Hindi Story : संजोग – मां-बाप के मतभेद के कारण विवेक ने लिया ये फैसला?

Hindi Story : जीवन में कुछ परिवर्तन अचानक होते हैं जो जिंदगी में खुद के दृष्टिकोण पर एक प्रश्नचिह्न लगा जाते हैं. पुराना दृष्टिकोण किसी पूर्वाग्रह से घिरा हुआ गलत साबित होता है और नया दृष्टिकोण वर्षा की पहली सोंधी फुहारों सा तनमन को सहला जाता है. सबकुछ नयानया सा लगता है.

कुछ ऐसा ही हुआ विवेक के साथ. कौसानी आने से पहले मां से कितनी जिरह हुई थी उस की. विषय वही पुराना, विवाह न करने का विवेक का अडि़यल रवैया. कितना समझाया था मां ने, ‘‘विवेक शादी कर ले, अब तो तेरे सभी दोस्त घरपरिवार वाले हो गए हैं. अगर तेरे मन में कोई और है तो बता दे, मैं बिना कोई सवाल पूछे उस के साथ तेरा विवाह रचा दूंगी.’’

विवेक का शादी न करने का फैसला मां को बेचैन कर देता. पापा कुछ नहीं कहते, लेकिन मां की बातों से मूक सहमति जताते पापा की मंशा भी विवेक पर जाहिर हो जाती, पर वह भी क्या करे, कैसे बोल दे कि शादी न करने का निर्णय उस ने अपने मम्मीपापा के कारण ही लिया है. पतिपत्नी के रूप में मम्मीपापा के वैचारिक मतभेद उसे अकसर बेचैन कर देते. एकदूसरे की बातों को काटती टिप्पणियां, अलगअलग दिशाओं में बढ़ते उन के कदम, गृहस्थ जीवन को चलाती गाड़ी के 2 पहिए तो उन्हें कम से कम नहीं कहा जा सकता था.

छोटीबड़ी बातों में उन के टकराव को झेलता संवेदनशील विवेक जब बड़ा हुआ तो शादी जैसी संस्था के प्रति पाले पूर्वाग्रहों से ग्रसित होने के कारण वह विवाह न करने का ऐलान कर बैठा. मम्मीपापा ने शुरू में तो इसे उस का लड़कपन समझा, धीरेधीरे उस की गंभीरता को देख वे सचेत हो गए.

पापा अब मम्मी की बातों का समर्थन करने लगे थे. वे अकसर विवेक को प्यार से समझाते कि सही निर्णय के लिए एक सीमा तक वैचारिक मतभेद जरूरी है. यह जरूर है कि नासमझी में आपसी सवालजवाब सीमा पार कर लेने पर टकराव का रूप ले लेते हैं, पर सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है. समझदारी व आपसी सामंजस्य से विषम परिस्थितियों में भी तालमेल बिठाया जा सकता है.

विवाह जैसी संस्था की जड़ें बहुत गहरी व मजबूत होती हैं. छोटीमोटी बातें वृक्ष को हिला तो सकती हैं, पर उसे उखाड़ फेंकने का माद्दा नहीं रखतीं. उन की ये दलीलें विवेक को संतुष्ट न कर पातीं, लेकिन कौसानी आने पर अचानक ऐसा क्या हुआ कि दिल के जिस कोमल हिस्से को जानबूझ कर उस ने सख्त बना दिया था. उस के द्वारा बंद किए उस के दिल के दरवाजे पर कोई यों अचानक दस्तक दे प्रवेश कर जाएगा, किसी ने कहां सोचा था.

कौसानी में होटल के रिसैप्शन पर रजिस्टर साइन करते समय डा. विद्या के नाम पर उस की नजर पड़ी थी. उस शाम कैफेटेरिया में एक युवती ने बरबस ही उस का ध्यान खींचा.

सांवली सी, बड़ीबड़ी हिरनी सी बोलती आंखें, कमर तक लहराते केश, हलके नीले रंग की शिफान की साड़ी पहने वह सौम्यता की मूर्ति लग रही थी.

विवेक अपनी दृष्टि उस पर से हटा न पाया और बेखयाली में ही एक कुर्सी पर बैठ गया. तभी किसी ने आ कर कहा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी, यह टेबल रिजर्व है…’’ उस ने झुक कर देखा तो नीचे लिखा था, डा. विद्या. वह जल्दी से खड़ा हो गया, तभी मैनेजर ने दूसरी टेबल की तरफ इशारा किया और वह उस तरफ जा कर चुपचाप बैठ गया.

‘डा. विद्या’ कितनी देर तक यह नाम उस के जेहन में डूबताउतराता रहा था. वह युवती डा. विद्या की जगह पर बैठ गई. कुछ ही देर में 2 अनजान मेहमान आए और वह उन से कुछ चर्चा करती रही. विवेक की नजरें घूमफिर कर उस पर टिक जातीं. उस के बाद तो यह सिलसिला सा बन गया था.

डा. विद्या के आने से पहले ही उस की महक फिजा में घुल कर उस के आने का संकेत दे देती. विवेक की बेचैन नजरें बढ़ी हुई धड़कन के साथ उसे खोजती रहतीं. उस पर नजर पड़ते ही उस का गला सूखने लगता और जीभ तालु से लग जाती.

वह सोचता कि यह क्या हो रहा है. ऐसा तो आज तक नहीं हुआ. सांवली सी, चंचलचितवन वाली इस लड़की ने जाने कौन सा जादू कर दिया, जिस ने उस का चैन छीन लिया है. कौसानी के ये 4-5 दिन तो जैसे पंख लगा कर उड़ गए. समय बीतने का एहसास तक नहीं हुआ.

कल विवेक के सेमिनार का अंतिम दिन था. उस दिन उस के दोस्त ध्रुव का फोन आया, वह काफी समय से विवेक को कौसानी बुला रहा था. इत्तेफाक से विवेक का सेमिनार कौसानी में आयोजित होने से उसे वहां जाने का मौका मिल गया, लेकिन अचानक ध्रुव को कुछ काम से दिल्ली जाना पड़ा.

इस होटल में ध्रुव ने ही विवेक की बुकिंग करवाई थी. ध्रुव दिल्ली में था, वरना तो वह अपने परम मित्र को कभी भी होटल में नहीं रहने देता. उस की नईनई शादी हुई थी, तो विवेक ने भी ध्रुव की अनुपस्थिति में उस के घर रहना ठीक नहीं समझा.

‘‘हैलो, धु्रव… कहां है यार, मुझे बुला कर तो तू गायब ही हो गया.’’

‘‘माफ कर दे यार, मुझे खुद इतना बुरा लग रहा है कि क्या बताऊं? मैं परसों तक कौसानी पहुंच जाऊंगा. ईशा भी तुझ से मिलना चाहती है. मैं ने उसे अपने बचपन के खूब किस्से सुनाए हैं. तब तक तुम अपना सेमिनार निबटा लो, फिर हम खूब मस्ती करेंगे,’’ ध्रुव ने फोन पर कहा.

दूसरे दिन विवेक का सेमिनार था. होटल आतेआते उसे शाम हो गई थी. वह थक गया था. फ्रैश हो कर वह कैफेटेरिया की तरफ गया. प्रवेश करते ही उस का सामना फिर डा. विद्या से हुआ. वह नाश्ता कर रही थी. हलके गीले बाल, जींस के ऊपर चिकन की कुरती पहने, वह ताजी हवा की मानिंद विवेक के दिल को छू गई.

वह असहज हो गया था. उस के दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं. जाने क्यों, उसे ऐसा लगा कि पाले के उस पार बैठी उस युवती के हृदय में भी कुछ ऐसा बवंडर उठा है. क्या वह भी अपने परिचय का दायरा विस्तृत करना चाहती है? वे दोनों ही अनजान बने बैठे थे. उन की नजरें जबतब इधरउधर भटक कर एकदूसरे पर पड़ जातीं. तभी वेटर ने आ कर पूछा, ‘‘आप कुछ लेंगे,’’ तो विवेक को मन मार कर उठना पड़ा. वह समझ गया कि यों अंधेरे में तीर चलाने का कोई फायदा नहीं है.

कमरे में आते ही उस ने अपना लैपटौप निकाला. अपना ईमेल अकाउंट खोला, तो उस में फेसबुक की तरफ से मां का मैसेज देखा. उस लिंक पर जाने पर मां की फ्रैंड्स लिस्ट में एक चेहरे पर उस की नजर पड़ी जिसे देख कर वह चौंक उठा, ‘‘ओ माई गौड, यह यहां कैसे?’’

मां की फ्रैंड्स लिस्ट में डा. विद्या की तसवीर देख उस की आंखें विस्मय से फैल गईं. शायद धोखा हुआ है, परंतु नाम देख कर तो विश्वास करना ही पड़ा. मां कैसे जानती हैं इसे. उस ने पहले तो कभी इस चेहरे पर ध्यान ही नहीं दिया.

विवेक चकरा गया था. शायद मां की मैडिकल एडवाइजर हों. उस ने तुरंत मां को फोन कर के डा. विद्या के बारे में पूछा, तो उन्होंने सहजता से बताया, ‘‘यह तो मेरी डाक्टर है. तुम्हारे दोस्त ध्रुव ने ही तो इस के बारे में बताया था. यह धु्रव की दोस्त है और काफी नामी डाक्टर है यहां की.’’

विवेक की जिज्ञासा चरम पर पहुंचने लगी. उस ने तुरंत फ्रैंड्स लिस्ट के माध्यम से विवेक का फेसबुक अकाउंट खोला, तो उस में भी उस युवती की तसवीर थी. ध्रुव के वालपोस्ट को चैक करने पर उस के द्वारा विद्या को दिया गया मैसेज देखा, जिस में ध्रुव ने विद्या को विवेक के कौसानी आने के बारे में बताया था.

विवेक ने डा. विद्या वाली उलझी गुत्थी को सुलझाने के लिए ध्रुव को फोन लगाया तो लगातार उस का फोन स्विच औफ आता रहा. ईशा भाभी से पूछना कुछ ठीक नहीं लगा. क्यों न हिम्मत कर डा. विद्या से ही बात करूं कि यह माजरा क्या है? पर अब रात बहुत हो चुकी थी. अभी जाना ठीक नहीं है. पूरी रात उस की करवटें बदलते बीती. सुबहसुबह ही उस ने रिसैप्शन से डा. विद्या के बारे में पता किया, तो पता चला मैडम सुबहसुबह ही कहीं निकल गई हैं.

ध्रुव का मोबाइल अभी भी स्विच औफ आता रहा. उस की बेचैनी व उत्कंठा बढ़ती ही जा रही थी. वह रिसैप्शन में ही डेरा डाल कर बैठ गया. अचानक ध्रुव ने प्रवेश किया, वह जैसे ही उस की ओर बढ़ता ईशा से बतियाती डा. विद्या भी साथ आती दिखी. विवेक के कदम वहीं थम गए. उसे पसोपेश में पड़ा देख ध्रुव शरारत से मुसकराया. विद्या एक औपचारिक ‘हैलो’ करती हुई बोली, ‘‘मैं अभी फ्रैश हो कर आती हूं, आज का डिनर तुम दोस्तों को मेरी तरफ से,’’ कह कर वह चली गई.

विवेक को चक्कर में पड़ा देख ध्रुव को हंसी आ गई.

‘‘तुम जानते हो इसे,’’ विवेक ने पूछा तो कंधे उचाकते हुए ध्रुव बोला, ‘‘हां, दोस्त है मेरी, मतलब हमारी पुरानी स्कूल की दोस्ती है.’’

‘‘ऐसी कौन सी दोस्त है तुम्हारी, जिसे मैं नहीं जानता,’’ विवेक बोला.

‘‘तुम नहीं जानते? क्या बात कर रहे हो.’’

‘‘ध्रुव, प्लीज साफसाफ बताओ कौन है ये? तुम ने इसे ईमेल के जरिए यह क्यों बताया कि मैं कौसानी आ रहा हूं.’’

‘‘कमाल है यार, एक दोस्त दूसरे दोस्त के बारे में पूछे तो क्यों न बताऊं,’’ ध्रुव ने कहा.

‘‘ओफ, ध्रुव, अब बस भी करो,’’ विवेक के चेहरे पर झुंझलाहट और उस की विचित्र मनोदशा का आनंद लेता हुआ ध्रुव आराम से सोफे पर बैठ गया और उस की आंखों को देखता हुआ बोला, ‘‘विवेक, तुझे अपनी क्लास टैंथ याद है. सहारनपुर से आई वह झल्ली सी लड़की, जिस के कक्षा में प्रवेश करते ही हम सब को हंसी आ गई थी. जिस से तेरा फ्रैंडशिप बैंड बंधवाना चर्चा का विषय बन गया था. सब ने कितनी खिल्ली उड़ाई थी तेरी.’’

विवेक के चेहरे का रंग बदलता गया और अचानक वह बोला, ‘‘ओ माई गौड, यह वह विद्या है, जिस के तेल से तर बाल चर्चा का विषय थे.

‘‘कितनी हंसती थी सारी लड़कियां. मीरा मैम ने जब डौली को घर से तेल लगा कर आने को कहा तो कैसे हंस कर वह बोली, ‘हम सब के हिस्से का तेल तो विद्या लगाती है न मैम…’ उस की इस बात पर सब कैसे ठहाका लगा कर हंस पड़े थे.’’

विद्या लगभग बीच सैशन में आई थी. मैम ने जब सब से कहा कि विद्या का काम पूरा करने के लिए सब उसे सहयोग करें. उस का काम पूरा करने के लिए अपने नोट्स उसे दे दें, तो विद्या कैसी मासूमियत से ध्रुव की ओर इशारा कर के बोली थी, ‘मैम, ये भैया, अपनी कौपी मुझे नहीं दे रहे हैं.’ उस के भैया शब्द पर पूरी क्लास ठहाकों से गूंज उठी थी. खुद मीरा मैम भी अपनी हंसी दबा नहीं पाई थीं. छोटे शहर की मानसिकता किसी से भी हजम नहीं होती. लड़कियों का तो वह सदा ही निशाना रहती थी.

विद्या पढ़ने में तो तेज थी, लेकिन अंगरेजी उस की सब से बड़ी प्रौब्लम थी. अंगरेजी माध्यम से पढ़ते हुए उसे खासी दिक्कत पेश आई थी. फिर उसे ‘फ्रैंडशिप डे’ का वह दिन याद आया, जब सभी एकदूसरे को फ्रैंडशिप बैंड बांध रहे थे, तो किसी ने विद्या पर कमेंट किया, ‘विद्या तुम से तो हम सब राखी बंधवाएंगे.’ उस की आंखों में आंसू आ गए. बेचारगी से उस ने अपनी मुट्ठी में रखे बैंड छिपा लिए थे.

विवेक को उस बेचारी सी लड़की पर बड़ा तरस आया. सब के जाने के बाद विवेक और धु्रव ने उस से फ्रैंडशिप बैंड बंधवाया, पर यह दोस्ती ज्यादा दिन तक नहीं चल पाई थी.

एक साल बाद ही विद्या कोटा चली गई. ध्रुव ने बताया कि जुझारू विद्या का मैडिकल में चयन हो गया था.

विवेक मानो स्वप्न से जागा हो. जब उस ने आत्मविश्वास से भरी, मुसकराती हुई डा. विद्या को आते देखा. कोई इतना कैसे बदल सकता है. विद्या ने आते ही विवेक की आंखों में झांक कर पूछा, ‘‘अभी भी नहीं पहचाना तुम ने, मैं ने तो तुम्हें फेसबुक पर कब का ढूंढ़ लिया था, लेकिन तुम्हारी अतीत की स्मृति में बसी विद्या के रूप से डरती थी.’’

ध्रुव ने खुलासा किया कि हम सब ने विद्या को विस्मृत कर दिया था, लेकिन यह तुम्हें कभी भुला न पाई.

विद्या लरजते स्वर में बोली, ‘‘विवेक, तुम्हें तो मालूम भी नहीं होगा कि उम्र के उस नाजुक दौर में मैं अपना दिल तुम्हें दे बैठी थी. मुझे नहीं पता कि कच्ची उम्र में तुम्हारे प्रति मेरा वह एकतरफा तथाकथित प्यार था या महज आकर्षण, पर यह सच है कि स्वयं को तुम्हारे काबिल बनाने की होड़ व जनून ने ही मुझे कुछ कर दिखाने की प्रेरणा व हिम्मत दी. मुझे सफलता के इस मुकाम तक पहुंचाने का एक अप्रत्यक्ष जरिया तुम बने. किस ने सोचा था कि कभी तुम से यों मुलाकात भी होगी.’’

‘‘वह भी इतने नाटकीय तरीके से,’’ कहता हुआ ध्रुव हंस पड़ा, ‘‘पिछले 6 महीने से विद्या के साथ तुम्हारे बारे में ही बातें होती रहीं. तुम्हारी शादी न करने की बेवजह जिद से परेशान हो कर आंटी ने जब मैट्रीमोनियल साइट पर तुम्हारा बायोडाटा डाल दिया था तब आंटी को मैं ने ही विश्वास में ले कर विद्या के बारे में बताया. अब मुसीबत यह थी कि तुम्हारी आशा के अनुरूप तो कोई उतर ही नहीं रहा था. तो हम सब ने यह नाटक रचा.

‘‘तुम कौसानी आए, तो मैं ने झूठ बोला कि मैं दिल्ली जा रहा हूं, ताकि तुम होटल में रुको. विद्या तुम से मिलना चाहती थी, पर बिना किसी पूर्वाग्रह के, हालांकि हमें संदेह था कि कोई यों आसानी से तुम्हारे हृदय में अधिकार जमा भी पाएगी. शायद नियति को भी यह संजोग मंजूर था.’’

‘‘पर तुम मुझे एक बार बताते तो सही,’’ विवेक हैरानी से बोला.

ध्रुव बोल पड़ा, ‘‘ताकि तुम अपनी जिद के कारण अपने दिल के दरवाजे को स्वयं बंद कर देते.’’

तभी मां का फोन आया. उन के कुछ पूछने से पहले ही विवेक बोल उठा, ‘‘मां, तुम्हारी खोज पूरी हो गई है. जल्दी ही मैं एक डाक्टर बहू घर ले कर आ रहा हूं. आप पापा के साथ मिल कर शादी की पूरी तैयारी कर लेना.’’

मां भावुक हो उठी थीं, ‘‘विवेक समस्याएं तो हर एक के जीवन में आती हैं, पर उन से डर कर रिश्ते के बीजों को कभी बोया ही न जाए, यह सही नहीं है. हम ने नासमझी की, पर मेरा बेटा समझदार है और विद्या भी बहुत सुलझी हुई लड़की है. मुझे पूरा विश्वास है कि तुम दोनों

तभी पीछे से ईशा ने विवेक को छेड़ते हुए कहा, ‘‘क्यों विवेक भैया, एक बार फिर एक विश्वामित्र की तपस्या टूट ही गई.’’

विवेक और ध्रुव उस की बात पर जोर से हंस पड़े. विवेक ने विद्या के हाथों को ज्यों ही अपने हाथों में थामा, उस की नारी सुलभ लज्जा व गरिमा ने उस के सौंदर्य को अपरिमित कर दिया.

Hindi Story : एक गलत सोच – जब बहू चुनने में हुई सरला से गलती

Hindi Story : किचन में खड़ा हो कर खाना बनातेबनाते सरला की कमर दुखने लगी पर वे क्या करें, इतने मेहमान जो आ रहे हैं. बहू की पहली दीवाली है. कल तक उसे उपहार ले कर मायके जाना था पर अचानक बहू की मां का फोन आ गया कि अमेरिका से उन का छोटा भाई और भाभी आए हुए हैं. वे शादी पर नहीं आ सके थे इसलिए वे आप सब से मिलना चाहते हैं. उन्हीं के साथ बहू के तीनों भाई व भाभियां भी अपने बच्चों के साथ आ रहे हैं.

कुकर की सीटी बजते ही सरला ने गैस बंद कर दी और ड्राइंगरूम में आ गईं. बहू आराम से बैठ कर गिफ्ट पैक कर रही थी.

‘‘अरे, मम्मी देखो न, मैं अपने भाईभाभियों के लिए गिफ्ट लाई हूं. बस, पैक कर रही हूं…आप को दिखाना चाहती थी पर जल्दी है, वे लोग आने वाले हैं इसलिए पैक कर दिए,’’ बहू ने कुछ पैक किए गिफ्ट की तरफ इशारा करते हुए कहा. तभी सरलाजी का बेटा घर में दाखिल हुआ और अपनी पत्नी से बोला, ‘‘सिमी, एक कप चाय बना लाओ. आज आफिस में काफी थक गया हूं.’’

‘‘अरे, आप देख नहीं रहे हैं कि मैं गिफ्ट पैक कर रही हूं. मां, आप ही बना दीजिए न चाय. मुझे अभी तैयार भी होना है. मेरी छोटी भाभी बहुत फैशनेबल हैं. मुझे उन की टक्कर का तैयार होना है,’’ इतना कह कर सिमी अपने गिफ्ट पैक करने में लग गई.

शाम को सरलाजी के ड्राइंगरूम में करीब 10-12 लोग बैठे हुए थे. उन में बहू के तीनों भाई, उन की बीवियां, बहू के मम्मीपापा, भाई के बच्चे और उन सब के बीच मेहमानों की तरह उन की बहू सिमी बैठी थी. सरला ने इशारे से बहू को बुलाया और रसोईघर में ले जा कर कहा, ‘‘सिमी, सब के लिए चाय बना दे तब तक मैं पकौड़े तल लेती हूं.’’

‘‘क्या मम्मी, मायके से परिवार के सारे लोग आए हैं और आप कह रही हैं कि मैं उन के साथ न बैठ कर यहां रसोई में काम करूं? मैं तो कब से कह रही हूं कि आप एक नौकर रख लो पर आप हैं कि बस…अब मुझ से कुछ मत करने को कहिए. मेरे घर वाले मुझ से मिलने आए हैं, अगर मैं यहां किचन में लगी रहूंगी तो उन के आने का क्या फायदा,’’ इतना कह कर सिमी किचन से बाहर निकल गई और सरला किचन में अकेली रह गईं. उन्होंने शांत रह कर काम करना ही उचित समझा.

सरलाजी ने जैसेतैसे चाय और पकौड़े बना कर बाहर रख दिए और वापस रसोई में खाना गरम करने चली गईं. बाहर से ठहाकों की आवाजें जबजब उन के कानों में पड़तीं उन का मन जल जाता. सरला के पति एकदो बार किचन में आए सिर्फ यह कहने के लिए कि कुछ रोटियों पर घी मत लगाना, सिमी की भाभी नहीं खाती और खिलाने में जल्दी करो, बच्चों को भूख लगी है.

सरलाजी का खून तब और जल गया जब जातेजाते सिमी की मम्मी ने उन से यह कहा, ‘‘क्या बहनजी, आप तो हमारे साथ जरा भी नहीं बैठीं. कोई नाराजगी है क्या?’’

सब के जाने के बाद सिमी तो तुरंत सोने चली गई और वे रसोई संभालने में लग गईं.

अगले दिन सरलाजी का मन हुआ कि वे पति और बेटे से बीती शाम की स्थिति पर चर्चा करें पर दोनों ही जल्दी आफिस चले गए. 2 दिन बाद फिर सिमी की एक भाभी घर आ गई और उस को अपने साथ शौपिंग पर ले गई. शादी के बाद से यह सिलसिला अनवरत चल रहा था. कभी किसी का जन्मदिन, कभी किसी की शादी की सालगिरह, कभी कुछ तो कभी कुछ…सिमी के घर वालों का काफी आनाजाना था, जिस से वे तंग आ चुकी थीं.

एक दिन मौका पा कर उन्होंने अपने पति से इस बारे में बात की, ‘‘सुनो जी, सिमी न तो अपने घर की जिम्मेदारी संभालती है और न ही समीर का खयाल रखती है. मैं चाहती हूं कि उस का अपने मायके आनाजाना कुछ कम हो. शादी को साल होने जा रहा है और बहू आज भी महीने में 7 दिन अपने मायके में रहती है और बाकी के दिन उस के घर का कोई न कोई यहां आ जाता है. सारासारा दिन फोन पर कभी अपनी मम्मी से, कभी भाभी तो कभी किसी सहेली से बात करती रहती है.’’

‘‘देखो सरला, तुम को ही शौक था कि तुम्हारी बहू भरेपूरे परिवार की हो, दिखने में ऐश्वर्या राय हो. तुम ने खुद ही तो सिमी को पसंद किया था. कितनी लड़कियां नापसंद करने के बाद अब तुम घर के मामले में हम मर्दों को न ही डालो तो अच्छा है.’’

सरलाजी सोचने लगीं कि इन की बात भी सही है, मैं ने कम से कम 25 लड़कियों को देखने के बाद अपने बेटे के लिए सिमी को चुना था. तभी पति की बातों से सरला की तंद्रा टूटी. वे कह रहे थे, ‘‘सरला, तुम कितने दिनों से कहीं बाहर नहीं गई. ऐसा करो, तुम अपनी बहन के घर हो आओ. तुम्हारा मन अच्छा हो जाएगा.’’

अपनी बहन से मिल कर अपना दिल हलका करने की सोच से ही सरला खुश हो गईं. अगले दिन ही वे तैयार हो कर अपनी बहन से मिलने चली गईं, जो पास में ही रहती थीं. पर बहन के घर पर ताला लगा देख कर उन का मन बुझ गया. तभी बहन की एक पड़ोसिन ने उन्हें पहचान लिया और बोलीं, ‘‘अरे, आप सरलाजी हैं न विभाजी की बहन.’’

‘‘जी हां, आप को पता है विभा कहां गई है?’’

‘‘विभाजी पास के बाजार तक गई हैं. आप आइए न.’’

‘‘नहींनहीं, मैं यहीं बैठ कर इंतजार कर लेती हूं,’’ सरला ने संकोच से कहा.

‘‘अरे, नहीं, सरलाजी आप अंदर आ कर इंतजार कर लीजिए. वे आती ही होंगी,’’ उन के बहुत आग्रह पर सरलाजी उन के घर चली गईं.

‘‘आप की तसवीर मैं ने विभाजी के घर पर देखी थी…आइए न, शिखा जरा पानी ले आना,’’ उन्होंने आवाज लगाई.

अंदर से एक बहुत ही प्यारी सी लड़की बाहर आई.

‘‘बेटा, देखो, यह सरलाजी हैं, विभाजी की बहन,’’ इतना सुनते ही उस लड़की ने उन के पैर छू लिए.

सरला ने उसे मन से आशीर्वाद दिया तो विभा की पड़ोसिन बोलीं, ‘‘यह मेरी बहू है, सरलाजी.’’

‘‘बहुत प्यारी बच्ची है.’’

‘‘मम्मीजी, मैं चाय रखती हूं,’’ इतना कह कर वह अंदर चली गई. सरला ने एक नजर घुमाई. इतने सलीके से हर चीज रखी हुई थी कि देख कर उन का मन खुश हो गया. कितनी संस्कारी बहू है इन की और एक सिमी है.

‘‘बहनजी, विभा दीदी आप की बहुत तारीफ करती हैं,’’ मेरा ध्यान विभा की पड़ोसिन पर चला गया. इतने में उन की बहू चायबिस्कुट के साथ पकौड़े भी बना कर ले आई और बोली, ‘‘लीजिए आंटीजी.’’

‘‘हां, बेटा…’’ तभी फोन की घंटी बज गई. पड़ोसिन की बहू ने फोन उठाया और बात करने के बाद अपनी सास से बोली, ‘‘मम्मी, पूनम दीदी का फोन था. शाम को हम सब को खाने पर बुलाया है पर मैं ने कह दिया कि आप सब यहां बहुत दिनों से नहीं आए हैं, आप और जीजाजी आज शाम खाने पर आ जाओ. ठीक कहा न.’’

‘‘हां, बेटा, बिलकुल ठीक कहा,’’ बहू किचन में चली गई तो विभा की पड़ोसिन मुझ से बोलीं, ‘‘पूनम मेरी बेटी है. शिखा और उस में बहुत प्यार है.’’

‘‘अच्छा है बहनजी, नहीं तो आजकल की लड़कियां बस, अपने रिश्तेदारों को ही पूछती हैं,’’ सरला ने यह कह कर अपने मन को थोड़ा सा हलका करना चाहा.

‘‘बिलकुल ठीक कहा बहनजी, पर मेरी बहू अपने मातापिता की अकेली संतान है. एकदम सरल और समझदार. इस ने यहां के ही रिश्तों को अपना बना लिया है. अभी शादी को 5 महीने ही हुए हैं पर पूरा घर संभाल लिया है,’’ वे गर्व से बोलीं.

‘‘बहुत अच्छा है बहनजी,’’ सरला ने थोड़ा सहज हो कर कहा, ‘‘अकेली लड़की है तो अपने मातापिता के घर भी बहुत जाती होगी. वे अकेले जो हैं.’’

‘‘नहीं जी, बहू तो शादी के बाद सिर्फ एक बार ही मायके गई है. वह भी कुछ घंटे के लिए.’’

हम बात कर ही रहे थे कि बाहर से विभा की आवाज आई, ‘‘शिखा…बेटा, घर की चाबी दे देना.’’

विभा की आवाज सुन कर शिखा किचन से निकली और उन को अंदर ले आई. शिखा ने खाने के लिए रुकने की बहुत जिद की पर दोनों बहनें रुकी नहीं. अगले ही पल सरलाजी बहन के घर आ गईं. विभा के दोनों बच्चे अमेरिका में रहते थे. वह और उस के पति अकेले ही रहते थे.

‘‘दीदी, आज मेरी याद कैसे आ गई?’’ विभा ने मेज पर सामान रखते हुए कहा.

‘‘बस, यों ही. तू बता कैसी है?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं दीदी पर आप को क्या हुआ कि कमजोर होती जा रही हो,’’ विभा ने कहा. शायद सरला की परेशानियां उस के चेहरे पर भी झलकने लगी थीं.

‘‘आंटीजी, आज मैं ने राजमा बनाया है. आप को राजमा बहुत पसंद है न. आप तो खाने के लिए रुकी नहीं इसलिए मैं ले आई और इन्हें किचन में रख रही हूं,’’ अचानक शिखा दरवाजे से अंदर आई, किचन में राजमा रख कर मुसकराते हुए चली गई.

‘‘बहुत प्यारी लड़की है,’’ सरला के मुंह से अचानक निकल गया.

‘‘अरे, दीदी, यही वह लड़की है जिस की बात मैं ने समीर के लिए चलाई थी. याद है न आप को इन के आफिस के एक साथी की बेटी…दीदी आप को याद नहीं आया क्या…’’ विभा ने सरला की याददाश्त पर जोर डालने को कहा.

‘‘अरे, दीदी, जिस की फोटो भी मैं ने मंगवा ली थी, पर इस का कोई भाई नहीं था, अकेली बेटी थी इसलिए आप ने फोटो तक नहीं देखी थी.’’

विभा की बात से सरला को ध्यान आया कि विभा ने उन से इस लड़की के बारे में कहा था पर उन्होंने कहा था कि जिस घर में बेटा नहीं उस घर की लड़की नहीं आएगी मेरे घर में, क्योंकि मातापिता कब तक रहेंगे, भाइयों से ही तो मायका होता है. तीजत्योहार पर भाई ही तो आता है. यही कह कर उन्होंने फोटो तक नहीं देखी थी.

‘‘दीदी, इस लड़की की फोटो हमारे घर पर पड़ी थी. श्रीमती वर्मा ने देखी तो उन को लड़की पसंद आ गई और आज वह उन की बहू है. बहुत गुणी है शिखा. अपने घर के साथसाथ हम पतिपत्नी का भी खूब ध्यान रखती है. आओ, चलो दीदी, हम खाना खा लेते हैं.’’

राजमा के स्वाद में शिखा का एक और गुण झलक रहा था. घर वापस आते समय सरलाजी को अपनी गलती का एहसास हो रहा था कि लड़की के गुणों को अनदेखा कर के उन्होंने भाई न होने के दकियानूसी विचार को आधार बना कर शिखा की फोटो तक देखना पसंद नहीं किया. इस एक चूक की सजा अब उन्हें ताउम्र भुगतनी होगी.

Hindi Story : जो बोया सो काटा

Hindi Story : बच्चों के साथ रहने के मामले में मनीषा व निरंजन के सुनेसुनाए अनुभव अच्छे नहीं थे. अपने दोस्तों व सगेसंबंधियों के कई अनुभवों से वे अवगत थे कि बच्चों के पास जा कर जिंदगी कितनी बेगानी हो जाती है, लेकिन अब मजबूरी थी कि उन्हें बच्चों के पास जाना ही था क्योंकि वे शारीरिक व मानसिक रूप से लाचार हो गए थे.

उम्र अधिक हो जाने से शरीर कमजोर हो गया था. निरंजन के लिए अब बाहर के छोटेछोटे काम निबटाना भी भारी पड़ रहा था. कार चलाने में दिक्कत होती थी. मनीषा वैसे तो घर का काम कर लेती थीं लेकिन अकेले ही पूरी जिम्मेदारी संभालना मुश्किल हो जाता था. नौकरचाकरों का कोई भरोसा नहीं, काम वाली थी, कभी आई कभी नहीं.

छुट््टियां न मिलने की वजह से बेटा अनुज भी कम ही आ पाता था. इसलिए उन्हें अब मानसिक अकेलापन भी खलने लगा था. अकेले रहने में अपनी बीमारियों से भी निरंजनजी डरते थे.

यही सब सोचतेविचारते अपने अनुभवों से डरतेडराते आखिर उन्होंने भी लड़के के साथ रहने का फैसला ले ही लिया.

इस बारे में उन्होंने पहले बेटे को चिट्ठी लिखना ठीक समझा ताकि बेटे और बहू के मूड का थोड़ाबहुत पहले से ही पता

चल जाए.

हफ्ते भर के अंदर ही बेटे का फोन आ गया कि पापा, आज ही आप की चिट्ठी मिली है. आप मेरे पास आना चाह रहे हैं, यह हम सब के लिए बहुत खुशी की बात है. बच्चे और नीता तो इतने खुश हैं कि अभी से आप के आने का इंतजार करने लगे हैं. आप बताइए, कब आ रहे हैं? मैं लेने आ जाऊं या फिर आप खुद ही आ जाएंगे?

फोन पर बेटे की बातें सुन कर निरंजन की आंखें भर आईं. प्रत्युत्तर में बोले, ‘‘हम खुद ही आ जाएंगे, बेटे… परसों सुबह यहां से टैक्सी से चलेंगे और शाम 7 बजे के आसपास वहां पहुंच जाएंगे.’’

‘‘ठीक है, पापा,’’ कह कर बेटे ने फोन रख दिया.

‘‘अनुज हमारे आने की बात सुन कर बहुत खुश है,’’ निरंजन बोले.

‘‘अभी तो खुश है पर पता नहीं हमेशा साथ रहने में कैसा रुख हो,’’ मनीषा अपनी शंका जाहिर करती हुई बोलीं.

‘‘सब अच्छा होगा, मनीषा,’’ निरंजन दिलासा देते हुए बोले.

शाम के 7 बजे जब निरंजन और मनीषा बेटे के घर पर पहुंचे तो बेटेबहू और बच्चे उन के इंतजार में बैठे थे. दरवाजे पर टैक्सी रुकने की आवाज सुन कर चारों घर से बाहर निकल पड़े.

दादाजी…दादाजी कहते हुए दोनों बच्चे पैर छूते हुए उन से चिपक गए. बेटेबहू ने भी पैर छुए. सब ने एकएक सामान उठा लिया. यहां तक कि बच्चों ने भी छोटा सामान उठाया और सब एकसाथ अंदर आ गए.

मन में शंका थी कि थोड़े दिन रहने की बात अलग थी पर हमेशा के लिए रहना…न जाने कैसा हो.

नीता चायनाश्ता बना कर ले आई. सभी बैठ कर गपशप करने लगे.

‘‘मम्मीपापा, आप फ्रेश हो लीजिए,’’ बहू नीता बोली, ‘‘इस कमरे में आप का सामान रख दिया है. आज से यह कमरा आप का है.’’

‘‘यह हमारा कमरा…पर यह तो बच्चों का कमरा है…’’

‘‘बच्चे  छोटे वाले कमरे में शिफ्ट हो गए हैं.’’

‘‘लेकिन तुम ने बच्चों का कमरा क्यों बदला, बहू…उन की पढ़ाईलिखाई डिस्टर्ब होगी. फिर उस छोटे से कमरे में दोनों कैसे रहेंगे?’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं, मम्मीजी आप, घर के सब से बड़े क्या सब से छोटे कमरे में रहेंगे. बच्चों की पढ़ाई और सामान वगैरह के लिए अलग कमरा चाहिए…रात में तो दोनों आप के साथ ही घुस कर सोने वाले हैं,’’ नीता हंसते हुए बोली.

मनीषा को सुखद एहसास हुआ. बेटा तो अपना ही है लेकिन बहू के मुंह से ऐसे शब्द सुन कर जैसे दिल की शंकाओं का कठोर दरवाजा थोड़ा सा खुल गया.

सुबह बहुत देर से नींद खुली. निरंजन उठ कर बाथरूम हो आए. अंदर खटरपटर की आवाज सुन कर नीता ने चाय बना दी. उस दिन रविवार था.  बच्चे व अनुज भी घर पर थे.

चाय की टे्र ले कर नीता दरवाजे पर खटखट कर बोली, ‘‘मम्मीजी, चाय.’’

‘‘आजा…आजा बेटी…अंदर आजा,’’ निरंजन बोले.

‘‘नींद ठीक से आई, पापा,’’ नीता चाय की ट्रे मेज पर रखती हुई बोली.

‘‘हां, बेटी, बहुत अच्छी नींद आई. बच्चे और अनुज कहां हैं?’’ मनीषा ने पूछा.

‘‘सब उठ गए हैं. बच्चों ने तो अभी तक दूध भी नहीं पिया है. कह रहे थे कि जब दादाजी उठ जाएंगे तो वे चाय पीएंगे और हम दूध.’’

‘‘तुम ने भी अभी तक चाय नहीं पी,’’ मनीषा ट्रे में चाय के 4 कप देख कर बोलीं.

‘‘मम्मीजी, हम एक बार की चाय तो पी चुके हैं, दूसरी बार की चाय आप के साथ बैठ कर पीएंगे.’’

तभी बच्चे व अनुज कमरे में घुस गए और दादादादी के बीच में बैठ गए.

‘‘दादाजी, पापा कहते हैं कि वह आप से बहुत डरते थे. आप जब आफिस से आते थे तो वह एकदम पढ़ने बैठ जाते थे, सच्ची…’’ पोता बोला.

‘‘पापा यह भी कहते हैं कि वह बचपन में बहुत शैतान थे और दादी को बहुत तंग करते थे. है न दादी?’’ पोती बोली थी.

दोनों बच्चों की बातें सुन कर निरंजन व  मनीषा हंसने लगे.

‘‘सभी बच्चे बचपन में अपनी मम्मी को तंग करते हैं और अपने पापा से डरते हैं,’’ निरंजन बच्चों को प्यार करते हुए बोले.

‘‘हां, और मम्मी कहती हैं कि सभी मम्मीपापा अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं…जैसे दादादादी मम्मीपापा को प्यार करते हैं और मम्मीपापा हमें.’’

पोती की बात सुन कर मनीषा व निरंजन की नजरें नीता के चेहरे पर उठ गईं. नीता का खुशनुमा चेहरा दिल में उतर गया. दोनों ने मन में सोचा, एक अच्छी मां ही बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकती है.

दोपहर के खाने में नीता ने कमलककड़ी के कोफ्ते और कढ़ी बना रखी थी.

‘‘पापा, आप यह कोफ्ते खाइए. ये बताते हैं कि आप को कमलककड़ी के कोफ्ते बहुत पसंद हैं,’’ नीता कोफ्ते प्लेट में रखती हुई बोली.

‘‘और मम्मी को कढ़ी बहुत पसंद है. है न मम्मी?’’ अनुज बोला, ‘‘याद है मैं कढ़ी और कमलककड़ी के कोफ्ते बिलकुल भी पसंद नहीं करता था. और मेरे कारण आप अपनी पसंद का खाना कभी भी नहीं बनाती थीं. अब आप की पसंद का खाना ही बनेगा और हम भी खाएंगे.’’

बेटा बोला तो मनीषा को अपने भावों पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो गया. आंखों के कोर भीग गए.

‘‘नहीं बेटा, खाना तो बच्चों की पसंद का ही बनता है, जो बच्चों को पसंद हो वही बनाया करो.’’

रात को पोते व पोती में ‘बीच में कौन सोएगा’ इस को ले कर होड़ हो गई. आखिर दोनों बीच में सो गए.

थोड़ी देर बाद नीता आ गई.

‘‘चलो, बच्चो, अपने कमरे में चलो.’’

‘‘नहीं, हम यहीं सोएंगे,’’ दोनों चिल्लाए.

‘‘नहीं, दादादादी को आराम चाहिए, तुम अपने कमरे में सोओ.’’

‘‘रहने दे, बेटी,’’ निरंजन बोले, ‘‘2-4 दिन यहीं सोने दे. जब मन भर जाएगा तो खुद ही अपने कमरे में सोने लगेंगे.’’

दोनों बच्चे उस रात दादादादी से चिपक कर सो गए.

दिन बीतने लगे. नीता हर समय उन की छोटीछोटी बातों का खयाल रखती. बेटा भी आफिस से आ कर उन के पास जरूर बैठता.

एक दिन मनीषा शाम को कमरे से बाहर निकली तो नीता फोन पर कह रही थी, ‘‘मैं नहीं आ सकती… मम्मीपापा आए हुए हैं. यदि मैं आ गई तो वे दोनों अकेले रह जाएंगे. उन को खराब लगेगा,’’ कह कर उस ने बात खत्म कर दी.

‘‘कहां जाने की बात हो रही थी, बेटी?’’

‘‘कुछ नहीं, मम्मीजी, ऐसे ही, मेरी सहेली बुला रही थी कि बहुत दिनों से नहीं आई.’’

‘‘तो क्यों नहीं जा रही हो. हम अकेले कहां हैं, और फिर थोड़ी देर अकेले भी रहना पड़े तो क्या हो गया. देखो बेटी, तुम अगर नहीं जाओगी तो मैं बुरा मान जाऊंगी.’’

नीता कुछ न बोली और दुविधा में खड़ी रही.

मनीषा नीता के कंधे पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘बेटी, मम्मीपापा आ गए हैं इसलिए अगर तुम ने अपनी दिनचर्या में बंधन लगाए तो हम यहां कैसे रह पाएंगे. यह अब कोई 2-4 दिन की बात थोड़े न है, अब तो हम यहीं हैं.’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं, मम्मीजी. आप का रहना हमारे सिरआंखों पर. मैं बंधन थोड़े न लगा रही हूं… और थोड़ाबहुत बंधन रहे भी तो क्या, बच्चों के कारण मांबाप बंधन में नहीं रहते हैं. फिर बच्चों को भी मांबाप के कारण बंधना पड़े तो कौन सी बड़ी बात है.’’

नीता की बात सुन कर मनीषा ने चाहा कि उस को गले लगा कर खूब प्यार करें.

मनीषा ने नीता को जबरन भेज दिया. धीरेधीरे मनीषा की कोशिश से नीता भी अपनी स्वाभाविक दिनचर्या में रहने लगी. उस ने 1-2 किटी भी डाली हुई थीं तो मनीषा ने उसे वहां भी जबरदस्ती भेजा.

उस की सहेलियां जब घर आतीं तो मनीषा चाय बना देतीं. नाश्ते की प्लेट सजा देतीं. नीता के मना करने पर प्यार से कहतीं, ‘‘तुम जो हमारे लिए इतना करती हो, थोड़ा सा मैं ने भी कर दिया तो कौन सी बड़ी बात कर दी.’’

अनुज व नीता को अब कई बातों की सुविधा हो गई थी. कहीं जाना होता तो दादादादी के होने से बच्चों की तरफ से दोनों ही निश्ंिचत रहते.

महीना खत्म हुआ. निरंजन को पेंशन मिली. उन्होंने अपना पैसा बहू को देने की पेशकश की तो अनुज व नीता दोनों नाराज हो गए.

‘‘पापा, आप कैसी बातें कर रहे हैं. पैसे दे कर ही रहना है तो आप कहीं भी रह सकते हैं. आप ने हमारे लिए जीवन भर इतना किया, पढ़ायालिखाया और मुझे इस लायक बनाया कि मैं आप की देखभाल कर सकूं,’’ अनुज बोला.

‘‘लेकिन बेटा, मेरे पास हैं इसलिए दे रहा हूं.’’

‘‘नहीं, पापा, पैसा दे कर तो आप मेरा दिल दुखा रहे हैं… जब दादीजी और दादाजी आप के पास रहने आए थे तो उन के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था तो क्या आप ने उन की देखभाल नहीं की थी. जितना आप से  बन सकता था आप ने उन के लिए किया और आप के पास पैसा है तो आप हम से हमारा सेवा करने का अधिकार क्यों छीनना चाहते हैं.’’

निरंजन निरुत्तर हो गए. मनीषा आश्चर्य से अपने उस लापरवाह बेटे को देख रही थीं जो आज इतना समझदार हो गया है.

अनुज ने जब पैसे लेने से साफ मना कर दिया तो निरंजन ने पोते और पोती के नाम से बैंक में खाता खोल दिया और जो भी पेंशन का पैसा मिलता उस में डालते रहते. बेटे ने उन का मान रखा था और वे बेटे का मान रख रहे थे.

एक दिन निरंजन सुबह उठे तो बदन टूट रहा था और कुछ हरारत सी महसूस कर रहे थे. मनीषा ने उन का उतरा चेहरा देखा तो पूछ बैठीं, ‘‘क्या हुआ…तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘हां, कुछ बुखार सा लग रहा है.’’

‘‘बुखार है,’’ मनीषा घबरा कर माथा छूती हुई बोली,  ‘‘अनुज कोे बुलाती हूं.’’

‘‘नहीं, मनीषा, उसे परेशान मत करो…शाम तक देख लेते हैं…शायद ठीक हो जाए.’’

मनीषा चुप हो गई.

लेकिन शाम होतेहोते बुखार बहुत तेज हो गया. दोपहर के बाद निरंजन लेटे तो उठे ही नहीं. शाम को आफिस से आ कर अनुज पापा के साथ ही चाय पीता था.

निरंजन जब बाहर नहीं आए तो नीता कमरे में चली गई. मनीषा निरंजन का सिर दबा रही थीं.

‘‘पापा को क्या हुआ, मम्मीजी?’’

‘‘तेरे पापा को बुखार है.’’

‘‘बुखार है…’’ कहती हुई नीता ने बहू की सारी औपचारिकताएं त्याग कर निरंजन के माथे पर हाथ रख दिया.

‘‘पापा को तो बहुत तेज बुखार है, तभी पापा आज सुबह से ही सुस्त लग रहे थे. आप ने बताया भी नहीं. मैं अनुज को बुलाती हूं,’’ इतना कह कर नीता अनुज को बुला लाई.

अनुज जल्दी ही आ गया और मम्मीपापा को तकलीफ न बताने के लिए एक प्यार भरी डांट लगाई, फिर डाक्टर को बुलाने चला गया. डाक्टर ने जांच कर के दवाइयां लिख दीं.

‘‘मौसमी बुखार है, 3-4 दिन में ठीक हो जाएंगे,’’ डाक्टर बोला.

बेटाबहू, पोता और पोती सब निरंजन को घेर कर बैठ गए. नीता ने जब पढ़ाई के लिए डांट लगाई तब बच्चे पढ़ने गए.

‘‘खाने में क्या बना दूं?’’ नीता ने पूछा.

निरंजन बोले,’’ तुम जो बना देती हो वही स्वादिष्ठ लगता है.’’

‘‘नहीं, पापा, बुखार में आप का जो खाने का मन है वही बनाऊंगी.’’

‘‘तो फिर थोड़ी सी खिचड़ी बना दो.’’

‘‘थोड़ा सा सूप भी बना देना नीता, पापा को सूप बहुत पसंद है,’’ अनुज बोला.

निरंजन को अटपटा लग रहा था कि अनुज उन के लिए इतना कुछ कर रहा है. उन की हिचकिचाहट देख कर अनुज बोला, ‘‘मैं कुछ नया नहीं कर रहा. आप दोनों ने दादा व दादी की जितनी सेवा की उतनी तो हम आप की कभी कर भी नहीं पाएंगे. पापा, मैं तब छोटा था. आज जो कुछ भी हम करेंगे हमारे बच्चे वही सीखेंगे. बड़ों का तिरस्कार कर हम अपने बच्चों से प्यार और आदर की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. यह कोई एहसान नहीं है. अब आप आराम कीजिए.’’

‘‘हमारा बेटा औरों जैसा नहीं है न…’’ मनीषा भर्राई आवाज में बोलीं.

‘‘हां, मनीषा, वह बुरा कैसे हो सकता है. तुम ने सुना नहीं, उस ने क्या कहा.’’

‘‘हां, बच्चों में संस्कार उपदेश देने से नहीं आते, घर के वातावरण से आते हैं. जिस घर में बड़ों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है उस घर में बच्चे बड़ों को आदर देना सीखते हैं और जिस घर में बड़ों का तिरस्कार होता है उस घर के बच्चे भी तो वही सीखेंगे.’’

एक पल रुक कर मनीषा फिर बोली, ‘‘हम दोनों ने अपने मातापिता की सेवा व उचित देखभाल की. हमारी गृहस्थी में उन का स्थान हमेशा ही महत्त्वपूर्ण रहा, वही हमारे बच्चों ने सीखा. लेकिन अधिकतर लोग अपने बच्चों से तो सेवा व आदर की उम्मीद करते हैं, लेकिन वे अपने जीवन में अपने बड़ों की मौजूदगी को भुला चुके होते हैं.’’

मनीषा के मन से आज सारे संशय खत्म हो चुके थे.

उन के सगेसंबंधियों, दोस्तों ने उन्हें अपने अनुभव बता कर उन के मन में बेटेबहू के प्रति डर व नकारात्मक विचार पैदा किए, अब वे अपने अनुभव बता कर दूसरों के मन में बेटेबहू के प्रति प्यार व सकारात्मक विचार भरेंगे.

निरंजन ने संतोष से आंखें मूंद लीं और मनीषा कमरे की लाइट बंद कर बहू की सहायता करने के लिए रसोई में चली गईं. आखिर इनसान जो अपनी जिंदगी में बोएगा वही तो काटेगा. कांटे बो कर फूलों की उम्मीद करना तो मूर्खता है.

Hindi Story : दहशत की हवा

Hindi Story : सारी गली सुनसान थी. शाम अंधेरे में बदल गई थी. पहाड़ी इलाका था. यहां साल भर सर्दी का ही मौसम रहता था. गरमियों में सर्दी कम हो जाती. सर्दियों में तो रातें सर्द ही रहतीं. जिन को सर्दी की आदत थी उन को कम या ज्यादा सर्दी से क्या फर्क पड़ता था.  हाथ में पकड़ी ए.के. 47 राइफल की नोक से अरबाज खान ने अधखुले दरवाजे को खटखटाया. कोई जवाब नहीं मिला. फिर वह थोड़ी धीमी आवाज में चिल्लाया, ‘‘कोई है?’’

उत्तर में कोई जवाब नहीं.  उस के पीछे खड़े उस के 7 साथियों के चेहरों पर गुस्से के भाव उभर आए. आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था. जिस किसी भी गांव में दिन या रात में कदम रखा था, उन के खौफ से वहां के लोग थरथर कांपते हुए उन की किसी बादशाह या सुलतान के समान आवभगत करते थे. मगर यहां अभी तक कोई बाहर नहीं आया था.

‘‘मार डालो इन को. कोई भी जिंदा न बच पाए,’’ सभी ए.के. 47 राइफल व हैंडगे्रनेडधारी जनों के नेता सुलतान ने अपने आदमियों से कहा तो उन के चेहरों के भावों ने एकदूसरे को कहा, ‘मगर पहले कोई सामने तो आए.’  दरवाजा आधा खुला था. पल्ला जोर पड़ते ही एक तरफ हो गया. ट्रिगर पर उंगली सख्त किए सभी अंदर प्रवेश कर गए. उन का गुस्सा माथे पर था. सामने जो भी आया गोली खाएगा. मगर सामने कोई आए तो सही.  सारा मकान खाली था. खाने का सामान तो दूर की बात थी वहां तो पानी का मटका भी खाली था. सब कहां गए? शायद कहीं बाहर गए थे?

मगर दूसरा मकान भी पहले की तरह खाली. तीसरा, चौथा मकान भी खाली. तनी हुई मशीनगनें ढीली पड़ एक तरफ कंधे पर लटक गईं. चढ़ा हुआ गुस्सा उतरने लगा. गरमी या जोश भी ढीला पड़ने लगा.  एक ही कतार में, सारे मकान खाली थे. अंधेरा बढ़ रहा था. ऐसा कैसे हो सकता था? क्या कोई साजिश थी? सेना या खुफिया विभाग वालों की साजिश भी हो सकती है. क्या पता एकदम से चारों तरफ से घेर कर सब पर गोलियों की बरसात कर दें…सभी के चेहरों पर डर और दहशत उभर आई.  पिछले माह जब वे आए थे, तब इन्हीं 4-5 मकानों में रहने वालों ने किस तरह डर कर उन की अगवानी की थी. बकरे का मांस पेश किया था. काजूसेब से बनी शराब पेश की थी. रात को जब सब ने उन की जवान बहुओं और कुंआरी बेटियों को लपक लिया था तब किसी ने विरोध नहीं किया था.

मगर आज इन्हीं मकानों में कोई नहीं था. इनसान तो क्या कोई परिंदा भी नहीं था. पशु नहीं था. इनसान कहीं बाहर किसी काम से जा सकते थे. मगर क्या परिंदे और जानवर भी जा सकते थे?  जरूर कोई साजिश थी. अंधेरा कभी उन को सुरक्षा और हिम्मत देता था. आज वही अंधेरा उन्हें डरा रहा था. दूसरों पर बिना बात गोली चलाने वाले अब इस सोच से डर रहे थे कि कहीं एकदम किसी ओर से कोई फौजी सामने आ कर गोली न चला दे या आसपास के मकानों से उन सब पर गोलियों की बौछार न हो जाए.  जिस दबंगता, अकड़ और जोश से वे सब गांव में प्रवेश करते समय भरे हुए थे वह अब एक अनजाने डर, दहशत में बदल गया था. सभी के चेहरों पर अब मातम छा गया था. प्यास से सब के गले सूख रहे थे. मगर किसी मकान के मटके में पानी नहीं था.  प्यास से गला सूख रहा था. शाम आधी रात में बदल गई थी. मगर अभी तक खाना नहीं मिला था. कहां तो सोचा था कि मुरगेबकरे का मांस, गरमागरम तंदूरी रोटियां, मिस्सी रोटियां मिलेंगी, शराब मिलेगी. रात को साथ सोने के लिए अनछुई जवान महिला मिलेगी…मगर आज सब सुनसान था. कोई भी नहीं था. खाली मकान थे. सब खालीखाली था.

‘‘अब क्या करें?’’ एक साथी ने सरदार से कहा.

सरदार चुप रहा. क्या जवाब दे? वापस चलें? मगर कहां? सामने के पहाड़ों पर बर्फ पड़ रही थी. आसमान साफ था.  मगर इस सुनसान आधी रात में जाएं कहां? सारे मकान खाली थे. सारा गांव खाली था.  सभी थक चुके थे. धीरेधीरे चलते गांव के बाहर चले आए. एक मकान पत्थरों से घिरी चारदीवारी के अंदर बना हुआ था. चारदीवारी में शायद सब्जियां बो रखी थीं. खाने को कच्ची सब्जियां तो मिल जाएंगी, सभी यह सोच कर वहां प्रवेश कर गए.

एक आतंकवादी ने हिम्मत कर टौर्च   जलाई. सचमुच सब्जियां थीं मगर   कच्चा घीया, बैगन और तोरी, कौन और कैसे खाता? शायद मकान मेें ईंधन और चूल्हा है. सभी मकान की तरफ बढ़े तभी उन के कानों में किसी के धीमेधीमे सुबकनेकी आवाज आई.  मकान में कोई था. टौर्च जलाने वाला आगे बढ़ा. एक लंबे आयताकार कमरे के भीतर खूंटे में रस्सी से बंधी एक बकरी खोली में रखी घास चर रही थी. समीप एक 2 साल का मासूम बच्चा सुबक रहा था.  गांव में इस अकेले मकान में 2 प्राणी थे. थोड़ीबहुत शराब थी. दालान के कोने में एक मटका पानी से भरा था. थोड़ाबहुत राशन भी वहां मौजूद था.  पानी देख कर सब की निगाहों में चमक आ गई. एक आतंकी रसोई में गया मगर वहां कोई गिलास नहीं था. हाथों को चुल्लू बना सब ने बारीबारी से पानी पिया. सब बकरी और बच्चे वाले कमरे में चले आए.

बच्चा अभी भी सुबक रहा था. वह भूखा था.  एक खाट दीवार से लगी सीधी खड़ी थी. सब उस को बिछा कर उस पर बैठ गए.

‘‘रहमत, देखो, क्या बकरी के थनों में दूध है?’’ सरदार के कहने पर एक आतंकी उठा और बकरी के समीप गया. थन दूध से भारी थे. मुट्ठी में थन पकड़ उसे भींचा, दूध की पतली धार एक फुहार के समान बाहर निकल आई.  रहमत ने आसपास देखा तो कोई बरतन नहीं था. वह भाग कर रसोई मेें गया. वहां भी बरतन नहीं था. दालान में एक तरफ मिट्टी से बनी एक खाली सिगड़ी थी. इस में शायद आग जला कर भट्ठी का काम लिया जाता था. उस को उठा कर झाड़ा. मटके से पानी ले, उसे धो लाया.

दूध भरपूर था. सारी सिगड़ी भर गई. दूध ले कर वह बच्चे के समीप गया. दूध देखते ही बच्चा मचल पड़ा. रहमत ने सिगड़ी उस के मुंह से लगा दी. बच्चा दूध पी गया. आधी सिगड़ी खाली हो गई. थनों में अभी काफी दूध था. बकरी शायद पिछले कई दिन से दुही नहीं गई थी. सिगड़ी फिर भर गई.  सिगड़ी उठा कर रहमत दल के सरदार के समीप पहुंचा.

‘‘आप भी दूध पी लीजिए.’’

‘‘दूध तो बच्चे के लिए है.’’

‘‘बच्चे को मैं ने दूध पिला दिया है. बकरी के थनों में अभी काफी दूध है.’’  सरदार ने सिगड़ी को मुंह से लगाने में संकोच किया. फिर हाथों की केतली बना जैसे पानी पी रहा हो, थोड़ा सा दूध पी लिया और सिगड़ी एक साथी की तरफ बढ़ा दी. सभी ने थोड़ाथोड़ा दूध पी लिया.  बच्चा अब तक जमीन पर लेटा सो गया था. बकरी भी बैठ गई थी.  ‘‘बच्चे को खाट पर लिटा दो,’’ सरदार ने कहा. 2 साथी उठ कर जमीन पर बैठे. फिर रहमत ने बच्चे को उठा कर खाट पर लिटा दिया. सरदार ने अपना ओढ़ा कंबल उतार कर उस को ओढ़ा दिया. गरमाई मिलते ही बच्चा मीठी नींद सो गया.

बकरी का थोड़ाथोड़ा दूध पीते ही अंतडि़यां राहत पा गई थीं. जैसे चोट पर मरहम लग गया हो. सभी भूखे दीवार से लगेलगे सो गए. सुबह की चमकती धूप की किरणों ने उन के चेहरों पर गरमी की, तब सब की नींद खुली. बच्चा अभी भी सो रहा था. बकरी उठ कर खड़ी हो में…में करने लगी थी. उस के थन फिर से दूध से भारी हो गए थे.  सब उठ कर नित्यक्रिया को निकल गए थे. रहमत और परवेज समीप की पहाड़ी के झरने से मटके में पानी भर लाए थे. अरबाज खान और मुश्ताक अली खाली पड़े मकानों में खाली बरतन ढूंढ़ने निकल पड़े. किसी घर में 1-2 गिलास, किसी में थालीकटोरी किसी से गड़वा, परात मिल गई.  आटा गूंध कर टिक्कड़ सेंक सब ने पेट भरा. बच्चा भी रोटी देख कर चिल्लाया. रहमत ने उस को नमक डाल कर एक टिक्कड़ सेंक कर थमा दिया.

‘‘अब क्या करें?’’ सरदार ने कहा.

‘‘ठिकाने पर वापस चलते हैं. अगले गांव में तो सुरक्षा बलों का बड़ा नाका है. इस बार फौज की चौकसी काफी बढ़ गई है,’’ मुश्ताक अली ने कहा.  ‘‘यह सारा गांव खाली क्यों है?’’ रहमत अली ने कहा. हालांकि वह जानता था कि इस सवाल का जवाब सब को मालूम था. उन्हीं की दहशत की वजह से सब निवासी गांव छोड़ कर चले गए थे. हर समय दहशत के साए में कौन जीता? कब किस को बिना वजह गोली मार दें. कब किसी के घर में घुस कर बहूबेटी की इज्जत लूट लें.  अभी तक घाटी से हिंदू, सिख ही गए थे, मगर अब अपने मुसलमान भी पलायन कर रहे थे…वह भी सारे के सारे एकसाथ. अगर सारी घाटी खाली हो जाए तो?

‘‘अभी वापस चलते हैं… आगे जो होगा देखेंगे,’’ सब उठ खड़े हुए.

‘‘इस बच्चे का क्या करें?’’ अरबाज खान ने पूछा.

सब सोचने लगे. क्या इसे गोली मार दें? अभी तक कभी किसी ने किसी मासूम बच्चे को नहीं मारा. बड़ी उम्र के आदमी और औरतों पर ही गोली चलाई थी. किसी का हाथ स्टेनगन की तरफ नहीं गया.  ‘‘क्या बच्चे को यहीं छोड़ दें,’’ सब सोच रहे थे. मगर इस सुनसान खाली पड़े मकान में अकेला मासूम बच्चा कैसे रहेगा? जैसे हालात थे, उन में इस के परिवार या मांबाप का आना मुश्किल था. जाने की जल्दी में वह बच्चा छूट गया था.  बच्चे को वापस लेने आने वाला अकेला शायद ही आए. सुरक्षा बल या फौजी दस्ता साथ आ सकता है. इसलिए उन का यहां ज्यादा देर तक ठहरना भी खतरनाक था. सरदार ने कुछ देर सोचा.

‘‘बच्चे को और बकरी को भी साथ ले चलो,’’ सरदार का हुक्म सुन सब ने एकदूसरे की तरफ देखा.

‘‘सरदार, बच्चे का हम क्या करेंगे?’’ मुश्ताक अली ने कहा.

‘‘यहां अकेला भूखाप्यासा बच्चा मर जाएगा.’’

‘‘हमारे साथ भी इसे कुछ हो सकता है.’’

‘‘बाद में देखेंगे. अभी इसे साथ ले चलो.’’  आंखों पर शक्तिशाली दूरबीन चढ़ाए ऊंचे टावर पर बैठे फौजियों ने सामने की पहाड़ी पर बनी पगडंडी पर कुछ आतंकवादियों को चढ़ते देखा. सब सचेत हो गए. ऐसा कभीकभी ही होता था. अधिकतर दहशतगर्द रात के अंधेरे में ही निकलते थे. उस ने दूरबीन का फोकस और करीब किया. बुदबुदाया, ‘अरे, यह तो अरबाज खान है. इस ने अपनी बांहों में एक बच्चा उठा रखा है. इस के पीछे चल रहे व्यक्ति ने एक बकरी के गले में बंधी रस्सी थाम रखी है.’

‘वाकीटाकी’ औन कर फौजी ने अपने कमांडर को खबर दी.

‘‘इस बच्चे के बारे में हमारे पास कल शाम खबर आई थी. गांव छोड़ते समय अफरातफरी में इस के मांबाप बच्चा वहीं छोड़ आए थे,’’ कमांडर ने कहा.

‘‘सर, क्या करें? सब रेंज में हैं. गोली चलाऊं?’’

‘‘उन्हें जाने दो. बच्चा उन के हाथ में है, उसे गोली लग सकती है.’’  सभी पहाड़ी पार कर अपने ठिकाने पर सुरक्षित पहुंच गए. अरबाज खान जानता था कि दिन में घाटी के किसी इलाके में निकलना खतरे से खाली नहीं था. किसी भी वक्त सुरक्षा बलों की गोली लग सकती थी. इसलिए आड़ बनाने के लिए बच्चा अपने साथ लाया था.  ठिकाने पर सब नहानेधोने, खाना बनाने में लग गए. बच्चा भी जाग गया था.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ अरबाज खान ने पूछा.

‘‘उमर अली.’’

‘‘तुम्हारे अम्मीअब्बा का क्या नाम है?’’

‘‘अहमद अली व फरजाना खातून.’’

‘‘सब कहां गए हैं?’’

‘‘पता नहीं.’’

सब खाना खा कर सो गए. उमर अली भी एक चपाती और दूध पी कर सो गया.  रात हो गई. हर रात को किसी न किसी गांव में इन दहशतगर्दों का दल जाता था. कहीं कत्ल तो कहीं लूटमार का खेल खेला जाता था. मगर आज कोई कहीं नहीं गया था. कल रात जैसा वाकया पहले कभी नहीं हुआ था कि सारा गांव खाली हो जाए.  आज किसी दूसरे गांव में जाएं, वहां भी अगर वैसा ही हो गया तब? ऊपर से सुरक्षाबल के जवान घात लगाए बैठे हों. अचानक सब पर हमला हो जाए. इतनी सारी संभावनाएं कभी दिमाग में नहीं आई थीं. मगर कल के हालात ने उन को खुद के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया था.  लगभग 1 साल तक लुटेरों ने कश्मीर के विभिन्न इलाकों में स्थापित ट्रेनिंग कैंपों में इन सब को तरहतरह के हथियार चलाने व गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दे कर सीमा पार करा दी थी. एकमुश्त मोटी रकम हर एक को अपने परिवार को देने के लिए थमा दी गई थी. साथ ही, एक बंधीबंधाई रकम हर माह इन के परिवारों को देने का वादा भी किया था.  इस जंग को अल्लाह के नाम पर जेहाद का नाम दिया गया था. काफिरों के खत्म होने पर ही पाक हुकूमत कायम होगी, जिस में कुछ भी नापाक नहीं होगा. यह सब जेहादियों के दिमाग में भरा गया था.

सब इस सचाई से वाकिफ थे कि उन्हें मरने के बाद कफन भी नहीं मिलेगा. मगर जेहाद के नाम पर दिमाग बंद था. अब कल के हालात ने सब को सोचने पर मजबूर कर दिया था. क्या थे वे सब? क्या भविष्य था उन का?  घाटी में अब काफिर कहां थे? सारे हिंदू, जिन्हें काफिर कहा जाता था, चले गए थे. फिर अब किस बात पर जेहाद था? साथ में जो बच्चा आया था उस ने भी उन के दिमाग में हलचल मचा दी थी. सब को अपनाअपना परिवार, बच्चे याद आ रहे थे. यह जेहाद तो पता नहीं कब खत्म होगा? घर कब जाएंगे? किसी के बेटे का नाम फिरोज था, कोई अशरफ था, कोई सलीम था, कोई अशफाक था. कैसे होंगे वे?

दूसरा दिन भी हो गया. उमर अली सब के साथ हिलमिल गया. सब को उस में अपनेअपने बच्चों का अक्स दिख रहा था.

‘‘मैं भी बंदूक चलाऊंगा.’’

अरबाज खान ने उसे अपनी पिस्तौल खाली कर थमा दी. उस के खेल का सब आनंद ले रहे थे.  क्या उन का बेटा भी बड़ा हो कर इस तरह बंदूक थामेगा? एक दहशतगर्द बनेगा, गोली खा मरेगा और एक कुत्ते या जानवर के समान दफन हो जाएगा?  रात हो गई. आज भी कोई कहीं नहीं गया. हर वारदात या जीत के बाद आकाओं को रिपोर्ट भेजनी पड़ती थी. मगर यह दूसरी रात थी जब कुछ न किया. तीसरी रात भी गई, चौथी भी. 5वीं रात पीछे से लपकती आ पहुंची.

‘‘कमांडर पूछता है सब कहीं जाते क्यों नहीं? 4 दिन से कुछ नहीं हुआ?’’

‘‘अभी हालात खराब हैं. जब काबू में हो जाएंगे तब जाएंगे.’’  8 दिन बीत गए. दिमाग में भारी हलचल थी.

हरकारा फिर आया. इस बार चेतावनी दे गया. ‘ड्यूटी’ करो या नतीजा भुगतो. नतीजा यानी वापस लौटे तो खत्म कर सुपुर्देखाक. ड्यूटी पर जाते हैं तो कभी न कभी सुरक्षा बलों की गोली का शिकार बनना ही था. सुपुर्देखाक इधर भी था उधर भी था. क्या करें?  जेहाद का जनून उतर चुका था. एक मासूम बच्चे ने उन्हें अपने बच्चों, परिवार आदि की याद दिला कर उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया था.  10 दिन बाद सुबह एक सफेद झंडा, जो सफेद कमीज फाड़ कर बनाया गया था, लिए 8 दहशतगर्दों का दल एक मासूम बच्चे की अगुआई में साथ में एक बकरी लिए आत्मसमर्पण के लिए सुरक्षा बलों के सामने हाजिर हुआ. स्टेनगन, हथगोले व अन्य हथियार पटाखों के समान एक ढेर में एक तरफ पड़े थे.  उमर अली अपने अम्मीअब्बा की गोद में पहुंच गया. सभी दहशतगर्द इस नन्हे बच्चे को मोहब्बत से देख रहे थे जिस ने उन के दिमागों से जेहाद का जनून उतार दिया था.

Family Story : ये चार दीवारें – अभिलाषा और वर्षा क्यों दुखी थी?

Family Story : कोरोना वायरस ने सभी की जिंदगियों को कितना बदल दिया है. अभी तीन दिन पहले ही तो बर्षा और अभिलाषा कालेज के कैम्पस में मदमस्त घूम रहीं थीं और आज अपने रूम में बंद मुंह बनाएं अपनेअपने फोन में लगी हुई हैं. दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय के नामी कालेज में पढ़ती हैं. अभिलाषा लाइफ साइंसेस के छठे सेमेस्टर में है तो बर्षा बीबीए के चौथे सेमेस्टर में. दोनों के इंटर्वल्स चल रहे थे और जल्द ही एनुअल एग्जाम भी होने वाले थे कि कोरोना वायरस के चलते पहले कालेज 31 मार्च तक बंद हुआ और फिर देशभर में लौकडाउन की घोषणा हो गई. लौकडाउन के चलते वे दोनों अपने पीजी में बंद हैं. अभिलाषा इस पीजी में पहले से रह रही थी और सेमेस्टर की शुरुआत में ही बर्षा इस में शिफ्ट हुई थी.

बर्षा और अभिलाषा एकसाथ रहती तो थीं पर दोस्त नहीं थीं, होती भी कैसे, दोस्ती करने का समय था किस के पास.

बर्षा मदमस्त लड़की थी लेकिन कालेज में कोई खास दोस्त नहीं था उस का. नासिक की रहने वाली बर्षा 3 साल से पार्थ के साथ रिलेशनशिप में थी. पार्थ नासिक में ही था और बर्षा यहां दिल्ली में. बर्षा के लिए दोस्ती का मतलब था पार्थ, प्यार का मतलब था पार्थ और परिवार का मतलब भी था तो सिर्फ पार्थ. बर्षा का परिवार रसूखदार था. नौकरीपरस्त मातापिता उस की जरूरतों को तो समझते थे पर उस के मन को कभी नहीं समझ पाए. छोटी बहन से उसे प्यार तो बहुत था लेकिन उम्र में 4 साल छोटी बहन उसे समझती भी तो कैसे. सो, वह बड़ी भी कुछ इसी तरह हुई कि अपने मन की बातें अपने मन में ही रखती थी.

वहीं, अभिलाषा सोनीपत की रहने वाली थी. बचपन से हमेशा परिवार की लाड़ली. दोनों भाई उस से बेहद प्यार करते थे और मम्मीपापा की तो जान थी वह. यहां कालेज में भी उस के कई दोस्त थे. हमेशा दोस्तों से घिरी अभिलाषा के लिए शांत पर हमेशा चिड़चिड़ी बर्षा को झेलना मुश्किल हो जाता था. उस ने बर्षा के इस रूम में शिफ्ट होने पर उस की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था, वह उस से कालेज के बाद हैंगआउट करने के लिए भी पूछती थी लेकिन बर्षा कभी पार्थ के साथ फोन पर बात कर रही होती तो कभी चैटिंग. एक बार जब अभिलाषा ने बर्षा से उस की क्लासमेट से नोट्स लाने के लिए कहा था तो बर्षा ने यह कह कर टाल दिया था कि पार्थ दिल्ली आ रहा है और वह उस से मिलने स्टेशन जा रही है. अभिलाषा ने उसे कहा भी कि नोट्स लेने में उसे 5 मिनट से ज्यादा वक्त नहीं लगेगा लेकिन बर्षा नहीं मानी और कालेज से बिना नोट्स लिए ही निकल गई.

उस दिन से ही ऐसी कितनी ही छोटी बड़ी चीजें थीं जिन पर दोनों झगड़ती रहतीं. कभी अभिलाषा के दोस्तों की पीजी पार्टियों से बर्षा परेशान हो जाती तो कभी बर्षा के गंदे पड़े कपड़ों को अपनी कुर्सी पर देख अभिलाषा बिफर पड़ती. एक बार अभिलाषा को जब बहुत भूख लगी थी तो उस ने लंच में आए बर्षा के टिफिन से आलू का परांठा खा लिया था. बर्षा जब कालेज से लंच के लिए लौटी तो खाली टिफिन देख कर उस का मूड खराब हो गया.

‘तुम ने मेरा लंच खाया है?’ बर्षा ने गुस्से से अभिलाषा से पूछा.

‘हां, मुझे भूख लगी थी. तू मुझ से पैसे ले कर कैंटीन से कुछ खा ले,’ अभिलाषा बोली.

‘यार, क्या बदतमीजी है ये. एक कौल कर देती तो मैं कुछ खा लेती वहीं पर. 25 मिनट तक चलते हुए तो नहीं आना पड़ता न मुझे, वो भी इस खाली डब्बे के लिए,’ बर्षा चिल्लाने लगी.

अभिलाषा की आवाज भी अब तेज हो गई. ‘मुझ पर चिल्लाने की जरूरत नहीं है. भूख लगी थी खा लिया और कौल करना भूल गई, सौरी. पर मुझ पर आज के बाद चिल्लाने की कोशिश भी मत करियो. छोटी है, छोटी बन कर रह.’

‘स्टौप टौकिंग, मेरा अभी तुम्हारी शक्ल देखने का भी मन नहीं है.’

‘मैं तो मरी जा रही हूं जैसे तेरी शक्ल देखने के लिए. जा यहां से,’ अभिलाषा अपनी चप्पल पहन बालकनी में जा कर खड़ी हो गई थी.

बर्षा और अभिलाषा हर दिन किसी न किसी बात पर लड़ती थीं. उन दोनों के लिए खुशी की बात यही थी कि वे जबजब लड़तीं तो दोनों में से कोई एक कमरे से बाहर निकल जाया करती थी. बर्षा को अपने कमरे में ही रहना पसंद होता था तो ज्यादातर अभिलाषा ही अपनी किसी दोस्त के पीजी चली जाती थी और कभीकभी वहीं नाइट स्टे करती.

अभिलाषा और बर्षा का पीजी कालेज से 25 मिनट की दूरी पर था. उन के पीजी के पास उन के किसी क्लासमेट या फ्रैंड का पीजी नहीं था. उन के पीजी वाली गली संकरी थी लेकिन आसपास के घरों की ऊंचाई ज्यादा नहीं थी. रात में जब बालकनी में बर्षा खड़ी होती तो उसे खुला आसमान नजर आता था. तारे टिमटिमाते तो उन्हें देख वह खुश हो जाया करती थी, अपने फोन से एक पिक्चर क्लिक करती और पार्थ को भेजा करती. कितनी खुशी मिलती थी उसे पार्थ को अपने हर पल से जोड़ते हुए. जबजब उस से लड़ाई करती तो इतनी उदास हो जाया करती कि अभिलाषा से लड़ना भी उसे व्यर्थ लगता.

अभिलाषा को बर्षा की जिंदगी से कोई मतलब नहीं था, वह उसे उदास देख कर एक पल को कुछ पूछने के बारे में सोचती भी तो दूसरे ही पल उसे बर्षा से अपनी लड़ाइयां याद आ जातीं और वह चुप अपनी किताबों में घुस जाती. लड़ाइयों से अभिलाषा को सब से ज्यादा वह दिन याद आता जब बर्षा ने किचन में आ उस की मैगी के पैन में पानी डाल दिया था और अभिलाषा का खून खौल गया था. हुआ यह था कि अभिलाषा किचन में मैगी बना रही थी और रूम में रखा उस का फोन बज उठा.

अपना फोन उठाने की जल्दी में अभिलाशा किचन से मैगी हिलाने वाला चमचा हाथ में पकड़ तेजी से निकली और गलती से कुर्सी पर सूख रहे बर्षा के कपड़ों पर उस ने चमचा लगा दिया. बर्षा नहा कर बाहर आई तो उस ने देखा उस के टौप पर पीला निशान पड़ा हुआ है. उसे लगा कि अभिलाषा ने यह जानबूझ कर किया क्योंकि उसे पता था आज बर्षा को क्लास में प्रेसेंटेशन देनी है.

बर्षा गुस्से से लाल होती हुई किचन की तरफ बड़ी और बोतल खोल कर जितना पानी उस में था उस ने अभिलाषा की मैगी में उड़ेल दिया. अभिलाषा को भूख बिलकुल बर्दाश्त नहीं थी. सो, बर्षा से लड़ाई और चिल्लमचिल्ली के बाद भी उसे पानी वाली बेस्वाद मैगी खानी पड़ी थी. यह वाक्य उसे जब भी याद आता वह गुस्से से भर जाती थी और उस का मन होता कि बर्षा को खींच कर तमाचा मार दे. वैसे, एक बार जब बर्षा सोतेसोते पलंग के बिलकुल किनारे सरक आई थी तो उसे सरकाने या गिरने से बचाने के बजाय अभिलाषा फोन का विडियो रिकौर्डर खोल कर बैठ गई थी और उस ने बर्षा के गिरने की विडियो बनाई भी थी और अपने दोस्तों में खूब वायरल भी की थी.

अब जब से लौकडाउन हुआ है तब से दोनों इस बात से कम कि बाहर नहीं जा सकते, इस बात से ज्यादा परेशान हैं कि अगले 21 दिन उन्हें एक साथ, एक ही कमरे में काटने हैं. दोनों का लंच और डिनर का खाना भी आना बंद हो गया था, कुछ और्डर वे कर नहीं सकती थीं तो एक ही उपाय था कि दोनों खाना बना कर खाएं. खाना बनाने, बर्तन धोने, झाडू पोंछा करने आदि को ले कर दोनों सुबह शाम लड़ती रहती थीं. अभिलाषा अपनी मम्मी से फोन पर हर दिन बात कर उन्हें हर पल की खबर देती. दूसरी तरफ बर्षा की पार्थ से लड़ाई होती रहती. अभिलाषा ने बर्षा को अभी कल ही फोन पर चिल्लाते सुना था, ‘नहीं करनी मुझे तुम से बात अब, जाओ उस मालविका से ही बातें करो, मुझ से करने की जरूरत नहीं है.’

अब कोरोना वायरस के चलते वे दोनों कहीं आजा नहीं सकतीं, दोनों ही परेशान हैं. दोनों के अकाउंट में पैसे हैं तो दोनों को कुछ खास चिंता नहीं लेकिन घुटन तो उन्हें भी महसूस हो रही है इस चार दीवारी में. आज सुबह से ही बर्षा का मूड कुछ ठीक नहीं यह अभिलाषा को महसूस तो हुआ लेकिन वह उस से कुछ पूछनाजानना नहीं चाहती.

अभिलाषा ‘लव इन द टाइम औफ कोलेरा’ किताब पढ़ रही थी जब उसे बर्षा के रोने की आवाज आई. बर्षा अपने बेड पर थी जो अभिलाषा के बेड से चार कदम दूर ही था. बर्षा का चेहरा चादर से ढका हुआ था तो अभिलाषा को बस उस की आवाज सुनाई दे रही थी. वह बारबार फरमीना और फ्लोरेंटिनो के रोमांस पर फोकस करती और बारबार बर्षा की आवाज उस के ध्यान में बाधा डालती.

‘‘सुन,’’ अभिलाषा ने कहा.

बर्षा ने अभिलाषा की आवाज सुन कर भी उसे अनसुना कर दिया तो अभिलाषा ने फिर आवाज लगाई, ‘‘ओए बर्षा, सुन.’’

‘‘हूं,’’ बर्षा ने जवाब में कहा.

‘‘थोड़ा धीरे रो, मुझे बुक पढ़ने में डिस्टर्बेंस हो रही है,’’ अभिलाषा कहने लगी.

‘‘तुम कितनी हार्टलेस हो, कितनी बुरी हो. तुम्हें दिख रखा है मैं रो रही हूं पर तुम्हें फर्क नहीं पड़ रहा न. तुम्हारा ब्रेकअप होता तो क्या तब भी तुम यही कहती,’’ बर्षा सुबकते हुए कहने लगी.

‘‘मेरा ब्रेकअप होता तो मैं ब्रेकअप पार्टी देती. वैसे भी लड़के इस लायक होते भी नहीं कि उन के लिए आंसू बहाए जाएं, कोई समझदार लड़की उन पर आंसू नहीं बहाती. हां, तू समझदार भी तो नहीं है तो तुझ से ऐसी उम्मीद भी नहीं लगा सकते.’’

‘‘प्लीज, मुझ से बात करने की कोई जरूरत नहीं है,’’ बर्षा अब भी सुबक रही थी.

‘‘हां, जैसे मैं तो मरी जा रही हूं,’’ अभिलाषा ने मुंह बनाते हुए कहा.

बर्षा अपने बेड से उठी और बाथरूम में जा कर शावर के नीचे बैठ रोने लगी. बर्षा और पार्थ का ब्रेकअप हो गया था. पार्थ से बर्षा बेहद प्यार करती थी लेकिन जब से उसे यह पता चला था कि मालविका के पार्थ को प्रोपोज करने के बाद भी वह उस से दोस्ती बनाए हुए है तो बर्षा का शक पार्थ पर गहराता जा रहा था. इस शक और बर्षा की इन्सेक्योरिटी के चलते ही पार्थ ने बर्षा से ब्रेकअप कर लिया था. बर्षा बाथरूम में बैठ कर दिल खोल कर रो रही थी, उस के आंसू पानी की बौछार के साथ मिलते हुए नाली में बह रहे थे और हर एक आंसू के साथ उसे ऐसा लगता मानो उस के दिल के छोटेछोटे टुकड़े भी बह रहे हैं और उस के सीने से दर्द हलका होता जा रहा है.

अभिलाषा बाहर अपने पलंग पर बैठी बर्षा के रोने की आवाज सुन रही थी. तभी अभिलाषा बाहर से जोर से चिल्लाई, ‘‘पानी कम खर्च कर, न्यूज नहीं सुनती क्या, पानी की बचत कर. ऐसे ही हमारा देश कोरोना के बाद पानी की किल्लत से ही जूझने वाला है. कम पानी बहा.’’ बर्षा अपने आंसुओं के साथसाथ अभिलाषा के तानों का घूंट भी पी गई.

शाम के 7 बज रहे थे जब बर्षा अपने बेड पर आंखें बंद किए लेटी थी. बर्षा अपने और पार्थ के हर उस पल के बारे में सोच रही थी जिन में उसे महसूस होता था कि वे दोनों एकदूजे के लिए ही बने हैं और उन के बीच कभी कोई नहीं आ सकता. अचानक अभिलाषा का फोन बजा तो बर्षा की तंद्रा भंग हुई.

‘‘हां पापा, बोलिए क्या हुआ,’’ अभिलाषा फोन पर बोली. ‘‘क्या…..,’’ अभिलाषा लगभग चीख पड़ी.

अभिलाषा की आवाज सुन कर बर्षा चादर हटा अपने बेड पर बैठ गई. उस की नजरें अभिलाषा के चहरे पर टिक गईं जो धीरेधीरे रोआंसा होने लगा था.

‘‘कहां…कहां हैं मम्मी….मैं…मैं…मैं आ रही हूं….पापा….’’ कहते हुए अभिलाषा जोरजोर से रोने लगी. अभिलाषा को इतनी बुरी तरह रोते बर्षा ने पहले कभी नहीं देखा था. वह तेजी से अपने बेड से उठी और अभिलाषा को थामने लगी. अभिलाषा बस रोए जा रही थी और फोन से लगातार उस के पापा की आवाज आ रही थी.

‘‘अभिलाषा…अभिलाषा…’’ फोन से निकलती हुई आवाज अभिलाषा के कानों तक पहुंच तो रही थी लेकिन शब्दों ने जैसे उस की जबान पर आने से मना कर दिया था.

‘‘अभिलाषा क्या हुआ? बताओ तो हुआ क्या है?’’ बर्षा अभिलाषा से लगातार पूछ रही थी. बर्षा ने अभिलाषा के हाथ से फोन ले लिया.

‘‘हैलो, अंकल…क्या हुआ है,’’ बर्षा ने अभिलाषा के पापा से पूछा.

‘‘बेटा, व…वो….अभिलाषा की मम्मी काफी जल गईं है बेटा. किचन में पूडि़यां तलते हुए कढ़ाई का खौलता हुआ तेल उन के गले से पैर तक छिटक गया. ज्यादा जल गईं हैं होस्पिटल में भर्ती हैं पर अभिलाषा को मत कहना की बहुत ज्यादा जली हैं. उस से कहना कि थोड़ा बहुत जली हैं और कुछ दिन में ठीक हो जाएंगी. उस का ध्यान रखना बेटा… वो पागल है, अपनी मम्मी से बहुत प्यार करती है, रोरो कर अपना हाल बुरा कर लेगी, उस का ध्यान रखना. उस की मम्मी ठीक हैं… तुम दोनों अपना ध्यान रखना.’’

‘‘ओके…अंकल,’’ बर्षा ने कहा और फोन काट दिया.

अभिलाषा बिना रुके बस रोए जा रही थी. बर्षा उसे ले कर बेड पर बैठी और उसे चुप कराने लगी. ‘‘आंटी अब ठीक हैं अभिलाषा, अंकल ने कहा है वे जल्दी ठीक हो जाएंगी.’’

अभिलाषा अब भी कुछ नहीं सुन रही थी बस रोए जा रही थी. बर्षा उठ कर गई और गिलास में पानी ले आई. अभिलाषा ने पानी पिया और दोनों हथेलियां आंखों पर रख रोने लगी. वह बिलकुल बच्चों की तरह रो रही थी.

‘‘आंटी ठीक हो जाएंगी जल्दी,’’ बर्षा दिलासा देते हुए बोली.

‘‘मुझे मम्मी के पास जाना है,’’ अभिलाषा सुबकते हुए बोल पड़ी.

‘‘लौकडाउन खत्म होते ही चले जाना. अभी संभालो खुद को.’’

अभिलाषा ने अपना फोन उठाया और पापा को कौल लगा दिया.

‘‘पापा, मम्मी को होश आ गया तो बात करा दीजिए, मुझे उन से बात करनी है,’’ एक मिनट रुक अभिलाषा कहने लगी, ‘‘हैलो, हैलो…मम्मी आप ठीक हैं न….आप ठीक हैं न. आप को ज्यादा चोट तो नहीं आई….’’ मम्मी से बात करते हुए अभिलाषा का रोना शांत हो गया था. बर्षा को यह देख कर राहत मिली. वह उठी और बालकनी में जा कर बैठ गई.

बाहर अंधेरा छा चुका था. कोरोना वायरस से लोग इतने डरे हुए हैं कि अपने घरों से बाहर कोई दिखाई ही नहीं देता अब. अंधेरे में बालकनी के एक कोने में बैठी बर्षा खुले आसमान को ताक रही थी. आज न फोन उस के हाथ में था और न फोन के दूसरी तरफ पार्थ. अभिलाषा की मम्मी के साथ जो कुछ हुआ था उसे सुन कर बर्षा को अपना गम बहुत छोटा लगने लगा था. वह घुटनों के दोनों तरफ बांहें बांधे बैठी हुई थी कि तभी अभिलाषा कमरे से निकल कर आई और उस के बगल में आ कर बैठ गई.

‘‘आंटी ठीक हैं?’’ बर्षा ने पूछा.

‘‘हां,’’ अभिलाषा ने जवाब दिया. अभिलाषा की आंखें अब भी नम थीं और आंखों की किनारी से ऐसा लग रहा था मानो दो बूंदे बस छलकने ही वाली हैं.

‘‘तुम ठीक हो?’’ बर्षा अभिलाषा की ओर देखते हुए पूछ पड़ी.

‘‘नहीं.’’

‘‘हम्म.’’

‘‘और तुम,’’ अभिलाषा ने आसमान की ओर देखते हुए कहा.

‘‘नहीं,’’ बर्षा ने कहा और वह भी उसी आसमान में उसी ओर देखने लगी जिस ओर अभिलाषा की नजरें थीं.

‘‘बर्षा….’’

‘‘हां?’’

‘‘सौरी…एंड…थैंक यू…’’

‘‘कोई बात नहीं.’’

‘‘अगर तुम न होती तो पता नही यह रात कैसे कटती. यह दीवारें काटने को दौड़ती मुझे और मैं घुटघुट कर मर जाती,’’ अभिलाषा बोली.

‘‘जबतक मैं हूं तबतक तुम्हें काटने और मारने का हक सिर्फ मुझे है,’’ बर्षा ने कहा और हलकी सी हंसी हंस दी.

बर्षा की बात सुन अभिलाषा की हंसी भी छूट गई. दोनों अपलक आसमान में चांद को निहार रही थीं. अभिलाषा ने आंखें बंद कर लीं और बर्षा के कांधे पर सिर रख लिया. बर्षा ने अपना सिर अभिलाषा के सिर की तरफ झुका लिया. दोनों की आंखें नम अपनेअपने गम से भरी हुई थीं. बर्षा गुनगुनाने लगी, ‘रात का शौक है….रात की सौंधी सी खामोशी का शौक है….शौक है….’

Hindi Story : सावधान – क्या था पूरा माजरा

Hindi Story : दोपहर का समय था. मैं बरामदे में बैठ कर अखबार पढ़ रहा था. अचानक मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी.

मेरा ध्यान अखबार से हट कर मोबाइल फोन पर गया. मोबाइल फोन उठा कर देखा तो कोई अनजाना नंबर था.

स्विच औन करते ही उधर से आवाज आई, ‘हैलो… सर, क्या आप राकेशजी बोल रहे हैं?’

‘‘जी हां, मैं राकेश बोल रहा हूं?’’ अनजानी आवाज से मेरे नाम के संबोधन से मैं हैरान रह गया.

‘देखिए, मैं आरबीआई, भोपाल से बोल रहा हूं.’

‘‘आरबीआई, भोपाल से?’’ मैं ने हैरानी से पूछा.

‘जी हां, ठीक सुना है आप ने. मैं मैनेजर बोल रहा हूं.’

‘‘ओह सर… कहिए क्या बात है? आप को मेरा नाम और नंबर कहां से मिला?’’ मैं ने उत्सुकतावश पूछा.

‘आप का सवाल ठीक है. देखिए, बैंक मैनेजमैंट हर ग्राहक की पूरी जानकारी रखता है. आप चिंता न करें. आप के फायदे में जरूरी जानकारी देना हमारा फर्ज है.’

‘‘जी फरमाइए, क्या बात है?’’ मैं ने उन से पूछा.

‘जरूरी बात यह है कि क्या आप के पास एटीएम कार्ड है?’

‘‘जी, बिलकुल है,’’ मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी.

‘आप का एटीएम कार्ड तकनीकी गड़बड़ी के चलते ब्लौक हो गया है.’

‘‘कौन से बैंक का एटीएम कार्ड ब्लौक हुआ है आप का?’’

‘आप के पास कितने एटीएम कार्ड हैं?’ बैंक मैनेजर के इस सवाल पर मेरे कान खड़े हो गए. मैं समझ गया कि कोई जालसाज अपना जाल फैला रहा है, फिर भी मैं अनजान बना रहा और बात आगे बढ़ाई, ‘‘सर, मेरे पास 4 बैंकों के एटीएम कार्ड हैं.’’

‘आप का एसबीआई का एटीएम कार्ड ब्लौक हो चुका है.’

‘‘मुझे इस के लिए क्या करना होगा?’’ मैं ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए पूछा.

अब मुझे पूरा यकीन हो गया था कि यह कोई जालसाज है. मेरा दिमाग तेजी से काम करने लगा. एसबीआई के इस एटीएम से मैं एक घंटे पहले रुपए निकाल कर लाया था. मैं जानता था कि इस जालसाज का मकसद क्या है.

उस आदमी ने फोन पर कहा, ‘आप चिंता मत कीजिए, बस आप को इतना करना है कि एटीएम कार्ड के 16 डिजिट का नंबर और पासवर्ड बताना होगा.

फिर आप खाताधारी बैंक से अपना नया एटीएम कार्ड ले सकते हैं. बैंक को कार्ड भिजवाने का इंतजाम हम करेंगे…’

‘‘ठीक है, आप 15 मिनट बाद फिर बात करें. मेरा कार्ड अलमारी में रखा है. निकाल कर नंबर बताता हूं…’’

‘‘क्या बात है दादाजी?’’ मेरा पोता आदित्य, जो लैपटौप पर कोई काम कर था, उस ने हमारी हो रही बातचीत शायद सुन ली थी. वह अपना काम छोड़ मेरे पास आया.

‘‘बेटा, बैंक खाते में सेंध लगाने वाले गिरोह के किसी आदमी से बात हो रही है. तुम अभी शांत रहो. 15 मिनट बाद वह फिर फोन करेगा,’’ मैं ने कहा.

इसी बीच हम दोनों ने उसे सबक सिखाने की योजना बनाई कि उस ठग से क्या कहना है, किस तरीके से कहना है.

ठीक 15 मिनट बाद उसी नंबर से मोबाइल फोन की घंटी बजी. हम सावधान हो गए. एटीएम कार्ड निकाल कर मैं ने अपने पास रख लिया था.

मैं ने मोबाइल उठा कर स्विच औन कर दिया, उधर से आवाज आई, ‘सर, आप ने अपना कार्ड निकाल लिया है?’

‘‘जी हां… मेरे हाथ में है.’’

इसी बीच आदित्य ने औडियो रेकौर्डर औन कर दिया. उधर से आवाज आई, ‘अब आप ऐसा कीजिए, कार्ड का 16 डिजिट का नंबर व पासवर्ड बताइए. मैं नोट करता जाऊंगा…

‘और यह भी बताइए कि आप के इस खाते में जमा रकम कितनी है?’

आदित्य ने 5 उंगलियों का इशारा किया.

‘‘ज्यादा नहीं, बस 5 लाख रुपए हैं,’’ मैं ने बताया.

‘तब तो ठीक है… प्लीज, अब आप अपना कार्ड नंबर व पासवर्ड बता दीजिए. एक हफ्ते में आप का नया एटीएम कार्ड आप के बैंक में आ जाएगा,’ उस आदमी ने संतुष्ट हो कर कहा.

आदित्य ने अब मोबाइल फोन मेरे हाथ से ले लिया और नंबर मनगंढ़त बता दिए. इसी तरह पासवर्ड भी गलत बता दिया.

उस आदमी ने बताए गए नंबर नोट कर लिए.

उधर से आवाज आई, ‘सहयोग के लिए धन्यवाद…’ और फोन स्विच औफ हो गया.

आधा घंटे बाद फिर उसी नंबर से घंटी बजी. हम सावधान हो गए.

स्विच औन करते ही उधर से आवाज आई, ‘हैलो सर, आप ने शायद किसी दूसरे एटीएम कार्ड का नंबर बता दिया है. यह आप के एसबीआई कार्ड का पासवर्ड नहीं है.’

‘‘अरे… साहब, मान गए आप को… आप ने आधा घंटे में ही यह पता लगा लिया कि हम ने जो एटीएम का नंबर और पासवर्ड बताया है, वह गलत है.

‘‘देखो मिस्टर, आप जो भी हों, हम आप की बिरादरी के ही हैं,’’ आदित्य ने तंज कसते हुए कहा.

‘क्या मतलब है आप का…? क्या कहना चाहते हैं आप?’ वह आदमी बौखला कर बोला.

‘‘मतलब यह है कि हम भी वही काम करते हैं, जो आप कर रहे हैं… हैं न हम एक ही बिरादरी के…’’ आदित्य ने शांत लहजे में कहा.

‘यानी कि आप भी… कहां रहते हैं आप?’ उस आदमी की आवाज में अब भी झल्लाहट थी.

‘‘जी… मैं शाजापुर में रहता हूं… कभी मिलिए दोदो बातें हो जाएंगी…

‘‘मैं कार्ड नंबर और पासवर्ड ले कर क्लोन कार्ड बना लेता हूं… आप जो

कर रहे हैं, वह मुझे भी याद है… अगर मिलो तो अपना धंधा पार्टनरशिप में कर लेते हैं.

‘‘अब आप ऐसा कीजिए… मेरे लिए आप अपना समय बरबाद न करें… कोई और बकरा हलाल करने के लिए ढूंढ़ लीजिए…’’

आखिर में आदित्य ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘‘आप के नंबर की औडियो रेकौर्डिंग कर ली गई है. अब आप बताइए कि आगे करना क्या है?’’

इतना सुनते ही उस आदमी ने अपना मोबाइल स्विच औफ कर दिया.

आदित्य और मेरे चेहरे पर जीत की मुसकान तैर गई.

Hindi Story : रीते हाथ – सपनों के पीछे भागती उमा

Hindi Story : अपनी बातों का सिलसिला खत्म कर उमा घर से निकली तो मैं दरवाजा बंद कर अंदर आ गई. आंखों में अतीत और वर्तमान दोनों आकार लेने लगे. मैं सोफे पर चुपचाप बैठ कर अपने ही खयालों में खोई अपनी सहेली के रीते हाथों के बारे में सोचती रही.

क्यों उमा से मेरी दोस्ती मां को बिलकुल पसंद नहीं थी. सुंदर, स्मार्ट, हर काम में आगे, उमा मुझे बहुत अच्छी लगती थी. वह मुझ से एक क्लास आगे थी और रास्ता एक होने के कारण हम अकसर साथ स्कूल आतेजाते थे. तब मैं भरसक इस कोशिश में रहती कि मां को हमारे मिलने का पता न चले, पर मां को सब पता चल ही जाता था.

उमा स्कूल से कालिज पहुंची तो दूसरे ही साल मेरा भी दाखिला उसी कालिज में हो गया. कालिज के उमड़ते सैलाब में तो उमा ही मेरा एकमात्र सहारा थी. यहां उस का प्रभाव स्कूल से भी ज्यादा था. कालिज का कोई भी कार्यक्रम उस के बगैर अधूरा लगता था. नाटक हिंदी का हो या अंगरेजी का उमा का नाम तो होता ही, अभिनय भी वह गजब का कर लेती थी.

लड़कों की एक  लंबी फेहरिस्त थी, जो उमाके दीवाने थे. वह भी तो कैसे बेझिझक उन सब से बात कर लेती थी. बात भी करती और पीठ पीछे उन का मजाक भी उड़ाती. कालिज से लौटते समय एक बार उमा ने मुझे बताया था कि अभी तो ये ग्रेजुएशन ही कर रहे हैं और इन को कुछ बनने में, कमाने में सालों लगेंगे. मैं तो किसी ऐसे युवक से विवाह करूंगी जिस की अच्छी आमदनी हो ताकि मैं आराम से रह सकूं.

इसलिए मैं किसी के प्यार के चक्कर में नहीं पड़ती. मैं उस की दूरदर्शी बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. मुझ में झिझक थी. मैं अपनी किताबी दुनिया से बाहर कुछ नहीं जानती थी और उमा ठीक मेरे विपरीत थी. क्या यही कारण था, जो मुझे उस के व्यक्तित्व की ओर आकर्षित करता था? मन में छिपी एक कसक थी कि काश, मैं भी उस की जैसी बन पाती लेकिन मां क्यों…?

संयोग देखो कि उस की आकांक्षाओं पर जो युवक खरा उतरा वह मेरा ही मुंहबोला भाई विकास था. विकास से हमारा पारिवारिक रिश्ता इतना भर था कि उस के और मेरे पिता कभी साथसाथ पढ़ते थे पर इतने भर से ही विकास ने कभी हम बहनों को भाई की कमी महसूस नहीं होने दी.

अपने घर की एक पार्टी में मैं ने विकास का परिचय उमा से कराया था और यह परिचय दोस्ती का रूप धर धीरेधीरे प्रगाढ़ होता चला गया था. मगर उस के पिता का मापतौल अलग था, उमा की आकांक्षाओं पर विकास भले ही खरा उतरा था. उमा की मां किसी राजघराने से संबंधित थीं और इस बात का गरूर उमा की मां से अधिक उस के पिता को था.

एक साधारण परिवार में वह अपनी बेटी ब्याह दें, यह नामुमकिन था. इसलिए उन्होंने एक खानदानी रईस परिवार में उमा का रिश्ता कर दिया. ऐसी बिंदास लड़की पर भी मांबाप का जोर चलता है, सोच कर मुझे आश्चर्य हुआ पर यही सच था.

उमा के विवाह के 2 महीने बाद ही मेरा भी विवाह हो गया. पहली बार मायके आने पर पता चला कि उमा भी मायके आई हुई है, हमेशा के लिए. ‘लड़का नपुंसक है,’ यही बात उमा ने सब से कही थी. यह सच था अथवा उस ने अपने डिक्टेटर पिता को उन्हीं की शैली में जवाब दिया था, वही जाने.

बहरहाल, पिता अपना दांव लगा कर हार चुके थे. इस बार मां ने दबाव डाला. उमा एक बार फिर दुलहन बनी और इस बार दूल्हा विकास था. प्यार की आखिरकार जीत हुई थी. एक असंभव सी लगने वाली बात संभव हो गई. हम सभी खुश थे. विकास की खुशी हम सब की खुशी थी. बस, मां ही केवल औपचारिकता निभाती थीं उमा से.

साल दर साल बीत रहे थे. अब शादीब्याह जैसे पारिवारिक मिलन के अवसरों पर उमा से मुलाकात हो ही जाती. एकदूसरे की हमराज तो हम पहले से ही थीं, अब और भी करीब हो गई थीं. एक बात सोचती हूं कि मनचाहा पा कर भी व्यक्ति संतुष्ट क्यों नहीं हो पाता? और ऊंचे उड़ने की अंधी चाह औंधेमुंह पटक भी तो सकती है. उमा यही बात समझ नहीं पा रही थी. उसे अपनी महत्त्वा- कांक्षाओं के आगे सब बौने लगने लगे थे.

विकास से उस की शिकायतों की फेहरिस्त हर मुलाकात में पहले से लंबी हो रही थी, वह महत्त्वाकांक्षी नहीं, पार्टियों, क्लबों का शौकीन नहीं, उसे अंगरेजी फिल्में पसंद नहीं, वह उमा के लिए महंगेमहंगे उपहार नहीं लाता…और भी न जाने क्याक्या? मैं भी अब पहले जैसी नादान नहीं रही थी. दुनियादारी सीख चुकी थी और मुझ में इतना आत्मविश्वास आ चुका था कि उमा को अच्छेबुरे की, गलतसही की पहचान करा सकूं.

‘देख उमा, मैं जानती हूं कि विकास बहुत महत्त्वाकांक्षी नहीं है पर तुम तो आराम से रहती हो न, और सब से बड़ी बात, वह तुम्हें कितना प्यार करता है. इस से बड़ा सौभाग्य क्या और कुछ हो सकता है? बताओ, कितनों को मनपसंद साथी मिलता है. फिर भी तुम्हें शिकायतें हैं, जबकि ज्यादातर औरतें एक अजनबी व्यक्ति के साथ तमाम उम्र गुजार देती हैं, बिना गिलेशिकवों के.’

‘मैं यह नहीं कहती कि पुरुष की सब बदसलूकियां चुपचाप सह लो, उस के सब जुल्म बरदाश्त कर लो पर जीवन में समझौते तो सभी को करने पड़ते हैं. यदि औरत घरपरिवार में तो पुरुष भी घर से बाहर दफ्तर में, काम में समझौते करता ही है.

‘मुझे ही देखो. मेरे पति अपने पैसे को दांत से पकड़ कर रखते हैं. अब इस बात पर रोऊं या इस बात पर तसल्ली कर लूं कि फुजूलखर्ची की आदत नहीं है तो दुखतकलीफ में किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाने पड़ेंगे. दूसरे, कंजूस व्यक्ति में बुरी आदत जैसे सिगरेटशराब की लत पड़ने का भय नहीं रहता. अब यह तो जिस नजर से देखो नजारा वैसा ही दिखाई देगा.’

‘समझौता करना, कमियों को नजरअंदाज कर देना, यह सब तुम जैसे कमजोर लोगों का दर्शन है सुधा, सो तुम्हीं करो. यह समझौते मेरे बस के नहीं. मुझे जो एक जीवन मिला है मैं उसे भरपूर जीना चाहती हूं. शादी का मतलब यह तो नहीं कि मैं ने जीवन भर की गुलामी का बांड ही भर दिया है. ठीक है, गलती हो गई मेरे चयन में तो उसे सुधारा भी तो जा सकता है. मैं तुम्हारी तरह परंपरावादी नहीं हो सकती, होना भी नहीं चाहती और विकास को तो मैं सबक सिखा कर रहूंगी. इसी के लिए तो मैं पहले पति को छोड़ आई थी.’

विकास को सबक सिखाने का उमा ने नायाब तरीका भी ढूंढ़ निकाला. उस के काम पर जाते ही वह अपने पुरुष मित्रों से मिलने चल पड़ती. उस का व्यक्तित्व एक मैगनेट की तरह तो था ही जिस के आकर्षण में पुरुष स्वयं ख्ंिचे चले आते थे. क्या अविवाहित और क्या विवाहित, दोनों ही.

उमा अब विकास के स्वाभिमान को, उस के पौरुष को खुलेआम चुनौती दे रही थी. उसे लगता था कि इस से अच्छा तो तलाक ही हो जाता. कम से कम वह चैन से तो जी पाएगा.

उमा की यह इच्छा भी पूरी हो गई. उस का विकास से भी तलाक हो गया और वह अपनी 5 वर्षीय बेटी को भी छोड़ने को तैयार हो गई, क्योंकि इस बीच उस ने नवीन पाठक को पूरी तरह अपने मोहजाल में फंसा कर विवाह का वादा ले लिया था.

मैं उस के नए पति से कभी मिली नहीं थी और न ही मिलने की कोई उत्सुकता थी. बस, इतना जानती थी कि वह किसी उच्च पद पर है और प्राय: ही विदेश जाता रहता है.

कुछ दिन के बाद उमा दूसरे शहर चली गई तो हम सब ने राहत की सांस ली. बस, विकास को देख कर मन दुखी होता था. इस रिश्ते का टूटना विकास के लिए महज एक कागजी काररवाई न थी. उस में अस्वीकृति का बड़ा एहसास जुड़ा था और उस जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह गहरा धक्का था. वैरागी सा हो गया था वह. कम ही किसी से मिलता और काम के बाद का सारा समय वह अपनी बेटी के संग ही बिताता.

लंबे अंतराल के बाद एक बार फिर उमा अचानक मिल गई. इस बीच हम भी अनेक शहर घूम दिल्ली आ कर बस गए थे. हुआ यों कि एक शादी के रिसेप्शन में शामिल होने हम जिस होटल में गए थे, होटल की लौबी में अचानक ही उमा मुझे दिख गई. उस ने भी मुझे देख लिया और फौरन हम एकदूसरे की तरफ लपके.

उमा अब 50 को छू रही थी किंतु उस के साथ जो पुरुष था वह उस से काफी बड़ा लग रहा था. उस समय तो अधिक बातचीत नहीं हो पाई पर उसे देख कर सब पुरानी यादें उमड़ पड़ी थीं. मैं ने फौरन उसे अगले ही दिन घर आने और पूरा दिन संग बिताने के लिए आमंत्रित कर लिया. आश्चर्य, अब भी उस के प्रति मेरा अनुराग बना हुआ था.

उमा समय पर पहुंची. मैं ने खाना तो तैयार कर ही रखा था, काफी भी बना कर थर्मस भर दिया था ताकि इत्मीनान से बैठ कर हम बातचीत कर सकें.

मेरे पहले प्रश्न का उत्तर ही मुझे झटका दे गया, महज बात शुरू करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारे पाठक साहब कैसे मिजाज के हैं? मैं ने कल पहली बार उन्हें देखा.’’

उमा के चेहरे पर एक बुझी हुई और उदास सी मुसकान दिखाई दी और पल भर में वह गायब भी हो गई, कुछ पल खामोश रही वह, पर मेरी उत्सुक निगाहों को देख टुकड़ोंटुकड़ों में बोली, ‘‘वह पाठक नहीं था. हम दोनों अब एकसाथ रहते हैं. दरअसल, पाठक सही आदमी नहीं था. बहुत ऐयाश किस्म का आदमी था वह. तुम सोच नहीं सकतीं कि मैं किस तनाव से गुजरी हूं. जी चाहता है जान दे दूं. एंटी डिपे्रशन की दवाई तो लेती ही हूं.’’

विकास के साथ किए गए उस के पुराने व्यवहार को भूल कर मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर सांत्वना देने का प्रयत्न किया.

‘‘कई औरतों के साथ पाठक के संबंध थे और विवाह के एक साल बाद से ही वह खुलेआम अपने दफ्तर की एक महिला के संग घूमने लगा था. जब जी चाहता वह घर आता, जब चाहता रात भी उसी के संग बिता देता. अपनी ऐसी तौहीन, मेरे बरदाश्त के बाहर थी.’’

‘हमारे किए का फल कई बार कितना स्पष्ट होता है’ कहना चाह कर भी मैं कह नहीं पाई. मुझे उस से हमदर्दी हो रही थी. एक औरत होने के नाते या पुरानी दोस्ती के नाते? जो भी मान लो.

‘‘फिर अब कहां रहती हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘एक फ्लैट पाठक ने विवाह के समय ही मेरे नाम कर दिया था. मैं उसी में रहती हूं. बाकी मैं रीयल एस्टेट का अपना व्यवसाय करती हूं ताकि उस से और किसी सहायता की जरूरत न पड़े.’’

बच्चों की बात हुई तो मैं ने उसे बताया कि मेरे दोनों बच्चे ठीक से सैटल हो चुके हैं. बेटे ने अहमदाबाद से एम.बी.ए. किया है और बेटी ने बंगलौर से. बेटी का तो विवाह भी हो चुका है और अब बेटे के विवाह की सोच रहे हैं.

जानती तो मैं भी थी उस की बिटिया के बारे में पर वह कितना जानती है पता नहीं. यही सोच कर मैं कुछ नहीं बोली. उस ने स्वयं ही बेजान सी आवाज में कहा, ‘‘सुना है, अलग अपनी किसी सहेली के साथ रहती है. कईकई दिनों घर नहीं जाती. मुझ से तो ठीक से बात करने को भी तैयार नहीं. फोन करूं तो एकदो बात का अधूरा सा जवाब दे कर फोन रख देती है,’’ यह कहतेकहते वह रोंआसी हो गई. मैं उस की ओर देखती रही, लेकिन ढूंढ़ नहीं पाई जीवन से भरपूर, अपनी ही शर्तों पर जीने वाली उमा को.

‘‘सिर पर छत तो है पर सोच सकती हो, उस घर में अकेले रहना कितना भयावना हो जाता है? लगता है दीवारें एकसाथ गिर कर मुझे दबोच डालने का मनसूबा बनाती रहती हैं. शाम होते ही घर से निकल पड़ती हूं. कहीं भी, किसी के भी साथ… मैं तुम्हें पुरातनपंथी कहती थी, मजाक उड़ाती थी तुम्हारा. पर तुम ही अधिक समझदार निकलीं, जो अपना घर बनाए रखा, बच्चों को सुरक्षात्मक माहौल दिया. बच्चे तुम्हारे भी तुम से दूर हैं, फिर भी वह तुम्हारे अपने हैं. पूर्णता का एहसास है तुम्हें, कैसा भी हो तुम्हारा पति तुम्हारे साथ है, उस का सुरक्षात्मक कवच है तुम्हारे चारों ओर. जानती हो, मुझे कैसीकैसी बातें सुननी पड़ती हैं. मेरी ही बूआ का दामाद एक दिन मुझ से बोला, कोई बात नहीं यदि पाठक चला गया तो हम तो हैं न.

‘‘उस की बात से अधिक उस के कहने का ढंग, चेहरे का भाव मुझे आज भी परेशान करता है पर चुप हूं. मुंह खोलूंगी तो बूआ और उन की बेटी दोनों को दुख पहुंचेगा. और फिर अपने ही किए की तो सजा पा रही हूं…’’

उमा को अपनी गलतियों का एहसास होने लगा था. ठोकरें खा कर दूसरों के दुखदर्द का खयाल आने लगा था पर अब बहुत देर हो चुकी थी. मैं उस की सहायता तो क्या करती, सांत्वना के शब्द भी नहीं सोच पा रही थी. वही फिर बोली, ‘‘सुधा, घर तो खाली है ही मेरा मन भी एकदम खाली है. लगता है घनी अंधेरी रात है और मैं वीरान सड़क पर अकेली खड़ी हूं… रीते हाथ.

Hindi Story : हैलमैट – सबल सिंह क्यों पहनते थे हैलमेट

Hindi Story : सबल सिंह ने घर से मोटरसाइकिल बाहर निकाली और अपनी पत्नी को आवाज दी, ‘‘जल्दी चलो.’’

उन्हें पड़ोसी को देखने अस्पताल जाना था. वे पड़ोसी जिन से उन के संबंध बहुत अच्छे नहीं थे. कई बार बच्चों को ले कर, कूड़ाकरकट फेंकने को ले कर उन का आपस में झगड़ा हो चुका था.

सबल सिंह अपने नियम से चलते थे. कचरा अपने घर के सामने फेंकते थे. पड़ोसी रामफल का कहना था, ‘या तो कचरा जलाइए या कचरा गाड़ी आती है नगरपालिका की, उस में डालिए.’

‘मैं कचरा गाड़ी का रास्ता देखता रहूं. कभी भी आ जाते हैं. फिर एक मिनट के लिए भी नहीं रुकते,’ सबल सिंह ने कहा था.

‘तो कचरा पेटी में डालिए,’ रामफल ने कहा था.

‘कचरा पेटी घर से एक किलोमीटर दूर है. क्या वहां तक कचरा ले कर जाऊं? यह क्या बात हुई…’

‘तो जला दीजिए.’

‘आप को क्या तकलीफ है? आप मुझ से जलते हैं.’

‘मैं क्यों जलूंगा?’

‘पिछली बार बच्चों के झगड़ने पर

मैं ने आप के बच्चे को डांट दिया था इसलिए…’

‘बच्चे हैं… साथ खेलेंगे तो लड़ेंगे भी और फिर साथ खेलेंगे. आप ने मेरे बच्चे को डांटा, मैं ने तो कुछ नहीं कहा. लेकिन आप के बच्चे को मैं ने डांटा तो आप लड़ने आ गए थे.’

‘मेरे बच्चे को डांटने का हक किसी को नहीं है. उस के मातापिता हैं अभी.’

‘फिर आप ने मेरे बच्चे को क्यों डांटा? उस के मातापिता भी जिंदा हैं.’

‘उसी बात का तो आप बदला लेते रहते हैं. कभी कचरे की आड़ में तो कभी नाली सफाई के नाम पर.’

‘मैं ऐसा आदमी नहीं हूं. सही को सही, गलत को गलत कहता हूं. यह मेरा स्वभाव है.’

‘आप अपना स्वभाव बदलिए. सहीगलत कहने वाले आप कौन होते हैं?’

फिर रामफल कुछ कहते, सबल सिंह उस का जवाब देते. बात से बात निकलती और बहस बढ़ती जाती. बेमतलब का तनाव बढ़ता. मन में खटास आती. रामफल अस्पताल में थे. महल्ले के सभी लोग देखने जा चुके थे.

सबल सिंह की पत्नी ने कहा, ‘‘दूरदूर के लोग मिल कर आ गए हैं. हमारे तो पड़ोसी हैं. हम कोई दुश्मन तो हैं नहीं. पड़ोसियों में थोड़ीबहुत बहस तो होती रहती है. इनसानियत और पड़ोसी धर्म के नाते हमें उन्हें देखने चलना चाहिए.’’

सबल सिंह को बात ठीक लगी. उन्होंने कहा, ‘‘आज शाम को ही चलते हैं.’’ और सबल सिंह ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की. पत्नी बाहर आईं तो उन्होंने कहा, ‘‘आप हैलमैट तो लगा लीजिए.’’

‘‘अभी पुलिस की चैकिंग नहीं चल रही है. तुम बैठो.’’

‘‘हैलमैट पुलिस से बचने के लिए नहीं, बल्कि हमारी हिफाजत के लिए जरूरी है.’’

‘‘पढ़ीलिखी बीवियों का यही तो नुकसान है. उपदेश बहुत देती हैं. तुम बैठो न.’’

रमा मोटरसाइकिल के पीछे बैठ गईं. सबल सिंह ने मोटरसाइकिल की स्पीड बढ़ा दी तो रमा ने कहा, ‘‘धीरे चलिए. मोटरसाइकिल है, हवाईजहाज की तरह मत चलाइए.’’

‘‘मैं इसी तरह चलाता हूं. आप शांति से बैठी रहिए.’’

उन्हें दाएं मुड़ना था. गाड़ी थोड़ी धीमी की और दाईं तरफ घुमा दी, तभी पीछे से कोई जोर से चीखा. चीख के साथ मोटरसाइकिल के ब्रेक की आवाज आई. पीछे वाले की मोटरसाइकिल सबल सिंह की मोटरसाइकिल से टकरातेटकराते बची थी.

वह आदमी चीखा, ‘‘मुड़ते समय इंडीकेटर नहीं दे सकते?’’

सबल सिंह भी चीखे, ‘‘शहर में इतनी तेज गाड़ी क्यों चलाते हो कि कंट्रोल न हो सके?’’

‘‘गलती तुम्हारी थी, तुम्हें इंडीकेटर देना चाहिए,’’ वह आदमी बोला.

‘‘गलती तुम्हारी है, तुम्हें धीरे चलना चाहिए.’’

पीछे वाली मोटरसाइकिल पर 3 लोग बैठे हुए थे.

सबल सिंह ने कहा, ‘‘एक मोटरसाइकिल पर 3 सवारी करना गैरकानूनी है.’’

वह आदमी थोड़ा डर गया. उसे अपनी गलती का अहसास हुआ. वह बिना कुछ बोले आगे निकल गया.

पत्नी रमा ने कहा, ‘‘दूसरों की गलती तो आप तुरंत पकड़ लेते हैं और अपनी गलती का क्या? आप भी तो स्पीड में चल रहे थे.’’

सबल सिंह ने कहा, ‘‘ऐसा करना पड़ता है. सामने वाले की गलती को निकालना जरूरी है, नहीं तो वह चढ़ बैठता हमारे ऊपर.’’

सबल सिंह ने मोटरसाइकिल की स्पीड को फिर बढ़ा दिया. सामने चौक पर उन्होंने देखा कि पुलिस की गाड़ी चैकिंग कर रही थी.

उन्होंने मोटरसाइकिल धीमी की और वापस मोड़ दी.

‘‘क्या हुआ?’’ रमा ने पूछा.

‘‘सामने चैकिंग चल रही है. दूसरे रास्ते से चलना होगा.’’

‘‘आप के पास गाड़ी के कागजात तो हैं.’’

‘‘हां हैं, लेकिन तुम इन पुलिस वालों को नहीं जानतीं. न जाने किस बात का चालान काट दें. इन का तो काम ही है. गाड़ी अपनी, लाइसैंस भी है, फिर भी हमें ही चोरों की तरह छिप कर, रास्ता बदल कर निकलना पड़ता है. ऐसा है कानून हमारे देश का,’’ कहते हुए सबल सिंह ने बाइक मोड़ी और दूसरे रास्ते की ओर घुमा दी.

‘‘अगर इस रास्ते के किसी चौक पर पुलिस वाले चैकिंग करते मिल गए तब क्या करोगे? कोई तीसरा रास्ता भी?है?’’ पत्नी रमा ने पूछा.

सबल सिंह चुप रहे. उन्हें आगे गाड़ी रोकनी पड़ी. सुनसान रास्ता था. सामने कुछ लड़के खड़े थे, पूरा रास्ता रोके हुए.

‘‘पुलिस से बचोगे तो गुंडों में फंसोगे. जो कुछ पास में है सब निकाल कर रख दो, नहीं तो लाश मिलेगी दोनों की,’’ कहते हुए एक मजबूत कदकाठी के मवालीटाइप आदमी ने चाकू निकाल कर सबल सिंह पर तान दिया. बाकी मवालियों ने सबल सिंह की घड़ी, मोबाइल फोन, पर्स और चाकूधारी ने रमा का मंगलसूत्र और हाथ में पहनी सोने की अंगूठी उतार ली.

‘‘चलो, भागो यहां से. पुलिस में शिकायत की तो खैर नहीं तुम्हारी,’’ चाकूधारी मवाली ने कहा.

रमा गुस्से में चीख पड़ीं, ‘‘चालान से बचने के चक्कर में लाख रुपए का सामान चला गया.’’

‘‘शुक्र है जान बच गई और मोटरसाइकिल भी. चलो, निकलते हैं. अस्पताल से वापसी पर थाने में रिपोर्ट दर्ज करेंगे,’’ सबल सिंह ने कहा.

किसी तरह वे अस्पताल पहुंचे. सबल सिंह अब कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे. सो, उन्होंने मोटरसाइकिल अस्पताल के स्टैंड पर खड़ी कर दी.

अस्पताल में रामफल से मिले. हालचाल पूछने पर रामफल ने बताया कि उन्हें फर्स्ट स्टेज का कैंसर है.

‘‘फालतू के शौक से खर्चा भी हो और बीमारी भी. अब तो तंबाकू, सिगरेट बंद कर दो,’’ सबल सिंह ने यहां भी अपना ज्ञान बघारा. लेकिन पीडि़त रामफल ने इस का बुरा नहीं माना और कहा, ‘‘मैं तो शुरुआती स्टेज पर हूं.

2-4 लाख रुपए का खर्चा कर के बच भी जाऊंगा शायद. मैं ने तो तोबा कर ली. तुम भी बंद कर दो शराब पीना.’’

‘‘मैं कौन सी रोज पीता हूं?’’ सबल सिंह ने कहा.

‘‘जहर तो थोड़ा भी बहुत होता है,’’ रामफल ने कहा.

रामफल और सबल सिंह यहां भी बहस करने लगे. पत्नी रमा ने इशारा किया, तब शांत हुए. इस के बाद

वे पुलिस चौकी गए. रिपोर्ट लिखाई. हवलदार ने सब से पहला सवाल पूछा, ‘‘पत्नी के साथ उस सुनसान रास्ते से गए ही क्यों थे?’’

झूठासच्चा जवाब दे कर वे वापस लौटे. इस तरह दिनदहाड़े लुटने से उन्हें खुद पर गुस्सा आ रहा था. इस गुस्से में मोटरसाइकिल की रफ्तार बढ़ती गई. पत्नी रमा उन्हें गाड़ी धीरे चलाने के लिए कहती रहीं, लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया. वे बस यही सोच रहे थे कि अब पत्नी के लिए मंगलसूत्र, अंगूठी फिर से बनवानी पड़ेगी. अगर हैलमैट लगा लेते तो क्या चला जाता? थोड़े से बचने के चक्कर में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा.

हैलमैट रखा तो था घर पर. कम से कम परिवार के साथ चलते समय तो हिफाजत का ध्यान रखना चाहिए. पत्नी क्या सोच रही होगी. घर में लोग अलग डांटफटकार करेंगे. बच्चे भी डांटेंगे और मातापिता भी.

तभी सामने से एक मोटरसाइकिल पर 3 लड़के तेज रफ्तार में आ रहे थे. सबल सिंह ने तेजी से हौर्न बजाया. सामने वाला संभल तो गया लेकिन फिर भी बहुत संभालने पर भी हलके से दोनों मोटरसाइकिल टकराईं. थोड़ा सा बैलैंस बिगड़ा लेकिन लड़के ने मोटरसाइकिल संभाल ली और वे भाग निकले.

लेकिन सबल सिंह नहीं संभल पाए. उन की मोटरसाइकिल गिरी. काफी दूर तक घिसटी. पत्नी की चीख सुनी उन्होंने. वे गाड़ी के नीचे दबे पड़े थे. पत्नी उन से थोड़ी दूरी पर बेहोशी की हालत में पड़ी थी.

आतेजाते लोगों में से कुछ उन्हें शराबी, तेज स्पीड से चलने की कहकर निकल रहे थे. कुछ लोगों ने अपना मोबाइल फोन निकाल कर वीडियो बनानी शुरू कर दी. धीरेधीरे भीड़ इकट्ठी हो गई.

सबल सिंह को बहुत दर्द हो रहा था. वे सोच रहे थे, ये कैसे लोग हैं जो घायल लोगों की मदद करने के बजाय मोबाइल फोन से फोटो खींच रहे हैं. वीडियो बना रहे हैं. टक्कर मारने वाले तो भाग निकले. क्या मैं ने भी किसी घायल के साथ ऐसा बरताव किया था. हां, किया था.

वे मदद की गुहार लगा रहे थे. भीड़ इस बात पर टीकाटिप्पणी कर रही थी कि गलती किस की है. इन की या उन लड़कों की. समय खराब होता है तो कुछ भी हो सकता है. पुलिस को खबर की जाए या एंबुलैंस को. पता नहीं, औरत जिंदा भी है या मर गई. पुलिस के झंझट में कौन पड़े? इन्हें भी देख कर चलना चाहिए.

वीडियो अपलोड कर के ह्वाट्सऐप, फेसबुक पर भेज दिए गए थे. सबल सिंह को अपने से ज्यादा लोगों की भीड़ कमजोर नजर आ रही थी.

तभी भीड़ को चीरते हुए एक आदमी आया. उस ने भीड़ को डांटते हुए कहा, ‘‘शर्म नहीं आती आप लोगों को. घायलों की मदद करने की जगह तमाशा बना रखा है.’’

फिर उस आदमी ने अपने साथियों को पुकारा. सब ने मिल कर सबल सिंह को मोटरसाइकिल से निकाला. उन की बेहोश पत्नी को अपनी गाड़ी में लिटाया और अस्पताल चलने के लिए कहा.

सबल सिंह के हाथपैर में मामूली चोट लगी थी. पत्नी को होश आ चुका था. उन की कमर में चोट लगी थी.

डाक्टर ने कहा, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं है. सब ठीक है. अच्छा है,

सिर में चोट नहीं लगी, वरना बचना मुश्किल था.’’

सबल सिंह सोच रहे थे कि काश, उन्होंने हैलमैट लगाया होता तो ये सारे झंझट ही नहीं होते.

Hindi Story : दूसरी भूल – क्या थी अनीता की भूल

Hindi Story : अनीता बाजार से कुछ घरेलू चीजें खरीद कर टैंपू में बैठी हुई घर की ओर आ रही थी. एक जगह पर टैंपू रुका. उस टैंपू में से 4 सवारियां उतरीं और एक सवारी सामने वाली सीट पर आ कर बैठ गई. जैसे ही अनीता की नजर उस सवारी पर पड़ी, तो वह एकदम चौंक गई और उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

इस से पहले कि अनीता कुछ कहती, सामने बैठा हुआ नौजवान, जिस का नाम मनोज था, ने उस की ओर देखते हुए कहा, ‘‘अरे अनीता, तुम?’’

‘‘हां मैं,’’ अनीता ने बड़े ही बेमन से जवाब दिया.

‘‘तुम कैसी हो? आज हम काफी दिन बाद मिल रहे हैं,’’ मनोज के चेहरे पर खुशी तैर रही थी.

‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘मुझे पता चला था कि यहां इस शहर में तुम्हारी शादी हुई है. जान सकता हूं कि परिवार में कौनकौन हैं?’’

‘‘मेरे पति, 2 बेटियां और एक बेटा,’’ अनीता बोली.

‘‘तुम्हारे पति क्या करते हैं?’’

‘‘कार मेकैनिक हैं.’’

‘‘क्या नाम है?’’

‘‘नरेंद्र कुमार’’

‘‘मैं यहां अपनी कंपनी के काम से आया था. अब काम हो चुका है. रात की ट्रेन से वापस चला जाऊंगा,’’ मनोज ने अनीता की ओर देखते हुए कहा, ‘‘घर का पता नहीं बताओगी?’’

‘‘क्या करोगे पता ले कर?’’ अनीता कुछ सोचते हुए बोली.

‘‘कभी तुम से मिलने आ जाऊंगा.’’

‘‘क्या करोगे मिल कर? देखो मनोज, अब मेरी शादी हो चुकी है और मुझे उम्मीद है कि तुम ने भी शादी कर ली होगी. तुम्हारे घर में भी पत्नी व बच्चे होंगे.’’

‘‘हां, पत्नी और 2 बेटे हैं. तुम मुझे पता बता दो. वैसे, तुम्हारे घर आने का मेरा कोई हक तो नहीं है, पर एक पुराने प्रेमी नहीं, बल्कि एक दोस्त के रूप में आ जाऊंगा किसी दिन.’’

‘‘शिव मंदिर के सामने, जवाहर नगर,’’ अनीता ने कहा.

कुछ देर बाद टैंपू रुका. अनीता टैंपू से उतरने लगी.

‘‘अनीता, अब तो रात को मैं वापस आगरा जा रहा हूं, फिर किसी दिन आऊंगा.’’

अनीता ने कोई जवाब नहीं दिया. घर पहुंच कर उस ने देखा कि उस की बड़ी बेटी कल्पना, छोटी बेटी अल्पना और बेटा कमल कमरे में बैठे हुए स्कूल का काम कर रहे थे.

अनीता ने कल्पना से कहा, ‘‘बेटी, मैं जरा आराम कर रही हूं. सिर में तेज दर्द?है.’’

‘‘मम्मी, आप को डिस्प्रिन की दवा या चाय दूं?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘नहीं बेटी, कुछ नहीं,’’ अनीता ने कहा और दूसरे कमरे में जा कर लेट गई.

अनीता को तकरीबन 11 साल पहले की बातें याद आने लगीं. जब वह 12वीं जमात में पढ़ रही थी. कालेज से छुट्टी होने पर वह एक नौजवान को अपने इंतजार में पाती थी. वह मनोज ही था. उन दोनों का प्यार बढ़ने लगा. अनीता जान चुकी थी कि मनोज किसी प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर रहा है.

मनोज के पिताजी का अपना कारोबार था और अनीता के पिताजी का भी. वे दोनों शादी करना चाहते?थे, पर अनीता के पापा को यह रिश्ता बिलकुल मंजूर नहीं था.

लिहाजा, अनीता और मनोज ने घर से भागने की ठान ली. घर से 50 हजार रुपए नकद व कुछ जेवर ले कर अनीता मनोज के साथ जयपुर जाने वाली ट्रेन में बैठ गई थी.

जयपुर पहुंच कर वे 8-10 दिन होटल में रहे. पता नहीं, पुलिस को कैसे पता चल गया और उन दोनों को पकड़ लिया गया. अनीता के पापा को आगरा से बुलाया गया. मनोज को पुलिस ने नहीं छोड़ा. नाबालिग लड़की को भगाने के अपराध में जेल भेज दिया गया.

पापा को अनीता से बहुत नफरत हो गई थी,क्योंकि उस ने कहना नहीं माना था.अनीता ने आगे पढ़ाई करने को कहा था, पर पापा ने मना कर दिया था और उस की शादी करने की ठान ली थी. उस के लिए रिश्ते ढूंढ़े जाने लगे.

सालभर इधरउधर धक्के खाने के बाद पापा को एक रिश्ता मिल ही गया था. विधुर नरेंद्र की उम्र 35 साल थी. उस की पत्नी की एक हादसे में मौत हो चुकी थी. उस की2 बेटियां थीं. एक 5 साल की और दूसरी 3 साल की.

नरेंद्र एक कार मेकैनिक था. उस की अपनी वर्कशौपथी. पापा ने नरेंद्र से जब शादी की बात की, तो उसे सब सच बता दिया था. नरेंद्र ने सब जान कर भी मना नहीं किया था.अनीता शादी कर के नरेंद्र के घर आ गई थी. अब वह 2 बेटियों की मां बन गई थी.

एक दिन नरेंद्र ने कहा था, ‘देखो अनीता, मुझे तुम्हारी पिछली जिंदगी से कोई मतलब नहीं. तुम भी वह सब भुला दो. इस घर में आने का मतलब है कि अब तुम्हें एक नई जिंदगी शुरू करनी है. अब तुम अल्पना और कल्पना की मम्मी हो… तुम्हें इन दोनों को पालना है.’

‘जी हां, मैं ऐसा ही करूंगी. अब कल्पना और अल्पना आप की ही नहीं, मेरी भी बेटियांहैं,’ अनीता ने कहा था.एक साल बाद अनीता ने एक बेटे को जन्म दिया था. बेटा पा कर नरेंद्र बहुत खुश हुआ था. बेटे का नाम कमल रखा गया था.

अनीता नरेंद्र को पति के रूप में पा कर खुश थी और उस ने भी कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था. पापामम्मी भी अपना गुस्सा भूल कर अब उस से मिलने आने लगे थे.

आज दोपहर अनीता की अचानक मनोज से मुलाकात हो गई. उसे मनोज को घर का पता नहीं देना चाहिए था. उस के दिल में एक अनजाना सा डर बैठने लगा. वह आंखें बंद किए चुपचाप लेटी रही.

अगले दिन सुबह के तकरीबन 11 बजे अनीता रसोई में खाना तैयार कर रही थी. कालबेल बज उठी. उस ने दरवाजा खोला, तो सामने मनोज खड़ा था.

‘‘तुम…’’ अनीता के मुंह से अचानक ही निकला,’’ तुम तो कह रहे थे कि मैं रात की गाड़ी से आगरा जा रहा हूं.’’

‘‘अनीता, मुझे रात की गाड़ी से ही आगरा जाना था, पर टैंपू में तुम से मिलने के बाद मेरा दिल दोबारा मिलने को बेचैन हो उठा. होटल में रातभर नींद नहीं आई. तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा. तुम नहीं जानती अनीता कि मैं आज भी तुम को कितना चाहता हूं,’’ मनोज ने कहा.

अनीता चुपचाप खड़ी रही. उस ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘अनीता, अंदर आने के लिए नहीं कहोगी क्या? मैं तुम से केवल 10 मिनट बातें करना चाहता हूं.’’

‘‘आओ,’’ न चाहते हुए भी अनीता के मुंह से निकल गया.

कमरे में सोफे पर बैठते हुए मनोज ने इधरउधर देखते हुए पूछा, ‘‘कोई दिखाई नहीं दे रहा है… सभी कहीं गए हैं क्या?’’

‘‘बच्चे स्कूल गए हैं और नरेंद्र वर्कशौप गए हैं,’’ अनीता बोली.

तभी रसोई से गैस पर रखे कुकर से सीटी की आवाज सुनाई दी.

‘‘जो कहना है, जल्दी कहो. मुझे खाना बनाना है.’’

‘‘अनीता, तुम अब पहले से भी ज्यादा खूबसूरत हो गई हो. दिल करताहै कि तुम्हें देखता ही रहूं. क्या तुम्हें जयपुर के होटल के उस कमरे की याद आती है, जहां हम ने रातें गुजारी थीं?’’

‘‘क्या यही कहने के लिए तुम यहां आए हो?’’

‘‘अनीता, मैं तुम्हारे पति को सब बताना चाहता हूं.’’

‘‘तुम उन्हें क्या बताओगे?’’ अनीता ने घबरा कर पूछा.

‘‘मैं नरेंद्र से कहूंगा कि जयपुर में मैं अकेला ही नहीं था. मेरे 2 दोस्त और भी थे, जिन के साथ अनीता ने खूब मस्ती की थी.’’

‘‘झूठ, बिलकुल झूठ,’’ अनीता गुस्से से चीखी.

‘‘यह झूठ है, पर इसे मैं और तुम ही तो जानते हैं. तुम्हारा पति तो सुनते ही एकदम यकीन कर लेगा,’’ मनोज ने अनीता की ओर देखते हुए कहा.

अनीता ने हाथ जोड़ कर पूछा, ‘‘तुम आखिर चाहते क्या हो?’’

‘‘मैं चाहता हूं कि आज दोपहर बाद तुम मेरे होटल के कमरे में आ जाओ.’’

‘‘नहीं मनोज, मैं नहीं आऊंगी. अब मैं अपनी जिंदगी में जहर नहीं घोलूंगी. नरेंद्र मुझ पर बहुत विश्वास करते हैं.

मैं उन से विश्वासघात नहीं करूंगी,’’ अनीता ने मनोज से घूरते हुए कहा.

‘‘तो ठीक है अनीता, मैं नरेंद्र से मिलने जा रहा हूं वर्कशौप पर,’’ मनोज ने कहा.

‘‘वर्कशौप जाने की जरूरत नहीं है. मैं यहीं आ गया हूं,’’ नरेंद्र की आवाज सुनाई पड़ी.

यह देख अनीता और मनोज बुरी तरह चौंक उठे. अनीता के चेहरे का रंग एकदम पीला पड़ गया.

‘‘यहां क्यों आया है?’’ नरेंद्र ने मनोज को घूरते हुए पूछा, ‘‘तुझे इस घर का पता किस ने दिया?’’

‘‘अनीता ने. कल यह मुझे बाजार में मिली थी,’’ मनोज बोला.अनीता ने घबराते हुए नरेंद्र को पूरी बात बता दी.

‘‘अबे, तुझे अनीता ने पता क्या इसलिए दिया था कि तू घर आए और उसे ब्लैकमेल करे. मैं ने तुम दोनों की बातें सुन ली हैं. अब तू यहां से दफा हो जा. फिर कभी इस घर में आने की कोशिश की, तो पुलिस के हवाले कर दूंगा,’’ नरेंद्र ने मनोज की ओर नफरत से देखते हुए गुस्साई आवाज में कहा. मनोज चुपचाप घर से निकल गया.

अनीता को रुलाई आ गई. वह सुबकते हुए बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो. मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई, जो मैं ने मनोज को घर का पता दे दिया?था.’’

‘‘हां अनीता, यह तुम्हारी जिंदगी की दूसरी भूल है, जो तुम ने अपने दुश्मन को घर में आने दिया. मनोज तुम्हारा प्रेमी नहीं, बल्कि दुश्मन था. सच्चे प्रेमी कभी भी अपनी प्रेमिका को घर से रुपएगहने वगैरह ले कर भागने को नहीं कहते.’’

अनीता की आंखों से आंसू बहते रहे. नरेंद्र ने उस के चेहरे से आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘अनीता, मुझे तुम पर बहुत विश्वास था, पर आज की बातें सुन कर यह विश्वास और बढ़ गया है. वैसे तो मनोज अब यहां नहीं आएगा और अगर आ भी गया, तो मुझे फोन कर देना. मैं उसे पुलिस के हवाले कर दूंगा.’’

नरेंद्र की यह बात सुन कर अनीता के मुंह से केवल इतना ही निकला, ‘‘आप कितने अच्छे हैं…’’

Hindi Story : पत्नी पुराण – ऐसी होती हैं हमारे यहां की पत्नियां

Hindi Story : हमारे देश में कई तरह की पत्नियां पाई जाती हैं. जैसे जरूरत से ज्यादा बोलने वाली पत्नी, पति पर हमेशा शक करने वाली पत्नी, पूरे महल्ले के हर घर के अंदर की खबर रखने वाली पत्नी और पति के हर काम में कोई न कोई कमी निकालने वाली पत्नी. आज हम पति के हर काम में कमी निकालने वाली पत्नी पर रिसर्च करेंगे.

इस तरह की पत्नियां हर देश में सभी जगह मिलती हैं. ऐसी पत्नियों में यह खास गुण होता है कि उन्हें अपने पतियों द्वारा किए गए हर काम में कमी पहले ही दिख जाती है. उन के पास जैसे कोई दिव्यदृष्टि होती है. घर में घुसते ही उन्हें पता चल जाता है कि पति ने कौनकौन से काम बिगाड़े हैं. पति द्वारा किए गए अच्छे कामों पर पत्नी की नजर नहीं पड़ पाती है.

एक बार पत्नी ने मुझ से कहा, ‘‘आप बैंक से लौटते समय सब्जी मंडी से बढि़या सी लौकी ले कर आइएगा. लौकी के कोफ्ते बनाने हैं.’’ मैं बैंक से थकाहारा पत्नी के आदेश को मानते हुए सब्जी मंडी में अच्छी

तरह देखभाल कर ताजा लौकी ले कर घर आया. उम्मीद थी कि बढि़या लौकी देख कर पत्नी खुश हो जाएगी. मगर अफसोस, ऐसा नहीं हुआ.

पत्नी रसोईघर से आगबबूला हो कर बाहर आई, क्योंकि लौकी अंदर से खराब थी. ‘‘आप को तो सब्जी खरीदने की भी अक्ल नहीं है,’’ पत्नी का गुस्सा सातवें आसमान पर था.

अब आप ही बताइए कि जब लौकी देखने में ताजा हो, फिर उस के अंदर का हाल कैसे कोई देख सकता है. सब्जी मंडी अल्ट्रासाउंड या एक्सरे मशीन ले कर तो कोई जाता नहीं है. यह बात पत्नी को कौन समझाए. मेरे एक दोस्त हैं प्रदीपजी. वे संस्कृत के विद्वान हैं. उन्होंने भारतीय औरतों पर रिसर्च कर रखी है. मगर वे भी औरतों के मन की बात को समझने में नाकाम रहे हैं. उन्होंने अपना दुखड़ा इस तरह सुनाया.

प्रदीपजी अपने दफ्तर के एक काम से लखनऊ आए थे. एक दिन उन्हें पत्नी प्रेम जागा. उन्होंने पत्नी के लिए साड़ी खरीदने का विचार किया. सोचा कि पत्नी खुश हो जाएगी. प्यार की बरसात होगी. वे लखनऊ के अमीनाबाद बाजार गए. पूरे बाजार में घूम कर अच्छी सी साड़ी खरीदी. घर आते ही साड़ी का डब्बा पत्नी को दिया.

पत्नी ने भी खुशीखुशी डब्बा खोला. लेकिन एक पल में ही पत्नी के चेहरे से खुशी गायब हो गई. वे प्रदीपजी से गुस्से में बोलीं, ‘‘क्या आप को पता नहीं है कि इस रंग की 3 साडि़यां मेरे पास पहले से ही हैं, फिर उसी रंग की साड़ी उठा लाए. मुझे नहीं चाहिए यह साड़ी,’’ कह कर वे साड़ी प्रदीपजी पर फेंक कर चली गईं. बेचारे प्रदीपजी आसमान से जैसे धरती पर आ गिरे. अपनी हर गलती का ठीकरा भी पति पर फोड़ना हर पत्नी का जन्मसिद्ध अधिकार होता है. हमारे एक और दोस्त प्रकाशजी हैं. एक दिन वे मिले, तो बड़े उदास लग रहे थे. पूछने पर उन्होंने बताया, ‘‘मेरी पत्नी की आदत हो गई है कि वह अपनी हर गलती का कुसूर मेरे सिर मढ़ देती है. आज सुबह से मैं भूखा हूं. पत्नी ने गुस्से में खाना नहीं बनाया.’’

मैं ने वजह पूछी, तो वे बोले, ‘‘खुद चूल्हे पर दूध उबलने के लिए चढ़ा कर पड़ोसन से गपें मारती रही. दूध जल कर राख हो गया, तो सारा कुसूर मेरे ऊपर लगा दिया कि आप चूल्हे से दूध उतार नहीं सकते थे. बताइए भाई साहब, मेरी क्या गलती है?’’ मैं बेबस था. क्या जवाब देता. मैं खुद दूध का जला था.

महल्ले की सारी पत्नियां जब एकसाथ अपनेअपने पतियों की कमियों का पिटारा खोलती हैं, तो गलती से उन के पति उन की बातें सुन लें, तो वे यकीनन कोमा में चले जाएंगे.

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