Hindi Story : सान्निध्य – सुख मिलने के बाद भी क्यों उदास रहती थी रोहिणी

Hindi Story : अभी शाम के 4 ही बजे थे, लेकिन आसमान में घिर आए गहरे काले बादलों ने कुछ अंधेरा सा कर दिया था. तेज बारिश के साथ जोरों की आंधी भी चल रही थी. सामने के पार्क में पेड़ झूमतेलहराते अपनी प्रसन्नता का इजहार कर रहे थे. रमाकांत का मन हुआ कि कमरे के सामने की बालकनी में कुरसी लगा कर मौसम का आनंद उठाएं, लेकिन फिर उन्हें लगा कि रोहिणी का कमजोर शरीर तेज हवा सहन नहीं कर पाएगा.

उन्होंने रोहिणी की ओर देखा. वह पलंग पर आंखें मूंदे लेटी हुई थी. रमाकांत ने पूछा, ‘‘अदरक वाली चाय बनाऊं, पिओगी?’’

अदरक वाली चाय रोहिणी को बहुत पसंद थी. उस ने धीरे से आंखें खोलीं और मुसकराई, ‘‘मोहन से…कहिए… वह…बना देगा,’’ उखड़ती सांसों से वह बड़ी मुश्किल से इतना कह पाई.

‘‘अरे, मोहन से क्यों कहूं? वह क्या मुझ से ज्यादा अच्छी चाय बनाएगा? तुम्हारे लिए तो चाय मैं ही बनाऊंगा,’’ कह कर रमाकांत किचन में चले गए.

जब वह वापस आए तो टे्र में 2 कप चाय के साथ कुछ बिस्कुट भी रख लाए. उन्होंने सहारा दे कर रोहिणी को उठाया और हाथ में चाय का कप पकड़ा कर बिस्कुट आगे कर दिए.

‘‘नहीं जी…कुछ नहीं खाना,’’ कह कर रोहिणी ने बिस्कुट की प्लेट सरका दी.

‘‘बिस्कुट चाय में डुबो कर…’’ उन की बात पूरी होने से पहले ही रोहिणी ने सिर हिला कर मना कर दिया.

रोहिणी की हालत देख कर रमाकांत का दिल भर आया. उस का खानापीना लगभग न के बराबर ही हो गया था. आंखों के नीचे गहरे गड्ढे पड़ गए थे. वजन एकदम घट गया था. वह इतनी कमजोर हो गई थी कि देखा नहीं जाता था. स्वयं को अत्यंत विवश महसूस कर रहे थे रमाकांत. कैसी विडंबना थी कि डाक्टर हो कर उन्होंने कितने ही मरीजों को स्वस्थ किया था, किंतु खुद अपनी पत्नी के लिए कुछ नहीं कर सके. बस, धीरेधीरे रोहिणी को मौत की ओर अग्रसर होते देख रहे थे.

उन के जेहन में वह दिन उतर आया जब वह रोहिणी को ब्याह कर घर ले आए थे. अम्मा अपनी सारी जिम्मेदारियां उसे सौंप कर निश्ंिचत हो गई थीं. कोमल सी दिखने वाली रोहिणी ने भी खुले दिल से अपनी हर जिम्मेदारी को स्वीकारा और किसी को शिकायत का मौका नहीं दिया. उस के सौम्य और सरल स्वभाव ने परिवार के हर सदस्य को उस का कायल बना दिया था.

रमाकांत उन दिनों मेडिकल कालेज में लेक्चरर के पद पर थे. साथ ही घर के अहाते में एक छोटा सा क्लिनिक भी खोल रखा था. स्वयं को एक स्थापित और नामी डाक्टर के रूप में देखने की उन की बड़ी तमन्ना थी. घर का मोरचा रोहिणी पर डाल वह सुबह से रात तक अपने काम में व्यस्त रहते. नईनवेली पत्नी के साथ प्यार के मीठे क्षण गुजारने की फुरसत उन्हें न थी…या फिर शायद जरूरत ही न समझी.

उन्हें लगता कि रोहिणी को तमाम सुखसुविधा मुहैया करा कर वह पति होने का अपना फर्ज बखूबी निभा रहे हैं, लेकिन उस की भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति से उन्हें कोई मतलब न था. रोहिणी का मन तो करता कि रमाकांत उस के साथ कुछ देर बैठें, बातें करें, लेकिन वह कभी उन से यह कह नहीं पाई. जब कहा भी, तब वे समझ नहीं पाए और जब समझे तब बहुत देर हो चुकी थी.

वक्त के साथसाथ रमाकांत की महत्त्वाकांक्षा भी बढ़ी. अपनी पुश्तैनी जायदाद बेच कर और सारी जमापूंजी लगा कर उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त नर्सिंगहोम खोल लिया. रोहिणी ने तब अपने सारे गहने उन के आगे रख दिए थे. हर कदम पर वह उन का मौन संबल बनी रही. उन के जीवन में एक घने वृक्ष सी शीतल छाया देती रही.

रमाकांत की मेहनत रंग लाई और सफलता उन के कदम चूमने लगी. कुछ ही समय में उन के नर्सिंगहोम का बड़ा नाम हो गया. वहां उन की मसरूफियत इतनी बढ़ गई कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी और सिर्फ नर्सिंगहोम पर ही ध्यान देने लगे.

इस बीच रोहिणी ने भी रवि और सुनयना को जन्म दिया और वह उन की परवरिश में ही अपनी खुशी तलाशने लगी. जीवन एक बंधेबंधाए ढर्रे पर चल रहा था. रमाकांत के लिए उन का काम था और रोहिणी के लिए बच्चे और सामाजिकता का निर्वाह.

अम्मांबाबूजी के देहांत और ननद के विवाह के बाद रोहिणी और भी अकेलापन महसूस करने लगी. बच्चे भी बड़े हो रहे थे और अपनी पढ़ाई में व्यस्त थे. रमाकांत के लिए पत्नी का अस्तित्व बस, इतना भर था कि वह समयसमय पर उसे गहनेकपड़े भेंट कर देते थे. उस का मन किस बात के लिए लालायित था, यह जानने की उन्होंने कभी कोशिश नहीं की.

जिंदगी ने रमाकांत को एक मौका दिया था. कभी कोई मांग न करने वाली उन की पत्नी रोहिणी ने एक बार उन्हें अपने दिल की गहराइयों से परिचित कराया था, लेकिन वे ही उस की बातों का दर्द और आंखों के सूनेपन को अनदेखा कर गए थे. उस दिन रोहिणी का जन्मदिन था. उन्होंने उसे कुछ प्यार दिखाते हुए पूछा था, ‘बताओ तो, मैं तुम्हारे लिए क्या तोहफा लाया हूं?’

तब रोहिणी के चेहरे पर फीकी सी मुसकान आ गई थी. उस ने धीमी आवाज में बस इतना ही कहा था, ‘तोहफे तो आप मुझे बहुत दे चुके हैं. अब तो बस आप का सान्निध्य मिल जाए…’

‘वह भी मिल जाएगा. बस, कुछ साल मेहनत से काम कर लें, अपनी और बच्चों की जिंदगी सेटल कर लें, फिर तो तुम्हारे साथ ही समय गुजारना है,’ कहते हुए उसे एक कीमती साड़ी का पैकेट थमा रमाकांत काम पर निकल गए थे. रोहिणी ने फिर कभी उन से कुछ नहीं कहा था.

रवि भी पिता के नक्शेकदम पर चल कर डाक्टर ही बना. उस ने अपनी सहपाठिन गीता से विवाह की इच्छा जाहिर की, जिस की उसे सहर्ष अनुमति भी मिल गई. अब रमाकांत को बेटेबहू का भी अच्छा साथ मिलने लगा. फिर सुनयना का विवाह भी हो गया. रमाकांत व रोहिणी अपनी जिम्मेदारियों से निवृत्त हो गए, लेकिन स्थिति अब भी पहले की तरह ही थी. रोहिणी अब भी उन के सान्निध्य को तरस रही थी और रमाकांत कुछ और वर्ष काम करना चाहते थे, अभी और सेटल होना चाहते थे.

शायद सबकुछ इसी तरह चलता रहता अगर रोहिणी बीमार न पड़ती. एक दिन जब सब लोग नर्सिंगहोम गए थे, तब वह चक्कर खा कर गिर पड़ी. घर के नौकर मोहन ने जब फोन पर बताया, तो सब भागे हुए आए. फिर शुरू हुआ टेस्ट कराने का सिलसिला. जब रिपोर्ट आई तो पता चला कि रोहिणी को ओवेरियन कैंसर है.

रमाकांत सुन कर घबरा से गए. उन्होंने अपने मित्र कैंसर स्पेशलिस्ट डा. भागवत को रिपोर्ट दिखाई. उन्होंने देखते ही साफ कह दिया, ‘रमाकांत, तुम्हारी पत्नी को ओवेरियन कैंसर ही हुआ है. इस में कुछ तो बीमारी के लक्षणों का पता ही देर से चलता है और कुछ इन्होंने अपनी तकलीफ घर में छिपाई होगी. अब तो कैंसर चौथी स्टेज पर है. यह शरीर के दूसरे अंगों तक भी फैल चुका है. चाहो तो सर्जरी और कीमोथैरेपी कर सकते हैं, लेकिन कुछ खास फायदा नहीं होने वाला. अब तो जो शेष समय है उस में इन्हें खुश रखो.’

सुन कर रमाकांत को लगा कि जैसे उन के हाथपैरों से दम निकल गया है. उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि रोहिणी इस तरह उन्हें छोड़ कर चली जाएगी. वह तो हर वक्त एक खामोश साए की तरह उन के साथ रहती थी. उन की हर जरूरत को उन के कहने से पहले ही पूरा कर देती थी. फिर यों अचानक उस के बिना…

अब जा कर रमाकांत को लगा कि उन्होंने कितनी बड़ी गलती कर दी थी. रोहिणी के अस्तित्व की कभी कोई कद्र नहीं की उन्होंने. उन के लिए तो वह बस उन की मूक सहचरी थी, जो उन की हर जरूरत के लिए हर वक्त उपलब्ध थी. इस से ज्यादा कोई अहमियत नहीं दी उन्होंने उसे. आज प्रकृति ने न्याय किया था. उन्हें इस गलती की कड़ी सजा दी थी. जिस महत्त्वाकांक्षा के पीछे भागते उन की जिंदगी बीती, जिस का उन्हें बड़ा दंभ था, आज वह सारा ज्ञान उन के किसी काम न आया.

अब जब उन्हें पता चला कि रोहिणी के जीवन का बस थोड़ा ही समय शेष रह गया था, तब उन्हें एहसास हुआ कि वह उन के जीवन का कितना बड़ा हिस्सा थी. उस के बिना जीने की कल्पना मात्र से वे सिहर उठे. महत्त्वाकांक्षाओं के पीछे भागने में वे हमेशा रोहिणी को उपेक्षित करते रहे, लेकिन अपनी सारी उपलब्धियां अब उन्हें बेमानी लगने लगी थीं.

‘पापा, आप चिंता मत कीजिए. मैं अब नर्सिंगहोम नहीं आऊंगी. घर पर ही रह कर मम्मी का ध्यान रखूंगी,’ उन की बहू गीता कह रही थी.

रमाकांत ने एक गहरी सांस ली और उस के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ‘नहीं, बेटा, नर्सिंगहोम अब तुम्हीं लोग संभालो. तुम्हारी मम्मी को इस वक्त सब से ज्यादा मेरी ही जरूरत है. उस ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है. उस का ऋण तो मैं किसी भी हाल में नहीं चुका पाऊंगा, लेकिन कम से कम अब तो उस का साथ निभाऊं.’

उस के बाद से रमाकांत ने नर्सिंगहोम जाना छोड़ दिया. वे घर पर ही रह कर रोहिणी की देखभाल करते, उस से दुनियाजहान की बातें करते. कभी कोई किताब पढ़ कर सुनाते, तो कभी साथ टीवी देखते. वे किसी तरह रोहिणी के जाने से पहले बीते वक्त की भरपाई करना चाहते थे.

मगर वक्त उन के साथ नहीं था. धीरेधीरे रोहिणी की तबीयत और बिगड़ने लगी थी. रमाकांत उस के सामने तो संयत रहते, मगर अकेले में उन की पीड़ा आंसुओं की धारा बन कर बह निकलती. रोहिणी की कमजोर काया और सूनी आंखें उन के हृदय में शूल की तरह चुभती रहतीं. वे स्वयं को रोहिणी की इस हालत का दोषी मानने लगे थे. इस के साथसाथ उन के मन में हर वक्त रोहिणी को खो देने का डर होता. वे जानते थे कि यह दुर्भाग्य तो उन की नियति में लिखा जा चुका था, लेकिन उस क्षण की कल्पना करते हुए हमेशा भयभीत रहते.

‘‘अंधेरा…हो गया जी,’’ रोहिणी की आवाज से रमाकांत की तंद्रा टूटी. उन्होंने उठ कर लाइट जला दी. देखा, रोहिणी का चाय का कप आधा भरा हुआ रखा था और वह फिर से आंखें मूंदे टेक लगा कर बैठी थी. चाय ठंडी हो चुकी थी. रमाकांत ने चुपचाप कप उठाया और किचन में जा कर सिंक में चाय फैला दी. उन्होंने खिड़की से बाहर देखा, बाहर अभी भी तेज बारिश हो रही थी. हवा का ठंडा झोंका आ कर उन्हें छू गया, लेकिन अब उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. उन्होंने अपनी आंखों के कोरों को पोंछा और मोहन को आवाज लगा कर खिचड़ी बनाने के लिए कहा.

खिचड़ी बिलकुल पतली थी, फिर भी रोहिणी बमुश्किल 2 चम्मच ही खा पाई. आखिर रमाकांत उस की प्लेट उठा कर किचन में रख आए. तब तक रवि और गीता भी नर्सिंगहोम से वापस आ गए थे.

‘‘कैसी हो, मम्मा?’’ रवि लाड़ से रोहिणी की गोद में लेटते हुए बोला.

‘‘ठीक हूं, मेरे बच्चे,’’ रोहिणी मुसकराते हुए उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए धीमी आवाज में बोली.

रमाकांत ने देखा कि रोहिणी के चेहरे पर असीम संतोष था. अपने पूरे परिवार के साथ होने की खुशी थी उसे. वह अपनी बीमारी से अनभिज्ञ नहीं थी, परंतु फिर भी प्रसन्न ही रहती थी. जिस सान्निध्य की आस ले कर वह वर्षों से जी रही थी, वह अब उसे बिना मांगे ही मिल रहा था. अब वह तृप्त थी, इसलिए आने वाली मौत के लिए कोई डर या अफसोस उस के चेहरे पर दिखाई नहीं देता था.

बच्चे काफी देर तक मां का हालचाल पूछते रहे, उसे अपने दिन भर के काम के बारे में बताते रहे. फिर रोहिणी का रुख देख कर रमाकांत ने उन से कहा, ‘‘अब खाना खा कर आराम करो. दिनभर काम कर के थक गए होगे.’’

‘‘पापा, आप भी खाना खा लीजिए,’’ गीता ने कहा.

‘‘मुझे अभी भूख नहीं, बेटा. आप लोग खा लो. मैं बाद में खा लूंगा.’’

बच्चों के जाने के बाद रोहिणी फिर आंखें मूंद कर लेट गई. रमाकांत ने धीमी आवाज में टीवी चला दिया, लेकिन थोड़ी देर में ही उन का मन ऊब गया. अब उन्हें थोड़ी भूख लग आई थी, लेकिन खाना खाने का मन नहीं किया. उन्होंने सोचा रोहिणी और अपने लिए दूध ले आएं. किचन में जा कर उन्होंने 2 गिलास दूध गरम किया. तब तक रवि और गीता खाना खा कर अपने कमरे में सो चुके थे.

‘‘रोहिणी, दूध लाया हूं,’’ कमरे में आ कर रमाकांत ने धीरे से आवाज लगाई, लेकिन रोहिणी ने कोई जवाब नहीं दिया. उन्हें लगा कि वह सो रही है. उन्होंने उस के गिलास को ढंक कर रख दिया और खुद पलंग के दूसरी ओर बैठ कर दूध पीने लगे.

उन्होंने रोहिणी की तरफ देखा. सोते हुए उस के चेहरे पर कितनी शांति थी. उन का हाथ बरबस ही उस का माथा सहलाने के लिए आगे बढ़ा. फिर वह चौंक पड़े. दोबारा माथे और गालों पर हाथ लगाया. तब उन्हें एहसास हुआ कि रोहिणी का शरीर ठंडा था. वह सो नहीं रही थी बल्कि सदा के लिए चिरनिद्रा में विलीन हो चुकी थी.

उन्हें जो डर इतने महीनों से जकड़े था, आज वे उस के वास्तविक रूप का सामना कर रहे थे. कुछ समय के लिए एकदम सुन्न से हो गए. उन्हें समझ ही न आया कि क्या करें. फिर धीरेधीरे चेतना जागी. पहले सोचा कि जा कर बच्चों को खबर कर दें, लेकिन फिर कुछ सोच कर रुक गए.

सारी उम्र रोहिणी को उन के सान्निध्य की जरूरत थी, लेकिन आज उन्हें उस का साथ चाहिए था. वे उस की उपस्थिति को अपने पास महसूस करना चाहते थे, इस एहसास को अपने अंदर समेट लेना चाहते थे क्योंकि बाकी की एकाकी जिंदगी उन्हें अपने इसी एहसास के साथ गुजारनी थी. उन के पास केवल एक रात थी. अपने और अपनी पत्नी के सान्निध्य के इन आखिरी पलों में वे किसी और की उपस्थिति नहीं चाहते थे. उन्होंने लाइट बुझा दी और रोहिणी को धीरे से अपने हृदय से लगा लिया. पानी बरसना अब बंद हो गया था.

Hindi Story : रिश्तों की कसौटी

Hindi Story : मां के फोन वैसे तो संक्षिप्त ही होते थे पर इतना महत्त्वपूर्ण समाचार भी वह सिर्फ 2 मिनट में बता देंगी, मेरी कल्पना से परे ही था.

‘‘शुचिता की शादी तय हो गई है. 15 दिन बाद का मुहूर्त निकला है, तुम सब लोगों को आना है,’’ बस, इतना कह कर वह फोन रखने लगी थीं.

‘‘अरे, मां, कब रिश्ता तय किया है, कौन लोग हैं, कहां के हैं, लड़का क्या करता है?’’ मैं ने एकसाथ कई प्रश्न पूछ डाले थे.

‘‘सब ठीकठाक ही है, अब आ कर देख लेना.’’

मां और बातें करने के मूड में नहीं थीं और मैं कुछ और कहती तब तक उन्होंने फोन रख दिया था.

लो, यह भी कोई बात हुई. अरे, शुचिता मेरी सगी छोटी बहन है, इतना सब जानने का हक तो मेरा बनता ही है कि कहां शादी तय हो रही है, कैसे लोग हैं. अरे, शुचि की जिंदगी का एक अहम फैसला होने जा रहा है और मुझे खबर तक नहीं. ठीक है, मां का स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं रहता है, फिर शुचिता की शादी को ले कर पिछले कई सालों से परेशान हो रही हैं. पिताजी के असमय निधन से और अकेली पड़ गई हैं. भाई कोई है नहीं, हम 3 बहनें ही हैं. मैं, नमिता और शुचिता. मेरी और नमिता की शादी हुए काफी अरसा हो गया है पर पता नहीं क्यों शुचिता का हर बार रिश्ता तय होतेहोते रह जाता था. शायद इसीलिए मां इतनी शीघ्रता से यह काम निबटाना चाह रही हों.

जो भी हो, बात तो मां को पूरी बतानी थी. शाम को मैं ने फिर शुचिता से ही बात करनी चाही थी पर वह तो शुरू से वैसे भी मितभाषी ही रही है. अभी भी हां-हूं ही करती रही.

‘‘दीदी, मां ने बता तो दिया होगा सबकुछ…’’ स्वर भी उस का तटस्थ ही था.

‘‘अरे, पर तू तो पूरी बात बता न, तेरे स्वर में भी कोई खास उत्साह नहीं दिख रहा है,’’ मैं तो अब झल्ला ही पड़ी थी.

‘‘उत्साह क्या, सब ठीक ही है. मां इतने दिन से परेशान थीं, मैं स्वयं भी अब उन पर बोझ बन कर उन की परेशानी और नहीं बढ़ाना चाहती. अब यह रिश्ता तो जैसे एक तरह से अपनेआप ही तय हो गया है, तो अच्छा ही होगा,’’ शुचिता ने भी जैसेतैसे बात समाप्त ही कर दी थी.

राजीव तो अपने काम में इतने व्यस्त थे कि उन को छुट्टी मिलनी मुश्किल थी. मेरा और बच्चों का रिजर्वेशन करवा दिया. मैं चाह रही थी कि 4-5 दिन पहले पहुंचूं पर मैं और नमिता दोनों ही रिजर्वेशन के कारण ठीक शादी वाले दिन ही पहुंच पाए थे.

मेरी तरह नमिता भी उतनी ही उत्सुक थी यह जानने के लिए कि शुचि का रिश्ता कहां तय हुआ और इतनी जल्दी कैसे सब तय हो गया पर जो कुछ जानकारी मिली उस ने तो जैसे हमारे उत्साह पर पानी ही फेर दिया था.

जौनपुर का कोई संयुक्त परिवार था. छोटामोटा बिजनेस था. लड़का भी वही पुश्तैनी काम संभाल रहा था. उन लोगों की कोई मांग नहीं थी. लड़के की बूआ खुद आ कर शुचिता को पसंद कर गई थीं और शगुन की अंगूठी व साड़ी भी दे गई थीं.

‘‘मां,’’ मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘जब इतने समय से रिश्ते देख रहे हैं तो और देख लेते. आप को जल्दी क्या थी. ऐसी क्या शुचि बोझ बन गई थी? अब जौनपुर जैसा छोटा सा पुराना शहर, पुराने रीतिरिवाज के लोग, संयुक्त परिवार, शुचि कैसे निभेगी उस घर में.’’

‘‘सब निभ जाएगी,’’ मां बोलीं, ‘‘अब मेरे इस बूढ़े शरीर में इतनी ताकत नहीं बची है कि घरघर रिश्ता ढूंढ़ती रहूं. इतने बरस तो हो गए, कहीं जन्मपत्री नहीं मिलती, कहीं दहेज का चक्कर… और तुम दोनों जो इतनी मीनमेख निकाल रही हो, खुद क्यों नहीं ढूंढ़ दिया कोई अच्छा घरबार अपनी बहन के लिए.’’

मां ने तो एक तरह से मुझे और नमिता दोनों को ही डपट दिया था.

यह सच भी था, हम दोनों बहनें अपनेअपने परिवार में इतनी व्यस्त हो गई थीं कि जितने प्रयास करने चाहिए थे, चाह कर भी नहीं कर पाए.

खैर, सीधेसादे समारोह के साथ शुचिता ब्याह दी गई.

मैं और नमिता दोनों कुछ दिन मां के पास रुक गए थे पर हम रोज ही यह सोचते कि पता नहीं कैसे हमारी यह भोलीभाली बहन उस संयुक्त परिवार में निभेगी. हम लोग ऐसे परिवारों में कभी रहे नहीं. न ही हमें घरेलू काम करने की अधिक आदत थी. पिताजी थे तब काफी नौकरचाकर थे और अभी भी मां ने 2 काम वाली बाई लगा रखी थीं और खाना भी उन्हीं से बनवा लेती थीं.

फिर शुचि का तो स्वभाव भी सरल सा है. तेजतर्रार सास, ननदें, जेठानी सब मिल कर दबा लेंगी उसे.

जब चचेरा भाई रवि विदा कराने गया तब हम लोग यही सोच कर आशंकित थे कि पता नहीं शुचि आ कर क्या हालचाल सुनाए. पर उस समय तो उस की सास ने विदा भी नहीं किया. रवि से यह कह कर कि महीने भर बाद भेजेंगी, अभी किसी बच्चे का जन्मदिन है, उसे भेज दिया था.

उधर रवि कहता जा रहा था, ‘‘दीदी, शुचि दीदी को आप ने कैसे घर में भेज दिया, वह घर क्या उन के लायक है. छोटा सा पुराने जमाने का मकान, उस में इतने सारे लोग…अब आजकल कौन बहुओं से घूंघट निकलवाता है, पर शुचि दीदी से इतना परदा करवाया कि मेरे सामने ही मुश्किल से आ पाईं.

‘‘ऊपर से सास, ननदें सब तेजतर्रार. सास ने तो एक तरह से मुझे ही झिड़क दिया कि बहू से घर का कामकाज तो होता नहीं है, इतना नाजुक बना कर रख दिया है लड़की को कि वह चार जनों का खाना तक नहीं बना सकती, पर गलती तो इस की मां की है जो कुछ सिखाया नहीं. अब हम लोग सिखाएंगे.

‘‘सच दीदी, इतनी रोबीली सास तो मैं ने पहली बार देखी.’’

रवि कहता जा रहा है और मेरा कलेजा बैठता जा रहा था कि इतने सीधेसादे ढंग से शादी की है, कहीं लालची लोग हुए तो दहेज के कारण मेरी बहन को प्रताडि़त न करें. वैसे भी दहेज को ले कर इतने किस्से तो आएदिन होते रहते हैं.

शुचि से मिलना भी नहीं हो पाया. मां से भी इस बारे में अधिक बात नहीं कर पाई. वैसे भी हृदय रोग की मरीज हैं वे.

शुचि से फोन पर कभीकभार बात होती तो जैसा उस का स्वभाव था हांहूं में ही उत्तर देती.

बीच में दशहरे की छुट्टियों में फिर मां के पास जाना हुआ था. सोचा कि शायद शुचि भी आए तो उस से भी मिलना हो जाएगा पर मां ने बताया कि शुचि की सास बीमार हैं…वह आ नहीं पाएगी.

‘‘मां, इतने लोग तो हैं उस घर में फिर शुचि तो नईनवेली बहू है, क्या अब वही बची है सास की सेवा को, जो चार दिन को भी नहीं आ सकती,’’ मैं कहे बिना नहीं रह पाई थी. मुझे पता था कि उस की ननदें, जेठानी सब इतनी तेज हैं तो शुचि दब कर रह गई होगी.

उधर मां कहे जा रही थीं, ‘‘सास का इलाज होना था तो पैसे की जरूरत पड़ी. शुचि ने अपने कंगन उतार कर सास के हाथ पर धर दिए…सास तो गद्गद हो गईं.’’

मैं ने माथे पर हाथ मारा. हद हो गई बेवकूफी की भी. अरे, छोटीमोटी बीमारी का तो इलाज यों ही हो जाता है फिर पुश्तैनी व्यापार है, इतने लोग हैं घर में… और सास की चतुराई देखो, जो थोड़ा- बहुत जेवर शुचि मायके से ले कर गई है उस पर भी नजरें गड़ी हैं.

उधर मां कहती जा रही थीं, ‘‘अच्छा है उस घर में रचबस गई है शुचि…’’

मां भी आजकल पता नहीं किस लोक में विचरण करने लगी हैं. सारी व्यावहारिकता भूल गई हैं. शुचि के पास कुछ गहनों के अलावा और है ही क्या.

मेरा तो मन ही उचट गया था. घर आ कर भी मूड उखड़ाउखड़ा ही रहा. राजीव से यह सब कहा तो उन का तो वही चिरपरिचित उत्तर था.

‘‘तुम क्यों परेशान हो रही हो. सब का अपनाअपना भाग्य है. अब शुचि के भाग्य में जौनपुर के ये लोग ही थे तो इस में तुम क्या कर सकती हो और मां से क्या उम्मीद करती हो? उन्होंने तो जैसे भी हो अपना दायित्व पूरा कर दिया.’’

फोन पर पता चला कि शुचि बीमार है, पेट में पथरी है और आपरेशन होगा. दूसरी कोई शिकायत हो सकती है तो पहले सारे टेस्ट होंगे, बनारस के एक अस्पताल में भरती है.

‘‘तुम लोग देख आना, मेरा तो जाना हो नहीं पाएगा,’’ मां ने खबर दी थी.

नमिता भी छुट्टी ले कर आ गई थी. वहीं अस्पताल के पास उस ने एक होटल में कमरा बुक करा लिया था.

‘‘रीता, मैं तो 2 दिन से ज्यादा रुक नहीं पाऊंगी, बड़ी मुश्किल से आफिस से छुट्टी मिली है,’’ उस ने मिलते ही कहा था.

‘‘मैं भी कहां रुक पाऊंगी, छोटू के इम्तहान चल रहे हैं, नौकर भी आजकल बाहर गया हुआ है. बस, दिन में ही शुचि के पास बैठ लेंगे, रात को तो जगना भी मुश्किल है मेरे लिए,’’ मैं ने भी अपनी परेशानी गिना दी थी.

सवाल यह था कि यहां रुक कर शुचि की देखभाल कौन करेगा? कम से कम 10 दिन तो उसे अस्पताल में ही रहना होगा. अभी तो सारे टेस्ट होने हैं.

हम दोनों शुचि को देखने जब अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि उस की दोनों ननदें आई हुई हैं. बूढ़ी सास भी उसे संभालने आ गई हैं और उन लोगों ने काटेज वार्ड के पास ही कमरा ले लिया था.

दबंग सास बड़े प्यार से शुचि के सिर पर हाथ फेर रही थीं.

‘‘फिक्र मत कर बेटी, तू जल्दी ठीक हो जाएगी, मैं हूं न तेरे पास. तेरी दोनों ननदें भी अपनी ससुराल से आ गई हैं. सब बारीबारी से तेरे पास सो जाया करेंगे. तू अकेली थोड़े ही है.’’

उधर शुचि के पति चम्मच से उसे सूप पिला रहे थे, एक ननद मुंह पोंछने का नैपकिन लिए खड़ी थी.

‘‘दीदी, कैसी हो?’’ शुचि ने हमें देख कर पूछा था. मुझे लगा कि इतनी बीमारी के बाद भी शुचि के चेहरे पर एक चमक है. शायद घरपरिवार का इतना अपनत्व पा कर वह अपनी बीमारी भूल गई है.

पर पता नहीं क्यों मेरे और नमिता के सिर कुछ झुक गए थे. कई बार इनसानों को समझने में कितनी भूल कर देते हैं हम.

मैं ऐसा ही कुछ सोच रही थी.

Hindi Story : खरीदारी – अपमान का कड़वा घूंट

Hindi Story : प्रात: के 9 बज रहे थे. नाश्ते आदि से निबट कर बिक्री कर अधिकारी चंद्रमोहन समाचारपत्र पढ़ने में व्यस्त था. निकट रखे विदेशी टेपरिकार्डर पर डिस्को संगीत चल रहा था, जिसे सुन कर उस की गरदन भी झूम रही थी.

तभी उस की पत्नी सुमन ने निकट बैठते हुए कहा, ‘‘आज शाम को समय पर घर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कुछ खरीदारी करने जाना है.’’

‘‘कोशिश करूंगा. वैसे आज 1-2 जगह निरीक्षण पर जाना है.’’

‘‘निरीक्षण को छोड़ो. वह तो रोज ही चलता है. आज कुछ चीजें खरीदनी जरूरी हैं.’’

‘‘मैं ने अभी 3-4 दिन पहले ही तो खरीदारी की थी. पूरे एक हजार रुपए का सामान लिया था,’’ चंद्रमोहन ने कहा.

‘‘तो क्या और किसी चीज की जरूरत नहीं पड़ती?’’ सुमन ने तुनक कर कहा.

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा? देखो, सुमन, हमारे घर में किसी चीज की कमी नहीं है. ऐश्वर्य के सभी साधन हैं हमारे यहां, फ्रिज, रंगीन टेलीविजन, वीसीआर, स्कूटर तथा बहुत सी विदेशी चीजें. नकद पैसे की भी कमी नहीं है. दोनों बच्चे भी अंगरेजी स्कूल में पढ़ रहे हैं.’’

‘‘वह तो ठीक है. जब से चंदनगढ़ में बदली हुई है मजा आ गया है,’’ सुमन ने प्रसन्न हृदय से कहा.

‘‘हां, 2 साल में ही सब कुछ हो गया. जब हमलोग यहां आए थे तो हमारे पास कुछ भी नहीं था. बस, 2-3 पुरानी टूटी हुई कुरसियां, दहेज में मिला पुराना रेडियो, बड़ा पलंग तथा दूसरा सामान. यहां के लोग गाय की तरह बड़े सहनशील और डरपोक हैं. चाहे जैसे दुह लो, कभी कुछ नहीं कहते,’’ चंद्रमोहन बोला.

तभी दरवाजे पर लगी घंटी बजी.

सुमन ने दरवाजा खोला. सामने खड़े व्यक्ति ने अभिवादन कर पूछा, ‘‘साहब हैं?’’

‘‘हां, क्या बात है?’’

‘‘उन से मिलना है.’’

‘‘आप का नाम?’’

‘‘मुझे सोमप्रकाश कहते हैं.’’

कुछ क्षण बाद सुमन ने लौट कर कहा, ‘‘आइए, अंदर चले आइए.’’

चंद्रमोहन को बैठक में बैठा देख कर सोमप्रकाश ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और प्लास्टिक के कागज में लिपटा एक डब्बा मेज पर रख दिया.

सुमन दूसरे कमरे में जा चुकी थी.

‘‘कहिए?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘मैं सोम एंड कंपनी का मालिक हूं. अभी हाल ही में आप ने हमारी फर्म का निरीक्षण किया था लेकिन जितने माल की बिक्री नहीं हुई उस से कहीं अधिक की मान ली गई है. अगर आप की कृपादृष्टि न हुई तो मैं व्यर्थ में ही मारा जाऊंगा. आप से यही प्रार्थना करने आया हूं,’’ सोमप्रकाश ने दयनीय स्वर में कहा.

‘‘मैं तुम जैसे व्यापारियों को बहुत अच्छी तरह जानता हूं. जितना माल बेचते हो उस का चौथाई भी कागजात में नहीं दिखाते, और इस तरह दो नंबर का अंधाधुंध पैसा बना कर टैक्स की चोरी कर के सरकार को चूना लगाते हो. तुम लोगों की वजह से ही सरकार को हर साल बजट में घाटा दिखाना पड़ता है,’’ चंद्रमोहन ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

सोमप्रकाश अपमान का कड़वा घूंट पी कर रह गया. आखिर वह कर ही क्या सकता था. उस ने कमरे में दृष्टि डाली. हर ओर संपन्नता की झलक दिखाई दे रही थी. फर्श पर महंगा कालीन बिछा था. वह कहना तो बहुत कुछ चाहता था परंतु गले में मानो कुछ अटक सा गया था. बहुत प्रयत्न कर के स्वर में मिठास घोल कर बोला, ‘‘साहब, मैं आप की कुछ सेवा करना चाहता हूं. ये 2 हजार रुपए रख लीजिए. बच्चों की मिठाई के लिए हैं.’’

‘‘काम तो बहुत मुश्किल है, फिर भी जब तुम आए हो तो मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हारा काम बन जाए.’’

‘‘आप की बहुत कृपा होगी. जब आप निरीक्षण पर आए थे तो मैं वहां नहीं था. मुझे रात ही पता चला तो सुबह होते ही मैं आप के दर्शन करने चला आया,’’ सोमप्रकाश बोला और उठ कर बाहर चला गया.

चंद्रमोहन ने सुमन को बुला कर कहा, ‘‘लो, भई, ये रुपए रख लो, अभी एक असामी दे गया है.’’

सुमन रुपए उठा कर दूसरे कमरे में चली गई.

कुछ देर बाद दरवाजे की घंटी फिर बज उठी.

चंद्रमोहन ने दरवाजा खोला. सामने एडवोकेट प्रेमलाल को खड़ा देख चेहरे पर मुसकान बिखेर कर बोला, ‘‘अरे, आप. आइए, पधारिए.’’

प्रेमलाल कमरे में आ कर सोफे पर बैठ गया.

‘‘सब से पहले यह बताइए कि क्या लेंगे. ठंडा या गरम?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, मैं अभी नाश्ता कर के आ रहा हूं.’’

‘‘फिर भी, कुछ तो लेना ही होगा,’’ कहते हुए चंद्रमोहन ने सुमन को चाय लाने का संकेत किया.

प्रेमलाल की जरा ज्यादा ही धाक थी. बिक्री कर के वकीलों की संस्था में उस की बात कोई न टालता था. इस बार इस संस्था के अध्यक्ष पद के लिए खड़ा हो रहा था. उस के निर्विरोध चुने जाने की पूरी संभावना थी.

चंद्रमोहन ने पूछा, ‘‘कहिए, कैसे कष्ट किया?’’

कल आप ने विनय एंड संस का निरीक्षण किया था. वहां से कुछ कागजात भी पकड़े गए. उस निरीक्षण की रिपोर्ट बदलवाने और आप ने जो कागजात पकड़े हैं उन्हें वापस लेने आया हूं.

‘‘आप के उन लोगों से कुछ निजी संबंध हैं क्या? उस फर्म में बहुत हेराफेरी होती है. वैसे भी ये व्यापारी टैक्स की बहुत चोरी करते हैं. यों समझिए कि खुली लूट मचाते हैं. यदि ये ईमानदारी…’’

‘‘ईमानदारी…’’ हंस दिया प्रेमलाल, ‘‘यह शब्द सुनने में जितना अच्छा लगता है, व्यवहार में उतना ही कटु है. ऐसा कौन व्यक्ति है जो सचमुच ईमानदारी से काम कर रहा हो? आखिर दुकानदार कैसे ईमानदार रह सकता है, जब सरकार उस पर तरहतरह के टैक्स लगा कर उसे स्वयं इन की चोरी करने के लिए प्रेरित करती है. अब आप अपने को ही लीजिए. आप का गिनाचुना वेतन है, फिर भी आप हर महीने हजारों रुपए खर्च करते हैं. क्या आप कह सकते हैं कि आप स्वयं ईमानदार हैं?’’

चंद्रमोहन खिसियाना सा हो कर रह गया.

‘‘हमाम में हम सब नंगे हैं. जिसे आप ने अभी बेईमानी कहा उस में हम सब का हिस्सा है. जब सरकार ने ही बिना सोचेसमझे व्यापारियों पर इतने टैक्स लाद रखे हैं तो वह बेचारा भी क्या करे?’’

तभी सुमन चाय ले कर आ गई.

चाय की चुसकी ले कर प्रेमलाल ने जेब से एक हजार रुपए निकाल कर मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘भई, यह काम आज शाम तक कर दीजिएगा. देखिए, कुछ इस ढंग से चलिए कि सभी का काम चलता रहे, अगर मुरगी ही न रही तो अंडा कैसे हासिल होगा? और हां, वे कागजात…’’

‘‘दे दूंगा,’’ मना करने का साहस चंद्रमोहन में नहीं था.

‘‘हां, एक बात और. कल मुझे एक दुकानदार ने एक शिकायत की थी.’’

‘‘कैसी शिकायत?’’

‘‘यह कि आप का चपरासी रामदीन दुकानदारों से यह कह कर सामान ले जाता है कि साहब ने मंगवाया है. कल आप ने कुछ सामान मंगवाया था क्या?’’

‘‘नहीं तो…’’

‘‘तो अपने चपरासी पर जरा ध्यान रखिए. कहीं ऐसा न हो कि मजे वह करता  रहे और मुसीबत में आप फंस जाएं.’’

‘‘ठीक है. मैं उस नालायक को ठीक कर दूंगा,’’ चंद्रमोहन ने रोष भरे स्वर में कहा.

शाम को चंद्रमोहन ने गांधी बाजार में एक दुकान के आगे अपना स्कूटर खड़ा किया और फिर सुमन व दोनों बच्चों के साथ उस दुकान की ओर बढ़ा.

काउंटर पर खड़े दुकानदार  ने चंद्रमोहन को देख कर क्षण भर के लिए बुरा सा मुंह बनाया, मानो उसे कोई बहुत कड़वी दवा निगलनी पड़ेगी. वह चंद्रमोहन की आदत से परिचित था. पहले भी

2-3 बार चंद्रमोहन सपरिवार उस की दुकान पर आ चुका था और उसे मजबूरन सैकड़ों का माल बिना दाम लिए चंद्रमोहन को देना पड़ा था.

यद्यपि चंद्रमोहन ने उस सामान के दाम पूछे थे, पर दुकानदार जानता था कि अगर उस ने दाम लेने की हिमाकत की तो चंद्रमोहन उस का बदला उस का बिक्री कर बढ़ा कर लेगा. इसलिए दूसरे ही क्षण उस ने चेहरे पर जबरदस्ती मुसकान बिखरते हुए कहा, ‘‘आइए, साहब…आइए.’’

‘‘सुनाइए, क्या हाल है?’’

‘‘आप की कृपा है, साहब. कहिए क्या लेंगे, ठंडा या गरम?’’ न चाहते हुए भी दुकानदार को पूछना पड़ा.

‘‘कुछ नहीं, रहने दीजिए.’’

‘‘नहीं साहब, ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ न कुछ तो लेना ही होगा.’’ दुकानदार ने नौकर को 4 शीतल पेय की बोतलें लाने को कहा.

सुमन बोली, ‘‘मुझे लिपस्टिक और शैंपू दिखाइए.’’

दुकानदार ने कई तरह की लिप-स्टिक दिखाए हैं. सुमन उन में से पसंद करने लगी.

शीतल पेय पी कर लिपस्टिक, शैंपू, सेंट, स्प्रे, टेलकम, ब्रा तथा अन्य सामान बंधवा लिया था.

‘‘कितना बिल हो गया?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

लगभग 300 रुपए का सामान हो गया था. फिर भी दुकानदार मुसकरा कर बोला, ‘‘कैसा बिल, साहब? यह तो आप ही की दुकान है. कोई और सेवा बताएं?’’

‘‘धन्यवाद,’’ कहता हुए चंद्रमोहन अपने परिवार के साथ दुकान से बाहर निकल आया.

कुछ दुकानें छोड़ कर चंद्रमोहन सिलेसिलाए कपड़ों की दुकान पर आ धमका. दुकानदार वहां नहीं था. उस का 15 वर्षीय लड़का दुकान पर खड़ा था, तथा 2 नौकर भी मौजूद थे.

‘‘इस दुकान के मालिक किधर हैं?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘किसी काम से गए हैं,’’ लड़के ने उत्तर दिया.

‘‘कब तक आएंगे?’’

‘‘पता नहीं, शायद अभी आ जाएं.’’

‘‘ठीक है, तुम इन दोनों बच्चों के कपड़े दिखाओ.’’

नौकर बच्चों के सूट दिखाने लगा. 2 सूट पसंद कर बंधवा लिए गए.

‘‘कितना बिल हुआ?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘230 रुपए.’’

‘‘तुम हमें पहचानते नहीं?’’

‘‘जी नहीं,’’ लड़के ने कहा.

‘‘खैर, हम यहां के बिक्री कर अधिकारी हैं. जब दुकान के मालिक आ जाएं तो उन्हें बता देना कि चंद्रमोहन साहब आए थे और ये दोनों सूट पसंद कर गए हैं. वह इन्हें घर पर ले कर आ जाएंगे. क्या समझे?’’

‘‘बहुत अच्छा, कह दूंगा,’’ लड़का बोला.

चंद्रमोहन दुकान से बाहर निकल आया और सुमन से बोला, ‘‘ये दोनों सूट तो घर पहुंच जाएंगे. लड़के का बाप होता तो ये अभी मिल जाते. अच्छा, अब और भी कुछ लेना है?’’

‘‘हां, कुछ क्राकरी भी तो लेनी है.’’

‘‘जरूर. हमें कौन से पैसे देने हैं,’’ कहता हुआ चंद्रमोहन क्राकरी की एक दुकान की तरफ बढ़ा.

देखते ही दुकानदार का माथा ठनका. वह चंद्रमोहन की आदत को अच्छी तरह जानता था. पहले भी कभी चंद्रमोहन, कभी उस की पत्नी और कभी उस का चपरासी बिना पैसे दिए सामान ले गया था. फिर भी दुकानदार को मधुर मुसकान के साथ उस का स्वागत करना पड़ा, ‘‘आइए, साहब, बड़े दिनों बाद दर्शन दिए.’’

‘‘कैसे हैं आप?’’

‘‘बस, जी रहे हैं, साहब, बहुत मंदा चल रहा है.’’

‘‘हां, मंदीतेजी तो चलती ही रहती है.’’

‘‘कल आप का चपरासी रामदीन आया था, साहब. आप ने कुछ मंगाया था न?’’

‘‘हम ने, क्या ले गया वह?’’

‘‘एक दरजन गिलास.’’

चंद्रमोहन चपरासी की इस हरकत पर परदा डालते हुए बोला, ‘‘अच्छा वे गिलास…वे कुछ बढि़या नहीं निकले. वापस भेज दूंगा. अब कोई बढि़या सा टी सेट और कुछ गिलास दिखाइए.’’

चंद्रमोहन व सुमन टी सेट पसंद करने लगे.

तभी अचानक जैसे कोई भयंकर तूफान सा आ गया. बाजार में भगदड़ मचने लगी. दुकानों के दरवाजे तेजी से बंद होने लगे. 2-3 व्यक्ति चिल्ला रहे थे, ‘‘दुकानें बंद कर दो. जल्दी से चौक में इकट्ठे हो जाओ.’’

दुकानदार ने चिल्लाने वाले एक आदमी को बुला कर पूछा, ‘‘क्या हो गया?’’

‘‘झगड़ा हो गया है.’’

‘‘झगड़ा? किस से?’’

‘‘एक बिक्री कर अधिकारी से.’’

‘‘क्या बात हुई?’’

‘‘बिक्री कर विभाग के छापामार दस्ते का एक अधिकारी गोविंदराम की दुकान पर पहुंचा. 500 सौ रुपए का सामान ले लिया. जब उस ने पैसे मांगे तो वह अधिकारी आंखें दिखा कर बोला, ‘हम को नहीं जानता.’ दुकानदार भी अकड़ गया. बात बढ़ गई. वह अधिकारी उसे बरबाद करने की धमकी दे गया है. इन बिक्री कर वालों ने तो लूट मचा रखी है. माल मुफ्त में दो, नहीं तो बरबाद होने के लिए तैयार रहो. मुफ्त में माल भी खाते हैं और ऊपर से गुर्राते भी हैं.’’

‘‘दुकानें क्यों बंद कर रहे हो?’’ दुकानदार ने पूछा.

उस ने कहा, ‘‘बाजार बंद कर के जिलाधिकारी के पास जाना है. आखिर कब तक इस तरह हम लोगों का शोषण होता रहेगा? एक न एक दिन तो हमें इकट्ठे हो कर इस स्थिति का सामना करना ही होगा.

‘‘इन अफसरों की भी तो जांचपड़ताल होनी चाहिए. ये जब नौकरी पर लगते हैं तब इन के पास क्या होता है? और फिर 2-4 साल के बाद ही इन की हालत कितनी बदल जाती है. अब तुम जल्दी दुकान बंद करो. सब दुकानदार चौक में इकट्ठे हो रहे हैं. अब इन मुफ्तखोर अधिकारियों की सूची दी जाएगी. अखबार वालों को भी इन अधिकारियों के नाम बताए जाएंगे,’’ कहता हुआ वह व्यक्ति चला गया.

चंद्रमोहन को लगा मानो यह जलूस छापामार दस्ते के उस अधिकारी के विरुद्ध नहीं, स्वयं उसी के विरुद्ध जाने वाला है. वह भी तो मुफ्तखोर है. आज नहीं तो कल उस का भी जलूस निकलेगा. समाचारपत्रों में उस के नाम की भी चर्चा होगी. उसे अपमानित हो कर इस नगर से निकलना पड़ेगा. नगर की जनता अब जागरूक हो रही है. उसे अपनी यह आदत बदलनी ही पड़ेगी.

दुकानदार ने उपेक्षित स्वर में पूछा, ‘‘हां, साहब, आप फरमाइए.’’

चंद्रमोहन की हालत पतली हो रही थी. उस ने शुष्क होंठों पर जीभ फेर कर कहा, ‘‘आज नहीं, फिर कभी देख लेंगे. आज तो आप भी जल्दी में हैं.’’

‘‘ठीक है.’’ दुकानदार ने गर्वित मुसकान से चंद्रमोहन की ओर देखा और दुकान बंद करने लगा.

चंद्रमोहन दुकान से बाहर निकल कर चल दिया. उसे ग्लानि हो रही थी कि आज वह बहुत गलत समय खरीदारी करने घर से निकला.

‘बच्चू, बंद कर के जाओगे कहां? किसी और दिन सही. आखिर हमारी ताकत तो बेपनाह है,’ मन ही मन बुदबुदाते हुए उस ने कहा.

Hindi Story : डर – क्या फौज से सुरेश को डर लगता था

Hindi Story : मैं सुबह की सैर पर था. अचानक मोबाइल की घंटी बजी. इस समय कौन हो सकता है, मैं ने खुद से ही प्रश्न किया. देखा, यह तो अमृतसर से कौल आई है.

‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो फूफाजी, प्रणाम, मैं सुरेश

बोल रहा हूं?’’

‘‘जीते रहो बेटा. आज कैसे याद किया?’’

‘‘पिछली बार आप आए थे न. आप ने सेना में जाने की प्रेरणा दी थी. कहा था, जिंदगी बन जाएगी. सेना को अपना कैरियर बना लो. तो फूफाजी, मैं ने अपना मन बना लिया है.’’

‘‘वैरी गुड’’

‘‘यूपीएससी ने सेना के लिए इन्वैंट्री कंट्रोल अफसरों की वेकैंसी निकाली है. कौमर्स ग्रैजुएट मांगे हैं, 50 प्रतिशत अंकों वाले भी आवेदन कर सकते हैं.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है.’’

‘‘फूफाजी, पापा तो मान गए हैं पर मम्मी नहीं मानतीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कहती हैं, फौज से डर लगता है. मैं ने उन को समझाया भी कि सिविल में पहले तो कम नंबर वाले अप्लाई ही नहीं कर सकते. अगर किसी के ज्यादा नंबर हैं भी और वह अप्लाई करता भी है तो बड़ीबड़ी डिगरी वाले भी सिलैक्ट नहीं हो पाते. आरक्षण वाले आड़े आते हैं. कम पढ़ेलिखे और अयोग्य होने पर भी सारी सरकारी नौकरियां आरक्षण वाले पा जाते हैं. जो देश की असली क्रीम है, वे विदेशी कंपनियां मोटे पैसों का लालच दे कर कैंपस से ही उठा लेती हैं. बाकियों को आरक्षण मार जाता है.’’

‘‘तुम अपनी मम्मी से मेरी बात करवाओ.’’

थोड़ी देर बाद शकुन लाइन पर आई, ‘‘पैरी पैनाजी.’’

‘‘जीती रहो,’’ वह हमेशा फोन पर मुझे पैरी पैना ही कहती है.

‘‘क्या है शकुन, जाने दो न इसे

फौज में.’’

‘‘मुझे डर लगता है.’’

‘‘किस बात से?’’

‘‘लड़ाई में मारे जाने का.’’

‘‘क्या सिविल में लोग नहीं मरते? कीड़ेमकोड़ों की तरह मर जाते हैं. लड़ाई में तो शहीद होते हैं, तिरंगे में लिपट कर आते हैं. उन को मर जाना कह कर अपमानित मत करो, शकुन. फौज में तो मैं भी था. मैं तो अभी तक जिंदा हूं. 35 वर्ष सेना में नौकरी कर के आया हूं. जिस को मरना होता है, वह मरता है. अभी परसों की बात है, हिमाचल में एक स्कूल बस खाई में गिर गई. 35 बच्चों की मौत हो गई. क्या वे फौज में थे? वे तो स्कूल से घर जा रहे थे. मौत कहीं भी किसी को भी आ सकती है. दूसरे, तुम पढ़ीलिखी हो. तुम्हें पता है, पिछली लड़ाई कब हुई थी?’’

‘‘जी, कारगिल की लड़ाई.’’

‘‘वह 1999 में हुई थी. आज 2018 है. तब से अभी तक कोई लड़ाई नहीं हुई है.’’

‘‘जी, पर जम्मूकश्मीर में हर रोज जो जवान शहीद हो रहे हैं, उन का क्या?’’

‘‘बौर्डर पर तो छिटपुट घटनाएं होती  ही रहती हैं. इस डर से कोईर् फौज में ही नहीं जाएगा. यह सोच गलत है. अगर सेना और सुरक्षाबल न हों तो रातोंरात चीन और पाकिस्तान हमारे देश को खा जाएंगे. हम सब जो आराम से चैन की नींद सोते हैं या सो रहे हैं वह सेना और सुरक्षाबलों की वजह से है, वे दिनरात अपनी ड्यूटी पर डटे रहते हैं.’’

मैं थोड़ी देर के लिए रुका. ‘‘दूसरे, सुरेश इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर के रूप में जाएगा. इन्वैंट्री का मतलब है, स्टोर यानी ऐसे अधिकारी जो स्टोर को कंट्रोल करेंगे. वह सेना की किसी सप्लाई कोर में जाएगा. ये विभाग सेना के मजबूत अंग होते हैं, जो लड़ने वाले जवानों के लिए हर तरह का सामान उपलब्ध करवाते हैं. लड़ाई में भी ये पीछे रह कर काम करते हैं. और फिर तुम जानती हो, जन्म के साथ ही हमारी मृत्यु तक का रास्ता तय हो जाता है. जीवन उसी के अनुसार चलता है.

‘‘तो कोई डर नहीं है?

‘‘मौत से सब को डर लगता है, लेकिन इस डर से कोईर् फौज में न जाए यह एकदम गलत है. दूसरे, सुरेश के इतने नंबर नहीं हैं कि  वह हर जगह अप्लाई कर सके. कंपीटिशन इतना है कि अगर किसी को एमबीए मिल रहे हैं तो एमए पास को कोई नहीं पूछेगा. एकएक नंबर के चलते नौकरियां नहीं मिलती हैं. बीकौम 54 प्रतिशत नंबर वाले को तो बिलकुल नहीं. सुरेश अच्छी जगहों के लिए अप्लाई कर ही नहीं सकता. तुम्हें अब तक इस का अनुभव हो गया होगा शकुन, इसलिए उसे जाने दो.’’

‘‘जी, वहां नंबरों का चक्कर तो

नहीं पड़ेगा.’’

‘‘अच्छा एकेडैमिक कैरियर हर जगह देखा जाता है. परंतु सेना के अपने मापदंड हैं. उसी के अनुसार सिलैक्शन किया जाता है. वहां कोईर् आरक्षण का चक्कर नहीं होता. वहां उन को औलराउंडर चाहिए जो आत्मविश्वास से भरा हो, तुरंत निर्णय लेने की क्षमता रखता हो, दिमाग और शरीर से स्वस्थ हो. और हर तरह का काम करने में समर्थ हो. फिर वे उन को अपनी ट्रेनिंग से सेना के अनुसार ढाल लेते हैं. मेरी सुरेश से बात करवाओ. मैं उसे बताऊंगा कि कैसे करना है,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां, जी.’’

‘‘दिल्ली के एस एन दासगुप्ता कालेज ने अमृतसर में कोचिंग ब्रांच खोली है जो आईएएस, आईपीएस, सेना में अफसर बनने के लिए इच्छुक नौजवानों को कोचिंग देता है. वह यूपीएससी की अन्य परीक्षाओं की भी तैयारी करवाता है. तुम्हें पता है, आजकल सब औनलाइन होता है. वहां चले जाओ. वे इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर के लिए औनलाइन अप्लाई करवा देंगे. वहीं तुम्हें इस की लिखित परीक्षा के लिए कोचिंग लेनी है. अगर लिखित परीक्षा पास कर लेते हो तो वहीं इंटरव्यू की तैयारी की कोचिंग भी लेनी है. वे तुम्हें इस प्रकार तैयारी करवाएंगे कि तुम्हारे 99 प्रतिशत सफल होने के चांस रहेंगे.’’

‘‘पर फूफाजी, मेरे पास उन का पता नहीं है.’’

‘‘यार, आजकल सारी सूचनाएं गूगल पर मिल जाती हैं. गूगल पर सर्च मारो, सब पता चल जाएगा. फिर मुझे बताना कि क्या हुआ.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

कुछ दिनों बाद सुरेश का फोन आया, ‘‘फूफाजी, मुझे पता चल गया था. मैं ने औनलाइन अप्लाई कर दिया है. कोचिंग सैंटर ने अप्लाई और लिखित परीक्षा की तैयारी के लिए 10 हजार रुपए लिए हैं और साथ में यह गारंटी भी दी है कि लिखित परीक्षा वह अवश्य क्लीयर कर ले.’’

‘‘सुरेश, यह उन का व्यापार है. ऐसा वे सब से कहते होंगे जो उन के पास परीक्षा की तैयारी के लिए जाते हैं. यह औल इंडिया बेस की परीक्षा है. इस में सब से अधिक तुम्हारी खुद की मेहनत रंग लाएगी. तुम से अच्छे भी होंगे और खराब भी. बस, रातदिन तुम्हें मेहनत करनी है बिना यह सोचे कि तुम्हारा एकेडैमिक कैरियर कैसा था. यदि तुम ने लिखित परीक्षा पास कर ली तो समझो 50 प्रतिशत मोरचा फतेह कर लिया.’’

‘‘जी, फूफाजी. मैं ईमानदारी से मेहनत करूंगा. लो एक सैकंड पापा से बात करें.’’

‘‘नमस्कार, जीजाजी.’’

‘‘नमस्कार, कैसे हो विपिन?’’

‘‘ठीक हूं, जीजाजी. यह जो सुरेश के लिए सोचा गया है, क्या वह ठीक रहेगा.’’

‘‘बिलकुल ठीक रहेगा. अगर सुरेश सिलैक्ट हो जाता है तो उस की जिंदगी बन जाएगी. वह लैफ्टिनैंट बन कर निकलेगा. क्लास वन गैजेटेड अफसर. सेना की सारी सुविधाएं उसे प्राप्त होगी. उन सुविधाओं के प्रति आम आदमी सोच भी नहीं सकता. ट्रेनिंग के दौरान ही उसे 20 हजार रुपए भत्ता मिलेगा, रहनाखाना फ्री. पासिंगआटट के बाद इस की

55 हजार रुपए से ऊपर सैलरी होगी. वहीं साथ में कई तरह के भत्ते भी मिलेंगे. सारी उम्र न केवल आप को बल्कि पूरे परिवार के रहनेखाने की चिंता नहीं रहेगी, यानी रोटी, कपड़ा और मकान की चिंता नहीं रहेगी.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, जीजाजी, बस एक ही डर है, बेमौत मारे जाने का.’’

‘‘मैं शकुन को सबकुछ समझा चुका हूं, मानता हूं, यह डर उस समय भी था जब मैं सेना में गया था. सेना की इस सेवा के दौरान मैं ने 2 लड़ाइयां भी लड़ीं. मुझे  कुछ नहीं हुआ. जिस की आई होती है, वही मरता है. मैं आप को अपने जीवन की एक घटना बताना चाहता हूं. 65 की लड़ाई में हम सियालकोट सैक्टर से पाकिस्तान में घुसे थे. सारा स्टोर 2 गाडि़यों में ले कर चल रहे थे. एक गाड़ी में मैं और मेरा ड्राइवर था. दूसरी गाड़ी में एक बंगाली लड़का और उस का ड्राइवर था. पाकिस्तान में हम आसानी से घुसते चले गए. लड़ाई हम से कोई 10 किलोमीटर आगे चल रही थी. हम लोगों को केवल हवाई हमलों का डर था और वही हुआ.

‘‘जैसे ही हम ने पाकिस्तान के चारवा गांव को क्रौस किया, हम पर हवाई हमला हुआ. गाडि़यों से निकल कर जिस को जहां जगह मिली लेट गया. मेरे बराबर में मेरा ड्राइवर और उस के बराबर में वह बंगाली लड़का लेटा था. ऊपर से गन का ब्रस्ट आया और गोलियां ड्राइवर के शरीर से इस प्रकार निकल गईं जैसे कपड़े की सिलाई की गई हो. उस ने चूं भी नहीं की. उसी वह मर गया. हम लोगों पर भी खून और मिट्टी पड़ी थी.

‘‘मैं ने आप को डराने के लिए यह घटना नहीं सुनाई है बल्कि यह बताने के लिए कि जिस की मौत आनी होती है, वही शहीद होता है और यह रिस्क हर जगह रहता है. आप यहां सिविल में भी घर से निकलो तो जिंदगी का कोई भरोसा नहीं होता. फिर भी सब अपनेअपने कामों पर घरों से निकलते हैं. इसलिए उसे जाने दो.’’

‘‘ठीक है जीजाजी, पर सुना है, सेना में वही लोग जाते हैं जो भूखे और गरीब हैं, जिन के पास सेना में जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता.’’

‘‘यह बात सही है विपिन. जिन के घरों में गरीबी है, दालरोटी के लाले पड़े हैं, अकसर वही लोग सेना में जाते हैं और जब तक यह गरीबी रहेगी, दालरोटी के लाले रहेंगे, देश को सैनिकों की कमी नहीं रहेगी.

‘‘किसी नेता या अभिनेता के बच्चे कभी सेना में नहीं जाते हैं. यहां तक कि जम्मूकश्मीर के अलगांववादी नेताओं के बच्चे भी सेना में नहीं जाते. वे भी विदेशों में पढ़ते हैं. यह देश के लिए दुख की बात है. आज की ही खबर है कि 8वीं पास सिपाही चाहिए और उस के लिए दौड़ रहे हैं डाक्टर, इंजीनियर और एमबीए. पर तुम्हें सुरेश को ले कर यह बात नहीं सोचनी है. उस का भविष्य बनने दो. कुछ देर के लिए समझ लो, तुम भी गरीब हो. इस से अधिक और मैं कुछ नहीं कह सकता.’’

‘‘ठीक है, जीजाजी. अब मैं उसे नहीं रोकूंगा.’’

मैं भूल चुका था कि सुरेश किसी परीक्षा की तैयारी कर रहा है. मुझे कुछ देर पहले ही पता चला कि उस ने परीक्षा दे दी है. उस के भी कोई 4 महीने बाद सुरेश का फोन आया कि उस ने इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर की लिखित परीक्षा पास कर ली है. इस की  सूचना मुझे ईमेल और डाक द्वारा दी गई है. अब उसे एसएसबी क्लीयर करनी है.

‘‘बधाई हो, सुरेश, एसएसबी के लिए तुम्हें 2-3 महीने मिलेंगे. कोचिंग सैंटर में ऐडमिशन लो और तैयारी में जुट जाओ. उसे पूरा विश्वास है कि तुम एसएसबी भी क्लीयर कर लोगे.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

फिर 3 महीने बाद उस का फोन आया. वह बहुत खुश था. उस की आवाज में खुशी थी. ‘‘मैं ने एसएसबी क्लीयर कर ली है, फूफाजी. 25 में से 4 लड़के सिलैक्ट हुए थे. वहां भी सभी का मैडिकल हुआ था. सभी ने क्लीयर कर लिया था. अब क्या होगा, फूफाजी?’’

‘‘कुछ नहीं. मार्च में शुरू होगा

यह कोर्स.’’

‘‘जी, मार्च के पहले सोमवार से.’’

‘‘ठीक है. देश के सभी एसएसबी केंद्रों से इस कोर्स के लिए चुने गए उम्मीदवारों की लिस्ट सेना मुख्यालय को भेजी जाएगी. वह इसे कंसौलिडेट करेगा. फिर सभी को दिसंबर के पहले हफ्ते तक इस की सूचना ईमेल और डाक द्वारा दी जाएगी. उस सूचना के अनुसार जो प्रमाणपत्र और डौक्युमैंट्स उन को चाहिए होंगे उन की फोटोकौपी अटैस्ट करवा कर जिस पते पर उन्होंने भेजने के लिए लिखा होगा, उस पर भेजनी होगी. ईमेल और डाक द्वारा फिर सारे डौक्युमैंट्स चैक करने के बाद आप का मिलिटरी अस्पताल में डिटेल्ड मैडिकल होगा, इस की सूचना समय रहते आ जाएगी. एक बात बताओ सुरेश, तुम ने अभी दाढ़ीमूंछ रखी हुई है?’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

‘‘मैं तुम्हें बता दूं, सेना के लोग, चाहे वे किसी भी विभाग के हों, मूंछें तो पसंद करते हैं परंतु दाढ़ी बिलकुल नहीं. इसलिए मैडिकल के लिए सेना अस्पताल जाओ तो मूंछें ट्रिम करवा कर जाना और दाढ़ी बिलकुल साफ होनी चाहिए. चिकना बन कर जाना. कटिंग करवा कर जाना. छोटेछोटे बाल होने चाहिए. ऊपर से ले कर नीचे तक साफसुथरा. तुम्हारे शरीर के एकएक अंग का निरीक्षण होगा. मेरे कहे अनुसार चलोगे तो मैडिकल में फेल होने के कम चांस रहेंगे. मैडिकल करने वाले डाक्टरों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा. वे समझेंगे, लड़का सच में अफसर बनने लायक है.’’

एक महीने बाद सुरेश का फोन आया. ‘‘फूफाजी, आज मैं मिलिटरी अस्पताल, अमृतसर मैडिकल के लिए जा रहा हूं. आप के कहे अनुसार चिकना बन गया हूं. वहां से आ कर मैं आप को बताऊंगा.’’

रात को उस का फोन आया, ‘‘फूफाजी, सब ठीक हो गया है. एक अलग से मैडिकल प्रमाणपत्र दिया है जो सेना मुख्यालय के अनुसार है. पूरा दिन लग गया. शाम को 6 बजे तक सारा चैकअप पूरा हुआ. फिर कहीं जा कर उन्होंने प्रमाणपत्र दिया. मैं ने सब की फोटोकौपी ले कर फाइल बना ली है. केवल बीकौम के प्रमाणपत्र अटैस्ट होने बाकी हैं. पर फूफाजी, एक दिक्कत आ रही है. सारे प्रमाणपत्र सर्विंग मिलिटरी अफसर से अटैस्ट होने हैं. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह कैसे होगा?’’

मैं ने कुछ देर सोचा, फिर कहा, ‘‘तुम्हारे कालेज में एनसीसी है?’’

‘‘है, फूफाजी.’’

‘‘फिर क्या दिक्कत है. अपने कालेज जाओ. एनसीसी के प्रोफैसर को पकड़ो, साथ लो और एनसीसी मुख्यालय पहुंच जाओ. वहां सारे सेना के सर्विंग अफसर मिल जाएंगे. अपने साथ सारी फाइल ले जाना. तुम्हारा काम एक मिनट में हो जाएगा.’’

‘‘यह सही कहा आप ने, एनसीसी के प्रोफैसर रमाकांतजी मेरे अच्छे जानकार भी हैं.’’

‘‘ठीक है फिर, शुभकामनाएं.’’

सुरेश ने फोन बंद कर दिया. 2 दिन बाद फोन आया, ‘‘फूफाजी, सारे प्रमाणपत्र अटैस्ट हो गए हैं. अब सेना मुख्यालय में डौक्युमैंट्स भेजने हैं.’’

‘‘सारे इंस्ट्रक्शन ध्यान से पढ़ना. जिस प्रकार उन्होंने कहा है या लिखा है, उसी के अनुसार भेजना. कोई डौक्युमैंट छूटना नहीं चाहिए और सब की फोटोकौपी लेना न भूलना. वहां स्पीडपोस्ट या कूरियर से आप डौक्युमैंट्स नहीं भेज सकते हैं. आप को रजिस्टर्ड डाक से ही भेजने होंगे और एक कौपी ईमेल से. आप सेना मुख्यालय के इंस्ट्रक्शन फौलो करना.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

एक महीने बाद सुरेश का फोन आया, ‘‘मुझे ट्रेनिंग के लिए आईएमए देहरादून में 5 मार्च को रिपोर्ट करनी है. लिफाफे में मेरा मूवमैंट और्डर और द्वितीय श्रेणी का रेलवे वारंट है और साथ में सामान की लिस्ट है जो साथ ले कर जाना है.’’

‘‘मुबारक हो. तुम्हारी जिंदगी बन गई. सेना में अफसर बनना गर्व की बात है.’’ थोड़ा रुक कर मैं ने कहा, ‘‘रेलवे वारंट और मूवमैंट और्डर के साथ रेलवे स्टेशन पर एमसीओ, मिलिटरी मूवमैंट कंट्रोल औफिस चले जाना. एक नंबर प्लेटफौर्म पर यह औफिस है, वह मिलिटरी कोटे से तुम्हारे रिजर्वेशन का प्रबंध करेगा. बाकी रही तुम्हारी सामान साथ ले जाने वाली बात, अमृतसर कैंट में मस्कटरी की दुकानें हैं. वहां तुम्हें सारा सामान मिल जाएगा. अगर कुछ रह भी जाता है तो वह आईएमए से मिल जाएगा.’’

‘‘जी, फूफाजी. लेकिन देहरादून पहुंच कर आईएमए तक कैसे पहुंचा जाएगा?’’

‘‘सेना का कोई काम पैंडिंग नहीं होता. उन को पहले ही इस की सूचना होगी. वे सुबह शनिवार से रेलवे स्टेशन पर एमसीओ के बाहर टेबलकुरसी ले कर बैठे होंगे और साथ में लिखा होगा कि इस कोर्स के कैंडिडेट यहां रिपोर्ट करें. और यह सिलसिला रविवार शाम तक चलता रहेगा.

‘‘गाडि़यां बाहर खड़ी रहेंगी जिन में बैठा कर वह सब को आईएमए पहुंचाती रहेगी. वहां सिर्फ तुम्हारा कोर्स ही नहीं चल रहा होगा, सभी के लिए अलगअलग टेबल लगी होंगी. तुम्हें अपने मूवमैंट और्डर लिखे कोर्स नंबर की टेबल पर रिपोर्ट करनी है. फिर उन का काम है कि कैसे करना है. तुम्हें उन के अनुसार करते रहना है.’’

4 मार्च की शाम को सुरेश का फोन आया. ‘‘आज रात मैं ट्रेन से आईएमए देहरादून जा रहा हूं. एमसीओ अमृतसर ने इस का रिजर्वेशन किया था. सुबह 10 बजे तक मैं वहां पहुंच जाऊंगा. शाम को 6 बजे तक वहां रिपोर्ट करनी है. मैं तो वहां 10 बजे ही पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. वहां आप को सैटल होने का समय मिल जाएगा. जिस में हेयरकट से ले कर वरदी लेने तक और सोमवार को शुरू होने वाली टे्रनिंग की तैयारी में सुविधा रहेगी. ट्रेनिंग काफी सख्त रहेगी.

‘‘आईएमए विश्व का सर्वश्रेष्ठ ट्रेनिंग संस्थान है. अन्य देशों से भी अफसर यहां टे्रनिंग लेने आते हैं. सबकुछ व्यवस्थित ढंग से चलेगा. जब तुम वहां से पासआउट हो कर निकलोगे तो तुम भारतीय सशस्त्र सेना के अफसर होगे.

‘‘प्रथम श्रेणी के अफसर, जैसे आईएएस, आईपीएस अफसर होते हैं. तुम्हें लगेगा कि तुम औरों से बिलकुल अलग हो. तुम्हारे शरीर पर सेना की सुंदर वरदी होगी. दोनों कंधों पर 2-2 चमकते स्टार होंगे. हवाईजहाज या ट्रेन में प्रथम श्रेणी में सफर करोगे. तुम्हारे नाम के साथ लैफ्टिनैंट जुड़ जाएगा. तुम अपना परिचय लैफ्टिनैंट सुरेश कुमार के रूप में दोगे. उस समय जो तुम्हें गर्व महसूस होगा वह अनुभव जीवन का सर्वश्रेष्ठ अनुभव होगा. मेरी शुभकामनाएं हैं तुम्हें.’’

Hindi Story : मान अभिमान

Hindi Story : अपने बच्चों की प्रशंसा पर कौन खुश नहीं होता. रमा भी इस का अपवाद न थी.ं अपनी दोनों बहुओं की बातें वह बढ़चढ़ कर लोगों को बतातीं. उन की बहुएं हैं ही अच्छी. जैसी सुंदर और सलोनी वैसी ही सुशील व विनम्र भी.

एक कानवेंट स्कूल की टीचर है तो दूसरी बैंक में अफसर. रमा के लिए बच्चे ही उन की दुनिया हैं. उन्हें जितनी बार वह देखतीं मन ही मन बलैया लेतीं. दोनों लड़कों के साथसाथ दोनों बहुओं का भी वह खूब ध्यान रखतीं. वह बहुओं को इस तरह रखतीं कि बाहर से आने वाला अनजान व्यक्ति देखे तो पता न चले कि ये लड़कियां हैं या बहुएं हैं.

सभी परंपराओं और प्रथाओं से परे घर के सभी दायित्व को वह खुद ही संभालतीं. बहुओं की सुविधा और आजादी में कभी हस्तक्षेप नहीं करतीं. लड़के तो लड़के मां के प्यार और प्रोत्साहन से पराए घर से आई लड़कियों ने भी प्रगति की.

मां का स्नेह, सीख, समझदारी और विश्वास मान्या और उर्मि के आचरण में साफ झलकता. देखते ही देखते अपने छोटे से सीमित दायरे में उन्हें यश भी मिला और नाम भी. कार्यालय और महल्ले में वे दोनों ही अच्छीखासी लोकप्रिय हो गईं. जिसे देखो वही अपने घर मान्या और उर्मि का उदाहरण देता कि भाई बहुएं हों तो बस, मान्या और उर्मि जैसी.

‘‘रमा, तू ने मान्या व उर्मि के रूप में 2 रतन पाए हैं वरना आजकल के जमाने में ऐसी लड़कियां मिलती ही कहां हैं और इसी के साथ कालोनी की महिलाओं का एकदूसरे का बहूपुराण शुरू हो जाता.

रमा को तुलना भली न लगती. उन्हें तो इस की उस की बुराई भी करनी नहीं आती पर अपनी बहुओं की बड़ाई उन्हें खूब सुहाती थी. वह खुशी से फूली न समातीं.

इधर कुछ समय से रमा की सोच बदल रही है. मान्या और उर्मि की यह हरदम की बड़ाई उन्हें कहीं न कहीं खटक रही है. अपने ही मन के भाव रमा को स्तब्ध सा कर देते हैं. वह लाख अपने को धिक्कारेफटकारे पर विचार हैं कि न चाहते हुए भी चले आते हैं.

‘मैं जो दिन भर खटती हूं, परिवार में सभी की सुखसुविधाओं का ध्यान रखती हूं. दोनों बहुओं की आजादी में बाधक नहीं बनती…उन पर घरपरिवार का दायित्व नहीं डालती…वो क्या कुछ भी नहीं…बहुओं को भी देखो…पूरी की पूरी प्रशंसा कैसे सहजता के साथ खुद ही ओढ़ लेती हैं…मां का कहीं कोई जिक्र तक नहीं करतीं. उन की इस सफलता में मेरा काम क्या कुछ भी नहीं?’

अपनी दोनों बहुओं के प्रति रमा का मन जब भी कड़वाता तो वह कठोर हो जातीं. बातबेबात डांटडपट देतीं तो वे हकबकाई सी हैरान रह जातीं.

मान्या और उर्मि का सहमापन रमा को कचोट जाता. अपने व्यवहार पर उन्हें पछतावा हो आता और जल्द ही सामान्य हो वह उन के प्रति पुन: उदार और ममतामयी हो उठतीं.

मांजी में आए इस बदलाव को देख कर मान्या और उर्मि असमंजस में पड़ जातीं पर काम की व्यस्तता के कारण वे इस समस्या पर विचार नहीं कर पाती थीं. फिर सोचतीं कि मां का क्या? पल में तोला पल में माशा. अभी डांट रही हैं तो अभी बहलाना भी शुरू कर देंगी.

क्रिसमस का त्योहार आने वाला था. ठंड खूब बढ़ गई थी. उस दिन सुबह रमा से बिस्तर छोड़ते ही नहीं बन रहा था. ऊपर से सिर में तेज दर्द हो रहा था. फिर भी मान्या का खयाल आते ही रमा हिम्मत कर उठ खड़ी हुईं.

किसी तरह अपने को घसीट कर रसोईघर में ले गईं और चुपचाप मान्या को दूध व दलिया दिया. रात की बची सब्जी माइक्रोवेव में गरम कर, 2 परांठे बना कर उस का लंच भी पैक कर दिया. मां का मूड बिगड़ा समझ कर मान्या ने बिना किसी नाजनखरे के नाश्ता किया. लंचबौक्स रख टाटाबाई कहती भागती हुई घर से निकल गई. 9 बजे तक उर्मि भी चली गई. सुयश और सुजय के जाने के बाद अंत में राघव भी चले गए थे.

10 बजे तक घर में सन्नाटा छा जाता है. पीछे एक आंधीअंधड़ छोड़ कर सभी चले जाते हैं. कहीं गीला तौलिया पलंग पर पड़ा है तो कहीं गंदे मोजे जमीन पर. कहीं रेडियो बज रहा है तो किसी के कमरे में टेलीविजन चल रहा है. किसी ने दूध अधपिया छोड़ दिया है तो किसी ने टोस्ट को बस, जरा कुतर कर ही धर दिया है, लो अब भुगतो, सहेजो और समेटो.

कभी आनंदअनुराग से किए जाने वाले काम अब रमा को बेमजा बोझ लगते. सास के जीतेजी उन के उपदेशों पर उस ने ध्यान न दिया…अब जा कर रमा उन की बातों का मर्म मान रही थीं.

‘बहू, तू तो अपनी बहुओं को बिगाड़ के ही दम लेगी…हर दम उन के आगेपीछे डोलती रहती है…हर बात उन के मन की करती है…अरी, ऐसा तो न कहीं देखा न सुना…डोर इतनी ढीली भी न छोड़…लगाम तनिक कस के रख.’

‘अम्मां, ये भी तो किसी के घर की बेटियां हैं. घोडि़यां तो नहीं कि उन की लगाम कसी जाए.’ सास से रमा ठिठोली करतीं तो वह बेचारी चुप हो जातीं.

तब मान्या और उर्मि उस का कितना मान करती थीं. हरदम मांमां करती आगे- पीछे लगी रहती थीं. अब तो सारी सुख- सुविधाओं का उन्होंने स्वभाव बना लिया है…न घर की परवा न मां से मतलब. एक के लिए उस की टीचरी और दूसरी के लिए उस की अफसरी ही सबकुछ है. घर का क्या? मां हैं, सुशीला है फिर काम भी कितना. पकाना, खाना, सहेजना, समेटना, धोना और पोंछना, बस. शरीर की कमजोरी ने रमा के अंतस को और भी उग्र बना दिया था.

सुशीला काम निबटा कर घर से निकली तो 2 बज चुके थे. रमा का शरीर टूट रहा था. बुखार सा लग रहा था. खाने का बिलकुल भी मन न था. उन्होंने मान्या की थाली परोस कर मेज पर ढक कर रख दी और खुद चटाई ले कर बरामदे की धूप में जा लेटीं.

बाहर के दरवाजे का खटका सुन रमा चौंकीं. रोज की तरह मान्या ढाई बजे आ गई थी.

‘‘अरे, मांजी…आप धूप सेंक रही हैं…’’ चहकती हुई मान्या अंदर अपने कमरे में चली गई और चाह कर भी रमा आंखें न खोल पाईं.

हाथमुंह धो कर मान्या वापस पलटी तो रमा अभी भी आंखें मूंदे पड़ी थीं.

‘मेज पर एक ही थाली?’ मान्या ने खुद से प्रश्न किया फिर सोचा, शायद मांजी खा कर लेटी हैं. थक गई होंगी बेचारी. दिन भर काम करती रहती हैं…

रमा को झुरझुरी सी लगी. वह धीरे से उठीं. चटाई लपेटी दरवाजा बंद किया और कांपती हुई अपनी रजाई में जा लेटीं.

उधर मान्या को खाने के साथ कुछ पढ़ने की आदत है. उस दिन भी वही हुआ. खाने के साथ वह पत्रिका की कहानी में उलझी रही तो उसे यह पता नहीं चला कि मांजी कब उठीं और जा कर अपने कमरे में लेट गईं. बड़ी देर बाद वह मेज पर से बरतन समेट कर जब रमा के पास पहुंची तो वह सो चुकी थीं.

‘गहरी नींद है…सोने दो…शाम को समझ लूंगी…’ सोचतेसोचते मान्या भी जा लेटी तो झपकी लग गई.

रोज का यही नियम था. दोपहर के खाने के बाद घंटा दो घंटा दोनों अपनेअपने कमरों में झपक लेतीं.

शाम की चाय बनाने के बाद ही रमा मान्या को जगातीं. सोचतीं बच्ची थकी है. जब तक चाय बनती है उसे सो लेने दिया जाए.

बहुत सारे लाड़ के बाद जाग कर मान्या चाय पीती स्कूल की कापियां जांचती और अगले दिन का पाठ तैयार करती.

इस बीच रमा रसोई में चली जातीं और रात का खाना बनातीं. जल्दीजल्दी सबकुछ निबटातीं ताकि शाम का कुछ समय अपने परिवार के साथ मिलबैठ कर गुजार सकें.

संगीत के शौकीन पति राघव आते ही टेपरिकार्ड चला देते तो घर चहकने लगता.

उर्मि को आते ही मांजी से लाड़ की ललक लगती. बैग रख कर वह वहीं सोफे पर पसर जाती.

सुजय एक विदेशी कंपनी में बड़ा अफसर था. रोज देर से घर आता और सुयश सदा का चुप्पा. जरा सी हायहेलो के बाद अखबार में मुंह दे कर बैठ जाता था. उर्मि उस से उलझती. टेलीविजन बंद कर घुमा लाने को मचलती. दोनों आपस में लड़तेझगड़ते. ऐसी खट्टीमीठी नोकझोंक के चलते घर भराभरा लगता और रमा अभिमान अनुराग से ओतप्रोत हो जातीं.

लगातार बजती दरवाजे की घंटी से मान्या अचकचा कर उठ बैठी. खूब अंधेरा घिर आया था.

दौड़ कर उस ने दरवाजा खोला तो सामने तमतमायी उर्मि खड़ी थी.

‘‘कितनी देर से घंटी बजा रही हूं. आप अभी तक सो रही थीं. मां, मां कहां हैं?’’ कह कर उर्मि के कमरे की ओर दौड़ी.

मांजी को कुछ खबर ही न थी. वह तो बुखार में तपी पड़ी थीं. डाक्टर आया, जांच के बाद दवा लिख कर समझा गया कि कैसे और कबकब लेनी है. घर सुनसान था और सभी गुमसुम.

मान्या का बुरा हाल था.

‘‘मैं तो समझी थी कि मांजी थक कर सोई हुई हैं…हाय, मुझे पता ही न चला कि उन्हें इतना तेज बुखार है.’’

‘‘इस में इतना परेशान होने की क्या बात है…बुखार ही तो है…1-2 दिन में ठीक हो जाएगा,’’ पापा ने मान्या को पुचकारा तो उस की आंखें भर आईं.

‘‘अरे, इस में रोने की कौन सी बात है,’’  राघव बिगड़ गए.

अगले दिन, दिनचढ़े रमा की आंख खुली तो राघव को छोड़ सभी अपनेअपने काम पर जा चुके थे.

घर में इधरउधर देख कर रमा अकुलाईं तो राघव उन बिन बोले भावों को तुरंत ताड़ गए.

‘‘मान्या तो जाना ही नहीं चाहती थी. मैं ने ही जबरदस्ती उसे स्कूल भेज दिया है. उर्मि को तो तुम जानती ही हो…इतनी बड़ी अफसरी तिस पर नईनई नौकरी… छुट्टी का तो सवाल ही नहीं…’’

‘‘हां…हां…क्यों नहीं…सभी काम जरूरी ठहरे. मेरा क्या…बीमार हूं तो ठीक भी हो जाऊंगी,’’ रमा ने ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा था.

राघव ने बताया, ‘‘मान्या तुम्हारे लिए खिचड़ी बना कर गई है. और उर्मि ने सूप बना कर रख दिया है.’’

रमा ने बारीबारी से दोनों चीजें चख कर देखीं. खिचड़ी उसे फीकी लगी और सूप कसैला…

3 दिनों तक घर मशीन की तरह चलता रहा. राघव छुट्टी ले कर पत्नी की सेवा करते रहे. बाकी सब समय पर जाते, समय पर आते.

आ कर कुछ समय मां के साथ बिताते.

तीसरे दिन रमा का बुखार उतरा. दोपहर में खिचड़ी खा कर वह भी राघव के साथ बरामदे में धूप में जा बैठी.

राघव पेपर देखने लगे तो रमा ने भी पत्रिका उठा ली. ठीक तभी बाहर का दरवाजा खुलने का खटका हुआ. रमा ने मुड़ कर देखा तो मान्या थी. साथ में 2-3 उस के स्कूल की ही अध्यापिकाएं भी थीं.

‘‘अरे, मांजी, आप अच्छी हो गईं?’’ खुशी से मान्या ने आते ही उन्हें कुछ पकड़ाया और खुद अंदर चली गई.

‘‘अरे, यह क्या है?’’ रमा ने पैकेट को उलटपलट कर देखा.

‘‘आंटी, मान्या को बेस्ट टीचर का अवार्ड मिला है.’’

‘‘क्या? इनाम…अपनी मनु को?’’

‘‘जी, आंटी, छोटामोटा नहीं, यह रीजनल अवार्ड है.’’

रोमांचित रमा ने झटपट पैकेट खोला. अंदर गोल डब्बी में सोने का मैडल झिलमिला रहा था. प्रमाणपत्र के साथ 10 हजार रुपए का चेक भी था. मारे खुशी के रमा की आवाज ही गुम हो गई.

‘‘आंटी, देखो न, मान्या ने कोई ट्रीट तक नहीं दी. कहने लगी, पहले मां को दिखाऊंगी…अब देखो न कब से अंदर जा छिपी है.’’ खुशी के लमहों से निकल कर रमा ने मान्या को आवाज लगाई, ‘‘मनु, बेटा…आना तो जरा.’’

अपने लिए मनु का संबोधन सुन मान्या भला रुक सकती थी क्या? आते ही सहजता से उस ने अपनी सहेलियों का परिचय कराया, ‘‘मां, यह सौंदर्या है, यह नफीसा और यह अमरजीत. मां, ये आप से मिलने नहीं आप को देखने आई हैं. वह क्या है न मां, यह समझती हैं कि आप संसार का 8वां अजूबा हो…’’

‘‘यह क्या बात हुई भला?’’ रमा के माथे पर बल पड़ गए.

मान्या की सहेलियां कुछ सकपकाईं फिर सफाई देती हुई बोलीं, ‘‘आंटी, असल में मान्या आप की इतनी बातें करती है कि हम तो समझते थे कि आप ही मान्या की मां हैं. हमें तो आज तक पता ही न था कि आप इस की सास हैं.’’

‘‘अब तो पता चल गया न. अब लड्डू बांटो…’’ मान्या ने मुंह बनाया.

‘‘लड्डू तो अब मुझे बांटने होंगे,’’ रमा ने पति को आवाज लगाई, ‘‘अजी, जरा फोन तो लगाइए और इन सभी की मनपसंद कोई चीज जैसे पिज्जा, पेस्ट्री और आइसक्रीम मंगा लीजिए.’’

रमा ने मान से मैडल मान्या के गले में डाला और खुद अभिमान से इतराईं. मान्या लाज से लजाई. सभी ने तालियां बजाईं.

वीना टहिल्यानी

Short Story : प्यार और श्मशान

Short Story : ‘‘अरे बाबा, आजकल फसलों पर एक बड़ी मुसीबत आई है. सुना है कि 3-4 किलोमीटर लंबा एक टिड्डी दल किसी भी दिशा से आता है और लहलहाती फसलों पर बैठ कर कुछ ही समय में उन्हें चट कर जाता है. इन टिड्डियों के चलते किसानों में बड़ा डर फैला हुआ है. आजकल किसान खेतों में दिनरात पहरा दे रहे हैं,’’ केशव ने अपने बाबा त्रिकाली डोम से कहा.

‘‘हां… हो सकता है… पर इस खतरे से हमें न कल डर था और न आज ही कोई डर है,’’ केशव के बाबा आसमान में देखते हुए बोले.

‘‘हम तो भूमिविहीन ही पैदा हुए. और हमारे डोम समाज का काम चिता को सजाने से ले कर उसे पूरी तरह जलाने का था. इसलिए जमीन न होने के चलते फसल कभी उगाई नहीं और आज भी हमारे पास जमीन नहीं है, इसलिए टिड्डी दल का खतरा हो या न हो, हमें कोई असर नहीं पड़ता,’’ और फिर केशव का बाबा एक गाना गाने लगा था:

‘‘तिसना छूटी… माया छूटी,

छूटी माटी, माटी रे…

माटी का तन मिला माटी में…

रह गई, माटी माटी… रे…’’

किसी जमाने में इस गांव में लाशें जलाने का काम करने वालों को डोमराजा कहा जाता था और वे समाज में अनदेखे रहते थे, पर धीरेधीरे जैसे इस गांव का विकास हुआ, वैसे ही इन लोगों की जिंदगी में भी सुधार हुआ. डोम लोगों की अगली पीढ़ी अब अपना पुश्तैनी काम न कर के पढ़ाई करना चाहती थी.

त्रिकाली डोम का पोता केशव भी शहर से पढ़ाईलिखाई कर के गांव में वापस आ गया था और उस ने गांव में ही कपड़े का कारोबार शुरू कर दिया था. केशव के अच्छे बरताव और मेहनत के चलते उस का काम भी चमक रहा था.

इस कसबे में एक तरफ ऊंची जाति के लोगों की बस्तियां थीं, तो दूसरी तरफ पिछड़ी जाति की. ऐसे तो ऊंचनीच के भेद को किसी भौगोलिक रेखा की जरूरत नहीं होती है, वह भेद तो हमेशा ही दोनों जातियों के मन में अपनी जगह बनाए रखता है. ऊंची जातियों में, ऊंचे होने का अहंकार रहता है, तो नीची जातियों में नीच कहलाए जाने का दर्द और एक अनजाना डर.

किसी जमाने में एक पिछड़ा गांव आज एक अच्छेखासे कसबे में तबदील हो गया था. इस गांव में मोबाइल और केबल टीवी से ले कर जरूरत की तकरीबन हर चीज मिलने लगी थी.

पर यह गांव आज भी किसी जमाने में अपने ऊपर हुए जोरजुल्म की कहानी कहता है और यह बताता है कि जोरजुल्म की कोई जाति नहीं होती, माली तौर पर कमजोर किसी भी आदमी को सताया और दबाया जा सकता है, जिस का उदाहरण इसी गांव में रहने वाली 55 साल की एक औरत रूपाली देवी थी. वह जाति से ठाकुर थी, पर उस के पति से उस के देवर का जमीनी विवाद चला करता था. उस के पति ने कोर्टकचहरी कर के जमीन का कब्जा हासिल कर लिया था.

इस बात से गुस्साए देवर ने एक दिन दबंगों के साथ मिल कर रूपाली देवी का रेप कर डाला था.

उस समय रूपाली देवी की उम्र महज 20 साल थी, अपने ऊपर हुए रेप की रिपोर्ट कराने गई रूपाली देवी की कोई भी सुनवाई नहीं हुई. उलटा उसे ही जलील हो कर थाने से बाहर निकाल दिया गया. इतने पर भी जब रूपाली देवी के देवर की सीने की आग ठंडी नहीं हुई. रेप के एक साल के अंदर ही रूपाली देवी ने एक चांद सी लड़की ‘मालती’ को जन्म दिया, तो उस बच्ची को रेप से पैदा हुई औलाद के रूप में भी खूब प्रचारित किया गया.

इस से दुखी हो कर रूपाली देवी और उस के पति ने कई बार गांव ही छोड़ देने और दूसरे गांव में जा बसने की योजना बनाई, पर जमीन से जुड़े होने के चलते और अपनी जमीन की सही कीमत न मिल पाने के चलते वे अपने मुंह को सी कर इसी गांव में रहते रहे.

मालती रेप के द्वारा पैदा हुई औलाद है, इस दुष्प्रचार का असर ये हुआ कि मालती से कोई भी लड़का शादी करने को राजी नहीं हो रहा था. यदि कहीं से रिश्ता बनता भी तो मालती की बदनामी पहले ही करा दी जाती. लिहाजा, यह रिश्ता टूट जाता और इसी तरह मालती की उम्र आज 35 साल की हो गई थी और वह अब भी कुंआरी थी.

मालती के घर में उस की मां, बाप और एक भाई थे. मालती ने अपनी बढ़ती उम्र के बीच खुद को बिजी रखने और रोजीरोटी के लिए खुद का काम करना शुरू कर दिया था. वह कसबे की दुकानों से कपड़ा खरीद कर उस पर बढि़या कढ़ाई करती और अपने भाई द्वारा उन्हें शहरों के बाजारों में बिकने भेज देती.

इस बार जब मालती कसबे के बाजार में कपड़ा खरीदने गई, तो अपनी दुकान पर बैठे केशव ने मालती को अच्छा ग्राहक जान कर उस से कहा, ‘‘कभी हमारी दुकान से भी कपड़ा खरीद कर देखो… क्वालिटी में सब से बेहतर ही पाएंगी.’’

‘‘हां… पर, मैं तो यह काम चार पैसे कमाने के लिए करती हूं… अगर बाजार से कम कीमत लगाओ, तो मैं तुम से ही कपड़ा ले लिया करूंगी,’’ मालती ने कहा.

‘‘हां, तो फिर आओ… दुकान के अंदर आ आओ… एक से एक कपड़ा दिखाता हूं और वे भी सही कीमत के साथ, अगर पसंद आ जाए तो बता देना… घर तक पहुंचवा भी दूंगा,’’ केशव ने दुकान के अंदर आने का इशारा करते हुए कहा.

मालती ने दुकान के अंदर जा कर अपनी पसंद के कपड़े लिए और अपने मुताबिक कीमत भी लगवाई.

‘‘एक बात कहूं… मैं तो सोचता था कि तुम ठकुराइन हो… मुझ डोम के यहां से कपड़ा खरीदने में गुरेज करोगी,’’ केशव ने मालती की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘ये जातपांत वे मानें… जिन्हें वोट लेना हो… मैं ये ऊंचनीच, भेदभाव में यकीन नहीं रखती… और यह सब सोचने का मेरे पास टाइम भी नहीं है और न ही मेरी समझ,’’ यह कह कर मालती दुकान से बाहर निकल गई.

‘‘और… हां, वे पैसे मैं छोटे भाई से भिजवा दूंगी,’’ मालती ने कहा, जिस के बदले में केशव सिर्फ मुसकरा दिया.

‘‘कसबे की बाकी दुकानों से कपड़ा भी अच्छा है और दाम भी ठीक लगाए हैं केशव ने, अगली बार भी इसी के यहां से कपड़ा लूंगी,’’ केशव की दुकान से आए हुए कपड़े पर कढ़ाई करते हुए मालती मन ही मन बुदबुदा उठी थी.

फिर तो केशव की दुकान से कपड़ा खरीदने का सिलसिला शुरू हो गया, और एक ठाकुर जाति की लड़की और एक डोम जाति के लड़के में अपने धंधे को ले कर एक अच्छी समझ पैदा हो गई थी.

केशव अब 30 साल का हो गया था और अपनी पढ़ाई और धंधा जमाने के चक्कर में ब्याह की सुध भी न रही, एकाध बार बाबूजी ने बोला भी तो केशव ने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा धंधापानी जम जाए तो कर लूंगा, पर अब उस के लिए रिश्ते आने बंद हो गए थे, क्योंकि डोम लोगों की प्रथा के मुताबिक उस की शादी करने की उम्र अब निकल चुकी थी.

मालती और केशव भले ही अलगअलग जाति के थे, पर एक  यही बात उन दोनों में समान थी कि  दोनों अभी तक कुंआरे थे.

आसमान में कालेकाले बादल घिर आए थे और बहुत तेज बारिश होने की उम्मीद थी. बहुत देर से कोई ग्राहक न आता देख केशव ने दुकान का शटर बंद कर दिया और एक छाता ले कर अपने घर की तरफ चल पड़ा.

बारिश बहुत तेज हो गई थी. सड़कों पर सन्नाटा छा गया था. ऐसे में अचानक केशव की नजर एक कोने में खड़ी मालती पर गई, जो एक कोने में खड़ी हो कर बारिश से बचने की नाकाम कोशिश कर रही थी.

‘‘अरे… मालती… तुम… इतनी तेज बारिश में यहां क्या कर रही हो?’’ अपना छाता केशव ने मालती के सिर के ऊपर लगाते हुए कहा.

‘‘दरअसल, मैं तुम्हारे पास ही आ रही थी… मुझे कल ही इस लाल रंग का कपड़ा चाहिए… सोचा, तुम्हें और्डर दे दूं चल कर… पर रास्ते में ही बारिश आ गई… अब पता नहीं कब तक यह यों ही होती रहेगी,’’ मालती ने ऊंची आवाज में कहा.

‘‘कोई बात नहीं… वह सामने देखो… स्कूल की पुरानी बिल्डिंग है… आओ वहीं चल कर बारिश रुकने का इंतजार करते हैं,’’ केशव ने कहा और कह कर दोनों के कदम उस स्कूल की ओर बढ़ गए.

स्कूल की छत के नीचे दोनों खड़े हो गए, दोनों के शरीर गीले हो गए थे.

मालती अपनी साड़ी के गीले पल्लू को निचोड़ने लगी और अपने भीगे हुए सिर के बालों को झटका दे कर सुखाने लगी थी कि तभी उस के सीने से उस का आंचल हट गया और उस के गोरे उभार उजागर हो गए.

केशव की नजर अब भी मालती के सीने पर ही लगी हुई थी. उसे अपने सीने को घूरता देख कर मालती ने उन्हें अपनी साड़ी के पल्लू से ढक लिया.

मालती और केशव दोनों कुंआरे थे और आज जब दोनों के जिस्म पूरी तरह से पानी में भीग गए थे, तो उन की छुअन ने उन दोनों के अंदर दबी हवस की चिनगारी को भड़का दिया.

चारों तरफ सन्नाटा था. बस बारिश ही बारिश थी. केशव ने मालती का हाथ पकड़ लिया. मालती ने कोई विरोध नहीं किया, तो उस की हिम्मत बढ़ गई और उस ने मालती के गालों को चूम लिया और धीरेधीरे होंठों का रसपान करने लगा.

मालती ने अपनी दोनों आंखें बंद कर लीं और कोई विरोध नहीं किया. केशव की हिम्मत बढ़ गई थी. उस ने  मालती को अपनी मजबूत बांहों में भर लिया और बेतहाशा चूमने लगा.

मालती के जिस्म को भी जैसे किसी की बांहों में आने का ही इंतजार था.  वह भी अब केशव का साथ देने लगी  और दोनों देह मिलन की नौका पर  सवार हो कर किनारे पर लगने का सफर  करने लगे…

कुछ देर बाद दोनों हांफते हुए एकदूसरे से अलग हो गए, बाहर अब भी बारिश तेज हो रही थी, पर दोनों जिस्मों के अंदर का तूफान शांत हो चुका था.

आज जातियों के सारे भेद मिट चुके थे, 2 जिस्मों की जरूरत ने आज ऊंचनीच की सभी दीवारें गिरा दी थीं. काम के सिलसिले में उन दोनों का जो एकदूसरे से मिलना शुरू हुआ था, उस ने इन दोनों कुंआरे दिलों को अपनी हवस मिटाने का रास्ता दिखा दिया था.

मालती और केशव के बीच एक बार संबंध क्या बने, फिर तो दोनों काम के बहाने कम मिलते और अपने जिस्म की प्यास बुझाने के लिए ज्यादा, जिस का नतीजा यह हुआ कि मालती को बच्चा ठहर गया, जिस से वह बहुत घबरा गई थी.

‘‘केशव… हम से बहुत बड़ी भूल हो गई है… जवानी के जोश में हम ने बिना आगापीछा सोचे संबंध बनाए और अब मुझे बच्चा ठहर गया है… अब क्या होगा?’’ मालती घबराई हुई थी.

‘‘अरे, होना क्या है… अब हम और तुम शादी कर लेंगे,’’ केशव ने कहा.

‘‘शादी… पर क्या तुम जानते हो कि मेरी मां के साथ जो हुआ था…? और लोग मुझे रेप से पैदा हुई औलाद समझते हैं, इसीलिए मेरी शादी आज तक नहीं हुई… और फिर हमारी उम्र में भी फर्क है और हमारी जाति में भी,’’ मालती की आंखों में आंसू आ गए थे.

‘‘हां… मैं जानता हूं मालती कि तुम मुझ से पूरे 5 साल बड़ी हो… पर क्या उम्र का ये फैसला हमारे प्यार को कहीं से कम करता है क्या…? और फिर आज इनसान कहां से कहां पहुंच रहा है और हम ये दकियानूसी बातें ले कर कब तक बैठे रहेंगे? या फिर तुम्हारा मन मुझ से भर तो नहीं गया?’’ केशव ने पूछा.

‘‘ऐसी तो कोई बात नहीं… पर तुम भी जानते हो कि हमारी शादी इतनी आसानी से नहीं होगी.’’

‘‘हां, हो सकता है कि राह में कुछ मुश्किलें आएं, पर हम बिना कोशिश करे तो हार नहीं मान सकते न… मेरे विचार में हमें अपने घरों में एक बार बात कर लेनी चाहिए,’’ केशव ने मालती को ढांढस देते हुए कहा.

मालती और केशव ने यही फैसला लिया कि आज वे दोनों अपने घर में बता देंगे कि वे दोनों शादी करना चाहते हैं.

‘‘क्या…? क्या 35 साल तक तुझे इसीलिए घर में बिठाए रखा कि एक दिन तू उस डोम से ब्याह रचा ले… जानती भी है कि उस लड़के के बापदादा क्या काम किया करते थे… लाशें फूंकते थे… लाशें… चिता जलाया करते थे वे सब… और हम लोगों की दी गई जूठन ही उन की रोजीरोटी का जरीया हुआ करती थी.

‘‘और हम लोग सुबहसुबह उन का नाम लेना भी अपशकुन समझते हैं… घर का पानी और खाना तो बहुत दूर की बात है,’’ मालती के पिता आपे से बाहर हो रहे थे.

‘‘पर पिताजी… वे मेरी सब बातें जानते हुए भी मुझ से ब्याह रचाने को तैयार हैं,’’ मालती ने डरते हुए कहा.

‘‘क्या… सबकुछ जानता है…? क्या सबकुछ…? यही न कि तुम्हारे अंदर एक ठाकुर का खून दौड़ रहा है… और कुछ नहीं जानता वह…

‘‘मालती, तुम नहीं जानती कि ये निचली जाति के लड़के एक साजिश के तहत अच्छे घर की लड़कियों को फंसाते हैं और फिर उन के घरपरिवार पर

अपना दबदबा भी जमाते हैं,’’ मालती के पिता ने कहा.

‘‘और हां दीदी… अगर तुम से अकेले नहीं रहा जा रहा था, तो कोई और लड़का ढूंढ़ लिया होता, तुम्हें वही लाशें जलाने वाला डोम ही मिला,’’ अब तक चुप मालती के भाई ने कहा.

मालती को अपने छोटे भाई के मुंह से ऐसी बातें सुनने की उम्मीद नहीं थी. वह अब और सुन पाने की हालत में नहीं थी. वह वहां से अपने कमरे में भाग गई थी.

जब केशव ने अपने घर में मालती से ब्याह रचाने की बात कही, तो उस के घर में भी वही हुआ, जिस की उम्मीद कभी उस ने नहीं की थी.

‘‘क्या…? पूरी बिरादरी में तुम्हें कोई और लड़की नहीं मिली, जो उस लड़की से शादी करोगे तुम…

‘‘अरे, तुम्हें पता भी है कि इतने सालों तक उस की शादी क्यों नहीं हुई… क्योंकि वह नाजायज… उस का असली बाप कौन है, किसी को नहीं पता,’’ केशव के पिताजी चीख रहे थे.

‘‘पता है न तुम्हें कि उस की मां का कई लोगों ने मिल कर रेप किया था  और उसी के बाद इस लड़की का जन्म हुआ है…

‘‘भले ही वह तुम से जाति में ऊंची है, पर उस से क्या… है तो वे नाजायज ही न,’’ केशव के पिता की आवाज में उस के सभी घर वालों की भी आवाज शामिल लग रही थी, क्योंकि सभी लोग केशव को नफरत भरी नजरों से देख रहे थे.

अगले ही दिन इन दोनों की बातें ही लोगों की जुबान पर थीं और सब लोग इसे एक बेमेल जोड़ी और समाज को तोड़ने वाली कोशिश बता रहे थे.

आननफानन ही ब्राह्मण सभा बुलाई गई और यह फैसला लिया गया कि किसी दलित द्वारा एक अबला सवर्ण लड़की के शील को भंग कर के उस से ब्याह रचा कर सारी ब्राह्मण कौम को बदनाम करने की साजिश है यह… उसे सजा तो जरूर मिलनी चाहिए.’’

कसबे में मीडिया की चहलपहल अचानक से बढ़ गई थी और चुनावी बारिश वाले नेता भी मैदान में उतर आए थे.

कसबे में अचानक ही एक अजीब सा तनाव वाला माहौल बन गया था. अगले ही दिन भरी दोपहर में केशव की दुकान धूधू कर के जलती हुई देखी जा सकती थी.

उधर मालती के घर में भी आपसी रिश्तों में आग लगी हुई थी और पूरा महल्ला मालती और उस के परिवार की थूथू कर रहा था.

‘‘क्या… मेरी यह सजा है कि मेरी मां के साथ रेप हुआ है. अब तक मैं ने रेप का दंश झेला और बदनामी सही. अब उस के बाद यह दंश मुझे भी दुख देता रहेगा.

अगर किसी औरत के साथ रेप होना गलत है, तो सजा उसे नहीं, बल्कि बलात्कारियों को मिलनी चाहिए, जिन्होंने यह घिनौना अपराध किया है. मालती अपने घर में चीख रही थी.

तभी उस के घर के दरवाजे पर दस्तक हुई. मालती के पिता ने दरवाजा खोला, सामने मुंह पर कपड़ा बांधे दो लंबेचौड़े लोग खड़े थे, वे किस जाति के थे, ये कहना मुश्किल था कि किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था, सिर्फ उन की आंखें ही देखी जा सकती थीं. वे आंखें मालती को ढूंढ़ रही थीं. मालती ने खतरा भांप लिया और पीछे के दरवाजे से भाग निकली. वे दोनों लठैत उस के पीछे दौड़ रहे थे.

मालती दौड़तेदौड़ते बुरी तरह थक गई थी, अचानक उस के पैर से एक पत्थर टकराया और वह गिर गई. उस के पेट के निचले हिस्से से खून की धार फूट पड़ी थी. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती, मालती के सिर पर लाठियां बरसने लगी थीं. उस की आंखें मुंद गई थीं. मालती की आंखें फिर कभी खुल नहीं सकीं.

Hindi Story : जब मैं छोटा था

Hindi Story : केशव ने घूर कर अपने बेटे अंगद को देखा. वह सहम गया और सोचने लगा कि उस ने ऐसा क्या कह दिया जो उस के पिता को खल गया. अगर उसे कुछ चाहिए तो वह अपने पिता से नहीं मांगेगा तो और किस से मांगेगा. रानी बेटे की बात समझती है पर वह केवल उस की सिफारिश ही तो कर सकती है. निर्णय तो इस परिवार में केशव ही लेता है.

रानी ने मुसकरा कर केशव को हलकी झिड़की दी, ‘‘अब घूरना बंद करो और मुंह से कुछ बोलो.’’

केशव ने रानी को मुंह सिकोड़ कर देखा और फिर सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘क्या समय आ गया है.’’

‘‘क्यों, क्या तुम ने अपने पिता से कभी कुछ नहीं मांगा?’’ रानी ने हंस कर कहा, ‘‘बेकार में समय को दोष क्यों देते हो?’’

‘‘मांगा?’’ केशव ने तैश खा कर कहा, ‘‘मांगना तो दूर हमारा तो उन के सामने मुंह भी नहीं खुलता था. इतनी इज्जत करते थे उन की.’’

‘‘इज्जत करते थे या डरते थे?’’ रानी ने व्यंग्य से कहा.

केशव ने लापरवाही का नाटक किया, ‘‘एक ही बात है. अब हमारी औलाद हम से डरती कहां है?’’

अवसर का लाभ उठाते हुए अंगद ने शरारत से पूछा, ‘‘पिताजी, क्या आप के समय में आजकल की तरह जन्मदिन मनाया जाता था?’’

केशव ने व्यंग्य से हंस कर कहा, ‘‘जनाब, ऐसी फुजूलखर्ची के बारे में सोचना ही गुनाह था. ये तो आजकल के चोंचले हैं.’’

‘‘फिर भी पिताजी,’’ अंगद ने कहा, ‘‘कभी न कभी तो आप को जन्मदिन पर कुछ तो विशेष मिला होगा.’’

रानी ने हंसते हुए कहा, ‘‘मिला था, एक पाजामा. क्यों, ठीक है न?’’

केशव भी हंसा, ‘‘ठीक है, तुम्हें तो मेरा राज मालूम है.’’

‘‘पाजामा?’’ अंगद ने चकित हो कर पूछा, ‘‘क्या यह भी कोई उपहार है?’’

‘‘बहुत बड़ा उपहार था, बेटे,’’ केशव ने यादों में खोते हुए कहा, ‘‘पिताजी से तो बात करने का सवाल ही नहीं था. जब मैं ने मां से हठ की तो उन्होंने अपने हाथों से नया पाजामा सिल कर दिया था. मैं बहुत खुश था. रानी, तुम भी अंगद को एक पाजामा सिल

कर दो, पर…पर तुम्हें तो सिलना आता ही नहीं.’’

‘‘सारे दरजी मर गए क्या?’’ रानी ने चिढ़ कर कहा.

‘‘पाजामावाजामा नहीं,’’ अंगद ने जोर दे कर कहा, ‘‘अगर कुछ देना है तो मोपेड दीजिए. मेरे सारे दोस्तों के पास है. सब मोपेड पर ही स्कूल आते हैं. बस, एक मैं ही हूं, खटारा साइकिल वाला.’’

के शव ने तनिक नाराजगी से कहा, ‘‘साइकिल की इज्जत करना सीखो. उस ने 20 साल मेरी सेवा की है.’’

‘‘दहेज में जो मिली थी,’’ रानी ने टांग खींची.

‘‘क्या करता,’’ केशव चिढ़ कर बोला, ‘‘अगर स्कूटर मांगता तो तुम्हारे पिताजी को घर बेचना पड़ जाता.’’

‘‘अरे, जाओ भी,’’ रानी ने चोट खाए स्वर में कहा, ‘‘लेने वाले की हैसियत भी देखी जाती है.’’

अंगद ने महसूस किया कि बातों का रुख बदल रहा है इसीलिए बीच में पड़ कर बोला, ‘‘आप लोग तो

फिर लड़ने लगे. मेरे लिए मोपेड लेंगे या नहीं?’’

‘‘बरखुरदार,’’ केशव ने फिर से घूरते हुए कहा, ‘‘जब हम तुम्हारे बराबर थे तो पैदल स्कूल जाते थे. स्कूल भी कोई पास नहीं था. पूरे 3 मील दूर था. उन दिनों घर में बिजली भी नहीं थी इसलिए सड़क के किनारे लैंपपोस्ट के नीचे बैठ कर पढ़ते थे. जेबखर्च के पैसे भी नहीं मिलते थे. दिन भर कुछ नहीं खाते थे. घर आ कर 5 बजे तक रात का खाना निबट जाता था. समझे जनाब? आप मोपेड की बात करते हैं.’’

रानी इस भाषण को कई बार सुनसुन कर उकता चुकी थी इसलिए ताना मार कर बोली, ‘‘तो यह है आप की सफलता का रहस्य. देखो बेटे, ऐसा करोगे तो पिताजी की तरह एक दिन किसी कारखाने के महाप्रबंधक बन जाओगे.’’

अंगद मूर्खों की तरह मांबाप को देख रहा था. उस के मन में विद्रोह की आग सुलग रही थी. बड़ी बहन मानिनी जब भी कुछ मांगती थी तो उसे तुरंत मिल जाता था. एक वही है इस घर में दलित वर्ग का शोषित प्राणी.

नाश्ता समाप्त होने पर केशव कार्यालय जाने की तैयारी में लग गया और नौकरानी के आ जाने से रानी घर की सफाई कराने में व्यस्त हो गई. अंगद कब स्कूल चला गया किसी को पता ही नहीं चला.

कार निकालते समय केशव ने रोज के मुकाबले कुछ फर्क महसूस किया, पर समझ नहीं पाया. बहुत दूर निकल जाने पर उसे ध्यान आया कि आज अंगद की साइकिल अपनी जगह पर ही खड़ी थी. वैसे अकसर साइकिल खराब होने पर अंगद साइकिल घर छोड़ कर बस से चला जाता था.

घर का काम निबट जाने के बाद रानी ने देखा कि अंगद का लंच बाक्स मेज पर ही पड़ा था. वैसे आमतौर पर वह लंच बाक्स ले जाना भूलता नहीं है क्योंकि रानी हमेशा बेटे का मनपसंद खाना ही रखती थी. खैर, कोई बात नहीं, अंगद की जेब में इतने रुपए तो होते ही हैं कि वह कुछ ले कर खा ले.

शाम को रानी को च्ंिता हुई क्योंकि अंगद हमेशा 3 बजे तक घर आ जाता था, पर आज 5 बज रहे थे. केशव के फोन से वह जान चुकी थी कि आज अंगद साइकिल भी नहीं ले गया था, पर बस से भी इतनी देर नहीं लगती. उस वक्त 6 बज रहे थे जब अंगद ने घर में प्रवेश किया. उस का चेहरा लाल हो रहा था और जूते धूलधूसरित हो गए थे. थकान के लक्षण भी स्पष्ट थे.

‘‘इतनी देर कहां लगा दी?’’ रानी ने बस्ता संभालते हुए पूछा.

‘‘बस, हो गई देर, मां,’’ अंगद ने टालते हुए कहा, ‘‘जल्दी से खाना दो. बहुत भूख लगी है.’’

‘‘खाना क्यों नहीं ले गया?’’ रानी ने शिकायत की.

‘‘भूल गया था,’’ अंगद का झूठ पता चल रहा था.

‘‘भूल गया या ले नहीं गया?’’ रानी ने तनिक क्रोध से पूछा.

‘‘कहा न, भूल गया,’’ अंगद चिढ़ कर बोला.

रानी ने अधिक जोर नहीं दिया. बोली, ‘‘जा, जल्दी से कपड़े बदल और हाथमुंह धो कर आ. आलू के परांठे और गाजर का हलवा बना है.’’

अंगद के चेहरे पर झलकती प्रसन्नता से रानी को संतोष हुआ. उसे लगा कि वह वाकई बहुत भूखा है. अंगद के आने से पहले ही उस ने खाना मेज पर लगा दिया था.

अंगद ने भरपेट खाया. कुछ देर तक टीवी देखा और फिर पढ़ाई करने अपने कमरे में चला गया.

8 बजे केशव कार्यालय से आया.

आराम से बैठने के बाद केशव ने रानी से पूछा, ‘‘बच्चे कहां हैं? बहुत शांति है घर में.’’

‘‘मन्नू तो शालू के यहां गई है,’’ रानी ने सामने बैठते हुए कहा, ‘‘कोई पार्टी है. देर से आएगी.’’

‘‘अकेली आएगी क्या?’’ केशव ने चिंता से पूछा.

‘‘नहीं,’’ रानी ने उत्तर दिया, ‘‘शालू का भाई छोड़ने आएगा.’’

‘‘उफ, ये बच्चे,’’ केशव ने अप्रसन्नता से कहा, ‘‘इतनी आजादी भी ठीक नहीं. जब मैं छोटा था तो बहन को तो छोड़ो, मुझे भी देर से आने नहीं दिया जाता था. आगे से ध्यान रखना. वैसे मन्नू कब तक आएगी?’’

‘‘अब क्यों च्ंिता करते हो,’’ रानी ने कहा, पर केशव की मुद्रा देख कर बोली, ‘‘ठीक है, फोन कर के पूछ लूंगी.’’

‘‘और साहबजादे कहां हैं?’’ केशव ने पूछा.

‘‘पढ़ रहा है,’’ रानी ने उत्तर दिया.

‘‘पर मुझे तो कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही,’’ केशव ने पुकारा, ‘‘अंगद…अंगद?’’

‘‘ओ हो, पढ़ने दो न,’’ रानी ने झिड़का, ‘‘कल परीक्षा है उस की.’’

‘‘तो जवाब नहीं देगा क्या?’’ केशव ने क्रोध से पुकारा, ‘‘अंगद?’’

अंगद का उत्तर नहीं आया. केशव अब अधिक सब्र नहीं कर सका. उठ कर अंगद के कमरे की ओर गया और झटके से अंदर घुसा.

‘‘यहां तो है नहीं,’’ केशव ने क्रोध से कहा.

‘‘नहीं है,’’ रानी को विश्वास नहीं हुआ, ‘‘थोड़ी देर पहले ही तो मैं उस के मांगने पर चाय देने गई थी.’’

केशव ने व्यंग्य से कहा, ‘‘हां, चाय का प्याला तो है, पर जनाब नहीं हैं. गया कहां?’’

‘‘मुझ से तो कुछ कह कर नहीं गया,’’ रानी ने च्ंिता से कहा, ‘‘मन्नू के कमरे में देखो.’’

‘‘मन्नू के कमरे में भी होता तो जवाब देता न,’’ केशव ने क्रोध से कहा, ‘‘बहरा तो नहीं है.’’

रानी ने तसल्ली के लिए मन्नू के कमरे में  देखा और बोली, ‘‘पता नहीं कहां गया. शायद अखिल के यहां चला गया होगा. उस के साथ ही पढ़ता है न.’’

‘‘कह कर तो जाना था,’’ केशव भी अब च्ंितित था, ‘‘अखिल का घर कहां है?’’

‘‘वह राममनोहरजी का लड़का है,’’ रानी ने कहा, ‘‘309 नंबर में रहता है.’’

‘‘ओह,’’ केशव ने कहा, ‘‘उन के यहां तो फोन भी नहीं है.’’

‘‘थोड़ी देर देख लो,’’ रानी ने अपनी चिंता छिपाते हुए कहा, ‘‘आ जाएगा.’’

‘‘और मन्नू…’’

केशव का वाक्य समाप्त होेने से पहले ही रानी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘अब मन्नू के पीछे पड़ गए. कभी तो चैन से बैठा करो.’’

झिड़की खा कर केशव कुरसी पर बैठ कर पत्रिका पढ़ने का नाटक करने लगा.

‘‘खाना लगाऊं क्या?’’ रानी ने कुछ देर बाद पूछा.

‘‘नहीं,’’ केशव ने कहा, ‘‘बच्चों को आने दो.’’

‘‘मन्नू तो खा कर आएगी,’’ रानी ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘अंगद बाद में खा लेगा. स्कूल से आ कर कुछ ज्यादा ही खा लिया था.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘2 की जगह पूरे 4 परांठे खा लिए,’’ रानी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘उसे आलू के परांठे अच्छे लगते हैं न.’’

कुछ और समय बीतने पर केशव उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं राममनोहरजी के घर हो कर आता हूं.’’

उसी समय घंटी बजी और मानिनी ने प्रवेश किया. वह बहुत प्रसन्न थी.

‘‘शालू की पार्टी में बहुत मजा आया,’’ मानिनी ने हंसते हुए पूछा, ‘‘यह अंगद सड़क के किनारे क्यों बैठा है? क्या आप ने सजा दी है?’’

‘‘सड़क के किनारे?’’ केशव और रानी ने एकसाथ पूछा, ‘‘कहां?’’

‘‘साधना स्टोर के सामने,’’ मानिनी ने उत्तर दिया, ‘‘क्या मैं उसे बुला कर ले आऊं?’’

इस से पहले कि रानी कुछ कहती केशव ने गंभीरता से कहा, ‘‘नहीं, रहने दो. शायद पढ़ रहा होगा.’’

‘‘क्या घर में बिजली नहीं है?’’ मानिनी ने पूछा, पर फिर ध्यान आया कि बिजली तो है.

रानी ने खाना लगा दिया. केशव हाथ धो कर बैठने ही वाला था कि अंगद ने आहिस्ताआहिस्ता घर में प्रवेश किया.

केशव ने घूरते हुए पूछा, ‘‘इतनी दूर पढ़ने क्यों गए थे?’’

‘‘क्योंकि पास में कोई लैंपपोस्ट नहीं था,’’ अंगद ने मासूमियत से कहा.

केशव को हंसी भी आई और क्रोध भी. रानी भी हंस कर रह गई.

‘‘चलो, खाने के लिए बैठो,’’ रानी ने कहा.

‘‘स्कूल से आते ही खा तो लिया था,’’ अंगद ने कहा और अपने कमरे में चला गया.

केशव और रानी को अंगद का व्यवहार अब समझ में आ रहा था. लगता था कि नाटक की शुरुआत है.

मानिनी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. उस ने पूछा, ‘‘बात क्या है? आज अंगद के तेवर क्यों बिगड़े हुए हैं?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ रानी हंसी, ‘‘शीत- युद्ध है.’’

‘‘क्यों?’’ मानिनी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मोपेड चाहिए जनाब को,’’ केशव ने कहा, ‘‘हमारे जमाने में…’’

‘‘ओ हो, पिताजी,’’ मानिनी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘अब मैं समझ गई. न आप कभी बदलेंगे, न आप का जमाना. ठीक है, मैं चंदा इकट्ठा करती हूं.’’

एक मानिनी ही थी जो केशव से बेझिझक हो कर बात कर सकती थी.

केशव ने उसे घूर कर देखा और फिर उठ कर चला गया.

सुबह की चाय हो चुकी थी. जब नाश्ता लगा तो अंगद जा चुका था.

उस की साइकिल पर धूल जम गई थी और हवा भी निकल गई थी.

शाम को थकामांदा अंगद 6 बजे आया.

‘‘क्यों, बस नहीं मिली क्या?’’ रानी ने क्रोध से पूछा.

‘‘बसें तो आतीजाती रहती हैं.’’

‘‘तो फिर?’’ रानी ने पूछा.

‘‘तो फिर क्या? मुझे भूख लगी है. खाना तो मिलेगा न?’’

रानी को अब क्रोध नहीं आया. जानती थी कि वह भूखा होगा. उस के लिए खीर, पूडि़यां और गोभी की

सब्जी बनाई थी. अंगद ने प्रसन्न हो कर भरपेट खाया और कमरे में चला गया.

केशव जब आया तब अंगद घर में नहीं था. आते वक्त केशव ने लैंपपोस्ट के नीचे निगाह डाली थी. अंगद धुंधली रोशनी में आंखें गड़ाए पढ़ रहा था.

3 दिन तक यह नाटक चलता रहा.

आज अंगद का जन्मदिन था. हर साल इस दिन रौनक छा जाती थी. पार्टी में आने वाले मित्रों की सूची बनती थी. लजीज व्यंजन बनाए जाते थे. मानिनी कुछ दिन पहले ही से उसे छेड़ने लगती थी और इस छेड़छाड़ में लड़ाई भी हो जाती थी. वैसे अंगद को इस बात का बहुत मलाल रहता था कि मानिनी का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता है.

नींद खुलते ही अंगद की नजर पास पड़े लिफाफे पर पड़ी. लिफाफे को उठाते ही उस में से एक चाबी गिरी. चाबी से लटका एक छोटा सा कार्ड था. उस पर लिखा था, ‘जन्मदिन पर छोटा सा उपहार.’

अंगद की आंखों में चमक आ गई. यह तो मोपेड की चाबी थी. आधी रात को वह एक चिट्ठी खाने की मेज पर छोड़ कर आया जिस में लिखा था :

पूज्य पिताजी और मां, क्या आप मुझे क्षमा करेंगे? मोपेड के लिए हठ करना मेरी भूल थी. मुझे सिवा आप के आशीर्वाद और प्यार के कुछ नहीं चाहिए.

आप का पुत्र अंगद.

जब अंगद नीचे पहुंचा तो पत्र मां के हाथ में था और वह पढ़ कर सुना रही थीं. केशव और मानिनी हंस रहे थे.

‘‘पिताजी, आप ने भी जल्दी कर दी. बेकार में मोपेड की चपत पड़ी,’’ मानिनी हंस कर कह रही थी.

अंगद सिर झुकाए शर्मिंदा सा खड़ा था.

‘‘तो आप को मोपेड नहीं चाहिए,’’ केशव ने नकली गंभीरता से पूछा.

‘‘नहीं,’’ अंगद ने दृढ़ता से उत्तर दिया.

‘‘क्यों?’’ केशव ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्योंकि,’’ अंगद ने गंभीरता से शरारती अंदाज में कहा, ‘‘अब मुझे स्कूटर चाहिए.’’

‘‘क्या?’’ केशव ने मारने के अंदाज में हाथ उठाते हुए पूछा, ‘‘क्या कहा?’’

मानिनी ने बीच में आते हुए कहा, ‘‘पिताजी, छोडि़ए भी. हमारा अंगद अब छोटा नहीं है.’’

‘‘पर जब मैं छोटा था…’’

होहल्ले में केशव अपना वाक्य पूरा न कर सका.

Hindi Story : ईर्ष्या – क्या था उस लिफाफे में

Hindi Story : निशा को डाक्टर ने जब यह बताया कि पेट में ट्यूमर है तथा आपरेशन कराना बेहद जरूरी है वरना वह कैंसर भी बन सकता है तो पति आयुष के साथ वह भी काफी घबरा गई थी. सारी चिंता बच्चों को ले कर थी. वरुण और प्रज्ञा काफी छोटे थे, उस की इस बीमारी का लंबे समय तक चलने वाला इलाज तो उस के पूरे घर को अस्तव्यस्त कर देगा.

सच पूछिए तो जब यह महसूस होता है कि हम अपाहिज होने जा रहे हैं या हमें दूसरों की दया पर जीना है तो मन बहुत ही कुंठित हो उठता है.

परिवार में सास, ननद, देवर, जेठ सभी थे पर एकाकी परिवारों में सब के सामने उस जैसी ही समस्या उपस्थित थी. कौन अपना घरपरिवार छोड़ कर इतने दिनों तक उस के घर को संभालेगा?

अपने आपरेशन से भी अधिक निशा को अपने घरसंसार की चिंता सता रही थी. यह भी अटल सत्य है कि पैर चाहे चिता में रखे हों पर जब तक सांस है तब तक व्यक्ति सांसारिक चिंताओं से मुक्त नहीं हो पाता.

आसपड़ोस के अलावा निशा ने अखबार में भी विज्ञापन देखने शुरू कर दिए तथा ‘आवश्यकता है एक काम वाली की’ नामक विज्ञापन अपना पता देते हुए प्रकाशित भी करवा दिया. विज्ञापन दिए अभी हफ्ता भी नहीं बीता था कि एक 21-22 साल की युवती घर का पता पूछतेपूछते आई. उस ने अपना परिचय देते हुए काम पर रखने की पेशकश की थी और अपने विषय में कुछ इस प्रकार बयां किया था :

‘‘मेरा नाम प्रेमलता है. मैं बी.ए. पास हूं. 3 साल पहले मेरा विवाह हुआ था पर पिछले साल मेरा पति एक दुर्घटना में मारा गया. संतान भी नहीं है. ससुराल वालों ने मुझे मनहूस समझ कर घर से निकाल दिया है. परिवार में अन्य कोई न होने के कारण मुझे भाई के पास रहना पड़ रहा है पर भाभी अब मेरी उपस्थिति सह नहीं पा रही है…वहां तिलतिल कर मरने की अपेक्षा मैं कहीं काम करना चाह रही हूं…1-2 स्कूलों में पढ़ाने के लिए अरजी भी दी है पर बात बनी नहीं, अब जब तक कोई अन्य काम नहीं मिल जाता, यही काम कर के देख लूं सोच कर चली आई हूं… भाई के घर नहीं जाना चाहती…काम के साथ रहने के लिए घर का एक कोना भी दे दें तो मैं चुपचाप पड़ी रहूंगी.’’

उस की साफगोई निशा को बहुत पसंद आई. उस ने कुछ भी नहीं छिपाया था. रुकरुक कर खुद ही सारी बातें कह डाली थीं. निशा को भी जरूरत थी तथा देखने में भी वह साफसुथरी और सलीकेदार लग रही थी. अत: उस की शर्तों पर निशा ने हां कर दी.

निशा को जब महसूस हुआ कि अब इस के हाथों घर सौंप कर आपरेशन करवा सकती हूं तब उस ने आपरेशन की तारीख ले ली.

नियत तिथि पर आपरेशन हुआ और सफल भी रहा. सभी नातेरिश्तेदार आए और सलाहमशवरा दे कर चले गए. प्रेमलता ने सबकुछ इतनी अच्छी तरह से संभाल लिया था कि किसी को उस ने जरा भी शिकायत का मौका नहीं दिया. जातेजाते सब उस की तारीफ ही करते गए. फिर भी कुछ ने यह कह कर नाराजगी जाहिर की कि ऐसे समय में भी तुम ने हमें अपना नहीं समझा बल्कि हम से ज्यादा एक अजनबी पर भरोसा किया.

वैसे भी आदरयुक्त, प्रिय और आत्मीय संबंध तो आपसी व्यवहार पर आधारित रहते हैं पर परिवार में सब से बड़ी होने के नाते किसी को भी खुद के लिए कष्ट उठाते देखना निशा के स्वभाव के विपरीत था अत: अपनी तीमारदारी के लिए किसी को भी बुला कर परेशान करना उसे उचित नहीं लगा था पर वे ऐसी शिकायत करेंगे, उसे आशा नहीं थी. शायद कमियां निकालना ही ऐसे लोगों की आदत रही हो.

ऐसी शिकायत करने वाले यह भूल गए थे कि ऐसी स्थिति आने पर क्या वह सचमुच अपना घर छोड़ कर महीने भर तक उस के घर को संभाल पाते…जबकि डाक्टरों के मुताबिक उसे 6 महीने तक भारी सामान नहीं उठाना था क्योंकि गर्भाशय में संक्रमण के कारण ट्यूमर के साथ गर्भाशय को भी निकालना पड़ गया था. ऐसे वक्त में लोगों की शिकायत सुन कर एकाएक ऐसा लगा कि वास्तव में रिश्तों में दूरी आती जा रही है, लोग करने की अपेक्षा दिखावा ज्यादा करने लगे हैं.

सच, आज की दुनिया में कथनी और करनी में बहुत अंतर आ गया है…कार्य व्यस्तता या दूरी के कारण संबंधों में भी दूरी आई है…इस में कोई संदेह नहीं है…उन के व्यवहार से मन खट्टा हो गया था.

प्रेमलता की उचित देखभाल ने निशा को घर के प्रति निश्ंिचत कर दिया था. वरुण और प्रज्ञा भी उस से हिल गए थे. शाम को उस को पार्क में घुमाने के साथ उन का होमवर्क भी वह पूरा करा दिया करती थी.

जाने क्यों निशा प्रेमलता के प्रति बेहद अपनत्व महसूस करने लगी थी… आयुष के आफिस जाने के बाद वह साए की तरह उस के आगेपीछे घूमती रहती, उस की हर आवश्यकता का खयाल रखती. एक दिन बातोंबातों में प्रेमलता बोली, ‘‘दीदी, आप के पास रह कर लगता ही नहीं है कि मैं आप के यहां नौकरी कर रही हूं. सास और भाई के घर मैं इस से ज्यादा काम करती थी पर फिर भी उन्हें मैं बोझ ही लगती थी…दीदी, वे मेरा दर्द क्यों नहीं समझ पाए, आखिर पति के मरने के बाद मैं जाती तो जाती कहां? सास तो मुझे हर वक्त इस तरह कोसती रहती थी मानो उस के बेटे की मौत का कारण मैं ही हूं. दुख तो इस बात का था कि एक औरत हो कर भी वह औरत के दुख को क्यों नहीं समझ पाई?’’

आंखों में आंसू भर आए थे…रिश्तों में आती संवेदनहीनता ने प्रेमलता को तोड़ कर रख दिया था…यहां आ कर उसे सुकून मिला था, खुशी मिली थी अत: उस की पुरानी चंचलता लौट आई थी. शरीर भी भराभरा हो गया था. निशा भी खुश थी, चलो, जरूरत के समय उसे अच्छी काम वाली के साथसाथ एक सखी भी मिल गई है.

बीचबीच में प्रेमलता का भाई उस की खोजखबर लेने आ जाया करता था. बहन को अपने साथ न रख पाने का उस को बेहद दुख था पर पत्नी के तेज स्वभाव के चलते वह मजबूर था. यहां बहन को सुरक्षित हाथों में पा कर वह निश्चिंत हो चला था. प्रेमलता का पति जो बैंक में नौकर था, उस के फंड पर अपना हक जमाने के लिए ससुराल के लोग उसे घर से बेदखल कर उस पैसे पर अपना हक जमाना चाहते थे. भाई उसे उस का हक दिलाने की कोशिश कर रहा था. भाई का अपनी बहन से लगाव देख कर ऐसा लगता था कि रिश्ते टूट अवश्य रहे हैं पर अभी भी कुछ रिश्तों में कशिश बाकी है वरना वह बहन के लिए दफ्तरों के चक्कर नहीं काटता.

प्रेमलता को इतनी ही खुशी थी कि भाभी नहीं तो कम से कम उस का अपना भाई तो उस के दुख को समझता है. कोई तो है जिस के कारण वह जीवन की ओर मुड़ पाई है वरना पति की मौत के बाद उस के जीवन में कुछ नहीं बचा था और ऊपर से ससुराल वालों की प्रताड़ना से बेहद टूटी प्रेमलता आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगी थी.

उस का दुख सुन कर मन भर आता था. सच, आज भी हमारा समाज विधवा के दुख को नहीं समझ पाया है, जिस पति के जाने से औरत का साजशृंगार ही छिन गया हो, भला उस की मौत के लिए औरत को दोषी ठहराना मानसिक दिवालिएपन का द्योतक नहीं तो और क्या है? सब से ज्यादा दुख तो उसे तब होता था जब स्त्री को ही स्त्री पर अत्याचार करते देखती.

एक दिन रात में निशा की आंख खुली, बगल में आयुष को न पा कर कमरे से बाहर आई तो प्रेमलता का फुस- फुसाता स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘नहीं साहब, मैं दीदी का विश्वास नहीं तोड़ सकती.’’

सुन कर निशा की सांस रुक गई. समझ गई कि आयुष की क्या मांग होगी.

वितृष्णा से भर उठी थी निशा. मन हुआ, मर्द की बेवफाई पर चीखेचिल्लाए पर मुंह से आवाज नहीं निकल पाई. लगा, चक्कर आ जाएगा. उस ने वहीं बैठना चाहा, तो पास में रखा स्टूल गिर गया. आवाज सुन कर आयुष आ गए. उसे नीचे बैठा देख बोले, ‘‘तुम यहां कैसे? अगर कुछ जरूरत थी तो मुझ से कहा होता.’’

निशब्द उसे बैठा देख कर आयुष को लगा कि शायद निशा पानी पीने उठी होगी और चक्कर आने पर बैठ गई होगी. वह भी ऐसे आदमी से उस समय क्या तर्कवितर्क करती जिस ने उस के सारे वजूद को मिटाते हुए अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए दूसरी औरत से सौदा करना चाहा.

दूसरे दिन आयुष तो सहज थे पर प्रेमलता असहज लगी. बच्चों और आयुष के जाने के बाद वह निशा के पास आ कर बैठ गई. जहां और दिन उस के पास बातों का अंबार रहता था, आज शांत और खामोश थी…न ही आज उस ने टीवी खोलने की फरमाइश की और न ही खाने की.

‘‘क्या बात है, सब ठीक तो है न?’’ उस का हृदय टटोलते हुए निशा ने पूछा.

‘‘दीदी, कल बहुत डर लगा, अगर आप को बुरा न लगे तो कल से मैं वरुण और प्रज्ञा के पास सो जाया करूं,’’ आंखों में आंसू भर कर उस ने पूछा था.

‘‘ठीक है.’’

निशा के यह कहने पर उस के चेहरे पर संतोष झलक आया था. निशा जानती थी कि वह किस से डरी है. आखिर, एक औरत के मन की बातों को दूसरी औरत नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा? पर वह सचाई बता कर उस के मन में आयुष के लिए घृणा या अविश्वास पैदा नहीं करना चाहती थी, इसलिए कुछ कहा तो नहीं पर अपने लिए सुरक्षित स्थान अवश्य मांग लिया था.

आयुष के व्यवहार ने यह साबित कर दिया था कि पुरुष के लिए तो हर स्त्री सिर्फ देह ही है, उसे अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए सिर्फ देह ही चाहिए…इस से कोई मतलब नहीं कि वह देह किस की है.

अब निशा को खुद ही प्रेमलता से डर लगने लगा था. कहीं आयुष की हवस और प्रेमलता की देह उस का घरसंसार न उजाड़ दे. प्रेमलता कब तक आयुष के आग्रह को ठुकरा पाएगी…उसे अपनी बेबसी पर पहले कभी भी उतना क्रोध नहीं आया जितना आज आ रहा था.

प्रेमलता भी तो कम बेबस नहीं थी. वह चाहती तो कल ही समर्पण कर देती पर उस ने ऐसा नहीं किया और आज उस ने अपनी निर्दोषता साबित करने के लिए अपने लिए सुरक्षित ठिकाने की मांग की.

प्रश्न अनेक थे पर निशा को कोई समाधान नजर नहीं आ रहा था. दोष दे भी तो किसे, आयुष को या प्रेमलता की देह को. मन में ऊहापोह था. सोच रही थी कि यह तो समस्या का अस्थायी समाधान है, विकट समस्या तो तब पैदा होगी जब आयुष बच्चों के साथ प्रेमलता को सोता देख कर तिलमिलाएंगे या चोरी पकड़ी जाने के डर से कुंठित हो खुद से आंखें चुराने लगेंगे. दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं.

निशा ने सोचा कि आयुष के आने पर प्रेमलता के सोने की व्यवस्था बच्चों के कमरे में रहने की बात कह वह उन के मन की थाह लेने की कोशिश करेगी. पुरुष के कदम थोड़ी देर के लिए भले ही भटक जाएं पर अगर पत्नी थोड़ा समझदारी से काम ले तो यह भटकन दूर हो सकती है. अभी तो उसे पूरी तरह से स्वस्थ होने में महीना भर और लगेगा. उसे अभी भी प्रेमलता की जरूरत है पर कल की घटना ने उसे विचलित कर दिया था.

आयुष आए तो मौका देख कर निशा ने खुद ही प्रेमलता के सोने की व्यवस्था बच्चों के कमरे में करने की बात की तो पहले तो वह चौंके पर फिर सहज स्वर में बोले, ‘‘ठीक ही किया. कल शायद वह डर गई थी. उस के चीखने की आवाज सुन कर मैं उस के पास गया, उसे शांत करवा ही रहा था कि स्टूल गिर जाने की आवाज सुनी. आ कर देखा तो पाया कि तुम चक्कर खा कर गिर पड़ी हो.’’

आयुष के चेहरे पर तनिक भी क्षोभ या ग्लानि नहीं थी. तो क्या प्रेमलता सचमुच डर गई थी या जो उस ने सुना वह गलत था. अगर उस ने जो सुना वह गलत था तो प्रेमलता की चीख उसे क्यों नहीं सुनाई पड़ी. खैर, जो भी हो जिस तरह से आयुष ने सफाई दी थी, उस से हो सकता है कि वह खुद भी शर्मिंदा हों.

प्रेमलता अब यथासंभव आयुष के सामने पड़ने से बचने लगी थी. अब निशा स्वयं आयुष के खानेपीने, नाश्ते का खयाल रखने की कोशिश करती.

अभी महीना भर ही बीता होगा कि प्रेमलता का भाई आया और एक लिफाफा उस को पकड़ाते हुए बोला, ‘‘तू ने जहां नौकरी के लिए आवेदन किया था वहां से इंटरव्यू के लिए काल लेटर आया है. जा कर साक्षात्कार दे आना पर आजकल बिना सिफारिश के कुछ नहीं हो पाता. नौकरी मिल जाए तो अच्छा ही है, कम से कम तुझे किसी का मुंह तो नहीं देखना पड़ेगा.’’

एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका के पद के लिए इंटरव्यू काल थी. निशा ने जब काल लेटर पढ़ा तो याद आया कि इसी ग्रुप के एक स्कूल में उस की मित्र शोभना की भाभी प्रधानाचार्या हैं. निशा ने उन से बात की. नौकरी मिल गई. अगले सत्र से उसे काम करना था. डेढ़ महीना और बाकी था.

प्रेमलता की निशा को ऐसी आदत पड़ गई थी कि अब उस के बिना वह कैसे सबकुछ कर पाएगी, यह सोचसोच कर वह परेशान होने लगी थी. इस अजनबी लड़की ने उस के दुख और परेशानी के क्षणों में साथ दिया है. उस की जगह अगर कोई और होता तो भावावेश में उस का घरसंसार ही बिखेर देता…खासकर तब जब गृहस्वामी विशेष रुचि लेता प्रतीत हो. पर उस ने ऐसा न कर के न केवल अपने अच्छे चरित्र की झलक दिखाई थी बल्कि उस की गृहस्थी को टूटनेबिखरने से बचा लिया था.

स्कूल का सेशन शुरू हो गया था. घर न मिल पाने के कारण प्रेमलता उस के घर से ही आनाजाना कर रही थी. स्कूल जाने से पहले वह नाश्ता और खाना बना कर जाती थी तथा शाम का खाना भी वही आ कर बनाती. लगता ही नहीं था कि वह इस परिवार की सदस्य नहीं है…पर अब प्रेमलता को जाना ही है, सोच कर निशा भी धीरेधीरे घर का काम करने की कोशिश करने लगी थी.

‘‘दीदी, स्कूल के पास ही घर मिल गया है. अगर आप इजाजत दें तो मैं वहां रहने के लिए चली जाऊं,’’ एक दिन प्रेमलता स्कूल से आ कर बोली.

‘‘ठीक है, जैसा तुम उचित समझो. अब तो मैं काफी ठीक हो गई हूं. धीरेधीरे सब करने लगूंगी.’’

वरुण को पता चला तो वह बहुत उदास हो कर बोला, ‘‘आंटी, आप यहीं रह जाओ न. आप गणित पढ़ाती थीं तो बहुत अच्छा लगता था.’’

‘‘दीदी, आप चली जाओगी तो मुझे आलू के परांठे कौन बना कर खिलाएगा… आप जैसे परांठे तो ममा भी नहीं बना पातीं,’’ प्रज्ञा ने आग्रह करते हुए कहा.

‘‘कोई बात नहीं, बेबी, मैं दूर थोड़े ही जा रही हूं, हर इतवार को मैं मिलने आऊंगी, तब आप को आप का मनपसंद आलू का परांठा बना कर खिला दिया करूंगी,’’ प्रेमलता ने प्यार से प्रज्ञा को गोदी में उठाते हुए कहा.

निशा ने भी प्रेमलता को सदा नौकरानी से ज्यादा मित्र समझा था पर वरुण और प्रज्ञा का उस से इतना भावात्मक लगाव उस के अहम को हिला गया. अचानक उसे लगा कि इस लड़की ने कुछ ही दिनों में उस से उस की जगह छीन ली है…वह जगह जो उस ने 10 वर्षों में बनाई थी, इस ने केवल 5 महीनों में ही बना ली. बच्चे भी अब उस के बजाय प्रेमलता से ही अपनी फरमाइशें करते और वह भी हंसतेहंसते उन की हर फरमाइश पूरी करती, चाहे वह खाना हो, पढ़ना हो या बाहर पार्क में उस के साथ जाना.

‘‘क्या प्रेमलता घर छोड़ कर जा रही है?’’ शाम को चाय पीतेपीते आयुष ने पूछा था.

‘‘हां, कोई परेशानी?’’ निशा ने एक तीखी नजर से उन्हें देखा.

‘‘मुझे क्या परेशानी होगी. बस, ऐसे ही पूछ लिया था. कुछ दिन और रुक जाती तो तुम्हें थोड़ा और आराम मिल जाता,’’ निशा की तीखी नजर से अपनी आंखें चुराते हुए आयुष ने जल्दीजल्दी कहा.

पहले तो निशा सोच रही थी कि प्रेमलता से कुछ दिन और रुकने का आग्रह वह करेगी पर आयुष और बच्चों की सोच ने उसे कुंठित कर दिया. अब उसे वह एक पल भी नहीं रोकेगी. कल जाती हो तो आज ही चली जाए. जिस की वजह से उस की अपनी गृहस्थी पराई हो चली है, भला उसे अपने घर में वह क्यों शरण दे?

ईर्ष्यारूपी अजगर ने उसे बुरी तरह जकड़ लिया था. जब वह उस से विदा मांगने आई तब कोई उपहार देना तो दूर उस से इतना भी नहीं कहा गया कि छुट्टी के दिन चली आया करना जबकि बच्चों को रोते देख प्रेमलता खुद ही कह रही थी, ‘‘रोओ मत, मैं कहीं दूर थोड़े ही जा रही हूं, जब मौका मिलेगा तब मिलने आ जाया करूंगी.’’

जहां कुछ समय पहले तक निशा स्वयं आपसी रिश्तों में आती संवेदनहीनता के लिए दूसरों को दोषी ठहरा रही थी, आज वह स्वयं ईर्ष्या के कारण उसी जमात में शामिल हो गई थी. तभी तो उस अजनबी लड़की के अपार प्रेम के बावजूद, उस का प्रतिदान देने में कंजूसी कर गई थी.

Short Story : सौतन बनी सहेली

Short Story : ‘‘चंदा, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और अगर तुम ने मुझ से शादी नहीं की तो मैं जी नहीं सकूंगा,’’ मनोज ने चंदा से कहा.

‘‘पर, मेरे मांबाबूजी तो कभी इस शादी के लिए राजी नहीं होंगे, क्योंकि उन का कहना है कि तू नशा करता है और पूरे गांव में आवारागर्दी करता है,’’ चंदा बोली.

‘‘मैं नशा करता हूं तो तेरी याद में दुखी हो कर करता हूं. अगर आवारागर्दी करता हूं, तो तेरी याद में पागल बन कर… तू मुझे नहीं मिली तो मैं तो दुनिया ही छोड़ जाऊंगा,’’ मनोज ने आंखों में आंसू लाने का नाटक करते हुए कहा.

कुछ इसी तरह की मीठीमीठी बातें कर के मनोज ने चंदा को अपनी बातों में फंसा लिया था और उसे इस बात का भरोसा दिलाया दिया कि दोनों भाग कर शादी कर लेंगे और जब मांबाबूजी का गुस्सा शांत हो जाएगा, तो वापस आ कर माफी मांग लेंगे.

चंदा भी मनोज की बातों में आ गई और एक रात उन दोनों ने गांव से भाग जाने का फैसला किया.

यह कौन सा शहर था, चंदा को नहीं मालूम था. वह तो बस मनोज पर यकीन कर के ही उस के साथ चली आई थी.

चंदा को ले कर मनोज एक बड़े से मकान में पहुंचा. उस कमरे में जरूरत की सारी चीजें पहले से ही मौजूद थीं.

मनोज ने चंदा को बताया कि उन दोनों को आज ही मंदिर में शादी करनी होगी और इस के लिए उसे बाजार जा कर जरूरी सामान लाना होगा.

मनोज के बाहर जाने के बाद चंदा वहीं पड़े एक बिस्तर पर लेट गई और उस की आंख लग गई.

जब थोड़ी देर बाद चंदा की आंख खुली, तो कमरे में मनोज कहीं नहीं दिखाई दिया. कोने में एक आदमी बैठा हुआ था, जो उसे खा जाने वाली नजरों से घूर रहा था.

एक अजनबी को इस तरह से घूरता हुआ देख कर चंदा घबरा उठी.

‘‘कौन हो तुम? मनोज कहां है?’’ कहते हुए चंदा हकला रही थी.

‘‘मेरा नाम राज है… उस ने कुछ बताया नहीं तुझे क्या?’’ चालबाजी से मुसकराते हुए राज ने पूछा.

‘‘मुझे मेरे पति के पास जाना है,’’ चंदा की घबराहट अब बढ़ने लगी थी.

‘‘अब उसे भूल जा… वह तो तुझे मेरे हाथों बेच गया है… और बदले में 2 लाख रुपए ले कर गया है,’’ राज ने कहा.

राज की बातें सुन कर चंदा चीखने लगी, ‘‘मेरा मनोज कहां है… मुझे वहीं पहुंचा दो.’’

राज इलाके का एक रसूख वाला आदमी था. चंदा का चीखना और रोना सुन कर उस को गुस्सा आ रहा था. वह उठा और चंदा को मारने की गरज से उस ने हाथ उठाया ही था कि तभी कमरे में एक बूढ़ी औरत आई, वे राज की मां थीं, ‘‘अरे राज, तू इसे छोड़ दे… मैं समझाती हूं इसे.

‘‘देख लड़की… अब मेरा बेटा राज ही तेरा पति है और जिसे तू अपना पति कह रही है न, वह आदमी ही तुझे यहां आ कर बेच गया है.’’

बूढ़ी की बात सुन कर चंदा को भरोसा नहीं हो रहा था. वह सहम रही थी.

‘‘अब डरने से काम नहीं चलेगा लड़की… जैसा मैं कहती हूं वैसा करती चल, रानी बन कर राज करेगी यहां पर.’’

थोड़ा रुक कर फिर उस बूढ़ी मां ने बोलना शुरू किया, ‘‘देख, सचाई यह है कि मेरी बहू बच्चा पैदा नहीं कर पा रही है. वह दुष्ट हमारे घर को जायदाद का वारिस नहीं दे पाई है… इसलिए हमें एक ऐसी लड़की की जरूरत थी, जो हमारे ठाकुर खानदान को वारिस दे सके… अब तू आसानी से मान गई तो ठीक… नहीं तो हम मजबूर हो जाएंगे… समझी…

‘‘इस इलाके में औरतों की तादाद मर्दों के मुकाबले वैसे भी बहुत कम है, इसलिए यहां तो केवल मेरा बेटा ही तेरे साथ संबंध बनाएगा और वे सारे सुख देगा, जो ये अपनी असली पत्नी को देता है. तू ने अगर भागने की कोशिश की, तो बाहर कितने लोग तेरा बलात्कार करेंगे… तू गिन भी नहीं पाएगी.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता… तुम लोग झूठ बोल रहे हो. मुझे मनोज के पास जाना है,’’ चंदा चीख रही थी.

‘‘हां… हां… चली जाना अपने मनोज के पास. एक बात कान खोल कर सुन ले… हमें भी तुम्हारी जरूरत नहीं है… हमें एक लड़का दे दे और फिर चली जाना यहां से,’’ राज गुस्से में बोल रहा था.

उस की बातें सुन कर चंदा कमरे में इधरउधर भागने लगी.

‘‘यह ऐसे नहीं मानेगी राज… ऐसा कर इसे रस्सियों में बांध कर डाल दे… कुछ दिनों में ही इस का दिमाग सही हो जाएगा,’’ बूढ़ी ने कहा.

राज ने एक रस्सी मंगवा कर चंदा को बिस्तर के पाए से बांध कर दरवाजा बाहर से बंद कर दिया और चंदा को  2 दिन का समय सोचविचार करने के लिए दिया.

चंदा कमरे में बंधी हुई सिसकती रही, उसे क्या पता था कि किसी से प्यार करने की इतनी बड़ी सजा मिलेगी, आज उसे पछतावा हो रहा था.

पूरे 24 घंटे हो चुके थे. चंदा ने कुछ भी नहीं खाया था. अचानक कमरे का दरवाजा खुला, चंदा किसी के आने की बात सोच कर अंदर तक दहल गई थी… उस ने अपनेआप को और भी समेट लिया था.

‘‘सुनो… कुछ खा लो… ऐसे कब तक पड़ी रहोगी,’’ यह एक औरत की आवाज थी. आवाज सुन कर चंदा ने आंखें ऊपर की, तो देखा कि एक खूबसूरत औरत सिर पर पल्ला डाले, हाथों में खाने की थाली लिए उस के सामने खड़ी है. चंदा समझ गई कि ये राज की पत्नी है.

‘‘मेरा नाम मंजुला है और तुम्हें मुझ से डरने की जरूरत नहीं है. हालांकि मेरे आदमी को अपने बस में कर के तुम मेरी सौत बन सकती हो, लेकिन फिर भी मैं तुम्हें खाना खिलाने आई हूं.’’

राज की पत्नी ने चंदा के बंधनों को खोला और चंदा के हाथमुंह को साफ किया.

‘‘ये कुछ कपड़े लाई हूं… चाहो तो नहा कर इन्हें पहन सकती हो और फिर खाना खा लो.’’

‘‘आप मुझे इतना बता दीजिए कि अगर मेरी जगह आप होतीं तो क्या आप खानापीना खा सकती थीं? अगर आप ने किसी से प्यार किया होता और वे आप को धोखा दे दे तो आप को कैसा लगता?’’

‘‘देखो, मैं यहां बरसों से हूं और मैं यहीं कहूंगी कि जो तुम से कहा जा रहा है उसे मान लो, क्योंकि तुम्हारे रोने का कोई भी असर इन पर नहीं होने जा रहा है,’’ मंजुला ने चंदा को समझाते हुए कहा.

पर फिर भी चंदा को मंजुला की बातें समझ नहीं आ रही थीं. उसे तो लग रहा था कि एक बार अगर वह यहां से भागने में कामयाब हो गई, तो सीधा अपने गांव जा कर मांबाबूजी से माफी मांग लेगी.

पर शायद यह सब इतना आसान नहीं होने वाला था, कुछ दिन बीतने के बाद राज की मां फिर से उस कमरे में आईं. उन के साथ में राज भी था.

‘‘सुन लड़की, जा कर नहाधो ले और साजसिंगार भी कर ले. वैसे तू सिंगार नहीं भी करेगी तो भी कोई असर नहीं पड़ने वाला है… और बेटे राज, तू आखिर किस दिन का इंतजार कर रहा है… अब समय आ गया है तुझे अपनी मर्दानगी साबित करनी होगी… दिखा दे दुनिया को, मेरा बेटा राज भी एक बेटा पैदा करने की ताकत रखता है.’’

राज को मानो इसी बात का इंतजार था. चंदा के लाख हाथपैर पटकने के बाद भी राज ने दरवाजा बंद किया और एकएक कर के चंदा के सारे कपड़े उतार फेंके और उस के अनछुए बदन को अपने बदन से रगड़ने लगा और उस का बलात्कार किया.

1-2 बार नहीं, बल्कि पूरे महीने तक, बिना नागा किए हुए राज चंदा के साथ बलात्कार करता रहा.

चंदा रोती रही और बलात्कार का शिकार होती रही, पर उस का रोना सुनने वाला वहां कोई नहीं था.

एक दिन राज की मां चंदा के कमरे में आईं. उन के साथ एक डाक्टर भी थी.

‘‘इसे चैक कर के बताओ कि यह पेट से हुई भी है कि नहीं.’’

डाक्टर अपने काम में लग गई और चंदा के कुछ सैंपल ले कर उन की जांच की. कुछ देर बाद डाक्टर ने चंदा के पेट से होने की सूचना दी.

राज को यह बात पता चली, तो वह खुशी से फूला न समाया. आज उसे अपनी मर्दानगी पर बड़ा घमंड हो रहा था और उस ने मान लिया था कि औरत बदलने से वह बेटे का बाप बन जाएगा.

चंदा पेट से क्या हुई, उस के कमरे में सूखे मेवे, फल का अंबार लगा दिया गया. किसी चीज की कोई कमी नहीं रहने दी गई चंदा के आसपास.

राज और उस की मां रोज आते और चंदा के पेट पर नजर डालते और इशारोंइशारों में ही खुश होते.

एक दिन सुबह से ही चंदा की खूब आवभगत हो रही थी, क्योंकि राज उसे अपने साथ ले कर पास के अस्पताल में ले जा रहा था.

राज वहां जा कर चंदा के पेट में पल रहे भ्रूण के लिंग की जांच कराता और अगर चंदा के पेट में लड़की पल रही होती तो उस का पेट गिरा देता.

अपनी कार में चंदा को ले कर बहुत खुशी के साथ वह अस्पताल पहुंचा था, पर उस की खुशी तब काफूर हो गई जब उसे पता चला कि चंदा के पेट में लड़की पल रही है.

‘‘मेरे तो सारे पैसे बरबाद हो गए, मां, इस औरत के पेट में लड़की पल रही है… लगता है, मेरी किस्मत में ही एक बेटे का सुख नहीं है,’’ रोने लगा था राज.

‘‘अरे, तू चिंता क्यों करता है… इस बार पेट में लड़की आ गई तो क्या… तू फिर से कोशिश कर, थोड़ा और बादाम खिला… और मुझे पोते का मुंह दिखवा दे… अभी भी रास्ता बंद नहीं हुआ है. इसे अस्पताल ले जा और बच्चा गिरवा दे.’’

राज की बीवी मंजुला ने मांबेटे में होने वाली बातें चुपके से सुन ली थीं. उस के कदम चंदा के कमरे की तरफ बढ़ चले.

चंदा कमरे में अपने सिर को पैरों में डाल कर बैठी थी. उस की सूनी आंखों में जीवन खत्म होता हुआ सा दिख रहा था.

मंजुला चंदा के करीब जा कर उसे पुचकारने लगी.

‘‘मुझे इस दर्द में देख कर तुम्हें तो बहुत ही अच्छा लग रहा होगा न, तुम तो ठहरी ठकुराइन, भला तुम मेरे दर्द को क्या समझोगी, आखिरकार तुम कैसी औरत हो?’’ चंदा का दुख अंदर से उमड़ पड़ा रहा था.

‘‘नहीं, मुझे तुम गलत मत समझो… जब भी मैं पेट से होती हूं, ये लोग मैडिकल जांच करा कर पेट में लड़का या लड़की होने का पता लगा लेते हैं. अगर लड़की होती है, तो मेरा बच्चा गिरवा देते हैं. मेरी सास और मेरे पति ने मिल कर मेरा 2 बार बच्चा गिरवाया है. बेटा न पैदा कर पाने के लिए मुझ पर कितना जुल्म ढाया है, इन लोगों ने वह मैं जानती हूं… मैं तो खुद ही अभागी हूं,’’ मंजुला की आंखों में भी नमी थी.

‘‘तो फिर तुम ने आवाज क्यों नहीं उठाई… या फिर तुम ने भागने की कोशिश क्यों नहीं की?’’ चंदा ने पूछा.

‘‘यहां से तो भागना मुमकिन नहीं है, क्योंकि आसपास के इलाके में राज के आदमी फैले हुए हैं, जो उस के इशारे पर कुछ भी कर सकते हैं.

‘‘मैं ने आवाज उठाई, तो मुझ पर कई तरह के जुल्म किए गए… और जब ये लोग मुझे शहर के एक अस्पताल में मेरा पेट गिरवाने ले गए, तब मैं बहाने से वहां के टौयलेट में गई… और मैं भागने की जगह तलाशने लगी… वहां खिड़की में लगे शीशे को सावधानी से हटा कर बाहर का रास्ता मिल सकता था और मैं ने वही किया, पर जैसे ही मैं पास ही बने एक पुलिस चौकी में पहुंचने वाली थी कि मेरे पति राज ने मुझे पकड़ लिया और मारते हुए घर ले आए… तब से ले कर आज तक मैं यहीं कैद हो कर रह गई हूं,’’ सिसकियों में टूट गई थी मंजुला.

चंदा ने उसे पानी पीने को दिया. मंजुला कुछ देर चुप रहने के बाद बोली, ‘‘ये लोग तुम्हें भी अस्पताल ले जा कर तुम्हारा बच्चा गिरवाने की कोशिश करेंगे… मुमकिन है कि यह वही अस्पताल हो, जहां मुझे ले जाया गया था. तुम टौयलेट में जा कर खिड़की के शीशे देखना. अगर तुम्हें लगे कि इन्हें हटा कर भागने में मदद मिल सकती है, तो तुम वहां से भाग जाना… पर मेरी तरह टौयलेट जाने का बहाना मत बनाना नहीं, तो इन्हें शक हो सकता है.

‘‘बेहतर होगा कि तुम किसी और बहाने से ऐसी जगह पहुंचो, जहां से बाहर भाग सको. बस तुम्हारी रिहाई का यही रास्ता है,’’ मंजुला ने चंदा को बताया.

मंजुला गलत नहीं थी. कुछ देर  बाद ही राज चंदा को ले कर अस्पताल जाने के लिए रवाना हो गया.

अस्पताल में चंदा का बच्चा गिरवाया जाना था, पर चंदा सावधान थी. उस ने नर्स से उलटी आने की बात कही. नर्स ने उसे बाथरूम दिखा दिया. यह वही अस्पताल था, जहां मंजुला को पहले लाया गया था.

अंदर जा कर चंदा ने देखा कि खिड़की के शीशे को हटा कर भागा जा सकता है, पर ऐसा करने में बेहद सावधानी की जरूरत थी. कांच के टूटने की आवाज सुन कर बाहर बैठे राज को किसी भी तरह का शक हो सकता था, पर अपने ऊपर तरहतरह के जुल्मों की शिकार चंदा कोई भी रिस्क उठाने को तैयार थी.

उस ने शीशे हटा कर खिड़की में इतनी जगह बना ली थी, जिस में से वह बाहर निकल सकती थी. आखिरकार उस की कोशिश कामयाब हुई और खिड़की से बाहर आ कर उस को एक नई ताजगी का अहसास हुआ.

बाहर निकल कर चंदा सीधे पुलिस चौकी पहुंची और राज और उस की मां के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई.

पुलिस राज के घर पहुंची और राज और उस की मां को गिरफ्तार कर लिया.

‘‘पर इंस्पैक्टर साहेब… इस बात का क्या सुबूत है कि मैं ने इस लड़की पर जुल्म किए हैं. इस के पेट में पल रहा मेरा बच्चा ही है,’’ राज तेज आवाज में बोल रहा था.

‘‘मैं देती हूं सुबूत आप को इंस्पैक्टर साहब,’’ मंजुला सामने से आती दिखाई दी. उसे इस रूप में इस तरह से बात करते हुए देख कर राज का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘हां… मैं हूं गवाह… चंदा पर हुए हर जुल्म और सितम का… और न केवल चंदा पर, बल्कि मुझ पर भी इन लोगों ने एक लड़के की चाहत में अनगिनत जुल्म किए हैं… गिरफ्तार कर लीजिए इन को.’’

पुलिस ने राज और उस की मां को गुनाह साबित होने के बाद जेल भेज दिया.

उस के बाद पुलिस ने मनोज की खोज शुरू की और जल्द ही पुलिस ने पाया कि मनोज लड़कियों को अपने प्यार के जाल में फंसा कर भगा कर कहीं और ले जाता और बाद में उन्हें बेचने का काम बड़े पेशेवर ढंग से करता था.

पुलिस ने मनोज को पकड़ कर जेल भेज दिया.

प्यार में एक बार धोखा खाने के बाद चंदा ने फिर कभी किसी दूसरे मर्द पर भरोसा नहीं किया…

हां… मंजुला ने उस की सौतन  से उस की सहेली बन कर उस का यकीन जिंदगीभर के लिए हासिल कर लिया था.

Short Story : मन का बोझ

Short Story : अंबर से उस के विवाह को हुए एक माह होने को आया था. इस दौरान कितनी नाटकीय घटना या कितने सपने सच हुए थे. इस घटनाक्रम को अवनि ने बहुत नजदीक से जाना था. अगर ऐसा न होता तो निखिला से विवाह होतेहोते अंबर उस का कैसे हो जाता?

हां, सच ही तो था यह. विवाह से एक दिन पहले तक किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि निखिला की जगह अवनि दुलहन बन कर विवाहमंडप में बैठेगी. विवाह की तैयारियां लगभग पूर्ण हो चुकी थीं. सारे मेहमान आ चुके थे. अचानक ही इस समाचार ने सब को बुरी तरह चौंका दिया था कि भावी वधू यानी निखिला ने अपने सहकर्मी विधु से कचहरी में विवाह कर लिया है. सब हतप्रभ रह गए थे. खुशी के मौके पर यह कैसी अनहोनी हो गई थी.

अंबर तो बुरी तरह हैरान, परेशान हो गया था. अमेरिका से उस की बहन शालिनी आई हुई थी और विवाह के ठीक  2 दिन बाद उस की वापसी का टिकट आरक्षित था. मांजी की आंखों में पढ़ी- लिखी, सुंदर बहू के आने का जो सपना तैर रहा था वह क्षण भर में बिखर गया था. वैसे ही अकसर बीमार रहती थीं.

अब सब यही सोच रहे थे कि कहीं से जल्दी से जल्दी दूसरी लड़की को अंबर के लिए ढूंढ़ा जाए, लेकिन मांजी नहीं चाहती थीं कि जल्दबाजी में उन के सुयोग्य बेटे के गले कोई ऐसीवैसी लड़की बांध दी जाए.

अंबर के ही मकान में किराएदार की हैसियत से रहने वाली साधारण सी लड़की अवनि तो अपने को अंबर के योग्य कभी भी नहीं समझती थी. वैसे अंबर को उस ने चाहा था, पर उसे सदैव के लिए पाने की इच्छा वह जुटा ही नहीं पाती थी. वह सोचती थी, ‘कहां अंबर और कहां वह. कितना सुदर्शन और शिक्षित है अंबर. इतना बड़ा इंजीनियर हो कर भी पद का घमंड उसे कतई नहीं है. सुंदर से सुंदर लड़की उसे पा कर गर्व कर सकती है और वह तो रूप और शिक्षा दोनों में ही साधारण है.’

अवनि तो एकाएक चौंक ही गई थी मां से सुन कर, ‘‘सुना तुम ने अवनि, अंबर की मां ने अंबर के लिए तुझे मांगा है. चल  जल्दी से दुलहन बनने की तैयारी कर और हां…सरला बहन 5 मिनट के लिए तुम से मिलना चाहती हैं.’’

अवनि तो जैसे जड़ हो गई थी. उस का सपना इस प्रकार साकार हो जाएगा, ऐसा तो उस ने सोचा भी न था. अचानक उस की आंखों से आंसू बहने लगे तो उस की मां घबरा गईं, ‘‘क्या बात है, अवनि, क्या तुझे अंबर पसंद नहीं? सच बता बेटी, तू क्यों रो रही है?’’

‘‘कुछ नहीं मां, बस ऐसे ही दिल घबरा सा गया था.’’

तभी मांजी कमरे में आ गईं, ‘‘अवनि, बता तुझे यह विवाह मंजूर है न? देखो, कोई जबरदस्ती नहीं है. अंबर से भी मैं ने पूछ लिया है. इतने सारे चिरपरिचित चेहरों में मुझे तुम ही अपनी बहू बनाने योग्य लगी हो. इनकार मत करना बेटी.’’

‘‘यह आप क्या कह रही हैं, मांजी,’’ इस से आगे अवनि एक शब्द भी न कह सकी और आगे बढ़ कर उस ने मांजी के चरण छू लिए. अगले दिन विवाह भी हो गया. कैसे सब एकदम से घटित हो गया, आज भी अवनि समझ नहीं पाती.

वह दिन भी उसे अच्छी तरह याद है जब अंबर की बहन नेहा और अंबर लड़की देखने गए थे. आते ही नेहा ने उसे नीचे से आवाज लगाई थी, ‘‘अवनि दीदी, नीचे आओ.’’

‘‘क्या है, नेहा?’’ नीचे आ कर उस ने पूछा, ‘‘बड़ी खुश नजर आ रही हो.’’

‘‘खुश तो होना ही है दीदी, अपने लिए भाभी जो पसंद कर के आ रही हूं.’’

‘‘सच, क्या नाम है उन का?’’

‘‘निखिला, बड़ी सुंदर है मेरी भाभी.’’

‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है. बधाई हो नेहा…और आप को भी,’’ पास बैठे मंदमंद मुसकरा रहे अंबर की ओर मुखातिब हो कर अवनि ने कहा था.

‘‘धन्यवाद अवनि,’’ कह कर अंबर दूसरे कमरे में चला गया था.

अंबर की खुशी से अवनि भी खुश थी. कैसा विचित्र प्यार था उस का, जिसे चाहती थी उसे पाने की कामना नहीं करती थी, पर अपने मन की थाह तक वह खुद ही नहीं पहुंच सकी थी. बस एक ही तो चाह थी कि अंबर हमेशा खुश रहे.

एक ही घर में रहने के कारण अवनि का रोज ही तो अंबर से मिलना होता था. अंबर के परिवार में थे नेहा, मांजी, अंबर, छोटा भाई सृजन तथा शालिनी दीदी, जो विवाह होने के बाद अमेरिका में रह रही थीं. सृजन बाहर छात्रावास में रह कर पढ़ाई कर रहा था. अंबर तो अकसर दौरों पर रहता था.

पर अंबर को देखते ही अवनि उन के घर से खिसक आती थी. शांत, सौम्य सा व्यक्तित्व था उस का, परंतु उस की उपस्थिति में अवनि की मुखरता, जड़ता का रूप ले लेती थी. वैसे जब कभी भी अनजाने में अंबर की आंखें अवनि को अपने पर टिकी सी लगतीं, वह सिहर जाती थी. जाने कब उसे अंबर बहुत अच्छा लगने लगा था. अंबर के मन तक उस की पहुंच नहीं थी. कभीकभी उसे लगता भी था कि अंबर के मन में भी एक कोमल कोना उस के लिए है. फिर वह सोचने लगती, ‘नहीं, भला अंबर व अवनि (धरती) का भी कभी मिलन हुआ है.’

जब कभी दौरे से लौटने में अंबर को देर हो जाती तो मांजी और नेहा के साथसाथ अवनि भी चिंतित हो जाती थी. कभीकभी उसे खुद ही आश्चर्य होता था कि आखिर वह अंबर की इतनी चिंता क्यों करती है, भला उस का क्या रिश्ता है उस से? कहीं उस की आंखों में किसी ने प्रेम की भाषा पढ़ ली तो? फिर वह स्वयं ही अपने मन को समझाती, ‘जो राह मंजिल तक न पहुंचा सके, उस पर चलना ही नहीं चाहिए.’

अवनि भी तो खुशीखुशी अंबर के विवाह की तैयारियां नेहा के साथ मिल कर कर रही थी. विवाह का अधिकांश सामान नेहा और उस ने मिल कर ही खरीदा था. निखिला की हर साड़ी पर उस की स्वीकृति की मुहर लगी थी. अवनि का दिल चुपके से चटका था, पर उस की आवाज किसी ने नहीं सुनी थी. आंसू आंखों में ही छिप कर ठहर गए थे. बाबूजी उस के लिए भी लड़का ढूंढ़ रहे थे. पर संयोगिक घटनाओं की विचित्रता को भला कौन समझ सकता है.

नेहा और मांजी ने उसे खुले मन से स्वीकार कर लिया था. मांजी का तो बहूबहू कहते मुंह न थकता था.

एक अंबर ही ऐसा था जिसे पा कर भी अवनि उस के मन तक नहीं पहुंची थी. शादी के बाद वह कुछ ज्यादा ही व्यस्त दिखाई दे रहा था.

कितना चाहा था अवनि ने कि अंबर से दो घड़ी मन की बातें कर ले. उस के मन पर एक बोझ था कि कहीं अंबर उसे पा कर नाखुश तो नहीं था. वैसे भी परिस्थितियों से समझौता कर के किसी को स्वीकार करना, स्वीकार करना तो नहीं कहा जा सकता. हो सकता है मांजी और शालिनी दीदी ने उस पर दबाव डाला हो या अपनी मां के स्वास्थ्य का खयाल कर के उस ने शादी कर ली हो.

अवनि के परिवार ने विवाह के दूसरे दिन ही अपने लिए दूसरा मकान किराए पर ले लिया था. शालिनी दीदी को भी दूसरे दिन दिल्ली जाना था. अंबर उन्हें छोड़ने चला गया था. मेहमान भी लगभग जा चुके थे.

अवनि मांजी के पास रहते हुए भी मानो कहीं दूर थी. काश, वह किसी भी तरह अंबर के मन तक पहुंच पाती.

दिल्ली से लौट कर अंबर अपने दफ्तर के कामों में व्यस्त हो गया था. स्वयं तो अवनि अंबर से कुछ पूछने का साहस ही नहीं जुटा पा रही थी. प्रारंभ में अंबर की व्यस्ततावश और फिर संकोचवश चाह कर भी वह कुछ न पूछ सकी थी. अंबर भी अपने मन की बातें उस से कम ही करता था. इस से भी अवनि का मन और अधिक शंकित हो जाता था कि पता नहीं अंबर उसे पसंद करता है या नहीं.

अंबर शायद मन से अवनि को स्वीकार नहीं कर पाया था. वैसे वह उस के सामने सामान्य ही बने रहने का प्रयास करता था. कभी भी उस ने अपने मन के अनमनेपन को अवनि को महसूस नहीं होने दिया था. ऊपरी तौर से उसे अवनि में कोई कमी दिखती भी नहीं थी, पर जबजब वह उस की तुलना निखिला से करता तो कुछ परेशान हो जाता. निखिला की सुंदरता, योग्यता आदि सभी कुछ तो उस के मन के अनुकूल था.

अवनि को अंबर प्रारंभ से ही एक अच्छी लड़की के रूप में पसंद करता था, पर जीवनसाथी बनाने की कल्पना तो उस ने कभी नहीं की थी. सबकुछ कितने अप्रत्याशित ढंग से घटित हो गया था.

दिन बीत रहे थे. धीरेधीरे अवनि का सुंदर, सरल रूप अंबर के समक्ष उद्घाटित होता जा रहा था. घरभर को अवनि ने अपने मधुर व्यवहार से मोह लिया था. मांजी और नेहा उस की प्रशंसा करते न थकती थीं. उस के समस्त गुण अब साथ रहने से अंबर के सामने आ रहे थे, जिन्हें वह पहले एक ही घर में रहने पर भी नहीं देख पाया था.

उन दिनों नेहा की परीक्षाएं चल रही थीं और मां भी अस्वस्थ थीं. अवनि के पिताजी एकाएक उसे लेने आ गए थे, क्योंकि उन्होंने नया घर बनवाया था. पीहर जाने की लालसा किस लड़की में नहीं होती, पर अवनि ने जाने से इनकार कर दिया था. मांजी ने कहा था, ‘‘चली जाओ, दोचार दिन की ही तो बात है, सब ठीक हो जाएगा.’’

पर अवनि ही तैयार नहीं हुई थी. वह नहीं चाहती थी कि नेहा की पढ़ाई में व्यवधान पड़े.

अंबर सोचने लगा, जिस तरह अवनि ने उस के घरपरिवार के साथ सामंजस्य बैठा लिया था, क्या निखिला भी वैसा कर पाती? मांबाप की इकलौती बेटी, धनऐश्वर्य, लाड़प्यार में पली, उच्च शिक्षित, रूपगर्विता निखिला क्या इतना कुछ कर सकती थी? शायद कभी नहीं. वह व्यर्थ ही भटक रहा था. जो कुछ भी हुआ, ठीक ही हुआ. अंबर अब महसूस करने लगा था कि मां ने सोचसमझ कर ही अवनि का हाथ उस के हाथ में दिया था.

फिर एक दिन स्वयं ही अंबर कह उठा था, ‘‘सच अवनि, मैं बहुत खुश हूं कि मुझे तुम्हारे जैसी पत्नी मिली. वैसे तुम से मेरा विवाह होना आज भी स्वप्न जैसा ही लगता है.’’

‘‘क्या आप को निखिला से विवाह टूटने का दुख नहीं हुआ. कहां निखिला और कहां मैं.’’

‘‘नहीं अवनि, ऐसा नहीं है,’’ अंबर ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘निखिला से जब मेरा रिश्ता तय हुआ तो उस से लगाव भी स्वाभाविक रूप से हो गया था. फिर शादी से एक दिन पूर्व ही रिश्ता टूटने से ठेस भी बहुत लगी थी. वैसे भी निखिला से मैं काफी प्रभावित था.

‘‘सच कहूं, प्रारंभ में मैं एकाएक तुम से विवाह हो जाने पर बहुत प्रसन्न हुआ हूं, ऐसा नहीं था क्योंकि एक ही घर में रहते हुए तुम्हें जानता तो था, पर उतना नहीं, जितना तुम्हें अपनी सहचरी बना कर जाना. तुम्हारे वास्तविक गुण भी तभी मेरे सामने आए. तुम्हें एक अच्छी लड़की के रूप में मैं सदा ही पसंद करता रहा था. तुम्हारी सौम्यता मेरे आकर्षण का केंद्र भी रही थी, पर विवाह करने का मेरा मापदंड दूसरा ही था. इसीलिए मैं शायद तुम्हारे गुणों व नैसर्गिक सौंदर्य को अनदेखा करता रहा था, पर अब मुझे एहसास हो रहा है कि शायद मैं ही गलत था.

‘‘वैसे भी अवनि और अंबर को तो एक दिन क्षितिज पर मिलना ही था,’’ अंबर ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘सच,’’ अंबर की स्पष्ट रूप से कही गई बातों से अवनि के मन का बोझ भी उतर गया था.

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