चोट: शिवेंद्र अपनी टीस को झेलते हुए कैसे कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता गया

दिल्ली से सटे तकरीबन 40 किलोमीटर दूर रावतपुर नाम के एक छोटे से कसबे में अमरनाथ नाम का एक किसान रहता था. उस के पास तकरीबन डेढ़ एकड़ जमीन थी, जिस में फसल उगा कर वह अपने परिवार को पाल रहा था. पत्नी, एक बेटा और एक बेटी यही छोटा सा परिवार था उस का, इसलिए आराम से गुजारा हो रहा था.

अमरनाथ का बड़ा बेटा शिवेंद्र पढ़नेलिखने में बहुत तेज तो नहीं था, पर इंटरमीडिएट तक सभी इम्तिहान ठीकठाक अंकों से पास करता गया था.

अमरनाथ को उम्मीद थी कि ग्रेजुएशन करने के बाद उसे कहीं अच्छी सी नौकरी मिल ही जाएगी और वह खेतीकिसानी के मुश्किल काम से छुटकारा पा जाएगा.

रावतपुर कसबे में कोई डिगरी कालेज न होने के चलते अमरनाथ के सामने शिवेंद्र को आगे पढ़ाने की समस्या खड़ी हो गई. उस ने काफी सोचविचार कर बच्चों को ऊंची तालीम दिलाने के लिए दिल्ली में टैंपरेरी ठिकाना बनाने का फैसला लिया और रावतपुर में अपने खेत बंटाई पर दे कर सपरिवार दिल्ली के सोनपुरा महल्ले में एक कमरा किराए पर ले कर रहने लगा.

अमरनाथ ने शिवेंद्र को आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए ज्ञान कोचिंग सैंटर में दाखिला करा दिया और बेटी सुमन को पास के ही महात्मा गांधी बालिका विद्यालय में दाखिला दिला दिया. उस ने अपना ड्राइविंग लाइसैंस बनवाया और आटोरिकशा किराए पर ले कर चलाना शुरू कर दिया.

आटोरिकशा के मालिक को रोजाना 400 रुपए किराया देने के बाद भी शाम तक अमरनाथ की जेब में 3-4 सौ रुपए बच जाते थे जिस से उस का घरखर्च चल जाता था.

अमरनाथ सुबह 8 बजे आटोरिकशा ले कर निकालता और शिवेंद्र को कोचिंग सैंटर छोड़ता हुआ अपने काम पर निकल जाता. शिवेंद्र की छुट्टी शाम को 4 बजे होती थी.

अमरनाथ इस से पहले ही कोचिंग सैंटर के पास के चौराहे पर आटोरिकशा ले कर पहुंच जाता और शिवेंद्र को घर छोड़ कर दोबारा सवारियां ढोने के काम में लग जाता.

अमरनाथ सुबहशाम बड़ी चालाकी से उसी रूट पर सवारियां ढोता जिस रूट पर शिवेंद्र का कोचिंग सैंटर था और जब शिवेंद्र को लाते और ले जाते समय कोई सवारी उसी रूट की मिल जाती तो अमरनाथ की खुशी का ठिकाना न रहता.

एक दिन शाम को साढ़े 4 बजे के आसपास अमरनाथ चौराहे पर शिवेंद्र का इंतजार कर रहा था कि तभी ट्रैफिक पुलिस का दारोगा डंडा फटकारता हुआ वहां आ गया और उस से तुरंत अमरनाथ को वहां से आटोरिकशा ले जाने को कहा.

अमरनाथ ने दारोगा को बताया कि उस का बेटा कोचिंग पढ़ कर आने वाला है. वह उसी के इंतजार में चौराहे पर खड़ा है. बेटे के आते ही वह चला जाएगा.

‘‘अच्छा, मुझे कानून बताता है. भाग यहां से वरना मारमार कर हड्डीपसली एक कर दूंगा.’’ दारोगा गुर्राया.

‘‘साहब, अगर मैं यहां से चला गया तो मेरा बेटा…’’

अमरनाथ अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि दारोगा ने ताबड़तोड़ उस पर डंडा बरसाना शुरू कर दिया. उसी समय शिवेंद्र वहां पहुंच गया. अपने पिता को लहूलुहान देख उस की आंखों में खून उतर आया. उस ने लपक कर दारोगा का डंडा पकड़ लिया.

शिवेंद्र को देख अमरनाथ कराहते हुए बोला, ‘‘साहब, मैं इसी का इंतजार कर रहा था. अब मैं जा रहा हूं.’’

अमरनाथ ने शिवेंद्र की ओर हाथ बढ़ाते हुए उठने की कोशिश की तो शिवेंद्र ने दारोगा का डंडा छोड़ अपने पिता को उठा लिया और आटोरिकशा में बिठा कर आटो स्टार्ट कर दिया.

शिवेंद्र ने दारोगा को घूरते हुए आटोरिकशा चलाना शुरू किया तो दारोगा ने एक भद्दी सी गाली दे कर आटोरिकशा पर अपना डंडा पटक दिया.

इस घटना के 3-4 दिन बाद तक शिवेंद्र कोचिंग पढ़ने नहीं गया. हथेली जख्मी हो जाने के चलते अमरनाथ आटोरिकशा चलाने में नाकाम था, इसलिए वह घर पर ही पड़ा रहा और घरेलू उपचार करता रहा.

घरखर्च के लिए शिवेंद्र ने बैटरी से चलने वाला आटोरिकशा किराए पर उसी आटो मालिक से ले लिया जिस से उस के पिता किराए पर आटोरिकशा लेते थे, ताकि ड्राइविंग लाइसैंस का झंझट न पड़े. वह पूरे दिल से आटोरिकशा चलाता और फिर देर रात तक पढ़ाई करता.

एक दिन रात को शिवेंद्र पढ़तेपढ़ते सो गया. उस की मां की नींद जब खुली तो उस ने शिवेंद्र की किताब उठा कर रख दी. तभी उस की निगाह तकिए के पास रखे बड़े से चाकू पर गई.

सुबह उठ कर शिवेंद्र की मां ने उस से पूछा, ‘‘तू यह चाकू क्यों लाया है और इसे तकिए के नीचे रख कर क्यों सोता है?’’

अपनी मां का सवाल सुन कर शिवेंद्र सकपका गया. उस ने कोई जवाब देने के बजाय चुप रहना ही ठीक समझा. उस की मां ने जब बारबार यही सवाल दोहराया तो वह दांत पीसते हुए बोला, ‘‘उस दारोगा के बच्चे का पेट फाड़ने के लिए लाया हूं जिस ने मेरे पापा की बेरहमी से पिटाई की है.’’

शिवेंद्र का जवाब सुन कर उस की मां सन्न रह गई.

शिवेंद्र के जाने के बाद मां ने यह बात अमरनाथ को बताई. अमरनाथ ने जब यह सुना तो उस के होश उड़ गए. कुछ पलों तक वह बेचैनी से शून्य में देखता रहा, फिर अपनी पत्नी से कहा, ‘‘तू ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? उसे घर के बाहर क्यों जाने दिया? अगर वह कुछ ऐसावैसा कर बैठा तो…?’’

रात को 8 बजे जब आटोरिकशा वापस जमा कर के शिवेंद्र घर लौटा और दिनभर की कमाई पिता को दी तो अमरनाथ ने उसे अपने पास बैठा कर बहुत प्यार से समझाया, ‘‘बेटा, दारोगा ने सही किया या गलत, यह अलग बात है, मगर जो तू कर रहा है, उस से न केवल तेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी, बल्कि पूरा परिवार ही तबाह हो जाएगा.

‘‘हम सब के सपनों का आधार तू ही है बेटा, इसलिए दारोगा से बदला लेने की बात तू अपने दिमाग से बिलकुल निकाल ही दे, इसी में हम सब की भलाई है.’’

शिवेंद्र चुपचाप सिर झुकाए अपने पिता की बातें सुनता रहा. दुख और मजबूरी से उस की आंखें डबडबा आईं. बहुत समझाने पर उस ने अपनी कमर में खुंसा चाकू निकाल कर अमरनाथ के सामने फेंक दिया और उस के पास से हट गया.

अमरनाथ ने चुपचाप चाकू उठा कर अपने बौक्स में रख कर ताला लगा दिया.

अगले दिन अमरनाथ ने चोट के बावजूद खुद आटोरिकशा संभाल लिया और शिवेंद्र को ले कर कोचिंग सैंटर गया.

शिवेंद्र जब आटो से उतर कर कोचिंग सैंटर चला गया तो कुछ देर तक अमरनाथ बाहर ही खड़ा रहा. फिर कोचिंग सैंटर के हैड टीचर जिन्हें सब अमित सर कहते थे, के पास गया और उन्हें दारोगा वाली पूरी बात बताई.

अमित सर ने अमरनाथ की पूरी बात सुनी और उसे भरोसा दिलाया कि वे शिवेंद्र की काउंसलिंग कर के जल्दी ही उसे सही रास्ते पर ले आएंगे.

अमरनाथ के जाने के बाद अमित सर ने शिवेंद्र को अपने कमरे में बुलाया और उस से पुलिस द्वारा की गई ज्यादती के बारे में पूछा, तो शिवेंद्र फफक कर रो पड़ा.

जब शिवेंद्र 5-7 मिनट तक रो चुका तो अमित सर ने उसे चुप कराते हुए सवाल किया, ‘‘क्या तुम जानते हो कि पुलिस वाले ने तुम्हारे पिता पर हाथ क्यों उठाया?’’

‘‘सर, उन की कोई गलती नहीं थी. वे चौराहे पर मेरा इंतजार कर रहे थे. यह बात उन्होंने उस पुलिस वाले को बताई भी थी.’’

‘‘मतलब, उन की कोई गलती नहीं थी. अब यह बताओ कि अगर तुम्हारे पिता की जगह पर कोई अमीर आदमी बड़ी सी महंगी कार लिए अपने बेटे का वहां इंतजार कर रहा होता तो क्या पुलिस वाला उस आदमी पर हाथ उठाता?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘इस का मतलब यह है कि गरीब होने के चलते तुम्हारे पिता के ऊपर हाथ उठाने की हिम्मत उस दारोगा ने की.’’

‘‘जी सर.’’

‘‘तो बेटा, तुम्हें उस दारोगा से बदला लेने के बजाय उस गरीबी से लड़ना चाहिए जिस के चलते तुम्हारे पिता की बेइज्जती हुई. होशियारी इनसान से लड़ने में नहीं, हालात से लड़ने में है.

‘‘अगर तुम लड़ना ही चाहते हो तो गरीबी से लड़ो और इस का एक ही उपाय है ऊंची तालीम. अपनी गरीबी से संघर्ष करते हुए खुद को इस काबिल बनाओ कि उस जैसे पुलिस वाले को अपने घर में गार्ड रख सको.

‘‘तुम मेहनत कर के आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में कामयाबी पाओ. फिर इंजीनियरिंग की डिगरी हासिल कर के कोई बड़ी नौकरी हासिल करो. फिर तुम देखना कि वह दारोगा ही क्या, उस के जैसे कितने ही लोग तुम्हारे सामने हाथ जोड़ेंगे और आईएएस बन गए तो यही दारोगा तुम्हें सैल्यूट मारेगा.

‘‘तुम्हारे इस संघर्ष में मैं तुम्हारा साथ दूंगा. बोलो, मंजूर है तुम्हें यह संघर्ष?’’

अमित सर की बात सुन कर शिवेंद्र का चेहरा सख्त होता चला गया, मानो उस की चोट फूट कर बह जाने के लिए उसे बेताब कर रही हो.

शिवेंद्र ने दोनों हाथ उठा कर कहा, ‘‘हां सर, मैं लडूंगा. पूरी ताकत से लड़ूंगा और इस लड़ाई को जीतने के लिए जमीनआसमान एक कर दूंगा.’’

दारोगा के गलत बरताव से शिवेंद्र के मन पर जो चोट लगी थी उस की टीस को झेलते हुए वह कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता गया और आईआईटी मुंबई से जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर के लौटा तो 35 लाख रुपए सालाना तनख्वाह का प्रस्ताव भी जेब में ले कर आया. शिवेंद्र ने अपनी तनख्वाह के बारे में जब अमरनाथ को बताया तो उस का मुंह खुला का खुला रह गया, फिर वह तकरीबन चीखते हुए बोला, ‘‘अरे शिवेंद्र की मां, इधर आ. देख तो अपना शिवेंद्र कितना बड़ा आदमी हो गया है.’’

पूरे परिवार के लिए वह दिन त्योहार की तरह बीता. शाम को काजू की बरफी ले कर शिवेंद्र अमित सर के घर पहुंचा तो उन्होंने उसे गले लगा कर उस की पीठ थपथपाई और बोले, ‘‘मुझे खुशी है कि वक्त ने तुम्हारे दिल को जो चोट दी, उसे तुम ने सहेज कर रखा और उस का इस्तेमाल सीढ़ी के रूप में कर के तरक्की की चोटी तक पहुंचे.

‘‘अब तुम्हें पीछे मुड़ कर देखने की जरूरत नहीं है. बस, यह ध्यान रखना कि किसी को तुम्हारे चलते बेइज्जत न होना पड़े, किसी गरीब को तुम से चोट न पहुंचे, यही तुम्हारा असली बदला होगा.’’

परिचय: कौन पराया, कौन अपना

मैं अपने केबिन में बैठी मुंशीजी से पेपर्स टाइप करवा रही थी. मन काम में नहीं लग रहा था. पिछले 1 घंटे से मैं कई बार घड़ी देख चुकी थी, जो लंच होने की सूचना शीघ्र ही देने वाली थी. दरअसल, मुझे वंदना का इंतजार था. पूरी वकील बिरादरी में एक वही तो थी, जिस से मैं हर बात कर सकती थी. इधर घड़ी ने 1 बजाया,

उधर वंदना अपना काला कोट कंधे पर टांगे और अपने चेहरे को रूमाल से पोंछती हुई अंदर दाखिल हुई. मेरे चेहरे पर मुसकान दौड़ गई. ‘‘बहुत गरमी है आज,’’ कहती हुई वंदना कुरसी खींच कर बैठ गई. मुंशीजी खाना खाने चले गए. मेरा चेहरा फिर गंभीर हो गया. वंदना एक अच्छी वकील होने के साथ ही मन की थाह पा लेने वाली कुशाग्रबुद्धि महिला भी है.

‘‘आज फिर किसी केस में उलझ गई हैं श्रीमती सुनंदिता सिन्हा,’’ उस ने प्रश्नसूचक दृष्टि मेरे चेहरे पर टिका दी.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘इस ‘नहीं तो’ में कोई दम नहीं है. तुम कोई बात छिपाते वक्त शायद यह भूल जाती हो कि हम पिछले 3 साल से साथ हैं और अच्छी दोस्त भी हैं.’’

मैं उत्तर में केवल मुसकरा दी.

‘‘चलो, चल कर लंच करें, मुझे बहुत भूख लगी है,’’ वंदना बोली.

‘‘नहीं वंदना, यहीं बैठ जाओ. एक दिलचस्प केस पर काम कर रही हूं मैं.’’

‘‘किस केस पर काम चल रहा है भई?’’ वह उतावली हो कर बोली.

मैं उसे नम्रता के बारे में बताने लगी.

‘‘आज नम्रता मेरे पास आई थी. वह सुंदर, मासूम, भोलीभाली, बुद्धिमान युवती है. 4 साल पहले उस की शादी मुकुल दवे के साथ हुई थी. दोनों खुश भी थे. किंतु शादी के तकरीबन 2 साल बाद उस का परिचय एक अन्य लड़की के साथ हुआ. उन दोनों के बारे में नम्रता को कुछ ही दिन पहले पता चला है. मुकुल, जो एक 3 साल के बेटे का पिता है, उस ने गुपचुप ढंग से उस लड़की से 2 साल पहले विवाह कर रखा है. लड़की उसी के महल्ले में रहती थी. अजीब बात है.’’

‘‘ऐसा तो हर रोज कहीं न कहीं होता रहता है. तुम और मैं, वर्षों से देख रहे हैं. इस में अजीब बात क्या है?’’ वंदना बोली.

‘‘अजीब यह है कि लड़की उसी महल्ले में रहती थी, जिस में नम्रता. बल्कि नम्रता उस लड़की को जानती थी. हैरानी तो इस बात की है कि उन दोनों के पास रहते हुए भी वह यह कैसे नहीं जान पाई कि उस के पति के इस औरत के साथ संबंध हैं.’’

वंदना मेरी इस बात पर ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘भई, मुकुल क्या नम्रता को यह बता कर जाता था कि वह फलां लड़की से मिलने जा रहा है और वह उसे रंगे हाथों आ कर पकड़ ले. वैसे नम्रता को उस के बारे में पता कैसे चला?’’

‘‘उस बेचारी को खुद मुकुल ने बताया कि वह उसे तलाक देना चाहता है. नम्रता उसे तलाक देना नहीं चाहती. उस का उस के पति के सिवा इस दुनिया में कोई नहीं है. कोई प्रोफेशनल टे्रनिंग भी नहीं है उस के पास कि वह आत्मनिर्भर हो सके,’’ मैं ने लंबी सांस छोड़ी.

‘‘क्या वह दूसरी औरत छोड़ने के लिए तैयार  होगा? तुम तो जानती हो ऐसे संबंधों को साबित करना कितना कठिन होता है,’’ वंदना घड़ी देख उठती हुई बोली.

‘‘मुश्किल तो है, लेकिन लड़ना तो होगा. साहस से लड़ेंगे तो जरूर जीतेंगे,’’ मेरे चेहरे पर आत्मविश्वास था.

‘‘अच्छा चलती हूं,’’ कह कर वंदना चली गई.

मैं दिन भर कचहरी के कामों में उलझी रही. शाम 5 बजे के लगभग घर लौटी तो शांतनु लौन में मेघा के साथ खेल रहे थे. मेरी गाड़ी घर में दाखिल होते ही मेघा मम्मीमम्मी कह कर मेरी तरफ दौड़ी. मैं मेघा को गोद में उठाने को लपकी. शांतनु हमें देख मंदमंद मुसकरा रहे थे. उन्होंने झट से एक खूबसूरत गुलाब तोड़ कर मेरे बालों में लगा दिया.

‘‘कब आए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आधा घंटा हो गया जनाब,’’ कह कर शांतनु मेरे लिए चाय कप में उड़ेलने लगे.

‘‘अरे अरे, मैं बना लेती हूं.’’

‘‘नहीं, तुम थक कर लौटी हो, तुम्हारे लिए चाय मैं बनाता हूं,’’ वह मुसकरा कर बोले. तभी फोन की घंटी बजी और अंदर चले गए. मैं आंखें मूंदे वहीं कुरसी पर आराम करने लगी.

शांतनु का यही स्नेह, यही प्यार तो मेरे जीवन का सहारा रहा है. घर आते ही शांतनु और मेघा के अथाह प्रेम से दिन भर की थकान सुकून में बदल जाती है. अगर शांतनु का साथ न होता तो शायद मैं कभी भी इतनी कामयाब वकील न होती कि लोग मुझे देख कर रश्क कर सकें.

दिन बीतते गए. यही दिनचर्या, यही क्रम. पता नहीं क्यों मैं नम्रता के केस में अधिक ही दिलचस्पी लेने लगी थी और हर कीमत पर उस के पति को सबक सिखाना चाहती थी, जो अपनी  पत्नी को छोड़ किसी अन्य पर रीझ गया था.

मुझे नम्रता के केस में उलझे हुए लगभग 1 साल बीत गया. दिन भर की व्यस्तता में वंदना की मुसकराहट मानसिक तनाव को कम कर देती थी. उस दिन भी कोर्ट में नम्रता के केस की तारीख थी. मैं जीजान से जुटी थी. आखिर फैसला हो ही गया.

मुकुल दवे सिर झुकाए कोर्ट में खड़ा था. उस ने जज साहब के सामने नम्रता से माफी मांगी और जिंदगी भर उस लड़की से न मिलने का वादा किया. नम्रता की आंखों में खुशी के आंसू थे. मैं भी बहुत खुश थी. घर लौट कर यही खुशखबरी मैं शांतनु को सुनाना चाहती थी.

उस दिन शांतनु पहली बार लौन में नहीं बल्कि अपने कमरे में मेरा इंतजार कर रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाती वह बोले, ‘‘बैठो सुनंदिता, मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

उन की मुखमुद्रा गंभीर थी. मैं कुरसी खींच कर पास बैठ गई. मैं ने आज तक उन्हें इतना गंभीर नहीं देखा था.

वह बोले, ‘‘हमारी शादी को 6 साल हो गए हैं सुनंदिता और इन 6 सालों में मैं ने यह महसूस किया है कि तुम एक संपूर्ण स्त्री नहीं हो, जो मुझे पूर्णता प्रदान कर सके. तुम में कुछ अधूरा है, जो मुझे पूर्ण होने नहीं देता.’’

मैं अवाक् रह गई. मेरा चेहरा आंसुओं से भीग गया.

वह आगे बोले, ‘‘मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है सुनंदिता. तुम एक चरित्रवान पत्नी, अच्छी मां और अच्छी महिला भी हो. मगर कहीं कुछ है जो नहीं है.’’

शब्द मेरे गले में घुटते चले गए, ‘‘तो इतना बता दो शांतनु, वह कौन  है, जिस के तुम्हारे जीवन में आने से मैं अधूरी लगने लगी हूं?’’

‘‘तुम चाहो तो मेघा को साथ रख सकती हो. उसे मां की जरूरत है.’’

‘‘मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर दो, शांतनु, कौन है वह?’’

वह खिड़की के पास जा कर खड़े हो गए और अचानक बोले, ‘‘वंदना.’’

मुझ पर वज्रपात हुआ.

‘‘हां, एडवोकेट वंदना प्रधान.’’

मैं बेजान हो गई. यहां तक कि एक सिसकी भी नहीं ले सकी. जी चाह रहा था कि पूछूं, कब मिलते थे वंदना से और कहां? सारा दिन तो वह कोर्ट में मेरे साथ रहा करती थी. तभी वंदना के वे शब्द मेरे कानों में गूंज उठे, ‘क्या मुकुल नम्रता को बता कर जाता होगा कि कब मिलता है उस पराई स्त्री से. ऐसा तो रोज ही होता है.’

‘मैं नम्रता से कहा करती थी कि कैसी बेवकूफ स्त्री हो तुम नम्रता, पति के हावभाव, उठनेबैठने, बोलनेचालने से तुम इतना भी अंदाजा नहीं लगा सकीं कि उस के दिल में क्या है.’ मैं खुद भी तो ऐसा नहीं कर पाई.

मैं ने कस कर अपने कानों पर हाथ टिका लिए. जल्दीजल्दी सामान अपने सूटकेस में भरने लगी. शांतनु जड़वत खड़े रहे. मैं मेघा की उंगली थामे गेट से बाहर निकल आई.

अगले दिन मैं कोर्ट नहीं गई. दिमाग पर बारबार अपने ही शब्द प्रहार कर रहे थे, ‘एक महल्ले में रह कर भी नम्रता कुछ न जान पाई’ और मैं दिन में वंदना और शाम को शांतनु इन दोनों के बीच में ही झूलती रही थी फिर भी…गिला करती तो किस से. पराया ही कौन था और अपना ही कौन निकला. एक पल को मन चाहा कि मुकुल की तरह शांतनु भी हाथ जोड़ कर माफी मांग ले. लेकिन दूसरे ही पल शांतनु का चेहरा खयालों में उभर आया. मन वितृष्णा से भर उठा. मैं शायद उसे कभी माफ न कर सकूं?

मैं नम्रता नहीं हूं. अगले दिन मुंशी जी टाइपराइटर ले कर बैठे और बोले, ‘‘जी, मैडम, लिखवाइए.’’

‘‘लिखिए मुंशीजी, डिस्साल्यूशन आफ मैरिज बाई डिक्री ओफ डिवोर्स सुनंदिता सिन्हा वर्सिज शांतनु सिन्हा,’’ टाइपराइटर की टिकटिक का स्वर लगातार ऊंचा हो रहा था.

मोहरा: क्या चाहती थी सुहानिका?

सुहानिका आज कुछ ज्यादा ही खुश थी. अभी 2 महीने पहले ही तो उस ने एक असिस्टैंट के रूप में यह औफिस जौइन किया था. शुरुआत में उस की तनख्वाह 20 हजार रुपए महीना थी और इन 2 महीने में ही उस की तनख्वाह 40 हजार रुपए महीना हो गई.

सुहानिका को बखूबी मालूम है कि उस के औफिस की बहनजी टाइप लड़कियां उस के बारे में उलटीसीधी बातें करती हैं, पर उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है.

एक दिन रुचिका सुहानिका को देखते हुए बोली, ‘‘तुम कब तक खूबसूरती की बैसाखी के सहारे नौकरी करोगी. तुम से तो एक पावर पौइंट भी ठीक से नहीं बन पाता है.’’

सुहानिका अपनी आंखों को और बड़ा कर के बोली, ‘‘रुचिका, मेरे पास जो है, मैं उस के सहारे ही तो आगे बढ़ूंगी न.’’

रुचिका ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘बेशर्म हो तुम.’’

सुहानिका ने जवाब दिया, ‘‘हां, पर सच्ची हूं.’’

23 साल की सुहानिका का बचपन गरीबी में गुजरा था. उस की मम्मी कैसी थीं, उसे नहीं मालूम, बस तसवीरों में ही उन की यादें उस के साथ थीं.

सुहानिका के पापा बिजली महकमे में क्लर्क थे. वे अपनी छोटी सी तनख्वाह से ही घर चलाते थे. सुहानिका की दादी हर समय उसे ताने मारती रहती थीं, ‘‘तेरे चलते मेरे बेटे ने दूसरी शादी नहीं की. अगर दूसरी मां आ जाती न, तो तेरी जो कैंची की तरह जबान चल रही है न, उसे काट देती.’’

सुहानिका भी कहां चुप रहने वालों में से थी. वह खटाक से जवाब देती, ‘‘दादी, तुम अपने मन को बहला रही हो. कर दो न दूसरी शादी तुम पापा की. दरअसल, सचाई यह है एक बुढ़ाते क्लर्क, जिस के साथ उस की बूढ़ी मां और जवान बेटी रहती हो, का शादी के बाजार में कोई मोल नहीं है.’’

ऐसे ही लड़तेझगड़ते सुहानिका ने जवानी की दहलीज पर कदम रखा था. खुलता गेहुआं, भूरी आंखें, सुतवा नाक, लाल सुर्ख होंठ, घने घुंघराले बाल, जो उस के चेहरे के चारों ओर बिखरे रहते थे.

दादी गुस्से में सुहानिका के बालों को मधुमक्खी का छत्ता बोलती थीं, पर वही दादी हर शनिवार की रात सरसों और नारियल का तेल उस के बालों में बड़े प्यार से मलती थीं.

सुहानिका के पिता सतीश तोमर अदना से इनसान थे. मझोला कद, मझोली कदकाठी. उन की जिंदगी में सबकुछ ही मझोला था. वे दब्बू किस्म के इनसान थे.

सुहानिका ने कितनी बार अपने पापा को चिंतित देखा था. वे हर समय दफ्तर के काम में बिजी रहते थे, पर फिर भी कभी कोई तरक्की नहीं कर पाए. इस बात ने उन्हें अंदर ही अंदर चिड़चिड़ा कर दिया था.

उधर अपने बेटे की चिड़चिड़ाहट का असर सुहानिका की दादी पर भी होता था और कुलमिला कर यह नतीजा था कि सुहानिका का अपने ही घर में दम घुटता था.

सुहानिका की जिंदगी में हर चीज की कमी थी, जैसे प्यार, पैसा, विश्वास और आजादी. वह बस रूपरंग के मामले में अच्छी थी.

जब सुहानिका 15 साल की थी, तब उस के स्कूल के एक सीनियर लड़के ने उस के सामने दोस्ती का प्रस्ताव रखा था. सुहानिका ने बिना सोचे हां कर दी थी. वह सिलसिला आज तक जारी है. सुहानिका को सबकुछ मिल रहा था. पैसा, उपहार और वह सबकुछ, जो एक आरामदायक जिंदगी के लिए चाहिए.

पापा और दादी की नेक सलाह सुहानिका के कानों से टकरा कर वापस चली जाती थी. उस की क्या गलती है. उसे भी तो खुश रहने का हक है.

कालेज में भी सुहानिका हर हफ्ते किसी नए लड़के के साथ देखी जाती थी. उस के बारे में यह बात मशहूर थी कि 2 डेट के बाद सुहानिका का मन भर जाता है.

सुहानिका को शतरंज के शह और मात के इस खेल में अब एक अलग सा रोमांच होने लगा था. यह उस के चरित्र का एक हिस्सा बन चुका था.

अपनी खूबसूरती व नखरों के बल पर ही सुहानिका ने इस टूर ऐंड ट्रैवल कंपनी में असिस्टैंट की नौकरी हासिल की थी. उस का बौस अजय रावत अव्वल दर्जे का घटिया इनसान था. उसे खूबसूरत लड़कियों का साथ बेहद पसंद था. वह उन पर जीभर कर पैसे लुटाता था और बदले में लड़कियां उस के अहम को सहलाती थीं और उस की मर्दाना कमजोरी को वे बड़े आराम से ढक लेती थीं.

ऐसे ही सुहानिका ने भी किया, पर एक दिन जब वह अजय के साथ दफ्तर में ही रासलीला खेल रही थी, तभी उस कंपनी के मालिक का बेटा रोहित शर्मा वहां आ गया. सुहानिका और अजय के अस्तव्यस्त कपड़े देख रोहित को कुछ पूछने की जरूरत नहीं लगी.

अजय को तुरंत इस्तीफा लिखने के लिए कह दिया गया, पर सुहानिका को रोहित ने अंदर बुलाया. सुहानिका ने भी मौके का पूरा फायदा उठाया और सारी बात अजय के सिर पर डाल दी.

सुहानिका रोतेरोते बोल रही थी, ‘‘सर, मुझे एक मौका और दीजिए. यह मेरी मजबूरी थी.’’

न जाने क्या ऐसा जादू किया था कि सबकुछ जानते हुए भी रोहित ने सुहानिका को न सिर्फ मौका दिया, बल्कि कुछ महीने में अपने लिए भी वहीं इंदौर में एक फ्लैट किराए पर ले लिया.

सुहानिका को अच्छी तरह पता था कि रोहित ने ऐसा क्यों किया है. अब सुहानिका उस कंपनी की ब्रांच हैड बन गई थी.

रोहित के हफ्ते में 3 दिन अब इंदौर में ही बीतते थे. उस ने अपने परिवार को बताया था कि उस को रात में भी काम करना पड़ता है, क्योंकि ब्रांच बहुत ज्यादा नुकसान में चल रही है.

रोहित के पिता सुरेंद्र शर्मा बहुत खुश थे कि आखिरकार बेटे को अक्ल आ ही गई. पर जब सालाना रिपोर्ट आई तो सुरेंद्र का माथा ठनका, क्योंकि इंदौर की ब्रांच बिलकुल गड्ढे में चली गई थी.

उधर हफ्ते में 3 दिन रोहित का हवाई यात्रा से इंदौर जाना वैसे सुरेंद्र शर्मा की जेब पर भारी पड़ रहा था. जब उन्होंने रोहित से इस बारे में बात की तो वह गुस्से में बोला, ‘‘पापा, मैं रातदिन मेहनत कर रहा हूं, आप थोड़ा सब्र तो कीजिए.’’

सुरेंद्र ज्यादा दिनों तक सब्र नहीं रख पाए. एक दिन जब रोहित इंदौर गया हुआ था, तो वे भी पीछेपीछे पहुंच गए. वहां जा कर उन्हें सारा माजरा समझ आ गया था कि क्यों रोहित इंदौर के इतने चक्कर काट रहा है. उन्होंने फौरन इंदौर की ब्रांच बंद करने का फैसला ले लिया.

सुरेंद्र शर्मा जब इंदौर की ब्रांच बंद कर के लौटे तो सुहानिका भी उन के साथ थी. सुहानिका ने उन्हें बड़े आराम से इस बात का विश्वास दिला दिया था कि उसे रोहित ने यह सब करने पर मजबूर किया था.

दिल्ली पहुंच कर सुरेंद्र ने सुहानिका के लिए एक नौकरी के इंतजाम के साथसाथ एक छोटे फ्लैट का बंदोबस्त भी कर दिया.

सुहानिका का बहुत पहले ही अपने घर वालों से नाममात्र का मतलब रह गया था. वैसे, सुरेंद्र जब सुहानिका को दिल्ली लाए, तो उन के मन में सुहानिका के प्रति कोई बुरा भाव नहीं था.

पर सुहानिका को अपनी जिंदगी बहुत रूखी लग रही थी. सुरेंद्र ने जो नौकरी लगवाई थी, उस में उसे मेहनत करनी पड़ रही थी, जिस की उसे आदत नहीं थी.

फिर सुहानिका ने सुरेंद्र शर्मा को मोहरा बनाने की सोची. अब वह किसी न किसी बहाने से उन्हें फोन करने लगी और उन से मिलने भी लगी. ऐसी ही एक मुलाकात में उस ने अपनेआप को सुरेंद्र को सौंप दिया. सुरेंद्र शर्मा जानते थे कि यह ठीक नहीं है, क्योंकि सुहानिका महज 25 साल की थी और वे 55 साल के थे.

एक तो सुरेंद्र शर्मा अपनी पत्नी की मौत के बाद पिछले 10 साल से अकेलेपन का दर्द झेल रहे थे और दूसरे कौन ऐसा मर्द होगा, जो किसी खूबसूरत और जवान लड़की का मोह छोड़ सके.

सुरेंद्र शर्मा पर सुहानिका के रूप का ऐसा सिक्का चला कि वे समाज और परिवार की परवाह करे बिना सुहानिका के साथ शादी के बंधन में बंध गए. सब नातेरिश्तेदारों ने जम कर शिकायत की, पर दोनों ने किसी की नहीं सुनी.

धीरे-धीरे एक साल और बीत गया. सुहानिका को धनदौलत, ऐशोआराम की कमी नहीं थी, पर अब उसे एक साथी की कमी महसूस होने लगी थी. सुरेंद्र से सुहानिका को प्यार तो नहीं था, पर एक लगाव सा हो गया था. लेकिन वह फिर से बोर हो गई थी.

तभी सुहानिका की जिंदगी में पवन नामक लड़का आया, जो रिश्ते में सुरेंद्र शर्मा का भतीजा लगता था और दिल्ली में नौकरी करने के लिए आया हुआ था.

सुहानिका अपनेआप को रोक नहीं पाई और उस ने फिर से एक नया मोहरा ढूंढ़ लिया.

उधर पवन को सुहानिका के लिए बहुत हमदर्दी हो रही थी. उसे लग रहा था, बेचारी सुहानिका को कितने मर्दों ने अपने फायदे के लिए मोहरा बनाया होगा और फिर भी उस का दिल कितना बड़ा है कि वह सुरेंद्र चाचा के प्रति पत्नी के सारे फर्ज निभा रही है. उन की उम्र के चलते सुहानिका ने अपनी मां बनने की इच्छा का भी बहुत पहले गला घोंट दिया था. ऐसी लड़की का अगर मैं दोस्त बन जाऊं तो इस में क्या खराबी है

उधर चांदनी रात में सुहानिका सुरेंद्र के साथ शतरंज के खेल में मोहरे चल रही थी और उस का दिमाग बहुत तेजी के साथ इस बात पर विचार कर रहा था कि वह कब और कैसे इस नए मोहरे को मात देगी. आखिर उस की गलती क्या है? उसे भी तो खुश रहने का हक है?

यह सोचते हुए सुहानिका के होंठों पर एक कुटिल मुसकान थिरक उठी और उस ने एक झटके से अपनी एक बहुत ही बोल्ड सैल्फी पवन को पोस्ट कर दी. वह खुला निमंत्रण था, अगले शिकार का.

अपना कौन: मधुलिका आंटी का अपनापन

मम्मीपापा अचानक ही देहरादून छोड़ कर दिल्ली आ बसे. यहां का स्कूल और सहेलियां कशिश को बहुत पसंद आईं. देहरादून पिछली कक्षा की किताबों की तरह पीछे छूट गया. बस, मधुलिका आंटी की याद गाहेबगाहे आ जाती थी.

‘‘देहरादून से सभी लोग आप से मिलने आते हैं. बस, मधुलिका आंटी नहीं आतीं,’’ कशिश ने एक रोज हसरत से कहा.

‘‘मधुलिका आंटी डाक्टर हैं और देवेन अंकल वकील. दोनों ही अपनी प्रैक्टिस छोड़़ कर कैसे आ सकते हैं?’’ मां ने बताया.

मां और भी कुछ कहना चाह रही थीं लेकिन उस से पहले ही पापा ने कशिश को पानी पिलाने को कहा. वह पानी ले कर आई तो सुना कि पापा कह रहे थे, ‘कशिश की यह बात तुम मधु को कभी मत बताना.’

कशिश को समझ में नहीं आया कि इस में न बताने वाली क्या बात थी.

जल्दी ही उम्र का वह दौर शुरू हो गया जिस में किसी को खुद की ही खबर नहीं रहती तो मधु आंटी को कौन याद करता.

मम्मीपापा न जाने कैसे उस के मन की बात समझ लेते थे और उस के कुछ कहने से पहले ही उस की मनपसंद चीज उसे मिल जाती थी. उस की सहेलियां उस की तकदीर से रश्क किया करतीं. कशिश का मेडिकल कालिज में अंतिम वर्ष था. मम्मीपापा दोनों चाहते थे कि वह अच्छे नंबरों से पास हो. वह भी जीजान से पढ़ाई में जुटी हुई थी कि दादी के मरने की खबर मिली. दादादादी अपने सब से छोटे बेटे सुहास और बहू दीपा के साथ चंडीगढ़ में रहते थे. पापा के अन्य भाईबहन भी वहां पहुंच चुके थे. घर में काफी भीड़ थी. दादी के अंतिम संस्कार के बाद दादाजी ने कहा, ‘‘शांति बेटी, तुम्हारी मां के जो जेवर हैं, मैं चाहता हूं कि वह तुम सब आपस में बांट लो. तू सब से बड़ी है इसलिए सब के जाने से पहले तू बराबर का बंटवारा कर दे.’’

रात को जब कशिश दादाजी के लिए दूध ले कर गई तो दरवाजे के बाहर ही अपना नाम सुन कर ठिठक गई. दादाजी शांति बूआ से पूछ रहे थे, ‘‘तुझे कशिश से चिढ़ क्यों है. वह तो बहुत सलीके वाली और प्यारी बच्ची है.’’

‘‘मैं कशिश में कोई कमी नहीं निकाल रही पिताजी. मैं तो बस, यही कह रही हूं कि मां के गहने हमारी पुश्तैनी धरोहर हैं जो सिर्फ  मां के अपने बच्चों को मिलने चाहिए, किसी दूसरे की औलाद को नहीं. मां के जो भी जेवर अभी विभा भाभी को मिलेंगे वह देरसवेर देंगी तो कशिश को ही, यह नहीं होना चाहिए.’’ शांति बूआ समझाने के स्वर में बोलीं.

कशिश इस के आगे कुछ नहीं सुन सकी. ‘दूसरे की औलाद’ शब्द हथौड़े की तरह उस के दिलोदिमाग पर प्रहार कर रहा था. उस ने चुपचाप लौट कर दूध का गिलास नौकर के हाथ दादाजी को भिजवा दिया और सोचने लगी कि वह किसी दूसरे यानी किस की औलाद है.

दूसरी जगह और इतने लोगों के बीच मम्मीपापा से कुछ पूछना तो मुनासिब नहीं था. तभी दीपा चाची उसे ढूंढ़ती हुई आईं और बरामदे में पड़ी कुरसी पर निढाल सी लेटी कशिश को देख कर बोलीं, ‘‘थक गई न. जा, सो जा अब.’’

तभी कशिश के दिमाग में बिजली सी कौंधी. क्यों न दीपा चाची से पूछा जाए. दोनों की उम्र में ज्यादा फर्क न होने के कारण उस की दीपा चाची से बहुत बनती थी और पिछले 3-4 रोज से एकसाथ काम करते हुए दोनों में दोस्ती सी हो गई थी.

‘‘आप से कुछ पूछना है चाची, बताएंगी ?’’ उस ने निवेदन करने के अंदाज में कहा.

‘‘जरूर,’’ दीपा ने प्यार से उस का सिर सहलाया.

‘‘मैं कौन हूं?’’

कशिश के इस प्रश्न से दीपा चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘मेरी प्यारी भतीजी, कशिश.’’

‘‘मगर मैं आप की असली भतीजी तो नहीं हूं न, क्योंकि मैं डा. विकास और डा. विभा की नहीं किसी दूसरे की औलाद…’’

‘‘यह तू क्या कह रही है?’’ दीपा ने बात काटी.

‘‘जो भी कह रही हूं  चाची, सही कह रही हूं’’ और कशिश ने शांति बूआ और दादाजी के बीच हुई बातचीत दोहरा दी.

दीपा झल्ला कर बोली, ‘‘तुम्हारी शांति बूआ को भी बगैर बवाल मचाए खाना नहीं पचता…’’

‘‘उन्होंने कोई बवाल नहीं मचाया, चाची, सिर्फ सचाई बताई है पर अगर आप मुझे यह नहीं बताएंगी कि मैं किस की औलाद हूं तो बवाल मच सकता है.’’

‘‘मैं जो बताऊंगी उस पर तू यकीन करेगी?’’

अगर यकीन नहीं करना होता तो आप से पूछती ही क्यों? असलियत जानने के बाद मैं मम्मीपापा से कुछ नहीं पूछूंगी और कम से कम यहां तो कतई नहीं.

‘‘कभी भी और कहीं भी नहीं पूछना बेटे, वरना वे बहुत दुखी होंगे कि शायद उन की परवरिश में ही कोई कमी रह गई. तुम डा. मधुलिका और देंवेंद्र नाथ वर्मा की बेटी हो. विभा भाभी और मधुलिका बचपन की सहेलियां हैं. यह स्पष्ट होने पर कि बचपन में हुई किसी दुर्घटना के चलते विभा भाभी कभी मां नहीं बन सकतीं, मधुलिका ने उन की गोद में तुम्हें डाल दिया था. विभा भाभी और विकास भाई साहब ने तुम्हें शायद ही कभी शिकायत का मौका दिया हो.’’

कशिश ने सहमति में सिर हिलाया.

‘‘मम्मीपापा से मुझे कोई शिकायत नहीं है लेकिन मधु आंटी ने मुझे क्यों और कैसे दे दिया?’’

‘‘दोस्ती की खातिर.’’

‘‘दोस्ती ममता से ज्यादा…’’

तभी अंदर से बहुत उत्तेजित स्वर सुनाई देने लगे. सब से ऊंचा स्वर विकास का था.

‘‘मेरे लिए मेरे जीवन की सब से अमूल्य निधि मेरी बेटी है, जिस के लिए मैं देहरादून से सरकारी नौकरी छोड़ कर चला आया. उस के लिए क्या चंद गहने नहीं छोड़ सकता? मैं कल सवेरे यानी आप के बंटवारे से पहले ही यहां से चला जाऊंगा’’

‘‘लेकिन मां की उठावनी?’’ शांति बूआ ने पूछा.

‘‘उस के लिए आप सब हैं न. मां की अंत समय में सेवा कर ली, मेरे लिए यही बहुत है,’’ विकास ने कड़वे स्वर में कहा, ‘‘जो लोग मेरी बेटी को पराया समझते हों उन के साथ रहना मुझे गवारा नहीं है.’’

दीपा ने कशिश की ओर देखा और उस ने चुपचाप सिर झुका लिया.

‘‘यह अब नहीं रुकेगा. रोक कर शांति तुम बात मत बढ़ाओ,’’ दादाजी का स्वर उभरा. उसी समय विकास कशिश को पुकारता हुआ वहां आया और उसे इस तरह बांहों में भर कर अपने कमरे में ले गया जैसे कोई कशिश को उस से छीन न ले, ‘‘कल हम दिल्ली लौट रहे हैं कशिश, सो अब तुम सो जाओ. सुबह जल्दी उठना होगा,’’ विकास ने कहा.

‘‘जी, पापा,’’ कशिश ने कहा और चुपचाप बिस्तर पर लेट गई. विकास ने बत्ती बुझा दी.

‘‘विकास,’’ कुछ देर के बाद विभा का स्वर उभरा, ‘‘मुझे लगता है इस तरह लौट कर तुम सब की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हो.’’

‘‘शांति बहनजी ने जिस बेदर्दी से मेरी भावनाओं को कुचला है न उस के मुकाबले में मेरी ठेस तो बहुत मामूली है,’’ विकास ने तल्खी से कहा, ‘‘जो भी मेरी बेटी को नकारेगा उसे मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगा… चाहे वह कोई भी हो… यहां तक कि तुम भी.’’

अगली सुबह उन्हें विदा करने को केवल दादाजी, सुहास और दीपा ही थे और सब शायद अप्रिय स्थिति से बचने के लिए नींद का बहाना कर के उठे ही नहीं.

घर आ कर विभा और विकास अपने काम में व्यस्त हो गए और कशिश पढ़ाईर् में. हालांकि कशिश को लग रहा था कि चंडीगढ़ से लौटने के बाद पापा उसे ले कर कुछ ज्यादा ही पजेसिव हो गए हैं लेकिन वह अपने असली मातापिता से मिलने और यह जानने को बेचैन थी कि उन्होंने उसे अपनी गोद से उठा कर दूसरे की गोद में क्यों डाल दिया? उस ने मम्मी की डायरी में से मधुलिका मौसी का फोन नंबर और पता तो नोट कर लिया था मगर वह खत या फोन के जरिए नहीं, स्वयं मिल कर यह बात पूछना चाहती थी.

परीक्षा सिर पर थी और पढ़ाई में दिल नहीं लग रहा था. कशिश यही सोचती रहती थी कि क्या बहाना बना कर देहरादून जाए. समीरा उस की खास सहेली थी. उस से कशिश की बेचैनी छिप नहीं सकी. उस के पूछने पर कशिश को बताना ही पड़ा.

‘‘समझ में नहीं आ रहा कि देहरादून किस बहाने से जाऊं.’’

‘‘तू भी अजब भुलक्कड़ है. कई बार तो बता चुकी हूं कि सालाना परीक्षा खत्म होते ही मेरे बड़े भाई की शादी है और बरात देहरादून जाएगी. मैं तुझे बरात में ले चलती हूं. वहां जा कर तू जहां कहेगी तुझे पहुंचवाने का इंतजाम करवा दूंगी. सो अब सारी चिंता छोड़ कर पढ़ाई कर.’’

समीरा की बात से कशिश को कुछ राहत मिली. और फिर शाम को समीरा उस के मम्मीपापा से मिल कर बरात में चलने की स्वीकृति लेने उस के घर आ गई.

‘‘बरात में जाने के बारे में सोचने के बजाय फिलहाल तो तुम दोनों पढ़ाई में ध्यान लगाओ,’’ पापा ने समीरा की बात सुन कर बड़े प्यार से दोनों का सिर सहलाया.

‘‘अंतिम साल की परीक्षा है. इस के नतीजे पर तुम्हारा पूरा भविष्य निर्भर करता है. कशिश को तो मैं कार्डियोलोजी में महारत हासिल करने के लिए अमेरिका भेज रहा हूं. तुम्हारा क्या इरादा है, समीरा?’’

‘‘अगर मैं भी कार्डियोलोजिस्ट बन गई अंकल, तो मुझ में और कशिश में दोस्ती के  बजाय स्पर्धा हो जाएगी और हमारी दोस्ती खत्म हो ऐसा रिस्क मुझे नहीं लेना है. सो कुछ और सोचना पडे़गा मगर सोचने को फिलहाल आप ने मना कर दिया है,’’ समीरा हंसी.

समीरा को विदा कर के कशिश जब अंदर आई तो उस ने अपने पापा को यह कहते सुना, ‘‘मैं नहीं चाहता विभा कि कशिश देहरादून जाए और मधुदेवेन से मिले. इसलिए समीरा के भाई की शादी से पहले ही कशिश को ले कर कहीं और घूमने चलते हैं.’’

‘‘कैसे जाओगे विकास? इस बार आई.एम.ए. का वार्षिक अधिवेशन तुम्हारी अध्यक्षता में होगा और वह उन्हीं दिनों में है.’’

कशिश लपक कर कमरे में आई और कहने लगी, ‘‘मेरी एक बात मानेंगी, मम्मा? आप प्लीज, मधु मौसी को मेरे देहरादून आने के बारे में कुछ मत बताना क्योंकि मैं शादी की रौनक छोड़ कर उन से मिलने नहीं जाने वाली.’’

पापा के चेहरे पर यह सुन कर राहत के भाव उभरे थे.

‘‘ठीक कहती हो. अपनी सहेलियों को छोड़ कर मां की सहेली के साथ बोर होने की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक यू, पापा,’’ कह कर कशिश बाहर आ कर दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

पापा, मम्मी से कह रहे थे कि अच्छा है, कशिश उन दिनों शादी में जा रही है क्योंकि हम दोनों तो अधिवेशन की तैयारी में व्यस्त हो जाएंगे और यह घर पर बोर होती रहने से बच जाएगी. इस तरह समस्या हल होते ही कशिश जीजान से पढ़ाई में जुट गई.

देहरादून स्टेशन पर बरात का स्वागत करने वालों में कई महिलाएं भी थीं. लड़की के पिता सब का एकदूसरे से परिचय करवा रहे थे. एक अत्यंत चुस्तदुरुस्त, सौम्य महिला का परिचय करवाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘यह डा. मधुलिका हैं. कहने को तो हमारी फैमिली डाक्टर और पड़ोसिन हैं लेकिन हमारे परिवार की ही एक सदस्य हैं. हमारे से ज्यादा शादी की धूमधाम इन की कोठी में है क्योंकि सभी मेहमान वहीं ठहरे हुए हैं.’’

कशिश को यकीन नहीं हो रहा था कि उस का काम इतनी आसानी से हो जाएगा. उस ने आगे बढ़ कर मधुलिका को अपना परिचय दिया. मधुलिका ने उसे खुशी से गले से लगाया और पूछा कि विभा क्यों नहीं आई?

‘‘आंटी, मम्मीपापा आजकल एक अधिवेशन में भाग ले रहे हैं. मैं भी इस बरात में महज आप से मिलने आई हूं,’’ कशिश ने बिना किसी हिचक के कहा, ‘‘मुझे आप से अकेले में बात करनी है.’’

मधुलिका चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘अभी तो एकांत मिलना मुश्किल है. रात को बरात की खातिरदारी से समय निकाल कर तुम्हें अपने घर ले चलूंगी.’’

‘‘उस में तो बहुत देर है, उस से पहले ही घर ले चलिए न,’’ कशिश ने मनुहार की.

‘‘अच्छा, दोपहर को क्लिनिक से लौटते हुए ले जाऊंगी.’’

दोपहर को मधुलिका ने खुद आने के बजाय उसे लाने के लिए अपनी गाड़ी भेज दी. वह अपने क्लिनिक में उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘तुम अकेले में मुझ से बात करना चाहती हो, जो फिलहाल घर पर मुमकिन नहीं  है. बताओ क्या बात है?’’ मधुलिका मुसकराई.

‘‘मैं यह जानना चाहती हूं कि आप ने मुझे क्यों नकारा, क्यों मुझे दूसरों को पालने के लिए दे दिया? मां, मुझे मालूम हो चुका है कि मैं आप की बेटी हूं,’’ और कशिश ने चंडीगढ़ वाला किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘विभा और विकास ने तुम्हें क्या वजह बताई?’’ मधुलिका ने पूछा.

‘‘उन्हें मैं ने बताया ही नहीं कि मुझे सचाई पता चल गई है. वह दोनों मुझे इतना ज्यादा प्यार करते हैं कि  मैं कभी सपने में भी उन से कोई अप्रिय बात पूछ कर उन्हें दुखी नहीं कंरूगी.’’

‘‘यानी कि तुम्हें विभा और विकास से कोई शिकायत नहीं है?’’

‘‘कतई नहीं. लेकिन आप से है. आप ने क्यों मुझे अपने से अलग किया?’’

‘‘कमाल है, बजाय मेरा शुक्रिया अदा करने के कि तुम्हें इतने अच्छे मम्मीपापा दिए, तुम शिकायत कर रही हो?’’

‘‘सवाल अच्छेबुरे का नहीं बल्कि उन्हें दिया क्यों, यह है?’’

‘‘मान गए भई, पली चाहे कहीं भी हो, रहीं वकील की बेटी,’’ मधुलिका ने बात हंसी में टालनी चाही.

‘‘मगर वकील की बेटी को डाक्टर की बेटी कहलवाने की क्या मजबूरी थी?’’

‘‘मजबूरी कुछ नहीं थी बस, दोस्ती थी. विभा मां नहीं बन सकती थी और अनाथालय से किसी अनजान बच्चे को अपनाने में दोनों हिचक रहे थे. बेटे और बेटी के जन्म के बाद मेरा परिवार तो पूरा हो चुका था. सो जब तुम होने वाली थीं तो हम लोगों ने फैसला किया कि चाहे लड़का हो या लड़की यह बच्चा हम विभा और विकास को दे देंगे. ऐसा कर के मैं नहीं सोचती कि मैं ने तुम्हारे साथ कोई अन्याय किया है.’’

‘‘अन्याय तो खैर किया ही है. पहले तो सब ठीक था मगर असलियत जानने के बाद मुझे अपने असली मातापिता का प्यार चाहिए…’’

तभी कुछ खटका हुआ और एक प्रौढ़ पुरुष ने कमरे में प्रवेश किया. मधुलिका चौंक ०पड़ी.

‘‘आप इस समय यहां?’’

‘‘कोर्ट से लौट रहा था तो बाहर तुम्हारी गाड़ी देख कर देखने चला आया कि खैरियत तो है.’’

‘‘ऋचा की बरात में कशिश भी आई है. मुझ से अकेले में बात करना चाह रही थी, सो यहां बुलवा लिया,’’ मधुलिका ने कहा और कशिश की ओर मुड़ी,‘‘यह तुम्हारे देवेन अंकल हैं.’’

‘‘अंकल क्यों, पापा कहिए न?’’ कशिश नमस्ते कर के देवेन की ओर बढ़ी लेकिन देवेन उस की अवहेलना कर के मधुलिका के जांच कक्ष में

जाते हुए कड़े स्वर में बोले, ‘‘इधर आओ, मधु.’’

मधुलिका सहमे स्वर में कशिश को रुकने को कह कर परदे के पीछे चली गई.

‘‘यह सब क्या है, मधु? मैं ने तुम्हें कितना समझाया था कि अपने बेटेबेटी का प्यार और हक बांटने के लिए मुझे तीसरी औलाद नहीं चाहिए, तुम गर्भपात करवाओ. मगर तुम नहीं मानीं और इसे अपनी सहेली के लिए पैदा किया. खैर, उन के दिल्ली जाने के बाद मैं ने चैन की सांस ली थी मगर यह फिर टपक पड़ी मुझे पापा कहने, हमारे सुखी परिवार में सेंध लगाने के लिए. साफ कहे दे रहा हूं मधु, मेरे लिए यह अनचाही औलाद है. न मैं स्वयं इस का अस्तित्व स्वीकार करूंगा न अपने बच्चों…’’

कशिश आगे और नहीं सुन सकी. उस ने फौरन बाहर आ कर एक रिकशा रोका. अब उसे दिल्ली जाने का इंतजार था, जहां उस के मम्मीपापा व्यस्तता के बावजूद उस के बगैर बेहाल होंगे. प्यार जन्म से नहीं होता है. प्यार तो प्यार करने वालों से होता है और जो प्यार उसे अपने दिल्ली वाले मातापिता से मिला, उस का तो कोई मुकाबला ही नहीं.

 

पेड़ : कैसी लड़की थी सुलभा

चीनू की नन्हीनन्ही हथेलियां दूर होती चली गईं और धीरेधीरे एकदम से ओझल हो गईं.

पूरे 30 दिन से उन का घर गुलजार था. बच्चों के होहल्ले से भरा था. साल भर में उन के घर में 2 ही तो खुशी के मौके आते थे. एक गरमी की लंबी छुट्टियों में और दूसरा, दशहरे की छुट्टियों के समय.

उन दिनों नीरेंद्र की उजाड़ जिंदगी में हुलस कर बहार आ जाती थी. उस का जी करता था कि इस आए वक्त को रोक कर अपने घर में कैद कर ले. खूब नाचेगाए और जश्न मनाए, पर ऐसा हो कहां सकता था.

छोटी बहन के साथ 2 बच्चे, छोटे भाई के 2 बच्चे और बड़ी दीदी के दोनों बच्चे, पूरे 6 नटखट ऊधमी सदस्यों के आने से ऐसा लगता जैसे घर छोटा पड़ गया हो. बच्चे उस कमरे से इस कमरे में और इस कमरे से उस कमरे में भागे फिरते, चिल्लाते और चीजें बिखेरते रहते.

बच्चों के मुंह से ‘चाचीजी’, ‘मामीजी’ सुनसुन कर वे अघाते न थे. दिनरात उन की फरमाइशें पूरी करने में लगे रहते. किसी को कंचा चाहिए तो किसी को गुल्लीडंडा. किसी को गुडि़या तो किसी को लट्टू.

4 माह में जितना पैसा वे बैंक से निकाल कर अपने ऊपर खर्च करते थे, उस से भी ज्यादा बच्चों की फरमाइशें पूरी करने में उन दिनों खर्च कर देते. फिर भी लगता कि कुछ खर्च ही नहीं किया है. वे तो नईनई चीजें खरीदने के लिए बच्चों को खुद ही उकसाते रहते.

कभीकभी भाईबहनों को गुस्सा आने लगता तो वे उन्हें झिड़कते, ‘‘क्या करते हो भैया. सुबह से इन मामूली चीजों के पीछे लगभग 100 रुपए फूंक चुके हो. बच्चों की मांग का भी कहीं अंत है?’’

नीरेंद्र हंस देते, ‘‘अरे, रहने दो, यह इन्हीं का तो हिस्सा है. बस, साल में 10 दिन ही तो इन के चाव के होते हैं. देता हूं तो बदले में इन से प्यार भी तो पाता हूं.’’

सिर्फ 30 दिन का ही तो यह मेला होता है. बाद में बच्चों की बातें, उन की गालियां याद आतीं. उन की छोड़ी हुई कुछ चीजें, कुछ खिलौने संभाल कर वे उन निर्जीव वस्तुओं से बातें करते रहते और मन को बहलाते. उन की एक बड़ी अलमारी तो बच्चों के खिलौनों से भरी पड़ी थी.

इस तरह नीरेंद्र अपने अकेलेपन को काटते. हर बार उन का जी करता कि बच्चों को रोक लें, पर रोक नहीं पाते. न बच्चे रुकना चाहते हैं न माताएं उन्हें यहां रहने देना पसंद करती हैं. पहले तो उन के छोटे होने का बहाना था. बड़े हुए तो छात्रावास में डाल दिए गए. इसी से नीरेंद्र उन्हीं बच्चों में से एक को गोद लेना चाहते थे. मगर हर घर में 2 बच्चे देख खुद ही तालू से जबान लग जाती थी.

किसीकिसी साल तो ऐसा भी होता है कि 30 दिनों में भी कटौती हो जाती. कभीकभी बच्चे यहां आने के बजाय कश्मीर, मसूरी घूमने की ठान लेते. फिर तो ऐसा लगने लगता जैसे जीने का बहाना ही खत्म हो जाएगा. पिछले साल यही तो हुआ था. बच्चे रानीखेत घूमने की जिद कर बैठे थे और यहां आना टल गया था. किसी तरह छुट्टियों के 7-8 दिन बचा कर वे यहां आए थे तो उन का मन रो कर रह गया था.

कभीकभी नीरेंद्र को अपनेआप पर ही कोफ्त होने लगती कि क्यों वे अकेले रह गए? आखिर क्या कारण था इस का? पिता की असमय मृत्यु ने उन के घर को अनाथ कर दिया था. घर में वे सब से बड़े थे, इसलिए जिम्मेदारी निभाना उन्हीं का कर्तव्य था. घर में सभी को पढ़ाया- लिखाया. पूरी तरह से हिम्मत बांध कर उन के शादीब्याह किए तब कहीं जा कर अपने लिए विचार किया था.

नीरेंद्र सीधीसादी लड़की चाहते थे. मां ने उन के लिए सुलभा को पसंद किया था. सुलभा में कोई दोष न था. नीरेंद्र खुश थे कि उम्र उन के विवाह में बाधक नहीं बनी. इस से पहले जब वे भाईबहनों का घर बसा रहे थे तब सदा उन्हें एक ही ताना मिला था, ‘‘क्यों नीरेंद्र, ब्याह करोगे भी या नहीं? बूढ़े हो जाओगे, तब कोई लड़की भी न देगा. बाल पक रहे हैं, आंखों पर चश्मा चढ़ गया है और क्या कसर बाकी है?’’

सुन कर नीरेंद्र हंस देते थे, ‘‘चश्मा और पके बाल तो परिपक्वता और बुद्धिमत्ता की निशानी हैं. मेरी जिम्मेदारी को जो लड़की समझेगी वही मेरी पत्नी बनेगी.’’

सुलभा उन्हें ऐसी ही लड़की लगी थी. सगाई के बाद तो वे दिनरात सुलभा के सपने भी देखने लगे थे. उन्हें ऐसा लगता जैसे सुलभा उन की जिंदगी में एक बहार बन कर आएगी.

विवाह की तिथि को अभी काफी दिन थे. एक दिन इसी बीच वे सुलभा के साथ रात को फिल्म देख कर लौट रहे थे. अचानक कुछ बदमाशों ने सुलभा के साथ छेड़छाड़ की थी. नीरेंद्र को बुढ़ऊ कह कर ताना मार दिया था.

सुन कर नीरेंद्र को सहन न हुआ था और वे बदमाशों से उलझ पड़े थे, पर उन से वे कितना निबट सकते थे. अपनेआप से वे पहली बार हारे थे. गुस्सा आया था उन्हें अपनी कमजोरी पर. वे स्वयं को अत्यंत अपमानित महसूस कर रहे थे. हतप्रभ रह गए थे अपने लिए बुढ़ऊ शब्द सुन कर. उस शाम किसी तरह वे और सुलभा बच कर लौट तो आए थे मगर सुलभा ने दूसरे ही दिन सगाई की अंगूठी वापस भेज दी थी. शायद उसे भी यकीन हो गया था कि वे बूढ़े हो गए हैं.

‘अच्छा ही किया सुलभा ने.’ एक बार नीरेंद्र ने सोचा था. परंतु मन में अपनी हीनता और कमजोरी का एक दाग सा रह गया. विवाह से मन उचट गया, कोई इस विषय पर बात चलाए भी तो उस से उलझ बैठते. मां जब तक रहीं नीरेंद्र को शादी के लिए मनाती रहीं, समझाती रहीं.

मां की मृत्यु के बाद वह जिद और मनुहार भी खत्म हो गई. कुछ यह भी जिद थी कि अब इसी तरह जीना है. पहले भाईबहनों पर भरोसा था, पर वे अपनी- अपनी जिंदगी में लग गए तो उन्होंने उन्हें छेड़ना भी उचित न समझा.

हां, भाईबहनों के बच्चों ने अवश्य ही नीरेंद्र के अंदर एक बार गृहस्थी का लालच जगा दिया था. अंदर ही अंदर वे आकांक्षा से भर उठे कि उन्हें भी कोई पिता कहता. वे भी किसी के भविष्य को ले कर चिंता करते. वे भी कोई सपना पालते कि उन का बेटा बड़ा हो कर डाक्टर बनेगा या कोई उन का भी दुखसुख सुनता. सोतेजागते वे यही सोचा करते.

तब कभीकभी मन में मनाते कि कोई उन्हें क्यों नहीं कहता कि ब्याह कर लो. अकेले ही वे रसोईचूल्हे से उलझे हुए हैं कोई पसीजता क्यों नहीं, कोई अजूबा तो नहीं इस उम्र में ब्याह करना. बहुत से लोग कर रहे हैं.

नीरेंद्र अपनी जिंदगी की तुलना भाई की जिंदगी से करते. सोचते कि उन की और धीरेंद्र की सुबह में कितना अंतर है. वे 4 बजे का अलार्म लगा कर सोते. सोचते हुए देर रात गए उन्हें नींद आती. परंतु सुबह तड़के घड़ी की तेज घनघनाहट के साथ ही उन की नींद टूट जाती जबकि वे जागना नहीं चाहते. लेकिन जानते हैं कि सुबह के नाश्ते की तैयारी, कमरों की सफाई, कपड़ों की धुलाई आदि सब उन्हीं को ही करनी है.

मगर धीरेंद्र की सुबह भले ही झल्लाहट से शुरू हो लेकिन उत्सुकता से भरी जरूर होती है. 4 बजे का अलार्म बज जाए तो भी उसे कोई परवाह नहीं. नींद ही नहीं टूटती है. न जाने उसे कैसी गहरी नींद आती है.

घड़ी का कांटा जब 4 से 5 तक पहुंचता है तब उस की पत्नी चिल्लाती है, ‘‘उठो, दफ्तर जाने में देर हो जाएगी.’’

‘‘हूं,’’ धीरेंद्र उसी खर्राटे के साथ कहेगा, ‘‘क्या 5 बज गए?’’

‘‘तैयार होतेहोते 10 बज जाएंगे. फिर मुझे न कहना कि देर हो गई.’’

शायद फिर बच्चों को इशारा किया जाता होगा. पप्पू धीरेंद्र के बिछौने पर टूट पड़ता, ‘‘उठिए पिताजी, वरना पानी डाल दूंगा.’’

फिर वह बच्चों के अगलबगल बैठ कर कहता, ‘‘अरे, नहीं बाबा, मां से कहो कि चाय ले आए.’’

स्नानघर में जा कर भी धीरेंद्र बीवी से उलझता रहता, ‘‘मेरे कुरते में 2 बटन नहीं हैं और जूते के फीते बदले या नहीं? जाने मोजों की धुलाई हुई है या नहीं?’’

पत्नी तमक कर कहती, ‘‘केवल तुम्हें ही तो नौकरी पर नहीं जाना है, मुझे भी दफ्तर के लिए निकलना है.’’

‘‘ओह, तो क्या तुम्हारे ब्लाउज के बटन मुझे टांकने होंगे,’’ धीरेंद्र चुहल करता तो पत्नी उसे धप से उलटा हाथ लगाती.

इसे कोई कुछ भी कहे, पर नीरेंद्र का लोभी मन गृहस्थी के ऐसे छोटेमोटे सुखों की कान लगा कर आहट लेता रहता.

नीरेंद्र बेसन के खुशबूदार हलवे के बहुत शौकीन हैं. जी करता है नाश्ते में कोई सुबहसुबह हलवा परोस दे और वे जी भर कर खाएं. अम्मां थीं तो उन का यह पसंदीदा व्यंजन हफ्ते में 3-4 बार अवश्य मिला करता था. पर उन की मृत्यु के बाद सारे स्वाद समाप्त हो गए.

धीरेंद्र की पत्नी बेसन का हलवा देखते ही मुंह बनाती थी. खुद नीरेंद्र अम्मां की भांति कभी हलवा बना नहीं सके. अब तो बस हलवे की खुशबू मन में ही दबी रहती है.

धीरेंद्र को बेसन के पकौड़ों के एवज में कई बार बीवी के हाथ बिक जाना पड़ता है. बीवी का मन न हो तो कोई न कोई बात पक्की करवा कर ही वह पकौड़े बनाती है. नीरेंद्र भी अपने पसंद के हलवे पर नीलाम हो जाना चाहते हैं, पर वह नीलामी का चाव मन में ही दबा रह गया. अब तो रोज सुबह थोड़ा सा चिवड़ा फांक कर दफ्तर की ओर चल देते हैं.

दफ्तर में नए और पुराने सहयोगियों का रेला नीरेंद्र को देखदेख कर दबी मुसकराहट से अभिवादन करता. कम से कम इतनी तसल्ली तो जरूर रहती कि हर कोई उन से काम निकलवाने के कारण मीठीमीठी बातें तो जरूर करता है. उस के साहब, अपनीअपनी फाइल तैयार करवाने के चक्कर में उसे मसका लगाते रहते. किसी को पार्टी में जाना हो, पत्नी को ले कर बाजार जाना हो, बच्चे को अस्पताल पहुंचाना हो, तुरंत उन्हें पकड़ते. ‘‘नीरेंद्र, थोड़ा सा यह काम कर दो.’’

इतना ही नहीं दफ्तर के क्लर्क, चपरासी, माली, जमादार आदि अपने तरीके से इस अकेले व्यक्ति से नजराना वसूलते रहते. अगर देने में थोड़ी सी आनाकानी की तो वे लोग कह देते, ‘‘किस के लिए बचा रहे हो, बाबू साहब. आप की बीवी होती तो कहते, साड़ी की फरमाइश पूरी करनी है. बेटा होता तो कहते कि उस की पढ़ाई का खर्च है. अगर बेटी होती तो हम कभी धेला भी न मांगते…मगर कुंआरे व्यक्ति को भला कैसी चिंता?’’

पर धीरेंद्र को न तो दफ्तर में रुकने की जरूरत पड़ती और न ही अपने मातहतों के हाथ में चार पैसे धरने की नौबत आती. घर जल्दी लौटने के बहाने भी उसे नहीं बनाने पड़ते. खुद ही लोग समझ जाते हैं कि घर में देरी की तो जनाब की खैर नहीं.

पर नीरेंद्र किस के लिए जल्दी घर लौटें. बालकनी में टहलते ठीक नहीं लगता. अपनीअपनी छतों पर टहलते जोड़ों का आपस में हंसीमजाक सुनना अब उन से सहन नहीं होता. बारबार  लगता है जैसे हर बात उन्हें ही सुनाई जा रही है. खनकती, ठुनकती हंसी वे पचा नहीं पाते. घर के अंदर भाग कर आएं तो मच्छरों की भूखी फौज उन की दुबली देह पर टूट पड़ती है. तब एक ही उपाय नजर आता है कि मच्छरदानी गिरा कर अंदर घुस जाएं और घड़ी के भागते कांटों को देखते हुए समय निकालते रहें.

इसीलिए नीरेंद्र कभीकभी वैवाहिक विज्ञापनों में स्वयं ही अपने लिए उपयुक्त पात्र तलाशने लगते हैं. पर ऐसा कभी न हो सका. कई बार समझौतों के सहारे लगा कि बात बनेगी परंतु विवाह के लिए समझौता करना उन्हें उचित नहीं लगा. अकेलेपन के कारण झिझकते हुए उन्होंने छोटे भाई की लड़की नीलू को अपने पास रख लेने का प्रस्ताव किया तो वह बचने लगा था, ‘‘पता नहीं, बच्ची की मां राजी होगी या नहीं?’’

पर नीरेंद्र बजाय बच्ची की मां से पूछने के छोटी बहन के सामने ही गिड़गिड़ा उठे थे, ‘‘कामिनी, मैं चाहता हूं, क्यों न आशू यहीं मेरे साथ रहे. उस का जिम्मा मैं उठाऊंगा.’’

‘‘आशू?’’ बहन की आंखें झुक गईं, ‘‘बाप रे, इस की दादी तो मुझे काट कर रख देंगी.’’

जवाब सुन कर नीरेंद्र चकित रह गए थे, ‘अरे यह क्या? अपनी लगभग सारी कमाई इन के बच्चों पर उड़ाता हूं. कितने दुलार से यहां उन्हें रखता हूं. हर वर्ष राखी पर मुंहमांगी चीज बहन के हाथ में रखता हूं. इतना ही नहीं, किसी भी बच्चे को कुछ भी चाहिए तो साधिकार माएं चालाकी से उन की फरमाइश लिख भेजती हैं, लेकिन क्या कोई भी अपने एक बच्चे को मेरे पास नहीं छोड़ सकती. कल को वह बच्चा मेरी पूरी संपत्ति का वारिस होगा, लेकिन सब ने मेरी मांग ठुकरा दी.’

‘‘अच्छा, आशू से ही पूछती हूं,’’ बहन ने आशू को आवाज दी थी.

नीरेंद्र उस की बातों से बेजार छत ताकने लगे थे, लेकिन आशू को सिर्फ उन की चीजें ही अच्छी लगती थीं.

कुंआरे रह कर नीरेंद्र लोगों के लिए सिर्फ एक पेड़ बन कर रह गए थे, जिसे जिस का जी चाहे, नोचे, फलफूल, लकड़ी आदि प्रत्येक रूप में उस का उपयोग करे. अपने लिए भी वे एक पेड़ की भांति थे. जैसे बसंत के मौसम में पेड़ों के नए फूलपत्ते आते हैं उसी प्रकार वे भी किसी पेड़ की तरह हरेभरे हो जाते. क्या उन्हें वर्ष भर मुसकराने का हक नहीं है? स्वयं के नोचे जाने के विरोध का भी कोई अधिकार नहीं है?

पति-पत्नी के रिश्ते को किया बदनाम

दक्षिणपूर्वी दिल्ली के थाना शाहीनबाग के अंतर्गत नई बस्ती ओखला के रहने वाले कपिल की ससुराल उत्तर प्रदेश के जिला फिरोजाबाद के आसफाबाद में थी.

करीब 3 साल पहले किसी बात को ले कर उस का अपनी पत्नी खुशबू से विवाद हो गया था. तब खुशबू अपने मायके चली गई थी और वापस नहीं लौटी थी. इतना ही नहीं, ढाई साल पहले खुशबू ने फिरोजाबाद न्यायालय में कपिल के खिलाफ घरेलू हिंसा व गुजारा भत्ते का मुकदमा दायर कर दिया था.

कपिल हर तारीख पर फिरोजाबाद कोर्ट जाता था और तारीख निपटा कर देर रात दिल्ली लौट आता था. 10 फरवरी, 2020 को भी वह इसी मुकदमे की तारीख के लिए दिल्ली से फिरोजाबाद आया था. वह रात को घर नहीं पहुंचा तो घर वालों ने उसे 11 फरवरी की सुबह फोन किया. लेकिन उस का फोन बंद मिला. इस से घर वाले परेशान हो गए. उन्होंने 11 फरवरी की शाम तक कपिल का इंतजार किया. इस के बाद उन की चिंता और भी बढ़ गई.

12 फरवरी को कपिल की मां ब्रह्मवती, बहन राखी, मामा नेमचंद और मौसी सुंदरी फिरोजाबाद के लिए निकल गए. कपिल की ससुराल वाला इलाका थाना रसूलपुर क्षेत्र में आता है, इसलिए वे सभी थाना रसूलपुर पहुंचे और कपिल के रहस्यमय तरीके से गायब होने की बात बताई.

थाना रसूलपुर से उन्हें यह कह कर थाना मटसैना भेज दिया गया कि कपिल कोर्ट की तारीख पर आया था और कोर्ट परिसर उन के थानाक्षेत्र में नहीं बल्कि थाना मटसैना में पड़ता है. इसलिए वे सभी लोग उसी दिन थाना मटसैना पहुंचे, लेकिन वहां भी उन की बात गंभीरता से नहीं सुनी गई. ज्यादा जिद करने पर मटसैना पुलिस ने कपिल की गुमशुदगी दर्ज कर ली. गुमशुदगी दर्ज कर के उन्हें थाने से टरका दिया. इस के बाद भी वे लोग कपिल की फिरोजाबाद में ही तलाश करते रहे.

इसी बीच 15 फरवरी की दोपहर को किसी ने थाना रामगढ़ के बाईपास पर स्थित हिना धर्मकांटा के नजदीक नाले में एक युवक की लाश पड़ी देखी. इस खबर से वहां सनसनी फैल गई. कुछ ही देर में भीड़ एकत्र हो गई. इसी दौरान किसी ने इस की सूचना रामगढ़ थाने में दे दी.

कुछ ही देर में थानाप्रभारी श्याम सिंह पुलिस टीम के साथ मौके पर पहुंच गए. उन्होंने शव को नाले से बाहर निकलवाया. मृतक के कानों में मोबाइल का ईयरफोन लगा था.

पुलिस ने युवक की शिनाख्त कराने की कोशिश की, लेकिन वहां मौजूद लोगों में से कोई भी उसे नहीं पहचान सका. पुलिस ने उस अज्ञात युवक की लाश पोस्टमार्टम के लिए जिला चिकित्सालय फिरोजाबाद भेज दी.

कपिल की मां ब्रह्मवती और बहन राखी उस समय फिरोजाबाद में ही थीं. शाम के समय जब उन्हें बाईपास स्थित नाले में पुलिस द्वारा किसी अज्ञात युवक की लाश बरामद किए जाने की जानकारी मिली तो मांबेटी थाना रामगढ़ पहुंच गईं. उन्होंने थानाप्रभारी श्याम सिंह से अज्ञात युवक की लाश के बारे में पूछा तो थानाप्रभारी ने उन्हें फोन में खींचे गए फोटो दिखाए.

फोटो देखते ही वे दोनों रो पड़ीं, क्योंकि लाश कपिल की ही थी. इस के बाद थानाप्रभारी ब्रह्मवती और उस की बेटी राखी को जिला अस्पताल की मोर्चरी ले गए. उन्होंने वह लाश दिखाई तो दोनों ने उस की शिनाख्त कपिल के रूप में कर दी. लाश की शिनाख्त हो जाने के बाद थानाप्रभारी ने भी राहत की सांस ली.

थानाप्रभारी ने शव की शिनाख्त होने की जानकारी एसपी (सिटी) प्रबल प्रताप सिंह को दे दी और उन के निर्देश पर आगे की काररवाई शुरू कर दी.

थानाप्रभारी श्याम सिंह ने मृतक कपिल की मां ब्रह्मवती और बहन राखी से बात की तो उन्होंने बताया कि कपिल की पत्नी खुशबू चरित्रहीन थी.

इसी बात पर कपिल और खुशबू के बीच अकसर झगड़ा होता था, जिस के बाद खुशबू मायके में आ कर रहने लगी थी. राखी ने आरोप लगाया कि खुशबू ने ही अपने परिवार के लोगों से मिल कर उस के भाई की हत्या की है.

पुलिस ने राखी की तरफ से मृतक की पत्नी खुशबू, सास बिट्टनश्री, साले सुनील, ब्रजेश, साली रिंकी और सुनील की पत्नी ममता के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दी.

चूंकि रिपोर्ट नामजद थी, इसलिए पुलिस आरोपियों की तलाश में जुट गई. पुलिस ने मृतक की पत्नी खुशबू व उस की मां को हिरासत में ले लिया. उन से कड़ाई से पूछताछ की गई. खुशबू से की गई पूछताछ में पुलिस को कोई खास जानकारी हाथ नहीं लगी, बस यही पता चला कि कपिल पत्नी के चरित्र पर शक करता था.

फिर भी पुलिस यह समझ गई थी कि एक अकेली औरत कपिल का न तो मर्डर कर सकती है और न ही शव घर से दूर ले जा कर नाले में फेंक सकती है. पुलिस चाहती थी कि कत्ल की इस वारदात का पूरा सच सामने आए.

इस बीच जांच के दौरान पुलिस को एक अहम सुराग हाथ लगा. किसी ने थानाप्रभारी को बताया कि खुशबू चोरीछिपे अपने प्रेमी चंदन से मिलती थी. दोनों के नाजायज संबंधों का जो शक किया जा रहा था, उस की पुष्टि हो गई.

जाहिर था कि हत्या अगर खुशबू ने की थी तो कोई न कोई उस का संगीसाथी जरूर रहा होगा. इस बीच पुलिस की बढ़ती गतिविधियों और खुशबू को हिरासत में लिए जाने की भनक मिलते ही खुशबू का प्रेमी चंदन और उस का साथी प्रमोद फरार हो गए.

इस से उन दोनों पर पुलिस को शक हो गया. उन की सुरागरसी के लिए पुलिस ने मुखबिरों का जाल फैला दिया. मुखबिर की सूचना पर घटना के तीसरे दिन पुलिस ने खुशबू के प्रेमी चंदन व उस के साथी प्रमोद को कनैटा चौराहे के पास से हिरासत में ले लिया. दोनों वहां फरार होने के लिए किसी वाहन का इंतजार कर रहे थे.

थाने ला कर दोनों से पूछताछ की गई. थाने में जब चंदन और प्रमोद से खुशबू का आमनासामना कराया गया तो तीनों सकपका गए. इस के बाद उन्होंने आसानी से अपना जुर्म कबूल कर लिया.

अपराध स्वीकार करने के बाद पुलिस ने खुशबू, उस के प्रेमी चंदन उर्फ जयकिशोर निवासी मौढ़ा, थाना रसूलपुर, उस के दोस्त प्रमोद राठौर निवासी राठौर नगर, आसफाबाद को कपिल की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया.

उन की निशानदेही पर पुलिस ने हत्या में प्रयुक्त रस्सी, मोटा सरिया व मोटरसाइकिल बरामद कर ली. खुशबू ने अपने प्यार की राह में रोड़ा बने पति कपिल को हटाने के लिए प्रेमी व उस के दोस्त के साथ मिल कर हत्या का षडयंत्र रचा था. खुशबू ने पति की हत्या की जो कहानी बताई, वह इस तरह थी-

दक्षिणपूर्वी दिल्ली की नई बस्ती ओखला के रहने वाले कपिलचंद्र  की शादी सन 2015 में खुशबू के साथ हुई थी. शादी के डेढ़ साल तक सब कुछ ठीकठाक रहा. कपिल की गृहस्थी हंसीखुशी से चल रही थी. करीब 3 साल पहले जैसे उस के परिवार को नजर लग गई. हुआ यह कि खुशबू अकसर मायके चली जाती थी. इस से कपिल को उस के चरित्र पर शक होने लगा. इस के बाद पतिपत्नी में तकरार शुरू हो गई.

पतिपत्नी में आए दिन झगड़े होने लगे. गुस्से में कपिल खुशबू की पिटाई भी कर देता था. गृहक्लेश के चलते खुशबू अपने बेटे को ले कर अपने मायके में आ कर रहने लगी. ढाई साल पहले उस ने कपिल पर घरेलू हिंसा व गुजारा भत्ते के लिए फिरोजाबाद न्यायालय में मुकदमा दायर कर दिया.

मायके में रहने के दौरान खुशबू के अपने पड़ोसी चंदन से प्रेम संबंध हो गए थे. हालांकि चंदन शादीशुदा था और उस की 6 महीने की बेटी भी थी. कहते हैं

प्यार अंधा होता है. दोनों एकदूसरे को दिलोजान से चाहने लगे थे. मायके में रहने के दौरान चंदन खुशबू के पति की कमी पूरी कर देता था. लेकिन ऐसा कब तक चलता.

एक दिन खुशबू ने चंदन से कहा, ‘‘चंदन, हम लोग ऐसे चोरीछिपे आखिर कब तक मिलते रहेंगे. तुम मुझ से शादी कर लो. मैं अपने पति से पीछा भी छुड़ाना चाहती हूं. लेकिन वह मुझे तलाक नहीं दे रहा. अगर तुम रास्ते के इस कांटे को हटा दोगे तो हमारा रास्ता साफ हो जाएगा.’’

दोनों एकदूसरे के साथ रहना चाहते थे. चंदन को खुशबू की सलाह अच्छी लगी. इस के बाद खुशबू व उस के प्रेमी चंदन ने मिल कर एक षडयंत्र रचा.

मुकदमे की तारीख पर खुशबू और कपिल की बातचीत हो जाती थी.

खुशबू ने चंदन को बता दिया था कि कपिल हर महीने मुकदमे की तारीख पर फिरोजाबाद कोर्ट में आता है. 10 फरवरी को अगली तारीख है, वह उस दिन तारीख पर जरूर आएगा. तभी उस का काम तमाम कर देंगे.

कपिल 10 फरवरी को कोर्ट में अपनी तारीख के लिए आया. कोर्ट में खुशबू व कपिल के बीच बातचीत हो जाती थी. कोर्ट में तारीख हो जाने के बाद खुशबू ने उसे बताया, ‘‘अपने बेटे जिगर की तबीयत ठीक नहीं है. वह तुम्हें बहुत याद करता है. उस से एक बार मिल लो.’’

अपने कलेजे के टुकड़े की बीमारी की बात सुन कर कपिल परेशान हो गया और तारीख के बाद खुशबू के साथ अपनी ससुराल पहुंचा.

कपिल शराब पीने का शौकीन था. खुशबू के प्रेमी व उस के दोस्त ने कपिल को शराब पार्टी पर आमंत्रित किया. शाम को ज्यादा शराब पीने से कपिल नशे में चूर हो कर गिर पड़ा.

कपिल के गिरते ही खुशबू ने उस के हाथ पकड़े और प्रेमी चंदन व उस के साथी प्रमोद ने साथ लाई रस्सी से कपिल के हाथ बांधने के बाद उस के सिर पर मोटे सरिया से प्रहार कर उस की हत्या कर दी.

कपिल की हत्या इतनी सावधानी से की गई थी कि पड़ोसियों को भी भनक नहीं लगी. हत्या के बाद उसी रात उस के शव को मोटरसाइकिल से ले जा कर बाईपास के किनारे स्थित नाले में डाल दिया गया. 15 फरवरी को शव से दुर्गंध आने पर लोगों का ध्यान उधर गया.

एसपी (सिटी) प्रबल प्रताप सिंह ने बताया कि कपिल की हत्या के मुकदमे में नामजद आरोपियों की भूमिका की जांच की जा रही है. जो लोग निर्दोष पाए जाएंगे, उन्हें छोड़ दिया जाएगा.

पुलिस ने तीनों हत्यारोपियों को गिरफ्तार करने के बाद न्यायालय में पेश किया, जहां से तीनों को जेल भेज दिया गया. निजी रिश्तों में आई खटास के चलते खुशबू ने अपनी मांग का सिंदूर उजाड़ने के साथ पतिपत्नी के पवित्र रिश्ते को कलंकित कर दिया. वहीं कांच की चूडि़यों से रिश्तों को जोड़ने के लिए मशहूर सुहागनगरी फिरोजाबाद को रिश्तों के खून से लाल कर दिया.

हास्य कहानी: पत्र बम, क्या लिखा था उस चिट्ठी में

शहर का एक दूसरा बड़ा वर्ग धनिक होने की दौड़ में लगा मध्यवर्ग है. जिसके हाथों में अनायास ही शहर की नब्ज है. क्योंकि इसके पास वक्त है. काम है दो, पहला परिवार की पोषण और शहर की… नेता, व्यापारी, छोटे ठेकेदार इस वर्ग में परीगणित किए जा सकते हैं. पार्टियों के प्रमुख ओहदे इन्हीं की जेब में है क्योंकि मंत्री बड़े नेताओं के मुंह लगे हुए चारण हैं .

मुंह इसलिए की चुनाव के दरम्यान संचालक बन कर नेताजी के लिए वैतरणी तैयार करते हैं. शहर का तीसरा तबका बुद्धिजीवियों का है. एक समय तो शहर की धड़कन पर हाथ रखा करता था. छोटा शहर, गांव सदृश्य कस्बा,अभी शहर नहीं बना था. उद्योग कोयला खदानें खुल रही थी. ऐसे समय में बुद्धिजीवी अवतीर्ण हुए और शहर की दिशा देने लगे. इस बीच द्वितीय वर्ग तेजी से उभरा और राजनीति और अर्थतंत्र पर काबिज हो गया. बुद्धिजीवियों की बखत बढ़ती चली गई.

हमारे शहर की ऐसी ही परिस्थितियां है. इन झंझावात में प्रौढ होते शहर को मैंने नजदीक से देखा है .घात प्रतिघात, द्वेष, ईष्या के साथ धड़कता मेरा औद्योगिक शहर या कहें उद्योगपुरी. हां यहाँ बात बे बात एक अनाम पत्र जारी होते है, जो उभरती शक्ति को पटखनी देने की कोशिश में रहते हैं. अकस्मात शुरू होता है शहर के स्वनाम धन्य लोगों की छवि पर प्रश्नचिन्ह लगाने का काम! वह कभी झूठ का पुलिंदा होता है तो कभी सच का आईना भी. तो मैंने देखा,वर्षो पूर्व पत्र जारी होते थे. सुबह देखा! एक चिट्ठी पड़ी है .

एक बड़ा खुलासा करती हुई. मगर किसी लिखने वाले का नाम नहीं है. किसी का मान मर्दन करने का अच्छा तरीका इख्तियार किया है. थोड़ा सा विवाद या द्वेष और जारी हो गया पत्रबम! मजे की बात यह है की यह पत्र शहर के कुछ नामचीन लोगों को ही जारी होता है. कुछ प्रतियो में, फिर एक शख्स दूसरे और दूसरा तीसरे को फोटो कापियां करवा करवा कर देता जाता है.

मैंने देखा है इस काम में बड़ा रस आता है. जो शख्सियत पत्र पाती है, बिल्कुल सरल बन जाती है. सहजता भोलापन मुंह से टपकने लगता है. मन ही मन प्रसन्न होता है. स्वयं में गौरवान्वित. आह ! शहर में कुछ लोगों को मिला है, यह गौरव गान करता पंपलेट, मैं उनमें एक हूं. आस-पास वालों को दानवीर की भांति देखता है. हाय… निरीह प्राणी ! तुम्हें तो कोई गिनता भी नहीं है ! मुझे देखो पत्र मेरे पास आया है. फिर बड़ा दानवीर बन उसकी छाया प्रतियां बांटता है.

हाय… अगर बुद्धिजीवी उस कथित पत्र को वहीं रोक ले तो कितना भला हो… मगर फिर रस कैसे प्रसारित होगा ! इतने दिनों बाद मौका आया है सगर्व छोटे बुद्धिजीवी से पूछता है-‘ क्यों, पर्चा आया है क्या ?’
छोटा बुद्धिजीवी- ‘पत्र ? कैसा पत्र .’
बुद्धिजीवी-‘वही जो डाक से कल आया है ?’
छोटे बुद्धिजीवी का चेहरा उतर जाता है-“अरे! हमारी कोई बखत नहीं.” फिर एक प्रति, छाया प्रति करवा कर उस पाकिट में ऐसे रखता है जैसे कोई बड़ा मैदान मार लिया हो. खुद तीसमार खां हो.

मैं सोचता हूं- चिट्ठी बंटी होगी सिर्फ दस. देखते देखते छाया प्रतिया होकर सैकड़ों में तब्दील हो जाती है. हर आदमी पत्र में प्रस्तुत नायक! के प्रति या तो सम्मान का भाव रखता है या फिर दुराव का .सीधी सी बात है जिस शख्स को अपनी पत्र बम विद्या से ओपन करने का प्रयास किया गया है वह कोई आम आदमी तो होता नहीं .वह या तो शहर की प्रतिष्ठित शख्सियत होता है या शक्ति केंद्र या फिर नया-नया विकसित होता एक शक्ति ध्रुव.

ऐसी विभूति से लोग संबंध बिगाड़ नही चाहते हैं. सामने सिंपैथी के दो शब्द-‘भाई साहब! बड़ा नीच आदमी है वह, जिसने आपके प्रति ऐसा दुष्प्रचार किया.’
‘अब क्या करें? कौन कर सकता है?’ वाह भाव हीन स्वर में कहता है.
“अगर हिम्मत थी, मर्द है तो सामने आता .पीठ पीछे लुकाछिपी कर घात, नामर्द कही का!”

मैं देखता हूं, अधिसंख्य लोग पत्र कांड का आनंद लेते हैं. पत्र को ऐसे सहेज कर रखते हैं, मानो जमीन नामजद खरीदी का रजिस्ट्री विलेख हो या फिर प्रेम पत्र. शहर में आज तलक दर्जनों पत्र कांड हुए हैं. वर्षों पूर्व नगर के वरिष्ठतम पत्रकारों के खिलाफ एक पत्र जारी हुआ था.

रोहरानंद उन दिनों उदयीमान था .सोचा, कभी मेरे खिलाफ भी ऐसा होगा क्या ? और एक दिन हुआ… समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ… “भेड़िए की शक्ल में, पूरा ब्लैकमेलर!” पढ़कर कर मैं बहुत खुश हुआ. लगा अब मैं भी प्रतिष्ठित पत्रकार बन गया. उसे मैंने सहेज कर वर्षों तक रखा. अक्सर मन बहलाने के लिए यानी अवासादपूर्ण क्षणों में उसे पढ़ता और मन प्रसन्न हो जाता. सच! इसको भी वर्षो हो गए… इंतजार है कब दूसरा पत्रबम जारी हो और सनसनी रस वर्षा हो…आह…!

काबुल से कैलिफोर्निया : क्या था मेरा उससे रिश्ता

हम दिल्ली में रहते थे. मेरे पति केंद्रीय संस्थान में वरीय अधिकारी थे. हमारे 2 बच्चे हैं, एक बेटा और एक बेटी. मेरी बेटी अनीता छोटी है. उन दिनों अफगानिस्तान के पठान दिल्ली में अकसर आते थे. दिल्ली की कालोनियों और गलियों में घूमघूम कर ड्राईफूट्स, बादाम, अखरोट, अंजीर बेचा करते थे. साथ में अकसर शुद्ध प्राकृतिक हींग भी रखते थे. कभी महीने में एक बार तो कभी 2 महीने में एक बार आते थे. मैं एक पठान से ड्राईफूट्स और हींग लिया करती थी. अकसर खरीदते समय मेरे बेटी अनीता भी साथ होती. करीब 4 साल की थी वह उस समय. वह पठान कुछ ड्राईफू्रट्स मेरी बेटी के हाथ में जरूर रख देता था. वह पिछले 5 सालों से लगातार आ रहा था. अनीता को बहुत प्यार करता था. बीचबीच में वह काबुल भी जाया करता.

अनीता ने हाल ही में हम लोगों के साथ हिंदी फिल्म ‘काबुलीवाला’ देखी थी, इसलिए वह उस पठान को काबुलीवाले अंकल ही बोला करती थी. जब दूर से ही उस की आवाज सुनती, दौड़ कर ‘काबुलीवाला आया’ बोल कर दरवाजे पर जा कर खड़ी हो जाती और मुझे जोरजोर से आवाज दे कर बुलाती.

हालांकि उस ने अपना नाम अजहर बताया था, पर हम सब उसे काबुलीवाला या पठानभाई ही कहते थे. वह बोला करता कि काबुल में हिंदी फिल्में और हिंदी गाने काफी लोकप्रिय हैं. कुछ हिंदी फिल्मों के नाम भी बताए थे. ‘कुर्बानी’, ‘धर्मात्मा’, ‘धर्मवीर’, ‘शोले’ आदि जो फिल्में उस ने देखी थीं. उसे दिल्ली शहर भी बहुत पसंद था. 80 के दशक की शुरुआत तक तो काबुलीवाला आया करता था. उस के बाद उस का आना अचानक बंद हो गया.

फिर अचानक एक दिन 1984 के मध्य में हमारे घर पर वह आया. उस के साथ उस की 10 साल की बेटी जाहिरा भी थी. जाहिरा बहुत ही सुंदर लड़की थी. वह साथ में कुछ ड्राईफ्रूट्स भी लाया था. उस ने अनीता के बारे में पूछा, तो मैं ने उसे आवाज दे कर बुलाया. अनीता और जाहिरा दोनों लगभग हमउम्र ही थीं.

अनीता ने आ कर कहा, ‘काबुलीवाले अंकल, इतने दिन आप कहां रह गए थे? आप काफी दिनों के बाद आ रहे हैं?’

मैं ने भी अनीता की बात दोहराई. पहले उस ने ड्राईफ्रूट्स अनीता को दिए. फिर कुछ ड्राईफ्रूट्स के पैकेट मुझे दिए. मैं ने कहा, ‘आजकल क्या रेट चल रहा है, मुझे पता नहीं, तुम बताओ कितने रुपए दे दूं, पठानभाई?’

तब वह बोला, ‘मुझे आप पुराने रेट से ही दे दो. आजकल तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है हम लोगों पर. हम आप के वतन में रिफ्यूजी बन कर आए हैं.’

मेरे, ऐसा क्या हो गया, पूछने पर उस ने कहा, ‘हमारे वतन में तो काफी दिनों से जंग चल रही है. जब से रूसी आए हैं, अमन छिन गया है. रोज गोलाबारूद, बम से न जाने कितनी जानें जा रही हैं. मुजाहिदीनों और रूसियों के बीच पिस कर रह गए हम लोग. हजारों लोग वतन छोड़ कर पाकिस्तान, ईरान, हिंदुस्तान भाग कर रिफ्यूजी कैंप में बसर कर रहे हैं. मैं तो आप के मुल्क से वाकिफ हूं, इसीलिए दिल्ली आ गया अपनी बीवी और बच्ची के साथ.’

इतना कहतेकहते वह बच्ची का हाथ पकड़ कर रोने लगा. मैं ने अनीता को कुछ स्नैक्स और मिठाई लाने को कहा और पूछा, ‘पठानभाई, बोलो क्या पिओगे ठंडा या गरम? तुम्हारी बेटी पहली बार आई है.’

इतना बोल कर मैं ने जाहिरा का हाथ पकड़ कर अपने पास खींचते हुए कहा, ‘बेटा, दिल्ली की लस्सी मशहूर है, पिओगी?’

उस ने कहा ‘हां, पिऊंगी. अब्बू भी बोलते हैं यहां की लस्सी बहुत उम्दा होती है.’

मैं पठान की ओर देख कर बोली, ‘अरे, यह तो हिंदी बोल लेती है.’

पठान बोला, ‘हम लोगों ने हिंदी सिनेमा देख कर हिंदी बोलना सीख लिया है.’

अनीता मिठाई, स्नैक्स और लस्सी ले कर आई. पठान और जाहिरा ने निसंकोच खाया भी. मैं ने उस से जब पूछा कि क्या अब वह दिल्ली में ही रहेगा तो उस ने कहा, ‘मेरा बड़ा भाई अमेरिका में है. वह मुझे, मेरी पत्नी और जाहिरा को स्पौंसर कर अमेरिका बुला रहा है.’

मैं ने जब कहा कि क्या इंडिया उसे अच्छा नहीं लगता कि इतनी दूर जा रहा है तो वह बोला, ‘आप का वतन तो बहुत प्यारा है. पर सुना था कि यहां सिर्फ 1 साल का ही वीजा मिलता है. फिर हर साल वीजा 1 साल और आगे बढ़ाना होगा. अमेरिका जा कर वहां मैं रिफ्यूजी होते हुए ग्रीनकार्ड की अर्जी दूंगा और जल्द ही ग्रीनकार्ड मिल भी जाएगा. हमारे वतन के बहुत लोग वहां पहले से ही गए हैं. हम लोग दिल्ली में अंगरेजी बोलना सीख रहे हैं.’

मैं ने जाहिरा के हाथ में 500 रुपए अलग से दे कर कहा कि इस से तुम एक इंडियन ड्रैस ले लेना.

उस के बाद वह फिर 1985 के आरंभ में हमलोगों से मिलने आया. इस बार उस की पत्नी और बेटी भी साथ थी. उस ने बताया कि वे एक सप्ताह में अमेरिका जा रहे हैं. यह इंडिया में हमारी आखिरी मुलाकात थी.

इस के बाद वर्षों बीत गए, लगभग 20 वर्ष. इस बीच दुनिया काफी बदल गई. कितनी जंगें हुईं-इराक, अफगानिस्तान, कारगिल न जाने कितने खूनखराबे, आतंकी घटनाएं हुईं. मैं कैलिफोर्निया की सिलिकौन वैली के एक शहर फ्रेमौंट में आई हूं. मेरे बच्चे यहीं सैटल्ड हैं. यहां अकसर आनाजाना लगा रहता है.

एक दिन मैं वालमार्ट गई थी शौपिंग के लिए. वहां पेमैंट लेन में मेरे आगे एक लड़की थी, उस के साथ एक बुजुर्ग महिला भी थी. लड़की तो रंगरूप, पहनावे से अमेरिकन लग रही थी. पर उस के साथ वाली महिला अपने सिर और गले में स्कार्फ बांधे थी, जैसा कि अकसर मुसलिम महिलाएं यहां बांधा करती हैं. लड़की का चेहरा जानापहचाना लगा, पर मैं ने संकोचवश उस से कुछ नहीं पूछा था. वह मेरे आगे लाइन में खड़ी थी. उस ने मुझे देखा था. अपने देश में होती तो जरूर पूछ लेती.

इस के एक सप्ताह बाद मेरी बेटी ने पार्टटाइम ड्राइवर और डोमैस्टिक हैल्प के लिए विज्ञापन दिया था अपने मोबाइल नंबर के साथ. मेरी बेटी को एक लड़की ने फोन कर कहा कि वह काम के सिलसिले में मिलना चाहती है. बेटी उस समय औफिस में थी. बेटी ने उसे बताया कि मम्मी घर पर हैं, जा कर काम समझ कर बात कर ले. थोड़ी देर में घर की कौलबैल बजी. मैं ने दरवाजा खोला तो देखा कि वही लड़की सामने थी. कुछ पल के लिए दोनों एकदूसरे को देखते रहे थे.

फिर मैं ने पूछा, ‘‘कहीं तुम जाहिरा तो नहीं?’’

वह बोली, ‘‘और आप दिल्लीवाली आंटी?’’

मैं ने उसे अंदर आने को कहा और पूछा, ‘‘क्या कल तुम वालमार्ट में थी?’’ जाहिरा ने कहा, ‘‘हां, मैं और मम्मी दोनों थे. आप ने देखा था क्या?’’

मेरे हां कहते ही वह बोली, ‘‘अगर देखा तो आप ने बात क्यों नहीं की?’’

मैं ने कहा कि तुम तो बिलकुल अमेरिकन दिख रही थी और वैसे भी अमेरिका में बेवजह और बिना जानेपहचाने टोकना मुझे ठीक नहीं लगा था.

इस पर वह बोली, ‘‘यहां तो सभी एकदूसरे के नाम से ही पुकारते हैं, पर मैं तो उसी पुराने रिश्ते से आप को आंटी ही पुकारूंगी. आप को कोई एतराज तो नहीं है?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं.’’

जाहिरा बोली, ‘‘मैं तो आप की बेटी के कहने पर यहां काम के लिए आई हूं.’’

वैसे तो मैं मुसलिम लड़की रखने में डरती थी, फिर भी उस के प्रति ऐसी भावना मेरे मन में नहीं आई. मैं बोली, ‘‘काम तुम्हें बाद में बताऊंगी, पहले तुम यह बताओ कि काबुल से कैलिफोर्निया तक कैसे आई और यहां तुम्हारे मम्मीपापा सब कैसे हैं? तुम अभी तक हिंदी अच्छी तरह बोल लेती हो.’’

वह बोली, ‘‘थैंक्स टू बौलीवुड, और हिंदी टीवी सीरियल्स हिंदी सिखाने के लिए. यहां घर में हमलोग फारसी में बात करते हैं और बाहर दूसरे लोगों से अंगरेजी में.’’

मैं ने उस से कहा, ‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है कि तुम 3 भाषाएं जानती हो.’’

फिर उस ने बोलना शुरू किया, ‘‘मेरे बड़े चाचा काबुल में अमेरिकी एंबैसी में काम करते थे. वे बहुत पहले ही अमेरिका आ गए  थे. उन्होंने हम लोगों को स्पौंसर कर यहां का वीजा दिलाया. बाद में हम ने रिफ्यूजी होने के आधार पर ग्रीनकार्ड के लिए अप्लाई किया जो 6 महीने में ही मिल गया. फिर लगभग 5 साल के अंदर ही यहां की नागरिकता भी मिल गई.’’

मैं ने उस से पूछा, ‘‘और कितने लोग अफगानिस्तान से यहां आ कर शरण लिए हुए हैं?’’ उस ने बताया, ‘‘अफगान युद्ध के पहले बहुत ही कम अफगानी लोग अमेरिका में थे. लेकिन रूसी और मुजाहिदीनों के बीच लड़ाई के चलते बड़ी बरबादी हुई और लोग देश छोड़ कर भागने लगे थे. फिलहाल 1 लाख से थोड़े ही कम अफगानी लोग अमेरिका में हैं. इन में ज्यादातर लोग कैलिफोर्निया में हैं. उस में भी फ्रेमौंट शहर में सब से ज्यादा अफगानी शरणार्थी बसे हैं. इस के बाद दूसरे नंबर पर उत्तर वर्जीनिया है. अमेरिकी सरकार ने उन की काफी सहायता की है. सस्ते रैंट पर घर दिलवाए हैं?’’

फिर मैं ने पूछा, ‘‘उस का परिवार यहां क्या कर रहा है?’’ वह बोली, ‘‘मेरे चाचा तो अब बहुत बीमार रहते हैं. इस के अलावा उन की दिमागी हालत भी ठीक नहीं है जिस के चलते उन्हें हर वक्त किसी की देखरेख की जरूरत होती है. यह काम उस के पिता करते हैं और इस के लिए सरकार लगभग 2 हजार डौलर देती है. मम्मी एक स्टोर्स में पार्टटाइम काम करती हैं. मेरे पति एक कार शोरूम में काम करते हैं. मैं ने स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली है. आगे की पढ़ाई औनलाइन घर से ही कर रही हूं. फुलटाइम जौब तो कहीं नहीं मिली है, पार्टटाइम जो भी काम मिलता है, कर लेती हूं. अमेरिका में किसी भी काम को हेय दृष्टि से नहीं देखते हैं और यहां आप के पास भी काम के लिए ही आई हूं.’’

मैं ने एक दीर्घ सांस लेते हुए कहा, ‘‘मुझे अच्छा नहीं लग रहा तुम से घर के काम कराना.’’

‘‘आप के बच्चे इतने दिनों से अमेरिका में हैं और आप भी काफी दिनों से अमेरिका आतीजाती रही हैं, फिर आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं. यहां कर्म ही धर्म है और हर काम करने वाले की समाज में उतनी ही प्रतिष्ठा है. आप बेझिझक कहें, मैं भी निसंकोच खुशीखुशी अपना काम निभाऊंगी.’’

फिर उसे काम बताया कि दोपहर 4 घंटे सोमवार से शुक्रवार तुम्हें टाइम देना होगा. ढाई बजे बच्चों को स्कूल से पिक कर घर लाना है, उन्हें लंच करा कर थोड़ा आराम करने देना. इस बीच किचन के कुछ काम जैसे सब्जियां काटना, साफ बरतनों को डिशवाशर से निकाल उन की जगह पर लगाना, फिर बच्चों को अलगअलग क्लासेज में ले जाना. शाम को जब बच्चों को ले कर आना तो उन के रूम और कपड़े आदि ठीक करना. किसी दिन ज्यादा काम भी हो सकता है और कभी शनिवार या रविवार को भी काम पड़ सकता है.

जाहिरा बोली, ‘‘बस, अब आप निश्चिंत हो जाएं, सभी काम आप के मन लायक करूंगी.’’

मैं ने उस से पूछा, ‘‘क्या वह इंडियन डिशेज पकाना जानती है?’’ तो उस ने कहा, ‘‘सभी तो नहीं, पर कुछकुछ बना लेती हूं. हां, मेरी मां सबकुछ बना लेती हैं. पर आंटी, आप क्या मेरा बनाया खाएंगी? मुझे याद है कि जब हम दिल्ली में थे, ईद की सेवइयां देने अब्बू के साथ आई थी आप के घर. अब्बू ने आप को कच्ची सेवइयां दी थीं. मैं ने उन से वजह पूछी, तो उन्होंने बताया कि हमारे घर का पका खाना आप नहीं खाती हैं.’’

‘‘उस समय की बात और थी. अब तो अमेरिका में थोड़ा ऐडजस्ट नहीं करूंगी तो रहना मुश्किल हो जाएगा. ठीक है, कभी घर में पार्टी देनी होगी तो कुछ खास पकवान बिरयानी आदि घर पर ही बनवाना चाहती हूं. इसीलिए ऐसे मौकों के लिए पार्टटाइम इंडियन कुक खोज रही हूं. वैसे ज्यादा कुछ तो होटल से ही मंगवा लेते हैं. पर सुना है तुम लोग लाजवाब बिरयानी बनाते हो.’’

‘‘डोंट वरी, आंटी, ऐसी जरूरत हो तो एक दिन पहले बता देना, अम्मी आ कर बना देंगी. पर आप तो बिलकुल नहीं बदली हैं, वही साड़ी, सिंदूर और बिंदिया. आप को पता है, हमलोग भी अपनी पार्टी में लहंगेसाड़ी पहन कर इंडियन फिल्मी गानों पर डांस करते हैं. मुझे तो सुर्ख लाल रंग की सितारों वाली साड़ी बहुत अच्छी लगती है.’’

मैं ने कहा, ‘‘उसे 20 डौलर प्रति घंटे के रेट से पे करूंगी’’ इस बात पर वह जोर से हंसने लगी और बोली, ‘‘आप अगर 10 डौलर्स भी देंगी तो हम खुशी से कुबूल करेंगे.’’

मैं ने उस से कहा, ‘‘कल से ही काम पर आ जाए.’’

अगले दिन से जाहिरा काम पर आने लगी. सभी काम पूरे मन लगा कर हंसतेहंसते करती और मैं भी संतुष्ट थी. हर शुक्रवार की शाम को उस को वीकली पेमैंट कर देती जैसा कि यहां का पार्टटाइम वर्क पेमैंट का नौर्मल तरीका है.

एक दिन जाहिरा अपनी मां को ले कर आई. दुआसलाम के बाद उसकी मां ने कहा, ‘‘बहनजी, अगले सप्ताह से मैं ही काम किया करूंगी. बेटी को फुलटाइम काम मिल गया है. अभी सीजन है. अमेरिका में मौल्स और स्टोर्स में फैस्टिवल सीजन में बिक्री बहुत बढ़ जाती है, इसलिए 3-4 महीने अक्तूबर से दिसंबर या जनवरी तक उन्हें एक्स्ट्रा स्टाफ चाहिए होता है. जाहिरा ने मुझे सारे काम और जगहें, जहां जाना होता है, बता दिया है. आप को कोई एतराज तो नहीं?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं, मुझे कोई एतराज नहीं है. मगर तुम भी तो कहीं काम करती हो?’’

‘‘हां, वह पार्टटाइम जौब है, सुबह 9 से 12 बजे तक का.’’

मैं ने उस का नाम पूछा तो उस ने कहा, ‘‘आबिदा.’’

अगले सप्ताह से आबिदा ही काम पर आती. मेरी बेटी अनीता तो उस के आने से ज्यादा ही खुश थी. कभीकभी किचन में एक्स्ट्रा हैल्प भी कर दिया करती थी. कुछ दिनों के बाद मेरे नाती का जन्मदिन था. जैसा कि अमेरिका में होता है, पार्टी छुट्टी के दिन इतवार को ही रखी गई थी. हालांकि घर पर उस का सही जन्मदिन 2 दिनों पहले ही मना लिया गया था. मैं ने आबिदा को इतवार को सपरिवार आने का निमंत्रण दिया. पार्टी तो शाम को थी पर मैं ने उसे जल्द ही आने को कहा क्योंकि किचन में उस की मदद की जरूरत थी.

संडे को पार्टी में आबिदा और पठानभाई दोनों आए थे. मैं ने जाहिरा के नहीं आने का कारण पूछा तो उस ने कहा कि जाहिरा घर पर अपने बीमार चाचू की देखभाल कर रही है.

आबिदा की बनाई बिरयानी और वेज कोरमे की सभी तारीफ कर रहे थे. उस दिन मेरा बेटा भी आया था. वह फ्रेमौंट के पास सैन होजे शहर में रहता है. उस का परिवार भी पठान परिवार से मिला.

अनीता पठानभाई से अलग से भी मिली और आदर के साथ दोनों हाथ जोड़ कर ‘नमस्ते काबुलीवाले अंकल’ भी कहा. फिर मैं ने नाती को बुला कर उसे नमस्कार करने को कहा. मेरा नाती झुक कर उस के पैर छूने जा रहा था तो उस ने नाती को बीच में ही रोक कर ढेर सारे आशीष दिए और गिफ्ट दे कर कहा, ‘‘यही तो खासीयत है हिंदुस्तान की तहजीब में, मेहमानों की इज्जत करना और बड़ों का आदर करना. आप का वतन और हिंदुस्तानी लोग बहुत अच्छे हैं, बहनजी.’’

जब आबिदा और पठानभाई जाने लगे तो हम सभी परिवार के लोग उन्हें दरवाजे तक विदा करने आए. उन्हें रिटर्न गिफ्ट दिए. जाहिरा के लिए अलग से 2 पैकेट दिए. एक में उस के लिए खाना था और दूसरे में जाहिरा के लिए लाल रंग की साड़ी. साड़ी देख कर दोनों बहुत खुश हुए और कहा, ‘‘आप ने जो इज्जत दी, उस के लिए शुक्रिया. आप की तहजीब को सलाम.’’

वे दोनों अपनी आंखों में खुशी के आंसू लिए भारतीय तरीके से हाथ जोड़ कर विदा हुए.

शरीफ गवाह : जब कोर्ट पहुंचा एक अनूठा गवाह

‘जमालपुर जाने वाली 2746 डाउन रेलगाड़ी प्लेटफार्म नंबर 1 के बजाय प्लेटफार्म नंबर 3 पर आएगी.’ लाउडस्पीकर से जब यह आवाज आई, तो प्लेटफार्म नंबर 1 पर रेलगाड़ी का इंतजार कर रहे मुसाफिरों में अफरातफरी मच गई. सब पुल की सीढि़यां चढ़ कर प्लेटफार्म नंबर 3 पर पहुंचे.

अवतार शरण भी अपना ब्रीफकेस थामे हांफतेहांफते सीढ़ियां चढ़ रहे थे. उन की उम्र 50 साल थी. शरीर थोड़ा सा भारी था.

किसी नौजवान के समान सीढि़यां चढ़नाउतरना उन की उम्र के माफिक नहीं था, मगर मजबूरी थी. सफर के दौरान ऐसी बातें होना आम है.

अवतार शरण का मोटर के कलपुरजों और स्पेयर पार्ट्स का थोक का कारोबार था. हफ्ते के आखिर में और्डर लेने और पिछली उगाही के लिए वे आसपास के कसबों और शहरों के लिए निकलते थे.

घर लौटते समय कभी शाम हो जाती, कभी आधी रात भी. जब से मोबाइल फोन का चलन हुआ था, एक फायदा यह हुआ था कि वे घर पर देर से लौटने की खबर कर देते थे.

‘खेद से सूचित किया जाता है कि जमालपुर वाली रेललाइन की फिश प्लटें निकल गई हैं, इसलिए आज जमालपुर वाली 2746 डाउन रेलगाड़ी रद्द की जाती है,’ लाउडस्पीकर पर यह सुन कर सब के चेहरे लटक गए.

अब क्या करें? रेलगाड़ी रद्द हो गई थी. बस से जाने का समय भी नहीं था. यह कसबा छोटा सा था. रेलवे स्टेशन का वेटिंग रूम ठीकठाक था, मगर कोई इंतजार नहीं कर सकता था.

‘‘चौक से शायद मैक्सी कैब मिल जाएगी,’’ एक मुसाफिर ने कहा. सब फिर से पुल की सीढि़यां चढ़ कर रेलवे स्टेशन के मेन गेट की ओर लपके.

अवतार शरण भी धीमी चाल से चल रहे थे. रेलवे स्टेशन से कसबे के चौक का 5 मिनट का पैदल रास्ता था. स्टेशन के बाहर एक कतार में कई रिकशे वाले सवारी की आस में खड़े थे. रिकशे वालों ने उम्मीद भरी नजरों से मुसाफिरों की तरफ देखा.

‘‘पैदल चलो जी. 5 मिनट की तो बात है. ये रिकशे वाले भी जरा से रास्ते के लिए 10-20 रुपए मांग लेते हैं,’’ एक मुसाफिर के कहने पर रिकशा करने की तैयारी कर रहे लोग भी पीछे हट गए.

मगर अवतार शरण के लिए पैदल चलना मुश्किल था. उन्होंने एक रिकशे वाले से पूछा, ‘‘चौक का क्या लोगे?’’

‘‘10 रुपए,’’ रिकशे वाले ने कहा.

‘‘10 रुपए…’’ वह कुछ सोचते हुए रिकशे में बैठ गए.

‘‘चौक में कहां जी?’’ रिकशे वाले ने पूछा.

‘‘जमालपुर के लिए मैक्सी कैब पकड़नी है.’’

‘‘मिल जाएगी जी. चौक में हर तरफ की कैब तैयार मिलती हैं,’’ रिकशे वाले ने कहा.

2 मिनट बाद चौक की तरफ कतार में खड़ी कई मैक्सी कैब के पास रिकशा रोक कर रिकशे वाले ने एक कैब की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘लालाजी, वह कैब जमालपुर जाएगी.’’

कैब के समीप पहुंचते ही एक नौजवान बोला, ‘‘आइएआइए सेठजी, सिर्फ 2 सवारियों की जगह बाकी है.’’

अवतार शरण ने पिछले दरवाजे से मैक्सी कैब के अंदर झांका. ठसाठस सवारियां भर रखी थीं, मानो सब भेड़बकरियां हों, मगर किसी सवारी को एतराज नहीं था.

अवतार शरण कैब के भीतर दाखिल हुए. एक सीट अभी भी खाली थी. उन के बैठते ही एक आदमी और आया. उस के बैठते ही एक नौजवान ने दरवाजा अच्छी तरह बंद किया और पायदान पर पैर टिका कर छत का सिरा पकड़ कर खड़ा हो गया और छत थपथपाई. कैब का इंजन एक झटके से चल पड़ा.

कसबे के बाजारों से निकल कर कैब शहर के बाहर जाती डाबर की पक्की सड़क पर आई और सरपट दौड़ने लगी.

‘‘जमालपुर कितनी देर में आ जाएगा?’’ एक मुसाफिर ने अवतार शरण से पूछा.

‘‘गाड़ी तो पौना घंटा लेती है.’’

‘‘इस में भी पौन घंटा ही लगता है,’’ दरवाजे से लटका वह नौजवान बोला.

अभी 15-20 मिनट का ही सफर हुआ था कि एकाएक कैब धीमी होती थम गई. सड़क के बीचोंबीच एक पुलिस की जिप्सी खड़ी थी. तीनसितारा वरदी पहने एक पुलिस इंस्पैक्टर जिप्सी से टेक लगाए खड़ा था. 3 सिपाही हाथ में ‘ठहरें’ का सिगनल थामे थे.

कैब के रुकते ही सिपाहियों ने कैब को घेर लिया. अवतार शरण के सामने बैठे अधेड़ उम्र के एक आदमी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

‘‘सब उतर कर एक तरफ खड़े हो जाओ. तलाशी होगी,’’ पुलिस इंस्पैक्टर की रोबदार आवाज गूंजी. सब धीरेधीरे उतर कर एक तरफ खड़े हो गए.

औरतों की तरफ एक सरसरी नजर डाल कर उन को कैब में बैठने का इशारा किया. फिर सब मर्दों की तलाशी शुरू हुई. अवतार शरण गंभीर हो गए. हाथ में थामे ब्रीफकेस में उगाही से आई अच्छी रकम थी.

एक सिपाही ने अवतार शरण को ब्रीफकेस खोलने का इशारा किया और ब्रीफकेस में रखी रकम देख कर चौंका.

‘‘कहां से आए हैं आप?’’

‘‘जी, मैं जमालपुर का हूं?’’

‘‘क्या काम करते हैं?’’

‘‘स्पेयर पार्ट्स का कारोबारी हूं.’’

‘‘ठीक है, बंद कीजिए.’’

इस के बाद साथ खड़े मुसाफिर के हाथ में पकड़ा एयर बैग खोलने का इशारा किया. वह हिचकिचाया और बोला, ‘‘इस में कुछ नहीं है.’’

‘‘कोई बात नहीं, आप खोल कर तो दिखाइए.’’

उस एयर बैग से पौलिथिन की थैलियों में बंद अफीम मिली. उस को हिरासत में ले कर हथकडि़यां डाल दी गईं. पुलिस को किसी मुखबिर ने खबर दी थी, इसलिए पुलिस की चैकिंग चल रही थी. अफीम तस्कर पकड़ा गया था. साथ में दूसरे मर्द मुसाफिरों के लिए परेशानी हो गई थी. औरतों को जाने दिया गया.

मर्द मुसाफिरों को बतौर गवाह अपना नामपता, मोबाइल नंबर दर्ज कराने के लिए कहा गया. एक डायरी में एक सिपाही सब के नामपते दर्ज करता गया और मुसाफिर कैब में बैठते गए.

अफीम तस्कर को ले कर पुलिस की जिप्सी चली गई.

कैब भी अपनी मंजिल की ओर चल पड़ी. अपने घर जमालपुर पहुंच कर इस घटना को एक मामूली सा वाकिआ समझ कर अवतार शरण भूल गए. मगर क्या यह वाकिआ सचमुच मामूली था?

एक दोपहर स्थानीय अदालत से एक चपरासी एक समन ले आया.

‘‘अवतार शरण आप ही हैं न?’’

‘‘जी हां, क्या बात है?’’ अवतार शरण ने चौंक कर पूछा.

‘‘आप के नाम समन है.’’

‘‘समन…?’’ चौंक कर अवतार शरण ने पूछा.

‘‘जी हां, चमनगढ़ की फौजदारी अदालत से है.’’

‘‘फौजदारी अदालत, चमनगढ़…’’

‘‘मेरा मतलब मजिस्ट्रेट के कोर्ट से,’’ चपरासी ने कहा.

‘‘क्यों? मैं ने क्या किया? मैं तो कभी चमनगढ़ नहीं गया.’’

‘‘कियाधरा का मामला नहीं है. आप को शिनाख्त करनी है और गवाही देनी है,’’ चपरासी बोला.

‘‘किस की शिनाख्त? किस की गवाही?’’

‘‘यह आप कोर्ट जा कर पता करना,’’ चपरासी ने समन थमाया और डायरी खोल कर सामने रख दी.

अवतार शरण ने बेमन से दस्तखत किए और समन ले लिया.

अवतार शरण का वास्ता कभी किसी अदालत और मुकदमे से नहीं पड़ा था, इसलिए वे उलझन में थे. पास के दुकानदार उम्रदराज थे, अनुभवी थे. वे समन ले कर उन के पास गए.

‘‘अवतार शरण, यह मामला शिनाख्त और गवाही का है. धाराएं नहीं लिखी हैं. सिर्फ मुकदमा नंबर, तारीख और मुलजिम का नाम है,’’ पड़ोसी दुकानदार नारायण दास ने समन पढ़ कर कहा.

‘‘चमनगढ़ की अदालत से समन आया है. मैं वहां कभी नहीं गया. अब मैं क्या करूं.’’

‘‘समन तुम्हें मिल गया है. तारीख पर कोर्ट में जा कर शिनाख्त कर आना और गवाही दे आना.’’

‘‘मैं मुलजिम को जानतापहचानता नहीं. मुझे इस मामले का कुछ भी नहीं पता.’

‘‘पुलिस अदालत के बाहर आवाज पड़ने से पहले शिनाख्त करवा देगी और गवाही जैसे पुलिस कहे वैसे ही दे देना.’’

‘‘और अगर मैं नहीं गया तो…?’’

‘‘तब तो कोर्ट से तेरे नाम जमानती वारंट आएगा.’’

‘‘जमानती वारंट?’’ यह सुन कर अवतार शरण घबरा गए.

‘‘हां, पहले जमानती वारंट, फिर भी नहीं गए, तो गैरजमानती वारंट. तुम्हें गिरफ्तार कर के अदालत में पेश करेंगे,’’ नारायण दास उस के मुश्किल हालात के मजे ले रहे थे.

उतरा हुआ चेहरा लिए अवतार शरण अपनी दुकान पर जा बैठे. थोड़ी देर बाद उन का बेटा टिफिन ले कर आया और अपने पापा का उतरा हुआ चेहरा देख कर चौंका.

‘‘पापाजी, क्या हुआ? क्या तबीयत खराब है?’’ बेटे ने पूछा.

‘‘नहीं, यह कोर्ट का समन चपरासी दे गया है,’’ अवतार शरण ने कहा.

बेटे ने उस समन को लिया और पढ़ने लगा. उस की भी समझ में कुछ नहीं आया. बेटा बोला, ‘‘पापाजी, किसी वकील से सलाह करते हैं.’’

‘‘वकील से सलाह? कौन से वकील से? इस में तो काफी खर्चा होगा.’’

‘‘सलाह की क्या फीस? ऐसा तो बड़े शहरों के बड़े वकील करते हैं.’’

पड़ोसी दुकानदार नारायण दास के एक परिचित वकील ने यही कहा. समन मिलने पर अवतार शरण को कोर्ट जाना ही पड़ेगा.

तय तारीख पर अवतार शरण अपने बड़े बेटे के साथ पड़ोस के कसबे चमनगढ़ की अदालत में पहुंचे. कसबा एक तहसील था, इसलिए वहां एक फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट ही बैठते थे. अदालत परिसर पुराने जमाने का साफसुथरा था. अवतार शरण को देखते ही एक दोसितारा वरदीधारी सबइंस्पैक्टर उन के पास आया.

‘‘अवतार शरण जमालपुर वाले?’’

‘‘जी हां,’’ उन्होंने समन दिखाते हुए कहा.

‘‘आप को अफीम के तस्कर शमशेर सिंह की शिनाख्त करनी है.’’

‘‘अफीम का तस्कर? ओह वही, जो  मैक्सी कैब में पकड़ा गया था?’’

‘‘जी हां, वही.’’

‘‘मगर मैं उस को अब कैसे पहचानूंगा. 3 महीने पहले मैं ने उसे थोड़ी देर ही देखा था.’’

‘‘हम यहां हवालात में उसे आप को दिखा देते हैं. आप अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने शिनाख्त कर देना.’’

अदालत परिसर की हवालात में कई मुलजिम बंद थे. एक को इशारा कर के थानेदार ने सीखचों के नजदीक बुलाया. दाढ़ी वाला अधेड़ उम्र का आदमी सीखचों के पास आ कर खड़ा हुआ.

अवतार शरण ने उस को पहचान लिया. वह वही था, जो मैक्सी कैब में उन के सामने बैठा था. उस के बैग में से अफीम बरामद हुई थी.

उस आदमी ने मायूसी से उन की तरफ देखा. उस की आंखों में उदासी का भाव था. अवतार शरण ने उसे गौर से देखा और फिर मुड़ आए.

अदालत का समय होने में अभी देर थी. दरवाजे के ऊपर मजिस्ट्रेट के नाम व पद की नेमप्लेट लगी थी. पुलिस इंस्पैक्टर थोड़ी दूर ही खड़ा था. पेशी के लिए आसामी इधरउधर बैठे गपशप कर रहे थे.

‘‘इस मुकदमे में क्या मैं अकेला गवाह हूं?’’ इधरउधर देखते हुए अवतार शरण ने पूछा.

‘‘जी नहीं, 3 गवाह और हैं.’’ ‘‘सिर्फ 4 गवाह. मैक्सी कैब में तो 15-20 आदमी थे,’’ तनिक हैरानी से उन्होंने कहा.

‘‘कुल 6 गवाह नामजद थे, मगर 12 के नामपते फर्जी निकले थे.’’

इंस्पैक्टर के इस जवाब से अवतार शरण और उन के साथ खड़ा बड़ा बेटा और दूसरे लोग हैरान हो गए.

अवतार शरण खामोश हो गए. यह पूछने का फायदा नहीं था कि उन सब ने अपना नामपता क्यों फर्जी बताया था. वे सब समझदार थे. दुनियादार थे. भला कौन कोर्टकचहरी के पचड़े में फंसना चाहता है. अवतार शरण सोच रहे थे कि उन्होंने भी क्यों नहीं दुनियादारी दिखाते हुए अपना नामपता फर्जी लिखवा दिया, वरना वे भी इस कोर्टकचहरी और गवाही के चक्कर में फंसने से बच जाते.

तभी अदालत का समय हो गया. चपरासी कमरे से बाहर आया. मुकदमों से संबंधित लोगों के नाम ले कर आवाज देने लगा. अफीम के तस्कर के नाम से आवाज पड़ी. 2 सिपाही उसे ले कर आगे बढ़े. एक कठघरे में अवतार शरण खड़े हो गए. सामने वाले कठघरे में मुलजिम शमशेर सिंह था.

नौजवान मजिस्ट्रेट ने गवाह और मुलजिम की तरफ देखा. सरकारी वकील आगे बढ़ा और बोला, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘अवतार शरण.’’

‘‘कहां रहते हैं आप?’’

‘‘जमालपुर.’’

‘‘काम क्या करते हैं?’’

‘‘मेरा स्पेयर पार्ट्स का थोक का कारोबार है.’’

‘‘मुलजिम को पहचानते हैं?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘एक महीने पहले जमालपुर जाने वाली मैक्सी कैब में मेरे साथ था.’’

‘‘पहले से जानते थे?’’

‘‘नहीं.’’

इस के बाद सवालों का सिलसिला चला. सब सवालजवाब एक तरफ बैठा रीडर सादा कागज पर लिखता जा रहा था. शिनाख्त और गवाही पूरी हुई. अवतार शरण ने सांस भरी कि चलो, मामला निबटा.

मगर मामला कहां निबटा था. रीडर ने अगली तारीख डालते हुए कहा, ‘‘आप अगली पेशी पर आइए.’’

‘‘अगली पेशी पर क्यों?’’ अवतार शरण ने पूछा.

‘‘आप से बचाव पक्ष का वकील जिरह करेगा.’’

अवतार शरण का चेहरा फिर से गंभीर हो चला. वे बेटे के साथ बाहर चले आए.

अगली पेशी पर मजिस्टे्रट छुट्टी पर था. नई तारीख पड़ गई. नई तारीख पर बचाव पक्ष का वकील बीमार था. फिर तारीख पड़ गई. फिर यह सिलसिला बन गया. तकरीबन 3 साल तक अदालत जाना पड़ा. उस के बाद उन का यह पचड़ा निबट गया.

अपने कारोबार के सिलसिले में अवतार शरण पहले की तरह कभी बस से, कभी रेलगाड़ी से और कभी मैक्सी कैब से भी आतेजाते रहे.

इस दौरान उन की मुलाकात मैक्सी कैब में अफीम तस्कर के खिलाफ गवाह बनाए आदमियों से भी हुई. वे सब कम पढ़ेलिखे और देहाती थे. मगर अवतार शरण जैसे काफी पढ़ेलिखे और शहरी के मुकाबले में ज्यादा दुनियादार थे.

इस मामले पर पूछने पर उन में से एक ने कहा, ‘‘पुलिस और थाना कचहरी के चक्कर में कौन पड़ता है जी. हम ने अपना नामपता फर्जी दे दिया. हमारा पिंड छूट गया. जिन का नामपता असली था, वे भी थाने के मुंशी को 2-4 सौ रुपए टिका कर अपना नाम कटवा

आए थे. कोर्ट की पेशी को कौन भुगते?’’

अवतार शरण एकटक उन समझदार देहातियों को देख रहे थे.

अकाल्पनिक : ये थी रिश्तों की असली हकीकत

रक्षाबंधन से एक रोज पहले ही मयंक को पहली तन्ख्वाह मिली थी. सो, पापामम्मी के उपहार के साथ ही उस ने मुंहबोली बहन चुन्नी दीदी के लिए सुंदर सी कलाई घड़ी खरीद ली.

‘‘सारे पैसे मेरे लिए इतनी महंगी घड़ी खरीदने में खर्च कर दिए या मम्मीपापा के लिए भी कुछ खरीदा,’’ चुन्नी ने घड़ी पहनने के बाद पूछा.

‘‘सब के लिए खरीदा है, दीदी, लेकिन अभी दिया नहीं है. शौपिंग करने और दोस्तों के साथ खाना खाने के बाद रात में बहुत देर से लौटा था. तब तक सब सो चुके थे. अभी मां ने जगा कर कहा कि आप आ गई हैं और राखी बांधने के लिए मेरा इंतजार कर रही हैं, फिर आप को जीजाजी के साथ उन की बहन के घर जाना है. सो, जल्दी से यहां आ गया, अब जा कर दूंगा.’’

‘‘अब तक तो तेरे पापा निकल गए होंगे राखी बंधवाने,’’ चुन्नी की मां ने कहा.

‘‘पापा तो कभी कहीं नहीं जाते राखी बंधवाने.’’

‘‘तो उन के हाथ में राखी अपनेआप से बंध जाती है? हमेशा दिनभर तो राखी बांधे रहते हैं और उन्हीं की राखी देख कर तो तूने भी राखी बंधवाने की इतनी जिद की कि गीता बहन और अशोक जीजू को चुन्नी को तेरी बहन बनाना पड़ा.’’ चुन्नी की मम्मी श्यामा बोली.

‘‘तो इस में गलत क्या हुआ, श्यामा आंटी, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं मुझे. अच्छा दीदी, आप को देर हो रही होगी, आप चलो, अगली बार आओ तो जरूर देखना कि मैं ने क्या कुछ खरीदा है, पहली तन्ख्वाह से,’’ मयंक ने कहा. मयंक के साथ ही मांबेटी भी बाहर आ गईं. सामने के घर के बरामदे में खड़े अशोक की कलाई में राखी देख कर श्यामा बोली, ‘‘देख, बंधवा आए न तेरे पापा राखी.’’

‘‘इतनी जल्दी आप कहां से राखी बंधवा आए पापा?’’ मयंक ने हैरानी से पूछा.

‘‘पीछे वाले मंदिर के पुजारी बाबा से,’’ गीता फटाक से बोली.

मयंक को लगा किअशोक ने कृतज्ञता से गीता की ओर देखा. ‘‘लेकिन पुजारी बाबा से क्यों?’’ मयंक ने पूछा. ‘‘क्योंकि राखी के दिन अपनी बहन की याद में पुजारी बाबा को ही कुछ दे सकते हैं न,’’ गीता बोली. ‘‘तू नाश्ता करेगा कि श्यामा बहन ने खिला दिया?’’

‘‘खिला दिया और आप भी जो चाहो खिला देना मगर अभी तो देखो, मैं क्या लाया हूं आप के लिए,’’ मयंक लपक कर अपने कमरे में चला गया. लौटा तो उस के हाथ में उपहारों के पैकेट थे.

‘‘इस इलैक्ट्रिक शेवर ने तो हर महीने शेविंग का सामान खरीदने की आप की समस्या हल कर दी,’’ अपना हेयरड्रायर सहेजती हुई गीता बोली.

‘‘हां, लेकिन उस से बड़ी समस्या तो पुजारी बाबा का नाम ले कर तुम ने हल कर दी,’’ अशोक की बात सुन कर अपने कमरे में जाता मयंक ठिठक गया. उस ने मुड़ कर देखा, मम्मीपापा बहुत ही भावविह्वल हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. उस ने टोकना ठीक नहीं समझा और चुपचाप अपने कमरे में चला गया. बात समझ में तो नहीं आई थी पर शीघ्र ही अपने नए खरीदे स्मार्टफोन में व्यस्त हो कर वह सब भूल गया.

एक रोज कंप्यूटर चेयरटेबल खरीदते हुए शोरूम में बड़े आकर्षक डबलबैड नजर आए. मम्मीपापा के कमरे में थे तो सिरहाने वाले पलंग मगर दोनों के बीच में छोटी मेज पर टेबललैंप और पत्रिकाएं वगैरा रखी रहती थीं. क्यों न मम्मीपापा के लिए आजकल के फैशन का डबलबैड और साइड टेबल खरीद ले. लेकिन डिजाइन पसंद करना मुश्किल हो गया. सो, उस ने मम्मीपापा को दिखाना बेहतर समझा. डबलबैड के ब्रोशर देखते ही गीता बौखला गई, ‘‘हमें हमारे पुराने पलंग ही पसंद हैं, हमें डबलवबल बैड नहीं चाहिए.’’

‘‘मगर मुझे तो घर में स्टाइलिश फर्नीचर चाहिए. आप लोग अपनी पसंद नहीं बताते तो न सही, मैं अपनी पसंद का बैडरूम सैट ले आऊंगा,’’ मयंक ने दृढ़स्वर में कहा.

गीता रोंआसी हो गई और सिटपिटाए से खड़े अशोक से बोली, ‘‘आप चुप क्यों हैं, रोकिए न इसे डबलबैड लाने से. यह अगर डबलबैड ले आया तो हम में से एक को जमीन पर सोना पड़ेगा और आप जानते हैं कि जमीन पर से न आप आसानी से उठ सकते हैं और न मैं.’’

‘‘लेकिन किसी एक को जमीन पर सोने की मुसीबत क्या है?’’ मयंक ने झुंझला कर कहा, ‘‘पलंग इतना चौड़ा है कि आप दोनों के साथ मैं भी आराम से सो सकता हूं.’’

‘‘बात चौड़ाई की नहीं, खर्राटे लेने की मेरी आदत की है, मयंक. दूसरे पलंग पर भी तुम्हारी मां मेरे खर्राटे लेने की वजह से मुंहसिर लपेट कर सोती है. मेरे साथ एक कमरे में सोना तो उस की मजबूरी है, लेकिन एक पलंग पर सोना तो सजा हो जाएगी बेचारी के लिए. इतना जुल्म मत कर अपनी मां पर,’’ अशोक ने कातर स्वर में कहा.

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी,’’ कह कर मयंक मायूसी से अपने कमरे में चला गया और सोचने लगा कि बचपन में तो अकसर कभी मम्मी और कभी पापा के साथ सोता था और अभी कुछ महीने पहले अपने कमरे का एअरकंडीशनर खराब होने पर जब फर्श पर गद्दा डाल कर मम्मीपापा के कमरे में सोया था तो उसे तो पापा के खर्राटों की आवाज नहीं आई थी.

मम्मीपापा वैसे ही बहुत परेशान लग रहे थे, जिरह कर के उन्हें और व्यथित करना ठीक नहीं होगा. जान छिड़कते हैं उस पर मम्मीपापा. मम्मी के लिए तो उस की खुशी ही सबकुछ है. ऐसे में उसे भी उन की खुशी का खयाल रखना चाहिए. उस के दिमाग में एक खयाल कौंधा, अगर मम्मीपापा को आईपैड दिलवा दे तो वे फेसबुक पर अपने पुराने दोस्तों व रिश्तेदारों को ढूंढ़ कर बहुत खुश होंगे.

हिमाचल में रहने वाले मम्मीपापा घर वालों की मरजी के बगैर भाग कर शादी कर के, दोस्तों की मदद से अहमदाबाद में बस गए थे. न कभी स्वयं घर वालों से मिलने गए और न ही उन लोगों ने संपर्क करने की कोशिश की. वैसे तो मम्मीपापा एकदूसरे के साथ अपने घरसंसार में सर्वथा सुखी लगते थे, मयंक के सौफ्टवेयर इंजीनियर बन जाने के बाद पूरी तरह संतुष्ट भी. फिर भी गाहेबगाहे अपनों की याद तो आती ही होगी.

‘‘क्यों भूले अतीत को याद करवाना चाहता है?’’ गीता ने आईपैड देख कर चिढ़े स्वर में कहा, ‘‘मुझे गड़े मुर्दे उखाड़ने का शौक नहीं है.’’

‘‘शौक तो मुझे भी नहीं है लेकिन जब मयंक इतने चाव से आईपैड लाया है तो मैं भी उतने ही शौक से उस का उपयोग करूंगा,’’ अशोक ने कहा.

‘‘खुशी से करो, मगर मुझे कोई भूलाबिसरा चेहरा मत दिखाना,’’ गीता ने जैसे याचना की.

‘‘लगता है मम्मी को बहु कटु अनुभव हुए हैं?’’ मयंक ने अशोक से पूछा.

‘‘हां बेटा, बहुत संत्रास झेला है बेचारी ने,’’ अशोक ने आह भर कर कहा.

‘‘और आप ने, पापा?’’

‘‘मैं ने जो भी किया, स्वेच्छा से किया, घर वाले जरूर छूटे लेकिन उन से भी अधिक स्नेहशील मित्र और सब से बढ़ कर तुम्हारे जैसा प्यारा बेटा मिल गया. सो, मुझे तो जिंदगी से कोईर् शिकायत नहीं है,’’ अशोक ने मुसकरा कर कहा.

कुछ समय बाद मयंक की, अपनी सहकर्मी सेजल मेहता में दिलचस्पी देख कर गीता और अशोक स्वयं मयंक के लिए सेजल का हाथ मांगने उस के घर गए.‘‘भले ही हम हिमाचल के हैं पर वर्षों से यहां रह रहे हैं, मयंक का तो जन्म ही यहीं हुआ है. सो, हमारा रहनसहन आप लोगों जैसा ही है, सेजल को हमारे घर में कोई तकलीफ नहीं होगी, जयंतीभाई,’’ अशोक ने कहा.

‘‘सेजल की हमें फिक्र नहीं है, वह अपने को किसी भी परिवेश में ढाल सकती है,’’ जयंतीभाई मेहता ने कहा. ‘‘चिंता है तो बस उस के दादादादी की, अपनी परंपराओं को ले कर दोनों बहुत कट्टर हैं. हां, अगर शादी उन के बताए रीतिरिवाज के अनुसार होती है तो वे इस रिश्ते के लिए मना नहीं करेंगे.’’

‘‘वैसे तो हम कोई रीतिरिवाज नहीं करने वाले थे, पर सेजल की दादी की खुशी के लिए जैसा आप कहेंगे, कर लेंगे,’’ गीता ने सहजता से कहा, ‘‘आप बस जल्दी से शादी की तारीख तय कर के हमें बता दीजिए कि हमें क्या करना है.’’

सब सुनने के बाद मयंक ने कहा, ‘‘यह आप ने क्या कह दिया, मम्मी, अब तो उन के रिवाज के अनुसार, सेजल की मां, दादी, नानी सब को मेरी नाक पकड़ कर मेरा दम घोंटने का लाइसैंस मिल गया.’’

गीता हंसने लगी, ‘‘सेजल के परिवार से संबंध जोड़ने के बाद उन के तौरतरीकों और बुजुर्गों का सम्मान करना तुम्हारा ही नहीं, हमारा भी कर्तव्य है.’’ गीता बड़े उत्साह से शादी की तैयारियां करने लगी. अशोक भी उतने ही हर्षोल्लास से उस का साथ दे रहा था.

शादी  से कुछ रोज पहले, मेहता दंपत्ती उन के घर आए. ‘‘शादी से पहले हमारे यहां हवन करने का रिवाज है, जिस में आप का आना अनिवार्य है,’’ जयंतीभाई ने कहा, ‘‘आप को रविवार को जब भी आने में सुविधा हो, बता दें, हम उसी समय हवन का आयोजन कर लेंगे. वैसे हवन में अधिक समय नहीं लगेगा.’’

‘‘जितना लगेगा, लगने दीजिए और जो समय सेजल की दादी को हवन के लिए उपयुक्त लगता है, उसी समय  करिए,’’ गीता, अशोक के बोलने से पहले ही बोल पड़ी.

‘‘बा, मेरा मतलब है मां तो हमेशा हवन ब्रह्यबेला में यानी ब्रैकफास्ट से पहले ही करवाती हैं.’’ जयंतीभाई ने जल्दी से पत्नी की बात काटी, कहा, ‘‘ऐसा जरूरी नहीं है, भावना, गोधूलि बेला में भी हवन करते हैं.’’

‘‘सवाल करने का नहीं, बा के चाहने का है. सो, वे जिस समय चाहेंगी और जैसा करने को कहेंगी, हम सहर्ष वैसा ही करेंगे,’’ गीता ने आश्वासन दिया.

‘‘बस, हम दोनों के साथ बैठ कर आप को भी हवन करना होगा. बच्चों के मंगल भविष्य के लिए दोनों के मातापिता गठजोड़े में बैठ कर यह हवन करते हैं,’’ भावना ने कहा.

गीता के चेहरे का रंग उड़ गया और वह चाय लाने के बहाने रसोई में चली गई. जब वह चाय ले कर आई तो सहज हो चुकी थी. उस ने भावना से पूछा कि और कितनी रस्मों में वर के मातापिता को शामिल होना होगा?

‘‘वरमाला को छोड़ कर, छोटीमोटी सभी रस्मों में आप को और हमें बराबर शामिल होना पड़ेगा?’’ भावना हंसी, ‘‘अच्छा है न, कुछ देर को ही सही, भागदौड़ से तो छुट्टी मिलेगी.’’

‘‘दोनों पतिपत्नी का एकसाथ बैठना जरूरी होगा?’’ गीता ने पूछा.

‘‘रस्मों के लिए तो होता ही है,’’ भावना ने जवाब दिया.

‘‘वैसा तो हिमाचल में भी होता है,’’ अशोक ने जोड़ा, ‘‘अगर वरवधू के मातापिता में से एक न हो तो विवाह की रस्में किसी अन्य जोड़े चाचाचाची वगैरा से करवाई जाती हैं.’’

‘‘बहनबहनोई से भी करवा सकते हैं?’’ गीता ने पूछा.

‘‘हां, किसी से भी, जिसे वर या वधू का परिवार आदरणीय समझता हो,’’ भावना बोली.

मयंक को लगा कि गीता ने जैसे राहत की सांस ली है. मेहता दंपती के जाने के बाद गीता ने अशोक को बैडरूम में बुलाया और दरवाजा बंद कर लिया. मयंक को अटपटा तो लगा पर उस ने दरवाजा खटखटाना ठीक नहीं समझा. कुछ देर के बाद दोनों बाहर आ गए और गीता फोन पर नंबर मिलाने लगी.

‘‘हैलो, चुन्नी…हां, मैं ठीक हूं…अभी तुम और प्रमोदजी घर पर हो, हम मिलना चाह रहे हैं, तुम्हारे भाई की शादी है. भई, बगैर मिले कैसे काम चलेगा… यह तो बड़ी अच्छी बात है…मगर कितनी भी देर हो जाए आना जरूर, बहुत जरूरी बात करनी है.’’ फोन रख कर गीता अशोक की ओर मुड़ी, ‘‘चुन्नी और प्रमोद दोस्तों के साथ बाहर खाना खाने जा रहे हैं, लौटते हुए यहां आएंगे.’’

‘‘ऐसी क्या जरूरी बात करनी है दीदी से जिस के लिए उन्हें आज ही आना पड़ेगा?’’ मयंक ने पूछा.

गीता और अशोक ने एकदूसरे की ओर देखा. ‘‘हम चाहते हैं कि तुम्हारे विवाह की सब रस्में तुम्हारी चुन्नी दीदी और प्रमोद जीजाजी निबाहें ताकि मैं और गीता मेहमानों की यथोचित आवभगत कर सकें,’’ अशोक ने कहा.

‘‘मेहमानों की देखभाल करने को मेरे बहुत दोस्त हैं और दीदीजीजा भी. आप दोनों की जो भूमिका है यानी मातापिता वाली, आप लोग बस वही निबाहेंगे,’’ मयंक ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘उस में कई बार जमीन पर बैठना पड़ता है जो अपने से नहीं होता,’’ गीता ने कहा.

‘‘जमीन पर बैठना जरूरी नहीं है, चौकियां रखवा देंगे कुशन वाली.’’

‘‘ये करवा देंगे वो करवा देंगे से बेहतर है चुन्नी और प्रमोद से रस्में करवा ले,’’ गीता ने बात काटी. ‘‘तेरी चाहत देख कर हम बगैर तेरे कुछ कहे सेजल से तेरी शादी करवा रहे हैं न, अब तू चुपचाप जैसे हम चाहते हैं वैसे शादी करवा ले.’’

‘‘कमाल करती हैं आप भी, अपने मांबाप के रहते मुंहबोली बहनबहनोई से मातापिता वाली रस्में कैसे करवा लूं्?’’ मयंक ने झल्ला कर पूछा.

‘‘अरे बेटा, ये रस्मेंवस्में सेजल की दादी को खुश करने को हैं, हम कहां मानते हैं यह सब,’’ अशोक ने कहा.

‘‘अच्छा? पुजारी बाबा से राखी किसे खुश करने को बंधवाते हैं?’’ मयंक ने व्यंग्य से पूछा और आगे कहा, ‘‘मैं अब बच्चा नहीं रहा पापा, अच्छी तरह समझ रहा हूं कि आप दोनों मुझ से कुछ छिपा रहे हैं. आप को बताने को मजबूर नहीं करूंगा लेकिन एक बात समझ लीजिए, अपनों का हक मैं मुंहबोली बहन को कभी नहीं दूंगा.’’

‘‘अब बात जब अपनों और मुंहबोले रिश्ते पर आ गई है, गीता, तो हमें मयंक को असलियत भी बता देनी चाहिए,’’ अशोक मयंक की ओर मुड़ा, ‘‘मैं भी तुम्हारा अपना नहीं. मुंहबोला पापा, बल्कि मामा हूं. गीता मेरी मुंहबोली बहन है. मैं किसी पुजारी बाबा से नहीं, गीता से राखी बंधवाता हूं. पूरी कहानी सुनना चाहोगे?’’

स्तब्ध खड़े मयंक ने सहमति से सिर हिलाया. ‘‘मैं और गीता पड़ोसी थे. हमारी कोईर् बहन नहीं थी, इसलिए मैं और मेरा छोटा भाई गीता से राखी बंधवाते थे. अलग घरों में रहते हुए भी एक ही परिवार के सदस्य जैसे थे हम. जब मैं चंडीगढ़ में इंजीनियरिंग कर रहा था तो मेरे कहने पर और मेरे भरोसे गीता के घर वालों ने इसे भी चंडीगढ़ पढ़ने के लिए भेज दिया. वहां यह रहती तो गर्र्ल्स होस्टल में थी लेकिन लोकल गार्जियन होने के नाते मैं इसे छुट्टी वाले दिन बाहर ले जाता था.

‘‘मेरा रूममेट नाहर सिंह राजस्थान के किसी रजवाड़े परिवार से था, बहुत ही शालीन और सौम्य, इसलिए मैं ने गीता से उस का परिचय करवा दिया. कब और कैसे दोनों में प्यार हुआ, कब दोनों ने मंदिर में शादी कर के पतिपत्नी का रिश्ता बना लिया, मुझे नहीं मालूम. जब मैं एमबीए के लिए अहमदाबाद आया तो गीता एक सहेली के घर पर रह कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. नाहर चंडीगढ़ में ही मार्केटिंग का कोर्स कर रहा था.

‘‘मुझे होस्टल में जगह नहीं मिली थी और मैं एक दोस्त के घर पर रहता था. अचानक गीता मुझे ढूंढ़ती हुई वहां आ गई. उस ने जो बताया उस का सारांश यह था कि उस ने और नाहर ने मंदिर में शादी कर ली थी और उस के गर्भवती होते ही नाहर उसे यह आश्वासन दे कर घर गया था कि वह इमोशनल ब्लैकमेल कर के अपनी मां को मना लेगा और फिर सबकुछ अशोक को बता कर अपने घर वालों को सूचित कर देना.

‘‘उसे गए कई सप्ताह हो गए थे और ढीले कपड़े पहनने के बावजूद भी बढ़ता पेट दिखने लगा था. दिल्ली में कुछ हफ्तों की कोचिंग लेने के बहाने उस ने घर से पैसे मंगवाए थे और मेरे पास आ गई थी. मैं और गीता नाहर को ढूंढ़ते हुए बीकानेर पहुंचे. नाहर का घर तो मिल गया मगर नाहर नहीं, वह अपने साले के साथ शिकार पर गया हुआ था. घर पर उस की पत्नी थी. सुंदर और सुसंस्कृत, पूछने पर कि नाहर की शादी कब हुई, उस ने बताया कि चंडीगढ़ जाने से पहले ही हो गईर् थी. नाहर के आने का इंतजार किए बगैर हम वापस अहमदाबाद आ गए.

‘‘समय अधिक हो जाने के कारण न तो गीता का गर्भपात हो सकता था और न ही वह घर जा सकती थी. मैं उस से शादी करने और बच्चे को अपना नाम देने को तैयार था. लेकिन न तो यह रिश्ता गीता और मेरे घर वालों को मंजूर होता न ही गीता अपने राखीभाई यानी मुझ को पति मानने को तैयार थी.

‘‘नाहर से गीता का परिचय मैं ने ही करवाया था, सो दोनों के बीच जो हुआ, उस के लिए कुछ हद तक मैं भी जिम्मेदार था. सो, मैं ने निर्णय लिया कि मैं गीता से शादी तो करूंगा, उस के बच्चे को अपना नाम भी दूंगा लेकिन भाईबहन के रिश्ते की गरिमा निबाहते हुए दुनिया के लिए हम पतिपत्नी होंगे, मगर एकदूसरे के लिए भाईबहन. इतने साल निष्ठापूर्वक भाईबहन का रिश्ता निबाहने के बाद गीता नहीं चाहती कि अब वह गठजोड़ा वगैरा करवा कर इस सात्विक रिश्ते को झुठलाए. मैं समझता हूं कि हमें उस की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए.’’

‘‘जैसा आप कहें,’’ मयंक ने भर्राए स्वर में कहा, ‘‘आप ने जो किया है, पापा, वह अकाल्पनिक है, जो कोई सामान्य व्यक्ति नहीं महापुरुष ही कर सकता है.’’

कुछ देर बाद वह लौटा और बोला, ‘‘पापा, मैं सेजल की दादी से बता कर आता हूं. हम दोनों अदालत में शादी करेंगे और फिर शानदार रिसैप्शन आप दे सकते हैं. दादी को सेजल ने कैसे बताया, क्या बताया, मुझे नहीं मालूम. पर आप की बात सुन कर वह तुरंत तैयार हो गई.’’

गीता और अशोक ने एकदूसरे को देखा. उन के बेटे ने उन की इज्जत रख ली.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें