 वर्षों के रिकौर्ड में शायद इतना नफा कभी नहीं हुआ. मेरा बस चले तो ईमानदारी के लिए दिनेश को पद्मश्री का खिताब दिलवा दूं.’’ कह कर मिस्टर हंसराज हंसने लगे.

‘‘’अलका, वह सदा इसी तरह ईमानदारी से काम करता रहा तो मैं बताए देता हूं एक दिन वह…’

वे बात को पूरी न कर पाए. अलका के गले में कुछ अटक गया था. वह खांस रही थी. खांसतेखांसते उस का चेहरा बिलकुल लाल हो गया था. तभी दिनेश भी वहां पहुंच गया और अलका की पीठ को जोरजोर से मलने लगा. अलका ने एक लंबी सांस ली और पूरा गिलास पानी पी गई. गले में अटका भोजन का टुकड़ा नीचे उतर गया था. आंख और मुंह को पोंछती हुई वह फिर खाने का कांटा और छूरी इस प्रकार चलाने लगी जैसे किसी के दिल की चीड़फाड़ कर रही हो.

मिस्टर हंसराज तो पहले ही अपनी बातूनी आदत के लिए विख्यात थे. वे कब चुप रहने वाले थे. वे बहुतकुछ बोलते जा रहे थे, मगर अलका के दिमाग में कुछ भी नहीं घुस रहा था. वे कह रहे थे, ‘‘बात यह है कि दिनेश के प्रति मेरी एक दुर्बलता है…आज अगर मेरा इकलौता पुत्र राजीव जिंदा रहता तो ठीक इसी उम्र का होता. खैर, अरे देखिए, हम भी खाते ही रह गए. सब ने तो खा भी लिया. अगर और ज्यादा देर इधर बैठे रहे तो लोग सोचेंगे, पार्टी का सारा खाना बूढ़ा खा गया.’’ और वे ठहाका मार कर हंसने लगे.

मगर अलका को न जाने क्या होता जा रहा था. उस का दम घुटने लगा. अलका, जो कुछ देर पहले खुशी से फूली नहीं समा रही थी, अब बिलकुल उदास लग रही थी.

सब मेहमानों को विदा कर के रात को जब अलका अपने कमरे में आई तो देखा दिनेश सामने खड़ा मुसकरा रहा है. हंसते हुए उस ने पूछा, ‘‘कहो, कैसी रही? मैं ने कहा था न बहुत शानदार पार्टी दूंगा. अब बोलो, तुम्हारे दिल में अब तो कोई शक नहीं कि…अरे, अलका, तुम रो क्यों रही हो? तुम्हें क्या हुआ? कुछ बोलो तो.’’

अलका दोनों हाथों से अपने गले को पकड़े थी, जैसे उस का दम घुट रहा हो. दिनेश ने प्यार से कहा, ‘‘अलका, क्या तुम्हें…’’ अलका से अब खड़ा नहीं हुआ जा रहा था. वह दिनेश से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगी. और बोली, ‘‘मुझे यह हार काट रहा है. मेरा दम घुट रहा है. मेरी खुशी के लिए तुम ने घूस ली. तुम्हारे बौस को तुम पर कितना विश्वास है, उन की कितनी उच्च धारणाएं हैं तुम्हारे लिए, पर जब उन्हें मालूम होगा कि तुम बेईमान हो, घूसखोर हो तो…’’ अलका का रोना रुक नहीं रहा था.

‘‘मैं ने ही तुम्हें घूस लेने के लिए विवश किया, मैं ने ही तुम्हें गलत रास्ते की ओर पैर बढ़ाने को मजबूर किया. मैं ने बहुत बड़ा गलत काम किया है.’’

‘‘मगर यह बात अब तुम्हारे दिमाग में किस तरह आई?’’

‘‘जब तुम्हारे बौस यह कह रहे थे कि तुम कितने ईमानदार हो तो मेरे दिल में एक तीर सा चुभ रहा था.’’

‘‘मगर अलका, तुम्हें किस ने कहा है कि मैं ने यह पार्टी घूस के पैसों से दी?’’

‘‘वाह, आप ही ने तो कहा था कि जो तनख्वाह आप को मिलती है उस में इतनी खरीदारी नहीं कर सकते. उमा बता रही थी कि उस ने भी बिलकुल ऐसा ही सैट 2 लाख रुपए में लिया था और ऊपर से इतनी शानदार पार्टी. यह सब घूस के पैसे के बिना असंभव है. मुझे ये गहने काटे जा रहे हैं. मुझे नहीं चाहिए, नहीं चाहिए…’’

दिनेश अलका की बात सुन कर ठहाका मार कर हंसने लगा, ‘‘पागल, मैं यों दूसरी औरतों की बातों में नहीं आने वाला. अपनी आंखों से आंसू पोंछ डालो.’’

‘‘क्या?’’ अलका आश्चर्य से दिनेश का मुंह देखने लगी.

‘‘अरे, इस जड़ाऊ सैट का दाम केवल 3 हजार रुपए है.’’

‘‘क्या?’’ अलका ने अविश्वास से दिनेश की ओर देखा.

‘‘हां, यह कोई असली थोड़े ही है, यह तो नकली है. मैं ने सोचा, साल में

2 या 3 बार पहनने के लिए ये नकली गहने ही ठीक हैं. क्या फायदा सोने के उन जेवरों का जो चोरों के भय से बैंक के लौकर में पड़े रहते हैं.’’

‘‘सच, मगर पार्टी में तो बहुत पैसे निकल गए, उस का पैसा कहां से मिला.’’

दिनेश झट से बोला, ‘‘तुम्हारी सोने की करधनी गिरवी रख कर.’’

Short Story : हिसाब – कैसे गड़बड़ा गया उस का हिसाब

Short Story : ‘आज फिर 10 बज गए,’ मेज साफ करतेकरते मेरी नजर घड़ी पर पड़ी. इतने में दरवाजे की घंटी बजी. ‘कौन आया होगा, इस समय. अब तो फ्रिज में सब्जी भी नहीं है. बची हुई सब्जी मैं ने जबरदस्ती खा कर खत्म की थी,’ कई बातें एकसाथ दिमाग में घूम गईं.

थकान से शरीर पहले ही टूट रहा था. जल्दी सोने की कोशिश करतेकरते भी 10 बज गए थे. धड़कते दिल से दरवाजा खोला, सामने दोनों हाथों में बड़ेबड़े बैग लिए चेतना खड़ी थी. आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया, सारी थकान जैसे गायब हो गई और पता नहीं कहां से इतना जोश आ गया कि पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. ‘‘अकेली आई है क्या?’’ सामान अंदर रखते हुए उस से पूछा.

‘‘नहीं, मां भी हैं, औटो वाले को पैसे दे रही हैं.’’ मैं ने झांक कर देखा, वीना नीचे औटो वाले के पास खड़ी थी. वह मेरी बचपन की सहेली थी. चेतना उस की प्यारी सी बेटी है, जो उन दिनों अपनी मेहनत व लगन से मैडिकल की तृतीय वर्ष की छात्रा थी. मुझे वह बहुत प्यारी लगती है, एक तो वह थी ही बहुत अच्छी – रूप, गुण, स्वभाव सभी में अव्वल, दूसरे, मुझे लड़कियां कुछ ज्यादा ही अच्छी लगती हैं क्योंकि मेरी अपनी कोई बेटी नहीं. अपने और मां के संबंध जब याद करती हूं तो मन में कुछ कसक सी होती है. काश, मेरी भी कोई बेटी होती तो हम दोनों अपनी बातें एकदूसरे से कह सकतीं. इतना नजदीकी और प्यारभरा रिश्ता कोई हो ही नहीं सकता.

‘‘मां ने देर लगा दी, मैं देखती हूं,’’ कहती हुई चेतना दरवाजे की ओर बढ़ी. ‘‘रुक जा, मैं भी आई,’’ कहती हुई मैं चेतना के साथ सीढि़यां उतरने लगी.

नीचे उतरते ही औटो वाले की तेज आवाज सुनाई देने लगी. मैं ने कदम जल्दीजल्दी बढ़ाए और औटो के पास जा कर कहा, ‘‘क्या बात है वीना, मैं खुले रुपए दूं?’’ ‘‘अरे यार, देख, चलते समय इस ने कहा, दोगुने रुपए लूंगा, रात का समय है. मैं मान गई. अब 60 रुपए मीटर में आए हैं. मैं इसे 120 रुपए दे रही हूं. 10 रुपए अलग से ज्यादा दे दिए हैं, फिर भी मानता ही नहीं.’’

‘‘क्यों भई, क्या बात है?’’ मैं ने जरा गुस्से में कहा. ‘‘मेमसाहब, दोगुने पैसे दो, तभी लूंगा. 60 रुपए में 50 प्रतिशत मिलाइए, 90 रुपए हुए, अब इस का दोगुना, यानी कुल 180 रुपए हुए, लेकिन ये 120 रुपए दे रही हैं.’’

‘‘भैया, दोगुने की बात हुई थी, इतने क्यों दूं?’’ ‘‘दोगुना ही तो मांग रहा हूं.’’

‘‘यह कैसा दोगुना है?’’ ‘‘इतना ही बनता है,’’ औटो वाले की आवाज तेज होती जा रही थी. सो, कुछ लोग एकत्र हो गए. कुछ औटो वाले की बात ठीक बताते तो कुछ वीना की.

‘‘इतना लेना है तो लो, नहीं तो रहने दो,’’ मैं ने गुस्से से कहा. ‘‘इतना कैसे ले लूं, यह भी कोई हिसाब हुआ?’’

मैं ने मन ही मन हिसाब लगाया कि कहीं मैं गलत तो नहीं क्योंकि मेरा गणित जरा ऐसा ही है. फिर हिम्मत कर के कहा, ‘‘और क्या हिसाब हुआ?’’ ‘‘कितनी बार समझा दिया, मैं 180 रुपए से एक पैसा भी कम नहीं लूंगा.’’

‘‘लेना है तो 130 रुपए लो, वरना पुलिस के हवाले कर दूंगी,’’ मैं ने तनिक ऊंचे स्वर में कहा. ‘‘हांहां, बुला लो पुलिस को, कौन डरता है? कुछ ज्यादा नहीं मांग रहा, जो हिसाब बनता है वही मांग रहा हूं,’’ औटो वाला जोरजोर से बोला.

इतने में पुलिस की मोटरसाइकिल वहां आ कर रुकी. ‘‘क्या हो रहा है?’’ सिपाही कड़क आवाज में बोला.

‘‘कुछ नहीं साहब, ये पैसे नहीं दे रहीं,’’ औटो वाला पहली बार धीमे स्वर में बोला. ‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘दोगुने.’’ ‘‘आप ने कितने रुपए दिए हैं?’’ इस बार हवलदार ने पूछा.

‘‘130 रुपए,’’ वीना ने कहा. ‘‘कहां हैं रुपए?’’ हवलदार कड़का तो औटो वाले ने मुट्ठी खोल दी.

सिपाही ने एक 50 रुपए का नोट उठाया और उसे एक भद्दी सी गाली दी, ‘‘साला, शरीफों को तंग करता है, भाग यहां से, नहीं तो अभी चालान करता हूं,’’ फिर हमारी तरफ देख कर बोला, ‘‘आप लोग जाइए, इसे मैं हिसाब समझाता हूं.’’ हम चंद कदम भी नहीं चल पाई थीं कि औटो के स्टार्ट होने की आवाज आई.

मैं हतप्रभ सोच रही थी कि किस का हिसाब सही था, वीना का, औटो वाले का या पुलिस वाले का?

Love Story : पार्टनर – पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है

Love Story : आवाज में वही मधुरता, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. काम है, करना तो पड़ेगा, कोई लिहाज नहीं है. दुखी हो तो हो जाओ, किसे पड़ी है. बिजनैस देना है तो प्यार से बोलना पड़ेगा. छवि अब भी फोन पर बात करती तो उसी मिठास के साथ कि मानो कुछ हुआ ही नहीं. वैसे कुछ हुआ भी नहीं. बस, एक धुंधली तसवीर को डैस्क से ड्रौअर के नीचे वाले हिस्से में रखा ही तो है. अब उस की औफिस डैस्क पर केवल एक कंप्यूटर, एक पैनहोल्डर और उस के पसंदीदा गुलाबी कप में अलगअलग रंग के हाइलाइटर्स रखे थे. 2 हफ्ते पहले तक उस की डैस्क की शान थी ब्रांच मैनेजर मिस्टर दीपक से बैस्ट एंप्लौयी की ट्रौफी लेते हुए फोटो. कैसे बड़े भाई की तरह उस के सिर पर हाथ रख वे उसे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रहे थे.

आज उस ने फोटो को नीचे ड्रौअर में रख दिया. अब वह ड्रौअर के निचले हिस्से को बंद ही रखती. वह फोटो उस के लिए बहुत माने रखती थी. इस कंपनी में पिछले 6 महीने से छवि सभी एंप्लौयीज के लिए रोलमौडल थी और दीपक सर के लिए एक मिसाल. छवि ने घड़ी देखी, 5 बजने में अब भी 25 मिनट बाकी थे. अगर उस के पास कोई अदृश्य ताकत होती तो समय की इस बाधा को हाथ से पकड़ कर पूरा कर देती. समय चूंकि अपनी गति से धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था, छवि ने अपने चेहरे पर हाथ रख, आंखों को ढक अपनी विवशता को कुछ कम किया.

अभी तो उसे लौगआउट करने से पहले रीजनल मैनेजर विनोद को दिनभर की रिपोर्टिंग करनी थी, यही सोच कर उस का मन रोने को कर रहा था. अगर उस ने फोन नहीं किया तो कभी भी उन का फोन आ सकता है. औफिस का काम औफिस में ही खत्म हो जाए तो अच्छा है. घर तक ले जाने की न तो उस की ताकत थी और न ही मंशा. यह आखिरी काम खत्म कर छवि एक पंख के कबूतर की तरह अपनी कंपनी के वन बैडरूम फ्लैट में आ गई. फ्लैट की औफव्हाइट दीवारों ने उस का स्वागत उसी तरह किया जैसे उस ने किसी अनजान पड़ोसी को गुडमौर्निंग कहा हो. फ्लैट में कंपनी ने उसे बेसिक मगर ब्रैंडेड फर्नीचर मुहैया करवा रखे थे. कभी उसे लगता घर भी औफिस का ही एक हिस्सा है और वह कभी घर आती ही नहीं. सच भी तो है, पिछले 6 महीने में वह एक बार भी घर नहीं गई थी.

मात्र 100 किलोमीटर की दूरी पर उस का कसबा था, सराय अजीतमल. पर वहां दिलों की बहुत दूरी थी. पिता के देहांत के बाद मां ने पिता के एक दोस्त प्रोफैसर महेश से लिवइन रिलेशन बना लिए. अब छवि का घर, जहां वह 22 साल रही, 2 प्रेमियों का अड्डा बन गया जहां उस के पहुंचने से पहले ही उस के जाने के बारे में जानकारी ले ली जाती.

कभीकभी तो उसे अपनी मां पर आश्चर्य होता कि वह क्या उस के पिता के मरने का ही इंतजार कर रही थी. पिता पिछले 5 सालों से कैंसर से जूझ रहे थे. इसी कारण छवि को बीच में पढ़ाई छोड़ जौब करनी पड़ी और महेश अंकल ने तो मदद की ही थी. यह बात और है कि उसे न चाहते हुए भी अब उन्हें पापा कहना पड़ता.

छवि ने अपनेआप को आईने में देखा और थोड़ा मुसकराई, वह सुंदर लग रही थी. औफिस में नौजवान एंप्लौयी चोरीछिपे उसे देखने का बहाना ढूंढ़ते और कुछेक अधेड़ बेशर्मी के साथ उस से कौफी पीने का अनुरोध करते. दीपक सर की चहेती होने से कोई सीधा हमला नहीं कर पाता. क्या फोन पर रिपोर्टिंग करते समय विनोद सर जान पाते होंगे कि यह एक पंख की कबूतर कौन्ट्रैक्ट की वजह से अब तक इस नौकरी को निभा रही है, हां…दीपक सर का अपनापन भी एक प्रमुख कारण था कि वह दूसरा जौब नहीं ढूंढ़ पाई. क्या पता उन्हें मालूम हो कि औफिस जाना उसे कितना गंदा लगता है.

वह नीचे झुकी, ड्रैसिंग टेबल पर फाइवस्टार रिजोर्ट में 2 दिन और 3 रातों का पैकेज टिकट पड़ा था. मन किया उस के टुकड़ेटुकड़े कर फाड़ कर फेंक दे, पर उस ने केवल एक आह भरी और कमरे की दीवारों को देखने लगी. दीवारों की सफेदी ने उसे पिछले महीने गोवा में समंदर किनारे हुई क्लाइंट मीटिंग की याद दिला दी. मन कसैला हो गया. कैसे समुद्र का चिपचिपा नमकीन पानी बारबार कमर तक टकरा रहा था और 2 क्लाइंट उस से अगलबगल चिपके खड़े थे. उन दोनों की बांहों के किले में वह जकड़ी थी और विनोद सर से ‘चीज’ कह कर एक ग्रुप फोटो लेने में व्यस्त थे.

छवि एक बिन ताज की महारानी की तरह कंपनी और क्लाइंट के बीच होने वाली डील में पिस रही थी. एक लहर ने आ कर उसे गिरा दिया, वह सोचने लगी कि क्या वह सचमुच गिर गई थी. बस, विनोद सर बीचबीच में हौसला बढ़ाते रहते, ‘बिजनैस है, हंसना तो पड़ेगा.’ उन के शब्द याद आते ही उस का मन रोने का किया. उसे लगा इस कमरे की दीवारें सफेद लहरें हैं जो उस के मुंह पर उछलउछल कर गिर रही हैं. वह जमीन पर बैठ गईर् और घुटनों को सीने से लगा सुबकने लगी. अपनी कंपनी से एक कौन्ट्रैक्ट साइन कर उस ने 3 साल की सैलरी का 60 प्रतिशत हिस्सा पहले ही ले लिया था. सारा पैसा पिता की बीमारी में लग गया. छवि का मन रोने से हलका हो गया. थोड़ी राहत मिली तो उठ कर बैड पर बैठ गई. डिनर करने का मन नहीं था, इसलिए सो गई.

सुबह 7 बजे सूरज की किरणें जब परदे को पार कर आंखों में चुभने लगीं तो वह हड़बड़ा कर उठी. वह ठीक 9 बजे औफिस पहुंच गई, उस के पास एक छोटा बैग था. दीपक सर उसे देख कर हलका सा मुसकराए. वह उन से भी छिपती हुई जल्दी से अपने कैबिन में आ कर बैठ गई. 1 घंटा प्रैजैंटेशन बनाने के बाद उसे बड़ी थकान लगने लगी, लगता था कल के रोने ने उस की बहुत ताकत खींच ली थी. तभी फोन बजा और उस का आलस टूटा. दूसरी लाइन पर दीपक सर थे, बोले, ‘‘तुम ने क्या सोचा?’’

ड्रौअर के नीचे के आखिरी खाने में कौन्ट्रैक्ट की कौपी और दीपक सर के साथ उस की फोटो थी. उस ने कौन्ट्रैक्ट को बिना देखे, फोटो को उठा अपने बैग में डाल लिया और बोली, ‘‘आप के साथ पार्टनरशिप,’’ और छवि ने फोन काट दिया. यह कोई पागलपन नहीं था, बल्कि एक सोचासमझा फैसला था. छवि ने ड्रौअर को ताला लगाया और चाबियों को झिझकते हुए, पर दृढ़ता से, पर्स में डाल दिया. 15 दिन लगे पर उसे अपने फैसले पर विश्वास था. फोटो को बैग से निकाल कर एक बार फिर देखा, थोड़ा धुंधला लग रहा था पर उस में अब भी चमक थी.

छवि की आंखों में हलका गीलापन था, कौन्ट्रैक्ट का पैसा दीपक सर की हैल्प से भर पा रही थी. अब वह कंपनी में कभी नहीं आएगी. वह अब आजाद थी. पर 2 दिन और 3 रातें दीपक सर के साथ रिजोर्ट में बिता कर वह उन्हीं के नए फ्लैट में रहेगी, एक पार्टनर बन कर.

Short Story : ठंडा आदमी – कैसी थी मोहन की जिंदगी

Short Story : मोहन 22-23 साल का नौजवान था जो चौधरी सुरजीत सिंह के फार्महाउस पर खेती के काम में मजदूरी करता था. मोहन का चेहरामोहरा अच्छा था. 6 फुट की लंबाई, भरापूरा ताकतवर बदन, चेहरे पर हलकी मूंछ व दाढ़ी.

मोहन दिनभर फार्महाउस पर कभी फसल को पानी लगाता तो कभी फसल की निराईगुड़ाई करता रहता. कभी पशुओं के लिए बरसीम तो कभी चरी खेत से काट कर बिजली से चलने वाले गंड़ासे से काट कर पशुओं के लिए तैयार कर घर भिजवाता यानी दिनभर मोहन अपने काम में लगा रहता था.

सुरजीत सिंह ने फार्महाउस पर ही मोहन के रहने का इंतजाम कर दिया था. बढि़या कमरा, टैलीविजन, कूलर, पंखा सभी चीजों का इंतजाम. खाना भी सुरजीत सिंह के घर से वहां पहुंचा दिया जाता था.

मोहन गरीब घर से था. उस की अभी तक शादी नहीं हुई थी. वह अपने गांव, जो यहां से 28 किलोमीटर दूर था, कभीकभार ही जाता था, वरना सारा समय उस का फार्महाउस पर ही गुजरता था.

मोहन खेती के काम में सुबह जल्दी उठ कर लग जाता था और दोपहर में कुछ देर आराम कर लेता था. उस की मौजूदगी के चलते फार्महाउस को कोई नुकसान पहुंचाने की सोच भी नहीं सकता था पर गांव की 5-6 लड़कियों का एक ग्रुप था जो अकसर इस फिराक में रहता था कि मोहन कब दोपहर में आराम करने जाए और वे मौके का फायदा उठा कर फार्महाउस में घुस कर जल्दीजल्दी घास काट कर गट्ठर बना कर घर लौटे. लेकिन मोहन ने कभी भी इस ग्रुप की चाल को कामयाब नहीं होने दिया.

इस ग्रुप की काम करने की रणनीति भी अलग ही थी. यह ग्रुप दोपहर के समय घर से खेतों के लिए निकलता था जबकि लोग सुबह जल्दी काम पर जा कर दोपहर तक वापस घरों को लौटने लगते थे. सुनसान पड़े खेतों में घुस कर ये लड़कियां मनमाने तरीके से घास काट कर गट्ठर बना कर ले आती थीं.

माया, मेनका, सरिता, मंजू और गीता ये सभी इस ग्रुप की सदस्य थीं. इन की उम्र भी 18-20 साल की थी.

सरिता इन में सब से खूबसूरत थी. सुराहीदार गरदन, पतलेपतले होंठ, गोरा रंग और भरापूरा बदन बरबस किसी का भी ध्यान अपनी तरफ खींच लेता था.

मोहन का रोजाना इन लड़कियां से सामना होता था लेकिन वह इन्हें घास नहीं डालता था. उस को पता था कि एक बार वह उन की मीठीमीठी बातों में आया तो वे पूरी फसल का सत्यानाश कर देंगी.

यही सोच कर मोहन उन से बात नहीं करता और न ही उन को फार्महाउस में घुसने देता था.

लेकिन मोहन कनखियों से सरिता को हसरत भरी निगाहों से देखता रहता था. इस का अंदाजा न केवल सरिता को था बल्कि उस की दूसरी सहेलियों को भी था. घर लौटते वक्त वे सरिता से मजाक करती रहतीं.

एक दिन मंजू ने कहा, ‘‘सरिता, मोहन तुझ पर दिलोजान से मरता है. आज मैं ने देखा था कि वह तेरी छाती पर नजरें गड़ाए हुए था.’’

‘‘चल हट…’’ सरिता ने कहा, ‘‘ऐसावैसा कुछ नहीं है. मोहन बहुत ही सीधासादा लड़का है.’’

लेकिन इश्क और मुश्क छिपाए थोड़े ही छिपते हैं. सरिता भी मोहन को पसंद करती थी. उस को भी वह प्यारा लगता था. वह उस का लंबातगड़ा शरीर देख कर रोमांचित हो उठती थी.

अब मोहन को इस ग्रुप के आने का इंतजार रहने लगा था. सरिता घास काटने के बहाने पीछे रह जाती और उस की बाकी सहेलियां आगे निकल जातीं.

मोहन भी सरिता के करीब पहुंच कर घास कटवाने में उस की मदद कराने के बहाने उस से बातचीत करने लग जाता. दोनों के बीच प्यार पनपने लगा था.

सरिता अब फार्महाउस के अंदर आ कर मोहन के साथ बतियाती रहती. दोनों ने एकदूसरे के घरपरिवार के बारे में जान लिया था. सरिता चाहती थी कि मोहन से उस की जल्दी ही शादी हो जाए, वहीं मोहन का मानना था कि पहले उस के बड़े भाई की शादी होगी, फिर बहन की, उस के बाद उस का नंबर आएगा. उधर सरिता की शादी करने के लिए लड़के की तलाश चल रही थी.

उन दोनों की मुलाकातों का समय बढ़ने लगा था लेकिन ये केवल मुलाकातें थीं, इस से आगे कुछ नहीं.

उस दिन मोहन फार्महाउस पर ट्यूबवैल चला कर खेतों में पानी लगा रहा था. सरिता और उस की सहेलियों का घास काटते बुरा हाल हो गया था.

माया ने मेनका की तरफ आंख दबा कर कहा, ‘‘सरिता, चलो वहां मोहन खेत में पानी लगा रहा?है. ट्यूबवैल चल रहा है. वहां नहाते हैं, कुछ तो राहत मिलेगी.’’

यही सोच कर वे सारी लड़कियां फार्महाउस में ट्यूबबैल के पास बने हौज में नहाने के लिए कूद गईं. पानी में काफी देर तक वे मस्ती करती रहीं. हौज में एकदूसरी को छेड़ती रहीं.

इसी छेड़खानी में सरिता की अंगिया की पट्टी टूट गई. वह हौज से बाहर आ गई. उधर से मोहन भी वहां आ गया था.

मोहन ने उस की अंगयि टूटी देखी तो सरिता ने कहा, ‘‘कल नई ले कर आऊंगी तब देखना.’’

इस के बाद सभी सहेलियां वहां से अपनेअपने गट्ठर उठा कर घर के लिए चल पड़ीं.

अगले दिन सरिता ने नई अंगिया पहनी और अपनी सहेलियों के साथ घास लेने खेतों की तरफ चल पड़ी. दोपहर में वे फार्महाउस पहुंचीं. उस वक्त मोहन अपने कमरे में आराम कर रहा था.

सरिता को देख कर मोहन ने पूछा, ‘‘नई अंगिया पहन कर आई है?’’

सरिता ने हां में सिर हिलाया. फिर कमीज ऊपर कर के मोहन को अपनी नई अंगिया दिखाई.

मोहन ने दूर से देखते हुए कहा, ‘‘अच्छी है.’’

सरिता ने उस का हाथ पकड़ कर अंगिया में घुसाते हुए कहा. ‘‘हाथ लगा कर देख न कितनी मुलायम है.’’

सरिता ने महसूस किया कि मोहन के हाथ में कोई हरकत नहीं है. उसे वह हाथ बेहद ठंडा लगा. काफी देर तक जब कोई हरकत नहीं हुई तो सरिता ने मोहन का हाथ झटक दिया और अपनी कमीज नीचे कर ली. वह वहां से तेजी से निकल कर अपनी सहेलियों के पास पहुंच गई. उसे मोहन बड़ा ही ठंडा आदमी लगा.

इस के बाद सरिता कभी भी मोहन से नहीं मिली.

Short Story : दलित की बेटी – काजल बन गई कलक्टर

Short Story : आज हरीपुर गांव में बड़ी चहलपहल थी. ब्लौक के अफसर, थाने के दारोगा व सिपाही, जो कभी यहां भूल कर भी नहीं आते थे, बड़ी मुस्तैदी दिखा रहे थे. आते भी क्यों नहीं, जिले की कलक्टर काजल जो यहां आने वाली थीं.

तकरीबन 8 महीने पहले काजल ट्रांसफर हो कर इस जिले में आई थीं. दूसरे लोगों के लिए भले ही वे जिले की कलक्टर थीं, लेकिन इस गांव के लिए किसी देवदूत से कम नहीं थीं. तकरीबन 7 महीने पहले उन्होंने इस गांव को गोद लिया था. वैसे तो यह गांव बड़ी सड़क से 3 किलोमीटर की दूरी पर था, लेकिन गांव से बड़ी सड़क तक जाने के लिए लोग कच्चे रास्ते का इस्तेमाल करते थे.

इस गांव की आबादी तकरीबन 2 हजार थी, लेकिन यहां न तो कोई प्राइमरी स्कूल था, न ही कोई डाक्टरी इलाज का इंतजाम था. यहां ज्यादातर मकान मिट्टी की दीवार और गन्ने के पत्तों के छप्पर से बने थे, लेकिन जब से कलक्टर काजल ने इस गांव को गोद लिया है, तब से इस गांव की तसवीर ही बदल गई है.

सरकारी योजनाओं के जरीए अब इस गांव में रहने वाले गरीब व पिछड़े लोगों के मकान पक्के बन गए हैं. हर घर में शौचालय व बड़ी सड़क से गांव तक पक्की सड़क भी बन गई है और आज गांव में बनी पानी की टंकी का उद्घाटन था, जिस से पूरे गांव को पीने का साफ पानी मिल सके. और तो और इस गांव का सरपंच ठाकुर महेंद्र सिंह, जो दलितों को छूता तक नहीं था, भी आज लोगों को बुलाबुला कर मंच के सामने लगी कुरसियों पर बिठा रहा था.

सुबह के तकरीबन 10 बजे कलक्टर काजल का गांव में आना हुआ. सारे अफसरों के साथसाथ ठाकुर महेंद्र सिंह भी माला ले कर उन के स्वागत के लिए खड़ा था, लेकिन कलक्टर काजल ने माला पहनने से इनकार कर दिया.

पानी की टंकी के उद्घाटन से पहले कलक्टर काजल ने ठाकुर महेंद्र सिंह से पूछा, ‘‘ठाकुर साहब, क्या आप मेरे द्वारा छुई गई इस टंकी का पानी पी सकेंगे?’’

ठाकुर महेंद्र सिंह खिसियानी हंसी हंसते हुए बोला, ‘‘अरे मैडम, यह कैसी बात कर रही हैं आप…’’

तब कलक्टर काजल बोलीं, ‘‘ठाकुर साहब, मैं उसी अछूत बुधवा की बेटी कजली हूं, जिसे आप ने अपना हैंडपंप छूने के जुर्म में गांव से बाहर निकाल दिया था…’’ और यह कह कर कलक्टर काजल ने टंकी का वाल्व खोल कर पानी चालू कर दिया. पीछे से लोगों के नारे लगाने की आवाज आने लगी.

ठाकुर महेंद्र सिंह की आंखों के सामने आज से 15 साल पुराना नजारा घूमने लगा.

बुधवा अपनी 12 साल की बेटी कजली के साथ खेतों से गेहूं काट कर घर आ रहा था. चैत का महीना था. कजली को प्यास लगी थी.

वे दोनों ठाकुर महेंद्र सिंह के बगीचे में लगे हैंडपंप के पास से गुजर रहे थे.

कजली बोली थी, ‘बाबा, थोड़ा पानी पी लूं, बड़ी प्यास लगी है.’

बुधवा बोला था, ‘नहीं बेटी, घर चल कर पानी पीना. यह ठाकुर का नल है. अगर किसी ने देख लिया, तो हमारी शामत आ जाएगी.’

कजली बोली थी, ‘बाबा, यहां कोई नहीं है. मैं जल्दी से पानी पी लूंगी. कोई भी नहीं जानेगा,’ इतना कह कर कजली ने हैंडपंप को पकड़ा ही था कि ठाकुर का बेटा रमेश वहां आ गया और कजली को नल पकड़े देख कर आपे से बाहर हो गया. उस ने कजली और बुधवा को खूब भलाबुरा कहा.

इस बात को ले कर गांव में पंचायत बैठी और गांव के सरपंच ठाकुर महेंद्र सिंह ने फरमान सुनाया कि चूंकि कजली ने ठाकुरों के नल को छुआ है, इसलिए उसे और उस के परिवार को गांव से बाहर निकाल दिया जाए.

फिर क्या था. बुधवा का घर तोड़ दिया गया और उन्हें जबरदस्ती गांव से बाहर निकाल दिया गया.

अब ठाकुर महेंद्र सिंह को अपनी उस गलती पर पछतावा हो रहा था. जिस को उस ने गांव से बेइज्जत कर के निकाल दिया था, वही कजली आज इस के जिले की कलक्टर है.

ठाकुर महेंद्र सिंह पुराने खयालों से बाहर निकला, तो देखा कि कलक्टर काजल जाने वाली हैं.

वह दौड़ कर उन के सामने पहुंचा और बोला, ‘‘मुझे माफ कर दो मैडम. मैं पहले जैसा नहीं रहा. अब मैं बदल गया हूं.’’

कलक्टर काजल बोलीं, ‘‘अच्छी बात है ठाकुर साहब. बदल जाने में ही भलाई है,’’ इतना कह कर वे अपनी जीप में बैठ कर चल दीं.

Family Story : परंपरा – दीनदयाल ने कैसे पापड़ बेले

Family Story : नगरनिगम के विभिन्न विभागों में काम कर के रिटायर होने के बाद दीनदयाल आज 6 माह बाद आफिस में आए थे. उन के सिखाए सभी कर्मचारी अपनीअपनी जगहों पर थे. इसलिए सभी ने दीनदयाल का स्वागत किया. उन्होंने हर एक सीट पर 10-10 मिनट बैठ कर चायनाश्ता किया. सीट और काम का जायजा लिया और फिर घर आ कर निश्चिंत हो गए कि कभी उन का कोई काम नगरनिगम का होगा तो उस में कोई दिक्कत नहीं आएगी.

एक दिन दीनदयाल बैठे अखबार पढ़ रहे थे, तभी उन की पत्नी सावित्री ने कहा, ‘‘सुनते हो, अब जल्द बेटे रामदीन की शादी होने वाली है. नीचे तो बड़े बेटे का परिवार रह रहा है. ऐसा करो, छोटे के लिए ऊपर मकान बनवा दो.’’

दीनदयाल ने एक लंबी सांस ले कर सावित्री से कहा, ‘‘अरे, चिंता काहे को करती हो, अपने सिखाएपढ़ाए गुरगे नगर निगम में हैं…हमारे लिए परेशानी क्या आएगी. बस, हाथोंहाथ काम हो जाएगा. वे सब ठेकेदार, लेबर जिन के काम मैं ने किए हैं, जल्दी ही हमारा पूरा काम कर देंगे.’’

‘‘देखा, सोचने और काम होने में बहुत अंतर है,’’ सावित्री बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि आज ही आप नगर निवेशक शर्माजी से बात कर के नक्शा बनवा लीजिए और पास करवा लीजिए. इस बीच सामान भी खरीदते जाइए. देखिए, दिनोंदिन कीमतें बढ़ती ही जा रही हैं.’’

‘‘सावित्री, तुम्हारी जल्दबाजी करने की आदत अभी भी गई नहीं है,’’ दीनदयाल बोले, ‘‘अब देखो न, कल ही तो मैं आफिस गया था. सब ने कितना स्वागत किया, अब इस के बाद भी तुम शंका कर रही हो. अरे, सब हो जाएगा, मैं ने भी कोई कसर थोड़ी न छोड़ी थी. आयुक्त से ले कर चपरासी तक सब मुझ से खुश थे. अरे, उन सभी का हिस्सा जो मैं बंटवाता था. इस तरह सब को कस कर रखा था कि बिना लेनदेन के किसी का काम होता ही नहीं था और जब पैसा आता था तो बंटता भी था. उस में अपना हिस्सा रख कर मैं सब को बंटवाता था.’’

दीनदयाल की बातों से सावित्री खुश हो गई. उसे  लगा कि उस के पति सही कह रहे हैं. तभी तो दीनदयाल की रिटायरमेंट पार्टी में आयुक्त, इंजीनियर से ले कर चपरासी तक शामिल हुए थे और एक जुलूस के साथ फूलमालाओं से लाद कर उन्हें घर छोड़ कर गए थे.

दीनदयाल ने सोचा, एकदम ऊपर स्तर पर जाने के बजाय नीचे स्तर से काम करवा लेना चाहिए. इसलिए उन्होंने नक्शा बनवाने का काम बाहर से करवाया और उसे पास करवाने के लिए सीधे नक्शा विभाग में काम करने वाले हरीशंकर के पास गए.

हरीशंकर ने पहले तो दीनदयालजी के पैर छू कर उन का स्वागत किया, लेकिन जब उसे मालूम हुआ कि उन के गुरु अपना नक्शा पास करवाने आए हैं तब उस के व्यवहार में अंतर आ गया. एक निगाह हरीशंकर ने नक्शे पर डाली फिर उसे लापरवाही से दराज में डालते हुए बोला, ‘‘ठीक है सर, मैं समय मिलते ही देख लूंगा,. ऐसा है कि कल मैं छुट्टी पर रहूंगा. इस के बाद दशहरा और दीवाली त्योहार पर दूसरे लोग छुट्टी पर चले जाते हैं. आप ऐसा कीजिए, 2 माह बाद आइए.’’

दीनदयाल उस की मेज के पास खडे़ रहे और वह दूसरे लोगों से नक्शा पास करवाने पर पैसे के लेनदेन की बात करने लगा. 5 मिनट वहां खड़ा रहने के बाद दीनदयाल वापस लौट आए. उन्होंने सोचा नक्शा तो पास हो ही जाएगा. चलो, अब बाकी लोगों को टटोला जाए. इसलिए वह टेंडर विभाग में गए और उन ठेकेदारों के नाम लेने चाहे जो काम कर रहे थे या जिन्हें टेंडर मिलने वाले थे.

वहां काम करने वाले रमेश ने कहा, ‘‘सर, आजकल यहां बहुत सख्ती हो गई है और गोपनीयता बरती जा रही है, इसलिए उन के नाम तो नहीं मिल पाएंगे लेकिन यह जो ठेकेदार करीम मियां खडे़ हैं, इन से आप बात कर लीजिए.’’

रमेश ने करीम को आंख मार कर इशारा कर दिया और करीम मियां ने दीनदयाल के काम को सुन कर दोगुना एस्टीमेट बता दिया.

आखिर थकहार कर दीनदयालजी घर लौट आए और टेलीविजन देखने लगे. उन की पत्नी सावित्री ने जब काम के बारे में पूछा तो गिरे मन से बोले, ‘‘अरे, ऐसी जल्दी भी क्या है, सब हो जाएगा.’’

अब दीनदयाल का मुख्य उद्देश्य नक्शा पास कराना था. वह यह भी जानते थे कि यदि एक बार नीचे से बात बिगड़ जाए तो ऊपर वाले उसे और भी उलझा देते हैं. यही सब करतेकराते उन की पूरी नौकरी बीती थी. इसलिए 2 महीने इंतजार करने के बाद वह फिर हरीशंकर के पास गए. अब की बार थोडे़ रूखेपन से हरीशंकर बोला, ‘‘सर, काम बहुत ज्यादा था, इसलिए आप का नक्शा तो मैं देख ही नहीं पाया हूं. एकदो बार सहायक इंजीनियर शर्माजी के पास ले गया था, लेकिन उन्हें भी समय नहीं मिल पाया. अब आप ऐसा करना, 15 दिन बाद आना, तब तक मैं कुछ न कुछ तो कर ही लूंगा, वैसे सर आप तो जानते ही हैं, आप ले आना, काम कर दूंगा.’’

दीनदयाल ने सोचा कि बच्चे हैं. पहले भी अकसर वह इन्हें चायसमोसे खिलापिला दिया करते थे. इसलिए अगली बार जब आए तो एक पैकेट में गरमागरम समोसे ले कर आए और हरीशंकर के सामने रख दिए.

हरीशंकर ने बाकी लोगों को भी बुलाया और सब ने समोसे खाए. इस के बाद हरीशंकर बोला, ‘‘सर, मैं ने फाइल तो बना ली है लेकिन शर्माजी के पास अभी समय नहीं है. वह पहले आप के पुराने मकान का निरीक्षण भी करेंगे और जब रिपोर्ट देंगे तब मैं फाइल आगे बढ़ा दूंगा. ऐसा करिए, आप 1 माह बाद आना.’’

हारेथके दीनदयाल फिर घर आ कर लेट गए. सावित्री के पूछने पर वह उखड़ कर बोले, ‘‘देखो, इन की हिम्मत, मेरे से ही सीखा और मुझे ही सिखा रहे हैं, वह नक्शा विभाग का हरीशंकर, जिसे मैं ने उंगली पकड़ कर चलाया था, 4 महीने से मुझे झुला रहा है. अरे, जब विभाग में आया था तब उस के मुंह से मक्खी नहीं उड़ती थी और आज मेरी बदौलत वह लखपति हो गया है और मुझे ही…’’

सावित्री ने कहा, ‘‘देखोजी, आजकल ‘बाप बड़ा न भइया, सब से बड़ा रुपइया,’ और जो परंपराएं आप ने विभाग मेें डाली हैं, वही तो वे भी आगे बढ़ा रहे हैं.’’

परंपरा की याद आते ही दीनदयाल चिंता मुक्त हो गए. अगले दिन 5000 रुपए की एक गड्डी ले कर वह हरीशंकर के पास गए और उस की दराज में चुपचाप रख दी.

हरीशंकर ने खुश हो कर दीनदयाल की फाइल निकाली और चपरासी से कहा, ‘‘अरे, सर के लिए चायसमोसे ले आओ.’’

फिर दीनदयाल से वह बोला, ‘‘सर, कल आप को पास किया हुआ नक्शा मिल जाएगा.’’

Family Story : मदरसे की एक रात – उस रात आखिर क्या हुआ

Family Story : मौलाना राशिद मदरसे में अपने काम में मशगूल थे कि तभी उन के कमरे में बुरके में लिपटी एक औरत 20 सालकी खूबसूरत लड़की के साथ दाखिल हुईं .

मौलाना राशिद ने उन्हें गौर से देख कर पूछा, ‘‘बाहर दरवाजे पर कोई नहीं है क्या?’’

‘‘जी, कोई नहीं है?’’ कह कर वह औरत चुप हो गई.

‘‘कहिए, क्या काम है आप को?’’ मौलाना राशिद ने पूछा.

‘‘जी, यह मेरी बेटी है. इसे मैं ने गोद लिया है. सोचती हूं कि इसे अपने पैरों पर खड़ा कर के इस की शादी करा दूंगी. आप की नेक दुआओं से इस की जिंदगी संवर जाएगी. मुझे किसी दूसरे पर एतबार नहीं है. क्या आप के मदरसे में पढ़ाने के लिए कोई नौकरी है?’’

मदरसे की शर्तों को मानने पर उस लड़की को वहां रख लिया गया. तकरीबन 60 साल की उम्र पूरी कर रहे मौलाना राशिद तकरीबन 20 साल से शहर से लगे एक गांव में मदरसा चला रहे थे. मदरसा खूब फलफूल रहा था.

बीवी की मौत के बाद मौलाना राशिद मदरसे के एक कमरे में रहते थे. मदरसे में ही होस्टल का इंतजाम था, जहां गरीब लड़कियां रहती थीं.

मौलाना राशिद ने वहां के नेताजी के कहने पर एक गांव की विधवा को वार्डन पद पर रखा था, इसलिए उन्हें खानेपीने का सामान व दूसरी सुविधाएं आसानी से मिल जाती थीं.

‘‘जरा सुनिए,’’ मौलाना राशिद ने आवाज दी.

‘‘जी,’’ कह कर वह लड़की पलटी.

‘‘आप मुझे ‘चाचा’ कह सकती हैं. मैं तुम्हें ‘आरजू’ कह कर ही बुलाऊंगा,’’ मौलाना राशिद ने हंसते हुए कहा.

वह लड़की शरमा कर अपनी जमात की ओर बढ़ गई.

‘‘शमा, तुम्हारा चेहरा पीला सा लग रहा है. क्या बात है? तबीयत तो ठीक है न?’’ आरजू ने एक लड़की से पूछा.

‘‘जी, मुझे अपनी तबीयत ठीक नहीं लग रही है.’’

‘‘मैं मौलाना साहब से कह कर तुम्हें छुट्टी दिलवा देती हूं.’’

आरजू ने मौलाना से इस बाबत बात की. मौलाना ने खुद उस का इलाज कराने की बात कह कर डाक्टर को फोन किया.

‘जी मौलाना, उसे वार्डन के साथ अस्पताल भेज दीजिए. मैं देख लूंगा,’ कह कर डाक्टर ने फोन रख दिया.

नेताजी के दोस्त डाक्टर रमेश मदरसे की सभी लड़कियों का इलाज करते थे. इस के एवज में उन्हें नेताओं की सरपरस्ती और काफी रकम मिलती थी.

‘‘अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है. ये गोलियां खिला दो, ठीक हो जाएगी.’’ डाक्टर ने वार्डन से कहा.

2-3 दिन के आराम के बाद शमा ठीक हो गई और मदरसे में जाने लगी. जब भी मौका मिलता, मौलाना राशिद आरजू को अपने औफिस के कमरे में बिठा लेते और बातचीत करते.

मौलाना की बातचीत, हंसमुख स्वभाव के चलते आरजू भी उन के पास बैठ कर समय गुजारती. मौलाना राशिद ने वार्डन को आरजू को उन के करीब लाने की पेशकश की.

वार्डन ने आरजू पर डोरे डालने शुरू कर दिए. जब भी मौका मिलता, वह आरजू से मौलाना राशिद की तारीफ करती. अनजान आरजू भी मौलाना से घुलनेमिलने लगी थी.

वार्डन ने मौलाना राशिद को बताया, ‘‘नेताजी ने होस्टल से नई उम्र की किसी सुंदर लड़की को रात में बुलाया है. अगर आप कहें तो मैं किसी को भेज दूं?’’

‘‘तुम खुद साथ ले कर जाओ. पैसों का लालच दे देना. आधे पैसे उसे दे कर सुबह होने के पहले ही अपने कमरे में सुला लेना ताकि किसी को शक न हो.’’

होस्टल की लड़कियों पर महीने की 2-4 रातें कयामत बन कर आतीं और वे मदरसे के अहाते से निकल कर मजबूरी में अपने जिस्म का सौदा करातीं. उन्हें इतना डरा दिया जाता था कि उन के मुंह से आवाज तक नहीं निकलती थी.

बड़े लोगों, नेताओं की हवस की भूख मिटाने के लिए मदरसे का इस्तेमाल काफी लंबे समय से चल रहा था, जिस की किसी को कानोंकान खबर नहीं थी.

आरजू को मदरसे में बच्चों को पढ़ाते हुए एक साल पूरा होने को आया था. वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. लड़कियां दहशत में जी कर पढ़ाई कर रही थीं. वे न घर पर, न बाहर जबान खोल सकती थीं. कुछ लड़कियां यतीम थीं, जिन्हें पढ़ाई के लिए सरकार की ओर से रखा गया था.

वार्डन को एक  दिन की छुट्टी दे कर मौलाना राशिद ने आरजू को सारी जिम्मेदारी सौंप दी. नियमानुसार दिनरात उसे मदरसे में ही गुजारनी थी.

दिन तो कट गया, अब रात भी गुजारनी थी. खाना खा कर सब लड़कियां सो गईं. मौलाना राशिद के अंदर का शैतान जाग गया. उस की कई दिनों से आरजू के गदराए बदन पर नजर थी.

‘‘आरजू,’’ कहते हुए किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी.

आरजू ने दरवाजा खोला. सामने मौलाना राशिद को देख कर वह बोली, ‘‘जी चाचा.’’

‘‘मेरे पेट में दर्द हो रहा है. जरा गरम पानी से सेंक दो.’’

‘‘जी,’’ कह कर वह खामोश हो गई.

‘‘मैं अपने कमरे में हूं,’’ कह कर मौलाना राशिद लौट गए.

आरजू पास ही बने कमरे में गई तो देखा कि मौलाना बिस्तर पर करवटें लेते हुए कराह रहे थे.

‘‘दरवाजे को बंद कर दो. किसी ने देख लिया तो बेवजह का शक करेगा.’’

दरवाजा बंद कर आरजू मौलाना का गरम पानी की बोतल से पेट सेंकने लगी. मौलाना उस का हाथ पकड़ कर पेटदर्द की जगह बता रहे थे.

आधा घंटे बाद मौलाना ने कहा, ‘‘टेबल पर केतली में चाय रखी है. अभी गरम होगी. एक कप मुझे दे दो और एक कप तुम ले लो.’’

आरजू ने चाय केतली से निकाल कर एक कप मौलाना को दिया, दूसरा कप खुद ले लिया.

‘‘पानी देना,’’ मौलाना ने कहा. आरजू ने देखा कि वहां रखा पानी का जग खाली था.

‘‘मैं अंदर से लाती हूं,’’ कह कर आरजू पानी लेने चली गई.

इसी बीच मौलाना ने तकिए के नीचे से एक पुडि़या निकाल कर उस के कप में मिला दी.

आरजू ने पानी ला कर दिया.

चाय पी कर वह फिर मौलाना का पेट सेंकने लगी.

कुछ देर बाद आरजू को बेहोशी छाने लगी. वह बिस्तर पर ही गिर गई. मौलाना ने उठ कर उसे अपने बगल में लिटाया.

थोड़ी ही देर में मौलाना ने आरजू के कोरे बदन पर गुनाह की एक लकीर खींच दी.

जब आरजू को सुबह होश आया तो उस ने उठ कर अपनेआप को सिर्फ कुरती में पाया. सलवार, जो उस की आबरू का कवच थी, एक तरफ पड़ी सिसक रही थी.

आरजू ने अपने कपड़े संभाले और बिना कुछ कहे मदरसे के गेट के बाहर चली गई.

Social Story : एक्सीडैंट – आखिर क्या थी हरनाम सिंह की गलती

Social Story : सड़क पर ज्यादा भीड़ को देख कर हरनाम सिंह ने ट्रक की रफ्तार कम कर दी. सारी रात ट्रक चलाते रहने के चलते वह बुरी तरह थक गया था. उस की इच्छा थी कि वह किसी ढाबे में चायनाश्ता कर के कुछ देर वहीं आराम करे. शहर खत्म होते ही सड़क खाली पा कर हरनाम सिंह ने ट्रक की रफ्तार फिर बढ़ा दी. उसे सड़क के बीचोंबीच एक मोपैड सवार जाता दिखाई दिया. उस ने साइड मांगने के लिए हौर्न बजाया. हौर्न की आवाज सुन कर मोपैड सवार ने पलट कर देखा और किनारे होने के बजाय मोपैड की रफ्तार बढ़ा दी.

हरनाम सिंह ने देखा कि वह एक 15-16 साल का लड़का था, जो साइड देने के बजाय ट्रक से मुकाबला करने के मूड में दिख रहा था.

हरनाम सिंह का वास्ता ऐसे शरारती लड़कों से पड़ता रहता था. उस पर गुस्सा आने के बजाय हरनाम सिंह के चेहरे पर एक मुसकान आ गई. उसे देख कर हरनाम सिंह को अपने बेटे की याद आ गई. वह भी बहुत शरारती था. हरनाम सिंह धीमी रफ्तार से ट्रक चलाता रहा.

मोपैड सवार को ट्रक से आगे निकलने में काफी मजा आ रहा था. ट्रक को काफी फासले पर देख कर उस ने खुशी में अपना दाहिना हाथ उठा कर हिलाया.

तेज रफ्तार और दाहिना हाथ हैंडल से हट जाने के चलते वह लड़का बैलैंस नहीं रख सका और सिर के बल पथरीली सड़क पर जा गिरा.

हरनाम सिंह मोपैड सवार का ऐसा भयंकर अंजाम देख सकते में आ गया. उस का ट्रक तेज रफ्तार से दौड़ रहा था. एक सैकंड की भी चूक उस लड़के की जान ले सकती थी.

तेज रफ्तार के बावजूद ट्रक घिसटते हुए घायल मोपैड सवार से कुछ पहले ही रुक गया. अचानक ब्रेक लगने के चलते पिछली सीट पर सोया क्लीनर भानु गिरतेगिरते बचा.

‘‘क्या हुआ उस्ताद?’’ भानु ने घबरा कर पूछा, ‘‘गाड़ी क्यों रोक दी?’’

‘‘उस्ताद के बच्चे, जल्दी से नीचे उतर,‘‘ कह कर हरनाम सिंह नीचे उतरा.

वह लड़का बुरी तरह घायल था. उस का सिर किसी नुकीले पत्थर से टकरा कर फट गया था. उस ने कराह कर एक बार आंखें खोलीं और हरनाम सिंह की ओर देखने लगा, जैसे जान बचाने के लिए कह रहा हो.

हरनाम सिंह दुविधा में पड़ गया. आसपास कोई घर भी नहीं था, जहां से मदद की उम्मीद की जा सके. उस ने 1-2 कारों को रोक कर मदद मांगने की कोशिश की, लेकिन मदद करना तो दूर, किसी ने रुकने की भी जरूरत नहीं समझी.

‘‘घबरा मत बेटा…’’ हरनाम सिंह ने उस लड़के को दिलासा दी, ‘‘मैं तुझे अस्पताल ले कर चलता हूं.’’

‘‘मरने दो उस्ताद. क्यों फालतू के झंझट में पड़ते हो?’’ भानु ने समझाने की कोशिश की, ‘‘यह कोई अपनी गाड़ी से तो नहीं टकराया है.’’ यह सुन कर हरनाम सिंह का खून खौल उठा. उसे ऐसा लगा कि यह बात उस के अपने बेटे के लिए कही गई हो. उस की इच्छा भानु को एक जोरदार थप्पड़ मारने की हुई, लेकिन समय की नजाकत को देख कर उस ने खुद पर काबू पा लिया.

‘‘बकवास मत कर…’’ हरनाम सिंह दहाड़ा, ‘‘इसे ट्रक पर चढ़ाने में मेरी मदद कर.’’

उन दोनों ने मिल कर उस घायल लड़के को ट्रक की पिछली सीट पर लिटा दिया. सीट खून से रंगती जा रही थी. हरनाम सिंह ने खून का बहाव रोकने के लिए अपनी पगड़ी उतार कर लड़के के सिर पर बांध दी.

‘‘तू लड़के की मोपैड ले कर पीछेपीछे आ,’’ हरनाम सिंह ने भानु से कहा और ट्रक ले कर शहर की ओर चल पड़ा.

ज्यादा खून बह जाने के चलते वह लड़का बेहोश हो चुका था. हरनाम सिंह की जगह कोई दूसरा ड्राइवर होता, तो शायद उस घायल लड़के को वहीं छोड़ कर आगे बढ़ गया होता, लेकिन हरनाम सिंह अपने दयालु स्वभाव के चलते उसे अस्पताल तक तो ले कर आया ही, भूखाप्यासा रह कर लड़के की हालत जानने के लिए बेचैन रहा. भानु भी उस के करीब ही बैठा रहा.

‘‘कैसी हालत है डाक्टर साहब?’’ हरनाम सिंह ने आपरेशन थिएटर से डाक्टर को बाहर निकलते देख कर पूछा.

‘‘कुछ कहा नहीं जा सकता…’’ डाक्टर ने बताया, ‘‘खून बहुत ज्यादा बह गया है और उस के ग्रुप का खून नहीं मिला तो…’’

हरनाम सिंह को एक झटका सा लगा, ‘तो क्या मेरी मेहनत बेकार हो जाएगी…’ यह सोच कर वह बोला, ‘‘डाक्टर साहब, आप मेरा खून ले लीजिए.’’

डाक्टर ने अचरज से उसे देखा और कहा, ‘‘आइए सरदारजी, आप का खून टैस्ट किए लेते हैं.’’ हरनाम सिंह का खून लड़के के ग्रुप का ही निकला. उस का खून उस लड़के को दे दिया गया.

कुछ ही समय बाद वह लड़का खतरे से बाहर हो गया, लेकिन उसे होश नहीं आया था. हरनाम सिंह ने अपने दिल में एक अजीब सी खुशी महसूस की. एक्सीडैंट का मामला होने के चलते अस्पताल वालों ने पुलिस में खबर कर दी थी. सूचना पा कर जांच के लिए काशीनाथ नामक एक रिश्वतखोर इंस्पैक्टर अस्पताल पहुंच गया. वह रिश्वत लेने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देता था.

वह बयान लेने के लिए हरनाम सिंह के पास पहुंचा, ‘‘क्या नाम है तेरा?’’ उस इंस्पैक्टर ने हरनाम सिंह को घूरते हुए पूछा, ‘‘कहां जा रहा था? लड़के को टक्कर कैसे मार दी?’’

ड्राइवर होने के चलते हरनाम सिंह ऐसे पुलिस वालों के घटिया बरताव से परिचित था. उसे गुस्सा तो बहुत आया, पर खुद पर काबू रखा. उस ने पूरी घटना सचसच बता दी.

इंस्पैक्टर काशीनाथ पर हरनाम सिंह की शराफत का कोई असर नहीं पड़ा. वह तो कुछ रकम झटकने की तरकीब सोच रहा था.

‘‘जानता है, अस्पताल के सामने ट्रक खड़ा करना मना है…’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ धमकी भरी आवाज में बोला, ‘‘तेरा चालान काटना पड़ेगा.’’

‘‘गलती हो गई साहबजी…’’ हरनाम सिंह गिड़गिड़ा कर बोला, ‘‘उस समय लड़के की जान बचाना जरूरी था.’

‘‘एक तो तू ने नियम तोड़ा है, ऊपर से मुझ से बहस कर रहा है,’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ घुड़क कर बोला.

हरनाम सिंह ने पुलिस वाले से उलझना ठीक नहीं समझा. उस ने धीरे से कहा, ‘‘ठीक है, काटिए मेरा चालान.’’

काशीनाथ का धूर्त दिमाग फौरन सक्रिय हो उठा, ‘यह ड्राइवर जरूरत से ज्यादा सीधासादा है…’ उस ने सोचा और कड़क आवाज में कहा, ‘‘ट्रक ले कर कहां जा रहा था? क्या है ट्रक में?’’ ‘‘सीमेंट है साहब. आगे नदी पर बांध बन रहा है, वहीं पर जा रहा था…’’ हरनाम सिंह ने जानकारी देते हुए कहा, ‘‘मेहरबानी कर के मेरी जल्दी छुट्टी कीजिए. मैं बहुत लेट हो गया हूं. अगर समय पर नहीं पहुंचा तो…’’

‘‘ट्रक ले कर थाने चल,’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ उस की बात काट कर बोला.

‘‘क्या…’’ यह सुन कर हरनाम सिंह जैसे आसमान से गिरा, ‘‘थाने क्यों साहब? मैं ने क्या किया है?’’

‘‘क्या सुना नहीं तू ने…’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ डपट कर बोला, ‘‘ट्रक ले कर थाने चल.’’

कुछ ही समय बाद हरनाम सिंह व भानु थाने में थे. इंस्पैक्टर काशीनाथ जानता था कि ट्रक वाले कानूनी पचड़ों में फंस कर समय बरबाद करने के बजाय कुछ लेदे कर मामला निबटाना बेहतर समझते हैं. ऐसी ही योजना बना कर वह हरनाम सिंह को थाने में लाया था.

‘‘अब बोल, क्या इरादे हैं तेरे?’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ ने उसे इस अंदाज से घूरा, जैसे कसाई बकरे को देखता है.

‘‘कैसे इरादे साहब?’’ हरनाम सिंह की समझ में कुछ नहीं आया, ‘‘आप चालान कीजिए. जो जुर्माना होगा, मैं भरने को तैयार हूं. मेहरबानी कर के जल्दी कीजिए. अगर मैं समय पर वहां नहीं पहुंचा, तो मेरा भारी नुकसान हो जाएगा,’’ हरनाम सिंह बोला.

‘‘अबे, कुछ खर्चापानी दे, तभी जा सकता है तू यहां से,’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ बेशर्मी से बोला.

हरनाम सिंह के सब्र का बांध टूट गया, ‘‘क्यों खर्चापानी दूं? एक इनसान की जान बचा कर मैं ने क्या जुर्म किया है? तुम पुलिस वाले हो या लुटेरे.’’

एक ट्रक ड्राइवर को इस तरह से ऊंची आवाज में बात करते देख इंस्पैक्टर काशीनाथ का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. उस ने डंडा उठा कर हरनाम सिंह की बेरहमी से पिटाई शुरू कर दी. अपने साहब की मदद करने के लिए दूसरे सिपाही भी आ गए.

हरनाम सिंह पर चारों तरफ से लातघूंसों और डंडों की बौछार होने लगी. उस की दिल दहला देने वाली चीखों से पूरा थाना गूंज उठा. क्लीनर भानु एक ओर खड़ा थरथर कांप रहा था.

24 घंटे से भी ज्यादा समय से भूखाप्यासा हरनाम सिंह खून देने के चलते पहले ही कमजोर हो चुका था. वह पुलिस वालों की मार ज्यादा देर तक सहन न कर सका और पिटतेपिटते बेहोश हो गया.

इस के बाद इंस्पैक्टर काशीनाथ भानु की ओर पलटा और उस से पूछा, ‘‘लिखना जानता है?’’ सूखे पत्ते की तरह कांपते भानु ने सहमति में सिर हिलाया.

‘‘मैं जैसा कहता हूं, वैसा ही लिख दे,’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ धमकी भरी आवाज में भानु से बोला, ‘‘नहीं तो तेरी हालत तेरे उस्ताद से भी बुरी बनाऊंगा.’’ भानु ने अपने उस्ताद के अंजाम से डर कर वही लिखा, जो इंस्पैक्टर काशीनाथ चाहता था. उस ने लिखा कि एक्सीडैंट हरनाम सिंह की गलती से हुआ था. उस ने लापरवाही से ट्रक चलाते हुए मोपैड सवार लड़के को टक्कर मार दी थी.

कुछ लोगों की फितरत सांप जैसी होती है. उन्हें कितना भी दूध पिलाओ, लेकिन वे जहर ही उगलते हैं. घायल लड़के का बाप उन्हीं में से एक था. उस ने सारी हकीकत जानने के बावजूद अपने बेटे को जीवनदान देने वाले की मदद करने की बात तो दूर, रिश्वत की रकम में हिस्सा पाने के लिए हरनाम सिंह के खिलाफ झूठी रिपोर्ट कर दी.

हरनाम सिंह के मुंह पर पानी डाल कर उसे होश में लाया गया.

‘‘अब कैसी तबीयत है सरदारजी?’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ ने पूछा.

हरनाम सिंह चुप रहा.

इंस्पैक्टर काशीनाथ बेचैन हो उठा. वह जल्दी से जल्दी मामला निबटा देना चाहता था. देर होने से बात बिगड़ सकती थी. उस ने हरनाम सिंह से 10 हजार रुपए की रिश्वत मांगी.

पुलिस की मार से हरनाम सिंह पहले ही टूट चुका था. उसे यह जान कर सदमा लगा कि जिस लड़के की उस ने जान बचाई थी, उस का बाप भी इस धूर्त पुलिस वाले का साथ दे रहा है. उस ने कानूनी चक्कर में फंस कर समय बरबाद करने के बजाय रिश्वत दे कर जान छुड़ाना बेहतर समझा.

ड्राइवर हरनाम सिंह ने अपने ट्रक के थोड़े पुराने 2 टायर बेच कर और अपने पास से कुछ पैसा मिला कर 10 हजार रुपए जुटाए और इंस्पैक्टर काशीनाथ के हवाले कर दिए.

थाने से हाईवे तक पहुंचने के लिए अस्पताल के सामने से हो कर गुजरना पड़ता था. अस्पताल के फाटक पर वही डाक्टर खड़ा था, जिस ने उस घायल लड़के का इलाज किया था. हरनाम सिंह ने ट्रक वहीं रोक दिया.

‘‘अब वह लड़का कैसा है डाक्टर साहब?’’ हरनाम सिंह ने ट्रक पर बैठेबैठे पूछा. डाक्टर ने हरनाम सिंह को पहचान लिया, ‘‘वह एकदम ठीक है. अब उसे होश भी आ गया है, लेकिन आप को क्या हो गया है? आप की यह हालत…’’ हरनाम सिंह ने डाक्टर की बात का कोई जवाब नहीं दिया और ट्रक आगे बढ़ा दिया

Funny Story : कवि सम्मेलन और रात्रिभोज

Funny Story : देशप्रदेश में हमेशा की भांति काव्य संसार की सहज अनुप्रास छटा छाई है. शहर में 3-दिवसीय कविता विमर्श था. प्रथम दिवस संध्या 7 बजे से 11 बजे तक कार्यक्रम में रोहरानंद बहैसियत  आम व कवि उपस्थित हुआ. सब से पहले, समकालीन कविता क्या शै है, वरिष्ठतम कवियों ने हमें बताया. फिर शुरू हुआ अथिति कवियों का काव्यपाठ. अंत में जिस बात का इंतजार था, वही हुआ, रात्रिभोज.

रोहरानंद को जीवन में पहली बार कवि होने का लाभ मिला, मगर… डिनर में लंबी लाइन थी. कविगण  पंक्तिबद्ध एकदूसरे के पीछे  अनुशासित खड़े थे, हाथों में प्लेट थामने को आतुर.

एक अकवि मित्र ने कहा, “चलिए, पंक्ति में स्थान ग्रहण करें.”

मगर रोहरानंद का कविमन इस के लिए तैयार न था. कवि अर्थात विशिष्ट प्राणी. अगर कवि हो कर आम आदमी की भांति लाइन में खाना अर्थात डिनर का लुत्फ़  उठाया, तो क्या खाक कवि हुए ? नहींनहीं, भले खाना घर जा कर खाऊंगा, मगर निरीह आम आदमी सा पंक्तिबद्ध श्रृंखला में, साधारण मनुष्य सा, मैं भोजन नहीं ग्रहण कर सकता?

आयोजकों ने बड़ी गलती की है, मेरे कविमन को ठेस पहुंचाई है. या फिर आयोजक यह समझते हैं कि मैं कवि नहीं हूं, आम आदमी हूं? कोई भेड़बकरी…

रोहरानंद ने कहा, “पंक्ति ख़त्म हो जाएगी, तब डिनर का आनंद लेंगे.”

अकवि मित्र ने चिंता जताई, “भैया, यहां शर्म छोड़िए, कौन जानता है तुम कवि हो, कहीं भोजन सामग्री खत्म हो गई तो?”

रोहरानंद मुसकराया, “ नहींनहीं, आतुर  न हो मित्र. थोड़ी ही देर में लंबी पंक्ति हवा की भांति चंहुओर व्याप्त हो जाएगी.  भोजन फिर ग्रहण कर लेंगे.”

मगर, दोनों मित्र बेचैन थे. जिस तरह राजनीतिक दल के नेता आलाकमान की बात अंतिम मानते हैं, दोनों ने हथियार डाल समर्पण कर दिया. और सचमुच रोहरानंद ने देखा, भीड़ हट गई है. भोजन सामग्री आजाद है. वह अकवि मित्र की ओर देख कर मुसकराया.

“आओ दोस्तो, अब मौका सम्मान का है. कोई पंक्ति नहीं. हम पंक्तिबद्ध हो लें.” रोहरानंद के साथ मित्रगण भोजन की और बढ़े मानो युद्ध के मैदान की ओर सेना चल पड़ी. सहजता से सलाद, कढ़ी, चावल, रोटी, दाल और पापड़ को प्लेट को युद्ध भूमि में उतार रोहरानंद भोजन का आनंद लेने लगा. थोड़ी देर में भोज्य सामग्री की सादगी की  उसे अनुभूति हुई. आज कवि होने का सच्चा लाभ उठा रहा है. अगर वह कवि न होता तो क्या इरेक्टर्स होस्टल में आयोजित समकालीन कविता पर केंद्रित विमर्श में सम्मिलित हो पाता? क्या उसे आमंत्रण मिलता? तो कवि होने की गर्वानुभूति उसे होने लगी.

“आह, क्या कढ़ी है… वर्षों बाद ऐसी कठोर रोटी मिली है. तोड़ने पर टूटती नहीं,”

अकवि मित्र ने कहा, “हाय, मेरा दांत,”

रोहरानंद ने सहानुभूतिपूर्वक उस की ओर देखा, “क्यों, क्या हुआ?”

“रोटी चबाते मेरा दांत हिल गया.”

“देखा… कवि के मित्र होने का लाभ. तुम्हें डाक्टर के पास जाने की दरकार नहीं, एकाध रोटी और लो, दांत बाहर आ जाएगा.”

रोहरानंद ने गौर किया. प्रदेश स्तरीय कार्यक्रम बल्कि राष्ट्रीय  मगर उपस्थिति मात्र अस्सी से सौ की. यहां भोजन आम कवियों के लिए था, विशिष्ट और मुख्य अतिथि सहित अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि नदारद. रोहरानंद को समझते देर नहीं लगी- वरिष्ठतम और उस के जैसे कवियों की व्यवस्था अलगअलग की गई है ताकि दूरी और सम्मानभाव बना रहे.

रोहरानंद को पहली दफा कवि होने पर गर्व की अनुभूति सिर चढ़ कर बोलने लगी. कवि होने के लाभ ही लाभ आंखों के समक्ष आसमान के सितारों की तरह झिलमिलाने लगे.

कार्यक्रम  पुलिस के एक बड़े अधिकारी के इंट्रेस्ट पर संभव हुआ था. रोहरानंद कईकई बार सोचता था- ऐसा एकाध कार्यक्रम हो, मगर अर्थाभाव के कारण कभी कार्यक्रम संभव नहीं हुआ. हुआ भी तो इतना उम्दा. रोहरानंद ने मन ही मन संकल्प लिया किसी भांति  साहब के सन्निकट पहुंचना होगा. संबंध मधुर बना लिए तो आनंद ही आनंद और कवि होने का लाभ ही लाभ.

साहब कवि हैं और विशाल हृदय भी. वे दृष्टिपारखी भी हैं. अगर  मैं सन्निकट पहुंचा तो मेरी कविता कमल की भांति और व्यक्तित्व चांदसितारे की भांति खिल उठेगा. और फिर कवि होने का लाभ मैं दोनों हाथों से उठाऊंगा. राम की दृष्टि में निरीह निषाद राज क्या आए, उसे ससम्मान रामायण में स्थान मिला. रोहरानंद  साहब की दृष्टि में आ गया, तो कविता की किताबों और कवि सम्मेलनों में स्थान प्राप्त कर अमर हो जाऊंगा.

रोहरानंद सम्मेलन से लौट आया. रातभर नींद ही नहीं आई.

भविष्य का सवाल था. एक अदद उच्च  अधिकारी या आईएएस अथवा राजनीतिक कवि विभूति के सान्निध्य के बगैर कवि होने का न लाभ मिलेगा, न कविधर्म निभाने का मौका. रोहरानंद कब बड़ा कवि बनेगा? वह रातभर रास्ता ढूंढता रहा ढूंढता रहा. मगर खोज अभी खत्म नहीं हुई है. रोहरानंद को कविता की देवी पर आस्था है – कभी न कभी उसे भी एक उच्च अधिकारी का राज्याश्रय मिलेगा और वह भी कवि होने का लाभ उठाएगा.

Short Story : छिछोरेपन की क्रीम – क्या थी इस की असलियत

Short Story : दरअसल, इन दिनों रमेश भी साथ वाले कपिलजी की वजह से अपने काले होते चेहरे को ले कर कुछकुछ परेशान था. भाई साहब, आप औफिस में अपना चेहरा चाहे कितना ही क्यों न ढक कर रखें, पर कालिख यहांवहां से उड़ कर कमबख्त चेहरे पर वैसे ही आ कर बैठ जाती है जैसे फूल पर मधुमक्खियां.

जैसे हिरन शिकारी के जाल में एक बार फंस जाता है और उस के बाद वह उस जाल से निकलने की जितनी कोशिश करता है, उतना ही उस जाल में उलझता चला जाता है, ठीक उसी तरह से रमेश भी हिरन की तरह शिकारीरूपी बाजार में आई काले चेहरे को गोरा करने वाली क्रीमों के जाल में एक बार जो फंसा तो उस के बाद बाजार की गोरेपन की क्रीमों के जाल से निकलने की जितनी कोशिश की, उतना ही उस जाल में उलझता चला गया.

जब रमेश गोरेपन की क्रीमों के बाजार के जाल से निकलने के बजाय उस में उलझताउलझता थक गया कि तभी कपिलजी सामने से अपना काला चेहरा लिए आ धमके.

दरअसल, जब कपिलजी को लगा कि उन का चेहरा अब पूरी तरह से काजल की कोठरी में रहतेरहते काला हो गया है तो वे रमेश के पास काले चेहरे को गोरा करने की सलाह लेने आए.

गोरेपन की क्रीमों के जाल में रमेश को उलझा हुआ देखने के बाद भी वे उस की पीड़ा की परवाह किए बिना बोले, ‘‘यार, मैं देख रहा हूं कि आजकल तेरा काला चेहरा कुछकुछ गोरा हो रहा है. इन दिनों काले चेहरे पर किस बाबा की गोरेपन की क्रीम लगा रहा है तू?’’

रमेश ने अपने मन की पीड़ा को दबाए हुए उस काले चेहरे वाले दोस्त से कहा, ‘‘दोस्त, स्वदेशी गोरेपन की क्रीम से अपने भक्तों का चेहरा गोरा करने वाले तो आजकल अपना ही चेहरा काला किए रोज जेलों की हवा खा रहे हैं. ऐसे में सूझ नहीं रहा कि…’’

रमेश ने गोरेपन की क्रीमों के तमाम ब्रांडों को कोसते हुए कहा तो कपिलजी बोले, ‘‘बस यार, देश को बहुत खा लिया अब. बहुत मुंह काला कर लिया. अब तो अपने ही काले चेहरे से घिन आने लगी है. अब तो मरते हुए बस एक ही इच्छा बाकी है कि मरूं तो गोरा चेहरा ले कर मरूं.’’

कपिलजी ने जिस पीड़ा से कहा तो उन के चेहरे से लगा कि उन के मन में चेहरा काला होने का कहीं न कहीं मलाल जरूर है वरना यों ही कोई अपने काले चेहरे को नहीं कोसता, आदमी को यों ही अपने काले चेहरे से घिन नहीं आती.

चलो, मरते हुए ही सही, उन्हें अपने चेहरे के कालेपन का अहसास तो हुआ. दोस्तो, मरते हुए ही सही जो कोई अपने काले चेहरे को गोरा करने की सोचे तो उस चेहरे को काला चेहरा नहीं कहना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे सुबह का भूला जब शाम को घर आ जाए तो उसे भूला हुआ नहीं कहते.

‘‘तो यह गोरेपन की क्रीम कैसी रहेगी?’’ पूछने के तुरंत बाद कपिलजी ने अपनी सदरी की जेब से अखबार में छपा छिछोरेपन… सौरी, गोरेपन की क्रीम का इश्तिहार निकाल कर गोरेपन की क्रीमों के जाल में उलझे रमेश के आगे दरी की तरह बिछा दिया.

रमेश ने गौर से इश्तिहार पढ़ा. क्रीम वाली कंपनी ने सीना तान कर दावा किया था कि चेहरे पर किसी भी वजह से, किसी भी तरह के, कैसे भी दाग हों, हफ्तेभर में साफ. साफ न हों तो पूरे 10 लाख रुपए का इनाम. उस क्रीम के इश्तिहार की बगल में गोरेपन की क्रीम की प्रामाणिकता के लिए बीसियों ऐसे लोगों के फोटो क्रीम लगाने से पहले और उस कंपनी की गोरेपन की क्रीम लगाने के बाद के नामपते समेत छपे थे, जिन्होंने इसे अपने कालिख सने चेहरे पर मला था और

7 दिन बाद ही उन के चेहरे का कालापन यों गोरा हो गया था कि उन्हें भी अपने चेहरे को पहचानने में मुश्किल हो रही थी कि यह चेहरा उन का ही है या स्वर्ग के किसी देवता का. उन के चेहरे की कालिख यों गायब थी ज्यों गधे के सिर से सींग.

दोस्तो, देश में काले चेहरे को गोरा करने के नाम पर जितना काले चेहरे वालों को तो छोडि़ए गोरे चेहरे वालों तक को ठगा जा सकता है, उतना किसी और चेहरे वालों को नहीं.

हम अपने चेहरे को गोरा करने के लिए अनादिकाल से चेहरे पर क्याक्या नहीं मलते आए हैं. आज भी देश में हर कोई चाहता है कि उस का चेहरा चांद से भी गोरा हो, इसीलिए देश में काले चेहरों के उद्धार के लिए एक से एक गोरेपन की क्रीमों ने अपनी पतली कमर कसी हुई है.

अपने काले चेहरे को गोरा करतेकरते भले ही चेहरे वालों की कमर ढीली हो जाए तो हो जाए, पर गोरेपन की क्रीम बेचने वाले अपनी कमर जरा भी ढीली नहीं होने देते.

गोरेपन की क्रीमों का बाजार आटे के बाजार से भी ज्यादा तेजी से फलफूल रहा है. आदमी को रोटी मिले या न मिले, पर वह अपने चेहरे को हर हाल में गोरा बनाए रखना चाहता है. आदमी को पानी मिले या न मिले, पर वह अपने चेहरे को गोरा बनाए रखना चाहता है तभी तो पाउडर के नाम पर सड़ा आटा मजे से बिक रहा?है.

अब तो सड़क से ले कर संसद तक जिसे देखिए, जहां देखिए, सब सारे काम छोड़ कर अपने चेहरे को चमकाने वाली क्रीमों को अपनी हैसियत के हिसाब से पाउच खरीद कर गोरा बनाने में जुटे हैं.

आखिर रमेश ने कपिलजी का मन रखने के लिए उन्हें अखबार में छपी गोरेपन की क्रीम को लगाने पर मुहर लगा दी तो मुसकराते हुए, गुनगुनाते हुए अपने रास्ते हो लिए.

हफ्तेभर बाद वे मिले तो उन का चेहरा देख कर रमेश दंग रह गया. उन के चेहरे पर बुढ़ापे में भी कीलमुंहासे निकल आए थे. उन के चेहरे की तो छोडि़ए, उन की हरकतें तक अजीबोगरीब थीं. रमेश परेशान. बंदे ने गोरेपन की क्रीम के पैक में बंद चेहरे पर गोरेपन की क्रीम के बदले किस गैंड़े का गोबर मल लिया था?

‘‘बंधु, यह क्या मल लिया चेहरे पर?’’ रमेश ने खुल कर हंसना चाहा, पर नकली दोस्त पर सच्चे दोस्त को हंसना नहीं चाहिए, इसलिए वह मन ही मन हंसा.

‘‘गोरेपन की क्रीम और क्या…’’ जब कपिलजी ने कहा तो रमेश सब समब गया कि बंदा असली बाजार की नकली गोरेपन की क्रीम का शिकार हो गया है.

‘‘अपनी क्रीम तो दिखाना…’’

‘‘अपने चेहरे पर लगानी है क्या? देखो दोस्त, तुम भले ही मेरी जान ले लो, पर इस क्रीम में से एक रत्तीभर भी क्रीम न दूंगा. गोरेपन की क्रीम अपनीअपनी, दोस्ती पक्की,’’ कपिलजी आधी बदतमीजी, पूरे होशोहवास में करते हुए बोले तो रमेश को उन पर रोना आया. बड़ी मिन्नतें करने के बाद उन से गोरेपन की क्रीम ले कर ध्यान से उस में मिलाए गए सामान को पढ़ा तो पता चला कि वह क्रीम गोरेपन की नहीं, बल्कि छिछोरेपन की थी.

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