Short Story : साल 1976 की बात रही होगी. उन दिनों मैं मेडिकल कालेज अस्पताल के सर्जरी विभाग में सीनियर रैजीडैंट के पद पर काम कर रहा था. देश में आपातकाल का दौर चल रहा था. नसबंदी आपरेशन का कोहराम मचा हुआ था. हम सभी डाक्टरों को नसबंदी करने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया गया था, और इसे अन्य सभी आपरेशन के ऊपर प्राथमिकता देने का भी निर्देश था. लक्ष्य पूरा न होने पर वेतन वृद्धि और उन्नति रोकने की चेतावनी दे दी गई थी. हम लोगों की ड्यूटी अकसर गावों में आयोजित नसबंदी कैंप में भी लग जाया करती थी.
कैंप के बाहर सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की भीड़ लगी रहती थी. उन्हें प्रेरक का काम दे दिया गया था और निर्धारित कोटा न पूरा करने पर उन की नौकरी पर भी खतरा था. कोटा पूरा करने के उद्देश्य से वृद्धों को भी वे पटा कर लाने में नहीं हिचकते थे.
कुछ व्यक्ति तो बहुत युवा रहते थे, जिन का आपरेशन करने में अनर्थ हो जाने की आशंका बनी रहती थी. कैंप इंचार्ज आमतौर पर सिविल सर्जन रहा करते थे. रोगियों से हमारी पूछताछ उन्हें अच्छी नहीं लगती थी.
बुजुर्ग शिक्षकों की स्थिति बेहद खराब थी. उन से प्रेरक का काम हो नहीं पाता था, लेकिन अवकाशप्राप्ति के पूर्व कर्तव्यहीनता के लांछन से अपने को बचाए रखना भी उन के लिए जरूरी रहता था. वे इस जुगाड़ में रहते थे कि यदि कोई रोगी स्वयं टपक पड़े तो प्रेरक के रूप में अपना नाम दर्ज करवा लें या कोटा पूरा कर चुके शिक्षक की आरजूमिन्नत से शायद काम बन जाए. जनसंख्या नियंत्रण के लिए नसबंदी का यह तरीका कितना उपयुक्त था, यह तो आपातकाल के विश्लेषकों का विषय है.
एक दिन हमारे आउटडोर में एक ग्रामीण बुजुर्ग एक नवयुवक को दिखाने लाए. उस युवक का नाम रमेश था और उम्र 20-22 साल के आसपास रही होगी. उसे वह अपना भतीजा बता रहे थे. उसे हाइड्रोसिल की बीमारी थी. हाइड्रोसिल बड़ा तो नहीं था, लेकिन आपरेशन किया जा सकता था.
चाचा आपरेशन कराने पर बहुत जोर दे रहे थे, इसलिए यूनिट इंचार्ज के आदेशानुसार उसे भरती कर लिया गया.
आपरेशन से पहले की जरूरी जांच की प्रक्रिया पूरी की गई और 4 दिन बाद उस के आपरेशन की तारीख तय की गई. इस तरह के छोटे आपरेशनों की जिम्मेदारी मेरी रहती थी.
आपरेशन के 2 दिन पहले मुझे खोजते हुए चाचा मेरे आवास तक पहुंच गए. वे मिठाई का एक डब्बा भी साथ लाए थे, जिसे मैं ने स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया और उन्हें जाने को कहा. फिर भी वे बैठे रहे. फिर धीरे से उन्होंने पूछा कि रमेश को 3 बच्चे हो चुके हैं, साथ में नसबंदी भी करवा देना चाहते हैं.
जातेजाते उन्होंने रमेश से इस बात का जिक्र नहीं करने का आग्रह किया. वजह, उसे नसबंदी से डर लगता है.
मेरे यह कहने पर कि अनुमति के लिए तो उसे हस्ताक्षर करना पड़ेगा, तो उन्होंने कहा कि कागज उन्हें दे दिया जाए, वह उसे समझा कर करवा लेंगे.
आपरेशन सफल होने पर वे मेरी सेवा से पीछे नहीं हटेंगे. मैं ने उन्हें घर से बाहर करते हुए दरवाजा बंद कर दिया.
उस दिन रात को मुझे अस्पताल से लौटते समय रास्ते में रमेश सिगरेट पीता हुआ दिखाई दे गया. मुझे देखते ही उस ने सिगरेट फेंक दी.
सिगरेट न पीने की नसीहत देने के खयाल से मैं ने उस से कहा कि अपने तीनों बच्चों का खयाल करते हुए वह इस लत को तुरत छोड़ दे.
आश्चर्य जाहिर करते हुए उस ने पूछा, ‘‘कौन से तीन बच्चे?’’
‘‘तुम्हारे और किस के?’’
मेरे इस उत्तर को सुन कर वह हैरान रह गया और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है, फिर बच्चे कहां से…?
“अभी तो छेंका हुआ है और फिर 6 महीने बाद मेरी शादी होने वाली है. इसीलिए चाचा को उस ने अपनी इस बीमारी के बारे बताया था, तो वे यहां लेते आए.’’
अब चौंकने की बारी मेरी थी. उस की बातों को सुन कर मुझे दाल में कुछ काला लगा और रहस्य जानने की इच्छा होने लगी.
मेरे पूछने पर उस ने अपने परिवार का पूरा किस्सा सुनाया.
वे लोग गांव के बड़े किसान हैं. उन लोगों की तकरीबन 20 एकड़ की खेती है. यह चाचा उस के स्वर्गवासी पिता के सब से बड़े भाई हैं. बीच में 4 बूआ भी हैं, जो अपनेअपने घर में हैं.
चाचा के 4 लड़के हैं. सबों की शादी, बालबच्चे हैं. वह अपने पिता की अकेली संतान है. बचपन में ही उस के पिता ट्रैक्टर दुर्घटना में मारे गए थे. वे सभी संयुक्त परिवार में रहते हैं.
चाचा और चाची उसे बहुत मानते हैं. पढ़ालिखा कर मजिस्ट्रेट बनाना चाहते थे, लेकिन आईए में 2 बार फेल कर जाने के बाद उस ने पढ़ाई छोड़ दी और खेती में जुट गया. चाचा घर के मुखिया हैं. गांव में उन की अच्छी धाक है.
पूरी बात सुन कर मेरा कौतूहल और बढ़ गया कि आखिर इस लड़के की वह शादी होने के पहले ही नसबंदी क्यों कराना चाहते हैं?
कुछ सोचते हुए मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम्हारे हिस्से में कितनी जमीन आएगी?’’
थोड़ा सकपकाते हुए वह बोला, ‘‘तकरीबन 10 एकड़.’’
पूछने में मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा था, फिर भी पूछ ही लिया, ‘‘मान लो, तुम्हें बालबच्चे न हों और मौत हो जाए, तो वह हिस्सा कहां जाएगा?’’
थोड़ी देर सोचने के बाद वह बोला, ‘‘फिर तो वह सब चाचा के हिस्से में ही जाएगा.’’
मेरे सवालों से वह थोड़ा हैरान था और जानना चाहता था कि मुझ से यह सब क्यों पूछा जा रहा है.
बात टालते हुए सवेरे अस्पताल के अपने कक्ष में अकेले आने को कहते हुए मैं आगे बढ़ गया. रोकते हुए उस ने कहा, ‘‘चाचा जरूरी काम से गांव गए हैं. गांव में झगड़ा हो गया है.
‘‘मुखिया होने के नाते उन्हें वहां जाना जरूरी था. कल शाम तक वे लौट आएंगे. यदि कोई खास बात है, तो उन के आने का इंतजार वह कर ले क्या?’’
‘‘तब तो और अच्छी बात है, तुम्हें अकेले ही आना है,’’ कहते हुए मैं चल पड़ा.
इस पूरी बात से मैं इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि इस के चाचा ने एक गंदे खेल की योजना बना ली है. वे इसे निःसंतान बना कर आने वाले दिनों में इस के हिस्से की संपत्ति को अपने बेटों के लिए रखना चाहते थे.
मैं ने ठान लिया कि मुझे इस अनर्थ से इसे बचाना होगा. साथ ही, मैं उस संयुक्त परिवार में एक नए महाभारत का सूत्रपात भी नहीं होने देना चाहता था.
सवेरे अस्पताल में मेरे कक्ष के आगे रमेश मेरी प्रतीक्षा में खड़ा था. मैं ने फिर से परीक्षण का नाटक करते हुए उसे बताया, ‘‘अभी तुम्हें आपरेशन की कोई जरूरत नहीं है. इस में नस इतनी सटी हुई है कि आपरेशन में उस के कट जाने का खतरा है. साथ ही, तुम्हारे ब्लड की रिपोर्ट के अनुसार खून ज्यादा बहने का भी खतरा है.
‘‘इतना छोटा हाइड्रोसिल तो दवा से भी ठीक हो जाएगा. अगर तुम्हारे चाचा आपरेशन कराने के लिए फिर किसी दूसरे अस्पताल में तुम्हें ले जाएं तो हरगिज मत जाना.
‘‘इस नसबंदी के दौर में तुम्हारा भी शिकार हो जाएगा,’’ झूठ का सहारा लेते हुए मैं ने उस से कहा, ‘‘शादी के बाद भी कई बार छोटा हाइड्रोसिल अपनेआप ठीक हो जाता है. दवा की यह परची लो और चुपचाप तुरंत भाग जाओ.
‘‘बस से तुम्हारे गांव का 2 घंटे का रास्ता है. चाचा के निकलने के पहले ही तुम वहां पहुंच जाओगे.’’
मेरी बात उस ने मान ली. सामान बटोर कर उसे जाते देख मुझे तसल्ली हुई.
बात आईगई हो गई. प्रोन्नति पाते हुए, विभागाध्यक्ष के पद से साल 2003 में मैं रिटायरमैंट के बाद अपने निजी अस्पताल के माध्यम से मरीजों की सेवा में जुड़ गया था.
एक दिन एक अर्द्धवयस्क व्यक्ति एक बूढ़ी को दिखाने मेरे कक्ष में दाखिल हुआ. वह बूढ़ी धवल वस्त्र में, तुलसी की माला पहनी हुई, साध्वी सी लग रही थीं.
अपना परिचय देते हुए उस पुरुष ने 28 साल पहले की वह घटना याद दिलाई.
याद दिलाते ही सारी घटना मेरी आंखों के सामने तैर गई और आगे की घटना जानने की उत्सुकता जग गई.
रमेश ने बताया कि अस्पताल से जाने के बाद चाचा ने उस का आपरेशन कराने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन न करवाने की उस की जिद के आगे उन की एक न चली.
चाचा उसे बराबर अपने साथ रखते थे. शादी के पहले उस के ऊपर जानलेवा हमला भी हुआ था. उस ने वहां से भाग कर किसी तरह जान बचा ली. हल्ला था कि चाचा ने ही करवाया था. 4 साल बाद ही चाचा की किसी ने हत्या कर दी थी. वह पार्टीपौलिटिक्स में बहुत उलझ गए थे. उन्होंने बहुतों से दुश्मनी ले ली थी.
उन दिनों, उस गांव में आयोजित नसबंदी कैंप में मुझे कई बार जाने का मौका मिला था. मुझे वह गांव बहुत अच्छा लगता था. संपन्न किसानों की बस्ती थी. खूब हरियाली थी. सारे खेत फसलों से लहलहाते रहते थे, इसलिए उत्सुकतावश वहां का हाल पूछा.
रमेश ने कहना शुरू किया, ‘‘वह अब गांव नहीं रहा, बल्कि छोटा शहर बन गया है. पहले वर्षा अनुकूल रहती थी. अब मौसम बदल गया है. सरकारी सिंचाई की कोई व्यवस्था अभी तक नहीं हो पाई है. पंप है तो बिजली नहीं. जिस किसान के पास अपना जेनरेटर, पंप जैसे सभी साधन हैं, उस की पैदावार ठीक है. खेती के लिए मजदूर नहीं मिलते, सभी का पलायन हो गया है. उग्रवाद का बोलबाला हो गया है. उन के द्वारा तय लेवी दे कर छुटकारा मिलता है. जो थोड़ा संपन्न हैं, वे अपने बच्चों को पढ़ने बाहर भेज देते हैं और फिर वे किसी शहर में भले ही छोटीमोटी नौकरी कर लें, लेकिन गांव आना नहीं चाहते.’’
आश्चर्य प्रकट करते हुए मैं ने कहा, ‘‘मुझे तो तुम्हारा गांव इतना अच्छा लगा था कि मैं ने सोचा था कि रिटायरमैंट के बाद वहीं आ कर बसूंगा.’’
सुनते ही रमेश चेतावनी देने की मुद्रा में बोला, ‘‘भूल कर भी ऐसा नहीं करें सर, डाक्टरों के लिए वह जगह बहुत ही खतरनाक है. ब्लौक अस्पताल तो पहले से था ही, बाद में रैफरल अस्पताल भी खुल गया है.
‘‘शुरू में सर्जन, लेडी डाक्टर सब आए थे, पर माहौल ठीक न रहने से अब कोई आना नहीं चाहता है. जो भी डाक्टर आते हैं, 2-4 महीने में बदली करवा लेते हैं या नौकरी छोड़ कर चल देते हैं.
“सर्जन लोगों के लिए तो फौजदारी मामला और मुसीबत है. इंज्यूरी रिपोर्ट मनमाफिक लिखवाने के लिए उग्रवादी लोग डाक्टर को ही उड़ा देने की धमकी देते हैं. वहां ढंग का कोई डाक्टर नहीं है. दो बैद्यकी पास किए हुए डाक्टर हैं, वे ही अंगरेजी दवाओं से इलाज करते हैं.
‘‘हम लोगों को बहुत खुशी हुई थी, जब हमारे गांव के ही एक परिवार का लड़का डाक्टरी पढ़ कर आया था. उन की पत्नी भी डाक्टर थी. दोनों में ही सेवा का भाव बहुत ज्यादा था. सब से ज्यादा सुविधा महिलाओं को हो गई थी. 2 साल में ही उन का बहुत नाम हो गया था.
‘‘मां तो उन की पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं और बाद में पिता भी नहीं रहे. जमीन बेच कर, अपने मातापिता की स्मृति में एक अस्पताल भी बनवा रहा था. लेकिन उन से भी लेवी की मांग शुरू हो गई कि वे औनेपौने दाम में सबकुछ बेच कर विदेश चले गए.’’
शहर के नजदीक, इतने अच्छे गांव को भी चिकित्सा सुविधा की कमी का दंश झेलने की बात सुन कर सिवा अफसोस के मैं और कर भी क्या सकता था?
बात बदलते हुए मैं ने कहा, ‘‘अच्छा, घर का हाल बताओ.’’
उस ने बताया, ‘‘चाचा के जाने के बाद घर में कलह बहुत बढ़ गई थी. हम लोगों के हिस्से की कमाई भी वे ही लोग उठा रहे थे, इसलिए संपत्ति का बंटवारा वे नहीं चाहते थे. मामा वकील हैं. उन के दबाव से बंटवारा हुआ. चाचा ने धोखे से मां के हस्ताक्षर के कुछ दस्तावेज भी बनवा लिए थे. उस के आधार पर मेरे हिस्से में कम संपत्ति आई.’’
मां अब तक आंखें बंद कर चुपचाप सुन रही थीं, लेकिन अब चुप्पी तोड़ते हुए वे बोलीं, ‘‘हां डाक्टर साहब, वे मेरे पिता के समान थे. मुझे बेटी की तरह मानते थे. बैंक का कागज, लगान का कागज, तो कभी कोई सरकारी नोटिस वगैरह आता रहता था. मैं मैट्रिक पास हूं, फिर भी मैं उन का सम्मान करते हुए जहां वे कहते, हस्ताक्षर कर देती थी. कब उन्होंने उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवा लिया, पता नहीं.
‘‘मैं ने अपने बेटे को उस समय शांत रखा, नहीं तो कुछ भी हो सकता था. उसे बराबर समझाती थी कि संतोष धन से बड़ा कुछ नहीं होता है, और डाक्टर साहब, किए का फल यहीं इसी लोक में मिलता है.
“वह है तो मेरा ही परिवार, लेकिन कहने में दुख लगता है कि चारों बेटे जरा भी सुखी नहीं हैं. पूरे परिवार में दिनरात कलह रहती है. उन में भी आपस में हिस्से का बंटवारा हो गया है. उन के खेतघर वगैरह सब चौपट हो गए हैं. उन के बालबच्चे भी कोई काम करने लायक नहीं निकले. एक पोता राशन की कालाबाजारी के आरोप में जेल में है. वहीं एक तो घर से भाग कर उग्रवादी बन गया है.
‘‘कहने में मुझे शर्म आती है कि एक पोती भी घर से भाग गई है. मुझे कोई बैरभाव नहीं है उन से. मैं उन के परिवार के अभिभावक का कर्तव्य सदा निभाती हूं. जो बन पड़ता है, हम लोग बराबर मदद करते रहते हैं. सब से छोटा बेटा, जो रमेश से 3 साल बड़ा है. हम लोगों से बहुत सटा रहता था. वह बीए तक पढ़ा भी है. उस को हम लोगों ने कृषि सामान की दुकान खुलवा दी है.’’
फिर उन्होंने मुझे नसीहत देते हुए कहा, ‘‘डाक्टर साहब, सुखी रहने के लिए 3 बातों पर ध्यान देना जरूरी है. कभी भी किसी का हक नहीं मारना चाहिए. दूसरे का सुख छीन कर कभी कोई सुखी नहीं हो सकता.
‘‘दूसरी बात, किसी दूसरे का न तो बुरा सोचो और न ही बुरा करो. आखिर में तीसरी बात, स्वस्थ जीवनचर्या का पालन. स्वस्थ व्यक्ति ही अपने लिए, समाज के लिए और देश के लिए कुछ कर सकता है,’’ कह कर वे चुप हो गईं.
आपरेशन के बारे में मेरे पूछने पर रमेश ने बताया कि अभी तक उस ने नहीं कराया है, लेकिन अब कराना चाहता है. पहले धीरेधीरे बढ़ रहा था, लेकिन पिछले 2 साल में बहुत बड़ा हो गया है. उस के 3 बच्चे भी हैं- एक बेटे और 2 बेटी. सभी सैटल हो चुके हैं. बेटा एग्रीकल्चर पास कर के उन्नत वैज्ञानिक खेती में जुट गया है. पत्नी का बहुत पहले ही बंध्याकरन हो चुका है. फिर हंसते हुए वह बोला, ‘‘अब नस कट जाने की भी कोई चिंता नहीं है.’’
मेडिकल कालेज अस्पताल से मेरे बारे में जानकारी ले कर वह अपनी मां को दिखाने यहां आया है. उस की मां लगभग 70 साल की थीं. उन्हें पित्त में पथरी थी, जिस का सफलतापूर्वक आपरेशन कर दिया गया.
छुट्टी होने के बाद खुशीखुशी मांबेटा दोनों धन्यवाद देने मेरे कक्ष में आए. रमेश ने अपने आपरेशन के लिए समय तय किया, फिर उस समय आपरेशन न करने और कड़ी हिदायत देने का कारण जानने की जिज्ञासा प्रकट की.
मैं ने कहा, ‘‘तो सुनो, तुम्हारे चाचा उस आपरेशन के साथ तुम्हारी नसबंदी करने के लिए मुझ पर दबाव डाल रहे थे. काफी प्रलोभन भी दिया था. उन्होंने मुझे गलत जानकारी दी थी कि तुम्हारे 3 बच्चे हैं.
‘‘उस शाम तुम से बात होने के बाद मुझे अंदाजा हो गया था कि उन की नीयत ठीक नहीं थी. वे तुम्हें निःसंतान बना कर तुम्हारे हिस्से की संपत्ति हड़पने की योजना बना रहे थे.’’
मेरी बात सुन कर दोनों ही हैरान रह गए. माताजी तो मेरे पैरों पर गिर पड़ीं, ‘‘डाक्टर साहब, आप ने मेरे वंश को बरबाद होने से बचा लिया. आप तो मेरे लिए…”
मैं ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘‘बहनजी, आप मेरे से बड़ी हैं, पैर छू कर मुझे पाप का भागी न बनाएं. लेकिन मुझे खुशी है कि एक चिकित्सक का सामाजिक दायित्व निभाने का मुझे मौका मिला और आप के आशीर्वाद से मैं सफल हो पाया.’’
लेखक – डा. मधुकर एस. भट्ट