काली सोच : क्या वो खुद को माफ कर पाई -भाग 2

‘मुझे जो कहना था मैं ने कह दिया. तुम्हें इतना ही पसंद है तो कहीं से मुझे जहर ला दो. अपने जीतेजी तो मैं यह अनर्थ नहीं होने दूंगी. अरे, रिश्तेदार हैं, समाज है उन्हें क्या मुंह दिखाएंगे. दस लोग दस तरह के सवाल पूछेंगे, क्या जवाब देंगे उन्हें हम?’

मैं ने कहा तो सुशांत चुप हो गए. उस दिन मैं ने मानसी को ध्यान से देखा. वाकई मेरी गुडि़या विवाहयोग्य हो गई थी. लिहाजा, मैं ने पुरोहित को बुलावा भेजा.

‘बिटिया की कुंडली में तो घोर मंगल योग है बहूरानी. पतिसुख से यह वंचित रहेगी. पुरोहित के मुख से यह सुन कर मेरा मन अनिष्ट की आशंका से कांप उठा. मैं मध्यवर्गीय धर्मभीरू परिवार से थी और लड़की के मंगला होने के परिणाम से पूरी तरह परिचित थी. मैं ने लगभग पुरोहित के पैर पकड़ लिए, ‘कोई उपाय बताइए पुरोहितजी. पूजापाठ, यज्ञहवन, मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. मुझे कैसे भी इस मंगल दोष से छुटकारा दिलाइए.’

‘शांत हो जाइए बहूरानी. मेरे होते हुए आप को परेशान होने की बिलकुल भी जरूरत नहीं है,’ उन्होंने रसगुल्ले को मुंह में दबाते हुए कहा, ‘ऐसा कीजिए, पहले तो बिटिया का नाम मानसी के बजाय प्रिया रख दीजिए.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है पंडितजी. इस उम्र में नाम बदलने के लिए न तो बिटिया तैयार होगी न उस के पापा. वे कुंडली मिलान के लिए भी तैयार नहीं थे.’

‘तैयार तो बहूरानी राजा दशरथ भी नहीं थे राम वनवास के लिए.’ पंडितजी ने घोर दार्शनिक अंदाज में मुझे त्रियाहट का महत्त्व समझाया व दक्षिणा ले कर चलते बने.

‘आज से तुम्हारा नाम मानसी के बजाय प्रिया रहेगा,’ रात के खाने पर मैं ने बेटी को अपना फैसला सुना दिया.

‘लेकिन क्यों मां, इस नाम में क्या बुराई है?’

‘वह सब मैं नहीं जानती बेटा, पर मैं जो कुछ भी कर रही हूं तुम्हारे भले के लिए ही कर रही हूं. प्लीज, मुझे समझने की कोशिश करो.’

उस ने मुझे कितना समझा, कितना नहीं, यह तो मैं नहीं जानती पर मेरी बात का विरोध नहीं किया.

हर नए रिश्ते के साथ मैं उसे हिदायतों का पुलिंदा पकड़ा देती.

‘सुनो बेटा, लड़के की लंबाई थोड़ा कम है, इसलिए फ्लैटस्लीपर ही पहनना.’

‘लेकिन मां फ्लैटस्लीपर तो मुझ पर जंचते नहीं हैं.’

‘देखो प्रिया, यह लड़का 6 फुट का है. इसलिए पैंसिलहील पहनना.’

‘लेकिन मम्मी मैं पैंसिलहील पहन कर तो चल ही नहीं सकती. इस से मेरे टखनों में दर्द होता है.’

‘प्रिया, मौसी के साथ पार्लर हो आना. शाम को कुछ लोग मिलने आ

रहे हैं.’

‘मैं नहीं जाऊंगी. मुझे मेकअप पसंद नहीं है.’

‘बस, एक बार तुम्हारी शादी हो जाए, फिर करती रहना अपने मन की.’

मैं सुबकने लगती तो प्रिया हथियार

डाल देती.

पर मेरी सारी तैयारियां धरी की धरी रह जातीं जब लड़के वाले ‘फोन से खबर करेंगे’, कहते हुए चले जाते या फिर दहेज में मोटी रकम की मांग करते, जिसे पूरा करना किसी मध्यवर्गीय परिवार के वश की बात नहीं थी.

‘ऐसा कीजिए बहूरानी, शनिवार की सुबह 3 बजे बिटिया से पीपल के फेरे लगवा कर ग्रहशांति का पाठ करवाइए,’ पंडितजी ने दूसरी युक्ति सुझाई.

‘तुम्हें यह क्या होता जा रहा है मां, मैं ये जाहिलों वाले काम बिलकुल नहीं करूंगी,’ प्रिया गुस्से से भुनभुनाई, ‘पीपल के फेरे लगाने से कहीं रिश्ते बनते हैं.’

‘सच ही तो है, शादियां यदि पीपल के फेरे लगाने से

तय होतीं तो सारी विवाहयोग्य लड़कियां पीपल के इर्दगिर्द ही घूमती नजर आतीं,’ सुशांत ने भी हां में हां मिलाई.

‘चलो, माना कि नहीं होती पर हमें यह सब करने में हर्ज ही क्या है?’

‘हर्ज है शुभा, इस से लड़कियों का मनोबल गिरता है. उन का आत्मसम्मान आहत होता है. बारबार लड़के वालों द्वारा नकारे जाने पर उन में हीनभावना घर कर जाती है. तुम ये सब समझना क्यों नहीं चाहतीं. मानसी को पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने दो. उसे जो बनना है वह बन जाने दो. फिर शादी भी हो जाएगी,’ सुशांत ने मुझे समझाने की कोशिश की.

‘तब तक सारे अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाएंगे, फिर सुनते रहना रिश्तेदारों और पड़ोसियों के ताने.’

‘रिश्तेदारों का क्या है, वे तो कुछ न कुछ कहते ही रहेंगे. उन की बातों से डर कर क्या हम बेटी की खुशियों, उस के सपनों का गला घोंट दें.’

‘तुम कहना क्या चाहते हो, मैं क्या इस की दुश्मन हूं. अरे, लड़कियां चाहे कितनी भी पढ़लिख जाएं, उन्हें आखिर पराए घर ही जाना होता है. घरपरिवार और बच्चे संभालने ही होते हैं और इन सब कामों की एक उम्र होती है. उम्र निकलने के बाद यही काम बोझ लगने लगते हैं.’

‘तो हमतुम मिल कर संभाल लेंगे न इन की गृहस्थी.’

‘संभालेंगे तो तब न जब ब्याह होगा इस का. लड़के वाले तो मंगला सुनते ही भाग खड़े होते हैं.’

हमारी बहस अभी और चलती अगर सुशांत ने मानसी की डबडबाई आंखों को देख न लिया होता.

सुशांत ने ही बीच का रास्ता निकाला था. वे कहीं से पीपल का बोनसाई का पौधा ले आए थे, जिस से मेरी बात भी रह जाए और प्रिया को घर से बाहर भी न जाना पड़े.

साल गुजरते जा रहे थे. मानसी की कालेज की पढ़ाई भी पूरी हो गई थी.

 

काली सोच : क्या वो खुद को माफ कर पाई -भाग 3

घर में एक अदृश्य तनाव अब हर समय पसरा रहता. जिस घर में पहले प्रिया की शरारतों व खिलखिलाहटों की धूप भरी रहती, वहीं अब सर्द खामोशी थी.

सभी अपनाअपना काम करते, लेकिन यंत्रवत. रिश्तों की गर्माहट पता नहीं कहां खो गईर् थी.

हम मांबेटी की बातें जो कभी खत्म ही नहीं होती थीं, अब हां…हूं…तक ही सिमट गई थीं.

जीवन फिर पुराने ढर्रे पर लौटने लगा था कि तभी एक रिश्ता आया. कुलीन ब्राह्मण परिवार का आईएएस लड़का दहेजमुक्त विवाह करना चाहता था. अंधा क्या चाहे, दो आंखें.

हम ने झटपट बात आगे बढ़ाई. और एक दिन उन लोगों ने मानसी को देख कर पसंद भी कर लिया. सबकुछ इतना अचानक हुआ था कि मुझे लगने लगा कि यह सब पुरोहितजी के बताए उपायोें के फलस्वरूप हो रहा है.

हंसीखुशी के बीच हम शादी की तैयारियों में व्यस्त हो गए थे कि पुरोहित दोबारा आए, ‘जयकारा हो बहूरानी.’

‘सबकुछ आप के आशीर्वाद से ही तो हो रहा है पुरोहितजी,’ मैं ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा.

‘इसीलिए विवाह का मुहूर्त निकालते समय आप ने हमें याद भी नहीं किया,’ वे नाराजगी दिखाते हुए बोले.

‘दरअसल, लड़के वालों का इस में विश्वास ही नहीं है, वे नास्तिक हैं. उन लोगों ने तो विवाह की तिथि भी लड़के की छुट्टियों के अनुसार रखी है, न कि कुंडली और मुहूर्त के अनुसार,’ मैं ने अपनी सफाई दी.

‘न हो लड़के वालों को विश्वास, आप को तो है न?’ पंडित ने छूटते ही पूछा.

‘लड़के वालों की नास्तिकता का परिणाम तो आप की बेटी को ही भुगतना पड़ेगा. यह मंगल दोष किसी को

नहीं छोड़ता.’

‘यह तो मैं ने सोचा ही नहीं,’ जैसेतैसे मेरे मुंह से निकला. पुरोहितजी की बात से शादी की खुशी जैसे काफूर गई थी.

‘कुछ कीजिए पुरोहितजी, कुछ कीजिए. अब तक तो आप ही मेरी नैया पार लगाते आ रहे हैं,’ मैं गिड़गिड़ाई.

‘वह तो है बहूरानी, लेकिन इस बार रास्ता थोड़ा कठिन है,’ पुरोहित ने पान की गिलौरी मुंह में डालते हुए कहा.

‘बताइए तो महाराज, बिटिया की खुशी के लिए तो मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हूं,’ मैं ने डबडबाई आंखों से कहा.

‘हर बेटी को आप जैसी मां मिले,’ कहते हुए उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे अपने पास बुलाया, फिर मेरे कान के पास मुंह ले जा कर जो कुछ कहा उसे सुन कर तो मैं सन्न रह गई.

‘यह क्या कह रहे हैं आप? कहीं बकरे या कुत्ते से भी कोई मां अपनी बेटी की शादी कर सकती है.’

‘सोच लीजिए बहूरानी, मंगल दोष निवारण के लिए बस यही एक उपाय है. वैसे भी यह शादी तो प्रतीकात्मक होगी और आप की बेटी के सुखी दांपत्य जीवन के लिए ही होगी.’

‘लेकिन पुरोहितजी, बिटिया के पापा भी तो कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं. उन की सलाह के बिना…’

‘अब लेकिनवेकिन छोडि़ए बहूरानी. ऐसे काम गोपनीय तरीके से ही किए जाते हैं. अच्छा ही है जो यजमान घर पर नहीं हैं.

‘आप कल सुबह 8 बजे फेरों की तैयारी कीजिए. जमाई बाबू (बकरा) को मेरे साथी पुरोहित लेते आएंगे

और बिटिया को मेरे घर की महिलाएं संभाल लेंगी.

‘और हां, 50 हजार रुपयों की भी व्यवस्था रखिएगा. ये लोग दूसरों से तो 80 हजार रुपए लेते हैं, पर आप के लिए 50 हजार रुपए पर बात तय की है.’ मैं ने कहते हुए पुरोहितजी चले गए.

अगली सुबह 7 बजे तक पुरोहित अपनी मंडली के साथ पधार चुके थे.

पुरोहिताइन के समझाने पर प्रिया बिना विरोध किए तैयार होने चली गई तो मैं ने राहत की सांस ली और बाकी कार्य निबटाने लगी.

‘मुहूर्त बीता जा रहा है बहूरानी, कन्या को बुलाइए.’ पुरोहितजी की आवाज पर मुझे ध्यान आया कि प्रिया तो अब तक तैयार हो कर आई ही नहीं.

‘प्रिया, प्रिया,’ मैं ने आवाज दी, लेकिन कोई जवाब न पा कर मैं ने उस के कमरे का दरवाजा बजाया, फिर भी कोई जवाब नहीं मिला तो मेरा मन अनजानी आशंका से कांप उठा.

‘सुनिए, कोई है? पुरोहितजी, पंडितजी, अरे, कोई मेरी मदद करो. मानसी, मानसी, दरवाजा खोल बेटा.’ लेकिन मेरी आवाज सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मेरे हितैषी होने का दावा करने वाले पुरोहित बजाय मेरी मदद करने के, अपने दलबल के साथ नौदोग्यारह हो गए थे.

हां, आवाज सुन कर पड़ोसी जरूर आ गए थे. किसी तरह उन की मदद से मैं ने कमरे का दरवाजा तोड़ा.

अंदर का भयावह दृश्य किसी की भी कंपा देने के लिए काफी था. मानसी ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उस की रगों से बहता खून पूरे फर्श पर फैल चुका था और वह खुद एक कोने में अचेत पड़ी थी. मेरे ऊलजलूल फैसलों से बचने का वह यह रास्ता निकालेगी, यह मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था.

पड़ोसियों ने ही किसी तरह हमें अस्पताल तक पहुंचाया और सुशांत को खबर की.

ऐसी बातें छिपाने से भी नहीं छिपतीं. अगली ही सुबह मानसी के ससुराल वालों ने यह कह कर रिश्ता तोड़ दिया कि ऐसे रूढि़वादी परिवार से रिश्ता जोड़ना उन के आदर्शों के खिलाफ है.

‘‘यह सब मेरी वजह से हुआ है,’’ सुशांत से कहते हुए मैं फफक पड़ी.

‘‘नहीं शुभा, यह तुम्हारी वजह से नहीं, तुम्हारी धर्मभीरुता और अंधविश्वास की वजह से हुआ.’’

‘‘ये पंडेपुरोहित तो तुम जैसे लोगों की ताक में ही रहते हैं. जरा सा डराया, ग्रहनक्षत्रों का डर दिखाया और तुम फंस गईं जाल में. लेकिन यह समय इन बातों का नहीं. अभी तो बस यही कामना करो कि हमारी बेटी ठीक हो जाए,’’ कहते हुए सुशांत की आंखें भर आईं.

‘बधाई हो, मानसी अब खतरे से बाहर है,’ डा. रोहित ने आईसीयू से बाहर आते हुए कहा.

‘रोहित, विनोद का बेटा है, मानसी के लिए जिस का रिश्ता मैं ने महज विजातीय होने के कारण ठुकरा दिया था, इसी अस्पताल में डाक्टर है और पिछले 48  घंटों से मानसी को बचाने की खूब कोशिश कर रहा है. किसी अप्राप्य को प्राप्त कर लेने की खुशी मुझे उस के चेहरे पर स्पष्ट दिख रही है. ऐसे समय में उस ने मानसी को अपना खून भी दिया है.

‘क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि रोहित सिर्फ व सिर्फ मेरी बेटी मानसी के लिए ही बना है?

‘मैं भी बुद्धू हूं.

‘मैं ने पहले बहुत गलतियां की हैं. अब और नहीं करूंगी,’ यह सब वह सोच रही थी.

रोहित थोड़ी दूरी पर नर्स को कुछ दवाएं लाने को कह रहा था. उस ने हिम्मत जुटा कर रोहित से आहिस्ता से कहा, ‘‘मानसी ने तो मुझे माफ कर दिया, पर क्या तुम व तुम्हारे परिवार वाले मुझे माफ कर पाएंगे.’’

‘कैसी बातें करती हैं आंटी आप, आप तो मेरी मां जैसी है.’ रोहित ने मेरे जुड़े हुए हाथों को थाम लिया था.

आज उन की भरीपूरी गृहस्थी है. रोहित के परिवार व मेरी बेटी मानसी ने भी मुझे माफ कर दिया है. लेकिन क्या मैं कभी खुद को माफ कर पाऊंगी. शायद कभी नहीं.

इन अंधविश्वासों के चंगुल में फंसने वाली मैं अकेली नहीं हूं. ऐसी घटनाएं हर वर्ग व हर समाज में होती रहती हैं.

मैं आत्मग्लानि के दलदल में आकंठ डूब चुकी थी और अपने को बेटी का जीवन बिगाड़ने के लिए कोस रही थी.

डर: सेना में सेवा करने के प्रति आखिर कैसा था डर

अपने पराए: संकट की घड़ी में किसने दिया अमिता का साथ -भाग 1

मुहल्ले में जिस ने भी सुना, उस की आंखें विस्मय से फटी की फटी रह गईं… ‘सतीश दास मर गया.’ विस्मय की बात यह नहीं कि मरियल सतीश दास मर गया बल्कि यह थी कि वह पत्नी के लिए पूरे साढ़े 5 लाख रुपए छोड़ गया है. कोई सोच भी नहीं सकता था कि पैबंद लगे अधमैले कपड़े पहनने वाले, रोज पुराना सा छाता बगल में दबा कर सवेरे घर से निकलने, रात में देर से  लौटने वाले सतीश के बैंक खाते में साढ़े 5 लाख की मोटी रकम जमा होगी.

गली के बड़ेबूढ़े सिर हिलाहिला कर कहने लगे, ‘‘इसे कहते हैं तकदीर. अच्छा खाना- पहनना भाग्य में नहीं लिखा था पर बीवी को लखपती बना गया.’’ कुछ ने मन ही मन अफसोस भी किया कि पहले पता रहता तो किसी बहाने कुछ रकम कर्ज में ऐंठ लेते, अब कौन आता वसूल करने.

जीते जी तो सभी सतीश को उपेक्षा से देखते रहे, कोई खास ध्यान न देता जैसे वह कोई कबाड़ हो. किसी से न घनिष्ठता, न कोई सामाजिक व्यवहार. देर रात चुपचाप घर आना, खाना खा कर सो जाना और सवेरे 8 बजे तक बाहर…

महल्ले में लोगों को इतना पता था कि सतीश दास थोक कपड़ों की मंडी में दलाली किया करता है. कुछ को यह भी पता था कि जबतब शेयर मार्केट में भी वह जाया करता था. जो हो, सचाई अपनी जगह ठोस थी. पत्नी के नाम साढ़े 5 लाख रुपए निश्चित थे.

आमतौर पर बैंक वाले ऐसी बातें खुद नहीं बताते, नामिनी को खुद दावा करने जाना पड़ता है. वह तो बैंक का क्लर्क सुभाष गली में ही रहता है, उसी ने बात फैला दी. अमिता के घर यह सूचना देने सुभाष निजी रूप से गया था और इसी के चलते गली भर को मालूम हो गई यह बात.

वह नातेदार, पड़ोसी, जो कभी उस के घर में झांकते तक न थे, वह भी आ कर सतीश के गुणों का बखान करने लगे. गली वालों ने एकमत से मान लिया कि सतीश जैसा निरीह, साधु प्रकृति आदमी नहीं मिलता है. अपने काम से काम, न किसी की निंदा, न चुगली, न झगड़े. यहां तो चार पैसे पाते ही लोग फूल कर कुप्पा हो जाते हैं.

अमिता चकराई हुई थी. यह क्या हो गया, वह समझ नहीं पा रही थी.

उसे सहारा देने दूर महल्ले के मायके से मां, बहन और भाई आ पहुंचे. बाद में पिताजी भी आ गए. आते ही मां ने नाती को गोद में उठा लिया. बाकी सब भी अमिता के 4 साल के बच्चे राहुल को हाथोंहाथ लिए रहते.

मां ने प्यार से माथा सहलाते हुए कहा, ‘‘मुन्नी, यों उदास न रहो. जो होना था वह हो गया. तुम्हें इस तरह उदास देख कर मेरी तो छाती फटती है.’’

पिता ने खांसखंखार कर कहा, ‘‘न हो तो कुछ दिनों के लिए हमारे साथ चल कर वहीं रह. यहां अकेली कैसे रहेगी, हम लोग भी कब तक यहां रह सकेंगे.’’

‘‘और यह घर?’’ अमिता पूछ बैठी.

‘‘अरे, किराएदारों की क्या कमी है, और कोई नहीं तो तुम्हारे मामा रघुपति को ही रख देते हैं. उसे भी डेरा ठीक नहीं मिल रहा है, अपना आदमी घर में रहेगा तो अच्छा ही होगा.’’

‘‘सुनते हो जी,’’ मां बोलीं, ‘‘बेटी की सूनी कलाई देख मेरी छाती फटती है. ऐसी हालत में शीशे की नहीं तो सोने की चूडि़यां तो पहनी ही जाती हैं, जरा सुखलाल सुनार को कल बुलवा देते.’’

‘‘जरूर, कल ही बुला देता हूं.’’

अमिता ने स्थायी रूप से मायके जा कर रहना पसंद नहीं किया. यह उस के पति का अपना घर है, पति के साथ 5 साल यहीं तो बीते हैं, फिर राहुल भी यहीं पैदा हुआ है. जाहिर है, भावनाओं के जोश में उस ने बाप के घर जा कर रहने से मना कर दिया.

सुभाषचंद्र के प्रयास से वह बैंक में मैनेजर से मिल कर पति के खाते की स्वामिनी कागजपत्रों पर हो गई. पासबुक, चेकबुक मिल गई और फिलहाल के जरूरी खर्चों के लिए उस ने 25 हजार की रकम भी बैंक से निकाल ली.

अब वह पहले वाली निरीह गृहिणी अमिता नहीं बल्कि अधिकार भाव रखने वाली संपन्न अमिता है. राहुल को नगर निगम के स्कूल से हटा कर पास के ही एक अच्छे पब्लिक स्कूल में दाखिल करा दिया. अब उसे स्कूल की बस लाती, ले जाती है.

बेटी घर में अकेली कैसे रहेगी, यह सोच कर मां और छोटी बहन वीणा वहीं रहने लगीं. वीणा वहीं से स्कूल पढ़ने जाने लगी. छोटा भाई भी रोज 1-2 बार आ कर पूछ जाता. अब एक काम वाली रख ली गई, वरना पहले अमिता ही चौका- बरतन से ले कर साफसफाई का सब काम करती थी.

गलतफहमी : व्यापारी एक दूसरे को शक की निगाह से क्यों देख रहे थे

जब देशभर में कोरोना महामारी फैल रही थीतब लोग काफी एहतियात बरत रहे थे. ऐसे समय में किसी को सर्दीबुखार हो जा रहा थातो उस से बचने की कोशिश कर रहे थे और सब से बुरी बात यह थी कि ऐसे पीडि़त इनसान से दूरी बना ले रहे थे. लोग एकदूसरे को शक की निगाह से देख रहे थे.

कपड़े के कारोबारी जमनालाल के यहां काम करने वाली रजनी को भी यही सब झेलना पड़ा था. जब उसे सर्दीबुखार के लक्षण दिखाई देने लगेतो उस के मालिक ने उसे अपने घर से चले जाने के लिए कह दिया था. हालांकि वह उन के घर पर सालों से काम कर रही थी.

रजनी के सामने समस्या पैदा हो गई थी कि वह जाए तो कहां जाएउस का अपना घर ही कहां था. जब से उस ने होश संभाला थावह यही जान पाई थी कि वह अनाथ है.

विधवा बूआ ने उस का लालनपालन किया था और दूसरे के घरों में काम करना सिखाया था. तब से वह दूसरे के घरों में काम करते हुए जवानी की दहलीज पर पहुंच गई थी.

उत्तर प्रदेश का रहने वाला विमल उस के मालिक के पुराने घर को मरम्मत करने के लिए आ रहा था. मालिक के दुकान चले जाने के बाद रजनी को ही विमल को बताना पड़ता था कि कौन सा सामान कहां रखा है. इस दौरान उस से बातें होने लगी थीं.

विमल रजनी के खूबसूरत जोबन और चेहरे को देख कर उस की तरफ खिंचने लगा थाजिस का अनुभव उसे भी होने लगा था. वह एक ही सामान के बारे में कई बार जानबूझ कर पूछता था,

ताकि रजनी को अपने इर्दगिर्द रख सके.

रजनी भी धीरेधीरे विमल की ओर खिंचती चली गई थी. इस की सब से बड़ी वजह थी कि मालिक के घर में कभी कोई उस से प्यार से बातें नहीं करता था. वह मालिक के घर के लोगों के जरूरत के लिए इधर से उधर एक आवाज पर भागती फिरती थी. कभीकभी छोटीमोटी गलतियां होने पर कई बातें सुननी पड़ती थीं.

इन वजहों से उस का मन कभीकभी दुखी हो जाता था. उसे एहसास होता था कि उस की जिंदगी में अपना कोई नहीं है. वह हमेशा प्यार और अपनेपन के लिए तरसती रहती थी.

विमल ने 1-2 बार सामान पकड़ाते समय हौले से रजनी का हाथ दबा दिया था. जब वह विरोध नहीं कर सकीतो उस की हिम्मत बढ़ती गई और एक दिन मौका देख कर वह बोल गया, ‘‘रजनीतुम मुझे अच्छी लगती हो.’’

‘‘तो…?’’ रजनी ने पूछा.

‘‘मैं तुम से प्यार करने लगा हूं.

तुम मेरी इतनी भी बात नहीं समझ पा

रही हो?’’

रजनी समझ तो सब रही थीपर न समझने का नाटक कर रही थी. भला प्यार की समझ किस को नहीं होती है.

फिर भी वह अपना मुंह बनाते हुए बोली थी, ‘‘तुम काम करने आए हो या लड़की पटाने?’’

विमल सकपका गया था. वह रजनी से ऐसे बरताव की उम्मीद नहीं कर रहा था. वह डर से चुप हो गया था. रजनी कुछ देर बाद अपनी जीत देख कर मुसकराने लगी थीलेकिन जल्द ही उसे अपनी गलती का एहसास भी होने लगा थाइसलिए वह अगले दिन बोली, ‘‘तू मेरी बात का बुरा मान गया?’’

‘‘नहीं तो. ऐसी बात नहीं है.’’

‘‘बस थोड़ी सी डांट में ही प्यार का भूत उतर गया?’’

‘‘नहींनहीं… तुम कहो तो अभी…’’

यह सुन कर रजनी विमल को देख कर मुसकरा दी थी. विमल भी मुसकराने लगा था.

अगर आसपास और मजदूर नहीं होतेतो विमल रजनी को प्यार से चूम लेता या अपनी बांहों में उठा लेता.

एक दिन दोपहर के समय बाकी मजदूर खाना खाने चले गए थे. विमल खाना खा कर दूसरी मंजिल के खाली कमरे में आराम करने की कोशिश कर रहा थातभी रजनी के आने की आहट मिली.

रजनी नहाधो कर छत पर गीले कपड़े डालने जा रही थी. वह गुलाबी रंग के सलवारकुरते में खिलीखिली सी लग रही थी. काले लंबे बाल खुले हुए थे. उस ने अपने दुपट्टे को सीने पर घुमा कर बांध रखा थाजिस से विमल को उस के उभारों की गोलाइयां अपनी ओर खींच रही थीं.

रजनी को अकेली देख कर विमल के जिस्म में सनसनी सी पैदा होने लगी थीइसलिए वह मौके का फायदा उठाना चाहता था.

रजनी ने जैसे ही सीढि़यों से उतरने की कोशिश कीविमल ने उस का हाथ पकड़ कर खाली कमरे की ओर खींच लिया था.

थोड़ी सी नानुकर के बाद रजनी विमल के आगोश में आ चुकी थी. उस के लिए वह पल ऐसा था कि वह किसी बेल की तरह न चाहते हुए भी अपनेआप उस से लिपटती चली गई थी.

जब विमल उस के कोमल अंगों से खेलने लगातो वह दूर हटाते हुए बोली, ‘‘अरेकोई देख लेगा.’’

‘‘अभी कोई नहीं आएगा,’’ विमल रजनी को अपनी ओर खींचते हुए बोला और उस के होंठों को चूमने लगा. फिर रजनी भी अपनेआप को रोक नहीं पाई. कुछ देर में ही उन दोनों के बीच उपजा तूफान थम गया था.

रजनी शारीरिक सुख से सराबोर हो गई थीक्योंकि दूसरों के घरों में चाकरी करने के चलते वह ऐसे सुखों से अनजान रही थी. अचानक हुए इस प्रेम मिलन के चलते वह सुख के सागर में समा गई थी.

फिर तो सिलसिला ही चल पड़ा था. जब भी मौका मिलतावे एकदूसरे की बांहों में समाने के लिए उतावले हो जाते थेलेकिन जब कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ने लगातो रजनी के मालिक ने अचानक काम बंद करवा दिया. उस दिन से विमल के लिए उस घर के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो गए.

विमल ने अगले दिन से ही न चाहते हुए भी आना बंद कर दिया था. यह सब इतना जल्दी हुआ था कि वे एकदूसरे का मोबाइल नंबर भी नहीं ले पाए थे.

आज जब रजनी को सर्दीबुखार की वजह से अचानक उस के मालिक ने जाने के लिए कह दियातो उस के सामने विकट समस्या पैदा हो गई. आखिर वह जाए तो कहां जाएविमल ही उस का एकलौता सहारा दिख रहा था.

विमल ने बातचीत के दौरान एक बार बताया था कि वह नौबतपुर में रहता हैजो यहां से 5 किलोमीटर दूर है. रजनी इतना ही याद रख पाई थी. लेकिन उस के मन में इस बात का भी डर था कि कहीं विमल कोरोना महामारी की वजह से अपना गांव न चला गया होअगर वह गांव नहीं भी गया हो और कहीं मिल भी गया तो इस बात की क्या गारंटी है कि वह अपने साथ रखने के लिए तैयार हो ही जाएगा?

रजनी जानती थी विमल अकेला नहीं रहता हैबल्कि 3 लोगों के साथ रहता है. अगर विमल तैयार भी हो गया तो क्या बाकी लोग उसे अपने कमरे में पनाह देंगेइस तरह के कई सवाल रजनी के दिमाग में हलचल मचा रहे थेलेकिन फिर भी वह विमल से मिलने जा रही थी.

रजनी ने मैडिकल स्टोर से ही सर्दीबुखार की दवा खरीद कर खा ली थी और अनजान मंजिल की ओर निकल पड़ी थी. वह सड़क पर पैदल ही चल रही थी. वह आनेजाने वाले लोगों को देख रही थी. विमल को खोजने की कोशिश कर रही थी. उसे रास्ते में विमल कहीं भी नहीं मिल पाया था.

रजनी के मन में कई तरह के सवाल उथलपुथल मचा रहे थे. आखिर में वह थोड़ी सी मशक्कत के बाद विमल के कमरे तक पहुंच ही गई थी.

विमल रजनी को एकाएक आया देख कर हैरान था. उस के आने की मजबूरी जान कर विमल ने अपने दोस्तों को राजी कर लिया था. वैसे भी उन लोगों के पास 2 कमरे थे. हालात देख कर बाकी तीनों लोग एक कमरे में शिफ्ट हो गए. विमल दूसरे कमरे में रजनी के साथ रहने लगा था.

रजनी विमल के साथ बिना रोकटोक कई महीने से रह रही थी. विमल सुबह 8 बजे काम पर जाता और शाम 6 बजे घर वापस आता. रजनी उस का बेसब्री से इंतजार करती और उस के लिए खाना पकाती. उस के घर को ठीक रखती. बिना शादी के ही वे एकदूसरे का खयाल रखते थे.

ऐसे ही जिंदगी गुजर रही थी कि एक दिन रजनी की मालकिन का फोन आया. शायद उन के घर में रजनी के बिना परेशानी होने लगी थीइसलिए वे बुलाना चाह रही थीं.

जब मालकिन ने हालचाल जानने के बाद आने के लिए कहातो रजनी तपाक से बोली, ‘‘मालकिनमैं अभी नहीं आ सकती हूं. जब आप के घर से निकली थीतो मुझे सर्दीबुखार कोरोना की वजह से नहीं हुआ थाबल्कि मैं पेट से थी.

‘‘मैं बताना तो चाहती थीलेकिन मालिक ने इतनी जल्दी जाने के लिए कह दिया कि मेरा दिमाग काम नहीं किया और आप ने भी मुझे नहीं रोका तो मैं कुछ नहीं कह पाई थी.

‘‘अब मैं कुछ दिन में ही अपने बच्चे को जन्म देने वाली हूं. डाक्टर ने मुझे आराम करने की सलाह दी है. अगर सबकुछ सही रहातो आप के घर आशीर्वाद लेने जरूर आऊंगी,’’ इतना कह कर रजनी ने फोन काट दिया.

रजनी की बातें सुन कर मालकिन पछता रही थीं कि गलतफहमी की वजह से उसे घर से बाहर तो निकाल दिया थाजबकि होना तो यह चाहिए था कि उस के साथ हमदर्दी का बरताव करना चाहिए था और उस का इलाज भी कराना चाहिए था. अब उस के बिना घर में कितनी परेशानी हो रही हैयह वे ही जानती थीं.    

कर्ज : संजय किस बात को लेकर खुश था

होस्टल में आज जश्न का माहौल था. आखिर मैडिकल की पढ़ाई पूरी कर के सब डाक्टर जो बन गए थे. संजय तो बहुत ज्यादा खुश था. डाक्टर की डिगरी पाना उस के लिए सपने से कम नहीं था. गांव के जिस छोटी सोच से भरे माहौल में वह पलाबढ़ा थावहां डाक्टरी की पढ़ाई करना ही अपनेआप में बड़ी कामयाबी थी.

यह सब तो उस के पिता की मेहनत का नतीजा था. वे चाहते थे कि उन के बीच से ही कोई डाक्टर हो कर समाज के गरीब लोगों को अच्छा इलाज मुहैया करा सके.

‘‘अरे डाक्टर संजयतुम यहां अकेले और उदास क्यों बैठे होआज तो तुम्हारे और हम सब के लिए सब से बड़ी खुशी का दिन है. हमारे सपने जो पूरे होने जा रहे हैं,’’ पढ़ाई के दौरान उस की सब से अच्छी दोस्त रही भूमिका ने कहा.

संजय भूमिका के सवाल पर मुसकरा दिया. वह उस हाल के बाहर गलियारे में अकेला बैठा थाताकि कोई उसे न देख पाए. वह खुशी उस अकेले की नहीं थीबल्कि उस में उस के परिवारगांव के सब दोस्तआसपड़ोस में रहने वाले उन सब लोगों का हिस्सा थीजिन्होंने उस के दाखिले में अपना योगदान दिया था.

‘‘अब चलो भी. पार्टी खत्म होने वाली है. इस के बाद सब लोग बैठ कर अपनी आने वाली जिंदगी पर चर्चा करेंगे. आज इकट्ठा बैठने का आखिरी दिन जो है,’’ संजय को चुप देख कर भूमिका ने फिर कहा.

संजय आटोमैटिक मशीन सा उठ कर भूमिका के साथ हो लिया.

सब लोग हाल में एक जगह कुरसियां डाल कर बैठे थे. पार्टी शायद खत्म हो गई थी. सब को घर जाने की जल्दी जो थी. संजय को उन से भी ज्यादा जल्दी थी.

‘‘अरे आओ डाक्टर संजय…’’ क्लास में हमेशा कोई न कोई परेशानी का सबब रहे विकी ने कुरसी से उठा कर स्वागत के अंदाज में कहा, ‘‘आप ने पार्टी में शिरकत नहीं कीइस का हमें दुख है. क्या यह क्लास में की गई हमारी सब गलत हरकतों की सजा थीजो हमारी क्लास के टौपर ने हमें अपनी कंपनी के काबिल नहीं समझा?’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. मैं तो बस इस खुशी के पल पर यकीन लाने की कोशिश कर रहा था,’’ संजय ने यह बात बड़ी गंभीरता के साथ कही.

‘‘आज से हम सब के रास्ते अलग होंगे. मैं सब लोगों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूं और एक आग्रह करता हूं कि हम जहां रहेंसाथ गुजारे

इन 4 सालों को न भूलें. कोई भी मौका मिले तो सैलिब्रेट करें,’’ विकी ने कहाजिस पर सब ने तालियां बजा कर उस की बात का समर्थन कियाफिर सब

उठ कर अपनेअपने कमरे की तरफ चल दिए अपना सामान समेट कर घर जाने

के लिए.

संजय अपना बैग उठा कर कमरे से बाहर आयातो अर्जुन उस के साथ

हो लिया.

‘‘तुम तो बाहर किसी अच्छे देश में सैटल हो जाओगे. भूल मत जाना. फोन करूंगा तो उठा लिया करना,’’ अर्जुन ने संजय से कहा. वह क्लास का सब से कमजोर स्टूडैंट थामगर बेहद सज्जन और मिलनसार भी था.

‘‘तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि तुम्हें ही फोन करने की जरूरत पड़ेगी. मैं ही फोन कर के तुम्हारा हालचाल पूछता रहूंगा,’’ कह कर संजय हंस दिया.

संजय बाहर आया. भूमिका गर्ल्स होस्टल से अपना सामान उठाए उस का इंतजार कर रही थी.

भूमिका के लिए आज का दिन दोगुनी खुशी ले कर आया था. एक तो वह खुद डाक्टर होने जा रही थीऊपर से उस के बैच का सब से अव्वल रहा लड़का उस का मंगेतर था. दोपहर को जब उस ने ये दोनों बातें फोन पर अपने पापा को बताई थींतो उन्होंने संजय

को घर चाय पर ले कर आने को कह दिया था.

भूमिका और संजय एकसाथ मैट्रो स्टेशन पहुंचे. संजय दिल्ली रेलवे स्टेशन जाने वाली साइड के प्लेटफार्म पर जाने लगातो भूमिका ने उसे रोक दिया और बोली, ‘‘पापातुम से मिलना चाहते हैं.’’

‘‘मैं घर के

 

 

 

 

 

लिए लेट हो जाऊंगा. बहुत दूर जाना है,’’ संजय ने मजबूरी जाहिर की.

‘‘बस थोड़ी देर की ही तो बात है,’’ भूमिका ने कहा.

‘‘ठीक है,’’ कुछ सोच कर संजय ने कहाफिर वे दोनों मैट्रो में सवार हो कर फरीदाबाद पहुंच गए.

भूमिका के पिता सैशन कोर्ट में रजिस्ट्रार थे. उन का घर बेहद आलीशान था. वे घर पहुंचे तो भूमिका की फैमिली ने उन दोनों का गर्मजोशी के साथ

स्वागत किया.

‘‘भूमिका तुम्हारी बहुत तारीफ किया करती हैखासतौर से तुम्हारे अच्छे बरताव और पढ़ने के जुनून के बारे में,’’ चाय पीते हुए भूमिका के पापा ने कहा.

‘‘तुम क्लास में अव्वल आए हो. तुम कहां जा कर काम करना चाहोगेयह पसंद करने के लिए आजाद हो.

‘‘भूमिका हमेशा से अमेरिका में बसना चाहती थी. हालांकि यह इतने अच्छे नंबर नहीं ला पाईफिर भी मैं ने अपने लैवल पर इंतजाम किया है. वहां के एक अच्छे लैवल के हौस्पिटल में

30 लाख के पैकेज पर इसे रख लिया जाएगा. तुम चाहोगे तो वे तुम्हारी शर्तों पर रखने को तैयार हो जाएंगे,’’ उन्होंने गंभीरता से कहा.

संजय ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘मैं खुश हूं कि मेरी सारी चिंताएं खत्म हो गईं. वैसेकब जाने का इरादा है तुम्हारा?’’ भूमिका के पापा ने पूछा.

‘‘मैं पहले अपने गांव जाना चाहता हूं?’’ संजय ने धीरे से कहा.

‘‘ओह कम औन संजयगांव में क्या रखा है. क्यों नहीं मम्मीपापा को यहीं बुला लो. अब तो तुम कहीं भी रहना अफोर्ड कर सकते हो. भूल जाओ उस गंदगी से भरी गांव की जिंदगी को,’’ भूमिका की आवाज में हिकारत का

भाव था.

‘‘कैसे भूल जाऊं…’’ संजय ने जैसे अपनेआप से कहा, ‘‘जिस दिन मैं दिल्ली डाक्टर बनने के लिए आया थातब पूरे गांव में उत्सव का माहौल था. लोगों ने उम्मीद की थी कि अब कोई बीमार होगातो इलाज के लिए बहुत दूर शहर न जाना पड़ेगा. कोई बीमार होगा तो यह डर न रहेगा कि उस का बच जाना नामुमकिन है.

‘‘आज पापा का फोन आयातो उन्होंने यह सुन कर कि मैं ने डाक्टर की पढ़ाई पूरी कर ली हैसरपंच से पैसे उधार लिए हैंताकि मेरे लिए क्लिनिक का इंतजाम हो सके. मैं उन की उम्मीद हूंक्या फिर भी गांव न जाऊं?’’

‘‘तो क्या विदेश जाने का इरादा नहीं है?’’ भूमिका के पापा ने सवाल किया.

‘‘जब मेरे पास दाखिले के पैसे नहीं थेतब गांव के सब लोगों ने मिल कर जमा किए थे. दिल्ली आने का भाड़ा नहीं था तो बिरजू चाचा ने टिकट का इंतजाम कियाक्योंकि एक महामारी में बिना इलाज के उन्होंने अपना एकलौता जवान बेटा खो दिया था. मेरी पढ़ाई और कामयाबी में विदेश की जरा सी भूमिका नहीं है.’’

‘‘गांव में रहोगे तो न अच्छा

घर खरीद पाओगे और न ही गाड़ी. जिंदगी बरबाद हो जाएगी,’’ भूमिका के पापा बोले.

चाय खत्म हो गई थी. संजय उठा और अपना बैग कंधे पर रख लिया.

‘‘सोच लोमैं एक ऐसे आदमी के हाथ में अपनी बेटी का हाथ नहीं दूंगा

जो इतना भी न कमा सके कि घर

और गाड़ी ही खरीद पाए,’’ भूमिका के पापा बोले.

‘‘पढ़ाई शुरू करते समय मेरी ख्वाहिशों मे बंगलागाड़ी नहींबल्कि गांव के वे गरीब लोग थेजो हमेशा से अच्छे इलाज से दूर रहे हैं और भूमिका से प्यार करने के पीछे तो किसी वजह का कोई वजूद ही नहीं था,’’ संजय ने दोटूक कहा और चल दिया. किसी ने उसे रुकने के लिए भी नहीं कहा.

संजय देर रात अपने गांव लौटा था. तब सब सो रहे थे. सुबह उठा तो उस ने देखा कि पूरा गांव घर के बाहर जमा था. बड़ों ने उसे अपना आशीर्वाद दिया और नौजवानों ने कंधे पर उठा कर पूरे गांव का चक्कर लगाया.

अगले 10 दिन गांव में खाली पड़े पंचायतघर को अस्पताल की शक्ल देने में लगे. गांव के बड़ेबूढ़ेबच्चेऔरतें सब ने अपना योगदान दिया.

उस दिन अस्पताल का उद्घाटन था. गांव के सरपंच ने इस का जिम्मा खुद संभाला था. आसपास के गांवों के प्रधान बुलाए गए थे और मुख्य अतिथि थे इलाके के विधायक.

तकरीबन सभी मेहमान आ चुके थेबस विधायकजी का इंतजार था कि एक लग्जरी गाड़ी सभा स्थल के सामने

आ कर रुकी. सब लोग उधर देखने

लगे. सब से पहले गाड़ी से भूमिका

और उस के पापा उतरे और उन के

पीछे अर्जुन.

तीनों स्टेज के करीब पहुंचेतो संजय ने आगे बढ़ कर उन का स्वागत किया और उन्हें स्टेज पर ले गया.

उसी समय विधायकजी भी पहुंचे,

जिन्हें सरपंच ने सम्मान सहित स्टेज पर बैठा दिया.

कार्यक्रम शुरू हुआ और लोग 1-1 कर अपने विचार रखने लगे. फिर संजय के आग्रह पर भूमिका के पिता उठे और माइक के सामने जा खड़े हुए.

‘‘मैं यहां खुद आया हूंलेकिन खुश हूं कि समय रहते आप के बीच पहुंच पाया. संजय जितना पढ़ाई में अव्वल हैउस से ज्यादा दुनियादारी में होशियार है.

‘‘मेरी बेटी ने इस के साथ रह कर पढ़ाई की और अपनी बेटी के भविष्य को ले कर मैं ने बहुत सारे सपने देखे. उन सपनों में संजय भी था. फिर जब एक दिन मैं इस से मिला तो मैं ने पाया कि स्वार्थी हो कर सपने देखना बहुत आसान होता है. उन में बस गिनेचुने अपने लोग होते हैंइसलिए ऐसे सपने आमतौर पर पूरे हो ही जाते हैं.

‘‘जब से हम ने स्वार्थी होना शुरू किया हैहम उन लोगों को नजरंदाज करने लगे हैंजो हमारे सपनों को पूरा करने में साधन बने. पहले समाजफिर दोस्तरिश्तेदार और मांबाप. सब को छोड़ कर सपने पूरे करने की ऐसी परंपरा चल निकली है कि अपने देश में पढ़ कर कोई यहां सेवा देना ही नहीं चाहताक्योंकि यहां पैसे कम मिलते हैंलेकिन संजय अलग है.

‘‘जब संजय ने बताया कि वह अपने घरपरिवारदोस्तरिश्तेदारसमाज और देश का कर्ज उतारने के लिए यहीं मरीजों का इलाज करना चाहता हैतो मेरे मन में इस के प्रति सम्मान का वही भाव पैदा हुआ जो एक महान इनसान के लिए होता है.

‘‘आज मैं यहां बिन बुलाए 2 वजह से हाजिर हुआ हूं. एक तो बेटी का बाप हूं और संजय से अच्छा लड़का मैं कहीं दूसरी जगह तलाश नहीं कर पाऊंगा. दूसरी बात यह कि बेटी के अलावा मेरा कोई नहीं है. धनदौलत के नाम पर जोकुछ हैसब इस का है. इस की इच्छा है कि यहां गांव में एक अच्छा सा अस्पताल खोला जाए और इस के लिए मैं 50 लाख रुपए का दान करता हूं,’’ कह कर उन्होंने एक चैक स्टेज के कोने में खड़े संजय को पास बुला कर उसे थमा दिया.

इस बात पर भीड़ ने देर तक ताली बजा कर खुशी जाहिर की. आखिर में विधायकजी के समापन भाषण के साथ सभा खत्म हो गई.

‘‘बेटाआप दोनों मिल कर अच्छे से लोगों की सेवा करना,’’ गाड़ी में बैठने को तैयार भूमिका के पापा ने कहा.

‘‘दोनों नहीं तीनों,’’ पीछे से अर्जुन बोला.

‘‘क्या तुम भी…?’’ भूमिका ने हंसते हुए पूछा.

‘‘और नहीं तो क्या. मैं क्लास में फिसड्डी रहा. कोई अच्छी सी नौकरी क्या मिलेगी. इस से तो अच्छा है कि अपने सीनियर की छत्रछाया में रहूं,’’ अर्जुन ने कहातो सब ठहाका लगा कर हंस दिए.                           

कामयाब: एक भविष्यवाणी से क्यों बदल गई चंचल की जिंदगी

डर: सेना में सेवा करने के प्रति आखिर कैसा था डर -भाग 2

‘‘जी, वहां नंबरों का चक्कर तो

नहीं पड़ेगा.’’

‘‘अच्छा एकेडैमिक कैरियर हर जगह देखा जाता है. परंतु सेना के अपने मापदंड हैं. उसी के अनुसार सिलैक्शन किया जाता है. वहां कोईर् आरक्षण का चक्कर नहीं होता. वहां उन को औलराउंडर चाहिए जो आत्मविश्वास से भरा हो, तुरंत निर्णय लेने की क्षमता रखता हो, दिमाग और शरीर से स्वस्थ हो. और हर तरह का काम करने में समर्थ हो. फिर वे उन को अपनी ट्रेनिंग से सेना के अनुसार ढाल लेते हैं. मेरी सुरेश से बात करवाओ. मैं उसे बताऊंगा कि कैसे करना है,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां, जी.’’

‘‘दिल्ली के एस एन दासगुप्ता कालेज ने अमृतसर में कोचिंग ब्रांच खोली है जो आईएएस, आईपीएस, सेना में अफसर बनने के लिए इच्छुक नौजवानों को कोचिंग देता है. वह यूपीएससी की अन्य परीक्षाओं की भी तैयारी करवाता है. तुम्हें पता है, आजकल सब औनलाइन होता है. वहां चले जाओ. वे इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर के लिए औनलाइन अप्लाई करवा देंगे. वहीं तुम्हें इस की लिखित परीक्षा के लिए कोचिंग लेनी है. अगर लिखित परीक्षा पास कर लेते हो तो वहीं इंटरव्यू की तैयारी की कोचिंग भी लेनी है. वे तुम्हें इस प्रकार तैयारी करवाएंगे कि तुम्हारे 99 प्रतिशत सफल होने के चांस रहेंगे.’’

‘‘पर फूफाजी, मेरे पास उन का पता नहीं है.’’

‘‘यार, आजकल सारी सूचनाएं गूगल पर मिल जाती हैं. गूगल पर सर्च मारो, सब पता चल जाएगा. फिर मुझे बताना कि क्या हुआ.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

कुछ दिनों बाद सुरेश का फोन आया, ‘‘फूफाजी, मुझे पता चल गया था. मैं ने औनलाइन अप्लाई कर दिया है. कोचिंग सैंटर ने अप्लाई और लिखित परीक्षा की तैयारी के लिए 10 हजार रुपए लिए हैं और साथ में यह गारंटी भी दी है कि लिखित परीक्षा वह अवश्य क्लीयर कर ले.’’

‘‘सुरेश, यह उन का व्यापार है. ऐसा वे सब से कहते होंगे जो उन के पास परीक्षा की तैयारी के लिए जाते हैं. यह औल इंडिया बेस की परीक्षा है. इस में सब से अधिक तुम्हारी खुद की मेहनत रंग लाएगी. तुम से अच्छे भी होंगे और खराब भी. बस, रातदिन तुम्हें मेहनत करनी है बिना यह सोचे कि तुम्हारा एकेडैमिक कैरियर कैसा था. यदि तुम ने लिखित परीक्षा पास कर ली तो समझो 50 प्रतिशत मोरचा फतेह कर लिया.’’

‘‘जी, फूफाजी. मैं ईमानदारी से मेहनत करूंगा. लो एक सैकंड पापा से बात करें.’’

‘‘नमस्कार, जीजाजी.’’

‘‘नमस्कार, कैसे हो विपिन?’’

‘‘ठीक हूं, जीजाजी. यह जो सुरेश के लिए सोचा गया है, क्या वह ठीक रहेगा.’’

‘‘बिलकुल ठीक रहेगा. अगर सुरेश सिलैक्ट हो जाता है तो उस की जिंदगी बन जाएगी. वह लैफ्टिनैंट बन कर निकलेगा. क्लास वन गैजेटेड अफसर. सेना की सारी सुविधाएं उसे प्राप्त होगी. उन सुविधाओं के प्रति आम आदमी सोच भी नहीं सकता. ट्रेनिंग के दौरान ही उसे 20 हजार रुपए भत्ता मिलेगा, रहनाखाना फ्री. पासिंगआटट के बाद इस की

55 हजार रुपए से ऊपर सैलरी होगी. वहीं साथ में कई तरह के भत्ते भी मिलेंगे. सारी उम्र न केवल आप को बल्कि पूरे परिवार के रहनेखाने की चिंता नहीं रहेगी, यानी रोटी, कपड़ा और मकान की चिंता नहीं रहेगी.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, जीजाजी, बस एक ही डर है, बेमौत मारे जाने का.’’

‘‘मैं शकुन को सबकुछ समझा चुका हूं, मानता हूं, यह डर उस समय भी था जब मैं सेना में गया था. सेना की इस सेवा के दौरान मैं ने 2 लड़ाइयां भी लड़ीं. मुझे  कुछ नहीं हुआ. जिस की आई होती है, वही मरता है. मैं आप को अपने जीवन की एक घटना बताना चाहता हूं. 65 की लड़ाई में हम सियालकोट सैक्टर से पाकिस्तान में घुसे थे. सारा स्टोर 2 गाडि़यों में ले कर चल रहे थे. एक गाड़ी में मैं और मेरा ड्राइवर था. दूसरी गाड़ी में एक बंगाली लड़का और उस का ड्राइवर था. पाकिस्तान में हम आसानी से घुसते चले गए. लड़ाई हम से कोई 10 किलोमीटर आगे चल रही थी. हम लोगों को केवल हवाई हमलों का डर था और वही हुआ.

‘‘जैसे ही हम ने पाकिस्तान के चारवा गांव को क्रौस किया, हम पर हवाई हमला हुआ. गाडि़यों से निकल कर जिस को जहां जगह मिली लेट गया. मेरे बराबर में मेरा ड्राइवर और उस के बराबर में वह बंगाली लड़का लेटा था. ऊपर से गन का ब्रस्ट आया और गोलियां ड्राइवर के शरीर से इस प्रकार निकल गईं जैसे कपड़े की सिलाई की गई हो. उस ने चूं भी नहीं की. उसी वह मर गया. हम लोगों पर भी खून और मिट्टी पड़ी थी.

‘‘मैं ने आप को डराने के लिए यह घटना नहीं सुनाई है बल्कि यह बताने के लिए कि जिस की मौत आनी होती है, वही शहीद होता है और यह रिस्क हर जगह रहता है. आप यहां सिविल में भी घर से निकलो तो जिंदगी का कोई भरोसा नहीं होता. फिर भी सब अपनेअपने कामों पर घरों से निकलते हैं. इसलिए उसे जाने दो.’’

‘‘ठीक है जीजाजी, पर सुना है, सेना में वही लोग जाते हैं जो भूखे और गरीब हैं, जिन के पास सेना में जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता.’’

‘‘यह बात सही है विपिन. जिन के घरों में गरीबी है, दालरोटी के लाले पड़े हैं, अकसर वही लोग सेना में जाते हैं और जब तक यह गरीबी रहेगी, दालरोटी के लाले रहेंगे, देश को सैनिकों की कमी नहीं रहेगी.

‘‘किसी नेता या

यह देश के लिए दुख की बात है. आज की ही खबर है कि 8वीं पास सिपाही चाहिए और उस के लिए दौड़ रहे हैं डाक्टर, इंजीनियर और एमबीए. पर तुम्हें सुरेश को ले कर यह बात नहीं सोचनी है. उस का भविष्य बनने दो. कुछ देर के लिए समझ लो, तुम भी गरीब हो. इस से अधिक और मैं कुछ नहीं कह सकता.’’

‘‘ठीक है, जीजाजी. अब मैं उसे नहीं रोकूंगा.’’

मैं भूल चुका था कि सुरेश किसी परीक्षा की तैयारी कर रहा है. मुझे कुछ देर पहले ही पता चला कि उस ने परीक्षा दे दी है. उस के भी कोई 4 महीने बाद सुरेश का फोन आया कि उस ने इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर की लिखित परीक्षा पास कर ली है. इस की  सूचना मुझे ईमेल और डाक द्वारा दी गई है. अब उसे एसएसबी क्लीयर करनी है.

‘‘बधाई हो, सुरेश, एसएसबी के लिए तुम्हें 2-3 महीने मिलेंगे. कोचिंग सैंटर में ऐडमिशन लो और तैयारी में जुट जाओ. उसे पूरा विश्वास है कि तुम एसएसबी भी क्लीयर कर लोगे.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

फिर 3 महीने बाद उस का फोन आया. वह बहुत खुश था. उस की आवाज में खुशी थी. ‘‘मैं ने एसएसबी क्लीयर कर ली है, फूफाजी. 25 में से 4 लड़के सिलैक्ट हुए थे. वहां भी सभी का मैडिकल हुआ था. सभी ने क्लीयर कर लिया था. अब क्या होगा, फूफाजी?’’

‘‘कुछ नहीं. मार्च में शुरू होगा यह कोर्स.’’

‘‘जी, मार्च के पहले सोमवार से.’’

‘‘ठीक है. देश के सभी एसएसबी केंद्रों से इस कोर्स के लिए चुने गए उम्मीदवारों की लिस्ट सेना मुख्यालय को भेजी जाएगी. वह इसे कंसौलिडेट करेगा. फिर सभी को दिसंबर के पहले हफ्ते तक इस की सूचना ईमेल और डाक द्वारा दी जाएगी. उस सूचना के अनुसार जो प्रमाणपत्र और डौक्युमैंट्स उन को चाहिए होंगे उन की फोटोकौपी अटैस्ट करवा कर जिस पते पर उन्होंने भेजने के लिए लिखा होगा, उस पर भेजनी होगी. ईमेल और डाक द्वारा फिर सारे डौक्युमैंट्स चैक करने के बाद आप का मिलिटरी अस्पताल में डिटेल्ड मैडिकल होगा, इस की सूचना समय रहते आ जाएगी. एक बात बताओ सुरेश, तुम ने अभी दाढ़ीमूंछ रखी हुई है?’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

डर: सेना में सेवा करने के प्रति आखिर कैसा था डर -भाग 3

‘‘यूपीएससी ने सेना के लिए इन्वैंट्री कंट्रोल अफसरों की वेकैंसी निकाली है. कौमर्स ग्रैजुएट मांगे हैं, 50 प्रतिशत अंकों वाले भी आवेदन कर सकते हैं.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है.’’

‘‘फूफाजी, पापा तो मान गए हैं पर मम्मी नहीं मानतीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कहती हैं, फौज से डर लगता है. मैं ने उन को समझाया भी कि सिविल में पहले तो कम नंबर वाले अप्लाई ही नहीं कर सकते. अगर किसी के ज्यादा नंबर हैं भी और वह अप्लाई करता भी है तो बड़ीबड़ी डिगरी वाले भी सिलैक्ट नहीं हो पाते. आरक्षण वाले आड़े आते हैं. कम पढ़ेलिखे और अयोग्य होने पर भी सारी सरकारी नौकरियां आरक्षण वाले पा जाते हैं. जो देश की असली क्रीम है, वे विदेशी कंपनियां मोटे पैसों का लालच दे कर कैंपस से ही उठा लेती हैं. बाकियों को आरक्षण मार जाता है.’’

‘‘तुम अपनी मम्मी से मेरी बात करवाओ.’’

थोड़ी देर बाद शकुन लाइन पर आई, ‘‘पैरी पैनाजी.’’

‘‘जीती रहो,’’ वह हमेशा फोन पर मुझे पैरी पैना ही कहती है.

‘‘क्या है शकुन, जाने दो न इसे

फौज में.’’

‘‘मुझे डर लगता है.’’

‘‘किस बात से?’’

‘‘लड़ाई में मारे जाने का.’’

 

भी किसी को भी आ सकती है. दूसरे, तुम पढ़ीलिखी हो. तुम्हें पता है, पिछली लड़ाई कब हुई थी?’’

‘‘जी, कारगिल की लड़ाई

 

 

.’’

‘‘वह 1999 में हुई थी. आज 2018 है. तब से अभी तक कोई लड़ाई नहीं हुई है.’’

‘‘जी, पर जम्मूकश्मीर में हर रोज जो जवान शहीद हो रहे हैं, उन का क्या?’’

‘‘बौर्डर पर तो छिटपुट घटनाएं होती  ही रहती हैं. इस डर से कोईर् फौज में ही नहीं जाएगा. यह सोच गलत है. अगर सेना और सुरक्षाबल न हों तो रातोंरात चीन और पाकिस्तान हमारे देश को खा जाएंगे. हम सब जो आराम से चैन की नींद सोते हैं या सो रहे हैं वह सेना और सुरक्षाबलों की वजह से है, वे दिनरात अपनी ड्यूटी पर डटे रहते हैं.’’

 

 

 

 

 

कामयाब: एक भविष्यवाणी ने क्यों बदल दी चंचल -भाग 1

हमेशा जिंदादिल और खुशमिजाज रमा को अंदर आ कर चुपचाप बैठे देख चित्रा से रहा नहीं गया, पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है, रमा…?’’

‘‘अभिनव की वजह से परेशान हूं.’’

‘‘क्या हुआ है अभिनव को?’’

‘‘वह डिपे्रशन का शिकार होता जा रहा है.’’

‘‘पर क्यों और कैसे?’’

‘‘उसे किसी ने बता दिया है कि अगले 2 वर्ष उस के लिए अच्छे नहीं रहेंगे.’’

‘‘भला कोई भी पंडित या ज्योतिषी यह सब इतने विश्वास से कैसे कह सकता है. सब बेकार की बातें हैं, मन का भ्रम है.’’

‘‘यही तो मैं उस से कहती हूं पर वह मानता ही नहीं. कहता है, अगर यह सब सच नहीं होता तो आर्थिक मंदी अभी ही क्यों आती… कहां तो वह सोच रहा था कि कुछ महीने बाद दूसरी कंपनी ज्वाइन कर लेगा, अनुभव के आधार पर अच्छी पोस्ट और पैकेज मिल जाएगा पर अब दूसरी कंपनी ज्वाइन करना तो दूर, इसी कंपनी में सिर पर तलवार लटकी रहती है कि कहीं छटनी न हो जाए.’’

‘‘यह तो जीवन की अस्थायी अवस्था है जिस से कभी न कभी सब को गुजरना पड़ता है, फिर इस में इतनी हताशा और निराशा क्यों? हताश और निराश व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता. जीवन में सकारात्मक ऊर्जा लाने के लिए सोच भी सकारात्मक होनी चाहिए.’’

‘‘मैं और अभिजीत तो उसे समझासमझा कर हार गए,’’ रमा बोली, ‘‘तेरे पास एक आस ले कर आई हूं, तुझे मानता भी बहुत है…हो सकता है तेरी बात मान कर शायद मन में पाली गं्रथि को निकाल बाहर फेंके.’’

‘‘तू चिंता मत कर,’’ चित्रा बोली, ‘‘सब ठीक हो जाएगा… मैं सोचती हूं कि कैसे क्या कर सकती हूं.’’

घर आने पर रमा द्वारा कही बातें चित्रा ने विकास को बताईं तो वह बोले, ‘‘आजकल के बच्चे जराजरा सी बात को दिल से लगा बैठते हैं. इस में दोष बच्चों का भी नहीं है, दरअसल आजकल मीडिया या पत्रपत्रिकाएं भी इन अंधविश्वासों को बढ़ाने में पीछे नहीं हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो विभिन्न चैनलों पर गुरुमंत्र, आप के तारे, तेज तारे, ग्रहनक्षत्र जैसे कार्यक्रम प्रसारित न होते तथा पत्रपत्रिकाओं के कालम ज्योतिषीय घटनाओं तथा उन का विभिन्न राशियों पर प्रभाव से भरे नहीं रहते.’’

विकास तो अपनी बात कह कर अपने काम में लग गए पर चित्रा का किसी काम में मन नहीं लग रहा था. बारबार रमा की बातें उस के दिलोदिमाग में घूम रही थीं. वह सोच नहीं पा रही थी कि अपनी अभिन्न सखी की समस्या का समाधान कैसे करे. बच्चों के दिमाग में एक बात घुस जाती है तो उसे निकालना इतना आसान नहीं होता.

उन की मित्रता आज की नहीं 25 वर्ष पुरानी थी. चित्रा को वह दिन याद आया जब वह इस कालोनी में लिए अपने नए घर में आई थी. एक अच्छे पड़ोसी की तरह रमा ने चायनाश्ते से ले कर खाने तक का इंतजाम कर के उस का काम आसान कर दिया था. उस के मना करने पर बोली, ‘दीदी, अब तो हमें सदा साथसाथ रहना है. यह बात अक्षरश: सही है कि एक अच्छा पड़ोसी सब रिश्तों से बढ़ कर है. मैं तो बस इस नए रिश्ते को एक आकार देने की कोशिश कर रही हूं.’

और सच, रमा के व्यवहार के कारण कुछ ही समय में उस से चित्रा की गहरी आत्मीयता कायम हो गई. उस के बच्चे शिवम और सुहासिनी तो रमा के आगेपीछे घूमते रहते थे और वह भी उन की हर इच्छा पूरी करती. यहां तक कि उस के स्कूल से लौट कर आने तक वह उन्हें अपने पास ही रखती.

रमा के कारण वह बच्चों की तरफ से निश्ंिचत हो गई थी वरना इस घर में शिफ्ट करने से पहले उसे यही लगता था कि कहीं इस नई जगह में उस की नौकरी की वजह से बच्चों को परेशानी न हो.

विवाह के 11 वर्ष बाद जब रमा गर्भवती हुई तो उस की खुशी की सीमा न रही. सब से पहले यह खुशखबरी चित्रा को देते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए. बोली, ‘दीदी, न जाने कितने प्रयत्नों के बाद मेरे जीवन में यह खुशनुमा पल आया है. हर तरह का इलाज करा लिया, डाक्टर भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे क्योंकि हर जांच सामान्य ही निकलती… हम निराश हो गए थे. मेरी सास तो इन पर दूसरे विवाह के लिए जोर डालने लगी थीं पर इन्होंने किसी की बात नहीं मानी. इन का कहना था कि अगर बच्चे का सुख जीवन में लिखा है तो हो जाएगा, नहीं तो हम दोनों ऐसे ही ठीक हैं. वह जो नाराज हो कर गईं, तो दोबारा लौट कर नहीं आईं.’

आंख के आंसू पोंछ कर वह दोबारा बोली, ‘दीदी, आप विश्वास नहीं करेंगी, कहने को तो यह पढ़ेलिखे लोगों की कालोनी है पर मैं इन सब के लिए अशुभ हो चली थी. किसी के घर बच्चा होता या कोई शुभ काम होता तो मुझे बुलाते ही नहीं थे. एक आप ही हैं जिन्होंने अपने बच्चों के साथ मुझे समय गुजारने दिया. मैं कृतज्ञ हूं आप की. शायद शिवम और सुहासिनी के कारण ही मुझे यह तोहफा मिलने जा रहा है. अगर वे दोनों मेरी जिंदगी में नहीं आते तो शायद मैं इस खुशी से वंचित ही रहती.’

उस के बाद तो रमा का सारा समय अपने बच्चे के बारे में सोचने में ही बीतता. अगर कुछ ऐसावैसा महसूस होता तो वह चित्रा से शेयर करती और डाक्टर की हर सलाह मानती.

धीरेधीरे वह समय भी आ गया जब रमा को लेबर पेन शुरू हुआ तो अभिजीत ने उस का ही दरवाजा खटखटाया था. यहां तक कि पूरे समय साथ रहने के कारण नर्स ने भी सब से पहले अभिनव को चित्रा की ही गोदी में डाला था. वह भी जबतब अभिनव को यह कहते हुए उस की गोद में डाल जाती, ‘दीदी, मुझ से यह संभाला ही नहीं जाता, जब देखो तब रोता रहता है, कहीं इस के पेट में तो दर्द नहीं हो रहा है या बहुत शैतान हो गया है. अब आप ही संभालिए. या तो यह दूध ही नहीं पीता है, थोड़ाबहुत पीता है तो वह भी उलट देता है, अब क्या करूं?’

हर समस्या का समाधान पा कर रमा संतुष्ट हो जाती. शिवम और सुहासिनी को तो मानो कोई खिलौना मिल गया, स्कूल से आ कर जब तक वे उस से मिल नहीं लेते तब तक खाना ही नहीं खाते थे. वह भी उन्हें देखते ही ऐसे उछलता मानो उन का ही इंतजार कर रहा हो. कभी वे अपने हाथों से उसे दूध पिलाते तो कभी उसे प्रैम में बिठा कर पार्क में घुमाने ले जाते. रमा भी शिवम और सुहासिनी के हाथों उसे सौंप कर निश्ंिचत हो जाती.

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