इस वृद्ध दंपती का यह 5वां नौकर सुखलाल भी काम छोड़ कर चला गया. अब वे फिर से असहाय हो गए. नौकर के चले जाने से घर का सन्नाटा और भी बढ़ गया. नौकर था तो वह इस सन्नाटे को अपनी मौजूदगी से भंग करता रहता था. काम करते-करते कोई गाना गुन-गुनाता रहता था. मुंह से सीटी बजाता रहता था. काम से फारिग हो जाने पर टीवी देखता रहता था. बाहर गैलरी में खड़े हो कर सड़क का नजारा देखने लगता था. उस की उपस्थिति का एहसास इस वृद्ध दंपती को होता रहता था. उन के जीवन की एकरसता इस के कारण ही भंग होती थी, इसीलिए वे आंखें फाड़फाड़ कर उसे देखते रहते थे. दोनों जब तब नौकर से बतियाने का प्रयास भी करते रहते थे.
दोनों ऊंचा सुनते थे, लिहाजा, आपस में बातचीत कम ही कर पाते थे. संकेतों से ही काम चलाते थे. इसी कारण आधीअधूरी बातें ही हो पाती थीं.
जब कभी वे आधीअधूरी बात सुन कर कुछ का कुछ जवाब दे देते थे तो नौकर की मुसकराहट या हंसी फूट पड़ती थी. तब वे समझ जाते थे कि उन्होंने कुछ गलत बोल दिया है. उन्हें अपनी गलती पर हंसी आती थी. इस तरह घर के भीतर का सन्नाटा कुछ क्षणों के लिए भंग हो जाता था.
मगर अब नौकर के चले जाने से यह क्षण भी दुर्लभ हो गए. बाहर का सन्नाटा बोझिल हो गया. अपनी असहाय स्थिति पर वे दुखी होने लगे. इस दुख ने भीतर के सन्नाटे को और भी बढ़ा दिया. इस नौकर ने काम छोड़ने के जो कारण बताए उस से इन की व्यथा और भी बढ़ गई. उन्हें अफसोस हुआ कि सुखलाल के लिए इस घर का वातावरण इतना असहनीय हो गया कि वह 17 दिन में ही चला गया.
वृद्ध दंपती को अफसोस के साथसाथ आश्चर्य भी हुआ कि मांगीबाई तो इस माहौल में 7-8 साल तक बनी रही. उस ने तो कभी कोई शिकायत नहीं की. वह तो इस माहौल का एक तरह से अंग बन गई थी. इस छोकरे सुखलाल का ही यहां दम घुटने लगा.
सुखलाल से पहले आए 4 नौकरों ने भी इस घर के माहौल की कभी कोई शिकायत नहीं की. वे अन्य कारणों से काम छोड़ कर चले गए. मांगीबाई के निधन के बाद उन्हें सब से पहले आई छोकरी को चोर होने के कारण हटाना पड़ा था. उस के बाद आई पार्वतीबाई को दूसरी जगह ज्यादा पैसे में काम मिल गया था, इसलिए उस ने क्षमायाचना करते हुए यहां का काम त्यागा था.
पार्वतीबाई के बाद आई हेमा कामचोर और लापरवाह निकली थी. बारबार की टोकाटाकी से लज्जित हो कर वह चली गई थी. इस के बाद आया वह भील युवक जो यहां आ कर खुश हुआ था. उसे यह घर बहुत अच्छा लगा था. पक्का मकान, गद्देदार बिस्तर, अच्छी चाय, अच्छा भोजन आदि पा कर वह अपनी नियति को सराहता रहा था. उस ने वृद्ध दंपती की अपने मातापिता की तरह बड़े मन से सेवा की थी. पुलिस में चयन हो जाने की सूचना उसे यदि नहीं मिलती तो वह घर छोड़ कर कभी नहीं जाता. वह विवशता में गया था.
उस के बाद आया यह सुखलाल, यहां आ कर दुखीलाल बन गया. 17 दिन बाद एक दिन भी यहां गुजारना उसे असहनीय लगा. 14-15 साल का किशोर होते हुए भी वह छोटे बच्चों की तरह रोने लगा था. रोरो कर बस, यही विनती कर रहा था कि उसे अपने घर जाने दिया जाए.
दंपती हैरान हुए थे कि इसे एकाएक यह क्या हो गया. यह रस्सी तुड़ाने जैसा आचरण क्यों करने लगा? इसीलिए उन्होंने पूछा था, ‘‘बात क्या है? रो क्यों रहा है?’’
इस के उत्तर में सुखलाल बस, यही कहता रहा था, ‘‘मुझे जाने दीजिए, मालिक. मुझ से यहां नहीं रहा जाएगा.’’
तब प्रश्न हुआ था, ‘‘क्यों नहीं रहा जाएगा? यहां क्या तकलीफ है?’’
सुखलाल ने हाथ जोड़ कर कहा था, ‘‘कोई तकलीफ नहीं है, मालिक. यहां हर बात की सुविधा है, सुख है. जो सुख मैं ने अभी तक भोगा नहीं था वह यहां मिला मुझे. अच्छा खानापीना, पहनना सबकुछ एक नंबर. चमचम चमकता मकान, गद्देदार पलंग और सोफे. रंगीन टीवी, फुहारे से नहाने का मजा. ऐसा सुख जो मेरी सात पीढि़यों ने भी नहीं भोगा, वह मैं ने भोगा. तकलीफ का नाम नहीं, मालिक.’’
‘‘तो फिर तुझ से यहां रहा क्यों नहीं जा रहा है? यहां से भाग क्यों रहा है?’’
‘‘मन नहीं लगता है यहां?’’
‘‘क्यों नहीं लगता है?’’
‘‘घर की याद सताती है. मैं अपने परिवार से कभी दूर रहा नहीं, इसलिए?’’
‘‘मन को मार सुखलाल?’’ वृद्ध दंपती ने समझाने की पूरी कोशिश की थी.
‘‘यह मेरे वश की बात नहीं है, मालकिन.’’
‘‘तो फिर किस के वश की है?’’
इस प्रश्न का उत्तर सुखलाल दे न पाया था. वह एकटक उन्हें देखता रहा था. जब इस बारे में उसे और कुरेदा गया था तो वह फिर रोने लगा था. रोतेरोते ही विनती करने लगा था, ‘‘आप तो मुझे बस, जाने दीजिए. अपने मन की बात मैं समझा नहीं पा रहा हूं.’’
वृद्ध दंपती ने इस जिरह से तंग आ कर कह दिया था, ‘‘तो जा, तुझे हम ने बांध कर थोड़े ही रखा है.’’
सुखलाल ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा था, ‘‘जाऊं? आप की इजाजत है?’’
‘‘हां सुखलाल, हां. हम तुझे यहां रहने के लिए मजबूर तो नहीं कर सकते?’’
सुखलाल का चेहरा खिल उठा. वह अपना सामान समेटने लगा था. इस बीच वृद्ध दंपती ने उस का हिसाब कर दिया था. वह अपना झोला ले कर उन के पास आया तो उन्होंने हिसाब की रकम उस की ओर बढ़ाते हुए कहा था, ‘‘ले.’’
सुखलाल ने यह रकम अपनी जेब में रख कर अपना झोला दंपती के सामने फैलाते हुए कहा था, ‘‘देख लीजिए,’’ मगर वृद्ध दंपती ने इनकार में हाथ हिला दिए थे.
सुखलाल ने दोनों के चरणस्पर्श कर भर्राए स्वर में कहा था, ‘‘मुझे माफ कर देना, मालिक. आप लोगों को यों छोड़ कर जाते हुए मुझे दुख हो रहा है, पर करूं भी क्या?’’ इतना कह कर वह फर्श पर बैठते हुए हाथ जोड़ कर बोला था, ‘‘एक विनती और है?’’
‘‘क्या…बोलो?’’
‘‘बड़े साहब से मेरी शिकायत मत करिएगा वरना मेरे मांबाप आदि की नौकरी खतरे में पड़ जाएगी. इतनी दया हम पर करना.’’
बड़े साहब से सुखलाल का आशय वृद्धा के भाई फारेस्ट रेंजर से था. वही अपने विश्वसनीय नौकर भिजवाता रहा था. उसी ने ही इस सुखलाल को भी नर्सरी में परख कर भिजवाया था. वह अपने परिवार के साथ वहीं काम कर रहा था.
वृद्ध दंपती से कोई आश्वासन न मिलने पर वह फिर गिड़गिड़ाया था, ‘‘बड़े साहब के डर के कारण ही इतने दिन मैं ने यहां काटे हैं. वरना मैं 2-4 दिन पहले ही चल देता. मेरा मन तो तभी से उखड़ गया था.’’
‘‘मन क्यों उखड़ गया था?’’
तब सुखलाल आलथीपालथी मार कर इतमीनान से बैठते हुए बोला था, ‘‘मन उखड़ने का खास कारण था यहां का सन्नाटा, घर के भीतर का सन्नाटा. यह सन्नाटा मेरे लिए अनोखा था क्योंकि मैं भरेपूरे परिवार का हूं, मेरे घर में हमेशा हाट बाजार की तरह शोरगुल मचा रहता है.
‘‘मगर यहां तो मरघट जैसे सन्नाटे से मेरा वास्ता पड़ा. हमेशा सन्नाटा. किसी से बातें करने तक की सुविधा नहीं. आप दोनों बहरे, इस कारण आप से भी बातें नहीं कर पाता था. अभी की तरह जोरजोर से बोल कर काम लायक बातें ही हो पाती थीं, इसीलिए मेरा दम जैसे घुटने लगता था. मैं बातूनी प्रवृत्ति का हूं. मगर यहां मुझे जैसे मौन व्रत साधना पड़ा, इसीलिए यह सन्नाटा मुझे जैसे डसने लगा.
‘‘मुझे ऐसा लगने लगा कि जैसे मैं किसी पिंजरे में बंद कर दिया गया हूं. इसीलिए मेरा मन यहां लगा नहीं. मेरा घर मुझे चुंबक की तरह खींचने लगा. आप दोनों को जब तब इस छोटी गैलरी में बैठ कर सामने सड़क की ओर ताकते देख कर मुझे पिंजरे के पंछी याद आने लगे. इस पिंजरे से बाहर जाने को मैं छटपटाने लगा. मेरा मन बेचैन हो गया. इसीलिए आप से यह विनती करनी पड़ी. मेरे मन की दशा बड़े साहब को समझा देना. मैं बड़े भारी मन से जा रहा हूं.’’
छोटे मुंह बड़ी बातें सुन कर वृद्ध दंपती चकित थे. उन्हें आश्चर्य हुआ था कि साधारण, दुबलेपतले इस किशोर की मूंछें अभी उग ही रही हैं मगर इस ने उन की व्यथा को मात्र 17 दिन में ही समझ लिया. गैलरी में बैठ कर हसरत भरी निगाहों से सामने सड़क पर बहते जीवन के प्रवाह को निहारने के उन के दर्द को भी वह छोकरा समझ गया, इसीलिए उन का मन हुआ था कि इस समझदार लड़के से कहें कि तू ने पिंजरे के पंछी वाली जो बात कही वह बिलकुल सही है. हम सच में पिंजरे के पंछी जैसे ही हो गए हैं. शारीरिक अक्षमता ने हमें इस स्थिति में ला दिया.
शारीरिक अक्षमता से पहले हम भी जीवन के प्रवाह के अंग थे, अब दर्शक भर हो गए. शारीरिक अक्षमता ने हमें गैलरी में बिठा कर जीवन के प्रवाह को हसरत भरी नजरों से देखते रहने के लिए विवश कर दिया. सामने सड़क पर जीवन को अठखेलियां करते, मस्ती से झूमते, फुदकते एवं इसी तरह अन्य क्रियाएं करते देख हमारे भीतर हूक सी उठती है. अपनी अक्षमता कचोटती है. हमारी शारीरिक अकर्मण्यता हमारी हथकड़ी, बेड़ी बन गई. पिंजरा बन गई. हम चहचहाना भूल गए.
वृद्ध दंपती का मन हो रहा था कि वे सुखलाल से कहें कि हाथपांव होते हुए भी वे हाथपांवविहीन से हो गए. बल्कि जैसे पराश्रित हो गए. पाजामे का नाड़ा बांधना, कमीज के बटन लगाना, खोलना, शीशी का ढक्कन खोलना, पैंट की बेल्ट कसना, अखबार के पन्ने पलटना, शेव करना, नाखून काटना, नहाना, पीठ पर साबुन मलना जैसे साधारण काम भी उन के लिए कठिन हो गए. घूमनाफिरना दूभर हो गया. हाथपांव के कंपन ने उन्हें लाचार कर दिया.
भील युवक ने उन की लाचारी समझ कर उन्हें हर काम में सहायता देना शुरू किया था. वह उन के नाखून काटने लगा था. शेव में सहायता करने लगा था. कपड़े पहनाने लगा था. बिना कहे ही वह उन की जरूरत को समझ लेता था. समझदार युवक था. ऐसी असमर्थता ने जीवन दूभर कर दिया है.
वृद्धा के मन में भी हिलोर उठी थी कि इस सहृदय किशोर को अपनी व्यथा से परिचित कराए. इसे बतलाए कि डायबिटीज की मरीज हो जाने से वह गठिया, हार्ट, ब्लडप्रेशर आदि रोगों से ग्रसित हो गई. उस की चाल बदल गई. टांगें फैला कर चलने लगी. एक कदम चलना भी मुश्किल हो गया. फीकी चाय, परहेजी खाना लेना पड़ गया. खानेपीने की शौकीन को इन वर्जनाओं में जीना पड़ रहा है. फिर भी जब तब ब्लड में शुगर की मात्रा बढ़ ही जाती है. मौत सिर पर मंडराती सी लगती है. परकटे पंछी जैसी हो गई है वह. पिंजरे के पंछी पिंजरे में पंख तो फड़फड़ा लेते हैं मगर उस में तो इतनी क्षमता भी नहीं रही.
मगर दोनों ने अपने मन का यह गुबार सुखलाल को नहीं बताया. वे मन की बात मन में ही दबाए रहे. सुखलाल से तो वह इतना ही कह पाए, ‘‘हम रेंजर साहब से तुम्हारी शिकायत नहीं करेंगे, बल्कि तुम्हारी सिफारिश करेंगे. तुम निश्चिंत हो कर जाओ. हम उन से कहेंगे कि तुम्हें आगे पढ़ाया जाए.’’
सुखलाल की बांछें खिल उठी थीं. वह खुशी से झूमता हुआ चल पड़ा था. जातेजाते उस ने वृद्ध दंपती के चरण स्पर्श किए थे. बाहर सड़क पर से उस ने गैलरी में आ खड़े हुए दंपती को ‘टाटा’ किया था. उन्होंने भी ‘टाटा’ का जवाब हाथ हिला कर ‘टाटा’ में दिया था. वे आंखें फाड़फाड़ कर दूर जाते हुए सुखलाल को देखते रहे. उन्हें वही प्रसन्नता हुई थी जैसे पिंजरे के पंछी को आजाद हो कर मुक्त गगन में उड़ने पर होती है.
लेखक- चंद्रशेखर दुबे