Hindi Story : खून के छींटे – आखिर देवानंद को सामने देखकर मालिनी क्यों सन्न रह गई

Hindi Story : देवानंद को एकदम सामने देख कर मालिनी सन्न रह गई. देवानंद ने उसे देख कर मुसकराते हुए अपनी बाइक रोक दी थी. मालिनी तुरंत मुड़ कर दूसरी ओर बढ़ी, मगर वह तुरंत बाइक को मोड़ उस की राह के आगे खड़ा हो गया था. अभी वह कुछ सोचती या फैसला लेती कि एक दूसरी बाइक वहां आ खड़ी हुई.

मालिनी एकदम हक्कीबक्की रह गई थी कि उस ने उस की घेरेबंदी का यह नया पैंतरा शुरू किया है. यह जरूर उस का अपहरण करेगा. पहले ही देवानंद का नाम कई अपहरण कांड से जुड़ा है. उस के लिए यह कौन सी मुश्किल बात होगी. अचानक ही उस दूसरी बाइक से एक नौजवान उतरा और उस के बिलकुल नजदीक जा कर पिस्तौल निकाल कर गोलियां चला दीं.

तेज आवाज हुई और वह अब बाइक से छिटक कर सड़क पर छटपटा रहा था.

सुबह 10 बजे का समय था और बाजार में कोई भीड़ नहीं थी. सड़क पर कुछ ही गाडि़यां दौड़ रही थीं. लेकिन यहां पलक झपकते ही यह सबकुछ हो गया था. मालिनी का रास्ता रोकने वाले सड़क पर गिरे देवानंद की पीठ में 2 और गरदन पर एक गोली लगी थी. वहां से खून निकलना शुरू हो चुका था. अचानक उस के मुंह से खून का थक्का निकला और परनाले सा बह चला.

वे दोनों नौजवान बाइक सहित भाग चुके थे. वह उसे सड़क पर छटपटाते देख रही थी, जिस से डर कर वह भागना चाहती थी, अभी वही उसे कातर शिकायती निगाहों से देख रहा था, जैसे वे उसी के आदमी हों, जिन्होंने यह करतूत की थी. समय और हालात कितनी जल्दी बदल जाते हैं.

अब वह बिलकुल शांत था. बाजार की भीड़ देवानंद की ओर बढ़ते हुए घेरा बना कर खड़ी हो चुकी थी. सड़क पर अब गाडि़यां तेजी से भागने लगी थीं, ताकि वे किसी बंद वगैरह के चक्कर में न फंसें.

पुलिस घटना वाली जगह पर आ चुकी थी और अब एंबुलैंस की आवाज सुनाई दे रही थी. दूसरे लोगों की तरह वह भी वहां से वापस अपने घर की ओर लौट चली थी, ताकि किसी लफड़े में न पड़े.

‘‘क्या हुआ रे,’’ मालिनी की मां ने उसे देख कर हैरानगी जाहिर की, ‘‘बड़ी जल्दी आ गई. दुकान नहीं गई क्या?’’

‘‘नहीं मां, मैं नहीं गई,’’ मालिनी ने गुसलखाने में घुसते हुए छोटा सा जवाब दिया, ‘‘रास्ते में तबीयत ठीक नहीं लगी, तो वापस लौट आई.’’

मालिनी की आंखों के सामने दोबारा देवानंद का चेहरा आ गया था, जिस के नाकमुंह से खून की धार बह निकली थी.

मालिनी नाली के पास बैठ उलटी करने लगी थी. उस ने जल्दी से अपने कपड़ों को रगड़रगड़ कर धोना शुरू किया, जैसे उस पर खून के छींटे पड़े हों. अब वह अपने शरीर को मलमल कर नहा रही थी.

‘‘इतनी हड़बड़ाई क्यों है?’’ मालिनी की मां उसे शक की निगाहों से देखते हुए बोली, ‘‘दुकान से फोन आया था कि तुम अभी तक आई नहीं हो. मैं ने उन्हें बता दिया है कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए गई नहीं.

‘‘और हां, अभी पता चला है कि देवानंद को किसी ने गोली मार दी,’’ मां फिर बोली, ‘‘आजकल किसी का कोई ठिकाना नहीं. भला आदमी था बेचारा.’’

‘‘तो मैं क्या करूं,’’ मालिनी सहज होते हुए बोली, ‘‘तुम मुझे एक कप चाय बना दो. मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा. चक्कर सा आ रहा है.’’

मालिनी तख्त पर लेट गई. ‘बेचारा, भला आदमी’ उस ने बुरा सा मुंह बनाया, क्योंकि वह जानती है कि वह कितना भला और बेचारा था.

शहर के चुनिंदा बदमाशों में देवानंद की गिनती होती थी. न जाने कितने रंगदारी, चोरीडकैती से ले कर अपहरण तक में उस का नाम था. चुनाव के समय बूथ पर कब्जा तक का धंधा करता था वह. कई बार वह जेल भी जा चुका था. एक स्थानीय दबंग नेता के दम पर वह कारगुजारी कर बच निकलता था, इसलिए पुलिस भी सोचसमझ कर ही उस पर हाथ डालती थी. अकसर ही वह उस के साथ घूमता रहता था, इसलिए लोग उस से डरते थे और मां कहती है कि वह भला आदमी था.

आखिर क्यों नहीं बोलेगी कि वह भला आदमी था. कितनी ही बार वह उन के आड़े वक्त में काम आ चुका है. शहर के प्रमुख ‘साड़ी शौप’ में उसी ने उसकी नौकरी भी लगवाई थी. मगर उस  की कीमत उस ने चुकाई है, यह वही जानती है.

एक दिन मां कहीं बाहर गई थी. बापू भी रिकशा ले कर निकल गया था और भाई महेश स्कूल जा चुका था. देवानंद उस के घर में घुसा और उसे अकेली जान उस पर झपट पड़ा था और उस के रोनेछटपटाने का उस पर कोई असर नहीं पड़ा था.

मालिनी की आंखों के सामने देवानंद का छटपटाता चेहरा आ गया था. इसी तरह तो वह फर्श पर छटपटा रही थी और वह हवसी अपना काम कर गया था. वह उसी तरह लहूलुहान हो छटपटा रही थी और वह हंसता हुआ बाहर निकल गया था.

इस के बाद तो वह मौका देख कर घर में जब कभी घुस जाता और उस से अपनी हवस का शिकार बनाता था. शाम को फिर घर पर आता और मां को कुछ जरूरत की चीजें पकड़ा कर कहता, ‘‘किसी चीज की जरूरत हो, तो बेझिझक कहना और किसी से डरने की जरूरत नहीं. मैं हूं न.’’

मां की सराहना और दुआओं के बीच मालिनी कुछ कह नहीं पाती थी और इस बीच उसे बच्चा ठहर गया था. उस ने उसे कुछ दवाएं ला कर दी थीं. उन दवाओं के खाने के बाद उसे इतना खून बहा कि उस का चलनाफिरना मुश्किल हो गया था. उन दिनों वह उसी तरह छटपटाती थी, जिस तरह आज वह सड़क पर गिर कर छटपटा रहा था. फिर भी उस के मन में शक था कि जिन खून के छींटों के बीच वह छटपटा रहा था, उसे महसूस कर उसे खुश होना चाहिए या नहीं?

Hindi Story : एक विश्वास था

Hindi Story : मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर.

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.

Hindi Story : दफ्तर में पहला कदम

Hindi Story : घर के मुख्यद्वार की घंटी बजने से पहले ही जब पत्नी ने मुसकरा कर दरवाजा खोला तो हम उन का प्रसन्न मुख देख कर हैरान रह गए. उस के बाद जब वह स्नेह से भीग कर हमारा ब्रीफकेस भी हाथ में ले कर भीतर जाने को मुड़ीं तो हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा. यह परिवर्तन जरूर किसी खास बात का लक्षण है वरना उन का इतना मधुर रूप देखे तो हमें बरसों बीत गए थे. यह परिवर्तन ठीक उसी प्रकार था जैसे सूखे पेड़ पर अचानक कोई सुंदर फूल खिल उठता है.

हाथमुंह धोने से ले कर चाय का गरम प्याला पकड़ाने तक पत्नी का मुख कमल के समान खिला रहा. उन की हर बात में प्यार भरा अधिकार था. आखिर जिस बात को जानने की हमें जिज्ञासा हो रही थी वह बडे़ बेटे आशीष ने खेलकूद से वापस लौटते ही धूल सने चेहरे से चहक कर हमें सुनाई, ‘‘पिताजी, क्या आप को मालूम है कि मां भी अब दफ्तर जाया करेंगी?’’

‘‘क्या? कहां जाया करेंगी?’’ हम अवाक् से बेटे की तरफ देखते रह गए.

‘‘हां, पिताजी, मां अब सुबह 8 बजे ही हमारे साथ दफ्तर के लिए जाया करेंगी, तभी समय से पहुंचेंगी न?’’

‘‘अरे,’’ हम विस्फारित नेत्रों से आशीष के मुख की तरफ देखे जा रहे थे. आखिर रसोई में काम करती पत्नी के पास जा कर बोले, ‘‘सुनो, यह आशीष क्या कह रहा है?’’

‘‘क्यों, क्या कह रहा है?’’ वह सख्ती से हमारी तरफ पलटीं.

पत्नी की सख्त मुखमुद्रा देख कर हम हड़बड़ा गए. हकलाहट में हमारे मुंह से निकला, ‘‘यही कि तुम नौकरी पर जाया करोगी.’’

वह पुन: नवयौवना की तरह मुसकराहट बिखेरती हुई, भेदभरी आवाज में धीरे से बोलीं, ‘‘हां.’’

‘‘लेकिन तुम्हें यह अचानक क्या सूझी?’’

‘‘लो और सुनो, तुम्हें तो कुछ सूझता ही नहीं है. बच्चे दिन पर दिन बडे़ हो रहे हैं. घर का खर्च रोपीट कर पूरा होता है, इतनी मुश्किल से यहां बात बनी है. मैं ने अब तक छिपा कर सब किया कि तुम्हें अचानक बता कर हैरान कर दूंगी, पर यहां तो जनाब के मिजाज ही नहीं मिल रहे… तुम्हें पसंद न हो तो छोड़ देती हूं,’’ वह तुनक कर बोलीं.

रोजगार मिलने की किल्लत का ध्यान आते ही हमें पत्नी का नौकरी करना आर्थिक संकट से उबरने का सुनहरा पुल महसूस होने लगा. अत: अपनी बेसुरी आवाज को बेहद मुलायम बना कर हम ने मक्खन लगाया, ‘‘पर घर, दफ्तर दोनों  का काम कर भी सकोगी?’’

‘‘क्यों, क्या मुश्किल है, दफ्तर में कौन सा हल चलाना पडे़गा?’’

‘‘नहीं, हल तो नहीं चलाना पडे़गा, पर थकावट…’’

‘‘वह सब हो जाएगा. 600 रुपए मासिक मिलेंगे.’’

‘‘ऐं, अच्छा ठीक है.’’

वेतन की राशि सुनते ही हम वहां से खिसक लिए. सोचा, बस ठीक हो गया. सचमुच, प्रभा कितनी दूरदर्शी है. हम तो बस, आज का ही सोच पाते हैं और प्रभा ने कहां तक का सोच रखा है. फिर कमाल की बात तो यह है कि बिना सिफारिश के नौकरी हासिल कर ली, वरना आजकल नौकरियां कहां मिलती हैं पत्नी की बुद्धिमत्ता पर हमें सचमुच आश्चर्य होने लगा.

रात सुनहरे स्वप्न देखते हुए व्यतीत हो गई. न जाने हम ने क्याक्या रंगीन सपने देखे. सुबह उठे तो सपनों का रोमांच हृदय में हिलोरें ले रहा था. गुसलखाने में ब्रश करते हुए बालटी में से लोटा भर कर पानी निकाला तो सपने में देखे खूबसूरत  गुसलखाने का नजारा आंखों के आगे घूम गया. अब जल्दी ही इस गुसलखाने की कायापलट हो जाएगी.

सुबह ही चाय का प्याला ले कर जब हम पुरानी कुरसी पर बैठे तो जल्दी ही नया गद्देदार सोफा खरीदने की तलब जाग्रत हो गई. सारा शरीर हलकाफुलका सा लग रहा था मानो कोई बहुत बड़ा बोझ शरीर से उतर गया हो.

घड़ी की सूइयां देख कर बारबार दिल में खयाल आता रहा कि रसोई में चल कर कुछ प्रभा का हाथ बंटा दूं. न हो तो कुछ प्याज-व्याज ही कटवा दूं, पर कभी हाथ से ले कर पानी तक नहीं पिया था, इसलिए चाह कर भी रसोई में न जा सका.

बच्चे स्कूल के लिए जल्दीजल्दी तैयार हो रहे थे. स्वयं प्रभा ने भी दफ्तर जाने के लिए लंच बाक्स मेज पर रख दिया था. वह जल्दीजल्दी घर का कामकाज निबटा रही थी. पत्नी की सुघड़ता देख कर हम फूले नहीं समा रहे थे.

दफ्तर के लिए तैयार हो कर जाती प्रभा अपना लंच बाक्स और पर्स उठा कर बोली, ‘‘मैं तो 7 बजे तक ही वापस आ पाऊंगी. तुम यह दूसरी चाबी साथ लेते जाना. एक चाबी आशीष ले गया है, वह 3 बजे पहुंच जाएगा.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘और देखो, फ्रिज में मसाला भून कर रख दिया है. छोले भी कुकर में भिगो रखे हैं. दफ्तर से आ कर मसाला छोलों में डाल कर गैस पर चढ़ा देना.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘और देखो, बच्चों का होमवर्क करवा देना, नहीं तो ऊधम मचाते रहेंगे.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘और हां, अभी धोबी आता होगा. कपडे़ काली डायरी में लिखे हुए हैं, मिला कर ले लेना.’’

‘‘अच्छा.’’

अब तक हम ने भी अपने कमीजपतलून अलमारी से निकाल कर पलंग पर रख लिए थे. देखा, कमीज के आधे बटन गायब हैं. झट से जाती हुई प्रभा से हम बोले, ‘‘अरे प्रभा, इस कमीज के तो आधे बटन टूट गए हैं, जरा लगाती जाना.’’

‘‘अब छोड़ो भी. पहले ही दिन देर हो जाएगी. तुम अब घंटे भर तक अकेले घर में क्या करोगे? बटन डब्बे से निकाल कर खुद लगा लेना,’’ और प्रभा खटाखट सीढि़यां उतर गई.

पत्नी का लहराता पल्लू हमें दूर तक दिखाई देता रहा. गर्व से फूले सीने के साथ हम ने उस दिन का अखबार पढ़ा. शायद उस दिन अखबार कुछ ज्यादा ही ध्यानपूर्वक पढ़ा गया, इसलिए 9 बजे तक का समय पलक झपकते ही निकल गया. हम तेजी से गुसलखाने में घुसे, नहाधो कर कपडे़ पहनने लगे तो कमीज के टूटे बटन मुंह खोले पड़े थे. झटपट बटन वाला डब्बा ढूंढ़ा, सूई में धागा पिरोते हुए सूई के सूराख के साथसाथ आसमान के तारे भी नजर आने लगे. जैसेतैसे हम ने बटन लगाए, पर इस सारी प्रक्रिया में हमारी उंगली सूई के अनगिनत घावों को सह कर लहूलुहान हो गई थी.

दुखती उंगली के साथ जब हम तैयार हो कर बस स्टाप पर पहुंचे तो प्रभा की क्रियाशीलता पर हम मन ही मन विस्मित थे. वह कैसे घड़ी भर में बटन टांक देती है और उंगली भी सहीसलामत रखती है.

शाम को जब प्रभा दफ्तर से घर लौटी तब बेहद थकी हुई थी. बच्चों ने उस के देर से घर आने की शिकायत की तो वह झल्ला कर बच्चों पर बरस पड़ी और टिंकू को तो 2 थप्पड़ भी पडे़. वह मां का यह नया रूप देख कर भौचक्का रह गया और मार खा कर रोना भी भूल गया.

15 दिन में ही सारी गृहस्थी की नैया डांवांडोल हो गई. घर की महरी जो पहले वक्तबेवक्त कामकाज निबटा जाती थी, अब समय की सख्त पाबंदी लग जाने के कारण घर का काम छोड़ गई. घर के कोनों में ढेरों कूड़ाकचरा दिखाई देने लगा. चमचमाते बरतनों पर भी गंदगी की परत चढ़ने लगी. घर की सिलाई मशीन अनुपयोगी सिद्ध हो कर एक तरफ पड़ गई. छोटेमोटे कामों के लिए भी प्रभा के पास समय नहीं होता था और कपडे़ झट दर्जी के पास फेंक दिए जाते थे.

इतवार की छुट्टी में सब मिल कर घर की सफाई करते थे. सारा दिन झाड़पोंछ और कपडे़ धोने में निकल जाता था. शाम को कपडे़ प्रेस करते, बच्चों के स्कूल की यूनीफार्म तैयार कर के रखने तक शरीर बेहद टूट जाता था. उस के बाद हंसनाखेलना तो दूर, बात तक करने का मन नहीं करता था. सुबह 8 बजे जा कर शाम 7 बजे तक आने वाली पत्नी के दर्शन बड़ी जल्दबाजी में ही होते थे. अब शाम को लान में बैठ कर तसल्ली से चाय पीने की पुरानी यादें धूमिल होती जा रही थीं.

बच्चों की मासिक परीक्षा की रिपोर्ट मेज पर पड़ी थी. हमेशा अच्छे अंक लाने वाला आशीष भी कई विषयों में फेल था. टिंकू और अदिति का भी बुरा हाल था. बच्चों को होमवर्क करवाना और पढ़ाना हमारे जिम्मे था, अत: हम भी रोनी सूरत बनाए बैठे थे.

धीरेधीरे दिनों के साथ महीने बीत रहे थे और यंत्र की तरह चलने वाली जिंदगी में हमारे सब अरमान और उमंगें धराशायी होती जा रही थीं. घर में पत्नी की कई पगार, रेत पर पानी के छींटे जिस तरह पल भर में आत्मसात हो जाते हैं उसी तरह खप गई थीं. न फर्नीचर बदला जा सका था न रंगीन टेलीविजन आ पाया था और न आशीष की घड़ी. दफ्तर की महिला कर्मचारियों की होड़ में नित्य नई साड़ी, प्रसाधन की सामग्री, पर्स में हर समय एक अच्छी रकम, न जाने कब, किसे चायपानी पिलाना पड़ जाए. अकसर देर होने पर स्कूटर का किराया. सब मिला कर पत्नी के पास अपनी पगार में से थोड़ाबहुत ही बच पाता था.

हम दिल थामे पत्नी का धड़धड़ाते हुए दफ्तर जाना और थके कदमों से चिड़चिड़ाहट भरे स्वभाव से वापस आना देख रहे थे. नारी जागृति के युग में पत्नी से दबंग स्वर में नौकरी छोड़ने के लिए कहने की भी हमारी हिम्मत नहीं पड़ रही थी. हम उस घड़ी को कोस रहे थे जब पत्नी ने दफ्तर में पहला कदम रखा था और घर की सुखशांति को ग्रहण लग गया था.

Short Story: सवाल का जवाब

Hindi Story : जफर दफ्तर से थकाहारा जैसेतैसे रेलवे के नियमों को तोड़ कर एक धीमी रफ्तार से चल रही ट्रेन से कूद कर, मन ही मन में कचोटने वाले एक सवाल के साथ, उदासी से मुंह लटकाए हुए रात के साढ़े 8 बजे घर पहुंचा था. बीवी ने खाना बना कर तैयार कर रखा था, इसलिए वह हाथमुंह धोने के लिए वाशबेसिन की ओर बढ़ा तो देखा कि उस की 7 साल की बड़ी बेटी जैना ठीक उस के सामने खड़ी थी. वह हंस रही थी. उस की हंसी ने जफर को अहसास करा दिया था कि जरूर उस के ठीक पीछे कुछ शरारत हो रही है.

जफर ने पीछे मुड़ कर देखने के बजाय अपनी गरदन को हलका सा घुमा कर कनखियों से पीछे की ओर देखना बेहतर समझा कि कहीं उस के पीछे मुड़ कर देखने से शरारत रुक न जाए.

आखिरकार उसे समझ आ गया कि क्या शरारत हो रही है. उस की दूसरी 6 साला बेटी इज्मा ठीक उस से डेढ़ फुट पीछे वैसी ही चाल से जफर के साए की तरह उस के साथ चल रही थी.

बस, फिर क्या था. एक खेल शुरू हो गया. जहांजहां जफर जाता, उस की छोटी बेटी इज्मा उस के पीछे साए की तरह चलती. वह रुकता तो वह भी उसी रफ्तार से रुक जाती. वह मुड़ता तो वह भी उसी रफ्तार से मुड़ जाती. किसी भी दशा में वह जफर से डेढ़ फुट पीछे रहती.

इज्मा को लग रहा था कि जफर उसे नहीं देख रहा है, जबकि वह उस को कभीकभी कनखियों से देख लेता, इस तरह कि उसे पता न चले.

इस अनचाहे आकस्मिक खेल की मस्ती में जफर अपने 2 दिन पहले की सारी परेशानी और गम भूल सा गया था. तभी उसे अहसास हुआ कि इस नन्ही परी ने खेलखेल में उसे गम और परेशानियों का हल दे दिया था. इस मस्ती में उसे उस के बहुत बड़े सवाल का जवाब मिल गया था, जिस का जवाब ढूंढ़तेढूंढ़ते वह थक चुका था.

पिछले 2 दिनों से वह हर वक्त दिमाग में सवालिया निशान लगाए घूम रहा था. मगर जवाब कोसों दूर नजर आ रहा था, क्योंकि 2 दिन पहले उस की दोस्त नेहा ने कुछ ऐसा कर दिया था जिस के गम के बोझ में जफर जमीन के नीचे धंसता चला जा रहा था.

हमेशा सच बोलने का दावा करने वाली नेहा ने उस से एक झूठ बोला था. ऐसा झूठ, जिसे वह कतई बरदाश्त नहीं कर सकता था.

आखिर क्यों और किसलिए नेहा ने ऐसा किया?

इस सवाल ने दिमाग की सारी बत्तियों को बुझा कर रख दिया था. इस झूठ से जफर का उस के प्रति विश्वास डगमगा गया था.

वह ठगा सा महसूस कर रहा था. उसे लगने लगा था कि अब वह दोबारा कभी भी नेहा पर भरोसा नहीं कर पाएगा. ऐसा झूठ जिस ने रिश्तों के साथ मन में भी कड़वाहट भर दी थी और जो आसानी से पकड़ा गया था, क्योंकि उस शख्स ने जफर को फोन कर के बता दिया था कि नेहा अभीअभी उस से मिलने आई थी. जब जफर ने पूछा तो नेहा ने इनकार कर दिया था.

नेहा ने झूठ बोला था और उस शख्स ने सचाई बता दी थी. इतनी छोटी सी बात पर झूठ जो किसी मजबूरी की वजह से भी हो सकता था, जफर ने दिल से लगा लिया था. इस झूठ को शक और अविश्वास की कसौटी पर रख कर वह नापतोल करने लगा.

झूठ के पैमाने पर नेहा से अपने रिश्ते को नापने लगा तो सारी कड़वाहट उभर कर सामने आ गई. सारी कमियां याद आने लगीं. अच्छाई भूल गया. अच्छाई में भी बुराई दिखने लगी और यही वजह उस की परेशानी का सबब बन गई. उस के जेहन में एक, बस एक ही सवाल गूंज रहा था कि नेहा ने उस से आखिर क्यों झूठ बोला था?

जफर की नन्ही परी इज्मा ने बड़ी मासूमियत से उसे गम के इस सैलाब से बाहर निकाल लिया था. उसे अपने सवाल का जवाब उस की इन मस्तियों में मिल गया था क्योंकि अब वह समझ गया था कि उस की बेटी थोड़ी मस्ती के लिए उस की साया बन कर, उस की पीठ के पीछे चल कर खेल खेल रही थी, जिस का मकसद खुशी था. अपनी भी और उस की भी. ठीक उसी तरह नेहा भी उस से झूठ बोल कर एक खेल खेल रही थी.

जफर की पीठ पीछे की घटना थी. उस ने शायद उस नन्ही परी की तरह ही आंखमिचौली करने की सोची थी, क्योंकि इस से पहले कितनी ही बार जफर ने उस को परखा था. उस ने कभी झूठ नहीं बोला था. आज शायद उस का मकसद भी उस नन्ही परी की तरह मस्ती करने का था. शायद कुछ समय बाद वह सबकुछ बता देने वाली थी जिस तरह नन्ही परी ने बाद में बता दिया था.

जफर ठहरा जल्दी गुस्सा होने वाला इनसान, उस की एक न सुनी और बारबार फोन करने पर भी उसे सच बताने का मौका ही नहीं दिया था.

वह हैरान थी और डरी हुई भी. उस ने उस से बात तक नहीं की. जब तक बात न हो, गिलेशिकवे और बढ़ जाते हैं. बातचीत से ही रिश्तों की खाइयां कम होती हैं. यहां बातचीत के नाम पर

2 दिनों से सिर्फ ‘हां’ या ‘न’ दो जुमले इस्तेमाल हो रहे थे.

नेहा जफर की नाराजगी को ले कर परेशान थी और वह उस के झूठ को ले कर. नन्ही परी की मस्ती की अहमियत को इस सवाल के जवाब के रूप में समझ कर मेरी दिमाग की सारी घटाएं छंट गई थीं. दिल पर छाया कुहरा अब ऐसे हट गया था, जैसे सूरज की किरणों से कुहरे की धुंध हट जाया करती है.

सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था. समझ में आ गया था कि कोई सच्चा इनसान कभीकभी छोटीछोटी बातों के लिए झूठ क्यों बोल देता है. शायद मस्ती के लिए. जो बात वह दिमाग के सारे घोड़े दौड़ा कर भी नहीं सोच पा रहा था, वह इस नन्ही परी इज्मा की शरारत ने समझा दी थी, वह भी कुछ ही पलों में.

जफर का गुस्सा अब पूरी तरह से शांत हो गया था. एकदम शांत. वह समझ गया था कि उसे क्या करना है.

जफर ने खुद ही नेहा को फोन किया. नेहा ने सफाई देने की कोशिश की, मगर जफर ने उसे रोक दिया.

जफर ने अपनी नन्ही परी इज्मा का पूरा किस्सा सुनाया. अब नेहा एकदम शांत थी. उस की नाराजगी और सफाई अब दोनों की ही कोई अहमियत नहीं रह गई थी. फिर उस ने पहले की तरह एक चुटकुला छेड़ दिया था और वे दोनों सबकुछ भूल कर पहले जैसे हो गए थे.

Hindi Story : पतिता का प्रायश्चित्त

Hindi Story : पतिता का प्रायश्चित्तउस दिन शाम को औफिस से घर आने के बाद मयंक अपने परिवार के साथ कार से टहलने निकल पड़ा.

मयंक के साथ उस की पत्नी स्नेह भी थी जो 2 साल के अंशु को गोद में ले कर बैठी थी.

मयंक कार के स्टेयरिंग पर था और उसे बहुत धीमी रफ्तार से चला रहा था. अचानक उस की नजर सड़क पार करती एक जवान औरत पर पड़ी. एकाएक उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं. उस ने कार की रफ्तार को और भी धीमा कर दिया और उस औरत को गौर से देखने लगा.

‘‘क्या बात है?’’ स्नेह की आवाज में जिज्ञासा थी, ‘‘क्या देख रहे हैं आप?’’

‘‘मैं उस औरत को देख रहा हूं,’’ मयंक ने उस औरत की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘क्यों… कोई खास बात है क्या?’’ स्नेह ने पूछा.

‘‘हां है…’’ मयंक ने कहा, ‘‘एक लंबी कहानी है इस की. उस कहानी का एक पात्र खुद मैं भी हूं.’’

‘‘अच्छा…’’ एक अविश्वास भरी हैरानी से स्नेह का मुंह खुला का खुला रह गया.

थोड़ी देर में मयंक ने कार की रफ्तार बढ़ा दी और आगे निकल गया.

मयंक इस शहर में अभी नयानया जिला जज बन कर आया था. उसे यहां रहने के लिए एक सरकारी बंगला मिला हुआ था. वह सपरिवार यानी स्नेह और 2 साल के अंशु के साथ रहने लगा था.

उस रात जब वे खाना खाने बैठे तो स्नेह ने उसी सवाल को दोहराया, ‘‘कौन थी वह औरत?’’

मयंक का दिल ‘धक’ से बैठ गया, पर उस ने खुद पर कंट्रोल कर के मन ही मन बात शुरू करने की भूमिका बना ली. फिलहाल टालने भर का मसाला तैयार कर के उस ने कहा, ‘‘आजकल उस औरत का एक केस मेरी अदालत में चल रहा है. तलाक का मामला है.’’

‘‘लेकिन, आप ने तो कहा था कि उस की कहानी के एक पात्र आप भी…’’

‘‘हां, मैं ने तब जो भी कहा हो, लेकिन इस समय मेरे सिर में दर्द है. मुझे आराम करने दो,’’ मयंक की आवाज में कुछ झुंझलाहट थी.

स्नेह के मन में मची उथलपुथल को मयंक बखूबी समझ रहा था. औरत के मन में शक की उपज स्वाभाविक होती है. यों स्नेह मयंक के प्यार के आगे मुंह खोल सकने की हालत में नहीं थी.

मयंक टाल तो गया, पर वह औरत अब भी उस की यादों में छाई रही.

आज से तकरीबन 8 साल पहले जब मयंक ग्रेजुएशन का छात्र था तो उस की बड़ी बहन की शादी में दूर के रिश्तेदारों, परिचितों के अलावा बड़े भाई के एक खास दोस्त की बहन रेणु भी आई थी.

मयंक को पहले ही दिन लगा था कि रेणु बहुत ही चंचल स्वभाव की थी और बातूनी भी. रेणु के आते ही सब उस से घुलमिल गए थे. बातबात में हर कोई ‘रेणु, जरा मुझे एक गिलास पानी देना’, ‘जरा मेरे लिए एक कप चाय बना देना’, ‘मुझे भूख लगी है, खाना परोस देना’ जैसी फरमाइशें करने लगा था.

एक दिन मयंक ने पुकारा था, ‘रेणु, मुझे प्यास लगी है.’

अचानक रेणु मयंक के पास आई और फुसफुसा कर बोली, ‘कैसी…’ और इतना कह कर उस ने अपने होंठों पर बड़ी गूढ़ मुसकान बिखेर दी.

मयंक अचकचा सा गया था. उसे रेणु से इस तरह की हरकत की कतई उम्मीद न थी.

मयंक ने अपनी झेंप को काबू में करते हुए कहा, ‘फिलहाल तो मुझे पानी ही चाहिए.’

रेणु ने पानी दिया और उसी दिन थोड़ा एकांत पाते ही उस ने कहा, ‘मयंक, तुम मुझ से इतना कतराते क्यों हो? क्या मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती?’

‘नहीं’ कहने के बजाय मयंक के मुंह से निकला था, ‘क्यों नहीं…’

लेकिन उसी दिन से उन दोनों के बीच ऐसी निजी बातों का सिलसिला चल पड़ा था. लगा कि जैसे सारी दूरियां खत्म होती जा रही थीं. मयंक भी रेणु की बातों में दिलचस्पी लेने लगा था.

रेणु ने एक दिन मयंक के सामने शादी करने का प्रस्ताव रख दिया, ‘मयंक, मैं चाहती हूं कि हम दोनों जीवनभर एकदूसरे के बने रहें.’

‘क्या…’ मयंक की हैरानी लाजिमी थी. क्या रेणु उस के बारे में इस हद तक सोचती है?

‘हां मयंक, अगर मेरी शादी तुम से नहीं हुई तो मैं जिंदगीभर कुंआरी ही रहूंगी,’ रेणु ने कहा. लगा, जैसे उस के आंसू छलक पड़ेंगे.

मयंक थोड़ी देर तो चुप रहा था लेकिन कुछ ही पलों में उस के दिल में रेणु के लिए प्यार उमड़ पड़ा था. वह उसे वचन दे बैठा, ‘अगर तुम में सचमुच सच्चे प्यार की भावना है रेणु, तो मैं जिंदगीभर तुम्हारा साथ निभाऊंगा.’’

यह सुनते ही रेणु मयंक से लिपट गई.

‘मुझे तुम से ऐसी ही उम्मीद थी,’ रेणु बुदबुदाई.

मयंक का एक दोस्त विनय भी शादी से कुछ दिन पहले ही हाथ बंटाने के लिए वहां आ गया था. एक दिन मयंक की मां ने विनय से शादी का कुछ सामान लाने को कहा. रेणु भी अपनेआप तैयार हो गई.

‘क्या मैं भी विनय के साथ चली जाऊं? इन के रास्ते में ही महमूदपुर पड़ेगा, जहां मेरी एक सहेली ब्याही गई है. अगर एतराज न करें तो मैं उस से मिल लूं? शाम को जब ये शहर से सामान ले कर लौटेंगे तो इन्हीं के साथ आ जाऊंगी,’ रेणु ने मयंक की मां से पूछा.

थोड़ी देर सोच कर मां बोलीं, ‘लेकिन, शाम तक जरूर लौट आना.’

‘हांहां, बस मिलना ही तो है,’ रेणु ने कहा, फिर वे दोनों स्कूटर पर बैठे और चले गए.

शाम हुई और शाम से रात, पर रेणु नहीं आई. मयंक ने सोचा कि आखिर वह अभी तक क्यों नहीं लौटी? विनय भी नहीं आया था.

अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘कौन…?’ मां ने पूछा.

‘मैं हूं,’ उधर से विनय ने कहा.

मां ने दरवाजा खोला. रेणु भी पीछे खड़ी थी.

‘कहां रह गए थे तुम दोनों?’ मां ने  झुंझलाते हुए पूछा.

‘कुछ नहीं… बस, इन का खटारा स्कूटर खराब हो गया था, फिर काफी पैदल चलना पड़ा,’ विनय कुछ बोलता, उस से पहले ही रेणु ने कहा और घर में जा घुसी.

उस समय मयंक को उस की यह हरकत सही नहीं लगी थी, फिर भी वह उस के शब्दजाल में फंस चुका था.

फिर एक दिन रेणु अपने घर चली गई. कई दिनों तक मयंक को कुछ भी अच्छा नहीं लगा था. घर में जाने की इच्छा भी न होती थी. हर जगह उस की यादें बिखरी हुई मालूम पड़ती थीं. उन्हीं यादों के नाते मयंक को लगता था जैसे वह खुद भी बिखर कर रह गया है.

मयंक ने अपनी मां को भी बता दिया था कि वह रेणु से प्यार करता है और शादी भी उसी से करना चाहता है.

‘मयंक, एक सवाल पूछूं तुम से?’ मां ने पूछा.

‘पूछो न मां… एक नहीं, हजार पूछो,’ मयंक ने कहा.

‘तुम्हें रेणु के चरित्र के बारे में क्या लगता है?’ मां ने सीधा सवाल किया.

मयंक बोला, ‘मुझे तो ठीक लगता है. वैसे, क्या आप को…?’

‘नहींनहीं, आजकल की लड़कियों के बारे में कालेज के लड़के ही ज्यादा जानकारी रखते हैं. खैर, ठीक ही है,’ मां ने कहा.

अचानक मां को पिताजी ने बुला लिया था. मयंक ने सोचा कि मां कहना क्या चाहती थीं?

एक दिन जब मयंक ने विनय को रेणु से अपने संबंध की बात बताई तो वह एकदम से बिफर गया, ‘तुम उसे भूल जाओ प्यारे… उस की मधुर मुसकानें बहुत जहरीली हैं.’

‘मैं समझा नहीं…’

‘तुम समझोगे भी कैसे? तुम्हारे दिमाग को तो रेणु नाम की उसी घुन ने चट कर रखा है. अब तुम समझनेबूझने की हालत में रह ही कहां गए हो?’ विनय ने ताना मारा.

‘क्या मतलब…’

‘तुम्हें यह शादी नहीं करनी है…’ विनय हक के साथ बोल पड़ा, ‘और अगर तुम उसे भूल नहीं पाते हो तो मुझे भूलने की कोशिश कर लेना.’

‘ठीक है. मैं भूल जाऊंगा उसे, लेकिन तुम भी इतना जान लो कि मैं जिंदगीभर कुंआरा ही रहूंगा,’ मयंक थोड़ा भावुक हो उठा.

‘आखिर तुम ने उस के अंदर ऐसा क्या देखा है, जो उस के लिए इतना बड़ा त्याग करने को तैयार हो?’

‘सिर्फ बरताव, खूबसूरती नहीं,’ मयंक ने कहा.

‘तो बस यही नहीं है उस में, बाकी सबकुछ हो भी तो क्या?’

‘क्या…?’

‘हां मयंक, उस का चरित्र सही नहीं है. अच्छा बताओ, तुम्हें वह दिन याद है न, जब रेणु मेरे साथ महमूदपुर गई थी?’

‘हां, याद तो है?’

‘मेरा स्कूटर खराब हो गया था और मैं देर रात वापस लौटा था?’

‘हां, यह भी याद है…’

‘मैं और भी जल्दी आ सकता था, पर वह देरी रेणु ने जानबूझ कर की थी.’

मयंक हैरानी से विनय का मुंह ताकने लगा.

‘लेकिन, उस को भी तो आना था?’ मयंक अपने अंदर हैरानी समेटे बोल रहा था, ‘जबकि तुम दोनों को महमूदपुर में ही रात होने लगी थी.’

‘हां इसलिए, रात का फायदा उठाने के लिए ही ऐसा किया गया था.’

‘क्या मतलब…?’

‘अब इतने नादान तो हो नहीं तुम कि तुम्हें मतलब समझाना पड़े…’

‘तो क्या रेणु ऐसी…?’

‘जी हां, ऐसी ही है रेणु…’ विनय ने आगे कहा, ‘उस की उन गलत इच्छाओं के आगे मुझे मजबूर होना पड़ा था, क्योंकि वह किसी भी हद तक जा चुकी थी…’ वह बोलता जा रहा था, ‘मैं इस के बारे में कभी भी कुछ न कहता, अगर आज अपने सब से अच्छे और एकलौते दोस्त को जिंदगी के इतने बड़े फैसले का धर्मसंकट सामने न आ खड़ा होता.’

विनय की बातें मयंक के कानों में जहर घोल रही थीं और वह खुद को ठगा हुआ सा महसूस करने लगा था.

मयंक ने सोचा कि अपने इस सवाल का जवाब वह खुद रेणु से लेगा, पर इस की नौबत ही नहीं आने पाई. उस ने जल्दी ही सुना कि रेणु का किसी से प्रेम विवाह हो गया है.

इधर मयंक के लिए भी कोई रिश्ता आया. उस ने मांबाप के फैसले को सिर्फ उन की खुशी के लिए अपनी रजामंदी दे दी.

सुसंस्कारों में पलीबढ़ी स्नेह मयंक के घर में सब को भाती थी. जब वह जिला जज की इस जिम्मेदारी के लिए आने लगा तो मां ने स्नेह से हंसते हुए कहा, ‘मेरे और अपने दोनों बेटों का खयाल रखना है अब तुम्हें.’

‘जी मां,’ स्नेह ने भी हंस कर ही कहा, जो मां के लिए बहू के बजाय उन की लाड़ली बेटी थी.

आज रेणु से मयंक का सामना वक्त ने उस मुकाम पर आ कर कराया जहां वह मयंक की ही अदालत में एक गुनाहगार की तरह खड़ी थी. उस के पति ने ही उस पर किसी और से संबंध होने की बात पर तलाक मांगा था.

रेणु आई, मयंक भी. जिला जज से पहले वह एक नेकदिल इनसान ही था, इसलिए अपनी ही उलझनों की शिकन महसूस करते हुए वह भी उस के सामने अपनी कुरसी पर आ बैठा.

आज रेणु का चेहरा बहुत ही बुझा हुआ था. मयंक को उस का अल्हड़पन याद आया, पर उस की जिंदगी में खुशियों का जरा भी दीदार न हो सका.

बहस के दौरान रेणु ज्यादातर चुप ही बनी रही और अपनी गलतियों को मान कर आगे से ऐसा कुछ न करने के लिए कहा.

रेणु के पति के पक्ष से पेश किए गए सुबूतों के आधार पर उसे तलाक मिल चुका था. पर रेणु के अदालत में बोले गए ये बोल, ‘आज मैं कहां से कहां होती…’ मयंक के जेहन में गूंजते रहे.

मयंक को बारबार यही अहसास हो रहा था कि ऐसा रेणु ने उस के और मयंक के संबंधों को याद करते हुए बोला था.

मयंक को आज उस पर तरस आ रहा था, पर यही तो था एक ‘पतिता का प्रायश्चित्त’.

Hindi Story : सुबह का भूला

Hindi Story : ‘‘सुनो जरा, आज रमा दीदी के यहां लेडीज संगीत का प्रोग्राम है, इसलिए दोपहर को अस्पताल से जल्दी घर आ जाना. शाम को 5 बजे निकल चलेंगे. यहां से 80 किलोमीटर ही तो दूर है, शाम के 7 बजे तक पहुंच ही जाएंगे.’’

‘‘नहीं सीमा, यह कैसे मुमकिन होगा… शाम को 6 बजे से अपना क्लिनिक भी तो संभालना होगा. कितने मरीज दूसरे शहरों से आते हैं. सभी को परेशानी होगी,’’ डाक्टर श्रीधर ने अपनी परेशानी सीमा को बताई.

‘‘मतलब, आप को लौटतेलौटते तो रात के 9-10 बज जाएंगे और उस के बाद अगर हम जाएंगे भी तो प्रोग्राम खत्म होने के बाद ही पहुंचेंगे,’’ सीमा निराश हो कर बोली.

सीमा को अपनी बड़ी बहन रमा की बेटी की शादी में जाने का बड़ा ही मन था.

‘‘सीमा, तुम सम झने की कोशिश करो न कि एक डाक्टर पर समाज की कितनी बड़ी जिम्मेदारी होती है. वह अपनी जिम्मेदारियों से कैसे मुंह मोड़ सकता है…’’ श्रीधर सीमा को सम झाने के लहजे में बोला.

‘‘उस जिम्मेदारी को निभाने के लिए तो सरकार ने तुम्हें सरकारी अस्पताल में नौकरी दे रखी है. क्लिनिक पर तो तुम ज्यादा पैसा पाने के लिए ही तो जाते हो न?’’ सीमा ने उसी लहजे में जवाब दिया.

‘‘मैं जो कुछ भी कर रहा हूं, तुम्हीं लोगों के लिए तो कर रहा हूं. अभी श्रीशिव 6 साल का ही तो है. कल जब वह बड़ा होगा तो उस की पढ़ाईलिखाई के लिए जिन पैसों की जरूरत होगी, उन का इंतजाम भी तो अभी से करना होगा,’’ श्रीधर अपने समय पर न आ पाने की दलील को सही ठहराने के नजरिए से बोला.

‘‘तो फिर वहां जाने का प्रोग्राम कैंसिल करते हैं,’’ सीमा काफी निराश लहजे में बोली.

‘‘नहीं सीमा, प्रोग्राम कैंसिल करने की जरूरत नहीं है. वैसे भी शादी तो कल ही है, इसलिए कल सुबह 5 बजे हम यहां से निकल चलेंगे और जल्दी ही पहुंच जाएंगे.

‘‘वैसे भी शादीब्याह जैसे कार्यक्रम का मतलब अपने सभी नातेरिश्तेदारों, जानपहचान वालों से मुलाकात करना होता है, खाना, नाचनागाना नहीं.

‘‘शाम को 5 बजे तक मैं वहां से निकल जाऊंगा और फिर अपना क्लिनिक संभाल लूंगा. तुम शादीविदाई की रस्मों तक वहीं रुकना. कार्यक्रम खत्म होते ही मैं ड्राइवर और गाड़ी पहुंचा दूंगा,’’ श्रीधर ने अपनी योजना सम झाई. सीमा ने मन मार कर हां कर दी.

श्रीधर के पिता गांव के एक मिडिल स्कूल में टीचर थे. उसी गांव में उन की थोड़ीबहुत जमीन थी, इसीलिए वे गांव में ही रहते थे. गांव में एक प्राइमरी हैल्थ सैंटर था, जो समय से खुल कर बंद हो जाता था. डाक्टर पास के शहर से रोज आतेजाते थे. इस के अलावा गांव में कोई एंबुलैंस नहीं थी.

श्रीधर के दादाजी की मौत भी समय पर पूरा इलाज न मिलने के चलते हुई थी. इसी वजह से श्रीधर के पिताजी उसे डाक्टर बना कर गांव में लाना चाहते थे, ताकि गांव वालों को समय पर इलाज मिल सके.

मैडिकल की डिगरी मिल जाने के फौरन बाद ही श्रीधर की पहली बहाली एक ब्लौक लैवल के सरकारी अस्पताल में हो गई.

सीमा से शादी के समय वह इसी अस्पताल में थे. सीमा के परिवार वाले दबदबे वाले थे और उन्होंने श्रीधर का ट्रांसफर इस मैट्रो सिटी में करा दिया.

यहीं पर सरकारी नौकरी करतेकरते श्रीधर ने अपना क्लिनिक खोल लिया. आज हालात यह है कि श्रीधर 10,000 रुपए रोज तो कमा ही लेते हैं. यही वजह है कि श्रीधर सरकारी अस्पताल से छुट्टी ले कर शादी में तो जाना चाहते हैं, पर अपना क्लिनिक और प्रैक्टिस छोड़ना नहीं चाहते हैं.

सुबह के 5 बजे अच्छाखासा अंधेरा था. कुछ देर पहले बारिश भी हो चुकी थी. श्रीशिव को आगे बैठना पसंद था इसलिए वह ड्राइवर के साथ आगे बैठ गया. सीमा व श्रीधर पीछे बैठ गए.

सुबह का समय था, इसलिए रोड पर टै्रफिक न के बराबर था. ड्राइवर ने म्यूजिक सिस्टम भी औन कर दिया था. पीछे बैठे श्रीधर व सीमा नींद में ऊंघ रहे थे.

अभी तकरीबन 40-50 किलोमीटर ही आए थे कि सड़क की साइड में एक ढाबे के पास खड़ा ट्राला चलने लगा और शायद कंट्रोल न होने के चलते बीच सड़क पर लहराने लगा. तेज रफ्तार से आ रही श्रीधर की कार को रोकना नामुमकिन था. काफी खतरनाक हादसा हुआ था. ट्राला वाला अपना ट्राला ले कर भाग चुका था.

तेज रफ्तार के चलते कार का अगला हिस्सा पूरी तरह टूट गया था. श्रीशिव व ड्राइवर की हालत गंभीर थी और काफी खून निकल रहा था. श्रीधर व सीमा को भी गंभीर चोटें आई थीं, पर वे दोनों होश में थे. चीखनेचिल्लाने की आवाज सुन कर आसपास से काफी लोग मदद के लिए आ गए थे.

सीमा व श्रीधर को तुरंत बाहर निकाल लिया गया. वे दोनों बदहवास हालत में थे. श्रीशिव व ड्राइवर को निकालने की कोशिशें की जा रही थीं, पर डैश बोर्ड के बीच फंसे होने के चलते बहुत दिक्कतें आ रही थीं.

जैसे ही श्रीधर सामान्य हुए, तो उन्होंने पूछताछ शुरू की. पता चला कि यह एक छोटा सा गांव है. तकरीबन सवा सौ घर हैं और सब से नजदीक प्राथमिक स्वास्थ केंद्र यहां से 5 किलोमीटर दूर है. वहां पर भी डाक्टर मिलेगा या नहीं, कह नहीं सकते.

श्रीधर ने तुरंत ही अपने सरकारी अस्पताल में फोन किया और एंबुलैंस भेजने के लिए कहा. फिर भी एंबुलैंस के आ कर वापस जाने में कम से कम डेढ़ घंटा तो लग ही सकता था. अब तक श्रीशिव को कार से बाहर निकाला जा चुका था.

श्रीधर ने उसे चैक किया. श्रीशिव की अभी मंदमंद सांसें चल रही थीं. अगर अभी औक्सिजन दी जाए तो शायद जान बच जाए. श्रीधर अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे थे. अब तक ड्राइवर को भी निकाला जा चुका था, पर वह अब इस दुनिया में नहीं था.

दूर से आती एंबुलैंस की आवाज से श्रीधर को कुछ उम्मीद बंधी. एंबुलैंस रुकी और जैसे ही स्ट्रैचर निकाला जाने लगा, बेटे श्रीशिव ने अपनी अंतिम सांसें लीं.

‘‘अगर आज गांव में डाक्टर होता, एंबुलैंस होती तो शायद इन दोनों की जानें बच जातीं,’’ भीड़ में से कोई कह रहा था.

‘‘अरे, डाक्टर इस छोटे से गांव में क्यों आएंगे? उन्हें तो मलाई चाहिए, जो सिर्फ शहरों में ही मिलती है,’’ किसी और ने कहा.

‘‘जब डाक्टरी की पढ़ाई करते हैं, तब कसम खाते हैं कि जन सेवा करेंगे, पर डिगरी मिलते ही सब भूल जाते हैं और सिर्फ धन सेवा करते हैं,’’ तीसरे आदमी ने कहा.

इसी तरह की और भी बातें हो रही थीं, जो श्रीधर को साफ सुनाई नहीं दे रही थीं.

श्रीधर को भी वह सब याद आ रहा था कि पिताजी ने किस वजह से उसे मैडिकल की पढ़ाई करने के लिए भेजा था.

दादाजी की मौत की सारी घटना उस की आंखों के सामने घूम गई. आज इतिहास ने खुद को दोहरा दिया. पिछली बार मौत उस के दादा को ले गई थी, इस बार बेटे को.

बेटे श्रीशिव की मौत के क्रियाकर्मों को निबटाने के बाद जब पिताजी वापस गांव जाने लगे तो श्रीधर ने उन से कहा, ‘‘मैं वापस गांव लौटना चाहता हूं. वहां लोगों की सेवा करना चाहता हूं.’’

‘‘पर, वहां तुम्हें इतने पैसे कमाने के मौके नहीं मिलेंगे,’’ पिताजी ने साफ शब्दों में जवाब दिया.

‘‘अब पैसा कमा कर भी क्या करना है. मेरी जानकारी अपने ही गांव के लोगों के काम आ जाए, तो मैं अपनेआप को धन्य सम झूंगा,’’ श्रीधर ने साफसाफ लहजे में जवाब दिया.

‘‘तुम्हारा स्वागत है. अगर तुम्हारे जैसा हर डाक्टर सोच ले तो गांव से बेचारे गरीबों को छोटीछोटी बीमारियों के इलाज के लिए दौड़ कर शहर नहीं आना पड़ेगा. इस से शहर के डाक्टर का भी बोझ कुछ कम होगा और सभी को बेहतर इलाज मिल पाएगा,’’ पिताजी एक सांस में सब बोल गए.

दूसरे दिन औफिस जाते ही श्रीधर ने सब से पहले अपने कई अफसरों को चिट्ठी लिख कर अपने फैसले की सूचना दी और अपने ही गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में ट्रांसफर करने का अनुरोध किया.

सीमा का मन महीनों तक बुझा रहा, पर फिर जब अगले चुनावों में उसे निर्विरोध सरपंच चुन लिया गया तो उस की सब शिकायतें खत्म हो गईं.

आम जनता के निकट आने पर उसे पता चला कि जनता की समस्याएं आखिर वैसी हैं और कितना भी करो कम हैं. उसे खुशी हुई कि वे दोनों कम से कम कोशिश तो कर रहे हैं.

Hindi Story : सनक

Hindi Story : सुनयना के पिता नृपेंद्रनाथ ने जो मकान बनवाया था वह काफी लंबाचौड़ा और शानदार था. लोग उस की कीमत 8 लाख रुपए के आसपास आंकते थे, पर नृपेंद्रनाथ उस की लागत दोढाई लाख ही बताते थे. मकान के अलावा बैंक में जमा धन था. गृहस्थी की हर नई से नई वस्तु मौजूद थी.

नृपेंद्रनाथ राजकीय सेवा में थे और एक विभाग में निरीक्षक थे. ऊपरी आमदनी का तो पता नहीं, पर उन के पास जो कुछ भी था, उसे मात्र वेतन से एकत्र नहीं कर सकते थे. वह कहा भी करते थे कि नौकरी तो उन्होंने शौक के लिए की है. गांव में उन के पास काफी कृषि भूमि है, बाग हैं और शानदार हवेली है. उसी की आमदनी से भरेपूरे हैं.

किसी को फुरसत न थी सुदूर गांव जा कर, अपना खर्चा कर के, नृपेंद्रनाथ की जायदाद का पता लगाए. जरूरत भी क्या थी? इस कारण नृपेंद्रनाथ की बात सच भी माननी पड़ती थी.

सुनयना उन की एकमात्र कन्या थी. 2 पुत्र भी थे. सुनयना तो किसी प्रकार स्नातक हो गई थी, पर बेटों ने शिक्षा की अधिक आवश्यकता महसूस नहीं की थी. जरूरत भी क्या थी? जब पिता के पास ढेर सारा धन हो, जायदाद हो तो शिक्षा का सिरदर्द मोल लेना उचित नहीं होता. वे दोनों भी वही सोचते थे जो आमतौर पर अपने देश में भरपूर धन और जायदाद वालों के पुत्र सोचते हैं.

सुनयना के नाकनक्श अच्छे थे. बोली भी अच्छी थी. केवल कमी थी तो यह कि रंग गहरा सांवला था. आर्थिक रूप से कमी न होने के कारण उस ने गृहकार्य सीखने की आवश्यकता नहीं समझी थी.

सुनयना की मां स्नेहलता तो उस के ब्याह के लिए नृपेंद्रनाथ को तभी से कोंचने लगी थी जब उस ने 18वें में कदम रखा था. यह नहीं कि नृपेंद्रनाथ को चिंता नहीं थी. थी और बहुत थी. वह जैसा चाहते थे वैसा वर नहीं दिखाई दे रहा था. जिस का भी पता लगता, वह उन की शर्तों पर खरा नहीं उतरता था.

नृपेंद्रनाथ चाहते थे कि लड़का भारतीय प्रशासनिक सेवा में हो. उच्च ब्राह्मण कुल का हो. गोश्त, प्याज, लहसुन आदि न खाता हो. शराब न छूता हो. शानदार व्यक्तित्व का मालिक हो.

ऐसे दामाद की कीमत वह डेढ़ लाख स्वयं लगा चुके थे. 2 लाख तक जा चुके थे. ऐसे लड़के का पता लगता तो दौड़े चले जाते. प्रतीक्षा सूची में लग जाते, पर अभी तक ऐसा हुआ था कि ऐसे लड़कों को 3 लाख और साढ़े 3 लाख वाले उड़ा ले जाते.

नृपेंद्रनाथ भी धुन के पक्के थे. एक वांछित शर्तों वाला लड़का हाथ से निकल जाता तो दूसरे के पीछे पड़ जाते और तब तक पीछे पड़े रहते जब तक उसे भी ऊंची कीमत वाले छीन न लेते.

सुनयना के पास करने को कोई काम नहीं था. मां ने भी कुछ करवाने की जरूरत नहीं समझी. वह खूब खाती, खूब सोती और जागते समय उपन्यास पढ़ती. मुसीबत घर के बड़ेबूढ़े की होती है और ऐसी कन्या के विवाह में कठिनाई होती है, जिस का बाप अपने को बहुत बड़ा और कुलीन समझता हो. पिता की जिद ने सुनयना को 28 वर्ष की परिधि में ला दिया. उम्र के कारण कठिनाई और बढ़ गई थी.

स्थिति यह आ गई थी कि लोग नृपेंद्रनाथ को देख कर वक्रता से मुसकरा पड़ते. कह ही डालते, ‘‘कायदे से इन्हें कोई मिनिस्टर तलाशना चाहिए जिस के आगेपीछे प्रशासनिक सेवा वाले दुम हिलाते हैं.’’

नृपेंद्रनाथ के कान में भी बात गई. कोई असर न हुआ. उत्तर दे दिया, ‘‘मंत्री अस्थायी होते हैं और प्रशासनिक सेवा वाले स्थायी होते हैं.’’

नृपेंद्रनाथ के साले चक्रपाणि ने सुझाया, ‘‘जीजाजी, हो सकता है कि लड़का अभी शराब न पीता हो, गोश्त न खाता हो, सिगरेट न पीता हो. पर शादी के बाद यह सब करने लगे तो आप क्या कर लेंगे?’’

नृपेंद्रनाथ ने कोई उत्तर न दिया. उन के कानों पर जूं भी न रेंगी. वह अपनी शर्तों से तिल भर भी अलग होने को तैयार नहीं थे.

प्रो. कैलाशनाथ मिश्र का पुत्र भारतीय प्रशासनिक सेवा में चुन लिया गया.

नृपेंद्रनाथ ने विवाह का प्रस्ताव रखा तो लड़के पंकज ने दोटूक उत्तर दे दिया, ‘‘एक मामूली इंस्पेक्टर की बेटी से विवाह? क्या हमारे स्तर के लोग देश में खत्म हो गए हैं?’’

नृपेंद्रनाथ ने उत्तर सुना. उत्तर क्या था जहर का घूंट था. जिद की सनक में उन्हें पीना ही पड़ गया, पर वह अपने उद्देश्य पर कायम रहे.

ऊब कर सुनयना की मां ने भी कह डाला, ‘‘अच्छे परिवार का ऐसा स्वस्थ लड़का देखिए जिस से दोनों की जोड़ी अच्छी लगे. इतना और ध्यान रखिए कि कामकाज से लगा हो.’’

नृपेंद्रनाथ झिड़क देते, ‘‘तुम्हें तो अक्ल आ ही नहीं सकती. जब अपने पास सबकुछ है तो इकलौती बेटी के लिए लड़का भी उच्च पद वाला ही ढूंढ़ना है.’’

जवाब मिला, ‘‘तुम्हारी सनक के कारण लड़की बूढ़ी हुई जा रही है. उस की चचेरी और ममेरी बहनें 2-2 बच्चों की मां बन गई हैं. जब खेत ही सूख गया तो वर्षा का क्या फायदा?’’

इस कटु सत्य का कोई उत्तर देने के स्थान पर नृपेंद्रनाथ टाल जाना ही उचित समझते थे. अपनी शर्तों के संबंध में झुकने को तैयार होने की बात सोच ही न सकते थे. ऐसा न था कि लड़के न थे. उच्च कुल वाले भी थे. अच्छे पदों पर भी थे. पूर्ण शाकाहारी भी थे. स्वस्थ और सुंदर थे. परंतु नृपेंद्रनाथ की सनक भारतीय प्रशासनिक सेवा वाले के लिए ही थी.

कपिलजी को रामायण याद थी. जो कुछ कहते थे उस में एक चौपाई जरूर जोड़ देते. रामायण कंठस्थ थी पर उस के कोई आदर्श चरित्र उन में न थे.

पर वह भी एक दिन बोल ही पड़े, ‘‘लिखा न विधि वैदेहि विवाहू. प्रशासनिक सेवा का शुभ धनु न टूटेगा और न नृपेंद्रनाथ भाई की पुत्री का ब्याह होगा.’’

कपिलजी की पत्नी हां में हां मिलाती हुई बोलीं, ‘‘अब सुनयना का ब्याह क्या होगा. उस का 32वां वर्ष खत्म हो रहा है. अब उस को कुंआरा वर शायद ही मिले. विधुर या तलाकशुदा ही मिल सकता है.’’

सुनयना भी ऊब सी गई थी. अपनी सहेली शिल्पा से यों ही कह गई, ‘‘पिताजी की सनक भी खूब है. जिद में पड़े हैं. क्या भारतीय प्रशासनिक सेवा वालों को छोड़ कर और अच्छे लड़के नहीं मिल सकते समाज में? अच्छा हुआ कि नानीजी ने ऐसा नहीं सोचा. नहीं तो मां भी अभी तक कुंआरी ही होतीं अथवा कुंआरी ही मर चुकी होतीं.’’

वैसे हर कन्या चाहती है कि उस का पति कमाने वाला हो, पर कमाई से भी बढ़ कर वह अच्छे स्वभाव का स्वस्थ पुरुष पसंद करती है, जिस के पास 2 भुजाएं हैं वह कमाई तो कर ही लेता है.

नृपेंद्रनाथ अब अजीब स्थिति में आ गए थे. वह जिसे पसंद करते उसे वह और उन का परिवार पसंद न आता. कभी कुछ बात बनती भी तो कन्या की उम्र और सांवलापन आड़े आ जाता.

पुत्रों को अपनी मस्ती से मतलब था. पत्नी कभीकभी भुनभुना लेती थी. रिश्तेदारों और सुहृदों ने जिक्र करना ही छोड़ दिया था.

नृपेंद्रनाथ मूर्ख नहीं थे, पर उन की सनक ने उन्हें मूर्खता की हद तक पहुंचा दिया था. उन की सनक ध्यान ही न दे पाती थी कि कन्या के विचारों में कुंठाएं घर कर चुकी हैं और शरीर की कोमलता जठरता में बदल चुकी है. किसी विवाह या अन्य समारोह में जाने पर वह अलगथलग पड़ जाती. लोग कहते कुछ न थे पर उन की निगाहें उस में एक अजीब सी सनसनाहट पैदा कर देती थीं. यही सनसनाहट एक अजीब सी ग्रंथि को जन्म दे चुकी थी.

एक बूढ़ी महिला ने सुनयना को बिना सुहाग चिह्नों के देखा तो दुखी हो कर उस की मामी से कह ही डाला, ‘‘क्या यह जवानी में ही विधवा हो गई?’’

मामी ने उस का मुंह पकड़ा, ‘‘ताईजी, अभी तो इस का विवाह ही नहीं हुआ है. इस के पिताजी इस के लिए काफी दिनों से अच्छा लड़का तलाश रहे हैं.’’

बूढ़ी का पोपला मुंह और बिगड़ गया. कुछ तो प्रकृति ने पहले से बिगाड़ दिया था, ‘‘इस का बाप तो मूर्ख लगता है. गरीब से गरीब लड़की का ब्याह हो जाता है. अगर इस के बाप के पास कुछ नहीं है तो भी एक जोड़ी कपड़े में ही किसी को कन्या का दान कर देता. बेचारी कुंआरी विधवा बन कर तो न घूमती.’’

मामी ने राज उजागर कर दिया, ‘‘इस के पिताजी गरीब नहीं हैं, पैसे वाले हैं. पैसा जब अधिक हो जाता है तो दिमाग को खराब कर देता है और आदमी औकात से बढ़ कर सोचने लगता है. इस के पिताजी अगर औकात से बढ़ कर न सोचते तो आज से वर्षों पूर्व इस का विवाह हो जाता. अब तक बालबच्चों वाली हो गई होती.’’

बूढ़ी ने आगे कहना चाहा तो सुनयना की मामी ने रोक दिया, ‘‘रहने दो, ताईजी, अगर किसी के कान में भनक पड़ गई तो अच्छा नहीं होगा.’’

बात आईगई हो गई, पर कोई बात अगर मुख से निकल जाए तो किसी न किसी प्रकार किसी न किसी कान में पहुंच ही जाती है.

कुंआरी विधवा की बात सुन कर नृपेंद्रनाथ खूब बड़बड़ाए. कहने वाली को उलटीसीधी सुनाईं. पर वह सामने न थी. लेकिन उन की सनक पर इतना असर जरूर पड़ा कि भारतीय प्रशासनिक सेवा की शर्त को प्रांतीय प्रशासनिक सेवा में बदल दिया. बाकी शर्तें पूर्ववत ही रहीं.

फिलहाल किसी में इतना दम बाकी न था कि उन्हें समझा पाए कि फसल यदि समय से न बोई जाए और उगे पौधों को समय से पानी न दिया जाए तो अच्छी जुताई और भरपूर खाद देने के बावजूद फसल पर पीलापन छा जाता है. उपज मात्र भूसा रह जाती है. दानों के लिए तरसना पड़ता है.

सुनयना अब भी कुंआरी ही है. बाप की सनक उसे जला चुकी है. रहीसही कमी भी पूरी करती जा रही है.

Hindi Story : बेला फिर महकी

Hindi Story : मधु दीदी अपनत्व लुटा कर और मेरे दिलोदिमाग में भूचाल पैदा कर चली गई थीं. कितने अपनेपन से उन्होंने मेरी दुखती रग पर हाथ रखा था.

‘‘सच बेला, तुम्हारी तो तकदीर ही कुछ ऐसी है कि हर रिश्ता तुम्हें इस्तेमाल करने के लिए ही बना है. तुम ब्याह कर आईं तो भाई साहब तुम्हें मांपिताजी की सेवा में सौंप कर निश्ंिचत हो गए. इतने बरसों में हम ने कभी तुम्हें उन के साथ घूमनेफिरने या पिक्चर जाते नहीं देखा.

‘‘सासससुर की सेवा और बच्चों की परवरिश से उबरीं तो अब अफसर बहू के बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी तुम पर आ पड़ी है. शुक्र है कि बहू बोलती मीठा है. हां, जब सारी जिम्मेदारी सास पर डाल कर नौकरी के नाम पर तफरी की जा रही हो, तो व्यवहार तो मीठा रखना ही पड़ेगा. चलो, अच्छा है कि तुम उस की मिठास पर लट्टू हो कर उस के बच्चों को जीजान से पालती रहो वरना सारी असलियत सामने आ जाएगी.’’

मधु दीदी के इस अपनेपन ने जैसे सारे रिश्तों के अपनत्व की कलई खोल दी. सासससुर और रमेश बाबू के रूखे व्यवहार को सहने की तो जैसे आदत सी पड़ गई थी. उसे मैं ने अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लिया था. बहू के लिए प्यार का परदा मधु दीदी ने हटा कर मुझे निराश ही कर दिया था.

बेला नाम मेरे पिताजी ने कितने अरमानों से रखा था. मेरे जन्म के बाद ही आंगन में पिताजी ने बेला का एक छोटा पौधा रोप दिया था. बेला को झाड़ बन कर फूलों से लद कर महकते और मेरी किलकारी को लरजती मुसकराहट में बदलते कहां वक्त लगा था. पिताजी ने बेला को अपने आंगन में ही महकने दिया और मुझे रमेश बाबू के आंगन को महकाने के लिए डोली में बिठा कर विदा कर दिया. मेरे पति रमेश बाबू ने मेरे कोमल जज्बात को कभी महत्त्व नहीं दिया. स्त्री के सामने प्रेम प्रदर्शन कर उसे सिर पर चढ़ाना उन्हें अपनी मर्दानगी के खिलाफ लगता था.

पिछवाड़े के बगीचे में पेड़ोें और झाडि़यों पर लिपटी अमरबेल को दिखला कर पति ने यह जतला दिया था कि उन की जिंदगी में मेरी हैसियत इस अमरबेल से अधिक कुछ नहीं है. जड़, पत्र और पुष्पविहीन पीली सी बदरंग अमरबेल… अनचाही बगिया में छाई रहती है, जिसे काटछांट कर जितना पीछा छुड़ाना चाहो वह उतनी ही अपनी लता फैला देती है.

मेरी ससुराल में सबकुछ स्वार्थ के रिश्तों पर कायम था. उस पर भी हर पल मुझे यह एहसास कराया जाता कि मैं निपट घरेलू महिला अमरबेल की तरह आश्रित और अनपेक्षित हूं. तब विरोध और विद्रोह बहुओं का अधिकार कहां था. पति से तिरस्कृत पत्नी सासससुर की लाड़ली भी नहीं बन पाती है. मैं ने सहमे हुए इस नए नाम अमरबेल  को चुपचाप स्वीकार कर लिया और बेला की महक न जाने कहां गुम होती गई. मैं और बगिया की अमरबेल बिन चाहत और जरूरत के अपनीअपनी उम्र आगे बढ़ाते रहे.

ऐसी नीरस जिंदगी के बाद बहू का अपनापन बुझे मन पर प्यार की फुहार बन कर आया. पोतेपोती की मासूम शरारतों और उन के साथ बढ़ी व्यस्तता में मन की टीस कहीं गहरे दबने लगी थी. यह टीस न चाहते हुए भी जानेअनजाने उभर आती थी, जब मैं अपने बेटे मयंक और बहू रीना में आपसी सामंजस्य और अधिक से अधिक समय साथ गुजारने की चाहत देखती. मयंक ने रीना का आफिस दूर होने से उसे आनेजाने में होने वाली परेशानी से बचने के लिए कार चलाना सिखाया और एक नई कार उसे जन्मदिन पर उपहार में दे दी.

इस समय भी मेरे पति मुझे ताना मारने से नहीं चूके कि अगर पत्नी लायक और समझबूझ में समान स्तर की हो तो इतना ध्यान रखा जाना लाजमी है. इस तरह जिंदगी भर मुझे दिए गए तिरस्कार का कारण बता दिया था उन्होंने और बरसों से घुटती, जीती मैं तब भी मौन रह गई थी. मैं बेला से अमरबेल जो बन चुकी थी.

लेकिन आज मधु दीदी ने जब मेरे और रीना के ममता भरे रिश्ते में मुझे स्वार्थ के दर्शन कराए तो मेरा कुंठित मन विद्रोह के लिए बेचैन हो उठा. बहू को लगातार मिल रही सुविधाएं और सम्मान व्यर्थ नजर आ रहा था. अब तक जाने- अनजाने हुई लापरवाही और गलतियां, जिन्हें मैं रीना की नादानी मान कर नजरअंदाज कर रही थी, आज वे सारी गलतियां मेरी पुरातन परंपराओं और संकुचित सोच को, जानबूझ कर मेरे सम्मान को ठेस पहुंचाने की कोशिश जान पड़ रही थीं.

गुस्से और अपमान से मेरे कान लाल थे और बढ़ी हुई धड़कन जैसे सारे बंधन तोड़ शरीर को कंपा रही थी. कल तक बहू से मिल रहा प्यार मुझे आत्मसंतोष दे रहा था, लेकिन आज मधु दीदी ने मेरे संतोष में आग लगा दी थी. बहू का सारा प्यार स्वार्थ के तराजू में तौल कर अपवित्र कर दिया था. अगर मैं गृहस्थी की साजसंवार, बच्चों का होमवर्क, स्कूल से वापस आने पर उन की देखभाल को दरकिनार कर सत्संग और पूजा में मन लगाऊं  तो आत्मशांति तो मिलेगी ही, बहू का व्यवहार बदलने से असलियत भी सामने आ जाएगी.

सोचा, क्यों न कुछ दिन के लिए अपनी बेटी रोजी के यहां चली जाऊं? जरा मेरे जाने के बाद यह महारानी भी जाने कि मेरे बिना वह अपनी अफसरी कैसे कायम रख सकती है, लेकिन वहां जाना क्या अच्छा लगेगा? नौकरीशुदा रोजी भी तो अपने सासससुर के साथ भरे परिवार में रहती है. उसे नौकरी करने के लिए प्रेरित भी तो मैं ने ही किया था, जिस से वह मेरी तरह प्रताडि़त हो कर नहीं सम्मान की जिंदगी जी सके.

बहुत कशमकश के बाद मैं ने हालात से लड़ने का फै सला लिया, ‘नहीं, मैं यहीं रह कर अपने लिए जीऊंगी. सारे दिन रीना और बच्चों की दिनचर्या के मुताबिक चक्करघिन्नी बनने के बजाय अब आदेशात्मक रवैया अपनाऊंगी. भला हो मधु दीदी का, जो उन्होंने मुझे समय रहते चौकन्ना कर दिया.’

हमेशा हंसतीमुसकराती रीना जो वक्तबेवक्त गलबहियां डाल कर मांमां की रट लगाए रहती है, आज मुझे खलनायिका लग रही थी. कुश और नीति के स्कूल से आने पर उन के कपड़े बदलवाने और खाना खिलाने में मन नहीं लग रहा था. दोनों बच्चे दादी को अनमना देख कर चुपचाप खाना खा कर टीवी देखने लगे थे.

बेचैनी अपनी चरम सीमा पर थी. बच्चों के पास जा कर टीवी देख कर मन बहलाने का प्रयास भी बेकार गया. सिर भारी हो रहा था. शाम होते ही बच्चे पार्क में खेलने और रमेश  बाबू अपने मित्रों के साथ टहलने चले गए. रसोई में जा कर रात के खाने की व्यवस्था देखने का मन आज कतई नहीं हो रहा था. परिवार की जिम्मेदारियों में सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद आज मैं खुद को शोषित मान रही थी.

शाम का अंधेरा गहराने लगा था. बाहर बहू की कार का हार्न सुनाई दिया. मन गुस्से से और भर गया. रीना को पता है कि रामू अपने गांव गया है और बच्चे पार्क में होंगे तो हार्न बजाने पर क्या मैं गेट खोलने जाऊंगी? और फिर सामने बालकनी में खड़ी मधु दीदी ने अगर मुझे गेट खोलते देख लिया तो व्यंग्य से ऐसे मुसकराएंगी मानो कह रही हों कि अच्छी तरह करो अफसर बहू की चाकरी.

मैं रुकी रही कि दोबारा हार्न की आवाज आई. मैं गुस्से में उठी कि बहू को इतनी जोर से झिड़कूंगी कि मधु दीदी भी सामने के घर में सुन लें कि मैं भी सास का रौब रखती हूं.

मैं बाहर पहुंची तो रीना तुरंत कार से उतर कर गेट खोलने लगी, ‘‘अरे, मां, आप क्यों आईं. मैं तो भूल ही गई थी कि आज रामू घर में नहीं है,’’ उस की मीठी बोली में मैं सारा आक्रोश भूल गई.

‘‘ओफ, मां, आप कैसी अव्यवस्थित सी घूम रही हैं?  आप की तबीयत तो ठीक है न?’’ कहते हुए रीना ने मेरा माथा छू कर देखा, ‘‘लगता है आप ने दिन में जरा भी आराम नहीं किया. आप जल्दी से तैयार हो जाइए. रोजी दीदी और जीजाजी भी आने वाले हैं.’’

मैं फिर उस के जादू में बंधी कपड़े बदल बाल संवार कर आ गई. जल्दी ही रीना भी फ्रेश हो कर आ गई.

‘‘हां, अब लग रही हैं न आप बर्थडे गर्ल. हैप्पी बर्थ डे, मां,’’ कहते हुए बड़ा सा गुलदस्ता मेरे हाथों में दे कर रीना ने मेरे चरण स्पर्श किए.

‘तुम्हें कैसे पता चला’ वाले आश्चर्य मिश्रित भाव को ले कर जब मैं ने उसे गले लगाया तो उस ने बताया कि पापा के पेंशन के पेपर्स में आप की जन्मतिथि पढ़ी थी. मयंक भी आज आफिस से जल्दी घर आएंगे और हां, आज आप की और मेरी रसोई से छुट्टी है, क्योंकि हम सब आप का जन्मदिन मनाने होटल जा रहे हैं.’’

मैं मधु दीदी के बहकावे में आ कर अपनी संकीर्ण मनोदशा से खुद ही शर्मिंदा होने लगी. अब तक देखीसुनी बुरी सासुओं की कुंठा आज मुझ पर भी हावी हो गई थी. मुझे लगा कि पति, सासससुर से मिले अपमान को हर नारी की कहानी मान चुपचाप स्वीकार किया और निरपराध बहू को मात्र पड़ोसन के बहकावे में आ कर स्वार्थ का पुतला मान लिया. बरसों से अपने जन्मदिन को साधारण दिनों की तरह गुजारती आज बहू की बदौलत ही खुशियों के साथ मना पाऊंगी. पति के रूप में रमेश बाबू तो इन औपचारिकताओें के महत्त्व को कभी समझे ही नहीं.

‘‘मां, आओ, आप को अच्छी तरह तैयार कर दूं. बच्चों के पार्क से आते ही फिर उन्हें भी तैयार करना होगा,’’ यह कह कर बहू ने एक नई कोसा की साड़ी मुझे दी और बोली, ‘‘कैसी लगी साड़ी, मां?’’

‘‘तुम मेरी पसंद को कितनी अच्छी तरह समझती हो,’’ बस, इतना ही कह पाई मैं.

साड़ी पहन कर जब मैं उस के पास आई तो रीना ने बेला का एक बड़ा सा गजरा मेरे जूड़े पर सजा दिया तो मैं ने रीना को अपने सीने से लगा लिया.

आंखों में आए आंसुओं से मैं अपने दिन भर दिल में भरे जहर को निकाल देना चाहती हूं. मेरी प्यारी रीना और जूडे़ में बंधे बेला के गजरे की भीनीभीनी महक ने आज बरसों बाद यह एहसास करा दिया कि मैं अमरबेल नहीं, बेला हूं.

Hindi Story : मुझे तो कुछ नहीं चाहिए

Hindi Story : मार्च का महीना था. तब न तो पूरी तरह सर्दी समाप्त होती है और न पूरी तरह गरमी ही शुरू होती है. समय बडा़ बेचैनी में गुजरता है. न धूप सुहाती है न पंखे. तनमन में भी अजीब सी बेचैनी रहती है. ऐसे  ही समय एक दिन सोचा कि बच्चों के लिए गरमियों के कपडे़ सिल लूं. सिलाई का काम शुरू किया, पर मन नहीं लगा. सोचा, थोडा़ बाहर ही घूम लूं. फिर फ्रेश हो कर काम शुरू करूंगी. घर से बाहर निकली तो वहां भी 1-2 वाहनों के अलावा कुछ नजर नहीं आया. एक तो पहाडों में जिस स्थान पर हम रह रहे थे वहां वैसे भी आबादी ज्यादा नहीं थी. बस, 4-5 मकान आसपास थे. कुछ थोडी़थोडी़ ऊंचाई वाले स्थान पर थे, इसलिए बहुत अकेलापन महसूस होता था. हां, शाम को बच्चे जरूर खेलते, शोर मचाते थे या काम पर गए वापस लौटते आदमी जरूर नजर आते थे. ऐसे में दिन के 11-12 बजे से ही सन्नाटा छा जाता था.

लेकिन उस दिन वह सन्नाटा कुछ टूटा सा लगा. इधरउधर ध्यान से देखा तो लगा कि आवाज बराबर वाले मकान से आ रही थी. जिज्ञासा से कुछ आगे बढ़ कर पडो़स के बरामदे की ओर देखा तो पडो़सिन किसी ग्रामीण महिला से बात करती नजर आईं. उन्हें बात करते देख मैं वापस आने को हुई तो उन्होंने वहीं से आवाज लगाई, फ्अरे, कहां चलीं, आओ, तुम भी बैठो.

यह पडो़सिन एक शांत सरल स्वभाव की मोटे शरीर वाली महिला थीं. मोटापे के कारण वह आसानी से कहीं आजा नहीं सकती थीं. साथ ही उन्हें मधुमेह, उच्च रक्तचाप आदि अनेक बीमारियां भी थीं. शक्करचीनी से कोसों दूर रहने पर भी उन की जबान की मिठास किसी को भी पल भर में अपना बना लेती थी. मैं भी उन के प्यार से वंचित नहीं थी. मैं उन्हें प्यार और आदर से भाभी कहती थी.

उन की आवाज सुन कर मैं ने उन्हें नमस्ते की. घर में काफी काम था. सोचा, वहां बैठने से सारा समय बातों में ही निकल जाएगा लेकिन तब तक वह ग्रामीण महिला भी पूरी तरह नजर आ गई. मुझे देख कर वह भी मुसकराई.

मैं तो उसे देखती ही रह गई. निराला व्यक्तित्त्व  था उस ग्रामीण महिला का. स्याह काली, लेकिन तीखे नैननक्श, काले रंग का घेरदार घाघरा जिस पर कई रंगों का पेचवर्क हो रहा था. साथ ही कलात्मक कढा़ई के बीच चमकते सितारों से गोल, तिकोने शीशे  थे.घ्घाघरे के ऊपर जरी के काम की लाल कुरती, किरन लगा काला दुपट्टा, हाथपैरों में चांदी के भारीभारी कडे़, कान में चांदी के बडे़बडे़ झाले, जिन की लडों़ ने उस के बालों को भी सजा रखा था. गले में सतलडा़ हार और नाक में नथुनों से भी बडे़ आकार का पीतल का चमकता फूल. लंबेलंबे बालों की अनगिनत चोटियां, जिन को नीचे इकट्ठा कर के रंगबिरंगे चुटीले गूंध रखे थे.

उस के साथ ही बहती नाक वाला, मैलेकुचैले कपडे़ पहने, नंगे पैर एक 10-11 साल का लड़का बैठा था जो उस महिला के सामने उस का नौकर सा लगता था, लेकिन शायद वह उस का बेटा था, जो मां की तरफ से उपेक्षित छोड़ दिया गया था.

भाभी के प्रेम भरे आमंत्रण को शायद मैं विनम्रता से टाल भी देती, लेकिन उस महिला के प्रति जिज्ञासा ने मुझे वहां जाने को विवश किया. उस की अस्पष्ट आवाजें मेरे घर तक आ रही थीं.

जब तक मैं दरवाजा बंद कर वहां पहुंचती, वह महिला अपनी बात शुरू कर चुकी थी. वहां पहुंचने पर मैं ने सुना, फ्देख बीबी, तेरे से एक पैसा नहीं मांगती. जब ठीक हो जाए तो जो इच्छा हो दे देना. तू नुसखा लिख ले. तुझे 4 दिन में फर्क न पडे़ तो कहना. बीबी, इस से पहले एक धेला नहीं लूंगी. इस नुसखे के इस्तेमाल से तेरी सारी चरबी ऐसे छंट जाएगी कि तू खुद को नहीं पहचानेगी.

उस की बातों से मैं समझ गई थी कि यह कोई जडी़बूटीनुमा देशी इलाज या झाड़फूंक करने वाली है. मेरे आने से पहले उस ने मुश्किल से कदम उठा कर रखने वाली भाभी की चालढाल देख कर उन की कमजोर नस पकड़ ली थी और अब तो उन्हें अपने शीशे में उतारने के चक्कर में थी.

मैं ने पूछा, फ्तुम कहां की हो? कहां से आई हो?

फ्बीबी, हैं तो लखीमपुर के, पर दूरदूर तक घूमते हैं और जडी़बूटियां खोजते हैं, उस से लोेगों का इलाज करते हैं. उन का भला करते हैं, वह बडे़ नाज से बोली.

उस का बोलने का अंदाज देख कर मुझे हंसी आ गई. मैं ने कहा, फ्इतनी दूर लखीमपुर की हो तो यहां गढ़वाल में क्या कर रही हो?

फ्ऐ लो बीबी, सारी जडी़बूटियां तो यहीं से ले जाते हैं. तुम्हें नहीं पता कि तुम्हारे पहाडों़ में कितनी बूटियां हैं. तुम तो पहाडों पर रह रही हो, वह व्यंग्य से बोली.

मुझे फिर हंसी आ गई, फ्अरे, तो क्या हम यहां जडी़बूटी खोदने आए हैं. भई, हम नौकरीपेशा लोग हैं. जहां सरकार ने भेज दिया, चले गए. अब यह तो पता है कि पहाडों़ में जडी़बूटियों  का खजाना है, लेकिन ये क्या जानें कि कौन सी घास, फूलपत्ती जडी़बूटी है.

फ्लो बीबी, खुद ही देख लो, कह कर उस ने 3-4 लकडी़  के टुकडे़ अपने गंदे थैले में से निकाले और एक टुकडा़ मेरी ओर बढा़या, फ्इस में कील या पेचकस डालते ही तेल निकलने लगेगा.

मैं ने उस टुकडे़ को नाखून से दबाया तो तेल सा चमका, फिर उस में पेचकस डाल कर घुमाया तो तेल की बूंद सी टपकी. वह फिर बोल उठी, फ्तेल में इन जडी़बूटियों को डाल दूंगी, फिर ये तेल अच्छी तरह से दिन में 2 बार जोडों़ पर मलना. एक नुसखा बताती हूं. उस की राख बना कर तेल में मिला कर लगाना. बीबी, फायदा न हो तो एक पैसा न देना. अभी तुम से कुछ नहीं मांगती. तुम अपना इलाज शुरू कर दो.

इतना कह कर उस ने लौंग, जायफल, पहाडी़ गुच्छी, कपूर, चंदन का तेल जैसी 10-12 चीजों के नाम लिखाए. भाभी ने पूछा, फ्यह सामान कहां मिलेगा?

फ्सब बाजार में मिल जाएगा. अपने नौकर को भेज कर मंगवा लेना. इसे जला कर राख बना लेना और फिर राख को तेल में मिला कर सारे शरीर पर मालिश करना, देखना कुछ ही दिन में असर होने लगेगा और तुम दौड़ने लगोगी. सारे जोड़ खुल जाएंगे.

भाभी बोलीं, फ्क्या यह सामान ऐसे ही जला लेना है?

वह बोली, फ्हां, हां, यहीं आंगन के कोने में जला लेना.

मुझे फिर भी उस की बात पर विश्वास नहीं था, सो उस से कह बैठी, फ्यह सब तो कर ही लेंगे पर यह तो बताओ कि तुम फिर कब आओगी? तुम्हें कैसे पता चलेगा कि इलाज हो पा रहा है या नहीं?

फ्लो बीबी, तुम तो शक कर रही हो हम पर. ऐसेवैसे नहीं हैं हम.घ्यह देखो हमारा पहचान पत्र. हमें तो पूरी ट्रेनिग दी गई है, कह कर उस ने गंदे कपडे़ में लिपटा, अपना फोटो लगा पहचानपत्र दिखाया, जिस में एक बडे़ शहर की आयुर्वेद कंपनी का प्रमाणपत्र व फोन नंबर आदि थे. वह फिर भाभी से बोली, फ्अपने लिए एक पैसा नहीं मांग रही. ठीक होने पर जो मरजी हो दे देना. एक बार इलाज तो शुरू करो फिर खुद को ही नहीं पहचान पाओगी. ला, मंगा एक कटोरा तेल.

भाभी ने अपनी लड़की से तेल मंगाया तो वह सिर पकड़ कर बैठ गई, फ्अरे बिटिया, कोई ले थोडे़ ही जाएंगे हम. कम से कम डेढ़ पाव तेल ला. फिर उस तेल में जडी़बूटी के कुछ टुकडे़ तोड़ कर मिलाए और भाभी के हाथ पैर व कमर पर मालिश कर के 5 मिनट बाद बोली, फ्कुछ आराम मिला जोडों़ में?

भाभी खुश थीं, फ्हां, आराम तो मिला.

शायद बरसों बाद उन्हें किसी से मालिश करवाने का मौका मिला था.

अब उस महिला ने एकएक कर भाभी की लड़की से हलदी, लकडी़ का पटरा, 2 रंगों का धागा मंगाया. मुझ से रुका नहीं गया और मैं कह उठी, फ्भई, जो कुछ मंगाना है एकसाथ क्यों नहीं मंगवाती हो? मैं देख रही थी कि भाभी की बेटी को इन सब बातों में बकवास नजर आ रही थी और वह सामान लाने पर हर बार मुंह बना रही थी.

तब तक बाजार से भाभी का बेटा भी आ गया था जो बी-एससी- में पढ़ रहा था. उस के सामने उस महिला ने फिर से सारी बातें दोहराईं. बेटे ने उस की बात मजाक में लेने की कोशिश की तो वह बोली, फ्मैं क्या तेरे से कुछ मांग रही हूं. तेरी मां के भले के लिए  बता  रही हूं यह नुसखा. ठीक हो जाए तो कुछ भी दे देना.

बेटा बोला, फ्चल, तुझे 200 रुपए दूंगा और 200 रुपए क्या, तुझे दिल्ली ले चलता हूं. वहां ऐसे बहुत से मरीज हैं, उन्हें ठीक कर देना. मैं तेरा चेला बन जाऊंगा फिर अपना क्लीनिक खोल कर ठाठ करूंगा.

ग्रामीण महिला ने तिरछी नजर से उसे देखा. शायद वह उस के मजाक को समझ गई थी, पर धैर्य का परिचय देते हुए फिर भाभी की ओर देखती हुई बोली, फ्देख, तेरे यहां कच्ची मिट्टी की जगह है, यहीं भस्म बना लेना.

मुझे यकीन नहीं आ रहा था कि मुपत में नुसखा बेचने का आखिर इसे क्या लाभ है. कहीं यह सीधीसरल भाभी को ठगने के चक्कर में तो नहीं है. कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. इसीलिए मैं उस से फिर पूछ बैठी, फ्यह भस्म तुम्हारे पास नहीं है. जो सामान तुम ने बताया है, पता नहीं यहां मिले या नहीं? अब बाजार के सामान का क्या भरोसा? बाद में तुम कहोगी, यह ठीक नहीं था, वह ठीक नहीं था, इसलिए फायदा नहीं हुआ.

फ्अब बीबी, यह तो पैसे की चीज है, बाजार से मंगा लो. मुझे क्या देना, फिर कहोगी कि पैसा मांगती है.

यह बात 3-4 बार आई और उस ने हर बार फिर वही बात दोहराई. लेकिन अब मुझे लगने लगा था कि मेरी उपस्थिति उसे अखरने लगी है, क्योंकि मैं उस से तरहतरह  के सवाल पूछ रही थी. शायद वह समझ रही थी कि मैं उस की कोई बात पकड़ने की कोशिश में हूं जबकि भाभी ने उस से कुछ भी नहीं पूछा था. इस के बाद जब भी मैं ने उस से कोई बात पूछी, उस ने बात का रुख भाभी को नुसखा समझाने में मोड़ दिया.

इस बीच उस ने पटरे पर आटे और हलदी से ‘रंगोली’ आदि बना कर भाभी को उस पर बिठाया. फिर उस ने 2-3 मीटर धागे को भाभी के हाथपैर से नाप कर 15-20 बार लपेट कर रस्सी जैसा बनाया और उसे भाभी के शरीर से छुआ कर 11 गांठें लगाईं. कुछ मंत्र पढे़ और धागा भाभी को दे कर बोली, फ्इसे ध्यान से रख लो. जैसेजैसे तुम ठीक होगी, गांठें अपनेआप खुल जाएंगी.

वहां मौजूद सभी लोगों को हैरानी में डालते हुए उस ने माचिस की डब्बी में धागा रख दिया. अब मुझे यकीन हो गया था कि जरूर कोई धोखा है. आयुर्वेदिक इलाज में टोनेटोटके का क्या काम. लेकिन मैं चुप रही, क्योंकि मुझे लग रहा था कि भाभी उस की बातों से काफी प्रभावित हो गई थीं. खासतौर पर इस बात से कि वह इस काम के अभी कोई पैसे नहीं मांग रही. विधि भी आसान थी, उस के द्वारा जडी़बूटी डाले गए तेल में सामान की राख मिला कर मलना ही तो था और फिर देखो दवा का कमाल.

मैं किसी काम के बहाने उठ कर आ गई और सोचने लगी कि ऐसी बातों में सिर खपाना बेकार है. लेकिन जिज्ञासा से उस की आगे की काररवाई देखने के लिए मैं फिर वहीं जा कर खडी़ हो गई. वापस गई तो वह आटे की छलनी में कुुुछ घुमा रही थी. मैं दूर खडी़ यह सब देखने लगी तो वह महिला बोली, फ्आजा री, तू घबरा क्यों रही है? तुझ पर कुछ टोटका नहीं करूंगी. मेरे भी बाल बच्चे हैं. मैं यदि गलत बोलूं या गलत करूं तो मेरे बच्चे मरें.

मैं ने उसे टोका, फ्बच्चों को क्यों ला रही है बीच में. तुझे जो करना है, कर. मैं इन बातों में यकीन नहीं रखती.

अब महिला ने कहा, फ्बेटी, इस में कुछ सफेद खाने की सामग्री ले आ.

बेटी एक छलनी चावल ले आई.

महिला माथा पकड़ कर बैठ गई, फ्ले बेटी, यह क्या मैं ले जाऊंगी. कम से कम 3 छलनी भर ला.

बेटी ने चावल ला कर थैली में डाले तो कुछ चावल बिखर गए. भाभी बोलीं, फ्चलो, कोई बात नहीं, चावल ही तो गिरे हैं- हमारे पहाड़ में इसे शुभ मानते हैं- अब तो महिला ने भाभी की शुभअशुभ में जबरदस्त आस्था की दूसरी कमजोर नस पकड़ ली, फ्बेटी, जब तेरी मां ठीक हो जाए तो इन्हें पका कर कन्याओं को खिला देना. अब  बताओ, यह सही है या गलत? अच्छा, जा, जरा एक कटोरी चीनी और ले आ.

मुझे फिर किसी काम से वहां से उठना पडा़. फिर वापस पहुंची तो हैरान रह गई. वह महिला एक टूटी सी कटोरी में नुसखे का सारा सामान दिखा रही थी, फ्देखो बीबी, इतना सामान है.

मुझे हंसी आ गई. अभी तक तो यही कह रही थी कि मेरे पास सामान कहां है. अब उस ने भाभी के बेटे और नौकर को पास बुलाया, फ्भैया, अब तू भी जान ले विधि, भस्म बनाने की. 2 हाथ गहरा गड्ढा खोद कर 3 किलो उपले और कोयला नीचे रखना. फिर मिट्टी की हंडिया में नुसखे का सारा सामान रख कर मिट्टी के ढक्कन को  आटे से चिपका कर मुुंह बंद कर देना. ऊपर से बाकी उपलाकोयला डाल कर मिट्टी से गड्ढे का मुंह बंद कर देना. 5-6 घंटे बाद खोलना तो हंडिया में सफेद राख मिलेगी. देखो, इस में रखे सामान या आग में फूंक न मारना, पूजा का होता है यह.घ्नहीं तो सब बेकार हो जाएगा.

फ्अरे, इतना सब कैसे होगा? अभी तक तो लग रहा था कि सारी सामग्री कहीं भी रख कर जला कर भस्म बन जाएगी. अब कोयला, उपले कहां से आएंगे. गहरा गड्ढा कैसे खुदेगा. पहाडों़ पर बने घरों में जरा सा खोदने पर ही पत्थर की शिला निकल आई तो? इन बातों पर विचारविमर्श शुरू ही हुआ था कि वह महिला बीच में ही बोल उठी, फ्और देख भैया, यह सामान ठीक से न जले, काला या गीला रह जाए तो इस्तेमाल मत करना. फिर से भस्म बनाना.

अब भाभी भी कुछ झुंझला गईं. मुझ से बोलीं, फ्इतना झमेला कैसे होगा? इस के पास होती तो वही ले लेते, कितना झंझट है इसे बनाने में.

तभी वह महिला झोले में से शीशी निकाल कर बोली, फ्देखो, ऐसा सफेद पाउडर बनना चाहिए.

पाउडर देखकर चौंकते हुए भाभी बोलीं, फ्है तो तुम्हारे पास, यही दे दो न?

फ्बीबी, मैं तो दिखा रही थी खाली, पैसे की चीज है. बाजार से ला कर खुद बना लेना. वैसे 260 रुपए का है यह, वह बोली.

फ्कुछ ज्यादा ही कह रही हो तुम. 260 रुपए का क्या हिसाब हुआ? भाभी बोलीं.

फ्बीबी, नौकर भेज बाजार में पुछवा लो. यहीं बैठी हूं मैं. फिर हमारी मेहनत भी तो है. नहीं तो तुम खुद बना लेना. मरीज बनाम ग्राहक को अपनी पैनी नजर से तौलती वह पूरी निश्चितता के साथ पैर फैला कर बैठ गई. उस के अनुभव ने उसे लगभग आश्वस्त कर दिया था कि पंछी जाल में फंस गया है.

मेरे बच्चों के स्कूल से आने का समय हो गया था. इसलिए उन के मोलतोल में शामिल न हो कर मैं घर आ गई. अगले दिन भाभी से पूछा तो पता चला कि वह भस्म उन्होंने ले ली है. वह महिला न तो आधे पैसे एक सप्ताह बाद लेने को तैयार हुई न एक भी पैसा कम किया उस ने. उस समय परिस्थितिवश भाभी ने तमाम रेजगारी तक गिन डाली थी, लेकिन वह महिला टस से मस नहीं हुई. आखिर भाभी ने किसी से पैसे ले कर उस को दिए.

मैं सोचती रह गई कि कितनी जबरदस्त मनोवैज्ञानिक थी वह. पहले उस ने पूरी कालोनी में घूम कर भाभी को चुना और उन की बीमारी की कमजोर नस पकडी़. फिर यह विश्वास दिलाया कि वह पैसों के लिए यह सब नहीं कर रही. वह तो उन का भला करना चाहती है, जो बहुत सरलता से हो जाएगा. फिर नुसखा बनाने की विधि की जटिलता पर आई और जब उसे विश्वास हो गया कि लोहा गरम है तो अपने पास से बना पाउडर दिखा कर उसे बेच कर 260 रुपए की चपत लगा गई.

पाठको, शायद आप जानना चाहेंगे कि फिर उस पाउडर का क्या असर रहा, जो उस ने 3 घंटे की माथापच्ची के बाद अपने झोले से निकाला था.

अगले दिन मैं ने भाभी से पूछा कि आप ने तेल लगाया, तो बोलीं, फ्हां, कल मालिश की तो जोड़ कुछ खुले तो. मैं ने कई साल बाद पहली बार खडे़ हो कर खाना बनाया. कुछ दिन बाद फिर पूछा तो बोलीं, फ्तेल खुद लगा नहीं पाती और मालिश करने वाली मिली नहीं. और फिर कुछ दिन बाद बात आई तो मैं हैरान रह गई जवाब सुन कर. उन्होंने कहीं अखबार में पढा़ था कि कुछ विदेशी एजेंट भारत में हींग, दवा आदि बेचने वालों के जरिए महामारी फैलाने की कोशिश में हैं. अतः उन्होंने उस महिला को विदेशी एजेंट मानते हुए सारा तेल व अन्य सामान फेंक दिया था. देरसवेर किसी न किसी बहाने से शायद उस का यही हश्र होना था.

लेखिका- स्मिता जैन

Hindi Story : भटकाव के बाद

Hindi Story : राज्य में पंचायत समितियों के चुनाव की सुगबुगाहट होते ही राजनीतिबाज सक्रिय होने लगे. सरपंच की नेमप्लेट वाली जीप ले कर कमलेश भी अपने इलाके के दौरे पर घर से निकल पड़ी. जीप चलाती हुई कमलेश मन ही मन पिछले 4 सालों के अपने काम का हिसाब लगाने लगी. उसे लगा जैसे इन 4 सालों में उस ने खोया अधिक है, पाया कुछ भी नहीं. ऐसा जीवन जिस में कुछ हासिल ही न हुआ हो, किस काम का.

जीप चलाती हुई कमलेश दूरदूर तक छितराए खेतों को देखने लगी. किसान अपने खेतों को साफ कर रहे थे. एक स्थान पर सड़क के किनारे उस ने जीप खड़ी की, धूप से बचने के लिए आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर कर खेतों की ओर चल दी.

सामने वाले खेत में झाड़झंखाड़ साफ करती हुई बिरमो ने सड़क के किनारे खड़ी जीप को देखा और बेटे से पूछा, ‘‘अरे, महावीर, देख तो किस की जीप है.’’

‘‘चुनाव आ रहे हैं न, अम्मां. कोई पार्टी वाला होगा,’’ इतना कह कर वह अपना काम करने लगा.

बिरमो भी उसी प्रकार काम करती रही.

कमलेश उसी खेत की ओर चली आई और वहां काम कर रही बिरमो को नमस्कार कर बोली, ‘‘इस बार की फसल कैसी हुई ताई?’’

‘‘अब की तो पौ बारह हो आई है बाई सा,’’ बिरमो का हाथ ऊपर की ओर उठ गया.

‘‘चलो,’’ कमलेश ने संतोष प्रकट किया, ‘‘बरसों से यह इलाका सूखे की मार झेल रहा था पर इस बार कुदरत मेहरबान है.’’

कमलेश को देख कर बिरमो को 4 साल पहले की याद आने लगी. पंचायती चुनाव में सारे इलाके में चहलपहल थी. अलगअलग पार्टियों के उम्मीदवार हवा में नारे उछालने लगे थे. यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी इसलिए इस चुनावी दंगल में 8 महिलाएं आमनेसामने थीं. दूसरे उम्मीदवारों की ही तरह कमलेश भी एक उम्मीदवार थी और गांवगांव में जा कर वह भी वोटों की भीख मांग रही थी. जल्द ही कमलेश महिलाओं के बीच लोकप्रिय होने लगी और उस चुनाव में वह भारी मतों से जीती थी.

‘‘क्यों बाई सा, आज इधर कैसे आना हुआ?’’ बिरमो ने पूछा.

‘‘अरे, मां, बाई सा वोटों की भीख मांगने आई होंगी,’’ महावीर बोल पड़ा.

महावीर का यह व्यंग्य कमलेश के कलेजे पर तीर की तरह चुभ गया. फिर भी समय की नजाकत को देख कर वह मुसकरा दी और बोली, ‘‘यह ठीक कह रहा है, ताई. हम नेताओं का भीख मांगने का समय फिर आ गया है. पंचायती चुनाव जो आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है बाई सा,’’ बिरमो बोली, ‘‘इस बार तो तगड़ा ही मुकाबला होगा.’’

कमलेश जीप के पास चली आई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए. फिर भी जाना तो था ही, सो जीप स्टार्ट कर चल दी. दिमाग में आज की राजनीति को ले कर उधेड़बुन मची थी कि अतीत में दादाजी के कहे शब्द याद आने लगे. दरअसल, राजनीति से दादाजी को बेहद घृणा थी, ग्राम पंचायत की बैठकों में वह भाग नहीं लेते थे.

एक दिन कमलेश ने उन से पूछा था, ‘दादाजी, आप पंचायती बैठकों में भाग क्यों नहीं लिया करते?’

‘इसलिए कि वहां टुच्ची राजनीति चला करती है,’ वह बोले थे.

‘तो राजनीति में नहीं आना चाहिए?’ उस ने जानना चाहा था.

‘देख बेटी, कभी कहा जाता था कि भीख मांगना सब से निकृष्ट काम है और आज राजनीति उस से भी निकृष्ट हो चली है, क्योंकि नेता वोटों की भीख मांगने के लिए जाने कितनी तरह का झूठ बोलते हैं.’

उस ने भी तो 4 साल पहले अपनी जनता से कितने ही वादे किए थे लेकिन उन सभी को आज तक वह कहां पूरा कर सकी है.

गहरी सांस खींच कर कमलेश ने जीप एक कच्चे रास्ते पर मोड़ दी. धूल के गुबार छोड़ती हुई जीप एक गांव के बीचोंबीच आ कर रुकी. उस ने आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर गई.

देखते ही देखते कमलेश को गांव वालों ने घेर लिया. एक बुजुर्ग बच्चों को हटाते हुए बोले, ‘‘हटो पीछे, प्रधानजी को बैठ तो लेने दो.’’

एक आदमी कुरसी ले आया और कमलेश से उस पर बैठने के लिए अनुरोध किया.

कमलेश कुरसी पर बैठ गई. बुजुर्ग ने मुसकरा कर कहा, ‘‘प्रधानजी, चुनाव फिर आने वाला है. हमारे गांव का कुछ भी तो विकास नहीं हो पाया.

‘‘हम तो सोच रहे थे कि आप की सरपंची में औरतों का शोषण रुक जाएगा, क्योंकि आप एक पढ़ीलिखी महिला हो और हमारी समस्याओं से वाकिफ हो, लेकिन इन पिछले 4 सालों में हमारे इलाके में बलात्कार और दहेज हत्याओं में बढ़ोतरी ही हुई है.’’

किसी दूसरी महिला ने शिकायत की, ‘‘इस गांव में तो बिजलीपानी का रोना ही रोना है.’’

‘‘यही बात शिक्षा की भी है,’’ एक युवक बोला, ‘‘दोपहर के भोजन के नाम पर बच्चों की पढ़ाई चौपट हो आई है. कहीं शिक्षक नदारद हैं तो कहीं बच्चे इधरउधर घूम रहे होते हैं.’’

कमलेश उन तानेउलाहनों से बेहद दुखी हो गई. जहां भी जाती लोग उस से प्रश्नों की झड़ी ही लगा देते थे. एक गांव में कमलेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘अरे, अपनी ही गाए जाओगे या मेरी भी सुनोगे.’’

‘‘बोलो जी,’’ एक महिला बोली.

‘‘सच तो यह है कि इन दिनों अपने देश में भ्रष्टाचार का नंगा नाच चल रहा है. नीचे से ले कर ऊपर तक सभी तो इस में डुबकियां लगा रहे हैं. इसी के चलते इस गांव का ही नहीं पूरे देश का विकास कार्य बाधित हुआ है. ऐसे में कोई जन प्रतिनिधि करे भी तो क्या करे?’’

‘‘सरपंचजी,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पांचों उंगलियां बराबर तो नहीं होती न.’’

‘‘लेकिन ताऊ,’’ कमलेश बोली, ‘‘यह तो आप भी जानते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसा करता है. साफसुथरी छवि वाले अपनी मौत आप ही मरा करते हैं. उन को कोई भी तो नहीं पूछता.’’

एक दूसरे बुजुर्ग उसे सुझाव देने लगे, ‘‘ऐसा है, अगर आप अपने इलाके के विकास का दमखम नहीं रखती हैं तो इस चुनावी दंगल से अपनेआप को अलग कर लें.’’

‘‘ठीक है, मैं आप के इस सुझाव पर गहराई से विचार करूंगी,’’ यह कहते हुए कमलेश वहां से उठी और जीप स्टार्ट कर सड़क की ओर चल दी. गांव वालों के सवाल, ताने, उलाहने उस के दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. ऐसे में उसे अपना अतीत याद आने लगा.

कमलेश एक पब्लिक स्कूल में अच्छीभली अध्यापकी करती थी. उस के विषय में बोर्ड की परीक्षा में बच्चों का परिणाम शत- प्रतिशत रहता था. प्रबंध समिति उस के कार्य से बेहद खुश थी. तभी एक दिन उस के पास चौधरी दुर्जन स्ंिह आए और उसे राजनीति के लिए उकसाने लगे.

‘नहीं, चौधरी साहब, मैं राजनीति नहीं कर पाऊंगी. मुझ में ऐसा माद्दा नहीं है.’

‘पगली,’ चौधरी मुसकरा दिए थे, ‘तू पढ़ीलिखी है. हमारे इलाके से महिला के लिए सीट आरक्षित है. तू तो बस, अपना नामांकनपत्र भर दे, बाकी मैं तुझे सरपंच बनवा दूंगा.’

कमलेश ने घर आ कर पति से विचारविमर्श किया था. उस के अध्यापक पति ने कहा था, ‘आज की राजनीति आदमी के लिए बैसाखी का काम करती है. बाकी मैं चौधरी साहब से बात कर लूंगा.’

‘लेकिन मैं तो राजनीति के बारे में कखग भी नहीं जानती,’ कमलेश ने चिंता जतलाई थी.

‘अरे वाह,’ पति ने ठहाका लगाया था, ‘सुना नहीं कि करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. तुम्हें चौधरी साहब समयसमय पर दिशानिर्देश देते रहेंगे.’

कमलेश के पति ने चौधरी दुर्जन सिंह से संपर्क किया था. उन्होंने उस की जीत का पूरा भरोसा दिलाया था. 2 दिन बाद कमलेश ने विद्यालय से त्यागपत्र दे दिया था.

प्रधानाचार्य ने चौंक कर कमलेश से पूछा था, ‘हमारे विद्यालय का क्या होगा?’

‘सर, मेरे राजनीतिक कैरियर का प्रश्न है,’ कमलेश ने विनम्रता से कहा था, ‘मुझे राजनीति में जाने का अवसर मिला है. अब ऐसे में…’

प्रधानाचार्य ने सर्द आह भर कर कहा था, ‘ठीक है, आप का यह त्यागपत्र मैं चेयरमैन साहब के आगे रख दूंगा.’

इस प्रकार कमलेश शिक्षा के क्षेत्र से राजनीति के मैदान में आ कूदी थी. चौधरी दुर्जन सिंह उसे राजनीति की सारी बारीकियां समझाते रहते. उस पंचायत समिति के चुनाव में वह सर्वसम्मति से प्रधान चुनी गई थी.

अब कमलेश मन से समाजसेवा में जुट गई. सुबह से ले कर शाम तक वह क्षेत्र में घूमती रहती. बिजली, पानी, राहत कार्यों की देखरेख के लिए उस ने अपने क्षेत्रवासियों के लिए कोई कमी नहीं छोड़ी थी. शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग से भी संपर्क कर उस ने जनता को बेहतर सेवाएं उपलब्ध करवाई थीं.

‘ऐसा है, प्रधानजी,’ एक दिन विकास अधिकारी रहस्यमय ढंग से मुसकरा दिए थे, ‘आप का इलाका सूखे की चपेट में है. ऊपर से जो डेढ़ लाख की सहायता राशि आई है, क्यों न उसे हम कागजों पर दिखा दें और उस पैसे को…’

कमलेश ताव खा गई और विकास अधिकारी की बात को बीच में काट कर बोली, ‘बीडीओ साहब, आप अपना बोरियाबिस्तर बांध लें. मुझे आप जैसा भ्रष्ट अधिकारी इस विकास खंड में नहीं चाहिए.’

उसी दिन कमलेश ने कलक्टर से मिल कर उस विकास अधिकारी की वहां से बदली करवा दी थी. तीसरे दिन चौधरी साहब का उस के नाम फोन आया था.

‘कमलेश, सरकारी अधिकारियों के साथ तालमेल बिठा कर रखा कर.’

‘नहीं, चौधरी साहब,’ वह बोली थी, ‘मुझे ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की जरूरत नहीं है.’

आज कमलेश का 6 गांवों का दौरा करने का कार्यक्रम था. वह अपने प्रति लोगों का दिल टटोलना चाहती थी लेकिन 2-3 गांव के दौरे कर लेने के बाद ही उस का खुद का दिल टूट चला था. उधर से वह सीधी घर चली आई और घर में घुसते ही पति से बोली, ‘‘मैं अब राजनीति से तौबा करने जा रही हूं.’’

पति ने पूछा, ‘‘अरे, यह तुम कह रही हो? ऐसी क्या बात हो गई?’’

‘‘आज की राजनीति भ्रष्टाचार का पर्याय बन कर रह गई है. मैं जहांजहां भी गई मुझे लोगों के तानेउलाहने सुनने को मिले. ईमानदारी के साथ काम करती हूं और लोग मुझे ही भ्र्रष्ट समझते हैं. इसलिए मैं इस से संन्यास लेने जा रही हूं.’’

रात में जब पूरा घर गहरी नींद में सो रहा था तब कमलेश की आंखों से नींद कोसों दूर थी. बिस्तर पर करवटें बदलती हुई वह वैचारिक बवंडर में उड़ती रही.

सुबह उठी तो उस का मन बहुत हलका था. चायनाश्ता लेने के बाद पति ने उस से पूछा, ‘‘आज तुम्हारा क्या कार्यक्रम है?’’

‘‘आज मैं उसी पब्लिक स्कूल में जा रही हूं जहां पहले पढ़ाती थी,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘कौन जाने वे लोग मुझे फिर से रख लें.’’

‘‘देख लो,’’ पति भी अपने विद्यालय जाने की तैयारी करने लगे.

कमलेश सीधे प्रधानाचार्य की चौखट पर जा खड़ी हुई. उस ने अंदर आने की अनुमति चाही तो प्रधानाचार्य ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया.

कमलेश एक कुरसी पर बैठ गई. प्रधानाचार्य उस की ओर घूम गए और बोले, ‘‘मैडम, इस बार भी चुनावी दंगल में उतर रही हैं क्या?’’

‘‘नहीं सर,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘मैं राजनीति से नाता तोड़ रही हूं.’’

‘‘क्यों भला?’’ प्रधानाचार्य ने पूछा.

‘‘उस गंदगी में मेरा सांस लेना दूभर हो गया है.’’

‘‘अब क्या इरादा है?’’

‘‘सर, यदि संभव हो तो मेरी सेवाएं फिर से ले लें,’’ कमलेश ने निवेदन किया.

‘‘संभव क्यों नहीं है,’’ प्रधानाचार्य ने कंधे उचका कर कहा, ‘‘आप जैसी प्रतिभाशाली अध्यापिका से हमारे स्कूल का गौरव बढ़ेगा.’’

‘‘तो मैं कल से आ जाऊं, सर?’’ कमलेश ने पूछा.

‘‘कल क्यों? आज से ही क्यों नहीं?’’ प्रधानाचार्य मुसकरा दिए और बोले, ‘‘फिलहाल तो आज आप 12वीं कक्षा के छात्रों का पीरियड ले लें. कल से आप को आप का टाइम टेबल दे दिया जाएगा.’’

‘‘धन्यवाद, सर,’’ कमलेश ने उन का दिल से आभार प्रकट किया.

कक्षा में पहुंच कर कमलेश बच्चों को अपना विषय पढ़ाने लगी. सभी छात्र उसे ध्यान से सुनने लगे. आज वह वर्षों बाद अपने अंतर में अपार शांति महसूस कर रही थी. बहुत भटकाव के बाद ही वह मानसिक शांति का अनुभव कर रही थी.

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