उसका गणित: कैसा था लक्ष्मी का गणित

मनोज हर दिन जिस मिनी बस में बैठता था, उसी जगह से लक्ष्मी भी बस में बैठती थी. आमतौर पर वे एक ही बस में बैठा करते थे, मगर कभीकभार दूसरी में भी बैठ जाते थे. उन दिनों उन के बस स्टौप से सिविल लाइंस तक का किराया 4 रुपए लगता था, मगर लक्ष्मी कंडक्टर को 3 रुपए ही थमाती थी. इस बात को ले कर उस की रोज कंडक्टर से बहस होती थी, मगर उस ने एक रुपया कम देने का जैसे नियम बना ही लिया था.

कभीकभार कोई बदतमीज कंडक्टर मिलता, तो लक्ष्मी को बस से उतार देता था. वह पैदल आ जाती थी, पर एक रुपया नहीं देती थी. लक्ष्मी मनोज के ही महकमे के किसी दूसरे सैक्शन में चपरासी थी. एक साल पहले ही अपने पति की जगह पर उस की नौकरी लगी थी.

लक्ष्मी का पति शंकर मनोज के महकमे में ड्राइवर था. सालभर पहले वह एक हादसे में गुजर गया था. लक्ष्मी की उम्र महज 25 साल थी, मगर उस के 3 बच्चे थे. 2 लड़के और एक लड़की.

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एक दिन मनोज पूछ ही बैठा, ‘‘लक्ष्मी, तुम रोज एक रुपए के लिए कंडक्टर से झगड़ती हो. क्या करोगी इस तरह एकएक रुपया बचा कर?’’ ‘‘अपनी बेटी की शादी करूंगी.’’

‘‘एक रुपए में शादी करोगी?’’ मनोज हैरान था. ‘‘बाबूजी, यों देखने में यह एक रुपया लगता है, मगर रोजाना आनेजाने के बचते हैं 2 रुपए. महीने के हुए

60 रुपए और सालभर के 730 रुपए. 10 साल के 7 हजार, 3 सौ. 20 साल के 14 हजार, 6 सौ.

‘‘5 सौ रुपए इकट्ठे होते ही मैं किसान विकास पत्र खरीद लेती हूं. साढ़े 8 साल बाद उस के दोगुने पैसे हो जाते हैं. 20 साल बाद शादी करूंगी, तब तक 40-50 हजार रुपए तो हो ही जाएंगे.’’ मनोज उस का गणित जान कर हैरान था. उस ने तो इस तरह कभी सोचा ही नहीं था. भले ही गलत तरीके से सही, मगर पैसा तो बच ही रहा था.

लक्ष्मी को खूबसूरत कहा जा सकता था. कई मनचले बाबू और चपरासी उसे पाने को तैयार रहते, मगर वह किसी को भाव नहीं देती थी. लक्ष्मी का पति शराब पीने का आदी था. दिनभर नशे में रहता था. यही शराब उसे ले डूबी थी. जब वह मरा, तो घर में गरीबी का आलम था और कर्ज देने वालों की लाइन.

अगर लक्ष्मी को नौकरी नहीं मिलती, तो उस के मासूम बच्चों का भूखा मर जाना तय था. पैसे की तंगी और जिंदगी की जद्दोजेहद ने लक्ष्मी को इतनी सी उम्र में ही कम खर्चीली और समझदार बना दिया था.

एक दिन लक्ष्मी ने न जाने कहां से सुन लिया कि 10वीं जमात पास करने के बाद वह क्लर्क बन सकती है. बस, वह पड़ गई मनोज के पीछे, ‘‘बाबूजी, मुझे कैसे भी कर के 10वीं पास करनी है. आप मुझे पढ़ालिखा कर 10वीं पास करा दो.’’ वह हर रोज शाम या सुबह होते ही मनोज के घर आ जाती और उस की पत्नी या बेटाबेटी में से जो भी मिलता, उसी से पढ़ने लग जाती. कभीकभार मनोज को भी उसे झेलना पड़ता था.

मनोज के बेटाबेटी लक्ष्मी को देखते ही इधरउधर छिप जाते, मगर वह उन्हें ढूंढ़ निकालती थी. वह 8वीं जमात तक तो पहले ही पढ़ी हुई थी, पढ़नेलिखने में भी ठीकठाक थी. लिहाजा, उस ने गिरतेपड़ते 2-3 सालों में 10वीं पास कर ही ली. कुछ साल बाद मनोज रिटायर हो गया. तब

तक लक्ष्मी को लोवर डिविजनल क्लर्क के रूप में नौकरी मिल गई थी. उस ने किसी कालोनी में खुद का मकान ले लिया था. धीरेधीरे पूरे 20 साल गुजर गए. एक दिन लक्ष्मी अचानक मनोज के घर आ धमकी. उस ने मनोज और उस की पत्नी के पैर छुए. वह उसे पहचान ही नहीं पाया था. वह पहले से भी ज्यादा खूबसूरत हो गई थी. उस का शरीर भी भराभरा सा लगने लगा था.

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लक्ष्मी ने चहकते हुए बताया, ‘‘बाबूजी, मैं ने अपनी बेटी की शादी कर दी है. दामादजी बैंक में बाबू हैं. बेटी बहुत खुश है. ‘‘मेरे बड़े बेटे राजू को सरकारी नौकरी मिल गई है. छोटा बेटा महेश अभी पढ़ रहा है. वह पढ़ने में बहुत तेज है. देरसवेर उसे भी नौकरी मिल ही जाएगी.’’

‘‘क्या तुम अब भी कंडक्टर को एक रुपया कम देती हो लक्ष्मी?’’ मनोज ने पूछा.

‘‘नहीं बाबूजी, अब पूरे पैसे देती हूं…’’ लक्ष्मी ने हंसते हुए बताया, ‘‘अब तो कंडक्टर भी बस से नहीं उतारता, बल्कि मैडम कह कर बुलाता है.’’ थोड़ी देर के बाद लक्ष्मी चली गई, मगर मनोज का मन बहुत देर तक इस हिम्मती औरत को शाबाशी देने का होता रहा.

हैप्पी बर्थडे: कैसे मनाया गया जन्मदिन

आज भोर में दादीमां की नींद खुल गई थी. पास ही दादाजी गहरी नींद में सो रहे थे. कुछ दिन पहले ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा था. अब ठीक थे, लेकिन कभीकभी सोते समय नींद की गोली खानी पड़ती थी. दादाजी को सोता देख दादीमां के होंठों पर मुसकान दौड़ गई. आश्वस्त हो कर फिर से आंखें बंद कर लीं. थोड़ी देर में उन्हें फिर से झपकी आगई.

अचानक गाल पर गीलेपन का एहसास हुआ. आंख खोल कर देखा तो श्वेता पास खड़ी थी.

गाल पर चुंबन जड़ते हुए श्वेता ने कहा, ‘‘हैप्पी बर्थडे, दादीमां.’’

‘‘मेरी प्यारी बच्ची,’’ दादीमां का स्वर गीला हो गया, ‘‘तू कितनी अच्छी है.’’

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‘‘मैं जाऊं, दादीमां? स्कूल की बस आने वाली है.’’

श्वेता ने दादाजी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘कैसे सो रहे हैं.’’

दादीमां को लगा कि सच में दादाजी बरसों से जाग रहे थे. अब कहीं सोने को मिला था.

सचिन ने प्रवेश किया. हाथ में 5 गुलाबों का गुच्छा था. दादीमां को गुलाब के फूलों से विशेष प्यार था. देखते ही उन की आंखों में चमक आ जाती थी.

चुंबन जड़ते हुए सचिन ने फूलों को दादीमां के हाथ में दिया और कहा, ‘‘हैप्पी बर्थडे.’’

‘हाय, तू मेरा सब से अच्छा पोता है,’’ दादीमां ने खुश हो कर कहा, ‘‘मेरी पसंद का कितना खयाल रखता है.’’

सचिन ने शरारत से पूछा, ‘‘दादीमां, अब आप की कितनी उम्र हो गई?’’

‘‘चल हट, बदमाश कहीं का. औरतों से कभी उन की आयु नहीं पूछनी चाहिए,’’ दादीमां ने हंस कर कहा.

‘‘अच्छा, चलता हूं, दादीमां,’’ सचिन बोला, ‘‘बाहर लड़के कालिज जाने के लिए इंतजार कर रहे हैं.’’

दादीमां आहिस्ता से उठीं, खटपट से कहीं दादाजी जाग न जाएं. वह बाथरूम गईं और आधे घंटे बाद नहा कर बाहर आ गईं और कपड़े बदलने लगीं.

बेटे तरुण ने नई साड़ी ला कर दी थी. दादीमां वही साड़ी पहन रही थीं.

‘हाय मां,’’ तरुण ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘हैप्पी बर्थडे. आज आप कितनी सुंदर लग रही हैं.’’

‘‘चल हट, तेरी बीवी से सुंदर थोड़ी हूं,’’ दादीमां बहू के ऊपर तीर छोड़ना कभी नहीं भूलती थीं.

‘‘किस ने कहा ऐसा,’’ तरुण ने मां को गले लगाते हुए कहा, ‘‘मेरी मां से सुंदर तो तुम्हारी मां भी नहीं थीं. तुम्हारी मां ही क्यों, मां की मां की मां में भी कोई तुम्हारे जैसी सुंदर नहीं थीं.’’

‘‘चापलूस कहीं का,’’ दादीमां ने प्यार से चपत लगाते हुए कहा, ‘‘इतना बड़ा हो गया पर बात वही बच्चों जैसी करता है.’’

‘‘अब तुम्हारा तो बच्चा ही हूं न,’’ तरुण ने हंस कर कहा, ‘‘मैं दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहा हूं. पापाजी को क्या हो गया? अभी तक सो रहे हैं.’’

‘‘सो कहां रहा हूं,’’ दादाजी ने आंखें खोलीं और उठते हुए कहा, ‘‘इतना शोर मचा रहे हो, कोई सो सकता है भला.’’

‘‘पापाजी, आप बहुत खराब हैं,’’ तरुण ने शिकायती अंदाज में कहा, ‘‘आप चुपकेचुपके मांबेटे की खुफिया बातें सुन रहे थे.’’

‘‘खुफिया बातें कान में फुसफुसा कर कही जाती हैं. इस तरह आसमान सिर पर उठा कर नहीं,’’ दादाजी ने चुटकी ली.

‘‘क्या करूं, पापाजी, सब लोग कहते हैं कि मैं आप पर गया हूं,’’ तरुण ने दादाजी को सहारा देते हुए कहा, ‘‘अब आप तैयार हो जाइए. वसुधा आप लोगों के लिए कोई विशेष व्यंजन बना रही है.’’

‘‘क्यों, कोई खास बात है क्या?’’ दादाजी ने प्रश्न किया.

‘‘पापाजी, कोई खास बात नहीं, कहते हैं न कि सब दिन होत न एक समान. इसलिए सब के जीवन में एक न एक दिन तो खासमखास होता ही है,’’ तरुण ने रहस्यमयी मुसकान से कहा.

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‘‘तू दर्शनशास्त्र कब से पढ़ने लगा,’’ दादाजी ने कहा.

‘‘चलता हूं, पापाजी,’’ तरुण की आंखें मां की आंखों से टकराईं.

क्या सच ही इन को याद नहीं कि आज इन की पत्नी का जन्मदिन था जिस ने 55 साल पहले इन के जीवन में प्रवेश किया था? अब बुढ़ापा न जाने क्या खेल खिलाता है.

डगमगाते कदमों से दादाजी ने बाथरूम की तरफ रुख किया. दादीमां ने सहारा देने का असफल प्रयत्न किया.

दादाजी ने झिड़क कर कहा, ‘‘तुम अपने को संभालो. देखो, मैं अभी भी अभिनेता दिलीप कुमार की तरह स्मार्ट हूं. अपना काम खुद करता हूं. काश, तुम मेरी सायरा बानो होतीं.’’

दादाजी ने बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. अंदर से गाने की आवाज आ रही थी, ‘अभी तो मैं जवान हूं, अभी तो मैं जवान हूं.’

दादीमां मुसकराईं. बिलकुल सठिया गए हैं.

बहू वसुधा ने कमरे में आते ही कहा, ‘‘हाय मां, हैप्पी बर्थडे,’’ फिर उस की नजर साड़ी पर गई तो बोली, ‘‘तरुण सच ही कह रहे थे. इस साड़ी में आप खिल गई हैं. बहुत सुंदर लग रही हैं.’’

‘‘तू भी कम नहीं है, बहू,’’ यह कहते समय दादीमां के गालों पर लाली आ गई.

जातेजाते वसुधा बोली, ‘‘मां, मैं खाना लगा रही हूं. आप दोनों जल्दी से आ जाइए. गरमागरम कचौरी बना रही हूं.’’

दादीमां का बचपन सीताराम बाजार में कूचा पातीराम में बीता था. अकसर वहां की पूरी, हलवा, कचौरी और जलेबी का जिक्र करती थीं. जिस तरह दादीमां बखान करती थीं उसे सुन कर सुनने वालों के मुंह में पानी आ जाता था.

वसुधा मेरठ की थी और उसे ये सारे व्यंजन बनाने आते थे. दादीमां को अच्छे तो लगते थे लेकिन उस की प्रशंसा करने में हर सास की तरह वह भी कंजूसी कर जाती थीं. शुरूमें तो वसुधा को बुरा लगता था. लेकिन अब सास को अच्छी तरह पहचान लिया था.

थोड़ी देर बाद दादाजी और दादीमां बाहर आ कर कुरसी पर बैठ गए. उन के आने की आवाज सुन कर वसुधा ने कड़ाही चूल्हे पर रख दी.

सूजी का मुलायम खुशबूदार हलवा पहले दादीजी ने खाना शुरू किया. कचौरी के साथ वसुधा ने दहीजीरे के आलू बनाए थे.

दादाजी 2 कचौरियां खा चुके थे. दादीमां ने दादाजी से हलवे की तारीफ में कहा, ‘‘शुद्ध घी में बनाया है न… बना तो अच्छा है लेकिन हजम भी तो होना चाहिए.’’

‘‘अरे वाह, तुम ने तो और ले लिया,’’ दादाजी ने निराश स्वर में कहा.

उन दोनों की बातें सुन कर वसुधा हंस पड़ी, ‘‘पापा, मैं फिर बना दूंगी.’’

दिल का दौरा पड़ जाने से दादाजी को काफी परहेज करना व करवाना पड़ता था. दिन में दादीमां की दोनों बहनों व उन के परिवार के लोग फोन पर जन्मदिन की बधाई दे रहे थे. उन के भाईभाभी का कनाडा से फोन आया. बहुत अच्छा लगा दादीमां को. वह बहुत खुश थीं और दादाजी मुसकरा रहे थे.

रात को तो पूरा परिवार जमा था. बेटी और दामाद भी उपहार ले कर आ गए थे. खूब हल्लागुल्ला हुआ. लड़के-लड़कियां फिल्मी धुनों पर नाच रहे थे. तरुण अपने बहनोई से हंसीमजाक कर रहा था तो वसुधा अपनी ननद के साथ अच्छेअच्छे स्नैक्सबना कर किचन से भेज रही थी. बस, मजा आ गया.

‘‘दादीमां, आप का बर्थडे सप्ताह में कम से कम एक बार अवश्य आना चाहिए,’’ सचिन ने दादीमां से कहा, ‘‘काश, मेरा बर्थडे भी इसी तरह मनाया जाता.’’

दादीमां ने अचानक कहा, ‘‘आज मुझे सब लोगों ने बधाई दी. बस, एक को छोड़ कर.’’

‘‘कौन, मां?’’ तरुण ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘यह गुस्ताखी किस ने की?’’ सचिन ने कहा.

‘‘इन्होंने,’’ दादीमां ने पति की ओर देख कर कहा.

दादाजी एकदम गंभीर हो गए. ‘‘क्या कहा? मैं ने बधाई नहीं दी?’’

दादाजी अभी तक गुदगुदे दीवान पर सहारा ले कर बैठे थे कि अचानक पीछे लुढ़क गए. शायद धक्का सा लगा. ऐसे कैसे भूल गए. सब का दिल दहल गया.

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‘‘हाय राम,’’ दादीमां झपट कर दादाजी के पास गईं. लगभग रोते हुए बोलीं, ‘‘आंखें खोलो. मैं ने ऐसा क्या कह दिया?’’

दादाजी को शायद फिर से दिल का दौरा पड़ गया, ऐसा सब को लगा. दादीमां की आंखें नम हो गईं. उन्होंने कान छाती पर लगा कर दिल की धड़कन सुनने की कोशिश की. एक कान से सुनाई नहीं दिया तो दूसरा कान छाती पर लगाया.

‘‘हैप्पी बर्थडे,’’ दादाजी ने आंखें खोल कर मुसकरा कर कहा, ‘‘अब तो कह दिया न.’’

‘‘यह भी कोई तरीका है,’’ दादीमां ने आंसू पोंछते हुए कहा. अब उन के होंठों पर हंसी लौट आई थी.

सब हंस रहे थे. ‘‘तरीका तो नहीं है,’’ दादाजी ने उठते हुए कहा, ‘‘लेकिन याद तो रहेगा न.’’

‘‘छोड़ो भी,’’ दादीमां ने शरमा कर कहा.

‘‘वाह, इसे कहते हैं 18वीं सदी का रोमांस,’’ सचिन ने ताली बजाते हुए कहा.

फिर तो सारा घर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.

घर और घाट: अपमानित करती बहू की कहानी

मेरे पति आकाश का देहांत हो गया था. उम्र 35 की भी नहीं हुई थी. उन्हें कोई लंबी बीमारी नहीं थी. बस, अचानक दिल का दौरा पड़ा और उन की मृत्यु हो गई. अभी तक तो मित्रगण आते रहे थे, लेकिन पति के देहांत के बाद कोई नहीं आया. इस में उन का भी दोष नहीं. वहां की जिंदगी थी ही इतनी व्यस्त.

पहली 3 रातें मेरे साथ किरण सोई थी. अब से रातें अकेले ही गुजारनी थीं. शायद हफ्ता गुजरने तक दिन भी अकेले बिताने होंगे. क्या करूंगी, कहां रहूंगी, कुछ सोचा नहीं था.

यों तो कहने को मेरी ननद भी अमेरिका में ही रहती थीं लेकिन वह ऐसे मौके पर भी नहीं आई थीं. साल भर पहले कुछ देर के लिए आई थीं. तब मुझ से कह गई थीं, ‘रीता, आकाश बचपन से बड़ा विनोदप्रिय किस्म का है. तुम्हें दोष नहीं देती, लेकिन आकाश को कुछ हो गया तो भुगतोगी तुम ही. तुम लोगों की शादी को 10 बरस हो गए. देखती हूं पहले आकाश की हंसी जाती रही. फिर माथे पर अकसर बल पड़े रहने लगे. साथ ही वह चुप भी रहने लगा. 5 बरस से सिगरेट और शराब का सहारा भी लेने लगा है. रक्तचाप से शुरुआत हुई तनाव की. उस का कोलेस्ट्राल का स्तर ज्यादा है…’

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मुझे तो लगता है उन को और कुछ नहीं था, बस, दीदी ही की टोकाटाकी खा गई थी. उन से मेरा सुख नहीं देखा गया था.

रहरह कर अतीत मेरे दिमाग में घूमने लगा. मैं ने दशकों से बहुओं के ऊपर होते हुए अत्याचारों को देखतेसुनते मन में ठान ली थी कि मैं कभी अपने ऊपर किसी की ज्यादती नहीं होने दूंगी. अगर आप जुल्म न सहें तो कोई कर ही कैसे सकता है. इस तरह समस्या जड़ से ही उखड़ जाएगी.

लेकिन मैं जैसी शरीर की बेडौल हूं वैसी अक्ल की भी मोटी हूं. मेरी लंबाई कम और चौड़ाई ज्यादा है. जहां तक खूबसूरती का सवाल है, कहीं न कहीं, कुछ न कुछ होगी ही वरना क्यों आकाश जैसा खूबसूरत नौजवान, वह भी अमेरिका में बसा हुआ सफल इंजीनियर, मुझ 18 बरस की अल्हड़ को एक ही बार देख पसंद कर लिया था. ऊपर से उन्होंने न तो दहेज की मांग की थी, न ही खर्च की नोकझोंक हुई थी.

मेरे मांबाप भी होशियार निकले थे. उन्होंने एक बार की ‘हां’ के बाद आकाश और उस के कितने रिश्तेदारों के कहने पर भी उन्हें एक और झलक न मिलने दी थी. मां ने कह दिया था, ‘शादी के बाद सुबहशाम अपनी दुलहन को बैठा कर निहारना.’

डर तो था ही कि कहीं लेने के देने न पड़ जाएं. मां ने शादी के वक्त भी अपारदर्शी साड़ी में मुझ को नख से शिख तक छिपाए रखा था. क्या मालूम बरात ही न लौट जाए. खैर, जैसेतैसे शादी हो गई और मैं सजीधजी ससुराल पहुंच गई.

अभी तक तो घूंघट में कट गई. मरफी का सिद्धांत है कि यदि कुछ गलत होने की गुंजाइश है तो अवश्य हो कर रहेगा. मैं कमरे में आ कर बैठी ही थी कि ननद ने पीछे से आ कर घूंघट सरका दिया. मैं बुराभला सब सुनने को तैयार थी. मगर किसी ने कुछ कहा ही नहीं. मुंह दिखाई के नाम पर कुछ चीजें और रुपए मिलने अवश्य शुरू हो गए. दीदी तो अमेरिका से आई थीं. उन्होंने वहीं का बना खूबसूरत सैट मुझे मुंह दिखाई में दिया. बाकी रिश्तेदार और अड़ोसीपड़ोसी भी आते रहे.

इतने में ददिया सास आईं. दीदी झट बोलीं, ‘लता, जरा आगे बढ़ कर दादीजी के पैर छू लो.’

मैं ने वहीं बैठेबैठे जवाब दे दिया, ‘पैर छुआने का इतना ही शौक था तो ले आतीं गांव की गंवार. मैं तो बी.ए. पास शहरी लड़की हूं.’

दीदी को ऐसा चुप किया कि वह उलटे पांव लौट गईं. कुछ देर बाद एक कमरे के पास से गुजर रही थी तो खुसरफुसर सुनाई पड़ी, ‘इस को इतना गुमान है बी.ए. करने का. एक आकाश की मां एम.ए. पास आई थी, जिस के मुंह से आज तक भी कोई ऐसीवैसी बात नहीं सुनी.’

अब आप ही बताइए, सास के एम.ए. करने का मेरे पैर छूने से क्या सरोकार था? खैर, मुझे क्या पड़ी थी जो उन लोगों के मुंह लगती. मुझे कल मायके चले जाना था, उस के 4 दिन बाद आकाश के संग अमेरिका. वहां दीदी जरूर मेरी जान की मुसीबत बन कर 4 घंटे की दूरी (200 किलोमीटर) पर रहेंगी. मैं पहले दिन से ही संभल कर रहूंगी तो वह मेरा क्या बिगाड़ लेंगी. अनचाहे ही मुझे किसी कवि की लिखी पंक्ति याद आ गई, ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात.’

लेकिन देखूंगी, दीदी की क्षमा कब तक चलेगी मेरे उत्पात के सामने. बड़ी आई थीं मेरे से दादीजी के पैर छुआने. डाक्टर होंगी तो अपने लिए, मेरे लिए तो बस, एक सठियाई हुई रूढि़वादी ननद थीं.

सच पूछिए तो पिछले 4 दिन में मैं एक बार भी उन को याद नहीं आई थी. मैं पिछले दिनों अपनी एक सहेली के यहां गई थी. पूरा 1 महीना उस की देवरानी उस के घर रह कर गई थी. एक मेरी ननद थीं, जिन के चेहरे पर जवान भाई के मरने पर शिकन तक नहीं आई थी.

जब मैं 10 बरस पहले आकाश के साथ इस घर में घुसी थी तो गुलाब के फूलों का गुलदस्ता हमारे लिए पहले से इंतजार कर रहा था. उसे ननद ने भेजा था. आकाश ने मुझ को घर की चाबी थमा दी थी, लेकिन मुझे ताला खोलते हुए लगा था जैसे ननद वहां पहले से ही विराजमान हों.

घर क्या था, जैसे किसी राजकुमार की स्वप्न नगरी थी. मुझ को तो सबकुछ विरासत में ही मिला था. भले ही वह सब आकाश की 4 साल की कड़ी मेहनत का इनाम था. मैं इतनी खुश थी कि मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. मेरे सब संबंधियों में इतना अच्छा घरबार उन के खयाल से भी दूर की चीज थी.

मैं ने गुलाब के फूल बैठक में सजा लिए. मगर दीदी का शुक्रिया तो क्या अदा करती, उन की रसीद तक नहीं पहुंचाई. दोचार दिन बाद उन का फोन आया तो कह दिया, ‘हां, मिल तो गए थे.’

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एक बार दीदी शुरू में सपरिवार आई थीं. वह रात को 9 बजे पहुंचने वाली थीं. भला इतनी रात गए तक कौन उन लोगों के लिए इंतजार करता. मैं ने 8 बजे ही खाना लगा दिया था. आकाश कुछ बोलते, इस से पहले ही मैं ने सुना कर कह दिया, ‘9 बजे आने के लिए कहा है. फिर भी क्या भरोसा, कब तक आएं? आप खाना खा लो.’

वह न चाहते हुए भी खाने बैठ गए थे. अभी खाना खत्म भी नहीं हुआ था कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं बोली, ‘अब खाना खाते हुए तो मत उठो. पहले खाना खत्म कर लो फिर दरवाजा खोलना.’

खाना खा कर आकाश दरवाजा खोलने गए. मैं बरतन मांजने लगी. उधर न पहुंची तो 15 मिनट बाद ही दीदी रसोई में आ गईं और नमस्ते कर के लौट गईं. मैं ने उन सब का खाना लगा दिया.

दीदी ने हम से भी खाने को पूछा. फिर बोलीं, ‘इस देश में खाने की कमी नहीं है. हर चौराहे पर मिलता है. साथ न खाना था तो कह देते, हम खा कर आते.’

तो क्या मैं ने कहा था कि यहां आ कर खाएं या उन को किसी डाक्टर ने सलाह दी थी? मैं ने सिरदर्द का बहाना बनाया और ऊपर शयनकक्ष में चली गई. खुद ही निबटें अपने भाईजान से.

सुबह उठी तो दीदी चाय बना रही थीं, ‘क्या खालाजी का घर समझ रखा है, जो पूछने की भी जरूरत न समझी?’ मैं ने दीदी को लताड़ा, ‘आप ने क्या समझा था कि मैं आप को उठ कर चाय भी नहीं दूंगी.’

मेरी रसोई को अपनी रसोई समझा था. उस के बाद कभी दीदी को मेरी रसोई में घुसने की हिम्मत न हुई.

मैं ने दीदी को नहानेधोने के लिए 2 तौलिए दिए तो वह 2 बच्चों के लिए और मांग बैठीं. अपने घर में 4 तौलिए इस्तेमाल करें या 8, यहां एक दिन 2 तौलियों से काम नहीं चला सकती थीं? मैं ने एक पुराना सा तौलिया और दे दिया. आखिर मेरा घर है, जो चाहूंगी करूंगी.

उस के बावजूद कुछ ही दिनों बाद दीदी अचानक दोनों बच्चों के साथ मेरे यहां आ धमकीं. रात को देर तक आकाश से बातें करती रही थीं. वह पति महोदय से खटपट कर के आई थीं. मैं पूछ बैठी, ‘आप ने तो अपनी इच्छा से प्रेम विवाह किया था. फिर अब किस बात का रोना?’ दीदी से कुछ जवाब देते न बना.

मैं तो घबरा गई. कहीं दीदी जिंदगी भर मेरे घर डेरा न डाल लें. अगली सुबह आकाश दफ्तर गए और मैं सोती दीदी के पास ही पहुंच गई, ‘दीदी, वापस लौटने के बारे में क्या सोचा है?’

समझदार को इशारा काफी है. उन्होंने हमारे घर रह पति महोदय से बिलकुल बात न बढ़ाई. उसी दिन जीजाजी को फोन किया और शाम को वापस अपने घर लौट गईं. बस, समझ लीजिए तभी से उन का हमारे यहां आनाजाना कुछ खास नहीं रहा. हम ही उन के यहां साल में 2-3 दिन के लिए चले जाते थे. जाते भी क्यों न, वह बड़े आग्रह से बुलाती जो थीं. बुलातीं भी क्यों न, आखिर उन की पति से कम ही पटती थी. हम से भी नाता तोड़ लेतीं तो आड़े वक्त में कहां जातीं? कौन काम आता?

और फिर उन पर क्या जोर पड़ता था हमें बुलाने में. उन्होंने खाना बनाने को एक विधवा फुफेरी सास को साथ रखा हुआ था. घर की सफाई करने वाली अलग आती थी.

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एक बार दीदी भारत गईं तो मेरे लिए मां ने उन के साथ कुछ सामान भेजा. जब मुझे सामान मिला तो उस में से एक कटहल के अचार का डब्बा गायब था, ‘दीदी, अचार चाहिए था तो आप कह देतीं, मैं आप के लिए भी मंगा देती. चोरी करना तो बहुत बुरी बात है.’

बाद में मां ने बताया कि अचार का डब्बा भेजने से रह गया था. बात आईगई हो चुकी थी, तो मैं ने फिर दीदी से कुछ कहने की जरूरत न समझी.

अभी पिछले दिनों दीदी फिर भारत गई थीं. उन्होंने लौट कर फोन किया, ‘लता, तुम्हारे मांबाबूजी से मिल कर आ रही हूं. सब मजे में हैं. मगर तुम्हारे लिए कुछ नहीं भेजा है.’

‘हां, मैं ने ही मां को मना कर दिया था कि हर ऐरेगैरे के हाथ कुछ न भेजा करें. फिर भी मां किसी न किसी के हाथों सामान भेजती रहती हैं. एक पार्सल तो पिछले 8 बरस से आ रहा है. एक 6 महीने बाद मिला था.’

खैर, जो हुआ सो हुआ. मैं अतीत को भूल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. मुझ को अकेले नींद नहीं आ रही थी. रात के 2 बज गए थे. एक तरफ आंसू नहीं थम रहे थे और दूसरी तरफ डर भी लग रहा था इतने बड़े घर में. भूख लग रही थी मगर…मैं अकेली थी…बिलकुल अकेली. शरीर टूट सा रहा था.

मैं मां को भारत ट्रंककाल करने लगी, ‘‘मां, आप कुछ दिनों के लिए अमेरिका आ जाइए. मैं आप का टिकट भेज देती हूं.’’

मां अपनी मजबूरी सुनाने लगीं. विरासत में मिला सुख कुछ भी तो काम नहीं आ रहा था. पति के मरते ही कुछ भी अपना न रहा था. 10 बरस बाद भी उस घर में न तो कोई अपनापन था, न ही देश में.

आकाश 1 लाख डालर छोड़ कर मरे थे. मैं एअर इंडिया को फोन करने लगी, ‘‘मैं वापस भारत जाना चाहती हूं. अपने घर.’’

भारत लौट कर पीहर पहुंची तो वहां कुछ और ही नजारा पाया. भाई की शादी हो चुकी थी, सो एक कमरा भाईभाभी का और दूसरे में मेरे मांबाबूजी. मेरा बैठक में सोने का प्रबंध कर दिया था. मेरा सामान मां के साथ. सुबह बिस्तर समेटते ऐसा लगता था, जैसे उस घर में मैं फालतू थी. मैं ने सोचा, ‘सहना शुरू किया तो जिंदगी भर सहती ही रहूंगी. ऐसी कोई गईगुजरी स्थिति मेरी भी नहीं है. आखिर 10 लाख रुपए ले कर लौटी हूं. चाहूं तो इन चारों को खरीद लूं.’

एक दिन भाभीजान फरमाने लगीं, ‘‘दीदी, पूरी तलवाने में मदद कर दो न, मैं बेलती जाती हूं.’’

आखिर भाभी ने मुझे समझ क्या रखा था…मैं नौकरानी बन कर आई थी क्या वहां? इतना पैसा था मेरे पास कि 10 नौकर रख देती. लेकिन बात बढ़ाने से क्या फायदा था. मैं कुछ भी नहीं बोली थी. मदद नहीं करनी थी, सो नहीं की.

खाना खाने के वक्त भाभी ने अपना खाना परोसा और खाने लगीं. मैं ने भी ले तो लिया, मगर वह बात मेरे मन को चुभ गई. जब मांबाबूजी ही सब बातों में चुपी लगाए थे तो भाभी तो मेरी छाती पर मूंग दलेंगी ही.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे आने का तुम लोगों को इतना कष्ट हो रहा है तो मैं वापस चली जाती हूं. मेरे पास जितना पैसा है, मैं उतने में जिंदगी भर मजे से रहूंगी. न किसी से कहना, न सुनना.’’

कोई कुछ भी न बोला. मैं सन्नाटे में रह गई. मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि मेरे मांबाबूजी ही इतने बेगाने हो जाएंगे. फिर ससुराल से ही क्या आशा करती.

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घर छोड़ते हुए मेरे आंसू टपक पड़े. मैं फिर अकेली हो गई थी. बिलकुल अकेली. बिलकुल धोबी का कुत्ता बन कर रह गई, न घर की न घाट की.

नेपाली लड़की: ऐसा क्या था उस लड़की में

प्रमोद ने अपने घर में झाड़ूपोंछा करने वाली लड़की संजू से कहा था कि अगर वह अंगरेजी कंप्यूटर टाइपिंग करने वाली किसी स्टूडैंट को जानती है और जिसे पार्टटाइम नौकरी की जरूरत है, तो उसे ले आए.

संजू 3 दिन बाद जिस लड़की को लाई, वह कद में कुछ कम ऊंची, पर गठा हुआ बदन, गोल चेहरा, रंग साफ, बाल बौबकट थे, जो उस के गोल चेहरे को खूबसूरत बना रहे थे. पहनावे से वह आम लड़की दिखती थी. उस की उम्र का अंदाजा लगाना भी मुश्किल था.

जो भी हो, प्रमोद को अंगरेजी कंप्यूटर टाइपिंग जानने वाले की जरूरत थी, इसलिए उस ने ज्यादा पूछताछ किए बिना ही उस लड़की को अपने दफ्तर में टाइपिस्ट का काम दे दिया.

उस लड़की ने अपना नाम जानकी बहादुर बताया था. शक्ल से वह किसी उत्तरपूर्वी प्रदेश की लगती थी.

बाद में प्रमोद ने नाम से अंदाजा लगाया कि जानकी बहादुर नेपाल से आए किसी परिवार की लड़की है. उसे उस लड़की की राष्ट्रीयता से कुछ लेनादेना नहीं था, इसलिए इस ओर ध्यान भी नहीं दिया.

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शुरूशुरू में प्रमोद जानकी को डिक्टेशन देता था, ज्यादातर ईमेल, बिजनैस लैटर लिखवाता था. चूंकि वह कौमर्स की छात्रा थी, तो लैटर का कंटैंट समझने में उसे मुश्किल नहीं हुई, लेकिन टाइपिंग में स्पैलिंग की गलतियां होती थीं. हो सकता है कि वह प्रमोद का अंगरेजी उच्चारण समझ न पाती हो या फिर हिंदी मीडियम से कौमर्स करने के चलते कौमर्स के तकनीकी अंगरेजी शब्द उस के लिए अजनबी थे, इसलिए प्रमोद उस को डिक्टेशन न दे कर खुद चिट्ठियां लिख कर देने लगा.

1-2 महीने में ही प्रमोद को यह देख कर बेहद हैरानी हुई कि अब उस लड़की द्वारा टाइप की गई चिट्ठियों में से गलतियां नदारद थीं.

एक दिन जानकी ने प्रमोद से कहा, ‘‘सर, क्या आप मुझे फुलटाइम के लिए दफ्तर में रख सकते हैं?’’

‘‘तुम दफ्तर का और क्या काम कर सकती हो?’’

‘‘आप जो भी करने को कहेंगे?’’

‘‘और कालेज?’’

‘‘मैं प्राइवेट पढ़ाई कर रही हूं.’’

‘‘ठीक है…’’ फिर प्रमोद ने उस से पूछा, ‘‘हिंदी की टाइपिंग कर सकोगी?’’

‘‘10-15 दिन में सीख लूंगी,’’ जानकी ने बड़े यकीन के साथ कहा.

प्रमोद के पास इस बात पर यकीन न करने की कोई वजह नहीं थी, क्योंकि 2-3 महीनों में वह काम के प्रति उस की लगन देख कर हैरान था.

जानकी न तो दफ्तर बंद होते ही घर भागती थी और न ही उस ने कभी बहाना किया कि सर, मेरे पास काम बहुत है, या फिर 5 बज गए हैं.

बौस को और क्या चाहिए? बस, ज्यादा से ज्यादा काम और अच्छे ढंग से किया गया काम.

देखते ही देखते प्रमोद जानकी पर पूरी तरह निर्भर हो गया. वह न केवल दफ्तर के कामों में माहिर हो गई, बल्कि प्रमोद ने दफ्तर के बाहर का काम भी उसे सौंप दिया. स्टेशनरी खरीदना, और्डर भेजना, रिसीव करना, हिसाबकिताब रखना वगैरह. वह एकएक पैसे का हिसाब रखती थी और सच पूछो तो उस से हिसाब मांगने की प्रमोद को कभी जरूरत नहीं पड़ी.

एक बार प्रमोद गंभीर रूप से बीमार पड़ गया था. जानकी जानती थी कि उस का शहर में अपना कोई नहीं है, तो वह एक हफ्ते तक अस्पताल में रातदिन एक नर्स की तरह उस की देखभाल करती रही.

प्रमोद ने इस दौरान दफ्तर में अपना काम जानकी को करने को कहा, तो उस ने बड़ी खुशी से उसे स्वीकारा और निभाया.

अस्पताल में प्रमोद ने जानकी से पूछा था, ‘‘मेरे लिए जो तुम इतना कर रही हो, क्या

इस के लिए तुम ने अपने मम्मीपापा से पूछा था?’’

‘‘हां सर, रात में अस्पताल में रहने के लिए जरूर पूछा था.’’

अस्पताल से छुट्टी देते हुए डाक्टर ने प्रमोद से कहा था, ‘‘उम्र ज्यादा होने के चलते आप का शरीर पूरी तरह ठीक नहीं हुआ है, इसलिए अभी कुछ समय और आराम की जरूरत है. कुछ दिन आप दफ्तर के कामों में मत पडि़ए.’’

डाक्टर की सलाह मान कर प्रमोद ने दफ्तर से 3-4 महीने की छुट्टी लेने का निश्चय किया. वह अपने बेटे के पास बेंगलुरु जाना चाहता था. पर इतने लंबे समय तक दफ्तर कौन संभालेगा?

प्रमोद ने कुछ सोच कर स्टाफ की मीटिंग बुलाई और बात की.

प्रमोद जानकी को जिम्मेदारी सौंपना चाहता था, पर उस ने जैसे ही उस का नाम लिया, स्टाफ की दूसरी लड़कियां भड़क गईं.

‘‘सर, वह जूनियर है,’’ एक लड़की बोली,

‘‘आप को यह जिम्मेदारी मिसेज दीक्षित को देनी चाहिए, जो पिछले

10 साल से इस दफ्तर में काम कर रही हैं,’’ दूसरी लड़की बोली.

‘‘सर, जानकी को दफ्तर में आए डेढ़ साल ही हुआ है और आप उस को इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपना चाहते हैं?’’ तीसरी लड़की ने कहा.

‘‘वह नेपाली है…’’ एक और लड़की बोली.

अब प्रमोद से सहन नहीं हुआ. डाक्टर ने कहा था कि तनाव से बचना, ब्लडप्रैशर बढ़ सकता है. पर यह आखिरी वाक्य उसे गाली जैसा लगा, तो उसे कहना पड़ा, ‘‘तो क्या हुआ? हमारी संस्था के प्रति उस की निष्ठा आप सब से कहीं ज्यादा है. वह संस्था को अपना समझ कर काम करती है, केवल तनख्वाह के लिए नहीं…’’

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प्रमोद लैक्चर दे रहा था और स्टाफ सिर झुकाए सुन रहा था.

5 बजे दफ्तर बंद हुआ, तो मिसेज दीक्षित प्रमोद के पास आईं.

‘‘सर, मुझे आप से एक बात कहनी है,’’ मिसेज दीक्षित बोलीं.

‘‘उम्मीद है, तुम्हारी परेशानी सुन कर मेरा ब्लडप्रैशर नहीं बढ़ेगा,’’ प्रमोद ने कहा.

‘‘सर, आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं,’’ मिसेज दीक्षित ने कहा.

‘‘नहीं, बोलो,’’ प्रमोद बोला.

वे थोड़ी देर तक चुप रहीं. शायद सोचती रहीं कि बोलें कि न बोलें. फिर उन्होंने लंबी सांस ली और कहा, ‘‘सर, यह किसी के खिलाफ शिकायत नहीं है, पर आप को बताना जरूरी है. सर, जानकी जिस रेलवे कालोनी में रहती है, मैं भी वहीं रहती हूं. उस का और मेरा क्वार्टर दूर नहीं है.

‘‘सर, आप बुरा मत मानना. जानकी के पिता शराबी हैं. उन के घर में आएदिन लड़ाई होती रहती है. उधार की शराब पीपी कर उन पर इतना कर्ज हो गया है कि कर्ज देने वाले हर दिन उन के दरवाजे पर खड़े रहते हैं, गालीगलौज करते हैं. कालोनी वाले इस बात की शिकायत रेलवे मंडल अधिकारी से भी कर चुके हैं…’’

प्रमोद ने मिसेज दीक्षित की बात काट कर कहा, ‘‘तो इन बातों का हमारे दफ्तर से क्या संबंध है? या फिर जानकी का क्या संबंध है? ये बातें तो मैं भी जानता हूं.’’

‘‘जी…?’’ मिसेज दीक्षित की आंखें हैरानी से फैल गईं.

प्रमोद ने उन से कहा, ‘‘वह कुरसी खींच लीजिए और बैठ जाइए.’’

प्रमोद का दफ्तर एक अमेरिकी मिशनरी के पुराने बंगले में था. उस मिशनरी के लौट जाने के बाद प्रमोद की संस्था ने उस को खरीद लिया था. आधे में दफ्तर और आधे में उस का घर.

पत्नी की मौत के बाद प्रमोद अकेला ही कोठी में रहता था और संस्था चलाता था. संस्था प्रकाशन का काम करती थी और प्रमोद उस का संपादक था. सारे प्रकाशन की जिम्मेदारी उस पर ही थी.

प्रमोद ने मिसेज दीक्षित से कहा, ‘‘जानकी ने खुद मुझे अपने परिवार के बारे में बताया है. आज से 40 साल पहले जानकी के पिता उस की मां को भगा कर भारत में लाए थे.

‘‘वे नेपाल से सीधे जबलपुर कैसे पहुंच गए, यह वह भी अपनेआप में एक दिलचस्प कहानी है. पहले वे रेलवे के किसी अफसर के यहां खाना बनाते थे और उसी के गैस्ट हाउस में रहते थे.

‘‘परिवार में लड़ाईझगड़े तो तब शुरू हुए, जब जानकी की मां ने हर साल लड़कियों को जन्म देना शुरू किया. यह सिलसिला तभी रुका, जब एक दिन जानकी के पिता अचानक नेपाल भाग गए. उन की पत्नी अपनी 3 छोटीछोटी बेटियों के साथ जबलपुर में रह गईं.

‘‘वैसे, जबलपुर में नेपालियों की आबादी कम नहीं है. इन की वफादारी और ईमानदारी के चलते जहां भी चौकीदार की जरूरत पड़ती है, वहां ये लोग ही आप को मिलेंगे.

‘‘हां, अब होटलों में चाइनीज फूड बनाने वाले भी नेपाली मिलने लगे हैं. ऐसे ही दूर के एक रिश्तेदार ने 3 बच्चियों की मां को सहारा दिया. उस का अपना छोटा सा ढाबा था. बच्चियों को सिखाया गया कि उसे ‘मामा’ कहो.

‘‘बच्चियों के वे मामा समझदार थे. उन्होंने बिना देर किए तीनों लड़कियों को सरकारी स्कूल में भरती कर दिया.

‘‘मामा के साथ यह परिवार खुशीखुशी दिन बिता रहा था कि कुछ सालों बाद जानकी के पिता एक और नेपाली लड़की को ले कर जबलपुर आ टपके.

‘‘उन्होंने एक रेलवे अफसर को खुश कर उन के रिटायरमैंट के पहले रेलवे अस्पताल में मरीजों को खाना खिलाने  की नौकरी पा ली. इतना ही नहीं, नौकरी के साथ रेलवे क्वार्टर भी मिल गया. उधर जानकी अपनी मां और बहनों के साथ अपने दूर के रिश्तेदार के साथ रह कर बड़ी हो रही थी.

‘‘जानकी की मां को खबर मिली कि जिस लड़की को उस के पति नेपाल से लाए थे, वह उन्हें छोड़ कर वापस नेपाल चली गई है. ढलती उम्र और अकेलेपन ने जानकी के पिता को अपने परिवार में लौटने के लिए मजबूर कर दिया.

‘‘लेकिन अब जबलपुर के हवापानी ने जानकी की मां को काफी समझदार बना दिया था. उन में सम्मान की भावना जाग चुकी थी और वे जान चुकी थीं कि उन का और उन की लड़कियों का फायदा किस के साथ रहने में है. लिहाजा, उन्होंने घर जाने से इनकार कर दिया.

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‘‘इस से उन के पति की मर्दानगी को गहरी ठेस लगी और वे अपने अकेलेपन को मिटाने के लिए शराबी बन गए और रेलवे अस्पताल के एक सूदखोर काले खां से उधार पैसा ले कर वे शराब पीने लगे.

‘‘यह सब जानकी की मां से देखा न गया. पति की घर वापसी हुई, पर वे उन की लत न छुड़ा सकीं.

‘‘नशे की हालत में जानकी के पिता अपनी पत्नी को कोसते हैं, तो वे भी ईंट का जवाब पत्थर से देती हैं. बेटियां अपने मांबाप में बीचबचाव करती हैं. कालोनी वाले तमाशे का मुफ्त मजा लेते हैं.

‘‘ऐसे माहौल में जानकी की मां का जिंदगी बिताना क्या आप के दिल में हमदर्दी पैदा नहीं करता मिसेज दीक्षित? अगर कोई कीचड़ से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है, तो क्या हमें अपना हाथ बढ़ा कर उसे बाहर नहीं निकालना चाहिए?’’

मिसेज दीक्षित भरे गले से बोलीं, ‘‘सौरी सर.’’

Serial Story- और तो सब ठीकठाक है: भाग 1

चौधरी जगत नारायण राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी थे. सामने वाले को कैसे पटखनी देनी है और कैसे अपना उल्लू सीधा करना है, वह भलीभांति जानते थे. इसीलिए तो वह भ्रष्टाचार में लिप्त हो कर हजारों डकार जाते, किसी को खबर तक न होती.

दरबार जमा हुआ था. सबकुछ निश्चित कर लिया गया था. अब किसी को कोई परेशानी नहीं थी. पंडित गिरधारीलाल की समस्या का समाधान हो चुका था. रजब मियां के चेहरे पर भी संतुष्टि के भाव थे.

हां, कल्लू का मिजाज अभी ठीक नहीं हुआ था. उस ने भरे दरबार में चौधरी साहब की शान में गुस्ताखी की थी. नरेंद्र तो आपे से बाहर भी हो गया था, किंतु चौधरी साहब ने सब संभाल लिया था.

चौधरी जगतनारायण खेलेखाए घाघ आदमी थे. जानते थे कि वक्त पर खोटा सिक्का भी काम आ जाता है. फिर दूध देने वाली गाय की तो लात भी सही जाती है. उन्होंने बड़ी मीठी धमकी देते हुए कल्लू को समझाया था, ‘‘कल्लू भाई, थूक दो गुस्सा. धंधे में क्रोध से काम नहीं चलता. हम तो तुम्हारे ग्राहक हैं. ग्राहक से गुस्सा करना तो व्यवसाय के नियमों में नहीं आता.’’

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‘‘लेकिन चौधरी साहब, मैं अपने इलाके का शेर हूं, कुत्ता नहीं. कोई दूसरा गीदड़ मेरी हद में आ कर मेरा हक छीने, यह मुझे बरदाश्त नहीं होगा. वह रशीद का बच्चा, उस का तो मैं पोस्टमार्टम कर ही दूंगा.’’

‘‘कल्लू के मुंह से कौर छीनना इतना आसान तो नहीं है, जितना आप लोगों ने समझ लिया है. आज का फैसला आप के हाथ में है. लेकिन आगे का फैसला मैं अपनी मरजी से लिखूंगा. और हां, यह भी आप लोगों को बता दूं कि अपना आदमी जब बागी हो जाता है तो कहीं का नहीं छोड़ता.’’

‘‘तू क्या कर लेगा? तीन कौड़ी का आदमी. जानता नहीं जुम्मन की लंबी जबान काट कर फेंक दी थी. हरिशंकर आज भी जेल की चक्की पीस रहा है. कृपाराम मतवाला कुत्ते की मौत मरा था. आखिर, तू समझता क्या है अपनेआप को? चिड़ीमार कहीं का.

‘‘दोचार चूहे इधरउधर मार लिए तो बड़ा भेडि़या समझने लगा है अपनेआप को. सुन, हम राजनीति करते हैं. कोई भाड़ नहीं झोेंकते. तुझ जैसे तीन सौ पैंसठ घूमते हैं झाडू लगाते हुए. चल फूट यहां से,’’ नरेंद्र ने एक फूहड़ सी गाली बकी.

चौधरी साहब ने उसे रोक दिया, ‘‘नहीं नरेंद्र, कहने दो उसे, जो वह कहना चाहता है. उसे भी अपनी बात कहने का हक है. भई, देश में लोकतंत्र है. लोकतंत्र के तहत किसी को उचितअनुचित कुछ भी कहने से रोका नहीं जा सकता. बोलने दो इसे. यह समाजवाद का जमाना है. इसे कुछ गलत लगा है. इसे अपने दर्द को कहने का पूरापूरा हक है. फिर यह हमारा आदमी है. यह हमारे लिए कुछ भी सोचे, हम इस का बुरा नहीं सोच सकते.’’

‘‘हां, हरीश. तुम ध्यान रखना कल्लू भाई का. इसे जब भी कोई जरूरत हो तो उसे पूरी करना. इस समय इसे गुस्सा है. जब यह शांत हो जाएगा तो समझ जाएगा कि कौन अपना है, कौन पराया,’’ चौधरी साहब गांधीवादी मुद्रा में बुद्धआसन लगाए हुए थे.

लेकिन कल्लू एकदम चिकना घड़ा था. वह अपनी हैसियत जानता था. वह यह भी जानता था कि चौधरी साहब के बिना उस का गुजारा नहीं और यह भी मानता था कि अपनेआप को अधिक सस्ता और सुगम बनाने से इनसान की औकात घटती है.

अब चौधरी साहब का दबदबा था. जिस का दबदबा हो उसी के साथ रहने में लाभ था. फिर कल्लू तेजी से घूम कर बाहर निकल गया.

इधर नरेंद्र चौधरी साहब को राजनीति समझा रहा था, ‘‘आप ने बहुत मुंह लगा रखा है उस घटिया आदमी को. उसे न तो बोलने का शऊर है, न ही उठनेबैठने की तमीज. उस दिन धर्मदास को ही दरवाजे पर धक्का मार दिया और फिर पिस्तौल भी निकाल ली. वह तो अच्छा हुआ कि मनोहरलालजी आ गए और बात संभल गई. नहीं तो गजब हो जाता.’’

‘‘अरे, कुछ भी गजब नहीं होता. इंदिरा गांधी को गोली मार दी गई तो मारने वालों पर कौन सा गजब टूट पड़ा? वही अदालत- कचहरी के चक्कर, वकीलों की तहरीरें, न्यायविदों की दलीलें. मुलजिम आनंद करते रहे. उन की रक्षा और देखभाल पर लाखों रुपया पानी की तरह बहाया जाता रहा. अब उच्चतम न्यायालय ने उन में से एक को बरी भी कर दिया है. बाकी को फांसी पर लटका दिया जाएगा. इस से क्या होगा? क्या पंजाब में अब शांति है.

‘‘जुलियस रिबेरो को पद्मश्री से अलंकृत कर दिया गया तो क्या उन की राइफलों में नई गोलियां आ गईं? पंजाब सरकार बरखास्त हो गई तो क्या आतंकवाद दब गया. सबकुछ वैसा ही चल रहा है.

‘‘राजनीति की शतरंज की चालें चली जाती रहेंगी और घाघ मुहरों के घर बदलते रहेंगे, पर मुहरे वही रहेंगे. धर्मनिरपेक्ष समाजवाद, लोकतंत्रीय संविधान, बीस सूत्री कार्यक्रम सब अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन हम भी अपनी जगह ठीक हैं.

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‘‘कल्लू भाई की अपनी राजनीति है, अपना पैंतरा है, लेकिन वह हमारे लिए काम का आदमी है. बड़ा जीवट वाला आदमी है. देखो, उस दिन कालीप्रसाद को बुलाने भेजा तो उसे गिरेबान पकड़ कर घसीटता हुआ ले आया. कालीप्रसाद जैसे धाकड़ और झगड़ालू आदमी के गिरेबान पर हाथ डालना कोई हंसीखेल नहीं है, नरेंद्र.’’

चौधरी साहब आ गए नेताओं वाली भाषण मुद्रा में. लेकिन तभी चपरासी बुद्धा अंदर आया. बोला, ‘‘साहब, दिल्लीपुरा के ठाकुर लोग आए हैं.’’

चौधरी साहब ने उन्हें अंदर भेजने का संकेत किया. कीमती खादी के कपड़ों में झकाझक तड़कभड़क के साथ 5 विशिष्ट व्यक्तियों ने प्रवेश किया.

चौधरी साहब का इशारा समझ कर सभी साथी बाहर खिसक गए. कुछ देर तक कुशलक्षेम चलता रहा.

‘‘साहब, वह आप का पुलिसिया कुत्ता था, अब वह कैसा है?’’

‘‘अरे भाई, किस पुलिसिए कुत्ते की बात कर रहे हो. उस के बाद तो मैं 7 कुत्ते बदल चुका.’’

अभ्यागतों में रमन नामक सदस्य भी था. वह सोचने लगा, ‘कुत्ते नहीं हुए, चप्पलें हो गईं. 1 साल में 7 कुत्ते बदल डाले.’

उधर चौधरी साहब पूछताछ करने लगे, ‘‘हरदयालजी, वह आप के भतीजे की बहू का कुछ चक्कर था… मामला सिमट गया कि नहीं?’’

‘‘नहीं, साहब. उस में कुछ गड़बड़ हो गई. हम समझे थे कि बलात्कार का मामला दर्ज कराएंगे. बहू पढ़ीलिखी है. साहस के साथ कह देगी कि दुर्गा ने उस के साथ जबरदस्ती की.

‘‘लेकिन बहू पहले दिन ही अदालत में घबरा गई और रोने लगी. वकीलों ने जिरह कर उसे और भी बौखला दिया. फिर बाद में कुछ मामला बना भी तो गवाह बिक चुके थे.

‘‘मुरली बाबू ने कुछ टुकड़े फेंक कर उन्हें खरीद लिया, लेकिन चौधरी साहब, एक बाजी जिच भी हो गई तो क्या अगली मात तो हम ही देंगे.’’

‘‘वह कैसे?’’ चौधरी साहब ने दोनों पैर सोफे पर खींच लिए. तभी अवधनारायण ने उठ कर उन की धोती ठीक कर दी.

हरदयाल अपना नक्शा समझाने लगे, ‘‘ ‘अपनी धरती’ अखबार का संपादक है न, शंभूप्रसाद. वह अपना यार है. कुछ मामला उस से बना है. उसी के आदमियों ने कुछ तसवीरें खींची हैं. गुलजार रेस्तरां में शराब पीते हुए, मालतीमाधवी के साथ रंगरलियां मनाते हुए, मार्क्सवादी नेता अर्जुनकुमार के साथ शतरंज खेलते हुए. बस, उन्हीं सब तसवीरों के आधार पर एक कहानी बन गई. यही फिल्म उस की असलियत खोल कर रख देगी.’’

ठोकर: क्या इश्क में अंधी लाली खुद को संभाल पाई

सतपाल गहरी नींद में सोया हुआ था. उस की पत्नी उर्मिला ने उसे जगाने की कोशिश की. वह इतनी ऊंची आवाज में बोली थी कि साथ में सोया उस का 5 साला बेटा जंबू भी जाग गया था. वह डरी निगाहों से मां को देखने लगा था. ‘‘क्या हो गया? रात को तो चैन से सोने दिया करो. क्यों जगाया मुझे?’’ सतपाल उखड़ी आवाज में उर्मिला पर बरस पड़ा.

‘‘बाहर गेट पर कोई खड़ा है. जोरजोर से डोर बैल बजा रहा है. पता नहीं, इतनी रात को कौन आ गया है? मुझे तो डर लग रहा है,’’ उर्मिला ने घबराई आवाज में बताया. ‘‘अरे, इस में डरने की क्या बात है? गेट खोल कर देख लो. तुम सतपाल की घरवाली हो. हमारे नाम से तो बड़ेबड़े भूतप्रेत भाग जाते हैं.’’

‘‘तुम ही जा कर देखो. मुझे तो डर लग रहा है. पता नहीं, कोई चोरडाकू न आ गया हो. तुम भी हाथ में तलवार ले कर जाना,’’ उर्मिला ने सहमी आवाज में सलाह दी. सतपाल ने चारपाई छोड़ दी. उस ने एक डंडा उठाया. गेट के करीब पहुंच कर उस ने गेट के ऊपर से झांक कर देखा, तो कांप उठा. बाहर उस की छोटी बहन खड़ी सिसक रही थी.

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सतपाल ने हैरानी भरे लहजे में पूछा, ‘‘अरे लाली, तू? घर में तो सब ठीक है न?’’

लाली कुछ नहीं बोल पाई. बस, गहरीगहरी हिचकियां ले कर रोने लगी. सतपाल ने देखा कि लाली के चेहरे पर मारपीट के निशान थे. सिर के बाल बिखरे हुए थे.

सतपाल लाली को बैडरूम में ले आया. वह बारबार लाली से पूछने की कोशिश कर रहा था कि ऐसा क्या हुआ कि उसे आधी रात को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा? उर्मिला ने बुरा सा मुंह बनाया और पैर पटकते हुए दूसरे कमरे में चली गई. उसे लाली के प्रति जरा भी हमदर्दी नहीं थी.

लाली की शादी आज से 10 साल पहले इसी शहर में हुई थी. तब उस के मम्मीपापा जिंदा थे. लाली का पति दुकानदार था. काम अच्छा चल रहा था. घर में लाली की सास थी, 2 ननदें भी थीं. उन की शादी हो चुकी थी. लाली के पति अजय ने उसे पहली रात को साफसाफ शब्दों में समझा दिया था कि उस की मां बीमार रहती हैं. उन के प्रति बरती गई लापरवाही को वह सहन नहीं करेगा.

लाली ने पति के सामने तो हामी भर दी थी, मगर अमल में नहीं लाई. कुछ दिनों बाद अजय ने सतपाल के सामने शिकायत की.

जब सतपाल ने लाली से बात की, तो वह बुरी तरह भड़क उठी. उस ने तो अजय की शिकायत को पूरी तरह नकार दिया. उलटे अजय पर ही नामर्दी का आरोप लगा दिया.

अजय ने अपने ऊपर नामर्द होने का आरोप सुना, तो वह सतपाल के साथ डाक्टर के पास पहुंचा. अपनी डाक्टरी जांच करा कर रिपोर्ट उस के सामने रखी, तो सतपाल को लाली पर बेहद गुस्सा आया. उस ने डांटडपट कर लाली को ससुराल भेज दिया. लाली ससुराल तो आ गई, मगर उस ने पति और सास की अनदेखी जारी रखी. उस ने अपनी जिम्मेदारियों को महसूस नहीं किया. अपने दोस्तों के साथ मोबाइल पर बातें करना जारी रखा.

आखिरकार जब अजय को दुकान बंद कर के अपनी मां की देखभाल के लिए घर पर रहने को मजबूर होना पड़ा, तब उस ने अपनी आंखों से देखा कि लाली कितनी देर तक मोबाइल फोन पर न जाने किसकिस से बातें करती थी. एक दिन अजय ने लाली से पूछ ही लिया कि वह इतनी देर से किस से बातें कर रही थी?

पहले तो लाली कुछ भी बताने को तैयार नहीं हुई, पर जब अजय गुस्से से भर उठा, तो लाली ने अपने भाई सतपाल का नाम ले लिया. उस समय तो अजय खामोश हो गया, क्योंकि उसे मां को अस्पताल ले जाना था. जब वह टैक्सी से अस्पताल की तरफ जा रहा था, तब उस ने सतपाल से पूछा, तो उस ने इनकार कर दिया कि उस के पास लाली का कोई फोन नहीं आया था.

अजय 2 घंटे बाद वापस घर में आया, तो लाली को मोबाइल फोन पर खिलखिला कर बातें करते देख बुरी तरह सुलग उठा था. उस ने तेजी से लपक कर लाली के हाथ से मोबाइल छीन कर 4-5 घूंसे जमा दिए. लाली चीखतीचिल्लाती पासपड़ोस की औरतों को अपनी मदद के लिए बुलाने को घर से बाहर निकल आई.

अजय ने उसी नंबर पर फोन मिलाया, जिस पर लाली बात कर रही थी. दूसरी तरफ से किसी अनजान मर्द की आवाज उभरी. अजय की आवाज सुनते ही दूसरी तरफ से कनैक्शन कट गया.

अजय ने दोबारा नंबर मिला कर पूछने की कोशिश की, तो दूसरी तरफ से मोबाइल स्विच औफ हो गया. अजय ने लाली से पूछा, तो उस ने भी सही जवाब नहीं दिया.

अजय का गुस्से से भरा चेहरा भयानक होने लगा. उस के जबड़े भिंचने लगे. वह ऐसी आशिकमिजाजी कतई सहन नहीं करेगा. लाली घबरा उठी. उसे लगा कि अगर वह अजय के सामने रही और किसी दोस्त का फोन आ गया, तो यकीनन उस की खैरियत नहीं. उस ने उसी समय जरूरी सामान से अपना बैग भरा और अपने मायके आ गई.

लाली ने घर आ कर अजय और उस की मां पर तरहतरह के आरोप लगा कर ससुराल जाने से मना कर दिया. कई महीनों तक वह अपने मायके में ही रही. अजय भी उसे लेने नहीं आया. इसी तनातनी में एक साल गुजर गया. आखिरकार अजय ही लाली को लेने आया. उस ने शर्त रखी कि लाली को मन लगा कर घर का काम करना होगा. वह पराए मर्दों से मोबाइल फोन पर बेवजह बातें नहीं करेगी.

सतपाल ने बहुत समझाया, मगर लाली नहीं मानी. लाली का तलाक हो गया. सतपाल ने उस के लिए 2 लड़के देखे, मगर वे उसे पसंद नहीं आए.

दरअसल, लाली ने शराब का एक ठेकेदार पसंद कर रखा था. उस का शहर की 4-5 दुकानों में हिस्सा था. वह शहर का बदनाम अपराधी था, मगर लाली को पसंद था. काफी अरसे से लाली का उस ठेकेदार जोरावर से इश्क चल रहा था. जोरावर सतपाल को भी पसंद नहीं था, मगर इश्क में अंधी लाली की जिद के सामने वह मजबूर था. उस की शादी जोरावर से करा दी गई.

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जोरावर शराब के कारोबार में केवल 10 पैसे का हिस्सेदार था, बाकी 90 पैसे दूसरे हिस्सेदारों के थे. उस की कमाई लाखों में नहीं हजारों रुपए में थी. वह जुआ खेलने और शराब पीने का शौकीन था. वह लाली को खुला खर्चा नहीं दे पाता था. अब तो लाली को पेट भरने के भी लाले पड़ गए. उस ने जोरावर से अपने खर्च की मांग रखी, तो उस ने जिस्म

बेच कर पैसा कमाने का रास्ता दिखाया. लाली ने मना किया, तो जोरावर ने घर में ही शराब बेचने का रास्ता सुझा दिया. अब लाली करती भी क्या. अपना मायका भी उस ने गंवा लिया था. जाती भी कहां? उस ने शराब बेचने का धंधा शुरू कर दिया. उस का जवान गदराया बदन देख कर मनचले शराब खरीदने लाली के पास आने लगे. उस का कारोबार अच्छा चल निकला.

जोरावर को लगा कि लाली खूब माल कमा रही है, तो उस ने अपना हिस्सा मांगना शुरू कर दिया. लाली ने पैसा देने से इनकार कर दिया. उस रात दोनों में झगड़ा हुआ. लाली जमा किए तमाम रुपए एक पुराने बैग में भर कर घर से भाग निकली. जोरावर ने देख लिया था. वह भी पीछेपीछे तलवार हाथ में लिए भागा. वह किसी भी सूरत में लाली से रुपए लेना चाहता था.

जोरावर नशे में था. उस के हाथों में तलवार चमक रही थी. वह उस की हत्या कर के भी सारा रुपया हासिल करना चाहता था. लाली बदहवास सी भागती हुई सड़क पर आ गई. उस ने पीछे मुड़ कर देखा, तो जोरावर तलवार लिए उस की तरफ भाग रहा था. उस ने बचतेबचाते सड़क पार कर ली.

लेकिन जब जोरावर सड़क पार करने लगा, तो वह किसी बड़ी गाड़ी की चपेट में आ गया और मारा गया. रात के 3 बज रहे थे. किसी ने भी जोरावर की लाश की तरफ ध्यान तक नहीं दिया.

सतपाल के यहां आ कर लाली ने रोतेसिसकते अपनी दुखभरी दास्तान सुनाई, तो सतपाल की भी आंखें भर आईं. मगर उसी पल उस ने अपनी बहन की गलतियां गिनाईं, जिन की वजह से उस की यह हालत हुई थी. ‘‘हां भैया, अजय का कोई कुसूर नहीं है. मैं ने ही अपनी गलतियों की सजा पाई है. अजय ने तो हर बार मुझे समझाने, सही रास्ते पर लाने की कोशिश की थी, इसलिए अब भी मैं अजय के पास ही जाना चाहती हूं,’’ लाली ने इच्छा जाहिर की.

‘‘अब तुझे वह किसी भी हालत में नहीं अपनाएगा. उस ने तो दूसरी शादी भी कर ली होगी,’’ सतपाल ने अंदाजा लगाया. ‘‘बेशक, उस ने शादी कर ली हो. उस के घर में नौकरानी बन कर रह लूंगी. मुझे अजय के घर जाना है, वरना मैं खुदकुशी कर लूंगी,’’ लाली ने अपना फैसला सुना दिया.

सतपाल बोला, ‘‘ठीक है लाली, पहले तू 4-5 दिन यहीं आराम कर.’’ एक हफ्ते बाद सतपाल ने लाली

को मोटरसाइकिल पर बैठाया और दोनों अजय के घर की तरफ चल दिए. अजय घर पर अकेला ही सुबह का नाश्ता तैयार कर रहा था. सुबहसवेरे लाली को अपने भाई सतपाल के साथ आया देख वह बुरी तरह भड़क उठा.

दोनों को धक्के मार कर घर से बाहर निकालते हुए अजय ने कहा, ‘‘अब तुम लोग मेरे जख्मों पर नमक छिड़कने आए हो. चले जाओ यहां से. अब तो मेरी मां भी मर चुकी है. मेरी पत्नी तो बहुत पहले मर चुकी थी. अब मेरा कोई नहीं है.’’

सतपाल ने लाली को घर चलने को कहा, तो वह वहीं पर रहने के लिए अड़ गई. सतपाल अकेला ही घर चला गया. लाली सारा दिन भूखीप्यासी वहीं पर खड़ी रही. रात को अजय वापस आया. लाली को खड़ा देख वह बेरुखी से बोला, ‘‘अब यहां खड़े रहने का कोई फायदा नहीं है.’’

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‘‘अजय, मैं ने तो अपनी गलतियों को पहचाना है और मैं तुम्हारी सेवा करने का मौका एक और चाहती हूं.’’ मगर अजय ने उस की तरफ ध्यान नहीं दिया और घर का दरवाजा बंद कर लिया. अगली सुबह अजय ने दरवाजा खोला, तो लाली को बाहर बीमार हालत में देख चौंक उठा. वह बुरी तरह कांप रही थी. वह उसे तुरंत डाक्टर के पास ले गया. बीमार लाली को देख कर अजय को लगा कि ठोकर खा कर लाली सुधर गई है, इसलिए उस ने उसे माफ कर दिया.

उड़ान: क्या था जाहिदा का फैसला

आज फिर जाहिदा को देखने आया लड़का शकील मुंह बना कर बाहर निकल गया. उस के साथ आए उस के मांबाप ने घर लौट कर लड़की पसंद नहीं आने का जवाब भिजवा दिया.

पिछले तकरीबन 5-6 सालों से यही सिलसिला चल रहा था. इस बीच 17 लड़के वालों ने जाहिदा पर ‘नापसंद’ की मुहर लगा दी थी.

लेकिन आज तो जाहिदा का सब्र जवाब दे गया. लड़के वालों के घर से बाहर निकलते ही वह भाग कर अपने कमरे में बिस्तर पर पड़ी कई घंटों तक रोती रही.

जाहिदा की बेवा मां शरीफन उस के लिए काबिल दूल्हा ढूंढ़ढूंढ़ कर थक गई थीं. जो भी लड़का आता जाहिदा का सांवला रंग देख कर उलटे पैर लौट जाता. नौबत यहां तक आ गई थी कि 10वीं जमात फेल और आटोरिकशा चलाने वाले लड़कों तक ने उस से शादी करने से इनकार कर दिया था.

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साइकिल रिपेयर करने की दुकान से परिवार पालने वाले जाहिदा के अब्बा नासिर खां की मौत के बाद बेवा हुई शरीफन ने बामुश्किल अपनी 3 बेटियों को पालपोस कर बड़ा किया था. उन्होंने सिलाईकढ़ाई कर के जैसेतैसे 2 बेटियों अंजुम और जरीना की शादी भी की लेकिन सब से बड़ी बेटी जाहिदा का रिश्ता तय करने में उन्हें बहुत मुश्किलें आ रही थीं. उस का सांवला रंग हमेशा रिश्ता होने में आड़े आ जाता था.

हर बार नापसंद किए जाने के बाद जाहिदा को गहरा सदमा लगता और वह घंटों तक रोती रहती.

जाहिदा बचपन से ही पढ़नेलिखने में काफी होशियार थी. उस ने 10वीं जमात से ले कर बीएससी तक का इम्तिहान फर्स्ट डिविजन में पास किया था. उस की अम्मी शरीफन मामूली पढ़ीलिखी घरेलू औरत थीं. लेकिन वक्त की ठोकरों ने उन्हें मजबूत बना दिया था. गुजरे सालों में जाहिदा के रिश्ते में आ रही दिक्कतों की वजह से वे हमेशा फिक्र में डूबी रहती थीं.

कमरे से बेटी जाहिदा की सिसकियों की आ रही आवाज सुन कर शरीफन उस की फूटी किस्मत को कोस रही थीं.

तभी थोड़ी देर बाद अचानक कमरे से जाहिरा की आवाज सुनाई दी, ‘‘अम्मी, इधर आओ. मुझे आप से कुछ बात करनी है.’’

कमरे में झाड़ू लगाती अम्मी ने पूछा, ‘‘अरी बेटी, क्या बात है? थोड़ा रुक, मैं झाड़ू लगा कर आती हूं तेरे पास.’’

बहुत देर तक अम्मी को आते नहीं देख जाहिदा कमरे से धीरेधीरे चल कर उन के सामने आ कर खड़ी हो गई. बड़ी देर तक रोते रहने से उस की आंखें सूजी हुई थीं.

जाहिदा कहने लगी, ‘‘अम्मी, मैं ने फैसला कर लिया है कि मैं तब तक शादी नहीं करूंगी जब तक मैं कोई बड़ा मुकाम हासिल न कर लूं.

‘‘मैं समाज को कुछ बन कर दिखाना चाहती हूं ताकि दकियानूसी सोच में जकड़ी इस कौम को पता चले कि तन की खूबसूरती के सामने काबिलीयत और मन की खूबसूरती में क्या फर्क है…’’

जाहिदा बोले जा रही थी, ‘‘अम्मी, लोग किसी इनसान के सांवले रंग पर उस को बेइज्जत क्यों करते हैं? क्या गोरा रंग होने से ही लड़की में सभी खूबियां आ जाती हैं?’’

फिर आखिर में जाहिरा ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘सुनो अम्मी, अब आप मेरे लिए रिश्ते देखना बंद कर दें. अब मेरी जिंदगी का एक ही मकसद है कि मुझे सरकारी अफसर बन कर दिखाना है. इस की तैयारी के लिए मुझे दिल्ली पढ़ाई करने जाना पड़ेगा.’’

अपने सामने खड़ी बेटी के इस फैसले से परेशान शरीफन ने कहा, ‘‘लेकिन बेटी, तू सोच तो सही कि आखिर मैं इतनी महंगी पढ़ाई के लिए इतने सारे पैसे कहां से लाऊंगी?’’

10-15 दिन तो पैसों के जुगाड़ की उधेड़बुन में गुजर गए लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. एक दिन अचानक जयपुर सचिवालय में सैक्शन अफसर के पद पर काम कर रहे शरीफन के छोटे भाई शहजाद अली मिलने आए.

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शरीफन ने भाई को जाहिदा के फैसले के बारे में बताते हुए उन से मदद करने की गुजारिश की.

भानजी के बुलंद इरादों और लगन की बातें सुन कर शहजाद ने बहन से फौरन कहा, ‘‘आप बिलकुल बेफिक्र हो जाओ. जाहिदा बेटी की पढ़ाई की जिम्मेदारी अब उस के मामा की है. मैं सब संभाल लूंगा. देखना हमारा बेटी हमारे खानदान का नाम रोशन करेगी.’’

इस बीच 5 साल गुजर गए. एक दिन दोपहर बाद शरीफन के घर के सामने लालबत्ती लगी 2 कारों के साथ पुलिस और कई सरकारी जीपें आ कर रुकीं. पहली कार से एक गोराचिट्टा नौजवान उतर कर आगे आया और उस ने झुक कर शरीफन के पैर छू कर नमस्कार किया. तभी पिछली कार से उतर कर जाहिदा ने शरीफन को गले लगा लिया.

जाहिदा बोली, ‘‘अम्मी देखो, आप की बेटी एसडीएम बन गई है. मैं ने अपना मुकाम हासिल कर लिया है. लेकिन अभी मेरी उड़ान बाकी हैं.

‘‘अम्मी, ये हैं आप के दामाद सुरेश. ये यहां के जिला समाज कल्याण अधिकारी हैं,’’ जाहिदा ने पास खड़े अपने पति सुरेश का परिचय कराते हुए कहा.

थोड़ी देर रुक कर जाहिदा ने कहा, ‘‘अम्मी, अभी हमें पास के गांव में दौरे पर जाना है. इजाजत दें. बाद में वक्त निकाल कर मिलने आएंगे.’’

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शरीफन दूर जाती गाडि़यों के काफिले को बड़ी देर तक खड़ी देखती रहीं. अपनी बेटी की कामयाबी देख उन की आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े.

एक इंजीनियर की मौत: कैसे हुआ ये हादसा

महज 70-80 घरों वाले उस छोटे से गांव के छोटे से घर में मातम पसरा हुआ था. गिनती के कुछ लोग मातमपुरसी के लिए आए हुए थे. 28 साल की जवान मौत के लिए दिलासा देने के लिए लोगों के पास शब्द नहीं थे. मां फूटफूट कर रो रही थी. जब वह थक जाती तो यही फूटना सिसकियों में बदल जाता. बाप के आंसू सूख चुके थे और वह आसमान में एकटक देखे जा रहा था. ज्यादा लोग नहीं थे. वैसे भी गरीब के यहां कौन जाता है.

‘‘पर, विजय ने खुदकुशी क्यों की?’’ एक आदमी ने पूछा.

‘‘पता नहीं… उस ने 3 साल पहले इंजीनियरिंग पास की थी. नौकरी नहीं मिली शायद इसीलिए,’’ पिता ने जैसेतैसे जवाब दिया.

‘‘सुरेश, तुम तो उस के बचपन के दोस्त हो. तुम से तो वह अपने दिल की हर बात कहता था. क्या तुम वजह जानते हो?’’ उस आदमी ने पास खड़े नौजवान से पूछा जो चुपचाप अपने दोस्त की मौत पर आंसू बहा रहा था.

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‘‘चाचा, इस सिस्टम, इन सरकारों ने जो सपने दिखाने के कारखाने खोले हैं यह मौत उसी का नतीजा है.

‘‘आप को याद होगा कि 10 साल पहले जब विजय ने इंटर पास की थी, तब वह इस गांव का पहला लड़का था जो 70 फीसदी अंक लाया था. सारा गांव कितना खुश था.

‘‘गांव के टीचरों ने भी अपनी मेहनत पर पहली बार फख्र महसूस करते हुए उसे इंजीनियरिंग करने की सलाह दी थी. तब क्या पता था कुकुरमुत्ते की तरह खुले ये कालेज भविष्य नहीं सपने बेच रहे हैं.

‘‘यह तो आप लोग भी जानते हैं कि विजय के परिवार के पास 8 एकड़ जमीन ही थी. दाखिले के समय विजय के पिताजी ने अपनी बरसों की जमापूंजी लगा दी. उस के अगले साल भी जैसेतैसे जुगाड़ हो ही गया. पर आखिरी 2 साल के लिए उन्हें अपनी 2 एकड़ जमीन भी बेचनी पड़ी.

‘‘सभी को यह उम्मीद थी कि इंजीनियरिंग होते ही 4-6 महीने में विजय की नौकरी लग जाएगी. कालेज भी नामीगिरामी है और कैंपस सिलैक्शन के लिए भी कई कंपनियां आती हैं. कहीं न कहीं जुगाड़ हो ही जाएगा.

‘‘यह किसे पता था कि आने वाली सभी कंपनियां प्रायोजित होती हैं और उन्हीं छात्रों को चुनती हैं जिन का नाम कालेज प्रशासन देता है.

‘‘कालेज प्रशासन भी उन्हीं छात्रों के नाम देता है जो उन के टीचरों से कालेज टाइम के बाद कोचिंग लेते हैं.

‘‘विजय अपने घर के हालात को बखूबी जानता था. वह फीस ही मुश्किल से भर पाता था, ऐसे में कोचिंग लेना उस के लिए मुमकिन नहीं था. ऊपर से दिक्कत यह कि उस के पास होने के एक साल पहले से उन प्रायोजित कंपनियों ने भी आना बंद कर दिया था. शायद दूसरे कालेज वालों ने ज्यादा पैसे दे कर उन्हें बुलवा लिया था.

‘‘इतने सारे इंजीनियरों के इम्तिहान पास करने के बाद सरकार के खुद के पास नौकरी के मौके नहीं थे. विजय को अपने लैवल की नौकरी मिलती कैसे?

‘‘पिछले 3 सालों से उस क्षेत्र की कोई कंपनी नहीं बची थी जहां पर विजय ने नौकरी के लिए अर्जी न दी हो. अब तो हालत यह हो गई थी कि उन कंपनियों के सिक्योरिटी गार्ड और चपरासी भी उसे पहचानने लगे थे. दूर से ही उसे देख कर वे हाथ जोड़ कर मना कर दिया करते थे.

‘‘एक दिन एक साधारण सी फैक्टरी का सिक्योरिटी गार्ड गेट पर नहीं था तो विजय मौका देख कर उस के औफिस में घुस गया और वहां बैठे उस के मालिक को अर्जी देते हुए नौकरी की गुजारिश करने लगा.

‘‘तब उस के मालिक ने कहा, ‘मेरी फैक्टरी में इंजीनियर, सुपरवाइजर, मैनेजर सबकुछ वर्कर ही है जो 50 किलो की बोरियां अपने कंधों पर उठता भी है, 200 किलो का बैरल धकाता भी है और प्रोडक्शन के लिए मशीनों को औपरेट भी करता है. शायद तुम अपनी डिगरी के चलते ये सब काम न कर पाओ.

मैं तो सरकार को सलाह दूंगा कि वह इंजीनियर बनाने के बजाय मल्टीपर्पज वर्कर बनाने के लिए इंस्टीट्यूट खोले. यह देश के फायदे में होगा.’

‘‘कारखानों, कंपनियों और सरकारी महकमों में चपरासी तक की नौकरी न मिलते देख विजय ने टीचर बनने की सोची. पर मुसीबतों ने उस का साथ यहां भी नहीं छोड़ा. सरकारी स्कूलों में उसे अर्जी देने की पात्रता नहीं थी. प्राइवेट स्कूलों में जब इंटरव्यू के लिए वह गया तो सभी इस बात से डरे हुए थे कि जब उसे अपनी फील्ड की नौकरी मिलेगी तो वह स्कूल की नौकरी बीच में ही छोड़ देगा और स्कूल के बच्चों का भविष्य अधर में लटक जाएगा.

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‘‘गांव के रीतिरिवाजों के मुताबिक, विजय की शादी भी उस के इंजीनियरिंग में दाखिला लेते ही तय कर दी गई थी. लड़की पास ही के गांव की थी. विजय जब भी गांव आता तो उस से मिलने जरूर जाता था.

‘‘विजय के इंजीनियर बनने के साथ ही उस ने भी अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर ली थी. पर पिछले 3 सालों से विजय का कुछ होता न देख कर लड़की के घर वालों ने कहीं और शादी करने का फैसला ले लिया.

‘‘उस लड़की ने भी विजय को यह कहते हुए छोड़ दिया था कि वह जानबूझ कर जद्दोजेहद की दुनिया में नहीं जा सकती.

‘‘उस लड़की ने कहा था, ‘याद करो विजय, हम ने सुखद भविष्य के जो भी सपने देखे हैं उन में कोई संघर्ष नहीं है तो मैं अब कैसे संघर्षों को चुन सकती हूं? मैं आंखों देखी मक्खी नहीं निगल सकती.’

‘‘विजय गांव वापस आ कर खेती इसलिए भी नहीं कर सकता था, क्योंकि 2 एकड़ खेती बिकने का कुसूरवार वह अपनेआप को मानता था. वैसे भी बची हुई 6 एकड़ खेती से 3 लोगों का खर्चा निकलना मुश्किल ही था. विजय चाहता था अगर वह परिवार की कुछ मदद न कर सके तो कोई बात नहीं, पर कम से कम परिवार के लिए बोझ न बने.

‘‘मैं उसे फोन लगा कर रोज बातें किया करता था ताकि उस की हिम्मत बनी रहे. पर पिछले 15 दिनों से हालात बहुत खराब हो गए थे. जिन लोगों के साथ वह रूम शेयर कर के रहता था उन्होंने 6 महीने से पैसा न दे पाने के चलते रूम से निकाल दिया था. मैं हजार 5 सौ रुपए की मदद जरूर करता था पर वह मदद पूरी नहीं पड़ती थी.

‘‘पेट भरने के लिए वह अकसर रात में सब्जी मंडी बंद होने के बाद चला जाता था और विक्रेताओं द्वारा फेंकी गई सड़ी हुई सब्जियों और फलों के अच्छे हिस्से निकाल कर खा लेता था.

‘‘लेकिन परसों हुई घटना ने न सिर्फ उस की उम्मीदों को तोड़ दिया था, बल्कि तथाकथित इनसानियत पर से भी उस का थोथा विश्वास हमेशा के लिए उठ गया था.

‘‘रूममेट्स द्वारा निकाले जाने के बाद विजय अलगअलग फुटपाथों पर अपनी रातें बिताया करता था. परसों वह ऐसे ही किसी फुटपाथ के किनारे बैठा था. पिछले 2 दिनों से सड़ी हुई सब्जियों के अलावा उस ने कुछ खाया भी नहीं था.

‘‘तभी एक बड़ी सी कार में से एक अमीर औरत उतरी. उस के हाथों में कुछ रोटियां थीं. वह अपनी पैनी निगाहों से कुछ खोज रही थी. उसे सामने कुछ ही दूरी पर एक काला कुत्ता दिखाई पड़ा. शायद वह उसी को खोज रही थी. उस औरत ने उस कुत्ते को अपनी तरफ बुलाने की बहुत कोशिश की. रोटियां शायद वह उस काले कुत्ते को खिलाना चाहती थी.

‘‘कुत्ते ने उस औरत की तरफ देखा जरूर, पर आया नहीं. शायद उस का पेट भरा हुआ था. हार कर वह औरत उन रोटियों को वहीं रख वापस अपनी गाड़ी की तरफ चली गई.

‘‘जब विजय ने देखा कि कुत्ता रोटी नहीं खा रहा?है तो उस ने वह रोटी खुद के खाने के लिए उठा ली. कार में बैठते समय उस औरत ने सारा कारनामा देखा तो वह तुरंत कार में से उतर कर आई और विजय से रोटी छीनते हुए बोली, ‘यह रोटी मैं ने शनि महाराज की पूजा के लिए बनाई है और इसे काले कुत्ते के खाने से ही मेरी शनि बाधा दूर होगी, तुम जैसे आवारा के खाने से नहीं.’

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‘‘भूखा विजय कब तक सिस्टम से, समाज से और अपनी भूख से इंजीनियरिंग की डिगरी के दम पर लड़ता? आखिरकार उस ने जिंदगी से हार मान ली और पानी में डूब कर खुदकुशी कर ली.’’

मातमपुरसी के लिए आए सब लोग चुप थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि किसे कुसूरवार समझें. बिना भविष्य की योजनाएं लिए चल रही सरकारों को या पकवानों के साथ पेट भर कर एयरकंडीशंड कमरों में बैठे सपने बेचने वाले अफसरों को या उन भोलेभाले लोगों को जो इन छलावों में आ कर अपना आज तो खराब कर ही रहे हैं, भविष्य के बुरे नतीजों से भी बेखबर हैं.

Serial Story- रिश्तों से परे: भाग 1

जून का मौसम अपनी पूरी गरमाहट से स्टे्रटफोर्ड के निवासियों का स्वागत करने आ गया था. उस ने यहां पर जिन पेड़ों को बिलकुल नग्न अवस्था में देखा था, वे अब विभिन्न आकार के पत्तों से सुसज्जित हो हवा में नृत्य करने लगे थे. चैरी के पेड़ों पर फूलों के गुच्छे आने वाले को अपनी ओर आकर्षित तो कर ही रहे थे, अपनी छाया में बिठा कर विश्राम भी दे रहे थे. यह वही स्टे्रटफोर्ड है जहां महान साहित्यकार शेक्सपियर ने जन्म लिया था. अभीअभी वह शेक्सपियर के जन्मस्थान को देख कर आई थी. लकड़ी का साफसुथरा 3 मंजिल का घर, जहां आज भी शेक्सपियर पालने में झूल रहा था, आज भी वहां गुलाबी रंग की खूबसूरत शानदार मसहरी रखी हुई थी, आज भी साहित्यकार की मां का चूल्हा जल रहा था. जिस शेक्सपियर को उस ने पढ़ा था, उस को वह महसूस कर पा रही थी.

सोने में सुहागा यह कि वह उस समय वहां पहुंची थी जब शेक्सपियर का जन्मदिवस मनाया जा रहा था. नुमाइश देख कर वह उसी से संबंधित दुकान में गई. जैसे ही वह दुकाननुमा स्टोर से बाहर निकली, अपने सामने शेक्सपियर को खड़ा पाया. वही कदकाठी, वही काली डे्रस. एकदम भौचक रह गई. रूथ ने अंगरेजी में बताया था, ‘इस आदमी ने शेक्सपियर का डे्रसअप कर रखा है. जैसे आप के भारत में बहुरूपिए होते हैं…’ समझने के अंदाज में उस ने गरदन हिलाई और अन्य कई लोगों को जमीन पर पड़े हुए काले कपड़े पर पैसे डालते हुए देख कर उस ने 20 पैंस का एक सिक्का उस कपडे़ पर उछाल दिया.

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भारत से इंगलैंड आए हुए उसे कुछ माह ही हुए थे. जिस स्कूल में उसे नौकरी मिली थी, उस के कुछ अध्यापक-अध्यापिकाओं के साथ वह स्टे्रटफोर्ड आई थी, शेक्सपियर की जन्मभूमि को महसूस करने, उस की मिट्टी की सुगंध को अपने भीतर उतार लेने. इस नौकरी को पाने के लिए उसे न जाने कितने पापड़ बेलने पडे़ थे. पूरे स्कूल में एक अकेली वही ‘एशियन’ थी, सो सभी की नजर उस पर अटक जाती थी. उसे औरों से अधिक परिश्रम करना था, स्वयं को सिद्ध करने के लिए दिनरात एक करने थे. रूथ उस की सहयोगी अध्यापिका थी, जो बहुत अच्छी महिला थी, उसी के बाध्य करने पर वह यहां आई थी और सब से मेलमिलाप बढ़ाने का प्रयास कर रही थी.

चैरी के घने पेड़ के नीचे एक ऊंची मुंडेर सी बनी हुई थी. वह सब के साथ उस पर बैठ गई और सोचने लगी कि क्या हमारे तुलसीदास और कालीदास इतने समर्थ साहित्यकार नहीं थे? स्टे्रटफोर्ड के चारों ओर शेक्सपियर को महसूस करते हुए भारतीय महान साहित्यकार उस के दिमाग में हलचल पैदा करने लगे. हम क्यों अपने साहित्यकारों को इतना सम्मान नहीं दे पाते…ऐसा जीवंत एहसास इन साहित्यकारों के जन्मस्थल पर जाने से क्यों नहीं हो पाता? ‘‘प्लीज हैव दिस…’’ इन शब्दों ने उसे चौंका दिया मगर नजर उठा कर देखा तो सामने रूथ अपने हाथों में 2 बड़ी आइस्क्रीम लिए खड़ी थी.

‘‘ओह…थैंक्स….’’ उस ने अपने चारों ओर नजर दौड़ाई तो सब लोग अपनेअपने तरीके से मस्त थे. गरमी के कारण अधनंगे गोरे शरीर लाल हो उठे थे और हाथों में ठंडे पेय के डब्बे या आइस्क्रीम के कोन ले कर गरमी को कम करने का प्रयास कर रहे थे. उन के साथ के लोग अपनीअपनी रुचि के अनुसार आनंद लेने में मग्न थे. यह केवल रूथ ही थी जो लगातार उसी के साथ बनी हुई थी.

स्कूल में नौकरी मिलने के बाद हर परेशानी में रूथ उस का सहारा बनती, उसे विद्यार्थियों के बारे में बताती, कोर्स के बारे में सिखाती और पढ़ाने की योजना तैयार करने में सहायता करती. कुछेक माह में ही उसे अपनी भूल का एहसास होने लगा था. बेहतर था कि वह कहीं और नौकरी करती, किसी स्टोर में या कहीं भी पर स्कूल में…जहां के वातावरण को सह पाना उस के भारतीय मनमस्तिष्क के लिए असहनीय हो रहा था. सरकार के आदेशानुसार 10वीं तक की पढ़ाई आवश्यक थी. फीस माफ, कोई अन्य खर्चा नहीं…जब तक छठी, 7वीं तक बच्चे रहते सब सामान्य चलता पर उस के बाद उन्हें बस में करना तौबा….उस के पसीने छूटने लगे. स्कूल से घर आते ही प्रतिदिन तो वह रोती थी. आंखें लाल रहतीं. कोई न कोई ऐसी घटना अवश्य घट जाती जो उसे भीतर तक हिला कर रख देती और तब उसे अपने भारतीय होने पर अफसोस होने लगता.

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चैरी के फूल झरझर कर उस के ऊपर पड़ रहे थे, खिलते हुए सफेद- गुलाबी से फूलों को उस ने अपने कुरते पर से समेट कर पर्स में डाल लिया. रूथ उसे देख कर मुसकराने लगी थी. आज फिर स्कूल में वह पढ़ा नहीं सकी, क्योंकि जेड ठीक उस के सामने बैठ कर तरहतरह के मुंह बनाती रहती है. च्यूइंगम चबाती हुई जेड को देख कर उस का मन करता है कि एक झन्नाटेदार तमाचा उस के गाल पर रसीद कर दे पर मन मसोस कर रह जाती है. इंगलैंड में किसी छात्र को मारने की बात तो दूर जोर से बोलना भी सपने की बात है. वह मन मार कर रह जाती है. अनुशासन वाले इस समाज में विद्यार्थी इतने अनुशासनहीन… यह बात किस प्रकार गले उतर सकती है? पर सच यही है.

वैसे भी उस की कक्षा को जेड ने बिगाड़ रखा है. 9वीं कक्षा के ये विद्यार्थी अपनी नेता जेड के इशारे पर हर प्रकार की असभ्यता करते हैं. एकदूसरे की गोद में बैठ कर चूमाचाटी करना तो आम बात है ही, उस ने अपने पीछे से जेड की आवाज में ‘दिस इंडियन बिच’ न जाने कितनी बार सुना है और बहरों की भांति आगे बढ़ गई है. यह बात और है कि उस की आंखों में आंसुओं की बाढ़ उमड़ आई है. हर दिन सवेरे स्कूल के लिए तैयार होते हुए वह सोचती कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा? फिलहाल तो अपने इस प्रश्न का कोई उत्तर उस के पास नहीं है. उस ने एक साल का बांड भरा है, उस से पहले तो वहां से छुटकारा पाना उस के लिए संभव ही नहीं. अपने पीछे ठहाकों की बेहूदी आवाजें सुनना उस की नियति हो गई है.

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इस अमीर देश में वह बेहद गरीब है, जो अपने बच्चों की जूठन और फैलाव तो समेटती ही है जेड जैसी जाहिलोंके उस के कमरे में फैलाई हुई ‘गंद’ भी उसे ही समेटनी पड़ती है. भरीभरी आंखों से वह एक मशीन की भांति काम करती रहती है. अधिक संवेदनशील होने के कारण सूई सा दर्द भी उसे तलवार का घाव महसूस होता है. आसान नहीं है यहां पर ‘टीचिंग प्रोफेशन’ यह जानती तो वह पहले से ही थी पर इतना मानसिक क्लेश होता होगा, यह अनुभव से ही उसे पता चल सका.

एक साल बीता तो उस ने चैन की सांस ली. अब वह सलिल से कहेगी कि वह यह काम नहीं कर पाएगी. खाली तो रहेगी नहीं, कुछ न कुछ तो करना ही है. सलिल को ‘वारविकशायर विश्वविद्यालय’ में प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए आमंत्रित किया गया था. उन का पिछला रेकार्ड देख कर ही कई अंतर्राष्ट्रीय विश्व- विद्यालयों से उन्हें निमंत्रण मिलते रहे थे. कुछ साल पहले वह अमेरिका भी 2 वर्ष के लिए हो आए थे और समय पूर्ण होने पर भारत लौट गए थे. यहां पर उन का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन से पूरे 4 वर्ष के बांड पर हस्ताक्षर करवा लिए गए. भारतीय दिमाग का तो वाकई कोई जवाब नहीं है. हर तरफ मलाई की कीमत है, केवल अपने यहां ही वह सम्मान नहीं प्राप्त होता जिस का आदमी हकदार है.

दूर की सोच: कैसे उतर गई पंडित जी की इज्जत

जितने मुंह उतनी बातें हो रही थीं. कसबे में एक हलचल सी मची हुई थी. लोग समूह बना कर आपस में बातें कर रहे थे.

एक आदमी ने कहा, ‘‘भैया, धरमकरम तो अब रह नहीं गया है. क्या छूत, क्या अछूत, सभी एकसमान हो गए हैं.’’

‘‘तुम ठीक कहते हो. कलियुग आ गया है भाई, कलियुग. जब धरम के जानकार ऐसा कदम उठाएंगे, तो हम नासमझ कहां जाएंगे?’’ दूसरे आदमी ने कहा.

‘‘मुझे तो लगता है कि पंडितजी सठिया गए हैं. लोग कहते हैं कि बुढ़ापे में आदमी की अक्ल मारी जाती है, तभी वह ऊलजलूल हरकतें करने लगता है. अब पंडितजी भांग के नशे में डगमगाते हुए जा पहुंचे दलित बस्ती में…’’ तीसरे आदमी ने कहा.

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दरअसल, एक दिन पंडित द्वारका प्रसाद घर से मुफ्त में भांग पीने निकले थे. पूजापाठ की तरह यह भी उन का रोज का काम था.

छत्री चौक पर भांग की दुकान का मालिक राधेश्याम जब तक पंडितजी को मुफ्त में 2 गिलास भांग नहीं पिलाता था, तब तक वह किसी दूसरे ग्राहक को भांग नहीं बेचता था. उस का भी यह रोज का नियम था और एक विश्वास था कि जिस दिन पंडितजी उस की भांग का भोग लगा लेते हैं, उस दिन उस की अच्छीखासी कमाई हो जाती है.

कभी पंडितजी दूसरे गांव चले जाते या बीमार पड़ जाते, तो राधेश्याम पंडितजी के नाम की भांग दुकान के सामने मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों में बांट देता था.

कसबे में पंडितजी की इज्जत थी. उन का अच्छाखासा नाम था. लोग जन्म से ले कर मृत्यु तक के सभी पूजापाठ उन से ही कराना पसंद करते थे. वे जब भी किसी काम से घर से निकलते, तो राह में आतेजाते सब लोग उन्हें प्रणाम करते थे.

वे अपनी बढ़ी हुई तोंद पर एक हाथ फेरते हुए दूसरे हाथ को आशीर्वाद की मुद्रा में ला कर मंदमंद मुसकराते आगे बढ़ जाते थे.

आज पंडितजी को घर से निकलने में देर हो गई थी, इसलिए उन्हें बड़ी जोर से भांग की तलब सता रही थी. वे बड़ी तेजी से छत्री चौक की ओर बढ़े चले जा रहे थे. रास्ते में उन्हें कौन प्रणाम कर रहा था या नहीं, इस का उन्हें जरा भी एहसास नहीं था. उन्हें तो मुफ्त के 2 गिलास भांग नजर आ रही थी. देर होने के चलते उन्हें यह भी डर सता रहा था कि कहीं राधेश्याम उन के हिस्से की भांग भिखारियों में न बांट दे.

पंडितजी तेजी से चलते हुए अचानक एक आदमी से टकरा गए और गिरतेगिरते बचे. वे जैसेतैसे अपने  भारीभरकम शरीर का बैलैंस बना कर खड़े हुए, तो देखा कि सामने दोनों हाथ जोड़े कसबे का दलित भीखू खड़ा थरथर कांप रहा था.

पंडितजी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया. वे गुस्से में आगबबूला हो कर चीखते हुए बोले, ‘‘अधर्मी, तू ने मुझे छू कर अपवित्र कर दिया.’’ भीखू कांपते हुए गिड़गिड़ा रहा था, ‘‘ब्राह्मण देवता माफ करें. मैं आप से नहीं, बल्कि आप मुझ से टकराए हैं.’’

‘‘चुप रह… एक तो चोरी, ऊपर से तेरी सीनाजोरी…’’ पंडितजी को चिल्लाता देख कर वहां भीड़ जमा हो गई.

तभी भीड़ का फायदा उठा कर भीखू वहां से चुपचाप निकल गया.

पंडितजी का गुस्सा जैसेतैसे शांत हुआ, तो अपने साथ लाए लोटे में से पानी हथेली पर निकाल कर उसे अपने शरीर पर छिड़क कर उन्होंने पवित्र होने का ढोंग किया… फिर चल पड़े भांग की दुकान की ओर.

राधेश्याम उन के हिस्से की भांग भिखारियों को देने जा ही रहा था कि पंडितजी पहुंच गए. पंडितजी का मन भीखू से टकराने से पूरी तरह दुखी हो गया था. इधर, भांग की तलब में वे एकसाथ दोनों गिलास भांग गटागट पी गए.

कुछ देर शांत बैठने के बाद पंडितजी को महसूस हुआ कि भांग की तलब पूरी तरह मिटी नहीं है, तो उन्होंने राधेश्याम से एक गिलास और भांग की मांग की.

राधेश्याम को मसखरी सूझी, ‘‘क्या बात है पंडितजी, कल नहीं आओगे क्या?’’

‘‘नहीं भाई, आज मन अशांत है… कमबख्त भीखू मुझ से टकरा गया था.’’

राधेश्याम ने एक और गिलास भांग दी, जिसे पी कर लंबी डकार ले पंडितजी घर की ओर चल दिए, पर पूरे रास्ते भांग का नशा और भीखू उन के दिलोदिमाग से उतर नहीं रहा था, इसलिए वे दलित बस्ती में जा पहुंचे.

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पंडितजी को दलित बस्ती में आया देख दलितों में हलचल मच गई. भीखू और उस का परिवार हाथ जोड़े बारबार गिड़गिड़ाने लगा.

‘‘ब्राह्मण देवता, माफ करें. अनजाने में हम से भूल हो गई. आप जो सजा देंगे, वह हमें मंजूर है,’’ भीखू ने कहा.

पंडितजी ने भीखू और उस के परिवार से कहा, ‘‘घबराओ मत और डरो भी मत. मैं तुम्हें कोई सजा देने नहीं आया हूं.

‘‘दरअसल, गलती मेरी ही थी. मैं ही तेजी में था, इसलिए तुम से टकरा गया. खैर, उस बात को खत्म करो और मेरी आगे की बात…’’ फिर उन्होंने भीखू के पास खड़े बस्ती के दूसरे लोगों से भी कहा, ‘‘तुम लोग भी ध्यान से मेरी

बात सुनो. आज से 10 दिन बाद पूर्णिमा है. मैं तुम्हारी बस्ती में आऊंगा और पूजापाठ के साथ तुम्हारे कल्याण के लिए भागवत भी पढ़ूंगा.

‘‘तुम सभी लोग नहाधो कर तैयार रहना. रही पूजापाठ की सामग्री की बात, तो वह मैं ले आऊंगा. बाद में तुम लोग कीमत चुका देना.’’

पंडितजी दलित बस्ती में पूजापाठ की क्या कह कर गए, पूरे कसबे में चर्चा हो गई. पंडितजी को चुनाव लड़ना है, तभी वे बराबरी की बातें कर रहे हैं.

ब्राह्मणों का एक तबका पंडितजी के खिलाफ खुल कर खड़ा हो गया. दशहरा मैदान में एक सभा का आयोजन कर के उन का समाज से हुक्कापानी बंद करने का फैसला रख दिया गया.

तय किए गए दिन को कसबे के सभी ब्राह्मण दशहरा मैदान में पहुंच गए.

सभा शुरू होने से पहले एक आदमी ने सलाह दी, ‘‘पंडितजी का हुक्कापानी बंद करने से पहले उन के विचार जान लें, तो अच्छा होगा.’’

लोगों ने उस की सलाह मान ली. थोड़ी देर बाद पंडितजी मंच पर आए, तो लोगों ने नाराजगी की झड़ी लगा दी.

पंडितजी शांत मन से सब की बातें सुन कर बोले, ‘‘भाइयो, आप का आरोप सही नहीं है, पर जरा सोचो… हमारा समाज सदियों से मेहनतमजदूरी से दूर रहा है. हमारे पुरखों ने भी कभी मेहनतमजदूरी नहीं की और न हम ही कर रहे हैं.

‘‘हमारे पुरखों ने धार्मिक ग्रंथ लिखे. उन धार्मिक ग्रंथों में हम ने अपनी बिरादरी को मेहनतमजदूरी से दूर रखते हुए खुद को सब से बेहतर बताया और लोगों को धर्म के नाम पर, भगवान के नाम पर, स्वर्गनरक के नाम पर डरायाधमकाया, दानपुण्य के लिए उकसाया.

‘‘हमारे पुरखों की सोच की वजह से हम आज भी समाज में इज्जत पा रहे हैं. पेड़ वे लगा गए, फल हम और हमारी पीढि़यां बरसों से खा रही हैं.

‘‘पर आज समय बदल रहा है. हमारा धंधा मंदा होता जा रहा है. उस की वजह यह है कि आज देश में कई प्रवचन बाबा पैदा हो गए हैं, जो गांवशहरों, कसबों में प्रवचन देते रहते हैं.

‘‘वे लोगों के दिलों में ही नहीं, बल्कि घरों में टैलीविजन के जरीए घुसपैठ कर चुके हैं. लोग भारी तादाद में उन की ओर खिंचे चले जा रहे हैं.

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‘‘ऐसे में हमारे यजमानों की तादाद दिनोंदिन घटती जा रही है. अगर ऐसा ही चलता रहा, तो एक दिन ऐसा आएगा कि हमें मेहनतमजदूरी करनी पड़ेगी और हमारे बच्चों को भयंकर  गरीबी में जीना पड़ेगा.

‘‘ऐसे हालात में हमें दलितों को भी गले लगाना चाहिए, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी ऐशोआराम के साथ मौजमजे से अपनी गुजरबसर कर सके.’’

लोगों ने जोश में आ कर तालियां बजाते हुए पंडितजी का समर्थन किया और बोले, ‘पंडितजी, आप तो धन्य हैं. आप की सोच बहुत अच्छी है.’’

कुछ लोग नारे लगाने लगे, ‘जब तक सूरजचांद रहेगा, पंडितजी का नाम रहेगा…’

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