अंधेरी रात का जुगनू: रेशमा की जिंदगी में कौन आया

शाम होते ही नया बना मकान रंगीन रोशनी से जगमगा उठा. मुख्यद्वार पर आने वाले मेहमानों का तांता लगा था. पूरा घर अगरबत्ती, इत्र और लोबान की खुशबू से महक रहा था. कव्वाली की मधुर स्वरलहरी शाम की रंगीनियों में चार चांद लगा रही थी. पंडाल से उठती मसालेदार खाने की खुशबू ने वातावरण को दिलकश बना दिया था.

तभी बाहर जीप रुकने की आवाज सुन कर एक 20-22 वर्ष की लड़की दरवाजे पर आ खड़ी हुई और दोनों हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘नमस्ते, चाचाजी.’’

‘‘जीती रहो, रेशमा बिटिया,’’ कहते हुए 2 अंगरक्षकों के साथ इलाके के विधायक रमेशजी ने मकान में प्रवेश किया.

पोर्च में खड़े हो कर मकान के चारों तरफ नजर डालते रमेशजी के चेहरे पर मुसकराहट खिलने लगी, ‘‘बिटिया, आज तुम ने अपने अब्बाजान का सपना पूरा कर के दिखला दिया. तुम्हारी हिम्मत और हौसले को देख कर लोग अब से बेटे नहीं बेटियां चाहेंगे.’’

रमेशजी की इस बात से रेशमा की आंखें नम हो गईं. खुद को संभालते हुए संयत स्वर में बोल उठी रेशमा, ‘‘चाचाजी, आप ने ही तो अब्बू की तरह हमेशा मेरा संबल बढ़ाया. मकान बनाते हुए आने वाली तमाम परेशानियों को सुलझाने में हमेशा मेरी मदद की.’’

‘‘बिटिया, तुम्हारे अब्बू इकबाल मेरा लंगोटिया यार था. उस की असमय मृत्यु के बाद उस के परिवार का खयाल रखना मेरा फर्ज था. मैं ने उसे निभाने की बस कोशिश की है. बाकी सबकुछ तुम्हारे साहस और धैर्य के सहारे ही संभव हो सका है.’’

‘‘चाचाजी, चलिए, खाना टेबल पर लग गया है,’’ रेशमा के चाचा का बेटा आफताब बड़े आदरपूर्वक रमेशजी को खाने की मेज की तरफ ले गया.

रेशमा की अम्मी खालेदा इकबाल ओढ़नी से सिर को ढके परदे के पीछे से चाचाभीतीजी का वात्सल्यमयी वार्तालाप सुन रही थीं और रेशमा को घर के इस कोने से उस कोने तक आतेजाते, मेहमानों का स्वागत करते हुए गृहप्रवेश की मुबारकबाद स्वीकारते हुए भीगी आंखों से मंत्रमुग्ध हो कर देख रही थीं. तभी मेहमानों की भीड़ से उठते कहकहों ने उन्हें चौंकाया और वे दुपट्टे के छोर से उमड़ते आंसुओं को पोंछ कर, अतीत की यादों के चुभते नश्तर से बचने के लिए मेहमानों की गहमागहमी में खो जाने का असफल प्रयास करने लगीं.

देर रात तक मेहमानों को विदा कर के बिखरे सामान को समेट और मेनगेट पर ताला लगा कर ज्योंही वे भीतर जाने लगीं, ऐसा लगा जैसे इकबाल साहब ने आवाज दी हो, ‘फिक्र न करना बेगम, धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. आज सिर पर छत का साया मिला है, कल रेशमा की शादी, फिर बेटों की गृहस्थी…’

वे चौंक कर पीछे पलटीं तो दूर तक रात की नीरवता के अलावा कुछ भी न था. कहां हैं इकबाल साहब? यहां तो नहीं हैं? कैसे नहीं हैं यहां? यही सोतेजागते, उठतेबैठते हर वक्त लगता है कि वे मेरे करीब ही बैठे हैं. बातें कर रहे हैं. विश्वास ही नहीं हो रहा है कि अब वे हमारे बीच नहीं हैं. बिस्तर पर पहुंचने तक बड़ी मुश्किल से रुलाई रोक पाई थीं रेशमा की अम्मी. दिनभर का रुका हुआ अवसाद आंखों के रास्ते बह निकला. बहुत कोशिशें कीं बीते हुए तल्ख दिनों को भूल जाने की लेकिन कहां भूल पाईं वे.

इकबाल साहब की मौत के बाद हर दिन का सूरज नईनई परेशानियों की तीखी किरणें ले कर उगता और उन की हर रात समस्याओं के समाधान ढूंढ़ने में आंखों ही आंखों में कट जाती. दर्द की लकीरें आंसुओं की लडि़यां बन कर आंखों में तैरती रहतीं.

8 भाईबहनों में 5वें नंबर के इकबाल की शिक्षा माध्यमिक कक्षा से आगे संभव न हो सकी थी. लेकिन कलाकार मस्तिष्क ने 14 साल की उम्र में ही टायरट्यूब खोल कर पंचर बनाने और गाडि़यां सुधारने का काम सीख लिया था. भूरी मूछों की रेखाओं के काली होने तक पाईपाई बचा कर जोड़ी गई रकम से शहर की मेन मार्केट में टायरों के खरीदनेबेचने की दुकान खरीद ली. शाम होते ही दुकान पर दोस्तों का मजमा जमता, ठहाके लगते. शेरोशायरी की महफिल जमती. सालों तक दोस्तों के साथ इकबाल साहब के व्यवहार का झरना अबाध गति से बहता रहा. उन की 2 बेटियां और छोटे भाई के 2 बेटों के बीच गहरा प्यार और अपनापन देख कर रिश्तेदारों और महल्ले वालों के लिए फर्क करना मुश्किल हो जाता कि कौन से बच्चे इकबाल साहब के हैं और कौन से उन के भाई के. खुशियां हमेशा उन के किलकते परिवार के इर्दगिर्द रहतीं.

अकसर एकांत के क्षणों में इकबाल साहब खालेदा का हाथ अपने हाथ में ले कर कहते, ‘बेगम, मेरा कारोबार और ट्यूबलैस टायर बनाने की टेकनिक टायर कंपनी को पसंद आ गई तो मैं खुद डिजाइन बना कर एक आलीशान और खूबसूरत सा घर बनाऊंगा जिस के आंगन में गुलाबों का बगीचा होगा. सब के लिए अलगअलग कमरे होंगे और छत को, आखिरी सिरे तक छूने वाले फूलों की बेल से सजाऊंगा.’

रेशमा अकसर अपनी ड्राइंगकौपी में घर की तसवीर बना कर पापा को दिखाते हुए कहती, ‘पापा, मेरी गुडि़या और डौगी के लिए भी अलग कमरे बनवाइएगा.’

सुन कर इकबाल साहब हंस कर मासूम बेटी को गले लगा कर बोलते, ‘जरूर बनाएंगे बेटे, अगर लंबी जिंदगी रही तो आप की हर ख्वाहिश पूरी करेंगे.’

‘तौबातौबा, कैसी मनहूस बातें मुंह से निकाल रहे हैं आप. आप को हमारी उम्र भी लग जाए,’ रेशमा की अम्मी ने प्यार से झिड़का था शौहर को.

ठंडी सांस भर कर सोचने लगीं, शायद उन्हें आने वाली दुर्घटनाओं का पूर्वाभास हो चुका था. तभी तो तीसरे ही दिन हट्टेकट्टे इकबाल साहब सीने के दर्द को हथेलियों से दबाए धड़ाम से गिर पड़े थे फर्श पर. देखते ही गगनभेदी चीख निकल गई थी रेशमा की अम्मी के मुंह से.

‘पापा की तबीयत खराब है,’ सुन कर तीर की तरह भागी थी रेशमा कालेज से.

घर के दालान में लोगों का जमघट और कमरे में पसरा पड़ा जानलेवा सन्नाटा. बेहोश अम्मी को होश में लाने की कोशिशें करती पड़ोसिन, हालात की संजीदगी से बेखबर सहमे से कोने में खड़े दोनों चचाजान, भाई और फर्श पर पड़ा अब्बू का निर्जीव शरीर. घर का दर्दनाक दृश्य देख कर रेशमा की निस्तेज आंखें पलकें झपकाना ही भूल गईं और पैर बर्फ की सिल्ली की तरह जम गए.

‘बेटी, इकबाल साहब की मौत, मिट्टी का इंतजाम…’ महल्ले के बुजुर्ग अनीस साहब ने डूबते जहाज का मस्तूल पकड़ा दिया रेशमा के कमजोर हाथों में. सुन कर भीतर तक दहल गई रेशमा.

भारी कदमों को घसीटते हुए अलमारी खोल कर, अपनी शादी के लिए अम्मी द्वारा जमा की गई लाल पोटली में बंधी पूंजी अनीस साहब को थमाते हुए रेशमा के हाथ पत्थर के हो गए थे.

अब्बू की मौतमिट्टी, चेहल्लुम, अम्मी की इद्दत के पूरे होने तक रेशमा का खिलंदड़ापन जाने कहां दफन हो गया. शौहर की मौत के सदमे से बुत बनी अम्मी को देख कर, दोनों छोटे भाइयों को अब्बू की याद कर रोते देखती तो उन्हें समझाने के लिए पुचकारते हुए रेशमा कब बड़ी हो गई, उसे खुद भी पता नहीं चला. रेशमा ने अब्बू के अकाउंट्स चेक किए तो बमुश्किल 8-10 हजार रुपए का बैलेंस था.

रेशमा की पढ़ाई छूट गई, दिनचर्या ही बदल गई. रेशमा के उन्मुक्त ठहाकों को आर्थिक अभाव का विकराल अजगर निगलता चला गया. बहुत ढूंढ़ने पर होमलोन देने वाले प्राइवेट बैंक की नौकरी 4 जनों की रोटी का जुगाड़ बनी. घर के खाली कनस्तरों में थोड़ाथोड़ा राशन भरने लगा.

जिंदगी कड़वे तजरबों के चुभते ऊबड़खाबड़ रास्ते से गुजर कर अभी समतल मैदान पर आ भी नहीं पाई थी कि मकान मालिक ने मकान खाली करवाने की जिम्मेदारी पेशेवर गुंडे गोलू जहरीला को सौंप दी.

‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए,’ आएदिन दरवाजे पर दस्तक देती उस की डरावनी शक्ल दिखलाई पड़ती.

एक दिन हिम्मत कर के रेशमा ने ज्यों ही दरवाजा खोला तो शराब का भभका उस के नथुनों में घुस गया. गोलू जहरीला ने उसे देखते ही अपना वाक्य दोहरा दिया, ‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए नहीं तो…’

‘नहीं तो… क्या कर लेंगे आप?’ भीतर के आक्रोश को दबातेदबाते भी रेशमा की आंखें चिंगारी उगलने लगी थीं.

‘कुछ नहीं. बस, तुम को उठवा लेंगे,’ पान रचे होंठों को तिरछा कर के व्यंग्य से हंसते हुए गोलू जहरीला ने चेतावनी दी तो रेशमा के कानों में जैसे अंगारे सुलगने लगे.

‘बंद कीजिए बकवास. दफा हो जाइए यहां से,’ रेशमा का आक्रोश बरदाश्त का पुल उखाड़ने लगा.

बाहर आवाजों का हंगामा सुन कर भीतर से दौड़ी आई रेशमा की अम्मी. रेशमा को दरवाजे के पीछे ढकेल कर, खुद दरवाजे के बीचोंबीच खड़ी हो कर बोलीं, ‘देखिए, आप जब मरजी हो तब कमर पर बंदूक लटका कर हमारे दरवाजे पर न आया कीजिए. जैसे ही हालात ठीक होंगे, हम आप को घर खाली करने की सूचना दे देंगे.’

सुन कर गोलू चला तो गया लेकिन अपने पीछे छोड़ गया दहशत, डर और मजबूरियों का अंधड़.

उस के जाते ही रेशमा की अम्मी रो पड़ीं. रेशमा के पैर गुस्से से कांपने लगे और दांत किटकिटाने लगे लेकिन विवशता की नदी मुहाने तक आतेआते अपनी रफ्तार खो चुकी थी. दोनों भाइयों को सीने से चिपकाए वह खुद भी रो पड़ी. उस रात न उन के घर में चूल्हा जला न किसी के हलक से पानी का घूंट ही उतरा. सब अपनीअपनी मजबूरियों के शिकंजे में कसे छटपटाते रहे.

वक्त की आंधियों ने कसम खा ली थी रेशमा को तसल्ली देने वाले हर चिराग को बुझा देने की.

3 महीने बाद प्राइवेट बैंक भी बंद हो गया. घर की जरूरतों ने रेशमा को कपड़ों के थोक विक्रेता की दुकान पर कैशियर की नौकरी के लिए ला कर खड़ा कर दिया. छोटी सी तनख्वाह घर की बड़ीबड़ी जरूरतों के सामने मुंह छिपाने लगी और ऊंट के मुंह में जीरे की तरह चिपक गई. बस, जिंदा रहने के लायक तक की चीजें ही खरीद पाते रेशमा के पसीने से भीगी बंद मुट्ठी के नोट. रिश्तेदार, जो अपना काम करवाने के लिए इकबाल साहब से मधुमक्खी की तरह चिपके रहते थे, अब जंगल की नागफनी की तरह हो गए थे. महफिलों, मजलिसों में अब मिलनेजुलने वाले उस के परिवार को देख कर कन्नी काट लेते, जैसे कांटों की बाड़ को छू गए हों.

उस दिन रात का खाना खाते हुए गुमसुम बैठे छोटे भाई से रेशमा ने पूछ ही लिया, ‘क्या हुआ आफाक तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ कुछ देर तक साहस बटोरने के बाद भाई के द्वारा बोले गए शब्दों ने रेशमा को कांच के ढेर पर खड़ा कर दिया. ‘बाजी, छोटे मामूजान कह रहे थे कि तुम दोनों भाइयों को रेशमा अब तुम्हारे अम्मीअब्बू के पास भेज देगी, क्योंकि उस की छोटी सी तनख्वाह अब 4 लोगों का पेट नहीं पाल सकेगी. फाके की नौबत आने वाली है. ऐसे में तुम दोनों भाई उस पर बोझ…’ ठहरी हुई झील में मामू ने पत्थर मार दिया था. तिलमिलाहट के ढेर सारे दायरे बनने लगे. रेशमा ने तुरंत मामू को फोन मिलाया और चीख पड़ी, ‘मेरे घर में कंगाली आ जाए या फाकाकशी हो, मैं अपने चचाजात भाइयों को कभी भी अपने से अलग नहीं करूंगी. अगर घर में एक रोटी भी बनेगी न, तो हम चारों एकएक टुकड़ा खा कर सो जाएंगे, मगर किसी के दरवाजे पर हाथ पसारने नहीं जाएंगे. कान खोल कर सुन लीजिए, आज के बाद कभी मेरे मासूम भाइयों को बरगलाने की कोशिश की तो मैं भूल जाऊंगी आप इन के सगे मामू हैं.’

रेशमा का गुस्सा देख कर दोनों भाई तो सहम गए लेकिन खालेदा को यकीन हो गया कि रेशमा की खुद्दारी और आत्मविश्वास बढ़ने लगा है. अगर रेशमा की जगह उन का अपना बेटा होता तो वह अभावों का हवाला दे कर किसी भी सूरत में चचाजान भाइयों की जिम्मेदारी न उठाता. सचमुच अभाव इंसानों को जुदा नहीं करते, जुदा करती हैं उन की स्वार्थी भावनाएं.

घर का खर्च, भाइयों के स्कूल का खर्च, मकान का किराया, सब पूरा करने के बाद रेशमा के पास मुश्किल से आटो का किराया ही बच पाता.

अपनी पसंद का काम न होते हुए भी रेशमा दुकान के काम में दिल लगाने लगी थी. तभी एक दिन सेठ की कर्कश आवाज ने चौंका दिया, ‘रेशमा, तुम ने कल जो हिसाब दिया था उस में 8 हजार रुपए कम हैं.’

‘लेकिन मैं ने तो पूरे पैसे गिन कर गल्ले में रखे थे,’ रेशमा की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुन कर सेठ ने जैसे अंगारा छू लिया.

‘मैं ने 10 बार हिसाब मिला लिया है, पैसे कम हैं इसलिए बोल रहा हूं. कहां गए पैसे अगर तुम ने रखे थे तो?’

पलभर के लिए रेशमा का आत्मविश्वास भी डगमगाने लगा था. कहीं किसी ग्राहक को जल्दबाजी में ज्यादा पैसे तो नहीं दे दिए मैं ने, कहीं किसी से कम पैसे तो नहीं लिए? लेकिन दूसरे ही पल उस ने खुद को धिक्कारा. अपनी सतर्कता और हिसाब पर पूरा यकीन था उसे. तभी सेठ की आवाज का चाबुक उस की कोमल और ईमानदार भावना पर पड़ा, ‘रेशमा, अगर तुम मेरे दोस्त की बेटी न होतीं तो अभी, इसी समय पुलिस को फोन कर देता. शर्म नहीं आती चोरी करते हुए. पैसों की जरूरत थी तो मुझ से कहतीं. मैं तनख्वाह बढ़ा देता. लेकिन तुम ने तो ईमानदार बाप का नाम ही मिट्टी में मिला दिया.’

सुन कर तिलमिला गई रेशमा. क्या सफाई देती उन्हें जो उस की विवशता को उस का गुनाह समझ रहे हैं. मेहनत और वफादारी के बदले में मिला उसे जलालत का तोहफा. तभी खुद्दारी सिर उठा कर खड़ी हो गई और 28 दिन की तनख्वाह का हिसाब मांगे बगैर वह दुकान से बाहर निकल गई. अंदर का आक्रोश उफनउफन कर बाहर आने के लिए जोर मार रहा था. मगर रेशमा ने पूरी शिद्दत के साथ उसे भीतर ही दबाए रखा. असमय घर पहुंचती तो अम्मी को सच बतलाना पड़ता. रेशमा पर चोरी का इलजाम लगने और नौकरी हाथ से चले जाने का सदमा अम्मी बरदाश्त नहीं कर पाएंगी. अगर उन्हें कुछ हो गया तो वह कैसे दोनों भाइयों और घर को संभाल पाएगी, यह सोचते हुए रेशमा के कदम अनायास ही मजार की तरफ बढ़ गए.

मजार के अहाते का पुरसुकून, इत्र और फूलों की मनमोहक खुशबू भी उस के रिसते जख्म पर मरहम न लगा सकी. घुटनों पर सिर रख कर फफक कर रो पड़ी. रात 10 बजे मजार का गेट बंद करने आए खादिम ने आवाज लगाई, ‘घर नहीं जाना है क्या, बेटी?’ सुन कर जैसे नींद से जागी. धीमेधीमे मायूस कदम उठाते हुए घर पहुंची. अम्मी का चिंतित चेहरा दोनों भाइयों की छटपटाहट देख कर उसे यकीन हो गया कि मेरे घर के लोग मुझे कभी गलत नहीं समझेंगे.

‘कहां चली गई थीं?’

‘दुकान में ज्यादा काम था आज,’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर पानी के साथ रोटी का निवाला गटकते हुए बिना कोई सफाई दिए बिस्तर पर पहुंचते ही मुंह में कपड़ा ठूंस कर बिलखबिलख कर रो पड़ी. उस रात अब्बू बहुत याद आए थे. कमसिन कंधों पर उन की भरीपूरी गृहस्थी का बोझ तो उठा लिया रेशमा ने, मगर उन के नाम को कलंकित करने का झूठा इल्जाम वह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

दूसरे दिन रोज की तरह लंच बाक्स ले कर रेशमा के कदम अनजाने में अब्बू की दुकान की तरफ मुड़ गए. बरसों बाद जंग लगे ताले को खुलता देख अगलबगल वाले दुकानदार हैरान रह गए.

धूल से अटे कमरे में अब्बू का बनाया हुआ मार्बल का लैंपस्टैंड, सूखा एक्वेरियम और कभी तैरती, मचलती खूबसूरत मछलियों के स्केलटन. दुकान के कोने में बना प्लास्टर औफ पेरिस का फाउंटेन, सबकुछ जैसा का तैसा पड़ा था. अगर कुछ नहीं था तो अब्बू का वजूद. बस, उन की आवाज की प्रतिध्वनि रेशमा के कानों में गूंजने लगी, ‘बेटा, खूब दिल लगा कर पढ़ना. आप को चार्टर्ड अकाउंटैंट और दोनों बेटों को डाक्टर, इंजीनियर बनाऊंगा,’ ऐसे ही गुमसुम बैठे हुए सुबह से शाम गुजर गई.

भरा हुआ टिफिन वापस बैग में डाल कर घर वापस जाने के लिए उठ ही रही थी कि मोबाइल बज उठा, ‘रेशमा, आई एम सौरी. मुझे माफ करना बेटा. मैं गुस्से में तुम को पता नहीं क्याक्या कह गया,’ दूसरी ओर से सेठ की आवाज गूंजी, ‘सुन रही हो न, रेशमा. दरअसल, 8 हजार रुपए मेरे बेटे ने गल्ले से निकाले थे. कल शाम को ही वह जुआ खेलता हुआ पकड़ा गया तो पता चला.’

सुन कर रेशमा स्थिर खड़ी अब्बू की धूल जमी तसवीर को एकटक देखती रही.

‘बेटे, अपने अब्बू के दोस्त को माफ कर दो तो कुछ कहूं.’

इधर से कोई प्रतिउत्तर नहीं.

‘कोई बात नहीं, तुम अगर दुकान पर काम नहीं करना चाहती हो तो कोई बात नहीं, तुम मेरा बुटीक सैंटर संभाल लो. तुम्हारी जैसी मेहनती और ईमानदार इंसान की ही जरूरत है मेरे बुटीक सेंटर को.’

रेशमा ने कोई जवाब नहीं दिया. अपमान और तिरस्कार का आघात,

सेठ की आत्मविवेचना व पछतावे पर भारी रहा.

रास्ते भर ‘बुटीक…बुटीक…बुटीक’ शब्द मखमली दूब की तरह कानों में उगते रहे. स्कूल के दिनों में शौकिया तौर पर एंब्रायडरी सीखी थी रेशमा ने. कुरतों, सलवारों, चादरों, नाइटीज पर खूबसूरत रेशमी धागों से बनी डिजाइनों ने उसे अब्बू और रिश्तेदारों की शाबाशियां भी दिलवाई थीं. थोड़ाबहुत कटे हुए कपड़े भी सिलना सीख गई थी. अनजाने में ही सेठ ने रेशमा की अमावस की अंधेरी रात को पूर्णिमा का उजाला दिखला दिया, स्वाभिमान और आत्मविश्वास से जीने का रास्ता बतला दिया.

पापा की दुकान और रेशमा का शौकिया हुनर, अपना निजी और स्वतंत्र कारोबार, जहां अपना आधिपत्य होगा जहां उसे कोई चोर कह कर जलील नहीं करेगा. जहां वह अपने परिवार के साथसाथ हुनरमंद कारीगरों और उन के परिवारों का पेट पालने का जरिया बन सकेगी. पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलती रही रेशमा. उस दिन आसमां पर चांद की रफ्तार धीमी लगने लगी उसे.

पौ फटते ही रेशमा दोनों भाइयों के साथ पापा की दुकान में खड़ी अनुपयोगी वस्तुओं को ठेले पर लदवा रही थी. लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना के तहत बैंक से लोन लेने के लिए आवेदन दे दिया. 1 महीने बाद दुकान के सामने बोर्ड लग गया, ‘जास्मीन बुटीक सैंटर’. दूसरे ही दिन दुकान के शुभारंभ का दावतनामा ले कर बांटने के लिए निकल पड़ी रेशमा. कार्ड देख कर किसी ने हौसला बढ़ाया, तो किसी ने नाउम्मीद और नाकामयाबी के डर से डराया. लेकिन रेशमा कान और मुंह बंद किए हुए पूरे हौसले के साथ जिस रास्ते पर चल पड़ी उस से पलट कर पीछे नहीं देखा.

रेशमा के भीतर का कलाकार धीरेधीरे उभरने लगा, वह कपड़ों की डिजाइन केटलौग्स के अलावा कंप्यूटर स्क्रीन पर ग्राहकों को दिखलाने लगी. धीरेधीरे आकर्षक डिजाइनों व काम की नियमितता देख कर महिला ग्राहकों की भीड़ बढ़ने लगी. शादीब्याह, तीजत्योहारों के मौकों पर तो रेशमा को दम लेने की फुरसत नहीं होती.

कड़ी मेहनत, समझदारी से मृदुभाषी रेशमा के बैंक के बचत खाते में बढ़ोतरी होने लगी. 1 साल के बाद 30×60 स्क्वैर फुट का प्लौट खरीदते समय खालेदा बेगम ने अपने बचेखुचे जेवर भी रेशमा को थमा दिए.

हाउस लोन ले कर रेशमा ने तनहा ही धूप, बरसात, ठंड के थपेड़े सह कर नींव खुदवाने से ले कर मकान बनने तक दिनरात एक कर दिए. दोनों छोटे भाइयों और अम्मी के संबल ने रेशमा का हौसला मजबूत किया. अब कतराने वाले रिश्तेदार, अब्बू के करीबी दोस्त, मकान की मुबारकबाद देने बुटीक सैंटर पर ही आने लगे.

चौक पर लगी घड़ी ने रात के 4 बजाए. रेशमा की अम्मी दर्द की चादर ओढ़े नींद के आगोश में समा गईं लेकिन रेशमा छत की ग्रिल से टिक कर खड़ी, एकटक कोने पर लगी ग्रिल की तरफ देख रही थी. लगा, अब्बू सफेद कुरतापाजामा पहने दीवार से टिक कर खड़े हैं. ‘रेशमा, मेरी बच्ची, मेरा ख्वाब पूरा कर दिया. शाबाश बेटा. मैं जानता हूं तुम दोनों भाइयों को इसी तरह जुगनू बन कर राह दिखलाती रहोगी.’ धीरेधीरे पापा की परछाईं अंधेरे में कहीं खो गई और रेशमा बिस्तर पर आ कर लेट गई. दूर कहीं भोर होने की घंटी बजी. पूर्व दिशा में आसमान का रंग लाल हो चला था.

राजकुमारी: क्या पूरी हो सकी उसकी प्रेम कहानी

उस का नाम ही राजकुमारी था. वैसे तो वह कहीं की राजकुमारी नहीं थी, लेकिन वह सचमुच राजकुमारी लगती थी. उस की खूबसूरती, रखरखाव, बातचीत करने का अंदाज और उस की शाही चाल उसे वाकई राजकुमारी बनाए हुए थे, जबकि वह एक मामूली घर की लड़की थी. जब उस ने पहले दिन दफ्तर में कदम रखा, तो न केवल कुंआरों के, बल्कि शादीशुदा लोगों के दिलों की धड़कनें भी तेज हो गई थीं. ‘चांदी जैसा रूप है तेरा सोने जैसे बाल, एक तू ही धनवान है गोरी बाकी सब कंगाल’, जैसी गजल उन के सामने आ गई थी. सपनों की हसीन शहजादी उन के सामने थी.

दफ्तर की दूसरी लड़कियों और औरतों ने भी जलन और तारीफ भरी नजरों से देखा था उसे. वह सब से अलग नजर आ रही थी. उस पर जवानी ही कुछ ऐसी टूट कर बरस रही थी कि दफ्तर में सभी चौंक पड़े थे. लंबा कद, घने बाल, भरी छातियां, पतली कमर और चाल में कोमलता. लेकिन वह वहां नौकरी करने आई थी, इश्क करने नहीं. उसे औरों से ज्यादा अपने काम से लगाव था. उस ने किसी की तरफ नजर भर कर मुसकरा कर भी नहीं देखा. उस के चेहरे पर खामोशी छाई रहती थी और आंखों में चिंता तैरती रहती थी. ऐसा लगता था कि वह बहुत सी परेशानियों से एकसाथ लड़ रही है. वह एक मामूली साड़ी बांधे हुए थी, लेकिन दूसरी औरतों और लड़कियों के मुकाबले उस की वह मामूली साड़ी भी खूब जंच रही थी उस पर. कई दिन बीत गए. वह सिर्फ अपने काम से काम रखती.

यदि वह किसी की माशूका न होती तो किसी न किसी को अपना दिल दे बैठती. खूबसूरत नौजवानों की इस दफ्तर में भी कमी नहीं थी. आमतौर पर उस तरह की खूबसूरत लड़कियां सहयोगियों पर दाना फेंक कर अपना काम निकालती हैं, पर राजकुमारी उन में से न थी. यह ऐसा सैंटर था, जिस में छोटीछोटी सैकड़ों मेजें लगी थीं. इस कंपनी का मालिक था निर्मल कुमार. अच्छीखासी दौलत होने के बावजूद उस ने अभी तक शादी नहीं की थी. अपनी पसंद की लड़की उसे अभी तक नहीं मिली थी. वह रोशन खयाल और गहरी सोच रखने वाला इनसान था. उस की उम्र 32 साल की थी. वह लंदन से पढ़ कर लौटा था.  उस ने आज तक वहां काम कर रही किसी लड़की की ओर ध्यान नहीं दिया था.

तकरीबन 4 साल से बड़ी सूझबूझ और लगन से वह कंपनी को चला रहा था. उस की कई दोस्त थीं, पर वह किसी से भी प्रेम नहीं करता था, क्योंकि उस की सब दोस्त लड़कियां खुले विचारों की थीं और कितनों के साथ रह चुकी थीं. निर्मल कुमार खुद भी कभी किसी के साथ नहीं सोया था उसे ऐसी लड़की चाहिए थी, जो कहीं भी मुंह मार ले. निर्मल कुमार ने जब पहली बार राजकुमारी को देखा था, तो उस का दिल भी धड़का था. आखिर वह उस के हुस्न की खुशबू से कैसे बच सकता था? वह लाखों में एक थी. निर्मल कुमार पहले मर्द था, मालिक बाद में. राजकुमारी जब भी किसी काम से निर्मल कुमार के सामने जाती, तो वह दो नजर भर देखे बगैर नहीं रह सकता था. इस से पहले भी उस की मुलाकात कई खूबसूरत पढ़ीलिखी ऊंचे घराने वालियों से होती रही थी. लंदन और मुंबई में भी वह कई हसीन लड़कियों से मिल चुका था, लेकिन उस ने उन में से किसी एक के लिए भी अपने दिल में तड़प महसूस नहीं की थी. उसे लगा कि राजकुमारी उतनी ही साफ थी जितना दिखती थी.

उस ने कभी काम के अलावा कुछ बात करने की कोशिश नहीं की, जबकि उस के स्टार्टअप में हर लड़की हर दूसरेतीसरे हफ्ते कोई पर्सनल प्रौब्लम लिए खड़ी होती थी. राजकुमारी में उस ने जैसे कोई खास बात महसूस की थी. वह दिन में 2-3 बार उसे जरूर बुलाता. राजकुमारी की मौजूदगी उसे तड़पाने लगती थी. जब वह कमरे से चली जाती तो उस की पीड़ा और बढ़ जाती. वह अपनी मेज  पर सिर टेक देता और आंखें बंद हो जातीं. फिर वह सोचता कि यह उसे क्या  होता जा रहा है, वह क्यों दीवानगी के खयाल पालने लगा है? इसी तरह कई हफ्ते बीत गए. राजकुमारी को भी अब महसूस होने लगा था कि निर्मल कुमार उस में दिलचस्पी लेने लगा है. लेकिन वह जल्दी ही दिमाग से यह बात निकाल देती. वह अपने और निर्मल कुमार के बीच के फासले को जानती थी.

वह 12,000 रुपए पाने वाली मामूली नौकर थी और निर्मल कुमार करोड़ों का मालिक था. उस के दिल में निर्मल कुमार को पाने या अपनाने की कोई ख्वाहिश नहीं थी, क्योंकि उस का राजकुमार तो राजेश था, जो उस के दिल का मालिक था. उस का और राजेश का साथ उसी समय से था, जब वह 10वीं में पढ़ती थी. लगभग 10 साल पहले की सी ताजगी थी. फिलहाल दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी की परेशानियों में उलझे हुए थे. इसी कारण वे अपने सपनों की दुनिया को आबाद नहीं कर सके थे. राजेश भी बहुत सुंदर और गठीला नौजवान था. वह जहां काम करता था, वहां उस की बड़ी इज्जत थी. फैक्टरी का मालिक भी उस पर बहुत मेहरबान था. राजकुमारी और राजेश रोजाना शाम को किसी छोटे से ढाबे या पार्क में मिलते थे. वे देर तक बातें करते रहते थे. हर रोज एक ही परेशानी उन के सामने होती थी.

वे दोनों बातें कर के दिल की भड़ास निकाल लेते थे और अपने दुखों को जैसे बांट लेते थे.  ऐसा करने से उन को बड़ी शांति मिलती थी. कभीकभार जब मौका मिलता, तो दोनों एकदूसरे के साथ रातभर रहते, पर दोनों ने वादा कर रखा था कि वे पक्का शादी करेंगे. दोनों एक ही जाति के थे और घर वाले मंजूर कर लेंगे. यह भी उन्हें मालूम था. निर्मल कुमार ने एक रोज अपने दफ्तर के साथी लोगों को रात के खाने की दावत दी. नवंबर का महीना था. सर्दी शुरू हो चुकी थी. राजकुमारी पार्टी में आई, तो बादामी रंग की साड़ी पहने हुए थी. उस पर चौकलेटी रंग का शाल देखने वालों को बड़ी भली मालूम हो रही थी.  उस के अंगअंग से जवानी उबल रही थी. जब वह हंसती थी तो देखने वालों का कलेजा मुंह को आ जाता था.

चारों ओर एक आह सी निकलती महसूस होती थी. पार्टी में जितने भी लोग थे, सभी उसी को घूर रहे थे. दावत खत्म होने के बाद निर्मल कुमार जब अपने कमरे में पहुंचा तो खुद को बहुत थकाथका सा महसूस करने लगा. उसे बिस्तर पर पड़ेपड़े बहुत देर हो गई. करवटें बदलतेबदलते रात के 3 बज गए. रहरह कर उसे राजकुमारी का मासूम चेहरा दिखाई देता. आज उसे अपने अंदर अधूरेपन का एहसास हो रहा था. बहुतकुछ होते हुए भी वह अपनेआप को बहुत गरीब समझ रहा था. उस की यह गरीबी एक औरत ही दूर कर सकती थी. और वह मालदार औरत थी राजकुमारी.

उस के दिल में कहीं से एक सदमे की लहर आई, जिस ने उसे अपने लपेटे में ले लिया. उसे ऐसा लगा जैसे वह इस दुनिया में अकेला है. उसे कोई चाहने वाला नहीं, प्यार करने वाला नहीं, उस की जवानी को अपनी बांहों में भरने वाला कोई नहीं है. निर्मल कुमार अपनेआप को एक बड़े कैदखाने में बंद पा रहा था, जिस से बाहर निकलने का एक ही रास्ता था, लेकिन वह भी बंद था. फिर उसे अपनेआप में शोर सुनाई देने लगा. पहली बार यह शोर गूंजा था. कितनी ही देर वह इस शोर को सुनता रहा.

क्या राजकुमारी को वह अपना जीवनसाथी बना सकता है? वह सोच रहा था, ‘वह इनकार तो नहीं कर देगी? वह किसी और से तो प्यार नहीं करती? अगर वह किसी से मुहब्बत करती है तो क्या हुआ, मेरे पास तुरुप के पत्ते हैं. मैं अपना सबकुछ उस हुस्न की मलिका के कदमों में डाल दूंगा.’  सोचतेसोचते वह बिस्तर पर लेट गया. अब वह बहुत खुश था. जैसे उस ने राज को पा लिया हो.  अगले दिन उस ने राजकुमारी का शाम को अपनी गाड़ी में पीछा किया. वह रिकशे में 10 लोगों के साथ जहां उतरी, वह कच्चेपक्के मकानों की बस्ती थी. दूसरे दिन पार्क की बैंच पर बैठते हुए राजेश ने कहा, ‘‘कल कहां थी राज? तुम घर पर भी नहीं थी.’’ ‘‘हां, मैं परसों तुम को बताना भूल गई थी… हमारे मालिक ने दफ्तर के तमाम लोगों को खाने पर बुलाया था,’’ राजकुमारी ने राजेश की ओर देखते  हुए कहा. ‘‘अरे भई, निर्मल सेठ?है, जवान है. उस की पार्टी हो तो हमारी गुंजाइश कहां, हम ठहरे गरीब आदमी…’’ सुन कर राजकुमारी ने फौरन कहा, ‘‘यह बात तो है… निर्मल बहुत अमीर है, लेकिन उस में जरा सा भी घमंड नहीं है.’’

राजेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘फिर मैं ऐसा समझूं कि मेरी 3,650 दिनों की तपस्या बेकार गई, कहीं तुम्हारा इरादा…’’ ‘‘नहीं…’’ राजकुमारी बोली, ‘‘सब से पहली बात तो यह है कि कहां निर्मल कुमार और कहां मैं. मेरा उस के बारे में सोचना ही बेकार है.’’ ‘‘तुम कितनी मालदार हो, तुम्हें नहीं मालूम…’’ राजेश बोला, ‘‘बस एक बात है, 100 साल पहले मुझे तुम से प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा…’’ राजकुमारी ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘मालूम है बाबा, अब उठो.’’ अगले दिन जब निर्मल कुमार के कमरे में राजकुमारी आई, तो वह अपनी कुरसी से खड़ा हो गया और बोला, ‘‘आओ राजकुमारी, मैं तुम्हें बुलाने ही वाला था.’’  वह उसे कुरसी की ओर इशारा करते हुए आगे बोला, ‘‘बैठोबैठो.’’ निर्मल कुमार के इस तरह बोलने पर वह जरा हैरान हुई और ‘जी’ कहती हुई बैठ गई. ‘‘कहो, तुम्हें हमारी पार्टी कैसी लगी?’’

निर्मल कुमार की आंखों में एक खास चमक देखते हुए राजकुमारी ने कहा, ‘‘पार्टी बहुत शानदार रही.’’  वह सोच रही थी कि राजेश उस के दिल में बसा हुआ है तो क्या हुआ, खूबसूरत मर्द तो अपने अंदर चुंबक का असर रखते हैं. वह निर्मल कुमार को गौर से देखने लगी. फिर आंखें झुका कर वह बोली, ‘‘जी कहिए, क्या हुक्म है?’’ ‘‘हुक्म नहीं, गुजारिश है… वह यह है कि आज शाम मैं तुम से एक खास बात करना चाहता हूं. तुम कल साढ़े  7 बजे होटल डिलाइट में मुझ से मिलना. अब तुम जा सकती हो. लेकिन ध्यान रहे, मुलाकात का किसी को पता न चले, समझीं?’’ राजकुमारी ‘ठीक है’ कहते हुए कमरे से बाहर चली गई. उस के दिमाग में कितने ही सवाल उठ खड़े हुए. उसे महसूस हो गया था कि निर्मल कुमार उस पर डोरे डाल रहा है.  उस पार्टी की रात की पार्टी में भी वह उस की निगाहों के इशारे को पढ़ चुकी थी. और उसे वह यकीन भी हो गया कि उस का मालिक ऐयाश नहीं है.

वह अपनी जवानी की आग नहीं बुझाना चाहता, वह जीवनसाथी चाहता है. फिर एक और डर भी उसे परेशान कर रहा था कि अमीर मर्द एक गरीब लड़की को अपनी बीवी कैसे बना सकता है?  शाम को वह राजेश से मिली, तो कुछ खिंचीखिंची सी थी. राजेश ने उस का मन रखने को कहा ‘‘चलो, तुम्हारे कमरे में चलते हैं. वहां बैठ कर बात करेंगे.’’ उधर निर्मल कुमार बेचैन था, पर अगले दिन का इंतजार नहीं करना चाहता था. वह उसी बस्ती तक चला गया और राजकुमारी के कमरे के सामने भी चाय की दुकान में बैठ कर राजकुमारी के दर्शन का इंतजार करने लगा. उस ने उन 2-3 घंटों में बहुतकुछ देख लिया, पर उस का राजकुमारी ने प्रति लगाव कम नहीं हुआ था.

जब अगले दिन दोनों शाम को मिले, तो राजकुमारी ने सिर उठाया और उस से कोई बात नहीं छिपाई. लेकिन जानबूझ कर राजेश के बारे में कुछ नहीं बताया. बाकी सबकुछ सचमुच बता दिया कि मातापिता हैं, 2 बहनें हैं, मकान गिरवी रखा है, दोनों बहनों की शादी बड़ी उलझन बनी हुई है, क्योंकि शादी करने के लिए रकम नहीं है, और हजारों रुपए का कर्ज भी चढ़ा हुआ है, जिसे अपनी पगार से बचा कर वह उतारने की कोशिश कर रही है. उस की कहानी सुन कर निर्मल कुमार वैसे तो दिल ही दिल में बहुत खुश हुआ. पर अब उसे राजेश के बारे में पता करना था. इस हुस्न की मलिका को खरीदने के लिए वह ज्यादा जरूरी था. उस ने बड़ी आसानी से राजेश के बारे में पता कर लिया था. फिर भी उसे भरोसा था कि राजकुमारी और राजेश की सिर्फ दोस्ती है और वह उस की अच्छी साथी बन सकती है, चाहे गरीब घर की क्यों न हो.

बहनों की बात को ले कर उस ने राजकुमारी से पूछा, ‘‘सीधी सी बात है कि बहनों की शादी के बाद तुम शादी करोगी. करोगी न…?’’ राजकुमारी ने एक मीठी सी मुसकान के साथ कहा, ‘‘जी हां.’’ ‘‘यह तो तुम देख रही हो कि मैं ने अब तक शादी नहीं की. तुम्हें देखने के बाद शादी करना चाहता हूं. मुझे एक ऐसी ही पत्नी की तलाश थी.’’ ‘‘मुझ से…? मैं तो…’’ राजकुमारी का गला सूख गया. निर्मल कुमार ने मुसकराते हुए आगे कहा, ‘‘जब तुम मेरी बीवी बन जाओगी, तो जोकुछ मेरा है, वह तुम्हारा होगा. एक शानदार जिंदगी तुम्हारे सामने है. तुम्हारे लिए कोई परेशानी बाकी नहीं रहेगी.

मकान छुड़ा लेना, बहनों की शादी पर जितना चाहे खर्च करना, मुझे कोई एतराज नहीं होगा.’’ राजकुमारी ने फौरन हामी नहीं भरी और इनकार भी नहीं किया. निर्मल कुमार ने उसे देखते हुए कहा, ‘‘इस बात का जवाब आराम से देना…’’ ‘‘हांहां, सोच लो, आराम से सोचो और तब मुझे बताओ. वैसे, मेरा यकीन है कि मेरी बात को तुम ठुकराओगी नहीं, मंजूर कर लोगी. अच्छा, चलो तुम्हें छोड़ते चलते हैं.’’ घर आ कर राजकुमारी रातभर सो नहीं सकी. वह बारबार बिस्तर से उठती और पानी पीती… इसी तरह सवेरे के  6 बज गए.  एक तरफ राजेश था, जिस से वह बेहद प्यार करती थी. वह रातोंरात चाहे राजेश के साथ रही हो, पर उस ने कभी भी जिस्मानी संबंध नहीं बनाए थे.

वह निर्मल कुमार से कम उम्र का भी था और सुंदर भी. वह उसे बहुत चाहती थी.  पर राजेश के साथ भी लगभग यही परेशानियां थीं. इन दोनों ने शादी इसीलिए नहीं की थी कि इस से घर वालों पर असर पड़ता था.  दूसरी ओर निर्मल कुमार एक करोड़पति था. उस की सारी उलझनें चुटकी बजाते ही हल हो सकती थीं. दूसरे दिन वह दिनभर इन्हीं खयालों में गुम रही. वह दफ्तर भी नहीं गई.  2-3 रोज बाद जब राजेश से मिली, तो उसे सारी बातें बता दीं.  राजेश उन दिनों काफी बिजी रहने लगा था. वह कहता था कि शादी के लिए पैसा जमा करने के लिए उस ने  2 पार्टटाइम नौकरियां पकड़ी हैं. राजेश ने पूछा, ‘‘फिर, तुम ने क्या फैसला किया?’’ राजकुमारी ने जमीन की ओर नजरें करते हुए कहा, ‘‘मैं सोच रही हूं, अपने परिवार के लिए यह कुरबानी दे ही दूं… तुम्हें कोई एतराज तो नहीं होगा?’’ सुनते ही राजेश का चेहरा पीला पड़ गया. लेकिन जल्दी ही उस ने अपनेआप पर काबू पा लिया.

राजकुमारी किसी मुजरिम की तरह नजरें नीचे किए बैठी थी, इसलिए वह राजेश का चेहरा नहीं देख पाई थी. राजेश ने धीरे से कहा, ‘‘मुझे भला क्या इनकार हो सकता है? इस ‘सच’ को मान लेना चाहिए तुम्हें.’’ राजकुमारी बोली, ‘‘लेकिन, मैं ने फैसला कर लिया है, जो मैं तुम्हें 2-3 रोज में बताऊंगी. प्लीज, उस दौरान मुझ से कुछ पूछना नहीं.’’ ‘‘छोड़ो इन बातों को,’’ राजेश हंसते हुए बोला, ‘‘तुम निर्मल कुमार की बात मान लो. मेरा क्या, मां कहीं से गांव की लड़की पकड़ कर ब्याह कर देगी.’’ दोनों जब उठे तो राजकुमारी एक फैसले पर पहुंच चुकी थी. राजकुमारी निर्मल कुमार की होने को तैयार हो गई थी और दोनों अपनीअपनी मंजिल की ओर चल पड़े. उस रात वह बहुत खुश थी. फिर भी करवटें बदलती रही. दूसरे दिन भी वह दफ्तर नहीं गई. उसे बुखार हो गया. इसी तरह 4 दिन बीत गए. छठे दिन जब वह दफ्तर जा रही थी, तो उस के दिमाग में हलचल मच गई.

उसे आज निर्मल कुमार को अपना फैसला सुनाना था.  निर्मल कुमार को लगा कि वह राजेश के लिए कहीं चली न गई हो. उस के घर पर जा कर देखा, तो राजकुमारी का कमरा खुला दिखा.  एक घंटे तक न कोई आया और न कोई गया तो वह चुपचाप घर चला गया. राजकुमारी किसी भी कीमत पर राजेश को खोना नहीं चाहती थी. उस की मुहब्बत के आगे निर्मल कुमार की दौलत कुछ भी नहीं थी. उस के दिल की धड़कन तेज हो गई और राजेश की मुहब्बत रंग लाने लगी.  उस ने जब दफ्तर में प्रवेश किया, तो पता चला कि निर्मल साहब आ चुके हैं. वह उन के कमरे में गई और थोड़ी मुसकान के बाद बोली, ‘‘सर, आप बहुत महान हैं कि आप ने मुझे अपनाने का फैसला किया था. पर, मैं अपना दिल तो राजेश को दे चुकी हूं. मैं आप से शादी नहीं कर सकती. यह मेरा इस्तीफा है. मैं राजेश से शादी करूंगी.’’ निर्मल कुमार बोला, ‘‘तुम उस राजेश से बात कर रही हो न, जो इंपैक्ट इंडस्ट्री में काम करता है. उस के मालिक ने अपनी सांवली लड़की के लिए राजेश को तैयार कर लिया था. पर, मैं ने उन्हें बता दिया है कि राजेश और तुम कितनी ही रातें एक कमरे में गुजार चुके हो.

उन के पास तुम्हारे घर के वीडियो पहुंच चुके हैं. उन्होंने आज ही राजेश को धक्के दे कर नौकरी से निकल दिया है.  ‘‘राजेश तुम्हें धोखा देता रहा है. तुम जैसी लड़की से मैं भी अब शादी करने से इनकार करता हूं. इंपैक्ट इंडस्ट्री के मालिक ने राजेश को मेरे भेजे वीडियो के आधार पर उस के खिलाफ मुकदमा भी कर दिया है. वह अब जेल में है. जाओ, जेल में मिल आओ.’’ राजकुमारी उस से आगे एक लफ्ज भी नहीं सुन सकी. उस के हाथ से कागज छूट कर गिर पड़े. राजकुमारी की दुनिया उजड़ चुकी थी. न निर्मल साथ रहा, न राजेश.

वह बेमौत नहीं मरता: एक कठोर मां ने कैसे ले ली बेटे की जान

बड़बड़ा रही थीं 80 साल की अम्मां. सुबहसुबह उठ कर बड़बड़ करना उन की रोज की आदत है, ‘‘हमारे घर में नहीं बनती यह दाल वाली रोटी, हमारे घर में यह नहीं चलता, हमारे घर में वह नहीं किया जाता.’’ सुबह 4 बजे उठ जाती हैं अम्मां, पूजापाठ, हवनमंत्र, सब के खाने में रोकटोक, सोनेजागने पर रोकटोक, सब के जीने के स्तर पर रोकटोक. पड़ोस में रहती हूं न मैं, और मेरी खिड़की उन के आंगन में खुलती है, इसलिए न चाहते हुए भी सारी की सारी बातें मेरे कान में पड़ती रहती हैं.

अम्मां की बड़ी बेटी अकसर आती है और महीना भर रह जाती है. घूमती है अम्मां के पीछेपीछे, उन का अनुसरण करती हुई.

आंगन में बेटी की आवाज गूंजी, ‘‘अम्मां, पानी उबल गया है अब पत्ती और चीनी डाल दूं?’’

‘‘नहीं, थोड़ा सा और उबलने दे,’’ अम्मां अखबार पढ़ती हुई बोलीं.

मुझे हंसी आ गई थी कि 60 साल की बेटी मां से चाय बनाना सीख रही थी. अम्मां चाहती हैं कि सभी पूरी उम्र उन के सामने बड़े ही न हों.

‘‘हां, अब चाय डाल दे, चीनी और दूध भी. 2-3 उबाल आने दे. हां, अब ले आ.’’

अम्मां की कमजोरी हर रोज मैं महसूस करती हूं. 80 साल की अम्मां नहीं चाहतीं कि कोई अपनी इच्छा से सांस भी ले. बड़ी बहू कुछ साल साथ रही फिर अलग चली गई.

बेटे के अलग होने पर अम्मां ने जो रोनाधोना शुरू किया उसे देख कर छोटा लड़का डर गया. वह ऐसा घबराया कि उस ने अम्मां को कुछ भी कहना छोड़ दिया.

दुकान के भी एकएक काम में अम्मां का पूरा दखल था. नौकर कितनी तनख्वाह लेता है, इस का पता भी छोटे लड़के को नहीं था. अम्मां ही तनख्वाह बांटतीं.

छोटे बेटे का परिवार हुआ. बड़ी समझदार थी उस की पत्नी. जब आई थी अच्छे खातेपीते घर की लड़की थी लेकिन अब 18 साल में एकदम फूहड़गंवार बन कर रह गई है.

अम्मां बेटी के साथ बैठ कर चुहल करतीं तो मेरा मन उबलने लगता. गुस्सा आता मुझे कि कैसी औरत है यह. कभी उन के घर जा कर देखो तो, रसोई में वही टीन के डब्बे लगे हैं जिन पर तेल और धुएं की मोटी परत चढ़ चुकी है. बहू की क्या मजाल जो नए सुंदर डब्बे ला कर रसोई में सजा ले और उन में दालें, मसाले डाल ले.

मरजी अम्मां की और फूहड़ता का लेबल बहू के माथे पर. बड़ी बेटी जो दिनरात मां का अहम् संतुष्ट करती है, जिस का अपना घर हर सुखसुविधा से भरापूरा है, जो माइक्रोवेव के बिना खाना ही गरम नहीं कर सकती, वह क्या अपनी मां को समझा नहीं सकती? मगर नहीं, पता नहीं कैसा मोह है इस बेटी का कि मां का दिल न दुखे चाहे हजारों दिल दिनरात कुढ़ते रहे.

‘‘मेरे घर में 3 रोटियां खाने का रिवाज नहीं,’’ अम्मां ने बहू के आते ही घर के नियम उस के कान में डाल दिए थे. जब अम्मां ने देखा कि बहू ने चौथी रोटी पर भी हाथ डाल दिया तो बच्चों को नपातुला भोजन परोसने वाली अम्मां कहां सह लेती कि बहू हर रोज 1-1 रोटी ज्यादा खा जाती.

छोटा लड़का मां को खुश करताकरता ही बीमार रहने लगा था. सुबह से शाम तक दुकान पर काम करता और पेट में डलती गिन कर पतलीपतली 5 रोटियां जो उस के पूरे दिन का राशन थीं. बाजार से कुछ खरीद कर इस डर से नहीं खाता कि नौकरों से पता चलने के बाद अम्मां घर में महाभारत मचा देंगी.

‘‘किसी ने जादूटोना कर दिया है हमारे घर पर,’’ बेटा बीमार पड़ा तो अम्मां यह कहते हुए गंडेतावीजों में ऐसी पड़ीं कि अड़ोसीपड़ोसी सभी उन को दुश्मन नजर आने लगे, जिन में सब से ऊपर मेरा नाम आता था.

अम्मां का पूरा दिन हवनमंत्र में बीतता है और जादूटोने पर भी उन का उतना ही विश्वास था. पूरा दिन परिवार का खून जलाने वाली अम्मां को स्वर्ग चाहिए चाहे जीते जी आसपास नरक बन जाए. छोटा बेटा इलाज के चक्कर में कई बार दिल्ली गया था. सांस अधिक फूलने लगी थी इसलिए इन दिनों वह घर पर ही था. एक सुबह वह चल बसा. हम सब भाग कर उन के घर जमा हुए तो मेरी सूरत पर नजर पड़ते ही अम्मां ने चीखना- चिल्लाना शुरू किया, ‘‘हाय, तू मेरा बेटा खा गई, तूने जादूटोने किए, देख, मेरा बच्चा चला गया.’’

अवाक् रह गई मैं. सभी मेरा मुंह देखने लगे. ऐसा दर्दनाक मंजर और उस पर मुझ पर ऐसा आरोप. मुझे भला क्या चाहिए था अम्मां से जो मैं जादूटोना करती.

‘‘अरे, बड़की बहू तेरी बड़ी सगी है न. सारा छोटा न ले जाए इसलिए उस ने तेरे हाथ जादूटोने भेज दिए…’’

मैं कुछ कहती इस से पहले मेरे पति ने मुझे पीछे खींच लिया और बोले, ‘‘शांति, चलो यहां से.’’

मौका ऐसा था कि दया की पात्र अम्मां वास्तव में एक पड़ोसी की दया की हकदार भी नहीं रही थीं.

इनसान बहुत हद तक अपने हालात के लिए खुद ही जिम्मेदार होता है. उस का किया हुआ एकएक कर्म कड़ी दर कड़ी बढ़ता हुआ कितनी दूर तक चला आता है. लंबी दूरी तय कर लेने के बाद भी शुरू की गई कड़ी से वास्ता नहीं टूटता. 80 साल की अम्मां आज भी वैसी की वैसी ही हैं.

बहू दुकान पर जाती है और बड़ी पोती स्कूल के साथसाथ घर भी संभालती है. अम्मां की सारी कड़वाहट अब पोती पर निकलती है. 4 साल हो गए बेटे को गए. इन 4 सालों में अम्मां पर बस, इतना ही असर हुआ है कि उन की जबान की धार पहले से कुछ और भी तेज हो गई है.

‘‘कितनी बार कहा कि सुबहसुबह शोर मत किया करो, अम्मां, मेरे पेपर चल रहे हैं. रात देर तक पढ़ना पड़ता है और सुबह 4 बजे से ही तुम्हारी किटकिट शुरू हो जाती है,’’ एक दिन बड़ी पोती ने चीख कर कहा तो अम्मां सन्न रह गईं.

‘‘रहना है तो तुम हमारे साथ आराम से रहो वरना चली जाओ बूआ के साथ. दाल वाली रोटी पसंद नहीं तो बेशक भूखी रह जाओ, सादी रोटी बना लो मगर मेरा दिमाग मत चाटो, मेरा पेपर है.’’

‘‘हायहाय, मेरा बेटा चला गया तभी तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गई…’’

अम्मां की बातें बीच में काटते हुए पोती बोली, ‘‘बेटा चला गया तभी तुम्हारी भी हिम्मत होती है उठतेबैठते हमें घर से निकालने की. पापा जिंदा होते तो तुम्हारी जबान भी इतनी लंबी न होती…’’

खिड़की से आवाजें अंदर आ रही थीं.

‘‘…अपने बेटे को कभी पेट भर कर खिलाया होता तो आज हम भी बाप को न तरसते. अम्मां, इज्जत लेना चाहती हो तो इज्जत करना भी सीखो. मुझे पापा मत समझना अम्मां, मैं नहीं सह पाऊंगी, समझी न तुम.’’

शायद अम्मां का हाथ पोती पर उठ गया था, जिसे पोती ने रोक लिया था.

तरस आता था मुझे बच्ची पर, लेकिन अब थोड़ी खुशी भी हो रही है कि इस बच्ची को विरोध करना भी आता है.

पेपर खत्म हुए और एक दिन फिर से घर में कोहराम मच गया. घबरा कर खिड़की में से देखा. चमचमाते 3 बड़ेछोटे टं्रक आंगन में पड़े थे. जिन पर अम्मां चीख रही थीं. दुकान से पैसे ले कर खर्च जो कर लिए थे.

‘‘घर में इतने ट्रंक हैं फिर इन की क्या जरूरत थी?’’

‘‘होंगे, मगर मेरे पास नहीं हैं और मुझे अपना सामान रखने के लिए चाहिए.’’

अम्मां कुली का हाथ रोक रही थीं तो पोती ने अम्मां का हाथ झटक दिया था और बोली, ‘‘चलो भैया, टं्रक अंदर रखो.’’

छाती पीटपीट कर रोने लगी थी अम्मां, पोती ने लगे हाथ रसोई में जा कर टीन के सभी डब्बे बाहर ला पटके जिन्हें बाद में कबाड़ी वाला ले गया. पोती ने नए सुंदर डब्बे धो कर सामने मेज पर सजा दिए थे. अम्मां ने फिर मुंह खोला तो इस बार पोती शांत स्वर में बोली, ‘‘पापा कमाकमा कर मर गए, मेरी मां भी क्या कमाकमा कर तुम्हारी झोली ही भरती रहेगी? हमें जीने कब दोगी अम्मां? जीतेजी जीने दो अम्मां, हम पर कृपा करो…’’

पोती की इस बगावत से अम्मां सन्न थीं. वे सुधरेंगी या नहीं, मैं नहीं जानती मगर इतना जरूर जानती हूं कि अम्मां के लिए यह सब किसी प्रलय से कम नहीं था. सोचती हूं इतना ही विरोध अगर छोटे बेटे ने भी कर दिखाया होता तो इस तरह का दृश्य नहीं होता जो अब इस घर का है.

कुछ और दिन बीत गए. 20 साल की पोती धीरेधीरे मुंहजोर होती जा रही है. अपने ढंग से काम करती है और अम्मां का जायज मानसम्मान भी नहीं करती. हर रोज घर में तूतू मैंमैं होती है. बच्चों के खानेपीने में अम्मां की सदा की रोकटोक भला पोती सहे भी क्यों. भाई को पेट भर खिलाती है, कई बार थाली में कुछ छूट जाए तो अम्मां चीखने लगती हैं,  ‘‘कम डालती थाली में तो इतना जाया न होता…’’

‘‘तुम मेरे भाई की रोटियां मत गिना करो अम्मां, बढ़ता बच्चा है कभी भूख ज्यादा भी लग जाती है. तुम्हारी तरह मैं पेट नापनाप कर खाना नहीं बना सकती…’’

‘‘मैं पेट नाप कर खाना बनाती हूं?’’ अम्मां चीखीं.

‘‘क्या तुम्हें नहीं पता? घर में तुम्हीं ने 2 रोटी का नियम बना रखा है न और पेट नाप कर बनाना किसे कहते हैं. तुम्हारी वजह से मेरा बाप मर गया, सांस भी नहीं लेने देती थीं तुम उन्हें. घुटघुट कर मर गया मेरा बाप, अब हमें तो जीने दो. इनसान दिनरात रोटी के लिए खटतामरता है, हमें तो भर पेट खाने दो.’’

अम्मां अब पगलाई सी हैं. सारा राजपाट अब पोती ने छीन लिया है. जरा सी बच्ची एक गृहस्वामिनी बन गई.

‘‘रोती रहती हैं अब अम्मां. सभी को दुश्मन बना चुकी हैं. कोई उन से बात करना नहीं चाहता. पोती को कोसना घटता नहीं. अपनी भूल वह आज भी नहीं मानतीं. 80 साल जी चुकने के बाद भी उन्हें बैराग नहीं सूझता. सब से बड़ा नुकसान उन पंडितों को हुआ है जो अब यज्ञ, हवन के बहाने अम्मां से पूरीहलवा उड़ाने नहीं आ पाते. जब कभी कोई भटक कर आ पहुंचे तो पोती झटक देती है, ‘‘जाओ, आगे जाओ, हमें बख्शो.

तालीम: क्या वारसी साहब की तमन्ना पूरी हुई?

अमन अपने पिता का लख्तेजिगर था, क्योंकि उस खानदान में एक भी बेटा नहीं था. वैसे, वहां धनदौलत की कोई कमी नहीं थी. वारसी साहब खानदानी रईस थे. कई गाडि़यां कीं और कई बंगले थे. वे राजामहाराजा की जिंदगी जी रहे थे, लेकिन बेटे जैसी नेमत से महरूम थे.

वारसी साहब की शादी मुद्दत पहले हो गई थी, पर फिर भी कोई औलाद नहीं हुई. बेटा होने की तमन्ना दिल में बहुत थी. कई मिन्नतों के बाद अमन जैसा चांद सा बेटा वारसी साहब को हुआ. लेकिन शक्ल से तो पर अक्ल से नहीं. उसे अपने पिता की धनदौलत पर ज्यादा ही नाज था. उसे लगता था कि दुनिया में धनदौलत ही सबकुछ है.

वारसी साहब अपने एकलौते बेटे से बहुत ज्यादा लाड़प्यार करते थे, पर उन्हें कंपनी के कामों से इतनी भी फुरसत नहीं मिलती थी कि वे अपने बेटे को तालीम हासिल करने के लिए बोल सकें. वारसी साहब की यही मुहब्बत धीरेधीरे अमन के लिए घातक साबित हो रही थी.

‘‘तुम्हारे पास क्या है छोटू? देखो, मेरे पास कई गाडि़यां हैं, कई बंगले हैं, चहलकदमी के लिए कई बाग है, जबकि तुम्हारे पास खाने के लिए तो दो कौडि़यां होंगी,’’ एक दिन अमन ने अपने पिता के ड्राइवर के बेटे से कहा.

रजा उर्फ छोटू की मां भी वारसी साहब के घर बरतन साफ करती थी, पर वह अच्छे स्कूल में पढ़ता था, क्योंकि उस के मांबाप उस के भविष्य के लिए कुछ भी करने को तैयार थे.

रजा ने अमन के सवाल का जवाब दिया, ‘‘मेरे पास वह सबकुछ है, जो शायद तुम्हारे पास नहीं है.’’

अमन यह सुन कर गुस्से से आगबबूला हो कर बोला, ‘‘अरे, जरा बता तो सही कि ऐसी क्या ऐसी चीज है तेरे पास, जो मेरे पास नहीं है? तुम्हारी मां मेरे घर पर काम करती है. तुम्हारे पिता मेरे पिताजी के कार ड्राइवर हैं. आखिर ऐसी भी तुम्हारे पास क्या जायदाद है?’’

‘‘मेरे पास तालीम जैसी नेमत है, लेकिन तुम्हारे पास नहीं है. तालीम के बिना इनसान गरीब की तरह है. तुम चाहो तो पैसों से डिगरियां खरीद सकते हो, लेकिन सच्ची और अच्छी तालीम नहीं.’’

उन दोनों की बहस को बगीचे में बैठी अमन की दादी सुन रही थीं. अपनी लाठी पकड़ते हुए उन्होंने आवाज लगाई, ‘‘अरे, तुम दोनों मेरे पास आ जाओ. खेलतेखेलते आपस में नाहक झगड़ क्यों रहे हो?’’

अमन ने फरियाद रखी, ‘‘दादी, देखो न छोटू को कि यह क्या बोल रहा है. इस के पास खाने के लिए सही से राशन भी नहीं होगा, पहनने के लिए कपड़े भी नहीं होंगे, लेकिन देखो कैसे बोल रहा है कि जो इस के पास है, वह मेरे पास नहीं है.’’

बूढ़ी दादी ने अपने पोते को समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, छोटू की बात बिलकुल सही है. तालीम की तुलना धनदौलत से नहीं और धनदौलत की तुलना तालीम से नहीं की जा सकती, क्योंकि तालीम दौलतों की दौलत है. हर कोई इसे हासिल नहीं कर सकता.

‘‘रजा के मातापिता गरीब तो हैं और वे अपने घर में नौकरी करते हैं, पर गरीब होने के बाद भी उन्होंने इसे अच्छी तालीम देने की कोशिश की है.

‘‘पर, तुम्हारे मातापिता ने तुम्हें अच्छी तालीम देने में लापरवाही की है, क्योंकि उन दोनों को यही लगता है कि वे इतनी धनदौलत छोड़ कर जाएंगे कि अगर तुम्हारी आने वाली सात नस्लें भी बैठ कर खाएंगी तो खत्म नहीं होगी.’’

‘‘दादी, तुम छोटू की तरफदारी क्यों कर रही हो? मैं आप का पोता हूं या छोटू?’’ अमन ने दादी से पूछा.

‘‘बेटा, अभी मैं तुम्हारी दादी नहीं हूं, बल्कि तुम दोनों की बात का फैसला करने वाली हूं. फैसला करने के समय रिश्तेदारी खत्म. अगर मैं तुम्हारे हक में फैसला करूंगी, तो छोटू के साथ नाइंसाफी होगी. जो सच है, वही मैं कहूंगी.

‘‘आओ, तुम दोनों एक जगह बैठ जाओ. एक बार बचपन में जब मैं अपनी सहेली के साथ झगड़ रही थी, तो मेरी दादी ने एक कहानी सुनाई थी. आज वही कहानी मैं तुम दोनों को सुनाती हूं.

‘‘कई साल पहले एक राजा हुआ करते थे. वे बहुत पढ़ेलिखे थे और उन के पास धनदौलत की कोई कमी नहीं थी. उन का एक बेटा भी था, पर वह अव्वल दर्जे का बेवकूफ था. वह पढ़ाईलिखाई को कुछ नहीं समझता था.

‘‘एक दिन राजा की तबीयत खराब हो गई. कई हकीमों ने राजा का इलाज किया, पर वे राजा को नहीं बचा पाए. अब राजा के मरने के बाद सिंहासन पर उस का बेवकूफ और अनपढ़ बेटा बैठ गया, क्योंकि वह राजा का वारिस जो था.

‘‘वह राजा तो बन बैठा, पर ज्यादा दिन तक नहीं. उस की बेवकूफी का फायदा उठा कर लोगों ने उसे ठग लिया और उसे राजा से रंक बनते देर नहीं लगी.

‘‘कहने का मतलब यह है कि तुम बिना तालीम के अपनी जायदाद को ज्यादा समय तक के लिए नहीं बचा पाओगे. पर अगर तुम्हारे पास अच्छी तालीम होगी, तो बहुत सी जायदाद बना सकते हो…’’

अमन की समझ में दादी की सारी बातें आ चुकी थीं. उसे अपनी भूल पर पछतावा हो रहा था.

‘‘दादी, मुझे माफ कर देना. मैं आज से ही तालीम हासिल करने स्कूल जाया करूंगा. छोटू, तुम भी मुझे माफ कर दो.’’

इस के बाद अमन अब छोटू के साथ तालीम हासिल करने स्कूल जाने लगा था. वे दोनों अच्छे दोस्त भी बन गए थे.

प्यार है: लड़ाई को प्यार से जीत पाए दो प्यार करने वाले

हाइड पार्क सोसाइटी वैसे तो ठाणे के काफी पौश इलाके में स्थित है, यहां के लोग भी अपनेआप को सभ्य, शिष्ट, आधुनिक और समृद्ध मानते हैं, पर जैसाकि अपवाद तो हर जगह होते हैं, और यहां भी है. कई बार ऊपरी चमकदमक से तो देखने में तो लगता है कि परिवार बहुत अच्छा है, सभ्य है पर जब असलियत सामने आती है तो हैरान हुए बिना नहीं रह सकते. ऐसे ही 2 परिवारों के जब अजीब से रंगढंग सामने आए तो यहां के निवासियों को समझ ही नहीं आया कि इन का क्या किया जाए, हंसें या इन्हे टोकें.

बिल्डिंग नंबर 9 के फ्लैट 804 में रहते हैं रोहित, उन की पत्नी सुधा और बेटियां सोनिका और मोनिका. इन के सामने वाले फ्लैट 805 में रहते हैं आलोक, उन की पत्नी मीरा और बेटा शिविन. कभी दोनों परिवारों में अच्छी दोस्ती थी, दोनों के बच्चे एक ही स्कूलकलेज में पढ़ते रहे.

दोनों दंपत्ति बहुत ही जिद्दी, घमंडी और गुस्सैल हैं. जो भी इन परिवारों के बीच दोस्ती रही, वह सिर्फ इन के प्यारे, समझदार बच्चों के कारण ही. अब 1 साल के आगेपीछे शिविन और सोनिका दोनों आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए हैं. मोनिका मुंबई में ही फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है. सब ठीक चल ही रहा था कि सोसाइटी में कुछ लोगों ने आमनेसामने के खाली फ्लैट खरीद लिए और अब उन का बड़ा सा घर हो गया, तो इन दोनों दंपत्तियों के मन में आया कि उन्हें भी सामने वाला फ्लैट मिल जाए तो उन का भी घर बहुत बड़ा हो जाएगा.

एक दिन सोसाइटी की मीटिंग चल रही थी कि वहां रोहित ने आलोक से कहा, ”आप का अपना फ्लैट बेचने का कोई मूड है क्या?”

”नहीं भाई, मैं क्यों बेचूंगा…”

”अगर बेचें तो हमें ही बताना, हम खरीद लेंगे.”

”आप भी कभी बेचें तो हमें ही बताना, हमें भी चाहिए आप का फ्लैट.”

”हम तो कहीं नहीं जा रहे, यही रहेंगे.”

“फिर भी जाओ तो हमें बता देना. आजकल तो आसपास बढ़िया सोसाइटी हैं, आप वहां भी देख सकते हैं बड़ा फ्लैट.”

”आप अपने लिए क्यों नहीं देख लेते वहां बड़ा फ्लैट?”

‘’हमें यही सोसाइटी अच्छी लगती है.’’

बात यहीं खत्म नहीं हुई. यह बात जो लोग भी सुन रहे थे, उन्होंने दोनों की आवाजों में बढ़ रही कड़वाहट महसूस की. घर जा कर रोहित ने सुधा से कहा,”इस आलोक को तो मैं यहां से भगा कर दम लूंगा. अपनेआप को समझता क्या है.”

उधर आलोक भी शुरू थे,”मीरा, यह मुझे जानता नहीं है. देखना, मैं इसे यहां से कैसे भगाता हूं.’’

अगले दिन जब दोनों लिफ्ट में मिले, दोनों ने बस एकदूसरे पर नजर ही डाली, हमेशा की तरह हायहैलो भी नहीं हुआ. अगले दिन जब मोनिका सुबह साइक्लिंग के लिए जाने लगी, देखा, साइकिल के ट्यूब कटे हुए हैं, वह वौचमैन को डांटने लगी,”यह किस ने किया है?”

”मैडम, बाहर से तो कोई नहीं आया,’’ वौचमैन बोला

”तो फिर मेरी साइकिल की यह हालत किस ने की?”

वौचमैन डांट खाता रहा, वह तो लगातार यहीं था, पर साइकिल को तो जानबूझ कर खराब किया गया था, यह साफसाफ समझ आ रहा था.मोनिका घर जा कर चिङचिङ करती रही, किसी को कुछ समझ नहीं आया कि किस ने किया. उधर आलोक घर में अपनेआप को शाबाशी दे रहे थे कि रोहित बाबू, अब आगे देखना क्याक्या करता हूं तुम सब के साथ.

जब 2 चालाक लोग आमनेसामने होते हैं तो किसी की कोई हरकत एकदूसरे से छिपी नहीं रह पाती, दोनों एकदूसरे की चालाकी तुरंत पकड़ लेते हैं. यहां भी रोहित समझ गए कि किसी बाहर वाले ने आ कर मोनिका की साइकिल खराब नहीं की है, यह कोई बिल्डिंग का ही रहने वाला है. पूरा शक आलोक पर था जो सच ही था. सोचने लगे कि यह हमें ऐसे परेशान करेगा. मैं करता हूं इसे ठीक.

उन्होंने सुबह बहुत जल्दी उठ कर अपना डस्टबिन आलोक के फ्लैट के बाहर ऐसे रखा कि जो भी दरवाजा खोले, डस्टबिन गिर जाए और सारा कचरा बिखर जाए. आलोक और मीरा सुबह सैर पर जाते थे, एक ही बेटा था जो बाहर है. सुबहसुबह आलोक ने दरवाजा खोला तो कचरा फैल गया. वह भी समझ गए कि किस का काम है. फौरन रोहित की डोरबेल बजा दी, एक बार नहीं, कई बार बजा दी. रोहित ने तो रात में ही डोरबेल बंद कर दी थी, रोहित कीहोल से आलोक को गुस्से में चिल्लाते देख रहे थे. फ्लोर पर जो 2 फ्लैट्स और थे, उन में बैचलर्स रहते थे. इस चिल्लीचिल्लम पर उन्होंने दरवाजा खोला और आलोक से पूछा,”क्या हुआ अंकल?”

”यह देखो, कैसे गंवार हैं. कैसे रखा डस्टबिन.”

बैचलर्स को इन बातों में जरा इंटरैस्ट नहीं था, उन्होंने सर को यों ही हिलाते हुए अपने फ्लैट का दरवाजा बंद कर लिया जैसे कह रहे हों, ”भाई, खुद ही देख लो, हम तो किराएदार हैं.’’

लंदन में साउथ हौल में शिविन और सोनिका एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले बेफिक्र घूम रहे हैं. सोनिका के कालेज में ट्रैडिशनल डे है और उसे सूटसलवार पहनना है. यहां ट्रेन से उतरते ही इस एरिया में आते ही ऐसा लगता है जैसे पंजाब आ गए हों. पूरा एरिया पंजाबी है. इंडियन सामानों की दुकानें आदि सबकुछ मिलता है यहां.

सोनिका ने कहा,”शिवू, पहले रोड कैफे में बैठ कर छोलेभटूरे खा लें, फिर कपङे ले लेंगे.’’

”हां, बिलकुल, यह रोड कैफे तो हमारे प्यार से जुड़ा है, यहीं हम मिले थे न सब से पहले?”

सोनिका खिलखिलाई, ”हां, मैं तो गा ही उठी थी, ‘कब के बिछड़े हुए हम कहां आ के मिले…'”

दोनों ने और्डर दिया और एक कोना खोज कर बैठ गए. शिविन ने कहा, ”बस अब अच्छी जगह प्लैसमेंट हो जाए, जौब शुरू हो तो शादी करें.’’

”हां, सही कह रहे हो. यह बताओ, घर वालों का क्या करना है, मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे पेरैंट्स नौन सिंधी लड़की को ऐक्सैप्ट करेंगे.”

”न करें, हमारी शादी तो हो कर रहेगी. तुम मेरे बचपन का प्यार हो, उन्हें यह पता नहीं है कि हम यहां लिवइन में ही रह रहे हैं, वक्त आने पर बात कर लूंगा उन से.‘’

शिविन और सोनिका एकदूसरे के प्यार में पोरपोर डूबे हैं और उधर इंडिया में किसी को भनक भी नहीं कि लंदन में क्या चल रहा है. शुरूशुरू में कुछ दिन दोनों किसी और फ्रैंड्स के साथ रूम शेयर कर रहे थे, फिर एक दिन यहीं रोड कैफे में दोनों टकरा गए तो तब से ही साथ हैं.

जो बात इंडिया में दोनों एकदूसरे से नहीं कह पाए थे, यहां आ कर कही कि दोनों एकदूसरे को हमेशा से पसंद करते रहे हैं. अब तो दोनों बहुत आगे निकल चुके हैं. दोनों के पेरैंट्स आजकल चल रहे आपस की लङाईयां और शीतयुद्ध को विदेश में पढ़ रहे अपने बच्चों को नहीं बताते कि बेकार में क्यों उन्हें पढाई में डिस्टर्ब करना. और बच्चे तो होशियार हैं ही, हवा भी नहीं लगने दे रहे कि इंडिया में तो आमनेसामने के पड़ोसी थे, अब तो एकसाथ ही रह रहे.

अब तो रोजरोज का किस्सा हो गया. रोहित और आलोक दोनों इसी कोशिश में थे कि परेशान हो कर सामने वाला फ्लैट बदल ले पर दोनों गजब का इंतजार कर रहे थे. नित नए प्लान बन रहे थे. दरवाजों पर जो मिल्क बैग टांगा जाता है, उस में से दूध 2 की जगह एक पैकेट ही निकलता. कभी उस दूध के पैकेट में 1 छेद कर दिया जाता जिस से सारा दूध रिस कर जमीन पर फैल जाए. सीढ़ियों से उतर कर आने वाले लोग दोनों परिवारों को कोसकोस कर चले जाते. सब को पता चल गया था कि क्या क्या हो रहा है, ऐसे में मैनेजिंग कमिटी की मुश्किल बहुत बढ़ गई थी.

दोनों लोग रोज औफिस जाते और एकदूसरे की शिकायत करते. हरकतें इतनी सफाई से की जा रही थीं कि कोई सुबूत किसी को न मिलता कि किस ने क्या किया है. रोज एक से एक हरकत की जाती, गिरी से गिरी प्लानिंग होती, यहां तक कि सुधा यह जानती थी कि मीरा कौकरोच से बहुत ज्यादा डरती है, इसलिए पैसेज में घूमने वाले कौकरोच को सुधा ने एक पेपर से पकड़ कर मीरा के डोर के अंदर छोड़ दिया. मीरा का गेट खुला हुआ था, मेड काम कर रही थी, उस ने देख लिया. बस, अब तो सुबूत सामने था.

आलोक तो सीधे पुलिस स्टैशन पहुंच गए और सुधा की शिकायत कर दी, साथ में मेड को भी ले गए थे. मेड डर रही थी फिर बाद में मीरा की रिक्वैस्ट पर उन के साथ चली ही गई. थोड़ीबहुत कानूनी काररवाई हुई और रोहित और सुधा को चेतावनी देते हुए छोड़ दिया गया.

सोसाइटी में रहने वाले लोग हैरान थे. अपने फ्लैट को बड़ा करने के लिए दूसरे फ्लैट वालों को कैसे परेशान किया जा रहा था, कैसी जिद और सनक थी अब दोनों परिवारों में जो इतनी बढ़ गई कि इस की खबर लंदन तक पहुंच ही गई. सोनिका और शिविन ने अपने सिर पकड़ लिए. दोनों अपने पेरैंट्स को अलगअलग कोने में बैठ कर समझा रहे थे, मगर कोई असर नहीं हो रहा था.

सोनिका ने कहा, ”यार, अब हमारा क्या होगा?”

”डोंट वरी, हमारे पेरैंट्स बहुत गलत कर रहे हैं, इस जिद में हम तो नहीं पड़ेंगे. पता नहीं क्या फालतू हरकतें कर रहे हैं. वैसे तो अपनी तबीयत और अकेलेपन का रोना रोते रहते हैं और अब देखो, इन सब बातों की कितनी ऐनर्जी है सब में.”

मुंबई में दोनों घरों का माहौल बहुत खराब होता जा रहा था. दोनों परिवार अपनेअपने तरीके से एकदूसरे को नुकसान पहुंचा रहे थे. रात में वीडियो कौल पर सोनिका और शिविन से अब हर बात बताते. शिविन तो इकलौती संतान था, आलोक और मीरा उसी से कह कर अपना दिल हलका करते. सोनिका और शिविन का दिल उदास हो रहा था कि यह तो बड़ा बुरा हो रहा है. कहां तो दोनों सपना देख रहे थे कि दोनों परिवारों का साथ भविष्य में एकदूसरे के लिए अब और कितना बड़ा सहारा होगा, सब एकदूसरे के सुखदुख में साथ रह लेंगे.

शिविन ने बहुत गंभीर मुद्रा में कहा, ”सोनू, कोई वहां एकदूसरे को कोई बड़ा नुकसान पहुंचा दे, इस से पहले उन्हें रोकना होगा. सोच रहा हूं कि हम उन्हें अपना संबंध बता देते हैं, शायद कोई असर हो.”

”ठीक है, कोशिश कर सकते हैं, अब अपने बारे में बता ही देते हैं.’’

उसी दिन जब दोनों अपने परिवार से वीडियो कौल कर रहे थे, दोनों ने बात करतेकरते साफसाफ कहा, ”आप लोग यह झगड़ा यहीं रोक दें क्योंकि जौब मिलते ही हम दोनों शादी कर लेंगे और हम अभी भी साथ ही रह रहे हैं. बहुत सोचसमझ कर हम ने एकदूसरे को अपना जीवनसाथी चुन लिया है और हमारा फैसला बदलेगा नहीं. अब आप लोग देख लीजिए क्या करना है. हमें तो प्यार है, तो है.’’

दोनों परिवारों में जैसे सन्नाटा फैल गया, सब एकदम चुप. कोई किसी से नहीं बोला. कई दिन दोनों तरफ बहुत शांति रही. किसी ने किसी को परेशान नहीं किया. सोनिका और शिविन ने घर कोई बात नहीं की. पूरा समय दिया अपने पेरैंट्स को. मोनिका लगातार सोनिका के टच में थी, वह पूरी कोशिश कर रही थी कि दोनों परिवार झगडे खत्म कर दें.

3 दिन बाद सोनिका से बात कर रहा था परिवार. रोहित बोले, ”इंसान अपनी संतान से ही हारता है, क्या कर सकते हैं, जैसी तुम्हारी मरजी.’’

मोनिका हंस पड़ी, ”पापा, यह हारजीत नहीं है, यह प्यार है.”

उधर मीरा मुसकराती हुई शिविन से कह रही थी, ”ठीक है फिर, प्यार है तो फिर हम क्या कर सकते हैं. बात ही खत्म.

फोन रखने के बाद शिविन और सोनिका चहकते हुए एकदूसरे की बांहों में खो गए थे.

जो बीत गई सो बात गई

अपनेमोबाइल फोन की स्क्रीन पर नंबर देखते ही वसंत उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘नंदिता, तुम बैठो, वे लोग आ गए हैं, मैं अभी मिल कर आया. तुम तब तक सूप खत्म करो. बस, मैं अभी आया,’’ कह कर वसंत जल्दी से चला गया. उसे अपने बिजनैस के सिलसिले में कुछ लोगों से मिलना था. वह नंदिता को भी अपने साथ ले आया था.

वे दोनों ताज होटल में खिड़की के पास बैठे थे. सामने गेटवे औफ इंडिया और पीछे लहराता गहरा समुद्र, दूर गहरे पानी में खड़े विशाल जहाज और उन का टिमटिमाता प्रकाश. अपना सूप पीतेपीते नंदिता ने यों ही इधरउधर गरदन घुमाई तो सामने नजर पड़ते ही चम्मच उस के हाथ से छूट गया. उसे सिर्फ अपना दिल धड़कता महसूस हो रहा था और विशाल, वह भी तो अकेला बैठा उसे ही देख रहा था. नंदिता को यों लगा जैसे पूरी दुनिया में कोई नहीं सिवा उन दोनों के.

नंदिता किसी तरह हिम्मत कर के विशाल की मेज तक पहुंची और फिर स्वयं को सहज करती हुई बोली, ‘‘तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं 1 साल से मुंबई में ही हूं.’’

‘‘कहां रह रहे हो?’’

‘‘मुलुंड.’’

नंदिता ने इधरउधर देखते हुए जल्दी से कहा, ‘‘मैं तुम से फिर मिलना चाहती हूं, जल्दी से अपना नंबर दे दो.’’

‘‘अब क्यों मिलना चाहती हो?’’ विशाल ने सपाट स्वर में पूछा.

नंदिता ने उसे उदास आंखों से देखा, ‘‘अभी नंबर दो, बाद में बात करूंगी,’’ और फिर विशाल से नंबर ले कर वह फिर मिलेंगे, कहती हुई अपनी जगह आ कर बैठ गई.

विशाल भी शायद किसी की प्रतीक्षा में था. नंदिता ने देखा, कोई उस से मिलने आ गया था और वसंत भी आ गया था. बैठते ही चहका, ‘‘नंदिता, तुम्हें अकेले बैठना पड़ा सौरी. चलो, अब खाना खाते हैं.’’

पति से बात करते हुए नंदिता चोरीचोरी विशाल पर नजर डालती रही और सोचती रही अच्छा है, जो आंखों की भाषा पढ़ना मुश्किल है वरना बहुत से रहस्य खुल जाएं. नंदिता ने नोट किया विशाल ने उस पर फिर नजर नहीं डाली थी या फिर हो सकता है वह ध्यान न दे पाई हो.

आज 5 साल बाद विशाल को देख पुरानी यादें ताजा हो गई थीं. लेकिन वसंत के सामने स्वयं को सहज रखने के लिए नंदिता को काफी प्रयत्न करना पड़ा.

वे दोनों घर लौटे तो आया उन की 3 वर्षीय बेटी रिंकी को सुला चुकी थी. वसंत की मम्मी भी उन के साथ ही रहती थीं. वसंत के पिता का कुछ ही अरसा पहले देहांत हो गया था.

उमा देवी का समय रिंकी के साथ अच्छा कट जाता था और नंदिता के भी उन के साथ मधुर संबंध थे.

वसंत भी सोने लेट गया. नंदिता आंखें बंद किए लेटी रही. उस की आंखों के कोनों से आंसू निकल कर तकिए में समाते रहे. उस ने आंखें खोलीं. आंसुओं की मोटी तह आंखों में जमी थी. अतीत की बगिया से मन के आंगन में मुट्ठी भर फूल बिखेर गई विशाल की याद जिस के प्यार में कभी उस का रोमरोम पुलकित हो उठता था.

नंदिता को वे दिन याद आए जब वह अपनी सहेली रीना के घर उस के भाई विशाल से मिलती तो उन की खामोश आंखें बहुत कुछ कह जाती थीं. वे अपने मन में उपज रही प्यार की कोपलों को छिपा न सके थे और एक दिन उन्होंने एकदूसरे के सामने अपने प्रेम का इजहार कर दिया था.

लेकिन जब वसंत के मातापिता ने लखनऊ में एक विवाह में नंदिता को देखा तो देखते ही पसंद कर लिया और जब वसंत का रिश्ता आया तो आम मध्यवर्गीय नंदिता के मातापिता सुदर्शन, सफल, धनी बिजनैसमैन वसंत के रिश्ते को इनकार नहीं कर सके. उस समय नौकरी की तलाश में भटक रहे विशाल के पक्ष में नंदिता भी घर में कुछ कह नहीं पाई.

उस का वसंत से विवाह हो गया. फिर विशाल का सामना उस से नहीं हुआ, क्योंकि वह फिर मुंबई आ गई थी. रीना से भी उस का संपर्क टूट चुका था और आज 5 साल बाद विशाल को देख कर उस की सोई हुई चाहत फिर से अंगड़ाइयां लेने लगी थी.

नंदिता ने देखा वसंत और रिंकी गहरी नींद में हैं, वह चुपचाप उठी, धीरे से बाहर आ कर उस ने विशाल को फोन मिलाया. घंटी बजती रही, फिर नींद में डूबा एक नारी स्वर सुनाई दिया, ‘‘हैलो.’’

नंदिता ने चौंक कर फोन बंद कर दिया. क्या विशाल की पत्नी थी? हां, पत्नी ही होगी. नंदिता अनमनी सी हो गई. अब वह विशाल को कैसे मिल पाएगी, यह सोचते हुए वह वापस बिस्तर पर आ कर लेट गई. लेटते ही विशाल उस की जागी आंखों के सामने साकार हो उठा और बहुत चाह कर भी वह उस छवि को अपने मस्तिष्क से दूर न कर पाई.वसंत के साथ इतना समय बिताने पर भी नंदिता अब भी रात में नींद में विशाल को सपने में देखती थी कि वह उस की ओर दौड़ी चली जा रही है. उस के बाद खुले आकाश के नीचे चांदनी में नहाते हुए सारी रात वे दोनों आलिंगनबद्ध रहते. उन्हें देख प्रकृति भी स्तब्ध हो जाती. फिर उस की तंद्रा भंग हो जाती और आंखें खुलने पर वसंत उस के बराबर में होते और वह विशाल को याद करते हुए बाकी रात बिता देती.

आज तो विशाल को सामने देख कर नंदिता और बेचैन हो गई थी.

अगले दिन वसंत औफिस चला गया और रिंकी स्कूल. उमा देवी अपने कमरे में बैठी टीवी देख रही थीं. नंदिता ने फिर विशाल को फोन मिलाया. इस बार विशाल ने ही उठाया, पूछा, ‘‘क्या रात भी तुम ने फोन किया था?’’

‘‘हां, किस ने उठाया था?’’

‘‘मेरी पत्नी नीता ने.’’

पल भर को चुप रही नंदिता, फिर बोली, ‘‘विवाह कब किया?’’

‘‘2 साल पहले.’’

‘‘विशाल, मुझे अपने औफिस का पता दो, मैं तुम से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह तुम मुझ से पूछ रहे हो?’’

‘‘हां, अब क्या जरूरत है मिलने की?’’

‘‘विशाल, मैं हमेशा तुम्हें याद करती रही हूं, कभी नहीं भूली हूं. प्लीज, विशाल, मुझ से मिलो. तुम से बहुत सी बातें करनी हैं.’’

विशाल ने उसे अपने औफिस का पता बता दिया. नंदिता नहाधो कर तैयार हुई. घर में 2 मेड थीं, एक घर के काम करती थी और दूसरी रिंकी को संभालती थी. घर में पैसे की कमी तो थी नहीं, सारी सुखसुविधाएं उसे प्राप्त थीं. उमा देवी को उस ने बताया कि उस की एक पुरानी सहेली मुंबई आई हुई है. वह उस से मिलने जा रही है. नंदिता ने ड्राइवर को गाड़ी निकालने के लिए कहा. एक गाड़ी वसंत ले जाता था. एक गाड़ी और ड्राइवर वसंत ने नंदिता की सुविधा के लिए रखा हुआ था. नंदिता को विशाल के औफिस मुलुंड में जाना था. जो उस के घर बांद्रा से डेढ़ घंटे की दूरी पर था.

नंदिता सीट पर सिर टिका कर सोच में गुम थी. वह सोच रही थी कि उस के पास सब कुछ तो है, फिर वह अपने जीवन से पूर्णरूप से संतुष्ट व प्रसन्न क्यों नहीं है? उस ने हमेशा विशाल को याद किया. अब तो जीवन ऐसे ही बिताना है यही सोच कर मन को समझा लिया था. लेकिन अब उसे देखते ही उस के स्थिर जीवन में हलचल मच गई थी.

नंदिता को चपरासी ने विशाल के कैबिन में पहुंचा दिया. नंदिता उस के आकर्षक व्यक्तित्व को अपलक देखती रही. विशाल ने भी नंदिता पर एक गंभीर, औपचारिक नजर डाली. वह आज भी सुंदर और संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी.

विशाल ने उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘कहो नंदिता, क्यों मिलना था मुझ से?’’

नंदिता ने बेचैनी से कहा, ‘‘विशाल, तुम ने यहां आने के बाद मुझ से मिलने की कोशिश भी नहीं की?’’

‘‘मैं मिलना नहीं चाहता था और अब तुम भी आगे मिलने की मत सोचना. अब हमारे रास्ते बदल चुके हैं, अब उन्हीं पुरानी बातों को करने का कोई मतलब नहीं है. खैर, बताओ, तुम्हारे परिवार में कौनकौन है?’’ विशाल ने हलके मूड में पूछा.

नंदिता ने अनमने ढंग से बताया और पूछने लगी, ‘‘विशाल, क्या तुम सच में मुझ से मिलना नहीं चाहते?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्या तुम मुझ से बहुत नाराज हो?’’

‘‘नंदिता, मैं चाहता हूं तुम अपने परिवार में खुश रहो अब.’’

‘‘विशाल, सच कहती हूं, वसंत से विवाह तो कर लिया पर मैं कहां खुश रह पाई तुम्हारे बिना. मन हर समय बेचैन और व्याकुल ही तो रहा है. हर पल अनमनी और निर्विकार भाव से ही तो जीती रही. इतने सालों के वैवाहिक जीवन में मैं तुम्हें कभी नहीं भूली. मैं वसंत को कभी उस प्रकार प्रेम कर ही नहीं सकी जैसा पत्नी के दिल में पति के प्रति होना आवश्यक है. ऐसा भी नहीं कि वसंत मुझे चाहते नहीं हैं या मेरा ध्यान नहीं रखते पर न जाने क्यों मेरे मन में उन के लिए वह प्यार, वह तड़प, वह आकर्षण कभी जन्म ही नहीं ले सका, जो तुम्हारे लिए था. मैं ने अपने मन को साधने का बहुत प्रयास किया पर असफल रही. मैं उन की हर जरूरत का ध्यान रखती हूं, उन की चिंता भी रहती है और वे मेरे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण भी हैं, लेकिन तुम्हारे लिए जो…’’

उसे बीच में ही टोक कर विशाल ने कहा, ‘‘बस करो नंदिता, अब इन बातों का कोई फायदा नहीं है, तुम घर जाओ.’’

‘‘नहीं, विशाल, मेरी बात तो सुन लो.’’

विशाल असहज सा हो कर उठ खड़ा हुआ, ‘‘नंदिता, मुझे कहीं जरूरी काम से जाना है.’’

‘‘चलो, मैं छोड़ देती हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चला जाऊंगा.’’

‘‘चलो न विशाल, इस बहाने कुछ देर साथ रह लेंगे.’’

‘‘नहीं नंदिता, तुम जाओ, मुझे देर हो रही है, मैं चलता हूं,’’ कह कर विशाल कैबिन से निकल गया.

नंदिता बेचैन सी घर लौट आई. उस का किसी काम में मन नहीं लगा. नंदिता के अंदर कुछ टूट गया था, वह अपने लिए जिस प्यार और चाहत को विशाल की आंखों में देखना चाहती थी, उस का नामोनिशान भी विशाल की आंखों में दूरदूर तक नहीं था. वह सब भूल गया था, नई डगर पर चल पड़ा था.

नंदिता की हमेशा से इच्छा थी कि काश, एक बार विशाल मिल जाए और आज वह मिल गया, लेकिन अजनबीपन से और उसे इस मिलने पर कष्ट हो रहा था.

शाम को वसंत आया तो उस ने नंदिता की बेचैनी नोट की. पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है?’’

नंदिता ने बस ‘हां’ में सिर हिला दिया. रिंकी से भी अनमने ढंग से बात करती रही.

वसंत ने फिर कहा, ‘‘चलो, बाहर घूम आते हैं.’’

‘‘अभी नहीं,’’ कह कर वह चुपचाप लेट गई. सोच रही थी आज उसे क्या हो गया है, आज इतनी बेचैनी क्यों? मन में अटपटे विचार आने लगे. मन और शरीर में कोई मेल ही नहीं रहा. मन अनजान राहों पर भटकने लगा था. वसंत नंदिता का हर तरह से ध्यान रखता, उसे घूमनेफिरने की पूरी छूट थी.

अपने काम की व्यस्तता और भागदौड़ के बीच भी वह नंदिता की हर सुविधा का ध्यान रखता. लेकिन नंदिता का मन कहीं नहीं लग रहा था. उस के मन में एक अजीब सा वीरानापन भर रहा था.

कुछ दिन बाद नंदिता ने फिर विशाल को फोन कर मिलने की बात की. विशाल ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह उस से मिलना नहीं चाहता. नंदिता ने सोचा विशाल को नाराज होने का अधिकार है, जल्द ही वह उसे मना लेगी.

फिर एक दिन वह अचानक उस के औफिस के नीचे खड़ी हो कर उस का इंतजार करने लगी.

विशाल आया तो नंदिता को देख कर चौंक गया, वह गंभीर बना रहा. बोला, ‘‘अचानक यहां कैसे?’’

नंदिता ने कहा, ‘‘विशाल, कभीकभी तो हम मिल ही सकते हैं. इस में क्या बुराई है?’’

‘‘नहीं नंदिता, अब सब कुछ खत्म हो चुका है. तुम ने यह कैसे सोच लिया कि मेरा जीवन तुम्हारे अनुसार चलेगा. पहले बिना यह सोचे कि मेरा क्या होगा, चुपचाप विवाह कर लिया और आज जब मुझे भूल नहीं पाई तो मेरे जीवन में वापस आना चाहती हो. तुम्हारे लिए दूसरों की इच्छाएं, भावनाएं, मेरा स्वाभिमान, सम्मान सब महत्त्वहीन है. नहीं नंदिता, मैं और नीता अपने जीवन से बेहद खुश हैं, तुम अपने परिवार में खुश रहो.’’

‘‘विशाल, क्या हम कहीं बैठ कर बात कर सकते हैं?’’

‘‘मुझे नीता के साथ कहीं जाना है, वह आती ही होगी.’’

‘‘उस के साथ फिर कभी चले जाना, मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही थी, प्लीज…’’

नंदिता की बात खत्म होने से पहले ही पीछे से एक नारी स्वर उभरा, ‘‘फिर कभी क्यों, आज क्यों नहीं, मैं अपना परिचय खुद देती हूं, मैं हूं नीता, विशाल की पत्नी.’’

नंदिता हड़बड़ा गई. एक सुंदर, आकर्षक युवती सामने मुसकराती हुई खड़ी थी. नंदिता के मुंह से निकला, ‘‘मैं नंदिता, मैं…’’

नीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जानती हूं, विशाल ने मुझे आप के बारे में सब बता रखा है.’’

नंदिता पहले चौंकी, फिर सहज होने का प्रयत्न करती हुई बोली, ‘‘ठीक है, आप लोग अभी कहीं जा रहे हैं, फिर मिलते हैं.’’

नीता ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘नहीं नंदिता, हम फिर मिलना नहीं चाहेंगे और अच्छा होगा कि आप भी एक औरत का, एक पत्नी का, एक मां का स्वाभिमान, संस्कारों और कर्तव्यों का मान रखो. जो कुछ भी था उसे अब भूल जाओ. जो बीत गया, वह कभी वापस नहीं आ सकता, गुडबाय,’’ कहते हुए नीता आगे बढ़ी तो अब तक चुपचाप खड़े विशाल ने भी उस के पीछे कदम बढ़ा दिए.

नंदिता वहीं खड़ी की खड़ी रह गई. फिर थके कदमों से गाड़ी में बैठी तो ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

वह अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही. सोच रही थी जिस की छवि उस ने कभी अपने मन से धूमिल नहीं होने दी, उसी ने अपने जीवनप्रवाह में समयानुकूल संतुलन बनाते हुए अपने व्यस्त जीवन से उसे पूर्णतया निकाल फेंका था.

जिस रिश्ते को कभी जीवन में कोई नाम न मिल सका, उस से चिपके रहने के बदले विशाल को जीवन की सार्थकता आगे बढ़ने में ही लगी, जो उचित भी था जबकि वह आज तक उसी टूटे बिखरे रिश्ते से चिपकी थी जहां से वह विशाल से 5 साल पहले अलग हुई थी.

नंदिता अपना विश्लेषण कर रही थी, आखिरकार वह क्यों भटक रही है, उसे किस चीज की कमी है? एक सुसंस्कृत, शिक्षित और योग्य पति है जो अच्छा पिता भी है और अच्छा इंसान भी. प्यारी बेटी है, घर है, समाज में इज्जत है. सब कुछ तो है उस के पास फिर वह खुश क्यों नहीं रह सकती?

घर पहुंचतेपहुंचते नंदिता समझ चुकी थी कि वह एक मृग की भांति कस्तूरी की खुशबू बाहर तलाश रही थी, लेकिन वह तो सदा से उस के ही पास थी.

घर आने तक वह असीम शांति का अनुभव कर रही थी. अब उस के मन और मस्तिष्क में कोई दुविधा नहीं थी. उसे लगा जीवन का सफर भी कितना अजीब है, कितना कुछ घटित हो जाता है अचानक.

कभी खुशी गम में बदल जाती है तो कभी गम के बीच से खुशियों का सोता फूट पड़ता है. गाड़ी से उतरने तक उस के मन की सारी गांठें खुल गई थीं. उसे बच्चन की लिखी ‘जो बीत गई सो बात गई…’ पंक्ति अचानक याद हो आई.

बयार बदलाव की: नीला की खुशियों को किसकी नजर लग गई थी

रमन लिफ्ट से बाहर निकला, पार्किंग से गाड़ी निकाली और घर की तरफ चल दिया. वह इस समय काफी उल?ान में था. रात को 8 बजने वाले थे. वह साढ़े 8 बजे तक औफिस से घर पहुंच जाता था. घर पर नीला उस का बेसब्री से इंतजार कर रही होगी. पर उस का इस समय घर जाने का बिलकुल भी मन नहीं हो रहा था. कुछ सोच कर उस ने आगे से यूटर्न लिया और कार दूसरी सड़क पर डाल दी. थोड़ी देर बाद उस ने एक खुली जगह पर कार खड़ी की और पैदल ही समुद्र की तरफ चल दिया.

यह समुद्र का थोड़ा सूना सा किनारा था. किनारा बड़े बड़े पत्थरों से अटा पड़ा था. वह एक पत्थर पर बैठ गया और हिलोरें मारते समुद्र को एकटक निहारने लगा. समुद्र की लहरें किनारे तक आतीं और जो कुछ अपने साथ बहा कर लातीं वह सब किनारे पर पटक कर वापस लौट जातीं. वह बहुत देर तक उन मचलती लहरों को देखता रहा.

देखतेदेखते वह अपने ही खयालों में डूबने लगा. वह दुखी हो, ऐसा नहीं था. पर बहुत ही पसोपेश में था. उस के पिता का फोन आया आज औफिस में. उस के मातापिता अगले हफ्ते एक महीने के लिए उस के पास आने वाले थे. मातापिता के आने की उसे खुशी थी. वह हृदय से चाहता था कि उस के मातापिता उस के पास आएं. पर अपने विवाह के एक साल पूरा होने के बावजूद वह एक बार भी उन्हें अपने पास आने के लिए नहीं कह पाया. कारण कुछ खास भी नहीं था. न उस के मातापिता अशिक्षित या गंवार थे. न उस की पत्नी नीला कर्कश या तेज स्वभाव की थी. फिर भी वह सम?ा नहीं पा रहा था कि उस के मातापिता आधुनिकता के रंग में रंगी उस की पत्नी को किस तरह से लेंगे. यह बात सिर्फ नीला की ही नहीं, बल्कि उस की पूरी पीढ़ी की है. नीला दिल्ली में विवाह से पहले नौकरी करती थी. विवाह के बाद नौकरी छोड़ कर उस के साथ मुंबई आ गईर् थी. यहां वह दूसरी नौकरी के लिए कोशिश कर रही थी.

नीला हर तरह से अच्छी लड़की थी. कोमल स्वभाव, अच्छे विचारों व प्यार करने वाली लड़की थी. उस के मातापिता के आने से वह खुश ही होगी. लेकिन उस के संस्कारी मातापिता, खासकर उस की मम्मी, नीला की आदतों, उस के रहनसहन के तरीकों को किस तरह से लेंगे, वह सम?ा नहीं पा रहा था.

विवाह के बाद वह चंडीगढ़ अपने मातापिता के पास थोड़ेथोड़े दिनों के लिए 2 बार ही गया था. मम्मी और नीला की अधिकतर बातें फोन से ही होती थीं. मम्मी उस के स्वभाव की बहुत तारीफ करती थीं. नीला भी अपनी सास का बहुत आदर करती थी और उन को पसंद करती थी. पर यह एक महीने का सान्निध्य कहीं उन के बीच की आत्मीयता को खत्म न कर दे, वह इसी उधेड़बुन में था.

नीला देर से सो कर उठती थी. उस के औफिस जाने तक भी कभी वह उठ जाती, कभी सोई रहती थी. नाश्ते में वह सिर्फ दूध व कौर्नफ्लैक्स लेता था. इसलिए वह खुद ही खा कर नीला को दरवाजा बंद करने को कह कर औफिस चला जाता था. उसे मालूम था, नीला की नौकरी लगते ही उस की दिनचर्या बदल जाएगी. फिर उसे जल्दी उठना ही पड़ेगा. अभी शादी को समय ही कितना हुआ है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. वह सारे दिन फ्लैट में अकेली रहती है. सुबह से उठ कर क्या करेगी.

खाना बनाना भी उसे बहुत ज्यादा नहीं आता था, मतलब का ही आता था. हालांकि एक साल में वह काफी कुछ सीख गई थी पर अभी तक उन का खाना अकसर बाहर ही होता था. मम्मीपापा के आने से काम भी बढ़ेगा. नीला इतना काम कहां संभाल पाएगी और मम्मी से अपने घर का पूरा काम संभालने की उम्मीद करना गलत था. वे नीला की सहायता करें, यह तो ठीक लगता है पर… फिर कपड़े तो नीला उस के मातापिता के सामने कितने भी शालीन पहनने की कोशिश करे, उस के बावजूद उस के मातापिता को उस का पहनावा नागवार गुजर सकता है.

मम्मी की पीढ़ी ने अपने पति की बहुत देखभाल की है. हाथ में सबकुछ उपलब्ध कराया है. औफिस जाते पति की हर जरूरत के लिए उस के पीछेपीछे घूमती पत्नी की पीढ़ी वाली उस की मम्मी क्या आज की पत्नी का तौरतरीका बरदाश्त कर पाएंगी, वह सम?ा नहीं पा रहा था. नीला से अगर थोड़े दिन अपना रवैया बदलने को कहता है तो नीला उस के मातापिता के बारे में क्या सोचेगी. उन दोनों के रिश्ते औपचारिक हो जाएंगे. यह रिश्ता एकदो दिन का तो है नहीं. उस के मातापिता तो अब उस के पास आतेजाते रहेंगे.

यही सब सोच कर वह अजीब सी उधेड़बुन में था. अंधकार घना हो गया था. समुद्र की लहरें किनारे पर सिर पटकपटक कर उसे उस के विचारों से बाहर लाने का असफल प्रयास कर रही थीं. उस ने घड़ी पर नजर डाली. 10 बजने वाले थे. तभी मोबाइल बज उठा. नीला थी.

‘‘हैलो, कहां हो? अभी औफिस से नहीं निकले क्या? कितनी बार फोन किया, उठा क्यों नहीं रहे थे, ड्राइव कर रहे हो क्या?’’ नीला चिंतित स्वर में कई सवाल कर बैठी. ‘‘हां, ड्राइव कर रहा था. बस, पहुंच ही रहा हूं,’’ उस ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और उठ कर कार की तरफ चला गया.

घर पहुंच कर भी वह गुमसुम ही रहा. नीला आदत के अनुसार चुहलबाजी कर रही थी. अपनी भोलीभाली बातों से उसे रि?ाने का प्रयास कर रही थी. पर उस की चुप्पी टूट ही नहीं रही थी. ‘‘क्या बात है रमन, आज कुछ अपसैट हो. सब ठीक तो है न?’’ वह उस के घने बालों में उंगलियां फेरती हुई उस की बगल में बैठ गई. उस ने नीला की तरफ देखा. नीला मीठे स्वभाव की सरल लड़की थी. इसलिए वह उसे बहुत प्यार करता था. उस की आदतों की कोई कमी उसे नहीं अखरती थी. फिर वह देखता कि नीला ही नहीं, उस के हमउम्र दोस्तों की बीवियां भी लगभग नीला जैसी ही हैं. यह पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से बिलकुल भिन्न है.

वह प्यार से नीला को बांहों में कसता हुआ बोला, ‘‘नहीं, कोई खास बात नहीं, बल्कि एक अच्छी बात है, चंडीगढ़ से मम्मीपापा आ रहे हैं एक महीने के लिए हमारे पास.’’

सुन कर नीला खुशी से उछल पड़ी, ‘‘अरे वाह, यह तो बहुत अच्छी खबर है. एक महीने के लिए मैं भी अकेले रहने की बोरियत से बच जाऊंगी. मम्मीपापा के साथ बहुत मजा आएगा. कब आ  रहे हैं?’’‘‘अगले हफ्ते की फ्लाइट है.’’

‘‘तो इतनी देर बाद क्यों बता रहे हो? आज तो देर हो गई. कल जल्दी आना, बहुत सारी चीजें खरीदनी हैं.’’ ‘‘हां, हां, तुम लिस्ट तैयार रखना. मैं जल्दी आ जाऊंगा. फिर चलेंगे.’’ मम्मीपापा के आने के नाम से नीला खुश व उत्साहित थी. उसे तो मम्मीपापा के साथ चंडीगढ़ वाली मस्ती करनी थी. इस से अधिक वह कुछ नहीं सोच पा रही थी. रमन उस के उत्साह को मुसकराते हुए देख रहा था.

चंडीगढ़ में तो सबकुछ हाथ में मिलता है. मम्मी की तैयारियां पहले से ही अपने बच्चों के लिए इतनी संपूर्ण रहती हैं कि उन्हें बीच में परेशान नहीं होना पड़ता. खानेपीने की चीजों से फ्रिज भर देती हैं. इस के अलावा काम करने वाले भी घर के पुराने नौकर हैं, तो नीला को चम्मच हिलाने की भी जरूरत नहीं पड़ती है और न उस से थोड़े दिनों के लिए कोई ऐसी उम्मीद रखता है. उस ने खुद कुछ किया तो किया, नहीं किया तो नहीं किया. अपने प्यारे स्वभाव के कारण वह मम्मीपापा की इतनी लाड़ली है कि वे उसे पलकों पर बिठा कर रखते हैं.

नीला अपनी रौ में ढेर सारी प्लानिंग कर रही थी. रमन कुछ कह कर या उसे कुछ सम?ा कर उस की खुशी में विघ्न नहीं डालना चाहता था. इसलिए उस ने मन ही मन सोचा, जो होगा देखा जाएगा. ‘‘अब बातें ही करती रहोगी या कुछ खाने को भी दोगी. कुछ बनाया भी है या बाहर से और्डर करूं?’’ वह हंसता हुआ नीला को छेड़ता हुआ बोला.

‘‘आज तो मैं ने पास्ता बनाया है.’’ ‘‘पास्ता बनाया है? अरे, कुछ रोटीसब्जी बना देतीं. यह सब रोजरोज मु?ा से नहीं खाया जाता.’’ ‘‘पर मु?ा से रोटी अच्छी नहीं बनती है,’’ नीला मायूसी से बोली. ‘‘कोई बात नहीं,’’ वह उस के गालों को प्यार से सहलाता हुआ बोला, ‘‘अभी बाहर से और्डर कर देता हूं. मम्मी आएंगी तो इस बार तुम रोटी बनाना जरूर सीख लेना.’’

‘‘ठीक है, सीख लूंगी.’’ एक हफ्ते बाद उस के मातापिता आ गए. उन की दिल्ली से फ्लाइट थी. फ्लाइट शाम की थी. वह औफिस से जल्दी नहीं निकल पाया. नीला ही उन्हें एयरपोर्ट लेने चली गई. उस ने औफिस से मम्मीपापा से फोन पर बात कर ली. उस के मातापिता पहली बार उस के पास आए थे, इसलिए वह बहुत संतुष्टि का अनुभव कर रहा था.

शाम को वह घर पहुंचा तो नीला मम्मीपापा के साथ बातें करने में मशगूल थी. मम्मीपापा भी उस की गृहस्थी देख कर बहुत खुश थे. चारों बैठ कर बातें करने लगे. उन्हें पता ही नहीं चला कि कितना समय गुजर गया. डिनर तो आज बाहर ही कर लेंगे, उस ने सोचा, इसलिए बोला, ‘‘मम्मीपापा चलिए ड्राइव पर चलते हैं, घूम भी लेंगे और खाना भी खा कर आ जाएंगे.’’

चारों तैयार हो कर चले गए. सुबह उस का औफिस था. उस की नींद और दिनों से भी जल्दी खुल गई. उस ने एकदो बार नीला को हौले से उठाने की कोशिश की पर वह इतनी गहरी नींद में थी कि हिलडुल कर फिर सो गई. वह उठ कर मम्मीपापा के कमरे की तरफ चला गया. तभी उस ने देखा कि मम्मी किचन में गैस जलाने की कोशिश कर रही हैं. वह किचन में चला गया.

‘‘क्या कर रही हैं मम्मी?’’ ‘‘चाय बना रही थी बेटा, तू पिएगा चाय?’’ ‘‘हां, पी लूंगा.’’ ‘‘और नीला?’’ ‘‘वह तो अभी…’’ ‘‘सो रही होगी, कोई बात नहीं. जब उठेगी तब पी लेगी. हम तीनों की बना देती हूं,’’ मां के चेहरे से उसे बिलकुल भी नहीं लगा कि उन्हें नीला के देर तक सोने पर कोई आश्चर्य हो रहा है. बातें करतेकरते तीनों ने चाय खत्म की. पर दिल ही दिल में वह अनमयस्क सोच रहा था कि ‘काश, नीला भी उठ जाती.’

औफिस का समय हो रहा था. वह तैयार होने चला गया. वह रोज सुबह अपने कपड़े खुद ही प्रैस करता था. खासकर शर्ट तो रोज ही प्रैस करनी पड़ती थी. मम्मी बाथरूम में थीं. प्रैस की टेबल लौबी में लगी थी. उस ने सोचा जब तक मम्मी बाथरूम से आती हैं तब तक वह शर्ट प्रैस कर लेगा. अभी वह प्रैस कर ही रहा था कि मम्मी बाथरूम से निकल आईं.

‘‘अरे, तू प्रैस कर रहा है बेटा, ला मैं कर देती हूं.’’ ‘‘नहींनहीं मम्मी, मैं कर लूंगा,’’ वह कुछकुछ ?ोंपता हुआ सा बोला. ‘‘नहींनहीं, मैं कर देती हूं. तू तैयार हो जा और नाश्ते में क्या खाएगा?’’ ‘‘मैं तो कौर्नफ्लैक्स और दूध लेता हूं.’’ ‘‘आजकल तो कुछ और नाश्ता कर ले. कौर्नफ्लैक्स और दूध तो रोज ही लेते हो तुम दोनों. जो नीला को भी पसंद हो…’’

‘‘नीला को तो उत्तपम बहुत पसंद है. वहां अलमारी में पड़े हैं पैकेट,’’ उस के मुंह से निकला. ‘‘ठीक है, मैं उत्तपम ही बना देती हूं. मु?ो और तेरे पापा को भी बहुत पसंद है,’’ मम्मी ने हंस कर कहा. उसे लगा मम्मी ने कुछ कहा नहीं पर सोच रही होंगी कि बीवी सो रही है और वह औफिस जाने के लिए चीजों से जू?ा रहा है. पर मम्मी के चेहरे पर उसे ऐसा कोई भाव नजर नहीं आया.

उस ने तृप्ति से नाश्ता किया. तब तक नीला भी उठ गई. अपनी तरफ से तो वह भी रोज से जल्दी उठ गई थी. वह सब को बाय करता हुआ औफिस चला गया. नीला बाथरूम से फ्रैश हो कर आई तो मम्मी ने उसे भी नाश्ता पकड़ा दिया.

वह औफिस में बैठा लंच के बारे में सोच रहा था. पता नहीं घर में क्या बना होगा. उस के मातापिता तो रोज बाहर का भी नहीं खा पाएंगे. उस ने नीला को फोन किया.

‘‘हैलो,’’ नीला की सुरीली व मासूम सी आवाज सुन कर वह सबकुछ  भूल गया. ‘‘लंच में कुछ बनाया भी है या नहीं? नहीं तो बाहर से और्डर कर लो.’’ ‘‘मम्मी ने बढि़या राजमाचावल बनाए हैं और मेरी पसंद की गोभी की सब्जी भी,’’ नीला के स्वर में मां के आने का सा लाड़लापन था. इठलाते हुए बोली, ‘‘आप को भी खाना है तो घर आ जाओ.’’

‘‘नहीं, तुम ही खाओ. मैं शाम को बचा हुआ खा लूंगा,’’ वह हंसता हुआ बोला, ‘‘चाय तुम अच्छी बनाती हो. कम से कम शाम की बढि़या चाय पिला देना मम्मीपापा को,’’ जवाब में नीला भी बिना सोचेसम?ो हंस दी.

शाम को वह जल्दी घर पहुंच गया. तीनों बैठ कर चाय पी रहे थे. उस के आते ही मम्मीपापा ने नीला की बनाई चाय की तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए. वह मन ही मन मुसकरा दिया.’’ ‘‘मम्मी, नीला टमाटर का सूप भी बहुत अच्छा बनाती है. नीला, आज सूप बना कर पिला दो.’’

‘‘हां, आज मैं सूप बना दूंगी, ठीक है मम्मी?’’ ‘‘ठीक है. डिनर में क्या बनाऊं,’’ मम्मी किचन की तरफ जाती हुई बोलीं.

‘‘बाहर घूमने चलेंगे तो खाना खा कर आ जाएंगे,’’ वह बोला.‘‘नहींनहीं, कुछ तैयारी कर देती हूं. फिर घूमने जाएंगे. जब तक हम हैं,  तब तक घर का खा लो,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘हां मम्मा,’’ नीला लाड़ से मम्मी के गले में बांहें डालती हुई बोली, ‘‘आज दमआलू बना दो जैसे आप ने चंडीगढ़ में बनाए थे. सारी तैयारी मैं कर देती हूं. आप मु?ो बता दीजिए. बना आप दीजिए.’’

‘‘ठीक है, मैं अपनी गुडि़या की पसंद बनाऊंगी,’’ मम्मी प्यार से नीला की बलैयां लेती हुई बोलीं.

रमन सुखद आश्चर्य से मम्मी को देख रहा था. बदली सिर्फ उस की पीढ़ी ही नहीं है. उस के मातापिता की पीढ़ी ने भी खुद को कितना बदल लिया है.

मम्मी ने आननफानन डिनर की तैयारी की और चारों घूमने चल दिए. बाहर वह देख रहा था. नीला मम्मीपापा से ही चिपकी हुई है. कभी एक का हाथ पकड़ रही है तो कभी दूसरे का. कभीकभी तो उसे लग रहा था कि शायद मांबाप नीला के आए हैं और वह दामाद है.

नीला छोटीछोटी बातों में मम्मीपापा का बहुत ध्यान रख रही थी. घुमाते समय भी एकएक जगह के बारे में उन्हें बता रही थी और उस के मातापिता तो अपनी लाड़ली बहू पर फिदा हुए जा रहे थे.

रोज की यही दिनचर्या बीत रही थी. मम्मी ने किचन का लगभग सारा भार अपने ऊपर ले लिया था. नीला को जो कुछ बनाना आता था, वह भी पूरे मनोयोग से बना कर खिलाने की कोशिश करती. शाम को चारों घूमने निकल जाते. घर आ कर जहां नीला कपड़े बदलने में लग जाती, मम्मी किचन में पहुंच कर डिनर का बचा हुआ कार्य खत्म करतीं और फिर बैठ जातीं. तब तक नीला आती और बढि़या चाय बना कर मम्मीपापा को पिलाती. गजब का सामंजस्य था. कहीं कोई हलचल नहीं. कहीं कुछ गड़बड़ नहीं.

एक दिन उस ने पापा से नाइट क्लब  में जाने की बात कही. उस के मम्मीपापा उच्चशिक्षित थे. सहर्ष तैयार हो गए. वे तैयार होने कमरे में चले गए. वे दोनों भी तैयार होने चले गए. वह तैयार हो कर ड्राइंगरूम में बैठ गया. मम्मीपापा भी बाहर आ कर बैठ गए. थोड़ी देर बाद नीला तैयार हो कर निकली तो रमन सन्न रह गया. नीला ने घुटनों से ऊपर की स्लीवलैस लाल रंग की मिनी पहनी हुई थी.

वह घबरा कर मम्मीपापा के चेहरे देखने लगा. अभी तक की उस की ड्रैसेज को तो वे सहर्ष पचा रहे थे पर… उसे पता होता कि नीला आज क्या पहनने वाली है तो वह उसे मना कर देता. हालांकि नीला जहां जा रही थी वहां के माहौल के अनुरूप ही उस ने ड्रैस पहनी थी.

मम्मीपापा की नजर उस पर पड़ी तो दोनों मुसकरा दिए, ‘‘अरे वाह, नीला, तू तो पहचान में ही नहीं आ रही है. बहुत स्मार्ट लग रही है. किसी फिल्म की हीरोइन लग रही है,’’ पापा बोले.

‘‘हमारी बेटी किसी फिल्म हीरोइन से कम है क्या. जो भी पहनती है उस पर सबकुछ अच्छा लगता है,’’ मम्मी भी हुलस कर बोलीं.

सुन कर वह चारों खाने चित्त हो गया. उस के मम्मीपापा की सोच उस की कल्पना से बहुत आगे व आधुनिक थी. वह अपने दोस्तों के घरों की स्थितियों के बारे में सोचने लगा. जब उन की बीवियों और उन के मातापिताओं का आमनासामना होता है तो इन्हीं छोटीछोटी बातों पर उन की अपने बेटों की आधुनिक मिजाज बीवियों से, जो लाड़ली बेटियां रही हैं, खटपट मची रहती है. उन के मातापिताओं को अपनी बहुओं के देर से उठने से ले कर पहननेओढ़ने के तौरतरीकों, ठीक से खाना खाना न आना, काम करने की आदत न होना आदि तमाम बातों से शिकायतें थीं. और बहुओं को सासससुर की टोकाटाकी वह पहननेओढ़ने के बंधनों से सख्त नफरत थी. जिस में बेचारे बेटे या पति की दुर्दशा हो जाती थी.

बेटा अपनी पत्नी से प्यार करता है. वह उस की अच्छीबुरी आदतों के साथ सम?ाता करना चाहता है पर यह बात मातापिता नहीं सम?ा पाते. उन्हें अपना बेटा बेचारा लगने लगता है. वे नहीं सम?ा पाते कि बहू की बुराई या उसे नापसंद करना बेटे के हृदय को तोड़ देता है, उन के बीच के नाजुक रिश्ते, जो समय के साथ मजबूती पाया है, को कमजोर करता है. खैर, यह उन की समस्या है. उस ने सोचा, वह तो खामखां ही डर रहा था इतने दिनों से. इसलिए अपने मम्मीपापा को खुलेदिल से आने के लिए भी नहीं कह पा रहा था.

वे चारों साथ में खूब मस्ती कर रहे थे. घूमने जाते, हंसतेबोलते. हंसीमजाक से उस का छोटा सा फ्लैट हर समय गुलजार रहता. नीला को भले ही किचन का बहुत अधिक काम नहीं आता था पर उस के प्यार व उस की भावनाओं में मम्मीपापा के प्रति कहीं कमी नहीं थी. बल्कि, उन की उपस्थिति से वह उस से अधिक आनंदित हो रही थी.

धीरेधीरे मम्मीपापा के जाने का दिन करीब आ रहा था. जैसेजैसे उन के जाने का दिन करीब आ रहा था, नीला उदास होती जा रही थी. वह बराबर मम्मीपापा से मीठा ?ागड़ा करने पर तुली हुई थी.

‘‘आप वापस क्यों जा रहे हैं मम्मी, वहां क्या रखा है? आप के बच्चे तो यहां पर हैं. यहीं रहिए न.’’

‘‘फिर आएंगे बेटा. अब तुम आ जाओगे छुट्टी पर. साल में 2 बार तुम आ जाओगे, एक बार हम आ जाएंगे. मिलनाजुलना होता रहेगा,’’ पापा उसे दुलार करते हुए बोले.

‘‘लेकिन आप दोनों यहीं क्यों नहीं रह सकते हमेशा,’’ नीला लगभग रोंआसी सी हो गई.

मम्मी ने उसे सीने से लगा लिया, ‘‘हम यहीं रह गए तो तुम घर किस के पास जाओगे. अगली बार आएंगे तो ज्यादा दिन रहेंगे,’’ फिर उसे प्यार करते हुए बोली, ‘‘बहुत दिन घर भी अकेला नहीं छोड़ा जाता. तू तो हमारी लाखों में एक लाड़ली बेटी है. तेरे साथ तो हमें बहुत अच्छा लगता है.’’ पर नीला की आंखें भर आई थीं. नीला की भरी आंखें देख कर उस का हृदय भी भावुक हो रहा था. ‘‘पापा, थोड़े दिन और रुक जाइए न. मैं फ्लाइट का टिकट आगे बढ़ा देता हूं,’’ रमन बोला.

‘‘नहीं बेटा. इस बार रहने दो, अगली बार आएंगे तो घर का प्रबंध ठीक से कर के आएंगे तब ज्यादा दिन रह लेंगे.’’

मम्मीपापा के जाने का दिन आ गया. उन की शाम की फ्लाइट थी. उस दिन रविवार था. मम्मीपापा के न… न… करतेकरते भी नीला ने उन के लिए ढेर सारे गिफ्ट खरीदवाए थे. सुबह वह काफी जल्दी उठ कर मम्मीपापा के कमरे में चला गया. पापा मौर्निंग वाक पर गए हुए थे. वह मम्मी के पास जा कर बैठ गया.

‘‘मैं तेरे लिए चाय बना कर ले आती हूं,’’ मम्मी उठने का उपक्रम करती  हुई बोलीं.

‘‘नहीं मम्मी, रहने दो. मु?ो रोज चाय पीने की आदत नहीं है. बैठो आप. कल से आप कहां होंगी. इतने दिन तो पता ही नहीं चला. कब एक महीना बीत गया, बहुत अच्छा लगा आप के और पापा के आने से.’’

‘‘हमें भी तो बहुत अच्छा लगा बेटा तुम्हारे पास आने से. कितना ध्यान रखा तुम दोनों ने, कितना घुमाया, कितना खर्च किया हमारे ऊपर, इतनी सारी चीजें भी खरीद लीं.’’

‘‘कुछ नहीं किया मम्मी, फिर मातापिता को खुश करने से आशीर्वाद तो हमें ही मिलेगा.’’

‘‘कितनी प्यारी और मीठी बातें करते हो तुम दोनों,’’ मम्मी खुशी से छलक आई अपनी आंखों को पोंछती हुई बोलीं, ‘‘दिल को छू जाती हैं तुम्हारी बातें, तुम्हारी भावनाएं. खुशनसीब हैं हम कि हमारे ऐसे प्यारे बच्चे हैं. एक महीना बहुत खुशी से बीता.’’

‘‘पर आप पर काम का भार पड़ गया,’’ रमन संकोच से बोला, ‘‘दरअसल, नीला को अभी गृहस्थी का ज्यादा काम नहीं आता. धीरेधीरे सीख रही है. नौकरी करेगी तो जल्दी उठने की आदत भी पड़ जाएगी.’’

‘‘काम कोई माने नहीं रखता बेटा. नीला कोशिश करती है, आलसी नहीं है. उस से जो भी हो पाता है वह पूरा प्रयत्न करती है. कुछ कर न पाना और कुछ करना ही न चाहना, दोनों बातों में फर्क है. मुख्य तो स्वभाव होता है, भावनाओं और विचारों से यदि इंसान अच्छा है तो ये बातें कोई अहमियत नहीं रखतीं. आदतें बदल जाती हैं. काम करना आ जाता है. आजकल एकदो बच्चे होते हैं. बेटियां बहुत लाड़प्यार और संपन्नता में बड़ी होती हैं. उन के जीवन का ध्येय किचन या गृहस्थी का काम सीखना नहीं, बल्कि पढ़ाईलिखाई कर के कैरियर बनाना होता है. इसलिए विवाह होते ही उन से ऐसी उम्मीद करना गलत है.

‘‘नीला बहुत प्यारी लड़की है, उस के हृदय का पूरा प्यार और भावना हम तक पूरी की पूरी पहुंच जाती है. हम तो ऐसी बहू पा कर बहुत खुश हैं,’’ मां उस के चेहरे पर मुसकराती नजर डाल कर बोलीं, ‘‘अभी वह बच्ची है. कल को बच्चे होंगे तो कई बातों में वह खुद ही परिपक्व हो जाएगी.’’

‘‘जी मम्मी, मैं भी यही सोचता हूं.’’

‘‘और बेटा, आजकल लड़की क्या और लड़का क्या, दोनों को ही समानरूप से गृहस्थी संभालनी चाहिए. वरना लड़कियां, खासकर महानगरों में, नौकरियां कैसे करेंगी जहां नौकरों की भी सुविधा नहीं है.’’

‘‘जी मम्मी, मैं इस बात का ध्यान रखूंगा.’’

थोड़ी देर दोनों चुप रहे, फिर एकाएक रमन बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, सच बताऊं तो मैं नहीं सोच पा रहा था कि आप नीला की पीढ़ी की लड़कियों के रहनसहन की आदतों व पहननेओढ़ने के तरीकों को इतनी स्वाभाविकता से ले लेंगी, इसलिए…’’ कह कर उस ने नजरें ?ाका लीं.

‘‘इसीलिए हमें आने के लिए नहीं बोल रहा था,’’ मम्मी हंसने लगीं, ‘‘तेरे मातापिता अनपढ़ हैं क्या?’’

‘‘नहीं मम्मी, आप की पीढ़ी तो पढ़ीलिखी है. मेरे सभी दोस्तों के मातापिता उच्चशिक्षित हैं पर पता नहीं क्यों बदलना नहीं चाहते.’’

‘‘बदलाव बहुत जरूरी है बेटा. समय को बहने देना चाहिए. पकड़ कर बैठेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे? रिश्ते भी ठहर जाएंगे, दूरियां भी बढ़ेंगी…’’

‘‘यह सम?ा सब में नहीं होती मम्मी,’’ यह बोला ही था कि तभी उस के पापा आ गए. नीला भी आंखें मलतेमलते उठ कर आ गई और मम्मी की गोद में सिर रख कर गुडमुड कर लेट गई. मम्मी हंस कर प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं.

‘चलोचलो उठो, तुम्हारी नहीं, मेरी मम्मी हैं. पूरे महीने मु?ो मम्मी के पास नहीं फटकने दिया. खुद ही चिपकी रहीं,’’ छेड़ता हुआ रमन उसे धकेलने लगा. नीला और भी बांहें फैला कर मम्मी की गोद से चिपक गई. देख कर रमन हंसने लगा.

शाम को जाने की सारी तैयारी हो गई. वे दोनों मम्मीपापा को छोड़ने एयरपोर्ट चले गए. एयरपोर्ट के बाहर मम्मीपापा को छोड़ने का समय आ गया. वह दोनों को नमस्कार कर उन के गले लग गया. उस का खुद का मन भी बहुत उदास हो रहा था. पर उसे पता था वह तो कल से काम में व्यस्त हो जाएगा पर नीला को मम्मीपापा की कमी शिद्दत से महसूस होगी.

पापा से गले लग कर नीला मम्मी के गले से चिपक गई. मम्मी ने भी प्यार से उसे बांहों में भींच लिया. वह थोड़ी देर तक अलग नहीं हुई तो वह सम?ा गया कि भावुक स्वभाव की नीला रो रही है. मम्मी की आंखें भी भर आई थीं. नीला को अपने से अलग कर उस की आंखें पोंछती हुई प्यार से बोलीं, ‘‘जल्दी आएंगे बेटा. अब तुम आओ छुट्टी ले कर,’’ रमन भी पास में जा कर खड़ा हो गया. नीला के इर्दगिर्द बांहों का घेरा बनाते हुए बोला, ‘‘जी मम्मी, जल्दी ही आएंगे.’’

‘‘अच्छा बेटा,’’ मम्मीपापा ने दोनों के गाल थपके और सामान की ट्रौली धकेलते, उन्हें हाथ हिलाते हुए एयरपोर्ट के अंदर चले गए. रमन और नीला भरी आंखों से उन्हें जाते हुए देखते रहे. रमन सोच रहा था, बदलाव की बयार तो बहनी ही चाहिए चाहे वह मौसम की हो या विचारों की, तभी जीवन सुखमय होता है.

’’ मां उस के चेहरे पर मुसकराती नजर डाल कर बोलीं, ‘‘अभी वह बच्ची है. कल को बच्चे होंगे तो कई बातों में वह खुद ही परिपक्व हो जाएगी.’’

‘‘जी मम्मी, मैं भी यही सोचता हूं.’’

‘‘और बेटा, आजकल लड़की क्या और लड़का क्या, दोनों को ही समानरूप से गृहस्थी संभालनी चाहिए. वरना लड़कियां, खासकर महानगरों में, नौकरियां कैसे करेंगी जहां नौकरों की भी सुविधा नहीं है.’’

‘‘जी मम्मी, मैं इस बात का ध्यान रखूंगा.’’

थोड़ी देर दोनों चुप रहे, फिर एकाएक रमन बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, सच बताऊं तो मैं नहीं सोच पा रहा था कि आप नीला की पीढ़ी की लड़कियों के रहनसहन की आदतों व पहननेओढ़ने के तरीकों को इतनी स्वाभाविकता से ले लेंगी, इसलिए…’’ कह कर उस ने नजरें ?ाका लीं.

‘‘इसीलिए हमें आने के लिए नहीं बोल रहा था,’’ मम्मी हंसने लगीं, ‘‘तेरे मातापिता अनपढ़ हैं क्या?’’

‘‘नहीं मम्मी, आप की पीढ़ी तो पढ़ीलिखी है. मेरे सभी दोस्तों के मातापिता उच्चशिक्षित हैं पर पता नहीं क्यों बदलना नहीं चाहते.’’

‘‘बदलाव बहुत जरूरी है बेटा. समय को बहने देना चाहिए. पकड़ कर बैठेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे? रिश्ते भी ठहर जाएंगे, दूरियां भी बढ़ेंगी…’’

‘‘यह सम?ा सब में नहीं होती मम्मी,’’ यह बोला ही था कि तभी उस के पापा आ गए. नीला भी आंखें मलतेमलते उठ कर आ गई और मम्मी की गोद में सिर रख कर गुडमुड कर लेट गई. मम्मी हंस कर प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं.

‘‘चलोचलो उठो, तुम्हारी नहीं, मेरी मम्मी हैं. पूरे महीने मु?ो मम्मी के पास नहीं फटकने दिया. खुद ही चिपकी रहीं,’’ छेड़ता हुआ रमन उसे धकेलने लगा. नीला और भी बांहें फैला कर मम्मी की गोद से चिपक गई. देख कर रमन हंसने लगा.

शाम को जाने की सारी तैयारी हो गई. वे दोनों मम्मीपापा को छोड़ने एयरपोर्ट चले गए. एयरपोर्ट के बाहर मम्मीपापा को छोड़ने का समय आ गया. वह दोनों को नमस्कार कर उन के गले लग गया. उस का खुद का मन भी बहुत उदास हो रहा था. पर उसे पता था वह तो कल से काम में व्यस्त हो जाएगा पर नीला को मम्मीपापा की कमी शिद्दत से महसूस होगी.

पापा से गले लग कर नीला मम्मी के गले से चिपक गई. मम्मी ने भी प्यार से उसे बांहों में भींच लिया. वह थोड़ी देर तक अलग नहीं हुई तो वह सम?ा गया कि भावुक स्वभाव की नीला रो रही है. मम्मी की आंखें भी भर आई थीं. नीला को अपने से अलग कर उस की आंखें पोंछती हुई प्यार से बोलीं, ‘‘जल्दी आएंगे बेटा. अब तुम आओ छुट्टी ले कर,’’ रमन भी पास में जा कर खड़ा हो गया. नीला के इर्दगिर्द बांहों का घेरा बनाते हुए बोला, ‘‘जी मम्मी, जल्दी ही आएंगे.’’

‘‘अच्छा बेटा,’’ मम्मीपापा ने दोनों के गाल थपके और सामान की ट्रौली धकेलते, उन्हें हाथ हिलाते हुए एयरपोर्ट के अंदर चले गए. रमन और नीला भरी आंखों से उन्हें जाते हुए देखते रहे. रमन सोच रहा था, बदलाव की बयार तो बहनी ही चाहिए चाहे वह मौसम की हो या विचारों की, तभी जीवन सुखमय होता है.

भाभी: क्यों बरसों से अपना दर्द छिपाए बैठी थी वह

अपनी सहेली के बेटे के विवाह में शामिल हो कर पटना से पुणे लौट रही थी कि रास्ते में बनारस में रहने वाली भाभी, चाची की बहू से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. बचपन की कुछ यादों से वे इतनी जुड़ी थीं जो कि भुलाए नहीं भूल सकती. सो, बिना किसी पूर्वयोजना के, पूर्वसूचना के रास्ते में ही उतर गई. पटना में ट्रेन में बैठने के बाद ही भाभी से मिलने का मन बनाया था. घर का पता तो मुझे मालूम ही था, आखिर जन्म के बाद 19 साल मैं ने वहीं गुजारे थे. हमारा संयुक्त परिवार था. पिताजी की नौकरी के कारण बाद में हम दिल्ली आ गए थे. उस के बाद, इधर उधर से उन के बारे में सूचना मिलती रही, लेकिन मेरा कभी उन से मिलना नहीं हुआ था. आज 25 साल बाद उसी घर में जाते हुए अजीब सा लग रहा था, इतने सालों में भाभी में बहुत परिवर्तन आ गया होगा, पता नहीं हम एकदूसरे को पहचानेंगे भी या नहीं, यही सोच कर उन से मिलने की उत्सुकता बढ़ती जा  रही थी. अचानक पहुंच कर मैं उन को हैरान कर देना चाह रही थी.

स्टेशन से जब आटो ले कर घर की ओर चली तो बनारस का पूरा नक्शा ही बदला हुआ था. जो सड़कें उस जमाने में सूनी रहती थीं, उन में पैदल चलना तो संभव ही नहीं दिख रहा था. बड़ीबड़ी अट्टालिकाओं से शहर पटा पड़ा था. पहले जहां कारों की संख्या सीमित दिखाई पड़ती थी, अब उन की संख्या अनगिनत हो गई थी. घर को पहचानने में भी दिक्कत हुई. आसपास की खाली जमीन पर अस्पताल और मौल ने कब्जा कर रखा था. आखिर घूमतेघुमाते घर पहुंच ही गई.

घर के बाहर के नक्शे में कोई परिवर्तन नहीं था, इसलिए तुरंत पहचान गई. आगे क्या होगा, उस की अनुभूति से ही धड़कनें तेज होने लगीं. डोरबैल बजाई. दरवाजा खुला, सामने भाभी खड़ी थीं. बालों में बहुत सफेदी आ गई थी. लेकिन मुझे पहचानने में दिक्कत नहीं हुई. उन को देख कर मेरे चेहरे पर मुसकान तैर गई. लेकिन उन की प्रतिक्रिया से लग रहा था कि वे मुझे पहचानने की असफल कोशिश कर रही थीं. उन्हें अधिक समय दुविधा की स्थिति में न रख कर मैं ने कहा, ‘‘भाभी, मैं गीता.’’ थोड़ी देर वे सोच में पड़ गईं, फिर खुशी से बोलीं, ‘‘अरे, दीदी आप, अचानक कैसे? खबर क्यों नहीं की, मैं स्टेशन लेने आ जाती. कितने सालों बाद मिले हैं.’’

उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और हाथ पकड़ कर घर के अंदर ले गईं. अंदर का नक्शा पूरी तरह से बदला हुआ था. चाचा चाची तो कब के कालकवलित हो गए थे. 2 ननदें थीं, उन का विवाह हो चुका था. भाभी की बेटी की भी शादी हो गई थी. एक बेटा था, जो औफिस गया हुआ था. मेरे बैठते ही वे चाय बना कर ले आईं. चाय पीतेपीते मैं ने उन को भरपूर नजरों से देखा, मक्खन की तरह गोरा चेहरा अपनी चिकनाई खो कर पाषाण जैसा कठोर और भावहीन हो गया था. पथराई हुई आंखें, जैसे उन की चमक को ग्रहण लगे वर्षों बीत चुके हों. सलवटें पड़ी हुई सूती सफेद साड़ी, जैसे कभी उस ने कलफ के दर्शन ही न किए हों. कुल मिला कर उन की स्थिति उस समय से बिलकुल विपरीत थी जब वे ब्याह कर इस घर में आई थीं.

मैं उन्हें देखने में इतनी खो गई थी कि उन की क्या प्रतिक्रिया होगी, इस का ध्यान ही नहीं रहा. उन की आवाज से चौंकी, ‘‘दीदी, किस सोच में पड़ गई हैं, पहले मुझे देखा नहीं है क्या? नहा कर थोड़ा आराम कर लीजिए, ताकि रास्ते की थकान उतर जाए. फिर जी भर के बातें करेंगे.’’ चाय खत्म हो गई थी, मैं झेंप कर उठी और कपड़े निकाल कर बाथरूम में घुस गई.

शादी और सफर की थकान से सच में बदन बिलकुल निढाल हो रहा था. लेट तो गई लेकिन आंखों में नींद के स्थान पर 25 साल पुराने अतीत के पन्ने एकएक कर के आंखों के सामने तैरने लगे…

मेरे चचेरे भाई का विवाह इन्हीं भाभी से हुआ था. चाचा की पहली पत्नी से मेरा इकलौता भाई हुआ था. वह अन्य दोनों सौतेली बहनों से भिन्न था. देखने और स्वभाव दोनों में उस का अपनी बहनों से अधिक मुझ से स्नेह था क्योंकि उस की सौतेली बहनें उस से सौतेला व्यवहार करती थीं. उस की मां के गुण उन में कूटकूट कर भरे थे. मेरी मां की भी उस की सगी मां से बहुत आत्मीयता थी, इसलिए वे उस को अपने बड़े बेटे का दरजा देती थीं. उस जमाने में अधिकतर जैसे ही लड़का व्यवसाय में लगा कि उस के विवाह के लिए रिश्ते आने लगते थे. भाई एक तो बहुत मनमोहक व्यक्तित्व का मालिक था, दूसरा उस ने चाचा के व्यवसाय को भी संभाल लिया था. इसलिए जब भाभी के परिवार की ओर से विवाह का प्रस्ताव आया तो चाचा मना नहीं कर पाए. उन दिनों घर के पुरुष ही लड़की देखने जाते थे, इसलिए भाई के साथ चाचा और मेरे पापा लड़की देखने गए. उन को सब ठीक लगा और भाई ने भी अपने चेहरे के हावभाव से हां की मुहर लगा दी तो वे नेग कर के, शगुन के फल, मिठाई और उपहारों से लदे घर लौटे तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. भाई जब हम से मिलने आया तो बहुत शरमा रहा था. हमारे पूछने पर कि कैसी हैं भाभी, तो उस के मुंह से निकल गया, ‘बहुत सुंदर है.’ उस के चेहरे की लजीली खुशी देखते ही बन रही थी.

देखते ही देखते विवाह का दिन भी आ गया. उन दिनों औरतें बरात में नहीं जाया करती थीं. हम बेसब्री से भाभी के आने की प्रतीक्षा करने लगे. आखिर इंतजार की घडि़यां समाप्त हुईं और लंबा घूंघट काढ़े भाभी भाई के पीछेपीछे आ गईं. चाची ने  उन्हें औरतों के झुंड के बीचोंबीच बैठा दिया.

मुंहदिखाई की रस्मअदायगी शुरू हो गई. पहली बार ही जब उन का घूंघट उठाया गया तो मैं उन का चेहरा देखने का मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी और जब मैं ने उन्हें देखा तो मैं देखती ही रह गई उस अद्भुत सौंदर्य की स्वामिनी को. मक्खन सा झक सफेद रंग, बेदाग और लावण्यपूर्ण चेहरा, आंखों में हजार सपने लिए सपनीली आंखें, चौड़ा माथा, कालेघने बालों का बड़ा सा जूड़ा तथा खुशी से उन का चेहरा और भी दपदपा रहा था.

वे कुल मिला कर किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थीं. सभी औरतें आपस में उन की सुंदरता की चर्चा करने लगीं. भाई विजयी मुसकान के साथ इधरउधर घूम रहा था. इस से पहले उसे कभी इतना खुश नहीं देखा था. उस को देख कर हम ने सोचा, मां तो जन्म देते ही दुनिया से विदा हो गई थीं, चलो कम से कम अपनी पत्नी का तो वह सुख देखेगा.

विवाह के समय भाभी मात्र 16 साल की थीं. मेरी हमउम्र. चाची को उन का रूप फूटी आंखों नहीं सुहाया क्योंकि अपनी बदसूरती को ले कर वे हमेशा कुंठित रहती थीं. अपना आक्रोश जबतब भाभी के क्रियाकलापों में मीनमेख निकाल कर शांत करती थीं. कभी कोई उन के रूप की प्रशंसा करता तो छूटते ही बोले बिना नहीं रहती थीं, ‘रूप के साथ थोड़े गुण भी तो होने चाहिए थे, किसी काम के योग्य नहीं है.’

दोनों ननदें भी कटाक्ष करने में नहीं चूकती थीं. बेचारी चुपचाप सब सुन लेती थीं. लेकिन उस की भरपाई भाई से हो जाती थी. हम भी मूकदर्शक बने सब देखते रहते थे.

कभीकभी भाभी मेरे व मां के पास आ कर अपना मन हलका कर लेती थीं. लेकिन मां भी असहाय थीं क्योंकि चाची के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी.

मैं मन ही मन सोचती, मेरी हमउम्र भाभी और मेरे जीवन में कितना अंतर है. शादी के बाद ऐसा जीवन जीने से तो कुंआरा रहना ही अच्छा है. मेरे पिता पढ़ेलिखे होने के कारण आधुनिक विचारधारा के थे. इतनी कम उम्र में मैं अपने विवाह की कल्पना नहीं कर सकती थी. भाभी के पिता के लिए लगता है, उन के रूप की सुरक्षा करना कठिन हो गया था, जो बेटी का विवाह कर के अपने कर्तव्यों से उन्होंने छुटकारा पा लिया. भाभी ने 8वीं की परीक्षा दी ही थी अभी. उन की सपनीली आंखों में आंसू भरे रहते थे अब, चेहरे की चमक भी फीकी पड़ गई थी.

विवाह को अभी 3 महीने भी नहीं बीते होंगे कि भाभी गर्भवती हो गईं. मेरी भोली भाभी, जो स्वयं एक बच्ची थीं, अचानक अपने मां बनने की खबर सुन कर हक्कीबक्की रह गईं और आंखों में आंसू उमड़ आए. अभी तो वे विवाह का अर्थ भी अच्छी तरह समझ नहीं पाई थीं. वे रिश्तों को ही पहचानने में लगी हुई थीं, मातृत्व का बोझ कैसे वहन करेंगी. लेकिन परिस्थितियां सबकुछ सिखा देती हैं. उन्होंने भी स्थिति से समझौता कर लिया. भाई पितृत्व के लिए मानसिक रूप से तैयार तो हो गया, लेकिन उस के चेहरे पर अपराधभावना साफ झलकती थी कि जागरूकता की कमी होने के कारण भाभी को इस स्थिति में लाने का दोषी वही है. मेरी मां कभीकभी भाभी से पूछ कर कि उन्हें क्या पसंद है, बना कर चुपचाप उन के कमरे में पहुंचा देती थीं. बाकी किसी को तो उन से कोई हमदर्दी न थी.

प्रसव का समय आ पहुंचा. भाभी ने चांद सी बेटी को जन्म दिया. नन्हीं परी को देख कर, वे अपना सारा दुखदर्द भूल गईं और मैं तो खुशी से नाचने लगी. लेकिन यह क्या, बाकी लोगों के चेहरों पर लड़की पैदा होने की खबर सुन कर मातम छा गया था. भाभी की ननदें और चाची सभी तो स्त्री हैं और उन की अपनी भी तो 2 बेटियां ही हैं, फिर ऐसा क्यों? मेरी समझ से परे की बात थी. लेकिन एक बात तो तय थी कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है. मेरे जन्म पर तो मेरे पिताजी ने शहरभर में लड्डू बांटे थे. कितना अंतर था मेरे चाचा और पिताजी में. वे केवल एक साल ही तो छोटे थे उन से. एक ही मां से पैदा हुए दोनों. लेकिन पढ़ेलिखे होने के कारण दोनों की सोच में जमीनआसमान का अंतर था.

मातृत्व से गौरवान्वित हो कर भाभी और भी सुडौल व सुंदर दिखने लगी थीं. बेटी तो जैसे उन को मन बहलाने का खिलौना मिल गई थी. कई बार तो वे उसे खिलातेखिलाते गुनगुनाने लगती थीं. अब उन के ऊपर किसी के तानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. मां बनते ही औरत कितनी आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से पूर्ण हो जाती है, उस का उदाहरण भाभी के रूप में मेरे सामने था. अब वे अपने प्रति गलत व्यवहार की प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध भी करने लगी थीं. इस में मेरे भाई का भी सहयोग था, जिस से हमें बहुत सुखद अनुभूति होती थी.

इसी तरह समय बीतने लगा और भाभी की बेटी 3 साल की हो गई तो फिर से उन के गर्भवती होने का पता चला और इस बार भाभी की प्रतिक्रिया पिछली बार से एकदम विपरीत थी. परिस्थितियों ने और समय ने उन को काफी परिपक्व बना दिया था.

गर्भ को 7 महीने बीत गए और अचानक हृदयविदारक सूचना मिली कि भाई की घर लौटते हुए सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. यह अनहोनी सुन कर सभी लोग स्तंभित रह गए. कोई भाभी को मनहूस बता रहा था तो कोई अजन्मे बच्चे को कोस रहा था कि पैदा होने से पहले ही बाप को खा गया. यह किसी ने नहीं सोचा कि पतिविहीन भाभी और बाप के बिना बच्चे की जिंदगी में कितना अंधेरा हो गया है. उन से किसी को सहानुभूति नहीं थी.

समाज का यह रूप देख कर मैं कांप उठी और सोच में पड़ गई कि यदि भाई कमउम्र लिखवा कर लाए हैं या किसी की गलती से दुर्घटना में वे मारे गए हैं तो इस में भाभी का क्या दोष? इस दोष से पुरुष जाति क्यों वंचित रहती है?

एकएक कर के उन के सारे सुहाग चिह्न धोपोंछ दिए गए. उन के सुंदर कोमल हाथ, जो हर समय मीनाकारी वाली चूडि़यों से सजे रहते थे, वे खाली कर दिए गए. उन्हें सफेद साड़ी पहनने को दी गई. भाभी के विवाह की कुछ साडि़यों की तो अभी तह भी नहीं खुल पाई थी. वे तो जैसे पत्थर सी बेजान हो गई थीं. और जड़वत सभी क्रियाकलापों को निशब्द देखती रहीं. वे स्वीकार ही नहीं कर पा रही थीं कि उन की दुनिया उजड़ चुकी थी.

एक भाई ही तो थे जिन के कारण वे सबकुछ सह कर भी खुश रहती थीं. उन के बिना वे कैसे जीवित रहेंगी? मेरा हृदय तो चीत्कार करने लगा कि भाभी की ऐसी दशा क्यों की जा रही थी. उन का कुसूर क्या था? पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष पर न तो लांछन लगाए जाते हैं, न ही उन के स्वरूप में कोई बदलाव आता है. भाभी के मायके वाले भाई की तेरहवीं पर आए और उन्हें साथ ले गए कि वे यहां के वातावरण में भाई को याद कर के तनाव में और दुखी रहेंगी, जिस से आने वाले बच्चे और भाभी के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा. सब ने सहर्ष उन को भेज दिया यह सोच कर कि जिम्मेदारी से मुक्ति मिली. कुछ दिनों बाद उन के पिताजी का पत्र आया कि वे भाभी का प्रसव वहीं करवाना चाहते हैं. किसी ने कोई एतराज नहीं किया. और फिर यह खबर आई कि भाभी के बेटा हुआ है.

हमारे यहां से उन को बुलाने का कोई संकेत दिखाई नहीं पड़ रहा था. लेकिन उन्होंने बुलावे का इंतजार नहीं किया और बेटे के 2 महीने का होते ही अपने भाई के साथ वापस आ गईं. कितना बदल गई थीं भाभी, सफेद साड़ी में लिपटी हुई, सूना माथा, हाथ में सोने की एकएक चूड़ी, बस. उन्होंने हमें बताया कि उन के मातापिता उन को आने नहीं दे रहे थे कि जब उस का पति ही नहीं रहा तो वहां जा कर क्या करेगी लेकिन वे नहीं मानीं. उन्होंने सोचा कि वे अपने मांबाप पर बोझ नहीं बनेंगी और जिस घर में ब्याह कर गई हैं, वहीं से उन की अर्थी उठेगी.

मैं ने मन में सोचा, जाने किस मिट्टी की बनी हैं वे. परिस्थितियों ने उन्हें कितना दृढ़निश्चयी और सहनशील बना दिया है. समय बीतते हुए मैं ने पाया कि उन का पहले वाला आत्मसम्मान समाप्त हो चुका है. अंदर से जैसे वे टूट गई थीं. जिस डाली का सहारा था, जब वह ही नहीं रही तो वे किस के सहारे हिम्मत रखतीं. उन को परिस्थितियों से समझौता करने के अतिरिक्त कोई चारा दिखाई नहीं पड़ रहा था. फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया था. सारा दिन सब की सेवा में लगी रहती थीं.

उन की ननद का विवाह तय हो गया और तारीख भी निश्चित हो गई थी. लेकिन किसी भी शुभकार्य के संपन्न होते समय वे कमरे में बंद हो जाती थीं. लोगों का कहना था कि वे विधवा हैं, इसलिए उन की परछाईं भी नहीं पड़नी चाहिए. यह औरतों के लिए विडंबना ही तो है कि बिना कुसूर के हमारा समाज विधवा के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखता है. उन के दूसरे विवाह के बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात थी. उन की हर गतिविधि पर तीखी आलोचना होती थी. जबकि चाचा का दूसरा विवाह, चाची के जाने के बाद एक साल के अंदर ही कर दिया गया. लड़का, लड़की दोनों मां के कोख से पैदा होते हैं, फिर समाज की यह दोहरी मानसिकता देख कर मेरा मन आक्रोश से भर जाता था, लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी.

मेरे पिताजी पुश्तैनी व्यवसाय छोड़ कर दिल्ली में नौकरी करने का मन बना रहे थे. भाभी को जब पता चला तो वे फूटफूट कर रोईं. मेरा तो बिलकुल मन नहीं था उन से इतनी दूर जाने का, लेकिन मेरे न चाहने से क्या होना था और हम दिल्ली चले गए. वहां मैं ने 2 साल में एमए पास किया और मेरा विवाह हो गया. उस के बाद भाभी से कभी संपर्क ही नहीं हुआ. ससुराल वालों का कहना था कि विवाह के बाद जब तक मायके के रिश्तेदारों का निमंत्रण नहीं आता तब तक वे नहीं जातीं. मेरा अपनी चाची  से ऐसी उम्मीद करना बेमानी था. ये सब सोचतेसोचते कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

‘‘उठो दीदी, सांझ पड़े नहीं सोते. चाय तैयार है,’’ भाभी की आवाज से मेरी नींद खुली और मैं उठ कर बैठ गई. पुरानी बातें याद करतेकरते सोने के बाद सिर भारी हो रहा था, चाय पीने से थोड़ा आराम मिला. भाभी का बेटा, प्रतीक भी औफिस से आ गया था. मेरी दृष्टि उस पर टिक गई, बिलकुल भाई पर गया था. उसी की तरह मनमोहक व्यक्तित्व का स्वामी, उसी तरह बोलती आंखें और गोरा रंग.

इतने वर्षों बाद मिली थी भाभी से, समझ ही नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूं. समय कितना बीत गया था, उन का बेटा सालभर का भी नहीं था जब हम बिछुड़े थे. आज इतना बड़ा हो गया है. पूछना चाह रही थी उन से कि इतने अंतराल तक उन का वक्त कैसे बीता, बहुतकुछ तो उन के बाहरी आवरण ने बता दिया था कि वे उसी में जी रही हैं, जिस में मैं उन को छोड़ कर गई थी. इस से पहले कि मैं बातों का सिलसिला शुरू करूं, भाभी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दामादजी क्यों नहीं आए? क्या नाम है बेटी का? क्या कर रही है आजकल? उसे क्यों नहीं लाईं?’’ इतने सारे प्रश्न उन्होंने एकसाथ पूछ डाले.

मैं ने सिलसिलेवार उत्तर दिया, ‘‘इन को तो अपने काम से फुरसत नहीं है. मीनू के इम्तिहान चल रहे थे, इसलिए भी इन का आना नहीं हुआ. वैसे भी, मेरी सहेली के बेटे की शादी थी, इन का आना जरूरी भी नहीं था. और भाभी, आप कैसी हो? इतने साल मिले नहीं, लेकिन आप की याद बराबर आती रही. आप की बेटी के विवाह में भी चाची ने नहीं बुलाया. मेरा बहुत मन था आने का, कैसी है वह?’’ मैं ने सोचने में और समय बरबाद न करते हुए पूछा.

‘‘क्या करती मैं, अपनी बेटी की शादी में भी औरों पर आश्रित थी. मैं चाहती तो बहुत थी…’’ कह कर वे शून्य में खो गईं.’’

‘‘चलो, अब चाचाचाची तो रहे नहीं, प्रतीक के विवाह में आप नहीं बुलाएंगी तो भी आऊंगी. अब तो विवाह के लायक वह भी हो गया है.’’

‘‘मैं भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाह रही हूं,’’ उन्होंने संक्षिप्त उत्तर देते हुए लंबी सांस ली.

‘‘एक बात पूछूं, भाभी, आप को भाई की याद तो बहुत आती होगी?’’ मैं ने सकुचाते हुए उन्हें टटोला.

‘‘हां दीदी, लेकिन यादों के सहारे कब तक जी सकते हैं. जीवन की कड़वी सचाइयां यादों के सहारे तो नहीं झेली जातीं. अकेली औरत का जीवन कितना दूभर होता है. बिना किसी के सहारे के जीना भी तो बहुत कठिन है. वे तो चले गए लेकिन मुझे तो सारी जिम्मेदारी अकेले संभालनी पड़ी. अंदर से रोती थी और बच्चों के सामने हंसती थी कि उन का मन दुखी न हो. वे अपने को अनाथ न समझें,’’ एक सांस में वे बोलीं, जैसे उन्हें कोई अपना मिला, दिल हलका करने के लिए.

‘‘हां भाभी, आप सही हैं, जब भी ये औफिस टूर पर चले जाते हैं तब अपने को असहाय महसूस करती हूं मैं भी. एक बात पूछूं, बुरा तो नहीं मानेंगी? कभी आप को किसी पुरुषसाथी की आवश्यकता नहीं पड़ी?’’ मेरी हिम्मत उन की बातों से बढ़ गई थी.

‘‘क्या बताऊं दीदी, जब मन बहुत उदास होता था तो लगता था किसी के कंधे पर सिर रख कर खूब रोऊं और वह कंधा पुरुष का हो तभी हम सुरक्षित महसूस कर सकते हैं. उस के बिना औरत बहुत अकेली है,’’ उन्होंने बिना संकोच के कहा.

‘‘आप ने कभी दूसरे विवाह के बारे में नहीं सोचा?’’ मेरी हिम्मत बढ़ती जा रही थी.

‘‘कुछ सोचते हुए वे बोलीं,  ‘‘क्यों नहीं दीदी, पुरुषों की तरह औरतों की भी तो तन की भूख होती है बल्कि उन को तो मानसिक, आर्थिक सहारे के साथसाथ सामाजिक सुरक्षा की भी बहुत जरूरत होती है. मेरी उम्र ही क्या थी उस समय. लेकिन जब मैं पढ़ीलिखी न होने के कारण आर्थिक रूप से दूसरों पर आश्रित थी तो कर भी क्या सकती थी. इसीलिए मैं ने सब के विरुद्ध हो कर, अपने गहने बेच कर आस्था को पढ़ाया, जिस से वह आत्मनिर्भर हो कर अपने निर्णय स्वयं ले सके. समय का कुछ भी भरोसा नहीं, कब करवट बदले.’’

उन का बेबाक उत्तर सुन कर मैं अचंभित रह गई और मेरा मन करुणा से भर आया, सच में जिस उम्र में वे विधवा हुई थीं उस उम्र में तो आजकल कोई विवाह के बारे में सोचता भी नहीं है. उन्होंने इतना समय अपनी इच्छाओं का दमन कर के कैसे काटा होगा, सोच कर ही मैं सिहर उठी थी.

‘‘हां भाभी, आजकल तो पति की मृत्यु के बाद भी उन के बाहरी आवरण में और क्रियाकलापों में विशेष परिवर्तन नहीं आता और पुनर्विवाह में भी कोई अड़चन नहीं डालता, पढ़ीलिखी होने के कारण आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ जीती हैं, होना भी यही चाहिए, आखिर उन को किस गलती की सजा दी जाए.’’

‘‘बस, अब तो मैं थक गई हूं. मुझे अकेली देख कर लोग वासनाभरी नजरों से देखते हैं. कुछ अपने खास रिश्तेदारों के भी मैं ने असली चेहरे देख लिए तुम्हारे भाई के जाने के बाद. अब तो प्रतीक के विवाह के बाद मैं संसार से मुक्ति पाना चाहती हूं,’’ कहतेकहते भाभी की आंखों से आंसू बहने लगे. समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा न करने के लिए कह कर उन का दुख बढ़ाऊंगी या सांत्वना दूंगी, मैं शब्दहीन उन से लिपट गई और वे अपना दुख आंसुओं के सहारे हलका करती रहीं. ऐसा लग रहा था कि बरसों से रुके हुए आंसू मेरे कंधे का सहारा पा कर निर्बाध गति से बह रहे थे और मैं ने भी उन के आंसू बहने दिए.

अगले दिन ही मुझे लौटना था, भाभी से जल्दी ही मिलने का तथा अधिक दिन उन के साथ रहने का वादा कर के मैं भारी मन से ट्रेन में बैठ गई. वे प्रतीक के साथ मुझे छोड़ने के लिए स्टेशन आई थीं. ट्रेन के दरवाजे पर खड़े हो कर हाथ हिलाते हुए, उन के चेहरे की चमक देख कर मुझे सुकून मिला कि चलो, मैं ने उन से मिल कर उन के मन का बोझ तो हलका किया.

असंभव: क्या पति को छोड़ने वाली सुप्रिया को मिला परिवार का साथ

सुप्रिया की शादी बुरी तरह असफल रही. पति बेहद नशेड़ी, उसे बहुत मारतापीटता था. मातापिता के घर के दरवाजे उस के लिए एक प्रकार से बंद थे इसीलिए पति से तंग आ कर घर छोड़ अकेली रहने लगी.

उसी के दफ्तर में काम करने वाले हेमंत से धीरेधीरे सुप्रिया की नजदीकियां बढ़ने लगीं. शादीशुदा हेमंत की पत्नी अत्यंत शंकालु थी. उस पर पत्नी का आतंक छाया रहता था. हेमंत के सुप्रिया के घर आनेजाने से महल्ले वाले सुप्रिया को अच्छी नजरों से नहीं देखते थे. उस को लगा वह कीचड़ से निकल कर दलदल में आ गई है.

बहुत सोचसमझ कर हेमंत से सारे संबंध समाप्त कर वह दूसरे महल्ले में आ जाती है. तनाव से मुक्ति पाने के लिए रोजसुबह सैर को जाती है. एक रोज उस का परिचय तनय नामके व्यक्तिसे होता है. वह योग शिक्षक तथा 2 बच्चों का पिता था. दार्शनिकलहजे में बातें करता तनय सुप्रिया को साफ दिल का इनसान लगता है.

यह सुन कर सुप्रिया एकाएक गंभीर हो गई. आदमी हमेशा अपनी पत्नी को ही क्यों दोषी ठहराता है जबकि दोष पतियों का भी कम नहीं होता.

‘‘हर इनसान सिर्फ अपने ही तर्कों से सहमत हुआ करता है मैडम…’’ तनय बोले तो वह मुसकरा दी, ‘‘अपना परिचय आप को दे दूं. मेरा नाम सुप्रिया है. मैं इस कालोनी के फ्लैट नंबर 13 में रहती हूं. लोगों के लिए फ्लैट का नंबर मनहूस था इसलिए मुझे आसानी से मिल गया. फ्लैट लेते समय मुझे लगा कि आदमी को जिस जगह रहते हुए सब से ज्यादा डर लगे, सब से ज्यादा खतरा महसूस हो, वहां जरूर रहना चाहिए. जिंदगी का असली थ्रिल, असली जोखिम शायद इसी में हो.’’

इस पर तनय ने हंसते हुए कहा, ‘‘और आप उस फ्लैट में अकेली रहती हैं क्योंकि पति से आप ने अलग रहने का फैसला कर लिया है. एक और विवाहित व्यक्ति के चक्कर में आप ने अपने को उस महल्ले में खासा बदनाम कर लिया जिस में आप पहले रहती थीं. अब आप उस सारे अतीत से पीछा छुड़ाने के लिए इस नए महल्ले के नए फ्लैट नंबर 13 में आ गई हैं, और यहां सुबह घूम कर ताजा हवा में अपने गम गलत करने का प्रयत्न कर रही हैं.’’

‘‘आप को यह सबकुछ कैसे पता?’’ चौंक गई सुप्रिया.

‘‘चौंकिए मत. मेरी इस सारी जानकारी से आप को कोई नुकसान नहीं होने वाला क्योंकि मैं कभी किसी के जीवन की बातें इधर से उधर नहीं करता. आप से यह बातें कह दीं क्योंकि आप को यह बताना चाहता था कि मैं आप के बारे में बहुत कुछ जानता हूं. असल में हेमंतजी मेरी योग कक्षा के छात्र रहे हैं. एक बार उन्होंने अपने तनावों के बारे में सब बताया था, वे दो नावों पर सवार थे, डूबना तो था ही. उन्हें पता है कि आप यहां फ्लैट नंबर 13 में रहती हैं पर मैं ने उन से कह दिया है कि अपना भला चाहते हो तो आप का पीछा न करें.’’

‘‘लेकिन आदमी बहुत स्वार्थी होता है, सर, वह हर काम अपने स्वार्थ के वशीभूत हो कर करता है. क्या आप के समझाने से उस की समझ में आया होगा?’’

‘‘मेरा फर्ज था उन्हें समझाना. समझ जाएंगे तो उन के हित में रहेगा, वरना अपने किए कर्मों का दंड वह जरूर भोगेंगे.’’

‘‘आप सचमुच बहुत समझदार और भले व्यक्ति हैं,’’ सुप्रिया ने ऊपर से नीचे तक देखते हुए तनय की मुक्तकंठ से प्रशंसा की.

अब सुबह की सैर के समय तनयजी से हर रोज सुप्रिया की मुलाकात होने लगी. ढेरों बातें, हंसी, ठहाके, खुश रहना, बातचीत करना, फिर उस ने अनुभव किया कि जिस दिन वह नहीं जा पाती या तनय से मुलाकात नहीं हो पाती उस दिन उसे लगता था जैसे जिंदगी में कुछ है जो छूट गया है. वह अपनी इस मानसिक स्थिति के बारे में बहुत सोचती थी पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाती.

सुप्रिया को अपना जन्मदिन याद नहीं था, पर उस दिन उसे अचरज हुआ जब ताजे गुलाबों का एक गुलदस्ता ले कर तनय उस के फ्लैट पर आ कर जन्मदिन की मुबारकबाद देते हुए बोले, ‘‘तुम ने तो नहीं बुलाया पर मुझे लगा कि मुझे तुम्हारे पास आज के दिन आना ही चाहिए.’’

‘‘धन्यवाद, सर,’’ खिल सी गई सुप्रिया, ‘‘दरअसल जिंदगी की उलझनों में मैं अपने जन्मदिन को ही याद नहीं रख पाई. आप गुलाबों के साथ आए तो याद  आया कि आज के दिन मैं पैदा हुई थी.

‘‘भीतर आइए न, सर, दरवाजे पर तो अजनबी खड़े रहते हैं. आप अब मेरे लिए अपरिचित और अजनबी नहीं हैं.’’

‘‘अपना मार्कट्वेन का वाक्य तुम भूल गईं क्या?’’ और ठहाका लगा कर हंसे तनयजी. फिर संभल कर बोले, ‘‘मैं यहां बैठने नहीं, आप को आमंत्रित करने आया हूं. मैं चाहता हूं कि आप आज मेरे घर चलें और मेरी पाक कला का जायजा व जायका लें.’’

अपना फ्लैट बंद कर जब सुप्रिया तनयजी के साथ बाहर निकली तो शाम पूरी तरह घिर आई थी. सड़क पर बत्तियां जल गई थीं.

रास्ते में तनयजी खामोशी को तोड़ते हुए बोले, ‘‘जानती हो सुप्रिया, प्रेम के अनेक रूप होते हैं. आदमी ऐसी हजार चीजें गिना सकता है जिन के बारे में वह कह सकता है कि यह प्यार नहीं है पर प्यार किसे कहते हैं, ऐसी वह एक भी बात नहीं गिना सकता.’’

सुप्रिया ने एक बार भर नजर तनयजी की तरफ देखा और सोचने लगी, क्या हर आदमी औरत से सिर्फ एक ही मतलब साधने की फिराक में रहता है? संदेह के कैक्टस उस की आंखों में शायद तनय ने साफ देख लिए थे. अत: गंभीर ही बने रहे.

‘‘आप मेरे बारे में कतई गलत सोच रही हैं. मैं ने आप को पहले ही बताया था कि मैं लोगों के चेहरे के भाव पढ़ने में माहिर हूं. असल में हर अकेला आदमी दूसरे लोगों में अपनी जगह तलाशता है पर मैं इस तरह अपने अकेलेपन को भरने का प्रयत्न करता रहता हूं. इसीलिए मैं ने कहा था कि प्रेम और मनुष्य के अनेक रूप होते हैं.’’

‘‘माफ करें मुझे,’’ सुप्रिया ने क्षमा मांगी, ‘‘असल में दूध का जला व्यक्ति छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. एक बार ठगी गई औरत दोबारा नहीं ठगी जाना चाहती.’’

‘‘जानती हो सुप्रिया, प्रेम का एक और रूप है. दूसरों के जीवन में अपनेआप को खोजना, अपने महत्त्व को तलाशना, मुझे नहीं पता कि मैं तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण हो पाया हूं या नहीं पर मेरे लिए तुम एक महत्त्वपूर्ण महिला हो. इसलिए कि मुझे सुबह तुम से मिल कर अच्छा लगता है, बातें करने का मन होता है क्योंकि तुम अच्छी तरह सोचतीसमझती हो, शायद इसलिए कि अपनी इस छोटी सी जिंदगी में तुम ने बहुत कुछ सहा है.

‘‘जिंदगी की तकलीफें इनसान को सब से ज्यादा शिक्षित करती हैं और उसे सब से ज्यादा सीख भी देती हैं. शायद इसीलिए तुम समझदार हो और समझदार से समझदार को बातचीत करना हमेशा अच्छा लगता है.’’

‘‘क्या करते हैं हम ऐसी कोशिश. क्या बता सकते हैं आप?’’ अपने सवाल का भी वह शायद उत्तर तलाशने लगी थी तनय के तर्कों में.

‘‘क्योंकि हर व्यक्ति की जिंदगी में कुछ न कुछ गड़बड़, अभाव, कमी और अनचाहा होता रहता है जिसे वह दूसरों की सहायता से भरना चाहता है.’’

‘‘पर आप को नहीं लगता कि ऐसी कोशिशें बेकार जाती हैं,’’ सुप्रिया बोली, ‘‘यह सब असंभव होता है, दूसरे उस अभाव को, उस कमी को, उस गड़बड़ी को कभी ठीक नहीं कर सकते, न भर सकते हैं.’’

आगे कुछ न कह सकी वह क्योंकि तनय अपने फ्लैट का फाटक खोल कर उसे अंदर चलने का इशारा कर रहे थे. भीतर घर में दोनों बच्चों को खाने की मेज पर उन की प्रतीक्षा करते पाया तो सुप्रिया को अच्छा लगा. बेटे रोमेश ने कुरसी से उठ कर सुप्रिया का स्वागत किया और अपना नाम एवं कक्षा बताई पर बेटी रूपाली खड़ी नहीं हुई, उस का चेहरा तना हुआ था और आंखों

में संदेह व आक्रोश का मिलाजुला

भाव था.

‘‘हैलो, रूपाली,’’ सुप्रिया ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ाया पर उस ने हाथ नहीं मिलाया. वह तनी बैठी रही. तनय ने उस की ओर कठोर नजरों से देखा, पर कहा कुछ नहीं.

जिस हंसीखुशी के मूड में वे लोग यहां पहुंचे थे वैसा खुशनुमा वातावरण वहां नहीं था, फिर भी औपचारिक बातों के बीच उन लोगों ने खाना

खाया था. विस्तृत परिचय हुआ था. सुप्रिया ने भी अपने फ्लैट का नंबर आदि बता दिया था और यह भी कहा था, ‘‘आप लोग जब चाहें, शाम को आ सकते हैं. मैं अकेली रहती हूं. आप लोगों को अपने फ्लैट में पा कर प्रसन्न होऊंगी.’’

रूपाली शायद कहना चाहती थी, क्यों? क्यों होंगी आप प्रसन्न? क्या हम दूसरों के मनोरंजन के साधन हैं? उस ने यह बात कही तो नहीं, पर उस के चेहरे के तनाव से सुप्रिया को यही लगा.

दरवाजे की घंटी बजी तो सुप्रिया ने सोचा, शायद तनयजी होंगे. दरवाजा खोला तो अपने सामने रूपाली को खड़ा देखा. चेहरा उसी तरह तना हुआ. आंखों में वही नफरत के भाव.

‘‘आप मेरे घर क्यों आई थीं, मैं यह अच्छी तरह से जान गई हूं,’’ वह उसी तरह गुस्से में बोली.

‘‘आप मुझ से सिर्फ यही कहने नहीं आई हैं,’’ सुप्रिया संभल कर मुसकराई, ‘‘पहले गुस्सा थूको और आराम से मेरे कमरे में बैठो. फिर पूछो कि क्यों आई थी मैं आप के घर…’’

‘‘मुझे ऐसी हर औरत पर गुस्सा आता है जो मेरे पापा पर कब्जा करना चाहती है. एक आंटीजी पहले भी थीं, मैं ने उन्हें अपमानित और जलील कर भगा दिया. हालांकि पापा मेरे इस व्यवहार से मुझ से नाराज हुए थे पर मुझे कतई अच्छा नहीं लगता कि

कोई औरत मेरे पापा की जिंदगी में दखल दे.’’

‘‘तुम ने यह कैसे मान लिया कि

मैं तुम्हारे पापा और तुम्हारी जिंदगी में दखल देने आ रही हूं?’’ रूपाली का हाथ पकड़ कर सुप्रिया उसे भीतर ले गई. कुरसी पर बैठाया. ठंडा पानी पीने को दिया, फिर पूछा, ‘‘क्या लेना चाहोगी. ठंडा या गरम?’’

‘‘कुछ नहीं. मैं सिर्फ आप से लड़ने आई हूं,’’ रूपाली सख्त स्वर में बोली.

‘‘ठीक है, हम लोग लड़ भी लेंगे, पहले कुछ खापी लें, फिर लड़ाई अच्छी तरह लड़ी जा सकेगी,’’ हंसती रही सुप्रिया.

सुप्रिया किचन से वापस लौटी तो उस के हाथ में एक टे्र थी और उस में कौफी व अन्य चीजें.

‘‘आप को कैसे पता कि मैं सिर्फ कौफी पीना पसंद करती हूं?’’

‘‘मुझे तो यह भी पता है कि एक लड़का है अरुण जो तुम्हारा दोस्त है और तुम से मिलने तब आता है जब तुम्हारे पापा घर पर नहीं होते. भाई स्कूल गया हुआ होता है. तुम स्कूल गोल कर के उस लड़के के साथ फ्लैट में अकेली होती हो.’’

एकदम सन्नाटे में आ गई रूपाली और सकपका कर बोली, ‘‘क्या पापा को भी पता है?’’

‘‘अभी तक तो नहीं पता है पर ऐसी बातें महल्ले में बहुत दिन तक लोगों की नजरों से छिपती नहीं हैं. आज नहीं तो कल लोग जान ही जाएंगे और घूमफिर कर यह बातें तुम्हारे पापा तक पहुंच ही जाएंगी.’’

‘‘आप ने तो पापा को कुछ नहीं बताया?’’ उस ने पूछा.

‘‘और बताऊंगी भी नहीं पर यह जरूर चाहूंगी कि स्कूल गोल कर किसी लड़के के साथ अपने खाली फ्लैट में रहना कोई अच्छी बात नहीं है. इस से तुम्हारी पढ़ाई बाधित होगी और ध्यान बंटेगा.’’

चुपचाप कौफी पीती रही रूपाली, फिर बोली, ‘‘असल में मैं नहीं चाहती कि कोई औरत मेरे पापा की जिंदगी में आए और मेरी मां बन बैठे. खासकर आप की उम्र की औरत जिस की उम्र मुझ से कुछ बहुत ज्यादा नहीं है. आप को पता है, पापा की उम्र क्या है?’’

‘‘हां, शायद 50-52 के आसपास,’’ सुप्रिया ने कहा, ‘‘और मुझे यह भी पता है कि उन की पत्नी… यानी आप लोगों की मां की मृत्यु एक कार दुर्घटना में हुई थी.’’

‘‘दुर्घटना के समय उन के साथ कौन था, शायद आप को यह भी पता है?’’ रूपाली ने पूछा.

‘‘हां, वह अपने प्रेमी के साथ थीं और वह प्रेमी शायद उन से पीछा छुड़ाना चाहता था. इसीलिए गाड़ी से उसे धक्का दिया था पर धक्का देने में स्टियरिंग गड़बड़ा गया और कार एक गहरे खड्ड में जा गिरी जिस से दोनों की ही मृत्यु हो गई.’’

‘‘आप को नहीं लगता कि हर औरत बेवफा होती है और हर आदमी विश्वसनीय?’’

‘‘अगर हम यही सच मान कर जिंदगी जिएं तो क्या तुम एक लड़के पर भरोसा कर के उस एकांत फ्लैट में मिलती हो, यह ठीक करती हो? और क्या यही राय तुम अपने बारे में रखती हो कि तुम उस के साथ बेवफाई करोगी? वह भी तुम्हें आगे चल कर धोखा देगा? जिंदगी क्या अविश्वासों के सहारे चल सकती है, रूपाली?’’

चुप हो गई रूपाली. उसे लगा कि वह सुप्रिया को जितना गलत समझ रही थी वह उतनी गलत नहीं थी. वह एक अदद काफी समझदार औरत लगी रूपाली को. अपनी मां से एकदम भिन्न, सहज, और सुहृदय.

‘‘आज के बाद मैं अरुण से कभी अपने फ्लैट के एकांत में नहीं मिलूंगी. पर प्लीज, पापा को मत बताना.’’

‘‘तुम न भी कहतीं तो भी मैं खुद ही तुम्हें किसी दिन इस के लिए टोकती. तुम्हारे पापा से तब भी नहीं कहती. मर्द ऐसी बातों को दूसरे रूप में लेते हैं,’’ सुप्रिया बोली, ‘‘मैं तुम्हारी उम्र से गुजर चुकी हूं, यह सब भली प्रकार समझती हूं.’’

‘‘अब आप मेरे घर कब आएंगी?’’ रूपाली मुसकरा दी.

‘‘अभी तो हमें लड़ना है एकदूसरे से,’’ कह कर हंस दी सुप्रिया, ‘‘क्या अपने घर बुला कर लड़ना चाहती हो मुझ से?’’

रूपाली उठते हुए बोली, ‘‘आंटी, आप घर आएं और पापा की जिंदगी का सूनापन अगर संभव हो सके तो दूर करें. हालांकि जो घाव पापा को मम्मी ने दिया है वह भर पाना असंभव है. पर मैं चाहती हूं, वह घाव भरे और पापा एक सुखी संतुष्ट जीवन जिएं. करेंगी आप इस में मदद…?’’ देर तक उत्तर नहीं दे सकी सुप्रिया.

इंद्रधनुष का आठवां रंग: जब पिता के दोस्त का शिकार बनी रावी

वसुधा की नजरें अभी भी दरवाजे पर ही टिकी थीं. इसी दरवाजे से अभीअभी रावी अपने पति के साथ निकली थी. पीली साड़ी, सादगी से बनाया जूड़ा, माथे पर बिंदिया, मांग में सिंदूर, हाथों में भरीभरी चूडि़यां… कुल मिला कर संपूर्ण भारतीय नारी की छवि को साकार करती रावी बहुत खूबसूरत लग रही थी. गोद में लिए नन्हे बच्चे ने एक स्त्री को मां के रूप में परिवर्तित कर कितना गरिमामय बना दिया था.

वसुधा ने अपना सिर कुरसी पर टिका आराम की मुद्रा में आंखें बंद कर लीं. उन की आंखों में 3-4 साल पहले के वे दिन चलचित्र की भांति घूम गए जब रावी के मम्मीपापा उसे काउंसलिंग के लिए वसुधा के पास लाए थे.

वसुधा सरकारी हौस्पिटल में मनोवैज्ञानिक हैं, साथ ही सोशल काउंसलर भी. हौस्पिटल के व्यस्त लमहों में से कुछ पल निकाल कर वे सोशल काउंसलिंग करती हैं. अवसाद से घिरे और जिंदगी से हारे हताशनिराश लोगों को अंधेरे से बाहर निकाल कर उन्हें फिर से जिंदगी के रंगों से परिचित करवाना ही उन का एकमात्र उद्देश्य है.

रावी को 3-4 साल पहले वसुधा के हौस्पिटल में भरती करवाया गया था. छत के पंखे से लटक कर आत्महत्या की कोशिश की थी उस ने, मगर वक्त रहते उस की मां ने देख लिया और उसे तुरंत हौस्पिटल लाया गया. समय पर चिकित्सा सुविधा मिलने से रावी को बचा लिया गया था. मगर वसुधा पहली ही नजर में भांप गई थीं कि उस के शरीर से भी ज्यादा उस का मन आहत और जख्मी है.

वसुधा ने हकीकत जानने के लिए रावी की मां शांति से बात की. पहले तो वे नानुकुर करती टालती रहीं, मगर जब वसुधा ने उन्हें पूरी बात को गोपनीय रखने और उन की मदद करने का भरोसा दिलाया तब जा कर उन्होंने अपने आधेअधूरे शब्दों और इशारों से जो बताया उसे सुन कर वसुधा का मासूम रावी पर स्नेह उमड़ आया.

शांति ने उन्हें बताया, ‘‘रावी दुराचार का शिकार हुई है और वह भी अपने पिता के खास दोस्त के द्वारा. पिता का जिगरी दोस्त होने के नाते उन के घर में उस का बिना रोकटोक आनाजाना था. कोई शक करे भी तो कैसे? उस की सब से छोटी बेटी रावी की सहेली भी थी. दोनों एक ही क्लास में पढ़ती थीं. एक दिन रावी अपनी सहेली से एक प्रोजैक्ट फाइल लेने उस के घर गई. सहेली अपनी मां के साथ बाजार गई हुई थी. अत: उस के पापा ने कहा कि तेरी सहेली का बैग अंदर रखा है. अंदर जा कर ले ले जो भी लेना है. उस के बाद जब रावी वापस घर आई, तो चुपचाप कमरे में जा कर सो गई. सुबह उसे तेज बुखार चढ़ गया. हम ने इसे काफी हलके में लिया. कई दिन तक जब रावी कालेज भी नहीं गई, तो हम ने सोचा शायद पीरियड नहीं लग रहे होंगे.

‘‘फिर एक दिन जब इन के दोस्त घर आए तो हमेशा की तरह उन्हें पानी का गिलास देने को भागने वाली रावी कमरे में जा कर छिप गई. तब मेरा माथा ठनका. मैं ने रावी का सिर सहलाते हुए उसे विश्वास में लिया, तो उस ने सुबकतेसुबकते इस घिनौनी घटना का जिक्र किया, जिसे सुन कर मेरे तनबदन में आग लग गई. मैं ने तुरंत इस के पिता से पुलिस में शिकायत करने को कहा. मगर इन्होंने मुझे शांति से काम लेने को कह समझाया कि पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज करा कर केस करना तो बहुत आसान है, मगर उस की पेशियां भुगतना बहुत कष्टदाई होता है. अपराधी को सजा दिलवाना तो नाकों चने चबाना जैसा होता है. सब से पहले तो अपराध को साबित करना ही मुश्किल होता है, क्योंकि ऐसे केस में कोई गवाह नहीं होता. फिर हर पेशी पर जब रावी को वकीलों के नंगे करते सवालों के जवाब देने पड़ेंगे, तो हमारी फूल सी बेटी को फिर से उस हादसे को जीना पड़ेगा. अभी तो यह बात सिर्फ हमारे बीच में ही है, जब समाज में चली जाएगी तो बेटी का जीना मुश्किल हो जाएगा. पूरी जिंदगी पड़ी है उस के सामने… कौन ब्याहेगा उसे?’’

कुछ देर रुक शांति ने एक उदास सी सांस ली और फिर आगे कहना शुरू किया, ‘‘बेटी का हाल देख कर मन तो करता था कि उस दरिंदे को भरे बाजार गोली मार दूं, मगर पति की बात में भी सचाई थी. बेटी का वर्तमान तो खराब हो ही चुका था कम से कम उस का भविष्य तो खराब न हो, यही सोच कर हम ने कलेजे पर पत्थर रख लिया. रावी को समझाबुझा कर फिर से कालेज जाने को राजी किया. भाई उसे लेने और छोड़ने जाता. मैं भी सारा दिन उस के आसपास ही रहती. उसे आगापीछा समझाती, मगर उस की उदासी दूर नहीं कर सकी. इसी बीच एक दिन मैं थोड़ी देर के लिए पड़ोसिन के घर किसी काम से गई, तो इस ने यह कदम उठा लिया.’’

वसुधा बड़े ध्यान से सारा घटनाक्रम सुन रही थीं. जैसे ही शांति ने अपनी बात खत्म की, वसुधा जैसे नींद से जागीं. यों लग रहा था मानो वे सुन नहीं रही थीं, बल्कि इस सारे घटनाक्रम को जी रही थीं. उन्होंने शांति से रावी को अपने घर लाने के लिए कहा.

पहली बार वसुधा के सामने रावी ने अपनी जबान नहीं खोली. चुपचाप आंखें नीचे किए रही. दूसरी बार भी कुछ ऐसा ही हुआ. बस फर्क इतना था कि इस बार रावी ने नजरें उठा कर वसुधा की तरफ देखा था. इसी तरह 2 और सिटिंग्स हुईं. वसुधा उसे हर तरह से समझाने की कोशिश करतीं, मगर रावी चुपचाप खाली दीवारों को ताकती रहती.

एक दिन रावी ने बहुत ही ठहरे हुए शब्दों में वसुधा से कहा, ‘‘बहुत आसान होता है सब कुछ भूल कर आगे बढ़ने और जीने की सलाह देना. मगर जो मेरे साथ घटित हुआ वह मिट्टी पर लिखा वाक्य नहीं, जिसे पानी की लहरों से मिटा दिया जाए… आप समझ ही नहीं सकतीं उस दर्द को जो मैं ने भोगा है…जब दर्द देने वाला कोई अपना ही हो तो तन से भी ज्यादा मन लहूलुहान होता है,’’ और फिर वह फफक पड़ी.

वसुधा उसे सीने से लगा कर मन ही मन बुदबुदाईं कि यह दर्द मुझ से बेहतर और कौन समझ सकता है मेरी बच्ची.

रावी ने आश्चर्य से वसुधा की ओर देखा. उन की छलकी आंखें देख कर वह अपना रोना भूल गई. वसुधा उस की बांह थाम कर उसे 20 वर्ष पहले की यादों की गलियों में ले गईं.

‘‘स्कूल के अंतिम वर्ष में फेयरवैल पार्टी से लौटते वक्त रात अधिक हो गई थी. मैं और मेरी सहेली रूपा दोनों परेशान सी औटो की राह देख रही थीं. तभी एक कार हमारे पास आ कर रुकी. हम दोनों कुछ समझ पातीं, उस से पहले ही 2 गुंडों ने मुझे कार में खींच लिया. रूपा अंधेरे का फायदा उठा कर भागने में कामयाब हो गई. उस ने किसी तरह मेरे घर वालों को खबर दी. मगर जब तक वे मुझ तक पहुंच पाते गुंडे मेरी इज्जत को तारतार कर मुझे बेहोशी की हालत में सड़क के किनारे फेंक कर जा चुके थे.

‘‘मुझे अधमरी हालत में घर लाया गया. मांपापा रोतेधोते खुद को कोसते रह गए. मुझे अपनेआप से घिन होने लगी. मैं ने कालेज जाना छोड़ दिया. घंटों बाथरूम में अपने शरीर को रगड़रगड़ कर नहाती, मगर फिर भी उस लिजलिजे स्पर्श से अपनेआप को आजाद नहीं कर पाती. मुझे लगता मानो सैकड़ों कौकरोच मेरे शरीर पर रेंग रहे हों. एक दिन मुझे एहसास हुआ कि उस हादसे का अंश मेरे भीतर आकार

ले रहा है. तब मैं ने भी तुम्हारी ही तरह अपनी जान देने की कोशिश की, मगर जान देना इतना आसान नहीं था. मेरी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं. मैं बिलकुल टूट चुकी थी. मेरी इस मुश्किल घड़ी में मेरी मां मेरे साथ थीं. उन्होंने मुझे समझाया कि मैं क्यों उस अपराध की सजा अपनेआप को देने पर तुली हूं, जो मैं ने किया ही नहीं…शर्म मुझे नहीं उन दरिंदों को आनी चाहिए… धिक्कार उन्हें होना चाहिए…

‘‘और एक दिन मां मुझे अपनी जानपहचान की डाक्टर के पास ले गईं. उन्होंने मुझे इस पाप की निशानी से छुटकारा दिलाया. वह मेरा नया जन्म था और उसी दिन मैं ने ठान लिया था कि आज से मैं अपने लिए नहीं, बल्कि अपने जैसों के लिए जीऊंगी. मुझे खुशी होगी, अगर मैं तुम्हें वापस जीना सिखा सकूं,’’ वसुधा ने सब कुछ एक ही सांस में कह डाला मानो वे भी आज एक बोझ से मुक्त हुई हों.

‘‘आप को समाज से डर नहीं लगा?’’ रावी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘कैसा डर? किस समाज से… अब मैं हर डर से आजाद हो चुकी थी. वैसे भी मेरे पास खोने के लिए बचा ही क्या था. अब तो मुझे सब कुछ वापस पाना था.’’

‘‘फिर क्या हुआ? मेरा मतलब. आप यहां, इस मुकाम तक कैसे पहुंचीं?’’ रावी को अभी भी वसुधा की बातों पर यकीन नहीं हो रहा था.

‘‘उस हादसे को भूलने के लिए मैं ने वह शहर छोड़ दिया. आगे की पढ़ाई मैं ने होस्टल में रह कर पूरी की. अब बस मेरा एक मात्र लक्ष्य था मनोविज्ञान में मास्टर डिगरी हासिल करना ताकि मैं इनसान के मन के भीतर की उस तह तक पहुंच सकूं जहां वह अपने सारे अवसाद, राज और विकार छिपा कर रखता है. मैं ने अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बना कर अपनी लड़ाई लड़ी और उस पर विजय पाई,’’ थोड़ी देर रुक कर वसुधा ने रावी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहना जारी रखा, ‘‘बेटा, हमें यह जीवन कुदरत ने जीने के लिए दिया है. किसी और के कुकर्मों की सजा हम अपनेआप को क्यों दें? तुम्हें भी बहादुरी से अपनी लड़ाई लड़नी है… अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है… तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो…और हां, अपने बच्चे के नामकरण पर मुझे जरूर बुलाना,’’ वसुधा ने रावी के चेहरे पर मुसकान लाने की कोशिश की.

‘‘आप ने शादीक्यों नहीं की?’’ रावी ने यह जलता प्रश्न उछाला, तो इस बार उस की लपटें वसुधा के आंचल तक जा पहुंचीं. एक लंबी सांस ले कर वे बोलीं, ‘‘हां, यहां मैं चूक गई. मेरे साथ पढ़ने वाले डा. नमन ने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा था. मैं भी उन्हें पसंद करती थी, मगर मेरी साफगोई शायद उन्हें पसंद नहीं आई. मैं ने शादी से पहले उन्हें अपने बारे में सब कुछ बता दिया, जिसे उन का पुरुषोचित अहं स्वीकार नहीं कर पाया. हालांकि उन्होंने शादी करने से मना नहीं किया था, मगर मैं ही पीछे हट गई. अब मुझे उन के प्यार में दया की बू आने लगी थी और इस मुकाम पर पहुंचने के बाद मैं किसी की दया की पात्र नहीं बनना चाहती थी. मैं जानती थी कि आज नहीं तो कल यह प्यार सहानुभूति में बदल जाएगा और मैं वह स्थिति अपने सामने नहीं आने देना चाहती थी.’’

‘‘फिर आप मुझे शादी करने के लिए क्यों कह रही हैं? यह परिस्थिति तो मेरे सामने भी आएगी.’’

‘‘वही मैं तुम्हें समझाना चाह रही हूं कि जो गलती मैं ने की वह तुम भूल कर भी मत करना. यह एक कड़वी सचाई है कि खुद कई गर्लफ्रैंड्स रखने वाले पुरुष भी पत्नी वर्जिन ही चाहते हैं. तुम्हें किसी को भी सफाई देने की जरूरत नहीं  है. जब तक तुम खुद किसी को नहीं बताओगी, तुम्हारे साथ हुए हादसे के बारे में किसी को कुछ पता नहीं चलेगा.’’

‘‘मगर यह तो किसी को धोखा देने जैसा हुआ?’’ रावी अभी भी तर्क कर रही थी.

‘‘धोखा तो वह था जो तुम्हारे पापा के दोस्त ने तुम्हारे पापा को दिया… अपने परिवार को दिया… तुम्हारी मासूमियत और इनसानियत को दिया. हम औरतों को अब अपने लिए थोड़ा स्वार्थी होना ही पड़ेगा… जीवन के इंद्रधनुष में 8वां रंग हमें खुद भरना होगा. अच्छा एक बात बताओ तुम्हारा वह तथाकथित अंकल बिना किसी को कुछ बताए समाज में शान से रह रहा है न? फिर तुम क्यों नहीं? अगर सोने पर कीचड़ लग जाए, तो भी उस की शुद्धता में रत्ती भर भी फर्क नहीं आता. तुम्हें भी इस हादसे को एक बुरा सपना मान कर भूलना होगा,’’ कह वसुधा ने उसे सोचने के लिए छोड़ दिया.

‘‘अगर अंकल ने मुझे ब्लैकमेल करने की कोशिश की तो?’’ रावी ने अपनी शंका जाहिर की.

‘‘वह ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि ऐसा करने पर खुद उस की पहचान भी तो उजागर होगी और फिर कोई भी व्यक्ति अपने परिवार और समाज के सामने जलील नहीं होना चाहेगा,’’ वसुधा ने अपने अनुभव के आधार पर कहा.

बात रावी की समझ में आ गई थी. वह पूरे आत्मविश्वास के साथ उठ कर वसुधा के चैंबर से निकल गई. उस के कालेज के लास्ट ईयर के फाइनल ऐग्जाम का टाइमटेबल आ चुका था. उस ने मन लगा कर परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी से पास हुई. उस के बाद उस ने कंप्यूटर का बेसिक कोर्स किया और फिर उसी संस्थान में काम करने लगी. साल भर पहले एक अच्छा सा लड़का देख कर उस के घर वालों ने उस की शादी कर दी. उस के बाद रावी आज ही वसुधा से मिलने आई थी. अपने बेटे के नामकरण का निमंत्रण देने.

इस बीच वसुधा निरंतर शांति के संपर्क में रहीं. कदमकदम पर उन्हें राह दिखाती रहीं, मगर रावी से दूर ही रहीं. वे उसे खुद ही गिर कर उठने देना चाहती थीं. वे संतुष्ट थीं कि उन्होंने एक और कली को मुरझाने से बचा लिया.

रावी ने तो अपना वादा निभा दिया था, अब उन की बारी थी. अत: तैयार हो वे अपना पर्स उठा नन्हे मेहमान के लिए गिफ्ट लेने बाजार चल दीं.

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