जैसा भी था, था तो : दास्तान सुनंदा की

एकएककर लगभग सभी मेहमान जा चुके थे. बस सुनंदा की रमा मामी रुकी थीं. वे भी कल सुबह चली ही जाएंगी. रमा मामी से उसे शुरू से विशेष स्नेह रहा है. मामा की मृत्यु के बाद भी रमा ने सब से वैसा ही स्नेह और सम्मानभरा रिश्ता रखा है जैसा मामा के सामने था. मामी अपने विवाहित बेटे के साथ सहारनपुर में रहती हैं. अब भी रमा मामी ने ही आलोक की मृत्यु के समाचार सुनने से ले कर आज सब मेहमानों के जाने तक सब संभाल रखा था.

आलोक के भाईबहन आधुनिक व्यस्त जीवन की आपाधापी में से समय निकाल कर जितनी देर भी आ पाए, सुनंदा को उन से कोई गिलाशिकवा है भी नहीं. आलोक का जाना तय था. यह तो 1 महीने से उस के हौस्पिटल में रहने से समझ तो आ ही रहा था पर जैसा कि इंसान मृत्यु को चुनौती देने के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति लगा देता है पर जीत थोड़े ही कभी पाता है, वैसे ही सुनंदा ने रातदिन आलोक के स्वस्थ होने की आशा में पलपल बिता दिया था.

अंतिम दिनों में ही पता चला था कि आलोक कैंसर की चपेट में है और लास्ट स्टेज है. उन के दोनों बच्चे शाश्वत और सिद्धि मां का मुंह ही देखते रहते थे. समझ गए थे कि मां ऐसे ही परेशान नहीं हैं, इस बार कुछ होने ही वाला है और हो भी तो गया था.

आलोक को गए 2 सप्ताह हो चुके हैं. सुनंदा ने बच्चों के कमरे में झांका. रात के 11 बज रहे थे. रमा ने दोनों बच्चों को खाना खिला कर सुला दिया था.

रमा ने कहा था, ‘‘बच्चो, कल से स्कूल जाना… पढ़ने में मन लगाना. मम्मी का ध्यान भी रखना और मेहनत करना. सुनंदा अपनी परेशानी जल्दी नहीं कहेगी पर तुम लोग अब उस का ध्यान जरूर रखना.’’

उन के स्कूल के सामान की व्यवस्था बच्चों के साथ मिल कर रमा ने देख ली थी.

रमा जब सुनंदा के कमरे में आई तो देखा, सुनंदा आरामकुरसी पर आंखें बंद किए लेटी सी थी. आहट पर सुनंदा ने आंखें खोलीं. रमा वहीं उस के पास बैठते हुए कहने लगी, ‘‘सुनंदा,

कल सुबह मैं चली जाऊंगी, तुम से कुछ बात करनी है.’’

‘‘हां, मामी, बोलो न.’’

‘‘तुम ने आलोक के रहते हुए भी क्याक्या झेला है, मुझ से कुछ भी छिपा नहीं है, सब जानती हूं. यह तो अच्छा रहा कि तुम अपने पैरों पर खड़ी थी. आज प्रिंसिपल हो, अपनी और बच्चों की, घर की जिम्मेदारी पहले भी तुम ही उठा रही थी, अब भी तुम ही उठाओगी, पर जैसा भी था, आदमी तो था,’’ कहतेकहते रमा की आवाज में नमी आ गई, गला भी रूंध सा गया.

सुनंदा ने बस गरदन हिलाई, हां में या न में, उसे खुद ही पता नहीं चला.

मामी ने उस के सिर पर हाथ फेर कहा, ‘‘चलो, अब सो जाओ. कल स्कूल जाओगी?’’

‘‘हां, आप के जाने के बाद चली

जाऊंगी, बहुत काम इकट्ठा हो गया होगा,

आप आती रहना.’’

‘‘हां, जरूर.’’

रमा के जाने के बाद सुनंदा उठ कर बैड पर लेट गई, ‘आदमी तो था’ भाभी के इन शब्दों पर अंदर से मन कहीं अटक गया. आंखें तो बंद थीं पर मन ही मन अतीत की परत दर परत खुलने लगी.

सुनंदा को अपने विवाह के पिछले 20 बरस आंखों के आगे इतना स्पष्ट दिखे कि उन्हें महसूस करते ही उस ने अपने माथे पर पसीना सा महसूस किया.

विवाह के कुछ दिनों बाद ही उस ने अनुभव कर लिया था कि मातापिता ने बेटी को बोझ मानते हुए जितना जल्दी यह बोझ कैसे भी उतर जाए की चाह में एक निहायत कामचोर व्यक्ति के पल्ले उसे बांध दिया है. सुनंदा ने गर्ल्स स्कूल में नौकरी अपनी योग्यता के दम पर हासिल की थी और आज वह प्रिंसिपल के पद तक पहुंच गई है. दोनों बच्चों के जन्म के बाद तो वही जैसे पुरुष थी घर के लिए. आलोक उस के समझाने पर अगर कोई काम शुरू भी करता तो जल्द ही काम में कमियां निकाल उसे छोड़ देता. उसे घर में रहना, सुनंदा की तनख्वाह की पाईपाई का हिसाब रखना ही आता था.

आलोक को गांव में रह रहे अपने मातापिता से न कोई लगाव था, न भाईबहन से, क्योंकि वे सब उसे कुछ काम कर मेहनत करने की सलाह देते थे और वह उन से दूर ही रहता था. सब उसे कामकाजी पत्नी के सुपुर्द कर जैसे निश्चिंत हो गए थे. कुछ साल पहले आलोक के मातापिता भी नहीं रहे थे. सुनंदा का भी अब कोई अपना नहीं था.

सुनंदा कई बार सोचती कि इस से अच्छा तो वह कहीं अविवाहित ही जी लेती पर जब बच्चों का मुंह देखती तो इस विचार को जल्द ही दिल से दूर कर देती.

आलोक ने कई बार सुनंदा की जमापूंजी से, लोन से कई बार काम शुरू भी किया जिस में हमेशा नुकसान ही हुआ और अब सुनंदा की रहीसही जमापूंजी भी आलोक के इलाज में खत्म हो चुकी थी. घर देखना है, बच्चों का कैरियर बनाना है, कल से स्कूल जा कर पैडिंग पड़ा काम देखना है. आलोक था तब भी सब काम वही देखती थी, अब भी उसे ही देखने हैं, नया क्या है? सोचतेसोचते उस की आंख लग ही गई. काफी लंबे समय से थका तनमन भी तो आराम मांग रहा था.

अगले दिन रमा चली गई. सुनंदा ने बच्चों को स्कूल भेजते हुए बहुत कुछ

समझाया. बच्चे समझदार थे. सुनंदा भी स्कूल के लिए तैयार होने लगी. शामली की इस कालोनी की दूरी स्कूल से पैदल 20 मिनट की ही थी. आलोक उसे स्कूटर पर छोड़ आता था. आज

घर की गैलरी में खड़े स्कूटर को देख कर सुनंदा के कदम तो ठिठके पर वह रुकी नहीं, पैदल ही बढ़ गई. रिकशा लेने का मन ही नहीं हुआ. सोचा, थोड़ा चलना हो जाएगा. इतने दिन घर में शोक प्रकट करने आनेजाने वालों के साथ बैठी ही रही थी. औफिस में भी जा कर बैठना ही है. आज देर भी होगी आने में. बच्चों के लिए रमा ने याद से घर की चाबियां भी अलग से बनवा दी थीं.

स्कूल पहुंच कर वह अपने औफिस में बैठी ही थी कि 1-1 कर के टीचर्स, बाकी सहयोगी उस से मिलने आते रहे. सब शोक प्रकट करने घर आ चुके थे पर आज भी सब उस के पास आते रहे. वह गंभीर ही थी, फिर कई काम देखे. परीक्षा आने वाली थी. वाइस प्रिंसिपल गीता को बुला कर उस से काफी विचारविमर्श करती रही.

मन बीचबीच में बच्चों की तरफ भाग रहा था. घर पहुंच गए होंगे? रखा हुआ खाना खा लिया होगा होगा? गरम किया होगा या नहीं? अंदर से दरवाजा तो बंद कर लिया होगा न? जमाना बहुत खराब है. बच्चों के पास अभी मोबाइल नहीं था. आलोक बच्चों के पास फोन होने का पक्षधर नहीं था. बच्चे भी जिद्दी नहीं थे. फिर उस ने लैंडलाइन पर फोन किया. बच्चे आ चुके थे. उन से बात कर के सुनंदा को तसल्ली हुई, फिर वह अपने ही काम में व्यस्त रही.

सुनंदा जब घर पहुंची, बच्चों की आंख लग गई थी. उस की आहट से बच्चे उठ बैठे और उस से लिपट गए. सुनंदा ने दोनों को बांहों में भर लिया, ‘‘तुम लोग ठीक हो न?’’

आलोक के जाने के बाद तीनों के स्कूल का पहला दिन था. शाश्वत ने उदासी से कहा, ‘‘ठीक हैं मम्मी, पर पापा के बिना अच्छा नहीं लग रहा कुछ.’’

सिद्धि भी सुबक उठी, ‘‘पापा की बहुत याद आ रही है मम्मी.’’

‘‘हां, बेटा,’’ कहते हुए सुनंदा ने बच्चों को बहुत प्यार किया. उन के साथ ही बैठ कर स्कूल की बातें करने लगी पर घूमफिर कर बच्चे इसी विषय पर आ रहे थे, ‘‘आज सब पूछ रहे थे पापा के बारे में.’’

‘‘टीचर्स भी पूछ रही थीं, मम्मी.’’

‘‘घर अच्छा नहीं लग रहा न, मम्मी?’’

हां में गरदन हिलाती रही सुनंदा. तीनों अपनेअपने रूटीन में धीरेधीरे व्यस्त होते चले गए. समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. आलोक के बारे में तीनों अकसर बातें करने बैठ जाते. किसी की भी आंख भरती तो विषय बदल कर उसे हंसाने की कोशिश शुरू हो जाती.

एक दिन सुनंदा औफिस में व्यस्त थी. सिद्धि का उस के मोबाइल पर फोन आया, ‘‘मम्मी, उमेश अंकल आए हैं.’’

सुनंदा का माथा ठनका, ‘‘क्यों आए हैं?’’

‘‘पता नहीं मम्मी, मैं ने तो उन्हें पानी पिलाया… वे बस मेरे साथ ही बातें किए जा रहे हैं…कुछ काम तो नहीं लग रहा है.’’

‘‘शाश्वत कहां है?’’

‘‘सो रहा है.’’

‘‘ओह, उठा दो उसे फौरन.’’

‘‘पर वह उठाने पर गुस्सा करेगा.’’

‘‘उठाओ और उसे कहो इस अंकल के पास वही बैठे और तुम अपने रूम में होमवर्क कर लो. इसे चायवाय पूछने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘अच्छा, मम्मी.’’

उमेश के आने की बात सुन कर सुनंदा बहुत परेशान हो गई. आलोक उमेश को बिलकुल पसंद नहीं करता था. उमेश था तो आलोक का पुराना दोस्त पर बेहद चरित्रहीन. आलोक उसे हमेशा घर के बाहर ही रखता था.

उसने सुनंदा को उमेश की चरित्रहीनता के सारे किस्से सुनाए हुए थे. सिद्धि बड़ी हो रही है, अकेली है. सुनंदा को आज चैन नहीं आ रहा था. उमेश उस के घर में बैठा हुआ है. उमेश कई बच्चियों के साथ कुकर्म करते हुए पकड़ा गया था. उस की पत्नी उसे छोड़ कर जा चुकी थी.

सुनंदा गीता तो बुला कर बोली, ‘‘बहुत जरूरी काम है, जाना पड़ेगा, हो सकेगा तो लौट आऊंगी,’’ कह कर निकलने लगी तो गीता ने सम्मानपूर्वक कहा, ‘‘आप जाइए, मैम. मैं संभाल लूंगी. आप को दोबारा आने की परेशानी उठाने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक्यू गीता,’’ कहते हुए सुनंदा अपना पर्स उठा कर स्कूल से निकल गई, रिक्शा पकड़ घर पहुंची.

उमेश शाश्वत के साथ बैठा था. शाश्वत के माथे पर नींद से उठाए जाने पर झुंझलाहट थी. उमेश उसे देख कर चौंक गया, ‘‘अरे भाभी, आप इस समय कैसे आ गईं?’’

काफी कटु और गंभीर स्वर में सुनंदा ने कहा, ‘‘आप बताइए, आप इस समय यहां क्यों आए?’’

‘‘बस, ऐसे ही, सोचा आप लोगों के हालचाल ले लूं.’’

‘‘आगे से आप हालचाल के लिए परेशान न हों, हम ठीक हैं.’’

‘‘अरे भाभी, दोस्त था मेरा. मेरी भी कुछ जिम्मेदारी है. बच्चे वैसे काफी समझदार हैं.’’

‘‘भाईसाहब, आप आगे से तकलीफ न उठाएं.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं तो आता रहूंगा, आप मुझे पराया न समझें.’’

सुनंदा के कड़े तेवर देख कर उमेश उस समय हाथ जोड़ कर बाहर निकल गया. सुनंदा सोफे पर ढह सी गई. सिद्धि भी मां की आवाज सुन कर अपने रूम से निकल कर आ गई थी. सुनंदा ने दोनों बच्चों को अपने पास बैठाया और कहने लगी, ‘‘बच्चो, जमाना बहुत खराब है. आगे से अगर मैं घर पर न होंऊ तो किसी के लिए भी दरवाजा न खोलना, इस आदमी के लिए तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘ठीक है, मम्मी. हम ध्यान रखेंगे,’’ कह सिद्धि फिर सुनंदा के लिए चाय बनाने चली गई.

सुनंदा शाम को घर का सामान लेने मार्केट के लिए निकल गई. सारा सामान आलोक ही लाता था. छोटी जगह थी, कई लोग जानपहचान के मिलते चले गए. एक पड़ोसिन भी मिल गई. हालचाल पूछने के बाद कहने लगी, ‘‘आप ने तो हमेशा बाहर की लाइफ ही ऐंजौय की. अब तो आप पर घर के भी काम आ गए होंगे, आप को भी अब दालसब्जी का आइडिया हो जाएगा.’’

बात सुनंदा का दिल दुखा गई. वह लाइफ ऐंजौय कर रही थी अब तक? घरबाहर के कामों के लिए जीवनभर मशीन ही बनी रही. हम औरतें ही क्यों औरतों का दिल दुखाने में पीछे नहीं हटतीं?

पड़ोसी जगदीश भी सब्जी के ठेले पर मिल गए. सुनंदा को ऊपर से नीचे तक चमकती आंखों से देख मुसकराए, ‘‘बड़ी मैंटेंड हैं आप भाभीजी.’’

सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी फिर जबरदस्ती उस के हाथ से थैला लेते हुए उस का हाथ छू लिया.

सुनंदा के तनमन में क्रोध की एक ज्वाला सी धधक उठी, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’

‘‘आप की हैल्प कर रहा हूं, भाभीजी.’’

‘‘मैंने आप से हैल्प मांगी क्या?’’

‘‘मांगी नहीं तो क्या हुआ? पड़ोसी हूं, मेरा भी कुछ फर्ज है. चलिए, आप को घर तक छोड़ आता हूं.’’

‘‘नहीं, रहने दीजिए. यहां मुझे अभी और भी काम है,’’ कह कर सुनंदा ने अपना थैला वापस झपटा और बाकी का समान लेने इधरउधर हो गई.

मन अजीब से गुस्से से भर उठा था. घर आ कर सामान रख अपने बैडरूम में जा कर आंखें बंद कर लेट गई. दोनों बच्चे टीवी में कुछ देख रहे थे. सुनंदा का दिल मिश्रित भावों से भर उठा था. माथे पर हाथ रखे सुनंदा ने अपनी कनपटियों तक बहते आंसुओं की नमी को चुपचाप ही महसूस किया. धीरेधीरे इस नमी का वेग बढ़ता जा रहा था.

आज, अभी, आलोक की याद शिद्दत से आने लगी. जब तक आलोक था तीनों के इर्दगिर्द एक सुरक्षा का घेरा तो था. एक आलोक के जाते ही वह कितनी असुरक्षा से चिंतित रहने लगी थी. उस ने तो हमेशा यही महसूस किया था कि इस पति से उसे क्या मिला? कुछ नहीं. वही तो सालों से कमा कर घर चला रही थी.

आज लगा पैसे जरूर वह कमा रही थी पर जो आलोक के रहने पर जीवन में था, आज नहीं है. ‘जैसा भी था आदमी तो था’ रमा भाभी के ये शब्द याद आए तो पहली बार सुनंदा की आलोक की याद में इतनी तेज सिसकियों से कमरा गूंज उठा.

सच के पैर: क्या थी गुड्डी के भैया-भाभियों की असलियत

बूआजी आएंगी फलमिठाई लाएंगी, नई किताबें लाएंगी सब को खूब पढ़ाएंगी…’ छोटी गा रही थी.

‘बूआजी आते समय मेरे लिए नई ड्रैसेज जरूर ले आना,’ दूसरी की मांग होती. इस तरह की मांगें हर साल गरमी की छुट्टियां आते ही भाइयों के बच्चों की होती. जिन्हें गुड्डी मायके जाते ही पूरा करती. मगर एक बार जब वह मायके गई, तो बड़े भैयाभाभी की बातचीत सुन उस के पांव तले की जमीन ही जैसे खिसक गई.

‘‘बड़ी मुश्किल से दोनों का तलाक कराया,’’ भाभी कह रही थीं.

‘‘और क्या, अगर तलाक नहीं होता तो क्या गुड्डी हमें इतना देती? देखना, बड़ी की शादी में कम से कम 10 लाख उस से लूंगा,’’ भैया कह रहे थे.

‘‘बदले में क्या देते हैं हम लोग? हर साल एक मामूली साड़ी पकड़ा देते हैं. वह इतने में भी अपना सर्वस्व लुटा रही है,’’ हंसते हुए उस की भाभी ने कहा तो वह जैसे धड़ाम से जमीन पर आ गिरी. सच में उस का शोषण तीनों भाइयों ने किया है. उसे याद आ गई 20 वर्ष पूर्व की घटना. उस के विवाह के लिए लड़का देखा जा रहा था. पिताजी तीनों बेरोजगार बेटों की लड़ाई व बहुओं की खींचतानी झेल न पाए और गुजर गए. फिर तो उस की शादी के लिए रखे क्व5 लाख वे सब खूबसूरती से डकार गए.

उस का विवाह उस से लगभग दोगनी उम्र के व्यक्ति रमेश से कर दिया गया और दहेज तो दूर सामान्य बरतनभांडे तक उसे नहीं दिए गए. यह देख मां से न रहा गया. वे बोल पड़ीं, ‘‘अरे थोड़े जेवर और जरूरी सामान तो दो, लोग क्या कहेंगे?’’ ‘‘आप चुप रहें मां. हमें अपनी औकात में शादी करनी है. सारा इसे दे देंगे, तो मेरी बेटियों की शादी कैसे होगी?’’ बड़ा भाई डांट कर बोला तो वे चुप रह गईं. फिर तो गुड्डी ससुराल गई और उस के बाद उस की पढ़ाई और नौकरी तक इन सबों ने कभी झांका तक नहीं. रमेश पत्नी को पढ़ाने के पक्षधर थे, इसलिए उन के सहयोग से उस ने बीए की परीक्षा पास की. उस के कुछ दिनों बाद बैंक की क्लैरिकल परीक्षा पास कर ली, तो बैंक में नौकरी लग गई. रमेश पढ़ीलिखी पत्नी चाहते थे परंतु कमाऊ पत्नी नहीं. अत: जैसे ही उस की नौकरी लगी उन्होंने समझाने की कोशिश की, ‘‘क्या तुम्हारा नौकरी करना इतना जरूरी है?’’

‘‘हां क्यों न करें. इतनी औरतें करती हैं. फिर बड़ी मुश्किल से लगी है,’’ उस ने सरलता से जवाब दिया.

‘‘फिर बच्चे होंगे, तो कौन पालेगा?’’

‘‘क्यों, दाई रख लेंगे. आजकल बहुत से लोग रखते हैं. मैं भविष्य की इस छोटी सी समस्या के लिए नौकरी नहीं छोड़ सकती.’’ इस दोटूक जवाब पर रमेश कुछ नहीं बोले. पर उन का जमीर इस बात को स्वीकार न कर सका कि लोग उन्हें जोरू का गुलाम या जोरू की कमाई खाने वाला कहें. इधर उस के मायके के लोग उस की नौकरी की खबर सुनते ही मधुमक्खी के समान आ चिपके. पतिपत्नी की लड़ाई में हमेशा मायके वाले फायदा उठाते हैं. यहां भी यही हुआ. मायके वालों के उकसाने पर वह तलाक का केस कर नौकरी पर चली गई. बाद में आपसी सहमति पर तलाक हो भी गया. इस के बाद इस दूध देती गाय का भरपूर शोषण सब ने किया. कभी बड़े भैया की लड़की का फार्म भरना है तो कभी किसी की बीमारी में इलाज का खर्च, तो कभी कुछ और. ऐसा कर के हर साल वे सब इस से अच्छीखासी रकम झटक लेते थे.

उस वक्त गुड्डी का वेतन 30 हजार था. उस में से सिर्फ 10 हजार किराए के मकान में रहने, खानेपीने वगैरह में जाते थे. बाकी भाइयों की भेंट चढ़ जाता था. मगर उस दिन की भैयाभाभी की बातचीत ने उस के मन को हिला कर रख दिया. उस के बाद वह 4 दिन की छुट्टियां ले कर किसी काम से मधुबनी गई थी, तो वहां संयोगवश उस के पति साइकिल पर फेरी लगाते दिख गए. ‘‘ये क्या गत बना रखी है?’’ औपचारिक पूछताछ के बाद उस ने पहला प्रश्न किया.

‘‘कुछ नहीं, बस जी रहे हैं, तुम कैसी हो?’’ उन्होंने डबडबाई आंखों को संभालते हुए प्रश्न किया.

‘‘मैं ठीक हूं, आप की पत्नी और बच्चे?’’ उस का दूसरा प्रश्न था.

‘‘पत्नी ने मुझे छोड़ कर नौकरी का दामन थामा, तो बिन पत्नी बच्चे कहां से होते?’’ उन्होंने जबरदस्ती हंसने का प्रयास करते हुए कहा.

‘‘गांव में कौनकौन है?’’ पिताजी का निधन तुम्हारे सामने हो गया था. तुम्हारे जाने के 1 साल बाद मां गुजर गईं और सभी भाइयों ने परिवार सहित दूसरे शहरों को ठिकाना बना लिया,’’ उन का सीधा उत्तर था.

‘‘और आप?’’

इस प्रश्न पर वे थोड़ा सकुचा गए. फिर बोले, ‘‘मैं यहीं मधुबनी में रहता हूं. सुबह से शाम ढले तक कारोबार में लगा रहता हूं. सिर्फ रात में कमरे में रहता हूं.’’ ‘‘मुझे अपने घर ले चलिए,’’ कह कर वह जबरदस्ती उन के साथ उन के घर में गई. वहां एक पुरानी चारपाई, एक गैस स्टोव व जरूरत भर का थोड़ा सा सामान था. उसे बैठा कर वे सब्जी व जरूरी समान की व्यवस्था करने गए तब तक उस ने सारे समान जमा दिए. उन के लौट कर आते ही सब्जीरोटी बना कर उन्हें खिलाई और खुद खाई. उस रात वह उन के बगल में लेटी तो उन के सिर पर उंगलियां फेरते उस ने पूछा, ‘‘आप ने दूसरी शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘क्यों, क्या एक शादी काफी नहीं है? जब पहली पत्नी ने ही साथ नहीं दिया, तो दूसरी की बात मैं ने सोची ही नहीं.’’ इस जवाब से वह टूट गई. दोनों रात में एक हो गए. आंसुओं ने नफरत के बांध को तोड़ दिया.

अगले दिन चलते समय उस ने कहा, ‘‘आप मेरे साथ चल कर वहीं रहिए.’’ ऐसा न जाने किस जोश में आ कर वह बोल उठी थी. पर रमेश ने बात को संभाला, ‘‘यह ठीक नहीं होगा. हम दोनों तलाकशुदा हैं वैसी दशा में मेरा तुम्हारे साथ रहना…’’

‘‘ठीक है, मैं दरभंगा में रहती हूं. आप महीने में 1 बार वहां आ सकते हैं?’’ उस ने पूछा. ‘‘मिलने में कोई बुराई नहीं है,’’ रमेश ने फिर बात को संभाला. फिर बस स्टैंड तक जा कर बस में बैठा आए और हाथ में 200 रख दिए. प्यार की भूखी गुड्डी इस व्यवहार से गदगद हो गई. दूसरी ओर अपने सगे भैयाभाभी की कही बात उसे तोड़ रही थी. सच कड़वा होता है मगर यह इतना कड़वा था कि इसे झेल पाना मुश्किल हो रहा था. उस के यही सब सोचते जब उस के मोबाइल की घंटी बजी तो वह वर्तमान में लौटी.

‘‘क्यों इस बार छुट्टी में नहीं आ रही हो?’’ उस के बड़े भैया का स्वर था.

‘‘नहीं, इस बार आना नहीं हो सकता,’’ उस ने विनम्रता से जवाब दिया.

‘‘क्यों, क्या हो गया?’’

‘‘कुछ नहीं भैया, बस जरूरी काम निबटाने हैं.’’ इस जवाब पर फोन कट गया. इस के बाद वह कई महीने मायके तो नहीं गई पर हर माह मधुबनी हो आती थी. रमेश उसे प्यार से घर लाते, उस का पूरा ध्यान रखते और भरपूर सुख देते. उन के साथ रात गुजारने में उसे असीम सुख मिलता था. वह इस प्यार से गदगद रहती. उस के जाते वक्त हर बार रमेश 100-200 या साड़ी हाथ में अवश्य रखते. फिर प्रेम से बस में चढ़ा आते. सब से बड़ी बात यह कि उन्होंने आज तक यह नहीं पूछा था कि अब वह किस पद पर है वेतन कितना मिलता है?

‘‘क्यों आप को मेरे बारे में कुछ नहीं जानना?’’ एक बार उस ने पूछा था.

‘‘जानता तो हूं कि तुम बैंक में हो,’’ उन्होंने सहज भाव से जवाब दिया. उन की सब से बड़ी बात यह थी कि वे अपने ऊपर 1 पैसा भी नहीं खर्च करने देते थे, इसलिए स्वाभाविक रूप से वह उन की ओर झुकती चली गई. एक दिन अचानक बहुत दिनों से मायके न जाने पर उस की मां, बड़े, मझले और छोटे भैयाभाभी सभी आए. मझले को मैडिकल में लड़के का ऐडमिशन कराने हेतु 1 लाख चाहिए थे, वहीं बड़े भैया बड़ी लड़की की शादी हेतु पूरे 5 लाख की मांग ले कर आए थे. इसी प्रकार छोटा भी दुकान हेतु पुन: 2 लाख की मांग ले कर आया था. उन सब की मांग सुन कर वह फट पड़ी, ‘‘क्यों आप लोग अपना इंतजाम खुद नहीं कर सकते, जो जबतब आ जाते हैं? मेरी भी शादी हुई थी, तब आप तीनों ने क्या दिया था?’’

इस पर सब सकपका गए मगर छोटा बेहयाई से बोला, ‘‘हमारे पास नहीं था, इसलिए नहीं दिया. तुम्हारे पास है तभी न ले रहे हैं.’’ ‘‘कुछ नहीं, पहले पिछला हिसाब करो. मुझ से जो लिया लौटाओ. मेरे पास सब लेनदेन लिखा है.’’ तभी उस के पति का फोन आ गया. ‘‘क्यों क्या हुआ, कैसे हैं आप?’’

‘‘बस 2 दिन से थोड़ा सा बुखार है. तुम्हारी याद आ रही थी, इसलिए फोन कर दिया.’’ पति का थका स्वर सुन कर वह तुरंत बोली. ‘‘रात की बस पकड़ कर मैं आ रही हूं आप चिंता न करें.’’ फिर वह फोन रख कर जल्दीजल्दी जाने का समान पैक करने लगी.

‘‘क्या हुआ अचानक कहां चल दीं?’’ मां ने घबरा कर पूछा.

‘‘जा रही होगी गुलछर्रे उड़ाने,’’ मझला भाई बोला. ‘‘सुनो, अपनी औकात में रह कर बोला करो. ये मेरे पति का फोन था.’’ यह सुन कर सभी की आंखें फटी रह गईं.

‘‘तलाकशुदा पति से तेरा क्या मतलब?’’ उस की मां बोलीं.

‘‘मां, मतलब तो शादी के बाद भाइयों का भी बहन की आमदनी या जायदाद से नहीं होता पर मेरे भाई तो बहन को दूध देती गाय समझ पैसा लूटते रहे. जब वापस देने की बारी आई तो बहाने करने लगे.’’ उस का यह रूप देख सब भौचक्के थे.

‘‘और हां मां, आप सब ने मिल कर मेरी शादी इसलिए तुड़वाई ताकि मेरे पैसे पर ऐश कर सकें.’’

‘‘बेटा, तुम गलत समझ रही हो,’’ मां ने फिर समझाना चाहा. ‘‘सच क्या है मां यह तुम भी जानती हो. पूरे 5 लाख जो पापा ने मेरी शादी के लिए रखे थे, इन तीनों ने डकार लिए थे. एक फटा कपड़ा तक नहीं दिया था. फिर 4 साल तक हाल नहीं पूछा. लेकिन जैसे ही नौकरी मिली चट से आ कर सट गए और तुम मां हो कर हां में हां मिलाती रहीं.’’ यह कड़वा सच उन सब के कानों में सीसे की तरह उतर रहा था. ‘‘आप लोग जाएं क्योंकि मुझे रात की बस से उन के पास जाना है. जब मेरा पूरा पैसा देने लायक हो जाएं तो आइएगा.’’ इतना कह कर वह तैयार हो कर घर से निकली, तो वे सब हाथ मलते ऐसे पछता रहे थे जैसे कारूं का खजाना हाथ से निकल गया हो और वह तेजी से बस स्टैंड की ओर बढ़ती जा रही थी.

परित्यक्ता : कजरी के साथ क्या हुआ था

बरसती बूंदें कजरी के पैरों से कदमताल कर रही थीं. अभी 6 ही तो बजे थे, पर तेज बारिश और काले बादलों ने वक्त से पहले ही जैसे अंधेरा करने की ठान ली थी. ठीक उस के जीवन की तरह, जिस में उस की खुशियों के उजाले को समय के स्याह बादलों ने हमेशा के लिए ढक लिया था. कजरी सोचती जा रही थी. झमाझम होती बारिश में उस की पुरानी छतरी ने भी आज उस का साथ छोड़ दिया था. बच्चों की चिंता ने उस के पैरों की गति को और बढ़ा दिया. उस का घर आने से पहले ही बाबूलाल किराने वाले की दुकान पड़ती थी, जहां से उसे कुछ किराना भी लेना था.

‘‘क्या चाहिए?’’ बाबूलाल ने कजरी की भीगी देह पर भरपूर नजर डालते हुए कहा.

‘‘2 किलो आटा, आधा लिटर तेल, पाव किलो शक्कर और हां, आधा लिटर दूध भी दे देना,’’ कजरी ने अपने आंचल को ठीक करते हुए कहा. बाबूलाल की ललचाई नजरों में उसे हमेशा ही एक मौन आमंत्रण दिखाई देता था. यह तो उस की मजबूरी थी कि वह यहां से वक्तबेवक्त कभी भी उधारी में सामान ले लिया करती थी, वरना उस की दुकान की ओर कभी वह मुड़ कर भी न देखती.

सोचतेसोचते कजरी घर पहुंच गई. बच्चे ‘‘मां, मां’’ कहते हुए उस से लिपट गए.

‘‘आई बहुत भूख लगी है, ताई ने कुछ खाने को नहीं दिया,’’ छोटे बेटे कमल ने दीदी की शिकायत की.

‘‘क्या करती आई, घर में आटा ही नहीं था,’’ सुमि ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘अच्छा मेरा राजा बेटा, मैं अभी गरमागरम रोटी बना कर अपने लाल को खिलाती हूं, मीठे दूध में मींज के खा लेना,’’ कजरी ने बेटे को पुचकारते हुए कहा.

‘‘आई, मैं भी खाऊंगी,’’ 9 साल की रीना ने मचलते हुए कहा.

‘‘क्यों नहीं मेरी गोलू, तू भी खाना.’’ गोलमटोल बड़ीबड़ी आंखों वाली रीना को सब गोलू ही कह कर बुलाते थे.

‘‘मैं ने टमाटर की मस्त चटनी भी बनाई है, आई,’’ सुमि ने उसे पानी का गिलास पकड़ाते हुए कहा.

जल्दी से आटा गूंध कर उस ने बच्चों को खाना खिलाया. उन को सुलाने के बाद कजरी सुमि के साथ वहीं नीचे जमीन पर लेट गई.

‘‘आई, आज फिर दीनू रीना को चौकलेट खिला रहा था. तब मैं ने रीना के हाथ से छीन कर वापस उस के मुंह पर फेंक दी, तो वह मेरे को देख लेने की धमकी दे कर चला गया. मुझे उस से बहुत डर लगता है, आई,’’ सुमि ने भयभीत स्वर में मां को बताते हुए कहा.

‘‘तुम घबराओ नहीं, सुमि, मैं उस की मां से बात करूंगी,’’ कजरी ने उसे तो समझा दिया, परंतु खुद सोच में पड़ गई.

जब से रमेश उसे छोड़ कर गया है, जीना कितना दूभर हो गया है. कभी सोचा नहीं था कि जिंदगी इस कदर बोझ बन जाएगी. रमेश के रहते उसे कभी भी बाहर जा कर काम करने की जरूरत नहीं पड़ी. 17 साल की थी जब मांबाप ने रमेश के साथ उस का ब्याह कर दिया था. बहुत खुश थी वह रमेश के साथ. पेशे से पेंटर रमेश इंदौर के राजेंद्रनगर इलाके से कुछ दूर बुद्धनगर के स्लम एरिया में किराए के मकान में रहता था. मकान बहुत अच्छा नहीं, पर रहने लायक जरूर था. दोनों की जिंदगी मजे में कट रही थी.

समय के साथ कजरी 3 प्यारे बच्चों की मां बनी. सब से बड़ी सुमि, उस से छोटी रीना और सब से छोटा कमल. बच्चों के जन्म के बाद कजरी का भरा बदन और भी सुंदर लगने लगा था. शादी के 12 साल बीत जाने पर भी रमेश उसे जीजान से चाहता था. आसपड़ोस के लोग उन दोनों के प्यारभरे रिश्ते से अनजान नहीं थे. कजरी के घर के पास ही एक बढ़ई परिवार रहता था. इस परिवार की इकलौती लड़की माया रमेश को बहुत पसंद करती थी, पर रमेश उस पर कभी ध्यान नहीं देता था.

इधर, बच्चों की देखरेख और घर के कामों में व्यस्त कजरी चाहते हुए भी रमेश को ज्यादा वक्त न दे पाती थी जिस वजह से अकसर दोनों में झड़प हो जाया करती थी. वह रमेश को समझाती थी कि बच्चों के आने के बाद उस का काम बढ़ गया है. पर पुरुषवादी सोच का गुलाम रमेश उस की न को अपना अपमान समझने लगा था. धीरेधीरे उन के बीच में दूरियां बढ़ती चली गईं.

अब काम से लौट कर रमेश सीधे जो बाहर निकलता, तो रात 11-12 बजे ही वापस आता. बच्चों के पालनपोषण में व्यस्त कजरी ने पहले तो इस ओर ध्यान नहीं दिया, और जब ध्यान दिया तब तक बड़ी देर हो चुकी थी.

35 साल का रमेश अब 16 साल की लड़की माया का दीवाना बन चुका था. इस बात का पता लगते ही कजरी ने बहुत बवाल मचाया. रमेश से लड़ीझगड़ी, उस माया के घर जा कर उसे लताड़ा. फिर भी उन दोनों पर कोई असर न होता देख कजरी ने माया के सामने अपना आंचल फैलाते हुए अपने बच्चों के पिता को छोड़ देने के लिए बहुत अनुनयविनय की. पर माया टस से मस न हुई. माया के मातापिता भी उस की इस हरकत के आगे मजबूर थे.

फिर, एक दिन वह दिन भी आया जब काम पर गया रमेश कभी घर नहीं लौटा. इधर, माया भी घर से गायब थी. कजरी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. वह फूटफूट कर रोई. पर अब हो भी क्या सकता था. भारी मन से उस ने इस सचाई को स्वीकार कर लिया कि अब वह एक परित्यक्ता है, जिसे उस का आदमी हमेशा के लिए छोड़ कर जा चुका है.

पति द्वारा छोड़ी हुई औरत समाज के पुरुषों की बपौती बन जाती है, कुछ ही दिनों में यह बात उस की समझ में आ चुकी थी. यह वह समाज है, जहां पुरुषों द्वारा की गई गलती की सजा भी औरत को ही भुगतनी पड़ती है. घर के बाहर हर दूसरा आदमी उस के शरीर पर अपनी गिद्ध निगाह जमाए बैठा था. पर बच्चों के भरणपोषण के लिए उस का घर से निकलना बेहद जरूरी हो चुका था. ऐसे में रमेश के दोस्त लखन ने उस की बहुत सहायता की. उस ने अपने मालिक के घर पर कजरी को काम दिला दिया.

जल्द ही कजरी ने भी बेशर्मी की चादर ओढ़ कर जीना सीख लिया. लेकिन, अब भी काम पर जाने के बाद बच्चों की देखरेख की समस्या उस के आगे मुंहबाए खड़ी थी, जिस का जिम्मा उस की 11 साल की बेटी ने ले लिया. अपनी पढ़ाई छोड़ कर वह अपने छोटे भाईबहन को संभालने लगी. पापा के घर छोड़ कर चले जाने से वह अचानक ही अपनी उम्र से कुछ ज्यादा बड़ी हो गई थी. कुछ महीनों में कजरी को ऐसा लगने लगा कि जिंदगी फिर पटरी पर आने लगी है.

एक दिन वह काम पर से वापस आ रही थी कि रास्ते में लखन मिल गया. बातोंबातों में उस ने कजरी से अपने प्यार का इजहार कर दिया. उस के एहसानों तले दबी कजरी उसे एकदम से इनकार न कर सकी. उस ने उस से सोचने के लिए कुछ समय मांगा. रातभर वह इसी ऊहापोह में रही कि अपने ही पति द्वारा वह एक बार ठगी जा चुकी है. क्या फिर से उसे किसी पर इतना विश्वास करना चाहिए? परंतु बिना मर्द के घर पर लोगों की चीलकौवे सी पड़ती निगाहों से बचने के लिए आखिरकार उसे यही रास्ता सब से उपयुक्त लगा.

उस के घर में ही लखन ने कुछ पासपड़ोसियों के सामने उसे मंगलसूत्र पहना कर उस की मांग में सिंदूर भर दिया. अब लखन उस के साथ ही आ कर रहने लगा. बच्चों ने भी कुछ समय बाद आखिर उसे अपना लिया.

शादी को 8 महीने हो चुके थे. पुराने जख्म भरने लगे थे कि अचानक एक दिन सुबहसुबह एक औरत उस के दरवाजे पर आ कर उसे भलाबुरा कहने लगी. पहले तो कजरी समझ ही न पाई कि यह चक्कर क्या है. बाद में उसे समझ आया, तो उस पर फिर से एक बार आसमान टूट पड़ा.

वह औरत लखन की पत्नी थी जो रात ही अपने गांव से आई थी, और लखन व उस के संबंध की जानकारी मिलते ही वह उस से लड़ने चली आई थी. कजरी ने इस बारे में लखन से कई सवाल किए, पर उस की खामोशी देख कर वह समझ गई कि समय ने फिर से उस के साथ बहुत ही गंदा मजाक किया है. लखन ने सिर्फ अपनी वासनापूर्ति की खातिर ही उस से संबंध जोड़ा था.

लखन जा चुका था, कजरी अंदर ही अंदर टूट कर फिर बिखर चुकी थी. पर इस बार वह पहले की तरह एक कमजोर औरत नहीं थी, जो अपनी बेबसी का रोना ले कर बैठे. सो, दूसरे दिन से ही उस ने सुमि पर भाईबहनों की जिम्मेदारी छोड़ कर काम पर जाना शुरू कर दिया.

इधर, पड़ोस में रहने वाला 22 साल का दीनू उस की छोटी बेटी रीना पर गलत निगाह रखता था. रीना 9 साल की एक अबोध बालिका थी, जिसे अकसर वह चौकलेट वगैरह का लालच दे कर अपने पास बुलाने की कोशिश करता था. एक दिन सुमि ने चौकलेट खाती रीना के शरीर पर उस के रेंगते हाथों को देख कर मां को तुरंत बताया था. कजरी ने भी इस वाकए को हलके रूप में न ले कर दीनू के मांबाप से जा कर तुरंत इस की शिकायत की थी. उस के बाद दीनू ने सब के सामने उस से माफी मांगी थी.

कुछ दिनों शांत बैठ कर दीनू फिर से वही काम दोहरा रहा था. कजरी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर वह क्या करे. कैसे बुरी नीयत व बुरी निगाह रखने वाले लोगों से अपनी बच्चियों को बचाए. खुद उस की देह भी तो उस के लिए बड़ी दुखदाई बन चुकी थी. मर्दों की पैनी निगाहें उस के शरीर पर यों फिसलती थीं मानो कपड़ों के अंदर तक झांक लेना चाहती हों.

पति की छोड़ी औरत शायद हर मर्द की जागीर हो जाती है. जिस पर हर कोईर् हाथ साफ करना चाहता है. कजरी के अंदर की औरत बहुत अकेली व लाचार हो गई थी. क्या बिना आदमी के औरत का कोई वजूद नहीं है? आखिर औरत को इतना कमजोर क्यों बनाया है? उस की बेचैनी आंसू बन कर उस के गालोें पर ढुलकने लगी. रात को न जाने कब उस की आंख लगी.

सुबह उठी तो सिर भारी हो रहा था.

आंखें भी जल रही थीं. देररात तक जागने से ऐसा हुआ है, यह  सोच कर कजरी ने उठने की कोशिश की परंतु शरीर ने साथ न दिया.सुमि ने मां को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया, तो चौंक पड़ी, ‘‘आई, तुझे तो तेज बुखार है.’’

‘‘हां रे, मुझ से तो उठा भी नहीं जा रहा,’’ कजरी पर बेहोशी छाती जा रही थी. शायद बारिश में भीगने से उसे बुखार ने जकड़ लिया था.

मां की हालत देख कर सुमि घबरा गई. मां को वैसे ही छोड़ कर वह दौड़ कर पड़ोस से विमला काकी को बुला लाई. विमला काकी के पति औटो चलाते थे. जल्दी से कजरी को अपने औटो में बैठा कर वे उसे पास के अस्पताल ले गए.

कजरी की बिगड़ती हालत देख कर डाक्टर ने उसे वहीं ऐडमिट कर ग्लूकोस की बोतल चढ़ाने की सलाह दी. जब तक वह हौस्पिटल में रही, विमला काकी ने उस की पूरी देखभाल की और हौस्पिटल का बिल भी उन्होंने ही भरा.

कजरी घर पर तो आ गई लेकिन कमजोरी के चलते उस से उठतेबैठते नहीं बन रहा था. कुछ पैसे जो उस ने बचा कर रखे थे, वे घर के खानेखर्च में खत्म हो गए. अभी विमला काकी का उधार पूरा बाकी था.

‘‘आई, आज आटा खत्म हो गया है, तेल भी नहीं बचा. खाना कैसे बनाऊं?’’ सुमि ने एक सुबह कुछ झिझकते हुए मां से कहा. काम पर गए उसे एक हफ्ता हो गया था.

‘‘आज कुछ अच्छा लग रहा है. आज जाती हूं काम पर. उधर से आते वक्त सब किराना लेती आऊंगी. तब तक तुम पास वाली दुकान से दूध और ब्रैड ले आना और चाय बना कर उस के साथ टोस्ट खा लेना,’’ अपने पास बचे 50 रुपए का आखिरी नोट सुमि को पकड़ाते हुए वह बोली.

काम पर जा कर उसे बहुत बड़ा झटका लगा. उस की मालकिन ने बगैर बताए इतने दिनों की छुट्टी करने पर उसे काम से हटा कर दूसरी बाई रख ली थी. उस ने लाख मिन्नतें कर उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश की कि उस ने जानबूझ कर छुट्टी नहीं मारी. लेकिन उन का कलेजा न पसीजा. उन्होंने उसे दोबारा काम पर रखने से साफ मना कर दिया.

‘‘हमेशा ही चुका देती हूं, भैया. हां, इस बार जरूर कुछ देर हो गई. पर मैं जल्द ही आप के सारे रुपए चुका दूंगी,’’ कजरी ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘माफ करना, मैं ने यहां कोई धर्मखाता नहीं खोल रखा है, जो मुफ्त में ही सब को जलपान कराता जाऊं,’’ बाबूलाल ने उसे दुत्कारते हुए कहा.

‘‘आज मेरा काम छूट गया है, लेकिन मैं विश्वास दिलाती हूं कि जल्द ही कोई काम ढूंढ़ कर आप की पूरी उधारी चुका दूंगी,’’ कह कर कजरी ने बेबसी से अपने हाथ जोड़ दिए.

‘‘काम तो मैं भी तुम्हें दे सकता हूं, अगर तुम चाहो तो. इस से तुम्हारा आज तक का पूरा उधार चुक जाएगा और ऊपर से कुछ कमाई भी हो जाएगी.’’ बाबूलाल की आंखों से टपकती लार देख कर कजरी सहम गई.

जाने कैसे ये भेडि़ए एक औरत की मजबूरी को सूंघ कर अपना दांव गांठते हैं. कजरी ने गहरी सांस छोड़ी और दुकान के बाहर आ गई.

मोड़ तक आतेआते वह कुछ ठिठक कर खड़ी हो गई. घर जा कर बच्चों को क्या खिलाएगी? बच्चों के भूख से कलपते चेहरे उसे साफ दिखाई पड़ रहे थे. मकान का किराया कहां से आएगा? विमला काकी का पूरा उधार अभी बाकी है. उफ, कैसे होगा यह सब? कजरी के दिल और दिमाग में एक जंग सी छिड़ गई थी. दिल कहता था…यह गलत है जबकि दिमाग कुछ ज्यादा ही व्यावहारिक हो चला था, जो हालफिलहाल की स्थिति से कैसे निबटा जाए, यह सोच रहा था. आखिरकार, एक औरत के सतीत्व पर मां की ममता भारी पड़ गई. कजरी के दुकान में दोबारा प्रवेश करते ही बाबूलाल की आंखों में वासनाजनित चमक आ गई.

कुछ देर बाद ही कजरी दोनों हाथों में सामान लिए घर की तरफ तेजी से बढ़ी चली जा रही थी. सामान्यतया रोज खुला रहने वाला दरवाजा आज भीतर से बंद था. अंदर से आती घुटीघुटी सिसकारी की आवाज ने कजरी को तनिक संशय में डाल दिया. किसी अनिष्ट की आशंका से उस का मन कांप गया. जोरजोर से बच्चों को आवाज लगा कर उस ने दरवाजा पीटना शुरू कर दिया. पर दरवाजा न खुला.

इतने में सुमि और कमल को बाहर से आता देख कजरी चीख पड़ी, ‘‘रीना कहां है सुमि?’’

‘‘अंदर ही होगी, आई. मैं कुछ देर पहले ही ब्रैड और दूध लेने गई थी और यह कमल मेरे पीछे लग लिया. बहुत समझाया, पर माना ही नहीं.’’

तब तक चिल्लाने की आवाज सुन कर आसपड़ोस से कई लोग निकल कर जमा हो गए. तुरंतफुरत ही दरवाजा तोड़ दिया गया. दरवाजा टूटते ही कजरी अंदर घुसी और कमरे के एक कोने में रीना को बेसुध पड़ा देख बदहवास सी हो गई. तभी भीतर से एक साया निकल कर बाहर की तरफ भागा. हां, वह दीनू ही था, जिस ने रीना के अकेले होने का फायदा आज उठा ही लिया था. यह सब इतना अचानक हुआ कि किसी को कुछ समझ ही नहीं आया.

शोरगुल की आवाज से विमला काकी भी आ चुकी थीं. कजरी ने रीना को उठानेहिलाने की बहुत कोशिश की, मगर सब बेकार था. रीना बेजान हो चुकी थी. एक नन्ही कली आज फिर किसी वहशी दरिंदे की बुरी नीयत का शिकार हो चुकी थी. कजरी सामने पड़ी सचाई स्वीकार नहीं कर पा रही थी. अपनी प्यारी गोलू का यह हाल देख कर वह कांप उठी थी. उस की पूरी दुनिया ही जैसे उजड़ गई थी. सुमि लगातार रोए जा रही थी और कमल सहमा हुआ एक तरफ खड़ा हुआ था.

लोगों की आपसी चर्चा चालू थी. कोई पुलिस को बुलाने की बात कर रहा था तो कोई रीना को डाक्टर के पास ले जाने को कह रहा था. कजरी अचानक उठी और पलंग के नीचे से हंसिया निकाल कर बिजली की फुरती से बाहर निकल गई. उधर, दीनू जल्दीजल्दी एक बैग में अपने कुछ कपड़े भर कर घर से निकलने ही वाला था कि कजरी ने उस का रास्ता रोक लिया.

‘‘मुझे माफ कर दो कजरी भाभी, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. पता नहीं मुझे क्या हो गया था. मैं उसे मारना नहीं चाहता था, वह चिल्ला न सके, इसलिए मैं ने उस का मुंह बंद किया. मुझे नहीं…’’ दीनू अपनी सफाई देता रह गया और कजरी ने उस पर हंसिये से प्रहार करना शुरू कर दिया.

‘‘नीच, तू ने मेरी गोलू को क्यों मारा, क्या बिगाड़ा था उस मासूम ने तेरा,’’ कजरी चीखती जा रही थी. तभी पीछे से विमला काकी ने आ कर कुछ लोगों की मदद से उसे रोका.

दीनू घायल हो कर गिर पड़ा था. इलाके की पुलिस ने तुरंत ही दीनू को अस्पताल भेजा. और पूछताछ में लग गई. रीना की मृतदेह एम्बुलेंस में ले जाई जा रही थी. उपस्थित सभी लोगों की आंखें नम थीं. इतनी देर से मूकदर्शक बनी कजरी ने अचानक अट्टहास करना शुरू कर दिया. भीड़ में से किसी ने कहा, ‘वह पागल हो गई है.’ एक विमला काकी ही ऐसी थीं जिन्हें कजरी में एक परित्यक्त मां की बेबसी और हताशा दिखाई दे रही थी, जो अपना सबकुछ दांव पर लगा कर भी अपनी मासूम बच्ची को नहीं बचा पाई.

दोहराव : क्यों बेचैन था कुसुम का मन

शाम का धुंधलका सूर्य की कम होती लालिमा को अपने अंक में समेटने का प्रयास कर रहा था. घाट की सीढि़यों पर कुछ देर बैठ अस्त हो रहे सूर्य के सौंदर्य को निहार कर कुसुम खड़ी हुईं और अपने घर की ओर चलने लगीं. आज उन के कदम स्वयं गति पकड़ रहे थे…जब फूलती सांसें साथ देने से इनकार करतीं तो वह कुछ पल को संभलतीं मगर व्याकुल मन कदमों में फिर गति भर देता. बात ही कुछ ऐसी थी. कल सुबह की टे्रन से वह अपनी इकलौती बेटी नेहा के घर जा रही थीं. वह भी पूरे 2 साल बाद.

यद्यपि नेहा के विवाह को 2 साल से ऊपर हो चले थे मगर कुसुम को लगता था जैसे कल की बात हो. कुसुम के पति नेहा के जन्म के कुछ सालों के बाद ही चल बसे थे. उन के निधन के बाद कुसुम नन्ही नेहा को गोद में ले कर प्राकृतिक छटा से भरपूर उत्तराखंड के एक छोटे से कसबे में आ गईं. इस जगह ने कुसुम को वह सबकुछ दिया जो वह खो चुकी थीं. मानप्रतिष्ठा, नौकरी, घर और नेहा की परवरिश में हरसंभव सहायता.

कुसुम ने भी इन एहसानों को उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने छोटा सा स्कूल खोला, जो धीरेधीरे कालिज के स्तर तक पहुंच गया. उन्हीं की वजह से कसबे में सर्वशिक्षा अभियान को सफलता मिली.

कुसुम के पड़ोसी घनश्यामजी जब भी नेहा को देखते कुसुम से यही कहते, ‘बहनजी, इस प्यारी सी बच्ची को तो मैं अपने परिवार में ही लाऊंगा,’ और समय आने पर उन्होंने अपनी बात रखते हुए अपने भतीजे अनुज के लिए नेहा का हाथ मांग लिया.

अनुज एक संस्कारी और होनहार लड़का था. वह उत्तर प्रदेश सरकार के बिजली विभाग में इंजीनियर था. कुसुम ने नेहा को विवाह में देने के लिए कुछ रुपए जोड़ कर रखे थे, मगर अनुज ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि मुझे आप के आशीर्वाद के सिवा और कुछ नहीं चाहिए. मेरी पत्नी को मेरी कमाई से ही गृहस्थी चलानी होगी, अपने मायके से लाई हुई चीजों से नहीं. और उस की इस बात को सुन कर पल भर के लिए कुसुम अतीत में खो गई थीं.

उन के अपने विवाह के समय उन के पति ने भी ऐसा ही कुछ कह कर दहेज लेने से साफ मना कर दिया था. अपने दामाद में अपने दिवंगत पति के आदर्श देख कर कुसुम अभिभूत हो उठी थीं.

नेहा के विवाह के 2 महीने बाद कुसुम को कालिज के किसी काम से दिल्ली जाना था. लौटते हुए वह कुछ समय के लिए मेरठ में बेटीदामाद के घर रुकी थीं. बड़ा आत्मिक सुख मिला था कुसुम को नेहा का सुखी घरसंसार देख कर. हालांकि देखने में उन का घर किसी भी दृष्टि से सरकारी इंजीनियर का घर नहीं लग रहा था, फर्नीचर के नाम पर कुल 4 बेंत की कुरसियां थीं, 1 मेज और पुराना दीवान था. सामने स्टूल पर रखा छोटा ब्लैक एंड वाइट टीवी रखा था जो शायद अनुज के होस्टल के दिनों का साथी था. उन का घर महंगे इलेक्ट्रोनिक उपकरणों और फर्नीचर  से सजाधजा नहीं था मगर उन के प्रेम की जिस भीनीभीनी सुगंध ने उन के घर को महका रखा था उसे कुसुम ने भी महसूस किया था और वह बेटी की तरफ से पूरी तरह संतुष्ट हो खुशीखुशी अपने घर लौट आई थीं. आज वह एक बार फिर अपनी बेटी के घर की उसी सुगंध को महसूस करने जा रही थीं.

स्टेशन पर उतरने के बाद कुसुम की बेचैन आंखें बेटीदामाद को खोज रही थीं कि तभी पीछे से नेहा ने उन की आंखों पर हाथ रखरख कर उन्हें चौंका दिया. अनुज तो नहीं आ पाया था मगर नेहा अपनी मां को लेने ठीक समय पर पहुंच गई थी.

कुसुम ने बेटी को देखा तो वह कुछ बदलीबदली सी नजर आई थी, गाढ़े मेकअप की परत चढ़ा चेहरा, कीमती परिधान, हाथों और गले में रत्नजडि़त आभूषण. इन 2 सालों में तो जैसे उस का पूरा व्यक्तित्व ही बदल गया था. कुसुम सामान उठाने लगीं तो नेहा ने यह कहते रोक दिया,  ‘‘रहने दो, मम्मी, ड्राइवर उठा लेगा.’’

नेहा, मां को लेने सरकारी जीप में आई थी. जीप में बैठ नेहा मां को बताने लगी, ‘‘मम्मी, अनुज आजकल बड़े व्यस्त रहते हैं इसलिए मेरे साथ नहीं आ सके. हां, आप को लेने के लिए इन्होंने सरकारी जीप भेज दी है…हाल ही में इन का प्रमोशन हुआ है, बड़ी अच्छी जगह पोस्टिंग हुई है…उस जगह पर पोस्टिंग पाने के लिए इंजीनियर तरसते रहते हैं मगर इन को मिली…खूब कमाई वाला एरिया है…’’ इस के आगे के शब्द कुसुम नहीं सुन सकीं. नेहा के बदले व्यक्तित्व से वह पहले ही विचलित थीं. उन के मुंह से निकला, ‘कमाई वाला एरिया.’

नेहा की हर एक हरकत…हर एक बात उस की सोच में आए बदलाव का संकेत दे रही थी. उस की आंखों में बसी सादगी और संतुष्टि की जगह कुसुम को पैसे की चमक और अपने स्टेटस का प्रदर्शन करने की चाह नजर आ रही थी.

घर पहुंच कर कुसुम ने पाया कि घर भी नेहा की तरह उन के बढ़े हुए स्टेटस का खुल कर प्रदर्शन कर रहा है. आधुनिक साजसज्जा से युक्त घर में ऐशोआराम की हर एक चीज मौजूद थी.

‘‘लगता है, अनुज ने इन 2 सालों में काफी तरक्की कर ली है,’’ कुसुम ने चारों ओर दृष्टि घुमाते हुए पूछा.

‘‘अनुज ने कहां की है मम्मी, मैं ने जबरन इन के पीछे पड़ कर करवाई है… जब मैं ने देखा कि कभी इन के नीचे काम करने वाले कहां के कहां पहुंच गए और यह वहीं अटके पड़े हैं तो मुझ से रहा न गया…वैसे इन का बस चलता तो अभी तक हम उसी कबूतरखाने में पड़े रहते…’’

कुसुमजी समझ गईं कि उन की बेटी, शहर आ कर काफी सयानी हो गई है और पैसे बनाने की अंधी दौड़ में शामिल हो चुकी है. इस बात को ले कर वह गहन चिंता में डूब गईं.

‘‘अरे, मम्मी, आप अभी तक यों ही बैठी हैं, जल्दी से हाथमुंह धो कर फे्रश हो जाइए…खाना तैयार है…आप थकी होंगी, सो जल्दी खा कर सो जाइए…कल आराम से बातें करेंगे.’’

‘‘अनुज को आने दे…साथ ही डिनर करेंगे…वैसे बहुत देर हो गई है, कब तक आता है?’’

‘‘उन का तो कुछ भरोसा नहीं है, मम्मी, जब से प्रमोशन हुआ है अकसर देर से ही आते हैं…मैं तो समय पर खाना खा कर सो जाती हूं, क्योंकि ज्यादा देर से सोने से मेरी नींद उचट जाती है. वह जब आते हैं तो उन्हें नौकर खिला देता है.’’

‘‘मैं अनुज के साथ ही खाऊंगी, वैसे भी मुझे अभी भूख नहीं है, तुम चाहो तो खा कर सो जाओ…’’ कुसुम ने जवाब दिया.

थोड़ी ही देर में अनुज घर आया और आते ही कुसुम के चरण स्पर्श कर अभिवादन करते हुए बोला, ‘‘क्षमा करें, मम्मीजी, कुछ जरूरी काम आ गया था सो आप को लेने स्टेशन नहीं पहुंच सका.’’

‘‘कोई बात नहीं, बेटा,’’ कुसुमजी बोलीं, ‘‘मगर यह तुम्हें क्या हो गया है… तुम्हारी तो सूरत ही बदल गई है…माना काम जरूरी है पर अपना ध्यान भी तो रखना चाहिए…’’

सचमुच इस अनुज की सूरत 2 साल पहले वाले अनुज से बिलकुल मेल नहीं खाती थी…निस्तेज आंखें, बुझा चेहरा, झुके कंधे, निष्प्राण सा शरीर…उस का पूरा व्यक्तित्व ही बदल गया था.

‘‘बस, मम्मीजी, क्या कहूं…काम कुछ ज्यादा ही रहता है,’’ इतना कह कर वह नजरें झुकाए अपने कमरे में चला गया और वहां जा कर नेहा को आवाज लगाई, ‘‘नेहा, ये 20 हजार रुपए अलमारी में रख दो, ये घर पर ही रहेेंगे…बैंक में जमा मत कराना.’’

अनुज के कमरे से आ रही पतिपत्नी की धीमी आवाज ने कुसुम पर वज्रपात कर दिया. 20 हजार रुपए, वह भी महीने के आखिर में…कहीं ये रिश्वत की कमाई तो नहीं…नेहा कह भी रही थी कि खूब कमाई वाले एरिया में पोस्टिंग हुई है…तो इस का अर्थ है कि इन दोनों को पैसे की भूख ने इतना अंधा बना दिया है कि इन्होंने अपने संस्कार, नैतिकता और ईमानदारी को ताक पर रख दिया. नहीं…मैं ऐसा हरगिज नहीं होने दूंगी…कुछ भी हो इन्हें सही राह पर लाना ही होगा. मन में यह दृढ़ निश्चय कर वह सोने चली गईं.

आज रविवार था. अनुज घर पर ही था. उस के व्यवहार से कुसुमजी को लग रहा था जैसे वह घरपरिवार की तरफ से उदासीन हो कर अपने में ही खोया…गुमसुम सा…भीतर ही भीतर घुट रहा है…घर की हवा बता रही थी कि उन दोनों का प्यार मात्र औपचारिकताओं पर आ कर सिमट गया है, मगर नेहा इस माहौल में भी बेहद सुखी और संतुष्ट नजर आ रही थी और यही बात कुसुम को बुरी तरह कचोट रही थी.

‘‘मम्मी, आज इन की छुट्टी है. चलो, कहीं बाहर घूम कर आते हैं और आज लंच भी फाइव स्टार होटल में करेंगे,’’ नेहा ने चहकते हुए प्रस्ताव रखा.

‘‘नहीं…आज हम तीनों कहीं नहीं जाएंगे बल्कि घर पर ही रह कर ढेर सारी बात करेंगे…और हां, आज खाना मैं बनाऊंगी,’’ कुसुमजी ने नेहा के प्रस्ताव को नामंजूर करते हुए कहा.

‘‘वाह, मम्मीजी, मजा आ जाएगा, नौकरों के हाथ का खाना खाखा कर तो मेरी भूख ही मर गई,’’ अनुज ने नेहा पर कटाक्ष किया.

‘‘हां…हां, जब घर में नौकरचाकर हैं तो मैं क्यों रसोई का धुआं खाऊं,’’ नेहा ने प्रतिवाद किया.

‘‘तुम्हें मसालेदार छोले और भरवां भिंडी बहुत पसंद हैं न…वही बनाऊंगी,’’ कुसुमजी ने बात संभाली.

‘‘अरे, मम्मीजी, आप को मेरी पसंद अभी तक याद है…नेहा तो शायद भूल ही गई,’’ अनुज के एक और कटाक्ष से नेहा मुंह बनाते हुए वहां से उठ कर चली गई.

‘‘चलो, बाहर लौन में बैठ कर कुछ देर धूप सेंकी जाए. मुझे तुम दोनों से कुछ जरूरी बातें भी करनी हैं,’’ लंच से निबट कर कुसुम ने सुझाव रखा.

बाहर आ कर बैठते ही कुसुम की भावमुद्रा बेहद गंभीर हो गई. उन की नजरें शून्य में ऐसे ठहर गईं जैसे अतीत के कुछ खोए हुए लमहे तलाश कर रही हों. कुछ देर खुद को संयत कर उन्होंने बोलना शुरू किया, ‘‘आज मैं तुम दोनों के साथ अपनी कुछ ऐसी बातें शेयर करना चाहती हूं जिन का जानना तुम्हारे लिए बेहद जरूरी है. बात उन दिनों की है जब मैं नेहा के पापा से पहली बार मिली थी. वह भी अनुज की तरह ही सरकारी विभाग में इंजीनियर थे. बेहद ईमानदार और उसूलों के पक्के. वह ऐसे महकमे में थे जहां रिश्वत का लेनदेन एक आम बात थी मगर वह उस कीचड़ में भी कमल की तरह निर्मल थे. हम ने एकदूसरे को पसंद किया और शादी कर ली. उन की जिद के चलते हमारी शादी भी बड़ी सादगी से और बिना किसी दानदहेज के हुई थी. पहले उन की पोस्टिंग उत्तरकाशी में थी.

‘‘साल भर बाद उन का तबादला गाजियाबाद हो गया. वह एक औद्योगिक शहर है, जो ऊपरी कमाई की दृष्टि से बहुत अच्छा था. वहां हमें विभाग की सरकारी कालोनी में घर मिल गया. उन्होंने मुझे शुरू  से ही हिदायत दी थी कि मैं वहां सरकारी कालोनी में रह रहे बाकी इंजीनियरों की बीवियों और उन के रहनसहन की खुद से तुलना न करूं क्योंकि उन का उच्च स्तरीय जीवन उन के काले धन के कारण है, जो हमारे पास कभी नहीं होगा.

‘‘धीरेधीरे मेरा पासपड़ोस में मेलजोल बढ़ने लगा और न चाहते हुए भी मैं उन के ठाटबाट से प्रभावित होने लगी. मेरे मन में भी उन सब की देखादेखी ऐशोआराम से रहने की इच्छा जागने लगी. मुझे लगने लगा कि यह लेनदेन तो जगत व्यवहार का हिस्सा है, जब इस दुनिया में हर कोई पैसे बटोर कर अपना और अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित कर रहा है तो हम ही क्यों पीछे रहें…

‘‘बस, मैं ने अपनी सहेलियों के बहकावे में आ कर उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया मगर उन्होंने अपने आदर्शों के साथ समझौता करना नहीं स्वीकारा. मैं उन्हें ताने देती, उन के सहकर्मियों की तरक्की का हवाला देती, यहां तक कि मैं ने उन्हें एक असफल पति भी करार दिया, मगर वह नहीं झुके.

‘‘इन्हीं उलझनों के बीच मैं गर्भवती हुई तो वह तमाम मतभेदों को भूल कर बेहद खुश थे. मैं ने उन से स्पष्ट कह दिया कि मैं इस हीनता भरे दमघोंटू माहौल में किसी बच्चे को जन्म नहीं दूंगी. हमारे घर संतान तभी होगी जब तुम अपने खोखले आदर्शों का चोगा उतार कर बाकी लोगों की तरह ही घर में हमारे और बच्चे के लिए तमाम सुखसुविधाओं को जुटाने का वचन दोगे. मुझे गर्भपात कराने पर उतारू देख तुम्हारे पिता टूट गए और धीरेधीरे धन पानी की तरह बरसने लगा…घर सुखसुविधाओं की चीजों से भरता चला गया.

‘‘मैं ने जो चाहा सो पा लिया, मगर तुम्हारे पिता का प्यार खो दिया. उस समय मेरी आंखों पर माया का ऐसा परदा पड़ा था कि मुझे इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ा कि वह किसी मशीन की भांति काम करते जा रहे थे और मैं अपने ऊंचे स्टेटस के मद में पागल थी.

‘‘फिर तुम्हारा जन्म हुआ, तुम्हारे आने के बाद तुम्हारे भविष्य के लिए धन जमा करने की तृष्णा भी बढ़ गई. सबकुछ मेरी इच्छानुसार ही चल रहा था कि एक दिन अचानक…’’

कुसुमजी की वाणी कुछ पल के लिए थम गई और उन की आंखें नम हो गईं….

‘‘एक दिन क्या हुआ, मम्मी?’’ नेहा ने विस्मित स्वर से पूछा.

‘‘…आफिस से खबर आई कि तुम्हारे पिता को भ्रष्टाचार विरोधी दस्ते ने धर दबोचा. अखबार में नाम आया…खूब फजीहत हुई और फिर मुकदमे के बाद उन्हें जेल भेज दिया गया…जेल जाते हुए उन्होंने मुझ को जिस हिकारत की नजर से देखा था वह मैं कभी भूल नहीं सकती…वह चुप थे, मगर उन की चमकती संतुष्ट नजरें जैसे कह रही थीं कि वह मुझे यों असहाय, भयभीत और अपमानित देख कर बेहद खुश थे.

‘‘बाद में पता चला कि उन्होंने अपनी इच्छा से ही खुद को गिरफ्तार करवाया था और अपना सब कच्चा चिट्ठा अदालत में खोल कर रख दिया था…मुझे दंडित करने का यही तरीका चुना था उन्होंने…जेल में वह कभी मुझ से नहीं मिले और एक दिन पता चला कि वहां उन का देहांत हो गया है…’’

इतना बता कर कुसुमजी फूटफूट कर रो पड़ीं…बरसों से बह रहे पश्चाताप के आंसू अभी भी सूखे नहीं थे…

‘‘मम्मी, इतनी तीक्ष्ण पीड़ा आप ने इतने साल कैसे छिपा कर रखी…मुझे तो कभी आभास भी नहीं होने दिया.’’

‘‘मन में अपार ग्लानि थी. बस, यही साध थी मन में कि बाकी जीवन उन के आदर्शों पर चल कर ही बिताऊं और तुम्हें भी तुम्हारे पिता के संस्कार दूं. मैं अब बूढ़ी हो चली हूं, पता नहीं कितने दिनों की मेहमान हूं…और कुछ तो नहीं है मेरे पास, बस यह आपबीती तुम दोनों को धरोहर के रूप में दे रही हूं…

‘‘वैसे, मैं ने देखा है कि  जो रिश्वत लेते हैं वे शराबीकबाबी हो जाते हैं और रातरात भर गायब रहते हैं. उन पर काम का भरोसा नहीं किया जा सकता है. और उन्हें छोटेमोटे प्रमोशन ही मिल पाते हैं. बेटी, इंजीनियरिंग ऐसा काम नहीं कि दोचार घंटे गए और हो गया. घंटों किताबों में मगजमारी करनी होती है और जिस को रिश्वत मिलती है, वह किताबों में नहीं पार्टियों में समय बिताता है, हो सकता है तुम्हें ये बातें बुरी लग जाएं पर मेरा अनुभव है. तुम्हारे पिता के जाने के बाद मैं यही तो देखती रही कि मैं गलत थी या तुम्हारे पिता,’’ कुसुम ने बात खत्म करते हुए कहा.

‘‘जरूर काम आएंगी मम्मी,… तुम्हारी यह धरोहर अब कभी मेरे कदम लड़खड़ाने नहीं देगी,’’ नेहा अपनी मां से लिपट गई. उस की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे जिन के साथ उस के भीतर छिपी न जाने कितनी तृष्णाएं भी बही जा रही थीं.

दो भूत : उर्मिल ने अम्माजी को दी अनोखी राहत

मेरी निगाह कलैंडर की ओर गई तो मैं एकदम चौंक पड़ी…तो आज 10 तारीख है. उर्मिल से मिले पूरा एक महीना हो गया है. कहां तो हफ्ते में जब तक चार बार एकदूसरे से नहीं मिल लेती थीं, चैन ही नहीं पड़ता था, कहां इस बार पूरा एक महीना बीत गया. घड़ी पर निगाह दौड़ाई तो देखा कि अभी 11 ही बजे हैं और आज तो पति भी दफ्तर से देर से लौटेंगे. सोचा क्यों न आज उर्मिल के यहां ही हो आऊं. अगर वह तैयार हो तो बाजार जा कर कुछ खरीदारी भी कर ली जाए. बाजार उर्मिल के घर से पास ही है. बस, यह सोच कर मैं घर में ताला लगा कर चल पड़ी. उर्मिल के यहां पहुंच कर घंटी बजाई तो दरवाजा उसी ने खोला. मुझे देखते ही वह मेरे गले से लिपट गई और शिकायतभरे लहजे में बोली, ‘‘तुझे इतने दिनों बाद मेरी सुध आई?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं तो आखिर चली भी आई पर तू तो जैसे मुझे भूल ही गई.’’

‘‘तुम तो मेरी मजबूरियां जानती ही हो.’’

‘‘अच्छा भई, छोड़ इस किस्से को. अब क्या बाहर ही खड़ा रखेगी?’’

‘‘खड़ा तो रखती, पर खैर, अब आ गई है तो आ बैठ.’’

‘‘अच्छा, क्या पिएगी, चाय या कौफी?’’ उस ने कमरे में पहुंच कर कहा.

‘‘कुछ भी पिला दे. तेरे हाथ की तो दोनों ही चीजें मुझे पसंद हैं.’’

‘‘बहूरानी, कौन आया है?’’ तभी अंदर से आवाज आई.

‘‘उर्मिल, कौन है अंदर? अम्माजी आई हुई हैं क्या? फिर मैं उन के ही पास चल कर बैठती हूं. तू अपनी चाय या कौफी वहीं ले आना.’’

अंदर पहुंच कर मैं ने अम्माजी को प्रणाम किया और पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है अब आप की?’’

‘‘बस, तबीयत तो ऐसी ही चलती रहती है, चक्कर आते हैं. भूख नहीं लगती.’’

‘‘डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘डाक्टर क्या कहेंगे. कहते हैं आप दवाएं बहुत खाती हैं. आप को कोई बीमारी नहीं है. तुम्हीं देखो अब रमा, दवाओं के बल पर तो चल भी रही हूं, नहीं तो पलंग से ही लग जाती,’’ यह कह कर वे सेब काटने लगीं.

‘‘सेब काटते हुए आप का हाथ कांप रहा है. लाइए, मैं काट दूं.’’

‘‘नहीं, मैं ही काट लूंगी. रोज ही काटती हूं.’’

‘‘क्यों, क्या उर्मिल काट कर नहीं देती?’’

‘‘तभी उर्मिल ट्रे में चाय व कुछ नमकीन ले कर आ गई और बोली, ‘‘यह उर्मिल का नाम क्यों लिया जा रहा था?’’

‘‘उर्मिल, यह क्या बात है? अम्माजी का हाथ कांप रहा है और तुम इन्हें एक सेब भी काट कर नहीं दे सकतीं?’’

‘‘रमा, तू चाय पी चुपचाप. अम्माजी ने एक सेब काट लिया तो क्या हो गया.’’

‘‘हांहां, बहू, मैं ही काट लूंगी. तुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है,’’ तनाव के कारण अम्माजी की सांस फूल गई थी.

मैं उर्मिल को दूसरे कमरे में ले गई और बोली, ‘‘उर्मिल, तुझे क्या हो गया है?’’

‘‘छोड़ भी इस किस्से को? जल्दी चाय खत्म कर, फिर बाजार चलें,’’ उर्मिल हंसती हुई बोली.

मैं ठगी सी उसे देखती रह गई. क्या यह वही उर्मिल है जो 2 वर्ष पूर्व रातदिन सास का खयाल रखती थी, उन का एकएक काम करती थी, एकएक चीज उन को पलंग पर हाथ में थमाती थी. अगर कभी अम्माजी कहतीं भी, ‘अरी बहू, थोड़ा काम मुझे भी करने दिया कर,’ तो हंस कर कहती, ‘नहीं, अम्माजी, मैं किस लिए हूं? आप के तो अब आराम करने के दिन हैं.’

तभी उर्मिल ने मुझे झिंझोड़ दिया, ‘‘अरे, कहां खो गई तू? चल, अब चलें.’’

‘‘हां.’’

‘‘और हां, तू खाना भी यहां खाना. अम्माजी बना लेंगी.’’

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, ‘‘उर्मिल, तुझे हो क्या गया है?’’

‘‘कुछ नहीं, अम्माजी बना लेंगी. इस में बुरा क्या है?’’

‘‘नहीं, उर्मिल, चल दोनों मिल कर सब्जीदाल बना लेते हैं और अम्माजी के लिए रोटियां भी बना कर रख देते हैं. जरा सी देर में खाना बन जाएगा.’’

‘‘सब्जी बन गई है, दालरोटी अम्माजी बना लेंगी, जब उन्हें खानी होगी.’’

‘‘हांहां, मैं बना लूंगी. तुम दोनों जाओ,’’ अम्माजी भी वहीं आ गई थीं.

‘‘पर अम्माजी, आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही है, हाथ भी कांप रहे हैं,’’ मैं किसी भी प्रकार अपने मन को नहीं समझा पा रही थी.

‘‘बेटी, अब पहले का समय तो रहा नहीं जब सासें राज करती थीं. बस, पलंग पर बैठना और हुक्म चलाना. बहुएं आगेपीछे चक्कर लगाती थीं. अब तो इस का काम न करूं तो दोवक्त का खाना भी न मिले,’’ अम्माजी एक लंबी सांस ले कर बोलीं.

‘‘अरे, अब चल भी, रमा. अम्माजी, मैं ने कुकर में दाल डाल दी है. आटा भी तैयार कर के रख दिया है.’’

बाजार जाते समय मेरे विचार फिर अतीत में दौड़ने लगे. बैंक उर्मिल के घर के पास ही था. एक सुबह अम्माजी ने कहा, ‘मैं बैंक जा कर रुपए जमा कर ले आती हूं.’

‘नहीं अम्माजी, आप कहां जाएंगी, मैं चली जाऊंगी,’ उर्मिल ने कहा था.

‘नहीं, तुम कहां जाओगी? अभी तो अस्पताल जा रही हो.’

‘कोई बात नहीं, अस्पताल का काम कर के चली जाऊंगी.’

और फिर उर्मिल ने अम्माजी को नहीं जाने दिया था. पहले वह अस्पताल गई जो दूसरी ओर था और फिर बैंक. भागतीदौड़ती सारा काम कर के लौटी तो उस की सांस फूल आई थी. पर उर्मिल न जाने किस मिट्टी की बनी हुई थी कि कभी खीझ या थकान के चिह्न उस के चेहरे पर आते ही न थे.

उर्मिल की भागदौड़ देख कर एक दिन जीजाजी ने भी कहा था,

‘भई, थोड़ा काम मां को भी कर लेने दिया करो. सारा दिन बैठे रहने से तो उन की तबीयत और खराब होगी और खाली रहने से तबीयत ऊबेगी भी.’

इस पर उर्मिल उन से झगड़ पड़ी थी, ‘आप भी क्या बात करते हैं? अब इन की कोई उम्र है काम करने की? अब तो इन से तभी काम लेना चाहिए जब हमारे लिए मजबूरी हो.’

बेचारे जीजाजी चुप हो गए थे और फिर कभी सासबहू के बीच में नहीं बोले.  मैं इन्हीं विचारों में खोई थी कि उर्मिल ने कहा, ‘‘लो, बाजार आ गया.’’ यह सुन कर मैं विचारों से बाहर आई.

बाजार में हम दोनों ने मिल कर खरीदारी की. सूरज सिर पर चढ़ आया था. पसीने की बूंदें माथे पर झलक आई थीं. दोनों आटो कर के घर पहुंचीं. अम्माजी ने सारा खाना तैयार कर के मेज पर लगा रखा था. 2 थालियां भी लगा रखी थीं. मेरा दिल भर आया.

अम्माजी बोलीं, ‘‘तुम लोग हाथ धो कर खाना खा लो. बहुत देर हो गई है.’’

‘‘अम्माजी, आप?’’  मैं ने कहा.

‘‘मैं ने खा लिया है. तुम लोग खाओ, मैं गरमगरम रोटियां सेंक कर लाती हूं.’’

मैं अम्माजी के स्नेहभरे चेहरे को देखती रही और खाना खाती रही. पता नहीं अम्माजी की गरम रोटियों के कारण या भूख बहुत लग आने के कारण खाना बहुत स्वादिष्ठ लगा. खाना खा कर अम्माजी को स्वादिष्ठ खाने के लिए धन्यवाद दे कर मैं अपने घर लौट आई.

कुछ दिनों बाद एक दिन जब मैं उर्मिल के घर पहुंची तो दरवाजा थोड़ा सा खुला था. मैं धीरे से अंदर घुसी और उर्मिल को आवाज लगाने ही वाली थी कि उस की व अम्माजी की मिलीजुली आवाज सुन कर चौंक पड़ी. मैं वहीं ओट में खड़ी हो कर सुनने लगी.

‘‘सुनो, बहू, तुम्हारी लेडीज क्लब की मीटिंग तो मंगलवार को ही हुआ करती है न? तू बहुत दिनों से उस में गई नहीं.’’

‘‘पर समय ही कहां मिलता है, अम्माजी?’’

‘‘तो ऐसा कर, तू आज हो आ. आज भी मंगलवार ही है न?’’

‘‘हां, अम्माजी, पर मैं न जा सकूंगी. अभी तो काम पड़ा है. खाना भी बनाना है.’’

‘‘उस की चिंता न कर. मुझे बता दे, क्याक्या बनेगा.’’

‘‘अम्माजी, आप सारा खाना कैसे बना पाएंगी? वैसे ही आप की तबीयत ठीक नहीं रहती है.’’

‘‘बहू, तू क्या मुझे हमेशा बुढि़या और बीमार ही बनाए रखेगी?’’

‘‘अम्माजी मैं…मैं…तो…’’

‘‘हां, तू. मुझे इधर कई दिनों से लग रहा है कि कुछ न करना ही मेरी सब से बड़ी बीमारी है, और सारे दिन पड़ेपड़े कुढ़ना मेरा बुढ़ापा. जब मैं कुछ काम में लग जाती हूं तो मुझे लगता है मेरी बीमारी ठीक हो गई है और बुढ़ापा कोसों दूर चला गया है.’’

‘‘अम्माजी, यह आप कह रही हैं?’’ उर्मिल को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.

‘‘हां, मैं. इधर कुछ दिनों से तू ने देखा नहीं कि मेरी तबीयत कितनी सुधर गई है. तू चिंता न कर. मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे जहां जाना है जा. आज शाम को सुधीर के साथ किसी पार्टी में भी जाना है न? मेरी वजह से कार्यक्रम स्थगित मत करना. यहां का सब काम मैं देख लूंगी.’’

‘‘ओह अम्माजी,’’  उर्मिल अम्माजी से लिपट गई और रो पड़ी.

‘‘यह क्या, पगली, रोती क्यों है?’’ अम्माजी ने उसे थपथपाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी, मेरे कान कब से यह सुनने को तरस रहे थे कि आप बूढ़ी नहीं हैं और काम कर सकती हैं. मैं ने इस बीच आप से जो कठोर व्यवहार किया, उस के लिए क्षमा चाहती हूं.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. चल जा, जल्दी उठ. क्लब की मीटिंग का समय हो रहा है.’’

‘‘अम्माजी, अब तो नहीं जाऊंगी आज. हां, आज बाजार हो आती हूं. बच्चों की किताबें और सुधीर के लिए शर्ट लेनी है.’’

‘‘तो बाजार ही हो आ. रमा को भी फोन कर देती तो दोनों मिल कर चली जातीं.’’

‘‘अम्माजी, प्रणाम. आप ने याद किया और रमा हाजिर है.’’

‘‘अरी, तू कब से यहां खड़ी थी?’’

‘‘अभी, बस 2 मिनट पहले आई थी.’’

‘‘तो छिप कर हमारी बातें सुन रही थी, चोर कहीं की.’’

‘‘क्या करती? तुम सासबहू की बातचीत ही इतनी दिलचस्प थी कि अपने को रोकना जरूरी लगा.’’

‘‘तुम दोनों बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ अम्माजी रसोई की ओर बढ़ गईं.

मैं अपने को रोक न पाई. उर्मिल से पूछ ही बैठी, ‘‘यह सब क्या हो रहा था? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया. यह माफी कैसी मांगी जा रही थी?’’

‘‘रमा, याद है, उस दिन, तू मुझ से बारबार मेरे बदले हुए व्यवहार का कारण पूछ रही थी. बात यह है रमा, अम्माजी के सिर पर दो भूत सवार थे. उन्हें उतारने के लिए मुझे नाटक करना पड़ा.’’

‘‘दो भूत? नाटक? यह सब क्या है? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा. पहेलियां न बुझा, साफसाफ बता.’’

‘‘बता तो रही हूं, तू उतावली क्यों है? अम्माजी के सिर पर चढ़ा पहला भूत था उन का यह समझ लेना कि बहू आ गई है, उस का कर्तव्य है कि वह प्राणपण से सास की सेवा और देखभाल करे, और सास होने के नाते उन का अधिकार है दिनभर बैठे रहना और हुक्म चलाना. अम्माजी अच्छीभली चलफिर रही होती थीं तो भी अपने इन विचारों के कारण चायदूध का समय होते ही बिस्तर पर जा लेटतीं ताकि मैं सारी चीजें उन्हें बिस्तर पर ही ले जा कर दूं. उन के जूठे बरतन मैं ही उठा कर रखती थी. मेरे द्वारा बरतन उठाते ही वे फिर उठ बैठती थीं और इधरउधर चहलकदमी करने लगती थीं.’’

‘‘अच्छा, दूसरा भूत कौन सा था?’’

‘‘दूसरा भूत था हरदम बीमार रहने का. उन के दिमाग में घुस गया था कि हर समय उन को कुछ न कुछ हुआ रहता है और कोई उन की परवा नहीं करता. डाक्टर भी जाने कैसे लापरवाह हो गए हैं. न जाने कैसी दवाइयां देते हैं, फायदा ही नहीं करतीं.’’

‘‘भई, इस उम्र में कुछ न कुछ तो लगा ही रहता है. अम्माजी दुबली भी तो हो गई हैं,’’ मैं कुछ शिकायती लहजे में बोली.

‘‘मैं इस से कब इनकार करती हूं, पर यह तो प्रकृति का नियम है. उम्र के साथसाथ शक्ति भी कम होती जाती है. मुझे ही देख, कालेज के दिनों में जितनी भागदौड़ कर लेती थी उतनी अब नहीं कर सकती, और जितनी अब कर लेती हूं उतनी कुछ समय बाद न कर सकूंगी. पर इस का यह अर्थ तो नहीं कि हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाऊं,’’ उर्मिल ने मुझे समझाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी की सब से बड़ी बीमारी है निष्क्रियता. उन के मस्तिष्क में बैठ गया था कि वे हर समय बीमार रहती हैं, कुछ नहीं कर सकतीं. अगर मैं अम्माजी की इस भावना को बना रहने देती तो मैं उन की सब से बड़ी दुश्मन होती. आदमी कामकाज में लगा रहे तो अपने दुखदर्द भूल जाता है और शरीर में रक्त का संचार बढ़ता है, जिस से वह स्वस्थ अनुभव करता है, और फिर व्यस्त रहने से चिड़चिड़ाता भी नहीं रहता.’’

मुझे अचानक हंसी आ गई. ‘‘ले भई, तू ने तो डाक्टरी, फिलौसफी सब झाड़ डाली.’’

‘‘तू चाहे जो कह ले, असली बात तो यही है. अम्माजी को अपने दो भूतों के दायरे से निकालने का एक ही उपाय था कि…’’

‘‘तू उन की अवहेलना करे, उन्हें गुस्सा दिलाए जिस से चिढ़ कर वे काम करें और अपनी शक्ति को पहचानें. यही न?’’  मैं ने वाक्य पूरा कर दिया.

‘‘हां, तू ने ठीक समझा. यद्यपि गुस्सा और उत्तेजना शरीर और हृदय के लिए हानिकारक समझे जाते हैं पर कभीकभी इन का होना भी मनुष्य के रक्तसंचार को गति देने के लिए आवश्यक है. एकदम ठंडे मनुष्य का तो रक्त भी ठंडा हो जाता है. बस, यही सोच कर मैं अम्माजी को जानबूझ कर उत्तेजित करती थी.’’

‘‘कहती तो तू ठीक है.’’

‘‘तू मेरे नानाजी से तो मिली है न?’’

‘‘हां, शादी से पहले मिली थी एक बार.’’

‘‘जानती है, कुछ दिनों में वे 95 वर्ष के हो जाएंगे. आज भी वे कचहरी जाते हैं. जितना कर पाते हैं, काम करते हैं. कई बार रातरातभर अध्ययन भी करते हैं. अब भी दोनों समय घूमने जाते हैं.’’

‘‘इस उम्र में भी?’’  मुझे आश्चर्य हो रहा था.

‘‘हां, उन की व्यस्तता ही आज भी उन्हें चुस्त रखे हुए है. भले ही वे बीमार से रहते हैं, फिर भी उन्होंने उम्र से हार नहीं मानी है.’’

मैं ने आंख भर कर अपनी इस सहेली को देखा जिस की हर टेढ़ी बात में भी कोई न कोई अच्छी बात छिपी रहती है. ‘‘अच्छा एक बात तो बता, क्या जीजाजी को पता था? उन्हें अपनी मां के प्रति तेरा यह रूखा व्यवहार चुभा नहीं?’’

‘‘उन्होंने एकदो बार कहा, पर मैं ने उन्हें यह कह कर चुप करा दिया कि यह सासबहू का मामला है, आप बीच में न ही बोलें तो अच्छा है.’’

मैं चाय पीते समय कभी हर्ष और आत्मसंतोष से दमकते अम्माजी के चेहरे को देख रही थी, कभी उर्मिल को. आज फिर एक बार उस का बदला रूप देख कर पिछले माह की उर्मिल से तालमेल बैठाने का प्रयत्न कर रही थी.

लक्ष्मण रेखा : सब्र का दूसरा नाम थीं मिसेज राजीव

मेहमानों की भीड़ से घर खचाखच भर गया था. एक तो शहर के प्रसिद्ध डाक्टर, उस पर आखिरी बेटे का ब्याह. दोनों तरफ के मेहमानों की भीड़ लगी हुई थी. इतना बड़ा घर होते हुए भी वह मेहमानों को अपने में समा नहीं पा रहा था. कुछ रिश्ते दूर के होते हुए भी या कुछ लोग बिना रिश्ते के भी बहुत पास के, अपने से लगने लगते हैं और कुछ नजदीकी रिश्ते के लोग भी पराए, बेगाने से लगते हैं, सच ही तो है. रिश्तों में क्या धरा है? महत्त्व तो इस बात का है कि अपने व्यक्तित्व द्वारा कौन किस को कितना आकृष्ट करता है.

तभी तो डाक्टर राजीव के लिए शुभदा उन की कितनी अपनी बन गई थी. क्या लगती है शुभदा उन की? कुछ भी तो नहीं. आकर्षक व्यक्तित्व के धनी डाक्टर राजीव सहज ही मिलने वालों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं. उन की आंखों में न जाने ऐसा कौन सा चुंबकीय आकर्षण है जो देखने वालों की नजरों को बांध सा देता है. अपने समय के लेडीकिलर रहे हैं डाक्टर राजीव. बेहद खुशमिजाज. जो भी युवती उन्हें देखती, वह उन जैसा ही पति पाने की लालसा करने लगती. डाक्टर राजीव दूल्हा बन जब ब्याहने गए थे, तब सभी लोग दुलहन से ईर्ष्या कर उठे थे. क्या मिला है उन्हें ऐसा सजीला गुलाब सा दूल्हा. गुलाब अपने साथ कांटे भी लिए हुए है, यह कुछ सालों बाद पता चला था. अपनी सुगंध बिखेरता गुलाब अनायास कितने ही भौंरों को भी आमंत्रित कर बैठता है. शुभदा भी डाक्टर राजीव के व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उन की तरफ खिंची चली आई थी.

बौद्धिक स्तर पर आरंभ हुई उन की मित्रता दिनप्रतिदिन घनिष्ठ होती गई थी और फिर धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के लिए अपरिहार्य बन गए थे. मिसेज राजीव पति के बौद्धिक स्तर पर कहीं भी तो नहीं टिकती थीं. बहुत सीधे, सरल स्वभाव की उषा बौद्धिक स्तर पर पति को न पकड़ पातीं, यों उन का गठा बदन उम्र को झुठलाता गौरवर्ण, उज्ज्वल ललाट पर सिंदूरी गोल बड़ी बिंदी की दीप्ति ने बढ़ती अवस्था की पदचाप को भी अनसुना कर दिया था. गहरी काली आंखें, सीधे पल्ले की साड़ी और गहरे काले केश, वे भारतीयता की प्रतिमूर्ति लगती थीं. बहुत पढ़ीलिखी न होने पर भी आगंतुक सहज ही बातचीत से उन की शिक्षा का परिचय नहीं पा सकता था. समझदार, सुघड़, सलीकेदार और आदर्श गृहिणी. आदर्श पत्नी व आदर्श मां की वे सचमुच साकार मूर्ति थीं. उन से मिलते ही दिल में उन के प्रति अनायास ही आकर्षण, अपनत्व जाग उठता, आश्चर्य होता था यह देख कर कि किस आकर्षण से डाक्टर राजीव शुभदा की तरफ झुके. मांसल, थुलथुला शरीर, उम्र को जबरन पीछे ढकेलता सौंदर्य, रंगेकटे केश, नुची भौंहें, निरंतर सौंदर्य प्रसाधनों का अभ्यस्त चेहरा. असंयम की स्याही से स्याह बना चेहरा सच्चरित्र, संयमी मिसेज राजीव के चेहरे के सम्मुख कहीं भी तो नहीं टिकता था.

एक ही उम्र के माइलस्टोन को थामे खड़ी दोनों महिलाओं के चेहरों में बड़ा अंतर था. कहते हैं सौंदर्य तो देखने वालों की आंखों में होता है. प्रेमिका को अकसर ही गिफ्ट में दिए गए महंगेमहंगे आइटम्स ने भी प्रतिरोध में मिसेज राजीव की जबान नहीं खुलवाई. प्रेमी ने प्रेमिका के भविष्य की पूरी व्यवस्था कर दी थी. प्रेमिका के समर्पण के बदले में प्रेमी ने करोड़ों रुपए की कीमत का एक घर बनवा कर उसे भेंट किया था. शाहजहां की मलिका तो मरने के बाद ही ताजमहल पा सकी थी, पर शुभदा तो उस से आगे रही. प्रेमी ने प्रेमिका को उस के जीतेजी ही ताजमहल भेंट कर दिया था. शहरभर में इस की चर्चा हुई थी. लेकिन डाक्टर राजीव के सधे, कुशल हाथों ने मर्ज को पकड़ने में कभी भूल नहीं की थी. उस पर निर्धनों का मुफ्त इलाज उन्हें प्रतिष्ठा के सिंहासन से कभी नीचे न खींच सका था.

जिंदगी को जीती हुई भी जिंदगी से निर्लिप्त थीं मिसेज राजीव. जरूरत से भी कम बोलने वाली. बरात रवाना हो चुकी थी. यों तो बरात में औरतें भी गई थीं पर वहां भी शुभदा की उपस्थिति स्वाभाविक ही नहीं, अनिवार्य भी थी. मिसेज राजीव ने ‘घर अकेला नहीं छोड़ना चाहिए’ कह कर खुद ही शुभदा का मार्ग प्रशस्त कर दिया था. मां मिसेज राजीव की दूर की बहन लगती हैं. बड़े आग्रह से पत्र लिख उन्होंने हमें विवाह में शामिल होने का निमंत्रण भेजा था. सालों से बिछुड़ी बहन इस बहाने उन से मिलने को उत्सुक हो उठी थी.

बरात के साथ न जा कर मिसेज राजीव ने उस स्थिति की पुनरावृत्ति से बचना चाहा था जिस में पड़ कर उन्हें उस दिन अपनी नियति का परिचय प्राप्त हो गया था. डाक्टर राजीव काफी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे. डाक्टरों के अनुसार उन का एक छोटा सा औपरेशन करना जरूरी था. औपरेशन का नाम सुनते ही लोगों का दिल दहल उठता है.

परिणामस्वरूप ससुराल से भी रिश्तेदार उन्हें देखने आए थे. अस्पताल में शुभदा की उपस्थिति, उस पर उसे बीमार की तीमारदारी करती देख ताईजी के तनबदन में आग लग गई थी. वे चाह कर भी खुद को रोक न सकी थीं. ‘कौन होती हो तुम राजीव को दवा पिलाने वाली? पता नहीं क्याक्या कर के दिनबदिन इसे दीवाना बनाती जा रही है. इस की बीवी अभी मरी नहीं है,’ ताईजी के कर्कश स्वर ने सहसा ही सब का ध्यान आकर्षित कर लिया था.

अपराधिनी सी सिर झुकाए शुभदा प्रेमी के आश्वासन की प्रतीक्षा में दो पल खड़ी रह सूटकेस उठा कर चलने लगी थी कि प्रेमी के आंसुओं ने उस का मार्ग अवरुद्ध कर दिया था. उषा पूरे दृश्य की साक्षी बन कर पति की आंखों की मौन प्रार्थना पढ़ वहां से हट गई थी. पत्नी के जीवित रहते प्रेमिका की उपस्थिति, सबकुछ कितना साफ खुला हुआ. कैसी नारी है प्रेमिका? दूसरी नारी का घर उजाड़ने को उद्यत. कैसे सब सहती है पत्नी? परनारी का नाम भी पति के मुख से पत्नी को सहन नहीं हो पाता. सौत चाहे मिट्टी की हो या सगी बहन, कौन पत्नी सह सकी है?

पिता का आचरण बेटों को अनजान?े ही राह दिखा गया था. मझले बेटे के कदम भी बहकने लगे थे. न जाने किस लड़की के चक्कर में फंस गया था कि चतुर शुभदा ने बिगड़ती बात को बना लिया. न जाने किन जासूसों के बूते उस ने अपने प्रेमी के सम्मान को डूबने से बचा लिया. लड़के की प्रेमिका को दूसरे शहर ‘पैक’ करा के बेटे के पैरों में विवाह की बेडि़यां पहना दीं. सभी ने कल्पना की थी बापबेटे के बीच एक जबरदस्त हंगामा होने की, पर पता नहीं कैसा प्रभुत्व था पिता का कि बेटा विवाह के लिए चुपचाप तैयार हो गया. ‘ईर्ष्या और तनावों की जिंदगी में क्यों घुट रही हो?’ मां ने उषा को कुरेदा था.

एकदम चुप रहने वाली मिसेज राजीव उस दिन परत दर परत प्याज की तरह खुलती चली गई थीं. मां भी बरात के साथ नहीं गई थीं. घर में 2 नौकरों और उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था. इतने लंबे अंतराल में इतना कुछ घटित हो गया, मां को कुछ लिखा भी नहीं. मातृविहीन सौतेली मां के अनुशासन में बंधी उषा पतिगृह में भी बंदी बन कर रह गई थी. मां ने उषा की दुखती रग पर हाथ धर दिया था. वर्षों से मन ही मन घुटती मिसेज राजीव ने मां का स्नेहपूर्ण स्पर्श पा कर मन में दबी आग को उगल दिया था. ‘मैं ने यह सब कैसे सहा, कैसे बताऊं? पति पत्नी को मारता है तो शारीरिक चोट ही देता है, जिसे कुछ समय बाद पत्नी भूल भी जाती है पर मन की चोट तो सदैव हरी रहती है. ये घाव नासूर बनते जाते हैं, जो कभी नहीं भरते.

‘पत्नीसुलभ अधिकारों को पाने के लिए विद्रोह तो मैं ने भी करना चाहा था पर निर्ममता से दुत्कार दी गई. जब सभी राहें बंद हों तो कोई क्या कर सकता है? ‘ऊपर से बहुत शांत दिखती हूं न? ज्वालामुखी भी तो ऊपर से शांत दिखता है, लेकिन अपने अंदर वह जाने क्याक्या भरे रहता है. कलह से कुछ बनता नहीं. डरती हूं कि कहीं पति को ही न खो बैठूं. आज वे उसे ब्याह कर मेरी छाती पर ला बिठाएं या खुद ही उस के पास जा कर रहने लगें तो उस स्थिति में मैं क्या कर लूंगी?

‘अब तो उस स्थिति में पहुंच गई हूं जहां मुझे कुछ भी खटकता नहीं. प्रतिदिन बस यही मनाया करती हूं कि मुझे सबकुछ सहने की अपारशक्ति मिले. कुदरत ने जिंदगी में सबकुछ दिया है, यह कांटा भी सही. ‘नारी को जिंदगी में क्या चाहिए? एक घर, पति और बच्चे. मुझे भी यह सभीकुछ मिला है. समय तो उस का खराब है जिसे कुदरत कुछ देती हुई कंजूसी कर गई. न अपना घर, न पति और न ही बच्चे. सिर्फ एक अदद प्रेमी.’

उषा कुछ रुक कर धीमे स्वर में बोली, ‘दीदी, कृष्ण की भी तो प्रेमिका थी राधा. मैं अपने कृष्ण की रुक्मिणी ही बनी रहूं, इसी में संतुष्ट हूं.’ ‘लोग कहते हैं, तलाक ले लो. क्या यह इतना सहज है? पुरुषनिर्मित समाज में सब नियम भी तो पुरुषों की सुविधा के लिए ही होते हैं. पति को सबकुछ मानो, उन्हें सम्मान दो. मायके से स्त्री की डोली उठती है तो पति के घर से अर्थी. हमारे संस्कार तो पति की मृत्यु के साथ ही सती होना सिखाते हैं. गिरते हुए घर को हथौड़े की चोट से गिरा कर उस घर के लोगों को बेघर नहीं कर दिया जाता, बल्कि मरम्मत से उस घर को मजबूत बना उस में रहने वालों को भटकने से बचा लिया जाता है.

‘तनाव और घुटन से 2 ही स्थितियों में छुटकारा पाया जा सकता है या तो उस स्थिति से अपने को अलग करो या उस स्थिति को अपने से काट कर. दोनों ही स्थितियां इतनी सहज नहीं. समाज द्वारा खींची गई लक्ष्मणरेखा को पार कर सकना मेरे वश की बात नहीं.’

मिसेज राजीव के उद्गार उन की समझदारी के परिचायक थे. कौन कहेगा, वे कम पढ़ीलिखी हैं? शिक्षा की पहचान क्या डिगरियां ही हैं?

बरात वापस आ गई थी. घर में एक और नए सदस्य का आगमन हुआ था. बेटे की बहू वास्तव में बड़ी प्यारी लग रही थी. बहू के स्वागत में उषा के दिल की खुशी उमड़ी पड़ रही थी. रस्म के मुताबिक द्वार पर ही बहूबेटे का स्वागत करना होता है. बहू बड़ों के चरणस्पर्श कर आशीर्वाद पाती है. सभी बड़ों के पैर छू आशीष द्वार से अंदर आने को हुआ कि किसी ने व्यंग्य से चुटकी ली, ‘‘अरे भई, इन के भी तो पैर छुओ. ये भी घर की बड़ी हैं.’’ शुभदा स्वयं हंसती हुई आ खड़ी हुई. आशीष के चेहरे की हर नस गुस्से में तन गई. नया जवान खून कहीं स्थिति को अप्रिय ही न बना दे, बेटे के चेहरे के भाव पढ़ते हुए मिसेज राजीव ने आशीष के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘बेटा, आगे बढ़ कर चरणस्पर्श करो.’’

काम की व्यस्तता व नई बहू के आगमन की खुशी में सभी यह बात भूल गए पर आशीष के दिल में कांटा पड़ गया, मां की रातों की नींद छीनने वाली इस नारी के प्रति उस के दिल में जरा भी स्थान नहीं था. शाम को घर में पार्टी थी. रंगबिरंगी रोशनियों से फूल वाले पौधों और फलदार व सजावटी पेड़ों से आच्छादित लौन और भी आकर्षक लग रहा था. शुभदा डाक्टर राजीव के साथ छाया सी लगी हर काम में सहयोग दे रही थी. आमंत्रित अतिथियों की लिस्ट, पार्टी का मीनू सभीकुछ तो उस के परामर्श से बना था.

शहनाई का मधुर स्वर वातावरण को मोहक बना रहा था. शहर के मान्य व प्रतिष्ठित लोगों से लौन खचाखच भर गया था. नईनेवली बहू संगमरमर की तराशी मूर्ति सी आकर्षक लग रही थी, देखने वालों की नजरें उस के चेहरे से हटने का नाम ही नहीं लेती थीं. एक स्वर से दूल्हादुलहन व पार्टी की प्रशंसा की जा रही थी. साथ ही, दबे स्वरों में हर व्यक्ति शुभदा का भी जिक्र छेड़ बैठता. ‘‘यही हैं न शुभदा, नीली शिफौन की साड़ी में?’’ डाक्टर राजीव के बगल में आ खड़ी हुई शुभदा को देखते ही किसी ने पूछा.

‘‘डाक्टर राजीव ने क्या देखा इन में? मिसेज राजीव को देखो न, इस उम्र में भी कितनी प्यारी लगती हैं.’’ ‘‘तुम ने सुना नहीं, दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज?’’

‘‘शुभदा ने शादी नहीं की?’’ ‘‘शादी की होती तो अपने पति की बगल में खड़ी होती, डाक्टर राजीव के पास क्या कर रही होती?’’ किसी ने चुटकी ली, ‘‘मजे हैं डाक्टर साहब के, घर में पत्नी का और बाहर प्रेमिका का सुख.’’

घर के लोग चर्चा का विषय बनें, अच्छा नहीं लगता. ऐसे ही एक दिन आशीष घर आ कर मां पर बड़ा बिगड़ा था. पिता के कारण ही उस दिन मित्रों ने उस का उपहास किया था. ‘‘मां, तुम तो घर में बैठी रहती हो, बाहर हमें जलील होना पड़ता है. तुम यह सब क्यों सहती हो? क्यों नहीं बगावत कर देतीं? सबकुछ जानते हुए भी लोग पूछते हैं, ‘‘शुभदा तुम्हारी बूआ है? मन करता है सब का मुंह नोच लूं. अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं तो मैं तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा. तुम यहां नहीं रहोगी.’’

मां निशब्द बैठी मन की पीड़ा, अपनी बेबसी को आंखों की राह बहे जाने दे रही थी. बच्चे दुख पाते हैं तो मां पर उबल पड़ते हैं. वह किस पर उबले? नियति तो उस की जिंदगी में पगपग पर मुंह चिढ़ा रही थी. बेटी साधना डिलीवरी के लिए आई हुई थी. उस के पति ने लेने आने को लिखा तो उस ने घर में शुभदा की उपस्थित को देख, कुछ रुक कर आने को लिख दिया था. ससुराल में मायका चर्चा का विषय बने, यह कोईर् लड़की नहीं चाहती. उसी स्थिति से बचने का वह हर प्रयत्न कर रही थी. पर इतनी लंबी अवधि के विरह से तपता पति अपनी पत्नी को विदा कराने आ ही पहुंचा.

शुभदा का स्थान घर में क्या है, यह उस से छिपा न रह सका. स्थिति को भांप कर ही चतुर विवेक ने विदा होते समय सास और ससुर के साथसाथ शुभदा के भी चरण स्पर्श कर लिए. पत्नी गुस्से से तमतमाती हुई कार में जा बैठी और जब विवेक आया तो एकदम गोली दागती हुई बोली, ‘‘तुम ने उस के पैर क्यों छुए?’’ पति ने हंसते हुए चुटकी ली, ‘‘अरे, वह भी मेरी सास है.’’

साधना रास्तेभर गुमसुम रही. बहुत दिनों बाद सुना था आशीष ने मां को अपने साथ चलने के लिए बहुत मनाया था पर वह किसी भी तरह जाने को राजी नहीं हुई. लक्ष्मणरेखा उन्हें उसी घर से बांधे रही.

आंतरिक साहस के अभाव में ही मिसेज राजीव उसी घर से पति के साथ बंधी हैं. रातभर छटपटाती हैं, कुढ़ती हैं, फिर भी प्रेमिका को सह रही हैं सुबहशाम की दो रोटियों और रात के आश्रय के लिए. वे डरपोक हैं. समाज से डरती हैं, संस्कारों से डरती हैं, इसीलिए उन्होंने जिंदगी से समझौता कर लिया है. सुना था, इतनी असीम सहनशक्ति व धैर्य केवल पृथ्वी के पास ही है पर मेरे सामने तो मिसेज राजीव असीम सहनशीलता का साक्षात प्रमाण है.

चरित्रहीन कौन: क्या उषा अपने पति को बचा पाई?

ऊषा का पति प्रकाश शादी के 3 महीने बाद ही नौकरी ढूंढ़ने मुंबई चला गया था. वह ज्यादा पढ़ालिखा नहीं था और एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में मजदूरी कर रहा था. जो भी कमाई होती थी उस में से आधा हिस्सा वह ऊषा को भेजता था और आधे हिस्से में खुद गुजारा करता था.

दीवाली की छुट्टियां थीं तो प्रकाश एक साल बाद घर आ रहा था. मुंबई में खुद के रहने का कोई ठौरठिकाना नहीं था, ऐसे में वह ऊषा को कहां ले जाता.

ऊषा बिहार के एक छोटे से गांव में अकेली रहती थी. वह इस उम्मीद में पति की याद में दिन बिता रही थी कि कभी तो प्रकाश उसे मुंबई ले जाएगा.

प्रकाश के आते ही ऊषा मानो जी उठी. एक साल बाद पति से मिल कर वह ताजा गुलाब सी खिल गई.

प्रकाश महीनेभर की छुट्टी ले कर आया था, पर कुछ ही दिनों में उस की तबीयत बिगड़ने लगी. सरकारी अस्पताल में सारे टैस्ट कराने पर पता चला कि प्रकाश को एड्स है. इस खबर से दोनों पतिपत्नी पर मानो आसमान टूट पड़ा.

प्रकाश ने ऊषा से माफी मांगते हुए कहा, “मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मुंबई में मैं अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और 1-2 बार रैड लाइट एरिया की धंधे वालियों से मुलाकात का यह नतीजा है. हो सके तो मुझे माफ कर देना.”

ऊषा के ऊपर दर्द का पहाड़ सा गिरा. नफरत, दुख और दर्द से उस का मन तड़प उठा, पर आखिर पति था, लिहाजा उसे माफ कर दिया. जो होना था, वह तो हो चुका, अब वह हालात को बदल तो नहीं सकती.

आहिस्ताआहिस्ता प्रकाश सूख कर कांटा हो गया. ऊषा ने बचाबचा कर जो थोड़ीबहुत पूंजी जमा की थी वह सारी प्रकाश के इलाज में लगा दी, लेकिन कोई दवा काम न आई और एक दिन प्रकाश ऊषा को इस दुनिया में अकेली छोड़ कर चल बसा.

इस बेरहम दुनिया में ऊषा अकेली रह गई. आज तक तो मांग का सिंदूर उस की हिफाजत करता था, पर अब उस की सूनी मांग मानो गांव में सब की जागीर हो गई. ऊपर से कमाने वाला भी चला गया. अब अकेली जान को भी दो वक्त की रोटी भी तो चाहिए, लिहाजा वह गांव के मुखिया के घर काम मांगने गई.

ऊषा को देख कर मुखिया की आंखों में हवस के सांप लोटने लगे और अबला, लाचार सी ऊषा के ऊपर वह किसी भेड़िए की तरह टूट पड़ा.

बेबस ऊषा यह जुल्म सह तो गई, पर आज मुखिया ने उस के मन में मर्द जात के प्रति नफरत का एक बीज बो दिया था. अब तो हर कोई उस की देह का पुजारी बन बैठा था. किसकिस से बचती वह…

ऊषा आसपास के शहर में बने बड़े बंगलों में जा कर झाड़ूपोंछा और बरतन धोने का काम कर के अपना गुजारा करती थी, पर कुछ ही दिनों में प्रकाश से मिला प्यार का तोहफा ऊषा के शरीर को दीमक की तरह खोखला करने लगा, क्योंकि उसे भी एड्स की जानलेवा बीमारी हो गई थी.

अस्पताल में टैस्ट कराने पर इस बीमारी का पता चला, पर ऊषा खुश थी कि इस दरिंदगी भरी दुनिया से डरती, बिलखती वह जी तो रही थी, लेकिन सोच रही थी कि ऐसी जिंदगी से तो बेहतर है कि उसे मौत आ जाए.

एक दिन ऊषा काम से घर लौट रही थी कि रास्ते में 2 गुंडों ने उसे घेर लिया और पास के खंडहर में घसीटते हुए ले जा कर उस की इज्जत एक बार और तारतार कर दी.

अब ऊषा ने ठान लिया कि जब मर्दों की फितरत यही है तो यही सही, अब वह देह तो देगी, साथ में एकएक को यह बीमारी भी देगी.

अब ऊषा अपने जिस्म की दुकान खोल कर बैठ गई. हर रोज लाइन लगती थी जिस्म के भूखे दरिंदों की. ऊषा को पैसे भी मिलते थे और उस का मकसद भी पूरा होता था.

ऊषा की झोंपड़ी के सामने ही एक मंदिर था, जिस का पुजारी रोज ऊषा को नफरत या दया के भाव से देखता था, पर ऊषा हमेशा उस पुजारी को हाथ जोड़ कर नमस्ते करती थी.

इस इज्जत की वजह से वह पुजारी ऊषा की जवानी को पाने की ललक होते हुए भी पहल नहीं कर पाता था, पर एक दिन उस पुजारी का सब्र जवाब दे गया और उस ने आधी रात को ऊषा की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया.

ऊषा ने दरवाजा खोल कर पूछा, “पुजारीजी, आप यहां?”

पुजारी ने कहा, “पुजारी हूं तो क्या हुआ, हूं तो मैं भी इनसान ही न. तन की आग मुझे भी जलाती है. थोड़ी खुशी मुझे भी दे दो, बदले में जितना चाहे पैसा ले लो. पर गांव में किसी को पता न चले, आखिर लोगों की मेरे ऊपर श्रद्धा जो है.”

ऊषा के दिल में नफरत का सैलाब उठा. खुद ऊपर वाले का तथाकथित सेवक भी औरत देह का भूखा है और साथ ही यह भी चाहता है कि उस का पाप दबा रहे. पुजारी क्या ऊषा की देह को दागदार करता, ऊषा ने ही उसे बीमारी का तोहफा दे दिया.

कुछ ही दिनों में सब से पहले मुखिया के शरीर में एड्स कहर ढाने लगा. वह आगबबूला हो कर सीधा ऊषा की झोंपड़ी में घुस कर गालीगलौज करने लगा और चिल्लाचिल्ला कर कहने लगा, “सुनो गांव वालो, यह एक चरित्रहीन औरत है. इसे यहां रहने का कोई हक नहीं है. यह गांव के लड़कों को खा जाएगी. अगर अपने बेटों की सलामती चाहते हो तो इस औरत को पत्थर मारमार कर गांव से बाहर निकाल दो.”

यह सुन कर सारा गांव वहां जमा हो गया और सब ऊषा की झोंपड़ी पर पत्थर मारने लगे. ऊषा भी अब रणचंडी बन कर घर में रखी कुल्हाड़ी ले कर बाहर निकली और दहाड़ते हुए बोली, “खबरदार, अगर किसी ने मेरी तरफ पत्थर फेंका तो चीर कर रख दूंगी.

“हां हूं मैं चरित्रहीन, पर मुझे चरित्रहीन बनाया किस ने? मुखिया, पहले तू अपने गरीबान में झांक कर देख. पहली बार मेरे तन को दाग तू ने ही तो लगाया था, तो मैं अकेली चरित्रहीन कैसे कहलाऊंगी? सब से बड़ा चरित्रहीन तो तू है.

“यहां पर जमा हुए बहुत से नामर्द भी चरित्रहीन हैं, तो मेरे साथ पूरा गांव भी तो चरित्रहीन कहलाएगा. और एक बात कान खोल कर सुन लो कि मुझे एड्स नाम का गुप्त रोग है और सब से पहले इस मुखिया को मैं ने दान दी यह बीमारी. इसी वजह से यह अब उछलउछल कर सब को भड़का रहा है.”

ऊषा की यह बात सुन कर पुजारी का दिल बैठ गया, फिर वह भी अपनी भड़ास निकालते हुए गांव वालों को भड़काने आगे आ गया और बोला, “सही कहा मुखियाजी ने, ऐसी औरतों को गांव में रहने का कोई हक नहीं है.”

ऊषा ने आंखें तरेरते हुए कहा, “पुजारीजी, इन अनपढ़, गंवारों की ओछी सोच तो समझ में आ सकती है, पर आप जैसे ज्ञानी और ऊपर वाले के सेवक ने भी मुझे इनसान न समझ कर एक भोगने की चीज ही समझा न?

“सुनो, इस पुजारी की असलियत. इस ने भी कई बार आधी रात को मेरा दरवाजा खटखटा कर अपना मुंह काला कराया है. सब से बड़ा चरित्रहीन तो यह पुजारी है, जिस ने खुद ऊपर वाले को भी धोखा दिया है.

“और हां, जिसजिस ने मेरे साथ जिस्मानी रिश्ता बनाया है, वे सब पहले अस्पताल पहुंचो, फिर इस चरित्रहीन औरत का हिसाब करने आना.”

इतना सुनते ही ज्यादातर मर्द वहां से भागे. ऊषा ने मुखिया और पुजारी से कहा, “कोई औरत अपनी मरजी से चरित्रहीन नहीं बनती, बल्कि उस के पीछे कहीं न कहीं किसी मर्द का ही हाथ होता है.

“बेबस, लाचार, अबला के सिर पर कोई पल्लू डालने की नहीं सोचता, हर एक को औरत के सीने के भीतर लटक रहा मांस का टुकड़ा ललचाता है. आज के बाद किसी अबला को रौंदने से पहले सौ बार सोचना.”

पुजारी और मुखिया दोनों शर्मिंदा थे. पुजारी ने कहा, “आज मेरी आंखें खुल गई हैं. मैं बहुत शर्मिंदा हूं. डूब तो हम सब को मरना चाहिए. तुम ने बिलकुल सही कहा कि अगर मर्द जात अपनी हवस को काबू में रख कर अपनी हद में रहे तो कोई औरत कभी चरित्रहीन नहीं बनेगी.”

पुजारी के इतना कहते ही वहां जमा इक्कादुक्का लोग भी चले गए. ऊषा ने अपनी झोंपड़ी का दरवाजा बंद कर लिया और बक्से में से नींद की गोलियों की शीशी निकाल कर सारी की सारी गोलियां निगल गई.

अगली सुबह एक चरित्रहीन औरत की श्मशान यात्रा में पूरा गांव तो उमड़ा, पर सब से पहले मुखिया और पुजारी ने उस की अर्थी को कंधा दिया. उन नकारों के मुंह से ‘राम नाम सत्य है’ की आवाज सुनते ही ऊषा के बेजान होंठ भी मानो हंस दिए.

राहें जुदा जुदा : संबंधों की अनसुलझी कहानी

‘‘निशा….’’ मयंक ने आवाज दी. निशा एक शौपिंग मौल के बाहर खड़ी थी, तभी मयंक की निगाह उस पर पड़ी. निशा ने शायद सुना नहीं था, वह उसी प्रकार बिना किसी प्रतिक्रिया के खड़ी रही. ‘निशा…’ अब मयंक निशा के एकदम ही निकट आ चुका था. निशा ने पलट कर देखा तो भौचक्की हो गई. वैसे भी बेंगलुरु में इस नाम से उसे कोई पुकारता भी नहीं था. यहां तो वह मिसेज निशा वशिष्ठ थी. तो क्या यह कोई पुराना जानने वाला है. वह सोचने को मजबूर हो गई. लेकिन फौरन ही उस ने पहचान लिया. अरे, यह तो मयंक है पर यहां कैसे?

‘मयंक, तुम?’ उस ने कहना चाहा पर स्तब्ध खड़ी ही रही, जबान तालू से चिपक गई थी. स्तब्ध तो मयंक भी था. वैसे भी, जब हम किसी प्रिय को बहुत वर्षों बाद अनापेक्षित देखते हैं तो स्तब्धता आ ही जाती है. दोनों एकदूसरे के आमनेसामने खड़े थे. उन के मध्य एक शून्य पसरा पड़ा था. उन के कानों में किसी की भी आवाज नहीं सुनाई दे रही थी. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो पूरा ब्रह्मांड ही थम गया हो, धरती स्थिर हो गई हो. दोनों ही अपलक एकदूसरे को निहार रहे थे. तभी ‘एक्सक्यूज मी,’ कहते हुए एक व्यक्ति दोनों के बीच से उन्हें घूरता हुआ निकल गया. उन की निस्तब्धता भंग हो गई. दोनों ही वर्तमान में लौट आए.

‘‘क्यों, कैसी लग रही हूं?’’ निशा ने थोड़ा मुसकराते हुए नटखटपने से कहा.

अब मयंक थोड़ा सकुंचित हो गया. फिर अपने को संभाल कर बोला, ‘‘यहीं खड़ेखड़े सारी बातें करेंगे या कहीं बैठेंगे भी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, चलो इस मौल में एक रैस्टोरैंट है, वहीं चल कर बैठते हैं.’’ और मयंक को ले कर निशा अंदर चली गई. दोनों एक कौर्नर की टेबल पर बैठ गए. धूमिल अंधेरा छाया हुआ था. मंदमंद संगीत बज रहा था. वेटर को मयंक ने 2 कोल्ड कौफी विद आइसक्रीम का और्डर दिया.

‘‘तुम्हें अभी भी मेरी पसंदनापंसद याद है,’’ निशा ने तनिक मुसकराते हुए कहा.

‘‘याद की क्या बात है, याद तो उसे किया जाता है जिसे भूल जाया जाए. मैं अब भी वहीं खड़ा हूं निशा, जहां तुम मुझे छोड़ कर गई थीं,’’ मयंक का स्वर दिल की गहराइयों से आता प्रतीत हो रहा था. निशा ने उस स्वर की आर्द्रता को महसूस किया किंतु तुरंत संभल गई और एकदम ही वर्षों से बिछड़े हुए मित्रों के चोले में आ गई.

‘‘और सुनाओ मयंक, कैसे हो? कितने वर्षों बाद हम मिल रहे हैं. तुम्हारा सैमिनार कब तक चलेगा. और हां, तुम्हारी पत्नी तथा बच्चे कैसे हैं?’’ निशा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘उफ, निशा थोड़ी सांस तो ले लो, लगातार बोलने वाली तुम्हारी आदत अभी तक गई नहीं,’’ मयंक ने निशा को चुप कराते हुए कहा.

‘‘अच्छा बाबा, अब कुछ नही बोलूंगी, अब तुम बोलोगे और मैं सुनूंगी,’’ निशा ने उसी नटखटपने से कहा.

मयंक देख रहा था आज 25 वर्षों बाद दोनों मिल रहे थे. उम्र बढ़ चली थी दोनों की पर 45 वर्ष की उम्र में भी निशा के चुलबुलेपन में कोई भी कमी नहीं आई थी जबकि मयंक पर अधेड़ होने की झलक स्पष्ट दिख रही थी. वह शांत दिखने का प्रयास कर रहा था किंतु उस के मन में उथलपुथल मची हुई थी. वह बहुतकुछ पूछना चाह रहा था. बहुतकुछ कहना चाह रहा था. पर जबान रुक सी गई थी.

शायद निशा ने उस के मनोभावों को पढ़ लिया था, संयत स्वर में बोली, ‘‘क्या हुआ मयंक, चुप क्यों हो? कुछ तो बोलो.’’

‘‘अ…हां,’’ मयंक जैसे सोते से जागा, ‘‘निशा, तुम बताओ क्या हालचाल हैं तुम्हारे पति व बच्चे कैसे हैं? तुम खुश तो हो न?’’

निशा थोड़ी अनमनी सी हो गई, उस की समझ में नहीं आ रहा था कि मयंक के प्रश्नों का क्या उत्तर दे. फिर अपने को स्थिर कर के बोली, ‘‘हां मयंक, मैं बहुत खुश हूं. आदित्य को पतिरूप में पा कर मैं धन्य हो गई. बेंगलुरु के एक प्रतिष्ठित, संपन्न परिवार के इकलौते पुत्र की वधू होने के कारण मेरी जिंदगी में चारचांद लग गए थे. मेरे ससुर का साउथ सिल्क की साडि़यों का एक्सपोर्ट का व्यवसाय था. कांजीवरम, साउथ सिल्क, साउथ कौटन, बेंगलौरी सिल्क मुख्य थे. एमबीए कर के आदित्य भी उसी व्यवसाय को संभालने लगे. जब मैं ससुराल में आई तो बड़ा ही लाड़दुलार मिला. सासससुर की इकलौती बहू थी, उन की आंखों का तारा थी.’

‘‘विवाह के 15 दिनों बाद मुझे थोड़ाथोड़ा चक्कर आने लगा था और जब मुझे पहली उलटी हुई तो मेरी सासूमां ने मुझे डाक्टर को दिखाया. कुछ परीक्षणों के बाद डाक्टर ने कहा, ‘खुशखबरी है मांजी, आप दादी बनने वाली हैं. पूरे घर में उत्सव का सा माहौल छा गया था. सासूमां खुशी से फूली नहीं समा रही थीं. बस, आदित्य ही थोड़े चुपचुप से थे. रात्रि में मुझ से बोले,’ ‘निशा, मैं तुम्हारा हृदय से आभारी हूं.’

‘क्यों.’ मैं चौंक उठी.

‘क्योंकि तुम ने मेरी इज्जत रख ली. अब मैं भी पिता बन सकूंगा. कोई मुझे भी पापा कहेगा,’ आदित्य ने शांत स्वर में कहा.

‘‘मैं अपराधबोध से दबी जा रही थी क्योंकि यह बच्चा तुम्हारा ही था. आदित्य का इस में कोई भी अंश नहीं था. फिर भी मैं चुप रही. आदित्य ने तनिक रुंधी हुई आवाज में कहा, ‘निशा, मैं एक अधूरा पुरुष हूं. जब 20 साल का था तो पता चला मैं संतानोत्पत्ति में अक्षम हूं, जब दोस्त लोग लड़की के पास ले गए, अवसर तो मिला था पर उस से वहां पर कुछ ज्यादा नहीं हो सका. नहीं समझ पाता हूं कि नियति ने मेरे साथ यह गंदा मजाक क्यों किया? मांपापा को यदि यह बात पता चलती तो वे लोग जीतेजी मर जाते और मैं उन्हें खोना नहीं चाहता था. मुझ पर विवाह के लिए दबाव पड़ने लगा और मैं कुछ भी कह सकने में असमर्थ था. सोचता था, मेरी पत्नी के प्रति यह मेरा अन्याय होगा और मैं निरंतर हीनता का शिकार हो रहा था.

‘मैं ने निर्णय ले लिया था कि मैं विवाह नहीं करूंगा किंतु मातापिता पर पंडेपुजारी दबाव डाल रहे थे. उन्हें क्या पता था कि उन का बेटा उन की मनोकामना पूर्र्ण करने में असमर्थ है. और फिर मैं ने उन की इच्छा का सम्मान करते हुए विवाह के लिए हां कर दी. सोचा था कि घरवालों का तो मुंह बंद हो जाएगा. अपनी पत्नी से कुछ भी नहीं छिपाऊंगा. यदि उसे मुझ से नफरत होगी तो उसे मैं आजाद कर दूंगा. जब तुम पत्नी बन कर आई तब मुझे बहुत अच्छी लगी. तुम्हारे रूप और भोलेपन पर मैं मर मिटा.

‘हिम्मत जुटा रहा था कि तुम्हें इस कटु सत्य से अवगत करा दूं किंतु मौका ही न मिला और जब मुझे पता चला कि तुम गर्भवती हो तो मैं समझ गया कि यह शिशु विवाह के कुछ ही समय पूर्व तुम्हारे गर्भ में आया है. अवश्य ही तुम्हारा किसी अन्य से संबंध रहा होगा. जो भी रहा हो, यह बच्चा मुझे स्वीकार्य है.’ कह कर आदित्य चुप हो गए और मैं यह सोचने पर बाध्य हो गई कि मैं आदित्य की अपराधिनी हूं या उन की खुशियों का स्रोत हूं. ये किस प्रकार के इंसान हैं जिन्हें जरा भी क्रोध नहीं आया. किसी परपुरुष के बच्चे को सहर्ष अपनाने को तैयार हैं. शायद क्षणिक आवेग में किए गए मेरे पाप की यह सजा थी जो मुझे अनायास ही विधाता ने दे दी थी और मेरा सिर उन के समक्ष श्रद्धा से झुक गया.

‘‘9 माह बाद प्रसून का जन्म हुआ. आदित्य ने ही प्रसून नाम रखा था. ठीक भी था, सूर्य की किरणें पड़ते ही फूल खिल उठते हैं, उसी प्रकार आदित्य को देखते ही प्रसून खिल उठता था. हर समय वे उसे अपने सीने से लगाए रखते थे. रात्रि में यदि मैं सो जाती थी तो भी वे प्रसून की एक आहट पर जाग जाते थे. उस की नैपी बदलते थे. मुझ से कहते थे, ‘मैं प्रसून को एयरफोर्स में भेजूंगा, मेरा बेटा बहुत नाम कमाएगा.’

‘‘मेरे दिल में आदित्य के लिए सम्मान बढ़ता जा रहा था, देखतेदखते 15 वर्ष बीत चुके थे. मैं खुश थी जो आदित्य मुझे पतिरूप में मिले. लेकिन होनी को शायद कुछ और ही मंजूर था. अकस्मात एक दिन एक ट्रक से उन की गाड़ी टकराई और उन की मौके पर ही मौत हो गई. तब प्रसून 14 वर्ष का था.’’

मयंक निशब्द निशा की जीवनगाथा सुन रहा था. कुछ बोलने या पूछने की गुंजाइश ही नहीं रह गई थी. क्षणिक मौन के बाद निशा फिर बोली, ‘‘आज मैं अपने बेटे के साथ अपने ससुर का व्यवसाय संभाल रही हूं. प्रसून एयरफोर्स में जाना नहीं चाहता था, अब वह 25 वर्ष का होने वाला है. उस ने एमबीए किया और अपने पुश्तैनी व्यवसाय में मेरा हाथ बंटा रहा है या यों कहो कि अब सबकुछ वही संभाल रहा है.’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मयंक ने मुंह खोला, ‘‘निशा, तुम्हें अतीत की कोई बात याद है?’’

‘‘हां, मयंक, सबकुछ याद है जब तुम ने मेरे नाम का मतलब पूछा था और मैं ने अपने नाम का अर्थ तुम्हें बताया, ‘निशा का अर्र्थ है रात्रि.’ तुम मेरे नाम का मजाक बनाने लगे तब मैं ने तुम से पूछा, ‘आप को अपने नाम का अर्थ पता है?’

‘‘तुम ने बड़े गर्व से कहा, ‘हांहां, क्यों नहीं, मेरा नाम मयंक है जिस का अर्थ है चंद्रमा, जिस की चांदनी सब को शीतलता प्रदान करती है’ बोलो याद है न?’’ निशा ने भी मयंक से प्रश्न किया.

मयंक थोड़ा मुसकरा कर बोला, ‘‘और तुम ने कहा था, ‘मयंक जी, निशा है तभी तो चंद्रमा का अस्तित्व है, वरना चांद नजर ही कहां आएगा.’ अच्छा निशा, तुम्हें वह रात याद है जब मैं तुम्हारे बुलाने पर तुम्हारे घर आया था. हमारे बीच संयम की सब दीवारें टूट चुकी थीं.’’ मयंक निशा को अतीत में भटका रहा था.

‘‘हां,’’ तभी निशा बोल पड़ी, ‘‘प्रसून उस रात्रि का ही प्रतीक है. लेकिन मयंक, अब इन बातों का क्या फायदा? इस से तो मेरी 25 वर्षों की तपस्या भंग हो जाएगी. और वैसे भी, अतीत को वर्तमान में बदलने का प्रयास न ही करो तो बेहतर होगा क्योंकि तब हम न वर्तमान के होंगे, न अतीत के, एक त्रिशंकु बन कर रह जाएंगे. मैं उस अतीत को अब याद भी नहीं करना चाहती हूं जिस से हमारा आज और हमारे अपनों का जीवन प्रभावित हो. और हां मयंक, अब मुझ से दोबारा मिलने का प्रयास मत करना.’’

‘‘क्यों निशा, ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मयंक विचलित हो उठा.

‘‘क्योंकि तुम अपने परिवार के प्रति ही समर्पित रहो, तभी ठीक होगा. मुझे नहीं पता तुम्हारा जीवन कैसा चल रहा है पर इतना जरूर समझती हूं कि तुम्हें पा कर तुम्हारी पत्नी बहुत खुश होगी,’’ कह कर निशा उठ खड़ी हुई.

मयंक उठते हुए बोला, ‘‘मैं एक बार अपने बेटे को देखना चाहता हूं.’’

‘‘तुम्हारा बेटा? नहीं मयंक, वह आदित्य का बेटा है. यही सत्य है, और प्रसून अपने पिता को ही अपना आदर्श मानता है. वह तुम्हारा ही प्रतिरूप है, यह एक कटु सत्य है और इसे नकारा भी नहीं जा सकता किंतु मातृत्व के जिस बीज का रोपण तुम ने किया उस को पल्लवित तथा पुष्पित तो आदित्य ने ही किया. यदि वे मुझे मां नहीं बना सकते थे, तो क्या हुआ, यद्यपि वे खुद को एक अधूरा पुरुष मानते थे पर मेरे लिए तो वे परिपूर्ण थे. एक आदर्श पति की जीवनसंगिनी बन कर मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करती हूं. मेरे अपराध को उन्होंने अपराध नहीं माना, इसलिए वे मेरी दृष्टि में सचमुच ही महान हैं.

‘‘प्रसून तुम्हारा अंश है, यह बात हम दोनों ही भूल जाएं तो ही अच्छा रहेगा. तुम्हें देख कर वह टूट जाएगा, मुझे कलंकिनी समझेगा. हजारों प्रश्न करेगा जिन का कोई भी उत्तर शायद मैं न दे सकूंगी. अपने पिता को अधूरा इंसान समझेगा. युवा है, हो  सकता है कोई गलत कदम ही उठा ले. हमारा हंसताखेलता संसार बिखर जाएगा और मैं भी कलंक के इस विष को नहीं पी सकूंगी. तुम्हें वह गीत याद है न ‘मंजिल वही है प्यार की, राही बदल गए…’

‘‘भूल जाओ कि कभी हम दो जिस्म एक जान थे, एक साथ जीनेमरने का वादा किया था. उन सब के अब कोई माने नहीं है. आज से हमारी तुम्हारी राहें जुदाजुदा हैं. हमारा आज का मिलना एक इत्तफाक है किंतु अब यह इत्तफाक दोबारा नहीं होना चाहिए,’’ कह कर उस ने अपना पर्स उठाया और रैस्टोरैंट के गेट की ओर बढ़ चली. तभी मयंक बोल उठा, ‘‘निशा…एक बात और सुनती जाओ.’’ निशा ठिठक गई.

‘‘मैं ने विवाह नहीं किया है, यह जीवन तुम्हारे ही नाम कर रखा है.’’ और वह रैस्टोरैंट से बाहर आ गया. निशा थोड़ी देर चुप खड़ी रही, फिर किसी अपरिचित की भांति रैस्टोरैंट से बाहर आ गई और दोनों 2 विपरीत दिशाओं की ओर मुड़ गए.

चलतेचलते निशा ने अंत में कहा, ‘‘मयंक, इतने जज्बाती न बनो. अगर कोई मिले तो विवाह कर लेना, मुझे शादी का कार्ड भेज देना ताकि मैं सुकून से जी सकूं.’’

थप्पड़: मामू ने अदीबा के साथ क्या किया?

शाम ढलने को थी. इक्कादुक्का दुकानों में बिजली के बल्ब रोशन होने लगे थे. ऊन का आखिरी सिरा हाथ में आते ही अदीबा को धक्का सा लगा कि पता नहीं अब इस रंग की ऊन का गोला मिलेगा कि नहीं.

अदीबा ने कमरे की बत्ती जलाई और अपनी अम्मी को बता कर झटपट ऊन का गोला खरीदने निकल पड़ी.

जातेजाते अदीबा बोली, “अम्मी, ऊन खत्म हो गई है, लाने जा रही हूं, कहीं दुकान बंद न हो जाए.”

अम्मी ने कहा, “अच्छा, जा, पर जल्दी लौट आना, रात होने वाली है.”

लेकिन यह क्या. जहां सिर्फ दुकान जाने में ही आधा घंटा लगता है, वहां से ऊन खरीद कर आधा घंटा से पहले ही अदीबा वापस आ गई… यह कैसे?

मां ने बेटी के चेहरे को गौर से देखा. बेटी का चेहरा धुआंधुआं सा था और उस की सांसें तेजतेज चल रही थीं.

“क्या हुआ अदीबा, ऊन नहीं लाई?”

अदीबा ने रोते हुए अपनी अम्मी को जो आपबीती सुनाई तो अम्मी के होश उड़ गए.

अदीबा की आपबीती सुन कर अम्मी गुस्से से आगबबूला हो उठीं और उस नामुराद आदमी को तरहतरह की गालियां देने लगीं.

कुछ देर बाद जब अम्मी का गुस्सा ठंडा हुआ, तो उन्होंने कहना शुरू किया, “अब तुझे क्या बताऊं बेटी, यह मर्द जात होती ही ऐसी है. उन की नजरों में औरत का जिस्म बस मर्द की प्यास बुझाने का जरीया होता है.

“मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है. वह भी एक दफा नहीं, बल्कि कईकई दफा,”
इतना कह कर अम्मी अपने पुराने दिनों के काले पन्ने पलटने लगीं…

अम्मी ने अदीबा को बताया, “जब मैं 5वीं जमात में थी, तब एक दिन मदरसे के मौलवी साहब ने मुझे अपने पास बुलाया और अपनी गोद में बिठा कर वे मेरे सीने पर हाथ फेरने लगे. वे अपना हाथ चलाते रहे और मुझे बहलाते रहे.

“मैं मासूम थी, इसलिए उन की इस गंदी हरकत को समझ न सकी. उन की इस गलत हरकत की वजह से मेरा सीना दर्द करने लगा था…”

हैरान अदीबा ने पूछा, “फिर क्या हुआ अम्मी?”

“उस जमाने में गलत और सही छूने का पता तो बड़े लोगों को भी ज्यादा नही था, मैं तो भला बच्ची थी. बहरहाल, छुट्टी मिलते ही मैं रोते हुए घर गई और अपनी अम्मी से सबकुछ साफसाफ बता दिया.

“फिर क्या था… अब्बू ने न सिर्फ मौलवी साहब की जबरदस्त पिटाई की, बल्कि उन्हें मदरसे से बाहर भी निकलवा दिया.

“इसी तरह एक बार, एक दिन मेरे दूर के रिश्ते के मामू अपनी 5 साल की बेटी के साथ हमारे घर मेहमान बन कर आए. वे तोहफे में ढेर सारी मिठाइयां और फल लाए थे.

“अपने रिश्ते के भाई की खातिरदारी में मेरी अम्मी ने मटन बिरयानी और चिकन कोरमा बनाया था. सब ने खुश हो कर खाया.

“अरसे बाद मिले भाईबहन अपने पुराने दिनों को याद करते रहे और मैं मामू की बेटी के साथ देर रात तक उछलकूद करती रही…”

यह बतातेबताते जब अदीबा की अम्मी सांस लेने के लिए ठहरीं, तो अदीबा ने बेसब्री से पूछा, “फिर क्या हुआ अम्मी?”

अम्मी ने कहना जारी रखा, “जैसे कि हर बच्चा आने वाले मेहमान के बच्चों के साथ सोना पसंद करता है, वैसा ही मैं ने भी किया और अपनी हमउम्र दोस्त के साथ मामू के बिस्तर पर ही सो गई.

“रात के किसी पहर में मेरी नींद तब खुली, जब मुझे एहसास हुआ कि मेरे तथाकथित मामू मेरी सलवार की डोरी खोल रहे हैं.

“मेरा हाथ फौरन सलवार की डोरी पर चला गया. डोरी खुल चुकी थी. मेरा हाथ अपने हाथ से टकराते ही तथाकथित मामू ने अपना हाथ तेजी से खींच लिया. मैं डर गई और जोरजोर से चिल्लाने लगी.

“यह चिल्लाना सुन कर मेरी अम्मी अपने कमरे से भागीभागी आईं और दरवाजा पीटने लगीं.

“तथाकथित मामू ने उठ कर दरवाजा खोला और अम्मी को देखते ही कहा, ‘अदीबा सपने में बड़बड़ा रही है…’

“अम्मी फौरन हालात की नजाकत भांप गईं और मेरा हाथ पकड़ कर अपने साथ ले चलीं. एक हाथ से सलवार पकड़े मैं थरथर कांपती उन के साथ चल पड़ी. इस बीच उन मामू की बेटी भी जाग चुकी थी और सारा तमाशा हैरत से देख रही थी.

“उस हादसे के बाद से हमेशाहमेशा के लिए उन तथाकथित मामू से हमारे परिवार का रिश्ता खत्म हो गया.”

अदीबा ने जोश में कहा, “अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ. ऐसे गंदे लोग रिश्तेदार के नाम पर बदनुमा दाग होते हैं.”

अम्मी जब यादों के झरोखों से वापस लौटीं, तो फिर कहने लगीं, “छोड़ो, अब इस किस्से को यहीं दफन करो वरना जितने मुंह उतनी बातें होंगी. लड़कियां सफेद चादर की तरह होती हैं, जिन पर दाग बहुत जल्दी लग जाते हैं, जो छुड़ाने से भी नहीं छूटते, इसलिए भूल कर भी किसी से इस बात का जिक्र मत करना.”

दरअसल, ऊन खरीदने के लिए जाते समय रास्ते में अदीबा को दूर के एक रिश्तेदार मिल गए थे. वे बातें करते हुए साथसाथ चलने लगे और चंद मिनटों में ही कुछ ज्यादा ही करीब होने की कोशिश करने लगे. अदीबा फासला बढ़ा कर चलना चाहती और वे फासला घटा कर चलना चाहते.

पहले तो वे अदीबा के साथ सलीके से बातचीत करते रहे, लेकिन जैसे ही गली में अंधेरा मिला, तो वे अपनी असलियत पर उतर आए.

उन का हाथ बारबार किसी न किसी बहाने अदीबा के सीने को छूने लगा. अदीबा उन की नीयत भांप गई, फिर बिना लिहाज के एक जोरदार थप्पड़ उन के चेहरे पर रसीद कर दिया कि वे बिलबिला उठे.

इस के बाद अदीबा ऊन का गोला खरीदने का इरादा छोड़ कर बीच रास्ते से ही घर वापस लौट आई.

बड़े मियां इस अचानक होने वाले हमले के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. उन के कानों में अचानक सीटियां सी बजने लगीं और आंखों के सामने गोलगोल तारे नाचने लगे. उन्होंने बिना इधरउधर देखे सामने वाली पतली गली से निकलना मुनासिब समझा.

यही वजह थी कि अदीबा जब घर में दाखिल हुई, तो उस का चेहरा धुआंधुआं था और सांसें तेजतेज चल रही थीं.

बहरहाल, इस तरह मांबेटी की बातचीत में कई परतें और कई गांठें खुलती चली गईं.

अमेरिकन बेटा : कुछ ऐसा ही था डेविड

रीता एक दिन अपनी अमेरिकन दोस्त ईवा से मिलने उस के घर गई थी. रीता भारतीय मूल की अमेरिकन नागरिक थी. वह अमेरिका के टैक्सास राज्य के ह्यूस्टन शहर में रहती थी. रीता का जन्म अमेरिका में ही हुआ था. जब वह कालेज में थी, उस की मां का देहांत हो गया था. उस के पिता कुछ दिनों के लिए भारत आए थे, उसी बीच हार्ट अटैक से उन की मौत हो गई थी.

रीता और ईवा दोनों बचपन की सहेलियां थीं. दोनों की स्कूल और कालेज की पढ़ाई साथ हुई थी. रीता की शादी अभी तक नहीं हुई थी जबकि ईवा शादीशुदा थी. उस का 3 साल का एक बेटा था डेविड. ईवा का पति रिचर्ड अमेरिकन आर्मी में था और उस समय अफगानिस्तान युद्ध में गया था.

शाम का समय था. ईवा ने ही फोन कर रीता को बुलाया था. शनिवार छुट्टी का दिन था. रीता भी अकेले बोर ही हो रही थी. दोनों सखियां गप मार रही थीं. तभी दरवाजे पर बूटों की आवाज हुई और कौलबैल बजी.

अमेरिकन आर्मी के 2 औफिसर्स उस के घर आए थे. ईवा उन को देखते ही भयभीत हो गई थी, क्योंकि घर पर फुल यूनिफौर्म में आर्मी वालों का आना अकसर वीरगति प्राप्त सैनिकों की सूचना ही लाता है. वे रिचर्ड की मृत्यु का संदेश ले कर आए थे और यह भी कि शहीद रिचर्ड का शव कल दोपहर तक ईवा के घर पहुंच जाएगा.

ईवा को काटो तो खून नहीं. उस का रोतेरोते बुरा हाल था. अचानक ऐसी घटना की कल्पना उस ने नहीं की थी. रीता ने ईवा को काफी देर तक गले से लगाए रखा. उसे ढांढ़स बंधाया, उस के आंसू पोंछे.

इस बीच ईवा का बेटा डेविड, जो कुछ देर पहले कार्टून देख रहा था, भी पास आ गया. रीता ने उसे भी अपनी गोद में ले लिया. ईवा और रिचर्ड दोनों के मातापिता नहीं थे. उन के भाईबहन थे. समाचार सुन कर वे भी आए थे, पर अंतिम क्रिया निबटा कर चले गए. उन्होंने जाते समय ईवा से कहा कि किसी तरह की मदद की जरूरत हो तो बताओ, पर उस ने फिलहाल मना कर दिया था.

ईवा जौब में थी. वह औफिस जाते समय बेटे को डे केयर में छोड़ जाती और दोपहर बाद उसे वापस लौटते वक्त पिक कर लेती थी. इधर, रीता ईवा के यहां अब ज्यादा समय बिताती थी, अकसर रात में उसी के यहां रुक जाती. डेविड को वह बहुत प्यार करती थी, वह भी ईवा से काफी घुलमिल गया था. इस तरह 2 साल बीत गए.

इस बीच रीता की जिंदगी में प्रदीप आया, दोनों ने कुछ महीने डेटिंग पर बिताए, फिर शादी का फैसला किया. प्रदीप भी भारतीय मूल का अमेरिकन था और एक आईटी कंपनी में काम करता था. रीता और प्रदीप दोनों ही ईवा के घर अकसर जाते थे.

कुछ महीनों बाद ईवा बीमार रहने लगी थी. उसे अकसर सिर में जोर का दर्द, चक्कर, कमजोरी और उलटी होती थी. डाक्टर्स को ब्रेन ट्यूमर का शक था. कुछ टैस्ट किए गए. टैस्ट रिपोर्ट लेने के लिए ईवा के साथ रीता और प्रदीप दोनों गए थे. डाक्टर ने बताया कि ईवा का ब्रेन ट्यूमर लास्ट स्टेज पर है और वह अब चंद महीनों की मेहमान है. यह सुन कर ईवा टूट चुकी थी, उस ने रीता से कहा, ‘‘मेरी मृत्यु के बाद मेरा बेटा डेविड अनाथ हो जाएगा. मुझे अपने किसी रिश्तेदार पर भरोसा नहीं है. क्या तुम डेविड के बड़ा होने तक उस की जिम्मेदारी ले सकती हो?’’

रीता और प्रदीप दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगे. उन्होंने ऐसी परिस्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. तभी ईवा बोली, ‘‘देखो रीता, वैसे कोई हक तो नहीं है तुम पर कि डेविड की देखभाल की जिम्मेदारी तुम्हें दूं पर 25 वर्षों से हम एकदूसरे को भलीभांति जानते हैं. एकदूसरे के सुखदुख में साथ रहे हैं, इसीलिए तुम से रिक्वैस्ट की.’’

दरअसल, रीता प्रदीप से डेटिंग के बाद प्रैग्नैंट हो गई थी और दोनों जल्दी ही शादी करने जा रहे थे. इसलिए इस जिम्मेदारी को लेने में वे थोड़ा झिझक रहे थे.

तभी प्रदीप बोला, ‘‘ईवा, डोंट वरी. हम लोग मैनेज कर लेंगे.’’

ईवा ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘थैंक्स डियर. रीता, क्या तुम एक प्रौमिस करोगी?’’

रीता ने स्वीकृति में सिर हिलाया और ईवा से गले लगते हुए कहा, ‘‘तुम अब डेविड की चिंता छोड़ दो. अब वह मेरी और प्रदीप की जिम्मेदारी है.’’

ईवा बोली, ‘‘थैंक्स, बोथ औफ यू. मैं अपनी प्रौपर्टी और बैंक डिपौजिट्स की पावर औफ अटौर्नी तुम दोनों के नाम कर दूंगी. डेविड के एडल्ट होने तक इस की देखभाल तुम लोग करोगे. तुम्हें डेविड के लिए पैसों की चिंता नहीं करनी होगी, प्रौमिस?’’

रीता और प्रदीप ने प्रौमिस किया. और फिर रीता ने अपनी प्रैग्नैंसी की बात बताते हुए कहा, ‘‘हम लोग इसीलिए थोड़ा चिंतित थे. शादी, प्रैग्नैंसी और डेविड सब एकसाथ.’’

ईवा बोली, ‘‘मुबारक हो तुम दोनों को. यह अच्छा ही है डेविड को एक भाई या बहन मिल जाएगी.’’

2 सप्ताह बाद रीता और प्रदीप ने शादी कर ली. डेविड तो पहले से ही रीता से काफी घुलमिल चुका था. अब प्रदीप भी उसे काफी प्यार करने लगा था. ईवा ने छोटे से डेविड को समझाना शुरू कर दिया था कि वह अगर बहुत दूर चली जाए, जहां से वह लौट कर न आ सके, तो रीता और प्रदीप के साथ रहना और उन्हें परेशान मत करना.

पता नहीं डेविड ईवा की बातों को कितना समझ रहा था, पर अपना सिर बारबार हिला कर हां करता और मां के सीने से चिपक जाता था.

3 महीने के अंदर ही ईवा का निधन हो गया. रीता ने ईवा के घर को रैंट पर दे कर डेविड को अपने घर में शिफ्ट करा लिया. शुरू के कुछ दिनों तक तो डेविड उदास रहता था, पर रीता और प्रदीप दोनों का प्यार पा कर धीरेधीरे नौर्मल हो गया.

रीता ने एक बच्चे को जन्म दिया. उस का नाम अनुज रखा गया. अनुज के जन्म के कुछ दिनों बाद तक ईवा उसी के साथ व्यस्त रही थी. डेविड कुछ अकेला और उदास दिखता था.

रीता ने उसे अपने पास बुला कर प्यार किया और कहा, ‘‘तुम्हारे लिए छोटा भाई लाई हूं. कुछ ही महीनों में तुम इस के साथ बात कर सकोगे और फिर बाद में इस के साथ खेल भी सकते हो.’’

रीता और प्रदीप ने डेविड की देखभाल में कोई कमी नहीं की थी. अनुज भी अब चलने लगा था. घर में वह डेविड के पीछेपीछे लगा रहता था. डेविड के खानपान व रहनसहन पर भारतीय संस्कृति की स्पष्ट छाप थी. शुरू में तो वह रीता को रीता आंटी कहता था, पर बाद में अनुज को मम्मी कहते देख वह भी मम्मी ही कहने लगा था. शुरू के कुछ महीनों तक डेविड की मामी और चाचा उस से मिलने आते थे, पर बाद में उन्होंने आना बंद कर दिया था.

डेविड अब बड़ा हो गया था और कालेज में पढ़ रहा था. रीता ने उस से कहा कि वह अपना बैंक अकाउंट खुद औपरेट किया करे, लेकिन डेविड ने मना कर दिया और कहा कि आप की बहू आने तक आप को ही सबकुछ देखना होगा. रीता भी डेविड के जवाब से खुश हुई थी. अनुज कालेज के फाइनल ईयर में था. 3 वर्षों बाद डेविड को वैस्टकोस्ट, कैलिफोर्निया में नौकरी मिली. वह रीता से बोला, ‘‘मम्मी, कैलिफोर्निया तो दूसरे छोर पर है. 5 घंटे तो प्लेन से जाने में लग जाते हैं. आप से बहुत दूर चला जाऊंगा. आप कहें तो यह नौकरी जौइन ही न करूं. इधर टैक्सास में ही ट्राई करता हूं.’’

रीता ने कहा, ‘‘बेटे, अगर यह नौकरी तुम्हें पसंद है तो जरूर जाओ.’’

प्रदीप ने भी उसे यही सलाह दी. डेविड के जाते समय रीता बोली, ‘‘तुम अब अपना बैंक अकाउंट संभालो.’’

डेविड बोला ‘‘क्या मम्मी, कुछ दिन और तुम्हीं देखो यह सब. कम से कम मेरी शादी तक. वैसे भी आप का दिया क्रैडिट कार्ड तो है ही मेरे पास. मैं जानता हूं मुझे पैसों की कमी नहीं होगी.’’

रीता ने पूछा कि शादी कब करोगे तो वह बोला, ‘‘मेरी गर्लफ्रैंड भी कैलिफोर्निया की ही है. यहां ह्यूस्टन में राइस यूनिवर्सिटी में पढ़ने आई थी. वह भी अब कैलिफोर्निया जा रही है.’’

रीता बोली, ‘‘अच्छा बच्चू, तो यह राज है तेरे कैलिफोर्निया जाने का?’’

डेविड बोला, ‘‘नो मम्मी, नौट ऐट औल. तुम ऐसा बोलोगी तो मैं नहीं जाऊंगा. वैसे, मैं तुम्हें सरप्राइज देने वाला था.’’

‘‘नहीं, तुम कैलिफोर्निया जाओ, मैं ने यों ही कहा था. वैसे, तुम क्या सरप्राइज देने वाले हो.’’

‘‘मेरी गर्लफ्रैंड भी इंडियन अमेरिकन है. मगर तुम उसे पसंद करोगी, तभी शादी की बात होगी.’’

रीता बोली, ‘‘तुम ने नापतोल कर ही पसंद किया होगा, मुझे पूरा भरोसा है.’’

इसी बीच अनुज भी वहां आया. वह बोला, ‘‘मैं ने देखा है भैया की गर्लफ्रैंड को. उस का नाम प्रिया है. डेविड और प्रिया दोनों को लाइब्रेरी में अनेक बार देर तक साथ देखा है. देखनेसुनने में बहुत अच्छी लगती है.’’

डेविड कैलिफोर्निया चला गया. उस के जाने के कुछ महीनों बाद ही प्रदीप का सीरियस रोड ऐक्सिडैंट हो गया था. उस की लोअर बौडी को लकवा मार गया था. वह अब बिस्तर पर ही था.

डेविड खबर मिलते ही तुरंत आया. एक सप्ताह रुक कर प्रदीप के लिए घर पर ही नर्स रख दी. नर्स दिनभर घर पर देखभाल करती थी और शाम के बाद रीता देखती थीं.

रीता को पहले से ही ब्लडप्रैशर की शिकायत थी. प्रदीप के अपंग होने के कारण वह अंदर ही अंदर बहुत दुखी और चिंतित रहती थी. उसे एक माइल्ड अटैक भी पड़ गया, तब डेविड और प्रिया दोनों मिलने आए थे. रीता और प्रदीप दोनों ने उन्हें जल्द ही शादी करने की सलाह दी. वे दोनों तो इस के लिए तैयार हो कर ही आए थे.

शादी के बाद रीता ने डेविड को उस की प्रौपर्टी और बैंक डिपौजिट्स के पेपर सौंप दिए. डेविड और प्रिया कुछ दिनों बाद लौट गए थे. इधर अनुज भी कालेज के फाइनल ईयर में था. पर रीता और प्रदीप दोनों ने महसूस किया कि डेविड उतनी दूर रह कर भी उन का हमेशा खयाल रखता है, जबकि उन का अपना बेटा, बस, औपचारिकता भर निभाता है.

इसी बीच रीता को दूसरा हार्ट अटैक पड़ा, डेविड इस बार अकेले मिलने आया था. प्रिया प्रैग्नैंसी के कारण नहीं आ सकी थी. रीता को 2 स्टेंट हार्ट के आर्टरी में लगाने पड़े थे, पर डाक्टर ने बताया था कि उस के हार्ट की मसल्स बहुत कमजोर हो गई हैं. सावधानी बरतनी होगी. किसी प्रकार की चिंता जानलेवा हो सकती है.

रीता ने डेविड से कहा, ‘‘मुझे तो प्रदीप की चिंता हो रही है. रातरात भर नींद नहीं आती है. मेरे बाद इन का क्या होगा? अनुज तो उतना ध्यान नहीं देता हमारी ओर.’’

डेविड बोला, ‘‘मम्मी, अनुज की तुम बिलकुल चिंता न करो. तुम को भी कुछ नहीं होगा, बस, चिंता छोड़ दो. चिंता करना तुम्हारे लिए खतरनाक है. आप, आराम करो.’’

कुछ महीने बाद थैंक्सगिविंग की छुट्टियों में डेविड और प्रिया रीता के पास आए. साथ में उन का 4 महीने का बेटा भी आया. रीता और प्रदीप दोनों ही बहुत खुश थे.

इसी बीच रीता को मैसिव हार्ट अटैक हुआ. आईसीयू में भरती थी. डेविड, प्रिया और अनुज तीनों उस के पास थे. डाक्टर बोल गया कि रीता की हालत नाजुक है. डाक्टर ने मरीज से बातचीत न करने को भी कहा.

रीता ने डाक्टर से कहा, ‘‘अब अंतिम समय में तो अपने बच्चों से थोड़ी देर बात करने दो डाक्टर, प्लीज.’’

फिर रीता किसी तरह डेविड से बोल पाई, ‘‘मुझे अपनी चिंता नहीं है. पर प्रदीप का क्या होगा?’’

डेविड बोला, ‘‘मम्मी, तुम चुप रहो. परेशान मत हो.’’

वहीं अनुज बोला, ‘‘मम्मा, यहां अच्छे ओल्डएज होम्स हैं. हम पापा को वहां शिफ्ट कर देंगे. हम लोग पापा से बीचबीच में मिलते रहेंगे.’’

ओल्डएज होम्स का नाम सुनते ही रीता की आंखों से आंसू गिरने लगे. उसे अपने बेटे से बाप के लिए ऐसी सोच की कतई उम्मीद नहीं थी. उस की सांसें और धड़कन काफी तेज हो गईं.

डेविड अनुज को डांट रहा था, प्रिया ने कहा, ‘‘मम्मी, जब से आप की तबीयत बिगड़ी है, हम लोग भी पापा को ले कर चिंतित हैं. हम लोगों ने आप को और पापा को कैलिफोर्निया में अपने साथ रखने का फैसला किया है. वहां आप लोगों की जरूरतों के लिए खास इंतजाम कर रखा है. बस, आप यहां से ठीक हो कर निकलें, बाकी आगे सब डेविड और मैं संभाल लेंगे.’’

रीता ने डेविड और प्रिया दोनों को अपने पास बुलाया, उन के हाथ पकड़ कर कुछ कहने की कोशिश कर रही थी, उस की सांसें बहुत तेज हो गईं. अनुज दौड़ कर डाक्टर को बुलाने गया. इस बीच रीता किसी तरह टूटतीफूटती बोली में बोली, ‘‘अब मुझे कोई चिंता नहीं है. चैन से मर सकूंगी. मेरा प्यारा अमेरिकन बेटा.’’

इस के आगे वह कुछ नहीं बोल सकी. जब तक अनुज डाक्टर के साथ आया, रीता की सांसें रुक चुकी थीं. डाक्टर ने चैक कर रहा, ‘‘शी इज नो मोर.’’

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