छुटकी नहीं…बड़की : भाग -2

हिना बच्ची को देखदेख कर जीने लगी. उसे बोतल से दूध पिलाती और प्यार से छुटकी कह कर बुलाती. घर के और बच्चे भी इस छुटकी के आ जाने से बहुत खुश थे. वे सब दिनभर हिना के कमरे में ही बने रहते और छुटकी को गोद में लेने के लिए आपस में झगड़ते भी रहते.

‘‘देखो, जरा हौले से छूना. छोटे बच्चे बहुत नाजुक होते हैं… बिना हाथ धोए इन्हें हाथ लगाने से भी नुकसान हो सकता है,’’ हिना बच्चों को हिदायत देती. उस की इस हिदायत में भले ही एक मां का प्यार छिपा था, पर बड़ी भाभी निकहत और हैदर की बीवी रजिया को उस का एक गोद ली हुई लड़की के लिए इतना प्यार दिखलाना कतई नहीं सुहाता था.

उन लोगों ने अपने बच्चों को भी हिना के कमरे में जाने से रोकने की कोशिश की, पर भला बच्चे कब मानने वाले थे. सालभर बाद सज्जाद मुंशी फजल के घर आए, तो उन की नजरें इधरउधर घूम रही थीं. फजल ने उन की इस बेचैनी को भांप लिया. वे अंदर जा कर छुटकी को ले आए और सज्जाद मुंशी की गोद में दे दिया.

‘‘लो सज्जाद भाई, जीभर कर प्यार कर लो इसे. तुम्हारी नजरें इसे ही तो देखना चाह रही थीं न?’’ उसे देख सज्जाद मुंशी की आंखें छलछला आई थीं. वे कुछ देर तक तो छुटकी को देखते ही रहे, फिर बोले, ‘‘जी… फजल साहब… मेरी नहीं यह आप की बेटी है… और आप के घर में आ कर इस की जिंदगी भी संवर जाएगी… आप इसे पाल कर मुझ गरीब पर अहसान कर रहे?

हैं.’’ ‘‘नहींनहीं सज्जाद भाई… आप ये कैसी बातें कर रहे हैं… अहसान तो आप का है, जो अपने घर की रौनक को हमें सौंपा है,’’ फजल ने सज्जाद को गले लगाते हुए कहा. फजल का मन भी आरा मशीन के काम में लगने लगा था और हिना भी दिनभर घर के काम के साथसाथ छुटकी का ध्यान भी खूब रखती.

जब तक फजल ने छुटकी को गोद नहीं लिया था, तो हिना तनाव के चलते रात में सैक्स के मामले में फजल का बिस्तर पर बिलकुल भी साथ नहीं देती, पर अब हालात बेहतर हो गए थे. रात में हिना रूमानी हो जाती और बिस्तर पर कभी नखरे नहीं करती और खुल कर फजल का साथ देती.

एक दिन जब हिना छुटकी के साथ खेल रही थी, तभी हिना को अचानक चक्कर आ गया और वह गिरतेगिरते बची, पर आम घरेलू औरतों की तरह उस ने भी एक सामान्य बात समझी, पर उसी शाम को जब हिना फजल को दूध का गिलास देने जा रही थी, तब एक बार फिर से हिना को चक्कर आ गया और दूध फर्श पर फैल गया.

‘‘अरे, यह क्या हुआ तुम्हें हिना… क्या बात है? तुम्हारी तबीयत तो ठीक?है न?’’ फजल ने हिना को सहारा दे कर उठाते हुए कहा.

‘‘नहीं… बस ऐसे ही… जरा सा सिर घूम गया था,’’ हिना ने कहा.

‘‘सिर घूमने के भी कई कारण हो सकते हैं… बेवजह तो कभी किसी को चक्कर नहीं आता… मैं कल सुबह ही तुम्हें डाक्टर के पास ले कर जाऊंगा,’’ फजल ने कहा. अगली सुबह फजल और हिना डाक्टर के पास पहुंचे और डाक्टर ने हिना का पूरा चैकअप किया.

‘‘मुबारक हो, आप मां बनने वाली हैं,’’ यह सुन कर हिना बुरी तरह चौंक गई थी. डाक्टर के शब्द चाशनी की तरह हिना के कानों में उतरते हुए चले गए.

हिना ने जब यह खुशखबरी फजल को सुनाई, तो वह भी खुशी से झूम उठा. उस ने अपने भाइयों को भी फोन पर यह खुशखबरी सुना दी. जहां पहले हिना घर का सारा काम करती थी, वहीं अब उसे पूरा आराम दिया गया. हिना शान से पूरा दिन आराम करती और खानेपीने के लिए काजू, बादाम, दूध व दही आदि किसी चीज की कमी नहीं थी.

घर के कामकाज का जिम्मा निकहत भाभी और रजिया ने उठा लिया और छुटकी की भी जिम्मेदारी अब उन लोगों के सिर पर ही आ गई थी. समय पूरा होने पर हिना ने एक बेटे को जन्म दिया. फजल की आंखों में खुशी के आंसू थे. मुबारकबाद देने वालों के फोन लगातार आ रहे थे, पर अब भला फजल को अपना होश ही कहां था.

खूब मिठाइयां बांटी गईं और बेटे के पैदा होने की खुशी में आरा मशीन पर काम करने वाले मजदूरों को एक दिन की छुट्टी दे दी गई.

हिना ने अपना पूरा ध्यान बेटे पर ही केंद्रित कर रखा था, पर खुशियों के इस माहौल में बेचारी छुटकी कहीं अकेली पड़ गई थी. हिना के पास जाती तो वह उसे अपने बेटे को छूने न देती और कहती कि तुम अभी बाहर से खेल कर आई हो, बिना नहाए या बिना हाथ धोए छोटे बच्चे को हाथ मत लगाओ.

छुटकी तो हिना को ही अपनी अम्मी समझे हुई थी, पर अब तक हिना ने भी उस के पालनपोषण में कोई कमी नहीं रखी थी. कोई इन कान भरने वालों से बचे भी तो कैसे… ये लोग तो कान भरने के हजार बहाने खोज ही लेते हैं और ऐसा ही बहाना हैदर की बीवी रजिया ने खोज लिया था.

‘‘देख हिना… अब तक तेरे औलाद नहीं हो रही थी, इसलिए तेरे उस छुटकी को गोद लेने पर मैं ने कोई एतराज नहीं जताया. पर अब तो तेरा अपना बेटा पैदा हो गया है और आगे तेरी कोख और भी फलेगीफूलेगी… अब उस मुंशी की लड़की को भला घर में रखने की क्या जरूरत…

‘‘कल को उस की सारी जिम्मेदारियां तुम लोगों को ही तो उठानी पड़ेंगी… वैसे, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. तुम लोगों को ज्यादा लाड़ आता हो तो रखे रहो उस मुंशी की लड़की को अपने साथ,’’ जहर का बीज बो कर हैदर की बीवी रजिया वहां से चली गई.

उसी समय छुटकी वहां आई और हिना से बिसकुट मांगने लगी. हिना अपने बेटे के पैरों में मालिश करने में मशगूल थी. ऐसे समय उसे छुटकी का यों जिद करना अखर सा रहा था, पर छुटकी ने फिर भी जिद बंद नहीं की तो हिना झल्ला उठी और एक जोरदार तमाचा उस ने छुटकी के गाल पर रसीद कर दिया.

फिर तो यह आएदिन होता ही रहता. छुटकी की हर बात पर उसे मारना और डांटना आम बात बन गई थी और फिर वह दिन भी आ गया, जब हिना ने फजल से कहा, ‘‘सुनो, अब तो हमारा बेटा जुनैद हमारी गोद में है… और फिर अब तो हम दोबारा भी मां बन सकते हैं. ऐसे में हमें छुटकी को उस के असली मांबाप को सौंप देना चाहिए… उस के बड़े होने के साथ ही उस की जिम्मेदारी भी तो हमें लेनी पड़ेगी.’’

‘‘क्या बकवास बात है… हमारे आड़े वक्त में सज्जाद मुंशी ने अपनी बेटी हम बेऔलादों को सौंप कर हमें मुसकराने का मौका दिया और वह भी सिर्फ एक जबान पर… उन्होंने इस बात की कोई कागजी कार्यवाही भी नहीं कराई… और आज जब हमारा खुद का बच्चा इस दुनिया में आ गया है, तो हम उन की बेटी को उन्हें वापस कर दें… यह हमारी मौकापरस्ती नहीं कहलाएगी?’’ फजल नाराजगी दिखा रहा था.

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New Year 2022: नई जिंदगी की शुरुआत

फूलमनी जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही बुतरू के स्टाइल पर फिदा हो गई. प्यार के झांसे में आ कर एक दिन बिना सोचेसमझे वह अपना घर छोड़ उस के साथ शहर भाग आई. शादीशुदा जिंदगी क्या होती है, दोनों ही इस का ककहरा भी नहीं जानते थे. भाग कर शहर तो आ गए, लेकिन बुतरू कोई काम ही नहीं करना चाहता था. वह बस्ती के बगल वाली सड़क पर दिनभर हंडि़या बेचने वाली औरतों के पास निठल्ला बैठा बातें करता और हंडि़या पीता रहता था. इसी तरह दिन महीनों में बीत गए और खाने के लाले पड़ने लगे.

फूलमनी कब तक बुतरू के आसरे बैठे रहती. उस ने अगल बगल की औरतों से दोस्ती गांठी. उन्होंने फूलमनी को ठेकेदारी में रेजा का काम दिलवा दिया. वह काम करने जाने लगी और बुतरू घर संभालने लगा. जल्द ही दोनों का प्यार छूमंतर हो गया.

बुतरू दिनभर घर में अकेला बैठा रहता. शाम को जब फूलमनी काम से घर लौटती, वह उस से सारा पैसा छीन लेता और गालीगलौज पर आमादा हो जाता, ‘‘तू अब आ रही है. दिनभर अपने भरतार के घर गई थी पैसा कमाने… ला दे, कितना पैसा लाई है…’’

फूलमनी दिनभर ठेकेदारी में ईंटबालू ढोतेढोते थक कर चूर हो जाती. घर लौट कर जमीन पर ही बिना हाथमुंह धोए, बिना खाना खाए लेट जाती. ऊपर से शराब के नशे में चूर बुतरू उस के आराम में खलल डालते हुए किसी भी अंग पर बेधड़क हाथ चला देता. वह छटपटा कर रह जाती.

एक तो हाड़तोड़ मेहनत, ऊपर से बुतरू की मार खाखा कर फूलमनी का गदराया बदन गलने लगा था. तरहतरह के खयाल उस के मन में आते रहते. कभी सोचती, ‘कितनी बड़ी गलती की ऐसे शराबी से शादी कर के. वह जवानी के जोश में भाग आई. इस से अच्छा तो वह सुखराम मिस्त्री है. उम्र में बुतरू से थोड़ा बड़ा ही होगा, पर अच्छा आदमी है. कितने प्यार से बात करता है…’

सुखराम फूलमनी के साथ ही ठेकेदारी में मिस्त्री का काम करता था. वह अकेला ही रहता था. पढ़ालिखा तो नहीं था, पर सोचविचार का अच्छा था. सुबहसवेरे नहाधो कर वह काम पर चला आता. शाम को लौट कर जो भी सुबह का पानीभात बचा रहता, उसे प्यार से खापी कर सो जाता.

शनिवार को सुखराम की खूब मौज रहती. उस दिन ठेकेदार हफ्तेभर की मजदूरी देता था. रविवार को सुखराम अपने ही घर में मुरगा पकाता था. मौजमस्ती करने के लिए थोड़ी शराब भी पी लेता और जम कर मुरगा खाता.

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फूलमनी से सुखराम की नईनई जानपहचान हुई थी. एक रविवार को उस ने फूलमनी को भी अपने घर मुरगा खाने के लिए बुलाया, पर वह लाज के मारे नहीं गई.

साइट पर ठेकेदार का मुंशी सुखराम के साथ फूलमनी को ही भेजता था. सुखराम जब बिल्डिंग की दीवारें जोड़ता, तो फूलमनी फुरती दिखाते हुए जल्दीजल्दी उसे जुगाड़ मसलन ईंटबालू देती जाती थी.

सुखराम को बैठने की फुरसत ही नहीं मिलती थी. काम के समय दोनों की जोड़ी अच्छी बैठती थी. काम करते हुए कभीकभी वे मजाक भी कर लिया करते थे. लंच के समय दोनों साथ ही खाना खाते. खाना भी एकदूसरे से साझा करते. आपस में एकदूसरे के सुखदुख के बारे में भी बतियाते थे.

एक दिन मुंशी ने सुखराम के साथ दूसरी रेजा को काम पर जाने के लिए भेजा, तो सुखराम उस से मिन्नतें करने लगा कि उस के साथ फूलमनी को ही भेज दे.

मुंशी ने तिरछी नजरों से सुखराम को देखा और कहा, ‘‘क्या बात है सुखराम, तुम फूलमनी को ही अपने साथ क्यों रखना चाहते हो?’’

सुखराम थोड़ा झेंप सा गया, फिर बोला ‘‘बाबू, बात यह है कि फूलमनी मेरे काम को अच्छी तरह समझती है कि कब मुझे क्या जुगाड़ चाहिए. इस से काम करने में आसानी होती है.’’

‘‘ठीक है, तुम फूलमनी को अपने साथ रखो, मुझे कोई एतराज नहीं है. बस, काम सही से होना चाहिए… लेकिन, आज तो फूलमनी काम पर आई नहीं है. आज तुम इसी नई रेजा से काम चला लो.’’

झक मार कर सुखराम ने उस नई रेजा को अपने साथ रख लिया, मगर उस से उस के काम करने की पटरी नहीं बैठी, तो वह भी लंच में सिरदर्द का बहाना बना कर हाफ डे कर के घर निकल गया. दरअसल, फूलमनी के नहीं आने से उस का मन काम में नहीं लग रहा था.

दूसरे दिन सुखराम ने बस्ती जा कर फूलमनी का पता लगाया, तो मालूम हुआ कि बुतरू ने घर में रखे 20 किलो चावल बेच दिए हैं. फूलमनी से उस का खूब झगड़ा हुआ है. गुस्से में आ कर बुतरू ने उसे इतना मारा कि वह बेहोश हो गई. वह तो उसे मारे ही जा रहा था, पर बस्ती के लोगों ने किसी तरह उस की जान बचाई.

सुखराम ने पड़ोस में पूछा, ‘‘बुतरू अभी कहां है?’’

किसी ने बताया कि वह शराब पी कर बेहोश पड़ा है. सुखराम हिम्मत कर के फूलमनी के घर गया. चौखट पर खड़े हो कर आवाज दी, तो फूलमनी आवाज सुन कर झोंपड़ी से बाहर आई. उस का चेहरा उतरा हुआ था.

सुखराम से उस की हालत देखी न गई. वह परेशान हो गया, लेकिन कर भी क्या सकता था. उस ने बस इतना ही पूछा, ‘‘क्या हुआ, जो 2 दिन से काम पर नहीं आ रही हो?’’

दर्द से कराहती फूलमनी ने कहा, ‘‘अब इस चांडाल के साथ रहा नहीं जाता सुखराम. यह नामर्द न कुछ करता है और न ही मुझे कुछ करने देता है. घर में खाने को चावल का एक दाना तक नहीं छोड़ा. सारे चावल बेच कर शराब पी गया.’’

‘‘जितना सहोगी उतना ही जुल्म होगा तुम पर. अब मैं तुम से क्या कहूं. कल काम पर आ जाना. तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगता है,’’ इतना कह कर सुखराम वहां से चला आया.

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सुखराम के जाने के बाद बहुत देर तक फूलमनी के मन में यह सवाल उठता रहा कि क्या सचमुच सुखराम उसे चाहता है? फिर वह खुद ही लजा गई. वह भी तो उसे चाहने लगी है. कुछ शब्दों के एक वाक्य ने उस के मन पर इतना गहरा असर किया कि वह अपने सारे दुखदर्द भूल गई. उसे ऐसा लगने लगा, जैसे सुखराम उसे साइकिल के कैरियर पर बैठा कर ऐसी जगह लिए जा रहा है, जहां दोनों का अपना सुखी संसार होगा. वह भी पीछे मुड़ कर देखना नहीं चाह रही थी. बस आगे और आगे खुले आसमान की ओर देख रही थी.

अचानक फूलमनी सपनों के संसार से लौट आई. एक गहरी सांस भरी कि काश, ऐसा बुतरू भी होता. कितना प्यार करती थी वह उस से. उस की खातिर अपने मांबाप को छोड़ कर यहां भाग आई और इस का सिला यह मिल रहा है. आंखों से आंसुओं की बूंदें टपक आईं. बुतरू का नाम आते ही उस का मन फिर कसैला हो गया.

अगले दिन सुबहसवेरे फूलमनी काम पर आई, तो उसे देख कर सुखराम का मन मयूर नाच उठा. काम बांटते समय मुंशी ने कहा, ‘‘सुखराम के साथ फूलमनी जाएगी.’’

साइट पर सुखराम आगेआगे अपने औजार ले कर चल पड़ा, पीछेपीछे फूलमनी पाटा, बेलचा, सीमेंट ढोने वाला तसला ले कर चल रही थी.

सुखराम ने पीछे घूम कर फूलमनी को एक बार फिर देखा. वह भी उसे ही देख रही थी. दोनों चुप थे. तभी सुखराम ने फूलमनी से कहा, ‘‘तुम ऐसे कब तक बुतरू से पिटती रहोगी फूलमनी?’’

‘‘देखें, जब तक मेरी किस्मत में लिखा है,’’ फूलमनी बोली.

‘‘तुम छोड़ क्यों नहीं देती उसे?’’ सुखराम ने सवाल किया.

‘‘फिर मेरा क्या होगा?’’

‘‘मैं जो तुम्हारे साथ हूं.’’

‘‘एक बार तो घर छोड़ चुकी हूं और कितनी बार छोडंू? अब तो उसी के साथ जीना और मरना है.’’

‘‘ऐसे निकम्मे के हाथों पिटतेपिटाते एक दिन तुम्हारी जान चली जाएगी फूलमनी. क्या तुम मेरा कहा मानोगी?’’

‘‘बोलो…’’

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‘‘बुतरू एक जोंक की तरह है, जो तुम्हारे बदन को चूस रहा है. कभी आईने में तुम ने अपनी शक्ल देखी है. एक बार देखो. जब तुम पहली बार आई थीं, कैसी लगती थीं. आज कैसी लग रही हो. तुम एक बार मेरा यकीन कर के मेरे साथ चलो. हमारी अपनी प्यार की दुनिया होगी. हम दोनों इज्जत से कमाएंगेखाएंगे.’’

बातें करतेकरते दोनों उस जगह पहुंच चुके थे, जहां उन्हें काम करना था. आसपास कोई नहीं था. वे दोनों एकदूसरे की आंखों में समा चुके थे.

New Year 2022: एक नई पहल

 लेखक- नीलमणि शर्मा

‘‘भाभी…जल्दी आओ,प्लीज,’’ मेघा की आवाज सुन कर मैं दौड़ी चली आई.

‘‘क्या बात है, मेघा?’’ मैं ने प्रश्न- सूचक दृष्टि उस की तरफ डाली तो मेघा ने अपनी दोनों हथेलियों के बीच मेरा सिर पकड़ कर सड़क की ओर घुमा दिया, ‘‘मेरी तरफ नहीं भाभी, पार्क की तरफ देखो…वहां सामने बैंच पर लैला बैठी हैं.’’

‘‘अच्छा, तो उन आंटी का नाम लैला है…तुम जानती हो उन्हें?’’

‘‘क्या भाभी आप…’’ मेघा चिढ़ते हुए पैर पटकने लगी, ‘‘मैं नहीं जानती उन्हें, पर वह रोज यहां इसी समय इसी बैंच पर आ कर बैठती हैं और अपने मजनू का इंतजार करती हैं. भाभी, मजनूं बस, आता ही होगा…वह देखो…वह आ गया…अब देखो न इन दोनों के चेहरों की रंगत…पैर कब्र में लटके हैं और आशिकी परवान चढ़ रही है…’’

मैं ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘‘इस उम्र के लोगों का ऐसा मजाक उड़ाना अच्छी बात नहीं, मेघा.’’

‘‘भाभी, इस उम्र के लोगों को भी तो ऐसा काम नहीं करना चाहिए…पता नहीं कहां से आते हैं और यहां छिपछिप कर मिलते हैं. शर्म आनी चाहिए इन लोगों को.’’

‘‘क्यों मेघा, शर्म क्यों आनी चाहिए? क्या हमतुम दूसरों से बातें नहीं करते हैं?’’

‘‘हमारे बीच वह चक्कर थोड़े ही होता है.’’

‘‘तुम्हें क्या पता कि इन के बीच क्या चक्कर है? क्या ये पार्क में बैठ कर अश्लील हरकतें करते हैं या आपस में लड़ाईझगड़ा करते हैं, मेरे हिसाब से तो यही 2 बातें हैं कि कोई तीसरा व्यक्तिउन का मजाक बनाए. फिर जब तुम उन्हें जानती ही नहीं हो तो उन के रिश्ते को कोई नाम क्यों देती हो.’’

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‘‘रिश्ते को नाम कहां दिया है भाभी, मैं ने तो उन को नाम दिया है,’’ मेघा तुनक कर बोली, ‘‘मैं ने तो आप को यहां बुला कर ही गलती कर दी,’’ यह कहते हुए मेघा वहां से चल दी.

उस के जाने के बाद भी मैं कितनी देर यों ही बालकनी में बैठी उन दोनों बुजुर्गों को देखती रही और सोचती रही कि मांबाप अब समझदार हो गए हैं. लड़केलड़की की दोस्ती पर एतराज नहीं करते. समाज भी उन की दोस्ती को खुले दिल से स्वीकार रहा है, लेकिन 2 प्रौढ़ों की दोस्ती के लिए समाज आज भी वही है…उस की सोच आज भी वही है.

पार्क में बैठे अंकलआंटी को देख कर वर्षों पुरानी एक घटना मेरे मन में फिर से ताजा हो गई.

पुरानी दिल्ली की गलियों में मेरा बचपन बीता है. उस समय लड़के शाम को आमतौर पर गुल्लीडंडा या कबड्डी खेल लिया करते थे और लड़कियां छत पर स्टापू, रस्सी कूदना या कुछ बड़ी होने पर यों ही गप्पें मार लिया करती थीं. इस के साथसाथ गली में कौन आजा रहा है, किस का किस के साथ चक्कर है, किस ने किस को कब इशारा किया आदि की भी चर्चा होती रहती थी.

मैं भी अपनी सहेलियों के साथ शाम के वक्त छत पर खड़ी हो कर यह सब करती थी. एक दिन बात करतेकरते अचानक मेरी सहेली रेणु ने कहा, ‘देखदेख, वह चल दिए आरती के दादाजी…देख कैसे चबूतरे को पकड़- पकड़ कर जा रहे हैं.’

मैं ने पूछा, ‘कहां जा रहे हैं.’

‘अरे वहीं, देख सामने गुड्डन की दादी निकल आई हैं न अपने चबूतरे पर.’

और मैं ने देखा, दोनों बैठे मजे से बातें करने लगे. रेणु ने फिर कहा, ‘शर्म नहीं आती इन बुड्ढेबुढि़या को…पता है तुझे, सुबह और शाम ये दोनों ऐसे ही एकदूसरे के पास बैठे रहते हैं.’

‘तुझे कैसे पता? सुबह तू स्कूल नहीं जाती क्या…यही देखती रहती है?’

‘अरे नहीं, मम्मी बता रही थीं, और मम्मी ही क्या सारी गली के लोगों को पता है, बस नहीं पता है तो इन के घर वालों को.’

उस के बाद मैं ने भी यह बात नोट करनी शुरू कर दी थी.

कुनकुनी ठंड आ चुकी थी. रविवार का दिन था. मैं सिर धो कर छत पर धूप में बैठी थी. आदतन मेरी नजर उसी जगह पड़ गई. आरती के दादाजी अखबार पढ़ कर शायद गुड्डन की दादी को सुना रहे थे और दादी मूंगफली छीलछील कर उन्हें पकड़ा रही थीं. यह दृश्य मुझे इतना भाया कि मैं उसे हमेशा के लिए अपनी आंखों में भर लेना चाहती थी.

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मुंडेर पर झुक कर अपनी ठुड्डी को हथेली का सहारा दिए मैं कितनी ही देर उन्हें देखती रही कि अचानक आरती दौड़ती हुई आई और अपने दादाजी से जाने क्या कहा और वह एकदम वहां से उठ कर चले गए. गुड्डन की दादी की निरीह आंखें और मौन जबान से निकले प्रश्नों का उत्तर देने के लिए भी उन्होंने वक्त जाया नहीं किया. ‘पता नहीं क्या हुआ होगा,’ सोचते- सोचते मैं भी छत पर बिछी दरी पर आ कर बैठ गई.

अभी पढ़ने के लिए अपनी किताब उठाई ही होगी कि गली में से बहुत जोरजोर से चिल्लाने की आवाज आने लगी. कुछ देर अनसुना करने के बाद भी जब आवाजें आनी बंद नहीं हुईं तो मैं खड़ी हो कर गली में देखने लगी.

देखा, गली में बहुत लोग खड़े हैं. औरतें और लड़कियां अपनेअपने छज्जों पर खड़ी हैं. शोर आरती के घर से आ रहा था. उस के पिताजी अपने पिताजी को बहुत जोरजोर से डांट रहे थे…‘शर्म नहीं आती इस उमर में औरतबाजी करते हुए…तुम्हें अपनी इज्जत का तो खयाल है नहीं, कम से कम मेरा तो सोचा होता…इस से तो अच्छा था कि जब मां मर गई थीं तभी दूसरी बिठा लेते…सारी गली हम पर थूथू कर रही है…अरे, रामचंदर ने तो अपनी मां को खुला छोड़ रखा है…पर तुम में अपनी अक्ल नहीं है क्या…खबरदार, जो आज के बाद गली में पैर रखा तो…’

जितनी चीखचीख कर ये बातें कही गई थीं उन से क्या उन के घर की बेइज्जती नहीं हुई पर यह कहने वाला और समझाने वाला आरती के पिताजी को कोई नहीं था. हां, ये आवाजें जैसे सब ने सुनीं वैसे ही सामने गुड्डन की दादी और उन के बाकी घर वालों ने भी सुनी होंगी.

कुछ देर बाद भीड़ छंट चुकी थी. उस दिन के बाद फिर कभी किसी ने दादी को चबूतरे पर बैठे नहीं देखा. बात सब के लिए आईगई हो चुकी थी.

अचानक एक रात को बहुत जोर से किसी के चीखने की आवाज आई. मेरी परीक्षा नजदीक थी इस कारण मैं देर तक जाग कर पढ़ाई कर रही थी. चीख सुन कर मैं डर गई. समय देखा, रात के डेढ़ बजे थे. कुछ देर बाद किसी के रोने की आवाज आई. खिड़की खोल कर बाहर झांका कि यह आवाज किस तरफ से आई है तो देखा आरती के घर के बाहर आज फिर लोग इकट्ठा होने शुरू हो गए हैं.

मेरे पिताजी भी घर से बाहर निकल चुके थे…कुछ लोग हमारे घर के बाहर चबूतरे पर बैठे धीरेधीरे बोल रहे थे, ‘बहुत बुरा हुआ यार, महेश को समझाना पड़ेगा, मुंह अंधेरे ही अपने पिताजी की अर्थी ले चले, नहीं तो उस के पिताजी ने जो पंखे से लटक कर आत्महत्या की है, यह बात सारे महल्ले में फैल जाएगी और पुलिस केस बन जाएगा. महेश बेचारा बिन मौत मारा जाएगा.’

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मैं सुन कर सन्न रह गई. दादाजी ने आत्महत्या कर ली…सब लोग उस दिन की बात भूल गए पर दादाजी नहीं भूल पाए. कैसे भूल पाते, उस दिन उन का आत्मसम्मान उन के बेटे ने मार दिया था. आज उन की आत्महत्या पर कैसे फूटफूट कर रो रहा है.

एक कर्कश सी आवाज तभी मेरे कानों में पड़ी और मेरी तंद्रा भंग हुई. मानो मैं नींद से जागी थी. किसी ने दरवाजे की घंटी बजाई थी. मैं ने कितनी बार अपने पति को कहा है कि इस बेल की आवाज मुझे बिलकुल पसंद नहीं है और जब कोई इसे देर तक बजाता है तो मन करता है बेल उखाड़ कर फेंक दूं.

गुस्से से दरवाजा खोलने गई. बेटी कोचिंग कर के वापस आई थी.

‘‘मिट्ठी, कितनी बार कहा है न कि एक बार बेल बजा कर छोड़ दिया करो. मैं बहरी नहीं हूं. एक बार में ही सुन लेती हूं.’’

‘‘ममा, मैं 10 मिनट से दरवाजे पर खड़ी हूं, पर आप ने घंटी नहीं सुनी और आप जरा अपना फोन देखिए, कितनी मिस काल मैं ने दरवाजे पर खडे़खडे़ दी हैं, आप ने फोन नहीं उठाया और अपने ही किए फोन की घंटी मैं दरवाजे के बाहर खड़ीखड़ी सुनती रही, क्या सो गई थीं आप?’’

अगले दिन बेटी के कोचिंग जाने के बाद मैं ताला लगा कर पार्क की ओर चल दी और अपने बैठने के लिए मैं ने वही बैंच चुनी जिस पर आंटी अकेली बैठी थीं. पसीना पोंछ कर मैं ने उन की ओर देखा तो वह पूछ बैठीं, ‘‘पहली बार सैर करने आई हो शायद.’’

मैं ने ‘हां’ में गर्दन हिला दी.

‘‘2-4 दिन ऐसे ही थकान लगेगी, पसीना आएगा, फिर आदत पड़ जाएगी,’’ आंटी मानो मेरी थकान भरी सांसों को थामने की कोशिश कर रही थीं.

मैं ने भी बात को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से पूछा, ‘‘आप रोज आती हैं?’’

‘‘हां बेटी,’’ उन का छोटा सा उत्तर सुन कर मैं ने कहा, ‘‘मैं तो बहुत कोशिश करती हूं पर आंटी समय नहीं मिलता. आप कैसे नियमित रूप से आ जाती हैं.’’

‘‘तुम्हें समय नहीं मिलता और मेरे पास समय की कमी नहीं,’’ कहते हुए आंटी खिलखिला पड़ीं. तब तक मैं दोबारा सैर करने के लिए तैयार हो चुकी थी. मैं जैसे ही उठी, देखा सामने से अंकल आ रहे थे. यह सोच कर मैं वहां से चल दी कि आज के लिए इतना ही काफी है.

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अब मेरा यह नियम ही हो गया था. रोज की मुलाकात व बातचीत में यह पता चला कि आंटी यानी मिसेज सुमेधा कंसल सरकारी स्कूल की रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं. बच्चे अपनीअपनी गृहस्थी में मगन हैं. एक दिन मैं ने पूछा भी था, ‘‘आंटी, जब आप प्रिंसिपल रह चुकी हैं तो आप अपने नातीपोतों को पढ़ा सकती हैं, आप के समय का सदुपयोग भी हो जाएगा.’’

एक फीकी सी हंसी के साथ आंटी बोलीं, ‘‘बेटी दूसरे शहर में रहती है. बेटे के भी एक ही बेटा है और वह देहरादून में पढ़ता है. होस्टल में रहता है. बेटा और बहू दोनों ही मुझे हर सुखसुविधा देते हैं, मानसम्मान भी रखते हैं लेकिन अपने- अपने कैरियर की ऊंचाइयां पाने में व्यस्त हैं. घर पर मैं बस, अकेली…’’

‘‘तो आंटी कोई सोशल सर्विस या अन्य कोई ऐसा काम जो आप को रुचिकर लगे, क्यों नहीं करतीं?’’

‘‘मैं जैसी सोशल सर्विस करना चाहती हूं वह बच्चों को पसंद नहीं है और ऊंची शानशौकत वाली सोशल सर्विस मैं कर नहीं सकती. हां, मुझे कविता और कहानियां लिखना रुचिकर लगता है और वह मैं लिखती हूं. लेकिन यह शाम का समय घर में अकेले नहीं बीतता…कोई तो बात करने के लिए चाहिए…नहीं तो हम बोलना ही भूल जाएंगे और हमारी भाषा समाप्त हो जाएगी. हां, अगर तुम्हारे अंकलजी होते तो…’’

‘‘अभी अंकलजी आप को लेने नहीं आएंगे क्या?’’ मैं ने अनजान बनते हुए पूछा.

‘‘नहीं बेटा, जिन्हें तुम रोज मेरे साथ बात करते देखती हो वह भी मेरी ही तरह अकेले हैं. मेरे पति तो 20 वर्ष पहले ही गुजर चुके हैं. उन के जाने के बाद भी अकेलापन था लेकिन वह वक्त तो बच्चों को पालने और नौकरी करने में जैसेतैसे बीत गया और शर्माजी, जो अभी आने ही वाले होंगे, वह भी अपनी जीवन संगिनी को 7-8 वर्ष पहले खो चुके हैं.

‘‘शर्माजी तो मुझ से ज्यादा अकेले हैं. मेरी बहू जूही मेरे बहुत करीब है, फिर फोन पर हर तीसरे दिन बेटी से भी बात हो जाती है लेकिन वह तो मर्द हैं न, बहुओं से ज्यादा घुलमिल नहीं पाते, बेटों के पास फुर्सत नहीं है. ऐसा नहीं कि बहूबेटे उन का खयाल नहीं रखते लेकिन आज सब अपने में व्यस्त हैं. नौकरीपेशा बहुएं 24 घंटे तो हाथ बांधे नहीं खड़ी रह सकतीं न और नौकरीपेशा ही क्यों, घर में रहने वाली बहुएं भी ऐसा कहां कर सकती हैं…यद्यपि इनसान ऐसा करना चाहता है लेकिन वक्त है कि वह हम सब को अपनी उंगली पर नचाता रहता है.

‘‘जैसे बच्चे, बच्चों की संगत में, जवान, जवानों के साथ, ऐसे ही हम बूढे़ बूढ़ों की संगत में खुश रहते हैं. बच्चों के साथ कभी हमें बच्चा बनना पड़ता है, अच्छा लगता है, लेकिन मन की बात तो किसी हमउम्र से ही शेयर की जा सकती है. बस, शर्माजी हैं, आते हैं…साझा दुख साझा सुख…कुछ इधर की कुछ उधर की…और फिर अगले दिन मिलने की उम्मीद में पूरे 24 घंटे बीत जाते हैं.’’

तभी सामने से शर्माजी आते दिखाई दिए. मैं उठ कर चलने लगी. आज सुमेधाजी ने मुझे रोक लिया.

‘‘इन से मिलिए. ये हैं, मिसेज मालिनी अग्रवाल, यहीं सामने के फ्लैट में रहती हैं और बेटा, ये हैं मि. शर्मा… रिटायर्ड अंडर सेके्रटरी.’’ हम दोनों में नमस्ते का आदानप्रदान हुआ और मैं वहां से चल दी.

New Year 2022: नई शुरुआत

दिशा रसोई में फटाफट काम कर रही थी. मनीष और क्रिया अपनेअपने कमरों में सो रहे थे. यहीं से उस के दिन की शुरुआत होती थी. 5 बजे उठ कर नाश्ता और दोपहर का खाना तैयार कर, मनीष और 13 वर्षीया क्रिया को जगाती थी. उन्हें जगा कर फिर अपनी सुबह की चाय के साथ 2 बिस्कुट खाती थी. उस ने घड़ी पर निगाह डाली तो 6:30 बज गए थे. वह जल्दी से जा कर क्रिया को जगाने लगी.

‘‘क्रिया उठो, 6:30 बज गए,’’ बोल कर वह वापस अपने काम में लग गई.

‘‘मम्मा, आज हम तृष्णा दीदी के मेहंदी फंक्शन में जाएंगे.’’

‘‘ओफ्फ, क्रिया, तुम्हें स्कूल के लिए तैयार होना है. देर हो गई तो स्कूल में एंट्री बंद हो जाएगी और फिर तुम्हें घर पर अकेले रहना पड़ेगा,’’ गुस्से से दिशा ने कहा, ‘‘जाओ, जल्दी से स्कूल के लिए तैयार हो जाओ, मेरा सिर न खाओ.’’ क्रिया पैर पटकती हुई बाथरूम में अपनी ड्रैस ले कर नहाने चली गई. दिशा को सब काम खत्म कर के 8 बजे तक स्कूल पहुंचना होता था, इसलिए उस का पारा रोज सुबह चढ़ा ही रहता था. 7 बज गए तो वह मनीष को जगाने गई. ‘‘कभी तो अलार्म लगा लिया करो. कितनी दिक्कत होती है मुझे, कभी इस कमरे में भागो तो कभी उस कमरे में. और एक तुम हो, जरा भी मदद नहीं करते,’’ गुस्से से भरी दिशा जल्दीजल्दी सफाई करने लगी. साथ ही बड़बड़ाती जा रही थी, ‘जिंदगी एक मशीन बन कर रह गई है. काम हैं कि खत्म ही नहीं होते और उस पर यह नौकरी. काश, मनीष अपनी जिम्मेदारी समझते तो ऐसी परेशानी न होती.’

मनीष ने क्रिया और दिशा को स्कूटर पर बैठाया और स्कूल की ओर रवाना हो गया.

दिशा की झुंझलाहट कम होने का नाम नहीं ले रही थी. जल्दीजल्दी काम निबटाते भी वह 15 मिनट देर से स्कूल पहुंची. शुक्र है प्रिंसिपल की नजर उस पर नहीं पड़ी, वरना डांट खानी पड़ती. अपनी क्लास में जा कर जैसे ही उस ने बच्चों को पढ़ाने के लिए ब्लैकबोर्ड पर तारीख डाली 04/04/16. उस का सिर घूम गया.

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4 तारीख वो कैसे भूल गई, आज तो रिया का जन्मदिन है. है या था? सिर में दर्द शुरू हो गया उस के. जैसेतैसे क्लास पूरी कर वह स्टाफरूम में पहुंची. कुरसी पर बैठते ही उस का सिरदर्द तेज हो गया और वह आंखें बंद कर के कुरसी पर टेक लगा कर बैठ गई. रिया का गुस्से वाला चेहरा उस की आंखों के आगे आ गया. कितना आक्रोश था उस की आंखों में. वे आंखें आज भी दिशा को रातरात भर जगा देती हैं और एक ही सवाल करती हैं – ‘मेरा क्या कुसूर था?’ कुसूर तो किसी का भी नहीं था. पर होनी को कोई टाल नहीं सकता. कितनी मन्नतोंमुरादों से दिशा और मनीष ने रिया को पाया था. किस को पता था कि वह हमारे साथ सिर्फ 16 साल तक ही रहेगी. उस के होने के 4 साल बाद क्रिया हो गई. तब से जाने क्यों रिया के स्वभाव में बदलाव आने लगा. शायद वह दिशा के प्यार पर सिर्फ अपना अधिकार समझती थी, जो क्रिया के आने से बंट गया था.

जैसेजैसे रिया बड़ी होती रही, दिशा और मनीष से दूर होती रही. मनीष को इन सब से कुछ फर्क नहीं पड़ता था. उसे तो शराब और सिगरेट की चिंता होती थी बस, उतना भर कमा लिया. बीवीबच्चे जाएं भाड़ में. खाना बेशक न मिले पर शराब जरूर चाहिए उसे. उस के लिए वह दिशा पर हाथ उठाने से भी गुरेज नहीं करता था. अपनी बेबसी पर दिशा की आंखें भर आईं. अगर क्रिया की चिंता न होती तो कब का मनीष को तलाक दे चुकी होती. दिशा का सिर अब दर्द से फटने लगा तो वह स्कूल से छुट्टी ले कर घर आ गई. दवा खा कर वह अपने कमरे में जा कर लेट गई. आंखें बंद करते ही फिर वही रिया की गुस्से से लाल आंखें उसे घूरने लगीं. डर कर उस ने आंखें खोल लीं.

सामने दीवार पर रिया की तसवीर लगी थी जिस पर हार चढ़ा था. कितनी मासूम, कितनी भोली लग रही है. फिर कहां से उस में इतना गुस्सा भर गया था. शायद दिशा और मनीष से ही कहीं गलती हो गई. वे अपनी बड़ी होती रिया पर ध्यान नहीं दे पाए. शायद उसी दिन एक ठोस समझदारी वाला कदम उठाना चाहिए था जिस दिन पहली बार उस के स्कूल से शिकायत आई थी. तब वह छठी क्लास में थी. ‘मैम आप की बेटी रिया का ध्यान पढ़ाई में नहीं है. जाने क्या अपनेआप में बड़बड़ाती रहती है. किसी बच्चे ने अगर गलती से भी उसे छू लिया तो एकदम मारने पर उतारू हो जाती है. जितना मरजी इसे समझा लो, न कुछ समझती है और न ही होमवर्क कर के आती है. यह देखिए इस का पेपर जिस में इस को 50 में से सिर्फ 4 नंबर मिले हैं.’ रिया पर बहुत गुस्सा आया था दिशा को जब रिया की मैडम ने उसे इतना लैक्चर सुना दिया था.

‘आप इस पर ध्यान दें, हो सके तो किसी चाइल्ड काउंसलर से मिलें और कुछ समय इस के साथ बिताएं. इस के मन की बातें जानने की कोशिश करें.’

रिया की मैडम की बात सुन कर दिशा ने अपनी व्यस्त दिनचर्या पर नजर डाली. ‘कहां टाइम है मेरे पास? मरने तक की तो फुरसत नहीं है. काश, मनीष की नौकरी लग जाए या फिर वह शराब पीना छोड़ दे तो हम दोनों मिल कर बेटी पर ध्यान दे सकते हैं,’ दिशा ने सोचा लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं.

फिर तो बस आएदिन रिया की शिकायतें स्कूल से आती रहती थीं. दिशा को न फुरसत मिली उस से बात करने की, न उस की सखी बनने की. एक दिन तो हद ही हो गई जब मनीष उसे हाथ से घसीट कर घर लाया था.

‘क्या हुआ? इसे क्यों घसीट रहे हो. अब यह बड़ी हो गई है.’ दिशा ने उस का हाथ मनीष के हाथ से छुड़ाते हुए कहा.

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मनीष ने दिशा को धक्का दे कर पीछे कर दिया और तड़ातड़ 3-4 चाटें रिया को लगा दिए.

दिशा एकदम सकते में आ गई. उसे समझ नहीं आया कि रिया को संभाले या मनीष को रोके.

मनीष की आंखें आग उगल रही थीं.

‘जानती हो कहां से ले कर आया हूं इसे. मुझे तो बताते हुए भी शर्म आती है.’

दिशा हैरानी से मनीष की तरफ सवालिया नजरों से देखती रही.

‘पुलिस स्टेशन से.’

‘क्या?’ दिशा का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘इंसपैक्टर प्रवीर शिंदे ने मुझे बताया कि उन्होंने इसे एक लड़के के साथ आपत्तिजनक स्थिति में पकड़ा था.’ दिशा का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह रिया को खा जाने वाली नजरों से देखने लगी. रिया की आंखों से अब भी अंगारे बरस रहे थे और फिर उस ने गुस्से से जोर से परदों को खींचा और अपने कमरे में चली गई. मनीष अपने कमरे में जा कर अपनी शराब की बोतल खोल कर पीने लग गया. दिशा रिया के कमरे की तरफ बढ़ी तो देखा कि दरवाजा अंदर से बंद था. उस ने बहुत आवाज लगाई पर रिया ने दरवाजा नहीं खोला. एक घंटे के बाद जब मनीष पर शराब का सुरूर चढ़ा तो वह बहकते कदमों से लड़खड़ाते हुए रिया के कमरे के दरवाजे के बाहर जा कर बोला, ‘रिया, मेरे बच्चे, बाहर आ जा. मुझे माफ कर दे. आगे से तुझ पर हाथ नहीं उठाऊंगा.’ दिशा जानती थी कि यह शराब का असर है, वरना प्यार से बात करना तो दूर, वह रिया को प्यारभरी नजरों से देखता भी नहीं था.

रिया ने दरवाजा खोला और पापा के गले लग कर बोली, ‘पापा, आई एम सौरी.’

दोनों बापबेटी का ड्रामा चालू था. न वह मानने वाली थी और न मनीष. दिशा कुछ समझाना चाहती तो रिया और मनीष उसे चुप करा देते. हार कर उस ने भी कुछ कहना छोड़ दिया. इस चुप्पी का असर यह हुआ कि दिशा से उस की दूरियां बढ़ती रहीं और रिया के कदम बहकने लगे.

दिशा आज अपनेआप को कोस रही थी कि अगर मैं ने उस चुप्पी को न स्वीकारा होता तो रिया आज हमारे साथ होती. बातबात पर रिया पर हाथ उठाना तो रोज की बात हो गई थी. आज उसे महसूस हो रहा था कि जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो उन के साथ दोस्तों सा व्यवहार करना चाहिए. कुछ पल उन के साथ बिताने चाहिए, उन के पसंद का काम करना चाहिए ताकि हम उन का विश्वास जीत सकें और वे हम से अपने दिल की बात कह सकें. पर दिशा यह सब नहीं कर पाई और अपनी सुंदर बेटी को आज के ही दिन पिछले साल खो बैठी.

आज उसे 4 अप्रैल, 2015 बहुत याद आ रहा था और उस दिन की एकएक घटना चलचित्र की भांति उस की आंखों के बंद परदों से हो कर गुजरने लगी…

कितनी उत्साहित थी रिया अपने सोलहवें जन्मदिन को ले कर. जिद कर के 4 हजार रुपए की पिंक कलर की वह ‘वन पीस’ ड्रैस उस ने खरीदी थी. कितनी मुश्किल से वह ड्रैस हम उसे दिलवा पाए थे. वह तो अनशन पर बैठी थी.

स्कूल से छुट्टी कर ली थी उस ने जन्मदिन मनाने के लिए. सुबहसवेरे तैयार होने लगी. 4 घंटे लगाए उस दिन उस ने तैयार होने में. बालों की प्रैसिंग करवाई, फिर कभी ऐसे, कभी वैसे बाल बनाते हुए उस ने दोपहर कर दी. जब दिशा उस दिन स्कूल से लौटी तो एक पल निहारती रह गई रिया को.

‘हैप्पी बर्थडे, बेटा.’

दिशा ने कहा तो रिया ने जवाब दिया, ‘रहने दो मम्मी, अगर आप को मेरे जन्मदिन की खुशी होती तो आज आप स्कूल से छुट्टी ले लेतीं और मुझे कभी मना नहीं करतीं इस ड्रैस के लिए.’ दिशा का मन बुझ गया पर वह रिया का मूड नहीं खराब करना चाहती थी. दिशा यादों में डूबी थी कि तभी क्रिया की आवाज सुन कर उस की तंद्रा भंग हुई.

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‘‘मम्मा, मम्मा आप अभी तक सोए पड़े हो?’’ क्रिया ने घर में घुसते ही सवाल किया. दिशा का चेहरा पूरा आंसुओं से भीग गया था. वह अनमने मन से उठी और रसोई में जा कर क्रिया के लिए खाना गरम करने लगी. क्रिया ने फिर सुबह वाला प्रश्न दोहराया, ‘‘मम्मी, क्या हम तृष्णा दीदी के मेहंदी फंक्शन में जाएंगे?’’

दिशा ने कोई जवाब नहीं दिया. क्रिया बारबार अपना प्रश्न दोहराने लगी तो उस ने गुस्से में कहा, ‘‘नहीं, हम किसी फंक्शन में नहीं जाएंगे.’’ आज रिया की बरसी थी तो ऐसे में वह कैसे किसी फंक्शन में जाने की कल्पना कर सकती थी. क्रिया को बहुत गुस्सा आया. शायद वह इस फंक्शन में जाने के लिए अपना मन बना चुकी थी. उसे ऐसे फंक्शन पर जाना अच्छा लगता था और मां का मना करना उसे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा था.

‘‘मम्मा, आप बहुत गंदे हो, आई हेट यू, मैं कभी आप से बात नहीं करूंगी.’’ गुस्से से बोलती हुई क्रिया अपने कमरे में चली गई और उस ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

दरवाजे की तेज आवाज से मनीष का नशा टूटा तो वह कमरे से चिल्लाया, ‘‘यह क्या हो रहा है इस घर में? कोई मुझे बताएगा?’’

दिशा बेजान सी कमरे की कुरसी पर धम्म से गिर गई. उस की नजरें कभी मनीष के कमरे के दरवाजे पर जातीं, कभी क्रिया के बंद दरवाजे पर तो कभी रिया की तसवीर पर. अचानक उसे सब घूमता हुआ नजर आया, ठीक वैसे ही जब पिछले साल 4 तारीख को फोन आया था, ‘देखिए, मैं डाक्टर दत्ता बोल रहा हूं सिटी हौस्पिटल से. आप जल्द से जल्द यहां आ जाएं. एक लड़की जख्मी हालत में यहां आई है. उस के मोबाइल से ‘होम’ वाले नंबर पर मैं ने कौल किया है. शायद, यह आप के घर की ही कोई बच्ची है.’

यह सुनते ही दिल जोरजोर से धड़कने लगा, वह रिया नहीं है. अगर वह रिया नहीं हैं तो वह कहां हैं? अचानक उसे याद आया, वह तो 6 बजे अपने दोस्तों के साथ जन्मदिन मनाने गई थी. असमंजस की स्थिति में वह और मनीष हौस्पिटल पहुंचे तो डाक्टर उन्हें इमरजैंसी वार्ड में ले गया और यह जानने के बाद कि वे उस लड़की के मातापिता हैं, बोला, ‘आई एम सौरी, इस की डैथ तो औन द स्पौट ही हो गई थी.’ अचानक से आसमान फट पड़ा था दिशा पर. वह पागलों की तरह चीखने लगी और जोरजोर से रोने लगी. ‘इस के साथ एक लड़का भी था वह दूसरे कमरे में है. आप चाहें तो उस से मिल सकते हैं.’

मनीष और दिशा भाग कर दूसरे कमरे में गए. और गुस्से से बोले, ‘बोल, क्यों मारा तू ने हमारी बेटी को, उस ने तेरा क्या बिगाड़ा था?’

16 साल का हितेश घबरा गया और रोतेरोते बोला, ‘आंटी, आंटी, मैं ने कुछ नहीं किया, वह तो मेरी बहुत अच्छी दोस्त थी.’

‘फिर ये सब कैसे हुआ? बता, नहीं तो मैं अभी पुलिस को फोन करता हूं,’ मनीष ने गुस्से में कहा. ‘अंकल, हम 4 लोग थे, रिया और हम 3 लड़के. मोटरसाइकिल पर बैठ कर हम पहले हुक्का बार गए…’

मनीष और दिशा की आंखें फटी की फटी रह गईं यह जान कर कि उन की बेटी अब हुक्का और शराब भी पीने लगी थी. फिर मैं ने रिया से कहा, ‘रिया काफी देर हो गई है. चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं. पर अंकल, वह नहीं मानी, बोली कि आज घर जाने का मन नहीं है. ‘मेरे बहुत समझाने पर बोली कि अच्छा, थोड़ी देर बाद घर छोड़ देना तब तक लौंग ड्राइव पर चलते हैं. तभी, अंकल आप का फोन आया था जब आप ने घर जल्दी आने को कहा था. पर वह तो जैसे आजाद होना चाहती थी. इसीलिए उस ने आगे बढ़ कर चलती मोटरसाइकिल से चाबी निकालने की कोशिश की और इस सब में मोटरसाइकिल का बैलेंस बिगड़ गया और वह पीछे की ओर पलट गई. वहीं, डिवाइडर पर लोहे का सरिया सीधा उस के सिर में लग गया और उस ने वहीं दम तोड़ दिया.’

दहशत में आए हितेश ने सारी कहानी रोतेरोते बयान कर दी. दिशा और मनीष सकते में आ गए और जानेअनजाने में हुई अपनी गलतियों पर पछताने लगे. काश, हम समय रहते समझ पाते तो आज रिया हमारे बीच होती. तभी अचानक दिशा वर्तमान में लौट आई और उसे क्रिया का ध्यान आया जो अब भी बंद दरवाजे के अंदर बैठी थी. दिशा ने कुछ सोचा और उठ कर क्रिया का दरवाजा खटखटाने लगी, ‘‘क्रिया बेटा, दरवाजा खोलो.’’

अंदर से कोई आवाज नहीं आई.

‘‘अच्छा बेटा, आई एम सौरी. अच्छा ऐसा करना, वह जो पिंक वाली ड्रैस है, तुम आज रात मेहंदी फंक्शन में वही पहन लेना. वह तुम पर बहुत जंचती है.’’ दिशा का इतना बोलना था कि क्रिया झट से बाहर आ कर दिशा के गले लग गई और बोली, ‘‘सच मम्मा, हम वहां बहुत मस्ती करेंगे, यह खाएंगे, वह खाएंगे. आई लव यू, मम्मा.’’ बच्चों की खुशियां भी उन की तरह मासूम होती हैं, छोटी पर अपने आप में पूर्ण. शायद यह बात मुझे बहुत पहले समझ आ गई होती तो रिया कभी हम से जुदा नहीं होती. दिशा ने सोचा, वह अपनी एक बेटी खो चुकी थी पर दूसरी अभी इतनी दूर नहीं गई थी जो उस की आवाज पर लौट न पाती. दिशा ने कस कर क्रिया को गले से लगा लिया इस निश्चय के साथ कि वह इतिहास को नहीं दोहराएगी.

अगले दिन उस ने अपने स्कूल में इस्तीफा भेज दिया इस निश्चय के साथ कि वह अब अपनी डोलती जीवननैया की पतवार बन कर मनीष और क्रिया को संभालेगी. सब से पहले वह अपनी सेहत पर ध्यान देगी और गुस्से को काबू करने के लिए एक्सरसाइज करेगी. घर बैठे ही ट्यूशन से आमदनी का जरिया चालू करेगी. काश, ऐसा ही कुछ रिया के रहते हो गया होता तो रिया आज उस के साथ होती. इस तरह अपनी गलतियों को सुधारने का निश्चय कर के दिशा अपनी जिंदगी की नई शुरुआत कर चुकी थी.

सांझ पड़े घर आना- भाग 1: नीलिमा की बौस क्यों रोने लगी

उसकी मेरे औफिस में नईनई नियुक्ति हुई थी. हमारी कंपनी का हैड औफिस बैंगलुरु में था और मैं यहां की ब्रांच मैनेजर थी. औफिस में कोई और केबिन खाली नहीं था, इसलिए मैं ने उसे अपने कमरे के बाहर वाले केबिन में जगह दे दी. उस का नाम नीलिमा था. क्योंकि उस का केबिन मेरे केबिन के बिलकुल बाहर था, इसलिए मैं उसे आतेजाते देख सकती थी. मैं जब भी अपने औफिस में आती, उसे हमेशा फाइलों या कंप्यूटर में उलझा पाती. उस का औफिस में सब से पहले पहुंचना और देर तक काम करते रहना मुझे और भी हैरान करने लगा. एक दिन मेरे पूछने पर उस ने बताया कि पति और बेटा जल्दी चले जाते हैं, इसलिए वह भी जल्दी चली आती है. फिर सुबहसुबह ट्रैफिक भी ज्यादा नहीं रहता.

वह रिजर्व तो नहीं थी, पर मिलनसार भी नहीं थी. कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, जो आंखों को बांध लेते हैं. उस का मेकअप भी एकदम नपातुला होता. वह अधिकतर गोल गले की कुरती ही पहनती. कानों में छोटे बुंदे, मैचिंग बिंदी और नाममात्र का सिंदूर लगाती. इधर मैं कंपनी की ब्रांच मैनेजर होने के नाते स्वयं के प्रति बहुत ही संजीदा थी. दिन में जब तक 3-4 बार वाशरूम में जा कर स्वयं को देख नहीं लेती, मुझे चैन ही नहीं पड़ता. परंतु उस की सादगी के सामने मेरा सारा वजूद कभीकभी फीका सा पड़ने लगता.

लंच ब्रेक में मैं ने अकसर उसे चाय के साथ ब्रैडबटर या और कोई हलका नाश्ता करते पाया. एक दिन मैं ने उस से पूछा तो कहने लगी, ‘‘हम लोग नाश्ता इतना हैवी कर लेते हैं कि लंच की जरूरत ही महसूस नहीं होती. पर कभीकभी मैं लंच भी करती हूं. शायद आप ने ध्यान नहीं दिया होगा. वैसे भी मेरे पति उमेश और बेटे मयंक को तरहतरह के व्यंजन खाने पसंद हैं.’’ ‘‘वाह,’’ कह कर मैं ने उसे बैठने का इशारा किया, ‘‘फिर कभी हमें भी तो खिलाइए कुछ नया.’’ इसी बीच मेरा फोन बज उठा तो मैं अपने केबिन में आ गई.

एक दिन वह सचमुच बड़ा सा टिफिन ले कर आ गई. भरवां कचौरी, आलू की सब्जी और बूंदी का रायता. न केवल मेरे लिए बल्कि सारे स्टाफ के लिए. इतना कुछ देख कर मैं ने कहा, ‘‘लगता है कल शाम से ही इस की तैयारी में लग गई होगी.’’

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वह मुसकराने लगी. फिर बोली, ‘‘मुझे खाना बनाने और खिलाने का बहुत शौक है. यहां तक कि हमारी कालोनी में कोई भी पार्टी होती है तो सारी डिशेज मैं ही बनाती हूं.’’ नीलिमा को हमारी कंपनी में काम करते हुए 6 महीने हो गए थे. न कभी वह लेट हुई और न जाने की जल्दी करती. घर से तरहतरह का खाना या नाश्ता लाने का सिलसिला भी निरंतर चलता रहा. कई बार मैं ने उसे औफिस के बाद भी काम करते देखा. यहां तक कि वह अपने आधीन काम करने वालों की मीटिंग भी शाम 6 बजे के बाद ही करती. उस का मानना था कि औफिस के बाद मन भी थोड़ा शांत रहता है और बाहर से फोन भी नहीं आते.

एक दिन मैं ने उसे दोपहर के बाद अपने केबिन में बुलाया. मेरे लिए फुरसत से बात करने का समय दोपहर के बाद ही होता था. सुबह मैं सब को काम बांट देती थी. हमारी कंपनी बाहर से प्लास्टिक के खिलौने आयात करती और डिस्ट्रीब्यूटर्स को भेज देती थी. हमारी ब्रांच का काम और्डर ले कर हैड औफिस को भेजने तक ही सीमित था. नीलिमा ने बड़ी शालीनता से मेरे केबिन का दरवाजा खटखटा भीतर आने की इजाजत मांगी. मैं कुछ पुरानी फाइलें देख रही थी. उसे बुलाया और सामने वाली कुरसी पर बैठने का इशारा किया. मैं ने फाइलें बंद कीं और चपरासी को बुला कर किसी के अंदर न आने की हिदायत दे दी.

नीलिमा आप को हमारे यहां काम करते हुए 6 महीने से ज्यादा का समय हो गया. कंपनी के नियमानुसार आप का प्रोबेशन पीरियड समाप्त हो चुका है. यहां आप को कोई परेशानी तो नहीं? काम तो आपने ठीक से समझ ही लिया है. स्टाफ से किसी प्रकार की कोई शिकायत हो तो बताओ. ‘‘मैम, न मुझे यहां कोई परेशानी है और न ही किसी से कोई शिकायत. यदि आप को मेरे व्यवहार में कोई कमी लगे तो बता दीजिए. मैं खुद को सुधार लूंगी… मैं आप के जितना पढ़ीलिखी तो नहीं पर इतना जरूर विश्वास दिलाती हूं कि मैं अपने काम के प्रति समर्पित रहूंगी. यदि पिछली कंपनी बंद न हुई होती तो पूरे 10 साल एक ही कंपनी में काम करते हो जाते,’’ कह कर वह खामोश हो गई. उस की बातों में बड़ा ठहराव और विनम्रता थी.

‘‘जो भी हो, तुम्हें अपने परिवार की भी सपोर्ट है. तभी तो मन लगा कर काम कर सकती हो. ऐसा सभी के साथ नहीं होता है.’’ मैं ने थोड़े रोंआसे स्वर में कहा. वह मुझे देखती रही जैसे चेहरे के भाव पढ़ रही हो. मैं ने बात बदल कर कहा, ‘‘अच्छा मैं ने आप को यहां इसलिए बुलाया है कि अगला पूरा हफ्ता मैं छुट्टी पर रहूंगी. हो सकता है 1-2 दिन ज्यादा भी लग जाएं. मुझे उम्मीद है आप को कोई ज्यादा परेशानी नहीं होगी. मेरा मोबाइल चालू रहेगा.’’

‘‘कहीं बाहर जा रही हैं आप?’’ उस ने ऐसे पूछा जैसे मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. मैं ने कहा, ‘‘नहीं, रहूंगी तो यहीं… कोर्ट की आखिरी तारीख है. शायद मेरा तलाक मंजूर हो जाए. फिर मैं कुछ दिन सुकून से रहना चाहती हूं.’’

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‘‘तलाक?’’ कह जैसे वह अपनी सीट से उछली हो. ‘‘हां.’’

‘‘इस उम्र में तलाक?’’ वह कहने लगी, ‘‘सौरी मैम मुझे पूछना तो नहीं चाहिए पर…’’

‘‘तलाक की भी कोई उम्र होती है? सदियों से मैं रिश्ता ढोती आई हूं. बेटी यूके में पढ़ने गई तो वहीं की हो कर रह गई. मेरे पति और मेरी कभी बनी ही नहीं और अब तो बात यहां तक आ गई है कि खाना भी बाहर से ही आता है. मैं थक गई यह सब निभातेनिभाते… और जब से बेटी ने वहीं रहने का निर्णय लिया है, हमारे बीच का वह पुल भी टूट गया,’’ कहतेकहते मेरी आंखों में आंसू आ गए.

औरत एक पहेली- भाग 1: विनीता के मृदु स्वभाव का क्या राज था

संदीप बाहर धूप में बैठे सफेद कागजों पर आड़ी तिरछी रेखाएं बनाबना कर भांति भांति के मकानों के नक्शे खींच रहे थे. दोनों बेटे पंकज, पवन और बेटी कामना उन के इर्दगिर्द खड़े बेहद दिलचस्पी के साथ अपनी अपनी पसंद बतलाते जा रहे थे.

मुझे हमेशा की भांति अदरक की चाय और कोई लजीज सा नाश्ता बनाने का आदेश मिला था.

बापबेटों की नोकझोंक के स्वर रसोईघर के अंदर तक गूंज रहे थे. सभी चाहते थे कि मकान उन की ही पसंद के अनुरूप बने. पवन को बैडमिंटन खेलने के लिए लंबेचौड़े लान की आवश्यकता थी. व्यावसायिक बुद्धि का पंकज मकान के बाहरी हिस्से में एक दुकान बनवाने के पक्ष में था.

कामना अभी 11 वर्ष की थी, लेकिन मकान के बारे में उस की कल्पनाएं अनेक थीं. वह अपनी धनाढ्य परिवारों की सहेलियों की भांति 2-3 मंजिल की आलीशान कोठी की इच्छुक थी, जिस के सभी कमरों में टेलीफोन और रंगीन टेलीविजन की सुविधाएं हों, कार खड़ी करने के लिए गैराज हो.

संदीप ठठा कर हंस पड़े, ‘‘400 गज जमीन में पांचसितारा होटल की गुंजाइश कहां है हमारे पास. मकान बनवाने के लिए लाखों रुपए कहां हैं?’’

‘‘फिर तो बन गया मकान. पिताजी, पहले आप रुपए पैदा कीजिए,’’ कामना का मुंह फूल उठा था.

‘‘तू क्यों रूठ कर अपना भेजा खराब करती है? मकान में तो हमें ही रहना है. तेरा क्या है, विवाह के बाद पराए घर जा बैठेगी,’’ पंकज और पवन कामना को चिढ़ाने लगे थे.

बच्चों के वार्त्तालाप का लुत्फ उठाते हुए मैं ने मेज पर गरमगरम चाय, पकौड़े, पापड़ सजा दिए और संदीप से बोली, ‘‘इस प्रकार तो तुम्हारा मकान कई वर्षों में भी नहीं बन पाएगा. किसी इंजीनियर की सहायता क्यों नहीं ले लेते. वह तुम सब की पसंद के अनुसार नक्शा बना देगा.’’

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संदीप को मेरा सुझाव पसंद आया. जब से उन्होंने जमीन खरीदी थी, उन के मन में एक सुंदर, आरामदेह मकान बनवाने की इच्छाएं बलवती हो उठी थीं.

संदीप अपने रिश्तेदारों, मित्रों से इस विषय में विचारविमर्श करते रहते थे. कई मकानों को उन्होंने अंदर से ले कर बाहर तक ध्यानपूर्वक देखा भी था. कई बार फुरसत के क्षणों में बैठ कर कागजों पर भांतिभांति के नक्शे बनाएबिगाड़े थे, परंतु मन को कोई रूपरेखा संतुष्ट नहीं कर पा रही थी. कभी आंगन छोटा लगता तो कभी बैठक के लिए जगह कम पड़ने लगती.

परिवार के सभी सदस्यों के लिए पृथकपृथक स्नानघर और कमरे तो आवश्यक थे ही, एक कमरा अतिथियों के लिए भी जरूरी था. क्या मालूम भविष्य में कभी कार खरीदने की हैसियत बन जाए, इसलिए गैराज बनवाना भी आवश्यक था. कुछ ही दिनों बाद संदीप किसी अच्छे इंजीनियर की तलाश में जुट गए.

एकांत क्षणों में मैं भी मकान के बारे में सोचने लगती थी. एक बड़ा, आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण रसोईघर बनवाने की कल्पनाएं मेरे मन में उभरती रहती थीं. अपने मकान में गमलों में सजाने के लिए कई प्रकार के पेड़पौधों के नाम मैं ने लिख कर रख दिए थे.

एक दिन संदीप ने घर आ कर बतलाया कि उन्होंने एक भवन निर्माण कंपनी की मालकिन से अपने मकान के बारे में बात कर ली है. अब नक्शा बनवाने से ले कर मकान बनवाने तक की पूरी जिम्मेदारी उन्हीं की होगी.

सब ने राहत की सांस ली. मकान बनवाने के लिए संदीप के पास कुल डेढ़दो लाख की जमापूंजी थी. घर के खर्चों में कटौती करकर के वर्षों में जा कर इतना रुपया जमा हो पाया था.

संदीप एक दिन मुझे भवन निर्माण कंपनी की मालकिन विनीता से मिलवाने ले गए.

मैं कुछ ही क्षणों में विनीता के मृदु स्वभाव, खूबसूरती और आतिथ्य से कुछ ऐसी प्रभावित हुई कि हम दोनों के बीच अदृश्य सा आत्मीयता का सूत्र बंध गया.

हम उन्हें अपने घर आने का औपचारिक निमंत्रण दे कर चले आए. मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि वह हमारे घर आ कर हमारा आतिथ्य स्वीकार करेंगी. लेकिन एक शाम आकस्मिक रूप से उन की चमचमाती विदेशी कार हमारे घर के सामने आ कर रुक गई. मैं संकोच से भर उठी कि कहां बैठाऊं इन्हें, कैसे सत्कार करूं.

विनीता शायद मेरे मन की हीन भावना भांप गई. मुसकरा कर स्वत: ही एक कुरसी पर बैठ गईं, ‘‘रेखाजी, क्या एक गिलास पानी मिलेगा.’’

मैं निद्रा से जागी. लपक कर रसोई- घर से पानी ले आई. फिर चाय की चुसकियों के साथ वार्त्तालाप का लंबा सिलसिला चल निकला. इस बीच बच्चे कालिज से आ गए थे, वे भी हमारी बातचीत में शामिल हो गए. फिर विनीता यह कह कर चली गईं, ‘‘मैं ने आप की पसंद को ध्यान में रख कर मकान के कुछ नक्शे बनवाए हैं. कल मेरे दफ्तर में आ कर देख लीजिएगा.’’

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विनीत के जाने के बाद मेरे मन में अनेक अनसुलझे प्रश्न डोलते रह गए थे कि उस का परिवार कैसा है? पति कहां हैं और क्या करते हैं? इन के संपन्न होने का रहस्य क्या है?

कभीकभी ऐसा लगता है कि मैं विनीता को जानती हूं. उन का चेहरा मुझे परिचित जान पड़ता, लेकिन बहुत याद करने पर भी कोई ऐसी स्मृति जागृत नहीं हो पाती थी.

कभी मैं सोचने लगती कि शायद अधिक आत्मीयता हो जाने की वजह से ऐसा लगता होगा. अगले दिन शाम को मैं और संदीप दोनों उन के दफ्तर में नक्शा देखने गए. एक नक्शा छांट कर संतुष्ट भाव से हम ने वैसा ही मकान बनवाने की अनुमति दे दी.

बातों ही बातों में संदीप कह बैठे, ‘‘रुपए की कमी के कारण शायद हम पूरा मकान एकसाथ नहीं बनवा पाएंगे.’’

विनीता झट आश्वासन देने लगीं, ‘‘आप निश्ंिचत रहिए. मैं ने आप का मकान बनवाने की जिम्मेदारी ली है तो पूरा बनवा कर ही रहूंगी. बाकी रुपए मैं अपनी जिम्मेदारी पर आप को कर्ज दिलवा दूंगी. आप सुविधानुसार धीरेधीरे चुकाते रहिए.’’

संदीप उन के एहसान के बोझ से दब से गए. मुझे विनीता और भी अपनी सी लगने लगीं.

नक्शा पास हो जाने के पश्चात मकान का निर्माण कार्य शुरू हो गया.

अब तक विनीता का हमारे यहां आनाजाना बढ़ गया था. अब वह खाली हाथ न आ कर बच्चों के लिए फल, मिठाइयां और कुछ अन्य वस्तुएं ले कर आने लगी थीं.

दंश: भाग -3

कुमुद भटनागर

‘‘शांत हो जाइए, पापा. हुआ तो गलत ही पर उसे सुधारने के लिए अब कुछ नहीं हो सकता,’’ श्रेया ने असहाय भाव से कहा.

‘‘बहुतकुछ हो सकता है यानी सब ठीक हो सकता है श्रेया, अगर तुम चाहो तो.’’

‘‘मैं समझी नहीं, पापा. मैं भला क्या कर सकती हूं?’’ श्रेया ने हैरानी से पूछा.

‘‘मेरी वंशबेल को बढ़ा सकती हो, मुझे मेरे खून का वारिस दे कर,’’ ब्रजेश ने आकुलता से कहा.

‘‘वह तो समय आने पर मिल ही जाएगा पापा,’’ श्रेया ने शरमा कर कहा.

‘‘गौतम का नहीं, मेरे अपने खून का वारिस, श्रेया,’’ ब्रजेश ने शब्दों पर जोर दिया, ‘‘जिसे मैं पापा की अंतिम इच्छानुसार अपने पुरखों की विरासत सौंप सकूं. पापा ने वसीयत में बगैर किसी शर्त के सारी जायदाद मेरे नाम कर दी है जिस का मैं कुछ भी कर सकता हूं. केवल उस व्यक्तिगत पत्र में अपनी इच्छा जाहिर की है जिस का मेरे सिवा किसी को कुछ पता नहीं है. लेकिन मैं ग्लानिवश न उस जायदाद का स्वयं उपयोग कर रहा हूं न गीता और गौतम को करने दूंगा. उस का उपयोग केवल पापा के खून का वह असली वारिस करेगा जो दुनिया की नजरों में तो गौतम की पहली संतान होगी पर वास्तव में वह मेरी…ब्रजेश की होगी. गौतम की उस पहली संतान के नाम हर्षावेग में आ कर अपनी पुश्तैनी जायदाद करने पर किसी को न शक होगा न कुछ पता चलेगा.’’

ब्रजेश की बात का मतलब समझ आते ही श्रेया सिहर गई. इतनी घिनौनी, इतनी अनैतिक बात पापा जैसा संभ्रांत व्यक्ति कैसे कर सकता है? तो यह वजह थी पापा का उस पर इतना स्नेह लुटाने की? अच्छा सिला दे रहे थे पापा गौतम के प्यार और विश्वास का? लेकिन वह तो गौतम से विश्वासघात नहीं कर सकती, मगर गौतम को पापा की कलुषित भावनाओं के बारे में बताए भी तो कैसे? अव्वल तो गौतम इस बात पर विश्वास ही नहीं करेगा और करने पर सदमा बरदाश्त नहीं कर पाएगा…तो फिर क्या करे वह?

‘‘घबराओ मत श्रेया, न तो मैं तुम से जोरजबरदस्ती करूंगा और न ही कोई अश्लील या अनैतिक हरकत,’’ ब्रजेश ने समझाने के मकसद से कोमल स्वर में कहा, ‘‘मेरे पास इस समस्या का बहुत ही सरल समाधान है. बस, तुम्हें थोड़ी सी सतर्कता और गोपनीयता रखनी होगी. तुम ने स्पर्म ट्रांसप्लांट यानी आईवीएफ तकनीक के बारे में सुना होगा? जी, पापा सुना है.’’

श्रेया का स्वर कांप गया. पूर्णतया सक्षम पति के रहते किसी अन्य के वीर्य को अपनी कोख में रखने का विचार मात्र ही असहनीय था. लेकिन ब्रजेश की कातरता और विवशता, गौतम के लिए असीम मोह, गौतम का ब्रजेश से लगाव और उस के प्रति कृतज्ञता उसे बाध्य कर रही थी कि वह अपनी भावनाओं को कुचल कर, ब्रजेश की वंशबेल को हरीभरी रखे. इस के सिवा उस के पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था. ब्रजेश को मना कर सकती थी लेकिन उस के बाद अगर वे उदास या व्यथित रहने लगे तो स्वाभाविक है उन पर जान छिड़कने वाला गौतम भी परेशान रहने लगेगा और एक खुशहाल परिवार अवसादग्रस्त हो जाएगा.

‘‘डा. अवस्थी मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं, उन के क्लीनिक में सबकुछ बहुत सावधानी से हो सकता है,’’ ब्रजेश ने कहा.

‘‘तो करवा लीजिए, पापा. आप जब कहेंगे मैं वहां चली जाऊंगी,’’ श्रेया ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘चलिए, वापस चलते हैं. आप की क्लास का समय हो रहा है.’’

ब्रजेश ने विस्फारित नेत्रों से श्रेया को देखा. उन्होंने बहुत पौराणिक कथाएं पढ़ रखी थीं लेकिन जो श्रेया करने जा रही थी ऐसा तो उन काल्पनिक कथाओं की किसी भी नायिका ने कभी नहीं किया था. हाईपरसैंसिटिव और ईगोइस्ट ससुर की व्हिम्ज का दंश भोगने वाली श्रेया शायद पहली आधुनिक कर्तव्यनिष्ठ पुत्रवधू व पत्नी थी.

सुलझती जिंदगियां- भाग 1: आखिर क्या हुआ था रागिनी के साथ?

विवाह स्थलअपनी चकाचौंध से सभी को आकर्षित कर रहा था. बरात आने में अभी समय था. कुछ बच्चे डीजे की धुनों पर थिरक रहे थे तो कुछ इधर से उधर दौड़ लगा रहे थे. मेजबान परिवार पूरी तरह व्यवस्था देखने में मुस्तैद दिखा.

इसी विवाह समारोह में मौजूद एक महिला कुछ दूर बैठी दूसरी महिला को लगता घूर रही थी. बहुत देर तक लगातार घूरने पर भी जब सामने बैठी युवती ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की तो सीमा उठ कर खुद ही उस के पास चली गई. बोली, ‘‘तुम रागिनी हो न? रागिनी मैं सीमा. पहचाना नहीं तुम ने? मैं कितनी देर से तुम्हें ही देख रही थी, मगर तुम ने नहीं देखा, तो मैं खुद उठ कर तुम्हारे पास चली आई. कितने वर्ष गुजर गए हमें बिछुड़े हुए,’’ और फिर सीमा ने उत्साहित हो कर रागिनी को लगभग झकझोर दिया.

रागिनी मानो नींद से जागी. हैरानी से सीमा को देर तक घूरती रही. फिर खुश हो कर बोली, ‘‘तू कहां चली गई थी सीमा? मैं कितनी अकेली हो गई थी तेरे बिना,’’ कह कर उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. दोनों की आंखें छलक उठीं.

‘‘तू यहां कैसे?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘मेरे पति रमन ओएनजीसी में इंजीनियर हैं और यह उन के बौस की बिटिया की शादी है, तो आना ही था अटैंड करने. पर तू यहां कैसे?’’ रागिनी ने पूछा.

‘‘सुकन्या यानी दुलहन मेरी चचेरी बहन है. अरे, तुझे याद नहीं अकसर गरमी की छुट्टियों में आती तो थी हमारे घर लखनऊ में. कितनी लड़ाका थी… याद है कभी भी अपनी गलती नहीं मानती थी. हमेशा लड़ कर कोने में बैठ जाती थी. कितनी बार डांट खाई थी मैं ने उस की वजह से,’’ सीमा ने हंस कर कहा.

‘‘ओ हां. अब कुछ ध्यान आ रहा है,’’ रागिनी जैसे अपने दिमाग पर जोर डालते हुए बोली.

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फिर तो बरात आने तक शौपिंग, गहने, मेकअप, प्रेमप्रसंग और भी न जाने कहांकहां के किस्से निकले और कितने गड़े मुरदे उखड़ गए. रागिनी न जाने कितने दिनों बाद खुल कर अपना मन रख पाई किसी के सामने.

सच बचपन की दोस्ती में कोई बनावट, स्वार्थ और ढोंग नहीं होता. हम अपने मित्र के मूल स्वरूप से मित्रता रखते हैं. उस की पारिवारिक हैसियत को ध्यान नहीं रखते.

तभी शोर मच गया. किसी की 4 साल की बेटी, जिस का नाम निधि था, गुम हो गई थी. अफरातफरी सी मच गई. सभी ढूंढ़ने में जुट गए, तुरंत एकदूसरे को व्हाट्सऐप से लड़की की फोटो सैंड करने लगे. जल्दी ही सभी के पास पिक थी. शादी फार्महाउस में थी, जिस के ओरछोर का ठिकाना न था. जितने इंतजाम उतने ही ज्यादा कर्मचारी भी.

आधे घंटे की गहमागहमी के बाद वहां लगे गांव के सैट पर सिलबट्टा ले कर चटनी पीसने वाली महिला कर्मचारी के पास खेलती मिली. रागिनी तो मानो तूफान बन गई. उस ने तेज निगाह से हर तरफ  ढूंढ़ना शुरू कर दिया था. बच्ची को वही ढूंढ़ कर लाई. सब की सांस में सांस आई. निधि की मां को चारों तरफ  से सूचना भेजी जाने लगी, क्योंकि सब को पता चल गया था कि मां तो डीजे में नाचने में व्यस्त थी. बेटी कब खिसक कर भीड़ में खो गई उसे खबर ही न हई. जब निधि की दादी को उसे दूध पिलाने की याद आई, तो उस की मां को ध्यान आया कि निधि कहां है?

बस फिर क्या था. सास को मौका मिल गया. बहू को लताड़ने का और फिर शोर मचा कर सास ने सब को इकट्ठा कर लिया.

भीड़ फिर खानेपीने में व्यस्त हो गई. सीमा ने भी रागिनी से अपनी छूटी बातचीत का सिरा संभालते हुए कहा, ‘‘तेरी नजरें बड़ी तेज हैं… निधि को तुरंत ढूंढ़ लिया तूने.’’

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‘‘न ढूंढ़ पाती तो शायद और पगला जाती… आधी पागल तो हो ही गई हूं,’’ रागिनी उदास स्वर में बोली.

‘‘मुझे तो तू पागल कहीं से भी नहीं लगती. यह हीरे का सैट, ब्रैंडेड साड़ी, यह स्टाइलिश जूड़ा, यह खूबसूरत चेहरा, ऐसी पगली तो पहले नहीं देखी,’’ सीमा खिलखिलाई.

‘‘जाके पैर न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई. तू मेरा दुख नहीं समझ पाएगी,’’ रागिनी मुरझाए स्वर में बोली.

10 साल- भाग 1: क्यों नानी से सभी परेशान थे

Writer- लीला रूपायन

जब से होश संभाला था, वृद्धों को झकझक करते ही देखा था. क्या घर क्या बाहर, सब जगह यही सुनने को मिलता था, ‘ये वृद्ध तो सचमुच धरती का बोझ हैं, न जाने इन्हें मौत जल्दी क्यों नहीं आती.’ ‘हम ने इन्हें पालपोस कर इतना बड़ा किया, अपनी जान की परवा तक नहीं की. आज ये कमाने लायक हुए हैं तो हमें बोझ समझने लगे हैं,’ यह वृद्धों की शिकायत होती. मेरी समझ में कुछ न आता कि दोष किस का है, वृद्धों का या जवानों का. लेकिन डर बड़ा लगता. मैं वृद्धा हो जाऊंगी तो क्या होगा? हमारे रिश्ते में एक दादी थीं. वृद्धा तो नहीं थीं, लेकिन वृद्धा बनने का ढोंग रचती थीं, इसलिए कि पूरा परिवार उन की ओर ध्यान दे. उन्हें खानेपीने का बहुत शौक था. कभी जलेबी मांगतीं, कभी कचौरी, कभी पकौड़े तो कभी हलवा. अगर बहू या बेटा खाने को दे देते तो खा कर बीमार पड़ जातीं. डाक्टर को बुलाने की नौबत आ जाती और यदि घर वाले न देते तो सौसौ गालियां देतीं.

घर वाले बेचारे बड़े परेशान रहते. करें तो मुसीबत, न करें तो मुसीबत. अगर बच्चों को कुछ खाते देख लेतीं तो उन्हें इशारों से अपने पास बुलातीं. बच्चे न आते तो जो भी पास पड़ा होता, उठा कर उन की तरफ फेंक देतीं. बच्चे खीखी कर के हंस देते और दादी का पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता, जहां से वे चाची के मरे हुए सभी रिश्तेदारों को एकएक कर के पृथ्वी पर घसीट लातीं और गालियां देदे कर उन का तर्पण करतीं. मुझे बड़ा बुरा लगता. हाय रे, दादी का बुढ़ापा. मैं सोचती, ‘दादी ने सारी उम्र तो खाया है, अब क्यों खानेपीने के लिए सब से झगड़ती हैं? क्यों छोटेछोटे बच्चों के मन में अपने प्रति कांटे बो रही हैं? वे क्यों नहीं अपने बच्चों का कहना मानतीं? क्या बुढ़ापा सचमुच इतना बुरा होता है?’ मैं कांप उठती, ‘अगर वृद्धावस्था ऐसा ही होती है तो मैं कभी वृद्धा नहीं होऊंगी.’

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मेरी नानी को नई सनक सवार हुई थी. उन्हें अच्छेअच्छे कपड़े पहनने का शौक चर्राया था. जब वे देखतीं कि बहू लकदक करती घूम रही है, तो सोचतीं कि वे भी क्यों न सफेद और उजले कपड़े पहनें. वे सारा दिन चारपाई पर बैठी रहतीं. आतेजाते को कोई न कोई काम कहती ही रहतीं. जब भी मेरी मामी बाहर जाने को होतीं तो नानी को न जाने क्यों कलेजे में दर्द होने लगता. नतीजा यह होता कि मामी को रुकना पड़ जाता. मामी अगर भूल से कभी यह कह देतीं, ‘आप उठ कर थोड़ा घूमाफिरा भी करो, भाजी ही काट दिया करो या बच्चों को दूधनाश्ता दे दिया करो. इस तरह थोड़ाबहुत चलने और काम करने से आप के हाथपांव अकड़ने नहीं पाएंगे,’ तो घर में कयामत आ जाती.

‘हांहां, मेरी हड्डियों को भी मत छोड़ना. काम हो सकता तो तेरी मुहताज क्यों होती? मुझे क्या शौक है कि तुम से चार बातें सुनूं? तेरी मां थोड़े हूं, जो तुझे मुझ से लगाव होता.’ मामी बेचारी चुप रह जातीं. नौकरानी जब गरम पानी में कपड़े भिगोने लगती तो कराहती हुई नानी के शरीर में न जाने कहां से ताकत आ जाती. वे भाग कर वहां जा पहुंचतीं और सब से पहले अपने कपड़े धुलवातीं. यदि कोई बच्चा उन्हें प्यार करने जाता तो उसे दूर से ही दुत्कार देतीं, ‘चल हट, मुझे नहीं अच्छा लगता यह लाड़. सिर पर ही चढ़ा जा रहा है. जा, अपनी मां से लाड़ कर.’ मामी को यह सुन कर बुरा लगता. मामी और नानी दोनों में चखचख हो जाती. नानी का बेटा समझाने आता तो वे तपाक से कहतीं, ‘बड़ा आया है समझाने वाला. अभी तो मेरा आदमी जिंदा है, अगर कहीं तेरे सहारे होती तो तू बीवी का कहना मान कर मुझे दो कौड़ी का भी न रहने देता.’

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साथी- भाग 2: क्या रजत और छवि अलग हुए?

रजत का मन करता उस के दोस्तों की बीवियों की तरह छवि भी तरहतरह की ड्रैसेज पहने, जो शालीन पर फैशनेबल हों. कम से कम चूड़ीदार सूट, अनारकली सूट ये तो वह पहन ही सकती है. यही सोच कर वह एक दिन उसे किसी तरह पटा कर बाजार ले गया. लेकिन छवि कोई भी ड्रैस, यहां तक कि सूट खरीदने को भी तैयार नहीं हुई.

‘‘अरे ये सब… मांपापा क्या कहेंगे… मैं नहीं पहन सकती ये सब.’’

‘‘मेरे सभी दोस्तों की पत्नियां पहनती हैं छवि… यह अनारकली सूट ले लो… तुम पर खूब फबेगा… अभी तुम्हारी उम्र  ही क्या है… आजकल तो 60 साल की औरतें भी ये सब पहनती हैं.’’

‘‘जो पहनती हैं उन्हें पहनने दो. मैं नहीं पहन सकती. उन के सासससुर उन के साथ नहीं रहते होंगे… मांपापा क्या कहेंगे.’’

‘‘छवि मैं जानता हूं अपने मम्मीपापा को… वे पुराने विचारों के नहीं हैं… मैं ने हर तरह का माहौल देखा है… वे आर्मी अफसर की पत्नी हैं… वे तुम्हें ये सब पहने देख कर खुश ही होंगे.’’

मगर छवि ने रजत का प्रस्ताव सिरे से नकार दिया. जब छवि अनारकली सूट जैसी शालीन ड्रैस पहनने को तैयार नहीं हुई तो जींसटौप क्या पहनेगी. पापा सही कहते थे, घर का रहनसहन, स्कूलिंग, शिक्षादीक्षा इन सब का असर इंसान की पर्सनैलिटी और विचारों पर पड़ता है. पत्नी को तरहतरह से सजानेसवारने का रजत का शौक धीरेधीरे दम तोड़ गया.

रजत नौकरी में ऊंचे पदों पर पहुंचता गया. बच्चे बड़े होते गए. मातापिता वृद्ध होते गए और फिर एक दिन इस दुनिया से चले गए. छवि की जैसेजैसे उम्र बढ़नी शुरू हुई तो खुद से बेपरवाह उस का शरीर भी फैलना शुरू हो गया. चेहरे की रौनक जो उम्र की देन थी बिना देखभाल के बेजान होने लगी. लंबे लहराते बाल उम्र के साथ पतली पूंछ जैसे रह गए. वह उन्हें लपेट कर कस कर जूड़ा बना लेती, जो उस के मोटे चेहरे को और भी अनाकर्षक बना देता.

रजत कहता, ‘‘छवि मैं तुम में 20-22 साल की लड़की नहीं ढूंढ़ता, पर चाहता हूं कि तुम अपनी उम्र के अनुसार तो खुद को संवार कर रखा करो… 42 की उम्र ज्यादा नहीं होती है.’’

मगर छवि पर कोई असर नहीं पड़ता. धीरेधीरे रजत ने बोलना ही छोड़ दिया. वह खुद 46 की उम्र में अभी भी 36 से अधिक नहीं लगता था. अपने मोटापे, पहनावे और रहनसहन की वजह से छवि उम्र में उस से बड़ी लगने लगी थी. अब रजत का उसे साथ ले जाने का भी मन नहीं करता. ऐसा नहीं था कि वह दूसरी औरतों की तरफ आकर्षित होता था पर तुलना स्वाभाविक रूप से हो जाती थी.

‘‘आप अभी तक यहां बैठे हैं… लाइट भी नहीं जलाई,’’ छवि लाइट जलाते हुए बोली, ‘‘चलो खाना खा लो.’’

खाना खा कर रजत सो गया. आज पुरानी बातें याद कर के उस के मन की खिन्नता और बढ़ गई थी. छवि के प्रति जो अजीब सा नफरत का भाव उस के मन में भर गया था वह और भी बढ़ गया.

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दूसरे दिन रजत औफिस पहुंचा. उस के एक कुलीग का तबादला हुआ था. उस की जगह कोई महिला आज जौइन करने वाली थी. रजत अपने कैबिन में पहुंचा तो चपरासी ने आ कर उसे सलाम किया. फिर बोला, ‘‘साहब आप को बुला रहे हैं.’’

रजत बौस के कमरे की तरफ चल दिया. इजाजत मांग कर अंदर गया तो उस के बौस बोले, रजत ये रीतिका जोशी हैं. सहदेव की जगह इन्होंने जौइन किया है. इन्हें इन का काम समझा दो.’’

रजत ने पलट कर देखा तो खुशी से बोला, ‘‘अरे, रीतिका तुम?’’

‘‘रजत तुम यहां…’’ रीतिका सीट से उठ खड़ी हुई.

‘‘आप दोनों एकदूसरे को जानते हैं?’’

‘‘जी, हम दोनों ने साथ ही इंजीनियरिंग की थी.’’

‘‘फिर तो और भी अच्छा है… रीतिका रजत आप की मदद कर देंगे…’’

‘‘जी, सर,’’ कह कर दोनों बौस के कमरे से बाहर आ गए.

रीतिका को उस का काम समझा कर लंचब्रेक में मिलने की बात कह कर रजत अपने लैपटौप में उलझ गया. लंचब्रेक में रीतिका उस के कैबिन में आ गई, ‘‘लंचब्रेक हो गया… अभी भी लैपटौप पर नजरें गड़ाए बैठे हो.’’

‘‘ओह रीतिका,’’ वह गरदन उठा कर बोला. फिर घड़ी देखी, ‘‘पता ही नहीं चला… चलो कैंटीन चलते हैं.’’

‘‘क्यों, तुम्हारी पत्नी ने जो लंच दिया है उसे नहीं खिलाओगे?’’

‘‘वही खाना है तो उसे खा लो,’’ कह रजत टिफिन खोलने लगा. खाने की खुशबू चारों तरफ बिखर गई.

दोनों खातेखाते पुरानी बातों, पुरानी यादों में खो गए. रजत देख रहा था रीतिका में उम्र के साथसाथ और भी आत्मविश्वास आ गया था. साधारण सुंदर होते हुए भी उस ने अपने व्यक्तित्व को ऐसा निखारा था कि अपनी उम्र से 10 साल कम की दिखाई दे रही थी.

रजत छेड़ते हुए बोला, ‘‘क्या बात है, तुम्हारे पति तुम्हारा बहुत खयाल रखते हैं… उम्र को 7 तालों में बंद कर रखा है.’’

‘‘हां,’’ वह हंसते हुए बोली, ‘‘जब उम्र थी तब तुम ने देखा नहीं… अब ध्यान दे रहे हो.’’

‘‘ओह रीतिका तुम भी कहां की बात ले बैठी… ये सब संयोग की बातें हैं,’’ उस का कटाक्ष समझ कर रजत बोला.

‘‘अच्छा छोड़ो इन बातों को. मुझे घर कब बुला रहे हो? तुम्हारी पत्नी से मिलने का बहुत मन है. मैं भी तो देखूं वह कैसी है, जिस के लिए तुम ने कालेज में कई लड़कियों के दिल तोड़े थे.’’

रजत चुप हो गया. थोड़ी देर अपनेअपने कारणों से दोनों चुप रहे. फिर रीतिका ही चुप्पी तोड़ती हुई बोली, ‘‘लगता है घर नहीं बुलाना चाहते.’’

‘‘नहींनहीं ऐसी बात नहीं. जिस दिन भी फुरसत हो फोन कर देना. उस दिन का डिनर घर पर साथ करेंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

फिर अगले काफी दिनों तक रीतिका बहुत बिजी रही. नयानया काम संभाला था. जब फुरसत मिली तो एक रविवार को फोन कर दिया, ‘‘आज शाम को आ रही हूं तुम्हारे घर, कहीं जा तो नहीं रहे हो न?’’

‘‘नहींनहीं, तुम आ जाओ… डिनर साथ करेंगे.’’

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शाम को रीतिका पहुंच गई. उस दिन तो वह और दिनों से भी ज्यादा स्मार्ट व सुंदर लग रही थी. रजत को उसे छवि से मिलाते हुए भी शर्म आ रही थी. फिर खुद को ही धिक्कारने लगा कि क्या सोच रहा है वह.

तभी छवि ड्राइंगरूम में आ गई.

‘‘छवि, यह है रीतिका… मेरे साथ इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ती थी.’’

छवि का परिचय कराते हुए रजत ने रीतिका के चेहरे के भाव साफ पढ़ लिए. वह जैसे कह रही हो कि यही है वह, जिस के लिए तुम ने मुझे ठुकरा दिया था, वह थोड़ी देर तक हैरानी से छवि को देखती रही.

‘‘बैठिए न खड़ी क्यों हैं,’’ छवि की आवाज सुन कर वह चौकन्नी हुई. छवि और रीतिका की पर्सनैलिटी में जमीनआसमान का फर्क था. दोनों की बातचीत में कुछ भी कौमन नहीं था, इसलिए ज्यादा बातें रजत व रीतिका के बीच ही होती रहीं पर साफ दिल छवि ने इसे अन्यथा नहीं लिया.

खाना खा कर रीतिका जाने लगी तो रजत कार की चाबी उठाते हुए बोला, ‘‘छवि, मैं रीतिका को घर छोड़ आता हूं.’’

अपनेअपने झंझावातों में उलझे रजत व रीतिका कार में चुप थे. तभी रजत अचानक बोल पड़ा, रीतिका छवि पहले बहुत खूबसूरत थी.

‘‘हूं.’’

‘‘पर उसे न सजनेसंवरने, न पहननेओढ़ने और न ही पढ़नेलिखने का शौक है… किसी भी बात का शौक नहीं रहा उसे कभी.’’

‘हूं,’ रीतिका ने जवाब दिया.

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