तारीफ: अपनी पत्नी की तारीफ क्यों कर पाए रामचरण

रामचरणबाबू यों तो बड़े सज्जन व्यक्ति थे. शहर के बड़े पोस्ट औफिस में सरकारी मुलाजिम थे और सरकारी कालोनी में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुख से रहते थे. लेकिन उन्हें पकौड़े खाने का बड़ा शौक था. पकौड़े देख कर वे खुद पर कंट्रोल ही नहीं कर पाते थे. रविवार के दिन सुबह नाश्ते में पकौड़े खाना तो जैसे उन के लिए अनिवार्य था. वे शनिवार की रात में ही पत्नी से पूछ लेते थे कि कल किस चीज के पकौड़े बना रही हो? उन की पत्नी कभी प्याज के, कभी आलू के, कभी दाल के, कभी गोभी के, तो कभी पालक के पकौड़े बनाती थीं और अगले दिन उन्हें जो भी बनाना होता था उसे रात ही में बता देती थीं. रामचरण बाबू सपनों में भी पकौड़े खाने का आनंद लेते थे. लेकिन बरसों से हर रविवार एक ही तरह का नाश्ता खाखा कर बच्चे बोर हो गए थे, इसलिए उन्होंने पकौड़े खाने से साफ मना कर दिया था.

उन का कहना था कि मम्मी, आप पापा के लिए बनाओ पकौड़े. हमें तो दूसरा नाश्ता चाहिए. रविवार का दिन जहां पति और बच्चों के लिए आराम व छुट्टी का दिन होता, वहीं मिसेज रामचरण के लिए दोहरी मेहनत का. हालांकि वे अपनी परेशानी कभी जाहिर नहीं होने देती थीं, लेकिन दुख उन्हें इस बात का था कि रामचरण बाबू उन के बनाए पकौड़ों की कभी तारीफ नहीं करते थे. पकौड़े खा कर व डकार ले कर जब वे टेबल से उठने लगते तब पत्नी द्वारा बड़े प्यार से यह पूछने पर कि कैसे बने हैं? उन का जवाब यही होता कि हां ठीक हैं, पर इन से अच्छे तो मैं भी बना सकता हूं.

मिसेज रामचरण यह सुन कर जलभुन जातीं. वे प्लेटें उठाती जातीं और बड़बड़ाती जातीं. पर रामचरण बाबू पर पत्नी की बड़बड़ाहट का कोई असर नहीं होता था. वे टीवी का वौल्यूम और ज्यादा कर देते थे. रामेश्वर रामचरण बाबू के पड़ोसी एवं सहकर्मी थे. कभीकभी किसी रविवार को वे अपनी पत्नी के साथ रामचरण बाबू के यहां पकौड़े खाने पहुंच जाते थे. आज रविवार था. वे अपनी पत्नी के साथ उन के यहां उपस्थित थे. डाइनिंग टेबल पर पकौड़े रखे जा चुके थे.

‘‘भाभीजी, आप लाजवाब पकौड़े बनाती हैं,’’ यह कहते हुए रामेश्वर ने एक बड़ा पकौड़ा मुंह में रख लिया.

‘‘हां, भाभी आप के हाथ में बड़ा स्वाद है,’’ उन की पत्नी भी पकौड़ा खातेखाते बोलीं.

‘‘अरे इस में कौन सी बड़ी बात है, इन से अच्छे पकौड़े तो मैं बना सकता हूं,’’ रामचरण बाबू ने वही अपना रटारटाया वाक्य दोहराया.

‘‘तो ठीक है, अगले रविवार आप ही पकौड़े बना कर हम सब को खिलाएंगे,’’ उन की पत्नी तपाक से बोलीं.

‘‘हांहां ठीक है, इस में कौन सी बड़ी बात है,’’ रामचरण बड़ी शान से बोले. ‘‘अगर आप के बनाए पकौड़े मेरे बनाए पकौड़ों से ज्यादा अच्छे हुए तो मैं फिर कभी आप की बात का बुरा नहीं मानूंगी और यदि आप हार गए तो फिर हमेशा मेरे बनाए पकौड़ों की तारीफ करनी पड़ेगी,’’ मिसेज रामचरण सवालिया नजरों से रामचरण बाबू की ओर देख कर बोलीं.

‘‘अरे रामचरणजी, हां बोलो भई इज्जत का सवाल है,’’ रामेश्वर ने उन्हें उकसाया.

‘‘ठीक है ठीक है,’’ रामचरण थोड़ा अचकचा कर बोले. शेखी के चक्कर में वे यों फंस जाएंगे उन्हें इस की उम्मीद नहीं थी. खैर मरता क्या न करता. परिवार और दोस्त के सामने नाक नीची न हो जाए, इसलिए उन्होंने पत्नी की चुनौती स्वीकार कर ली.

‘‘ठीक है भाई साहब, अगले रविवार सुबह 10 बजे आ जाइएगा, इन के हाथ के पकौड़े खाने,’’ उन की पत्नी ने मिस्टर और मिसेज रामेश्वर को न्योता दे डाला. सोमवार से शनिवार तक के दिन औफिस के कामों में निकल गए शनिवार की रात में मिसेज रामचरण ने पति को याद दिलाया, ‘‘कल रविवार है, याद है न?’’

‘‘शनिवार के बाद रविवार ही आता है, इस में याद रखने वाली क्या बात है?’’ रामचरण थोड़ा चिढ़ कर बोले.

‘‘कल आप को पकौड़े बनाने हैं. याद है कि भूल गए?’’

‘‘क्या मुझे…?’’ रामचरण तो वाकई भूल गए थे.

‘‘हां आप को. सुबह थोड़ा जल्दी उठ जाना. पुदीने की चटनी तो मैं ने बना दी है, बाकी मैं आप की कोई मदद नहीं करूंगी.’’ रामचरण बाबू की तो जैसे नींद ही उड़ गई. वे यही सोचते रहे कि मैं ने क्या मुसीबत मोल ली. थोड़ी सी तारीफ अगर मैं भी कर देता तो यह नौबत तो न आती. रविवार की सुबह 8 बजे थे. रामचरण खर्राटे मार कर सो रहे थे.

‘‘अजी उठिए, 8 बज गए हैं. पकौड़े नहीं बनाने हैं क्या? 10 बजे तो आप के दोस्त आ जाएंगे,’’ उन की मिसेज ने उन से जोर से यह कह कर उन्हें जगाया. मन मसोसते हुए वे जाग गए. 9 बजे उन्होंने रसोई में प्रवेश किया.

‘‘सारा सामान टेबल पर रखा है,’’ कह कर उन की पत्नी रसोई से बाहर निकल गईं.

‘‘हांहां ठीक है, तुम्हारी कोई जरूरत नहीं मैं सब कर लूंगा,’’ कहते हुए रामचरण बाबू ने चोर नजरों से पत्नी की ओर देखा कि शायद वे यह कह दें, रहने दो, मैं बना दूंगी. पर अफसोस वे बाहर जा चुकी थीं. ‘जब साथ देने की बारी आई तो चली गईं. वैसे तो कहती हैं 7 जन्मों तक साथ निभाऊंगी,’ रामचरण भुनभुनाते हुए बोले. फिर ‘चल बेटा हो जा शुरू’ मन में कहा और गैस जला कर उस पर कड़ाही चढ़ा दी. उन्होंने कई बार पत्नी को पकौड़े बनाते देखा था. उसे याद करते हुए कड़ाही में थोड़ा तेल डाला और आंच तेज कर दी. पकौड़ी बनाने का सारा सामान टेबल पर मौजूद था. उन्होंने अंदाज से बेसन एक कटोरे में निकाला. उस में ध्यान से नमक, मिर्च, प्याज, आलू, अजवाइन सब डाला फिर पानी मिलाने लगे. पानी जरा ज्यादा पड़ गया तो बेसन का घोल पतला हो गया. उन्होनें फिर थोड़ा बेसन डाला. फिर घोल ले कर वे गैस के पास पहुंचे. आंच तेज होने से तेल बहुत गरमगरम हो गया था. जैसे ही उन्होंने कड़ाही में पकौड़े के लिए बेसन डाला, छन्न से तेल उछल कर उन के हाथ पर आ गिरा.

‘‘आह,’’ वे जोर से चिल्लाए.

‘‘क्या हुआ?’’ उन की पत्नी बाहर से ही चिल्लाईं और बोलीं, ‘‘गैस जरा कम कर देना वरना हाथ जल जाएंगे.’’

‘‘हाथ तो जल गया, ये बात पहले नहीं बता सकती थीं?’’ वे धीरे से बोले. फिर आंच धीमी की और 1-1 कर पकौड़े का घोल कड़ाही में डालने लगे. गरम तेल गिरने से उन की उंगलियां बुरी तरह जल रही थीं. वे सिंक के पास जा कर पानी के नीचे हाथ रख कर खड़े हो गए तो थोड़ा आराम मिला. इतने में ही उन का मोबाइल बजने लगा. देखा तो रामेश्वर का फोन था. उन्होंने फोन उठाया तो रामेश्वर अपने आने की बात कह कर इधरउधर की बातें करने लगे.

‘‘अजी क्या कर रहे हो, बाहर तक पकौड़े जलने की बास आ रही है,’’ उन की मिसेज रसोई में घुसते हुए बोलीं. रामचरण बाबू ने तुरंत फोन बंद कर दिया. वे तो रामेश्वर से बातचीत में इतने मशगूल हो गए थे कि भूल ही गए थे कि वे तो रसोई में पकौड़े बना रहे थे. दौड़ कर उन की मिसेज ने गैस बंद की. रामचरण भी उन की ओर लपके, पर तब तक तो सारे पकौड़े जल कर काले हो चुके थे. पत्नी ने त्योरियां चढ़ा कर उन की ओर देखा तो वे हकलाते हुए बोले, ‘‘अरे वह रामेश्वर का फोन आ गया था.’’

तभी ‘‘मम्मी, रामेश्वर अंकल और आंटी आ गए हैं,’’ बेटी ने रसोई में आ कर बताया.

‘‘अरे रामचरणजी, पकौड़े तैयार हैं न?’’ कहते हुए रामेश्वर सीधे रसोई में आ धमके. वहां जले हुए पकौड़े देख कर सारा माजरा उन की समझ में आ गया. वे जोरजोर से हंसने लगे और बोले, ‘‘अरे भई, भाभीजी की तारीफ कर देते तो यह दिन तो न देखना पड़ता?’’

‘‘जाइए बाहर जा कर बैठिए. मैं अभी दूसरे पकौड़े बना कर लाती हूं. बेटा, पापा की उंगलियों पर क्रीम लगा देना,’’ मिसेज रामचरण ने कहा. उस के आधे घंटे बाद सब लोग उन के हाथ के बने पकौड़े खा रहे थे. साथ में चाय का आनंद भी ले रहे थे.

‘‘क्यों जी, कैसे बने हैं पकौड़े?’’ उन्होंने जब रामचरण बाबू से पूछा तो, ‘‘अरे, तुम्हारे हाथ में तो जादू है. लाजवाब पकौड़े बनाती हो तुम तो,’’ कहते हुए उन्होंने एक बड़ा पकौड़ा मुंह में रख लिया. सभी ठहाका मार कर हंस दिए.

Monsoon Special: जरूरी हैं दूरियां, पास आने के लिए

चाहत: क्या शोभा अपना सपना पूरा कर पाई?

“थक गई हूं मैं घर के काम से, बस वही एकजैसी दिनचर्या, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह. घर का सारा टैंशन लेतेलेते मैं परेशान हो चुकी हूं, अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ,”शोभा अकसर ही यह सब किसी न किसी से कहती रहतीं.

एक बार अपनी बोरियत भरी दिनचर्या से अलग, शोभा ने अपनी दोनों बेटियों के साथ रविवार को फिल्म देखने और घूमने का प्लान किया. शोभा ने तय किया इस आउटिंग में वे बिना कोई चिंता किए सिर्फ और सिर्फ आनंद उठाएंगी.

मध्यवर्गीय गृहिणियों को ऐसे रविवार कम ही मिलते हैं, जिस में वे घर वालों पर नहीं बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों खर्च करें, इसलिए इस रविवार को ले कर शोभा का उत्साहित होना लाजिमी था.

यह उत्साह का ही कमाल था कि इस रविवार की सुबह, हर रविवार की तुलना में ज्यादा जल्दी हो गई थी.

उन को जल्दी करतेकरते भी सिर्फ नाश्ता कर के तैयार होने में ही 12 बज गए. शो 1 बजे का था, वहां पहुंचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय वहां पहुंचने के लिए बस की जगह औटो ही एक विकल्प दिख रहा था और यहीं से शोभा के मन में ‘चाहत और जरूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो ‘चाहत’ की विजय हुई.

औटो का मीटर बिलकुल पढ़ीलिखी गृहिणियों की डिगरी की तरह, जिस से कोई काम नहीं लेना चाहता पर हां, जिन का होना भी जरूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसलिए किराए का भावताव तय कर के सब औटो में बैठ गए.

शोभा वहां पहुंच कर जल्दी से टिकट काउंटर में जा कर लाइन में लग गईं.

जैसे ही उन का नंबर आया तो उन्होंने अंदर बैठे व्यक्ति को झट से 3 उंगलियां दिखाते हुए कहा,”3 टिकट…”

अंदर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गरदन ऊपर किए, नीचे पड़े कांच में उन उंगलियों की छाया देख कर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया,”₹1200…”

शायद शोभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वे साथ में, उस व्यक्ति के होंठों को ₹1200 बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए नहीं देखतीं.

फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया, “कितने?”

इस बार अंदर बैठे व्यक्ति ने सच में उन की आवाज नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया.

उस ने जोर से कहा,”₹1200…”

शोभा की अन्य भावनाओं की तरह उन की आउटिंग की इच्छा भी मोर की तरह निकली जो दिखने में तो सुंदर थी पर ज्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी और धम्म… से जमीन पर आ गई.

पर फिर एक बार दिल कड़ा कर के उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब ₹1200 उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिए और टिकट ले कर थिएटर की ओर बढ़ गईं.

10 मिनट पहले दरवाजा खुला तो हौल में अंदर जाने वालों में शोभा बेटियों के साथ सब से आगे थीं.

अपनीअपनी सीट ढूंढ़ कर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों को झेलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के किस्से सुन कर, साथ ही उन के बीभत्स चेहरे देख कर तो शोभा का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि गलती से भी उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो 2-4 थप्पड़ उन्हें वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि मजे तुम करो और हम अपने पैसे लगा कर यहां तुम्हारा कटाफटा लटका थोबड़ा देखें… पर शुक्र है वहां धूम्रपान की अनुमति नहीं थी.

लगभग आधे मिनट की शांति के बाद सभी खड़े हो गए. राष्ट्रगान चल रहा था. साल में 2-3 बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिलें तो वे हमेशा आंखों से ही फूटता है.

वैसे, देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा वीररस में इतनी डूबी हुई थीं कि उन को एहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वे ही अकेली खड़ी हैं, तो बेटी ने उन को हाथ पकड़ कर बैठने को कहा.

अब फिल्म शुरू हो गई. शोभा कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्नभिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इंटरवल तक पहुंचीं.

चूंकि, सभी घर से सिर्फ नाश्ता कर के निकले थे तो इंटरवल तक सब को भूख लग चुकी थी. क्याक्या खाना है, उस की लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार कर के शोभा को थमा दीं.

शोभा एक बार फिर लाइन में खड़ी थीं. उन के पास बेटियों द्वारा दी गई खाने की लंबी लिस्ट थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी कम लंबी न थी.

जब शोभा के आगे लगभग 3-4 लोग बचे होंगे तब उन की नजर ऊपर लिखे मेन्यू पर पड़ी, जिस में खाने की चीजों के साथसाथ उन के दाम भी थे. उन के दिमाग में जोरदार बिजली कौंध गई और अगले ही पल बिना कुछ समय गंवाए वे लाइन से बाहर थीं.

₹400 के सिर्फ पौपकौर्न, समोसे ₹80 का एक, सैंडविच ₹120 की एक और कोल्डड्रिंक ₹150 की एक.

एक गृहिणी जिस ने अपनी शादीशुदा जिंदगी ज्यादातर रसोई में ही गुजारी हो उन्हें 1 टब पौपकौर्न की कीमत दुकानदार ₹400 बता रहे थे.

शोभा के लिए वही बात थी कि कोई सुई की कीमत ₹100 बताए और उसे खरीदने को कहे.

उन्हें कीमत देख कर चक्कर आने लगे. मन ही मन उन्होंने मोटामोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का ख़र्च, आउटिंग के खर्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पौकेट में रखे बचत के पैसों, जोकि मुसीबत के लिए रखे थे वहां तक पहुंच गया था. उन्हें एक तरफ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ पैसे. इस बार शोभा अपने मन के मोर को ज्यादा उड़ा न पाईं और आनंद के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. जाहिर था, कम हुआ हिस्सा मां अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा.

सामान ले कर जब वे अंदर पहुंचीं तो फिल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं कि यदि फिल्म अच्छी होती है तो वह आप को अपने साथ समेट लेती है, लगता है मानों आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूल कर शोभा फिल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब फिल्म समाप्त हो गई. वे जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी.

थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाटभंडार की दुकान दिखाई दी और सामने ही अपना गोलगोल मुंह फुलाए गोलगप्पे नजर आए. गोलगप्पे की खासियत होती है कि उन से कम पैसों में ज्यादा स्वाद मिल जाता है और उस के पानी से पेट भर जाता है.

सिर्फ ₹60 में तीनों ने पेटभर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी तो शोभा ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूम कर जाने वाली बस पकड़ी.

बस में बैठीबैठी शोभा के दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही थीं. कभी वे औटो के ज्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फिल्म के किसी सीन के बारे में सोच कर हंस पड़तीं, कभी महंगे पौपकौर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोच कर रोमांचित हो उठतीं.

उन का मन बहुत भ्रमित था कि क्या यही वह ‘चेंज’ है जो वे चाहतीं थीं? वे सोच रही थीं कि क्या सच में वे ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिस में दिन खत्म होने पर उनशके दिल में खुशी के साथ कसक भी रह जाए?

तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी मां से पूछा,”मम्मी, अगले संडे हम कहां चलेंगे?”

अब शोभा को ‘चाहत और जरूरत’ में से किसी 1 को चुनने का था. उन्होंने सब की जरूरतों का खयाल रखते हुए साथ ही अपनी चाहत का भी तिरस्कार न करते हुए कहा,”आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए बीच चलेंगे और सनसेट देखेंगे.”

शोभा सोचने लगीं कि अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौंदर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती और प्रकृति से बेहतर चेंज कहीं और से मिल सकता है भला?

शोभा को प्रकृति के साथसाथ अपना घर भी बेहद सुंदर नजर आने लगा था. उस का अपना घर, जहां उस के सपने हैं, अपने हैं और सब का साथ भी तो.

धमकियां: गांव की रहने वाली सुधा को क्या अपना पाया शेखर?

*शेखर* और सुधा की मैरिज ऐनिवर्सरी के दिन सब बेहद खुश थे. शनिवार का दिन था तो आराम से सब सैलिब्रेशन के मूड में थे. पार्टी देर तक भी चले तो कोई परेशानी नहीं.

अनंत और प्रिया ने पार्टी का सब इंतजाम कर लिया था. अंजू और सुधीर से भी बात हो गई थी. वे भी सुबह ही आ रहे थे. प्रोग्राम यह था कि पहले पूरा परिवार लंच एकसाथ घर पर करेगा, फिर डिनर करने सब बाहर जाएंगे. इस तरह पूरा दिन सब एकसाथ बिताने वाले थे.

शेखर और सुधा अपने बच्चों के साथ समय बिताने के लिए अति उत्साहित थे. अनंत तो अपनी पत्नी प्रिया और बेटी पारूल के साथ उन के साथ ही रहता था, बेटी अंजू अंधेरी में अपने पति सुधीर और बेटे अनुज के साथ रहती थी. मुंबई में होने पर भी मिलनाजुलना जल्दी नहीं हो पाता था, क्योंकि बहूबेटा, बेटीदामाद सब कामकाजी थे.

इसलिए जब भी सब एकसाथ मिलते, शेखर और सुधा बहुत खुश होते थे.सब की आपस में खूब बनती थी. सब जब भी मिलते, महफिल खूब जमती, जम कर एकदूसरे की टांग खींची जाती, कोई किसी की बात का बुरा न मानता. बच्चों के साथ शेखर और सुधा भी खूब हसंतेहंसाते.

12 बजे अंजू सुधीर और अनुज के साथ आ गई. सब ने एकदूसरे को प्यार से गले लगाया. शेखर और सुधा के साथसाथ अंजू सब के लिए कुछ न कुछ लाई थी. पारूल और अनुज तो अपनेआप में व्यस्त हो गए. हंसीमजाक के साथसाथ खाना भी लगता रहा. लंच भी बाहर से और्डर कर लिया गया था, पर प्रिया ने स्नेही सासससुर के लिए खीर और दहीबड़े उन की पसंद को ध्यान में रख कर खुद बनाए थे, जिसे सब ने खूब तारीफ करते हुए खाया.

खाना खाते हुए सुधीर ने बहुत सम्मानपूर्वक कहा, ”पापा, आप लोगों की मैरिडलाइफ एक उदाहरण है हमारे लिए. कभी भी आप लोगों को किसी बात पर बहस करते नहीं देखा. इतनी अच्छी बौंडिंग है आप दोनों की. मेरे मम्मीपापा तो खूब लड़ते थे. आप लोगों से बहुत कुछ सीखना चाहिए.”

फिर जानबूझ कर अंजू को छेड़ते हुए कहा,” इसे भी कुछ सिखा दिया होता, कितना लड़ती है मुझ से. कई बार तो शुरूशुरू में लगता था कि इस से निभेगी भी या नहीं.”

अंजू ने प्यार से घूरा,”बकवास बंद करो, तुम से कभी नहीं लड़ी मैं, झूठे…”

प्रिया ने भी कहा,”जीजू , आप ठीक कह रहे हैं, मम्मीपापा की कमाल की बौंडिंग है. दोनों एकदूसरे का बहुत ध्यान रखते हैं. बिना कहे ही एकदूसरे के मन की बात जान लेते हैं. यहां तो अनंत को मेरी कोई बात ही याद नहीं रहती. काश, अनंत भी पापा की तरह केयरिंग होता.”

अनंत से भी रहा नहीं गया, झूठमूठ गले में कुछ फंसने की ऐक्टिंग करता हुआ बोला,” मेरी प्यारी बहन अंजू, यह हम दोनों भाईबहन क्या सुन रहे हैं? क्यों न आज मम्मीपापा की बहू और दामाद को इस बौंडिंग की सचाई बता दें? हम कब तक ताने सुनते रहेंगे,” कहता हुआ अनंत अंजू को देख कर शरारत से हंस दिया.

शेखर ने चौंकते हुए कहा,”अरे, कैसी सचाई? क्या तुम बच्चों से अपने पेरैंट्स की तारीफ सहन नहीं हो रही?”

अनंत हंसते हुए बोला,”मम्मीपापा, तैयार हो जाइए, आप की बहू और आप के दामाद से हम भाईबहन आप की इस बौंडिंग का राज शेयर करने जा रहे हैं…”

फिर नाटकीय स्वर में अंजू से कहा,”चल, बहन, शुरू हो जा…”

*अंजू* ने जोर से हंसते हुए बताना शुरू किया,”जब हम छोटे थे, हम रोज देखते कि पापा मम्मी को हर बात में कहते हैं कि मैं तुम्हारे साथ एक दिन नहीं रह सकता. अम्मांपिताजी ने मेरे साथ बहुत बुरा किया है कि तुम से मेरी शादी करवा दी. मेरे जैसे स्मार्ट लड़के के लिए पता नहीं कहां से गंवार लड़की ले कर मेरे साथ बांध दिया,” इतना सुनते ही प्रिया और सुधीर ने चौंकते हुए शेखर और सुधा को देखा.

शेखर बहुत शर्मिंदा दिखे और सुधा की आंखों में एक नमी सी आ गई थी, जिसे देख कर शेखर और शर्मिंदा हो गए.

अनंत ने कहा,”और एक मजेदार बात यह थी कि रोज हमें लगता कि बस शायद कल मम्मी और पापा अलग हो जाएंगे पर हम अगले दिन देखते कि दोनों अपनेअपने काम में रोज की तरह व्यस्त हैं.

“सारे रिश्तेदारों को पता था कि दादादादी ने अपनी पसंद की लड़की से पापा की शादी कराई है और पापा को मम्मी पसंद नहीं हैं. हम किसी से भी मिलते, तो हम से पूछा जाता कि अब भी तुम्हारे पापा को तुम्हारी मम्मी पसंद नहीं हैं क्या?

“हमें कुछ समझ नहीं आता कि क्या कहें पर सब मम्मी की खूब तारीफ करते. सब का कहना था कि मम्मी जैसी लड़की संयोग से मिलती है पर पापा घर में हर बात पर यही कहते कि उन की लाइफ खराब हो गई है, यह शादी उन की मरजी से नहीं हुई है. उन्हें किसी शहर की मौडर्न लड़की से शादी करनी थी और उन के पेरैंट्स ने अपने गांव की लड़की से उन की शादी करा दी.

“हालांकि मम्मी बहुत पढ़ीलिखी हैं पर प्रोफैसर पापा अलग ही दुनिया में जीते और मैं और अंजू मम्मीपापा के तलाक के डर के साए में जीते रहे.

“कभी अनंत मुझे समझाता, तसल्ली देता कि कुछ नहीं होगा, कभी मैं उसे समझाती कि अगले दिन तो सब ठीक हो ही जाता है. हमारी जवानी तो पापा की धमकियों में ही बीत गई.”

फिर अचानक अनंत जोर से हंसा और कहने लगा,”धीरेधीरे हम बड़े हो गए और समझ आ गया कि पापा सिर्फ मम्मी को धमकियां देते हैं, हमारी प्यारी मां को छोड़ना इन के बस की बात नहीं.”

प्रिया और सुधीर ने शेखर को बनावटी गुस्से से कहा,”पापा, वैरी बैड, हम आप को क्या समझते थे और आप क्या निकले… बेचारे बच्चे आप की धमकियों में जीते रहे और हम आप दोनों की बौंडिंग के फैन होते रहे. क्यों, पापा, ये धमकियां क्यों देते रहे?”

शेखर ने सुधा की तरफ देखते हुए कहा,”वैसे अच्छा ही हुआ कि आज तुम लोगों ने बात छेड़ दी, दिन भी अच्छा है आज.”

*उन* के इतना कहते ही अंजू ने कहा,”अच्छा, दिन अच्छा हो गया अब मैरिज ऐनिवर्सरी का, बच्चों को परेशान कर के?”

”हां, बेटा, दिन बहुत अच्छा है आज का जो मुझे इस दिन सुधा मिली.”

अब सब ने उन्हें चिढ़ाना शुरू कर दिया,”रहने दो पापा, हम आप की धमकियां नहीं भूलेंगे.”

”सच कहता हूं, मैं गलत था. मैं ने सुधा को सच में तलाक की धमकी देदे कर बहुत परेशान किया. मैं चाहता था कि मैं बहुत मौडर्न लड़की से शादी करूं, गांव की लड़की मुझे पसंद नहीं थी. हमेशा शहर में रहने के कारण मुझे शहरी लड़कियां ही भातीं. जब अम्मांपिताजी ने सुधा की बात की तो मैं ने साफसाफ मना कर दिया पर सुधा के पेरैंट्स की मृत्यु हो चुकी थी और भाई ने ही हमेशा सुधा की जिम्मेदारी संभाली थी.

“अम्मां को सुधा से बहुत लगाव था. मैं ने तो यहां तक कह दिया था कि मंडप से ही भाग जाऊंगा पर पिताजी के आगे एक न चली और सारा गुस्सा सुधा पर ही उतरता रहा.

“मेरे 7 भाईबहनों के परिवार को सुधा ने ऐसे अपनाया कि सब मुझे भूलने लगे. हर मुंह पर सुधा का नाम, सुधा के गुण देख कर सब इस की तारीफ करते न थकते पर मेरा गुस्सा कम होने का नाम ही ना लेता पर धीरेधीरे मेरे दिल में इस ने ऐसी जगह बना ली कि क्या कहूं, मैं ही इस का सब से बड़ा दीवाना बन गया.

“जब आनंद पैदा हुआ तो सब को लगा कि अब सब ठीक हो जाएगा पर मैं नहीं सुधरा, सुधा से कहता कि बस यह थोड़ा बड़ा हो जाए तो मैं तुम्हे तलाक दे दूंगा.

“फिर 2 साल बाद अंजू हुई तो भी मैं यही कहता रहा कि बस बच्चे बड़े हो जाएं तो मैं तुम्हे तलाक दे दूंगा और तुम चाहो तो गांव में अम्मां के साथ रह सकती हो.

“फिर बच्चे बड़े हो रहे थे तो मेरी बहनों की शादी का नंबर आता रहा. सुधा अपनी हर जिम्मेदारी दिल से निभाती रही और मेरे दिल में जगह बनाती रही पर मैं इतना बुरा था कि तलाक की धमकियों से बाज नहीं आता…

“सुधा घर के इतने कामों के साथ अपना पूरा ध्यान पढाईलिखाई में लगाती और इस ने धीरेधीरे अपनी पीएचडी भी पूरी कर ली और एक दिन एक कालेज में जब इसे नौकरी मिल गई तो मैं पूरी तरह से अपनी गलतियों के लिए इतना शर्मिंदा था कि इस से माफी भी मांगने की मेरी हिम्मत नहीं हुई.

“मन ही मन इतना शर्मिंदा था कि आज इसलिए इस दिन को अच्छा बता रहा था कि मैं तुम सब के सामने सुधा से माफी मांगने की हिम्मत कर पा रहा हूं.

“बच्चो, तुम से भी शर्मिंदा हूं कि मेरी तलाक की धमकियों से तुम्हारा बालमन आहत होता रहा और मुझे खबर भी नहीं हुई.

“सुधा, अनंत और अंजू, तुम सब मुझे आज माफ कर दो…”

प्रिया ने सुधा की तरफ देखते हुए कहा,”मम्मी, आप भी कुछ कहिए न?”

सुधा ने एक ठंडी सांस ली और बोलने लगी,”शुरू में तो एक झटका सा लगा जब पता चला कि मैं इन्हें पसंद नहीं, मातापिता थे नहीं, भाई ने बहुत मन से मेरा विवाह इन के साथ किया था. लगा भाई को बहुत दुख होगा अगर उस से अपना दुख बताउंगी तो…

“इसलिए कभी भी किसी से शेयर ही नहीं किया कि पति तलाक की धमकियां दे रहा है. सोचा समय के साथ शायद सब ठीक हो जाए और ठीक हुआ भी. तुम दोनों के पैदा होने के बाद इन का अलग रूप देखा. तुम दोनों को यह खूब स्नेह देते, कालेज से आते ही तुम दोनों के साथ खूब खेलते.

“मैं ने यह भी देखा कि मुझे अपने पेरैंट्स के सामने या उन के आसपास होने पर ये तलाक की धमकियां ज्यादा देते हैं, अकेले में इन का व्यवहार कभी खराब भी नहीं रहा. मेरी सारी जरूरतों का हमेशा ध्यान रखते. मैं समझने लगी थी कि यह हम सब को प्यार करते हैं, हमारे बिना रह ही नहीं सकते.

“ये धमकियां पूरी तरह से झूठी हैं, सिर्फ अपने पेरैंट्स को गुस्सा दिखाने के लिए करते हैं.

“यह अपने पेरैंट्स से इस बात पर नाराज थे कि उन्होंने इन के विवाह के लिए इन की मरजी नहीं पूछी, सीधे अपना फैसला थोप दिया.

“जब मैं ने यह समझ लिया तो जीना मुश्किल ही नहीं रहा. मुझे पढ़ने का शौक था, किताबें तो यह ही ला कर दिया करते. पूरा सहयोग किया तभी तो पीएचडी कर पाई.

“रातभर बैठ कर पढ़ती तो यह कभी चाय बना कर देते, कभी गरम दूध का गिलास जबरदस्ती पकड़ा देते और अगर अगले दिन अम्मांपिताजी आ जाएं तो तलाकपुराण शुरू हो जाता, पर मैं इन के मौन प्रेम का स्वाद चख चुकी थी, फिर मुझे कोई धमकी असर न करती,” कहतेकहते सुधा बहुत प्यार से हंस दी.

*शेखर* हैरानी से सुधा का मुंह देख रहे थे, बोले,”मतलब तुम्हें जरा भी चिंता नहीं हुई कभी?”

”नहीं, जनाब, कभी भी नहीं,” सुधा मुसकराई.

अनंत और अंजू ने एकदूसरे की तरफ देखा, फिर अनंत बोला,” लो बहन, और सुनो इन की कहानी, मतलब हम ही बेवकूफ थे जो डरते रहे कि हाय, मम्मीपापा का तलाक न हो जाए, फिर हमारा क्या होगा?

“हम बच्चे तो कई बार यह बात भी करने बैठ जाते कि पापा के पास कौन रहेगा और मम्मी के पास कौन?

“हमें तो फिल्मी कोर्टसीन याद आते और हम अलग ही प्लानिंग करते. पापामम्मी, बड़ा जुल्म किया आप ने बच्चों पर. ये धमकियां हमारे बचपन पर बहुत भारी पड़ी हैं.”

शेखर ने अब गंभीरतापूर्वक कहा,”हां, बच्चो, यह मैं मानता हूं कि तुम दोनों के साथ मैं ने अच्छा नहीं किया, मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ कि मेरे बच्चों के दिलों पर ये धमकियां क्या असर कर रही होंगी, सौरी, बच्चो.”

अंजू ने चहकते हुए शरारत से कहा,”वह तो अच्छा है कि मम्मी ने यह बात एक दिन महसूस कर ली थी कि आप की तलाक की धमकियां हमें परेशान करती हैं तो उन्होंने हमें बैठा कर एक दिन समझा दिया था कि आप का यह गुस्सा दादादादी को दिखाने का एक नाटक है. कुछ तलाकवलाक कभी नहीं होगा, तब जा कर हम थोड़ा ठीक हुए थे.”

शेखर अब मुसकराए और नाटकीय स्वर में कहा,”मतलब मेरी खोखली धमकी का किसी पर भी असर नहीं पड़ रहा था और मैं खुद को तीसमारखां समझता रहा…”

सुधीर ने प्रिया की ओर देखते हुए कहा,”प्रिया, अनंत और अंजू कोई धमकी कभी दें तो दिल पर मत लेना, यार, हमें तो बड़े धमकीबाज ससुर मिले हैं, पर यह भी सच है कि आप दोनों की बौंडिंग है तो कमाल…

“एक सारी उम्र धमकी देता रहा, दूसरा एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकालता रहा, बस 2 बेचारे बच्चे डरते रहे.”

हंसी के ठहाड़ों से घर के दीवार चहक उठे थे और शेखर सुधा को मुग्ध नजरों से निहारते जा रहे थे.

हमें तुम से प्यार कितना : भाग 2

दूसरे दिन शाम को मधु आलोक के घर पहुंची. आलोक की मां ने उस का स्वागत मुसकराते हुए किया और कहा, ‘आओ मधु, तुम्हारे बारे में मुझे आलोक बता चुका है.’ मधु ड्राइंगरूम में सोफे पर आलोक की मां के साथ बैठ गई.

अंशु भी आवाज सुन कर वहां आ गया.

‘आंटी को पहली बार देखा है. कौन हैं, क्या आप दिल्ली में ही रहती हैं?’ अंशू ने पूछा.

‘हां, मैं दिल्ली में ही रहती हूं, मेरा नाम मधु है. अगर तुम्हें अच्छा लगेगा तो मैं तुम से मिलने आया करूंगी,’ अंशू की ओर निहारते हुए बड़े प्यार से मधु ने उस से कहा, ‘तुम अपने बारे में बताओ, कौन से गेम खेलते हो, किस क्लास में पढ़ते हो?’

शरमाते हुए अंशू ने कहा, ‘मैं क्लास थर्ड में पढ़ता हूं. नाम तो आप जानते ही हो. घर में दादादादी हैं, पापा हैं.’ उस की आंखें आंसुओं से भर आई थीं. उस ने आगे कहा, ‘आंटी, मैं मम्मी की फोटो आप को दिखाऊंगा. मेरी मां का नाम सुहानी था जो….’ आगे वह नहीं बोल पाया.

अंशू को मधु ने गले लगा लिया, ‘बेटा, ऐसा मत कहो, मां जहां भी हैं वे तुम्हारे हर काम को ऊपर से देखती हैं. वे हमेशा तुम्हारे आसपास ही कहीं होती हैं. मैं तुम्हें बहुत प्यार करूंगी. तुम्हारी अच्छी दोस्त बन कर रोज तुम्हारे पास आया करूंगी, ढेर सारी चौकलेट, गिफ्ट और गेम्स ला कर तुम्हें दूंगी. बस, तुम रोना नहीं. मुझे तुम्हारी स्वीट स्माइल चाहिए. बोलो, दोगे न?’ एक बार फिर मधु ने अंशू को गले से लगा लिया. आलोक की मम्मी ने चाय बना ली थी. चाय पीने के बाद मधु वापस अपने घर चली गई.

आलोक की मां ने उसे मधु के बारे में बताते हुए कहा, ‘मुझे मधु बहुत अच्छी लगी. अंशू से बातचीत करते समय मुझे उस की आंखों में मां की ममता साफ दिखाई दी.’ इस के जवाब में आलोक ने मां को सुझाव दिया, ‘अभी कुछ दिन हमें इंतजार करना चाहिए. मधु को अंशू से मेलजोल बढ़ाने का मौका देना चाहिए ताकि यह पता चले कि वह मधु को स्वीकार कर लेगा.’

इस के बाद मधु ने स्कूटी पर अंशू के पास जानाआना शुरू कर दिया. वह अच्छाखासा समय उस के साथ बिताती थी. कभी कैरम खेलती थी तो कभी उस के साथ अंत्याक्षरी खेलती थी. उस की पसंद की खाने की चीजें पैक करवा कर उस के लिए ले जाती तो कभी उसे मूवी दिखाने ले जाती थी. एक महीने में अंशू मधु के साथ इतना घुलमिल गया कि उस ने आलोक से कहा, ‘पापा, आप आंटी को घर ले आओ, वे हमारे घर में रहेंगी, तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा.’

मधु और आलोक का विवाह हो गया. विवाह की धूमधाम में अंशू ने हर लमहे को एंजौय किया, जो निराशा और मायूसी पहले उस के चेहरे पर दिखती थी, वह अब मधुर मुसकान में बदल गई थी. वह इतना खुश था कि उस ने सुहानी की तुलना मधु से करनी बंद कर दी. सुहानी की फोटो भी शैल्फ से हटा कर अपनी किताबों वाली अलमारी में कहीं छिपा कर रख दी. आलोक ने महसूस किया जिद्दी अंशू अब खुद को नए माहौल में ढाल रहा था.

मधु ने आलोक का संबोधन तुम से आप में बदल दिया. उस ने आलोक से कहा, ‘‘तुम्हें अंशू के सामने तुम कह कर बुलाना ठीक नहीं लगेगा, इसलिए मैं आज से तुम्हें आप के संबोधन से बुलाऊंगी.’’ अपनी बात जारी रखते हुए उस ने आगे कहा, ‘‘हम अपने प्यार और रोमांस की बातें फिलहाल भविष्य के लिए टाल देंगे. पहले अंशू के बचपन को संवारने में जीजान से लग जाएंगे. वह अपनी क्लास में फर्स्ट पोजिशन में आता है, इंटैलीजैंट है. जब यह सुनिश्चित हो जाएगा कि अब वह मानसिक तौर पर मुझे मां के रूप में पूरी तरह स्वीकार कर चुका है, तब हम हनीमून के लिए किसी अच्छे स्थान पर जाएंगे.’’

यह सुन कर आलोक को अपनी हमसफर मधु पर गर्व महसूस हो रहा था. खुश हो कर उस ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर चूम लिया. वे दोनों शादी के बाद दिल्ली के एक रैस्तरां में कैंडिललाइट में डिनर ले रहे थे. घर लौटते समय उन्होंने कनाट प्लेस से अंशू की पसंद की पेस्ट्री पैक करवा ली थी.

वे दोनों आश्चर्यचकित थे जब वापसी पर अंशू ने मधु से कहा, ‘‘मम्मा, आप ने देर कर दी, मैं कब से आप का इंतजार कर रहा था.’’

मधु ने पेस्ट्री का पैकेट उसे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘अंशु, यह लो तुम्हारी पसंद की पेस्ट्री. तुम्हें यह बहुत अच्छी लगेगी.’’ अंशू की खुशी उस के चेहरे पर फैल गई.

अंशू चौथी कक्षा बहुत अच्छे अंकों के साथ पास कर चुका था. मधु की मां की ममता अपने शिखर पर थी. उस ने अपने बगीचे में अंशू की पसंद के फूलों के पौधे माली से कह कर लगवा दिए थे. जैसेजैसे ये पौधे फलफूल रहे थे, मधु को लगता था वह भी माली की तरह अपने क्यूट से बेटे की देखरेख कर रही है. आत्मसंतुष्टि क्या होती है, उस ने पहली बार महसूस किया.

शाम के समय जब आलोक घर आता था तो अंशू उस का फूलों के गुलदस्ते से स्वागत करता था. मधु का ध्यान अंशू की पढ़ाई के साथ उस की हर गतिविधि पर था. उस ने उसे तैयार किया कि वह स्कूल में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले. अंशू के स्टडीरूम में शैल्फ पर कई ट्रौफियां उस ने सजा कर रख ली थीं. सब खुशियों के होते हुए पिछले 2-3 साल अंशू ने अपना बर्थडे यह कह कर मनाने नहीं दिया कि ऐसे मौके पर उसे सुहानी मां की याद आ जाती है.

दूसरे के बच्चे को पालना कितना मुश्किल होता है, यह महसूस करते हुए उस ने तय किया कि कभी वह अंशू को सुहानी मां के साथ बिताए लमहों के बारे में हतोत्साहित नहीं करेगी. अंशू का विकास वह सामान्य परिस्थिति में करना चाहती थी. जैसेजैसे उस का शोध कार्य प्रगति पर था उसे अभिप्रेरणा मिलती रही कि सब्र के साथ हर बाधा को पार कर वह अंशू के समुचित विकास के काम में विजेता के रूप में उभरे. उसे उम्मीद थी कि जितना वह इस मिशन में कामयाब होगी, उतना ही उसे आलोक और सासससुर का प्यार मिलेगा. दोनों के रिश्ते की बुनियाद दोस्ती थी. प्यार और रोमांस के लिए भविष्य में समय उपलब्ध था.

आलोक मधु की अब तक भूमिका से इतना खुश था कि उस की इच्छा हुई किसी रैस्तरां में शाम को कुछ समय उस के साथ बिताए. कनाट प्लेस की एक ज्वैलरी शौप से उस की पसंद के कुछ जेवर खरीद कर उसे गिफ्ट करते हुए उस ने कहा, ‘‘मधु, वैसे तो तुम्हारे पास काफी गहने हैं लेकिन मैरिज एनिवर्सरी न मना पाने के कारण हम कोई खास खुशी तो मना नहीं पाते हैं, यह गिफ्ट तुम यही समझ कर रख लो कि आज हम ने अपने विवाह की वर्षगांठ मना ली है. मम्मीपापा को इस के विषय में बता सकती हो. हम धूमधाम से तभी एनिवर्सरी मनाएंगे जब अंशू अपना जन्मदिन खुशी के साथ दोस्तों को बुला कर मनाना शुरू कर देगा.’’

रैस्तरां में उन दोनों की बातचीत बड़ी प्यारभरी हुई. डिनर के बाद जब वे रैस्तरां से बाहर निकले तो आलोक ने मधु का हाथ अपने हाथ में ले कर उस का स्पर्श महसूस करते हुए कहा, ‘‘मधु, मैं इंतजार में हूं कि कब हम लोग हनीमून के लिए किसी हिलस्टेशन पर जाएंगे. जब ऐसा तुम भी महसूस करो, मुझे बता देना. हम लोग इसी बहाने अंशू को भी साथ ले चल कर घुमा लाएंगे.’’

Monsoon Special: छोटे छोटे सुख दुख- भाग 3

‘‘तुम यहां झगड़ा करने लगे हो… बच्चों के कितनी चोटें लगी हैं… तुम से यह नहीं दिख रहा. इन्हें पहले तुरंत अस्पताल ले जाओ,’’ सुमित रिकशे वाले पर बरस पड़ा.  रिकशे वाला उसे पहचानता था. बोला, ‘‘साहब, मेरा रिकशा तो पूरी तरह टूट गया… जब तक भरपाई नहीं होगी तब तक नहीं छोड़ूंगा इन को.’’ ‘‘चाहे बच्चों का नुकसान हो जाए,’’ सुमित दहाड़ते हुए बोला, ‘‘मैं बच्चों को अस्पताल ले कर जा रहा हूं,’’ कह वह बच्चों को अपने साथ कार तक ले आया. बच्चों को इस हाल में देख कर राशि भी घबरा गई, ‘‘यह क्या हुआ?’’ ‘‘ऐक्सीडैंट हो गया… बच्चे इस समय स्कूल से लौट रहे होंगे,’’ सुमित बोला, ‘‘तुम मनीषा व संजना को फोन कर दो. मैं कार मोड़ कर इन्हें अस्पताल ले जाता हूं. उन्हें वहीं आने के लिए कह दो,’’ और फिर सुमित बच्चों को अस्पताल ले गया. जब तक दोनों बच्चों के मातापिता अस्पताल पहुंचे तब तक मयंक के सिर पर टांके और खुशी के हाथ में प्लास्टर चढ़ चुका था. संजना व मनीषा और उन के पतियों के कृतज्ञन चेहरे बिना कहे भी बहुत कुछ कह रहे थे.

‘‘अभी तो स्थिति कुछ ऐसी बन गई है कि तुम्हारी तीनों सहेलियों के मुंह से फिलहाल बोल नहीं फूटेंगे…’’ सुमित हंस कर राशि की खिंचाई करते हुए बोला, ‘‘फिलहाल कुछ दिन तक तो बहुत मिठास घोल कर बातें करने वाली हैं तीनों… कम से कम जब तक बच्चे ठीक नहीं हो जाते.’’ ‘‘हां, यह तो है. थोड़े दिन की टैंशन खत्म, राशि हंसने लगी.’’ आजकल सबकुछ बहुत अच्छा चल रहा है. शिवानी, संजना, मनीषा, राशि चारों नीचे टहलती हुई मिल जातीं तो बढि़या बातें होतीं. चारों में हंसीमजाक होती, चुहलबाजी भी होती. राशि को अच्छा लग रहा था कि चलो अब सब अच्छा रहेगा. 2 महीने गुजर गए. एक दिन सुबह राशि ने दूध लेने के लिए दरवाजा खोला तो दरवाजे के बीचोंबीच कुत्ते की पौटी पड़ी थी, उफ, राशि मन ही मन भड़क गई कि फिर वही… अब कुछ कहेगी तो मनीषा फिर भड़क जाएगी और नहीं कहती है तो रोज पौटी साफ करनी पड़ेगी. दूसरे दिन सुबह थोड़ा जल्दी उठ कर राशि ने दरवाजा खोल दिया और ऐसे बैठ गई कि यदि कुत्ता पौटी करने आए तो उसे दिखाई दे.

थोड़ी देर में मनीषा का कुत्ता सचमुच आ गया. राशि ने जोर से डांट कर भगा दिया.  इसी बीच दूध वाला भी आ गया. दूध वाले से बोली, ‘‘भैया, जरा नीचे की घंटी बजा कर बता देना कि आप का डौगी फिर यहां दरवाजे के आगे पौटी करने लगा है.’’ दूसरे दिन राशि नीचे टहल रही थी, तो मनीषा ने उसे देख कर फिर मुंह फेर लिया. ‘उफ, अब संजना और रजनी भी यही करेंगी.’

वह मन ही मन बड़बड़ाई. फिर उस ने भी तय कर लिया कि वह भी किसी की परवाह नहीं करेगी और फिर मुंह पलट टहलने दूसरी तरफ चली गई. रात को सुमित से बोली, ‘‘तुम ठीक कहते थे… मुझे भी यहां रहना अच्छा नहीं लग रहा… यह फ्लैट बेच कर कहीं इंडीपैंडैंट घर देखो.’’   सुमित ने थोड़ी देर उस के चेहरे को निहारा, फिर बोला, ‘‘ठीक है, कल  ही बात करता हूं किसी प्रौपर्टी डीलर से.’’ सुमित के गालब्लैडर में पथरी थी. काफी समय से डाक्टर उसे औपरेशन के लिए कह रहे थे. पर आजकल करतेकरते सुमित टाल रहा था. लेकिन इस बार जब उसे दोबारा से दर्द हुआ तो डाक्टर ने उसे औपरेशन कराने की सख्त हिदायत दे डाली. आखिर सुमित औपरेशन के लिए तैयार हो गया. औपरेशन की डेट फिक्स कर उस ने औफिस से छुट्टी ले ली.

राशि के दोनों बच्चे बहुत छोटे तो नहीं थे, पर उन के खानेपीने की समस्या तो थी ही. औपरेशन के विषय में उस ने सिर्फ शिवानी को ही बताया था, पर यह खबर जंगल में आग की तरह पूरे अपार्टमैंट में फैल गई. सुमित औपरेशन के लिए अस्पताल में ऐडमिट हुआ तो सारा ‘अनामिका अपार्टमैंट’ जैसे वहीं आ गया. सुमित का औपरेशन ठीकठाक हो गया. अस्पताल में कहां से उस के लिए खाना पहुंच रहा है, कहां से सूप, दलिया, खिचड़ी पहुंच रही है, उस के बच्चे कहां खाना खा रहे हैं, बच्चे स्कूल कैसे जा रहे हैं, उन को टिफिन कौन बना कर दे रहा है, घर में काम करने वाली से काम कौन करवा रहा है ये सब सोचने की राशि को फुरसत नहीं थी. बस सारे काम हो रहे थे.

शिवानी के साथ रजनी, संजना, मनीषा बढ़चढ़ कर सब कुछ कर रही थीं. कहीं से नहीं लग रहा था कि वे कभी नाराज भी होती होंगी. सुमित घर आ गया और फिर ठीक हो कर औफिस भी जाने लगा. लेकिन राशि की सोच इस बीच रास्ता बदल चुकी थी. कहीं नहीं जाना है उसे यहां से. यहीं रहेगी. अजीब सा दिल जुड़ गया है इन सब के साथ… छोटेछोटे सुखदुख हैं सब के साथ रहने में… सब जगह कुछ न कुछ होंगे… चलता है. उस ने सोचा सुमित को आज ही न करना पड़ेगा. शिवानी का तरीका सही है, सब के साथ भी और सब से अलग भी सोच कर राशि मुसकरा पड़ी.

एक और परिणीता : भाग 1

चपरासी तो इसलिए खुश हैं कि बाबुओं की तीमारदारी से उन्हें अब कुछ राहत मिलेगी. मेकैनिक खुश हैं कि शिवेन दत्त तकनीकी जानकारी रखते हैं और उन का चयन योग्यता के आधार पर हुआ है, किसी की सिफारिश से नहीं.

दूर संचार विभाग के मैनेजर पद पर आंखें तो बहुत से लोग गड़ाए बैठे थे मगर इन में से एक भी तकनीकी जानकारी नहीं रखता था और विभाग को ऐसे इंजीनियर की तलाश थी जो आज के तेज रफ्तार संचार माध्यमों का सही ढंग से संचालन कर सके. इसीलिए चयन कार्यक्रम में पूरी तरह से पारदर्शिता बरती गई.

दूर संचार विभाग में काम करने वाली महिलाओं का अपना एक संगठन भी था जिस की अध्यक्ष स्वर्णा कपूर थी. वह बोलती कम पर लिखती अधिक थी. आएदिन किसी न किसी पुरुषकर्मी की शिकायत लिख कर वह अधिकारी के पास भेजती रहती थी और पुरुषकर्मी अपना शिकायतीपत्र पी.ए. को कुछ दे कर हथिया लेते थे. कहने का मतलब यह कि स्वर्णा कपूर किसी का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकी.

नई झाड़ू जरा जोरदार सफाई करती है. इस कहावत को ध्यान में रखते हुए सभी पुरुषकर्मी कुछ अधिक चौकन्ने हो गए थे.

शिवेन दत्त ने स्वर्णा कपूर को पहली बार तब देखा जब वह लंबी छुट्टी मांगने उन के पास आई. साड़ी का पल्लू शौल की तरह लपेटे वह किसी मूर्ति की तरह मेज के पास जा खड़ी हुई. शिवेन दत्त खामोशी की उस मूर्ति को देखते ही हतप्रभ रह गए.

स्वर्णा पलकें झुकाए दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘अगर आप छुट्टी मंजूर नहीं करेंगे तो मैं नौकरी से इस्तीफा दे दूंगी, क्योंकि मैं कभी छुट्टी नहीं लेती हूं.’’

शिवेन दत्त जैसे जाग पड़े, ‘‘तो फिर आज क्यों? और वह भी इतनी लंबी छुट्टी ली जा रही है?’’

‘‘एम.ए. फाइनल की परीक्षा देनी है मुझे.’’

शाम को काम खत्म कर शिवेन जाने लगे तो अपने पी.ए. से पूछ बैठे, ‘‘कब से हैं मिसेज कपूर यहां?’’

‘‘5 बरस तो हो ही गए हैं. पर सर, आप इन्हें मिसेज नहीं मिस कहिए.’’

‘‘शटअप,’’ शिवेन ने डांट दिया.

बचपन में मैनिंजाइटिस होने से स्वर्णा का मुंह टेढ़ा हो गया और जवानी में वह हताश व कुंठित थी, क्योंकि दोनों छोटी बहनों की शादी हो चुकी थी.

स्वर्णा को सितार सिखाने वाली महिला, जिसे पति की जगह दूर संचार विभाग में नौकरी मिली थी, ने स्वर्णा को दूर संचार विभाग में काम करने का रास्ता दिखाया और वह टेलीफोन आपरेटर बन गई.

शिवेन का अपने विभाग पर ऐसा दबदबा कायम हुआ कि हर बात में निंदा करने वाले भी अब उन की बात मानने लगे. यही नहीं, उन्होंने अपनी मेजकुरसी हाल में ही एक ओर लगवा ली ताकि सब को उन के होने का एहसास बना रहे. उन से खार खाने वाले अधेड़ उम्र के सहकर्मी भी उन के विनम्र स्वभाव से दब गए.

3 महीने पलक झपकते ही निकल गए. स्वर्णा जब लौट कर दफ्तर आई तो किसी पुराने मनचले ने फब्ती कसी, ‘‘डिगरी पर डिगरी लिए जाओ, बरात नहीं आने वाली.’’

इस फब्ती से प्रथम श्रेणी में डिगरी हासिल करने का गर्व व खुशी मटियामेट हो गई. स्वर्णा ने एक बार फिर अपने आंसू पी लिए.

शिवेन के पी.ए. ने जा कर जब यह छिछोरा व्यंग्य उन्हें सुनाया तो वह भी तिलमिला पड़े पर वह जानते थे कि स्वर्णा उन से कहने नहीं आएगी.

अगली बार वह स्वर्णा के सामने से गुजरे तो अनायास रुक गए और एक अभिभावक की तरह उन्होंने नम्र स्वर में पूछा, ‘‘पास हो गईं?’’

‘‘जी,’’ स्वर्णा ने गरदन नीची किए ही उत्तर दिया.

‘‘मिठाई नहीं खिलाओगी?’’

‘‘जी, पापाजी से कह दूंगी.’’

अगले दिन स्वर्णा मिठाई का कटोरदान ले कर शिवेन की मेज के सामने जा खड़ी हुई तो वह कुछ झेंप से गए.

‘‘अरे, आप…मैं ने तो यों ही कह दिया था.’’

‘‘मैं ने खुद बनाए हैं,’’ स्वर्णा उत्साह से बोली.

शिवेन ने 1 लड्डू उठा लिया और कहा कि बाकी लड्डुओं को अपने सहकर्मियों में बांट दो.

इस के कुछ दिन बाद ही सरकारी आदेश आया कि रात की ड्यूटी के लिए कुछ टेलीफोन आपरेटर रखे जाएंगे जिन्हें तनख्वाह के अलावा अलग से भत्ता मिलेगा. मौजूदा कर्मचारियों को प्राथमिकता दी जाएगी. स्वर्णा ने रात की शिफ्ट में काम करने का मन बनाया तो मिसेज ठाकुर भी उस के साथ हो लीं. तय हुआ कि रात को आते समय दफ्तर के ही सरकारी चौकीदार को कुछ रुपए महीना दे देंगी ताकि वह उन को घर तक छोड़ जाया करेगा. यह सबकुछ इतना गोपनीय ढंग से हुआ कि विभाग में किसी को पता ही नहीं चला.

Monsoon Special: वह पूनम की रात

तंत्र मंत्र का खेला – भाग 1 : बाबा के जाल से निकल पाए सुजाता और शैलेश

‘‘यह क्या है शैलेश? तुम्हें मना किया था न कि अगली बार लेट होने पर क्लास में एंट्री नहीं मिलेगी,’’ प्रोफैसर महेंद्र सिंह गुस्से से चीख उठे.

‘‘सौरी सर, आज आखिरी दिन था मजार में हाजिरी लगाने का, आज 40 दिन पूरे हो गए हैं, कल से मैं समय से पहले ही हाजिरी दर्ज करा लूंगा.’’

‘‘यह क्या मजार का चक्कर लगाते रहते हो? इतना पढ़नेलिखने के बाद भी अंधविश्वासी बने हो,’’ प्रोफैसर ने व्यंग्य किया.

‘‘सर, ऐसा न कहिए,’’ एक छात्र बोल उठा. ‘‘सर, आप को रेलवे स्टेशन पर बनी मजार की ताकत का अंदाजा नहीं है,’’ दूसरे छात्र ने हां में हां मिलाई. ‘‘सर, आप ने देखा नहीं, मजार 2 प्लेटफौर्म्स के बीच में बनी है, तीसरे, चौथे, 5वें प्लेटफौर्म्स जगह छोड़ कर बनाए गए हैं,’’ एक कोने से आवाज आई.

‘‘सर, अंगरेजों के जमाने से ही इस मजार का बहुत नाम है, 40 दिनों की नियम से हाजिरी लगाने पर हर मनोकामना पूरी हो जाती है,’’ किसी छात्र ने ज्ञान बघारा.

आज भौतिकी की क्लास में मजार का पूरा इतिहासभूगोल ही चर्चा का विषय बना रहा. प्रोफैसर भी इस वार्त्तालाप को सुनते रहे.

महेंद्र सिंह का पूरा छात्रजीवन व नौकरी के शुरू के वर्ष भोपाल में बीते हैं. पिछले वर्ष उन्हें इस छोटे से जिले से प्रोफैसर का औफर आया तो वे अपनी पत्नी को ले कर इस कसबेनुमा जिले परसिया में चले आए, जहां सुविधा व स्वास्थ्य के मूलभूत साधन भी उपलब्ध नहीं हैं. इस कसबे को जिले में बदलने के 5 वर्ष ही हुए हैं, इसलिए विकास के नाम पर तहसील, जिला अस्पताल व सड़कों का विस्तार कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है.

सरकारी अस्पताल में जरूरी उपकरण और विशेषज्ञ डाक्टर्स की कमी बनी हुई है. बेतरतीब तरीकों से बने मकानों के बीच में, कहींकहीं सड़कें बन गई हैं तो सीवर और नाली का अभी कोईर् अतापता नहीं है.

आसपास के गांवों के समर्थ लोग इस शहर में मकान बना कर रहने तो लगे हैं पर मानसिकता और आचरण से वे

अभी भी गंवई विचारधारा से जुड़े हैं. केवल 3 से 4 किलोमीटर के दायरे में इस कसबेनुमा शहर की हद सिमट कर रह गई है. इस दायरे से बाहर नदी है, जंगल हैं और हैं शुद्ध प्राकृतिक हवा के संग हरेभरे खेतखलिहान के नजारे. जो भी बैंक, तहसील व दूसरे विभागों से ट्रांसफर हो कर, दूरदराज से यहां आते हैं, वे अच्छे बाजार, संचार साधनों की असुविधा, यातायात के साधनों की कमी से उकता कर जल्दी ही इस जगह से भाग जाना चाहते हैं.

नए खुले आईटीआई में महेंद्र सिंह को उन के अनुभव के आधार पर प्रोफैसर के पद का औफर मिला, तो वे मना न कर सके और भोपाल के अपने संयुक्त परिवार को छोड़ कर अपनी पत्नी को साथ लिए यहां चले आए. पत्नी सुजाता बेहद आधुनिक व उच्च शिक्षित है, इसीलिए कभीकभार वह भी कालेज में गैस्ट फैकल्टी बन क्लास लेने आ जाती.

सुजाता जब भी कालेज में आती, छात्रों की बांछें खिल जातीं. वैसे तो यह कोएड इंस्टिट्यूट है किंतु लड़कियों की संख्या उंगलियों में गिनी जा सकती है. लड़कियां साधारण ढंग से तैयार हो कर कालेज आती हैं. फैशन से उन का दूरदूर तक कोई नाता नहीं हैं. बस, बालों की खजूरी चोटी या पफ उठा बाल बना भर लेने से उन का शौक पूरा हो जाता है.

नीले कुरते और सफेद सलवारदुपट्टा डाले 18 से 20 वर्षीया सहपाठिनों के सामने 35 वर्षीया सुजाता भारी पड़ती. नाभि दिखने वाली साड़ी, खुले और करीने से कटे बाल, गहरी लिपस्टिक से सजे होंठ और आंखों में गहरा काजल सजाए वह जब भी क्लास लेने आती, लड़कों में मैम को प्रभावित करने की होड़ मच जाती. वे उसे फिल्मी हीरोइन से कम न समझते.

महेंद्र सिंह अपने साथी शिक्षकों के बीच गर्व से गरदन अकड़ा कर घूमते, मानो चुनौती सी देते हों कि मेरी बीवी से बढ़ कर तुम्हारी बीवियां हैं क्या. साथी शिक्षक पीठ पीछे सुजाता और महेंद्र का मजाक बनाते, मगर उन के सामने उन की जोड़ी की तारीफ में कसीदे काढ़ते.

उस दिन महेंद्र जब घर लौटे तो चाय पीते हुए, दिनभर की चर्चा में मजार का जिक्र करना न भूले. यह सुनते ही निसंतान सुजाता की आंखें एक आस से चमक उठीं कि हो सकता है कि इसीलिए ही समय उसे यहां परसिया खींच लाया है.

सुजाता जितनी वेशभूषा से  आधुनिक थी उतनी ही धार्मिक  थी. आएदिन घर में महिलाओं को बुला कर धार्मिक कार्यक्रम करवाना उस की दिनचर्या में शामिल था. इसी वजह से वह अपने महल्ले वालों में काफी लोकप्रिय हो गईर् थी.

आसपास के मकानों में ज्यादातर नजदीकी गांव से आ कर बसने वाले परिवार थे. वे दोचार सालों के भीतर ही परसिया में अपने छोटेबड़े बच्चों को पढ़ाने के लिए घर बना कर रहने आ गए थे. उन में से कुछ पंडित, कुछ पटेल तो एकदो राठौर परिवार थे.

Monsoon Special: जरूरी हैं दूरियां, पास आने के लिए -भाग 1

फ्लाइट बैंगलुरु पहुंचने ही वाली थी, विहान पूरे रास्ते किसी कठिन फैसले को लेने में उलझा हुआ था, इसी बीच मोबाइल पर आते उस नंबर को भी वह लगातार इग्नोर करता रहा.

अब नहीं सींच सकता था वो प्यार के उस पौधे को, उस का मुरझा जाना ही बेहतर है. इसलिए जितना मुमकिन हो सका, उस ने मिशिका को अपनी फोन मैमोरी से रिमूव कर दिया. मुमकिन नहीं था यादों को मिटाना, नहीं तो आज वो उसे दिल की मैमोरी से भी डिलीट कर देता सदा के लिए.

‘‘सदा के लिए… नहींनहीं… हमेशा के लिए नहीं, मैं मिशी को एक मौका और दूंगा,‘‘ विहान मिशी के दूर होने के खयाल से ही डर गया.

‘‘शायद, ये दूरियां ही हमें पास ले आएं,‘‘ बस यही सोच कर उस ने मिशी की लास्ट फोटो भी डिलीट कर दी.

इधर मिशिका परेशान हो गई थी, 5 दिन से विहान से कोई कौंटेक्ट नहीं हुआ था.

‘‘हैलो दी, विहान से बात हुई क्या? उस का ना मोबाइल फोन लग रहा है और ना ही कोई मैसेज पहुंच रहा है. औफिस में एक दिक्कत आ गई है. जरूरी बात करनी है,‘‘ मिशी बिना रुके बोलती गई.

‘‘नहीं, मेरी कोई बात नहीं हुई, और दिक्कत को खुद ही सुलटाना सीखो,‘‘ पूजा ने इतना कह कर फोन काट दिया.

मिशी को दी का ये रवैया अच्छा नहीं लगा, पर वह बेपरवाह सी तो हमेशा से ही थीं तो उस ने दी की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.

मिशिका (मिशी) मुंबई में एक कंपनी में जौब करती है. उस की बड़ी बहन है पूजा, जो अपने मौमडैड के साथ रहते हुए कालेज में पढ़ाती है. विहान ने अभी बैंगलुरु में नई मल्टीनेशनल कंपनी ज्वाइन की है, उस की बहन संजना अभी स्टडी कर रही है. मिशी और विहान के परिवारों में बड़ा प्रेम है. वे पड़ोसी थे. विहान का घर मिशी के घर से कुछ ही दूरी पर था. दो परिवार होते हुए भी वे एक परिवार जैसे ही थे. चारों बच्चे साथसाथ बड़े हुए.

गुजरते दिनों के साथ मिशी की बेपरवाही कम होने लगी थी. विहान से बात न हुए आज पूरे 3 महीने बीत गए थे. मिशी को खालीपन लगने लगा था. बचपन से अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. जब पास थे तो वे दिन में कितनी ही बार मिलते थे, और जब जौब के कारण दूर हुए तो फोन और चैट का हिसाब लगाना भी आसान काम न था.

2-3 महीने गुजरने के बाद मिशी को विहान की बहुत याद सताने लगी थी. वह जब भी घर पर फोन करती, तो मम्मीपापा, दीदी सभी से विहान के बारे में पूछती, आंटीअंकल से बात होती, तब भी… जवाब एक ही मिलता…वह तो ठीक है, पर तुम दोनों की बात नहीं हुई, ये कैसे मुमकिन है. अकसर जब मिशी कहती कि महीनों से बात नहीं हुई, तो सब झूठ ही समझते थे.

दशहरा आ रहा था, मिशी जितनी खुश घर जाने को थी, उस से कहीं ज्यादा खुश यह सोच कर थी कि अब विहान से मुलाकात होगी. इन छुट्टियों में वह भी तो आएगा.

‘‘बहुत झगड़ा करूंगी, पूछूंगी उस से, ये क्या बचपना है, अच्छी खबर लूंगी, क्या समझता है अपनेआप को… ऐसे कोई करता है क्या?‘‘ ऐसे ही अनगिनत बातों को दिल में समेटे वह घर पहुंची. त्योहार की रौनक मिशी की उदासी कम ना कर सकी. छुट्टियां खत्म हो गईं. वापसी का समय आ गया, पर नहीं आया तो वह, जिस का मिशी बेसब्री से इंतजार कर रही थी. दोनों घरों की दूरियां नापते मिशी को दिल की दूरियों का अहसास होने लगा था. अब इंतजार के अलावा उस के पास कोई रास्ता नहीं था.

मिशी दीवाली की शाम ही घर पहुंच पाई थी. लक्ष्मी पूजन के बाद डिनर की तैयारियां चल रही थीं. त्योहारों पर दोनों फैमिली साथ ही समय बिताती गपशप, मस्ती, खाना, सब खूब ऐंजौय करते थे.

आज विहान की फैमिली आने वाली थी. मिशी खुशी से झूम उठी थी. आज तो विहान से बात हो ही जाएगी. पर उस रात जो हुआ उस का मिशी को अंदाजा भी नहीं था. दोनों परिवारों ने सहमति से पूजा और विहान का रिश्ता तय कर दिया. मिशी को छोड़ सभी बहुत खुश थे.

 

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