Hindi Story : गणपति का जन्म – विकृत बच्चे को देख क्या हुआ

Hindi Story : फूलचंद ने फटा हुआ कंबल खींचखींच कर एकदूसरे के साथ सट कर सो रहे तीनों बच्चों को ठीक से ओढ़ाया और खुद राख के ढेर में तब्दील हो चुके अलाव को कुरेद कर गरमी पाने की नाकाम कोशिश करने लगा.

जाड़े की रात थी. ऊपर से 3 तरफ से खुला हुआ बरामदा. सांयसांय करती हवा हड्डियों को काटती चली जाती थी. गनीमत यही थी कि सिर पर छत थी.

अंदर कमरे में फूलचंद की बीवी सुरना प्रसव वेदना से तड़प रही थी. रहरह कर उस की चीखें रात के सन्नाटे को चीरती चली जाती थीं. पड़ोसी रामचरन की घरवाली और सुखिया दाई उसे ढाढ़स बंधा रही थीं.

मगर फूलचंद का ध्यान न तो सुरना की पीड़ा की ओर था, न ही उस के मन में आने वाले मेहमान के प्रति कोई उल्लास था. सच तो यह था कि अनचाहे बोझ को ले कर वह चिंतित ही था.

परिवार की माली हालत पहले से ही खस्ता थी. जब तक मिल चलती रही तब तक तो गनीमत थी. मगर पिछले 8 महीने से मिल में तालाबंदी चल रही थी और अब वह मजदूरी कर के किसी तरह परिवार का पेट पाल रहा था.

लेकिन रोज काम मिलने की कोई गारंटी न थी. कई बार फाकों की नौबत आ चुकी थी. कर्ज था कि बढ़ता ही जा रहा था. ऐसे में वह चौथा बच्चा फूलचंद को किसी नई मुसीबत से कम नजर नहीं आ रहा था. लेकिन समय के चक्र के आगे बड़ेबड़ों की नहीं चलती, फिर फूलचंद की तो क्या बिसात थी.

तभी सुरना की हृदय विदारक चीख उभरी और धीरेधीरे एक पस्त कराह में ढलती चली गई. फूलचंद ने भीतर की आवाजों पर कान लगाए. अंदर कुछ हलचल तो हो रही थी. मगर नवजात शिशु का रुदन सुनाई नहीं पड़ रहा था. अब फूलचंद को खटका हुआ, ‘क्या बात हो सकती है?’ कहीं कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई? मगर पूछूं भी तो किस से? अंदर जा नहीं सकता.

फूलचंद मन मार कर बैठा रहा. अब तो दोनों औरतों में से ही कोई बाहर आती, तभी कुछ पता चल पाता. हां, सुरना की कराहें उसे कहीं न कहीं आश्वस्त जरूर कर रही थीं.

प्रतीक्षा की वे घडि़यां जैसे युगों लंबी होती चली गईं. काफी देर बाद सुखिया दाई बाहर निकली. फूलचंद ने डरतेडरते पूछा, ‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, लड़का हुआ है,’’ सुखिया ने निराश स्वर में बताया, ‘‘मगर…’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ फूलचंद व्यग्र हो उठा.

‘‘अब मैं क्या कहूं. तुम खुद ही जा कर देख लो.’’

इस के बाद सुखिया तो चली गई, लेकिन फूलचंद की उलझन और बढ़ गई, ‘ऐसी क्या बात है, जो सुखिया से नहीं बताई गई? कहीं बच्चा मरा हुआ तो नहीं? मगर यह बात तो सुखिया बता सकती थी.’

कुछ देर बाद रामचरन की घरवाली भी यह कह कर चली गई, ‘‘कोई दिक्कत आए तो बुला लेना.’’

अब फूलचंद के अंदर जाने में कोई रुकावट नहीं थी. वह धड़कते दिल से अंदर घुसा. सुरना अधमरी सी चारपाई पर पड़ी थी. बगल में शिशु भी लेटा था.

सुरना ने आंखें खोल कर देखा. मगर फूलचंद की कुछ पूछने की हिम्मत न हुई. हां, उस की आंखों में कौंधती जिज्ञासा सुरना से छिपी न रह सकी. उस ने शिशु के मुंह पर से कपड़ा हटा दिया और खुद आंखें मूंद लीं.

आंखें तो फूलचंद की भी एकबारगी खुद ब खुद मुंद गईं. सामने दृश्य ही ऐसा था. नवजात शिशु का चेहरा सामान्य शिशुओं जैसा न था. माथा अत्यंत संकरा और लगभग तिकोना था. आंखें छोटीछोटी और कनपटियों तक फटी हुई थीं. कान भी असामान्य रूप से लंबे थे. सब से विचित्र बात यह थी कि शिशु का ऊपरी होंठ था ही नहीं. हां, नाक अत्यधिक लंबी हो कर ऊपरी तालू से जा लगी थी.

फूलचंद जड़ सा खड़ा था, ‘यह कैसी माया है? हुआ ही था तो अच्छाभला होता. नहीं तो जन्म लेने की क्या जरूरत थी. मुझ पर हालात की मार पहले ही क्या कम थी, जो यह नई मुसीबत मेरे सिर आ पड़ी. क्या होगा इस बच्चे का? अपना यह कुरूप ले कर इस दुनिया में यह कैसे जिएगा? क्या होगा इस का भविष्य?’

फूलचंद ने डरतेडरते पूछा, ‘‘इस की आवाज?’’

‘‘पता नहीं,’’ सुरना ने कमजोर आवाज में बताया, ‘‘रोया तक नहीं.’’

‘हैं,’ फूलचंद ने सोचा, ‘क्या यह गूंगा भी होगा?’

सुरना पहले ही काफी दुखी प्रतीत हो रही थी. इसलिए फूलचंद ने और कोई सवाल न किया. बस, अपनेआप को कोसता रहा और बाहर सोए तीनों बच्चों को ला ला कर अंदर लिटाता रहा. फिर खुद भी उन्हीं के साथ सिकुड़ कर लेटा रहा.

मगर उस की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. रहरह कर नवजात शिशु का चेहरा आंखों के आगे नाचने लगता था. तरहतरह की आशंकाएं मन में उठ रही थीं. फूलचंद ने सुना था कि उस तरह के बच्चे कुछ दिनों के ही मेहमान होते हैं. मगर वह बच्चा अगर जी गया तो…?

इसी तरह की उलझनों में पड़े हुए फूलचंद ने बाकी रात आंखों में ही काट दी.

सुबह होतेहोते रामचरन की घरवाली के माध्यम से यह बात महल्ले भर में जंगल की आग की तरह फैल गई कि फूलचंद के यहां विचित्र बालक का जन्म हुआ है.

बस, फिर क्या था. तमाशबीन औरतों के झुंड के झुंड आने शुरू हो गए. उन का तांता टूटने का नाम ही नहीं लेता था. वह एक ऐसी मुसीबत थी जिस की फूलचंद ने कल्पना तक नहीं की थी. मगर चुप्पी साधे रहने के सिवा कोई दूसरा चारा भी नहीं था.

तभी तमाशबीन औरतों के एक झुंड के साथ भगवानदीन की मां राधा आई. उस ने सारा वातावरण ही बदल कर रख दिया. राधा ने बच्चे को देखते ही हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. फिर जमीन पर बैठ कर माथा झुकाया और साथ आई औरतों को फटकार लगाई, ‘‘अरी, ऐसे दीदे फाड़फाड़ कर क्या देख रही हो? प्रणाम करो. यह तो साक्षात गणेशजी ने कृपा की है सुरना पर. इस की तो कोख धन्य हो गई.’’

साथ आई औरतें अभी तक तो राधा के क्रियाकलाप अचरज से देख रही थीं. किंतु उस की बात सुनते ही जैसे उन की भी आंखें खुलीं. सब ने शिशु को प्रणाम किया. सुरना की कोख को सराहा और हाथ में जो भी सिक्का था, वही चारपाई के सामने अर्पित करने के बाद जमीन पर माथा टेक दिया.

अब राधा बाहर फूलचंद के पास दौड़ी आई. वह थकान और चिंता के कारण बाहर चबूतरे पर घुटनों में सिर डाले बैठा था. राधा ने उसे झिंझोड़ कर उठाया, ‘‘अरे, क्या रोनी सूरत बनाए बैठा है यहां. तुझे तो खुश होना चाहिए, भैया. सुरना की कोख पर साक्षात ‘गणेशजी’ ने कृपा की है. तेरे तो दिन फिर गए. और देख, वह तो माया दिखाने आए हैं अपनी. वह रुकेंगे थोड़ा ही. जब तक हैं, खुशीखुशी उन की सेवा कर. हजारों वर्षों में किसीकिसी को ही ऐसा अवसर मिलता है.’’

फूलचंद चमत्कृत हो उठा, ‘‘यह बात तो मेरे दिमाग में आई ही नहीं थी, काकी.’’

‘‘अरे, तुम लोग ठहरे उम्र व अक्ल के कच्चे,’’ राधा ने बड़प्पन झाड़ा, ‘‘तुम्हें ये सब बातें कहां से सूझें. और हां, लोग दर्शन को आएंगे तो किसी को मना न करना, बेटा. उन पर कोई अकेले तेरा ही हक थोड़ा है. वह तो साक्षात ‘परमात्मा’ हैं, वह सब के हैं, समझा?’’

फूलचंद ने नादान बालक की तरह हामी भरी और लपक कर अंदर पहुंचा. दरअसल, अब वह शिशु को एक नई नजर से देखना चाहता था. मगर चारपाई के पास पड़े पैसों को देख कर वह एक बार फिर चक्कर खा गया. सुरना से पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘वही लोग चढ़ा गए हैं,’’ सुरना ने बताया, ‘‘काकी कहती थीं, गणेशजी…’’

‘‘और नहीं तो क्या,’’ फूलचंद में जैसे नई जान पड़ने लगी थी, ‘‘न तो तेरी मति में यह बात आई, न ही मेरी. मगर हैं ये साक्षात गणेशजी ही.’’

‘‘हम लोग उन की माया क्या जान सकें. अपनी माया वही जानें.’’

फूलचंद को एकाएक शिशु की चिंता सताने लगी, ‘‘यह तो हिलताडुलता भी नहीं. देख सांस तो चलती है न?’’

सुरना ने कपड़ा हटा कर देखा. सांसें चल रही थीं.

फूलचंद को अब दूसरी चिंता हुई, ‘‘भला एकआध बार दूधवूध चटाया या नहीं?’’

सुरना ने तनिक दुखी स्वर में कहा, ‘‘दूध तो मुंह में दाब ही नहीं पाता.’’

‘‘ओह,’’ फूलचंद झल्लाया, ‘‘क्या इसे भूखा मारोगी? देखो, मैं रुई का फाहा बना कर देता हूं. तुम उसी से दूध इस के मुंह में टपका देना. गला सूखता होगा.’’

शिशु का गला सींचने का यह उपक्रम चल ही रहा था कि कुछ और लोग कथित गणेशजी के दर्शनार्थ आ पहुंचे. इस बार औरतों के अलावा मर्द भी आए थे. दूसरी खास बात यह थी कि कुछ लोगों के हाथों में फूल और फल भी थे. फूलचंद ने लपक कर प्रसन्न मन से सब का स्वागत किया, ‘‘आइए आइए, आप लोग भी दर्शन कीजिए.’’

दोपहर ढलतेढलते कथित गणेशजी के जन्म की खबर पासपड़ोस के महल्लों तक फैल गई. श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ने लगी. मिठाई, फल, मेवा, फूल आदि जो बन पाता, लिए चले आ रहे थे. उस के अलावा नकदी का चढ़ावा भी कम न था.

शाम को किसी पड़ोसी ने सलाह दी, ‘‘कुछ परचे छपवा कर बांट दिए जाएं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को खबर हो जाए और वे दर्शन का लाभ प्राप्त कर सकें.’’

फूलचंद को वह सलाह जंची. पता नहीं, कब उस की भी यह दिली इच्छा हो आई थी कि जितने ज्यादा लोग दर्शन का लाभ उठा लें, उतना ही अच्छा.

आननफानन मजमून बनाया गया और एक पड़ोसी ने खुद आगे बढ़ कर परचे छपवा कर अगले ही दिन मुहैया कराने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली.

रात करीब 10 बजे दर्शनार्थियों का तांता टूटा. तब फूलचंद ने दर्शन बंद होने की घोषणा की. उस रात फूलचंद के परिवार ने बहुत दिनों बाद तृप्ति भर सुस्वाद भोजन का आनंद उठाया था. दूसरे दिन परचे बंटे और एक स्थानीय अखबार के प्रतिनिधि आ कर बच्चे की तसवीर खींच ले गए. अखबार में बच्चे की तसवीर और विचित्र बालक के जन्म की खबर छपते ही, शहर में जैसे आग सी लग गई. दूरदराज के महल्लों से भी लोग दर्शन के लिए टूट पड़े.

फूलचंद के घर के सामने मेला सा लग गया. पता नहीं, कहां से फूल आदि ले कर एक माली बैठ गया. उस के अलावा महल्ले के हलवाई को दम मारने की फुरसत न थी. उस भीड़ को व्यवस्थित ढंग से दर्शन कराने के लिए फूलचंद को अपने कमरे का दूसरा दरवाजा (जो अभी तक बंद रखा जा रहा था) खोलना पड़ा. अब लोग कतार बांधे एक दरवाजे से अंदर आते थे और दर्शन कर के दूसरे दरवाजे से बाहर निकल जाते थे.

फूलचंद और उस के बच्चे सुबहसुबह ही नहाधो कर साफसुथरे कपड़े पहन लेते और दर्शन की व्यवस्था में जुट जाते. घर में अब न तो पहले जैसा तनाव था, न ही कुढ़न. सभी जैसे उल्लास की लहरों में तैरते रहते थे.

फूलचंद थोड़ीथोड़ी देर बाद सुरना के पास आ कर उस के कान में शिशु को रुई के फाहे से दूध चटाते रहने की हिदायत देता रहता था. इस बहाने वह अपनेआप को आश्वस्त भी कर लेता था कि शिशु अभी जीवित है.

रात को भी वह कई बार शिशु को देखता और उस की सांसें चलती देख कर चैन से सो जाता. सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा था. कहीं कोई समस्या न थी. हां, एक समस्या यह जरूर पैदा हो गई थी कि चढ़ावे में चढ़ी मिठाई का क्या किया जाए. उसे उपभोग के लिए ज्यादा दिन बचाए रखना संभव न था. यों फूलचंद ने महल्ले में अत्यंत उदारतापूर्वक प्रसाद बांटा था. फिर भी मिठाई चुकने में न आती थी.

लेकिन उस समस्या का हल भी निकल आया. रात में मिठाई फूलचंद के यहां से उठा कर हलवाई के हाथों बेच दी जाती, फिर सुबह श्रद्धालुओं के हाथों में होती हुई दोबारा फूलचंद के यहां चढ़ा दी जाती.

छठे दिन भोर में ही सुरना ने फूलचंद को जगाया और घबराई हुई आवाज में कहा, ‘‘देखो, इस को क्या हो गया?’’

फूलचंद ने हड़बड़ा कर शिशु को उघाड़ दिया. झुक कर गौर से देखा. उस की सांसें बंद हो चुकी थीं. हताश हो कर सुरना की ओर देखा, ‘‘खेल खत्म हो गया.’’ सुरना की रुलाई खुद व खुद फूट पड़ी. मगर फूलचंद ने उसे रोका, ‘‘नहीं, रोनाधोना बंद करो. इस को ऐसे ही लेटा रहने दो. देखो, किसी से जिक्र न करना. थोड़ी देर में लोग दर्शन के लिए आने लगेंगे.’’

सुरना ने रोतेरोते ही कहा, ‘‘मगर यह तो…’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ फूलचंद ने कहा, ‘‘यह तो वैसे भी न तो रोता था, न ही हिलताडुलता था. लोगों को क्या पता चलेगा? हां, शाम को कह देंगे कि भगवान ने माया समेट ली.’’ और फिर जैसे सुरना को समझाने के बहाने फूलचंद अपनेआप को भी समझाने लगा, ‘कोई हम ने तो भगवान से यह स्वरूप मांगा न था. यह तो उन्हीं की कृपा थी. शायद हमारी गरीबी ही दूर करने आए थे. आज दिन भर लोग और दर्शन कर लेंगे तो कुछ बुरा तो नहीं हो जाएगा.’

सुरना घुटनों पर माथा टेके सिसकती रही. फूलचंद ने फिर समझाया, ‘‘देखो, अब ज्यादा दुख न करो. ज्यादा दिन तो इसे वैसे भी नहीं जीना था. और जी जाता तो क्या होता इस का. उठो, तैयार हो कर रोज की तरह बैठ जाओ. लोग आने ही वाले हैं.’’ सुरना बिना कुछ बोले तैयार होने के लिए उठ गई. थोड़ी देर बाद ही वहां दर्शनार्थियों का तांता लगना शुरू हो गया और भेंट व प्रसाद के रूप में फूलों, मिठाइयों एवं सिक्कों के ढेर लगने लगे.

Hindi Story : भूत नहीं भरम

Hindi Story : सब की नजरें इमारत की ऊपरी मंजिल पर लगी हुई थीं. पूरी इमारत अंधेरे में डूबी हुई थी. सिर्फ बरामदों में कहींकहीं कोई एकाध धूल जमा बल्ब टिमटिमा रहा था.

लेकिन ऊपरी मंजिल के एक कमरे की लाइटें जली हुई थीं और वहां से अजीबअजीब सी आवाजें आ रही थीं, कभी किसी के रोने की आवाज आ रही थी, तो कभी किसी की गुर्राहट भरी आवाज सुनाई दे रही थी. कभी ऐसी आवाज सुनाई दे रही थी, जैसे किसी का गला घोंटा जा रहा हो.

काफी देर बाद अचानक कमरे की लाइटें बंद हो गईं और एक हलकी सी चीख सुनाई दी. उस के बाद भागते हुए कदमों की आहट, जो लगता था, सीढि़यों में ही कहीं गुम हो गई है.

यह इमारत इलाके के एक स्कूल  की थी, जहां पिछले दिनों एक बड़ा  ही दर्दनाक हादसा हो गया था. रात  को इमारत की ऊपरी मंजिल के जिस कमरे की लाइटें जली हुई थीं और  जहां से अजीबअजीब सी आवाजें  आ रही थीं, उस कमरे में स्कूल की  एक सीनियर क्लास बैठती थी.

एक दिन सुबहसुबह जैसे ही उस कमरे के छात्र अपनी क्लास में गए, वहां का कमरा अंदर से बंद था. छात्रों ने दरवाजा खटखटाया, पर बेकार.

थोड़ी देर बाद एक लड़के की नजर रोशनदान से अंदर पड़ी, तो उस की चीख निकल गई. वह ‘भूतभूत’ चिल्लाते हुए नीचे की तरफ दौड़ने लगा.

अध्यापकों के पूछने पर उस छात्र ने किसी तरह अपनी सांसों पर काबू करते हुए बताया, ‘‘सर, कमरे में पंखे से कोई लटका हुआ है.’’

बड़ी मुश्किल से किसी तरह दरवाजा खोला गया और पाया कि सचमुच पंखे से किसी की लाश लटकी हुई है.

इतने में जोशी सर भी वहां आ पहुंचे. उन्होंने लटकी हुई लाश को ध्यान से देखा और कहा, ‘‘इस की मौत हो चुकी है. इसे उतारना बेकार है. फौरन पुलिस को इस की सूचना दी जाए.’’

थोड़ी देर बाद पुलिस भी आ पहुंची. मामला एक सार्वजनिक संस्थान का था, इसलिए एसएचओ खुद भी आए.

लाश की तलाशी लेने पर जेब से कुछ कागजात और एक मुड़ातुड़ा खत भी मिला. खत एसएचओ ने खुद पढ़ा और उन की आंखों से मोटेमोटे आंसुओं की धार बहने लगी. जोशी सर ने खत अपने हाथ में ले लिया और उसे पढ़ने लगे.

खत में लिखा था, ‘मेरी मौत के लिए मैं खुद जिम्मेदार हूं. मैं एक अच्छा छात्र था. अध्यापकों को मुझ से बड़ी उम्मीदें थीं. मैं भी उन की उम्मीदों पर खरा उतरना चाहता था, इसीलिए मैं ने पढ़ाई जारी रखी. पर क्योंकि मैं एक गरीब परिवार का लड़का था, इसलिए मुझे काम की भी जरूरत थी, पर किसी ने मुझे कोई काम नहीं दिया. हमारे घर की हालत बड़ी खराब है.

‘मुझ से अपनी मां की उदासी नहीं देखी जाती. मुझे लगता है कि मेरी जिंदगी बेकार है, इसलिए अपनी इस जिंदगी को खत्म कर रहा हूं.’

मरने वाले का घर पास में ही था और उस की मां भी पहुंच चुकी थी, एकदम बेहाल.

इस घटना के ठीक एक हफ्ते बाद ये अजीबोगरीब वाकिआ पेश आने लगा. लोगों को यकीन हो गया था कि ये फांसी लगाने वाले लड़के का ही भूत है.

जोशी सर को जब यह बात पता चली, तो उन्होंने कहा, ‘‘भूतवूत कुछ नहीं होता. यह लोगों का वहम है.’’

जोशी सर ने स्टाफ के बाकी लोगों से पूछताछ की तो और भी हैरान कर देने वाली बातें सामने आईं.

सफाई वाले ने बताया, ‘‘सर, मैं जब भी उस कमरे में सफाई करने जाता हूं, तो कमरे में रखे डैस्क और कुरसियां अपनेआप इधरउधर होने लगती हैं.’’

स्कूल का चौकीदार भी वहीं बिल्डिंग की छत पर बनी एक कोठरी  में रहता था. उस ने बताया, ‘‘सर,  वह रोज आ कर मेरी कोठरी का  दरवाजा खटखटाता है और कई बार  तो सिटकनी भी खोल देता है.’’

इन सब बातों के बावजूद जोशी सर भूतप्रेत के वजूद को मानने को तैयार नहीं थे. उन्होंने फैसला किया कि वे एक रात वहीं रुक कर सारे मामले को देखेंगे. इस के लिए उन्होंने 3 और लोगों को भी तैयार कर लिया.

एक दिन वे चारों चुपचाप ऊपर की मंजिल के एक कमरे में छिप कर बैठ गए. साथ ही, उन्होंने टार्च, डंडे और दूसरा जरूरी सामान भी रख लिया.

जैसे ही अंधेरा हुआ, छत पर किसी के कूदने की आवाज आई और बरामदे में कदमों की हलकीहलकी पैरों की आवाज सुनाई दी. थोड़ी देर में कुछ गुर्राहट जैसी आवाजें भी आने लगीं.

जोशी सर और दूसरे सभी लोगों ने खिड़की से एकसाथ टार्च की रोशनी फेंकी तो देखा कि कुछ मोटीमोटी बिल्लियां थीं, जो दूसरी छत से कूद कर आई थीं और अब एकदूसरे पर गुर्रा रही थीं. तभी उस कमरे की लाइटें भी जल उठीं.

जोशी सर ने देखा कि लाइटें जलाने वाला और कोई नहीं, बल्कि चौकीदार ही था. रोशनी होते ही बिल्लियां कुछ सावधान सी हो गईं और उन का गुर्राना धीमा पड़ गया, जैसे किसी के हलक से हलकीहलकी चीखें निकल रही हों.

कुछ देर बाद सामने 2 आदमी दिखाई पड़े. उन के हाथों में कुछ चीजें भी थीं. जोशी सर दूसरे सभी लोगों के साथ बाहर आए और उन दोनों लोगों को पकड़ लिया. एक के हाथ में शराब की बोतल थी और दूसरे के हाथ में खानेपीने का सामान. तलाशी लेने पर उन की जेबों से ताश की गड्डियां और कुछ पैसे भी मिले.

सख्ती से पूछने पर उन्होंने बताया कि वे लोग शराब पीने और जुआ खेलने के लिए यहां आते हैं. एक बार किसी ने उन्हें यहां शराब पीते और जुआ खेलते देख लिया था, तो उस ने शिकायत करने की धमकी दी. इस वजह से उन का यहां आना बंद हो गया.

उस लड़के की मौत के बाद उन्होंने इस चीज का फायदा उठा कर यह अफवाह फैला दी कि यहां लड़के  का भूत आता है

और उत्पात मचाता है, जिस से यहां कोई आने की हिम्मत न करे और वे आराम से जुआ खेल सकें व खापी सकें.

इतने में पुलिस भी आ गई, क्योंकि जोशी सर के एक सहयोगी ने चुपके से पुलिस को फोन कर दिया था. वे जुआरी अब हवालात में थे.

लेखक- सीताराम गुप्ता

Hindi Story : फर्ज की याद

Hindi Story : जब से सुनील शर्मा इस दफ्तर में प्रमोशन ले कर आए हैं तब से वे कभी चपरासी गणेशी से पानी नहीं मंगाते हैं. वे खुद ही उठ कर पी आते हैं, चाहे मेज पर कितना भी काम हो.

गणेशी कई दिनों से सुनील शर्मा की इस आदत को देख रहा था. आज भी जब वे पानी पी कर अपनी मेज पर आ कर बैठे तब गणेशी आ कर बोला, ‘‘बाबूजी, एक बात कहूं…’’

‘‘कहो,’’ सुनील शर्मा ने नजर उठा कर गणेशी की तरफ देखा.

‘‘जब से आप आए हो, उठ कर पानी पीते हो.’’

‘‘हां, पीता हूं,’’ सुनील शर्मा ने सहजता से जवाब दिया.

‘‘आप मुझे आदेश दे दिया करें न, मैं पिला दिया करूंगा. आखिर मेरी ड्यूटी पानी पिलाने की ही है,’’ गणेशी ने सवालिया निगाहों से पूछा.

‘‘देखो गणेशी, मेरा उसूल है कि अपना काम खुद करना चाहिए,’’ सुनील शर्मा ने अपनी बात रखी.

‘‘ऐसी बात नहीं है बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी पीना नहीं चाहते हैं,’’ गणेशी ने यह कह कर गुस्से से सुनील शर्मा को देखा.

सुनील शर्मा तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाए. गणेशी फिर बोला, ‘‘मगर, मैं सब जानता हूं बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी क्यों नहीं पीना चाहते हैं.’’

‘‘क्या जानते हो?’’

‘‘मैं अछूत हूं, इसलिए आप मेरा दिया पानी नहीं पीना चाहते हो.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है गणेशीजी, मैं छुआछूत को नहीं मानता हूं.’’

‘‘फिर मुझ से पानी मंगा कर क्यों नहीं पीते हो?’’

‘‘देखो गणेशीजी, आप चपरासी हो. मैं जब से इस दफ्तर में आया हूं, किसी को आप ने अपनी मरजी से पानी नहीं पिलाया. जिस बाबू ने पानी पीने के लिए कहा तब कहीं जा कर आप ने पिलाया…’’ समझाते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘इसी बात को मैं कई दिनों से देख रहा था, जबकि तुम्हारा यह फर्ज बनता है कि बाबुओं को बिना मांगे पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘बाबूजी, जब प्यास लगती है तभी तो पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘नहीं, यही तो आप गलती कर रहे हो. बिना मांगे पानी ले कर हर मेज पर पहुंच जाना चाहिए. यही एक चपरासी का फर्ज होता है…’’ समझाते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘यही वजह है कि मैं खुद उठ कर पानी पीता हूं. आप ने आज तक अपनी मरजी से मुझे पानी नहीं पिलाया है.’’

‘‘अरे बाबूजी, आप ही पहले ऐसे आदमी हो वरना सभी बाबू मांग कर पानी पीते हैं. आप ही ऐसे हैं जो मुझे अछूत समझ कर पानी नहीं मंगाते हो,’’ गणेशी ने आरोप लगाते हुए कहा.

सुनील शर्मा सोच में डूब गए. गणेशी उन की बात का उलटा मतलब ले रहा है. वे कुछ और जवाब दें, इस से पहले ही साहब की घंटी बज उठी. गणेशी साहब के केबिन में चला गया.

सुनील शर्मा मन ही मन झुंझला उठे. पास की मेज पर बैठे मुकेश भाटी बोले, ‘‘शर्माजी, देख लिए गणेशी के तेवर. आप की बात का उस पर कोई असर नहीं पड़ा.’’

‘‘हां भाटीजी, असर तो नहीं पड़ा,’’ उन्होंने भी स्वीकार करते हुए कहा.

‘‘इसलिए मैं कहता हूं कि अपने उसूल छोड़ दो वरना यह आप पर छुआछूत बरतने का केस दायर कर देगा…’’ समझाते हुए मुकेश भाटी बोले, ‘‘फिर कचहरी के चक्कर काटते रहना क्योंकि कानून भी इस का ही पक्ष लेगा.’’

‘‘देखो भाटीजी, मैं तो उस को अपने फर्ज की याद दिला रहा था.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है शर्माजी. जिस को अपना फर्ज समझना ही नहीं है उसे याद दिलाना फुजूल है. उस से बहस कर के खुद का सिर फोड़ना है. फिर मेरा काम था समझाने का समझा दिया. आप अपने उसूलों पर ही रहना चाहते हो तो रहो. कल को कुछ हो जाए, तो फिर मुझे कुछ मत कहना,’’ कह कर मुकेश भाटी अपने काम में लग गए.

सुनील शर्मा के भीतर इन बातों को सुन कर हलचल मच गई. अब पहले वाला जमाना नहीं है. सरकार भी रिजर्वेशन के तहत सब महकमों में इन की भरती करती जा रही है, इसलिए चपरासी से ले कर अफसर तक ये ही मिलेंगे.

जिस परिवार में सुनील शर्मा का जन्म हुआ है, वह ब्राह्मण परिवार है. 1970 के पहले उन का ठेठ देहाती गांव था. छुआछूत का जोर था. किसी अछूत को छूना भी पाप समझा जाता था, इसलिए वे गांव में ही अलग बस्ती में रहते थे.

सुनील शर्मा के पिता गंगा सागर गांव में शादीब्याह कराने और कथा बांचने का काम करते थे. वे यह काम केवल ऊंची जाति वालों के यहां किया करते थे. निचली जाति के लोगों के यहां कर्मकांड के लिए वे मना कर दिया करते थे.

गांव की दलित बस्ती गंगा सागर से बहुत नाराज रहती थी. मगर वे कर कुछ नहीं पाते थे, क्योंकि उन की चलती ही नहीं थी.

जब कोई दलित किसी काम से गंगा सागर के पास आता था, तो वे उन्हें बाहर बिठा कर संस्कार करा देते थे. बदले में वे कुछ सिक्के देते थे, जिन्हें वे जमीन पर ही रखवा देते थे. तब यजमान मखौल उड़ा कर कहते थे, ‘पंडितजी, यह कैसा नियम. मेरे हाथ से नहीं लिया, मगर हाथ से अपवित्र सिक्के को आप ने ग्रहण कर लिया तो अपवित्र नहीं हुए.’

बदले में गंगा सागर संस्कृत में शुद्धीकरण के श्लोक पढ़ कर उसे शुद्धी का पाठ पढ़ा देते थे.

उस समय दलितों में कूटकूट कर अपढ़ता भरी थी. विरोध करने के बजाय वे सबकुछ सच मान लेते थे. गांव में कोई गंगा सागर को दलित दिख जाता, तो वे उस से बच कर निकलते थे.

मगर जैसेजैसे दिन बीतते रहे, छुआछूत की यह परंपरा शहरों में खत्म होने के साथसाथ गांवों में भी खत्म होने लगी थी. अब तो न के बराबर रही है. अब भी कुछ पुराने लोग हैं जो छुआछूत को मानते हैं क्योंकि वे उसी जमाने में जी रहे हैं.

सुनील शर्मा को आज नौकरी करते हुए 32 साल हो गए हैं. इन 32 सालों में उन्होंने बहुतकुछ देख लिया है. रिटायरमैंट में 3 साल बचे हैं. गणेशी जैसे कितने ही लोग हैं जो इस दलित अवसर को भुनाना चाहते हैं. इन को सामान्य वर्ग के प्रति हमेशा से नफरत थी, जो विष बीज बन कर वट वृक्ष

बन गई है. सरकार ने साल 1989 में इन के लिए जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करने पर बैन लगा दिया है, तब से ही इन के हौसले बढ़ने लगे हैं.

‘‘अरे शर्माजी, पानी पीयो,’’ इस आवाज से सुनील शर्मा की सारी विचारधारा भंग हो गई.

गणेशी गिलास लिए उन के सामने खड़ा था. उन्होंने गटागट पानी पी कर वापस उसे गिलास थमा दिया.

गणेशी बोला, ‘‘बाबूजी, आप ने मुझे मेरा फर्ज याद दिला दिया.’’

‘‘वह कैसे गणेशीजी?’’ हैरानी से सुनील शर्मा ने पूछा.

‘‘देखिए बाबूजी, अब तक जो मांगता था, उसे ही मैं पानी पिलाता था, मगर आप ने यह कह कर मेरी आंखें खोल दीं कि पानी तो हर मेज पर जा कर पिलाना चाहिए, इसलिए आज से ही मैं ने आप से शुरुआत की है.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा काम किया गणेशीजी. चलो, मेरी बात पर आप ने गौर तो किया.’’

‘‘हां बाबूजी, अब मुझे किसी को फर्ज की याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ कह कर गणेशी चला गया.

मगर सुनील शर्मा उस में अचानक आए इस बदलाव को देख कर हैरान थे.

Hindi Story : अनुभव – गरिमा के साथ परेश को क्या महसूस हुआ

Hindi Story : पहाड़ियों पर कार सरपट भागी जा रही थी. ड्राइवर को शायद घर पहुंचने की ज्यादा जल्दी थी, वरना सांप जैसे टेढ़ेमेढ़े रास्तों पर इस तरह कौन खतरा मोल लेता है? सूरज तेजी से डूबने वाला था. परेश का मन भी शायद सूरज की तरह ही बैठा हुआ था, लेकिन पहाड़ों की जिंदगी उसे बहुत सुकून देती आई थी. जब भी छुट्टी मिलती वह भागा चला जाता था.

परेश की जिंदगी बहुत अजीब थी. नाम, पैसा, शोहरत सब था लेकिन मन के अकेलेपन को दूर करने वाला साथी कोई नहीं था. पहाड़ों पर सूरज छिपते ही अंधेरा तेजी से पसरने लगता है. जल्दी ही रात जैसा माहौल छाने लगता है. अचानक एक मोड़ पर जैसे ही कार तेजी से घूमी, परेश की नजर घाटी की एक चट्टान पर पड़ी. एक लड़की वहां खड़ी थी. इस मौसम में अकेली लड़की की यह हालत परेश को खटक गई.

उस ने ड्राइवर को कार रोकने को कहा. ड्राइवर ने फौरन कार रोक दी. ‘चर्र… चर्र…’ की तेज आवाज पहाड़ों के शांत माहौल को चीर गई. ड्राइवर ने हैरानी से परेश की ओर देखा और पूछा, ‘‘क्या हुआ साहबजी?’’

परेश ने बिना कोई जवाब दिए कार का दरवाजा खोला और बिजली की रफ्तार से उस ओर भागा जहां वह लड़की खड़ी दिखी थी. परेश ज्यों ही वहां पहुंचा लड़की ने नीचे छलांग लगा दी. लेकिन परेश ने गजब की फुरती दिखाते हुए उसे नीचे गिरने से पहले ही पकड़ लिया.

परेश ने फौरन उस लड़की को पीछे खींचा. वह पलटी तो परेश की ओर अजीब सी नजरों से देखने लगी. ‘‘क्या कर रही थी?’’ परेश ने उस लड़की का हाथ पकड़े हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं…’’ लड़की बोली. ‘‘कहां जाना है? इस वक्त सुनसान इलाके में इतनी खतरनाक जगह… क्या करना चाहती थी?’’ परेश ने फिर गुस्से से पूछा.

‘‘अरे, मैं तो सैरसपाटे के लिए… बस यों ही… पैर फिसल गया शायद…’’ कहते हुए लड़की ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया. परेश उस लड़की को अपनी कार की ओर ले आया. लड़की ने कोई विरोध भी नहीं किया. ड्राइवर उस लड़की को शक भरी नजरों से घूरने लगा. परेश की पूछताछ अभी भी जारी थी. थोड़ी देर बाद वह लड़की अपने मन का गुबार निकालने लगी.

परेश यह जान कर हैरान हुआ कि वह घर से भागी हुई थी और किसी भी कीमत पर वापस लौटने को तैयार नहीं थी. उस के अशांत मन का गुस्सा साफ झलक रहा था. ‘‘अब कहां ठहरी हो आप?’’ परेश ने पूछा.

‘‘मैं… अरे, मुझे मरना है, जीना ही नहीं, इसलिए ठहरने की क्या बात आई?’’ इतना कह कर वह लड़की खिलखिला कर हंस पड़ी. ‘‘यह क्या बात हुई. आप को पता है कि आप के मातापिता कितना परेशान होंगे…’’ परेश ने शांत लहजे में उसे समझाते हुए कहा.

‘‘मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,’’ वह लड़की बेतकल्लुफ अंदाज से बोली. ‘‘मैं परेश… लेखक. यहां किताब पूरी करने आया हूं.’’

‘‘अच्छा, आप लेखक हैं? फिर तो मेरी कहानी भी जरूर लिखना… एक पागल लड़की, जिस ने किसी की खातिर खुद को मिटा दिया.’’ ‘‘आप ऐसी बातें न करें. जिंदगी बेशकीमती है, इसे खत्म करने का हक किसी को नहीं,’’ परेश ने कहा.

‘‘मेरा नाम है गरिमा सिंह… एक हिम्मती लड़की जिसे कोई नहीं हरा सकता, पर नकार जरूर दिया.’’ ‘‘आप ऐसा मत कहिए…’’ परेश अपनी बात पूरी करता उस से पहले ही गरिमा ने उस की बात काट दी, ‘‘आप मुझे यहीं उतार दीजिए…’’

‘‘मैं आप को अब कहीं नहीं जाने दूंगा. क्या आप मेरे साथ रहेंगी?’’ गरिमा ने पहले परेश की तरफ देखा, फिर अचकचा कर हंस पड़ी, ‘‘देख लीजिए, कोई नई कहानी न बन जाए?’’

परेश को शायद ऐसे सवाल की उम्मीद न थी. उस की सोच अचानक बदल गई. आखिर था तो वह भी मर्द ही. जोश को दबाते हुए वह बोला, ‘‘कोई नहीं जो कहानी बने, लेकिन अब अपने साथ और खिलवाड़ मत कीजिए.’’ ‘‘मरने वाला कभी किसी चीज से डरा है क्या सर…?’’ इस बार गरिमा की आवाज में गंभीरता झलक रही थी.

अचानक ड्राइवर ने कार रोकी. दोनों ने सवालिया नजरों से उसे देखा. कार में कोई खराबी आ गई थी जिसे वह ठीक करने में जुटा था. अब रात होने लगी थी. तभी ड्राइवर ने परेश को आवाज लगाई, ‘‘साहब, बाहर आइए.’’

परेश हैरानी से कार से बाहर निकला. ड्राइवर बोनट खोले इंजन को दुरुस्त करने में बिजी था. उस ने गरदन ऊपर उठाई और परेश के कान में फुसफुसा कर कहा, ‘‘साहबजी, कार को कुछ नहीं हुआ है. आप को एक बात बतानी थी, इसलिए यह ड्रामा किया.’’ ‘‘क्या?’’ परेश ने पूछा.

‘‘साहबजी, यह लड़की मुझे सही नहीं लग रही. आजकल पहाड़ों में… मुझे डर है कि कहीं आप के साथ कुछ गलत न हो जाए.’’ ‘‘अरे, तुम चिंता मत करो… मैं सब समझता हूं.’’

‘‘ठीक है साहब, आप की जैसी मरजी,’’ ड्राइवर ने लाचारी से कहा. ‘‘अच्छा, हमें ऐसी जगह ले चलो जहां भीड़भाड़ न हो,’’ परेश ने कहा.

सीजन नहीं होने से भीड़भाड़ नहीं थी. शहर से थोड़ा दूर एक बढि़या लोकेशन पर उन्हें ठहरने की शानदार जगह मिल गई. ड्राइवर उन्हें होटल में छोड़ कर वापस चला गया. कमरे में आते ही गरिमा का अल्हड़पन दिखने लगा था. अब ऐसा कुछ नहीं था जिस से लगे कि वह थोड़ी देर पहले जान देने जा रही थी.

रात के 9 बज रहे थे. डिनर आ गया था. गरिमा बाथरूम में थी. थोड़ी देर बाद परेश की ड्रैस पहन कर वह बाहर निकली तो एकदम तरोताजा लग रही थी. उस की खूबसूरती परेश को मदहोश करने लगी. डिनर निबट गया. एक बैड पर लेटे दोनों उस मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे जिस की वजह से गरिमा इतनी परेशान थी.

गरिमा की कहानी बड़ी अजीब थी. कालेज के बाद उस ने जिस कंपनी में काम शुरू किया वहीं उस के बौस ने उसे प्यार के जाल में ऐसा फंसाया कि वह अभी तक उस भरम से बाहर नहीं निकल पा रही थी. अधेड़ उम्र का बौस उसे सब्जबाग दिखाता रहा और उस से खेलता रहा. जब गरिमा के मम्मीपापा को इस बात की भनक लगी तो उन्होंने उसे बहुत समझाया. सख्ती भी की लेकिन एक बार तीर कमान से निकल जाए तो फिर उसे वापस कमान में लौटाना मुमकिन नहीं होता. कुछ परवरिश में भी कमी रही. न पापा को फुरसत और न मम्मी को.

गरिमा को पुलिस का डर नहीं था. वह पहले भी 4 बार ऐसा कर चुकी थी, इसलिए उस के मातापिता अब पुलिस में शिकायत करा कर अपनी फजीहत नहीं कराना चाहते थे. गरिमा सो चुकी थी. परेश उस के बेहद करीब था. उस की सांसों की उठापटक एक अजीब सा नशा दे रही थी. आहिस्ता से उस का हाथ गरिमा की छाती पर चला गया. कोई विरोध नहीं हुआ. कुछ पल ऐसे ही बीत गए.

परेश कुछ और करता, उस से पहले ही गरिमा ने अचानक अपनी आंखें खोल दीं, ‘‘आप की क्या उम्र है सर?’’ ‘‘यही कोई 40 साल…’’ परेश ने जवाब दिया.

‘‘गुड, मैच्योर्ड पर्सन… अच्छा, एक बात बताओ… मैं कैसी लग रही हूं?’’ मुसकराते हुए गरिमा ने पूछा. ‘‘बहुत ज्यादा खूबसूरत,’’ परेश ने जोश में कहा.

इस में कोई शक नहीं था कि गरिमा की अल्हड़ जवानी, मासूमियत से लबरेज खूबसूरती सच में बड़ी दिलकश लग रही थी. ‘‘सच में…?’’

‘‘सच में आप बहुत खूबसूरत हैं,’’ परेश ने अपनी बात दोहराई. ‘‘लेकिन मैं खूबसूरत ही होती तो वह मुझे क्यों छोड़ता… दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर किया उस ने…’’

‘‘प्लीज गरिमा, आप हकीकत को मान क्यों नहीं लेतीं? जो हुआ सही हुआ. पूरी जिंदगी पड़ी है आप की. वहां उस के साथ क्या फ्यूचर था, यह भी सोचो?’’ ‘‘इतना आसान नहीं है सर, किसी को भुला देना. प्यार किया है मैं ने…’’

‘‘मान लिया लेकिन तुम में समझ ही होती तो क्या ऐसे प्यार को अपनाती?’’ ‘‘सर, यह सही है कि हम में थोड़ा उम्र का फर्क था लेकिन उस के बीवीबच्चे थे, यह मुझे अब पता चला… धोखा किया उस ने मेरे साथ…’’

‘‘तो फिर तुम उसे अब क्यों याद कर रही हो? बुरा सपना बीत गया. अब तो वर्तमान में लौट आओ?’’ गरिमा ने कोई जवाब नहीं दिया. वह परेश के बहुत करीब लेटी थी. सच तो यह था कि परेश अब बहुत दुविधा में था.

गरिमा का हाथ परेश की छाती पर था. उस का इस तरह लिपटना उसे असहज कर रहा था. उस के अंदर शांत पड़ा मर्द जागने लगा. गरिमा के मासूम चेहरे पर कोई भाव नहीं थे. ‘‘क्या तुम्हें मुझ से डर नहीं लगता?’’ परेश ने पूछा.

‘‘नहीं, मुझे आप पर भरोसा है,’’ गरिमा ने शांत आवाज में जवाब दिया. ‘‘क्यों… मैं भी मर्द हूं… फिर?’’ परेश ने पूछा.

‘‘कोई नहीं सर… अब मैं इनसान और जानवर में फर्क करना सीख गई हूं.’’ गरिमा के जवाब से परेश को ग्लानि महसूस हुई. वह फौरन संभल गया. गरिमा क्या सोचेगी… हद है मर्द कितना नीचे गिर सकता है? परेश का मन उसे कचोटने लगा.

लेकिन गरिमा का अलसाया बदन परेश में भूचाल ला रहा था. गरिमा का खुलापन अजीब राज बन रहा था. वह समझ नहीं पा रहा था कि इस इम्तिहान में कैसे पास हो… गरिमा अब भी उस से लिपटी हुई थी. उस की आंखों में नींद की खुमारी झलक रही थी.

परेश सोच रहा था कि गरिमा का ऐसा बरताव उस के लिए न्योता था या अपनेपन में खोजता विश्वास… परेश की दुविधा ज्यादा देर नहीं चली. उस की हालत को समझ कर गरिमा बोली, ‘‘अगर आप इस समय मुझ से कुछ चाहते हैं तो मैं इनकार नहीं करूंगी… आप की मैं इज्जत करती हूं… आप ने मुझे आज नई जिंदगी दी है.’’

‘‘अरे नहीं, प्लीज… ऐसा कुछ भी नहीं… तुम दोस्त बन गई हो… बस यही बड़ा गिफ्ट है मेरे लिए,’’ सकपकाए परेश ने जवाब दिया. ‘‘उम्र में छोटी हूं सर लेकिन एक बात कहूंगी… शरीर का मिलन इनसान को दूर करता है और मन का मिलन हमेशा नजदीक, इसलिए फैसला आप पर है…’’

परेश को महसूस हुआ, सच में समझ उम्र की मुहताज नहीं होती. छोटे भी बड़ी बात कह और समझ सकते हैं. 2 दिन सैरसपाटे में बीत गए. परेश की किताब का काम शुरू ही न हो पाया, लेकिन गरिमा अब बिलकुल ठीक थी. वह वापस अपने घर लौटने को राजी हो गई थी. परेश ने फोन नंबर ले कर उस के पापा से बात की. घर से गुम हुई जवान लड़की की खबर पा कर गरिमा के मम्मीपापा ने सुकून की सांस ली.

परेश और गरिमा अब दोस्त बन गए थे. पक्के दोस्त, जिन में उम्र का फर्क तो था लेकिन आपसी समझ कहीं ज्यादा थी. परेश की मेहनत रंग लाई और गरिमा अपने घर वापस लौट गई. कुछ दिन बाद उस की शादी भी हो गई. अब वह अपनी गृहस्थी में खुश थी. परेश के लिए यह सुकून की बात थी. अकसर उस का फोन आ जाता, वही बिंदास, अल्हड़पन लेकिन अब सच में उस ने जिंदगी जीनी सीख ली थी. दिखावा नहीं बल्कि औरत की सच्ची गरिमा का अहसास और जिम्मेदारी उस में आ गई थी.

परेश सोचता था कि गरिमा को उस ने जीना सिखाया या गरिमा ने उसे? लेकिन यह सच था कि गरिमा जैसी अनोखी दोस्त परेश को औरत के मन की गहराइयों का अहसास करा गई.

Hindi Short Story : क्या जादू कर दिया

Hindi Short Story : चंपा इस गांव के बाशिंदे भवानीराम की बेटी थी. वे चंपा को कालेज पढ़ाना नहीं चाहते थे, मगर चंपा की इच्छा थी और उस के टीचरों के दबाव देने पर वे उसे पढ़ाने के लिए शहर भेजने को राजी हो गए.

जैसे ही चंपा का कालेज में दाखिला हुआ, उस की सहेलियों ने खुशियां मनाईं. वे सब चंपा को पढ़ाकू समझती थीं और उसे चाहती भी खूब थीं.

जब चंपा गांव के हायर सैकेंडरी स्कूल में पढ़ती थी, तब पूरी जमात में उस का दबदबा था. अगर कोई लड़का ऊंची आवाज में बोल देता था, तब वह उसे ऐसी नसीहत देती थी कि वह चुप हो जाता था. इसी वजह से वह अपनी सहेलियों की चहेती बनी हुई थी.

गांव में भी चंपा की धाक थी. कोई भी बदमाश लड़का उस से कुछ नहीं कहता था. कहने वाले दबी जबान में कहते थे कि यह चंपा नहीं, बल्कि ‘चंपालाल’ है.

अभी चंपा गली का नुक्कड़ पार कर ही रही थी कि दिनेश, जो गांव का एक आवारा लड़का था और शहर के कालेज में पढ़ता था, न जाने कब से उस के पीछेपीछे आ रहा था.

दिनेश उस का रास्ता रोकते हुए बोला, ‘‘कहां जा रही हो चंपा?’’

‘‘अपने घर,’’ हंसते हुए चंपा बोली.

‘‘कभी हमारे घर भी चलो,’’ उस के जिस्म को घूरते हुए दिनेश बोला.

‘‘तुम्हारे घर क्यों भला?’’ चंपा ने हैरानी से पूछा.

‘‘मेरा कहना मानोगी, तो मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगा,’’ दिनेश ने लालच देते हुए कहा.

चंपा जानती थी कि दिनेश गांव के रईस मांगीलाल का बिगड़ैल बेटा है. उसे पैसों का खूब घमंड है, इसलिए सारा दिन गांव में आवारागर्दी करता है. लड़कियों को छेड़ना उस की आदत है. उस की करतूत जगजाहिर है, मगर अपनी इज्जत के डर से कोई भी गांव का आदमी उस के मुंह नहीं लगता है.

चंपा को चुप देख कर दिनेश बोला, ‘‘क्या सोच रही हो चंपा? मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’’

चंपा ने देखा कि जिस मोड़ पर वे दोनों खड़े थे, उस के आसपास जितने भी मर्दऔरत अपने घरों में बैठ कर बातें कर रहे थे, उन्होंने अपने दरवाजेखिड़कियां बंद कर ली थीं. दिनेश का डर उन के भीतर बैठा हुआ था. ऐसा लग रहा था कि कर्फ्यू लगा हुआ है.

दिनेश जब भी शहर से गांव में आता था और वहां की गलियों में घूमता था, तो उस के डर से सन्नाटा छा जाता था.

आज चंपा का उस से पहली बार सामना हुआ था, इसलिए उस ने भीतर ही भीतर उस से सामना करने के लिए अपने को तैयार कर लिया था.

‘‘चंपा, तू क्या सोचने लगी?’’ उसे चुप देख कर दिनेश ने फिर कहा, ‘‘तू ने जवाब नहीं दिया?’’

‘‘मैं ने जवाब दे तो दिया, शायद तुम ने सुना नहीं. बहरे हो क्या?’’

‘‘क्या कहा, मैं बहरा हूं? शायद तू मुझे जानती नहीं है?’’

‘‘अरे, तुझे तो सारा गांव जानता है,’’ चंपा ने कहा.

‘‘तब फिर क्यों तू दादागीरी कर रही है?’’

‘‘मैं एक लड़की हूं. मैं क्या दादागीरी करूंगी. गांव का दादा तो तू है,’’ चंपा उसी तरह से जवाब देते हुए बोली.

‘‘जैसा मैं ने सुना था, तू वैसी ही निकली. सुना है, कालेज में भी तू दादा बन कर रहती है?’’ दिनेश ने पूछा.

‘‘मैं ने पहले ही कहा, मैं क्या दादागीरी करूंगी. मगर अब लड़कियां इतनी कमजोर भी नहीं हैं कि हर कोई उन की कमजोरी का फायदा उठा सके,’’ कह कर चंपा ने अपने इरादे जाहिर कर दिए.

दिनेश कोई जवाब नहीं दे पाया. गली में पूरी तरह सन्नाटा था. मगर फिर भी लोग खिड़की खोल कर झांकने की कोशिश कर रहे थे. उन के भीतर एक डर बैठा हुआ था कि आज चंपा दिनेश के सामने आ गई है.

दिनेश बोला, ‘‘बहुत अकड़ कर बात कर रही है. मैं तेरी यह अकड़ निकाल दूंगा. चल, मेरे साथ. बहुत जवानी का जोश है तुझ में,’’ कह कर दिनेश ने चंपा का हाथ पकड़ लिया.

चंपा गुस्से में चीखते हुए बोली, ‘‘छोड़ दे मेरा हाथ. मैं वैसी लड़की नहीं हूं, जैसा तू समझ रहा है.’’

‘‘मैं एक बार जिस लड़की का हाथ पकड़ लेता हूं, फिर छोड़ता नहीं हूं,’’ दिनेश ने कहा.

‘‘ये फिल्मी डायलौग मत बोल. चुपचाप मेरा हाथ छोड़ दे.’’

‘‘यह तू नहीं, तेरी जवानी बोल रही है. चल मेरे साथ, जवानी का सारा जोश ठंडा कर देता हूं,’’ कह कर दिनेश उस को घसीट कर ले जाने लगा.

तब चंपा चिल्ला कर बोली, ‘‘मर्द है तो मर्द की तरह बात कर. यों कमरे में बंद कर के क्यों अपनी मर्दानगी दिखा रहा है. अगर तुझे अपनी मर्दानगी दिखानी है, तो यहीं दिखा. उतारूं कपड़े?’’ कहते हुए उस ने अपनी टीशर्ट उतार दी.

दिनेश थोड़ा ढीला पड़ गया. तब चंपा अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली, ‘‘क्या सोच रहा है, और उतारूं कपड़े? बुझा ले अपनी प्यास,’’ कहते हुए उस ने टीशर्ट घुमा कर दिनेश को दे मारी.

‘‘मगर एक बात याद रख, गांव की किसी लड़की पर बुरी नजर नहीं रखनी चाहिए. लड़की कमजोर नहीं है. छोड़ दे बुरी नजर. फिर हर औरत को कमजोर भी मत समझ. इसलिए कहती हूं कि पैसों का घमंड छोड़ दे. यह एक दिन तुझे ले डूबेगा,’’ चंपा ने समझाते हुए कहा.

सारा महल्ला देखता रह गया. लोग बाहर निकल आए. लड़की के हाथों पिटे दिनेश का मुंह छोटा हो गया.

इतना कह कर चंपा वहां से चली गई.

दिनेश गुस्से से भरा वहीं खड़ा रह गया. आज एक लड़की से हार गया, जो उसे चुनौती दे गई. चुनौती भी ऐसी, जिसे वह पूरा नहीं कर सके. आज तक गांव वालों में से किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि कोई उस के खिलाफ बोले, उसे चुनौती दे, मगर आज चंपा ने इस कदर उस को चुनौती दे डाली. वह उस का विरोध नहीं कर सका.

दिनेश ने जब गली की तरफ देखा, तो सभी मर्दऔरत दरवाजा खोल कर उसे हैरत भरी नजरों से देख रहे थे. वह उन से नजरें नहीं मिला सका और चुपचाप अपनी हवेली की तरफ चल दिया.

सारे गली वाले मानो एक ही सवाल अपनेआप से पूछ रहे थे कि चंपा ने दिनेश पर ऐसा क्या जादू किया, जो नीची गरदन कर के चला गया? सभी एकदूसरे से आंखों ही आंखों में इशारा कर रहे थे, मगर कुछ समझ नहीं पा रहे थे. सभी के दिमाग में एक ही बात बैठ चुकी थी कि चंपा की अब खैर नहीं. उस ने दिनेश से पंगा ले कर अपने ऊपर मुसीबत मोल ले ली है. वह गांव का बहुत बड़ा गुंडा है. पैसों के बल पर वह कुछ भी कर सकता है.

इस घटना से गांव में दहशत फैल गई. सभी गांव वाले खामोश हो गए.

अगले दिन चंपा कालेज पहुंची, तो हीरो बन गई थी. दिनेश की हिम्मत अब टूट चुकी थी.

चंपा कालेज नहीं छोड़ना चाहती थी, इसलिए उस ने भी हालात से समझौता कर लिया.

इस घटना के कुछ दिनों बाद दिनेश में बहुत बड़ा बदलाव दिखा. पहले वह हमेशा गुंडा बन कर रहा करता था, अपने को सब से बड़ा समझता था.

आमतौर पर अब वह चंपा के साथ कैंटीन में चाय पीता दिखता. वह अपने दोस्तों से कहता, ‘‘यह रही टीशर्ट… मार चंपा.’’

यह सुन कर चंपा शर्म से लाल हो जाती.

दिनेश शरीफ हो चुका था. गांव की किसी लड़की या किसी बहू को अब वह बुरी नजर से नहीं देखता था. उस पर चंपा ने उस दिन ऐसा क्या जादू कर दिया, यह आज तक राज बना हुआ था.

Hindi Story : बदनाम नहीं हुई मुन्नी

Hindi Story : चंदू पहली बार रमेश से मवेशियों के हाट में मिला था. दोनों भैंस खरीदने आए थे.अब चंदू के पास कुल 2 भैंसें हो गई थीं. दोनों भैंसों से सुबहशाम मिला कर 30 लिटर दूध हो जाता था, जिसे बेच कर घर का गुजारा चलता था. इस के अलावा कुछ खेतीबारी भी थी.

चंदू अपनी बीवी और बेटी के साथ खुश था. तीनों मिल कर खेतीबारी से ले कर भैंसों की देखभाल और दूध बेचने का काम अच्छी तरह संभाले हुए थे.

एक दिन चंदू अपनी भैंसों को चराने कोसी नदी के तट पर ले गया. वहां एक खास किस्म की घास होती थी जिसे भैंसें बड़े चाव से चरती थीं और दूध भी ज्यादा देती थीं.

रमेश भी वहां पर भैंस चराने जाता था. रमेश से मिल कर चंदू खुश हो गया. दोनों अपनी भैंसों को चराने रोजाना कोसी नदी के तट पर ले जाने लगे. भैंसें घास चरती रहतीं, चंदू और रमेश आपस में गपें लड़ाते रहते.

रमेश के पास एक अच्छा मोबाइल फोन था. वह उस में गाना लगा देता था. दोनों गानों की धुन पर मस्त रहते. कभी कोई अच्छा वीडियो होता तो रमेश चंदू को दिखाता.

चंदू भी ऐसा ही मोबाइल फोन लेने की सोचता था, पर कभी उतने पैसे न हो पाते थे. उस के पास सस्ता मोबाइल फोन था जिस से सिर्फ बात हो पाती थी.

कुछ दिनों से एक चरवाहा लड़की अपनी 20-22 बकरियों को चराने कोसी नदी के तट पर लाने लगी थी. वह 20 साल की थी. शक्लसूरत कोई खास नहीं थी, लेकिन नई जवानी की ताजगी उस के चेहरे पर थी.

रमेश ने जल्दी ही उस लड़की से दोस्ती बढ़ा ली थी. अब वह चंदू के साथ कम ही रहता था. वह हमेशा उस लड़की को दूर ले जा कर बातें करता रहता था.

रमेश से ही चंदू को मालूम हुआ था कि उस चरवाहा लड़की का नाम मुन्नी है, जो पास के गांव में अपनी विधवा मां के साथ रहती है.

चंदू को हमेशा चिंता रहती थी कि भैंसों का पेट भरा या नहीं. मौका देख जहां अच्छी घास मिलती वह काट लेता ताकि घर लौट कर भैंसों को खिला सके. लेकिन रमेश मुन्नी के चक्कर में अपनी भैंसों की भी परवाह नहीं करता था. वह चंदू को ही अपनी भैंसों की देखरेख करने को कह कर खुद मुन्नी के साथ दूर झाडि़यों की ओट में चला जाता था.

चंदू को रमेश और मुन्नी पर बहुत गुस्सा आता. दोनों मटरगश्ती करते रहते और उसे दोनों के मवेशियों की देखभाल करनी पड़ती.

एक दिन चंदू ने गौर किया कि एक काली और ऊंचे सींग वाली बकरी गायब है. उस ने इधरउधर ढूंढ़ा पर वह कहीं नहीं मिली. वह घबरा गया और दौड़तेदौड़ते उन झाडि़यों के पास जा पहुंचा जिन की ओट में रमेश और मुन्नी थे ताकि उन्हें बकरी के खोने के बारे में बता दे. लेकिन चंदू के अचरज और नफरत का ठिकाना न रहा जब उस ने उन दोनों को आधे कपड़ों में एकदूसरे से लिपटे देखा.

चंदू उलटे पैर लौट गया. थोड़ी देर और ढूंढ़ने पर चंदू को वह खोई हुई बकरी एक गड्ढे में बैठ कर जुगाली करते हुए मिल गई. वह शांत हो गया लेकिन उसे रमेश पर रहरह कर गुस्सा आ रहा था.

काफी देर बाद रमेश चंदू के पास आया तो चंदू उस पर उबल पड़ा, ‘‘तुम जो भी कर रहे हो वह ठीक नहीं है. तुम 2 बच्चों के बाप हो. घर पर तुम्हारी बीवी है, फिर भी ऐसी हरकत. अगर कहीं कुछ गलत हो गया तो मुन्नी से कौन शादी करेगा?’’

रमेश सब सुन रहा था. वह बेहयाई से बोला, ‘‘तुम्हें भी मजा करना है तो कर ले. मैं ने कोई रोक थोड़ी लगा रखी है,’’ इतना कह कर वह एक गाना गुनगुनाते हुए अपनी भैंसों की तरफ चल पड़ा.

धीरेधीरे 5 महीने बीत गए. मुन्नी पेट से हो गई थी. उस के पेट का उभार दिखने लगा था.

रमेश ने भी अब मुन्नी से मिलनाजुलना कम कर दिया था. मुन्नी खुद बुलाती तभी जाता और तुरंत वापस आ जाता. उस ने मुन्नी को झाडि़यों में ले जाना भी बंद कर दिया था.

कुछ दिनों के बाद रमेश ने कोसी नदी के तट पर भैंस चराने आना भी छोड़ दिया. जब रमेश कई दिनों तक नहीं आया तो एक दिन मुन्नी ने चंदू के पास आ कर रमेश के बारे में पूछा.

चंदू ने जवाब दिया, ‘‘मुझे नहीं मालूम कि रमेश अब क्यों नहीं आ रहा है.’’

मुन्नी रोने लगी. वह बोली, ‘‘अब इस हालत में मैं कहां जाऊंगी. किसे अपना मुंह दिखाऊंगी. कौन मुझे अपनाएगा. रमेश ने शादी का वादा किया था और इस हालत में छोड़ गया.’’

थोड़ी देर आंसू बहाने के बाद मुन्नी दोबारा बोली, ‘‘अगर रमेश कहीं मिले तो एक बार उसे मुझ से मिलने को कहना.’’

‘‘ठीक है. वह मिला तो मैं जरूर कह दूंगा,’’ चंदू ने कहा.

इस के बाद मुन्नी धीरे से उठी और बकरियों के पीछे चली गई.

उस दिन से चंदू रमेश पर नजर रखने लगा.

एक दिन चंदू ने रमेश को मोटरसाइकिल पर शहर की ओर जाते देखा. मोटरसाइकिल पर दूध रखने के कई बड़े बरतन लटके हुए थे.

‘‘कहां जा रहे हो रमेश? आजकल तुम दिखाई नहीं देते?’’ चंदू ने पूछा.

‘‘आजकल काम बहुत बढ़ गया है. शहर में 200 घरों में दूध पहुंचाने जाता हूं इसीलिए समय नहीं मिलता,’’ रमेश ने दोटूक जवाब दिया.

‘‘200 घर… पर तुम्हारी तो 2 ही भैंसें हैं. वे 30-40 लिटर से ज्यादा दूध नहीं देती होंगी, फिर 200 घरों में दूध कैसे देते हो?’’ चंदू ने पूछा.

‘‘ऐसा है…’’ रमेश अटकते हुए बोला, ‘‘मैं गांव के कई लोगों से दूध खरीद कर शहर में बेच देता हूं.’’

‘‘इसीलिए इतनी तरक्की हो गई है. मोटरसाइकिल की सवारी करने लगे हो…’’ चंदू ने कहा, ‘‘खैर, एक बात बतानी थी. मुन्नी तुम्हें याद कर रही थी. तुम्हें जल्दी से जल्दी मिलने को कह रही थी.’’

मुन्नी का जिक्र आते ही रमेश परेशान हो गया. वह बोला, ‘‘इन फालतू बातों को छोड़ो. मेरे पास समय नहीं है. मुझे शहर जाना है. देर हो रही है,’’ कह कर उस ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और चला गया.

चंदू को बहुत गुस्सा आया. कोई लड़की परेशानी में है और रमेश को जरा भी परवाह नहीं है. लेकिन चंदू क्या कर सकता था.

एक दिन चंदू अपनी भैंसें कोसी नदी के तट पर चरा रहा था कि तभी उस ने किसी के चीखनेचिल्लाने की आवाज सुनी. उस समय वहां कोई नहीं था.

चंदू आवाज की दिशा में आगे बढ़ा. कुछ दूर चलने के बाद उस ने झाडि़यों के पीछे मुन्नी को लेटे देखा जो रहरह कर चीख रही थी. चंदू कुछकुछ समझ गया कि शायद मुन्नी को बच्चा जनने का दर्द हो रहा था.

मुन्नी की हालत खराब थी. वह बेसुध हो कर जमीन पर पड़ी थी. कभीकभी वह अपने हाथपैर पटकने लगती थी. चंदू ने सोचा कि लौट जाए, लेकिन मुन्नी को इस हाल में छोड़ कर जाना उसे ठीक नहीं लगा. वह हिम्मत कर के मुन्नी के पास पहुंचा और उसे ढांढस बंधाने लगा.

थोड़ी देर बाद बच्चे का जन्म हो गया. चंदू ने लाजशर्म छोड़ कर मुन्नी की देखभाल की. बच्चे को साफ कर अपने गमछे में लपेट कर मुन्नी के पास लिटा दिया. मुन्नी को बेटा हुआ था.

जब सूरज डूबने को आया तब जा कर मुन्नी कुछ ठीक महसूस करने लगी. लेकिन बच्चे को देख कर वह रो पड़ी. बिना शादी के पैदा हुए बच्चे को वह अपने पास कैसे रख सकती थी?

मुन्नी रोते हुए बोली, ‘‘मैं इस बच्चे को अपने साथ नहीं रख सकती. लोग क्या कहेंगे? इसे यहीं छोड़ जाती हूं या कोसी में बहा देती हूं.’’

यह सुन कर चंदू कांप गया. कुछ सोच कर वह बोला, ‘‘अगर तुम बच्चे को अपने साथ नहीं रखना चाहती तो मैं इसे अपने पास रख लूंगा.’’

‘‘ठीक है भैया, जैसा आप चाहो. लेकिन इस बारे में किसी को पता नहीं चलना चाहिए, नहीं तो मैं बदनाम हो जाऊंगी,’’ कह कर मुन्नी लड़खड़ाते कदमों से अपनी बकरियों को हांक कर घर की ओर चल पड़ी.

बच्चे को गोद में उठा कर चंदू भी भैंसों के साथ घर लौट आया. बच्चे को देख कर उस की पत्नी बोली, ‘‘यह किस का बच्चा उठा लाए हो?’’

चंदू ने झूठ बोला, ‘‘पता नहीं किस का बच्चा है. मुझे तो यह झाडि़यों के पीछे मिला था. शायद अनचाहा बच्चा है. इस की मां इसे झाडि़यों के पीछे फेंक गई होगी.’’

चंदू की पत्नी बोली, ‘‘चलो, बच्चे की जिंदगी बच गई. हमारी एक ही बेटी है, अब बेटे की कमी पूरी हो गई.’’

पत्नी की बात सुन कर चंदू ने राहत की सांस ली. लेकिन चंदू को रमेश का मतलबी रवैया खटकता था. कोई कुंआरी लड़की के प्रति इतना लापरवाह कैसे हो सकता है?

रमेश बहुत तरक्की कर रहा था. चंदू ने गांव वालों से सुना कि उस ने काफी सारी जमीन और एक ट्रैक्टर खरीद लिया था. वह पक्का मकान भी बनवा रहा था. लेकिन चंदू को यह समझ में नहीं आता था कि 200 घरों में दूध देने के लिए कम से कम 200 लिटर दूध चाहिए, जबकि उस की भैंसें 30-40 लिटर से ज्यादा दूध नहीं देती होंगी.

हैरानी की बात यह भी थी कि गांव वाले भी रमेश को दूध नहीं बेचते थे क्योंकि गांव में दूध की कमी थी.

धीरेधीरे 6 महीने बीत गए. चंदू पहले की तरह अपनी भैंसों को चराने कोसी नदी के तट पर ले जाता था, पर मुन्नी ने वहां आना छोड़ दिया था.

एक शाम चंदू अपनी भैंसों को चरा कर लौट रहा था तो रास्ते में उस ने एक बरात जाती देखी. पता किया तो मालूम हुआ कि बगल के गांव में मुन्नी नाम की किसी लड़की की शादी है.

चंदू समझ गया कि उसी मुन्नी की शादी है. वह खुश हो गया. बेचारी मुन्नी बदनाम होने से बच गई.

घर पहुंचा तो चंदू ने एक और नई बात सुनी. गांव में कई पुलिस वाले आए थे और रमेश को गिरफ्तार कर के ले गए थे.

रमेश अपने घर में नकली दूध बनाता था. उस से खरीदा हुआ दूध पी कर शहर के कई लोग बीमार पड़ गए थे.

चंदू को रमेश की तरक्की का राज अब अच्छी तरह समझ में आ गया था.

Hindi Story : बालू पर पड़ी लकीर

Hindi Story : मैं अपने घर  के बरामदे में बैठा पढ़ने का मन बना रहा था, पर वहां शांति कहां थी. हमेशा की तरह हमारे पड़ोसी पंडित ओंकारनाथ और मौलाना करीमुद्दीन की जोरजोर से झगड़ने की आवाजें आ रही थीं. वह उन का तकरीबन रोज का नियम था. दोनों छोटी से छोटी बात पर भी लड़तेझगड़ते रहते थे, ‘‘देखो, मियां करीम, मैं तुम्हें आखिरी बार मना करता हूं, खबरदार जो मेरी कुरसी पर बैठे.’’

‘‘अमां पंडित, बैठने भर से क्या तुम्हारी कुरसी गल गई. बड़े आए मुझे धमकी देने, हूं.’’

‘नहाते तो हैं नहीं महीनों से और चले आते हैं कुरसी पर बैठने,’ पंडितजी ने बड़बड़ाते हुए अपनी कुरसी उठाई और अंदर रखने चले गए.

मुझे यह देख कर आश्चर्य होता था कि मौलाना और पंडित में हमेशा खींचातानी होती रहती थी, पर उन की बेगमों की उन में कोई भागीदारी नहीं थी. मानो दोनों अपनेअपने शौहरों को खब्ती या सनकी समझती थीं. अचार, मंगोड़ी से ले कर कसीदा, कढ़ाई तक में दोनों बेगमों का साझा था.

पंडित की बेटी गीता जब ससुराल से आती, तब सामान दहलीज पर रखते ही झट मौलाना की बेटी शाहिदा और बेटे रागिब से मिलने चली जाती. मौलाना भी गीता को देख कर बेहद खुश होते. घंटों पास बैठा कर ससुराल के हालचाल पूछते रहते. उन्हें चिढ़ थी तो सिर्फ  पंडित से.

कटाक्षों का सिलसिला यों ही अनवरत जारी रहता. पिछले दिन ही मौलाना का लड़का रागिब जब सब्जियां लाने बाजार जा रहा था, तब पंडिताइन ने पुकार कर कहा, ‘‘बेटे रागिब, बाजार जा रहा है न. जरा मेरा भी थैला लेता जा. दोचार गोभियां और एक पाव टमाटर लेते आना.’’

‘‘अच्छा चचीजान, जल्दी से पैसे दे दीजिए.’’

पंडित और मौलाना अपनेअपने बरामदे में कुरसियां डाले बैठे थे. भला ऐसे सुनहरे मौके पर मौलाना कटाक्ष करने से क्यों चूकते. छूटते ही उन्होंने व्यंग्यबाण चलाए, ‘‘बेटे रागिब, दोनों थैले अलग- अलग हाथों में पकड़ कर लाना, नहीं तो पंडित की सब्जियां नापाक हो जाएंगी.’’

मुसकराते हुए उन्होंने कनखियों से पंडित की ओर देखा और पान की एक गिलौरी गाल में दबा ली.

जब पंडित ने इत्मीनान कर लिया कि रागिब थोड़ी दूर निकल गया है, तब ताव दिखाते हुए बोले, ‘‘अरे, रख दे मेरे थैले. मेरे हाथपांव अभी सलामत हैं. मुझे किसी का एहसान नहीं लेना. पंडिताइन की बुद्धि जाने कहां घास चरने चली गई है. खुद चली जाती या मुझे ही कह देती.’’

भुनभुनाते हुए पंडित दूसरी ओर मुंह फेर कर बैठ जाते.

यों ही नोकझोंक चलती रहती पर एक दिन ऐसी गरम हवा चली कि सारी नोकझोंक गंभीरता में तबदील हो गई.

शहर शांत था, पर वह शांति किसी तूफान के आने से पूर्व जैसी भयानक थी. अब न पंडिताइन रागिब को सब्जियां लाने को आवाज देती, न ही मौलाना आ कर पंडित की कुरसी पर बैठते. एक अदृश्य दीवार दोनों घरों के मध्य उठ गई थी, जिस पर दहशत और अविश्वास का प्लास्टर दोनों ओर के लोग थोपते जा रहे थे. रिश्तेदार अपनी ‘बहुमूल्य राय’ दे जाते, ‘‘देखो मियां, माहौल ठीक नहीं है. यह महल्ला छोड़ कर कुछ दिन हमारे साथ रहो.’’

परंतु कुछ ऐसे भी घर थे जहां अविश्वास की परत अभी उतनी मोटी नहीं थी. इन दोनों परिवारों को भी अपना घर छोड़ना मंजूर नहीं था.

‘‘गीता के बापू, सो गए क्या?’’

‘‘नहीं सोया हूं,’’ पंडित खाट पर करवट बदलते हुए बोले.

‘‘मेरे मन में बड़ी चिंता होती है.’’

‘‘तुम क्यों चिंता में प्राण दिए दे रही हो. ख्वाहमख्वाह नींद खराब कर दी, हूंहं,’’ और पंडित बड़बड़ाते हुए बेफिक्री से करवट बदल कर सो गए.

पर एक रात ऐसा ही हुआ जिस की आशंका मन के किसी कोने में दबी हुई थी. दंगाई (जिन की न कोई जाति होती है, न धर्म) जोरजोर से पंडित का दरवाजा खटखटा रहे थे, ‘‘पंडितजी, बाहर आइए.’’

पंडित के दरवाजा खोलते ही लोग चीखते हुए पूछने लगे, ‘‘कहां छिपाया है आप ने मौलाना के परिवार को?’’

‘‘मैं…मैं ने छिपाया है, मौलाना को? अरे, मेरा तो उन से रोज ही झगड़ा होता है. नहीं विश्वास हो तो देख लो मेरा घर,’’ पंडित ने दरवाजे से हटते हुए कहा.

अभी दंगाइयों में इस बात पर बहस चल ही रही थी कि पंडित के घर की तलाशी ली जाए या नहीं कि शहर के दूसरे छोर से बच्चों और स्त्रियों की चीखपुकार सुनाई पड़ी. रात के सन्नाटे में वह हंगामा और भी भयावह प्रतीत हो रहा था. दरिंदे अपना खतरनाक खेल खेलने में मशगूल थे. बलवाइयों ने पंडित के घर की चिंता छोड़ दी और वे दूसरे दंगाइयों से निबटने के लिए नारे लगाते हुए तेजी से कोलाहल की दिशा की ओर झपट पड़े.

दंगाइयों के जाते ही पंडित ने दरवाजा बंद किया. तेजी से सीटी बजाते हुए एक ओर चले. वह कमरा जिसे पंडिताइन फालतू सामान और लकडि़यां रखने के काम में लाती थी, अब मौलाना के परिवार के लिए शरणस्थली था. सभी भयभीत कबूतरों जैसे सिमटे थे. बस, सुनाई पड़ रही थी तो अपनी सांसों की आवाजें.

पंडित ने कमरे में पहुंचते ही मौलाना को जोर से अंक में भींच कर गले लगा लिया. आंखों से अविरल बह रहे आंसुओं ने खामोशी के बावजूद सबकुछ कह दिया. मौलाना स्वयं भी हिचकियां लेते जाते और पंडित के गले लगे हुए सिर्फ ‘भाईजान, भाईजान’ कहते जा रहे थे.

गरम हवा शांत हो कर फिर बयार बहने लगी थी. सबकुछ सामान्य हो चला था. न तो किसी को किसी से कोई गिला था, न शिकवा. एक संतुष्टि मुझे भी हुई, अब मेरा महल्ला शांत रहेगा. पढ़ने के उपयुक्त वातावरण पर मेरा यह चिंतन मिथ्या ही साबित हुआ.

सुबह होते ही पंडित और मौलाना ने अखाड़े में अपनी जोरआजमाइश शुरू कर दी थी.

‘‘तुम ने मेरे दरवाजे की पीठ पर फिर थूक दिया, मौलाना, ’’ पंडित गरज रहे थे.

‘‘अरे, मैं क्यों थूकने लगा. तुझे तो लड़ने का बहाना चाहिए.’’

‘‘क्या कहा, मैं झगड़ालू हूं.’’

‘‘मैं तो गीता बिटिया के कारण तेरे घर आता हूं, वरना तेरीमेरी कैसी दोस्ती.’’

शिकायतों और इलजामों का कथोपकथन तब तक जारी रहा जब तक दोनों थक नहीं गए.

मैं ने सोचा, ‘यह समुद्र की लहरों द्वारा बालू पर खींची गई वह लकीर है, जो क्षण भर में ही मिट जाती है. समुद्र के किनारों ने लहरों के अनेक थपेड़ों को झेला है पर आखिर में तो वे समतल ही हो जाते हैं.’

Hindi Story : मिसेज चोपड़ा, मीडिया और न्यूज

Hindi Story : लंबा कद, गोरा रंग, सलीके से   बंधा हुआ जूड़ा, कलफ लगी बढि़या सूती साड़ी और साड़ी के रंग से मेल खाते गहने पहने मिसेज चोपड़ा पूरे दफ्तर में अलग ही दिखती थीं. मैं जिस दफ्तर में काम करती थी वहां काम कम ही होता था. यों समझ लीजिए, अकसर लोग गरमगरम चाय और गरमागरम बहस से टाइम पास करते थे. कुछ ही दिनों में दफ्तर का यह माहौल देखदेख कर मेरा धैर्य जवाब दे गया.

मैं ने अपने एन.जी.ओ. के कोआर्डिनेटर से एक दिन बातों ही बातों में पूछ लिया, ‘‘यह मिसेज चोपड़ा मुझे आफिस में सब से अलग दिखती हैं, यह कैसा काम करती हैं. मैं अभी नई हूं इसलिए इन के बारे में ज्यादा जानती नहीं हूं.’’

सामने बैठे मिस्टर शर्मा बोले, ‘‘यह यहां पी.आर.ओ. के पद पर हैं. पब्लिक और प्रेस से डीलिंग करना ही इन का काम है. यह किसी मजबूरी में नौकरी नहीं कर रही हैं. मिसेज चोपड़ा जैसी हाइक्लास सोसाइटी की औरतें जब अपनी किटी पार्टियों से बोर हो जाती हैं और उन्हें अपना समय बिताना होता है तो वे किसी एन.जी.ओ. से जुड़ जाती हैं. समय भी बीत जाता है, नाम भी मिल जाता है. मिसेज चोपड़ा भी इसी रंग में रंगी हैं.’’

मैं थोड़ी देर में अपनी जगह पर वापस आ कर काम में जुट गई. चूंकि मेरे ऊपर अपनी विधवा मां की जिम्मेदारी थी इसलिए मैं अपना काम बड़ी ईमानदारी से करती थी. मैं कुछ दिनों से यह भी अनुभव कर रही थी कि मिसेज चोपड़ा मुझे पसंद नहीं करती हैं. मेरे हर काम में उन्हें सिर्फ कमी ही नजर आती थी.

मिसेज चोपड़ा ने धीरेधीरे मुझे सताना शुरू कर दिया. मेरी किसी भी रिपोर्ट को रद्द कर देतीं और फिर से नए ढंग से बनाने को कहतीं. कभी आफिस के काम से हटा कर फील्ड वर्क पर लगा देतीं तो कभी अचानक फील्ड वर्क से आफिस भेज देतीं.

एक दिन उन्होंने मुझ से पूछ ही लिया, ‘‘मिस बेला, आप इतना कम क्यों बोलती हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘मैडम, ऐसा तो नहीं है. बस, मैं बोलने से ज्यादा काम करना पसंद करती हूं. फिर हम जो काम कर रहे हैं अगर उस में हम अपने बारे में ही सोचेंगे तो दूसरों के दुख कब शेयर करेंगे.’’

वह अचानक बौस के ढंग में बोलीं, ‘‘मिस बेला, इस केस की डिटेल्स पढि़ए. नेहा के घर वालों का बयान लीजिए और गवाहों से बात कीजिए. पुलिस से भी मिलिए. आजकल बहुत कंपीटीशन है. मैं मीडिया से बात कर के रखती हूं. हम पहले केस सुलझा लेंगे तो हमारा नाम होगा. हमारी बढि़या न्यूज तैयार होगी.’’

मैं सिर झुकाए बोली, ‘‘किसी के दुख पर सफलता की सीढ़ी लगाना अच्छा तो नहीं लगता, मैडम.’’

उन की नजरें मुझ पर जम गईं. अच्छा स्टेटस, पैसा और अच्छे संबंध यही दुनिया में जीने के उन के सिद्धांत थे.

मैं अपने गु्रप के साथ घटनास्थल पर जाने को निकल गई. वह एक बौस की तरह मेरे साथ थीं. मैं ने नेहा के घर वालों से बहुत से सवाल पूछे. नेहा को उस के ससुराल वालों ने जला कर मार दिया था. नशे की हालत में उस के पति ने उस पर तेल छिड़क कर आग लगा दी थी. मिसेज चोपड़ा बहुत खुश थीं कि अगर मीडिया यह न्यूज अच्छी तरह से पेश करता है तो उन का बहुत नाम होगा. उन्होंने प्रेस कान्फ्रेंस बुला कर मीडिया में इस मामले पर हलचल मचा दी.

उन की इस हरकत से मैं बहुत बेचैन थी. अपनी उस बेचैनी को कम करने के लिए मैं उन के केबिन में जा कर फट पड़ी, ‘‘मैडम, इस प्रेस कान्फ्रेंस से नेहा को क्या फायदा पहुंच रहा है? उस की मौत को भुना कर हमें क्या मिलेगा?’’

मेरे अंदर सवालों का ढेर लगा था. उन्हें मुझ पर गुस्सा आ गया, ‘‘मिस बेला, आप को क्या लगता है कि हमारी संस्था सिर्फ नाम कमाने के लिए दूसरों के दुख अपने पास जमा करती है? क्या हम उन के लिए कुछ नहीं करते? अगर किसी की मदद के साथ मीडिया वाले हमें भी कैमरे के सामने ला कर न्यूज बना देते हैं तो इस में बुरा क्या है?’’

मैं ने अपनी आवाज को संतुलित करते हुए जवाब दिया, ‘‘मैडम, हम क्या करते रहे हैं महिलाओं के लिए? जो बात सिर्फ घर वाले जानते हैं हम उन्हें सब के सामने ला कर दुखी लोगों को और दुखी कर देते हैं. थोड़ी सी जबानी सहानुभूति या कभीकभी कुछ आर्थिक सहायता. हमारी संस्था औरत को कभीकभी एक तमाशा बना देती है. मीडिया को तो खबरें ही चाहिए. मैडम, मैं यहां नौकरी नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘हां, यही अच्छा रहेगा. जहां काम में रुचि न हो वहां इनसान को काम नहीं करना चाहिए. आप जा सकती हैं.’’

मैं अपना बैग उठा कर आफिस से बाहर आ गई. मैं हर उस नौकरी को बुरा समझती हूं जिस में किसी के दुख को भुनाया जाता है.

मैं ने कुछ दिन बाद एक स्कूल में नौकरी ज्वाइन कर ली लेकिन मिसेज चोपड़ा और उन की संस्था के बारे में मुझे खबर मिलती रहती थी. नेहा का केस उन्होंने सुलझा लिया था, उन की संस्था की धूम मची हुई थी.

जीवन अपने ढर्रे पर चल रहा था कि एक दिन अचानक सुबह उठने पर पेपर पढ़ा तो रोंगटे खडे़ हो गए. मिसेज चोपड़ा की बेटी आकृति के साथ कुछ दरिंदों ने रेप किया था. वह अपने कालिज से घर आ रही थी कि सुनसान सड़क पर कुछ लड़के कार में उसे उठा कर ले गए थे.

इस खबर को पढ़ने के बाद मैं अपने को वहां जा कर उन से मिलने से रोक नहीं पाई. उन के घर पहुंची तो वह मासूम सी लड़की कमरे में बंद थी और बारबार बेहोश हो रही थी. बहुत ही हृदयविदारक दृश्य था. पूरा स्टाफ वहां था. सब को आकृति पर तरस आ रहा था. मिसेज चोपड़ा का विलाप दिल को चीर रहा था. चोपड़ा साहब विदेश में थे. उन मांबेटी से सब को सहानुभूति हो रही थी. कुछ देर वहां ठहर कर मैं वापस घर आ गई लेकिन अगले दिन भी उन दुखियारी मांबेटी के पास कुछ देर बैठने के लिए मैं गई. फिर कई दिनों तक रोज ही जाती रही. सब को आकृति के सामान्य होने का इंतजार था.

एक दिन अचानक एक प्रसिद्ध एन.जी.ओ. की महिलाएं मीडिया के साथ मिसेज चोपड़ा के घर पहुंच गईं. हर तरफ कैमरे की रोशनियां और उन की बेटी का रोना, मिसेज चोपड़ा बारबार उन लोगों से जाने की प्रार्थना करते हुए सिसक उठीं, लेकिन संस्था की महिलाएं, हाथ में पेपर, पैन लिए मीडिया के लोग, मांबेटी से सवाल पर सवाल पूछे जा रहे थे और अपनी संस्था की शान में कमेंट भी किए जा रहे थे कि हम आप की बेटी को न्याय दिलवाएंगे. मैडम, आप तो खुद एक संस्था चलाती थीं. आज आप आम आदमी की जगह खड़ी हैं. आप को कैसा लग रहा है? मैडम, आप कुछ जवाब दें. आप इस केस में क्या कहना चाहेंगी.

मिसेज चोपड़ा ने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन उन के शब्द अंदर ही रह गए और वे गिर पड़ीं.

आफिस के कुछ लोगों के साथ मैं उन को अस्पताल ले गई. आकृति को मैं ने अपनी मां के पास भेज दिया. मिसेज चोपड़ा को हार्टअटैक पड़ा था. उन की देखरेख मैं ने एक दोस्त की तरह की, क्योंकि मेरी मां ने मुझे यही सिखाया था. उन के दिए गए संस्कार मेरे अंदर खून बन कर बहते थे. स्कूल से मैं ने छुट्टियां ली हुई थीं. मिसेज चोपड़ा जब तक अस्पताल से घर आने लायक हुईं हम एक अच्छे दोस्त बन चुके थे.

घर आ कर वह अपने काम में व्यस्त हो गईं और मैं अपने में. जीवन निर्बाध गति से चल रहा था. एक दिन मैं ने टेलीविजन चलाया तो मिसेज चोपड़ा अपने साक्षात्कार में कह रही थीं, ‘‘अगर हम किसी बहन या बेटी की इज्जत करते हैं तो क्या हमें उस को हजारों लोगों के सामने खड़ा कर देना चाहिए. हमें यदि किसी की मदद करनी है तो क्या हम चुपचाप नहीं कर सकते. मैं एक नई संस्था बना रही हूं जिस का मीडिया से बहुत ही कम लेनादेना होगा. हम चुपचाप दुखी जनता के आंसू पोंछेंगे.’’

आज मुझे लगा कि मिसेज चोपड़ा ने अब जो रास्ता चुना है वह सही है. मुझे उन की इस बदली हुई सोच पर खुशी हुई और मैं उन को इस नए कदम के लिए शुभकामनाएं देने को फोन मिलाने लगी, साथ ही मुझे उन को यह भी बताना था कि मैं उन की नई संस्था में काम करने आ रही हूं.

Hindi Best Stories : सासुजी हों तो हमारी जैसी

Hindi Best Stories : पत्नीजी का खुश होना तो लाजिमी था, क्योंकि उन की मम्मीजी का फोन आया था कि वे आ रही हैं. मेरे दुख का कारण यह नहीं था कि मेरी सासुजी आ रही हैं, बल्कि दुख का कारण था कि वे अपनी सोरायसिस बीमारी के इलाज के लिए यहां आ रही हैं. यह चर्मरोग उन की हथेली में पिछले 3 वर्षों से है, जो ढेर सारे इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पाया.

अचानक किसी सिरफिरे ने हमारी पत्नी को बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में एक व्यक्ति देशी दवाइयां देता है, जिस से बरसों पुराने रोग ठीक हो जाते हैं.

परिणामस्वरूप बिना हमारी जानकारी के पत्नीजी ने मम्मीजी को बुलवा लिया था. यदि किसी दवाई से फायदा नहीं होता तो भी घूमनाफिरना तो हो ही जाता. वह  तो जब उन के आने की पक्की सूचना आई तब मालूम हुआ कि वे क्यों आ रही हैं?

यही हमारे दुख का कारण था कि उन्हें ले कर हमें पहाड़ों में उस देशी दवाई वाले को खोजने के लिए जाना होगा, पहाड़ों पर भटकना होगा, जहां हम कभी गए नहीं, वहां जाना होगा. हम औफिस का काम करेंगे या उस नालायक पहाड़ी वैद्य को खोजेंगे. उन के आने की अब पक्की सूचना फैल चुकी थी, इसलिए मैं बहुत परेशान था. लेकिन पत्नी से अपनी क्या व्यथा कहता?

निश्चित दिन पत्नीजी ने बताया कि सुबह मम्मीजी आ रही हैं, जिस के चलते मुझे जल्दी उठना पड़ा और उन्हें लेने स्टेशन जाना पड़ा. कड़कती सर्दी में बाइक चलाते हुए मैं वहां पहुंचा. सासुजी से मिला, उन्होंने बत्तीसी दिखाते हुए मुझे आशीर्वाद दिया.

हम ने उन से बाइक पर बैठने को कहा तो उन्होंने कड़कती सर्दी में बैठने से मना कर दिया. वे टैक्सी से आईं और पूरे 450 रुपए का भुगतान हम ने किया. हम मन ही मन सोच रहे थे कि न जाने कब जाएंगी?

घर पहुंचे तो गरमागरम नाश्ता तैयार था. वैसे सर्दी में हम ही नाश्ता तैयार करते थे. पत्नी को ठंड से एलर्जी थी, लेकिन आज एलर्जी न जाने कहां जा चुकी थी. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने अपने चर्म रोग को मेरे सामने रखते हुए हथेलियों को आगे बढ़ाया. हाथों में से मवाद निकल रहा था, हथेलियां कटीफटी थीं.

‘‘बहुत तकलीफ है, जैसे ही इस ने बताया मैं तुरंत आ गई.’’

‘‘सच में, मम्मी 100 प्रतिशत आराम मिल जाएगा,’’ बड़े उत्साह से पत्नीजी ने कहा.

दोपहर में हमें एक परचे पर एक पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल का पता उन्होंने दिया. मैं ने उस नामपते की खोज की. मालूम हुआ कि एक पहाड़ी गांव है, जहां पैदल यात्रा कर के पहुंचना होगा, क्योंकि सड़क न होने के कारण वहां कोई भी वाहन नहीं जाता. औफिस में औडिट चल रहा था. मैं अपनी व्यथा क्या कहता. मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘आज तो रैस्ट कर लो, कल देखते हैं क्या कर सकते हैं.’’

वह और सासुजी आराम करने कमरे में चली गईं. थोड़ी ही देर में अचानक जोर से कुछ टूटने की आवाज आई. हम तो घबरा गए. देखा तो एक गेंद हमारी खिड़की तोड़ कर टीवी के पास गोलगोल चक्कर लगा रही थी. घर की घंटी बजी, महल्ले के 2-3 बच्चे आ गए. ‘‘अंकलजी, गेंद दे दीजिए.’’

अब उन पर क्या गुस्सा करते. गेंद तो दे दी, लेकिन परदे के पीछे से आग्नेय नेत्रों से सासुजी को देख कर हम समझ गए थे कि वे बहुत नाराज हो गईर् हैं. खैर, पानी में रह कर मगर से क्या बैर करते.

अगले दिन हम ने पत्नीजी को चपरासी के साथ सासुजी को ले कर पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल के पास भेज दिया. देररात वे थकी हुई लौटीं, लेकिन खुश थीं कि आखिर वह वैद्य मिल गया था. ढेर सारी जड़ीबूटी, छाल से लदी हुई वे लौटी थीं. इतनी थकी हुई थीं कि कोई भी यात्रा वृत्तांत उन्होंने मुझे नहीं बताया और गहरी नींद में सो गईं.

सुबह मेरी नींद खुली तो अजीब सी बदबू घर में आ रही थी.  उठ कर देखने गया तो देखा, मांबेटी दोनों गैस पर एक पतीले में कुछ उबाल रही थीं. उसी की यह बदबू चारों ओर फैल रही थी. मैं ने नाक पर रूमाल रखा, निकल कर जा ही रहा था कि पत्नी ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’

‘‘कुछ सूखी लकडि़यां, एक छोटी मटकी और ईंटे ले कर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ मेरा दिल जोरों से धड़क उठा. ये सब सामान तो आखिरी समय मंगाया जाता है?

पत्नी ने कहा, ‘‘कुछ जड़ों का भस्म तैयार करना है.’’

औफिस जाते समय ये सब फालतू सामान खोजने में एक घंटे का समय लग गया था. अगले दिन रविवार था. हम थोड़ी देर बाद उठे. बिस्तर से उठ कर बाहर जाएं या नहीं, सोच रहे थे कि महल्ले के बच्चों की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘भूत, भूत…’’

हम ने सुना तो हम भी घबरा गए. जहां से आवाज आ रही थी, उस दिशा में भागे तो देखा आंगन में काले रंग का भूत खड़ा था? हम ने भी डर कर भूतभूत कहा. तब अचानक उस भूतनी ने कहा, ‘‘दामादजी, ये तो मैं हूं.’’

‘‘वो…वो…भूत…’’

‘‘अरे, बच्चों की गेंद अंदर आ गईर् थी, मैं सोच रही थी क्या करूं? तभी उन्होंने दीवार पर चढ़ कर देखा, मैं भस्म लगा कर धूप ले रही थी. वे भूतभूत चिल्ला उठे, गेंद वह देखो पड़ी है.’’ हम ने गेंद देखी. हम ने गेंद ली और देने को बाहर निकले तो बच्चे दूर खड़े डरेसहमे हुए थे. उन्होंने वहीं से कान पकड़ कर कहा, ‘‘अंकलजी, आज के बाद कभी आप के घर के पास नहीं खेलेंगे,’’ वे सब काफी डरे हुए थे.

हम ने गेंद उन्हें दे दी, वे चले गए. लेकिन बच्चों ने फिर हमारे घर के पास दोबारा खेलने की हिम्मत नहीं दिखाई.

महल्ले में चोरी की वारदातें भी बढ़ गई थीं. पहाड़ी वैद्य ने हाथों पर यानी हथेलियों पर कोई लेप रात को लगाने को दिया था, जो बहुत चिकना, गोंद से भी ज्यादा चिपकने वाला था. वह सुबह गाय के दूध से धोने के बाद ही छूटता था. उस लेप को हथेलियों से निकालने के लिए मजबूरी में गाय के दूध को प्रतिदिन मुझे लेने जाना होता था.

न जाने वे कब जाएंगी? मैं यह मुंह पर तो कह नहीं सकता था, क्यों किसी तरह का विवाद खड़ा करूं?

रात में मैं सो रहा था कि अचानक पड़ोस से शोर आया, ‘चोरचोर,’ हम घबरा कर उठ बैठे. हमें लगा कि बालकनी में कोई जोर से कूदा. हम ने भी घबरा कर चोरचोर चीखना शुरू कर दिया. हमारी आवाज सासुजी के कानों में पहुंची होगी, वे भी जोरों से पत्नी के साथ समवेत स्वर में चीखने लगीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’

महल्ले के लोग, जो चोर को पकड़ने के लिए पड़ोसी के घर में इकट्ठा हुए थे, हमारे घर की ओर आ गए, जहां सासुजी चीख रही थीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’ हम ने दरवाजा खोला, पूरे महल्ले वालों ने घर को घेर लिया था.

हम ने उन्हें बताया, ‘‘हम जो चीखे थे उस के चलते सासुजी भी चीखचीख कर, ‘दामादजी, चोर’ का शोर बुलंद कर रही हैं.’’

हम अभी समझा ही रहे थे कि पत्नीजी दौड़ती, गिरतीपड़ती आ गईं. हमें देख कर उठीं, ‘‘चोर…चोर…’’

‘‘कहां का चोर?’’ मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘कमरे में चोर है?’’

‘‘क्या बात कर रही हो?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं?’’

‘‘अंदर क्या कर रहा है?’’

‘‘मम्मी ने पकड़ रखा है,’’ उस ने डरतेसहमते कहा.

हम 2-3 महल्ले वालों के साथ कमरे में दाखिल हुए. वहां का जो नजारा देखा तो हम भौचक्के रह गए. सासुजी के हाथों में चोर था, उस चोर को उस का साथी सासुजी से छुड़वा रहा था. सासुजी उसे छोड़ नहीं रही थीं और बेहोश हो गई थीं. हमें आया देख चोर को छुड़वाने की कोशिश कर रहे चोर के साथी ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर सरैंडर कर दिया. वह जोरों से रोने लगा और कहने लगा, ‘‘सरजी, मेरे साथी को अम्माजी के पंजों से बचा लें.’’

हम ने ध्यान से देखा, सासुजी के दोनों हाथ चोर की छाती से चिपके हुए थे. पहाड़ी वैद्य की दवाई हथेलियों में लगी थी, वे शायद चोर को धक्का मार रही थीं कि दोनों हथेलियां चोर की छाती से चिपक गई थीं. हथेलियां ऐसी चिपकीं कि चोर क्या, चोर के बाप से भी वे नहीं छूट रही थीं. सासुजी थक कर, डर कर बेहोश हो गई थीं. वे अनारकली की तरह फिल्म ‘मुगलेआजम’ के सलीम के गले में लटकी हुई सी लग रही थीं. वह बेचारा बेबस हो कर जोरजोर से रो रहा था.

अगले दिन अखबारों में उन के करिश्मे का वर्णन फोटो सहित आया, देख कर हम धन्य हो गए.

आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब पता चला कि हमारी सासुजी की वह लाइलाज बीमारी भी ठीक हो गई थी. पहाड़ी वैद्य झुमरूलालजी के अनुसार, हाथों के पूरे बैक्टीरिया चोर की छाती में जा पहुंचे थे.

यदि शहर में आप को कोई छाती पर खुजलाता, परेशान व्यक्ति दिखाई दे तो तुरंत समझ लीजिए कि वह हमारी सासुजी द्वारा दी गई बीमारी का मरीज है. हां, चोर गिरोह के पकड़े जाने से हमारी सासुजी के साथ हमारी साख भी पूरे शहर में बन गई थी. ऐसी सासुजी पा कर हम धन्य हो गए थे.

Hindi Story : दिल में लगा न कर्फ्यू

Hindi Story : दुनियाभरमें तहलका मचा था. कोरोना नाम की महामारी की वजह से दुनिया का हर शहर, हर गली, हर घर लौक डाउन हो रहा था. उधर मासूम निकहत के घर में लगातार टीवी चालू था और उस की मां टीवी स्क्रीन पर ऐसे नजरें गड़ाए थी जैसे कि उस के परिवार को टीवी ही इस मुसीबत से बाहर निकालेगा.

निकहत 5वीं कक्षा में थी. स्कूल बंद था. अब्बा पुलिस में थे तो ‘वर्क फ्रौम होम’ का सवाल ही नहीं था, जैसा कि अन्य विभागों में सरकार की ओर से लागू किया गया था. आसपास के सारे माहौल पर बंद का सन्नाटा छाया था. निकहत की मां बीचबीच में अपना फोन चैक कर रही थी और बीचबीच में किसी को काल भी करती थी. एक कौल आया, निकहत की मां ने दौड़ कर फोन उठाया. शायद वह इस फोन के इंतजार में थी.  ‘‘क्या हुआ भैया? कुछ इंतजाम हुआ? चार दिन से लगातार कोशिश कर रही हूं कि कहीं से ब्लड मिल जाए, लेकिन कहीं कोई राह नहीं. ब्लड कहीं उपलब्ध ही नहीं है, कोई डोनर नहीं मिला क्या भैया?’’

अनिश्चित आशंका से आखरी शब्द गले में ही लड़खड़ा गए थे निकहत की मां के. ‘‘दीदी हम ने भी बहुतों से पूछने की कोशिश की, कई परिचितों से तो संपर्क ही नहीं हो पा रहा है. अपने ही शहर में अकेले ऐसे बच्चों के ही केस डेढ़ सौ से ऊपर हैं, और आप तो जानती हैं उन्हें खून की कितनी जरूरत पड़ती है.’’

‘‘भैया पिछली ही बार मैं ने अपने पति को अपना ब्लड दिया था जब वे सरकारी काम में भीड़ के साथ मुठभेड़ में जख्मी हुए थे. मुझ में अभी प्लेटलेट्स और हीमोग्लोबिन की कमी है, मेरा खून अभी काम न आ सकेगा, कोई उपाय देखो भैया.’’ उस के करुण स्वर ने उस तरफ के व्यक्ति को भी आद्र कर दिया. ‘‘देखता हूं दीदी. कर्फ्यू और कोरोना के डर से तो कोई किसी काम में हाथ डालने को तैयार नहीं. कोशिश करता हूं.’’ बातचीत खत्म होने पर निकहत की मां पहले से ज्यादा परेशान हो गई. निकहत जब छोटी सी थी अचानक एक बार बुखार आया था. फिर तो वह ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी.

टैस्ट पर टैस्ट के बाद आखिर उस की बीमारी का पता चला तो नन्हीं निकहत को ले कर सारे घर वाले परेशान हो गए. नन्हीं निकहत को थैलेसीमिया था यानी ब्लड कैंसर. हर पंद्रह दिन में उस के शरीर में खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है, क्योंकि इस बीमारी में खून बनना बंद हो जाता है. यदि मरीज को निश्चित अंतराल पर खून न चढ़ाया जाए तो उस की लाख जीने की इच्छा भी उस का जीवन नहीं बचा सकती. निकहत की मां का यह अंतहीन सिलसिला शुरू हो चुका था. और ऐसे में आया था यह कोरोना का कहर. शहरों की तालाबंदी से रोजमर्रा की जिंदगी जहां बाधित होने लगी है, जहां जीने की होड़ में लोग मृत्यु से रोजाना भिड़ रहे हैं, वहां पहले से ही जीवन पर काल बनी बीमारियों का सामना कैसे करें. जिन के घर के बच्चे पहले से ही असाध्य बीमारियों से जूझ रहे, उन का उपाय इस लौक डाउन शहर की कानीगूंगी गलियों में कैसे होगा?

जब देश में अचानक फैली इस महामारी से लड़ कर जीतने के लिए न तो पर्याप्त मैडिकल स्टाफ हैं, न वैंटिलेटर, न हाइजीन के लिए पर्याप्त सामान और न इस रोग की जांच के लिए अधिक हौस्पिटल. खून की बीमारी से जूझते बच्चों की तो ऐसे भी इम्यून शक्ति कमजोर होती है. कैसे बचाए प्यारी सी निकहत को उस की मां. अचानक पड़ोस के कल्याण ने निकहत के घर का दरवाजा खटखटाया. अब कोई भी घटना निकहत की मां को अच्छी नहीं लग रही है. खास कर लोगों से बोलनाबतियाना. 30 साल की उम्र में ही उस ने अपने मन को बांध कर रखना सीख लिया है और अभी तो निकहत को ले कर उस का मन बहुत ही आशंकित है. बाहर आ कर देखा बाजू में रहने वाला कल्याण है, एमटैक की स्टूडैंट.

वह और भी घबरा गई. अभीअभी इस का इस के पिता से जोरदार कहासुनी हो रही थी, पता नहीं क्या हुआ था और अब यह यहां. निकहत में खून की जबरदस्त कमी हो रही है, उस का किसी बाहरी से मिलनाजुलना ठीक नहीं. कोरोना वायरस की वजह से चेतावनी है कि लोग दूसरे के घरों में न जाएं. सभी ओर कर्फ्यू तो इसी वजह लगा है, फिर यह यहां क्यों? परेशान सी निकहत की अम्मी ने कल्याण पर प्रश्नसूचक निगाहें डाली. भाभी, अभी न्यूज पेपर में पढ़ा थैलेसीमिया के बच्चों को समय पर खून नहीं मिल पा रहा है, इस से उन की जिंदगी पर खतरा बढ़ गया है. लौकडाउन की वजह से कोई खून देने वाला नहीं मिल पा रहा है, ऊपर से रक्त कालाबाजारी भी तो होने लगती है, ऐसी आपदा में. क्या निकहत का इंतजाम हो गया है?

‘‘नहीं भाई, शुक्रिया तुम्हें याद रहा निकहत का.’’ ‘‘इस में शुक्रिया कहने की कोई बात नहीं. यदि आप को कोई ऐतराज न हो तो आप निकहत को ले कर अभी मेरे साथ कालोनी के ब्लड बैंक चल सकती हैं. कालोनी के बाहर जो ब्लड बैंक है वहां मैं ने फोन से पूछ रखा है, वे चढ़ा देंगे मेरा खून निकहत को.’’ निकहत की अम्मी को लगा जैसे कल्याण को वह दौड़ कर गले लगा ले. 23 वर्ष का यह नौजवान कितना संवेदनशील और समझदार है. बात तो सभी कर लेते हैं, लेकिन विपत्ति में पूछने वाले मिल जाएं तो दूर रह कर भी यह दुख झेला जा सकता है. ‘‘भाई बड़े मुसीबत में थी, इस के अब्बू ड्यूटी में हैं, कौन इंतजाम करे. इस करम का शुक्रिया अदा कर दूं. इतनी औकात नहीं मेरी, हां दुआ करती हूं परवरदिगार तुम्हें हजार नियामत बख्शे. भाई बुरा न मानो, एक बात पूछना चाहती हूं, अभी कुछ देर पहले तुम्हारे घर से तुम्हारे पिताजी के चीखने की आवाजें आ रही थीं, सब खैरियत तो है?’’

‘‘अरे बाबूजी को डर था कि खून देने गया तो मुझे कोरोना हो जाएगा. बिना समझे न डरें वही बता रहा था जब पूरे हाइजीन का खयाल रखा जाएगा, तो यह क्यों होगा. और बच्चों की जिंदगी भी तो बचानी है.’’ निकहत की मां कल्याण के साथ ब्लड बैंक जाती है, और औपचारिकताएं पूरी कर निकहत को खून चढ़ा दिया जाता है. खून के कतरों के साथ प्यार, विश्वास और कोरोना नहीं, करुणा की धार स्थानांतरित होती रही बच्ची में. निकहत की मां सोच रही थी, शहर में लाख कर्फ्यू लगा हो, मगर यदि दिल में कर्फ्यू नहीं लगा तो मुश्किल की घड़ी में एकदूसरे के काम आया जा सकता है.

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