
मैत्री भीतर से थोड़ी असहज जरूर हुई पर बाहर से सहज दिखने का प्रयास कर रही थी. उमंग को धन्यवाद देते हुए मैत्री ने कहा कि वह अब गैस्टहाउस जा कर विश्राम करेगी और रात की ट्रेन से वापस लौट जाएगी.
उमंग ने कहा, ‘‘मैडम, आप की जैसी इच्छा हो वैसा ही करें. मेरी तो केवल इतनी अपील है कि मेरी पत्नी का आज जन्मदिन है. बच्चों ने घरेलू केक काटने का कार्यक्रम रखा है. घर के सदस्यों के अलावा कोई नहीं है. आप भी हमारी खुशी में शामिल हों. आप को समय के भीतर, जहां आप कहेंगी, छोड़ दिया जाएगा.’’ मैत्री के यह स्वीकार करने के बाद दूसरी बार चौंकने का अवसर था, क्योंकि यह विकलांग व्यक्ति अपनी कार फर्राटेदार प्रोफैशनल ड्राइवर की तरह चला रहा है, बरसों पुरानी मित्रता की तरह दुनियाजहान की बातें कर रहा है, कहीं पर भी ऐसा नहीं लग रहा है कि उमंग विकलांग है. वह तो उत्साह व उमंग से लबरेज है.
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पेड़पौधों की हरियाली से आच्छादित उमंग के घर के ड्राइंगरूम में बैठी मैत्री दीवार पर सजी विविध पेंटिंग्स को निहारती है और उन के रहनसहन से बहुत प्रभावित होती है. एक विकलांग व्यक्ति भरेपूरे परिवार के साथ पूरे आनंद से जीवन जी रहा है. बर्थडे केक टेबल पर आ गया. उमंग का बेटा व बेटी इस कार्यक्रम को कर रहे हैं. बेटाबेटी से परिचय हुआ. बेटा एमबीबीएस और बेटी एमटैक कर रही है. दोनों छुट्टियों में घर आए हुए हैं.
उमंग की पत्नी केक काटते समय ही आई. मैत्री के अभिवादन का उस ने कोई जवाब नहीं दिया. उस के मुंह पर चेचक के निशान थे. शायद वह एक आंख से भेंगी भी थी.
उस के केक काटते ही बच्चों ने उमंग के साथ तालियां बजाईं. ‘‘हैप्पी बर्थडे मम्मा.’’
उमंग ने केक खाने के लिए मुंह खोला ही था कि उन की पत्नी ने गुलाल की तरह केक उन के गालों पर मल दिया. फिर होहो कर हंसी. उमंग भी इस हंसी में शामिल हो गए.
उन की बेटी बोली, ‘आज मम्मा, आप की तबीयत ठीक नहीं है, चलिए अपने कमरे में.’
बेटी उन को लिटा कर आ गई. उमंग घटना निरपेक्ष हो कर मैत्री से बतियाते हुए पार्टी का आनंद ले रहे थे. पार्टी समाप्त होने पर वे अपनी कार से मैत्री को गैस्टहाउस छोड़ने आ रहे हैं. वे कह रहे हैं, ‘‘मैडम, माइंड न करें, मेरी पत्नी मंदबुद्धि है. मेरा विवाह भी मेरे जीवन में किसी चमत्कार से कम नहीं है. मेरा जन्म अत्यंत गरीब परिवार में हुआ. बचपन में मुझे पोलियो हो गया. मातापिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार भटके, पर मैं ठीक नहीं हो पाया.
‘‘पढ़ने में तेज था, पर निराश हो गया. मां ने एक छोटे से स्कूल के मास्टरजी, जो बच्चों को निशुल्क पढ़ाते थे, उन के घर में पढ़ने भेजा. मास्टरजी के आगे मैं अपने पांवों की तरफ देख कर बहुत रोया. ‘गुरुजी, मैं जीवन में क्या करूंगा, मेरे तो पांव ही नहीं हैं.’
‘‘मास्टरजी ने कहा, ‘बेटा, तुम जीवन में बहुतकुछ कर सकते हो. पर पहली शर्त है कि अपने बीमार और अपाहिज पांवों के विषय में नहीं सोचोगे, तो जीवन में बहुत तेज दौड़ोगे.’ इस बात से मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया. मैं ने तय किया, मुझे किसी दया, भीख या सहानुभूति की बैसाखियों पर जीवित नहीं रहना और तब से मैं ने अपने लाचार पांवों की चिंता करना छोड़ दिया. इस गुरुमंत्र को गांठ बांध लिया. सो, आज यहां खड़ा हूं.
‘‘मैं पढ़नेलिखने में होशियार था, छात्रवृत्तियां मिलती गईं, पढ़ता गया और सरकारी अधिकारी बन गया. दफ्तर में कहीं से कोई खबर लाया कि विशाखापट्टनम में विकलांगों के इलाज का बहुत बढि़या अस्पताल है जिसे कोई ट्रस्ट चलाता है. वहां बहुत कम खर्चे में इलाज हो जाता है. दफ्तर वालों ने हौसला बढ़ाया, आर्थिक सहायता दी और मैं पोलियो का इलाज कराने के लिए लंबी छुट्टी ले कर विशाखापट्टनम पहुंच गया.
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‘‘देशविदेश के अनेक बीमारों का वहां भारी जमावड़ा था. कुछ परिवर्तन तो मुझ में भी आया. लंबा इलाज चलता है, संभावना का पता नहीं लगता है. वहां बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा है, ‘20 प्रतिशत हम ठीक करते हैं, 80 प्रतिशत आप को ठीक होना है.’ जिस का मतलब स्पष्ट है, कठिन व्यायाम लंबे समय तक करते रहो. कुल मिला कर कम उम्र के बच्चों की ठीक होने की ज्यादा संभावना रहती है. मेरे जैसे 30 वर्षीय युवक के ज्यादा ठीक होने की गुंजाइश तो नहीं थी, पर कुछ सुधार हो रहा था.
‘‘अस्पताल में मेरे कमरे का झाड़ूपोंछा लगाने वाली वृद्ध नौकरानी का मुझ से अपनापन होने लगा. एक दिन उस ने बातों ही बातों में बताया कि इस दुनिया में एक लड़की के सिवा उस का कोई नहीं है. 25 वर्षीय लड़की मंदबुद्धि है. मेरे बाद उस का न जाने क्या होगा? एक दिन वह अपनी लड़की को साथ ले कर आई, बेबाक शब्दों में बताया कि बचपन में चेचक निकली, एक आंख भेंगी हो गई. मंदबुद्धि है, कुछ समझ पड़ता है, कुछ नहीं पड़ता है. क्या आप मेरी लड़की से विवाह करेंगे?
‘‘मैं एकदम सकते में आ गया. पर मैं भी तो विकलांग हूं. वह बोली, ‘कुछ कमी इस में है, कुछ आप में है. दोनों मिल कर एकदूसरे को पूरा नहीं कर सकते हो? आप विकलांग अवश्य हो पर पढ़ेलिखे, समझदार और सरकारी नौकरी में हो. फिर मेरी बेसहारा लड़की को अच्छा सहारा मिल जाएगा.’ मैं ने कहा, ‘तुम समझ रही हो, मैं ठीक हो रहा हूं, पर नहीं ठीक हुआ तो क्या होगा?’
‘‘कोई बात नहीं, मेरी बेटी को सहारा मिल जाए, तो मैं शांति से मर सकूंगी,’ इस प्रकार हमारी सीधीसादी शादी हो गई.
‘‘आज केक काटते हुए जो घटना घटी, वह तो सामान्य है. यह तो मेरी दिनचर्या का अंग है. वैसे भी मेरी पत्नी का सही जन्मदिनांक तो पता ही नहीं है. वह तो हम ने अपनी शादी की तारीख को ही उस का जन्मदिनांक मान लिया है.’’
‘‘मैत्रीजी, अपूर्ण पुरुष और अपूर्ण स्त्री के वैवाहिक जीवन में अनेक विसंगतियां आती हैं, जिन्हें झेलना पड़ता है. शरीर विकलांग हो सकता है, मन मंद हो सकता है पर देह की तो अपनी भूख होती है. कई बार वह ही बैसाखियों से मुझ पर प्रहार करती है.
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‘‘संतोष और आनंद है कि 2 होनहार बच्चे हैं.’’
गैस्टहाउस सामने था.
मैत्री बोली, ‘‘सरजी, मैं ने आप को कुछ गलत समझ लिया. क्षमा करना.’’
उमंग एक ठहाका लगा कर हंसे, ‘‘मैत्रीजी, आप मेरी घनिष्ठ मित्र हैं, तो ध्यान रखना, हंसोहंसो, दिल की बीमारियों में कभी न फंसो.’’
मैत्री ने अपने बेटे की मृत्यु की दुखभरी त्रासदी फेसबुक पर पोस्ट कर दी, अपनी तकलीफ और जीवन गुजारने की यथास्थिति भी लिख दी.
उमंग ने पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया दी थी, ‘जो कुछ आप के जीवन में घटित हुआ, उस के प्रति संवेदना प्रकट करने में शब्दकोश छोटा पड़ जाएगा. जीवन कहीं नहीं रुका है, कभी नहीं रुकता है. हर मनुष्य का जीवन केवल एक बार और अंतिम बार रुकता है, केवल खुद की मौत पर.’
इसी तरह की अनेक पोस्ट लगातार आती रहतीं, मैत्री के ठहरे हुए जीवन में कुछ हलचल होने लगी.
एक बार उमंग ने हृदयरोग के एक अस्पताल की दीवारों के चित्र पोस्ट किए जहां दिल के चित्र के पास लिखा था, ‘हंसोहंसो, दिल की बीमारियों में कभी न फंसो.’
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एक दिन उमंग ने लिखा, ‘मैडम, जीवनभर सुवास की याद में आंसू बहाने से कुछ नहीं मिलेगा. अच्छा यह है कि गरीब, जरूरतमंद और अनाथ बच्चों के लिए कोई काम हाथ में लिया जाए. खुद का समय भी निकल जाएगा और संतोष भी मिलेगा.’
यह सुझाव मैत्री को बहुत अच्छा लगा. नकुल से जब उस ने इस बारे में चर्चा की तो उस ने भी उत्साह व रुचि दिखाई.
जब मैत्री का सकारात्मक संकेत मिला तो उमंग ने उसे बताया कि वे खुद सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग, प्रधान कार्यालय, जयपुर में बड़े अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं. वे उस की हर तरह से मदद करेंगे.
उमंग ने पालनहार योजना, मूकबधिर विद्यालय, विकलांगता विद्यालय, मंदबुद्धि छात्रगृह आदि योजनाओं का साहित्य ईमेल कर दिया. साथ ही, यह भी मार्गदर्शन कर दिया कि किस तरह एनजीओ बना कर सरकारी संस्थाओं से आर्थिक सहयोग ले कर ऐसे संस्थान का संचालन किया जा सकता है.
उमंग ने बताया कि सुवास की स्मृति को कैसे यादगार बनाया जा सकता है. एक पंफ्लेट सुवास की स्मृति में छपवा कर अपना मंतव्य स्पष्ट किया जाए कि एनजीओ का मकसद निस्वार्थ भाव से कमजोर, गरीब, लाचार बच्चों को शिक्षित करने का है.
उमंग से मैत्री को सारा मार्गदर्शन फोन और सोशल मीडिया पर मिल रहा था. वे लगातार मैत्री को उत्साहित कर रहे थे.
मैत्री ने अपनी एक टीम बनाई, एनजीओ बनाया. मैत्री की निस्वार्थ भावना को देखते हुए उसे आर्थिक सहायता भी मिलती गई. उमंग के सहयोग से सरकारी अनुदान भी जल्दी ही मिलने लगा.
शहर में खुल गया विकलांग बच्चों के लिए एक अच्छा विद्यालय. मैत्री को इस काम में बहुत संतोष महसूस होने लगा. उस की व्यस्तता भी बढ़ गई. हर निस्वार्थ सेवा में उसे खुशी मिलने लगी. किसी का सहारा बनने में कितना सुख मिलता है, मैत्री को उस का एहसास हो रहा था. मैत्री पिछले 5 वर्षों से विकलांग विद्यालय को कामयाबी के साथ चला रही थी.
उमंग के लगातार सहयोग और मार्गदर्शन से विकलांग छात्र विद्यालय दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा था.
अभी तक कोई ऐसा मौका नहीं आया जब मैत्री की उमंग से आमनेसामने मुलाकात हुई हो. मैत्री मन ही मन उमंग के प्रति एहसानमंद होने का अनुभव करती थी.
कुछ दिनों से उमंग से उस की बात हो रही थी. संदर्भ था विद्यालय का 5वां स्थापना दिवस समारोहपूर्वक मनाने का. मैत्री चाहती थी उक्त आयोजन में सामाजिक न्याय विभाग के निदेशक, विभाग के मंत्री तथा जयपुर के प्रख्यात समाजसेवी मुख्य अतिथियों के रूप में मौजूद रहें. इस काम के लिए भी उमंग के सहयोग की मौखिक स्वीकृति मिल गई थी. औपचारिक रूप से संस्था प्रधान के रूप में मैत्री को निमंत्रण देने हेतु खुद को जयपुर जाना पड़ रहा है. कल सवेरे ही उमंग ने मैत्री से कहा था, ‘जयपुर आ जाइए, सारी व्यवस्था हो जाएगी.’
5 वर्षों से जिस व्यक्ति से फेसबुक पर संपर्क है, वह किसी सरकारी विभाग के जिम्मेदार अधिकारी के रूप में कार्य कर रहा है. और पगपग पर उस का सहयोग कर रहा है, उस का शिष्टाचारवश भी अतिथि को ठहराने का दायित्व तो बनता ही है.
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इसी बात पर आज सवेरे नकुल भड़क गया था. कहा था कि फेसबुकिया मित्र के यहां कहां ठहरोगी. मैत्री इतना तो समझती है कि सामान्य शिष्टाचार और आग्रह में अंतर होता है. सो, उस ने यही कहा था कि यह एक मित्र का आत्मीय आग्रह भी हो सकता है.
मैत्री खुद समझदार है, इतना तो जानती है कि महानगर कल्चर में किसी के घर रुक कर उस को परेशानी में डालना ठीक नहीं होता.
मैत्री का मन नकुल की छोटी सोच तथा स्त्रियों के प्रति जो धारणा उस ने प्रकट की, उस को ले कर खट्टा हुआ था. अपने ठहरने के विषय में तो विनम्रतापूर्वक उमंग को मना कर ही चुकी थी. बिना पूरी बात सुने नकुल का भड़कना तथा उमंग के लिए गलत धारणा बना लेना उसे सही नहीं लगता था.
रेलगाड़ी आखिरकार गंतव्य स्टेशन पर पहुंच कर रुक गई और मैत्री की विचारशृंखला टूटी. वह टैक्सी कर स्टेशन से सीधे पति नकुल के बताए गैस्टहाउस में जा ठहरी.
पोलो विक्ट्री के नजदीकी गैस्टहाउस में नहाधो कर, तैयार हो कर मैत्री अब उमंग के कार्यालय में पहुंच गई. आगे के निमंत्रण इत्यादि उमंग खुद साथ रह कर मंत्रीजी तथा निदेशक महोदय आदि को दिलवाएंगे.
प्रधान कार्यालय के एक कक्ष के बाहर तख्ती लगी थी, उपनिदेशक, उमंग कुमार. कक्ष के भीतर प्रवेश करते ही हतप्रभ होने की बारी मैत्री की थी. यू के खुद दोनों पांवों से विकलांग हैं तथा दोनों बैसाखियां उन की घूमती हुई कुरसी के पास पड़ी हैं.
उमंग ने उत्साहपूर्वक अभिवादन करते हुए मैत्री को कुरसी पर बैठने को कहा.
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मैत्री को क्षणभर के लिए लगा कि उस का मस्तिष्क भी रिवौल्ंिवग कुरसी की तरह घूम रहा है. 5 वर्ष की फेसबुकिया मित्रता में उमंग ने कभी यह नहीं बताया कि वे विकलांग हैं. उन की फोटो प्रोफाइल में एक भी चित्र ऐसा नहीं है जिस से उन के विकलांग होने का पता चले. क्षणभर के लिए मैत्री को लगा कि फेसबुकिया मित्रों पर नकुल की टिप्पणी सही हो रही है. मैत्री की तन्मयता भंग हुई. उमंग प्रसन्नतापूर्वक बातें करते हुए उसे सभी वीआईपी के पास ले गए. कमोबेश सारी औपचारिकताएं पूरी हो गईं. सभी ने मैत्री के निस्वार्थ कार्य की प्रशंसा की तथा उस के वार्षिक कार्यक्रम में शतप्रतिशत उपस्थित रहने का आश्वासन भी दिया.
माता-पिता दोनों सुवास के साथ गए. कोटा में सप्ताहभर रुक कर अच्छे कोचिंग सैंटर की फीस भर कर बेटे को दाखिला दिलवाया. अच्छे होस्टल में उस के रहने-खाने की व्यवस्था की गई. पतिपत्नी ने बेटे को कोई तकलीफ न हो, सो, एक बैंक खाते का एटीएम कार्ड भी उसे दे दिया.
बेटे सुवास को छोड़ कर जब वे वापस लौट रहे थे तो दोनों का मन भारी था. मैत्री की आंखें भी भर आईं. जब सुवास साथ था, तो उस के कितने बड़ेबड़े सपने थे. जितने बड़े सपने उतनी बड़ी बातें. पूरी यात्रा उस की बातों में कितनी सहज हो गई थी.
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नकुल और मैत्री का दर्द तो एक ही था, बेटे से बिछुड़ने का दर्द, जिस के लिए वे मानसिक रूप से तैयार नहीं थे. फिर भी नकुल ने सामान्य होने का अभिनय करते हुए मैत्री को समझाया था, ‘देखो मैत्री, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. बच्चों को योग्य बनाना हो तो मांबाप को यह दर्द सहना ही पड़ता है. इस दर्द को सहने के लिए हमें पक्षियों का जीवन समझना पड़ेगा.
‘जिस दिन पक्षियों के बच्चे उड़ना सीख जाते हैं, बिना किसी देर के उड़ जाते हैं. फिर लौट कर नहीं आते. मनुष्यों में कम से कम यह तो संतोष की बात है कि उड़ना सीख कर भी बच्चे मांबाप के पास आते हैं, आ सकते हैं.’
मैत्री ने भी अपने मन को समझाया. कुछ खो कर कुछ पाना है. आखिर सुवास को जीवन में कुछ बन कर दिखाना है तो उसे कुछ दर्द तो बरदाश्त करना ही पड़ेगा.
कमोबेश मातापिता हर शाम फोन पर सुवास की खबर ले लिया करते थे. सुवास के खाने को ले कर दोनों चिंतित रहते. मैस और होटल का खाना कितना भी अच्छा क्यों न हो, घर के खाने की बराबरी तो नहीं कर सकता और वह संतुष्टि भी नहीं मिलती.
पतिपत्नी दोनों ही माह में एक बार कोटा शहर चले जाते थे. कोटा की हर गली में कुकुरमुत्तों की तरह होस्टल, मैस, ढाबे और कोचिंग सैंटरों की भरमार है. हर रास्ते पर किशोर उम्र के लड़के और लड़कियां सपनों को अरमान की तरह पीठ पर किताबों के नोट्स का बोझ उठाए घूमतेफिरते, चहचहाते, बतियाते दिख जाते.
जगहजगह कामयाब छात्रों के बड़ेबड़े होर्डिंग कोचिंग सैंटर का प्रचार करते दिखाई पड़ते. उन बच्चों का हिसाब किसी के पास नहीं था जो संख्या में 95 प्रतिशत थे और कामयाब नहीं हो पाए थे.
टैलीफोन पर बात करते हुए मैत्री अपने बेटे सुवास से हर छोटीछोटी बात पूछती रहती. दिनमहीने गुजरते गए. सावन का महीना आ गया. चारों तरफ बरसात की झमाझम और हरियाली का सुहावना दृश्य धरती पर छा गया.
ऐसे मौसम में सुवास मां से पकौड़े बनवाया करता. मैत्री का बहुत
मन हो रहा था अपने बेटे को पकौड़े खिलाने का. शाम को उस के पति नकुल ने भी जब पकौड़े बनाने की मांग की तो मैत्री ने कह दिया, ‘बच्चा तो यहां है नहीं. उस के बगैर उस की पसंद की चीज खाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है.’ तब नकुल ने भी उस की बात मान ली थी.
मैत्री की स्मृतिशृंखला का तारतम्य टूटा, क्योंकि रेलगाड़ी को शायद सिगनल नहीं मिला था और वह स्टेशन से बहुत दूर कहीं अंधेरे में खड़ी हो गई थी.
ऐसा ही कोई दिन उगा था जब बरसात रातभर अपना कहर बरपा कर खामोश हुई थी. नदीनाले उफान पर थे. अचानक घबराया हुआ रोंआसा नकुल घर आया. साथ में दफ्तर के कई फ्रैंड्स और अड़ोसीपड़ोसी भी इकट्ठा होने लगे.
मैत्री कुछ समझ नहीं पा रही थी. चारों तरफ उदास चेहरों पर खामोशी पसरी थी. घर से दूर बाहर कहीं कोई बतिया रहा था. उस के शब्द मैत्री के कानों में पड़े तो वह दहाड़ मार कर चीखी और बेहोश हो गई.
कोई बता रहा था, कोटा में सुवास अपने मित्रों के साथ किसी जलप्रपात पर पिकनिक मनाने गया था. वहां तेज बहाव में पांव फिसल गया और पानी में डूबने से उस की मृत्यु हो गई है.
हंसतेखेलते किशोर उम्र के एकलौते बेटे की लाश जब घर आई, मातापिता दोनों का बुरा हाल था. मैत्री को लगा, उस की आंखों के आगे घनघोर अंधेरा छा रहा है, जैसे किसी ने ऊंचे पर्वत की चोटी पर से उसे धक्का दे दिया हो और वह गहरी खाई में जा गिरी हो.
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मैत्री की फुलवारी उजड़ गई. बगिया थी पर सुवास चली गई. यह सदमा इतना गहरा था कि वह कौमा में चली गई. लगभग 15 दिनों तक बेहोशी की हालत में अस्पताल में भरती रही.
रिश्तेदारों की अपनी समयसीमा थी. कहते हैं कंधा देने वाला श्मशान तक कंधा देता है, शव के साथ वह जलने से रहा.
सुवास की मौत को लगभग 3 माह हो गए पर अभी तक मैत्री सामान्य नहीं हो पाई. घर के भीतर मातमी सन्नाटा छाया था. नकुल का समय तो दफ्तर में कट जाता. यों तो वह भी कम दुखी नहीं था पर उसे लगता था जो चीज जानी थी वह जा चुकी है. कितना भी करो, सुवास वापस कभी लौट कर नहीं आएगा. अब तो किसी भी तरह मैत्री के जीवन को पटरी पर लाना उस की प्राथमिकता है.
इसी क्रम में उस को सूझा कि अकेले आदमी के लिए मोबाइल बिजी रहने व समय गुजारने का बहुत बड़ा साधन हो सकता है. एक दिन नकुल ने एक अच्छा मोबाइल ला कर मैत्री को दे दिया.
पहले मैत्री ने कोई रुचि नहीं दिखाई, लेकिन नकुल को यकीन था कि यह एक ऐसा यंत्र है जिस की एक बार सनक चढ़ने पर आदमी इस को छोड़ता नहीं है. उस ने बड़ी मानमनुहार कर उस को समझाया. इस में दोस्तों का एक बहुत बड़ा संसार है जहां आदमी कभी अकेला महसूस नहीं करता बल्कि अपनी रुचि के लोगों से जुड़ने पर खुशी मिलती है.
नकुल के बारबार अपील करने? और यह कहने पर कि फौरीतौर पर देख लो, अच्छा न लगे, तो एकतरफ पटक देना, मैत्री ने गरदन हिला दी. तब नकुल ने सारे फंक्शंस फेसबुक, व्हाट्सऐप, हाइक व गूगल सर्च का शुरुआती परिचय उसे दे दिया.
कुछ दिनों तक तो मोबाइल वैसे ही पड़ा रहा. धीरेधीरे मैत्री को लगने लगा कि नकुल बड़ा मन कर के लाया है, उस का मान रखने के लिए ही इस का इस्तेमाल किया जाए.
एक बार मैत्री ने मोबाइल को इस्तेमाल में क्या लिया कि वह इतनी ऐक्सपर्ट होती चली गई कि उस की उंगलियां अब मोबाइल पर हर समय थिरकती रहतीं.
फेसबुक के मित्रता संसार में एक दिन उस का परिचय उमंग कुमार यानी मिस्टर यू के से होता है.
अकसर मैत्री अपने दिवंगत बेटे सुवास को ले कर कुछ न कुछ पोस्ट करती रहती थी. फीलिंग सैड, फीलिंग अनहैप्पी, बिगैस्ट मिजरी औफ माय लाइफ आदिआदि.
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निराशा के इस अंधकार में आशा की किरण की तरह उमंग के पोस्ट, लेख, टिप्पणियां, सकारात्मक, सारगर्भित, आशावादी दृष्टिकोण से ओतप्रोत हुआ करते थे. नकुल को लगा मैत्री का यह मोबाइलफ्रैंडली उसे सामान्य होने में सहयोग दे रहा है. उस का सोचना सही भी था.
फेसबुक पर उमंग के साथ उस की मित्रता गहरी होती चली गई. मैत्री को एहसास हुआ कि यह एक अजीब संसार है जहां आप से हजारों मील दूर अनजान व्यक्ति भी किस तरह आप के दुख में भागीदार बनता है. इतना ही नहीं, वह कैसे आप का सहायक बन कर समस्याओं का समाधान सुझाता है.
गाड़ी प्लेटफौर्म छोड़ चुकी थी. मैत्री अपने मोबाइल पर इंटरनैट की दुनिया में बिजी हो गई. फेसबुक और उस पर फैले मित्रता के संसार. विचारमग्न हो गई मैत्री. मित्र जिन्हें कभी देखा नहीं, जिन से कभी मिले नहीं, वे सोशल मीडिया के जरिए जीवन में कितने गहरे तक प्रवेश कर गए हैं. फेसबुक पर बने मित्रों में एक हैं उमंग कुमार. सकारात्मक, रचनात्मक, उमंग, उत्साह और जोश से सराबोर. जैसा नाम वैसा गुण. अंगरेजी में कह लीजिए मिस्टर यू के.
मैत्री के फेसबुकिया मित्रों में सब से घनिष्ठ मित्र हैं यू के. मैत्री अपना मोबाइल ले कर विचारों में खो जाती है. कितनी प्यारी, कितनी अलग दुनिया है वह, जहां आप ने जिस को कभी नहीं देखा हो, उस से कभी न मिले हों, वह भी आप का घनिष्ठ मित्र हो सकता है.
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मैत्री मोबाइल पर उंगलियां थिरकाती हुई याद करती है अतीत को, जब गाड़ी की सीट पर बैठा व्यक्ति यात्रा के दौरान कोई अखबार या पत्रिका पढ़ता नजर आता था. लेकिन आज मोबाइल और इंटरनैट ने कई चीजों को एकसाथ अप्रासंगिक कर दिया, मसलन घड़ी, अखबार, पत्रपत्रिकाएं, यहां तक कि अपने आसपास बैठे या रहने वाले लोगों से भी दूर किसी नई दुनिया में प्रवेश करा दिया. मोबाइल की दुनिया में खोए रहने वाले लोगों के करीबी इस यंत्र से जलने लगे हैं.
अपनी आज की यात्रा की तैयारी करते हुए जब सवेरे मैत्री को उस का पति नकुल समझा रहा था कि जयपुर जा कर वह किस से संपर्क करे, कहां रुकेगी आदि, तब मैत्री ने पति को बताया कि वे कतई चिंता न करें. फेसबुकिया मित्र उमंग का मैसेज आ गया है कि बेफिक्र हो कर जयपुर चली आएं, आगे वे सब संभाल लेंगे.
मैत्री के पति काफी गुस्सा हो गए थे. क्याक्या नहीं कह गए. फेसबुक की मित्रता फेसबुक तक ही सीमित रखनी चाहिए. विशेषकर महिलाओं को कुछ ज्यादा ही सावधानी रखनी चाहिए. झूठे नामों से कई फर्जी अकाउंट फेसबुक पर खुले होते हैं. फेसबुक की हायहैलो फेसबुक तक ही सीमित रखनी चाहिए. महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. भू्रण से ले कर वृद्धावस्था तक. न जाने पुरुष कब, किस रूप में स्त्री को धोखा देदे. जिस व्यक्ति को कभी देखा ही नहीं, उस पर यकीन नहीं करना चाहिए.
मैत्री को लगा कि पति, जिन को वह खुले विचारों का पुरुष समझ रही थी, की आधुनिकता का मुलम्मा उतरने लगा है.
मैत्री ने इतना ही कहा था कि जो व्यक्ति 5 वर्षों से उस की सहायता कर रहा है, जिस के सारे पोस्ट सकारात्मक होते हैं, ऐसे व्यक्ति पर अविश्वास करना जायज नहीं है.
जब पतिपत्नी के बीच बहस बढ़ रही थी तो मैत्री कह उठी थी, ‘मैं कोई दूध पीती बच्ची नहीं हूं. अधेड़ महिला हूं. पढ़ीलिखी हूं, मुझे कौन खा जाएगा? मैं अपनी रक्षा करने में सक्षम हूं.’
नकुल खामोश तो हो गया था पर यह बताना नहीं चूका कि मैत्री के ठहरने की व्यवस्था उन्होंने पोलो विक्ट्री के पास अपने विभाग के गैस्टहाउस में कर दी है.
जब मैत्री ने नहले पर दहला मार दिया कि ज्यादा ही डर लग रहा हो तो वे भी साथ चल सकते हैं, तब नकुल कुछ देर के लिए खामोश हो गया. वह बात को बद?लने की नीयत से बोला, ‘तुम तो बिना वजह नाराज हो गई. मेरा मतलब है सावधानी रखना.’
कहने को तो बात खत्म हो गई पर विचारमंथन चल रहा है. ट्रेन जिस गति से आगे भाग रही है, मैत्री की विचारशृंखला अतीत की ओर भाग रही है.
बारबार अड़चन बनता नकुल का चेहरा बीच में आ रहा है. तमतमाया, तल्ख चेहरा और उस के चेहरे का यह रूप आज मैत्री को भीतर तक झकझोर गया था.
मैत्री नकुल की बात से पूरी तरह सहमत नहीं थी. उस का बात कहने का लहजा मैत्री को भीतर तक झकझोर गया. होने को तो क्या नहीं हो सकता. जो बातें वे पुरुषों के बारे में फेसबुक के संदर्भ में कर रहे थे महिलाओं के बारे में भी हो सकती हैं.
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बात छोटी सी थी, उस ने तो केवल यही कहा था कि फेसबुक मित्र ने उस के जयपुर में ठहरने की व्यवस्था के लिए कहा था. मैत्री ने इस के लिए हामी तो नहीं भरी थी. नकुल का चेहरा कैसा हो गया था, पुरुष की अहंवादी मानसिकता और अधिकारवादी चेष्टा का प्रतीक बन कर.
मैत्री इन विचारों को झटक कर आज की घटना से अलग होने की कोशिश करती है. लगता है गाड़ी सरक कर किसी स्टेशन पर विश्राम कर रही है. प्लेटफौर्म पर रोशनी और चहलपहल है.
लगभग 25-30 वर्ष पहले मैत्री के जीवन की गाड़ी दांपत्य जीवन में प्रवेश कर नकुलरूपी प्लेटफौर्म पर रुकी थी.
मैत्री ने विवाह के बाद महसूस किया कि पुरुष के बगैर स्त्री आधीअधूरी है. दांपत्य जीवन के सुख ने उस को भावविभोर कर दिया. प्यारा सा पति नकुल और शादी के बाद तीसरे स्टेशन के रूप में प्यारा सा मासूम बच्चा आ गया. रेलगाड़ी चलने लगी थी.
नकुल की अच्छीखासी सरकारी नौकरी और मैत्री की गोद में सुंदर, प्यारा मासूम बच्चा. दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे. सारसंभाल से बच्चा बड़ा हो रहा है. हर व्यक्ति अपनी यात्रा पर चल पड़ता है. एक दिन पता लगता है एकाएक बचपन छिटक कर कहीं अलग हो गया. सांस लेतेलेते पता लगता है कि कीमती यौवन भी जाने कहां पीछा छुड़ा कर चला गया.
देखते ही देखते मैत्री का बेटा सुवास 15 वर्ष का किशोर हो गया. किशोर बच्चों की तरह आकाश में उड़ान भरने के सपने ले कर. एक दिन मातापिता के आगे उस ने मंशा जाहिर कर दी, ‘मेरे सारे फ्रैंड आईआईटी की कोचिंग लेने कोटा जा रहे हैं. मैं भी उन के साथ कोटा जाना चाहता हूं. मैं खूब मन लगा कर पढ़ाई करूंगा. आईआईटी ऐंट्रैंस क्वालिफाई करूंगा. फिर किसी के सामने मुझे नौकरी के लिए भीख नहीं मांगनी पड़ेगी. कैंपस से प्लेसमैंट हो जाएगा और भारीभरकम सैलरी पैकेज मिलेगा.’
बेटे सुवास का सोचना कतई गलत नहीं था. इस देश का युवा किशोरमन बेरोजगारी से कितना डरा हुआ है. बच्चे भी इस सत्य को जान गए हैं कि अच्छी नौकरियों में ऊपर का 5 प्रतिशत, शेष 50-60 प्रतिशत मजदूरी कार्य में. जो दोनों के लायक नहीं हैं, वे बेरोजगारों की बढ़ती जमात का हिस्सा हैं.
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पिता की नौकरी बहुत बड़ी तो नहीं, पर छोटी भी नहीं थी. परिवार में कुल जमा 3 प्राणी थे. सो, बेटे की ऐसी सोच देख कर नकुल और मैत्री प्रसन्न हो गए. आननफानन सपनों को पंख लग गए.
शिशिर ने सोचा था राम उस की गरीबी दूर करेगा, पैसे कमा कर अमेरिका से भेजेगा, बुढ़ापे की लाठी बनेगा. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उलटे, उसे फोन पर बेटे से धमकियां मिलतीं, ‘पापा, इस मकान को बेच दो. मैं तुम्हें नई कालोनी में बढि़या प्लैट खरीद दूंगा. मेरा हिस्सा मुझे दे दो वरना…’ ‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूं.’
मुन्ना ने समझाया, ‘यह बेवकूफी हरगिज न करना. तेरे सिर पर से छत भी जाएगी और तू सड़क पर
आ जाएगा.’ राम के इस व्यवहार से सब का मन दुखी होता, पर आखिर विकल्प क्या था?
ऐसे दुख की घड़ी में शिशिर को पदम की बड़ी याद आती. काश, वह यहां होता. कितना स्वार्थी था शिशिर जो शिखंडी बेटे के जाने के बाद उस की सुध भी न ली. आज आत्मग्लानि से वह बेटे का सामना नहीं कर पा रहा है. क्या हुआ इन 20-22 बरसों में जानने की उत्कंठा तो थी परंतु जबान जैसे तालू से चिपक गई थी उस की. आज बेटा सामने है तो खुशी तो है पर कहेपूछे किस मुंह से?
जब से पदम ने घर में कदम रखा है, मुन्ना और रेवा बच्चों की तरह खुश हैं जैसे किसी खोए खिलौने को पा लिया है, पर शिशिर अपनी सोच और व्यवहार से नजरें चुरा रहा है. आज सब ने सुबहसुबह दूधजलेबी खाई थी. नाश्ते के बीच पदम ने पूछा, ‘‘मां, राम भैया कहां हैं?’’
‘‘अमेरिका में,’’ मां ने जवाब दिया था. ‘‘वहां क्या करते हैं?’’
‘‘पता नहीं, बेटा. फोन आता रहता है. आज इतवार है, देखना फोन जरूर आएगा.’’ ‘‘चलो, यह भी अच्छा हुआ जो पढ़लिख कर वे नौकरी कर रहे हैं,’’ पदम ने ठंडी प्रतिक्रिया दी.
‘‘छोड़, यह बता तू ने क्या पढ़ाई की है?’’ ‘‘मैं ने एनीमेशन इंजीनियरिंग की है यानी सौफ्टवेयर इंजीनियर हूं.’’
‘‘वाह, क्या बात है. तू तो बड़ा लायक निकला, सब ने खुशी व्यक्त की थी.’’ ‘‘हां, यहां नोएडा में एक कंपनी में नौकरी भी मिल गई है. कल से जाना है.’’
‘‘बहुत खूब,’’ मुन्ना बाबू ने उस की पीठ थपथपाई. ‘‘भैया का फोन आएगा तब मैं भी बात करूंगा.’’
सब ने सुनी थी उस की बात पर ‘राम प्रकरण’ को छेड़ना इस वक्त किसी को भला नहीं लग रहा था. तभी फोन की घंटी बजी.
शिशिर बाबू ने फोन उठाया, जानते थे उसी का होगा. पदम दूसरे कमरे में रखे पैरलेल लाइन पर बापबेटे की बातें सुन रहा था. ‘‘पापा, वह मकान का क्या हुआ? कोई कस्टमर मिला?’’
‘‘तुझ से मैं ने पहले भी कहा है, मैं यह मकान नहीं बेचूंगा.’’ बापबेटे में बहस छिड़ गई. बीच में पदम बोला, ‘‘भैया, मकान की बात क्यों करते हो?’’
राम चौंका, ‘‘भई, बीच में तू कौन?’’ ‘‘मैं आप का छोटा भाई पदम हूं. आज ही आया हूं.’’
‘‘मेरा कोई भाई नहीं है. पता नहीं पापा किसकिस को घर में घुसा लेते हैं. बुढ़ापे में पापा का दिमाग सठिया गया है. भाई, तू जो भी हो, मुझे परायों से बात नहीं करनी.’’ ‘‘बूढ़ा होगा तू, मैं अब तेरी परवा नहीं करता. जैसे तू मेरा बेटा
है वैसे पदम भी है. बोल, क्या कहना है?’’ शिशिर बाबू तेज आवाज में बोले.
‘‘मैं अगले महीने इंडिया आ रहा हूं. मकान तो मैं बेचूंगा जरूर,’’ राम ने फिर धमकी दी. गुस्से में शिशिर ने फोन पटक दिया. सब उन की हिम्मत देख हैरान थे.
मुन्ना उन्हें देख मुसकराया, ‘‘आज
दूसरा कंधा मिल गया है तो शिशिर में ताकत आ गई है. अच्छा जवाब दिया राम को.’’
‘‘अरे, बाजार से सामान ले आओ, मैं ने लिस्ट बना ली है,’’ रेवा ने माहौल बदलने की गरज से बात बदली. ‘‘हां, लाओ लिस्ट,’’ वे भी इस वक्त बात को छोड़ना चाहते थे.
‘‘पापा, मैं भी साथ आता हूं,’’ पदम साथ हो लिया. दरअसल, शिशिर बाबू बेटे से अकेले में बातें करना चाहते थे. शायद पदम भी यही चाहता था.
‘‘भैया के साथ क्या प्रौब्लम है?’’ पदम ने पूछा. उन्होंने सारी कहानी बेटे को सुना दी. ‘‘बेटा, मैं तो यहां तेरी कहानी सुनने आया हूं. वैसे यह बता इन 22 बरसों में क्या बीता, मेरा मन सब जानने को उत्सुक है.’’
‘‘पापा, मैं बता दूं कि भाई की सोच मुझ से छिपी नहीं है. मैं सारा हैंडिल कर लूंगा, भाई को तो चुटकी में मनाऊंगा. बस, मैं चाहता हूं कि हम सब मिल कर प्यार से रहें. मैं यहां आप लोगों के लिए आया हूं, रिश्ते जोड़ने आया हूं, तोड़ने नहीं. भैया या किसी और से भी.’’ पिता ने बेटे की परिपक्वता और सकारात्मक सोच को मन से सराहा.
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‘‘पापा, मैं अपने बारे में क्या बताऊं, शुरू के 6 वर्षों में जो भोगा दुखदर्द उफ, उस का विवरण आप सुन न पाएंगे. सो, उसे छोड़ो. ‘‘जब मैं 12 वर्ष का हुआ तो एक दिन मैं ने देखा कि एक सरदारजी मुझ से बारबार मेरे बारे में पूछते हैं. मैं जान गया कि यह व्यक्ति मेरी कमजोरी और साहसिक सोच से प्रभावित है.
‘‘बस, एक रोज उस की गाड़ी में बैठ कर उस की कोठी पर चला गया. लगा, सुख की दुनिया में आ गया हूं.’’ ‘‘सरदारजी ने मुझ से सब से पहले कहा, ‘यहां तुम पूर्ण सुरक्षित हो, तुम्हें तुम्हारा टोला छू भी नहीं सकता.
‘‘वे एक व्यापारी थे. पर रहते अकेले थे. घर में नौकरचाकर थे और वो, बस.’’ ‘‘वहां मैं ने पाया न कोई मुझे हिज्जू कहता है, न ही मेरे चेहरेमोहरे को ले कर कोई ताना कसा जाता है.
‘‘मेरा स्कूल में ऐडमिशन हो गया. मैं पढ़ता गया जब 12वीं की तो उन के एक डाक्टर मित्र ने मुझ से पूछा, ‘बेटा, आप ठीक हो सकते हो किंतु आप को कुछ महीने मुंबई में गुजारने होंगे. क्या तुम तैयार हो?’ ‘‘डाक्टर साहब मुझे अपने साथ मुंबई ले गए. जहां सालभर मैं उन की देखरेख में रहा. सालभर में मैं ने महसूस किया कि मेरे चेहरे के पीछे एक पुरुष चेहरा छिपा है, मन में आत्मविश्वास आ गया था.
‘‘मैं काफी बदल गया था. लोग मुझ से बात करना पसंद करते थे. मैं ने महसूस किया जिंदगी बदगुमां नहीं है. कई बार मुझे लगता कि मैं वापस अपने घर दिल्ली आ जाऊं पर मैं ने सरदारजी से वादा किया था, ‘मैं मम्मीपापा के पास कुछ बन कर ही जाऊंगा.’
‘‘उस गौडफादर को मैं कभी नहीं भूलूंगा. मैं ने एनीमेशन इंजीनियरिंग की और कंप्यूटर पर कार्टून बनाने का काम करने लगा. ‘‘आज भी याद है सरदारजी की बात, ‘बेटा, जीवन एक युद्ध है. इसे हमें जीतना ही है. और जो जीतता है वही सिकंदर है.’
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‘‘उन का वह बातबात पर प्यार से समझाना आज तक याद है. पापा, जन्म तो आप ने मुझे दिया पर इस जीवन को तराशा सरदारजी ने. वे न मिलते तो मैं मिट्टी के ढेले सा मिट्टी में समा जाता.’’ सब सुन कर पिता की आंखें छलछला गईं. उन्होंने आसमान की तरफ देखा. ढेरों सितारें भी बेटे की कहानी सुन रहे थे और वहीं से शायद कह रहे थे, वैल डन पदम, सैल्यूट है तेरे जज्बे को.
दिल्ली की आउटररिंग रोड पर भागते आटो में बैठा पदम उतावला हो रहा था, घर कब आएगा? कब सब से मिलूंगा.
आटो से बाहर झांका, सुबह का झुटपुटा निखरने लगा था. एअरपोर्ट से उस का घर 18 किलोमीटर होगा. यहां से उस के घर की दूरी एक घंटे में पूरी हो जाएगी और फिर वह अपने घर पर होगा. पूरे 22 बरस बाद लौटा है पदम. उसे मलकागंज का भैरोंगली चौराहा, घर के पास बना पार्क और उस के पास बरगद का मोटा पेड़ सब याद है. इन सब के सामने वह अचानक खड़ा होगा, कितना रोमांचक होगा. नहीं जानता, वक्त के साथ सबकुछ बदल गया हो. हो सकता है मम्मीपापा, भैया कहीं और शिफ्ट हो गए हों. उस ने 2 दशक से उन की खोजखबर नहीं ली. आंखें बंद कर के वह घर आने का इंतजार करने लगा.
22 बरस पहले की यादों की पोटली खुली और एक ढीठ बच्चा ‘छोटा पदम’ सामने खड़ा हुआ. हाथ में बैटबौल और खेल का मैदान, यही थी उस छोटे पदम की पहचान. कुशाग्रबुद्धि का था पदम. सारा महल्ला उसे ‘मलकागंज का गावस्कर’ के नाम से जानता था. एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाला यह बच्चा टीचर्स का भी लाड़ला था. किंतु वह अपनी मां को ले कर हैरान था. जहां जाता, मां साथ जाती. 9 बरस के पदम को मम्मी स्कूल के गेट तक छोड़ कर आती और वापसी में उसे वहीं खड़ी मिलती. यहां तक कि पार्क में जितनी देर वह बैटिंगफील्ंिडग करता, वहीं बैंच पर बैठ कर खेल खत्म होने का इंतजार करती.
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मां के इस व्यवहार से वह कई बार खीझ जाता, ‘मम्मी, मैं कोई बच्चा हूं जो खो जाऊंगा? आप हर समय मेरे पीछे घूमती रहती हो. मेरे सारे दोस्त पूरे महल्ले में अकेले घूमते हैं, उन की मांएं तो उन के साथ नहीं आतीं. फिर मेरे साथ यह तुम्हारा पीछेपीछे आना क्यों?’
मम्मी आंखों में आंसू भर कर कहती, ‘बस, कुछ साल बाद तू अकेला ही घूमेगा, मेरी जरूरत नहीं होगी.’ मां की यह बात उस की समझ से परे थी.
‘‘बाबूजी, आप तो दिल्ली निवासी हो?’’ आटो वाले सरदारजी ने उस की सोच पर शब्दकंकरी फेंकी. उस ने चौंक कर वर्तमान को पकड़ा, ‘‘हां, नहीं, मुझे दिल्ली छोड़े बहुत बरस हो गए.’’
‘‘बाबूजी, आप विदेश में रहते हो?’’ हां, यहां बस किसी से मिलने आया हूं.’’
‘‘अच्छा,’’ कह कर सरदारजी ने आटो की स्पीड बढ़ा दी. सच ही तो है…वह तो परदेसी बन गया था. याद आया 22 बरस पहले का वह मनहूस दिन. उस दिन क्रिकेट का मैच था. पार्क में सारे बच्चों को इकट्ठा होना था.
पदम को घर में छोड़ कर मम्मी बाजार चली गई थी. बाहर से ताला लगा था. पदम पार्क में जाने के लिए छटपटा रहा था कि तभी उस के दोस्त अनिल ने खिड़की से आवाज दी, ‘यार, तू यहां घर में बैठा है और हम सब तेरा पार्क में इंतजार कर रहे हैं.’ ‘कैसे आऊं, मम्मी बाहर से ताला लगा गई हैं.’
‘छत से कूद कर आ जा.’ ‘ठीक है.’
पड़ोस की छतों को पार करता पदम पहुंच गया पार्क में. उसे देखते ही सारे दोस्त खुशी से चिल्लाए, ‘आ गया, हमारा गावस्कर, आ गया. अब आएगा मैच का मजा.’ बस, फिर क्या था, जम गया मैदान में. बल्ला घूमा और 30 रन बटोर कर आ गया. आउट हो कर वह बैंच पर आ कर बैठा ही था कि अचानक पता नहीं कहां से एक व्यक्ति उस के पास आ बैठा. उस ने बड़ी आत्मीयता से उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘बेटा, क्रिकेट बहुत बढि़या खेलते हो. लो, इसी खुशी में चौकलेट खाओ. और उस ने हथेली फैला दी. पदम ने चौकलेट उठा कर मुंह में डाल ली. उस के बाद पता नहीं क्या हुआ?
होश आया तो महसूस हुआ कि वह अपनों के बीच नहीं है. जगह और आसपास बैठे लोग सब अनजाने हैं. वह किसी बदबूदार कमरे में गंदी सी जगह पर था. सड़ांध से उस का जी मिचला गया था. कुशाग्रबुद्धि का पदम समझ गया था उसे अगवा कर लिया गया है. लेकिन क्यों? उस ने सुना था कि पैसे वालों के बच्चों को अगवा किया जाता है. बदले में पैसा मांगा जाता है. सब जानते हैं कि उस के पिता एक साधारण से टीचर हैं. वे भला इन लोगों को पैसा कहां से देंगे? वह भी जानता है कि घर में बमुश्किल रोटीदाल चल पाती है. फिर उसे उठा कर इन लोगों को क्या मिलेगा? उस की समझ से परे था. वह घबरा कर रोने लगा था. 2 गुंडा टाइप मुश्टडों ने उसे घूरा, ‘चौप्प, साला भूखा है, तभी रो रहा है. वहीं बैठा रह.’
‘मुझे पापा के पास जाना है.’ ‘खबरदार, जो उस मास्टर का नाम लिया. बैठा रह यहीं पर.’
पदम वहीं बैठा रहा बदबूदार दरी पर. उसे उबकाई आ गई, सारी दरी उलटी से भर गई. सिर भन्ना गया उस का.
शाम होतेहोते उसे कहीं और शिफ्ट कर दिया गया. फिर तो हर 10-12 दिनों बाद उसे किसी और जगह भेज दिया जाता. 4 महीने में 10 जगहें बदली गईं. वह अकेला नहीं था, 3 बच्चे और थे उस के साथ. इस बीच न जाने कितनी ही रातें उस ने आंखों में बिताई थीं और कितनी बार वह मम्मीपापा को याद कर के रोया था. यहां उसे अपनों का चेहरा तो दिखा ही नहीं, सारे बेगाने थे.
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इंदौर, उदयपुर, जयपुर, शेखावटी न जाने कहांकहां उस को रखा गया. इन शहरों के गांवों में उसे रखा जाता जहां सिर्फ तकलीफ, बेज्जती और नफरत ही मिलती थी जिसे उस का बालमन स्वीकार नहीं करता था. इन सब से वह थक चुका था. तीव्रबुद्धि का पदम जानता था कि यह भागमभाग, पुलिस से बचने के लिए है. गंदे काम कराए जाते. गलती करने पर लातघूंसे, गाली और उत्पीड़न किया जाता था. रोटी की जगह यही सब मिलता था.
जब टोले वालों को ज्यादा गुस्सा आता तो उसे शौचालय में बंद कर दिया जाता. टोले के मुखिया की उसे सख्त हिदायत थी कि अपना असली नाम व शहर किसी को मत बताना और नाम तो हरगिज नहीं. टोले वालों ने उस को नया नाम दिया था पम्मी.
उदयपुर के गांव में उसे ट्रेनिंग दी गई. चोरी करना, जेब काटना, उठाईगीरी और लोगों को झांसा दे कर उन की कीमती चीजों को साफ करना. ये सब काम करने का उस का मन न करता, किंतु इसे न करने का विकल्प न था.
सुबहसवेरे होटल से लाई पावभाजी खा कर उसे व उस के साथियों
को रेलवेस्टेशन भीड़भाड़ वाले बजारों या रेडलाइट पर छोड़ दिया जाता. शाम को टोले का एक आदमी उन्हें इकट्ठा करता और पैदल वापस ले आता. याद है उसे, एक रोज उस ने अपने एक दोस्त से पूछा, ‘ये हम से गलत काम क्यों कराते हैं?’
‘अबे साले, हिज्जू से और क्या कराएंगे. हम हिजड़ों को यही सब करना पड़ता है.’ ‘ये हिज्जूहिजड़ा क्या होता है?’
‘तुझे नहीं पता, हम सब हिजड़े ही तो हैं. तू, मैं, कमल, दीपू सब हिजड़े हैं.’ ‘मतलब.’
‘हम सब न लड़का हैं न लड़की, हम तो बीच के हैं.’ वह बच्चा बड़ी देर तक विद्रूप हंसी हंसता रहा था, साथ में गंदे इशारे भी करता रहा था.
पदम को आज भी याद है, ये सब देख कर उसे भरी सर्दी में पसीना आ गया था. तनबदन में आग सी लग गई थी. यह क्या है? ऐसा क्यों हो रहा है? जिन लोगों के बीच वह पल रहा है वह हिजड़ों की मंडली है? कुशाग्रबुद्धि के पदम को काफीकुछ समझ में आ गया था. समझ गया था कि वह ऐसे चक्रवात में फंस गया है जहां से निकलना आसान नहीं है. उस रात उसे बड़े डरावने सपने आते रहे. अब तक तो आंखें बंद करता था तो मम्मी, पापा, राम भैया और मुन्ना अंकल सपनों में रहते थे पर उस दिन के बाद उसे डरावने सपने ही आते. वह चौंक कर आंखें खोल देता था.
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बस, इस सब के साथ एक आस थी, हो सकता है पापा या भैया उसे ढूंढ़ते हुए कहीं स्टेशन या शहर की रेडलाइट पर मिल जाएं. पर ऐसा कभी नहीं हुआ. वह यह सब सहतेसहते पत्थर हो गया था. दुख, घुटन, बेजारी, गाली, तिरस्कार, उस के जीवन के पर्याय हो गए थे. कई बार दुख की पराकाष्ठा होती तो जी करता रेल की पटरी पर लेट कर अपने जीवन का अंत कर ले. दूसरे ही पल सोचता, नहीं, मेरा जीवन इतना सस्ता नहीं है. वह 12 बरस का हो गया था. अब उसे अपने शरीर में कसाव और बेचैनी महसूस होती थी. लेकिन कौन उसे बताता कि यह सब उस के साथ क्यों हो रहा है? खुले आसमान के नीचे बैठ कर अपनी बेनामी मजबूरी पर उसे आंसू बहाना अच्छा नहीं लगता था.
वहां उस का अपना कोई भी तो न था जिस के साथ वह सब साझा करता. लेदे कर बड़ी बूआ (केयरटेकर) थी. उस के आगे वह अकसर दिल खोलता था तो वह समझती, ‘बेटा यह नरक है, यहां सब चलतेफिरते मुरदे हैं. नरक ऐसा ही होता है. इस नरक में कोई नहीं, जिस से तू अपना दर्द बांट सके. मैं तेरी छटपटाहट को समझती हूं. तू यहां से निकलभागने को बेताब है. पर ध्यान रहे टोले वाले बड़े निर्दयी होते हैं. पकड़ा गया तो हाथपैर काट कर सड़क पर छोड़ देंगे भीख मांगने को. तब तेरी हालत बद से बदतर हो जाएगी.’
बूआ की बात सुन वह डर तो गया था पर हां, अगले ही पल उस का निश्चय, ‘कुछ तो करना पड़ेगा’ और दृढ़ हो गया. उसे अपनी इच्छाशक्ति पर कभीकभी हैरानी होती कि क्यों वह इतना खतरा मोल ले रहा है. ‘नहीं, कुछ तो करना होगा, यह सब नहीं चलेगा.’ यह सच था कि उसे अब दर्द सहने की आदत पड़ गई थी, पर और दर्द वह नहीं सहेगा. ‘बस, और नहीं.’
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याद है उसे अहमदाबाद की वह रेडलाइट और सरदारजी की लाल गाड़ी. जब भी सरदारजी की लाल गाड़ी रुकती, वह ड्राइविंग सीट पर बैठे सरदारजी के आगे हाथ फैला देता. वे मुसकरा कर रुपयादोरुपया उस की हथेली पर रख देते. एक रोज सरदारजी ने पूछा, ‘क्या नाम है तुम्हारा?’
‘पम्मी.’ ‘पढ़ते हो?’
‘नहीं.’ ‘पढ़ना चाहते हो?’
‘साब, हम भिखारियों का पढ़नालिखना कहां?’ ‘पढ़ना चाहोगे? तुम्हारी जिंदगी बदल जाएगी. ऐसे तो बेटा, जिंदगी इस रेडलाइट की तरह बुझतीजलती रहेगी.’
उसे लगा, किसी ने थपकी दी है. एक दिन उस ने सरदारजी को वहीं खड़ेखड़े संक्षिप्त में सब बता दिया.
‘अगर छुटकारा पाना है तो कल मुझे यहीं मिलना.’ गाड़ी चली गई. उस का दिल धड़का. बस, यही मौका है. यह सोच वह अगले दिन सरदारजी की गाड़ी में फुर्र हो गया.
‘‘अरे बाबूजी, मलकागंज तो आ गया. ‘‘पर भैरोंगली…आप किसी से पूछ लो.’’ आटो वाले ने अचानक उस के सोचने का क्रम तोड़ा.
वह वर्तमान से जुड़ गया. ‘‘ओह, ठहरो, मैं उस सामने खड़े पुलिस वाले से पूछता हूं.’’ पुलिस वाले ने फौरन पूछा, ‘‘किस के घर में जाना है?’’
‘‘भैरोगली में शिशिर शर्मा के घर.’’ ‘‘सीधे चले जाओ, आखिरी घर शिशिर बाबू का ही है.’’
पदम की आंखें चमक उठीं. आखिर, उस ने अपना घर ढूंढ़ ही लिया. अगले पल वह अपने घर के दरवाजे पर था. एकटक घर को देख रहा था या कहें, घर उसे देख रहा था.
सामने बाउंड्रीवाल से सटा नीम का पेड़, घर की छत को छूती मालती की बेल…सब कितने बड़े हो गए हैं. पर सब वही हैं कुछ भी तो नहीं बदला. वह सब तो है किंतु यदि भैया, पापा ने उसे न पहचाना तो… डोरबैल पर कांपती उंगली रखी तो अंदर से आवाज आई. ‘‘ठहरो, आ रहा हूं.’’
यह आवाज पापा की नहीं है. कोई और ही होगा. दरवाजा खुला. एक अति बूढ़ा व्यक्ति सामने था. ‘‘कौन हो तुम, किस से मिलना है?’’ पहचान गया ये मुन्ना बाबू थे. पापा के बचपन के दोस्त.
‘‘मैं पदम हूं. शिशिर बाबू का बेटा.’’ ‘‘शिशिर बाबू का तो एक ही बेटा है राम और वह भी अमेरिका में है. वैसे, शिशिर घर पर नहीं हैं, पत्नी के साथ बाहर गए हैं. थोड़ी देर बाद आएंगे.’’
इतना कह कर उन्होंने भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया. कैसी विडंबना थी, अपने ही घर के दरवाजे पर वह अजनबियों की भांति खड़ा है. वह वहीं बरामदे में पड़ी कुरसी पर बैठ गया कि सामने से मम्मीपापा को आते देखा. वह दौड़ कर मां से चिपट गया. ‘‘मम्मी…’’
मम्मी को जैसे उसी का इंतजार था. कहते हैं, मां अपने बच्चे को पहचानने में कभी गलती नहीं करती चाहे बच्चा कितना ही बड़ा क्यों न हो जाए. मां का स्पर्श बरसों बाद. कितना सुखदायी था वह क्षण.
‘‘अरे, तुम कौन हो?’’ अचानक शिशिर बाबू बोले. ‘‘अरे राम के पापा, ये अपना पदम. हमारा छोटा बेटा,’’ रुंधे गले से शिशिर बाबू की पत्नी रेवा ने कहा.
‘‘ओ, तुम तो ऐसे ही सब को गले लगा लेती हो. जाओ, अंदर जाओ,’’ वे गुस्से में दहाड़े, ‘‘पता नहीं कौन अनजान पदम बन कर हमें बेवकूफ बना रहा है.’’ इसी क्षण घर का दरवाजा खुला. मुन्ना बाबू भी इस दृश्य में शामिल हो गए. ‘‘अभी कुछ देर पहले यही लड़का आया था. मैं ने भी इसे टाल दिया था. कहता था, ‘मैं पदम हूं.’ रेवा भाभी ठीक कह रही हैं, यह शायद पदम ही है.’’ अब मुन्ना बाबू भी उसे पहचान गए थे, ‘‘यह तेरा वही छोटा बेटा है जो गुम हो गया था. 22 साल पहले.’’
‘‘ओह…’’ गला उन का भी रुंध गया था. रेवा ने बेटे को कस कर गले से लगा लिया. कभी माथा चूमती, कभी तन पर हाथ फेरती. पगली मां की आंखों से खुशी से गंगाजमुना बह रही थी.
शिशिर बाबू भी अपने को रोक न सके. निशब्द मांबाप की ममता से उस की झोली भरती रही.
शिशिर बाबू के कानों में डाक्टर की कही वह बात अभी भी गूंज रही थी. पदम के जन्म पर उस ने कहा था, ‘आप का बेटा शिखंडी है. बचा कर रखना इसे. शिखंडियों का टोला ऐसे बच्चों को चुपचाप अगवा कर लेता है. पतिपत्नी उस की बड़ी सावधानी से देखभाल करते. पर वही हुआ जिस का डर था. काफी सतर्कता के बाद भी पदम को अगवा कर लिया गया.
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पुलिसथाना, पेपर में ‘मिसिंग है’ का विज्ञापन छपवाया. इस सब के बावजूद कुछ न हुआ. हर सुबह रेवा पति से पूछती, ‘कुछ पता लगा?’ वे सिर झुका कर इनकार कर देते.
बेटे को याद कर रेवा अकसर रोती. मुन्ना समझाता, ‘भाभी, मुझे विश्वास है हमारा पदम एक दिन हमें जरूर वापस मिलेगा.’ महीने, साल, दशक बीत गए.
मुन्ना को लगता था, शिशिर ने बच्चे को ढूंढ़ने का विशेष प्रयास नहीं किया वरना पता तो जरूर लगता. पदम का मुन्ना से सिर्फ पापा के दोस्त का नाता था. पर मुन्ना इस घर का खास आदमी माना जाता था. वह घर की राईरत्ती जानता था.
रेवा को रोते देख उस का दिल भर आता परंतु शिशिर की पदम के लिए ठंडी सोच उन से छिपी न थी. एक दिन पत्नी को रोते देख आखिर शिशिर को गुस्सा आ ही गया, ‘छोड़ो, रोनाधोना. अब राम के भविष्य, उस के कैरियर पर ध्यान दो. मैं सब भूल कर राम के लिए सोचने लगा हूं. मेरा सपना है राम को अमेरिका भेजना.’
यह सुन कर मुन्ना से रहा न गया, ‘शिशिर, सच तो कुछ और ही है. वह सुनना चाहते हो? सच यह है कि तू राम को ले कर धृतराष्ट्र बन गया है. राम को ले कर तू इतना महत्त्वाकांक्षी बन गया है कि भाभी के आंसुओं और ममता की परवा भी नहीं है तुझे. लगता है पदम आ जाएगा तो राम के अमेरिका जाने का सपना कहीं खटाई में न पड़ जाए.
‘दूसरा सच यह भी है कि तू एक हिजड़े का बाप कहलाने से बचना चाहता है. ‘पिछले 10 बरसों में कितनी ही बार पता लगा कि फलां जगह लोगों ने पदम को देखा था पर तू चुप बैठ गया. तेरी इस शीत प्रतिक्रिया ने भाभी को बहुत ज्यादा दुखी किया है.
‘अरे, तू क्या जाने मां का दिल कैसा फटता है. लानत है ऐसे पत्थर दिल बाप पर.’ मुन्ना ने जो कहा वह सब सच था.
शिशिर उस दिन मुंह छिपा कर चला गया था. डरता था कि कहीं मुन्ना की बात से उस का निश्चय डगमगा न जाए.
लेकिन उस के निश्चय से राम को अमेरिका भेजने का सपना पूरा हो ही गया. यद्यपि उस के जीवन की सारी जमा पूंजी दावं पर लग गई थी, फिर भी वह खुश था. राम को अमेरिका गए पूरे 5 साल हो गए हैं. इस बीच राम का असली चेहरा सब के सामने आ गया था.