Family Story: अहिल्या – रज्जो को अपने चरित्र का क्यों प्रमाण देना पड़ा

Family Story, लेखिका- वंदना सोलंकी

रज्जो गांव की सीधीसादी,अल्हड़ पर बेहद खूबसूरत लड़की थी. उम्र यही कोई 18 या 19 साल रही होगी. 2 साल पहले उस के मांबाप की एक हादसे में मौत हो गई थी. उस के बाद भैयाभाभी ने उस की शादी रमेश से करा दी और अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया. तब तक वह 12वीं जमात तक ही पढ़ पाई थी.

रमेश तकरीबन 25 साल का नौजवान था जो फौज में तैनात था. इस समय उस की पोस्टिंग पुणे में थी. शादी के समय रमेश को 15 दिन की छुट्टी मिली थी. तब से वह अब घर आया था और इस बार अपनी नई ब्याहता पत्नी रज्जो को साथ ले जा रहा था.

पति के साथ रेल के एयरकंडीशनर डब्बे में बैठी रज्जो बहुत रोमांचित हो रही थी. वह पहली बार ऐसे ठंडे डब्बे में सफर कर रही थी, वह भी अपने नएनवेले पति के साथ.

खिड़की के पास बैठी रज्जो भविष्य के सपने बुनने में इतनी तल्लीन थी कि उस का पति रमेश कब उस की बगल में आ कर बैठ गया, इस बात का उसे भान ही नहीं रहा.

जब रमेश ने रज्जो को कुहनी मार कर छेड़ा तब वह वर्तमान के धरातल पर आई. उस ने प्यार से पति को मुसकरा कर देखा और उस के कंधे पर अपना सिर टिका दिया.

रमेश की बर्थ रज्जो की बर्थ के ऊपर की थी. सामने की सीट पर एक नौजवान बैठा था, जो अजीब सी नजरों से रज्जो को घूरे जा रहा था. उस की गहरी नीली आंखें मानो रज्जो के शरीर के अंदर तक का मुआयना कर रही थीं.

रज्जो इस बात से असहज महसूस कर रही थी. उस नौजवान की उम्र भी रमेश के बराबर ही रही होगी. रमेश ने उस से अपने साथ सीट बदलने का आग्रह किया, तो उस ने बताया कि यह उस की सीट नहीं है, बल्कि उस की सीट ऊपर की है.

रमेश ने सोचा कि इस सीट पर जो भी आएगा तब वह उस से सीट बदलने की बात कर लेगा.

उन का आपस में परिचय हुआ. वह नौजवान एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था. उस की पोस्टिंग नवी मुंबई में थी. वह दिल्ली से किसी शादी समारोह से लौट रहा था. अभी उस की छुट्टियां बाकी थीं, तो वह अपनी बहन के पास पुणे जा रहा था.

रमेश उस के साथ बातों में मशगूल था, पर रज्जो को यह अच्छा नहीं लग रहा था. वह पति के साथ ढेर सारी बातें करना चाहती थी, पर यह कबाब में हड्डी बन उस की सारी उम्मीदों पर पानी फेर रहा था.

जब रज्जो से रहा नहीं गया तो वह बोली, “सुनिए, मुझे तो बहुत भूख लगी है… खाना निकालूं?”

रमेश के हां कहते ही रज्जो खाना निकालने लगी, तो सामने वाला नौजवान, जिस का नाम विपिन नाम था, वहां से उठ कर जाने लगा. रमेश ने उसे भी खाने के लिए पूछा तो थोड़ी नानुकर के बाद वह मान गया.

खाना खाने के बाद धन्यवाद कह कर विपिन ऊपर अपनी सीट पर चला गया.

रमेश अब रज्जो के साथ सट कर बैठ गया और धीरेधीरे प्यारभरी बातें करने लगा. रज्जो का शर्म से चेहरा लाल हो रहा था.

डब्बा तकरीबन खाली सा ही था. अमावस की रात थी और बाहर घनघोर अंधकार छाया था. दीनदुनिया से बेखबर पतिपत्नी का जोड़ा अपनी प्यार की दुनिया में खोया था, इस बात से अनजान कि 2 आंखें लगातार उन पर नजरें जमाए हुए थीं.

रमेश ने रज्जो के कान में धीमे से फुसफुसाते हुए कहा कि थोड़ी देर बाद सब के सो जाने पर वह उस की सीट पर आ जाएगा. यह सुन कर रज्जो के दिल की धड़कनें तेज हो गईं और पलकें खुद ही झुक गईं, पर अचानक उसे लगा कि कोई उन्हें घूर रहा है. उस की नजर ऊपर गई तो उस ने देखा कि विपिन उसे अपलक देखे जा रहा था.

तभी विपिन ने रमेश को कौफी के लिए पूछा तो रमेश ने हां में सिर हिला दिया. रज्जो ने पहले तो आनाकानी की, पर रमेश के कहने पर 2-4 घूंट कौफी पी कर डिस्पोजेबल कप सीट के नीचे सरका दिया, फिर बत्ती बुझा कर लेट गई. रमेश और विपिन सामने की सीट पर बैठ कर बातें करते हुए कौफी पीने लगे.

काफी ठंड थी तो रमेश ने बैग से मंकी कैप निकाल कर पहन ली. अगला स्टेशन आने पर एक बुजुर्ग औरत उस डब्बे में आ गईं. उन की सामने वाली बर्थ थी.

सुनहरे भविष्य के सपनों के झूले में झूलती रज्जो को कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया, उसे पता ही नहीं चला.

अचानक नींद में रज्जो को महसूस हुआ जैसे किसी ने उसे अपनी बांहों में भर लिया हो. कुनमुनाती हुई रज्जो ने जान लिया कि यह रमेश है तो उस ने खिसक कर उस के लिए जगह बना दी. प्यार की खुमारी तो छाई ही थी दोनों पर, लिहाजा बिना किसी तीसरे की परवाह किए वे एकदूजे में समा गए.

थोड़ी देर बाद रमेश ऊपर अपनी सीट पर सोने चला गया. रज्जो तृप्त हो कर फिर गहरी नींद सो गई.

कुछ घंटों बाद फिर रज्जो की नींद में खलल पड़ा. रज्जो ने कहा, “अरे, अभी तो… हद है फिर से…” पर रमेश ने उस का मुंह बंद कर दिया. रज्जो ने आनाकानी की, पर रमेश पर प्यार का रंग छाया था, लिहाजा रज्जो भी लता सी उस के आगोश में सिमट गई.

सुबह होतेहोते उन की मंजिल आ गई थी. जल्दीजल्दी सामान समेट कर वे दोनों उतर गए. विपिन पता नहीं कब उतर गया था.

अपने नए आशियाने में आ कर रज्जो बेहद खुश थी. वह जल्द ही अपनी घरगृहस्थी में रम गई. उस ने रमेश के सामने आगे पढ़ाई करने की इच्छा जाहिर की तो रमेश मान गया. रज्जो ने एक अस्पताल में नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिए दाखिला ले लिया और बड़ी लगन से पढ़ाई करने लगी.

आजकल रमेश अपने काम में बहुत बिजी हो गया था. वह देर रात को थकाहारा आता और सो जाता. कभीकभी रात की ड्यूटी भी रहती थी. इस से उन की शादीशुदा जिंदगी में पहले जैसा प्यार अब कहीं नजर नहीं आता था.

रेल की घटना याद कर के रज्जो को गुदगुदी हो जाती थी. उन पलों को याद कर के उस का रोमरोम खिल जाता था.

एक रात बात करते हुए रज्जो ने रमेश से यों ही पूछ लिया, “ए जी, आजकल आप को क्या हो गया है कि कभी दो घड़ी मेरे पास नहीं बैठते. आप के मुंह से प्यार के दो बोल सुनने को तरस जाती हूं मैं. उस दिन रेल में तो…” कहतेकहते बीते सुखद पलों को याद कर के उस के गोरे गाल लाल हो गए.

“क्या हुआ था रेल में…”

“अरे, उस दिन तो आप के प्यार का रंग ही नहीं उतर रहा था. लाजशर्म सब छोड़ कर एक ही रात में 2 बार..”

“क्याक्या सोचती रहती हो रज्जो तुम भी…” शायद रमेश ने ठीक से रज्जो की बातों पर ध्यान नहीं दिया था. वह बस इतना ही बोला था, “तब नईनई शादी हुई थी यार. इतने दिनों के बाद हम मिले थे. नहीं रहा गया मुझ से.

“वैसे मैडम, मैं ने एक ही बार जगाया था तुम्हें. तुम ने जरूर कोई सपना देखा होगा. हर समय सपनों की दुनिया में जो रहती हो, फिर उसे सच मान लेती हो.”

रज्जो लाज से मुसकरा दी, पर कुछ सोच में पड़ गई. फिर इस खयाल को महज खयाल समझ कर झटक दिया कि शायद वह सपना ही होगा.

आज रज्जो कुछ अनमनी सी थी. तबीयत भी ठीक नहीं लग रही थी. बिस्तर से उठी तो चक्कर आ गया. डाक्टर को दिखाया तो उस ने जांच कर के बताया कि रज्जो पेट से है. रमेश तो खुशी से उछल पड़ा. रज्जो लाज से दोहरी हो गई. साथ ही एक नया सुखद अहसास भी हुआ.

15 दिन बाद अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट में पता चला कि रज्जो जुड़वां बच्चों की मां बनने वाली है. अब तो खुशी दोगुनी जो गई थी. रमेश ने उस की देखभाल के लिए गांव से अपनी बहन कीर्ति को बुला लिया था.

निश्चित समय पर रज्जो ने 2 बेटों को जन्म दिया. घर खुशियों से और बच्चों की किलकारियों से भर गया. इस से ज्यादा पाने की उम्मीद भी नहीं की थी रज्जो ने, पर एक अनजाना सा डर हर पल उसे घेरे रहता था.

बच्चे बड़े होने लगे थे. बच्चों के दादाजी ने नाम रखे रघु और राघव. जुड़वां होने के बावजूद दोनों बच्चे एकदम अलग थे, देखने में भी और आदतों में भी.

रघु थोड़ा शांत, गंभीर स्वभाव का सेहतमंद बालक था, वहीं राघव चंचल, शरारती बच्चा था. वह थोड़ा दुबलापतला सा था और जल्दी बीमार पड़ जाता था. उस की नीली आंखें सब को आकर्षित करती थीं, पर रज्जो को डराती थीं.

इस तरह 3 साल बीत गए. एक बार राघव गंभीर रूप से बीमार पड़ गया. डाक्टर ने बताया कि खून चढ़ाना पड़ेगा. उस का ब्लड ग्रुप बी नैगेटिव निकला. अस्पताल में इस ग्रुप का खून नहीं था, तो मातापिता या दूसरे घर वालों को खून देने के लिए बुलाया गया.

रज्जो और रमेश का ब्लड ग्रुप ए पौजिटिव और बी पौजिटिव था. बाकी परिवार में भी किसी का ब्लड ग्रुप राघव के खून से मेल नहीं खा रहा था.

राघव की हालत बहुत नाजुक थी. रमेश किसी दूसरी जगह से खून लाने चला गया. रज्जो राघव के पास बैठी थी. डाक्टर ने उस ब्लूड ग्रुप के बारे में अस्पताल में भी अनाउंस कर दिया गया था.

तभी एक आदमी तेजतेज कदमों से चलता हुआ आया और उस ने कहा कि उस का ब्लड ग्रुप बच्चे से मेल खाता है. जल्दी से उस का खून ले कर बच्चे को चढ़ाया गया.

यह तो रेल वाला विपिन था, जो अपने किसी जानपहचान वाले मरीज को अस्पताल देखने आया था.

नीली आंखों वाले विपिन को देख कर रज्जो का दिल मानो उछल कर बाहर आने को तैयार हो गया था. वह वहीं बेहोश हो कर गिर पड़ी. इतने दिनों से बच्चे की चिंता में वह खुद बीमार सी हो गई थी.

जब रज्जो को होश आया तब वह अस्पताल में बिस्तर पर लेटी थी. उस ने चारों ओर नजर घुमाई. रमेश, उस का बेटा रघु और मांजी बिस्तर के पास खड़े थे. रज्जो और राघव की तबीयत देखते हुए रमेश ने अपनी मां को भी गांव से बुला लिया था.

नन्हा रघु रोनी सूरत लिए अपनी मां के पास आने को मचल रहा था. रज्जो ने उसे गोद मे ले कर खूब प्यार किया. उस ने विपिन से मिलने की इच्छा जताई जिस से कि उसे धन्यवाद कह सके, तो नर्स ने बताया कि वह तो जा चुका है, पर अपना विजिटिंग कार्ड छोड़ गया है.

रज्जो की तबीयत दिन ब दिन खराब रहने लगी थी. डाक्टर भी हैरान थे कि क्यों उस का ब्लड प्रैशर लगातार ऊपरनीचे हो रहा था?

कुछ दिनों में राघव की तबीयत ठीक हो गई, तो उसे डिस्चार्ज कर दिया गया. रज्जो भी जिद कर के घर आ गई. थोड़ा ठीक होने के बाद उस ने उसी अस्पताल में नर्स की नौकरी कर ली.

एक दिन रज्जो ने अस्पताल की सीनियर डाक्टर शालिनी से पूछा, “एक बात बताइए डाक्टर, क्या एक ही मां की कोख से पैदा हुए जुड़वां बच्चों के 2 पिता हो सकते हैं?”

डाक्टर शालिनी ने बताया, “बहुत ही रेयर केस में ऐसा होने की संभावना हो सकती है. जैसे एक ही समय में अनेक मर्दों के साथ किसी औरत ने संबंध बनाए हों या कोई लड़की या फिर औरत सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई हो, तभी यह मुमकिन हो सकता है. पर तुम क्यों पूछ रही हो यह सब?”

रज्जो ने कहा, “मैं ने कहीं पढ़ा था. मुझे ऐसी अनहोनी पर यकीन नहीं हो रहा था, इसलिए आप से पूछा.”

डाक्टर शालिनी ने कहा कि बहुत सी ऐसी अनहोनी और रहस्यमयी बातें होती हैं, जिन का जवाब विज्ञान के पास भी नहीं है.

डाक्टर शालिनी की बात सुन कर रज्जो का चेहरा सफेद पड़ गया, पर उस ने किसी तरह खुद को संभाला और 15 दिन की छुट्टी ले कर घर आ गई. सासू मां भी गांव चली गई थीं. कीर्ति ही बच्चों का खयाल रखती थी.

रज्जो खुद से नजरें नहीं मिला पा रही थी. वह अंदर ही अंदर घुट रही थी. इस से उस की तबीयत बिगड़ने लगी थी.

रमेश रज्जो को अस्पताल ले गया. डाक्टर शालिनी रज्जो की ऐसी हालत देख कर हैरान रह गईं. उन्होंने उस की ऐसी हालत की वजह पूछी तो रमेश ने बताया, “पता नहीं यह क्या सोचती रहती है? न किसी से बात करती है और न किसी से मिलतीजुलती है. अपनेआप को बस घर मे बंद कर के रखती है. इसे बच्चों का भी खयाल नहीं है.”

डाक्टर शालिनी ने चैकअप के बहाने रमेश को बाहर भेज दिया, फिर रज्जो से पूछा, “सचसच बताओ रज्जो, उस दिन तुम ने मुझ से जो सवाल पूछे थे क्या उन का संबंध तुम से है? क्या तुम्हारे साथ कोई घटना घटी है? घबराओ मत. तुम इस समय मेरी मरीज हो. हमारे बीच जो भी बातें होंगी वे राज रहेंगी. अगर तुम नहीं चाहोगी तो मैं तुम्हारे पति को भी नहीं बताऊंगी.”

यह सुन कर रज्जो फफकफफक कर रो पड़ी और रेल में हुई घटना सुनाई. उस ने कहा, “मुझे अभी भी शक ही है. मैं पक्का नहीं कह सकती कि वह सब वाकई मेरे साथ उस रात हुआ भी था या सिर्फ एक वहम है, क्योंकि मैं तब शायद अपने होशोहवास में नहीं थी या फिर इतने समय बाद पति मिलन को उतावली हो रही थी.”

डाक्टर शालिनी ने कहा, “अगर तुम्हें पक्का करना है तो उस आदमी का और अपने बच्चे का डीएनए टैस्ट करवा लो, सारी बात साफ पता चल जाएगी.”

रमेश के पूछने पर डाक्टर शालिनी ने बताया कि 2 बच्चों और घर की जिम्मेदारी से रज्जो की यह हालत हुई है और ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है.

घर आते ही रज्जो अलमारी में वह विजिटिंग कार्ड ढूंढ़ने लगी जो विपिन ने नर्स को दिया था. कार्ड मिलने पर उस ने कांपते हाथों से अपने मोबाइल से उस का नंबर मिलाया.

अगले दिन राघव को दिखाने के बहाने रज्जो अस्पताल पहुंच गई. विपिन पहले से वहां मौजूद था. उस ने अपने बुलाने की वजह पूछी तो डाक्टर ने कहा कि टैस्ट की सभी कार्यवाही पूरी करने के बाद बता दिया जाएगा.

विपिन ने आनाकानी करनी चाही तो डाक्टर शालिनी ने पुलिस बुलाने की धमकी दी और उस से रेल की उस घटना का सच पूछा. इसी बीच पुलिस को बुला लिया गया और उन लोगों की हाजिरी में डीएनए टैस्ट कराया गया.

विपिन ने सब के सामने अपना गुनाह कुबूल किया और कहा कि वह रेल में रज्जो की सुंदरता पर मोहित हो गया था और उसे पाने की चाहत में उस ने कौफी में नशे की दवा मिला कर उन दोनों को पिला दी थी.

रमेश के गहरी नींद में सो जाने के बाद उस ने रमेश की टोपी पहन कर अंधेरी रात में उस घिनौनी वारदात को अंजाम दिया था.

विपिन को पुलिस के हवाले कर दिया गया. एक हफ्ते बाद रिपोर्ट आ गई. विपिन और राघव का डीएनए मैच कर रहा था.

डाक्टर ने रज्जो को रिपोर्ट पढ़ कर बताया, “राघव का पिता विपिन ही है.”

उसी समय अस्पताल आए रमेश ने डाक्टर शालिनी की बात सुन ली और पूरी बात जानने के बाद तो वह अपना आपा खो बैठा. वहीं सब के सामने उस ने रज्जो को खरीखोटी सुनाई. यहां तक कि उस ने रज्जो को चरित्रहीन तक साबित कर दिया.

डाक्टर शालिनी ने उसे समझाने की लाख कोशिश की पर रमेश हिकारत भरी नजरों से रज्जो को देखता हुआ उसे छोड़ कर चला गया.

रज्जो अपने ऊपर लगा इतना बड़ा इलजाम सह न सकी और सदमे से बेहोश हो गई. इस के बाद वह कोमा में चली गई. महीनाभर कोमा में रहने के बाद आखिरकार वह जिंदगी की जंग हार गई.

आज एक और अहिल्या किसी इंद्र के छल से अपमानित हुई. कोई कुसूर न होते हुए भी अपने ही पति द्वारा कुसूरवार ठहरा दी गई और ठुकरा दी गई. आज कोई राम उस के पाषाण हृदय में प्राण न डाल पाया… उस का उद्धार करने नहीं आया… न ही कोई राम उस की निर्जीव देह में प्राण लौटा सका, क्योंकि वह पति था परमेश्वर नहीं.

Romantic Story: तेरी मेरी कहानी – कैसे बदल गई रिश्तों की परिभाषा

Romantic Story: नींद कोसों दूर थी. कुछ देर बिस्तर पर करवटें बदलने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे के आगे की छोटी सी बालकनी में जा खड़ा हुआ. पूरा चांद साफ आसमान में चुपड़ी रोटी की तरह दमक रहा था… कुछ फूला सा कुछ चकत्तों वाला, लेकिन बेहद खूबसूरत, दूरदूर तक चांदनी छिटकाता… धुले हुए से आसमान में तारे बिखरे हुए थे, बहुत चमकीले, हवा के संग झिलमिलाते. मंद बयार उस के कपोलों को सहला गई थी, आज हवा की उस छुअन में एक मादकता थी जो उसे कई बरस पीछे धकेल गई थी.

तब वह युवा था, बहुत से सपने लिए हुए… जिंदगी को दिशा न मिली थी पर मन में उत्साह था. आज जिंदा तो था पर जी कहां रहा था… एक आह के साथ वह वहां पड़ी कुरसी पर बैठ गया. सिगरेट बहुत दिन से छोड़ दी थी पर आज बेहद तलब महसूस हो रही थी, कमरे में गया और माचिस व सिगरेट की डिबिया उठा लाया, लौटते हुए दोनों बच्चों और पत्नी पर नजर पड़ी. वे अपनी स्वप्नों की दुनिया में गुम थे. अब वे ही उस की दुनिया थे पर आज जाने क्यों दिल हूक रहा था यह सोच कर कि उस की दुनिया कितनी अलग हो सकती थी…

ऐसी ही दूरदूर तक फैली चांदनी वाली रात तो थी, वह उन दिनों हारमोनियम सीखता था. सभी स्वर सधे हुए न थे पर कर्णप्रिय बजा लेता था. जाने चांदनी ने कुछ जादू किया था या फिर दबी हुई कामना ने पंख फैलाए थे. न जाने क्या सोच कर उस ने हारमोनियम उठाया था और बजाने लगा था… ‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है…’ गीत का दर्द सुरों में पिघल कर दूर तक फैलता रहा था… रात गहरा चुकी थी, चांदनी को चुनौती देती कोई बिजली कहीं नहीं टिमटिमा रही थी पर शब्द जहां भेजे थे वहां पहुंच गए थे.

उस ने क्यों मान लिया था कि गीत उस के लिए बजाया गया था. चार शब्द कानों में बस गए थे… तेरी मेरी कहानी है और तब से दुनिया उस के लिए अपनी और उस की कहानी हो गई थी. वे बचपन में साथ खेले थे, वह लड़का था हमेशा जीतता पर वह कभी अपनी हार न मानती. वह हंसता हुआ कहता, ‘‘कल देखेंगे…’’ तो वह भी, ‘‘हांहां, कल देखेंगे,’’ कह कर भाग जाती. उसे यकीन था एक दिन वह जीतेगी. लड़की थी लेकिन बड़ेबड़े सपने देखती थी. वह उन दिनों की कुछ फिल्मों की नायिका की तरह बनना चाहती थी जो सबला व आत्मनिर्भर थी, एक ऐसी स्त्री जिस पर उस के आसपास की दुनिया टिकी हो.

कसबे के उस महल्ले में ज्यादातर घर एकमंजिले थे. बड़ेबड़े आंगन, एक ओर लाइन से कुछ कमरे, एक कोने में रसोई व भंडार जिस का प्रयोग सामान रखने के लिए अधिक होता था और खाना रसोई के बाहर अंगीठी रख कर पकाया जाता था, वहीं पतलीपतली दरियां बिछा कर खाना खाया जाता था. कोई मेहमान आता तो आंगन में चारपाई के आगे मेज रख दी जाती, गरमगरम रोटियां सिंकतीं और सीधे थाली में पहुंचतीं.

आंगन के बाहर वाले कोने की ओर 2 छोटे दरवाजे थे, शौच व गुसलखाने के. लगभग सभी घरों का ढांचा एकसा था. उस महल्ले में बस एक एकलौता घर तीनमंजिला था उस का. तीसरी मंजिल पर एक ही कमरा था, जिसे उस की पढ़ाई के लिए सब से उपयुक्त माना गया. आनेजाने वालों के शोर से परे वहां एकांत था. मामा के निर्देश थे कि मन लगा कर पढ़ाई की जाए. उस के और पढ़ाई के बीच कुछ न आए. मामा पुलिस में थे. ड्यूटी के कारण हफ्तों घर न आते थे. मामी और उन के 2 बच्चे उन के साथ रहते थे. घर में कुल मिला कर वह, उस की मां, उस के दादाजी, जिन्हें वह बाबा पुकारता था और मामी व उन के बच्चे रहते थे. वह समझ न पाता था कि मामा ने उस की विधवा मां को अकेले न रहने दे कर उसे सहारा दिया या अपना घोंसला न होने के कारण कोयल का चरित्र अपनाया. खैर जो भी कारण रहा हो, मामा उसे बहुत प्यार करते थे. घर में पित्रात्मक सत्ता प्रदान करते थे पर मामी ऐसी न थीं. मामा न होते तो मां से खूब झगड़तीं, शायद उन के मन में कुछ ग्रंथियां थीं. तीनमंजिला घर के भूतल पर वे रहते थे, बाहर बैठक थी और उस के साथ में एक गलियारा आंगन में ला छोड़ता था जहां एक ओर रसोई, सामने एक कमरा और कमरे के भीतर एक और कमरा था. बैठक में बाबाजी रहते थे, अंदर के कमरों में वे सब. पहली और दूसरी मंजिल के कुल 4 कमरों में कभी 3 किराएदार रहते तो कभी 4. उन कमरों का किराया उस के परिवार के लिए पर्याप्त था.

जब से उसे ऊपर वाला कमरा मिला था वह वहीं पर पढ़ाई करने लगा था. कमरे के बाहर छोटी सी 4 ईंटों की मुंडेर वाले छज्जे पर छोटी मेजकुरसी लगा कर वह पढ़ता… जानता था उसे कोई देख रहा है, पर वह किताब से नजरें न हटाता. बहुत होशियार न था पर पढ़ाई तो पूरी करनी ही थी. वह भटक भी नहीं सकता था, मां को दुख नहीं देना चाहता था. मामा प्रेरणा देते थे पर पिता की कमी को कब कोई पूरा कर पाया है? उस का मन पढ़ने में बहुत न था, उसे डाक्टर इंजीनियर न बनना था. कोई बड़े ख्वाब भी न थे, मामा जैसी नौकरी न करनी थी जिस में महीने के 25 दिन शहर से बाहर काटने पड़ें और बाकी के 5 दिन आप के घर वाले छठे दिन का इंतजार करें. उसे पिता सी पुरोहिताई भी नहीं करनी थी. एक समय इंटर पास बड़े माने रखता था. पर अब ऐसा न था. उस पर घर के गुजारे का बोझ न था पर जिंदगी बिताने को कुछ करना जरूरी था… भविष्य के विषय में संशय ही संशय था.

वह बारबार चबूतरे तक चक्कर लगा आती. चबूतरे से छज्जा साफ दिखाई पड़ता था, लेकिन उसे शाम को 8 से 9 बजे तक का बिजली की कटौती वाला समय पसंद था, क्योंकि मिट्टी के तेल के लैंप की आभा में पढ़ने वाले का चेहरा चमक उठता था. वह स्वयं अनदेखा रह कर उसे देख पाती. अब वे बच्चे न रहे थे, किशोरवय को बड़ी निगरानी में रखा जाता था, कोई बंदिश तो न थी, लेकिन पहले की उन्मुक्तता समाप्त हो गई थी. तब वह 10वीं में थी और वह 12वीं में था. वह अकसर सोचती, ‘काश, दोनों एक ही कक्षा में होते तो वह पढ़ाई और किताबों के आदानप्रदान के बहाने ही एकदूसरे से बात कर पाते. यदाकदा मां के काम से ताईजी के पास जाने में सामना हो जाता, पर बात न हो पाती,’ शायद मन के भीतर जो था, वह सामान्य बातचीत करने से भी रोकता था. संस्कारों में बंधे वे 2 युवामन कभी खुल न पाए. उस दिन भी नहीं जब अम्मां ने उसे गला बुनने की सलाई लेने भेजा था लेकिन ताईजी घर पर नहीं थीं और वह बैठक में अकेला था. वह चाह कर भी कह नहीं पाया कि दो पल रुको और वह मन होते भी रुक नहीं पाई. शायद वह तब भी सोच रहा था, ‘कल देखेंगे.’

दादाजी के गुजर जाने के बाद बहुत दिन तक बैठक खाली रही, फिर मां के कहने पर उस ने उसे अपना कमरा बना लिया. दादाजी के कमरे में आते ही उसे लगा वह बड़ा हो गया है. दोस्त पहले ही बहुत न थे, जो थे वे भी धीरेधीरे छूटते गए. मन बहलाव को कुछ तो चाहिए सो उस ने तीसरी मंजिल के कमरे में कबूतरों के दड़बे रख दिए थे. सुबहशाम वह कबूतरों को दानापानी देने ऊपर चढ़ता, कबूतरों को पंख पसारने के लिए ऊपर छोड़ता… और जब उन्हें वापस बुलाने को पुकारता आ आ आ… तो उसे लगता वह पुकार उस के लिए है. वह किसी न किसी बहाने छत पर चढ़ती, कभी कपड़े सुखाने, कभी छत पर सूख रहे कपड़े इकट्ठे करने तो कभी छोटे भाईबहनों को खेल खिलाने.

वह जिस अंगरेजी स्कूल में पढ़ती थी वह कक्षा 12वीं से आगे न था. वह शुरू से अंगरेजी स्कूल में पढ़ी थी. सरकारी स्कूल में जाने का स्वभाव न था… मौसी दिल्ली रहती थीं, उसे वहीं भेज दिया गया. वह भारी मन से चली थी, जाने से पहले की रात चांद पूरा खिला था, उस के कान हारमोनियम की आवाज को तरसते रहे… काश, एक बार वह सुन पाती पर उस रात कहीं कोई संगीत न था.

रात आंखों में कटी और सुबह तैयार हो गई. मां मौसी के घर छोड़ने गई थी. वह पिता की बात गांठ बांध कर साथ ले गई थी. मन लगा कर पढ़ना और कुछ बन कर लौटना.

वह पढ़ती रही, बढ़ती रही, यह संकल्प लिए कि कुछ बन कर ही लौटेगी. आज 10 बरस बाद लौटी. पिता बहुत खुश, मां बारबार आंख के कोने पोंछतीं, उसे देखती निहाल हो रही हैं. लड़की पढ़लिख कर सरकारी अफसर बन गई, आला अधिकारी. मौका लगते ही वह छत पर जा पहुंची. सब बदल गया था… कहीं कोई न था. महल्ले के ज्यादातर घर दोमंजिले हो गए थे, दूर कुछ तीनचार मंजिले घर भी दिखाई दे रहे थे.

शाम को बाहर चबूतरे पर निकली ही थी कि देखा एक छोटा बालक तीनमंजिले घर की देहरी पार कर बाहर निकल आया था, घुटनों के बल चलते उस बालक को उठाने का लोभ वह संवरण न कर पाई, ‘कहीं यह?’

वह उसे पहुंचाने के बहाने घर के भीतर ले गई थी. तेल चुपड़े बालों की कसी चोटी, सिर पर पल्ला, गोरी, सपाट चेहरे वाली एक महिला सामने आई और अपने मुन्ना को उस की बांहों में झूलते देख सकपका गई.

एक अजब सा क्षण, जब आमनेसामने दोनों के प्रश्न चेहरे पर गढ़े होते हैं किंतु शब्द खो जाते हैं… और एक मसीहा की तरह ताईजी आ गई थीं… ‘अरे, बिट्टो तुम, अभी तो शन्नो की अम्मां से सुना कि तुम आई हो… कितने बरस बाहर रहीं, आंखें तरस गईं तुम्हें देखने को… बहुत बड़ा कलेजा है तुम्हारी मां का जो इत्ती दूर छोड़े रही… बहू, रजनी जीजी के पैर छू कर आशीर्वाद लो, जानो कौन हैं ये?’ हां अम्मां, मैं समझ गई थी.

वह अचानक जिज्जी और बूआ बन गई.

तभी वह आया था, सामने के बाल उड़ चुके थे, सुना था किसी दुकान पर सहायक लगा था… खबरें तो कभीकभार मिलती रही थीं, उस के ब्याह की खबर भी मिली थी पर खबर मिलने और प्रत्यक्ष देखने में बड़ा अंतर होता है. इस सच से अब रूबरू हुई. 2 बच्चों का पिता 30-32 वर्ष का वह आदमी उस की कल्पना के पुरुष से बिलकुल अलग था.

पल भर के लिए वह वहां नहीं थी, मानो 10 सदी से लगने वाले 10 बरसों में उसे खोजने का प्रयास कर रही थी, देखना चाह रही थी कि उस के चेहरे की लकीरें इतना कैसे गहरा गईं.

उस ने नाम से संबोधित करते हुए कहा था… ‘‘रजनी, बैठो. खाना खा कर जाना…’’ उफ्फ, वह औपचारिकता भरी आवाज उस का कलेजा चीर गई थी. कसी चोटी वाली एक आत्मीयता भरी नजर भर तुरंत रसोई में चली गई थी, वह समझ नहीं पाई कि वह भोजन लगाने का निमंत्रण था या उस के लिए प्रस्थान करने का संकेत. वह क्षमा याचना सी करती, मां के इंतजार का बहाना कर ताईजी को प्रणाम कर लौट आई थी.

एक गहरी निश्वास के साथ उस के मुंह से निकला… ‘अब कल न होगी.’

वह समझ गया था कि कहीं कुछ चटका है, भीतर या बाहर, यह अंदाजा नहीं कर पा रहा था.

Family Story: दगाबाज – आयुषा के साथ क्या हुआ

Family Story: सरन अपने बेटे विनय की दुलहन आयुषा का परिचय घर के बुजुर्गों और मेहमानों से करवा रही थीं. बरात को लौटे लगभग 2 घंटे बीत चुके थे. आयुषा सब के पैर छूती, बुजुर्ग उसे आशीर्वाद देते व आशीर्वाद स्वरूप कुछ भेंट देते. आयुषा भेंट लेती और आगे बढ़ जाती.

जीत का परिचय करवाते हुए सरन ने जब आयुषा से कहा, ‘‘ये मोहना के पति और तुम्हारे ननदोई हैं,’’ तो एकाएक उस की निगाह जीत पर उठ गई. जीत से निगाह मिलते ही उस के शरीर में झुरझुरी सी छूट गई. जीत उस का पहला प्यार था, लेकिन अब मोहना का पति. जिंदगी कभी उसे ऐसा खेल भी खिलाएगी, आयुषा सोचती ही रह गई. अंतर्द्वंद्व के भंवर में फंसी वह निश्चय नहीं कर पाई कि जीत के पैर छुए या नहीं? अपने मन के भावों को छिपाने का प्रयास करते हुए उस ने बड़े संकोच से उस के पैरों की तरफ अपने हाथ बढ़ाए.

जीत भी उसे अपने साले की पत्नी के रूप में देख कर हैरान था. वह भी नहीं चाहता था कि आयुषा उस के पैर छुए. आयुषा के हाथ अपने पैरों की ओर बढ़ते देख कर वह पीछे खिसक गया. खिसकते हुए उस ने आयुषा के समक्ष अपने हाथ जोड़ दिए. प्रत्युत्तर में आयुषा ने भी वही किया. दोनों के बीच उत्पन्न एक अनचाही स्थिति सहज ही टल गई.

जीत को देखते ही आयुषा के मन का चैन लुट गया था. जीवन में कुछ पल ऐसे भी होते हैं, जिन्हें भुलाने को जी चाहता है. वे पल यदि जीवित रहें तो ताजे घाव सा दर्द देते हैं. ठीक वही दर्द वह इस समय महसूस कर रही थी. सुहागशय्या पर अकेली बैठी वह अतीत में खो गई.

मामा की लड़की रंजना की शादी में पहली बार उस का साक्षात्कार जीत से हुआ था. मामा दिल्ली में रहते हैं. पेशे से वकील हैं. गली सीताराम में पुश्तैनी हवेली के मालिक हैं. तीनमंजिला हवेली की निचली मंजिल में बड़े हौल से सटे 4 कमरे हैं. मुख्य द्वार से सटे एक बड़े कमरे में उन का औफिस चलता है. बाकी कमरे खाली पड़े रहते हैं. बीच की मंजिल में 12 कमरे हैं, जिन में उन का 4 प्राणियों का परिवार रहता है. नानी, वे स्वयं, मामी और रंजना. बेटा प्रमोद भोपाल में सर्विस में है. ऊपरी मंजिल में 6 कमरे हैं, लेकिन सभी खाली हैं.

मैं अपनी मम्मी के साथ शादी अटैंड करने आई थी. पापा 2 दिन बाद आने वाले थे. मेहमानों को रिसीव करने के लिए मामा, मामी और उन के परिवार के कुछ सदस्य ड्योढ़ी पर खड़े थे. हवेली में घुसते हुए अचानक मेरे पैर लड़खड़ा गए थे. इस से पहले कि मैं गिरती, मामी के पास खड़े जीत ने मुझे संभाल लिया था. वह पहला क्षण था जब मेरी निगाहें जीत से टकराई थीं. प्रेम बरसात में उफनती नदियों की तरह पानी बड़े वेग से आता है, उस क्षण भी यही हुआ था. हम दोनों ने उस वेग का एहसास किया था.

उस के बाद शादी के दौरान ऐसा कोई क्षण नहीं आया जब हमारी नजरें एकदूसरे से हटी हों. जीत सा सुंदर और आकर्षक जवान मैं ने इस से पहले कभी नहीं देखा था. मैं मानूं या न मानूं पर सत्य कभी नहीं बदला जा सकता. कोई जब हमारी कल्पना से मिलनेजुलने लगता है, तो हम उसे चाहने लगते हैं. उस की समीपता पाने की कोशिश में लग जाते हैं. उस समय मेरा भी यही हाल था. मैं जीत की समीपता हर कीमत पर पा लेना चाहती थी.

मामा द्वारा रंजना की शादी हवेली से करने का फैसला हमारे लिए फायदेमंद सिद्ध हुआ था. इतनी विशाल हवेली में किसी को पुकार कर बुला लेना या ढूंढ़ पाना दूभर था. रंजना की सगाई वाले दिन सारी गहमागहमी निचली और पहली मंजिल तक ही सीमित थी. जीत ने सीढि़यां चढ़ते हुए जब मुझे आंख के इशारे से अपने पास बुलाया तो न जाने क्यों चाह कर भी मैं अपने कदमों को रोक नहीं पाई थी.

सम्मोहन में बंधी सब की नजरों से बचतीबचाती मैं भी सीढि़यों पर उस के पीछेपीछे चढ़ती चली गई थी. थोड़े समय में ही हम ऊपरी मंजिल की सीढि़यों पर थे. एकाएक उस ने मुझे अपनी बांहों में जकड़ कर अपने तपते होंठों को मेरे होंठों पर रख दिया था. अपने शरीर पर उस के हाथों का दबाव बढ़ते देख कर मैं ने न चाहते हुए भी उस से कहा था, ‘छोड़ो मुझे, कोई ऊपर आ गया तो?’

पर वह कहां सुनने वाला था और मैं भी कहां उस के बंधन से मुक्त होना चाह रही थी. मैं ने अपनी बांहों का दबाव उस के शरीर पर बढ़ा दिया था. न जाने कितनी देर हम दोनों उसी स्थिति में आनंदित होते रहे थे. लौट कर सारी रात मुझे नींद नहीं आई थी. जीत की बांहों का बंधन और तपते होंठों का चुंबन मेरे मनमस्तिष्क से हटाए भी नहीं हटा था.

अगली रात ऊपरी मंजिल का एक कमरा हमारे शारीरिक संगम का गवाह बना था. जीत और मैं एकदूसरे में समाते चले गए थे. दो शरीरों की दूरियां कैसे कम होती जाती हैं, यह मैं ने उसी रात जाना था. कितने सुखमय क्षण थे वे मेरी जवानी के, सिर्फ मैं ही जान सकती हूं. उन क्षणों ने मेरी जिंदगी ही बदल डाली थी.

शादी के बाद हम बिछुड़े जरूर थे पर इंटरनैट हमारे मिलन का एक माध्यम बना रहा था. हम घंटों चैट करते थे. एकदूसरे की समीपता पाने को तरसते रहते थे. हम निश्चय कर चुके थे कि हम शीघ्र ही शादी के बंधन में बंध जाएंगे.

तभी एक दिन मैं ने पापा को मम्मी से कहते हुए सुना था, ‘आयुषा के लिए मैं ने एक सुयोग्य वर तलाश लिया है. लड़का सफल व्यवसायी है. पिता का अलग व्यापार है. लड़के के पिता का कहना है कि वे अपनी लड़की की शादी पहले करना चाहते हैं. उस की शादी होते ही वे बेटे की शादी कर देंगे. तब तक हमारी आयुषा भी एमए कर चुकी होगी.’

मम्मी तो पापा की बात सुन कर प्रसन्न हुई थीं, पर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई थी. उसी शाम जीत से चैट करते हुए मैं ने उसे साफ शब्दों में कहा था, ‘जीत या तो तुम यहां आ कर पापा से मेरा हाथ मांग लो या फिर मैं पापा को स्थिति स्पष्ट कर के उन्हें तुम्हारे डैडी से मिलने के लिए भेज देती हूं.’

जीत ने कहा था, ‘तुम चिंता मत करो. यह समस्या अब तुम्हारी नहीं बल्कि मेरी है. मैं वादा करता हूं, तुम्हें मुझ से कोई नहीं छीन पाएगा. तुम सिर्फ मेरी हो. मुझे सिर्फ थोड़ा सा समय दो.’ उस ने मुझे आश्वस्त किया था.

उस के बाद जीत ने चैट करना कम कर दिया था. फिर धीरेधीरे मेरे और जीत के बीच दूरियों की खाई इतनी बढ़ती चली गई कि भरी नहीं जा सकी. जीत ने मुझ से अपना संपर्क ही तोड़ लिया. बरबस मुझे पापा की इच्छा के समक्ष झुकना पड़ा था.

सुहागकक्ष का दरवाजा बंद होने की आवाज के साथ मेरी तंद्रा टूट गई. विनय सुहागशय्या पर आ कर बैठ गए, ‘‘परेशान हो,’’ उन्होंने प्रश्न किया.

अपने मन के भावों को छिपाते हुए मैं ने सहज होने की कोशिश की, ‘‘नहीं तो,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘आयुष,’’ मुझे अपनी बांहों में भरते हुए विनय बोले, ‘‘मैं इस पल को समझता हूं. तुम्हें घर वालों की याद आ रही होगी, पर एक बात मेरी भी सच मानो कि मैं तुम्हारी जिंदगी में इतनी खुशियां भर दूंगा कि बीती जिंदगी की हर याद मिट जाएगी.’’

मेरे मन के कोने में हमसफर की एक छवि अंकित थी. विनय का व्यक्तित्व ठीक उस छवि से मिलता था. इसलिए मैं विनय को पा कर धन्य हो गई थी. ऐसे में हर पल मेरा मन यह कहने लगा था कि विनय जैसे सीधेसच्चे इंसान से कुछ भी छिपाना ठीक नहीं होगा. संभव है भविष्य में मेरे और जीत के रिश्तों का पता चलने पर विनय इन्हें किस प्रकार लें? तब पता नहीं हमारी विवाहित जिंदगी का क्या हश्र हो? मैं उस समय कोई भी कुठाराघात नहीं सह पाऊंगी. मुझे आत्मीयों की प्रताड़ना अधिक कष्टकर प्रतीत होती है, पर जबजब मैं ने विनय को सत्य बताने का साहस किया. मेरा अपना मन मुझे ही दगा दे गया. बात जबान पर नहीं आई. दिन बीतते गए. यहां तक कि हम महीने भर का हनीमून ट्रिप कर के यूरोप से लौट भी आए.

हनीमून के दौरान विनय ने मेरी उदासी को कई बार नोटिस किया था. उदासी का कारण भी जानना चाहा, पर मैं द्वंद्व में फंसी विनय को कुछ भी नहीं बता पाई. उसे अपने प्यार में उलझा कर मैं ने हर बार बातों का रुख ही बदल दिया था.

हनीमून से लौटते ही विनय 2 महीने के बिजनैस टूर पर फ्रांस और जरमनी चले गए. सासूमां ने उन्हें रोकने का बहुत प्रयास किया पर वे नहीं रुके. जीत और मोहना को उन्होंने जरूर रोक लिया.

उन्होंने जीत से कहा, ‘‘मोहना को तो मैं अभी महीनेदोमहीने और आप के पास नहीं भेजूंगी. आयुषा घर में नई है. उस का मन बहलाने के लिए कोई तो उस का हमउम्र चाहिए. वैसे आप भी यहीं से अपना बिजनैस संभाल सकें, तो मुझे ज्यादा खुशी होगी. कम से कम आयुषा को 2 हमउम्र साथी तो मिल जाएंगे.’’

जीत थोड़ी नानुकर के बाद रुक गया. मैं समझ चुकी थी कि उस के रुकने का आशय क्या है? वह मुझे फिर से पाने का प्रयास करना चाहता है. मैं तभी से सतर्क हो गई थी. उस ने पहले कुछ दिन तो मुझ से दूरियां बनाए रखीं. फिर एक दिन जब सासूमां मोहना के साथ उस के लिए कपड़े और आभूषण खरीदने बाजार गईं तो जीत मेरे कमरे में चला आया. वह अतिप्रसन्न था. ठीक उस शिकारी की तरह जिस के हाथों एक बड़ा सा शिकार आ गया हो.

मेरे समीप आते हुए उस ने कहा, ‘‘हाय, आयुषा. व्हाट ए सरप्राइज? वी आर बैक अगेन. अब हम फिर से एक हो सकते हैं. कम औन बेबी,’’ जीत ने कहते हुए अपने हाथ मुझे बांहों में भरने के लिए बढ़ा दिए.

मेरे सामने अब मेरा संसार था. प्यारा सा पति था. उस का परिवार था. जीत के शब्द मुझे पीड़ा देने लगे. उस के दुस्साहस पर मुझे क्रोध आने लगा. न जाने उस ने मुझे क्या समझ लिया था? अपनी बपौती या बिकाऊ स्त्री? मैं उस पर चिंघाड़ पड़ी, ‘‘जीत, यहां से चले जाओ वरना,’’ गुस्से में मेरे शब्द ही टूट गए.

‘‘वरना क्या?’’

‘‘मैं तुम्हारी करतूत का भंडाफोड़ कर दूंगी.’’

‘‘उस से मेरा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन तुम कहीं की नहीं रहोगी. आयुषा, तुम्हारा भला अब सिर्फ इसी में है कि मैं जैसा कहूं तुम करती जाओ.’’

‘‘यह कभी नहीं होगा,’’ क्रोध में मैं ने मेज पर रखा हुआ वास उठा लिया.

मेरे क्रोध की पराकाष्ठा का अंदाजा लगाते हुए उस ने मेरे समक्ष कुछ फोटो पटक दिए और बोला, ‘‘ये मेरे और तुम्हारे कुछ फोटो हैं, जो तुम्हारे विवाहित जीवन को नष्ट करने के लिए काफी हैं. यदि अपना विवाह बचाना चाहती हो तो कल शाम 7 बजे होटल सनराइज में चली आना. मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ जीत तेजी से मुझ पर एक विजयी मुसकान उछालते हुए कमरे से बाहर निकल गया.

अब मेरा क्रोध पस्त हो गया था. उस के जाते ही मैं फूटफूट कर रो पड़ी. मुझे अपना विवाहित जीवन तारतार होता हुआ लगा. जीत ने मेरी सारी खुशियां छीन ली थीं. बेशुमार आंसू दे डाले थे. मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं? कैसे जीत से छुटकारा पाऊं? मेरी एक जरा सी नादानी ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा था, पर मैं ने यह निश्चय अवश्य कर लिया था कि यह मेरी लड़ाई है, मुझे ही लड़नी है. मैं किसी और को बीच में नहीं लाऊंगी. कैसे लड़ूंगी? यही सोचसोच कर सारी रात मेरी आंखों से अविरल अश्रुधारा बहती रही थी.

सवेरे उठी तो लग रहा था कि तनाव से दिमाग किसी भी समय फट जाएगा. विपरीत परिस्थितियों में कई बार इंसान विचलित हो जाता है और घबरा कर कुछ उलटासीधा कर बैठता है. मुझे यही डर था कि मैं कहीं कुछ गलत न कर बैठूं. दिन यों ही गुजर गया. शाम के 5 बजते ही जीत घर से निकल गया. जाते हुए मुझे देख कर मुसकरा रहा था. अब तक मैं भी यह निश्चय कर चुकी थी कि आज जीत से मेरी आरपार की लड़ाई होगी. अंजाम चाहे जो भी हो.

मैं जब होटल पहुंची तो जीत बड़ी बेताबी से मेरे आने का इंतजार कर रहा था. मुझे देखते ही वह बड़ी अक्कड़ से बोला, ‘‘हाय डियर, आखिर जीता मैं ही, अगर सीधी तरह मेरी बात मान लेती तो मैं तुम्हें परेशान क्यों करता?’’

‘‘जीत,’’ मैं ने उस की बात अनसुनी करते हुए कहा, ‘‘मैं बड़ी मुश्किल से अपनों की इज्जत दांव पर लगा कर तुम्हारी इच्छा पूरी करने आई हूं. मेरे पास ज्यादा समय नहीं है. आओ और जैसे चाहो मेरे शरीर को नोच डालो. मैं उफ तक नहीं करूंगी,’’ कहते हुए मैं ने अपनी साड़ीब्लाउज उतारना शुरू कर दिया, उस के बाद पेटीकोट भी.

अचानक मेरे इस व्यवहार को देख कर जीत चकित रह गया. उस ने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. विचारों के बवंडर ने संभवत: उसे विवेकशून्य कर दिया. आयुषा से क्या कहे, कुछ नहीं सूझा. घबराते हुए उस ने मुझ से पूछा, ‘‘यह तुम्हारे हाथ में क्या है?’’

‘‘जहर की शीशी,’’ मैं ने उत्तर दिया, ‘‘तुम्हें तृप्त कर के इसे पी लूंगी. सारा किस्सा एक बार में खत्म हो जाएगा.’’

‘‘फिर मेरा क्या होगा?’’

‘‘चाहो तो तुम भी इसे पी सकते हो. हमारा प्यार भी अमर हो जाएगा और हम भी.’’

तभी मैं ने देखा उसे अपनी आशाओं पर पानी फिरता हुआ नजर आया था. उस के चेहरे से पसीना चूने लगा था. फिर उस के पैर मुझ से कुछ दूर हुए और दूर होतेहोते कमरे से बाहर हो गए.

सवेरे जब नींद टूटी तो मैं ने देखा कि जीत कहीं बाहर जा रहा था.

सासूमां और मोहना उस के पास दरवाजे पर खड़ी थीं. मुझ पर नजर पड़ते ही मोहना ने मुझे बताया कि आज जीत की एक जरूरी मीटिंग है, उसे 10 बजे की फ्लाइट पकड़नी है. सच क्या था. वह केवल जीत जानता था या मैं. जीत ने जाते समय मुझे देखा तक नहीं, पर मैं उसे जाते हुए देख कर मंदमंद मुसकरा रही थी. मैं अब विनय के प्रति पूरी तरह समर्पित थी.दगाबाज : आयुषा के साथ क्या हुआ

Romantic Story: जीत – क्या मंजरी को अपना पाया पीयूष का परिवार?

Romantic Story: वे दोनों एक पेड़ के नीचे खड़े थे, एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए, एकदूसरे का हाथ थामे. मीठी बयार के झोंके उस के रेशमी बालों को छेड़ रहे थे. बारबार लटें उस के गालों पर आ कर झूल जातीं, जिन्हें वह बहुत ही प्यार से पीछे कर देता. ऐसा करते हुए जब उस के हाथ उस के गालों को छूते तो वह सिहर उठती. कुछ कहने को उस के होंठ थरथराते तो वह हौले से उन पर अपनी उंगली रख देता. गुलाबी होंठ और गुलाबी हो जाते और चेहरे पर लालिमा की अनगिनत परतें उभर आतीं.

मात्र छुअन कितनी मदहोश कर सकती है. वह धीरे से मुसकराई. पेड़ से कुछ पत्तियां गिरीं और उस के सिर पर आ कर इस तरह बैठ गईं मानो इस से बेहतर कोमल कालीन कहीं नहीं मिलेगा. उस ने फूंक मार कर उन्हें उड़ा दिया जैसे उन लहराते गेसुओं को छूने का हक सिर्फ उस का ही हो.

वह पेड़ के तन से सट कर खड़ी हो गई और अपनी पलकें मूंद लीं. उसे देख कर लग रहा था जैसे कोई अप्रतिम प्रतिमा, जिस के अंगअंग को बखूबी तराशा गया हो. उसे देख कौन पुरुष होगा जो कामदेव नहीं बन जाएगा. उसे चूमने का मन हो आया. पर रुक गया. बस उसे अपलक देखता रहा. शायद यही प्यार की इंतहा होती है… जिसे चाहते हैं उसे यों ही निहारते रहने का मन करता है. उस के हर पल में डूबे रहने का मन करता है.

‘‘क्या सोच रही हो,’’ उस ने कुछ क्षण बाद पूछा.

‘‘कुछ भी तो नहीं.’’ वह थोड़ी चौंकी पर पलकें अभी भी मुंदी हुई थीं.

‘‘चलें क्या? रात होने को है. तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘मन नहीं कर रहा है तुम्हें छोड़ कर जाने को. बहुत सारी आशंकाओं से घिरा हुआ है मन. तुम्हारे घर वाले इजाजत नहीं देंगे तो क्या होगा?’’

‘‘वे नहीं मानेंगे, यह बात मैं विश्वास से कह सकता हूं. गांव से बेशक आ कर मैं इतना बड़ा अफसर जरूर बन गया हूं और मेरे घर वाले शहर में आ कर रहने लगे हैं, पर मेरे मांबाबूजी की जड़ें अभी भी गांव में ही हैं. कह सकती हो कि रूढि़यों में जकड़े, अपने परिवेश व सोच में बंधे लोग हैं वे. पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा बहू को स्वीकारना अभी भी उन के लिए बहुत आसान नहीं है. पर चलो इस चीज को स्वीकार भी कर लें तो भी दूसरी जाति की लड़की को बहू बनाना… संभव ही नहीं है उन का मानना.’’

‘‘तुम खुल कर कह सकते हो यह बात पीयूष… दूसरी अन्य कोई जाति होती तो भी कुछ संभावना थी… पर मैं तो मायनौरिटी क्लास की हूं… आरक्षण वाली…’’ उस के स्वर में कंपन था और आंखों में नमी तैर रही थी.

‘‘कम औन मंजरी, इस जमाने में ऐसी बातें… वह भी इतनी हाइली ऐजुकेटेड होने के बाद. तुम अपनी योग्यता के बल पर आगे बढ़ी हो. फिलौसफी की लैक्चरर के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगती हैं. ऊंची जाति नीची जाति सदियों पहले की बातें हैं. अब तो ये धारणाएं बदल चुकी हैं. नई पीढ़ी इन्हें नहीं मानती…

‘‘पुरानी पीढ़ी को बदलने में ज्यादा समय लगता है. दोष देना गलत होगा उन्हें भी. मान्यताओं, रिवाजों और धर्म के नाम पर न जाने कितनी संकीर्णताएं फैली हुई हैं. पर हमें कोशिश करनी नहीं छोड़नी है. उस के लिए पहले हमें स्वयं को मजबूत करना होगा. स्वयं को हर लड़ाई के लिए तैयार करना होगा.’’

मंजरी ने पीयूष की ओर देखा. ढेर सारा प्यार उस पर उमड़ आया. सही तो कह रहा है वह… पर न जाने क्यों वही बारबार हिम्मत हार जाती है. शायद अपनी निम्न जाति की वजह से या पीयूष की उच्च जाति के कारण. वह भी ब्राह्मण कुल का होने के कारण. बेशक वह जनेऊ धारण नहीं करता. पर उस के घर वालों को अपने उच्च कुल पर अभिमान है और इस में गलत भी कुछ नहीं है.

वह भी तो निम्न जाति की होने के कारण कभीकभी कितनी हीनभावना से भर जाती है. उस के पिता खुद एक बड़े अफसर हैं और भाई भी डाक्टर है. पर फिर भी लोग मौका मिलते ही उन्हें यह याद दिलाना नहीं भूलते कि वे मायनौरिटी क्लास के हैं. उन का पढ़ालिखा होना या समाज में स्टेटस होना कोई माने नहीं रखता. दबी जबान से ही सही वे उस के परिवार के बारे में कुछ न कुछ कहने से चूकते नहीं हैं.

मंजरी ने पेड़ के तने को छुआ. काश, वह सेब का पेड़ होता तो जमाने को यह तो कह सकते थे कि सेब खाने के बाद उन दोनों के अंदर भावनाएं उमड़ीं और वे एकदूसरे में समा गए. खैर, सेब का पेड़ अगर दोनों ढूंढ़ने जाते तो बहुत वक्त लग जाता, शहर जो कंक्रीट में तबदील हो रहे हैं. उस में हरियाली की थोड़ीबहुत छटा ही बची रही, यही काफी है.

उस ने अपने विश्वास को संबल देने के लिए पीयूष के हाथों पर अपनी पकड़ और

कस ली और उस की आंखों में झांका जैसे तसल्ली कर लेना चाहती हो कि वह हमेशा उस का साथ देगा.

इस समय दोनों की आंखों में प्रेम का अथाह समुद्र लहरा रहा था. उन्होंने मानों एकदूसरे को आंखों ही आंखों में कोई वचन सा दिया. अपने रिश्ते पर स्वीकृति की मुहर लगाई और आलिंगनबद्ध हो गए. यह भी सच था कि पीयूष मंजरी को चाह कर भी आश्वस्त नहीं कर पा रहा था कि वह अपने घर वालों को मना लेगा. हां, खुद उस का हमेशा बना रहने का विश्वास जरूर दे सकता था.

मंजरी को उस के घर के बाहर छोड़ कर बोझिल मन से वह अपने घर की

ओर चल पड़ा. रास्ते में कई बार कार दूसरे वाहनों से टकरातेटकराते बची. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे घर में इस बारे में बताए. वह अपने मांबाबूजी को दोष नहीं दे रहा था. उस ने भी तो जब परंपराओं और आस्थाओं की गठरी का बोझ उठाए आज से 10 वर्ष पहले नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कदम रखा था तब कहां सोचा था कि उस की जिंदगी इतनी बदल जाएगी और सड़ीगली परंपराओं की गठरी को उतार फेंकने में वह सफल हो पाएगा… शायद मंजरी से मिलने के बाद ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाया था.

जातिभेद किसी दीवार की तरह समाज में खड़े हैं और शिक्षित वर्ग तक उस दीवार को अपनी सुलझी हुई सोच और बौद्धिकता के हथौड़े से तोड़ पाने में असमर्थ है. अपनी विवशता पर हालांकि यह वर्ग बहुत झुंझलाता भी है… पीयूष को स्वयं पर बहुत झुंझलाहट हुई.

‘‘क्या बात है बेटा, कोई परेशानी है क्या?’’ मां ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा.

‘‘बस ऐसे ही,’’ उस ने बात टालने की कोशिश की.

‘‘कुछ लड़कियों के फोटो तेरे कमरे में रखे हैं. देख ले.’’

‘‘मैं आप से कह चुका हूं कि मैं शादी नहीं करना चाहता,’’ पीयूष को लगा कि उस की झुंझलाहट चरम सीमा पर पहुंच रही है.

‘‘तू किसी को पसंद करता है तो बता दे,’’ बाबूजी ने सीधेसीधे सवाल फेंका. अनुभव की पैनी नजर शायद उस के दिल की बात समझ गई थी.

‘‘है तो पर आप उसे अपनाएंगे नहीं और मैं आप लोगों की मरजी के बिना अपनी गृहस्थी नहीं बसाना चाहता. मुझे लायक बनाने में आप ने कितने कष्ट उठाए हैं और मैं नहीं चाहता कि आप लोगों को दुख पहुंचे.’’

‘‘तेरे सुख और खुशी से बढ़ कर और कोई चीज हमारे लिए माने नहीं रखती है. लड़की क्या दूसरी जाति की है जो तू इतना हिचक रहा है बताने में?’’ बाबूजी ने यह बात पूछ पीयूष की मुश्किल को जैसे आसान कर दिया.

‘‘हां.’’

उस का जवाब सुन मां का चेहरा उतर गया. आंखों में आंसू तैरने लगे. बाबूजी अभी चिल्लाएंगे यह सोच कर वह अपने कमरे की ओर जाने के लिए मुड़ा ही था कि बोले, ‘‘किस जाति की?’’

‘‘बाबूजी वह बहुत पढ़ीलिखी है. लैक्चरर है और उस के घर में भी सब हाइली क्वालीफाइड हैं. जाति महत्त्व नहीं रखती, पर एकदूसरे को समझना ज्यादा जरूरी है,’’ बहुत हिम्मत कर वह बोला.

‘‘बहुत माने रखती है जाति वरना क्यों बनती ऐसी सामाजिक व्यवस्था. भारत में जाति सीमा को लांघना 2 राष्ट्रों की सीमाओं को लांघना है. अभी सुबह के अखबार में पढ़ रहा था कि पंजाब में एक युवक ने अपनी शादी के महज 1 हफ्ते बाद केवल इस कारण आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे शादी के बाद पता चला कि उस की पत्नी दलित जाति की है. उस की शादी एक बिचौलिए के माध्यम से हुई थी. इस बात का खुलासा तब हुआ जब वह अपनी ससुराल गया. दलित पत्नी पा कर वह आत्मग्लानि और अपराधबोध से इस कदर व्यथित हो गया कि ससुराल से लौट कर उस ने आत्महत्या कर ली. तुम भी कहीं प्यार के चक्कर में पड़ कर कोई गलत कदम मत उठा लेना.’’

बाबूजी की बात सुन पीयूष को अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती महसूस हुई. मंजरी ने जब यह सुना तो उदास हो गई.

पीयूष बोला, ‘‘एक आइडिया आया है. मैं अपनी कुलीग के रूप में तुम्हें उन से मिलवाता हूं. तुम से मिल कर उन्हें अवश्य ही अच्छा लगेगा. फिर देखते हैं उन का रिएक्शन. रूढि़यां हावी होती हैं या तुम्हारे संस्कार व सोच.’’

मंजरी ने मना कर दिया. वह नहीं चाहती थी कि उस का अपमान हो. उस के बाद से मंजरी अपनेआप में इतनी सिमट गई कि उस ने पीयूष से मिलना तक कम कर दिया. संडे को अपने डिप्रैशन से बाहर आने के लिए वह शौपिंग करने मौल चली गई. एक महिला जो ऐस्कलेटर पर पांव रखने की कोशिश कर रही थी, वह घबराहट में उस पर ही गिर गई. मंजरी उन के पीछे ही थी. उस ने झट से उन्हें उठाया और हाथ पकड़ कर उन्हें नीचे उतार लाई.

‘‘आप कहें तो मैं आप को घर छोड़ सकती हूं. आप की सांस भी फूल रही है.’’

‘‘बेटा, तुम्हें कष्ट तो होगा पर छोड़ दोगी तो अच्छा होगा. मुझे दमा है. मैं अकेली आती नहीं पर घर में सब इस बात का मजाक उड़ाते हैं. इसलिए चली आई.’’

घर पर मंजरी को देख पीयूष बुरी तरह चौंक गया. पर मंजरी ने उसे इशारा किया कि

वह न बताए कि वे एकदूसरे को जानते हैं. पीयूष की मां तो बस उस के गुण ही गाए जा रही थीं. बहुत जल्द ही वह उन के साथ घुलमिल गई. पीयूष की बहन ने तो फौरन नंबर भी ऐक्सचेंज कर लिए. जबतब वे व्हाट्सऐप पर चैट करने लगीं. मां ने कहा कि वह उसे घर पर आने के लिए कहे. इस तरह मंजरी के कदम उस आंगन में पड़ने लगे, जहां वह हमेशा के लिए आना चाहती थी.

पीयूष इस बात से हैरान था कि जाति को ले कर इतने कट्टर रहने वाले उस के मातापिता ने एक बार भी उस की जाति के बारे में नहीं पूछा. शायद अनुमान लगा लिया होगा कि उस जैसी लड़की उच्च कुल की ही होगी. उस के पिता व भाई के बारे में जान कर भी उन्हें तसल्ली हो गई थी.

मंजरी को लगा कि उस दिन पीयूष ने ठीक ही कहा था कि हमें कोशिश करनी नहीं छोड़नी है. उस के लिए पहले हमें स्वयं को मजबूत करना होगा. स्वयं को हर लड़ाई के लिए तैयार करना होगा. पीयूष जब उस के साथ है तो उसे भी लगातार कोशिश करते रहना होगा. मांबाबूजी का दिल जीत कर ही वह अपनी और पीयूष दोनों की लड़ाई जीत सकती है.

हालांकि जब भी वह पीयूष के घर जाती थी तो यही कोशिश करती थी कि उन की रसोई में न जाए. उसे डर था कि सचाई जानने के बाद अवश्य ही मां को लगेगा कि उस ने उन का धर्म भ्रष्ट कर दिया है. एक सकुचाहट व संकोच सदा उस पर हावी रहता था. पर दिल के किसी कोने में एक आशा जाग गई थी जिस की वजह से वह उन के बुलाने पर वहां चली जाती थी.

कई बार उस ने अपनी जाति के बारे में बताना चाहा पर पीयूष ने यह कह कर मना कर दिया कि जब मांबाबूजी तुम्हें गुणों की वजह से पसंद करने लगे हैं तो क्यों बेकार में इस बात को उठाना. सही वक्त आने पर उन्हें बता देंगे.

‘‘तुझे मंजरी कैसी लगती है?’’ एक दिन मां के मुंह से यह सुन पीयूष हैरान रह गया.

‘‘अच्छी है.’’

‘‘बस अच्छी है, अरे बहुत अच्छी है. तू कहे तो इस से तेरे रिश्ते की बात चलाऊं?’’

‘‘यह क्या कह रही हो मां. पता नहीं कौन जाति की है. दलित हुई तो…’’ पीयूष ने जानबूझ कर कहा. वह उन्हें टटोलना चाह रहा था.

‘‘फालतू मत बोल… अगर हुई भी तो भी बहू बना लूंगी,’’ मां ने कहा. पर उन्हें क्या पता था कि उन का मजाक उन पर ही भारी पड़ेगा.

‘‘ठीक है फिर मैं उस से शादी करने को तैयार हूं. उस के पापा को कल ही बुला लेते हैं.’’

‘‘यानी… कहीं यह वही लड़की तो नहीं जिस से तू प्यार करता है,’’ बाबूजी सशंकित हो उठे थे.

‘‘मुझे तो मंजरी दीदी बहुत पसंद हैं मां,’’ बेटी की बात सुन मां हलके से मुसकराईं.

मंजरी नीची जाति की कैसे हो सकती है… उन से पहचानने में कैसे भूल हो गई. पर वह तो कितनी सुशील, संस्कारी और बड़ों की इज्जत करने वाली लड़की है. बहुत सारी ब्राह्मण लड़कियां देखी थीं, पर कितनी अकड़ थी. बदमिजाज… कुछ ने तो कह दिया कि शादी के बाद अलग रहेंगी. कुछ के बाप ने दहेज दे कर पीयूष को खरीदने की कोशिश की और कहा कि उसे घरजमाई बन कर रहना होगा.

‘‘क्या सोच रही हो पीयूष की मां?’’ बाबूजी के चेहरे पर तनाव की रेखाएं नहीं थीं जैसे वे इस रिश्ते को स्वीकारने की राह पर अपना पहला कदम रख चुके हों.

‘‘क्या हमारे बदलने का समय आ गया है? आखिर कब तक दलित बुद्धिजीवी अपनी जातीय पीड़ा को सहेंगे? हमें उन्हें उन की पीड़ा से मुक्त करना ही होगा. तभी तो वे खुल कर सांस ले पाएंगे. हमारी बिरादरी में हमारी थूथू होगी. पर बेटे की खुशी की खातिर मैं यह भी सह लूंगी.’’

पीयूष अभी तक अचंभित था. रूढि़यों को मंजरी के व्यवहार ने परास्त कर दिया था.

‘‘सोच क्या रहा है खड़ेखड़े, चल मंजरी को फोन कर और कह कि मैं उस से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘मां, तुम कितनी अच्छी हो, मैं अभी भाभी को व्हाट्सऐप पर मैसेज कर सरप्राइज देती हूं,’’ पीयूष की बहन ने चहकते हुए कहा.

वे दोनों एक पेड़ के नीचे खड़े थे, एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए, एकदूसरे का हाथ थामे. मीठी बयार के झोंके उस के रेशमी बालों को इस बार भी छेड़ रहे थे. उसे अपलक निहारतेनिहारते उसे चूमने का मन हो आया. पर इस बार वह रुका नहीं.

उस ने उस के गालों को हलके से चूम लिया. मंजरी शरमा गई. अपनी सारी आशंकाओं को उतार फेंक वह पीयूष की बांहों में समा गई. उसे उस का प्यार व सम्मान दोनों मिल गए थे. पीयूष को लगा कि वह जैसे कोई बहुत बड़ी लड़ाई जीत गया है.

Romantic Story: लिव टुगैदर का मायाजाल – हर सुख से क्यों वंचित थी सपना

Romantic Story: ‘अभी तुम 10-15 मिनट हो न यहां?’’ वैभव ने गार्डन में निशा के करीब जा कर पूछा.

‘‘कुछ काम है?’’ निशा ने पलट कर सवाल किया.

निशा का यह औपचारिक व्यवहार वैभव को अजीब लगा. वह झेंपता हुआ बोला, ‘‘कोई काम नहीं है. बस, तुम्हें न्यू ईयर का गिफ्ट देना है. तुम्हारे लिए एक डायरी खरीद कर रखी है. तुम पहली जनवरी को तो आई नहीं, 10 को आई हो. मैं कई दिन डायरी ले कर गार्डन आया, लेकिन आज नहीं ले कर आया. रुकना, मैं डायरी ले कर आ रहा हूं.’’

‘‘तुम डायरी लेने घर जाओगे? रहने दो, मुझे नहीं चाहिए. कई डायरियां हैं घर में,’’ निशा बोली.

‘‘यह मैं ने कब कहा कि तुम्हारे पास डायरी नहीं है. तुम्हारे पास सबकुछ है. बस, मेरी खुशी के लिए ले लो. मैं ने बड़े प्रेम से उसे तुम्हारे लिए रखा है. मैं लेने जा रहा हूं,’’ निशा के जवाब को सुने बिना वैभव वहां से चला गया.

कुछ देर बाद वह बतौर गिफ्ट डायरी ले कर गार्डन में वापस आया. तब तक निशा के आसपास काफी लोग आ गए थे. वहां उस ने गिफ्ट देना उचित नहीं समझा, लेकिन जब निशा गार्डन से जाने लगी तो वैभव रास्ते में उस से मिला.

‘‘लो,’’ वैभव ने डायरी आगे बढ़ाते हुए बड़े प्रेम से कहा.

लेकिन निशा ने डायरी लेने के लिए हाथ आगे नहीं बढ़ाया. वह चुपचाप खड़ी रही.

‘‘लो,’’ वैभव ने दोबारा कहा.

‘‘नहीं, मैं इसे नहीं ले सकती,’’ निशा ने सीधे शब्दों में इनकार कर दिया.

‘‘आखिर क्यों?’’ वैभव ने खुद को अपमानित महसूस करते हुए जानना चाहा.

‘‘मैं घरपरिवार वाली हूं, मैं इसे किसी भी हालत में नहीं ले सकती,’’ निशा यह कह कर आगे बढ़ गई.

इस बार वैभव ने भी कुछ नहीं कहा. उस के दिल को जबरदस्त धक्का लगा. वह डायरी को अपनी कमीज के नीचे छिपाते हुए विपरीत दिशा की ओर चल पड़ा. उस की आंखों में आंसू उमड़ आए थे. कुछ दूर चलने के बाद वह एकांत में बैठ गया और सोचने लगा कि वह उस डायरी का क्या करे?

तभी उस के मन में आया कि डायरी को वह योग सिखाने वाले गुरुजी को दे देगा. तत्काल उस ने उस पृष्ठ को फाड़ा, जिस पर बड़े प्यार से निशा को संबोधित करते हुए नववर्ष की शुभकामना लिखी थी. उस ने जा कर गुरुजी को डायरी दे दी. गुरुजी ने गिफ्ट सहर्ष स्वीकार कर लिया और उसे आशीर्वाद दिया, लेकिन उसे वह खुशी नहीं मिली, जो निशा से मिलती. अभी भी उस का मन अशांत था और वह यकीन ही नहीं कर पा रहा था कि एक छोटी सी डायरी स्वीकार करने में निशा ने इतनी हठ क्यों दिखाई.

वह तरहतरह की बातें सोच रहा था, ‘चलो, इस गिफ्ट के बहाने हकीकत पता लग गई. जिस निशा को मैं जीजान से चाहता हूं, उस के मन में मेरे प्रति इतनी भी भावना नहीं है कि वह मेरा गिफ्ट तक ले सके. मैं भ्रम में जी रहा था.

‘अब उस से कोई संबंध नहीं रखूंगा. आज से सारा रिश्ता खत्म…नहीं…नहीं, लेकिन क्या मैं ऐसा कर पाऊंगा? क्या मैं उस से दूर रह कर जी पाऊंगा…शायद नहीं…क्यों नहीं जी पाऊंगा? उस से दूरी तो बना ही सकता हूं. दूर से देख लिया करूंगा, लेकिन मिलूंगा नहीं और न ही बात करूंगा. वह यही तो चाहती है. कब उस ने मुझ से मन से बात की? मैं ही तो उस से बात करता था. 10 शब्द बोलता था तो ‘हांहूं’ वह भी कर देती थी. कोई लगाव थोड़े ही था. लगाव तो मेरा था कि उस के बिना रातदिन बेचैन रहा करता था. उस के लिए तड़पता रहा, जिस ने आज मेरा इतना बड़ा अपमान कर दिया.

‘अगर ऐसा मालूम होता तो मैं उसे गिफ्ट देने का विचार ही मन में न लाता. ऐसी बेइज्जती मेरी इस से पहले कभी नहीं हुई. अब मैं उस से नजरें मिलाने लायक भी नहीं रहा. क्या मुंह ले कर उस के सामने जाऊंगा? अब तो दूरी ही ठीक है.’

लेकिन क्या ऐसा सोचने से मन बदल सकता था वैभव का? उस का प्यार बारबार उस पर हावी हो जाता और वह निशा से दूर रहने का निर्णय ले पाने में असफल हो जाता.

दिनभर उस का मन किसी काम में नहीं लगा. वह बेचैन रहा. उसे रात को ठीक से नींद भी नहीं आई. तरहतरह के विचार उस के मन में आते रहे.

वह उस बात को अपनी पत्नी सरिता से भी शेयर नहीं कर सकता था. हालांकि निशा के बारे में वह सरिता को बताया करता था, लेकिन यह बताने की उस की हिम्मत न थी. उसे डर था कि सरिता उस का मजाक उड़ाएगी. अंदर ही अंदर वह घुट रहा था.

अगले दिन सुबह 5 बजे वह जागा. रात को उस ने निश्चय किया था कि कुछ दिन तक वह गार्डन नहीं जाएगा, लेकिन सुबह खुद को रोक नहीं सका. निशा की एक झलक पाने के लिए वह बेचैन हो उठा और घर से चल पड़ा.

रास्ते में तरहतरह के विचार उस के मन में आते रहे, ‘आज निशा मिलेगी तो उस से बात नहीं करूंगा. अभिवादन भी नहीं. वह अपनेआप को समझती क्या है? उसे खुद पर घमंड है, तो मैं भी किसी मामले में उस से कम नहीं हूं. उस से मेरा कोई स्वार्थ नहीं है. बस, एक लगाव है, अपनापन है, जिसे वह गलत समझती है.’

लेकिन जब गार्डन आती हुई निशा अचानक दिखी, तो वैभव खुद को रोक नहीं पाया. वह उसे देखने लगा. निशा भी उसी की ओर देख रही थी. वैभव के मन में आया कि वह रास्ता बदल ले, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका.

निशा वैभव के करीब आ गई, लेकिन वह उस की ओर न देख कर सामने देख रही थी. वैभव की निगाहें उसी पर थीं. वह सोच रहा था, ‘देखो न, आज इस ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा. जाओजाओ, मैं ही कौन सा मरा जा रहा हूं, तुम से बात करने के लिए. मैं आज निशा की तरफ बिलकुल नहीं देखूंगा आखिर वह अपनेआप को समझती क्या है और ऐसे ही कब तक अपनी मनमरजी चलाती है.‘

तभी निशा उस की ओर पलटी. वैभव के हाथ तत्काल अभिवादन की मुद्रा में जुड़ गए. निशा ने भी अभिवादन का जवाब दिया, लेकिन आगे उन दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई.

इस के बाद गार्डन में दोनों अपनेअपने क्रियाकलाप में लग गए, लेकिन वैभव का मन बारबार निशा की ओर भाग रहा था.

ऐसे ही कई दिन गुजर गए. वैभव को निशा के बिना चैन नहीं था, लेकिन वह ऊपर से खुद को ऐसा दिखाने की कोशिश करता कि जैसे उस का निशा से कोई सरोकार ही नहीं है.

निशा सबकुछ समझ रही थी. एक दिन उस ने वैभव को रोका और मुसकराते हुए पूछा, ‘‘नाराज हो क्या?’’

‘‘नहीं. नाराज उन से हुआ जाता है, जो अपने हों. आप से मैं क्यों नाराज होने लगा?’’

निशा मुसकराते हुए बोली, ‘‘कुछ भी कहो, लेकिन नाराज तो हो. तुम्हारा चेहरा, दिल का हाल बयान कर रहा है, लेकिन तुम ने मेरी मजबूरी नहीं समझी.’’

‘‘एक छोटा सा गिफ्ट लेने में क्या मजबूरी थी?’’ वैभव ने तल्खी के साथ पूछा.

‘‘मजबूरी थी, वैभव. तुम ने समझने की कोशिश नहीं की,’’ निशा ने कहा.

‘‘मैं भी जानूं कि क्या मजबूरी थी?’’ वैभव ने जानना चाहा.

‘‘वैभव, सिर्फ भावनाओं से ही काम नहीं चलता. आगेपीछे भी सोचना पड़ता है. मैं ने कहा था न कि मैं घरपरिवार वाली हूं. तुम ने इस पर तो विचार नहीं किया और नाराज हो कर बैठ गए,’’ निशा ने कहा, ‘‘मैं अगर तुम्हारा गिफ्ट ले कर घर जाती तो घर के लोगपूछते कि किस ने दिया? सोचो, मैं क्या जवाब देती?

‘‘डायरी में तुम ने अपना नाम तो जरूर लिखा होगा. तुम्हारा नाम देख कर घर वाले क्या सोचते? इस बारे में तो तुम ने कुछ सोचा नहीं. बस, मुंह फुला लिया. बेवजह शक पैदा होता और मेरे लिए परेशानी खड़ी हो जाती. ऐसा भी हो सकता था कि मेरा गार्डन में आना हमेशा के लिए बंद हो जाता. तब हम दोनों मिल भी न पाते.’’

यह सुन कर वैभव को अपनी गलती का एहसास हुआ. उस के सारे गिलेशिकवे दूर हो गए और वह बोला, ‘‘तुम अपनी जगह सही थी, निशा.

‘‘तुम ने तो बड़ी समझदारी का काम किया. मुझे माफ कर दो. तुम्हारा फैसला ठीक था.

‘‘अब मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. एक छोटा सा गिफ्ट तुम्हें वाकई परेशानी में डाल सकता था.’’

Family Story: नई सुबह – कैसे नीता की जिंदगी बदल गई

Family Story, लेखिका- परिणीता

‘‘बदजात औरत, शर्म नहीं आती तुझे मुझे मना करते हुए… तेरी हिम्मत कैसे होती है मुझे मना करने की? हर रात यही नखरे करती है. हर रात तुझे बताना पड़ेगा कि पति परमेश्वर होता है? एक तो बेटी पैदा कर के दी उस पर छूने नहीं देगी अपने को… सतिसावित्री बनती है,’’ नशे में धुत्त पारस ऊलजलूल बकते हुए नीता को दबोचने की चेष्टा में उस पर चढ़ गया.

नीता की गरदन पर शिकंजा कसते हुए बोला, ‘‘यारदोस्तों के साथ तो खूब हीही करती है और पति के पास आते ही रोनी सूरत बना लेती है. सुन, मुझे एक बेटा चाहिए. यदि सीधे से नहीं मानी तो जान ले लूंगा.’’

नशे में चूर पारस को एहसास ही नहीं था कि उस ने नीता की गरदन को कस कर दबा रखा है. दर्द से छटपटाती नीता खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी. अंतत: उस ने खुद को छुड़ाने के लिए पारस की जांघों के बीच कस कर लात मारी. दर्द से तड़पते हुए पारस एक तरफ लुढ़क गया.

मौका पाते ही नीता पलंग से उतर कर भागी और फिर जोर से चिल्लाते हुए बोली,

‘‘नहीं पैदा करनी तुम्हारे जैसे जानवर से एक और संतान. मेरे लिए मेरी बेटी ही सब कुछ है.’’

पारस जब तक अपनेआप को संभालता नीता ने कमरे से बाहर आ कर दरवाजे की कुंडी लगा दी. हर रात यही दोहराया जाता था, पर आज पहली बार नीता ने कोई प्रतिक्रिया दी. मगर अब उसे डर लग रहा था. न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपनी 3 साल की नन्ही बिटिया के लिए भी. फिर क्या करे क्या नहीं की मनोस्थिति से उबरते हुए उस ने तुरंत घर छोड़ने का फैसला ले लिया.

उस ने एक ऐसा फैसला लिया जिस का अंजाम वह खुद भी नहीं जानती थी, पर इतना जरूर था कि इस से बुरा तो भविष्य नहीं ही होगा.

नीता ने जल्दीजल्दी अलमारी में छिपा कर रखे रुपए निकाले और फिर नन्ही गुडि़या को शौल से ढक कर घर से बाहर निकल गई. निकलते वक्त उस की आंखों में आंसू आ गए पर उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. वह घर जिस में उस ने 7 साल गुजार दिए थे कभी अपना हो ही नहीं पाया.

जनवरी की कड़ाके की ठंड और सन्नाटे में डूबी सड़क ने उसे ठंड से ज्यादा डर से कंपा दिया पर अब वापस जाने का मतलब था अपनी जान गंवाना, क्योंकि आज की उस की प्रतिक्रिया ने पति के पौरुष को, उस के अहं को चोट पहुंचाई है और इस के लिए वह उसे कभी माफ नहीं करेगा.

यही सोचते हुए नीता ने कदम आगे बढ़ा दिए. पर कहां जाए, कैसे जाए सवाल निरंतर उस के मन में चल रहे थे. नन्ही सी गुडि़या उस के गले से चिपकी हुई ठंड से कांप रही थी. पासपड़ोस के किसी घर में जा कर वह तमाशा नहीं बनाना चाहती थी. औटो या किसी अन्य सवारी की तलाश में वह मुख्य सड़क तक आ चुकी थी, पर कहीं कोई नहीं था.

अचानक उसे किसी का खयाल आया कि शायद इस मुसीबत की घड़ी में वे उस की मदद करें. ‘पर क्या उन्हें उस की याद होगी? कितना समय बीत गया है. कोई संपर्क भी तो नहीं रखा उस ने. जो भी हो एक बार कोशिश कर के देखती हूं,’ उस ने मन ही मन सोचा.

आसपास कोई बूथ न देख नीता थोड़ा आगे बढ़ गई. मोड़ पर ही एक निजी अस्पताल था. शायद वहां से फोन कर सके. सामने लगे साइनबोर्ड को देख कर नीता ने आश्वस्त हो कर तेजी से अपने कदम उस ओर बढ़ा दिए.

‘पर किसी ने फोन नहीं करने दिया या मयंकजी ने फोन नहीं उठाया तो? रात भी तो कितनी हो गई है,’ ये सब सोचते हुए नीता ने अस्पताल में प्रवेश किया. स्वागत कक्ष की कुरसी पर एक नर्स बैठी ऊंघ रही थी.

‘‘माफ कीजिएगा,’’ अपने ठंड से जमे हाथ से उसे धीरे से हिलाते हुए नीता ने कहा.

‘‘कौन है?’’ चौंकते हुए नर्स ने पूछा. फिर नीता को बच्ची के साथ देख उसे लगा कि कोई मरीज है. अत: अपनी व्यावसायिक मुसकान बिखेरते हुए पूछा, ‘‘मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?’’

‘‘जी, मुझे एक जरूरी फोन करना है,’’ नीता ने विनती भरे स्वर में कहा.

पहले तो नर्स ने आनाकानी की पर फिर

उस का मन पसीज गया. अत: उस ने फोन आगे कर दिया.

गुडि़या को वहीं सोफे पर लिटा कर नीता ने मयंकजी का नंबर मिलाया. घंटी बजती रही पर फोन किसी ने नहीं उठाया. नीता का दिल डूबने लगा कि कहीं नंबर बदल तो नहीं गया है… अब कैसे वह बचाएगी खुद को और इस नन्ही सी जान को? उस ने एक बार फिर से नंबर मिलाया. उधर घंटी बजती रही और इधर तरहतरह के संशय नीता के मन में चलते रहे.

निराश हो कर वह रिसीवर रखने ही वाली थी कि दूसरी तरफ से वही जानीपहचानी आवाज आई, ‘‘हैलो.’’

नीता सोच में पड़ गई कि बोले या नहीं. तभी फिर हैलो की आवाज ने उस की तंद्रा तोड़ी तो उस ने धीरे से कहा, ‘‘मैं… नीता…’’

‘‘तुम ने इतनी रात गए फोन किया और वह भी अनजान नंबर से? सब ठीक तो है? तुम कैसी हो? गुडि़या कैसी है? पारसजी कहां हैं?’’ ढेरों सवाल मयंक ने एक ही सांस में पूछ डाले.

‘‘जी, मैं जीवन ज्योति अस्पताल में हूं. क्या आप अभी यहां आ सकते हैं?’’ नीता ने रुंधे गले से पूछा.

‘‘हां, मैं अभी आ रहा हूं. तुम वहीं इंतजार करो,’’ कह मयंक ने रिसीवर रख दिया.

नीता ने रिसीवर रख कर नर्स से फोन के भुगतान के लिए पूछा, तो नर्स ने मना करते हुए कहा, ‘‘मैडम, आप आराम से बैठ जाएं, लगता है आप किसी हादसे का शिकार हैं.’’

नर्स की पैनी नजरों को अपनी गरदन पर महसूस कर नीता ने गरदन को आंचल से ढक लिया. नर्स द्वारा कौफी दिए जाने पर नीता चौंक गई.

‘‘पी लीजिए मैडम. बहुत ठंड है,’’ नर्स बोली.

गरम कौफी ने नीता को थोड़ी राहत दी. फिर वह नर्स की सहृदयता पर मुसकरा दी.

इसी बीच मयंक अस्पताल पहुंच गए. आते ही उन्होंने गुडि़या के बारे में पूछा. नीता ने सो रही गुडि़या की तरफ इशारा किया तो मयंक ने लपक कर उसे गोद में उठा लिया. नर्स ने धीरे से मयंक को बताया कि संभतया किसी ने नीता के साथ दुर्व्यवहार किया है, क्योंकि इन के गले पर नीला निशान पड़ा है.

नर्स को धन्यवाद देते हुए मयंक ने गुडि़या को और कस कर चिपका लिया. बाहर निकलते ही नीता ठंड से कांप उठी. तभी मयंक ने उसे अपनी जैकेट देते हुए कहा, ‘‘पहन लो वरना ठंड लग जाएगी.’’

नीता ने चुपचाप जैकेट पहन ली और उन के पीछे चल पड़ी. कार की पिछली सीट पर गुडि़या को लिटाते हुए मयंक ने नीता को बैठने को कहा. फिर खुद ड्राइविंग सीट पर बैठ गए. मयंक के घर पहुंचने तक दोनों खामोश रहे.

कार के रुकते ही नीता ने गुडि़या को निकालना चाहा पर मयंक ने उसे घर की चाबी देते हुए दरवाजा खोलने को कहा और फिर खुद धीरे से गुडि़या को उठा लिया. घर के अंदर आते ही उन्होंने गुडि़या को बिस्तर पर लिटा कर रजाई से ढक दिया. नीता ने कुछ कहना चाहा तो उसे चुप रहने का इशारा कर एक कंबल उठाया और बाहर सोफे पर लेट गए.

दुविधा में खड़ी नीता सोच रही थी कि इतनी ठंड में घर का मालिक बाहर सोफे पर और वह उन के बिस्तर पर… पर इतनी रात गए वह उन से कोई तर्क भी नहीं करना चाहती थी, इसलिए चुपचाप गुडि़या के पास लेट गई. लेटते ही उसे एहसास हुआ कि वह बुरी तरह थकी हुई है. आंखें बंद करते ही नींद ने दबोच लिया.

सुबह रसोई में बरतनों की आवाज से नीता की नींद खुल गई. बाहर निकल कर देखा मयंक चायनाश्ते की तैयारी कर रहे थे.

नीता शौल ओढ़ कर रसोई में आई और धीरे से बोली, ‘‘आप तैयार हो जाएं. ये सब मैं कर देती हूं.’’

‘‘मुझे आदत है. तुम थोड़ी देर और सो लो,’’ मयंक ने जवाब दिया.

नीता ने अपनी भर आई आंखों से मयंक की तरफ देखा. इन आंखों के आगे वे पहले भी हार जाते थे और आज भी हार गए. फिर चुपचाप बाहर निकल गए.

मयंक के तैयार होने तक नीता ने चायनाश्ता तैयार कर मेज पर रख दिया. नाश्ता करते हुए मयंक ने धीरे से कहा, ‘‘बरसों बाद तुम्हारे हाथ का बना नाश्ता कर रहा हूं,’’ और फिर चाय के साथ आंसू भी पी गए.

जातेजाते नीता की तरफ देख बोले, ‘‘मैं लंच औफिस में करता हूं. तुम अपना और गुडि़या का खयाल रखना और थोड़ी देर सो लेना,’’ और फिर औफिस चले गए.

दूर तक नीता की नजरें उन्हें जाते हुए देखती रहीं ठीक वैसे ही जैसे 3 साल पहले देखा करती थीं जब वे पड़ोसी थे. तब कई बार मयंक ने नीता को पारस की क्रूरता से बचाया था. इसी दौरान दोनों के दिल में एकदूसरे के प्रति कोमल भावनाएं पनपी थीं पर नीता को उस की मर्यादा ने और मयंक को उस के प्यार ने कभी इजहार नहीं करने दिया, क्योंकि मयंक नीता की बहुत इज्जत भी करते थे. वे नहीं चाहते थे कि उन के कारण नीता किसी मुसीबत में फंस जाए.

यही सब सोचते, आंखों में भर आए आंसुओं को पोंछ कर नीता ने दरवाजा बंद किया और फिर गुडि़या के पास आ कर लेट गई. पता नहीं कितनी देर सोती रही. गुडि़या के रोने से नींद खुली तो देखा 11 बजे रहे थे. जल्दी से उठ कर उस ने गुडि़या को गरम पानी से नहलाया और फिर दूध गरम कर के दिया. बाद में पूरे घर को व्यवस्थित कर खुद नहाने गई. पहनने को कुछ नहीं मिला तो सकुचाते हुए मयंक की अलमारी से उन का ट्रैक सूट निकाल कर पहन लिया और फिर टीवी चालू कर दिया.

मयंक औफिस तो चले आए थे पर नन्ही गुडि़या और नीता का खयाल उन्हें बारबार आ रहा था. तभी उन्हें ध्यान आया कि उन दोनों के पास तो कपड़े भी नहीं हैं… नई जगह गुडि़या भी तंग कर रही होगी. यही सब सोच कर उन्होंने आधे दिन की छुट्टी ली और फिर बाजार से दोनों के लिए गरम कपड़े, खाने का सामान ले कर वे स्टोर से बाहर निकल ही रहे थे कि एक खूबसूरत गुडि़या ने उन का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया, तो उन्होंने उसे भी पैक करवा लिया और फिर घर चल दिए.

दरवाजा खोलते ही नीता चौंक गई. मयंक ने मुसकराते हुए सारा सामान नीचे रख नन्हीं सी गुडि़या को खिलौने वाली गुडि़या दिखाई. गुडि़या खिलौना पा कर खुश हो गई और उसी में रम गई.

मयंक ने नीता को सारा सामान दिखाया. बिना उस से पूछे ट्रैक सूट पहनने के लिए नीता ने माफी मांगी तो मयंक ने हंसते हुए कहा, ‘‘एक शर्त पर, जल्दी कुछ खिलाओ. बहुत तेज भूख लगी है.’’

सिर हिलाते हुए नीता रसोई में घुस गई. जल्दी से पुलाव और रायता बनाने लग गई. जितनी देर उस ने खाना बनाया उतनी देर तक मयंक गुडि़या के साथ खेलते रहे. एक प्लेट में पुलाव और रायता ला कर उस ने मयंक को दिया.

खातेखाते मयंक ने एकाएक सवाल किया, ‘‘और कब तक इस तरह जीना चाहती हो?’’

इस सवाल से सकपकाई नीता खामोश बैठी रही. अपने हाथ से नीता के मुंह में पुलाव डालते हुए मयंक ने कहा, ‘‘तुम अकेली नहीं हो. मैं और गुडि़या तुम्हारे साथ हैं. मैं जानता हूं सभी सीमाएं टूट गई होंगी. तभी तुम इतनी रात को इस तरह निकली… पत्नी होने का अर्थ गुलाम होना नहीं है. मैं तुम्हारी स्थिति का फायदा नहीं उठाना चाहता हूं. तुम जहां जाना चाहो मैं तुम्हें वहां सुरक्षित पहुंचा दूंगा पर अब उस नर्क से निकलो.’’

मयंक जानते थे नीता का अपना कहने को कोई नहीं है इस दुनिया में वरना वह कब की इस नर्क से निकल गई होती.

नीता को मयंक की बेइंतहा चाहत का अंदाजा था और वह जानती थी कि मयंक कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे. इसीलिए तो वह इतनी रात गए उन के साथ बेझिझक आ गई थी.

‘‘पारस मुझे इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे,’’ सिसकते हुए नीता ने कहा और फिर पिछली रात घटी घटना की पूरी जानकारी मयंक को दे दी.

गरदन में पड़े नीले निशान को धीरे से सहलाते हुए मयंक की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘तुम ने इतनी हिम्मत दिखाई है नीता. तुम एक बार फैसला कर लो. मैं हूं तुम्हारे साथ. मैं सब संभाल लूंगा,’’ कहते हुए नीता को अपनी बांहों में ले कर उस नीले निशान को चूम लिया.

हां में सिर हिलाते हुए नीता ने अपनी मौन स्वीकृति दे दी और फिर मयंक के सीने पर सिर टिका दिया.

अगले ही दिन अपने वकील दोस्त की मदद से मयंक ने पारस के खिलाफ केस दायर कर दिया. सजा के डर से पारस ने चुपचाप तलाक की रजामंदी दे दी.

मयंक के सीने पर सिर रख कर रोती नीता का गोरा चेहरा सिंदूरी हो रहा था. आज ही दोनों ने अपने दोस्तों की मदद से रजिस्ट्रार के दफ्तर में शादी कर ली थी. निश्चिंत सी सोती नीता का दमकता चेहरा चूमते हुए मयंक ने धीरे से करवट ली कि नीता की नींद खुल गई. पूछा, ‘‘क्या हुआ? कुछ चाहिए क्या?’’

‘‘हां. 1 मिनट. अभी आता हूं मैं,’’ बोलते हुए मयंक बाहर निकल गए और फिर कुछ ही देर में वापस आ गए, उन की गोद में गुडि़या थी उनींदी सी. गुडि़या को दोनों के बीच सुलाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हमारी बेटी हमारे पास सोएगी कहीं और नहीं.’’

मयंक की बात सुन कर नन्ही गुडि़या नींद में भी मुसकराने लग गई और मयंक के गले में हाथ डाल कर फिर सो गई. बापबेटी को ऐसे सोते देख नीता की आंखों में खुशी के आंसू आ गए. मुसकराते हुए उस ने भी आंखें बंद कर लीं नई सुबह के स्वागत के लिए.

Romantic Story: विराम – क्यों मोहिनी अपने पति को भूल गई?

Romantic Story: आज महेश सुबह बिना नहाएधोए ही उपन्यास पढ़ने बैठ गया. यकायक उस की नजर एक शब्द पर आ कर रुक गई और चेहरे का उजास उदासी में बदल गया. ‘उस का’ नाम उपन्यास की एक पंक्ति में लिखा हुआ था. उदास मन से वह सोचने लगा कि आज मोहिनी को उस से बिछड़े हुए एक अरसा हो गया और आज उस का नाम इस तरह से क्यों उस के मन में दस्तक दे रहा है? यह मात्र संयोग है या और कुछ? वैसे तो एक जैसे हजारों नाम होते हैं मगर महेश ने लंबे समय से उस का नाम कहीं पढ़ासुना नहीं था, तो इस प्रकार की बेचैनी स्वाभाविक थी. अचानक ही उस का बेचैन मन उस से मिलने की हूंक भरने लगा. मगर यह इतना आसान कहां था? उस ने दिल की इस अभिलाषा को पूरा करने का काम दिमाग को सौंप दिया. उस को अपने रणनीति विशेषज्ञ दिमाग पर पूरा भरोसा था.

महेश की एक कजिन थी विशाखा. विशाखा मोहिनी की पड़ोसिन थी. वह मोहिनी की खास सहेली थी मगर महेश कभी उस से मोहिनी के विषय में बात करने का साहस नहीं जुटा पाया. पर एक दिन बातोंबातों में ही उस ने विशाखा से मोहिनी के पति का नाम वगैरह जान लिया. फिर महेश ने मोहिनी के पति शाम को फेसबुक पर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी. श्याम ने उस की रिक्वैस्ट स्वीकार कर ली. उस की हसरतों को एक खुशनुमा ठहराव मिला. यहां से महेश और श्याम फेसबुकफ्रैंड बन गए. अब मिशन शुरू हो चुका था.

महेश श्याम की फेसबुक पोस्ट्स पर कमैंट्स या लाइक्स जरूर देता. अब लाइक और कमैंट की वजह से महेश और श्याम में जानपहचान भी हो चुकी थी. वैचारिक रूप से भी काफी करीब आ चुके थे दोनों.

एक दिन महेश ने श्याम से उस का पर्सनल नंबर मांगा, ‘‘मेरे सभी फेसबुक फ्रैंड्स का नंबर मेरे पास है. आप भी दे दें. कभी न कभी मुलाकात भी होगी.’’

इस पर श्याम ने कहा, ‘‘कभी हमारे शहर आना हो तो जरूर मिलिएगा. मुझे खुशी होगी.’’ महेश तो इसी मौके की तलाश में था. अगले हफ्ते सैकेंड सैटरडे था. महेश को वह दिन उपयुक्त लगा और उस दिन महेश उस के शहर पहुंच गया. उस ने मोहिनी के पति को कौल किया कि मैं अपनी कंपनी के किसी काम से आया हुआ था. सोचा आप से भी मिलता चलूं. आप कृपया अपना पता बता दें.’’ ‘‘आप वहीं रुकिए, मैं अभी पहुंचता हूं,’’ कह कर श्याम ने फोन रख दिया.

‘‘बस चंद मिनट का फासला है मेरे और मोहिनी के बीच,’’ महेश सोच रहा था. इसी मौके का तो बेसब्री से इंतजार कर रहा था वह. एक सपना सच होने जा रहा था. ‘‘उसे करीब से देखूंगा तो कैसा महसूस होगा, वह अब कैसी दिखती होगी, उस ने क्या पहना होगा…?’’ ढेर सारी अटकलों में घिरा उस का बावरा मन व्याकुल हुआ जा रहा था.

तभी श्याम उसे लेने आ गए. दोनों ने एकदूसरे के हालचाल पूछे. फिर वे महेश को ले कर अपने साथ अपने घर पहुंचे और पानी लाने के लिए अपनी पत्नी को आवाज दी.

अपने दिल की धड़कनों पर काबू करते हुए महेश ने दरवाजे की ओर आंखें गड़ा दी

थीं कि अब मोहिनी ही पानी ले कर आएगी. लेकिन पल भर में ही उम्मीदों पर पानी फिर गया. पानी नौकरानी ले कर आई. इतने में

श्याम बोले, ‘‘मैं ने आप की फेसबुक प्रोफाइल देखी है. आप तो राजनीति पर अच्छाखासा लिख लेते हैं.’’ ‘‘आप भी तो कहां कम हैं जनाब,’’ महेश ने हंसते हुए जवाब दिया.

फिर सिलसिला चल पड़ा चर्चाओं का… लोकल पौलिटिक्स, गांव और शहर की समस्या, आतंकवाद और न जाने क्याक्या. बातों ही बातों में महेश का स्वर एकदम से रुक गया. आंखें पथरा गईं. चेहरे पर सन्नाटा छा गया. सोफे और कुरसी की हलचल थम सी गई. श्याम महेश की भावभंगिमा परख तो पा रहे थे, मगर समझ नहीं पा रहे थे.

यह क्या? अपने हाथों में चाय की ट्रे पकड़े हुए वह महेश के सामने खड़ी थी. उस की आंखों में अनुराग की अकल्पनीय असीमता थी. उस का चेहरा चंचलता की स्वाभाविक आभा से अलौकित हो रहा था और उस के होंठों पर मधुरिमा मुसकान थी. महेश की रगों में उसे छूने की अतिउत्सुकता जाग उठी. उस का मन कर रहा था कि इसी पल उसे आलिंगनबद्ध कर ले. किंतु यह संभव नहीं था. वह ज्योंज्यों महेश के करीब आ रही थी त्योंत्यों महेश की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. ‘‘कैसे हो?’’ उस ने महेश को चाय का प्याला थमाते हुए पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं और आप कैसी हो?’’ महेश ने पूछा. उस का जी और महेश का आप नाटकीयता का प्रकर्ष था.

मोहिनी ने कहा, ‘‘मैं भी ठीक हूं.’’ मोहिनी के पति आश्चर्य से दोनों का चेहरा देख रहे थे. उन के मन में उठते हुए भावों को मोहिनी पढ़ चुकी थी. इसलिए उस ने कहा, ‘‘अरे हां, मैं आप को बताना भूल गई, मैं इन को जानती हूं… मेरी जो सहेली है विशाखा, जिस से मैं ने आप को अपनी शादी में मिलवाया था, ये उस के कजिन हैं. इन से एकदो बार विशाखा के घर पर ही मुलाकात हुई थी. तभी से जानती हूं.’’

प्रेम अपने वास्तविक धरातल पर आ ही जाता है. महेश को यकीन नहीं हो रहा था और शायद मोहिनी को भी. 2 प्रेमी आमनेसामने खड़े थे और महेश चाह कर भी उसे छू नहीं सकता था. दोनों के बीच अब समाज की दीवार थी. महेश श्याम से बात कर रहा था और कोशिश कर रहा था कि सब सही रहे. फिर भी महेश की आंखें उसी की चंदन सी काया को निहार रही थीं. ‘‘ढेर सारी बातें और किस्से हो गए. अब चलूंगा, आज्ञा दीजिए,’’ कह कर महेश जाने के लिए उठने लगा.

‘‘अरे, कहां जा रहे हो? खाना तैयार है. आप पता नहीं फिर कब आओगे,’’ श्याम ने कहा. एक अजब सी कशमकश थी मन में. महेश आत्मीय निवेदन ठुकराने का दुस्साहस नहीं कर सका और बैठ गया. महेश को जब भोजन परोसा जा रहा था तब वह रसोई से आतीजाती मोहिनी को बड़े ध्यान से देख रहा था और सोच रहा था, ‘‘कितनी खूबसूरत लग रही है… वैसे ही तेज कदमों से चलना, हाल बदले थे पर चाल वैसी ही थी… उस के हाथ का बना खाना बहुत स्वादिष्ठ था.’’

भोजन किया और निकलने लगा. फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘आप अपना नंबर दे दो. विशाखा को दे दूंगा. आप को बहुत मिस करती है.’’ मोहिनी ने पति की तरफ देखा और स्वीकृति मिलने पर नंबर दे दिया. इसी के साथ महेश की यह अंतिम इच्छा भी पूरी हो गई.

पूरी रात मोहिनी सोचती रही कि महेश उस का नंबर ले कर गया है तो कौल भी जरूर करेगा. महेश से कैसे मिले और कैसे उस को समझाए कि अब हालात बदल गए हैं? महेश उस को अगले दिन से ही फोन करने लगा. मोहिनी 4-7 दिन तक तो उस की कौल को अवौइड करती रही, पर बाद में महेश से बात करने का निश्चय किया.

महेश, ‘‘क्या इतनी पराई हो गई हो कि मिलने भी नहीं आ सकतीं?’’ मोहिनी, ‘‘अब मेरा नाम किसी और के नाम के साथ जुड़ चुका है.’’

महेश, ‘‘ये दूरियां जिंदगी भर की होंगी, ये सोचा न था.’’ मोहिनी, ‘‘तुम ही तो चाहते थे ऐसा. याद करो तुम ने ही कहा था कि यह मेरी गलतफहमी है. प्यार नहीं है तुम्हें मुझ से. और हो भी नहीं सकता. साथ ही यह भी कहा था कि मुझ से प्यार कर के कुछ नहीं पाओगी. क्यों अपनी जिंदगी खराब कर रही हो. अच्छा लड़का देखो और शादी कर के जाओ यहां से. मेरा क्या है.’’

महेश, ‘‘सब याद है मुझे,’’ कई बार जिंदगी में कुछ ऐसे फैसले करने पड़ते हैं कि आप चाह कर भी उन को बदल नहीं सकते. मेरे पास कुछ नहीं था उस समय तुम्हें देने के लिए, खोखला हो चुका था मैं.’’ मोहिनी, ‘‘ऐसा क्यों हुआ अब सोचने से कोई फायदा नहीं.’’

महेश, ‘‘तुम तो जानती हो मेरे मातापिता अपनी पसंद की लड़की से ही मेरा विवाह कराना चाहते थे. मां की जिद थी कि उन की सहेली की लड़की से ही मेरा विवाह हो.’’ मोहिनी, ‘‘तुम ने उन्हें मेरे बारे में नहीं बताया.’’

महेश, ‘‘बताना चाहता था, पर उन को अपनी जिद के आगे मेरी खुशी नहीं दिखाई दे रही थी. मुझे उन्हें समझाने के लिए कुछ वक्त चाहिए था. मैं उन का दिल नहीं दुखाना चाहता था.’’ मोहिनी, ‘‘और मेरे दिल का क्या होगा? मेरे बारे में एक बार भी नहीं सोचा.’’

महेश, ‘‘सोचा था, बहुत सोचा था, लेकिन जिंदगी के भंवर में बुरी तरह फंस चुका था. जब तक वे मानते तब तक तुम्हारा विवाह हो चुका था. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता. अब तो इस भंवर से बाहर आ कर मेरे साथ चल पड़ो. तुम भी अपने पति से प्यार नहीं करती हो, यह मैं जान गया हूं.’’ मोहिनी, ‘‘वे बहुत अच्छे हैं. अब मैं उन का साथ नहीं छोड़ सकती.’’

महेश, ‘‘क्यों बेनामी के रिश्ते को जी रही हो, घुटघुट के जीना मंजूर है तुम्हें?’’ मोहिनी, ‘‘समाज ने नाम दिया है इस रिश्ते को. तो बेनामी कैसे हुआ? मैं उन के साथ बहुत खुश हूं.’’

महेश, ‘‘प्लीज छोड़ दो सब कुछ और भाग चलो मेरे साथ. हम अपनी एक नई दुनिया बसाएंगे. चले जाएंगे यहां से बहुत दूर. मैं तुम्हें इतना प्यार करूंगा जितना किसी ने आज तक न किया हो.’’ मोहिनी, ‘‘नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती. अब मेरे साथ मेरी ही नहीं, किसी और की भी जिंदगी जुड़ी है.’’

महेश, ‘‘इस का मतलब तुम मेरा प्यार भूल गई हो या फिर वह सब झूठ था.’’ मोहिनी, ‘‘प्यार एक एहसास होता है उन ओस की बूंदों की तरह जो धरती में समा जाती हैं और फिर किसी को नजर नहीं आतीं. हमारा प्यार भी ओस की बूंदों की तरह था, जो हमेशा मेरे दिल की जमीन पर समाहित रहेगा. इस एहसास को किसी रिश्ते का नाम देना जरूरी तो नहीं. तुम्हारे साथ कुछ पलों के लिए जिस राह पर चली थी. वह बहुत ही खुशगवार थी. उन राहों में लिखी कहानी शायद मैं कभी नहीं मिटा पाऊंगी. लेकिन अब और उन राहों पर नहीं चल पाऊंगी. मैं तुम से बहुत प्यार करती थी और शायद आज भी करती हूं और करती रहूंगी पर…’’

महेश, ‘‘पर क्या?’’ मोहिनी, ‘‘अब हम एक नहीं हो सकते. तुम्हारा प्यार हमेशा याद बन कर मेरे दिल में रहेगा. अब तुम कोई दूसरा हमसफर ढूंढ़ लो. मैं 4 कदम चली तो थी मंजिल पाने के लिए पर कुदरत ने मेरी राह ही बदल दी.’’

महेश, ‘‘तुम चाहो तो फिर से राह बदल सकती हो.’’

मोहिनी, ‘‘प्यार का एहसास ही काफी है मेरे लिए. प्यार को प्यार ही रहने दो. कभीकभी जीवन में कुछ रिश्तों को नाम देना जरूरी नहीं होता. क्या हम दोनों के लिए इतना ही काफी नहीं कि हम दोनों ने एकदूसरे से प्यार किया.’’

‘‘सब कह दिया है तुम ने. बस एक आखिरी सवाल का जवाब भी दे दो,’’ महेश ने कहा. ‘‘हां, पूछो,’’ मोहिनी बोली.

‘‘आज तक, कभी एक मिनट या एक सैकंड के लिए भी तुम मुझे भूल पाईं,’’ महेश ने पूछा. ‘‘नहीं,’’ अपनी हिचकियों को रोकने की नाकाम कोशिश करते हुए मोहिनी बोली.

महेश, ‘‘एक वादा चाहता हूं तुम से.’’ मोहिनी, ‘‘क्या?’’

महेश, ‘‘वादा करो जिंदगी में जब कभी तुम्हें मेरी जरूरत महसूस होगी, तुम मुझे फौरन याद करोगी. मैं दुनिया के किसी भी कोने में होऊंगा, तो भी जरूर आऊंगा. चलो खुश रहना. कोशिश करूंगा कि दोबारा कभी तुम्हें परेशान न करूं. लेकिन दोस्त बन कर तो तुम से मिलने आ ही सकता हूं?’’ मोहिनी, ‘‘नहीं अब हम कभी नहीं मिलेंगे. दोस्ती को प्यार में बदल सकते हैं पर प्यार दोस्ती में नहीं. मेरे जीवन की आखिरी सांस तक मैं तुम्हें नहीं भूलूंगी.’’

मोहिनी, इतने पर ही नहीं रुकी, ‘‘सवाल तो बहुत से थे, मन में. बस आज उन सवालों पर विराम लगाती हूं. मेरे लिए इतना ही काफी है कि तुम मुझे प्यार करते हो.’’ महेश, ‘‘यह कैसा प्यार है. चाह कर भी मैं तुम्हें छू नहीं सकता. तुम्हें देख नहीं सकता. तुम से बात नहीं कर सकता.’’

मोहिनी, ‘‘यह फैसला तुम्हारा था. अब तुम्हें अपने फैसले का सम्मान करना चाहिए. बहुत देर हो गई. बस यही चाहूंगी कि तुम सदा खुश रहो और कामयाबी की ओर बढ़ते रहो, बाय.’’ महेश, ‘‘बाय.’’

महेश को दूर से आते एक गीत के बोल सुनाई दे रहे थे, ‘क्यों जिंदगी की राह में मजबूर हो गए इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए…’

Romantic Story: धोखा – काश वासना के उस खेल को समझ पाती शशि

Romantic Story: घर में चहलपहल थी. बच्चे खुशी से चहक रहे थे. घर की साजसज्जा और मेहमानों के स्वागतसत्कार का प्रबंध करने में घर के बड़ेबुजुर्ग व्यस्त थे. किंतु शशि का मन उदास था. उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. दरअसल, आज उस की सगाई थी. घर की महिलाएं बारबार उसे साजश्रृंगार के लिए कह रही थीं लेकिन वह चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थी. उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करे?

2 महीने पहले जब उस की शादी तय हुई थी तो वह खूब रोई थी. वह किसी और को चाहती थी. लेकिन उस के मातापिता ने उस से पूछे बगैर एक व्यवसायी से उस की शादी पक्की कर दी थी. वह अभी शहर में होस्टल में रह कर बीएड कर रही थी. वहीं अपने साथ पढ़ने वाले राकेश को वह दिल दे बैठी थी. लेकिन उस ने यह बात अपने मातापिता को नहीं बताई थी क्योंकि वह खुद या राकेश अभी अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाए थे. पढ़ाई पूरी होने में भी 2 साल बाकी थे. इसलिए वह चाहती थी कि शादी 2 साल के लिए किसी तरह से रुकवा ले. उस ने सोचा कि जब परिस्थितियां ठीक हो जाएंगी तो मन की बात अपने मातापिता को बता कर राकेश के लिए उन्हें राजी कर लेगी.

इसीलिए, पिछली छुट्टी में वह घर आई तो अपनी शादी की बात पक्की होने की सूचना पा कर खूब रोई थी. शादी के लिए मना कर दिया था, लेकिन किसी ने उस की एक न सुनी. पिताजी तो एकदम भड़क गए और चिल्लाते हुए बोले थे, ‘शादी वहीं होगी जहां मैं चाहूंगा.’ राकेश को उस ने फोन पर ये बातें बताई थीं. वह घबरा गया था. उस ने कहा था, ‘शशि, तुम शादी के लिए मना कर दो.’

‘नहीं, यह इतना आसान नहीं है. पिताजी मानने को तैयार नहीं हैं.’ ‘लेकिन मैं कैसे रहूंगा? अकेला हो जाऊंगा तुम्हारे बिना.’

‘मैं भी तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगी, राकेश,’ शशि का गला भर आया था. ‘एक काम करो. तुम पहले होस्टल आ जाओ. कोई उपाय निकालते हैं,’ राकेश ने कहा था, ‘मैं रेलवे स्टेशन पर तुम्हारा इंतजार करूंगा. 2 नंबर गेट पर मिलना. वहीं से दोनों होस्टल चलेंगे.’

उदास स्वर में शशि बोली थी, ‘ठीक है. मैं 2 नंबर गेट पर तुम्हारा इंतजार करूंगी.’ तय योजना के अनुसार, शशि रेल से उतर कर 2 नंबर गेट पर खड़ी हो गई. तभी एक कार आ कर शशि के पास रुकी. उस में से राकेश बाहर निकला और शशि के गले लग कर बोला, ‘मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’

शशि रोआंसी हो गई. राकेश ने कहा, ‘आओ, गाड़ी में बैठ कर बातें करते हैं.’ ‘राकेश कितना सच्चा है,’ शशि ने सोचा, ‘तभी होस्टल जाने के लिए गाड़ी ले आया. नहीं तो औटो से 20 रुपए में पहुंचती. 2 किलोमीटर दूर है होस्टल.’

गाड़ी में बैठते ही राकेश ने शशि का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘शशि, मैं तुम से प्यार करता हूं. तुम नहीं मिलीं, तो अपनी जान दे दूंगा.’ कार सड़क पर दौड़ने लगी.

शशि बोली, ‘नहीं राकेश, ऐसा नहीं करना. मैं तुम्हारी हूं और हमेशा तुम्हारी ही रहूंगी.’ ‘इस के लिए मैं ने एक उपाय सोचा है,’ राकेश ने कहा.

‘क्या,’ शशि बोली. ‘हम लोग शादी कर लेते हैं और अपनी नई जिंदगी शुरू करते हैं.’

शशि आश्चर्यचकित हो कर बोली, ‘यह क्या कह रहे हो, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न.’ ‘तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है,’ तभी उस ने ड्राइवर से कार रोकने को कहा.

कार एक पुल पर पहुंच गई थी. नीचे नदी बह रही थी. राकेश कार से बाहर आ कर बोला, ‘तुम शादी के लिए हां नहीं कहोगी तो मैं इसी पुल से नदी में कूद कर जान दे दूंगा,’ यह कह कर राकेश पुल की तरफ बढ़ने लगा. ‘यह क्या कर रहे हो, राकेश?’ शशि घबरा गई.

‘तो मैं जी कर क्या करूंगा.’ ‘चलो, मैं तुम्हारी बात मानती हूं. लेकिन जान न दो,’ यह कह कर उस ने राकेश को खींच कर वापस कार में बिठा दिया और खुद भी बगल में बैठ कर बोली, ‘लेकिन यह सब होगा कैसे?’

शशि के हाथों को अपने सीने से लगा कर राकेश बोला, ‘अगर तुम तैयार हो तो सब हो जाएगा. हम दोनों आज ही शादी करेंगे.’ शशि चकित रह गई. इस निर्णय पर वह कांप रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? न कहे तो प्यार टूट जाता और राकेश जान दे देता. हां कहे तो मातापिता, रिश्तेदार और समाज के गुस्से का शिकार बनना पड़ेगा.

‘क्या सोच रही हो?’ राकेश ने पूछा. शशि बोली, ‘यह सब अचानक और इतनी जल्दी ठीक नहीं है, मुझे कुछ सोचनेसमझने का समय तो दो.’

‘इस का मतलब तुम्हें मुझ से प्यार नहीं है. ठीक है, मत करो शादी. मैं भी जिंदा नहीं रहूंगा.’ ‘अरे, यह क्या कर रहे हो? मैं तैयार हूं, लेकिन शादी कोई खेल नहीं है. कैसे शादी होगी. हम कहां रहेंगे? घर के लोग नाराज होंगे तो क्या करेंगे? हमारी पढ़ाई का क्या होगा?’ शशि ने कहा.

‘तुम इस की चिंता मत करो. मैं सब संभाल लूंगा. एक बार शादी हो जाने दो. कुछ दिनों बाद सब मान जाएंगे. वैसे अब हम बालिग हैं. अपने जीवन का फैसला स्वयं ले सकते हैं,’ राकेश ने समझाया. ‘लेकिन मुझे बहुत डर लग रहा है.’

‘मैं हूं न. डरने की क्या बात है?’ ‘चलो, फिर ठीक है. मैं तैयार हूं,’ डरतेडरते शशि ने शादी के लिए हामी भर दी. वह किसी भी कीमत पर अपना प्यार खोना नहीं चाहती थी.

राकेश खुश हो कर बोला, ‘तुम कितनी अच्छी हो.’ थोड़ी देर बाद कार एक होटल के गेट पर रुकी. राकेश बोला, ‘डरो नहीं, सब ठीक हो जाएगा. हम लोग आज ही शादी कर लेंगे, लेकिन किसी को बताना नहीं. शादी के बाद कुछ दिन हम लोग होस्टल में ही रहेंगे. 15 दिनों बाद मैं तुम्हें अपने घर ले चलूंगा. मेरी मां अपनी बहू को देखना चाहती हैं. वे बहुत खुश होंगी.’

‘तो क्या तुम ने अपनी मम्मीपापा को सबकुछ बता दिया?’ ‘नहीं, सिर्फ मम्मी को, क्योंकि मम्मी को गठिया है. ज्यादा चलफिर नहीं पातीं. इसीलिए वे जल्दी बहू को घर लाना चाहती हैं. किंतु पापा नहीं चाहते कि मेरी शादी हो. वे चाहते हैं कि मैं पहले पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं, लेकिन वे भी मान जाएंगे फिर हम दोनों की सारी मुश्किलें खत्म हो जाएंगी,’ राकेश बोला.

‘सच, तुम बहुत अच्छे हो.’ ‘तो मेरी प्यारी महबूबा, तुम होटल में आराम करो और हां, इस बैग में तुम्हारी जरूरत की सारी चीजें हैं. तुम रात 8 बजे तक तैयार हो जाना. फिर हम दोनों पास के मंदिर में चलेंगे. वहां शादी कर लेंगे. फिर हम होटल में आ जाएंगे. आज हमारी जिंदगी का सब से खुशी का दिन होगा.’

कुछ प्रबंध करने राकेश बाहर चला गया. शशि उधेड़बुन में थी. उस के कुछ समझ में नहीं आ रहा था. अपने मातापिता को धोखा देने की बात सोच कर उसे बुरा लग रहा था, लेकिन राकेश जिद पर अड़ा था और वह राकेश को खोना नहीं चाहती थी. कब रात के 8 बज गए, पता ही नहीं चला. तभी राकेश आ कर बोला, ‘अरे, अभी तक तैयार नहीं हुई? समय कम है. तैयार हो जाओ. मैं भी तैयार हो रहा हूं.’

‘लेकिन राकेश यह सब ठीक नहीं हो रहा है,’ शशि ने कहा. ‘यदि ऐसा है तो चलो, तुम्हें होस्टल पहुंचा देता हूं. किंतु मुझे हमेशा के लिए भूल जाना. मैं इस दुनिया से दूर चला जाऊंगा. जहां प्यार नहीं, वहां जी कर क्या करना?’ राकेश उदास हो कर बोला.

‘तुम बहुत जिद्दी हो, राकेश. डरती हूं कहीं कुछ बुरा न हो जाए.’ ‘लेकिन मैं किसी कीमत पर अपना प्यार पाना चाहता हूं, नहीं तो…’

‘बस राकेश, और कुछ मत कहो.’ 1 घंटे में तैयार हो कर दोनों पास के एक मंदिर में पहुंच गए. वहां राकेश के कुछ दोस्त पहले से मौजूद थे.

राकेश मंदिर के पुजारी से बोला, ‘पंडितजी, हमारी शादी जल्दी करा दीजिए.’ जल्दी ही शादी की प्रक्रिया पूरी हो गई. शशि और राकेश एकदूसरे के हो गए. शशि को अपनी बाहों में ले कर राकेश बोला, ‘चलो, अब हम होटल चलते हैं. आज की रात वहीं बितानी है.’

दोनों होटल में आ गए. लेकिन यह दूसरा होटल था. शशि को घबराहट हो रही थी. राकेश बोला, ‘चिंता न करो. अब सब ठीक हो जाएगा. आज की रात हम दोनों की खास रात है न.’ शशि मन ही मन डर रही थी, किंतु राकेश को रोक न सकी. फिर उसे भी अच्छा लगने लगा था. दोनों एकदूसरे में समा गए. कब 2 घंटे बीत गए, पता ही नहीं चला.

‘थक गई न. चलो, पानी पी लो और सो जाओ,’ पानी का गिलास शशि की तरफ बढ़ाते हुए राकेश बोला. शशि ने पानी पी लिया. जल्द ही उसे नींद आने लगी. वह सो गई. सुबह जब शशि की नींद खुली तो वह हक्काबक्का रह गई. उस के शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं था. उस के मुंह से चीख निकल गई. जब उस ने देखा कि कमरे में राकेश के अलावा 3 और लड़के थे. सब मुसकरा रहे थे.

तभी राकेश बोला, ‘चुप रहो जानेमन, यहां तुम्हारी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है. ज्यादा इधरउधर की तो तेरी आवाज को हमेशा के लिए खामोश कर देंगे.’ ‘यह तुम ने अच्छा नहीं किया, राकेश,’ अपने शरीर को ढकने का प्रयास करती हुई शशि रोने लगी, ‘तुम ने मुझे बरबाद कर दिया. मैं सब को बता दूंगी. पुलिस में शिकायत करूंगी.’

‘नहीं, तुम ऐसा नहीं करोगी अन्यथा हम तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ेंगे. वैसे ऐसा करोगी तो तुम खुद ही बदनाम होगी,’ कह कर राकेश हंसने लगा. उस के दोस्त भी हंसने लगे. शशि का बदन टूट रहा था. उस के शरीर पर जगहजगह नोचनेखसोटने के निशान थे. वह समझ गई कि रात में पानी में नशीला पदार्थ मिला कर पिलाया था राकेश ने. उस के बेहाश हो जाने पर सब ने उस के साथ…

शशि का रोरो कर बुरा हाल हो गया. राकेश बोला, ‘अब चुप हो जा. जो हो गया उसे भूल जा. इसी में तेरी भलाई है और जल्दी से तैयार हो जा. तुझे होस्टल पहुंचा देता हूं. और हां, किसी से कुछ कहना नहीं वरना अंजाम अच्छा नहीं होगा.’

शशि को अपनी व अपने परिवार की खातिर चुप रहना पड़ा था. ‘‘अरे, खिड़की के बाहर क्या देख रही हो? जल्दी तैयार हो जा. मेहमान आने वाले होंगे,’’ तभी मां ने उसे झकझोरा तो वह पिछली यादों से वर्तमान में लौटी.

‘‘वह प्यार नहीं धोखा था. उस ने अपने मजे के लिए मेरी सचाई और भावना का इस्तेमाल किया,’’ शशि ने मन ही मन सोचा. अपने आंसू पोंछते हुए शशि बाथरूम में घुस गई. उसे अपनी नासमझी पर गुस्सा आ रहा था. अपनी जिंदगी का फैसला उस ने दूसरे को करने का हक दे दिया था जो उस की भलाई के लिए जिम्मेदार नहीं था. इसीलिए ऐसा हुआ, लेकिन अब कभी वह ऐसी भूल नहीं करेगी. मुंह पर पानी के छींटे मार कर वह राकेश के दिए घाव के दर्द को हलका करने की कोशिश करने लगी.

मेहमान आ रहे हैं. अब उसे नई जिंदगी शुरू करनी है. हां, नई जिंदगी…वह जल्दीजल्दी सजनेसंवरने लगी.

Hindi Story: आया – कैसी थी अधेड़ उम्र की नौकरानी लक्ष्मी?

Hindi Story: तुषार का तबादला मुंबई हुआ तो रश्मि यह सोच कर खुश हो उठी कि चलो इसी बहाने फिल्मी कलाकारों से मुलाकात हो जाएगी, वैसे कहां मुंबई घूमने जा सकते थे. तुषार ने मुंबई आ कर पहले कंपनी का कार्यभार संभाला फिर बरेली जा कर पत्नी व बेटे को ले आया.

इधरउधर घूमते हुए पूरा महीना निकल गया, धीरेधीरे दंपती को महंगाई व एकाकीपन खलने लगा. उन के आसपास हिंदीभाषी लोग न हो कर महाराष्ट्र के लोग अधिक थे, जिन की बोली अलग तरह की थी.

काफी मशक्कत के बाद उन्हें तीसरे माले पर एक कमरे का फ्लैट मिला था, जिस के आगे के बरामदे में उन्होंने रसोई व बैठने का स्थान बना लिया था.

रश्मि ने सोचा था कि मुंबई में ऐसा घर होगा जहां से उसे समुद्र दिखाई देगा, पर यहां से तो सिर्फ झुग्गीझोंपडि़यां ही दिखाई देती हैं.

तुषार रश्मि को चिढ़ाता, ‘‘मैडम, असली मुंबई तो यही है, मछुआरे व मजदूर झुग्गीझोंपडि़यों में नहीं रहेंगे तो क्या महलों में रहेंगे.’’

जब कभी मछलियों की महक आती तो रश्मि नाक सिकोड़ती. घर की सफाई एवं बरतन धोने के लिए काम वाली बाई रखी तो रश्मि को उस से भी मछली की बदबू आती हुई महसूस हुई. उस ने उसी दिन बाई को काम से हटा दिया. रश्मि के लिए गर्भावस्था की हालत में घर के काम की समस्या पैदा हो गई. नीचे जा कर सागभाजी खरीदना, दूध लाना, 3 वर्ष के गोलू को तैयार कर के स्कूल भेजना, फिर घर के सारे काम कर के तुषार की पसंद का भोजन बनाना अब रश्मि के वश का नहीं था. तुषार भी रात को अकसर देर से लौटता था.

तुषार ने मां को आने के लिए पत्र लिखा, तो मां ने अपनी असमर्थता जताई कि तुम्हारे पिताजी अकसर बीमार रहते हैं, उन की देखभाल कौन करेगा. फिर तुम्हारे एक कमरे के घर में न सोने की जगह है न बैठने की.

तुषार ने अपनी पहचान वालों से एक अच्छी नौकरानी तलाश करने को कहा पर रश्मि को कोई पसंद नहीं आई. तुषार ने अखबार में विज्ञापन दे दिया, फिर कई काम वाली बाइयां आईं और चली गईं.

एक सुबह एक अधेड़ औरत ने आ कर उन का दरवाजा खटखटाया और पूछा कि आप को काम वाली बाई चाहिए?

‘‘हां, हां, कहां है.’’

‘‘मैं ही हूं.’’

तुषार व रश्मि दोनों ही उसे देखते रह गए. हिंदी बोलने वाली वह औरत साधारण  मगर साफसुथरे कपडे़ पहने हुए थी.

‘‘मैं घर के सभी काम कर लेती हूं. सभी प्रकार का खाना बना लेती हूं पर मैं रात में नहीं रुक पाऊंगी.’’

‘‘ठीक है, तुम रात में मत रुकना. तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘लक्ष्मी.’’

‘‘देखो लक्ष्मी, हमारी छोटी सी गृहस्थी है इसलिए अधिक काम नहीं है पर हम साफसफाई का अधिक ध्यान रखते हैं,’’ रश्मि बोली.

‘‘बीबीजी, आप को शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.’’ लक्ष्मी ने प्रतिमाह 3 हजार रुपए वेतन मांगा, पर थोड़ी नानुकुर के बाद वह ढाई हजार रुपए पर तैयार हो गई और उसी दिन से वह काम में जुट गई, पूरे घर की पहले सफाईधुलाई की, फिर कढ़ीचावल बनाए और गोलू की मालिश कर के उसे नहलाया.

तुषार व रश्मि दोनों ही लक्ष्मी के काम से बेहद प्रभावित हो गए. यद्यपि उन्होंने लक्ष्मी से उस का पता तक भी नहीं पूछा था. लक्ष्मी शाम को जब चली गई तो दंपती उस के बारे में देर तक बातें करते रहे.

तुषार व रश्मि आश्वस्त होते चले गए जैसे लक्ष्मी उन की मां हो. वे दोनों उस का सम्मान करने लगे. लक्ष्मी परिवार के सदस्य की भांति रहने लगी.

सुबह आने के साथ ही सब को चाय बना कर देना, गोलू को रिकशे तक छोड़ कर आना, तुषार को 9 बजे तक नाश्ता व लंच बाक्स तैयार कर के देना, रश्मि को फलों का रस निकाल कर देना, यह सब कार्य लक्ष्मी हवा की भांति फुर्ती से करती रहती थी.

लक्ष्मी वाकई कमाल का भोजन बनाना जानती थी. रश्मि ने उस से ढोकला, डोसा बनाना सीखा. भांतिभांति के अचार चटनियां बनानी सीखीं.

‘‘ऐसा लगता है अम्मां, आप ने कुकिंग स्कूल चलाया है?’’ एक दिन मजाक में रश्मि ने पूछा था.

‘‘हां, मैं सिलाईकढ़ाई का भी स्कूल चला चुकी हूं’’

रश्मि मुसकराती मन में सोचती रहती कि उसे तो बढ़चढ़ कर बोलने की आदत है. डिलीवरी के लिए रश्मि को अस्पताल में दाखिल कराया गया तो लक्ष्मी रात को अस्पताल में रहने लगी.

तुषार और अधिक आश्वस्त हो गया. उस ने मां को फोन कर दिया कि तुम पिताजी की देखभाल करो, यहां लक्ष्मी ने सब संभाल लिया है.

रश्मि को बेटी पैदा हुई. तीसरे दिन रश्मि नन्ही सी गुडि़या को ले कर घर लौटी. लक्ष्मी ने उसे नहलाधुला कर बिस्तर पर लिटा दिया और हरीरा बना कर रश्मि को पिलाया.

‘‘लक्ष्मी अम्मां, आप ने मेरी सास की कमी पूरी कर दी,’’ कृतज्ञ हो रश्मि बोली थी.

‘‘तुम मेरी बेटी जैसी हो. मैं तुम्हारा नमक खा रही हूं तो फर्ज निभाना मेरा कर्तव्य है.’’

तुषार ने भी लक्ष्मी की खूब प्रशंसा की. एक शाम तुषार, रश्मि व बच्ची को ले कर डाक्टर को दिखाने गया तो रास्ते में लोकल ट्रेन का एक्सीडेंट हो जाने के कारण दंपती को घर लौटने में रात के 12 बज गए.

घर में ताला लगा देख दोनों अवाक् रह गए. अपने पास रखी दूसरी चाबी से उन्होंने ताला खोला व आसपास नजरें दौड़ा कर लक्ष्मी को तलाश करने लगे.

चिंता की बात यह थी कि लक्ष्मी, गोलू को भी अपने साथ ले गई थी. तुषार व रश्मि के मन में लक्ष्मी के प्रति आक्रोश उमड़ पड़ा था. रश्मि बोली, ‘‘यह लक्ष्मी भी अजीब नौकरानी है, एक रात यहीं रह जाती तो क्या हो जाता, गोलू को क्यों ले गई.’’

बच्चे की चिंता पतिपत्नी को काटने लगी. पता नहीं लक्ष्मी का घर किस प्रकार का होगा, गोलू चैन से सो पाएगा या नहीं.

पूरी रात चिंता में गुजारने के पश्चात जब सुबह होने पर भी लक्ष्मी अपने निर्धारित समय पर नहीं लौटी तो रश्मि रोने लगी, ‘‘नौकरानी मेरे बेटे को चोरी कर के ले गई, पता नहीं मेरा गोलू किस हाल में होगा.’’

तुषार को भी यही लग रहा था कि लक्ष्मी ने जानबूझ कर गोलू का अपहरण कर लिया है. नौकरों का क्या विश्वास, बच्चे को कहीं बेच दें या फिर मोटी रकम की मांग करें.

लक्ष्मी के प्रति शक बढ़ने का कारण यह भी था कि वह प्रतिदिन उस वक्त तक आ जाती थी. रश्मि के रोने की आवाज सुन कर आसपास के लोग जमा हो कर कारण पूछने लगे. फिर सब लोग तुषार को पुलिस को सूचित करने की सलाह देने लगे.

तुषार को भी यही उचित लगा. वह गोलू की तसवीर ले कर पुलिस थाने जा पहुंचा. लक्ष्मी के खिलाफ बेटे के अपहरण की रिपोर्ट पुलिस थाने में दर्ज करा कर वह लौटा तो पुलिस वाले भी साथ आ गए और रश्मि से पूछताछ करने लगे.

रश्मि रोरो कर लक्ष्मी के प्रति आक्रोश उगले जा रही थी. पुलिस वाले तुषार व रश्मि का ही दोष निकालने लगे कि उन्होंने लक्ष्मी का फोटो क्यों नहीं लिया, बायोडाटा क्यों नहीं बनवाया, न उस के रहने का ठिकाना देखा, जबकि नौकर रखते वक्त यह सावधानियां आवश्यक हुआ करती हैं.

अब इतनी बड़ी मुंबई में एक औरत की खोज, रेत के ढेर में सुई खोजने के समान है. अभी यह सब हो ही रहा था कि अकस्मात लक्ष्मी आ गई, सब भौचक्के से रह गए.

‘‘हमारा गोलू कहां है?’’ तुषार व रश्मि एकसाथ बोले.

लक्ष्मी की रंगत उड़ी हुई थी, जैसे रात भर सो न पाई हो, फिर लोगों की भीड़ व पुलिस वालों को देख कर वह हक्की- बक्की सी रह गई थी.

‘‘बताती क्यों नहीं, कहां है इन का बेटा, तू कहां छोड़ कर आई है उसे?’’ पुलिस वाले लक्ष्मी को डांटने लगे.

‘‘अस्पताल में,’’ लक्ष्मी रोने लगी.

‘‘अस्पताल में…’’ तुषार के मुंह से निकला.

‘‘हां साब, आप का बेटा अस्पताल में है. कल जब आप लोग चले गए थे तो गोलू सीढि़यों पर से गिर पड़ा. मैं उसे तुरंत अस्पताल ले गई, अब वह बिलकुल ठीक है. मैं उसे दूध, बिस्कुट खिला कर आई हूं. पर साब, यहां पुलिस आई है, आप ने पुलिस बुला ली…मेरे ऊपर शक किया… मुझे चोर समझा,’’ लक्ष्मी रोतेरोते आवेश में भर उठी.

‘‘मैं मेहनत कर के खाती हूं, किसी पर बोझ नहीं बनती, आप लोगों से अपनापन पा कर लगा, आप के साथ ही जीवन गुजर जाएगा… मैं गोलू को कितना प्यार करती हूं, क्या आप नहीं जानते, फिर भी आप ने…’’

‘‘लक्ष्मी अम्मां, हमें माफ कर दो, हम ने तुम्हें गलत समझ लिया था,’’ तुषार व रश्मि लक्ष्मी के सामने अपने को छोटा समझ रहे थे.

‘‘साब, अब मैं यहां नहीं रहूंगी, कोई दूसरी नौकरी ढूंढ़ लूंगी पर जाने से पहले मैं आप को आप के बेटे से मिलाना ठीक समझती हूं, आप सब मेरे साथ अस्पताल चलिए.’’

तुषार, लक्ष्मी, कुछ पड़ोसी व पुलिस वाले लक्ष्मी के साथ अस्पताल पहुंच गए. वहां गोलू को देख दंपती को राहत मिली. गोलू के माथे पर पट्टी बंधी हुई थी और पैर पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था.

डाक्टर ने बताया कि लक्ष्मी ने अपने कानों की सोने की बालियां बेच कर गोलू के लिए दवाएं खरीदी थीं.

‘‘साब, आप का बेटा आप को मिल गया, अब मैं जा रही हूं.’’

तुषार और रश्मि दोनों लक्ष्मी के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, ‘‘माफ कर दो अम्मां, हमें छोड़ कर मत जाओ.’’

दोनों पतिपत्नी इतनी अच्छी आया को खोना नहीं चाहते थे इसलिए बारबार आग्रह कर के उन्होंने उसे रोक लिया.

लक्ष्मी भी खुश हो उठी कि जब आप लोग मुझे इतना मानसम्मान दे रहे हैं, रुकने का इतना आग्रह कर रहे हैं तो मैं यहीं रुक जाती हूं. ‘‘साब, मेरा मुंबई का घर नहीं देखोगे,’’ एक दिन लक्ष्मी ने आग्रह किया.

तुषार व रश्मि उस के साथ गए. वह एक साधारण वृद्धाश्रम था, जिस के बरामदे में लक्ष्मी का बिस्तर लगा हुआ था. आश्रम वालों ने उन्हें बताया कि लक्ष्मी अपने वेतन का कुछ हिस्सा आश्रम को दान कर देती है और रातों को जागजाग कर वहां रहने वाले लाचार बूढ़ों की सेवा करती है.

अब तुषार व रश्मि के मन में लक्ष्मी के प्रति मानसम्मान और भी बढ़ गया था. लक्ष्मी के जीवन की परतें एकएक कर के खुलती गईं. उस विधवा औरत ने अपने बेटे को पालने के लिए भारी संघर्ष किए मगर बहू ने अपने व्यवहार से उसे आहत कर दिया था, अत: वह अपने बेटे- बहू से अलग इस वृद्धाश्रम में रह रही थी.

‘‘संघर्ष ही तो जीवन है,’’ लक्ष्मी, मुसकरा रही थी.

Family Story: दोस्तियाप्पा – आखिर दादी की डायरी में क्या लिखा था?

Family Story: दादी अकसर दादाजी से कहा करती थीं कि जिंदगी में एक यार तो होना ही चाहिए. सुनते ही दादाजी बिदक जाया करते थे.

‘किसलिए?’ वे चिढ़ कर पूछते.

‘अपने सुखदुख सा?ा करने के लिए,’ दादी का जवाब होता, जिसे सुन कर दादाजी और भी अधिक भड़क जाते.

‘क्यों? घरपरिवार, मातापिता, भाईबहन, पतिसहेलियां काफी नहीं हैं जो यार की कमी खल रही है. भले घरों की औरतें इस तरह की बातें करती कभी देखी नहीं. हुंह, यार होना चाहिए,’ दादाजी देर तक बड़बड़ाते रहते. यह अलग बात थी कि दादी को उस बड़बड़ाहट से कोई खास फर्क नहीं पड़ता था. वे मंदमंद मुसकराती रहती थीं.

मैं अकसर सोचा करती थी कि हमेशा सखीसहेलियों और देवरानीजेठानी से घिरी रहने वाली दादी का ऐसा कौन सा सुखदुख होता होगा जिसे सा?ा करने के लिए उन्हें किसी यार की जरूरत महसूस होती है.

‘‘दादी, आप की तो इतनी सारी सहेलियां हैं, यार क्या इन से अलग होता है?’’ एक दिन मैं ने दादी से पूछा तो दादी अपनी आदत के अनुसार हंस दीं. फिर मु?ो एक कहानी सुनाने लगीं.

‘‘मान ले, तुझे कुछ पैसों की जरूरत है. तू ने अपने बहुत से दोस्तों से मदद मांगी. कुछ ने सुनते ही बहाना बना कर तुझे टाल दिया. ऐसे लोगों को जानपहचान वाला कहते हैं. कुछ ने बहुत सोचा और हिसाब लगा कर देखा कि कहीं उधार की रकम डूब तो नहीं जाएगी. आश्वस्त होने के बाद तु?ो समयसीमा में बांध कर मांगी गई रकम का कुछ हिस्सा दे कर तेरी मदद के लिए जो तैयार हो जाते हैं उन्हें मित्र कहते हैं. और जो दोस्त बिना एक भी सवाल किए चुपचाप तेरे हाथ में रकम धर दे, उसे ही यार कहते हैं. कुछ सम?ां?’’ दादी ने कहा.

‘‘जी समझ यही कि जो दोस्त आप से सवालजवाब न करे, आप को व्यर्थ सलाहमशवरा न दे और हर समय आप के साथ खड़ा रहे वही आप का यार है. है न?’’ मैं ने अपनी समझ से कहा.

‘‘बिलकुल सही. लेकिन तेरे दादाजी को ये तीनों एक ही लगते हैं,’’ कहते हुए दादी की आंखों में उदासी उतर आई. यार न होने की टीस उन्हें सालने लगी.

मैं बचपन से ही अपने दादादादी के साथ रहती हूं, क्योंकि मेरे मम्मीपापा दोनों नौकरी करते हैं. चूंकि दादाजी भी सरकारी सेवा में थे, इसलिए दादी न तो उन्हें अकेला छोड़ सकती थीं और न ही वे चाहती थीं कि उन की पोती आया और नौकरों के हाथों में पले. इसलिए, सब ने मिल कर तय किया कि मैं अपनी दादी के पास ही रहूंगी. बस, इसीलिए मेरा और दादी का दोस्तियाप्पा बना हुआ है.

जब से हमारे सामने वाले घर में सीमा आंटी रहने के लिए आई हैं तब से हमारे घर में भी रौनक बढ़ गई है. सीमा आंटी हैं ही इतनी मस्तमौला. जिधर से निकलती हैं, हंसी के अनार फोड़ती जाती हैं. चूंकि हमारे घर आमनेसामने हैं, इसलिए इन अनारों की रोशनी सब से ज्यादा हमारे घर पर ही होती है.

सीमा आंटी शायद कहीं नौकरी करती हैं. आंटी को गप्पें मारने का बहुत शौक है. औफिस से आने के बाद वे शाम ढलने तक दादीदादाजी के साथ गप्पें मारती रहती हैं. दादी कहीं इधरउधर गई भी हों तो भी उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता. चायकौफी के दौर में डूबी वे दादाजी के साथ ही देर तक गपियाती रहती हैं.

मैं ने कई बार नोटिस किया है कि जब दादाजी अकेले होते हैं तब सीमा आंटी के ठहाकों में गूंज अधिक होती है. उस समय दादाजी के चेहरे पर भी ललाई बढ़ जाती है. पिछले कुछ दिनों से तो तीनों का बाहर आनाजाना भी साथ ही होने लगा है.

जब से सीमा आंटी हमारी जिंदगी का हिस्सा बनी हैं तब से दादाजी दादी के प्रति जरा नरम हो गए हैं. आजकल वे दादी के इस तर्क पर बहस नहीं करते कि जिंदगी में यार होना चाहिए कि नहीं. लेकिन हां, खुल कर इस की वकालत तो वे अब भी नहीं करते.

‘‘आप को नहीं लगता कि सीमा आंटी दादाजी में ज्यादा ही इंटरैस्ट लेने लगी हैं,’’ एक दिन मैं ने दादी को छेड़ा. दादी हंस दीं और बोलीं, ‘‘शायद इसी से उन्हें जिंदगी में यार की अहमियत सम?ा में आ जाए.’’

दादी की सहजता मुझे आश्चर्य में डाल रही थी. ‘‘आप को जलन नहीं होती?’’ मैं ने पूछा.

‘‘किस बात की जलन?’’ अब आश्चर्यचकित होने की बारी दादी की थी.

‘‘अरे, आप उन की पत्नी हो. आप के पति के साथ कोई और समय बिता रहा है. आप को इसी बात की जलन होनी चाहिए और क्या?’’ मैं ने अपनी बात साफ की.

‘‘तो क्या हुआ, यार कहां पति या पत्नी के अधिकारों का अतिक्रमण करता है?’’ दादी ने उसी सहजता से कहा. मैं उन की सरलता पर हंस दी.

आज दादी हमारे बीच नहीं हैं. अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे हम सब को हतप्रभ सा छोड़ कर अनंत यात्रा पर चल दीं. 15 दिनों बाद मम्मीपापा सामाजिक औपचारिकताएं निभा कर वापस चले गए. वे तो मु?ो और दादाजी को भी अपने साथ ले जाने की जिद कर रहे थे लेकिन दादाजी किसी सूरत में इस घर को छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हुए. मैं उन की देखभाल करने के लिए उन के पास रुक गई. वैसे भी, मेरी स्नातक की पढ़ाई अभी चल ही रही थी.

एक दोपहर दादी की अलमारी सहेजते समय मु?ो उन के पुराने पर्स के अंदर एक छोटी सी चाबी मिली. सभी ताले टटोल लिए, लेकिन उस चाबी का कोई ताला मु?ो नहीं मिला. बात आईगई हो गई. फिर एक दिन जब मैं ने दादी का पुराना बक्सा खोल कर देखा तो उस में एक छोटी सी कलात्मक मंजूषा मु?ो दिखाई दी. उस पर लगा छोटा सा ताला मु?ो उस छोटी चाबी की याद दिला गया. लगा कर देखा तो ताला खुल गया.

मंजूषा के भीतर मुझे एक पुरानी पीले पड़ते पन्नों वाली छोटी सी डायरी मिली. ताले का रहस्य जानने के लिए मैं दादाजी को बिना बताए उसे छिपा कर अपने साथ ले आई. रात को दादाजी के सोने के बाद मैं ने वह डायरी निकाल कर पढ़ना शुरू किया.

पन्नादरपन्ना दादी खुलती जा रही थीं. डायरी में जगहजगह किसी धरम का जिक्र था. डायरी में लिखी बातों के अनुसार मैं ने सहज अनुमान लगाया कि धरम दादी की प्रेम कहानी का नायक नहीं था, वह उन का यार था. जब भी वे परेशान होतीं तो सिर्फ धरम से बात करती थीं.

मु?ो याद आया कि दादी अकसर छत पर जा कर फोन पर किसी से बात किया करती थीं. दादाजी के आते ही तुरंत नीचे दौड़ आती थीं. जब वे वापस नीचे आती थीं तो एकदम हवा सी हलकी होती थीं. मैं अंदाजा लगा रही हूं कि शायद वे धरम से ही बात करती होंगी.

दादी की डायरी क्या थी, दुखों का दस्तावेज थी. हरदम मुसकराती दादी अपनी हंसी के पीछे कितने दर्द छिपाए थीं, यह मुझे आज पता चल रहा है. पता नहीं क्यों दादाजी एक खलनायक की छवि में ढलते जा रहे हैं.

दादी और दादाजी का विवाह उन के समय के चलन के अनुसार घर के बड़ों का तय किया हुआ रिश्ता था. धरम उन दोनों के उन के बचपन का यार था. हालांकि, दुनियाजहान की बातेंशिकायतें दादी दादाजी से ही करती थीं लेकिन दादाजी का जिक्र या उन के प्रति उपजी नाराजगी को जताने के लिए भी तो कोई अंतरंग साथी होना चाहिए न. भावनाओं के मटके जहां छलकते थे, वह पनघट था धरम. यह बात दादाजी भी जानते थे लेकिन वे कभी भी स्त्रीपुरुष के याराने के समर्थक नहीं थे.

धीरेधीरे प्यार को अधिकार ढकने लगा और धरम दादाजी की आंखों में रेत सा अड़ने लगा. दादाजी को धरम के साथ दादी की निकटता डराने लगी. खोने का डर उन्हें अपराध करने के लिए उकसाने लगा. उन्होंने अपने प्यार का वास्ता दे कर दादी को उन के यार से दूर करने की साजिश की. दादाजी की खुशी और परिवार की सुखशांति बनाए रखने के लिए दादी ने धरम से दूरियां बना लीं. वे अब दादाजी के सामने धरम का जिक्र नहीं करती थीं. दादाजी को लगा कि वे अपने षड्यंत्र में कामयाब हो गए, लेकिन वे दादी को धरम से दूर कहां कर पाए.

डायरी इस बात की गवाह है कि दादी अपने आखिरी समय तक धरम से जुड़ी हुई थीं और मैं इस बात की गवाही पूरे होशोहवास में दे सकती हूं कि दादी की जिंदगी धरम को कलंकरहित यार का दर्जा दिलवाने की आस में ही पूरी हो गई.

आखिरी पन्ना पढ़ कर डायरी बंद करने लगी तो पाया कि मेरा चेहरा आंसुओं से तर था. दादी ने अपनी अंतिम पंक्तियों में लिखा था, ‘‘हमारे समाज में सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, बल्कि कुछ शब्द भी लैंगिक भेदभाव का दंश ?ोलते हैं. स्त्री और पुरुष के संदर्भ में उन की परिभाषा अलग होती है. उन्हीं अभागे शब्दों में से एक शब्द है ‘यार’. उस का सामान्य अर्थ बहुत जिगरी होने से लगाया जाता है लेकिन जब यही शब्द कोई महिला किसी पुरुष के लिए इस्तेमाल करे तो उस के चरित्र की चादर पर काले धब्बे टांक दिए जाते हैं.’’

पता नहीं दादी द्वारा लिखा गया यही पन्ना आखिरी था या इस के बाद दादी का कभी डायरी लिखने का मन ही नहीं हुआ, क्योंकि दादी ने किसी भी पन्ने पर कोई तारीख अंकित नहीं की थी. लेकिन इतना तो तय था कि दादी के याराने को न्याय नहीं मिला. काश, कोई जिंदगी में यार की अहमियत सम?ा सकता. काश, समाज याराने को स्त्रीपुरुष की सीमाओं से बाहर स्वीकार कर पाता.

दादी के न रहने पर दादाजी एकदम चुप से हो गए थे. कितने दिन तो घर से बाहर ही नहीं निकले. सीमा आंटी के आने पर जरूर उन का अबोला टूटता था. सीमा आंटी भी उन्हें अकेलेपन के खोल से बाहर लाने की पूरी कोशिश कर रही थीं. कोशिश थी, आखिर तो कामयाब होनी ही थी. दादाजी फिर से हंसनेबोलने लगे. रोज शाम सीमा आंटी का इंतजार करने लगे. जब भी कभी परेशान या दादी की याद में उदास होते, सब से पहला फोन सीमा आंटी को ही जाता.

आंटी भी अपने सारे जरूरी काम छोड़ कर उन का फोन अटैंड करतीं. मैं कई बार देखती कि जब दादाजी बोल रहे होते तब आंटी चुपचाप उन्हें सुनतीं. न वे अपनी तरफ से कोई सलाह देतीं और न ही कभी किसी काम में दादाजी की गलती निकाल कर उन्हें कठघरे में खड़ा करतीं. क्या वे दादाजी की यार थीं?

सीमा आंटी दादाजी के लिए उस दीवार जैसी हो गई थीं जिस के सहारे इंसान अपनी पीठ टिका कर बैठ जाता है और मौन आंसू बहा कर अपना दिल भी हलका कर लेता है, यह जानते हुए भी कि यह दीवार उस की किसी भी मुश्किल का हल नहीं है. लेकिन हां, दुखी होने पर रोने के लिए हर समय हाजिर जरूर है.

दादी को गए साल होने को आया.  2 दिनों बाद उन की बरसी है. दादाजी पूरी श्रद्धा के साथ आयोजन में जुटे हैं. सीमा आंटी उन की हरसंभव सहायता कर रही हैं. मेरे मम्मीपापा भी आ चुके हैं. घर में एक उदासी सी छाई है. लग रहा है जैसे दादाजी के भीतर कोई मंथन चल रहा है.

‘‘मिन्नी, आज शाम मेरा एक दोस्त धरम आने वाला है,’’ दादाजी ने कहा. सुनते ही मैं चौंक गई. ‘धरम यानी दादी का यार… तो क्या दादाजी सब जान गए? क्या दादी की डायरी उन के हाथ लग गई?’ मैं ने लपक कर अपनी अलमारी संभाली. दादी की डायरी तो जस की तस रखी थी. धरम अंकल के आने का कारण मेरी समझ में नहीं आ रहा था. मैं ने टोह लेने के लिए दादाजी को टटोला.

‘‘धरम अंकल कौन हैं, पहले तो कभी नहीं आए हमारे घर?’’ मैं ने पूछा.

‘‘धरम तेरी दादी का जिगरी था. वह बेचारी इस रिश्ते को मान्यता दिलाने के लिए जिंदगीभर संघर्ष करती रही. लेकिन मैं ने कभी स्वीकार नहीं किया. आज जब अपने मन के पेंच खोलने के लिए किसी चाबी की जरूरत महसूस करता हूं तो उस का दर्द समझ में आता है,’’ दादाजी की आंखों में आंसू थे.

दादी की बरसी पर धरम अंकल आए. पता नहीं दादाजी ने उन से क्या कहा कि दोनों देर तक एकदूसरे से लिपटे रोते रहे. सीमा आंटी भी उन के पास ही खड़ी थीं. थोड़ा सहज हुए दादाजी ने सीमा आंटी की तरफ इशारा करते हुए धरम अंकल से उन का परिचय करवाया. ‘‘यह सीमा है. हमारी पड़ोसिन… मेरी यार.’’ और तीनों मुसकरा उठे.

मैं भी खुश थी. आज दादी के याराने को मान्यता मिल गई थी.

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