अपनी जिंदगी : लोकल ट्रेन का वह सफर

उस लोकल ट्रेन की बोगी में ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी, इसलिए रंजना ने जल्दी से खिड़की की तरफ वाली सीट पकड़ ली थी. उसे चलती हुई ट्रेन से बाहर खेत, मैदान, पेड़पौधे, नदी, पहाड़ देखना अच्छा लगता था, पर इस बार उस की इच्छा बाहर देखने की नहीं हो रही थी. उस का मन अंदर से उदास था, इसलिए वह अनमने ढंग से सीट पर बैठ गई थी. पास ही दूसरी तरफ की सीट पर उस के मामाजी बैठे हुए थे.

ट्रेन के अंदर कभी चाय वाला, कभी मूंगफली वाला, तो कभी फल बेचने वाले आ और जा रहे थे.

रंजना इन चीजों से बेखबर थी. उस का ध्यान ट्रेन के अंदर नहीं था, इसलिए वह खयालों में खोने लगी थी. उसे अलगअलग तरह के शोर से घबराहट हो रही थी, इसलिए वह आंखें बंद कर के सोचने लगी थी.

आज से तकरीबन डेढ़ साल पहले वह अपने मामा के घर पढ़ने आई थी. हालांकि उस की मम्मी नहीं चाहती थीं कि उन की सब से लाड़ली बेटी अपने मामामामी पर बो झ बने. उस के मामामामी के कोई औलाद नहीं थी, इसलिए मामामामी के कहने पर उन के घर जाने के लिए तैयार हुई थी. उस की मामी का अकेले मन नहीं लगता था, तभी उस की मम्मी भेजने को राजी हुई थीं.

रंजना की मम्मी के राजी होने के पीछे की एक वजह यह भी थी कि वे चाहती थीं कि उन की बेटी पढ़लिख जाए. गांव में 11वीं जमात के लिए स्कूल नहीं था, जबकि मामामामी जहां रहते थे, वहां ये सब सुविधाएं थीं.

रंजना 3 भाईबहनों में सब से बड़ी थी. उस के पापाजी खेतीबारी करते थे. घर में किसी तरह की कमी नहीं थी.

मम्मी दिल पर पत्थर रख कर बेटी रंजना को भेजने को राजी हुई थीं. वैसे, वे नहीं चाहती थीं कि उन की बेटी उन से दूर रहे. पर गांव में आगे की पढ़ाईलिखाई का उचित इंतजाम नहीं था, इसलिए आगे की पढ़ाई के लिए न चाहते हुए भी वे मामामामी के घर भेजना उचित सम झी थीं.

आइसक्रीम वाले ने आइसक्रीम की आवाज लगाई. उस के मामाजी ने उस से आइसक्रीम के लिए पूछा, ‘‘रंजना, आइसक्रीम खाओगी?’’

‘‘नहीं मामाजी, मेरी इच्छा नहीं है,’’ रंजना अनिच्छा जाहिर करते हुए उस लोकल ट्रेन की खिड़की से बाहर देखने लगी थी.

रंजना के मामाजी चाय वाले से चाय खरीद कर सुड़कने लगे थे, क्योंकि वह चाय नहीं लेती थी, इसलिए वह बाहर की तरफ देख रही थी. लेकिन उस का मन बाहर भी टिक नहीं पा रहा था. अभी भीड़ उस का ध्यान मामा के गांव की गलियों में ही था. उसे रोना आ रहा था. वह किस मुंह से मम्मी से बात करेगी?

रंजना अपनेआप को कुसूरवार मान रही थी. लेकिन उस ने कोई बहुत बड़ा अपराध नहीं किया था. उस का अपराध सिर्फ यही था कि वह एक दूसरी जाति के लड़के से प्यार करने लगी थी. वह अपनी मम्मी की हिदायतों के मुताबिक खुद पर काबू नहीं रख पाई थी.

मम्मी ने घर से निकलते हुए उसे दुनियादारी के लिए सम झाया था, ‘‘अपने मामामामी का मान रखना. कभी भी कुछ गलत काम मत करना कि अपने मातापिता के साथ मामामामी को भी सिर  झुकाना पड़ जाए. बेटी की एक गलती के चलते घर की मानमर्यादा चली जाती है. इसे हमेशा याद रखना,’’ और उस का सिर चूम कर घर से विदा किया था.

लेकिन यहां रंजना एक ऐसे लड़के से प्यार कर बैठी थी, जहां उस की जाति के लोग छोटा मानते थे. पर राजेश का इस में क्या कुसूर था? उस का सिर्फ इतना ही कुसूर था कि उस ने निचले तबके में जन्म लिया था, जबकि इनसान का किसी जाति या धर्म में जन्म लेना किसी के वश में नहीं होता है. पर, राजेश एक अच्छा इनसान था.

रंजना राजेश के साथ स्कूल और कोचिंग आतीजाती थी. वह कैसे उस की तरफ खींचती चली गई थी, उसे पता भी नहीं चला था. दोनों हमउम्र होने के चलते एकदूसरे से खूब ठिठोली करते. पगडंडियों पर हंसहंस कर बातें करते. एकदूसरे का मजाक उड़ाते. बिना वजह भी खूब हंसते. बिना बात किए एक पल भी नहीं रह पाते थे. यह सब कब प्यार में बदल गया, उसे पता भी नहीं चला. फिर तो वे एकदूसरे के प्यार में पागल हो गए थे. आज उसी पागलपन ने उसे पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर कर दिया था. वह पढ़ना चाहती थी और वह यहां पढ़ने के लिए ही तो आई थी.

उस दिन रात के अंधेरे में रंजना राजेश के आगोश में थी. दोनों एकदूसरे की बांहों में चिपके हुए मस्ती में डूबे हुए थे. वे एकदूसरे के होंठों को चूम रहे थे. राजेश उस के कोमल अंगों से खेलने लगा था. दोनों के जिस्म में गरमी बढ़ने लगी थी. वे एकदूसरे में समा जाने की कोशिश कर रहे थे, तभी उस के मामा आ गए थे. यह सब उन के लिए खून खौलाने वाला था.

अचानक मामा ने उन दोनों को एकदूसरे के आगोश में लिपटे हुए रंगे हाथों पकड़ लिया था. वे काफी गुस्से में थे.

रंजना राजेश को किसी तरह भगा चुकी थी.

मामामामी को यह पसंद नहीं था कि रंजना एक निचले तबके के लड़के के प्यार में पड़ जाए और इस की चर्चा पूरे गांव में हो, इसलिए उस की मामी ने मामा को सम झाया था, ‘‘इस का यहां रहना ठीक नहीं है. पानी सिर से ऊपर जा चुका है. इस की कच्ची उम्र का पागलपन है. कहीं ऊंचनीच हो गई, तो हम लोग जीजी को क्या मुंह दिखाएंगे? हमारी बिरादरी में बदनामी होगी सो अलग. इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी.’’

सरल स्वभाव के मामा ने मामी की हां में हां मिलाई थी, क्योंकि वे मामी के आज्ञाकारी पति थे. वे उन की बातों को कभी भी टालते नहीं थे. वहीं मामी

काफी उग्र स्वभाव की थीं. उन में जातपांत, छुआछूत की सोच कूटकूट कर भरी हुई थी.

दूसरी वजह यह थी कि वे ब्राह्मण थे. इस परिवार के लोग निचले तबके से काम तो ले सकते हैं, पर प्यार के नाम पर एकदूसरे की जान के दुश्मन बन बैठते हैं. इसलिए उस के मामामामी दोनों ने फौरन फैसला किया कि उसे गांव में मम्मीपापा के पास छोड़ आएं. यही  वजह थी कि आज उस के मामा रंजना को उस के घर छोड़ने जा रहे थे.

राजेश देखने में स्मार्ट था. दोनों को स्कूल और कोचिंग आनेजाने के दौरान ही एकदूसरे से नजदीकियां बढ़ी थीं. राजेश पढ़नेलिखने में बहुत अच्छा था, जबकि रंजना गांव से आई थी. राजेश उसे पढ़ने में भी मदद करता था. उस की फर्स्ट ईयर की कोचिंग क्लासेज में परफौर्मैंस अच्छी हो चुकी थी.

रंजना का अपना गांव काफी पिछड़ा हुआ था. लेकिन यहां छोटामोटा बाजार होने के चलते लोग थोड़ीबहुत शहरी रंगढंग में ढल चुके थे. पास ही रेलवे स्टेशन था. यहां के लड़केलड़कियां लोकल ट्रेन से स्कूल और कोचिंग आतेजाते थे. ट्रेन से उतर कर कुछ दूरी गांव की पगडंडियों पर चलना पड़ता था. उन्हीं पगडंडियों के बीच उन दोनों का प्यार पनपा था. वह राजेश के साथ जीना चाहती थी. राजेश भी उसे बहुत प्यार करता था.

जैसे ही ट्रेन हिचकोले खा कर रुकी, रंजना के मामाजी ने उसे  झक झोरा, ‘‘चलो रंजना, स्टेशन आ गया. अब उतरना है,’’ सुन कर वह सकपका गई थी.

रंजना अतीत से वर्तमान में आ गई थी. दोनों तेजी से ट्रेन से उतर गए थे, क्योंकि यहां ट्रेन बहुत कम समय के लिए रुकती थी.

रंजना जल्द ही आटोरिकशा से घर पहुंच चुकी थी. उस की मम्मी अचानक आई अपनी बेटी और भाई को देख कर खुश थीं, लेकिन उन के मन में शक पैदा होने लगा था. उस के पापाजी को आने से कोई खास फर्क नहीं हुआ था. लेकिन उस की मम्मी सम झ नहीं पा रही थीं. अभी उस की स्कूल की छुट्टी के दिन भी नहीं थे, फिर वह अचानक कैसे आ गई. मामाजी जल्दी ही शाम की गाड़ी से लौट गए थे.

हालांकि रंजना के मामाजी उस के मम्मीपापा को सबकुछ बता चुके थे. यह सब सुन कर उस के घर का माहौल ही बदल गया था. उस के पापाजी ने उसे घर से बाहर निकलना बंद करवा दिया था. उस की पढ़ाईलिखाई छूट गई थी. अब वह उदास रहने लगी थी. जल्दीजल्दी उस के लिए रिश्त ढूंढ़ा जाने लगा था. काफी भागदौड़ के बाद उस की शादी तय हो गई, लेकिन उस की उदासी दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी.

कुछ दिन बीतने के बाद रंजना की उदासी में कोई सुधार नहीं हुआ. उस की मम्मी ने उसे सम झाने की कोशिश की, ‘‘हम ऊंची जाति वाले हैं. इस तरह की ओछी हरकत से हम लोगों की समाज में बदनामी होगी. हम लोगों का ऊंचा खानदान है. जल्दी ही तुम्हारी शादी हो जाएगी,’’ उस की मम्मी हिदायत दे रही थीं और उस के सिर

पर उंगलियां भी फिरा रही थीं.

वह मम्मी से गले लग कर फफकफफक कर रोने लगी थी. उस दिन उस के पापाजी घर पर नहीं थे.

‘‘मम्मी, मैं राजेश के बिना नहीं जी पाऊंगी. मैं उसे बहुत प्यार करती हूं.’’

मम्मी उस के सिर को प्यार से सहला रही थीं और सम झा रही थीं, ‘‘बेटी, अपनी बिरादरी में क्या लड़कों की कमी है? तुम्हारे लिए उस से भी अच्छा लड़का ढूंढ़ा जाएगा.’’

‘‘नहीं मम्मी, मु झे सिर्फ राजेश चाहिए,’’ उस ने रोते हुए उन्हें बताया.

उस की मम्मी अपनी बेटी के रोने  से विचलित हो गई थी. फिर भी वह  उसे ढांढ़स बंधा रही थीं, ‘‘सबकुछ  ठीक हो जाएगा. वक्त हर मर्ज की  दवा है.’’

उस दिन रंजना की मम्मी रात को अपने बिस्तर पर करवटें बदल रही थीं. वे काफी बेचैन थीं. शायद उन्हें अपनी बेटी का दुख सहा नहीं जा रहा था. उन्हें भी याद आ रहा थे, अपनी जिंदगी के बीते हुए वे सुनहरे पल, जब वे अपनी जवानी के दिनों में अपने ही गांव के पड़ोस के एक लड़के से प्यार करने लगी थीं. लेकिन वे अपने मातापिता को नहीं बता पाई थीं. मातापिता की इज्जत का खयाल कर के दिल पर पत्थर रख उन के द्वारा तय किए गए उस के पापा से ही शादी कर ली थी.

रंजना की मम्मी सोच रही थीं, ‘काश, मैं इतनी हिम्मत कर पाती. कम से कम अपनी बेटी की तरह वे भी अपनी मां से कह पातीं.’

आज भी वे अपने पहले प्यार को भुला नहीं पाई थीं. मन में कहीं न कहीं इस बात का मलाल जरूर था. क्योंकि उन का प्यार अधूरा रह गया था. वे सोच रही थीं कि अगर वे अपने प्रेमी को पा लेतीं, तो शायद उन की जिंदगी कुछ अलग होती.

आज मम्मी फैसला ले रही थीं, कुछ भी हो जाए, वे अपनी बेटी को उस रास्ते पर नहीं जाने देंगी, जिस रास्ते पर उन्होंने चल कर खुद की जिंदगी बरबाद कर ली थी. शादी तो कर ली थी, पर अपने पति से प्यार नहीं कर पाई थीं. दोनों के बीच काफी  झगड़े होते थे.

मम्मी शादी की चक्की में पिस रही थीं. उन्होंने अपनेआप को खो दिया  था. उन की अपनी पहचान कहीं बिखर गई थी.

आज वे भले ही 3 बच्चों की मां बन चुकी थीं, पर प्यार तो किसी कोने में दुबक गया था. उन की जिंदगी में नीरसता भर गई थी. ऐसे बंधनों से उन्हें कभीकभी ऊब सी होने लगती थी. उन्हें ऐसा महसूस होता था, जैसे वे अनदेखी बेडि़यों में जकड़ ली गई हैं.

बस, सुबह जागो, खाना पकाओ, घर के लोगों को खिलाओ, सब का ध्यान रखो. खुद का ध्यान भाड़ में जाए. पति के लिए व्रत करो, बेटेबेटी के लिए व्रत करो. सब के लिए बलिदान करो, सब के लिए त्याग करो. खुद के लिए कुछ भी नहीं. वही पुराने ढर्रे पर चलते रहो. क्या उन्होंने अपनी जिंदगी के बारे में यही सब सोचा था?

रंजना के पापाजी और मामाजी उस के लिए रिश्ता तय करने गए थे, बल्कि लड़के वालों को कुछ पैसे भी पहुंचाने गए थे. उस के पापाजी 2 दिन बाद

ही लौटेंगे.

पापाजी के जाने के बाद मम्मी अपनी बेटी से खुल कर बातें कर रही थीं. वे राजेश के बारे में पूरी जानकारी ले चुकी थीं. फिर खुद ही राजेश से टैलीफोन से बात भी की थी. सबकुछ जान कर, संतुष्ट होने के बाद ही उसे बुलाया था.

मम्मी हैरान, पर खुश थीं. राजेश समय से हाजिर हो गया था. मम्मी की नजर में राजेश सुंदर और होनहार लड़का था. उन्होंने राजेश से कई तरह के सवालजवाब किए थे.

अगले दिन सुबह के साढ़े 4 बज रहे थे. मम्मी ने  झक झोर कर रंजना को जगाया. उसे आधे घंटे में तैयार होने के लिए बोला. वह सम झ नहीं पाई थी कि उसे कहां जाना है और क्या करना है? वह कई बार उन से पूछ चुकी थी, पर मम्मी कोई जवाब नहीं दे रही थीं.

तभी दरवाजे पर मोटरसाइकिल रुकने की आवाज आई थी. रंजना सोच रही थी कि अभी तो उस के पापाजी के भी आने का समय नहीं है. उसे मालूम था कि उस के पापाजी दूसरे दिन ही आ पाएंगे. उस की मम्मी उस के लिए बैग पैक कर रही थीं. उस के सारे कपड़े, गहने बैग में समेट दिए थे.

रंजना ने जैसे  ही दरवाजा खोला, राजेश अंधेरे में अपनी मोटरसाइकिल के साथ खड़ा था. वह अभी भी नहीं सम झ पा रही थी कि आखिर उस की मम्मी क्या चाहती हैं? उस के छोटे भाईबहन सब सोए हुए थे.

मम्मी जो कुछ भी कर रही थीं, बहुत ही सावधानी से कर रही थी. उन्होंने राजेश को बैग पकड़ा दिया और बोलीं, ‘‘देखो, इस का खयाल रखना. इसे कभी हमारी कमी महसूस नहीं होने देना. मैं ने अपनी बेटी को बड़े नाजों  से पाला है. तुम कुछ दिन के लिए  कहीं दूर चले जाओ, जहां तुम्हें कोई देख न सके.’’

रंजना सारा माजरा सम झ चुकी थी. वह राजेश के साथ मोटरसाइकिल पर बैठ गई थी. उस की मम्मी डबडबाई आंखों से सिर्फ इतना ही बोल पाई थीं, ‘‘जा बेटी, अपनी जिंदगी जी ले.’’

रंजना भी फफकफफक कर रोने लगी थी. वह मोटरसाइकिल स्टार्ट होने से पहले उतर कर अपनी मम्मी के गले लग गई थी.

रंजना की मम्मी बोलीं, ‘‘बेटी, जल्दी कर…’’ फिर उन्होंने सहारा दे कर मोटरसाइकिल पर बैठने में रंजना की मदद की थी.

राजेश मोटरसाइकिल स्टार्ट कर चल दिया था. मम्मी अंधेरे में हाथ हिलाती रहीं, जब तक कि वे दोनों उन की आंखों से ओ झल नहीं हो गए थे.

धंधा बना लिया : चंपा की दर्द भरी कहानी

‘‘सुनती हो चंपा?’’

‘‘क्या बात है? दारू पीने के लिए पैसे चाहिए?’’ चंपा ने जब यह बात कही, तब विनोद हैरानी से उस का मुंह ताकता रह गया.

विनोद को इस तरह ताकते देख चंपा फिर बोली, ‘‘इस तरह क्या देख रहा है? मुझे पहले कभी नहीं देखा क्या?’’

‘‘मतलब, तुम से बात करना भी गुनाह है. मैं कोई भी बात करूं, तो तुम्हें लगता है कि मैं दारू के लिए ही पैसा मांगता हूं.’’

‘‘हां, तू ने अपना बरताव ही ऐसा कर लिया है. बोल, क्या कहना चाहता है?’’

‘‘लक्ष्मी होटल में धंधा करते हुए पकड़ी गई.’’

‘‘हां, मुझे मालूम है. एक दिन यही होना था. वही क्या, पूरी 10 औरतें पकड़ी गई हैं. क्या करें, आजकल औरतों ने अपने खर्चे पूरे करने के लिए यह धंधा बना लिया है. लक्ष्मी खूब बनठन कर रहती थी. वह धंधा करती है, यह बात तो मुझे पहले से मालूम थी.’’

‘‘तुझे मालूम थी?’’ विनोद हैरानी से बोला.

‘‘हां, बल्कि वह तो मुझ से भी यह धंधा करवाना चाहती थी.’’

‘‘तुम ने क्या जवाब दिया?’’

‘‘उस के मुंह पर थूक दिया,’’ गुस्से से चंपा बोली.

‘‘यह तुम ने अच्छा नहीं किया?’’

‘‘मतलब, तुम भी चाहते थे कि मैं भी उस के साथ धंधा करूं?’’

‘‘बहुत से मरद अपनी जोरू से यह धंधा करा रहे हैं. जितनी भी पकड़ी गईं, उन में से ज्यादातर को धंधेवाली बनाने में उन के मरदों का ही हाथ था,’’ विनोद बोला.

‘‘वे सब निकम्मे मरद थे, जो अपनी जोरू की कमाई खाते हैं. आग लगे ऐसी औरतों को…’’ कह कर चंपा झोंपड़ी से बाहर निकल गई.

चंपा जा जरूर रही थी, मगर उस का मन कहीं और भटका हुआ था. चंपा घरों में बरतन मांजने का काम करती थी. जिन घरों में वह काम करती है, वहां से उसे बंधाबंधाया पैसा मिल जाता था. इस से वह अपनी गृहस्थी चला रही थी.

चंपा की 4 बेटियां और एक बेटा है. उस का मरद निठल्ला है. मरजी होती है, उस दिन वह मजदूरी करता है, वरना बस्ती के आवारा मर्दों के साथ ताश खेलता रता है. उसे शराब पीने के लिए पैसा देना पड़ता है.

चंपा उसे कितनी बार कह चुकी है कि तू दारू नहीं जहर पी रहा है. मगर उस की बात को वह एक कान से सुनता है, दूसरे कान से निकाल देता है. उस की चमड़ी इतनी मोटी हो गई है कि चंपा की कड़वी बातों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता है.

जो 10 औरतें रैस्टहाउस के पकड़ी गई थीं, उन में से लक्ष्मी चंपा की बस्ती के मांगीलाल की जोरू है. पुरानी बात है. एक दिन चंपा काम पर जा रही थी. कुछ देरी होने के चलते उस के पैर तेजी से चल रहे थे. तभी सामने से लक्ष्मी आ गई थी. वह बोली थी, ‘कहां जा रही हो?’

‘काम पर,’ चंपा ने कहा था.

‘कौन सा काम करती हो?’ लक्ष्मी ने ताना सा मारते हुए ऊपर से नीचे तक उसे घूरा था.

तब चंपा भी लापरवाही से बोली थी, ‘5-7 घरों में बरतन मांजने का काम करती हूं.’

‘महीने में कितना कमा लेती हो?’ जब लक्ष्मी ने अगला सवाल पूछा, तो चंपा सोच में पड़ गई थी. उस ने लापरवाही से जवाब दिया था, ‘यही कोई 4-5 हजार रुपए महीना.’

‘बस इतने से…’ लक्ष्मी ने हैरान हो कर कहा था.

‘तू समझ रही है कि घरों में बरतन मांज कर 10-20 हजार रुपए महीना कमा लूंगी क्या?’ चंपा थोड़ी नाराजगी से बोली थी.

‘कभी देर से पहुंचती होगी, तब बातें भी सुननी पड़ती होंगी,’ जब लक्ष्मी ने यह सवाल पूछा, तब चंपा भीतर ही भीतर तिलमिला उठी थी. वह गुस्से से बोली थी, ‘जब तू सब जानती है, तब क्यों पूछ रही है?’

‘‘तू तो नाराज हो गई चंपा…’’ लक्ष्मी नरम पड़ते हुए बोली थी, ‘इतने कम पैसे में तेरा गुजारा चल जाता है?’ ‘चल तो नहीं पाता है, मगर चलाना पड़ता है,’ चंपा ने जब यह बात कही, तब वह भीतर ही भीतर खुश हो गई थी.

‘अगर मेरा कहना मानेगी तो…’ लक्ष्मी ने इतना कहा, तो चंपा ने पूछा था, ‘मतलब?’

‘तू मालामाल हो सकती है,’ लक्ष्मी ने जब यह बात कही, तब चंपा बोली थी, ‘कैसे?’

‘अरे, औरत के पास ऐसी चीज है कि उसे कहीं हाथपैर जोड़ने की जरूरत नहीं पड़े. बस, थोड़ी मर्यादा तोड़नी पड़ेगी,’ चंपा की जवानी को ऊपर से नीचे देख कर जब लक्ष्मी मुसकराई,

तो चंपा ने पूछा था, ‘क्या कहना चाहती है.’

‘नहीं समझी मेरा इशारा…’ फिर लक्ष्मी ने बात को और साफ करते हुए कहा था, ‘अभी तेरे पास जवानी है. इन मर्दों से मनचाहा पैसा हड़प सकती है. ये मरद तो जवानी के भूखे होते हैं.’

‘तू मुझ से धंधा करवाना चाहती है?’ चंपा नाराज होते हुए बोली थी.

‘‘क्या बुराई है इस में? हम जैसी कितनी औरतें धंधा कर रही हैं और हजारों रुपए कमा रही हैं. फिर आजकल तो बड़े घरों की लड़कियां भी अपना खर्च निकालने के लिए यह धंधा कर रही हैं,’’ लक्ष्मी ने यह कहा, तो चंपा आगबबूला हो उठी और गुस्से से बोली थी, ‘एक औरत हो कर ऐसी बातें करते हुए तुझे शर्म नहीं आती?’

‘शर्म गई भाड़ में. अगर औरत इस तरह शर्म रखने लगी है, तो हमारे मरद हम को खा जाएं. एक बार यह धंधा अपना लेगी न, तब देखना तेरा मरद तेरे आगेपीछे घूमेगा,’ लक्ष्मी ने जब चंपा को यह लालच दिया, तब वह गुस्से से बोली थी, ‘ऐसी सीख मुझे दे रही है, खुद क्यों नहीं करती है यह धंधा?’

‘तू तो नाराज हो गई. ठीक है, अपने मरद के सामने सतीसावित्री बन. जब पैसे की बहुत जरूरत पड़ेगी न, तब मेरी यह बात याद आएगी,’ कह कर लक्ष्मी चली गई थी.

आज लक्ष्मी धंधा करती पकड़ी गई. धंधा तो वह बहुत पहले से ही कर रही थी. सारी बस्ती में यह चर्चा थी.

जब चंपा मिश्राइन के बंगले पर पहुंची, तब मिश्राइन और उस के पति ड्राइंगरूम में बैठे बातें कर रहे थे.

चंपा के पहुंचते ही मिश्राइन जरा गुस्से से बोली, ‘‘चंपा, आज तो तुम ने बहुत देर कर दी. क्या हुआ?’’

चंपा चुप रही. मिश्राइन फिर बोली, ‘‘तू ने जवाब नहीं दिया चंपा?’’

‘‘क्या करूं मेम साहब, आज हमारी बस्ती की लक्ष्मी धंधा करते हुए पकड़ी गई.’’

‘‘उस का अफसोस मनाने लगी थी?’’ मिश्राइन बोली.

‘‘अफसोस मनाए मेरी जूती…’’ गुस्से से चंपा बोली, ‘‘सारी बस्ती वाले उस पर थूथू कर रहे हैं. अच्छा हुआ कि वह पकड़ी गई.

‘‘तेरे आने के पहले उसी पर चर्चा चल रही थी…’’ मिश्राजी बोले, ‘‘लक्ष्मी भी क्या करे? पैसों की खातिर ऐसी झुग्गीझोंपड़ी वाली औरतों ने यह धंधा बना लिया है.’’

मिश्राजी ने जब यह बात कही, तब चंपा की इच्छा हुई कि कह दे, ‘आप जैसे अमीर घरों की औरतें भी गुपचुप तरीके से यह धंधा करती हैं,’ मगर वह यह बात कह नहीं सकी.

वह बोली, ‘‘क्या करें बाबूजी, हमारी बस्ती में एक औरत बदनाम होती है, यह धंधा करती है, मगर उस के पकड़े जाने पर सारी बस्ती की औरतें बदनाम होती हैं.’’ इतना कह कर चंपा बरतन मांजने रसोईघर में चली गई.

चाहत : संगीता ने राजा को चुना या सुनील को?

राजा संगीता के पीछे पड़ा रहता. संगीता की चाहत में उस ने अपनेआप को भुला डाला था. अगर राजा से कोई संगीता के बारे में पूछता, तो उस का एक ही जवाब होता, ‘‘तुम जानो, मुझे क्या पता?’’

अब तक की अपनी जिंदगी में राजा ने किसी भी लड़की की तरफ आंख उठा कर नहीं देखा था और जब उस ने देखा, तो अपना सबकुछ सौंप दिया.

संगीता में गजब का खिंचाव था. वह खूबसूरत तो थी ही. गोल चेहरा, दूधिया रंग, हिरनी सी आंखें, गुलाब जैसे गुलाबी होंठ, बुलबुल की तरह की चाल, नागिन की तरह बलखाते काले बाल, जवानी से भरापूरा बदन. कहने का मतलब यह कि खूबसूरती का दूसरा नाम था संगीता. इतनी सारी खूबियां हर जवां दिल को हलचल में डालने के लिए काफी थीं. शायद राजा भी इन्हीं तीरों का निशाना बन गया था.

लेकिन संगीता ने राजा में कोई दिलचस्पी नहीं ली. जब भी राजा ने संगीता का दिल जीतने की कोशिश की, उसे नाकामी ही हाथ लगी, क्योंकि वह मन ही मन राजा से चिढ़ती थी. लेकिन राजा ने कभी गलत कदम नहीं उठाया और उस के इस तरह से मुंह मोड़ कर जाने का कभी उस ने बुरा भी नहीं माना.

राजा रात को पड़ापड़ा अपने एकतरफा प्यार के लंबेलंबे सपने बनाता, पर उस के सारे सपने मानो महाप्रलय में हाथपैर पीट रहे हों.

जब आखिरकार दिल नहीं माना, तब राजा ने एक दिन हिम्मत कर के संगीता के सामने अपने दिल को खोल कर रख दिया, ‘‘संगीता, मैं तुम्हारे बगैर एक पल भी जिंदा नहीं रह सकता. मैं तुम से बेइंतिहा प्यार करता हूं. तुम्हारे प्यार में मेरा क्या हाल है, यह तुम खुद देख सकती हो,’’ कह कर राजा ने अपराधी की तरह नजरें ?ाका लीं.

‘‘मैं सब जानती हूं राजा…’’ संगीता पहली दफा राजा को गौर से देख रही थी. उस ने आगे कहा, ‘‘तुम मु?ा से प्यार करते होगे, लेकिन मैं तुम से प्यार नहीं करती, क्योंकि मैं किसी और को चाहती हूं.

‘‘तुम जानते हो कि एक म्यान में 2 तलवारें नहीं रह सकतीं, इसलिए तुम बेवजह अपना दिल मत जलाओ.’’

राजा ने भीगी पलकों से उसे देखा और गिड़गिड़ाने वाले अंदाज में कहा, ‘‘ऐसा मत कहो संगीता. तुम न सही, तुम्हारे दर्शन तो मिला करेंगे? जिंदगीभर तुम्हें इसी तरह देखदेख कर जिंदगी काट लूंगा. क्या तुम मुझे इतना भी हक नहीं दोगी?’’

राजा की बातों को सुन कर संगीता कुछ नहीं बोली और अपने रास्ते पर आगे बढ़ गई. राजा निराश हो गया. उसे ऐसा लगा, जैसे उस का दिल कांच की तरह टुकड़ेटुकड़े हो कर बिखर गया है. उस की सांसें थमने सी लगी हैं.

‘‘रुको संगीता…’’ अपनी समूची ताकत के साथ राजा बोला, तो संगीता के उठते कदम एकदम जहां के तहां रुक गए, ‘‘इतना तो बताती जाओ कि वह खुशनसीब कौन है, जिसे तुम्हारा प्यार मिल रहा है?’’ उस ने एक ही सांस में कह डाला.

‘‘सुनील,’’ कह कर बगैर पीछे देखे ही संगीता तेजी से बढ़ गई और पलभर में ही वह राजा की आंखों से ओझल हो गई. संगीता के प्रेमी का नाम जानते ही राजा के दिमाग की घंटियां बज उठीं.

वैसे तो सुनील में कोई कमी नहीं थी. देखने में खूबसूरत, हट्टाकट्टा जवान था, लेकिन हर चमकने वाली चीज सोना नहीं हुआ करती है. यह मुहावरा सुनील पर फिट बैठता, क्योंकि सुनील का चरित्र ठीक नहीं था. उस ने न जाने कितनी ही भोलीभाली मासूम लड़कियों को बरबादी के कगार पर पहुंचा दिया था.

काफी देर तक राजा विचारों में खोया रहा. उस ने सोचा कि वह संगीता को सुनील की असलियत बता देगा, लेकिन उस के दिल ने ही इस का विरोध किया कि संगीता उस की एक भी बात नहीं मानेगी. उलटे उसे ही छलिया, फरेबी कहेगी.

‘‘हैलो सुनील…’’ संगीता ने दूर से ही पार्क में बैठे सुनील को संबोधित किया, जो अपने 3-4 दोस्तों के साथ किसी खास मुद्दे पर बात करने में मशगूल था.

‘‘हैलो डार्लिंग…’’ सुनील भी जवाब में मुसकराया और बोला, ‘‘प्लीज संगीता, तुम कुछ देर वहीं बैठो. मैं अभी बात कर के आता हूं.’’ संगीता चहकती हुई किसी आज्ञाकारी नौकर की तरह वहीं बैठ गई.

सुनील के दोस्त संगीता को कामुक नजरों से देख रहे थे. एक दोस्त ने होंठों पर जीभ फेरते हुए कहा, ‘‘यार सुनील, चिडि़या तो गजब की फंसाई है. इस से खेलने को दिल करता है.’’

‘‘अबे अक्ल के दुश्मनो…’’ सुनील ने कहा, ‘‘क्या तुम जानते हो कि शिकारी चिडि़या का शिकार कैसे करता है? पहले अनाज के दाने डालता है, फिर जाल बिछाता है और उस के बाद धीरेधीरे जाल समेटता है. समझे.’’जोरदार हंसी के ठहाके से पार्क गूंज उठा.

‘‘वाह, मान गए सुनील भाई,’’ एक ने दाद दी.

हंसी संगीता ने भी सुनी थी, लेकिन वह इस के मतलब से अनजान थी.

सुनील ने संगीता को सच्चे दिल से कभी प्यार नहीं किया. वह तो उसे केवल खिलौना सम?ाता रहा.

उस दिन के बाद राजा के दिल में एक कसक सी भर गई. कसक इस बात की नहीं थी कि उसे संगीता का प्यार नहीं मिला, बल्कि इस बात की थी कि वह संगीता की जिंदगी के हरेभरे बाग को उजड़ने से कैसे बचाए? क्या वह संगीता के सामने सुनील के गलत कामों का कच्चाचिट्ठा खोल कर रख दे. पर उस के सामने एक ही समस्या थी कि वह संगीता को सचाई से कैसे परिचित कराए.

एक दिन संगीता ने जैसे ही सुनील के कमरे में कदम रखा, अंदर का नजारा देख कर उस की आंखें फटी की फटी रह गईं. डर से उस के पैर कांप गए, क्योंकि सुनील अपने 2 दोस्तों के साथ शराब पी रहा था.

‘‘सुनील, तुम शराब पीते हो?’’ कांपते होंठों से संगीता ने पूछा.

सुनील के दोस्तों ने कामुक नजरों से संगीता को देखा. उस के उभरे अंगों को निहारा और होंठों पर जहरीली मुसकान लाते हुए एक ने कहा, ‘‘यार सुनील, शराब के साथ सुंदरी का भी जुगाड़ हो गया. अब तो मौज आएगी.’’

उन सब के ठहाकों से कमरा गूंज गया. संगीता के सामने सुनील का असली चेहरा आ गया था. उसे गुस्सा तो बहुत आया कि इस बेवफा का मुंह नोच डाले, मगर किसी तरह वह अपने गुस्से को पी गई.

तभी एक बदमाश ने उठ कर दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी. दरवाजा बंद होते ही संगीता के चेहरे का रंग उड़ गया.

सुनील बेहूदा हंसी हंसते हुए मुसकराया, ‘‘अरे, इस में डरने की क्या बात है? हम कोई गैर थोड़े ही हैं. तुम मेरी माशूका हो न. हो न डार्लिंग?’’

सुनील के मुंह से शराब की बदबू आ रही थी.

‘‘जानेमन, हमें इस मतवाली जवानी का मजा चख लेने दो,’’ सुनील ने संगीता की कलाई पकड़ कर उसे अपनी ओर खींचा.

‘चटाक…’ अगले ही पल सुनील के गाल पर संगीता का झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा, तो वह तिलमिला गया.

लेकिन एक अकेली लड़की उन तीनों से कब तक लड़ती? आखिर वह हार गई. उस ने उन दरिंदों से अपनी इज्जत की भीख मांगी, पर सब बेकार रहा. वह बेचारी लुट गई थी. जिसे अपनी जवानी का रक्षक समझ था, वह भक्षक निकला और उसे अपनी हवस का शिकार बना डाला.

तभी राजा वहां आ पहुंचा और जैसे ही वह दरवाजे के करीब पहुंचा, उसे अंदर से किसी औरत के चीखने की आवाज सुनाई दी. आवाज पर गौर किया तो सन्न रह गया, क्योंकि यह तो यकीनन संगीता की चीख है.

दरवाजे को ढकेलने की कोशिश की, तो पाया कि वह अंदर से बंद है. जब भीतर जाने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया, तो उस ने दरवाजा तोड़ने का मनसूबा बनाया और इस में कामयाब भी हो गया.

राजा को अचानक देख कर वे तीनों ही संगीता को छोड़ कर पीछे हट गए. डरीसहमी संगीता जल्दीजल्दी अपने उघड़े बदन को ढकने लगी.

यह सब देख राजा की त्योरियां चढ़ गईं और वह तीनों बदमाशों से भिड़ गया. इस मारामारी में राजा के सिर पर चोट आ गई. उसे लहूलुहान देख सुनील और उस के साथी वहां से फरार हो गए.

इस घटना के थोड़ी देर बाद कुछ और लोग भी घटना वाली जगह पर पहुंच गए. उन्होंने राजा को अस्पताल भिजवाया. उस के साथ संगीता भी गई. उस ने पुलिस में सुनील और उस के दोस्तों के खिलाफ बलात्कार का मुकदमा दर्ज कराया और राजा की सेवा में जुट गई. उस ने अब बगले और हंस को पहचान लिया, पर उस का दिल धड़क रहा था.

कुछ घंटे बाद जब राजा को होश आया, तो वह वहां संगीता को देख अचरज में डूब गया. संगीता ने राजा को घूरते देख अपना चेहरा ?ाका लिया. लाज से उस का चेहरा लाल हो गया था.

‘‘संगीता…’’ राजा ने धीरे से कहा, ‘‘इस तरह दिल छोटा मत करो. जो हो गया, उसे भूल जाओ. आज से तुम अपनी नई जिंदगी की शुरुआत समझे.’’

राजा की बातों को सुन कर संगीता रो पड़ी और बोली, ‘‘मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है, सबकुछ लुट चुका है. अब तो मौत ही मु?ा कलंकिनी की जिंदगी सुधार सकती है.’’

‘‘किसी ने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा है संगीता…’’ राजा ने उस की कलाई पकड़ी और बड़े प्यार से कहा, ‘‘तुम वही संगीता हो, जो पहले थी. अब भी मैं तुम से उतना ही प्यार करता हूं, जितना आज से पहले करता था.’’

‘‘सच राजा,’’ संगीता ने राजा को फटी आंखों से देखा.

‘‘हां संगीता, बल्कि पहले से भी ज्यादा मैं तुम्हें चाहने लगा हूं, क्योंकि पहले तुम्हारा दिल किसी और के पास था,’’ राजा ने संगीता की आंखों में देखा.

संगीता को सच्चा मोती मिल गया था. उस की लुटी हुई सारी खुशियां जैसे फिर उस की ?ोली में आ गई थीं. यह राजा की सच्ची चाहत थी.

 

अनोखा इश्क : मंगेतर की सहेली से आशिकी

पारस और दिव्या की सगाई के 10 दिन बाद पारस ने दिव्या से मिलने के लिए कहा. दिव्या परिवार की इजाजत ले कर उस से मिलने गई, मगर आस्था भी उस के साथ गई, क्योंकि दिव्या की मां उसे अकेले नहीं जाने देना चाहती थीं.

पारस आस्था को देखता ही रह गया. दिव्या का गोरा रंग और आस्था का सांवला रंग, दिव्या का भराभरा बदन और आस्था नौर्मल सी, मगर तीखे नैननक्श, पारस तो मानो आस्था में ही खो गया. दिव्या ने पारस को 2-3 बार पुकारा, तब जा कर जैसे उसे होश आया हो.

आस्था बोली, “हैलो जीजू…”

“आस्था, प्लीज, मुझे पारस कहो,” पारस ने साफसाफ कह दिया.

“ओके पारस…”

इस तरह अकसर पारस दिव्या को मिलने के लिए किसी रैस्टोरैंट या पार्क में बुलाता तो आस्था भी साथ होती. वह दिव्या की बैस्ट फ्रैंड जो थी.

एक दिन आस्था को बुखार था. दिव्या के साथ उस का छोटा भाई गया. पारस ने आते ही पूछा, “दिव्या, आज आस्था क्यों नहीं आई?”

“उसे बुखार है.”

यह सुन कर पारस का चेहरा उतर गया. उस दिन पारस को दिव्या का साथ अच्छा नहीं लग रहा था.

पारस रातभर सो नहीं पाया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है. उस ने महसूस किया कि शायद उसे आस्था से प्यार हो गया है. सुबह होते ही उस ने दिव्या से आस्था का फोन नंबर ले लिया, ताकि उस का हालचाल जान सके.

“हैलो, कैसी हो आस्था?”

‘मैं ठीक हूं, मगर आप कौन हैं? आप के पास मेरा मोबाइल नंबर कैसे आया?’ एक ही सांस में बोल गई आस्था.

“अरेअरे, सांस तो लो, बताता हूं. मैं पारस हूं और दिव्या से मैं ने तुम्हारा नंबर लिया है.”

इस के बाद वे दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे. अब तो अकसर पारस आस्था को फोन कर देता और दोनों घंटों बातें करते रहते.

धीरेधीरे आस्था को भी पारस से लगाव सा महसूस हुआ, मगर वह उस की बैस्ट फ्रैंड का मंगेतर है, यह सोच कर वह अपना कदम पीछे खींच लेती.

एक दिन पारस, दिव्या और आस्था तीनों फिल्म देखने सिनेमाघर गए, तो पारस दिव्या के बजाय आस्था की साइड जा कर बैठ गया.

यह देख उन दोनों को हैरानी हुई, तो पारस ने कहा, “अरे दिव्या, हम दोनों तो सगाई कर के सेफ हो गए, मगर आस्था तो अभी सिंगल है न… अगर कोई इस के साथ आ कर बैठ जाए और बदतमीजी करे तो? इस का ध्यान हमें ही रखना है न… एक तरफ तुम बैठो और एक तरफ मैं.”

फिल्म देखने के दौरान पारस ने 1-2 बार आस्था को छू लिया और ‘सौरी’ कह दिया कि वह भूल गया था कि उस के साथ वाली सीट पर दिव्या नहीं, बल्कि आस्था बैठी है. आस्था और दिव्या ने इसे नौर्मल लिया.

आखिरकर शादी वाला दिन भी आ गया. दोनों घरों में शादी की तैयारियां चलने लगीं. दिव्या बहुत खुश थी, मगर पारस को जैसे कोई कमी महसूस हो रही थी. उस के चेहरे से वह खुशी नहीं झलक रही थी, जो दिव्या के चेहरे पर थी.

शादी हुई, दिव्या और पारस की गृहस्थी की गाड़ी चल पड़ी. इस के बावजूद पारस और आस्था को चैन नहीं था. दोनों अकसर घंटों फोन पर बातें करते, कभी दिव्या के सामने तो कभी दिव्या से चोरीछिपे.

इसी बीच दिव्या के पैर भारी हो गए. परिवार के सब लोग बेहद खुश थे.
पारस की मम्मी नहीं थीं. परिवार के नाम पर पारस और उस के पापा ही थे.

दिव्या की तबीयत अकसर खराब रहने लगी, तो उस की देखभाल के लिए पारस कभीकभी आस्था से आने को कह देता, क्योंकि दिव्या की मम्मी नौकरी के चलते नहीं आ सकती थीं. आस्था भी पारस की नजदीकियां तो चाहती ही थी, फिर यह तो सोने पर सुहागा हो गया.

पारस को भी मनचाही मुराद मिल गई. दिव्या तो अपने कमरे में रहती, इसलिए पारस रसोईघर में किसी न किसी बहाने जाता और आस्था के आसपास मंडराता, साथ ही कभीकभी उसे छू लेता था.

अब आस्था को भी पारस का ऐसे छूना अच्छा लगता. वह कुछ न कहती, तो पारस की हिम्मत भी बढ़ जाती. वह कभी उसे प्यारी ‘साली’ कहता और कभी ‘मेरी बीवी की जान तो मेरी भी जान हुई न’ कहता. इसी बहाने कभी वह उसे अपनी बांहों में भी भर लेता था. अब तो आस्था का वहां आनाजाना लगा रहता.

आज दिव्या को 9वां महीना लग गया तो पारस ने कहा, “दिव्या, अब हमें आस्था को बुला लेना चाहिए. डिलीवरी कभी भी हो सकती है.”

“नहीं, हम हर समय आस्था को क्यों परेशान करें… और अब तो मुझे भी डाक्टर ने थोड़ा चलने को कहा है, ताकि डिलीवरी और आसान हो जाए. जिस दिन अस्पताल जाना होगा, तब उसे बुला लेंगे, आप का और पापा का खयाल रखने के लिए.”

पारस बेसब्री से डिलीवरी के दिन का इंतजार कर रहा था, इधर आस्था भी बड़ी बेकरार थी. जल्दी ही वह समय भी आ गया जिस का 2 मूक प्रेमी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. दिव्या को अस्पताल छोड़ कर पारस आस्था को ले आया. सभी अस्पताल पहुंच गए. थोड़ी देर में डिलीवरी हो गई.

नर्स ने बताया,”बधाई हो, चांद सी बेटी आई है.”

सभी बहुत खुश थे. दिव्या की देखभाल का जिम्मा अस्पताल वालों का था, इसलिए किसी को भी अस्पताल में ठहरने के लिए मना कर दिया गया. सब घर चले गए, खाना खाया और सो गए.

मगर 2 जवान दिल तेजी से धड़क रहे थे. पारस आस्था के कमरे में आ गया. वह अभी सोई नहीं थी. नींद उन दोनों की आंखों से कोसों दूर थी. आव देखा न ताव, तपते जिस्म एकदूजे में समाने को तड़प उठे, लिपट गए एकदूसरे से. आस्था के लरजते होंठों ने छू लिया पारस के होंठों को तो मानो एक जलजला आ गया और वह हो गया जो नहीं होना चाहिए था.

इस के बाद तो यह सिलसिला रोज चलता रहा. दिव्या के घर आने के बाद जब आस्था वापस चली गई, तब भी यही सिलसिला चलता रहा. तब यह मिलन किसी होटल के कमरे में होता.

इधर जब दिव्या की बेटी पैदा हुई तो तारा डूबा था, इसलिए अंधविश्वास के चलते उस का नामकरण 2-3 महीने तक नहीं हो सकता था.

आज दिव्या की बेटी का नामकरण संस्कार था. उस ने आस्था को भी बुलाया था, लेकिन वह आस्था को देख कर हैरान थी, क्योंकि उस का बढ़ा हुआ पेट एक अलग ही कहानी कह रहा था.

ब्लैकमेल : क्या रमा मुंहतोड़ जवाब दे पाई?

रमासन्न रह गई. उस के मोबाइल पर व्हाट्सऐप पर किसी ने उस के अंतरंग क्षणों का वीडियो भेजा था और साथ में यह संदेश भी कि यदि वह इस वीडियो तथा इस तरह के और वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड होते नहीं देखना चाहती तो उस के साथ उसे हमबिस्तर होना पड़ेगा और वह सबकुछ करना पड़ेगा जो वह उस वीडियो में बड़े प्यार और कुशलता से कर रही है.

वह घर में फिलहाल अकेली थी. प्रकाश औफिस जा चुका था. वह शाम 7 बजे के बाद ही घर लौटता है. क्या करे, वह समझ नहीं पा रही थी. ‘प्रकाश को फोन करूं क्या?’ उस ने सोचा.

नहीं, पहले समझ तो ले मामला क्या है मानो उस ने खुद से कहा. उस ने वीडियो क्लिप को ध्यान से देखा. कहीं यह वीडियो डाक्टर्ड तो नहीं? किसी पोर्न साइट में उस के चेहरे को फिट कर दिया गया हो शायद. पर नहीं. यह डाक्टर्ड वीडियो नहीं था. वीडियो में साफसाफ वही थी. दृश्य भी उस के बैडरूम का ही था

और उस के साथ जो पुरुष था वह भी प्रकाश ही था. बैडशीट भी उस की थी. इतनी कुशलता से कोई कैसे पोर्न वीडियो में तबदीली कर सकता है?

प्रकाश ओरल सैक्स का दीवाना था. वह तो पहले संकोच करती थी पर धीरेधीरे उस की झिझक भी मिट गई थी. अब वह भी इस का भरपूर आनंद लेने लगी थी. साथ ही प्रकाश उन क्षणों का आनंद रोशनी में ही लेना चाहता था. फ्लैट में और कोई था नहीं. अत: अकसर वे रोशनी में ही यौन सुख का आनंद लेते थे.

वीडियो में वह प्रकाश के साथ थी और बैडरूम के ठीक सामने स्विचबोर्ड भी साफसाफ दिख रहा था. पर ऐसा कैसे हो सकता है? यह दृश्य तो लगता है किसी ने जैसे कमरे में सामने खड़े हो कर फिल्माया है. उस का सिर चकराने लगा. उस की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था.

तभी उस के दिमाग में एक विचार कौंधा. ट्रूकौलर पर उस ने उस नंबर को सर्च किया, जिस से वीडियो क्लिप भेजा गया था. देवेंद्र महाराष्ट्र. ट्रूकौलर पर यही सूचना थी. देवेंद्र कौन हो सकता है? क्या इस नंबर पर कौल कर पता करे या फिर प्रकाश से बोले. वह कोई निर्णय कर पाती उस के पहले ही उस के मोबाइल की घंटी बज उठी.

‘‘हैलो.’’

‘‘भाभीजी नमस्कार, आशा है वीडियो आप को पसंद आया होगा. ऐसे कई वीडियो हैं हमारे पास आप के. कम से कम 25. कहो तो इन्हें सोशल मीडिया पर अपलोड कर दूं?’’

‘‘कौन हो तुम और क्या चाहते हो?’’

‘‘बहुत सुंदर प्रश्न किया है आप ने. कौन हूं मैं और क्या चाहता हूं? कौन हूं यह तो सामने आने पर पला चल जाएगा और क्या चाहता हूं

यह तो वीडियो क्लिप के साथ मैं ने बता दिया है आप को. सच पूछो भाभीजी तो आप के वीडियो का मैं इतना दीवाना हूं कि मैं ने तो पोर्न साइट देखना ही छोड़ दिया है. आप तो पोर्न सुपर स्टार को भी मात कर देती हैं. आप ने मुझे अपना दीवाना बना लिया है.’’

रमा समझ नहीं पाई कि क्या किया जाए. गुस्सा तो उसे बहुत आ रहा था पर उस से ज्यादा उसे डर लग रहा था कि कहीं सचमुच उस ने सोशल मीडिया पर वीडियो अपलोड कर दिया तो वह क्या करेगी. फिर उस ने एक उपाय सोचा और उस के अनुसार उसे जवाब दिया, ‘‘देखो, मैं तैयार हूं पर इस के लिए सुरक्षित जगह होनी चाहिए.’’

‘‘आप के घर से सुरक्षित जगह और क्या होगी? प्रकाशजी तो रात में ही वापस आते हैं न?’’

रमा चौंक पड़ी. मतलब वीडियो भेजने वाला प्रकाश का नाम भी जानता है और वह कब आता है यह भी उसे पता है.

‘‘आते तो 7 बजे के बाद ही हैं पर औफिस तो इसी शहर में है. कहीं बीच में आ गए तो फिर मेरी क्या हालत होगी? 2 दिनों के बाद वे अहमदाबाद जाने वाले हैं 1 सप्ताह के लिए. इस बीच में आप की बात मान सकती हूं.’’

‘‘अरे, वाह आप तो बड़ी समझदार निकलीं. मैं तो सोच रहा था आप रोनाधोना शुरू कर देंगी.’’

‘‘बस, आप वीडियो किसी को मत दिखाइए और मेरे मोबाइल पर कोई वीडियो मत भेजिए. ये कहीं देख न लें… इसे मैं डिलीट कर रही हूं.’’

‘‘जैसे 1 डिलीट करेंगें वैसे ही 5 भी डिलीट कर सकती हैं. मैं कुछ और वीडियो भेजता हूं. देख तो लीजिए आप कितनी कुशलतापूर्वक काम को अंजाम देती हैं. देख कर आप डिलीट कर दीजिएगा. इन वीडियोज ने तो मेरी नींद उड़ा दी है. इंतजार रहेगा 2 दिन बीतने का. हां, कोईर् चालाकी मत कीजिएगा. मुझे अच्छा नहीं लगेगा कि दुनिया आप की इस कलाकारी को देखे. रखता हूं.’’

फोन डिसकनैक्ट हो गया. कुछ ही देर में एक के बाद एक कई क्लिप उस के मोबाइल पर आते गए. उस ने 1-1 क्लिप को देखा. ऐसा लग रहा था मानो कोई अदृश्य हो कर उन के क्रीड़ारत वीडियोज बना रहा था. शाम को प्रकाश आया तो रमा का चेहरा उतरा हुआ था. ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ प्रकाश ने टाई की नौट ढीली करते हुए पूछा. ‘‘तबीयत बिलकुल ठीक नहीं है, बड़ी मुसीबत में हूं. दिनभर सोचतेसोचते दिमाग भन्ना गया है,’’ रमा ने तौलिया और पाजामा उस की ओर बढ़ाते हुए कहा. ‘‘कितनी बार तुम्हें सोचने के लिए मना किया है. छोटा सा दिमाग और सोचने जैसा भारीभरकम काम,’’ कपड़े बदलते हुए प्रकाश ने चुटकी ली.

‘‘पहले फ्रैश हो लो, चायनाश्ता कर लो, फिर बात करती हूं,’’ रमा ने कहा और फिर रसोई की ओर चल दी.

प्रकाश फ्रैश हो कर बाथरूम से आ कर नाश्ता कर चाय पीने लगा. रमा चाय का कप हाथ में लिए उदास बैठी थी.

‘‘हां, मुहतरमा, बताइए क्या सोच कर अपने छोटे से दिमाग को परेशान कर रही हैं?’’ प्रकाश ने यों पूछा मानो वह उसे किसी फालतू बात के लिए परेशान करेगी.

जवाब में रमा ने अपना मोबाइल फोन उठाया, स्क्रीन को अनलौक किया और उस वीडियो क्लिप को चला कर उसे दिखाया.

वीडियो देख प्रकाश भौचक्का रह गया, ‘‘यह… क्या है?’’

‘‘कोई देवेंद्र है, जिस ने मुझे यह क्लिप भेजा है. इसे सोशल साइट पर अपलोड करने की धमकी दे रहा था. अपलोड न करने के लिए वह मेरे साथ वही सब करना चाहता है जो वीडियो में मैं तुम्हारे साथ कर रही हूं. मैं ने उस से 2 दिन की मोहलत मांगी है. उस से कहा है कि 2 दिन बाद तुम अहमदाबाद जा रहे हो. उस दौरान उस की मांग पूरी की जाएगी.’’

प्रकाश 1-1 क्लिप को देख रहा था. उस की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि कैसे कोई इतना स्पष्ट वीडियो बना सकता है. उस ने अपने बैड के पास जा कर देखा. कहीं कोई गुप्त कैमरा लगाने की गुंजाइश नहीं थी और कोई गुप्त कैमरा लगाता कैसे. घर में तो किसी अन्य के प्रवेश करने का प्रश्न ही नहीं है. अपार्टमैंट में सिक्युरिटी की अनुमति के बिना कोई आ ही नहीं सकता. उस के प्लैट के सामने अपार्टमैंट का ही दूसरा फ्लैट था जो काफी दूर था. ‘‘हमें पुलिस को खबर करनी होगी,’’ प्रकाश ने कहा, ‘‘पर पहले एक बार खुद भी समझने की कोशिश की जाए कि मामला क्या है.’’ दोनों काफी तनाव में थे. खाना खा कर कुछ देर तक टीवी देखते रहे पर किसी चीज में मन नहीं लग रहा था. रात के 11 बजे दोनों सोने बैड पर गए, पर नींद आंखों से कोसों दूर थी. पतिपत्नी दोनों की ही इच्छा नहीं थी और दिनों की तरह रतिक्रिया में रत होने की. और दिन होता तो प्रकाश कहां मानता. मगर आज तनाव ने सबकुछ बदल दिया था.

प्रकाश की बांहों में लेटी रमा कुछ सोच रही थी. प्रकाश छत को निहार रहा था. एकाएक प्रकाश को खिड़की के पास कोई संदेहास्पद वस्तु दिखाई दी. वह झपट कर खिड़की के पास गया. उस ने देखा सैल्फी स्टिक की सहायता से सामने वाले फ्लैट की खिड़की से कोई मोबाइल से उन की वीडियोग्राफी कर रहा था. प्रकाश तुरंत बाहर निकल कर उस फ्लैट में गया और डोरबैल बजाई. पर मोबाइल में शायद उस ने उसे बाहर निकलते हुए देख लिया था. काफी देर डोरबैल बजाने के बाद भी दरवाजा नहीं खुला तो प्रकाश वापस आ गया. उस ने इंटरकौम से सोसाइटी के सचिव को फोन कर मामले की जानकारी दी. सचिव ने बताया कि उस में कोई देवेंद्र नाम का व्यक्ति रहता है और किसी प्राइवेट फर्म में काम करता है. इस तरह की घटना से सभी हैरान थे.

काफी कोशिश की गई देवेंद्र से बात करने की. पर न तो उस ने फोन उठाया न ही दरवाजा खोला. हार कर सिक्युरिटी को ताकीद कर दी गई कि उस व्यक्ति को सोसाइटी से बाहर न निकलने दिया जाए.

दूसरे दिन सुबह थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई गई और फिर देवेंद्र को गिरफ्तार कर लिया गया. ‘‘तुम ने बहुत अच्छा निर्णय लिया कि वीडियो के बारे में मुझे बता दिया. यदि उस के ब्लैकमेल के झांसे में आ जाती तो काफी मुश्किल होती और फिर वह न जाने कितने लोगों को इसी तरह ब्लैकमेल करते रहता,’’ प्रकाश ने बिस्तर पर लेटेलेटे रमा की कमर में हाथ डालते हुए कहा. रमा ने उस के हाथ को हटाते हुए कहा, ‘‘पहले खिड़की के परदे ठीक करो, बत्ती बुझाओ फिर मेरे करीब आओ.’’ प्रकाश खिड़की के परदे ठीक करने के लिए उठ गया.

मनपसंद: मेघा ने परिवार के प्रति कौनसा निभाया था फर्ज

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पापी पेट का सवाल है : मजदूर औरतों की कड़वी हकीकत

शहर में बहुमंजिला इमारत का काम जोरों पर था. ठेकेदार आज ही एक ट्रक में ढेर सारे मजदूर ले कर आया था. सभी मजदूर भेड़बकरियों की तरह ठूंस कर लाए गए थे और आते ही ठेकेदार ने मजदूरों को काम पर लगा दिया था.

इन मजदूरों में 60 फीसदी औरतें और लड़कियां थीं, जो ज्यादातर दलित परिवारों की थीं. सारे गरीब थे, उन की गांव में जमीन नहीं थी और ज्यादातर मजदूर आपस में एकदूसरे के रिश्तेदार  भी थे.

मजदूर औरतें इतनी गरमी में भी खुद को साड़ी और एक लंबे कपड़े से लपेटे हुए थीं. साइट का ठेकेदार, मुंशी और इंजीनियर ललचाई आंखों से इन औरतों के मांसल अंगों का जायजा ले रहे थे. उन्हें किसी न किसी बहाने छूने की कोशिश कर रहे थे. कभी काम समझाने के बहाने से तो कभी कुहनी के वार से, तो कुछ कहने के बहाने और ज्यादातर मौकों पर वे कामयाब भी हो रहे थे.

हमारे देश में मजदूर औरतों को मर्दों के बजाय दोहरा शोषण झेलना पड़ता है. एक तो औरत होने के नाते इन्हें मर्द मजदूरों से कम तनख्वाह मिलती है, जबकि इन दोनों से ही बराबर का सा काम लिया जाता है और दूसरा इन मजदूर औरतों का यौन शोषण भी खूब होता है.

कानूनन इन मजदूर औरतों से सिर्फ 8 घंटे ही काम लिया जाना चाहिए, पर ठेकेदार इन से  12-12 घंटे काम लेते हैं.

इन मजदूर औरतों को सब से तुच्छ और सस्ती चीज के रूप में देखा जाता?है और फिर भी इन की कमी नहीं होती, बल्कि इन की तादाद में बढ़ोतरी ही होती दिखती है, जिस की ये वजहें हैं :

* लगातार बढ़ती आबादी.

* ठेकेदार का फायदा.

* अनपढ़ होना.

* मजदूर मातापिता द्वारा अपने बच्चों की अनदेखी.

एक कारखाने की साइट पर काम कर रही एक मजदूर औरत फुजला (बदला हुआ नाम) बताती है कि उसे सुबह 8 बजे अपनी साइट पर पहुंच कर काम शुरू करना होता है और इस के लिए उसे हर हाल में सुबह 5 बजे जागना पड़ता है, ताकि वह अपने परिवार के लिए खाना बना कर रख सके. पर यहां पर मजदूर औरतों के लिए अलग से न ही शौचालय का इंतजाम है और न ही नहाने के लिए अलग से कोई बाथरूम वगैरह.

फुजला आगे बताती है, ‘‘जब मैं सुबहसुबह खुले आसमान के नीचे नहाती थी, तब एक दिन मुझे महसूस हुआ कि कोई छिप कर देख रहा?है और एक दिन जब मैं ने नहाते समय  अपने पति से बाहर की तरफ ध्यान देने को कहा, तो उन्होंने पाया कि कारखाने में काम करने  वाले कुछ लोग न केवल मुझे घूर रहे थे, बल्कि अपने मोबाइल फोन में मेरा वीडियो भी बना  रहे थे.’’

फुजला के पति के विरोध करने पर उन लोगों ने उसे बहुत मारा और वीडियो को इंटरनैट पर डाल देने की धमकी दे कर चले गए. बाद में साइट के मुंशी ने उस वीडियो के बदले में कुछ लोगों के साथ अपनी इज्जत का सौदा करने की शर्त पर ही उस वीडियो को डिलीट करने की बात कही.

कुछ इसी तरह की बात बताते समय सुनीता नाम की एक मजदूर औरत की आंखों में आंसू आ गए. उस ने बताया, ‘‘काम करने के दौरान ही ठेकेदर मेरे साथ छेड़खानी करता है और सैक्स संबंध बनाने की भी कोशिश करता है. विरोध करने पर मुझे और मेरे परिवार को नौकरी से निकाल देने की धमकी देता है.’’

बेचारी सुनीता को पापी पेट की खातिर यह सब सहना पड़ता है.

हद तो जब हो जाती है जब औरत मजदूरों को काम के दौरान अपने दुधमुंहे बच्चों को दूध तक पिलाने की छूट नहीं होती है और अगर कोई औरत अपने बच्चे को दूध पिलाती है तो उतना समय वह शाम को ज्यादा काम करेगी, तभी उस की छुट्टी हो सकेगी.

भूख, गरीबी, बेरोजगारी से तो लड़ लेती हैं ये मजदूर औरतें, पर इन छिछोरों की गिद्ध जैसी नजरों से बचना एक बहुत बड़ी चुनौती होती है. कारखानों में काम करने वाली औरत मजदूरों के लिए तो परेशानी और भी बढ़ जाती?है, क्योंकि इन्हें ठेकेदार और मुंशी के अलावा कारखाने के ही लोगों से खतरा होता है.

मजदूर औरतें इस सब का विरोध क्यों नहीं करती हैं या इन लोगों को ऐसा करने से क्यों नहीं रोकती हैं? ऐसा पूछे जाने पर मीरा देवी बताती है, ‘‘उस से क्या होगा साहब… कायदाकानून तो सिर्फ ऊंची जगह पर बैठे लोगों के लिए है… हम लोग तो करम में ही मजदूरी करना लिखवा कर लाए हैं… मजदूर ही पैदा हुए हैं और मजदूरी में ही  मर जाएंगे.

‘‘मैं ने अपने साथ शोषण करने वाले लोगों के खिलाफ आवाज उठाई भी थी, पर बदले में उन लोगों ने मेरे पति को बहुत मारा और हमें काम से निकाल दिया. बकाया पैसा भी नहीं दिया… इसलिए अब हम चुप ही रहते हैं… नाइंसाफी सहो और काम करो.

‘‘कभी अगर बच्चा बीमार हो जाए तो भी ये लोग पैसा देने में आनाकानी करते हैं और हम लोगों का एक महीने का पैसा दबा कर रखते हैं, ताकि कहीं हम काम छोड़ कर जा न सकें.’’

मजदूर औरतों की समस्याएं सुन कर किसी का भी मन पसीज सकता है, पर इन मोटे पैसों में खेल रहे ठेकेदारों और मुंशियों का ही दिल नहीं पसीजता है और इन मजदूरों ने भी शायद हालात के साथ समझौता ही कर लिया?है, क्योंकि कुछ कहावतें हमेशा ही अपने को सच साबित करती हैं जैसे ‘मरता क्या न करता’ और ‘पापी पेट का सवाल है’.

भले ही आज चांद पर जमीन बिकने लगी हो, पर एक कड़वी सचाई यह भी है कि हमारे देश की मजदूर औरतें कल भी पीडि़त थीं, आज भी पीडि़त हैं और आगे भी उन की मुश्किलों का कोई खात्मा होता नहीं दिखता.

Raksha bandhan- सांप सीढ़ी: प्रशांत के साथ क्या हुआ था?

जब से फोन आया था, दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया था. सब से पहले तो खबर सुन कर विश्वास ही नहीं हुआ, लेकिन ऐसी बात भी कोई मजाक में कहता है भला.

फिर कांपते हाथों से किसी तरह दिवाकर को फोन लगाया. सुन कर दिवाकर भी सन्न रह गए.

‘‘मैं अभी मौसी के यहां जाऊंगी,’’ मैं ने अवरुद्ध कंठ से कहा.

‘‘नहीं, तुम अकेली नहीं जाओगी. और फिर हर्ष का भी तो सवाल है. मैं अभी छुट्टी ले कर आता हूं, फिर हर्ष को दीदी के घर छोड़ते हुए चलेंगे.’’

दिवाकर की बात ठीक ही थी. हर्ष को ऐसी जगह ले जाना उचित नहीं था. मेरा मस्तिष्क भी असंतुलित हो रहा था. हाथपैर कांप रहे थे, मन में भयंकर उथलपुथल मची हुई थी. मैं स्वयं भी अकेले जाने की स्थिति में कतई नहीं थी.

पर इस बीतते जा रहे समय का क्या करूं. हर गुजरता पल मुझ पर पहाड़ बन कर टूट रहा था. दिवाकर को बैंक से यहां तक आने में आधा घंटा लग सकता था. फिर दीदी का घर दूसरे छोर पर, वहां से मौसी का घर 5-6 किलोमीटर की दूरी पर. उन के घर के पास ही अस्पताल है, जहां प्रशांत अपने जीवन की शायद आखिरी सांसें गिन रहा है. कम से कम फोन पर खबर देने वाले व्यक्ति ने तो यही कहा था कि प्रशांत ने जहर इतनी अधिक मात्रा में खा लिया है कि उस के बचने की कोई उम्मीद नहीं है.

जिस प्रशांत को मैं ने गोद में खिलाया था, जिस ने मुझे पहलेपहल छुटकी के संबोधन से पदोन्नत कर के दीदी का सम्मानजनक पद प्रदान किया था, उस प्रशांत के बारे में इस से अधिक दुखद मुझे क्या सुनने को मिलता.

उस समय मैं बहुत छोटी थी. शायद 6-7 साल की जब मौसी और मौसाजी हमारे पड़ोस में रहने आए. उन का ममतामय व्यक्तित्व देख कर या ठीकठीक याद नहीं कि क्या कारण था कि मुझे उन्हें देख कर मौसी संबोधन ही सूझा.

यह उम्र तो नामसझी की थी, पर मांपिताजी के संवादों से इतना पता तो चल ही गया था कि मौसी की शादी हुए 2-3 साल हो चुके थे, और निस्संतान होने का उन्हें गहरा दुख था. उस समय उन की समूची ममता की अधिकारिणी बनी मैं.

मां से डांट खा कर मैं उन्हीं के आंचल में जा छिपती. मां के नियम बहुत कठोर थे. शाम को समय से खेल कर घर लौट आना, फिर पहाड़े और कविताएं रटना, तत्पश्चात ही खाना नसीब होता था. उतनी सी उम्र में भी मुझे अपना स्कूलबैग जमाना, पानी की बोतल, अपने जूते पौलिश करना आदि सब काम स्वयं ही करने पड़ते थे. 2 भाइयों की एकलौती छोटी बहन होने से भी कोई रियायत नहीं मिलती थी.

उस समय मां की कठोरता से दुखी मेरा मन मौसी की ममता की छांव तले शांति पाता था.

मौसी जबतब उदास स्वर में मेरी मां से कहा करती थीं, ‘बस, यही आस है कि मेरी गोद भरे, बच्चा चाहे काला हो या कुरूप, पर उसे आंखों का तारा बना कर रखूंगी.’

मौसी की मुराद पूरी हुई. लेकिन बच्चा न तो काला था न कुरूप. मौसी की तरह उजला और मौसाजी की तरह तीखे नाकनक्श वाला. मांबाप के साथसाथ महल्ले वालों की भी आंख का तारा बन गया. मैं तो हर समय उसे गोद में लिए घूमती फिरती.

प्रशांत कुशाग्रबुद्धि निकला. मैं ने उसे अपनी कितनी ही कविताएं कंठस्थ करवा दी थीं. तोतली बोली में गिनती, पहाड़े, कविताएं बोलते प्रशांत को देख कर मौसी निहाल हो जातीं. मां भी ममता का प्रतिरूप, तो बेटा भी उन के स्नेह का प्रतिदान अपने गुणों से देता जा रहा था. हर साल प्रथम श्रेणी में ही पास होता. चित्रकला में भी अच्छा था. आवाज भी ऐसी कि कोई भी महफिल उस के गाने के बिना पूरी नहीं होती थी. मैं उस से अकसर कहती, ‘ऐसी सुरीली आवाज ले कर किसी प्रतियोगिता के मैदान में क्यों नहीं उतरते भैया?’ मैं उसे लाड़ से कभीकभी भैया कहा करती थी. मेरी बात पर वह एक क्षण के लिए मौन हो जाता, फिर कहता, ‘क्या पता, उस में मैं प्रथम न आऊं.’

‘तो क्या हुआ, प्रथम आना जरूरी थोड़े ही है,’ मैं जिरह करती, लेकिन वह चुप्पी साध लेता.

बोलने में विनम्रता, चाल में आत्मविश्वास, व्यवहार में बड़ों का आदरमान, चरित्र में सोना. सचमुच हजारों में एक को ही नसीब होता है ऐसा बेटा. मौसी वाकई समय की बलवान थीं.

मां के अनुशासन की डोरी पर स्वयं को साधती मैं विवाह की उम्र तक पहुंच चुकी थी. एमए पास थी, गृहकार्य में दक्ष थी, इस के बावजूद मेरा विवाह होने में खासी परेशानी हुई. कारण था, मेरा दबा रंग. प्रत्येक इनकार मन में टीस सी जगाता रहा. पर फिर भी प्रयास चलते रहे.

और आखिरकार दिवाकर के यहां बात पक्की हो गई. इस बात पर देर तक विश्वास ही नहीं हुआ. बैंक में नौकरी, देखने में सुदर्शन, इन सब से बढ़ कर मुझे आकर्षित किया इस बात ने कि वे हमारे ही शहर में रहते थे. मां से, मौसी से और खासकर प्रशांत से मिलनाजुलना आसान रहेगा.

पर मेरी शादी के बाद मेरी मां और पिताजी बड़े भैया के पास भोपाल रहने चले गए, इसलिए उन से मिलना तो होता, पर कम.

मौसी अलबत्ता वहीं थीं. उन्होंने शादी के बाद सगी मां की तरह मेरा खयाल रखा. मुझे और दिवाकर को हर त्योहार पर घर खाने पर बुलातीं, नेग देतीं.

प्रशांत का पीईटी में चयन हो चुका था. वह धीरगंभीर युवक बन गया था. मेरे दोनों सगे भाई तो कोसों दूर थे. राखी व भाईदूज का त्योहार इसी मुंहबोले छोटे भाई के साथ मनाती.

स्कूटर की जानीपहचानी आवाज आई, तो मेरी विचारशृंखला टूटी. दिवाकर आ चुके थे. मैं हर्ष की उंगली पकड़े बाहर आई. कुछ कहनेसुनने का अवसर ही नहीं था. हर्ष को उस की बूआ के घर छोड़ कर हम मौसी के घर जा पहुंचे.

घर के सामने लगी भीड़ देख कर और मौसी का रोना सुन कर कुछ भी जानना बाकी न रहा. भीतर प्रशांत की मृतदेह पर गिरती, पछाड़ें खाती मौसी और पास ही खड़े आंसू बहाते मौसाजी को सांत्वना देना सचमुच असंभव था.

शब्द कभीकभी कितने बेमानी, कितने निरर्थक और कितने अक्षम हो जाते हैं, पहली बार इस बात का एहसास हुआ. भरी दोपहर में किस प्रकार उजाले पर कालिख पुत जाती है, हाथभर की दूरी पर खड़े लोग किस कदर नजर आते हैं, गुजरे व्यक्ति के साथ खुद भी मर जाने की इच्छा किस प्रकार बलवती हो उठती है, मुंहबोली बहन हो कर मैं इन अनुभूतियों के दौर से गुजर रही थी. सगे मांबाप के दुख का तो कोई ओरछोर ही नहीं था.

रहरह कर एक ही प्रश्न हृदय को मथ रहा था कि प्रशांत ने ऐसा क्यों किया? मांबाप का दुलारा, 2 वर्ष पहले ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी. अभी उसे इसी शहर में एक साधारण सी नौकरी मिली हुई थी, पर उस से वह संतुष्ट नहीं था. बड़ी कंपनियों में नौकरी के लिए आवेदन कर रहा था. अपने दोस्त की बहन उसे जीवनसंगिनी के रूप में पसंद थी. मौसी और मौसाजी को एतराज होने का सवाल ही नहीं था. लड़की उन की बचपन से देखीपरखी और परिवार जानापहचाना था. तब आखिर कौन सा दुख था जिस ने उसे आत्महत्या का कायरतापूर्ण निर्णय लेने के लिए मजबूर कर दिया.

सच है, पासपास रहते हुए भी कभीकभी हमारे बीच लंबे फासले उग आते हैं. किसी को जाननेसमझने का दावा करते हुए भी हम उस से कितने अपरिचित रहते हैं. सन्निकट खड़े व्यक्ति के अंतर्मन को छूने में भी असमर्थ रहते हैं.

अभी 2 दिन पहले तो प्रशांत मेरे घर आया था. थोड़ा सा चुपचुप जरूर लग रहा था, पर इस बात का एहसास तक न हुआ था कि वह इतने बड़े तूफानी दौर से गुजर रहा है. कह रहा था, ‘दीदी, इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ है. चयन की पूरी उम्मीद है.’

सुन कर बहुत अच्छा लगा था. उस की महत्त्वाकांक्षा पूरी हो, इस से अधिक भला और क्या चाहिए.

और आज? क्यों किया प्रशांत ने ऐसा? मौसी और मौसाजी से तो कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई. मन में प्रश्न लिए मैं और दिवाकर घर लौट आए.

धीरेधीरे प्रशांत की मृत्यु को 5-6 माह बीत चुके थे. इस बीच मैं जितनी बार मौसी से मिलने गई, लगा, जैसे इस दुनिया से उन का नाता ही टूट गया है. खोईखोई दृष्टि, थकीथकी देह अपने ही मौन में सहमी, सिमटी सी. बहुत कुरेदने पर बस, इतना ही कहतीं, ‘इस से तो अच्छा था कि मैं निस्संतान ही रहती.’

उन की बात सुन कर मन पर पहाड़ सा बोझ लद जाता. मौसाजी तो फिर भी औफिस की व्यस्तताओं में अपना दुख भूलने की कोशिश करते, पर मौसी, लगता था इसी तरह निरंतर घुलती रहीं तो एक दिन पागल हो जाएंगी.

समय गुजरता गया. सच है, समय से बढ़ कर कोई मरहम नहीं. मौसी, जो अपने एकांतकोष में बंद हो गई थीं, स्वयं ही बाहर निकलने लगीं. कई बार बुलाने के बावजूद वे इस हादसे के बाद मेरे घर नहीं आई थीं. एक रोज उन्होंने अपनेआप फोन कर के कहा कि वे दोपहर को आना चाहती हैं.

जब इंसान स्वयं ही दुख से उबरने के लिए पहल करता है, तभी उबर पाता है. दूसरे उसे कितना भी हौसला दें, हिम्मत तो उसे स्वयं ही जुटानी पड़ती है.

मेरे लिए यही तसल्ली की बात थी कि वे अपनेआप को सप्रयास संभाल रही हैं, समेट रही हैं. कभी दूर न होने वाले अपने खालीपन का इलाज स्वयं ढूंढ़ रही हैं.

8-10 महीनों में ही मौसी बरसों की बीमार लग रही थीं. गोरा रंग कुम्हला गया था. शरीर कमजोर हो गया था. चेहरे पर अनगिनत उदासी की लकीरें दिखाई दे रही थीं. जैसे यह भीषण दुख उन के वर्तमान के साथ भविष्य को भी लील गया है.

मौसी की पसंद के ढोकले मैं ने पहले से ही बना रखे थे. लेकिन मौसी ने जैसे मेरा मन रखने के लिए जरा सा चख कर प्लेट परे सरका दी. ‘‘अब तो कुछ खाने की इच्छा नहीं रही,’’ मौसी ने एक दीर्घनिश्वास छोड़ा.

मैं ने प्लेट जबरन उन के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘खा कर देखिए तो सही कि आप की छुटकी को कुछ बनाना आया कि नहीं.’’

उस दिन हर्ष की स्कूल की छुट्टी थी. यह भी एक तरह से अच्छा ही था क्योंकि वह अपनी नटखट बातों से वातावरण को बोझिल नहीं होने दे रहा था.

प्रशांत का विषय दरकिनार रख हम दोनों भरसक सहज वार्त्तालाप की कोशिश में लगी हुई थीं.

तभी हर्ष सांपसीढ़ी का खेल ले कर आ गया, ‘‘नानी, हमारे साथ खेलेंगी.’’ वह मौसी का हाथ पकड़ कर मचलने लगा. मौसी के होंठों पर एक क्षीण मुसकान उभरी शायद विगत का कुछ याद कर के, फिर वे खेलने के लिए तैयार हो गईं.

बोर्ड बिछ गया.

‘‘नानी, मेरी लाल गोटी, आप की पीली,’’ हर्ष ने अपनी पसंदीदा रंग की गोटी चुन ली.

‘‘ठीक है,’’ मौसी ने कहा.

‘‘पहले पासा मैं फेंकूंगा,’’ हर्ष बहुत ही उत्साहित लग रहा था.

दोनों खेलने लगे. हर्ष जीत की ओर अग्रसर हो रहा था कि सहसा उस के फेंके पासे में 4 अंक आए और 99 के अंक पर मुंह फाड़े पड़ा सांप उस की गोटी को निगलने की तैयारी में था. हर्ष चीखा, ‘‘नानी, हम नहीं मानेंगे, हम फिर से पासा फेंकेंगे.’’

‘‘बिलकुल नहीं. अब तुम वापस 6 पर जाओ,’’ मौसी भी जिद्दी स्वर में बोलीं.

दोनों में वादप्रतिवाद जोरशोर से चलने लगा. मैं हैरान, मौसी को हो क्या गया है. जरा से बच्चे से मामूली बात के लिए लड़ रही हैं. मुझ से रहा नहीं गया. आखिर बीच में बोल पड़ी, ‘‘मौसी, फेंकने दो न उसे फिर से पासा, जीतने दो उसे, खेल ही तो है.’’

‘‘यह तो खेल है, पर जिंदगी तो खेल नहीं है न,’’ मौसी थकेहारे स्वर में बोलीं.

मैं चुप. मौसी की बात बिलकुल समझ में नहीं आ रही थी.

‘‘सुनो शोभा, बच्चों को हार सहने की भी आदत होनी चाहिए. आजकल परिवार बड़े नहीं होते. एक या दो बच्चे, बस. उन की हर आवश्यकता हम पूरी कर सकते हैं. जब तक, जहां तक हमारा वश चलता है, हम उन्हें हारने नहीं देते, निराशा का सामना नहीं करने देते. लेकिन ऐसा हम कब तक कर सकते हैं? जैसे ही घर की दहलीज से निकल कर बच्चे बाहर की प्रतियोगिता में उतरते हैं, हर बार तो जीतना संभव नहीं है न,’’ मौसी ने कहा.

मैं उन की बात का अर्थ आहिस्ताआहिस्ता समझती जा रही थी.

‘‘तुम ने गौतम बुद्ध की कहानी तो सुनी होगी न, उन के मातापिता ने उन के कोमल, भावुक और संवेदनशील मन को इस तरह सहेजा कि युवावस्था तक उन्हें कठोर वास्तविकताओं से सदा दूर ही रखा और अचानक जब वे जीवन के 3 सत्य- बीमारी, वृद्धावस्था और मृत्यु से परिचित हुए तो घबरा उठे. उन्होंने संसार का त्याग कर दिया, क्योंकि संसार उन्हें दुखों का सागर लगने लगा. पत्नी का प्यार, बच्चे की ममता और अथाह राजपाट भी उन्हें रोक न सका.’’

मौसी की आंखों से अविरल अश्रुधार बहती जा रही थी, ‘‘पंछी भी अपने नन्हे बच्चों को उड़ने के लिए पंख देते हैं. तत्पश्चात उन्हें अपने साथ घोंसलों से बाहर उड़ा कर सक्षम बनाते हैं. खतरों से अवगत कराते हैं और हम इंसान हो कर अपने बच्चों को अपनी ममता की छांव में समेटे रहते हैं. उन्हें बाहर की कड़ी धूप का एहसास तक नहीं होने देते. एक दिन ऐसा आता है जब हमारा आंचल छोटा पड़ जाता है और उन की महत्त्वाकांक्षाएं बड़ी. तब क्या कमजोर पंख ले कर उड़ा जा सकता है भला?’’

मौसी अपनी रौ में बोलती जा रही थीं. उन के कंधे पर मैं ने अपना हाथ रख कर आर्द्र स्वर में कहा, ‘‘रहने दो मौसी, इतना अधिक न सोचो कि दिमाग की नसें ही फट जाएं.’’

‘‘नहीं, आज मुझे स्वीकार करने दो,’’ मौसी मुझे रोकते हुए बोलीं, ‘‘प्रशांत को पालनेपोसने में भी हम से बड़ी गलती हुई. बचपन से खेलखेल में भी हम खुद हार कर उसे जीतने का मौका देते रहे. एकलौता था, जिस चीज की फरमाइश करता, फौरन हाजिर हो जाती. उस ने सदा जीत का ही स्वाद चखा. ऐसे क्षेत्र में वह जरा भी कदम न रखता जहां हारने की थोड़ी भी संभावना हो.’’ मौसी एक पल के लिए रुकीं, फिर जैसे कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘जानती हो, उस ने आत्महत्या क्यों की? उसे जिस बड़ी कंपनी में नौकरी चाहिए थी, वहां उसे नौकरी नहीं मिली. भयंकर बेरोजगारी के इस जमाने में मनचाही नौकरी मिलना आसान है क्या? अब तक सदा सकारात्मक उत्तर सुनने के आदी प्रशांत को इस मामूली असफलता ने तोड़ दिया और उस ने…’’

मौसी दोनों हाथों में मुंह छिपा कर फूटफूट कर रो पड़ीं. मैं ने उन का सिर अपनी गोद में रख लिया.

मौसी का आत्मविश्लेषण बिलकुल सही था और मेरे लिए सबक. मां के अनुशासन तले दबीसिमटी मैं हर्ष के लिए कुछ ज्यादा ही उन्मुक्तता की पक्षधर हो गई थी. उस की उचित, अनुचित, हर तरह की फरमाइशें पूरी करने में मैं धन्यता अनुभव करती. परंतु क्या यह ठीक था?

मां और पिताजी ने हमें अनुशासन में रखा. हमारी गलतियों की आलोचना की. बचपन से ही गिनती के खिलौनों से खेलने की, उन्हें संभाल कर रखने की आदत डाली. प्यार दिया पर गलतियों पर सजा भी दी. शौक पूरे किए पर बजट से बाहर जाने की कभी इजाजत नहीं दी. सबकुछ संयमित, संतुलित और सहज. शायद इस तरह से पलनेबढ़ने से ही मुझ में एक आत्मबल जगा. अब तक तो इस बात का एहसास भी नहीं हुआ था पर शायद इसी से एक संतुलित व्यक्तित्व की नींव पड़ी. शादी के समय भी कई बार नकारे जाने से मन ही मन दुख तो होता था पर इस कदर नहीं कि जीवन से आस्था ही उठ जाए.

मैं गंभीर हो कर मौसी के बाल, उन की पीठ सहलाती जा रही थी.

हर्ष विस्मय से हम दोनों की इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया को देख रहा था. उसे शायद लगा कि उस के ईमानदारी से न खेलने के कारण ही मौसी को इतना दुख पहुंचा है और उस ने चुपचाप अपनी गोटी 99 से हटा कर 6 पर रख दी और मौसी से खेलने के लिए फिर उसी उत्साह से अनुरोध करने लगा.

रक्षाबंधन : हावी हुआ जाति का जहर

‘‘मेरे सामने तो तुम उसे राधा बहन मत बोलो. मुझे तो यह गाली की तरह लगता है,’’ मालती भड़क उठी.

‘‘अगर उस ने बिना कुछ पूछे अचानक आ कर मुझे राखी बांध दी, तो इस में मेरा क्या कुसूर? मैं ने तो उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा था,’’ मोहन बाबू तकरीबन गिड़गिड़ाते हुए बोले.

‘‘हांहां, इस में तुम्हारा क्या कुसूर? उस नीच जाति की राधा से तुम ने नहीं, तो क्या मैं ने ‘राधा बहन, राधा बहन’ कह कर नाता जोड़ा था. रिश्ता जोड़ा है, तो राखी तो वह बांधेगी ही.’’

‘‘उस का मन रखने के लिए मैं ने उस से राखी बंधवा भी ली, तो ऐसा कौन सा भूचाल आ गया, जो तुम इतना बिगड़ रही हो?’’

‘‘उंगली पकड़तेपकड़ते ही हाथ पकड़ते हैं ये लोग. आज राखी बांधी है, तो कल को भाईदूज पर खाना खाने भी बुलाएगी. तुम को तो जाना भी पड़ेगा. आखिर रिश्ता जो जोड़ा है. मगर, मैं तो ऐसे रिश्तों को निभा नहीं पाऊंगी,’’ मालती ने अपने मन का सारा जहर उगल दिया.

राधा अभी राखी बांध कर गई ही थी कि उसे याद आया कि वह मोहन बाबू को मिठाई खिलाना भूल गई थी.

अपने घर से मिठाई ला कर वे खुशीखुशी मोहन बाबू के घर आ रही थी, मगर मोहन बाबू और उन की बीवी मालती की आपस में हो रही बहस सुन कर उस के पैर ठिठक कर आंगन में ही रुक गए.

जब राधा ने उन की पूरी बात सुनी, तो उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. उसे लगा जैसे उस ने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो. वह चुपचाप उलटे पैर लौट गई. उस की आंखों में आंसू छलक आए थे.

मोहन बाबू सरकारी स्कूल में टीचर थे. तकरीबन 6 महीने पहले ही वे इस गांव में तबादला हो कर आए थे. यह गांव शहर से काफी दूर था, इसलिए मजबूरन उन्होंने यहीं पर मकान किराए पर ले लिया.

मोहन बाबू बहुत ही मिलनसार और अच्छे इनसान थे. वे बहुत जल्द ही गांव वालों से घुलमिल गए. गांव का हर आदमी उन की इज्जत करता था, क्योंकि वे छुआछूत, जातपांत वगैरह दकियानूसी बातों को नहीं मानते थे.

राधा थी तो विधवा मगर मजदूरी कर के वह अपने बेटे को पढ़ाना चाहती थी

मोहन बाबू के मकान से कुछ ही दूरी पर राधा एक झोंपड़ीनुमा मकान में रहती थी. उस का लड़का मोहन बाबू के स्कूल में पढ़ता था.

राधा थी तो विधवा, मगर मजदूरी कर के वह अपने बेटे को पढ़ाना चाहती थी. उसी पर उस की जिंदगी की सारी उम्मीदें टिकी हुई थीं, इसलिए वह समयसमय पर स्कूल आ कर उस की पढ़ाईलिखाई के बारे में पूछती रहती. उस के बेटे के चलते ही मोहन बाबू की उस से जानपहचान थी.

मोहन बाबू भी राधा के बेटे को चाहते थे, क्योंकि वह पढ़नेलिखने में तेज था, इसलिए वे खुद उस के बेटे पर ज्यादा ध्यान देते थे.

राधा जब भी स्कूल आती, उन से ही मिलती और अपने बेटे के बारे में ढेर बातें करती.

मोहन बाबू राधा को राधा बहन कह कर ही बात करते थे. उन के लिए तो यह केवल संबोधन ही था, मगर राधा तो सचमुच ही उन्हें अपना भाई समझने लगी थी. तभी तो रक्षाबंधन के दिन बिना कुछ सोचेसमझे उस ने उन्हें राखी बांध दी थी.

राधा को अपनी गलती का एहसास तब हुआ, जब उस ने उन की और मालती की आपस में हो रही बातें सुनीं. उस के बाद उस ने मोहन बाबू के घर जाना ही बंद कर दिया.

एक बार 2-3 दिन तक मोहन बाबू स्कूल नहीं आए, तो राधा को चिंता होने लगी. मोहन बाबू ने चाहे उसे ऊपरी तौर पर बहन माना था, मगर उस के लिए तो वह रिश्ता दिल की गहराइयों तक पैठ बना चुका था. लगातार 2-3 दिनों तक उन का स्कूल न आना राधा के लिए चिंता की बात बन गया.

दिल के आगे मजबूर हो कर राधा मोहन बाबू के घर जा पहुंची!

आखिरकार दिल के आगे मजबूर हो कर राधा मोहन बाबू के घर जा पहुंची. घर का दरवाजा खुला हुआ था. उस ने बाहर से ही दोचार बार आवाज लगाई, मगर जब काफी देर तक अंदर से कोई जवाब न आया, तो वह किसी डर से सिहर उठी.

मोहन बाबू पलंग पर चुपचाप लेटे थे. राधा ने पलंग के पास जा कर आवाज लगाई, ‘‘भैया… भैया…’’ मगर उन्होंने कोई जवाब न दिया. वह घबरा गई और उस ने उन्हें झकझोर दिया. मगर उन्होंने तब भी कोई जवाब नहीं दिया.

उस ने मालती को ढूंढ़ा, मगर वह वहां नहीं थी. अस्पताल वहां से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर शहर में था, इसलिए आननफानन उस ने किसी तरह एक ट्रैक्टर वाले को और कुछ गांव वालों को तैयार किया, फिर वह उन्हें अस्पताल ले गई.

डाक्टर ने मोहन बाबू को चैक कर तुरंत भरती करते हुए कहा, ‘‘अच्छा हुआ, आप लोग इन्हें समय पर ले आए, वरना हम कुछ नहीं कर पाते. यह बुखार बहुत जल्दी कंट्रोल से बाहर हो जाता है.’’

‘‘अब तो मोहन भैया ठीक हो जाएंगे न?’’ राधा ने आंखों में आंसू लाते हुए डाक्टर से पूछा.

‘‘जब तक इन्हें होश नहीं आ जाता, हम कुछ नहीं कह सकते. मगर मेरा मन इतना जरूर कहता है कि आप जैसी बहन के होते हुए इन्हें कुछ नहीं हो सकता,’’ डाक्टर ने मुसकराते हुए कहा.

मोहन बाबू पलंग पर चुपचाप लेटे थे. उन की दवादारू लगातार चल रही थी, मगर अभी तक उन्हें होश नहीं आया था. राधा उन के पलंग के पास चुपचाप बैठी थी. रहरह कर न जाने क्यों उस की आंखों से आंसू छलक जाते थे.

तकरीबन 12 घंटे बाद मोहन बाबू को होश आया और उन्होंने आंखें खोलीं.

मोहन बाबू को होश में आया देख राधा की आंखें खुशी से चमक उठीं. बाकी सभी गांव वाले तो उन्हें भरती करवा कर चले गए थे. बस, राधा ही अकेली उन के पास देखरेख के लिए थी. हां, कुछ लोग उन का हालचाल पूछने के लिए जरूर आतेजाते थे, मगर काफी कम, क्योंकि लोगों को राधा का वहां होना खलता था.

दवाएं देने व मोहन बाबू की देखरेख की जिम्मेदारी राधा बखूबी निभा रही थी. समय पर दवाएं देना वह कभी नहीं चूकती थी.

मोहन बाबू के मैले पसीने से सने कपड़े धोने में राधा को जरा भी संकोच न होता. उसे खुद के भोजन का तो ध्यान न रहता, मगर उन्हें डाक्टर की सलाह के मुताबिक भोजन ला कर जरूर खिलाती.

मालती मायके गई हुई थी. उसे टैलीग्राम तो कर दिया था, लेकिन उसे आने में 3 दिन लग गए. तीसरे दिन वह घर आ पहुंची.

जब मालती अस्पताल आई, तो राधा मोहन बाबू के पलंग के पास बैठी थी. मोहन बाबू खाना खा रहे थे. उसे देखते ही उन के हाथ मानो थम से गए.

मालती को देखते ही राधा उठ खड़ी हुई और उस के पास आ कर बोली, ‘‘भाभी, अब आप अपनी जिम्मेदारी निभाइए.’’

राधा जाने के लिए पलटी, मगर फिर वह एक पल के लिए रुक कर बोली, ‘‘और हां, मैं ने इन्हें अपने घर का खाना नहीं खिलाया है. होटल से ला कर खिलाना तो मेरी मजबूरी थी. हो सके, तो इस के लिए मुझे माफ कर देना.’’

मालती बस हैरान सी खड़ी हो कर उसे जाते हुए देखती रह गई, मगर कुछ बोल नहीं पाई.

राधा के इन शब्दों को सुन कर मालती क्या समझ चुकी थी

राधा के इन शब्दों को सुन कर मालती समझ चुकी थी कि शायद राधा रक्षाबंधन पर उस के और मोहन बाबू के बीच हुए झगड़े को सुन चुकी है.

कुछ ही दिनों में मोहन बाबू ठीक हो गए और उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई. मगर राधा उन के घर नहीं आई. बस, वह लोगों से ही उन का हालचाल मालूम कर लिया करती थी.

एक दिन अचानक मालती राधा के घर जा पहुंची. राधा कुछ चौंक सी गई.

‘‘बैठने के लिए नहीं कहोगी राधा बहन?’’ मालती ने ही चुप्पी तोड़ी.

‘‘हांहां, बैठो भाभी,’’ राधा ने हिचकिचाते हुए कहा और चारपाई बिछा दी.

‘‘कल भाईदूज है. हमारे यहां तो बहनें इस दिन अपने घर भैयाभाभी को भोजन के लिए बुलाती हैं, क्या तुम्हारे यहां ऐसा रिवाज नहीं है?’’

‘‘है तो, मगर…?’’

‘‘अगरमगर कुछ नहीं. हमें और शर्मिंदा मत करो. हम दोनों कल तुम्हारे यहां खाना खाने आएंगे,’’ मालती ने कुछ शर्मिंदा हो कर कहा.

राधा की आंखें खुशी से नम हो गईं. उसे आज लग रहा था कि मोहन बाबू को भाई बना कर उस ने कोई गलती नहीं की.

प्यार का पहला खत: सौम्या के दिल में उतरा आशीष

मेरे हाथ में किताब थी और मैं इधरउधर देखे जा रही थी क्योंकि वह मेरे हाथ में किताब पकड़ा कर गायब हो चुका था या यों कहें वह कहीं छिप गया या वहां से दूर भाग चुका था. शायद मेरी मति मारी गई थी जो मैं ने उस से किताब ले ली थी. सच कहूं तो वह काफी समय से मुझे इंप्रैस करने में लगा हुआ था. हालांकि कभी कुछ कहा नहीं था और आज जब उसे पता चला कि मुझे इस सब्जैक्ट की किताब की जरूरत है तो न जाने कहां से फौरन उस किताब को अरेंज कर के मेरे हाथों में पकड़ा कर चला गया था.

मैं ने उस समय तो वह किताब पकड़ ली थी लेकिन अब उस के छिप जाने या गायब हो जाने से मेरा दिमाग बहुत परेशान हो रहा था. कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं. मैं इस तरह परेशान हाल ही उस पार्क में पड़ी हुई एक बैंच पर बैठ गई. वहां पर कुछ लोग जौगिंग कर रहे थे और वे मेरे आसपास ही घूम रहे थे. मुझे लगा कि शायद मेरी परेशान हालत देख कर वे सब मेरे और करीब आ रहे हैं. खैर, हर तरफ से मन हटा कर मैं ने किताब का पहला पन्ना खोला, सरसराता हुआ एक सफेद प्लेन पेपर मेरे हाथों के पास आ कर गिर पड़ा. न जाने क्यों मेरा मन एकदम से घबरा गया, समझ ही नहीं आया क्या होगा इस में. फिर भी झुक कर उसे उठाया और खोल कर चैक किया, कहीं कुछ भी नहीं लिखा था.

मैं खुद को ही गलत कहने लगी. वह तो एक समझदार लड़का है और मेरी हैल्प करना चाहता है, बस. मैं ने दूसरा पन्ना पलटा तो एक और सफेद प्लेन पन्ना सरक कर गिर पड़ा. इस समय मैं अनजाने में ही जोर से चीख पड़ी. पार्क में मौजूद आधे लोग पहले से ही मेरी तरफ देख रहे थे और बचेखुचे लोग भी अपनी सेहत पर ध्यान देने के बजाय मेरी ओर निहार रहे थे.

‘‘क्या हुआ सौम्या?’’ अचानक से आशीष दौड़ कर मेरे पास आ गया. वह मेरे चीखने की आवाज सुन कर काफी घबराया हुआ लग रहा था.

‘‘कुछ नहीं, बस इस घास के कीड़े से डर गई थी. यह मेरे पैर पर चढ़ने की कोशिश कर रहा था,’’ उस ने घास पर चल रहे हरे रंग के एक छोटे से कीड़े को दिखाते हुए कहा.

‘‘तुम बहुत डरती हो सौम्या. इस नन्हे से कीड़े से ही डर गईं. देखो, वह तुम्हारी जरा सी चीख से कैसे दुबक गया,’’ आशीष मुसकराते हुए बोला.

सौम्या भी थोड़ा झेंपते हुए मुसकरा दी.

‘‘तुम अभी तक कहां थे आशीष? मेरी एक चीख पर दौड़ते हुए अचानक कहां से आ गए?’’

‘‘अरे पागल, मैं तो यहीं पर था, जौगिंग कर रहा था.’’

‘‘ओह, तो क्या तुम यहां रोज आते हो?’’

‘‘हां और क्या. तुम्हें क्या लगा आज तुम्हारी वजह से पहली बार आया हूं?’’

‘‘नहींनहीं. ऐसा नहीं है, मैं ने यों ही पूछा.’’

‘‘चलो, अब मैं घर आ जा रहा हूं. तुम आराम से इस किताब को पढ़ कर वापस कर देना,’’ आशीष बिना कुछ कहे व रुके वहां से चला गया.

‘कितना बुरा है आशीष, बताओ उस ने एक बार भी यह नहीं पूछा कि तुम साथ चल रही हो?’ उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वह किताब दे कर उस पर कोई एहसान कर के गया है.

मैं उदास होे घर की तरफ वापस चल पड़ी. मन में उस के लिए न जाने क्याक्या सोच रही थी और वह एकदम से उस का उलटा ही निकला.

घर आ कर भी बिलकुल मन नहीं लगा. कमरे में बैड पर लेट कर उस के बारे में ही सोचती रही, आखिर ऐसा क्यों होता है? क्या है यह सब? मन उस की तरफ से हट क्यों नहीं रहा? क्या वह भी मेरे बारे में सोच रहा होगा?

ओह, यह आज मेरे मन को क्या हो गया है. उस ने हलके से सिर को झटका दिया, पर दिमाग था कि उस की तरफ से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. चलो, थोड़ी देर मां के पास जा कर बैठती हूं. अब तो वे स्कूल से आ गई होंगी. थोड़ी देर उन से बातें करूंगी तो उधर से दिमाग हट जाएगा.

वह मां के पास आ कर बैठ गई.

‘‘तुम आ गई सौम्या बेटा?’’

‘‘हां मा.’’

‘‘बेटा, एक कप चाय बना लाओ. आज मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा है. स्कूल में बच्चों की कौपियां चैक करना बहुत दिमाग का काम है. वह बिना कुछ बोले चुपचाप किचन में आ कर चाय बनाने लगी. 2 कप चाय बना कर वापस मां के पास आ कर बैठ गई.

लेकिन आज मां ने कोई बात नहीं की. उन्होंने चुपचाप चाय पी और आंखें बंद कर के लेट गईं. शायद वे आज बहुत थकी हुई थीं.

सौम्या वहां से उठ कर अपने कमरे में आ गई. इसी तरह 10 दिन गुजर गए.

आज कालेज में फेयरवेल पार्टी थी. येलो कलर की साड़ी पहन कर वह कालेज पहुंची. वहां सब उसे ही देख रहे थे. उसे लगा आज तो पक्का आशीष उस से बात करेगा. लेकिन पूरी पार्टी निकल गई पर आशीष ने एक बार भी उस की तरफ नजर उठा कर नहीं देखा. अब सच में उसे बहुत गुस्सा आने लगा था.

गुस्से और रोने के समय अकसर सौम्या के चेहरे पर लालिमा आ जाती है जो उस की सुंदरता में इजाफा कर देती है. वह यों ही कालेज गेट से बाहर निकल कर आ गई. अचानक से लगा कि कोई उस के पीछे आ रहा है. कौन हो सकता है, मन में थोड़ी घबराहट का भाव आया और दिल तेजी से धड़कने लगा.

वह एकदम से सौम्या के सामने आ गया.

‘‘ओह आशीष तुम, मैं तो एकदम घबरा ही गई थी,’’ उस का दिल वाकई में घबराहट के कारण तेजी से धड़कने लगा था.

वह कुछ नहीं बोला, फिर थोड़ी देर ऐसे ही खड़े रहने के बाद एक खूबसूरत सा लिफाफा देते हुए कहा, ‘‘यह सर ने आप के लिए भिजवाया है.’’

‘‘क्या है इस में?’’

‘‘आप की ड्रैस के लिए शायद बैस्ट कौंप्लिमैंट्स हैं.’’

उस के चेहरे को पढ़ते हुए लगा कि वह सच ही कह रहा है, क्योंकि उस के चेहरे पर कोई भी भाव ऐसा नहीं था जिस से लगे कि वह मजाक कर रहा है. उस वक्त अचानक से उस के मन में यह खयाल आया कि यह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा तो शायद लिख कर दिया हो.

‘‘सौम्या, अगर तुम कहो तो आज मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ दूं? आज मैं अपने पापा की कार ले कर आया हूं,’’ आशीष ने उसे जाते देख कर कहा.

उस ने बिना देर किए फौरन सिर हिला दिया था क्योंकि वह आशीष के साथ थोड़ी सी देर का साथ भी गंवाना नहीं चाहती थी. ड्राइविंग सीट पर बैठे आशीष के चेहरे को सौम्या बराबर पढ़ती रही पर उस पर ऐसा कोई भाव नहीं था जिस से अनुमान भी लगाया जा सके कि उस के दिल में कोई कोमल भावना भी है.

सौम्या का घर आ गया था और वह उतर गई. उस ने आशीष से कहा, ‘‘आशीष घर के अंदर नहीं आओगे?’’

‘‘नहीं, आज नहीं फिर कभी. आज तो मुझे जल्दी घर पहुंचना है.’’

‘ओह, कितना खड़ूस है यह, इस की नजर में उस की कोई वैल्यू ही नहीं. मैं ही पागल हूं, जो इस से एकतरफा प्यार कर रही हूं. आज से इस के बारे में सोचना बिलकुल बंद.’ उस ने मन ही मन एक कठोर निर्णय लिया था. चाहे कैसे भी हो, मुझे अपने मन को समझाना ही पड़ेगा.

चलो, अब कभी उस का नाम ले कर उसे याद नहीं करूंगी. मैं मुसकराती गुनगुनाती अपने कमरे में आ गई. आईने के सामने खड़े हो कर खुद को निहारा. मन में उदासी का भाव आया. उस की वजह से ही तो इतना सजसंवर के गई थी. खैर, अब छोड़ो. उस ने हाथ में पकड़े लिफाफे को बैड पर रखा और कपड़े चेंज करने के लिए अलमारी से कपड़े निकालने लगी.

‘चलो, पहले इस लिफाफे को ही खोल कर देख लूं, सर ने न जाने क्या लिखा होगा?’ बेमन से उस को खोला.

उस में से सफेद रंग का प्लेन पेपर निकल कर नीचे गिर पड़ा. ओह, यह तो आशीष की बदतमीजी है.

आज उसे फोन कर के कह ही देती हूं कि उसे इस तरह का मजाक पसंद नहीं है.

गुस्से में आ कर वह फोन मिला ही रही थी कि लिफाफे के अंदर रखे एक कागज पर नजर चली गई.

वह निकाल कर पढ़ने के लिए खोला ही था कि मम्मी के कमरे में आने की आहट सी हुई.

मम्मी को भी अभी ही आना था.

‘‘बेटा, जरा मार्केट तक जा रही हूं, कुछ मंगाना तो नहीं है?’’

‘‘नहीं मम्मी, कुछ नहीं चाहिए.’’

‘‘चलो, ठीक है.’’

मम्मी के जाते ही उस ने उस पेपर को पढ़ना शुरू कर दिया, ‘प्रिय सौम्या, के संबोधन के साथ शुरू हुआ वह पत्र तुम्हारा आशीष के साथ खत्म हुआ. उस के बीच में जो लिखा था वह उसे खुशी से झुमाने के लिए काफी था. वह भी मुझे उतना ही प्यार करता था. वह भी मेरे लिए इतना ही बेचैन था. वह भी कुछ कहने को तरसता था. वह भी मेरा साथ पाना चाहता था. लेकिन मेरी ही तरह इस डर का शिकार था कि कहीं मैं मना न कर दूं. उस के प्यार को अस्वीकृत न कर दूं.

वाकई वह मुझे सच्चा प्यार करता है, तभी तो कभी उस ने मेरे हाथ तक को एक बार भी टच नहीं किया वरना कितने मौके आए थे. वह खुशी से झूम उठी. एक बार खुद को आईने में निहारा और अब वह खुद पर ही मोहित हो गई और उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘आई लव यू, आशीष.’’

उस की आंखों के सामने आशीष का मुसकराता चेहरा था और अब वह शरमा के अपनी नजरें नीचे की तरफ कर के जमीन को देखने लगी थी. आखिर, उस के सच्चे मन की दुआ सफल जो हो गई थी.

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