Hindi Story : विषकन्या बनने का सपना

Hindi Story : इस महीने की 12 तारीख को अदालत से फिर आगे की तारीख मिली. हर तारीख पर दी जाने वाली अगली तारीख किस तरह से किसी की रोशन जिंदगी में अपनी कालिख पोत देती है, यह कोई मुझ से पूछे.

शादीब्याह के मसले निबटाने वाली अदालत यानी ‘मैट्रीमोनियल कोर्ट’ में फिरकी की तरह घूमते हुए आज मुझे 3 साल हो चले हैं. अभी मेरा मामला गवाहियों पर ही अटका है. कब गवाहियां पूरी होंगी, कब बहस होगी, कब मेरा फैसला होगा और कब मुझे न्याय मिलेगा. यह ‘कब’ मेरे सामने नाग की तरह फन फैलाए खड़ा है और मैं बेबस, सिर्फ लाचार हो कर उसे देख भर सकती हूं, इस ‘कब’ के जाल से निकल नहीं सकती.

वैसे मन में रहरह कर कई बार यह खयाल आता है कि शादीब्याह जब मसला बन जाए तो फिर औरतमर्द के रिश्ते की अहमियत ही क्या है? रिश्तों की आंच न रहे तो सांसों की गरमी सिर्फ एकदूसरे को जला सकती है, उन्हें गरमा नहीं सकती.

आपसी बेलागपन के बावजूद मेरा नारी स्वभाव हमेशा इच्छा करता रहा सिर पर तारों सजी छत की. मेरी छत मेरा वजूद था, मेरा अस्तित्व. बेशक, इस का विश्वास और स्नेह का सीमेंट जगहजगह से उखड़ रहा था फिर भी सिर पर कुछ तो था पर मेरे न चाहने पर भी मेरी छत मुझ से छीन ली गई, मेरा सिर नंगा हो गया, सब उजड़ गया. नीड़ का तिनकातिनका बिखर गया. प्रेम का पंछी दूर कहीं क्षितिज के पार गुम हो गया. जिस ने कभी मुझ से प्रेम किया था, 2 नन्हेनन्हे चूजे मेरे पंखों तले सेने के लिए दिए थे, उसे ही अब मेरे जिस्म से बदबू आती थी और मुझे उसे देख कर घिन आती थी.

अब से कुछ साल पहले तक मैं मिसेज वर्मा थी. 10 साल की परिस्थितियों की मार ने मेरे शरीर को बज्र जैसा कठोर बना दिया. अब तो गरमी व सर्दी का एहसास ही मिटने लगा है और भावनाएं शून्यता के निशान पर अटक गई हैं. लेकिन मेरे माथे की लाल, चमकदार बिंदी जब दुनिया की नजरों में धूल झोंक रही होती, मैं अकसर अपनी आंखों में किरकिरी महसूस किया करती.

उस दिन भी खूब जोरों की बारिश हुई थी. भीतर तक भीग जाने की इच्छा थी पर उस दिन बारिश की बूंदें, कांटों की चुभन सी पूरे जिस्म को टीस गईं और दर्द से आत्मा कराह उठी थी. मैं ने अपने बिस्तर पर, अपने अरमानों की तरह किसी और के कपड़े बिखरे देखे थे, मेरा आदमी, अपनी मर्दानगी का झंडा गाड़ने वाला पुरुष, हमेशा के लिए मेरे सामने नंगा हो चुका था.

‘‘हरामखोर तेरी हिम्मत कैसे हुई कमरे में इस तरह घुसने की?’’ शराब के भभके के साथ उस के शब्द हवा में लड़खड़ाए थे. मैं ने उन शब्दों को सुना. उस की जबान और मेरी टांगें लड़खड़ा रही थीं. मुझे लगा, जिस्म को अपने पैरों पर खड़ा करने की सारी शक्ति मुझ से किसी ने खींच ली थी. बड़ी मुश्किल से 2 शब्द मैं ने भी उत्तर में कहे थे, ‘‘यह मेरा घर है…मेरा…तुम ऐसा नहीं कर सकते.’’

इस से पहले कि मैं कुछ और कहती, देखते ही देखते मेरे जिस्म पर बैल्ट से प्रहार होने लगे थे. दोनों बच्चे मुझ से चिपके सिसक रहे थे, उन का कोमल शरीर ही नहीं आत्मा भी छटपटा रही थी.

इस के बाद बच्चों को सीने से लगाए मैं जिंदगी की अनजान डगर पर उतर आई थी. मेरी बेटी जो तब छठी में पढ़ती थी, आज 12वीं जमात में है, बेटा भी 8वीं की परीक्षा की तैयारी में है. उन दिनों मेरे बालों में सफेदी नहीं थी लेकिन आज सिर पर बर्फ सी गिरी लगती है. आंखों के ऊपर मोटे शीशे का चश्मा है. पीठ तब कड़े प्रहारों और ठोकरों से झुकती न थी लेकिन आज दर्द के एहसास ने ही बेंत की तरह उसे झुका दिया है. सच, यादें कितना निरीह और बेबस कर देती हैं इनसान को.

कुछ महीनों के बाद बातचीत, रिश्तेदारियां, सुलहसफाई और समझौते जैसी कई कोशिशें हुईं, पर विश्वास का कागजी लिफाफा फट चुका था, प्रेम की मिसरी का दानादाना बिखर गया था. बाबूजी का मानना कि आदमी का गुस्सा पानी का बुलबुला भर है, मिनटों में बनता, मिनटों में फूटता है, झूठ हो गया था. अकसर पुरुष स्वभाव को समझाते हुए कहते, ‘देख बेटी, मर्द कामकाज से थकाहारा घर लौटता है, न पूछा कर पहेलियां, उसे चिढ़ होती है…उसे समझने की कोशिश कर.’

मैं अपने बाबूजी को कैसे समझाती कि मैं ने इतने साल किस तरह अनसुलझी पहेलियां सुलझाने में होम कर दिए. सीने में बैठा अविश्वास का दर्द, बीचबीच में जब भी टीस बन कर उठता है तो लगता है किसी ने गाल पर तड़ाक से थप्पड़ मारा है.

मेरे, मेरे बच्चों और मेरे अम्मांबाबूजी के लंबे इंतजार के बाद भी कोई मुझे पीहर में बुलाने नहीं आया. मैं अमावस्या की रात के बाद पूर्णिमा की ओर बढ़ते चांद के दोनों छोरों में अकसर अपनी पतंग का माझा फंसा, उसे नीचे उतारने की कोशिश करती, लेकिन चांद कभी मेरी पकड़ में नहीं आया. मेरा माझा कच्चा था.

मेरी बेटी नींद से उठ कर अकसर अपनी बार्वी डौल कभी राह, कभी अलमारी के पीछे तो कभी अपने खिलौनों की टोकरी में तलाशती और पूछती, ‘‘मां, हम अपने पुराने घर कब जाएंगे?’’

उस के इस सवाल पर मैं सिहर उठती, ‘‘हाय, मेरी बेटी…भाग्य ने अब तुझ से तेरी बार्बी डौल छीन कर ऐसे अंधे कुएं में फेंक दी है, जहां से मैं उसे ढूंढ़ कर कभी नहीं ला सकती.’’

बेटी चुप हो जाती और मैं गूंगी. इसी तरह मेरी मां भी गूंगी हो जातीं जब मैं पूछती, ‘‘अम्मां, आप ने मेरे बारे में क्या सोचा? मैं क्या करूं, कहां जाऊं? मेरे 2 छोटेछोटे बच्चे हैं, इन को मैं क्या दूं? प्राइवेट स्कूल की टीचर की नौकरी के सहारे किस तरह काटूंगी पहाड़ सी पूरी जिंदगी?’’

मां की जगह कंपकंपाते हाथों से छड़ी पकड़े, आंखों के चश्मे को थोड़ा और आंखों से सटाते हुए बाबूजी, टूटी बेंत की कुरसी पर बैठते हुए उत्तर देते, ‘‘बेटी, अब जो सोचना है वह तुझे ही सोचना है, जो करना है तुझे ही करना है…हमारी हालत तो तू देख ही रही है.’’

ठंडी आह के साथ उन के मन का गुबार आंखों से फूट पड़ता, ‘समय ने कैसी बेवक्त मार दी है तोषी की अम्मां…मेरी बेटी की जिंदगी हराम कर दी, इस बादमाश ने.’

बस, इसी तरह जिंदगी सरकती जा रही थी. एक दिन सर्द हवा के झोंकों की तरह यह खबर मेरे पूरे वजूद में सिहरन भर गईं कि फलां ने दूसरी शादी कर ली है.

‘शादी, यह कैसे हो सकता है? हमारा तलाक तो हुआ ही नहीं,’ मैं ने फटी आंखों से एकसाथ कई सवाल फेंक दिए थे. लग रहा था कि पांव के नीचे की धरती अचानक ही 5-7 गज नीचे सरक गई हो और मैं उस में धंसती चली जा रही हूं.

अम्मां और बाबूजी ने फिर हिम्मत बंधाई, ‘उस के पास पैसा है, खरीदे हुए रिश्ते हैं, तो क्या हुआ, सच तो सच ही है, हिम्मत मत हारो, कुछ करो. सब ठीक हो जाएगा.’

मैं ने जाने कैसी अंधी उम्मीद के सहारे अदालत के दरवाजे खटखटा दिए, ‘दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो, मुझे न्याय दो, मेरा हक दो…झूठ और फरेब से मेरी झोली में डाला गया तलाक मेरी शादी के जोड़े से भारी कैसे हो सकता है?’ मैं ने पूछा था, ‘मेरे बच्चों के छोटेछोटे कपड़े, टोप, जूते और गाडि़यां, तलाक के कागजी बोझ के नीचे कैसे दब सकते हैं?’

मैं ने चीखचीख कर, छाती पीटपीट कर, उन झूठी गवाहियों से पूछा था जिन्होंने चंद सिक्कों के लालच में मेरी जिंदगी के खाते पर स्याही पोत दी थी. लेकिन किसी ने न तो कोई जवाब देना था, न ही दिया. आज अपने मुकदमे की फाइल उठाए, कचहरी के चक्कर काटती, मैं खुद एक मुकदमा बन गई हूं. हांक लगाने वाला अर्दली, नाजिर, मुंशी, जज, वकील, प्यादा, गवाह सभी मेरी जिंदगी के शब्दकोष में छपे नए काले अक्षर हैं.

आजकल रात के अंधेरे में मैं ने जज की तसवीर को अपनी आंखों की पलकों से चिपका हुआ पाया है. न्यायाधीश बिक गया, बोली लगा दी चौराहे पर उस की, चंद ऊंची पहुंच के अमीर लोगों ने. लानत है, थू… यह सोचने भर से मुंह का स्वाद कड़वा हो जाता है.

भावनाओं के भंवर में डूबतीउतराती कभी सोचती हूं, मेरा दोष ही क्या था जिस की उम्रकैद मुझे मिली और फांसी पर लटके मेरे मासूम बच्चे. न चाहते हुए भी फाड़ कर फेंक देने का जी होता है उन बड़ीबड़ी, लालकाली किताबों को, जिन में जिंदगी और मौत के अंधे नियम छपे हैं, जो निर्दोषों को जीने की सजा और कसूरवारों को खुलेआम मौज करने की आजादी देते हैं. जीने के लिए संघर्ष करती औरत का अस्तित्व क्यों सदियों से गुम होता रहा है, समाज की अनचाही चिनी गई बड़ीबड़ी दीवारों के बीच?

ये प्रश्न हर रोज मुझे नाग बन कर डंसते हैं और मैं हर रोज कटुसत्य का विषपान करती, विषकन्या बनने का सपना देखती हूं.

आसमान में बादल का धुंधलका मुझे बोझिल कर जाता है लेकिन बादलों की ही ओट से कड़कती बिजली फिर से मेरे अंदर उम्मीद जगाती है जीने की, अपनी अस्मिता को बरकरार रखने की और मैं बारिश में भीतर तक भीगने के लिए आंगन में उतर आती हूं.

लेखक – निर्मलविक्रम

Hindi Story : जड़ें – आशीष और विनी की रिश्तों की क्या थी मजबूत जड़ें

Hindi Story : टेलीफोन की घंटी बहुत देर से बज रही थी. विनी बाथरूम में थी. वह बिना नहाए ही बाथरूम से निकली, रिसीवर को उठा कर जैसे ही उस ने कान पर ला कर ‘हैलो’ कहा, एक ऐसी आवाज उस के कानों में पड़ी जो बड़ी पहचानी सी थी परंतु फिर भी पहचान के घेरे में नहीं आ पा रही थी.

‘‘हैलो…कौन?’’ उस  ने बेसब्री से कहा.

‘‘विनी दीदी…नहीं पहचाना, नमस्ते…लगता है आप भूल गई हैं,’’ ये आवाज विनी को कई वर्ष पीछे धकेल कर ले गई.

‘‘अरे, राजू? कहां से बोल रहे हो भाई?’’ उस के मुख पर हर्षोल्लास पसर गया.

‘‘मैं अमेरिका से बोल रहा हूं…’’ आवाज खनक रही थी, ‘‘आप का आशीर्वाद है दीदी. इसीलिए यह सबकुछ हो सका. मैं ने यहां घर बना लिया है, दीदी. अपनेआप पर विश्वास नहीं होता. पता नहीं मैं यह सबकुछ कैसे कर पाया.’’

‘‘हम कहां कुछ करते हैं, राजू? हम तो माध्यम हैं न? हमें तो सिर्फ गुमान रहता है कि हम ने किया, हम करते हैं…’’ विनी आदत के अनुसार अपना फलसफा झाड़ना न भूली.

‘‘यही बातें सुनने को मेरा मन बेचैन रहता है, दीदी. यहां सबकुछ है, हर सुखसुविधा है पर वह बात नहीं जो वहां पर थी. और सब से बड़ी बात यहां विनी दीदी नहीं हैं…’’

‘‘अच्छा, अच्छा क्यों अपना बिल बढ़ा रहा है? मुंबई से तो कभी बात भी कर लेता था पर वहां जा कर तो भूल ही गया अपनी विनी दीदी को,’’ उस ने उलाहना दे कर बात बदलने का प्रयास किया.

‘‘नहीं, दीदी, भूलता तो आप को फोन कैसे करता. मेरी इच्छा थी कि पहले कुछ बन जाऊं तब आप को बताऊंगा कि मैं कुछ कर पाया. संस्कार तो आप से ही पाए हैं मैं ने. जड़ें मेरी वहां पर ही हैं, अपनी जड़ों से अलग हो कर कोई पेड़ पनप सकता है क्या? फिर मेरा बोधिवृक्ष तो आप हैं. मैं ने आप को पत्र लिखा है, दीदी.’’

‘‘पता नहीं क्याक्या बोल रहा है. चल, बच्चों को व बहू को मेरा प्यार देना, कभीकभी याद कर लिया करना अपनी विनी दीदी को…बाय…’’

विनी ने रिसीवर रख दिया. दरअसल, उस की भी आंखें भर आई थीं. वह धम्म से सोफे पर बैठ गई और अपने अतीत में विचरण करने लगी.

विनी जब विवाह कर के गुजरात आई थी तब राजू 8-10 वर्ष का था. धीरेधीरे राजू विनी के पास आने लगा. सामने नीचे वाले फ्लैट में ही वह रहता था. तनु को देखदेख कर बहुत खुश होता वह, कभी कहता कि कितना गोरा है, कितना सुंदर…वह उसे हर समय घुमाने के चक्कर में रहता. साल भर का होतेहोते तनु अपनी मां से अधिक राजू को पहचानने लगा था. विनी को भी बड़ी सुविधा होती.

राजू के परिवार में 4 भाई, 1 तलाकशुदा बहन व उस का बेटा और मातापिता थे. हर चीज उसे सब से कम व बची हुई ही मिलती. राजू के मन में एक ‘कांप्लेक्स’ आ गया था. एक बार राखी के दिन ऊपर आ गया. बोला, ‘दीदी, आप मुझे राखी बांधेंगी?’ विनी को उस का दीदी कहना बड़ा प्यारा लगता.

‘तुम्हारी तो बहन है न, राजू?’ विनी ने पूछा था.

‘हां, है न. पर मुझे राखी बंधवानी है. आप बांधेंगी न?’ वह राखी भी साथ ले कर आया था.

‘लाओ,’ विनी ने राखी उस के हाथ से ले कर उसे बांधी और टीका कर के उस के मुंह में मिठाई रख दी.

विनी उत्तर प्रदेश से गुजरात आई थी. वहां की प्रथा के अनुसार वह हर रक्षाबंधन को जवे, सेंवई बनाती. राजू ने दूध के जवे खाए तो उस का मन बागबाग हो गया. फिर वह हर वर्ष आ कर राखी बंधवाता और बड़ा सा कटोरा भर कर जवे खाता. विनी को न जाने क्यों उसे खाते देख कर एक अजीब तरह का सुख मिलता.

2-3 वर्ष बाद एक राखी के दिन राजू अचानक ही रोंआसा हो उठा था.

‘क्या बात है, राजू?’ विनी ने प्यार से पूछा.

‘कुछ नहीं, दीदी,’ आंसू आ कर उस की पलकों पर ठहर गए, ‘मैं आप को कुछ नहीं दे पाता हूं…’ कहतेकहते वह रो पड़ा.

‘बड़ा पागल है तू. क्या चाहिए मुझे. प्यार नहीं करता अपनी दीदी को?’

‘आप इतनी अच्छी क्यों हैं, दीदी? मुझे घर में चाय नहीं मिलती तो मैं आप के पास चला आता हूं, कुछ खाना

हो तो आप बना देती हैं, गरमगरम.

मेरी मां तो इतना कुछ नहीं करती

मेरे लिए.’

‘देख राजू, मां के पास कितना काम है करने के लिए. वह थक जाती हैं न. फिर तेरा मन जो कुछ खाने का होता है तू मेरे पास आता है, मैं बना देती हूं, क्या फर्क पड़ता है. मां तो बेटा मां ही होती है. तुम्हारी जड़ें उस में होती हैं. मां के लिए गलत कभी नहीं सोचना,’ कह कर विनी ने उस का माथा चूम लिया.

‘दीदी, मैं आप के लिए कुछ लाया हूं,’ एक दिन सहमते हुए उस ने रक्षाबंधन का तोहफा जेब से निकाल कर उस की हथेली पर रख दिया. यह एक छोटी सी सुंदर चांदी की डिबिया थी जिस पर एक सुंदर सी तसवीर बनी हुई थी.

‘ये कहां से लाया, राजू…’ विनी चौंकी, ‘मां की है न…बोल?’

‘हां.’

‘मां को पता है…?’

उस ने नहीं में सिर हिलाया.

‘गलत है न, बेटा. यह तो गलत काम हुआ. तू मुझे प्यार करता है न, वही तेरा गिफ्ट है. चल, मां की अलमारी में रख कर आ. रख देगा या मैं चलूं तेरे घर?’ विनी का माथा ठनकने लगा था.

‘नहीं दीदी, मैं रख दूंगा,’ उस ने धीरे से होंठ हिलाए.

‘पक्का?’

‘हां.’

राजू चला गया. पर उस के बाद जब भी वह आता विनी उसे अच्छीअच्छी बातें सिखाने का प्रयास करती.

उस ने पति से कह कर उन के व्यवसाय में उसे लगा दिया.

राजू ने काम के साथसाथ ही तकनीकी काम सीखना भी शुरू कर दिया था. उस के लिए आर्थिक सहायता भी विनी व उस के पति ने दी थी.

आज वह एक कुशल कारीगर बन अमेरिका पहुंच गया था. विनी को अच्छा लगना स्वाभाविक ही था. छोटे से छुईमुई के पौधे को मजबूत पेड़ के रूप में बढ़ते देख उसे बहुत खुशी हुई.

‘‘पोस्टमैन,’’ डाकिया ने डोरबेल का स्विच दबाते हुए जोर से कहा.

घंटी की आवाज से उस की तंद्रा भंग हुई और वह हड़बड़ाती हुई मेनगेट पर आई. डाकिए ने एक लिफाफा विनी को पकड़ाया और चलता बना.

आज 10-15 दिन बाद उसे राजू का पत्र मिला था. लिखा था :

स्नेहमयी, प्यारी दीदी,

चरण स्पर्श.

जीवन के जिस मोड़ पर आप से सहारा मिला उसे शब्दों में कैसे कहूं? आप लोगों की स्मृति सदा ही बनी रहती है. दीदी, यहां आ गया हूं क्योंकि इस संसार में जीने के लिए पूरे परिवार को धन की आवश्यकता होती है. आप से बहुत छोटा हूं परंतु अब तक जो भी अनुभव हुए उन के अनुसार लगा कि अगर ‘हैंड टू माउथ’ रहा तो कोई मुझे पूछेगा तक नहीं. नहीं जानता आप से किन जन्मों का संबंध है. पर दीदी, प्रार्थना करूंगा, आने वाले जन्मों में आप के पेट से जन्म लूं. आप मुझे अपना नाम दे सकें और दे सकें वे संस्कार जिन से मैं एक सही इनसान बन सकूं. यहां आ कर धन कमाना बहुत बड़ी सफलता नहीं है, दीदी, सफलता तब होगी जब मैं आप के दिए हुए नियम व संस्कारों को सहेज कर रख सकूंगा. आशीर्वाद दीजिए, दीदी. बच्चों को मेरा स्नेह व अंकल को सादर चरण स्पर्श…

आप का अपना, राजू.

विनी पत्र हाथ में पकड़े उस गुजराती बच्चे की भावनाओं को तोलती रह गई. उस की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी मानो अपने छोटे भाई पर आशीषों की बरखा कर रही हो. उस का मन संतुष्टि एवं प्रसन्नता से भर उठा था. बहुत गहरी, मजबूत जड़ें थीं रिश्तों की.

Hindi Story : पिपासा – क्या कमल की रहस्यमयी मौत का खुलासा हुआ

Hindi Story : सुबह के तकरीबन 9 बजे होंगे. भैंसों को चारासानी, पानी कर के दूध दुह कर ग्राहकों को बांट कर मदन खाट पर जा कर लेट गया था. पल दो पल में ही धूप उस के बदन पर लिपट कर अंगअंग सहला कर गरमाहट बढ़ाने लगी. मदन को गुदगुदी सी होने लगी थी. वह जैसे अपनी दोनों बांहों में धूप को समेट कर हौले से मुसकरा उठा.

तीस साल का मदन इतना भी रूखा या पत्थरदिल नहीं था, मगर अभी तक किसी को अपने दिल की बात कह कर अपना बना ही नहीं सका था.

मदन का पूरा बदन धूप की शरारतों से इठला ही रहा था, तभी अचानक किसी ने बाहर खटखट की आवाज की. आवाज सुन कर मदन चौंक गया.

‘अब कौन आया होगा?’ यह सवाल खुद से करता हुआ वह झट से करवट बदल कर पलटा और खाट पर से उठ कर जमीन खड़ा हुआ. जल्दी से वह बाहर गया, तो देखते ही पहचान गया.

“अरे, चमेली तुम…?”

“हां, मैं चमेली,” कह कर उस युवती ने अपने पास खड़े 4-5 बरस के बालक की कलाई को झिंझोड़ कर कहा.

चमेली मदन की दूर की रिश्तेदार थी. उस का विवाह जिला गाजियाबाद में हुआ था. और इस समय कुछ तो ऐसा हुआ था कि सारी दुनिया छोड़ कर वह बस मदन के दरवाजे पर खड़ी थी.

मदन ने उसे भीतर बुला लिया. कुछ ही देर बाद मदन को बाहर कुछ आवाजें सुनाई देने लगी थीं. लोगों में खुसुरफुसुर होने लगी थी. पर, मदन अपनी मेहनत पर जीने वाला स्वाभिमानी युवक किसी बात से नहीं डरता था और न ही किसी की परवाह करता था.

चमेली ने भीतर आ कर मदन की तरफ याचनाभरी निगाह से देखा. इस से पहले मदन कुछ कहता, वह झुक कर उस के पैरों से लिपट गई.

चमेली के इस तरह लिपटते देख मदन को अभीअभी सेंकी हुई धूप की गरमाहट दोबारा महसूस होने लगी और वह रोमांचित सा हो रहा था, पर उधर इस सब से बेखबर चमेली उस से सुबकसुबक कर बोली, “मेरा पति हर बात पर शक करता था. मैं वहां से भाग आई. अब मैं वापस लौट कर नहीं जाना चाहती. आप मुझे अपनी शरण में ले लो, तो बची उम्र भी जैसेतैसे काट लूंगी.”

मदन उस के लगातार स्पर्श से यों भी मदहोश सा हुआ जा रहा था. वह अपनेआप को सहज करने की कोशिश करने लगा और उस ने बालक को प्यार से पुचकार कर कहा, “आओ ना… मेरे पास आओ.”

मदन के शब्दों ने उस बालक पर जादू सा काम किया. वह बालक शायद जन्मों से इस मनुहार की ही तो कामना कर रहा था, प्यार का संकेत मिला और वह मदन की छाती से लिपट गया. मदन ने आंखें बंद कर लीं. उस को एक पल के लिए ऐसा लगा, जैसे चमेली ने आ कर उसे जकड़ लिया हो.

कुछ पल के लिए वहां खामोशी सी छाई रही. पैरों पर चमेली और गोदी में मासूम बालक था. मदन इस आनंद को छक कर भोग रहा था.

अचानक चमेली ने उठ कर कहा,”कहीं आप को कोई दिक्कत तो नहीं.”

“अरे, नहीं. तुम आराम से यहां रहो,” मदन ने अपनी आवाज में प्यार छलकाते हुए कहा, तो चमेली के बदन में जैसे बिजली सी दौड़ गई. वह रास्ते की थकान भूल कर कच्चे मकान को देखती रही और इधरउधर जा कर उस ने रसोई खोज ली.

मदन ने कहा, “तुम थकी हुई हो. मैं कुछ चायदूध गरम करता हूं.”

चमेली मदन की ओर देख कर जोर से बोली, “बस, अब मैं सब कर लूंगी.”

मदन यह सुन कर निश्चिंत हो गया और वह बालक के साथ खेलने लगा.

चमेली जरा सी देर में चाय, दूध सब तैयार कर लाई. चमेली और मदन चाय की चुसकियां लेने लगे. बालक दूध का गिलास गटागट पी गया और शरीर में ताकत आते ही यहांवहां दौड़ने लगा.

मदन का सूना घर किलकारी से गूंज उठा, जैसे कोई उत्सव हो.

मदन के इस कच्चे मकान में रसोई और गोदाम के अलावा 3 कमरे और भी थे. एक कमरा चमेली ने ले लिया. इस दौरान 2-4 दिन गांव के लोगों ने किसी न किसी बहाने मदन के आंगन की ताकझांक भी कर ली. पर आखिरकार सब लोग समझ गए कि चमेली मदन की शरणागत है, और मदन को इस मामले में किसी की राय, सलाहमशवरा आदि कतई नहीं चाहिए.

चमेली को आए 7-8 दिन हो गए थे. वह अपने कच्चे मकान के उसी कमरे मे रहता, जहां चमेली रहती.

मदन चमेली के साथ जन्नत सा सुख पा रहा था, और वह कमरा मदन को किसी परीलोक से कम न लगता था. अब चमेली ने इतना प्यार लुटा दिया, तो मदन भी पीछे नहीं रहा. शहर से बादाम, काजू, अखरोट, कपड़ेलत्ते, मखमली बिस्तर और कई खिलौने ला कर उस ने चमेली के बालक को निहाल कर दिया था.

मदन ने उस बालक का नाम रखा था कमल. चमेली को कमल नाम इतना भाया कि वह अपने इस बालक का असली नाम बिलकुल ही भूल गई.

लगभग एक महीना हो गया था और अब हालात इतने हसीन थे कि चमेली सुबहशाम कुछ नहीं सोचती थी, जब भी तड़प कर मदन पुकार लगाता, चमेली उस के लिए गलीचा बनने में पलभर की देरी नहीं करती थी. चमेली ने तो उस का पुनर्जागरण कर दिया था. चमेली उस की मांग पर उफ न करती, तो मदन ने भी उसे सिरआंखों पर बिठाया.

इन दिनों मदन को यह पूरी दुनिया जैसे फूलों का बाग लगती थी. चमेली दो समय भोजन पकाती और बाकी का वक्त मदन उस को एक तिनका तक न तोड़ने देता था. भैसों का गोबर उठाने, वहां साफसफाई करने और रसोई के सब छोटेबड़े बरतन वह खुद खुशीखुशी मांजता था.

चमेली ने भी गांव में सहेलियां बना ली थीं. जब मदन गांव से बाहर होता तो चमेली का जी उचटने लगता और कभी कमल को ले कर तो कभी उस को सुला कर वह यहांवहां, इधरउधर आनेजाने लगी.

एक दिन मदन ने कमल को गांव की पाठशाला में दाखिला दिला दिया, वहीं सुबह दूध और दोपहर को बढ़िया खाना मिलता था. चमेली अब और खूबसूरत हो गई थी.

3 महीने गुजर गए. एक दिन मदन को सदमा लगा, जैसे वह आसमान से गिरा. हुआ यों कि चमेली रातोंरात गायब हो गई. खूब पता लगाया तो खबर मिली कि वह बगल गांव के एक छोरे के संग मुंबई भाग गई. दोनों अपनी मरजी से गए थे और चमेली मदन के घर से एक रुपया तक न ले गई, बस उस के दो समय के कपड़े वहां नहीं थे. घर पर सब सामान सहीसलामत पा कर मदन ने चैन की सांस ली, मगर अब वह और कमल अकेले रह गए.

चमली उसे धोखा दे गई, इसीलिए शोक करना मूर्खता ही होती. पर, जीवट वाले मदन ने हार नहीं मानी और उस ने कमल को ही अपना जीवन मान लिया.

मदन उसे खुद स्कूल छोड़ने और लाने जाता, बाकी समय उस की भैंसें तो थीं ही, जो उस को बिजी रखती थीं.

हौलेहौले मदन और बालक कमल एकदूजे की छवि बनते गए. बालक कमल दस वर्ष का हुआ, तो उस को नईनई बातें पता लगीं. वह पढ़ने में अच्छा था और मेवे, फलफूल खा कर मजबूत शरीर का धावक भी था.

एक दिन कमल मदन से सैनिक स्कूल में पढ़ने की जिद करने लगा. मदन ने उस की पूरी बात सुनी. मदन को कोई दिक्कत नहीं थी. यह तो गर्व की बात थी. मदन ने खुशीखुशी दौड़भाग कर सैनिक स्कूल का प्रवेशफार्म भर दिया. परीक्षा में कमल का चयन हो गया. मदन उस को छात्रावास छोड़ कर वापस लौटा और 1-2 दिन बेचैन रह कर फिर से खुद को यहांवहां उलझा कर भैसों के काम में मन लगाने लगा.

कमल और चमेली दोनों ही बारीबारी से मदन के सपनों में आते थे. वैसे, कमल की तो नियम से चिट्ठी और फोन भी आते थे. 2 महीने तक तो लंबे अवकाश में कमल उस के पास आ कर रहा.

कमल मदन को सैनिक स्कूल के कितने किस्से सुनाता रहता था. मदन को लगता कि चलो, जीवन सफल हो गया.

समय पंख लगा कर उड़ता रहा. कमल जब 14 वर्ष का हुआ, तो उसे वहां पर मेधावी छात्र की छात्रवृत्ति मिलने लगी. अब वह पढ़नेलिखने के लिए मदन पर कतई निर्भर नहीं था.

मदन इस साल इंतजार करता रहा, पर न तो कमल खुद ही आया और न ही उस का फोन आया. अब तो उस के चिट्ठीफोन आने सब बंद हो गए थे. मदन को अब कुछ अवसाद सा रहने लगा.

पर, वह चमेली के धोखे को याद कर के कमल का यह व्यवहार झेल गया. अब उस को काम करने में आलस आने लगा था, खासतौर पर भोजन पकाने में, इसलिए कुछ सोच कर उस ने घरेलू काम में मदद के लिए एक कामवाली रख ली. वह मदन से कुछ अधिक उम्र की थी, और खाना बनाना, कपड़े धोना वगैरह सब काम करने लगी.

एक दिन खाट पर लेटा मदन सोच रहा था कि आज कमल होता तो 20 बरस का होता. और चमेली… चमेली कहां होगी, यही सोचते हुए वह अचानक खाट से उठ बैठा, तो सामने कामवाली को खड़ा पाया.

वह कामवाली एक गिलास चाय बना कर ले आई थी. मदन की आंख से आंसू बह रहे थे. उस ने नजदीक जा कर वह आंसू अपने आंचल से पोंछ दिए और मदन अचानक ही एकदम भावुक सा हो उठा. उस ने संकेत से कुछ याचना की, फिर दोनों गले लग कर काफी देर तक यों ही बैठे रहे.

मदन बहुत ही कोमल दिल वाला और बड़ा ही भावुक है, यह बात इन 3 महीनों में वह अनुभवी स्त्री भांप गई थी.

अब कुछ सिलसिला यों बनने लगा कि वह कामवाली चमेली के उस कमरे में ले जा कर मदन को कभीकभी सहला दिया करती, तो कभी प्यार से पुचकार देती और कभीकभी मदन के आग्रह पर सारा काम यों ही रहने देती. बस मदन को छाती से चिपटा कर उस का दुखदर्द पी जाती थी. उस दिन भोजन मदन पकाता और एक ही थाली में दोनों थोड़ाथोड़ा खा लेते, पर पूरे तृप्त हो जाते थे.

इसी तरह एक साल और गुजर गया. मदन अब फिर से आनंद में रहने लगा था. गाव वालों की खुसुरफुसुर और ताकझांक चल रही थी. पर, इस से वह न तो कभी घबराया था और न ही आगे डरने वाला था. उस की कामवाली तो अपने खूनपसीने की रोटी खा रही थी. वह किसी अफवाह पर कान तक न देती थी. हर समय मौज में रहती और मदन की मौज में तिल भर कमी न आने देती थी.

एक दिन सुबहसवेरे वह मदन को सहला कर चाय उबाल रही थी कि एक आहट हुई. मदन उठ कर बाहर गया, तो 2 लोग बाहर खड़े थे, एक कमल और गोदी में तकरीबन 2 साल का प्यारा सा बालक.

मदन ने मन ही मन सोचा कि वाह बेटा, नौकरीब्याह सब कर लिया और खबर तक नहीं दी. पर, वह सिर झटक कर अपने विचार बदलने लगा. उस का दयावान मन जाग गया.

मदन को कमल से नाराजगी तो थी, पर नफरत नहीं थी. वह बहुत ही प्यार से उसे भीतर लाया. कमल ने सब रामकहानी सुना दी. वह अफसर हो गया था, पर पत्नी बेवफा निकली. वह किसी रसोइए के साथ भाग गई थी. अब यह नन्हा बालक किस के भरोसे रहेगा, कह कर कमल सुबक उठा.

कुछ देर बाद कमल के हाथों में चाय का गिलास आ गया था और बालक को एक सुंदर पर अधेड़ महिला गोदी में खिला रही थी.

मदन से सौ झूठीसच्ची बातें कर के कमल उसी दिन वापस लौट गया. मदन का जीवन एक बार फिर रौनक से भर उठा था. कितने बरस बीतते गए और बूढ़ा मदन उस बालक को बचपन से किशोरावस्था में जाता देख रहा था. यह बालक तो कमल से कई गुना मेधावी था, पर वह गांव की मिट्टी से बहुत लगाव रखता था. गांव छोड़ना ही नहीं चाहता था. लगभग छप्पन बरस की बूढ़ी हो चली कामवाली अम्मां अब मदन के पास स्थायी रूप से रहने लगी थी.

अब मदन और वो उस बालक का जीवन आधार थे. उन का गांव तो अब बहुत बेहतरीन हो गया था. बहुत सारी सुविधाएं यहां पर थीं. एक दिन मदन अपनी कामवाली के साथ किसी सामाजिक समारोह में गया तो वहां एक फौजी मिला. बातों से बातें निकलीं तो खुलासा हुआ कि वह कमल को जानता था. उस ने कमल की हर काली करतूत बताई और खुलासा किया कि कमल न जाने कितनी औरतें बदल चुका है. वह अफसरों की कमजोर नस का फायदा उठाता है और खुद भी गुलछर्रे उड़ाता है. वह अनैतिक हो चुका है. इतना बुद्धिमान है, पर बहुत ही गलत रास्ते पर है.

मदन चुपचाप सुनता रहा. उस को सुकून मिला कि अच्छा हुआ, जो कमल का बेटा यहां पर नहीं है. सुनता तो कितना परेशान होता.

मदन को इस बात का अंदेशा था क्योंकि कमल ने कभी एक नया पैसा इस बालक के लिए नहीं भेजा, कभी एक फोन तक नहीं किया था.

मदन ने उस फौजी युवक को अपना फोन नंबर दिया और उस का नंबर भी ले लिया.

कुछ सप्ताह और बीत गए. एक दिन सुबहसुबह ही मदन के पास फोन आया कि कमल की किसी रहस्यमयी और अज्ञात बीमारी से अचानक मौत हो गई है.

मदन ने संदेश सुन कर फोन काट दिया. उस ने उस रोज अपना सारा काम उसी तरह से किया जैसे वह पहले किया करता था. बालक भी पाठशाला से लौट कर खापी कर खेलने चला गया. उस दिन मदन की शाम एक सामान्य शाम की तरह गुजरी. मदन ने एक पल को भी कमल का शोक नहीं मनाया. अब कमल और चमेली उस के लिए अजनबी थे.

Hindi Story : आधुनिक श्रवण कुमार की कहानी

Hindi Story : पिछले साल जब मीरा ने समाचारपत्र में एक विदेश भ्रमण टूर के बारे में पढ़ा था तब से ही उस ने एक सपना देखना शुरू कर दिया था कि इस टूर में वह अपने परिवार के साथ वृद्ध मातापिता को भी ले कर जाए. चूंकि खर्चा अधिक था इसलिए वह पति राम और बेटे संजू से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं लेना चाहती थी. उसे पता था कि जब इस बात का पता पति राम को लगेगा तो वह कितना हंसेंगे और संजू कितना मजाक उड़ाएगा. पर उसे इस मामले में किसी की परवा नहीं थी. बस, एक ही उमंग उस के मन में थी कि वह अपने कमाए पैसे से मम्मीपापा को सैर कराएगी.

वह 11 बजने का इंतजार कर रही थी क्योंकि हर रोज 11 बजे वह मम्मी से फोन पर बात करती थी. आज फोन मिलाते ही बोली, ‘‘मम्मी, सुनो, जरा पापा को फोन देना.’’

पापा जैसे ही फोन पर आए मीरा चहकी, ‘‘पापा, आज ही अपना और मम्मी का पासपोर्ट बनने को दे दीजिए. हम सब अगस्त में सिंगापुर, बैंकाक और मलयेशिया के टूर पर जा रहे हैं.’’

‘‘तुम शौक से जाओ बेटी, इस के लिए तुम्हारे पास तो अपना पासपोर्ट है, हमें पासपोर्ट बनवाने की क्या जरूरत है?’’

‘‘पापा, मैं ने कहा न कि हम जा रहे हैं. इस का मतलब है कि आप और मम्मी भी हमारे साथ टूर पर रहेंगे.’’

‘‘हम कैसे चल सकते हैं? दोनों ही तो दिल के मरीज हैं. तुम तो डाक्टर हो फिर भी ऐसी बात कह रही हो जोकि संभव नहीं है.’’

‘‘पापा, आप अपने शब्दकोश से असंभव शब्द को निकाल दीजिए. बस, आप पासपोर्ट बनने को दे दीजिए. बाकी की सारी जिम्मेदारी मेरी.’’

बेटी की बातों से आत्मविश्वास की खनक आ रही थी. फिर भी उन्हें अपनी विदेश यात्रा पर शक ही था क्योंकि वह 80 साल के हो चुके थे और 2 बार बाईपास सर्जरी करवा चुके थे. उन की पत्नी पुष्पा 76 वर्ष की हो गई थीं और एक बार वह भी बाईपास सर्जरी करवा चुकी थीं. दोनों के लिए पैदल घूमना कठिन था. कार में तो वे सारे शहर का चक्कर मार आते थे और 10-15 मिनट पैदल भी चल लेते थे पर विदेश घूमने की बात उन्हें असंभव ही नजर आ रही थी.

वह बोले, ‘‘देखो बेटी, मैं मानता हूं कि तुम तीनों डाक्टर हो पर मेरे या अपनी मां के बदले तुम पैदल तो नहीं चल सकतीं.’’

‘‘पापा, आप पासपोर्ट तो बनने को दे दीजिए और बाकी बातें मुझ पर छोड़ दीजिए.’’

‘‘ठीक है, मैं पासपोर्ट बनने को दे देता हूं. हम तो अब अगले लोक का पासपोर्ट बनवाने की तैयारी में हैं.’’

‘‘पापा, ऐसी निराशावादी बातें आप मेरे साथ तो करें नहीं,’’ मीरा बोली, ‘‘आप आज ही भाई को कह कर पासपोर्ट बनाने की प्रक्रिया शुरू करवा दें. डेढ़ महीने में पासपोर्ट बन जाएगा. उस के बाद मैं आप को बताऊंगी कि हम कब घूमने निकलेंगे.’’

फोन पर बातें करने के बाद हरिजी अपनी पत्नी से बोले, ‘‘चल भई, तैयारी कर ले. तेरी बेटी तुझे विदेश घुमाने ले जाने वाली है.’’

‘‘आप भी कैसी बातें कर रहे हैं. मीरा का भी दिमाग खराब हो गया है. घर की सीढि़यां तो चढ़ी नहीं जातीं और वह हमें विदेश घुमाएगी.’’

‘‘मैं राजा को भेज कर आज ही पासपोर्ट के फार्म मंगवा लेता हूं. पासपोर्ट बनवाने में क्या हर्ज है. बेटी की बात का मान भी रह जाएगा. विदेश जा पाते हैं या नहीं यह तो बाद की बात है.’’

‘‘जैसा आप ठीक समझें, कर लें. अब तो कहीं घूमने की ही इच्छा नहीं है. बस, अपना काम स्वयं करते रहें और चलतेफिरते इस दुनिया से चले जाएं, यही इच्छा है.’’

उसी दिन मीरा ने रात को खाने पर पति राम और संजू से कहा, ‘‘आप लोग इतने दिनों से विदेश भ्रमण की योजना बना रहे थे. चलो, अब की बार अगस्त में 1 हफ्ते वाले टूर पर हम भी निकलते हैं.’’

‘‘अरे, मम्मी, जरा फिर से तो बोलो, मैं आज ही बुकिंग करवाता हूं,’’ बेटा संजू बोला.

राम बोले, ‘‘आज तुम इतनी मेहरबान कैसे हो गईं. तुम तो हमेशा ही मना करती थीं.’’

‘‘उस के पीछे एक कारण था. मैं अपने मम्मीपापा को भी साथ ले कर जाना चाहती थी और इस के लिए मेरे पास रुपए नहीं थे. 1 साल में मैं ने पूरे 1 लाख रुपए जोड़ लिए हैं. अब मम्मीपापा के लिए भी मैं टिकट खरीद सकती हूं.’’

‘‘यह मेरे और तेरे रुपए की बात कब से तुम्हारे मन में आई. तुम अगर अपने मम्मीपापा को साथ ले जाने की बात बोलतीं तो क्या मैं मना करता. 30 साल साथ रहने के बाद क्या तुम मुझे इतना ही जान पाई हो.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है पर मेरे मन में था कि मैं खुद कमा कर अपने पैसे से उन्हें घुमाऊं. बचपन में हम जब भी घूमने जाते थे तब पापा कहा करते थे कि जब मेरी बेटी डाक्टर बन जाएगी तब वह हमें विदेश घुमाएगी. उन की वह बात मैं कभी नहीं भूली. इसीलिए 1 साल में एक्स्ट्रा समय काम कर के मैं ने रुपए जोड़े और आज ही उन्हें फोन पर पासपोर्ट बनवाने को कहा है.’’

‘‘वाह भई, तुम 1 साल से योजना बनाए बैठी हो और हम दोनों को खबर ही न होने दी. बड़ी छिपीरुस्तम निकलीं तुम.’’

‘‘जो मरजी कह लो पर अगर हम लोग विदेश भ्रमण पर जाएंगे तो मम्मीपापा साथ जाएंगे.’’

‘‘तुम ने उन की तबीयत के बारे में भी कुछ सोचा है या नहीं या केवल भावुक हो कर सारी योजना बना ली?’’

‘‘अरे, हम 3 डाक्टर हैं और फिर वे दोनों वैसे तो ठीक ही हैं, केवल ज्यादा पैदल नहीं चल पाते हैं. उस के लिए हम टैक्सी कर लेंगे और जहां अंदर घूमने की बात होगी तो व्हीलचेयर में बैठा कर घुमा देंगे.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम चाहो. तुम खुश तो हम सब भी खुश.’’

पासपोर्ट बन कर तैयार हो गए. 8 अगस्त की टिकटें खरीद ली गईं. थामस नामक टूरिस्ट एजेंसी के सिंगापुर, बैंकाक और मलयेशिया वाले ट्रिप में वे शामिल हो गए. उन की हवाई यात्रा चेन्नई से शुरू होनी थी.

मीरा, राम और संजू मम्मीपापा के पास चेन्नई पहुंच गए थे. मीरा ने दोनों के सूटकेस पैक किए. उस का उत्साह देखते ही बनता था. मम्मी बोलीं, ‘‘तुम तो छोटे बच्चों की तरह उत्साहित हो और मेरा दिल डूबा जा रहा है. हमें व्हीलचेयर पर बैठे देख लोग क्या कहेंगे कि बूढ़ेबुढि़या से जब चला नहीं जाता तो फिर बाहर घूमने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘मम्मी, आप दूसरों की बातों को ले कर सोचना छोड़ दो. आप बस, इतना सोचिए कि आप की बेटी कितनी खुश है.’’

सुबह 9 बजे की फ्लाइट थी. सारे टूरिस्ट समय पर पहुंच चुके थे. पूरे ग्रुप में 60 लोग थे और सभी जवान और मध्यम आयु वर्ग वाले थे. केवल वे दोनों ही बूढे़ थे. चेन्नई एअरपोर्ट पर वे दोनों धीरेधीरे चल कर सिक्योरिटी चेक करवा कर लाज में आ कर बैठ गए थे. वहां बैठ कर आधा घंटा आराम किया और फिर धीरेधीरे चलते हुए वे हवाई जहाज में भी बैठ गए थे. दोनों के चेहरे पर एक विशेष खुशी थी और मीरा के चेहरे पर उन की खुशी से भी दोगुनी खुशी थी. आज उस का सपना पूरा होने जा रहा था.

3 घंटे की हवाई यात्रा के बाद वे सिंगापुर पहुंच गए थे. जहाज से उतर कर वे सीधे बस में बैठ गए जो उन्हें सीधे होटल तक ले गई. विशेष निवेदन पर उन्हें नीचे ही कमरे मिल गए थे.

यहां तक पहुंचने में किसी को भी कोई परेशानी नहीं हुई थी. होटल के कमरे में पहुंच कर मीरा बोली, ‘‘हां, तो मम्मी बताना, अभी आप कहां बैठी हैं?’’

‘‘सिंगापुर में. सच, मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा है. तू ने तो अपने पापा का सपना सच कर दिया.’’

इस पर पापा ने गर्व से बेटी की ओर देखा और मुसकरा दिए. शाम से घूमना शुरू हुआ. सब से पहले वे सिंगापुर के सब से बड़े मौल में पहुंचे. वहां बुजुर्गों और विकलांगों के लिए व्हीलचेयर का इंतजाम था. एक व्हील चेयर पर मम्मी और दूसरी पर पापा को बिठा कर मीरा और संजू ने सारा मौल घुमा दिया. फिर उन्हें एक कौफी रेस्तरां में बिठा कर मीरा ने अपने पति व बेटे के साथ जा कर थोड़ी शापिंग भी कर ली. रात में नाइट क्लब घूमने का प्रोग्राम था. वहां जाने से दोनों बुजुर्गों ने मना कर दिया अत: उन्हें होटल में छोड़ कर उन तीनों ने नाइट क्लब देखने का भी आनंद उठाया.

दूसरे दिन वे सैंटोजा अंडर वाटर वर्ल्ड और बर्डपार्क घूमने गए. शाम को ‘लिटिल इंडिया’ मार्केट का भी वे चक्कर लगा आए. तीसरे दिन सुबह वे सिंगापुर से बैंकाक के लिए रवाना हुए. बैंकाक में भी बड़ेबड़े शापिंग मौल हैं पर ‘गोल्डन बुद्धा’ की मूर्ति वहां का मुख्य आकर्षण है.

5 टन सोने की बनी बुद्ध की मूर्ति के दर्शन मम्मीपापा ने व्हीलचेयर पर बैठ कर ही किए. उस मूर्ति को देख कर सभी आश्चर्यचकित थे. वहां से उन का ग्रुप ‘पटाया’ गया. पटाया का बीच प्रसिद्ध है. यहां तक पहुंचने में भी दोनों बुजुर्गों को कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई. वहां रेत में बैठ कर वे दूसरों द्वारा खेले गए ‘वाटर गेम्स’ का लुत्फ उठाते रहे. बीच के आसपास ही बहुत से मसाज पार्लर हैं. वहां का ‘फुट मसाज’ बहुत प्रसिद्ध है. पापा ने तो वहां के फुट मसाज का भी आनंद उठाया.

रात को वहां एक ‘डांस शो’ था जहां लोकनृत्यों का आयोजन था. डेढ़ घंटे का यह शो भी सब को आनंदित कर गया. 2 दिन बैंकाक में बीते फिर वहां से कुआलालम्पुर पहुंचे. वहां पैटरौना टावर्स, जेनटिंग आइलैंड घूमे. दोनों ‘केबल कार’ में तो नहीं चढ़े, पर साधारण कार में चक्कर अवश्य लगाए. वहां के स्नोवर्ल्ड वाटर गेम्स और थीम पार्क में भी वे नहीं गए. उस दिन उन्होंने होटल में ही आराम किया.

देखते ही देखते 6 दिन बीत गए. 7वें दिन फिर से चेन्नई के एअरपोर्ट पर उतरे और घर की ओर रवाना हुए. उस के बाद मम्मीपापा का पसंदीदा वाक्य एक ही था, ‘‘मीरा और राम तो हमारे श्रवण कुमार हैं जिन्होंने हमें विदेश की सैर व्हीलचेयर पर करवा दी.’’

Hindi Story : कितना झूठा सच

Hindi Story : ‘बेचारी, जीवन भर दुख ही उठाती रही. अब ऊपर से वैधव्य…’

दुख और संवेदना प्रकट करती सब महिलाएं उठ कर चली गईं. रेवा जड़ सी बैठी रही.

‘‘आप चल कर जरा लेटिए. मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ नीना ने आ कर उसे संभाला. बेजान गुडि़या सी रेवा पलंग पर आ कर लेट गई.

कितना झूठा सत्य? जो जीवन भर सर्पदंश सा उस के एकएक क्षण को विषाक्त करता रहा वही आज समुद्र मंथन से निकले गरल घट सा सहस्र धाराओं में बंट कर उसे व्याकुल कर रहा था, पर वह तो शिव नहीं थी जो इसे पी कर भी जीवित रहती. और वह अब जीना चाहती थी. किस के लिए मरे? किन मधुर क्षणों की थाती सहेजे? सोलह शृंगार कर सामाजिक मर्यादा की चिता पर चढ़ कर सती हो जाए? जीवन भर तो जल ही चुकी थी.

इंद्रधनुषी सपनों के रंग अभी सूखने भी न पाए थे कि वीरेन ने उपेक्षा की स्याही फेंक कर उन्हें बदरंग कर दिया था. फिर भी उस ने सजानेसंवारने का कितना प्रयत्न किया था. आंखकान पर  जबरदस्ती भ्रम की मनों रुई का भार डाल कर अंधीबहरी बन जाना चाहा था, परंतु यह भी क्या सहज था?

पागल सी हो कर मरीचिका के पीछे भागती वह सपनों के रंग समेटती, उन्हें क्रम से लगाती, पर वे बारबार उसे छलावा दे जाते, खंडखंड हो कर बिखर जाते और क्षितिज उतना ही दूर दिखता जितना प्रारंभ में था. भागतेभागते वह हांफ गई थी. शाम के ढलते सूरज की तरह घिसटघिसट कर पहुंचे भी तो कुछ हाथ आने वाला नहीं था. वहां बाकी था केवल एक स्याह अंधेरा.

जीवन की संध्या पर गुल्लू की तोतली बातों, पिंकी की हंसी और नन्हे की शरारतों का सलोना सिंदूरी रंग बिखरा हुआ था. यही एक थाती बच रही थी और आज रिश्तेनाते तथा आसपड़ोस की औरतें समझाने आ धमकी थीं कि इस सिंदूरी आभा पर वह वैधव्य की राख उड़ा कर, सामाजिक नियमों का पालन कर उसे गंदला कर ले.

पिछले महीने तार आया था कि वीरेन को दिल का दौरा पड़ा है. बेजान कागज का टुकड़ा लिए वह दीवान पर बैठी रह गई थी. नीना ने आ कर पढ़ा.

‘‘फोन कर के इन को बुलवा लूं क्या?’’

वह समझ नहीं पाई कि सास से और क्या कहे.

पत्थर सी बैठी रेवा जैसे नींद से जागी, ‘‘क्यों? क्या जरूरत है? उसे कुछ कामधाम नहीं है क्या?’’

कहतेकहते तार को तोड़मरोड़ कर एक कोने में फेंक दिया. रसोई में जा कर सांभर को छौंक लगाने लगी. अभी पिंकी स्कूल से आ कर चावलसांभर मांगेगी. सवेरे कह गई थी कि मेरे आने तक बना कर रखना.

‘‘नीना, सांभर पाउडर कहां रखा है?’’

सफेद टाइलों के ऊपर लगी लाल सनमाइका के पटों वाली अलमारी में वह मैटल बाक्स के मसालों वाले डब्बे इधरउधर करने लगी.

नीना ने फिर तार के विषय में कुछ नहीं कहा. बिना कहे ही एक स्त्री दूसरी स्त्री के अंतर की व्यथा जान गई थी. कहनेसुनने को कुछ नहीं रहा.

दोपहर को खाना परोसते समय रेवा रोज की तरह गुल्लू को चावल बिखराने को मना कर रही थी. नन्हे कामिक खोले खाना खा रहा था. हाथ के निवाले में चावल, रोटी कुछ है भी या नहीं, यह देखने की उसे फुरसत नहीं थी. रोज की तरह रेवा ने कामिक छीन कर मेज पर फेंका, ‘‘खाते समय पढ़ने की आदत कब छूटेगी? जब मेदा खराब हो जाएगा?’’

आग्रह कर पिंकी की प्लेट में दोबारा चावलसांभर डालने लगी थी रेवा. घर की दिनचर्या में किसी प्रकार का अंतर नहीं आया था. दोपहर में दादी की बगल में सिमटते गुल्लू ने आग्रह किया था, ‘‘दादीमां, हीरामन तोते की कहानी सुनाओ न.’’

‘‘दोपहर को कहानी नहीं सुनते. रात को सुनाऊंगी. अब घड़ी भर लेटने दे.’’

शाम को जय आया तो घर का वातावरण रोज की तरह सहज था. बच्चे खेलने गए थे. नीना किसी पत्रिका के पन्ने उलट रही थी. मां रसोई में रात के खाने की तैयारी में व्यस्त थी. किसी अनहोनी के घटने का कहीं चिह्न न था.

रात के खाने के बाद ही रेवा ने बात छेड़ी, ‘‘आज कानपुर से तार आया था.’’ बासी अखबार पलटते जय के हाथ रुक गए. उस का सर्वांग जल उठा. बोला कुछ नहीं. केवल आंखों से प्रश्न छलक उठा.

‘‘वीरेन को दिल का दौरा पड़ा है,’’ बिना किसी भावना के ठंडे बरफीले स्वर में रेवा कह गई.

जय चुप था. वह क्या कहे? यह ऐसे व्यक्ति की बीमारी का समाचार था जिस ने उस का व छोटे भाईबहन का बचपन निर्ममता से अभावों की अंधी गलियों में धकेल दिया था. तिरस्कृत मां का असहाय यौवन, दुनिया भर का उपहास और पिता के होते हुए भी पितृविहीन होने का शूल सा चुभता एहसास. सब कुछ उस की आंखों के आगे आ गया.

प्रारंभ में जब बात ढकीछिपी थी तब भी कोईकोई रिश्तेदार या स्कूल का साथी व्यंग्य की पैनी छुरी चुभो देता था, ‘क्यों जय, तुम्हारे पिता ने 2 बीवियां रखी हुई हैं क्या? एक घुमानेफिराने के लिए, दूसरी घर में खाना बनाने के लिए?’

और फिर घिनौने रंग में रंगी तीखी हंसी का फव्वारा. जी में तो आता कि मुंह तोड़ दे कहने वाले का, पर बात सच थी. गुस्सा पी जाना पड़ता. घर आ कर देखता कि मां हर वक्त मूक दीपशिखा सी जलती रहती हैं. पिता घर आने की औपचारिकता सी निभाते थे. स्कूल की फीस, कपडे़, किताबों और पढ़ाई का हालचाल पूछते थे. फीस के लिए चेक काट कर अलमारी में रख देते थे.

पितृत्व यहीं तक सिमट कर रह गया था. घर के खर्चे के लिए मां को महीने का बंधा रुपया देते थे. बस, सब उत्तरदायित्व पूरे हो गए. ये रुपए, चेक जय को अपमान का प्याला लगते

जिसे फिलहाल उतारने के सिवा कोई रास्ता नहीं था. छोटा था तो क्या, सब समझता था.

फिर कैसे उन का व्यवहार एकदम बदल गया. मां को शायद लगा कि सुबह का भूला शाम को घर लौट आया है. पुरानी कड़वाहट भूल कर फिर बौराई गौरैया सी तिनके समेटने लगी थीं, परंतु यह केवल एक छलावा निकला. प्यार के बोलों से युगों से पुरुष स्त्री को भरमाता आया है. भारतीय स्त्री जानबूझ कर इस गर्त में जा गिरती है. मां कहां का अपवाद थीं. जायदाद के कागज कह कर, मां से दूसरे विवाह के लिए स्वीकृति के कागजात पर हस्ताक्षर करवा लिए. बिना पढे़ मां ने हस्ताक्षर कर दिए थे. अंधे विश्वास की दोधारी तलवार तले कट मरीं. अब तो खर्चा, रुपयापैसा भी नहीं मांग सकती थीं.

फिर वह चले गए नए घर में आधुनिका नई पत्नी के साथ, जो उन के साथ पार्टियों में आजा सकती थी. जाते समय दया कर गए कि मकान मां के नाम करवा गए. साल भर का किराया पेशगी भर गए. बाद में दोनों मामा आए. हाथ पटकपटक कर मां पर झुंझलाते रहे, ‘तुम इतनी भोली कैसे बन गईं कि बिना पढे़ हस्ताक्षर कर दिए?’

मां का रोष अपनी मौत स्वयं मर गया था. वहां अंकुरित हो रहा था एक निराला स्वाभिमान.

‘अब जाने भी दो, भैया.’

‘जाने कैसे दूं? हाईकोर्ट तक छीछालेदर करवा देंगे बच्चू की. याद करेंगे.’

‘नहीं. अब यह बात यहीं खत्म करो. कुछ लाभ नहीं,’ मां का स्वर सर्द था.

‘पर बच्चों का खर्चा तो उसे देना ही पडे़गा. उस का परिवार है.’

‘भैया…’ मां चीख पड़ी थीं, ‘बच्चे केवल मेरे हैं अब. किसी की दानदया की भीख पर नहीं पलेंगे. कहीं ऐसा न हो कि दूसरों के सहारे जीना सीख जाएं.’

‘पर रेवा…’ मामा ने समझाना चाहा.

‘जो मेरा था ही नहीं उस के लिए अब कैसी छीनाझपटी?’

मामा के सामने तो मां स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति बनी रही थीं पर जय जानता था कि कितनी रातों को वह नदी के कच्चे कगार सी टुकड़ाटुकड़ा ढहती रही हैं. कन्या पाठशाला की नौकरी के बाद शाम को ट्यूशन. शनिवार तथा रविवार को मां आसपड़ोस का सिलाई का काम ले आती थीं. फिर एक स्वेटर बुनने की मशीन भी रख ली. परित्यक्ता स्त्री और तिरस्कृत होने न मायके गईं न ससुराल. तिलतिल कर जलती हुई बच्चों को अपने कमजोर डैनों में समेटे रही थीं. जय साक्षी रहा है इस पूरी अग्निपरीक्षा का. सीता तो धरती की गोद में समा कर त्राण पा गई थीं पर मां जीवन भर उस अग्नि में तपती कुंदन होती रहीं. मशीन पर झुकी मां को देख कर जय का शैशव इस दलदल से उन्हें बाहर खींचने को कसमें खाता था. इसी इच्छाशक्ति के कारण वह हर कक्षा में अव्वल आता था. महेश को भी वह पढ़ाता था. शोभा की कापियां खोल कर स्वयं जांचने बैठ जाता था.

मां व बच्चों में एक मूक सा समझौता हो गया था जिस की शर्तें सभी एकएक कर पूरी कर रहे थे. इंटरमीडिएट की परीक्षा में जय ने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया. अखबारों में उस के फोटो छपे, टेलीविजन पर उस का साक्षात्कार हुआ.

उस दिन विद्यालय के बाहर नीली फिएट से पिता उतरे. साथ में ‘वह’ भी थीं हाथों में बड़ा सा उपहार का डब्बा लिए.

‘मुझे तुम पर गर्व है, बेटे.’ भारतीय पिता एक योग्य बेटे का बाप होने की सार्वजनिक घोषणा करने का अवसर हाथ से कैसे जाने देता? जय निर्विकार सा उन्हें देखता रहा, जैसे वह कोई अजनबी हों.

इतने वर्षों में अजनबी तो बन ही गए थे. उपहार वाला हाथ हवा में ही लटका रह गया. जय आगे बढ़ गया. चेहरे पर संतुष्टि की मुसकान थी. आज मां के अपमान का दुख कुछ कम हुआ.

शाम को वह घर भी आ धमके. सब के लिए कपडे़, मिठाई, फलों के टोकरे, क्या कुछ नहीं लाए थे. मशीन पर बैठी मैली धोती पहने मां सकुचा सी गईं. जय ने उन्हें आंखों से आश्वासन दिया. बेटा जब बाप के बराबर कद का हो जाए तो मां को कितना आसरा हो जाता है.

‘कैसे आए?’ जय आज घर में मर्द था. बिना बुलाए इस मेहमान की शक्ल देखना भी उसे सहन नहीं हो रहा था. पराए घर में शानदार सूट पहने, अधेड़ अफसर पिता कितना बौना हो उठा था.

‘तुम्हें बधाई देने.’

‘मिल गई.’

‘अब आगे क्या करने का विचार है?’

जय झल्ला उठा, ‘अभी सोचा नहीं है कुछ.’

‘आई.आई.टी. में कोशिश करो.’

‘देखूंगा.’

शोभा उन्हें पहचानती थी. नमस्ते कर अंदर चली गई. साधारण मेहमान समझ कर हमेशा की तरह चाय बना कर ले आई. साथ में मठरी भी थी. जय ने जलती आंखों से उसे घूरा तो सकपका गई. कहां गलती हो गई.

बिना किसी के कहे ही उन्होंने चाय उठा ली. साथ में मठरी कुतरने लगे, ‘तुम ने बनाई है?’

‘बेटी’ कहतेकहते शायद झिझक गए. तभी लट्टू घुमाता महेश आ पहुंचा. उस से स्कूल और पढ़ाई के विषय में पूछने लगे, ‘तुम मेरे पास रहोगे, बेटा?’ चाय पीतेपीते पूछ बैठे.

‘कोई कहीं नहीं जाएगा. सब यहीं रहेंगे जहां आप उन्हें छोड़ गए थे.’

मां का स्वाभिमान दपदप कर जल रहा था. वह घबरा कर उठ खडे़ हुए. कैसे बूढे़ से लगने लगे. चुपचाप आ कर कार में बैठ गए. ड्राइवर ने कार स्टार्ट की. उन का सारा सामान जय ने खुली खिड़की से कार में रख दिया. फिर हाथ झाड़ने लगा. जैसे कूड़ा- करकट झाड़ रहा हो.

‘अब फिर कष्ट न कीजिएगा.’

यहीं सारे संबंध समाप्त कर जय ने हाथ झाड़ लिए. फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा.

बी.ए. पास करने के बाद उस ने बैंक से ऋण ले कर स्वतंत्र व्यवसाय शुरू किया और अब शहर के सफल व्यापारियों में गिना जाता था. कोठी, कार क्या कमी थी अब. शोभा डाक्टरी के अंतिम वर्ष में आ गई थी. महेश पत्रकारिता में जाने का विचार रखता है. अखबारों व पत्रिकाओं में उस के लेख छपने लगे थे.

और मां? घर में 2 नौकरानियां रखी हुई थीं. कभी उन्हें आदेश देतीं, काम करवातीं, कभी स्वयं गेहूं चुनने बैठ जाती थीं.

शोभा की शादी में नानी ने कितना कहा था, ‘अरे पिता को तो बुलवा लो.’ जय भन्ना उठा था, ‘इतने वर्षों तक उन के बिना काम चलाते आए हैं, आज भी चला लेंगे.’

‘पर कन्यादान कौन करेगा?’

‘मां जो हैं.’

बात यहीं समाप्त हो गई थी.

फिर जय की शादी भी हो गई. पिछली बातें याद कर लोग हंसते, पर धनी व्यवसायी को लड़कियों की क्या कमी थी?

पहली ही रात जय ने नीना को पूरी कहानी सुना दी. साथ ही चेतावनी भी दे दी, ‘कभी इस घर में अलगाव की बात मत करना, हमें मां के दुखों को कम करना है बढ़ाना नहीं.’

गुल्लू, पिंकी और नन्हे के साथ हसंखेल कर मां के पुराने दिनों के घाव भर रहे थे. वीरेन की बदली होती रही थी. आजकल कानपुर में थे. सेवानिवृत्त हो कर वहीं रहने लगे थे.

आज वर्षों के अनछुए विषय की किरणें बिखेरता यह तार आ पहुंचा था, ‘‘दिल का दौरा पड़ा है वीरेन को. हालत गंभीर है.’’

मां बेटे ने एकदूसरे को देखा. जीवन भर दुखों की डोर में बंधे रहे थे. शब्द बेमानी हो उठे. फिर किसी ने न जाने की बात की, न हालचाल पता करने की इच्छा प्रकट की.

रेवा अब विगत की परतों को कुरेदती भी तो सिवा तिरस्कार के कोई स्मृति हाथ न लगती.

आज एक महीने बाद दूसरा तार आ गया. वीरेन की मृत्यु हो गई थी. उसी का समाचार पा कर औरतें रोनेपीटने, सांत्वना देने आई थीं पर नीना ने उन्हें बाहर खदेड़ कर दरवाजा बंद कर दिया.

अब एक बार कानपुर जाना जरूरी हो गया था. बच्चों को शोभा के पास छोड़ कर सभी कार से निकल गए.

वहां कुहराम मचा हुआ था. रेवा शांत थी. जय, नीना व महेश गंभीर थे. वीरेन की दूसरी पत्नी का चीत्कार गूंज रहा था, ‘‘मुझे किस के सहारे छोड़ गए?’’

रोतीबिलखती स्त्री, अस्तव्यस्त कपडे़. यही प्रौढ़ा क्या उन के अभावग्रस्त पितृविहीन शैशव का कारण थी?

उस दिन स्कूल के बाहर भी तो देखा था. आज जैसे सोने का सारा झूठा पानी उतरा हुआ था. बाकी रह गई थी वैधव्य की कालिख और ढलती आयु के अकेलेपन का कुहरा.

‘‘चलिए, बेटा तो आ गया मुखाग्नि देने को,’’ दरअसल, किसी ने जय को देख कर कहा था.

दूसरी शादी से वीरेन को कोई संतान नहीं हुई थी.

‘‘हम केवल अफसोस जाहिर करने आए थे, अब वापस जाएंगे,’’ कह कर जय उठ खड़ा हुआ. रेवा, नीना और महेश भी बाहर आ गए. औपचारिकता पूरी हो चुकी थी.

भरी सभा में जैसे किसी ने बम फेंक दिया. सब सकते में आ गए.

‘‘कलियुग है… घोर कलियुग. धरती रसातल को जाएगी. बेटा, बेटा होने से मुकर गया,’’ बड़ीबूढि़यां जय की मलामत कर रही थीं.

‘‘और मां को तो देखो. नीली साड़ी, चूडि़यां, बिछुए. कौन कहेगा कि यह विधवा है?’’ जितने मुंह उतनी बातें.

‘‘खबरदार, जो मेरी मां को विधवा कहा. इतने वर्षों तक वह किसी की पत्नी नहीं थी. वह आज भी विधवा नहीं है, वह मां है, केवल हमारी मां.’’

खुले आंगन में जैसे कांसे का थाल गिरा और छनाका देर तक गूंजता रहा.

लेखक- आदर्श मलगूरिया

Hindi Story : खून के छींटे – आखिर देवानंद को सामने देखकर मालिनी क्यों सन्न रह गई

Hindi Story : देवानंद को एकदम सामने देख कर मालिनी सन्न रह गई. देवानंद ने उसे देख कर मुसकराते हुए अपनी बाइक रोक दी थी. मालिनी तुरंत मुड़ कर दूसरी ओर बढ़ी, मगर वह तुरंत बाइक को मोड़ उस की राह के आगे खड़ा हो गया था. अभी वह कुछ सोचती या फैसला लेती कि एक दूसरी बाइक वहां आ खड़ी हुई.

मालिनी एकदम हक्कीबक्की रह गई थी कि उस ने उस की घेरेबंदी का यह नया पैंतरा शुरू किया है. यह जरूर उस का अपहरण करेगा. पहले ही देवानंद का नाम कई अपहरण कांड से जुड़ा है. उस के लिए यह कौन सी मुश्किल बात होगी. अचानक ही उस दूसरी बाइक से एक नौजवान उतरा और उस के बिलकुल नजदीक जा कर पिस्तौल निकाल कर गोलियां चला दीं.

तेज आवाज हुई और वह अब बाइक से छिटक कर सड़क पर छटपटा रहा था.

सुबह 10 बजे का समय था और बाजार में कोई भीड़ नहीं थी. सड़क पर कुछ ही गाडि़यां दौड़ रही थीं. लेकिन यहां पलक झपकते ही यह सबकुछ हो गया था. मालिनी का रास्ता रोकने वाले सड़क पर गिरे देवानंद की पीठ में 2 और गरदन पर एक गोली लगी थी. वहां से खून निकलना शुरू हो चुका था. अचानक उस के मुंह से खून का थक्का निकला और परनाले सा बह चला.

वे दोनों नौजवान बाइक सहित भाग चुके थे. वह उसे सड़क पर छटपटाते देख रही थी, जिस से डर कर वह भागना चाहती थी, अभी वही उसे कातर शिकायती निगाहों से देख रहा था, जैसे वे उसी के आदमी हों, जिन्होंने यह करतूत की थी. समय और हालात कितनी जल्दी बदल जाते हैं.

अब वह बिलकुल शांत था. बाजार की भीड़ देवानंद की ओर बढ़ते हुए घेरा बना कर खड़ी हो चुकी थी. सड़क पर अब गाडि़यां तेजी से भागने लगी थीं, ताकि वे किसी बंद वगैरह के चक्कर में न फंसें.

पुलिस घटना वाली जगह पर आ चुकी थी और अब एंबुलैंस की आवाज सुनाई दे रही थी. दूसरे लोगों की तरह वह भी वहां से वापस अपने घर की ओर लौट चली थी, ताकि किसी लफड़े में न पड़े.

‘‘क्या हुआ रे,’’ मालिनी की मां ने उसे देख कर हैरानगी जाहिर की, ‘‘बड़ी जल्दी आ गई. दुकान नहीं गई क्या?’’

‘‘नहीं मां, मैं नहीं गई,’’ मालिनी ने गुसलखाने में घुसते हुए छोटा सा जवाब दिया, ‘‘रास्ते में तबीयत ठीक नहीं लगी, तो वापस लौट आई.’’

मालिनी की आंखों के सामने दोबारा देवानंद का चेहरा आ गया था, जिस के नाकमुंह से खून की धार बह निकली थी.

मालिनी नाली के पास बैठ उलटी करने लगी थी. उस ने जल्दी से अपने कपड़ों को रगड़रगड़ कर धोना शुरू किया, जैसे उस पर खून के छींटे पड़े हों. अब वह अपने शरीर को मलमल कर नहा रही थी.

‘‘इतनी हड़बड़ाई क्यों है?’’ मालिनी की मां उसे शक की निगाहों से देखते हुए बोली, ‘‘दुकान से फोन आया था कि तुम अभी तक आई नहीं हो. मैं ने उन्हें बता दिया है कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए गई नहीं.

‘‘और हां, अभी पता चला है कि देवानंद को किसी ने गोली मार दी,’’ मां फिर बोली, ‘‘आजकल किसी का कोई ठिकाना नहीं. भला आदमी था बेचारा.’’

‘‘तो मैं क्या करूं,’’ मालिनी सहज होते हुए बोली, ‘‘तुम मुझे एक कप चाय बना दो. मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा. चक्कर सा आ रहा है.’’

मालिनी तख्त पर लेट गई. ‘बेचारा, भला आदमी’ उस ने बुरा सा मुंह बनाया, क्योंकि वह जानती है कि वह कितना भला और बेचारा था.

शहर के चुनिंदा बदमाशों में देवानंद की गिनती होती थी. न जाने कितने रंगदारी, चोरीडकैती से ले कर अपहरण तक में उस का नाम था. चुनाव के समय बूथ पर कब्जा तक का धंधा करता था वह. कई बार वह जेल भी जा चुका था. एक स्थानीय दबंग नेता के दम पर वह कारगुजारी कर बच निकलता था, इसलिए पुलिस भी सोचसमझ कर ही उस पर हाथ डालती थी. अकसर ही वह उस के साथ घूमता रहता था, इसलिए लोग उस से डरते थे और मां कहती है कि वह भला आदमी था.

आखिर क्यों नहीं बोलेगी कि वह भला आदमी था. कितनी ही बार वह उन के आड़े वक्त में काम आ चुका है. शहर के प्रमुख ‘साड़ी शौप’ में उसी ने उसकी नौकरी भी लगवाई थी. मगर उस  की कीमत उस ने चुकाई है, यह वही जानती है.

एक दिन मां कहीं बाहर गई थी. बापू भी रिकशा ले कर निकल गया था और भाई महेश स्कूल जा चुका था. देवानंद उस के घर में घुसा और उसे अकेली जान उस पर झपट पड़ा था और उस के रोनेछटपटाने का उस पर कोई असर नहीं पड़ा था.

मालिनी की आंखों के सामने देवानंद का छटपटाता चेहरा आ गया था. इसी तरह तो वह फर्श पर छटपटा रही थी और वह हवसी अपना काम कर गया था. वह उसी तरह लहूलुहान हो छटपटा रही थी और वह हंसता हुआ बाहर निकल गया था.

इस के बाद तो वह मौका देख कर घर में जब कभी घुस जाता और उस से अपनी हवस का शिकार बनाता था. शाम को फिर घर पर आता और मां को कुछ जरूरत की चीजें पकड़ा कर कहता, ‘‘किसी चीज की जरूरत हो, तो बेझिझक कहना और किसी से डरने की जरूरत नहीं. मैं हूं न.’’

मां की सराहना और दुआओं के बीच मालिनी कुछ कह नहीं पाती थी और इस बीच उसे बच्चा ठहर गया था. उस ने उसे कुछ दवाएं ला कर दी थीं. उन दवाओं के खाने के बाद उसे इतना खून बहा कि उस का चलनाफिरना मुश्किल हो गया था. उन दिनों वह उसी तरह छटपटाती थी, जिस तरह आज वह सड़क पर गिर कर छटपटा रहा था. फिर भी उस के मन में शक था कि जिन खून के छींटों के बीच वह छटपटा रहा था, उसे महसूस कर उसे खुश होना चाहिए या नहीं?

Hindi Story : एक विश्वास था

Hindi Story : मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर.

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.

Hindi Story : दफ्तर में पहला कदम

Hindi Story : घर के मुख्यद्वार की घंटी बजने से पहले ही जब पत्नी ने मुसकरा कर दरवाजा खोला तो हम उन का प्रसन्न मुख देख कर हैरान रह गए. उस के बाद जब वह स्नेह से भीग कर हमारा ब्रीफकेस भी हाथ में ले कर भीतर जाने को मुड़ीं तो हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा. यह परिवर्तन जरूर किसी खास बात का लक्षण है वरना उन का इतना मधुर रूप देखे तो हमें बरसों बीत गए थे. यह परिवर्तन ठीक उसी प्रकार था जैसे सूखे पेड़ पर अचानक कोई सुंदर फूल खिल उठता है.

हाथमुंह धोने से ले कर चाय का गरम प्याला पकड़ाने तक पत्नी का मुख कमल के समान खिला रहा. उन की हर बात में प्यार भरा अधिकार था. आखिर जिस बात को जानने की हमें जिज्ञासा हो रही थी वह बडे़ बेटे आशीष ने खेलकूद से वापस लौटते ही धूल सने चेहरे से चहक कर हमें सुनाई, ‘‘पिताजी, क्या आप को मालूम है कि मां भी अब दफ्तर जाया करेंगी?’’

‘‘क्या? कहां जाया करेंगी?’’ हम अवाक् से बेटे की तरफ देखते रह गए.

‘‘हां, पिताजी, मां अब सुबह 8 बजे ही हमारे साथ दफ्तर के लिए जाया करेंगी, तभी समय से पहुंचेंगी न?’’

‘‘अरे,’’ हम विस्फारित नेत्रों से आशीष के मुख की तरफ देखे जा रहे थे. आखिर रसोई में काम करती पत्नी के पास जा कर बोले, ‘‘सुनो, यह आशीष क्या कह रहा है?’’

‘‘क्यों, क्या कह रहा है?’’ वह सख्ती से हमारी तरफ पलटीं.

पत्नी की सख्त मुखमुद्रा देख कर हम हड़बड़ा गए. हकलाहट में हमारे मुंह से निकला, ‘‘यही कि तुम नौकरी पर जाया करोगी.’’

वह पुन: नवयौवना की तरह मुसकराहट बिखेरती हुई, भेदभरी आवाज में धीरे से बोलीं, ‘‘हां.’’

‘‘लेकिन तुम्हें यह अचानक क्या सूझी?’’

‘‘लो और सुनो, तुम्हें तो कुछ सूझता ही नहीं है. बच्चे दिन पर दिन बडे़ हो रहे हैं. घर का खर्च रोपीट कर पूरा होता है, इतनी मुश्किल से यहां बात बनी है. मैं ने अब तक छिपा कर सब किया कि तुम्हें अचानक बता कर हैरान कर दूंगी, पर यहां तो जनाब के मिजाज ही नहीं मिल रहे… तुम्हें पसंद न हो तो छोड़ देती हूं,’’ वह तुनक कर बोलीं.

रोजगार मिलने की किल्लत का ध्यान आते ही हमें पत्नी का नौकरी करना आर्थिक संकट से उबरने का सुनहरा पुल महसूस होने लगा. अत: अपनी बेसुरी आवाज को बेहद मुलायम बना कर हम ने मक्खन लगाया, ‘‘पर घर, दफ्तर दोनों  का काम कर भी सकोगी?’’

‘‘क्यों, क्या मुश्किल है, दफ्तर में कौन सा हल चलाना पडे़गा?’’

‘‘नहीं, हल तो नहीं चलाना पडे़गा, पर थकावट…’’

‘‘वह सब हो जाएगा. 600 रुपए मासिक मिलेंगे.’’

‘‘ऐं, अच्छा ठीक है.’’

वेतन की राशि सुनते ही हम वहां से खिसक लिए. सोचा, बस ठीक हो गया. सचमुच, प्रभा कितनी दूरदर्शी है. हम तो बस, आज का ही सोच पाते हैं और प्रभा ने कहां तक का सोच रखा है. फिर कमाल की बात तो यह है कि बिना सिफारिश के नौकरी हासिल कर ली, वरना आजकल नौकरियां कहां मिलती हैं पत्नी की बुद्धिमत्ता पर हमें सचमुच आश्चर्य होने लगा.

रात सुनहरे स्वप्न देखते हुए व्यतीत हो गई. न जाने हम ने क्याक्या रंगीन सपने देखे. सुबह उठे तो सपनों का रोमांच हृदय में हिलोरें ले रहा था. गुसलखाने में ब्रश करते हुए बालटी में से लोटा भर कर पानी निकाला तो सपने में देखे खूबसूरत  गुसलखाने का नजारा आंखों के आगे घूम गया. अब जल्दी ही इस गुसलखाने की कायापलट हो जाएगी.

सुबह ही चाय का प्याला ले कर जब हम पुरानी कुरसी पर बैठे तो जल्दी ही नया गद्देदार सोफा खरीदने की तलब जाग्रत हो गई. सारा शरीर हलकाफुलका सा लग रहा था मानो कोई बहुत बड़ा बोझ शरीर से उतर गया हो.

घड़ी की सूइयां देख कर बारबार दिल में खयाल आता रहा कि रसोई में चल कर कुछ प्रभा का हाथ बंटा दूं. न हो तो कुछ प्याज-व्याज ही कटवा दूं, पर कभी हाथ से ले कर पानी तक नहीं पिया था, इसलिए चाह कर भी रसोई में न जा सका.

बच्चे स्कूल के लिए जल्दीजल्दी तैयार हो रहे थे. स्वयं प्रभा ने भी दफ्तर जाने के लिए लंच बाक्स मेज पर रख दिया था. वह जल्दीजल्दी घर का कामकाज निबटा रही थी. पत्नी की सुघड़ता देख कर हम फूले नहीं समा रहे थे.

दफ्तर के लिए तैयार हो कर जाती प्रभा अपना लंच बाक्स और पर्स उठा कर बोली, ‘‘मैं तो 7 बजे तक ही वापस आ पाऊंगी. तुम यह दूसरी चाबी साथ लेते जाना. एक चाबी आशीष ले गया है, वह 3 बजे पहुंच जाएगा.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘और देखो, फ्रिज में मसाला भून कर रख दिया है. छोले भी कुकर में भिगो रखे हैं. दफ्तर से आ कर मसाला छोलों में डाल कर गैस पर चढ़ा देना.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘और देखो, बच्चों का होमवर्क करवा देना, नहीं तो ऊधम मचाते रहेंगे.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘और हां, अभी धोबी आता होगा. कपडे़ काली डायरी में लिखे हुए हैं, मिला कर ले लेना.’’

‘‘अच्छा.’’

अब तक हम ने भी अपने कमीजपतलून अलमारी से निकाल कर पलंग पर रख लिए थे. देखा, कमीज के आधे बटन गायब हैं. झट से जाती हुई प्रभा से हम बोले, ‘‘अरे प्रभा, इस कमीज के तो आधे बटन टूट गए हैं, जरा लगाती जाना.’’

‘‘अब छोड़ो भी. पहले ही दिन देर हो जाएगी. तुम अब घंटे भर तक अकेले घर में क्या करोगे? बटन डब्बे से निकाल कर खुद लगा लेना,’’ और प्रभा खटाखट सीढि़यां उतर गई.

पत्नी का लहराता पल्लू हमें दूर तक दिखाई देता रहा. गर्व से फूले सीने के साथ हम ने उस दिन का अखबार पढ़ा. शायद उस दिन अखबार कुछ ज्यादा ही ध्यानपूर्वक पढ़ा गया, इसलिए 9 बजे तक का समय पलक झपकते ही निकल गया. हम तेजी से गुसलखाने में घुसे, नहाधो कर कपडे़ पहनने लगे तो कमीज के टूटे बटन मुंह खोले पड़े थे. झटपट बटन वाला डब्बा ढूंढ़ा, सूई में धागा पिरोते हुए सूई के सूराख के साथसाथ आसमान के तारे भी नजर आने लगे. जैसेतैसे हम ने बटन लगाए, पर इस सारी प्रक्रिया में हमारी उंगली सूई के अनगिनत घावों को सह कर लहूलुहान हो गई थी.

दुखती उंगली के साथ जब हम तैयार हो कर बस स्टाप पर पहुंचे तो प्रभा की क्रियाशीलता पर हम मन ही मन विस्मित थे. वह कैसे घड़ी भर में बटन टांक देती है और उंगली भी सहीसलामत रखती है.

शाम को जब प्रभा दफ्तर से घर लौटी तब बेहद थकी हुई थी. बच्चों ने उस के देर से घर आने की शिकायत की तो वह झल्ला कर बच्चों पर बरस पड़ी और टिंकू को तो 2 थप्पड़ भी पडे़. वह मां का यह नया रूप देख कर भौचक्का रह गया और मार खा कर रोना भी भूल गया.

15 दिन में ही सारी गृहस्थी की नैया डांवांडोल हो गई. घर की महरी जो पहले वक्तबेवक्त कामकाज निबटा जाती थी, अब समय की सख्त पाबंदी लग जाने के कारण घर का काम छोड़ गई. घर के कोनों में ढेरों कूड़ाकचरा दिखाई देने लगा. चमचमाते बरतनों पर भी गंदगी की परत चढ़ने लगी. घर की सिलाई मशीन अनुपयोगी सिद्ध हो कर एक तरफ पड़ गई. छोटेमोटे कामों के लिए भी प्रभा के पास समय नहीं होता था और कपडे़ झट दर्जी के पास फेंक दिए जाते थे.

इतवार की छुट्टी में सब मिल कर घर की सफाई करते थे. सारा दिन झाड़पोंछ और कपडे़ धोने में निकल जाता था. शाम को कपडे़ प्रेस करते, बच्चों के स्कूल की यूनीफार्म तैयार कर के रखने तक शरीर बेहद टूट जाता था. उस के बाद हंसनाखेलना तो दूर, बात तक करने का मन नहीं करता था. सुबह 8 बजे जा कर शाम 7 बजे तक आने वाली पत्नी के दर्शन बड़ी जल्दबाजी में ही होते थे. अब शाम को लान में बैठ कर तसल्ली से चाय पीने की पुरानी यादें धूमिल होती जा रही थीं.

बच्चों की मासिक परीक्षा की रिपोर्ट मेज पर पड़ी थी. हमेशा अच्छे अंक लाने वाला आशीष भी कई विषयों में फेल था. टिंकू और अदिति का भी बुरा हाल था. बच्चों को होमवर्क करवाना और पढ़ाना हमारे जिम्मे था, अत: हम भी रोनी सूरत बनाए बैठे थे.

धीरेधीरे दिनों के साथ महीने बीत रहे थे और यंत्र की तरह चलने वाली जिंदगी में हमारे सब अरमान और उमंगें धराशायी होती जा रही थीं. घर में पत्नी की कई पगार, रेत पर पानी के छींटे जिस तरह पल भर में आत्मसात हो जाते हैं उसी तरह खप गई थीं. न फर्नीचर बदला जा सका था न रंगीन टेलीविजन आ पाया था और न आशीष की घड़ी. दफ्तर की महिला कर्मचारियों की होड़ में नित्य नई साड़ी, प्रसाधन की सामग्री, पर्स में हर समय एक अच्छी रकम, न जाने कब, किसे चायपानी पिलाना पड़ जाए. अकसर देर होने पर स्कूटर का किराया. सब मिला कर पत्नी के पास अपनी पगार में से थोड़ाबहुत ही बच पाता था.

हम दिल थामे पत्नी का धड़धड़ाते हुए दफ्तर जाना और थके कदमों से चिड़चिड़ाहट भरे स्वभाव से वापस आना देख रहे थे. नारी जागृति के युग में पत्नी से दबंग स्वर में नौकरी छोड़ने के लिए कहने की भी हमारी हिम्मत नहीं पड़ रही थी. हम उस घड़ी को कोस रहे थे जब पत्नी ने दफ्तर में पहला कदम रखा था और घर की सुखशांति को ग्रहण लग गया था.

Short Story: सवाल का जवाब

Hindi Story : जफर दफ्तर से थकाहारा जैसेतैसे रेलवे के नियमों को तोड़ कर एक धीमी रफ्तार से चल रही ट्रेन से कूद कर, मन ही मन में कचोटने वाले एक सवाल के साथ, उदासी से मुंह लटकाए हुए रात के साढ़े 8 बजे घर पहुंचा था. बीवी ने खाना बना कर तैयार कर रखा था, इसलिए वह हाथमुंह धोने के लिए वाशबेसिन की ओर बढ़ा तो देखा कि उस की 7 साल की बड़ी बेटी जैना ठीक उस के सामने खड़ी थी. वह हंस रही थी. उस की हंसी ने जफर को अहसास करा दिया था कि जरूर उस के ठीक पीछे कुछ शरारत हो रही है.

जफर ने पीछे मुड़ कर देखने के बजाय अपनी गरदन को हलका सा घुमा कर कनखियों से पीछे की ओर देखना बेहतर समझा कि कहीं उस के पीछे मुड़ कर देखने से शरारत रुक न जाए.

आखिरकार उसे समझ आ गया कि क्या शरारत हो रही है. उस की दूसरी 6 साला बेटी इज्मा ठीक उस से डेढ़ फुट पीछे वैसी ही चाल से जफर के साए की तरह उस के साथ चल रही थी.

बस, फिर क्या था. एक खेल शुरू हो गया. जहांजहां जफर जाता, उस की छोटी बेटी इज्मा उस के पीछे साए की तरह चलती. वह रुकता तो वह भी उसी रफ्तार से रुक जाती. वह मुड़ता तो वह भी उसी रफ्तार से मुड़ जाती. किसी भी दशा में वह जफर से डेढ़ फुट पीछे रहती.

इज्मा को लग रहा था कि जफर उसे नहीं देख रहा है, जबकि वह उस को कभीकभी कनखियों से देख लेता, इस तरह कि उसे पता न चले.

इस अनचाहे आकस्मिक खेल की मस्ती में जफर अपने 2 दिन पहले की सारी परेशानी और गम भूल सा गया था. तभी उसे अहसास हुआ कि इस नन्ही परी ने खेलखेल में उसे गम और परेशानियों का हल दे दिया था. इस मस्ती में उसे उस के बहुत बड़े सवाल का जवाब मिल गया था, जिस का जवाब ढूंढ़तेढूंढ़ते वह थक चुका था.

पिछले 2 दिनों से वह हर वक्त दिमाग में सवालिया निशान लगाए घूम रहा था. मगर जवाब कोसों दूर नजर आ रहा था, क्योंकि 2 दिन पहले उस की दोस्त नेहा ने कुछ ऐसा कर दिया था जिस के गम के बोझ में जफर जमीन के नीचे धंसता चला जा रहा था.

हमेशा सच बोलने का दावा करने वाली नेहा ने उस से एक झूठ बोला था. ऐसा झूठ, जिसे वह कतई बरदाश्त नहीं कर सकता था.

आखिर क्यों और किसलिए नेहा ने ऐसा किया?

इस सवाल ने दिमाग की सारी बत्तियों को बुझा कर रख दिया था. इस झूठ से जफर का उस के प्रति विश्वास डगमगा गया था.

वह ठगा सा महसूस कर रहा था. उसे लगने लगा था कि अब वह दोबारा कभी भी नेहा पर भरोसा नहीं कर पाएगा. ऐसा झूठ जिस ने रिश्तों के साथ मन में भी कड़वाहट भर दी थी और जो आसानी से पकड़ा गया था, क्योंकि उस शख्स ने जफर को फोन कर के बता दिया था कि नेहा अभीअभी उस से मिलने आई थी. जब जफर ने पूछा तो नेहा ने इनकार कर दिया था.

नेहा ने झूठ बोला था और उस शख्स ने सचाई बता दी थी. इतनी छोटी सी बात पर झूठ जो किसी मजबूरी की वजह से भी हो सकता था, जफर ने दिल से लगा लिया था. इस झूठ को शक और अविश्वास की कसौटी पर रख कर वह नापतोल करने लगा.

झूठ के पैमाने पर नेहा से अपने रिश्ते को नापने लगा तो सारी कड़वाहट उभर कर सामने आ गई. सारी कमियां याद आने लगीं. अच्छाई भूल गया. अच्छाई में भी बुराई दिखने लगी और यही वजह उस की परेशानी का सबब बन गई. उस के जेहन में एक, बस एक ही सवाल गूंज रहा था कि नेहा ने उस से आखिर क्यों झूठ बोला था?

जफर की नन्ही परी इज्मा ने बड़ी मासूमियत से उसे गम के इस सैलाब से बाहर निकाल लिया था. उसे अपने सवाल का जवाब उस की इन मस्तियों में मिल गया था क्योंकि अब वह समझ गया था कि उस की बेटी थोड़ी मस्ती के लिए उस की साया बन कर, उस की पीठ के पीछे चल कर खेल खेल रही थी, जिस का मकसद खुशी था. अपनी भी और उस की भी. ठीक उसी तरह नेहा भी उस से झूठ बोल कर एक खेल खेल रही थी.

जफर की पीठ पीछे की घटना थी. उस ने शायद उस नन्ही परी की तरह ही आंखमिचौली करने की सोची थी, क्योंकि इस से पहले कितनी ही बार जफर ने उस को परखा था. उस ने कभी झूठ नहीं बोला था. आज शायद उस का मकसद भी उस नन्ही परी की तरह मस्ती करने का था. शायद कुछ समय बाद वह सबकुछ बता देने वाली थी जिस तरह नन्ही परी ने बाद में बता दिया था.

जफर ठहरा जल्दी गुस्सा होने वाला इनसान, उस की एक न सुनी और बारबार फोन करने पर भी उसे सच बताने का मौका ही नहीं दिया था.

वह हैरान थी और डरी हुई भी. उस ने उस से बात तक नहीं की. जब तक बात न हो, गिलेशिकवे और बढ़ जाते हैं. बातचीत से ही रिश्तों की खाइयां कम होती हैं. यहां बातचीत के नाम पर

2 दिनों से सिर्फ ‘हां’ या ‘न’ दो जुमले इस्तेमाल हो रहे थे.

नेहा जफर की नाराजगी को ले कर परेशान थी और वह उस के झूठ को ले कर. नन्ही परी की मस्ती की अहमियत को इस सवाल के जवाब के रूप में समझ कर मेरी दिमाग की सारी घटाएं छंट गई थीं. दिल पर छाया कुहरा अब ऐसे हट गया था, जैसे सूरज की किरणों से कुहरे की धुंध हट जाया करती है.

सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था. समझ में आ गया था कि कोई सच्चा इनसान कभीकभी छोटीछोटी बातों के लिए झूठ क्यों बोल देता है. शायद मस्ती के लिए. जो बात वह दिमाग के सारे घोड़े दौड़ा कर भी नहीं सोच पा रहा था, वह इस नन्ही परी इज्मा की शरारत ने समझा दी थी, वह भी कुछ ही पलों में.

जफर का गुस्सा अब पूरी तरह से शांत हो गया था. एकदम शांत. वह समझ गया था कि उसे क्या करना है.

जफर ने खुद ही नेहा को फोन किया. नेहा ने सफाई देने की कोशिश की, मगर जफर ने उसे रोक दिया.

जफर ने अपनी नन्ही परी इज्मा का पूरा किस्सा सुनाया. अब नेहा एकदम शांत थी. उस की नाराजगी और सफाई अब दोनों की ही कोई अहमियत नहीं रह गई थी. फिर उस ने पहले की तरह एक चुटकुला छेड़ दिया था और वे दोनों सबकुछ भूल कर पहले जैसे हो गए थे.

Hindi Story : पतिता का प्रायश्चित्त

Hindi Story : पतिता का प्रायश्चित्तउस दिन शाम को औफिस से घर आने के बाद मयंक अपने परिवार के साथ कार से टहलने निकल पड़ा.

मयंक के साथ उस की पत्नी स्नेह भी थी जो 2 साल के अंशु को गोद में ले कर बैठी थी.

मयंक कार के स्टेयरिंग पर था और उसे बहुत धीमी रफ्तार से चला रहा था. अचानक उस की नजर सड़क पार करती एक जवान औरत पर पड़ी. एकाएक उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं. उस ने कार की रफ्तार को और भी धीमा कर दिया और उस औरत को गौर से देखने लगा.

‘‘क्या बात है?’’ स्नेह की आवाज में जिज्ञासा थी, ‘‘क्या देख रहे हैं आप?’’

‘‘मैं उस औरत को देख रहा हूं,’’ मयंक ने उस औरत की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘क्यों… कोई खास बात है क्या?’’ स्नेह ने पूछा.

‘‘हां है…’’ मयंक ने कहा, ‘‘एक लंबी कहानी है इस की. उस कहानी का एक पात्र खुद मैं भी हूं.’’

‘‘अच्छा…’’ एक अविश्वास भरी हैरानी से स्नेह का मुंह खुला का खुला रह गया.

थोड़ी देर में मयंक ने कार की रफ्तार बढ़ा दी और आगे निकल गया.

मयंक इस शहर में अभी नयानया जिला जज बन कर आया था. उसे यहां रहने के लिए एक सरकारी बंगला मिला हुआ था. वह सपरिवार यानी स्नेह और 2 साल के अंशु के साथ रहने लगा था.

उस रात जब वे खाना खाने बैठे तो स्नेह ने उसी सवाल को दोहराया, ‘‘कौन थी वह औरत?’’

मयंक का दिल ‘धक’ से बैठ गया, पर उस ने खुद पर कंट्रोल कर के मन ही मन बात शुरू करने की भूमिका बना ली. फिलहाल टालने भर का मसाला तैयार कर के उस ने कहा, ‘‘आजकल उस औरत का एक केस मेरी अदालत में चल रहा है. तलाक का मामला है.’’

‘‘लेकिन, आप ने तो कहा था कि उस की कहानी के एक पात्र आप भी…’’

‘‘हां, मैं ने तब जो भी कहा हो, लेकिन इस समय मेरे सिर में दर्द है. मुझे आराम करने दो,’’ मयंक की आवाज में कुछ झुंझलाहट थी.

स्नेह के मन में मची उथलपुथल को मयंक बखूबी समझ रहा था. औरत के मन में शक की उपज स्वाभाविक होती है. यों स्नेह मयंक के प्यार के आगे मुंह खोल सकने की हालत में नहीं थी.

मयंक टाल तो गया, पर वह औरत अब भी उस की यादों में छाई रही.

आज से तकरीबन 8 साल पहले जब मयंक ग्रेजुएशन का छात्र था तो उस की बड़ी बहन की शादी में दूर के रिश्तेदारों, परिचितों के अलावा बड़े भाई के एक खास दोस्त की बहन रेणु भी आई थी.

मयंक को पहले ही दिन लगा था कि रेणु बहुत ही चंचल स्वभाव की थी और बातूनी भी. रेणु के आते ही सब उस से घुलमिल गए थे. बातबात में हर कोई ‘रेणु, जरा मुझे एक गिलास पानी देना’, ‘जरा मेरे लिए एक कप चाय बना देना’, ‘मुझे भूख लगी है, खाना परोस देना’ जैसी फरमाइशें करने लगा था.

एक दिन मयंक ने पुकारा था, ‘रेणु, मुझे प्यास लगी है.’

अचानक रेणु मयंक के पास आई और फुसफुसा कर बोली, ‘कैसी…’ और इतना कह कर उस ने अपने होंठों पर बड़ी गूढ़ मुसकान बिखेर दी.

मयंक अचकचा सा गया था. उसे रेणु से इस तरह की हरकत की कतई उम्मीद न थी.

मयंक ने अपनी झेंप को काबू में करते हुए कहा, ‘फिलहाल तो मुझे पानी ही चाहिए.’

रेणु ने पानी दिया और उसी दिन थोड़ा एकांत पाते ही उस ने कहा, ‘मयंक, तुम मुझ से इतना कतराते क्यों हो? क्या मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती?’

‘नहीं’ कहने के बजाय मयंक के मुंह से निकला था, ‘क्यों नहीं…’

लेकिन उसी दिन से उन दोनों के बीच ऐसी निजी बातों का सिलसिला चल पड़ा था. लगा कि जैसे सारी दूरियां खत्म होती जा रही थीं. मयंक भी रेणु की बातों में दिलचस्पी लेने लगा था.

रेणु ने एक दिन मयंक के सामने शादी करने का प्रस्ताव रख दिया, ‘मयंक, मैं चाहती हूं कि हम दोनों जीवनभर एकदूसरे के बने रहें.’

‘क्या…’ मयंक की हैरानी लाजिमी थी. क्या रेणु उस के बारे में इस हद तक सोचती है?

‘हां मयंक, अगर मेरी शादी तुम से नहीं हुई तो मैं जिंदगीभर कुंआरी ही रहूंगी,’ रेणु ने कहा. लगा, जैसे उस के आंसू छलक पड़ेंगे.

मयंक थोड़ी देर तो चुप रहा था लेकिन कुछ ही पलों में उस के दिल में रेणु के लिए प्यार उमड़ पड़ा था. वह उसे वचन दे बैठा, ‘अगर तुम में सचमुच सच्चे प्यार की भावना है रेणु, तो मैं जिंदगीभर तुम्हारा साथ निभाऊंगा.’’

यह सुनते ही रेणु मयंक से लिपट गई.

‘मुझे तुम से ऐसी ही उम्मीद थी,’ रेणु बुदबुदाई.

मयंक का एक दोस्त विनय भी शादी से कुछ दिन पहले ही हाथ बंटाने के लिए वहां आ गया था. एक दिन मयंक की मां ने विनय से शादी का कुछ सामान लाने को कहा. रेणु भी अपनेआप तैयार हो गई.

‘क्या मैं भी विनय के साथ चली जाऊं? इन के रास्ते में ही महमूदपुर पड़ेगा, जहां मेरी एक सहेली ब्याही गई है. अगर एतराज न करें तो मैं उस से मिल लूं? शाम को जब ये शहर से सामान ले कर लौटेंगे तो इन्हीं के साथ आ जाऊंगी,’ रेणु ने मयंक की मां से पूछा.

थोड़ी देर सोच कर मां बोलीं, ‘लेकिन, शाम तक जरूर लौट आना.’

‘हांहां, बस मिलना ही तो है,’ रेणु ने कहा, फिर वे दोनों स्कूटर पर बैठे और चले गए.

शाम हुई और शाम से रात, पर रेणु नहीं आई. मयंक ने सोचा कि आखिर वह अभी तक क्यों नहीं लौटी? विनय भी नहीं आया था.

अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘कौन…?’ मां ने पूछा.

‘मैं हूं,’ उधर से विनय ने कहा.

मां ने दरवाजा खोला. रेणु भी पीछे खड़ी थी.

‘कहां रह गए थे तुम दोनों?’ मां ने  झुंझलाते हुए पूछा.

‘कुछ नहीं… बस, इन का खटारा स्कूटर खराब हो गया था, फिर काफी पैदल चलना पड़ा,’ विनय कुछ बोलता, उस से पहले ही रेणु ने कहा और घर में जा घुसी.

उस समय मयंक को उस की यह हरकत सही नहीं लगी थी, फिर भी वह उस के शब्दजाल में फंस चुका था.

फिर एक दिन रेणु अपने घर चली गई. कई दिनों तक मयंक को कुछ भी अच्छा नहीं लगा था. घर में जाने की इच्छा भी न होती थी. हर जगह उस की यादें बिखरी हुई मालूम पड़ती थीं. उन्हीं यादों के नाते मयंक को लगता था जैसे वह खुद भी बिखर कर रह गया है.

मयंक ने अपनी मां को भी बता दिया था कि वह रेणु से प्यार करता है और शादी भी उसी से करना चाहता है.

‘मयंक, एक सवाल पूछूं तुम से?’ मां ने पूछा.

‘पूछो न मां… एक नहीं, हजार पूछो,’ मयंक ने कहा.

‘तुम्हें रेणु के चरित्र के बारे में क्या लगता है?’ मां ने सीधा सवाल किया.

मयंक बोला, ‘मुझे तो ठीक लगता है. वैसे, क्या आप को…?’

‘नहींनहीं, आजकल की लड़कियों के बारे में कालेज के लड़के ही ज्यादा जानकारी रखते हैं. खैर, ठीक ही है,’ मां ने कहा.

अचानक मां को पिताजी ने बुला लिया था. मयंक ने सोचा कि मां कहना क्या चाहती थीं?

एक दिन जब मयंक ने विनय को रेणु से अपने संबंध की बात बताई तो वह एकदम से बिफर गया, ‘तुम उसे भूल जाओ प्यारे… उस की मधुर मुसकानें बहुत जहरीली हैं.’

‘मैं समझा नहीं…’

‘तुम समझोगे भी कैसे? तुम्हारे दिमाग को तो रेणु नाम की उसी घुन ने चट कर रखा है. अब तुम समझनेबूझने की हालत में रह ही कहां गए हो?’ विनय ने ताना मारा.

‘क्या मतलब…’

‘तुम्हें यह शादी नहीं करनी है…’ विनय हक के साथ बोल पड़ा, ‘और अगर तुम उसे भूल नहीं पाते हो तो मुझे भूलने की कोशिश कर लेना.’

‘ठीक है. मैं भूल जाऊंगा उसे, लेकिन तुम भी इतना जान लो कि मैं जिंदगीभर कुंआरा ही रहूंगा,’ मयंक थोड़ा भावुक हो उठा.

‘आखिर तुम ने उस के अंदर ऐसा क्या देखा है, जो उस के लिए इतना बड़ा त्याग करने को तैयार हो?’

‘सिर्फ बरताव, खूबसूरती नहीं,’ मयंक ने कहा.

‘तो बस यही नहीं है उस में, बाकी सबकुछ हो भी तो क्या?’

‘क्या…?’

‘हां मयंक, उस का चरित्र सही नहीं है. अच्छा बताओ, तुम्हें वह दिन याद है न, जब रेणु मेरे साथ महमूदपुर गई थी?’

‘हां, याद तो है?’

‘मेरा स्कूटर खराब हो गया था और मैं देर रात वापस लौटा था?’

‘हां, यह भी याद है…’

‘मैं और भी जल्दी आ सकता था, पर वह देरी रेणु ने जानबूझ कर की थी.’

मयंक हैरानी से विनय का मुंह ताकने लगा.

‘लेकिन, उस को भी तो आना था?’ मयंक अपने अंदर हैरानी समेटे बोल रहा था, ‘जबकि तुम दोनों को महमूदपुर में ही रात होने लगी थी.’

‘हां इसलिए, रात का फायदा उठाने के लिए ही ऐसा किया गया था.’

‘क्या मतलब…?’

‘अब इतने नादान तो हो नहीं तुम कि तुम्हें मतलब समझाना पड़े…’

‘तो क्या रेणु ऐसी…?’

‘जी हां, ऐसी ही है रेणु…’ विनय ने आगे कहा, ‘उस की उन गलत इच्छाओं के आगे मुझे मजबूर होना पड़ा था, क्योंकि वह किसी भी हद तक जा चुकी थी…’ वह बोलता जा रहा था, ‘मैं इस के बारे में कभी भी कुछ न कहता, अगर आज अपने सब से अच्छे और एकलौते दोस्त को जिंदगी के इतने बड़े फैसले का धर्मसंकट सामने न आ खड़ा होता.’

विनय की बातें मयंक के कानों में जहर घोल रही थीं और वह खुद को ठगा हुआ सा महसूस करने लगा था.

मयंक ने सोचा कि अपने इस सवाल का जवाब वह खुद रेणु से लेगा, पर इस की नौबत ही नहीं आने पाई. उस ने जल्दी ही सुना कि रेणु का किसी से प्रेम विवाह हो गया है.

इधर मयंक के लिए भी कोई रिश्ता आया. उस ने मांबाप के फैसले को सिर्फ उन की खुशी के लिए अपनी रजामंदी दे दी.

सुसंस्कारों में पलीबढ़ी स्नेह मयंक के घर में सब को भाती थी. जब वह जिला जज की इस जिम्मेदारी के लिए आने लगा तो मां ने स्नेह से हंसते हुए कहा, ‘मेरे और अपने दोनों बेटों का खयाल रखना है अब तुम्हें.’

‘जी मां,’ स्नेह ने भी हंस कर ही कहा, जो मां के लिए बहू के बजाय उन की लाड़ली बेटी थी.

आज रेणु से मयंक का सामना वक्त ने उस मुकाम पर आ कर कराया जहां वह मयंक की ही अदालत में एक गुनाहगार की तरह खड़ी थी. उस के पति ने ही उस पर किसी और से संबंध होने की बात पर तलाक मांगा था.

रेणु आई, मयंक भी. जिला जज से पहले वह एक नेकदिल इनसान ही था, इसलिए अपनी ही उलझनों की शिकन महसूस करते हुए वह भी उस के सामने अपनी कुरसी पर आ बैठा.

आज रेणु का चेहरा बहुत ही बुझा हुआ था. मयंक को उस का अल्हड़पन याद आया, पर उस की जिंदगी में खुशियों का जरा भी दीदार न हो सका.

बहस के दौरान रेणु ज्यादातर चुप ही बनी रही और अपनी गलतियों को मान कर आगे से ऐसा कुछ न करने के लिए कहा.

रेणु के पति के पक्ष से पेश किए गए सुबूतों के आधार पर उसे तलाक मिल चुका था. पर रेणु के अदालत में बोले गए ये बोल, ‘आज मैं कहां से कहां होती…’ मयंक के जेहन में गूंजते रहे.

मयंक को बारबार यही अहसास हो रहा था कि ऐसा रेणु ने उस के और मयंक के संबंधों को याद करते हुए बोला था.

मयंक को आज उस पर तरस आ रहा था, पर यही तो था एक ‘पतिता का प्रायश्चित्त’.

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