बोया पेड़ बबूल का : मांबेटी का द्वंद्व

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लौट आई सुनीता : अपहरण की शिकार एक लड़की

कमिल बहुत देर तक उसे देखता रहा. अस्पताल के बिस्तर नंबर 8 पर पड़ी लड़की सुनीता ही थी. वह भूल भी कैसे सकता था उसे.

‘‘मैं कल पूरी तरह तैयार हो कर कोर्ट पहुंच जाऊंगी. आप भी जल्दी से आ जाना कमिल… इंतजार मत कराना. कुछ हो न जाए…’’ सुनीता ने थोड़ा उतावलेपन में कहा था.

जाने से पहले सुनीता अपने कमिल के सीने से लग गई थी. उस ने तो कोर्ट मैरिज के लिए पहले ही रजिस्ट्रेशन करा रखा था, जब सुनीता ने उस से बोला था, ‘‘कमिल, मैं तुम से जल्द से जल्द शादी करना चाहती हूं.’’

कमिल को इस जल्दी के बारे में तो पता नहीं था, पर इतना वह समझ गया था कि सुनीता अब उस की होने वाली है. रजिस्ट्रेशन के बाद उस ने सुनीता को बता दिया था कि कल कोर्ट में उन्हें शादी के लिए बुलाया गया है. यह सुन कर सुनीता खुश हो गई थी.

कमिल समय से पहले ही कोर्ट पहुंच गया था. उस ने नया कुरतापाजामा पहना था और सुनीता के लिए भी वह एक नई साड़ी लाया था. चमचमाते गुलाब की फूलमाला का पैकेट भी उस के हाथों में था.

सारी तैयारी कर के सुनीता का इंतजार करता रहा कमिल. वकील साहब ने भी बता दिया था कि जज साहब ने जो समय दिया है, उस समय तक दोनों को कोर्ट में दाखिल हो जाना होगा.

कमिल ने बड़े यकीन के साथ वकील साहब से कहा था, ‘‘जी जरूर. आप निश्चिंत रहें. मुझ से ज्यादा जल्दी तो उसे है. आप तैयारी पूरी रखें.’’

समय निकलता जा रहा था. कमिल की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. वह बारबार घड़ी देख रहा था.

वह कई बार घड़ी को हिला कर देख चुका था कि कहीं वह बंद तो नहीं हो गई, पर उस के कांटे तो बराबर खिसक रहे थे. वकील साहब भी परेशान थे. वे भी बारबार अपनी घड़ी देख रहे थे.

‘‘देखो भाई, कोर्ट का समय निकला जा रहा है. बाद में मजिस्ट्रेट साहब शादी नहीं कराएंगे. या तो वे इस अर्जी को खारिज कर देंगे या दूसरी तारीख देंगे, जो कम से कम एक महीने के बाद की होगी,’’ यह कहते हुए वकील साहब के चेहरे पर भी तनाव फैलता जा रहा था.

कोर्ट का समय निकले भी 2 घंटे से ज्यादा हो चुका था. कोर्ट बंद हो चुका था, पर कमिल बैठा अपनी सुनीता का इंतजार कर रहा था. उसे भरोसा था कि सुनीता जरूर आएगी, पर वह नहीं आई. रात का अंधेरा फैलने के बाद वह उदास कदमों से घर लौट आया था.

अब से कई साल पहले ट्रेन में सफर करने के दौरान कमिल की सुनीता से मुलाकात हुई थी. दोनों आमनेसामने की सीट पर बैठे थे.

‘‘क्या आप आलूबड़ा खाएंगी? यहां के आलूबड़े बहुत मशहूर हैं…’’ कहतेकहते कमिल ने एक आलूबड़ा सुनीता की ओर बढ़ा दिया था.

सुनीता ने हिकारत से कमिल को घूरा और बोली, ‘‘जी नहीं. मैं बाहर की चीज नहीं खाती,’’ और उस ने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया था.

कमिल को भी अपनी गलती का अंदाजा हो चुका था. जब वे एकदूसरे को जानतेपहचानते ही नहीं हैं, तो उसे उस लड़की के सामने आलूबड़ा खाने का प्रस्ताव रखना ही नहीं चाहिए था.

‘सौरी’ कह कर कमिल चुपचाप आलूबड़ा खाने लगा. आलूबड़ा बहुत तीखा था. वह पूरा आलूबड़ा खाता, इस के पहले ही होंठों से ‘सी… सी…’ की आवाज निकलनी शुरू हो गई थी. उसे पानी की सख्त जरूरत थी, जो उस के पास नहीं था.

सुनीता के पास पानी की बोतल नजर आ रही थी, पर कमिल की हिम्मत नहीं हो रही थी उस से मांगने की. वह पानी को यहांवहां तलाशता रहा. सुनीता ने शायद उस की ‘सी… सी…’ की आवाज सुन ली थी.

‘‘यह लीजिए… पानी पी लीजिए… इसी वजह से मैं बाहर की चीज नहीं खाती,’’ कहते हुए सुनीता ने पानी की बोतल कमिल की ओर बढ़ा दी.

पहले तो कमिल का मन हुआ कि वह भी कह दे कि मैं किसी अजनबी के हाथ का पानी नहीं पीता, पर इस समय उसे पानी की बहुत जरूरत थी, सो उस के हाथ से पानी की बोतल ले कर वह गटागट पी गया.

‘‘थैंक्स. आज तो मेरे प्राण ही निकल जाते,’’ कमिल ने कहा.

सुनीता मुसकरा दी थी. स्टेशन आने पर दोनों साथसाथ ही प्लेटफार्म पर उतरे थे.

‘‘अच्छा… आप भी यहीं रहती हैं या पहली बार आना हुआ है?’’ कमिल ने सुनीता से पूछा.

‘‘जी, मैं यहीं रहती हूं,’’ सुनीता ने छोटा सा जवाब दिया था.

‘‘वाह… अब अगर मैं पूछ लूंगा कि आप यहां कहां रहती हैं, तो आप को बुरा लगेगा,’’ यह कहते हुए कमिल के चेहरे पर सवालिया निशान उभर आया था.

‘‘जगदीश वार्ड में… वह पुरानी गल्ला मंडी है न, उस के पीछे है,’’ सुनीता बोली.

‘‘अच्छा, वह जगह तो मैं जानता हूं. मैं भी इसी शहर का रहने वाला हूं. सारी उम्र यहीं गुजर गई है.’’

‘‘ओह… वैसे, आप की उम्र 100 के आसपास होगी…’’ सुनीता ने कमिल को छेड़ा था. फिर वे दोनों अपनेअपने घर चले गए थे.

कमिल और सुनीता की बहुत दिन बाद शादी की एक रिसैप्शन में दोबारा मुलाकात हुई थी. वैसे तो कमिल का इरादा सुनीता को घूरने का बिलकुल भी नहीं था, पर वह इतनी ज्यादा खूबसूरत लग रही थी कि वह अपनी पलकें तक भी नहीं झपका पा रहा था.

सुनीता गोरे रंग की पतली लड़की थी. लेकिन इस के बावजूद उस की देह में गजब की कसावट थी. सांचे में ढला बदन किसी को भी अपना दीवाना बना सकता था.

रिसैप्शन में सुनीता ने पीले रंग का सलवारसूट पहना था. चेहरे पर लाल रंगत थे. उस ने खुले बालों में पीले रंग का बड़ा क्लिप लगा रखा था.

‘‘ओ जनाब, लड़कियों को ऐसे नहीं घूरते,’’ कह कर सुनीता हंस पड़ी. उस की हंसी गूंज गई थी सारे वातावरण में. कुछ चेहरे घूम गए उन दोनों की ओर. कमिल झोंप सा गया.

‘सौरी’ कहते हुए कमिल ने न चाहते हुए भी अपनी नजरें हटा लीं.

‘‘वैसे, अगर आप का कोई नाम हो बता ही दें, क्योंकि आप मुझे यों ही बारबार मिलते रहेंगे, तो मुझे भी तो आप के बारे में पता होना चाहिए न.’’

‘‘जी, कमिल शर्मा,’’ अब कमिल सुनीता की ओर नजर भी नहीं डाल पा रहा था. इस वजह से वह दूसरी ओर देखते हुए बोला.

‘‘मुझे सुनीता कहते हैं. मेरी पढ़ाई पूरी हो चुकी है. नौकरी की तलाश कर रही हूं… वैसे, आप ने खाना खाया?’’

‘‘नहीं. मैं ऐसे कार्यक्रमों में खाना नहीं खाता.’’

‘‘तभी तो इतनी हैंडसम पर्सनैलिटी हैं,’’ कहते हुए सुनीता ने कमिल को ऊपर से नीचे तक देखा.

‘‘अच्छा, चलती हूं. फिर मिलूंगी कमिल…’’ कहते हुए सुनीता के चेहरे पर मुसकान बिखरी नजर आ रही थी.

एक दिन सुनीता अपनी मां के साथ बाजार में कमिल से मिली. उस ने कमिल का परिचय अपनी मां से कराया.

बातोंबातों में सुनीता ने कहा, ‘‘10 तारीख को मुझे भोपाल जाना है… एक  इंटरव्यू है…’’

‘‘अच्छा… बधाई…’’

‘‘अगर ज्यादा बिजी न हो तो चलो तुम भी… शाम को लौट आएंगे…’’ सुनीता ने कहा.

कमिल को अच्छा लगा था. इस बहाने सुनीता से और मेलजोल बढ़ जाएगा और अकेली लड़की को सहारा मिल जाएगा. कमिल ने हामी भर दी.

भोपाल से लौटने के बाद सुनीता और कमिल काफी नजदीक आ चुके थे. आनेजाने के समय बहुत सारी बातें हुईं, एकदूसरे की पसंद को समझ और पहचाना.

लेकिन पिछले कुछ दिनों से सुनीता कुछ अनमनी सी लग रही थी. एक दिन उस ने बोला था, ‘‘कमिल, मैं तुम से शादी करना चाहती हूं… बहुत जल्दी…’’ उस के चेहरे पर तनाव दिखाई दे रहा था.

‘‘देखो, ऐसे फैसले जल्दी में नहीं लिए जाते…’’

‘‘वह मैं नहीं जानती. कमिल, हम जल्दी ही शादी करेंगे. मंदिर में… नहीं… कोर्ट में… तुम अर्जी दे दो, मैं दस्तखत कर देती हूं… तुम न मत कहना प्लीज…’’

कमिल हालात की गंभीरता को जानते हुए भी सहमत हो गया था और उस ने कोर्ट में अर्जी दे दी थी. कोर्ट ने आज की ही तारीख दी थी, पर सुनीता आई ही नहीं.

सुनीता से अचानक बिछड़ने के बाद कमिल का सैलेक्शन सबइंस्पैक्टर के पद पर हो गया था. ट्रेनिंग के बाद वह दूसरे शहर में चला गया था.

उस दिन की घटना से कमिल बहुत मुश्किलों के बाद उबर पाया था. एक ही बात उस के दिमाग में बारबार घूम जाती थी कि सुनीता आखिर आई क्यों नहीं? उस ने खुद ही शादी के लिए जिद की थी, तो उस ने धोखा क्यों दिया? नहीं आ पा रही थी, तो खबर भी दे सकती थी… इस तरह की बातें सोचतेसोचते कमिल की नाराजगी हद से ज्यादा बढ़ जाती थी.

आज सुबह ही कमिल को सूचना मिली थी कि एक लड़की बेहोशी की हालत में रेलवे प्लेटफार्म से कुछ ही दूरी पर पड़ी हुई है. वह दलबल के साथ घटनास्थल पर पहुंचा था. सुनीता को पहचानने में उसे जरा भी मुश्किल नहीं हुई थी.

कमिल ने जल्दीजल्दी कागजी खानापूरी कर के सुनीता को अस्पताल में भरती करा दिया था. वह खुद उस की देखभाल कर रहा था.

जब सुनीता को होश आया, तो उस ने अपने सामने कमिल को खड़ा पाया. वह चौंक गई. उस की आंखों में आंसू आ गए थे. कमिल ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया था.

‘‘अपनेआप को संभालो सुनीता…’’

पर सुनीता रोती रही. जब वह सामान्य हुई, तो उस ने अपनी आपबीती बतानी शुरू कर दी. यह सच है कि सुनीता को नौकरी के लिए इतनी जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं थी, पर जोशजोश में वह एक कंपनी की सेल्सगर्ल बन गई थी. वह सामान की डिलीवरी करती थी, बदले में उसे मोटी तनख्वाह दिए जाने की बात की गई थी. डिलीवरी किस चीज की हो रही है, यह सुनीता ने जानने की कोशिश की, पर उसे नहीं बताया गया.

पर एक दिन सुनीता जान ही गई थी कि वह नशीली दवाओं की डिलीवरी करने के लिए रखी गई है. जब उसे हकीकत का पता चला तो उस ने काम करने से साफ इनकार कर दिया, इस के बाद ही उसे धमकियां मिलने लगी थीं.

सुनीता ने शादी के लिए जो जल्दबाजी दिखाई थी, उस के पीछे भी यही वजह थी. उस दिन वह कोर्ट के लिए समय से पहले ही निकल गई थी. पर कोर्ट पहुंचने से पहले ही उस का अपहरण कर लिया गया था.

चूंकि सुनीता ने घर में एक खत छोड़ दिया था कि वह अपनी मरजी से शादी कर रही है, उसे खोजने की कोशिश न करें, इस नाराजगी में घर के लोगों ने भी उसे खोजने की कोशिश नहीं की.

सुनीता के साथ बहुत जुल्म किए गए थे. कई जगहों पर बंदी बना कर रखा गया था और अब अपहरण करने वाले उसे इस शहर में ले आए थे. पर जब कमिल ने अपने इलाके के अपराधियों पर अंकुश लगाना शुरू किया, तो वे लोग डर के मारे सुनीता को बेहोशी की हालत में छोड़ कर भाग गए.

सुनीता की मदद से कमिल को आरोपियों को खोजने में ज्यादा परेशानी भी नहीं हुई थी. अस्पताल से वह सुनीता को अपने घर ले कर आ गया था.

‘‘आप ने अभी तक शादी नहीं की है शायद…’’ सुनीता ने सवालिया निगाहों से कमिल की ओर देखा.

‘‘उस दिन जब तुम कोर्ट में नहीं आई, तभी मैं ने तय कर लिया था कि अब मैं कभी शादी नहीं करूंगा…’’ कमिल ने बताया. सुनीता खामोश रही.

‘‘मुझ अब समझ आ गया कि तुम ने मुझे धोखा नहीं दिया था.’’

सुनीता ने केवल नजरें उठा कर कमिल की ओर देखा.

‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी… उस दिन वाले वादे के मुताबिक?’’ कमिल ने पूछा.

सुनीता के चेहरे पर मुसकान खिल गई और वह कमिल के गले से लग गई.

आज का इंसान ऐसा क्यों : जिंदगी का है फलसफा

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और दीप जल उठे : कैंसर से जूझती एक मां

ट्रिनट्रिन…फोन की घंटी बजते ही हम फोन की तरफ झपट पड़े. फोन पति ने उठाया. दूसरी ओर से भाईसाहब बात कर रहे थे. रिसीवर उठाए राजेश खामोशी से बात सुन रहे थे. अचानक भयमिश्रित स्वर में बोले, ‘‘कैंसर…’’ इस के बाद रिसीवर उन के हाथ में ही रह गया, वे पस्त हो सोफे पर बैठ गए. तो वही हुआ जिस का डर था. मां को कैंसर है. नहीं, नहीं, यह कोई बुरा सपना है. ऐसा कैसे हो सकता है? वे तो एकदम स्वस्थ थीं. उन्हें कैंसर हो ही नहीं सकता. एक मिनट में ही दिमाग में न जाने कैसेकैसे विचार तूफान मचाने लगे थे. 2 दिनों से जिन रिपोर्टों के परिणाम का इंतजार था आज अचानक ही वह काला सच बन कर सामने आ चुका था.

‘‘अब क्या होगा?’’ नैराश्य के स्वर में राजेश के मुंह से बोल फूटे. विचारों के भंवर से निकल कर मैं भी जैसे यह सुन कर अंदर ही अंदर सहम गई. ‘भाईसाहब से क्या बात हुई,’ यह जानने की उत्सुकता थी. औचक मैं चिल्ला पड़ी, ‘‘क्या हुआ मां को?’’ बच्चे भी यह सुन कर पास आ गए. राजेश का गला सूख गया. उन के मुंह से अब आवाज नहीं निकल रही थी. मैं दौड़ कर रसोई से एक गिलास पानी लाई और उन की पीठ सहलाते, उन्हें सांत्वना देते हुए पानी का गिलास उन्हें थमा दिया. पानी पी कर वे संयत होने का प्रयास करते हुए धीमी आवाज में बोले, ‘‘अरुणा, मां की जांच रिपोर्ट्स आ गई हैं. मां को स्तन कैंसर है,’’ कहते हुए वे फफकफफक कर बच्चों की तरह रोने लगे. हम सभी किंकर्तव्यविमूढ़ उन की तरफ देख रहे थे. किसी के भी मुंह से आवाज नहीं निकली. वातावरण में एक सन्नाटा पसर गया था. अब क्या होगा? इस प्रश्न ने सभी की बुद्धि पर मानो ताला जड़ दिया था. राजेश को रोते हुए देख कर ऐसा लगा, मानो सबकुछ बिखर गया है. मेरा घरपरिवार मानो किसी ऐसी भंवर में फंस गया जिस का कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.

मैं खुद को संयत करते हुए राजेश से बोली, ‘‘चुप हो जाओ राजेश. तुम्हें इस तरह मैं हिम्मत नहीं हारने दूंगी. संभालो अपनेआप को. देखो, बच्चे भी तुम्हें रोता देख कर रोने लगे हैं. तुम इतने कमजोर कैसे हो सकते हो? अभी तो हमारे संघर्ष की शुरुआत हुई है. अभी तो आप को मां और पूरे परिवार को संभालना है. ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जो ठीक न किया जा सके. हम मां को यहां बुलाएंगे और उन का इलाज करवाएंगे. मैं ने पढ़ा है, स्तन कैंसर इलाज से पूरी तरह ठीक हो सकता है.’’

मेरी बातों का जैसे राजेश पर असर हुआ और वे कुछ संयत नजर आने लगे. सभी को सुला कर रात में जब मैं बिस्तर पर लेटी तो जैसे नींद आंखों से कोसों दूर हो गई हो. राजेश को तो संभाल लिया पर खुद मेरा मन चिंताओं के घने अंधेरे में उलझ चुका था. मन रहरह कर पुरानी बातें याद कर रहा था. 10 वर्ष पहले जब शादी कर मैं इस घर में आई थी तो लगा ही नहीं कि किसी दूसरे परिवार में आई हूं. लगा जैसे मैं तो वर्षों से यहीं रह रही थी. माताजी का स्नेहिल और शांत मुखमंडल जैसे हर समय मुझे अपनी मां का एहसास करा रहा था. पूरे घर में जैसे उन की ही शांत छवि समाई हुई थी. जैसा शांत उन का स्वभाव, वैसा ही उन का नाम भी शांति था. वे स्कूल में अध्यापिका थीं.

स्कूल के साथसाथ घर को भी मां ने जिस निपुणता से संभाला हुआ था, लगता था उन के पास कोई जादू की छड़ी है जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देती है. घर के सभी सदस्य और दूरदूर तक रिश्तेदार उन की स्नेहिल डोर से सहज ही बंधे थे. घर में ससुरजी, भाईसाहब, भाभी और दीदी में भी मुझे उन के ही गुणों की छाया नजर आती थी. लगता था मम्मीजी के साथ रहतेरहते सभी उन्हीं के जैसे स्वभाव के हो गए हैं.

इन सारी मधुर स्मृतियों को याद करतेकरते मुझे वह क्षण भी याद आया जब राजेश का तबादला जयपुर हुआ था. मम्मीजी ने एक मिनट भी नहीं सोचा और तुरंत मुझे भी राजेश के साथ ही जयपुर भेज दिया. खुद वे मेरी गृहस्थी जमाने वहां आई थीं और सबकुछ ठीक कर के एक सप्ताह बाद ही लौट गई थीं. यह सब सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. अचानक सवेरे दूध वाले भैया ने दरवाजे की घंटी बजाई तो आवाज सुन कर हड़बड़ा कर मेरी आंख खुली. देखा साढ़े 6 बज चुके थे.

‘अरे, बच्चों को स्कूल के लिए कहीं देर न हो जाए,’ सोचते हुए झपपट पहले दूध लिया. दोनों को तैयार कर के स्कूल भेजतेभेजते दिमाग ने एक निर्णय ले लिया था. राजेश की चाय बना कर उन्हें उठाते हुए मैं ने अपने निर्णय से उन्हें अवगत करा दिया. मेरे निर्णय से राजेश भी सहमत थे. राजेश ने भाईसाहब को फोन किया, ‘‘आप मां को ले कर आज ही जयपुर आ जाइए. हम मां का इलाज यहीं करवाएंगे, लेकिन आप मां को उन की बीमारी के बारे में कुछ भी मत बताना. और हां, कैसे भी उन्हें यहां ले आइए.’’ भाईसाहब भी राजेश से बात कर के थोड़ा सहज हो गए थे और उसी दिन ढाई बजे की बस से रवाना होने को कह दिया.

‘राजेश के साथ पारिवारिक डाक्टर रवि के यहां हो आते हैं,’ मैं ने सोचा, फिर राजेश से बात की. वे राजेश के बहुत अच्छे मित्र भी हैं. हम दोनों को अचानक आया देख कर वे चौंक गए. जब हम ने उन्हें अपने आने का कारण बताया तो उन्होंने हमें महावीर कैंसर अस्पताल जाने की सलाह दी. उसी समय उन्होंने वहां अपने कैंसर स्पैशलिस्ट मित्र डा. हेमंत से फोन कर के दोपहर का अपौइंटमैंट ले लिया. डा. हेमंत से मिल कर कुछ सुकून मिला. उन्होंने बताया कि स्तन कैंसर से डरने की कोई बात नहीं है. आजकल तो यह पूरी तरह से ठीक हो जाता है. आप सब से पहले मुझे यह बताइए कि माताजी की यह समस्या कब सामने आई?

मैं ने बताया कि एक सप्ताह पहले माताजी ने झिझकते हुए मुझे अपने एक स्तन में गांठ होने की बात कही थी तो अंदर ही अंदर मैं डर गई थी. लेकिन मैं ने उन से कहा कि मम्मीजी, आप चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा. जब 4-5 दिनों में वह गांठ कुछ ज्यादा ही उभर कर सामने आई तो मम्मीजी चिंतित हो गईं और उन की चिंता दूर करने के लिए भाईसाहब उन्हें दिखाने एक डाक्टर के पास ले गए. जब डाक्टर ने सभी जांच रिपोर्ट्स देखीं तो कैंसर की पुष्टि की.

सब सुनने के बाद डा. हेमंत ने भी कहा, ‘‘आप तुरंत माताजी को यहां ले आएं.’’ मैं ने उन्हें बता दिया कि वे आज शाम को ही यहां पहुंच रही हैं. डा. हेमंत ने अगले दिन सुबह आने का समय दे दिया. राहत की सांस ले कर हम घर चले आए.

रात साढ़े 8 बजे मम्मीजी भाईसाहब के साथ जयपुर पहुंच गईं. राजेश गाड़ी से उन्हें घर ले आए. आते ही मम्मीजी ने पूछा कि क्या हो गया है उन्हें? तुम ने यहां क्यों बुला लिया? मम्मीजी की बात सुन कर मैं ने सहज ही कहा, ‘‘मम्मीजी, ऐसा कुछ नहीं है. बच्चे आप को याद कर रहे थे और आप की गांठ की बात सुन कर राजेश भी कुछ विचलित हो गए थे, इसलिए मैं ने सामान्य चैकअप के लिए आप को यहां बुला लिया है. आप चिंता न करें, आप बिलकुल ठीक हैं.’’ मेरी बात सुन कर मम्मीजी सहज हो गईं. तभी बच्चों को चुप देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘अरे, नीटूचीनू तुम दूर क्यों खड़े हो? यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्याक्या लाई हूं.’’ बच्चे भी दादी को हंसते हुए देख दौड़ कर उन से लिपट पड़े. ‘‘दादीमां, आप कितने दिनों बाद यहां आई हो. अब हम आप को यहां से कभी भी जाने नहीं देंगे.’’ बच्चों के सहज स्नेह से अभिभूत मम्मीजी उन को अपने लाए खिलौने दिखाने में व्यस्त हो गईं, तो मैं रसोई में उन के लिए चाय बनाने चली गई. इसी बीच राजेश ने भाईसाहब को डा. हेमंत से हुई बातचीत बता दी. अगले दिन सुबह जल्दी तैयार हो कर मम्मीजी राजेश और भाईसाहब के साथ अस्पताल चली गईं.

कैंसर अस्पताल का बोर्ड देख कर मम्मी चौंकी थीं, पर राजेश ने होशियारी बरतते हुए कहा, ‘‘आप पढि़ए, यहां पर लिखा है, ‘भगवान महावीर कैंसर ऐंड रिसर्च इंस्टिट्यूट.’ कैंसर के इलाज के साथ जांचों के लिए यही बड़ा केंद्र है.’’ मां यह बात सुन कर चुप हो गई थीं. अगले 2 दिन जांचों में ही चले गए. इस दौरान उन्हें कुछ शंका हुई, वे बारबार मुझ से पूछतीं, ‘‘तुम ही बताओ, आखिर मुझे हुआ क्या है? ये दोनों भाई तो कुछ बताते नहीं. तुम तो कुछ बताओ. तुम्हें तो सब पता होगा?’’ मैं सहज रूप से कहती, ‘‘अरे, मम्मीजी, आप को कुछ नहीं हुआ है. यह स्तन की साधारण सी गांठ है, जिसे निकलवाना है. डाक्टर छोटी सी सर्जरी करेंगे और आप एकदम ठीक हो जाओगी.’’

‘‘पर यह गांठ कुछ दर्द तो करती नहीं है, फिर निकलवाने की क्या जरूरत है?’’ उन के मुंह से यह सुन कर मुझे सहज ही पता चल गया कि कैंसर के बारे में हमारी अज्ञानता ही इस रोग को बढ़ाती है. मम्मीजी ने तो मुझे यह भी बताया कि उन के स्कूल की एक अध्यापिका ने उन्हें एक वैद्य का पता बताया था जोकि बिना किसी सर्जरी के एक सप्ताह के भीतर अपनी आयुर्वेदिक गोलियों और चूर्ण से यह गांठ गला सकते हैं. मैं ने साफ कह दिया, ‘‘मम्मीजी, हमें इन चक्करों में नहीं पड़ना है.’’ मेरी बात सुन कर वे निरुत्तर हो गईं. जांच रिपोर्ट आने के तीसरे दिन ही डाक्टर ने औपरेशन की तारीख निश्चित कर दी थी. औपरेशन के एक दिन पहले ही रात को मम्मीजी को अस्पताल में भरती करवा दिया गया. राजेश और भाईसाहब मां की जरूरत का सामान बैग में ले कर अस्पताल चले गए.

अगले दिन ब्लडप्रैशर नौर्मल होने पर सवेरे 9 बजे मम्मीजी को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया. हम लोग औपरेशन थिएटर के बाहर बैठ इंतजार कर रहे थे. साढ़े 11 बजे तक मम्मीजी का औपरेशन चला. उन के एक ही स्तन में 2 गांठें थीं. सर्जरी से डाक्टर ने पूरे स्तन को ही हटा दिया.

अचानक ही आईसीयू से पुकार हुई, ‘‘शांति के साथ कौन है?’ सुन कर हम सभी जड़ हो गए. राजेश को आगे धकेलते हुए हम ने जैसेतैसे कहा, ‘‘हम साथ हैं.’’ डाक्टर ने राजेश को अंदर बुलाया और कहा कि औपरेशन सफल रहा है. अब इस स्तन के टुकड़े को जांच के लिए मुंबई प्रयोगशाला में भेजेंगे ताकि यह पता लग सके कि कैंसर किस अवस्था में था. राजेश को उन्होंने कहा, ‘‘आप चिंता नहीं करें, आप की माताजी बिलकुल ठीक हैं. औपरेशन सफलतापूर्वक हो गया है तथा 4 से 6 घंटे बाद उन्हें होश आ जाएगा.’’

राजेश जब बाहर आए तो वे सहज थे. उन को शांत देख कर हमें भी चैन आया. तभी भाईसाहब ने परेशान होते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हें अंदर क्यों बुलाया था?’’ राजेश ने बताया कि चिंता की बात नहीं है. डाक्टर ने सर्जरी कर हटाए गए स्तन को दिखाने के लिए बुलाया था. मम्मीजी बिलकुल ठीक हैं.

शाम को करीब साढ़े 7 बजे मम्मीजी को होश आया. होश आते ही उन्होंने पानी मांगा. भाईसाहब ने उन्हें थोड़ा पानी पिलाया. तब तक दीदी भी बीकानेर से आ चुकी थीं. दीदी आते ही रोने लगीं तो हम ने उन्हें मां के सफल औपरेशन के बारे में बताया. जान कर दीदी भी शांत हो गईं. अगले दिन सुबह मां को आईसीयू से वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उन्हें हलका खाना जैसे खिचड़ी, दलिया, चायदूध देने की इजाजत दी गई थी.

3 दिनों तक तो उन्हें औपरेशन कहां हुआ है, यह पता ही नहीं चला, लेकिन जैसे ही पता चला वे बहुत दुखी हुईं और रोने लगीं. तब मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मम्मीजी, अब चिंता की कोई बात नहीं है. एक संकट अचानक आया था और अब टल चुका है. अब आप एकदम स्वस्थ हैं.’’ 10 दिनों तक हम सभी हौस्पिटल के चक्कर लगाते रहे. मम्मीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई तो फिर घर आ गए. घर पहुंच कर हम सभी ने राहत की सांस ली. भाईसाहब और दीदी को हम ने रवाना कर दिया. मां भी तब तक थोड़ा सहज हो गई थीं. अब उन्हें कैंसर के बारे में पता चल चुका था और वे समझ चुकी थीं कि औपरेशन ही इस का इलाज है.

एक महीने में उन के टांके सूख गए थे और हम ने हौस्पिटल जा कर उन के टांके कटवाए, क्योंकि वे एक मोटे लोहे के तार से बंधे थे. डाक्टर ने मम्मीजी का हौसला बढ़ाया तथा उन्हें बताया कि अब आप बिलकुल ठीक हैं. आप ने इस बीमारी का पहला पड़ाव सफलतापूर्वक पार कर लिया है. पहले पड़ाव की बात सुन कर हम सभी चौंक गए. ‘‘डाक्टर ये आप क्या कह रहे हैं?’’ राजेश ने जब डाक्टर से पूछा तो उन्होंने बताया कि आप की माताजी का औपरेशन तो अच्छी तरह हो गया है, लेकिन भविष्य में यह बीमारी फिर से उभर कर सामने न आए, इसलिए हमें दूसरे चरण को भी पार करना होगा और वह दूसरा चरण है, कीमोथेरैपी?

‘‘कीमोथेरैपी,’’ हम ने आश्चर्य जताया. डाक्टर ने बताया कि कैंसर अभी शुरुआती दौर में ही है. यह यहीं समाप्त हो जाए, इस के लिए हमें कीमोथेरैपी देनी होगी. कैंसर के कीटाणु के विकास की थोड़ीबहुत आशंका भी अगर हो तो उसे कीमोथेरैपी से खत्म कर दिया जाएगा. डाक्टर ने बताया कि आप की माताजी के टांके अब सूख चुके हैं. सो, ये कीमोथेरैपी के लिए बिलकुल तैयार हैं. अब आप इन्हें कीमोथेरैपी दिलाने के लिए 4 दिनों बाद यहां ले आएं तो ठीक रहेगा. पता चला, मां को कीमोथेरैपी दी जाएगी.

कैंसर में दी जाने वाली यह सब से जरूरी थेरैपी है. 4 दिनों बाद मैं और राजेश मां को ले कर हौस्पिटल पहुंचे. 9 बजे से कीमोथेरैपी देनी शुरू कर दी गई. थेरैपी से पहले मां को 3 दवाइयां दी गईं ताकि थेरैपी के दौरान उन्हें उलटियां न हों. 2 बोतल ग्लूकोज की पहले, फिर कैंसर से बचाव की वह लाल रंग की बड़ी बोतल और उस के बाद फिर से 3 बोतल ग्लूकोज की तथा एक और छोटी बोतल किसी और दवाई की ड्रिप द्वारा मां को चढ़ाई जा रही थीं. धीरेधीरे दी जाने वाली इस पहली थेरैपी के खत्म होतेहोते शाम के 7 बज चुके थे. मैं अकेली मां के पास बैठी थी. शाम को औफिस से राजेश सीधे हौस्पिटल ही आ गए थे.

रात को 8 बजे हम तीनों घर पहुंचे. थेरैपी की वजह से मम्मीजी का सिर चकरा रहा था. हलका खाना खा कर वे सो गईं. अब अगली थेरैपी उन्हें 21 दिनों के बाद दी जानी थी. पहली थेरैपी के बाद ही उन के घने लंबे बाल पूरी तरह झड़ गए. यह देख कर हम सभी काफी दुखी हुए. बाल झड़ने के कारण मां पूरे समय अपने सिर को स्कार्फ से ढक कर रखती थीं. कई बार मां इस दौरान कहतीं, ‘‘कैंसर के औपरेशन में इतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी इस थेरैपी से हो रही है.’’

मैं उन को ढाढ़स बंधाती, ‘‘मम्मीजी, आप चिंता मत करो, यह तो पहली थेरैपी है न, इसलिए आप को ज्यादा तकलीफ हो रही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’ थेरैपी के प्रभाव के फलस्वरूप उन की जीभ पर छाले उभर आए. पानी पीने के अलावा कोई चीज वे सहज रूप से नहीं खापी पाती थीं. यह देख कर हम सभी को बहुत कष्ट होता था. उन के लिए बिना मिर्च, नमक का दलिया, खिचड़ी बनाने लगी, ताकि वे कुछ तो खा सकें. फलों का जूस भी थोड़ाथोड़ा देती रहती थी ताकि उन को कुछ राहत मिले. इस तरह 21-21 दिन के अंतराल में उन की सभी 6 थेरैपी पूरी हुईं.

हालांकि ये थेरैपी मम्मीजी के लिए बहुत कष्टकारी थीं लेकिन हम सभी यही सोचते थे कि स्वास्थ्य की तरफ मां का यह दूसरा चरण भी सफलतापूर्वक संपन्न हो जाए, तो अच्छा है. जिस दिन अंतिम थेरैपी पूरी हुई तो मां के साथ मैं ने और राजेश ने भी राहत की सांस ली. जब डाक्टर से मिलने उन के कैबिन में गए तो खुश होते हुए डाक्टर ने हमें बधाई दी, ‘‘अब आप की माताजी बिलकुल स्वस्थ हैं. बस, वे अपने खानेपीने का ध्यान रखें. पौष्टिक भोजन, फल, सलाद और जूस लेती रहें. सामान्य व्यायाम, वाकिंग करती रहें, तो अच्छा होगा.’’ इस के साथ ही डाक्टर ने हमें यह हिदायत विशेषरूप से दी कि जिस स्तन का औपरेशन हुआ है उस तरफ के हाथ पर किसी तरह का कोई कट नहीं लगने पाए. डाक्टर से सारी हिदायतें और जानकारी ले कर हम घर आ गए. अब हर 6 महीने के अंतराल में मां की पूरी जांच करवाते रहना जरूरी था ताकि उन का स्वास्थ्य ठीक रहे और भविष्य में इस तरह की कोई परेशानी सामने न आए. एक महीने आराम के बाद मम्मीजी वापस बीकानेर लौट गई थीं.

6 साल हो गए हैं. अब तो डाक्टर ने जांच भी साल में एक बार कराने के लिए कह दिया. मम्मीजी का जीवन दोबारा उसी रफ्तार और क्रियाशीलता के साथ शुरू हो गया. आज मम्मीजी अपने स्कूल और महल्ले में सब की प्रेरणास्रोत हैं. आज वे पहले से भी अधिक ऐक्टिव हो गई हैं. अब वे 2 स्तरों पर अध्यापन करवाती हैं- एक अपने स्कूल में और दूसरे कैंसर के प्रति सभी को जागरूक व सजग रहने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न देख कर मेरे साथ पूरा परिवार और रिश्तेदार सभी फिर से उन के स्नेह की छत्रछाया में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं.

दूध की धुली : नासमझी में उठाया गया कैसा कदम

पृथ्वी सड़क के किनारे चुपचाप चल रहा है. संगीता हरे रंग का सूट पहने हुए है, उस का चेहरा पीला पड़ गया है. हाथों में जेवर की पोटली और किताबों का बैग है. संगीता चलतचलते सरसरी निगाह से पृथ्वी को देख रही है. जब बाजार समाप्त हो गया, तो दोनों पासपास आ गए और एक रिकशे में बैठ कर स्टेशन की ओर चल दिए.

संगीता बोली, ‘‘मुझे बहुत डर लग रहा है.’’

पृथ्वी बोला, ‘‘जब मैं हूं तब किस बात का डर. एक बात बताओ, रास्ते में तुम्हें कोई जानने वाला तो नहीं मिला?’’

संगीता ने कहा, ‘‘नहीं, एक लड़की मिली थी. परंतु तब तुम मेरे से दूर थे. मातापिता परेशान होंगे, मैं उन से कह कर आई थी कि कालेज जा रही हूं. न जाने दिल क्यों इतना घबरा रहा है?’’

पृथ्वी ने आश्वासन दिया, ‘‘डरने की क्या बात है, ट्रेन में बैठ कर सीधे मुंबई पहुंच जाएंगे. एक दिन का तो सफर है. वहां बिलकुल अपरिचित लोग होंगे. बस, मैं और तुम. वहां जा कर एक होटल में ठहर जाएंगे. वैसे भी हमारे घर वालों को, हम पर किसी तरह का शक थोड़े ही हुआ होगा.

संगीता घबराती हुई बोली, ‘‘मुझे घर पर न पा कर मम्मीपापा कितने परेशान होंगे, बहुत डर लग रहा है. पता नहीं क्यों?’’

पृथ्वी हंसते हुए बोला, ‘‘सब से पहले तो तुम्हारे कालेज में पूछताछ होगी. बहरहाल, यह गहने कैसे ले कर आ पाई?’’

‘‘मुझे जगह पता थी. रात को ही अलमारी खोल कर निकाल लिए थे. अलमारी का ताला बंद कर दिया है,’’ संगीता ने बताया.

रिकशा वाला सब सुन रहा था. उन्होंने स्टेशन के लिए 50 रुपए में रिकशा तय किया था. जब स्टेशन आया तो रिकशा वाला हेकड़ी से बोला, ‘‘मैं तो 500 रुपए लूंगा.’’

‘‘500 रुपए,’’ दोनों एकसाथ बोले, ‘‘500 रुपए किस बात के?’’

‘‘चुपचाप 500 रुपए दे दो वरना अभी पुलिस को बुलाता हूं,’’ रिकशे वाले ने कहा.

पृथ्वी ने चुपचाप जेब से 500 रुपए निकाल कर दे दिए. संगीता घबरा रही थी. जल्दीजल्दी पृथ्वी ने मुंबई के फर्स्टक्लास के 2 टिकट ले लिए. टिकट ले कर तेजी से दोनों ट्रेन के फर्स्टक्लास के डब्बे में जा कर बैठ गए और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

संगीता ने रोते हुए कहा, ‘‘अब तो मुझे और भी ज्यादा डर लग रहा है.’’

पृथ्वी ने समझाया,  ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. फियर इंस्टिंक्ट एक चीज है. लिखने वाले ने तो यह भी लिखा है कि… मगर… खैर छोड़ो… हां, तुम्हारी जरा सी घबराहट ने रिकशा वाले को 500 रुपए का फायदा करा दिया. यदि तुम रिकशे में यह बात न बोलती तो ऐसा कुछ भी न होता. मुझे कुछ नहीं कहना. मगर दुख है तो सिर्फ इस बात का कि मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी और रिकशे वाला मुझे लूट कर चला गया.’’

बाहर दरवाजे पर खटखट हुई, दोनों ने एकदूसरे को डरते हुए देखा. पृथ्वी बोला, ‘‘साले ने 500 रुपए ले कर भी पुलिस को खबर कर दी.’’

संगीता घबराहट के मारे कांप रही थी, वह बोली, ‘‘अब क्या होगा?’’

‘‘चुपचाप देखती रहो, मुझ पर विश्वास रखो. पीछे के दरवाजे से उतर कर किसी दूसरे डब्बे में बैठ जाते हैं,’’ कह कर पृथ्वी ने पिछला दरवाजा खोला और दोनों उतर कर चल दिए. परंतु दूसरे किसी डब्बे में नहीं बैठ पाए, क्योंकि किसी भी डब्बे का दरवाजा खुला हुआ नहीं था. दोनों चुपचाप प्लेटफौर्म पर चलने लगे.

‘‘अपना किताबों का यह बैग तो छोड़ दो,’’ पृथ्वी ने संगीता से कहा.

एक सिपाही घूमता हुआ उधर ही आ रहा था. संगीता ने जल्दी से अपना बैग एक मालगाड़ी के डब्बे में रख दिया. सिपाही इतने में पास आ कर पृथ्वी से बोला, ‘‘आप लोग कहां जाएंगे?’’

पृथ्वी बोला, ‘‘हम तो ऐसे ही घूमने चले आए हैं. अब जा रहे हैं.’’

‘‘मगर आप की गाड़ी तो छूटने वाली है. आप ने फर्स्टक्लास का टिकट बुक कराया था,’’ सिपाही अपनी बात पर जोर देते हुए बोला.

‘‘ऐ मिस्टर, मैं ने कहीं का भी टिकट बुक कराया हो आप को इस से क्या लेनादेना. बोलो, क्या कर लोगे तुम? कौन होते हो यह सब पूछने वाले?’’

‘‘अरे भाई, गुस्सा क्यों होते हो? मैं तो सेवक हूं आप का. जब 50 रुपए की जगह 500 रुपए रिकशे वाले को दे सकते हो, तो हुजूर, थोड़ा सा ईनाम हमें भी मिल जाए.’’

पृथ्वी पूरी बात समझ गया. उसे 500 रुपए का नोट देते हुए बोला, ‘‘हांहां, तुम भी लो.’’ सिपाही रुपए ले कर चला गया. संगीता बोली,  ‘‘हमारे मन में चोर है न, इसलिए हम हर बात से डरते हैं. चलो, फिर वापस चलते हैं.’’

‘‘बेकार में डरडर कर इधरउधर भटकते रहें, क्या फायदा,’’ पृथ्वी ने खीझते हुए कहा, ‘‘बेकार ही कंपार्टमैंट से आए. चलो, वापस वहीं चलते हैं.’’

दोनों तेजी से दौड़े परंतु कंपार्टमैंट में घुसने से पहले ही एक और पुलिस वाला आया और बोला,  ‘‘अरे, झगड़ा बढ़ाने से क्या फायदा, हम सब को 1000-1000 रुपए दो और मौज करो,’’ और हाहा कर हंसने लगा.

संगीता तो डर के मारे बुरी तरह से कांप रही थी. पृथ्वी बोला, ‘‘मैं कोई ईनाम वगैरा नहीं दूंगा. मैं ने कोई दानखाता खोल रखा है क्या? मैं आप लोगों की फितरत समझ रहा हूं.’’

‘‘देखिए साहब, आप पढ़ेलिखे मालूम पड़ते हैं. आओ, पहले डब्बे में बैठ जाएं. यहां भीड़ इकट्ठी हो जाएगी और आप की बदनामी होगी. जब दोनों कंपार्टमैंट में चढ़ गए तो पुलिस वाला भी पीछेपीछे पहुंच गया और बोला, ‘‘थोड़ी देर के लिए आप थाने चलिए.’’

‘‘मैं किसी थानेवाने नहीं जाऊंगा. मेरी गाड़ी छूट जाएगी,’’ गुस्से से पृथ्वी ने कहा.

‘‘देखिए भाईसाहब, अब आप इस गाड़ी से तो नहीं जा सकते. मैं ने तो पहले ही आप से कहा था कि आप हमारे साहब की सेवा में 1000 रुपए दे दीजिए.’’ अब की बार साहब भी उसी कंपार्टमैंट में आ गए, बोले,  ‘‘क्यों बे शकीरा के बच्चे, जाओ, हथकड़ी ले कर आओ. यह लड़का इस लड़की को भगा कर लिए जा रहा है. इस को गिरफ्तार कर के हवालात में बंद कर दो.’’

पृथ्वी ने 2-2 हजार रुपए के 5 नोट निकाल कर उन के हाथ में थमा दिए. बड़े साहब उन नोटों को जेब में रखते हुए बोले, ‘‘अच्छा सर, चलिए, बिना हथकड़ी लगाए ही आप को ले कर चलते हैं.’’

अब पृथ्वी बोला, ‘‘अब मैं थाने क्यों जाऊं. मैं ने 10,000 रुपए किस बात के दिए हैं?’’

‘‘देखो लड़के, यह 10,000 रुपए मैं ने सिर्फ इस बात के लिए हैं कि तुम्हें थाने हथकड़ी डाल कर न ले कर जाऊं.’’

संगीता बहुत देर से साहस जुटा रही थी, बोली, ‘‘देखिए, मैं अपनी मरजी से जा रही हूं. आप बेकार में हमें परेशान मत कीजिए.’’

‘‘हांहां मुन्नी, मैं भी तो यही कह रहा हूं, थाने चल कर थोड़ी देर बैठिएगा. वहीं आप के मम्मीपापा को बुलाया जाएगा. तब जैसा होगा, कर दिया जाएगा और उस सूरत में आप इसी ट्रेन से शाम को जा सकते.’’ तभी पहला सिपाही भी आ गया और बैग देते हुए बोला, ‘‘संगीताजी, आप का बैग. आप ने मालगाड़ी में छोड़ दिया था.’’

संगीता ने बैग हाथ में ले लिया. उस के बाद दोनों चुपचाप नीचे प्लेटफौर्म पर उतर गए. पृथ्वी ने पुलिस अफसर से इजाजत मांगी कि वह संगीता से एकांत में कुछ बात कर ले. उस पर पुलिस वाले ने कहा, ‘‘हांहां, जरूर कर लीजिए.’’ और थोड़ी दूर जा कर खड़ा हो गया. आसपास काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी. पृथ्वी काफी परेशान था, बोला, ‘‘अब क्या होगा?’’

‘‘मुझे मेरे घर या कालेज भेज दीजिए,’’ संगीता ने रोते हुए कहा.

‘‘घर मैं भी जाना चाहता हूं, लेकिन ये कमीने आसानी से पीछा नहीं छोड़ रहे.’’

‘‘कोई ऐसी तरकीब निकालें, जिस से पिताजी को पता न चले,’’ संगीता ने पृथ्वी से घबराते हुए कहा.

‘‘कोशिश तो ऐसी ही करूंगा. मेरा विचार है कि जितना भी रुपया है, इन्हें दे दिया जाए और यहां से वापस चलते हैं. यहां अगर हमें किसी ने पहचान लिया तो मुसीबत हो जाएगी.’’ इस बीच, सिपाही बोला, ‘‘चलिए साहब, थाने.’’

‘‘इंस्पैक्टर साहब, हम से गलती हुई है. अब हम वापस जा रहे हैं,’’ संगीता ने इंस्पैक्टर साहब को अपनी पोटली दे दी.

पृथ्वी का साथ दम तोड़ चुका था. संगीता निर्जीव सी सब कार्य कर रही थी. इसी झगड़े में 11 बज गए. संगीता एक रिकशे पर बैठ कर कालेज चली गई. पृथ्वी दूसरे रिकशे पर बैठ कर अपने घर चला गया. शकीरा ने इंस्पैक्टर से पूछा, ‘‘अगर इन लोगों ने अपने मांबाप को बता दिया तो क्या होगा?’’

‘‘तू गधा है. क्या वे अपने मांबाप को यह बताएंगे कि हम भाग रहे थे. फिर मैं तो उन को जानता भी नहीं. हमें कोई कुछ क्यों बताएगा या देगा?’’

शाम को 4 बजे जब संगीता घर पहुंची तो उस का चेहरा उतरा हुआ था. फिर भी वह हंस रही थी. कहने लगी, ‘‘मम्मी, आज तो कालेज में यह हुआ वह हुआ.’’ उस के बाद कमरे में अकेली जा कर लेट गई और सोचने लगी, ‘अब क्या होगा, कैसे होगा?’

संगीता को कड़वा लग रहा था. उस ने अधिक नहीं खाया. बस, एक ही सवाल उस के जेहन में घूम रहा था, ‘कैसे होगा?’

अलमारी की तरफ अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया था.

कैसे होगा? शाम को उस की सहेली आ गई थी. उस ने बताया, ‘‘आज उस के कालेज में फिजिक्स के पीरियड में सब लड़कियां खिड़कियों पर चढ़ गईं और जब फिजिक्स की टीचर आईं, तो उन के कहने पर नीचे उतरीं.’’ संगीता ने कुछ नहीं सुना. बस, उस का दिल घबरा रहा था, ‘अब क्या होगा, कैसे होगा?’

रात को उसे नींद भी नहीं आई. पुलिस, भीड़, रेलवे स्टेशन, बैग, गहने, पोटली बराबर दिमाग में घूम रहे थे और एक ही सवाल बारबार दिमाग में हथियार के जैसे प्रहार कर रहा था, अब कैसे होगा?’

2 बजे रात चुपके से संगीता उठी. उस ने छिपाई हुई चाबी को हाथ में ले कर अलमारी का दरवाजा खोल दिया. बचे हुए गहनों को तितरबितर कर दिया. एक हार पोटली में से जमीन पर डाल दिया. कपड़े आंगन में फैला दिए. दरवाजे की चटकनी खोल दी और फिर जा कर अपने बैड पर लेट गई. दिमाग में एक ही बात हथौड़े जैसे प्रहार कर रही थी कि अब क्या होगा?

सुबह होते ही अड़ोसपड़ोस में शोर मचा हुआ था कि रामप्रकाश के घर में चोरी हो गई. चोर अलमारी खोल कर कुछ लाख रुपए और गहने ले गए हैं. शायद किसी आवाज से डर गए थे. इसलिए सारे गहने ले कर नहीं गए. रामप्रकाश ने लोगों को बताया कि बड़े कमाल की बात है. उन चोरों ने बाहर का दरवाजा कैसे खोला? समझ में नहीं आ रहा है. मैं तो रात को सबकुछ देख कर सोता हूं और सब से बड़ी बात, वे सारे गहने ले कर नहीं गए. यों समझो कि भारी नुकसान होने से बच गए.

चोरी की सूचना पुलिस को दी गई. वहां से एक इंस्पैक्टर और 2 सिपाही जांचपड़ताल के लिए आए. उन्होंने दरवाजे को गौर से देखा. वह अलमारी भी देखी. अलमारी की चाबी भी देखी. लेकिन संगीता को देखते ही पहचान गए. संगीता भी उस पुलिस औफिसर और सिपाही को पहचान गई. तब पुलिस वाले ने संगीता की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘यह काम तो किसी घर वाले का ही लगता है.’’

इस पर संगीता की आंखें, पुलिस वाले की आंखों से जा मिलीं. उन में याचना थी. पुलिस वाले ने घर के चारों और देखा और बोला, ‘‘कोई किराएदार ऊपर रहता है क्या?’’

‘‘नहीं साहब,’’ राम प्रकाश ने कहा.

‘‘यह घर के आदमी का काम नहीं हो सकता. मेरा एक लड़का 8 साल का है. एक लड़की है, जो दूध की जैसी धुली हुई है. मैं हूं. मेरी पत्नी है. यह सच्ची बात है कि दरवाजा बाहर से ही खुला है. मगर कमाल है, साहब,’’ राम प्रकाश बोला.

पुलिस वाले ने कहा, ‘‘चोरी का पता लगाने की पूरी कोशिश की जाएगी. मगर मेरी सलाह मानिए, आप अपना जेवरपैसा. अब अलमारी में न रख कर, बैंक में रखें. हो सकता है चोर दोबारा चोट करे.’’

पुलिस वाले ने वहीं बैठ कर रिपोर्ट तैयार की. वहां उपस्थित लोगों के हस्ताक्षर लिए. पुलिस वाले के साथ आए सिपाही ने जाते हुए सरकारी निगाह से संगीता की तरफ देखा और बोला, ‘दूध की धुली’ और लंबी सी डकार लेता हुआ दरवाजे से बाहर निकल गया.

इंसाफ का अंधेरा: 5 कैदियों ने रचा जेल में कैसा खेल – भाग 3

‘‘4 घंटे की ड्यूटी में कोई एक पुलिस वाला अंदर का गेट पार कर के पेशाब के लिए तो जाएगा ही. हमें उसी समय अंदर का गेट बंद कर देना है. एक सिपाही रहेगा. बहुत आसानी रहेगी. और अगर किसी तरह हम मेन गेट के संतरी को अपने काम करने वाले कमरे तक ला सके और उसे किसी तरह कमरे में बंद कर दिया तो हमें ज्यादा समय मिल सकता है. बोलो, तैयार हो?’’

सब ने सहमति जताई. यह योजना बाकी चारों को बहुत पसंद आई थी. वे अब बारीक निगाहों से समय का, गेट के संतरी का, चाबी का, इमर्जैंसी सायरन पर ध्यान देने लगे थे.

इधर बूढ़े बाप के शरीर में अब इतनी ताकत नहीं थी कि वह चलफिर सके. बेटे की जिंदगी को ले कर जो इच्छाएं मन में थीं, वे तो खत्म होने के कगार पर थीं. बस यही आखिरी इच्छा थी कि मरने से पहले बेटा कैद से बाहर आ जाए.

बाप को बेटे की शादी की तो उम्मीद नहीं थी. कौन देगा जेल गए बेटे को अपनी लड़की? खेतीबारी बिक चुकी थी. मजदूरी करने की शरीर में ताकत नहीं थी. इस बुढ़ापे में वह मंदिर के पास पड़ा रहता. वकील से भी बहुत पहले कह दिया था कि हाईकोर्ट का जो फैसला हो, खबर भेज देना. वकील की एकमुश्त फीस दी जा चुकी थी.

आज मौका मिल ही गया उन पांचों को. दोपहर 2 बजे एक संतरी ने अपने साथ ड्यूटी करने वाले संतरी से कहा, ‘‘मैं हलका हो कर आता हूं.’’

जैसे ही उन्हें अंदर का गेट खोलने की आवाज आई, वे पांचों फुरती से बाहर निकले. एक ने दौड़ कर अंदर का गेट बंद किया. 2 लोग कैंची अड़ा कर संतरी को अंदर कमरे में ले गए. जो कपड़े सिल कर तैयार थे, उन्होंने पहन लिए थे. उस ने चाबी छीन कर मेन गेट पर लगाई.

एक कैदी ने इमर्जैंसी सायरन बंद करने की कोशिश की, लेकिन बात बन नहीं पाई. मेन गेट खुलते ही उस ने बाकी चारों से कहा, ‘‘जल्दी निकलो,’’ और वे तेज कदमों से बाहर की ओर बढ़े.

किसी काम से आते हुए एक संतरी ने उन्हें देख लिया. उसे हैरानी हुई. उस ने सोचा, ‘शायद पांचों की जमानत हो गई है या हाईकोर्ट से बरी हो गए हैं. लेकिन इन्हें तो शाम को छोड़ा जाता…’

उसे कुछ शक हुआ. वह तेजी से जेल की तरह बढ़ा. मेन गेट का दरवाजा खुला हुआ था और अंदर से दोनों संतरियों के चीखने की आवाजें आ रही थीं.

वह संतरी अंदर गया. उस ने अंदर के गेट का दरवाजा खोला. दोनों ने सारी बातें बताईं और तुरंत इमर्जैंसी सायरन के स्विच पर उंगली रखी.

सायरन की आवाज उन पांचों के कानों में पड़ी. वे मेन सड़क तक आ चुके थे. उन्होंने सामने से आती हुई बस देखी और बस के पीछे लटक गए. बसस्टैंड के आने से पहले ही वे पांचों अलगअलग हो गए.

उस ने पहले गांव जाने पर विचार किया, फिर तुरंत अपना इरादा बदला. वह पैदल ही शहर की भीड़भाड़ से गुजरते हुए आगे बढ़ता रहा. वह कहां जा रहा था, उसे खुद पता नहीं था.

वह शहर के बाहर चलते हुए खेतखलिहानों को पार करते हुए एक पहाड़ी पर पहुंचा. पहाड़ी पर एक उजाड़ सा मंदिर बना हुआ था. वह वहीं एक पत्थर पर बैठ गया. उसे नींद आई या वह बेहोश हो गया.

अचानक उस की नींद खुल गई. उसे कुछ खतरे का आभास हुआ. उस ने उजाड़ मंदिर की दीवार की आड़ से देखा. दर्जनभर हथियारबंद पुलिस वाले उसे तेजी से अपनी तरफ बढ़ते हुए दिखाई दिए. वह भागा. नीचे गहरी खाई थी. बड़ीबड़ी चट्टानों के बीच बहती हुई नदी थी. सिपाही उस पर बंदूकें ताने हुए थे.

एक सबइंस्पैक्टर था. उस ने उसे अपनी रिवौल्वर के निशाने पर लेते हुए कहा, ‘‘बचने का कोई रास्ता नहीं है. रुक जाओ, नहीं तो मारे जाओगे.’’

उस ने अपनेआप को पहाड़ से नीचे गिरा दिया. सैकड़ों फुट की ऊंचाई से गिरता हुआ वह पथरीली चट्टान से टकराया. तत्काल उस की मौत हो गई.

जेल से भागने के एक घंटे पहले ही हाईकोर्ट ने उसे बाइज्जत बरी कर दिया था. उस की रिहाई के आदेश जारी कर दिए गए थे. बूढ़े बाप तक वकील ने खुद गांव जा कर खबर सुनाई.

पर थोड़ी देर में गांव की चौकी से एक पुलिस वाले ने आ कर उस से कहा, ‘‘तुम्हारा बेटा 4 लोगों के साथ जेल तोड़ कर भागा था. 3 पकड़े गए हैं. एक भागते हुए ट्रक के नीचे आ गया और तुम्हारे बेटे ने पुलिस से बचने के लिए पहाड़ी से छलांग लगा दी और मर गया.’’

कुछ देर तक बाप सकते में रहा, फिर उस ने अपनेआप से कहा, ‘‘मेरी चिंता खत्म. आज सचमुच रिहा हो गया मेरा बेटा और मैं भी.’’ बाप भी लड़खड़ा कर गिर पड़ा और फिर दोबारा न उठ सका.

अधूरा प्यार : जुबेदा ने अशोक के सामने कैसी शर्त रखी- भाग 3

‘‘क्यों शर्मिंदा कर रही हो… इतना महंगा गिफ्ट मेरी हैसियत से बाहर की बात है.’’

जुबेदा बोली, ‘‘ऐसा कुछ भी नहीं है. यह तो पर्सनली तुम्हारे लिए है. मां ने कहा है कि जाने से पहले तुम्हारे भाई और बहन के लिए भी कुछ देना है…तुम्हें गिफ्ट पसंद आया या नहीं?’’

मैं ने कहा, ‘‘पसंद न आने का सवाल ही नहीं है. इतने सुंदर और कौस्टली गिफ्ट की तो मैं सपने में भी कल्पना नहीं कर सकता हूं.’’

‘‘खैर, बातें न बनाओ. मां ने कल दुबई मौल में मिलने को कहा है. मैं भी रहूंगी. गाड़ी भेज दूंगी, आ जाना.’’

अगले दिन शनिवार को जुबेदा ने गाड़ी भेज दी. मैं दुबई मौल में जुबेदा और उस की मां के साथ बैठा था. उस की मां ने मेरे पूरे परिवार के बारे में पूछा. फिर मौल से ही मेरे भाईबहन के लिए गिफ्ट खरीद कर देते हुए कहा, ‘‘तुम बहुत अच्छे लड़के हो. जुबेदा भी तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकती है. अभी तो तुम्हारी शादी नहीं हुई है. अगर तुम्हें दुबई में अच्छी नौकरी मिले तो क्या यहां सैटल होना चाहोगे?’’

उन का अंतिम वाक्य मुझे कुछ अजीब सा लगा. मैं ने कहा, ‘‘दुबई बेशक बहुत अच्छी

जगह है, पर मेरे अपने लोग तो इंडिया में ही हैं. फिर भी वहां लौट कर सोचूंगा.’’

जुबेदा मेरी ओर प्रश्नभरी आंखों से देख रही थी. मानो कुछ कहना चाहती हो पर बोल नहीं पा रही थी. मौल से निकलने से पहले एक मिनट के लिए मुझ से अकेले में कहा कि उसे मेरे दुबई में सैटल होने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए. खैर अगले दिन रविवार को मैं इंडिया लौट गया.

मेरे इंडिया पहुंचने के कुछ घंटों के अंदर ही जुबेदा ने मेरे कुशल पहुंचने की जानकारी ली. कुछ दिनों के अंदर ही फिर जुबेदा का फोन आया, बोली, ‘‘अशोक, तुम ने क्या फैसला लिया दुबई में सैटल होने के बारे में?’’

मैं ने कहा, ‘‘अभी तक कुछ नहीं सोचा… इतनी जल्दी यह सोचना आसान नहीं है.’’

‘‘अशोक, यह बात तो अब तक तुम भी समझ गए हो कि मैं तुम्हें चाहने लगी हूं. यहां तक कि मेरे मातापिता भी यह समझ रहे हैं. अच्छा, तुम साफसाफ बताओ कि क्या तुम मुझे नहीं चाहते?’’ जुबेदा बोली.

मैं ने कहा, ‘‘हां, मैं भी तुम्हें चाहता हूं. पर हर वह चीज जिसे हम चाहते हैं, मिल ही जाए जरूरी तो नहीं?’’

‘‘पर प्रयास तो करना चाहिए अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए,’’ जुबेदा बोली.

‘‘मुझे क्या करना होगा तुम्हारे मुताबिक?’’ मैं ने पूछा.

‘‘तुम्हें मुझ से निकाह करना होगा. इस के लिए तुम्हें सिर्फ एक काम करना होगा. यानी इसलाम कबूल करना होगा. बाकी सब यहां हम लोग संभाल लेंगे. और हां, चाहो तो अपने भाई को भी यहां बुला लेना. बाद में उसे भी अच्छी नौकरी दिला देंगे.’’

‘‘इस्लाम कबूल करना जरूरी है क्या? बिना इस के नहीं हो सकता है निकाह?’’

‘‘नहीं बिना इसलाम धर्म अपनाए यहां तुम मुझ से शादी नहीं कर सकते हो. तुम ने देखा है न कि मां के लिए मेरे पिता को भी हमारा धर्म स्वीकार करना पड़ा था. उन को यहां आ कर काफी फायदा भी हुआ. प्यार में कंप्रोमाइज करना बुरा नहीं.’’

‘‘सिर्फ फायदे के लिए ही सब काम नहीं किया जाता है और प्यार में कंप्रोमाइज से बेहतर सैक्रिफाइस होता है. मैं दुबई आ सकता हूं, तुम से शादी भी कर सकता हूं, पर मैं भी मजबूर हूं, अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं… मैं एक विकल्प दे सकता हूं… तुम इंडिया आ सकती हो… यहां शादी कर सैटल हो सकती हो. मैं तुम्हें धर्म बदलने को मजबूर नहीं करूंगा. धर्म की दीवार हमारे बीच नहीं होगी.’’

‘‘नहीं, मेरे मातापिता इस की इजाजत नहीं देंगे. मेरी मां भी और मैं भी अपने मातापिता की एकलौती संतान हैं. हमारे यहां बड़ा बिजनैस और प्रौपर्टी है. फिर वैसे भी मुझे दूसरे धर्म के लड़के से शादी करने की न तो इजाजत मिलेगी और न ही इस की हिम्मत है मुझ में,’’ जुबेदा बोली.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे औफर में किसी को धर्म बदलने की आवश्यकता नहीं होगी. मैं तुम्हें इंडिया में सारी खुशियां दूंगा. मेरा देश बहुत उदार है. यहां सभी धर्मों के लोग अमनचैन से रह सकते हैं, कुछ सैक्रिफाइस तुम करो, कुछ मैं करता हूं पर मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं.’’

‘‘तो यह तुम्हारा अंतिम फैसला है?’’

‘‘सौरी. मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं. मैं सोच रहा हूं कि जब अगली बार दुबई आऊंगा तुम्हारी हीरे की अंगूठी वापस कर दूंगा. इतनी कीमती चीज मुझ पर कर्ज है.’’

‘‘अशोक, प्लीज बुरा न मानो. इस अंगूठी को बीच में न लाओ. हमारी शादी का इस से कोई लेनादेना नहीं है. डायमंड आर फौर एवर, यू हैव टु कीप इट फौरएवर. इसे हमारे अधूरे प्यार की निशानी समझ कर हमेशा अपने साथ रखना. बाय टेक केयर औफ योरसैल्फ.’’

‘‘तुम भी सदा खुश रहो… यू टू टेक केयर औफ योरसैल्फ.’’

‘‘थैंक्स,’’ इतना कह कर जुबेदा ने फोन काट दिया. यह जुबेदा से मेरी आखिरी बात थी. उस की दी हुई हीरे की अंगूठी अभी तक मेरे पास है. यह हमारे अधूरे प्यार की अनमोल निशानी है.

खुशी का गम : पति ने किया खिलवाड़ – भाग 3

अब व्यापार के काम के बहाने मैं हफ्तों फ्लोरेंस के घर पड़ा रहता था. धीरेधीरे शिलांग के साडि़यों के शोरूम की पूरी बागडोर उस ने अपने हाथों में ले ली थी. इधर मुझे यह खुशखयाली भी रहने लगी कि फ्लोरेंस की सारी जमीन अब मेरी है. मैं ही उस का असली मालिक हूं.

फ्लोरेेंस से मेरे संबंधों की खबर खुशी और मेरे परिवार वालों को लग गई थी जिस की वजह से खुशी बहुत दुखी रहने लगी थी. मैं जब भी घर जाता, वह मुझ से कहती, ‘देखो, तुम क्यों उस खासी युवती को इतनी अहमियत दे रहे हो? क्या मुझे और मेरे बेटे को तुम्हारा साथ, तुम्हारा वक्त नहीं चाहिए? आज तुम मानो या न मानो पर देखना, एक दिन वह खासी औरत तुम्हारा साड़ियों का शोरूम हड़प लेगी. तुम ने यहां का शोरूम भी नौकरों के भरोसे छोड़ दिया है. वहां की आमदनी पहले से आधी रह गई है. तुम क्यों अपना सर्वनाश करने पर तुले हुए हो?’

खुशी की बातें सुन कर मैं गुस्से में भर उठा था और उस को चांटा मार कर घर से बाहर निकल आया था.

उसी दिन मैं शिलांग चला गया था. समय पंख लगा कर उड़ता चला गया और मेरा बेटा बड़ा हो चला था. जैसेजैसे वह समझदार होता जा रहा था, वह भी मुझ से दूर होता जा रहा था. मैं उसे अपने करीब लाने की भरसक कोशिश करता, पर वह मुझ से हमेशा अनमना सा रहता और अजनबियों की तरह पेश आता.

फ्लोरेंस से भी मेरा एक बेटा था जिसे मैं बेहद प्यार करता था. जैसेजैसे वह बड़ा हो रहा था वह भी मेरे नियंत्रण से बाहर होता जा रहा था.

इधर पिछले कुछ सालों से खुशी का कुछ दूसरा ही रूप मुझे देखने को मिल रहा था. गुवाहाटी वाला साडि़यों का शोरूम अब खुशी संभाल रही थी. उस के देखभाल करने के बाद वहां की बिक्री लगभग दोगुनी हो गई थी.

अब मेरा बेटा आकाश भी बड़ा हो चला था और कालिज के बाद वह भी शोरूम में बैठने लगा था, लेकिन एक बात जो मुझे खाए जा रही थी वह यह कि खुशी के प्रति मेरे अवमाननापूर्ण व्यवहार के प्रतिक्रियास्वरूप वह मुझ से बहुत कटाकटा सा रहने लगा था और दुकान की तिजोरी की चाबी भी वह अपने पास रखने लगा था. इस वजह से मैं रुपएपैसे के मामले में उन का मोहताज हो गया था. जब कभी मुझे रुपएपैसों की जरूरत होती, खुशी ही मुझे थोड़ेबहुत रुपए दे देती. इस तरह रुपयों के लिए पूरी तरह खुशी पर निर्भर होने की वजह से मेरे आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुंची थी और मुझ में धीरेधीरे हीनता की भावना घर करती जा रही थी.

उधर जिस जमीन के लालच में मैं ने फ्लोरेंस से रिश्ता जोड़ा था, उस जमीन के कागजों की फ्लोरेंस ने मुझे हवा तक नहीं लगने दी. न जाने वह उन्हें कहां छिपा कर रखती थी. उस पर कई महीनों से फ्लोरेंस से मेरी गंभीर अनबन चल रही थी. वह मुझ पर बहुत जोर डाल रही थी कि मैं खुशी को तलाक दे कर उस से अदालत में शादी कर लूं. लेकिन मैं खुशी को तलाक नहीं देना चाहता था. शायद इस की वजह यह थी कि मैं खुशी से भावनात्मक रूप से बहुत जुड़ा हुआ था. इस वजह से फ्लोरेंस और मुझ में झगड़ा बढ़ता ही गया और एक दिन फ्लोरेंस और उस के बेटे हनी ने मिल कर शिलांग वाले साडि़यों के शोरूम पर पूरी तरह से अपना कब्जा जमा लिया था. मैं जब भी शिलांग वाले शोरूम में जाता, हनी मुझे तिजोरी को हाथ तक न लगाने देता.

अब मुझे एहसास होने लगा था कि फ्लोरेंस के साथ रिश्ता कायम कर के मैं ने जिंदगी के हर क्षेत्र में नुकसान उठाया था. फ्लोरेंस की वजह से मैं ने खुशी और आकाश की उपेक्षा और अवहेलना की. मैं ने अपनी पत्नी की उपेक्षा की जिस की वजह से मेरे बेटे ने मुझे कभी पिता का आदरमान नहीं दिया और मैं अपने ही घर में बेगाना बन कर रह गया.

फ्लोरेंस से रिश्ता रखने की वजह से मेरे परिवार वालों ने मुझे पुश्तैनी संपत्ति से बेदखल कर उसे खुशी और आकाश के नाम कर दिया था. मेरी लापरवाही के चलते मेरा गुवाहाटी का शोरूम भी खुशी और आकाश के कब्जे में चला गया था. अब मुझे एहसास हो रहा था कि मैं जिंदगी की लड़ाई में बुरी तरह से हार गया था.

एक वक्त था जब कुदरत ने मुझे दुनिया की हर नियामत बख्शी थी. सुशील पत्नी, एक प्यारा सा बेटा, चलता हुआ व्यापार, सामाजिक प्रतिष्ठा, लेकिन मैं ने यह सबकुछ अपनी ही बेवकूफी से गंवा दिया था. शायद यही मेरी गलतियों की सजा है, लेकिन अब मुझे अपनी गलतियों का एहसास हो चला है और इस के लिए मैं खुशी और आकाश से माफी मांगूंगा. फ्लोरेंस से अपने सारे संबंध हमेशा के लिए तोड़ लूंगा. दोबारा से शोरूम में बैठ कर व्यापार संभालूंगा. खुशी बहुत अच्छी है. वह जरूर मुझे माफ कर देगी.

शोरूम में बैठ कर काम संभालने के खयाल ने मुझे बहुत सुकून दिया था. फिर भी मन के एक कोने में कहीं यह डर छिपा हुआ था कि क्या आकाश और खुशी मुझे फिर से व्यापार संभालने देंगे? क्या वे दोनों मेरी पिछली भूलों को नजरअंदाज कर पाएंगे?

इसी डर और आशंका के साथ मैं शोरूम पर पहुंचा और खुशी से बोला, ‘खुशी, मैं ने पूरी जिंदगी तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया. अपने गलत आचरण से तुम्हारे दिल को बहुत दुखाया. मैं वादा करता हूं कि पुरानी भूलों को अब कभी नहीं दोहराऊंगा. मैं ने फ्लोरेंस और हनी से सारे रिश्ते तोड़ लिए हैं. बस…तुम मुझे एक बार माफ कर दो.’

खुशी तो कुछ नहीं बोली लेकिन आकाश बोल पड़ा, ‘अब आप को अपनी गलतियों का एहसास हो रहा है. मेरी मां ने कितने दिन और कितनी रातें आप की वजह से रोरो कर गुजारी हैं, यह मैं ने अपनी आंखों से देखा है और अब आप माफी मांग रहे हैं. नहीं, बिलकुल नहीं. आप हमारी माफी के बिलकुल भी हकदार नहीं हैं. इतने सालों तक हम ने बिना आप के सहारे के अकेले, अपने दम पर जिंदगी जी है, आगे भी जी लेंगे. अब आप कारोबार संभालने की बात कर रहे हैं, जबकि पहले आप ने ही सारा कारोबार चौपट कर दिया था. यह शोरूम बंद होने के कगार पर आ पहुंचा था. आप यहां से जाइए, हम दोनों की जिंदगी में अब आप की कोई जगह नहीं है.’

आकाश की इन कड़वी पर सच बातों को सुन कर मेरा दिल बैठ गया और मैं ने हताश कदमों व टूटे दिल से वापस लौटने के लिए कदम बढ़ाए थे कि तभी खुशी बोल पड़ी, ‘आकाश बेटा, पापा से ऐसा नहीं कहते. गलतियां किस से नहीं होतीं? पापा को अपनी गलतियों का एहसास हो गया, यही बहुत है. सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते. हां, पर अब आप को मेरी एक बात माननी पडे़गी कि आप भविष्य में फ्लोरेंस और हनी से कोई रिश्ता नहीं रखेंगे और न उन से मिलने शिलांग जाएंगे.’

‘खुशी, अगर तुम्हें मेरी बातों पर यकीन है तो मैं तुम्हारी कसम खा कर कहता हूं कि भविष्य में मैं उन से कोई संबंध नहीं रखूंगा. मैं ने उन से हमेशाहमेशा के लिए अपने रिश्ते तोड़ लिए हैं.’

यह सुन कर खुशी के चेहरे पर संतुष्टि के भाव परिलक्षित हुए. फिर अपनी कुरसी से उठते हुए उस ने मुझ से कहा, ‘यह जगह आप की है. आप आइए, यहां बैठिए.’

मैं एक बार फिर खुशी की अच्छाइयों के सामने नतमस्तक हो गया था. मुझ में एक बार फिर से जिंदगी जीने की तमन्ना जाग उठी थी.

औक्टोपस कैद में : औरतों का शिकारी नेता

ज्यों ही वंदना से उस का सामना हुआ, वह अपना आपा खो बैठी. उस ने वंदना को धिक्कारते हुए कहा, ‘‘तुम ने तो अपनी इमेज खराब कर ली, लेकिन तुम ने मेरे बारे में यह कैसे सोच लिया कि मैं भी तुम्हारे रास्ते चल पडूंगी.’’

‘‘क्यों… क्या हो गया?’’ वंदना ने ऐसे पूछा, जैसे वह कुछ जानती ही न हो.

‘‘वही हुआ, जो तुम ने सोचा था. मैं भी तुम्हारी तरह लालची और डरपोक होती तो शायद बच कर नहीं निकल पाती…’’ सुभांगी ने अपनी उफनती सांसों पर काबू पाते हुए कहा.

वंदना समझ गई कि सुभांगी उस की सचाई को जान गई है. उस ने पैतरा बदलते हुए कहा, ‘‘देखो सुभांगी, अगर तुम को आगे बढ़ना है, तो कई जगह समझौते करने पड़ेंगे. फिर क्या हर्ज है कि किसी एक पहुंच वाले आदमी के आगे  झुक लिया जाए. मुझे देखो, आज मैं मंत्रीजी की वजह से ही इस मुकाम तक पहुंची हूं…’’

वंदना मंत्री से अपने संबंधों के चलते ही ब्लौक प्रमुख बनी थी. पहली बार जब वह आंगनबाड़ी में नौकरी करने की गरज से मंत्री के पास गई थी, तो उस का सामना एक भयंकर दुर्घटना से हुआ था.

उस की मजबूरी को भुनाते हुए मंत्री ने भरी दोपहरी में उस की इज्जत लूटी थी. एक बार तो उस को ऐसा सदमा लगा कि खुदकुशी का विचार उस के मन में आ गया था, लेकिन मंत्री ने उस के गालों को सहलाते हुए कहा था, ‘नौकरी कर के क्या करोगी… मुझे कभीकभार यों ही खुश कर दिया करो. बदले में मैं तुम्हें वह पहचान और पैसा दिलवा दूंगा, जिस की तुम ने कभी कल्पना भी न की हो.’

उस समय वंदना भी मंत्री के मुंह पर थूक कर भाग आई थी, लेकिन घर पहुंचने पर उस के मन में कई तरह के खयाल आए थे. कभी उस को लगता था कि फौरन जा कर पुलिस को सूचित करे और मंत्री के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दे, लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि मंत्री के खिलाफ लड़ने का अंजाम आखिरकार उस को ही भुगतना पड़ेगा.

जिन दिनों वंदना मंत्री के कारनामे से आहत हो कर घर में गुमसुम बैठी थी, उन्हीं दिनों उस की मुलाकात अर्चना से हुई थी. अर्चना कहने को तो टीचर थी, लेकिन उस के कारनामे बस्ती में काफी मशहूर थे.

अर्चना ने वंदना को सम झाया था, ‘औरत को तो हर जगह  झुकना ही होता है बहन. कुछ लोग मजे ले कर चले जाते हैं और कुछ एहसान का बदला चुकाते हैं. मंत्रीजी ने जो किया, वह बेशक गलत था, लेकिन अब वे अपने किए का मुआवजा भी तो तुम को दे रहे हैं. झगड़ा मोल लोगी तो पछताओगी और अगर समझौता करोगी, तो आगे बढ़ती चली जाओगी.’

अर्चना ने वंदना को इतने हसीन सपने दिखाए थे कि उस से मना करते हुए नहीं बना. उस के साथ वह राजधानी पहुंची और कई दिनों तक मंत्री के लिए मनोरंजन का साधन बनी रही.

अब वंदना को पता चला कि मंत्री की एक रखैल अर्चना भी है. अर्चना की सेवा से खुश हो कर मंत्री ने उसे उसी स्कूल का प्रिंसिपल बना दिया, जिस में कभी मंत्री की मेहरबानी से वह टीचर बनी थी.

वंदना सत्ता के सपनीले गलियारों में कुछ यों उल झी कि उस को अपने पति से खिलाफत करते हुए भी  झिझक नहीं हुई.

मंत्री के कारनामों से उस के पति अनजान नहीं थे. नौकरी के सिलसिले में वे अकसर घर से बाहर ही रहते थे, लेकिन अपनी बीवी की हर चाल से वे वाकिफ थे. पानी जब सिर से ऊपर गुजरने लगा, तो उन्होंने वंदना को रोकने की कोशिश की.

बच्चों का हवाला देते हुए उन्होंने वंदना से कहा था, ‘तुम 2 बच्चों की मां हो. बच्चों की पढ़ाई और परवरिश के लिए मैं जो कमाता हूं, वह काफी है. इज्जत की कमाई थोड़ी ही सही, लेकिन अच्छी लगती है.

‘‘ईमान और इज्जत बेच कर कोई लाखों रुपए भी कमा ले, तो दुनिया की थूथू से बच नहीं सकता. अभी देर नहीं हुई, मैं तुम्हारे अब तक के सारे गुनाह माफ करने को तैयार हूं, बशर्ते तुम इस गलत रास्ते से वापस लौट आओ…’

वंदना अब इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि उस का किसी से कोई वास्ता नहीं रहा था. उस ने पति को दोटूक शब्दों में कह दिया था, ‘मैं जिंदगीभर तुम्हारी दासी बन कर नहीं रह सकती. अब तक मैं ने जो चुपचाप सहा, वह मेरी भूल थी. अब मुझे अपने रास्ते चलने दो.’

यह सुन कर वंदना का पति चुप हो गया था. उस को लगा कि वंदना को रोकना अब खतरनाक हो सकता है. उस की वजह से घर में क्लेश बढ़ सकता था. उस ने दोनों बच्चों को अपने साथ ले जाने का फैसला किया और वंदना को उसी के हाल पर छोड़ दिया.

वंदना ने भी पति के फैसले में कोई दखल नहीं दिया. अब उस के ऊपर बच्चों की देखरेख करने का जिम्मा भी नहीं रहा.

तमाम जिम्मेदारियों से छूट कर वंदना अब मंत्री की सेवा में खुद को पूरी तरह सौंप चुकी थी. बाहुबली मंत्री ने पंचायत चुनावों में अपने आपराधिक संपर्कों का इस्तेमाल कर वंदना को ब्लौक प्रमुख बना दिया. मंत्री से अपने संबंधों को उस ने जम कर भुनाया.

वंदना अपने दबदबे का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए करती तो लोगों का समर्थन हासिल करती, लेकिन लालच में अंधी हो कर उस ने मंत्री के दलाल की भूमिका निभानी शुरू कर दी.

अफसरों से पैसा वसूलना और अपने गुरगों को ठेके दिलवाने के अलावा अब वह आसपास के गांवों की भोलीभाली लड़कियों को नौकरी का लालच दे कर अपने आका के बैडरूम तक पहुंचाने लगी थी.

सुभांगी उस इलाके में अपनी स्वयंसेवी संस्था चलाती थी. वह पढ़ीलिखी और जु झारू थी. अपनी संस्था के जरीए वह औरतों और बच्चों को पढ़ाने की मुहिम चला रही थी.

वंदना और सुभांगी की मुलाकात एक सरकारी कार्यक्रम में हुई. शातिर वंदना की नजर सुभांगी पर लग चुकी थी. उस ने सुभांगी से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी.

एक दिन मौका पा कर वंदना ने सुभांगी से पूछा, ‘तुम इतनी मेहनत करती हो. चंदा जुटा कर औरतों और बच्चों को पढ़ाती हो. ऐसे कामों के लिए सरकार अनुदान देती है. तुम खुद क्यों नहीं इस दिशा में कोशिश करती?’

‘सरकारी मदद लेने के लिए तो आंकड़े चाहिए और मेरी समस्या यह है कि मैं जमीन पर रह कर यह काम करती हूं, लेकिन फर्जी आंकड़े नहीं जुटा सकती…’ सुभांगी ने जवाब दिया.

‘तुम को फर्जी आंकड़े जुटाने की क्या जरूरत है? तुम्हारे पास तो ढेर सारे आंकड़े पहले से ही मौजूद हैं. तुम कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं. इस इलाके के विधायक सरकार में मंत्री हैं और उन से मेरे अच्छे ताल्लुकात हैं,’ वंदना ने अपना जाल बिछाते हुए कहा.

सुभांगी को वंदना के असली कारनामों की जानकारी नहीं थी. वह उस की बातों में आ गई. उस ने सोचा कि चंदा वसूल कर अगर वह इतनी बड़ी मुहिम चला सकती है, तो सरकारी मदद मिलने पर इस को और भी सही ढंग से चला सकेगी.

उस शाम वंदना सुभांगी को ले कर मंत्री के घर पहुंची. उस का परिचय कराने के बाद वह तो कमरे से बाहर आ गई, लेकिन सुभांगी को वहीं छोड़ गई.

सुभांगी ने मंत्री की तरफ अपनी फाइल बढ़ाते हुए कहा, ‘इस में मेरे अब तक के काम का पूरा ब्योरा है. काम तो मैं यों भी कर ही रही हूं, लेकिन सरकार मदद दे दे तो मैं और भी बेहतर काम कर पाऊंगी.’

‘चिंता न करो, हम तुम को अच्छा अनुदान देंगे…’ मंत्री के मुंह से शराब की बदबू का भभका आया, तो सुभांगी के कान खड़े हो गए. वह फौरन कुरसी से उठी और बोली, ‘आप मेरी फाइल देख लीजिए… अभी मैं चलती हूं.’

सुभांगी दरवाजे की ओर मुड़ी ही थी कि नशे में धुत्त मंत्री ने उस को पीछे से दबोचते हुए कहा, ‘फाइल से पहले मैं तुम को तो देख लूं मेरी रानी…’

मंत्री ने सुभांगी को अपनी बांहों में मजबूती से जकड़ लिया. सुभांगी उस की गिरफ्त से बचने के लिए ऐसे छटपटाने लगी, जैसे कोई मजबूर मछली औक्टोपस की कैद से निकलने के लिए छटपटाती है.

देर तक सुभांगी मंत्री के चंगुल से निकलने के लिए छटपटाती रही और जब उस की ताकत जवाब दे गई, तो वह निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ी.

इस से पहले कि वह खूंख्वार शैतान उस की देह पर बिछता, उस ने चालाकी से अपने जूड़े में फंसी पिन मंत्री के मोटे गाल में घोंप दी. मंत्री की चीख निकल गई और वह एक किनारे हो गया. इस बीच सुभांगी बच कर भाग निकली.

मंत्री के कमरे से निकलते ही सुभांगी का सामना वंदना से हुआ. वह वंदना की सचाई समझ चुकी थी. उस को डपट कर वह पुलिस थाने पहुंची.

एक जवान लड़की को यों बदहवास भागते देख कर लोग सकते में आ गए. मीडिया को भी खबर लग गई. देखते ही देखते थाने में भीड़ जुट गई. दबाव में आ कर पुलिस ने न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज कर ली.

अगले दिन मंत्री के कारनामों की खबरें अखबारों में हैडलाइन बन कर छपीं. विपक्षी पार्टियों के दबाव में आ कर मंत्री को गिरफ्तार किया गया.

पुलिस जांच में पता चला कि सुभांगी के अलावा मंत्री ने कई मजबूर लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाया और इस की सूत्रधार थी वंदना. वंदना को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

आज वंदना जेल की कोठरी में कैद है. उस की सारी इच्छाएं खत्म हो चुकी हैं. अब उस को अपना अतीत याद आता है, जब उस के पति ने उस को बारबार सम झाया था कि गलत रास्ता छोड़ दे, लेकिन उस समय उस की आंखों पर पट्टी बंधी थी. वह खुद को सबकुछ समझ बैठी थी. सुभांगी की तरह उस ने भी हिम्मत कर मंत्री को सबक सिखाया होता, तो आज यह दिन न देखना पड़ता.

वंदना अब घुटघुट कर जी रही है. उस के पास अपनी करनी पर पछतावा करने के अलावा कोई और चारा नहीं है. उस को अब अपने बच्चों की याद सताती है. पति से अपने गुनाहों के लिए माफी मांगने के लिए वह छटपटाती रहती है, लेकिन उस का कोई अपना उस से मिलने को तैयार नहीं है.

दूसरी तरफ सुभांगी के हिम्मत की चारों ओर तारीफ हो रही है. राजधानी के नागरिक सुरक्षा मंच ने उस को सम्मानित ही नहीं किया, बल्कि अपनी महिला शाखा का प्रधान भी बना दिया.

आज सुभांगी को तमाम सम्मानों से उतनी खुशी नहीं मिलती, जितनी कि इस बात से कि उस के एक हिम्मती कारनामे ने उस दुष्ट औक्टोपस को कैद करवा दिया, जो सालों से मजबूर लड़कियों को जकड़ता चला आ रहा था.

उस को खुशी है तो इस बात की कि न तो उस ने वंदना और अर्चना की तरह समझौता किया और न ही उस ने हार मानी. उस ने हिम्मत से उस भयंकर औक्टोपस का सामना किया, जो तमाम मछलियों पर घात लगाए बैठा था.

मोबाइल पर दिखाई गंदी फिल्म : सूरज की क्या थी सोच

ऐसे टुकुरटुकुर क्या देख रहा है?’’ अपना दुपट्टा संभालते हुए धन्नो ने जैसे ही पूछा, तो एक पल के लिए सूरज सकपका गया.

‘‘तुझे देख रहा हूं. सच में क्या मस्त लग रही है तू,’’ तुरंत संभलते हुए सूरज ने जवाब दिया. धन्नो के बदन से उस की नजरें हट ही नहीं रही थीं.

‘‘चल हट, मुझे जाने दे. न खुद काम करता है और न ही मुझे काम करने देता है…’’ मुंह बनाते हुए धन्नो वहां से निकल गई.

सूरज अब भी उसे देख रहा था. वह धन्नो के पूरे बदन का मुआयना कर चुका था.

‘‘एक बार यह मिल जाए, तो मजा आ जाए…’’ सूरज के मुंह से निकला.

सूरज की अकसर धन्नो से टक्कर हो ही जाती थी. कभी रास्ते में, तो कभी खेतखलिहान में. दोनों में बातें भी होतीं. लेकिन सूरज की नीयत एक ही रहती… बस एक बार धन्नो राजी हो जाए, फिर तो…

धन्नो को पाने के लिए सूरज हर तरह के हथकंडे अपनाने को तैयार था.

‘‘तू कुछ कामधंधा क्यों नहीं करता?’’ एक दोपहर धन्नो ने सूरज से पूछा.

‘‘बस, तू हां कर दे. तेरे साथ घर बसाने की सोच रहा हूं,’’ सूरज ने बात छेड़ी, तो धन्नो मचल उठी.

‘‘तू सच कह रहा है,’’ धन्नो ने खुशी में उछलते हुए सूरज के हाथ पर अपना हाथ रख दिया.

सूरज को तो जैसे करंट मार गया. वह भी मौका खोना नहीं चाहता था. उस ने झट से उस का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘सच धन्नो, मैं तुम्हें अपनी घरवाली बनाना चाहता हूं. तू तो जानती है कि मेरा बाप सरपंच है. नौकरी चाहूं, तो आज ही मिल जाएगी.’’

सूरज ने भरोसा दिया, तो धन्नो पूछ बैठी, ‘‘तो नौकरी क्यों नहीं करते? फिर मेरे मामा से मेरा हाथ मांग लेना. कोई मना नहीं करेगा.’’

सूरज ने हां में सिर हिलाया. धन्नो उस के इतना करीब थी कि वह अपनी सुधबुध खोने लगा.

‘‘यहां कोई नहीं है. आराम से लेट कर बातें करते हैं,’’ सूरज ने इधरउधर देखते हुए कहा.

‘‘मैं सब जानती हूं. तुम्हारे दिमाग का क्या भरोसा, कुछ गड़बड़ कर बैठे तो…’’ धन्नो ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘ब्याह से पहले यह सब ठीक नहीं… मरद जात का क्या भरोसा?’’ इतना कहते हुए वह तीर की मानिंद निकल गई. जातेजाते उस ने सूरज के हाथ को कस कर दबा दिया था. सूरज इसे इशारा समझने लगा.

‘‘फिर निकल गई…’’ सूरज को गुस्सा आ गया. उसे पूरा भरोसा था कि आज उस की मुराद पूरी होगी. लेकिन धन्नो उसे गच्चा दे कर निकल गई.

अब तो सूरज के दिलोदिमाग पर धन्नो का नशा बोलने लगा. कभी उस का कसा हुआ बदन, तो कभी उस की हंसी उसे पागल किए जा रही थी. वैसे तो वह सपने में कई बार धन्नो को पा चुका था, लेकिन हकीकत में उस की यह हसरत अभी बाकी थी.

सरपंच मोहन सिंह का बेटा होने के चलते सूरज के पास पैसों की कोई कमी नहीं थी. सो, उस ने एक कीमती मोबाइल फोन खरीदा और उस में खूब ब्लू फिल्में भरवा दीं. उन्हें देखदेख कर धन्नो के साथ वैसे ही करने के ख्वाब देखने लगा.

‘‘अरे, तू इतने दिन कहां था?’’ धन्नो ने पूछा. उस दिन हैंडपंप के पास पानी भरते समय दोनों की मुलाकात हो गई.

‘‘मैं नौकरी ढूंढ़ रहा था. अब नौकरी मिल गई है. अगले हफ्ते से ड्यूटी पर जाना है,’’ सूरज ने कुछ सोच कर कहा, ‘‘अब तो ब्याह के लिए हां कर दे.’’

‘‘वाह… वाह,’’ नौकरी की बात सुनते ही धन्नो उस से लिपट गई. सूरज की भावनाएं उफान मारने लगीं. उस ने तुरंत उसे अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘हां कर दे. और कितना तरसाएगी,’’ सूरज ने उस की आंखों में आंखें डाल कर पूछा.

‘‘तू गले में माला डाल दे… मांग भर दे, फिर जो चाहे करना.’’

सूरज उसे मनाने की जीतोड़ कोशिश करने लगा.

‘‘अरे वाह, इतना बड़ा मोबाइल फोन,’’ मोबाइल फोन पर नजर पड़ते ही धन्नो के मुंह से निकला, ‘‘क्या इस में सिनेमा है? गानेवाने हैं?’’

‘‘बहुत सिनेमा हैं. तू देखेगी, तो चल उस झोंपड़े में चलते हैं. जितना सिनेमा देखना है, देख लेना,’’ सूरज धन्नो के मांसल बदन को देखते हुए बोला, तो वह उस के काले मन के इरादे नहीं भांप सकी.

धन्नो राजी हो गई. सूरज ने पहले तो उसे कुछ हिंदी फिल्मों के गाने दिखाए, फिर अपने मनसूबों को पूरा करने के लिए ब्लू फिल्में दिखाने लगा.

‘‘ये कितनी गंदी फिल्में हैं. मुझे नहीं देखनी,’’ धन्नो मुंह फेरते हुए बोली.

‘‘अरे सुन तो… अब अपने मरद से क्या शरमाना? मैं तुम से शादी करूंगा, तो ये सब तो करना ही होगा न, नहीं तो हमारे बच्चे कैसे होंगे?’’ उसे अपनी बाजुओं में भरते हुए सूरज बोला.

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन शादी करोगे न? नहीं तो मामा मेरी चमड़ी उतार देगा,’’ नरम पड़ते हुए धन्नो बोली.

‘‘मैं कसम खाता हूं. अब जल्दी से घरवाली की तरह बन जा और चुपचाप सबकुछ उतार कर लेट जा,’’ इतना कहते हुए सूरज अपनी शर्ट के बटन खोलने लगा. उस के भरोसे में बंधी धन्नो विरोध न कर सकी.

‘‘तू सच में बहुत मस्त है…’’ आधा घंटे बाद सूरज बोला, ‘‘किसी को कुछ मत बताना. ले, यह दवा खा ले. कोई शक नहीं करेगा.’’

‘‘लेकिन, मेरे मामा से कब बात करोगे?’’ धन्नो ने पूछा, तो सूरज की आंखें गुस्से से लाल हो गईं.

‘‘देख, मजा मत खराब कर. मुझे एक बार चाहिए था. अब यह सब भूल जा. तेरा रास्ता अलग, मेरा अलग,’’ जातेजाते सूरज ने कहा, तो धन्नो पर जैसे बिजली टूट गई.

अब धन्नो गुमसुम सी रहने लगी. किसी बात में उस का मन ही नहीं लगता.

‘‘अरे, तेरे कपड़े पर ये खून के दाग कैसे?’’ एक दिन मामी ने पूछा, तो धन्नो को जैसे सांप सूंघ गया. ‘‘पिछले हफ्ते ही तेरा मासिक हुआ था, फिर…’’

धन्नो फूटफूट कर रोने लगी. सारी बातें सुन कर मामी का चेहरा सफेद पड़ गया. बात सरपंच मोहन सिंह के पास पहुंची. पंचायत बैठी.

मोहन सिंह के कड़क तेवर को सभी जानते थे. उस के लिए किसी को उठवाना कोई बड़ी बात नहीं थी.

‘‘तो तुम्हारा कहना है कि सूरज ने तुम्हारे साथ जबरदस्ती की है?’’ सरपंच के आदमी ने धन्नो से पूछा.

‘‘नहीं, सूरज ने कहा था कि वह मुझ से ब्याह करेगा, इसलिए पहले…’’

‘‘नहींनहीं, मैं ने ऐसा कोई वादा नहीं किया था…’’ सूरज ने बीच में टोका, ‘‘यह झूठ बोल रही है.’’

‘‘मैं भी तुम से शादी करूंगा, तो क्या तू मेरे साथ भी सोएगी,’’ एक मोटे से आदमी ने चुटकी ली.

‘‘तू है ही धंधेवाली…’’ भीड़ से एक आवाज आई.

‘‘चुप करो,’’ मोहन सिंह अपनी कुरसी से उठा, तो वहां खामोशी छा गई. वह सीधा धन्नो के पास पहुंचा.

‘‘ऐ छोकरी, क्या सच में मेरे सूरज ने तुझ से घर बसाने का वादा किया था?’’ उस ने धन्नो से जानना चाहा.

मोहन सिंह के सामने अच्छेअच्छों की बोलती बंद हो जाती थी, लेकिन न जाने क्यों धन्नो न तो डरी और न ही उस की जबान लड़खड़ाई.

‘‘हां, उस ने मुझे घरवाली बनाने की कसम खाई थी, तभी तो मैं राजी…’’ यह सुनते ही सरपंच का सिर झुक गया. भीड़ अब भी शांत थी.

‘‘बापू, तू इस की बातों में न आ…’’ सूरज धन्नो को मारने के लिए दौड़ा.

‘‘चुप रह. शर्म नहीं आती अपनी घरवाली के बारे में ऐसी बातें करते हुए. खबरदार, अब धन्नो के बारे में कोई एक शब्द कहा तो… यह हमारे घर की बहू है. अब सभी जाओ. अगले लगन में हम सूरज और धन्नो का ब्याह रचाएंगे.’’

धन्नो मोहन सिंह के पैरों पर गिर पड़ी. उस के मुंह से इतना ही निकला, ‘‘बापू, तुम ने मुझे बचा लिया.’’

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