Hindi Short Story : क्या जादू कर दिया

Hindi Short Story : चंपा इस गांव के बाशिंदे भवानीराम की बेटी थी. वे चंपा को कालेज पढ़ाना नहीं चाहते थे, मगर चंपा की इच्छा थी और उस के टीचरों के दबाव देने पर वे उसे पढ़ाने के लिए शहर भेजने को राजी हो गए.

जैसे ही चंपा का कालेज में दाखिला हुआ, उस की सहेलियों ने खुशियां मनाईं. वे सब चंपा को पढ़ाकू समझती थीं और उसे चाहती भी खूब थीं.

जब चंपा गांव के हायर सैकेंडरी स्कूल में पढ़ती थी, तब पूरी जमात में उस का दबदबा था. अगर कोई लड़का ऊंची आवाज में बोल देता था, तब वह उसे ऐसी नसीहत देती थी कि वह चुप हो जाता था. इसी वजह से वह अपनी सहेलियों की चहेती बनी हुई थी.

गांव में भी चंपा की धाक थी. कोई भी बदमाश लड़का उस से कुछ नहीं कहता था. कहने वाले दबी जबान में कहते थे कि यह चंपा नहीं, बल्कि ‘चंपालाल’ है.

अभी चंपा गली का नुक्कड़ पार कर ही रही थी कि दिनेश, जो गांव का एक आवारा लड़का था और शहर के कालेज में पढ़ता था, न जाने कब से उस के पीछेपीछे आ रहा था.

दिनेश उस का रास्ता रोकते हुए बोला, ‘‘कहां जा रही हो चंपा?’’

‘‘अपने घर,’’ हंसते हुए चंपा बोली.

‘‘कभी हमारे घर भी चलो,’’ उस के जिस्म को घूरते हुए दिनेश बोला.

‘‘तुम्हारे घर क्यों भला?’’ चंपा ने हैरानी से पूछा.

‘‘मेरा कहना मानोगी, तो मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगा,’’ दिनेश ने लालच देते हुए कहा.

चंपा जानती थी कि दिनेश गांव के रईस मांगीलाल का बिगड़ैल बेटा है. उसे पैसों का खूब घमंड है, इसलिए सारा दिन गांव में आवारागर्दी करता है. लड़कियों को छेड़ना उस की आदत है. उस की करतूत जगजाहिर है, मगर अपनी इज्जत के डर से कोई भी गांव का आदमी उस के मुंह नहीं लगता है.

चंपा को चुप देख कर दिनेश बोला, ‘‘क्या सोच रही हो चंपा? मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’’

चंपा ने देखा कि जिस मोड़ पर वे दोनों खड़े थे, उस के आसपास जितने भी मर्दऔरत अपने घरों में बैठ कर बातें कर रहे थे, उन्होंने अपने दरवाजेखिड़कियां बंद कर ली थीं. दिनेश का डर उन के भीतर बैठा हुआ था. ऐसा लग रहा था कि कर्फ्यू लगा हुआ है.

दिनेश जब भी शहर से गांव में आता था और वहां की गलियों में घूमता था, तो उस के डर से सन्नाटा छा जाता था.

आज चंपा का उस से पहली बार सामना हुआ था, इसलिए उस ने भीतर ही भीतर उस से सामना करने के लिए अपने को तैयार कर लिया था.

‘‘चंपा, तू क्या सोचने लगी?’’ उसे चुप देख कर दिनेश ने फिर कहा, ‘‘तू ने जवाब नहीं दिया?’’

‘‘मैं ने जवाब दे तो दिया, शायद तुम ने सुना नहीं. बहरे हो क्या?’’

‘‘क्या कहा, मैं बहरा हूं? शायद तू मुझे जानती नहीं है?’’

‘‘अरे, तुझे तो सारा गांव जानता है,’’ चंपा ने कहा.

‘‘तब फिर क्यों तू दादागीरी कर रही है?’’

‘‘मैं एक लड़की हूं. मैं क्या दादागीरी करूंगी. गांव का दादा तो तू है,’’ चंपा उसी तरह से जवाब देते हुए बोली.

‘‘जैसा मैं ने सुना था, तू वैसी ही निकली. सुना है, कालेज में भी तू दादा बन कर रहती है?’’ दिनेश ने पूछा.

‘‘मैं ने पहले ही कहा, मैं क्या दादागीरी करूंगी. मगर अब लड़कियां इतनी कमजोर भी नहीं हैं कि हर कोई उन की कमजोरी का फायदा उठा सके,’’ कह कर चंपा ने अपने इरादे जाहिर कर दिए.

दिनेश कोई जवाब नहीं दे पाया. गली में पूरी तरह सन्नाटा था. मगर फिर भी लोग खिड़की खोल कर झांकने की कोशिश कर रहे थे. उन के भीतर एक डर बैठा हुआ था कि आज चंपा दिनेश के सामने आ गई है.

दिनेश बोला, ‘‘बहुत अकड़ कर बात कर रही है. मैं तेरी यह अकड़ निकाल दूंगा. चल, मेरे साथ. बहुत जवानी का जोश है तुझ में,’’ कह कर दिनेश ने चंपा का हाथ पकड़ लिया.

चंपा गुस्से में चीखते हुए बोली, ‘‘छोड़ दे मेरा हाथ. मैं वैसी लड़की नहीं हूं, जैसा तू समझ रहा है.’’

‘‘मैं एक बार जिस लड़की का हाथ पकड़ लेता हूं, फिर छोड़ता नहीं हूं,’’ दिनेश ने कहा.

‘‘ये फिल्मी डायलौग मत बोल. चुपचाप मेरा हाथ छोड़ दे.’’

‘‘यह तू नहीं, तेरी जवानी बोल रही है. चल मेरे साथ, जवानी का सारा जोश ठंडा कर देता हूं,’’ कह कर दिनेश उस को घसीट कर ले जाने लगा.

तब चंपा चिल्ला कर बोली, ‘‘मर्द है तो मर्द की तरह बात कर. यों कमरे में बंद कर के क्यों अपनी मर्दानगी दिखा रहा है. अगर तुझे अपनी मर्दानगी दिखानी है, तो यहीं दिखा. उतारूं कपड़े?’’ कहते हुए उस ने अपनी टीशर्ट उतार दी.

दिनेश थोड़ा ढीला पड़ गया. तब चंपा अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली, ‘‘क्या सोच रहा है, और उतारूं कपड़े? बुझा ले अपनी प्यास,’’ कहते हुए उस ने टीशर्ट घुमा कर दिनेश को दे मारी.

‘‘मगर एक बात याद रख, गांव की किसी लड़की पर बुरी नजर नहीं रखनी चाहिए. लड़की कमजोर नहीं है. छोड़ दे बुरी नजर. फिर हर औरत को कमजोर भी मत समझ. इसलिए कहती हूं कि पैसों का घमंड छोड़ दे. यह एक दिन तुझे ले डूबेगा,’’ चंपा ने समझाते हुए कहा.

सारा महल्ला देखता रह गया. लोग बाहर निकल आए. लड़की के हाथों पिटे दिनेश का मुंह छोटा हो गया.

इतना कह कर चंपा वहां से चली गई.

दिनेश गुस्से से भरा वहीं खड़ा रह गया. आज एक लड़की से हार गया, जो उसे चुनौती दे गई. चुनौती भी ऐसी, जिसे वह पूरा नहीं कर सके. आज तक गांव वालों में से किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि कोई उस के खिलाफ बोले, उसे चुनौती दे, मगर आज चंपा ने इस कदर उस को चुनौती दे डाली. वह उस का विरोध नहीं कर सका.

दिनेश ने जब गली की तरफ देखा, तो सभी मर्दऔरत दरवाजा खोल कर उसे हैरत भरी नजरों से देख रहे थे. वह उन से नजरें नहीं मिला सका और चुपचाप अपनी हवेली की तरफ चल दिया.

सारे गली वाले मानो एक ही सवाल अपनेआप से पूछ रहे थे कि चंपा ने दिनेश पर ऐसा क्या जादू किया, जो नीची गरदन कर के चला गया? सभी एकदूसरे से आंखों ही आंखों में इशारा कर रहे थे, मगर कुछ समझ नहीं पा रहे थे. सभी के दिमाग में एक ही बात बैठ चुकी थी कि चंपा की अब खैर नहीं. उस ने दिनेश से पंगा ले कर अपने ऊपर मुसीबत मोल ले ली है. वह गांव का बहुत बड़ा गुंडा है. पैसों के बल पर वह कुछ भी कर सकता है.

इस घटना से गांव में दहशत फैल गई. सभी गांव वाले खामोश हो गए.

अगले दिन चंपा कालेज पहुंची, तो हीरो बन गई थी. दिनेश की हिम्मत अब टूट चुकी थी.

चंपा कालेज नहीं छोड़ना चाहती थी, इसलिए उस ने भी हालात से समझौता कर लिया.

इस घटना के कुछ दिनों बाद दिनेश में बहुत बड़ा बदलाव दिखा. पहले वह हमेशा गुंडा बन कर रहा करता था, अपने को सब से बड़ा समझता था.

आमतौर पर अब वह चंपा के साथ कैंटीन में चाय पीता दिखता. वह अपने दोस्तों से कहता, ‘‘यह रही टीशर्ट… मार चंपा.’’

यह सुन कर चंपा शर्म से लाल हो जाती.

दिनेश शरीफ हो चुका था. गांव की किसी लड़की या किसी बहू को अब वह बुरी नजर से नहीं देखता था. उस पर चंपा ने उस दिन ऐसा क्या जादू कर दिया, यह आज तक राज बना हुआ था.

Hindi Story : बदनाम नहीं हुई मुन्नी

Hindi Story : चंदू पहली बार रमेश से मवेशियों के हाट में मिला था. दोनों भैंस खरीदने आए थे.अब चंदू के पास कुल 2 भैंसें हो गई थीं. दोनों भैंसों से सुबहशाम मिला कर 30 लिटर दूध हो जाता था, जिसे बेच कर घर का गुजारा चलता था. इस के अलावा कुछ खेतीबारी भी थी.

चंदू अपनी बीवी और बेटी के साथ खुश था. तीनों मिल कर खेतीबारी से ले कर भैंसों की देखभाल और दूध बेचने का काम अच्छी तरह संभाले हुए थे.

एक दिन चंदू अपनी भैंसों को चराने कोसी नदी के तट पर ले गया. वहां एक खास किस्म की घास होती थी जिसे भैंसें बड़े चाव से चरती थीं और दूध भी ज्यादा देती थीं.

रमेश भी वहां पर भैंस चराने जाता था. रमेश से मिल कर चंदू खुश हो गया. दोनों अपनी भैंसों को चराने रोजाना कोसी नदी के तट पर ले जाने लगे. भैंसें घास चरती रहतीं, चंदू और रमेश आपस में गपें लड़ाते रहते.

रमेश के पास एक अच्छा मोबाइल फोन था. वह उस में गाना लगा देता था. दोनों गानों की धुन पर मस्त रहते. कभी कोई अच्छा वीडियो होता तो रमेश चंदू को दिखाता.

चंदू भी ऐसा ही मोबाइल फोन लेने की सोचता था, पर कभी उतने पैसे न हो पाते थे. उस के पास सस्ता मोबाइल फोन था जिस से सिर्फ बात हो पाती थी.

कुछ दिनों से एक चरवाहा लड़की अपनी 20-22 बकरियों को चराने कोसी नदी के तट पर लाने लगी थी. वह 20 साल की थी. शक्लसूरत कोई खास नहीं थी, लेकिन नई जवानी की ताजगी उस के चेहरे पर थी.

रमेश ने जल्दी ही उस लड़की से दोस्ती बढ़ा ली थी. अब वह चंदू के साथ कम ही रहता था. वह हमेशा उस लड़की को दूर ले जा कर बातें करता रहता था.

रमेश से ही चंदू को मालूम हुआ था कि उस चरवाहा लड़की का नाम मुन्नी है, जो पास के गांव में अपनी विधवा मां के साथ रहती है.

चंदू को हमेशा चिंता रहती थी कि भैंसों का पेट भरा या नहीं. मौका देख जहां अच्छी घास मिलती वह काट लेता ताकि घर लौट कर भैंसों को खिला सके. लेकिन रमेश मुन्नी के चक्कर में अपनी भैंसों की भी परवाह नहीं करता था. वह चंदू को ही अपनी भैंसों की देखरेख करने को कह कर खुद मुन्नी के साथ दूर झाडि़यों की ओट में चला जाता था.

चंदू को रमेश और मुन्नी पर बहुत गुस्सा आता. दोनों मटरगश्ती करते रहते और उसे दोनों के मवेशियों की देखभाल करनी पड़ती.

एक दिन चंदू ने गौर किया कि एक काली और ऊंचे सींग वाली बकरी गायब है. उस ने इधरउधर ढूंढ़ा पर वह कहीं नहीं मिली. वह घबरा गया और दौड़तेदौड़ते उन झाडि़यों के पास जा पहुंचा जिन की ओट में रमेश और मुन्नी थे ताकि उन्हें बकरी के खोने के बारे में बता दे. लेकिन चंदू के अचरज और नफरत का ठिकाना न रहा जब उस ने उन दोनों को आधे कपड़ों में एकदूसरे से लिपटे देखा.

चंदू उलटे पैर लौट गया. थोड़ी देर और ढूंढ़ने पर चंदू को वह खोई हुई बकरी एक गड्ढे में बैठ कर जुगाली करते हुए मिल गई. वह शांत हो गया लेकिन उसे रमेश पर रहरह कर गुस्सा आ रहा था.

काफी देर बाद रमेश चंदू के पास आया तो चंदू उस पर उबल पड़ा, ‘‘तुम जो भी कर रहे हो वह ठीक नहीं है. तुम 2 बच्चों के बाप हो. घर पर तुम्हारी बीवी है, फिर भी ऐसी हरकत. अगर कहीं कुछ गलत हो गया तो मुन्नी से कौन शादी करेगा?’’

रमेश सब सुन रहा था. वह बेहयाई से बोला, ‘‘तुम्हें भी मजा करना है तो कर ले. मैं ने कोई रोक थोड़ी लगा रखी है,’’ इतना कह कर वह एक गाना गुनगुनाते हुए अपनी भैंसों की तरफ चल पड़ा.

धीरेधीरे 5 महीने बीत गए. मुन्नी पेट से हो गई थी. उस के पेट का उभार दिखने लगा था.

रमेश ने भी अब मुन्नी से मिलनाजुलना कम कर दिया था. मुन्नी खुद बुलाती तभी जाता और तुरंत वापस आ जाता. उस ने मुन्नी को झाडि़यों में ले जाना भी बंद कर दिया था.

कुछ दिनों के बाद रमेश ने कोसी नदी के तट पर भैंस चराने आना भी छोड़ दिया. जब रमेश कई दिनों तक नहीं आया तो एक दिन मुन्नी ने चंदू के पास आ कर रमेश के बारे में पूछा.

चंदू ने जवाब दिया, ‘‘मुझे नहीं मालूम कि रमेश अब क्यों नहीं आ रहा है.’’

मुन्नी रोने लगी. वह बोली, ‘‘अब इस हालत में मैं कहां जाऊंगी. किसे अपना मुंह दिखाऊंगी. कौन मुझे अपनाएगा. रमेश ने शादी का वादा किया था और इस हालत में छोड़ गया.’’

थोड़ी देर आंसू बहाने के बाद मुन्नी दोबारा बोली, ‘‘अगर रमेश कहीं मिले तो एक बार उसे मुझ से मिलने को कहना.’’

‘‘ठीक है. वह मिला तो मैं जरूर कह दूंगा,’’ चंदू ने कहा.

इस के बाद मुन्नी धीरे से उठी और बकरियों के पीछे चली गई.

उस दिन से चंदू रमेश पर नजर रखने लगा.

एक दिन चंदू ने रमेश को मोटरसाइकिल पर शहर की ओर जाते देखा. मोटरसाइकिल पर दूध रखने के कई बड़े बरतन लटके हुए थे.

‘‘कहां जा रहे हो रमेश? आजकल तुम दिखाई नहीं देते?’’ चंदू ने पूछा.

‘‘आजकल काम बहुत बढ़ गया है. शहर में 200 घरों में दूध पहुंचाने जाता हूं इसीलिए समय नहीं मिलता,’’ रमेश ने दोटूक जवाब दिया.

‘‘200 घर… पर तुम्हारी तो 2 ही भैंसें हैं. वे 30-40 लिटर से ज्यादा दूध नहीं देती होंगी, फिर 200 घरों में दूध कैसे देते हो?’’ चंदू ने पूछा.

‘‘ऐसा है…’’ रमेश अटकते हुए बोला, ‘‘मैं गांव के कई लोगों से दूध खरीद कर शहर में बेच देता हूं.’’

‘‘इसीलिए इतनी तरक्की हो गई है. मोटरसाइकिल की सवारी करने लगे हो…’’ चंदू ने कहा, ‘‘खैर, एक बात बतानी थी. मुन्नी तुम्हें याद कर रही थी. तुम्हें जल्दी से जल्दी मिलने को कह रही थी.’’

मुन्नी का जिक्र आते ही रमेश परेशान हो गया. वह बोला, ‘‘इन फालतू बातों को छोड़ो. मेरे पास समय नहीं है. मुझे शहर जाना है. देर हो रही है,’’ कह कर उस ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और चला गया.

चंदू को बहुत गुस्सा आया. कोई लड़की परेशानी में है और रमेश को जरा भी परवाह नहीं है. लेकिन चंदू क्या कर सकता था.

एक दिन चंदू अपनी भैंसें कोसी नदी के तट पर चरा रहा था कि तभी उस ने किसी के चीखनेचिल्लाने की आवाज सुनी. उस समय वहां कोई नहीं था.

चंदू आवाज की दिशा में आगे बढ़ा. कुछ दूर चलने के बाद उस ने झाडि़यों के पीछे मुन्नी को लेटे देखा जो रहरह कर चीख रही थी. चंदू कुछकुछ समझ गया कि शायद मुन्नी को बच्चा जनने का दर्द हो रहा था.

मुन्नी की हालत खराब थी. वह बेसुध हो कर जमीन पर पड़ी थी. कभीकभी वह अपने हाथपैर पटकने लगती थी. चंदू ने सोचा कि लौट जाए, लेकिन मुन्नी को इस हाल में छोड़ कर जाना उसे ठीक नहीं लगा. वह हिम्मत कर के मुन्नी के पास पहुंचा और उसे ढांढस बंधाने लगा.

थोड़ी देर बाद बच्चे का जन्म हो गया. चंदू ने लाजशर्म छोड़ कर मुन्नी की देखभाल की. बच्चे को साफ कर अपने गमछे में लपेट कर मुन्नी के पास लिटा दिया. मुन्नी को बेटा हुआ था.

जब सूरज डूबने को आया तब जा कर मुन्नी कुछ ठीक महसूस करने लगी. लेकिन बच्चे को देख कर वह रो पड़ी. बिना शादी के पैदा हुए बच्चे को वह अपने पास कैसे रख सकती थी?

मुन्नी रोते हुए बोली, ‘‘मैं इस बच्चे को अपने साथ नहीं रख सकती. लोग क्या कहेंगे? इसे यहीं छोड़ जाती हूं या कोसी में बहा देती हूं.’’

यह सुन कर चंदू कांप गया. कुछ सोच कर वह बोला, ‘‘अगर तुम बच्चे को अपने साथ नहीं रखना चाहती तो मैं इसे अपने पास रख लूंगा.’’

‘‘ठीक है भैया, जैसा आप चाहो. लेकिन इस बारे में किसी को पता नहीं चलना चाहिए, नहीं तो मैं बदनाम हो जाऊंगी,’’ कह कर मुन्नी लड़खड़ाते कदमों से अपनी बकरियों को हांक कर घर की ओर चल पड़ी.

बच्चे को गोद में उठा कर चंदू भी भैंसों के साथ घर लौट आया. बच्चे को देख कर उस की पत्नी बोली, ‘‘यह किस का बच्चा उठा लाए हो?’’

चंदू ने झूठ बोला, ‘‘पता नहीं किस का बच्चा है. मुझे तो यह झाडि़यों के पीछे मिला था. शायद अनचाहा बच्चा है. इस की मां इसे झाडि़यों के पीछे फेंक गई होगी.’’

चंदू की पत्नी बोली, ‘‘चलो, बच्चे की जिंदगी बच गई. हमारी एक ही बेटी है, अब बेटे की कमी पूरी हो गई.’’

पत्नी की बात सुन कर चंदू ने राहत की सांस ली. लेकिन चंदू को रमेश का मतलबी रवैया खटकता था. कोई कुंआरी लड़की के प्रति इतना लापरवाह कैसे हो सकता है?

रमेश बहुत तरक्की कर रहा था. चंदू ने गांव वालों से सुना कि उस ने काफी सारी जमीन और एक ट्रैक्टर खरीद लिया था. वह पक्का मकान भी बनवा रहा था. लेकिन चंदू को यह समझ में नहीं आता था कि 200 घरों में दूध देने के लिए कम से कम 200 लिटर दूध चाहिए, जबकि उस की भैंसें 30-40 लिटर से ज्यादा दूध नहीं देती होंगी.

हैरानी की बात यह भी थी कि गांव वाले भी रमेश को दूध नहीं बेचते थे क्योंकि गांव में दूध की कमी थी.

धीरेधीरे 6 महीने बीत गए. चंदू पहले की तरह अपनी भैंसों को चराने कोसी नदी के तट पर ले जाता था, पर मुन्नी ने वहां आना छोड़ दिया था.

एक शाम चंदू अपनी भैंसों को चरा कर लौट रहा था तो रास्ते में उस ने एक बरात जाती देखी. पता किया तो मालूम हुआ कि बगल के गांव में मुन्नी नाम की किसी लड़की की शादी है.

चंदू समझ गया कि उसी मुन्नी की शादी है. वह खुश हो गया. बेचारी मुन्नी बदनाम होने से बच गई.

घर पहुंचा तो चंदू ने एक और नई बात सुनी. गांव में कई पुलिस वाले आए थे और रमेश को गिरफ्तार कर के ले गए थे.

रमेश अपने घर में नकली दूध बनाता था. उस से खरीदा हुआ दूध पी कर शहर के कई लोग बीमार पड़ गए थे.

चंदू को रमेश की तरक्की का राज अब अच्छी तरह समझ में आ गया था.

Hindi Story : बालू पर पड़ी लकीर

Hindi Story : मैं अपने घर  के बरामदे में बैठा पढ़ने का मन बना रहा था, पर वहां शांति कहां थी. हमेशा की तरह हमारे पड़ोसी पंडित ओंकारनाथ और मौलाना करीमुद्दीन की जोरजोर से झगड़ने की आवाजें आ रही थीं. वह उन का तकरीबन रोज का नियम था. दोनों छोटी से छोटी बात पर भी लड़तेझगड़ते रहते थे, ‘‘देखो, मियां करीम, मैं तुम्हें आखिरी बार मना करता हूं, खबरदार जो मेरी कुरसी पर बैठे.’’

‘‘अमां पंडित, बैठने भर से क्या तुम्हारी कुरसी गल गई. बड़े आए मुझे धमकी देने, हूं.’’

‘नहाते तो हैं नहीं महीनों से और चले आते हैं कुरसी पर बैठने,’ पंडितजी ने बड़बड़ाते हुए अपनी कुरसी उठाई और अंदर रखने चले गए.

मुझे यह देख कर आश्चर्य होता था कि मौलाना और पंडित में हमेशा खींचातानी होती रहती थी, पर उन की बेगमों की उन में कोई भागीदारी नहीं थी. मानो दोनों अपनेअपने शौहरों को खब्ती या सनकी समझती थीं. अचार, मंगोड़ी से ले कर कसीदा, कढ़ाई तक में दोनों बेगमों का साझा था.

पंडित की बेटी गीता जब ससुराल से आती, तब सामान दहलीज पर रखते ही झट मौलाना की बेटी शाहिदा और बेटे रागिब से मिलने चली जाती. मौलाना भी गीता को देख कर बेहद खुश होते. घंटों पास बैठा कर ससुराल के हालचाल पूछते रहते. उन्हें चिढ़ थी तो सिर्फ  पंडित से.

कटाक्षों का सिलसिला यों ही अनवरत जारी रहता. पिछले दिन ही मौलाना का लड़का रागिब जब सब्जियां लाने बाजार जा रहा था, तब पंडिताइन ने पुकार कर कहा, ‘‘बेटे रागिब, बाजार जा रहा है न. जरा मेरा भी थैला लेता जा. दोचार गोभियां और एक पाव टमाटर लेते आना.’’

‘‘अच्छा चचीजान, जल्दी से पैसे दे दीजिए.’’

पंडित और मौलाना अपनेअपने बरामदे में कुरसियां डाले बैठे थे. भला ऐसे सुनहरे मौके पर मौलाना कटाक्ष करने से क्यों चूकते. छूटते ही उन्होंने व्यंग्यबाण चलाए, ‘‘बेटे रागिब, दोनों थैले अलग- अलग हाथों में पकड़ कर लाना, नहीं तो पंडित की सब्जियां नापाक हो जाएंगी.’’

मुसकराते हुए उन्होंने कनखियों से पंडित की ओर देखा और पान की एक गिलौरी गाल में दबा ली.

जब पंडित ने इत्मीनान कर लिया कि रागिब थोड़ी दूर निकल गया है, तब ताव दिखाते हुए बोले, ‘‘अरे, रख दे मेरे थैले. मेरे हाथपांव अभी सलामत हैं. मुझे किसी का एहसान नहीं लेना. पंडिताइन की बुद्धि जाने कहां घास चरने चली गई है. खुद चली जाती या मुझे ही कह देती.’’

भुनभुनाते हुए पंडित दूसरी ओर मुंह फेर कर बैठ जाते.

यों ही नोकझोंक चलती रहती पर एक दिन ऐसी गरम हवा चली कि सारी नोकझोंक गंभीरता में तबदील हो गई.

शहर शांत था, पर वह शांति किसी तूफान के आने से पूर्व जैसी भयानक थी. अब न पंडिताइन रागिब को सब्जियां लाने को आवाज देती, न ही मौलाना आ कर पंडित की कुरसी पर बैठते. एक अदृश्य दीवार दोनों घरों के मध्य उठ गई थी, जिस पर दहशत और अविश्वास का प्लास्टर दोनों ओर के लोग थोपते जा रहे थे. रिश्तेदार अपनी ‘बहुमूल्य राय’ दे जाते, ‘‘देखो मियां, माहौल ठीक नहीं है. यह महल्ला छोड़ कर कुछ दिन हमारे साथ रहो.’’

परंतु कुछ ऐसे भी घर थे जहां अविश्वास की परत अभी उतनी मोटी नहीं थी. इन दोनों परिवारों को भी अपना घर छोड़ना मंजूर नहीं था.

‘‘गीता के बापू, सो गए क्या?’’

‘‘नहीं सोया हूं,’’ पंडित खाट पर करवट बदलते हुए बोले.

‘‘मेरे मन में बड़ी चिंता होती है.’’

‘‘तुम क्यों चिंता में प्राण दिए दे रही हो. ख्वाहमख्वाह नींद खराब कर दी, हूंहं,’’ और पंडित बड़बड़ाते हुए बेफिक्री से करवट बदल कर सो गए.

पर एक रात ऐसा ही हुआ जिस की आशंका मन के किसी कोने में दबी हुई थी. दंगाई (जिन की न कोई जाति होती है, न धर्म) जोरजोर से पंडित का दरवाजा खटखटा रहे थे, ‘‘पंडितजी, बाहर आइए.’’

पंडित के दरवाजा खोलते ही लोग चीखते हुए पूछने लगे, ‘‘कहां छिपाया है आप ने मौलाना के परिवार को?’’

‘‘मैं…मैं ने छिपाया है, मौलाना को? अरे, मेरा तो उन से रोज ही झगड़ा होता है. नहीं विश्वास हो तो देख लो मेरा घर,’’ पंडित ने दरवाजे से हटते हुए कहा.

अभी दंगाइयों में इस बात पर बहस चल ही रही थी कि पंडित के घर की तलाशी ली जाए या नहीं कि शहर के दूसरे छोर से बच्चों और स्त्रियों की चीखपुकार सुनाई पड़ी. रात के सन्नाटे में वह हंगामा और भी भयावह प्रतीत हो रहा था. दरिंदे अपना खतरनाक खेल खेलने में मशगूल थे. बलवाइयों ने पंडित के घर की चिंता छोड़ दी और वे दूसरे दंगाइयों से निबटने के लिए नारे लगाते हुए तेजी से कोलाहल की दिशा की ओर झपट पड़े.

दंगाइयों के जाते ही पंडित ने दरवाजा बंद किया. तेजी से सीटी बजाते हुए एक ओर चले. वह कमरा जिसे पंडिताइन फालतू सामान और लकडि़यां रखने के काम में लाती थी, अब मौलाना के परिवार के लिए शरणस्थली था. सभी भयभीत कबूतरों जैसे सिमटे थे. बस, सुनाई पड़ रही थी तो अपनी सांसों की आवाजें.

पंडित ने कमरे में पहुंचते ही मौलाना को जोर से अंक में भींच कर गले लगा लिया. आंखों से अविरल बह रहे आंसुओं ने खामोशी के बावजूद सबकुछ कह दिया. मौलाना स्वयं भी हिचकियां लेते जाते और पंडित के गले लगे हुए सिर्फ ‘भाईजान, भाईजान’ कहते जा रहे थे.

गरम हवा शांत हो कर फिर बयार बहने लगी थी. सबकुछ सामान्य हो चला था. न तो किसी को किसी से कोई गिला था, न शिकवा. एक संतुष्टि मुझे भी हुई, अब मेरा महल्ला शांत रहेगा. पढ़ने के उपयुक्त वातावरण पर मेरा यह चिंतन मिथ्या ही साबित हुआ.

सुबह होते ही पंडित और मौलाना ने अखाड़े में अपनी जोरआजमाइश शुरू कर दी थी.

‘‘तुम ने मेरे दरवाजे की पीठ पर फिर थूक दिया, मौलाना, ’’ पंडित गरज रहे थे.

‘‘अरे, मैं क्यों थूकने लगा. तुझे तो लड़ने का बहाना चाहिए.’’

‘‘क्या कहा, मैं झगड़ालू हूं.’’

‘‘मैं तो गीता बिटिया के कारण तेरे घर आता हूं, वरना तेरीमेरी कैसी दोस्ती.’’

शिकायतों और इलजामों का कथोपकथन तब तक जारी रहा जब तक दोनों थक नहीं गए.

मैं ने सोचा, ‘यह समुद्र की लहरों द्वारा बालू पर खींची गई वह लकीर है, जो क्षण भर में ही मिट जाती है. समुद्र के किनारों ने लहरों के अनेक थपेड़ों को झेला है पर आखिर में तो वे समतल ही हो जाते हैं.’

Hindi Story : मिसेज चोपड़ा, मीडिया और न्यूज

Hindi Story : लंबा कद, गोरा रंग, सलीके से   बंधा हुआ जूड़ा, कलफ लगी बढि़या सूती साड़ी और साड़ी के रंग से मेल खाते गहने पहने मिसेज चोपड़ा पूरे दफ्तर में अलग ही दिखती थीं. मैं जिस दफ्तर में काम करती थी वहां काम कम ही होता था. यों समझ लीजिए, अकसर लोग गरमगरम चाय और गरमागरम बहस से टाइम पास करते थे. कुछ ही दिनों में दफ्तर का यह माहौल देखदेख कर मेरा धैर्य जवाब दे गया.

मैं ने अपने एन.जी.ओ. के कोआर्डिनेटर से एक दिन बातों ही बातों में पूछ लिया, ‘‘यह मिसेज चोपड़ा मुझे आफिस में सब से अलग दिखती हैं, यह कैसा काम करती हैं. मैं अभी नई हूं इसलिए इन के बारे में ज्यादा जानती नहीं हूं.’’

सामने बैठे मिस्टर शर्मा बोले, ‘‘यह यहां पी.आर.ओ. के पद पर हैं. पब्लिक और प्रेस से डीलिंग करना ही इन का काम है. यह किसी मजबूरी में नौकरी नहीं कर रही हैं. मिसेज चोपड़ा जैसी हाइक्लास सोसाइटी की औरतें जब अपनी किटी पार्टियों से बोर हो जाती हैं और उन्हें अपना समय बिताना होता है तो वे किसी एन.जी.ओ. से जुड़ जाती हैं. समय भी बीत जाता है, नाम भी मिल जाता है. मिसेज चोपड़ा भी इसी रंग में रंगी हैं.’’

मैं थोड़ी देर में अपनी जगह पर वापस आ कर काम में जुट गई. चूंकि मेरे ऊपर अपनी विधवा मां की जिम्मेदारी थी इसलिए मैं अपना काम बड़ी ईमानदारी से करती थी. मैं कुछ दिनों से यह भी अनुभव कर रही थी कि मिसेज चोपड़ा मुझे पसंद नहीं करती हैं. मेरे हर काम में उन्हें सिर्फ कमी ही नजर आती थी.

मिसेज चोपड़ा ने धीरेधीरे मुझे सताना शुरू कर दिया. मेरी किसी भी रिपोर्ट को रद्द कर देतीं और फिर से नए ढंग से बनाने को कहतीं. कभी आफिस के काम से हटा कर फील्ड वर्क पर लगा देतीं तो कभी अचानक फील्ड वर्क से आफिस भेज देतीं.

एक दिन उन्होंने मुझ से पूछ ही लिया, ‘‘मिस बेला, आप इतना कम क्यों बोलती हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘मैडम, ऐसा तो नहीं है. बस, मैं बोलने से ज्यादा काम करना पसंद करती हूं. फिर हम जो काम कर रहे हैं अगर उस में हम अपने बारे में ही सोचेंगे तो दूसरों के दुख कब शेयर करेंगे.’’

वह अचानक बौस के ढंग में बोलीं, ‘‘मिस बेला, इस केस की डिटेल्स पढि़ए. नेहा के घर वालों का बयान लीजिए और गवाहों से बात कीजिए. पुलिस से भी मिलिए. आजकल बहुत कंपीटीशन है. मैं मीडिया से बात कर के रखती हूं. हम पहले केस सुलझा लेंगे तो हमारा नाम होगा. हमारी बढि़या न्यूज तैयार होगी.’’

मैं सिर झुकाए बोली, ‘‘किसी के दुख पर सफलता की सीढ़ी लगाना अच्छा तो नहीं लगता, मैडम.’’

उन की नजरें मुझ पर जम गईं. अच्छा स्टेटस, पैसा और अच्छे संबंध यही दुनिया में जीने के उन के सिद्धांत थे.

मैं अपने गु्रप के साथ घटनास्थल पर जाने को निकल गई. वह एक बौस की तरह मेरे साथ थीं. मैं ने नेहा के घर वालों से बहुत से सवाल पूछे. नेहा को उस के ससुराल वालों ने जला कर मार दिया था. नशे की हालत में उस के पति ने उस पर तेल छिड़क कर आग लगा दी थी. मिसेज चोपड़ा बहुत खुश थीं कि अगर मीडिया यह न्यूज अच्छी तरह से पेश करता है तो उन का बहुत नाम होगा. उन्होंने प्रेस कान्फ्रेंस बुला कर मीडिया में इस मामले पर हलचल मचा दी.

उन की इस हरकत से मैं बहुत बेचैन थी. अपनी उस बेचैनी को कम करने के लिए मैं उन के केबिन में जा कर फट पड़ी, ‘‘मैडम, इस प्रेस कान्फ्रेंस से नेहा को क्या फायदा पहुंच रहा है? उस की मौत को भुना कर हमें क्या मिलेगा?’’

मेरे अंदर सवालों का ढेर लगा था. उन्हें मुझ पर गुस्सा आ गया, ‘‘मिस बेला, आप को क्या लगता है कि हमारी संस्था सिर्फ नाम कमाने के लिए दूसरों के दुख अपने पास जमा करती है? क्या हम उन के लिए कुछ नहीं करते? अगर किसी की मदद के साथ मीडिया वाले हमें भी कैमरे के सामने ला कर न्यूज बना देते हैं तो इस में बुरा क्या है?’’

मैं ने अपनी आवाज को संतुलित करते हुए जवाब दिया, ‘‘मैडम, हम क्या करते रहे हैं महिलाओं के लिए? जो बात सिर्फ घर वाले जानते हैं हम उन्हें सब के सामने ला कर दुखी लोगों को और दुखी कर देते हैं. थोड़ी सी जबानी सहानुभूति या कभीकभी कुछ आर्थिक सहायता. हमारी संस्था औरत को कभीकभी एक तमाशा बना देती है. मीडिया को तो खबरें ही चाहिए. मैडम, मैं यहां नौकरी नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘हां, यही अच्छा रहेगा. जहां काम में रुचि न हो वहां इनसान को काम नहीं करना चाहिए. आप जा सकती हैं.’’

मैं अपना बैग उठा कर आफिस से बाहर आ गई. मैं हर उस नौकरी को बुरा समझती हूं जिस में किसी के दुख को भुनाया जाता है.

मैं ने कुछ दिन बाद एक स्कूल में नौकरी ज्वाइन कर ली लेकिन मिसेज चोपड़ा और उन की संस्था के बारे में मुझे खबर मिलती रहती थी. नेहा का केस उन्होंने सुलझा लिया था, उन की संस्था की धूम मची हुई थी.

जीवन अपने ढर्रे पर चल रहा था कि एक दिन अचानक सुबह उठने पर पेपर पढ़ा तो रोंगटे खडे़ हो गए. मिसेज चोपड़ा की बेटी आकृति के साथ कुछ दरिंदों ने रेप किया था. वह अपने कालिज से घर आ रही थी कि सुनसान सड़क पर कुछ लड़के कार में उसे उठा कर ले गए थे.

इस खबर को पढ़ने के बाद मैं अपने को वहां जा कर उन से मिलने से रोक नहीं पाई. उन के घर पहुंची तो वह मासूम सी लड़की कमरे में बंद थी और बारबार बेहोश हो रही थी. बहुत ही हृदयविदारक दृश्य था. पूरा स्टाफ वहां था. सब को आकृति पर तरस आ रहा था. मिसेज चोपड़ा का विलाप दिल को चीर रहा था. चोपड़ा साहब विदेश में थे. उन मांबेटी से सब को सहानुभूति हो रही थी. कुछ देर वहां ठहर कर मैं वापस घर आ गई लेकिन अगले दिन भी उन दुखियारी मांबेटी के पास कुछ देर बैठने के लिए मैं गई. फिर कई दिनों तक रोज ही जाती रही. सब को आकृति के सामान्य होने का इंतजार था.

एक दिन अचानक एक प्रसिद्ध एन.जी.ओ. की महिलाएं मीडिया के साथ मिसेज चोपड़ा के घर पहुंच गईं. हर तरफ कैमरे की रोशनियां और उन की बेटी का रोना, मिसेज चोपड़ा बारबार उन लोगों से जाने की प्रार्थना करते हुए सिसक उठीं, लेकिन संस्था की महिलाएं, हाथ में पेपर, पैन लिए मीडिया के लोग, मांबेटी से सवाल पर सवाल पूछे जा रहे थे और अपनी संस्था की शान में कमेंट भी किए जा रहे थे कि हम आप की बेटी को न्याय दिलवाएंगे. मैडम, आप तो खुद एक संस्था चलाती थीं. आज आप आम आदमी की जगह खड़ी हैं. आप को कैसा लग रहा है? मैडम, आप कुछ जवाब दें. आप इस केस में क्या कहना चाहेंगी.

मिसेज चोपड़ा ने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन उन के शब्द अंदर ही रह गए और वे गिर पड़ीं.

आफिस के कुछ लोगों के साथ मैं उन को अस्पताल ले गई. आकृति को मैं ने अपनी मां के पास भेज दिया. मिसेज चोपड़ा को हार्टअटैक पड़ा था. उन की देखरेख मैं ने एक दोस्त की तरह की, क्योंकि मेरी मां ने मुझे यही सिखाया था. उन के दिए गए संस्कार मेरे अंदर खून बन कर बहते थे. स्कूल से मैं ने छुट्टियां ली हुई थीं. मिसेज चोपड़ा जब तक अस्पताल से घर आने लायक हुईं हम एक अच्छे दोस्त बन चुके थे.

घर आ कर वह अपने काम में व्यस्त हो गईं और मैं अपने में. जीवन निर्बाध गति से चल रहा था. एक दिन मैं ने टेलीविजन चलाया तो मिसेज चोपड़ा अपने साक्षात्कार में कह रही थीं, ‘‘अगर हम किसी बहन या बेटी की इज्जत करते हैं तो क्या हमें उस को हजारों लोगों के सामने खड़ा कर देना चाहिए. हमें यदि किसी की मदद करनी है तो क्या हम चुपचाप नहीं कर सकते. मैं एक नई संस्था बना रही हूं जिस का मीडिया से बहुत ही कम लेनादेना होगा. हम चुपचाप दुखी जनता के आंसू पोंछेंगे.’’

आज मुझे लगा कि मिसेज चोपड़ा ने अब जो रास्ता चुना है वह सही है. मुझे उन की इस बदली हुई सोच पर खुशी हुई और मैं उन को इस नए कदम के लिए शुभकामनाएं देने को फोन मिलाने लगी, साथ ही मुझे उन को यह भी बताना था कि मैं उन की नई संस्था में काम करने आ रही हूं.

Hindi Best Stories : सासुजी हों तो हमारी जैसी

Hindi Best Stories : पत्नीजी का खुश होना तो लाजिमी था, क्योंकि उन की मम्मीजी का फोन आया था कि वे आ रही हैं. मेरे दुख का कारण यह नहीं था कि मेरी सासुजी आ रही हैं, बल्कि दुख का कारण था कि वे अपनी सोरायसिस बीमारी के इलाज के लिए यहां आ रही हैं. यह चर्मरोग उन की हथेली में पिछले 3 वर्षों से है, जो ढेर सारे इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पाया.

अचानक किसी सिरफिरे ने हमारी पत्नी को बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में एक व्यक्ति देशी दवाइयां देता है, जिस से बरसों पुराने रोग ठीक हो जाते हैं.

परिणामस्वरूप बिना हमारी जानकारी के पत्नीजी ने मम्मीजी को बुलवा लिया था. यदि किसी दवाई से फायदा नहीं होता तो भी घूमनाफिरना तो हो ही जाता. वह  तो जब उन के आने की पक्की सूचना आई तब मालूम हुआ कि वे क्यों आ रही हैं?

यही हमारे दुख का कारण था कि उन्हें ले कर हमें पहाड़ों में उस देशी दवाई वाले को खोजने के लिए जाना होगा, पहाड़ों पर भटकना होगा, जहां हम कभी गए नहीं, वहां जाना होगा. हम औफिस का काम करेंगे या उस नालायक पहाड़ी वैद्य को खोजेंगे. उन के आने की अब पक्की सूचना फैल चुकी थी, इसलिए मैं बहुत परेशान था. लेकिन पत्नी से अपनी क्या व्यथा कहता?

निश्चित दिन पत्नीजी ने बताया कि सुबह मम्मीजी आ रही हैं, जिस के चलते मुझे जल्दी उठना पड़ा और उन्हें लेने स्टेशन जाना पड़ा. कड़कती सर्दी में बाइक चलाते हुए मैं वहां पहुंचा. सासुजी से मिला, उन्होंने बत्तीसी दिखाते हुए मुझे आशीर्वाद दिया.

हम ने उन से बाइक पर बैठने को कहा तो उन्होंने कड़कती सर्दी में बैठने से मना कर दिया. वे टैक्सी से आईं और पूरे 450 रुपए का भुगतान हम ने किया. हम मन ही मन सोच रहे थे कि न जाने कब जाएंगी?

घर पहुंचे तो गरमागरम नाश्ता तैयार था. वैसे सर्दी में हम ही नाश्ता तैयार करते थे. पत्नी को ठंड से एलर्जी थी, लेकिन आज एलर्जी न जाने कहां जा चुकी थी. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने अपने चर्म रोग को मेरे सामने रखते हुए हथेलियों को आगे बढ़ाया. हाथों में से मवाद निकल रहा था, हथेलियां कटीफटी थीं.

‘‘बहुत तकलीफ है, जैसे ही इस ने बताया मैं तुरंत आ गई.’’

‘‘सच में, मम्मी 100 प्रतिशत आराम मिल जाएगा,’’ बड़े उत्साह से पत्नीजी ने कहा.

दोपहर में हमें एक परचे पर एक पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल का पता उन्होंने दिया. मैं ने उस नामपते की खोज की. मालूम हुआ कि एक पहाड़ी गांव है, जहां पैदल यात्रा कर के पहुंचना होगा, क्योंकि सड़क न होने के कारण वहां कोई भी वाहन नहीं जाता. औफिस में औडिट चल रहा था. मैं अपनी व्यथा क्या कहता. मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘आज तो रैस्ट कर लो, कल देखते हैं क्या कर सकते हैं.’’

वह और सासुजी आराम करने कमरे में चली गईं. थोड़ी ही देर में अचानक जोर से कुछ टूटने की आवाज आई. हम तो घबरा गए. देखा तो एक गेंद हमारी खिड़की तोड़ कर टीवी के पास गोलगोल चक्कर लगा रही थी. घर की घंटी बजी, महल्ले के 2-3 बच्चे आ गए. ‘‘अंकलजी, गेंद दे दीजिए.’’

अब उन पर क्या गुस्सा करते. गेंद तो दे दी, लेकिन परदे के पीछे से आग्नेय नेत्रों से सासुजी को देख कर हम समझ गए थे कि वे बहुत नाराज हो गईर् हैं. खैर, पानी में रह कर मगर से क्या बैर करते.

अगले दिन हम ने पत्नीजी को चपरासी के साथ सासुजी को ले कर पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल के पास भेज दिया. देररात वे थकी हुई लौटीं, लेकिन खुश थीं कि आखिर वह वैद्य मिल गया था. ढेर सारी जड़ीबूटी, छाल से लदी हुई वे लौटी थीं. इतनी थकी हुई थीं कि कोई भी यात्रा वृत्तांत उन्होंने मुझे नहीं बताया और गहरी नींद में सो गईं.

सुबह मेरी नींद खुली तो अजीब सी बदबू घर में आ रही थी.  उठ कर देखने गया तो देखा, मांबेटी दोनों गैस पर एक पतीले में कुछ उबाल रही थीं. उसी की यह बदबू चारों ओर फैल रही थी. मैं ने नाक पर रूमाल रखा, निकल कर जा ही रहा था कि पत्नी ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’

‘‘कुछ सूखी लकडि़यां, एक छोटी मटकी और ईंटे ले कर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ मेरा दिल जोरों से धड़क उठा. ये सब सामान तो आखिरी समय मंगाया जाता है?

पत्नी ने कहा, ‘‘कुछ जड़ों का भस्म तैयार करना है.’’

औफिस जाते समय ये सब फालतू सामान खोजने में एक घंटे का समय लग गया था. अगले दिन रविवार था. हम थोड़ी देर बाद उठे. बिस्तर से उठ कर बाहर जाएं या नहीं, सोच रहे थे कि महल्ले के बच्चों की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘भूत, भूत…’’

हम ने सुना तो हम भी घबरा गए. जहां से आवाज आ रही थी, उस दिशा में भागे तो देखा आंगन में काले रंग का भूत खड़ा था? हम ने भी डर कर भूतभूत कहा. तब अचानक उस भूतनी ने कहा, ‘‘दामादजी, ये तो मैं हूं.’’

‘‘वो…वो…भूत…’’

‘‘अरे, बच्चों की गेंद अंदर आ गईर् थी, मैं सोच रही थी क्या करूं? तभी उन्होंने दीवार पर चढ़ कर देखा, मैं भस्म लगा कर धूप ले रही थी. वे भूतभूत चिल्ला उठे, गेंद वह देखो पड़ी है.’’ हम ने गेंद देखी. हम ने गेंद ली और देने को बाहर निकले तो बच्चे दूर खड़े डरेसहमे हुए थे. उन्होंने वहीं से कान पकड़ कर कहा, ‘‘अंकलजी, आज के बाद कभी आप के घर के पास नहीं खेलेंगे,’’ वे सब काफी डरे हुए थे.

हम ने गेंद उन्हें दे दी, वे चले गए. लेकिन बच्चों ने फिर हमारे घर के पास दोबारा खेलने की हिम्मत नहीं दिखाई.

महल्ले में चोरी की वारदातें भी बढ़ गई थीं. पहाड़ी वैद्य ने हाथों पर यानी हथेलियों पर कोई लेप रात को लगाने को दिया था, जो बहुत चिकना, गोंद से भी ज्यादा चिपकने वाला था. वह सुबह गाय के दूध से धोने के बाद ही छूटता था. उस लेप को हथेलियों से निकालने के लिए मजबूरी में गाय के दूध को प्रतिदिन मुझे लेने जाना होता था.

न जाने वे कब जाएंगी? मैं यह मुंह पर तो कह नहीं सकता था, क्यों किसी तरह का विवाद खड़ा करूं?

रात में मैं सो रहा था कि अचानक पड़ोस से शोर आया, ‘चोरचोर,’ हम घबरा कर उठ बैठे. हमें लगा कि बालकनी में कोई जोर से कूदा. हम ने भी घबरा कर चोरचोर चीखना शुरू कर दिया. हमारी आवाज सासुजी के कानों में पहुंची होगी, वे भी जोरों से पत्नी के साथ समवेत स्वर में चीखने लगीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’

महल्ले के लोग, जो चोर को पकड़ने के लिए पड़ोसी के घर में इकट्ठा हुए थे, हमारे घर की ओर आ गए, जहां सासुजी चीख रही थीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’ हम ने दरवाजा खोला, पूरे महल्ले वालों ने घर को घेर लिया था.

हम ने उन्हें बताया, ‘‘हम जो चीखे थे उस के चलते सासुजी भी चीखचीख कर, ‘दामादजी, चोर’ का शोर बुलंद कर रही हैं.’’

हम अभी समझा ही रहे थे कि पत्नीजी दौड़ती, गिरतीपड़ती आ गईं. हमें देख कर उठीं, ‘‘चोर…चोर…’’

‘‘कहां का चोर?’’ मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘कमरे में चोर है?’’

‘‘क्या बात कर रही हो?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं?’’

‘‘अंदर क्या कर रहा है?’’

‘‘मम्मी ने पकड़ रखा है,’’ उस ने डरतेसहमते कहा.

हम 2-3 महल्ले वालों के साथ कमरे में दाखिल हुए. वहां का जो नजारा देखा तो हम भौचक्के रह गए. सासुजी के हाथों में चोर था, उस चोर को उस का साथी सासुजी से छुड़वा रहा था. सासुजी उसे छोड़ नहीं रही थीं और बेहोश हो गई थीं. हमें आया देख चोर को छुड़वाने की कोशिश कर रहे चोर के साथी ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर सरैंडर कर दिया. वह जोरों से रोने लगा और कहने लगा, ‘‘सरजी, मेरे साथी को अम्माजी के पंजों से बचा लें.’’

हम ने ध्यान से देखा, सासुजी के दोनों हाथ चोर की छाती से चिपके हुए थे. पहाड़ी वैद्य की दवाई हथेलियों में लगी थी, वे शायद चोर को धक्का मार रही थीं कि दोनों हथेलियां चोर की छाती से चिपक गई थीं. हथेलियां ऐसी चिपकीं कि चोर क्या, चोर के बाप से भी वे नहीं छूट रही थीं. सासुजी थक कर, डर कर बेहोश हो गई थीं. वे अनारकली की तरह फिल्म ‘मुगलेआजम’ के सलीम के गले में लटकी हुई सी लग रही थीं. वह बेचारा बेबस हो कर जोरजोर से रो रहा था.

अगले दिन अखबारों में उन के करिश्मे का वर्णन फोटो सहित आया, देख कर हम धन्य हो गए.

आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब पता चला कि हमारी सासुजी की वह लाइलाज बीमारी भी ठीक हो गई थी. पहाड़ी वैद्य झुमरूलालजी के अनुसार, हाथों के पूरे बैक्टीरिया चोर की छाती में जा पहुंचे थे.

यदि शहर में आप को कोई छाती पर खुजलाता, परेशान व्यक्ति दिखाई दे तो तुरंत समझ लीजिए कि वह हमारी सासुजी द्वारा दी गई बीमारी का मरीज है. हां, चोर गिरोह के पकड़े जाने से हमारी सासुजी के साथ हमारी साख भी पूरे शहर में बन गई थी. ऐसी सासुजी पा कर हम धन्य हो गए थे.

Hindi Story : दिल में लगा न कर्फ्यू

Hindi Story : दुनियाभरमें तहलका मचा था. कोरोना नाम की महामारी की वजह से दुनिया का हर शहर, हर गली, हर घर लौक डाउन हो रहा था. उधर मासूम निकहत के घर में लगातार टीवी चालू था और उस की मां टीवी स्क्रीन पर ऐसे नजरें गड़ाए थी जैसे कि उस के परिवार को टीवी ही इस मुसीबत से बाहर निकालेगा.

निकहत 5वीं कक्षा में थी. स्कूल बंद था. अब्बा पुलिस में थे तो ‘वर्क फ्रौम होम’ का सवाल ही नहीं था, जैसा कि अन्य विभागों में सरकार की ओर से लागू किया गया था. आसपास के सारे माहौल पर बंद का सन्नाटा छाया था. निकहत की मां बीचबीच में अपना फोन चैक कर रही थी और बीचबीच में किसी को काल भी करती थी. एक कौल आया, निकहत की मां ने दौड़ कर फोन उठाया. शायद वह इस फोन के इंतजार में थी.  ‘‘क्या हुआ भैया? कुछ इंतजाम हुआ? चार दिन से लगातार कोशिश कर रही हूं कि कहीं से ब्लड मिल जाए, लेकिन कहीं कोई राह नहीं. ब्लड कहीं उपलब्ध ही नहीं है, कोई डोनर नहीं मिला क्या भैया?’’

अनिश्चित आशंका से आखरी शब्द गले में ही लड़खड़ा गए थे निकहत की मां के. ‘‘दीदी हम ने भी बहुतों से पूछने की कोशिश की, कई परिचितों से तो संपर्क ही नहीं हो पा रहा है. अपने ही शहर में अकेले ऐसे बच्चों के ही केस डेढ़ सौ से ऊपर हैं, और आप तो जानती हैं उन्हें खून की कितनी जरूरत पड़ती है.’’

‘‘भैया पिछली ही बार मैं ने अपने पति को अपना ब्लड दिया था जब वे सरकारी काम में भीड़ के साथ मुठभेड़ में जख्मी हुए थे. मुझ में अभी प्लेटलेट्स और हीमोग्लोबिन की कमी है, मेरा खून अभी काम न आ सकेगा, कोई उपाय देखो भैया.’’ उस के करुण स्वर ने उस तरफ के व्यक्ति को भी आद्र कर दिया. ‘‘देखता हूं दीदी. कर्फ्यू और कोरोना के डर से तो कोई किसी काम में हाथ डालने को तैयार नहीं. कोशिश करता हूं.’’ बातचीत खत्म होने पर निकहत की मां पहले से ज्यादा परेशान हो गई. निकहत जब छोटी सी थी अचानक एक बार बुखार आया था. फिर तो वह ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी.

टैस्ट पर टैस्ट के बाद आखिर उस की बीमारी का पता चला तो नन्हीं निकहत को ले कर सारे घर वाले परेशान हो गए. नन्हीं निकहत को थैलेसीमिया था यानी ब्लड कैंसर. हर पंद्रह दिन में उस के शरीर में खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है, क्योंकि इस बीमारी में खून बनना बंद हो जाता है. यदि मरीज को निश्चित अंतराल पर खून न चढ़ाया जाए तो उस की लाख जीने की इच्छा भी उस का जीवन नहीं बचा सकती. निकहत की मां का यह अंतहीन सिलसिला शुरू हो चुका था. और ऐसे में आया था यह कोरोना का कहर. शहरों की तालाबंदी से रोजमर्रा की जिंदगी जहां बाधित होने लगी है, जहां जीने की होड़ में लोग मृत्यु से रोजाना भिड़ रहे हैं, वहां पहले से ही जीवन पर काल बनी बीमारियों का सामना कैसे करें. जिन के घर के बच्चे पहले से ही असाध्य बीमारियों से जूझ रहे, उन का उपाय इस लौक डाउन शहर की कानीगूंगी गलियों में कैसे होगा?

जब देश में अचानक फैली इस महामारी से लड़ कर जीतने के लिए न तो पर्याप्त मैडिकल स्टाफ हैं, न वैंटिलेटर, न हाइजीन के लिए पर्याप्त सामान और न इस रोग की जांच के लिए अधिक हौस्पिटल. खून की बीमारी से जूझते बच्चों की तो ऐसे भी इम्यून शक्ति कमजोर होती है. कैसे बचाए प्यारी सी निकहत को उस की मां. अचानक पड़ोस के कल्याण ने निकहत के घर का दरवाजा खटखटाया. अब कोई भी घटना निकहत की मां को अच्छी नहीं लग रही है. खास कर लोगों से बोलनाबतियाना. 30 साल की उम्र में ही उस ने अपने मन को बांध कर रखना सीख लिया है और अभी तो निकहत को ले कर उस का मन बहुत ही आशंकित है. बाहर आ कर देखा बाजू में रहने वाला कल्याण है, एमटैक की स्टूडैंट.

वह और भी घबरा गई. अभीअभी इस का इस के पिता से जोरदार कहासुनी हो रही थी, पता नहीं क्या हुआ था और अब यह यहां. निकहत में खून की जबरदस्त कमी हो रही है, उस का किसी बाहरी से मिलनाजुलना ठीक नहीं. कोरोना वायरस की वजह से चेतावनी है कि लोग दूसरे के घरों में न जाएं. सभी ओर कर्फ्यू तो इसी वजह लगा है, फिर यह यहां क्यों? परेशान सी निकहत की अम्मी ने कल्याण पर प्रश्नसूचक निगाहें डाली. भाभी, अभी न्यूज पेपर में पढ़ा थैलेसीमिया के बच्चों को समय पर खून नहीं मिल पा रहा है, इस से उन की जिंदगी पर खतरा बढ़ गया है. लौकडाउन की वजह से कोई खून देने वाला नहीं मिल पा रहा है, ऊपर से रक्त कालाबाजारी भी तो होने लगती है, ऐसी आपदा में. क्या निकहत का इंतजाम हो गया है?

‘‘नहीं भाई, शुक्रिया तुम्हें याद रहा निकहत का.’’ ‘‘इस में शुक्रिया कहने की कोई बात नहीं. यदि आप को कोई ऐतराज न हो तो आप निकहत को ले कर अभी मेरे साथ कालोनी के ब्लड बैंक चल सकती हैं. कालोनी के बाहर जो ब्लड बैंक है वहां मैं ने फोन से पूछ रखा है, वे चढ़ा देंगे मेरा खून निकहत को.’’ निकहत की अम्मी को लगा जैसे कल्याण को वह दौड़ कर गले लगा ले. 23 वर्ष का यह नौजवान कितना संवेदनशील और समझदार है. बात तो सभी कर लेते हैं, लेकिन विपत्ति में पूछने वाले मिल जाएं तो दूर रह कर भी यह दुख झेला जा सकता है. ‘‘भाई बड़े मुसीबत में थी, इस के अब्बू ड्यूटी में हैं, कौन इंतजाम करे. इस करम का शुक्रिया अदा कर दूं. इतनी औकात नहीं मेरी, हां दुआ करती हूं परवरदिगार तुम्हें हजार नियामत बख्शे. भाई बुरा न मानो, एक बात पूछना चाहती हूं, अभी कुछ देर पहले तुम्हारे घर से तुम्हारे पिताजी के चीखने की आवाजें आ रही थीं, सब खैरियत तो है?’’

‘‘अरे बाबूजी को डर था कि खून देने गया तो मुझे कोरोना हो जाएगा. बिना समझे न डरें वही बता रहा था जब पूरे हाइजीन का खयाल रखा जाएगा, तो यह क्यों होगा. और बच्चों की जिंदगी भी तो बचानी है.’’ निकहत की मां कल्याण के साथ ब्लड बैंक जाती है, और औपचारिकताएं पूरी कर निकहत को खून चढ़ा दिया जाता है. खून के कतरों के साथ प्यार, विश्वास और कोरोना नहीं, करुणा की धार स्थानांतरित होती रही बच्ची में. निकहत की मां सोच रही थी, शहर में लाख कर्फ्यू लगा हो, मगर यदि दिल में कर्फ्यू नहीं लगा तो मुश्किल की घड़ी में एकदूसरे के काम आया जा सकता है.

Short Story : इंसाफ हम करेंगे

Short Story : माही बेहाल पड़ी थी, रहरह कर शरीर में दर्द उभर रहा था. पूरे शरीर पर मारपीट के निशान पड़ चुके थे. मारते वक्त कभी सोचता भी तो नहीं था निहाल सिंह.

माही का पति निहाल सिंह कभी उसे बालों से पकड़ कर खींचता, तो कभी मारने के लिए छड़ी उठा लेता. शराब पीने के बाद तो वह बिलकुल जानवर बन जाता था. फिर तो उसे यह भी ध्यान नहीं रहता था कि उस के बच्चे अब बड़े हो चुके हैं. जब कभी उस की बेटी रूबी मां माही को बचाने के लिए आगे आती, तो वह भी पिट जाती.

2 दिन पहले जब वह शराब पी कर घर में सब को गालियां देने लगा था, तो माही ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘‘बस करो, अब खाना खा लो. सुबह काम पर भी जाना है.‘‘

माही के इतना बोलने पर वह चीखते हुए बोला, ‘‘अब तुम रोकोगी मुझे. अभी बताता हूं तुझे,’’ फिर तो उस का हाथ ना थमा. आखिर रूबी दोनों के बीच में आ गई और उस का हाथ पकड़ कर झटकते हुए बोली, ‘‘पापा अब बस भी कीजिए, गलती तो आप की है, मम्मी को क्यों मार रहे हो?‘‘

‘‘कितनी बार कहा है कि तू बीच में ना बोला कर. जा यहां से,‘‘ रूबी को पीछे धकेलता हुआ वह बोला, ‘‘जाओ निकलो मेरे घर से.‘‘

यह सुन कर माही घबरा गई. इस से पहले भी तो वह कई बार उसे घर से निकाल चुका था. लड़खड़ाता हुआ वह बेड पर गिरा और सो गया.

रूबी ने मां को उठाया और दूसरे कमरे में ले गई. उस के जख्मों को साफ कर दवा लगाई और बोली, ‘‘मम्मी, अब बहुत हो गया, पापा नहीं सुधरेंगे. यह रोजरोज के झगडे जीने नहीं देंगे हमें.‘‘

माही दर्द से कराहते हुए बोली, ‘‘हां रूबी, मैं भी अब थक चुकी हूं. मुझे समझ में आ चुका है. अब मैं इन्हें कभी माफ नहीं करूंगी. बेशक रोए या गिड़गिड़ाए, मैं इन की बातों में नहीं आऊंगी.‘‘

अपने सिर पर लगी चोट को सहलाते हुए माही दृढ़ निश्चय के साथ बोली, ‘‘तुम बुलाओ पुलिस को, अब मैं दूंगी बयान इन के खिलाफ.‘‘

रूबी ने झट से पुलिस का नंबर डायल किया और सारी घटना बता दी.

माही और निहाल सिंह की लव मैरिज हुई थी. घर वालों के खिलाफ जा कर माही ने निहाल सिंह का हाथ थामा था. दोनों भारत से यूरोप आ कर बस गए थे. माही ने जब काम करना चाहा, तो उस ने कहा, ‘‘तुम मेरे घर की रानी हो, तुम घर संभालो, मैं बाहर संभालता हूं.‘‘

कुछ समय तो बहुत अच्छा बीता, मगर धीरेधीरे माही को महसूस होने लगा कि निहाल सिंह का स्वभाव दिन ब दिन बदलता जा रहा है. काम से आते ही वह शराब पीने लग जाता. तब तक बच्चे भी हो चुके थे. उस ने खुद को बच्चों में व्यस्त कर लिया था.

जब कभी माही उसे बाहर जाने को कहती, वह मना कर देता. निहाल सिंह अब छोटीछोटी बातों में भी माही पर शक करने लगा था. जब कभी काम का लोड बढ़ जाता, वह झल्ला कर कहता, ‘‘मुझ से नहीं होता इतना काम, मैं नहीं उठा सकता इतना बोझ.‘‘

अगर माही नौकरी करने को कहती, तो वह उसे पीटने लगता. शराब पी कर मारपीट तो उस के लिए रोज की बात हो गई थी. बच्चे डरते मां के पीछे छिप जाते थे. वह अब थोड़े बड़े भी हो गए थे. उन का स्कूल में दाखिला करवाना जरूरी हो गया था. खर्चा बढ़ गया था तो माही ने निहाल सिंह को किसी तरह नौकरी के लिए मना लिया. वह घर का सारा काम निबटा कर ही नौकरी पर जाती और वापस आते ही बच्चों और घर को देखती.

माही ने कभी किसी से अपने साथ हुई मारपीट का जिक्र नहीं किया था. हां, कभीकभी उस के घर से आती मारपीट और चीखने की आवाजों से परेशान हो कर पड़ोसी ही पुलिस में रिपोर्ट कर देते. पुलिस आती तो वह झूठ बोल कर उसे बचा लेती. ऐसे ही समय निकल रहा था.

निहाल सिंह का मन करता उसे प्यार करता, नहीं तो आधी रात को उसे मारपीट कर कमरे से बाहर निकाल देता. वह अपनी तकदीर को कोसती बच्चों के पास आ कर सो जाती.

इतना सबकुछ होने के बावजूद भी वह निहाल सिंह का पूरा ध्यान रखती. हर काम वह समय से करती. सुबह उठते ही सब से पहले उस का टिफिन तैयार करती. किसी तरह उस ने निहाल सिंह को मना कर बच्चों को साथ वाले बड़े शहरों में पढ़ने के लिए भेज दिया था, ताकि वह दोनों पढ़लिख कर अच्छी नौकरियों पर लग सकें. असल बात तो यह थी कि माही उन दोनों पर पिता की गलत हरकतों का असर नहीं पड़ने देना चाहती थी.

1-2 बार ऐसे ही किसी बात पर गुस्सा हो कर निहाल सिंह ने माही को आधी रात में घर से बाहर निकाल दिया था. माही की मौसी का बेटा इसी शहर में रहता था. वह उसे फोन करती और वह उसे ले कर अपने घर चला जाता. फिर उस ने माही को समझाया कि ऐसे तो यह कभी नहीं सुधरेगा. तुम कब तक इस की मारपीट बरदाश्त करोगी? मौसी के बेटे ने खुद ही पुलिस में उस की रिपोर्ट लिखवा दी.

जब पुलिस निहाल सिंह को घर से उठा कर ले गई, तब माही डर गई और उस ने भाई को रिपोर्ट वापस लेने के लिए मना लिया. जब ऐसा 2-3 बार हुआ, तो वह भी पीछे हट गया.

माही इसे अपनी किस्मत समझ कर समझौता कर रही थी. उसे पता था कि निहाल सिंह क्रोधी है, पर उस के बच्चों का पिता है. वह भले ही अब उसे पहले जैसा प्यार नहीं करता, मगर वह उस के लिए तो आज भी वही उस का प्यार है.

तभी एक दिन निहाल सिंह काम से आते वक्त अपने साथ एक जवान औरत को घर ले आया. माही ने उसे देखते ही निहाल सिंह से उस के बारे में पूछा कि यह कौन है तो उस ने बताया, ‘‘यह प्रीति है. इस का पति मेरे साथ काम करता था. ज्यादा शराब पीने से वह मर गया. मैं इस की मदद कर रहा हूं, क्योंकि उस के बीमे और पैंशन के बारे में इसे कुछ नहीं पता.‘‘

माही भोली थी. वह बोली, ‘‘अच्छा है, आप इन की मदद कर रहे हो वरना कौन बेगाने देश में किसी की मदद करता है.‘‘

अब तो जब भी प्रीति का फोन आता, निहाल सिंह भागाभागा उस के पास पहुंच जाता.

एक दिन माही काम से वापस आई, तो घर का दरवाजा खोलते ही बेडरूम से किसी के हंसने की आवाज आई. अंदर अंधेरा था. बिजली का स्विच औन करते ही माही की आंखें खुली की खुली रह गईं.

जब माही ने उन दोनों को बेड पर आपत्तिजनक हालत में देखा. शर्मिंदा होने के बजाय दोनों हंसने लगे. इस के बाद तो उस के सामने ही सबकुछ चलने लगा.

यह देख माही का दिल टूट चुका था. इतना सब होने के बावजूद भी उस ने कभी नहीं सोचा था कि वह उसे इस तरह धोखा देगा. जब एक दिन उस को पास बिठा कर वह बोला, ‘‘तू हां करे, तो मैं इसे भी साथ रख लूं.

माही को तो काटो खून नहीं. उस ने पक्का मन बना लिया कि अब वह उस के साथ नहीं रहेगी.

बच्चे पढ़लिख कर अब अच्छी नौकरियों पर लग चुके थे. सिर्फ छुट्टियों में ही वे घर आते थे. वे मां को अपने साथ चलने को कहते, मगर वह जानती थी कि निहाल सिंह बीमारी का शिकार है. उस के खानेपीने का ध्यान उस ने ही रखना है, इसलिए वह सबकुछ बरदाश्त कर के भी उसी के साथ रह रही थी.

आजकल छुट्टियों में बेटी रूबी घर आई हुई थी. कल की हुई मारपीट के बाद माही ने रूबी को निहाल सिंह और प्रीति के संबंधों के बारे में भी बता दिया.

रूबी को अपने पिता पर बहुत गुस्सा आ रहा था. उस ने अपने पिता के खिलाफ रिपोर्ट लिखवा दी थी. थोड़ी ही देर में पुलिस आ गई. रूबी और माही ने बयान दे दिया. माही की चोटें उस के साथ हुए अत्याचारों की साफ गवाही दे रही थीं.

माही ने यह भी बताया कि जब वह पेट से थी, तो निहाल सिंह ने उसे बहुत बार पीटा था.

रिपोर्ट को मजबूत बनाने के लिए पुलिस वालों ने माही की चोटों के फोटो भी खींच कर साथ लगा दिए. पुलिस निहाल सिंह को साथ ले गई. वहां उसे 2 दिन हिरासत में रखा, फिर वार्निंग दे कर छोड़ दिया गया कि वह माही के आसपास भी नहीं फटकेगा. अगर उस ने माही को तंग किया तो उस पर कार्यवाही की जाएगी और 2 साल की जेल भी हो सकती है. उसे एक अलग घर में रहने के लिए कहा गया.

निहाल सिंह फोन कर के बारबार माही से माफी मांगने लगा. उसे पता था कि माही का दिल पिघल जाता है. वह उसे अब भी प्यार करती है, मगर रूबी ने मां को साफसाफ कह दिया, ‘‘मम्मी इस बार अगर तुम ने पापा को माफ किया, तो मैं कभी आप से बात नहीं करूंगी.”

माही ने निहाल सिंह का अब फोन उठाना बंद कर दिया.

रूबी पिता को फोन पर धमकी देते हुए बोली, ‘‘आज के बाद अगर आप ने मम्मी को फोन किया, तो पुलिस आप को 2 साल के लिए जेल में डाल देगी. मम्मी अब अकेली नहीं हैं. आज तक जो आप ने उन के साथ किया, उस के लिए हम तीनों आप से कोई रिश्ता नहीं रखेंगे. आज तक जो बेइज्जती मम्मी की हुई है, उस की सजा तो आप को भुगतनी पड़ेगी. मम्मी को उस के बच्चे इंसाफ दिलवाएंगे.‘‘

पहले निहाल सिंह गिड़गिड़ाया, फिर बेशर्मी से बोला, ‘‘मैं भी तुम लोगों से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता. आज तक मैं ने तुम दोनों की पढ़ाई पर जो भी खर्चा किया है, वह मुझे वापस चाहिए.‘‘

यह सुनते ही रूबी की आंखों में आंसू आ गए, उस का पिता इतना गिर सकता है, उस ने कभी नहीं सोचा था, मगर फिर भी वह हिम्मत कर अपने आंसुओं को साफ करते हुए बोली, ‘‘पापा कोई बात नहीं, हमारी नौकरी लग चुकी है, हम दोनों हर महीने आप को खर्चा भेज दिया करेंगे, पर अब मम्मी की और बेइज्जती बरदाश्त नहीं करेंगे,‘‘ कहते हुए रूबी ने फोन रख दिया और मां माही को अपने गले से लगा लिया.

Hindi Story : विवाह – क्या शादी से भागकर खुश रह पाई विदिशा

Hindi Story : राज आज बहुत खुश था. विदिशा से मिलने के लिए वह पुणे आया था. दोनों गर्ल्स होस्टल के पास ही एक आइसक्रीम पार्लर पर मिले.

‘‘मैं लेट हो गई क्या?’’ विदिशा ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं ही जल्दी आ गया था,’’ राज बोला.

‘‘तुम से एक बात पुछूं क्या?’’ विदिशा ने कहा.

‘‘जोकुछ पूछना है, अभी पूछ लो. शादी के बाद कोई उलझन नहीं होनी चाहिए,’’ राज ने कहा.

‘‘तुम ने कैमिस्ट्री से एमएससी की है, फिर भी गांव में क्यों रहते हो? पुणे में कोई नौकरी या कंपीटिशन का एग्जाम क्यों नहीं देते हो?’’

‘‘100 एकड़ खेती है हमारी. इस के अलावा मैं देशमुख खानदान का एकलौता वारिस हूं. मेरे अलावा कोई खेती संभालने वाला नहीं है. नौकरी से जो तनख्वाह मिलेगी, उस से ज्यादा तो मैं अपनी खेती से कमा सकता हूं. फिर क्या जरूरत है नौकरी करने की?’’

राज के जवाब से विदिशा समझ गई कि यह लड़का कभी अपना गांव छोड़ कर शहर नहीं आएगा.

शादी का दिन आने तक राज और विदिशा एकदूसरे की पसंदनापसंद, इच्छा, हनीमून की जगह वगैरह पर बातें करते रहे.

शादी के दिन दूल्हे की बरात घर के सामने मंडप के पास आ कर खड़ी हो गई, लेकिन दूल्हे की पूजाआरती के लिए दुलहन की तरफ से कोई नहीं आया, क्योंकि दुलहन एक चिट्ठी लिख कर घर से भाग गई थी.

‘पिताजी, मैं बहुत बड़ी गलती कर रही हूं, लेकिन शादी के बाद जिंदगीभर एडजस्ट करने के लिए मेरा मन तैयार नहीं है. मां के जैसे सिर्फ चूल्हाचौका संभालना मुझ से नहीं होगा. आप ने जो रिश्ता मेरे लिए ढूंढ़ा है, वहां किसी चीज की कमी नहीं है. ऐसे में मैं आप को कितना भी समझाती, मुझे इस विवाह से छुटकारा नहीं मिलता, इसलिए आप को बिना बताए मैं यह घर हमेशा के लिए छोड़ कर जा रही हूं…’

‘‘और पढ़ाओ लड़की को…’’ विदिशा के पिता अपनी पत्नी पर गुस्सा करते हुए रोने लगे. वर पक्ष का घर श्मशान की तरह शांत हो गया था. देशमुख परिवार गम में डूब गया था. गांव वालों के सामने उन की नाक कट चुकी थी, लेकिन राज ने परिवार की हालत देखते हुए खुद को संभाल लिया.

विदिशा पुणे का होस्टल छोड़ कर वेदिका नाम की सहेली के साथ एक किराए के फ्लैट में रहने लगी. उस की एक कंपनी में नौकरी भी लग गई.

वेदिका शराब पीती थी, पार्टी वगैरह में जाती थी, लेकिन उस के साथ रहने के अलावा विदिशा के पास कोई चारा नहीं था. 4 साल ऐसे ही बीत गए.

एक रात वेदिका 2 लाख रुपए से भरा एक बैग ले कर आई. विदिशा उस से कुछ पूछे, तभी उस के पीछे चेहरे पर रूमाल बांधे एक जवान लड़का भी फ्लैट में आ गया.

‘‘बैग यहां ला, नहीं तो बेवजह मरेगी,’’ वह लड़का बोला.

‘‘बैग नहीं मिलेगा… तू पहले बाहर निकल,’’ वेदिका ने कहा.

उस लड़के ने अगले ही पल में वेदिका के पेट में चाकू घोंप दिया और बैग ले कर फरार हो गया.

विदिशा को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उस ने तुरंत वेदिका के पेट से चाकू निकाला और रिकशा लेने के लिए नीचे की तरफ भागी. एक रिकशे वाले को ले कर वह फ्लैट में आई, लेकिन रिकशे वाला चिल्लाते हुए भाग गया.

विदिशा जब तक वेदिका के पास गई, तब तक उस की सांसें थम चुकी थीं. तभी चौकीदार फ्लैट में आ गया. पुलिस स्टेशन में फोन किया था. विदिशा बिलकुल निराश हो चुकी थी. वेदिका का यह मामला उसे बहुत महंगा पड़ने वाला था, इस बात को वह समझ चुकी थी. रोरो कर उस की आंखें लाल हो चुकी थीं.

पुलिस पूरे फ्लैट को छान रही थी. वेदिका की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी गई. दूसरे दिन सुबह विदिशा को पुलिस स्टेशन में पूछताछ के लिए बुलाया गया. सवेरे 9 बजे से ही विदिशा पुलिस स्टेशन में जा कर बैठ गई. वह सोच रही थी कि यह सारा मामला कब खत्म होगा.

‘‘सर अभी तक नहीं आए हैं. वे 10 बजे तक आएंगे. तब तक तुम केबिन में जा कर बैठो,’’ हवलदार ने कहा.

केबिन में जाते ही विदिशा ने टेबल पर ‘राज देशमुख’ की नेमप्लेट देखी और उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे.

तभी राज ने केबिन में प्रवेश किया. उसे देखते ही विदिशा खड़ी हो गई.

‘‘वेदिका मर्डर केस. चाकू पर तुम्हारी ही उंगलियों के निशान हैं. हाल में भी सब जगह तुम्हारे हाथों के निशान हैं. खून तुम ने किया है. लेकिन खून के पीछे की वजह समझ नहीं आ रही है. वह तुम बताओ और इस मामले को यहीं खत्म करो,’’ राज ने कहा.

‘‘मैं ने खून नहीं किया है,’’ विदिशा बोली.

‘‘लेकिन, सुबूत तो यही कह रहे हैं,’’ राज बोला.

‘‘कल जो कुछ हुआ है, मैं ने सब बता दिया है,’’ विदिशा ने कहा.

‘‘लेकिन वह सब झूठ है. तुम जेल जरूर जाओगी. तुम ने आज तक जितने भी गुनाह किए हैं, उन सभी की सजा मैं तुम्हें दूंगा मिस विदिशा.’’

‘‘देखिए…’’

‘‘चुप… एकदम चुप. कदम, गाड़ी निकालो. विधायक ने बुलाया है हमें. मैडम, हर सुबह यहां पूछताछ के लिए तुम्हें आना होगा, समझ गई न.’’

विदिशा को कुछ समझ नहीं आ रहा था. शाम को वह वापस पुलिस स्टेशन के बाहर राज की राह देखने लगी.

रात के 9 बजे राज आया. वह मोटरसाइकिल को किक मार कर स्टार्ट कर रहा था, तभी विदिशा उस के सामने आ कर खड़ी हो गई.

‘‘मुझे तुम से बात करनी है.’’

‘‘बोलो…’’

‘‘मैं ने 4 साल पहले बहुत सी गलतियां की थीं. मुझे माफ कर दो. लेकिन मैं ने यह खून नहीं किया है. प्लीज, मुझे इस सब से बाहर निकालो.’’

‘‘लौज में चलोगी क्या? हनीमून के लिए महाबलेश्वर नहीं जा पाए तो लौज ही जा कर आते हैं. तुम्हारे सारे गुनाह माफ हो जाएंगे… तो फिर मोटरसाइकिल पर बैठ रही हो?’’

‘‘राज…’’ विदिशा आगे कुछ कह पाती, उस से पहले ही वहां से राज निकल गया.

दूसरे दिन विदिशा फिर से राज के केबिन में आ कर बैठ गई.

‘‘तुम क्या काम करती हो?’’

‘‘एक प्राइवेट कंपनी में हूं.’’

‘‘शादी हो गई तुम्हारी? ओह सौरी, असलम बौयफ्रैंड है तुम्हारा. बिना शादी किए ही आजकल लड़केलड़कियां सबकुछ कर रहे हैं… हैं न?’’

‘‘असलम मेरा नहीं, वेदिका का दोस्त था.’’

‘‘2 लड़कियों का एक ही दोस्त हो सकता है न?’’

‘‘मैं ने अब तक असलम नाम के किसी शख्स को नहीं देखा है.’’

‘‘कमाल की बात है. तुम ने असलम को नहीं देखा है. वाचमैन ने रूमाल से मुंह बांधे हुए नौजवान को नहीं देखा. पैसों से भरे बैग को भी तुम्हारे सिवा किसी ने नहीं देखा है. बाकी की बातें कल होंगी. तुम निकलो…’’

रोज सुबह पुलिस स्टेशन आना, शाम 3 से 4 बजे तक केबिन में बैठना, आधे घंटे के लिए राज के सामने जाना. वह विदिशा की बेइज्जती करने का एक भी मौका नहीं छोड़ता था. तकरीबन 2 महीने तक यही चलता रहा. विदिशा की नौकरी भी छूट गई. गांव में विदिशा की चिंता में उस की मां अस्पताल में भरती हो गई थीं. रोज की तरह आज भी पूछताछ चल रही थी.

‘‘रोजरोज चक्कर लगाने से बेहतर है कि अपना गुनाह कबूल कर लो न?’’

विदिशा ने कुछ जवाब नहीं दिया और सिर नीचे कर के बैठी रही.

‘‘जो लड़की अपने मांपिता की नहीं हुई, वह दोस्त की क्या होगी? असलम कौन है? बौयफ्रैंड है न? कल ही मैं ने उसे पकड़ा है. उस के पास से 2 लाख रुपए से भरा एक बैग भी मिला है,’’ राज विदिशा की कुरसी के पास टेबल पर बैठ कर बोलने लगा.

लेकिन फिर भी विदिशा ने कुछ नहीं कहा. उसे जेल जाना होगा. उस ने जो अपने मांबाप और देशमुख परिवार को तकलीफ पहुंचाई है, उस की सजा उसे भुगतनी होगी. यह बात उसे समझ आ चुकी थी.

तभी लड़की के पिता ने केबिन में प्रवेश किया और दोनों हाथ जोड़ कर राज के पैरों में गिर पड़े, ‘‘साहब, मेरी पत्नी बहुत बीमार है. हमारी बच्ची से गलती हुई. उस की तरफ से मैं माफी मांगता हूं. मेरी पत्नी की जान की खातिर खून के इस केस से इसे बाहर निकालें. मैं आप से विनती करता हूं.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा. आप घर जाइए,’’ राज ने कहा.

विदिशा पीठ पीछे सब सुन रही थी. अपने पिता से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं थी उस में. लेकिन उन के बाहर निकलते ही विदिशा टेबल पर सिर रख कर जोरजोर से रोने लगी.

‘‘तुम अभी बाहर जाओ, शाम को बात करेंगे,’’ राज बोला.

‘‘शाम को क्यों? अभी बोलो. मैं ने खून किया है, ऐसा ही स्टेटमैंट चाहिए न तुम्हें? मैं गुनाह कबूल करने के लिए तैयार हूं. मुझ से अब और सहन नहीं हो रहा है. यह खेल अब बंद करो.

‘‘तुम से शादी करने का मतलब केवल देशमुख परिवार की शोभा बनना था. पति के इशारे में चलना मेरे वश की बात नहीं है. मेरी शिक्षा, मेरी मेहनत सब तुम्हारे घर बरबाद हो जाती और यह बात पिताजी को बता कर भी कोई फायदा नहीं था. तो मैं क्या करती?’’ विदिशा रो भी रही थी और गुस्से में बोल रही थी.

‘‘बोलना चाहिए था तुम्हें, मैं उन्हें समझाता.’’

‘‘तुम्हारी बात मान कर पिताजी मुझे पुणे आने देते क्या? पहले से ही वे लड़कियों की पढ़ाई के विरोध में थे. मां ने लड़ाईझगड़ा कर के मुझे पुणे भेजा था. मेरे पास कोई रास्ता नहीं था, इसलिए मुझे मंडप छोड़ कर भागना पड़ा.’’

‘‘और मेरा क्या? मेरे साथ 4 महीने घूमी, मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया, उस का क्या? मेरे मातापिता का इस में क्या कुसूर था?’’

‘‘मुझे लगा कि तुम्हें फोन करूं, लेकिन हिम्मत नहीं हुई.’’

‘‘तुम्हें जो करना था, तुम ने किया. अब मुझे जो करना है, वह मैं करूंगा. तुम बाहर निकलो.’’

विदिशा वहां से सीधी अपने गांव चली गई. मां से मिली. ‘‘मेरी बेटी, यह कैसी सजा मिल रही है तुझे? तेरे हाथ से खून नहीं हो सकता है. अब कैसे बाहर निकलेगी?’’

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ जो छल किया?है, उस की सजा मुझे भुगतनी होगी मां.’’

‘‘कुछ नहीं होगा आप की बेटी को, केस सुलझ गया है मौसी. असलम नाम के आदमी ने अपना गुनाह कबूल कर लिया है. वह वेदिका का प्रेमी था. दोनों के बीच पैसों को ले कर झगड़ा था, जिस के चलते उस का खून हुआ.

‘‘आप की बेटी बेकुसूर है. अब जल्दी से ठीक हो जाइए और अस्पताल से घर आइए,’’ राज यह बात बता कर वहां से निकल गया.

विदिशा को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था.

‘‘सर, मैं आप का यह उपकार कैसे चुकाऊं?’’

‘‘शादी कर लो मुझ से.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मजाक कर रहा था. मेरा एक साल का बेटा है मिस विदिशा.’’

Hindi Kahani : फर्ज – नजमा ने अपना फर्ज कैसे निभाया

Hindi Kahani : जयपुर शहर के सिटी अस्पताल में उस्मान का इलाज चलते 15 दिन से भी ज्यादा हो गए थे, लेकिन उस की तबीयत में कोई सुधार नहीं हो रहा था. आईसीयू वार्ड के सामने परेशान उस्मान के अब्बा सरफराज लगातार इधर से उधर चक्कर लगा रहे थे. कभी बेचैनी में आसमान की तरफ दोनों हाथ उठा कर वे बेटे की जिंदगी की भीख मांगते, तो कभी फर्श पर बैठ कर फूटफूट कर रोने लग जाते. उधर अस्पताल के एक कोने में उस्मान की मां फरजाना भी बेटे की सलामती के लिए दुआएं मांग रही थीं.

तभी आईसीयू वार्ड से डाक्टर रामानुजम बाहर निकले, तो सरफराज उन के पीछेपीछे दौड़े और उन के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाते हुए कहने लगे. ‘‘डाक्टर साहब, मेरे बेटे को बचा लो. आप कुछ भी करो. उस के इलाज में कमी नहीं आनी चाहिए.’’

डाक्टर रामानुजम ने उन्हें उठा कर तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘देखिए अंकल, हम आप के बेटे को बचाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. उस की तबीयत अभी भी गंभीर बनी हुई है. आपरेशन और दवाओं को मिला कर कुल 5 लाख रुपए का खर्चा आएगा.’’

‘‘कैसे भी हो, आप मेरे बेटे को बचा लो डाक्टर साहब. मैं एकदो दिन में पैसों का इंतजाम करता हूं,’’ सरफराज ने हाथ जोड़ कर कहा.

काफी भागदौड़ के बाद भी जब सरफराज से सिर्फ 2 लाख रुपए का इंतजाम हो सका, तो निराश हो कर उन्होंने बेटी नजमा को मदद के लिए दिल्ली फोन मिलाया.

उधर से फोन पर दामाद अनवर की आवाज आई, ‘हैलो अब्बू, क्या हुआ? कैसे फोन किया?’

‘‘बेटा अनवर, उस्मान की तबीयत ज्यादा ही खराब है. उस के आपरेशन और इलाज के लिए 5 लाख रुपए की जरूरत थी. हम से 2 लाख रुपए का ही इंतजाम हो सका है. बेटा…’’ और सरफराज का गला भर आया.

इस के पहले कि उन की बात पूरी होती, उधर से अनवर ने कहा, ‘अब्बू, आप बिलकुल चिंता न करें. मैं तो आ नहीं पाऊंगा, लेकिन आप की बेटी कल सुबह पैसे ले कर आप के पास पहुंच जाएगी.’

दूसरे दिन नजमा पैसे ले कर जयपुर पहुंच गई. कामयाब आपरेशन के बाद डाक्टरों ने उस्मान को बचा लिया.

धीरेधीरे 10 साल गुजर गए. इस बीच सरफराज ने गांव की कुछ जमीन बेच कर उस्मान को इंजीनियरिंग की पढ़ाई कराई और मुंबई एयरपोर्ट पर उस की नौकरी लग गई. उस ने अपने साथ काम करने वाली लड़की रेणू से शादी भी कर ली और ससुराल में ही रहने लगा.

इस के बाद उस्मान का मांबाप से मिलने आना बंद हो गया. कई बार वे बीमार हुए. उसे खबर भी दी, फिर भी वह नहीं आया.

एक दिन सुबहसवेरे टैलीफोन की घंटी बजी. सरफराज ने फोन उठा कर सुना, तो उधर से उस्मान बोल रहा था, ‘हैलो अब्बा, कैसे हैं आप सब लोग? अब्बा, मुझे एक परेशानी आ गई है. मुझे 10 लाख रुपए की सख्त जरूरत है. मैं 2-3 दिन में पैसे लेने आ जाता हूं.’

‘‘बेटा, तेरे आपरेशन के वक्त बेटी नजमा से उधार लिए 3 लाख रुपए चुकाना ही मुश्किल हो रहा है. ऐसे में मुझ से 10 लाख रुपए का इंतजाम नहीं हो सकेगा. मैं मजबूर हूं बेटा,’’ सरफराज ने कहा.

इस के आगे सरफराज कुछ बोलते, तभी उस्मान गुस्से से उन पर भड़क उठा, ‘अब्बा, मुझे आप से यही उम्मीद थी. मुझे पता था कि आप यही कहेंगे. आप ने जिंदगी में मेरे लिए किया ही क्या है?’ और उस ने फोन काट दिया.

अपने बेटे की ऐसी बातें सुन कर सरफराज को गहरा सदमा लगा. वे गुमसुम रहने लगे. सारा दिन घर में पड़ेपड़े वे बड़बड़ाते रहते.

एक दिन अचानक शाम को सीने में दर्द के बाद सरफराज लड़खड़ा कर गिर पड़े, तो बीवी फरजाना ने उन्हें पलंग पर लिटा दिया.

कुछ देर बाद डाक्टर ने आ कर जांच की और कहा, ‘‘इन की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है. इन्हें बड़े अस्पताल में ले जाना पड़ेगा.’’

कसबे के नजदीक जिला अस्पताल में सारी जांचों और रिपोर्टों को देखने के बाद सीनियर डाक्टर ने फरजाना को अलग बुला कर समझाया और कहा कि वे सरफराज को घर ले जा कर खिदमत करें.

डाक्टर साहब की बात सुन कर घबराई फरजाना ने बेटे उस्मान को फोन कर बीमार बाप से मिलने आने की गुजारिश करते हुए आखिरी वक्त में साथ होने की दुहाई भी दी.

उधर से फोन पर उस्मान ने अम्मी से काफी भलाबुरा कहा. गुस्से में भरे उस्मान ने यह तक कह दिया, ‘आप लोगों से अब मेरा कोई रिश्ता नहीं है. आइंदा मुझे फोन भी मत करना.’

बेटे की ऐसी बातें सुन कर फरजाना घबरा गईं. उन्होंने नजमा को दिल्ली फोन किया, ‘‘हैलो नजमा बेटी, तेरे अब्बा की तबीयत बहुत खराब है. तू अनवर मियां से इजाजत ले कर कुछ दिनों के लिए यहां आ जा.’’

नजमा ने उधर से फौरन जवाब दिया, ‘अम्मी, आप बिलकुल मत घबराना. मैं आज ही शाम तक आप के दामाद के साथ आप के पास पहुंच जाऊंगी.’

शाम होतेहोते नजमा और अनवर जब घर पर पहुंचे, तो खानदान के लोग सरफराज के पलंग के आसपास बैठे थे. नजमा भाग कर अब्बा से लिपट गई. दोनों बापबेटी बड़ी देर तक रोते रहे.

‘‘देखो अब्बा, मैं आ गई हूं. आप अब मेरे साथ दिल्ली चलोगे. वहां हम आप का बढि़या इलाज कराएंगे. आप बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगे,’’ नजमा ने रोतेरोते कहा.

आंखें खोलने की कोशिश करते हुए सरफराज ने बड़ी देर तक नजमा के सिर हाथ फेरा और कहा, ‘‘नजमा बेटी, अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा. अब तू जो आ गई है. मुझे सुकून से मौत आ जाएगी.’’

‘‘ऐसा मत बोलो अब्बा. आप को कुछ नहीं होगा…’’ उसी दिन अम्मी को बुला कर उस ने कह दिया, ‘‘अम्मी, आप ने खूब खिदमत कर ली. अब मुझे अपना फर्ज अदा करने दो.’’

उस के बाद तो नजमा ने अब्बा की खिदमत में दिनरात एक कर दिया. समय पर दवा, चाय, नाश्ता, खाना, नहलाना और घंटों तक पैर दबाते रहना, सारीसारी रात पलंग पर बैठ कर जागना उस का रोजाना का काम हो गया.

कई बार सरफराज ने नजमा से मना भी किया, लेकिन वह हर बार यह कहती, ‘‘अब्बा, आप ने हमारे लिए क्या नहीं किया. आप भी हमें अपने हाथों से खिलाते, नहलाते, स्कूल ले जाते, कंधे पर बैठा कर घुमाते थे. सबकुछ तो किया. अब मेरा फर्ज अदा करने का वक्त है. मुझे मत रोको अब्बा.’’

बेटी की बात सुन कर सरफराज चुप हो गए. नजमा की खिदमत ने करिश्मा कर दिया. सरफराज की सेहत में सुधार होता चला गया.

एक दिन दोपहर के वक्त नजमा अब्बा का सिर गोद में ले कर चम्मच से जूस पिला रही थी, तभी घर के बाहर कार के रुकने की आवाज सुनाई दी.

कुछ देर बाद उस्मान एक वकील के साथ अंदर जाने लगा. वकील के हाथ में टाइप किए कुछ कागजात थे.

उस्मान दरवाजे पर खड़ी फरजाना से सलाम कर के आगे बढ़ा, तो उन्होंने उस का हाथ पकड़ कर रोक लिया और पूछा, ‘‘कौन हो तुम? कहां जा रहे हो?’’

‘‘अरे अम्मी, मैं हूं आप का बेटा उस्मान,’’ इतना कहते हुए वह सरफराज के पलंग के पास जा कर खड़ा हो गया.

तभी सरफराज ने तकिए का सहारा ले कर पूछा, ‘‘कौन हो तुम? और ये वकील साहब कैसे आए हैं?’’

‘‘अब्बा, मैं आप का उस्मान.’’

‘‘कौन उस्मान? मैं किसी उस्मान को नहीं जानता, न मेरा उस से कोई रिश्ता है. मेरा तो एक ही बेटा है. यह मेरी बेटी नजमा…’’ इतना कह कर उन्होंने मुंह फेर लिया और कहा, ‘‘वकील साहब, शायद आप मेरी जायदाद उस्मान के नाम करवाने के कागजात पर दस्तखत कराने के इरादे से आए हो, लेकिन आप लोगों को बहुत देर हो गई.’’

उन्होंने तकिए के नीचे से कागजात निकाल कर बताते हुए कहा, ‘‘मैं ने बेटे के लिए बहुत किया. अपना सबकुछ दिया, लेकिन सब बेकार चला गया.

‘‘मुझे जिंदगीभर यही अफसोस रहेगा कि मेरे नजमा जैसी और बेटियां क्यों नहीं हुईं? अब मेरा सबकुछ इस का है. यह जिंदगी भी इसी की खिदमत की बदौलत है. आप मेहरबानी कर के चले जाएं. यहां उस्मान नाम का कोई भी नहीं है.’’ यह सुन कर उस्मान के होश उड़ गए और वह मुंह लटका कर वकील के साथ घर से बाहर निकल गया.

Hindi Story : ज्वालामुखी – रेनू ने की कैसी भूल

Hindi Story : ‘‘विक्रम बेटा, खेलने बाद में जाना, पहले अस्पताल में टिफिन दे कर आओ,’’ मेनगेट की ओर जाते हुए विक्की को रेनू ने बेडरूम में से आवाज दी. ‘‘टिफिन तैयार है तो रुकता हूं, नहीं तो मैं आधे घंटे में आ कर ले जाता हूं,’’ विक्की को खेलने जाने की जल्दी थी.

‘‘तैयार है, बेटा, अभी ले कर जाओ,’’ तेज कदमों से चलती हुई रेनू किचन की तरफ बढ़ी और टिफिन अपने 14 वर्षीय बेटे के हाथ में थमा दिया.

अस्पताल में टिफिन देने का सिलसिला पिछले 10 दिनों से चला आ रहा है क्योंकि वहां पर 57 वर्षीय रेनू की सास सुमित्रा देवी दाखिल हैं. कुछ दिन पहले ही वह अपने आश्रम के स्नानगृह में फिसलन की वजह से गिर पड़ी थीं और उन के कूल्हे की हड्डी टूट गई थी. बहुत यातना से गुजर रही थीं बेचारी.

रेनू के पति राजीव प्रतिदिन सुबहशाम मां को देखने जाते थे और बेटा दोनों टाइम टिफिन पहुंचाता था और रात भर दादी के पास भी रहता था. अस्पताल घर के पिछवाड़े होने के बावजूद रेनू अभी तक सास को देखने नहीं गई थी. राजीव को इस व्यवहार से बेहद दुख पहुंचा था लेकिन सबकुछ उस के वश के बाहर था. वह रेनू के साथ जबरदस्ती कर के घर में किसी प्रकार की कलह नहीं चाहता था. यही वजह है कि 11 वर्ष पहले राजीव के पिताजी की मृत्यु के पश्चात 4 बेडरूम और हाल का फ्लैट होते हुए भी राजीव को अपनी मां को आश्रम में छोड़ना पड़ा क्योंकि वह नहीं चाहता था कि सासबहू दो अजनबियों की तरह एक छत के नीचे रहें. घुटन भरी जिंदगी न तो राजीव जीना चाहता था और न ही सुमित्रा देवी. हालांकि स्वयं सुमित्रा देवी ने ही वृद्धाश्रम में रहने का फैसला किया था लेकिन फिर भी घर छोड़ते वक्त उन्हें बेहद तकलीफ हुई थी.

बेटे के पास भी कोई चारा नहीं था क्योंकि सुमित्रा देवी का घर नागपुर में था जहां वह अपने पति के साथ रहती थीं और उन का इकलौता बेटा रहता था मुंबई में. बेटे के लिए रोजरोज आना मुश्किल था. वह मां को अकेले छोड़ नहीं सकता था. राजीव ने यही मुनासिब समझा कि मां जो कह रही हैं वही ठीक है. उस ने मां को मुंबई के ही ‘कोजी होम’ वृद्धाश्रम में भरती करवा दिया जहां वह पिछले 11 वर्षों से रह रही हैं और राजीव प्रत्येक रविवार का दिन अपनी मां के साथ गुजारता है. उन की जरूरत की चीजें पहुंचाता है, सुखदुख की बातें करता है और शाम को घर वापस चला आता है.

आज जब राजीव रात को अस्पताल से वापस आया तो उस ने रेनू से कोई बात नहीं की. स्नान किया और खाना खा कर चुपचाप अपने कमरे में जा कर लेट गया. उसे इस बात की बेहद तकलीफ हो रही थी कि 11 दिन से मां घर के पास वाले अस्पताल में हैं और उस की पत्नी औपचारिकतावश भी उन्हें देखने नहीं गई.

रेनू जब रसोई का काम निबटा कर शयनकक्ष में आई तो पति को दीवार की तरफ मुंह किए लेटे हुए पाया. यह आज की ही बात नहीं है यह तनाव पिछले 11 दिनों से घर में चल रहा है. रेनू भी दूसरी दीवार की तरफ मुंह घुमा कर लेट गई. नींद तो जैसे पंख लगा कर उड़ गई थी.

शादी के बाद के 5 बरस उस की आंखों के आगे से गुजरने लगे. शादी होते ही सासससुर की शिकायतें शुरू हो गई थीं हर छोटीबड़ी चीज को ले कर. न तो उन्हें रेनू के मायके से आई हुई कोई चीज पसंद थी न ही उस का बनाया हुआ खाना. रोज किसी न किसी चीज में नुक्स निकाल दिया जाता, यहां तक कि रेनू की आवाज में भी, कहते कि यह बोलती कैसे है.’

रेनू की आवाज बहुत ही बारीक और बच्चों जैसी सुनाई पड़ती थी. हालांकि यह सब किसी के वश की बात नहीं है लेकिन सासससुर को इस बात पर भी एतराज था, वे समझते थे कि रेनू बनावटी आवाज बना कर बात करती है.

रेनू की कोशिश रहती कि घर के सभी सदस्य खुश रहें मगर ऐसा हो न पाता. कभीकभी तंग आ कर पलट कर वह जवाब भी दे देती थी. जिस दिन जवाब देती उस से अगले ही दिन घर में अदालत लग जाती और उसे राजीव के दबाव में आ कर सासससुर से माफी मांगनी पड़ती. राजीव का कहना था कि अगर इस घर में रहना है तो इस घर की मिट्टी में मिल जाओ. रेनू के सुलगते हुए दिल में मुट्ठी भर राख और जमा हो जाती.

रेनू के पिताजी के खून में प्लेट- लेट्स काउंट बहुत कम हो गया था. उन की बीमारी बढ़ती ही जा रही थी. उस दिन जब फोन आया कि पिताजी की तबीयत बहुत खराब है, जल्दी आ जाओ तो रेनू ने अपने सासससुर से, अपने पिताजी से मिलने शिमला जाने की इजाजत मांगी तो ससुरजी ने हंसते हुए कहा, ‘बहू, यह कौन सी नई बात है, उन की तबीयत तो आएदिन खराब ही रहती है.’

‘पता नहीं क्या बीमारी है, बिस्तर पर एडि़यां रगड़ कर मरने से अच्छा है मृत्यु एक ही झटके में आ जाए,’ रेनू की सास सुमित्रा देवी बोली थीं.

यह बात उन्होंने अपने बारे में कही होती तो और बात थी मगर उन्होंने तो निशाना बनाया था रेनू के पिताजी को. सुन कर रेनू का दिमाग झन्ना उठा. उस ने वक्र दृष्टि से दोनों को निहारा.

सासससुर दोनों स्तब्ध रह गए. बैठक में बैठे राजीव ने भी सब देखासुना. किसी को भी जैसे काटो तो खून नहीं. कोई कुछ नहीं बोला.

2 दिन पश्चात रेनू के पिता की मृत्यु हो गई. राजीव स्वयं रेनू को ले कर शिमला गया…लेकिन तब तक सबकुछ खत्म हो चुका था. पिता की मृत्यु ने राख में दबे ज्वालामुखी को और तेज कर दिया था. रेनू अब जिंदगी भर सासससुर की शक्ल भी नहीं देखना चाहती थी.

सुबह उठी तो रेनू की आंखें रात भर नींद न आने की वजह से लाल थीं. बेटा अस्पताल से आ कर स्कूल के लिए तैयार होने लगा. रेनू रसोई में चली गई. राजीव चुपचाप दाढ़ी बना रहा था. सभी के घर में मौजूद होते हुए भी एक चुप्पी व्याप्त थी.

वक्त गुजरता गया. सुमित्रा देवी के साथ हुई दुर्घटना को 8 महीने गुजर गए. आज रेनू जब सो कर उठी और जैसे ही पैरों पर शरीर का भार पड़ा, वह असहनीय पीड़ा से कराह उठी. वह चलने में लगभग असमर्थ थी. फिर शुरू हुआ डाक्टरों, परीक्षणों और दवाइयों का सिलसिला. एक सप्ताह गुजर गया और रेनू बिलकुल भी उठने के काबिल न रही. डाक्टर ने रिपोर्ट देख कर बताया कि रीढ़ की हड्डी में नीचे वाली बोन घिस कर छोटी हो गई है. दवाइयां और कमर पर बांधने के लिए बैल्ट रेनू को दे दी गई. पूरे दिन भागभाग कर काम करने वाली रेनू का सारा वक्त बिस्तर पर गुजरने लगा. राजीव प्रतिदिन सुबह खाना बनाता, अपना और बेटे का टिफिन भरता तथा रेनू के लिए हौट केस में भर कर रख जाता. रेनू पूरा दिन कुछ न कुछ सोचती रहती. अंदर ही अंदर वह बुरी तरह डर गई थी. उसे लगने लगा कि वह किसी काम की नहीं रही है, पति पर बोझ बन गई है. अगर यह बीमारी ठीक न हुई तो वह जीते जी मर जाएगी.

अचानक सास का चेहरा उस की नजरों के सामने कौंध जाता, ‘कितनी तकलीफ हुई होगी मेरी सास को, कितना कष्ट उस ने अकेले सहा, 11 वर्ष तक अकेलेपन का संताप झेला, बेटाबहू होते हुए भी, परिवार होते हुए भी तकलीफ से अकेली जूझती रही. मैं ने जिंदगी में…सिर्फ खोया ही खोया है. जिन्हें मैं ने इतनी तकलीफ दी क्या कभी उन के दिल से मेरे लिए दुआ निकली होगी.

‘मैं सबकुछ भुला कर उन्हें अपना बना सकती थी लेकिन मैं ने कोशिश ही नहीं की. अगर सासससुर सही नहीं थे तो मैं भी तो गलत थी. इनसान को कभीकभी दूसरों को माफ भी कर देना चाहिए. कितने वर्षों से नफरत के ज्वालामुखी को परत दर परत अपने अंदर जमा करती आ रही हूं. मैं आज तक नहीं जान पाई कि यह ज्वालामुखी मुझे ही झुलसा कर खत्म किए जा रहा है. अब और नहीं. मैं बिना किसी बोझ के निर्मल जीवन जीना चाहती हूं.’ रेनू ने मन ही मन एक दृढ़निश्चय किया कि वह राजीव के साथ स्वयं जाएगी मांजी को लेने. बस, थोड़ी सी ठीक हो जाए. वह अगर आने के लिए नहीं मानेंगी तो भी वह पैर पकड़ कर, खुशामद कर के उन्हें मना लेगी. इन खयालों ने ही रेनू को बहुत हलका बना डाला. वह जल्दी ठीक होने का इंतजार करने लगी.

शाम को राजीव जब आफिस से वापस आया तो रेनू के चमकते चेहरे को देख उसे बहुत संतोष हुआ. जब रेनू ने अपना इरादा बताया तो राजीव कृतज्ञ हो गया. उस के मन में आया कि दुनिया भर की खुशियां रेनू पर न्योछावर कर दे, प्रकट में वह कुछ बोला नहीं. बस, प्यार से उस के बालों को सहलाने लगा और झुक कर उस का माथा चूम लिया.

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