Short Story : हकीकत – जमाल और कमाल की ये थी असलियत

Short Story : फारुकी साहब के खानदान के हमारे पुराने संबंध थे. वे पुश्तैनी रईस थे. अच्छे इलाके में दोमंजिला मकान था. उन के 2 बेटे थे, जमाल और कमाल. एक बेटी सुरैया थी, जिस की शादी भी अच्छे घर में हुई थी. फारुकी साहब अब इस दुनिया में नहीं रहे थे. सुनते हैं कि उन की बीवी नवाब खानदान की हैं. उम्र 72-73 साल होगी. वे अकसर बीमार रहती हैं. जमाल व कमाल भी शादीशुदा व बालबच्चेदार हैं. उन का भरापूरा परिवार है. सुरैया से मुलाकात हो जाती थी. उन के भी एक बेटी व एक बेटा है. दोनों की भी शादी हो गई है.

उन्हीं दिनों कमाल साहब के यहां से शादी का कार्ड आया. उन के दूसरे बेटे की शादी थी. कार्ड देख कर बड़ी खुशी हुई. कार्ड उन की अम्मी दुरदाना बेगम के नाम से छपा था. नीचे भी उन्हीं का नाम था. अच्छा लगा कि आज भी लोग बुजुर्गों की इतनी कद्र और इज्जत करते हैं.

शादी में जाने का मेरा पक्का इरादा था. इस तरह अम्मी व सुरैया आपा से भी मुलाकात हो जाती, पर मुझे फ्लू हो गया. मैं शादी में न जा सकी. फिर कहीं से खबर मिली कि कमाल साहब की अम्मी बीमार हैं. उन्हें लकवे का असर हो गया है.

एक दिन मैं कमाल साहब के यहां पहुंच गई. दोनों भाई बड़े ही अपनेपन से मिले. नई बहू से मिलाया गया, खूब खातिरदारी हुई. मैं ने कहा, ‘‘कमाल साहब, मुझे अम्मी से मिलना है. कहां हैं वे?’’

कमाल साहब का चेहरा फीका पड़ गया. वे कहने लगे ‘‘दरअसल, अम्मी सुरैया के यहां गई हुई हैं. वे एक ही जगह पर रहतेरहते बोर हो गई थीं.’’ मैं वहां से निकल कर सीधी सुरैया आपा के यहां पहुंच गई. वे मुझे देख कर बेहद खुश हो गईं, फिर अम्मी के कमरे में ले गईं.

खुला हवादार, साफसुथरा महकता कमरा. सफेद बिस्तर पर अम्मी लेटी थीं. वे बड़ी कमजोर हो गई थीं. कहीं से नहीं लग रहा था कि यह एक मरीज का कमरा है.

अम्मी मुझ से मिल कर खूब खुश हुईं, खूब बातें करने लगीं. उन्हीं की बातों से पता चला कि वे तकरीबन डेढ़ साल से सुरैया आपा के पास हैं. जब उन पर लकवे का असर हुआ था. उस के तकरीबन एक महीने बाद ही कमाल और जमाल, दोनों भाई अम्मी को यह कह कर सुरैया आपा के पास छोड़ गए थे कि हमारे यहां अम्मी को अलग से कमरा देना मुश्किल है और घर में सभी लोग इतने मसरूफ रहते हैं कि अम्मी की देखभाल नहीं हो पाती.

तब से ही अम्मी सुरैया आपा के पास रहने लगी थीं. सुरैया आपा और उन की बहू बड़े दिल से उन की खिदमत करतीं, खूब खयाल रखतीं.

मैं ने सुरैया आपा से कहा, ‘‘अम्मी डेढ़ साल से आप के पास हैं, पर 3-4 महीने पहले कमाल भाई के बेटे की शादी का कार्ड आया था, उस में तो दावत देने वाले में अम्मी का नाम था और दावत भी अम्मी की तरफ से ही थी.’’

सुरैया आपा हंस कर बोलीं, ‘‘दोनों भाइयों के घर में अम्मी के लिए जगह न थी, पर कार्ड में तो बहुत जगह थी. कार्ड तो सभी देखते हैं और वाहवाह करते हैं, घर आ कर कौन देखता है कि अम्मी कहां हैं? दुनिया को दिखाने के लिए यह सब करना पड़ा उन्हें.’

Family Story : मुक्ति – आजादी का एहसास

Family Story : आज उस का सामना करने के लिए मैं पूरी तरह से तैयार हो कर औफिस गया था.

वह भी लगता था आज कुछ ज्यादा ही मुस्तैद हो कर आया था.

हर रोज तो वह 10 बजे के बाद ही औफिस आता था लेकिन आज जल्दी आ गया था. मुझे पक्का पता था कि आज वह मुझ से पहले ही पहुंच जाएगा. आज पार्किंग में उस की गाड़ी पहले से ही खड़ी थी.

मेरे मन में गुस्से की एक बड़ी सी लहर उठी, यह आदमी बहुत कमीना है. इस से बचना लगभग नामुमकिन है. मैं ने मन ही मन अपनी प्रतिज्ञा दोहराई, ‘आज मैं इस की बातों में नहीं आने वाला.’ मैं ने मन ही मन अपना यह प्रण भी दोहराया कि मैं पिछले कई दिनों से उस से दूर रहने की योजना बना रहा था, अब उस की शुरुआत मैं कर चुका हूं.

कल पूरे दिन उस से दूर रहने में मैं कामयाब रहा था. उस ने कितने फोन किए, बुलावे भेजे, बड़े साहब का नाम ले कर मुझे अपने केबिन में बुलाने की कोशिश की, मगर मैं औफिस से बाहर रहा. वह कहता रहा, ‘कहां है भाई, जल्दी आ जा. लंच में बाजार की सैर करेंगे. आज अच्छी रौनक है.’

मैं अपने इरादे पर अटल रहा. उसे गच्चा देता रहा. फिर 4 बजे के बाद उस ने मुझे फोन किया, ‘कहां है तू? आ जा, आज जिमखाना में बियर पिलाऊंगा.’

मैं ने बहाने बनाए कि अपने काम में बहुत फंसा हुआ हूं.

हद होती है किसी का पीछा करने की. क्या किसी आदमी की अपनी कोई निजता नहीं हो सकती भला? कोई जब चाहे मुझे अपने पीछे लगा ले. क्या मेरा कोई अपना पर्सनल एजेंडा नहीं हो सकता आज का. क्या मेरा मन नहीं करता कि मैं आज का दिन अपनी मरजी से गुजारूं? सदर बाजार की तरफ टहलूं या माल रोड पर? लाइब्रेरी जाऊं या अपनी सीट पर ही सुस्ताऊं? चाय पियूं या कौफी? किसी और का इतना रोब क्यों सहूं. उस का इतना हक क्यों है मेरी दिनचर्या पर.

औफिस आते ही मुझे निर्देश देने लगता है, आज यह करेंगे, वह करेंगे. इतनी आज्ञाकारी तो आदमी की बीवी नहीं होती आजकल. मैं क्यों उस आदमी का इतना पिछलग्गू बन गया हूं.

आज उस से सीधी मुठभेड़ का दूसरा दिन था. आज मेरी असली परीक्षा थी. कल तो औफिस से मैं बाहर था. मेरा बहाना काम कर गया था. आज उस से पीछा छुड़ा सकूं, यही मेरी उपलब्धि रहेगी.

आज अभी मैं अपनी सीट पर आ कर बैठा ही था.

चपरासी ने मेरे सारे अनुभागों के हाजिरी रजिस्टर मेरे सामने ला कर रखे. उन पर अपने दस्तखत कर के मैं ने पहली फाइल खोली ही थी कि इंटरकौम पर उस की कौल आ गई.

मेरे अंदर का डरा हुआ रूप मेरे गुस्से में आ गया. मैं ने तय किया कि मैं आज उस का फोन ही नहीं उठाता. गुस्से के मारे मैं ने घंटी बजाई और अपने मातहत 2 लोगों को बुलाया. फाइल पर ‘चर्चा करें’ लिख कर उसे नीचे पटक दिया.

पिछली रात से ही मैं कुलबुला रहा था कि इस आदमी ने मेरे दिनरात का चैन छीना हुआ है. उस से पीछा कैसे छुड़ाऊं? क्यों इतना डरता हूं मैं उस से. उसे ले कर किस बात का लिहाज है? वह मेरा जीजा लगता है क्या? एक दोस्त ही तो है. मेरे व्यक्तित्व पर इतना नियंत्रण क्यों है उस का? क्या कमी है मुझ में?

मुझ से कितना अलग स्वभाव है उस का. वह हर किसी के मुंह पर कड़वी बात कह देता है. वह हर किसी से लड़ पड़ता है. मैं चुप क्यों रहता हूं? मैं इतना नरम स्वभाव का क्यों हूं? उसे देख कर मुझे अपने अंदर की कमजोरी का एहसास कुछ ज्यादा होता है. उस ने एक लिस्ट बना रखी है औफिस के कुछ मुझ जैसे दब्बू लोगों की. वह दिन में कई बार मेरी इन लोगों में से किसी न किसी से तुलना कर के मेरे अंदर के स्वाभिमान को चोट पहुंचाता रहता है. यही कारण है कि इस आदमी की सोहबत में मैं खुद को हमेशा असहज और दुखी महसूस करता हूं.

मेरे साथ बहुत समय से यह सब चल रहा है. मैं ही इस सब के लिए जिम्मेदार हूं. मेरा दोष है, हर समय अच्छा बने रहना. हर वक्त कूल और शांत. अपने अंदर से चाहे इस बात को ले कर मैं कितना भी दुखी या व्यथित होता रहूं मगर लोगों के सामने मैं उग्र नहीं हो पाता. ऐसा नहीं कि मुझ में प्रतिभा, हुनर या आत्मविश्वास की कमी है. मैं अपनेआप में ठीक हूं. कहीं कोई दिक्कत नहीं है. अहिंसा का पालन मैं ‘बाई डिफौल्ट’ करता हूं. मेरा खून कभीकभी खौलता है. मेरा आधे से ज्यादा समय इस आदमी की बेढंगी और बेकार में थोपी गई बातों से निबटने में ही निकल जाता है.

घर में भी पत्नी या बच्चों के सामने नरम और मधुर स्वभाव बनाए रखना मेरी भरसक कोशिश होती है. अंदर से चाहे लाख गुस्सा आ रहा हो मगर उसे जाहिर न होने देना मेरा कुदरती गुण कह लो या अवगुण. बहुत कम ऐसे मौके आए हैं कि मेरा गुस्सा जगजाहिर हो सका है. एकाध बार गुस्सा किया भी, मगर दोचार पल के लिए ही.

बाकी किसी से कोई समस्या नहीं हुई. यह आदमी औफिस में हर पल मेरा साथ चाहता है. मुझे ले कर ज्यादा ही पोजेसिव हो गया है यह. मैं घर से छुट्टी का आवेदन भेज दूं तो फोन कर के मुझे कोसेगा कि उसे क्यों नहीं बताया उस ने कि आज वह छुट्टी ले रहा है. कहेगा, ‘पहले बताता तो मैं भी छुट्टी ले लेता.’ अरे, मेरे बिना तू मर तो नहीं जाएगा. बहुत बार होता है कि जब वह छुट्टी ले कर घर पर होता है सप्ताह के लिए, मैं तो उसे फोन कर के नहीं बुलाता कि आ जा, मैं मरा जा रहा हूं, तेरे बिना दिल नहीं लग रहा मेरा.

पत्नी भी तंज करती, ‘मुझे वह आदमी पसंद नहीं करता. मुझ से शादी करने से पहले तुम ने उस से पूछा नहीं था क्या?’

यह सच है कि इस आदमी को अपनेआप के सिवा कोई पसंद नहीं.

मैं भी इसलिए उस के साथ हूं, क्योंकि मैं खुल्लमखुला उस का मुंह नहीं नोचता कि बंद कर ये बकबक. तू कोई अनोखा नहीं है कि मेरी हर समय प्रशंसा किए जा.

बहुत से मित्र आए, गए. हर किसी पर उस ने तंज कसे, उन पर अपने थोथे उसूलों को थोपने की बेकार कोशिश की. वे सब तो कुछ ही समय में उस से जान छुड़ा कर अलग हो गए मगर मैं उस के चंगुल में फंसा रहा.

अकसर मुझे कभी फील नहीं हुआ कि यह आदमी मेरे विचारों को इस तरह काबू क्यों करना चाहता है. कभीकभी जब वह मुझे दब्बू या डरपोक कह कर बेइज्जत करता है तो न जाने क्यों मेरे मन में उस के प्रति बदले की भावना उमड़ने लगती है.

मुझ पर वह इतनी अधिकार भावना क्यों जमाता है. मैं सोचता हूं कि हमारी बहुत लंबी और गहरी दोस्ती है. मगर 10-15 दिनों में एक बार मेरे दिल को उस की कोई बात चुभ जाती है. वह अपने कोरे आदर्श मुझ पर लादता रहता है. क्यों मैं पलटवार नहीं करता? मेरी हर बात को वह टोकता है. मैं उसे मुंहतोड़ जवाब क्यों नहीं देता कि तुम दोगले हो, झूठे हो, मक्कार हो.

मैं ने आज अपने केबिन को कमेटीरूम की शक्ल दे दी थी. बहुत सारे केस खोल लिए. मैं दिखाना चाहता था कि मैं हर समय उस के लिए उपलब्ध नहीं हूं. मैं अपनी दिनचर्या अपने हिसाब से तय करूंगा.

उस का मेरे मोबाइल पर कौल आया. वह फुंफकार रहा था, ‘कब आएगा? अबे, चाय ठंडी हो रही है.’

मैं ने जी कड़ा कर के कहा, ‘मैं ने कब कहा था कि मेरे लिए चाय मंगवाओ? मैं मीटिंग में व्यस्त हूं.’

5 मिनट में ही वह मेरे केबिन में था. चेहरा तमतमाया हुआ. कान से मोबाइल लगाए हुए. मुझे टोक कर बोला, ‘कब तक है यह सब?’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. वह झुंझला कर लौट गया. लंच के आसपास वह फिर मेरे पास ही आ गया. हालांकि मुझे कोई काम नहीं था, फिर भी मैं ने साथ के एक औफिस में जाने का प्रोग्राम रख लिया. अपने एक साथी के साथ मैं तुरतफुरत वहां से निकल लिया.

उस शाम बीवी के साथ चाय पीते हुए मुझे संतोष हुआ कि मैं एक आजाद व्यक्तित्व हूं. रोजाना उस आदमी का मुझे अकारण कोसना मुझे कचोटता रहता था. आज मुझे एक अजीब सी मुक्ति का एहसास हुआ.

Short Story : इंसाफ हम करेंगे

Short Story : माही बेहाल पड़ी थी. रहरह कर शरीर में दर्द उभर रहा था. पूरे शरीर पर मारपीट के निशान पड़ चुके थे. माही का पति निहाल सिंह शराब पीने के बाद बिलकुल जानवर बन जाता था, फिर तो उसे यह भी ध्यान नहीं रहता था कि उस के बच्चे अब बड़े हो चुके हैं.

जब कभी उस की बेटी रूबी मां को बचाने आती तो वह भी पिट जाती.

2 दिन पहले जब निहाल सिंह शराब पी कर घर में गालियां देने लगा, तो माही ने उसे समझाया, ‘बस करो, अब खाना खा लो. सुबह काम पर भी जाना है.’

निहाल सिंह चीखते हुए बोला, ‘अब तुम रोकोगी मुझे. अभी बताता हूं तुझे,’ फिर तो उस का हाथ न थमा. आखिर रूबी दोनों के बीच में आ गई और उस का हाथ पकड़ कर झटकते हुए बोली, ‘पापा, अब बस कीजिए. गलती तो आप की है, मम्मी को क्यों मार रहे हो?’

इस के बाद रूबी ने मां को उठाया और दूसरे कमरे में ले गई. उस के जख्मों पर दवा लगाई और बोली, ‘मम्मी, बहुत हो गया अब. पापा नहीं सुधरेंगे.’

दर्द सहती माही बोली, ‘हां रूबी, मैं भी अब थक चुकी हूं. मुझे समझ में आ चुका है. अब मैं इन्हें कभी माफ नहीं करूंगी. तुम बुलाओ पुलिस को, अब मैं दूंगी इन के खिलाफ बयान.’

रूबी ने झट से पुलिस का नंबर डायल किया और सारी घटना बता दी.

माही और निहाल सिंह की लव मैरिज हुई थी. घर वालों के खिलाफ जा कर माही ने निहाल सिंह का हाथ थामा था. दोनों भारत से यूरोप आ कर बस गए थे.

माही ने जब काम करना चाहा तो निहाल सिंह ने उस से कहा, ‘तुम घर संभालो, मैं बाहर संभालता हूं.’

कुछ समय तो बहुत अच्छा बीता, मगर धीरेधीरे माही को महसूस होने लगा कि निहाल सिंह का स्वभाव बदलता जा रहा है. काम से आते ही वह शराब पीने लग जाता. तब तक बच्चे भी हो चुके थे.

निहाल सिंह अब छोटीछोटी बातों में भी माही पर शक करने लगा था. जब कभी काम का लोड बढ़ जाता, वह झल्ला कर कहता, ‘मुझ से नहीं होता इतना काम, मैं नहीं उठा सकता इतना बोझ.’

अगर माही नौकरी करने को कहती, तो वह उसे पीटने लगता. बच्चे डरते हुए मां के पीछे छिप जाते थे. वह अब थोड़े बड़े भी हो गए थे. उन का स्कूल में दाखिला कराना जरूरी हो गया था. खर्चा बढ़ गया था, तो माही ने निहाल सिंह को किसी तरह नौकरी के लिए मना लिया. वह घर का सारा काम निबटा कर ही नौकरी पर जाती और वापस आते ही बच्चों और घर को देखती.

निहाल सिंह का मन करता तो माही को प्यार करता नहीं, तो आधी रात को उसे मारपीट कर कमरे से बाहर निकाल देता. इतना सबकुछ होने के बावजूद माही निहाल सिंह का पूरा ध्यान रखती. हर काम समय से करती. सुबह उठते ही सब से पहले उस का टिफिन तैयार करती. किसी तरह उस ने निहाल सिंह को मना कर बच्चों को साथ वाले बड़े शहरों में पढ़ने के लिए भेज दिया था, ताकि वे दोनों पढ़लिख कर अच्छी नौकरियों पर लग सकें.

1-2 बार ऐसे ही किसी बात पर गुस्सा हो कर निहाल सिंह ने माही को आधी रात में घर से बाहर निकाल दिया था. माही की मौसी का बेटा इसी शहर में रहता था. वह उसे फोन करती और वह उसे ले कर अपने घर चला जाता.

फिर उस ने माही को समझाया कि ऐसे तो यह कभी नहीं सुधरेगा, तुम कब तक इस की मारपीट बरदाश्त करोगी. उस ने खुद ही पुलिस में उस की रिपोर्ट लिखवा दी.

जब पुलिस निहाल सिंह को घर से उठा कर ले गई, तब माही डर गई और उस ने भाई को रिपोर्ट वापस लेने के लिए मना लिया. जब ऐसा 2-3 बार हुआ, तो वह भी पीछे हट गया.

माही को पता था कि निहाल सिंह गुस्सैल है, पर उस के बच्चों का पिता है. वह भले ही अब उसे पहले जैसा प्यार नहीं करता, मगर वह उस के लिए तो आज भी वही उस का प्यार है.

तभी एक दिन निहाल सिंह काम से आते वक्त अपने साथ एक जवान औरत को घर ले आया. माही ने उसे देखते ही निहाल सिंह से उस के बारे में पूछा कि यह कौन है तो उस ने बताया, ‘यह प्रीति है. इस का पति मेरे साथ काम करता था. ज्यादा शराब पीने से वह मर गया. मैं इस की मदद कर रहा हूं, क्योंकि उस के बीमा और पैंशन के बारे में इसे कुछ नहीं पता.’

माही भोली थी. वह बोली, ‘अच्छा है. आप इन की मदद कर रहे हो, वरना कौन बेगाने देश में किसी की मदद करता है.’

अब तो जब भी प्रीति का फोन आता, निहाल सिंह भागाभागा उस के पास पहुंच जाता.

एक दिन माही काम से जल्दी लौट आई, तो घर का दरवाजा खोलते ही बैडरूम से किसी के हंसने की आवाज आई. अंदर अंधेरा था. बिजली का स्विच औन करते ही माही की आंखें खुली रह गईं, जब उस ने उन दोनों को बैड पर देखा. शर्मिंदा होने के बजाय वे दोनों हंसने लगे. इस के बाद तो उस के सामने ही सबकुछ चलने लगा.

माही का दिल टूट चुका था. उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वह उसे इस तरह धोखा देगा.

एक दिन माही को पास बिठा कर निहाल सिंह बोला, ‘तू हां करे, तो मैं इसे भी साथ रख लूं.’

माही चुप रही. उस ने पक्का मन बना लिया कि अब वह उस के साथ  नहीं रहेगी.

बच्चे पढ़लिख कर अब अच्छी नौकरियों पर लग चुके थे. सिर्फ छुट्टियों में ही घर आते थे. वह मां को अपने साथ चलने को कहते, मगर वह जानती थी कि निहाल सिंह बीमारी का शिकार है. उस के खानेपीने का ध्यान उस ने ही रखना है, इसलिए वह सबकुछ बरदाश्त कर के भी उसी के साथ रह  रही थी.

आजकल छुट्टियों में रूबी घर आई हुई थी. कल की हुई मारपीट के बाद माही ने रूबी को निहाल सिंह और प्रीति  के संबंधों के बारे में भी बता दिया.

रूबी को अपने पिता पर बहुत गुस्सा आ रहा था. उस ने अपने पिता के खिलाफ रिपोर्ट लिखवा दी थी.

थोड़ी ही देर में पुलिस आ गई. रूबी और माही ने बयान दे दिया. माही की चोटें उस के साथ हुए जुल्म की साफ गवाही दे रही थी. माही ने यह भी बताया कि जब वह पेट से थी तो निहाल सिंह ने उसे बहुत बार पीटा था.

रिपोर्ट को मजबूत बनाने के लिए पुलिस ने माही की चोटों के फोटो भी खींच कर साथ लगा दिए.

पुलिस निहाल सिंह को साथ ले गई. वहां 2 दिन उसे हिरासत में रखा. फिर उस को चेतावनी दे कर छोड़ दिया गया कि वह माही के आसपास भी नहीं फटकेगा. अगर उस ने माही को तंग किया, तो उस पर कार्यवाही की जाएगी और 2 साल की जेल भी हो सकती है. उसे एक अलग घर में रहने के लिए  कहा गया.

निहाल सिंह फोन कर के बारबार माही से माफी मांगने लगा. उसे पता था, माही का दिल पिघल जाता है. वह उसे अब भी प्यार करती है. मगर रूबी ने मां को साफसाफ कह दिया, ‘मम्मी इस बार अगर तुम ने पापा को माफ किया, तो मैं कभी आप से बात नहीं करूंगी.’

माही ने निहाल सिंह का फोन उठाना भी बंद कर दिया.

रूबी पिता को फोन पर धमकी  देते हुए बोली, ‘आज के बाद अगर आप ने मम्मी को फोन किया, तो पुलिस आप को 2 साल के लिए जेल में डाल देगी.

‘मम्मी अब अकेली नहीं हैं. आज तक जो आप ने उन के साथ किया, उस के लिए हम तीनों आप से कोई रिश्ता नहीं रखेंगे. आज तक जो बेइज्जती मम्मी की हुई है, उस की सजा तो आप को भुगतनी पड़ेगी. मम्मी को उन के बच्चे इंसाफ दिलवाएंगे.’

पहले निहाल सिंह गिड़गिड़ाया, फिर बेशर्मी से बोला, ‘मैं भी तुम लोगों से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता. आज तक मैं ने तुम दोनों की पढ़ाई पर जो खर्चा किया वह मुझे वापस चाहिए.’

यह सुनते ही रूबी की आंखों में आंसू आ गए, उस का पिता इतना गिर सकता है उस ने कभी नहीं सोचा था, मगर फिर भी वह हिम्मत कर अपने आंसुओं को साफ करते हुए बोली, ‘पापा, कोई बात नहीं. हमारी नौकरी लग चुकी है. हम दोनों हर महीने आप को खर्चा भेज दिया करेंगे, पर अब मम्मी की और बेइज्जती बरदाश्त नहीं करेंगे,’ कहते हुए रूबी ने फोन रख दिया और माही को अपने गले से लगा लिया.

Short Story : मुआवजा – आखिर कब मिलेगा इन्हें मुआवजा

Short Story : दोपहर को कलक्टर साहब और उन के मुलाजिमों का काफिला आया था. शाम तक जंगल की आग की तरह खबर फैल गई कि गांव और आसपास के खेतखलिहान, बागबगीचे सब शहर विकास दफ्तर के अधीन हो जाएंगे. सभी लोगों को बेदखल कर दिया जाएगा.

रामदीन को अच्छी तरह याद है कि शाम को पंचायत बैठी थी. शोरशराबा और नारेबाजी हुई. सवाल उठा कि अपनी पुश्तैनी जमीनें छोड़ कर हम कहां जाएंगे  हम खेतिहर मजदूर हैं. गायभैंस का धंधा है. यह छोड़ कर हम क्या करेंगे

पंचायत में तय हुआ कि सब लोग विधायकजी के पास जाएंगे. उन्हें अपनी मुसीबतें बताएंगे. रोएंगे. वोट का वास्ता देंगे.

इस के बाद मीटिंग पर मीटिंग हुईं. बड़े जोरशोर से एक धुआंधार प्लान बनाया गया, जो इस तरह था:

* जुलूस निकालेंगे. नारेबाजी करेंगे. जलसे करेंगे.

* लिखापढ़ी करेंगे. मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखेंगे.

* विधायकजी से फरियाद करेंगे. उन्हें खबरदार करेंगे.

* कोर्टकचहरी जाएंगे.

* सरकारी मुलाजिमों को गांव या उस के आसपास तक नहीं फटकने देंगे.

* चुनाव में वोट नहीं डालेंगे.

* आखिर में सब गांव वाले बुलडोजर व ट्रकों के सामने लेट जाएंगे. नारे लगाएंगे, ‘पहले हमें मार डालो, फिर बुलडोजर चलाओ’.

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. जब नोटिस आया, तो कुछ ने लिया और बहुतों ने वापस कर दिया. नोटिस देने वाला मुलाजिम पुलिस के एक सिपाही को साथ ले कर आया था. वह सब को समझाता था, ‘नोटिस ले लो, नहीं तो दरवाजे पर चिपका देंगे. लोगे तो अच्छा मुआवजा मिलेगा, नहीं तो सरकार जमीन मुफ्त में ले लेगी. न घर के रहोगे और न घाट के.’

आज रामदीन महसूस करता है कि मुलाजिम की कही बात में सचाई थी. अपनेआप को जनता का सेवक कहने वाले सरपंचजी कन्नी काटने लगे थे. विधायकजी वोट ले कर फरार हो गए थे.

रामदीन पढ़ालिखा न था. उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

‘‘इस कागज का हम क्या करेंगे ’’ रामदीन पूछ बैठा.

‘‘अपने पट्टे के कागज ले कर दफ्तर जाना. वहां तुम्हारी जमीन की कीमत आंकी जाएगी. उस के बाद सरकार अपना भाव निकालेगी और तुम्हें उसी के मुताबिक ही भुगतान होगा,’’ डाकिए ने समझाया.

3 गांवों पर इस का असर पड़ा था. इतमतपुर, इस्माइलपुर और गाजीपुर. गांव वाले खेतों से ध्यान हटा कर सरकारी दफ्तर के चक्कर काटने लगे. उन्हें तमाम सवालों का दोटूक जवाब मिलता, ‘फाइलें खुल रही हैं. जानते हो न, सरकारी कामकाज कैसे चलता है… चींटी की चाल.’

दफ्तर के बाहर ‘सरकारी काम में रुकावट न डालें’ का नोटिस भी लगा दिया गया था.

गांव वाले दफ्तर के बाहर से ही उलटे पैर लौटा दिए जाने लगे थे. लोहे की सलाखों वाला फाटक ऐसे बंद कर दिया गया था मानो जेल हो.

6 महीने बीते. अचानक चारों तरफ ट्रैक्टर, ट्रक, बुलडोजर और टिड्डियों की तरह आदमी मंडराने लगे. खड़ी फसल, आम और अमरूद के बाग देखते ही देखते उजाड़ दिए गए. जहां हरियाली थी, वहां अब पीली मिट्टी का सपाट मैदान हो गया था.

गुस्साए गांव वालों ने ‘पहले पैसा दो, फिर जमीन लो’, ‘हम कहां जाएंगे’, ‘हायहाय’ के नारे लगाए थे. नारेबाजी हुई, फिर पत्थरबाजी भी हुई थी.

पुलिस आई. गिरफ्तारियां हुईं. पुलिस ने जीभर कर लोगों की पिटाई की. मुकदमा चला सो अलग.

25 आदमी कुसूरवार पाए गए. 6-6 महीने की सजा हुई. रामदीन भी उन में से एक था.

जब रामदीन घर लौट कर आया, तब तक सबकुछ बदल चुका था. दरवाजे पर नोटिस चिपका हुआ था. जहां उस का बगीचा था, वहां ‘इंदिरा आवास योजना’ का बड़ा सा बोर्ड लगा था. जिस ने गरीबी मिटाने का नारा लगाया था, उसी के नाम पर कालोनी बन रही है.

घर में खाने के लाले पड़े हुए थे. आमदनी के नाम पर 4 भैंसें व 2 गाएं ही बची थीं. रामदीन दिहाड़ी के लिए निकल पड़ा था. वह भी कभी मिलती और कभी नहीं.

सोतेसोते रामदीन चौंक कर उठ बैठता. वह टकटकी बांधे छत को ताकता रहता. यह मकान भी खाली करना था. खुले आसमान की छत ही उस की जिंदगी का अगला पड़ाव होगा.

फिर दफ्तर के चक्कर लगाना रामदीन का रोज का काम हो गया था. दफ्तर के बरामदे में ‘नोटिस पर भुगतान के लिए मिलें’ का दूसरा नोटिस लग चुका था, इसीलिए वह दफ्तर में घुस गया था.

एक बाबू ने बताया, ‘‘सरकार के पास पैसा नहीं है.’’

दूसरा बाबू बोला, ‘‘तुम्हारा तो नाम ही नहीं है.’’

तीसरे ने कहा, ‘‘फाइलें बन गई हैं.’’

चौथे ने हंस कर कहा था, ‘‘मैं ही सब करूंगा… पहले मेरी दराज में तो कुछ डालो.’’

जितने मुंह उतनी ही बातें. रामदीन को तो खुद ही खाने के लाले पड़े थे, फिर किसी को चायपानी क्या कराता  उन की जेबें कैसे गरम करता

चपरासी भी बख्शिश के चक्कर में बड़े साहब से मिलाने के लिए टालमटोल कर रहा था. 50 रुपए जेब में रखने के बाद ही उस ने साहब के कमरे का दरवाजा खोला था.

रामदीन साहब के पैरों में गिर कर रो पड़ा था. गिड़गिड़ाते हुए उस ने कहा था, ‘‘साहब, 3 साल हो गए हैं, एक पैसा भी नहीं मिला है. मैं पढ़ालिखा नहीं हूं. घर में खाने के लाले पड़े हैं.’’

साहब ने हमदर्दी दिखाई थी, वादा भी किया था, ‘‘घर से बेदखल करने से पहले तुम्हें कुछ न कुछ जरूर भुगतान किया जाएगा.’’

रामदीन इस तरह खुश हो कर घर लौटा था, जैसे दुनिया ही जीत ली हो. लेकिन जल्दी ही भरम टूटा. 6 महीने बाद भी वह वादा वादा ही रहा.

पुलिस घरों में घुसघुस कर सामान बाहर फेंकने लगी. सरकारी हुक्म की तामील जो हो रही थी.

रामदीन अपने घर वालों और जानवरों को ले कर अपने मौसेर भाई के यहां कुकरेती जा कर बस गया.

एक दिन रामदीन को लोगों ने बताया कि मामला कोर्ट में पहुंच गया है. जनता का भला करने वाले कुछ लोगों ने वहां अर्जी लगाई थी.

बातबात में रामदीन ने एक दिन अपने एक ग्राहक, जो एक दारोगा की बीवी थी, को अपनी कहानी सुना दी. दारोगाइन को उस पर तरस आ गया. दारोगाजी ने कागज देखे, 2-3 अर्जियां लिखीं. वे उस के साथ भी गए.

इस से दफ्तर के बाबुओं की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई थी. रामदीन की फाइलें दौड़ने लगी थीं.

एक महीने में ही रामदीन के नाम के 3 चैक बने. एक 50,000 का, दूसरा 20,000 का और तीसरा 30,000 का. ये तीनों चैक खेत, मकान और बगीचे के एवज में थे.

पहला चैक मिलते ही रामदीन के दिन फिर गए. दारोगाजी उस के लिए भले इनसान साबित हुए थे. वह उन्हें दुआएं देता रहा और मुफ्त में दूध भी.

बाकी चैक पाने के लिए दफ्तर के चक्कर काटना रामदीन का अब रोजाना का काम बन गया था. बहुत से बाबू व अफसर उसे अच्छी तरह पहचान गए थे. वह उन्हें पान, सिगरेट, गुटका भी देता या कभी चाय भी पिलाता.

बाबू रामदीन को खबर देते. उसे बताया गया था कि पहले 8 रुपए वर्गफुट के हिसाब से मिलने वाले थे, अब शायद 10 रुपए वर्गफुट के हिसाब से मिलेंगे.

एक दिन दफ्तर में रामदीन को उस का पड़ोसी राम खिलावन मिल गया. बातचीत से उसे पता चला कि शायद कोर्ट जमीन के भाव बढ़ा कर 10 या 13 रुपए वर्गफुट कर दे.

राम खिलावन ने बताया, ‘‘जानते हो रामदीन, सरकार हम से 10 रुपए वर्गफुट के हिसाब से जमीन खरीद कर सौ या 150 रुपए तक के भाव में बेच रही है.’’

दूसरी किस्त का चैक कुछ ही दिनों में मिलने वाला था. आखिरी चैक तो कोर्ट के फैसले के बाद ही मिलेगा.

रामदीन दुखी हो कर सोचने लगा, ‘सरकार 10 रुपए दे कर सौ रुपए में बेच रही है. एक फुट पर 90 रुपए का फायदा. महाजन को भी मात दे दी. क्या यही है जनता का राज ’

दारोगा साहब का तबादला हो गया था, लेकिन वह उसे एक समाजसेवक से मिलवा गए थे.

अब बाबुओं के तेवर बदल गए, ‘तुम उस के बूते पर बहुत कूदते थे, अब लेना ठेंगा.’

कुछ तो कहते, ‘इतनी सी बात भी तुम्हारी समझ में नहीं आती कि हम सरकारी मुलाजिम हैं. हमारे पास कलम है, ताकत है.’

उस समाजसेवक की कोशिशों के बावजूद दूसरी किस्त लेने के लिए 5,000 रुपए बाबुओं की जेबों में डालने पड़े और इतना ही समाजसेवक साहब को भी खर्चापानी देना पड़ा.

रामदीन दौड़ता रहा. कभी दफ्तर में तो कभी कोर्टकचहरी में. उस ने मकान बनवा लिया था. अब उस के पास

10 भैंसें, 4 गाएं, 2 बैल और 2 बीघा जमीन भी थी.

जिंदगी में नई सुबह आई थी. लेकिन सब से ज्यादा फर्क रामदीन की सोच में आया था. वह जान गया था कि अनपढ़ होना मुसीबत की जड़ है.

रामदीन के 4 में से 3 बच्चे स्कूल में पढ़ते थे. पहला छठी में, दूसरा तीसरी में, तीसरी बिटिया पहले दर्जे में. चौथा बेटा 3 साल का था. वह अगले साल उस का दाखिला कराएगा. वह खुद भी अपने बच्चों से पढ़ता था.

कोर्ट का फैसला जल्दी ही आ गया. अदालत ने 13 रुपए वर्गफुट का भाव लगाया था. साथ ही, एक अधबना मकान लोगों से आधा पैसा ले कर देना था. 10 साल के इंतजार के बाद उस के और दूसरे गांव वालों के चेहरों पर मुसकान दिखी थी.

कोर्ट में अर्जी लगाने वाली संस्था के वकीलों के हाथों में चैक थे और चेहरों पर गहरी मुसकान. कुल 15 फीसदी देना होगा. 6 फीसदी वकीलों को, 5 फीसदी बाबुओं व अफसरों को और 4 फीसदी गैरसरकारी संस्था को.

सभी भोलेभाले लोग हैरान रह गए थे. सरपंच, नेता, पार्टी, पंडा, वकील, सरकारी दफ्तर क्या ये सभी दलाल हैं, मुरदों के भी कफन खसोटने वाले

फर्क सिर्फ इतना है कि पंडे धर्म के नाम पर पूजा कराने, वकील कचहरी में फैसला कराने, नेता, समाजसेवक लोगों का भला कराने, बाबू दफ्तरों के काम कराने के पैसे लेते हैं.

दलाली के भी अलगअलग नाम हैं. जैसे चढ़ावा, दक्षिणा, फीस, चंदा और चायपानी. सभी का एक ही मकसद है, लोगों की जेब खाली कराना.

लोगों में बातचीत हो रही थी. जलसे हुए. बाद में कुल 10 फीसदी पर आम राय हो गई.

10 साल बीत चुके थे, पर मुआवजे की किस्तें अभी भी अधूरी थीं. चींटियों की चाल चल रही थी सारी सरकारी कार्यवाही.

जब तक सांस है, आस भी है. कभी न कभी मुआवजा तो मिलेगा ही.

Social Story : ये भोलीभाली लड़कियां – हर लड़का जालसाज नजर आता है

Social Story : सचमुच लड़कियां बड़ी भोली होती हैं. हाय, इतनी भोलीभाली लड़कियां हमारे जमाने में नहीं होती थीं. होतीं तो क्या हम प्यार का इजहार करने से चूकते. तब लड़कियां घरों से बाहर भी बहुत कम निकलती थीं. इक्कादुक्का जो घरों से निकलती थीं, वे बस 8वीं तक पढ़ने के लिए. मैं गांवदेहात की बात कर रहा हूं. शहर की बात तो कुछ और रही होगी.

हाईस्कूल और इंटरमीडिएट में मेरे साथ एक भी लड़की नहीं पढ़ती थी. निगाहों के सामने जो भी जवान लड़की आती थी, वह या तो अपने गांव की कोई बहन होती थी या फिर कोई रिश्तेदार जिस से नजर मिलाते हुए भी शर्म आती थी. इस का मतलब यह नहीं कि गांव में प्रेमाचार नहीं होता था. कुछ हिम्मती लड़केलड़कियां हमारे जमाने में भी होते थे जो चोरीछिपे ऐसा काम करते थे और उन के चर्चे भी गांव वालों की जबान पर चढ़े रहते थे.

लेकिन तब की लड़कियां इतनी भोली नहीं होती थीं, क्योंकि उन को बहलानेफुसलाने और भगा कर ले जाने के किस्से न तो आम थे, न ही खास. अब जब मैं बुढ़ापे के पायदान पर खड़ा हूं तो आएदिन न केवल अखबारों में पढ़ता हूं, टीवी पर देखता हूं, बल्कि लोगों के मुख से भी सुनता हूं कि हरदिन बहुत सारी लड़कियां बलात्कार का शिकार होती हैं. लड़कियां बयान देती हैं कि फलां व्यक्ति या लड़के ने बहलाफुसला कर उस के साथ बलात्कार किया और अब शादी करने से इनकार कर रहा है. यहां वास्तविक घटनाओं को अपवाद समझिए.

तभी तो कहता हूं कि आजकल की पढ़ीलिखी, ट्रेन, बस और हवाई जहाज में अकेले सफर करने वाली, अपने मांबाप को छोड़ कर पराए शहरों में अकेली रह कर पढ़ने वाली लड़कियां बहुत भोली हैं.

बताइए, अगर वे भोली और नादान न होतीं तो क्या कोई लड़का उन को मीठीमीठी बातें कर के बहलाफुसला कर अपने प्रेमजाल में फंसा सकता है और अकेले में ले जा कर उन के साथ बलात्कार कर सकता है.

पुलिस में लिखाई गई रिपोर्ट और लड़कियों के बयानों के आधार पर यह तथ्य सामने आता है कि आजकल की लड़कियां इतनी भोलीभाली हैं कि वे किसी भी जानपहचान और कई बार तो किसी अनजान व्यक्ति की बातों तक में आ जातीं और उस के साथ कार में बैठ कर कहीं भी चली जाती हैं.

वह व्यक्ति उन को बड़ी आसानी से होटल के कमरे या किसी सुनसान फ्लैट में ले जाता है और वहां उस के साथ बलात्कार करता है. बलात्कार के बाद लड़कियां वहां से बड़ी आसानी से निकल भी आती हैं. 3-4 दिनों तक  उन्हें अपने साथ हुए बलात्कार से पीड़ा या मानसिक अवसाद नहीं होता, लेकिन फिर जैसे अचानक ही वे किसी सपने से जागती हैं और बिलबिलाती हुई बलात्कार का केस दर्ज करवाने पुलिस थाने पहुंच जाती हैं.

लड़कियां केवल इस हद तक ही भोली नहीं होती हैं. वे किसी भी अनजान लड़के की बातों पर विश्वास कर लेती हैं और उस के साथ अकेले जीवन गुजारने के लिए तैयार हो जाती हैं. लड़कों की मीठीमीठी बातों में आ कर वे अपने शरीर को भी उन्हें समर्पित कर देती हैं. दोचार साल लड़के के साथ रहने पर उन्हें अचानक लगता है कि लड़का अब उन से शादी करने वाला नहीं है, तो वे पुलिस थाने पहुंच कर उस लड़के के खिलाफ बलात्कार का मुकदमा दर्ज करवा देती हैं.

सच, आज लड़कियां क्या इतनी भोली हैं कि उन्हें यह तक समझ नहीं आता कि जिस लड़के को बिना शादी के ही मालपुआ खाने को मिल रहा हो और जिस मालपुए को जूठा कर के वह फेंक चुका है, वह उस जमीन पर गिरे मैले मालपुए को दोबारा उठा कर क्यों खाएगा.

मैं तो ऐसी लड़कियों का बहुत कायल हूं, मैं उन की बुद्धिमता की दाद देता हूं जो मांबाप की बातों को तो नहीं मानतीं, लेकिन किसी अनजान लड़के की बातों में बड़ी आसानी से आ जाती हैं. हाय रे, आज की लड़कियों का भोलापन.

लड़कियां इतनी भोली होती हैं कि वे अनजान या अपने साथ पढ़ने वाले लड़कों की बातों में तो आ जाती हैं, लेकिन अपने मांबाप की बातों में कभी नहीं आतीं. जवान होने पर वे उन का कहना नहीं मानतीं, उन की सभी नसीहतें उन के कानों में जूं की तरह रेंग जाती हैं और वे अपनी चाल चलती रहती हैं. वे अपने लिए कोई भी टुटपुंजिया, झोंपड़पट्टी में रहने वाला टेढ़ामेढ़ा, बेरोजगार लड़का पसंद कर लेती हैं, लेकिन मांबाप द्वारा चुना गया अच्छा, पढ़ालिखा, नौकरीशुदा, संभ्रांत घरपरिवार का लड़का उन्हें पसंद नहीं आता. इस में उन का भोलापन ही झलकता है, वरना मांबाप द्वारा पसंद किए गए लड़के के साथ शादी कर के हंसीखुशी जीवन न गुजारतीं. फिर उन को किसी लड़के के साथ कुछ सालों तक बिना शादी के रहने के बाद बलात्कार का मुकदमा दर्ज कराने की नौबत नहीं आती.

आजकल की लड़कियों को तब तक अक्ल नहीं आती, जब तक कोई लड़का उन के शरीर को पके आम की तरह पूरी तरह चूस कर उस से रस नहीं निचोड़ लेता. जब लड़का उस को छोड़ कर किसी दूसरी लड़की को अपने प्रेमजाल में फंसाने के लिए आतुर दिखता है, तब वे इतने भोलेपन से भोलीभाली बन कर जवाब देती हैं कि आश्चर्य होता है कि इतनी पढ़ीलिखी और नौकरीशुदा लड़की इतनी भोली भी हो सकती है कि कोई भी लड़का उसे बहलाफुसला कर, शादी का झांका दे कर उस के साथ 4 साल तक लगातार बलात्कार करता रहता है.

हाय रे, मासूम लड़कियो, इतने सालों तक कोई लड़का तुम्हारे शरीर से खेल रहा था, लेकिन तुम्हें पता नहीं चल पाया कि वह तुम्हारे साथ बलात्कार कर रहा है.

अगर शादी करने के लिए ही लड़की उस लड़के के साथ रहने को राजी हुई थी तो पहले शादी क्यों नहीं कर ली थी. बिना शादी के वह लड़के के साथ रहने के लिए क्यों राजी हो गई थी.

एक बार शादी कर लेती, तब वह उस के साथ रहने और अपने शरीर को सौंपने के लिए राजी होती. लेकिन क्या किया जाए, लड़कियां होती ही इतनी भोली हैं कि उन्हें जवानी में अच्छाबुरा कुछ नहीं सूझता और वे हर काम करने को तैयार हो जाती हैं जिसे करने के लिए उन्हें मना किया जाता है.

वे खुलेआम चिडि़यों को दाना चुगाती रहती हैं और जब चिडि़यां उड़ जाती हैं तब उन के दाना चुगने की शिकायत करती हैं. ऐसे भोलेपन का कौन नहीं लाभ उठाना चाहेगा. यह तो मानना पड़ेगा कि लड़कियों के मुकाबले लड़के ज्यादा होशियार होते हैं, तभी तो वे लड़कियों के भोलेपन का फायदा उठाते हैं. लड़कियां भोली न होतीं तो क्या अपने घर से अपनी मां के जेवर और बाप की पूरी कमाई ले कर लड़के के साथ रफूचक्कर हो जातीं.

लड़के तो कभी अपने घर से कोई मालमत्ता ले कर उड़नछू नहीं होते. वे लड़की के साथसाथ उस के पैसे से भी मौज उड़ाते हैं और जब मालमत्ता खत्म हो जाता है तो लड़की उन के लिए बासी फूल की तरह हो जाती है और तब लड़के की आंखें उस से फिर जाती हैं. उस की आंखों में कोई और मालदार लड़की आ कर बस जाती है. तब लूटी गई लड़की की अक्ल पर पड़ा पत्थर अचानक ही हट जाता है. तब भारतीय दंड संहिता की सारी धाराएं उसे याद आती हैं और वह लड़के के खिलाफ सारे हथियार उठा कर खड़ी हो जाती है. वह लड़का जो उसे दुनिया का सब से प्यारा इंसान लगता था, अचानक अब उसे वह बद से बदतर लगने लगता है.

लड़कियां अगर जीवनभर भोली बनी रहीं तो पुलिस का काम आसान हो जाए. उन के क्षेत्र में होने वाली बलात्कार की घटनाएं समाप्त हो जाएंगी, क्योंकि तब कोई लड़की बलात्कार का मुकदमा दर्ज करवाने के लिए थाने नहीं जाएगी. कई साल तक लड़के के साथ बिना शादी के रहने पर भी उसे शादी का खयाल तक नहीं आएगा. जब लड़की शादी ही नहीं करना चाहेगी तो फिर उस के साथ बलात्कार होने का सवाल ही पैदा नहीं होता.

रही बात दूसरी लड़कियों की जो बिना कुछ सोचेविचारे लड़कों के साथ, रात हो या दिन, कहीं भी चल देती हैं, पढ़लिख कर भी उन की बुद्धि पर पत्थर पड़े रहते हैं तो उन का भला कोई नहीं कर सकता.

Short Story : फाइनैंसर – आखिर किसने की शरद की मदद

Short Story : शरद टैक्सी ड्राइवर था. वह उसी टैक्सी से अपने परिवार को पाल रहा था. उस के 3 बच्चे थे जिन्हें वह हमेशा ही ऊंची से ऊंची पढ़ाई कराना चाहता था ताकि वे उस की तरह अनपढ़ न रह जाएं.

शरद हमेशा सुबह ही टैक्सी ले कर निकल जाता था. इधर बच्चे बड़े होने लगे. उन की पढ़ाईलिखाई पर उस की एक बड़ी रकम खर्च होने लगी. उसे हमेशा यही फिक्र रहती थी कि बच्चे किसी भी तरह पढ़लिख लें.

शरद की टैक्सी धीरेधीरे पुरानी होने लगी थी. हर साल उस के रखरखाव पर 25 से 30 हजार रुपए खर्च हो जाते थे.

शरद की बीवी बीमार थी. उस की किडनी में दिक्कत थी. वह इलाज कराने में हमेशा कोताई बरतती थी.शरद जितना कमाता था उस से ज्यादा घर में खर्च हो जाता था, फिर भी वह संतुष्ट था. लेकिन इस बार उस की बेटी का कालेज में आखिरी साल था और एक बड़ी रकम बतौर फीस भरनी थी. बैंक पुरानी टैक्सी पर कर्ज देने से इनकार कर चुका था. शरद एक फाइनैंसर पप्पू सेठ के पास गया. पप्पू सेठ ने आसानी से उसे कर्ज दे दिया.

शरद अब और भी मेहनत करने लगा था और बराबर किस्त भरता था. कभीकभार जब समय पर किस्त नहीं पहुंचती थी, तब भी पप्पू सेठ कभी नाराज नहीं होते थे और मुसकरा कर ‘कोई बात नहीं’ कह देते थे. धीरेधीरे परेशानियों ने चारों तरफ से शरद को घेरना शुरू कर दिया. बेटी की पढ़ाई, पत्नी की बीमारी और कुछ प्राइवेट कंपनियों की टैक्सी आ जाने के चलते उस के धंधे पर बुरा असर पड़ने लगा और वह 4-5 हफ्तों तक किस्त नहीं दे पाया. पप्पू सेठ ने न चाहते हुए भी शरद की टैक्सी अपने पास रख ली.

शरद ने यह बात अपने घर में किसी को नहीं बताई और हमेशा की तरह सुबह घर से जल्दी निकल कर किसी दूसरे की टैक्सी चलाने लगा. अब वह अकसर देर रात ही घर आता था.

वक्त पंख लगा कर बहुत तेजी से आगे जा रहा था. पप्पू सेठ की बेटी की शादी होने वाली थी. उन्होंने न सिर्फ रिश्तेदारदोस्तों, बल्कि उन लोगों को भी न्योता दिया था जिन्होंने उन से कर्ज लिया था.

विदाई के वक्त अचानक पप्पू सेठ की तबीयत बिगड़ने लगी. उन के सीने में तेज दर्द व माथे पर पसीना आने लगा जो हार्टअटैक के लक्षण थे. सारे मेहमान घबरा गए. पूरा माहौल गमगीन हो चुका था. तब पप्पू सेठ की बेटी की सहेली सरिता ने न केवल उन्हें संभाला, बल्कि एंबुलैंस का इंतजाम किया और फोन से अस्पताल को पूरी जानकारी भी दी.

जब एंबुलैंस अस्पताल पहुंची तो पहले से अस्पताल में डाक्टरों की एक पूरी टीम तैयार थी जो पप्पू सेठ को आईसीयू में ले गई. सब को यह जान कर हैरानी हुई कि उस डाक्टर टीम की हैड सरिता ही थी और चंद घंटों में ही पप्पू सेठ पहले से बेहतर हो चुके थे.

जब पप्पू सेठ पूरी तरह ठीक हो गए तब एक मौके पर उन के दोस्तरिश्तेदारों ने सरिता को सम्मानित करना चाहा. यह सुन कर सरिता ने कहा, ‘‘अगर आप को सम्मानित करना ही है तो मेरे पिता को कीजिए जिन की जिंदगी में तमाम उतारचढ़ाव आने के बाद भी उन्होंने मुझे इस काबिल बनाया.’’

जिस दिन डाक्टर सरिता के पिता को सम्मान देने के लिए बुलाया गया तो उन्हें देख कर पप्पू सेठ अनायास ही अपनी सीट से खड़े हो गए और उन्होंने सरिता के पिता को गले लगा लिया.

डाक्टर सरिता के पिता कोई और नहीं, बल्कि टैक्सी ड्राइवर शरद ही थे. उस दिन से पप्पू सेठ और भी दयालु हो गए. उन्हें लगा कि शायद उन से अनजाने में कुछ गलती हुई होगी क्योंकि किसी की टैक्सी वापस लेने के बाद वे नहीं जान पाए कि उस परिवार पर क्या बीतती है.

पप्पू सेठ अब अपना ज्यादातर समय जरूरतमंदों की मदद करने में लगाते हैं. उन्होंने अपने बेटे लकी, जो एक गैराज चलाता था, से कह दिया है, ‘‘हमारे पास मजबूरी में लोग आते हैं. उन का हर तरह से सहयोग करना.’’

शरद और पप्पू सेठ का परिवार एकदूसरे के घर पर आताजाता रहता है, क्योंकि डाक्टर सरिता को पप्पू सेठ अपनी बेटी की तरह स्नेह करते हैं.

Family Story : काला धन – क्या वाकई में आ पाया काला धन

Family Story : और मौतों सरीखी वह भी एक मौत थी. एकदम साधारण. किसी 45 से 48 साल के आदमी की जो किसी प्राइवेट फैक्टरी में नाइट शिफ्ट में सुपरवाइजर था.

उस दिन जब उस ने मंत्रीजी को यह कहते सुना था कि काले धन को बाहर लाने के लिए हमें यह कड़ा कदम उठाना पड़ रहा है और यह फैसला लेना पड़ रहा है कि 500 व 1,000 के नोट बंद किए जाते हैं, तब दीपक कुमार, हां यही नाम था उस का, बहुत खुश हुआ था. वह फैक्टरी

में अपने साथियों से कहने लगा था, ‘‘देखना, अब अच्छे दिन जरूर आएंगे और धन्ना सेठों को अपना काला पैसा निकालना ही पड़ेगा.

‘‘अपनी फैक्टरी का मालिक भी कम थोड़े ही है. इन के पास भी बहुत काला धन है. अब तो सब सामने लाना ही पड़ेगा. देखना दोस्तो, अब तनख्वाह भी समय पर मिल जाया करेगी. अब तो कभी 10 तो कभी 15 तारीख को मिलती है.’’

उस महीने दीपक की बात सौ फीसदी सच हो गई थी. सभी मुलाजिमों को 25 तारीख को ही तनख्वाह मिल

गई थी, वह भी 500 व 1,000 के कड़कड़ाते नोट. सभी खुश थे.

दीपक तो सभी से कह रहा था, ‘‘देखो, मेरी बात सच हो गई न? अब आगेआगे देखो, होता है क्या.’’

वैसे, दीपक पिछले 17 सालों से इस फैक्टरी में काम कर रहा था. उस की समय पर सही फैसले लेने की कूवत को देखते हुए उसे परमानैंट नाइट शिफ्ट ही दे दी गई थी.

तनख्वाह के अलावा 2,000 रुपए हर महीने नाइट शिफ्ट भत्ता भी मिल जाता था. दीपक इसी में खुश था. नाइट शिफ्ट में तेज रफ्तार से हुए प्रोडक्शन

के चलते कई बार मैनेजमैंट ने ‘मजदूर दिवस’ पर उस का सम्मान भी किया था.

मैनेजमैंट तो मैनजमैंट ही होता है. निजी संस्थानों का मैनेजमैंट तो और भी सख्त होता है. यहां पर भी मैनेजमैंट द्वारा रखे गए आंखों और कानों ने दीपक की बातों का ब्योरा सभी मसालों के साथ मैनेजमैंट के सामने रख दिया.

हिंदी की एक कहावत है न कि दूध देती गाय की लात भी सहन की जाती है, शायद उसी तर्ज पर दीपक पर कोई कड़ी कार्यवाही नहीं की गई थी.

अगले महीने की पहली तारीख आतेआते तक हालात साफ होने लगे. कारखाने में कच्चे माल की कमी होने लगी. इसी वजह से 5 तारीख से रात की पाली बंद करने का फैसला लेना पड़ा.

दीपक ने जब यह सूचना सुनी तो वह कारखाने के मैनेजर से मिलने पहुंचा.

‘‘दीपक, तुम… नाइट शिफ्ट के बेताज बादशाह. आज दिन में कैसे?’’ मैनेजर ने बनावटी स्वांग के साथ पूछा.

‘‘सर, नाइट शिफ्ट का प्रोडक्शन का सामान न होने के चलते कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया है. मैं चाहता हूं कि इस दौरान मुझे दिन में ड्यूटी दी जाए,’’ दीपक गुजारिश करता हुआ बोला.

‘‘देखो दीपक, दिन में पूरा स्टाफ है और उसे डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा. और फिर तुम ने भी तो सुना है कि मंत्रीजी ने कहा है कि महीने 2 महीने

की दिक्कत है, फिर सब पहले जैसा हो जाएगा. बस, थोड़ा इंतजार करो.

‘‘वैसे भी तुम कई दिनों से अपने गांव नहीं गए हो, जरा गांव तक ही घूम आओ. जैसे ही नाइट शिफ्ट चालू होगी, तुम्हें सूचित कर दिया जाएगा,’’ मैनेजर ने उसे समझाने वाले लहजे में कहा.

दीपक ने सोचा कि यह भी ठीक है. मातापिता से भी वह कई दिनों से नहीं मिला. उन से मिलने चला जाता हूं. मातापिता से आराम से कुछ बातें भी हो जाएंगी.

गांव में दीपक के पिता के पास 10 बीघा जमीन है जिस में मातापिता का गुजारा आराम से हो जाता है.

जिस समय दीपक गांव में पहुंचा उस समय पिताजी घर के आंगन में ही खटिया डाल कर बैठे हुए थे. उन्होंने दूर से ही आते हुए दीपक को पहचान लिया और आवाज दे कर दीपक की मां को भी बाहर बुलवा लिया.

वे दोनों दीपक को इस तरह से बिना सूचना आए देख कर खुश भी थे और हैरान भी. जब दीपक ने अपने आने की वजह बताई और यह बताया कि वह इस बार लंबे समय तक रहेगा तो सभी खुश हो गए और मंत्री को दुआएं देने लगे.

वे दिन दीपक की जिंदगी के सब से अच्छे दिन गुजरे. गांव की ताजा व खुली हवा, पुराने यारदोस्त, मां के हाथ की ज्वार की रोटी. हालांकि पिताजी को फसलों के दाम पिछले साल की तुलना में कम मिले थे, फिर भी वे खुश थे.

धीरेधीरे एक महीना गुजर गया, पर दीपक के कारखाने से कोई फोन नहीं आया. वैसे, दीपक ने खुद कई बार फोन लगाया, पर जल्दी सूचना देने के सिर्फ आश्वासन ही मिले.

दीपक ने वापस शहर जाने का फैसला ले लिया, क्योंकि मातापिता की माली हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी.

शहर में घर का किराया वगैरह चुकाने के बाद उस के पास नाममात्र के पैसे बचे थे, क्योंकि शहर से जाते समय वह मातापिता के लिए कपड़े व कुछ जरूरी सामान भी ले गया था. उसे यकीन था कि फैक्टरी में रात की पाली जल्दी ही चालू हो जाएगी.

दोपहर के तकरीबन 12 बजे दीपक फैक्टरी पहुंच गया. उसे फैक्टरी मैनेजर साहब औफिस के बाहर ही मिल गए. वह उन से अपनी ड्यूटी के सिलसिले में बातें करने लगा और वह हमेशा की तरह उसे उम्मीद बंधाने वाले जवाब दे रहे थे.

‘‘बस, अगले 15-20 दिनों में माली हालत में सुधार होते ही फैक्टरी की नाइट शिफ्ट चालू कर दी जाएगी. अभी तो जो लोग काम कर रहे हैं उन की तनख्वाह ही समय पर होना मुश्किल है.

‘‘मैं इसी उधेड़बुन में बाहर निकला हूं कि कारखाने का कौन सा स्क्रैप बेच कर मुलाजिमों की तनख्वाह निकाल सकूं. तुम्हारी जानकारी में ऐसा कोई स्क्रैप हो तो बताओ,’’ आश्वासन देते हुए मैनेजर ने दीपक से पूछा.

दीपक मैनेजर को अपनी जानकारी के मुताबिक स्क्रैप के बारे में बताने लगा. तभी एक लंबी चमचमाती सफेद कार कारखाने में दाखिल हुई.

‘‘अरे, सेठजी आ गए,’’ कहते हुए मैनेजर कार की तरफ लपका.

चूंकि दीपक उस कारखाने का पुराना मुलाजिम था, इसी वजह से मालिक भी उसे पहचानते थे.

‘‘नमस्ते सर,’’ दीपक ने मालिक को देखते ही हाथ जोड़ कर कहा.

‘‘कैसे हो दीपक?’’ कार से उतर कर मालिक ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं सर,’’ दीपक ने जवाब दिया.

‘‘कैसे आना हुआ?’’ मालिक ने पूछा.

‘‘सर, पिछले डेढ़ महीने से नाइट शिफ्ट बंद है. यही जानकारी लेने आया था कि कब तक फिर से चालू हो जाएंगी,’’ दीपक ने जवाब दिया.

मालिक ने इशारे से उसे अपने औफिस में आने को कहा. दीपक को लगा कि अब तो उस की ड्यूटी फिर से चालू हो ही जाएगी. आखिर इतने दिनों तक उस ने अकेले रातरात भर जाग कर अच्छा प्रोडक्शन जो दिया था. कई बार मुश्किल हालात में भी कारखाने को अच्छे से चलाए रखने का इनाम शायद आज उसे मिल जाए.

औफिस के अंदर सिर्फ 2 ही लोग थे कारखाने के मालिक और दीपक.

मालिक ने ही बात शुरू की और बोले, ‘‘हां, तो दीपक उस दिन वर्करों

से क्या कह रहे थे तुम? सेठ का काला धन अब बाहर निकल आएगा… और देखो, निकल आया.

‘‘जिसे तुम काला धन कह रहे थे, उसी धन से तुम्हारे जैसे कितने लोगों के घर के चूल्हे जल रहे थे. तुम्हारे घर वालों को दवादारू मिल रही थी. तुम्हें मिलने वाला पैसा तुम्हारे जीने का आधार था.

‘‘अब बताओ कि इस से क्या साबित हुआ? काला धन किस के पास था? मेरे पास या तुम्हारे पास? मैं तो जितना खाना तब खाता था उतना ही अब भी खा रहा हूं. भूखा कौन मर रहा है? तुम्हारे जैसे मेहनती लोग न? तो फिर काला धन किस के पास हुआ और किस का निकला? तुम्हारा ही न?

‘‘देखो, मैं जो देख रहा हूं उस के मुताबिक कम से कम 6 महीने तक तो यह फैक्टरी पूरे तौर पर नहीं चल पाएगी. तुम चाहो तो दूसरी नौकरी ढूंढ़ लो, पर मैं जहां तक जानता हूं तकरीबन हर इंडस्ट्री की हालत ऐसी ही है. अब तुम जा सकते हो.’’

दीपक भारी कदमों से औफिस के बाहर निकल गया. घर जाते समय सोच रहा था कि इस से तो काला धन ही बेहतर था. कम से कम करोड़ों मजदूरों को रोजगार तो मिला हुआ था. घर चल रहा था, बच्चे पढ़ रहे थे.

सोचतेसोचते दीपक एक बगीचे में पहुंच गया. यहां लोग सुबहशाम घूमने के लिए आते हैं. पर इस दोपहरी में भी वहां पर कई लोग बैठे थे जो उस के जैसे ही थे. वे भी आसपास की फैक्टरियों में रोजगार तलाश रहे थे.

अब दीपक को मालिक के शब्द सही लगने लगे थे. पहले जो लोग मलाई खा रहे थे, वे तो अब भी गाढ़ा दूध पी रहे हैं, पर जो लोग सूखी रोटी खा रहे थे, वे बेचारे तो भूखे ही मर रहे हैं. गलती कौन कर रहा है और सजा कौन पा रहा है. ठीक है कि अगले 10-15 सालों का भारत अलग होगा, पर आज जो मर रहे हैं, उन का क्या? इस माहौल में जो बच्चे बड़े हो रहे हैं, क्या वे इन कमियों की वजह से अपराधी नहीं बनेंगे?

बेहतर होता कि इस के दूरगामी नतीजों की जांचपड़ताल कर इस फैसले को धीरेधीरे असरदार ढंग से लागू किया जाता. एक अपराध को रोकने की वजह दूसरे अपराधों की जन्मदाता तो नहीं होती.

पता नहीं, दीपक को कब गहरी नींद लग गई. इतनी गहरी कि फिर कभी उठ ही नहीं पाया. लोग कह रहे थे, दिल के दौरे से मौत हुई थी, पर असलियत…

Family Story : वापसी – वीरा के दिमाग में था कौन सा बवंडर

Family Story : दिल्ली पहुंचने की घोषणा के साथ विमान परिचारिका ने बाहर का तापमान बता कर अपनी ड्यूटी खत्म की, लेकिन वीरा की ड्यूटी तो अब शुरू होने वाली थी. अंडमान निकोबार से आया जहाज जैसे ही एअरपोर्ट पर रुका, वीरा के दिल की धड़कनें यह सोच कर तेज होने लगीं कि उसे लेने क्या विजेंद्र आया होगा?

अपने ही सवालों में उलझी वीरा जैसे ही बाहर आई कि सामने से दौड़ कर आती विपाशा ‘मांमां’ कहती उस से आ कर लिपट गई.

वीरा ने भी बेटी को प्यार से गले लगा लिया.

‘5 साल में तू कितनी बड़ी हो गई,’ यह कहते समय वीरा की आंखें चारों ओर विजेंद्र को ढूंढ़ रही थीं. शायद आज भी विजेंद्र को कुछ जरूरी काम होगा. विपाशा मां को सामान के साथ एक जगह खड़ा कर गाड़ी लेने चली गई. वह सामान के पास खड़ी- खड़ी सोचने लगी.

5 साल पहले उस ने अचानक अंडमान निकोबार जाने का फैसला किया, तो  महज इसलिए कि वह विजेंद्र के बेरुखी भरे व्यवहार से तिलतिल कर मर रही थी.

विजेंद्र ने भरपूर कोशिश की कि अपनी पत्नी वीरा से हमेशा के लिए पीछा छुड़ा ले. उस ने तो कलंक के इतने लेप उस पर चढ़ाए कि कितना ही पानी से धो लो पर लेप फिर भी दिखाई दे.

यही नहीं विजेंद्र ने वीरा के सामने परेशानियों के इतने पहाड़ खड़े कर दिए थे कि उन से घबरा कर वह स्वयं विजेंद्र के जीवन से चली जाए. लेकिन वीरा हर पहाड़ को धीरेधीरे चढ़ कर पार करने की कोशिश में लगी रही.

अचानक ही अंडमान में नौकरी का प्रस्ताव आने पर वह एक बदलाव और नए जीवन की तैयारी करते हुए वहां जाने को तैयार हो गई.

अंडमान पहुंच कर वीरा ने अपनी नई नौकरी की शुरुआत की. उसे वहां चारों ओर बांहों के हार स्वागत करते हुए मिले. कुछ दिन तो जानपहचान में निकल गए लेकिन धीरेधीरे अकेलेपन ने पांव पसारने शुरू कर दिए. इधर साथ काम करने वाले मनचलों में ज्यादातर के परिवार तो साथ थे नहीं, सो दिन भर नौकरी करते, रात आते ही बोतल पी कर सोने का सहारा ढूंढ़ लेते.

छुट्टी होने पर घर और घरवाली की याद आती तो फोन घुमा कर झूठासच्चा प्यार दिखा कर कुछ धर्मपत्नी को बेवकूफ बनाते और कुछ अपने को भी. ऐसी नाजुक स्थिति में वे हर जगह हर किसी महिला की ओर बढ़ने की कोशिश करते, पट गई तो ठीक वरना भाभीजी जिंदाबाद. अंडमान में वीरा अपने कमरे की खिड़की पर बैठ कर अकसर यह नजारे देखती. कई बार बाहर आने के लिए उसे भी न्योते मिलते पर उस का पहला जख्म ही इतना गहरा था कि दर्द से वह छटपटाती रहती.

कंपनी से वीरा को रहने के लिए जो फ्लैट मिला था, उस फ्लैट के ठीक सामने पुरुष कर्मचारियों के फ्लैट थे. बूढ़ा शिवराम शर्मा भी अकसर शराब पी कर नीचे की सीढि़यों पर पड़ा दिख जाता. कैंपस के होटलों में शिवराम खाना कम खाता रिश्ते ज्यादा बनाने की कोशिश करता. उस के दोस्ती करने के तरीके भी अलगअलग होते थे. कभी धर्म के नाते तो कभी एक ही गांव या शहर का कह कर वह महिलाओं की तलाश में रहता था. शिवराम टेलीफोन डायरेक्टरी से अपनी जाति के लोगों के नाम से घरों में भी फोन लगाता. हर रोज दफ्तर में उस के नएनए किस्से सुनने को मिलते. कभीकभी उस की इन हरकतों पर वीरा को गुस्सा भी आता कि आखिर औरत को वह क्या समझता है?

कभीकभी उस का साथी बासु दा मजाक में कह देता, ‘बाबू शिवराम, घर जाने की तैयारी करो वरना कहीं भाभीजी भी किसी और के साथ चल दीं तो घर में ताला लग जाएगा,’ और यह सुनते ही शिवराम उसे मारने को दौड़ता.

3 महीने पहले आए राधू के कारनामे देख कर तो लगता था कि वह सब का बाप है. आते ही उस ने एक पुरानी सी गाड़ी खरीदी, उसे ठीकठाक कर के 3-4 महिलाओं को सुबहशाम दफ्तर लाने और वापस ले जाने लगा था. शाम को भी वह बेमतलब गाड़ी मैं बैठ कर यहांवहां घूमता फिरता.

एक दिन अचानक एक जगह पर लोगों की भीड़ देख कर यह तो लगा कि कोई घटना घटी है लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था. भीड़ छंटने पर पता चला कि राधू ने किसी लड़की को पटा कर अपनी कार में लिफ्ट दी और फिर उस के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी तो लड़की ने शोर मचा दिया. जब भीड़ जमा हो गई तो उस ने राधू को ढेरों जूते मारे.

वीरा अकसर सोचती कि आखिर यह मर्दों की दुनिया क्या है? क्यों औरत को  बेवकूफ समझा जाता है. दफ्तर में भी वीरा अकसर सब के चेहरे पढ़ने की कोशिश करती. सिर्फ एकदो को छोड़ कर बाकी के सभी एक पल का सुख पाने के लिए भटकते नजर आते.

वीरा की रातें अकसर आकाश को देखतेदेखते कट जातीं. जीने की तलाश में अंडमान आई वीरा को अब धरती का यह हिस्सा भी बेगाना सा लग रहा था. बहुत उदास होने पर वह अपनी बेटी विपाशा से बात कर लेती. फोन पर अकसर विपाशा मां को समझाती रहती, उस को सांत्वना देती.

5 साल बाद विजेंद्र ने बेटी विपाशा के माध्यम से वीरा को वापस आने का न्योता भेजा, तो वह अकसर यही सोचती, ‘आखिर क्या करे? जाए या न जाए. पुरुषों की दुनिया तो हर जगह एक सी ही है.’ आखिरकार बेटी की ममता के आगे वीरा, विजेंद्र की उस भूल को भी भूल गई, जिस के लिए उस ने अलग रहने का फैसला किया था.

वीरा को याद आया कि घर छोड़ने से पहले उस ने विजेंद्र से कहा था कि मैं ने सिर्फ तुम्हें चाहा है, कभी अगर मेरे कदम डगमगाने लगें या मुझे जीवन में कभी किसी मर्द की जरूरत पड़ी तो वापस तुम्हारे पास लौट आऊंगी. आखिर हर जगह के आदमी तो एक जैसे ही हैं. इस राह पर सब एक पल के लिए भटकते हैं और वह भटका हुआ एक पल क्या से क्या कर देता है.

कभी वीरा सोचती कि बेटी के कहने का मान ही रख लूं. आज वह ममता की भूखी, मानसम्मान से बुला रही है, कहीं ऐसा न हो, कल को उसे भी मेरी जरूरत न रहे.

अचानक वीरा के कानों में विपाशा के स्वर उभरे, ‘‘मां, तुम कहां खोई हो जो तुम्हें गाड़ी का हार्न भी नहीं सुनाई पड़ रहा है.’’

वीरा हड़बड़ाती हुई गाड़ी की ओर बढ़ी. घर पहुंच कर विपाशा परी की तरह उछलने लगी. कमला से चाय बनवा कर ढेर सारी चीजों से मेज सजा दी.

सामने से आते हुए विजेंद्र ने एक पल को उसे देखा, उस की आंखों में उसे बेगानापन नजर आया. घर का भी एक अजीब सा माहौल लगा. हालांकि गीतांजलि अब  विजेंद्र के जीवन से जा चुकी थी, फिर भी वीरा को जाने क्यों अपने लिए शून्यता नजर आ रही थी. हां, विपाशा की हंसी जरूर उस के दिल को कुछ तसल्ली दे देती.

वह कई बार अपनेआप से ही बातें करती कि ऊपरी तौर पर वह लोगों के लिए प्रतिभासंपन्न है लेकिन हकीकत में वह तिनकातिनका टूट चुकी थी. जीने के लिए विपाशा ही उस की एकमात्र आशा थी.

विजेंद्र की कुछ मीठी यादों के सहारे वीरा अपना दुख भूलने की कोशिश करती, वह तो बेटी के प्रति मां की ममता थी जिस की खुशी के लिए उस ने अपनी वापसी स्वीकार कर ली थी. वह सोेचती, जब जीना ही है तो क्यों न अपने इस घर के आंगन में ही जियूं, जहां दुलहन बन के आई थी.

वीरा की वापसी से विपाशा की खुशी में जो इजाफा हुआ उसे देख कर काम वाली दादी अकसर कहती, ‘‘बेटा, निराश मत हो. विजेंद्र एक बार फिर से वही विजेंद्र बन जाएगा, जो शादी के कुछ सालों तक था. मैं जानती हूं कि तुम्हें विजेंद्र की जरूरत है और विपाशा को तुम्हारी. क्या तुम विपाशा की खुशी के लिए विजेंद्र की वापसी का इंतजार नहीं कर सकतीं?

‘‘आखिर तुम विपाशा की मां हो और समाज ने जो अधिकार मां को दिए हैं वह बाप को नहीं दिए. तुम्हारी वापसी इस घर के बिखरे तिनकों को फिर से जोड़ कर घोंसले का आकार देगी. खुद पर भरोसा रखो, बेटी.’’

Short Story : गायब – क्या था भाईजी का राज

Short Story : ‘‘भाईजी, क्या बात है, आप को जब भी देखता हूं आप अपना पेट दाईं तरफ पकड़े रहते हैं. मैं समझता हूं कि खाना खाने के समय या वैसा ही कोई जरूरी काम के समय आप अपना हाथ पेट से हटाते होंगे, वरना उठतेबैठते, चलते, बतियाते, हमेशा देखता हूं कि आप का हाथ अपने पेट पर ही रहता है.’’

‘‘हां, रहता तो है…रखना पड़ता है. आजकल तो बच्चे हों या जवान, सभी  हम को देख कर हंसते भी हैं. चिढ़ाते हैं, ‘पकड़े रहो, पकड़े रहो.’ बाकी हम पर इस सब का कुछ भी असर नहीं पड़ने वाला है.’’

‘‘वह तो मैं देखता हूं कि कोई कुछ भी कहे, आप बिना किसी प्रतिक्रिया के हरदम इसी मुद्रा में रहते हैं. आखिर बात क्या है? बुरा नहीं मानिएगा, मैं मजाक नहीं कर रहा हूं…मैं आप की बड़ी इज्जत करता हूं. क्या आप को पेट में कोई तकलीफ है, जो हरदम पेट पर हाथ रखे रहते हैं?’’

‘‘पकड़ कर इसलिए रखता हूं, ताकि कोई चुरा न ले.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां, रात को भी पेट पकड़ कर सोता हूं. कभी नींद में हट गया और नींद टूटी तो फिर झट से पेट पकड़ लेता हूं. वैसे तो अब आदत हो गई है. नींद में भी हाथ पेट पर ही रहता है.’’

‘‘लेकिन बात क्या है?’’

‘‘अरे भाई, अंदर कीमती सामान है. कब क्या गायब हो जाए, कौन जानता है.’’

‘‘कैसी बात कर रहे हैं? कैसा कीमती सामान? भला पेट से किस चीज के गायब होने का डर है?’’

‘‘लंबा किस्सा है.’’

‘‘सुनाइए तो, बात क्या है?’’

और उन्होंने अपनी कहानी कुछ इस तरह सुनाई थी :

‘‘मेरे पेट में यहां बीच में ऊपर की ओर हमेशा दर्द रहता था. अकसर गैस से भी मैं परेशान रहता था. लोगों ने कहा कि गैस्ट्रिक है. कभी ठीक से इलाज नहीं करवाया. इधरउधर से कुछ गोली ले कर खा लेता था. दोचार दिन आराम रहता था फिर दर्द उभर आता था. भाईजी, आप तो जानते ही हैं, हम निम्नमध्य वर्ग के लोग हैं, बड़े डाक्टर की फीस और महंगे इलाज का खर्चा कहां से लाते?

‘‘हमारे 2 बेटे हैं. एक दिन बड़े बेटे ने कहा, ‘चलिए पिताजी, मैं आप का इलाज ठीक से करवाता हूं. इतने दिनों से आप तकलीफ झेल रहे हैं. कभी ठीक से इलाज नहीं करवाते. यह बात ठीक नहीं है. बीमारी को कभी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. बढ़ जाएगी तो लेने के देने पड़ जाएंगे. बिस्तर पकड़ लीजिएगा. मेरे एक दोस्त ने बताया है कि अमृतसर में एक बहुत अच्छा अस्पताल है. वहां बड़ेबड़े डाक्टर हैं. वहां पेट का इलाज पूरे देश में सब से बढि़या होता है.’

‘‘मैं ने बेटे से कहा, ‘इतना रुपया कहां से आएगा?’

‘‘इस पर वह बोला, ‘आप चिंता न करें. मैं सब इंतजाम कर दूंगा. आप का एक भी पैसा खर्च नहीं होगा. जरूरत पड़ी तो उधार ले लूंगा. फिर कमा के वापस कर देंगे. मांबाप की सेवा करना बेटे का फर्ज बनता है.’

‘‘बेटा बहुत जिद करने लगा तो मैं तैयार हो गया. तकलीफ तो थी ही. हम लोग अमृतसर पहुंचे. वहां मुझ को एक बहुत बड़े अस्पताल में बेटे ने भरती करवा दिया. अस्पताल क्या, समझिए कि महल था. बड़ेबड़े अमीर लोग वहां इलाज के लिए आते हैं. विदेश के रोगी तक आते हैं. बस, समझिए कि एक अकेला मैं ही वहां दरिद्र था. वहां का इंतजाम देख कर तो मैं दंग रह गया. जिंदगी में नहीं सोचा था कि ऐसा अस्पताल होता है.

‘‘जाते ही उन्होंने मुझे अस्पताल में भरती कर लिया और एक कमरा भी मिल गया. वह कमरा खास तरह का था इसलिए किराया 1 हजार रुपए रोज का था. वहां 3 हजार रोज तक के खास कमरे भी हैं.

‘‘फिर सब डाक्टरों ने मुझे अच्छी तरह से देखा, जांच की. फिर खून, पेशाब आदि की जांच करवाई. एक्स-रे, स्कैन… न जाने क्याक्या हुआ. कई दिन तक तो जांच ही होती रही.’’

‘‘गैस्ट्रिक के लिए इतनी जांच?’’ मैं भाईजी की बातें सुन कर बीच में बोला.

‘‘वही तो, मैं ने भी बेटे को कई बार बोला कि इतनी जांच, इतना खर्चा काहे हो रहा है? गैस्ट्रिक की बीमारी है, पेट की जांच करवा के कुछ दवाई लिखवा दो, ठीक हो जाएगी.

‘‘इस पर बेटा बिगड़ गया. बोला कि आप डाक्टर हैं? गैस्ट्रिक है कि कैंसर है, आप को क्या मालूम? बाद में बीमारी बढ़ जाएगी तो दोगुना खर्च करना पड़ेगा. आप चुपचाप इलाज करवाइए. आप खर्च की चिंता मत कीजिए, सब इंतजाम कर के आया हूं.

‘‘सब जांचपड़ताल के बाद डाक्टरों ने फैसला किया कि आपरेशन करना पड़ेगा. मैं तो बुरी तरह डर गया, लेकिन बड़े डाक्टर साहब बोले कि डरने की कोई बात नहीं है, बहुत मामूली आपरेशन है.

‘‘खैर, आपरेशन हो गया. कोई दिक्कत नहीं हुई. दूसरे ही दिन हाथ पकड़ कर घुमाफिरा कर दिखा दिया गया. हां, कमजोरी 10-15 दिन जरूर रही. बाकी कमजोरी भी महीना होतेहोते दूर हो गई. ताकत की बहुत सी दवा खाई. देखिए निशान,’’ कह कर भाईजी ने आपरेशन का निशान दिखाया.

‘‘आप ने तो कहा कि छोटा आपरेशन था, लेकिन आप के आपरेशन का निशान तो काफी लंबा है. बाईं तरफ पेट से पीठ तक.’’

‘‘अब जो वहां के डाक्टर लोगों ने कहा था वही तो मैं ने आप को बताया है. मुझे क्या पता कि कौन आपरेशन छोटा होता है और कौन बड़ा. खैर, आपरेशन के बाद दवा चली. घाव सूख गया. 10 दिन बाद बेटे के साथ मैं घर लौट आया. डाक्टर साहब ने कुछ गोलियां खाने को दी थीं, सो महीनों तक खाते रहे. पेट में दर्द भी नहीं हुआ. मैं पूरी तरह से चंगा हो गया. बेटे का काम भी शायद बढि़या चलने लगा था. खर्च के बारे में उस से पूछा तो वह बोला कि इलाज के लिए जितने रुपए उधार लिए थे सब वापस कर दिए.’’

‘‘आप का बेटा काम क्या करता है भाईजी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मुझे पक्का पता नहीं है. कुछ प्राइवेट बिजनेस है… बताता नहीं है. अलग मकान बनाया है. उसी में अपने परिवार के साथ रहता है. जवान बेटा है, शादीशुदा, बालबच्चे वाला है. ज्यादा पूछताछ ठीक नहीं है, लेकिन देखता हूं कि आराम से रहता है. कार भी खरीदी है.’’

‘‘फिर दुख की क्या बात है?’’

‘‘बताते हैं. आपरेशन के 1 साल बाद मेरे पेट में फिर दर्द उठा. ठीक वहीं पर जहां पहले होता था. मैं तो घबरा गया कि आपरेशन के बाद फिर दर्द क्यों शुरू हो गया. दोबारा बेटा को बोलने में हिचक महसूस हुई कि पहले ही इतना खर्च कर चुका है.

‘‘संयोग ऐसा हुआ कि एक बरात के साथ मुझे पटना जाना पड़ा. वहां भी जानपहचान के एक डाक्टर हैं. उन्हीं के यहां अपना पेट दिखाने चला गया. डाक्टर साहब ने देख कर सब कागज और रिपोर्ट के साथ मुझे दोबारा बुलाया. फीस भी नहीं ली.

‘‘अमृतसर से कोई खास कागज तो मिला नहीं था. जो था सब ले कर मैं दोबारा गया. डाक्टर ने सब कागज देख कर अपने साथी डाक्टरों को बुलाया और उन के साथ बहुत देर तक मेरे बारे में डिसकस किया. उन की बातें तो मेरी समझ से बाहर थीं, लेकिन इतना याद है, उन्होंने कहा था कि सब सिम्प्टम्स तो पेपटिक अलसर के लगते हैं, लेकिन एन्डोस्कोपी की रिपोर्ट नहीं है और आपरेशन यहां… रीनल एंगिल में क्यों है?

‘‘वे लोग गंभीर मुद्रा में यही बतियाते रहे. कई बार मुझ से आपरेशन के बारे में पूछा. मैं तो उन की बातों से काफी नर्वस हो गया. फिर डाक्टर बोले, ‘जांच करेंगे, अल्ट्रासाउंड करेंगे.’ मैं ने कहा कि डाक्टर साहब, आप जिन जांचों की बात कर रहे हैं उन के लिए पैसा मेरे पास नहीं है. अब तो मैं बेटे से भी नहीं मांग सकता. पहले ही उस ने इतना खर्च किया. तब डाक्टर साहब बोले कि चिंता मत कीजिए, हम आप की सब जांच मुफ्त करवा देंगे. बड़े दयालु हैं.

‘‘उन की मेहरबानी से जांच हो गई. मुझ को कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ा. अल्ट्रासाउंड के बाद उन्होंने दोबारा सब रिपोर्ट देखी. कई बार पूछा कि कभी पेशाब में कोई तकलीफ तो नहीं हुई? कभी यहां, कमर के पास दर्द तो नहीं हुआ. मैं ने बता दिया कि मुझ को वैसी कोई तकलीफ कभी नहीं हुई, तब उन्होंने पूछा कि अमृतसर में कभी डाक्टर ने किडनी आपरेशन के बारे में कुछ कहा था. मैं ने कहा, ‘नहीं, किडनी की कोई बात नहीं हुई.’ तब वे बोले कि आप की एक किडनी आपरेशन कर के निकाल ली गई है.

‘‘मैं तो यह सुन कर सन्न रह गया. कुछ देर तक मुंह से बोल नहीं निकला. डाक्टर साहब मुझ को नर्वस देख कर बोले कि घबराने की कोई बात नहीं है. आदमी को जीने के लिए एक किडनी काफी है. आप को कोई दिक्कत नहीं होगी. लेकिन आप की किडनी क्यों निकाली गई, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है. खैर, अब क्या कर सकते हैं… लेकिन आगे सावधान रहिएगा. एक किडनी बची है, इस को संभाल कर रखिएगा.’’

‘‘आप ने अपने बेटे को यह सब बताया नहीं? उस से पूछा नहीं कि किडनी क्यों निकाली गई?’’

‘‘पूछा था, गुस्सा हो गया. बोला कि यहां के ये बेवकूफ डाक्टर क्या जानते हैं. आप का इलाज देश के सब से बड़े डाक्टर से करवाया था. लाखों खर्च किया. आप ने देखा नहीं, कहांकहां के रोगी वहां आते हैं. आप अंटशंट बकना बंद कीजिए और यह सब फालतू बात किसी से कहिएगा भी मत. लोग हंसेंगे, आप को पागल समझेंगे.’’

‘‘बड़ी अजीब बात है?’’

‘‘जी हां, अजीब तो है ही.’’

‘‘लेकिन इस घटना के और आप के पेट पकड़े रहने से क्या संबंध है?’’

‘‘अजीब बात करते हैं? संबंध तो साफ है. आप को मैं ने बताया न कि मेरे 2 बेटे हैं,’’ कह कर भाईजी मेरी ओर देखने लगे.

Family Story : नारीवाद – एक अनोखा व्यक्तित्व था जननी का

Family Story : मैं पत्रकार हूं. मशहूर लोगों से भेंटवार्त्ता कर उन के बारे में लिखना मेरा पेशा है. जब भी हम मशहूर लोगों के इंटरव्यू लेने के लिए जाते हैं उस वक्त यदि उन के बीवीबच्चे साथ में हैं तो उन से भी बात कर के उन के बारे में लिखने से हमारी स्टोरी और भी दिलचस्प बन जाती है.

मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. मैं मशहूर गायक मधुसूधन से भेंटवार्त्ता के लिए जिस समय उन के पास गया उस समय उन की पत्नी जननी भी वहां बैठ कर हम से घुलमिल कर बातें कर रही थीं. जननी से मैं ने कोई खास सवाल नहीं पूछा, बस, यही जो हर पत्रकार पूछता है, जैसे ‘मधुसूधन की पसंद का खाना और उन का पसंदीदा रंग क्या है? कौनकौन सी चीजें मधुसूधन को गुस्सा दिलाती हैं. गुस्से के दौरान आप क्या करती हैं?’ जननी ने हंस कर इन सवालों के जवाब दिए. जननी से बात करते वक्त न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि बाहर से सीधीसादी दिखने वाली वह औरत कुछ ज्यादा ही चतुरचालाक है.

लिविंगरूम में मधुसूधन का गाते हुए पैंसिल से बना चित्र दीवार पर सजा था.

उस से आकर्षित हो कर मैं ने पूछा, ‘‘यह चित्र किसी फैन ने आप को तोहफे में दिया है क्या,’’ इस सवाल के जवाब में जननी ने मुसकराते हुए कहा, ‘हां.’

‘‘क्या मैं जान सकता हूं वह फैन कौन था,’’ मैं ने भी हंसते हुए पूछा. मधुसूधन एक अच्छे गायक होने के साथसाथ एक हैंडसम नौजवान भी हैं, इसलिए मैं ने जानबूझ कर यह सवाल किया.

‘‘वह फैन एक महिला थी. वह महिला कोई और नहीं, बल्कि मैं ही हूं,’’ यह कहते हुए जननी मुसकराईं.

‘‘अच्छा है,’’ मैं ने कहा और इस के जवाब में जननी बोलीं, ‘‘चित्र बनाना मेरी हौबी है?’’

‘‘अच्छा, मैं भी एक चित्रकार हूं,’’ मैं ने अपने बारे में बताया.

‘‘रियली, एक पत्रकार चित्रकार भी हो सकता है, यह मैं पहली बार सुन रही हूं,’’ जननी ने बड़ी उत्सुकता से कहा.

उस के बाद हम ने बहुत देर तक बातें कीं? जननी ने बातोंबातों में खुद के बारे में भी बताया और मेरे बारे में जानने की इच्छा भी प्रकट की? इसी कारण जननी मेरी खास दोस्त बन गईं.

जननी कई कलाओं में माहिर थीं. चित्रकार होने के साथ ही वे एक अच्छी गायिका भी थीं, लेकिन पति मधुसूधन की तरह संगीत में निपुण नहीं थीं. वे कई संगीत कार्यक्रमों में गा चुकी थीं. इस के अलावा अंगरेजी फर्राटे से बोलती थीं और हिंदी साहित्य का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था. अंगरेजी साहित्य में एम. फिल कर के दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी करते समय मधुसूधन से उन की शादी तय हो गई. शादी के बाद भी जननी ने अपनी किसी पसंद को नहीं छोड़ा. अब वे अंगरेजी में कविताएं और कहानियां लिखती हैं.

उन के इतने सारे हुनर देख कर मुझ से रहा नहीं गया. ‘आप के पास इतनी सारी खूबियां हैं, आप उन्हें क्यों बाहर नहीं दिखाती हैं?’ अनजाने में ही सही, बातोंबातों में मैं ने उन से एक बार पूछा. जननी ने तुरंत जवाब नहीं दिया. दो पल के लिए वे चुप रहीं.

अपनेआप को संभालते हुए उन्होंने मुसकराहट के साथ कहा, ‘आप मुझ से यह  सवाल एक दोस्त की हैसियत से पूछ रहे हैं या पत्रकार की हैसियत से?’’

जननी के इस सवाल को सुन कर मैं अवाक रह गया क्योंकि उन का यह सवाल बिलकुल जायज था. अपनी भावनाओं को छिपा कर मैं ने उन से पूछा, ‘‘इन दोनों में कोई फर्क है क्या?’’

‘‘हां जी, बिलकुल,’’ जननी ने कहा.

‘‘आप ने इन दोनों के बीच ऐसा क्या फर्क देखा,’’ मैं ने सवाल पर सवाल किया.

‘‘आमतौर पर हमारे देश में अखबार और कहानियों से ऐसा प्रतीत होता है कि एक मर्द ही औरत को आगे नहीं बढ़ने देता. आप ने भी यह सोच कर कि मधु ही मेरे हुनर को दबा देते हैं, यह सवाल पूछ लिया होगा?’’

कुछ पलों के लिए मैं चुप था, क्योंकि मुझे भी लगा कि जननी सच ही कह रही हैं. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘आप सच कहती हैं, जननी. मैं ने सुना था कि आप की पीएचडी आप की शादी की वजह से ही रुक गई, इसलिए मैं ने यह सवाल पूछा.’’

‘‘आप की बातों में कहीं न कहीं तो सचाई है. मेरी पढ़ाई आधे में रुक जाने का कारण मेरी शादी भी है, मगर वह एक मात्र कारण नहीं,’’ जननी का यह जवाब मुझे एक पहेली सा लगा.

‘‘मैं समझा नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जब मैं रिसर्च स्कौलर बनी थी, ठीक उसी वक्त मेरे पिताजी की तबीयत अचानक खराब हो गई. उन की इकलौती संतान होने के नाते उन के कारोबार को संभालने की जिम्मेदारी मेरी बन गई थी. सच कहें तो अपने पिताजी के व्यवसाय को चलातेचलाते न जाने कब मुझे उस में दिलचस्पी हो गई. और मैं अपनी पीएचडी को बिलकुल भूल गई. और अपने बिजनैस में तल्लीन हो गई. 2 वर्षों बाद जब मेरे पिताजी स्वस्थ हुए तो उन्होंने मेरी शादी तय कर दी,’’ जननी ने अपनी पढ़ाई छोड़ने का कारण बताया.

‘‘अच्छा, सच में?’’

जननी आगे कहने लगी, ‘‘और एक बात, मेरी शादी के समय मेरे पिताजी पूरी तरह स्वस्थ नहीं थे. मधु के घर वालों से यह साफ कह दिया कि जब तक मेरे पिताजी अपना कारोबार संभालने के लायक नहीं हो जाते तब तक मैं काम पर जाऊंगी और उन्होंने मुझे उस के लिए छूट दी.’’

मैं चुपचाप जननी की बातें सुनता रहा.

‘‘मेरी शादी के एक साल बाद मेरे पिता बिलकुल ठीक हो गए और उसी समय मैं मां बनने वाली थी. उस वक्त मेरा पूरा ध्यान गर्भ में पल रहे बच्चे और उस की परवरिश पर था. काम और बच्चा दोनों के बीच में किसी एक को चुनना मेरे लिए एक बड़ी चुनौती थी, लेकिन मैं ने अपने बच्चे को चुना.’’

‘‘मगर जननी, बच्चे के पालनपोषण की जिम्मेदारी आप अपनी सासूमां पर छोड़ सकती थीं न? अकसर कामकाजी औरतें ऐसा ही करती हैं. आप ही अकेली ऐसी स्त्री हैं, जिन्होंने अपने बच्चे की परवरिश के लिए अपने काम को छोड़ दिया.’’

जननी ने मुसकराते हुए अपना सिर हिलाया.

‘‘नहीं शंकर, यह सही नहीं है. जैसे आप कहते हैं उस तरह अगर मैं ने अपनी सासूमां से पूछ लिया होता तो वे भी मेरी बात मान कर मदद करतीं, हो सकता है मना भी कर देतीं. लेकिन खास बात यह थी कि हर औरत के लिए अपने बच्चे की परवरिश करना एक गरिमामयी बात है. आप मेरी इस बात से सहमत हैं न?’’ जननी ने मुझ से पूछा.

मैं ने सिर हिला कर सहमति दी.

‘‘एक मां के लिए अपनी बच्ची का कदमकदम पर साथ देना जरूरी है. मैं अपनी बेटी की हर एक हरकत को देखना चाहती थी. मेरी बेटी की पहली हंसी, उस की पहली बोली, इस तरह बच्चे से जुड़े हर एक विषय को मैं देखना चाहती थी. इस के अलावा मैं खुद अपनी बेटी को खाना खिलाना चाहती थी और उस की उंगली पकड़ कर उसे चलना सिखाना चाहती थी.

‘‘मेरे खयाल से हर मां की जिंदगी में ये बहुत ही अहम बातें हैं. मैं इन पलों को जीना चाहती थी. अपनी बच्ची की जिंदगी के हर एक लमहे में मैं उस के साथ रहना चाहती थी. यदि मैं काम पर चली जाती तो इन खूबसूरत पलों को खो देती.

‘‘काम कभी भी मिल सकता है, मगर मेरी बेटी पूजा की जिंदगी के वे पल कभी वापस नहीं आएंगे? मैं ने सोचा कि मेरे लिए क्या महत्त्वपूर्ण है-कारोबार, पीएचडी या बच्ची के साथ वक्त बिताना. मेरी अंदर की मां की ही जीत हुई और मैं ने सबकुछ छोड़ कर अपनी बच्ची के साथ रहने का निर्णय लिया और उस के लिए मैं बहुत खुश हूं,’’ जननी ने सफाई दी.

मगर मैं भी हार मानने वाला नहीं था. मैं ने उन से पूछा, ‘‘तो आप के मुताबिक अपने बच्चे को अपनी मां या सासूमां के पास छोड़ कर काम पर जाने वाली औरतें अपना फर्ज नहीं निभाती हैं?’’

मेरे इस सवाल के बदले में जननी मुसकराईं, ‘‘मैं बाकी औरतों के बारे में अपनी राय नहीं बताना चाहती हूं. यह तो हरेक औरत का निजी मामला है और हरेक का अपना अलग नजरिया होता है. यह मेरा फैसला था और मैं अपने फैसले से बहुत खुश हूं.’’

जननी की बातें सुन कर मैं सच में दंग रह गया, क्योंकि आजकल औरतों को अपने काम और बच्चे दोनों को संभालते हुए मैं ने देखा था और किसी ने भी जननी जैसा सोचा नहीं.

‘‘आप क्या सोच रहे हैं, वह मैं समझ सकती हूं, शंकर. अगले महीने से मैं एक जानेमाने अखबार में स्तंभ लिखने वाली हूं. लिखना भी मेरा पसंदीदा काम है. अब तो आप खुश हैं न, शंकर?’’ जननी ने हंसते हुए पूछा.

मैं ने भी हंस कर कहा, ‘‘जी, बिलकुल. आप जैसी हुनरमंद औरतों का घर में बैठना गलत है. आप की विनम्रता, आप की गहरी सोच, आप की राय, आप का फैसला लेने में दृढ़ संकल्प होना देख कर मैं हैरान भी होता हूं और सच कहूं तो मुझे थोड़ी सी ईर्ष्या भी हो रही है.’’

मेरी ये बातें सुन कर जननी ने हंस कर कहा, ‘‘तारीफ के लिए शुक्रिया.’’

मैं भी जननी के साथ उस वक्त हंस दिया मगर उस की खुद्दारी को देख कर हैरान रह गया था. जननी के बारे में जो बातें मैं ने सुनी थीं वे कुछ और थीं. जननी अपनी जिंदगी में बहुत सारी कुरबानियां दे चुकी थीं. पिता के गलत फैसले से नुकसान में चल रहे कारोबार को अपनी मेहनत से फिर से आगे बढ़ाया जननी ने. मां की बीमारी से एक लंबी लड़ाई लड़ कर अपने पिता की खातिर अपने प्यार की बलि चढ़ा कर मधुसूधन से शादी की और अपने पति के अभिमान के आगे झुक कर, अपनी ससुराल वालों के ताने सह कर भी अपने ससुराल का साथ देने वाली जननी सच में एक अजीब भारतीय नारी है. मेरे खयाल से यह भी एक तरह का नारीवाद ही है.

‘‘और हां, मधुसूधनजी, आप सोच रहे होंगे कि जननी के बारे में यह सब जानते हुए भी मैं ने क्यों उन से ऐसे सवाल पूछे. दरअसल, मैं भी एक पत्रकार हूं और आप जैसे मशहूर लोगों की सचाई सामने लाना मेरा पेशा है न?’’

अंत में एक बात कहना चाहता हूं, उस के बाद जननी को मैं ने नहीं देखा. इस संवाद के ठीक 2 वर्षों बाद मधुसूदन और जननी ने आपसी समझौते पर तलाक लेने का फैसला ले लिया.

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