फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह: संघर्षों की बुनियाद पर सफलता की दास्तान

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो संसार में आते हैं तो किसी को भनक तक नहीं होती, लेकिन उन की मौत पर दुनिया को बेतहाशा दुख होता है. ऐसे ही महान इंसानों में मिल्खा सिंह को शामिल किया जा सकता है. जिन्होंने अपनी मेहनत और जज्बे की बदौलत सफलता की ऐसी दास्तान लिखी कि…

भारत के महान फर्राटा धावक मिल्खा सिंह पिछले महीने कोरोना संक्रमण से जूझने के बाद ठीक हो गए थे.

लेकिन कुछ रोज पहले उन की तबीयत फिर से बिगड़ गई, जिस के बाद उन्हें चंडीगढ़ के पीजीआईएमईआर के आईसीयू में भरती कराया गया था. लेकिन दुनिया के बड़े से बडे़ धावकों को पछाड़ने वाले इस धावक को आखिर 18 जून, 2021 की रात साढे़ 11 बजे उन की बीमारी ने हरा दिया.

मिल्खा सिंह की हालत 18 जून की शाम से ही खराब थी. बुखार के साथ उन की औक्सीजन भी कम हो गई थी. उन्हें पिछले महीने कोरोना हुआ था, लेकिन 2 दिन पहले उन की रिपोर्ट नेगेटिव आने के बावजूद तबियत में सुधार नहीं हो रहा था. जिस कारण 2 दिन पहले उन्हें जनरल आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया था, वहां उन की हालत स्थिर बनी हुई थी.

दुखद बात यह थी कि उन की पत्नी 85 वर्षीय निर्मल कौर का भी 5 दिन पहले एक निजी अस्पताल में कोरोना बीमारी के कारण निधन हो गया था. बीमारी से जूझ रहे मिल्खा सिंह को प्राण छोड़ते समय तक इस बात का मलाल था कि वह जीवन के कठिन संघर्षों में उन का साथ निभाने वाली जीवनसंगिनी के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो सके थे. उन की पत्नी भारतीय वालीबाल टीम की पूर्व कप्तान रही थीं.

मिल्खा सिंह के निधन की खबर से देश के खेल जगत से एक ऐसा सितारा टूट कर लुप्त हो गया है, जिस की भरपाई होना बेहद मुश्किल है. मिल्खा सिंह के जन्म से ले कर उन के अवसान तक की कहानी किसी ऐतिहासिक फिल्म की कहानी की तरह है, जो युवाओं को प्रेरित करने वाली है.

मिल्खा सिंह का जन्म 20 नवंबर, 1929 को गोविंदपुरा (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) के एक सिख राठौर (राजपूत) परिवार में हुआ था. अपने मांबाप की कुल 15 संतानों में वह एक थे. उन्होंने अपनी पढ़ाई की शुरुआत वहां के एक स्कूल से की और करीब 5वीं कक्षा तक अपनी पढ़ाई की. उन का बचपन 2 कमरों के घर में रहने वाले परिवार के साथ गरीबी में बीता. इस में एक कमरा पशुओं के लिए था.

1947 में भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान उन्होंने अपने मातापिता को खो दिया. उस दौरान विभाजन के लिए हुए मजहबी दंगों में उन के कई भाईबहन समेत परिवार के कई रिश्तेदारों की उन की आंखों के सामने ही हत्या कर दी गई.

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मिल्खा के मनमस्तिष्क पर दंगों की वे स्मृतियां मरते दम तक जिंदा रहीं. मिल्खा अपने  जीवन में कई बार अपनी बचपन की यादों का जिक्र करते भावुक हुए थे, जब उस दौरान हुए दंगों और चारों तरफ फैले खूनखराबा तथा रक्तरंजित मंजर का जिक्र करते थे. मिल्खा शायद अपने जीवन में पहली बार उस दौरान ही रोए थे.

जब पाकिस्तान में उन के परिवार का नरसंहार हुआ, उस से 3 दिन पहले मिल्खा को मुलतान में अपने सब से बड़े भाई माखन सिंह की मदद के लिए भेजा गया था. माखन सिंह मुलतान में हवलदार तैनात थे. मुलतान जाने के लिए उन्होंने कोट अड्डू से ट्रेन पकड़ी. ट्रेन पहले की यात्रा से खून से सनी पड़ी थी. मिल्खा सिंह डर की वजह से महिलाओं के डिब्बे में एक सीट के नीचे छिप गए थे, क्योंकि उन्हें आक्रोशित भीड़ द्वारा खुद को मार दिए जाने की आशंका थी.

जब मिल्खा अपने भाई माखन के साथ लौट कर कोट अड्डू पहुंचे, तब तक दंगाइयों ने उन के गांव को श्मशान घाट में बदल दिया था. मिल्खा के मातापिता, 2 भाइयों और उन की पत्नियों को इतनी बेरहमी के साथ मारा गया था कि उन के शवों को भी नहीं पहचाना जा सका.

जूतों पर करते थे पौलिश

घटना के लगभग 4 या 5 दिनों के बाद माखन के कहने पर मिल्खा सिंह अपनी भाभी जीत कौर के साथ भारत के लिए सेना के एक ट्रक में सवार हो कर फिरोजपुर-हुसनीवाला क्षेत्र में आ गए. माखन वहां सेना में ही रहे.

यहां आ कर मिल्खा ने काम ढूंढना शुरू किया. काम की तलाश में वह अकसर स्थानीय सेना के शिविरों का दौरा किया करते थे और कई बार भोजन पाने के लिए सेना के जवानों के जूते पौलिश करते थे.

लेकिन यहां भी समस्या ने उन का साथ नहीं छोड़ा. फिरोजपुर से हो कर जो सतलुज नदी गुजरती है, अगस्त महीने में उस में बाढ़ आ गई जिस से छत पर चढ़ कर उन्हें जान बचानी पड़ी. घर का सारा सामान बह चुका था.

फिरोजपुर में तकलीफें झेल चुके मिल्खा ने दिल्ली का रुख करने का मन बनाया. सुना था कि वहां काम ढूंढना आसान होता है. उन की प्राथमिकता दिल्ली पहुंचने की थी लेकिन ट्रेन में इतनी भीड़ थी कि उस में घुसना भी मुश्किल था. किसी तरह उन्होंने भाभी को महिला डिब्बे में घुसा दिया और खुद ट्रेन की छत पर चढ़ गए.

जिस ट्रेन से वह दिल्ली  गए थे, उस में भी कत्लेआम हुआ और दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने उस ट्रेन में कई लाशें देखीं.

पुरानी दिल्ली स्टेशन पर वह उन हजारों शरणार्थियों की तरह ही थे, जो प्लेटफार्म पर खड़े थे, जिन्हें यह नहीं पता था कि जाना कहां है.

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चूंकि दिल्ली में रहने के लिए कोई जगह नहीं थी, उन्होंने कुछ दिन पुरानी दिल्ली रेलवे प्लेटफार्म पर ही अराजकता से भरे दिन बिताए. उन्होंने स्टेशन के बाहर जूते भी पौलिश किए. बाद में उन्हें पता चला कि उन की भाभी के मातापिता दिल्ली के शाहदरा इलाके में बस गए हैं. वह भाभी के मायके में चले तो गए, लेकिन उन्हें भाभी के घर पर रहने में घुटन महसूस हो रही थी, क्योंकि काफी समय यहां रहने पर वह खुद को एक बोझ सा समझने लगे थे.

हालांकि उन के लिए एक राहत की बात यह थी कि जब उन्हें पता चला कि उन की एक बहन ईश्वर कौर पास के ही एक स्थानीय इलाके में रह रही हैं तो वह रहने के लिए उन के पास चले गए. जब वह उन के घर पहुंचे तो परिवार का पुनर्मिलन आंसुओं भरा और मर्मस्पर्शी था. लेकिन वहां भी मिल्खा को यह अहसास हो गया कि बहन के अलावा अन्य लोगों को उन का वहां रहना जरा भी नहीं भाता था.

चूंकि मिल्खा के पास काम करने के लिए कुछ नहीं था, उन्होंने अपना समय सड़कों पर बिताना शुरू कर दिया और इस प्रक्रिया में वह बुरी संगत में पड़ गए. उन्होंने फिल्में देखना और उन के टिकट खरीद कर बेचना शुरू कर दिया.

साथ ही साथ अन्य लड़कों के साथ जुआ खेलना और चोरी करना भी शुरू कर दिया. उसी समय मिल्खा ने सुना कि उन के भाई माखन सिंह सेना की टुकड़ी के साथ भारत आ गए हैं. तब उन्हें उम्मीद जगी कि अब सारी चिंताएं दूर हो जाएंगी.

पढ़ाई में नहीं लगा मन

कुछ समय बाद उन के सब से बड़े भाई माखन सिंह को भारत के लाल किले में पोस्टिंग मिल गई. माखन सिंह मिल्खा को पास के एक स्कूल में ले गए और उन्हें 7वीं कक्षा में दाखिला करा दिया. परंतु अब उन्हें पढ़ाई करने में बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था, जिस के कारण वह फिर से बुरी संगत में पड़ गए.

1949 में मिल्खा सिंह और उन के दोस्तों ने भारतीय सेना में शामिल होने के बारे में सोचा और लाल किले में हो रहे भरती कैंप में चले गए. हालांकि मिल्खा सिंह को रिजेक्ट कर दिया गया. उन्होंने 1950 में फिर से एक कोशिश की और फिर से उन्हें खारिज कर दिया गया.

2 बार अस्वीकार किए जाने के बाद उन्होंने एक मैकेनिक के रूप में काम करना शुरू कर दिया. बाद में उन्हें एक रबर फैक्ट्री में नौकरी मिल गई, जहां उन का वेतन 15 रुपए महीना था. लेकिन वह लंबे समय तक काम नहीं कर पाए, क्योंकि इस बीच उन्हें हीट स्ट्रोक आया और 2 महीने तक वह बिस्तर पर ही पड़े रहे.

1952 के नवंबर में उन्हें अपने भाई की मदद से आखिर सेना में नौकरी मिल ही गई और उन की पहली पोस्टिंग श्रीनगर में हुई. श्रीनगर से उन्हें सिकंदराबाद में भारतीय सेना की ईएमई (इलैक्ट्रिकल मैकेनिकल इंजीनियरिंग) इकाई में भेजा गया.

वहां पर रहते हुए उन्होंने पहली बार जनवरी 1953 में 6 मील (लगभग 10 किमी) क्रौस कंट्री रेस में भाग लिया और 6ठे स्थान पर रहे. उस के बाद उन्होंने अपनी पहली 400 मीटर दौड़ 63 सेकंड में ब्रिगेड मीट में पूरी की और चौथे स्थान पर रहे. फिर उन्होंने पूर्व एथलीट गुरदेव सिंह से ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी.

जीतने की धुन हुई सवार

उस वक्त अकसर 400 मीटर दौड़ के अभ्यास के दौरान कभीकभी उन की नाक से खून निकलने लगता था. परंतु उन्हें जीतने की इतनी धुन सवार थी कि उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था.

समय बीतता गया और एक एथलीट के रूप में वह दिनबदिन निखरते गए. आज उन्होंने जो पाया है, यकीनन वह उस के हकदार हैं. एक एथलीट के रूप में सभी भारतीयों को उन पर गर्व है.

बाद में सेना में एथलीट बनने के उन के ऐसे संघर्ष की शुरुआत हुई, जिस ने मिल्खा सिंह को खेल के आसमान में चमकने वाला ऐसा धु्रव तारा बना दिया, जिस का उदय अब शायद ही कभी होगा.

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नए कीर्तिमान किए स्थापित

मिल्खा सिंह ने दौड़ के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा को पहचान लिया था. इस के बाद उन्होंने सेना में कड़ी मेहनत शुरू की और 200 मीटर और 400 मीटर प्रतिस्पर्धा में अपने आप को स्थापित किया. उन्होंने एक के बाद एक कई प्रतियोगिताओं में सफलता हासिल की.

उन्होंने सन 1956 के मेलबोर्न ओलिंपिक खेलों में 200 और 400 मीटर में भारत का प्रतिनिधित्व किया पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनुभव न होने के कारण सफल नहीं हो पाए. लेकिन 400 मीटर प्रतियोगिता के विजेता चार्ल्स जेंकिंस के साथ हुई मुलाकात ने उन्हें न सिर्फ प्रेरित किया, बल्कि ट्रेनिंग के नए तरीकों से अवगत भी कराया.

इस के बाद सन 1958 में कटक में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर प्रतियोगिता में राष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किए और एशियन खेलों में भी इन दोनों प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक हासिल किए.

साल 1958 में उन्हें एक और महत्त्वपूर्ण सफलता मिली, जब उन्होंने ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेलों में 400 मीटर प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया. इस प्रकार वह राष्ट्रमंडल खेलों के व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले स्वतंत्र भारत के पहले खिलाड़ी बन गए.

मिल्खा सिंह ने खेलों में उस समय सफलता प्राप्त की, जब खिलाडि़यों के लिए कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं, न ही उन के लिए किसी ट्रेनिंग की व्यवस्था थी. आज इतने सालों बाद भी कोई एथलीट ओलंपिक में पदक पाने में कामयाब नहीं हो सका है.

रोम ओलंपिक शुरू होने तक मिल्खा सिंह इतने लोकप्रिय हो गए थे कि जब वह स्टेडियम में घुसते थे तो दर्शक उन का जोशपूर्वक स्वागत करते थे.

रोम ओलंपिक में हो गई बड़ी चूक

दरअसल, मिल्खा सिंह की लोकप्रियता का एक अन्य कारण यह था कि रोम पहुंचने के पूर्व वह यूरोप के कई टूर में अनेक बड़े खिलाडियों को हरा चुके थे और उन के रोम पहुंचने से पहले उन की लोकप्रियता की चर्चा वहां पहुंच चुकी थी.

हालांकि वहां वह कोई टौप के खिलाड़ी नहीं थे, लेकिन श्रेष्ठ धावकों में उन का नाम अवश्य था. उन की लोकप्रियता का दूसरा कारण उन की बढ़ी हुई दाढ़ी व लंबे बाल थे. लोग उस वक्त सिख धर्म के बारे में अधिक नहीं जानते थे. लोगों को लगता था कि कोई साधु इतनी अच्छी दौड़ लगा रहा है. उस वक्त ‘पटखा’ का चलन भी नहीं था, अत: सिख सिर पर रुमाल बांध लेते थे. मिल्खा सिंह के जीवन में 2 घटनाएं सब से ज्यादा महत्त्व रखती हैं.

पहली भारत पाकिस्तान का विभाजन जब उन के परिवार का पाकिस्तान में हुए कत्लेआम में खात्मा कर दिया गया, तब वह पहली बार रोए थे.  दूसरी घटना रोम ओलंपिक में उन का पदक पाने से चूक जाना था, जब वे दूसरी बार बिलखबिलख कर रोए.

रोम ओलिंपिक खेल शुरू होने से कुछ साल पहले से ही मिल्खा सिंह अपने खेल जीवन के सर्वश्रेष्ठ फौर्म में थे और ऐसा माना जा रहा था कि इन खेलों में मिल्खा पदक जरूर जीतेंगे.

रोम में 1960 के ओलंपिक खेलों में मिल्खा भारत के सब से बड़े पदक लाने की उम्मीद वाले खिलाडि़यों में से एक थे और उन के शानदार प्रदर्शन को देख कर देश उन से उम्मीदों पर खरे उतरने की उम्मीद कर रहा था.

लेकिन मिल्खा इस खेल में तीसरे स्थान पर भी नहीं रहे. दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेंस ने ब्रोंज जीता था. हालांकि इस रेस में 250 मीटर तक मिल्खा पहले स्थान पर भाग रहे थे, लेकिन इस के बाद उन की गति कुछ धीमी हो गई और बाकी के धावक उन से आगे निकल गए थे. खास बात यह है कि 400 मीटर की इस रेस में मिल्खा उसी एथलीट से हारे थे, जिसे उन्होंने 1958 कौमनवेल्थ गेम्स में हरा कर स्वर्ण पदक पर कब्जा किया था.

दरअसल उन्होंने ऐसी भूल कर दी, जिस का पछतावा उन्हें मरते दम तक रहा. इस दौड़ के दौरान उन्हें लगा कि वह अपने आप को अंत तक उसी गति पर शायद नहीं रख पाएंगे और पीछे मुड़ कर अपने प्रतिद्वंदियों को देखने लगे, जिस का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और वह धावक जिस से स्वर्ण की आशा थी कांस्य भी नहीं जीत पाया.

लेकिन 1960 के ओलंपिक में भले ही मिल्खा कांस्य पदक से चूक कर चौथे स्थान पर रहे. मगर उन का 45.73 सेकंड का ये रिकौर्ड अगले 40 साल तक नैशनल रिकौर्ड रहा.

मिल्खा को इस बात का अंत तक मलाल रहा. इस असफलता से वह इतने निराश हुए कि उन्होंने दौड़ से संन्यास लेने का मन बना लिया पर बहुत समझाने के बाद मैदान में फिर वापसी की.

1960 में पाकिस्तान में एक इंटरनैशनल एथलीट दौड़ प्रतियोगिता में हिस्सा लेने जाने का न्यौता मिला,  लेकिन बचपन की घटनाओं की वजह से वह वहां जाने से हिचक रहे थे. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समझाने पर वह इस के लिए राजी हो गए, क्योंकि दोनों देशों की मित्रता के लिए हो रहे प्रयासों के बीच उन के पाकिस्तान नहीं जाने से राजनीतिक उथलपुथल का संदेश जा सकता था. इसलिए उन्होंने दौड़ने का न्यौता स्वीकार लिया.

बहरहाल, रोम ओलंपिक के बाद हुए  टोक्यो एशियाई खेलों में मिल्खा ने 200 और 400 मीटर की दौड़ जीत कर भारतीय एथलेटिक्स के लिए नए इतिहास की रचना की. जब उन्होंने पहले दिन 400 मीटर दौड़ में भाग लिया. उन्हें जीत का पहले से ही विश्वास था, क्योंकि एशियाई क्षेत्र में उन का बेहतरीन  कीर्तिमान था.

शुरूशुरू में जो तनाव था, वह स्टार्टर की पिस्तौल की आवाज के साथ रफूचक्कर हो गया. उम्मीद के अनुसार उन्होंने सब से पहले फीते को छुआ और नया रिकौर्ड कायम किया.

जापान के सम्राट ने जब उन के गले में स्वर्ण पदक पहनाया तो उस क्षण का रोमांच मिल्खा शब्दों में व्यक्त नहीं कर सके. इस के अगले दिन 200 मीटर की दौड़ थी. इस में मिल्खा का पाकिस्तान के अब्दुल खालिक के साथ कड़ा मुकाबला था.

खालिक 100 मीटर का विजेता था. दौड़ शुरू हुई और दोनों के कदम एक साथ पड़ रहे थे. फिनिशिंग टेप से 3 मीटर पहले मिल्खा की टांग की मांसपेशी खिंच गई और वह लड़खड़ा कर गिर पड़े.

चूंकि वह फिनिशिंग लाइन पर ही गिरे थे इसलिए फोटो फिनिश रिव्यू में उन्हें विजेता घोषित किया गया और इस तरह मिल्खा एशिया के सर्वश्रेष्ठ एथलीट बन गए. जापान के सम्राट ने उस समय मिल्खा से जो शब्द कहे थे, वह मरते दम तक कभी नहीं भूले. उन्होंने उन से कहा था, ‘दौड़ना जारी रखोगे तो तुम्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो सकता है. बस, दौड़ना जारी रखो.’

पाकिस्तान में मिल्खा का मुकाबला एशिया के सब से तेज धावक माने जाने वाले अब्दुल खालिक से था. यह मिल्खा की जिंदगी का सब से रोमांचक दबाव भरा और भावनाओं की उथलपुथल भरा मुकाबला था. लेकिन इस मुकाबले में जीत के लिए मिल्खा ने अपना सर्वस्व झोंक दिया.

इस दौड़ में मिल्खा सिंह ने सरलता से अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर दिया और आसानी से जीत गए. इस मुकाबले में अधिकांशत: मुसलिम दर्शक इतने प्रभावित हुए कि पूरी तरह बुर्कानशीन औरतों ने भी इस महान धावक को गुजरते देखने के लिए अपने नकाब तक उतार दिए थे.

मिला फ्लाइंग सिख का खिताब

यही कारण रहा कि अब्दुल खालिक को हराने के बाद उस समय पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान ने मिल्खा सिंह से कहा था, ‘आज तुम दौड़े नहीं उड़े हो. इसलिए हम तुम्हें फ्लाइंग सिख के खिताब से नवाजते हैं.’ इस के बाद से मिल्खा सिंह को पूरी दुनिया में ‘फ्लाइंग सिख’ के नाम से जाना जाने लगा.

एक के बाद एक रेस जीतने और कई रिकौर्ड अपने नाम पर दर्ज करा चुके मिल्खा धीरेधीरे अपने करियर में आगे बढ़ते रहे. मिल्खा सिंह के करियर का मुख्य आकर्षण 1964 का एशियाई खेल था, जहां उन्होंने 400 मीटर और 4×400 मीटर रिले स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक जीते.

टोक्यो में आयोजित हुए 1964 ओलंपिक में मिल्खा सिंह का प्रदर्शन यादगार नहीं था, जहां वह केवल एक ही इवेंट में भाग ले रहे थे, वह था 4×400 मीटर रिले दौड़ में मिल्खा सिंह के नेतृत्व वाली भारतीय टीम गरमी के कारण आगे बढ़ने में असमर्थ रही, जिस के बाद इस असफलता से निराश लंबे समय तक मिल्खा सिंह ने अपने दौड़ने वाले जूते लटका दिए थे.

कभीकभार जब मिल्खा सिंह से उन की 80 दौड़ों में से 77 में मिले अंतरराष्ट्रीय पदकों के बारे में पूछा जाता था तो वह कहते थे, ‘ये सब दिखाने की चीजें नहीं हैं, मैं जिन अनुभवों से गुजरा हूं, उन्हें देखते हुए वे मुझे अब भारत रत्न भी दे दें तो मेरे लिए उस का कोई महत्त्व नहीं है.’

बता दें कि आज की तारीख में भारत के पास बैडमिंटन से ले कर शूटिंग तक में वर्ल्ड चैंपियन हैं. बावजूद इस के ‘फ्लाइंग सिख’ मिल्खा सिंह की ख्वाहिश अधूरी है. वह दुनिया छोड़ने से पहले भारत को एथलेटिक्स में ओलंपिक मेडल जीतते देखना चाहते थे.

1958 के एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह के बेहतरीन प्रदर्शन के बाद सेना ने मिल्खा सिंह को जूनियर कमीशंड औफिसर के तौर पर प्रमोशन कर सम्मानित किया था. बाद में उन्हें पंजाब के शिक्षा विभाग में खेल निदेशक के पद पर नियुक्त किया गया और इसी पद से मिल्खा सिंह साल 1998 में रिटायर्ड हुए.

पहली जुलाई, 2012 को उन्हें भारत का सब से सफल धावक माना गया, जिन्होंने ओलंपिक्स खेलों में लगभग 20 पदक अपने नाम किए हैं. यह अपने आप में ही एक रिकौर्ड है. मिल्खा सिंह ने अपने जीते गए सभी पदकों को देश के नाम समर्पित कर दिया था, पहले उन के मैडल्स को जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में रखा गया था, लेकिन फिर बाद में पटियाला के एक गेम्स म्यूजियम में मैडल्स ट्रांसफर कर दिए गए.

जब नेहरू ने मिल्खा सिंह से कहा मांगो क्या मांगते हो

आजादी के फौरन बाद वैश्विक खेल मंच पर अगर किसी एक खिलाड़ी ने भारत का सिर ऊंचा किया तो वह थे मिल्खा सिंह. मिल्खा ने अपनी जिंदगी में कई यादगार रेस पूरी की थीं, मगर 1958 की उस रेस के बाद सब कुछ बदल गया था.

1958 की उस गौरवशाली रेस की कहानी, मिल्खा सिंह के शब्दों में जानना ज्यादा दिलचस्प होगा.

‘मैं टोक्यो एशियन गेम्स में 2 गोल्ड मैडल्स (200 मीटर और 400 मीटर) जीत कर 1958 के कौमनवेल्थ गेम्स (कार्डिफ, वेल्स) में हिस्सा लेने पहुंचा था. जमैका, साउथ अफ्रीका, केन्या, इंग्लैंड, कनाडा और आस्ट्रेलिया के वर्ल्ड क्लास एथलीट्स वहां थे. कार्डिफ में चुनौती बेहद तगड़ी थी और कार्डिफ के लोग सोचते थे, अरे इंडिया क्या है, इंडिया इज नथिंग.

‘मुझे यकीन नहीं था कि मैं कौमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड जीत सकता हूं. उस तरह का भरोसा कभी रहा ही नहीं क्योंकि मैं वर्ल्ड रेकौर्ड होल्डर मैल्कम क्लाइव स्पेंस (साउथ अफ्रीका) से टक्कर ले रहा था. वह उस समय 400 मीटर में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ धावक थे.

‘मैं अपने अमेरिकन कोच डा. आर्थर डब्यू  हावर्ड को क्रेडिट दूंगा. पूरी रेस की रणनीति उन्होंने ही तैयार की थी. उन्होंने स्पेंस को पहले और दूसरे राउंड में दौड़ते हुए देखा. फाइनल रेस से पहले वाली रात वह चारपाई पर बैठे और मुझ से कहा, ‘मिल्का, मैं थोड़ीबहुत हिंदी ही समझता हूं लेकिन मैं तुम्हें मैल्कम स्पेंस की रणनीति के बारे में बताता हूं और यह भी कि तुम्हें क्या करना चाहिए.’

कोच ने मुझ से कहा कि स्पेेंस अपनी रेस के शुरुआती 300-350 मीटर धीमे दौड़ता है और फाइनल स्ट्रेच में बाकियों को पछाड़ देता है. डा. हावर्ड ने कहा, ‘तुम्हें शुरू से ही पूरी स्पीड से दौड़ना होगा. क्योेंकि तुम में स्टैमिना है. अगर तुम ऐसा करोगे तो स्पेंस अपनी रणनीति भूल जाएगा.’

‘मैं आउटर लेन पर था, नंबर 5 वाली और स्पेंस दूसरी लेन पर था. कार्डिफ आर्म्स पार्क स्टेडियम में रेस होनी थी. उन दिनों एक बैग से जो नंबर चुनते थे, उस के आधार पर लेन अलाट होती थी. इसी वजह से मुझे 5 नंबर वाली लेन मिली. मतलब हमें शुरुआती राउंड में पहले दौड़ना था, फिर क्वार्टर फाइनल में, सेमीफाइनल में और फाइनल में भी.

‘मैं शुरू से ही पूरा दम लगा कर भागा, आखिरी 50 मीटर तक बड़ी तेज दौड़ा. स्पेंस को अहसास हो गया कि मिल्खा बहुत आगे निकल गया है. मुझे दिख रहा था कि स्पेंस अपनी रणनीति भूल गया है क्योंकि वह मेरी बराबरी में लगा था.

‘वह तेज दौड़ने लगा और आखिर में वह मुझ से एक फुट ही पीछे था. वह आखिर तक मेरे कंधों के पास था, मगर मुझे हरा नहीं पाया. मैं ने 46.6 सेकेंड्स में रेस खत्म की और उस ने 46.9 में. डा. हावर्ड का शुक्रिया कि मैं ने गोल्ड मेडल जीता.

‘मैं अपनी जीत पर यकीन तक नहीं कर पा रहा था और उस महिला ने मेरी तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह महिला कौन है. इतने में अचानक अपना परिचय देते हुए उस महिला ने कहा, ‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं, मैं पंडितजी की बहन हूं.’ जी हां, वह महिला थीं तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरूजी की बहन विजयलक्ष्मी पंडित.

‘विजयलक्ष्मी पंडित ने उसी समय मेरी बात पंडित नेहरू से ट्रंक काल के जरिए करवाई. मेरे लिए यह गर्व का क्षण था. पंडितजी ने कहा आज आप ने देश का नाम रोशन किया है. मिल्खा, तुम्हें क्या चाहिए?

‘उस वक्त मुझे पता नहीं था कि क्या  मांगना चाहिए. मैं 200 एकड़ जमीन या दिल्ली में घर मांग सकता था और मुझे मिल भी जाता, लेकिन मैं ने कहा मुझे मांगना नहीं आता. इसीलिए अगर वह कर सकते हैं तो देश भर में एक दिन की छुट्टी घोषित कर दें और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ऐसा ही किया. मिल्खा सिंह के यह कहने से पंडित जवाहरलाल उन की काबीलियत के साथसाथ उन की ईमानदारी के भी कायल हो गए.’

अंतरराष्ट्रीय गेम्स प्रतियोगिताओं की महत्ता उस दौर में भी वही थी और आज भी उन का जादू जस का तस बरकरार है. फर्क बस इतना है कि पहले खिलाड़ी देश के लिए खेलते थे और आज खेल पैसों के लिए खेला जाता है. लेकिन मिल्खा सिंह उस दौर के खेलों के लिए समर्पित इकलौते ऐसे खिलाड़ी थे जिन्हें जीवनपर्यंत दौलत का मोह नहीं रहा.

लव मैरिज हुई थी निर्मल कौर से

मिल्खा सिंह और निर्मल कौर की मुलाकात साल 1955 में श्रीलंका के कोलंबो में हुई थी.  मिल्खा सिंह और निर्मल कौर 1955 में कोलंबो में एक टूर्नामेंट में हिस्सा लेने गए थे. निर्मल कौर उस समय भारतीय महिला वालीबाल टीम की कप्तान थीं, जबकि मिल्खा सिंह एथलेटिक्स टीम का हिस्सा थे.

पहली नजर में मिल्खा को निर्मल पसंद आ गईं. दोनों ने एकदूसरे से काफी बातें कीं. जब वापस जाने लगे तो मिल्खा सिंह अपने होटल का पता लिख कर देने लगे. जब कोई कागज नहीं मिला तो उन्होंने निर्मल के हाथ पर ही होटल का नंबर लिख दिया.

फिर बातें और मुलाकातें होने लगीं और बात शादी तक पहुंच गई. लेकिन शादी में भी अड़चन आ गई. निर्मल पंजाबी खत्री फैमिली से थीं. इसलिए परिवार शादी के लिए राजी नहीं हो रहा था.

प्यार परवान चढ़ चुका था और निर्मल कौर का परिवार मिल्खा सिंह से शादी के लिए तैयार नहीं था. उन की शादी में अड़चन की बात भी कई लोगों तक पहुंच चुकी थी.

पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों को पता चला तो वह मदद के लिए आगे आए और दोनों परिवारों से बात कर शादी तय करवा दी. साल 1962 में दोनों शादी के बंधन में बंध गए.

एक इंटरव्यू में मिल्खा सिंह ने कहा था कि हर खिलाड़ी और एथलीट की जिंदगी में प्यार आता है, उसे हर स्टेशन पर एक प्रेम कहानी मिलती है. मिल्खा सिंह की जिंदगी में 3 लड़कियां आईं. तीनों से प्यार हुआ, लेकिन शादी उन्होंने निर्मल कौर से की.

मिल्खा सिंह ने कई बार सार्वजनिक तौर पर अपनी पत्नी की तारीफ की थी. उन्होंने कहा था कि वे खुद 10वीं पास थे. बच्चों को पढ़ाने और संस्कार देने में उन की पत्नी निर्मल का ही अहम रोल रहा. उन की गैरमौजूदगी में निर्मल ने बच्चों की पढ़ाई और बाकी सभी बातों का ध्यान रखा. वह अपनी पत्नी को सब से बड़ी ताकत मानते थे.

शादी के बाद उन के 4 बच्चे हुए, जिन में 3 बेटियां और एक बेटा है. मिल्खा सिंह के बेटे जीव मिल्खा सिंह इंटरनैशनल स्तर पर एक जानेमाने गोल्फर हैं. जीव ने 2 बार एशियन टूर और्डर औफ मेरिट जीता है. उन्होंने साल 2006 और 2008 में यह उपलब्धि हासिल की थी. 2 बार इस खिताब को जीतने वाले जीव भारत के एकमात्र गोल्फर हैं. वह यूरोपियन टूर, जापान टूर और एशियन टूर में खिताब जीत चुके हैं.

जीव मिल्खा सिंह को पद्मश्री सम्मान से नवाजा जा चुका है. ऐसे में मिल्खा सिंह और उन के बेटे जीव मिल्खा सिंह देश के ऐसे इकलौते पितापुत्र जोड़ी हैं, जिन्हें खेल उपलब्धियों के लिए पद्मश्री मिला है.

साल 1999 में मिल्खा सिंह ने 7 साल के एक बेटे को भी गोद ले लिया था. जिस का नाम हवलदार बिक्रम सिंह था, जोकि टाइगर हिल के युद्ध में शहीद हो गया था.

मिल्खा सिंह ने बाद में खेल से संन्यास ले लिया और भारत सरकार के साथ खेलकूद के प्रोत्साहन के लिए काम करना शुरू किया. अब वह चंडीगढ़ में रहते थे. मिल्खा सिंह देश में होने वाले विविध तरह के खेल आयोजनों में शिरकत करते रहे.

हैदराबाद में 30 नवंबर, 2014 को हुए 10 किलोमीटर के जियो मैराथन-2014 को उन्होंने झंडा दिखा कर रवाना किया. अपने जीवन के अंत समय तक वह युवाओं को खेलों के लिए प्रेरणा देते रहे.

नुसरत जहां- निखिल जैन मामला लव, मैरिज और तलाक

टौलीवुड की मशहूर अभिनेत्री और तृणमूल कांग्रेस की सांसद नुसरत जहां को शायद विवादों में रहना पसंद है. बिजनैसमैन निखिल जैन से शादी कर के जिस तरह वह चर्चा में आई थीं, उसी तरह उन के गर्भवती होने के बाद अब इस बात की लोगों में चर्चा है कि जब वह लंबे समय से पति से अलग रह रही थीं तो उन के गर्भ में पल रहा बच्चा किस का है?

वास्तविकता कभीकभी कल्पना की अपेक्षा बहुत ही मजेदार और विचित्र होती है. कभीकभी हमारे सामने कुछऐसे मामले आ जाते हैं, जिन के बारे में सुन कर, पढ़ कर या देख कर हमें ऐसा लगता है कि भला ऐसा कैसे हो सकता है. वे हमारे न कुछ लगते हैं और न हमारा उन से कुछ बनताबिगड़ता है, फिर भी हम उन में बहुत ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं.

नुसरत जहां और निखिल जैन के लव, मैरिज और डिवोर्स की बात भी कुछ ऐसी ही है. इस समय यह चर्चा का विषय बनी हुई है.

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नुसरत जहां खूबसूरत हैं, हीरोइन हैं, सांसद हैं, अमीर हैं और पहले से ही चर्चाओं में रही हैं. 8 जनवरी, 1990 को कोलकाता में जन्मी नुसरत जहां की प्रारंभिक शिक्षा अवर लेडी क्वीन औफ द मिशन स्कूल में हुई. इस के बाद भवानीपुर कालेज से उन्होंने कौमर्स में स्नातक किया. 2010 में ‘मिस कोलकाता फेवर वन’ ब्यूटी कौंटैस्ट जीतने के बाद मौडलिंग में अपना कैरियर शुरू किया.

इस के बाद ‘शोत्रू’ उन की पहली बांग्ला फिल्म आई. उस समय उन्होंने औडिशन में 50 लोगों के बीच अपनी जगह बनाई थी. एक साल बाद उन्होंने देव और सुभोश्री के साथ ‘खोका-420’ में काम किया. उसी साल वह अंकुश हजारा के साथ ‘वो खिलाड़ी’ में भी दिखाई दी थीं. फिर उन्होंने ‘ऐक्शन के चिकन तंदूरी’ और ‘के देशी छोरी’ में काम किया. उन की ये दोनों ही फिल्में हिट रही हैं.

नुसरत ने राहुल बोस के साथ ‘सीधे नमार आगे’ में भी काम किया था. 2015 में उन्होंने कौमेडी कार्यक्रम ‘जमाई-420’ में हिस्सा लिया, जिस में उन के साथ अंकुश हजारा, पायल सरकार, मिमी चक्रवर्ती, सोहम चक्रवर्ती और हिरन थे.

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जानीमानी अभिनेत्री हैं नुसरत

नुसरत सेलिब्रिटी लीग थीम सांग का भी हिस्सा रह चुकी हैं. वर्ष 2015 में उन की ‘हरहर व्योमकेश’ फिल्म आई थी, जिस ने बौक्स औफिस पर बहुत बड़ी सफलता प्राप्त की थी. इस के बाद फिल्म ‘पावर’, कौमेडी फिल्म ‘कीर्ति’, ‘लव एक्सप्रेस’, ‘जुल्फिकार’, ‘हरीपड़ा बंडवाला’, ‘आमी जो तोमार’ और ‘बोलो दुग्गा माई की’ तथा ‘ओएसएस कोलाता’ आदि फिल्मों में काम किया है.

वह बांग्ला की जानीमानी हीरोइन हैं, पर इस समय वह पर्सनल लाइफ, प्रैग्नेंसी और एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर को ले कर सुर्खियों में हैं. नुसरत अकसर विवादों की ही वजह से सुर्खियों में आती हैं.

इस बार भी जब उन के प्रैग्नेंट होने की खबर आई तो पता चला कि इस के बारे में उन के पति निखिल जैन को कुछ पता ही नहीं है. दोनों काफी दिनों से अलग रह रहे हैं. 2017 में उन की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद उन पर अश्लील टिप्पणी करने के आरोप में बीजेपी के आईटी सेल के एक कार्यकर्ता को गिरफ्तार किया गया था.

30 सितंबर, 2016 को नुसरत के बौयफ्रैंड कादिर खान को घटना के 4 साल बाद सामूहिक दुष्कर्म के मामले में गिरफ्तार किया गया था. नुसरत उस से शादी करने वाली थीं. उस समय नुसरत पर एक अपराधी को पनाह देने का आरोप लगा था.

हालांकि नुसरत ने इस बात से इनकार किया था. पर कुछ वकीलों ने उन्हें पनाह देने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार करने की मांग की थी. बाद में नुसरत जहां ने भी कहा था कि कादिर खान ने उन्हें मानसिक क्षति पहुंचाई है. उस ने उन का मानसिक बलात्कार किया है.

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तुर्की में की थी शादी

बशीरहाट से सांसद का चुनाव जीतने के बाद नुसरत जहां 17-18 जून, 2019 को सांसदों के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं हुई थीं. उस समय वह अपने पति निखिल जैन के साथ तुर्की में थीं. 18 नवंबर, 2019 को होने वाले शीतकालीन सत्र में वह पहुंच नहीं पाई थीं.

कहा गया था कि अस्वस्थता की वजह से वह अपोलो अस्पताल में भरती हैं. पर यह भी कहा जाता है कि वह बीमार नहीं थीं, बल्कि किसी और वजह से उन्हें परेशानी हुई थी.

नुसरत अपनी बोल्ड तसवीरों की वजह से भी अकसर चर्चाओं में रहती हैं. इस के अलावा एक बार उन्होंने दुर्गा के रूप में तसवीरें खिंचवाई थीं, जिसे ले कर काफी विवाद हुआ था. उन्हें जान से मारने की धमकी भी दी गई थी. नुसरत ने इस की शिकायत भी दर्ज कराई थी.

शादी से लौटने के बाद संसद में चूडि़यां, मंगलसूत्र, सिंदूर और साड़ी पहन कर आने पर उन्हें सोशल मीडिया पर ट्रोलर्स का सामना करना पड़ा था. उन के लिपस्टिक के रंग, सनस्क्रीन, एक्सेसरीज और आउटफिट को ले कर काफी चर्चा हुई थी. उसी बीच वैवाहिक संबंधों की वैधता पवित्रता को ले कर काफी हलचल मची थी.

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गैरमजहबी शादी पर उठे थे सवाल

मुफ्ती मुकर्रम अहमद, शाही इमाम, फतेहपुरी मसजिद ने कहा था कि यह शादी नहीं दिखावा है. मुसलमान और जैन दोनों ही इस शादी को नहीं मानेंगे. वह अब न जैन हैं और न मुसलिम. उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था. जैन से शादी कर के उन्होंने बहुत बड़ा अपराध किया है.

दूसरी ओर नुसरत जहां ने उन सब का मुंह बंद करते हुए कहा था कि ‘मैं एक समादेशी भारत का प्रतिनिधित्व करती हूं, जो जाति, पंथ और धर्म से परे है. जब वह ऐक्ट्रैस से नेता बनी थीं, तब भी मुसलिम मौलवियों ने उन की काफी आलोचना की थी. अक्तूबर, 2020 में दुर्गा पूजा में जब उन्होंने ‘ढाक’ बजाया था, तब इतहास उलेमाएहिंद के उपाध्यक्ष मुफ्ती असद कासम ने नुसरत जहां को ‘हराम’ बताया था.

नुसरत के पति निखिल जैन मारवाड़ी व्यापारी हैं. वह भी हैंडसम और काफी धनवान हैं. वह नुसरत से तब मिले थे, जब नुसरत जहां ने उन की साड़ी के ब्रांड के लिए मौडलिंग की थी. जल्द ही दोनों में प्यार हो गया था और वे डेटिंग पर जाने लगे थे. उस के बाद उन्होंने सगाई की घोषणा की थी. सगाई के तुरंत बाद उन्होंने शादी की तारीख फिक्स कर दी थी.

4 जुलाई, 2019 को उन्होंने कोलकाता में एक भव्य रिसैप्शन की मेजबानी की थी, जिस में टौलीवुड ऐक्टर्स और बंगाल की राजनीतिक बिरादरी के तमाम लोग शामिल हुए थे.

इन दोनों की प्रेम कहानी का जब खुलासा हुआ तो दोनों के धर्म को ले कर काफी बवाल मचा था. मुसलमान नुसरत जहां ने जैन निखिल के साथ शादी की तो बहुत सारे मुसलमानों ने नाराजगी व्यक्त की थी.

नुसरत पर एशिया के सब से बड़े इसलामिक स्कूल डर-उल-उलूम ने फतवा जारी किया था. उन्होंने नुसरत द्वारा निखिल जैन से शादी करने पर आपत्ति जताई थी. उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के देवबंद से भी नुसरत पर फतवा जारी किया गया था. वहां से कहा गया था कि नुसरत को केवल मुसलमान से शादी करनी चाहिए. सांसद बनने के बाद उन्होंने ‘नुसरत जहां रुहू जैन’ के नाम से ईश्वर को साक्षी मानते हुए शपथ ली थी. उस के बाद उन्होंने वंदे मातरम भी कहा था. यह बात देवबंद के उलेमा मुफ्ती असद काजमी को बहुत बुरी लगी थी.

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लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद नुसरत जहां ने मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहन कर सांसद की शपथ ली थी. इस के बाद मुसलिम मौलानाओं ने उन के खिलाफ फतवा जारी किया था. उन से सवाल पूछा गया था कि उन्होंने मुसलिम धर्म का क्यों त्याग किया?

उस समय नुसरत जहां फिल्मी स्टाइल में कह रही थीं कि ‘जिसे जो कहना हो, वो वह कहे, जिसे जो करना हो, वो वह करे. जब प्यार किया है तो डरने की क्या बात है.’

जिस तरह फिल्मों में कहा जाता है कि प्यार करने वाले कभी डरते नहीं, उसी तरह नुसरत के भी कहने का मतलब था कि उस ने भी प्यार किया है तो वह भी किसी से नहीं डरतीं.

निखिल नहीं हैं बच्चे का बाप

लोग कहते थे कि नुसरत और निखिल की बहुत सुंदर जोड़ी है. दोनों का नाम भी ‘न’ से शुरू होता था और दोनों का सरनेम भी एक ही अक्षर ‘ज’ से शुरू होता है. रब ने बना दी जोड़ी. मुसलमान नुसरत जहां दुर्गा पूजा के समय माता के पंडाल में जा कर पूजा करती थीं और सर्वधर्म समभाव, प्रेम, भावनात्मकता और भाईचारे की बात करते नहीं थकती थीं.

लोगों का सोचना था कि नुसरत और निखिल की गाड़ी बढि़या चल रही है. लेकिन अचानक इस लव स्टोरी में फिल्मी ट्विस्ट आ गया.

नुसरत जहां ने बड़े ही खराब तरीके से घोषित किया कि ‘मैं मां बनने वाली हूं.’ दूसरी ओर निखिल ने इस तरह का मैसेज दिया कि ‘मैं इस बच्चे का बाप नहीं हूं.’

इस के बाद नुसरत जहां के अन्य से प्रेम प्रकरण की बातें आने लगीं. फिर तो बात डिवोर्स तक पहुंच गई. अब नुसरत का कहना है कि ‘हमारी शादी ही कहां हुई थी, जो लोग डिवोर्स की बात कर रहे हैं.’

पर मीडिया ने खोज निकाला कि नुसरत जहां ने जब चुनाव लड़ा था, तब उन्होंने जो एफीडेविट दिया था, उस में उन्होंने अपना स्टेटस मैरिड लिखा था. उन्होंने निखिल के साथ तुर्की में की गई अपनी भव्य और खर्चीली मैरिज के फोटो भी डाले थे. अब सवाल यह उठता है कि यह शादी नहीं थी तो क्या था? अभी नुसरत जहां ने सोशल मीडिया से सभी फोटो हटा दिए हैं.

इस सब के बीच नुसरत जहां की कोख में जो बच्चा पल रहा है, उस के बारे में कोई नहीं सोचविचार रहा है. वह मासूम तो पैदा होने के पहले ही विवादों में आ गया. उस का भाग्य, उस की तकदीर, उस की डेस्टिनी तो प्रकृति जाने, पर जो बात सामने आई हैं, वह डीएनए टेस्ट तक जा रही हैं. हमारे यहां कहा जाता है कि हर कोई अपना नसीब ले कर पैदा होता है. शायद नुसरत का बच्चा अपने भाग्य में विवाद ले कर आया है.

निखिल का कहना है कि हम दोनों तो दिसंबर, 2020 से अलग रह रहे हैं. अगस्त में एक फिल्म की शूटिंग के दौरान मेरी पत्नी का व्यवहार मेरे प्रति बदलने लगा था. हमारे बीच कोई संबंध नहीं है. यह कहना मुश्किल है कि नुसरत सचमुच प्रैग्नेंट हैं या यह बात भी फिल्मी है.

निखिल जैन ने न जाने कितनी बार नुसरत जहां से अपनी शादी का रजिस्ट्रैशन कराने के लिए कहा था, लेकिन नुसरत किसी न किसी बहाने रजिस्ट्रैशन कराने से मना करती रही. 5 नवंबर, 2020 को नुसरत अपने गहनों, रुपयों, कीमती सामान, कागजात और दस्तावेजों के साथ निखिल का फ्लैट छोड़ कर बल्लीगंज स्थित अपने फ्लैट में जा कर रहने लगी थीं. इस के बाद नुसरत और निखिल पतिपत्नी होने के बावजूद साथ नहीं रहते थे.

कोर्ट में की शादी रद्द करने की अपील

8 मार्च, 2021 को निखिल ने स्वीकार किया था कि उन्होंने नुसरत के खिलाफ अपनी शादी को रद्द करने के लिए अलीपुर कोर्ट में ऐक दीवानी मुकदमा दायर किया है.

चूंकि मामला विचाराधीन है, इसलिए निखिल ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहते हैं. पर इतना जरूर कहा कि उन के परिवार ने नुसरत को बहू के रूप में नहीं, एक बेटी के रूप में लिया. उसे एक बेटी के रूप में बहुत कुछ दिया. फिर भी उन सब को यह दिन देखना पड़ा.

नुसरत और निखिल के बीच एक तीसरा व्यक्ति भी है यश दासगुप्ता. नुसरत और निखिल जैसेजैसे दूर होते गए, वैसेवैसे नुसरत जहां और यश दासगुप्ता नजदीक आते गए. यश दासगुप्ता भी ऐक्टर और भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं. भाजपा ने उन्हें विधानसभा चुनाव में चंडीताल से टिकट भी दिया था. तृणमूल कांग्रेस की स्वाति खंडोलकर ने यश दासगुप्ता को 41,347 मतों से हराया था.

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यश दासगुप्ता हैं नजदीकी दोस्त

यश और नुसरत पिछले कुछ समय से अलगअलग जगहों पर एक साथ दिखाई दे रहे हैं. नुसरत जहां पिछले कुछ समय से ‘एसओएस कोलकाता’ फिल्म में अपने कोस्टार रहे यश दासगुप्ता के काफी करीब आ गई हैं.

कहा तो यह भी जाता है कि वह यश के साथ रिलेशन में हैं. कुछ दिनों पहले दोनों राजस्थान ट्रिप पर गए थे. इन खबरों पर दोनों ने अपनी प्रतिक्रिया भी दी थी. इस से साफ पता चलता है कि दोनों का अफेयर चल रहा है.

नुसरत जहां और निखिल जैन के विवाद में यश दासगुप्ता ने कहा था कि नुसरत की पर्सनल लाइफ में चल रहे विवाद के बारे में कोई जानकारी नहीं है. वह तो हर समय सड़क यात्राएं करता रहता है. इस बार वह राजस्थान गया था. उस के साथ कोई भी जा सकता है. अगर यश दासगुप्ता कुछ कहते हैं तो कोई नई बातें सामने आएंगी.

10 अक्तूबर, 1985 को कोलकाता में जन्मे यश दासगुप्ता के कामकाज की बात करें तो उन्होंने नैशनल टीवी से अपने करियर की शुरुआत की थी. यश को हिंदी शो ‘कोई आने को है’, ‘बंदिनी’, ‘बसेरा’, ‘ना आना इस देश लाडो’, ‘अदालत’, ‘महिमा शनिदेव की’ में देखा जा चुका है. इस के अलावा बांग्ला धारावाहिक ‘बोझेना से बोझेना’ में भी काम कर चुके हैं.

उन्होंने कुछ बांग्ला फिल्मों में भी काम किया है. सब से पहले वह 2016 में फिल्म ‘गैंगस्टर’ में नजर आए थे. इस के बाद उन्होंने ‘वन’, ‘टोटल दादागिरी’, ‘फिदा’, ‘मोन जाने न’ और ‘एसओएस कोलकाता’ में काम किया है.

31 साल की नुसरत की निखिल जैन से मुलाकात तब हुई थी, जब निखिल ने अपने ब्रांड के लिए उन से मौडलिंग करवाई थी. और उसी मुलाकात में दोनों एकदूसरे को दिल दे बैठे थे. निखिल जैन कोलकाता के एक प्रतिष्ठित परिवार से हैं.

उन का साडि़यों का पारिवारिक बिजनैस है. उन के ब्रांड का नाम है रंगोली. उन के पिता मोहन कुमार जैन ने टैक्सटाइल का यह बिजनैस शुरू किया था, जो आज कोलकाता के अलावा हैदराबाद चेन्नई, बंगलुरु और विजयवाड़ा तक फैला है. साड़ी का रंगोली ब्रांड बहुत लोकप्रिय है.

निखिल जैन की गिनती रईसों में होती है. उन की मां हाउसवाइफ हैं. उन की 2 बहनें भी हैं. निखिल का जन्म कोलकाता में ही हुआ था. उन का बचपन यहीं बीता. उन्होंने एमपी बिड़ला से पढ़ाई की थी. यूनाइटेड किंगडम की बार्विक यूनिवर्सिटी से मैनेजमेंट की डिग्री ले कर पारिवारिक बिजनैस को संभाल लिया. उन्हें लग्जरी लाइफ जीना पसंद है. उन्हें एस्टन मार्टिन कार पसंद है. वह इंडियन फूड के दीवाने हैं.

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3 साल की डेटिंग के बाद की थी शादी

जैन होते हुए भी उन्होंने मुसलिम नुसरत जहां से शादी की. शादी से पहले 3 साल तक दोनों ने डेटिंग की थी. निखिल और नुसरत ने 19 जून, 2019 को डेस्टिनेशन शादी तो तुर्की में की थी, पर कोलकाता में बहुत ही भव्य रिसैप्शन दिया था, जिस में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी शामिल हुई थीं.

2010 में नुसरत जहां ने मिस कोलकाता का कौंटैस्ट जीता था. इसी के बाद मौडलिंग और फिर बांग्ला फिल्मों में उन का प्रवेश हुआ. बांग्ला में उन्होंने तमाम अच्छी फिल्में दीं.

शादी के 3 महीने पहले ही तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने यह घोषणा कर के सब को चौंका दिया था कि फिल्म अभिनेत्री नुसरत जहां टीएमसी की उम्मीदवार के रूप में बशीरहाट सीट से चुनाव लड़ेंगीं.

लोकसभा के इस चुनाव में नुसरत जहां को कुल 7,82,078 मत मिले थे. उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी भाजपा के उम्मीदवार सयांतन बासु को 3,50,569 मतों से हराया था.

चुनाव जीतने के कुछ दिनों बाद नुसरत जहां ने अपने प्रेम और विवाह की बात जाहिर की थी. नुसरत से अफेयर के पहले लोग निखिल को बहुत कम जानते थे. नुसरत के साथ नाम जुड़ने के बाद निखिल रातेंरात फेमस हो गए थे.

अलबत्ता उन की पहचान नुसरत जहां के पति के रूप में बनी थी. दोनों ने शादी की थी तो लोगों ने यही कहा था कि ये दोनों ही अलगअलग दुनिया के आदमी हैं, इसलिए दोनों ज्यादा दिनों तक एक साथ नहीं चल पाएंगे.

नुसरत बहुत ज्यादा महत्त्वाकांक्षी हैं. राजनीति में आने के बाद उन के सपनों को पंख लग गए हैं. नुसरत को अब डिवोर्स की बात से छुटकारा चाहिए. वह तो निखिल के साथ के संबंध को लिवइन रिलेशन कहती हैं. नुसरत और निखिल का यह प्रकरण जल्दी समाप्त होने वाला नहीं है. यह लंबा चलने वाला है. क्योंकि इस में अभी बहुत कुछ बाहर आना बाकी है. दोनों के मामले में कोई फिल्म देख रहे हों या मजेदार कहानी पढ़ रहे हों, लोग इस तरह रुचि ले रहे हैं.

सेलिब्रिटीज की जिंदगी अलग होती है. इन लोगों के संबंधों की व्याख्याएं भी एकदम अलग होती हैं. ऐसे मामलों में जजमेंटल बनने में बहुत खास नहीं होता. हर सेलिब्रिटी का किस्सा चर्चा में रहता है. फिल्मी दुनिया में तो यह सब चलता रहता है. इन लोगों की रियल लाइफ में भी शायद फिल्मी टर्न ऐंड ट्विस्ट न आए तो मजा नहीं आता.

प्रैग्नेंसी कंफर्म करने के लिए फोटो

तृणमूल कांग्रेस सांसद, एक्टर नुसरत जहां  की शादी भले टूटने की कगार पर है. उन का अपने पति से जिस बच्चे को ले कर विवाद चल रहा है, ऐसे में उन्होंने अपने उस बच्चे को ले कर अपनी प्रैग्नेंसी कन्फर्म कर दी है. इस के लिए उन्होंने एक तसवीर साझा की है, जिस में वह अपना बेबी बंप फ्लांट करती नजर आ रही हैं.

उन की यह तसवीर सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रही है, जिस में वह वाइट कलर के लूज गाउन में नजर आ रही हैं. इस फोटो में उन के गर्भवती होने का साफ पता चल रहा है. वहीं उन के चेहरे पर गर्भवती होने का ग्लो भी झलक रहा है. प्रैग्नेंसी के बाद पहली बार आई इस फोटो में नुसरत काफी खूबसूरत दिखाई दे रही हैं.

पिछले 3 महीने से नुसरत जहां के गर्भवती होने की अटकलें लगाई जा रही थीं. क्योंकि कुछ दिनों पहले उन्होंने इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट शेयर की थी, जिस में लिखा था, ‘तुम हमारे अंदाज में खिलोगे.’ हालांकि उस समय नुसरत इस मामले पर चुप्पी साधे रहीं. पर अब यह जो तसवीर सामने आई है, उस ने सारी अटकलों पर विराम लगा दिया है.

पहली महिला Hawker अरीना खान उर्फ पारो

अगर इंसान चाह ले तो उस के लिए कुछ भी असंभव नहीं है. चाहे वह महिला हो या पुरुष. आज महिलाएं वे सारे काम बखूबी कर रही हैं, जिन पर कभी केवल पुरुष अपना अधिकार समझता था. जमीन से ले कर आसमान तक महिलाएं पुरुषों को मात दे रही हैं. ऐसा ही काम जयपुर की अरीना खान उर्फ पारो ने भी किया है. उन्होंने जो काम किया है, उस की बदौलत आज वह भारत की पहली महिला हौकर मानी जा रही है.

जिस समय पूरा शहर मस्ती भरी नींद में सो रहा होता था, उसी समय सर्दी हो या गरमी या फिर बरसात, 9 साल की अरीना खान उर्फ पारो सुबह के 4 बजे उठ जाती और फिर अपने नन्हेनन्हे पैरों से साइकिल के बड़ेबड़े पैडल मारते हुए राजस्थान के शहर जयपुर के गुलाब बाग सेंटर पर पहुंच जाती थी. गुलाब बाग के सेंटर से अखबार ले कर वह बांटने के लिए निकल जाती. पिछले 20 सालों से उस का यह सिलसिला जारी है.

9 साल की उम्र में पारो ने भले ही यह काम मजबूरी में शुरू किया था, पर आज इसी काम की वजह से वह देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में जानी जाती है. एक तरह से यह काम आज उस की पहचान बन गया है. अपने इसी काम की बदौलत आज वह देश की पहली महिला हाकर बन गई है. पारो जिन  लोगों तक अखबार पहुंचाती है, उन में जयपुर का राज परिवार भी शामिल है.

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अरीना खान की 7 बहनें और 2 भाई हैं. मातापिता को ले कर कुल 11 लोगों का परिवार था. इतने बड़े परिवार की जिम्मेदारी उस के पिता सलीम खान उठाते थे. इस के लिए वह सुबह 4 बजे ही उठ जाते थे. जयपुर के गुलाब बाग स्थित सेंटर पर जा कर अखबार उठाते और जयपुर के बड़ी चौपड़, चौड़ा रास्ता, सिटी पैलेस, चांद पुल, दिलीप चौक, जौहरी बाजार और तिरपौलिया बाजार में घूमघूम कर अखबार बांटते थे.

इस के बाद दूसरा काम करते थे. 12 से 14 घंटे काम कर के किसी तरह वह परिवार के लिए दो जून की रोटी और तन के कपड़ों की व्यवस्था कर रहे थे.

अरीना उस समय 9 साल की थी, जब उस के पिता की तबीयत खराब हुई. दरअसल उन्हें बुखार आ रहा था. बुखार आता तो वह मैडिकल स्टोर से दवा ले कर खा लेते और अपने काम के लिए निकल जाते. उन के पास इतना पैसा नहीं था कि वह अपना इलाज किसी अच्छे डाक्टर से कराते. इस का नतीजा यह निकला कि बीमारी उन पर हावी होती गई. वह साधारण बुखार टाइफाइड बन गया.

एक तो बीमारी, दूसरे मेहनत ज्यादा और तीसरे खानेपीने की ठीक से व्यवस्था न होने की वजह से उन का शरीर कमजोर होता गया. एक दिन ऐसा भी आया जब सलीम खान को चलनेफिरने में परेशानी होने लगी.

अगर सलीम काम पर न जाते तो परिवार के भूखों मरने की नौबत आ जाती. उन्हें अपनी नहीं, अपने छोटेछोटे बच्चों की चिंता थी. वह अपनी दवा कराए या बच्चों का पेट भरे. जब वह चलनेफिरने से भी मजबूर हो गए तो 9 साल की अरीना अपने अब्बू के साथ अखबार बंटवाने में उन की मदद के लिए जाने लगी. वह पिता की साइकिल में पीछे से धक्का लगाती और अखबार बंटवाने में उन की मदद करती.

किसी तरह घर की गाड़ी चल रही थी कि अचानक एक दिन अरीना के परिवार पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा. बीमारी की वजह से उस के पिता सलीम खान की मौत हो गई.

अब कमाने वाला कोई नहीं था. ऐसी कोई जमापूंजी भी नहीं थी कि उसी से काम चलता. ऐसे में सहानुभूति जताने वाले तो बहुत होते हैं, लेकिन मदद करने वाले कम ही होते हैं. फिर किसी की मदद से कितने दिन घर चलता.

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पिता के मरते ही मात्र 9 साल की नन्ही अरीना समझदार हो गई. उस ने पूरे परिवार की जिम्मेदारी संभाल ली. इस की वजह यह थी कि उसे अपने पिता के अखबार बांटने वाले काम की थोड़ीबहुत जानकारी थी. इस के अलावा वह और कुछ न तो करने के लायक थी और न ही कुछ कर सकती थी.

पारो को पता था कि कहां से अखबार उठाना है और किसकिस घर में देना है. फिर क्या था अरीना उर्फ पारो भाई के साथ गुलाब बाग जा कर पेपर उठाती और घरघर जा कर पहुंचाती.

इस के लिए उसे सुबह 4 बजे उठना पड़ता था. घरघर अखबार पहुंचा कर उसे घर लौटने में 9, साढ़े 9 बज जाते थे.

अरीना जयपुर के गुलाब बाग से अखबार उठा कर चौपड़, चौड़ा रास्ता, सिटी पैलेस, चांद पुल, दिलीप चौक, जौहरी बाजार, तिरपौलिया बाजार इलाके में घरघर जा कर अखबार पहुंचाती थी. इस तरह उसे लगभग 7 किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ता था. वह करीब सौ घरों में अखबार पहुंचाती थी.

शुरूशुरू में अरीना को इस काम में काफी परेशानी हुई. क्योंकि वह 9 साल की बच्ची ही तो थी. उतनी दूर चल कर वह थक तो जाती ही थी, साथ ही उसे यह भी याद नहीं रहता था कि उसे किसकिस घर में अखबार डालना है.

यही नहीं, वह रास्ता भी भूल जाती थी. इस के अलावा उसे इस बात पर भी बुरा लगता था, जब छोटी बच्ची होने की वजह से कोई उसे दया की दृष्टि से देखता था.

बुरे दिनों में मदद करने वाले कम ही लोग होते हैं. फिर भी अरीना के पिता को जानने वाले कुछ लोगों ने उस की मदद जरूर की. इसलिए अरीना सुबह जब अखबार लेने गुलाब बाग जाती तो उसे लाइन नहीं लगानी पड़ती थी. उसे सब से पहले अखबार मिल जाता था. इस के बावजूद उसे परेशान तो होना ही पड़ता था. क्योंकि अखबार बांटने के बाद उसे स्कूल भी जाना होता था.

स्कूल जाने में उसे अकसर देर हो जाती थी. क्योंकि वह अखबार बांट कर 9, साढ़े 9 बजे तो घर ही लौटती थी. उस के स्कूल पहुंचतेपहुंचते एकदो पीरियड निकल जाते थे. उस का पढ़ाई का नुकसान तो होता ही, लगभग रोज ही प्रिंसिपल और क्लास टीचर की डांट भी सुननी पड़ती थी.

उस समय अरीना 5वीं में पढ़ती थी. जब इसी तरह सालों तक चलता रहा तो नाराज हो कर प्रिंसिपल ने उस का नाम काट दिया. इस के बाद अरीना एक साल तक अपने लिए स्कूल ढूंढती रही, जहां वह अपना काम निपटाने के बाद पढ़ने जा सके. वह इस तरह का स्कूल ढूंढ रही थी कि अगर वह देर से भी स्कूल पहुंचे तो उसे क्लास में बैठने दिया जाए.

आखिर रहमानी मौडल सीनियर सेकेंडरी स्कूल ने उस की शर्त पर अपने यहां एडमिशन दे दिया. इस तरह एक बार फिर उस की पढ़ाई शुरू हो गई. अखबार बांटने के बाद वह एक बजे तक अपनी पढ़ाई करती.

स्कूल में अरीना की जो क्लास छूट जाती, उस की पढ़ाई अरीना को खुद ही करनी पड़ती. जिस समय अरीना 9वीं क्लास में थी तो एक बार फिर उस की और उस की छोटी बहन की पढ़ाई में रुकावट आ गई. इस की वजह थी उस की आर्थिक स्थिति.

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अखबार बांटने से उस की इतनी कमाई नहीं हो रही थी कि उस का अपना घर खर्च आराम से चल पाता. जब घर का खर्च ही पूरा नहीं होता था तो पढ़ाई का खर्च कहां से निकालती. खर्च पूरे करने के लिए उस ने एक नर्सिंगहोम में पार्टटाइम नौकरी कर ली.

अब वह सुबह उठ कर अखबार बांटती, फिर स्कूल जाती, उस के बाद नर्सिंगहोम में नौकरी करती. नर्सिंगहोम में वह शाम 6 बजे से रात 10 बजे तक काम करती थी. रात को घर आ कर उसे फिर अपनी पढ़ाई करनी पड़ती. इस तरह उसे हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ रही थी.

अरीना जब बड़ी हो रही थी, सुबह उसे अकेली पा कर लड़के उस से छेड़छाड़ करने लगे थे. पर अरीना इस से जरा भी नहीं घबराई. अगर कोई लड़का ज्यादा पीछे पड़ता या परेशान करता तो अरीना उसे धमका देती. अगर इस पर भी वह नहीं मानता तो अरीना उस की पिटाई कर देती. अब वह किसी से नहीं डरती थी. परिस्थितियां सचमुच इंसान को निडर बना देती हैं.

अरीना अखबार बांटने के साथसाथ पार्टटाइम नौकरी करते हुए पढ़ भी रही थी. कड़ी मेहनत करते हुए उस ने 12वीं पास कर ली. इतने पर भी वह नहीं रुकी. उस ने महारानी कालेज से ग्रैजुएशन किया, साथ ही वह कंप्यूटर भी सीखती रही.

कंप्यूटर सीखने के बाद उसे एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई. लेकिन उस ने अखबार बांटना नहीं बंद किया. सुबह उठ कर वह अखबार बांटती है, उस के बाद लौट कर नहाधो कर तैयार हो कर नौकरी पर जाती है.

इतना ही नहीं, बाकी बचे समय में वह गरीब बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित ही नहीं करती, बल्कि पढ़ाती भी थी. इस के अलावा कई संगठनों के साथ मिल कर गरीब बच्चों के लिए काम भी करना शुरू कर दिया.

अरीना के समाज सेवा के इन कामों को देखते हुए उसे कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं. यही वजह है कि देश की पहली महिला हाकर होने के साथसाथ समाज सेवा करने वाली अरीना को राष्ट्रपति ने भी सम्मानित किया है.

अरीना को जब पता चला कि उस की मेहनत को राष्ट्रपति सम्मानित करने वाले हैं तो उसे बड़ी खुशी हुई. जिसे बयां करने के लिए उस के पास शब्द नहीं थे. उस के पैर मानो जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. पैर जमीन पर पड़ते भी कैसे, छोटी सी उम्र से अब तक उस के द्वारा किया गया संघर्ष सम्मानित जो किया जा रहा था.

अरीना की जो कल तक आलोचना करते थे, आज उसे सम्मान की नजरों से देखते हैं. शायद यह उस के संघर्ष का फल है. लोग आज अपने बच्चों को उस की मिसाल देते हैं. आज अरीना एक तरह से सेलिब्रिटी बन चुकी है. वह जहां भी जाती है, लोग उसे पहचान लेते हैं और उस के साथ सेल्फी लेते हैं.

अरीना ने जो काम कभी मजबूरी में शुरू किया था, आज वही काम उस की पहचान बन चुका है. शायद इसीलिए उस ने अपना अखबार बांटने का काम आज भी बंद नहीं किया है. अरीना की स्थिति को देखते हुए साफ लगता है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता. लड़कियां भी अगर चाह लें तो कोई भी काम कर सकती हैं.

इंसानों के बाद शेरों में भी बढ़ा कोरोना का खतरा

कोरोना वायरस ने 2 साल से दुनिया भर में इंसानों की जान को खतरे में डाल रखा है. अब जानवरों में सब से ताकतवर माने जाने वाले शेरों को भी कोरोना ने अपनी चपेट में ले लिया है. शेर, बाघ ही नहीं दूसरे पशुओं पर भी कोरोना का खतरा मंडराने लगा है.

माना जा रहा है कि संक्रमित इंसानों के जरिए कोरोना वायरस ने शेरों के शरीर में प्रवेश किया. हालांकि अमेरिका के न्यूयार्क स्थित ब्रानोक्स जू में पिछले साल अप्रैल में ही 8 बाघ और शेर कोरोना पौजिटिव मिले थे, लेकिन भारत में पहली बार शेर संक्रमित मिले हैं.

पिछले साल हांगकांग में भी कुत्ते और बिल्लियों में कोरोना संक्रमण का पता चला था. भारत में घरेलू जानवरों में अभी तक कोरोना संक्रमण के कोई मामले सामने नहीं आए हैं.

मई के पहले सप्ताह में हैदराबाद के नेहरू जूलोजिकल पार्क में 8  एशियाई शेर कोरोना संक्रमित पाए गए. इन में 4 शेर और 4 शेरनियां थीं. इस जू में काम करने वाले कर्मचारियों को अप्रैल के चौथे सप्ताह में शेरों में कोरोना के लक्षण दिखाई दिए थे.

इन शेरों की खुराक कम हो गई थी. इस के अलावा उन की नाक भी बहने लगी थी. उन में सर्दी जुकाम जैसे लक्षण नजर आ रहे थे. कर्मचारियों ने जू के अधिकारियों को यह बात बताई. उस समय तक देश में कोरोना की दूसरी लहर का भयावह रूप सामने आ चुका था.

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जू के अधिकारियों ने इन शेरों की कोरोना जांच कराने का फैसला किया. जांच के लिए शेरों को ट्रंकुलाइज यानी बेहोश कर उन के तालू के निचले हिस्से से लार के नमूने लिए   गए. इन नमूनों को जांच के लिए हैदराबाद के सेंटर फौर सेल्युलर एंड मौलिक्यूलर बायोलौजी (सीसीएमबी) भेजा गया.

सीसीएमबी से शेरों की कोरोना जांच रिपोर्ट मई के पहले सप्ताह में हैदराबाद जू के अधिकारियों को मिली. इस में 8 शेरों की आरटीपीसीआर (कोरोना) जांच रिपोर्ट पौजिटिव आई.

एशिया में सब से बड़े जू में शुमार नेहरू जूलोजिकल पार्क हैदराबाद शहर की घनी आबादी वाले इलाके में बना हुआ है और 380 एकड़ में फैला है. सरकार ने कुछ दिन पहले ही कोरोना वायरस हवा के जरिए फैलने की बात कही थी. इस से यह माना गया कि शेरों में कोरोना वायरस ने या तो हवा के जरिए या देखरेख करने वाले किसी संक्रमित कर्मचारी के जरिए प्रवेश किया. नेहरू जूलोजिकल पार्क में कुल 12 एशियाई शेर हैं.

हैदराबाद का मामला सामने आने के बाद केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने देश भर में सभी जूलोजिकल पार्क, नैशनल पार्क और टाइगर रिजर्व बंद करने के आदेश दिए. साथ ही वन्यजीव अभयारण्यों को भी अगले आदेशों तक दर्शकों के लिए बंद करने की सलाह दी.

इस के बाद मई के पहले सप्ताह में ही उत्तर प्रदेश के इटावा में स्थित लायन सफारी के एक शेर में भी कोरोना वायरस मिला. इस की पुष्टि बरेली में इज्जतनगर स्थित भारतीय पशु अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई) में की गई जांच में हुई. इटावा की लायन सफारी से 14 शेरों के सैंपल जांच के लिए बरेली के आईवीआरआई भेजे गए थे. जांच में एक शेर में कोरोना वायरस पाया गया और एक संदिग्ध माना गया. बाकी 12 शेरों की कोरोना जांच रिपोर्ट निगेटिव आई.

इस लायन सफारी में 18 शेर और शेरनी हैं. इन में कुछ दिन पहले कोरोना के लक्षण नजर आए थे. इस से पहले हैदराबाद जू के शेरों में कोरोना वायरस की पुष्टि हो चुकी थी. ऐसी हालत में इटावा लायन सफारी प्रशासन ने भी शेरों की कोरोना जांच कराने का निर्णय लिया था. एक शेर की जांच रिपोर्ट पौजिटिव आने के बाद इस सफारी में शेरों की देखभाल में सतर्कता बढ़ा दी गई. इस के साथ ही सभी शेरों को अलगअलग आइसोलेशन में कर दिया गया, ताकि संक्रमण का फैलाव न हो.

मई के दूसरे सप्ताह में ही जयपुर में चिडि़याघर का बब्बर शेर ‘त्रिपुर’ भी कोरोना संक्रमित पाया गया. इस चिडि़याघर में एक सफेद बाघ चीनू और दूसरी शेरनी तारा को कोरोना संदिग्ध माना गया. ये सभी शेर जयपुर में नाहरगढ़ बायोलौजिकल पार्क में बनी लायन सफारी में रह रहे थे. इन शेरों की कोरोना सैंपल की जांच बरेली के आईवीआरआई में कराई गई थी. जयपुर से लायन सफारी के 13 सैंपल जांच के लिए बरेली भेजे गए थे.

जयपुर के नाहरगढ़ बायोलौजिकल पार्क में राजस्थान की पहली लायन सफारी 2018 में शुरू हुई थी. इस पार्क में करीब 36 हैक्टेयर में लायन सफारी बनी हुई है. यहां पहले 4 एशियाई शेर थे. इन में से कैलाश और तेजस नामक शेरों की मौत हो गई थी. अब लायन सफारी में शेरनी तारा और शेर त्रिपुर ही हैं.

सबसे पहले गुजरात के जूनागढ़ से तेजिका नामक शेरनी को जयपुर चिडि़याघर लाया गया था. बाद में उसे लायन सफारी में शिफ्ट कर दिया था. तेजिका ने 3 शावकों को जन्म दिया था. इन के नाम त्रिपुर, तारा और तेजस रखे गए. तेजिका की 3 साल पहले मौत हो गई थी. बाद में पिछले साल उस के बेटे तेजस की भी मौत हो गई. अब भाईबहन त्रिपुर और तारा बचे हैं. इन में तारा को कोरोना संदिग्ध माना गया है.

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संदिग्ध मानी गई शेरनी तारा, सफेद बाघ चीनू और एक पैंथर कृष्णा के सैंपल दोबारा जांच के लिए बरेली भेजे गए. शेर त्रिपुर को दूसरे वन्यजीवों से अलग कर क्वारंटाइन कर दिया गया. पार्क के सभी जानवरों को रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली दवाएं दी जा रही हैं.  शेर, बाघ और दूसरे वन्यजीवों के व्यवहार पर सीसीटीवी से नजर रखी जा रही है. वन्यजीवों की देखभाल करने वाले केयरटेकरों को भी पीपीई किट मुहैया कराई गई है. इन केयरटेकरों को अब बाघ और शेरों के बाड़े तक जाने के लिए पानी में से निकलना पड़ता है ताकि इन के पैरों के जरिए किसी तरह का इंफेक्शन जानवरों तक न पहुंचे.

मध्य प्रदेश में इंदौर के जू में मांसाहारी वन्यजीवों के साथ विदेशी पक्षियों को भी दवाएं दी जा रही हैं. इन की आंखों को इंफेक्शन से बचाने के लिए दवा डाली जा रही है. पक्षियों के पिंजरों को सैनेटाइज किया गया है.

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इंदौर जू में दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका और आस्ट्रेलिया के पक्षी बड़ी संख्या में हैं. इगुआना नाम की दुनिया की सब से बड़ी छिपकली को सुबहशाम हरी सब्जियां दी जा रही हैं. इगुआना छिपकली 3 मीटर तक लंबी और 50 किलोग्राम तक वजनी होती है. यह उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप में पाई जाती है.

अंधविश्वास: दहशत की देन कोरोना माता

लेखक- शाहिद नकवी

जानकारी के मुताबिक, शुकुलपुर जूही गांव में कोरोना वायरस से 3 लोगों की मौत हो गई थी. इस के बाद वहां के लोगों में दहशत फैल गई.

इस पर गांव के लोकेश श्रीवास्तव ने 7 जून, 2021 को कोरोना माता का मंदिर बनवाने का फैसला किया. इस के लिए उन्होंने और्डर पर मूर्ति बनवाई और उसे गांव के एक चबूतरे के पास नीम के पेड़ के बगल में ही रखवा दिया.

इस के बाद कोरोना माता मंदिर में  2 समय होने वाली पूजा में भक्तों की भीड़ लगने लगी.

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वहां लिखा था कि कृपया दर्शन से पहले मास्क लगाएं, हाथ धोएं, दूर से दर्शन करें. इतना ही नहीं, एक तरफ लिखा गया कि कृपया सैल्फी लेते समय मूर्ति को न छुएं, तो दूसरी तरफ लिखा था कि कृपया पीले रंग के ही फूल, फल, कपड़े, मिठाई, घंटा वगैरह चढ़ाएं. मंदिर पर दर्शन करने आ रहे लोग ‘कोरोना माई की जय’ बोल रहे थे.

जब इस मंदिर की जानकारी प्रशासन को हुई, तो उस के हाथपैर फूल गए. मामला अंधविश्वास से जुड़ा होने के चलते पुलिस ने इसे गिराने का फैसला किया. वह जेसीबी ले कर गांव पहुंची और कोरोना माता की मूर्ति व मंदिर समेत बोर्ड को भी जमींदोज कर दिया. प्रशासन ने सारा मलबा गांव से तकरीबन 5 किलोमीटर दूर फिंकवा दिया.

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हैरानी की बात तो यह है कि अंधविश्वास के चलते तैयार किए गए इस मंदिर में दूरदराज के लोग भी पहुंच रहे थे. वे डाक्टरों से ज्यादा ऐसे मंदिर और कोरोना माता पर यकीन कर रहे थे, जो उन का कभी भला नहीं करेंगे.

इस तरह के अंधविश्वास नए नहीं हैं. भारत में जब भी कोई महामारी फैली है, लोगों ने उस महामारी के नाम पर देवीदेवता बना दिए. छोटी माता, बड़ी माता बीमारियों को देख कर ही बनाई गई थीं.

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि ज्यादातर लोग पढ़ेलिखे नहीं हैं और सुनीसुनाई बातों पर बड़ी जल्दी यकीन कर लेते हैं. कहीं गणेश के दूध पीने की अफवाह फैल जाती है, तो लोग दूध खरीद कर उसे मूर्तियों पर बहा देते हैं, तो कहीं पीरफकीरों के मजार पर लोग बिना सोचेसमझे चढ़ावा चढ़ा देते हैं, ताकि वे बीमारियों से बच सकें. लोगों की यह सोच गलत है.

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शनिवार, 12 जून, 2021 को फुटबाल के ‘यूरो कप’ में अपने पहले मुकाबले में कमजोर फिनलैंड ने डैनमार्क को 1-0 से हरा दिया. पर इस फुटबाल मैच की जो सब से अहम घटना थी, वह डैनमार्क के शानदार खिलाड़ी क्रिश्चियन ऐरिक्सन से जुड़ी थी. दरअसल, मैच के हाफ टाइम से ठीक पहले वे मैदान में अचानक गिर कर बेहोश हो गए थे.

क्रिश्चियन ऐरिक्सन डैनमार्क के आक्रामक मिडफील्डर के तौर पर मशहूर हैं और उन्हें मैदान पर ऐसे पड़ा देख कर उन की टीम के सदस्य रोने लगे थे. डैनमार्क के फैन भी गमगीन थे.

यह हादसा देख कर अचानक खयाल आया कि 29 साल का इतना ज्यादा फिट इनसान देखतेदेखते कैसे उन हालात में जा सकता है कि उस के बचने की उम्मीद अचानक धुंधली पड़ती जाए? पर वहां मौजूद डाक्टरों की टीम ने कमाल का काम किया.

इसी बीच डैनमार्क के खिलाडि़यों ने घेरा बना कर जमीन पर पड़े ऐरिक्सन का मानो सुरक्षा कवच बना लिया था, हालांकि उन के चेहरे क्रिश्चियन ऐरिक्सन की विपरीत दिशा में थे.

डाक्टरों ने तो मानो अपना पूरा जोर लगा दिया था. उन्होंने क्रिश्चियन ऐरिक्सन की जोरजोर से छाती दबाई… और भी कई जरूरी तरीके अपनाए, पर डैनमार्क टीम के खिलाडि़यों के आंसू बता रहे थे कि हालात बेहद चिंताजनक हैं. लेकिन सब से अच्छी बात तो यह थी कि दर्शकों और मैदान पर जमा दूसरे लोगों ने घटनास्थल के पास कोई मजमा नहीं लगाया.

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वहां से थोड़ी दूर एक महिला भी मैदान पर थीं, जिन्हें डैनमार्क के कुछ खिलाड़ी दिलासा दे रहे थे. वे शायद क्रिश्चियन ऐरिक्सन की पत्नी थीं और रोए जा रही थीं. यह एक ऐसा सीन था, जिसे खेल के मैदान पर कोई नहीं  देखना चाहेगा.

उधर डाक्टरों की टीम अपने काम में जुटी हुई थी. चिकित्सा का पूरा ताम झाम डाक्टर ले आए थे, पर जब उन्हें लगा कि अब क्रिश्चियन ऐरिक्सन को अस्पताल ले जाना पड़ेगा, तो उन्होंने वही किया. तब तक क्रिश्चियन ऐरिक्सन बेहोश थे और मैडिकल इमर्जेंसी के चलते मैच को निलंबित कर दिया गया था.

काफी देर के बाद टूर्नामैंट के आयोजक यूईएफए ने जानकारी दी कि क्रिश्चियन ऐरिक्सन को होश आ गया है और उन की हालत फिलहाल ‘स्थिर’ है. यह खबर सुखद थी.

दोनों टीमों से बात कर के कुछ देर बाद मैच फिर से शुरू हुआ. पर तब तक शायद डैनमार्क के खिलाडि़यों की लय बिगड़ चुकी थी, जिस के चलते यह मैच फिनलैंड ने 1-0 से अपने नाम कर लिया.

मैच खत्म होने के बाद डैनमार्क की टीम के हैड कोच कैस्पर हेजुलमैन ने कहा, ‘‘यह टीम के लिए बेहद मुश्किल शाम थी, जब हम सभी को इस बात का अहसास हुआ कि जिंदगी में सब से अहम चीज रिश्ते हैं. हम ऐरिक्सन और उन के परिवार के साथ हैं.’’

यूईएफए के अध्यक्ष एलैक्जैंडर चैफरीन ने कहा, ‘‘इस तरह के वाकिए आप को एक बार फिर जिंदगी के बारे में सोचने का मौका देते हैं. इस तरह के वाकिए बताते हैं कि फुटबाल खेल के परिवार में कितनी एकता है. मैं ने सुना दोनों टीमों के फैंस ऐरिक्सन का नाम ले रहे थे. ऐरिक्सन बेहतरीन खिलाड़ी हैं और बेहतरीन फुटबाल खेलते हैं.

‘‘पर, मैं साथ में उन डाक्टरों की टीम की तारीफ भी करूंगा, जिस ने बिना देरी किए ऐरिक्सन को बचाने के लिए हर मुमकिन तरीका अपनाया और एक बेहतरीन खिलाड़ी को नई जिंदगी दी.’’

पर एक और टीम खेल क्रिकेट में हुई एक घटना ने क्रिकेट प्रेमियों को शर्मिंदा कर दिया. हुआ यों कि क्रिकेट की ढाका प्रीमियर लीग में शुक्रवार, 11 जून, 2021 को खेले गए एक ट्वैंटी20 मैच के दौरान बंगलादेशी खिलाड़ी शाकिब अल हसन अंपायर से भिड़ पड़े थे और गुस्से में स्टंप्स पर भी लात मारते हुए दिखाई दिए थे.

इस घटना के गवाह एक वीडियो  में दिखा कि शाकिब अल हसन ने  दूसरी टीम के बल्लेबाज मुशफिकुर रहीम के खिलाफ अपनी गेंदबाजी पर एलबीडब्ल्यू की अपील की और जब अंपायर ने नौटआउट करार दिया, तो उन्होंने पहले स्टंप्स पर लात मारी और फिर अंपायर से भी भिड़ गए.

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लेकिन बाद में शाकिब हल हसन को ही यह सब करना भारी पड़ गया. उन के खराब बरताव के लिए उन्हें ढाका प्रीमियर लीग में 4 मैचों के लिए बैन कर दिया गया और 4 लाख रुपए से ज्यादा का जुर्माना भी लगाया गया.

हालांकि, शाकिब अल हसन ने अपने इस बरताव के लिए माफी मांगते हुए सोशल मीडिया पर लिखा था, ‘प्रिय फैंस और फौलोवर, मैं अपना आपा खोने और इस तरह से सभी से मैच को बरबाद करने के लिए माफी मांगता हूं, खासतौर पर उन लोगों से जो घर पर बैठ कर यह मुकाबला देख रहे थे.

‘मेरे जैसे एक अनुभवी खिलाड़ी को इस तरह का बरताव नहीं करना चाहिए, लेकिन कभीकभी दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से ऐसा हो जाता है. मैं टीमों से, मैनेजमैंट से, टूर्नामैंट के औफिशिल्स से और टूर्नामैंट के आयोजकों से इस भूल के लिए माफी मांगता हूं. उम्मीद है कि भविष्य में मैं इस तरह का बरताव फिर कभी नहीं करूंगा. धन्यवाद और सभी को प्यार.’

माना कि खेल के मैदान पर हारजीत के तनाव में खिलाड़ी आपा खो देते हैं, पर शाकिब अल हसन का गुस्सा होना और वह भी इस हद तक कि पहले विकेट पर लात दे मारी और फिर अंपायर पर ही चढ़ गए, कहीं से जायज नहीं था. उन का बाद में माफी मांगना यह साबित करता है कि उन की हरकत स्कूली क्रिकेट के किसी खिलाड़ी की तरह बचकानी थी, जो विकेट न मिलने पर ऐसा बरताव करे.

फुटबाल और क्रिकेट जैसे टीम खेल में अपने साथियों के साथसाथ विरोधी टीम के खिलाडि़यों और मैदान पर मौजूद अंपायर या रैफरी के साथ अच्छा बरताव करना बहुत जरूरी होता है.

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आपा खोया नहीं कि लेने के देने पड़ जाते हैं. अगर क्रिश्चियन ऐरिक्सन वाले मामले में डाक्टरों की टीम भी अपना आपा खो देती तो शायद वह एक उम्दा खिलाड़ी की जान नहीं बचा पाती, जो खेल जगत के लिए कभी न भर पाने वाला नुकसान होता.

हकीकत: महामारी पर भारी अंधविश्वास की दुकानदारी

दूसरी लहर में कोरोना कंट्रोल से बाहर होता दिखा. शहर के अस्पतालों में बिस्तर और औक्सीजन की कमी थी. मरीज दरदर भटक रहे थे. गांवों में तो इलाज की सुविधा ही नहीं दिखी. कहींकहीं पर तो पेड़ के नीचे कोरोना मरीजों का इलाज किया गया. नीमहकीम ग्लूकोज चढ़ा कर मरीजों का इलाज कर रहे थे.
राजस्थान के जयपुर, जोधपुर, कोटा, उदयपुर से सटे जिलों में नए मरीजों में रिकौर्ड बढ़ोतरी हुई.

डाक्टरी महकमे के मुताबिक, तकरीबन 45 फीसदी तक नए मरीज गांवदेहात के इलाकों से आए. बाड़मेर, चूरू, धौलपुर, राजसमंद, प्रतापगढ़ जैसे जिलों में भी रोज के औसतन 600 केस आए, जबकि यहां पर दूरदराज के इलाकों में तो सैंपलिंग ही नहीं हो रही थी.

लोग भी कोरोना के नाम पर इतने डरे हुए दिखे कि खुद जांच ही नहीं कराई. वजह, यहां आईसीयू, बिस्तर और रेमडेसिविर दवा तो दूर मरीजों के इलाज के लिए कोविड सैंटर भी नहीं थे. इलाज के लिए लोगों को 100 किलोमीटर दूर जिला मुख्यालयों तक जाना पड़ा.

जिला मुख्यालय के अस्पतालों में भी जगह नहीं बची थी. तहसील और उपखंड मुख्यालय के अस्पतालों में भी बिस्तर खाली नहीं दिखे. ऐसे में नीमहकीम पनप आए, जो घरों के बाहर नीम के पेड़ों के नीचे बिस्तर बिछा कर लोगों का इलाज कर रहे थे.

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पाली जिले के जैतारण इलाके में इसी तरह का मामला देखने को मिला, जहां पर कोरोना के संदिग्ध मरीजों का ग्लूकोज चढ़ा कर इलाज हो रहा था. बांगड़ अस्पताल में 280 बिस्तर बनाए गए. उन्हीं मरीजों को भरती किया जा रहा था, जिन का औक्सीजन सैचुरेशन 85 से नीचे था.

भरतपुर के बयाना इलाके में मरीजों को भरती करने की कोई सुविधा नहीं थी. सीटी स्कैन भी 10 गुना दाम पर हो रहा था. लोग जांच कराने के बजाय लक्षणों के आधार पर दवा ले रहे थे. वैर सीएचसी से 2 किलोमीटर दूर सटे 5,000 आबादी वाले नगला गोठरा इलाके में 70 फीसदी लोगों को खांसीजुकाम और बुखार था. मैडिकल टीम आई, पर किसी ने जांच नहीं कराई.

भोपुर, सहजनपुर, गाजीपुर समेत कई गांव थे, जहां हर घर में बुखार से पीडि़त लोग थे. सहजनपुर के शेर सिंह ने बताया कि एसडीएम ने मैडिकल टीम भेजी थी, पर लोग टैस्ट कराने को तैयार नहीं हुए. वे खुद ही दवा ले रहे थे.

जयपुर के मनोहरपुर में संक्रमितों के इलाज का माकूल इंतजाम नहीं दिखा.  50 किलोमीटर दूर जयपुर और  60 किलोमीटर दूर कोटपुतली में कोविड सैंटर बने थे. किशनगढ़रेनवाल में खारड़ा इलाके के 35 साला नौजवान को पहले सर्दीजुकाम हुआ, बाद में उस की मौत  हो गई.

बाड़मेर के चौहटन विधानसभा क्षेत्र में चौहटन, सेवा, धनाऊ व बाखासर में सीएचसी और पूरे इलाके में 14 से ज्यादा पीएचसी हैं. इन में सैंपलिंग तो हो रही थी, लेकिन कोविड सैंटर ही नहीं बने थे. मरीजों को बाड़मेर रैफर किया जा रहा था. गुड़ामालानी में कोविड सैंटर नहीं था. मरीजों को 100 किलोमीटर दूर बाड़मेर जाना पड़ रहा था.

औनलाइन महामृत्युंजय जाप

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के गृह जिले जोधपुर के 5 गांवों भावी, बिजासनी, जेतिवास, पिचीयाक और जेलवा में कोरोना की दूसरी लहर में महज 8 दिन में 36 मौतें हो चुकी थीं, वहीं पाली सांसद पीपी चौधरी के पैतृक गांव भावी में दिनभर हवनपूजन हो रहा था. औनलाइन महामृत्युंजय जाप का सीधा प्रसारण घरों में दिखाया जा रहा था.

कोरोना की दूसरी लहर में घरघर में मातम दिखा. श्मशान में एक चिता ठंडी नहीं होती, उस से पहले ही दूसरी अर्थी आ जाती थी.

यह दर्दनाक मंजर अकेले भावी गांव का नहीं, बल्कि जोधपुर जिले के  झाक, पीपाड़, बिलाड़ा, रणसीगांव, खेजड़ला, चिरडाणी, औसियां, भोपालगढ़ और दूसरे कई गांवों का भी था.

वैक्सीन पर नहीं भरोसा

पाली और बांसवाड़ा जिले के आदिवासी गांवों में वैक्सीन को ले कर अफवाहें फैल रही थीं. अफवाहों के चलते ही कम उम्र के लोग वैक्सीन लगवाने से बच रहे थे या उन्हें घर वाले ही वैक्सीन नहीं लगवाने दे रहे थे.

गोडवाड़ क्षेत्र के आदिवासी इलाके की 13 ग्राम पंचायतों में महज 15 लोगों ने ही वैक्सीन लगवाई थी. वागड़ के आदिवासी क्षेत्र में महज 54 फीसदी वैक्सीनेशन हुआ था. बाली के आदिवासियों ने टीके लगवाने से किनारा कर लिया था.

इस इलाके में यह अफवाह घरघर फैली थी कि वैक्सीन लगवाने से बच्चे पैदा करने की ताकत खत्म हो जाएगी. एक महीने में मौत भी हो सकती है. यही वजह थी कि डाक्टरी महकमे की ओर से बारबार वैक्सीनेशन कैंप लगाने के बाद भी टीका लगवाने कोई नहीं आ रहा था.

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सब से बड़ी बात यह दिखी कि यह अफवाह स्वयंभू आदिवासी नेताओं ने अलगअलग जगह पर बड़ी सभाओं के जरीए सरेआम फैलाई थी. एक मामले में तो पुलिस ने सभासदों के खिलाफ भीड़ जुटाने का मुकदमा तो दर्ज किया, लेकिन अफवाह फैलाने वालों पर कोई कार्यवाही नहीं की.

चौंकाने वाला सच तो यह रहा कि आदिवासी क्षेत्र की 13 ग्राम पंचायतों  में टीकाकरण कराने वाले लोगों की संख्या एक दहाई तक ही रही, जिन में सरकारी कार्मिक या फ्रंटलाइन वर्कर्स ही  शामिल थे.

बाली पंचायत समिति की प्रधान पानरी बाई 58 साल की हैं. वे सिर्फ साक्षर हैं. अपने घर में जब उन्होंने कोरोना से तड़पते हुए दोहिते को देखा, तो सब से पहले डाक्टर ने उन के घर पहुंच कर औक्सीमीटर से औक्सीजन लैवल नापा. लैवल 70 तक आने के बाद दोहिते की सांसें उखड़ गईं.

इस के बाद पानरी बाई ने अपने पति और पूर्व प्रधान सामताराम गरासिया के साथ मिल कर यह तय किया कि गांव में अब ऐसी मौतों को रोकने की कोशिश की जाएगी. उन्होंने कोरोना से निबटने के लिए औक्सीमीटर मंगवाया.

टैलीविजन पर प्रोनिंग यानी औक्सीजन बढ़ाने का तरीका सीखा और दिन में 3 बार अपने घर में ही बने बगीचे में परिवार समेत गांव के लोगों को प्रोनिंग सिखाई.

नामर्दगी की वैक्सीन

बांसवाड़ा के कुशलगढ़ ब्लौक में एक और नया संकट खड़ा होता दिखा, जहां से वागड़ में कोरोना की ऐंट्री हुई थी. यहां पहले कोरोना का कहर था और बाद में वैक्सीनेशन को ले कर चल रही तमाम अफवाहों से डाक्टरी महकमा परेशान होता दिखा.

एक औरत ने बताया कि यहां ऐसी बात उड़ रही है कि पैंटशर्ट वालों का टीका अलग और गांवों में टीका अलग लग रहा है. यह टीका अगर जवान को लगा, तो बच्चे पैदा नहीं होंगे और बुजुर्गों को लगा, तो वे जल्दी मर जाएंगे.

कुशलगढ़ कसबे में हालात ज्यादा खतरनाक दिखे. वहां 2,776 लोग संक्रमित हो चुके थे, जबकि 36 लोगों की मौत हो चुकी थी. पहली लहर में 395 संक्रमण के मामले सामने आए थे, अब अफवाहों ने हालात को और बिगाड़ दिया था. कुशलगढ़ ब्लौक में महज  54 फीसदी ही वैक्सीनेशन हुआ.

सबलपुरा में वैक्सीनेशन के लिए गई टीम को गांव वालों ने भगा दिया. कुशलगढ़ के बीसीएमओ डाक्टर राजेंद्र उज्जैनिया ने माना कि यहां अंधविश्वास बहुत है, इसलिए टीकाकरण कम है.

पुरखों की पूजा

भंवरदा पंचायत के एक गांव में कई लोग एकसाथ पूजापाठ करते हुए देखे गए. जब इन से बातचीत की गई, तो बुजुर्ग सरदार सरपोटा ने बताया कि गांवगांव में कोरोना का डर है. दूसरे इलाकों की तरह हमारे गांव में यह आपदा नहीं आए, इसलिए पुरखों की पूजाअर्चना कर परिवार की हिफाजत की कामना कर रहे हैं.

गांव के हेमला सरपोटा बताते हैं कि कोरोना में सावधानी तो रख रहे हैं, लेकिन अब ऊपर वाला ही बचा सकता है.

राजस्थान के गांवदेहात के इलाकों में कोरोना को ले कर जागरूकता सही तरीके से नहीं पहुंच पा रही थी. यही वजह थी कि यहां के लोगों को पता ही नहीं था कि कोरोना कितना खतरनाक है. लक्षण दिखने पर लोग इलाज कराने भोपों के पास चले गए. खुद जयपुर जिले के गांवों में मैडिकल सेवाएं वैंटिलेटर पर थीं. सिस्टम खुद बीमार नजर आ रहा था.

क्वारंटीन सैंटर या जेल

कोरोना की दूसरी लहर में प्रतापगढ़ जिले के धरियावद उपखंड में ग्राम पंचायत और गांवों के साथ ढाणियों के भी हाल बुरे दिखे. यहां पर तकरीबन हर घर में खांसीबुखार के मरीज मौजूद थे, लेकिन इस से भी बुरा यह था कि गांव वालों को यह नहीं पता था कि कोरोना क्या है और यह कितना खतरनाक है.

यहां के सीधेसादे लोग तो बीमार होने पर यह कहते हैं कि उन्हें काली चढ़ी है या फिर माता का प्रकोप आया है और देवरे पामणे (देवीदेवता नाराज हो कर शरीर में मेहमान) हो गए हैं. इलाज के लिए डाक्टरों के पास नहीं, बल्कि भोपा और  झाड़फूंक वालों के पास चले  जाते हैं.

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देवरे (मंदिर) पर भोपे कोरोना के इलाज का दावा करते दिखे. यहां की राख और भभूति कोरोना की दवा बन गई. वहीं डाक्टर और हैल्थ वर्कर्स के नाम से तो यहां के लोगों को डर लगता है. कहते हैं कि अगर डाक्टर के पास गए, तो वे जेल यानी क्वारंटीन सैंटर भेज देंगे.

इतना ही नहीं, इलाके में कुछ कारोबारियों की अस्पताल में कोरोना से इलाज के दौरान मौत हो गई, तो यहां के लोगों को लगने लगा कि अगर जांच में कोरोना निकला और अस्पताल में भरती हुए, तो उन की मौत तय है.

वैसे, ज्यादातर गांव वाले अपनेअपने घरों को छोड़ कर खेतों में परिवारों से अलग रहने लगे. हालांकि, एक अच्छी बात यह हो रही थी कि लक्षण दिखने पर यहां लोग 7 से 8 दिन तक खुद को क्वारंटीन रखते थे. ऐसे में संक्रमण आगे नहीं फैल रहा था. तकरीबन हर गांव  में इस तरह सैल्फ क्वारंटीन होने का चलन दिखा.

धरियावद में तकरीबन 30 से ज्यादा ऐसे गांव थे, जहां कोरोना जैसे लक्षण लोगों में देखे जा सकते थे. हैरत की बात यह थी कि यहां पर पारेल, नलवा, वलीसीमा के कुछ गांव को छोड़ कर हैल्थ डिपार्टमैंट की ओर से कोरोना के सैंपल ही नहीं लिए गए.

वलीसीमा के सरपंच विष्णु मीणा और पूर्व सरपंच पूरणलाल मीणा बताते हैं कि तकरीबन 3 महीने पहले आखिरी बार 35 लोगों के सैंपल लिए गए थे, जबकि एक महीने में 10 लोगों की मौत हो चुकी थी.

भरम से बड़ा कोरोना

सामाजिक कार्यकर्ता प्रेम सिंह  झाला ने बताया कि गांव के लोगों की यह सोच है कि बीमार होने पर अगर डाक्टर के पास गए तो सीधे क्वारंटीन सैंटर या फिर अस्पताल भेज दिए जाएंगे. वहां पर सिर्फ मौत मिलती है, क्योंकि जो भी अस्पताल गया, वह जिंदा नहीं लौटा.

टीचर गौतमलाल मीणा बताते हैं कि कुछ गांव वालों को यह गलतफहमी है कि कोरोना का टीका लगाने के बाद भी कोरोना होता है. गांव के कुछ फ्रंटलाइन वर्कर को जो टीके लगाए, वे अच्छे वाले थे. हमें बुरे वाले लगाएंगे.

हर 15 से 20 घरों के बीच एक देवरा है, लेकिन 10,000 की आबादी के बीच बमुश्किल एक अस्पताल, एक या  दो डाक्टर मिल पाते हैं. खांसीबुखार होने पर डाक्टर कोरोना जांच की सलाह  देते हैं. यहीं से गांव वाले डर जाते हैं  और मजबूरी में भोपा और  झाड़फूंक वालों के पास चले जाते हैं. इस चक्कर में कई लोगों की जानें भी चली गईं.

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कोरोना का भूत

दूसरी लहर में उदयपुर जिले में वल्लभनगर उपखंड के गांवों में कोरोना पूरी तरह पैर पसार चुका था. हर गांव में तीनचौथाई आबादी में खांसीबुखार के मरीज दिखे. अगर कोरोना के 100 सैंपल करवाए जाते, तो इन में से 80 पौजिटिव मिल जाते, लेकिन हैल्थ डिपार्टमैंट और प्रशासन के रिकौर्ड में सच से बिलकुल उलट तसवीर दिखी, क्योंकि सैंपल लेने का काम केवल सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तक ही सिमट कर रह गया था.

यहां के हर गांव में देवरे और देवीदेवताओं के स्थान पर लोग कोरोना को भूत सम झ कर  झाड़फूंक के लिए पहुंच गए थे. इन देवरों पर अकसर शनिवार और रविवार को छोटेबड़े मेले लग ही जाते थे.

यहां दिनभर में हर देवरे पर तकरीबन 100 से 250 के बीच लोग आते दिखे. गांवदेहात में लोग कोरोना को भूत मानते हैं और भूत उतरवाने के लिए ये लोग डाक्टर के पास जाने के बजाय भोपा और  झाड़फूंक वालों के पास पहुंच जाते हैं.
अगर कोई मास्क में यहां आता है, तो भोपे  झाड़फूंक करने के बाद यह कह कर मास्क उतरवा देते हैं कि तुम्हारे ऊपर से कोरोना का भूत हम ने भगा दिया है. घर जाओ और आराम करो.

गांव में जा कर सैंपल लेने की बात सिर्फ कागजों में दौड़ती दिखी. महकमे के मुताबिक, ग्राम पंचायत खरसाण में  6, नवणिया में 8, मैनार में 6 लोगों की कोरोना से मौत हुई थी, जबकि सचाई यह थी कि पिछले 30 दिन यानी  21 अप्रैल से 21 मई तक इन ग्रामीण इलाकों में 45 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी थी.

मौत के आंकड़ों पर पहरा

जयपुर की दूदू, फागी, चाकसू, बगरू, सांभर, शाहपुरा, कोटपुतली तहसील के गांवों में जमीनी हकीकत देखी तो रूह कंपाने वाली सचाई सामने आई. गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं वैंटिलेटर पर और मरीज लाचार नजर आए.

कोरोना की दूसरी लहर में यहां मौतों की तादाद में इजाफा हो गया. हैरत की बात यह थी कि मौतों के लिए सरकार महामारी को जिम्मेदार नहीं बताती दिखी. जब स्वास्थ्य महकमे के अफसरों से जानकारी चाही, तो उन्होंने फोन काट दिया.

अंदाजा लगाया जा सकता है कि मौतों के आंकड़ों पर सरकारी पहरा किस कदर लगा था. 20 दिन में ही फागी में 30, कोटपुतली में 75 और बस्सी में
50 लोग दम तोड़ चुके थे.

गांवों के लोगों से बातचीत की, तो हरसूली के रामकिशन ने बताया कि गांव में तकरीबन हर घर में लोग बीमार हैं. पिछले 7 दिनों में ही 10 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. उपजिला अस्पताल दूदू से महज 3 किलोमीटर दूर खुडियाला के सरपंच गणेश डाबला ने बताया कि इलाके में 13 मौतें हो चुकी हैं.

इसी तरह फागी इलाके में पिछले कुछ दिनों के अंतराल में 30 मौतें हो चुकी हैं. कोटपुतली के मनीष ने बताया कि इलाके में 75 मौतें हो चुकी हैं. बस्सी इलाके में भी एक महीने के भीतर 50 से ज्यादा मौतें प्रशासनिक दावों की पोल खोल रही हैं.

दूदू उपजिला अस्पताल के डाक्टर सुरेश मीणा ने बताया कि अस्पताल में वैंटिलेटर नहीं हैं. हालांकि 4 औक्सीजन सलैंडर हैं. पड़ताल में सामने आया कि इन की सुविधा मरीजों को नहीं मिल रही, बल्कि उन्हें 70 किलोमीटर दूर जयपुर के लिए रैफर कर दिया जाता है. बदइंतजामी का आलम यह है कि 3 घंटे तक मरीज सुनीता हाथ में एक्सरे को ले कर दर्द से कराहती रही, लेकिन संभालने वाला कोई नहीं था.

यही हालत कोटपुतली अस्पताल की थी. आसपास के 35 से ज्यादा गांवों के मरीजों को वहां वैंटिलेटर की सुविधा नहीं मिल रही थी और जरूरत पड़ने पर मरीजों को जयपुर या दिल्ली का रुख करना पड़ रहा था.

लटकाए जूतेचप्पल

हर साल अकाल  झेलने वाले आसींद और बदनौर इलाके के हालात डरावने हो गए थे. आसींद के दांतड़ा बांध गांव में 30 दिन में कोरोना से 62 मौतें हो गई थीं. लोग दहशत में हैं. गांव में कोरोना से मौतें होने से लोगों में गुस्सा दिखा, क्योंकि कोई पुख्ता इंतजाम नहीं थे.

खौफजदा गांव वालों ने घरों के बाहर जूतेचप्पल लटका दिए. इस गांव में तकरीबन 400 घर हैं. सभी घरों में यही हालात दिखे. इस बारे में गांव वालों का कहना था कि इस से हमारे परिवार और गांव को किसी की नजर नहीं लगेगी. कोरोना से भी बचे रहेंगे. यहां घरों के बाहर काली मटकी और टायर बांधते हुए तो देखा गया था, लेकिन कोरोना के खौफ के चलते जूते और चप्पलें पहली बार लटकी दिख रही थीं.

गांव में कोरोना का खौफ इतना ज्यादा था कि जिस घर में संदिग्ध मरीज था, वहां लोगों ने दरवाजे से बल्लियों का क्रौस का निशान बना रखा था, ताकि गांव वालों को पता चल जाए कि यहां से दूरी बना कर रखनी है.

लोगों ने बताया कि हमारे यहां इतनी मौतें हुईं, लेकिन प्रशासन ने बिलकुल ध्यान नहीं दिया. शुरुआत में टीम आई और 80 लोगों के सैंपल लिए. इस में से 8 पौजिटिव निकल गए. इस के बाद दोबारा टीम गांव में नहीं आई. अस्पताल भी बंद है.

समाजसेवी नरेंद्र गुर्जर कहते हैं कि दांतड़ा बांध गांव में 1,700 वोटर और 300 घर हैं. यहां इलाज के कोई साधन नहीं हैं. नजदीक में कोई बड़ा अस्पताल भी नहीं है. शुरुआत में दवा किट भी  पूरी नहीं दी गई. अब कोई टीम भी  नहीं आ रही है. लोग बहुत डरे हुए हैं, इसलिए जूतेचप्पलें लटका रहे हैं.

 झोलाछाप डाक्टरों का राज

कोरोना की दूसरी लहर में  झोलाछाप डाक्टर गांवों में दुकानें खोल कर बैठ गए थे. वे छोटे बच्चों से ले कर गंभीर बुजुर्ग मरीजों को इलाज की जगह मौत बांट रहे थे. फागलवा गांव में एक  झोलाछाप डाक्टर क्लिनिक खोल कर बैठा था. वह कोविड मरीजों को बिना जांच के ही दवा दे कर ड्रिप लगाता दिखा.

खांसीजुकाम के मरीजों से ये लोग कोविड जांच करवाने के बजाय यह कह रहे थे कि कोई कोविडफोविड नहीं है. हम से दवा ले जाओ. 2 दिन में सही हो जाओगे.
सेवदा गांव में एक क्लिनिक के बाहर मरीजों की भारी भीड़ जुटी हुई थी. वहीं, इस के पास नर्सिंग होम में भी महिला मरीजों की भीड़ जुटी हुई थी.

सब से बड़ी बात यह थी कि ये  झोलाछाप डाक्टर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के ठीक सामने अपने क्लिनिक और नर्सिंग होम खोल कर बैठे दिखे. ये मरीजों की जान के साथ बेखौफ हो कर खिलवाड़ कर रहे थे. कोरोना के दौर में इन लोगों ने कई सामान्य मरीजों को क्रिटिकल हालात में पहुंचा दिया था.

चूरू जिले की रतनगढ़ तहसील के पडि़हारा गांव में एक  झोलाछाप डाक्टर कई कोविड मरीजों को इलाज के नाम पर कई दिनों से दवाएं देने के साथ ही ड्रिप चढ़ा रहा था. इस से कई मरीज गंभीर हालात में पहुंच गए. कुछ मरीज तो आईसीयू और वैंटिलेटर पर चले गए.

गांव की सीएचसी में डाक्टर तो हैं. पर गांव वालों ने  झोलाछाप डाक्टरों की कलक्टर सांवरमल वर्मा और सीएमएचओ डाक्टर मनोज शर्मा से शिकायत की, लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई.

कटेवा गांव में 5  झोलाछाप डाक्टर मैडिकल स्टोर की आड़ में मरीजों को देख रहे थे. घिरणियां बड़ा के रहने वाले बाबूलाल बैरवा अपने 13 साल के बेटे नीतीश कुमार को कटेवा के लाइफ केयर मैडिकल ऐंड नर्सिंग होम में इलाज के लिए ले कर आए थे. उन के बेटे को किडनी में संक्रमण था.  झोलाछाप डाक्टर ने नीतीश को दुकान के बाहर ही ड्रिप लगा दी और उस के मातापिता को उस के पास बैठा दिया.

अब कह रहे हैं कि कोरोना की तीसरी लहर भी आएगी. अगर तब तक सरकार ने तैयारी पूरी नहीं की, तो देशभर में क्या हाल होगा, इस का आसानी  से अंदाजा लगाया जा सकता है.

हाथ से लिखने की आदत न छोड़ें

आज हम कलमदवात से दूर होते जा रहे हैं. सब लोगों के हाथ में स्मार्ट फोन आ गया है तो सारा काम उसी पर हो रहा है. पढ़ाईलिखाई भी, हिसाबकिताब भी, प्रेम संदेश भी और फोटो का लेना और भेजना भी. मगर इस सब के बीच जो चीज खोती जा रही है, वह है हाथ से लिखना. अगर हम हाथ से लिखना बंद कर देंगे तो कुछ सालों में कलम पकड़ना भी हमें मुश्किल लगने लगेगा. जरूरत पड़ने पर कागज पर आड़ेतिरछे शब्द लिखेंगे.

70 साल के बुजुर्ग हरीशजी ने उस दिन  3 चैक खराब किए. उन का एटीएम कार्ड कहीं खो गया था. उस दिन अचानक पैसे की जरूरत पड़ी तो उन के बेटे ने कहा चैक साइन कर दो, मैं बैंक से पैसे निकलवा लाता हूं, मगर वे अपना ही साइन ठीक से नहीं कर पा रहे थे. बारबार तिरछा साइन हो रहा था. इतने दिनों बाद कलम हाथ में पकड़ी तो लिखते समय हाथ कांपने लगे. 2 चैक फाड़ कर फेंकने पड़े. तीसरे चैक पर कहीं ठीक से साइन कर पाए.

उस दिन से हरीशजी और उन की पत्नी रोज अपने दस्तखत बनाने की प्रैक्टिस करते हैं. कभीकभी पुरानी डायरी खोल कर एकाध पेज कुछ लिखते भी हैं. 10 साल पहले तक औफिस में हरीशजी कैसे तेजी से कलम चलाते थे, मगर रिटायर होने के बाद हाथ से कलम छूटी तो लिखने की प्रैक्टिस भी छूटने लगी.

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बूढ़े लोग पहले खूब चिट्ठीपत्री लिखा करते थे. दोस्तोंरिश्तेदारों का हाल चिट्ठियां लिखलिख कर लिया करते थे, मगर अब वे भी नौजवान पीढ़ी की तरह ह्वाट्सएप करने लगे हैं. ह्वाट्सएप पर फोटो और वीडियो भेजने की भी सुविधा है. कुछ ज्यादा लंबा लिखना हो तो लैपटाप से ईमेल भेजने लगे हैं. पेन किसी अलमारी के कोने में पड़ा धूल खाता रहता है.

घर की औरतें पहले सारा हिसाबकिताब डायरी में लिखती थीं. धोबी वाले का हिसाब, दूध वाले का, सब्जी वाले को कितना दियालिया सब रसोई की अलमारी में पड़ी छोटी सी डायरी में लिखा रहता था, मगर अब डायरीकलम की जगह उन के हाथ में भी स्मार्ट फोन है, जिस में सारा हिसाबकिताब रहता है. कलम की जरूरत ही नहीं पड़ती.

तमाम दफ्तरों में कंप्यूटर लग गए हैं. अब वहां बाबुओं को बड़ेबड़े रजिस्टर नहीं संभालने पड़ते हैं, उन पर कोई एंट्री नहीं करनी पड़ती, बल्कि सारा काम कंप्यूटर पर होता है. कंप्यूटर पर फाइलें बनती हैं और प्रिंट निकाल कर हार्ड कौपी तैयार कर ली जाती है और वही अलमारियों में भर दी जाती है.

बीते तकरीबन 2 साल से कोरोना महामारी के चलते स्कूलकालेज बंद हैं. बच्चों की सारी पढ़ाई औनलाइन हो रही है. इम्तिहान औनलाइन हो रहे हैं. इस से बच्चों की लिखने की आदत खत्म होती जा रही है. जो बच्चे पहले क्लास में अपनी कौपी पर तेजी से कलम चलाते हुए टीचर की छोटी से छोटी बात लिख लेते थे, अब कलम उठाते उन के हाथ कांपते हैं. अब लिखने के बजाय दसों उंगलियों से टाइपिंग करते हैं जो औनलाइन क्लास के लिए जरूरी है. अगर यही हाल अगले कुछ साल और रहा तो बच्चे कौपी पर कलम से लिखना ही भूल जाएंगे.

कभी अपनी दादीनानी की पुरानी संदूकची खोलिए. उन के पुराने खत देखिए, जो उन के मातापिता या रिश्तेदारों ने उन्हें लिखे थे. उन की पुरानी डायरी खंगालिए, आप पाएंगे कि कैसे उन कागजों पर मोतियों की तरह सारी बातें उकेरी गई हैं. कितनी सुंदर लिखावट, हर अक्षर बराबरबराबर, जैसे किसी माला में एकजैसे सैकड़ों मोती पिरो दिए गए हों. आज ऐसी सुंदर लिखावट कम ही दिखती है.

पहले स्कूलों में कक्षा 6 तक बच्चे सुलेख लिखते थे. इस के लिए एक अलग पीरियड होता था. सुलेख की किताबें छापी जाती थीं, जिन में पहली लाइन के नीचे 3 खाली लाइन खिंची  होती थीं और जिन में ऊपर की लिखावट की हूबहू नकल उतरवा कर बच्चों की लिखाई को सुधारा जाता था.  अब ऐसी सुलेख वाली किताबें बच्चों को नहीं दी जाती हैं. अब तो पहली कक्षा का बच्चा भी डिजिटल क्लास कर रहा है. जिस उम्र में बच्चों की उंगलियां कलम पकड़ने का सलीका सीखती थीं, उस उम्र में वह टाइपिंग कर रहा है. अब लिखावट सुधारने की तरफ न तो बच्चे ध्यान देते हैं और न ही अध्यापक, जबकि हकीकत यह है कि भविष्य में कामयाब होने के लिए लिखावट का अच्छा होना बहुत जरूरी है.

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यह बात बिलकुल सही है कि आज के डिजिटल जमाने में आप की लिखावट का बहुत ज्यादा असर आप के भविष्य पर नही पड़ता है, मगर यह बात उन लोगों के लिए सही है जो लोग अपनी पढ़ाईलिखाई पूरी कर के नौकरी कर रहे हैं. वे बच्चे जो अभी पढ़ाई कर रहे हैं उन की लिखावट अच्छी न होने पर उन के रिजल्ट पर काफी बुरा असर पड़ता है. आखिर कभी तो उन को क्लास रूम में बैठ कर भी लैक्चर अटेंड करने होंगे, लिखित इम्तिहान देने ही होंगे. नौकरी के लिए जाएंगे तो वहां भी लिखित इम्तिहान होगा, जिस में तय समय के अंदर पेपर पूरा करना होगा. अगर लिखने की आदत ही न रही तो कैसे पेपर पूरा करेंगे?

कहा जाता है कि आप की लिखावट से ही पता चलता है कि आप पढ़ने में कैसे हैं. काफी अच्छी तरह से पढ़ने के बावजूद सिर्फ लिखावट के चलते नंबर कम आ सकते हैं, इसलिए लिखने की आदत बनाए रखना कैरियर के लिए जरूरी है.

कुछ नौजवान बहुत क्रिएटिव होते हैं. जवानी में कहानियां, कविताएं, गीतगजल खूब कहे और लिखे जाते हैं. पहले नौजवानों में डायरी लिखने का बड़ा शौक था. हर जवान लड़कालड़की के पास एक डायरी जरूर होती थी, जिस में वे छिपछिप  अपने दिल की बातें लिखा करते थे. प्रेमीप्रेमिका के प्रेमपत्र भी इन्हीं डायरियों में छिपा कर रखे जाते थे. ये लंबेलंबे प्रेमपत्र होते थे और सुंदर लिखावट में लिखे गए होते थे कि पहली ही नजर में पढ़ने वाला दीवाना हो जाए. वह भी बिना किसी गलती और कांटछांट के. मगर आज किसी नौजवान से कह दें कि आधा पेज का पत्र लिख दो तो तमाम गलतियां, काटछांट, ओवरराइटिंग से भरा पत्र ही होगा.

अब जवान लोग ह्वाट्सएप या ईमेल से अपने प्रेम का इजहार करते हैं. यहां गलतियों को तुरंत डिलीट किया जा सकता है. पर अगर गुलाबी पन्ने पर दिल की बात अपने हाथों से लिख कर अपने प्रिय तक पहुंचाई जाए तो क्या वह उसे सालों अपनी किताबों में छिपा कर सहेज कर नहीं रखेगा? हो सकता है आप का भेजा गया गुलाबी पैगाम वह जिंदगीभर संभाल कर रखे.

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लिखने का अभ्यास न छूटे यह बहुत जरूरी है वरना आने वाली पीढ़ियां कई सदियों के अभ्यास से सीखी गई लिखने की कला को भूल जाएंगे. आज से ही सुलेख का अभ्यास करें. किसी अखबार या किसी पत्रिका में से देख कर लिखने की आदत डालें. इस से कलम पर उंगलियों की पकड़ बुढ़ापे तक कमजोर नहीं होगी. लिखते समय शब्दों पर ध्यान दें और जो शब्द सुंदर नहीं बन रहे हैं, उन को ठीक तरीके से बनाने की प्रैक्टिस करें. आप जितना अधिक लिखेंगे उतना ही आप के लेखन में सुधार आएगा.

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दिल्ली में गर्मी ने तोड़ा 90 साल का रिकॉर्ड

गर्मी ने इस बार सबको जला कर रख दिया है. देश की राजधानी दिल्ली तप रही है. जल रही है दिल्ली-NCR की धरती… इस बार गर्मी का ऐसा तांडव है कि दिल्ली की सड़कें दोपहर को सुनसान होने लगी हैं जहां हलचल हुआ करती थी. इतना ही नहीं कोरोना तो दूर लोग गर्मी के कारण शाम को भी निकलने से कतराने लगे हैं. शाम 5 बजे तक भी कोई पार्क में नहीं दिखता. लोग 6 बजे के बाद घर से बाहर निकलने से पहले सोचने लगे हैं. कोरोना तो है लेकिन अब गर्मी ने भी बुरा हाल कर दिया है.

पारा 44-45 डिग्री सेल्सियस दर्ज हो रहा है.. जो सामान्य से 6-7 डिग्री से ज्यादा है..90 साल बाद दिल्ली में एक जुलाई सबसे अधिक गर्म दिन रहा. लू के थपेड़ों से बुरा हाल है दिल्ली वालों का..  इस उमस भरी गर्मी से परेशान हैं लोग. दिल्ली में सुबह सात बजे से ही धूप की चुभन महसूस होने लगी है. सुबह सात बजे तक इतनी तेज धूप हो जाती है कि लगता है जैसे सुबह के 10 बज रहे हों. दोपहर तक तो मानो सूर्य देवता अपना रौद्र रूप धारण कर लेते हैं. सूरज सर पर इस कदर चढ़ जाता है जैसे कि बस अब ये जला कर ही मानेगा. यही वजह है कि लोग दिल्ली में बाहर निकलने से परहेज करने लगे हैं. दिल्ली का दिल कहा जाने वाला कनॉट प्लेस और इंडिया गेट जो लोगों से गुलजार रहा करती है.. इन दिनों सुनसान है.

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ऐसा लगता है जैसे आसमान से हो रही आग बरस रही हो इस बीच लोग लू और इस चुभन भरी गर्मी से बचने के लिए  तरह तरह के जतन कर रहे हैं. कोई सड़क किनारे निंबू पानी पीकर गर्मी के कहर को कम करने की कोशिश कर रहा है तो कोई आइसक्रीम खाकर शरीर की तपन से निजात पाने की कोशिश कर रहा है….बाहर निकले लोगों का एक मिनट भी धूप में खड़ा रहना मुसीबत से कम नहीं है..इसलिए सिर्फ वो ही लोग निकल रहे हैं जिनका कुछ काम है पेट के मारे हैं. गर्मी और गर्म हवाओं की वजह से ऑटो ड्राइवर भी छाव का सहारा ढूंढने लगे हैं.. उन्हें सवारी भी नसीब नहीं हो रही है लेकिन क्या करें मजबूर हैं  सूरज ढलने के बाद भी शाम के समय लोगों को उमस की वजह से राहत नहीं मिल रही है क्योंकि शाम को भी गर्म हवाओं का ही झोंका मिलता है.

मौसम विभाग ने क्या कहा ?

खबरों के अनुसार मौसम विभाग के मुताबिक दिल्ली में बारिश की भी संभावना है…लेकिन मानसून के लिए लोगों को अभी इंतजार करना होगा..सीनियर साइंटिस्ट नरेश कुमार ने बताया कि लोगों को अभी मानसून के लिए कम से कम 1 हफ्ते तक लोगों को इंतजार करना पड़ेगा तब तक गर्मी की तपिश झेलनी पड़ेगी. तो वहीं भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के मौसम वैज्ञानिक डॉ. कुलदीप श्रीवास्तव का कहना है कि  दिल्ली-एनसीआर में  2-3 जुलाई को हल्की बारिश की उम्मीद है, लेकिन यह मानसून की बारिश नहीं होगी. मानसून कब आएगा, इसके बारे में अभी कुछ भी कहना मुश्किल है. फिलहाल 6 दिन तक मानसून की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है.

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गर्मी से बचने के उपाय…..

इस वक्त बेहतर यही हैं लोगों के लिए कि वो घर से बाहर बिल्कुल ना निकलें…कोई बहुत आवश्यक कार्य हो तभी निकलें इतना ही नहीं ज्यादा से ज्यदा ठंडे व  पेय पदार्थ का सेवन करें. लू से बचने के लिए निंबू पानी जरूर पीएं…साथ ही कच्चे आम का पना भी बहुत फायदा करता है. गलती से लू लग भी जाए तो प्याज का रस तुरंत पीए और उसे पीस कर अपने पैरों में लगाएं.

जब दूसरे आदमी से प्रेग्नेंट हो जाए शादीशुदा महिला

बंगला फिल्मों की जानीमानी हीरोइन और तृणमूल कांग्रेस की सांसद नुसरत जहां जैन जल्द ही मां बन जाएंगी, लेकिन उन के पेट में पल रहे बच्चे का पिता कौन है, इस सवाल को ले कर गजब का सस्पैंस बना हुआ है.

महज 30 साल की नुसरत जहां देखने में अभी भी अधखिले गुलाब के फूल सरीखी दिखती हैं, लेकिन हैं वे बहुत बिंदास और बोल्ड जो इस बात की परवाह नहीं करती हैं कि कौन उन के बारे में क्या बक रहा है. अपने होने वाले बच्चे के बारे में आज नहीं तो कल जब भी बोलेंगी, तब एक और धमाका जरूर होगा.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की चहेती नुसरत जहां ने राजनीति में साल 2019 के लोकसभा  चुनाव में मोदी लहर के बीच वह धमाका कर दिखाया था, जिस की उम्मीद खुद ममता बनर्जी को भी नहीं रही होगी. त्रिकोणीय मुकाबले में उन्होंने वशीरहाट सीट से भाजपा के सत्यानन बसु को साढ़े 3 लाख वोटों से करारी शिकस्त दे कर सभी का ध्यान अपनी तरफ खींचा था.

इस के चंद दिनों बाद ही नुसरत जहां ने दूसरा धमाका कोलकाता के जानेमाने रईस कारोबारी निखिल जैन से शादी कर के किया था. यह शादी शाही तरीके से ईसाई और हिंदू रीतिरिवाजों से तुर्की में हुई थी. बाद में कोलकाता में भी शादी का रिसैप्शन हुआ था जिस में फिल्म और राजनीति की कई दिग्गज हस्तियों ने इन दोनों को बधाई और आशीर्वाद दिया था.

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संसद पहुंच कर भी नुसरत जहां ने एक और धमाका किया जब वे मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहन कर पहुंची थीं. इस पर मुसलिम कट्टरपंथियों ने उन के खिलाफ फतवे जारी कर दिए थे, क्योंकि इसलाम में सिंदूर और मंगलसूत्र जैसे सुहाग चिह्न हराम हैं.

शादी की पहली सालगिरह पर 19 जून, 2021 को निखिल और नुसरत दोनों ने सोशल मीडिया के जरीए एकदूसरे के लिए फिल्मों जैसा प्यार जताया था, जिस का लब्बोलुआब यह था कि दोनों एकदूसरे के बिना रह नहीं सकते और आपस में बेइंतिहा मुहब्बत करते हैं.

लेकिन अफसोसजनक तरीके से शादी की दूसरी सालगिरह पर दोनों अलगअलग रहे थे और एक नया फसाद वजूद में आ चुका था. दो लफ्जों में कहें तो ब्रेकअप हो चुका था और बकौल निखिल नुसरत दिसंबर, 2020 को ही ससुराल वालों से लड़झगड़ कर अपने मांबाप के घर चली गई थी. यह लड़ाई और ब्रेकअप पैसों को ले कर थे. निखिल का कहना यह था कि नुसरत सारे पैसे और अहम व जरूरी कागजात अपने साथ ले गई थी, जबकि नुसरत का इलजाम यह था कि निखिल और उस के घर वाले पैसों के लालची हैं.

फिर बच्चा किस का

तंग आकर निखिल ने नुसरत के खिलाफ अदालत का रुख किया. इस के बाद नुसरत के पेट से होने की खबर सामने आई. खुद नुसरत ने अपने बढ़ते पेट की तसवीरें सोशल मीडिया पर शेयर की थीं.

इस पर तिलमिलाए निखिल ने दो टूक बयान दे डाला कि नुसरत के पेट में पल रहा बच्चा उन का नहीं है. इस के पहले तलाक के मसले पर यह बयान  दे कर नुसरत ने एक और धमाका कर दिया था कि तलाक की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि तुर्की में हुई शादी भारत में कानूनन जायज नहीं है.

इन बातों का फैसला अदालत करती रहेगी, लेकिन बच्चा किस का है, यह सस्पैंस अभी बना रहेगा. बाल की खाल निकालने वाला मीडिया कभी एक भाजपा नेता से तो कभी एक और बंगला कलाकार यश दास गुप्ता से नुसरत का संबंध जोड़ता रहता है, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि नुसरत बच्चे के पिता के बाबत कुछ नहीं बोल रही हैं. इतना जरूर वे इशारों में कह चुकी हैं कि उन की शादी शादी नहीं थी, बल्कि वे निखिल के साथ लिवइन रिलेशनशिप में रह रही थीं.

इस बात के माने साफ हैं कि एक गैर शादीशुदा औरत अपनी मरजी से किसी के भी बच्चे की मां बनने का हक और आजादी रखती है और इस पर लोगों को बेवजह अपना सिर नहीं दुखाना चाहिए. लेकिन यह बात भी नकारी नहीं जा सकती कि जैसे भी की थी नुसरत ने निखिल से शादी तो की थी और एक साल ब्याहता की तरह ससुराल में रही भी थीं. बाद में खटपट हुई या किसी और से टांका भिड़ा तो उन्होंने ससुराल छोड़ दी.

बच्चा किस का है यह नुसरत ही जानती हैं, लेकिन इस बवंडर से उन की इमेज बिगड़ी है, इस में कोई शक नहीं और हिंदू व मुसलिम कट्टरपंथी खुश हो रहे हैं, इस में भी कोई शक नहीं. निराश वे नौजवान हुए हैं, जो इन दोनों की मिसाल देने लगे थे.

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फर्क क्या है

किसी शादीशुदा औरत के किसी और के बच्चे की मां बनने का यह पहला या आखिरी मामला नहीं था. समाज में नुसरत जैसी औरतों की कमी नहीं है जो कभी मजबूरी में तो कभी मरजी से किसी और के बच्चे की मां बनती हैं. कुछ मामले ढकेमुंदे रह जाते हैं, तो कई पकड़ में भी आ जाते हैं. जो पकड़ में आ जाते हैं उन में दुर्गति औरतों की ही होती है, क्योंकि शौहर कितना भी दरियादिल या चाहने वाला क्यों न हो, यह कभी बरदाश्त नहीं करता कि उस की बीवी किसी और से न केवल जिस्मानी ताल्लुक बनाए, बल्कि उस के बच्चे को जन्म भी दे.

नुसरत सरीखा ही एक मामला पिछले साल दिसंबर में बरेली से सामने आया था जिस में पति का आरोप यह था कि जब उस ने सुहागरात ही नहीं मनाई, तो बच्चा कहां से आ टपका.

प्रेमनगर की रहने वाली कमला (बदला नाम) की शादी नवंबर, 2017 में इज्जतनगर के एक नौजवान शरद (बदला नाम) से हुई थी. कमला के मुताबिक, शौहर और ससुराल वाले पहले दिन से ही उसे दहेज के लिए तंग करने लगे थे, जिस की शिकायत उस ने पुलिस में की थी. बाद में शरद के घर वालों ने उसे जायदाद से बेदखल कर दिया, तो वह उसे ले कर अलग किराए के मकान में रहने लगा.

लेकिन इस से कमला की दुश्वारियां कम नहीं हुईं, क्योंकि शरद शराब के नशे में उस से मारपीट करता था और उस के चालचलन पर भी शक करता था. इसी के चलते वह बच्चे को अपनी औलाद मानने तैयार नहीं था. कमला के सामने यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि अब वह क्या करे.

एक और मामले में तो पति ने पत्नी की हत्या ही कर दी. बीती 28 जून को फिरोजाबाद जिले के जाफरगंज के जगरूप निषाद ने नयागंज थाने में 18 जून को अपनी 26 साला बेटी ज्योति निषाद की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराइ थी. शादी के कुछ दिनों बाद ही ज्योति मायके में रहने लगी थी.

ज्योति के पति राजेश निषाद को शक था कि वह किसी और से पेट से हो गई है जो सच भी लगता है, क्योंकि दोनों अलगअलग रह रहे थे. पुलिसिया छानबीन में ज्योति की लाश चित्रकूट के सती अनसुइया जंगल से बरामद हुई.

जगरूप के मुताबिक, राजेश ने ज्योति को चुपचाप बुलाया और उस की हत्या कर लाश जंगल में फेक दी. राजेश से पूछताछ में पुलिस को कोई खास कामयाबी अभी तक नहीं मिली थी. जाहिर है कि वह बीवी की बेवफाई की आग में जल रहा था और यह बरदाश्त नहीं कर पा रहा था कि भले ही अलग रहे, लेकिन पेट में किसी और का बच्चा लिए घूमे.

ऐसा ही एक सच्चा किस्सा भोपाल का है जिस में पति लक्ष्मण सिंह (बदला नाम) इस बात से परेशान है कि बीवी पेट से हो आई है, जबकि हमबिस्तरी के दौरान वह हर बार कंडोम का इस्तेमाल करता था.

पेशे से ट्रक ड्राइवर लक्ष्मण को यकीन हो चला है कि जब वह बाहर जाता था तब बीवी ने जरूर किसी और से संबंध बनाए होंगे. पैसों की तंगी के चलते वह अभी बच्चा नहीं चाहता था, जबकि बीवी हर समय बच्चे की रट लगाए रहती थी.

अब मुमकिन है कि उस ने यह इच्छा किसी और से पूरी कर ली हो, इसलिए बारबार कहने पर भी बच्चा गिराने को तैयार तैयार नहीं हो रही है. हैरानपरेशान लक्ष्मण उस से छुटकारा पाना चाहता है.

क्या करें शौहर

बीबी पर शक आम बात है खासतौर से उस सूरत में जब वह खूबसूरत हो, हंसमुख हो और पति से ज्यादा अलग रहती हो. लेकिन इस का यह मतलब कतई नहीं कि ऐसे में उस के पेट में पल रहा बच्चा किसी और का ही होगा, लेकिन कुछ हालात में शक की गुंजाइश तो बनी ही रहती है.

ऐसी हालत में पतियों को चाहिए कि वे ठंडे दिमाग से काम लें. बच्चा खुद का है या किसी और का, इस टैंशन से बचने के लिए प्यार से पत्नी से बात करें. अगर जवाब या सफाई देने में वह आनाकानी करे तो शक दूर करने या उसे यकीन में बदलने के लिए डीएनए टैस्ट करवाएं, लेकिन यह आसान काम नहीं है. इस के लिए किसी बड़े वकील से मशवरा करना चाहिए.

अगर पत्नी सीधेसीधे मान ले कि बच्चा किसी और का ही है, तो सब से बेहतर रास्ता तलाक है. मारपीट या हत्या करने से पति की खुद की जिंदगी भी तबाह हो जाती है, जैसे राजेश की हुई. इस से पति को कुछ हासिल नहीं होता.

यह भी हकीकत है कि कोई भी शौहर पत्नी की यह बेवफाई बरदाश्त नहीं कर पाता और ऐसी हालत में उस की रातों की नींद और दिन का चैन हराम हो जाता है और मारे गुस्से के वह जुर्म कर बैठता है, लेकिन इस से कानून को कोई सरोकार नहीं होता कि यह हत्या या हिंसा की यह मुकम्मल वजह थी कि चूंकि बीवी के पेट में किसी और का बच्चा था, इसलिए गुनाह माफ कर दिया जाए.

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क्या करें पत्नियां

अगर वाकई पेट में पति का नहीं किसी और का बच्चा है, तो इस सच को पति को बता देना चाहिए. वह माफ कर देगा, इस बात की उम्मीद न के बराबर है, क्योंकि यह है तो उस के साथ धोखा ही. इस गलती को छिपाने के लिए दहेज मांगने का इलजाम नहीं लगाना चाहिए. इस से शौहर दूसरे के बच्चे को अपना नहीं लेगा.

अगर पति को महज शक हो तो पहले इसे प्यार से दूर करना चाहिए. उसे भरोसा दिलाना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि वह चालचलन पर शक करते हुए कोई गुनाह कर रहा है. हां, समझाने पर भी बात न बने तो अलग हो जाने या तलाक लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता.

न केवल शादी के शुरुआती दिनों में, बल्कि बाद में भी मायके में कम से कम रहना चाहिए और गैर मर्दों तो दूर जीजा और देवर जैसे नजदीकी रिश्तों में भी संभल कर रहना चाहिए, जिस से शौहर को शक करने का मौका ही न मिले.

गैर मर्द से अगर संबंध बनाना मजबूरी हो जाए या कोई जबरदस्ती कर जाए तो तुरंत प्रैग्नैंसी टैस्ट करना चाहिए. इस के लिए पेट से हो आने वाली स्ट्रिप का इस्तेमाल करना चाहिए. अगर जांच में टैस्ट पौजिटिव आए तो बिना देर किए बच्चा गिरवा लेना चाहिए.

यह काम शहर की किसी भी माहिर लेडी डाक्टर से मिल कर आसानी से और जल्दी भी हो जाता है. पति को इस बात की भनक भी नहीं लगने देनी चाहिए.

और अगर प्यार या किसी दूसरी वजह के चलते दूसरे मर्द के बच्चे की मां बनना ही हो, तो सब से पहले पति से अलग हो जाना ही बेहतर होता है, जिस से न उस का खून जले और न खुद डर डर कर जीना पड़े.

नुसरत जहां की बात और है. वह जिस तबके की है और जिस माहौल में है, उस में ये बातें आईगई हो जाती हैं, क्योंकि ऐसी नामी औरतें पैसों या या सामाजिक हिफाजत वगैरह के लिए किसी की मुहताज नहीं रहतीं.

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