Father’s Day Special – पछतावा: क्या बेटे ने लिया बाप से बदला?

दीनानाथ नगरनिगम में चपरासी था. वह स्वभाव से गुस्सैल था. दफ्तर में वह सब से झगड़ा करता रहता था. उस की इस आदत से सभी दफ्तर वाले परेशान थे, मगर यह सोच कर सहन कर जाते थे कि गरीब है, नौकरी से हटा दिया गया, तो उस का परिवार मुश्किल में आ जाएगा.

दीनानाथ काम पर भी कई बार शराब पी कर आ जाता था. उस के इस रवैए से भी लोग परेशान रहते थे. उस के परिवार में पत्नी शांति और 7 साल का बेटा रजनीश थे. शांति अपने नाम के मुताबिक शांत रहती थी. कई बार उसे दीनानाथ गालियां देता था, उस के साथ मारपीट करता था, मगर वह सबकुछ सहन कर लेती थी.

दीनानाथ का बेटा रजनीश तीसरी जमात में पढ़ता था. वह पढ़ने में होशियार था, मगर अपने एकलौते बेटे के साथ भी पिता का रवैया ठीक नहीं था. उस का गुस्सा जबतब बेटे पर उतरता रहता था.

‘‘रजनीश, क्या कर रहा है? इधर आ,’’ दीनानाथ चिल्लाया.

‘‘मैं पढ़ रहा हूं बापू,’’ रजनीश ने जवाब दिया.

‘‘तेरा बाप भी कभी पढ़ा है, जो तू पढ़ेगा. जल्दी से इधर आ.’’

‘‘जी, बापू, आया. हां, बापू बोलो, क्या काम है?’’

‘‘ये ले 20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ.’’

‘‘आप का दफ्तर जाने का समय हो रहा है, जाओगे नहीं बापू?’’

‘‘तुझ से पूछ कर जाऊंगा क्या?’’ इतना कह कर दीनानाथ ने रजनीश के चांटा जड़ दिया.

रजनीश रोता हुआ 20 रुपए ले कर सोडा लेने चला गया.

दीनानाथ सोडा ले कर शराब पीने बैठ गया.

‘‘अरे रजनीश, इधर आ.’’

‘‘अब क्या बापू?’’

‘‘अबे आएगा, तब बताऊंगा न?’’

‘‘हां बापू.’’

‘‘जल्दी से मां को बोल कि एक प्याज काट कर देगी.’’

‘‘मां मंदिर गई हैं… बापू.’’

‘‘तो तू ही काट ला.’’

रजनीश प्याज काट कर लाया. प्याज काटते समय उस की आंखों में आंसू आ गए, पर पिता के डर से वह मना भी नहीं कर पाया.

दीनानाथ प्याज चबाता हुआ साथ में शराब के घूंट लगाने लगा.

शाम के 4 बज रहे थे. दीनानाथ की शाम की शिफ्ट में ड्यूटी थी. वह लड़खड़ाता हुआ दफ्तर चला गया.

यह रोज की बात थी. दीनानाथ अपने बेटे के साथ बुरा बरताव करता था. वह बातबात पर रजनीश को बाजार भेजता था. डांटना तो आम बात थी. शांति अगर कुछ कहती थी, तो वह उस के साथ भी गालीगलौज करता था.

बेटे रजनीश के मन में पिता का खौफ भीतर तक था. कई बार वह रात में नींद में भी चीखता था, ‘बापू मुझे मत मारो.’

‘‘मां, बापू से कह कर अंगरेजी की कौपी मंगवा दो न,’’ एक दिन रजनीश अपनी मां से बोला.

‘‘तू खुद क्यों नहीं कहता बेटा?’’ मां बोलीं.

‘‘मां, मुझे बापू से डर लगता है. कौपी मांगने पर वे पिटाई करेंगे,’’ रजनीश सहमते हुए बोला.

‘‘अच्छा बेटा, मैं बात करती हूं,’’ मां ने कहा.

‘‘सुनो, रजनीश के लिए कल अंगरेजी की कौपी ले आना.’’

‘‘तेरे बाप ने पैसे दिए हैं, जो कौपी लाऊं? अपने लाड़ले को इधर भेज.’’

रजनीश डरताडरता पिता के पास गया. दीनानाथ ने रजनीश का कान पकड़ा और थप्पड़ लगाते हुए चिल्लाया, ‘‘क्यों, तेरी मां कमाती है, जो कौपी लाऊं? पैसे पेड़ पर नहीं उगते. जब तू खुद कमाएगा न, तब पता चलेगा कि कौपी कैसे आती है? चल, ये ले

20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ…’’

‘‘बापू, आज आप शराब बिना सोडे के पी लो, इन रुपयों से मेरी कौपी आ जाएगी…’’

‘‘बाप को नसीहत देता है. तेरी कौपी नहीं आई तो चल जाएगा, लेकिन मेरी खुराक नहीं आई, तो कमाएगा कौन? अगर मैं कमाऊंगा नहीं, तो फिर तेरी कौपी नहीं आएगी…’’ दीनानाथ गंदी हंसी हंसा और बेटे को धक्का देते हुए बोला, ‘‘अबे, मेरा मुंह क्या देखता है. जा, सोडा ले कर आ.’’

दीनानाथ की यह रोज की आदत थी. कभी वह बेटे को कौपीकिताब के लिए सताता, तो कभी वह उस से बाजार के काम करवाता. बेटा पढ़ने बैठता, तो उसे तंग करता. घर का माहौल ऐसा ही था.

इस बीच रात में शांति अपने बेटे रजनीश को आंचल में छिपा लेती और खुद भी रोती.

दीनानाथ ने बेटे को कभी वह प्यार नहीं दिया, जिस का वह हकदार था. बेटा हमेशा डराडरा सा रहता था. ऐसे माहौल में भी वह पढ़ता और अपनी जमात में हमेशा अव्वल आता.

मां रजनीश से कहती, ‘‘बेटा, तेरे बापू तो ऐसे ही हैं. तुझे अपने दम पर ही कुछ बन कर दिखाना होगा.’’

मां कभीकभार पैसे बचा कर रखती और बेटे की जरूरत पूरी करती. बाप दीनानाथ के खौफ से बेटे रजनीश के बाल मन पर ऐसा डर बैठा कि वह सहमासहमा ही रहता. समय बीतता गया. अब रजनीश

21 साल का हो गया था. उस ने बैंक का इम्तिहान दिया. नतीजा आया, तो वह फिर अव्वल रहा. इंटरव्यू के बाद उसे जयपुर में पोस्टिंग मिल गई. उधर दीनानाथ की झगड़ा करने की आदत से नगरनिगम दफ्तर से उसे निकाल दिया गया था.

घर में खुशी का माहौल था. बेटे ने मां के पैर छुए और उन से आशीर्वाद लिया. पिता घर के किसी कोने में बैठा रो रहा था. उस के मन में एक तरफ नौकरी छूटने का दुख था, तो दूसरी ओर यह चिंता सताने लगी थी कि बेटा अब उस से बदला लेगा, क्योंकि उस ने उसे कोई सुख नहीं दिया था.

मां रजनीश से बोलीं, ‘‘बेटा, अब हम दोनों जयपुर रहेंगे. तेरे बापू के साथ नहीं रहेंगे. तेरे बापू ने तुझे और मुझे जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझा…

‘‘अब तू अपने पैरों पर खड़ा हो गया है. तेरी जिंदगी में तेरे बापू का अब मैं साया भी नहीं पड़ने दूंगी.’’

रजनीश कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मां, मैं बापू से बदला नहीं लूंगा. उन्होंने जो मेरे साथ बरताव किया, वैसा बरताव मैं नहीं करूंगा. मैं अपने बेटे को ऐसी तालीम नहीं देना चाहता, जो मेरे पिता ने मुझे दी.’’

रजनीश उठा और बापू के पैर छू कर बोला, ‘‘बापू, मैं अफसर बन गया हूं, मुझे आशीर्वाद दें. आप की नौकरी छूट गई तो कोई बात नहीं, मैं अब अपने पैरों पर खड़ा हो गया हूं. चलो, आप अब जयपुर में मेरे साथ रहो, हम मिल कर रहेंगे.‘‘

यह सुन कर दीनानाथ की आंखों में आंसू आ गए. वह बोला, ‘‘बेटा, मैं ने तुझे बहुत सताया है, लेकिन तू ने मेरा साथ नहीं छोड़ा. मुझे तुझ पर गर्व है.’’

दीनानाथ को अपने किए पर खूब पछतावा हो रहा था. रजनीश ने बापू की आंखों से आंसू पोंछे, तो दीनानाथ ने उसे गले लगा लिया.

Father’s Day Special – विटामिन-पी: संजना ने कैसे किया अस्वस्थ ससुरजी को ठीक

संजनाटेबल पर खाना लगा रही थी. आज विशेष व्यंजन बनाए गए थे, ननदरानी मिथिलेश जो आई थी.

‘‘पापा, ले आओ अपनी कटोरी, खाना लग रहा है,’’ मिथिलेश ने अरुणजी से कहा.

‘‘दीदी, पापा अब कटोरी नहीं, कटोरा खाते हैं. खाने से पहले कटोरा भर कर सलाद और खाने के बाद कटोरा भर फ्रूट्स,’’ संजना मुसकराती हुई बोली.

‘‘अरे, यह चमत्कार कैसे हुआ? पापा की उस कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स, विटामिन, प्रोटीन, आयरन, कैल्सियम होता था… कहां, कैसे, गायब हो गए?’’ मिथिलेश ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘बेटा यह चमत्कार संजना बिटिया का है,’’ कहते हुए वे पिछले दिनों में खो गए…

नईनवेली संजना ब्याह कर आई, ऐसे घर में जहां कोई स्त्री न थी. सासूमां का देहांत हो चुका था और ननद का ब्याह. घर में पति और ससुरजी, बस 2 ही प्राणी थे. ससुरजी वैसे ही कम बोलते थे और रिटायरमैंट के बाद तो बस अपनी किताबों में ही सिमट कर रह गए थे.

संजना देखती कि वे रोज खाना खाने से पहले दोनों समय एक कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स निकाल लाते. पहले उन्हें खाते फिर अनमने से एकाध रोटी खा कर उठ जाते. रात को भी स्लीपिंग पिल्स खा कर सोते. एक दिन उस ने ससुरजी से पूछ ही लिया, ‘‘पापाजी, आप ये इतने सारे टेबलेट्स क्यों खाते हैं.’’

‘‘बेटा, अब तो जीवन इन पर ही निर्भर है, शरीर में शक्ति और रात की नींद इन के बिना अब संभव नहीं.’’

‘‘उफ पापाजी, आप ने खुद को इन का आदी बना लिया है. कल से आप मेरे हिसाब से चलेंगे. आप को प्रोटीन, विटामिन, आयरन, कैल्सियम सब मिलेगा और रात को नींद भी जम कर आएगी.’’

अगले दिन सुबह अरुणजी अखबार देख रहे थे तभी संजना ने आ कर कहा, ‘‘चलिए पापाजी, थोड़ी देर गार्डन में घूमते हैं, वहां से आ कर चाय पीएंगे.’’

संजना के कहने पर अरुणजी को उस के साथ जाना पड़ा. वहां संजना ने उन्हें हलकाफुलका व्यायाम भी करवाया और साथ ही लाफ थेरैपी दे कर खूब हंसाया.

‘‘यह लीजिए पापाजी, आप का कैल्सियम, चाय इस के बाद मिलेगी,’’ संजना ने दूध का गिलास उन्हें पकड़ाया.

नाश्ते में स्प्राउट्स दे कर कहा, ‘‘यह लीजिए भरपूर प्रोटींस. खाइए पापाजी.’’

लंच के समय अरुणजी दवाइयां निकालने लगे, तो संजना ने हाथ रोक लिया और कहा, ‘‘पापाजी, यह सलाद खाइए, इस में टमाटर, चुकंदर है, आप का आयरन और कैल्सियम. खाना खाने के बाद फू्रट्स खाइए.’’

अरुणजी उस की प्यार भरी मनुहार को टाल नहीं पाए. रात को भोजन भी उन्होंने संजना के हिसाब से ही किया. रात को संजना उन्हें फिर गार्डन में टहलाने ले गई.

‘‘चलिए पापा, अब सो जाइए.’’

अरुणजी की नजरें अपनी स्लीपिंग पिल्स की शीशी तलाशने लगीं.

‘‘लेटिए पापाजी, मैं आप के सिर की मालिश कर देती हूं,’’ कह कर उस ने अरुणजी को बिस्तर पर लिटा दिया और तेल लगा कर हलकेहलके हाथों सिर का मसाज करने लगी. कुछ ही देर में अरुणजी की नींद लग गई.

‘‘संजना, बेटी कल रात तो बहुत ही अच्छी नींद आई.’’

‘‘हां पापाजी, अब रोज ही आप को ऐसी नींद आएगी. अब आप कोई टैबलेट नहीं खाएंगे.’’

‘‘अब क्यों खाऊंगा. अब तो मुझे रामबाण औषधि मिल गई है,’’ अरुणजी गार्डन जाने के लिए तैयार होते हुए बोले.

‘‘थैंक्यू भाभी,’’ अचानक मिथिलेश की आवाज ने अरुणजी की तंद्रा भंग की.

‘‘हां बेटा, थैंक्स तो कहना ही चाहिए संजना बेटी को. इस ने मेरी सारी टैबलेट्स छुड़वा दीं. अब तो बस मैं एक ही टैबलेट खाता हूं,’’ अरुणजी बोले.

‘‘कौन सी?’’ संजना ने चौंक कर पूछा.

‘‘विटामिन-पी यानी भरपूर प्यार और परवाह.’’

Father’s Day Special – हमारी अमृता : क्या मंदबुृद्धि अमृता को मिला पिता का प्यार ?

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Father’s Day Special – नीरा: क्या पिता को उनका पहला प्यार लौटा पाई काव्या

आज नीरा का मन सुबह से ही न जाने क्यों उदास था. कालेज  के गेट से बाहर निकलते ही कार से उतरते हुए एक व्यक्ति की ओर उस का ध्यान गया तो वह धक से रह गई. कार रोक कर उस ने अधेड़ उम्र के युवक को एक लंबे अरसे बाद देख कर पहचानने की कोशिश की. वही पुराना अंदाज, चेक की शर्ट, गौगल्स से झांकती हुई आंखें कुछ बयान कर रही थी. ‘कहीं ये उस का वहम तो नहीं’ ये सोचते हुए उस ने अपने मन को तसल्ली देने की कोशिश की. नहीं यह दीप तो नहीं हो सकता वह तो कनाडा में है.

वह यहां कैसे हो सकता है? कुछ पल के लिए तो अचानक ही आंखों से निकलती अविरल धारा ने अतीत के पन्नों को खोल कर रख दिया. उस ने रिवर्स करते हुए कार को वापस कालेज की ओर मोड़ा. कार पार्किंग में खड़ी करते ही मिसेज कपूर मिलते ही बोल पड़ी, ‘‘अरे नीरा तुम तो आज आंटी को होस्पीटल ले जाने वाली थी चैकअप के लिए.’’ ‘‘सौरी, डाक्टर का अपौयमैंट कल का है. मैं भूल गई थी.’’ ‘‘नीरा तुम काम का टैंशन आजकल कुछ ज्यादा ही लेने लगी हो. मेरी मानो तो कुछ दिन मां को ले कर हिल स्टेशन चली जाओ.’’ मिसेज कपूर ने नीरा को प्यार से डांटने के अंदाज से कहा.

‘‘ओ के मैडम. जो हुकुम मेरी आका,’’ कहते हुए नीरा ने व्हाइट कलर की कार की ओर नजर उठाई. तब तक दीप कालेज के गेट के अंदर आ चुका था. यह कपूर मैडम भी बातोंबातों में कभी इतना उलझा लेती हैं मन ही मन बुदबुदाती हुई नीरा वापस अपने फाइन आर्ट डिपार्टमैंट की ओर चली गई. देखा तो बरामदे में हाथ में फाइल लिए खड़ी लड़की ने हैलो मैडम कह कर हाथ जोड़ कर अभिवादन करते हुए उस से कहा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी मुझे मैडम नीरा दास से मिलना है.’’

‘‘मैं ही नीरा दास हूं. फाइन आर्ट में ऐडमिशन लेना है क्या?’’ ‘‘अरे वाह, सही पकड़ा आप ने. पर मैम आप को कैसे पता चला कि मुझे फाइन आर्ट में ऐडमिशन चाहिए?’’ ‘‘बातें तो अच्छी कर लेती हो. मेरे पास कोई साइंस या कौमर्स का तो स्टूडैंट आएगा नहीं,’’ नीरा ने कमरे का ताला खोलते हुए कहा. तभी पीछेपीछे अंदर दीप भी आ गया और बेतकल्लुफ हो कर बिना किसी दुआसलाम कर आ कर कुरसी पर बैठ गया. काव्या को पापा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा.

पर चाह कर भी वह कुछ नहीं बोल पाई. मन ही मन सोचने लगी कि पापा की तो बाद में घर पहुंच कर क्लास लूंगी.  उस ने नीरा से कहा कि मैडम मैं फाइन आर्ट में ऐडमिशन लेना चाहती हूं. मैं उदयपुर से आई हूं, ‘‘अरे झीलों की नगरी से. ब्यूटीफुल प्लेस.’’ ‘‘आप भी गई हैं वहां पर.’’ ‘‘हां एक बार कालेज टूर पर गई थी न चाहते हुए भी अचानक उस के मुंह से निकल ही गया.’’ ‘‘अरे वाह तब तो मैं बहुत लकी हूं. आप को मेरा शहर पसंद है. मेरे पापा कनाडा में रहते थे पर अब जयपुर ही आ गए हैं पर मैं बचपन से ही अपने नानानानी के पास उदयपुर में रह रही हूं.’’

‘‘काव्या बेटा अपनी पूरी हिस्ट्री बाद में बता देना, पहले अपना फार्म तो  फिलअप कर दो,’’ दीप ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा. नीरा ने संभलते हुए कहा, ‘‘अरे आप बैठिए मैं फौर्म ले कर अभी आती हूं.’’ पास में ही पड़े हुए पानी की बोतल को मेज पर रखते हुए फोन में चाय का और्डर देते हुए नीरा ने काव्या से कहा कि पहले काउंटर नंबर 5 पर जा कर फीस जमा कर दो.

पापा के चश्मे से झांकती हुई आंखों से काव्या ने पल भर में ही जान लिया कि जरूर नीरा मैडम व पापा के बीच कोई पुराना रिश्ता है. ‘‘पापा आप ठीक तो हैं? काव्या ने पापा के चेहरे पर छलकती पसीने की बूंदों को देख कर कहा.’’ ‘‘डौंट वरी. आई एम फाइन,’’ दीप ने रूमाल से अपने चेहरे को पौंछते हुए कहा. तभी कैंटीन का वेटर चाय ला कर टेबल पर रख गया. ‘‘ओ के पापा. मैं काउंटर से जब तक फौर्म ले कर आती हूं,’’ कहते हुए काव्या बाहर निकल गई.

‘‘सौरी, काव्या कुछ ज्यादा ही बोलती है,’’ कहते हुए एक ही सांस में दीप पूरा गिलास पानी गटागट पी गया. कलफ लगी गुलाबी रंग की साड़ी, माथे पर छोटी सी बिंदी, होंठों पर गुलाबी रंग की हलकी सी लिपस्टिक, छोटा सा बालों का जूड़ा, कलाई में घड़ी सौम्यता व सादगी की वही पुरानी झलक. आज 20 वर्षों के बाद भी नीरा को मूक दर्शक की तरह निहारते हुए कुछ देर बाद दीप ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘नीरा घर में सब कैसे हैं?’’

‘‘तुम्हारे कनाडा जाने के बाद ही पापा का हार्ट फेल हो  गया. सदमे में मां की हालत बिगड़ती चली गई. बस जिंदगी जैसेतैसे गुजर रही है.’’ ‘‘अरे इतना कुछ हो गया और तुम ने खबर तक नहीं की… क्या मैं इतना पराया हो गया?’’ ‘‘अपने भी तो नहीं रहे. तुम्हारी शादी के बारे में तो मुझे पता चल गया था. फिर मेरे पास तुम्हारा कोई पताठिकाना भी तो नहीं था,’’ नीरा ने साड़ी के पल्लू से आसुंओं को छिपाने की कोशिश की.

‘‘तुम्हारी अपनी फैमिली?’’

‘‘मैं ने शादी नहीं की.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्या शादी के बिना इन्सान जी नहीं सकता?’’

‘‘अरे, मेरा ये मतलब नहीं था.’’

‘‘अब कूची और कैनवास ही मेरे हमसफर साथी हैं जिन में जब चाहे जिंदगी के मनचाहे रंग मैं भर सकती हूं.

बिना किसी रोकटोक के.’’ बात पूरी हो पाती इस से पहले काव्या हाथों में फौर्म ले कर आते ही चहकते हुई बोली, ‘‘मैडम ये रहा फौर्म. प्लीज आप जल्दी से फिलअप करवा दीजिए.’’

‘‘काव्या यहां बैठो मैं भरवा देती हूं. जब तक दीप तुम मेरी आर्ट गैलेरी देख सकते हो,’’

नीरा मैडम के मुंह से पापा का नाम सुन कर काव्या ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे आप एकदूसरे को जानते हैं क्या?’’

‘‘हां काव्या नीरा मेरी क्लासमेट रह चुकी हैं पूरे 3 साल तक राजस्थान यूनिवर्सिटी में.’

’ ‘‘वाउ… अरे कमाल है. आप ने तो कभी बताया ही नहीं कि जयपुर में भी आप कभी रह चुके हैं.’’

‘‘बेटा हमें जयपुर छोड़े तो 20-22 साल हो गए. कभी बताने का मौका ही नहीं मिला. एक के बाद एक परेशानियां जीवन में आती रही.’’

‘‘फौर्म में दीपक बजाज के बाद लेट जया बजाज लिखते ही नीरा ने काव्या के फार्म पर हाथ रखते हुए कहा कि तुम कहीं गलत तो नहीं हो. यह लेट क्यों लिखा है.’’

‘‘नहीं मैम मेरी मम्मी अब इस दुनिया में नहीं है.’’

‘‘ओह, आई एम वेरी सौरी.’’  ‘‘नीरा काव्या जब 2 साल की ही थी तब ही बिजनैस मीटिंग के लिए जाते  वक्त एक कार ऐक्सीडैंट में जया…’’ दीप ने रूंधे गले से कहा.

‘‘मम्मी की मौत के बाद नानानानी कनाडा छोड़ कर इंडिया आ गए तब से मैं उदयपुर में हूं. पापा से तो बस कभी साल में एकाध बार ही मिल पाती थी. पर अब हमेशा पापा के साथ ही रहूंगी.’’ काव्या की आंखों में डबडबाते आंसुओं को देख कर नीरा ने काव्या का हाथ पकड़ कर कहा,

‘‘सौरी मैं ने गलत टाइम पर यह बात की. चलो पहले यह फौर्म भर कर जल्दी से जमा करो आज लास्ट डेट है.’’

‘‘मैम प्लीज आप का मोबाइल नं. मिल जाएगा, कुछ जानकारी लेनी हो तो…’’

‘‘नो प्रौब्लम,’’ नीरा ने अपना विजिटिंग कार्ड काव्या को दे दिया.

फौर्म भर कर काव्या फौर्म जमा करने चली गई तब दीप ने अपना कार्ड देते हुए कहा कि अब मैं भी परमानेंटली फिर से जयपुर में ही आ गया हूं. कनाडा हमें रास नहीं आया.’’ ‘‘पहले जया फिर मम्मीपापा को खो देने के बाद वहां अब बचा ही क्या है? इन 20-22 सालों में मैं ने सब कुछ खो दिया है. सिवा पुरानी यादों के.’’

‘‘ओ के बाद में मिलते हैं.’’ घर आ कर नीरा की आंखों में पुरानी यादों की धुंधली तसवीरें ताजा होने लगी. न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकल गया मां आज दीप मिले थे.’’

‘‘कौन दीप, वही सेठ भंवर लालजी का बेटा.’’

‘‘हां मां.’’

‘‘अब यहां क्या करने आया है?’’

‘‘मां उस के साथ बहुत बड़ी ट्रैजडी हो गई. अंकलआंटी भी चल बसे और पत्नी भी. बेटी का ऐडमिशन कराने आए थे.’’

‘‘ऐसे खुदगर्ज इंसान के साथ ऐसा ही होना चाहिए.’’

‘‘मां ऐसा मत कहो. क्या पता कोई मजबूरी रही हो.’’ बेमन से ही डाइनिंग टेबल पर रखा खाना मां को परोसते हुए नीरा ने कहा, ‘‘मां आप खाना खा लीजिए. मुझे भूख नहीं है. दवा याद से ले लेना. आज मेरे सिर में दर्द है मैं जल्दी सोने जा रही हूं.’’

अपने कमरे में जा कर उस ने अलमारी से पुराना अलबम निकाला ब्लैक ऐंड व्हाइट फोटोज का रंग भी उस के जीवन की तरह धुंधला पड़ चुका था. उदयपुर में सहेलियों की बाड़ी में दीप के साथ की फोटो के अलावा एक नाटक हीररांझा की देख कर पुरानी यादें ताजा होती गईं.

उसी दौरान तो उस की दीप से दोस्ती गहरी होती गई पर बीए औनर्स पूरा होते ही दीप जल्दी आने की कह कर अपने पापा के अचानक बीमारी की खबर आते ही कनाडा चला गया. फिर लौट कर ही नहीं आया. हां कुछ दिनों तक कुछ पत्र जरूर आए पर बाद में वह भी बंद. बाद में दोस्तों से पता चला कि उस ने किसी बिजनैसमेन की बेटी से शादी कर ली है.

वह सोचने लगी उसे तो ऐसे खुदगर्ज इंसान दीप से बात ही नहीं करना चाहिए था ताकि उसे अपनी गलती का एहसास तो हो. पर मन कह रहा था नहीं दीप आज भी मैं तुम्हें नहीं भुला पाई हूं. तुम्हारे बिना पूरा जीवन मैं ने यादों के सहारे बिता दिया. पूरी रात आंखों में पुरानी यादों को तसवीरों को सहेजते देखते कब सवेरा हो गया उसे पता ही नहीं चला.  समय पंख लगा कर तेजी से बीत रहा था. न जाने क्यों न चाहते हुए भी क्लास में काव्या को देखते ही नीरा को उस में दीप की ही छवि नजर आती. उस की हंसी, बातचीत का पूरा अंदाज उसे दीप जैसा ही लगता. रविवार के दिन वह सुबह उठ कर जैसे ही लौन में चाय पीने बैठी ही थी कि बाहर हौर्न की आवाज सुनाई दी.

उस ने माली को आवाज दे कर कहा कि रामू काका देखना कौन है? गेट खोलते ही देखा तो वह चौंक पड़ी देखा. दीप और काव्या हाथों में गुलाब का गुलदस्ता ले कर आ रहे हैं.

‘‘अरे आप लोग यों अचानक.’’ ‘‘ढेर सारी शुभकामनाएं. हैप्पी बर्थडे.’’

‘‘थैंक्स, पर मैं तो कभी अपना बर्थडे सैलिब्रेट नहीं करती,’’ न चाहते हुए उस ने गुलाब के फूलों का बुके ले ही लिया.

‘‘क्या करूं बहुत दिनों से अपने मन की बात करना चाहता था. तुम से माफी मांगना चाहता था. आज रातभर काव्या ने मुझे सोने नहीं दिया.

हमारे कालेज टाइम से अलग होने तक की कहानी पूछती रही. मैं तुम्हारा गुनहगार हूं. मेरी तो हिम्मत नहीं हो रही थी तुम्हारे घर आने की.’’

‘‘नीरा मैम, आप की मैं आज पूरी गलतफहमी दूर कर देती हूं. मेरे दादाजी के बिजनैस में घाटा लग जाने पर पापा को कनाडा अपनी बीमारी का बहाना बना कर बुला लिया और वहां अपने बिजनैस पार्टनर की बेटी मेरी मम्मी से जबरन ही शादी करवा दी. यह सब इतनी जल्दी में हुआ कि पापा को सोचने का टाइम भी नहीं मिला. पापा की आंखों में पछतावे की लकीरें मैं कई सालों से महसूस कर रही हूं. वह मन के तार से आप से आज भी जुड़े हैं. आप से उन का दर्द का रिश्ता जरूर है. प्लीज आप उन्हें माफ कर दीजिए,’’ काव्या ने एक नया रिश्ता जोड़ने की गरज से अपनी बात कही.

नीरा वहां बैठी मौन मूक सी आकाश में शून्य को निहारती रही. काव्या व दीप को विदा कर उस ने चुपचाप अपनी कार निकाली. यों अचानक ही दीप व काव्या के आ जाने से उस के जीवन में एक भूचाल सा आ गया था.

दूसरे दिन से फिर वह ही रूटीन कालेज में क्लासेज, मीटिंग के साथ पैंटिंग प्रदर्शनियों की तैयारी में व्यस्तता. प्रदर्शनी में एक पूरी सीरीज काव्या की पैंटिंग्स की थी. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, नारी सशक्तिकरण व सीनियर सिटीजन थीम पर. उस की उंगुलियों में सचमुच जादू था. काव्या की पैंटिंग के चर्चे पूरे कालेज में मशहूर होने लगे.

3 साल पलक झपकते ही कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला. इन 3 सालों में वह और दीप बमुश्किल 5-6 बार ही मिले होंगे पर फोन में अकसर बात हो जाती थी फिर वह चाहे काव्या की पढ़ाई को ही ले कर हो.

‘‘काव्या ने बीए फाइनल ईयर आर्ट में पूरे क्लास में टौप किया. काव्या ने पार्टी अपने घर में रखी. दोस्तों के चले जाने के बाद बातों ही बातों में उस ने आखिर अपने मन की बात कह ही दी. नीरा आंटी लगता है कि अब तक आप ने पापा को माफ कर दिया होगा. कुछ दिनों बाद मेरी शादी भी हो जाएगी और पापा तो एकदम अकेले ही रह जाएंगे. मेरे दादाजी की गलतियों की सजा पापा ने 20-22 सालों तक भुगत ली. फिर आप ने भी तो पूरा जीवन अकेले ही गुजार लिया.’’

‘‘जीवन के आखिरी दिनों में बुढ़ापे में एकदूजे के सहारे की जरूरत  होती है. चाहे वह एक पति के रूप में हो या दोस्त के रूप में हो या फिर साथी के रूप में. अगर मैं इस अधूरी कहानी के पन्नों को पूरा कर सकूं और एक कोरे कैनवास में चंद लकीरें रंगों की भर सकूं तो मैं समझूंगी कि मेरी एक बेटी होने का मैं ने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया,’’

काव्या की बातें सुन कर चाह कर भी नीरा कुछ बोल नहीं पाई. काव्या की बातों ने उसे सोचने को मजबूर कर दिया. अब तो धीरेधीरे कुछ ही दिनों में काव्या ने नीरा के मन को जीत लिया. नीरा के मन में भी काव्या के प्रति वात्सल्य, अपनेपन, प्यार का बीज प्रस्फुटित हो चुका था. चंचल व निश्चल मन की काव्या की जिद के आगे उसे आखिर झुकना ही पड़ा, अपना फैसला बदलना पड़ा. एक दिन कोर्ट में जा कर सिविल मैरिज फिर एक छोटी सी पार्टी के बाद अब वह मिस नीरा दास से मिसेज नीरा दास बजाज बन गई.

बुढ़ापे में नारी को एक पुरुष के सहारे की जरूरत होती है. न चाहते हुए भी उसे अपनी धारणा बदलनी पड़ी. उस के सूने मन के किसी कोने में एक बेटी की चाहत थी वह आज पूरी हो गई थी. काव्या के रूप में उसे एक प्यारी सी बेटी मिल गई. पुनर्मिलन की इस मधुर बेला में काव्या ने अटूट रिश्तों की डोर के बंधन में बांधते हुए विश्वास, प्रेम व त्याग की ज्योति जगमगा कर अपने पापा दीप व नीरा आंटी के रंग हीन सूने जीवन को इन्द्रधनुषी रंगों से सराबोर कर दिया.

Father’s Day Special – बुलावा आएगा जरूर: क्या भाग्यश्री को माता-पिता का प्यार मिला?

तबीयत कैसी है मां?’’ दयनीय दृष्टि से देखती भाग्यश्री ने पूछा.

मां ने सिर हिला कर इशारा किया, ‘‘ठीक है.’’ कुछ पल मां जमीन की ओर देखती रही. अनायास आंखों से आंसू की  झड़ी  झड़ने लगी. सुस्त हाथों को धीरेधीरे ऊपर उठा कर अपने सिकुड़े कपोलों तक ले गई. आंसू पोंछ कर बोली, ‘‘प्रकृति की मरजी है बेटा.’’

परिवार के प्रति आक्रोश दबाती हुई भाग्यश्री ने कहा, ‘‘प्रकृति की मरजी कोई नहीं जानता, किंतु तुम्हारे लापरवाह बेटे को सभी जानते हैं और… और पिताजी की तानाशाही. दोनों के प्रति तुम्हारे समर्पित भाव का प्रतिदान तुम्हें यह मिला कि तुम दोनों की मानसिक चोट से आहत हो कर यहां तक  पहुंच गईं? जिंदगी जकड़ कर रखना चाहती है, लेकिन मौत तुम्हें अपनी ओर खींच रही है.’’

मां ने आहत स्वर में कहा, ‘‘क्या किया जाए, सब समय की बात है.’’

भाग्यश्री ने अपनी आर्द्र आंखों को पोंछ कर कहा, ‘‘दवा तो ठीक से ले रही हो न, कोई कमी तो नहीं है न?’’

पलभर मां चुप रही, फिर बोली, ‘‘नहीं, दवा तो लाता ही है.’’

‘‘कौन? बाबू?’’ भाग्यश्री ने पूछा.

‘‘और नहीं तो कौन, तुम्हारे पिताजी लाएंगे क्या, गोबर भी काम में आ जाता है, गोथठे के रूप में. लेकिन वे? इस से भी गएगुजरे हैं. वही ठीक रहते तो किस बात का रोना था?’’ कुछ आक्रोश में मां ने कहा.

भाग्यश्री सिर  झुका कर बातें सुनती रही.

‘‘और एक बेटा है, वह अपनेआप में लीन रहता है, कमरे में  झांक कर भी नहीं देखता. आने में देरी हो जाए, तो मन घबराता है. देरी का कारण पूछती हूं, तो बरस पड़ता है. घर में नहीं रहने पर इधर बाप की चिल्लाहट सुनो और आने पर कुछ पूछो, तो बेटे की  िझड़की सुनो. बस, ऐसे ही दिन काट रही हूं,’’ आंसू पोंछती हुई मां ने कहा, ‘‘हां, लेकिन सेवा तुम्हारे पिताजी करते हैं मूड ठीक रहा तो, ठीक नहीं तो चार बातें सुना कर ही सही, मगर करते हैं.’’

भाग्यश्री ने कई बार सोचा कि मां की सेवा के लिए एक आया रख दे, मगर इस में भी समस्याएं थीं. एक तो यह कि इस माहौल में आया रहेगी नहीं, हरवक्त तनाव की स्थिति, बापबेटे के बीच वाकयुद्ध, अशांति ही अशांति. स्वयं कुछ भी खा लें, मगर आया को तो ढंग से खिलाना पड़ेगा न. दूसरा यह कि भाग्यश्री की सहायता घरवाले स्वीकार करेंगे? इन सब कारणों से वह लाचार थी. वह मां के पास बैठी थी, तभी उस के पिताजी आए. औपचारिकतावश भाग्यश्री ने प्रणाम किया. फिर चुपचाप बैठी रही.

भाग्यश्री ने अपने पिताजी की ओर देखा. उन के चेहरे पर क्रोध का भाव था. निसंदेह वह भाग्यश्री के प्रति था.

पिछले 10 वर्षों में वह बहुत कम यहां आईर् थी. जब उस ने अपनी मरजी से शादी की, पिताजी ने उसे त्याग दिया. मां भी पिताजी का समर्थन करती, किंतु मां तो मां होती है. मां अपना मोह त्याग नहीं पाई थी. शादी भी एक संयोग था. स्नेहदीप के बिना जीवन अंधकारमय रहता है. प्रकाश की खोज करना हर व्यक्ति की प्रवृत्ति है.

व्यक्ति को यदि अपने परिवेश में स्नेह न मिले तो बूंदभर स्नेह की लालसा लिए उस की दृष्टि आकाश को निहारती है, शायद स्वाति बूंद उस पर गिर पड़े. जहां आशा बंधती है, वहां वह स्वयं भी बंध जाता है. भाग्यश्री के साथ भी ऐसी ही बात थी. नाम के विपरीत विधाता का लिखा. दोष किस का है- इस सर्वेक्षण का अब समय नहीं रहा, लेकिन एक ओर जहां भाग्यश्री का खूबसूरत न होना उस के बुरे समय का कारण बना, वहीं, दूसरी ओर पिता का गुस्सैल स्वभाव भी. कभी भी उन्होंने घर की परिस्थिति को देखा ही नहीं, बस, जो चाहिए, मिलना चाहिए अन्यथा घर सिर पर उठा लेते.

घर की विषम परिस्थितियों ने ही भाग्यश्री को सम झदार बना दिया. न कोई इच्छा, न शौक. बस, उदासीनता की चादर ओढ़ कर वह वर्तमान में जीती गई. परिश्रमी तो वह बचपन से ही थी. छोटे बच्चों को पढ़ा कर उस ने अपनी पढ़ाई पूरी की. उस का एक छोटा भाई था. बहुत मन्नत के बाद उस का जन्म हुआ था. इसलिए उसे पा कर मातापिता का दर्प आसमान छूने लगा था. पुत्र के प्रति आसक्ति और भाग्यश्री के प्रति विरक्ति यह इस घर की पहचान थी.

लेकिन, उसे अपने एकांत जीवन से कभी ऊब नहीं हुई, बल्कि अपने एकाकीपन को उस ने जीवन का पर्याय बना लिया था. कालांतर में हरदेव के आत्मीय संसर्ग के कारण उस के जीवन की दिशा ही नहीं बल्कि परिभाषा भी बदल गई. बहुत ही साधारण युवक था वह, लेकिन विचारउदात्त था. सादगी में विचित्र आकर्षण था.

भाग्यश्री न तो खूबसूरत थी, न पिता के पास रुपए थे और न ही वह सभ्य माहौल में पलीबढ़ी थी. किंतु पता नहीं, हरदेव ने उस के हृदय में कौन सा अमृतरस का स्रोत देखा, जिस के आजीवन पान के लिए वह परिणयसूत्र में बंध गया. हरदेव के मातापिता ने इस रिश्ते को सहर्ष स्वीकार किया. भाग्यश्री के मातापिता ने उस के सामने कोई आपत्ति जाहिर नहीं की, मगर पीठपीछे बहुत कोसा. यहां तक कि वे लोग न इस से मिलने आए, न ही उन्होंने इसे घर बुलाया. खुश रह कर भी भाग्यश्री मायके के संभावित दुखद माहौल से दुखी हो जाती. उपेक्षा के बाद भी वह अपने मायके के प्रति लगाव को जब्त नहीं कर पाती और यदाकदा मांपिताजी, भाई से मिलने आती, किंतु लौटती तो अपमान के आंसू ले कर.

कुछ माह बाद ही भाग्यश्री को मालूम हुआ कि उस की मां लकवे का शिकार हो गई है. घबरा कर वह मायके आई. अपाहिज मां उसे देख कर रोने लगी, मानो बेटी के प्रति जितना भी दुर्भाव था, वह बह रहा हो. किंतु, पिताजी की मुद्रा कठोर थी. मां अपनी व्यथा सुनाती रही, लेकिन पिताजी मौन थे. आर्थिक तंगी तो घर में पहले से ही थी, अब तो कंगाली में आटा भी गीला हो गया था. मां के पास वह कुछ देर बैठी रही, फिर बहुत साहस जोड़ कर, मां को रुपए दे कर कहने लगी, ‘इलाज में कमी न करना मां. मैं तुम्हारा इलाज कराऊंगी, तुम चिंता न करना.’

उस की बातों को सुनते ही पिताजी का मौन भंग हुआ. बहुत ही उपेक्षित ढंग से उन्होंने कहा, ‘हम लोग यहां जैसे भी हैं, ठीक हैं. तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. मिट्टी में इज्जत मिला कर आई है जान बचाने.’ विकृत भाव चेहरे पर आच्छादित था. कुछ पल चुप रहे, फिर उन्होंने कहा, ‘तुम्हारे आने पर यह रोएगी ही, इसलिए न आओ तो अच्छा रहेगा.’

घर में उस की उपेक्षा नई बात नहीं थी. आंसूभरी आंखों से मां को देखती हुई उदासी के साथ वह लौट गई. मातापिता ने उसे त्याग दिया. मगर वह त्याग नहीं पाई थी. इस बार 5वीं बार वह सहमीसहमी मां के घर आई थी. इस बार न उसे उपेक्षा की चिंता थी, न पिताजी के क्रोध का भय था. और न आने पर संकोच. मां के दुख के आगे सभी मौन थे.

उसे याद आई. छोटे भाई के प्रति मातापिता का लगाव देख कर वह यही सम झ बैठी थी कि यह घर उस का नहीं. खिलौने आए तो उस भाई के लिए ही. उसे याद नहीं कि उस ने कभी खिलौने से खेला भी था. खीर बनी, तो पहले भाई ने ही खाई. उस के खाने के बाद ही उसे मिली. मां से पूछती, ‘हर बार उसी की सुनी जाती, मेरी बात क्यों नहीं? गलती अगर बाबू करे तो दोषी मैं ही हूं, क्यों?’

लापरवाही के साथ बड़े गर्व से मां कहती, ‘उस की बराबरी करोगी? वह बेटा है. मरने पर पिंडदान करेगा.’ मां के इस दुर्भाव को वह नहीं भूली. पति के घर में हर सुख होने के बाद भी वह अतीत से निकल नहीं पाई. बारबार उसे चुभन का एहसास होता रहा. लेकिन अब? मां की विवशता, लाचारी और कष्ट के सामने उस का अपना दुख तुच्छ था.

कुछ पल वह मां के पास बैठी रही. फिर बोली, ‘‘बाबू कहां है?’’ बचपन से ही, वह भाई को बाबू बोलती आई थी. यही उसे सिखाया गया था.

‘‘होगा अपने कमरे में,’’ विरक्तभाव से मां ने कहा.

भाग्यश्री कमरे में जा कर बाबू के पास बैठ गई. पत्थर पर फूल की क्यारी लगाने की लालसा में उसे कुछ पल अपलक देखती रही. फिर साहस समेट कर बोली, ‘‘आज तक इस घर ने मु झे कुछ नहीं दिया है. बहनबेटी को देना बड़ा पुण्य का काम होता है.’’

बाबू आश्चर्य से उसे देखने लगा, क्योंकि किसी से कुछ मांगना उस का स्वभाव नहीं था.

‘‘क्या कहती हो दीदी? क्या दूं,’’ बाबू ने पूछा.

‘‘मन का चैन,’’ याचक बन कर उस ने कहा.

बाबू चुप रहा. बाबू के चेहरे का भाव पढ़ कर उस ने आगे कहा, ‘‘देखो बाबू, हम दोनों यहीं पलेबढ़े. लेकिन, तुम्हें याद है? मांपिताजी का सारा ध्यान तुम्हीं पर रहता था. तुम्हीं उन के लिए सबकुछ हो. उन के विश्वास का मान रख लो. मु झे मेरे मन का चैन मिल जाएगा.’’ बोलतेबोलते उस का गला भर आया. कुछ रुक कर फिर बोली, ‘‘याद है न? मां तुम्हें छिप कर पैसा देती थीं जलेबियां खाने के लिए. मैं मांगती, तो कहतीं ‘इस की बराबरी करोगी? यह बेटा है, आजीवन मु झे देखेगा.’  और मैं चुप हो जाती. मां के इस प्रेम का मान रख लो बाबू. पहले उस के दुर्भाव पर दुख होता था और अब उस की विवशता पर. दुख मेरे समय में ही रहा.’’

‘‘तुम क्या कह रही हो, मैं सम झ नहीं पा रहा हूं,’’ कुछ खी झ कर बाबू ने कहा, ‘‘क्या कमी करता हूं? दवा, उचित खानापीना, सभी तो हो रहा है. क्या कमी है?’’

‘‘आत्मीयता की कमी है,’’ भाग्यश्री का संक्षिप्त उत्तर था. ‘चोर बोले जोर से’ यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है. खी झ कर बाबू बोला, ‘‘हांहां, मैं गलत हूं. मगर तुम ने कौन सी आत्मीयता दिखाई? आज भी कोई पूछता है कि भाग्यश्री कैसी है, तो लगता है कि व्यंग्य से पूछ रहा है.’’

बाबू की यह बात उसे चुभ गई. आंखें नम हो गईं. मगर धीरे से कहने लगी, ‘‘हां, मैं ने गलत काम किया है. तुम लोगों के सताने पर भी मैं ने आत्माहत्या नहीं की, बल्कि जिंदगी को तलाशा है, यही गलती हुई है न?’’

बाबू चुप रहा.

‘‘देखो बाबू,’’ भरे हुए कंठ से उस ने कहा, ‘‘बहस नहीं करो. मैं इतना ही जानती हूं कि मांपिताजी, मांपिताजी होते हैं. मैं ने इतना अन्याय सह कर भी मन मैला न किया. फिर तुम्हें क्या शिकायत है कि इन के दुखसुख में हाल भी न पूछो? दवा से ज्यादा सद्भाव का असर होता है.’’

‘‘कौन कहता है?’’ बात का रुख बदलते हुए बाबू ने कहा, ‘‘कौन शिकायत करता है? क्या नहीं करता? तुम्हें पता है सारी बातें? कौन सा ऐसा दिन है, जब पिताजी मु झे नहीं कोसते? एक सरकारी नौकरी न मिली कि नालायक, निकम्मा विशेषणों से अलंकृत करते रहते हैं. बीती बातों को उखाड़उखाड़ कर घर में कुहराम मचाए रहते हैं. घर की शांति भंग हो गई है.’’ वह अपने आंसू पोंछने लगा.

बात जब पिताजी पर आई, तो कमरे में आ कर चीखते हुए भाग्यश्री को बोलने लगे, ‘‘हमारे घर के मामले में तुम कौन हो बोलने वाली? कौन तुम्हें यहां की बातें बताता है? यह मेरा बेटा है, मैं इसे कुछ बोलूं तो तुम्हें क्या? यह हमें लात मारे, तुम्हें क्या मतलब?’’

बात कहां से कहां पहुंच गई. भाग्यश्री को भी क्रोध आ गया. वह कुछ बोली नहीं, बस, आक्रोश से अपने पिताजी को देखती रही. पिताजी का चीखना जारी था, ‘‘तुम अपने घर में खुश रहो. हमारे घर के मामले में तुम्हें बोलने का अधिकार नहीं है.’’

‘हमारा घर?

‘पिताजी का घर?

‘बाबू का घर? मेरा नहीं? हां, पहले भी तो नहीं था. और अब? शादी के बाद?’ भाग्यश्री मन में सोच रही थी.

पिताजी को बोलते देख, मां ने आवाज लगाई. भाग्यश्री मां के पास चली गई. मां ने रोते हुए कहा, ‘‘समय तो किसी का कोई बदल नहीं सकता न बेटा? मेरे समय में ही दुख लिखा है, इसलिए तो बापबेटे की मत मारी गई. आपस में भिड़ कर एकदूसरे का सिर फोड़ते रहते हैं. तुम बेकार मेरी चिंता करती हो. तुम्हें यहां कोई नहीं सराहता, फिर क्यों आती हो.’’ यह कहती हुई वह फूटफूट कर रो पड़ी.

पिताजी के प्रति उत्पन्न आक्रोश ममता में घुल गया. कुछ देर तक भाग्यश्री सिर नीचे किए बैठी रही. आंखों से आंसू बहते रहे. अचानक उठी और बाबू से बोली, ‘‘मां, मेरी भी है. इस की हालत में सुधार यदि नहीं हुआ, तो बलपूर्वक मैं अपने साथ ले जाऊंगी,’’ कहती हुई वह चली गई.

महल्ले में ही उस का मुंहबोला एक भाई था, कुंदन. वह बाबू का दोस्त भी था. उदास हो कर लौटती भाग्यश्री को देख कर वह उस के पीछे दौड़ा, ‘‘दीदी, ओ दीदी.’’

भाग्यश्री ने पीछे मुड़ कर देखा. बनावटी मुसकान अधरों पर बिखेर कर हालचाल पूछने लगी. उसे मालूम हुआ कि फिजियोथेरैपी द्वारा वह इलाज करने लगा है. उस की उदास आंखें चमक उठीं. याचनाभरी आवाज में कहा, ‘‘भाई, मेरी मां को भी देख लो.’’

‘‘चाचीजी को? हां, स्थिति ठीक नहीं है, यह सुना, लेकिन किसी ने मु झ से कहा ही नहीं,’’ कुंदन ने कहा.

‘‘मैं कह रही हूं न,’’ व्यग्र होते हुए भाग्यश्री ने कहा.

दो पल दोनों चुप रहे. कुछ सोच कर भाग्यश्री ने फिर कहा, ‘‘लेकिन भाई, यह बताना नहीं कि मैं ने तुम्हें भेजा है. नहीं तो मां का इलाज करवाने नहीं देंगे सब.’’

‘‘लेकिन, लेकिन क्या कहूंगा?’’

‘‘यही कि, बाबू के मित्र हो, इसलिए इंसानियतवश. और हां,’’ भाग्यश्री ने अपने बटुए में से एक हजार रुपया निकाल कर देते हुए कहा, ‘‘तुम मेरा पता लिख लो, मेरे घर आ कर ही अपना मेहनताना ले लेना.’’

कुंदन उसे देखता रहा. भाग्यश्री की आंखों में कृतज्ञता छाई थी, बोली, ‘‘भाई, तुम्हारा एहसान मैं याद रखूंगी. बस, मेरी मां को ठीक कर दो.’’

कुंदन सिर हिला कर कह रहा था, ‘‘ठीक है.’’

दो माह बाद वह फिर से मायके आई. हालांकि कुंदन से उसे मालूम हो गया था कि मां की स्थिति में बहुत सुधार है, फिर भी वह देखना चाहती थी. भाग्यश्री के मन में एक अज्ञात भय था. जैसे कोई किसी दूसरे के घर में प्रवेश कर रहा हो वह भी चोरीचोरी. जैसेजैसे घर निकट आ रहा था, उस के कदम की गति धीमी होती जा रही थी और हृदय की धड़कन बढ़ती जा रही थी.

वहां पहुंच कर उस ने बरामदे में  झांका. मां, पिताजी और बाबू तीनों बैठ कर चाय पी रहे थे. सभी प्रसन्न थे. आपस में बातें करते हुए हंस रहे थे. भाग्यश्री ने शायद ही कभी ऐसा दृश्य देखा होगा. भाग्यश्री वहीं ठहर गई. उस ने अपने भाई से ‘मन का चैन’ मांगा था, भाई ने उसे दे दिया. मायके से प्राप्त उपेक्षा, तो उस का दुख था ही, लेकिन यह ‘मन का चैन’ उस का सुख था.

‘ठीक ही है,’ उस ने सोचा, मैं तो इस घर के लिए कभी थी ही नहीं. फिर अपना स्थान क्यों ढूढ़ूं? आज मन का चैन मिला, इस से बड़ा मायके का उपहार क्या होगा. मन का चैन ले कर वह वहीं से लौट आई, बिन बुलाए कभी न जाने के लिए.

बाहर निकल कर नम आंखों से अपने मायके का घर देख रही थी. अनायास उस के अधरों पर वेदना के साथ एक मुसकान दौड़ आई. उंगली से इशारा करती हुई, भरे हुए कंठ से वह बुदबुदाई, ‘मु झे पता है पिताजी, एक दिन आप मु झे बुलाएंगे जरूर. मन का चैन पा कर वह प्रसन्न थी, किंतु मायके के विद्रोह से उस का अंतर्मन बिलख रहा था. उस ने मन से पूछा, ‘लेकिन कहां बुलाएंगे?’ मन ने उत्तर भी दे दिया, ‘जल्द ही बुलाएंगे.’

अपनी आंखों को पोंछती हुई वह एकाएक मुड़ी और अपने घर की ओर चल दी. मन में विश्वास था कि एक दिन बुलावा आएगा, हां, बुलावा आएगा जरूर.

Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना

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Father’s Day Special – बेटी के लिए : पिता की इच्छा का संसार

शिवचरण अग्रवाल बाजार से लौटते ही कुरसी पर पसर गए. मलीन चेहरा, शिथिल शरीर देख पत्नी माया ने घबरा कर माथा छुआ, ‘‘क्या हुआ… क्या तबीयत खराब लग रही है. भलेचंगे बाजार गए थे…अचानक से यों…’’

कुछ देर मौन रख वह बोले, ‘‘लौटते हुए अजय की दुकान पर उस का हालचाल पूछने चला गया था. वहां उस ने जो बताया उसे सुन कर मन खट्टा हो गया.’’

‘‘ऐसा क्या बता दिया अजय ने जो आप की यह हालत हो गई?’’ माया ने पंखा झलते हुए पूछा.

‘‘वह बता रहा था कि कुछ दिन पहले उस की दुकान पर समधीजी का एक रिश्तेदार आया था…उसे यह पता नहीं था कि अजय मेरा भांजा है. बातोंबातों में मेरा जिक्र आ गया तो वह कहने लगा, ‘अरे, उन्हें तो मैं जानता हूं…बड़े चालाक और घटिया किस्म के इनसान हैं… दरअसल, मेरे एक दूर के जीजाजी के घर उन की लड़की ब्याही है…जीजाजी बता रहे थे कि शादी में जो तय हुआ था उसे तो दबा ही लिया, साथ ही बाद में लड़की के गहनेकपडे़ भी दाब लेने की पूरी कोशिश की…क्या जमाना आ गया है लड़की वाले भी चालू हो गए…’ रिश्तेदारी का मामला था सो अजय कुछ नहीं बोला मगर वह बेहद दुखी था…उसे तो पता ही है कि मैं ने मीनू की शादी में कैसे दिल खोल कर खर्च किया है, जो कुछ तय था उस से बढ़चढ़ कर ही दिया, फिर भी मीनू के ससुर मेरे बारे में ऐसी बातें उड़ाते फिरते हैं… लानत है….’’

तभी उन की छोटी बेटी मधु कालिज से वापस आ गई. उन की उतरी सूरत देख उस का मूड खराब न हो अत: दोनों ने खुद को संयत कर किसी दूसरे काम में उलझा लिया.

आज का मामला कोई नया नहीं था. साल भर ही हुआ था मीनू की शादी को मगर आएदिन कुछ न कुछ फेरबदल के साथ ऐसे मामले दोहराए जाते पर शिवचरण चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे…इन हालात के लिए वह स्वयं को ही दोषी मानते थे.

आज शिवचरण की आंखों के सामने बारबार वह दृश्य घूम रहा था जब कपूर साहब ने उन से अपने बड़े बेटे के लिए मीनू का हाथ मांगा था.

रजत कपूर उन के नजदीकी दोस्त एवं पड़ोसी दीनदयाल गुप्ता के बिजनेस पार्टनर थे. बेहद सरल, सहृदय और जिंदादिल. दीनदयाल के घर शिवचरण की उन से आएदिन मुलाकातें होती रहीं. जैसे वह थे वैसा ही उन का परिवार था. 2 बेटों में बड़ा बेटा कंप्यूटर इंजीनियर था और छोटा एम.बी.ए. पूरा कर अपने पिता का बिजनेस में हाथ बंटा रहा था. एक ऐसा हंसताखेलता परिवार था जिस में अपनी लड़की दे कर कोई भी पिता अपनी जिंदगी को सफल मानता. ऐसे परिवार से खुद रिश्ता आया था मीनू के लिए.

कपूर साहब भी अपने बड़े बेटे के लिए देखेभाले परिवार की लड़की चाह रहे थे और उन की नजर मीनू पर जा पड़ी. उन्होंने बड़ी विनम्रता से निवेदन किया था, ‘शिवचरण भाईसाहब, बेटी जैसे अब तक आप के घर रह रही है वैसे ही आगे हमारे घर रहेगी. बस, तन के कपड़ों में विदा कर दीजिए, मेरे घर में बेटी नहीं है, उसे ही बेटी समझ कर दुलार करूंगा.’

इतना अपनापन से भरा निवेदन सुन कर शिवचरण गद्गद हो उठे थे. कितनी धुकधुक रहती है पिता के मन में जब वह अपनी प्यारी बेटी को पराए हाथों में सौंपता है. मन आशंकाओं से भरा रहता है. रातदिन यही चिंता लगी रहती है कि पता नहीं बेटी सुखी रहेगी या नहीं, मानसम्मान मिलेगा या नहीं…मगर इस आग्रह में सबकुछ कितना पारदर्शी… शीशे की तरह साफ था.

शिवचरण ने जब इस बात पर अपनी पत्नी के साथ बैठ कर विचार किया तो धीरेधीरे कुछ प्रश्न मुखरित हो उठे. मसलन, ‘परिवार और लड़का तो वाकई लाखों में एक है मगर… हम वैश्य और वह पंजाबी…घर वालों को कैसे राजी करेंगे…’

यह सचमुच एक गंभीर समस्या थी. शिवचरण का भरापूरा कुटुंब था जिस में इस रिश्ते का जिक्र करने का मतलब था सांप की पूंछ पर पैर रखना. वैसे तो सभी तथाकथित पढे़लिखे समकालीन भद्रजन थे मगर जब किसी के शादीब्याह की बात आती तो एकएक पुरातन रीतिरिवाज खोजखोज कर निकाले जाते. मसलन, जाति, गोत्र, जन्मपत्री, मांगलिक-अमांगलिक…और यहां तो बात विजातीय रिश्ते की थी.

बेटी के सुखद भविष्य के लिए शिवचरण ने तो एक बार सब को दरकिनार करने की सोच भी ली थी मगर माया नहीं मानी.

‘शादीब्याह के मसले पर घरपरिवार को साथ ले कर चलना ही पड़ता है. अगर अभी नजरअंदाज कर दिया तो सारी उम्र ताने सुनते रहेंगे…तुम्हें कोई कुछ न बोले मगर मैं तो घर की बड़ी बहू हूं. तुम्हारी अम्मां मुझे नहीं बख्शेंगी.’

और अम्मां से पूछने पर जो कुछ सुनने को मिला वह अप्रत्याशित नहीं था.

‘क्या हमारी बिरादरी में कोई अच्छा लड़का नहीं मिला जो दूसरी बिरादरी का देखने चल दिया.’

‘नहीं, अम्मां, खुद ही रिश्ता आया था. बेहद भले लोग हैं. कोई दानदहेज भी नहीं लेंगे.’

‘तो क्या पैसे बचाने को ब्याह रहा है वहां? तेरे पास न हों तो मुझ से ले लेना…अरे, बेटी के ब्याह पर तो खर्च होता ही है…और मीनू घर की बड़ी लड़की है, अगर उसे वहां ब्याह दिया तो सब यही समझेंगे कि लड़की तेज होगी, खुद से पसंद कर ब्याह कर बैठी. फिर छोटी को कहीं ब्याहना भी मुश्किल हो जाएगा.’

अम्मां ने तिवारीजी को भी बुलवा लिया. लंबा तिलक लगाए वह आए तो अम्मां ने खुद ही उन के पांव नहीं छुए, सब से छुआए. 4 कचौड़ी, 6 पूरी और 2 रसगुल्लों का नाश्ता करने के बाद समस्या पर विचार कर के वह बोले, ‘यजमान, यह आप की मरजी है कि आप विवाह कहां करें पर आप ने जाति के बाहर विवाह किया तो मैं आप के घर में पैर नहीं रखूंगा. आखिर सनातन प्रथा है यह जाति की. आप जैसे नए लोग तोड़ते हैं तभी तो तलाक होते हैं. न कुंडली मिली, न अपनी जाति का, न घर के रीतिरिवाज का पता. आप सोच भी कैसे सकते हैं.’

अम्मां और तिवारीजी के आगे शिवचरण के सभी तर्क विफल हो गए और उन्हें इस रिश्ते को भारी मन से मना करना पड़ा. दीनदयाल ने यह बात विफल होती देख वहां अपनी भतीजी की बात चला दी और आज वह कपूर साहब के घर बेहद सुखी थी.

जब शिवचरण मीनू के लिए सजातीय वर खोजने निकले तो उन्हें एहसास हुआ कि दूल्हामंडी में से एक अदद दूल्हा खरीदना कितना कठिन कार्य था. जो लड़का अच्छा लगता उस के दाम आसमान को छूते और जिस का दाम कम था वह मीनू के लायक नहीं था. कपूर साहब के रिश्ते पर चर्चा के समय जिन सगेसंबंधियों ने मीनू के लिए सुयोग्य वर खोज लाने और हर तरह का सहयोग देने की बात की थी इस

समय वे सभी पल्ला झाड़ कहीं गायब हो गए थे.

भागदौड़ कर के अंत में एक जगह बात पक्की हुई. रिश्ता तय होते समय लड़के के मातापिता का रवैया ऐसा था जैसे लड़की पसंद कर उन्होंने लड़की वालों पर एहसान किया है. उस समय शिवचरण को कपूर साहब का नम्र निवेदन बहुत याद आ रहा था. उस दिन जो उन के कंधे झुके तो आज तक सीधे नहीं हुए थे.

अतीत की यादों में खोए शिवचरण को तब झटका लगा जब पत्नी ने आ कर कहा कि दीनदयाल भाई साहब आए थे और आप के लिए एक निमंत्रण कार्ड दे गए हैं.

उस दिन दीनदयाल के घर एक पारिवारिक समारोह में शिवचरण की मुलाकात उन के बड़े भाई से हो गई जो अब कपूर साहब के समधी थे. उन की बात चलने पर वह गद्गद हो कर बोले, ‘‘बस, क्या कहें, हमारी बिटिया को तो बहुत अच्छा घरवर मिल गया. ऐसे सज्जन लोग कहां मिलते हैं आजकल…उसे हाथों पर उठा कर रखते हैं…बेटी ससुराल में खुश हो, एक बाप को और क्या चाहिए भला…’’ शिवचरण के चेहरे पर एक दर्द भरी मुसकान तैर आई.

घर आ कर मन और अधिक अपराधबोध से ग्रसित हो गया. वह खुद पर बेहद नाराज थे. बारबार स्वयं को कोस रहे थे कि क्यों मैं उस समय जातिवाद की ओछी मानसिकता से उबर नहीं पाया…क्यों सगेसंबंधियों और बिरादरी की कहावत से डर गया…अपनी बेटी का भला देखना मेरी अपनी जिम्मेदारी थी, बिरादरी की नहीं. दीनदयाल भी तो हमारी जाति के ही हैं. उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ा वहां रिश्ता करने से…उन का मानसम्मान उसी तरह बरकरार है…सच तो यह है कि आज के भागदौड़ भरे जीवन में किसी के पास इतना समय नहीं कि रुक कर किसी दूसरे के बारे में सोचे…‘लोग क्या कहेंगे’ जैसी बातें पुरानी हो चुकी हैं. जो इन्हें छोड़ आगे नहीं बढ़ते, आगे चल कर वे मेरी ही तरह रोते हैं.

शिवचरण अखबार पढ़ रहे थे तभी दीनदयाल उन से मिलने आए तो बातोंबातों में वह अपनी व्यथा कह बैठे, ‘‘क्या बताऊं भाईजी, कपूर साहब जैसा समधी खोने का दर्द अभी तक दिल में है…एक विचार आया है मन में…अगर उन के छोटे बेटे के लिए मधु का रिश्ता ले कर जाऊं तो…जब वह आए थे तो मैं ने इनकार कर दिया था, न जाने अब मेरे जाने पर कैसा बरताव करेंगे, यही सोच कर दिल घबरा रहा है.’’

‘‘नहीं, भाई साहब, उन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूं, दिल में किसी के लिए मैल नहीं रखते…वह तो खुशीखुशी आप का रिश्ता स्वीकारते मगर आप ने यह फैसला लेने में जरा सी देर कर दी. अभी 2 दिन पहले ही उन के छोटे बेटे का रिश्ता तय हुआ है.’’

एक बार फिर शिवचरण खुद को पराजित महसूस कर रहे थे.

वह अपनी गलती का प्रायश्चित्त करना चाह रहे थे मगर उन्हें मौका न मिला. सच ही है, कुछ भूलें ऐसी होती हैं जिन को भुगतना ही पड़ता है.

‘‘फोन की घंटी बज रही थी. शिवचरण ने फोन उठाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘नमस्ते, मामाजी,’’ दूसरी ओर से अजय की आवाज आई, ‘‘वह जो आप ने मधु के लिए वैवाहिक विज्ञापन देने को कहा था, उसी का मैटर कनफर्म करने को फोन किया है…पढ़ता हूं…कोई सुधार करना हो तो बताइए :

‘‘अग्रवाल, उच्च शिक्षित, 23, 5 फुट 4 इंच, गृहकार्य दक्ष, संस्कारी कन्या हेतु सजातीय वर चाहिए.’’

‘‘बाकी सब ठीक है, अजय. बस, ‘अग्रवाल’ लिखना जरूरी नहीं और ‘सजातीय’ शब्द की जगह लिखो, ‘जातिधर्म बंधन नहीं.’’’

‘‘मगर मामाजी, क्या आप ने सगेसंबंधियों से इस बारे में…’’

‘‘सगेसंबंधी जाएं भाड़ में….’’ शिवचरण फोन पर चीख पडे़.

‘‘और मामीजी…’’

‘‘तेरी मामी जाए चूल्हे में…अब मैं वही करूंगा जो मेरी बेटी के लिए सही होगा.’’

शिवचरण ने फोन रख दिया…फोन रख कर उन्हें लगा जैसे आज वह खुल कर सांस ले पा रहे हैं और अपने चारों तरफ लिपटे धूल भरे मकड़जाल को उन्होंने उतार फेंक

प्यार का धागा : कैसे धारावी की डौल बन गई डौली

सांझ ढलते ही थिरकने लगते थे उस के कदम. मचने लगता था शोर, ‘डौली… डौली… डौली…’

उस के एकएक ठुमके पर बरसने लगते थे नोट. फिर गड़ जाती थीं सब की ललचाई नजरें उस के मचलते अंगों पर. लोग उसे चारों ओर घेर कर अपने अंदर का उबाल जाहिर करते थे.

…और 7 साल बाद वह फिर दिख गई. मेरी उम्मीद के बिलकुल उलट. सोचा था कि जब अगली बार मुलाकात होगी, तो वह जरूर मराठी धोती पहने होगी और बालों का जूड़ा बांध कर उन में लगा दिए होंगे चमेली के फूल या पहले की तरह जींसटीशर्ट में, मेरी राह ताकती, उतनी ही हसीन… उतनी ही कमसिन…

लेकिन आज नजारा बदला हुआ था. यह क्या… मेरे बचपन की डौल यहां आ कर डौली बन गई थी.

लकड़ी की मेज, जिस पर जरमन फूलदान में रंगबिरंगे डैने सजे हुए थे, से सटे हुए गद्देदार सोफे पर हम बैठे

हुए थे. अचानक मेरी नजरें उस पर ठहर गई थीं.

वह मेरी उम्र की थी. बचपन में मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे अपने साथ स्कूल ले कर जाती थी. उन दिनों मेरा परिवार एशिया की सब से बड़ी झोपड़पट्टी में शुमार धारावी इलाके में रहता था. हम ने वहां की तंग गलियों में बचपन बिताया था.

वह मराठी परिवार से थी और मैं राजस्थानी ब्राह्मण परिवार का. उस के पिता आटोरिकशा चलाते थे और उस की मां रेलवे स्टेशन पर अंकुरित अनाज बेचती थी.

हर शुक्रवार को उस के घर में मछली बनती थी, इसलिए मेरी माताजी मुझे उस दिन उस के घर नहीं जाने देती थीं.

बड़ीबड़ी गगनचुंबी इमारतों के बीच धारावी की झोपड़पट्टी में गुजरे लमहे आज भी मुझे याद आते हैं. उगते हुए सूरज की रोशनी पहले बड़ीबड़ी इमारतों में पहुंचती थी, फिर धारावी के बाशिंदों के पास.

धारावी की झोपड़पट्टी को ‘खोली’ के नाम से जाना जाता है. उन खोलियों की छतें टिन की चादरों से ढकी रहती हैं.

जब कभी वह मेरे घर आती, तो वापस अपने घर जाने का नाम ही नहीं लेती थी. वह अकसर मेरी माताजी के साथ रसोईघर में काम करने बैठ जाती थी.

काम भी क्या… छीलतेछीलते आधा किलो मटर तो वह खुद खा जाती थी. माताजी को वह मेरे लिए बहुत पसंद थी, इसलिए वे उस से बहुत स्नेह रखती थीं.

हम कल्याण के बिड़ला कालेज में थर्ड ईयर तक साथ पढे़ थे. हम ने लोकल ट्रेनों में खूब धक्के खाए थे. कभीकभार हम कालेज से बंक मार कर खंडाला तक घूम आते थे. हर शुक्रवार को सिनेमाघर जाना हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया था.

इसी बीच उस की मां की मौत हो गई. कुछ दिनों बाद उस के पिता उस के लिए एक नई मां ले आए थे.

ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद मैं और पढ़ाई करने के लिए दिल्ली चला गया था. कई दिनों तक उस के बगैर मेरा मन नहीं लगा था.

जैसेतैसे 7 साल निकल गए. एक दिन माताजी की चिट्ठी आई. उन्होंने बताया कि उस के घर वाले धारावी से मुंबई में कहीं और चले गए हैं.

7 साल बाद जब मैं लौट कर आया, तो अब उसे इतने बड़े महानगर में कहां ढूंढ़ता? मेरे पास उस का कोई पताठिकाना भी तो नहीं था. मेरे जाने के बाद उस ने माताजी के पास आना भी बंद कर दिया था.

जब वह थी… ऐसा लगता था कि शायद वह मेरे लिए ही बनी हो. और जिंदगी इस कदर खुशगवार थी कि उसे बयां करना मुमकिन नहीं.

मेरा उस से रोज ?ागड़ा होता था. गुस्से के मारे मैं कई दिनों तक उस से बात ही नहीं करता था, तो वह रोरो कर अपना बुरा हाल कर लेती थी. खानापीना छोड़ देती थी. फिर बीमार पड़ जाती थी और जब डाक्टरों के इलाज से ठीक हो कर लौटती थी, तब मुझ से कहती थी, ‘तुम कितने मतलबी हो. एक बार भी आ कर पूछा नहीं कि तुम कैसी हो?’

जब वह ऐसा कहती, तब मैं एक बार हंस भी देता था और आंखों से आंसू भी टपक पड़ते थे.

मैं उसे कई बार समझाता कि ऐसी बात मत किया कर, जिस से हमारे बीच लड़ाई हो और फिर तुम बीमार पड़ जाओ. लेकिन उस की आदत तो जंगल जलेबी की तरह थी, जो मुझे भी गोलमाल कर देती थी.

कुछ भी हो, पर मैं बहुत खुश था, सिवा पिताजी के जो हमेशा अपने ब्राह्मण होने का घमंड दिखाया करते थे.

एक दिन मेरे दोस्त नवीन ने मुझसे कहा, ‘‘यार पृथ्वी… अंधेरी वैस्ट में ‘रैडक्रौस’ नाम का बहुत शानदार बीयर बार है. वहां पर ‘डौली’ नाम की डांसर गजब का डांस करती है. तुम देखने चलोगे क्या? एकाध घूंट बीयर के भी मार लेना. मजा आ जाएगा.’’

बीयर बार के अंदर के हालात से मैं वाकिफ था. मेरा मन भी कच्चा हो रहा था कि अगर पुलिस ने रेड कर दी, तो पता नहीं क्या होगा… फिर भी मैं उस के साथ हो लिया.

रात गहराने के साथ बीयर बार में रोशनी की चमक बढ़ने लगी थी. नकली धुआं उड़ने लगा था. धमाधम तेज म्यूजिक बजने लगा था.

अब इंतजार था डौली के डांस का. अगला नजारा मुझे चौंकाने वाला था. मैं गया तो डौली का डांस देखने था, पर साथ ले आया चिंता की रेखाएं.

उसे देखते ही बार के माहौल में रूखापन दौड़ गया. इतने सालों बाद दिखी तो इस रूप में. उसे वहां देख

कर मेरे अंदर आग फूट रही थी. मेरे अंदर का उबाल तो इतना ज्यादा था कि आंखें लाल हो आई थीं.

आज वह मुझे अनजान सी आंखों से देख रही थी. इस से बड़ा दर्द मेरे लिए और क्या हो सकता था? उसे देखते ही, उस के साथ बिताई यादों के झरोखे खुल गए थे.

मु?ो याद हो आया कि जब तक उस की मां जिंदा थीं, तब तक सब ठीक था. उन के मर जाने के बाद सब धुंधला सा गया था.

उस की अल्हड़ हंसी पर आज ताले जड़े हुए थे. उस के होंठों पर दिखावे की मुसकान थी.

वह अपनेआप को इस कदर पेश कर रही थी, जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं. वह रात को यहां डांसर का काम किया करती थी और रात की आखिरी लोकल ट्रेन से अपने घर चली जाती थी. उस का गाना खत्म होने तक बीयर की पूरी

2 बोतलें मेरे अंदर समा गई थीं.

मेरा सिर घूमने लगा था. मन तो हुआ उस पर हाथ उठाने का… पर एकाएक उस का बचपन का मासूम चेहरा मेरी आंखों के सामने तैर आया.

मेरा बीयर बार में मन नहीं लग रहा था. आंखों में यादों के आंसू बह रहे थे. मैं उठ कर बाहर चला गया. नवीन तो नशे में चूर हो कर वहीं लुढ़क गया था.

मैं ने रात के 2 बजे तक रेलवे स्टेशन पर उस के आने का इंतजार किया. वह आई, तो उस का हाथ पकड़ कर मैं ने पूछा, ‘‘यह सब क्या है?’’

‘‘तुम इतने दूर चले गए. पढ़ाई छूट गई. पापी पेट के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम तो करना ही था. मैं क्या करती?

‘‘सौतेली मां के ताने सुनने से तो बेहतर था… मैं यहां आ गई. फिर क्या अच्छा, क्या बुरा…’’ उस ने कहा.

‘‘एक बार माताजी से आ कर मिल तो सकती थीं तुम?’’

‘‘हां… तुम्हारे साथ जीने की चाहत मन में लिए मैं गई थी तुम्हारी देहरी पर… लेकिन तुम्हारे दर पर मुझे ठोकर खानी पड़ी.

‘‘इस के बाद मन में ही दफना दिए अनगिनत सपने. खुशियों का सैलाब, जो मन में उमड़ रहा था, तुम्हारे पिता ने शांत कर दिया और मैं बैरंग लौट आई.’’

‘‘तुम्हें एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. कुछ और काम भी तो कर सकती थीं?’’ मैं ने कहा.

‘‘कहां जाती? जहां भी गई, सभी ने जिस्म की नुमाइश की मांग रखी. अब तुम ही बताओ, मैं क्या करती?’’

‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन मैला नहीं है. कल से तुम यहां नहीं आओगी. किसी को कुछ कहनेसम?ाने की जरूरत नहीं है. हम दोनों कल ही दिल्ली चले जाएंगे.’’

‘‘अरे बाबू, क्यों मेरे लिए अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो?’’

‘‘खबरदार जो आगे कुछ बोली. बस, कल मेरे घर आ जाना.’’

इतना कह कर मैं घर चला आया और वह अपने घर चली गई. रात सुबह होने के इंतजार में कटी. सुबह उठा, तो अखबार ने मेरे होश उड़ा दिए. एक खबर छपी थी, ‘रैडक्रौस बार की मशहूर डांसर डौली की नींद की ज्यादा गोलियां खाने से मौत.’

मेरा रोमरोम कांप उठा. मेरी खुशी का खजाना आज लुट गया और टूट गया प्यार का धागा.

‘‘शादी करने के लिए कहा था, मरने के लिए नहीं. मुझे इतना पराया सम?ा लिया, जो मुझे अकेला छोड़ कर चली गई? क्या मैं तुम्हारा बो?ा उठाने लायक नहीं था? तुम्हें लाल साड़ी में देखने

की मेरी इच्छा को तुम ने क्यों दफना दिया?’’ मैं चिल्लाया और अपने कानों पर हथेलियां रखते हुए मैं ने आंखें भींच लीं.

बाहर से उड़ कर कुछ टूटे हुए डैने मेरे पास आ कर गिर गए थे. हवा से अखबार के पन्ने भी इधरउधर उड़ने लगे थे. माहौल में फिर सन्नाटा था. रूखापन था. गम से भरी उगती हुई सुबह थी वह.

तेजतर्रार तिजोरी : रघुवीर ने अपनी बेटी का नाम तिजोरी क्यों रखा – भाग 5

‘‘डाक्टर साहब, क्या मैं सुनील से मिल सकती हूं?’’

‘‘हां, ड्रैसिंग कंप्लीट कर के नर्स बाहर आ जाए तो तुम अकेली जा सकती हो. मरीज के पास अभी ज्यादा लोगों का होना ठीक नहीं है,’’ डाक्टर ने कहा.

नर्स के बाहर आते ही तिजोरी लपक कर अंदर पहुंची. सुनील की चोट वाली आंख की ड्रैसिंग के बाद पट्टी से ढक दिया गया था, दूसरी आंख खुली थी.

तिजोरी सुनील के पास पहुंची. उस ने अपनी दोनों हथेलियों में बहुत हौले से सुनील का चेहरा लिया और बोली, ‘‘बहुत तकलीफ हो रही है न. सारा कुसूर मेरा है. न मैं तुम्हें गुल्लीडंडा खिलाने ले जाती और न तुम्हें चोट लगती.’’

तिजोरी को उदास देख कर सुनील अपने गालों पर रखे उस के हाथ पर अपनी हथेलियां रखता हुआ बोला, ‘‘तुम्हारा कोई कुसूर नहीं है तिजोरी, मैं ही उस समय असावधान था. तुम्हारे बारे में सोचने लगा था… इतने अच्छे स्वभाव की लड़की मैं ने अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखी,’’ कहतेकहते सुनील चुप हो गया.

तिजोरी समझ गई और बोली, ‘‘चुप क्यों हो गए… मन में आई हुई बात कह देनी चाहिए… बोलो न?’’

‘‘लेकिन, न जाने क्यों मुझे डर लग रहा है. मेरी बात सुन कर कहीं तुम नाराज न हो जाओ.’’

‘‘नहीं, मैं नाराज नहीं होती. मुझे कोई बात बुरी लगती है, तो तुरंत कह देती हूं. तुम बताओ कि क्या कहना चाह रहे हो.’’

‘‘दरअसल, मैं ही तुम को चाहने लगा हूं और चाहता हूं कि तुम से ही शादी करूं.’’

तिजोरी ने सुनील के गालों से अपने हाथ हटा लिए और उठ कर खड़े होते हुए बोली, ‘‘मुझ से शादी करने के लिए अभी तुम्हें 2 साल और इंतजार करना होगा. ठीक होने के बाद तुम्हें मेरे पिताजी से मिलना होगा.’’

इतना कह कर तिजोरी बाहर चली आई. श्रीकांत और महेश तो वहां इंतजार कर ही रहे थे, लेकिन अपने पिता को उन के पास देख कर वह चौंक पड़ी. उन के पास पहुंच कर वह सीने से लिपट पड़ी, ‘‘आप को कैसे पता चला?’’

‘‘मेरे खेतों में कोई घटना घटे, और मुझे पता न चले, ऐसा कभी हुआ है? मैं तो बस उस लड़के को देखने चला आया और अंदर भी आ रहा था, पर तुम दोनों की बातें सुन कर रुक गया. अब तू यह बता कि तू क्या चाहती है?’’

‘‘मैं ने तो उस से कह दिया है कि…’’ तिजोरी अपनी बात पूरी नहीं कर पाई थी कि रघुवीर यादव ने बात पूरी की…  ‘‘2 साल और इंतजार करना होगा.’’

अपने पिता के मुंह से अपने ही कहे शब्द सुन कर तिजोरी के चेहरे पर शर्म के भाव उमड़ आए और उस ने अपने पिता की चौड़ी छाती में अपना चेहरा छिपा लिया.

रघुवीर यादव अपनी बेटी की पीठ थपथपाने के बाद उस के बालों पर हाथ फेरने लगे. उन्होंने अपनी जेब से 10,000 रुपए निकाल कर श्रीकांत को दिए और बोले, ‘‘बेटा, यह सुनील के इलाज के लिए रख लो. कम पड़ें तो खेत में काम कर रहे किसी मजदूर से कह देना. खबर मिलते ही मैं और रुपए पहुंचा दूंगा,’’ इतना कह कर वे तिजोरी और महेश को ले कर घर की तरफ बढ़ गए.

अगले दिन तिजोरी अपने भाई महेश के साथ रोज की तरह खेत पर गई. आज उस का मन खेत पर नहीं लग रहा था. पानी पीने के लिए वह गोदाम की तरफ गई, तो उस ने किनारे जा कर बिजली महकमे के स्टोर की तरफ झांका.

तभी सामने वाली सड़क पर एक मोटरसाइकिल रुकी. उस पर बैठा लड़का सिर पर गमछा लपेटे और आंखों में चश्मा लगाए था. तिजोरी को देखते ही उस ने मोटरसाइकिल पर बैठेबैठे ही हाथ हिलाया, पर तिजोरी ने कोई जवाब नहीं दिया. वह उसे पहचानने की कोशिश करने लगी, पर दूरी होने के चलते पहचान न सकी.

तभी जब स्टोर में काम करते श्रीकांत की नजर तिजोरी पर पड़ी, तो श्रीकांत उसे वहां खड़ा देख उस के करीब चल कर जैसे ही आया, वह बाइक सवार अपनी बाइक स्टार्ट कर के चला गया.

तिजोरी के करीब आ कर श्रीकांत बोला, ‘‘हैलो तिजोरी, कैसी हो?’’

उस बाइक सवार को ले कर तिजोरी अपने दिमाग पर जोर देते हुए उसे पहचानने की कोशिश रही थी, लेकिन श्रीकांत की आवाज सुन कर वहां से ध्यान हटाती हुई बोली, ‘‘मैं ठीक हूं. यहां से खाली हो कर तुम्हारे बौस को देखने अस्पताल जाऊंगी. वैसे, कैसी तबीयत है उन की?’’

‘‘आज शाम तक उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी. डाक्टर का कहना है कि चूंकि आंख के बाहर का घाव है, इसलिए वे एक आंख पर पट्टी बांधे काम कर सकते हैं. मैं शाम को उन्हें ले कर सरकारी गैस्ट हाउस में आ जाऊंगा.’’

‘‘लेकिन, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जब वे पूरी तरह से ठीक हो जाएं, तब काम करना शुरू करें?’’

‘‘चोट गंभीर होती तो वैसे भी वे काम नहीं कर पाते, पर जब डाक्टर कह रहा है कि चिंता की कोई बात नहीं, तो दौड़भाग का काम मैं देख लूंगा और इस स्टोर को वे संभाल लेंगे. फिर हमें समय से ही काम पूरा कर के देना है, तभी अगला कौंट्रैक्ट मिलेगा.’’

‘‘ठीक है, मुझे कल भी खेत पर आना ही है. यहीं पर कल उस से मिल लूंगी. तुम्हें अगर प्यास लग रही हो, तो मैं फ्रिज से पानी की बोतलें निकाल कर देती जाऊं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘ठीक है, मैं चलती हूं. कल मिलूंगी,’’ कह कर तिजोरी उस खेत की तरफ चली गई, जहां बालियों से गेहूं और भूसा अलग कर के बोरियों में भरा जा रहा था.

अगले दिन पिताजी के हिसाबकिताब का बराबर मिलान करने के चलते तिजोरी को देर होने लगी. जैसे ही हिसाब मिला, तो वह उसे फेयर कर के लिखने का काम महेश को सौंप कर अकेले ही खेत की तरफ आ गई.

चूंकि तिजोरी तेज चलती हुई आई थी और उसे प्यास भी लग रही थी, इसलिए उस ने सोचा कि पहले गोदाम में जा कर घड़े से पानी पी ले और फिर सुनील का हालचाल लेने चली जाएगी.

तिजोरी ने गोदाम के शटर के दोनों ताले खोले और अंदर घुस कर घड़े की तरफ बढ़ ही रही थी कि अचानक शटर गिरने की आवाज सुन कर वह पलटी. कल जो बाइक पर सवार लड़का था, उसे वह पहचान गई, फिर उस के बढ़ते कदमों के साथ इरादे भांपते हुए वह बोली, ‘‘ओह तो तुम शंभू हो… मुझे लग रहा है कि उस दिन मैं ने तुम्हारी नीयत को सही पहचान लिया था… लगता है, उसी दिन से तुम मेरी फिराक में हो.’’

‘‘ऐसा है तिजोरी, शंभू जिसे चाहता है, उसे अपना बना कर ही रहता है. उस दिन तो मैं तुम्हें देखते ही पागल हो गया था. आज मौका मिल ही गया. अब तुम्हारे सामने 2 ही रास्ते हैं… या तो सीधी तरह मेरी बांहों में आ जाओ, नहीं तो…’’ कह कर वे उसे पकड़ने के लिए लपका.

तिजोरी ने गोदाम के ऊपर बने रोशनदानों की ओर देखा और ऊपर मुंह कर के पूरी ताकत से चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘बचाओ… बचाओ…’’

तिजोरी को चिल्लाता देख शंभू तकरीबन छलांग लगाता उस तक पहुंच गया. तिजोरी की एक बांह उस की हथेली में आई, लेकिन तिजोरी सावधान थी, इसलिए पकड़ मजबूत होने से पहले उस ने अपने को छुड़ा कर शटर की तरफ ‘बचाओबचाओ’ चिल्लाते हुए दौड़ लगानी चाही, पर इस बार शंभू ने उसे तकरीबन जकड़ लिया.

तभी शटर के तेजी से उठने की आवाज आई. जैसे ही शंभू का ध्यान शटर खुलने पर एक आंख में पट्टी बांधे इनसान की तरफ गया, तिजोरी ने उस की नाक पर एक झन्नाटेदार घूंसा जड़ दिया. और जब तक शंभू संभलता, सुनील ने उसे फिर संभाल लिया.

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