शौर्टकट : क्या था सविता के मालामाल होने का राज

सविता के तकिए के नीचे एक महंगा मोबाइल फोन देख कर उस के पति श्यामलाल का माथा ठनक गया. उसे समझ में नहीं आया कि 6,000 रुपए महीना कमाने वाली उस की पत्नी के पास 50,000 रुपए का मोबाइल फोन कहां से आया.

सविता दूसरे घरों में झाड़ूपोंछे का काम करती थी, जबकि श्यामलाल दिहाड़ी मजदूर था. पत्नी के पास इतना महंगा मोबाइल देख कर उस के दिमाग में कई तरह के सवाल आने लगे.

इस सब के बावजूद श्यामलाल ने अपने दिल को मनाया तो जरूर, लेकिन रातभर उसे नींद नहीं आई. वह मन ही मन सोच रहा था, ‘इस के पास इतना महंगा फोन कहां से आया? इसे जगा कर पूछ लेता हूं. नहीं, अभी सोने देता हूं, बेचारी थकी होगी. कल सुबह पूछ लूंगा.’

‘‘सविता, यह किस का मोबाइल है और तेरे पास कहां से आया? यह तो काफी महंगा है,’’ अगले दिन श्यामलाल ने पूछा.

पति के हाथ में अपना मोबाइल फोन देख कर सविता के चेहरे का रंग पीला पड़ गया. उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले, क्या न बोले.

‘‘मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया सविता? यह फोन है किस का?’’ श्यामलाल ने जोर दे कर पूछा.

‘‘अरे, मालकिन का है. इस में कुछ दिक्कत आ रही थी, सो उन्होंने कहा था कि इसे ठीक करवा लाओ. यह अब ठीक हो गया है तो आज उन्हें दे दूंगी,’’ यह कह कर सविता ने मोबाइल अपने हाथ में लिया और काम पर निकल गई.

लेकिन उस दिन के बाद से सविता का पति कभी उस के पास नए सोने के झुमके देखता, तो कभी पायल, कभी महंगी साड़ी, तो कभी कुछ और. एक दिन वह बड़ा और महंगा टीवी ले कर घर आई तो श्यामलाल की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा. उस ने टोकते हुए कहा, ‘‘क्या है यह सब?’’

‘‘टीवी है… दिख नहीं रहा है क्या?’’

‘‘वह तो दिख रहा है मुझे, लेकिन यह आया कहां से?’’

‘‘दुकान से आया है और कहां से आएगा.’’

‘‘देखो, ज्यादा बात को घुमाओ मत और सीधेसीधे बताओ कि इतना महंगा टीवी कहां से आया? तुम्हारी कोई लौटरी लगी है क्या? ये झुमके, पायल, साड़ी और टीवी, सब कहां से आ रहे हैं?’’

श्यामलाल की बातों को सुन कर सविता ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘यह सब मेरी नई मालकिन ने दिया है. वे मेरे काम से बहुत खुश हैं. वे मुझे गिफ्ट देती हैं.’’

‘‘कोई भी मालकिन इतना महंगा गिफ्ट नहीं देती है और वह भी अपने घर काम करने वाली को.’’

‘‘आप मुझ पर शक कर रहे हैं?’’

‘‘नहीं, जो बात सच है, वही बता रहा हूं. हम दोनों जितना कमाते हैं, उस से ये सारी चीजें इस जनम में तो नहीं ही ली जा सकती हैं.’’

‘‘अब अगर कोई मुझे दे रहा है, तो आप को क्यों खुजली लग रही है? देखिए जी, मैं कोई गलत काम नहीं कर रही. आप चाहें तो मेरी मालकिन से जा कर पूछ सकते हैं,’’ श्यामलाल की बातों को सविता ने अपनी गोलमोल बातों में उलझा दिया.

श्यामलाल ने सविता की बातों को सुना तो जरूर, लेकिन वह चाह कर भी उस की बातों पर यकीन नहीं कर पा रहा था.

उधर सविता का अचानक बदला रंगढंग सभी के लिए चर्चा की बात बन गया था. उस के महल्ले वालों ने अब पीठ पीछे बातें बनानी शुरू कर दी थीं.

‘‘विमला, यह सविता ने घर पर नोट छापने की मशीन लगा रखी है क्या? कल ही नया टीवी लाई थी वह. आज देखा कि वशिंग मशीन भी. आएदिन उस के घर में एक नया सामान आ रहा है.’’

‘‘जानती हो, वे जो कान में नए झुमके पहनी थी, वे भी सोने के हैं.’’

‘‘वह तो लोगों को यही बता रही है कि उस की मालकिन उस पर मेहरबान है. भला इस तरह मालकिन लोग कब से मेहरबान होने लगी हैं हम लोगों पर? मुझे तो दाल में कुछ काला लग रहा है.’’

‘‘तुम ने तो मेरी मुंह की बात छीन ली. जरूर वह कोई गलत काम कर रही है.’’

सविता के साथ की काम करने वाली सहेलियां आपस में कानाफूसी कर रही थीं.

लोगों की बातें श्यामलाल के कानों तक भी जाती थीं. वह जब सविता से लोगों की बातें कहता, तो वह बोलती, ‘‘जलने दो. अरे, जलन नाम की भी कोई चीज होती है कि नहीं. उन की मालकिन उन के एक दिन न जाने पर पैसे काट लेती है और मेरी मालकिन मुझे गिफ्ट पर गिफ्ट दिए जा रही है. जब ऐसा होगा तो उन्हें नींद आएगी कभी? नहीं आएगी तो और वे कुछ न कुछ बातें बनाएंगी.

‘‘देखिए, अगर आप दूसरों की बातों पर भरोसा कीजिएगा, तो कभी खुश नहीं रह पाएंगे, इसीलिए कान में तेल डालिए और जिंदगी के मजे लीजिए.’’

जिस तरह से सविता ने अपने पति को यह बात कही, उसे बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी. शक तो उसे भी अपनी पत्नी पर हो रहा था कि वह जरूर कोई गलत राह पर है, लेकिन जब तक वह उसे रंगे हाथों पकड़ नहीं लेता तो उसे क्या कहता.

‘जो मैं सोच रहा हूं, वैसा बिलकुल भी न हो. और जैसा सविता कह रही है, वैसा ही हो,’ श्यामलाल मन ही मन सोच रहा था.

एक दिन की बात है. रात के 9 बज गए थे. सविता अभी तक काम से लौटी नहीं थी. श्यामलाल उस के लिए बहुत परेशान हो रहा था.

श्यामलाल उसी समय राज अपार्टमैंट्स की तरफ निकल गया, जहां सविता काम करती थी. वह तेज चाल से अपार्टमैंट्स की ओर चला जा रहा था कि तभी उस की नजर एक पुलिस की जीप पर गई. उस ने देखा कि सविता उस जीप में बैठी हुई थी.

सविता को पुलिस जीप में बैठा देख कर श्यामलाल का दिमाग चक्कर खाने लगा. पुलिस सविता को कहां ले कर जा रही है?

‘‘सविता, सविता,’’ उस ने आवाज लगाई, लेकिन पुलिस की गाड़ी तेज रफ्तार में वहां से निकल गई.

श्यामलाल पुलिस की गाड़ी के पीछे भागने लगा. भागते हुए वह पुलिस स्टेशन पहुंचा तो देखा, सविता हवालात में थी.

‘‘क्या किया तू ने? पुलिस वाले तुझे यहां क्यों ले कर आए हैं? बता, क्या किया तू ने?’’

सविता खामोश थी. उस का चेहरा पीला पड़ा हुआ था.

तभी इंस्पैक्टर उस के पास आया और पूछा, ‘‘हां भाई, तुम इस के पति हो?’’

‘‘जी साहब, मैं इस का पति हूं.’’

‘‘क्या किया है इस ने? ऐसे पूछ रहा है, जैसे तुम को कुछ पता ही नहीं. जरूर तुम लोग मिल कर रैकेट चलाते हो. अभी रुक, तेरे को भी जेल में बंद करता हूं.’’

‘‘कौन सा रैकेट साहब? आप क्या कह रहे हैं?’’

सविता का मन हमेशा से अमीर बनने का था. वह बड़े साहब लोगों के यहां काम करती. उन की लाइफ स्टाइल को देखती. उन के कपड़ों और गाडि़यों को देखती तो उस के मन में हमेशा यही आता है कि उसे भी इन महंगी गाडि़यों में बैठना है. वह भी महंगे कपड़े पहने और इन के जैसी जिंदगी जिए. लेकिन दूसरों के यहां झाड़ूपोंछा कर के महंगे शौक पूरा करना मुमकिन नहीं था, इसलिए उस ने शौर्टकट रास्ता अपनाने का सोचा.

सविता देखने में खूबसूरत थी. उस ने सोचा, ‘मेरी खूबसूरती अगर मुझे अमीर नहीं बना सकी तो फिर यह किस काम की…’

लिहाजा, सविता जहांजहां काम करने जाती थी, उस घर के मालिक को अपनी अदा से घायल करने की कोशिश करती. लेकिन कोई भी उस के झांसे में नहीं आता था.

लेकिन एक बार विवेक नाम का एक शादीशुदा शख्स उस के जाल में फंस ही गया. हुआ यों कि विवेक की पत्नी कुछ दिनों के लिए मायके गई हुई थी. उस के जाने के अगले दिन की बात है.

‘‘अरे, कोई टैंशन नहीं है मेरे भाई. आज की रात एक बार फिर से जीते हैं बैचलर वाली लाइफ. पूरी रात मौजमस्ती होगी,’’ विवेक ने अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने का प्लान बनाया था. उस रोज उन सब ने जबरदस्त पार्टी की. जब विवेक घर लौटा, तो उस के पैर लड़खड़ा रहे थे.

विवेक ने कुछ ज्यादा ही पी ली थी. बस, घर पहुंच कर वह तुरंत बिस्तर पर जा कर सो गया. विवेक को घर पहुंचे अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि दरवाजे की डोरबैल बजी. सविता खड़ी थी.

‘‘साहब, मेमसाब ने कहा था कि आप के लिए रात की रोटी बना दिया करूं,’’ सविता कमरे के अंदर आते हुए बोली.

‘‘रोटी… नहीं… तुम जाओ… मैं खा कर आया हूं.’’

‘‘नहीं साहब, ऐसे कैसे चली जाऊं… मेमसाब गुस्सा होंगी मेरे ऊपर,’’ यह कह कर सविता किचन में चली गई.

विवेक सविता को रोकता रहा, लेकिन वह मानी नहीं. वैसे भी उस रोज नशा विवेक पर इतना हावी था कि वह क्या कह रहा था उसे खुद भी पता नहीं चल रहा था.

विवेक की यही हालत सविता के लिए लौटरी का टिकट बन गई. जब वह नशे की हालत में सोया था, तो वह उस के बगल में जा कर लेट गई और उस के साथ कुछ फोटो अपने मोबाइल पर खींच लिए. अगले दिन सवेरे ही सविता कहने लगी, ‘‘साहब, आप ने तो कल रात मेरी इज्जत लूट ली. मैं झूठ नहीं बोल रही हूं. मोबाइल की तसवीर तो झूठ नहीं बोलेगी न.

‘‘अरे, मैं तो वापस जा रही थी, लेकिन आप ने मुझे खींच कर अंदर बुला लिया और फिर मेरे साथ वह सब किया कि मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रही.’’

‘‘सविता, यह तुम क्या कह रही हो… यह माना कि मैं नशे में था, लेकिन मैं ने ऐसा तो कुछ नहीं किया,’’ विवेक ने कहा..

फिर विवेक के आसपास सविता ने ऐसा जाल बुना कि वह उस में फंस गया. सविता उसे ब्लैकमेल करने लगी और पैसे ऐंठना शुरू कर दिया. इन्हीं पैसों से वह रईसी करने लगी. यह सिलसिला चलता रहा,

लेकिन एक दिन विवेक की पत्नी शालिनी ने बैंक की पासबुक में देखा कि विवेक हर दूसरे दिन एक मोटी रकम खाते से निकाल रहा है, तो उसे कुछ शक हुआ. उस ने उस से पूछा, तो वह टालमटोल करने लगा. लेकिन जब उस ने अपने सिर की कसम दी, तो उस ने शालिनी को सारी बात बता दी.

‘‘मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई. तेरे जाने के बाद एक दिन,’’ विवेक ने सारी कहानी शालिनी को बताई. लेकिन उस के लाख कहने पर भी उसे इस बात पर यकीन नहीं हुआ कि उस के पति ने उस रोज कोई बदतमीजी सविता के साथ की होगी.

एक दिन जब फिर से सविता ने 50,000 रुपए विवेक से मांगे, तो विवेक और शालिनी ने पुलिस को बुला लिया. पुलिस को सामने देख सविता के चेहरे का रंग उड़ गया.

पुलिस ने जब अपने तरीके से सविता से पूछताछ की, तो उस ने सबकुछ उगल दिया.

‘‘साहब, गलती हो गई मुझ से. विवेक साहब बेकुसूर हैं. यह वीडियो तो मैं ने उन के नशे में होने का फायदा उठा कर बनाया था.’’

फिर क्या था, सविता पर मुकदमा चला. उसे 3 साल की सजा हो गई. जिंदगी में जल्दी कामयाब होने का शौर्टकट उस पर भारी पड़ गया.

कल हमेशा रहेगा

‘‘अभि, मैं आज कालिज नहीं आ रही. प्लीज, मेरा इंतजार मत करना.’’

‘‘क्यों? क्या हुआ वेदश्री. कोई खास समस्या है?’’ अभि ने एकसाथ कई प्रश्न कर डाले.

‘‘हां, अभि. मानव की आंखों की जांच के लिए उसे ले कर डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘क्या हुआ मानव की आंखों को?’’ अभि की आवाज में चिंता घुल गई.

‘‘वह कल शाम को जब स्कूल से वापस आया तो कहने लगा कि आंखों में कुछ चुभन सी महसूस हो रही है. रात भर में उस की दाईं आंख सूज कर लाल हो गई है.

आज साढ़े 11 बजे का डा. साकेत अग्रवाल से समय ले रखा है.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चलूं?’’ अभि ने प्यार से पूछा.

‘‘नहीं, अभि…मां मेरे साथ जा रही हैं.’’

डा. साकेत अग्रवाल के अस्पताल में मानव का नाम पुकारे जाने पर वेदश्री अपनी मां के साथ डाक्टर के कमरे में गई.

डा. साकेत ने जैसे ही वेदश्री को देखा तो बस, देखते ही रह गए. आज तक न जाने कितनी ही लड़कियों से उन की अपने अस्पताल में और अस्पताल के बाहर मुलाकात होती रही है, लेकिन दिल की गहराइयों में उतर जाने वाला इतना चित्ताकर्षक चेहरा साकेत की नजरों के सामने से कभी नहीं गुजरा था.

वेदश्री ने डाक्टर का अभिवादन किया तो वह अपनेआप में पुन: वापस लौटे.

अभिवादन का जवाब देते हुए डाक्टर ने वेदश्री और उस की मां को सामने की कुरसियों पर बैठने का इशारा किया.

मानव की आंखों की जांच कर डा. साकेत ने बताया कि उस की दाईं आंख में संक्रमण हो गया है जिस की वजह से यह दर्द हो रहा है. आप घबराइए नहीं, बच्चे की आंखों का दर्द जल्द ही ठीक हो जाएगा पर आंखों के इस संक्रमण का इलाज लंबा चलेगा और इस में भारी खर्च भी आ सकता है.

हकीकत जान कर मां का रोरो कर बुरा हाल हो रहा था. वेदश्री मम्मी को ढाढ़स बंधाने का प्रयास करती हुई किसी तरह घर पहुंची. पिताजी भी हकीकत जान कर सकते में आ गए.

वेदश्री ने अपना मन यह सोच कर कड़ा किया कि अब बेटी से बेटा बन कर उसे ही सब को संभालना होगा.

मानव जैसे ही आंखों में चुभन होने की फरियाद करता वह तड़प जाती थी. उसे मानव का बचपन याद आ जाता.

उस के जन्म के 15 साल के बाद मानव का जन्म हुआ था. इतने सालों के बाद दोबारा बच्चे को जन्म देने के कारण मां को शर्मिंदगी सी महसूस हो रही थी.  वह कहतीं, ‘‘श्री…बेटा, लोग क्या सोचेंगे? बुढ़ापे में पहुंच गई, पर बच्चे पैदा करने का शौक नहीं गया.’’

‘‘मम्मा, आप ऐसा क्यों सोचती हैं.’’ वेदश्री ने समझाते हुए कहा, ‘‘आप ने मुझे राखी बांधने वाला भाई दिया है, जिस की बरसों से हम सब को चाहत थी. आप की अब जो उम्र है इस उम्र में तो आज की आधुनिक लड़कियां शादी करती दिखाई देती हैं…आप को गलतसलत कोई भी बात सोचने की जरूरत नहीं है.’’

गोराचिट्टा, भूरी आंखों वाला प्यारा सा मानव, अभी तो आंखों में ढेर सारा विस्मय लिए दुनिया को देखने के योग्य भी नहीं हुआ था कि उस की एक आंख प्रकृति के सुंदरतम नजारों को अपने आप में कैद करने में पूर्णतया असमर्थ हो चुकी थी. परिवार में सब की आंखों का नूर अपनी खुद की आंखों के नूर से वंचित हुआ जा रहा था और वे कुछ भी करने में असमर्थ थे.

‘‘वेदश्रीजी, कीटाणुओं के संक्रमण ने मानव की एक आंख की पुतली पर गहरा असर किया है और उस में एक सफेद धब्बा बन गया है जिस की वजह से उस की आंख की रोशनी चली गई है. कम उम्र का होने के कारण उस की सर्जरी संभव नहीं है.’’

15 दिन बाद जब वह मानव को लेकर चेकअप के लिए दोबारा अस्पताल गई तब डा. साकेत ने उसे समझाते हुए बताया तो वह दम साधे उन की बातें सुनती रही और मन ही मन सोचती रही कि काश, कोई चमत्कार हो और उस का भाई ठीक हो जाए.

‘‘लेकिन उचित समय आने पर हम आई बैंक से संपर्क कर के मानव की आंख के लिए कोई डोनेटर ढूंढ़ लेंगे और जैसे ही वह मिल जाएगा, सर्जरी कर के उस की आंख को ठीक कर देंगे, पर इस काम के लिए आप को इंतजार करना होगा,’’ डा. साकेत ने आश्वासन दिया.

वेदश्री भारी कदमों और उदास मन से वहां से चल दी तो उस की उदासी भांप कर साकेत से रहा न गया और एक डाक्टर का फर्ज निभाते हुए उन्होंने समझाया, ‘‘वेदश्रीजी, मुझे आप से पूरी हमदर्दी है. आप की हर तरह से मदद कर के मुझे बेहद खुशी मिलेगी. प्लीज, मेरी बात को आप अन्यथा न लीजिएगा, ये बात मैं दिल से कह रहा हूं.’’

‘‘थैंक्स, डा. साहब,’’ उसे डाक्टर का सहानुभूति जताना उस समय सचमुच अच्छा लग रहा था.

मानव की आंख का इलाज संभव तो था लेकिन दुष्कर भी उतना ही था. समय एवं पैसा, दोनों का बलिदान ही उस के इलाज की प्राथमिक शर्त बन गए थे.

पिताजी अपनी मर्यादित आय में जैसेतैसे घर का खर्च चला रहे थे. बेटे की तकलीफ और उस के इलाज के खर्च ने उन्हें उम्र से पहले ही जैसे बूढ़ा बना दिया था. उन का दर्द महसूस कर वेदश्री भी दुखी होती रहती. मानव की चिंता में उस ने कालिज के अलावा और कहीं आनाजाना कम कर दिया था. यहां तक कि अभि जिसे वह दिल की गहराइयों से चाहती थी, से भी जैसे वह कट कर रह गई थी.

डा. साकेत अग्रवाल शायद उस की मजबूरी को भांप चुके थे. उन्होंने वेदश्री को ढाढ़स बंधाया कि वह पैसे की चिंता न करें, अगर सर्जरी जल्द करनी पड़ी तो पैसे का इंतजाम वह खुद कर देंगे. निष्णात डाक्टर होने के साथसाथ साकेत एक सहृदय इनसान भी हैं.

दरअसल, साकेत उम्र में वेदश्री से 2-3 साल ही बड़े होंगे. जवान मन का तकाजा था कि वह जब भी वेदश्री को देखते उन का दिल बेचैन हो उठता. वह हमेशा इसी इंतजार में रहते कि कब वह मानव को ले कर उस के पास आए और वह उसे जी भर कर देख सकें. न जाने कब वेदश्री डा. साकेत के हृदय सिंहासन पर चुपके से आ कर बैठ गई, उन्हें पता ही नहीं चला. तभी तो साकेत ने मन ही मन फैसला किया था कि मानव की सर्जरी के बाद वह उस के मातापिता से उस का हाथ मांग लेंगे.

उधर वेदश्री डा. साकेत के मन में अपने प्रति उठने वाले प्यार की कोमल भावनाओं से पूरी तरह अनभिज्ञ थी. वह अभिजीत के साथ मिल कर अपने सुंदर सहजीवन के सपने संजोने में मगन थी. उस के लिए साकेत एक डाक्टर से अधिक कुछ भी न थे. हां, वह उन की बहुत इज्जत करती थी क्योंकि उस ने महसूस किया था कि डा. साकेत एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी होने के साथसाथ नेक दिल इनसान भी हैं.

समय अपनी चाल से चलता रहा और देखते ही देखते डेढ़ वर्ष का समय कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला. एक दिन फोन की घंटी बजी तो अभिजीत का फोन समझ कर वेदश्री ने फोन उठा लिया और ‘हैलो’ बोली.

‘‘वेदश्रीजी, डा. साकेत बोल रहा हूं. मैं ने यह बताने के लिए आप को फोन किया है कि यदि आप मानव को ले कर कल 12 बजे के करीब अस्पताल आ जाएं तो बेहतर होगा.’’

साकेत चाहता तो अपनी रिसेप्शनिस्ट से फोन करवा सकता था, लेकिन दिल का मामला था अत: उस ने खुद ही यह काम करना उचित समझा.

‘‘क्या कोई खास बात है, डाक्टर साहब,’’ वेदश्री समझ नहीं पा रही थी कि डाक्टर ने खुद क्यों उसे फोन किया. उसे लगा जरूर कोई गंभीर बात होगी.

‘‘नहीं, कोई ऐसी खास बात नहीं है. मैं ने तो यह संभावना दर्शाने के लिए आप के पास फोन किया है कि शायद कल मैं आप को एक बहुत बढि़या खबर सुना सकूं, क्योंकि मैं मानव को ले कर बेहद सकारात्मक हूं.’’

‘‘धन्यवाद, सर. मुझे खुशी है कि आप मानव के लिए इतना सोचते हैं. मैं कल मानव को ले कर जरूर हाजिर हो जाऊंगी, बाय…’’ और वेदश्री ने फोन रख दिया.

वेदश्री की मधुर आवाज ने साकेत को तरोताजा कर दिया. उस के होंठों पर एक मीठी मधुर मुसकान फैल गई.

मानव का चेकअप करने के बाद डा. साकेत वेदश्री की ओर मुखातिब हुए.

‘‘क्या मैं आप को सिर्फ ‘श्री…जी’ कह कर बुला सकता हूं?’’ डा. साकेत बोले, ‘‘आप का नाम सुंदर होते हुए भी मुझे लगता है कि उसे थोड़ा छोटा कर के और सुंदर बनाया जा सकता है.’’

‘‘जी,’’ कह कर वेदश्री भी हंस पड़ी.

‘‘श्रीजी, मेरे खयाल से अब मानव की सर्जरी में हमें देर नहीं करनी चाहिए और इस से भी अधिक खुशी की बात यह है कि एशियन आई इंस्टीट्यूट बैंक से हमें मानव के लिए योग्य डोनेटर मिल गया है.’’

‘‘सच, डाक्टर साहब, मैं आप का यह ऋण कभी भी नहीं चुका सकूंगी,’’ उस की आंखों में आंसू उभर आए.

डा. साकेत के हाथों मानव की आंख की सर्जरी सफलतापूर्वक संपन्न हुई. परिवार के लोग दम साधे उस की आंख की पट्टी खुलने का इंतजार कर रहे थे.

सर्जरी के तुरंत बाद डा. साकेत ने उसे बताया कि मानव की सर्जरी सफल तो रही लेकिन उस आंख का विजन पूर्णतया वापस लौटने में कम से कम 6 महीने का वक्त और लगेगा. यह सुन कर उसे तकलीफ तो हुई थी लेकिन साथसाथ यह तसल्ली भी थी कि उस का भाई फिर इस दुनिया को अपनी स्वस्थ आंखों से देख सकेगा.

‘‘श्री…जी, मैं ने आप से वादा किया था कि आप को कभी नाउम्मीद नहीं होने दूंगा…’’ साकेत ने उस की गहरी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मैं ने आप को दिया अपना वादा पूरा किया.’’

वेदश्री ने संकोच से अपनी पलकें झुका दीं.

‘‘फिर मिलेंगे…’’ कुछ निराश भाव से डा. साकेत ने कहा और फिर मुड़ कर चले गए.

उस दिन एक लंबे अरसे के बाद वेदश्री बिना किसी बोझ के बेहद खुश मन से अभिजीत से मिली. उसे तनावरहित और खुशहाल देख कर अभि को भी बेहद खुशी हुई.

‘‘अभि, कितने लंबे अरसे के बाद आज हम फिर मिल रहे हैं. क्या तुम खुश नहीं?’’ श्री ने उस का हाथ अपने हाथ में थाम कर ऊष्मा से दबाते हुए पूछा.

‘‘ऐसी बात नहीं, मैं तुम्हें अपने इतने नजदीक पा कर बेहद खुश हूं…खैर, मेरी बात जाने दो, मुझे यह बताओ, अब मानव कैसा है?’’

‘‘वह ठीक है. उसे एक नेक डोनेटर मिल गया, जिस की बदौलत वह अपनी नन्हीनन्ही आंखों से अब सबकुछ देख सकता है. आज मुझे लगता है जैसे उसे नहीं, मुझे आंखों की रोशनी वापस मिली हो. सच, उस की तकलीफ से परे, मैं कुछ भी साफसाफ नहीं देख पा रही थी. हर पल यही डर लगा रहता था कि यदि उस की आंखों की रोशनी वापस नहीं मिली तो उस के गम में कहीं मम्मी या पापा को कुछ न हो जाए. उस दाता का और डा. साकेत का एहसान हम उम्र भर नहीं भुला सकेंगे.’’

‘‘अच्छा, तुम बताओ, तुम्हारा भांजा प्रदीप किस तरह दुर्घटना का शिकार हुआ? मैं ने सुना था तो बेहद दुख हुआ. कितना हंसमुख और जिंदादिल था वह. उस की गहरी भूरी आंखों में हर पल जिंदगी के प्रति कितना उत्साह छलकता रहता…’’

अभि अपलक उसे देखता रहा. क्या वह कभी उसे बता भी सकेगा कि प्रदीप की ही आंख से उस का भाई इस दुनिया को देख रहा है? वह मरा नहीं, मानव की एक आंख के रूप में उस की जिंदगी के रहने तक जिंदा रहेगा.

वह बोझिल स्वर में वेदश्री को बताने लगा.

‘‘प्रदीप अपने दोस्त के साथ ‘कल हो न हो’ फिल्म देखने जा रहा था. हाई वे पर उन की मोटरसाइकिल फिसल कर बस से टकरा गई. उस का मित्र जो मोटरसाइकिल चला रहा था, वह हेलमेट की वजह से बच गया और प्रदीप ने सिर के पिछले हिस्से में आई चोट की वजह से गिरते ही वहीं उसी पल दम तोड़ दिया.

‘‘कहना अच्छा नहीं लगता, आखिर वह मेरी बहन का बेटा था, फिर भी मैं यही कहूंगा कि जो कुछ भी हुआ ठीक ही हुआ…पोस्टमार्टम के बाद डाक्टर ने रिपोर्ट में दर्शाया था कि अगर वह जिंदा रहता भी तो शायद आजीवन अपाहिज बन कर रह जाता…’’

‘‘इतना सबकुछ हो गया और तुम ने मुझे कुछ भी बताने योग्य नहीं समझा?’’ अभिजीत की बात बीच में काट कर श्री बोली.

‘‘श्री, तुम वैसे भी मानव को ले कर इतनी परेशान रहती थीं, तुम्हें यह सब बता कर मैं तुम्हारा दुख और बढ़ाना नहीं चाहता था.’’

कुछ पलों के लिए दोनों के बीच मौन का साम्राज्य छाया रहा. दिल ही दिल में एकदूसरे के लिए दुआएं लिए दोनों जुदा हुए. अभि से मिल कर वेदश्री घर लौटी तो डा. साकेत को एक अजनबी युगल के साथ पा कर वह आश्चर्य में पड़ गई.

‘‘नमस्ते, डाक्टर साहब,’’ श्री ने साकेत का अभिवादन किया.

प्रत्युत्तर में अभिवादन कर डा. साकेत ने अपने साथ आए युगल का परिचय करवाया.

‘‘श्रीजी, यह मेरे बडे़ भैया आकाश एवं भाभी विश्वा हैं और आप सब से मिलने आए हैं. भाभी, ये श्रीजी हैं.’’

विश्वा भाभी उठ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘‘आओ श्री, हमारे पास बैठो,’’ उन्हें भी श्री पहली ही नजर में पसंद आ गई.

‘‘अंकलजी, हम अपने देवर डा. साकेत की ओर से आप की बेटी वेदश्री का हाथ मांगने आए हैं,’’ भाभी ने आने का मकसद स्पष्ट किया.

यह सुन कर श्री को लगा जैसे किसी ने उसे ऊंचे पहाड़ की चोटी से नीचे खाई में धकेल दिया हो. उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि जो वह सुन रही है वह सच है या फिर एक अवांछनीय सपना?

भाभी का प्रस्ताव सुनते ही श्री के मातापिता की आंखोंमें एक चमक आ गई. उन्होंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन की बेटी के लिए इतने बड़े घराने से रिश्ता आएगा.

‘‘क्या हुआ श्री, तुम हमारे प्रस्ताव से खुश नहीं?’’ श्री के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख कर भाभी ने पूछ लिया.

साकेत और आकाश दोनों ही उसे देखने लगे. साकेत का दिल यह सोच कर तेजी से धड़कने लगा कि कहीं श्री ने इस रिश्ते से मना कर दिया तो?

‘‘नहीं, भाभीजी, ऐसी कोई बात नहीं. दरअसल, आप का प्रस्ताव मेरे लिए अप्रत्याशित है. इसीलिए कुछ पलों के लिए मैं उलझन में पड़ गई थी पर अब मैं ठीक हूं,’’ जबरन मुसकराते हुए वेदश्री ने कहा, ‘‘मैं ने तो साकेत को सिर्फ एक डाक्टर के नजरिए से देखा था.’’

‘‘सच तो यह है श्री कि जिस दिन तुम पहली बार मेरे अस्पताल में अपने भाई को ले कर आई थीं उसी दिन तुम्हें देख कर मेरे मन ने मुझ से कहा था कि तुम्हारे योग्य जीवनसाथी की तलाश आज खत्म हो गई. और आज मैं परिवार के सामने अपने मन की बात रख कर तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. अब फैसला तुम्हारे ऊपर है.’’

‘‘साकेत, मुझे सोचने के लिए कुछ वक्त दीजिए, प्लीज. मैं ने आप को आज तक उस नजरिए से कभी देखा नहीं न, इसलिए उलझन में हूं कि मुझे क्या फैसला लेना चाहिए…क्या आप मुझे कुछ दिन का वक्त दे सकते हैं?’’ वेदश्री ने उन की ओर देखते हुए दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘‘जरूर,’’ आकाश जो अब तक चुप बैठा था, बोल उठा, ‘‘शादी जैसे अहम मुद्दे पर जल्दबाजी में कोई भी फैसला लेना उचित नहीं होगा. तुम इत्मीनान से सोच कर जवाब देना. हम साकेत को भलीभांति जानते हैं. वह तुम पर अपनी मर्जी थोपना कभी भी पसंद नहीं करेगा.’’

‘‘हम भी उम्मीद का दामन कभी नहीं छोडें़गे, क्यों साकेत?’’ भाभी ने साकेत की ओर देखा.

‘‘जी, भाभी,’’ साकेत ने हंसते हुए कहा, ‘‘शतप्रतिशत, आप ने बड़े पते की बात कही है.’’

जलपान के बाद सब ने फिर एकदूसरे का अभिवादन किया और अलग हो गए.

आज की रात वेदश्री के लिए कयामत की रात बन गई थी. साकेत के प्रस्ताव को सुन वह बौखला सी गई थी. ये प्रश्न बारबार उस के मन में कौंधते रहे:

‘क्या मुझे साकेत का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए? यदि मैं ने ऐसा किया तो अभि का क्या होगा? हमारे उन सपनों का क्या होगा जो हम दोनों ने मिल कर संजोए थे? क्या अभि मेरे बिना जी पाएगा और उस से वादाखिलाफी कर क्या मैं जी पाऊंगी? नहीं…नहीं…मैं अपने प्यार का दामन नहीं छोड़ सकती. मैं साकेत से साफ शब्दों में मना कर दूंगी. नए रिश्तों को बनाने के लिए पुराने रिश्तों से मुंह मोड़ लेना कहां की रीति है?’

सोचतेसोचते वेदश्री को साकेत याद आ गया. उस ने खुद को टोका कि श्री तुम

डा. साकेत के बारे में क्यों नहीं सोच रहीं? तुम से प्यार कर के उन्होंने भी तो कोेई गलती नहीं की. कितना चाहते हैं वह तुम्हें? तभी तो एक इतना बड़ा डाक्टर दिल के हाथों मजबूर हो कर तुम्हारे पास चला आया. कितने नेकदिल इनसान हैं. भूल गईं क्या, जो उन्होंने मानव के लिए किया? यदि उन का सहारा न होता तो क्या तुम्हारा मानव दुनिया को दोनों आंखों से फिर से देख पाता? खबरदार श्री, तुम गलती से भी अपने दिमाग में इस गलतफहमी को न पाल बैठना कि साकेत ने तुम्हें पाने के इरादे से मानव के लिए इतना सबकुछ किया. आखिर तुम दुनिया की अंतिम खूबसूरत लड़की तो हो ही नहीं सकतीं न…दिल ने उसे उलाहना दिया.

साकेत के जाने के बाद पापामम्मी से हुई बातचीत का एकएक शब्द उसे याद आने लगा.

मां ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘बेटी, ऐसे मौके जीवन में बारबार नहीं आते. समझदार इनसान वही है जो हाथ आए मौके को हाथ से न जाने दे, उस का सही इस्तेमाल करे. बेटी, हो सकता है ऐसा मौका तुम्हारी जिंदगी के दरवाजे पर दोबारा दस्तक न दे…साकेत बहुत ही नेक लड़का है, लाखों में एक है. सुंदर है, नम्र है, सुशील है और सब से अहम बात कि वह तुम्हें दिल से चाहता है.’

पापा ने भी मम्मी के साथ सहमत होते हुए कहा था, ‘बेटी, डा. साकेत ने हमारे बच्चे के लिए जो कुछ भी किया, वह आज के जमाने में शायद ही किसी के लिए कोई करे. यदि उन्होंने हमारी मदद न की होती तो क्या हम मानव का इलाज बिना पैसे के करवा सकते थे?

‘यह बात कभी न भूलना बेटी कि हम ने मानव के इलाज के बारे में मदद के लिए कितने लोगों के सामने अपने स्वाभिमान का गला घोंट कर हाथ फैलाए थे, और हर जगह से हमें सिर्फ निराशा ही हाथ लगी थी. जब अपनों ने हमारा साथ छोड़ दिया तब साकेत ने गैर होते हुए भी हमारा दामन थामा था.’

‘अभिजीत अगर तुम्हारा प्यार है तो मानव तुम्हारा फर्ज है. फर्ज निभाने में जिस ने तुम्हारा साथ दिया वही तुम्हारा जीवनसाथी बनने योग्य है, क्योंकि सदियों से चली आ रही प्यार और फर्ज की जंग में जीत हमेशा फर्ज की ही हुई है,’ दिमाग के किसी कोने से वेदश्री को सुनाई पड़ा.

तपस्या : शादी को लेकर शैली का प्रयास

शैली उस दिन बाजार से लौट रही थी कि वंदना उसे रास्ते में ही मिल गई.

‘‘तू कैसी है, शैली? बहुत दिनों से दिखाई नहीं दी. आ, चल, सामने रेस्तरां में बैठ कर कौफी पीते हैं.’’

वंदना शैली को घसीट ही ले गई थी. जाते ही उस ने 2 कप कौफी का आर्डर दिया.

‘‘और सुना, क्या हालचाल है? कोई पत्र आया शिखर का?’’

‘‘नहीं,’’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर शैली का मन उदास  हो गया था.

‘‘सच शैली कभी तेरे बारे में सोचती हूं तो बड़ा दुख होेता है. आखिर ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी तेरे पिताजी को जो तेरी शादी कर दी? ठहर कर, समझबूझ कर करते. शादीब्याह कोई गुड्डे-गुडि़या का खेल तो है नहीं.’’

इस बीच बैरा मेज पर कौफी रख गया और वंदना ने बातचीत का रुख दूसरी ओर मोड़ना चाहा.

‘‘खैर, जाने दे. मैं ने तुझे और उदास कर दिया. चल, कौफी पी. और सुना, क्याक्या खरीदारी कर डाली?’’

पर शैली की उदासी कहां दूर हो पाई थी. वापस लौटते समय वह देर तक शिखर के बारे में ही सोचती रही थी. सच कह रही थी वंदना. शादीब्याह कोई गुड्डे – गुडि़या का खेल थोड़े ही होता है. पर उस के साथ क्यों हुआ यह खेल? क्यों?

वह घर लौटी तो मांजी अभी भी सो ही रही थीं. उस ने सोचा था, घर पहुंचते ही चाय बनाएगी. मांजी को सारा सामान संभलवा देगी और फिर थोड़ी देर बैठ कर अपनी पढ़ाई करेगी. पर अब कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था. वंदना उस की पुरानी सहेली थी. इसी शहर में ब्याही थी. वह जब भी मिलती थी तो बड़े प्यार से. सहसा शैली का मन और उदास हो गया था. कितना फर्क आ गया था वंदना की जिंदगी में और उस की  अपनी जिंदगी में. वंदना हमेशा खुश, चहचहाती दिखती थी. वह अपने पति के साथ  सुखी जिंदगी बिता रही थी. और वह…अतीत की यादों में खो गई.

शायद उस के पिता भी गलत नहीं होंगे. आखिर उन्होंने शैली के लिए सुखी जिंदगी की ही तो कामना की थी. उन के बचपन के मित्र सुखनंदन का बेटा था शिखर. जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था तभी  उन्होंने  यह रिश्ता तय कर दिया था. सुखनंदन ने खुद ही तो हाथ मांग कर यह रिश्ता तय किया था. कितना चाहते थे वह उसे. जब भी मिलने आते, कुछ न कुछ उपहार अवश्य लाते थे. वह भी तो उन्हें चाचाजी कहा करती थी.

‘‘वीरेंद्र, तुम्हारी यह बेटी शुरू से ही मां के अभाव में पली है न, इसलिए बचपन में ही सयानी हो गई है,’ जब वह दौड़ कर उन की खातिर में लग जाती तो वह हंस कर उस के पिता से कहते.

फिर जब शिखर इंजीनियर बन गया तो शैली के पिता जल्दी शादी कर देने के लिए दबाव डालने लगे थे. वह जल्दी ही रिटायर होने वाले थे और उस से पहले ही यह दायित्व पूरा कर लेना चाहते थे. पर जब सुखनंदन का जवाब आया कि शिखर शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रहा है तो वह चौंक पड़े थे. यह कैसे संभव है? इतने दिनों का बड़ों द्वारा तय किया रिश्ता…और फिर जब सगाई हुई थी तब तो शिखर ने कोई विरोध नहीं किया था…अब क्या हो गया?

शैली के पिता ने खुद भी 2-1 पत्र लिखे थे शिखर को, जिन का कोई जवाब नहीं आया था. फिर वह खुद ही जा कर शिखर के बौस से मिले थे. उन से कह कर शायद जोर डलवाया था उस पर. इस पर शिखर का बहुत ही बौखलाहट भरा पत्र आया था. वह उसे ब्लैकमेल कर रहे हैं, यह तक लिखा था उस ने. कितना रोई थी तब वह और पिताजी से भी कितना कहा था, ‘क्यों नाहक जिद कर रहे हैं? जब वे लोग नहीं चाहते तो क्यों पीछे पड़े हैं?’

‘ठीक है बेटी, अगर सुखनंदन भी यही कहेगा तो फिर मैं अब कभी जोर नहीं दूंगा,’ पिताजी का स्वर निराशा में डूबा हुआ था.

तभी अचानक शिखर के पिता को दिल का दौरा पड़ा था और उन्होंने अपने बेटे को सख्ती से कहा था कि वह अपने जीतेजी अपने मित्र को दिया गया वचन निभा देना चाहते हैं, उस के बाद ही वह शिखर को विदेश जाने की इजाजत देंगे. इसी दबाव में आ कर शिखर  शादी के लिए तैयार हो गया था. वह तो कुछ समझ ही नहीं पाई थी.  उस के पिता जरूर बेहद खुश थे और उन्होंने कहा था, ‘मैं न कहता था, आखिर सुखनंदन मेरा बचपन का मित्र है.’

‘पर, पिताजी…’ शैली का हृदय  अभी  भी अनचाही आशंका से धड़क रहा था.

‘तू चिंता मत कर बेटी. आखिरकार तू अपने रूप, गुण, समझदारी से सब का  दिल जीत लेगी.’

फिर गुड्डेगुडि़या की तरह ही तो आननफानन में उस की शादी की सभी रस्में अदा हो गई थीं. शादी के समय भी शिखर का तना सा चेहरा देख कर वह पल दो पल के लिए आशंकाओं से घिर गई थी. फिर सखीसहेलियों की चुहलबाजी में सबकुछ भूल गई थी.

शादी के बाद वह ससुराल आ गई थी. शादी की पहली रात मन धड़कता रहा था. आशा, उमंगें, बेचैनी और भय सब के मिलेजुले भाव थे. क्या होगा? पर शिखर आते ही एक कोने में पड़ रहा था, उस ने न कोई बातचीत की थी, न उस की ओर निहार कर देखा था.

वह कुछ समझ ही नहीं सकी थी. क्या गलती थी उस की? सुबह अंधेरे ही वह अपना सामान बांधने लगा था.

‘यह क्या, लालाजी, हनीमून पर जाने की तैयारियां भी शुरू हो गईं क्या?’ रिश्ते की किसी भाभी ने छेड़ा था.

‘नहीं, भाभी, नौकरी पर लौटना है. फिर अमरीका जाने के लिए पासपोर्ट वगैरह भी बनवाना है.’

तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया था वह. दूसरे कमरे में बैठी शैली ने सबकुछ सुना था. फिर दिनभर खुसरफुसर भी चलती रही थी. शायद सास ने कहा था, ‘अमरीका जाओ तो फिर बहू को भी लेते जाना.’

‘ले जाऊंगा, बाद में, पहले मुझे तो पहुंचने दो. शादी के लिए पीछे पड़े थे, हो गई शादी. अब तो चैन से बैठो.’

न चाहते हुए भी सबकुछ सुना था शैली ने. मन हुआ था कि जोर से सिसक पड़े. आखिर किस बात के लिए दंडित किया जा रहा था उसे? क्या कुसूर था उस का?

पिताजी कहा करते थे कि धीरेधीरे सब का मन जीत लेगी वह. सब सहज हो जाएगा. पर जिस का मन जीतना था वह तो दूसरे ही दिन चला गया था. एक हफ्ते बाद ही फिर दिल्ली से अमेरिका भी.

पहुंच कर पत्र भी आया था तो घर वालों के नाम. उस का कहीं कोई जिक्र नहीं था. रोती आंखों से वह देर तक घंटों पता नहीं क्याक्या सोचती रहती थी. घर में बूढ़े सासससुर थे. बड़ी शादीशुदा ननद शोभा अपने बच्चों के साथ शादी पर आई थी और अभी वहीं थी. सभी उस का ध्यान रखते थे. वे अकसर उसे घूमने भेज देते, कहते, ‘फिल्म देख आओ, बहू, किसी के साथ,’ पर पति से अपनेआप को अपमानित महसूस करती वह कहां कभी संतुष्ट हो पाती थी.

शोभा जीजी को भी अपनी ससुराल लौटना था. घर में फिर वह, मांजी और बाबूजी ही रह गए थे. महीने भर के अंदर ही उस के ससुर को दूसरा दिल का दौरा पड़ा था. सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया. बड़ी कठिनाई से हफ्ते भर की छुट्टी ले कर शिखर भी अमेरिका से लौटा था, भागादौड़ी में ही दिन बीते थे. घर नातेरिश्तेदारों से भरा था और इस बार भी बिना उस से कुछ बोले ही वह लौट गया था.

‘मां, तुम अकेली हो, तुम्हें बहू की जरूरत है,’ यह जरूर कहा था उस ने.

शैली जब सोचने लगती है तो उसे लगता है जैसे किसी सिनेमा की रील की तरह ही सबकुछ घटित हो गया था उस के साथ. हर क्षण, हर पल वह जिस के बारे में सोचती रहती है उसे तो शायद कभी अवकाश ही नहीं था अपनी पत्नी के बारे में सोचने का या शायद उस ने उसे पत्नी रूप में स्वीकारा ही नहीं.

इधर सास का उस से स्नेह बढ़ता जा रहा था. वह उसे बेटी की तरह दुलराने लगी थीं. हर छोटीमोटी जरूरत के लिए वह उस पर आश्रित होती जा रही थीं. पति की मृत्यु तो उन्हें और बूढ़ा कर गई थी, गठिया का दर्द अब फिर बढ़ गया था. कईर् बार शैली की इच्छा होती, वापस पिता के पास लौट जाए. आगे पढ़ कर नौकरी करे. आखिर कब तक दबीघुटी जिंदगी जिएगी वह? पर सास की ममता ही उस का रास्ता रोक लेती थी.

‘‘बहूरानी, क्या लौट आई हो? मेरी दवाई मिली, बेटी? जोड़ों का दर्द फिर बढ़ गया है.’’

मां का स्वर सुन कर तंद्रा सी टूटी शैली की. शायद वह जाग गई थीं और उसे आवाज दे रही थीं.

‘‘अभी आती हूं, मांजी. आप के लिए चाय भी बना कर लाती हूं,’’ हाथमुंह धो कर सहज होने का प्रयास करने लगी थी शैली.

चाय ले कर कमरे में आई ही थी कि बाहर फाटक पर रिकशे से उतरती शोभा जीजी को देखते ही वह चौंक गई.

‘‘जीजी, आप इस तरह बिना खबर दिए. सब खैरियत तो है न? अकेले ही कैसे आईं?’’

बरामदे में ही शोभा ने उसे गले से लिपटा लिया था. अपनी आंखों को वह बारबार रूमाल से पोंछती जा रही थी.

‘‘अंदर तो चल.’’

और कमरे में आते ही उस की रुलाई फूट पड़ी थी. शोभा ने बताया कि अचानक ही जीजाजी की आंखों की रोशनी चली गई है, उन्हें अस्पताल में दाखिल करा कर वह सीधी आ रही है. डाक्टर ने कहा है कि फौरन आपरेशन होगा. कम से कम 10 हजार रुपए लगेंगे और अगर अभी आपरेशन नहीं हुआ तो आंख की रोशनी को बचाया न जा सकेगा.

‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी  पड़े  हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.

जीजाजी की आंखों की रोशनी… उन के नन्हे बच्चे…सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के  आगे घूम गया था.

‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी  कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’

और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर  आगे रख दी थीं.

‘‘नहीं, शैली, नहीं…’’ शोभा स्तंभित थी.

फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’

‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.

पर शैली को अनोखा संतोष  मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा  दिया था.

8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह  प्रदर्शित नहीं कर  पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.

‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘मेरी  तो तबीयत तू देख ही रहा है, बेटे. बीच में तो और भी बिगड़ गई थी. बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी. बेचारी बहू ने ही सब संभाला. तेरे जीजाजी  की तो आंखों की रोशनी ही चली गई थी. उसी समय आपरेशन नहीं होता तो पता नहीं क्या होता. आपरेशन के लिए पैसों का भी सवाल था, लेकिन उसी समय बहू ने अपने जेवर दे कर तेरे जीजाजी  की आंखों की रोशनी वापस ला दी.’’

‘‘जेवर दे दिए…’’ शिखर हतप्रभ था.

‘‘हां, क्या करती शोभा? कह रही थी कि तुझे खबर कर के रुपए मंगवाए तो आतेआते भी तो समय लग जाएगा.’’

मां बहुत कुछ कहती जा रही थीं पर शिखर के सामने सबकुछ गड्डमड्ड हो गया था. शैली चुपचाप आ कर नाश्ता रख गई थी. वह नजर उठा कर  सिर ढके शैली को देखता रहा था.

‘‘मांजी, खाना क्या बनेगा?’’ शैली ने धीरे से मां से पूछा था.

‘‘तू चल. मैं भी अभी आती हूं रसोई में,’’ बेटे के आगमन से ही मां उत्साहित हो उठी थीं. देर तक उस का हालचाल पूछती रही थीं. अपने  दुखदर्द  सुनाती रही थीं.

‘‘अब बहू भी एम.ए. की पढ़ाई कर रही है. चाहती है, नौकरी कर ले.’’

‘‘नौकरी,’’ पहली बार कुछ चुभा शिखर के मन में. इतने रुपए हर महीने  भेजता हूं, क्या काफी नहीं होते?

तभी उस की मां बोलीं, ‘‘अच्छा है. मन तो लगेगा उस का.’’

वह सुन कर चुप रह गया था. पहली बार उसे ध्यान आया, इतनी बातों के बीच इस बार मां ने एक बार भी नहीं कहा कि तू बहू को अपने साथ ले जा. वैसे तो हर चिट्ठी में उन की यही रट रहती थी. शायद अब अभ्यस्त हो गई हैं  या जान गई हैं कि वह नहीं ले जाना चाहेगा. हाथमुंह धो कर वह अपने किसी दोस्त से मिलने के लिए घर से निकला  पर मन ही नहीं हुआ जाने का.

शैली ने शोभा को अपने जेवर दे  दिए, एक यही बात उस  के मन में गूंज रही थी. वह तो शैली और उस के पिता  दोनों को ही बेहद स्वार्थी समझता रहा था जो सिर्फ अपना मतलब हल करना जानते हों. जब से शैली के पिता ने उस के बौस से कह कर उस पर शादी के लिए दबाव डलवाया था तभी से उस का मन इस परिवार के लिए नफरत से भर गया था और उस ने सोच लिया था कि मौका पड़ने पर वह भी इन लोगों से बदला ले कर रहेगा. उस की तो अभी 2-4 साल शादी करने की इच्छा नहीं थी, पर इन लोगों ने चतुराई से उस के भोलेभाले पिता को फांस लिया. यही सोचता था वह अब तक.

फिर शैली का हर समय चुप रहना उसे खल जाता. कभी अपनेआप पत्र भी तो नहीं लिखा था उस ने. ठीक है, दिखाती रहो अपना घमंड. लौट आया तो  मां ने उस का खाना परोस दिया था. पास ही बैठी बड़े चाव से खिलाती रही थीं. शैली रसोई में ही थी. उसे लग रहा था कि  शैली जानबूझ कर ही उस  के सामने आने से कतरा रही है.

खाना खा कर उस ने कोई पत्रिका उठा ली थी. मां और शैली ने भी खाना खा लिया था. फिर मां को दवाई  दे कर शैली मां  के कमरे से जुड़े अपने छोटे से कमरे में चली गई और कमरे की बत्ती जला दी थी.

देर तक नींद नहीं आई थी शिखर को. 2-3 बार बीच में पानी पीने के बहाने  वह उठा भी था. फिर याद आया था पानी का जग  तो शैली  कमरे में ही  रख गई थी. कई बार इच्छा हुई थी चुपचाप उठ कर शैली को  आवाज देने की. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आज  पहली बार उसे क्या हो रहा है. मन ही मन वह अपने परिवार के बारे में सोचता रहा था. वह सगा बेटा हो कर भी घरपरिवार का इतना ध्यान नहीं रख पा रहा था. फिर शैली तो दूसरे घर की है. इसे क्या जरूरत है सब के लिए मरनेखपने की, जबकि उस का पति ही उस की खोजखबर नहीं ले रहा हो?

पूरी रात वह सो नहीं सका था. दूसरा दिन मां को डाक्टर के यहां दिखाने के लिए ले जाने, सारे परीक्षण फिर से करवाने में बीता था.

सारी दौड़धूप में शाम तक काफी थक चुका था वह. शैली अकेली कैसे कर पाती होगी? दिनभर वह भी तो मां के साथ ही उन्हें सहारा दे कर चलती रही थी. फिर थकान के  बावजूद रात को मां से पूछ कर उस की पसंद के कई व्यंजन  खाने  में बना लिए थे.

‘‘मां, तुम लोग भी साथ ही खा लो न,’’ शैली की तरफ देखते हुए उस ने कहा था.

‘‘नहीं, बेटे, तू पहले गरमगरम खा ले,’’ मां का स्वर लाड़ में भीगा हुआ था.

कमरे में आज अखबार पढ़ते हुए शिखर का मन जैसे उधर ही उलझा रहा था. मां ने शायद खाना खा लिया था, ‘‘बहू, मैं तो थक गईर् हूं्. दवाई दे कर बत्ती बुझा दे,’’ उन की आवाज आ रही थी. उधर शैली रसोईघर में सब सामान समेट रही थी.

‘‘एक प्याला कौफी मिल सकेगी क्या?’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े हो कर उस ने कहा था.

शैली ने नजर उठा कर देखा भर था. क्या था उन नजरों में, शिखर जैसे सामना ही नहीं कर पा रहा था.

शैली कौफी का कप मेज पर रख कर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि शिखर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बैठो.’’

उस के कदम ठिठक से गए थे. दूर की कुरसी की तरफ बैठने को उस के कदम बढ़े ही थे कि शिखर ने धीरे से हाथ खींच कर उसे अपने पास पलंग पर बिठा लिया था.

लज्जा से सिमटी वह कुछ बोल भी नहीं पाई थी.

‘‘मां की तबीयत अब तो काफी ठीक जान पड़ रही है,’’ दो क्षण रुक कर शिखर ने बात शुरू करने का प्रयास किया था.

‘‘हां, 2 दिन से घर में खूब चलफिर रही हैं,’’ शैली ने जवाब में कहा था. फिर जैसे उसे कुछ याद हो आया था और वह बोली थी, ‘‘आप शोभा जीजी से भी मिलने जाएंगे न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मांजी को भी साथ ले जाइएगा. थोड़ा परिवर्तन हो जाएगा तो उन का मन बदल जाएगा. वैसे….घर से जा भी कहां पाती हैं.’’

शिखर चुपचाप शैली की तरफ देखता भर रहा था.

‘‘मां को ही क्यों, मैं तुम्हें भी साथ ले चलूंगा, सदा के लिए अपने साथ.’’

धीरे से शैली को उस ने अपने पास खींच लिया था. उस के कंधों से लगी शैली का मन जैसे उन सुमधुर क्षणों में सदा के लिए डूब जाना चाह रहा था.

कोई शर्त नहीं: ट्रांसफर की मारी शशि बेचारी

Story in Hindi

इंतजार तो किया होता : आरिफ की मासूम बेवफाई

कालेज का पहला दिन था, इसलिए शब्बी कुछ जल्दी ही आ गई थी. वह बहुत ही सुंदर और शर्मीली लड़की थी. उसे कम बोलना पसंद था.

धीरेधीरे कालेज में शब्बी की जानपहचान बढ़ती गई. लड़के तो उस की तारीफ करते न थकते, पर शब्बी किसी भी लड़के की तरफ अपनी नजर नहीं उठाती थी.

एक दिन आसमान पर बादल घिर आए थे. बिजली चमक रही थी. शब्बी तेज कदम बढ़ाते हुए अपने घर की तरफ जा रही थी. अचानक बूंदाबांदी शुरू हो गई, तो वह एक घर के बरामदे में जा कर खड़ी हो गई.

अचानक शब्बी की नजर एक खूबसूरत लड़के आरिफ पर पड़ी. वह उसे देख कर घबरा गई. तभी आरिफ ने मुसकान फेंकते हुए कहा, ‘‘शब्बीजी, आप अंदर आइए न… बाहर क्यों खड़ी हैं?’’

शब्बी यह बात सुन कर शरमा गई और बारिश में ही अपने घर की तरफ चलने लगी. आरिफ ने बांह पकड़ कर उसे अपनी ओर खींच लिया, ‘‘बुरा मान गई. मैं कोई पराया थोड़े ही हूं…’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ शब्बी ने झेंपते हुए कहा. बारिश धीरेधीरे कम होती जा रही थी. जल्दी ही शब्बी अपने घर की तरफ चल पड़ी.

शब्बी सारी रात करवटें बदलती रही. उस की आंखें आरिफ को खोज रही थीं. उस का बड़े ही प्यार से ‘शब्बीजी’ कहना उसे बहुत पसंद आया था. आरिफ भी उसी कालेज में पढ़ता था. धीरेधीरे दोनों की जानपहचान बढ़ी और फिर मुलाकातें होने लगीं.

एक दिन आरिफ ने कहा, ‘‘शब्बी, मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं, अब एक पल की भी जुदाई मुझ से सहन नहीं होती… मैं तुम्हारे घर वालों से तुम्हें मांग लूंगा और दुलहन बना कर अपने घर ले आऊंगा.’’

उस दिन शब्बी ज्यों ही घर पहुंची, उस की नजर कुछ अनजानी औरतों पर पड़ी. पर वह नजरअंदाज करते हुए अपने कमरे की तरफ चली गई.

तभी उस की मां मिठाई का एक डब्बा लिए उस के कमरे में आईं, तो शब्बी झट पूछ बैठी, ‘‘मां, आज मिठाई किस खुशी में लाई हो?’’

सायरा बेगम ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘बेटी, बहुत बड़ी खुशखबरी है. पहले मिठाई खाओ, फिर मैं बताऊंगी.’’

‘‘अच्छा, अब बताइए,’’ शब्बी ने मिठाई खाते हुए पूछा.

‘‘बेटी, खुशी की बात यह है कि तुम्हारा रिश्ता पक्का हो गया है.’’

मां की यह बात सुन कर शब्बी का दिल जोर से धड़कने लगा. उस की नजरों में आरिफ का मासमू चेहरा घूमने लगा. वह बेकरार हो उठी और आरिफ के घर की ओर चल पड़ी.

आरिफ उस वक्त कोई गीत गुनगुना रहा था. शब्बी को इस कदर परेशान और दुखी देख कर वह चौंक उठा, ‘‘क्या हुआ शब्बी? तुम इस तरह परेशान क्यों हो?

‘‘आरिफ…’’ शब्बी कांपते हुए बोली, ‘‘मां ने मेरी शादी पक्की कर दी है. मैं अब तुम्हारे बिन एक पल भी…’’

‘‘छोड़ो भी यह फिल्मी अंदाज…’’ आरिफ ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘ठीक है, शादी कर लो… आखिर कब तक कुंआरी बैठी रहोगी. तुम अपनी मां की बात नहीं मानोगी क्या?’’

आरिफ की यह बात सुन कर शब्बी की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. वह कांपती आवाज में बोली, ‘‘आरिफ, मैं नहीं जानती थी कि तुम इस कदर बेवफा हो,’’ इतना कह कर शब्बी ने खिड़की के रास्ते नीचे छलांग लगा दी.

यह देख कर आरिफ चीख पड़ा. वह दौड़ता हुआ लहूलुहान शब्बी के पास पहुंचा. ‘‘शब्बी, यह तू ने क्या कर लिया… देखो शब्बी, मैं हूं… हां, मैं… तुम्हारा आरिफ… तुम्हारा हमराज… आंखें खोलो… कुछ पल तो इंतजार किया होता.

‘‘वह तो मैं ने ही अपनी मां को तुम्हारे घर भेजा था तुम्हें अपनी दुलहन बनाने के लिए. उठो शब्बी, मेरी दुलहन.’’

आरिफ दीवानों की तरह चिल्लाए जा रहा था, लेकिन शब्बी तो अब इस दुनिया से बहुत दूर जा चुकी थी.

अफसोस : बाबा के चंगुल में शादीशुदा सायरा

सायरा की शादी अब्दुल से  5 साल पहले हुई थी. अब्दुल की उम्र उस समय 30 साल थी और सायरा की उम्र सिर्फ 20 साल. अब्दुल देखने में सीधासादा, सांवले रंग का था, पर एक अच्छीखासी जायदाद का मालिक भी था. यही वजह थी कि सायरा और उस की मां ने अब्दुल को पसंद किया था.

शादी से पहले ही सायरा ने अब्दुल को अच्छी तरह देखभाल लिया था, जबकि सायरा के बाप और भाई इस शादी के खिलाफ थे. लेकिन सायरा और उस की मां की जिद के आगे उन की एक न चली और जल्द ही वे दोनों शादी के रिश्ते में बंध गए.सायरा जैसी बीवी पा कर अब्दुल की खुशी का ठिकाना न रहा. हो भी क्यों न… सायरा थी ही बला की खूबसूरत. उस के सुर्ख गुलाबी होंठ ऐसे लगते थे मानो गुलाब की पंखुड़ी खिलने के लिए बेताब हो.

जब सायरा हंसती थी तो उस सफेद दांत ऐसे लगते थे मानो मुंह से मोती बिखर रहे हों. लंबे, काले और घने बालों ने तो उस की खूबसूरती में चार चांद लगा दिए थे. उस की पतली कमर और गदराए बदन का तो कहना ही क्या था.शादी को अभी 4 साल ही गुजरे थे कि उन के घर में 3 बच्चों की किलकारियां गूंज चुकी थीं. सायरा की मां भी अपनी बेटी के साथ मुंबई में रहने के लिए आ गई थी.अब्दुल की दुकान भी बढि़या चल रही थी. घर में किसी बात की कोई कमी न थी.

अभी भी अब्दुल सायरा के साथ किराए के घर में रह रहा था, क्योंकि मुंबई में घर खरीदना इतना आसान न था. पर अब्दुल की कमाई इतनी थी कि बच्चों की अच्छी परवरिश और अच्छा खानपान आसानी से हो रहा था.पर एक बात बड़ी अजीब थी.

अब्दुल को देख कर कभी सायरा की दोस्त तो कभी सायरा के रिश्तेदार उसे यह तंज कसते रहते थे कि ‘तुम ने अब्दुल में क्या देख कर शादी की… कहां वह सांवला और बदसूरत, इतनी बड़ी उम्र का और कहां तुम बिलकुल हीरोइन सी खूबसूरत’.शुरूशुरू में तो सायरा उन सब की बातों को नजरअंदाज करती रही, लेकिन बारबार सब से यही बातें सुनसुन कर उस के भी दिल में भी अब्दुल के लिए नफरत जागने लगी. अब वह अब्दुल से कटीकटी सी रहने लगी.

एक दिन सायरा की मां ने उसे मशवरा दिया कि अब्दुल अपने गांव की सारी जमीन बेच दे और यहां मुंबई में अपना बड़ा फ्लैट खरीद ले. सायरा ने जैसे ही यह बात अब्दुल के सामने रखी, वह तुरंत तैयार हो गया और गांव जा कर अपने अब्बा और भाइयों से अपने हिस्से को बेचने की बात कही.

अब्दुल के अब्बा और भाइयों ने उसे काफी समझाया, पर उस ने किसी की न सुनी और अपनी बात पर अटल रहा. जल्द ही उस के अब्बा को उस के आगे झुकना पड़ा और अपना बाग, खेत और उस के हिस्से की दुकान बेचनी पड़ी. इस जल्दबाजी के सौदे में अब्दुल के भाई को काफी नुकसान उठाना पड़ा.

अब्दुल ने वापस आ कर मुंबई में  2 कमरों का फ्लैट खरीद लिया. कुछ महीनों तक तो सबकुछ सही चला, पर अब सायरा के दोस्तों की तादाद बढ़ चुकी थी. सायरा की मां भी ब्यूटीपार्लर जा कर स्मार्ट बन कर रहने लगी. अब आएदिन घर पर कोई न कोई इन दोनों की दोस्त आती रहती थीं और अब्दुल को देख कर उस पर तंज कसती रहती थीं.

अब तो खुद सायरा और उस की मां भी अब्दुल का मजाक उड़ाने में पीछे नहीं रहती थीं. अब्दुल इतना ज्यादा बेवकूफ था कि उस ने सायरा को तो पूरी आजादी दे रखी थी और खुद दिनरात काम में इतना बिजी रहता था कि उसे अपने हुलिए को सुधारने का भी खयाल नहीं आता था.

यही वजह थी कि सायरा धीरेधीरे उस से दूर होती जा रही थी. वह चाहती थी कि अब्दुल उस के नाम घर कर दे, पर अब्दुल तैयार न हुआ. सायरा ने अब्दुल से बातचीत बंद कर दी.सायरा की मां और उस की दोस्तों ने सायरा को एक बाबा का पता बताया और कहा कि बाबा ऐसा तावीज देंगे कि अब्दुल तुम्हारी उंगलियों पर नाचेगा.

अगले दिन सायरा और उस की मां बाबा के पास पहुंच गईं और सारी बात बताई. बाबा उन की बातों को सुन कर समझ चुका था कि ये लालची लोग हैं, इन्हें लूटा जाए. बाबा ने कहा, ‘‘काम तो हो जाएगा, लेकिन इस में एक महीना लगेगा और तकरीबन 5 लाख रुपए का खर्च आएगा. धीरेधीरे अब्दुल के दिमाग को काबू में करना पड़ेगा, जिस से वह तुम्हारी हर बात मान ले. इस में 7 बकरों की कुरबानी देनी पड़ेगी.

‘‘कुछ तावीज अब्दुल के तकिए के नीचे सावधानी से रखने होंगे. उसे पता न चले. कुछ तावीज तुम्हें पहनने होंगे, जो जाफरान से बनाए जाएंगे. पहले 2 लाख रुपए एडवांस और 3 लाख रुपए एक हफ्ते बाद देने पड़ेंगे.’’सायरा और उस की मां तैयार हो गईं.

अगले दिन सायरा ने उस ढोंगी बाबा को पैसे दिए और बाबा ने उसे 3 तावीज अब्दुल के तकिए के भीतर रखने के लिए दे दिए और 7 तावीज सायरा को देते हुए बोला, ‘‘ये तावीज पानी में डाल कर एकएक कर के 7 दिन तक पी लेना और हां, जब तक काम पूरा न हो जाए, तुम अपने शौहर के पास बिलकुल मत सोना.’’अब सायरा और उस की मां को पूरा भरोसा हो गया था कि अब्दुल उन का कहना मानेगा और वह घर हमारे नाम कर देगा.सायरा ने अब्दुल से बात करना बंद कर दिया. अब्दुल जब भी सायरा से बात करने की कोशिश करता, तो वह एक ही जवाब देती कि ‘पहले यह घर मेरे नाम करो. जब तक तुम मेरी बात नहीं मानोगे, मेरे साथ बात मत करना और न ही मेरे पास आना’.

अब्दुल ने सायरा को समझाने की पूरी कोशिश की, ‘‘हमारे इस झगड़े में बच्चों पर गलत असर पड़ रहा है. मेहरबानी कर के यह झगड़ा बंद कर दो.’’पर सायरा उस की एक भी बात सुनने को तैयार न थी. इस झगड़े से अब्दुल का कारोबार भी दिन ब दिन बिखरता जा रहा था.अब्दुल ने सोचा, ‘क्यों न सायरा के नाम वसीयत कर दूं… वह भी खुश हो जाएगी…’ और उस ने अगले दिन सायरा से कहा, ‘‘मैं तुम्हारे नाम वसीयत कर देता हूं. इस के बाद तो तुम खुश हो जाओगी न?’’

यह सुन कर सायरा बोली, ‘‘ठीक है, मैं कल वकील को बुला लेती हूं. तुम मेरे नाम वसीयत कर दो.’’अब्दुल यह सुन कर खुश हो गया कि अब झगड़ा खत्म हो जाएगा और उस ने मुहब्बत भरी नजरों से सायरा को देखा और अपनी बांहों में भर लिया.सायरा एक ही झटके में अब्दुल से अलग होते हुए बोली, ‘‘पहले वसीयत तो करो, उस के बाद मेरे पास आना.’’अब्दुल खुश था कि एक ही दिन की तो बात है. कल वह सायरा के नाम वसीयत कर देगा, तो फिर उस से ढेर सारा प्यार करेगा.

पर अब्दुल इस बात से अनजान था कि कल क्या ड्रामा होने वाला है. सायरा ने जब अपनी मां से इस बात का जिक्र किया, तो वह झट से बोली, ‘‘बाबाजी के तावीज का असर हो रहा है. इस बारे में पहले बाबाजी से बात करते हैं, उस के बाद कोई फैसला लेना. जब वह वसीयत के लिए तैयार हो गया है तो जल्द ही तुम्हारे नाम घर करने के लिए भी तैयार हो जाएगा, बस तुम थोड़ा सब्र करो.’’

उन्होंने जब बाबा से इस बारे में बात की, तो उन्होंने यही बोला, ‘‘एक हफ्ते में इतना असर हो गया है, तुम बाकी रकम ले कर मेरे पास आ जाओ. मैं तुम्हें कल और तावीज देता हूं. 7 बकरों की कुरबानी भी देनी है, फिर देखना कि तुम जैसा चाहोगी, वैसा ही होगा.’’अगले दिन सायरा ने अपनी बांहें अब्दुल के गले में डालते हुए कहा, ‘‘वकील कल आएगा जानू. तुम अभी काम पर जाओ.

रात में बात करते हैं.’’अब्दुल के जाते ही दोनों मांबेटी ने अब्दुल के रखे हुए पैसों में से बाकी के पैसे भी उठा लिए और उस ढोंगी बाबा के पास पहुंच गईं. बाबा ने उन से पैसे लिए और तावीज देते हुए कहा, ‘‘अभी 7 दिन का और  इंतजार करो. उसे अपने पास बिलकुल मत आने देना. इस बीच अगर वह तुम्हारा कहना मान ले, तो जल्दी उस काम को अंजाम दे देना, उस के बाद ही अपनेआप को छूने देना.’’

शाम को जब अब्दुल घर आया, तो मौका देख कर उस ने सायरा को अपनी बांहों में जकड़ लिया. सायरा झल्लाते हुए फौरन अलग हो गई. उस की आवाज सुन कर मां भी वहां आ गईं और अब्दुल को बुराभला कहते हुए बोलीं, ‘‘क्यों मेरी लड़की को परेशान करता रहता है? जब इस ने मना कर दिया है, तो क्यों इस के कमरे में आता है?’’

अब्दुल यह सब देख कर हैरान था, पर वह कुछ न बोल सका और चुपचाप अपने कमरे में चला गया.अगले दिन वकील आया, तो सायरा ने अब्दुल को फोन कर के घर बुला लिया. अब्दुल ने वकील से कहा, ‘‘मुझे अपनी बीवी सायरा के नाम वसीयत बनानी है कि मेरे मरने के बाद यह घर मेरी बीवी को मिले.’’इस पर सायरा और उस की मां बिफर गईं. सायरा बोली, ‘‘कोई वसीयत नहीं… क्या पता कि तुम बाद में बदल जाओ. घर मेरे नाम पर करो.’’अब्दुल इस बात के लिए तैयार नहीं हुआ.

अब्दुल ने सायरा को काफी समझाया. उस के हाथ जोड़े, पैर पकड़े. अपने मासूम बच्चों का वास्ता दिया, लेकिन सायरा अपनी जिद पर कायम रही और उस ने अब्दुल की एक न सुनी, क्योंकि उसे पूरा यकीन था कि बाबाजी उस का दिमाग जरूर बदलेंगे और यह घर उस का हो जाएगा.इसी बीच सायरा की मुलाकात अपने पहले आशिक से हो गई, जो शादी से पहले उस से प्यार करता था.

सायरा अपनी मां की मौजूदगी में ही उस से मिलने जाने लगी, क्योंकि वह आशिक उस की मां की दूर की बहन का बेटा था. उस की मां भी उसे पसंद करती थी, मगर गरीब होने की वजह से इन दोनों की शादी न हो पाई थी. अब्दुल इस बात से अनजान था. वह इसी उम्मीद में था कि एक न एक दिन सायरा को अपनी गलती का अहसास होगा.लेकिन अब्दुल का ऐसा सोचना गलत था. सायरा अपने उस आशिक के साथ खुश थी, जो उस का ही हमउम्र और खूबसूरत था.

अब तो सायरा अब्दुल की सूरत भी देखना पसंद नहीं करती थी. वह तो इस ताक में थी कि किसी तरह यह घर मिल जाए, फिर इसे बेच कर जिंदगी की नई शुरुआत करे.अब्दुल काफी हताश हो चुका था. आखिर वह दिन भी आ गया, जब अब्दुल ने अपना घर सायरा के नाम कर दिया.

घर नाम होते ही सायरा और उस की मां की खुशी का ठिकाना न रहा. अब तो सायरा का आशिक खुलेआम उस के घर पर आने लगा. अब्दुल कुछ बोलता तो मांबेटी उसे धमका देती थीं.अब्दुल अपना दिमागी संतुलन खो रहा था. वह तो सायरा की याद में गुम रहता, लेकिन सायरा उसे कोई भाव न देती. आखिर सायरा और उस की मां ने अब एक नया दांव चला.

उन्हें किसी भी कीमत पर अब्दुल से छुटकारा चाहिए था. जब आसपड़ोस के लोग सायरा को समझाते तो वह उन से बोलती कि अब्दुल नामर्द है. अब्दुल इन सब बातों से अनजान पागलों की तरह जिंदगी गुजार रहा था. उस की इस हालत के बारे में जब अब्दुल के भाइयों को पता चला, तो वे उसे लेने मुंबई आ गए. उन्होंने सायरा से बात की, तो वह तपाक से बोली, ‘‘मैं एक नामर्द के साथ जिंदगी नहीं गुजार सकती. मुझे इस से तलाक चाहिए.’’

अब्दुल ने जब यह सुना, तो वह दंग रह गया. कुछ ही दिनों में अब्दुल और सायरा का तलाक हो गया. अब्दुल के भाई उसे और उस के बच्चों को गांव ले गए. धीरेधीरे अब्दुल की तबीयत में सुधार आने लगा. अब उसे अपने बच्चों की फिक्र थी. वह उन के लिए कुछ करना चाहता था. एक दिन अब्दुल के पार्टनर का फोन आया और उस ने उस से वापस मुंबई आने को कहा. अब्दुल वापस मुंबई आ गया. उस के पार्टनर ने उस की दुकान और बचत उसे दी और काम संभालने को कहा.

इधर सायरा वह घर बेच कर कहीं और चली गई थी. उस का कुछ पता न था. वैसे, उड़तीउड़ती खबर अब्दुल को भी मिलती रहती थी. अब्दुल के दोस्तों ने मिल कर उस की दूसरी शादी एक बेवा औरत से करवा दी, जिस के 2 मासूम बच्चे थे और कुछ ही दिनों में अब्दुल अपने बच्चों को भी ले आया.अब्दुल ने कड़ी मेहनत की और एक छोटी सी खोली खरीद ली.

वह अपने बीवीबच्चों के साथ बेहतर जिंदगी गुजरने लगा और दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा.उधर सायरा के आशिक ने सब पैसे घूमनेफिरने में उड़ा दिए और जब सब पैसे खत्म हो गए तो वह सायरा और उस की मां को छोड़ कर चला गया, क्योंकि उस ने सायरा से शादी नहीं की थी. वह तो केवल दौलत के लालच में उस के साथ रह रहा था.

सायरा और उस की मां को अब खाने के भी लाले पड़ने लगे और मजबूर हो कर दोनों मांबेटी को दूसरों के घरों में साफसफाई का काम करना पड़ रहा था.फिर एक दिन अचानक एक ऐसी घटना घटी, जिस ने सायरा को अपाहिज बना दिया. उसे लकवा मार गया था.

सायरा अब बिस्तर पर पड़ी सोचती रहती है कि अगर वह उस ढोंगी बाबा और अपनी मां के चक्कर में न पड़ती तो यह हालत न होती.सायरा की मां ने एक दिन अब्दुल को फोन किया और सारी बातें बताईं. अब्दुल उन के बताए हुए पते पर सायरा से मिलने गया. वहां का नजारा देख कर अब्दुल का दिल रो पड़ा. सायरा सूख कर कांटा हो चुकी थी. वह एक जिंदा लाश बन कर पलंग पर पड़ी थी. उस की एक गलती ने हंसताखेलता परिवार बरबाद कर दिया था.

 

काले घोड़े की नाल: आखिर क्या था काले घोड़े की नाल का रहस्य ?

Story in Hindi

घर का सादा खाना : प्रिया की उलझन

अनिल और बच्चे शुभम व शुभी औफिस चले गए तो प्रिया कुछ देर बैठ कर पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. अचानक नजर नई रैसिपी पर पड़ी. पढ़ते ही मुंह में पानी आ गया. सामग्री देखी. सारी घर में थी. प्रिया को नईनई चीजें ट्राई करने का शौक था.

खानेपीने का शौक था तो ऐक्सरसाइज कर के अपने वेट पर भी पूरी नजर रखती थी. एकदम बढि़या फिगर थी. कोई शारीरिक परेशानी भी नहीं थी. वह अपनी लाइफ से पूरी तरह संतुष्ट थी. बस आजकल अनिल और बच्चों पर घर का सादा खाना खाने का भूत सवार था.

प्रिया अचानक अपने परिवार के बारे में सोचने लगी. अनिल हमेशा से बिग फूडी रहे हैं पर अब अचानक अपनी उम्र की, अपनी सेहत की कुछ ज्यादा ही सनक रहने लगी है. हैल्दी रहने का शौक तो पूरे परिवार को है पर यह कोई बात थोड़े ही है कि इंसान एकदम उबली सब्जियों पर ही जिंदा रहे और वह भी तब जब कोई तकलीफ भी न हो. उस पर मजेदार बात यह हो कि औफिस में सब चटरपटर खा लें पर घर पर कुछ टेस्टी बन जाए तो सब की नजर तेल, मसाले, कैलोरीज पर रहे.

अब टेस्टी चीजें कैलोरीज वाली होती हैं तो प्रिया की क्या गलती है. उस के पीछे पड़ जाते हैं सब कि कितना हैवी खाना बना दिया है. आप को पता नहीं कि हैल्दी खाना चाहिए. भई, मुझे तो यह भी पता है कि कभीकभी खा भी लेना चाहिए. इस बात पर आजकल प्रिया का मूड खराब हो जाता है. भई, तुम लोग इतने हैल्थ कौंशस हो तो औफिस में भी उबला खाओ.

शाम को कभी किसी से पूछ लो कि आज औफिस में क्या खाया तो ऐसीऐसी चीजें बताई जाती हैं कि प्रिया की नजरों के सामने घूम जाती हैं और उस के मुंह में पानी आ जाता है.

मन में दुख होता है कि मैं जब मूंग की दाल और लौकी की सब्जी खा रही थी, तो ये लोग पिज्जा और बिरयानी खा रहे थे और अनिल का यह ड्रामा रहता है कि टिफिन घर से ही ले कर जाना है, उन्हें घर का सादा खाना ही खाना है.

वह सुबह उठ कर 3-3 हैल्दी टिफिन तेयार करती है और शाम को पता चलता है कि लजीज व्यंजन उड़ाए गए हैं. खून जल जाता है प्रिया का. यह उस की गलती है न कि वह एक हाउसवाइफ है, घर में रहती है, रोज बाहर जा कर कभी कुछ डिफरैंट नहीं खा पाती. उसे तो वही खाना है न जो टिफिन के लिए बना हो. वह कहां जा कर अपना टेस्ट बदले.

किट्टी पार्टी एक दिन होती है, अच्छा लगता है. आजकल तो कभी जब वीकैंड में बाहर खाना खाने जाते हैं, तो प्रिया मेनू कार्ड देखते हुए मन ही मन एक से एक बढि़या नई डिशेज देख ही रही होती है कि अनिल फरमाते हैं कि सूप और सलाद खाते हैं. प्रिया को तेज झटका लगता है. सूप तो पसंद है उसे पर सलाद? यह क्या है, क्यों हो रहा है उस के साथ ऐसा?

पास्ता, वैज कबाब, कौर्न टिक्की और दही कबाब, जो उस की जान हैं, इन में आजकल अनिल को ऐक्स्ट्रा तेल नजर आ रहा है. भई, जब वह अब तक अपने परिवार की हैल्थ का ध्यान रखती आई है तो फिर कभीकभी तो ये सब खाया जा सकता है न? सलाद खाने तो वह नहीं आई है न 20 दिन बाद बाहर?

बच्चों ने भी जब अनिल की हां में हां मिलाई तो प्रिया सुलग गई और सूप व सलाद खाती रही. मन में तो यही चल रहा था कि ढोंगी लोग हैं ये. यह शुभम अभी 2 दिन पहले अपने फ्रैंड्स के साथ बारबेक्यू नेशन में माल उड़ा कर आया है और यह शुभी की बच्ची औफिस में तरहतरह की चीजें खा कर आती है.

शाम को घर आ कर कहती है कि मौम, डिनर हलका दिया करो, स्नैक्स हैवी हो जाते हैं. अरे भई, मेरी भी तो सोचो तुम लोग, घर का सादा खाना खाने का गाना मुझे क्यों सुनाते हो… मेरी जीभ रो रही है… अब क्या टेस्टी, मजेदार खाना खाने के लिए तुम लोगों को सचमुच रो कर दिखाऊं… अगर अच्छीअच्छी चीजें खाने के लिए सचमुच किसी दिन रोना आ गया न मुझे तो पता है मुझे, सारी उम्र मेरा मजाक उड़ाया जाएगा.

अभी अनिल की 5 दिन की मीटिंग थी. रोज शानदार लंच था. सुबह ही बता जाते कि शाम को कुछ खिचड़ी टाइप चीज बना कर रखना. कुछ दिन लंच बहुत हैवी रहेगा. मेरी आंखों में आंसू आतेआते रुके. शुभम और शुभी वीकैंड में अपने दोस्तों के साथ बाहर ही लाइफ ऐंजौय कर लेते हैं. बचा कौन? मैं ही न?

अब खाने के लिए रोना उसे भी अच्छा नहीं लग रहा है पर क्या करे, मन तो होता है न कभीकभी कुछ बाहर टेस्टी खाने का… कभीकभी अनहैल्दी भी चलता है न… यहां तक कि इन तीनों ने चाट खाना भी बंद कर दिया है, क्योंकि तीनों का औफिस में कुछ न कुछ बाहर का खाना हो ही जाता है.

अब बताइए, 6 महीनों में कभी छोलों के साथ भठूरे नहीं बन सकते? पर नहीं, रात में जैसे ही छोले भिगोती हूं, तीनों में से कोई भी शुरू हो जाता है कि भठूरे मत बनाना, बस रोटी या राइस… मन होता है छोलों का पतीला बोलने वाले के सिर पर पलट दूं… यह जरूरी क्यों हो कि घर में बस सादा ही खाना बने?

घर में भी तो कभी टेस्ट चेंज किया जा सकता है न?

पता नहीं तीनों कौन से प्लैनेट के निवासी बनते जा रहे हैं. यही फलसफा बना लिया है कि घर में खाएंगे तो सादा ही (बाकी माल तो बाहर उड़ा ही लेंगे.

पिछली किट्टी पार्टी में अगर अंजलि के घर खाने में पूरियां न होतीं, तो पूरियां खाए उसे साल हो जाता. बताओ जरा, उत्तर भारतीय महिला को अगर पूरियां खाए साल हो रहा हो तो यह कहां का न्याय है? अब कभी रसेदार आलू की सब्जी या पेठे की सब्जी, रायते के साथ पूरी नहीं खा सकते क्या? अहा, मन तृप्त हो जाता था खा कर. अब ये ढोंगी लोग कहते हैं कि हमारे लिए तो रोटी ही बना देना. अब अपने लिए 2-3 पूरियों के लिए कड़ाही चढ़ाती अच्छी लगूंगी क्या?

बस अब प्रिया के हाथ में था गृहशोभा का सितंबर, द्वितीय अंक और रैसिपी थी सामने गोभी पकौड़ा और अचारी मिर्च पकौड़ा. 2-3 बार दोनों रैसिपीज पढ़ीं. मुंह पानी से भर गया. पढ़ कर ही इतना खुश हुआ दिल… खा कर कितना मजा आएगा… बहुत हो गया घर का सादा खाना और सब से अच्छी बात यह है कि गोभी, समोसे बेक करने का भी औप्शन था तो वह बेक कर लेगी. तीनों कम रोएंगे, थोड़ा पुलाव भी बना लेगी, परफैक्ट, बस डन.

तीनों लगभग 8 बजे आए. आज प्रिया का चेहरा डिनर के बारे में सोच कर ही चमक रहा था. वैसे तो बनातेबनाते भी 2-3 समोसे खा चुकी थी… मजा आ गया था. पेट और जीभ बेचारे थैंक्स ही बोलते रहे थे जैसे तरसे हुए थे दोनों मुद्दतों से…

चारों इकट्ठा हुए तो प्रिया ने ‘आज फिर जीने की तमन्ना है…’ गाना गाते हुए खाना लगाया तो तीनों ने टेबल पर नजर दौड़ाई. अनिल के माथे पर त्योरियां पड़ गईं, ‘‘फ्राइड समोसे डिनर में? प्रिया, क्यों तुम सब की हैल्थ के लिए केयरलैस हो रही हो?’’

‘‘अरे, समोसे बेक्ड हैं, डौंट वरी.’’

‘‘पर मैदे के तो हैं न?’’

प्रिया का मन हुआ बोले कि कल जो पिज्जा उड़ाया था वह किस चीज का बना था? पर लड़ाईझगड़ा उस की फितरत में नहीं था. इसलिए चुप रही.

शुभम ने कहा, ‘‘मां, पकौड़े तो फ्राइड हैं न? मैं सिर्फ पुलाव खाऊंगा.’’

प्रिया ने शुभी को देखा, तो वह बोली, ‘‘मौम, आज औफिस में रिया ने बहुत भुजिया खिला दी… अब भी खाऊंगी तो बहुत फ्राइड हो जाएगा… मैं पुलाव ही खाऊंगी.’’

डिनर टाइम था. सब सुबह के गए अब एकसाथ थे. शांत रहने की भरसक कोशिश करते हुए प्रिया ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम लोग सिर्फ पुलाव खा लो,’’

अनिल ने एक समोसा उस का मूड देखते हुए चख लिया, बच्चों ने पुलाव लिया. प्रिया ने जब खाना शुरू किया, सारा तनाव भूल उस का मन खिल उठा. जीभ स्वाद ले कर जैसे लहलहा उठी. आंसू भर आए, इतना स्वादिष्ठ घर का खाना. वाह, कितने दिन हो

गए, वह खुद रोज कौन सा तलाभुना खाना चाहती है, पर घर में भी कभी कुछ स्वादिष्ठ बन सकता है न… महीने में एक बार ही सही, पर यहां तो हद ही हो गई थी. वह जितनी देर खाती रही, स्वाद में डूबी रही. उस ने ध्यान ही नहीं दिया कौन क्या खा रहा है. उस का तनमन संतुष्ट हो गया था.

सब आम बातें करते रहे, फिर अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. उस दिन जब प्रिया सोने के लिए लेटी, वह मन ही मन बहुत कुछ सोच चुकी थी कि नहीं करेगी वह सब के लिए इतनी चीजों में मेहनत, उसे कभीकभी अकेले ही खाना है न, ठीक है, उस का भी जब मन होगा, खा लेगी. बस एक फोन करने की ही देर है. अपने लिए और्डर कर लिया करेगी… यह बैस्ट रहेगा. उसे कौन सा कैलोरीज वाला खाना रोज चाहिए… कभीकभी ही तो मन करता है न… बस प्रौब्लम खत्म.

उस के बाद प्रिया यही करने लगी. कभी महीने में एक बार अपने लिए पास्ता और्डर कर लिया, कभी सिर्फ स्टार्टर्स और घर में सब खुश थे कि घर में अब सादा खाना बन रहा है. प्रिया तो बहुत ही खुश थी.

उस का जब जो मन होता, खा लेती थी. अपने प्यारे, ढोंगी से लगते अपनों के बारे में सोच कर उसे कभी हंसी आती थी, तो कभी प्यार, क्योंकि उन के निर्देश तो अब भी यही होते थे कि बाहर हैवी हो जाता है, घर में सादा ही बनाना.

झूठी शान: शौर्टकट काम की वारंटी वाकई काफी शौर्ट होती है!

सवेरेसवेरे किचन में नाश्ता बना रही निर्मला के कानों में आवाज पड़ी, ‘‘भई, आजकल तो लड़कियां क्या लड़के भी महफूज नहीं हैं. एक महीने में अपने शहर से 350 बच्चे गायब…’’ आवाज हाल में बैठ कर समाचार देख रहे निर्मला के पति परेश की थी.

निर्मला परेश को नाश्ता दे कर बाहर की ओर बढ़ गई. परेश को मालूम था कि उसे बच्चों की स्कूल की फीस जमा करवाने के लिए जाना है, फिर भी एक बार फर्ज के तौर पर ध्यान से जाने की हिदायत देते हुए नाश्ता करने में जुट गए.

इस पर निर्मला ने भी आमतौर पर दिए जाने वाला ही जवाब देते हुए कहा, ‘‘जी हां…’’ और बाहर का गरम मौसम देख कर बिना छाता लिए ही घर से निकल गई.

निर्मला आमतौर पर रिकशे से ही सफर किया करती, क्योंकि उस के पास और कोई साधन भी न था. स्कूल में सारे पेरेंट्स तहजीब से खुद ही सार्वजनिक दूरी बनाए अपनीअपनी कुरसियों पर बैठे अपना नंबर आने का इंतजार कर रहे थे.

निर्मला का नंबर सब से आखिर में था. उस के अकेलेपन की बोरियत को मिटाने के लिए न जाने कहां से उस की पुरानी सहेली मेनका भी उसी वक्त अपने बेटे की फीस जमा कराने वहां आ टपकी.

चेहरे पर मास्क की वजह से निर्मला ने उसे पहचाना नहीं, पर मेनका ने उस के पहनावे और शरीर की बनावट से उसे झट से पहचान लिया और दोनों में सामान्य हायहैलो के बाद लंबी बातचीत शुरू हो गई. दोनों सहेली एकदूसरे से दोबारा पूरे 5 महीने बाद मिल रही थीं.

यों तो दोनों का आपस में एकदूसरे से दूरदूर तक कोई संबंध नहीं था, पर दोनों के बच्चे एक ही जमात में पढ़ते थे. घर पास होने की वजह से निर्मला और मेनका की मुलाकात कई बार रास्ते में एकदूसरे से हो जाया करती.

धीरेधीरे बच्चों की दोस्ती निर्मला और मेनका तक आ गई. दोनों ही अकसर छुट्टी के समय अपने बच्चों को लेने आते, तब उन की भी मुलाकात हो जाया करती. दोनों एक ही रिकशा शेयरिंग पर लेते, जिस पर उन के बच्चे पीछे बैठ जाया करते.

निर्मला ने मेनका को देख कर खुशी से मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे, ये मास्क भी न, मैं तो बिलकुल ही पहचान ही नहीं पाई तुम्हें.’’

पर, असलियत तो यह थी कि वह उस के पहनावे से धोखा खा गई थी, क्योंकि जिस मेनका के लिबास पुराने से दिखने वाले और कई दिनों तक एक ही जैसे रहते. वह आज एक महंगी सी नई साड़ी और कई साजोसिंगार के सामान से लदी हुई थी. इस के चलते उसे यकीन ही नहीं हुआ कि यह मेनका हो सकती?है.

निर्मला ने उस की महंगी साड़ी को हाथ से छूने की चाह से जैसे ही उस की तरफ हाथ बढ़ाया, मेनका ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘अरे भाभी, ये क्या कर रही हो? हाथ मत लगाओ.’’

भले ही मेनका ने सार्वजनिक दूरी को जेहन में रख कर यह बात कही हो, पर उस के शब्द थोड़े कठोर थे, जिस का निर्मला ने यह मतलब निकाला कि ‘तुम्हारी औकात नहीं इस साड़ी को छूने की, इसलिए दूर ही रहो’.

निर्मला ने उस से चिढ़ते हुए पूछा, ‘‘यह साड़ी कहां से…? मेरा मतलब, इतनी महंगी साड़ी पहन कर स्कूल में आने की कोई वजह…?’’

‘‘महंगी… यह तुम्हें महंगी दिखती है. अरे, ऐसी साडि़यां तो मैं ने रोज पहनने के लिए ले रखी हैं,’’ मेनका ने बड़े घमंड में कहा.

निर्मला अंदर ही अंदर कुढ़ने लगी. उसे विश्वास नहीं हुआ कि ये वही मेनका हैं, जो अकसर मेरे कपड़ों की तारीफ करती रहती थी और खुद के ऊपर दूसरे लोगों से हमदर्दी की भावना रखती थी. ये तो कुछ महीनों पहले उम्र से ज्यादा बूढ़ी और बेकार दिखती थी, पर आज अचानक ही इस के चेहरे पर इतनी चमक और रौनक के पीछे क्या वजह है?

पहले तो अपने पति के कुछ काम न करने की मुझ से शिकायत करती थी, पर आज यह अचानक से चमकधमक कैसे? हां, हो सकता है कि विजेंदर भाई को कोई नौकरी मिल गई हो. हो सकता?है कि उन्होंने कोई धंधा शुरू किया हो, जिस में उन्हें अच्छा मुनाफा हुआ हो या कोई लौटरी लग गई हो तो क्या…?

मैं इतना क्यों सोचने लगी? अब हर किसी की किस्मत एक बार जरूर चमकती है, उस में मुझे इतनी जलन क्यों हो रही है?

जिन के पास पहले पैसा नहीं, जरूरी थोड़े ही न है कि उन के पास कभी पैसा आएगा भी नहीं. भूतकाल की अपनी ही उधेड़बुन में कोई निर्मला को मेनका उस के मुंह के सामने एक चुटकी बजा कर वर्तमान में ले कर आई और कहा, ‘‘अरे भई, कहां खो गईं तुम. लाइन तो आगे भी निकल गई.’’

निर्मला और मेनका दोनों एकएक कुरसी आगे बढ़ गए.

‘‘वैसे, एक बात पूछूं मेनका, तुम्हारी कोई लौटरी वगैरह लगी है क्या?’’ निर्मला ने बड़े ही सवालिया अंदाज में पूछा, जिस का मेनका ने बड़े ही उलटे किस्म का जवाब दिया, ‘‘क्यों, लौटरी वाले ही ज्यादा पैसा कमाते हैं क्या? अब उन्होंने मेहनत के साथसाथ दिमाग लगाया है, तो पैसा तो आएगा ही न?

‘‘अब परेश भाई को ही देख लो, दिनभर अपने साहब के कहने पर कलम घिसते हैं, ऊपर से उन की खरीखोटी सुनते हैं, पूरे दिन खच्चरों की तरह दफ्तर में खटते हैं, फिर भी रहेंगे तो हमेशा कर्मचारी ही.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. मेहनत के नाम पर ये कौन सा पहाड़ तोड़ते हैं सिर्फ दिनभर पंखे के नीचे बैठ कर लिखापढ़ी का काम ही तो करना होता है. इस से ज्यादा आराम और इज्जत की नौकरी और किस की होगी.’’

निर्मला ने मेनका को और नीचा दिखाने की चाह में उस से कहा, ‘‘पढ़ेलिखे हैं. आराम की नौकरी करते हैं. यों धंधे में कितनी भी दौलत कमा लो, पर समाज में सिर्फ पढ़ेलिखे और नौकरी वाले इनसान की ही इज्जत होती?है, बाकियों को तो सब अनपढ़ और गंवार ही समझते हैं.’’

इस पर मेनका अकड़ गई और अपने पास अभीअभी आए चार पैसों की गरमी का ढिंढोरा निर्मला के आगे पीटने लगी.

काउंटर पर निर्मला का नंबर आया. काउंटर पर बैठी रिसैप्शनिस्ट ने फीस  की लंबीचौड़ी रसीद, जिस में दुनियाभर के चार्जेज जोड़ दिए गए थे, निर्मला  को पकड़ाई.

निर्मला ने घर पर पैसे जोड़ कर जो हिसाब लगाया था, उस से कहीं ज्यादा की रसीद देख कर उन की आंखों से धुआं निकल आया. इतने पैसे तो उस के पर्स में भी न थे, पर इस बात को वह सब के सामने जताना नहीं चाहती थी, खासकर उस मेनका के सामने तो बिलकुल नहीं.

मेनका ने कहा, ‘‘मैडम, आप सिर्फ 3 महीने की ही फीस जमा कीजिए, बाकी मैं बाद में दूंगी.’’

तभी निर्मला के हाथ से परची लेते हुए मेनका ने निर्मला पर एहसान करने की चाह से अपने पर्स से एक चैकबुक निकाल अपने और उस के बच्चे की फीस खुद ही जमा कर दी.

निर्मला को यह बलताव ठीक न लगा, जिस के चलते उस ने उसे बहुत मना भी किया.

इस पर मेनका ने कहा, ‘‘अरे, भाईसाहब को जब पैसे मिल जाएं, तब आराम से दे देना. मैं पैनेल्टी नहीं लूंगी,’’ और वह हंसते हुए बाहर की ओर निकल गई.

स्कूल के बाहर निकल कर देखा, तो मालूम हुआ कि छाता न ले कर बहुत बड़ी गलती हुई. गरम मौसम की जगह तेज बारिश ने ले ली. इतनी तेज बारिश में कोई भी रिकशे वाला कहीं जाने को राजी न था.

निर्मला स्कूल के दरवाजे पर खड़ी बारिश रुकने का इंतजार कर रही थी, पर मन में यह भी डर था कि आखिर अभी तुरंत मेरे आगे निकली मेनका कहां गायब हो गई? वह भी इतनी तेज बारिश में.

‘चलो, अच्छा है, चली गई, कौन सुनता उस की ये बातें? चार पैसे क्या आ गए, अपनेआप को कहीं की महारानी समझने लगी. सारे पैसे खर्च हो जाएंगे, तब फिर वही एक रिकशा भी मेरे साथ शेयरिंग पर ले कर चला करेगी.

मन ही मन खुद को झूठी तसल्ली देती निर्मला के आगे रास्ते पर जमा पानी को चीरते हुए एक शानदार काले रंग की कार आ कर रुकी.

गाड़ी का दरवाजा खुला. अंदर बैठी मेनका ने बाहर निर्मला को देखते हुए कहा, ‘‘गाड़ी में बैठो निर्मला. इस बारिश में कोई रिकशे वाला नहीं मिलेगा.’’

निर्मला को न चाहते हुए भी गाड़ी में बैठना पड़ा, पर उस का मन अभी भी यकीन करने को तैयार नहीं था कि यह वही मेनका है, जो पैसे न होने के चलते एक रिकशा भी मुझ से शेयरिंग पर लिया करती थी?

‘‘सीट बैल्ट लगा लो निर्मला,’’ मेनका ने ऐक्सीलेटर पर पैर जमाते हुए कहा.

निर्मला ने सीट बैल्ट लगाते हुए पूछा, ‘‘कब ली? कैसे…? मेरा मतलब कितने की…?’’

‘‘कैसे ली का क्या मतलब? खरीदी है, वह भी पूरे 40 लाख रुपए की,’’ मेनका ने बड़े बनावटी लहजे में कहा.

निर्मला के अंदर ईष्या का भी अंकुर फूट पड़ा. आखिर कैसे इस ने इतनी जल्दी इतने पैसे कमाए, आखिर ऐसा कैसा दिमाग लगाया, विजेंदर भाई ने कि इतनी जल्दी इतने पैसे कमा लिए. और एक परेश हैं कि रोज 13-13 घंटे काम करने के बावजूद मुट्ठीभर पैसे ही ले कर आते हैं, वह भी जब घर के सारे खर्चे सिर पर सवार हों. एक इसी के साथ तो मेरी बनती थी, क्योंकि एक यही तो थी मुझ से नीचे. अब तो सिर्फ मैं ही रह गई, जो रिकशे से आयाजाया करूंगी. इस का भी तो कहना ठीक ही है कि किसी काम में दिमाग लगाए बिना सिर्फ मेहनत करने से जिस तरह गधे के हाथ कभी भी गाजर नहीं आती, उसी तरह हर क्षेत्र में मेहनत से ज्यादा दिमाग लगाना पड़ता है.

विजेंदर भाई ने दिमाग लगाया तो पैसा भी कमाया, वहीं परेश की जिंदगी तो सिर्फ खाने में ही निकल जाएगी, आज ये बना लेना कल वो बना लेना.

अपना घर नजदीक आता देख निर्मला ने सीट बैल्ट खोल दी और उतरने के लिए जैसे ही उस ने दरवाजा खोलना चाहा, उस से उस महंगी गाड़ी का दरवाजा न खुला. इस पर मेनका ने हंसते हुए अपने ही वहां से किसी बटन से दरवाजा अनलौक करते हुए निर्मला को अलविदा किया.

दरवाजा न खुलने वाली बात पर निर्मला को खूब शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था.

घर पहुंचते ही परेश ने एक पत्रिका में छपी डिश की तसवीर सामने रखते हुए वही डिश बनाने का आदेश दे डाला, जिस पर निर्मला ने परेश पर बिफरते हुए कहा, ‘‘पूरी जिंदगी तुम ने और किया ही क्या है, पूरे दिन गधों की तरह मेहनत करते हो और ऊपर से दफ्तर में बैठेबैठे फरमाइश और कर डालते हो कि आज यह बनाना और कल यह…

‘‘खाने के अलावा कभी सोचा है कि बाकी लोग तुम से कम मेहनत करते हैं, फिर भी किस चीज की कमी है उन्हें. घूमने को फोरव्हीलर हैं, पहनने को ब्रांडेड कपड़े हैं, कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों की फीस का तो खयाल रखना चाहिए.

‘‘आज अगर मेनका न होती, तो फीस भी आधी ही जमा करानी पड़ती और बारिश में भीग कर आना पड़ता  सो अलग.’’

परेश समझ गया कि यह सारी भड़ास उस मेनका को देख कर निकाली जा रही है. परेश ने बात को और आगे न बढ़ाना चाहा, जिस के चलते उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा.

दोपहर को गुस्से के कारण निर्मला ने कुछ खास न बनाया, सिर्फ खिचड़ी बना कर परेश और बेटे पारस के आगे रख दी.

परेश चुपचाप जो मिला, खा कर रह गया. उस ने कुछ बोलना लाजिमी न समझा.

रात तक निर्मला ने परेश से कोई बात नहीं की. उस के मन में तो सिर्फ मेनका और उस के ठाटबाट के नजारे ही रहरह कर याद आ जाया करते और परेश की काबिलीयत पर उंगली उठा जाते.

डिनर का वक्त हुआ. परेश ने न तो खाना मांगा और न ही निर्मला ने पूछा. देर तक दोनों के अंदर गुस्से का जो गुबार पनपता रहा, मानो सिर्फ इंतजार कर रहा हो कि सामने वाला कुछ बोले और मैं फट पडं़ू.

दोनों को ज्यादा इंतजार न कराते  हुए ठीक उसी वक्त भूख से बेहाल  बेटा पारस निर्मला से खाने की मांग करने लगा.

पारस को डिनर के रूप में हलका नाश्ता दे कर निर्मला ने परेश पर तंज कसते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज घर में कुछ था ही नहीं बनाने को, इसीलिए कुछ नहीं बनाया. तू आज यही खा ले, कल देखती हूं कुछ.’’

परेश ने हैरानी से पूछा, ‘‘घर में कुछ था नहीं और तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं? आखिर किस बात पर तुम ने दोपहर से अपना मुंह सिल रखा है और सुबह क्या देखोगी तुम?’’

‘‘मैं ने नहीं बताया और तुम ने क्या सिर्फ खाने का ठेका ले रखा है? सब से ज्यादा जीभ तुम्हारी ही चलती है, तो इंतजाम देखना भी तो तुम्हारा ही फर्ज बनता है न? और वैसे भी मालूम नहीं हर महीने राशन आता है, तो इस महीने कौन लाएगा?’’

परेश बेइज्जती के ये शब्द बरदाश्त न कर सका. इस वजह से वह उस रात भूखा ही सोया रहा मगर निर्मला से कुछ बोला नहीं.

सवेरे होते ही राशन के सामान से भरा हुआ एक थैला जमीन पर पटक कर उस में से जरूरी सामान निकाल कर परेश खुद ही अपने और बेटे पारस के लिए चायनाश्ता बनाने में जुट गया.

रसोई के कामों से फारिग हो कर दोनों बापबेटे सोफे पर बैठ कर नाश्ता करने में मगन हो गए.

परेश रोज की तरह समाचार चैनल लगा कर बैठ गया. आज सब से बड़ी खबर की हैडलाइन देख कर उस के होश उड़ गए और उस से भी ज्यादा उस के पीछे से गुजर रही निर्मला के.

सब से बड़ी खबर की हैडलाइन में लिखा था, ‘शहर में पिछले महीनों से गायब हो रहे बच्चों के केस का आरोपी शिकंजे में, जिस का नाम विजेंदर बताया जा रहा है. कल ही चौक से एक बच्चे को बहला कर अगुआ करते हुए वह पकड़ा गया.’

मुंह काले कपड़े से ढका हुआ था, पर इतनी पुरानी पहचान के चलते परेश और निर्मला को आरोपी को पहचानते देर न लगी.

निर्मला को अपनी गलती का एहसास हो चुका था. वह जान चुकी थी कि जल्दी से जल्दी ज्यादा ऐशोआराम पाने के चक्कर में लोगों को कोई शौर्टकट ही अपनाना पड़ता है, जिस काम की वारंटी वाकई में काफी शौर्ट होती है.

आज अपनी मरजी से ही निर्मला ने दोपहर का खाना परेश की पसंद का बनाया था, जिस की उसे कल तसवीर दिखाई गई थी.

खुशामद का कलाकंद: क्या आप में है ये हुनर

जीवन जीना अपनेआप में एक कला है. जिसे यह कलाकारी नहीं आती वह बेचारा कुछ इस तरह से जीता है कि उसे देख कर कोई भी कह सकता है, ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू.’ सफलतापूर्वक जीवन जीने वाले नंबर एक के कलाकार होते हैं. उन के सामने हर बड़े से बड़ा कलाकार पानी भरता नजर आता है. चमचागीरी या खुशामद करना शाश्वत कला है और जिस ने इस कला में स्वर्ण पदक प्राप्त कर लिया या फिर जिसे ‘पासिंग मार्क’ भी मिल गया, तो उस की जिंदगी आराम से गुजर जाती है.

खुशामद इस वक्त राष्ट्र की मुख्य धारा में है. इस धारा में बहने वाले के हिस्से की सुखसुविधाएं खुदबखुद दौड़ी चली आती हैं. हमारे मित्र छदामीजी कहां से कहां पहुंच गए. साइकिल पर चलते थे, आज कार में चलते हैं. यह खुशामद का ही चमत्कार है. खुशामद की कला के विशेषज्ञ हर कहीं पाए जाते हैं. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक खुशामद करने वालों की भरमार है.

दरअसल, जीवन की हर सांस खुशामद की कर्जदार है. खुशामद और चमचागीरी में बड़ा बारीक सा अंतर है. चमचागीरी बदनामशुदा शब्द है, खुशामद अभी उतना बदनाम नहीं हुआ है, इसलिए लोग चमचागीरी तो करते हैं, लेकिन सफाई देते हैं कि भई थोड़ी सी खुशामद कर दी तो क्या बिगड़ गया. खुशामद कामधेनु गाय है, जिस की पूंछ पकड़ क र जाने कितने गधे घोड़े बन कर दौड़ रहे हैं. पद, पैसा या सुख आदि पाने की ललक में लोग खुशामद जैसे सात्विक हथियार का सहारा लेते हैं.

खुशामद एक तरह का अहिंसक हथियार है. सोचता हूं कि खुशामद की कला का इस्तेमाल कर के अगर कोई कुछ प्राप्त कर ले तो क्या बुराई है? यह तो जीवन जीने की कला है. इस के बिना आप जहां हैं, वहीं पड़े रह जाएंगे. जो लोग सड़ना नहीं चाहते हैं, वे कुछ करने के लिए खुशामद का सहारा ले कर आगे बढ़ते हैं.

इस के लिए पावरफुल लोगों का सम्मान करो, अकारण दाएंबाएं होते रहो, अभिनंदन करो और ऐश करो.  पिछले दिनों ऐसे ही एक सज्जन के बारे में पता चला. जब देखो वह आयोजनों में भिड़े रहते थे. मुझे लगा, बड़े महान प्राणी हैं. बड़े बिजी रहते हैं. देश और समाज की चिंता में निरंतर मोटे भी होते जा रहे हैं. यह देख कर मैं उन के नागरिक अभिनंदन के ‘मूड’ में आ गया. मैं उन से टाइम लेने जा रहा था कि रास्ते में एक महोदय मिल गए. पूछा, ‘‘कहां चल दिए?’’

मैं ने कहा, ‘‘फलानेजी का सम्मान करना चाहता हूं.’’ मेरी बात को सुन कर महोदय हंस पड़े तो मैं चौंका. मैं ने कहा, ‘‘हंसने की क्या बात है? फलानेजी समाजसेवी हैं. चौबीसों घंटे कुछ न कुछ करते रहते हैं. ऐसे लोगों का अभिनंदन तो होना ही चाहिए.’’ महोदय बोले, ‘‘चलिए, मैं सज्जन की पोल खोलता हूं, तब भी आप को लगे कि उन का अभिनंदन होना चाहिए तो ठीक है.’’ मेरे कान खड़े हो गए. महोदय बताने लगे कि इन्होंने पिछले साल मजदूरों का एक सम्मेलन करवाया था.

खूब चंदा एकत्र किया. एक मंत्री को बुलवा कर भाषण भी करवा दिया. सम्मेलन के बाद उन्हें 2 फायदे हुए, मंत्रीजी ने उन्हें एक समिति का सदस्य बनवा दिया और उन के घर पर दूसरी मंजिल भी तन गई. यह सज्जन हर दूसरे दिन किसी मंत्री का, किसी विधायक का या किसी अफसर का अभिनंदन करते रहते हैं. ऐसा करने से लोगों में धाक जमती चली जाती है.

पावरफुल आत्माओं से निकटता बढ़ती है तो सुविधाओं की गंगा अपनेआप बहने लगती है. देखते ही देखते कंगाल भी मालामाल हो जाता है. महोदय की बातें सुन कर मेरा माथा घूम गया और मैं ने अभिनंदन वाला आइडिया ड्राप कर दिया. अब यह और बात है कि सज्जन अपना अभिनंदन कराने के लिए मेरी खुशामद पर आमादा हैं तो भाई साहब, खुशामद के एक से एक रूप हैं, जुआ की तरह.

हम और आप कर रहे होते हैं और हमें पता नहीं चलता कि खुशामद कर रहे हैं, इसलिए कदम फूंकफूंक कर रखिए, वरना कब खुशामद की कीचड़ आप के मुंह पर लग जाए, कहना कठिन है. खुशामद की कला को अब तो सामाजिक स्वीकृति भी मिल गई है. इसे क्या कहें जो खुशामद के जरिए घरपरिवार को खुश रखता है.

उस की आमद भी सब को खुश कर देती है, लेकिन जो खुशामद से दूर रहता है, उस की आमद घर वालों को नागवार गुजरने लगती है. हर कोई मुंह बनाते हुए बड़बड़ाता है, ‘आ गया आदर्शवादी, हुंह.’ तो साहबान, खुशामद ही जीवन का सार है. घरबाहर अगर इज्जत चाहिए तो खुशामदखोरों की बिरादारी में शामिल हो जाइए. खुशामद की कला में माहिर आदमी का बी.ए. पास होना भी जरूरी नहीं. आप खुशामद पास हैं तो कहीं भी टिक सकते हैं.

समाजवाद, पूंजीवाद, अध्यात्मवाद और बाजारवाद, न जाने कितने तो वाद हैं. सब का अपनाअपना महत्त्व है, लेकिन आजकल के जमाने में ‘खुशामदवाद’ तो वादों का वाद है. सारे वाद बारबार खुशामदवाद एक बार. एक बार जो खुशामद की सुरंग में घुसा, वह मालामाल हो कर ही लौटा. यह और बात है कि आत्मा पर थोड़ी कालिख पुत जाती है, लेकिन उस को क्या देखना? जिस ने की शरम, उस के फूटे करम. आत्मा के चक्कर में न जाने कितने महात्माओं ने आत्महत्याएं कर लीं, इसलिए आत्मा को घर के पिछवाड़े में कहीं दफन कर के खुशामदवाद का सहारा लो.

इस दिशा में जिस ने भी कदम बढ़ाए हैं, वह जीवन भर सुखी रहा है, इसीलिए तो धीरेधीरे खुशामद लोकप्रिय कला बनती जा रही है और जब कला बन रही है या बन चुकी है तो इस का पाठ्यक्रम भी तैयार कर दिया जाना चाहिए. किसी की प्रशस्ति में गीत, कविता लिखना, चालीसा लिखना, क्या है? मतलब यह कि साहित्य में खुशामद कला ने घुसपैठ कर ली है. आजकल विश्वविद्यालयों में नएनए पाठ्यक्रमों की पढ़ाई शुरू हो रही है.

फलाना मैनेजमेंट, ढिकाना मैनेजमेंट तो खुशामद मैनेजमेंट का नया कोर्स भी शुरू हो जाए. इस का बाकायदा ‘पाठ्यक्रम’ तैयार हो. सुव्यवस्थित तरीके से यह कोर्स लांच हो. इस के पढ़ाने वाले सैकड़ों इस शहर में मिल जाएंगे. ऐसे लोगों की तलाश की जाए जो ‘खुशामद वाचस्पति’ हों, ‘खुशामदश्री’ खुशामद कला में पीएच.डी. की उपाधि भी दी जा सकती है और यह मानद भी हो सकती है.

आप के शहर में ऐसी प्रतिभाओं की कमी नहीं होगी. इधर तो खुशामद की प्रतिभा से लबालब लोगों की ऐसी नस्लें लहलहा रही हैं कि मत पूछिए. इसलिए समय के साथ दौड़ने वालों को इस सुझाव पर विचार करना चाहिए, क्योंकि यह सदी खुशामद को कला बनाने पर उतारू होने की सदी है, जो कोई खुशामद के विरोध में खड़ा हो, वह धकिया दिया जाएगा. वक्त के साथ चलो, खुशामद के साथ चलो.

छदामीजी हर दूसरे दिन अभिनंदन करते हैं. अभिनंदन प्रतिभाशाली लोगों का हो तो कोई बात नहीं, लेकिन अब ऐसे लोगों का अभिनंदन करता ही कौन है? अभिनंदन होता है मंत्री, नेता या अफसरों का या फिर ऐसे व्यक्ति का जिस के सहारे सुविधाओं के टुकड़े प्राप्त हो जाएं.

अभिनंदन करना भी खुशामद का ही एक तरीका है. कुछ लोग जीवन भर इसी को पवित्र काम मान कर दिनरात भिड़े रहते हैं. अभिनंदन करना और अभिनंदन कराना ऐसा शौक है कि मत पूछिए. जिसे इस का चस्का लगा, वह गया काम से. अभिनंदन के बगैर वह ठीक उसी तरह तड़पता है, जिस तरह मछली पानी के बगैर. खुशामद करना और खुशामदपसंद होना सब के बस की बात भी तो नहीं है.

खुशामदपसंद आदमी की चमड़ी मोटी होनी चाहिए और जेब भी हर वक्त ‘भरी’ रहे. जब तक जेब भरी रहेगी, अभिनंदन या सम्मान की झड़ी रहेगी. खुशामद करने वाला कंगाल हो तो चलेगा, लेकिन खुशामदपसंद का मालामाल होना जरूरी है. ऐसी जब 2 आत्माएं मिलती हैं, तब यही गीत बजना चाहिए, ‘दो सितारों का जमीं पर है मिलन आज की रात.’ सोचिए, खुशामद कितनी बड़ी चीज है कि इस नाचीज को इस पर कागज काले करने पड़ रहे हैं, लेकिन हालत यह है कि मर्ज बढ़ता गया ज्योंज्यों दवा की. खुशामद को ले कर आप लाख नाराजगी जाहिर करें, यह खत्म होने से रही.

यह तो द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ती जा रही है, और क्यों न बढ़े साहब? जब हर दूसरातीसरा शख्स इस कला में हाथ आजमा रहा है, तब आप क्या कर लेंगे? आप को इस कला से प्रेम नहीं है तो न सही, और दूसरे लोग तो हैं, जिन की गाड़ी खुशामद के भरोसे ही चलती है. सत्ता के गलियारों में जा कर देखिए, खुशामद करने वाले कीड़ेमकोड़े की तरह बिलबिलाते हुए मिल जाएंगे.

वक्त की मार केवल मूर्तियों या स्मारकों पर ही नहीं पड़ती, शब्दों पर भी पड़ती है. ‘खुशआमद’ ऐसा बदनाम हो गया है कि शब्द का प्रयोग करते हुए डर लगता है. किसी को ‘नेताजी’ कह दो, ‘गुरु’ कह दो तो लगता है, व्यंग्य किया जा रहा है. खुशामद शब्द का यही हाल है लेकिन हाल है तो है. अब तो इसे लोग कला बनाने पर तुले हुए हैं.

वक्तवक्त की बात है, इसलिए साहेबान, मेहरबान, कद्रदान, वक्त की धड़कन को सुनो और इस नई कला को गुनो. सफल होना है तो खुशामद ही अंतिम चारा है. बिना खुशामद के हर कोई बेचारा है. यह और बात है कि जो इस जीवन को संघर्षों के बीच ही जीने के आदी हैं, जिन को मुसीबत झेलने में ही मजा आता है, जो सूखी रोटी खा कर, ठंडा पानी पी कर भी खुश रहते हैं, उन के लिए खुशामद कला विषकन्या के समान त्याज्य है, लेकिन जिन को ऐसेवैसे कैसे भी चाहिए सुविधा सम्मान और पैसे, वे खुशामद के बिना एक कदम नहीं चल सकते.

ऐसे लोग ही प्रचारित कर रहे हैं कि खुशामद एक कला है. इस की मार्केटिंग कर रहे हैं, नएनए आकर्षक रैपरों में. हर सीधासादा आदमी खुशामद के चक्कर में फंस जाता है, लेकिन खुशामद एक ऐसा भंवर है, जिस में कोई एक बार फंसा तो निकलना मुश्किल हो जाता है.  इस कला में बला का स्वाद है. जिस ने एक बार भी इस का स्वाद चख लिया, वह दीवाना हो गया.

नैतिकता से बेगाना हो गया. पता नहीं, आप ने खुशामद की कला का आनंद लिया है या नहीं, न लिया हो तो कोई बात नहीं, अगर इच्छा हो तो अपने ही शहर के किसी नेतानुमा प्राणी से मिल लीजिएगा या फिर ऐसे शख्स से, जिसे लोग ‘मिठलबरा’ (ऐसा व्यक्ति जो बड़ी ही मधुरता के साथ झूठा व्यवहार करता है) के नाम से जानते हों. ये लोग आप को बताएंगे कि खुशामद रूपी कलाकंद खाने का आनंद कैसे मनाएं?

बहरहाल, खुशामद को अगर कला का दर्जा मिल जाए तो कोई बुराई नहीं. कुछ लोग तो जेब काटने तक को कला मानते हैं. कला हमेशा भला काम ही कराए जरूरी नहीं. क्या कहा, आप खुशामद को कला नहीं, बला मानते हैं? तो भई, आप जैसे लोगों के कारण ही गलतसलत परंपराएं अपना स्थान नहीं बना पातीं.

आज कदमकदम पर खुशामदखोर मिल जाएंगे, चलतेपुर्जे, अपना काम निकालने में माहिर. आप अगर अब तक हम लोगों से कुछ नहीं सीख पाए हैं तो ठीक है, पड़े रहिए अपनी जगह. सारे लोग आप से आगे निकल जाएंगे तो फिर मत कहिएगा कि हम पीछे रह गए. आगे बढ़ना है तो शर्म छोडि़ए और खुशामदखोरी में भिड़ जाइए. शरमाइए मत, उलटे कहिए, ‘खुश-आमद-दीन’.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें