Short Story : संक्रमण – कैसे खत्म हुआ लीलाधर और उसका परिवार ?

Short Story : अपने गांव से मीलों दूर दिल्ली शहर के इंडस्ट्रियल एरिया की एक फैक्टरी में काम कर रहा लीलाधर इस बार शहर आते समय अपनी गर्भवती पत्नी रुक्मिणी और 4 साल की मुनिया से वादा कर के आया था कि अगली बार हमेशा की तुलना में जल्दी ही गांव लौटेगा.

समयसमय पर रुक्मिणी की खैरखबर लेने के लिए आने वाली  ‘आशा दीदी’ ने भी अप्रैल की ही तारीख बताते हुए लीलाधर से कहा था, ‘ऐसे समय में तुम्हारा यहां होना बेहद जरूरी है.’

जवाब में लीलाधर बोला था, ‘मैं तो उस से पहले ही पहुंच जाऊंगा, बस मार्च के महीने में काम का कुछ ज्यादा ही दबाव रहता है, जिस के चलते साहब लोग छुट्टी नहीं देते हैं. लेकिन उस के बाद लंबी छुट्टी पर ही आऊंगा और आते समय मुनिया, उस की मम्मी और नए आने वाले बच्चे के लिए कुछ कपड़ेलत्ते भी तो लाने हैं न.’

लौकडाउन के दौरान उस काट खाने वाले कमरे में छत को घूरते हुए लीलाधर अपनी यादों में खोया हुआ यह सब सोच ही रहा था कि कुंडी के खड़कने से उस की तंद्रा टूटी.

लुंगी लपेटते हुए दरवाजा खोला, तो सामने फैक्टरी का सुपरवाइजर खड़ा था. वह बाहर खड़ेखड़े ही बोला, ‘‘कुछ जुगाड़ बिठाया कि नहीं गांव जाने का? फैक्टरी अभी बंद है और मालिक भी किसकिस को घर से खिलाएगा…

‘‘यह पकड़ 500 रुपए, मालिक ने भेजे हैं… और आज शाम तक कमरा खाली कर देना. बाकी का हिसाब वापसी पर ही होगा.’’

यह सुन कर लीलाधर को एक बार तो ऐसा लगा, जैसे इस कोरोना वायरस ने उस के भविष्य के सपनों को अभी से ही संक्रमित करना शुरू कर दिया हो. अब कोई और चारा भी नहीं था, लिहाजा कमरा खाली करना पड़ा. अब जाएं तो जाएं कहां… न बस, न ट्रेन. जेब में 500 रुपए का नोट और कुछ 5-10 के सिक्के. अब अगर यहां रुका, तो जो पैसे हैं, वे भी खर्च हो जाएंगे.

यही सब सोचतेविचारते लीलाधर ने आखिरकार फैसला कर ही लिया और घर पर रुक्मिणी को फोन किया, ‘‘1-2 दिन में कुछ जुगाड़ बिठा कर गांव के लिए निकल जाऊंगा. तुम अपना और मुनिया का खयाल रखना, हाथ धोते रहना और उसे बाहर मत निकलने देना.’’

अपने घर आने की खबर रुक्मिणी को दे कर लीलाधर निकल पड़ा नैशनल हाईवे पर. मन ही मन उस ने हिसाब भी लगा लिया कि 24 घंटों में अगर 16 घंटे भी लगातार चला, तो 7-8 दिनों में तो गांव पहुंच ही जाएगा. उस ने ठान लिया था कि अब वह पैदल ही इस सफर को पूरा करेगा.

लीलाधर के घर की तरफ बढ़ते कदमों में एक अलग ही जोश था. उसे बस इस बात का मलाल था कि वह मुनिया और नए बच्चे के लिए कुछ कपड़ेलत्ते और खिलौने नहीं खरीद सका.

सफर तय करतेकरते लीलाधर रुक्मिणी से फोन पर बात करते हुए बोला, ‘‘मेरे फोन की बैटरी डाउन होने लगी है. बाद में अगर फोन न कर पाऊं, तो परेशान मत होना. बस, कुछ ही दिनों की बात है, जल्दी ही सफर तय करूंगा.’’

सफर के दौरान लीलाधर ने रुक्मिणी को लौकडाउन की वजह से शहर में हो रही परेशानियों और पाबंदियों के बारे में तो बताया था, लेकिन यह नहीं बताया कि वह पैदल ही गांव पहुंच रहा है. बताता भी कैसे, उसे डर था कि रुक्मिणी कहीं मना न कर दे.

लीलाधर लगातार चलता रहा. उस के आगेपीछे जो लोग चल रहे थे, धीरेधीरे उन की तादाद कम होती गई. दिल्ली के आसपास के इलाकों वाले लोग अपनी मंजिल तक पहुंच चुके थे, लेकिन उस का चलना जारी था.

उधर, 4-5 दिन बीतने पर रुक्मिणी को घर से बाहर होने वाली हर आहट पर यही लगता कि शायद अब लीलाधर आया हो. फोन लगना तो कब का बंद हो चुका था. एक तो लौकडाउन और ऊपर से यह इंतजार, वह दोहरी मार  झेल रही थी. दिन में तो चलो जैसेतैसे मुनिया और मांबाबा के साथ समय निकल जाता, लेकिन रात होतेहोते उसे बेचैनी सी

होने लगती. बात करने के लिए फोन उठाती, लेकिन लीलाधर का फोन स्विच औफ मिलता.

अगले दिन सुबहसुबह जब घर की कुंडी खड़की, तो मुनिया खुशी से चहकी, ‘‘पापा आ गए… पापा आ गए…’’

घर में मांबाबा समेत सब के चेहरे पर खुशी के भाव साफ दिखने लगे थे. हाथों का काम छोड़ कर रुक्मिणी दरवाजे की तरफ दौड़ी. चुन्नी का पल्लू अपने सिर पर रख के उस ने दरवाजा खोला, तो सामने दारोगा साहब थे.

‘‘लीलाधर का घर यही है?’’

‘‘जी, यही है.’’

‘‘क्या लगती हैं आप उन की?’’

रुक्मिणी पास खड़ी मुनिया की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘‘जी, इस के पापा हैं.’’

‘‘घर में कोई और है बड़ा?’’ दारोगा ने पूछा.

बातचीत सुन कर मुनिया के बाबा बाहर की तरफ आए और बोले, ‘‘क्या बात है दारोगा साहब? रुक्मिणी बेटी, तुम अंदर जाओ.’’

रुक्मिणी मुनिया को ले कर अंदर तो चली गई, लेकिन उस के कानों ने अभी भी दरवाजे पर हो रही गुफ्तगू का पीछा नहीं छोड़ा था.

‘‘जी, आप कौन?’’ दारोगा ने पूछा.

‘‘मैं लीलाधर का पिता हूं.’’

दारोगा ने हाथ में थाम रखा डंडा बगल में दबा कर अपनी टोपी उतारते हुए कहा, ‘‘बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि लीलाधर अब इस दुनिया में नहीं रहा. नैशनल हाईवे पर रात के समय गश्त पर गए पुलिस दस्ते को सड़क पर एक लहूलुहान हालत में लाश पड़ी मिली. शायद किसी गाड़ी ने टक्कर मार दी थी. शिनाख्त के दौरान जेब व बैग में मिले कुछ कागजों की वजह से ही हम यहां तक पहुंच पाए हैं. लाश फिलहाल मुरदाघर में रखी हुई है.’’puk

यह सुनते ही बूढ़े पिता की टांगों ने जवाब दे दिया. दरवाजा पकड़ कर खड़े रहने की हिम्मत जुटाई, क्योंकि बहू के आगे वे ऐसा करेंगे तो फिर उस को कौन संभालेगा.

उधर दारोगा के आते ही रुक्मिणी को भी कुछ अनहोनी का अंदेशा होने लगा था. वह अंदर थी, लेकिन उस के कान आसानी से बातचीत सुन पा रहे थे.

‘‘हिम्मत रखिए और बताएं कि इतनी रात को आप का बेटा कैसे इतनी दूर निकल गया था? क्या घर में कोई बात हुई थी?’’ दारोगा ने सवाल किया.

‘‘हमारी किस्मत फूटी थी, जो उसे रोजगार के लिए दिल्ली भेजा. वह तो नहीं आया, लेकिन आप…’’

तभी लीलाधर की मां चिल्लाईं, ‘‘अरे.. कोई बचाओ, मुनिया की मां उसे ले कर कुएं में कूद गई है.’

दारोगा साहब अंदर की तरफ दौड़े, पीछेपीछे लीलाधर के पिता भी आए. दारोगा ने बाहर जीप के पास खड़े अपने सिपाही को आवाज दी. हड़बड़ाहट में किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था. जब तक रस्सी का इंतजाम हुआ, तब तक दोनों लाशें पानी के ऊपर तैरने लगी थीं.

लीलाधर और उस का परिवार बिना किसी संक्रमण के हमेशा के लिए लौकडाउन की भेंट चढ़ चुका था.

लेखक- पुखराज सोलंकी

Hindi Story : इश्क वाला लव – विशाल ने देखा रुशाली के प्यार का घिनौना रूप

Hindi Story : जब से मिस रुशाली की प्यार भरी नजर मुझ पर पड़ी थी, तब से मानो मैं तो जी उठा था. हमारे दफ्तर के सारे मर्दों में मैं ही तो सिर्फ शादीशुदा था और उस पर एक बच्चे का बाप भी. ऐसे में मिस रुशाली पर मेरा जादू चलना किसी चमत्कार से कम न था.

पर अब जब यह चमत्कार हो गया था, तब ऐसे में सभी को आहें भरते देख मैं खुद पर नाज कर बैठा था.

‘‘मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि उस विशाल पर मिस रुशाली फिदा होंगी. पता नहीं, उस हसीना को उस ढहते हुए बूढ़े बरगद के पेड़ में न जाने क्या नजर आया, जो उसे अपना दिल दे बैठी?’’ लंच करते वक्त रमेश आहें भरता हुआ सब से कह रहा था.

‘‘हां भाई, अब यह बेचारा दिल ही तो है. अब यह किसी गधे पर आ जाए, तो इस में उस कमसिन मासूम हसीना का क्या कुसूर?’’ राहुल के इस मजाक पर सभी खिलखिला कर हंस पड़े.

कैंटीन में घुसते वक्त जब मैं ने अपने साथियों की ये बातें सुनीं, तो मैं मन ही मन इतरा उठा और अपना लंच बौक्स उठा कर दोबारा अपनी सीट पर आ कर बैठ गया.

अपने दफ्तर के सारे आशिकों के जलते हुए दिलों से निकलती हुई आहें मेरे मन को ऐसा सुकून दे रही थीं कि मैं खुशी के चलते फिर कुछ खा न पाया.

तब मैं ने चपरासी से कौफी मंगाई और कौफी पी कर फिर से अपने काम में जुट गया. वैसे तो उस समय मैं लैपटौप पर काम कर रहा था, पर मेरा ध्यान तो मिस रुशाली के इर्दगिर्द ही घूम रहा था.

सलीके का पहनावा, तीखे नैननक्श, सुलझे हुए बाल और उस पर मदमस्त चाल. सच में मिस रुशाली एक ऐसा कंपलीट पैकेज है, जिस के लिए जितनी भी कीमत चुकाई जाए, कम है.

अब तो मिस रुशाली के सामने मुझे अपनी पत्नी प्रिया की शख्सीयत बौनी सी लगने लगी थी. वैसे, प्रिया में एक पत्नी के सारे गुण थे और मैं उसे प्यार भी करता था, पर मिस रुशाली से मिलने के बाद मुझे लगने लगा था कि कुछ तो ऐसा है मिस रुशाली में, जो प्रिया में नहीं है.

शायद, मुझे मिस रुशाली से इश्क वाला लव हुआ है, जो शायद उस लव से ज्यादा है, जो मैं अपनी पत्नी प्रिया से करता था, इसलिए तो मिस रुशाली मेरे मन में बसती जा रही थी.

इधर मेरा प्यार परवान चढ़ रहा था, तो उधर मिस रुशाली का जादू मेरे सिर चढ़ कर बोलने लगा था.

लौंग ड्राइव, पांचसितारा होटल में डिनर, महंगे उपहार पा कर मिस रुशाली मुझ पर फिदा हो गई थी. जब भी मैं उस की बड़ीबड़ी झील सी आंखों में अपने प्रति उमड़ रहे प्यार को देखता, तब मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगता था.

अब तो सिर्फ इसी बात की इच्छा होती कि न जाने ऐसा वक्त कब आएगा, जब मिस रुशाली की प्यार भरी नजरें मुझ पर मेहरबान होंगी और उस प्यार भरी बारिश में मेरा मन भीग जाएगा.

बस, इसी कल्पना की चाह में मैं फिर से जी उठा था. ऐसा लगता था, मानो मैं उस मंजिल को पा गया हूं, जहां धरती और आसमान एक हो जाते हैं.

पर प्रिया मेरे अंदर आए इस बदलाव से कैसे अछूती रह पाती? अब उस की सवालिया नजरें मुझ पर उठने लगी थीं. पर मैं चुप था, क्योंकि मुझे एक सही मौके की तलाश जो थी.

रात को सोते वक्त जब कभी प्रिया मेरे नजदीक आने की कोशिश करती, तब मैं जानबूझ कर उस की अनदेखी कर देता था.

तब मैं तो मुंह फेर कर सो जाता और वह आंसू बहाती रहती. मुझे उस का रोना अखरता था, पर मैं क्या करता? मैं अपने दिल के हाथों मजबूर जो था.

बीतते समय के साथ मेरी मिस रुशाली को पाने की चाह बढ़ने लगी थी, क्योंकि मिस रुशाली की बड़ीबड़ी आंखों में मेरे प्रति प्यार का सागर तेजी से हिलोरें जो लेने लगा था.

अब मुझे लगने लगा था कि शायद सही वक्त आ गया है, जब मुझे प्रिया से तलाक ले कर मिस रुशाली को अपना बनाना होगा, तभी मेरी इस उमस भरी जिंदगी में खुशियों के फूल खिल पाएंगे.

अभी मैं सही मौके की तलाश में था कि अचानक मेरी किस्मत मुझ पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो गई. प्रिया के मामाजी के अचानक बीमार होने के चलते वह पूरे 3 दिन के लिए आगरा क्या गई, मुझे तो मानो दबा हुआ चिराग मिल गया.

‘सुनो, मैं आगरा जा रही हूं. तुम्हारा खाना कैसरोल में रखा है,’ प्रिया अपना सामान पैक करते हुए फोन पर मुझ से कह रही थी.

‘‘तुम जल्दी से निकलो. मेरे खाने की चिंता मत करो, वरना तुम्हारी शाम वाली बस छूट जाएगी,’’ मैं खुशी के मारे हड़बड़ा रहा था.

‘हां जी, वह तो ठीक है. मैं ने श्यामा को बोल दिया है कि वह सुबहशाम आप का मनपसंद खाना बना दिया करेगी,’ प्रिया अभी भी मेरे लिए परेशान थी.

‘‘प्रिया, मैं तो चाह रहा था कि मैं दफ्तर से जल्दी निकल कर तुम्हें बसस्टैंड पर छोड़ आऊं, पर क्या करूं, इतना ज्यादा काम जो है,’’ मैं ने अपनी चालाकी दिखाते हुए कहा.

‘नहीं जी, आप अपना काम करो. मैं चली जाऊंगी,’ इतना कह कर प्रिया ने फोन रख दिया.

प्रिया का इस तरह अचानक चले जाना मुझे एक अनजानी सी खुशी दे गया. मैं बावला सा कभी सोचता कि यहां दफ्तर में ही मिस रुशाली को सबकुछ बता कर अपने घर ले जाऊं.

पर फिर बहुत सोचने के बाद मुझे यही लगा कि मैं अपने घर पहुंच कर फ्रैश होने के बाद ही मिस रुशाली से मिलने जाऊंगा.

जब वह अचानक मुझे देखेगी, तब मुझ पर चुंबनों की बरसात कर देगी और उस प्यारभरी बारिश में भीग कर हम दोनों दो जिस्म एक जान बन जाएंगे.

बस फिर क्या था. मैं तुरंत घर पहुंचा और अच्छी तरह तैयार हो कर मिस रुशाली के पास पहुंच गया.

दरवाजे की घंटी बजाने पर दरवाजा रुशाली ने नहीं, बल्कि एक मोटी सी औरत ने खोला.

‘‘मिस रुशाली…’’

‘‘वह ऊपर रहती है,’’ उस औरत ने बेरुखी से कहा.

फिर मैं ऊपर चढ़ गया. जब मैं रुशाली के कमरे में पहुंचा, तब मैं ने देखा कि वह किसी चालू फिल्मी गाने पर थिरक रही थी. कमरे में चारों तरफ कपड़े बिखरे पड़े थे और जूठे बरतन यहांवहां लुढ़के पड़े थे.

‘‘अरे तुम, अचानक…’’ मुझे अचानक सामने देख वह हड़बड़ा गई, ‘‘वह क्या है न, आज मेड नहीं आई.’’

रुशाली यहांवहां पड़ा सामान समेटने लगी. फिर उस ने सामने पड़ी कुरसी पर पड़ी धूल साफ की और मुझे बैठने का इशारा किया. फिर वह मेरे लिए पानी लेने चली गई.

रुशाली के जाने के बाद जब मैं ने कमरे में चारों तरफ नजर घुमाई, तो गर्द की जमी मोटी सी परत को पाया.

इतना गंदा कमरा देख मेरा जी मिचलाने लगा. अब धीरेधीरे मुझे अपनी प्रिया की कद्र समझ आने लगी थी. वह तो सारा घर शीशे की तरह चमका कर रखती है, तब भी मैं उसे टोकता ही रहता हूं, पर यहां तो गंदगी का ऐसा आलम है कि पूछो मत.

‘‘कुछ खाओगे क्या?’’ पानी का गिलास देते हुए रुशाली मुझ से पूछ बैठी.

‘‘हां… भूख तो लगी है.’’

‘‘ये लो टोस्ट और चाय,’’ थोड़ी देर में रुशाली मुझे चाय की ट्रे थमाते हुए बोली.

डिनर में चाय देख कर मेरे सिर पर चढ़ा इश्क का रहासहा भूत भी उतर गया.

‘‘वह क्या  है न… मुझे तो बस यही बनाना आता है, क्योंकि सारा खाना तो मेरी आंटी ही बनाती हैं. पेईंग गैस्ट हूं मैं उन की,’’ रुशाली अपना पसीना पोंछते हुए बोली, तो मैं समझ गया कि अब तक मैं जो कुछ भी रुशाली के लिए महसूस कर रहा था, वह सिर्फ एक छलावा था. मेरा उखड़ा मूड देख कर तुरंत रुशाली ने अपना अगला पासा फेंका.

वह तुरंत मेरे पास आई और बेशर्मी से अपना गाउन उतारने लगी.

‘‘क्या कर रही हो यह…’’ मैं गुस्से से तमतमा उठा.

‘‘अरे, शरमा क्यों रहे हो? जो करने आए थे, वह करे बिना ही वापस चले जाओगे क्या?’’ इतना कह कर वह मुझ से लिपटने लगी.

उसे इस तरह करते देख मैं हड़बड़ा गया. इस से पहले कि मैं खुद को संभाल पाता, उस ने मुझे यहांवहां चूमना शुरू कर दिया.

तभी अचानक मेरे गले में पड़ा लौकेट उस के हाथ में आ गया, जिस में मेरी बीवी प्रिया और अंशुल का फोटो था.

‘‘ओह, तो यह है तुम्हारी देहाती पत्नी… अरे, इसे तलाक दे दो और मेरे नाम अपना फ्लैट कर दो, फिर देखो कि मैं कैसे तुम्हें जन्नत का मजा दिलाती हूं?’’ इतना कह कर वह मुझ से लिपटने की कोशिश करने लगी.

‘‘प्यार बिना शर्त के होता है रुशाली,’’ मैं उस समय सिर्फ इतना ही कह पाया.

‘‘आजकल कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता, मिस्टर. हर चीज की कीमत होती है और हर किसी को वो कीमत चुकानी ही पड़ती है,’’ इतना कह कर रुशाली जोर से हंस पड़ी.

रुशाली के प्यार का यह घिनौना रूप देख मैं टूट सा गया और उसे धक्का दे कर बाहर आ गया.

हारी हुई नागिन की तरह रुशाली जोर से चीखते हुए बोली, ‘‘विशाल, मेरा डसा तो पानी भी नहीं मांगता, फिर तुम क्या चीज हो?’’

पर मैं तब तक अपनी कार में बैठ चुका था और मेरे इश्क वाले लव का भूत उतर चुका था.

Hindi Story : गुंडा – आखिर क्यों राजू की गुंडागीरी की कायल हुई लड़कियां

Hindi Story : तकरीबन 3 लाख की आबादी वाले उस शहर की निम्नमध्यवर्गीय परिवारों की बस्ती है यह. यहां पर अधिकतर मिल या कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों के घर हैं. पतली सी 70-80 मीटर लंबी सुरंगनुमा गली में है यह बस्ती. शहर का यह हिस्सा शहर में होने के बावजूद मुख्य शहर से बहुत दूर है. सुविधा के नाम पर किराने की 4 छोटीछोटी दुकानें हैं जो घरों से ही संचालित होती हैं और श्रमिकों की उधारी से ही चलती हैं.

बच्चों की शिक्षा के लिए एक सरकारी स्कूल है यहां. जो सुबह प्राइमरी तो दोपहर में माध्यमिक स्कूल हो जाता है. बस्ती के सभी बच्चे, चाहे वह लड़का हो या लड़की, इसी स्कूल में पढ़ते है. राजू भी इसी स्कूल की प्राथमिक शाला की 5वीं कक्षा में पढ़ता है.

राजू का घर एक कमरे और किचन वाला है. घर में मम्मी व पापा के अतिरिक्त कोई नहीं है. वह छोटा था, तभी उस के दादादादी का निधन हो गया था. हां, दूसरे शहर में नानानानी अवश्य रहते थे. उन की आर्थिक स्थिति भी जर्जर ही थी और संभवतया इसी कारण उस का मामा बचपन में ही घर छोड़ कर भाग गया था.

रोजाना की तरह उस रोज भी राजू स्कूल गया था. पिताजी किसी कारखाने में काम करते थे और आज उन का साप्ताहिक अवकाश था. राजू के स्कूल जाने के बाद उस के मम्मीपापा खरीदारी करने के लिए अपनी मोपेड पर शहर चले गए. राजू बाजार जाने के बाद अकसर कुछकुछ गैर जरूरी सामान खरीदने की जिद किया करता था, इसी कारण उस के स्कूल जाने के बाद बाजार जाने का प्रोग्राम बनाया गया. वैसे, राजू है भी शरारती लड़का. कक्षा के सभी बच्चे, खासकर लड़कियां, उस से बहुत परेशान रहते हैं. कुल मिला कर राजू की इमेज एक बिगड़े बच्चे की ही है.

कुछ ही दिनों के बाद त्योहार आने वाले थे. इसी कारण खरीदे गए सामान की अधिकता कुछ ज्यादा ही हो गई थी. सामान इतना अधिक हो गया था कि राजू के मम्मीपापा मोपेड पर ठीक से बैठ भी नहीं पा रहे थे. सामने से तेज गति से रांग साइड आती हुई कार के सामने राजू के पापा अपनी गाड़ी को नियंत्रित नहीं कर सके और कार से भिड़ गए. भयानक दुर्घटना हुई और राजू के मम्मीपापा दोनों ही

इस दुनिया को छोड़ कर चले गए. रिश्तेदारी में ऐसा कोई था नहीं जो राजू को ले जाता, उसे सहारा देता. सो, आर्थिक व शारीरिक रूप से अशक्त नानानानी ही उसे अपने साथ ले गए. चूंकि यह राजू का पैतृक घर था, इसलिए इस पर ताला डल गया.

पिछले 10 सालों में यह शहर काफी बदल चुका है. संकरी सी पतली गली में डामर की पक्की सड़क बन गई है. गली के दूसरे छोर पर पार्क बन गया है. कुछ बड़ी दुकानें भी खुल गई हैं. राजू भी अब 21 साल का हो चुका है. 4 महीने पहले उस के नानाजी का भी निधन हो गया है. नानीजी तो 5 साल पहले ही गुजर गई थीं. अपनी परिस्थितियों के कारण राजू ज्यादा पढ़ नहीं पाया था. किसी तरह 10वीं तक तो पहुंचा, मगर पास नहीं हो पाया.

नाना के मरने के बाद वह वापस अपने पैतृक शहर लौट आया. यहां की आवश्यकता और व्यवसाय की अनुकूलता को देखते हुए उस ने अपने पास जमा पैसों से घर के अहाते में ही पान की दुकान खोल ली. बढ़ी हुई दाढ़ी और बेडौल डीलडौल के कारण राजू पहली नजर में गुंडों सा प्रतीत होता था. रहीसही कसर

उस के बोलने का अक्खड़ अंदाज पूरा कर देता था. उस के कारनामे थे ही ऐसे. अपने साथ प्राइमरी कक्षा में पढ़ने वाली सभी लड़कियों के नाम उसे अभी तक याद थे. उन में से यदि कोई लड़की उसे राह में अकेली मिल जाती, तो वह हाथ जोड़ कर बीच सड़क पर खड़ा हो जाता और पूरे दांत (जिन पर पान का गहरा रंग चढ़ा होता था) दिखा कर उस को नमस्कार कहता. किसी भी लड़की के लिए यह स्थिति असहज व अप्रिय होती.

कई बार लड़कियों ने इस की शिकायत अपने घर वालों से की. लेकिन महल्ले में बैठ कर कौन झगड़ा मोल ले की नीति के कारण उस से किसी ने भी कुछ कहने की हिम्मत न दिखाई. शायद यही कारण है कि उस की हिम्मत दिनप्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है. पान की दुकान होने के कारण इसी तरह के लोगों का जमावड़ा उस की दुकान पर होने लगा.

महल्लेवालों की सहनशीलता या कायरता को देख कर राजू की हिम्मत दिनोंदिन बढ़ने लगी. अब उस ने अपनी दुकान में एक बड़ा सा म्यूजिक सिस्टम भी लगवा लिया था. म्यूजिक सिस्टम पर लड़कियों को परेशान करने वाले गाने ही बजाए जाते थे. अब पिछले शुक्रवार की ही बात लीजिए, यह शर्मा जी की लड़की, जो कभी राजू के ही साथ पढ़ती थी, लाल रंग का सलवार सूट पहने जा रही थी. तब राजू ने अपने म्यूजिक सिस्टम पर तेज आवाज में गाना लगा दिया- ‘लाल छड़ी मैदान खड़ी…’ आज के इस दौर में जबकि नएनए गाने आ रहे हैं, उस समय इस तरह के गाने बजाना तो उद्दंडता ही माना जाएगा न.

ऐसे ही जब गुप्ताजी की लड़की किसी फंक्शन में जाने के लिए चमकदमक वाली ड्रैस पहने हुई थी तो साहब उस को देख कर गाना बजा रहे थे- ‘बदन पे सितारे लपेटे हुए ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो…’

कोई सीधेसादे कपड़ों में लड़की आती हुई दिखाई देती तो गाना बजता- ‘धूप में निकला न करो रूप की रानी…’ या ‘दिल के टुकड़े टुकड़े कर के मुसकरा कर चल दिए…’

महल्ले की सभी लड़कियां परेशान हो चुकी थीं. कई बार वे आपस में मिल भी चुकी थीं और राजू को चप्पलोंसैंडिलों से सबक सिखाने की भी सोच चुकी थीं. लेकिन वह दिन बातों के अलावा कभी नहीं आया.

ठिठुरन भरे दिसंबर महीने का अंतिम सप्ताह था वह जब शर्माजी की लड़की दीप्ति, जोकि एमएससी कर रही थी, प्रायोगिक क्लास होने के कारण कालेज से छूटने में लेट हो गई. साधारणतया 4 बजे छूटने वाली क्लास आज 5 बजे तक खिंच गई. कालेज घर से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर है और दीप्ति अपनी साइकिल से कालेज आतीजाती है.

दीप्ति अपनी एक और सहेली के साथ साइकिल से बाहर निकली ही थी कि उन दोनों को 2 मोटरबाइक पर बैठे 5 लड़कों ने घेर लिया. सभी लड़के दीप्ति और उस की सहेली पर लगातार तानाकशी करते हुए उन्हें परेशान कर रहे थे. कभी दोनों की साइकिल्स के आगे आ कर रोकने का प्रयास करते तो कभी पीछे से कैरियर पकड़ कर पीछे खींचने की कोशिश करते.

दीप्ति और उस की सहेली को इतनी ठंड में भी पसीना आ रहा था. हलका सा अंधेरा और सड़क का सूनापन लड़कों की हिम्मत बढ़ा रहा था. लगभग 2 किलोमीटर तक यह सब चलता रहा. दोनों सहेलियों के तालू जैसे सूख गए थे. चीखनेचिल्लाने की हिम्मत ही नहीं थी. कालेज में दी गई प्राथमिक सुरक्षा की

ट्रेनिंग भी न जाने कहां उड़नछू हो गई. दो किलोमीटर के बाद दोनों मुख्य शहर में प्रवेश कर गईं. अब दोनों की जान में जान आई. दीप्ति की सहेली यहीं रहती थी, सो, वह अब अलग रास्ते चली गई.

“मूर्खो, तुम्हारी ढिलाई के कारण एक लड़की हाथ से निकल गई. अब नया साल सूखासूखा मनाओगे क्या? कम से कम इस लड़की को तो अपने साथ ले चलो.” पांचों में से शायद यह लड़का सब का सरदार था जो गुस्सा होते हुए बोल रहा था.

“अरे छोड़ो बौस, हमारे पास उसे बैठाने की जगह कहां थी. बस, अब इस चिड़िया को ले जा कर फुर्र हो जाते हैं,” दूसरा बदमाश बोला.

दीप्ति को उन के इरादे अब स्पष्टतौर पर समझ में आ गए थे. उस की धड़कनें एक बार फिर तेज चलने लगीं. आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. उस ने हिम्मत कर के अपनी साइकिल की रफ़्तार बढ़ा दी. किसी तरह दीप्ति अपनी गली के मुहाने तक पहुंच ही गई. तेजी से साइकिल चलाने के कारण वह बुरी तरह से हांफने लगी थी. अब एक पैडल मारना भी उस के लिए भारी पड़ रहा था. घबराहट के कारण उसे चक्कर आ गया और वह वहीं गिर पड़ी.

लड़के शायद इसी के इंतज़ार में थे. वे गिरी हुई दीप्ति को उठा कर अपनी बाइक से ले जाना चाहते थे. दीप्ति की हालत प्रतिकार करने जैसी बिलकुल नहीं थी.

राजू अपनी दुकान पर बैठा यह सब नज़ारा देख रहा था. वह समझ गया था कि दीप्ति मुसीबत में है तथा लड़कों के इरादे नेक नहीं हैं. बिना एक क्षण की देरी किए उस ने अपनी दुकान में से मोटा सा लठ्ठ निकाला, दौड़ कर दीप्ति के पास पहुंच गया और सरदार जैसे उस लड़के पर आक्रमण कर दिया. उस ने अपने लठ्ठ से उस लड़के के पैरों पर इतनी जोर का वार किया कि वह चीखते हुए गिर पड़ा.

इस तरह हुए अचानक आक्रमण से बाकी लड़के घबरा गए. वे कुछ समझ पाते, इस के पहले ही राजू ने उसी जगह पर पूरी ताकत से दूसरा वार कर दिया. अब वह लड़का खड़ा होने की स्थिति में नहीं था. अब राजू बाकी लड़कों को ललकारने लगा. अपने साथी की ऐसी हालत देख कर बचे हुए लड़कों ने वहां से भागने में ही अपनी खैरियत समझी. यह घटना देख कर आसपास कई लोगों की भीड़ इकठ्ठी हो गई थी.

सभी लोग लड़कों के दुस्साहस और राजू की त्वरित प्रतिक्रिया की ही बातें कर रहे थे. सभी राजू की प्रशंसा ही कर रहे थे. अब तक वहां पर दीप्ति के साथ रहने वाली पासपड़ोस की लड़कियां भी पहुंच गईं. उन सभी लड़कियों को राजू की इस तरह प्रशंसा अखर रही थी क्योंकि वे राजू की असलियत जानती थीं. उन में से एक लड़की हिम्मत दिखाती हुई बोली, “राजू खुद कौन सा दूध का धुला है. वह खुद भी आतीजाती लड़कियों को देख कर भद्दे गाने फुल वौल्यूम में लगा कर हमें शर्मसार करता रहता है. कौन जाने आज की घटना इसी गुंडे की चाल हो.”

इस लड़की की बात सुन कर भीड़ में एकदम सन्नाटा छा गया. सभी राजू की तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगे.

राजू शायद इस प्रश्न के लिए तैयार ही था. संभवतया वह अपेक्षा ही कर रहा था. वह दो कदम आगे बढ़ा और उस लड़की के सामने जा कर खड़ा हो गया. लड़की किसी आशंका की कल्पना से सिहर गई. राजू अपने परिचित अंदाज में लड़की के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और पूरी नम्रता के साथ बोला-

“मुझे यह कहने में जरा भी झिझक नहीं है कि इस महल्ले में रहने वाली हर लड़की मेरी बहन है. हां, मैं अपने म्यूजिक सिस्टम पर उस तरह के गाने जानबूझ कर ही बजाता था. कारण जानना चाहोगे आप लोग?

“मैं चाहता था मेरे महल्ले में रहने वाली मेरी हर बहन इतनी निडर बने कि वह हर अप्रिय स्थिति का सामना आसानी से कर पाए. लेकिन इस बात के लिए सब से जरूरी है अन्याय के विरुद्ध अपनेआप का आत्मविश्वासी होना.

“मैं इस तरह के गाने बजा कर और आप लोगों को सुना कर आप लोगों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जगाना चाहता था. मैं चाहता था चाहे एक लड़की ही सही पर कोई तो आ कर विरोध करे, अपने आत्मसम्मान को जगाए. लेकिन दुख की बात है कोई लड़की आगे नहीं आई.

“याद रखिए, किसी भी व्यक्ति का सम्मान उस के अपने घर से ही शुरू होता है. जब आप खुद अपना सम्मान नहीं करेंगी तो बाहर वाले को क्या पड़ी है कि वह

आप का सम्मान करेगा और जब सम्मान नहीं करेगा तो इस तरह का या इस से भी बदतर अपमान सहना पड़ेगा.

“अगर आप लोगों ने मेरे कामों का विरोध पहले ही कर दिया होता तो शायद आज इस तरह की घटना न घटित होती. और एक बात, यदि आप आज ही प्रबल विरोध करोगे तो भविष्य में ‘मी टू’ कहने जैसे किसी आंदोलन की जरूरत ही न पड़ेगी.

“मुझे खुशी है, इतनी भीड़ में, एक का ही सही, आत्मविश्वास, आत्मसम्मान जागा तो. मुझे विश्वास है धीरेधीरे इस महल्ले की सभी लड़कियों में यह भावना आ जाएगी.

“आज मेरी गुंडागीरी सफल हुई.”

“वाह, राजू जैसी सोच वाले गुंडे शहर के हर गलीचौराहे पर हों तो हमारी महिलाएं, लड़कियां सुरक्षित कैसे न रहेंगी,” दीप्ति के पिता शर्माजी राजू की पीठ थपथपाते हुए कह रहे थे.

Hindi Story : किसकी कितनी गलती

Hindi Story : नेहा को अस्पताल में भरती हुए 3 दिन हो चुके थे. वह घर जाने के लिए परेशान थी. बारबार वह मम्मीपापा से एक ही सवाल पूछ रही थी, ‘‘डाक्टर अंकल मुझे कब डिस्चार्ज करेंगे? मेरी पढ़ाई का नुकसान हो रहा है. 15 सितंबर से मेरे इंटरनल शुरू हो जाएंगे. अभी मैं ने तैयारी भी नहीं की है. अस्पताल में भरती होने की वजह से मैं पूजा के साथ खेल भी नहीं पा रही हूं. मेरा मन उस के साथ खेलने को कर रहा है. यहां मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता, इसलिए मुझे जल्दी से घर ले चलो.’’

नेहा की इन बातों का कोई ज वाब उस के मम्मीपापा के पास नहीं था. मम्मीपापा को चुप देख कर उस ने पूछा, ‘‘मम्मी पूजा आ गई क्या?’’

‘‘नहीं बेटा, अभी तो 7 बजने में 10 मिनट बाकी हैं, वह तो 7 बजे के बाद आती है. आप आराम से नाश्ता कर लीजिए.’’  ‘‘जी मम्मी.’’ नेहा ने बडे़ ही इत्मीनान से कहा.

नेहा इंदौर में जीजीआईसी में 6वीं में पढ़ती थी. वह अपनी सहेली पूजा के साथ स्कूल जाती थी. पूजा उस के पड़ोस में ही रहती थी. दोनों में गहरी दोस्ती थी. कभी नेहा पूजा के घर जा कर होमवर्क करती तो कभी पूजा उस के घर आ जाती. होमवर्क के बाद दोनों साथसाथ खेलतीं.

उस दिन जब हिंदी के टीचर विनोद प्रसाद पढ़ा रहे थे तो उन की नजर नेहा पर चली गई. वह चुपचाप सिर झुकाए बैठी थी. उन्हें लगा कि नेहा को कोई परेशानी है तो उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है नेहा?’’

विनोद प्रसाद के इस सवाल पर नेहा चौंकी. उस ने धीरे से कहा, ‘‘कुछ नहीं सर, थोड़ा पेट में दर्द है.’’

‘‘नेहा बेटा… आप को पहले बताना चाहिए था. अभी आप के लिए औफिस से दवा मंगवाता हूं.’’

विनोद प्रसाद ने औफिस से दवा मंगा कर खिलाई तो नेहा को थोड़ा आराम मिल गया. दोपहर एक बजे छुट्टी हुई तो वह पूजा के साथ घर आ गई. घर आ कर उस ने स्कूल बैग एक ओर फेंका और सोफे पर लेट गई. उस की मम्मी राधिका ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, कपड़े बदल कर हाथमुंह धो लो, उस के बाद खाना खा कर आराम कर लेना. ‘‘मुझे भूख नहीं है मम्मी. अभी कुछ भी खाने का मन नहीं हो रहा है.’’ नेहा ने कहा.

‘‘बेटा, थोड़ा ही खा लो. आज मैं ने आप की पसंद का खाना बनाया है.’’

‘‘कहा न मम्मी मुझे भूख नहीं है, प्लीज मम्मी जिद मत कीजिए. मेरे पेट में दर्द हो रहा है, इसलिए खाने का मन नहीं हो रहा है.’’

‘‘बेटा, जब आप के पेट में दर्द हो रहा है तो आप को स्कूल नहीं जाना चाहिए था. पापा आते ही होंगे, उन से आप के लिए दवा मंगवाती हूं.’’

‘‘मम्मी, स्कूल में विनोद सर ने दवा दी थी. दवा खाने के बाद थोड़ा आराम मिल गया था. लेकिन अभी फिर दर्द होने लगा है. मम्मी मेरे पेट में कई दिनों से इसी तरह रुकरुक कर दर्द हो रहा है. कभी हल्का दर्द होता है तो कभी अचानक बहुत तेज दर्द होने लगता है.’’ नेहा ने पेट दबा कर कहा.

नेहा अपनी बात कह ही रही थी कि उस के पापा राकेश उस के पास आ कर खड़े हो गए, ‘‘हैलो नेहा बेटा, मेरी बच्ची कैसी है?’’

‘‘लो पापा का नाम लिया और वह आ गए.’’ राधिका ने नेहा के बाल सहलाते हुए कहा.

‘‘हैलो पापा.’’ नेहा ने धीमी आवाज में पापा का स्वागत किया.

‘‘राधिका नेहा को कुछ हुआ है क्या, जो इतनी सुस्त लग रही है? परेशान होने की कोई बात नहीं है, इस के पेट में थोड़ा दर्द है.’’  राकेश ने नेहा को गोद में बिठा कर प्यार से उस की नाक पकड़ कर हिलाई तो कुछ कहने के बजाय नेहा ने मुसकरा दिया. रात को होमवर्क करने के बाद वह सिर्फ एक गिलास दूध पी कर सो गई.

अगले दिन सुबह नेहा स्कूल जाने के लिए नहीं उठ सकी. राधिका उसे जगाने आई तो वह उदास लेटी छत को एकटक ताक रही थी. नेहा के मासूम चेहरे पर आंखों से बहे आंसू सूख कर अपने वजूद की गवाही दे रहे थे. मम्मी कब उस के पास आ कर बैठ गईं, नेहा को पता ही नहीं चला था.

राधिका ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उस के मासूम चेहरे को ध्यान से देखा. उन्हें लगा कि नेहा कुछ ज्यादा ही परेशान है तो उन्होंने पूछा, ‘‘बेटा मम्मा को बताओ ना क्या बात है? आप ने होमवर्क नहीं किया क्या या फिर स्कूल के टीचर आप को डांटते हैं?’’  ‘‘मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं अपना सारा काम कम्पलीट रखती हूं. इसलिए मुझे कोई टीचर नहीं डांटता.’’ नेहा ने दबी आवाज में कहा.

‘‘तो फिर क्या बात है बेटा?’’

‘‘मम्मी, कुछ दिनों से मेरे पेट में दर्द रहता है. मेरा पेट भी पहले से बड़ा हो गया है.’’

राधिका ने नेहा की फ्रौक को ऊपर की ओर खिसका कर उस के पैर को गौर से देखा तो उन्हें लगा कि शायद नेहा के पेट में सूजन आ गई है. उन्होंने यह बात राकेश को बताई तो उन्होंने पत्नी को तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘चलो, आज इसे डाक्टर को दिखा देते हैं. लापरवाही करना ठीक नहीं है. राधिका, तुम इसे नाश्ता कराओ, तब तक मैं नहाधो कर तैयार हो जाता हूं.’’

ठीक 11 बजे राकेश राधिका और नेहा को ले कर अस्पताल पहुंच गए. उन्होंने नंबर लिया और डा. राहुल जैन के चैम्बर के सामने पड़े सोफे पर बैठ गए. नंबर आने पर वह नेहा को ले कर अंदर गए, जबकि राधिका बाहर ही बैठी रही. डा. राहुल जैन ने नेहा से कई सवाल किए. इस के बाद उन्होंने कहा, ‘‘पहले आप बच्ची का सोनोग्राफी करा लीजिए. उस के बाद जो रिपोर्ट आएगी, उस के अनुसार ही इलाज होगा.’’

डाक्टर की पर्ची और नेहा को साथ ले कर राकेश अस्पताल में उस ओर बढ़ गए, जिधर सोनोग्राफी होती थी.

सोनोग्राफी की रिपोर्ट 2 घंटे बाद मिल गई. राकेश राधिका और नेहा को सोफे पर बैठा कर अकेले ही डाक्टर की केबिन में दाखिल हो गए. रिपोर्ट देख कर डा. जैन सन्न रह गए. उन के चेहरे से लगा, जैसे रिपोर्ट पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ हो. उन्होंने एक बार फिर रिपोर्ट को गौर से देखा. उस के बाद दबे स्वर में कहा, ‘‘मि. राकेश, नेहा इज प्रेग्नेंट.’’

यह सुन कर राकेश अवाक रह गए. वह जिस तरह बैठे थे, उसी तरह बैठे रह गए. मानो कुछ सुना ही न हो. वह डा. जैन को बिना पलक झपकाए देखते रह गए. जबकि उन्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. उन की आंखों के सामने अंधेरा छा गया था.

‘‘मिस्टर राकेश, खुद को संभालिए.’’ डा. जैन ने उन्हें दिलासा देते हुए कहा.

राकेश पसीने से पूरी तरह तर हो चुके थे. एकबारगी उठ कर बाहर आ गए. उन का हाल देख कर राधिका सहम उठी. डरतेडरते उन्होंने पूछा, ‘‘रिपोर्ट देख कर क्या बताया डाक्टर ने.’’

राकेश किस तरह बताते कि उन की कली जैसी बेटी मां बनने वाली है. वह निढाल हो कर सोफे पर बैठ गए.

‘‘क्या बात है जी?’’ राधिका ने बेचैनी से पूछा, ‘‘आप बताइए न, क्या हुआ है मेरी बच्ची को, आप बताते क्यों नहीं हैं?’’

राकेश की खामोशी राधिका के दिल में नश्तर की तरह चुभ रही थी. पत्नी को बेचैन देख कर राकेश ने रुंधी आवाज में कहा, ‘‘घर चल कर बताता हूं.’’

2 किलोमीटर का सफर पूरा होने में जैसे युग लग गया. इस बीच राधिका के मन में न जाने कितने खयाल आए. तरहतरह की आशंकाएं उसे परेशान करती रहीं. घर पहुंच कर राकेश ने नेहा को बिस्तर पर लिटा कर आराम करने को कहा.

लेटने के बाद नेहा ने पूछा, ‘‘पापा, डाक्टर अंकल ने क्या बताया, मेरे पेट का दर्द कब ठीक होगा? मेरे टेस्ट होने वाले हैं. आप डाक्टर अंकल से कहिए कि मुझे जल्दी से ठीक कर दें, वरना पूजा के नंबर मुझ से ज्यादा आ जाएंगे.’’

राकेश ने नेहा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, आप जल्दी ठीक हो जाओगी. घबराने की कोई बात नहीं है.’’

राधिका बड़ी बेसब्री से राकेश का इंतजार कर रही थी. जैसे ही राकेश उन के पास आए, उन्होंने बेचैनी से पूछा, ‘‘डा. साहब ने क्या बताया है, क्या हुआ है मेरी बच्ची को?’’

राधिका की बांह पकड़ कर राकेश ने कहा, ‘‘आप को किस मुंह से अपनी बरबादी की कहानी सुनाऊं. हम लोग लुट गए राधिका. बर्बाद हो गए. हम किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे. डाक्टर ने बताया है कि नेहा 6 महीने की गर्भवती है.’’

राकेश का इतना कहना था कि राधिका को ऐसा लगा कि सब कुछ घूम रहा है. आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा है. वह गिरी और बेहोश हो गई.

राकेश उस के मुंह पर पानी के छींटे मारते हुए उसे होश में लाने की कोशिश करने लगे. कभी वह उन का मुंह पकड़ कर हिलाते तो कभी कहते, ‘‘उठो राधिका, उठो खुद को संभालो. वरना नेहा का क्या होगा?’’

कुछ देर में राधिका उठी और पति के गले लग कर फफकफफक कर रोने लगी, पतिपत्नी की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब कैसे हुआ, किस ने नेहा के साथ यह गंदा काम किया? रोतेरोते राधिका ने कहा, ‘‘हमारी बेटी के साथ यह नीच हरकत किस ने की, किस ने मासूम कली को बेरहमी से मसल दिया? उस कमीने को हमारी मासूम बेटी पर जरा भी तरस नहीं आया. उस ने हमें समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा.’’

इस के बाद आंचल से आंखें साफ कर के राधिका नेहा के पास आ गई. प्यार से उस के सिर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी नेहा, अब तबीयत कैसी है?’’

‘‘मम्मी अब थोड़ा ठीक है, लेकिन बीचबीच में दर्द होने लगता है.’’ नेहा ने मासूमियत से कहा.

‘‘डाक्टर अंकल ने कहा है कि नेहा बहुत जल्दी ठीक हो जाएगी.’’ राकेश ने दिल पर पत्थर रख कर मुश्किल से बेटी को समझाया.

पतिपत्नी में से किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि नेहा से किस तरह से इस मुद्दे पर बात करें. लेकिन बात तो करनी ही थी. आखिर राधिका ने नेहा से बड़े प्यार से पूछा, ‘‘बेटा, आप के साथ स्कूल में किसी ने गलत काम किया है क्या?’’

‘‘नहीं मम्मी, किसी ने मेरे साथ कोई गलत काम नहीं किया है.’’

एक मांबाप के लिए शायद दुनिया में सब से बुरा सवाल यही होगा. खैर, काफी समझानेबुझाने पर नेहा ने बताया, ‘‘पवन भैया मेरे साथ गंदा काम करते थे.’’

पवन नेहा की बुआ यानी राकेश की बहन का बेटा था. इसलिए उस के घर आनेजाने में किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं थी. नेहा के इस जवाब से पतिपत्नी सिर थाम कर बैठ गए. घर का भेदी लंका ढाए. नेहा को गले लगा कर राधिका ने उस के कान के पास अपना मुंह ले जा कर लगभग फुसफुसाते हुए पूछा, ‘‘बेटा, आप के साथ पवन कब से यह गंदा काम कर रहा था? आप ने मम्मीपापा को यह बात पहले क्यों नहीं बताई.’’

नेहा के आंसू नाजुक गालों से होते हुए राधिका के कंधे को भिगो रहे थे. उस ने सिसकते हुए कहा, ‘‘मम्मी, आप को कैसे बताती. पवन भैया मुझे मार देते. वह मेरे साथ गलत काम करते थे. उस के बाद कहते थे कि किसी को कुछ बताया तो तेरा गला दबा कर जान ले लूंगा.’’

नेहा अभी भी उस वहशी को भइया कह रही थी. राधिका ने पूछा, ‘‘बेटा, आप के साथ यह गंदा काम कब से हो रहा था?’’

‘‘मम्मी जब आप घर का सामान लेने बाजार जाती थीं, उसी बीच भैया आ कर मेरे साथ जबरदस्ती करते थे. उस के बाद चौकलेट देते. मैं चौकलेट लेने से मना करती तो मुझे मारने की धमकी देते. किसी से कुछ बताने को भी मना करते थे. मम्मी, मैं बहुत डर गई थी, इसलिए आप लोगों को कुछ नहीं बता पाई.’’

‘‘कोई बात नहीं बेटा.’’ राकेश ने खुद को झूठी दिलासा देते हुए कहा.

‘‘सुनिए जी, अब क्या किया जाए?’’ राधिका ने पूछा.

‘‘अब क्या होगा. कुछ भी हो मैं इस वहशी को जिंदा नहीं छोड़ूंगा, इस के लिए चाहे मुझे जेल ही क्यों न जाना पड़े.’’ राकेश ने कहा.

‘‘नहीं, पहले आप नेहा के बारे में सोचिए. चलो डा. जैन को एक बार और दिखाएं और नेहा का अबौर्शन कराना जरूरी है. उस के बाद आगे की काररवाई करेंगे.’’

‘‘यह भी ठीक रहेगा,’’ राकेश ने मरजी के विपरीत हामी भरी.

इस के बाद अस्पताल जा कर डा. जैन से नेहा का गर्भ गिराने के लिए कहा तो डा. जैन ने कहा, ‘‘देखिए, मिस्टर राकेश, यह पुलिस केस है, इसलिए पहले आप एफआईआर कराएं, उस के बाद ही कुछ हो सकता है.’’

‘‘डाक्टर साहब, ऐसा अत्याचार मुझ पर मत कीजिए. मैं वैसे ही बहुत परेशान हूं, अब आप भी परेशान न करें.’’ राकेश ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘देखिए, आप समझने की कोशिश कीजिए राकेशजी. आप की बेटी 6 महीने की गर्भवती है. इसलिए उस का अबौर्शन नहीं किया जा सकता. उस की जान को खतरा हो सकता है.’’

‘‘डाक्टर साहब, अब हम इस पाप का क्या करें. हम तो किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे.’’

‘‘राकेशजी, आप समझने की कोशिश कीजिए. ऐसा करने से नेहा की जान जा सकती है. फिर यह गैरकानूनी भी है, सो आई एम सौरी.’’ डा. राहुल जैन ने हाथ खड़े कर दिए.

नेहा 3 दिनों से अस्पताल में भरती थी. वह मम्मीपापा से बारबार पूछ रही थी कि अस्पताल से उसे कब छुट्टी मिलेगी. उस की पढ़ाई का नुकसान हो रहा है. 15 तारीख से उस के इंटरनल शुरू होने वाले हैं. जबकि उस ने अभी तैयारी भी नहीं की है. उसे पूजा के साथ खेलना है.

राकेश ने कोर्ट से नेहा का गर्भपात कराने की इजाजत मांगी, लेकिन फिलहाल अभी उन्हें इस में कामयाबी नहीं मिली है. पवन के खिलाफ थाने में विभिन्न धाराओं के अंतर्गत मुकदमा दर्ज करा दिया गया है, उस की धरपकड़ के लिए पुलिस जगहजगह छापे मार रही है. लेकिन अभी वह पकड़ा नहीं जा सका है. पुलिस ने उस की गिरफ्तारी के लिए उस का फोन नंबर ही नहीं, उस के दोस्तों, रिश्तेदारों और घर वालों के फोन नंबर सर्विलांस पर लगा रखे हैं.

अब देखना यह है कि क्या कोर्ट राकेश की फरियाद पर नेहा का गर्भपात कराने की इजाजत देता है. इस के लिए कोर्ट पहले डाक्टरों के पैनल से रिपोर्ट मांगेगा कि गर्भपात कराने से 12 साल की बच्ची को कोई नुकसान तो नहीं पहुंचेगा. इस रिपोर्ट के बाद कोर्ट कोई फैसला देगा. लेकिन फैसला आने तक राकेश और राधिका के लिए एकएक पल गुजारना वर्षों गुजारने के बराबर है, जो उन्हें हर एक पल बर्बादी का अहसास दिलाता है.

राधिका ने राकेश से उलाहना देते हुए कहा, ‘‘मैं आप से हमेशा कहती थी कि पवन पर आंख मूंद कर के इतना भरोसा मत करो, लेकिन आप को उस पर बड़ा नाज था. आप हमेशा मेरी बातों को नजरअंदाज करते थे.’’

‘‘राधिका अब बस भी करो, मैं वैसे ही बहुत परेशान हूं, मुझे क्या पता था कि वह मेरे भरोसे का इतना बुरा सिला देगा. चलो, मैं तुम्हारी बात मानता हूं कि अगर पवन को इतनी छूट न देता तो आज हमें यह दिन देखना न पड़ता.’’

इस के बाद एक लंबी सांस ले कर राकेश ने आगे कहा, ‘‘चलो, मान लिया मेरी गलती से यह हुआ, लेकिन तुम्हारी भी गलती कम नहीं है. नेहा को प्रैग्नेंट हुए आज पूरे 6 महीने हो गए हैं और तुम्हें इस की जरा भी भनक नहीं लग सकी. राधिका, मैं तो पूरा दिन औफिस में रहता हूं, लेकिन तुम भी तो नेहा का ध्यान नहीं रख पाईं. उस दरिंदे के भरोसे नेहा को अकेली छोड़ कर क्यों बाजार चली जाती थीं? तुम्हें नेहा से हर तरह की पूछताछ करनी चाहिए थी. तुम उस की मां होेने के साथ, उस की सखीसहेली भी हो, सुनो राधिका, होनी को कोई नहीं टाल सकता, लेकिन सावधानी जरूरी है. हर किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए चाहे कोई कितना ही सगा रिश्तेदार क्यों न हो.’’

Hindi Story : विश्वास – एक मां के भरोसे की कहानी

Hindi Story : दोपहर के 2 बजे थे. शिवानी ने आज का हिंदी अखबार उठाया और सोफे पर बैठ कर खबरों पर सरसरी नजर दौड़ाने लगी. हत्या, लूटमार, चोरी, ठगी और हादसों की खबरें थीं. जनपद में ही बलात्कार की 2 खबरें थीं. एक 10 साला बच्ची से पड़ोस के एक लड़के ने बलात्कार किया और दूसरी 15 साला लड़की से स्कूल के ही एक टीचर ने किया बलात्कार. पता नहीं क्या हो रहा है? इतने अपराध क्यों बढ़ रहे हैं? कहीं भी सिक्योरिटी नहीं रही. अपराधियों को पुलिस, कानून व जेल का जरा भी डर नहीं रहा.

बलात्कार की खबरें पढ़ कर शिवानी मन ही मन गुस्सा हो गई. यह कैसा समय आ गया है कि किसी भी उम्र की औरत या बच्ची महफूज नहीं है. बच्चियों से भी बलात्कार. इन बलात्कारियों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए, जो ये भविष्य में ऐसे घिनौने अपराध करने के काबिल ही न रहें.

शिवानी की नजर दीवार पर लगी घड़ी पर पड़ी. दोपहर के ढाई बज रहे थे. अभी तक मोनिका स्कूल से नहीं लौटी थी? स्कूल से डेढ़ बजे छुट्टी होती है. आधा घंटा घर लौटने में लगता है. अब तक तो मोनिका को घर आ जाना चाहिए था.

शिवानी के पति कमलकांत एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर थे. उन की 8 साला एकलौती प्यारी सी बेटी मोनिका शहर के एक मशहूर मीडियम स्कूल में तीसरी क्लास में पढ़ रही थी. पढ़ने में होशियार मोनिका बातें भी बहुत प्यारीप्यारी करती थी.

शादी के बाद कमलकांत ने शिवानी से कहा था, ‘देखो शिवानी, हमें अपने घर में केवल एक ही बच्चा चाहिए. हम उसी को अच्छी तरह पाल लें, अच्छी तालीम दिला दें, चाहे वह लड़का हो या लड़की. यही गनीमत होगी. उस के बाद हमें दूसरे बच्चे की चाह नहीं करनी है.’

शिवानी भी पति के इस विचार से सहमत हो गई थी. वह खुद एमए, बीऐड थी, पर बेटी के लिए उस ने नौकरी करना ठीक न समझा और एक घरेलू औरत बन कर रह गई.

शिवानी के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. कहां रह गई मोनिका? सुबह साढ़े 7 बजे वह आटोरिकशा में बैठ कर गई थी. 5 बच्चे और भी जाते हैं उस के साथ. मोनिका सब से पहले बैठती है और सब से बाद में उतरती है.

आटोरिकशा चलाने वाला श्यामलाल पिछले साल से बच्चों को ले जा रहा था, पर कभी लेट ही नहीं हुआ. लेकिन 2 दिन से श्यामलाल बीमार पड़ा था. कल उस का भाई रामपाल आया था आटोरिकशा ले कर.

तब शिवानी ने पूछा था, ‘आज तुम्हारा भाई श्यामलाल कहां रह गया?’

‘उसे 3 दिन से बुखार है. उस ने ही मुझे भेजा है,’ रामपाल ने कहा था.

पहले भी 2-3 बार रामपाल ही बच्चों को ले कर गया और छोड़ कर गया था. वह भी शहर में आटोरिकशा चलाता था.

आज शिवानी को खुद पर गुस्सा आ रहा था. वह रामपाल का मोबाइल नंबर लेना भूल गई थी. मोबाइल नंबर लेना न तो कल ध्यान रहा और न ही आज. अगर उस के पास रामपाल का मोबाइल नंबर होता, तो पता चल जाता कि देर क्यों हो रही है. पता नहीं, वह पढ़ीलिखी समझदार होते हुए भी ऐसी बेवकूफी क्यों कर गई?

शिवानी के मन में एक डर समा गया और वह सिहर उठी. उस का रोमरोम कांप उठा. दिल की धड़कनें मानो कम होती जा रही थीं. उस ने धड़कते दिल से श्यामलाल का मोबाइल नंबर मिलाया.

‘हैलो… नमस्कार मैडम,’ उधर से श्यामलाल की आवाज सुनाई दी.

‘‘नमस्कार. तुम्हारा भाई रामपाल अभी तक मोनिका को ले कर घर नहीं आया. पौने 3 बज रहे हैं. पता नहीं कहां रह गया वह? मेरे पास तो रामपाल का मोबाइल नंबर भी नहीं है?’’

‘इतनी देर तो नहीं होनी चाहिए थी. स्कूल से घर तक आधे घंटे से भी कम का रास्ता है. मैं ने उस का फोन मिलाया, तो फोन नहीं लग रहा है. पता नहीं, क्या बात है?

‘सुबह मैं ने उस से कहा था कि बच्चों को छोड़ कर सीधे घर आ जाना. डाक्टर के पास जाना है. दवा लानी है. 3 दिन से बुखार नहीं उतर रहा है,’ श्यामलाल बोला.

‘‘मुझे बहुत चिंता हो रही है. बेचारी मोनिका पता नहीं किस हाल में होगी?’’ शिवानी रोंआसा हो कर बोली.

थोड़ी देर बाद शिवानी ने मोनिका की क्लास में पढ़ने वाली एक बच्ची की मम्मी को मोबाइल मिला कर कहा, ‘‘हैलो… मैं शिवानी बोल रही हूं…’’

‘कहिए शिवानीजी, कैसी हैं आप?’ उधर से एक औरत की मिठास भरी आवाज सुनाई दी.

‘‘क्या आप की बेटी मुनमुन स्कूल से आ गई है?’’

‘हां, वह तो 2 बजे से पहले ही आ गई थी. क्यों, क्या बात हुई?’

‘‘हमारी मोनिका अभी तक घर नहीं आई है.’’

‘यह क्या कह रही हैं आप? एक घंटा होने को है. आखिर कहां रह गई वह? आजकल का समय भी बहुत खराब चल रहा है. रोजाना अखबार में बच्चियों के बारे में उलटीसीधी खबरें छपती रहती हैं. हम अपने बच्चों को इन लोगों के साथ भेज तो देते हैं, पर इन का कोई भरोसा नहीं. किसी के मन का क्या पता…

‘आप पुलिस में रिपोर्ट तो लिखवा ही दीजिए. देर करना ठीक नहीं है.’

यह सुनते ही शिवानी का दिल बैठता चला गया. उस के मन में एक हूक सी उठी और वह रोने लगी. उस ने स्कूल में फोन मिलाया. उधर से आवाज सुनाई दी, ‘जय भारत स्कूल…’

‘‘मैं शिवानी बोल रही हूं. हमारी बेटी मोनिका तीसरी क्लास में पढ़ती है. वह अभी तक घर नहीं पहुंची. स्कूल में कोई बच्ची तो नहीं रह गई? छुट्टी कब हुई थी?’’

‘यहां तो कोई बच्ची नहीं है. छुट्टी ठीक समय पर डेढ़ बजे हुई थी. आप की बेटी किस तरह घर पहुंचती है?’

‘‘एक आटोरिकशा से. आटोरिकशा चलाने वाला श्यामलाल बीमार था, तो उस का भाई रामपाल आटोरिकशा ले कर आया था.’’

‘बाकी बच्चे घर पहुंचे या नहीं?’

‘‘जी हां, सभी पहुंच गए. बस, मेरी बेटी नहीं पहुंची.’’

‘आप पुलिस में सूचना दीजिए. इतनी देर से बच्ची घर नहीं पहुंची. कुछ तो गड़बड़ जरूर है. आजकल किस पर विश्वास करें? कुछ पता नहीं चलता कि इनसान है या शैतान?’

यह सुन कर शिवानी की आंखों से बहते आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. लग रहा था, मानो जिस्म की ताकत निकलती जा रही हो.

शिवानी ने कमलकांत को मोबाइल फोन मिलाया.

‘हैलो…’ उधर से कमलकांत की आवाज सुनाई दी.

‘‘मोनिका अभी तक स्कूल से नहीं आई,’’ शिवानी ने रोते हुए कहा.

‘क्या कह रही हो… 3 बज चुके हैं. आखिर कहां रह गई वह? आटोरिकशा वाले का नंबर मिलाया?’ कमलकांत की डरी सी आवाज सुनाई दी.

‘‘आज भी उस का भाई रामपाल आया था. उस का नंबर मेरे पास नहीं है. श्यामलाल ने कहा है कि रामपाल का फोन नहीं मिल रहा है. सभी बच्चे अपने घरों में पहुंच चुके हैं, पर हमारी मोनिका अभी तक नहीं आई,’’ कहतेकहते शिवानी सिसकने लगी.

‘शिवानी, मैं घर आ रहा हूं. अभी पुलिस स्टेशन पहुंच कर रिपोर्ट लिखवाता हूं,’ कमलकांत की चिंता में डूबी गुस्साई आवाज सुनाई दी.

15 मिनट बाद ही कमलकांत घर पहुंच गए. शिवानी सोफे पर कटे पेड़ की तरह गिरी हुई सिसक रही थी.

‘‘शिवानी, अपनेआप को संभालो. हम पर अचानक जो मुसीबत आई है, उस का मुकाबला करना है. मैं अब पुलिस स्टेशन जा रहा हूं,’’ कहते हुए कमलकांत कमरे से बाहर निकले.

तभी घर के बाहर एक आटोरिकशा आ कर रुका.

उसे देखते ही कमलकांत चीख उठे, ‘‘अबे, अब तक कहां मर गया था?’’

शिवानी भी झटपट कमरे से बाहर निकली. कमलकांत ने देखा कि रामपाल के माथे पर पट्टी बंधी हुई थी. चेहरे पर भी मारपिटाई के निशान थे.

मोनिका आटोरिकशा से उतर रही थी. रामपाल ने मोनिका का बैग उठाया. शिवानी ने मोनिका को गोद में उठा कर इस तरह गले लगा लिया, मानो सालों बाद मिली हो.

कमलकांत ने मोनिका से पूछा, ‘‘बेटी, तुम ठीक हो?’’

‘‘हां पापा, मैं ठीक हूं. अंकल को सड़क पर पुलिस ने मारा,’’ मोनिका बोली.

कमलकांत व शिवानी चौंके. वे दोनों हैरानी से रामपाल की ओर देख रहे थे.

‘‘रामपाल, क्या बात हुई? यह चोट कैसे लगी? आज इतनी देर कैसे हो गई? हम तो परेशान थे कि पता नहीं आज क्या हो गया, जो अब तक मोनिका घर नहीं आई,’’ कमलकांत ने पूछा.

‘‘चिंता करने की तो पक्की बात है, साहबजी. रोजाना तो बेटी 2 बजे तक घर आ जाती थी और आज साढ़े 3 बज गए. इतनी देर तक जब बेटी या बेटा घर न पहुंचे, तो घबराहट तो हो ही जाती है,’’ रामपाल ने कहा.

‘‘तुम्हें चोट कैसे लगी?’’ शिवानी ने हैरानी से पूछा.

आटोरिकशा के एक पहिए में पंक्चर हो गया. पंक्चर लगवाने में आधा घंटा लग गया. आगे चौक पर जाम लगा था. कुछ लोग प्रदर्शन कर किसी मंत्री का पुतला फूंक रहे थे. कुछ देर वहां हो गई. मैं इधर ही आ रहा था. मैं जानता था कि आप को चिंता हो रही होगी…’’ कहतेकहते रामपाल रुका.

‘‘फिर क्या हुआ? मोनिका कह रही है कि तुम्हें पुलिस ने मारा?’’ कमलकांत ने पूछा.

‘‘मोनिका बेटी ठीक कह रही है. मोटरसाइकिल पर स्टंट करते हंसतेचीखते हुए 3 लड़के आ रहे थे. मुझे लगा कि वे आटोरिकशा से टकरा जाएंगे, तो मैं ने तेजी से हैंडल घुमाया. एक दुकान के बाहर एक मोटरसाइकिल खड़ी थी. वह मोटरसाइकिल से हलका सा टकरा गया और मोटरसाइकिल पर बैठा तकरीबन 5 साल का बच्चा गिर गया. गिरते ही बच्चा रोने लगा.

‘‘दुकान से पुलिस का एक सिपाही कुछ सामान खरीद रहा था. वह वरदी में था, बच्चा व मोटरसाइकिल उसी की थी.

‘‘मैं ने आटोरिकशा से उतर कर सिपाही से हाथ होड़ कर माफी मांगी. उस ने मुझे गाली देते हुए 4-5 थप्पड़ मार दिए. इतना ही नहीं, मेरी गरदन पकड़ कर जोर से धक्का दिया, तो मेरा सिर आटोरिकशा से टकरा गया और खून निकलने लगा.

‘‘पास में ही एक डाक्टर की दुकान थी. मैं ने वहां पट्टी कराई और सीधा यहां आ रहा हूं,’’ रामपाल के मुंह से यह सुन कर कमलकांत और शिवानी के गुस्से का ज्वारभाटा शांत होता चला गया.

अचानक शिवानी के मन में दया उमड़ी. उस ने हमदर्दी जताते हुए कहा, ‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ. तुम्हें चोट भी लग गई.’’

‘‘मैडमजी, मुझे अपनी चोट का जरा भी दुख नहीं है. मगर मोनिका बेटी को जरा भी चोट लग जाती या कुछ हो जाता, तो मुझे बहुत दुख होता. आप अपने बच्चे को हमारे साथ किसी विश्वास से भेजते हैं. हमारा भी तो यह फर्ज बनता है कि हम उस विश्वास को बनाए रखें, टूटने न दें,’’ रामपाल ने कहा.

‘‘रुको रामपाल, मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’’

‘‘शुक्रिया मैडमजी, चाय फिर कभी. घर पर भैया इंतजार कर रहे होंगे. बहुत देर हो चुकी है. मुझे उन को भी ले कर डाक्टर के पास जाना है. आप भैया को मोबाइल पर सूचना दे दो कि मोनिका घर आ गई है. उन को भी चिंता हो रही होगी,’’ रामपाल ने कहा और आटोरिकशा ले कर चल दिया.

Hindi Kahani : इनसान बना दिया

Hindi Kahani : परदेश में जब कोई अपने देश, अपनी भाषा का मिल जाए, तो कितना अच्छा लगता है. वे दोनों उत्तर भारत से थे. दोनों की नौकरी एक ही कंपनी में थी. वे दोनों अमेरिका में नए थे. जल्दी दोस्ती हो गई. धीरेधीरे यह दोस्ती प्यार में बदल गई.

दोनों शादी करना चाहते थे, पर डरते थे कि उन के घर वाले नहीं मानेंगे. फिर दोनों ने अपने घर वालों को बताया. दोनों के घर वाले नहीं माने. दोनों परिवारों ने एक ही बात कही कि दूसरे धर्म में शादी नहीं कर सकते.

अरशद और आशा ने साफ कह दिया कि उन्हें धर्म से कोई मतलब नहीं, बस इनसान अच्छा होना चाहिए.

अरशद के घर वालों ने रास्ता निकाला, ‘‘ऐसा करो कि उसे मुसलिम बनने के लिए राजी कर लो, फिर तुम्हारा निकाह हो सकता है.’’

अरशद ने सवाल किया, ‘‘वह अपना धर्म माने और मैं अपना, तो इस में हर्ज ही क्या है?’’

अरशद के अब्बा अडिग रहे, ‘‘नहीं, दूसरे धर्म की लड़की से निकाह नहीं हो सकता. यह हराम है.’’

जब आशा को यह बात बताई, तो वह तुरंत तैयार हो गई. प्यार में डूबी आशा हर शर्त पर शादी करने के लिए राजी थी.

आशा ने एक तरकीब बताई, ‘‘मैं मुसलिम बन कर तुम से निकाह कर लेती हूं. मुझे कौन सा मंदिर या मसजिद जाना है?’’

अरशद भी प्यार में अंधा था. वह तो बस किसी तरह शादी करना चाहता था. बस, अमेरिका में ही उन दोनों की कोर्ट मैरिज हो गई. अरशद के कुछ रिश्तेदार भी थे शादी में. मसजिद में निकाह हो गया. आशा अब आयशा हो गई.

शादी के बाद कुछ दिनों के लिए वे दोनों भारत आए. लड़के के घर वालों ने नई बहू को प्यार से अपना लिया.

आयशा अपने घर वालों के पास भी गई. कुछ रूठनेमनाने के बाद उन लोगों ने भी अरशद को स्वीकार कर लिया.

दोनों छुट्टियां बिता कर अमेरिका चले गए, अपनेअपने काम में लग गए. दोनों सुखी थे. दोनों के बीच धर्म नहीं आया. 2 प्यारेप्यारे बच्चे हुए. दोनों बेटों के नाम मुसलिम रखे गए. इस पर आयशा को किसी तरह का एतराज नहीं हुआ.

वे समयसमय पर भारत आते. सब ठीक चल रहा था. अरशद को आयशा की आस्था से कोई फर्क नहीं पड़ता था. आयशा को पिता के साथ बच्चों का कभी मसजिद जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता था.

फिर आया वह दौर, जब लोगों की नौकरियां जाने लगीं. डर के मारे अच्छेअच्छों के होश गुम हो गए. अपनी नौकरी बचाने के लिए ‘अल्लाहभगवान’ से प्रार्थना करने लगे.

अरशद और आयशा भी अपनेअपने तरीके से अल्लाह और भगवान को याद करने लगे. वही जो बचपन में सिखाया गया था. दोनों ने डर के मारे न जाने क्याक्या मन्नतें मान लीं. रोजाउपवास से ले कर चादर चढ़ाने और चारों धाम की यात्रा तक की मन्नत मान डाली.

डर ऐसी ही चीज होती है. इनसान जब पहली बार डरा, तो धर्म का जन्म हुआ था. फिर समयसमय पर आए सुधारकों ने इनसान को डराया. प्रलय

का डर, जन्नत का खौफ, दोजख का डर और उस से बचने के लिए भगवान या ईश्वर की शरण. फिर इस में कमियां आती गईं. हर मुसीबत के लिए अलगअलग देवता. तरहतरह के आडंबर. लोगों की आस्था बढ़ने लगी, क्योंकि कमजोर इनसानों की तादाद बढ़ती गई थी.

इसी तरह अरशद और आयशा की आस्था और धर्म में दिलचस्पी बढ़ती गई, पर अपनेअपने धर्म में.

अब आयशा बच्चों को मसजिद नहीं जाने देना चाहती थी और अरशद बच्चों का मंदिर जाना नापसंद करने लगा था. वे दोनों अपने बच्चों को अपनेअपने धर्म की सीख देना चाहते थे.

घर में एक तनाव भरा माहौल बन गया था. शादी के 12 साल बाद धर्म ने इन दोनों के बीच दरार डाल दी थी. दोनों को अपना धर्म अच्छा लगने लगा, क्योंकि नौकरी बचाने से ले कर तरक्की दिलाने का सारा क्रेडिट वे दोनों अपनीअपनी मन्नतों को देने लगे थे.

दोनों प्रेमी, पतिपत्नी अब दुश्मन से बनते जा रहे थे. दोनों अब छुट्टियां भी अपनेअपने परिवार वालों के साथ धर्मकर्म में बिताते. दोनों के घर वाले सलाह देते, ‘अलग हो जाओ. बच्चे अपने पास रखो.’

लेकिन दोनों के बीच अभी भी कुछ था, जो उन्हें अलग नहीं होने दे रहा था.

कभीकभी अरशद आयशा को समझाता, ‘‘देखो, मैं तुम्हारी आस्था को कभी मना नहीं करता. तुम को जो पूजापाठ करनी है करो, पर बच्चों को मुसलिम रहने दो.’’

आयशा ने बात काटी, ‘‘बच्चे मेरे भी हैं, तो क्यों न हिंदू बनें?’’

अरशद समझाते हुए बोला, ‘‘यह बात हम बच्चों पर छोड़ दें कि जब वे बड़े हो जाएं, जो चाहें धर्म अपनाएं.’’

आयशा ने पलटवार किया, ‘‘और तब तक तुम उन को मसजिद ले कर जाओ, ताकि वे मुसलिम बनें.’’

‘‘वे अगर मसजिद जाएंगे तो मंदिर भी जाएंगे, पूजापाठ भी सीखेंगे,’’ अरशद परेशान हो कर बोला.

‘‘यह कैसे होगा? हिंदू रिवाज और मुसलिम रिवाज एकसाथ सीखेंगे, तो बच्चे कंफ्यूज हो जाएंगे,’’ आयशा बोली.

अकसर उन दोनों की बहस का खात्मा ऐसे ही होता था. धीरेधीरे उन दोनों का सारा समय बच्चों का धार्मिक बनने के अपनेअपने हथकंडे आजमाने में निकल जाता. बच्चों को इतना धार्मिक साहित्य पढ़ाया कि वे बोर हो गए.

धीरेधीरे यह बहस झगड़े में बदलने लगी. बच्चे सुन न लें, इसलिए वे शांत हो जाते. आज तो तूफान ही आ गया, जब अरशद ने बच्चों के ‘खतना’ करने की बात कही. उस का मानना था कि इस से बीमारियां नहीं होतीं.

यह सुनते ही आयशा तो फट पड़ी, ‘‘तुम बच्चों पर मुसलिम होने की मुहर लगाना चाहते हो.’’ शोर सुन कर बच्चे भी बाहर आ गए. वे भी रोजरोज के झगड़ों से तंग आ गए थे.

बडे़ बेटे ने अपनी बात रखी, ‘‘मम्मीडैडी, आप रोजरोज धर्म के लिए क्यों लड़ते हैं? हम दोनों ने जितना धार्मिक साहित्य पढ़ा, सब एक ही तरह की बात बताते हैं कि झूठ न बोलें. किसी का मन मत दुखाओ. दुखियों की सेवा करो. भलाई करो. बुरे काम मत करो.

‘‘रहा पूजा या इबादत का तरीका. आडंबर हमें पसंद नहीं. रीतिरिवाज हमें नहीं चाहिए. आप दोनों अपनेअपने धर्म के लिए लड़ रहे हैं, जिसे आप ने या आप के बापदादा ने कभी नहीं देखा…’’

फिर कुछ देर रुक कर बड़ा बेटा थोड़ा संभल कर बोला, ‘‘मम्मीडैडी, आप हम दोनों को एक अच्छा इनसान बनने दीजिए, हिंदूमुसलिम नहीं.’’

बच्चे के मुंह से ये बातें सुन कर अरशद और आयशा को अपनी बातें याद आ गईं. जब वे अपने मांबाप से शादी करने की इजाजत मांग रहे थे और सिर्फ अच्छा इनसान होने की बात कहते थे. आज उन के बच्चों ने उन्हें फिर से इनसान बना दिया था.

Short Story : नसबंदी – क्या वाकई उस की नसबंदी हो पाई?

Short Story : साल 1976 की बात रही होगी. उन दिनों मैं मेडिकल कालेज अस्पताल के सर्जरी विभाग में सीनियर रैजीडैंट के पद पर काम कर रहा था. देश में आपातकाल का दौर चल रहा था. नसबंदी आपरेशन का कोहराम मचा हुआ था. हम सभी डाक्टरों को नसबंदी करने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया गया था, और इसे अन्य सभी आपरेशन के ऊपर प्राथमिकता देने का भी निर्देश था. लक्ष्य पूरा न होने पर वेतन वृद्धि और उन्नति रोकने की चेतावनी दे दी गई थी. हम लोगों की ड्यूटी अकसर गावों में आयोजित नसबंदी कैंप में भी लग जाया करती थी.

कैंप के बाहर सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की भीड़ लगी रहती थी. उन्हें प्रेरक का काम दे दिया गया था और निर्धारित कोटा न पूरा करने पर उन की नौकरी पर भी खतरा था. कोटा पूरा करने के उद्देश्य से वृद्धों को भी वे पटा कर लाने में नहीं हिचकते थे.

कुछ व्यक्ति तो बहुत युवा रहते थे, जिन का आपरेशन करने में अनर्थ हो जाने की आशंका बनी रहती थी. कैंप इंचार्ज आमतौर पर सिविल सर्जन रहा करते थे. रोगियों से हमारी पूछताछ उन्हें अच्छी नहीं लगती थी.

बुजुर्ग शिक्षकों की स्थिति बेहद खराब थी. उन से प्रेरक का काम हो नहीं पाता था, लेकिन अवकाशप्राप्ति के पूर्व कर्तव्यहीनता के लांछन से अपने को बचाए रखना भी उन के लिए जरूरी रहता था. वे इस जुगाड़ में रहते थे कि यदि कोई रोगी स्वयं टपक पड़े तो  प्रेरक के रूप में अपना नाम दर्ज करवा लें या कोटा पूरा कर चुके शिक्षक की आरजूमिन्नत से शायद काम बन जाए. जनसंख्या नियंत्रण के लिए नसबंदी का यह तरीका कितना उपयुक्त था, यह तो आपातकाल के विश्लेषकों का विषय है.

एक दिन हमारे आउटडोर में एक ग्रामीण बुजुर्ग एक नवयुवक को दिखाने लाए. उस युवक का नाम रमेश था और उम्र 20-22 साल के आसपास रही होगी. उसे वह अपना भतीजा बता रहे थे. उसे हाइड्रोसिल की बीमारी थी. हाइड्रोसिल बड़ा तो नहीं था, लेकिन आपरेशन किया जा सकता था.

चाचा आपरेशन कराने पर बहुत जोर दे रहे थे, इसलिए यूनिट इंचार्ज के आदेशानुसार उसे भरती कर लिया गया.

आपरेशन से पहले की जरूरी जांच की प्रक्रिया पूरी की गई और 4 दिन बाद उस के आपरेशन की तारीख तय की गई. इस तरह के छोटे आपरेशनों की जिम्मेदारी मेरी रहती थी.

आपरेशन के 2 दिन पहले मुझे खोजते हुए चाचा मेरे आवास तक पहुंच गए. वे मिठाई का एक डब्बा भी साथ लाए थे, जिसे मैं ने स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया और उन्हें जाने को कहा. फिर भी वे बैठे रहे. फिर धीरे से उन्होंने पूछा कि रमेश को 3 बच्चे हो चुके हैं, साथ में नसबंदी भी करवा देना चाहते हैं.

जातेजाते उन्होंने रमेश से इस बात का जिक्र नहीं करने का आग्रह किया. वजह, उसे नसबंदी से डर लगता है.

मेरे यह कहने पर कि अनुमति के लिए तो उसे हस्ताक्षर करना पड़ेगा, तो उन्होंने कहा कि कागज उन्हें दे दिया जाए, वह उसे समझा कर करवा लेंगे.

आपरेशन सफल होने पर वे मेरी सेवा से पीछे नहीं हटेंगे. मैं ने उन्हें घर से बाहर करते हुए दरवाजा बंद कर दिया.

उस दिन रात को मुझे अस्पताल से लौटते समय रास्ते में रमेश सिगरेट पीता हुआ दिखाई दे गया. मुझे देखते ही उस ने सिगरेट फेंक दी.

सिगरेट न पीने की नसीहत देने के खयाल से मैं ने उस से कहा कि अपने तीनों बच्चों का खयाल करते हुए वह इस लत को तुरत छोड़ दे.

आश्चर्य जाहिर करते हुए उस ने पूछा, ‘‘कौन से तीन बच्चे?’’

‘‘तुम्हारे और किस के?’’

मेरे इस उत्तर को सुन कर वह हैरान रह गया और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है, फिर बच्चे कहां से…?

“अभी तो छेंका हुआ है और फिर 6 महीने बाद मेरी शादी होने वाली है. इसीलिए चाचा को उस ने अपनी इस बीमारी के बारे बताया था, तो वे यहां लेते आए.’’

अब चौंकने की बारी मेरी थी. उस की बातों को सुन कर मुझे दाल में कुछ काला लगा और रहस्य जानने की इच्छा होने लगी.

मेरे पूछने पर उस ने अपने परिवार का पूरा किस्सा सुनाया.

वे लोग गांव के बड़े किसान हैं. उन लोगों की तकरीबन 20 एकड़ की खेती है. यह चाचा उस के स्वर्गवासी पिता के सब से बड़े भाई हैं. बीच में 4 बूआ भी हैं, जो अपनेअपने घर में हैं.

चाचा के 4 लड़के हैं. सबों की शादी, बालबच्चे हैं. वह अपने पिता की अकेली संतान है. बचपन में ही उस के पिता ट्रैक्टर दुर्घटना में मारे गए थे. वे सभी संयुक्त परिवार में रहते हैं.

चाचा और चाची उसे बहुत मानते हैं. पढ़ालिखा कर मजिस्ट्रेट बनाना चाहते थे, लेकिन आईए में 2 बार फेल कर जाने के बाद उस ने पढ़ाई छोड़ दी और खेती में जुट गया. चाचा घर के मुखिया हैं. गांव में उन की अच्छी धाक है.

पूरी बात सुन कर मेरा कौतूहल और बढ़ गया कि आखिर इस लड़के की वह शादी होने के पहले ही नसबंदी क्यों कराना चाहते हैं?

कुछ सोचते हुए मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम्हारे हिस्से में कितनी जमीन आएगी?’’

थोड़ा सकपकाते हुए वह बोला, ‘‘तकरीबन 10 एकड़.’’

पूछने में मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा था, फिर भी पूछ ही लिया, ‘‘मान लो, तुम्हें बालबच्चे न हों और मौत हो जाए, तो वह हिस्सा कहां जाएगा?’’

थोड़ी देर सोचने के बाद वह बोला, ‘‘फिर तो वह सब चाचा के हिस्से में ही जाएगा.’’

मेरे सवालों से वह थोड़ा हैरान था और जानना चाहता था कि मुझ से यह सब क्यों पूछा जा रहा है.

बात टालते हुए सवेरे अस्पताल के अपने कक्ष में अकेले आने को कहते हुए मैं आगे बढ़ गया. रोकते हुए उस ने कहा, ‘‘चाचा जरूरी काम से गांव गए हैं. गांव में झगड़ा हो गया है.

‘‘मुखिया होने के नाते उन्हें वहां जाना जरूरी था. कल शाम तक वे लौट आएंगे. यदि कोई खास बात है, तो उन के आने का इंतजार वह कर ले क्या?’’

‘‘तब तो और अच्छी बात है, तुम्हें अकेले ही आना है,’’ कहते हुए मैं चल पड़ा.

इस पूरी बात से मैं इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि इस के चाचा ने एक गंदे खेल की योजना बना ली है. वे इसे निःसंतान बना कर आने वाले दिनों में इस के हिस्से की संपत्ति को अपने बेटों के लिए रखना चाहते थे.

मैं ने ठान लिया कि मुझे इस अनर्थ से इसे बचाना होगा. साथ ही, मैं उस संयुक्त परिवार में एक नए महाभारत का सूत्रपात भी नहीं होने देना चाहता था.

सवेरे अस्पताल में मेरे कक्ष के आगे रमेश मेरी प्रतीक्षा में खड़ा था. मैं ने फिर से परीक्षण का नाटक करते हुए उसे बताया, ‘‘अभी तुम्हें आपरेशन की कोई जरूरत नहीं है. इस में नस इतनी सटी हुई है कि आपरेशन में उस के कट जाने का खतरा है. साथ ही, तुम्हारे ब्लड की रिपोर्ट के अनुसार खून ज्यादा बहने का भी खतरा है.

‘‘इतना छोटा हाइड्रोसिल तो दवा से भी ठीक हो जाएगा. अगर तुम्हारे चाचा आपरेशन कराने के लिए फिर किसी दूसरे अस्पताल में तुम्हें ले जाएं तो हरगिज मत जाना.

‘‘इस नसबंदी के दौर में तुम्हारा भी शिकार हो जाएगा,’’ झूठ का सहारा लेते हुए मैं ने उस से कहा, ‘‘शादी के बाद भी कई बार छोटा हाइड्रोसिल अपनेआप ठीक हो जाता है. दवा की यह परची लो और चुपचाप तुरंत भाग जाओ.

‘‘बस से तुम्हारे गांव का 2 घंटे का रास्ता है. चाचा के निकलने के पहले ही तुम वहां पहुंच जाओगे.’’

मेरी बात उस ने मान ली. सामान बटोर कर उसे जाते  देख मुझे तसल्ली हुई.

बात आईगई हो गई. प्रोन्नति पाते हुए, विभागाध्यक्ष के पद से साल 2003 में मैं रिटायरमैंट के बाद अपने निजी अस्पताल के माध्यम से मरीजों की सेवा में जुड़ गया था.

एक दिन एक अर्द्धवयस्क व्यक्ति एक बूढ़ी को दिखाने मेरे कक्ष में दाखिल हुआ. वह बूढ़ी धवल वस्त्र में, तुलसी की माला पहनी हुई, साध्वी सी लग रही थीं.

अपना परिचय देते हुए उस पुरुष ने 28 साल पहले की वह घटना याद दिलाई.

याद दिलाते ही सारी घटना मेरी आंखों के सामने तैर गई और आगे की घटना जानने की उत्सुकता जग गई.

रमेश ने बताया कि अस्पताल से जाने के बाद चाचा ने उस का आपरेशन कराने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन न करवाने की उस की जिद के आगे उन की एक न चली.

चाचा उसे बराबर अपने साथ रखते थे. शादी के पहले उस के ऊपर जानलेवा हमला भी हुआ था. उस ने वहां से भाग कर किसी तरह जान बचा ली. हल्ला था कि चाचा ने ही करवाया था. 4 साल बाद ही चाचा की किसी ने हत्या कर दी थी. वह पार्टीपौलिटिक्स में बहुत उलझ गए थे. उन्होंने बहुतों से दुश्मनी ले ली थी.

उन दिनों, उस गांव में आयोजित नसबंदी कैंप में मुझे कई बार जाने का मौका मिला था. मुझे वह गांव बहुत अच्छा लगता था. संपन्न किसानों की बस्ती थी. खूब हरियाली थी. सारे खेत फसलों से लहलहाते रहते थे, इसलिए उत्सुकतावश वहां का हाल पूछा.

रमेश ने कहना शुरू किया, ‘‘वह अब गांव नहीं रहा, बल्कि छोटा शहर बन गया है. पहले वर्षा अनुकूल रहती थी. अब मौसम बदल गया है. सरकारी सिंचाई की कोई व्यवस्था अभी तक नहीं हो पाई है. पंप है तो बिजली नहीं. जिस किसान के पास अपना जेनरेटर, पंप जैसे सभी साधन हैं, उस की पैदावार ठीक है. खेती के लिए मजदूर नहीं मिलते, सभी का पलायन हो गया है. उग्रवाद का बोलबाला हो गया है. उन के द्वारा तय लेवी दे कर छुटकारा मिलता है. जो थोड़ा संपन्न हैं, वे अपने बच्चों को पढ़ने बाहर भेज देते हैं और फिर वे किसी शहर में भले ही छोटीमोटी नौकरी कर लें, लेकिन गांव आना नहीं चाहते.’’

आश्चर्य प्रकट करते हुए मैं ने कहा, ‘‘मुझे तो तुम्हारा गांव इतना अच्छा लगा था कि मैं ने सोचा था कि रिटायरमैंट के बाद वहीं आ कर बसूंगा.’’

सुनते ही रमेश चेतावनी देने की मुद्रा में बोला, ‘‘भूल कर भी ऐसा नहीं करें सर, डाक्टरों के लिए वह जगह बहुत ही खतरनाक है. ब्लौक अस्पताल तो पहले से था ही, बाद में रैफरल अस्पताल भी खुल गया है.

‘‘शुरू में सर्जन, लेडी डाक्टर सब आए थे, पर माहौल ठीक न रहने से अब कोई आना नहीं चाहता है. जो भी डाक्टर आते हैं, 2-4 महीने में बदली करवा लेते हैं या नौकरी छोड़ कर चल देते हैं.

“सर्जन लोगों के लिए तो फौजदारी मामला और मुसीबत है. इंज्यूरी रिपोर्ट मनमाफिक लिखवाने के लिए उग्रवादी लोग डाक्टर को ही उड़ा देने की धमकी देते हैं. वहां ढंग का कोई डाक्टर नहीं है. दो बैद्यकी पास किए हुए डाक्टर हैं, वे ही अंगरेजी दवाओं से इलाज करते हैं.

‘‘हम लोगों को बहुत खुशी हुई थी, जब हमारे गांव के ही एक परिवार का लड़का डाक्टरी पढ़ कर आया था. उन की पत्नी भी डाक्टर थी. दोनों में ही सेवा का भाव बहुत ज्यादा था. सब से ज्यादा सुविधा महिलाओं को हो गई थी. 2 साल में ही उन का बहुत नाम हो गया था.

‘‘मां तो उन की पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं और बाद में पिता भी नहीं रहे. जमीन बेच कर, अपने मातापिता की स्मृति में एक अस्पताल भी बनवा रहा था. लेकिन उन से भी लेवी की मांग शुरू हो गई कि वे औनेपौने दाम में सबकुछ बेच कर विदेश चले गए.’’

शहर के नजदीक, इतने अच्छे गांव को भी चिकित्सा सुविधा की कमी का दंश झेलने की बात सुन कर सिवा अफसोस के मैं और कर भी क्या सकता था?

बात बदलते हुए मैं ने कहा, ‘‘अच्छा, घर का हाल बताओ.’’

उस ने बताया, ‘‘चाचा के जाने के बाद घर में कलह बहुत बढ़ गई थी. हम लोगों के हिस्से की कमाई भी वे ही लोग उठा रहे थे, इसलिए संपत्ति का बंटवारा वे नहीं चाहते थे. मामा वकील हैं. उन के दबाव से बंटवारा हुआ. चाचा ने धोखे से मां के हस्ताक्षर के कुछ दस्तावेज भी बनवा लिए थे. उस के आधार पर मेरे हिस्से में कम संपत्ति आई.’’

मां अब तक आंखें बंद कर चुपचाप सुन रही थीं, लेकिन अब चुप्पी तोड़ते हुए वे बोलीं, ‘‘हां डाक्टर साहब, वे मेरे पिता के समान थे. मुझे बेटी की तरह मानते थे. बैंक का कागज, लगान का कागज, तो कभी कोई सरकारी नोटिस वगैरह आता रहता था. मैं मैट्रिक पास हूं, फिर भी मैं उन का सम्मान करते हुए जहां वे कहते, हस्ताक्षर कर देती थी. कब उन्होंने उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवा लिया, पता नहीं.

‘‘मैं ने अपने बेटे को उस समय शांत रखा, नहीं तो कुछ भी हो सकता था. उसे बराबर समझाती थी कि संतोष धन से बड़ा कुछ नहीं होता है, और डाक्टर साहब, किए का फल यहीं इसी लोक में मिलता है.

“वह है तो मेरा ही परिवार, लेकिन कहने में दुख लगता है कि चारों बेटे जरा भी सुखी नहीं हैं. पूरे परिवार में दिनरात कलह रहती है. उन में भी आपस में हिस्से का बंटवारा हो गया है. उन के खेतघर वगैरह सब चौपट हो गए हैं. उन के बालबच्चे भी कोई काम करने लायक नहीं निकले. एक पोता राशन की कालाबाजारी के आरोप में जेल में है. वहीं एक तो घर से भाग कर उग्रवादी बन गया है.

‘‘कहने में मुझे शर्म आती है कि एक पोती भी घर से भाग गई है. मुझे कोई बैरभाव नहीं है उन से. मैं उन के परिवार के अभिभावक का कर्तव्य सदा निभाती हूं. जो बन पड़ता है, हम लोग बराबर मदद करते रहते हैं. सब से छोटा बेटा, जो रमेश से 3 साल बड़ा है. हम लोगों से बहुत सटा रहता था. वह बीए तक पढ़ा भी है. उस को हम लोगों ने कृषि सामान की दुकान खुलवा दी है.’’

फिर उन्होंने मुझे नसीहत देते हुए कहा, ‘‘डाक्टर साहब, सुखी रहने के लिए 3 बातों पर ध्यान देना जरूरी है. कभी भी किसी का हक नहीं मारना चाहिए. दूसरे का सुख छीन कर कभी कोई सुखी नहीं हो सकता.

‘‘दूसरी बात, किसी दूसरे का न तो बुरा सोचो और न ही बुरा करो. आखिर में तीसरी बात, स्वस्थ जीवनचर्या का पालन. स्वस्थ व्यक्ति ही अपने लिए, समाज के लिए और देश के लिए कुछ कर सकता है,’’ कह कर वे चुप हो गईं.

आपरेशन के बारे में मेरे पूछने पर रमेश ने बताया कि अभी तक उस ने नहीं कराया है, लेकिन अब कराना चाहता है. पहले धीरेधीरे बढ़ रहा था, लेकिन पिछले 2 साल में बहुत बड़ा हो गया है. उस के 3 बच्चे भी हैं- एक बेटे और 2 बेटी. सभी सैटल हो चुके हैं. बेटा एग्रीकल्चर पास कर के उन्नत वैज्ञानिक खेती में जुट गया है. पत्नी का बहुत पहले ही बंध्याकरन हो चुका है. फिर हंसते हुए वह बोला, ‘‘अब नस कट जाने की भी कोई चिंता नहीं है.’’

मेडिकल कालेज अस्पताल से मेरे बारे में जानकारी ले कर वह अपनी मां को दिखाने यहां आया है. उस की मां लगभग 70 साल की थीं. उन्हें पित्त में पथरी थी, जिस का सफलतापूर्वक आपरेशन कर दिया गया.

छुट्टी होने के बाद खुशीखुशी मांबेटा दोनों धन्यवाद देने मेरे कक्ष में आए. रमेश ने अपने आपरेशन के लिए समय तय किया, फिर उस समय आपरेशन न करने और कड़ी हिदायत देने का कारण जानने की जिज्ञासा प्रकट की.

मैं ने कहा, ‘‘तो सुनो, तुम्हारे चाचा उस आपरेशन के साथ तुम्हारी नसबंदी करने के लिए मुझ पर दबाव डाल रहे थे. काफी प्रलोभन भी दिया था. उन्होंने मुझे गलत जानकारी दी थी कि तुम्हारे 3 बच्चे हैं.

‘‘उस शाम तुम से बात होने के बाद मुझे अंदाजा हो गया था कि उन की नीयत ठीक नहीं थी. वे तुम्हें निःसंतान बना कर तुम्हारे हिस्से की संपत्ति हड़पने की योजना बना रहे थे.’’

मेरी बात सुन कर दोनों ही हैरान रह गए. माताजी तो मेरे पैरों पर गिर पड़ीं, ‘‘डाक्टर साहब, आप ने मेरे वंश को बरबाद होने से बचा लिया. आप तो मेरे लिए…”

मैं ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘‘बहनजी, आप मेरे से बड़ी हैं, पैर छू कर मुझे पाप का भागी न बनाएं. लेकिन मुझे खुशी है कि एक चिकित्सक का सामाजिक दायित्व निभाने का मुझे मौका मिला और आप के आशीर्वाद से मैं सफल हो पाया.’’

लेखक – डा. मधुकर एस. भट्ट

Hindi Story : चाय की दुकान – यहां हर खबर मिलती है

Hindi Story : हर तरह की खबरें बगैर किसी फीस के. न कोई इंटरनैट और न ही कोई टैलीविजन या रेडियो, पर खबरें बिलकुल टैलीविजन के जैसी मसालेदार. सब से मजेदार बात तो यह है कि वहां पर पुरानी से पुरानी खबरें सुनाने वाले भी आप को हमेशा मिल जाएंगे, भले ही वे आप के जन्म से पहले की ही क्यों न हों, जैसे कि वे उन के मैमोरी कार्ड में सेव हों.

इन्हीं खबरीलाल में से एक हैं बादो चाचा. उन के पास तो समय ही समय है. कोई भी घटना वे ऐसे सुनाते हैं मानो आंखों देखी बता रहे हों. गांव के हर गलीनुक्कड़, चौकचौराहे पर मिल जाएंगे. आप उन से इस नुक्कड़ पर मिल कर जाएं और अगले नुक्कड़ पर आप से पहले वे पहुंचे रहते हैं. वे किस रास्ते से जाते हैं आज तक कोई नहीं जान पाया.

इमरान ने जब से होश संभाला है तब से उन्हें वैसा का वैसा ही देख रहा है. बाल तो उन के 20 साल पहले ही पक चुके थे, पर उन की शारीरिक बनावट में आज भी कोई बदलाव या बुढ़ापेपन की झलक नहीं दिखती है, मानो उन के लिए समय रुक गया हो. कोई कह नहीं सकता कि वे नातीपोते वाले हैं. सुबहसुबह रघु चाचा की चाय की दुकान पर चाय प्रेमियों का जमावड़ा लगना शुरू हो गया. यह ठीक उसी तरह होता है जिस तरह शहर के किसी रैस्टौरैंट में. वहां व्यंजन पसंद करने में कम से कम आधा घंटा लगता है, और्डर को सर्व होने में कम से कम आधा घंटा लगेगा, यह तो मेनू कार्ड में खुद लिखा होता है और फिर उस के बाद कोई समय सीमा नहीं. आप जब तक खाएं और जब तक बैठें आप की मरजी. खाएं या न खाएं, पर सैल्फी ले कर लोगों को बताएं जरूर कि सोनू विद मोनू ऐंड थर्टी फाइव अदर्स एट ओस्मानी रैस्टौरैंट.

यहां भी कुछ ऐसा ही नजारा रहता है. 5 रुपए की चाय पी कर लोग साढ़े 3 रुपए का अखबार पढ़ते हैं और फिर देशदुनिया के साथ पूरे गांव और आसपास के गांवों की कहानियां चलती हैं बगैर किसी समय सीमा के. सब को पता होता है कि घर के बुजुर्ग चाय की दुकान पर मिल जाएंगे, विद अदर्स. हमेशा की तरह बादो चाचा की आकाशवाणी जारी थी, ‘‘यह हरी को भी क्या हो गया है, बड़ीबड़ी बच्चियों को पढ़ने के लिए ट्रेन से भेजता है. वे अभी साइकिल से स्टेशन जाएंगी और फिर वहां से लड़कों की तरह ट्रेन पकड़ कर बाजार…

‘‘पढ़लिख कर क्या करेंगी? कलक्टर बनेंगी क्या? कुछ तो गांव की मानमर्यादा का खयाल रखता. मैट्रिक कर ली, अब कोई आसान सा विषय दे कर घर से पढ़ा लेता.’’ इसी के साथ शुरू हो गई गरमागरम चाय के साथ ताजा विषय पर परिचर्चा. सब लोगों ने एकसाथ हरी चाचा पर ताने मारने में हिस्सा लिया.

कोई कहता कि खुद तो अंगूठाछाप है, अब चला है भैया बेटियों को पढ़ाने, तो कोई कहता कि पढ़ कर वही चूल्हाचौका ही संभालेंगी, इंदिरा गांधी थोड़े न बन जाएंगी. अगले दिन बादो चाचा चाय की दुकान पर नहीं दिखे, पता चला कि पोती को जो स्कूल में सरकारी साइकिल के पैसे मिलने वाले हैं, उसी की रसीद लाने गए हैं.

इमरान को कल हरी चाचा पर मारे गए ताने याद आ गए. जब वह बचपन में साइकिल चलाना सीखता था तो उस समय उस की ही उम्र की कुछ लड़कियां भी साइकिल चलाना सीखती थीं और यही बादो चाचा और गांव के कुछ दूसरे बुजुर्ग उन पर ताने मारते नहीं थकते थे और आज वे अपनी ही पोती के लिए साइकिल के पैसे के लिए रसीद लाने गए हैं.

अगले दिन इमरान ने पूछा, ‘‘कल आप आए नहीं बादो चाचा?’’ वे कहने लगे, ‘‘क्या बताऊं बेटा, जगमला… मेरी पोती 9वीं जमात में चली गई है. उसी को साइकिल मिलने वाली है. उसी की रसीद लाने गया था. परेशान हो गया बेटा. कोई साइकिल का दुकानदार रसीद देने को तैयार ही नहीं था. सब को कमीशन चाहिए. पहले ही अगर चैक मिल जाए तो इतनी परेशानी न हो.

‘‘यह सरकार भी न, पहले रसीद स्कूल में जमा करो, फिर जा कर आप को चैक मिलेगा. जब साइकिल के पैसे देने ही हैं तो दे दो, रसीद क्यों मांगते हो? उन पैसों का कोई भोज थोड़े न कर लेगा, साइकिल ही लाएगा. आजकल के बच्चेबच्चियों को भी पता है कि सरकार उन्हें पैसे देती है वे खरीदवा कर ही दम लेते हैं, चैन से थोड़े न रहने देते हैं.’’ ‘‘हां चाचा, पर जगमला तो लड़की है. वह साइकिल चलाए, यह शोभा थोड़े न देगा,’’ इमरान ने ताना मारा.

‘‘अरे नहीं बेटा, उस का स्कूल बहुत दूर है. नन्ही सी जान कितना पैदल चलेगी. स्कूलट्यूशन सब करना पड़ता है, साइकिल रहने से थोड़ी आसानी होगी. और देखो, आजकल जमाना कहां से कहां पहुंच गया है. पढ़ेगी नहीं तो अच्छे रिश्ते भी नहीं मिलेंगे.’’ ‘‘पर, आप ही तो कल हरी चाचा की बेटी के बारे में कह रहे थे कि पढ़ कर कलक्टर बनेगी क्या?’’ इमराने ने फिर ताना मारा.

इस बार बादो चाचा ने कोई जवाब नहीं दिया. इमरान ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘चाचा, जैसा आप अपनी पोती के बारे में सोचते हो, वैसा ही दूसरों की बेटियों के बारे में भी सोचा करो. याद है, मेरे बचपन में आप ताने मारते थे जब मेरे साथ गांव की कुछ लड़कियां भी साइकिल चलाना सीखती थीं और आज खुद अपनी पोती की साइकिल खरीदने के लिए इतनी मेहनत कर रहे हो.

‘‘समय बदल रहा है चाचा, अपनी सोच भी बदलो. गांव में अगर साधन हों तो बच्चियां ट्रेन से पढ़ने क्यों जाएंगी? मजबूरी है तभी तो जा रही हैं. अभी ताने मारते हो और भविष्य में जब खुद पर आएगी तो उसी को फिर सराहोगे. ‘‘क्या पता हरी चाचा की बेटी सच में कलक्टर बन जाए. और नहीं तो कम से कम गांव में ही कोचिंग सैंटर खोल ले, तब शायद आप की जगमला को इस तरह बाजार न जाना पड़े…’’

तभी बीच में सत्तो चाचा कहने लगे, ‘‘लड़कियों की पढ़ाईलिखाई तो सिर्फ इसलिए है बेटा कि शादी के लिए कोई अच्छा सा रिश्ता मिल जाए, हमें कौन सा डाक्टरइंजीनियर बनाना है या नौकरी करवानी है. ‘‘आजकल जिस को देखो, अपनी बहूबेटियों को मास्टर बनाने में लगा हुआ है. उस के लिए आसानआसान तरीके ढूंढ़ रहा है. नौकरी करेंगी, मर्दों के साथ उठनाबैठना होगा, घर का सारा संस्कार स्वाहा हो जाएगा. यह सब लड़कियों को शोभा नहीं देता.’’

इमरान ने कहा, ‘‘चाचा, अगर सब आप की तरह सोचने लगे तो अपनी बहूबेटियों के लिए जो लेडीज डाक्टर ढूंढ़ते हो, वे कहां से लाओगे? घर की औरतें खेतों में जा कर मजदूरी करें, बकरियां चराएं, चारा लाएं, जलावन चुन कर लाएं, यह शोभा देता है आप को…

‘‘ऐसी औरतें आप लोगों की नजरों में एकदम मेहनती और आज्ञाकारी होती हैं पर पढ़ीलिखी, डाक्टरइंजीनियर या नौकरी करने वाली लड़कियां संस्कारहीन हैं.

‘‘क्या खेतखलिहानों में सिर्फ औरतें ही काम करती हैं? वहां भी तो मर्द रहते हैं. बचपन से देख रहा हूं कि चाची ही चाय की दुकान संभालती हैं. रघु चाचा की तो रात वाली उतरी भी नहीं होगी अभी तक. यहां भी तो सिर्फ मर्द ही रहते हैं और यहां पर कितनी संस्कार की बातें होती हैं, यह तो आप सब भी जानते हो.’’

यह सुन कर सब चुप. किसी ने कोई सवालजवाब नहीं किया. इमरान वहां से चला गया. 2 दिन बाद जब इमरान सुबहसुबह ट्रेन पकड़ने जा रहा था तो उस ने देखा कि स्टेशन जाने के रास्ते में जो मैदान पड़ता था वहां बादो चाचा अपनी पोती को साइकिल चलाना सिखा रहे थे.

चाचा की नजरें इमरान से मिलीं और वे मुसकरा दिए. चाय की दुकान पर कही गई इमरान की बातें उन पर असर कर गई थीं.

Hindi Short Story : बदलाव – रीमा की प्रमोद से क्या थी हसरत

Hindi Short Story : प्रमोद को सरकारी काम के सिलसिले में सुबह की पहली बस से चंड़ीगढ़ जाना था, इसलिए वह जल्दी तैयार हो कर बसस्टैंड पहुंच गया था.

प्रमोद टिकट खिड़की पर लाइन में खड़ा हो गया था. दूसरी लाइन, जो औरतों के लिए थी, में 23-24 साल की एक लड़की खड़ी थी.

बूथ पर बस पहुंचते ही टिकट मिलनी शुरू हो गई. लेकिन तब तक लाइन भी काफी लंबी हो चुकी थी. खैर, प्रमोद को तो टिकट मिल गई और बस में वह इतमीनान से सीट पर जा कर बैठ गया.

थोड़ी देर में वह लड़की भी प्रमोद के बगल की सीट पर आ कर बैठ गई. उन्हें 3 सवारी वाली सीट पर इकट्ठा नंबर मिल गया था.

साठस भरने के बाद बस अपनी मंजिल की ओर रवाना हुई. लड़की ने अपना ईयरफोन और मोबाइल फोन निकाला और गाने सुनने लगी. बीचबीच में झटके खा कर वह प्रमोद से टकराती भी रही.

बस जैसे ही शहर से बाहर निकली और सुबह की ठंडी हवा शरीर से टकराई तो प्रमोद 5 साल पहले की यादों में खो गया. उस दिन भी प्रमोद बस से दफ्तर के काम से चंडीगढ़ ही जा रहा था. बसअड्डा पहुंचने में उसे थोड़ी देर हो गई थी. उस दिन किसी नौकरी के लिए चंडीगढ़ में लिखित परीक्षा थी. पहली बस होने के चलते भीड़ बहुत ज्यादा थी. जहां एक ओर मर्दों की बहुत लंबी लाइन थी, वहीं दूसरी ओर औरतों की लाइन छोटी थी.

प्रमोद को यह अहसास हो चला था कि आज इस बस में शायद ही सीट मिले, लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है, यह सोच कर वह लाइन में खड़ा रहा.

तभी औरतों की लाइन में एक लड़की आ कर खड़ी हो गई. उम्र यही कोई 25 साल के आसपास. खुले बाल, पैंटटीशर्ट पहने, वह हाथ में एक बैग लिए हुए खड़ी थी. प्रमोद ने अपनी लाइन से बाहर आ कर उस लड़की से पूछा, ‘मैडम, आप कहां जाएंगी?’

उस लड़की ने प्रमोद की तरफ गौर से देखा, फिर कुछ सोच कर बोली, ‘चंडीगढ़.’ प्रमोद ने कहा, ‘मैं भी चंडीगढ़ ही जा रहा हूं, अगर आप मेरी थोड़ी मदद कर दें तो…’

वह लड़की बोली, ‘कहिए, मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?’

प्रमोद ने 500 का एक नोट उसे थमाते हुए कहा, ‘आप मेरी भी एक टिकट चंडीगढ़ की ले कर मेरी मदद कर सकती हैं.’

‘ठीक है. आप बैठिए, मैं ले कर आती हूं,’ लड़की ने कहा.

प्रमोद बूथ पर लगी बस के पास आ कर खड़ा हो गया और थोड़ी देर में वह लड़की टिकट ले कर उस के पास आ गई. उन्हें अगले दरवाजे के बिलकुल साथ वाली 2 सवारियों की सीट मिली थी.

बस शहर से निकल पड़ी थी. प्रमोद ने उस लड़की का शुक्रिया अदा किया. बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो प्रमोद ने उस से पूछ लिया, ‘आप का क्या नाम है और चंडीगढ़ में क्या काम करती हैं?’

उस लड़की ने अपना नाम रीमा बताया और वह वहां एक फर्म में सेल्स ऐक्जिक्यूटिव थी. काम के सिलसिले में वह यहां आई थी. काम खत्म कर के वह वापस लौट रही थी.

प्रमोद ने उसे बताया कि वह यहां लोकल दफ्तर में काम करता है और सरकारी काम से महीने 2 महीने में उस का चंडीगढ़ आनाजाना लगा रहता है. बस चलती रही तो बातों का सिलसिला भी चलता रहा. रीमा ने बताया कि वह मूल रूप से पहाड़ी है. यहां चंडीगढ़ में किराए का मकान ले कर रह रही है. घर में मम्मीपापा और छोटी बहन हैं, जो गांव में रहते हैं. बड़ा भाई नोएडा में एक प्राइवेट फर्म में सौफ्टवेयर इंजीनियर है.

प्रमोद ने बताया कि वह भी किराए का मकान ले कर रह रहा है. बीवीबच्चे सब गांव में हैं. महीने में 2-4 बार ही घर का चक्कर लग पाता है. अभी रिटायरमैंट में 12-13 साल का वक्त पड़ा है, इस के बाद ही जिंदगी शायद सैट हो पाए.

बातोंबातों में कब पेहवा आ गया, पता ही नहीं चला. बस वहां 15 मिनट के लिए रुकी. प्रमोद नीचे उतर कर चाय और सैंडविच ले आया. जब तक चाय पी तब तक बस चलने को तैयार हो गई.

बातों का सिलसिला फिर शुरू हो गया. उन दोनों ने घरपरिवार व दफ्तर तक की तमाम बातें कर लीं. एकदूसरे को टैलीफोन नंबर भी दे दिए. हालांकि प्रमोद की उम्र उस लड़की की उम्र से तकरीबन दोगुनी रही होगी, फिर भी उस ने उसे अपना दोस्त मान लिया था और उस से घर चलने को कहा था.

प्रमोद ने उसे बताया, ‘इस बार तो घर नहीं चल पाऊंगा, क्योंकि जरूरी काम है. अगली बार जब भी मैं यहां आऊंगा, तो सुबह नहीं शाम को आऊंगा. रातभर आप के यहां रुक कर जाऊंगा और अगर आप को हमारे यहां आना हो तो वैसा ही आप भी करना,’ इसी वादे के साथ वे दोनों रुखसत हुए.

प्रमोद ने सुबहसुबह चंडीगढ़ दफ्तर पहुंच कर काम निबटाया और वापस बस में बैठ कर घर की तरफ रवाना हुआ. बस रात के तकरीबन 10 बजे वापस पहुंची. बसअड्डे पर उतर कर प्रमोद अपने मकान में पहुंचा ही था कि फोन की घंटी बजी, देखा तो रीमा का ही फोन था. उठाया तो रीमा ने पूछा, ‘घर पहुंच गए ठीकठाक?’

प्रमोद ने कहा, ‘हां, अभीअभी घर पहुंचा हूं.’

रीमा ने कहा, ‘चलो, ठीक है. नहाओधोओ, खाओपीयो, थक गए होगे,’ और फोन काट दिया.

अब रीमा से हफ्ते में एकाध बार तो फोन पर बात हो ही जाती थी. धीरेधीरे यह दोस्ती गहरी हो रही थी.

एक महीने बाद फिर से प्रमोद को दफ्तर के काम से चंडीगढ़ जाना पड़ रहा था. प्रमोद ने रीमा से बात की तो उस ने कहा, ‘आप शाम को ही आ जाओ. सुबह जल्दी उठने में दिक्कत नहीं होगी और इसी बहाने आप के साथ रहने का मौका मिल जाएगा.’

प्रमोद ने दोपहर की बस पकड़ी तो रात 8 बजे चंडीगढ़ उतार दिया. बसअड्डे पर रीमा स्कूटी लिए खड़ी थी. स्कूटी के पीछे बैठ प्रमोद उस के मकान पर चला गया. बहुत बढि़या घर था. रीमा ने घर में तमाम सुखसुविधाएं जुटा रखी थीं.

प्रमोद चाय पीने के बाद नहाधो कर फ्रैश हो गया. रीमा ने भी समय से पहले खाना वगैरह तैयार कर लिया था. प्रमोद के पास आ कर जुल्फें झटका कर उस ने पूछा, ‘आप का मनपसंद ब्रांड कौन सा है…?’

प्रमोद कुछ अचकचा गया, फिर थोड़ी देर में वह बोला, ‘जो साकी पिला दे…’

रीमा ने विदेशी ब्रांड की बोतल ली और पैग बनाने शुरू कर दिए. 2-2 पैग लेने के बाद उन्होंने खाना खाया और पतिपत्नी की तरह प्यार कर के उसी बिस्तर पर सो गए.

प्रमोद सुबह उठा तो खुद को बहुत हलका महसूस कर रहा था. रीमा भी जल्दी उठ गई थी. उसे भी दफ्तर जाना था. उन दोनों ने तैयार हो कर नाश्ता किया और अपनेअपने काम पर निकल गए.

अब इसी तरह से जिंदगी चलने लगी. रीमा जब भी प्रमोद के पास आती तो वह उसे होटल में रख लेता. जब भी छुट्टियां होतीं तो वे शिमला, मोरनी हिल्स, धर्मशाला जैसी कम दूरी की जगहों पर घूमने निकल जाते.

एक रात जब प्रमोद रीमा के घर पर सोने की तैयारी कर रहा था, तो उस के मन में यह सवाल उठा कि रीमा जवान है, खूबसूरत है, अच्छा कमाती है. यह तो नएनए कितने ही लड़कों के साथ दोस्ती कर सकती है, मौजमस्ती कर सकती है, फिर यह उस जैसे अधेड़ को क्यों पसंद करती है?

प्रमोद ने उस के बालों में उंगली घुमाते हुए पूछा, ‘रीमा, एक बात पूछूं, अगर आप बुरा न मानो तो…’

रीमा ने कहा, ‘मैं जानती हूं कि आप क्या पूछना चाहते हैं. आप यही जानना चाहते हैं न कि मैं यह सब अधेड़ उम्र के लोगों के साथ क्यों करती हूं, जबकि मेरे लिए जवान लड़कों की कोई कमी नहीं है?

‘मैं क्या हमारे यहां सब जवान लड़कियां यही करती हैं. इस की खास वजह यह है कि हम यहां वीकऐंड पर मौजमस्ती करना चाहती हैं. अधेड़ मर्द जिंदगी के हर तरह के रास्तों से गुजरे होते हैं. उन्हें हर तरह का अनुभव होता है. उन का अपना परिवार होता है, इसलिए वे चिपकू नहीं होते और जब जहां उन को कहा जाए वे दोस्ती वहीं छोड़ देते हैं. कमाई की नजर से भी ठीकठाक होते हैं.

‘नौजवान लड़के जिद्दी होते हैं. वे समझौता नहीं करते, बल्कि मरनेमारने पर उतारू हो जाते हैं. कभी नस काट लेते हैं तो कभी पागलों जैसी हरकतें करने लगते हैं. यही वजह है कि हम आप जैसों को पसंद करती हैं.’

प्रमोद और रीमा की दोस्ती तकरीबन 5 साल तक चली. उस के बाद रीमा ने शादी कर अपना घर बसा लिया और दिल्ली शिफ्ट हो गई.

हमारे समाज में यह एक नया बदलाव आया है या आ रहा है. अच्छा है या बुरा है, यह तो अलग चर्चा की बात हो सकती है, लेकिन बदलाव हो रहा है.

जीरकपुर बसस्टैंड पर बस रुकी तो झटका लगा और प्रमोद यादों से वर्तमान में लौटा. साथ बैठी लड़की उस के कंधे पर सिर रख कर सो रही थी. प्रमोद ने उसे जगाया तो अपना बैग संभालते हुए वह बस से उतर गई. प्रमोद बस में बैठा कुछ सोच रहा था. थोड़ी देर में बस बसअड्डे की तरफ चल पड़ी थी.

Hindi Story – खो गई जीनत

Hindi Story : अम्मी और अब्बू की सिर्फ तसवीर ही देखी थी ज़ीनत ने. उन का प्यार कैसा होता है, इस का उसे एहसास ही नहीं था. अम्मी और अब्बू के एक सड़क दुर्घटना में मारे जाने के बाद मामी और मामू ही ज़ीनत का सहारा थे.

मामू ने ज़ीनत को पढ़ायालिखाया और इस लायक बनाया कि बडी हो कर वह स्वयं अपने पैरों पर खड़ी हो सके और मामू का सहारा बने.

मामू की माली हालत अच्छी नहीं थी. एक कमरे के मकान के बाहर एक छोटा सा खोखा रख रखा था मामू ने. उस में बिसातखाने का सामान रख कर बेचते थे.

जो औरतें सामान खरीदने आतीं, वे इतना मोलभाव करतीं कि किसी चीज़ पर मिलने वाला मुनाफ़ा कम हो जाता. वैसे भी, मामू को बाहर की औरतों से बहुत लगाव महसूस होता था. वे चाहते थे कि औरतें उन के खोखे पर आ कर उन से बातें करती ही रहें. उन की इसी कमज़ोरी का लाभ  चालाक औरतें खूब उठाती थीं. वे मामू से खूब रसीली बातें करतीं और सामान सस्ते में खरीद लेतीं.

घर में 5 लोग थे – मामू, मामी, उन के 2 बच्चे और एक ज़ीनत. इन सब का खर्च चलाने की ज़िम्मेदारी ज़ीनत के कंधों पर ही थी. इसीलिए ज़ीनत शहर के ही एक स्कूल में कम्प्यूटर पढ़ाने का काम करने लगी थी.

ज़ीनत के मामू जितने लापरवाह किस्म के थे, मामी उतनी ही सख्त मिज़ाज़.

“मैं तो कहती हूं कि घर में अगर लड़की हो तो उस पर एक नज़र टेढ़ी ही रखनी चाहिए और घर की अंदरूनी बातों में लड़की जात को ज़्यादा शामिल नहीं करना चाहिए,” मामी ने पड़ोस में रहने वाली शकीला से कहा और शकीला ने हां में हां मिलाई.

“हां, सही कहा आप ने और इसीलिए मैं ने अपनी बेटी सलमा का स्कूल जाना बंद करवा दिया है. अब 8वीं जमात तो पास हो ही गई है, आगे की पढ़ाई के लिए लड़कों वाले स्कूल में भेजना पड़ेगा और हम ने तो सुना है कि वहां लड़का और लड़की एकसाथ बैठते हैं.”

इसी सख्ती का नतीजा था कि ज़ीनत ने अपनेआप को बहुत सम्भाल रखा था और हमेशा ही सहमी सी रहती थी. इस सहमेपन के साथ जीतेजीते वह 30 साल की हो गई थी और अभी तक कुंआरी थी. ऐसा नहीं था कि उस के लिए शादी के पैगाम नहीं आए. पर भला मामू उस की शादी करा देते तो घर के लिए पैसे कौन लाता.

मामू, मामी की सोच यही थी कि जीनत इसी घर में ही रहती रहे और पैसे लाती रहे. मामू और मामी के दोनों लड़के भी अब जवान हो चले थे और उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को भरपूर समझते हुए कुछ पैसे जोड़े. कुछ पैसा बैंक से लोन लिया और अपने अब्बा की बिसातखाने की दुकान को अब एक बढ़िया मेकअप  सेंटर में तबदील कर दिया और दोनों खुद ही इसी काम में उतर आए थे.

ज़ीनत भी मेहनत से स्कूल में अपनी ड्यूटी पूरी करती और घर आ कर भी मामी  की रसोईघर में मदद करती.

ज़ीनत ने अपनी जवान होती भावनाओं को अच्छी तरह से काबू कर रखा था. पर फिर भी जवानी में किसी की तरफ झुकाव होना बड़ा ही स्वाभाविक होता है और ज़ीनत भी कोई अपवाद नहीं थी.

“अरे ज़ीनत मैडम, एक शायरी मैं ने लिखी है. ज़रा इस पर गौर तो फरमाइएगा,” ज़ीनत के साथ ही स्कूल में पढ़ाने वाले एक साथी टीचर ने कहा.

“अजी, आप की शायरी क्या सुनना. वह तो हमेशा की तरह अच्छी ही होती है. हां, अगर आप फिर भी अपनी और तारीफ़ सुनना  चाहते हैं तो आप सुना सकते है.

“किसी आशिक़ के कलेजे को जलाया होगा,

तब जा कर खुदा ने सूरज को बनाया होगा.”

“अरे वाह, भाई वाह, क्या बात है, बहुत ही उम्दा. लगता है सूरज से कुछ ज्यादा ही प्यार है आप को और तभी तो आप ने तखल्लुस भी सूरज ही रखा  है.”

“जी बिलकुल, सही कहा आप ने. इसीलिए मेरा नाम तो आफताब भले है पर मैं चाहता  हूं कि अब लोग  मुझे सूरज के नाम से ही पुकारें,”  आफताब  ने कहा.

“हां जी, तो ऐसी बात है. तो, अब मैं आप को सूरज के नाम से ही बुलाऊंगी,” ज़ीनत ने कहा.

दो  जवां दिलों के बीच प्यार को पनपने के लिए बहुतकुछ ख़ास की ज़रूरत नहीं होती. बस, थोड़ा सा अपनापन का पानी, ख़ूबसूरती की खाद और फिर प्यार के फल आने लगते हैं.

ज़ीनत को अपने साथ स्कूल में पढ़ाने वाले एक लड़के से प्यार हो गया था. वह लड़का कोई और नहीं, बल्कि आफताब या सूरज ही था.

आफताब एक सीधासादा लड़का था. वह ज़िंदगी से जूझ रहा था. फिर भी हमेशा मुसकराता रहता और अपनी ज़िंदगी के गम को शायरियों में कह कर उड़ा दिया करता. पर माली हालत की बात करें, तो आफताब की माली हालत ज़ीनत से तो बेहतर थी.

इस बार नए साल पर आफताब ने ज़ीनत को एक मोबाइल गिफ्ट कर दिया. ज़ीनत ने बहुत नानुकुर की, पर अफातब ने ऐसी दलील दी कि उसे चुप हो जाना पड़ा.

” देखिए मैडम, यह मैं आप को इसलिए गिफ्ट कर रहा हूं ताकि मैं आप को व्हाट्सऐप पर शायरियां भेज सकूं और आप उस की अच्छाइयां व कमियां मुझे बताएं, जिस से मुझे और बेहतर शायर बनने में मदद मिल सकेगी. क्या अब भी आप यह मोबाइल नहीं लेंगी,” आफताब ने कहा.

“ठीक है, ठीक है, ले लेती हूं. पर जब मैं अपने घर पर रहूंगी तब आप फोन नहीं करेंगे. हां, मैसेज के ज़रिए बात जरूर कर सकते हैं.”

“ठीक है, ज़ीनत जी.”

ज़ीनत और आफताब को एकदूसरे का साथ अच्छा लग रहा था और दोनों ही अपने आगे का जीवन एकदूसरे के साथ गुजारने की बात सोच रहे थे. पर हमेशा ही इंसान का सोचा हुआ कहां होता है?

इतना जीवन गुजरने के बाद एक बात तो ज़ीनत मन ही मन जान चुकी थी कि मामू और मामी उस की शादी जानकर नहीं करना चाहते और वे लोग यही चाहते है कि मैं उन के लिए बस ऐसे ही पैसे कमाती रहूं और वो लोग आराम से मज़े करते रहें. इसलिए, ज़ीनत इस बाबत मामी से खुद ही बात करने की बात सोचने लगी.

एक रात को आफताब ने कुछ शायरियां लिख कर ज़ीनत के मोबाइल पर भेजीं और पूछा कि कोई सुधार के गुंजाइश हो तो बताए. ज़ीनत ने सारी शायरियां पढ़ीं और उन का जवाब भी आफ़ताब को लिख दिया, फिर सो गई. सुबह उठी तो स्कूल के लिए देर हो रही थी, इसलिए जल्दी में ज़ीनत मोबाइल वहीँ अपने बिस्तर पर ही भूल गई.

“चलो फिर मैं आज तुम्हारे घर तक छोड़ देता हूं,” अपनी बाइक की ओर इशारा करता हुआ आफताब बोला.

ज़ीनत पहले तो हिचकिचाई, क्योंकि गली के नुक्कड़ पर ही तो मामू की दुकान  है, बहुत मुमकिन है कि घर के लोग आफताब के साथ उसे देख लें. ‘देख लें तो देख लें, मैं कोई चोरी तो नहीं कर रही और फिर आज तो मुझे वैसे भी आफताब के बारे में बात करनी ही है,’ ऐसा सोच कर ज़ीनत ने बाइक पर जाने के लिए हां कर दी और आफताब के साथ बैठ कर चल दी.

कुछ देर बाद घर के सामने पहुंचने वाली थी ज़ीनत. उस ने आफताब से उसे वहीँ उतार देने को कहा और घर तक पैदल ही चली गई.

घर में अंदर का नज़ारा ही अलग था. मामू, उन का लड़का असलम और मामी एकसाथ बैठे हुए थे. सभी ज़ीनत को घूर रहे थे.

“अरे ज़ीनत बिटिया, बहुत थक गई होगी,” मामू ने कहा.

“हां मामू, स्कूल में काम ही इतना होता है. थोड़ीबहुत थकान आना तो लाजिमी ही है,” ज़ीनत ने कहा.

ज़ीनत का इतना कहना था कि मामी बिफर पड़ीं, “हांहां, थकान तो आएगी ही जब देररात तक किसी लड़के से चक्कर चलाया जाएगा.”

तुरंत ही ज़ीनत को याद आया कि आज वह अपना मोबाइल घर में ही भूल गई थी. और इसीलिए मामी ऐसा बोल रही हैं.

“वो… मामी, मैं आप से बात करने ही वाली थी आज,” ज़ीनत हकला गई.

“अरे, तू क्या बात करेगी. तू तो चक्कर चला रही है वह भी किसी गैरज़ात के लड़के के साथ?”

“अरे नहीं मामी, वह तो आफताब…”

“बता कौन है यह सूरज जो तुझ से अपनी मोहब्बत का इज़हार शेरोशायरी से कर रहा है और जिस का जवाब भी तू खूब वाहवाह कर के दे रही है? अरे, मैं कह रही हूं कि हमारी जात में कोई लड़के नहीं रह गए थे क्या जो तू किसी हिंदू लड़के से…”

“नहीं मामी, वह सूरज नहीं, आफताब है और हमारी ही जात का है. मैं खुद ही आज आप से अपनी शादी के बारे में बात करने वाली थी,” ज़ीनत सबकुछ बोलती चली गई.

“अरे, तू दोचार शब्द पढ़ क्या गई है, मुझे ही शब्दों के मतलब समझाने लगी है. और तू समझ क्या रही है, तू किसी भी जात वाले से शादी करने को कहेगी और हम कर देंगे? तुझे ऐसे ही हमारे लिए पैसे कमाने होंगे, भूल जा कि तेरी कभी शादी भी होगी,” मामी का पारा चढ़ चुका था.

“शादी तो मैं सूरज से ही करूंगी. और आप सब को बताना चाहूंगी कि मैं सूरज के बच्चे की मां बनने वाली हूं,” ज़ीनत ने यह बात सिर्फ इसलिए कह दी थी कि ऐसा सुन कर मामू और मामी के तेवर नरम हो जाएं. उस ने अपनी बात जारी रखते जुए कहा, “आप लोग नहीं मानोगे तो जबरदस्ती ही सही… देखती हूं कि मुझे कौन रोकता है.” ज़ीनत भी अड़ गई थी.

“मैं रोकूंगी तुझे, नमकहराम, हमारी नाक कटवाती है. महल्ले में हमारा जीना मुश्किल करना चाहती है,” मामी चिल्ला रही थीं.

ज़ीनत ने सोचा कि जब बात इतनी बढ़ ही चुकी है तो आफताब को भी फोन कर के यहीं बुला लेती हूं और इस गरज से उस ने  मामी के हाथ से अपने मोबाइल को छीन कर आफताब को फोन कर दिया.

“हां, तुम मेरे घर आ जाओ. सब लोग घर पर ही हैं. आमनेसामने बैठ कर बात हो जाएगी.”

आफताब अभी ज्यादा दूर नहीं गया था. वह फ़ौरन  ही लौट पड़ा.

मामू ने ज़ीनत के विद्रोही सुर देखे, तो मामी को शांत कराने लगे. “ठीक है ज़ीनत, तुम्हारे फैसले को हमारी भी हां है. जैसा चाहो वैसा करो,” मामू ने कहा.

पर असलम को काटो तो खून नहीं, उसे यह बात कतई मंज़ूर नहीं हो पा रही थी कि किसी लड़के को घर बुला कर ज़ीनत खुद ही अपनी शादी की बात करे.

कुछ देर बाद ही आफताब वहां आ गया. अभी उस ने दरवाज़े के अंदर पहला कदम रखा ही था कि असलम उसे देख कर भड़क गया.

असलम ने तुरंत ही आफताब की शर्ट का कौलर पकड़ लिया और उस को ज़मीन पर गिरा कर लातघूसे चलाने  लगा.

आफताब को अचानक इस हमले की उम्मीद नहीं थी, इसलिए वह असलम का विरोध नहीं कर सका. अब तो मौक़ा देख कर  ज़ीनत के मामू ने भी असलम को मारना शुरू कर दिया. वे दोनों आफताब को मारते हुए बाहर ले आए. ज़ीनत आफताब को बचाने के लिए दौड़ी तो मामी ने उसे पकड़ लिया.

बाहर महल्ले के लोग जमा होने लगे थे.

“साले, दिनदहाड़े चोरी  करने घुसता है…स्साले. आज तुझे नहीं छोड़ेंगे,” असलम चीख रहा था.

एक चोर को पिटता देख कर जमा हुई भीड़ की हथेलियों में भी खुजली होने लगी थी बिना जाने कि सच क्या है. भीड़ ने भी बेतहाशा आफताब को मारना शुरू कर दिया.

ज़ीनत ने बड़ी कोशिशों से अपनेआप को मामी की गिरफ्त से आज़ाद किया और आफताब को बचाने दौड़ी. भीड़ अब भी आफताब को मारे जा रही थी. ज़ीनत आफताब तक पहुच ही नहीं पा रही थी. वह लगातार चीख रही थी, “मत मारो उसे. वह चोर नहीं हैं…” पर भीड़ तो खुद ही वकील होती है और खुद ही जज. इतने में ज़ीनत पिटते हुए आफताब से उसे बचाने की गरज से उस से जा चिपकी. पर उन्मादी भीड़ को वह दिखाई तक न दी और भीड़ लाठीडंडे बरसाती रही.

कुछ ही देर बाद ज़ीनत और आफताब के सिरों से खून की धारा निकल पड़ी थी और उन दोनों के शव  एकदूसरे से लिपटे पड़े थे.

भीड़ ने अपनी ताकत दिखाते हुए न्याय कर दिया था.

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