सयाना इश्क: क्यों अच्छा लाइफ पार्टनर नही बन सकता संजय- भाग 1

इक्कीस वर्षीया पीहू ने जब कहा, ”मम्मी, प्लीज, डिस्टर्ब न करना, जरा एक कौल है,” तो नंदिता को हंसी आ गई. खूब जानती है वह ऐसी कौल्स. वह भी तो गुजरी है उम्र के इस पड़ाव से.

”हां, ठीक है,” इतना ही कह कर नंदिता ने पास में रखी पत्रिका उठा ली. पर मन आज अपनी इकलौती बेटी पीहू में अटका था.

पीहू सीए कर रही है. उस की इसी में रुचि थी तो उस ने और उस के पति विनय ने बेटी को अपना कैरियर चुनने की पूरी छूट दी थी. मुंबई में ही एसी बस से वह कालेज आयाजाया करती थी. पीहू और नंदिता की आपस की बौन्डिंग कमाल की थी. पीहू के कई लड़के, जो स्कूल से उस के दोस्त थे, के घर आनेजाने में कोई पाबंदी या मनाही नहीं रही. अब तक कभी ऐसा नहीं हुआ था कि नंदिता को यह लगा हो कि पीहू की किसी विशेष लड़के में कोई खास रुचि है. उलटा, लड़कों के जाने के बाद नंदिता ही पीहू को छेड़ती, ‘पीहू, इन में से कौन तुम्हें सब से ज्यादा अच्छा लगता है?’

पीहू अपनी बड़ी बड़ी खूबसूरत आंखों से मां को घूरती और फिर हंस देती, ‘आप क्यों पूछ रही हैं, मुझे पता है. जासूसी करने की कोई जरूरत नहीं. इन में से कोई मुझे अलग से वैसे पसंद नहीं है जैसे आप सोच रही हैं.’

नंदिता हंस पड़ती और बेटी के गाल पर किस कर देती.

इधर 6 महीनों से पीहू में अगर कोई बदलाव आता तो यह कैसे संभव होता कि उस की दोस्त जैसी मां नंदिता से छिपा रहता. नंदिता ने नोट किया था कि अब पीहू घर आने के बाद अपने फोन से चिपकी रहती है. कहीं भी फोन इधरउधर नहीं रखती है. पहले उस का फोन कहीं भी पड़ा रहता था. वह अपने काम करते हुए कभी फोन नहीं देखती थी. अब तो मम्मी, पापा से बात करते हुए भी वह अकसर फोन चैक करती रहती. हां, यह नया बदलाव था.

नंदिता पूरी तरह से समझ रही थी कि किसी लड़के से बात करती है पीहू और यह उन लड़कों में से नहीं है जो घर आते रहे हैं. पीहू के बचपन के दोस्त हैं क्योंकि पीहू बाकी सब से उस के पास बैठ कर भी फोन करती रहती पर यह जो नया फोन आता है, इस पर पीहू अलर्ट हो जाती है.

आजकल नंदिता को पीहू को औब्ज़र्व करने में बड़ा मजा आता. पीहू के कालेज जाने के बाद अगर नंदिता कभी उसे फोन करती तो वह हमेशा ही बहुत जल्दी में रख देती. विनय एक व्यस्त इंसान थे. नंदिता के मन में पीहू के साथ चल रहा यह खेल उस ने विनय को नहीं बताया था. कुछ बातें मां और बेटी की ही होती हैं, यह मानती थी नंदिता. नंदिता एक दिन जोर से हंस पड़ी जब उस ने देखा, पीहू नहाने जाते हुए भी फोन ले कर जा रही थी. नंदिता ने उसे छेड़ा, ‘अरे, फोन को भी नहलाने जा रही हो क्या? बाथरूम में भी फोन?’

पीहू झेंप गई, ‘मम्मी, गाने सुनूंगी.’ नंदिता को हंसी आ गई.

पीहू का फोन अकसर रात 9 बजे जरूर आता. उस समय पीहू अपने रूम में बिलकुल अकेली रहने की कोशिश करती. कभीकभी शरारत में यों ही नंदिता किसी काम से उस के रूम में जाती तो पीहू के अलर्ट चेहरे को देख मन ही मन नंदिता को खूब हंसी आती. मेरी बिटिया, तुम अभी इतनी सयानी नहीं हुई कि अपने चेहरे के बदलते रंग अपनी मां से छिपा लोगी. फोन किसी लड़के का ही है, यह बहुत क्लियर हो गया था क्योंकि पीहू के पास से निकलते हुए फोन से बाहर आती आवाज नंदिता को सुनाई दे गई तो शक की गुंजाइश थी ही नहीं.

एक दिन विनय भी औफिस की तैयारी कर रहे थे, पीहू के भी निकलने का टाइम था. उस ने जल्दीजल्दी में किचन में ही फोन चार्ज होने लगा दिया और नहाने चली गई. फोन बजा तो नंदिता ने नजर डाली और हंस पड़ी. नंबर ‘माय लव’ के नाम से सेव्ड था. फिर ‘माय लव’ की व्हाट्सऐप कौल भी आ गई. नंदिता मुसकरा रही थी. आज पकड़े गए, बच्चू, व्हाट्सऐप कौल पर लड़के की फोटो थी. नंदिता ने गौर से देखा, लड़का तो काफी स्मार्ट है, ठीक है पीहू की पसंद. इतने में भागती सी पीहू आई, तनावभरे स्वर में पूछा, ”मम्मी, मेरा फोन बजा क्या?”

”हां, बज तो रहा था.”

”किस का था?” पीहू ने चौकन्ने स्वर में पूछा. नंदिता समझ गई कि बेटी जानना चाह रही है कि मां को तो कुछ पता तो नहीं चला.

पीहू बेदिंग गाउन में खड़ी अब तक फोन चार्जर से निकाल चुकी थी. नंदिता ने अपनेआप को व्यस्त दिखाते हुए कहा, ”पता नहीं, टाइम नहीं था देखने का, रोटी बना रही थी. इस समय कुछ होश नहीं रहता मुझे फोनवोन देखने का.”

पीहू ने सामान्य होते हुए छेड़ा, ”हां, हां, पता है, आप इस समय 2 टिफ़िन और नाश्ता बना रही हैं, बहुत बिजी हैं,” और नंदिता को किस कर के किचन से निकल गई. विनय और पीहू के जाने के बाद नंदिता अपने खयालों में गुम हो गई, ठीक है, अगर पीहू के जीवन में कोई लड़का आया भी है तो इस में कोई बुराई वाली बात तो है नहीं. उम्र है प्यार की, प्यार होगा ही, कोई अच्छा लगेगा ही. आखिरकार मैं ने और विनय ने भी तो प्रेम विवाह किया था. आह, क्या दिन थे, सब नयानया लगता था. अगर कोई लड़का पीहू को पसंद है तो अच्छा है. इस उम्र में प्यार नहीं होगा तो कब होगा. रात को सोते समय उस की ख़ास स्माइल देख विनय ने पूछा, ”क्या बात है?”

मार्मिक बदला : रौनक से कौनसा बदला लेना चाहती थी रागिनी

नौकरानी नहीं रानी हूं मैं : मैडम अपनी कामवाली से क्यों डरती थी

ओ मैडमजी, आप की हिम्मत कैसे हुई मुझे कामवाली बाई, नौकरानी, महरी जैसे नामों से पुकारने की? बुलाना हो तो मुझे प्यार से मेरे नाम से पुकारें या मेड सर्वेंट अथवा मेड ही कहें. कान खोल कर सुन लो बीवीजी, मैं नौकरानी नहीं हूं. मैं जिस घर में भी जाती हूं रानी बन कर रहती हूं. नौकरानी तो मुझे कोई कह ही नहीं सकता. नौकरी को तो मैं अपनी जूती की नोक पर रखती हूं. जब मन चाहे ऐसी दोटकिया नौकरी को ठोकर मार कर चल देती हूं. गरज तो आप को है मेरी. मुझे नौकरी के लाले नहीं पड़े हैं. बहुतेरी नौकरियां मेरी राह में बिछी हैं. एक घर छोड़ू तो 10 घर मुझे हाथोंहाथ झेल लेंगे. रखना हो तो रखो, नहीं तो मैं तो चली…

एक बात अच्छी तरह समझ लो बीवीजी, काम तो मैं अपनी शर्तों पर करती हूं. अगर आप को मुझे काम पर रखना है, तो टाइम की पाबंदी का कोई नाटक नहीं चलेगा. मैं आप की या आप के साहब की तरह औफिस में काम नहीं करती हूं जहां समय पर पहुंचना जरूरी होता है. मैं तो आराम से अपने घर के काम निबटा कर, सजधज कर काम पर पहुंचती हूं, इसलिए टाइम को ले कर मुझ से झिकझिक करने का नहीं, समझीं आप?

एक और जरूरी बात. मेरे पास अपना मोबाइल है. मैं अपने मोबाइल से किसी से भी, कितनी भी देर, कभी भी, कैसी भी बातें करूं, आप को कोई ऐतराज करने का हक नहीं कि काम पड़ा है और न जाने इतनी देर से किस से बतिया रही है? यह भी जान लो मुझे जब भी, जितनी भी बार चाय की तलब लगे मुझे कड़क, मीठी, स्पैशल चाय चाहिए. उस के बगैर तो मेरे हाथपैर ही नहीं चलते. चाय के लिए आप मुझे रोकेंगीटोकेंगी नहीं.

और हां मेम साहब, यह तो बताना मैं भूल ही गई हूं कि दोपहर को मुझे टीवी पर अपने पसंदीदा सीरियल भी देखने होते हैं. यदि मैं फुलस्पीड पर पंखा चला कर सीरियल या मूवी देखूं तो यह आप की आंखों में खटकना नहीं चाहिए. यह भी तो सोचिए टीवी पर आने वाले विज्ञापनों ने मेरी जनरल नौलेज में कितनी वृद्धि की है. मैं ने उन्हीं से जाना है कि किस बरतन साफ करने वाले पाउडर में सौ नीबुओं की शक्ति है और किस डिटर्जैंट में 10 हाथों की धुलाई का दम है. ये सारे विज्ञापन हम जैसी मेड सर्वेंट के लिए ही तो बने हैं ताकि हमें मेहनत कम करनी पड़े और हाथ मुलायम बने रहें. मैं कहूं उस के पहले ही आप को ये सब चीजें बाजार से ला कर रखनी होंगी.

मैडमजी, पहले ही बता देना आप के सासससुर तो आप के साथ आ कर नहीं रहते हैं? मैं ऐसे घरों में काम नहीं लेती हूं जहां बूढ़े सासससुर भी साथ रहते हों. जितनी देर काम करो उतनी देर खूसट बुढि़या डंडा लिए सिर पर ही सवार रहती है कि यह कर, वह कर, यह क्यों नहीं किया, वह क्यों नहीं किया. असल बात तो यह है कि बहू पर तो उन की चलती नहीं, इसलिए सारी कसर वे हम जैसे लोगों पर ही निकालती हैं.

और हां बीवीजी, अगर आप के घर में छोटे बच्चे हैं और मैं कभी प्यार से उन्हें एकाध चपत लगा दूं तो सीधे थाने में रिपोर्ट करने मत चली जाना, समझीं आप? मेरे खुद के भी तो बालबच्चे हैं कि नहीं? वे परेशान करते हैं तो मैं उन्हें भी तो कूटपीट देती हूं. आप के बच्चों को भी मैं अपने बच्चों की ही तरह पालूंगी. कभी एकाध बार जरा सा हाथ उठा दिया तो उस के लिए हायतोबा मचाने की जरूरत नहीं. घर में सीसीटीवी कैमरे लगे होने की धमकी तो देना ही मत. सीसीटीवी कैमरे की आंखों में और आप की आंखों में भी धूल झोंकना हमें खूब आता है. एक बात और जान लो मेमसाहब, मेरे अपने भी कुछ रूल्स ऐंड रैग्यूलेशंस हैं. मेरा उसूल है कि नौकरी जौइन करने से पहले ही मैं इस मुद्दे पर डिस्कस कर लेना ठीक समझती हूं कि महीने में 4 छुट्टियां (हफ्ते में 1 छुट्टी) तो मुझे चाहिए ही चाहिए. आप की और साहब की नौकरी में ‘फाइव डेज वीक’ का प्रावधान है तो फिर मैं तो ‘सिक्स डेज वीक’ पर काम करने को तैयार हूं. पर सिर्फ इतनी छुट्टियां मेरे लिए काफी नहीं होंगी. गाहेबगाहे तीजत्योहार की छुट्टियां भी तो मुझे मिलेंगी कि नहीं?

इस के अलावा कभी मैं खुद बीमार पड़ी तब तो कभी अपने पति, बच्चों को बीमार बता कर छुट्टी करूंगी. कभी रिश्तेदारी में शादी, तो कभी मौत का बहाना बना कर छुट्टी करूंगी. इस के अलावा जब आप के घर में मेहमान आने वाले हों तब तो मेरा छुट्टी करना बनता ही है. बहानों की कोई कमी नहीं है मेरे पास. आप कहो तो छुट्टी करने के 101 बहानों पर किताब लिख दूं. पर क्या करूं बीवीजी, आप की तरह पढ़ीलिखी तो हूं नहीं. पर पढ़ेलिखों के भी कान कतरती हूं. बीवीजी, अब ऐडवांस लेने के बारे में भी बात कर लें तो अच्छा रहेगा. ऐडवांस लेने के भी 101 बहाने हैं मेरे पास. गरज तो आप को है मेरी. थोड़ी नानुकर के बाद ऐडवांस तो आप को देना ही पड़ेगा, क्योंकि कोई दूसरा चारा ही नहीं है आप के पास. क्व4-5 हजार का ऐडवांस तो ऊंट के मुंह में जीरा है मेरे लिए. इस ऐडवांस की रकम मैं हर महीने वेतन में से सिर्फ सौ 2 सौ ही कटवा कर चुकाऊंगी और किसी दिन सिर घूम गया तो आप को छोड़ कर ऐडवांस ले कर रफूचक्कर हो जाऊंगी.

हाथ की सच्ची हूं, यह तो मैं डंके की चोट पर कहती हूं. जहां भी मैं ने काम किया है, उन से पूछ कर देख लो. आज तक उन की एक सूई भी गायब नहीं हुई. सूई मैं क्यों गायब करूंगी, हाथ की सच्ची हूं न. सूई तो नहीं, पर बाकी चीजें तो इतनी सफाई से गायब होती हैं कि कोई मुझ पर तो शंका कर ही नहीं सकता. क्योंकि मैं खुद तो कुछ नहीं करती हूं पर दूसरों को खबर तो कर सकती हूं न? घर के सारे लोगों की दिनचर्या मुझ से ज्यादा किसे मालूम हो सकती है? घर में कौन कब आता है, कौन कब जाता है, अलमारी की चाबी कहां रहती है, कीमती चीजें कहां रखी रहती हैं, कब छुट्टियां मनाने शहर से बाहर जाने का प्रोग्राम है, इस सब की मुझे खबर रहती है. मैं कुछ नहीं करती, मुझ से भेद ले कर हाथ की सफाई तो कोई और ही दिखाता है. मुझे रंगे हाथों पकड़ना आप के बस की बात नहीं है.

मैडमजी, अब थोड़ी पर्सनल बात भी हो जाए. थोड़ी रोमांटिक बात है यह. वह क्या है कि आप के साहब या जवान हो रहे साहबजादे को रिझाने के भी 101 तरीके हैं मेरे पास. अब झाड़ूपोंछा करते समय मेरी साड़ी पिंडलियों से ऊपर हो जाए (और वह तो होगी ही) या आप के दिए ‘लोकट’ ब्लाउज के अंदर उन की निगाहें फिसलफिसल जाएं और उन्हें कुछकुछ होने लग जाए तो आप मुझे कोई दोष न देना. यह ‘लोकट’ ब्लाउज तो आप ने ही दिया था न मुझे? फिर उस के बाद साहब मौका देख कर किसी न किसी बहाने से या आप के नौजवान साहबजादे कालेज के पीरियड गोल कर वक्तबेवक्त घर आने लग जाएं तो इस में मेरी क्या गलती? साहब या साहबजादे आप से छिपा कर थोड़ीबहुत बख्शीश मुझे दे दें तो आप को ऐतराज नहीं होना चाहिए, वैसे ऐसी बातों की मैं आप को कानोंकान खबर होने दूं तब न?

बीवीजी, एक मजेदार बात तो आप को मालूम ही नहीं. आप तो सपने में भी सोच नहीं सकतीं कि आप लोगों के घरों में काम करने वाली हमारी जैसी मेड सर्वेंट जब आपस में मिलती हैं तो कैसीकैसी बातें करती हैं. आप सुनेंगी तो हंसेंगी या फिर गुस्सा करेंगी कि हमारी बातचीत का मेन टौपिक, हमारा टारगेट तो बस आप लोग ही रहती हैं  सब ने अपनीअपनी मालकिन के उन के रंगरूप और स्वभाव के अनुसार कई मजेदार निकनेम रख रखे हैं. किसी की मालकिन उस की नजर में काली मोटी भैंस है, तो कोई अजगर की तरह सारा दिन बिस्तर पर अलसाई पड़ी रहती है. किसी की मालकिन बिल्ली की तरह चटोरी है, तो कोई फैशन कर दिन भर मेढकी की तरह फुदकती रहती है. कोई बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम है, तो कोई जासूस करमचंद की तरह जासूसी करती है. अरे बीवीजी, हम ने तो आप लोगों के ऐसेऐसे नाम रखे हैं, आप की ऐसीऐसी मिमिक्री करती हैं, ऐसीऐसी नकल उतारती हैं कि आप सुन लें तो चुल्लू भर पानी में डूब मरें. किसी दिन हम छुट्टी कर दें तो घर के काम करने में कैसे आप को नानी याद आती है, इस की ऐक्टिंग कर के तो हम लोटपोट हो जाती हैं.

हमारे मन का गुबार या पेट का अफारा कई तरह से निकलता है. कालोनी में किस के घर क्या चल रहा है, किस का किस के साथ चक्कर है, कौन किस के साथ रंगे हाथों पकड़ी गई, किस के घर में तीसरी औरत या तीसरे मर्द को ले कर पतिपत्नी में कुत्तों की तरह लड़ाई छिड़ी रहती है, इन झूठीसच्ची खबरों को तिल का ताड़ बना कर, अपनी तरफ से ढेरों नमकमिर्च लगा कर हम अपना तो मनोरंजन करती ही हैं, फिर ये ही खबरें हमारे मुखारविंद से घरघर जा कर मालकिन के सामने भी ब्रौडकास्ट होती हैं (सिवा उन के खुद के घर की खबरों के). हमारा यह न्यूज चैनल बहुत लोकप्रिय है. अपनी मालकिन को ब्लैकमेल करना भी मुझे बहुत आता है. त्योहारों पर इनाम और दीवाली पर तो 1 महीने का वेतन बोनस मैं धरा ही लेती हूं, हर नए साल पर वेतन बढ़वा लेना भी मुझे खूब आता है.

इस के अलावा उन की किसी पड़ोसिन ने अपनी मेड सर्वेंट को क्या दिया है, इस की खबर भी बढ़ाचढ़ा कर सुना कर अपनी मालकिन को ब्लैकमेल करने में पीछे नहीं रहती हूं ताकि वे उस से भी बढ़चढ़ कर मुझ पर कपड़े, बरतन, खानेपीने का सामान लुटाने में पीछे न रह जाएं. अंत में मैं स्पष्ट कर दूं (चाहे तो इसे धमकी भी समझ सकती हैं) कि हम घरेलू कामवाली मेड सर्वेंट ने अपनी यूनियन भी बना रखी है जिस की मैं अध्यक्ष हूं. हम सब की मंथली मीटिंग होती है, जिस में हम अपने वेतन, छुट्टियों, काम के घंटों आदि पर कंट्रोल रखती हैं. मांगें पूरी न होने पर हड़ताल करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. शिकायत ले कर थाना, कचहरी जाने में भी हमें कोई डर नहीं है, क्योंकि अंतत: जीत तो हमारी ही होनी है. कानून तो हमेशा (चाहे कोई भी दोषी हो) ससुराल विरुद्ध बहू के केस में बहू का, मकानमालिक विरुद्ध किराएदार में किराएदार का पक्ष लेता है, इसलिए मालकिन विरुद्ध नौकरानी में नौकरानी का ही पक्ष लेगा, इस का हमें पूर्ण विश्वास है. हम सर्वव्यापी हैं, सर्वशक्तिमान हैं. आप को काम पर रखना हो तो रखो, नहीं तो, मैं तो चली…

तुम मेरी हो: क्या शीतल के जख्मों पर मरहम लगा पाया सारांश- भाग 2

सारांश ने बैठक में जा कर सब से क्षमा मांगी और अपने स्थान पर किसी दूसरे व्यक्ति को बैठा कर औफिस से सीधा चुनमुन के पास आ गया. उसे देखते ही चुनमुन खिल उठा. शीतल भी मन ही मन राहत महसूस कर रही थी. चुनमुन ने सारांश को अपने घर कपड़े बदलने भी तभी जाने दिया जब उस ने रात को चुनमुन के घर ठहरने का वादा किया. शीतल के आग्रह पर सारांश रात का खाना उन के साथ ही खाने को तैयार हो गया.

तेज बुखार के कारण चुनमुन की नींद बारबार खुल रही थी, इसलिए शीतल और सारांश उस के पास ही बैठे थे. अपनेपन की एक डोर दोनों को बांध रही थी. अपने जीवन के पिछले दिन दोनों एकदूसरे के साथ सा झा कर रहे थे. सारांश का जीवन तो कमोबेश सामान्य ही बीता था, पर शीतल एक भयंकर तूफान से गुजर चुकी थी. कुछ वर्षों पहले वह अपनी दादी के घर हिमाचल के सुदूर गांव में गई थी. उन का गांव मैक्लोडगंज के पास पड़ता था जहां अकसर सैलानी आतेजाते रहते हैं. एक रात वह ठंडी हवा का आनंद लेती हुई कच्ची सड़क पर मस्ती से चली जा रही थी. अचानक एक कार उस के पास आ कर रुकी. पीछे से किसी ने उस का मुंह दबोच लिया और उसे स्त्री जन्म लेने की सजा मिल गई.

अंधेरे में वह उस दानव का चेहरा भी न देख पाई और वह तो अपने पुरुषत्त्व का दंभ भरते हुए चलता बना. उसे तो पता भी नहीं कि एक नन्हा अंकुर वह वहीं छोड़ कर जा रहा है. शीतल का नन्हा चुनमुन. मातापिता ने शीतल पर चुनमुन को अनाथाश्रम में छोड़ कर विवाह करने का दबाव बनाया पर वह नहीं मानी. लोग तरहतरह की बातें कर के उस के मातापिता को तंग न करें, इसलिए उस ने घर से दूर आ कर रहने का निर्णय कर लिया. चुनमुन उस के लिए अपनी जान से बढ़ कर था.

चुनमुन का बुखार कम हुआ तो दोनों थोड़ी देर आराम करने के लिए लेट गए. सारांश की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वह रहरह कर शीतल के बारे में सोच रहा था, ‘कितनी दर्दभरी जिंदगी जी रही हो तुम, जैसे कोई फिल्मी कहानी हो. इतनी पीड़ा सह कर भी चुनमुन का पालनपोषण ऐसा कि यह बाग का खिला हुआ फूल लगता है, टूट कर मुर झाया हुआ नहीं.

पुरुष के इतने वीभत्स रूप को देखने के बाद भी तुम मु झ से अपना दर्द बांट पाई. तुम शायद यह जानती हो कि हर पुरुष बलात्कारी नहीं होता. तुम्हारे इस विश्वास के लिए मैं तुम्हारा जितना सम्मान करूं, वह कम है. स्वयं जीवन की नकारात्मकता में जी रही हो और दूसरों को सकारात्मक ऊर्जा दे रही हो. तुम कितनी अच्छी हो, शीतल.’ शीतल को मन ही मन इस तरह सराहते हुए सारांश उस का सब से बड़ा प्रशंसक बन चुका था.

2-3 दिनों में चुनमुन का बुखार कम होना शुरू हो गया. औफिस के अलावा सारांश अपना सारा समय आजकल चुनमुन के साथ ही बिता रहा था. शीतल ने स्कूल से छुट्टियां ली हुई थीं, इसलिए बाहर से सामान आदि लाने का काम भी सारांश ही कर दिया करता था. उस का सहारा शीतल के लिए एक परिपक्व वृक्ष के समान था, फूलों से लदी बेल सी वह उस के बिना अधूरा अनुभव करने लगी थी स्वयं को. स्त्री एक लता ही तो है जो पुरुष का आश्रय पा कर और भी खिलती है तथा निस्वार्थ हो कर सब के लिए फलनाफूलना चाहती है.

चुनमुन का बुखार उतरा तो कामवाली बाई बीमार पड़ गई. दोनों घरों का काम लक्ष्मी ही देखती थी. उस ने शीतल को फोन पर सूचना दी और यह सूचना जब वह सारांश को देने पहुंची तो वह सिर पकड़ कर बैठ गया. रात को उस की मां नीलम का फोन आया था कि वे सुरभि के साथ 2 दिनों के लिए चमोली आ रही हैं. सिर्फ एक सप्ताह के लिए भारत आई थी सुरभि और सारांश से बिना मिले वापस नहीं जाना चाहती थी.

‘‘लगता है दोनों यहां आ कर काम में ही लगी रहेंगी,’’ सारांश ने निराश हो कर शीतल से कहा.

‘‘तुम क्यों फिक्र करते हो, मैं सब देख लूंगी,’’ शीतल के इन शब्दों से सारांश को कुछ राहत मिली और वह घर की चाबी शीतल को सौंप कर औफिस चला गया. सारांश की मां नीलम और सुरभि दोपहर को पहुंचने वाली थीं. शीतल ने चुनमुन की बीमारी के कारण पहले ही पूरे सप्ताह की छुट्टियां ली हुई थीं विद्यालय से.

सुरभि और मां सारांश की अनुपस्थिति में घर पहुंच गईं. शीतल के रहते उन्हें किसी भी प्रकार की समस्या नहीं हुई. सारांश के आने पर भी वह सारा घर संभाल रही थी. चुनमुन भी सारांश की मां से बहुत जल्दी घुलमिल गया.

2 दिन कैसे बीत गए, किसी को पता ही नहीं लगा. जाने से एक दिन पहले रात का खाना खाने के लिए शीतल ने सब को अपने घर पर बुलाया. घर की साजसज्जा, खाने का स्वाद, रहने का सलीका आदि से सारांश की मां शीतल से प्रभावित हुए बिना न रह सकीं. बैडरूम में पुराने गानों की सीडी और विभिन्न विषयों पर पुस्तकों का खजाना देख कर सुरभि को शीतल के शौक अपने जैसे ही लगे और वह प्रसन्नता से चहकती हुई हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ का आनंद लेने लगी. चुनमुन सारांश की मां से कहानियां सुन रहा था.

देररात भारी मन से वे शीतल के घर से आए. घर आ कर भी वे दोनों सारांश से शीतल और चुनमुन के बारे में ही बातें कर रही थीं. मौका पा कर सारांश ने शीतल की जिंदगी की दुखभरी कहानी दोनों को सुनाई और शीतल को घर की बहू बनाने का आग्रह किया. किंतु उसे जो शंका थी, वही हुआ. मां ने इस रिश्ते के लिए साफ इनकार कर दिया. सारांश के इस फैसले से सुरभि यद्यपि सहमत थी किंतु मां ने विभिन्न तर्क दे कर उस का मुंह बंद कर दिया. अगले दिन दोनों दिल्ली वापस चली गईं.

मार्मिक बदला – भाग 3 : रौनक से कौनसा बदला लेना चाहती थी रागिनी

‘‘रागिनी का कहना था कि असलम का मतलब सिर्फ खाना बनवाने

और खाने से था. टीवी पर खबर देख कर मेरे और रागिनी के परिवार के लोग भी आ गए थे. रागिनी के घर वालों का तो पता नहीं, लेकिन मैं और मेरे घर वाले रागिनी की बात को मानने को तैयार नहीं थे कि रागिनी का बलात्कार नहीं हुआ है. जब रागिनी के मम्मीपापा जाने लगे तो रागिनी भी उन के साथ जाने को तैयार हो गई. मैं ने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं की.’’

‘‘उस के बाद तो संपर्क किया होगा?’’ डा. कबीर ने पूछा.

‘‘डा. रौनक खिसिया गए कि उसी ने संपर्क किया था यह बताने को कि वह मां बनने वाली है… मैं ने छूटते ही कहा कि फिर तो पक्का हो गया कि उस के साथ बलात्कार हुआ था, क्योंकि मेरा बच्चा होने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं तो बेहद एहतियात बरतता था. सुन कर उस ने फोन रख दिया. उस के बाद आपसी सम झौते से हमारा तलाक हो गया. इसी बीच मु झे एमडी में दाखिला मिल गया और मैं ने खुद को पढ़ाई और फिर काम में  झोंक दिया.’’

‘‘रागिनी का हालचाल मालूम नहीं किया?’’

डा. रौनक ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘जिस गांव जाना नहीं उस की राह क्यों पूछता और पूछता भी किस से? एमडी करने वैल्लोर गया था, फिर वहीं से स्पैशलाइजेशन करने विभिन्न देशों में घूमता रहा सो किसी ऐसे से संपर्क ही नहीं रहा जो रागिनी के संपर्क में हो.’’

‘‘घर वालों ने शादी के लिए नहीं कहा?’’

‘‘पहली शादी के लिए ही जल्दी मचाते हैं सब लोग जो मैं ने खुद ही जल्दी मचा कर करवा ली थी. एमडी करने के दौरान ही मम्मीपापा चल बसे थे. रिश्तेदारों को दूसरी शादी करवाने का उत्साह नहीं होता और अपने को तो अकेले रहने की आदत पड़ चुकी है. बहुत देर हो गई है डा. कबीर, कमरे में चल कर आराम करना चाहिए शुभ रात्रि,’’ कह कर डा. रौनक ने हाथ मिलाया और अपने कमरे की ओर बढ़ गए.

डा. कबीर को उन का रवैया बहुत गलत लगा और उन की सहानुभूति अवहेलना में बदल गई. अगले रोज सिवा औपचारिक अभिवादन के उन्होंने डा. रौनक से कोई बात नहीं की. सम्मेलन खत्म होने के बाद सब अपनेअपने शहर लौट गए. प्राय सालभर बाद डा. कबीर को अपने भतीजे आलोक की शादी में अमृतसर जाना पड़ा. वहां शादी से पहले एक समारोह में उन के भाई ने उन्हें अपने पड़ोसी डा. भुपिंदर सिंह से मिलवाया. डा. कबीर को नाम कुछ जानापहचाना सा लगा. इस से पहले कि वे कुछ सोच पाते, उन की भतीजी ने डा. भुपिंदर सिंह से पूछा, ‘‘और सब नहीं आए अंकल?’’

‘‘सासबहू तो अपनी समाजसेवा से लौटने के बाद ही आएंगी, रूपिंदर टैनिस खेल कर आ गया है अभी कपड़े बदल कर आता होगा.’’

सासबहू और समाजसेवा… तार जुड़ते से लगे… डा. सतीश के दोस्त

भुपिंदर सिंह ही लगते हैं आतंकवाद के बैनिफिशियरी डा. कबीर दिलचस्पी से उन के पास ही बैठ गए. औपचारिक बातचीत खत्म भी नहीं हुई थी कि एक किशोर को देख कर डा. कबीर को जैसे करंट छू गया. हूबहू डा. रौनक की फोटोकौपी.

‘‘मेरा बेटा रूपिंदर, टैनिस की अंडर नाइनटीन प्रतियोगिता में भाग लेने की तैयारी कर रहा है,’’ डा भुपिंदर सिंह ने गर्व से बताया.

‘‘आई सी. और कितने बच्चे हैं आप के?’’

‘‘बस यही है जी, सवा लाख के बराबर एक. असल में इस के जन्म के बाद मम्मी ने इस की मां को अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने में लगा दिया. एमबीबीएस तो कर ही चुकी थी, एमडी करने में व्यस्त हो गई और फिर स्पैशलाइजेशन के लिए हम दोनों ही विदेश चले गए और इन्हीं व्यस्तताओं के चलते रूपिंदर को भाईबहन दिलवाने का समय निकल गया.’’

हालांकि डा. रौनक ने यह नहीं बताया था कि उन की पत्नी भी डाक्टर थी. डा. कबीर को यकीन था कि वह रागिनी है और यह यकीन कुछ ही देर में पक्का हो गया जब किसी फैशन मैगजीन में छपी महिला की तसवीर से डा. भुपिंदर सिंह ने उन का परिचय करवाया, ‘‘मेरी पत्नी रागिनी और रागिनी ये आलोक के चाचा डा. कबीर पाल हैं.’’

रागिनी ने शालीनता से हाथ जोड़े और कहा, ‘‘आलोक के चाचा होने के नाते आप का हमारे घर आना भी बनता है भाई साहब, जाने से पहले आप जरूर आइएगा.’’

‘‘जी, जरूर. पत्नी यहीं कहीं होगी भाभीजी के आसपास, उन से मिलने पर सब तय कर लीजिएगा,’’ डा. कबीर ने विनम्रता से कहा और मन ही मन सोचा कि आप से तो मु झे अकेले में मिलना ही है… पिछले वर्र्ष सुनी एकतरफा कहानी का दूसरा पहलू जानने को.

पड़ोस में रहने वाली डाक्टर रागिनी कहां काम करती हैं यह पता लगाना मुश्किल नहीं था और यह भी कि किस समय वे अपेक्षाकृत कम व्यस्त होती हैं.

शादी के अगले रोज लंच के बाद डा. कबीर रागिनी के हस्पताल पहुंच गए. रागिनी लंच के बाद अपनी कुरसी पर ही सुस्ता रही थी. डा. कबीर को देख कर चौंकना स्वाभाविक था. डा. कबीर ने बगैर किसी भूमिका के बताया कि कैसे पिछले वर्ष एक मैडिकल कौन्फ्रैंस में उन की मुलाकात डा. रौनक से हुई थी और उन्होंने अपने को आतंकवाद का शिकार बताया था. उस के बाद डा. सतीश ने अपने एक दोस्त के बारे में बताया, जो आंतकवाद की शिकार युवती से शादी कर के बहुत खुश था.

‘‘डा. रौनक की कहानी सुन कर मु झे लगा कि वे आतंकवाद के शिकार नहीं अपने वहम और पूर्वाग्रहों के शिकार हैं,’’ डा. कबीर ने कहा, ‘‘यहां आने पर रूपिंदर को देख कर मैं सम झ गया कि आतंकवाद के जिस बैनिफिशियरी का जिक्र डा. सतीश कर रहे थे वे आप के पति ही हैं. बस, जिज्ञासावश डा. रौनक से सुनी कहानी का दूसरा पहलू सुनने चला आया हूं. अगर आप को बुरा लगा हो तो धृष्टता के लिए क्षमा मांग कर चला जाता हूं.’’

‘‘अरे नहीं भाई साहब, आप पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने मु झ से बगैर मिले रौनक को गलत कहा है सो अब तो आप न भी चाहें तो भी मैं आप को अपनी कहानी सुनाऊंगी ही,’’ रागिनी हंसी.

‘‘एलकेजी से एमबीबीएस तक का सफर मैं ने और रौनक ने साथ ही तय किया था, जाहिर है ंिंजदगी का सफर भी साथ ही तय करना था, लेकिन एमडी करने के बाद जब तक एमडी में दखिला नहीं मिलता तब तक तो नौकरी करनी ही थी. मु झे संयोग से अपने शहर में ही नौकरी मिल गई, लेकिन रौनक को जम्मू के एक सीमावर्ती गांव में हालांकि उस गांव में मेरे लिए कोई काम नहीं था फिर भी रौनक के अकेलेपन के रोने से द्रवित हो कर मैं ने मम्मीपापा को शादी के लिए मना लिया. उस रात जो हुआ वह अप्रत्याशित था, लेकिन उस से भी ज्यादा अप्रत्याशित था रौनक का व्यवहार.

‘‘रौनक के जाते ही घुसपैठियों ने मु झे चाय और फिर दालचावल बनाने को कहा. वे लोग खाना खा ही रहे थे कि पुलिस आ गई और खाना छोड़ कर उन्होंने खिड़कियों पर मोरचा संभाल लिया और आतेजाते मु झ पर लातघूसों की बौछार करते रहे. उन्हें इतना समय ही कहां मिला कि मेरे साथ कुछ करते, इस का सुबूत अधखाया खाना और चाय के जूठे बरतन थे.

‘‘उसी रौनक ने जिस ने यह कह कर शादी की थी कि वह मेरे बिना जीने की

कल्पना भी नहीं कर सकता, मु झ पर और सुबूतों पर यकीन करने से इनकार कर दिया. एक डाक्टर होने के नाते क्या रौनक को मालूम नहीं है कि कोई भी गर्भनिरोधक उपाय शतप्रतिशत सुरक्षित नहीं होता. खैर, सब के सम झाने के बावजूद मैं ने गर्भपात नहीं करवाया.

‘‘उस हालत में न तो नौकरी कर सकती थी न ही पढ़ाई, मगर खाली घर बैठना भी नहीं चाहती थी सो मैं ने समय काटने के लिए एक एनजीओ जौइन कर लिया. वहां की संचालिका स्नेहदीप कौर ने मु झे अपने पुत्र के लिए पसंद कर लिया और पुत्र ने भी यह कह कर किसी का भी बच्चा होने दो, कहलाएगा तो यह मेरा बच्चा ही और मैं इसे इतना अच्छा इनसान बनाऊंगा. मु झे शादी के लिए मना लिया. संयोग से रूपिंदर पासपड़ोस में भी सभी का चहेता है.

‘‘वैसे तो मैं रौनक को भूल चुकी हूं और मन ही मन उन घुसपैठियों का भी धन्यवाद करती हूं, जिन के कारण मु झे भुपिंदर जैसे पति और स्नेहदीप जैसी सास मिलीं, जिन के सहयोग से मैं आज एक जानीमानी गाइनौकोलौजिस्ट हूं, मगर अभी भी यदाकदा रौनक का व्यवहार याद कर के तिलमिला जाती हूं और उस से बदला लेने को जी चाहता है. आप के पास रौनक का पता है?’’

‘‘संपर्क तो नहीं रखा उस से, लेकिन यह तो जानता ही हूं कि कहां काम करता है. मिलना चाहेंगी उस से?’’

‘‘कदापि नहीं. बस उस से मूक बदला लेने को रूपिंदर की तसवीर भेजना चाहूंगी यह सिद्ध करने को कि न तो गर्भनिरोधक उपायों पर विश्वास करना चाहिए और न ही बचपन के प्यार पर जो करने की भूल मैं ने करी थी.’’

डा. कबीर ने चुपचाप एक कागज पर डा. रौनक का पता लिख दिया.

 

तुम मेरी हो: क्या शीतल के जख्मों पर मरहम लगा पाया सारांश- भाग 1

सारांश का स्थानांतरण अचानक ही चमोली में हो गया. यहां आ कर उसे नया अनुभव हो रहा था. एक तो पहाड़ी इलाका, उस पर जानपहचान का कोई भी नहीं. पहाड़ी इलाकों में मकान दूरदूर होते हैं. दिल्ली जैसे शहर में रह कर सारांश को ट्रैफिक का शोर, गानों की आवाजें और लोगों की बातचीत के तेज स्वर सुनने की आदत सी पड़ गई थी. किंतु यहां तो किसी को देखने के लिए भी वह तरस जाता था. जिस किराए के मकान में वह रह रहा था, वह दोमंजिला था. ऊपर के घर से कभीकभी एक बच्चे की मीठी सी आवाज कानों में पड़ जाती थी. पर कभी आतेजाते किसी से सामना नहीं हुआ था उस का.

उस दिन रविवार को नाश्ता कर के वह बाहर लौन में कुरसी पर आ कर बैठ गया. पास ही मेज पर उस ने लैपटौप रखा हुआ था. कौफी के घूंट भरते हुए वह औफिस का काम निबटा रहा था, तभी अचानक मेज पर रखे कौफी के मग में ‘छपाक’ की आवाज आई. सारांश ने एक तरफ जा कर कौफी घास पर उड़ेल दी. इतनी देर में ही पीछे से एक बच्चे की प्यारी सी आवाज सुनाई दी, ‘‘अंकल, मेरा मोबाइल.’’

सारांश ने मुड़ कर बच्चे की ओर देखा और मुसकराते हुए पास रखे टिशू पेपर से कौफी में गिरे हुए फोन को साफ करने लगा.

‘‘लाइए अंकल, मैं कर लूंगा,’’ कहते हुए बच्चे ने अपना नन्हा हाथ आगे बढ़ा दिया.

किंतु फोन सारांश ने साफ कर दिया और बच्चे को थमा दिया. बच्चा जल्दी से फोन को औन करने लगा. लेकिन कईर् बार कोशिश करने के बाद भी वह औन नहीं हुआ. बच्चे का मासूम चेहरा रोंआसा हो गया.

उस की उदासी दूर करने के लिए सारांश बोला. ‘‘अरे, वाह, तुम्हारा फोन तो छलांग मार कर मेरी कौफी में कूद गया था. अभी स्विमिंग पूल से निकला है, थोड़ा आराम करने दो, फिर औन कर के देख लेना. चलो, थोड़ी देर मेरे पास बैठो, नाम बताओ अपना.’’

‘‘अंकल, मेरा नाम प्रियांश है,’’ पास रखी दूसरी कुरसी पर बैठता हुआ वह बोला, ‘‘पर यह मोबाइल औन क्यों नहीं हो रहा, खराब हो गया है क्या?’’ चिंतित हो कर वह सारांश की ओर देखने लगा.

‘‘शायद, पर कोई बात नहीं. मैं तुम्हारे पापा से कह दूंगा कि इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं है, अपनेआप छूट गया था न फोन तुम्हारे हाथ से?’’

‘‘हां अंकल, मैं हाथ में फोन को पकड़ कर ऊपर से आप को देख रहा था,’’ भोलेपन से उस ने कहा.

‘‘फिर तो पापा जरूर नया फोन दिला देंगे तुम्हें. हां, एक बात और, तुम इतने प्यारे हो कि मैं तुम्हें चुनमुन नाम से बुलाऊंगा, ठीक है?’’ सारांश ने स्नेह से प्रियांश की ओर देखते हुए कहा.

‘‘बुला लेना चुनमुन कह कर, मम्मी भी कभीकभी मुनमुन कह देती हैं मु झे. पर मेरे पापा तो बहुत दूर रहते हैं. मु झ से कभी मिलने भी नहीं आते. अब मैं नानी से फोन पर बात कैसे करूंगा?’’ कहते हुए चुनमुन की आंखें डबडबा गईं.

सारांश को चुनमुन पर तरस आ गया. प्यार से उस के गालों को थपथपाता हुआ वह बोला, ‘‘चलो, हम दोनों बाजार चलते हैं, मैं दिला दूंगा तुम को मोबाइल फोन.’’

‘‘पर अंकल, मेरी मम्मी नहीं मानेंगी न,’’ चुनमुन ने नाक चढ़ाते हुए ऊपर अपने घर की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘अरे, आप की मम्मी को मैं मना लूंगा. हम दोनों तो दोस्त बन गए न, तुम्हारा नाम प्रियांश और मेरा सारांश. चलो, तुम्हारे घर चलते हैं,’’ कहते हुए सारांश ने चुनमुन का हाथ थाम लिया और सीढि़यों पर चढ़ना शुरू कर दिया.

दरवाजे पर नाइटी पहने खड़ी गौरवर्ण की आकर्षक महिला शायद चुनमुन का इंतजार कर रही थी. सारांश को देख कर वह एक बार थोड़ी सकपकाई, फिर मुसकरा कर अंदर आने को कहती हुई आगेआगे चलने लगी. भीतर आ कर सारांश ने अपना परिचय दिया.

उस के बारे में वह केवल इतना ही जान पाया कि उस का नाम शीतल है और पास के ही एक विद्यालय में अध्यापिका है. चुनमुन ने मोबाइल की घटना एक सांस में बता दी शीतल को, और साथ ही यह भी कि अंकल ने उस का नाम चुनमुन रखा है, इसलिए शीतल भी उसे इसी नाम से बुलाया करे, मुनमुन तो किसी लड़की के नाम जैसा लगता है.

शीतल रसोई में चली गई और सारांश चुनमुन से बातें करने लगा. तब तक शीतल फू्रट जूस ले कर आ गई. सारांश ने शाम को बाजार जाने का कार्यक्रम बना लिया. शीतल को भी बाजार में कुछ काम था. पहले तो वह साथ जाने में थोड़ी  िझ झक रही थी, पर सारांश के आग्रह को वह टाल न सकी.

तीनों शाम को सारांश की कार में बाजार गए और रात को बाहर से ही खाना खा कर घर लौटे. बाजार में चुनमुन सारांश की उंगली पकड़े ही रहा. सारांश भी कई दिनों से अकेलेपन से जू झ रहा था. इसलिए उसे भी उन दोनों के साथ एक अपनत्व का एहसास हो रहा था. शीतल के चेहरे पर आई चमक को सारांश साफसाफ देख पा रहा था. वह खुश था कि पड़ोसी एकदूसरे के साथ किस प्रकार एक परिवार की तरह जु

उस दिन के बाद चुनमुन अकसर सारांश के पास आ जाया करता था, सारांश भी कभीकभी उन के घर जा कर बैठ जाता था. सारांश को शीतल ने बताया कि उस के मातापिता हिमाचल प्रदेश में रहते हैं. ससुराल पक्ष के विषय में उस ने कभी कुछ नहीं बताया. सारांश भी अकसर उन को अपने मातापिता व छोटी बहन सुरभि के विषय में बताता रहता था. पिता दिल्ली में एक व्यापारी थे जबकि छोटी बहन एक साल से मिस्र में अपने पति के साथ रह रही थी.

उस दिन सारांश औफिस में बाहर से आए हुए कुछ व्यक्तियों के साथ व्यस्त था. एक महत्त्वपूर्ण बैठक चल रही थी. उस के फोन पर बारबार चुनमुन का फोन आ रहा था. सारांश ने 3-4 बार फोन काट दिया पर चुनमुन लगातार फोन किए जा रहा था. बैठक के बीच में ही बाहर जा कर सारांश ने उस से बात की.

चुनमुन को तेज बुखार था. शीतल ने डाक्टर को दिखा कर दवाई दिलवा दी थी और लगातार उस के पास ही बैठी थी. पर चुनमुन तो जैसे सारांश को ही अपनी पीड़ा बताना चाहता था. सारांश के दुलार से मिला अपनापन वह अपने नन्हे से मन में थाम कर रखना चाहता था.

मार्मिक बदला – भाग 2 : रौनक से कौनसा बदला लेना चाहती थी रागिनी

‘‘आप लोग जाइए शौपिंग के लिए, मैं डाक्टर रौनक के साथ कुछ समय बिताना चाहूंगा. उन की दुखती रग छेड़ने के बाद उन का ध्यान बंटाना तो बनता है,’’ डा. कबीर ने कहा.

डा. रौनक उन्हें गैस्टहाउस के लौन में ही टहलते हुए मिल गए, उन्होंने धीरे से उन के कंधे पर हाथ रख दिया.

‘‘अरे, आप डा. कबीर?’’ डा. रौनक ने चौंक कर कहा, ‘‘आप तो शौपिंग के लिए गए थे?’’

‘‘मगर यहां परदेश में आप को अकेले उदास छोड़ना अच्छा नहीं लगा सो लौट आया, शौपिंग कल कर लेंगे.’’

‘‘मेरे लिए इतना सोचने के लिए बहुतबहुत धन्यवाद कबीर भाई,’’ डा. रौनक नम्रता से बोले, ‘‘मेरी उदासी तो मेरी परछाईं है, देशपरदेश की साथिन उस के लिए आप अपना प्रोग्राम खराब मत करिए.’’

‘‘काहे का प्रोग्राम यार,’’ डा. कबीर भी अनौपचारिक हो गए, ‘‘हर जगह हर चीज मिलती है, लेकिन चाहे 2 रोज को भी अपने शहर से दूर जाओ फैमिली के लिए वापसी में कुछ ले कर आने का रिवाज बन गया है. बस इसीलिए भाई लोग बाजार चले गए हैं.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं, बहुत पुराना रिवाज है यह. पापा जब भी दौरे पर जाते थे तो मां और बहनें अटकलें लगाने लगती थीं कि वे क्याक्या ले कर आएंगे.’’

‘‘और आप की पत्नी?’’

‘‘कह नहीं सकता, क्योंकि उस समय तो मेरी शादी ही नहीं हुई थी और शादी के बाद रागिनी को छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं हुआ. बहुत ही कम समय मिला उस के साथ रहने को,’’ डा. रौनक ने गहरी सांस ले कर कहा.

‘‘उफ, आई एम सो सौरी,’’ डा. कबीर का स्वर भीग गया, ‘‘वैसे हुआ कैसे ये सब?’’

‘‘डाक्टर बनते ही पहली पोस्टिंग जम्मू के एक सीमावर्ती गांव में हुई थी. जगह सुंदर थी, खानेपीने की दिक्कत भी नहीं थी, लेकिन अकेलापन बहुत था और उसे ही बांटने के लिए मैं ने रागिनी से शादी कर ली. बहुत मजे में गुजर रही थी जिंदगी.

‘‘एक रात घंटी बजने पर जब मैं ने दरवाजा खोला तो मुंहसिर लपेटे 6-7 लोग

एकदम अंदर घुस आए. उन में से एक बुरी तरह जख्मी था. उन की वेशभूषा से ही मैं सम झ गया कि वे सब सीमापार के घुसपैठिए हैं. एक ने मु झ पर बंदूक तान कर कहा कि मैं उन के जख्मी साथी का इलाज करूं. उसे देखने के बाद मैं ने कहा कि उस के जख्म बहुत गहरे हैं और इलाज की दवाइयां मेरे पास नहीं हैं. मेरे पास तो तुरंत खून रोकने के लिए बांधने को पट्टी भी नहीं थी.

‘‘बीवी का दुपट्टा फाड़ कर बांधा और अपनी मोटरसाइकिल पर जा कर तुरंत जरूरी दवाइयां लाने को तैयार हो गया.

‘‘रागिनी जो गले से दुपट्टा खींचे जाने पर तिलमिलाई हुई थी चिल्ला कर बोली कि ये कहीं नहीं जाएंगे.’’

‘‘इस का तो बाप भी जाएगा और तेरी तो मैं अभी ऐसी की तैसी करता हूं,’’ दांत किटकिटाता एक बंदूकधारी रागिनी की ओर लपका.

‘‘इसे मारना नहीं हिरासत में रखना है असलम, तभी तो यह डाक्टर दवाइयां ले कर जल्दी से लौटेगा,’’ दूसरे बंदूकधारी ने उसे रोका.

‘‘ठीक कहते हो उस्ताद, तब तक इस औरत से हम खिदमत करवाते हैं. भूखे हैं कब से. चल, डाक्टर फौरन इलाज का सामान ले कर आ और देख पुलिसवुलिस को बुलाने की हिमाकत करी तो तेरी बीवी जिंदा नहीं बचेगी.’’

‘‘मेरे जिंदा रहने की फिक्र मत करना रौनक…’’ रागिनी चिल्लाई.

यही उस की गलती थी. घुसपैठिए सर्तक

हो गए और उन्होंने अपने एक साथी अकरम

को मेरे कपड़े पहना कर मेरी कमर में पिस्तौल सटा कर मेरे पीछे मोटरसाइकिल पर बैठा दिया. इस बीच रागिनी चिल्लाती रही कि मेरी परवाह मत करना.

‘‘उस के चिल्लाने से शायद मेरी हिम्मत बढ़ी और दवा की दुकान पर कई लोगों को देखते ही मैं चिल्ला पड़ा कि यह आतंकवादी है मु झे इस से बचाओ.’’

इस से पहले कि अकरम कुछ कर पाता कुछ लोगों ने उसे दबोच कर उस की पिस्तौल छीन ली. उस के बाद पुलिस और फिर मिलिटरी ने हमारे घर को घेर लिया. घर में चारों तरफ खिड़कियां थी जिन से घुसपैठिए गोलियां दाग कर किसी को घर के पास नहीं फटकने दे रहे थे और घर के करीब न कोईर् दूसरा घर था और न ही कोई पेड़, जिस पर चढ़ कर सिपाही छत पर पहुंच सकते.

‘‘रागिनी ने जिद कर के यह घर लिया ही इसलिए था कि ताक झांक का डर न होने से हम उन्मुक्त हो कर जीया करेंगे. कई घंटों तक अंदर से गोलाबारी बंद होने यानी घुसपैठियों के असले के खत्म होने का इंतजार करने के बाद हार कर हैलिकौप्टर के जरीए कमांडो छत पर उतारे गए. सब घुसपैठियों ने खुद को गोली मार दी.

‘‘रागिनी रसोई के फर्श पर बेसुध पड़ी थी. थोड़े से उपचार के बाद वह ठीक हो गई. उस ने बताया कि पहले तो घुसपैठिए उस से लगातार चाय, खाना बनवाते रहे, लेकिन मकान की घेराबंदी के बाद उन्होंने उस पर लातघूसें बरसाने शुरू कर दिए कि इसी के उकसाने पर डाक्टर पुलिस ले कर आया है. उस का कहना था कि इस के अलावा उन्होंने उस के साथ कुछ गलत नहीं किया. मु झे उस का यह कहना बिलकुल अविश्वसनीय लगा. इतनी खूबसूरत अकेली जवान औरत को कौन ऐसे ही छोड़ेगा और यह कहने के बाद कि यह हमारी खिदमत करेगी, हम भूखे हैं.

मार्मिक बदला – भाग 1 : रौनक से कौनसा बदला लेना चाहती थी रागिनी

अखिलभारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के वार्षिक सम्मेलन में कई विषयों पर संगोष्ठियां हो रही थीं. एक शाम ऐसी ही एक संगोष्ठी के समाप्त होने पर कुछ डाक्टर उसी विषय पर बात करते हुए परिसर में बने अतिथिगृह में अपनेअपने कमरे की ओर जा रहे थे.

‘‘डा. रंजन ने ठीक कहा है कि सब बीमारियों की जड़ मिलावट और कुपोषण है,’’ एक डाक्टर कह रहा था, ‘‘जिस के चलते आधुनिक चिकित्सा कोई चमत्कार नहीं दिखा सकती.’’

‘‘सही कह रहे हैं डा. सतीश. ये दोनों चीजें जीवन का विनाश कर सकती हैं. मिलावटखोरों को मानवता का दुश्मन घोषित कर देना चाहिए.’’

‘‘मिलावटखोर ही नहीं आतंकवादी भी मानवता के दुश्मन हैं डा. चंद्रा. कितने ही खुशहाल घरों को पलभर में उजाड़ कर रख देते हैं, लेकिन आज तक उन पर ही कोई रोक नहीं लग सकी तो मिलावटखोरों पर कहां लगेगी? आज रोज कुपोषण की रोकथाम के लिए अनेक छोटेबड़े क्लब पांच सितारा होटलों में मिलते हैं  झुग्गी झोंपडि़यों में रहने वाले बच्चों को कितना दूध दिया जाए इस पर विचारविमर्श करने को…’’

‘‘आप ठीक कहते हैं डा. कबीर हम सिर्फ विचारविमर्श और बातें ही कर सकते हैं. इस से पहले की हम बातों में उल झ जाएं और डाइनिंगरूम में बैठने की जगह भी न मिले, चलिए अपनेअपने कमरे में जाने से पहले खाना खा लें,’’ डा. चंद्रा ने कहा.

सब लोग डाइनिंगरूम में चले गए. खाना खा कर जब सब बाहर निकले तो डा. चंद्रा ने कहा, ‘‘मैं तो फैमिली के लिए शौपिंग करने जा रहा हूं, आप लोग चलेंगे?’’

‘‘अभी से कमरे में बैठ कर भी क्या करेंगे, चलिए शौपिंग ही करते हैं. आप भी चलिए न डा. रौनक,’’ डा. कबीर ने बेमन से खड़े व्यक्ति की ओर देख कर कहा.

‘‘धन्यवाद डा. कबीर, लेकिन मु झे किसी चीज की जरूरत नहीं है.’’

‘‘हम अपनी जरूरत के लिए नहीं फैमिली के लिए शौपिंग करने जा रहे हैं.’’

‘‘लेकिन मेरी फैमिली भी नहीं है,’’ डा. रौनक का स्वर संयत होते हुए भी भीगा सा लग रहा था.

‘‘यानी आप घरगृहस्थी के चक्कर में नहीं पड़े हैं.’’

‘‘ऐसा तो नहीं है डा. चंद्रा,’’ डा. रौनक ने उसांस ले कर कहा, ‘‘जैसाकि कुछ देर पहले डा. कबीर ने कहा था कि आतंकवादी पलभर में एक खुशहाल परिवार को उजाड़ देते हैं. मेरी जिंदगी की खुशियां भी आतंकवाद की आंधी उड़ा ले गई. खैर छोडि़ए, ये सब. आप लोग चलिए, देर कर दी तो मार्केट बंद हो जाएगी,’’ किसी को कुछ कहने का मौका दिए बगैर डा. रौनक तेजी से अपने कमरे की ओर बढ़ गए.

‘‘मु झे यह आतंकवाद वाली बात करनी ही नहीं चाहिए थी. इसे सुनने के बाद ही डा. रौनक एकदम गुमसुम हो गए थे, खाना भी ठीक से नहीं खाया,’’ डा. कबीर बोले.

‘‘आप को मालूम थोड़े ही था कि डा. रौनक आतंकवाद के शिकार हैं,’’ डा. चंद्रा ने कहा.

‘‘हरेक शै के अच्छेबुरे पहलु होते हैं. डा. रौनक आतंकवाद का शिकार हैं और मेरे एक मित्र डा. भुपिंदर सिंह आतंकवाद के बैनिफिशियरी,’’ डा. सतीश ने कहा, ‘‘भुपिंदर की माताजी एक समाजसेविका हैं. उन्होंने आतंकवाद की शिकार एक युवती से उस की शादी करवा दी और भुपिंदर शादी के बाद बेहद खुश हैं.’’

‘‘अरे वाह, पहली बार सुना कि कोई समाजसेविका किसी हालात की मारी को अपनी बहू बना ले और बेटा भी मान जाए.’’

‘‘हम ने भी ऐसा पहली बार ही सुना और देखा था. असल में भुपिंदर की माताजी बहुत ही कड़क और अनुशासनप्रिय हैं और भुपिंदर ने सोचा था कि सुख से जीना है तो शादी मां की पसंद की लड़की से ही करनी होगी, चाहे अच्छी हो या बुरी. लेकिन मां ने तो उसे एक नायाब हीरा थमा दिया है…’’

‘‘यानी लड़की सुंदर और पढ़ीलिखी है?’’ कबीर ने बात काटी.

‘‘डाक्टर है और बेहद खूबसूरत. व्यस्त गाइनौकोलौजिस्ट होने के बावजूद सासूमां की समाजसेवा में समय लगाती है सो वे उस से बहुत खुश रहती हैं और भुपिंदर के घरसंसार में सुखशांति,’’ डा. चंद्रा ने बताया.

 

नहीं बचे आंसू: सुधा ने कैसे उठाया जवानी का फायदा

सुधा का पति राम सजीवन दूरसंचार महकमे में लाइनमैन था. एक दिन काम के दौरान वह खंभे से गिर गया. उसे गहरी चोट लगी. अस्पताल ले जाते समय रास्ते में उस ने दम तोड़ दिया.

सुधा की जिंदगी में अंधेरा छा गया. वह कम पढ़ीलिखी देहाती औरत थी. उस के 2 मासूम बच्चे थे. बड़ा बेटा पहली क्लास में पढ़ता था और छोटा 2 साल का था.

पति का क्रियाकर्म हो गया, तो सुधा ससुराल से मायके चली आई. वहां उस के बड़े भाई सुखनंदन ने कहा, ‘‘बहन, जो होना था, वह तो हो ही गया. गम भुलाओ और आगे की सोचो. बताओ कि नौकरी करोगी? बहनोई की जगह तुम्हें नौकरी मिल जाएगी. एक नेता मेरे जानने वाले हैं. उन से कहूंगा तो वे जल्दी ही तुम्हें नौकरी पर रखवा देंगे.’’

‘‘कुछ तो करना ही होगा भैया, वरना इन बच्चों का क्या होगा? लेकिन, मैं 8वीं जमात तक ही तो पढ़ी हूं. क्या मुझे नौकरी मिल जाएगी?’’ सुधा ने पूछा.

‘‘चपरासी की नौकरी तो मिल ही जाएगी. मैं आज ही नेता से मिलता हूं,’’ सुखनंदन बोला.

सुखनंदन की दौड़धूप काम आई और सुधा को जल्दी ही नौकरी मिल गई. ‘‘बहन, तुम बच्चों को ले कर शहर में रहो. मैं वहां आताजाता रहूंगा. कोई चिंता की बात नहीं है. तुम्हारी तरह बहुत सी औरतें हैं दुनिया में, जो हिम्मत से काम ले कर अपनी और बच्चों की जिंदगी संवार रही हैं,’’ सुखनंदन ने बहन का हौसला बढ़ाया.

सुधा शहर आ गई और किराए के मकान में रह कर चपरासी की नौकरी करने लगी. उस ने पास के स्कूल में बड़े बेटे का दाखिला करा दिया.

सुखनंदन सुधा का पूरा खयाल रखता था. वह बीचबीच में गांव से राशन वगैरह ले कर आया करता था. फोन पर तो रोज ही बात कर लिया करता था.

सुधा खूबसूरत और जवान थी. महकमे के कई अफसर और बाबू उसे देख कर लार टपकाते रहते थे. उस से नजदीकी बनाने के लिए भी कोई उस के प्रति हमदर्दी जताता, तो कोई रुपएपैसे का लालच देता.

सुधा का मकान मालिक भी रसिया किस्म का था. वह नशेड़ी भी था. सुधा पर उस की नीयत खराब थी. कभीकभी शराब के नशे में वह आधी रात में उस का दरवाजा खटखटाया करता था. आतेजाते कई मनचले भी सुधा को छेड़ा करते थे. किसी तरह दिन कटते रहे और सुधा खुद को बचाती रही. उस के साथ राजू नाम का एक चपरासी काम करता था. वह उस का दीवाना था, लेकिन दिल की बात जबान पर नहीं ला पा रहा था.

राजू बदमाश किस्म का आदमी था और शराब का नशा भी करता था. वह अकसर लोगों के साथ मारपीट किया करता था, लेकिन सुधा से बेहद अच्छी बातें किया करता था.

राजू उसे भरोसा दिलाता था, ‘‘मेरे रहते चिंता बिलकुल मत करना. कोई आंख उठा कर देखे तो बताना… मैं उस की आंख निकाल लूंगा.’’

सुधा को राजू अकसर घर भी छोड़ दिया करता था. कुछ दिनों बाद राजू सुधा को घुमानेफिराने भी लगा. सुधा को भी उस का साथ भाने लगा. वह राजू से खुल कर हंसनेबोलने लगी.

जल्दी ही दोनों के बीच प्यार हो गया. अब तो राजू उस के घर आ कर उठनेबैठने लगा. सुधा के बच्चे उसे ‘अंकल’ कहने लगे. वह बच्चों के लिए खानेपीने की चीजें भी लाया करता था.

सुधा के पड़ोस में एक और किराएदार रहता था. राजू ने उस से दोस्ती कर ली.

एक दिन वह किराएदार अपने गांव जाने लगा, तो राजू ने उस से मकान की चाबी मांग ली. दिन में उस ने सुधा से कहा, ‘‘आज रात मैं तुम्हारे साथ गुजारूंगा.’’

‘‘लेकिन, कैसे? बच्चे भी तो हैं,’’ सुधा ने समस्या रखी.

‘‘उस की चिंता तुम बिलकुल न करो…’’ यह कह कर उस ने जेब से चाबी निकाली और कहा, ‘‘यह देखो, मैं ने सुबह ही इंतजाम कर लिया है. आज तुम्हारा पड़ोसी गांव चला गया है. रात को मैं आऊंगा और उसी के कमरे में…’’

सुधा मुसकराई और फिर शरमा कर उस ने सिर झुका लिया. उस की भी इच्छा हो रही थी और वह राजू की बांहों में समा जाना चाहती थी.

राजू देर रात शराब के नशे में आया. उस ने सुधा के पड़ोसी के मकान का दरवाजा खोला. आहट मिली तो सुधा जाग गई. उस के दोनों बेटे सो रहे थे. उस ने आहिस्ता से अपना दरवाजा बंद किया और पड़ोसी के कमरे में चली गई.

राजू ने फौरन दरवाजा बंद कर लिया. उस के बाद जो होना था, वह देर रात तक होता रहा. लंबे अरसे बाद उस रात सुधा को जिस्मानी सुख मिला था. वह राजू की बांहों में खो गई थी. तड़के राजू चला गया और सुधा अपने कमरे में आ गई.

सुधा और पड़ोसी के मकान के बीच जो दीवार थी, उस में दरवाजा लगा था. पहले जो किराएदार रहता था, उस ने दोनों कमरे ले रखे थे. वह जब मकान छोड़ कर गया, तो मालिक ने दोनों कमरों के बीच का दरवाजा बंद कर दिया और ज्यादा किराए के लालच में 2 किराएदार रख लिए. अब उसे एक हजार की जगह 2 हजार रुपए मिलने लगे.

उस रात के बाद राजू अकसर सुधा के घर देर रात आने लगा. कई बार सुधा का भाई सुबहसुबह ही आ जाता और राजू अंदर. ऐसी हालत में बीच का दरवाजा काम आता था. राजू उस दरवाजे से पड़ोसी के मकान में दाखिल हो जाता था.

सुधा के भाई को कभी शक ही नहीं हुआ कि बहन क्या गुल खिला रही है. वह तो उसे सीधीसादी, गांव की भोलीभाली औरत मानता था. राजू का अपना भी परिवार था. बीवी थी, 4 बच्चे थे. परिवार के साथ वह किसी झुग्गी बस्ती में रहता था. बीवी उस से बेहद परेशान थी, क्योंकि वह पगार का काफी हिस्सा शराबखोरी में उड़ा दिया करता था.

बीवी मना करती, तो राजू उस के साथ मारपीट भी करता था. पैसों के बिना न तो ठीक से घर चल रहा था और न ही बच्चे पढ़लिख पा रहे थे.

पहले तो राजू कुछ रुपए घर में दे दिया करता था, लेकिन जब से उस की सुधा से नजदीकी बढ़ी, तब से पूरी तनख्वाह ला कर उसे ही थमा दिया करता था.

सुधा उस के पैसों से अपना शहर का खर्च चलाती और अपनी तनख्वाह बैंक में जमा कर देती. वह काफी चालाक हो गई थी. राजू डालडाल तो सुधा पातपात थी.

उधर राजू की बीवी घर चलाने के लिए कई बड़े लोगों के घरों में नौकरानी का काम करने लगी थी. वह खून के आंसू रो रही थी. लेकिन उस ने कोई गलत रास्ता नहीं चुना, मेहनत कर के किसी तरह बच्चों को पालती रही.

कुछ साल बाद रकम जुड़ गई, तो सुधा ने ससुराल में अपना मकान बनवा लिया. ससुराल वालों ने हालांकि उस का विरोध किया कि वह गांव में न रहे, वे उस का हिस्सा हड़प कर जाना चाहते थे, लेकिन पैसा मुट्ठी में होने से सुधा में ताकत आ गई थी. उस ने जेठ को धमकाया, तो वह डर गया. सुधा का बढि़या मकान बन गया.

‘‘भैया, तुम मेरा पास के टैलीफोन के दफ्तर में ट्रांसफर करा दो नेता से कह कर. इस से मैं घर और खेतीबारी भी देख सकूंगी,’’ एक दिन सुधा ने भाईर् से कहा.

‘‘मैं कोशिश करता हूं,’’  सुखनंदन ने उसे भरोसा दिलाया.

कुछ महीने बाद सुधा का तबादला उस के गांव के पास के कसबे में हो गया. यह जानकारी जब राजू को हुई, तो वह बेहद गुस्सा हुआ और बोला, ‘‘मेरे साथ इतनी बड़ी गद्दारी? तुम्हारे चलते मैं ने अपने बालबच्चे छोड़ दिए और तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी? ऐसा कतई नहीं होगा. या तो मैं तुम्हें मार डालूंगा या खुद ही जान दे दूंगा. तुम्हारी जुदाई मैं बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा.’’

‘‘राजू, तुम मरो या जीओ, इस से मेरा कोई मतलब नहीं. यह मेरी मजबूरी थी कि मैं ने तुम से संबंध बनाया. तमाम लोगों से बचने के लिए मैं ने तुम्हारा हाथ पकड़ा. अब मेरा सारा काम बन चुका है. मुझे हाथ उठाने के बारे में सोचना भी नहीं, वरना जेल की हवा खाओगे. आज के बाद मुझ से मिलना भी नहीं,’’ सुधा ने धमकाया.

राजू डर गया. वह सुधा के सामने रोनेगिड़गिड़ाने लगा, लेकिन सुधा का दिल नहीं पसीजा. अगले ही दिन वह मकान खाली कर गांव चली गई.

प्यार में पागल राजू सुधा का गम बरदाश्त नहीं कर सका. कुछ दिन बाद उस ने फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली. जब राजू की पत्नी को उस के मरने की खबर मिली, तो वह बोली, ‘‘मेरे लिए तो वह बहुत पहले ही मर गया था. उस ने मुझे इतना रुलाया कि आज उस की मिट्टी के सामने रोने के लिए मेरी आंखों में आंसू नहीं बचे हैं,’’ यह कह कर वह बेहोश हो कर गिर पड़ी.

राजू के घर के सामने लोगों की भीड़ लग गई. लोग पानी के छींटे मार कर उस की पत्नी को होश में लाने की कोशिश कर रहे थे.

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