‘अर्चना डियर, तुम बेकार में भावुक हो रही हो. बीती बातों पर खाक डालो. मुझे तुम्हारी पीड़ा का एहसास है. दूसरी तरफ मेरे बूढ़े मांबाप के प्रति भी मेरा कुछ कर्तव्य है. वे मुझ से एक ही चीज मांग रहे थे, इस घर को एक वारिस, इस वंश को एक कुलदीपक.’
‘तो कर लो दूसरी शादी, ले आओ दूसरी पत्नी, पर इतना बताए देती हूं कि मैं इस घर में एक भी पल नहीं रुकूंगी,’ अर्चना भभक कर बोली.
‘अर्चना…’
‘मैं इतनी महान नहीं हूं कि तुम्हारी बांहों में दूसरी स्त्री को देख कर चुप रह जाऊं. मैं सौतिया डाह से जल मरूंगी. नहीं रजनीश, मैं तुम्हें किसी के साथ बांटने के लिए हरगिज तैयार नहीं.’
‘अर्चना, इतना तैश में न आओ. जरा ठंडे दिमाग से सोचो. यह दूसरा ब्याह महज एक समझौता होगा. यह सब बिना विवाह किए भी हो सकता है पर…’
‘नहीं, मैं तुम्हारी एक नहीं सुनूंगी. हर बात में तुम्हारी नहीं चलेगी. आज तक मैं तुम्हारे इशारों पर नाचती रही. तुम ने अबार्शन को कहा, सो मैं ने करा दिया. तुम ने यह बात अपने मातापिता से गुप्त रखी, मैं राजी हुई. तुम क्या जानो कि तुम्हारी वजह से मुझे कितने ताने सहने पड़ रहे हैं. बांझ…आदि विशेषणों से मुझे नवाजा जाता है. तुम्हारी मां ने तो एक दिन यह भी कह दिया कि सवेरेसवेरे बांझ का मुंह देखो तो पूरा दिन बुरा गुजरता है. नहीं रजनीश, मैं ने बहुत सहा, अब नहीं सहूंगी.’
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‘अर्चना, मुझे समझने की कोशिश करो.’
‘समझ लिया, जितना समझना था. तुम लोगों की कूटनीति में मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है. जैसे गायगोरू के सूखने पर उस की उपयोगिता नहीं रहती उसी तरह मुझे बांझ करार दे कर दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका जा रहा है. लेकिन मुझे भी तुम से एक सवाल करना है…’
‘क्या?’ रजनीश बीच में ही बोल पड़ा.
‘समझ लो तुम मेें कोई कमी होती और मैं भी यही कदम उठाती तो?’
‘अर्चना, यह कैसा बेहूदा सवाल है?’
‘देखा…कैसे तिलमिला गए. मेरी बात कैसी कड़वी लगी.’
रजनीश मुंह फेर कर सोने का उपक्रम करने लगा. उस रात दोनों के दिल में जो दरार पड़ी वह दिनोंदिन चौड़ी होती गई.
रजनीश ने दरवाजे की घंटी बजाई तो एक सजीले युवक ने द्वार खोला.
‘‘अर्चनाजी हैं?’’ रजनीश ने पूछा.
‘‘जी हां, हैं, आप…आइए, बैठिए, मैं उन्हें बुलाता हूं.’’
अर्चना ने कमरे में प्रवेश किया. उस के हाथ में ट्रे थी.
‘‘आओ रजनीश. मैं तुम्हारे लिए काफी बना रही थी. तुम्हें काफी बहुत प्रिय है न,’’ कह कर वह उसे प्याला थमा कर बोली, ‘‘और सुनाओ, क्या हाल हैं तुम्हारे? अम्मां व पिताजी कैसे हैं?’’
‘‘उन्हें गुजरे तो एक अरसा हो गया.’’
‘‘अरे,’’ अर्चना ने खेदपूर्वक कहा, ‘‘मुझे पता ही न चला.’’
‘‘हां, तलाक के बाद तुम ने बिलकुल नाता तोड़ लिया. खैर, तुम तो जानती ही हो कि मैं ने मोहिनी से शादी कर ली. और यह नियति की विडंबना देखो, हम आज भी निसंतान हैं.’’
‘‘ओह,’’ अर्चना के मुंह से निकला.
‘‘हां, अम्मां को तो इस बात से इतना सदमा पहुंचा कि उन्होंने खाट पकड़ ली. उन के निधन के बाद पिताजी भी चल बसे. लगता है हमें तुम्हारी हाय लग गई.’’
‘‘छि:, ऐसा न कहो रजनीश, जो होना होता है वह हो कर ही रहता है. और शादी आजकल जन्म भर का बंधन कहां होती है? जब तक निभती है निभाते हैं, बाद में अलग हो जाते हैं.’’
‘‘लेकिन हम दोनों एकदूसरे के कितने करीब थे. एक मन दो प्राण थे. कितना साहचर्य, सामंजस्य था हम में. कभी सपने में भी न सोचा था कि हम एकदूसरे के लिए अजनबी हो जाएंगे. और आज मैं मोहिनी से बंध कर एक नीरस, बेमानी ज्ंिदगी बिता रहा हूं. हम दोनों में कोई तालमेल नहीं. अगर जीवनसाथी मनमुताबिक न हो तो जिंदगी जहर हो जाती है.
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‘‘खैर छोड़ो, मैं भी कहां का रोना ले बैठा. तुम अपनी सुनाओ. यह बताओ, वह युवक कौन था जिस ने दरवाजा खोला?’’
यह सुन कर अर्चना मुसकरा कर बोली, ‘‘वह मेरा बेटा है.’’
‘‘ओह, तो तुम ने भी दूसरी शादी कर ली.’’
‘‘नहीं, मैं ने शादी नहीं की, मैं ने तो केवल उसे गोद लिया है.’’
‘‘क्या?’’
‘‘हां, रजनीश, यह वही बच्चा दीपू है, अनाथाश्रम वाला. तुम से तलाक ले कर मैं दिल्ली गई जहां मेरा परिवार रहता था. एक नौकरी कर ली ताकि उन पर बोझ न बनूं, पर तुम तो जानते हो कि एक अकेली औरत को यह समाज किस निगाह से देखता है.
‘‘पुरुषों की भूखी नजरें मुझ पर गड़ी रहतीं. स्त्रियों की शंकित नजरें मेरा पीछा करतीं. कई मर्दों ने करीब आने की कोशिश की. कई ने मुझे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा, पर मैं उन सब से बचती रही. 1-2 ने विवाह का प्रलोभन भी दिया, पर जहां मन न मिले वहां केवल सहारे की खातिर पुरुष की अंकशायिनी बनना मुझे मंजूर न था.
‘‘इस शहर में आ कर अपना अकेलापन मुझे सालने लगा. नियति की बात देखो, अनाथाश्रम में दीपू मानो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था. इस ने मेरे हृदय के रिक्त स्थान को भर दिया. इस के लालनपालन में लग कर जीवन को एक गति मिली, एक ध्येय मिला. 15 साल हम ने एकदूसरे के सहारे काट दिए. इस आशा में हूं कि यह मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा, यदि नहीं भी बना तो कोई गम नहीं, कोई गिला नहीं,’’ कहती हुई अर्चना हलके से मुसकरा दी.