वारिस : सुरजीत के घर में कौन थी वह औरत-भाग 3

नरेंद्र के इस सवाल पर उस की मां बुरी तरह से चौंक गईं और पल भर में ही मां का चेहरा आशंकाओें के बादलों में घिरा नजर आने लगा.

‘‘तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’ नरेंद्र को बांह से पकड़ झंझोड़ते हुए मां ने पूछा.

‘‘सुरजीत के घर में उस का बापू  एक कुदेसन ले आया है. लोग कहते हैं हमारे घर में रहने वाली यह औरत भी एक ‘कुदेसन’ है. क्या लोग ठीक कहते हैं, मां?’’

नरेंद्र का यह सवाल पूछना था कि एकाएक आवेश में मां ने उस के गाल पर चांटा जड़ दिया और उस को अपने से परे धकेलती हुई बोलीं, ‘‘तेरे इन बेकार के सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है. वैसे भी तू स्कूल पढ़ने के लिए जाता है या लोगों से ऐसीवैसी बातें सुनने? तेरी ऐसी बातों में पड़ने की उम्र नहीं. इसलिए खबरदार, जो दोबारा इस तरह की  बातें कभी घर में कीं तो मैं तेरे बापू से तेरी शिकायत कर दूंगी.’’

नरेंद्र को अपने सवाल का जवाब तो नहीं मिला मगर अपने सवाल पर मां का इस प्रकार आपे से बाहर होना भी उस की समझ में नहीं आया.

ऐसा लगता था कि उस के सवाल से मां किसी कारण डर गईं और यह डर मां की आखों में उसे साफ नजर आता था.

नरेंद्र के मां से पूछे इस सवाल ने घर के शांत वातावरण में एक ज्वारभाटा ला दिया. मां और बापू के परस्पर व्यवहार में तलखी बढ़ गई थी और सिमरन बूआ तलख होते मां और बापू के रिश्ते में बीचबचाव की कोशिश करती थीं.

मां और बापू के रिश्ते में बढ़ती तलखी की वजह कोने में बनी कोठरी में रहने वाली वह औरत ही थी जिस के बारे में अमली चाचा का कहना था कि वह एक ‘कुदेसन’ है.

मां अब उस औरत को घर से निकालना चाहती हैं. नरेंद्र ने मां को इस बारे में बापू से कहते भी सुना. नरेंद्र को ऐसा लगा कि मां को कोई डर सताने लगा है.

बापू मां के कहने पर उस औरत को घर से निकालने को तैयार नहीं हैं.

नरेंद्र ने बापू को मां से कहते सुना था, ‘‘इतनी निर्मम और स्वार्थी मत बनो, इनसानियत भी कोई चीज होती है. वह लाचार और बेसहारा है. कहां जाएगी?’’

‘‘कहीं भी जाए मगर मैं अब उस को इस घर में एक पल भी देखना नहीं चाहती हूं. नरेंद्र भी इस के बारे में सवाल पूछने लगा है. उस के सवालों से मुझ को डर लगने लगा है. कहीं उस को असलियत मालूम हो गई तो क्या होगा?’’ मां की बेचैन आवाज में साफ कोई डर था.

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. तुम बेकार में किसी वहम का शिकार हो गई हो. हमें इतना कठोर और एहसानफरामोश नहीं होना चाहिए. इस को घर से निकालने से पहले जरा सोचो कि इस ने हमें क्या दिया और बदले में हम से क्या लिया? सिर छिपाने के लिए एक छत और दो वक्त की रोटी. क्या इतने में भी हमें यह महंगी लगने लगी है? जरा कल्पना करो, इस घर को एक वारिस नहीं मिलता तो क्या होता? एक औरत हो कर भी तुम ने दूसरी औरत का दर्द कभी नहीं समझा. तुम को डर है उस औलाद के छिनने का, जिस ने तुम्हारी कोख से जन्म नहीं लिया. जरा इस औरत के बारे में सोचो जो अपनी कोख से जन्म देने वाली औलाद को भी अपने सीने से लगाने को तरसती रही. जन्म देते ही उस के बच्चे को इसलिए उस से जुदा कर दिया गया ताकि लोगों को यह लगे कि उस की मां तुम हो, तुम ने ही उस को जन्म दिया है. इस बेचारी ने हमेशा अपनी जबान बंद रखी है. तुम्हारे डर से यह कभी अपने बच्चे को भी जी भर के देख तक नहीं सकी.

‘‘इस घर में वह तुम्हारी रजामंदी से ही आई थी. हम दोनों का स्वार्थ था इस को लाने में. मुझ को अपने बाप की जमीनजायदाद में से अपना हिस्सा लेने के लिए एक वारिस चाहिए था और तुम को एक बच्चा. इस ने हम दोनों की ही इच्छा पूरी की. इस घर की चारदीवारी में क्या हुआ था यह कोई बाहरी व्यक्ति नहीं जानता. बच्चे को जन्म इस ने दिया, मगर लोगों ने समझा तुम मां बनी हो. कितना नाटक करना पड़ा था, एक झूठ को सच बनाने के लिए. जो औरत केवल दो वक्त की रोटी और एक छत के लालच में अपने सारे रिश्तों को छोड़ मेरा दामन थाम इस अनजान जगह पर चली आई, जिस को हम ने अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया, पर उस ने न कभी कोई शिकायत की और न ही कुछ मांगा. ऐसी बेजबान, बेसहारा और मजबूर को घर से निकालने का अपराध न तो मैं कर सकता हूं और न ही चाहूंगा कि तुम करो. किसी की बद्दुआ लेना ठीक नहीं.’’

नरेंद्र को लगा था कि बापू के समझाने से बिफरी हुई मां शांत पड़ गई थीं.

लेकिन नरेंद्र उन की बातों को सुनने के बाद अशांत हो गया था.

जानेअनजाने में उस के अपने जन्म के साथ जुड़ा एक रहस्य भी उजागर हो गया था.

अमली चाचा जो बतलाने में झिझक गया था वह भी शायद इसी रहस्य से जुड़ा था.

अब नरेंद्र की समझ में आने लगा था कि घर में रह रही वह औरत जोकि अमली चाचा के अनुसार एक ‘कुदेसन’ थी, दूर से क्यों उस को प्यार और हसरत की नजरों से देखती थी? क्यों जरा सा मौका मिलते ही वह उस को अपने सीने से चिपका कर चूमती और रोती थी? वह उस को जन्म देने वाली उस की असली मां थी.

नरेंद्र बेचैन हो उठा. उस के कदम बरबस उस कोठरी की तरफ बढ़ चले, जिस के अंदर जाने की इजाजत उस को कभी नहीं दी गई थी. उस कोठरी के अंदर वर्षों से बेजबान और मजबूर ममता कैद थी. उस ममता की मुक्ति का समय अब आ गया था. आखिर उस का बेटा अब किशोर से जवान हो गया था.

पार्क वाली लड़की : यौवन वाली नवयौवना की कहानी-भाग 3

‘‘जी, बिलकुल ठीक कहा आप ने,’’ वह बोली, ‘‘असल में हमारे घर का माहौल बिलकुल पुराना और परंपरावादी है. मां ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं हैं. शहर में रहते जिंदगी निकल गई, पर बोलती अभी भी अपने गांव की ही भाषा हैं. पिताजी संगीत अध्यापक हैं. वे रागरागिनियों में हर वक्त खोए रहने वाले परंपरा से जुड़े व्यक्ति हैं. उन के लिए गीत, संगीत, लय, तान, तरन्नुम, स्वर, आरोह, अवरोह,  बाप रे बाप, क्याक्या शब्दावली प्रयोग करते हैं. सुनसुन कर ही सिर में दर्द होने लगता है.’’

‘‘मेरा लड़का एमबीए कर चुका है. उस की ढेरों किताबें हमारे घर में पड़ी हैं. आप उन्हें देख लें, अगर मतलब की लगें तो उन्हें ले जाएं,’’ वे संभल कर बोले, ‘‘लड़का अहमदाबाद के प्रसिद्ध मैनेजमैंट संस्थान में चुन लिया गया था. वहां से निकलते ही उसे बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई. आजकल बंबई में है.’’

लड़की एकदम उत्सुक हो गई, ‘‘अहमदाबाद के संस्थान में लड़के का चुना जाना वाकई एक उपलब्धि है. उस के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनी…यह सब जरूर आप के दिशानिर्देश की वजह से संभव हुआ होगा. हमारे घर में हमें कोई गाइड करने वाला ही नहीं है. अपने मन से पढ़ रही हूं, प्रतियोगिता की तैयारी कर रही हूं. किसी से पूछने का मन नहीं होता. लोग हर लड़की से कोई न कोई लाभ उठाने की सोचने लगते हैं. इसलिए मेरे मातापिता भी पसंद नहीं करते. पर आप तो इसी महल्ले में रहते हैं. आप का घर देख लिया है. किसी दिन आऊंगी, किताबें देखूंगी,’’ उस ने कहा.

वे सोचने लगे, ‘किसी दिन क्यों? आज ही क्यों नहीं चलती?’ पर कुछ बोले नहीं. अच्छा भी है, उन लड़कों के सामने वे उसे अपने घर नहीं लिवा ले जा रहे. पता नहीं वे सब क्या समझें, क्या सोचें?

दूसरे दिन इतवार था. नौकरानी के साथ वे खुद जुटे. सारा घर ठीक से साफ किया. सब चीजें करीने से लगाईं. लड़के की किताबें भी झाड़फूंक कर करीने से अलमारी में लगाईं.

नौकरानी चकित थी, ‘‘कोई आ रहा है क्या, बाबूजी?’’

वे हंस पड़े. कहना तो चाहते थे कि कोई न आ रहा होता तो इस उम्र में इतनी मशक्कत क्यों करते, किसी पागल कुत्ते ने काटा है क्या? पर वे हंस दिए, ‘‘नहीं, कोई नहीं आ रहा. बस, लगा कि घर ठीक होना चाहिए, इसलिए ठीक कर लिया.’’

नौकरानी को विश्वास न हुआ. वह उन के चेहरे को गौर से ताकती रही. फिर मुसकरा दी, ‘‘जरूर आप हम से कुछ छिपा रहे हैं. काई आएगा नहीं तो यह सब क्यों?’’

वे सोचने लगे, ‘अजीब औरत है. बेकार बातों में सिर खपा रही है. इसे इस बात से क्या मतलब? पर दूसरों के मामले में दखल देने की इस की आदत है?’

खाना बना कर जाने में नौकरानी को

2 बज गए. वह बड़बड़ाती रही, ‘‘दसियों घरों का काम निबटाती इतनी देर में. आप ने हमारा सारा वक्त खराब करा दिया.’’

पर वे उस से कुछ बोले नहीं. कौन बेकार इन लोगों के मुंह लगे और अपना मूड खराब करे. खाना खा कर वे कुरतापाजामा पहन, आराम से कुछ पढ़ने का बहाना कर उस का इंतजार करने लगे.

लड़़की का इंतजार, जैसे खुशबू के झोंके का इंतजार, जैसे ठंडी फुहार का इंतजार, जैसे संगीत की मधुर स्वर लहरियों की कानों को प्रतीक्षा, जैसे किसी अप्सरा का हवा में उड़ता एहसास, जैसे रंगबिरंगी तितली का फूलों पर बेआवाज उड़ना, जैसे मदमत्त भौंरे का गुनगुनाना, जैसे नदी का किलकारियां भरते हुए बहना, जैसे झरने का…

इसी इंतजार के दौरान घंटी बजने लगी. वे लपक कर पलंग से उठे और दरवाजे की तरफ बढ़े.

ताना ही थी. देख कर वे फूल की तरह खिल गए. लगा, जैसे उन की रगों में फिर वही पुराना वाला, जवानी के दिनों वाला रक्त धमकने लगा है. उन्होंने उस का स्वागत किया. हलके हरे रंग का सूट और उस पर नारंगी रंग की चुन्नी. उन का मन हुआ, उस से कहें, ‘तुम ने हरी या नारंगी बिंदी क्यों नहीं लगाई?’ पर वे प्रकट में बोले, ‘‘आइए.’’

उन्होंने उसे बैठक में बिठाया. ताना ने उड़ती सी नजर सब पर डाली. टीवी पर रखी लड़के की हंसती फोटो पर उस की नजर टिकी रह गई. वह सोफे से उठ कर टीवी के नजदीक पहुंची. फोटो को कुछ पल ताकती रही, फिर मुसकरा दी, ‘‘काफी स्मार्ट है आप का लड़का. क्या नाम है इस का?’’

‘‘सुब्रत,’’ वे भी ताना के समीप आ खड़े हुए, ‘‘सब से पहले बताओ, क्या लोगी, ठंडा या गरम? और गरम, तो चाय या कौफी? वैसे मैं कौफी अच्छी बना लेता हूं.’’

‘‘आप भी कमाल करते हैं,’’ वह बेसाख्ता हंसी, ‘‘आप मेरे लिए कौफी बनाएंगे और मैं बनाने दूंगी आप को? इतना पराया समझा है आप ने मुझे?’’

‘‘पराया क्यों नहीं?’’ वे बोले, ‘‘पहली बार हमारे घर आई हो. हमारी मेहमान हो. और भारतीय कितने भी दुनिया में बदनाम हों, पर मेहमाननवाजी में तो अभी भी वे मशहूर हैं.’’

‘‘इस तरह बोर करेंगे तो चली जाऊंगी, सचमुच,’’ ताना लाड़भरे स्वर में बोली, ‘‘आप हमारे पास बैठिए. आप से आज गपशप करने का मन है. खूब बातें करूंगी. कुछ आप की सुनूंगी, कुछ अपने गम हलके करूंगी. रसोई किधर है? कौफी मैं बनाती हूं.’’

वे उसे अपने साथ रसोई में ले गए.

कौफी के साथ ही लौटे. ताना का रसोई में इस तरह काम करना और खुला, बेतकल्लुफ व्यवहार उन्हें बहुत पसंद आया. कौफी पीते हुए वे देर तक तमाम तरह की बातें करते रहे. लड़की उन्हें हर तरह से समझदार लगी. फिर वह उन के लड़के के नोट्स व किताबें देखती रही. अपने मतलब की तमाम किताबें और नोट्स उस ने छांट कर अलग कर लिए और बोली, ‘‘धीरेधीरे इन्हें ले जाऊंगी, उन्हें एतराज तो न होगा?’’

‘‘किन्हें, लड़के को?’’ वे हंसे, ‘‘उसे अब इन से क्या काम पड़ेगा?’’

‘‘कभी बुलाइए न उन्हें यहां. चाचीजी भी शायद अरसे से वहां हैं. आप को भी अकेले तमाम तरह की तकलीफें हो रही होंगी. हमारे पिताजी तो अपने हाथ से पानी का एक गिलास भी उठा कर नहीं पी सकते. पता नहीं आप कैसे इतने दिनों से अकेले इस घर में रह रहे हैं.

‘‘चाचीजी को ले कर वे आएं तो हमें बताइएगा. हम भी उन से मिलना चाहेंगे. शायद उन से कुछ दिशानिर्देश मिल जाए. मैं जल्दी से जल्दी अपने पांवों पर खड़ी होना चाहती हूं. पिताजी की पुरानी, शास्त्रीय संगीत वाली दुनिया से ऊब गई हूं. मैं एक नई दुनिया में रमना चाहती हूं. जिंदगी की ताजा और तेज हवा में उड़ना चाहती हूं. मेरी कुछ मदद करिए न,’’ घर से जाते समय उस ने अनुरोधभरे स्वर में कहा.

‘‘आज इतवार है न. और इस वक्त 5 बजे हैं. चलो, पार्क के पास जो पीसीओ है, वहां चलते हैं. तुम्हें नंबर दूंगा. लड़का इस वक्त घर पर ही होगा. लड़के की मां भी वहीं होगी. फोन कर के दोनों को चौंकाओ. बोलो, चलोगी? मजा आएगा?’’ वे उस की चमकती आंखों में ताकने लगे.

बहुत मजा आया फोन पर. लड़की ने ऐसे चौंकाने वाले अंदाज में लड़के और उस की मां से बातें कीं कि वे खुद चकित रह गए. बाद में उन्होंने दोनों से आग्रह किया कि वे जल्दी यहां आएं.

लड़के की मां ने पूछा, ‘‘कोई खास बात?’’

वेताना की तरफ देख कर शरारत से हंस दिए, ‘‘खास बात न होती तो दोनों को क्यों बुलाता? हमेशा की तरह वह तुम्हें ट्रेन में बैठा देता और मैं तुम्हें स्टेशन पर उतार लेता… एक बहुत अच्छी लड़की?’’

‘‘यह फोन वाली लड़की?’’

‘‘नहीं, पार्क वाली लड़की,’’ वे बेसाख्ता हंसे. ताना का मुख एकदम सूरजमुखी की तरह खिल कर झुक गया.

‘‘पार्क वाली लड़की? क्या मतलब? कोई लड़की आप को पार्क में पड़ी मिल गई क्या?’’ पत्नी ने चमक कर पूछा.

‘‘पार्क में पड़ी नहीं मिल गई बल्कि फूलों में खिली हुई मिल गई है.’’ ताना उन्हें आंखों ही आंखों में डांट रही थी.

रिसीवर रख जब वे उस के साथ बाहर आए तो वह लजाई हुई बोली, ‘‘सचमुच आप जैसे इंसान भी इस दुनिया में हैं, सहज विश्वास नहीं होता.’’ वे मुसकराए, ‘‘ताना, कल से तुम माथे पर बिंदी जरूर लगाना, हाथों में लाल चूडि़यां और पांवों में सुनहरी बैल्ट वाली सैंडल पहनना.’’ और उस की तरफ ताकते हुए हंसने लगे.

कोई शर्त नहीं: ट्रांसफर की मारी शशि बेचारी- भाग 3

‘‘साहब, मुझे बचा लो… यह राक्षस मुझे मार डालेगा,’’ कहतेकहते राधा फिर बेहोश हो गई.

कुलदीप ने औफिस से छुट्टी ले ली और सारा दिन राधा के सिरहाने बैठे रहे. 2 बार जा कर जोरावर सिंह को भी देख आए, मगर वह अभी तक नहीं लौटा था.

3-4 घंटे बाद राधा को पूरी तरह से होश आ गया तो उस ने बताया कि जोरावर सिंह अकसर शराब पी कर उस से मारपीट करता है.

शादी के इतने साल बाद भी बच्चा न होने की वजह भी वह राधा को ही मानता है, मगर सच यह है कि जोरावर सिंह ही नामर्द है.

पहली पत्नी के भी उसे कोई बच्चा नहीं था, मगर जोरावर सिंह को खुद में कोई कमी नजर नहीं आती. वह अपनेआप को मर्द मानता है और इस तरह अपनी मर्दानगी दिखाता है.

कुलदीप ने राधा को पेनकिलर की गोली दे दी, तो थोड़ी देर बाद ही वह कुलदीप से ऐसे चिपक कर सो गई जैसे कोई बच्चा अपनी मां के आंचल में निश्चिंत हो कर सिमट जाता है. कुलदीप ने भी उसे अपने से अलग नहीं किया.

2 दिन बाद जोरावर सिंह आया तो कुलदीप ने उसे बहुत लताड़ लगाई और समझाया भी कि अगर राधा ने पुलिस में शिकायत कर दी तो उस की नौकरी जा सकती है और उसे जेल भी जाना पड़ सकता है.

इस का असर यह हुआ कि अब जोरावर सिंह ने राधा पर हाथ उठाना काफी कम कर दिया था, मगर फिर भी कभीकभार उस के अंदर का मर्द जाग उठता था और तब डरी हुई राधा कुलदीप से लिपट जाती थी…

कुलदीप की छुअन जैसे उस के सारे दर्द की दवा बन चुकी थी. एक अनाम सा रिश्ता बन गया था इन दोनों के बीच जिस में कोई शर्त नहीं थी… कोई वादा नहीं था… किसी तरह के हक की मांग नहीं थी…

देखते ही देखते 2 साल बीत गए. कुलदीप को अपने ट्रांसफर की चिंता सताने लगी. पहली बार उन्होंने चाहा कि उन का ट्रांसफर न हो. वे राधा से दूर नहीं जाना चाहते थे. हालांकि दोनों के बीच कोई जिस्मानी रिश्ता नहीं था, मगर एकदूसरे को देख कर उन की मानसिक भूख शांत होती थी.

जब कुलदीप ने राधा को अपने ट्रांसफर की बात बताई तो राधा एकदम से कुछ नहीं बोल पाई, चुप रही.

2 दिन बाद राधा ने कुलदीप से कहा, ‘‘साहब, आप का जाना तो रुक नहीं सकता… आप मुझे अपनी कोई निशानी दे कर जाओ.’’

‘‘क्या चाहिए तुम्हें?’’ कुलदीप ने उस के दोनों हाथ अपने हाथों में कसते हुए पूछा.

‘‘दे सकोगे?’’

‘‘तुम मांग कर तो देखो…’’

‘‘मर्द की जबान है तो तुम पलटना मत…’’

‘‘कभी नहीं…’’ कह कर कुलदीप ने उस से वादा किया कि वह जो मांगेगी, उसे मिलेगा.

आखिर जिस बात का डर था, वही हुआ… कुलदीप के ट्रांसफर और्डर आ गए. उन्हें 4 दिन बाद यहां से जाना था.

उन्होंने राधा से कहा, ‘‘तुम ने कुछ मांगा नहीं…’’

‘‘मुझे आप से बच्चा चाहिए, ‘‘राधा ने उन की आंखों में देखते हुए कहा.

यह सुन कर कुलदीप चौंक गए और बोले, ‘‘तुम होश में तो हो न…?’’

कुलदीप को मानो बिजली के नंगे तार ने छू लिया.

राधा उन के आगे कुछ नहीं बोली. चुपचाप वह पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदती रही.

आज शाम से ही तेज बारिश हो रही थी. जोरावर सिंह अपनी पीने की तलब मिटाने के लिए आबू गया हुआ था. कल दोपहर तक शशि भी आने वाली

थी. राधा रात का खाना बना कर जा चुकी थी.

कुलदीप खाना खा कर बैडरूम में जा ही रहे थे कि जोरजोर से दरवाजा पीटने की आवाज आई. उन्होंने बाहर की लाइट जला कर देखा तो राधा खड़ी थी.

कुलदीप का दिल जोरजोर से धड़कने लगा. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या हुआ, इतनी रात को क्यों आई हो?’’

‘‘आप की निशानी लेने आई हूं.’’

कुलदीप दरवाजा नहीं खोल सके. सामाजिक मान्यताओं ने उन के पैर में बेडि़यां डाल दीं. बाहर राधा खड़ी रही… भीगती रही… भीतर कुलदीप के दिल और दिमाग में जंग छिड़ी थी…

आखिर इस जंग में दिल की जीत हुई. कुलदीप राधा को बांहों में भर कर भीतर ले आए. राधा ने उन्हें अपना सबकुछ सौंप दिया… और कुलदीप के प्यार को सहेज लिया अपने भीतर… हमेशा के लिए… मानो कोई मोती फिर से सीप में कैद हुआ हो…

राधा को पहली बार प्यार के इस रूप का अहसास हुआ था. पहली बार उस ने जाना कि मर्दऔरत का रिश्ता इतना कोमल, इतना मखमली होता है… और कुलदीप ने भी शायद पहली बार ही सही माने में मर्दऔरत के रिश्ते को जीया था… इस से पहले तो सिर्फ शरीर की प्यास ही बुझती रही थी… मन तो आज ही तृप्त हुआ था.

कुलदीप बारबार सर्वेंट क्वार्टर की तरफ देख रहे थे, मगर राधा कहीं नजर नहीं आ रही थी.

पत्नी शशि जयपुर से आ गई थी और आज का खाना भी उस ने ही बनाया था.

शाम होतेहोते एक नजर राधा को देखने की लालसा मन में ही लिए कुलदीप चले गए अपनी नई पोस्टिंग पर… मगर वह नहीं आई… उस के बाद राधा से उन का कोई संपर्क नहीं रहा.

10 साल बाद वक्त का पहिया घूम कर फिर से कुलदीप को सिरोही ले आया.

इस बार उन की पोस्टिंग आबू में हुई थी. दोनों बच्चे अपनीअपनी लाइफ में सैट हो चुके थे, इसलिए शशि उन के साथ ही आ गई थी.

एक दिन औफिस में किसी ने बताया कि पिंडवाड़ा वाले जोरावर सिंह की जहरीली शराब पीने से मौत हो गई है.

औफिस का पुराना कर्मचारी होने के नाते सामान्य शिष्टाचार निभाने के लिए कुलदीप ने भी अफसोस जताने के लिए उस के घर जाना निश्चित किया.

यादों के शीशे पर जमी वक्त की गर्द थोड़ी साफ हुई… उन के दिमाग में राधा का चेहरा घूम गया… 10 साल एक लंबा अरसा होता है… कैसी दिखती होगी अब वह…

पुराना बंगला कुलदीप को बहुत कुछ याद दिला गया. अभी वे सर्वेंट क्वार्टर की तरफ जा ही रहे थे कि 8-9 साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ उन के सामने से गुजरा. हुबहू अपना अक्स देख कर कुलदीप चौंक गए…

तभी राधा वहां आई. उस ने फीकी हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘यह आप की निशानी है साहब.’’

कुलदीप यह सुन कर जड़ हो गए… मगर राधा अब भी मुसकरा रही थी… उस की मुसकराहट कुलदीप को आश्वस्त कर रही थी… नहीं, कभी कोई शर्त नहीं थी इस रिश्ते में… आज भी नहीं…

बेटे की चाह : भाग 3

2-2 बेटियां गायब हो चुकी थीं, पर ऐसा लगता कि उन के गायब होने का दुख मंगलू को नहीं था, खाना खाता और खर्राटे मार कर सोता.

मंगलू की पत्नी को यह बात खटकती थी कि ऐसा भी क्या हो गया कि यह आदमी 2 जवान बेटियों के गायब हो जाने पर भी पुलिस में रिपोर्ट न करे और न ही उन्हें ढूंढ़ने की कोई कोशिश करे.

एक दिन की बात है. मंगलू ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘आज मेरा खाना मुन्नी से खेत पर ही भिजवा देना. काम बहुत है. मैं सीधा शाम को ही घर आ पाऊंगा.’’

दोपहर हुई तो मंगलू की पत्नी ने खाना बांध कर मुन्नी को खेत की तरफ भेज दिया, पर आज मां ने मुन्नी को अपनी आंखों से ओझल नहीं होने दिया और हाथ में एक हंसिया ले कर वह मुन्नी का पीछा करने लगी.

मुन्नी सीधा खेत जा पहुंची. मंगलू ने उस से खाना ले कर खाया और पानी पिया, उस के बाद मुन्नी की पीठ पर हाथ फेरते हुए उसे अपने साथ ले कर चल दिया.

‘यह मुन्नी को कहां ले कर जा रहा है? यह तो हमारे घर का रास्ता नहीं है, बल्कि यह तो गांव के बाहर जाने का रास्ता है,’ सोचते हुए रमिया की मां भी दबे पैर मंगलू के पीछेपीछे चलने लगी.

मंगलू चलते हुए अचानक रुक गया और एक छोटी सी झोंपड़ी में मुन्नी को ले कर घुस गया.

रमिया की मां भाग कर उस झोंपड़ी के पास पहुंची और दरवाजे की झिर्री में अपनी आंख गड़ा दी.

अंदर का मंजर देख कर उस का कलेजा मुंह को आ गया. झोंपड़ी के अंदर एक दाढ़ी वाला बाबा बैठा हुआ था, जो शायद तांत्रिक था. उस के एक तरफ किसी देवी की मूर्ति बनी हुई थी, जिस के आसपास खून बिखरा हुआ था. ऐसा लग रहा था कि किसी जानवर की बलि दी गई है.

इतने में उस तांत्रिक की आवाज गूंजी, ‘‘हां तो मंगलू, यह तुम्हारी बेटी है.’’

‘‘हां, महाराज.’’

‘‘घबराओ नहीं, अब वह दिन दूर नहीं, जब तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाएंगी,’’ तांत्रिक ने यह कह कर मुन्नी के माथे पर एक तिलक लगा दिया.

रमिया की मां अनपढ़ जरूर थी, पर अंदर का सीन देख कर वह इतना जरूर समझ गई थी कि दाल में जरूर कुछ काला है और जल्दी ही कुछ न किया तो कुछ गलत भी हो सकता है. ऐसा सोच कर वह फिर से गांव की तरफ मदद लेने भागी.

सब से पहले फौजी शमशेर सिंह की कोठी पड़ती थी और फौजी अपनी कोठी के बाहर अपनी जीप की सफाई करवा रहा था.

रमिया की मां ने फौजी को देख मदद की गुहार लगाई और एक ही सांस में सारी कहानी कह सुनाई.

फौजी दिल का अच्छा था. वह तुरंत ही उस तांत्रिक की झोंपड़ी की तरफ भाग चला और तांत्रिक की झोंपड़ी का दरवाजा खोला तो वहां पर तांत्रिक ने मुन्नी के मुंह और आंखों पर पट्टी बांधी हुई थी. मंगलू भी वहां मौजूद था.

फौजी और अपनी पत्नी को देख मंगलू भी चौंक पड़ा.

‘‘क्या हो रहा है यहां पर और इस मुन्नी के मुंह और आंखों पर पट्टी क्यों बांध रखी है?’’ फौजी ने कड़क आवाज में पूछा.

तांत्रिक घबरा गया था और मंगलू भी. फौजी ने जब उन्हें घबराया देखा तो उसे समझते देर न लगी कि हो न हो, यह तांत्रिक सही आदमी नहीं है, इसलिए फौजी ने तांत्रिक को पुलिस के हवाले करने की बात कही तो तांत्रिक मौका देख कर भाग निकला, जिसे फौजी ने दौड़ कर पकड़ लिया.

सख्ती से पूछताछ करने पर तांत्रिक ने बताया कि मंगलू ही उस के पास आया था और उसे तंत्रमंत्र से एक लड़के का बाप बना देने की बात कही थी, जिस पर तांत्रिक ने मंगलू को बताया कि उस पर देवी का कोप चल रहा है, इसलिए अगर वह अपनी लड़कियों की बलि देवी को चढ़ा दे, तो देवी खुश हो कर उसे एक लड़के की प्राप्ति का आशीर्वाद देगी और इसीलिए मंगलू बारीबारी से अपनी दोनों लड़कियों को मेरे पास लाया था.

तड़ाक… फौजी का एक जोरदार तमाचा तांत्रिक के चेहरे पर पड़ा. वह धूल चाटने लगा और फौजी को गुस्से में देख घबरा उठा था.

‘‘क्या तुम ने दोनों लड़कियों को मार दिया…?’’ फौजी गुर्राया.

‘‘नहींनहीं, मैं ने उन्हें मारा नहीं, क्योंकि बलि देने के हिसाब से वे लड़कियां बढ़ी थीं, इसलिए मैं ने उन्हें शहर में बेच दिया,’’ तांत्रिक बोला.

‘‘क्या… तुम ने मुझे भी धोखा दिया. मुझ से कहते रहे कि मेरे बलि देने से देवी खुश हो रही है और अब तुम को लड़का होगा और तुम ने मेरी लड़कियों का सौदा किया,’’ इतना कह कर मंगलू तांत्रिक को मारने उठा और तांत्रिक की दाढ़ी पकड़ ली.

पर यह क्या… दाढ़ी तो मंगलू के हाथ में ही रह गई यानी वह तांत्रिक तो नकली ही था, जो तंत्रमंत्र और गांव वालों की धार्मिक कमजोरी का नाजायज फायदा उठा कर लड़कियों को देह धंधे में धकेलने के लिए शहर में बेच देता था.

फौजी ने अब तक पुलिस बुला ली थी और पुलिस ने उस नकली तांत्रिक को गिरफ्तार कर लिया.

कुछ ही देर में रसीली भी और गांव वालों को ले कर वहां आ गई थी.

रसीली ने मंगलू की तरफ नफरत से देखा और बोली, ‘‘मैं तो अकेली थी, इसलिए किसी दूसरे मर्द के शरीर का सहारा लिया, पर तुम्हारे पास तो सब था… एक बीवी, 3 बेटियां, पर फिर भी तुम रूढि़वादी लोगों के चक्कर में फंस कर एक बेटे की चाह में कितना गिर गए…’’

सिबली ने सारा माजरा समझते हुए कहा, ‘‘अरे फौजी साहब तो बहुत अच्छे आदमी निकले और हम सब तो उन को ही गलत समझ रहे थे.’’

उस की यह बात सुन कर फौजी  चौंक गया, पर बिना मुसकराए नहीं रह सका.

अब रमिया की मां सरोज की बारी थी. वह भी धीमी आवाज में बोली, ‘‘लड़के की चाह हम को भी थी, पर जब हमारी कोख से लड़कियों ने जन्म लिया, तब हम ने इन्हें ही अपना सबकुछ मान लिया, पर तुम ने तो हद ही कर दी. अरे, भला कोई अपनी लड़कियों को लड़के के लिए दांव पर लगाता है क्या?

‘‘अब तो समय बदल गया है रमिया के पापा, फिर भी तुम ने ऐसा किया. मेरी रमिया और श्यामा कहां और किस हाल में होंगी…’’

‘‘आप घबराइए नहीं, आप की बेटियां जहां भी होंगी, हम सब मिल कर उन्हें ढूंढ़ निकालेंगे,’’ फौजी शमशेर सिंह बोला.

सब की निगाहें मंगलू की तरफ थीं, जो एक बेटे की चाह में अपनी 2 बेटियों को गंवा बैठा था और अब अपने किए पर पछता रहा था, पर अब शायद बहुत देर हो चुकी थी.

ऐसा भी होता है- भाग 3

शाम को जब मोहन आए तो मैं चलने को एकदम तैयार थी. मेज पर नाश्ता लगा दिया था और चाय बना कर अभीअभी टीकोजी से ढक दी थी.

आते ही मोहन ने मुझे देख कर शरारत से कहा, ‘‘कितनी सुंदर लग रही हो. आंखें बंद कर लेता हूं. कहीं सपना टूट न जाए.’’

मैं लजा गई. मैं ने मुसकरा कर कहा, ‘‘छि:, सिनेमा तो देखते नहीं और बातें करते हो सिनेमा जैसी.’’

इतने में मां गरमगरम मठरी ले कर आ गईं. उन्हें देखते ही मोहन ने कहा, ‘‘अरे मां, तुम तैयार नहीं हुईं? देखो मेरी दुलहन तो तैयार खड़ी है. झटपट कपड़े बदल डालो.’’

मेरे तनबदन में आग लग गई. मुझ से अधिक मां की चिंता है. मोहन के साथ अकेले फिल्म देखने का रोमांटिक सपना चूरचूर हो गया. मुझे लगा कि अगर मैं कुछ देर खड़ी रही तो यहां आंसू टपक पड़ेंगे.

‘‘अरे बेटा, मैं क्या सिनेमा जाऊंगी. तुम दोनों हो आओ,’’ मां ने प्यार से कहा.

मेरी सांस ठहर गई. कुछ आशा बंधी.

‘‘नहीं मां, ऐसा नहीं होगा. मैं ने तुम्हारा टिकट भी लिया है. आखिर, घर बैठ कर करना क्या है?’’ मोहन ने मां का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो, देर मत करो.’’

मां का मुंह खिल गया और मैं ईर्ष्या से जलने लगी. अगर कोई मेरा शत्रु है तो मेरी सास है, मुझे मेरे मोहन को नजदीक नहीं आने देतीं.

मन चाहा कि फिल्म जाने से इनकार कर दूं. जाओ, अपनी मां के साथ. मैं कौन होती हूं? मां के चेहरे के स्थान पर शूर्पणखा का चेहरा दिखने लगा. घर में नाटक न हो, यह सोच कर मैं गई तो, पर आज जीवन में पहली बार लगा कि फिल्म न देखती तो अच्छा था. सारे समय कुढ़ती रही.

रात में मां के पेट में दर्द उठा. हम सब जागते रहे. पेट की सिंकाई की. हींग का लेप किया. बड़ी कठिनाई से रात कटी. न जाने क्यों सास को कराहता देख कर मेरे मन में सहानुभूति न हुई. मोहन की बेचैनी देख कर मुझे बहुत बुरा लग रहा था.

सुबह जब डाक्टर ने आ कर देखा तो बताया कि अपैंडिसाइटिस है. शल्य- क्रिया कर के अपैंडिक्स निकालना होगा.  कुछ दिन दवा खाएं, जब सूजन उतर जाएगी तभी शल्यक्रिया संभव होगी.

जहां मां आपरेशन के नाम से चिंतित हो रही थीं, मैं मन ही मन प्रसन्न थी. इन की सेवा करने की भी कोई तमन्ना न थी. कुछ तरकीब लड़ानी होगी. मैं ने अपनी मां को एक पत्र डाल दिया.

अगले सप्ताह ही पिताजी का पत्र आया कि मां की तबीयत बहुत खराब है. बेटी को बुला रही हैं. शीघ्र ही कुछ दिनों के लिए भेज दें.

पत्र पढ़ कर मां और मोहन दोनों के मुंह लटक गए. मैं अपनी प्रसन्नता छिपा न पा रही थी.

मैं ने नाटकीयता से कहा, ‘‘आप को छोड़ कर कैसे जा सकती हूं? मैं तो बड़ी दुविधा में पड़ गई हूं.’’

मां ने ठंडी आह भर कर कहा, ‘‘बहू, दुख में अपने ही लोग काम आते हैं. तुम मेरी चिंता मत करो. मोहन संभाल लेगा. मां तो मैं भी हूं, पर जिस ने तुम्हें जन्म दिया है उस का तुम्हारे ऊपर अधिक अधिकार बनता है. जाओ बहू, जाने की तैयारी करो.’’

अचानक मोहन का मुंह खिल उठा, ‘‘ठीक तो कह रही हैं, मां. यहां मैं जो हूं. तुम अपनी मां की सेवा करो, मैं अपनी मां की सेवा करूंगा.’’

मां ने हंस कर वात्सल्य से मोहन के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘यह तो मेरा बेटा भी है और बेटी भी.’’

मोहन ने खिलखिलाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें मेरे हाथ का सूजी का हलवा और खीर अच्छी लगती है न? मैं तुम्हारे लिए रोज नएनए सूप बनाया करूंगा. आज चारपाई पर पड़ी हो, देखना 2 दिन में ही भागने लगोगी.’’

मांबेटे दोनों हंस रहे थे और मैं चुप खड़ी थी. मुझे लगा, दोनों मिल कर मेरे विरुद्ध कोई षड्यंत्र रच रहे थे. न केवल मेरे जाने का विरोध नहीं कर रहे थे, बल्कि मेरे न होने की कल्पना से प्रसन्न हो रहे थे. मुझे लगा, मानो वे यह सोच रहे थे कि मेरी सेवा उन के संबंध को अपवित्र कर देगी, मैं जितनी जल्दी चली जाऊं, उतना ही अच्छा है.

मैं अपनी नजरों में आप ही गिर गई. अपने को बहुत तुच्छ महसूस करने लगी. यह क्यों नहीं समझती कि मोहन सच ही मां से बहुत प्यार करते हैं और अगर मोहन के दिल में जगह बनानी है तो वह मैं मां के द्वारा ही कर सकती हूं. मां के प्रति श्रद्धा, सम्मान व प्यार ही मोहन के लिए पर्याप्त है. यहां ईर्ष्या के लिए कोई स्थान नहीं.

मेरी आंखें छलछला रही थीं, जब मैं ने कहा, ‘‘मां, आप को छोड़ कर मैं नहीं जाऊंगी. अब तो आप ही मेरी मां हैं, जन्म देने वाली मां से भी बढ़ कर.’’

मोहन हंस तो नहीं रहे थे पर उन के मुख पर एक अनोखा सा संतोष था, जिसे मैं ने पहले नहीं देखा था.

लाली : क्या रोशन की हुई लाली ? – भाग 3

अब रोशन को लाली से मिलने के लिए पंडितजी की इजाजत लेनी पड़ती और पंडितजी को बिलकुल भी पसंद नहीं था कि कोई फुटपाथ का आदमी रोज उन के घर आए पर लाली की इच्छा का खयाल रखते हुए वह कुछ देर के लिए इजाजत दे देते. धीरेधीरे लाली की लोकप्रियता बढ़ने लगी और घटने लगा रोशन को दिया जाने वाला समय. रोशन इस अचानक आए बदलाव को समझ नहीं पा रहा था. वह लालिमा शास्त्री के सामने खुद को छोटा पाने लगा था.

एक दिन उस ने एक निर्णय लिया और लाली से मिलने उस के घर चला गया.

‘लाली, मेरा यहां मन नहीं लग रहा. चलो, वापस गांव चलते हैं,’ रोशन ने लाली की ओर देखते हुए कहा.

‘क्यों, क्या हुआ? मन क्यों नहीं लग रहा तेरा,’ लाली ने सोचते हुए कहा, ‘लगता है, मैं तुझ से मिल नहीं पा रही हूं, इसी कारण मन नहीं लग रहा तेरा.’

‘नहीं…सच तो यह है कि पंडितजी यही चाहते हैं कि मैं तुझ से न मिलूं और मुझे लगता है कि शायद तू भी यही चाहती है. तुझे लगता है कि मैं तेरे संगीत की शिक्षा में रुकावट हूं,’ रोशन ने गुस्से में कहा.

‘अरे, नहीं, यह बात नहीं है. रियाज और बाकी काम होने के कारण मैं तुम से मिल नहीं पाती,’ लाली ने समझाने की कोशिश की.

लेकिन रोशन समझने को तैयार कहां था, ‘सचाई यह नहीं है लाली. सच तो यह है कि पंडितजी की तरह तू भी नहीं चाहती कि गंदी बस्ती का कोई आदमी आ कर तुझ से मिले. तू बदल गई है लाली, तू अब लालिमा शास्त्री जो बन गई है,’ रोशन ने कटाक्ष किया.

‘सच तो यह है रोशन कि तू मेरी सफलता से जलने लगा है. तू पहले भी मुझ से जलता था जब मैं ट्रेन में तुझ से ज्यादा पैसे लाती थी. सच तो यह है, तू नहीं चाहता कि मैं तुझ से आगे रहूं. मैं नहीं जा रही गांव, तुझे जाना है तो जा,’ लाली के होंठों से लड़खड़ाती आवाज निकली.

रोशन आगे कुछ नहीं बोल पाया. बस, उस की आंखें भर आईं. जिस की सफलता के लिए उस ने अपने शरीर को जला दिया आज उसी ने अपनी सफलता से जलने का आरोप उस पर लगाया था. ‘खुश रहना, मैं जा रहा हूं,’ यह कह कर रोशन कमरे से बाहर निकल आया.

रोशन गांव तो चला गया पर गांव में पुलिस 1 साल से उस की तलाश कर रही थी. आश्रम वालों ने उस के खिलाफ नाबालिग लड़की को भगाने की रिपोर्ट लिखा दी थी. गांव पहुंचते ही पुलिस ने उसे पकड़ लिया और कोर्ट ने उसे 1 साल की सजा सुनाई.

इधर 1 साल में लालिमा शास्त्री ने लोकप्रियता की नई ऊंचाइयों को छुआ. उस के चाहने वालों की संख्या रोज बढ़ती जा रही थी और साथ ही बढ़ रहा था अकेलापन. रोशन के लौट आने की कामना वह रोज करती थी.

जेल से छूटने के बाद रोशन खुद को लाली से और भी दूर पाने लगा. उस की हालत उस बच्चे की तरह थी जो ऊंचाई में रखे खिलौने को देख तो सकता है मगर उस तक पहुंच नहीं सकता.

उस ने बारूद के कारखाने में फिर से काम करना शुरू कर दिया. वह सारा दिन काम करता और शाम को चौराहे पर पीपल के पेड़ के नीचे निर्जीव सा बैठा रहता. जब भी अखबार में लाली के बारे में छपता वह हर आनेजाने वाले को पढ़ कर सुनाता और फिर अपने और लाली के किस्से सुनाना शुरू कर देता. सभी उसे पागल समझने लगे थे.

रोशन ने कई बार मुंबई जाने के बारे में सोचा लेकिन बस, एक जिद ने उसे रोक रखा था कि जब लाली को उस की जरूरत नहीं है तो उसे भी नहीं है. कारखाने में काम करने के कारण उस की तबीयत और भी खराब होने लगी थी. खांसतेखांसते मुंह से खून आ जाता. उस ने अपनी इस जर्जर काया के साथ 4 साल और गुजार दिए थे.

एक दिन वह चौराहे पर बैठा था, कुछ नौजवान उस के पास आए, एक ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘अब तेरा क्या होगा पगले, लालिमा शास्त्री की तो शादी हो रही है. हमें यह समझ नहीं आ रहा कि आखिर तेरे रहते वह किसी और से शादी कैसे कर सकती है,’ यह कह कर उस ने अखबार उस की ओर बढ़ा दिया और सभी हंसने लगे.

अखबार देखते ही उस के होश उड़ गए. उस में लाली की शादी की खबर छपी थी. 2 दिन बाद ही उस की शादी थी. अंत में उस ने फैसला किया कि वह मुंबई जाएगा.

वह फिर मुंबई आ गया. वहां 12 साल में कुछ भी तो नहीं बदला था सिवा कुछ बहुमंजिली इमारतों के. आज ही लाली की शादी थी. वह सीधे पंडितजी के बंगले में गया. पूरे बंगले को दुलहन की तरह सजाया गया था. सभी को अंदर जाने की इजाजत नहीं थी. सामने जा कर देखा तो पंडितजी को प्रवेशद्वार पर अतिथियों का स्वागत करते पाया.

‘पंडितजी,’ आवाज सुन कर पंडितजी आवाज की दिशा में मुड़े तो पागल की वेशभूषा में एक व्यक्ति को खड़ा पाया.

‘पंडितजी, पहचाना मुझे, मैं रोशन… लाली का दोस्त.’

पंडितजी उसे अवाक् देखते रहे, उन्हें समझ में नहीं आ रहा था वह क्या करें. पिछले 5-6 साल के अथक प्रयास के बाद वह लाली को शादी के लिए मना पाए थे. लाली ने रोशन के लौटने की उम्मीद में इतने साल गुजारे थे लेकिन जब पंडितजी को शादी के लिए न कहना मुश्किल होने लगा तो अंत में उस ने हां कर दी थी.

‘पंडितजी, मैं लाली से मिलना चाहता हूं,’ इस आवाज ने पंडितजी को झकझोरा. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें, अगर रोशन से मिल कर लालिमा ने शादी से मना कर दिया तो? और पिता होने के नाते वह अपनी बेटी का हाथ किसी पागल जैसे दिखने वाले आदमी को कैसे दे सकते हैं. इसी कशमकश में उन्होंने कहा.

‘लालिमा तुम से मिलना नहीं चाहती, तुम्हारे ही कारण वह पिछले 5-6 साल से दुख में रही है, अब और दुख मत दो उसे, चले जाओ.’

‘बस, एक बार पंडितजी, बस एक बार…मैं फिर चला जाऊंगा,’ रोशन ने गिड़गिड़ाते हुए पंडितजी के पैर पकड़ लिए.

पंडितजी ने हृदय को कठोर करते हुए कहा, ‘नहीं, रोशन. तुम जाते हो या दरबान को बुलाऊं,’ यह सुन कर रोशन बोझिल मन से उठा और थोड़ी दूर जा कर बंगले की चारदीवारी के सहारे बैठ गया. पंडितजी उसे वहां से हटने के लिए नहीं कह पाए. वह रोशन की हालत को समझ रहे थे लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी.

रोशन की जब आंख खुली तो उस ने लाली को दुलहन के लिबास में सामने पाया. उसे लगा जैसे वह सपना देख रहा हो. आसपास देखा तो खुद को अस्पताल के बिस्तर में पाया. उस ने पिछली रात की बात को याद करने की कोशिश की तो उसे याद आया उस की छाती में काफी तेज दर्द था, 1-2 बार खून की उलटी भी हुई थी…उस के बाद उसे कुछ भी याद नहीं था. शायद उस के बाद उस ने होश खो दिया था. पंडितजी को जब पता चला तो उन्होंने उसे अस्पताल में भरती करा दिया था.

लाली ने रोशन के शरीर में हलचल महसूस की तो खुश हो कर रोशन के चेहरे को छू कर कहा, ‘‘रोशन…’’ और फिर वह रोने लगी.

‘‘अरे, पगली रोती क्यों है, मैं बिलकुल ठीक हूं. अभी देख मेरा पूरा चेहरा लाल है,’’ खून से सने अपने चेहरे को सामने दीवार पर लगे आईने में देखते हुए उस ने कहा, ‘‘अच्छा है, तू देख नहीं सकती नहीं तो आज मेरे लाल रंग को देख कर तू मुझ से ही शादी करती.’’

यह सुन कर लाली और जोर से रोने लगी.

‘‘मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं तुझे दुलहन के रूप में देखूं, आज मेरी यह इच्छा भी पूरी हो गई,’’ अब रोशन की आंखों में भी आंसू थे.

‘‘रोशन, तू ने बहुत देर कर दी…’’ बस, इतना ही बोल पाई लाली.

इस के बाद रोशन भी कुछ नहीं बोल पाया. बस, आंसू भरी निगाहों से दुलहन के लिबास में बैठी, रोती लाली को देखता रहा.

आंखों में सफेद पट्टी बांधे लाली अस्पताल के एक अंधेरे कक्ष में बैठी थी. रोशन को गुजरे 12 दिन हो गए थे. जातेजाते रोशन लाली को अपनी आंखें दान में दे गया था. आज लाली की आंखों की पट्टी खुलने वाली थी, लेकिन वह खुश नहीं थी, क्योंकि उस के जीवन में रोशनी भरने वाला रोशन अब नहीं था. डाक्टर साहब ने धीरेधीरे पट्टी खोलना शुरू कर दिया था.

‘‘अब आप धीरेधीरे आंखें खोलें,’’ डाक्टर ने कहा.

लाली ने जब आंखें खोलीं तो सामने पंडितजी को देखा. पंडितजी काफी खुश थे. वह लाली को खिड़की के पास ले गए और बोले, ‘‘लालिमा, यह देखो इंद्रधनुष, प्रकृति की सब से सुंदर रचना.’’

लाली को इंद्रधनुष शब्द सुनते ही रोशन की इंद्रधनुष के बारे में कही बातें याद आ गईं. उस ने ऊपर आसमान की तरफ देखा तो रंगबिरंगी आकृति आसमान में लटकी देखी, और सब से सुंदर रंग ‘लाल’ को पहचानते देर नहीं लगी उसे. आखिर वह इंद्रधनुष रोशन की आंखों से ही तो देख रही थी.

उस की आंखों से 2 बूंद आंसू की निकल पड़ीं.

‘‘पिताजी, उस ने बहुत देर कर दी आने में,’’ यह कह कर लालिमा ने पंडितजी के कंधे पर सिर रख दिया और आंखों का बांध टूट गया.

खाली जगह : सड़क पर नारियल पानी बेचने का संघर्ष – भाग 3

कार आगे बढ़ गई. एक कपड़े की बड़ी सी दुकान के सामने रुकी. वे उसे ले कर अंदर गई. उसे आईने के सामने बैठा कर उस के बालों को काटा, फिर उसे नहलाया और रेडीमेड कपड़ों को पहनाया गया. 2-3 घंटे में ही वह निखर गया. जब आईने के सामने सुरेश खड़ा हुआ तो खुद को पहचान नहीं पाया. लेकिन आखिर मैडमजी क्यों इतनी मेहरबानी कर रही हैं?

फिर दोनों एक अच्छे से होटल में खाने के लिए गए. सुरेश तो चावल और रसम खाने की उम्मीद कर रहा था लेकिन मैडम ने न जाने क्याक्या खाने को मंगवा लिया जो बहुत लजीज था.

सुरेश ने भरपेट खाना खाया. वह सबकुछ ऐसा ही कर रहा था जैसा मैडम कह रही थीं. हालांकि उस का नालायकपन उभरउभर कर सामने आ रहा था. किस फूहड़ता से वह खापी रहा था. जब वहां से निकले तो एक छोटे से लेकिन महंगे सिनेमाघर में जा कर बैठ गए. कोई हिंदी फिल्म थी. प्रेमकथा थी. वह बरसों बाद फिल्म देख रहा था. थोड़े से पैर लंबे किए तो सीट फैल कर आरामदायक हो गई.

फिल्म में सुरेश कई बार ‘होहो’ कर के हंसा तो मैडमजी ने उस की जांघ पर हाथ रख कर चुप रहने का संकेत किया. हंसने में किस तरह की रोक? जब फिल्म देख कर बाहर निकले तो रात हो चुकी थी. आसमान में काले बादलों ने अपना डेरा जमा लिया था. ठंडीठंडी हवा चल रही थी.

जिंदगी इतनी खूबसूरत भी हो सकती है, सुरेश ने आज जाना था. दोनों कार से शहर का चक्कर लगा कर एक बंगले के सामने ठहरे. दोनों उतर कर अंदर गए. सुरेश का दिल जोरों से धड़क रहा था. ऐसे घर उस ने सपने में भी नहीं देखे थे.

मैडम उसे अपने साथ बैडरूम में ले गईं. सुरेश को रात के पहने जाने वाले कपड़े दिए जो वे अपने साथ लाई थीं. उसे बहुत हैरानी हुई कि सोने के कपड़े अलग क्यों. जबकि वह तो सुबह से रात तक एक ही कपड़े पहने रहता था.

नहाने के बाद रात में एक बड़े बिस्तर पर उसे सोने को कह दिया. ऐसे बिस्तर पर तो उसे नींद नहीं आएगी.

बाहर हवा तेज चल रही थी. काले बादलों से रिमझिम पानी गिरना शुरू हो गया था. मैडम सुरेश के बगल में आ कर लेट गईं. सुरेश हड़बड़ा कर उठ बैठा. लेकिन मैडमजी ने हाथ पकड़ कर लेटे रहने को मजबूर कर दिया. वह बुरी तरह से घबरा गया. ऐसी घटना की तो उस ने कभी कल्पना नहीं की थी. इतनी अमीर और पढ़ीलिखी मैडम जिंदगी में आएंगी.

मैडमजी ने नारियल का तेल लिया, उस के बालों में लगाना शुरू किया. उस के काले बालों में धीमेधीमे उंगलियां चला रही थीं, सुरेश किसी बेहोशी का शिकार हो रहा था. बाहर बिजली चमकी और काले घने बादलों ने बरसना शुरू किया और फिर बरसते गए. सुबह जब सुरेश की नींद खुली तो उसे अपने झोंपड़े की याद आई. पूरा बदन दर्द से टूट रहा था.

एक नौकरानी नाश्ते में इडली, चटनी, सांबर और थर्मस में कौफी रख गई. उस ने मुंह धोया और चुपचाप नाश्ता कर लिया जो बहुत ही स्वाद वाला था. वह इस महल से बाहर निकलना चाह रहा था, लेकिन डर भी रहा था.

तकरीबन 2 रातों तक सुरेश वहीं ठहरा. न जाने कितने सपने उस के टूट गए थे. टूट जाने के बाद भी उसे सबकुछ अच्छा लग रहा था.

अगली सुबह अन्ना के झोंपड़े पर जाने की बात तय हो गई थी. रात बहुत ही उदासी, बेचैनी से कटी.

अगले दिन मैडम ने अन्ना के झोंपड़े के पास उतार दिया. शाम को या अगले दिन मिलने के वादे के साथ. सुरेश की जेब में हजार रुपए जबरदस्ती रख दिए गए थे, इसलिए नहीं कि उस की कीमत चुकाई गई हो. यह दुकान के नुकसान की भरपाई थी. अन्ना से जब वह मिला तो अन्ना उसे ले कर बहुत परेशान थे.

सुरेश को झोंपड़ा ऐसा लग रहा था मानो कहां की जेल में आ गया हो. यह झोंपड़पट्टी की चाल उसे किसी गटर जैसी लग रही थी. उसे लगा कि यहां कितनी बदबू है और यहां लोग कैसे रहते हैं? यहां तो एक पल भी नहीं रहा जा सकता. उस के कपडे़, कटिंग देख कर अन्ना को बहुत हैरानी हुई. हजार सवाल होने पर भी उन्होंने कहा कुछ नहीं.

दोपहर होतेहोते सुरेश कालेज के गेट पर जा पहुंचा. ऐसे शानदार कपड़े पहन कर वह कैसे नारियल काट कर बेचेगा? न तो यह बेइज्जती होगी कपड़ों की. वह मैडम की मदद से कुछ नया काम खोज लेगा. उस ने मन ही मन विचार किया. कालेज के गेट पर गांव का काला लड़का ग्राहकों को नारियल काटकाट कर बेच रहा था. सुरेश को देख कर वह पहचाना नहीं लेकिन फिर बहुत हैरानी के साथ उस ने कहा, ‘‘भाई, आप तो बिलकुल हीरो लग रहे हो.’’ सुरेश झेंप गया.

मौसम खुल गया था, तपिश थी, उमस थी. हवा बिलकुल नहीं चल रही थी. सुरेश मैडमजी का इंतजार कर रहा था. दूर से वह काली कार आती दिखाई दी. कार आ कर सड़क के उस ओर ठहरी व खिड़की का कांच नीचे उतरा, हाथ बाहर निकला और पास आने का इशारा किया.

सुरेश आगे बढ़ा. अचानक हाथ ने इशारे से आने को मना किया और सुरेश को इशारा किया मानो कह रही हो, ‘तुम नहीं, वह नया काला लड़का जो खड़ा है, उसे भेजो.’

सुरेश ठिठक गया. वह लौट गया और उस गांव वाले लड़के को कहा, ‘‘मैडमजी तुझे बुला रही हैं.’’

‘‘क्यों…?’’

‘‘तू जा तो सही, मालूम पड़ जाएगा,’’ सुरेश ने कहा.

वह काला लड़का कार में बैठ गया. मैडम ने सुरेश पर एक नजर डाली जिस में कोई भी भाव नहीं था. लड़के को ले कर वह कार आगे बढ़ गई.

सुरेश अपमानित सा अपनी दुकान के सामने खड़ा था. वह सड़क पर इतने जोर से चीखा कि सड़क पर चलते सभी लोग एक पल को सहम गए. उस ने छुरा निकाला और हरे नारियल को हाथ में ले कर एक झटके में ऐसा काटा मानो किसी का सिर काट रहा हो. वह चीखते हुए रो पड़ा. यह शहर अजीब है. यहां के रिश्ते, परंपराएं अजीब हैं. न प्यार, न कोई अपनापन. वह ऐसी जगह नहीं रह सकता. वह रोते हुए उठा, थैले में नारियल लिए, अन्ना के झोंपड़े में आया और सूचना दी, ‘‘मैं गांव जा रहा हूं.’’

अगले 2 दिनों बाद कार आई, रुकी, पर वहां कोई नहीं था. सुरेश वाली जगह खाली पड़ी थी. नया काला गांव का लड़का भी अपने गांव को रवाना हो गया था. जगह खाली थी, कोई नहीं था. मैडम की आंखों में अजीब सी खोज थी, लेकिन वहां कोई नहीं था. कुछ देर ठहर कर वे अगले किसी चौराहे पर कार को ले कर बढ़ गईं. आसमान में बादल थे लेकिन वे बरस नहीं रहे थे. चारों तरफ अजीब सा सूखापन और गरमी थी.

चोरी का फल- भाग 3

यह सच है कि मैं अपने घर वालों से कट कर रहने लगा. औफिस के सहयोगियों या पड़ोसियों के साथ खाली समय में उठनाबैठना भी मैं ने कम कर दिया. किसी से फालतू बात कर के मैं उसे शिखा व अपने बारे में कुछ पूछने या कहने का मौका नहीं देना चाहता था. इस तरह सामाजिक दायरा घटते ही मैं धीरेधीरे अजीब से असंतोष, तनाव व खीज का शिकार बनने लगा.

एक दिन शिखा को अपनी बांहों में भर कर बोला, ‘‘मेरा मन करता है कि तुम हमेशा मेरी बांहों में इसी तरह बनी रहो. अब तो अपने इस घर का अकेलापन मुझे काटने लगा है.’’

उदास से लहजे में शिखा ने जवाब दिया, ‘‘हम दोनों को सामाजिक कायदेकानून का ध्यान रखना ही होगा. अपने पति व सास को छोड़ कर सदा के लिए आप के पास आ जाने की हिम्मत मुझ में नहीं है. फिर मेरा ऐसा कदम बेटे रोहित के भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा और उस के हित की फिक्र मैं अपनी जान से ज्यादा करती हूं.’’

‘‘मैं तुम्हारे मनोभावों को समझता हूं, शिखा. देखो, तकदीर ने मेरे साथ कैसा मजाक किया है. मेरी पत्नी मुझे बहुत प्यारी थी पर उसे जिंदगी छोटी मिली. तुम्हें मैं बहुत प्रेम करता हूं, पर तुम सदा के लिए खुल कर मेरी नहीं हो सकती हो. जब कभी इस तरह की बातें सोचने लगता हूं तो मन बड़ा अकेला, उदास और बेचैन हो जाता है.’’

जो बात दिमाग में बैठ जाए फिर उसे भुलाना या निकाल कर बाहर फेंकना बड़ा कठिन होता है. शिखा मेरे दिल के बहुत करीब थी, फिर भी मेरे अंदर का असंतोष व बेचैनी बढ़ती ही गई.

रोहित के जन्म की 5वीं सालगिरह पर मेरे असंतोष का घड़ा पूरा भर कर एक झटके में फूट गया.

इत्तफाक से जन्मदिन के कुछ रोज पहले संजीव को स्टाक मार्किट से अच्छा फायदा हुआ. तड़कभड़क से जीने के शौकीन संजीव ने फौरन रोहित के जन्मदिन की पार्टी धूमधाम से मनाने का फैसला कर लिया.

उस दिन घर के आगे टैंट लगा. हलवाई ने खाना तैयार किया. डीजे सिस्टम पर बज रहे गानों की धुन पर खूब सारे मेहमान थिरकने लगे. कम से कम 250-300 लोग वहां जरूर उपस्थित रहे होंगे.

रोहित उस दिन स्वाभाविक तौर पर सब के आकर्षण का केंद्र बना. उस के साथ घूमते हुए शिखा व संजीव ने इतनी अच्छी पार्टी देने के लिए खूब वाहवाही लूटी.

मैं एक तरफ उपेक्षित सा बैठा रहा. शिखा को फुरसत नहीं मिली, मेरे साथ चंद मिनट भी गुजारने की. शायद मेरे साथ हंसबोल कर वह अपने करीबी रिश्तेदारों को बातें बनाने का मौका नहीं देना चाहती थी.

मैं पार्टी का बिलकुल भी मजा नहीं ले सका. उस बड़ी भीड़ में मैं अपने को अकेला, उदास व उपेक्षित सा महसूस कर रहा था.

मेरा मन एक तरफ तो मांग कर रहा था कि शिखा को मेरे पास आ कर मेरा भी ध्यान रखना चाहिए था. उस के परिवार की हंसीखुशी में मेरा योगदान कम नहीं था. दूसरी तरफ मन शिखा के पक्ष में बोलता. मैं उस का प्रेमी जरूर था पर यह कोई भी समझदार स्त्री खुलेआम अपने करीबी लोगों के सामने रेखांकित नहीं कर सकती.

मैं जब इस तरह की कशमकश से तंग आ गया तो बिना किसी को बताए घर चला आया.

उस रात मुझे बिलकुल नींद नहीं आई. जिस ढर्रे पर मेरी जिंदगी चल रही थी उस से गहरा असंतोष मेरे दिलोदिमाग में पैदा हुआ था.

मेरी सारी रात करवटें बदलते गुजरी पर सुबह मन शांत था. पिछली परेशानी भरी रात के दौरान मैं ने अपनी जिंदगी से जुड़े कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए थे.

अगले दिन शिखा 11 बजे के करीब आई. मेरे गंभीर चेहरे को देख कर चिंतित स्वर में बोली, ‘‘क्या आप की तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘मैं ठीक हूं,’’ मैं ने उसे अपने सामने बैठने का इशारा किया.

‘‘कल पार्टी में किसी ने कुछ गलत कहा? गलत व्यवहार किया?’’ वह परेशान हो उठी.

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं हुई.’’

‘‘फिर यों बुझेबुझे से क्यों लग रहे हो?’’

‘‘रात को ठीक से सो नहीं पाया.’’

‘‘किसी बात की परेशानी थी?’’

‘‘हां, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था, शिखा. कुछ जरूरी बातें करनी हैं मुझे तुम से.’’

‘‘कहो…’’

मैं ने कुछ लम्हों की खामोशी के बाद भावहीन स्वर में उसे बताया, ‘‘मैं आज मेरठ वाली उस लड़की को देखने जा रहा हूं जिस का मेरे लिए रिश्ता आया है.’’

‘‘मैं तो हमेशा आप को मेरठ जाने की सलाह देती रही हूं.’’

‘‘शिखा, मैं खुद नहीं जाता था क्योंकि तुम्हारे अलावा किसी और स्त्री को अपनी जिंदगी में प्रवेश देना मुझे अनुचित लगता था… वैसा करना उस मेरठ वाली लड़की के साथ धोखा करना होता.’’

‘‘क्या अब आप ने मुझे अपने दिल से निकालने का फैसला कर लिया है?’’ यह कहतेकहते शिखा की आंखों में आंसू छलक आए.

‘‘शिखा, तुम बिना आंसू बहाए मेरी बात को समझने की कोशिश करो, प्लीज,’’ मैं ने अपनी आवाज को कमजोर नहीं पड़ने दिया, ‘‘देखो, तुम्हारी घरगृहस्थी सदा तुम्हारी रहेगी. मैं चाह कर भी उस का स्थायी सदस्य कभी नहीं बन सकता हूं. तुम्हारा नाम संजीव के साथ ही जुड़ेगा, मेरे साथ नहीं. यह बात कल रात मुझे बिलकुल साफ नजर आई.

‘‘चोरी का मीठा फल खाने का अपना मजा है… तुम्हारे प्यार को मैं बहुत कीमती व महत्त्वपूर्ण मानता रहा हूं. अब थक गया हूं, अकेले इस घर में रातें बिताते हुए… अब मैं सिर्फ फल खाना नहीं बल्कि अपनी छोटी सी बगिया बनाना चाहता हूं जिसे मैं अपना कह सकूं… जिसे फलताफूलता देख मैं ज्यादा खुशी व सुकून महसूस कर सकूं.’’

‘‘मैं ने आप को अपनी घरगृहस्थी की बगिया बनाने से कभी नहीं रोका,’’ शिखा भावुक स्वर में बोली, ‘‘आप जरूर शादी कर लें. आप की इच्छा होगी तो मैं खुशीखुशी आप की जिंदगी में प्रेमिका बन कर बनी रहूंगी.’’

‘‘नहीं, शिखा, वैसा करना बिलकुल गलत होगा,’’ मैं ने तीखे स्वर में उस के प्रस्ताव का विरोध किया.

‘‘तब क्या आज आप मुझे हमेशा के लिए अलविदा कह रहे हैं?’’ वह रोंआसी हो उठी.

भीगी पलकें और भारी मन से मैं इतना भर कह सका, ‘‘आई एम सौरी, शिखा, दोस्ती की सीमाएं लांघ कर तुम्हें अपनी प्रेमिका नहीं बनाना चाहिए था मुझे. मैं सिर्फ तुम्हारे मन में जगह बना कर रखता तो आज मेरी भावी शादी के कारण हमें एकदूसरे से दूर न होना पड़ता.’’

शिखा उठ कर खड़ी हो गई और थके से स्वर में बोली, ‘‘सर, आप जैसे नेक इनसान को कभी भुला नहीं पाऊंगी. पर शायद आप का फैसला बिलकुल सही है. मैं चलती हूं.”

विधायक को जवाब : निशा किस वारदात से डरी हुई थी- भाग 3

कृपाल सिंह खुद निशा की कनपटी पर पिस्तौल टिकाए चिल्ला रहे थे, ‘‘हट जाओ तुम लोग, वरना इस लड़की की लाश यहां नजर आएगी.’’ मगर हरिजन टस से मस न हुए. वे चारों तरफ से विधायक और उन के आदमियों को घेरे खड़े थे. एक आदमी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘यह लड़की हमारी इज्जत है, एमएलए साहब. इसे मारने से पहले आप को हम सभी की लाशों पर से गुजरना पड़ेगा. फिर जो हंगामा होगा, आप सुलट लेना.’’ तभी राजन जोर से चिल्लाया, ‘‘पिताजी…

’’ ठाकुर साहब के साथसाथ सभी ने उस की तरफ देखा. वे अपनी पिस्तौल अपनी ही कनपटी पर टिकाए हुए था, ‘‘पिताजी, छोड़ दीजिए निशा को, वरना मैं अपनेआप को भी गोली मार लूंगा.’’ बेटे की ऐसी हालत देख कर ठाकुर कृपाल सिंह टकटकी लगाए बेटे को ही देखने लगे. निशा किसी की परवाह किए बिना राजन की तरफ भागी और उस की बांहों में समा कर फूटफूट कर रोने लगी. राजन ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. अचानक धमाके की आवाज हुई. निशा और राजन के साथसाथ सभी उधर ही मुड़े. राजन ‘पिताजीपिताजी’ चिल्लाते हुए ठाकुर साहब की तरफ लपका. ठाकुर साहब अपनेआप को गोली मार चुके थे. ‘‘पिताजी, यह आप ने क्या कर लिया?’’ ठाकुर साहब किसी तरह बोल पाए, ‘‘नहीं… नहीं… राजन बेटे, रोते नहीं. मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है न..

.’’ फिर वे निशा की तरफ मुड़े और उस का हाथ पकड़ कर राजन के हाथ में देते हुए बोले, ‘‘निशा बेटी, मुझे माफ कर देना. राजन सिर्फ तुम्हारा है. मैं ने ऊंचनीच की दीवार खड़ी कर के… तुम्हारे साथ बहुत नाइंसाफी की है…’’ कौन जानता था कि सिर्फ 7 साल बाद निशा इलाके की विधायक बनेगी और राजन एक बड़ी कंपनी का डिप्टी सीईओ. दोनों ने विधायक के मरने के बाद जम कर पढ़ाई की,

आईआईटी में एडमिशन लिया. वे दोनों 2 साल अमेरिका में रहे, फिर निशा और राजन भारत लौट आए. निशा नौकरी छोड़ कर विधायक साहब की सीट पर जनरल कोटे से लड़ी और कट्टरपंथी पार्टी को हरा कर जीती. वह मंत्री तो नहीं बनी, पर जब विधानसभा में बोलती, तो मुख्यमंत्री पसीनेपसीने हो जाते. राजन और निशा ने एक शहर के बाहर एक बड़ी बिल्डिंग के 10वें माले पर 4 कमरे का मकान लिया था, पर निशा के पिता आज भी पुराने मकान में रहते हैं.

काले घोड़े की नाल: आखिर क्या था काले घोड़े की नाल का रहस्य ?- भाग 3

रानी ने महसूस किया कि मुखियाजी के हाथों में कितनी वासना और लिजलिजाहट महसूस होती है… बहुत अंतर था इन दोनों के स्पर्श में.

उस दिन रानी वापस तो आई, पर उस का मन जैसे कहीं छूट सा गया था. बारबार उस के मन में आ रहा था कि वह जा कर चंद्रिका से खूब बातें करे, उस के साथ में जीने का एहसास पहली बार हुआ था उसे.

इस बीच रानी कभीकभी अकेले ही अस्तबल चली जाती. एक दिन उस ने चंद्रिका का एक अलग ही रूप देखा.

“बस, कुछ दिन और बादल… मुझे बस इस माघ मेले में होने वाली दौड़ का इंतजार है, जिस में मुखिया से मेरा हिसाब बराबर हो जाएगा… मुझे इस मुखिया ने बहुत सताया है.”

”ये चंद्रिका आज कैसी बातें कर रहा है? कैसा हिसाब…? और मुखियाजी ने क्या सताया है तुम्हें?” एकसाथ कई सवाल सुन कर घबरा गया था चंद्रिका.

“जाने दीजिए… हमें कुछ नहीं कहना है.”

“नहीं, तुम्हें बताना पड़ेगा… तुम्हें हमारी कसम,” चंद्रिका का हाथ पकड़ कर रानी ने अपने सिर पर रखते हुए कहा था. न चाहते हुए भी चंद्रिका को बताना पड़ा कि वह अनाथ था. मुखियाजी ने उसे रहने की जगह और खाने के लिए भोजन दिया. उन्होंने ही चंद्रिका की शादी भी कराई और फिर चंद्रिका को बहाने से शहर भेज दिया और उस के पीछे उस की बीवी की इज्जत लूटने की कोशिश की, पर उस की बीवी स्वाभिमानी थी. उस ने फांसी लगा ली… बस, तब से मैं हर 8 साल बाद होने वाले माघ मेले का इंतजार कर रहा हूं, जब मैं बग्घी दौड़ में इसे बग्घी से गिरा कर मार दूंगा और इस तरह से अपनी पत्नी की मौत का बदला लूंगा.

रानी को समझते देर न लगी कि ऊपर से चुप रहने वाला चंद्रिका अंदर से कितना भरा हुआ है. वह कुछ न बोल सकी और लौट आई. रानी के मन में चंद्रिका की मरी हुई पत्नी के लिए श्रद्धा उमड़ रही थी. अपनी इज्जत बचाने के लिए उस ने अपना जीवन ही खत्म कर दिया.

इस के जिम्मेदार तो सिर्फ मुखियाजी हैं… तब तो उन्हें सजा जरूर मिलनी चाहिए… पर कैसी सजा…? किस तरह की सजा…? मुखियाजी को कुछ ऐसी चोट दी जाए, जिस का दंश उन्हें जीवनभर झेलना पड़े… और वे चाह कर भी कुछ न कर सकें… आखिरकार रानी को उस के पति से अलग करने का जुर्म भी तो मुखियाजी ने ही किया है.

एक निश्चय कर लिया था रानी ने. अगली सुबह रानी सीधा अस्तबल पहुंची और चंद्रिका से कुछ बातें कीं, जिन्हें सुन कर असमंजस में दिखाई दिया था चंद्रिका.

वापस आते हुए रानी चंद्रिका से काले घोड़े की नाल भी ले आई थी… ये कहते हुए कि देखते हैं कि तुम्हारे इस अंधविश्वास में कितनी सचाई है और वो काले घोड़े की नाल उस ने मुखियाजी के कमरे के बाहर टांग दी थी.

रात में रानी ने घर का सारा कीमती सामान और नकदी एक बैग में भरी और अस्तबल पहुंच गई. रानी और चंद्रिका दोनों बादल की पीठ पर बैठ कर शहर की ओर जाने वाले थे, तभी चंद्रिका ने पूछा, “पर, इस तरह तुम को भगा ले जाने से मेरे प्रतिशोध का क्या संबंध…?”

“मैं ने अपने पति को एक पत्र लिखा है, जिस में उसे अपनी पत्नी का ध्यान न रख पाने का जिम्मेदार ठहराया है… वह तिलमिलाया हुआ आएगा और मुखियाजी से सवाल करेगा… दोनों भाइयों में कलह तो होगी ही, साथ ही साथ पूरे गांव में मुखियाजी की बहू के उन के घोड़ों के नौकर के साथ भाग जाने से उन की आसपास के सात गांव में जो नाक कटेगी, उस का घाव जीवनभर रिसता रहेगा… ये होगा हमारा असली प्रतिशोध,” रानी की आंखें चमक रही थीं.

रानी ने उसे ये भी बताया कि माना कि मुखियाजी को चंद्रिका मार सकता है, पर भला उस से क्या होगा? एक झटके में वह मुक्त हो जाएगा और फिर चंद्रिका पर हत्या का इलजाम भी लग सकता है और फिर मुखिया भले ही बहुत बुरा आदमी है, पर मुखियाइन का भला क्या दोष? उस के जीवित रहने से उस का जीवन जुडा हुआ है और फिर उसे मार कर बेकार पुलिस के पचड़े में पड़ने से अच्छा है कि उसे ऐसी चोट दी जाए, जो उसे जीवनभर सालती रहे.

“और हां… अब तो मानते हो न कि तुम्हारी वो बुरे वक्त से बचाने वाली काले घोड़े की नाल वाली बात एक कोरा अंधविश्वास के अलावा कुछ भी नहीं है… क्योंकि मुखियाजी का बुरा वक्त तो अब शुरू हुआ है, जिसे कोई नालवाल बचा नहीं सकती,” रानी की बात सुन कर एक मुसकराहट चंद्रिका के चेहरे पर फैल गई. उस ने बड़ी जोर से ‘हां‘ में सिर को हिलाया और बादल को शहर की ओर दौड़ा दिया.

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