Romantic Story in Hindi: भोर- भाग 2: क्यों पति का मजाक उड़ाती थी राजवी?

Writer- Kalpana Mehta

कई दिन दोनों खूब घूमे. शौपिंग, पार्टी जो भी राजवी का मन किया अक्षय ने उसे पूरा किया. फिर शुरू हुई दोनों की रूटीन लाइफ. वैसे भी सपनों की दुनिया में सब कुछ सुंदर सा, मनभावन ही होता है. जिंदगी की हकीकत तो वास्तविकता के धरातल पर आ कर ही पता चलती है. एक दिन अक्षय ने फरमाइश की, ‘‘आज मेरा इंडियन डिश खाने को मन कर रहा है.’’

‘‘इंडियन डिश? यू मीन दालचावल और रोटीसब्जी? इश… मुझे ये सब बनाना नहीं आता. मैं तो अपने घर में भी खाना कभी नहीं बनाती थी. मां बोलती थीं तब भी नहीं. और वैसे भी पूरा दिन रसोई में सिर फोड़ना मेरे बस की बात नहीं. मैं उन लड़कियों में नहीं, जो अपनी जिंदगी, अपनी खुशियां घरेलू कामकाज के जंजालों में फंस कर बरबाद कर देती हैं.’’

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चौंक उठा अक्षय. फिर भी संभलते हुए बोला, ‘‘अब मजाक छोड़ो, देखो मैं ये सब्जियां ले कर आया हूं. तुम रसोई में जाओ. तुम्हारी हैल्प करने मैं आता हूं.’’

दालसब्जी वगैरह मुझे तो भाती भी नहीं और बनाना भी मुझे आता नहीं

‘‘तुम्हें ये सब आता है तो प्लीज तुम ही बना लो न… दालसब्जी वगैरह मुझे तो भाती भी नहीं और बनाना भी मुझे आता नहीं. और हां, 2 दिनों के बाद तो मेरी स्टडी शुरू होने वाली है, क्या तुम भूल गए? फिर मुझे टाइम ही कहां मिलेगा इन सब झंझटों के लिए. अच्छा यही रहेगा कि तुम किसी इंडियन लेडी को कुक के तौर पर रख लो.’’

अक्षय का दिमाग सन्न रह गया. राजवी को हर रोज सुबह की चाय बनाने में भी नखरे करती थी और ठीक से कोई नाश्ता भी नहीं बना पाती थी. लेकिन आज तो उस ने हद ही कर दी थी. तो क्या यही है राजवी का असली रूप? लेकिन कुछ भी बोले बिना अक्षय औफिस के लिए निकल गया. पर यह सब तो जैसे शुरुआत ही थी. राजवी के उस नए रंग के साथ जब नया ढंग भी सामने आने लगा अक्षय के तो होश ही उड़ गए. एक दिन राजवी बिलकुल शौर्ट और पतले से कपड़े पहन कर कालेज के लिए निकलने लगी.

अक्षय ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘यह क्या पहना है राजवी? यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम पढ़ने जा रही हो तो ढंग के कपड़े पहन कर जाओगी तो अच्छा रहेगा…’’

‘‘ये अमेरिका है मिस्टर अक्षय. और फिर तुम ने ही तो कहा था न कि तुम मौडर्न सोच रखते हो, तो फिर ऐसी पुरानी सोच क्यों?’’

‘‘हां कहा था मैं ने पर पराए देश में तुम्हारी सुरक्षा की भी चिंता है मुझे. मौडर्न होने की भी हद होती है, जिसे मैं समझता हूं और चाहता हूं कि तुम भी समझ लो.’’

‘‘मुझे न तो कुछ समझना है और न ही तुम्हारी सोच और चिंता मुझे वाजिब लगती है. और यह मेरी निजी लाइफ है. मैं अभी उतनी बूढ़ी भी नहीं हो गई कि सिर पर पल्लू रख कर व साड़ी लपेट कर रहूं. और बाई द वे तुम्हें भी तो सुंदर पत्नी चाहिए थी न? तो मैं जब सुंदर हूं तो दुनिया को क्यों न दिखाऊं?’’

अक्षय को समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे?

राजवी के इस क्यों का कोई जवाब नहीं था अक्षय के पास. फिर जैसेजैसे दिन बीतते गए, दोनों के बीच छोटीमोटी बातों पर झगड़े बढ़ते गए. अक्षय को समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे? भूल कहां हो रही है और इस स्थिति में क्या हो सकता है, क्योंकि अब पानी सिर के ऊपर शुरू हो चुका था. राजवी ने जो गु्रप बनाया था उस में अमेरिकन युवकों के साथ इंडियन लड़के भी थे. शर्म और मर्यादा की सीमाएं तोड़ कर राजवी उन के साथ कभी फिल्म देखने तो कभी क्लब चली जाती. ज्यादातर वह उन के साथ लंच या डिनर कर के ही घर आती. कई बार तो रात भर वह घर नहीं आती. अक्षय के पूछने पर वह किसी सहेली या प्रोजैक्ट का बहाना बना देती.

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अक्षय बहुत दुखी होता, उसे समझाने की कोशिश करता पर राजवी उस के साथ बात करने से भी कतराती. अक्षय को ज्यादा परेशानी तो तब हुई जब राजवी अपने बौयफ्रैंड्स को ले कर घर आने लगी. अक्षय उन के साथ मिक्स होने या उन्हें कंपनी देने की कोशिश करता तो राजवी सब के बीच उस के सांवले रंग और चश्मे को मजाक का विषय बना देती और अपमानित करती रहती. एक दिन इस सब से तंग आ कर अक्षय ने नीतू आंटी को फोन लगाया. उस ने ये सब बातें बताना शुरू ही किया था कि राजवी उस से फोन छीन कर रोने जैसी आवाज में बोलने लगी, ‘‘आंटी, आप ने तो कहा था कि तुम वहां राज करोगी. जैसे चाहोगी रह सकोगी. पर आप का यह भतीजा तो मुझे अपने घर की कुक और नौकरानी बना कर रखना चाहता है. मेरी फ्रीडम उसे रास नहीं आती.’’

अक्षय आश्चर्यचकित रह गया. उस ने तब तय कर लिया कि अब से वह न तो किसी बात के लिए राजवी को रोकेगा, न ही टोकेगा. उस ने राजवी को बोल दिया कि तुम अपनी मरजी से जी सकती हो. अब मैं कुछ नहीं बोलूंगा. पर थोड़े दिनों के बाद अक्षय ने नोटिस किया कि राजवी उस के साथ शारीरिक संबंध भी नहीं बनाना चाहती. उसे अचानक चक्कर भी आ जाता था. चेहरे की चमक पर भी न जाने कौन सा ग्रहण लगने लगा था.

अब वह न तो अपने खाने का ध्यान रखती थी न ही ढंग से आराम करती थी. देर रात तक दोस्तों और अनजान लोगों के साथ भटकते रहने की आदत से उस की जिंदगी अव्यवस्थित बन चुकी थी. एक दिन रात को 3 बजे किसी अनजान आदमी ने राजवी के मोबाइल से अक्षय को फोन किया, ‘‘आप की वाइफ ने हैवी ड्रिंक ले लिया है और यह भी लगता है कि किसी ने उस के साथ रेप करने की कोशिश…’’

अक्षय सहम गया. फिर वह वहां पहुंचा तो देखा कि अस्तव्यस्त कपड़ों में बेसुध पड़ी राजवी बड़बड़ा रही थी, ‘‘प्लीज हैल्प मी…’

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पास में खड़े कुछ लोगों में से कोई बोला, ‘‘इस होटल में पार्टी चल रही थी. शायद इस के दोस्तों ने ही… बाद में सब भाग गए. अगर आप चाहो तो पुलिस…’’

‘‘नहींनहीं…,’’ अक्षय अच्छी तरह जानता था कि पुलिस को बुलाने से क्या होगा. उस ने जल्दी से राजवी को उठा कर गाड़ी में लिटा दिया और घर की ओर रवाना हो गया. राजवी की ऐसी हालत देख कर उस कलेजा दहल गया था. आखिर वह पत्नी थी उस की. जैसी भी थी वह प्यार करता था उस को. घर पहुंचते ही उस ने अपने फ्रैंड व फैमिली डाक्टर को बुलाया और फर्स्ट ऐड करवाया. उस के चेहरे और शरीर पर जख्म के निशान पड़ चुके थे. दूसरे दिन बेहोशी टूटने के बाद होश में आते ही राजवी पिछली रात उस के साथ जो भी घटना घटी थी, उसे याद कर रोने लगी. अक्षय ने उसे रोने दिया. ‘जल्दी ही अच्छी हो जाओगी’ कह कर वह उसे तसल्ली देता रहा पर क्या हुआ था, उस के बारे में कुछ भी नहीं पूछा. खाना बनाने वाली माया बहन की हैल्प से उसे नहलाया, खिलाया फिर उसे अस्पताल ले जाने की सोची.

‘‘नहींनहीं, मुझे अस्पताल नहीं जाना. मैं ठीक हो जाऊंगी,’’ राजवी बोली.

दूरियां- भाग 3: क्यों अपने बेटे को दोषी मानता था उमाशंकर

वह कुछ अलग नहीं कर रही थी, ऐसा तो वह अपने मायके में भी करती थी. केवल रिश्ते का नाम यहां अलग था, पर रिश्ता तो वही था, पिता का. उस से गलतियां होती थीं, स्वाभाविक ही है, तो क्या हुआ, नेहा कहती, ‘‘ज्यादा मत सोचो भाभी, बहुत गड़बड़ हुई तो मैं अपनी जिम्मेदारी से भागूंगी नहीं.

“यह मत सोचना कि मैं ने अपनी आजादी पाने के लिए यह कदम उठाया… मैं तो केवल आप को उस घर में आप का अधिकार दिलाना चाहती हूं.

“पापा को थोड़ा सक्रिय भी होना पड़ेगा, वरना जंग लग जाएगी उन के शरीर में और फिर मन में. असहाय और अकेले होने की भावना से खुद को ही आहत करते रहेंगे और दूसरे पर निर्भर हो जाएंगे हर काम के लिए. उन्हें मन की उदासी से निकल कर पहले खुद के लिए और फिर दूसरों के लिए जीना सीखना होगा.

“अपने को दोषी मान कर और आत्मप्रताड़ना और स्वयं पर दया करते रहना, उन का स्वभाव सा बन गया है. हम केवल मदद कर सकते हैं, पर निकलना उन्हें खुद ही होगा…फिर चाहे उन्हें कुछ झटके ही क्यों न देने पड़ें.

“आसान नहीं है. पर भाभी, अब तो मुझे भी वह फोन पर बहुतकुछ सुना देते हैं. मजा आता है, कम से मुझे पैडस्टल से तो उतार रहे हैं.

“अब थोड़ी कम थकान महसूस करती हूं. पर, आप को थकाने के लिए सौरी. चलो भैया से थकान उतरवा लेना,’’ हंसी थी वह जोर से, तो अनुभा के चेहरे पर लाली छा गई थी.

जब रोज एक ही स्थिति से गुजरना पड़े तो वह आदत बन जाती है और फिर खलती नहीं है. उमाशंकर के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था. देख रहे थे कि बेटाबहू उन का कितना ध्यान रखते हैं. बेटे के साथ संवाद बढ़ गया था, क्योंकि अनुभा ने सेतु बनने से साफ मना कर दिया था. फिर नाराजगी करें तो भी किस बात पर, कब तक बेवजह नुक्स निकालते रहेंगे.

जब वह पार्क में सैर करने जाते हैं तो देखतेसुनते तो हैं कि बूढ़े मांबाप के साथ कितना बुरा व्यवहार करते हैं बेटाबहू… कुछ तो खाने के लिए तरसते रहते हैं. न समय पर खाना मिलता है, न दवा. और पैसे के लिए भी हाथ फैलाते रहो. महानगरीय जीवन की त्रासदी से अवगत हैं वह… भाग्यशाली हैं कि उन की दशा सुखद है. पेंशन का पैसा बैंक में ही पड़ा रहता है. जब जो चाहे खरीद लेते हैं, खर्च कर लेते हैं. तरुण तो एक बार कहने पर ही सारी चीजें जुटा देता है.

नेहा नहीं है तब भी जिंदगी मजे से कट रही है उन की. जब इनसान आत्ममंथन करने लगता है तो दिमाग में लगे जाले साफ होने लगते हैं.

पितापुत्र के बीच खिंची दीवार धीरेधीरे ही सही दरकने लगी थी. बहू बेटी नहीं बन सकती, यह मानने वाले उमाशंकर उसे  बहू का दर्जा देने लगे थे, उस के विजातीय होने के बावजूद.

नेहा ने जो दूरियां बनाई थीं, वे अनुभा को, तरुण को उन के पास ला रही थीं.

‘‘नेहा…’’ उमाशंकर ने जैसे ही आवाज लगाई तो उसे गले में ही रोक लिया. कमरे के भीतर ही सिमट गया नेहा का नाम.

‘‘अनुभा, मैं आज शाम को खिचड़ी ही खाऊंगा, साथ में सूप बना देना, अगर दिक्कत न हो तो…’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े उमाशंकर ने धीमे स्वर में कहा. झिझक थी उन के स्वर में. समझती है अनुभा, वक्त लगेगा दूरियां खत्म होने में. एकएक कदम की दूरी ही बेशक तय हो, पर शुरुआत तो हो गई है.

वह इंतजार करेगी, जब पापा उसे बहू नहीं बेटी समझेंगे.

नेहा भी तो कब से उस दिन का इंतजार कर रही है. वह जानबूझ कर आती नहीं है मिलने भी कि कहीं पापा उसे देख फिर अनुभा के प्रति कठोर न हो जाएं.

‘‘बहुत ग्लानि होती है कई बार भाभी, मेरी वजह से आप को इतना सब झेलना पड़ रहा है,’’ कल जब अनुभा से बात हुई थी, तो नेहा ने कहा था.

‘‘गिल्टफीलिंग से बाहर निकलो, नेहा. सब ठीक हो जाएगा. आ जाओ थोड़े दिनों के लिए. तरुण भी मिस कर रहे हैं तुम्हें.’’

अनुभा ने सोचा कल ही नेहा को फोन कर के कहेगी कि उसे आ जाना चाहिए मिलने, बेटी है वह घर की. अनुभा को अधिकार दिलाने के चक्कर में अपना हक और अपने हिस्से के प्यार को क्यों छोड़ रही है वह…वह तो कितना तड़प रही है सब से मिलने के लिए. फोन पर चाहे जितनी बात कर लो, पर आमनेसामने बैठ कर बात करने का मजा ही कुछ और होता है. सारी भावनाएं चेहरे पर दिखती हैं तब.

‘‘अरे पापा बिलकुल बन जाएगा, मैं भी आज खिचड़ी ही खाऊंगा और साथ में सूप… वाह मजा आ जाएगा,’’ तरुण उन के साथ आ कर खड़ा हो गया था. दोनों साथसाथ खड़े थे. अपनेपन की एक सोंधी खुशबू खिचड़ी के लिए बनाए तड़के के साथ उठी और अनुभा को लगा जैसे आज देहरी पार कर उस ने सचमुच अपने घर में प्रवेश किया है.

Family Story in Hindi- खुशियों की दस्तक: भाग 1

जिंदगी के लमहे किस पल क्या रंग लेंगे, इस की किसी को खबर  नहीं होती. चंद घंटों पहले तक कौस्तुभ की जिंदगी कितनी सुहानी थी. पर इस समय तो हर तरफ सिवा अंधेरे के कुछ भी नहीं था. प्रतिभाशाली, आकर्षक और शालीन नौजवान कौस्तुभ को जो देखता था, तारीफ किए बिना नहीं रह पाता था. एम. एससी. कैमिस्ट्री में गोल्ड मैडलिस्ट कौस्तुभ पी. एच.डी करने के  साथ ही आई.ए.एस. की तैयारी भी कर रहा था. भविष्य के ऊंचे सपने थे उस के, मगर एक हादसे ने सब कुछ बदल कर रख दिया. आज सुबह की ही तो बात थी कितना खुश था वह. 9 बजे से पहले ही लैब पहुंच गया था. गौतम सर सामने खड़े थे. उन्हीं के अंडर में वह पीएच.डी. कर रहा था. अभिवादन करते हुए उस ने कहा, ‘‘सर, आज मुझे जल्दी निकलना होगा. सोच रहा हूं, अपने प्रैक्टिकल्स पहले निबटा लूं.’’

‘‘जरूर कौस्तुभ, मैं क्लास लेने जा रहा हूं पर तुम अपना काम कर लो. मेरी सहायता की तो यों भी तुम्हें कोई जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन मैं यह जानना जरूर चाहूंगा कि जा कहां रहे हो, कोई खास प्लान?’’ प्रोफैसर गौतम उम्र में ज्यादा बड़े नहीं थे. विद्यार्थियों के साथ दोस्तों सा व्यवहार करते थे और उन्हें पता था कि आज कौस्तुभ अपनी गर्लफ्रैंड नैना को ले कर घूमने जाने वाला है, जहां वह उसे शादी के लिए प्रपोज भी करेगा. कौस्तुभ की मुसकराहट में प्रोफैसर गौतम के सवाल का जवाब छिपा था. उन के जाते ही  कौस्तुभ ने नैना को फोन लगाया, ‘‘माई डियर नैना, तैयार हो न? आज एक खास बात करनी है तुम से…’’

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‘‘आई नो कौस्तुभ. शायद वही बात, जिस का मुझे महीनों से इंतजार था और यह तुम भी जानते हो.’’ ‘‘हां, आज हमारी पहली मुलाकात की वर्षगांठ है. आज का यह दिन हमेशा के लिए यादगार बना दूंगा मैं.’’ लीड कानों में लगाए, बातें करतेकरते कौस्तुभ प्रैक्टिकल्स की तैयारी भी कर रहा था. उस ने परखनली में सल्फ्यूरिक ऐसिड डाला और दूसरी में वन फोर्थ पानी भर लिया. बातें करतेकरते ही कौस्तुभ ने सोडियम मैटल्स निकाल कर अलग कर लिए. इस वक्त कौस्तुभ की आंखों  के आगे सिर्फ नैना का मुसकराता चेहरा घूम रहा था और दिल में उमंगों का ज्वार हिलोरें भर रहा था.

नैना कह रही थी, ‘‘कौस्तुभ, तुम नहीं जानते, कितनी बेसब्री से मैं उस पल का इंतजार कर रही हूं, जो हमारी जिंदगी में आने वाला है. आई लव यू …’’ ‘‘आई लव यू टू…’’ कहतेकहते कौस्तुभ ने सोडियम मैटल्स परखनली में डाले, मगर भूलवश दूसरी के बजाय उस ने इन्हें पहली वाली परखनली में डाल दिया. अचानक एक धमाका हुआ और पूरा लैब कौस्तुभ की चीखों से गूंजने लगा. आननफानन लैब का स्टाफ और बगल के कमरे से 2-4 लड़के दौड़े आए. उन में से एक ने कौस्तुभ की हालत देखी, तो हड़बड़ाहट में पास रखी पानी की बोतल उस के चेहरे पर उड़ेल दी. कौस्तुभ के चेहरे से इस तरह धुआं निकलने लगा जैसे किसी ने जलते तवे पर ठंडा पानी डाल दिया हो. कौस्तुभ और भी जोर से चीखें मारने लगा.

तुरंत कौस्तुभ को अस्पताल पहुंचाया गया. उस के घर वालों को सूचना दे दी गई. इस बीच कौस्तुभ बेहोश हो चुका था. जब वह होश में आया तो सामने ही उस की गर्लफ्रैंड नैना  उस की मां के साथ खड़ी थी. पर वह नैना को देख नहीं पा रहा था. हादसे ने न सिर्फ उस का अधिकांश चेहरा, बल्कि एक आंख भी बेकार कर दी थी. दूसरी आंख भी अभी खुल नहीं सकती थी, पट्टियां जो बंधी थीं. वह नैना को छूना चाहता था, महसूस करना चाहता था, मगर आज नैना उस से बिलकुल दूर छिटक कर खड़ी थी. उस की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह कौस्तुभ के करीब आए. कौस्तुभ 6 महीनों तक अस्पताल, डाक्टर, दवाओं, पट्टियों और औपरेशन वगैरह में ही उलझा रहा. नैना एकदो दफा उस से मिलने आई पर दूर रह कर  ही वापस चली गई. कौस्तुभ की पढ़ाई, स्कौलरशिप और भविष्य के सपने सब अंधेरों में खो गए. लेकिन इतनी तकलीफों के बावजूद कौस्तुभ ने स्वयं को पूरी तरह टूटने नहीं दिया था. किसी न किसी तरह हिम्मत कर सब कुछ सहता रहा, इस सोच के साथ कि सब ठीक हो जाएगा. मगर ऐसा हुआ नहीं. न तो लौट कर नैना उस की जिंदगी में आई और न ही उस का चेहरा पहले की तरह हो सका. अब तक के अभिभावक उस पर लाखों रुपए खर्च कर चुके थे. पर अपना चेहरा देख कर वह स्वयं भी डर जाता था.

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घर आ कर एक दिन जब कौस्तुभ ने नैना को फोन कर बुलाना चाहा, तो वह साफ मुकर गई और स्पष्ट शब्दों में बोली, ‘‘देखो कौस्तुभ, वास्तविकता समझने का प्रयास करो. मेरे मांबाप अब कतई मेरी शादी तुम से नहीं होने देंगे, क्योंकि तुम्हारे साथ मेरा कोई भविष्य नहीं. और मैं स्वयं भी तुम से शादी करना नहीं चाहती क्योंकि अब मैं तुम्हें प्यार नहीं कर पाऊंगी. सौरी कौस्तुभ, मुझे माफ कर दो.’’ कौस्तुभ कुछ कह नहीं सका, मगर उस दिन वह पूरी तरह टूट गया था. उसे लगा जैसे उस की दुनिया अब पूरी तरह लुट चुकी है और कुछ भी शेष नहीं. मगर कहते हैं न कि हर किसी के लिए कोई न कोई होता जरूर है. एक दिन सुबह मां ने उसे उठाते हुए कहा, ‘‘बेटे, आज डाक्टर अंकुर से तुम्हारा अपौइंटमैंट फिक्स कराया है. उन के यहां हर तरह की नई मैडिकल सुविधाएं उपलब्ध हैं. शायद तेरी जिंदगी फिर से लौटा दे वह.’’कौस्तुभ ने एक लंबी सांस ली और तैयार होने लगा. उसे तो अब कहीं भी उम्मीद नजर नहीं आती थी, पर मां का दिल भी नहीं तोड़ सकता था.

कौस्तुभ अपने पिता के साथ डाक्टर के यहां पहुंचा और रिसैप्शन में बैठ कर अपनी बारी का इंतजार करने लगा. तभी उस के बगल में एक लड़की, जिस का नाम प्रिया था, आ कर बैठ गई. साफ दिख रहा था कि उस का चेहरा भी तेजाब से जला हुआ है. फिर भी उस ने बहुत ही करीने से अपने बाल संवारे थे और आंखों पर काला चश्मा लगा रखा था. उस ने सूट पूरी बाजू का पहन रखा था और दुपट्टे से गले तक का हिस्सा कवर्ड था. लेकिन उस के चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा था. न चाहते हुए भी कौस्तुभ ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘क्या आप भी ऐसिड से जल गई थीं?’’उस ने कौस्तुभ की तरफ देखा फिर गौगल्स हटाती हुई बोली, ‘‘जली नहीं जला दी गई थी उस शख्स के द्वारा, जो मुझे बहुत प्यार करता था.’’ कहतेकहते उस लड़की की आंखें एक अनकहे दर्द से भर गईं, लेकिन वह आगे बोली, ‘‘वह मजे में जी रहा है और मैं हौस्पिटल्स के चक्कर लगाती पलपल मर रही हूं. मेरी शादी किसी और से हो रही है, यह खबर वह सह नहीं सका और मुझ पर तेजाब फेंक कर भाग गया. एक पल भी नहीं लगा उसे यह सब करने में और मैं सारी जिंदगी के लिए…

‘‘इस बात को हुए 1 साल हो गया. लाखों खर्च हुए पर अभी भी तकलीफ नहीं गई. मांबाप कितना करेंगे, उन की तो सारी जमापूंजी खत्म हो गई है. अपने इलाज के लिए अब मैं स्वयं कमा  रही हूं. टिफिन तैयार कर मैं उसे औफिसों में सप्लाई करती हूं.’’

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उलझे रिश्ते- भाग 1: क्या प्रेमी से बिछड़कर खुश रह पाई रश्मि

Writer- Ravi

दिन भर की भागदौड़. फिर घर लौटने पर पति और बच्चों को डिनर करवा कर रश्मि जब बैडरूम में पहुंची तब तक 10 बज चुके थे. उस ने फटाफट नाइट ड्रैस पहनी और फ्रैश हो कर बिस्तर पर आ गई. वह थक कर चूर हो चुकी थी. उसे लगा कि नींद जल्दी ही आ घेरेगी. लेकिन नींद न आई तो उस ने अनमने मन से लेटेलेटे ही टीवी का रिमोट दबाया. कोई न्यूज चैनल चल रहा था. उस पर अचानक एक न्यूज ने उसे चौंका दिया. वह स्तब्ध रह गई. यह क्या हुआ?

सुधीर ने मैट्रो के आगे कूद कर सुसाइड कर लिया. उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. उस का मन किया कि वह जोरजोर से रोए. लेकिन उसे लगा कि कहीं उस का रोना सुन कर पास के कमरे में सो रहे बच्चे जाग न जाएं. पति संभव भी तो दूसरे कमरे में अपने कारोबार का काम निबटाने में लगे थे. रश्मि ने रुलाई रोकने के लिए अपने मुंह पर हाथ रख लिया, लेकिन काफी देर तक रोती रही. शादी से पूर्व का पूरा जीवन उस की आंखों के सामने घूम गया.

बचपन से ही रश्मि काफी बिंदास, चंचल और खुले मिजाज की लड़की थी. आधुनिकता और फैशन पर वह सब से ज्यादा खर्च करती थी. पिता बड़े उद्योगपति थे. इसलिए घर में रुपयोंपैसों की कमी नहीं थी. तीखे नैननक्श वाली रश्मि ने जब कालेज में प्रवेश लिया तो पहले ही दिन सुधीर से उस की आंखें चार हो गईं.

‘‘हैलो आई एम रश्मि,’’ रश्मि ने खुद आगे बढ़ कर सुधीर की तरफ हाथ बढ़ाया. किसी लड़की को यों अचानक हाथ आगे बढ़ाता देख सुधीर अचकचा गया. शर्माते हुए उस ने कहा, ‘‘हैलो, मैं सुधीर हूं.’’

‘‘कहां रहते हो, कौन सी क्लास में हो?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘अभी इस शहर में नया आया हूं. पापा आर्मी में हैं. बी.कौम प्रथम वर्ष का छात्र हूं.’’ सुधीर ने एक सांस में जवाब दिया.

‘‘ओह तो तुम भी मेरे साथ ही हो. मेरा मतलब हम एक ही क्लास में हैं,’’ रश्मि ने चहकते हुए कहा. उस दिन दोनों क्लास में फ्रंट लाइन में एकदूसरे के आसपास ही बैठे. प्रोफैसर ने पूरी क्लास के विद्यार्थियों का परिचय लिया तो पता चला कि रश्मि पढ़ाई में अव्वल है. कालेज टाइम के बाद सुधीर और रश्मि साथसाथ बाहर निकले तो पता चला कि सुधीर को पापा का ड्राइवर कालेज छोड़ गया था. रश्मि ने अपनी मोपेड बाहर निकाली और कहा, ‘‘चलो मैं तुम्हें घर छोड़ती हूं.’’

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‘‘नहीं नहीं ड्राइवर आने ही वाला है.’’

‘‘अरे, चलो भई रश्मि खा नहीं जाएगी,’’ रश्मि के कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि सुधीर उस की मोपेड पर बैठ गया. पूरे रास्ते रश्मि की चपरचपर चलती रही. उसे इस बात का खयाल ही नहीं रहा कि वह सुधीर से पूछे कि कहां जाना है. बातोंबातों में रश्मि अपने घर की गली में पहुंची, तो सुधीर ने कहा, ‘‘बस यही छोड़ दो.’’

‘‘ओह सौरी, मैं तो पूछना ही भूल गई कि आप को कहां छोड़ना है. मैं तो बातोंबातों में अपने घर की गली में आ गई.’’

‘‘बस यहीं तो छोड़ना है. वह सामने वाला मकान हमारा है. अभी कुछ दिन पहले ही किराए पर लिया है पापा ने.’’

‘‘अच्छा तो आप लोग आए हो हमारे पड़ोस में,’’ रश्मि ने कहा

‘‘जी हां.’’

‘‘चलो, फिर तो हम दोनों साथसाथ कालेज जायाआया करेंगे.’’ रश्मि और सुधीर के बाद के दिन यों ही गुजरते गए. पहली मुलाकात दोस्ती में और दोस्ती प्यार में जाने कब बदल गई पता ही न चला. रश्मि का सुधीर के घर यों आनाजाना होता जैसे वह घर की ही सदस्य हो. सुधीर की मम्मी रश्मि से खूब प्यार करती थीं. कहती थीं कि तुझे तो अपनी बहू बनाऊंगी. इस प्यार को पा कर रश्मि के मन में भी नई उमंगें पैदा हो गईं. वह सुधीर को अपने जीवनसाथी के रूप में देख कर कल्पनाएं करती. एक दिन सुधीर घर में अकेला था, तो उस ने रश्मि को फोन कर कहा, ‘‘घर आ जाओ कुछ काम है.’’

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जब रश्मि पहुंची तो दरवाजे पर मिल गया सुधीर. बोला, ‘‘मैं एक टौपिक पढ़ रहा था, लेकिन कुछ समझ नहीं आ रहा था. सोचा तुम से पूछ लेता हूं.’’

‘‘तो दरवाजा क्यों बंद कर रहे हो? आंटी कहां है?’’

‘‘यहीं हैं, क्यों चिंता कर रही हो? ऐसे डर रही हो जैसे अकेला हूं तो खा जाऊंगा,’’ यह कहते हुए सुधीर ने रश्मि का हाथ थाम उसे अपनी ओर खींच लिया. सुधीर के अचानक इस बरताव से रश्मि सहम गई. वह छुइमुई सी सुधीर की बांहों में समाती चली गई.

‘‘क्या कर रहे हो सुधीर, छोड़ो मुझे,’’ वह बोली लेकिन सुधीर ने एक न सुनी. वह बोला,  ‘‘आई लव यू रश्मि.’’

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अस्पताल की खचाखच भरी हुई गैलरी धीरधीरे खाली होने लगी. सुरेंद्र ने करवट बदल कर आंखें मूंद लीं. पूरी शाम गैलरी से गुजरते उन अनजान, अपरिचित चेहरों के बीच कोई जानापहचाना सा चेहरा ढूंढ़ने का प्रयत्न करतेकरते जब आंखें निराशा के सागर में डूबनेउतराने लगती हैं तो वह इसी प्रकार करवट बदल कर अपनी थकी आंखों पर पलकों का शीतल, सुखद आंचल फैला देता है.

क्यों करता है यह इंतजार? किस का करता है इंतजार?

‘‘सो गए, बाबूजी?’’ लाइट का स्विच औन कर जगतपाल ने कमरे में प्रवेश किया तो जैसे नैराश्य के अंधकार में भटकते सुरेंद्र के हाथ में ढेर सी उजलीउजली किरणें आ गईं.

‘‘कौन, जगतपाल? आओ बैठो.’’

‘‘बाबूजी, माफ कीजिएगा. बिना पूछे अंदर घुस आया हूं,’’

बैसाखी के सहारे लंगड़ा कर चलते हुए वह उस के बैड के पास आ कर खड़ा हो गया. चेहरे पर वही चिरपरिचित सी मुसकान और उस के साथ लिपटा एक कोमलकोमल सा भाव.

धीरे से करवट बदल कर सुरेंद्र ने अपनी निराश व सूनी आंखें उस के चेहरे पर टिका दीं. क्या है इस कालेस्याह चेहरे के भीतर जो इन थोड़े से दिनों में ही नितांत अजनबी होते हुए भी उन्हें इतना परिचित, इतना अपनाअपना सा लगने लगा है.

‘‘आप शाम के समय इतने अंधेरे में क्यों लेटे थे, बाबूजी? मैं समझा शायद सो गए.’’

‘‘बस, यों ही. सोच रहा था, सिस्टर किसी काम से इधर आएंगी तो खुद ही लाइट जला देंगी. छोटेछोटे कामों के लिए किसी को दौड़ाना अच्छा नहीं लगता, जगतपाल.’’ दिनरात फिरकी की तरह नाचती, शिष्टअशिष्ट हर प्रकार के रोगियों को झेलती, उन छोटीछोटी उम्र की लड़कियों के प्रति उन के मन में इन 16-17 दिनों में ही न जाने कैसी दयाममता भर आई थी.

और सच पूछो तो जगतपाल, कभीकभी मन के भीतर का अंधेरा इतना गहन हो उठता है कि बाहर का यह अंधकार उसे छू भी नहीं पाता. लगता है जैसे…’’ अवसाद में डूबा उन का स्वर कहीं गहरे और गहरे डूबता जा रहा था.

‘‘आप तो बड़ीबड़ी बातें करते हैं, बाबूजी. अपने दिमाग में यह सब नहीं घुसता. यह बताइए, आज तबीयत कैसी है आप की? कुछ खाने को मिला या वही दूध की बोतल…’’

उदास वातावरण को जगतपाल ने अपने ठहाके से चीर कर रख दिया.

सुरेंद्र का चेहरा खिल गया, ‘‘हां, जगतपाल, आज तबीयत बहुत हलकी लग रही है. रात को नींद भी अच्छी आई और जानते हो, आज से डाक्टर ने दूध के साथ ब्रैड खाने की इजाजत दे दी है.’’

15 दिनों से केवल दूध और बिना नमकमिर्च के सूप पर पड़े सुरेंद्र के चेहरे पर मक्खन लगे 2 स्लाइस खाने की तृप्ति और संतुष्टि बिखर आई थी. ‘‘सच कहता हूं, जगतपाल, दूध पीतेपीते इस कदर उकता गया हूं  कि दूध का गिलास देखते ही उसे लाने वाले के सिर पर दे मारने को जी हो आता है.’’

‘‘बसबस, बहुत अच्छे. अब आप 2-4 दिनों में जरूर घर चले जाएंगे. देख लीजिएगा…’’ उस का चेहरा प्रसन्नता के अतिरेक से चमक रहा था. धीरेधीरे वह सुरेंद्र का हाथ सहला रहा था.

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घर? सुबह डाक्टर शशांक ने भी तो यही कहा था, ‘आप की हालत में ऐसे ही सुधार होता रहा तो इस हफ्ते आप को जरूर यहां से छुट्टी मिल जाएगी.’

सिरहाने रखा चार्ट देख कर वे अपने नियमित राउंड पर चले गए थे.

तो क्या वे सचमुच फिर से घर जा सकेंगे? किस का घर? कौन सा घर? क्या उन का कोई घर है?

‘‘एक काम कर दोगे, जगतपाल? जरा यह कंबल पांवों पर डाल दो. कुछ ठंड सी महसूस हो रही है.’’

कंबल सुरेंद्र के पैर पर डाल कर जगतपाल ने मेज पर पड़ा अखबार उठा लिया और कुरसी घसीट कर उस पर पसर गया. एकएक खबर जो सुरेंद्र सुबह से न जाने कितनी बार पढ़ चके थे, अपनी टिप्पणियों सहित जगतपाल उसे सुनाए जा रहा था. और सुरेंद्र उस के चेहरे पर दृष्टि टिकाए एकटक उसे घूर रहे थे.

‘आखिर किस मिट्टी का बना हुआ है यह आदमी? अबोध मासूम बच्चे, अनपढ़, भोली पत्नी, सामने मुंहबाए अंधकारमय भविष्य और यह है कि चेहरे पर शिकन तक नहीं पड़ने देता.’

जगतपाल एक फैक्टरी में काम करता था. वह लोकल ट्रेन से आवाजाही करता था. रेलवे की स्थिति तो जानते ही हैं. आजीवन कुछ न कुछ हादसा होता रहता है और दशकों पुरानी तकनीक के बल पर विकसित देशों की बराबरी करने के ढोल पीटे जा रहे हैं. जगतपाल एक ट्रेन हादसे में अपनी एक टांग गंवा बैठा. 3 महीनों से अस्पताल में पड़ा है. अब चलनेफिरने की आज्ञा मिली है तो बैसाखी के सहारे सारे अस्पताल में चक्कर लगाता फिरता है. अपनी जीवनगाथा दोहरा कर हरेक को जीने के लिए उत्साहित किया करता है.

टांग चली गई, नौकरी की आशा टूट गई. पर माथे पर चिंता की रेखा तक नहीं आने देता. कहता है, ‘फैक्टरी में नौकरी नहीं रहेगी तो न सही, मुआवजा तो देंगे. बाबूजी 12 साल हो गए इस फैक्टरी में खटतेखटते. मुआवजे के रुपए से कोई धंधा शुरू करूंगा.’

उस की छोटीछोटी आंखों में आत्मविश्वास छलक आता है. ‘‘वक्त ने साथ दिया तो कौन जाने इस पराई चाकरी की अपेक्षा अधिक सुखचैन का जीवन कटे. कौन जानता है, वक्त कब क्या दिखा दे?’’ और उस की ये बातें सुन कर सुरेंद्र उसे देखते रह जाते हैं. कितना खुश, कितना मस्त, चिंता और दुख के सागर में डूब कर भी आशा की किरणें ढूंढ़ निकालता है. नित्य कुछ देर उन के पास आ कर हंसबोल कर उन्हें जीवन के प्रति विश्वास दिला जाता है. वरना 24 घंटे अस्पताल की इन सूनी सफेद दीवारों में घिरेघिरे उन्हें ऐसा महसूस होने लगता है जैसे वे दुनिया से कट गए हों. किसी को उन की जरूरत नहीं, दुनिया में उन का कोई अपना नहीं.

‘‘अच्छा, बाबूजी, अब आप आराम कीजिए,’’ बैसाखी उठा कर जगतपाल कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘अब जरा जनरल वार्ड की तरफ जाऊंगा. नमस्ते, बाबूजी.’’

सुरेंद्र उसे बैसाखी के सहारे जाते देखते रहे. अब किसी और अकेले पड़े रोगी के पास कुछ क्षण हंसबोल कर उस में जीवन के प्रति विश्वास घोलने का यत्न करेगा. फिर किसी और…और यही उस की दिनचर्या है. अपना भी समय कट जाता है, दूसरों का भी.

पहले वे स्वयं भी तो बिलकुल ऐसे ही थे. मस्त, बेफिक्र, भविष्य के प्रति पूर्णतया आश्वस्त. सपने में भी नहीं सोचा था कि जिंदगी कभी इतनी कड़वी व बोझिल हो जाएगी. जीवन को बांधने वाले स्नेहप्यार का एकएक धागा छिन्नभिन्न हो कर बिखर जाएगा.

‘काश, उन्हें भी जगतपाल की तरह कोई भोलीभाली सी सीधीसरल पत्नी मिली होती, जिस के होंठों की खिलीखिली सी मुसकान उन की दिनभर की थकान धोपोंछ कर साफ कर डालती. जिस के हाथों की गरमगरम रोटियों में प्यार घुला होता. जो उन के बच्चों को स्नेहप्यार से जीवन के संघर्षों से जूझना सिखाती. जिस के प्रेम और विश्वास में डूब कर वे समस्त संसार को भुला देते. वे सोचने लगे, ‘ओह, यह उन्हें क्या हो गया है? क्या सोचे जा रहे हैं? निरर्थक, अस्तित्वहीन, बेकार…जिन विचारों को ठेल कर दूर भगाना चाहते हैं, वे ही उन्हें चारों ओर से दबोचे चले जाते हैं.’

आंखों पर हाथ रख कर उन्होंने आंखें मूंद लीं. कहां गया जीवन का वह उल्लास, वह माधुर्य, उन्होंने कितने सपने देखे थे. लेकिन सपने भी कभी सच होते हैं कहीं?

‘‘क्या मैं अंदर आ सकती हूं?’’ और इस के साथ ही दरवाजे पर लटका सफेद परदा सरकाते हुए इंद्रा ने अस्पताल के उस स्पैशल वार्ड में प्रवेश किया तो जैसे अतीत की सूनी, उदास पगडंडियों में भटकते सुरेंद्र के पांव एकाएक ठिठक गए. विचारों की कडि़यां झनझनाती हुई बिखर गईं. ‘‘तुम? आज कैसे रास्ता भूल गई, इधर का?’’

कमरे में बिखरी दवाइयों की तीखी गंध से नाक सिकोड़ती इंद्रा ने कुरसी पर पसर कर कंधे से लटका बैग मेज पर पटक दिया. ‘‘बस, कुछ न पूछो. बड़ी कठिनाई से समय निकाल कर आई हूं.’’

सेंट की भीनीभीनी खुशबू कहीं भीतर तक सुरेंद्र को सुलगाती चली गई. कभी कितना प्यार था उन्हें इस महक से?

‘‘कुछ अमेरिकी औरतें आई हुई हैं आजकल एशिया का टूर करने. बस, उन्हीं के साथ व्यस्त रही इतने दिन. पता ही नहीं चला कि 8-10 दिन कैसे बीत गए.’’

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एक उड़तीउड़ती सी दृष्टि पूरे कमरे में डाल उस ने पति के दुर्बल, कुम्हलाए चेहरे पर आंखें टिका दीं, ‘‘बस, अभीअभी उन्हें एयरपोर्ट पर छोड़ कर आ रही हूं. इधर से जा रही थी. सोचा, 5 मिनट आप से मिलती चलूं. कल फिर एक सैमिनार के सिलसिले में बाहर जाना है. 3-4 दिनों के लिए अचला और रमेश भी आज आने वाले थे. तुम्हारी बीमारी के बारे में बता दिया था. शायद घर पहुंच भी गए होंगे.’’

वह अपनी रौ में बोले जा रही थी और सुरेंद्र पत्नी के चेहरे पर दृष्टि टिकाए विचारों में उलझे हुए थे.

Romantic Story in Hindi- बात एक रात की: भाग 2

लेखक : श्री प्रकाश

‘‘इतनी देर रात में बिना फ्लैट नंबर तो उन्हें ढूंढ़ना संभव नहीं है. बस कुछ घंटों की तो बात है, मेरे घर चलो. अपने रिश्तेदार को इतनी रात में क्यों तंग करोगी?’’

‘‘नहीं, यह ठीक नहीं होगा. मैं टैक्सी स्टैंड में रुक जाऊंगी. सुबह उन्हें फोन कर बुला लूंगी.’’

‘‘नहीं, स्टैंड पर रुकना सेफ नहीं है,’’ कह कर तपन ने अपने घर फोन किया और बोला, ‘‘मां, तुम अभी तक सोई नहीं थीं. एक ही रिंग पर फोन उठा लिया. मां, मैं 10 मिनट के अंदर घर पहुंच रहा हूं,’’ कह कर चित्रा से बोला, ‘‘मेरी बूढ़ी मां अभी तक मेरे लिए जाग रही हैं. तुम्हें कोई प्रौब्लम नहीं होगी. तुम मेरे घर चलो.’’

चित्रा ने सिर हिला कर अपनी सहमति

जाता दी. थोड़ी देर में दोनों घर पहुंचे, तो चित्रा को देख उस की मां बोलीं, ‘‘क्यों, मीरा को मना लाया है क्या?’’

दरअसल, उस की मां की आंखों की रोशनी बहुत कमजोर थी और फिर रात की वजह से और परेशानी होती थी, इसलिए ठीक से नहीं देख पा रही थीं.

तपन बोला, ‘‘मां, आप समझती क्यों नहीं? अब वह यहां क्यों आएगी? आप जा कर सो जाओ.’’

पर मां ने जब उस से चित्रा के बारे में पूछा तो तपन ने संक्षेप में उस के बारे में बता कर मां को सोने के लिए भेज दिया.

फिर उस ने चित्रा को गैस्टरूम में आराम करने को कहा.

चित्रा ने तपन से पूछा, ‘‘बुरा न मानें तो एक बात पूछूं?’’

फिर तपन के हां कहने पर वह बोली, ‘‘मीरा आप की पत्नी है?’’

‘‘है नहीं थी. हमारा तलाक हो चुका है.’’

‘‘सौरी. क्या इत्तफाक है. कल कोर्ट में मेरे तलाक पर फाइनल फैसला होना है. फैसला क्या बस तलाक पर मुहर लगनी है. मेरा और चेतन का आपसी सहमति से तलाक हो रहा है.’’

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कुछ देर तक दोनों खामोश एकदूसरे को हैरानी से देखते रहे. फिर तपन ने कहा, ‘‘तुम तो पढ़ीलिखी हो, काफी खूबसूरत भी हो. तुम्हारे पति को तो तुम पर गर्व होना चाहिए.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं था. मेरी ससुराल यहीं है, पर अब हमारा तलाक हो रहा है, इसलिए मैं वहां नहीं जा सकती हूं. मेरे पति कोलकाता में बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करते हैं. मेरा मायके तो पटना में है. मैं भी सौफ्टवेयर इंजीनियर हूं. मैं ने अपने कालेज के 3 सीनियर लड़कों के साथ मिल कर एक स्टार्टअप कंपनी खोली है. शुरू में तो यह कंपनी मेरे पति के गैराज में ही थी. लगभग 1 साल तक ठीकठाक रहा था. हम एक अमेरिकन कंपनी के लिए प्रोडक्ट बना रहे हैं. अकसर देर रात तक गैराज में ही हम चारों काम किया करते थे. बीचबीच में मैं चायकौफी भी बना लाती थी. कभी हम चारों होते तो कभी मैं किसी एक के साथ अकेले भी होती थी. अपना मूड ठीक करने के लिए कभी हंसीमजाक भी कर लेते थे. यह सब मेरे पति चेतन को ठीक नहीं लगा. अकसर झगड़ा होने लगा. इसी बीच हमें अमेरिकन कंपनी से कुछ फंड भी मिला, तो अपने घर की बगल में ही एक छोटा फ्लैट किराए पर ले लिया और कंपनी को वहां शिफ्ट करा लिया, पर अकसर रात में देर हो जाती थी. हालांकि यह नितांत आवश्यक था, क्योंकि प्रोडक्ट को समय पर देना होता है. इस से हम लोगों को लाखों रुपए का लाभ होता.’’

चित्रा ने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘पर चेतन हमारी मजबूरी समझने को तैयार नहीं था. एक दिन तो हद हो गई जब उस ने कहा कि काम के साथसाथ वहां रंगरलियां भी मनाते हो तुम लोग… या तो मैं कंपनी छोड़ दूं या हम दोनों को तलाक लेना होगा. मैं ने उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश की पर वह नहीं माना, उलटे उस ने मेरे चरित्र पर ऊंगली उठाई थी. फिर हम दोनों आपसी सहमति से तलाक के लिए तैयार हो गए.’’

अब तक सुबह के 5 बज गए थे. तपन चाय ले कर चित्रा के पास गया और बोला, ‘‘अभी चाय के साथ कुछ बिस्कुट या स्नैक्स लोगी? नाश्ते में थोड़ा वक्त लगेगा.’’

चित्रा ने कहा कि फिलहाल सिर्फ चाय ही लेगी. फिर दोनों वहीं बैठ कर चाय पीने लगे. चित्रा ने अपने रिश्तेदार को फोन किया तो पता चला कि उन की ए शिफ्ट ड्यूटी है. प्लांट चले गए हैं. दोपहर 3 बजे तक लौटेंगे. चित्रा ने उन्हें फोन पर बता दिया कि वह थोड़ी देर में कोर्ट जाएगी और फिर वहां का काम कर सीधे कोलकाता लौट जाएगी.

चित्रा ने फिर तपन से कहा, ‘‘अगर उचित समझें तो बताएं कि आप और मीरा क्यों अलग हुए थे?’’

‘‘मैं यहां के प्लांट में इंजीनियर हूं, परचेज डिपार्टमैंट में हूं. मशीनों के पार्ट्स खरीदने के लिए बीचबीच में कोलकाता जाना पड़ता है. मैं मध्यवर्गीय परिवार से हूं. मीरा के पिता का अपना अच्छाखासा बिजनैस है, पर मीरा भी इसी प्लांट में अकाउंट औफिस में काम करती थी. हम दोनों में जानपहचान हुई. आगे चल कर प्यार हुआ और हम ने शादी कर ली. शुरू में 6 महीने काफी अच्छे बीते. उस के बाद उस ने जिद पकड़ ली अलग घर लेने की. उस ने कहा कि मां को किसी अच्छे वृद्धाश्रम में छोड़ देंगे. मैं इस के लिए तैयार नहीं?था. रोज खिचखिच होने लगी. अंत में उस ने कहा कि मुझे मां या मीरा में से किसी एक को चुनना होगा. मैं ने जब कहा कि मैं मां को अकेली नहीं छोड़ सकता तो उस ने कहा कि फिर मुझे छोड़ दो. मैं ने इस रिश्ते को बचाने की बहुत कोशिश की, पर वह नहीं मानी और उस ने तलाक के विकल्प को ही बेहतर समझा.’’

‘‘आजकल हमारे देश में भी तलाक लेने वालों की संख्या काफी बढ़ गई है. यह दुख की बात है न? लड़कियां भी पढ़लिख कर कमाने लगी हैं मर्दों की तरह तो उन को भी घर में उतनी इज्जत देनी होगी जितना मर्द अपने लिए चाहते हैं. उन्हें भी अपना कैरियर बनाने का हक है न? क्या मैं गलत बोल रही हूं?’’

‘‘नहीं, पर लड़के क्या अपने मातापिता के भले के लिए कुछ करना चाहें तो यह गलत है?’’

आखिर चित्रा और चेतन के तलाक पर कोर्ट ने मुहर लगा दी. तपन ने कहा कि यह एक ऐसा फैसला है जिस पर खुशी भी जाहिर नहीं की जा सकती है. चित्रा और चेतन अब सदा के लिए अलग हो चुके थे.

इस के बाद तपन चित्रा को अपने घर ले कर आया. उस ने उस दिन छुट्टी ले ली थी. मां ने दोनों को भोजन परोसा. मां ने पूछा, ‘‘बेटी, तुम ने भविष्य के बारे में क्या सोचा है? अभी तुम्हारे आगे लंबी जिंदगी है.’’

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‘‘मैं ने अभी कुछ नहीं सोचा है. अभी मैं कंपनी के जरूरी काम में कुछ महीने इतनी व्यस्त रहूंगी कि कुछ और सोचने की फुरसत ही नहीं है,’’ चित्रा ने कहा.

‘‘चिंता नहीं करना, एक रास्ता बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है…’’

Romantic Story in Hindi- रिश्तों की परख: भाग 1

लेखक- शैलेंद्र सिंह परिहार

हर रिश्ते की एक पहचान होती है. हर रिश्ते का अपना एक अलग एहसास होता है और एक अलग अस्तित्व भी. इन में कुछ कायम रहते हैं, कुछ समय के साथ बिखर जाते हैं. बस, उन के होने का एक एहसास भर रह जाता है. समय की धूल परत दर परत कुछ इस तरह उन पर चढ़ती चली जाती है कि वे धुंधले से हो जाते हैं. और जब भी कोई ऐसा रिश्ता अचानक सामने आ कर खड़ा हो जाता है तो इनसान को एक पल के लिए कुछ नहीं सूझता. उसे क्या नाम दें? कुछ ऐसी ही हालत मेरी भी हो रही थी. मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि 7 वर्ष बाद वह अचानक ही मेरे सामने आ खड़ा होगा.

‘‘टिकट,’’ उस ने हाथ बढ़ाते हुए मुझ से पूछा था. उसे देखते ही मैं चौंक पड़ी थी. चौंका तो वह भी था किंतु जल्दी ही सामान्य हो खाली बर्थ की तरफ देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘और आप के साथ…’’

मैं थोड़ा गर्व से बोली थी, ‘‘जी, मेरे पति, किसी कारण से साथ नहीं आ सके.’’

‘‘यह बच्चा आप के साथ है,’’ उस ने मेरे 5 वर्षीय बेटे की तरफ इशारा करते हुए पूछा.

‘‘मेरा बेटा है,’’ मैं उसी गर्व के साथ बोली थी.

वह कुछ देर तक खड़ा रहा, जैसे मुझ से कुछ कहना चाहता हो लेकिन मैं ने ध्यान नहीं दिया, उपेक्षित सा अपना मुंह खिड़की की तरफ फेर लिया. मेरे मन में एक सवाल बारबार उठ रहा था कि नायब तहसीलदार की पोस्ट को तुच्छ समझने वाला कमलकांत वर्मा टी.सी. की नौकरी कैसे कर रहा है?

बड़ी अजीब बात लग रही थी. कभी अपने उज्ज्वल भविष्य…अपनी जिद के लिए अपने प्यार को ठुकराने वाला, क्या अपनी जिंदगी से उस ने समझौता कर लिया है? क्या यह वही आदमी है जिसे मैं लगभग 17 वर्ष पहले पहली बार मिली थी…10 वर्षों का साथ…ढेर सारे सपने…और फिर लगभग 7 वर्ष पूर्व आखिरी बार मिली थी?

17 साल पहले मेरे पापा का तबादला जबलपुर में हुआ था. आयकर विभाग में आयकर निरीक्षक की पोस्ट पर तरक्की हुई थी. नयानया माहौल था. एक अजनबी शहर, न कोई परिचित न कोई मित्र. वह दीवाली का दिन था, अपने घर के बरामदे में ही मैं और मेरे दोनों छोटे भाई फुलझड़ी, अनार और चकरी जला कर दीवाली मना रहे थे कि गेट पर एक लड़का खड़ा दिखाई दिया. पहले तो मैं ने सोचा कि राह चलते कोई रुक गया होगा, लेकिन जब वह काफी देर तक वहीं खड़ा रहा तो मैं ने जा कर उस से पूछा था, ‘जी, कहिए…आप को किस से मिलना है?’

मुझे देख कर वह नर्वस हो गया था, ‘जी…वह आयकर विभाग वाले निगमजी का घर यही है…’

‘हां, क्यों?’ मैं ने उस की बात भी पूरी नहीं होने दी थी.

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‘जी…मैं ये प्रसाद लाया था…मुझे उन से…’ वह रुकरुक कर बोला था.

मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था, मैं ने पापा से ही मिलवाने में भलाई समझी. उस ने पापा को ही अपना परिचय दिया था. पापा के आफिस में कार्यरत वर्माजी का बेटा था वह. वर्माजी पापा के मातहत क्लर्क थे. वह लगभग 10 मिनट तक रुका था. मां ने उसे प्रसाद और मिठाइयां दीं लेकिन वह प्लेट को छू तक नहीं रहा था. मैं उस के सामने बैठी थी. उस का लजानासकुचाना बराबर चालू था. मैं ने मन ही मन कहा था, ‘लल्लू लाल.’

‘आप किस क्लास में पढ़ते हैं?’ मैं ने ही पूछा था.

‘जी…मैं…’ वह घबरा सा गया था, ‘जी हायर सेकंडरी में…’

उस के जाते ही मम्मीपापा में बहस शुरू हो गई थी

उस समय मैं हाईस्कूल में पढ़ रही थी. इस के बाद न तो मैं ने उस से कुछ पूछा और न ही उस ने मुझ से बात की. जातेजाते पापा से कह गया था, ‘अंकल, आप को पापा ने कल लंच पर पूरे परिवार के साथ बुलाया है.’

‘हूं…’ पापा ने कुछ सोचते हुए कहा था, ‘ठीक है, मैं वर्माजी से फोन पर बात कर लूंगा, पर बेटा, अभी कुछ निश्चित नहीं है.’

उस के जाते ही मम्मीपापा में बहस शुरू हो गई थी कि निमंत्रण स्वीकार करें या न करें. पापा को ज्यादा मेलजोल पसंद नहीं था. पापा ने ही बताया था कि वर्माजी बड़े ही ‘पे्रक्टिकल’ इनसान हैं. कलम भर न फंसे, शेष सब जायज है.

पापा ठहरे ईमानदार, ‘केरबेर’ का संग कैसे निभे? पापा के साथ वर्माजी की हालत नाजुक थी. पापा न तो खाते थे न ही वर्माजी को खाने का मौका मिलता था.

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पापा ने मां को समझाया, ‘देखो, यह निमंत्रण मुझे शीशे में उतारने का एक जरिया है.’ लेकिन मां के तर्क के सामने पापा के विचार ज्यादा समय के लिए नहीं टिक पाते थे.

‘इस अजनबी शहर में हमारा कौन है? आप तो दिन भर के लिए आफिस चले जाते हैं, बच्चे स्कूल और मैं बचती हूं, मैं कहां जाऊं? जब कहती थी कि कुछ लेदे कर तबादला ग्वालियर करा लीजिए तो उस समय भी यही ईमानदारी का भूत सवार था, मैं नहीं कहती कि ईमानदारी छोड़ दीजिए, लेकिन हर समय हर किसी पर शक करने का क्या फायदा? आफिस की बात आफिस तक रखिए, हो सकता है मुझे एक अच्छी सहेली मिल जाए.’

मम्मी की बात सही निकली. उन्हें एक अच्छी सहेली मिल गई थी. आंटी का स्वभाव बहुत ही सरल लगा था. हम बच्चों को देख कर तो वह खुशी से पागल सी हो रही थीं. मुझे अपनी बांहों में भरते हुए कहा था, ‘कितनी प्यारी बेटी है, इसे तो मुझे दे दीजिए,’ फिर उन की आंखों में आंसू आ गए थे, ‘बहनजी, जिस घर में एक बेटी न हो वह घर, घर नहीं होता.’

हम लोगों को बाद में पता चला कि उन की कमल से बड़ी एक बेटी थी जिस की 3-4 साल पहले ही मृत्यु हुई थी. आंटीजी ने मुझे अपने हाथ से कौर खिलाए थे.

‘मैं खा लूंगी न आंटीजी,’ मैं ने प्रतिरोध किया था.

और उन्होंने स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, ‘अपने हाथ से तो रोज ही खाती होगी, आज मेरे हाथ से खा ले बेटी.’

अंकल और आंटीजी हमें छोड़ने गेट तक आए थे

हम लोग लगभग 2 घंटे तक उन के घर में रुके थे, इस बीच मुझे कमल की सूरत तक देखने को नहीं मिली थी. मैं ने सोचा था, हो सकता है घर के बाहर हो. जब हम लोग चलने लगे तो अंकल और आंटीजी हमें छोड़ने गेट तक आए थे.

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‘अब आप लोग कब हमारे यहां आ रहे हैं?’ मम्मी ने पूछा था.

‘आप को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी बहनजी,’ आंटीजी ने हंसते हुए कहा था, ‘जब भी अपनी बेटी से मिलने का मन होगा, आ जाऊंगी.’

हमारा घर पास में ही था, अत: पैदल ही हम सब चल पड़े थे. अनायास ही मेरी नजर उन के घर की तरफ गई थी तो देखा कमल खिड़की से हमें जाते हुए देख रहा था. जब तक उस के घर में थे तो जनाब बाहर ही नहीं आए, और अब छिप कर दीदार कर रहे हैं. मेरे मुख से अचानक ही निकल गया था, ‘लल्लू कहीं का.’

फिर तो आनेजाने का सिलसिला सा शुरू हो गया था. दोनों घर के सदस्य एकदूसरे से घुलमिल गए थे. कमल का शरमानासकुचाना अभी भी पूरी तरह से नहीं गया था. हां, पहले की अपेक्षा अब वह छिपता नहीं था. सामने आता और कभीकभी 2-4 बातें भी कर लेता था. आंटीजी का स्नेह तो मुझ पर सदैव ही बरसता रहता था.

छमाही परीक्षा में गणित में मेरे बहुत कम अंक आए थे. पापा कुछ परेशान से थे कि कहीं मैं सालाना परीक्षा में गणित में फेल न हो जाऊं. यह बात जब आंटीजी तक पहुंची तो उन्होंने कहा था, ‘इसे कमल गणित पढ़ा दिया करेगा, वह गणित से ही तो हायर सेकंडरी कर रहा है और वैसे भी उस की गणित बहुत अच्छी है. देख लीजिए, यदि स्नेह की समझ में न आए तो फिर किसी दूसरे को रख लीजिएगा.’

‘लेकिन बहनजी, उस की भी तो बोर्ड की परीक्षा है, उसे भी तो पढ़ना होगा?’ पापा ने अपनी शंका जताई थी पर दूसरे दिन ठीक 6 बजे कमल मुझे पढ़ाने के लिए हाजिर हो गया था. मैं भी अपनी कापीकिताब ले कर बैठ गई. 3-4 दिन तक तो मुझे कुछ समझ में नहीं आया था कि वह क्या पढ़ा रहा है. कोई सवाल समझाता तो ऐसा लगता जैसे वह मुझे नहीं बल्कि खुद अपने को समझा रहा है. लेकिन धीरेधीरे उस की भाषा मुझे समझ में आने लगी थी. वह स्वभाव से लल्लू जरूर था लेकिन पढ़ने में होशियार था..

Family Story in Hindi: विश्वास- भाग 1: क्या अंजलि अपनी बिखरती हुई गृहस्थी को समेट पाई?

फोन पर ‘हैलो’ सुनते ही अंजलि ने अपने पति राजेश की आवाज पहचान ली.

राजेश ने अपनी बेटी शिखा का हालचाल जानने के बाद तनाव भरे स्वर में पूछा, ‘‘तुम यहां कब लौट रही हो?’’

‘‘मेरा जवाब आप को मालूम है,’’ अंजलि की आवाज में दुख, शिकायत और गुस्से के मिलेजुले भाव उभरे.

‘‘तुम अपनी मूर्खता छोड़ दो.’’

‘‘आप ही मेरी भावनाओं को समझ कर सही कदम क्यों नहीं उठा लेते हो?’’

‘‘तुम्हारे दिमाग में घुसे बेबुनियाद शक का इलाज कर ने को मैं गलत कदम नहीं उठाऊंगा…अपने बिजनेस को चौपट नहीं करूंगा, अंजलि.’’

‘‘मेरा शक बेबुनियाद नहीं है. मैं जो कहती हूं, उसे सारी दुनिया सच मानती है.’’

‘‘तो तुम नहीं लौट रही हो?’’ राजेश चिढ़ कर बोला.

‘‘नहीं, जब तक…’’

‘‘तब मेरी चेतावनी भी ध्यान से सुनो, अंजलि,’’ उसे बीच में टोकते हुए राजेश की आवाज में धमकी के भाव उभरे, ‘‘मैं ज्यादा देर तक तुम्हारा इंतजार नहीं करूंगा. अगर तुम फौरन नहीं लौटीं तो…तो मैं कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी दे दूंगा. आखिर, इनसान की सहने की भी एक सीमा…’’

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अंजलि ने फोन रख कर संबंधविच्छेद कर दिया. राजेश ने पहली बार तलाक लेने की धमकी दी थी. उस की आंखों में अपनी बेबसी को महसूस करते हुए आंसू आ गए. वह चाहती भी तो आगे राजेश से वार्तालाप न कर पाती क्योंकि उस के रुंधे गले से आवाज नहीं निकलती.

राजेश से मिली तलाक की धमकी के बारे में जान कर वंदना ने उसे दिया आश्वासन 

शिखा अपनी एक सहेली के घर गई हुई थी. अंजलि के मातापिता अपने कमरे में आराम कर रहे थे. अपनी चिंता, दुख और शिकायत भरी नाराजगी से प्रभावित हो कर वह बिना किसी रुकावट के कुछ देर खूब रोई.

रोने से उस का मन उदास और बोझिल हो गया. एक थकी सी गहरी आस छोड़ते हुए वह उठी और फोन के पास पहुंच कर अपनी सहेली वंदना का नंबर मिलाया.

राजेश से मिली तलाक की धमकी के बारे में जान कर वंदना ने उसे आश्वासन दिया, ‘‘तू रोनाधोना बंद कर, अंजलि. मेरे साहब घर पर ही हैं. हम दोनों घंटे भर के अंदर तुझ से मिलने आते हैं. आगे क्या करना है, इस की चर्चा आमने- सामने बैठ कर करेंगे. फिक्र मत कर, सब ठीक हो जाएगा.’’

वंदना उस के बचपन की सब से अच्छी सहेली थी. उस का व उस के पति कमल का अंजलि को बहुत सहारा था. उन दोनों के साथ अपने सुखदुख बांट कर ही पति से दूर वह मायके में रह रही थी. अपना मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए अंजलि जो बात अपने मातापिता से नहीं कह पाती, वह इन दोनों से बेहिचक कह देती.

राजेश से फोन पर हुई बातचीत का ब्योरा अंजलि से सुन कर वंदना चिंतित हो उठी तो उस के पति कमल की आंखों में गुस्से के भाव उभरे.

‘‘अंजलि, कोई चोर कोतवाल को उलटा नहीं धमका सकता है. राजेश को तलाक की धमकी देने का कोई अधिकार नहीं है. अगर वह ऐसा करता है तो समाज उसी के नाम पर थूथू करेगा,’’ कमल ने आवेश भरे लहजे में अपनी राय बताई.

‘‘मेरी समझ से हमें टकराव का रास्ता छोड़ कर राजेश से बात करनी चाहिए,’’ चिंता के मारे अपनी उंगलियां मरोड़ते हुए वंदना ने अपने मन की बात कही.

‘‘राजेश से बातचीत करने को अगर अंजलि उस के पास लौट गई तो वह अपने दोस्त की विधवा के प्रेमजाल से कभी नहीं निकलेगा. उस पर संबंध तोड़ने को दबाव बनाए रखने के लिए अंजलि का यहां रहना जरूरी है.’’

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‘‘अगर राजेश ने सचमुच तलाक की अर्जी कोर्ट में दे दी तो क्या करेंगे हम? तब भी तो अंजलि

को मजबूरन वापस लौटना पडे़गा न.’’

‘‘मैं नहीं लौटूंगी,’’ अंजलि ने सख्त लहजे में उन दोनों को अपना फैसला सुनाया, ‘‘मैं 2 महीने अलग रह सकती हूं तो जिंदगी भर को भी अलग रह लूंगी. मैं जब चाहूं तब अध्यापिका की नौकरी पा सकती हूं. शिखा को पालना मेरे लिए समस्या नहीं बनेगा. एक बात मेरे सामने बिलकुल साफ है. अगर राजेश ने उस विधवा सीमा से अपने व्यक्तिगत व व्यावसायिक संबंध बिलकुल समाप्त नहीं किए तो वह मुझे खो देंगे.’’

वंदना व कमल कुछ प्रतिक्रिया दर्शाते, उस से पहले ही बाहर से किसी ने घंटी बजाई. अंजलि ने दरवाजा खोला तो सामने अपनी 16 साल की बेटी शिखा को खड़ा पाया.

अंजलि  का  व्यवहार अचानक बदल गया

‘‘वंदना आंटी और कमल अंकल आए हुए हैं. तुम उन के पास कुछ देर बैठो, तब तक मैं तुम्हारे लिए खाना लगा लाती हूं,’’ भावुकता की शिकार बनी अंजलि ने प्यार से अपनी बेटी के कंधे पर हाथ रखा.

‘‘मेरा मूड नहीं है, किसी से खामखां सिर मारने का. जब भूख होगी, मैं खाना खुद ही गरम कर के खा लूंगी,’’ बड़ी रुखाई से जवाब देने के बाद साफ तौर पर चिढ़ी व नाराज सी नजर आ रही शिखा अपने कमरे में जा घुसी.

अंजलि को उस का अचानक बदला व्यवहार बिलकुल समझ में नहीं आया. उस ने परेशान अंदाज में इस की चर्चा वंदना और कमल से की.

‘‘शिखा छोटी बच्ची नहीं है,’’ वंदना की आंखों में चिंता के बादल और ज्यादा गहरा उठे, ‘‘अपने मातापिता के बीच की अनबन जरूर उस के मन की सुखशांति को प्रभावित कर रही है. उस के अच्छे भविष्य की खातिर भी हमें समस्या का समाधान जल्दी करना होगा.’’

‘‘वंदना ठीक कह रही है, अंजलि,’’ कमल ने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘तुम शिखा से अपने दिल की बात खुल कर कहो और उस के मन की बातें सहनशीलता से सुनो. मेरी समझ से हमारे जाने के बाद आज ही तुम यह काम करना. कोई समस्या आएगी तो वंदना और मैं भी उस से बात करेंगे. उस की टेंशन दूर करना हम सब की जिम्मेदारी है.’’

उन दोनों के विदा होने तक अपनी समस्या को हल करने का कोई पक्का रास्ता अंजलि के हाथ नहीं आया था. अपनी बेटी से खुल कर बात करने के  इरादे से जब उस ने शिखा के कमरे में कदम रखा, तब वह बेचैनी और चिंता का शिकार बनी हुई थी.

‘‘क्या बात है? क्यों मूड खराब है तेरा?’’ अंजलि ने कई बार ऐसे सवालों को घुमाफिरा कर पूछा, पर शिखा गुमसुम सी बनी रही.

‘‘अगर मुझे तू कुछ बताना नहीं चाहती है तो वंदना आंटी और कमल अंकल से अपने दिल की बात कह दे,’’  अंजलि की इस सलाह का शिखा पर अप्रत्याशित असर हुआ.

‘‘भाड़ में गए कमल अंकल. जिस आदमी की शक्ल से मुझे नफरत है, उस से बात करने की सलाह आज मुझे मत दें,’’  शिखा किसी ज्वालामुखी की तरह अचानक फट पड़ी.

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‘‘क्यों है तुझे कमल अंकल से नफरत? अपने मन की बात मुझ से बेहिचक हो कर कह दे गुडि़या,’’ अंजलि का मन एक अनजाने से भय और चिंता का शिकार हो गया.

‘‘पापा के पास आप नहीं लौटो, इस में उस चालाक इनसान का स्वार्थ है और आप भी मूर्ख बन कर उन के जाल में फंसती जा रही हो.’’

‘‘कैसा स्वार्थ? कैसा जाल? शिखा, मेरी समझ में तेरी बात रत्ती भर नहीं आई.’’

‘‘मेरी बात तब आप की समझ में आएगी, जब खूब बदनामी हो चुकी होगी. मैं पूछती हूं कि आप क्यों बुला लेती हो उन्हें रोजरोज? क्यों जाती हो उन के घर जब वंदना आंटी घर पर नहीं होतीं? पापा बारबार बुला रहे हैं तो क्यों नहीं लौट चलती हो वापस घर.’’

शिखा के आरोपों को समझने में अंजलि को कुछ पल लगे और तब उस ने गहरे सदमे के शिकार व्यक्ति की तरह कांपते स्वर में पूछा, ‘‘शिखा, क्या तुम ने कमल अंकल और मेरे बीच गलत तरह के संबंध होने की बात अपने मुंह से निकाली है?’’

‘‘हां, निकाली है. अगर दाल में कुछ काला न होता तो वह आप को सदा पापा के खिलाफ क्यों भड़काते? क्यों जाती हो आप उन के घर, जब वंदना आंटी घर पर नहीं होतीं?’’

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‘तो आज भी मेमसाहब मुझ पर एहसान लादने चली आई हैं. और वह भी इस रूप में? क्या इस स्त्री को तनिक भी लाजशरम नहीं है? जीवन की इस संध्या बेला में यह चटख, चमकीले कपड़े, झुर्री पड़े, बुढ़ाते चेहरे को छिपाने के यत्न में पाउडर और लिपस्टिक की महकतीगमकती परतें. आंखों के आरपार खिंचा सिनेतारिकाओं का सा काजल और चांदी के तारों को छिपाने के यत्न में नकली बालों का ऊंचा फैशनेबल जूड़ा देख कर वितृष्णा से उन के मुंह में ढेर सी कड़वाहट घुल गई.

इंद्रा से पति की बेरुखी छिपी न रह सकी, ‘‘तुम आज भी नाराज हो न? पर क्या कर सकती हूं, समय ही नहीं मिलता आने का.’’

‘‘मैं तो तुम से कोई सफाई नहीं मांग रहा हूं?’’

‘‘तो क्या मैं समझती नहीं हूं तुम्हें. जब देखो मुंह फुलाए पड़े रहते हो. पर सच कहती हूं कि एक बार उन विदेशी महिलाओं को देखते तो समझते. किस कदर भारत पर फिदा हो गई हैं. कहती हैं, ‘यहां की स्त्रियों की संसार में कहीं भी समता नहीं हो सकती. कितनी शांत, कितनी सरल और ममतामयी होती हैं. घर, पति और बच्चों में अनुरक्त. असली पारिवारिक जीवन अगर कहीं है तो केवल भारत में. एक हमारा देश है जहां स्त्रियों को न घर की चिंता होती है, न बच्चों की. और पति नाम का जीव? उसे तो जब चाहो पुराने जूते की तरह पैर से निकालो और तलाक दे दो,’’ वह हंसी, ‘‘हमारे महिला क्लब को देख कर भी वे बेहद प्रभावित हुईं…’’

सुरेंद्र पत्नी के गर्व से दमकते चेहरे को आश्चर्यचकित सा देखते रह गए. पति, घर, बच्चे, सुखी पारिवारिक जीवन, ममतामयी नारियां? यह सब क्या बोल रही है इंद्रा? क्या वह इस सब का अर्थ भी समझती है? यदि हां, तो फिर वह सब क्या था? जीवनभर पति को पराजित करने की दुर्दमनीय महत्त्वाकांक्षा, जिस के वशीभूत उस ने एक अत्यंत कोमल, अत्यंत भावुक हृदय को छलनी कर दिया. उन का सबकुछ नष्ट कर डाला.

‘‘तुम्हें किसी चीज की जरूरत हो तो कहो, किसी के हाथ भिजवा दूंगी. मेरा मतलब है कुछ फल वगैरा या कोई किताब, कोई पत्रिका?’’

सूनीसूनी आंखें कुछ पल पत्नी के चेहरे पर जैसे कुछ खोजती रहीं, ‘‘जरूरत? डाक्टर को बुला दो, बस…’’

ठंडा, उदास स्वर इंद्रा को कहीं गहरे तक सहमाता चला गया.

‘‘कहिए, कोई खास बात?’’

सुरेंद्र ने डाक्टर सुधीर की आवाज सुन कर आंखों पर से हाथ हटाया, ‘‘जी, हां, डाक्टर साहब, इन्हें यहां से बाहर कर दीजिए.’’

डाक्टर सुधीर एकाएक सन्न रह गए. सुरेंद्र का कांपता स्वर, उन की आंखों में छलकता करुण आग्रह आखिर यह सब क्या है? कैसी अनोखी विडंबना है? पतिपत्नी के युगोंयुगों से चले आ रहे तथाकथित अटूट दृढ़ संबंधों का आखिर यह कौन सा रूप है? मृत्युशय्या पर पड़ा व्यक्ति सब से अधिक कामना अपने सब से प्रिय, सब से मधुर संबंधियों के सान्निध्य की करता है, और यह व्यक्ति है कि…

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एक असहाय सी दृष्टि उन्होंने इंद्रा पर डाली.

‘‘लेकिन, डाक्टर, मैं ने तो इन से कोई ऐसीवैसी बात नहीं की. मेरा मतलब है…’’ इंद्रा का चेहरा अपमान से स्याह पड़ गया था.

‘‘मैं समझता हूं, श्रीमती सुरेंद्र. लेकिन आप जब भी यहां आती हैं, इन का ब्लडप्रैशर बढ़ जाता है. और इन के ब्लडप्रैशर बढ़ने का अर्थ आप समझती हैं न, कितना खतरनाक हो सकता है? आज सारी रात ये सो नहीं पाएंगे. कई दिनों के बाद कल रात इन्हें नींद की गोलियों के बगैर नींद आई थी, मगर आज फिर पुरानी हालत हो जाएगी. आप समझने की कोशिश कीजिए.’’

डाक्टर के नम्रता और शालीनता में डूबे शब्द सुन कर इंद्रा का खून खौल गया. ‘‘हां, हां, मैं खूब समझती हूं. कितनी कठिनाई से समय निकाल कर इन्हें देखने आती हूं और ये हैं कि…ठीक है, अब नहीं आऊंगी.’’ झटके से पलट कर वह तेज कदम रखती हुई स्पैशल वार्ड के बाहर निकल गई.

‘‘पत्नी को देख कर आप को इतना उद्विग्न नहीं होना चाहिए, मिस्टर सुरेंद्र. आप समझदार हैं. जरा संयम रखिए,’’ डाक्टर सुधीर सुरेंद्र को अपनी स्नेह भीगी दृष्टि से सहला रहे थे.

‘‘बहुत नियंत्रण किया है अपनेआप पर, डाक्टर. बहुत सहा है इस कलेजे पर पत्थर रख कर, इसी आशा में कि शायद यह किसी दिन संभल जाएगी. पर अब नहीं सहा जाता. इस औरत को देखते ही मेरे दिमाग की नसें फटने लगती हैं. समझ में नहीं आता, क्या कर डालूं? उस का गला दबा दूं या अपना?’’  सुरेंद्र बेहद कातर हो उठे थे.

‘‘आप नहीं जानते, डाक्टर, मेरी इस दशा के लिए पूरी तरह यह औरत जिम्मेदार है. इस ने मेरा जीवन बरबाद कर दिया है. मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरा सबकुछ. मैं इसे कभी माफ नहीं कर सकता. डाक्टर, थोड़ा सा ग्लूकोज दीजिए, प्लीज? बड़ी तकलीफ हो रही है सीने में. लगता है दिल डूबा जा रहा है जैसे…’’

ग्लूकोज पिला कर, नर्स को नींद का इंजैक्शन लगाने का आदेश दे कर डाक्टर सुधीर चले गए.

लेकिन नींद का इंजैक्शन और डाक्टर के सांत्वना में डूबे शब्द, सब मिल कर भी सुरेंद्र के मस्तिष्क की फटती नसों को शांति के सागर में न डुबो सके.

इंद्रा ने कुछ पलों के लिए आ कर उन की आर्द्र स्मृतियों के दर्द को फिर से कुरेद कर रख दिया था. यत्न से दबाई चिनगारियां जरा सी हवा पा कर फिर से सुलग उठी थीं.

तब नईनई नौकरी लगी थी उन की. नया शहर, नए मित्र, नया काम, सबकुछ नयानया. एक दिन घूमफिर कर लौटे थे तो पिता का पत्र मिला, ‘लड़की देखी है. सुंदर है, बीए कर रही है. घरखानदान अच्छा है. चाहो तो तुम भी आ कर देख जाओ.’

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उन्होंने सीधासादा सा उत्तर लिख दिया था, ‘आप सब ने देख लिया, पसंद कर लिया. फिर मैं क्या देखूंगा? पढ़ीलिखी लड़की है, जैसी भी है, अच्छी ही होगी. मुझे मंजूर है.’

इंद्रा की परीक्षा तक उन्हें रुकना पड़ा था. वे कुछ महीने उन्होंने कैसे काटे थे, मन हर समय उल्लास की सतरंगी किरणों से घिराघिरा सा रहता. विवाह के नाम से कलियां सी चटखने लगतीं. आंखों में खुमार सा उतर आता. वे क्या जानते थे कि यह विवाह उन के जीवन का सब से बड़ा कंटक बन कर उन के जीवन की दिशा ही मोड़ देगा, उन का सबकुछ अस्तव्यस्त कर डालेगा?

फिर एक दिन इंद्रा ने उन के साथ उन के घर में कदम रखा था. जीवनभर साथ देने की अनेक प्रतिज्ञाएं कर के दुखसुख में कदम से कदम मिला कर जीवन में आए संघर्षों से जूझने के वादे ले कर.

लेकिन उस के सारे वादे, सारी प्रतिज्ञाएं, वर्षभर के ही अंदरअंदर धूल चाटने लगी थीं.

Romantic Story in Hindi: भोर- भाग 3: क्यों पति का मजाक उड़ाती थी राजवी?

Writer- Kalpana Mehta

अक्षय को लगा कि राजवी कुछ छिपा रही है. कहीं वह मां तो नहीं बनने वाली? पर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि वह तो कहती रही है कि बच्चे के बारे में तो अभी 5 साल तक सोचना भी मत. पहले मैं कैरियर बनाऊंगी, लाइफ को ऐंजौय करूंगी, उस के बाद ही सोचूंगी. फिर कौन सी बात छिपा रही है यह मुझ से? क्या इस के साथ वाकई रेप हुआ होगा? दुखी हो गया अक्षय यह सोच कर. उसे जीवन का यह नया रंग भयानक लग रहा था. 2 दिन बाद अक्षय जब शाम को घर आया तो देखा कि राजवी फिर से बेहोश जैसी पड़ी थी. उसे तेज बुखार था. अक्षय परेशान हो गया. फिर बिना कुछ सोचे वह उसे अस्पताल ले गया. डाक्टर ने जांचपड़ताल करने के बाद उस के जरूरी टैस्ट करवाए और उन की रिपोर्ट्स निकलवाईं.

लेकिन रिपोर्ट्स हाथ में आते ही अक्षय के होश उड़ गए. राजवी की बच्चेदानी में सूजन थी और इंटरनल ब्लीडिंग हो रही थी. डाक्टर ने बताया कि उसे कोई संक्रामक रोग हो गया है.

चेहरा हाथों में छिपा कर अक्षय रो पड़ा. यह क्या हो गया है मेरी राजवी को? वह शुरू से ही कुछ बता देती या खुद ट्रीटमैंट करवा लेती तो बात इतनी बढ़ती नहीं. ये तू ने क्या किया राजवी? मेरे प्यार में तुझे कहां कमी नजर आई कि प्यार की खोज में तू भटक गई? काश तू मेरे दिल की आवाज सुन सकती. अक्षय को डाक्टर ने सांत्वना दी कि लुक मिस्टर अक्षय, अभी भी उतनी देर नहीं हुई है. हम उन का अच्छे से अच्छा ट्रीटमैंट शुरू कर देंगे. शी विल बी औल राइट सून… और वास्तव में डाक्टर के इलाज और अक्षय की केयर से राजवी की तबीयत ठीक होने लगी. लेकिन अक्षय का धैर्य और प्यार भरा बरताव राजवी को गिल्टी फील करा देता था.

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अस्पताल से घर लाने के बाद अक्षय राजवी की हर छोटीमोटी जरूरत का ध्यान रखता था. उसे टाइम पर दवा, चायनाश्ता व खाना देना और उस को मन से खुश रखने के लिए तरहतरह की बातें करना, वह लगन से करता था. और राजवी की इन सब बातों ने आंखें खोल दी थीं. नासमझी में उस ने क्याक्या नहीं कहा था अक्षय को. दोस्तों के सामने उस का तिरस्कार किया था. उस के रंग को ले कर सब के बीच उस का मजाक उड़ाया था और कई बार गुस्से और नफरत के कड़वे बोल बोली थी वह. यह सब सोच कर शर्म सी आती थी उसे.

अपनी गोरी त्वचा और सौंदर्य के गुमान की वजह से उस ने अपना चरित्र भी जैसे गिरवी रख दिया था. अक्षय सांवला था तो क्या हुआ, उस के भीतर सब कुछ कितना उजला था. उस के इतने खराब ऐटिट्यूड के बाद भी अक्षय के बरताव से ऐसा लगता था जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. वह पूरे मन से उस की केयर कर रहा था. राजवी सोचती थी मेरी गलतियों, नादानियों और अभिमान को अनदेखा कर अक्षय मुझे प्यार करता रहा और मुझे समझाने की कोशिश करता रहा. लेकिन मैं अपनी आजादी का गलत इस्तेमाल करती रही. कुछ दिनों में राजवी के जख्म तो ठीक हो गए पर उन्होंने अपने गहरे दाग छोड़ दिए थे. जब भी वह आईना देखती थी सहम जाती थी.

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पूरी तरह से ठीक होने के बाद राजवी ने अक्षय के पास बैठ कर अपने बरताव के लिए माफी मांगी. अक्षय गंभीर स्वर में बोला, ‘‘देखो राजवी, मैं जानता हूं कि तुम मेरे साथ खुश नहीं हो. मैं यह भी जानता हूं कि मैं शक्लसूरत में तुम्हारे लायक नहीं हूं. काश मैं अपने शरीर का रंग बदलवा सकता पर वह मुमकिन नहीं है. तब एक ही रास्ता नजर आता है मुझे कि तुम मेरे साथ जबरदस्ती रहने के बजाय अपना मनपसंद रास्ता खोज लो.’’ इस बात पर राजवी चौंकी मगर अक्षय बोला, ‘‘मेरा एक कुलीग है. मेरे जैसी ही पोस्ट पर है और मेरी जितनी ही सैलरी मिलती है उसे. प्लस पौइंट यह है कि वह हैंडसम दिखता है. तुम्हारे जैसा गोरा और तुम्हारे जैसा ही फ्री माइंडेड है. अगर तुम हां कहो तो मैं बात कर सकता हूं उस से. और हां, वह भी इंडिया का ही है. खुश रखेगा तुम्हें…’’

‘‘अक्षय, यह क्या बोल रहे हो तुम?’’ राजवी चीख उठी. अक्षय ऐसी बात करेगा यह उस की सोच से परे था.

‘‘मैं ठीक ही तो कह रहा हूं. इस झूठमूठ की शादी में बंधे रहने से अच्छा होगा कि हम अलग हो जाएं. मेरी ओर से आज से ही तुम आजाद हो…’’

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अक्षय के होंठों पर अपनी कांपती उंगलियां रखती राजवी कांपती आवाज में बोली, ‘‘इस बात को अब यहीं पर स्टौप कर दो अक्षय. मैं ने कहा न कि मैं ने जो कुछ भी किया वह मेरी भूल थी. मेरा घमंड और मेरी नासमझी थी. अपने सौंदर्य पर गुमान था मुझे और उस गुमान के लिए तुम जो चाहे सजा दे सकते हो. पर प्लीज मुझे अपने से अलग मत करना. मैं नहीं जी पाऊंगी तुम्हारे बिना. तुम्हारे प्यार के बिना मैं अधूरी हूं. जिंदगी का और रिश्तों का सच्चा सुख बाहरी चकाचौंध में नहीं होता वह तो आंतरिक सौंदर्य में ही छिपा होता है, यह सच मुझे अच्छी तरह महसूस हो चुका है.’’

इस के आगे न बोल पाई राजवी. उस की आंखों में आंसू भर गए. उस ने हाथ जोड़ लिए और बोली, ‘‘मेरी गलती माफ नहीं करोगे अक्षय?’’ राजवी के मुरझाए गालों पर बह रहे आंसुओं को पोंछता अक्षय बोला, ‘‘ठीक है, तो फिर इस में भी जैसी तुम्हारी मरजी.’’  और यह कह कर वह मुसकराया तो राजवी हंस पड़ी. फिर अक्षय ने अपनी बांहें फैलाईं तो राजवी उन में समा गई.

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