हिमशैल: भाग 1

‘‘अजय, अब केवल तुम्हारे लिए हम चाचाजी के परिवार को तो छोड़ नहीं सकते. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाएंगे ही.’’

बड़े भाई विजय के पिघलते शीशे से ये शब्द अजय के कानों से होते हुए सीधे दिलोदिमाग तक पहुंच कर सारी कोमल भावनाओं को पत्थर सा जमाते चले गए थे, जो आज कई महीने बाद भी उन के पारिवारिक सौहार्द को पुनर्जीवित करने के प्रयास में शिलाखंड से राह रोके पड़ेथे.

आपसी भावनाओं के सम्मान से ही रिश्तों को जीवित रखा जा सकता है पर जब दूसरे का मान नगण्य और अपना हित ही सर्वोपरि हो जाए तो रिश्तों को बिखरते देर नहीं लगती. अजय ने अपने स्वाभिमान को दांव पर लगाने के बजाय संयुक्त परिवार से निर्वासन स्वीकार कर लिया था.

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धीरेधीरे नेहा की गोदभराई की तिथि नजदीक आती जा रही थी पर दोनों भाइयों के बीच की स्थिति ज्यों की त्यों थी और जब आज सुबह से ही विजय के घर में लाउडस्पीकर पर ढोलक की थापों की आवाज रहरह कर कानों में गूंजने लगी तो अजय की पत्नी आरती न चाहते हुए भी पुरानी यादों में खो सी गई.

वक्त कितनी जल्दी बीत जाता है पता ही नहीं चलता. पता तब चलता है जब वह अपने पूरे वजूद के साथ सामने आता है. कल तक छोटी सी नेहा उस के आगेपीछे चाचीचाची कह कर भागती रहती थी. उस का कोई काम चाची के बिना पूरा ही नहीं होता था और आज वह एक नई जिंदगी शुरू करने जा रही है तो एक बार भी उसे अपनी चाची की याद नहीं आई. शायद अब भी उस की मां ने उसे रोक लिया हो पर एक फोन तो कर ही सकती थी…ऊंह, जब उन लोगों को ही उस की याद नहीं आती तो वह क्यों परेशान हो. उस ने सिर झटक कर पुरानी यादों को दूर करना चाहा, पर वे किसी हठी बालक की तरह आसपास ही मंडराती रहीं. उस ने ध्यान हटाने के लिए खुद को व्यस्त रखना चाहा पर वे शरारती बच्चे की तरह उंगली पकड़ कर उसे फिर अतीत में खींच ले गईं.

तीनों भाइयों, विजय, अजय व कमल में कितना प्यार था. उस के ससुर रायबहादुर पत्नी के न होने की कमी महसूस करते हुए भी उन के द्वारा लगाई फुलवारी को फलताफूलता देख खुशी से भर उठते थे. उच्चपदासीन बेटे, आज्ञाकारी बहुएं व पोतेपोतियों से भरेपूरे परिवार के मुखिया अपने छोटे भाई के परिवार को भी कम मान व प्यार नहीं देते थे. जो उसी शहर में कुछ ही दूरी पर रहते थे.

हर तीजत्योहार पर दोनों परिवार जब एकसाथ मिल कर खुशियां मनाते तो घर की रौनक ही अलग होती थी. उन के खानदानी आपसी प्यार का शहर के लोग उदाहरण दिया करते थे पर न तो समय सदैव एक सा रहता है और न ही एक हाथ की पांचों उंगलियां बराबर होती हैं.

रायबहादुर के छोटे भाई भी उन्हीं की तरह सज्जन थे परंतु कलेक्टर पति के पद के मद में डूबी उन की पत्नी जानेअनजाने अपने बच्चों में भी अहंकार भर बैठी थीं. पिता के पद का दुरुपयोग उन्हें घर में विलासिता व कालिज में यूनियन का नेता तो बना गया पर न तो पढ़ाई में अव्वल बना सका और न ही मानवीय मूल्यों की इज्जत करने वाला संस्कारशील स्वभाव दे सका. जीवन में आगे बढ़ने के अवसर, व्यर्थ के कामों में समय गंवा कर वे खुद ही अपना रास्ता अवरुद्ध करते गए. बीता समय तो लौट कर आता नहीं, आखिर मन मार कर उन्हें साधारण नौकरियों पर ही संतोष करना पड़ा.

संतान ही मांबाप का सिर गर्व से ऊंचा कराती है. जब कलेक्टर की बीवी अपने जेठ रायबहादुर के परिवार पर निगाह डालतीं तो अपने बच्चों के साधारण भविष्य का एहसास उन्हें मन ही मन कुंठित कर देता पर उन्होंने इसे कभी जाहिर नहीं होने दिया था. उन जैसे लोग अपने सुख से इतना सुखी नहीं होते जितना कि दूसरे के सुख से दुखी. उन के अंदर के ईर्ष्यालु भाव से अनजान रायबहादुर की दोनों बहुएं आरती व भारती, जो देवरानीजेठानी कम, बहनें ज्यादा लगती थीं, अपनी सास की कमी चचिया सास की निकटता पा कर भूल जाती थीं. यद्यपि विवाह के कुछ वर्ष बाद ही आरती को चचिया सास का वैमनस्य से भरा व्यवहार उलझन में डालने लगा था. चाचीजी अकसर उस के कामों में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे शर्म्ंिदा करने का बहाना ढूंढ़ती रहती थीं और हर झिड़की के साथ वह यह जरूर कहती थीं, ‘अजय अपनी पसंद की लड़की ब्याह तो लाया है, देखते हैं कितना निभाती है. इतनी अच्छी लड़की बताई थी पर जरा कान नहीं दिया.’

अपनी बात न रखे जाने का मलाल वाणी से स्पष्ट झलकता था. शायद इसीलिए वह चाची की आंख में सदैव कांटा सी खटकती रही. चोट खाए अहं के कारण ही शायद चाची कभी किसी बात के लिए उस की प्रशंसा न कर सकीं. घर में शांति बनाए रखने के लिए व्यर्थ के वादविवाद में न पड़ कर, छोटीछोटी बातों को नजरअंदाज कर के वह उन के मनमुताबिक ही कर देती.

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आरती जितनी झुकती गई उतना ही वे अजय व आरती के खिलाफ जहर घोलते हुए एक कूटनीति के तहत विजय व भारती के प्रति प्रेमप्रदर्शन करती गईं. दूध चाहे कितना ही शुद्ध क्यों न हो, विष की एक बूंद ही उसे विषैला बनाने के लिए काफी होती है. शुरू में तो भारती व आरती एकदूसरे का सुखदुख बांट लेती थीं पर विजय व भारती का चाची के परिवार के प्रति बढ़ता झुकाव, साथ ही अपने सगे भाई अजय व पिता की उपेक्षा से उन के आपसी रिश्तों में दूरियां आने लगीं.

अच्छाई से अधिक बुराई अपना असर जल्दी दिखाती है. उन के इस पक्षपातपूर्ण रवैए का असर घर के निर्मल वातावरण को भी दूषित करने लगा था. आपसी प्यार का स्थान प्रतिस्पर्धा ने ले लिया. चचिया सास के प्रपंच से अनजान उन की आंखों का तारा बनी भारती को भी अब अजय व आरती की हर बात में स्वार्थ ही नजर आता. उन के भले के लिए कही गई सही बात भी गलत लगती.

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कई कलाओं की जानकार आरती के पास जब जेठानी के बच्चे नेहा, नीतू व शिशिर अपने स्कूल की हस्तकला प्रतियोगिता के लिए वस्तुएं बनाना सीख रहे होते तो खुद को उपेक्षित समझ भारती इसे अपना अपमान समझती. अपने बच्चों का उन लोगों के प्रति स्नेह भी उसे आरती का षड्यंत्र ही लगता.

‘अब तो हर चीज बाजार में मिलती है, खरीद कर दे देना. समय क्यों खराब कर रहे हो तुम लोग, उठो यहां से और पढ़ने जाओ,’ कहती हुई भारती बच्चों को स्वयं कुछ करने या सीखने की प्रेरणा से विलग करती जा रही थी.

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जिंदगी का गणित: भाग 2

‘‘अभी आई,’’ कह कर वह बच्चे को पालने में लिटा फिर वहां आ गई. परंतु अब राहुल बाहर जाने को उद्यत था. उसे बाहर फाटक तक छोड़ने गई तो उस ने पलट कर रमा को हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और हौले से मुसकरा कर हिचकते हुए कहा, ‘‘यह तो अशिष्टता ही होगी कि पहली मुलाकात में ही मैं आप से इतनी छूट ले लूं, लेकिन कहना भी जरूरी है…’’

रमा एकाएक घबरा गई, ‘बाप रे, यह क्या हो गया. क्या कहने जा रहा है राहुल, कहीं मेरे मन की कमजोरी इस ने भांप तो नहीं ली?’

रमा अपने भीतर की कंपकंपी दबाने के लिए चुप ही रही. राहुल ही बोला, ‘‘असल में मैं अपने एक दोस्त के साथ रहता हूं. अब उस की पत्नी उस के पास आ कर रहना चाहती है और वह परेशान है. अगर आप की सिफारिश से मुझे कोई बरसाती या कमरा कहीं आसपास मिल जाए तो बहुत एहसान मानूंगा. आप तो जानती हैं, एक छड़े व्यक्ति को कोई आसानी से…’’ वह हंसने लगा तो रमा की जान में जान आई. वह तो डर ही गई थी कि पता नहीं राहुल एकदम क्या छूट उस से ले बैठे.

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‘‘शाम को अपने पति से इस सिलसिले में भी बात करूंगी. इसी इमारत में ऊपर एक छोटा सा कमरा है. मकान मालिक इन्हें बहुत मानता है. हो सकता है, वह देने को राजी हो जाए. परंतु खाना वगैरह…?’’

‘‘वह बाद की समस्या है. उसे बाद में हल कर लेंगे,’’ कह कर वह बाहर निकल गया. गहरे ऊहापोह और असमंजस के बाद आखिर रमा ने अपने पति विनोद से फिर नौकरी करने की बात कही. विनोद देर तक सोचता रहा. असल परेशानी बच्चे को ले कर थी.

‘‘अपनी मां को मैं मना लूंगी. कुछ समय वे साथ रह लेंगी,’’ रमा ने सुझाव रखा.

‘‘देख लो, अगर मां राजी हो जाएं तो मुझे एतराज नहीं है,’’ वह बोला, ‘‘उमेशजी हमारे जानेपरखे व्यक्ति हैं. उन की कंपनी में नौकरी करने से कोई परेशानी और चिंता नहीं रहेगी. फिर तुम्हारी पसंद का काम है. शायद कुछ नया करने को मिल जाए.’’

राहुल के लिए ऊपर का कमरा दिलवाने की बात जानबूझ कर रमा ने उस वक्त नहीं कही. पता नहीं, विनोद इस बात को किस रूप में ले. दूसरे दिन वह बच्चे के साथ मां के पास चली गई और मां को मना कर साथ ले आई. विनोद भी तनावमुक्त हो गया.

रमा ने फिर से नौकरी आरंभ कर दी. पुराने कर्मचारी उस की वापसी से प्रसन्न ही हुए, पर राहुल तो बेहद उत्साहित हो उठा, ‘‘आप ने मेरी बात रख ली, मेरा मान रखा, इस के लिए किन शब्दों में आभार व्यक्त करूं?’’

रमा सोचने लगी, ‘यह आदमी है या मिसरी की डली, कितनी गजब की चाशनी है इस के शब्दों में. कितने भी तीखे डंक वाली मधुमक्खी क्यों न हो, इस डली पर मंडराने ही लगे.’ एक दिन उमेशजी ने कहा था, ‘कंपनी में बहुत से लोग आएगए, पर राहुल जैसा होनहार व्यक्ति पहले नहीं आया.’

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‘लेकिन राहुल आप की डांटफटकार से बहुत परेशान रहता है. उसे हर वक्त डर रहता है कि कहीं आप उसे कंपनी से निकाल न दें,’ रमा मुसकराई थी.

‘तुम्हें पता ही है, अगर ऐसा न करें तो ये नौजवान लड़के हमारे लिए अपनी जान क्यों लड़ाएंगे?’ उमेशजी हंसने लगे थे.

‘‘राहुल, एक सूचना दूं तुम्हें?’’ एक दिन अचानक रमा राहुल की आंखों में झांकती हुई मुसकराने लगी तो राहुल जैसे निहाल ही हो गया था.

‘‘अगर आप ने ये शब्द मुसकराते हुए न कहे होते तो मेरी जान ही निकल जाती. मैं समझ लेता, साहब ने मुझे कंपनी से निकाल देने का फैसला कर लिया है और मेरी नौकरी खत्म हो गई है.’’

‘‘आप उमेशजी से इतने आतंकित क्यों रहते हैं? वे तो बहुत कुशल मैनेजर हैं. व्यक्ति की कीमत जानते हैं. आदमी की गहरी परख है उन्हें और वे आप को बहुत पसंद करते हैं.’’

‘‘क्यों सुबहसुबह मेरा मजाक बना रही हैं,’’ वह हंसा, ‘‘उमेशजी और मुझे पसंद करें? कहीं कैक्टस में भी हरे पत्ते आते हैं. उस में तो चारों तरफ सिर्फ तीखे कांटे ही होते हैं, चुभने के लिए.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है,’’ वह बोली, ‘‘वे तुम्हें बहुत पसंद करते हैं.’’

‘‘उन्हें छोडि़ए, रमाजी, अपने को तो अगर आप भी थोड़ा सा पसंद करें तो जिंदगी में बहुतकुछ जैसे पा जाऊं,’’ उस ने पूछा, ‘‘क्या सूचना थी?’’

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‘‘हमारे ऊपर वाला वह छोटा कमरा आप को मिलना तय हो गया है. 500 रुपए किराया होगा, मंजूर…?’’ रमा ने कहा तो राहुल ने अति उत्साह में आ कर उस का हाथ ही पकड़ लिया, ‘‘बहुतबहुत…’’ कहताकहता वह रुक गया.

उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो तुरंत हाथ छोड़ दिया, ‘‘क्षमा करें, रमाजी, मैं सचमुच कमरे को ले कर इतना परेशान था कि आप अंदाजा नहीं लगा सकतीं. कंपनी के काम के बाद मैं अपना सारा समय कमरा खोजने में लगा देता था. आप ने…आप समझ नहीं सकतीं, मेरी कितनी बड़ी मदद की है. इस के लिए किन शब्दों में…’’

‘‘कल से आ जाना,’’ रमा ने झेंपते हुए कहा.

किसीकिसी आदमी की छुअन में इतनी बिजली होती है कि सारा शरीर, शरीर का रोमरोम झनझना उठता है. रगरग में न जाने क्या बहने लगता है कि अपनेआप को समेट पाना असंभव हो जाता है. पति की छुअन में भी पहले रमा को ऐसा ही प्रतीत होता था, परंतु धीरेधीरे सबकुछ बासी पड़ गया था, बल्कि अब तो पति की हर छुअन उसे एक जबरदस्ती, एक अत्याचार प्रतीत होती थी. हर रात उसे लगता था कि वह एक बलात्कार से गुजर रही है. वह जैसे विनोद को पति होने के कारण झेलती थी. उस का मन उस के साथ अब नहीं रहता था. यह क्या हो गया है, वह खुद समझ नहीं पा रही थी.

मां से अपने मन की यह गुत्थी कही थी तो वे हंसने लगीं, ‘पहले बच्चे के बाद ऐसा होने लगता है. कोई खास बात नहीं. औरत बंट जाती है, अपने आदमी में और अपने बच्चे में. शुरू में वह बच्चे से अधिक जुड़ जाती है, इसलिए पति से कटने लगती है. कुछ समय बाद सब ठीक हो जाएगा.’

‘पर यह राहुल…? इस की छुअन…?’ रमा अपने कक्ष में बैठी देर तक झनझनाहट महसूस करती रही.

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राहुल ऊपर के कमरे में क्या आया, रमा को लगा, जैसे उस के आसपास पूरा वसंत ही महकने लगा है. वह खुशबूभरे झोंके की तरह हर वक्त उस के बदन से जैसे अनदेखे लिपटता रहता.

वह सोई विनोद के संग होती और उसे लगता रहता, राहुल उस के संग है और न जाने उसे क्या हो जाता कि विनोद पर ही वह अतिरिक्त प्यार उड़ेल बैठती.

नींद से विनोद जाग कर उसे बांहों में भर लेता, ‘‘क्या बात है मेरी जान, आज बहुत प्यार उमड़ रहा है…’’

वह विनोद को कुछ कहने न देती. उसे बेतहाशा चूमती चली जाती, पागलों की तरह, जैसे वह उस का पति न हो, राहुल हो और वह उस में समा जाना चाहती हो.

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जिंदगी का गणित: भाग 3

अब वह मन ही मन राहुल से बोलती, बतियाती रहती, जैसे वह हर वक्त उस के भीतरबाहर रह रहा हो. उस के रोमरोम में बसा हुआ हो. वह अब जो भी रसोई में पकाती, उसे लगता राहुल के लिए पका रही है, वह खाती या विनोद को खिलाती तो उसे लगता रहता, राहुल को खिला रही है. वह अपने सामने बैठे पति को अपलक ताकती रहती, जैसे उस के पीछे राहुल को निहार रही हो.

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वह स्नानघर में वस्त्र उतार कर नहा रही होती तो उसे लगता रहता, राहुल उस के पोरपोर को अपनी नरम उंगलियों से छू और सहला रहा है और वह पानी की तरह ही बहने लगती.

राहुल के लिए ऊपर छत पर कोई स्नानघर नहीं था. नीचे सीढि़यां उतर कर इमारत के कर्मचारियों के लिए एक साझा स्नानघर था, जिस में उसे नहाने की अनुमति थी. वह किसी महकते साबुन से नहा कर जब सीढि़यां चढ़ता हुआ उस के फ्लैट के सामने से गुजरता तो अनायास ही वह जंगले में आ कर खड़ी हो जाती. देर तक उस के साबुन की सुगंध हवा के साथ वह अपने भीतर फेफड़ों में महसूस करती रहती. आदमी में भी कितनी महक होती है. आदमी की आदम महक और वह उस महक की दीवानी…उस में मदहोश, गाफिल.

वह जानबूझ कर विनोद के सामने कभी गलती से भी राहुल का जिक्र न करती थी. कमरे में आ जाने के बावजूद कभी उस ने विनोद के सामने उस से बात करने का प्रयास नहीं किया था. न उसे कभी चाय या खाने पर ही बुलाया था.

परंतु क्या सचमुच ऐसा था, इतना सहज और सरल? या संख्याएं और गणितीय रेखाएं आपस में उलझ गई थीं, गड्डमड्ड हो गई थीं?

उस ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि वह विनोद के अलावा भी किसी अन्य पुरुष की कामना करेगी कि उस के भीतर कोई दूसरा भी कभी इस तरह रचबस जाएगा कि वह पूरी तरह अपनेआप पर से काबू खो बैठेगी.

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‘‘राहुल, तुम मेरा भला चाहते हो या बुरा…?’’ एक दिन उस की चार्टर्ड बस नहीं आई थी तो उसे राहुल के साथ ही सामान्य बस से दफ्तर जाना पड़ रहा था. वे दोनों उस समय बस स्टौप पर खड़े थे.

‘‘तुम ने कैसे सोच लिया कि मैं कभी तुम्हारा बुरा भी चाह सकता हूं? अपने मन से ही पूछ लेतीं. मेरे बजाय तुम्हारा मन ही सच बता देता,’’ राहुल सीधे उस की आंखों में झांक रहा था.

‘‘तुम मेरी खातिर ऊपर का कमरा ही नहीं, बल्कि यह नौकरी भी छोड़ कर कहीं चले जाओ. सच राहुल, मैं अब…’’

‘‘अगर तुम मेरे बिना रह सकती हो तो कहो, मैं दुनिया ही छोड़ दूं. मैं तुम्हारे बिना जीवित रहने की अब कल्पना नहीं करना चाहता,’’ उस ने कहा तो रमा की पलकों पर नमी तिर आई.

‘‘किसी भी दिन मेरा पागलपन विनोद पर उजागर हो जाएगा. और उस दिन की कल्पनामात्र से ही मैं कांप उठती हूं.’’

‘‘सच बताना, मेरे बिना अब जी सकती हो तुम?’’चुप रह गई रमा.

बस आई तो राहुल उस में चढ़ गया. उस ने हाथ पकड़ कर रमा को भी चढ़ाना चाहा तो वह बोली, ‘‘तुम जाओ, मैं आज औफिस नहीं जाऊंगी,’’ कह कर वापस घर आ गई.

मां ने उस की हालत देखी तो पहले तो कुछ नहीं कहा, पर जब वह अपने शयनकक्ष में बिस्तर पर तकिए में मुंह गड़ाए सिसकती रही तो न जाने कब मां उस के पलंग पर आ बैठीं, ‘‘अपनेआप को संभालो, बेटी. यह सब ठीक नहीं है. मैं समझ रही हूं, तू कहां और क्यों परेशान है. मैं आज ही राहुल से चुपचाप कह दूंगी कि वह यहां से नौकरी छोड़ कर चला जाए. इस तरह कमजोर पड़ना अच्छा नहीं होता, बेटी. तेरा अपना घरपरिवार है. संभाल अपनेआप को.’’

रमा न जाने क्यों देर तक एक नन्ही बच्ची की तरह मां की गोद में समाई फफकती रही, जैसे कोई उस का बहुत प्रिय खिलौना उस से छीनने की कोशिश कर रहा हो.

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जिंदगी का गणित: भाग 1

जिंदगी का गणित सीधा और सरल नहीं होता. वह बहुत उलझा हुआ और विचित्र होता है. रमा को लगा था, सबकुछ ठीकठाक हो गया है. जिंदगी के गणितीय नतीजे सहज निकल आएंगे. उस ने चाहा था कि वह कम से कम शादी से पहले बीए पास कर ले. वह कर लिया. फिर उस ने चाहा कि अपने पैरों पर खड़े होने के लिए कोई हुनर सीख ले. उस ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया और उस में महारत भी हासिल कर ली.

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फिर उस ने चाहा, किसी मनमोहक व्यक्तित्व वाले युवक से उस की शादी हो जाए, वह उसे खूब प्यार करे और वह भी उस में डूबडूब जाए. दोनों जीवनभर मस्ती मारें और मजा करें. यह भी हुआ. विनोद से उस के रिश्ते की बात चली और उन लोगों ने उसे देख कर पसंद कर लिया. वह भी विनोद को पा कर प्रसन्न और संतुष्ट हो गई पर…

शादी हुए 2 साल गुजरे थे. 7-8 माह का एक सुंदर सा बच्चा भी हो गया था. वह सबकुछ छोड़छाड़ कर और भूलभाल कर अपनी इस जिंदगी को भरपूर जी रही थी. दिनरात उसी में खोई रहती थी. वह पहले एक रेडीमेड वस्त्रों की निर्यातक कंपनी में काम करती थी. जब उस की शादी हुई, उस वक्त इस धंधे में काफी गिरावट चल रही थी. इसलिए उस नौकरी को छोड़ते हुए उसे कतई दुख नहीं हुआ. कंपनी ने भी राहत की सांस ली.

परंतु जैसे ही इधर फिर कारोबार चमका और विदेशों में भारतीय वस्त्रों की मांग होने लगी, इस व्यापार में पहले से मौजूद कंपनियों ने अपने हाथ आजमाने शुरू कर दिए.

राहुल इसी सिलसिले में कंपनी मैनेजर द्वारा बताए पते पर रमा के पास आया था, ‘‘उमेशजी आप के डिजाइनों के प्रशंसक हैं. वे चाहते हैं, आप फिर से नौकरी शुरू कर लें. वेतन के बारे में आप जो उपयुक्त समझें, निसंकोच कहें. मैं साहब को बता दूंगा…

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‘‘मैडम, हम चाहते हैं कि आप इनकार न करें, इसलिए कि हमारा भविष्य भी कंपनी के भविष्य से जुड़ा हुआ है. अगर कंपनी उन्नति करेगी तो हम भी आगे बढ़ेंगे, वरना हम भी बेकारों की भीड़ के साथ सड़क पर आ जाएंगे. आप अच्छी तरह जानती हैं, चार पैसे कंपनी कमाएगी तभी एक पैसा हमें वेतन के रूप में देगी.’’

व्यापारिक संस्थानों में आदमी कितना मतलबी और कामकाजी हो जाता है, राहुल रमा को इसी का जीताजागता प्रतिनिधि लगा था. एकदम मतलब की और कामकाजी बात सीधे और साफ शब्दों में कहने वाला. रमा ने उस की तरफ गौर से देखा, आकर्षक व्यक्तित्व और लंबी कदकाठी का भरापूरा नौजवान. वह कई पलों तक उसे अपलक ताकती रह गई.

‘‘उमेशजी को मेरी ओर से धन्यवाद कहिएगा. उन के शब्दों की मैं बहुत कद्र करती हूं. उन का कहा टालना नहीं चाहती पर पहले मैं अपने फैसले स्वयं करती थी, अब पति की सहमति जरूरी है. वे शाम को आएंगे. उन से बात कर के कल उमेशजी को फोन करूंगी. असल में हमारा बच्चा बहुत छोटा है और हमारे घर में उस की देखभाल के लिए कोई है नहीं.’’

चाय पीते हुए रमा ने बताया तो राहुल कुछ मायूस ही हुआ. उस की यह मायूसी रमा से छिपी न रही.

‘‘कंपनी में सभी आप के डिजाइनों की तारीफ अब तक करते हैं. अरसे तक बेकार रहने के बाद  इस कंपनी ने मुझे नौकरी पर रखा है. अगर कामयाबी नहीं मिली तो आप जानती हैं, कंपनी मुझे निकाल सकती है.’’

जाने क्यों रमा के भीतर उस युवक के प्रति एक सहानुभूति सी उभर आई. उसे लगा, वह भीतर से पिघलने लगी है. किसीकिसी आदमी में कितना अपनापन झलकता है. अपनेआप को संभाल कर रमा ने एक व्यक्तिगत सा सवाल कर दिया, ‘‘इस से पहले आप कहां थे?’’

‘‘कहीं नहीं, सड़क पर था,’’ वह झेंपते हुए मुसकराया, ‘‘बंबई में अपने बड़े भाई के पास रह कर यह कोर्स किया. वहीं नौकरी कर सकता था परंतु भाभी का स्वभाव बहुत तीखा था. फिर हमारे पास सिर्फ एक कमरा था. मैं रसोई में सोता था और कोई जगह ही नहीं थी.

‘‘भैया तो कुछ नहीं कहते थे, पर भाभी बिगड़ती रहती थीं. शायद सही भी था. यही दिन थे उन के खेलनेखाने के और उस में मैं बाधक था. वे चाहती थीं कि मैं कहीं और जा कर नौकरी करूं, जिस से उन के साथ रहना न हो. मजबूरन दिल्ली आया. 3-4 महीने से यहां हूं. हमेशा तनाव में रहता हूं.’’

‘‘लेकिन आप तो बहुत स्मार्ट युवक हैं, अच्छा व्यवसाय कर सकते हैं.’’

‘‘आप भी मेरा मजाक बनाने लगेंगी, यह उम्मीद नहीं थी. कंपनी की अन्य लड़कियां भी यही कह कर मेरा मजाक उड़ाती हैं. मुझे सफलता की जगह असफलता ही हाथ लगती है. पिछले महीने भी मैं ज्यादा व्यवसाय नहीं कर पाया था. तब उमेशजी ने बहुत डांट पिलाई थी. इतनी डांट तो मैं ने अपने मांबाप और अध्यापकों से भी नहीं खाई. नौकरी में कितना जलील होना पड़ता है, यह मैं अब जान रहा हूं.’’

मुसकरा दी रमा, ‘‘हौसला रखिए, ऐसा होता रहता है. ऊपर से जो हर वक्त मुसकराते दिखाई देते हैं, भीतर से वे उतने खुश नहीं होते. बाहर से जो बहुत संतुष्ट नजर आते हैं, भीतर से वे उतने ही परेशान और असंतुष्ट होते हैं. यह जीवन का कठोर सत्य है.’’

चलतेचलते राहुल ने नमस्कार करते हुए जब कृतज्ञ नजरों से रमा की ओर देखा तो वह सहसा आरक्त हो उठी. बेधड़क आंखों में आंखें डाल कर अपनी बात कह सकने की सामर्थ्य रखने वाली रमा को न जाने क्या हो गया कि वह छुईमुई की तरह सकुचा गई और उस की पलकें झुक गईं.

‘‘आप मेरी धृष्टता को क्षमा करें, जरूर आप का बच्चा आप की ही तरह बेहद सुंदर होगा. क्या मैं एक नजर उसे देख सकता हूं?’’ दरवाजे पर ठिठके राहुल के पांव वह देख रही थी और आवाज की थरथराहट अपने कानों में अनुभव कर रही थी.

रमा तुरंत शयनकक्ष में चली गई और पालने में सो रहे अपने बच्चे को उठा लाई.

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‘‘अरे, कितना सुंदर और प्यारा बच्चा है,’’ लपक कर वह बाहर फुलवारी में खिले एक गुलाब के फूल को तोड़ लाया और रमा के आंचल में सोए बच्चे पर हौले से रख दिया. फिर उस ने झुक कर उस के नरम गालों को चूम लिया तो बच्चा हलके से कुनमुनाया. जेब से 50 रुपए का नोट उस बच्चे की नन्ही मुट्ठी में वह देने लगा तो रमा बिगड़ी, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’

‘‘यह हमारे और इस बच्चे के बीच का अनुबंध है. आप को बीच में बोलने का हक नहीं है, रमाजी,’’ कह कर वह मुसकराया.

‘यह आदमी कोई जादूगर है. कंपनी की अन्य लड़कियों को तो इस ने दीवाना बना रखा होगा,’ रमा पलभर में न जाने क्याक्या सोच गई.

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आशंका: भाग 2

‘‘फिर तो देर होने का सवाल ही नहीं उठता सर,’’ विभोर ने आश्वासन दिया. उस के बाद वह काम में जुट गया.

रणबीर इस प्रोजैक्ट में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी ले रहा था, अकसर साइट पर भी आता रहता था. एक सुबह जब विभोर साइट पर जा रहा था तो उस ने देखा कि ढलान शुरू होने से कुछ पहले उस के कई सहकर्मियों की गाडि़यां और मोटरसाइकिलें, स्कूटर सड़क के किनारे खड़े हैं और कुछ लोग उस की गाड़ी को रोकने को हाथ हिला रहे हैं.

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‘‘रणबीर साहब की गाड़ी भी खड़ी है साहब,’’ ड्राइवर ने गाड़ी रोकते हुए कहा.

विभोर चौंक पड़ा कि क्या वे इतनी सुबह यहां मीटिंग कर रहे हैं?

‘‘सर, बड़े साहब की गाड़ी में उन की लाश पड़ी है,’’ उसे गाड़ी से उतरते देख कर एक आदमी लपक कर आया और बोला.

विभोर भागता हुआ गाड़ी के पास पहुंचा. रणबीर ड्राइवर की सीट पर बैठा था, उस की दाहिनी कनपटी पर गोली लगी थी और दाहिने हाथ में रिवौल्वर था. सीटबैल्ट बंधी होने के कारण लाश गिरी नहीं थी. रणबीर जौगर्स सूट और शूज में थे यानी वे सुबह को सैर के लिए तैयार हुए थे. ‘वे तो घर के पास के पार्क में ही सैर करते थे. फिर गाड़ी में यहां कैसे आ गए?’ विभोर सोच ही रहा था कि तभी पुलिस की गाड़ी आ गई.

इंस्पैक्टर देव को देख कर विभोर को तसल्ली हुई. उस के बारे में मशहूर था कि कितना भी पेचीदा केस क्यों न हो वह सप्ताह भर में सुलझा लेता है.

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‘‘लाश पहले किस ने देखी?’’ देव ने पूछा.

‘‘मैं ने इंस्पैक्टर,’’ एक व्यक्ति सामने आया, ‘‘मैं प्रोजैक्ट मैनेजर विभास हूं. मैं जब साइट पर जाने के लिए यहां से गुजर रहा था तो साहब की गाड़ी खड़ी देख कर रुक गया. गाड़ी के पास जा कर मैं ने अधखुले शीशे से झांका तो साहब को खून में लथपथ पाया. मैं ने तुरंत साहब के घर और पुलिस को फोन कर दिया.’’

कुछ देर बाद रणबीर की पत्नी गरिमा, बेटी मालविका, बेटा कबीर, छोटा भाई सतबीर और उस की पत्नी चेतना आ गए. देव ने शोकविह्वल परिवार को संयत होने के लिए थोड़ा समय देना बेहतर समझा. कुछ देर के बाद गरिमा ने विभोर से पूछा कि क्या साइट पर कुछ गड़बड़ है, क्योंकि आज रणबीर रोज की तरह सुबह सैर पर निकले थे, पर चंद मिनट बाद ही लौट आए और चौकीदार से गाड़ी की चाबी मंगवा कर गाड़ी ले कर चले गए.

‘‘हमें तो किसी ने फोन नहीं किया,’’ विभास और विभोर ने एकसाथ कहा, ‘‘और साइट के चौकीदार को तो हम ने साहब का नंबर दिया भी नहीं है.’’

‘‘क्या मालूम भैया ने खुद दे दिया हो,’’ सतबीर बोला, ‘‘वह इस प्रोजैक्ट में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी ले रहे थे.’’

‘‘अगर किसी ने फोन किया था तो इस का पता मोबाइल से चल जाएगा,’’ देव ने कहा, ‘‘यह बताइए यह रिवौल्वर क्या रणबीर साहब का अपना है?’’

गरिमा और बच्चों ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘मैं इस रिवौल्वर को पहचानता हूं इंस्पैक्टर,’’ सतबीर बोला, ‘‘यह हमारा पुश्तैनी रिवौल्वर है.’’

‘‘लेकिन यह रिवौल्वर था कहां सतबीर?’’ गरिमा ने पूछा.

सतबीर ने कंधे उचकाए, ‘‘मालूम नहीं भाभी. दादाजी के निधन के कुछ समय बाद मैं पढ़ने के लिए बाहर चला गया था. जब लौट कर आया तो पापा पुरानी हवेली बेच कर हम दोनों भाइयों के लिए नई कोठियां बनवा चुके थे. पुराने सामान का खासकर इस रिवौल्वर का क्या हुआ, मुझे खयाल ही नहीं आया.’’

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‘‘चाचा जब बड़े दादाजी गुजरे तब दयानंद काका थे क्या?’’ कबीर ने पूछा.

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘क्योंकि दयानंद काका को जरूर मालूम होगा कि यह रिवौल्वर किस के पास था,’’ कबीर बोला.

‘‘यह दयानंद काका कौन हैं और कहां मिलेंगे?’’ देव ने उतावली से पूछा.

‘‘घर के पुराने नौकर हैं और हमारे साथ ही रहते हैं,’’ गरिमा बोली.

‘‘उन से रिवौल्वर के बारे में पूछना बहुत जरूरी है, क्योंकि आत्महत्या दिखाने की कोशिश में हत्यारे ने गोली चला कर रिवौल्वर मृतक के हाथ में पकड़ाया है,’’ देव बोला.

‘‘दयानंद काका आ गए,’’ तभी औटो से एक वृद्ध को उतरते देख कर मालविका ने कहा.

‘‘साहब, काकाजी की जिद्द पर हमें इन्हें यहां लाना पड़ा,’’ दयानंद के साथ आए एक युवक ने कहा.

‘‘अच्छा किया,’’ सतबीर ने कहा और सहारा दे कर बिलखते दयानंद को गाड़ी के पास ले गया.

‘‘इस रिवौल्वर को पहचानते हो काका?’’ देव ने कुछ देर के बाद पूछा.

दयानंद ने आंसू पोंछ कर गौर से रिवौल्वर को देखा. फिर बोला, ‘‘हां, यह तो साहब का पुश्तैनी रिवौल्वर है. यह यहां कैसे आया?’’

‘‘यह रिवौल्वर किस के पास था?’’ सतबीर ने पूछा.

‘‘किसी के भी नहीं. बड़े बाबूजी के कमरे की अलमारी में जहां उन का और मांजी का सामान रखा है, उसी में रखा रहता था.’’

‘‘आप को कैसे मालूम?’’ कबीर ने पूछा.

‘‘हमीं से तो रणबीर भैया उस कमरे की साफसफाई करवाते थे. इस इतवार को भी करवाई थी.’’

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‘‘तब मैं कहां थी?’’ गरिमा ने पछा.

‘‘होंगी यहीं कहीं,’’ दयानंद ने अवहेलना से कहा.

‘‘भैया कब क्या करते थे, इस की कभी खबर रखी आप ने?’’

‘‘पहले मेरे सवाल का जवाब दो काका,’’ देव ने बात संभाली, ‘‘उस रोज क्या उन्होंने यह रिवौल्वर अलमारी से निकाला था?’’

‘‘जी हां, हमेशा ही सब चीजें निकालते थे, फिर उन्हें बड़े प्यार से पोंछ कर वापस रख देते थे.’’

‘‘इतवार को भी रिवौल्वर वापस रखा था?’’

‘‘मालूम नहीं, हम तो अपना काम खत्म कर के भैया को वहीं छोड़ कर आ गए थे.’’

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साक्षी के बाद: भाग 3

फिर साक्षी एक तटस्थ भाव चेहरे पर लिए चली गई थी और पूर्वा अगली सुबह अरुण और सूर्य के साथ आगरा चली गई भाई की शादी में. 5 दिन बाद लौटी तो ये सब. वहां मौजूद लोगों से पता चला कि वह अबौर्शन के लिए अकेली ही अस्पताल पहुंच गई थी. सास को पता चला तो वह भी पीछेपीछे पहुंच गईं और उस की मरजी देखते हुए उसे इजाजत दे दी. फिर अबौर्शन ऐसा हुआ कि बच्ची के साथसाथ वह भी चली गई.

देखते ही देखते साक्षी विदा हो गई सदा के लिए. कई दिन तक हर दिन पूर्वा वहां जाती और कलेजे को पत्थर बना कर वहां बैठी रहती. उस दौरान स्वाति और उस की मां कई दिन पूर्वा के घर ही रहीं. एक दिन पारंपरिक रस्म अदायगी के बाद साक्षी का अध्याय बंद हो गया. सुहानी मौसी के साथ इन दिनों में इतना घुलमिल गई थी कि पल भर भी नहीं रहती थी उस के बिना, इसलिए फैसला यह हुआ कि फिलहाल तो मौसी व नानी के साथ ही जाएगी वह.

एक दौर गुजरा और दूसरा दौर शुरू हुआ उदासी का, साक्षी के संग गुजारे अनगिनत खूबसूरत पलों की यादों का. संदीप भाई भी जबतब इन यादों में हिस्सा बंटाने चले आते और सिर्फ और सिर्फ साक्षी की बातें करते तो पूर्वा तड़प उठती. लगता था संदीप भाई कभी नहीं संभल पाएंगे, लेकिन हर अगले दिन रत्तीरत्ती कर दुख कम होता जा रहा था. यही तो कुदरत का नियम भी है.

‘‘अरे, ऐसे कैसे बैठी हो गरमी में, पूर्वा और इतनी सुबह क्यों उठ गईं तुम?’’ अरुण ने पंखा चलाते हुए कहा तो पूर्वा वर्तमान में लौट आई.

‘‘लोग कितनी जल्दी भुला देते हैं उन्हें, जिन के बिना घड़ी भर भी न जी सकने का दावा करते हैं, है न अरुण?’’ एक सर्द सांस लेते हुए सपाट स्वर में कहा पूर्वा ने.

‘‘किस की बात कर रही हो पूर्वा?’’

‘‘इंदु भाभी का फोन आया था. आप के संदीप ने दूसरी शादी कर ली.’’

सुन कर चौंके नहीं अरुण. बस तटस्थ से खामोश बैठे रहे.

हैरानी हुई पूर्वा को. पूछा, ‘‘आप कुछ कहते क्यों नहीं अरुण? हां, क्यों कहोगे, मर्द हो न, मर्द का ही साथ दोगे. अच्छा चलो, एक बात का ही जवाब दे दो. यही हादसा अगर संदीप भाई के साथ गुजरा होता तो क्या साक्षी दूसरी शादी करती, वह भी इतनी जल्दी?’’

‘‘नहीं करती, बिलकुल नहीं करती, मैं मानता हूं. औरत में वह शक्ति है जिस का रत्ती भर भी हम मर्द नहीं छू सकते. तभी तो मैं दिल से इज्जत करता हूं औरत की और इंदु भाभी या उन जैसी कोई और रिपोर्टर तुम्हें नमकमिर्च लगा कर कल को कुछ बताए, उस से पहले मैं ही बता देता हूं तुम्हें कि मैं भी संदीप के साथ था. कल मैं औफिस के काम से नहीं, संदीप के लिए बाहर गया था.’’

‘‘क्या, इतनी बड़ी बात छिपाई आप ने मुझ से? लड़की कौन है?’’ घायल स्वर में पूछा पूर्वा ने.

‘‘साक्षी की बहन स्वाति.’’

‘‘क्या, ऐसा कैसे कर सकते हैं संदीप भाई और वे साक्षी की मां, कैसा दोहरा चरित्र है उन का? उस वक्त तो सब की नजरों से बचाबचा कर यहां छिपा रही थीं स्वाति को. कहती थीं, बिटिया गरीब हूं तो क्या जमीर बेच दूं? खूब समझ रही हूं मैं इन सब के मन की बात, पर कैसे कर दूं अपनी उस बच्ची को इन के हवाले, जहां से मेरी एक बेटी गई. जीजूजीजू कहते जबान नहीं थकती लड़की की, अब कैसे उसे पति मान पाएगी? और संदीप भाई का क्या यही प्यार था साक्षी के प्रति कि वह चली गई तो उसी की बहन ब्याह लाए? और कोई लड़की नहीं बची थी क्या दुनिया में?’’ अपने स्वभाव के एकदम विपरीत अंगारे उगल रही थी पूर्वा.

अरुण ने आगे बढ़ कर उस के मुंह पर अपनी हथेली रख दी. बोले, ‘‘शांत हो जाओ, पूर्वा. यह सब इतना आसान नहीं था संदीप के लिए और न ही स्वाति के लिए. रही बात साक्षी की मां की, तो यह उन की मरजी नहीं थी, स्वाति का फैसला था. उस का कहना था कि मेरे लिए साक्षी दीदी अब सिर्फ सुहानी में बाकी हैं. उस के सिवा और कोई खून का रिश्ता नहीं बचा मेरे पास. मैं सुहानी के बिना नहीं जी सकती. अगर इस की नई मां आ गई तो सुहानी के साथ नहीं मिलनेजुलने देगी हमें. तब इसे देखने तक को तरस जाऊंगी मैं और शादी तो मुझे कभी न कभी करनी ही है, तो क्यों न जीजू से ही कर लूं. सब समस्याएं हल हो जाएंगी.

‘‘साक्षी की मां ने मुझे अलग ले जा कर कहा था कि मैं अपने ही कहे लफ्जों पर शर्मिंदा हूं अरुणजी, संदीपजी के साथ स्वाति का रिश्ता न जोड़ने की बात एक मां के दिल ने की थी और अब जोड़ने का फैसला एक मां के दिमाग का है. कहां है मेरे पास कुछ भी, जो स्वाति को ब्याह सकूं. होता तो कब की ब्याह चुकी होती. और भी बहुत कुछ था, जो अनकहा हो कर भी बहुत कुछ कह रहा था. तुम ने उन की गरीबी नहीं देखी पूर्वा, मैं ने देखी है. एक छोटे से किराए के कमरे में रहती हैं मांबेटी. एक नर्सरी स्कूल में नौकरी करती हैं आंटी और थोड़ी तनख्वाह में से घर भी चला रही हैं और स्वाति को भी पढ़ा रही हैं.

‘‘अब रही बात संदीपकी, तो उस का कहना था कि अरुण, मम्मीजी मेरा ब्याह किए बिना तो मानेंगी नहीं, इकलौता जो हूं मैं. फिर कोई और लड़की क्यों, स्वाति क्यों नहीं? एक वही तो है, जो मेरा दर्द समझ सकती है, क्योंकि यही दर्द उस का भी है. और एक वही है, जो मेरी सुहानी को सगी मां की तरह पाल सकती है. कोई और आ गई तो सब कुछ तहसनहस हो जाएगा.’’

पूर्वा खामोश बैठी रही बिना एक शब्द बोले, तो अरुण ने तड़प कर कहा, ‘‘यों खामोश न बैठो पूर्वा, कुछ तो कहो.’’

‘‘बसबस, बहुत हो गया. मैं चाय बना कर लाती हूं. चाय पी कर घर के कामों में मेरी मदद करो. आज बाई छुट्टी पर है. साथ ही, यह सोच कर रखो कि स्वाति को शगुन में क्या देना है. यह काम भी सुबहसुबह निबटा आएंगे और स्वाति और संदीप भाई को भी अच्छा लगेगा.’’

एक मीठी मुसकराहट के साथ पूर्वा उठ खड़ी हुई तो राहत भरी मुसकान अरुण के होंठों पर भी बिखर गई.

Holi Special: अधूरी चाह- भाग 1

चलिए, आप को संजय चावला से मिलाते हैं… आज से 25 साल पहले का संजय चावला.

संजय के पापा नौकरी करते हैं. एक बड़ा भाई, जिस की अपने ही घर के बाहर किराने की दुकान है. घर के बाहर के हिस्से में 3 दुकानें हैं. पापा ने पहले से ही 3 दुकानें बनाईं, तीनों बेटों के लिए.

छोटा बेटा अभी पढ़ रहा है. बड़े बेटे की शादी हो गई है. अब संजय का नंबर आया है, हजारों लड़कियां उस पर मरती थीं, एक से एक हसीना उस के कदमों में दिल बिछा देती थीं, उस की एक ?ालक पर ही लड़कियां तड़प उठती थीं, उस के साथ न जाने कितने सपनों के तानेबाने बुनतीं, लेकिन उस की भाभी को उस के लिए कोई लड़की नहीं जंचती.

अरे भई, कैसे जंचेगी? कोई संजय जैसी ही मिले तब न. संजय का गोराचिट्टा रंग, तीखे नैननक्श, आंखें ऐसीं जैसे नशा हो इन में, जो देखे बस खो जाए इन नशीली आंखों में. लंबा कद, चौड़ा सीना, होंठों के ऊपर छोटीछोटी बारीक सी मूंछें, चाल में गजब का रोबीलापन और स्वभाव जैसे हंसी बस इन्हीं की गुलाम हो. जी हां साहब, एकदम हंसमुख स्वभाव… ऐसे हैं संजय चावला.

बड़ी मशक्कत के बाद एक कश्मीर की कली भा गई संजय साहब को. क्यों न भाए कश्मीर की जो ब्यूटी है. शालिनी नाम है. नाम से मेल खाता स्वभाव. शालीन सी, बला की खूबसूरती जिसे देखते ही संजय साहब अपना दिल हार बैठे थे. बस, ?ाट से हां बोल दी शादी के लिए.

अरेअरे, कोई शालिनी से तो पूछो कि वह क्या चाहती है, लेकिन नहीं, कोई पूछने की जरूरत नहीं. उस का तो एक ही फैसला है कि जो मम्मीपापा कहेंगे, वही ठीक है.

बस तो चट मंगनी और पट ब्याह वाली बात हो गई. शादी के बाद जिम्मेदारी बढ़ गई. पहले दोनों भाई इसी एक ही किराने की दुकान पर बैठते थे, लेकिन अब संजय को लगा कि खर्चे बढ़े हैं, मगर आमदनी नहीं. तो उस ने भी नौकरी करने के बारे में सोचा. नौकरी भी अच्छी मिल गई. घरपरिवार में सब मिलजुल कर रहते हैं. इस बात को 8 साल बीत गए.

बड़े भाई सुनील के भी 2 बच्चे हैं और संजय के भी 2 बच्चे हैं. छोटे भाई  संदीप की भी शादी हो गई. परिवार भी बढ़े और खर्चे भी. मम्मीपापा भी नहीं रहे. अब तक तो बहुत प्यार था परिवार में, लेकिन कहते हैं न कि प्यार भी पैसा मांगता है, पेट भी पैसा मांगता है, पैसे बिना प्यार बेकार लगता है और प्यार से पेट भी नहीं भरता.

संजय ने कश्मीर में नौकरी तलाश की, तो दिल्ली से अच्छी नौकरी उसे कश्मीर में मिल गई और वह अपनी फैमिली के साथ कश्मीर शिफ्ट हो गया.

एक तो पहले से इतना हैंडसम, उस पर कश्मीर की आबोहवा में संजय और भी कातिल हो गया. जहां से निकलता, न जाने कितने दिलों पर छुरियां चलती थीं, कितने दिल घायल होते थे.

संजय परिवार को ले कर कश्मीर चला तो गया, लेकिन भाइयों से दूर रह नहीं सकता था. अकसर 4-6 महीने बाद जरूर मिलने आता और 10-15 दिन यहीं रहता.

लेकिन जब भी आता, महल्ला तो क्या जिसे भी पता चलता कि संजय आया है, सब लड़कियां, जिन की शादी भी हो चुकी थी, फिर भी संजय की एक ?ालक पाने के लिए किसी न किसी बहाने कोई संजय के घर और कोई उस के भाई की दुकान पर आती, ताकि संजय की एक ?ालक मिल जाए.

यह बात संजय भी अच्छे से जानता था और मन ही मन इतराता था, लेकिन आज संजय को दिल्ली आए 8 महीने हो चुके हैं. शुरू में 2 दिन तो बहुत ही औरतें आईं संजय की ?ालक पाने के बहाने (जी हां औरतें, क्योंकि संजय को कश्मीर गए अब तक 17 साल बीत चुके हैं). इन 17 सालों में ऐसा नहीं कि संजय दिल्ली नहीं आया या कभी वे लड़कियां संजय को देखने के बहाने नहीं आईं, मगर अब तक वे सब औरतें बन चुकी हैं न. दोस्तो, तकरीबन संजय और उन सब की उम्र (जो संजय पर मरती थीं) 45 से 50 साल के बीच है, तो औरतें ही कहेंगे न.

हां, तो अब बस 2 ही दिन औरतें आईं उस की ?ालक पाने को, लेकिन अब नहीं आतीं वे, क्योंकि उन से संजय का उतरा हुआ चेहरा देखा नहीं जाता. वे संजय को इस तरह हारा हुआ बरदाश्त नहीं कर पा रहीं, लेकिन फोन पर संजय से बात कर के उसे ढांढ़स बंधा रही हैं, उसे अपनी परेशानी से बाहर निकलने का रास्ता बताती हैं, उसे नई राह पर चलने की सलाह देती हैं, उसे अपने हक के लिए लड़ना सिखाती हैं, क्योंकि संजय ने कभी परिवार में किसी भी चीज को ले कर मेरातेरा किया ही नहीं, वह सबकुछ छोड़ कर कश्मीर चला गया था. वहां उस की अच्छी नौकरी थी, उस ने यहां से पुश्तैनी जायदाद पर कोई हक कभी जताया ही नहीं था. लेकिन आज उसे हक जताने की जरूरत है. आज हक जताने की मजबूरी है, लेकिन फिर भी भाई के सामने उस की बोलने की हिम्मत नहीं होती, इसलिए सब उसे अपने हक के लिए बोलने को कहते हैं.

संजय का कश्मीर में सबकुछ खत्म हो गया है, इसलिए अब वह भाइयों से पुश्तैनी जायदाद में अपना हिस्सा ले कर नए सिरे से जिंदगी की शुरुआत करना चाहता है.

लेकिन ऐसा क्यों? जानते हैं ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा क्या हुआ संजय के साथ कि उस का खिलता चेहरा मुर?ा गया? ऐसा क्या हुआ, जो उसे भाई से आज इतने सालों बाद अपना हक मांगना पड़ा?

सुनिए, संजय की दर्दभरी दास्तां…

जब संजय ने कश्मीर शिफ्ट किया था, उस की अच्छीभली गृहस्थी चल रही थी, लेकिन कुछ ही समय बाद तकरीबन 4 साल के बाद एक बुरी छाया मंडराई परिवार पर.

जी हां, जब कोई मुसीबत आएगी तो बुरी छाया का मंडराना ही कहेंगे. शालिनी को लगाव हो गया किसी से यानी प्यार हो गया.

अजीब लग रहा है न सुन कर, लेकिन यही सच है. तकरीबन 32-33 साल की शालिनी और इसी उम्र का ही अजय श्रीवास्तव, जो शालिनी के घर से तकरीबन 200-250 मीटर की दूरी पर ही रहता था.

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